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चतुर्थ अध्याय ॥
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फुटकर चिकित्सा -- ९ - चौथिया तथा तेजरा के ज्वर में अगस्त के पचों का रस अथवा उस के सूखे पत्तों को पीस तथा कपड़छान कर रोगी को सुँधाना चाहिये तथा पुराने घी में हींग को पीस कर सुँघाना चाहिये ।
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१० - इन के सिवाय सब ही विषम ज्वरों में ये ( नीचे लिखे ) उपाय हितकारी हैकाली मिर्च तथा तुलसी के पत्तों को घोट कर पीना चाहिये, अथवा - काली जीरी तथा गुड़ में थोड़ी सी काली मिर्च को डाल कर खाना चाहिये, अथवा - सोंठ जीरा और गुड़, इन को गर्म पानी में अथवा पुराने शहद में अथवा गाढ़ी छाछ मै पीना चाहिये, इसके पीने से ठढ का ज्वर उतर जाता है, अथवा-नीम की भीतरी छाल, गिलोय तथा चिरायते के पत्ते, इन तीनों में से किसी एक वस्तु को रात को भिगा कर प्रातःकाल कपड़े से छान कर तथा उस जल में मिश्री मिला कर और थोड़ी सी काली मिर्च डाल कर पीना चाहिये, इस के पीने से ठढ के ज्वर में बहुत फायदा होता है ।
स्मरण रहे कि - देशी इलाजों में से वनस्पति के क्वाथ के लेने में सब प्रकार की निर्भयता है तथा इस के सेवन में धर्म का संरक्षण भी है क्योंकि सब प्रकार के काढ़े ज्वर के होने पर तथा न भी होने पर प्रति समय दिये जा सकते है, इस के अतिरिक्त- इन से मल का पाचन होकर दस्त भी साफ आता है, इस लिये इन के सेवन के समय में साफ दस्त के आने के लिये पृथक् जुलाब आदि के लेने की आवश्यकता नही रहती है, तात्पर्य यह है कि-वनस्पति का क्वाथ सर्वथा और सर्वदा हितकारी है तथा साधारण चिकित्सा है, इसलिये जहा तक हो सके पहिले इसी का सेवन करना चाहिये ॥
सन्तत ज्वर (रिमिटेंट फीवर) का विशेष वर्णन ॥
कारण- विषमज्वर का कारण यह सन्ततज्वर ही है जिस के लक्षण तथा
१ - इस के अगस्त्य, वग सेन, मुनिपुष्प और मुनिद्रुम, ये संस्कृत नाम हैं, हिन्दी मे इसे अगस्त अगस्तिया तथा हथिया भी कहते हैं, बगाली मे-वक, मराठी में हदगा, गुजराती मे-अगथियो तथा अग्रेजी में ग्राण्डी फलोरा कहते हैं, इस का वृक्ष लम्बा होता है और इस पर पत्तेवाली वेलें अधिक चढती हैं, इस के पत्ते इमली के समान छोटे २ होते हैं, फूल सफेद, पीला, लाल और काला होता है अर्थात् इस का फूल चार प्रकार का होता है तथा वह (फूल) केसूला के फूल के समान वाका (टेढा) और उत्तम होता है, इस वृक्ष की लम्बी पतली और चपटी फलिया होती हैं, इस के पत्ते शीतल, रूक्ष, वातकर्ता और कडुए होते हैं, इस के सेवन से पित्त, कफ, चौथिया ज्वर और सरेकमा दूर हो जाता है (1
२- यह सर्वतन्त्र सिद्धान्त है कि वनस्पति की खुराक तथा रूपान्तर मे उस का सेवन प्राणियों के लिये सर्वदा हितकारक ही है, यदि वनस्पति का क्वाथ आदि कोई पदार्थ किसी रोगी के अनुकूल न भी आवे तो उसे छोड देना चाहिये परन्तु उस से शरीर मे किसी प्रकार का विकार होकर हानि की सम्भावना कभी नहीं होती है जैसी कि अन्य रसादि की मात्राओं आदि से होती है, इसी लिये ऊपर कहा गया है कि - जहा तक हो सके पहिले इसी का सेवन करना चाहिये ॥