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चतुर्थ अध्याय ॥
४५५ में जाकर उस में स्थित रस ( आम) को दूषित कर जठर (पेट) की गर्मी ( अग्नि) को बाहर निकालता है उस से वातज्वर उत्पन्न होता है ।
लक्षण-जभाई (बगासी) का आना, यह वातज्वर का मुख्य चिह्न है, इस के सिवाय ज्वर के वेग का न्यूनाधिक ( कम ज्यादा ) होना, गला ओष्ठ (होठ) और मुख का सूखना, निद्रा का नाश, छींक का बन्द होना, शरीर में रूक्षता ( रूखापन), दस्त की कवजी का होना, सब शरीर में पीड़ा का होना, विशेष कर मस्तक और हृदय में बहुत पीड़ा का होना, मुख की विरसता, शूल और अफरा, इत्यादि दूसरे भी चिह्न मालूम पडते हैं, यह वातज्वर प्रायः वायुप्रकृतिवाले पुरुष के तथा वायु के प्रकोप की ऋतु (वर्षा ऋतु) में उत्पन्न होता है।
चिकित्सा-१-यद्यपि सब प्रकार के ज्वर में परम हितकारक होने से लड़न सर्वोपरि ( सब से ऊपर अर्थात् सब से उत्तम ) चिकित्सा (इलाज ) है तथापि दोष, प्रकृति, देश, काल और अवस्था के अनुसार शरीर की स्थिति ( अवस्था) का विचार कर लङ्घन करना चाहिये, अर्थात् प्रबल वातज्वर में शक्तिमान् ( ताकतवर) पुरुष को अपनी शक्ति का विचार कर आवश्यकता के अनुसार एक से छः लघन तक करना चाहिये, यह भी जान लेना चाहिये कि-लघन के दो भेद हैं-निराहार और अल्पाहार, इन में से बिलकुल ही नहीं खाना, इस को निराहार कहते हैं, तथा एकाध वख्त थोड़ी और हलकी खुराक का खाना जैसे-दलिया, भात तथा अच्छे प्रकार से सिजाई हुई मूग और अरहर (तूर) की दाल इत्यादि, इस को अल्पाहार कहते है, साधारण वात ज्वर में एकाध टक (बख्त ) निराहार लघन करके पीछे प्रकृति तथा दोष के अनुकूल ज्वर के दिनों की मर्यादा तक (जिस का वर्णन आगे किया जावेगा) ऊपर लिखे अनुसार हलकी तथा थोड़ी खुराक खानी चाहिये, क्योंकि-ज्वर का यही उत्तम पथ्य है, यदि इस का सेवन भली भाति से किया जावे तो औषधि के लेने की भी आवश्यकता नहीं रहती है। १-चौपाई-बडो वेग कम्प तन होई ॥ ओठ कण्ठ मुख सूखत सोई ॥ १॥
निद्रा अरु छिका को नासू ॥ रूखो अङ्ग कवज हो तासू ॥२॥ शिर हृद सव अंग पीडा होवै ॥ बहुत उयासी मुख रस खोवै ॥३॥ गाढी विष्टा मूत्र जु लाला ॥ उष्ण वस्तु चाहै चित चाला ॥ ४ ॥ नेत्र जु लाल रङ्ग पुनि होई ॥ उदर आफरा पीडा सोई ॥५॥
वातज्वरी के एते लक्षण ॥ इन पर ध्यानहि धरो विचक्षण ॥ ६ ॥ २-क्योंकि लघन करने से अग्नि (आहार के न पहुंचने से) कोठे मे स्थित दोषों को पकाती है और जव दोप पक जाते हैं तव उन की प्रबलता जाती रहती है, परन्तु जव लघन नहीं किया जाता है अर्थात् आहार को पेट मे पहुँचाया जाता है तव अग्नि उसी आहार को ही पकाती है किन्तु दोषों को नहीं पकाती है।