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चतुर्थ अध्याय ॥
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और उन के द्वारा यह वात सहज में ही मालूम हो सकती है कि उसका आखिरी परिणाम कैसा होगी, ऐसी दशा में परीक्षा करनेवाले वैद्यजन रोगी को अपना स्पष्ट विचार प्रकट कर सकते है, परन्तु कभी २ इस के परिवर्तन ( फेरफार) को समझना अच्छे २ परीक्षककों (परीक्षा करने वालों) को भी कठिन हो जाता है, ऐसी दशा में पीछे से गर्मी के निकलने वा न निकलने के विषय में भी ठीक २ निर्णय नहीं हो सकता है, तात्पर्य यह है कि इस मिश्रित टाकी का ठीक २ निर्णय कर लेना बहुत ही बुद्धिमत्ता (अक्लमन्दी ) तथा पूरे अनुभव का कार्य है, क्योकि देखो ! यदि गर्मी निकलेगी इस बात का निश्चय पहिले ही से ठीक २ हो जावे तो उस का उपाय जितनी जल्दी हो उतना ही रोगी को विशेष लाभकारी ( फायदेमन्द ) हो सकता है ।
कठिन टाकी के होने के पीछे चार से लेकर छःसप्ताह ( हफ्ते ) के पीछे अथवा आठ सप्ताह के पीछे शरीर पर द्वितीय उपदेश का असर मालूम होने लगता है, गर्मी के प्रारंभ से लेकर अन्त तक जो २ लक्षण मालूम होते है उन के प्रायः तीन विभाग किये गये हैंइन तीनों विभागों में से पहिले विभाग में केवल आरभ में जो टाकी उत्पन्न होती है तथा उस के साथ जो वद होती है इस का समावेश होता है, इस को प्राथमिक उपदेश, कठिन चाँदी अथवा क्षत कहते है ।
दूसरे विभाग में टाकी के होने के पीछे जो दो तीन मास के अन्दर शरीर की त्वचा ( चमड़ी ) और मुख आदि में छाले हो जाते हैं, आँख, सन्धिस्थान ( जोड़ों की जगह ) तथा हाडों में दर्द होने लगता है और वह ( दर्द ) दो चार अथवा कई वर्ष तक बना रहता है, इस सर्व विषय का समावेश होता है इस को सार्वदेहिक (सब शरीर में होनेवाला) अथवा द्वितीयोपदश कहते है ।
तीसरे विभाग में उन चिह्नों का समावेश होता है कि जो चिह्न सर्व गर्मी के रोग वालों के प्रकट नही होते है किन्तु किन्ही २ के ही प्रकट होते है तथा उन का असर प्रायः छाती और पेट के भीतरी अवयवों पर ही होता है, बहुत से लोग इस तीसरे विभाग के चिह्नों को दूसरे ही विभाग में गिन लेते हैं अर्थात् वे लोग दो ही विभागों में उपदश रोग का समावेश करते है ।
१-क्योंकि इस के स्पष्ट चिह्नों के द्वारा उस पहिले कही हुई दोनों प्रकार की (मृदु और कठिन ) चॉदी के परिणाम के अनुभव 'इस का भी परिणाम जान लिया जाता है ॥
२- अर्थात् वैद्यजन रोगी को भी इस रोग का भावी परिणाम वतला सकते हैं ॥
३- तीन विभाग किये गये हैं अर्थात् तीन दर्जे बाँधे गये है |
४- अर्थात् टाँकी की उत्पत्ति और वद का होना प्रथम दर्जा है ॥
५-प्राथमिक उपदश अर्थात् पूर्वखरूप से युक्त उपदश ॥
६- अर्थात् उत्पत्ति से लेकर तीन मास तक की सर्व व्यवस्था दूसरा दर्जा है ॥
७- द्वितीयोपदश अर्थात् दूसरे स्वरूप से युक्त उपदश ॥ ८- अर्थात् वे उपदेश के दो ही दर्जे मानते हैं ॥