________________
चतुर्थ अध्याय ||
३७९
हैं
दिन ऋतुकाल में नहीं गिनने चाहियें, ऋतुस्राव के प्रायः तीन दिन गिने जाते है अर्थात् नीरोग स्त्री के तीन दिनतक ऋतुस्राव रहता है, चौथे दिन स्नान करके रजस्वला शुद्ध हो जाती है, ये (ऋतुस्राव के ) दिन खीसग में निषिद्ध अर्थात् ऋतुस्राव के दिनों में स्त्रीसंग कदापि नही करना चाहिये, जो पुरुष मन तथा इन्द्रियों को वश में न रख कर रजस्वला स्त्री से सगम करता है ( जिस के रक्तस्राव होता हो उस स्त्री से समागम करता है) तो उस की दृष्टि आयु तथा तेज की हानि होती है और अधर्म की प्राप्ति होती है, इस के सिवाय रजस्वला से समागम करने से गर्भस्थिति की संभावना नहीं होती है अर्थात् प्रथम तो उस समय में समागम करने से गर्भ ही नही रहता है यदि कदाचित् गर्भ रहे भी तो प्रथम के दो दिन में जो गर्भ रहता है वह नहीं जीता है और तीसरे दिन जो गर्भ रहता है वह अल्पायु तथा विकृत अगवाला होता है ।
रजोदर्शन के दिन से लेकर सोलह रात्रि पर्यन्त रात्रियों में चौथी रात्रि से लेकर सोलहवी रात्रिपर्यन्त ऋतुकाल अर्थात् गर्भाधान का जो समय है उस में भी सम रात्रिया प्रधान है अर्थात् चौथी, छठी, आठवी, दशवी, बारहवी, चौदहवी तथा सोलहवी रात्रिया उत्तम है और इन में भी क्रम से उत्तरोत्तर रात्रिया उत्तम गिनी जाती है ।
पूर्णमासी, अमावस्या, प्रातःकाल, सन्ध्याकाल, पिछली रात्रि, मध्य रात्रि और मध्याहकाल में स्त्रीसयोग नही करना चाहिये, क्योंकि इस से जीवन का क्षय होता है ।
गर्भवती से पुरुष को कभी संयोग नही करना चाहिये, क्योंकि गर्भावस्था में जिस चेष्टा के अनुसार व्यापार किया जाता है उसी चेष्टा के गुणो से युक्त बालक उत्पन्न होता है और बड़ा होने पर वह बालक विषयी और व्यभिचारी होता है ।
विहार के विषय में ऋतु का भी विचार करना आवश्यक है अर्थात् जो ऋतु विहार के लिये योग्य हो उसी में विहार करना चाहिये, विहार के लिये गर्मी की ऋतु बिलकुल प्रतिकूल है तथा शीत ऋतु में पौष और माघ, ये दो महीने विशेष अनुकूल है परन्तु किसी भी ऋतु में विहार का अतियोग ( अत्यन्त सेवन ) तो परिणाम में हानि ही करता है, यह बात अवश्य लक्ष्य ( ध्यान ) में रखनी चाहिये ।
४ - शारीरिक स्थिति - जिस समय में स्त्री वा पुरुष के शरीर में कोई व्याधि (रोग), त्रुटि ( कसर ) अथवा बेचैनी हो उस में विहार का त्याग कर देना चाहिये अर्थात् स्त्री की रोगावस्था आदि में पुरुष को और पुरुष की रोगावस्था आदि में स्त्री को अपने मन को वश में रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये, किन्तु ऐसे समय में तो विहारसम्बन्धी विचार भी मन में नहीं लाना चाहिये, क्योंकि रोगावस्था आदि में विहार करने से अवश्य शरीर में विकार उत्पन्न हो जाता है तथा यदि कदाचित् ऐसे समय में गर्भस्थिति हो जावे तो स्त्री और गर्म दोनों का जीव जोखम में
पड़ जाता है ।