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चतुर्थ अध्याय ॥
३४५ पहिले जो हम ने पांच समवाय रोग होने के कारण लिखे हैं-वे सब कारण (पाच समवाय) निश्चय और व्यवहारनय के विना नहीं होते है, इन में से विजुली या मकान आदि के गिरनेद्वारा जो मरना या चोट का लगना है, वह भवितव्यता समवाय है तथा यह समवाय सव ही समवायों में प्रधान है, गर्मी और ठंढ के परिवर्तन से जो रोग होता है उस में काल प्रधान है, प्लेग और हैजा आदि रोगों के होने में बंधे हुए समुदायी कर्म को प्रधान समझना चाहिये, इस प्रकार पाचों समवायों के उदाहरणों को समझ लेना चाहिये, निश्चयनय के द्वारा तो यह जाना जाता है कि उस जीव ने वैसे ही कर्म वाधे थे तथा व्यवहारनय से यह जाना जाता है कि उस जीव ने अपने उद्यम और आहारविहार आदि को ही उस प्रकार के रोग के होने के लिये किया है, इस लिये यह जानना चाहिये कि-निश्चयनय तो जानने के योग्य और व्यवहारनय प्रवृत्ति करने के योग्य है, देखो ! बहुत से रोग तो व्यवहारनय से प्राणी के विपरीत उपचार और वर्तावों
व्रत का ग्रहण करते हैं। १६-अन्तकर्म-इस सस्कार का दूसरा नाम मृत्युसस्कार भी है, क्योंकि यह सस्कार मृत्युसमय में किया जाता है, इस सस्कार के अन्त मे जीवात्मा अपने किये हुए कर्मों के अनुसार अनेक योनियों को तथा नरक और स्वर्ग आदि को प्राप्त होता है, इस लिये मनुष्य को चाहिये कि-अपनी जीवनावस्था में कर्मफल को विचार कर सदा शुभ कर्म ही करता रहे, देसो ! ससार में कोई भी ऐसा नहीं है जो मृत्यु से वचा हो, किन्तु इस (मृत्यु) ने अपने परम सहायक कर्म के योग से सव ही को अपने आधीन किया है, क्योंकि जितना आयु कर्म यह जीवात्मा पूर्व भव से वाध लाया है उस का जो पूरा हो जाना है इसी का नाम मृत्यु है, यह आयु कर्म अपने पुण्य और पाप के योग से सव ही के साथ वधा है अर्थात् क्या राजा और क्या रक, सव ही को अवश्य मरना है और मरने के पश्चात् इस जीवात्मा के साथ यहा से अपने किये हुए पाप और पुण्य के सिवाय कुछ भी नहीं जाता है अर्थात् ससार की सकल सामग्री यहीं पढी रह जाती है, देखो ! इस ससार मे असख्य राजे महाराजे और वादशाह आदि ऐश्वर्यपात्र हो गये परन्तु यह पृथ्वी और पृथ्वीस्थ पदार्थ किसी के साथ न गये, किन्तु केवल सव लोग अपनी २ कमाई का भोग कर रवाना हो गये, इसी तत्वज्ञानसम्बन्धिनी वात को यदि कोई अच्छे प्रकार सोच लेचे तो वह घमण्ड और परहानि आदि को कभी न करेगा तथा धीरे २ शुभ कर्मों के योग से उस के पुण्य की वृद्धि होती जावेगी जिस से उस के अगले भव भी सुधरते जावेगे अर्थात् अगले भवों में वह सर्व सुखों से सम्पन्न होगा, परन्तु जो पुरुष इस तत्वसम्बन्धिनी वात को न सोच कर अशुभ कर्मों में प्रवृत्त रहेगा तो उन अशुभ कर्मों के योग से उस के पाप की वृद्धि होती जावेगी जिस से उस के अगले भव भी विगडते जावेगे अर्थात् अगले भवों में वह सर्व दुखों से युक्त होगा, तात्पर्य यही है कि मनुष्य के किये हुए पुण्य और पाप ही उस को उत्तम और अधम दशा मे ले जाते है तथा ससार मे जो २ न्यूनाधिकतायें तथा भिन्नताये दीख पडती हैं वे सब इन्हीं के योग से होती हैं, देखो ! सव से अधिक बलवान् और ऐश्वर्यवान् वडा राजा चक्रवत्ती होता है, उस की शक्ति इतनी होती है कि यदि तमाम ससार भी वदल जावे तो भी वह अकेला ही सव को सीधा ( कावू मे ) कर सकता है, अर्थात् एक तरफ तमाम ससार का बल और एक तरफ उस अकेले चक्रवती का वल होता है तो भी वह उसे वश मे कर लेता है, यह उस के पुण्य का ही प्रभाव है कहिये इतना वडा पद पुण्य के विना कौन पा सकता है ? तात्पर्य यही है कि-जिस ने पूर्व भव मे तप किया है, देव गुरु और धर्म की सेवा की है तथा परोपकार करके धर्म की बुद्धि का विस्तार किया है उसी को धर्मज्ञता और राज्यपदवी मिल सकती है, क्योंकि राज्य और सुख का मिलना पुण्य का ही फल है,