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चतुर्थ अध्याय॥
४०१ है, पेट की तोंद छिटक पड़ती है, उस के हाथ और सांधे बड़े तथा स्थूल होते है, मास के लोचे ढीले होते है, उस का चेहरा विरस और फीका होता है, उस का शरीर जैसा ऊपर से स्थूल दीखता है वैसी अन्दर ताकत नहीं होती है, निर्वलता; शोथ, जलवृद्धि
और हाथी के समान पैरों का होना आदि इस प्रकृति के मुख्य रोग है, इस प्रकृतिवाले को तीखे और खारी पदार्थों पर अधिक प्रीति होती है तथा मीठे पदार्थों पर रुचि कम होती है।
रक्तप्रधान धातु के मनुष्य-वात पित्त और कफ, इन तीन प्रकृतियों के सिवाय जिस मनुष्य में रक्त अधिक होता है उस के ये लक्षण है-शरीर की अपेक्षा शिर छोटा होता है, मुँह चपटा तथा चौकोन होता है, ललाट वडा तथा बहुतों का पीछे की
ओर से ढाल होता है, छाती चौड़ी गम्भीर और लम्बी होती है, खड़े रहने से नामि पेटकी सपाटी के साथ मिल जाती है अर्थात् न वाहर और न अन्दर दीखती है, चरवी थोडी होती है, शरीर पुष्ट तथा खून से भरा हुआ खूबसूरत होता है, वाल नरम पतले और आटेदार होते है, चमड़ी करड़ी होती है तथा उस में से मास के लोचे दिखलाई देते हैं, नाड़ी पूर्ण और ताकतवर होती है, दाँत मजबूत तथा पीलापन लिये हुए होते है, पीने की चीज पर बहुत प्रीति होती है, पाचनशक्ति प्रवल होती है, मेहनत करने की शक्ति वहुत होती है, मानसिक वृत्ति कोमल तथा बुद्धि स्वाभाविक (स्वभावसिद्ध) होती है, इस प्रकार का मनुष्य सहनशील, सन्तोषी, लोगों का उपकार करनेवाला, बोलने में चतुर, सरलभाषी और साहसी होता है, वह हरदम न तो काम में लगा रहना चाहता है और न घर में बैठ कर समय को व्यर्थ में बिताना चाहता है, इस मनुष्य के दाह, फेफसे का वरम, नजला, दाहज्वर; खून का गिरना, कलेजे का रोग और फेफसे का रोग होना अधिक सम्भव होता है, वह धूप का सहन नहीं कर सकता है । __ यद्यपि जुदी २ प्रकृति की पहिचान करना कठिन है, क्योंकि बहुत से मनुष्यों की मूल प्रकृति दो दो दोषों से मिली हुई भी होती है तथा दोनों दोषों के लक्षण भी मिले हुए होते हैं तथापि एक प्रकृति के लक्षणों का ज्ञान होने के बाद लक्षणों के द्वारा दूसरी प्रकृति का जान लेना कुछ भी कठिन नहीं है। ___ यदि मनुष्य सूक्ष्म विचार कर देखे तो उस को यह भी मालूम हो जाता है किमेरी प्रकृति में अमुक दोष प्रधान है तथा अमुक दोष गौण अथवा कम है, इस प्रकार से जव प्रकृति की परीक्षा हो जाती है तब रोग की परीक्षा, उस का उपाय तथा पथ्यापथ्य का निर्णय आदि सव बातें सहज में बन सकती है, इस लिये वैद्य वा डाक्टर को सब से प्रथम प्रकृति की परीक्षा करनी चाहिये, क्योंकि यह अत्यावश्यक वात है ।
१-सर्व साधारण को प्रकृति की परीक्षा इस ग्रन्थ के अनुसार प्रथम करनी चाहिये क्योंकि इस में प्रकृति के लक्षणों का अच्छे प्रकार से वर्णन किया है, देखो । परिश्रम और यत्न करने से कठिनसे कठिन कार्य भी हो जाते हैं, यदि लक्षणों के द्वारा प्रकृतिपरीक्षा में सन्देह रहे तो रोगी से पूछ कर भी वैद्य वा डाक्टर परीक्षा कर सकते हैं ।