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चतुर्थ अध्याय ॥
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कुपथ्य पदार्थ ॥ दाह करनेवाले, जलानेवाले, गलानेवाले, सडाने के स्वभाववाले और ज़हर का गुण करनेवाले पदार्थ को कुपथ्य कहते हैं, यद्यपि इन पांचों प्रकार के पदार्थों में से कोई पदार्थ बुद्धिपूर्वक उपयोग में लाने से सम्भव है कि कुछ फायदा भी करे तथापि ये सब पदार्थ सामान्यतया शरीर को हानि पहुँचानेवाले ही है, क्योकि ऐसी चीजें जब कभी किसी एक रोग को मिटाती भी है तो दूसरे रोग को पैदा कर देती हैं, जैसे देखो । खार अर्थात् नमक के अधिक खाने से वह पेट की वायु गोला और गाठ को गला देता है परन्तु शरीर के धातु को विगाड कर पौरुप में बावा पहुंचाता है। ___ इन पाचों प्रकार के पदार्थों में से दाहकारक पदार्थ पित्त को विगाड कर अनेक प्रकार के रोगों को उत्पन्न करते है, इमली आदि अति खट्टे पदार्थ शरीर को गला कर सन्धियों को ढीला कर पौरुष को कम कर देते है । ___ इस प्रकार के पदार्थों से यद्यपि एक दम हानि नहीं देखी जाती है परन्तु बहुत दिनोंतक निरन्तर सेवन करने से ये पदार्थ प्रकृतिको इस प्रकार विकृत कर देते है कि यह शरीर अनेक रोगों का गृह बन जाता है इस लिये पहले पथ्य पदार्थों में जो २ पदार्थ लिख चुके है उन्ही का सदा सेवन करना चाहिये तथा जो पदार्थ पथ्यापथ्य में लिखे हैं उन का ऋतु और प्रकृति के अनुसार कम वर्त्ताव रखना चाहिये और जो कुपथ्य पदार्थ कहे हैं उन का उपयोग तो बहुत ही आवश्यकता होने पर रोगविशेष में औषध के समान फरना चाहिये अर्थात् प्रतिदिन की खुराक में उन ( कुपथ्य ) पदार्थों का कभी उपयोग नहीं करना चाहिये, इस विषय में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि जो पथ्यापथ्य पदार्थ है वे भी उन पुरुषो को कभी हानि नही पहुँचाते हैं जिन का प्रतिदिन का अभ्यास जन्म से ही उन पदार्थों के खाने का पड जाता है, जैसे-बाजरी, गुड़, उड़द, छाछ और दही आदि पदार्थ, क्योंकि ये चीजें ऋतु और प्रकृति के अनुसार जैसे पथ्य है वैसे कुपथ्य भी है परन्तु मारवाड़ देश में इन चारो चीजों का उपयोग प्राय. वहा के लोग सदा करते हैं और उन को कुछ नुकसान नहीं होता है, इसी प्रकार पञ्जाबवाले उडद का उपयोग सदा करते है परन्तु उन को कुछ नुकसान नहीं करता है, इस का कारण सिर्फ अभ्यास ही है, इसी प्रकार हानिकारक पदार्थ भी अल्प परिमाण में खाये जाने से कम हानि करते है तथा नहीं भी करते हैं, दूध यद्यपि पय्य है तो भी किसी २ के अनुकूल नहीं आता है अर्थात् दस्त लग जाते है इस से यही सिद्ध होता है कि-खान पान के पदार्य अपनी प्रकृति, शरीर का बन्धान, नित्य का अभ्यास, ऋतु और रोग की परीक्षा
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