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चतुर्थ अध्याय ॥
५५९ जलन होती है तथा चिनग भी होती है इस लिये इसे चिनगिया सुज़ाख कहते है, इस के साथ में शरीर में बुखार भी आ जाता है, इन्द्रिय भरी हुई तथा कठिन जेवडी (रस्सी) के समान हो जाती है तथा मन को अत्यन्त विकलता (वेचैनी) प्राप्त होती
शरीर के सम्पूर्ण बॉधों के बंध जाने के पहिले जो वालक इस कुटेव में पड़ जाता है उस का शरीर पूर्ण गृद्धि और विकाश को प्राप्त नहीं होता है क्योंकि इस कुटेव के कारण शरीर की वृद्धि और उस के विकाश में अवरोध (रुकावट ) हो जाता है, उस की हहिया और नर्स झलकने लगती हैं, ऑसं बैठ जाती हैं और उन के आस पास काला कुंडाला मा हो जाता है, आँख का तेज कम हो जाता है, दृष्टि निर्वल तया कम हो जाती है, चेहरे पर फुसिया उठ कर फूटा करती है, बाल झर पडते है, माथे में टाल (टाट) पड जाती है तथा उस में दर्द होता रहता है, पृष्ठवश (पीठका वास) तथा कमर में शुल (दर्द) होता है, सहारे के विना सीधा बैठा नहीं जाता है, प्रातःकाल विछाने पर से उठने को जी नहीं चाहता है तथा किसी काम में लगने की इच्छा नहीं होती है इत्यादि । सत्य तो यह है कि अखाभाविक रीति से ब्रह्मचर्य के भग करने रूप पाप की ये सब खराविया नहीं किन्तु उस से बचने के लिये ये सब शिक्षाय हैं, क्योंकि सृष्टि के नियम से विरुद्ध होने से सृष्टि इस पाप की शिक्षाओं (सजाओ) को दिये विना नहीं रहती है, हम को विश्वास है कि दूसरे किसी शारीरिक पाप के लिये सृष्टि के नियम की आवश्यक शिक्षाओं में ऐसी कठिन शिक्षाओं का उल्लेख नहीं किया गया होगा और चूकि इस पापाचरण के लिये इतनी शिक्षायें कहीं गई है, इस से निश्चय होता है कि-यह पाप वडा भारी है, इस महापाप को विचार कर यही कहना पड़ता है कि-इस पापाचरण की शिक्षा (सजा) इतने से ही नहीं पर्याप्त ( काफी) होती है, ऐसी दशा में सृष्टि के नियम को अति कठिन कहा जाने वा इस पाप को अति वडा कहा जावे किन्तु सृष्टि का नियम तो पुकार कर कह रहा है कि इस पापाचरण की शिक्षा (सजा ) पापाचरण करनेवाले को ही केवल नहीं मिलती है किन्तु पापाचरण करनेवाले के लडकों को भी योडी बहुत भोगनी आवश्यक है, प्रथम तो प्राय इस पाप का आचरण करने वालों के सन्तान उत्पन्न ही नहीं होती है, यदि दैवयोग से उस नराधम को सन्तान प्राप्त होती है तो वह सन्तान भी थोडी बहुत मा वाप के इस पापाचरण की प्रसादी को लेकर ही उत्पन्न होती है, इस में सन्देह नहीं है, इस लेस से हमारा प्रयोजन तरुण वयवालों को भड़काने का नहीं है किन्तु इन सव सत्स वातों को दिखला कर उन को इस पापाचरण से रोकने का है तथा इस पापाचरण में पड़े हुओं को उस से निकालने का है, इस के अतिरिक्त इस लेख से हमारा यह भी प्रयोजन है कियोग्य माता पिता पहिले ही से इस पापाचरण से अपने वालकों को वचाने के लिये पूरा प्रयत्न कर और ऐसे पापाचरण वाले लोगों के मी जो सन्तान होवें तो उन को भी उन की अच्छी तरह से देख रेख और सम्भाल रखनी चाहिये क्योंकि मा बाप के रोगों की प्रसादी लेकर जो लडके उत्पन्न होते हैं उस प्रसादी की कुटेव भी उन में अवश्य होती है, इसी नियम से इस पापाचरण वालों के जो लडके होते हैं उन में भी इस (हाय से वीर्यपात करनेरूप ) कुटेव का सञ्चार रहता है, इस लिये जिन मा बापों ने अपनी अज्ञानावस्था में जो २ भूलं की हैं तथा उन का जो २ फल पाया है उन सव वानों से विज्ञ होकर और उस विषय के अपने अनुभव को ध्यान में लाकर अपनी सन्तति को ऐसी कुटेव में न पड़ने देने के लिये प्रतिक्षण उस पर दृष्टि रखनी चाहिये और इस कुटेव की सरावियो को अपनी सन्तति को युक्ति के द्वारा बतला देना चाहिये।