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चतुर्थ अध्याय ।
- ३१३ १३-एक थाली वा पत्तल में अधिक मनुष्यो को भोजन करना योग्य नहीं है, क्योंकि-प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव पृथक् २ होता है, देखो ! कोई चाहता है कि मैं दाल भात को मिला कर स्वाऊँ, किसी की रुचि इस के विरुद्ध होती है, इसी प्रकार अन्य जनों का भी अन्य प्रकार का ही खभाव होता है तो इस दशा में साथ में खानेवाले सब ही लोगों को अरुचि से भोजन करना पड़ता है और भोजन में अरुचि होने से अन्न अच्छे प्रकार से नहीं पचता है, साथ में खाने के द्वारा अरुचि के उत्पन्न होने से बहुधा मनुष्य भूखे भी उठ बैठते है और बहुतों को नाना प्रकार के रोग भी हो जाते है, इस . के सिवाय प्रत्येक पुरुष के हाथ वारंवार मुँह में लगते है फिर भोजनों में लगते हैं, इस कारण एक के रोग दूसरे में प्रवेश कर जाते है, इस के अतिरिक्त यह भी एक बड़ी ही विचारणीय बात है कि यदि कुटुम्ब का दूरदेशस्थ (जो दूर देश में रहता है वह ) कोई एक सम्बंधी पुरुप गुप्तरूप से मद्य वा मास का सेवन करता है अथवा व्यभिचार में लिप्त है तो एक साथ खाने पीने से अन्य मनुष्यों की भी पवित्रता में धव्वा लग जाता है, शास्त्रों में जूठे भोजन का करना महापाप भी कहा है और यह सत्य भी है क्योकि इस से केवल शारीरिक रोग ही उत्पन्न नहीं होते है किन्तु यह बुद्धि को अशुद्ध कर उस के सम्पूर्ण वल का भी नाश कर देता है, प्रत्यक्ष में ही देख लीजिये कि-जो मनुष्य जूठा भोजन खाते है उन के मस्तक गन्दे ( मलीन) होते हैं कि जिस से उन में सोच विचार करने का स्वभाव बिलकुल ही नहीं रहता है, इस का कारण यही है कि जूठा भोजन करने से स्वच्छता का नाश होता है और जहा स्वच्छता वा शुद्धता नहीं है वहां भला शुद्धबुद्धि का क्या काम है, जूठा खाने वालों की बुद्धि मोटी हो जाने से उन में सभ्यता भी नहीं देखी जाती है, इन्ही कारणो से धर्मशास्त्रों में भी जूठाखाने का अत्यन्त निषेध किया है, इसलिये आर्य पुरुपो का यही धर्म है कि-चाहें अपना लड़का ही क्यो न हो उस को भी जूठा भोजन न दें और न उस का जूठा आप खावें, सत्य तो यह है कि जूठ और झूठ, इन दोनों का बाल्यावस्था से ही त्याग कर देना उचित है अर्थात् बचपन से ही झूठ वचन और जूठे भोजन से घृणा करना उचित है, बहुधा देखा जाता है किहमारे खदेशीय बन्धु (जो न तो धर्मशास्त्रो का ही अवलोकन करते हैं और न कभी उन को किसी विद्वान् से सुनते है वे ) अपने छोटे २ बच्चों को अपने साथ में भोजन कराने में उन का जूठा आप खाने में तथा अपना पिया हुआ पानी उन्हें पिलाने में बडा ही लाड़ समझते है, यह अत्यत ही शोक का विषय है कि वे महानिन्दित कर्म को लाड़ प्यार वा अपना धर्म कार्य समझें तथा उन ( बच्चों ) की बुद्धि का नाश मार कर उन के
१-सिर्फ यही हेतु है कि कोढी को कोई भी अपने साथ मे भोजन नहीं कराता है । २-क्योंकि सभ्यता शुद्धबुद्धि का फल है, उन की बुद्धि शुद्ध न होने से उन के पास सभ्यता कहा ?
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