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चतुर्थ अध्याय ॥ हुक्का-अस चढ़ना अस उचकना, नित खाना खिर गोश ॥
जगमांही जीनाजिते, पीना चम्मर पोश ॥१॥ शिरपर बँधा न सेहरा, रण चढ़ किया न रोस ॥ लाहा जग में क्या लिया, पिया न चम्मर पोस ॥२॥ हुक्का हरि को लाडलो, राखे सब को मान ||
भरी सभा में यों फिरे, ज्यों गोपिन में कान ॥३॥ ___ मद्य-दारू पियो रंग करो, राता राखो नेण ॥
वेरी थांरा जलमरे, सुख पावेला सेंण ॥ १॥ दारू दिल्ली आगरो, दारू बीकानेर ॥ दारू पीयो साहिबा, कोई सौ रुपियां रो सेर ॥२॥ दारू तो भक भक करे, सीसी करे पुकार ॥
हाथ पियालो धन खड़ी, पीयो राजकुमार ॥३॥ गांजा-जिस ने न पी गांजे की कली । उस लड़के से लड़की भली॥१॥ भांग-घोट छांण घट में धरी, उठत लहर तरङ्ग ॥
विना मुक्त बैकुण्ठ में, लिया जात है भङ्ग ॥१॥
जो तू चाहै मुक्त को, सुण कलियुग का जीव ॥ गंगोदक मे छाण कर, भंगोदक कू पीव ॥२॥ भंग कहै सो वावरे, विजया कहें सो कूर ॥
इसका नाम कमलापती, रहे नैन भर पूर ॥३॥ तमाखू-कृष्ण चले बैकुण्ठ को, राधा पकड़ी बांहि ॥
यहां तमाखू खायलो, वहां तमाखू नांहि ॥१॥ इत्यादि । प्रिय सुजन पुरुषो ! विचारशीलों का अब यही कर्त्तव्य है कि वैद्यशास्त्र आदिसे निषिद्ध तथा महा हानिकारक इन कुव्यसनों का जड़मूल से ही नाश कर दें अर्थात् खय इन का त्याग कर दूसरों को भी इन की हानिया समझा कर इन का त्याग करने की शिक्षा दें, क्योंकि इन से ऊपर कही हुई हानियो के सिवाय कुछ ऐसी भी हानिया होती हैं जिन से मनुष्य किसी काम का ही नहीं रहता है देखिये । जो पुरुप जितना इन नशों को पीता है उतनी ही उसकी रुचि और भी अधिक बढ़ती जाती है जिस से उस का फिर इन व्यसनो से निकलना कठिन हो कर इन्ही में जीवन का त्याग करना पड़ता है, दूसरे-इन में रुपया तया समय भी व्यर्थ जाता है, तीसरे-इन के सेवन से बहुधा मनुष्य पागल भी हो जाते है और बहुतसे मर भी जाते है, चौथे-छोटे २ मनुष्यों में भी नशेवाजो की प्रतिष्ठा नहीं रहती है फिर भला बड़े लोगों में तो ऐसों को कौन पूंछता है, अतः समझदार लोगों को इन की ओर दृष्टि भी नहीं डालनी चाहिये ॥