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जैनसम्पदामशिक्षा ||
जब द्वितीयपक्ष के चिह्नों का प्रारंभ होता है उस समय महुषा टोकी तो मि मुर्झाई हुई होती है तथापि उस स्थान में कुछ माग कठिन अवश्य होता है, यह भी सम्भव है कि रोगी पूर्व के चिह्नों को भूल जाता होगा परन्तु बहुत छीम ( थोड़े ही समय में) अंग में थोड़ा बहुत ज्भर आजाता है, गला मा गया हो' ऐसा प्रतीत ( मान्दम ) होने लगता है तथा उस में थोड़ा बहुत दर्द भी मालूम होता है, यदि मुख को खोल कर देखा जाये तो गले का द्वार, पड़ट, खीम सभा गले का पिछला भाग कुछ सूखा हुआ तथा बाळ रंग का मालूम होता है, तात्पर्य यह है कि बहुधा इसी क्रम से दूसरे विभाग के चिह्नों का प्रारंभ होता है', परन्तु कभी २ ऐसा भी होता है कि उभर गोड़ा सा बता है तथा गला भी थोड़ा ही आता है, उस दशा में रोगी उस पर कुछ ध्यान भी नहीं देता है परन्तु इस के पश्चात् अर्थात् कुछ भागे बढ़ कर उपक्ष का मिमिन (मिचित्र ) प्रकार का दर्द उत्पन्न हो जाता है और जिस का कोई भी ठीक क्रम नहीं होता है" अर्याय किसी के पहिले आँख का वर्व उत्पन्न होता है, किसी की सन्धिर्मावड़ जाती हैं, किसी के हाड़ों में दर्द उत्पन्न हो आता है तथा किसी को पहिले स्वचा की गर्मी माम होती है इत्यादि इस के सिमाम इस विभाग के चिह्न बहुधा दोनों तरफ समान ही देखे जाते हैं, जैसे कि दोनों हथेलियों में घटें हो जाती है, अथवा समा सन्धि एक साथ ऊपर को उठ जाती है ।
दोनों तरफ के हाड
यह गर्मी का रोग शरीर के किसी विशेष भाग का रोग नहीं है (खून) के विकार ( बिगाड ) से उत्पन्न होता है, इस लिये शरीर के इस का असर होता है, फिर देखो ! जिस को यह रोग हो चुकता है वह आदमी बहुधा निर्बल फीका मौर तेवहीन हो जाता है इस का कारण भी ऊपर कहा हुआ ही जानना चाहिये ।
किन्तु यह रोग रक हरएक भाग में
इस रोग में जैसी टांकी प्रथम होती है उसी के परिमाण के अनुसार शरीर की गर्मी मकट होती है, इस लिये जिस रोगी के पहिले ही टोकी मोटी, बहुत कठिन तथा पसर
१- आप हो अर्थात् में छाले पड़ ये ह
१-मत् दूसरे दर्जे के चिउरा पूर्वता है ।
३-अर्थात् रोगी थे इस बात का ध्यान नहीं होता है कि आगे बढ़ कर दूसरे दर्जे के मिरे घर पर पूर्णतया आक्रमण करेंगे
-भर्षात्का क्रम को ऊपर किया है वह ठीक रीति से होता है उसमें विक जाता है
५-इस विभाग के अर्थात् दूसरे दर्जे के ॥
६-दोनों तरफ भवान् परीर के दाहिने और बायें तरफ
-अत्यारोप
भारि गुण उत्पन्न नहीं
जानेपर भी मनुष्य में गम और कादि