________________
चतुर्थ अध्याय ॥
४९१ सका स्थान है कि हमारे देशवासी जन डाक्टर जेनर साहब की इस विषय की जाच का शुभकारी प्रत्यक्ष फल देख कर भी अपने भ्रम (वहम ) को दूर नहीं करते है और न अपनी स्त्रियो को समझाते हैं यह केवल अविद्या देवी के उपासकपन का चिह्न नहीं तो और क्या है ?
हे आर्यमहिलाओ ! अपने हिताहित का विचार करो और इस बात का हृदय में निश्चय कर लो कि-यह रोग देवी के कोप का नहीं है अर्थात् झूठे वहम को बिलकुल छोड़ दो, देखो ! इस बात को तुम भी जानती और मानती हो कि अपने पुरुषा जन (बडेरे लोग) इस रोग का नाम माता कहते चले आये है सो यह बहुत ही ठीक है परन्तु तुम ने इस के असली तत्त्व का अब तक विचार नहीं किया कि पुरुषा जन इस रोग को माता क्यों कहते है, असली तत्त्व के न विचार ने से ही धूर्त और स्वार्थी जनो ने तुम को धोखा दिया है अर्थात् माता शब्द से शीतला देवीका ग्रहण करा के उस के पुजवाने के द्वारा अपने स्वार्थ की सिद्धि की है, परन्तु अब तुम माता शब्द के असली तत्त्व को विद्वानों के किये हुए निर्णय के द्वारा सोचो और अपने मिथ्या भ्रम को शीत्र ही दूर करो, देखो ! पश्चिमीय विद्वानों ने यह निश्चय किया है कि-गर्भ रहने के पश्चात् स्त्रियों का ऋतुधर्म वन्द हो जाता है तब वह रक्त (खून) परिपक होकर स्तनों में दूधरूप में प्रकट होता है, उस दूध को बालक जन्मते ही (पैदा होते ही) पीता है, इस लिये दूध की वही गर्मी कारण पाकर फूट कर निकलती है, क्योकि यह शारीरिक ( शरीरसम्बधी) नियम है कि-ऋतुधर्म के आने से स्त्री के पेट की गर्मी बहुत छंट जाती है (कम हो जाती है) और ऋतुधर्म के रुकने से वह गर्मी अत्यन्त ' बढ़ जाती है, वही मातृसम्बन्धिनी (माता की ) गर्मी फूट कर निकलती है अर्थात् शीतला रोग के रूप में प्रकट होती है, इसी लिये वृद्ध जनो ने इस रोग का नाम माता रक्खा है। ___ वस इस रोग का कारण तो मातृसम्बन्धिनी गर्मी थी परन्तु खार्थ को सिद्ध करने वाले पूर्वजनों ने अविद्यान्धकार (अज्ञान रूपी अँधेरे ) में फंसे हुए लोगों को तथा विशेप कर स्त्रियों को इस माता शब्द का अर्थ उलटा समझा दिया है अर्थात् देवी ठहरा दिया है, इस लिये हे परम मित्रो। अव प्रत्यक्ष फल को देख कर तो इस असत्य श्रम (वहम ) को जड़ मूल से निकाल डालो, देखो ! इस बात को तो प्राय. तुम स्वयं
१-केवल यही कारण है कि ऋतुधर्म के समय अत्यन्त मलीनता (मैलापन) और गर्मी होने के सवव से ही मैथुन का करना निषिद्ध (मना ) है, अर्थात् उस समय मैथुन करने मे गर्मा, सुजाख, शिर में दर्द, कान्ति (तेज वा शोभा) की हीनता (कमी) तथा नपुसकत्ल (नपुसकपन ) आदि रोग हो जाते हैं।
. अर्थात् माता के सम्बन्ध से प्राप्त होने के कारण इस रोग का भी नाम माता रक्खा गया है परन्तु मुखंजन और अज्ञान महिलाये इसे शीतला माता की प्रसादी समझती है ।