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जैनसम्पदामशिक्षा स पणन किया जाये तो एफ ग्रन्थ बन सकता है, इस सिप सक्षेप से ही पाठकों को एम विपस का दमात - __यदि रिमाहित श्री पुरस ठार लिम्बीदुर माता को लक्ष्य में रम कर उन्दी के मनु सार पचास रेता ने नीरागतरीरवाल और दीपायु हा सपते है तथा सम्मुमों गुफ सन्तति का भी उत्पन पर सफ्त हैं और विचार पर देखा जाय तो प्रपत्र पान करने का प्रपावन भी यही है, आहार विहार में नियमित भोर अनुकतापूर्वक रहना एफ सपिम और परमापश्यक नियम है तथा इसी नियम के पासन करने का नाम जपचम है, प्रताप के विषय में एक विद्वान भाव न कुछ वर्णन किया है उसम निदशन करना भावश्यक समझ कर उसका मधिष्ठ अनुनाद महा किमत, उक विद्वान् फा मन है कि-"यह निम्भिस पात है कि-प्रमचयन के नियम भी अचानता मा टए के सहपन फ फारण वीय फा मनुचित उपयाग दान से साटे परिणाम निकळत है, कि पाहुन म डाग इस नियम को जानते भी है तो भी बान बूम पर उठटी रीति से पसाय करते हैं किन्तु पाठ से लाग ता इस नियम से अस्मन्त मनमिम सी देसे वात हैं, मनुप्प मन मोर मन फे साल में सम्पन्ध रखनेवाला तमा उस के फल्याण सुस्त भोर जीरन जम कारनेराठा प्रपचय प्रत दी है, इस लिये इस विषय में बा कुछ मिपार किया पार भयमा दलील दी वाय मह वास्तविक है, प्रप्सचयपतपारी भभया प्रापारी मही गिना जा सकता है जो किभरीरमल ओर मुन्दर भी आदि सन सामग्री में उपस्थित हने पर भी छात्रोफ भान से अपन मन को मन में रसता है, इच्छापूर्वक मीसंग स मत्यन्त अलग रहने के लिये जो ल नियम फिया जाता है उसे प्रांग (भमन) में लाने के लिप इच्छापूषक नीसग नहीं करना चाहिये, फिन्तु अनुदान समय प्रतिमा के भनुमार श्रीसग करना उपित है, इस नियम के पाछन भरनेवाल गृहम्म का प्रमचारी फरठे, इमम्मि यही परम उचित सम्पद कि-प्रया (सन्तान) के उत्पम फरन से स्मि ही मीसग करना टीफ है, मन्यमा नहीं ।
८-मलीनताम में मनेह नहीं है कि मठीनता बहुत से रोगों को उत्सम परतीरे, माफि पर मीवर पी तथा ममपास पी मलीनता सराम हलाको उत्तम करती है भोर उम दमा म अन: गगो उत्पम हाने की सम्मापना होती है, देखो! घरीर पी मसीनता मे पमही मनुत मे रोग र बात , से समापन, सुजनी बार गुमर भावि, इम फ मियाय भेग स पमडी न रुक जाते हैं, छेना र रुक जान से पीने मानिस्सना यंददा जाता है, पसीन ' निकसने बन्द हन स भिर टीक शोर स गुट नहीं पा सपवार भोर रभिर फ टीफ धार से शुद्ध न ान से भनक राग हाजात दं॥