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चतुर्थ अध्याय ॥
४९७ रक्तवायु वा विसर्प (इरीसी पेलास ) का वर्णन ॥ भेद (प्रकार)-देशी वैद्यक शास्त्र के अनुसार भिन्न २ दोप के तथा मिश्रित (संयुक्त) दोष के सम्बन्ध से विसर्प अर्थात् रक्तवायु उत्पन्न होता है तथा वह सात प्रकार का है, परन्तु उस के मुख्यतया दो ही भेद है-दोपजन्य विसर्प और आगन्तुक विसर्प, इन में से विरुद्ध आहार से शरीर का दोप तथा रक्त (खून ) विगड़कर जो विसर्प होता है उसे दोषजन्य विसर्प कहते हैं और क्षत ( जखम ), शस्त्र के विष अथवा विषैले जन्तु (जानवर ) के नख ( नाखून) तथा दाँत से उत्पन्न हुए क्षत (जखम )
और ज़खम पर विसर्प के चेप के स्पर्श आदि कारणों से जो विसर्प होता है उसे आगन्तुक विसर्प कहते है। __कारण-प्रकृतिविरुद्ध आहौर, चेप, खराब विपैली हवा, जखम, मधुप्रमेह आदि रोग, विषैले जन्तु तथा उन के डक का लगना इत्यादि अनेक कारण रक्तवायु के हैं।
इन के सिवाय-जैनश्रावकाचार ग्रन्थ में तथा चरकऋपि के बनाये हुए चरक ग्रन्थ में लिखा है कि यह रोग विना ऋतु के, विना जाँच किये हुए तथा बहुत हरे शाकों के खाने का अभ्यास रखने से भी हो जाता है ।
इन ऊपर कहे हुए कारणों में से किसी कारण से शरीर के रस तथा खून में विषैले जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं और शरीर में रक्तवायु फैल जाता है।
लक्षण-वास्तव में रक्तवायु चमड़ी का वरम है और वह एक स्थान से दूसरे स्थान में फिरता और फैलता है, इसीलिये इस का नाम रक्तवायु रक्खा गया है, इस रोग में ज्वर आता है तथा चमड़ी लाल होकर सूज जाती है, हाथ लगाने से रक्तवायु के स्थान में गर्मी मालूम होती है और अन्दर चीस (चिनठा) चलती है।
१-वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज (त्रिदोषज), वातपित्तज, वातकफज तथा पित्तकफज, ये सात भेद हैं।
२-अर्थात् इन दो ही भेदों में सब भेदों का समावेश हो जाता है । ३-प्रकृतिविरुद्ध आहार अर्थात् प्रकृति को अनुकूल न आनेवाले खारी, खट्टे, कडए और गर्म पदार्थ आदि।
४-बहुत से घृक्षों में विना ऋतु के भी फल आ जाते है, (यह पाठकों ने प्राय देखा भी होगा), उन के खाने से भी यह रोग हो जाता है।
५-बहुत से जगली फल विपैले होते हैं भयवा विषैले जन्तुओं से युक्त होते हैं, उन्हें भी नहीं खाना चाहिये ॥
६-वैसे तो वनस्पति का आहार लाभदायक ही है परन्तु उस के खाने का अधिक अभ्यास नहीं रखना चाहिये।
७-इसी लिये इसे विसर्प भी कहते हैं। ८-यह भी स्मरण रखना चाहिये कि दोपों के अनुसार इस रोग में भिन्न २ लक्षण होते हैं।