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चतुर्थ अध्याय ॥
रोग के दूरवर्ती कारण ॥
देखो ! घर में रहनेवाले बहुत से मनुष्यों में से किसी एक मनुष्य को विषूचिका (हैजा वा कोलेरा ) हो जाता है, दूसरों को नहीं होता है, इस का कारण यही है किरोगोत्पत्ति के करनेवाले जो कारण हैं वे आहार विहार के विरुद्ध वर्ताव से अथवा मातापिता की ओर से सन्तान को प्राप्त हुई शरीर की प्राकृतिक निर्बलता से जिस आदमीका शरीर जिन २ दोषों से दब जाता है उसी के रोगोत्पत्ति करते हैं क्योंकि वे दोष शरीर को उसी रोग विशेष के उत्पन्न होने के योग्य बना कर उन्ही कारणों के सहायक हो जाते हैं इसलिये उन्ही २ कारणों से उन्हीं २ दोष विशेषवाला शरीर उन्हीं २ रोग विशेषों के ग्रहण करने के लिये प्रथम से ही तैयार रहता है, इस लिये वह रोग विशेष उसी एक आदमी के होता है किन्तु दूसरे के नहीं होता है, जिन कारणों से रोग की उत्पत्ति नही होती है परन्तु वे ( कारण ) शरीर को निर्बल कर उस को दूसरे रोगोत्पादक कारणों का स्थानरूप बना देते है वे रोग विशेष के उत्पन्न होने के योग्य बनानेवाले कारण कहलाते है, जैसे देखो ! जब पृथ्वी में बीज को बोना होता है तब पहिले पृथ्वी को जीतकर तथा खाद आदि डाल कर तैयार कर लेते है पीछे वीज को बोते हैं, क्योंकि जब पृथ्वी बीज के बोने के योग्य हो जाती है तब ही तो उस में बोया हुआ वीज उगता
जाता है कि यह जीवात्मा जैसा २ पुण्य परभव करता है वैसा २ ही उस को फल भी प्राप्त होता है, देखो ! मनुष्य यदि चाहे तो अपनी जीवित दशा में धन्यवाद और सुख्याति को प्राप्त कर सकता है, क्योंकि धन्यवाद और सुख्याति के प्राप्त करने के सब साधन उस के पास विद्यमान हैं अर्थात् ज्यों ही गुणों की वृद्धि की त्यों ही मानो धन्यवाद और सुख्याति प्राप्त हुई, ये दोनों ऐसी वस्तुयें हैं कि इन के साधनभूत शरीर आदि का नाश होने पर भी इन का कभी नाश नहीं होता है, जैसे कि तेल में फूल नहीं रहता है परन्तु उस की सुगन्धि वनी रहती है, देखो ! ससार में जन्म पाकर अलवत्तह सब ही मनुष्य प्राय. मानापमान सुख दुख और हर्ष शोक आदि को प्राप्त होते हैं परन्तु प्रशसनीय वे ही मनुष्य हैं जो कि सम भाव से रहते हैं, क्योंकि सुख दु ख और हर्ष शोकादि वास्तव में शत्रुरूप हैं, उन के आधीन अपने को कर देना अत्यन्त मूर्खता है, बहुत से लोग जरा से सुख से इतने प्रसन्न होते हैं कि फूले नहीं समाते हैं तथा जरा से दुख और शोक से इतने घवडा जाते हैं कि जल में डूव मरना तथा विप खाकर मरना आदि निकृष्ट कार्य कर बैठते हैं, यह अति मूर्खो का काम है, भला कहो तो सही क्या इस तरह मरने से उन को स्वर्ग मिलता है ? कभी नहीं, किन्तु आत्मघातरूप पाप से बुरी गति होकर जन्म जन्म में कष्ट ही उठाना पडेगा, आत्मघात करनेवाले समझते हैं कि ऐसा करने से ससार में हमारी प्रतिष्ठा बनी रहेगी कि अमुक पुरुष अमुक अपराध के हो जाने से लज्जित होकर आत्मघात कर मर गया, परन्तु यह उन की महा मूर्खता है, यदि अच्छे लोगों की शिक्षा पाई है तो याद रक्खो कि इस तरह से जान को खोना केवल बुरा ही नहीं किन्तु महापाप भी है, देखो ! स्यानागसूत्र के दूसरे स्थान मे लिखा है कि-क्रोध, मान, माया और लोभ कर के जो आत्मघात करना है वह दुर्गति का हेतु है, अज्ञानी और अव्रती का मरना वालमरण में दाखिल है, ज्ञानी और सर्व विरति पुरुष का मरना पण्डित मरण है, देशविरति पुरुप का मरना वालपण्डित मरण हैं और आरावना करके अच्छे ध्यान में मरना अच्छी गति के पाने का सूचक है ॥
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