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चतुर्थ अध्याय ।।
५०३ __ भस्म हो जाता है तथा उस को पुनः भूख लग जाती है, यदि उस भूख को रोका जावे तो उस की अतितीक्ष्णाग्नि उस के शरीर के धातुओं को खा जाती है (सुखा देती है)।
इन्हीं ऊपर कही हुई अमियों का आश्रय लेकर वैद्यक शास्त्र में अजीर्ण के जितने भेद कहे हैं उन सब का अब वर्णन किया जाता है:
१-आमाजीर्ण-यह अजीर्ण कफ से उत्पन्न होता है तथा इस में अंग में भारीपन, ओकोरी, आंख के पोपचों पर थेथैर और खट्टी डकार का आना, इत्यादि लक्षण होते है।
२-विदग्धाजीर्ण-यह अजीर्ण पित्त से उत्पन्न होता है तथा इस में अमे का होना, प्यास, मुर्छा, सन्ताप, दाह तथा खट्टी डकार और पसीने का आना, इत्यादि चिह्न होते है।
३-विष्टधाजीर्ण-यह अजीर्ण वादी से होता है तथा इस में शूल, अफरा, चूक, मल तथा अधोवायु (अपानवायु) का अवरोध ( रुकना), अंगों का जकड़ना और दर्द का होना, इत्यादि चिह्न होते है।
४-रसशेषाजीर्ण-भोजन करने के पीछे पेट में पके हुए अन्न का साररूप रस (पतला भाग) जब नहीं पकने पाता है अर्थात् उस के पकने के पहिले ही जब भोजन कर लिया जाता है तब अजीर्ण उत्पन्न होता है, उस को रसशेषाजीर्ण कहते हैं, इस अजीर्ण में हृदय के शुद्ध न होने से तथा शरीर में रस की वृद्धि होने से अन्नपर
अरुचि होती है। ___ अजीर्णजन्य दूसरे उपद्रव-जब अजीर्ण का वेग बहुत बढ़ जाता है तब उस अजीर्ण के कारण विचिका (हैज़ा), अलसक तथा विलम्बिका नामक रोग हो जाता है', इन का वर्णन सक्षेप से करते हैं:
१-आमाजीर्ण अर्थात् आम के कारण अजीर्ण ॥ २-ओकारी अर्थात् वमन होने की सी इच्छा ।। ३-आँख के पोपचों पर थेथर अर्थात् आँख के पलकों पर सूजन ॥ ४-यह अजीर्ण कफ की अधिकता से होता है ।। ५-भ्रम अर्थात् चकर ॥ ६-इस अजीर्ण में पित्त के वेग से धुएँ सहित खट्टी डकार आती है। ७-चूक अर्थात् शूलभेदादि वातसम्बन्धी पीडा ॥
८-(प्रश्न ) आमाजीर्ण में और रसशेपाजीर्ण में क्या भेद है, क्योंकि आमाजीणं आम (कच्चे रस के सहित होता है और रसशेपाजीर्ण भी रस के शेप रहनेपर होता है ? (उत्तर) देखो ! आमाजीर्ण मे तो मधुर हुआ कच्चा ही अन्न रहता है, क्योंकि-मधुर हुए कच्चे मन की आम सज्ञा है और रसशेपा. जीर्ण में भोजन किये हुए पके पदार्थ का रस पेट में शेष रहता है और वह रस जवतक जठराग्नि से नहीं पकता है तबतक उस की रसशेपाजीर्ण सज्ञा है, वस इन दोनों में यही भेद है ॥
९-स्मरण रखना चाहिये कि- विचिका, अलमक और विलम्विका, ये तीनों उपद्रव प्रत्येक अजीर्ण से होते हैं ( अर्थात् मामाजीर्ण, विदग्धाजीर्ण और विष्टधाजीर्ण, इन तीनों से यथाक्रम उक्त उपद्रव होते हों यह वात नहीं है)।