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पञ्चम अध्याय ॥ वेचारे तो उस को पीठ पर चढ़ाये हुए ले जा रहे है और वह प्रथम तो उन की पीठ पर चढ़ रहा है दूसरे यह नही समझता है कि इस वेचारे जीव की चलने की शक्ति है वा नहीं है, जब वे जीव धीरे २ चलते है वा नही चलते है तब वह अज्ञान के उदय से उन को गालियाँ देता है तथा मारता भी है, तात्पर्य यह है कि-इस दशा में यह निरपराधी जीवों को भी दु.ख देता है, इसी प्रकार अपने शरीर में अथवा अपने पुत्र पुत्री नाती तथा गोत्र आदि के मस्तक वा कर्ण (कान) आदि अवयवों में अथवा अपने मुख के दातों में जब कीड़े पड जाते है तब उन के दूर करने के लिये उन (कीडों) की जगह में उसे ओषधि लगानी पड़ती है, यद्यपि यह तो निश्चय ही है कि-इन जीवों ने उस श्रावक का कुछ भी अपराध नही किया है, क्योंकि वे बेचारे तो अपने कर्मों के वश इस योनि में उत्पन्न हुए हैं कुछ श्रावक का बुरा करने वा उसे हानि पहुँचाने की भावना से उत्पन्न नहीं हुए है, परन्तु श्रावक को उन्हें मारना पड़ता है, तात्पर्य यह है कि इन की हिसा भी श्रावक से त्यागी नहीं जा सकती है, इस लिये ढाई विश्वों में से आधी दया फिर चली गई, अब केवल सवा विश्वा दया शेष रही, बस इस सवा विश्वा दया को भी शुद्ध श्राचक ही पाल सकता है अर्थात् संकल्प से निरपराधी त्रस जीवों को विना कारण न मारूँ इस प्रतिज्ञा का यथाशक्ति पालन कर सकता है, हा यह श्रावक का अवश्य कर्तव्य है कियह जान बूझ कर ध्वसता को न करे, मन में सदा इस भावना को रक्खे कि मुझ से किसी जीव की हिंसा न हो जावे, तात्पर्य यह है कि इस क्रम से स्थूल प्राणातिपात व्रत का श्रावक को पालन करना चाहिये, हे नरेन्द्र ! यह व्रत मूलरूप है तथा इस के अनेक भेद और भेदान्तर है जो कि अन्य ग्रन्थो से जाने जा सकते है, इस के सिवाय बाकी के जितने व्रत हैं वे सब इसी व्रत के पुष्प फल पत्र और शाखारूप है" इत्यादि ।
इस प्रकार श्रीरत्नप्रभ सूरि महाराज के मुख से अमृत के समान उपदेश को सुन कर राजा उपलदे पँवार को प्रतिबोध हुआ और वह अपने पूर्व ग्रहण किये हुए महामिथ्यात्वरूप तथा नरकपात के हेतुभूत देव्युपासकत्वरूपी स्वमत को छोड कर सत्य तथा दया से युक्त धर्म पर आ ठहरा और हाथ जोड़ कर श्री आचार्य महाराज से कहने लगा कि'ह परम गुरो ! इस में कोई सन्देह नहीं है कि-यह दयामूल धर्म इस भव और परभव दोनों में कल्याणकारी है परन्तु क्या किया जावे भै ने अबतक अपनी अज्ञानता के उदय से व्यभिचारप्रधान असत्य मत का ग्रहण कर रक्खा था परन्तु हाँ अब मुझे उस की निःसारता तथा दयामूल धर्म की उत्तमता अच्छे प्रकार से मालूम हो गई है, अब मेडी आप से यह प्रार्थना है कि इस नगर में उस मत के जो अध्यक्ष लोग हैं उन के साथ आप शास्त्रार्थ करें, यह तो मुझे निश्चय ही है कि शास्त्रार्थ में आप जीतेंगे क्योंकि सत्य धर्म के आगे असत्य मत कैसे ठहर सकता है ? बस इस का परिणाम यह होगा कि मेरे