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चैनसम्प्रवामशिक्षा ||
तथा
बड़े ही सेव की एक महीने के
निदान दोनों गुरु और चेठों का मासक्षमण तप पूरा हो गया खाने से उक्त महाराज ज्योंही बिहार करने के लिये उद्यत हुए त्योंही छात्री सचियाम देषी ने अयभि ज्ञान से देख कर यह विचारा कि- दाम! बात है कि ऐसे मुनि महात्मा इस पाँच छाल मनुष्यों की वस्ती में से भूसे इस नगरी से विदा होते हैं, यह विचार कर उक्त ( साचियाय) देवी गुरुबी के पास आकर तथा चन्दन और नमन आदि शिष्टाचार करके सन्मुख खड़ी हुई और गुरुजी से कहा कि "हे महाराज! कुछ चमत्कार हो तो दिलायो" देवी के इस बचन को सुनकर गुरुजी ने कहा कि “हे देवि ! कारण के बिना सानुखन सन्धि को नहीं फोरवे "दें" इस पर पुन देवी ने आचार्य से कहा कि - "दे महाराज 1 भ्रम के लिये मुनि जन लब्धि को फोरते ही है, इस में कोई दोष नहीं है, इस सम विषय को आप जानते ही हो यत में विशेष भाप से क्या कहूँ, यदि भाप यहाँ उन्धि को फोरेंगे तो यहाँ दयामून धर्म फैलेगा जिस से सब को बड़ा भारी लाभ होगा" देवी के मन को सुन कर सूरि महाराज ने उस पर उपयोग दिया तो उन्हें देवी का फभन ठीक माकम हुआ, निवान af का फोरना उचित जान महाराम ने दभी से रुप की एक पोनी मँगवाई और उस का एक पोनिया सर्प ( साँप ) बन गया तथा उस सर्प ने भरी सभा में जाकर राजा उप दे पेंमार के राजकुमार महीपाल को काटा, सर्प के काटते ही राजकुमार मूर्छित होकर पृथ्वीधामी हो गया, सर्प के विष की निवृति के लिये राजा ने मन्त्र मात्र रात्र और मोपधि आदि अनेक उपचार करवाये परन्तु कुछ भी खाभ न हुआ, अब पमाथा-समाम रनिवास तथा भोसियाँ नगरी में हाहाकार मच गया, एकसौवे कुमार की यह वक्षा देख
कल्प के पूरे हो नगरी की भभि
मदीन की बात है कि (मीनर) कार में बाकी गुवाड़ में दिन को चारों दिशाओं से भा भा कर परवर गिरव मे तथा उन को देखन क लिये पैकड़ों मनुष्य जमा हो व्यव में इस प्रश्र दीन दिन तक परमरवर रहे हम ने भी उतना में जाकर अपनी आधों से किये हुए परों में दया इस मठ का अधिक वर्णन यहां पर अनावश्यक समय पर नहीं
है कि
काम कुछ रस शव (मान) दोन सलना बहुत ही बोसा) का वर्णन कर दिया गया है, इस विषय में हम अपनी ओर समय संसार में अनक निह ( घरान) मत प्रचरित
इतन से
न्य पर्याप्त ( वा म मतबाजे से पूछिये सन्तु
से धर्म साम
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मत समान दूसरा कोई भी मत नहीं है, दधिये । आप हे किमी व्यविवार को कभी धर्म नहीं रहेगा परन्तु इस मत को इम में कैसे हुए उनसे बरसो प्राप्त होता है, हम इस
व्यभिचार चाहिने
रोममुध्यसम्म बहुत
में न वरा करम
इय
पर ध्यान धार
अर
परमपुरुषास सम्मान का भाव
कम करना ही थे उनमे में और ध्य