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चतुर्थ अध्याय ॥
३६ - उष्णमूत्रत्व - इस रोग में पेशाब गर्म आता है । ३७- उष्णमलत्व -- इस रोग में दस्त गर्म उतरता है । ३८ - तमोदर्शन - इस रोग में आखों में अँधेरी आती है । ३९ - पित्तमण्डलदर्शन - इस रोग में पीले मण्डल ( चक्कर ) दीखते है । ४० - निःसरत्व - इस रोग में वमन और दस्त में पित्त निकलता है ।
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सूचना - पित्त के कोप से शरीर में उक्त रोगो में से एक अथवा अनेक रोगों के लक्षण दिखलाई देते है, उन को खूब समझ कर रोगों का इलाज करना चाहिये, क्योकि बहुधा देखा गया है कि - मतिभ्रम, तिक्तास्यता, खेदस्राव, क्लम, अरति, अल्पनिद्रता, गात्रसाद, भिन्नविकता और तमोदर्शन आदि बहुत से पित्त के रोगों को साधारण मनुष्य अपनी समझ के अनुसार वायु के रोग गिनकर ( मान कर ) उन के मिटाने के लिये गर्म इलाज किया करते हैं, उस से उलटा रोग बढ़ता है, इसी प्रकार बहुत से रोग बाहर से के से (वायुजन्य रोगों के समान ) दीखते हैं परन्तु असल में निश्चय करने पर वे (रोग) पित्त के ( पित्तजन्य ) ठहरते है ( सिद्ध होते है ), एवं बहुत से रोग बाहरी लक्षणों से पित्त तथा गर्मी के मालूम देते है परन्तु असल में निश्चय करने पर वे रोग वायु से उत्पन्न हुए सिद्ध होते है, इस लिये रोगों के कारणों के शक्ति और सूक्ष्म बुद्धि से जाच करने की आवश्यकता है |
वायु
खोजने में
बहुत विचार
कफ के कोप के कारण ॥
गुड़, शक्कर, बूरा और मिश्री आदि मीठे पदार्थों के खाने से, घी और मक्खन आदि चिकने पदार्थों के खाने से, केला और भैस का दूध आदि भारी पदार्थों के खाने से, ठढे और भारी पदार्थों के अधिक खाने से, दिन में सोने से, अजीर्ण में भोजन करने से, विना मेहनत के खाली बैठे रहने से, शीतकाल में अधिक ठंढे पानी के पीने से और वसन्त ऋतु में नये अन्न के खाने से, इत्यादि आहार विहार से शरीर में कफ बढ़ कर बहुत से रोगों को उत्पन्न करता है, जिन में से मुख्यतया कफ के २० रोग हैं, जिन के नाम ये हैं-
१ - तन्द्रा - इस रोग में आखो में मिँचाव सा लगा रहता है । २ - अतिनिद्रता - इस रोग में नींद बहुत आती है ।
३ - गौरव - इस रोग में शरीर भारी रहता है । ४ - मुखं माधुर्य – इस रोग में मुँह मीठा २ सा लगता है । ५- मुखलेप - इस रोग में मुँह में चिकनापन सा रहता है । ६ - प्रसेक - इस रोग में मुँह से लार गिरती रहती है ।