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चतुर्थ अध्याय ॥
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वसन्त ऋतु का पथ्यापथ्य ॥ पहिले कह चुके है कि-शीत काल में जो चिकनी और पुष्ट खुराक खाई जाती है उस से कफ का सग्रह होता है अर्थात् शीत के कारण कफ शरीर में अच्छे प्रकार से जमकर स्थित होता है, इस के बाद वसन्त की धूप पड़ने से वह कफ पिघलने लगता है, कफ प्रायः मगज छाती और सॉधों में रहता है इस लिये शिर का कफ पिघल कर गले मे उतरता है जिस से जुखाम कफ और खासी का रोग होता है, छाती का कफ पिघलकर होजरी में जाता है जिस से अमि मन्द होती है और मरोडा होता है, इस लिये वसन्त ऋतु के लगते ही उस कफ का यत्न करना चाहिये, इस के मुख्य इलाज दो तीन है-इस लिये इन में से जो प्रकृति के अनुकूल हो वही इलाज कर लेना चाहियेः
१-आहार विहार के द्वारा अथवा वमन और विरेचन की ओषधि के द्वारा कफ को निकाल कर शान्ति करनी चाहिये ।
२-जिस को कफ की अत्यन्त तकलीफ हो और शरीर में शक्ति हो उस को तो यही उचित है कि-वमन और विरेचन के द्वारा कफ को निकाल डाले परन्तु बालक वृद्ध और शक्तिहीन को वमन और विरेचन नहीं लेना चाहिये, हा सोलह वर्षतक की अवस्थावाले वालक को रोग के समय हरड़ और रेवतचीनी का सत आदि सामान्य विरेचन देने में कोई हानि नहीं है परन्तु तेज विरेचन नहीं देना चाहिये ।
वसन्त ऋतु में रखने योग्य नियम ॥ १-भारी तथा ठढा अन्न, दिन में नीद, चिकना तथा मीठा पदार्थ, नया अन्न, इन सब का त्याग करना चाहिये ।
२-एक साल का पुराना अन्न, शहद, कसरत, जंगल में फिरना, तैलमर्दन और पैर दबाना आदि उपाय कफ की शान्ति करते हैं, अर्थात् पुरानां अन्न कफ को कम करता है, शहद कफ को तोड़ता है, कसरत, तेल का मर्दन और दबाना, ये तीनों कार्य शरीर के कफ की जगह को छुडा देते हैं, इसलिये इन सब का सेवन करना चाहिये ।
३-रूखी रोटी खाकर मेहनत मजूरी करनेवाले गरीबों का यह मौसम कुछ भी विगाड़ नहीं करता है, किन्तु माल खाकर एक जगह बैठनेवालों को हानि पहुंचाता है, इसी लिये प्राचीन समय में पूर्ण वैद्यों की सलाह से मदनमहोत्सव, रागरंग, गुलाब जल का डालना, अबीर गुलाल आदि का परस्पर लगाना और बगीचों में जाना आदि बातें इस मौसम मे नियत की गई थी कि इन के द्वारा इस ऋतु में मनुष्यों को कसरत प्राप्त हो,
१-सवत् १९५८ से सवत् १९६३ तक मैंने बहुत से देशों में भ्रमण (देशाटन ) किया या जिस में इस ऋतु मे यद्यपि अनेक नगरों में अनेक प्रकार के उत्सव आदि देखने मे आये थे परन्तु मुर्शिदाबाद