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चतुर्थ अध्याय ॥
२६९ १०-मूत्र तथा दस्तआदि का वेग होनेपर स्त्रीगमन नहीं करना चाहिये । ११-स्वी सग का बहुत नियम रखना चाहिये ।। १२-चित्त की वृत्ति में सतोगुण और आनंद के रखने के लिये सतोगुणवाला भोजन क
रना चाहिये । १३-दो घडी प्रभात में तथा दो घडी सन्ध्या समय में सब जीवोंपर समता परिणाम
रखना चाहिये। १४-यथायोग्य समय निकालकर घडी दो घड़ी सद्गुणियों की मण्डली में बैठकर निर्दोप
बातो को तथा व्याख्यानो को सुनना चाहिये। १५-यह संसार अनित्य है अर्थात् इस के समस्त धनादि पदार्थ क्षणभङ्गुर है इत्यादि वै
राग्य का विचार करना चाहिये । १६-जिस वर्ताव से रोग हो, प्रतिष्ठा और धन का नाश हो तथा आगामी में धन की
आमद रुक जावे, ऐसे वर्तावको कुपथ्य (हानिकारक) समझ कर छोड देना चाहिये, क्योंकि ऐसे ही निपिद्ध वर्ताव के करने से यह भव और परभव भी
विगडता है। १७-परनिन्दा तथा देवगुरु द्वेष से सदैव बचना चाहिये । १८-उस व्यवहार को कदापि नहीं करना चाहिये जो दूसरे के लिये हानि करे । १९-देव, गुरु, विद्वान् , माता, पिता तथा वर्म में सदैव भक्ति रखनी चाहिये । २०-यथाशक्य क्रोध, मान, माया और लोभआदि दुर्गुणोसे बचना चाहिये ।
यह पथ्यापथ्य का विचार विवेक विलास आदि ग्रन्थों से उद्धृत कर सक्षेप मात्र में दिखलाया गया है, जो मनुष्य इसपर ध्यान देकर इसी के अनुसार वर्ताव करेगा वह इस भव और परभव में सदा सुखी रहेगा ।।।
___ दुर्बल मनुष्य के खाने योग्य खुराक ॥ बहुत से मनुष्य देखने में यद्यपि पतले और इकहरी हड्डी के दीखते है परन्तु शक्तिमान् होते हैं तथा बहुत से मनुष्य पुष्ट और स्थूल होकर मी शक्तिहीन होते है, शरीर की प्रशंसा प्रायः सामान्य (न अति दुर्बल और न अति स्थूल ) की की गई है, क्योकि शरीर का जो अत्यन्त स्थूलपन तथा दुर्बलपन है उसे आरोग्यता नहीं समझनी चाहिये, क्योंकि बहुत दुर्बलपन और बहुत स्थूलपन प्रायः नाताकती का चिन्ह है और इन दोनो के होने से शरीर वेडौल भी दीखता है, इस लिये सब मनुष्यों को उचित है कि-योग्य आहार विहार और यथोचित उपायो के द्वारा शरीर को मध्यम दशा में रक्खें, क्योंकि योग्य आहार विहार और यथोचित उपायों के द्वारा दुर्वल मनुष्य भी मोटे ताजे और