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चतुर्थ अध्याय ॥
२११ और फल आदि चाहें अधिक भी हो तो भी उन से कुछ लाभ नहीं होता है किन्तु उनसे अनेक प्रकार की हानियां ही होती है, तात्पर्य यह है कि हरी चीजो का बहुत ही सावधानी के साथ यथाशक्य थोडा ही उपयोग करना परन्तु उत्तमो का उपयोग करना बुद्धिमानो का काम है और यही अभिप्राय सब वैद्यक ग्रन्थों का भी है, परन्तु वर्तमान समय में हमारे देश के जिहालोलुप लोगो में शाकादि का उपयोग बहुत ही देखा जाता है और उस में भी गुजराती, भाटिये, वैष्णव और शैव सम्प्रदायी आदि बहुत से लोगों में तो इस का वेपरिमाण उपयोग देखा जाता है तथा वस्तु की उत्तमता और अधमता पर एव उस के गुण और दोष पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता है, इस से बड़ी हानिया हो रही है, इसलिये बुद्धिमानों का यह कर्तव्य है कि इस हानिकारक वर्ताव से स्वयं बचने का उद्योग कर अपने देशके अन्य सब भ्राताओं को भी इस से अवश्य बचावें ।
वनस्पति की खुराक के विषय में शास्त्रीय सिद्धान्त यह है कि जिस वनस्पति में शक्तिदायक तथा उष्णताप्रद (गर्मी लानेवाला) भाग थोड़ा हो और पानी का भाग विशेष हो इस प्रकार की ताज़ी वनस्पति थोडी ही खानी चाहिये ।
पत्ते, फूल, फल और कन्द आदि कई प्रकार के शाक होते है-इन में अनुक्रम से पूर्व २ की अपेक्षा उत्तर २ का भारी होता है अर्थात् पत्तों का शाक सब से हलका है और कन्द का शाक सब से भारी है ।
हमारे देश के बहुत से लोग वैद्यकविद्या और पाकशास्त्र के न जानने से शाकादि पदार्थों के गुण दोष तथा उन की गुरुता लघुता आदि को भी बिलकुल नहीं जानते हैं, इसलिये वे अपने शरीर के लिये उपयोगी और अनुपयोगी शाकादि को नहीं जानते हैं अतः कुछ शाकों के गुण आदि का वर्णन करते है:-~~
चदलिया (चौलाई)-हलका, ठढा, सूक्ष, मल मूत्र को उतारनेवाला, रुचि. कर्ता, अमिदीपक, विषनाशक और पित्त कफ तथा रक्त के विकारको मिटानेवाला है, इस का शाक प्रायः सब रोगों में पथ्य और सबों की प्रकृति के अनुकूल है, यह जैसे सव शाकों में पथ्य है उसी प्रकार स्त्रीके प्रदर में इस की जड़, बालकों के दस्त और अजीर्णता में इस के उवाले हुए पत्ते और जड़ पथ्य है, कोढ़, वातरक्त, रक्तविकार, रक्तपित्त और खाज दाद तथा फुनसी आदि चर्म रोगों में भी विना लाल मिर्चका इस का शाक खाने से बहुत लाभ होता है, यद्यपि यह ठढा है तथापि वात पित्त और कफ इन तीनों दोषो को शान्त करता है, दस्त और पेशाव को साफ लाता है, पेशाव की गर्मी को शान्त करता है, खून को शुद्ध करता है, पित्त के विकार को मिटाता है, यदि किसी विकृत दवा की गर्मी
१-जिस शाक को जैन सूत्रों में जगह २ पर 'अनन्तकाय' के नाम से लिखा है वह शाक महागरिष्ट, रोगकर्ता और कष्ट से पचनेवाला समझना चाहिये ।