________________
चतुर्थ अध्याय ॥
४६१ में कडुआहट (कडुआपन, ), खासी, प्यास, वारंवार दाह का होना और वारंवार शीत का लगना, ये दूसरे भी लक्षण इस ज्वर में होते है। चिकित्सा-१-इस ज्वर में भी पूर्व लिखे अनुसार लंघन का करना पथ्य है । २-जहा तक हो सके इस ज्वर में पाचन ओषधि लेनी चाहिये ।
३-रक्त (लाल) चन्दन, पदमाख, धनियाँ, गिलोय और नींव की अन्तर ( भीतरी) छाल, इन का काढ़ा पीना चाहिये, यह रक्तचन्दनादि कार्थ है।
४-आठ आनेभर कुटकी को जल में पीस कर तथा मिश्री मिला कर गर्म जल से पीना चाहिये।
५-अडूसे के पत्तों का रस दो रुपये भर लेकर उस में २॥ मासे मिश्री तथा २॥ मासे शहद को डाल कर पीना चाहिये ॥
सामान्यज्वर का वर्णन ।। कारण तथा लक्षण-अनियमित खानपान, अजीर्ण, अचानक अतिशीत वा गर्मी का लगना, अतिवायु का लगना, रात्रि में जागरण और अतिश्रम, ये ही प्रायः सामान्यज्वर के कारण है, ऐसा ज्वर प्रायः ऋतु के बदलने से भी हो जाता है और उस की मुख्य ऋतु मार्च और अप्रेल मास अर्थात् वसन्तऋतु है तथा सितम्बर और अक्टूवर मास अर्थात् शरदऋतु है, शरदऋतु में प्रायः पित्त का बुखार होता है तथा वसन्तऋतु में प्राय. कफ का बुखार होता है, इन के सिवाय-जून और जुलाई महीने में भी अर्थात् बरसात की वातकोपवाली ऋतु में भी वायु के उपद्रवसहित ज्वर चढ़ आता है।
ऊपर जिन भिन्न २ दोषवाले ज्वरों का वर्णन किया है उन सबों की भी गिनती इस (सामान्य ज्वर ) में हो सकती है, इन ज्वरों में अन्तरिया ज्वर के समान चढ़ाव उतार नहीं रहता है किन्तु ये ( सामान्यज्वर ) एक दो दिन आकर जल्दी ही उतर जाते है।
१-यह क्वाथ दीपन और पाचन है तथा प्यास, दाह, अरुचि, वमन और इस ज्वर (पित्तकफज्वर) को शीघ्र ही दूर करता है।
२-यह मोपधि अम्लपित्त तथा कामलासहित पित्तकफज्वर को भी शीघ्र ही दूर कर देती है, इस ओषधि के विषय में किन्हीं आचार्यों की यह सम्मति है कि असे के पत्तों का रस (ऊपर लिखे अनुसार) दो तोले लेना चाहिये तथा उस में मिश्री और शहद को (प्रत्येक को) चार २ मासे डालना चाहिये ॥
३-अर्थात् इन कारणों से देश, काल और प्रकृति के अनुसार-एक वा दो दोप विकृत तथा कुपित होकर जठरामि को बाहर निकाल कर रसों के अनुगामी होकर ज्वर को उत्पन्न करते हैं। ४-ऋतु के वदलने से ज्वर के आने का अनुभव तो प्राय वर्तमान में प्रत्येक गृह में हो जाता है ॥ ५-क्योंकि शरदऋतु में पित्त प्रकुपित होता है ।
६-पसीनों का न आना, सन्ताप (देह और इन्द्रियों मे सन्ताप ), सर्व अंगों का पीडा करके रह जाना अथवा सब अगों का स्तम्भित के समान (स्तव्ध सा) रह जाना, ये सब लक्षण ज्वरमात्र के साधारण है अर्थात् ज्वरमात्र में होते हैं इन के सिवाय शेष लक्षण दोषों के अनुसार पृथक् २ होते हैं।
.
.
...