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चतुर्थ अध्याय ॥
३२३ २ चोरी-दूसरा व्यसन चोरी है, इस व्यसनवाले का कोई भी विश्वास नहीं करता है और उस को जेलखाना अवश्य देखना पड़ता है जिस (जेलखाने) को इस भव का नरक कहने में कोई हर्ज नहीं है।
३ परस्त्रीगमन-तीसरा व्यसन परस्त्रीगमन है, यह भी महाभयानक व्यसन है, देखो ! इसी व्यसन से रावण जैसे प्रतापी शूर वीर राजा का भी सत्यानाश हो गया तो दूसरो की तो क्या गिनती है, इस समय भी जो लोग इस व्यसन में संलग्न है उन को
कैसी २ कठिन तकलीफें उठानी पड़ती है जिन को वे ही लोग जान सकते है। --- ४ वेश्यागमन-चौथा व्यसन वेश्यागमन है, इस के सेवन से भी हज़ारों लाखो
वर्वाद होगये और होते हुए दीख पड़ते है, देखो! ससार में तन धन और प्रतिष्ठा, ये तीन पदार्थ अमूल्य समझे जाते है परन्तु इस महाव्यसन से उक्त तीनो पदार्थों का नाश होता है, आहा ! श्रीमतहरि महाराज ने कैसा अच्छा कहा है कि-"यह वेश्या तो
१-इन का इतिहास इस प्रकार है कि-उज्जयिनी नगरी मे सकलविद्यानिपुण और परम शुर राजा भत्तहरि राज्य करता या, उस के दो भाई ये, जिन में से एक का नाम विक्रम या (सवत् इसी विक्रम राजा का चल रहा है) और दूसरे का नाम सुभट वीर्य या, इन दो भाइयों के सिवाय तीसरी एक छोटी वहिन भी थी जिसका सम्बव गौड ( वगाल) देश के सार्वभौम राजा त्रैलोक्यचन्द्र के साथ हुआ था, इस भर्तृहरि राजा का पुत्र गोपीचद नाम से ससार में प्रसिद्ध है, यह भत्तहरि राजा प्रयम युवावस्था में अति विपयलम्पट था, उस की यह व्यवस्था थी कि उस को एक निमेप भी स्त्री के विना एक वर्ष के समान मालूम होता था, उस के ऐसे विपयासक्त होने के कारण यद्यपि राज्य का सव कार्य युवा राजा विक्रम ही चलाता था परन्तु यह भर्तृहरि अत्यन्त दयाशील या और अपनी समस्त प्रजा मे पूर्ण अनुराग रखता था, इसी लिये प्रजा भी इस में पितृतुल्य प्रेम रखती थी, एक दिन का जिक्र है कि उस की प्रजा का एक विद्वान् ब्राह्मण जगल मे गया और वहा जाकर उस ने एक ऋषि से मुलाकात की तथा "षि ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को एक अमृतफल दिया और कहा कि इस फल को जो कोई खावेगा उसे जरा नहीं प्राप्त होगी अर्थात् उसे बुढापा कभी नहीं सतावेगा और शरीर में शक्ति बनी रहेगी, ब्राह्मण उस फल को लेकर अपने घर आया और विचारने लगा कि यदि मैं इस फल को खाऊ तो मुझे यद्यपि जरा (वृद्धावस्था ) तो प्राप्त नहीं होगी परन्तु मैं महादरिद्र हु यदि मैं इस फल को खाऊ तो दरिद्रता से और भी वहुत समयतक महा कष्ट उठाना पडेगा और निर्वन होने से मुझ से परोपकार भी कुछ नहीं बन सकेगा, इस लिये जिस के हाथ से अनेक प्राणियों की पालना होती है उस भर्तृहरि राजा को यह फल देना चाहिये कि जिस से वह वहुत दिनोंतक राज्य कर प्रजा को सुखी करता रहे, यह विचार कर उस ने राजसभा में जाकर उम उत्तम फल को राजा को अर्पण कर दिया और उस के गुण भी राजा को कह सुनाये, राजा उस फल को पाकर बहुत प्रसन्न हुआ और ब्राह्मण को वहुत सा द्रव्य और सम्मान देकर विदा किया, तदनन्तर स्त्री मे अत्यन्त प्रीति होने के कारण राजा ने यह विचार किया कि यह फल अपनी परम प्यारी स्त्री को देऊ तो ठीक हो क्योंकि वह इस को साकर सदा यौवनवती और लावण्ययुक्त रहेगी, यह विचार कर वह फल राजा ने अपनी स्त्री को दे दिया, रानी ने अपने मन में विचार किया कि मैं रानी हूँ मुझ को किसी बात की तकलीफ नहीं है फिर मुझ को बुढापा क्या तकलीफ दे सकता है, ऐसा विचार कर उस ने उस फल को अपने यार कोतवाल को दे दिया (क्योंकि उस की कोतवाल से यारी दी) उस