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जैनसम्प्रदामशिक्षा ॥
न किया जाये तो उस से मगज की वासु, विचारवायु अथवा मम हो जाता है, बुद्धि नाश हो आता है और मनुष्य पागल के समान बन जाता है ।
७-स्वांसी--मद्यपि यह एक साधारण रोग है परन्तु उस का उपाय न करने से उस की वृद्धि होकर राजयक्ष्मा हो जाता है ।
८ - मदात्यय - इस रोग से अजीर्ण, दाह और पागलपन का असाध्य रोग होता है । ९- उपदेश वा गर्मी – उपक्ष अर्थात् दुष्ट स्त्री आदि से उत्पन्न हुई गर्मी के रोग से विस्फोटक, गांठ, बावरक, रक्तपित, हरस, भगन्दर, नासूर और गैठिया धारि रोग होते हैं।
१० - सुजाम्प सुनाख होकर प्रमेह हो जाता है, उस (प्रमेह ) से भदर्गाठ, सूत्र झच्छ्र, मूत्राघात और ममेइपिटिका ( छोटी २ फुनसियां) भादि रोग तथा उपरंप सम्बधी भी सब प्रकार के रोग होते दें ॥
यह चतुर्थ अध्याय का रोग सामान्यकारण नामक दचर्या प्रकरण समाप्त हुआ ।
ग्यारहवा प्रकरण — त्रिदोषजरोगवर्णन ||
त्रिदोषज अर्थात् वात पित्त और कफ से उत्पन्न होनेवाले रोगों का समय ||
आप बैचक छात्र के अनुसार यह सिद्ध है कि सब ही रोगों की जड़ बात पित्त और कफ ही है, जबतक ये सीनां दोष बराबर रहते ई अथवा अपनी स्वाभाविक स्थिति में रहते हैं सपतक चरीर नीरोग गिना जाता है परन्तु जब इन में से कोई एक अथवा दो या तीनों ही दोप अपनी २ मर्यादा को छोड़ कर उलट मार्गपर से हैं तब बहुत स रोग उत्पन्न होते है ।
ये तीनों दोप किस प्रकार से अपनी मर्यादा को छोड़ते है तथा उन से फोन २ से रोग प्रकट होते हैं इस विपय का सक्षेप से वणन करते हैं
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पीने से जा रोग होता है उस को मास्प कहते है
११- जैसा कि मों में वर्षा समत्वमारोग्यं श्रनवृद्धी विजय " अर्थात् म (मिपमा बापित भर कफ) का जो समान रहना ही भारोम्वाई भीर उनकी को म्यू ना नही रोमा ६ ॥