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अनसम्प्रदायशिक्षा ||
सेंचतान के सिवाम- इस रोग में अनेक प्रकार का मनोविकार भी हुआ करता है अगात् रोगी किसी समय तो अति आनन्द को प्रकट करता है, किसी समय अति उम हो जाता है, फभी २ अति आनन्ददशा में से भी एकदम उदासी को पहुँच बाह्य है इससे २ रोने लगता है, उसके भरता है तथा कड़ाई करने लगता है, इसी प्र कभी २ उदासी की दशा में से भी एकदम आनन्द को प्राप्त हो जाता है भगात् रोते २ हँसने लगता है।
रोगी का चिए इस बात का उत्सुक ( चादपाळा ) रहता है फि-खोग मेरी तरफ ध्यान देकर दमा फो प्रकट करें तथा जत्र ऐसा किया जाता है तब वह अपने पागलपन को और भी अधिक प्रकट करने लगता है ।
इस रोग में स्पधसम्बन्धी भी कर एक चिद प्रकट होते दें, जैसे-मस्तक, फोड़ और छाती आदि स्थानों में चसके चलते हैं, अथवा धूल होता है, उस समय रोगी का पक्ष पावान म जाता है भात् मोड़ा सा भी स्पा होने पर रोगी को अधिक मात्रम होता हे भोर यह पक्ष उस को इतना असम (न महने के योग्य) मालूम होता है कि-रोगी किसी को हाथ भी नहीं लगाने देखा है, परन्तु यदि उस ( रोगी) के सश्य (ध्यान) को दूसरे किसी विषय में लगा कर ( दूसरी तरफ से जाकर ) रक्त स्थानों में स्पर्ध किया जावे सो उस को कुछ भी नहीं मान होता है, तात्पर्य यही है कि इस रोग में बालविक (भसली ) विकार की अपेक्षा मनोविकार विशेष होता है, नाक, कान, जल और जीभ, इन इन्द्रियों के फट् प्रकार के विकार माम होते है अभोत् फानों में घोघाट ( २ श्री आयाज ) होता है, आँखों में विभित्र दर्शन प्रतीत (माम ) होते हैं, जीम में मिचिन लाय सभा नाक में विचित्र गन्ध प्रतीत होते हैं, पेट अर्थात् पेडू में से गोल्ला उपर को चढ़ता दे सभा बद्द छाती और गले में जाकर ठहरता है जिस से ऐसा प्रतीत होता है कि रागी को अधिक म्याकुलता हो रही दे तथा यह उस (गोल) को निकलवाने के लिये प्रयस कराना चाहता है, कभी भ भ शान बढ़ने के बदले ( पनज में ) उस (स्पर्म) का ज्ञान न्यून ( कम ) हा जाता है, अभ्रपा केवल शून्यता (वरीर की सुमता ) सी मतीय दान लगती है भवान् शरीर के किसी २ भाग में स्पक्ष पत्र ज्ञान ही नहीं होता है ।
इस रोग में गतिसम्बन्धी भी अनेक विकार होते हैं, जैस-प्रमी २ गति का बिना हो जाता है, भी दाँती सग जाती है, एफ अथवा दोनों हाथ पैर मिलते है, सिंचने के समय कभी २ सायु रह जाते हैं और मभाग ( भापे भंग का रह जाना) अथवा उससम्म (उलभ का रुकना मधात् बँध जाना ) हो जाता है, एक या दोनों हाथ पैर रह जाते है अथवा तमाम घरीर रद्द जाना दे और रोगी को धम्मा (चारपाई) का आश्रम (सहारा) केना पड़ता है, कभी २ भाषाज बैठ जाती दे और रोगी से विकुल ही नहीं बोला जाता है।