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चतुर्थ अध्याय ॥ करे, यदि रोग की ठीक परीक्षा कराने के लिये कोई नया वा अज्ञान (अजान ) रोगी आ जावे तो उस को थोड़ी देर तक बैठने देना चाहिये, जब वह खस्थ (तहेदिल ) हो जावे तव उस की आकृति, ऑखें और जीभ आदि परीक्षणीय (परीक्षा करने के योग्य) अङ्गों को देखना चाहिये, इस के बाद दोनों हाथों की नाड़ी देखनी चाहिये, तथा उस के मुख से सव हकीकत सुननी चाहिये, पीछे उस के शरीर का जो भाग जांचने योग्य हो उसे देखना और जाचना चाहिये, रोगी से हकीकत पूछते समय सब बातों का खूब निश्चय करना चाहिये अर्थात् रोगी की जाति, वृत्ति (रोज़गार ), रहने का ठिकाना, आयु, व्यसैन, भूतपूर्व रोग (जो पहिले हो चुका है वह रोग), विधिसहित पूर्वसेवित औषध (क्या २ दवा कैसे २ ली, क्या २ खाया पिया ? इत्यादि), औपधसेवन का फल (लाभ हुआ वा हानि हुई इत्यादि), इत्यादि सब बातें पूंछनी चाहिये ।
इन सब बातों के सिवाय रोगी के मा वाप का हाल तथा उन की शरीरसम्बन्धिनी (शरीर की) व्यवस्था (हालत) भी जाननी चाहिये, क्योंकि वहुत से रोग माता पिता से ही पुत्रों के होते है।
यद्यपि वरपरीक्षा से भी रोगी के मरने जीने कट रहने तथा गर्मी शर्दी आदि सब चातों की परीक्षा होती है परन्तु वह यहां ग्रन्थ के बढ़ जाने के भय से नहीं लिखी है, हां खरोदय के विषय में इस का भी कुछ वर्णन किया है, वहा इस विषय को देखना चाहिये।
साध्यासाध्यपरीक्षा बल के द्वारा भी होती है, इस के सिवाय मृत्यु के चिह्न सक्षेप से कालज्ञान में लिखे है, जैसे--कानों में दोनों अंगुलियों के लगाने से यदि गडागडाहट न होवे तो प्राणी मर जाता है, आख को मसल कर अँधेरे में खोले, यदि विजुली का सा झवका न होवे तथा आख को मसल कर मीचने से रंग २ का ( अनेक रंगों का ) जो आकाश से बरसता हुआ सा दीखता है वह न दीखे तो मृत्यु जाननी चाहिये, छायापुरुष से अथवा काच में देखने से यदि मस्तक आदि न दीखें तो मृत्यु जाननी चाहिये, यदि चैतसुदि ४ को प्रातःकाल चन्द्रस्वर न चले तो नौ महीने में मृत्यु जाननी चाहिये,
१-बहुत से धूर्त वैद्य अपना महत्त्व दिखलाने के लिये रोगी का हाल आदि कुछ भी न पूछकर केवल नाडी ही देखते हैं (मानो सर्वसाधारण को वे यह प्रकट करना चाहते हैं कि हम केवल नाडी देखकर ही रोग की सर्व व्यवस्था को जान सकते है) तथा नाडी देखकर अनेक झूठी सची वातें बना कर अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिये रोगी को वहका दिया करते हैं, परन्तु सुयोग्य और विद्वान् वैद्य ऐसा कभी नहीं करते हैं ।
२-यदि कोई हो तो॥
३-भूतपूर्व रोग का पूछना इस लिये आवश्यक है कि-उस का भी विचार कर ओपधि दी जावे, क्योंकि उपदश आदि भूतपूर्व कई रोग ऐसे भी हैं कि जो कारणसामग्री की सहायता पाकर फिर भी उत्पन्न हो जाते हैं-इस लिये यदि ऐसे रोग उत्पन्न होचुके हों तो चिकित्सा मे उन के पुनरुत्पादक कारण को बचाना पडता है॥