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चतुर्थ अध्याय ॥
४८५ रखकर थोड़ा २ पानी देना चाहिये, क्योकि-ज्वर की प्यास में जल भी प्राणरक्षक (प्राणों की रक्षा करनेवाला) है।
११-ज्वरवाले को खाने की रुचि न भी हो तो भी उस को हितकारक तथा पथ्य भोजन ओपधि की रीति पर ( दवा के तरी के ) थोड़ा अवश्य खिलाना चाहिये।
१२-ज्वरवाले को तथा ज्वर से मुक्त (छूटे) हुए भी पुरुष को हानि करनेवाले आहार और विहार का त्याग करना चाहिये, अर्थात् स्नान, लेप, अभ्यङ्ग (मालिश), चिकना पदार्थ, जुलाब, दिन में सोना, रात में जागना, मैथुन, कसरत, ठढे पानी का अधिक पीना, बहुत हवा के स्थान में बैठना, अति भोजन, भारी आहार, प्रकृतिविरुद्ध भोजन, क्रोध, बहुत फिरना तथा परिश्रम, इन सब बातों का त्याग करना चाहिये', क्योंकि-ज्वर समय में हानिकारक आहार और विहार के सेवन से ज्वर बढ़ जाता है तथा ज्वर जाने के पश्चात् शीघ्र उक्त वर्ताव के करने से गया हुआ ज्वर फिर आने लगता है।
१३-साठी चावल, लाल मोटे चावल, मूग तथा अरहर (तूर ) की दाल का पानी, चॅदलिया, सोया ( सोवा), मेथी, घियातोरई, परवल और तोरई आदि का शाक, घी में बघारी हुई दाख अनार और सफरचन्द, ये सब पदार्थ ज्वर में पथ्य हैं।
१४-दाह करनेवाले पदार्थ (जैसे उड़द, चवला, तेल और दही आदि ), खट्टे पदार्थ, बहुत पानी, नागरवेल के पान, घी और मद्य इत्यादि ज्वर में कुपथ्य है ।।
फूट कर निकलनेवाले ज्वरों का वर्णन ॥ फूट कर निकलनेवाले ज्वरों को देशी वैद्यकशास्त्रवालों ने ज्वर के प्रकरण में नहीं लिखा किन्तु इन को मसूरिका नाम से क्षुद्र रोगों में लिखा है तथा जैनाचार्य योगचिन्तामणिकार ने मूधोरा नाम से पानीझरे को लिखा है, इसी को मरुस्थल देश में निकाला तथा सोलापुर आदि दक्षिण के देश के महाराष्ट्र ( मराठे) लोग भाव कहते हैं,
१-ऐसा करने से शक्ति क्षीण नहीं होती है तथा वात और पित्त का प्रकोप भी नहीं बढता है।
२-देखो ! ज्वर में स्नान करने से पुन ज्वर प्रवलरूप धारण कर लेता है, ज्वर में कसरत के करने से ज्वर की वृद्धि होती है, मैथुन करने से देह का जकडना, मूर्छा और मृत्यु होती है, निरव (चिकने) पदार्थों के पान आदि से मूर्छा, वमन, उन्मत्तता और अरुचि होती है, भारी अन्न के सेवन से तथा दिन में सोने से विष्टम्भ (पेट का फूलना तथा गुड गुड शब्द का होना), वात आदि दोषों का कोप, अग्नि की मन्दता, तीक्ष्णता तथा छिद्रों का वहना होता है, इस लिये ज्वरचाला अथवा जिस का ज्वर उतर गया हो वह भी (कुछ दिनों तक ) दाहकारी भारी और मसात्म्य (प्रकृति के प्रतिकूल) अन्न पान आदि का, विरुद्ध भोजन का, अध्यशन ( भोजन के ऊपर भोजन) का, दण्ड कसरत का, डोलना फिरना आदि चेय का, उबटन तथा नान का परित्याग कर दे, ऐसा करने से ज्वररोगी का ज्वर चला जाता है तथा जिस का ज्वर चला गया हो उस को उक्त वर्ताव के करने से फिर ज्वर वापिस नहीं आता है।