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___चतुर्थ अध्याय ॥ रदेशों में हजारो मन जाती थी, देखो ! सन् १८२६ ई० तक प्रतिवर्ष दो करोड़ रुपये की चीनी यहा से परदेश को गई है, ईसवी चौदहवी शताब्दी (शदी) तक युरोप में इस
नाम निशान तक नहीं था इस के पीछे गुड चीनी और मिश्री यहा से वहां को गाने लगी। ___ पूर्व समय में यहा हजारो ईख के खेत बोये जाते थे, लकडी के चरखे से ईख का रस निकाला जाता था और पवित्रता से उस का पाक बन कर मधुर शर्करा बनती थी, ठौर २ शर्करा बनाने के कारखाने थे तथा भोले भाले किसान अत्यन्त श्रमपूर्वक शर्करा चना कर अपने २ इष्ट देव को प्रथम अर्पण कर पीछे उस का विक्रय करते थे, अहाहा ! क्या ही सुन्दर वह समय था कि जिस में इस देश के निवासी उस पवित्र मधुर और रसमयी शर्करा का सुखाद यथेच्छ लूटते ये और क्या ही अनुकूल वह समय था कि जिस में इस देश की लक्ष्मी खरूप स्त्रिया उस पवित्र मधुर और रसमयी शर्करा के उत्तमोत्तम पदार्थ बना कर अपने पति और पुत्रो आदि को आदर सहित अर्पण करती थी, परन्तु हा । अब तो न वह शुभ समय ही रहा और न वह पवित्र मधुर रसमयी आयुवर्धक और पौष्टिक शर्करा ही रही! ।।
आज से हजार बारह सौ वर्ष पहिले इस अभागे भारत पर यद्यपि यवनादिकों का असह्य आक्रमण होता रहा तथापि अपवित्र परदेशी वस्तुओं का यहा प्रचार नहीं हुआ, यद्यपि यवन लोग यहां से करोड़ों का धन लेगये परन्तु अपने देश की वस्तुओ की यहा भरभार नहीं कर गये किन्तु यही से अच्छी २ चीजें बनवा कर अपने देश को लेगये परन्तु जब से यह देश खातव्य प्रिय न्यायशील बृटिश गवर्नमेंट के हाथ में गया तब से उन के देशों की तथा अन्य देशों की असख्य मनोहर सुन्दर और सस्ती चीजें यहा आकर यह देश उन से व्याप्त होगया, बनी बनाई सुन्दर और सस्ती चीज़ों के मिलते ही हमारे देश के लोग अधिकता से उन को खरीदने लगे और धीरे २ अपने देश की चीजों का अनादर होने लगा, जिस को देख कर वेचारे किसान कारीगर और व्यापारी लोग हतोत्साह होकर उद्योगहीन होगये और देशभर में परदेशी वस्तुओं का प्रचार होगया ।
यद्यपि हमारी न्यायशीला बृटिश गवर्नमेंट ने ऐसी दशा में इस देश के कारीगरों को उत्तेजन देने के लिये तथा देश का व्यापार बढ़ने के लिये सर्कारी दफ्तरों में और प्रत्येक सर्कारी काम में देशी वस्तु के प्रचार करने की आज्ञा देकर इस देश के सौभाग्य को पुनः बढ़ाना चाहा जिस के लिये हम सबों को उक्त न्यायशीला गवर्नमेंट को अनेकानेक धन्यवाद शुद्ध अन्तःकरण से देने चाहियें, परन्तु क्या किया जावे हमारे देश के लोग दारिद्य से व्याप्त होकर हतोत्साह बनने के कारण उस से कुछ भी लाभ न उठा सके।