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चतुर्थ अध्याय ॥
४.६९ की संभावना कैसे हो सकती है? हा इस समय में हम मुर्शिदाबाद के निवासी धनाढ्य और सेठ साहूकारों को धन्यवाद दिये विना नहीं रह सकते है, क्यों कि उन में अब भी ऊपर कही हुई बात कुछ २ देखी जाती है, अर्थात् उस देश में बड़े रसों में से मकरध्वज और साधारण रसों में विलासगुटिका, ये दो रस प्रायः श्रीमानों के घरों में बने हुए तैयार रहते है और मौके पर वे सव को देते भी है, वास्तव में यह विद्यादेवी के उपा. सक होने की ही एकनिशानी है। ___ अन्त में हमारा कथन केवल यही है कि-हमारे मरुस्थल देश के निवासी श्रीमान् लोग ऊपर लिखे हुए लेख को पढ़ कर तथा अपने हिताहित और कर्तव्यका विचार कर सन्मार्ग का अवलम्बन करें तो उन के लिये परम कल्याण हो सकता है, क्यों कि अपने कर्तव्य में प्रवृत्त होना ही परलोकसाधन का एक मुख्य सोपान (सीढ़ी) है ॥
आगन्तुक ज्वर का वर्णन ॥ कारण-शस्त्र और लकड़ी आदि की चोट तथा काम, भय और क्रोध आदि बाहर के कारण शरीरपर अपना असर कर ज्वर को उत्पन्न करते हैं, उसे आगन्तुक ज्वर कहते हैं, यद्यपि अयोग्य आहार और विहार से विगड़ी हुई वायु भी आमाशय (होजरी) में जाकर भीतर की अग्नि को विगाड़ कर रस तथा खून में मिल कर ज्वर को उत्पन्न करती है परन्तु यह कारण सब प्रकार के ज्वरो का कारण नहीं हो सकता है क्यों कि ज्वर दो प्रकार का है-शारीरिक और आगन्तुक, इन में से शारीरिक खतन्त्र (खाँधीन)
और आगन्तुक परतन्त्र ( पराधीन) है, इन में से शारीरिक ज्वर में ऊपर लिखा हुआ कारण हो सकता है, क्यों कि शारीरिक ज्वर वायु का कोप होकर ही उत्पन्न होता है, किन्तु आगन्तुक ज्वर में पहिले ज्वर चढ़ जाता है पीछे दोष का कोप होता है, जैसे
१-इन को वहा की वोली मे वाबू कहते हैं, इन के पुरुषाजन वास्तव में मरुस्थलदेश के निवासी थे। २-इस को वहा की देश भाषा मे लक्खी विलासगुटिका कहते हैं । ३-क्योंकि उन के हृदय में दया और परोपकार आदि मानुपी गुण विद्यमान हैं ॥
४-उन को स्मरण रखना चाहिये कि यह मनुष्य जन्म बडी कठिनता से प्राप्त होता है तथा वारंवार नहीं मिलता है, इस लिये पशुवत् व्यवहारों को छोड कर मानुषी वर्ताप को अपने हृदय में स्थान दे, विद्वानों और ज्ञानी महात्माओं की सङ्गति करें, कुछ शक्ति के अनुसार शास्त्रों का अभ्यास करें, लक्ष्मी
और तजन्य विलास को अनित्य समझ कर द्रव्य को सन्मार्ग में खर्च कर परलोक के सुख का सम्पादन करें, क्योंकि इस मल से भरे हुए तथा अनित्य शरीर से निर्मल और शाखत (नित्य रहनेवाले) परलोक के सुख का सम्पादन कर लेना ही मानुपी जन्म की कृतार्थता है ।
५-आदि शब्द से भूत आदि का आवेश, अभिचार (धात और मूठ आदि का चलाना), अभिशाप (ब्राह्मण, गुरु, वृद्ध और महात्मा आदि का शाप) विपभक्षण, अमिदाह तथा हही आदि का टूटना, इत्यादि कारण भी समझ लेने चाहिये ।
६-यह खाधीन इस लिये है कि अपने ही किये हुए मिथ्या आहार और विहार से प्राप्त होता है ।
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