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पञ्चम अध्याय ॥
६४७ मन्त्री नगराज को चाँपानेर के बादशाह मुंदफर की सेवा में किसी कारण से रहना पड़ा और उन्हों ने बादशाह को अपनी चतुराई से खुश करके अपने मालिक की पूरी सेवा बजाई तथा बादशाह की आज्ञा लेकर उन्हों ने श्री शेत्रुञ्जय की यात्रा की और वहाँ भण्डार की गड़बड़ को देख कर शेत्रुञ्जय गढ़ की ।ची अपने हाथ में ले ली, मार्ग में एक रुपया, एक थाल और पॉच सेर का एक लड्डु, इन का प्रतिगृह में साधर्मी भाइयों को प्रतिस्थान में लावण बाँटते हुए तथा गिरनार और आबू तीर्थ को भेंट करते हुए ये बीकानेर में आ गये। ___ संवत् १५८२ में जब कि दुर्भिक्ष पडा उस समय इन्हों ने शत्रुकार (सदावर्त ) दिया, जिस में तीन लाख पिरोजों का व्यय किया । . एक दिन इन के मन में शयन करने के समय देरावर नगर में जाकर दादा जी श्री जिनकुशल सूरि जी महाराज के दर्शन करने की अभिलाषा हुई परन्तु मन में यह भी विचार उत्पन्न हुआ कि देरावर का मार्ग बहुत कठिन है, पीने के लिये जलतक भी साथ में लेना पड़ेगा, साथ में सघ के रहने से साधर्मी भाई भी होंगे, उन को किसी प्रकार की तकलीफ होना ठीक नहीं है, इस लिये सब प्रवध उत्तम होना चाहिये, इत्यादि अनेक विचार मन में होते रहे, पीछे निद्रा आ गई, पिछली रात्रि में स्वप्न में श्री गुरुदेव का दर्शन हुआ तथा यह आबाज़ हुई कि-"हमारा स्तम्भ गड़ाले में करा के वहाँ की यात्रा कर, तेरी यात्रा मान लेंगे" आहा ! देखो भक्त जनों की मनोकामना किस प्रकार पूर्ण होती है, वास्तव में नीतिशास्त्र का यह वचन बिलकुल सत्य है कि-"नहीं देव पाषाण में, दारु मृत्तिका माँहि ॥ देव भाव माँही बसै, भावमूल सब माँहि" ॥ १ ॥ अर्थात् न तो देव पत्थर में है, न लकड़ी और मिट्टी में है, किन्तु देव केवल अपने भाव में है, तात्पर्य यह है कि-जिस देवपर अपना सच्चा भाव होगा वैसा ही फल वह देव अपनी शक्ति के अनुसार दे सकेगा, इस लिये सब में भाव ही मूल (कारण) समझना चाहिये, निदान मुहते नगराज ने स्वप्न के वाक्य के अनुसार स्तम्भ कराया और विक्रम सवत् १५८३ में यात्रा की, उन की यात्रा के समाचार को सुन कर गुरुदेव का दर्शन करने के लिये बहुत दूर २ के यात्री जन आने लगे और उन की वह यात्रा सानन्द पूरी हुई। कुछ काल के पश्चात् इन्हों ने अपने नाम से नगासर नामक ग्राम वसाया।
राव श्री कल्याणमल जी महाराज ने मन्त्री नगराज के पुत्र सग्रामसिंह को अपना राज्यमन्त्री नियत किया, सग्रामसिंह ने खरतरगच्छाचार्य श्री जिनमाणिक्य सूरि महाराज को साथ में लेकर शेत्रुञ्जय आदि तीर्थों की यात्रा के लिये संघ निकाला तथा शेत्रुञ्जय, गिरनार और आबू आदि तीर्थों की यात्रा करते हुए तथा मार्ग में प्रतिगृह में साधर्मी भाइयों को एक रुपया, एक थाल और एक लड्डू, इन का लावण बाँटते हुए चित्तौड़गढ़