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पञ्चम अध्याय ॥
६५१ गई अर्थात् उधर तो इन्हों ने ओसवालों के इतिहासों की बहियों को कुए में डलवा दिया ( यह कार्य इन्हों ने हमारी समझ में बहुत ही बुरा किया ) और इधर ये बीकानेर महाराज श्री रायसिंह जी साहब के भी किसी कारण से अप्रीति के पात्र बन गये, इस कार्य का परिणाम इन के लिये बहुत ही बुरा हुआ अर्थात् इन की सम्पूर्ण विभूति नष्ट हो गई, उक्त कार्य के फलरूप मतिभ्रश से इन्हों ने अपने गृह में स्थित तमाम कुटुम्ब को क्षण भर में तलवार से काट डाला, (केवल इन के लड़के की स्त्री बच गई, क्योंकि वह गर्भवती होने के कारण अपने पीहर में थी) तथा अन्त में तलवार से अपना मी शिर काट डाला और दुर्दशा के साथ मृत्यु को प्राप्त हुए, तात्पर्य यह है कि-इन के दुष्कृत्य से इन के घराने का बुरी तरह से नाश हुआ, सत्य है कि-बुरे कार्य का फल बुरा ही होता है, इन के पुत्र की स्त्री ( जो कि ऊपर लिखे अनुसार बच गई थी) के कालान्तर में पुत्र उत्पन्न हुआ, जिस की सन्तति ( औलाद ) वर्तमान में उदयपुर तथा माडवगढ़ में निवास करती है, ऐसा सुनने में आया है ।
वोहित्थरा गोत्र की निम्नलिखित शाखायें हुई:
१-बोहित्थरा । २-फोफलिया । ३-बच्छावत । ४-दसवाणी । ५-डंगराणी । ६-मुकीम । ७-साह । ८-रताणी । ९-जैणावत ॥
उन्नीसवीं संख्या-गैलड़ा गोत्र ॥ - विक्रम संवत् १५५२ ( एक हजार पाँच सौ बावन ) में गहलोत राजपूत गिरधर को जनाचार्य श्री जिनहंस सूरि जी महाराज ने प्रतिबोध दे कर उस का ओसवाल वश और गेलेडा गोत्र स्थापित किया था, इस गोत्र में जगत्सेठे एक बड़े नामी पुरुष हुए तथा
१-अप्रीति के पात्र वनने का इन (कर्मचद जी) से कौन सा कार्य हुभा था, इस वात का वर्णन हम को प्राप्त नहीं हुआ, इस लिये उसे यहाँ नहीं लिख सके हैं, वच्छावतों की वशावलीविषयक जिस लेख का उल्लेख प्रथम नोट में कर चुके हैं उस में केवल कर्मचद जी के पिता संग्रामसिंह जी तक का वर्णन है अर्थात् कर्मचद जी का वर्णन उस में कुछ नहीं है ॥
२-एक वृद्ध महात्मा से यह भी सुनने में आया है कि-गैलडा राजपूत तो गहलोत हैं और प्रतिवोध के समय आचार्य महाराज ने उक्त नाम स्थापित नहीं किया था किन्तु प्रतिवोध के प्राप्त करने के बाद उन में गैलाई (पागलपन ) मौजूद थी अत उन के गोत्र का गैलडा नाम पडा ॥ ___३-प्रथम तो ये गरीवी हालत में थे तथा नागौर में रहते थे परन्तु ये पायचन्द गच्छ के एक यति जी की अत्यन्त सेवा करते थे, वे यति जी ज्योतिप् आदि विद्याओं के पूर्ण विद्वान् थे, एक दिन रात्रि में तारामण्डल को देख कर यति जी ने उन से कहा कि-"यह बहुत ही उत्तम समय है, यदि इस समय में कोई पुरुप पूर्व दिशा में परदेश को गमन करे तो उसे राज्य की प्राप्ति हो" इस बात को सुनते ही ये वहाँ से उसी समय निकले परन्तु नागौर से थोडी दूर पर ही इन्हों ने रास्ते में फण निकाले हुए एक बडे भारी काले सर्प को देखा, उस को देख कर ये भयभीत हो कर वापिस लौट आये और यति जी से सव वृत्तान्त