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चतुर्थ अध्याय ॥
५८३ इस में एक सेर शहद मिलावे, पीछे इस को औटा कर शीतल किये हुए जल के साथ अग्नि का बलाबल विचार कर लेवे, इस के सेवन से राजयक्ष्मा, रक्तपित्त, क्षतक्षय, वातजन्य तथा पित्तजन्य श्वास, हृदय का शूल, पसवाड़े का शूल, वमन, अरुचि और ज्वर, ये सब रोग शीघ्र ही शान्त हो जाते हैं। ___१०-जीवन्त्यादिघृत-घृत चार सेर, जल सोलह सेर, कल्क के लिये जीवन्ती, मौलेठी, दारव, त्रिफला, इन्द्रजौ, कचूर, कूठ, कटेरी, गोखुरू, खिरेटी, नील कमल, मूंय देने के पीछे तत्काल ही केवल स्नेह पीछा निकले उस के वहुत थोडी मात्रा की वस्ति देनी चाहिये, क्योंकि स्निग्ध शरीर में दिया हुआ स्नेह स्थिर नहीं रहता है । वस्ति के ठीक न होने के अवगुण-वस्ति से यथोचित शुद्धि न होने से (विष्ठा के साथ तेल के पीछा न निकलने से) अगों की शिथिलता, पेट का फूलना, शूल, श्वास तथा पक्वाशय मे भारीपन, इत्यादि अवगुण होते हैं, ऐसी दशा में रोगी को तीक्ष्ण औषधों की तीक्ष्ण निरूहण वस्ति देनी चाहिये, अथवा वस्त्रादि की मोटी वत्ती बना कर उस में औषधों को भर कर अथवा भोपधों को लगा कर गुदा मै उस का प्रवेश करना चाहिये, ऐसा करने से अधोवायु का अनुलोमन (अनुकूल गमन) हो कर मल के सहित स्नेह वाहर निकल जावेगा, ऐसी दशा मे विरेचन का देना भी लाभकारी होता है तथा तीक्ष्ण नस्य का देना भी उत्तम होता है, अनुवासन वस्ति देने पर यदि नेह वाहर न निकलने पर भी किसी प्रकार का उपद्रव न करे तो समझ लेना चाहिये कि शरीर के रूक्ष होने से वस्ति का सव स्नेह उस के शरीर मे काम में आ गया है, ऐसी दशा में उपाय कर स्नेह के निकालने की कोई आवश्यकता नहीं है, वस्ति देने पर यदि स्नेह एक दिन रात्रि मे भी पीछा न निकले तो शोधन के उपायों से उसे बाहर निकालना चाहिये, परन्तु स्नेह के निकालने के लिये दूसरी वार स्नेह वस्ति नहीं देनी चाहिये । अनुवासन तैल-गिलोय, एरड, कजा, भारंगी, अडूसा, सौधिया तृण, सतावर, कटसरैया और कौवा ठोडी, ये सव चार २ तोले, जौ, उडद, अलसी, वेर की गुठली और कुलथी, ये सव आठ २ तोले लेवे, इन सव को चार द्रोण (धोन) जल मे औटावे, जब एक द्रोण जल शेप रहे तव इस मे चार २ रुपये भर सव जीवनीयगण की औषघों के साथ एक आढक तेल को परिपक्क करे, इस तेल का उपयोग करने से सव वातसम्बधी रोग दूर होते हैं, वस्ति क्रिया में कुछ भी विपरीतता होने से चौहत्तर प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, ऐसी दशा जव कभी हो जावे तो सुश्रुत मे कहे अनुसार नलिका आदि सामग्रियों से चिकित्सा करनी चाहिये, इस वस्ति कर्म में पथ्यापथ्य स्नेह पान के समान सव कुछ करना चाहिये।
चौथा कर्म निरूहण है-यह वस्ति का दूसरा भेद है-तात्पर्य यह है कि काढे, दूध और तैल आदि की पिचकारी लगाने को निरूण वस्ति कहते हैं, इस वस्ति के पृथक् २ ओपधियों के सम्मेल से अनेक टोता होते हैं तथा इसी कारण से उन भेदों के पृथक् २ नाम भी रक्खे गये हैं, इस निरूहण वस्ति का दुरी आस्थापन वस्ति भी है, इस नाम के रखने का हेतु यह है कि इस वस्ति से दोपों और धातु है । २ स्थान पर स्थापन होता है । निरूहण वस्तिकी मात्रा-इस वस्ति की सवा प्रस्थ की र प्रस्थ की मात्रा मध्यम और तीन कुडव (तीन पाव) की मात्रा अधम मानी गई हैं। दिन में न सोना तथा अनधिकारी-अत्यन्त स्निग्ध शरीर वाला, जिस के दोप परिपक कर न निकाले
ग्ध शरीर वाला, जिस क दाप पारपक कर न पथ्यापथ्य स्नेहनवस्ति के