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पञ्चम अध्याय ।। तू बहुत दुःख पावेगा, क्योंकि-नीवहिंसा का फल केवल दुर्गति ही है" मुनि के इस वचन को सुन कर राजा ने अपने किये हुए पाप का पश्चात्ताप किया तथा मुनि से सत्य धर्म को पूछा, तब दिगम्बराचार्य बोले कि-'हे राजन् ! जहाँ पाप है वहाँ धर्म कहाँ से हो सकता है ? देख ! जैसा तुझे अपना जीव प्यारा है वैसा ही सब जीवों को भी अपना २ जीव प्यारा है, इस लिये अपने जीव के समान सब के जीव की प्रिय समझना चाहिये, पञ्च महाव्रतरूप यतिधर्म तथा सम्यक्त्वसहित बारह व्रतरूप गृहस्थधर्म ही इस भव और पर भव में सुखदायक है, इस लिये यदि तुझे रुचे तो उस ( दयामय जैन धर्म ) का अङ्गीकार कर और सुपात्रों तथा दीन दुःखियों को दान द, सत्य वचन को वोल, परनिन्दा तथा विकथा को छोड़ और जिनराज की द्रव्य तथा भाव से पूजा कर" आचार्य के मुख से इस उपदेश को सुन कर राजा जिनधर्म के मर्म का समझ गया और उस ने शीघ्र ही जिनराज की शान्तिक पूजा करवाई, जिस से शाध ही उपद्रव शान्त हो गया, बस राजा ने उसी समय चौरासी गोत्रों सहित (८३ उमराव और एक आप खुद, इस प्रकार ८४ ) जैन धर्म का अङ्गीकार किया, ऊपर कहे हुए ८४ गाँवों में से ८२ गॉव राजपूतों के थे और दो गॉव सोनारों के थे, ये ही लोग चारासी गोत्रवाले सिरावगी कहलाये, यह भी स्मरण रहे कि-इन के गाँवो के नाम से हा इन के गोत्र स्थापित किये गये थे, इन में से राजा का गोत्र साह नियत हुआ था भार वाकी के गोत्रों का नाम पृथक् २ रक्खा गया था जिन सव का वर्णन क्रमानुसार निम्नलिखित है:सख्या
कुलदेवी १ साह गोत्र चौहान राजपूत खंडेलो गाँव चक्रेश्वरी देवी २ पाटणी , तवर
पाढणी
आमा ३ पापड़ीवाल चौहान
पापड़ी , चक्रेश्वरी ४ दौसा राठौड़ दौसा
जमाय ५ सेठी सोमसेठाणियो
चक्रेश्वरी ६ भौसा चौहान
भौसाणी
नादणी ७ गौधा गौघड़ गौघाणी
मातणी चंदूवाड़ ,
मातणी ठीमर १० अजमेरा ,
अजमेर्यो ११ दरौद्या , चौहान
दरौद
चक्रेश्वरी १२ गदइया ,
गदयौ
गोत्र
वश
८ चाँदूवाड़ ९ मौट्या
बँदेला
मोठ्या
गौड़
औरल नॉदणी
चौहान
चक्रेधरी