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चतुर्थ अध्याय ॥
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आहार और विहार मिलता है तथा सहायक औषधि का संसर्ग होता है तब शीघ्र ही
संयोगरूप प्रयत्न के द्वारा कर्म विशेषजन्य रोगपर जीव की जीत होती है अर्थात् शाताकर्म असाताकर्म को हटाता है, यह व्यवहारनय है, जो वैद्य वा डाक्टर ऐसा अभिमान रखते हैं कि रोग को हम मिटाते है उन का यह अभिमान बिलकुल झूठा है, क्योंकि काल और कर्म से बडे २ देवता भी हार चुके हैं तो मनुष्य की क्या गणना है ? देखों ! पांच समवायों में से मनुष्य का एक समवाय उद्यम है, वह भी पूर्णतया तब ही सिद्ध होता है जब कि पहिले को चारों समवाय अनुकूल हो, हा वेशक यद्यपि कई एक बाहरी रोग काटछाट के द्वारा योग्य उपचारो से शीघ्र अच्छे हो सकते है तथापि शरीर के भीतरी रोगों पर तो रोगनाशिका ( रोग का नाश करनेवाली ) स्वाभाविकी ( स्वभावसिद्ध ) शक्ति ही काम देती है, हा इतनी बात अवश्य है कि- -उस में यदि दवा को भी समझ बूझकर युक्ति से दिया जावे तो वह ( ओपधि ) उस स्वभाविकी शक्ति की सहायक हो जाती है परन्तु यदि विना समझे बूझे दवा दी जावे तो वह ( दवा) उस स्वामाविकी शक्ति की क्रिया को बन्द कर लाभ के बदले हानि करती है, इन ऊपर लिखी हुई बातों से यदि कोई पुरुष यह समझे कि जब ऐसी व्यवस्था है तो दवा से क्या हो सकता है ? तो उस का यह पक्ष भी एकान्तनय है और जो कोई पुरुष यह समझे कि दवा से अवश्य ही रोग मिटता है तो उस का यह भी पक्ष एकान्तनय है, इस लिये स्याद्वाद का स्वीकार करना ही कल्याणकारी है, देखो ! जीव की स्वाभाविक शक्ति रोग को मिटाती है यह निश्चयनय की बात है, किन्तु व्यवहारनय से दवा और पथ्य, ये दोनों मिलकर रोग को मिटाते हैं, व्यवहार के साधे विना निश्चय का ज्ञान नहीं हो सकता है इस लिये स्वाभाविक शक्तिरूप शातावेदनी कर्मको निर्बल करनेवाले कई एक कारण अशाताकर्म के सहायक होते है अर्थात् ये कारण शरीर को रोग के असर के योग्य कर देते है और जब शरीर रोग के असर के योग्य हो जाता है तब कई एक दूसरे भी कारण उत्पन्न होकर रोग को पैदा कर देते है ।
रोग के मुख्यतया दो कारण होते हैं - एक तो दूरवर्ती कारण और दूसरे समीपवर्ती कारण, इन में से जो रोग के दूरवर्त्ती कारण है वे तो शरीर को रोग के असर के योग्य कर देते हैं तथा दूसरे जो समीपवर्त्ती कारण है वे रोग को पैदा कर देते हैं अब इन दोनों प्रकार के कारणों का सक्षेप से कुछ वर्णन करते हैं:
सर्वज्ञ भगवान् श्रीऋषभदेव पूर्व वैद्यने रोग के कारणों के अनेक भेद अपने पुत्र हारीत को बतलाये थे, जिन में से मुख्य तीन कारणों का कथन किया था, वे तीनों कारण
१–इन्हों ने हारीतसहिता नामक एक बहुत बडा वैद्यक का ग्रन्थ बनाया था, परन्तु वह वर्त्तमान मे पूर्ण उपलब्ध नहीं होता है, इस समय जो हारीतसहिता नाम वैद्यक का ग्रन्थ छपा हुआ उपलब्ध ( प्राप्त ) होता है वह इन का बनाया हुआ नहीं है किन्तु किसी दूसरे हारीत का बनाया हुआ है ॥