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जैनसम्प्रदायशिक्षा ||
इस दुष्ट रोग से अनेक ( कई ) दूसरे भी भयंकर राग उत्पन्न हो जाते है परन्तु उन राम का अधिक यमन यहां पर अन्य के भवजान के गय से नदीं फर राफ्न्त ई |
बहुत से अज्ञान (गर्भ) छाग इस रोग के विद्यमान (गौजूद ) होन पर भी भीगम फरते है जिस से उन को सभा उन के साथ संगम करने यात्री खिया को बड़ी भारी दानि पहुँचती है, इस किये इस रोग के समय में श्रीभगग कदापि ( कभी ) नहीं कर दिये ।
बहुत से लोग इस रोग के महाकष्ट का भोग कर के भी पुनः उसी मार्ग पर चलते हैं, यह उन की परग मासा ( बड़ी मूर्खता) है और उन के सगा मू ाई नहीं दे पर्याकि ऐसा करने से वे मानो अपने ही हाथ से अपने पैर में गुरुबाड़ी मारते ई भर उनके इस व्यवहार से परिणाम में जो उा को दानि पहुँचती है उस पे दी जान दें, इस लिये इस रोग के होने के समय से वापि खीसंगम नहीं करना चाहिये ॥ कास ( खांसी ) रोग का वर्णन ॥
फारण - नाक और भुगर्ग मूल तथा गुआ के जाने से, प्रतिदिन (गे) अम और अधिक न्यायाग के सेवा से, आहार के पथ्य से, श भार भूत्र के राकन स सभा छीक के रोकने से भाणवायु अत्यन्त मुए होकर भा गुठ उवा पागुर मिल कर कास (साँसी) को उत्पन्न करती है।
भद - कास रोग के पाघ भेद द-यातजन्य, पिपजन्य, फफज य, जम्य और यजन्य, द्दा पाँच में से प्रा से पूर्व की अपेक्षा उपरोधर बना लक्षण -पास के फारा रोग में मामा हृदय, कनपटी, माका उदर और धूल (पीड़ा ) होता है, मुद्द उतर जाता है, पल (शद्धि ) पर ( आवाज ) और परा छथा सुमी सांसी उठती है जोर स्वरगद हो जाता
ता क्षीण दा जाता है, घारंवार ( भावाज बदल सी जाती है ) ।
विश्व कास रोग में माया में भारा, प्यास फागना, पील रंग का पीना हो जाता था सब देह में वाद
सथा
दोना, इत्यादि लक्षण दोते ई ।
फफ के कास रोग में फस युग का लिए (लिया) रहना, अमेझरीर का भारी रद्द, कण्ठ में मान (सुजी ) प भलना, वारंवार सांसी का उठना, ग्रथा गून के राग कफ की गाँ गिरना, इत्यादि लक्षण होवे दे |
क्षत्र (पान)
होता है।
पसवाड़ में
F
वाद (लन ), स्वर, गुरा का सूचना तथा यमन का दोना, धरीर के रंग
क्षत (भार) के कास रोग में प्रथम सुगी खाँसी का होना, पीछे सिर से गुफ मू का गिरना, कण्ठम पीड़ा होना, सुह के नुमने के समान पीड़ा होना, नाफा होना, समियों में पीड़ा, पर, शास, प्यास समार दाना इत्यादि उन दाव दे |