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जैनाचार्य- जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री -घासीलालजी-महाराज विरचितया आचारमणिमञ्जूपाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम्
हिन्दीगुर्जरभापानुवादसहितम्
उपासकदशा-सूत्रम्
UPASAKD A S'ANGSUTRAM
नियोजक:संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि
पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराज'
Kreeceeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeey
प्रकाशक: शेठ श्री मीश्रीलाल जेवतराज लुणीओ-चंडावलवाळा
___ अमदावाद प्रदत्त-द्रव्यसहाय्येन श्री अ. भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमिति-प्रमुख:श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदय.
मु० राजकोट (सौराष्ट्र)
तृतीयावृत्ति प्रति १००० चीर सवत २४८७
विक्रम संवत् २०१७ ईस्वीसन १९६१ मूल्य रू ११-००
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પ્રાપ્તિસ્થાન , શ્રી અ, ભા, , સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ગ્રોન લેજ પાસે, રાજકેટ,
Published by Srce Abhil Bharat S S Jain Shrstroddbar Samiti Garedın Kura Road, RAJKOT (Saurashera) w Ry India
બીજી આવૃત્તિ પ્રત ૫૦૦ વીર સ વત ૨૪૮૨ વિક્રમ સંવત ૨૦૧૨ ઈસ્વી સન
૧૯૫૬
મુદ્રક
મુદ્રણસ્થાન જયતિલાલ દેવચંદ મહેતા જ ય ભા ૨ ત છે ? ગ ૨ ડી યા કુવા રોડ, શાક મારકીટ પાસે, રાજકેટ,
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पृष्ठाङ्क
१२
१८
॥ उपासकदशाङ्ग सूत्रकी विषयानुक्रमणिका ॥ अनुक्रमाङ्क
विषय १ मद्गलाचरण २ अनुयोग शब्द का अर्थ
२-८ ३ चरणकरणानुयोग का निरूपण ४ धर्मकथानुयोगको निरूपण
१०-११ ५ गणितानुयोग का निरूपण ६ द्रव्यानुयोग का निरूपण
सूत्र परिचय ७ अगसूत्र (११) का निरूपण
१२-१५ ८ उपागसूत्र (१२) का निरूपण
१५-१८ मूलमूत्र (४) को निरूपण १० छेदमूत्र [४] का निरूपण
१८-१९ ११ ओवश्यकमूत्र का वर्णन
२०-२१ १२ अगारधर्म
२२-२३ पहला अध्ययन १३ समय प्ररूपणो
२४-२८ १४ चम्पानगरीका वर्णन
२८-५२ १५ मुधर्मा और जम्बूस्वामीको प्रश्नोत्तर
५३-५६ १६ भदन्त शब्दका अर्थ
५७-५८ १७ भग शब्दका अर्थ
५९-६० १८ वीर शब्दका अर्थ १९ वारह अङ्गोके नाम
६२-६४ २० सुधर्मा स्वामी और जम्बूस्वामी के प्रश्नोत्तर
६५-६६ २१ चामिजग्राम नगरादिका वर्णन
६७-६९ २२ आनन्द गोथापतिको वर्णन
६९-८२ २३ शिवानन्दाका वर्णन
८३-८९
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પ્રાપ્તિસ્થાન , શ્રી અ, ભા. ૧, સ્થાનકવાસી જેન શા ચોદ્ધાર સમિતિ ઝોન લેજ પાસે, રાજકેટ,
Published by Srce Ahlul Bharat S S
Jain Shizstroddhar Samiti Gırcdia Kuva Road, RAJKOT (Saurashtra) W Ry India
બીજી આવૃત્તિ પ્રત ૫૦૦ વીર સવત ૨૪૮૨ વિક્રમ સંવત ૨૦૧૨ ઈસ્વી સન
૧૯૫૬
મુદ્રક
મુદ્રણસ્થાન જયતિલાલ દેવચંદ મહેતા જ ય ભા ૨ ત છે સ ગ ૨ ડી યા કુવા રે, શાક મારકીટ પાસે, રાજકોટ,
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२०१-२०४ २०५-२०८ २०९-२१० २११-२१४ २१४-२१६ २१६-२१७ २१८-२२० २२१-२३२ २३२-२३५ २३६-२३८ २३२-२४२
२४३
५२ धर्मके स्वरूप में अहिंसावतका वर्णन ५३ धर्मके स्वरूपमें सत्यव्रतका वर्णन ५४ धर्मकथामें अस्तेयव्रतका वर्णन ५५ धर्मकथामें स्वदारसतोपत्रका वर्णन
, इच्छापरिणामत्रतका वर्णन ५७ धर्मकथामें अनर्थदण्डविरमणततका वर्णन ५८ दिग्नतका वर्णन ५९ उपभोगपरिभोगव्रतका वर्णन ६० सामायिक व्रतका वर्णन ६१ देशावकाशिकातका वर्णन ६२ पोपधोपवासका वर्णन ६३ अतिथिसविभागातका वर्णन ६४ सलेखना वर्णन ६५ आनद श्रावके व्रतका अहोकार (स्वीकार)का वर्णन ६६ आनदश्रावकके अणुव्रतका वर्णन ६७ आनावकके उपभोग परिभोगव्रतका वर्णन ६८ सम्यक्त्वातिचारका वर्णन ६९ अहिंसात्रतातिचारका वर्णन
सत्यतातिचारका वर्णन ७१ अस्तेयत्रतातिचारका वर्णन ७२ स्वदारसतोपव्रतातिचारका वर्णन ७३ इन्छापरिणामातातिचारका वर्णन ७४ दिग्वनातिचार का निरूपण ७५ उपभोगपरिभोगवतातिचारका वर्णन ७६ अनर्थदण्डविरमणव्रतातिचारका वर्णन ७७ सामायिकवतातिचारका वर्णन
७८ देशावकाशितव्रतातिचारका वर्णन .७९ पोषधोपवासवतातिचारका वर्णन
२४४-२४६ २४७-२४८ २४९-२५२ २५३-२६० २६१-२६६ २६७-२६८ २६९-२७२ २७३ २७६ २७७-२८० २८१ २८५ २८६ -२८८ २८९ -२९५ २९६ २९८ २९९-३०० ३०१-३०२ ३०३-३०४
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२४ कोल्लाकसन्निवेशका वर्णन
९०-९३ २५ परिपद का वर्णन
९४-१८ २६ अभिगमनका वर्णन २७ जितशत्रू द्वारा की गइ भगवान महावीरकी स्तुति १००-१०१ २८ अभिगमका विचार
१०२-१०४ २९ समवसरणका और आनन्द गाथापतिके विचारका वर्णन १०५-११० ३० भगवान् से धर्मकथाका श्रवण
१११-११२ धर्मकथा ३१ लोकालोकस्वरूपका वर्णन
११३-११६ ३२ जीवाजीवादिस्वरूपका वर्णन
११७-११८ ३३ सवरादिके स्वरूपका वर्णन
११९-१२० ३४ नरकादिके स्वरूपका वर्णन
१२१-१२२ ३५ प्राणातिपातादिके स्वरूपका वर्णन
१२३-१२४ ३६ रागादिके स्वरूपका वर्णन
१२५-१२६ ३७ मायामृपादिके स्परूपका वर्णन
१२७-१२८ ३८ सुचीर्णकर्मादिके स्वरूपका वर्णन
१२९-१३० ३९ चार्वाक मतविचार ४० निग्रंथ प्रवचन महिमाका वर्णन
१३५-१३८ ४१ नरकादि गतिमाप्तिस्थानका निरूपण
१३९-१४२ ४२ नरकादि गतिके स्वरूपका निरूपण
१४३-१४६ ४३ अगारधर्मके स्परूपका वर्णन
१४७-१५२ ४४ सामान्य अगार [गहस्थ] धमके स्वरूपका वर्णन १५२-१६० ४६ विशेषागार [श्रावक धर्मका निरूपणमें जीवादिके स्वरूपका निरूपण
१६०-१६४ ४६ श्रावकार्म निरूपणमैं देवस्वरूपका निरूपण
१६४-१६६ ४७ " नयाँकी मरूपणा
१६६-१७८ स्याद्वादकी प्ररूपणा
१७९-१८६ ४९ सप्तभद्गी-सातभगोका निरूपण
१८७-१९३ ५० देवस्वरूपमा वर्णनम् ।
१९४-१९७ ५१ गुरु क स्वरुपमा निरूपण
१९७-२००
४८
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५२ धर्मके स्वरूपमें-अहिंसावतका वर्णन ५३ धर्मके स्वरूपमें सत्यव्रतका वर्णन ५४ धर्मकथामें अस्तेयत्रतका वर्णन ५५ धर्मकयामें स्वदारसतोपव्रतका वर्णन ५६ , इच्छापरिणामतका वर्णन ५७ धर्मकथामें अनर्थदण्डविरमणातका वर्णन ५८ दिग्गतका वर्णन ५९ उपभोगपरिभोगवतका वर्णन ६० सामायिक व्रतका वर्णन ६१ देशावकाशिकवतका वर्णन ६२ पोपधोपवासका वणन ६३ अतिथिसविभागरतका वर्णन ६४ सलेखना वर्णन ६५ आनद श्रावकके व्रतका अहोकार (स्वीकार)का वर्णन ६६ आनदश्रावकके अणुव्रतका वर्णन ६७ आनदश्रावकके उपभोग परिभोगवतका वर्णन ६८ सम्यक्त्वातिचारका वर्णन ६९ अहिंसावतातिचारका वर्णन ७० सत्यत्रतातिचारका वर्णन ७१ अस्तेयत्रतातिचारका वर्णन ७२ स्वदारसतोपव्रतातिचारका वर्णन
इन्छापरिणामत्रतातिचारका वर्णन
दिग्ननातिचार का निरूपण ७५ उपभोगपरिभोगवतातिचारका वर्णन ७६ अनर्थदण्डविरमणव्रतातिचारका वर्णन ७७ सामायिफव्रतातिचारमा वर्णन
७८ देशावकाशितव्रतातिचारका वर्णन .७९ पोषधोपवासव्रतातिचारका वर्णन
२०१-२०४ २०५-२०८ २०९-२१० २११-२१४ २१४-२१६ २१६-२१७ २१८-२२० २२१-२३२ २३२-२३५ २३६-२३८ २३२-२४२ २४३ २४४-२४६ २४७-२४८ २४९-२५२ २५३-२६० २६१-२६६ २६७-२६८ २६९-२७२ २७३ २७६ २७७--२८० २८१-२८५ २८६.२८८ २८९ -२९५ २९६ -२९८ २९९-३०० ३०१-३०२ ३०३-३०४
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२४ कोल्लाकसन्निवेशका वर्णन
९०-९३ २५ परिपद का वर्णन
९४-९८ २६ अभिगमनका वर्णन २७ जितशत्रू द्वारा की गइ भगवान महावीरकी स्तुति १००-१०१ २८ अभिगमका विचार
१०२-१०४ समवसरणका और आनन्द गाथापति के विचारका वर्णन १०५-११० ३० भगवान् से धर्मकथाका श्रवण
१११-११२ , धर्मकथा ३१ लाकालोस्वरूपका वर्णन
११३-११६ ३२ जीवाजीवादिस्वरूपका वर्णन
११७-११८ ३३ सवरादिके स्वरूपका वर्णन
११९-१२० ३४ नरकादिके स्वरूपका वर्णन
१२१-१०२ ३५ प्राणातिपातादिके स्वरूपका वर्णन
१२३-१२४ ३६ रागादिके स्वरूपका वर्णन
१२५-१२६ ३७ मायामृषादिके स्परूपका वर्णन
१२७-१२८ ३८ सुचीर्णकर्मादिके स्वरूपका वर्णन
१२९-१३० ३९ चार्वाक मतविचार ४० निग्रंथ प्रवचन महिमाका वर्णन
१३५-१३८ ४१ नरकादि गतिमाप्तिस्थानका निरूपण
१३९-१४२ ४२ नरकादि गतिके स्वरूपका निरूपण
१४३-१४६ ४३ अगारधर्मके स्परूपका वर्णन
१४७-१५२ ४४ सामान्य अगार [गहस्थ] धमके स्वरूपका वर्णन १५२-१६० ४५ विशेषागार [श्रावक] धर्मका निरूपणमें जीवादिके स्वरूपका निरूपण
१६०-१६४ ४६ श्रावकधर्म निरूपणमें देवस्वरूपका निरूपण १६४-१६६ , नयोंकी प्ररूपणा
१६६-१७८ ४८ " स्याद्वादकी मरूपणा
१७९-१८६ ४९ सप्तभट्टी-सातभगोका निरूपण
१८७-१९३ ५० देवस्वरूपका वर्णनम्
१९४-१९७ ५१ गुरु क स्वरूपका निरूपण
१९७-२००
४७
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३
५२ धर्मके स्वरूपमें - अहिंसावतका वर्णन ५३ धर्मके स्वरूपमें सत्यव्रतका वर्णन ५४ धर्मकथामें अस्तेयव्रतका वर्णन ५५ धर्मकथा में स्वदारसतोपत्रतका वर्णन इच्छा परिणामनतका वर्णन
५६
"
५७ धर्मकथामें अनर्थदण्डविरमणव्रतका वर्णन
५८ दिनतका वर्णन
५९ उपभोगपरिभोगवतका वर्णन
६० सामायिक व्रतका वर्णन ६१ देशावकाशिकनतका वर्णन ६२ पोपधोपवासका वर्णन ६३ अतिथिसविभागनका वर्णन ६४ सलेखना वर्णन
६५ आनद श्रावक व्रतका अङ्गोकार ( स्वीकार) का वर्णन
६६ आनदश्रावक अणुव्रतका वर्णन
६७ आनदाचकके उपभोग परिभोग व्रतका वर्णन
६८ सम्यक्त्वातिचारका वर्णन
६९ अहिंसावतातिचारका वर्णन ७० सत्यन्नतातिचारका वर्णन ७१ अस्तेयत्रताविचारका वर्णन ७२ स्त्रदारसतोपत्र तातिचारका वर्णन ७३ इच्छापरिणामनता तिचारका वर्णन
७४ दिखतातिचार का निरुपण ७५ उपभोगपरिभोगव्रता तिचारका वर्णन ७६ अनर्थदण्ड विरमणव्रता विचारका वर्णन ७७ सामायिकवतातिचारका वर्णन ७८ देशावकाशितव्रता तिचारका वर्णन ७९ पोषधोपचासव्रता तिचारका वर्णन
२०१-२०४
२०५-२०८
२०९-२१०
२११-२१४
२१४-२१६
२१६-२१७
२१८-२२०
२२१-२३२
२३२-२३५
२३६-२३८
२३९-२४२
२४३
२४४-२४६
२४७-२४८
२४९-२५२
२५३-२६०
२६१-२६६
२६७-२६८
२६९-२७२
२७३-२७६
२७७-२८०
२८१-२८५
२८६ -२८८
२८९ -२९५
२९६ -२९८
२९९-३००
३०१-३०२
३०३-३०४
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८३
३०९-३११ ३१२ ३१६ ३१६-३३२ ३३३-३३५ ३३६-३३९ ३४०-३४२ ३४३-३४४
३४५-३५९
८० अतिथि सपिभागवतातिचारका वर्णन ८१ सलेखनातिचारका वर्णन ८२ आनन्दगाथापतिके नियमका वर्णन
"अरिहत चेइय" शब्दका वर्णन । ८४ शिवानन्दाका धर्मस्वीकार और गौतमको प्रश्न ८५ आनन्द श्रावककी धर्मप्रज्ञप्ति और नियमका वर्णन ८६ आनन्द प्रतिमा (पडिमा) का निरूपण ८७ आनन्द श्रावक की सलेखना का वर्णन ८८ आनन्द श्रावक को अवधिज्ञान का वर्णन ८९ और आनन्द गौतम का प्रश्नोत्तर
द्वीतीय अध्ययन ९० कामदेव श्रावक की ऋद्धि का वर्णन
पिशाच रूपधारी देव का वर्णन ९२ पिशाच रूपधारी देव के उपसर्गका वर्णन ९३ हस्तिरूप देवका वर्णन
हस्तिरूप देवके उपसर्गका वर्णन ९५ सर्परूपधारी देव और उनके उपसर्ग का वर्णन ९६ दिव्य रूपधारी देव का वर्णन ९७ देवकृत कामदेव श्रावक की प्रशसा का वर्णन ९८ भगवान को वदना के लिये कामदेव का गमन ९९ भगवान के द्वारा कामदेव की प्रशसा का वर्णन
तीसरा अध्ययन १०० चुलनीपिता गाथापति का वर्णन १०१ देवकृत उपसर्ग का वर्णन १०२ चुल्नीपिता के स्वर्गवास का वर्णन
चौथा अध्ययन १०३ देवकृत उपसर्ग का वर्णन
९४
३६०-३६१ ३६२-३७० ३७१-३७२ ३७३-३७४ ३७५-३७७ ३७८-३८१ ३८२-३८३ ३८४-३८६ ३८७-३८८ ३८९-३९४
३९५-३९६ ३९७-४०८ ४०९-४१०
४१-४१७
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४१८-४२३
४२४-४२६/ ४२७-४३६ ४३७ ४३८-४४१
पांचमा अध्ययन १०५ देवकृत उपसर्ग का वर्णन
छठा अध्ययन १०६ कुण्डकौलिक श्रावक और देव के प्रश्नोत्तर का वर्णन १०७ भाग्य पुरुषार्थ चर्चा १०८ पराजित देवों के स्वर्गगमन का निरूपणम् १०९ भगवान द्वारा कुण्डकौलिक की प्रशसा का वर्णन
सातवां अध्ययन ११० सदालपुत्रका वर्णन १११ देवका प्रादुर्भाव प्रकट] वर्णन ११२ सदालपुत्रका निर्गमन ११३ सद्दालपुत्र और भगवानकी वार्तालापका वर्णन ११४ पुरुषार्थ विषयक उपदेश ११५ सद्दालपुत्रके व्रतधारणका वर्णन ११६ धार्मिक रथका वर्णन ११७ अग्निमित्राका पर्युपासनाका वर्णन ११८ अग्निमित्राका धर्मश्रद्धाका वर्णन ११९ अग्निमित्रा के व्रतधारणका वर्णन १२० सद्दालपुत्र और गोशालककी वार्तालापका वर्णन १२१ सद्दालपुत्रकी धर्मदृढताका वर्णन १२२ सद्दालपुत्रको देवकृतउपसर्गका वर्णन
आठवा अध्ययन १२३ महाशतक श्रावकका वर्णन १२४ रेवतीके दुर्भावका वर्णन १२५ रेवतीके दुष्कर्मका वर्णन १२६ रेवतीके कामोन्मत्तताका वर्णन १२७ महाशतकको अवधिज्ञानका वर्णन
४४२-४४५ ४४६-४४८ ४४९ ४५०-४५१ ४५३-४५९ ४६०-४६२
४६३
४६४-४६६ ४६७-४६८ ४६९-४७० ४७१-४८२ ४८३-४८४ ४८५-४८९
४९०-४९१ ४९०-४९१ ४९२-४९४ ४९९-५.१ ५०१-५०२
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५०३-५०४ ५०५-५०६ ५०७-५१० ५११-५१८
१२८ रेवतीके कामोन्मत्तताका पुनः कथन १२९ रेवतीको शापके स्वरूपका निरूपण १३० गौतम स्वामी और भगवानके वार्तालापमा वर्णन १३१ महाशतकका मायश्चित्त और उनकी गतिका वर्णन
नवमा अध्ययन १३२ नन्दिनी पिता गाथापतिका वर्णन
दसवां अध्ययन १३३ शालेयिका पिताका वर्णन १३४ उपासक दशाङ्ग सूत्रके पूर्वाचार्यप्रणीत सगृहगाथा १३५ ग्रन्थप्रशस्ति
५१५-५१७
५१८-५२१ ५२२-५२६ ५२७-५३२
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આવમુઝબીશ્રીઓ
(સ્વ)શેઠ હરખચંદ કાલીદાસ વારીઆ
ભાણવડ
શ્રી ઠારી હરગોવિંદભાઈ જેચર --ન રાજકેટ
કાન
--
-
અ
હ2
છે. શ્રી શાંતિલાલ મગળદાસભાઈ
અમદાવાદ
-
-
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-
-
-
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-
,
,
s,
(સ્વ) શેઠ શ્રી ધારશીભાઇ જીવણભાઈ
લાપુર
(4) શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ
અમદાવાદ
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(સ્ત્ર ) શેઠ શ્રી દિનેશભાઈ કાન્તિલાલ શાહ
અમદાવાદ
આલમુરબ્બીશ્રીએ
ૐ વિવિધ અને
શ્રી વિનેાદકુમા、 વીરાણી ગુજકેટ
(દીક્ષા લીધા પહેલા શાશ્ત્રાભ્યાસ તા)
રોડ શ્રી જેમિગભાઇ પાચાલાલભાઇ
અમદાવાદ
ધ
શ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર
અમદાવાદ.
(સ્વ.) શેઠ ૨ગજીભાઇ મેહનલાલ રાહુ
અમદાવાદ.
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शेठ श्री मीश्रीलालजी लालचंदजी लुणिया का
सक्षिप्त परिचय
इस भारतवर्ष के मरुधी प्रात में ओसवाल समाज के गौवररूप लुणिया वश में सरल स्वभावी-धर्मात्मा-लालचदजी नामक एक पवित्र पुरुष इसी वीसमी शताब्दी में-'चडावल' नाम के मुरम्य ग्राम में हो गये हैं। वे उम छोटे से गाव में धर्मकरणी करते हुए अपना आदर्श जीवन यापन करते थे; ययानाम तथागुण-वाली कहावतको चरितार्थ करनेवाली दयावाई नामक गुणनिप्पन्न गृहिणी (वम पत्नी) का सुसयोगसे उन्हे प्राप्त हुआ था
इस आदर्श युगलसे सवत् १९६० के फाल्गुण कृष्णा १४ को प्रथम पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ-जो मिश्री के समान मधु स्वमावी होने के कारण मिश्रीलालजी के नाम से प्रख्यात हुए। दूसरे और तीसरे वालकको भी क्रमशः सवत १९६३ तथा १९७२ में जन्मदिया जिनका नाम जेवतराजजी और फूलचदजी है. ।
देववशात् १९७४ ओर ७५ इन दो वपोंमें ही इस आदर्शयुगलने-तीनो भाइयोको पाल्यअवस्थामें ही छोड कर इस नश्वर ससारसे किनारा करलिया अचानक यह वज्रपात हो जानेसे ये बालक घबराये नहीं-का है "पुण्यदान विरवारनके होत चीकनेवाद"
जिसकी पूर्व पुण्यवानी प्रबल होती है उसे कोई न कोई अच्छा सह योग प्राप्त होहो जाता है-हा एकवात यह है कि ऐसे व्यक्तियोंके ऐसे ही अनुभवके अखाडोंका सयोग मिल जाया करता है. वाल्यकालमें ही एक साथ दोनों मातापिताओंका वियोग कितना असह्य होता है वह दुःख वहीं जानता हैं जिसने अनुभव किया हो-स्वयपर वीतनेसेही दूसरों पर वितीका ख्याल आता है और यही उनको मददरूप हो सकता है परिग्रह ऐश्वर्य सपत्ति प्राप्त हो जानेपर दया-नम्रता आदि गुण प्रायः रफूचक्कर हो जाते है कोईक जिसके प्रवलपुण्यका उदय हो वह कमलकी तरह-भोगोंसे अलिप्त रह सकता है-आपकी गणना उन्हीं में की जा सकती है। ___आगे बढ़ने के लिये-अचानक वियोगके समान-सहयोगश्री पिपल्या निवासी श्रीमान किसनलाझनी सा का उन्हें प्राप्त हो गया अपने कोई पुत्र
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न होने से फलचदजी को गोद ले लिया अपने स्पुभ्रातायो किसनलालना सा के हाथ सोपते हुए-मिश्रीलालजीने जरा भी भानासानी नहीं की-बस यहीं से याने इस सहयोगके मतापसे इनका अद्भुत उत्थान हुआ-उम समय बैंगलोर में ये तीन पेहिये मुचारु रूपसे चल रही है
(१) में मिश्रीलालजी जेरतराज (२) मे. फिशनलाल फूलचर
(3) मे किसनलाल लालचट आप अपनी कुनेह व व्यापारिक दक्षतासे सूर भागे वढे और स २००० में अहमदावादमें 'लालचद मिश्रीलाल' नामसे कपडे का (व्यापार) ब्युजीनेस मारम किया-जो फर्म व्यापारी-आलममें ख्यानिनामा पेडियोकी गिनती में है
सयोगसे बदाम सदृश गुणोको धारण करनेवाली सामाई जैसी गृहदेवी आपको मिली. जो सोनेमें सुगधका राम रती है-पासारिककाौके साथ ही धर्म कार्योंमें युगलका सहयोग मद्भाग्यसे किसीकोही मिलता है।
अपनी जन्मभूमि 'चडावल' में एक बडा हास्पीटल खोल रक्खा है एक विशाल धर्मस्थानकभी नवा दिया है-महिलामडळ आदि देशोत्थानकी अनेक प्रवृत्तियों आपकी तरफसे चलती है-अत्यत प्रसन्नता सी बात तो यह है कि- अडिग धार्मिक श्रद्धा के कारण अनन्तजीवोका उद्धार करने वाली पवित्र गगा-जिनवाणी के कार्यकी तरफ आपमा लक्ष्य गया-सेवाका यह अपूर्व अवसर जान सर्व प्रथम आप " शास्त्रोद्धार समितिके मेंबर ५०१ में बनेपश्चात अमृत फलका सुमधुर रसास्वाद आने से श्रीउपासक दशाग सूत्र प्रकाशित करनेके हेतु रु. ५००१) प्रदान किये है । श्री बदाम बाइ भी कहा पीछे रहनेवाली हैं उन्होंने भी ५०१) देकर इस चालू कार्य मे अपना हाथ वटाया है । ऐसे परोपकारके स्थायी कार्योमे आप अपने द्रव्यका अधिकसे अधिक सदुपयोग करते रहें साथ ही इस आदर्श मार्गका अनुसरण करनेवाले अन्य भी रन नाहर आवे ऐसी सद्भावना __आपश्रीके वंशज भावी अकुर श्री शातिकुमार, अशोक्कुमार, जयचद हुकमीचद, विजयराज, रत्नचद्र आदिकी आपके ही अनुगामी हो. और अपने वशकी यशोगाथा में चार चाद और लगावे
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રૂ. ૫૫૦૨) આપનાર આદ્ય સુરીશ્રી, ચડાવતવાળા
-
: .
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:
કાન
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?
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છે
*
શેઠ શ્રી લાલજી લાલચદજી લુણિયા. શેઠ જેવતલાલજી લાલચદજી લુણિયા
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AT
:
છે કે
:
-
રાજકેટ, શેઠશ્રી શામજી વેલજી વીરાણી
આઘમુરબ્બીશ્રી,
)
0
5
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અખિલ ભારત શ્વેતામ્બર સ્થાનકવાસી
જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ
ગરેડીયાકુવા ગેડ - ગ્રીન લેજ પાસે,
રા જ કે ૮
દાનવીરોની નામાવલી
શરૂઆત તા ૧૮-૧૦-૪૪ થી તા ૨૦-૫-૬૧ સુધીમા
દાખલ થયેલ અને મુબારક નામો
લાઈફ મેમ્બરેનુ ગામવાર કાનાણી લિસ્ટ
(ટની રકમ, આપનારનુ તથા રૂા ર૫૦ થી ઓછી રકમ ભરનારનું નામ આ યાદીમાં સામેલ કરેલ નથી.)
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નામ
આઘમુરબ્બીશ્રીઓ – ૧૪
(ઓછામાં ઓછી રૂ ૫૦૦૦ની રકમ આપનાર) ન પર
ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ શાતીલાલ મગળદાસભાઈ જાણીતા મીલમાલીક અમદાવાદ ૧૫૦૦૦ ૨ શેઠ હરખચ દ કાળીદાસભાઈ વારીયા હા શેઠ
લાલચ દબાઈ જેચ દભાઈ નગીનભાઈ વૃજલાલભાઈ તથા વલભદાસભાઈ
ભાણવડ ૬૦૦૦ ૩ કોઠારી જેચ દ અજરામર હા હશેવિંદભાઈ જેચ દભાઈ ગજકેટ પ૨૫૧ ૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ
બારમી ૫૦૦૧ ૫ સ્વ પિતાશ્રી છગનલાલ શામળદાસના સ્મરણાર્થે
હા શ્રી ભેગીલાલ છગનલાલભાઈ ભાવસાર અમદાવાદ ૧૦૨૫૧ ૬ સ્વ શેદિનેશભાઈના સ્મરણાર્થે હા શેઠ કાતિલાલ મણીલાલ જેશી ગભાઈ
અમદાવાદ ૫૦૦૦ ૭ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ હ શેઠ
ચીમનલાલભાઈ શાંતીલાલભાઈ તથા પ્રમુખભાઈ અમદાવાદ ૬૦૦૧ ૮ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણું
સ્મારક ટ્રસ્ટ હા શેઠ શામજી વેલજી વીરાણી રાજકેટ ૫૦૦૦ ૯ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણું ,
મારક ટેસ્ટ હા માતુશ્રી કડવીબાઈ વીરાણું - રાજકેટ ૫૦૦૦ ૧૦ શેઠ પાચાલાલ પીતાંબરદાસ
અમદાવાદ ૫૨૫૧ ૧૧ શાહ રગજીભાઈ મેહનલાલ
અમદાવાદ ૫૦૦૧ ૧૨ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી
સ્મારક ટ્રસ્ટ હા દુર્લભજીભાઈ શામજીભાઈ વીરાણું રાજકોટ ૫૦૦૦ ૧૩ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણું
સ્મારક ટ્રસ્ટ હા શ્રીમતિ મણકુવરબેન દુર્લભજી વીરાણી રાજકેટ ૫૦૦૦ ૧૪ શ્રી શામજી વેલજી વિરાણું અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણું
સ્મારક ટ્રસ્ટ હા છોટાલાલ શામજી વીરાણી રાજકેટ ૫૦૦૦ નેટ – ઘાટકે પરવાળા શેઠ માણેકલાલ એ મહેતા તરફથી અમદાવાદમાં પાલડી
બસ સ્ટેન્ડ પાસે પ્લેટ ન રપ૦ વાળી ૬૯૮ વાર જમીન સમિતિને ભેટ મળેલ છે અને જેનું રજીસ્ટર તા ૨૩-૩-૬૦ ના રેજ થઈ ગયેલ છે
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૩
મુર્ખીશ્રીઓ–૨૪
(એમા એછી ૩૪ ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર)
ખર
નામ
૧ વકીલ જીવરાજભાઈ વમન કાઠારી હા કહાનદાસભાઈ
તથા વેણીલાલભાઇ જેઠારી ર્દોશી પ્રભુદાસ મુળજીભાઇ
3 શ્વેતા ગુલામચદ પાનાચ દ
૪ મ્હેતા માણેકલાલ અમુલખરાય
૫ સ ઘવી પીતામ્બરદાસ ગુલામચ દ
૬
શે લલ્લુભાઇ ગેાધનામ ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ હુ શેઠે વાડીલાલ લલ્લુભાઈ
७ નામદાર ઠાકર સાહેબ લખધીરસિંહજી બહાદુર શેઠ વ્હેચંદ કુવરજી હા શેઠ ન્યાલચ દ હેરચંદ શાહ છગનલાલ હેમચ૬ વમા હા માહેનલાલભાઇ તથા માતીલાલભાઇ
૧૦
શ્રી સ્થાકવાસી જૈન સઘ હા શેઠ ચન્દ્રકાત વીકમદ ૧૧ મહેતા સામગ્રદ તુલસીદાસ તથા તેમના ધર્મપત્નિ સૌ મણીગૌરી મગનલાલ
૧૨ શ્વેતા પેપટલાલ માત્રજીભાઇ
૧૩ દેશી કપુચ્ચદ અમરશી હા દલપતરામભાઇ ૧૪ ખગડીયા જગજીવનદાસ તનથી
૧૫શે. માણેકલાલ ભાણુજીભાઈ
૧૬ શ્રીમાન ચદ્રસિહજી માહેષ મ્હેતા (રેલ્વે મેનેજર) ૧૭ શ્વેતા સેામચ દ નેણસીભાઇ [કરાચીવાળ ૧૮ શાહ હરિલાલ અને પચ દ
ગામ રૂપિયા
રાજકેટ ૩૨૮૯લા–ા
પ્રાટકે પર ૩૨૫૦
જામનગર
૩૧૦૧
જેતપુર ૩૬૦૫ રાજકેટ ૩૬૦૪
૧૯ મેદી કેશવલાલ હરીચંદ્ર
૨૦ કાઢારી છબીલદાસ હરખર્ચ દ
૨૧ કાઠારી ૨ગીલદાસ હન્ગ્યુન્ચ દ
૨૨
શાહ પ્રેમચ દ માણેકચક્ર તથા અસૌ સમરતબેન
૨૩
એક જૈન ગૃહસ્થ
૨૪ શેઠ કરમમી જેઠાભાઇ સામૈયા હુઅ સૌ સાકરબેન
અમદાવાદ ૨૫૦૦
મારી ૨૦૦૦
સિદ્ધપુર ૨૦૦૦
મુખઈ ૨૦૦૦ મારી
૧૯૬૩
રતલામ ૨૦૦૦
જામજોધપુર
૧૫૦૨
જામજોધપુર ૧૦૦૨
દામનગર
૧૦૦૨
પેારણ દર
૧૦૦૧
૧૦૦૧
૧૦૦૧
૧૦૦૧
અમદાવાદ
૧૦૦૧
સુ ખઇ
૧૦૦૦
ભાવનગર
૧૦૦૦
અમદાવાદ ૧૦૦૩
૨૪૨૫
મુબઈ ૧૦૦૦
કલકત્તા
મારી
ખભાત
અમદાવાદ
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૪
સહાયક મેમ્બરા-૯૬
(ઓછામા ઓછી રૂા. ૫૦૦ ની રકમ આપનાર)
નખર
નામ
૧ શ્રી સ્થા જૈન સઘ હા શેઠે ઝુઝભાઇ વેલશીભાઈ ૨ શેઠ નરેાત્તમદાસ એઘડભાઇ
૩ શેઠ રતનશી હીરજીભાઇ હા ગેરધનદાસભાઇ
૪ ખાટવીપા ગીરધર પરમાણુ દ હા અમીચ દ્રભાઇ
૫ મારખીવાળા સઘવી દેવચ દ નેણશીભાઇ તથા તેમના ધર્મ પત્ની અસા મણીબાઇ તરફથી હા મુળચક્ર દેવચંદ મઘવી ૬ વેારા મણીલાલ પોપટલાલ
૭ ગેસલીયા હરીલાલ લાલચદ તથા ચ પામેન ગેસલીયા
ગામ રૂપિયા વઢવાણુશહેર ૭૫૦ જોરાવનગર ૭૦૦
જામજોધપુર ૫૫૫ ખાખીજાળીયા પ૨૭
૮ શાહ મનહરલાલ પ્રાણજીવનદાસ
૯ શેઠ ઇશ્વરલાલ પુરુષાત્તમદાસ
૧૦ શે ચ દુલાલ છગનલાલ
૧૧ શાહે શાતિલાલ માણેકલાલ
૧૨ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાચીવાળા) ૧૩ કામદાર તારાચ ૬ પાપટલાલ ધેારાજીવાળા
૧૪ મ્હેતા માહનલાલ કપુરચ દ ૧૪ શેઠ ગાવિંદભાઈ પેપટભાઈ ૧૬ શેઠ રામજી શામજી વીરાણી
૧૭ સ્વ પિતાશ્રી નદાજીના સ્મરણાર્થે હા વેણીચદ શાતિલાલ
૧૯ શેઠે તારાચદ . પુખરાજજી
૨૦ શ્રી રથા જૈન સઘ
૧૮ શ્રી સ્થા. જૈનઞ ઘા શેઠ ઠાકરશી કરશનજી
( જાણુવાળા )
મલાડ પ૧૧
અમદાવાદ ૧૦૨
૫૦૨
,,
મુંબઈ ૨૦૧
૫૦૧
૫૦૧
૧૦૧
"3
લીમડી ૫૦૧
રાજકોટ ૫૦૦
૫૦૦
૫૦૦
૫૦૧
"2
મેઘનગર ૫૦૧ થાનગઢ ૬૦૦ ઔર ગામાદ ૫૦૦
૫૦૦
9
૨૧ શ્વેતા મુચ ૬ રાઘવજી હા મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ ધ્રાફા ૧૫૦ ૨૨ શેઠ હરખચદ પુરૂષાત્તમ હા ઇન્દુકુમાર
ચારવાડ ૫૦૦
૨૫ શ્રી ખીમજીભાઈ ખાવાભાઈ હા ફુલચ દભાઈ ગુલામચ દ્રભાઇ, નાગરદાસભાઈ જમનાદાસભાઇ
""
""
99
૨૩ કેશીમલજી વસ્તીમલજી ગુગલીયા
મલાડ ૫૦૧
21
૨૪ શ્રી સ્થા જૈન સઘ હા ખાટવીયા અમીચ દ્ર ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીયા ૫૦૧
સુમઇ ૫૧
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૨૬ શેઠ મણીલાલ મોહનલાલ ડગલી હા મુળજીભાઈ મણીલાલભાઈ સુબઈ ૫૦૧ ૨૭ સ્વ કાતીલાલભાઈના સ્મરણાર્થે હા શેઠ બાલચ દ સાકરચ દ , ૫૦૧ ૨૮ કામદાર રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા)
* ૫૦૧ ૨૯ શાહ જય તીલાલ અમૃતલાલ
શીવ ૫૦૧ ૩૦ વેરા મલાલ લક્ષ્મીચંદ
૫૦૧ ૩૧ શેઠ ગુલાબચદ ભુદરભાઈ તથા કસ્તુરબેન હ ભાઈ અને પચ દ ખારોડ ૫૦૧ ૩ર મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુ વર ચુનીલાલ મહેતા
ધ્રાફા ૧૦૧ ૩૩ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ
ધ્રાફા ૧૦૧ ૩૪ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ
રાજકેટ ૫૦૧ ૩૫ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી તથા અ સૌ નદકુવરબેન જામનગર ૧૦૩ ૩૬ શેઠ દેવચ દ અમરશી (બેન ધીરજકુવરની દીક્ષા પ્રસ ગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૭ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ (બેન ધીરજકુવરની દીક્ષા પ્રસગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૮ વકીલ વાડીલાલ નેમચંદ શાહ
વીરમગામ ૫૦૧ ૩૯ મહેતા શાન્તિલાલ મણીલાલ હા કમળાબેન મહેતા અમદાવાદ ૨૫૬ ૪૦ શ્રીયુત લાલચ દજી તથા અ સ ધીસાબેન
- 4 ૫૦૧ ૪૧ મેહનરાજજી મુકુની દજી બાલીયા
અમદાવાદ ૫૧ ૪ર સ્વ શેઠ ઉકાભાઈ ત્રીભોવનદાસના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની
લક્ષમીબાઈ ગીરધર તરફથી હા મરઘાબેન તથા મગુબેન અમદાવાદ ૫૦૧ ૪૩ પારેખ યતીલાલ મનસુખલાલ રાજકેટવાળા હા વિનુભાઈ ૫૦૧ ૪૪ શ્રીયુત શેઠ લાલચ દજી મીશ્રીલાલજી
છે ૫૦૧ ૪૫ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ
વાકાનેર ૫૦૧ ૪૬ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ
બોટાદ ૫૦૧ ૪૭ શેઠ ગુદડમલજી શેષમલજી જેવર
(બરાર) પીપળગાવ ૫૦૧ ૪૮ સ્વ તુરખીયા લહેચ દ માણેકચંદના અરણથે તેમની
ધર્મપત્ની જીવતીબાઈ તરફથી હા ભાઈ. જયતીલાલ તથા પૂનમચદભાઈ
વડોદરા ૫૦૧ ૪૯ શાહ અચળદાસ શુકનરાજજી હા શેઠ શુકનરાજજી અમદાવાદ ૫૦૧ ૫૦ ભાવસાર એડીદાસ ગણેશભાઈ
ધ ધુકા ૧૦૧ ૫૧ અ મ હીબેન માણેકલાલ મહેતા
ધાટકેપર ૫૦૧ પર મહેતા શાતીલાલ મગનલાલ તથા અ સૌ પદમાવતી
શાતિલાલ મહેતા અમદાવાદ ૫૦૦ ૫૩ શેઠ હીરાચ દછ વનેચ દેજી કટારીયા
હુબલી ૨૦૧ ૫૪ શેઠ છોટુભાઈ હરગોવિંદદાસ કટેરીવાળા
મુ બઈ ૫૦૧
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છ
૫૦૨.
સહાયક મેમ્બર-૯૬
(ઓછામાં ઓછી રૂા ૫૦૦ ની રકમ આપનાર) ન બર નામ
ગામ રૂપિયા ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ ઝુઝાભાઈ વેલશીભાઈ વઢવાણ શહેર ૭૫૦ ૨ શેઠ નરોત્તમદાસ ઓઘડભાઈ
જેરાવનગર ૭૦૦ ૩ શેઠ રતનશી હીરજીભાઈ હા ગેરધનદાસભાઈ
જામજોધપુર ૫૫૫ ૪ બાટવીયા ગીરધર પરમાણુ દ હા અમીચંદભાઈ ખાખીજાળીયા પર ૫ મોરબીવાળા સઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા તેમના ધર્મપત્ની
અ સે મણીબાઈ તરફથી હા મુળચદ દેવચંદ સંઘવી મલાડ ૫૧૧ ૬ વેરા મણીલાલ પિપટલાલ
અમદાવાદ ૫૦૨ ૭ ગોસલીયા હરીલાલ લાલચ દ તથા ચ પાબેન ગોસલીયા ૮ શાહ મનહરલાલ પ્રાણજીવનદાસ
મુબઈ ૫૦૧ ૯ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરુષોત્તમદાસ
» ૫૦૧ ૧૦ શેઠ ચ દુલાલ છગનલાલ
, ૫૦૧ ૧૧ શાહ શાતિલાલ માણેકલાલ
છ ૫૦૧ ૧૨ શેઠ શીવલાલ ડમરભાઈ (કરાચીવાળા)
લીમડી ૫૦૧ ૧૩ કામદાર તારાચદ પિપટલાલ જોરાજીવાળા
રાજકેટ ૫૦૦ ૧૪ મહેતા મેહનલાલ કપુરચદ
છે ૫૦૦ ૧૩ શેઠ ગોવિંદજીભાઈ પોપટભાઈ
૫૦૦ ૧૬ શેઠ રામજી શામજી વીરાણી ૧૭ સ્વ પિતાશ્રી નદાજીના સ્મરણાર્થે હા વેણચદ શાતિલાલ
(જાબુવાળા) મેઘનગર ૫૦૧ ૧૮ શ્રી સ્થા જેના ઘ હા શેઠ ઠાકરશી કરશનજી
થાનગઢ ૫૦૦ ૧૯શેઠ તારાચદ પુખરાજજી
ઔર ગાબાદ ૫૦૦ ૨૦ શ્રી રથા જેન સઘન
, ૫૦૦ ૨૧ મહેતા મુચિ દ રાઘવજી હે મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ ધ્રાફા ૭૫૦ ૨૨ શેઠ હરખચ દ પુરૂષોત્તમ હા ઈન્દુકુમાર
ચોરવાડ ૫૦૦ ૨૩ , કેશરીમલજી વસ્તીમજી ગુગલીયા
મલાડ ૫૦૧ ૨૪ શ્રી રથા જેન સઘ હા બાટવીયા અમીચ દ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીયા ૫૦૧ ૨૫ શ્રી ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ હા કુલચ દભાઈ ગુલાબચદભાઈ,
નાગરદાસભાઈ જમનાદાસભાઈ મુબઈ ૫૦૧
૫૧
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૭૫ શાહ શામલભાઈ અમરસીભાઈ ૭૬ મહેતા ચન્દ્રકાન્ત નૌતમલાલ ૭૭ શેઠ ભીખચક લાલચ ૭૮ બેન મેહનીબેન મહેતા ૭૮- શ્રીમતી મોઘીબેન નવલચદ શાહ
હ મતીબેન ૮૦ શ્રીમતી વિમલાજી સૂરજમલ મહેતા ૮૧ ઉદાણ નિહાલચંદ્ર હાકેમચક વકીલ
બી એ એલ એલ બી
અમદાવાદ ૧૦૨
મુબઈ ૫૦૧ પીપલગામ ૫૦૧
મુ બઈ ૫૦૧ લીમડી સૌરાષ્ટ્ર ૫૦૧
બેલગામ ૫૦૧
રાજકોટ ૫૦૧
સતારા ૫૦૧
જયપુર ૫૦૧
ધારડી ૫૦૧
અમદાવાદ ૫૦૧
૮૨ શ્વ કોઠારી મગનલાલજી કુન્દનમલજી
ના સ્મરણાર્થે હ તેમના ધર્મપત્ની રાજકુવરબેન ૮૩ શેઠ મોહનલાલજી મછાલાલજી હસે રમણીકલાલજી
(પૂજ્ય મુનિશ્રી ફતેચ દ મ ના શિષ્ય ૫ મુનિશ્રી
કનૈયાલાલજી મ ના ઉપદેશથી) ૮૪ શેઠ કનૈયાલાલજી સોહનલાલજી કાવડિયા ૮૫ શેઠ પ્રતાપમલજી કપુરચદજી સાઢેરાવવાળા (પૂજ્ય
ફતેચ દજી મ ના શિષ્ય મિશ્રી લાલજી મ ના
શિષ્ય ચાદમલજી મ ના ઉપદેશથી) ૮૬ શ્રીમાન લાલાજી રેશનલાલજી સમન્દરલાલજી
હ મેતીલાલજી ૮૭ શ્રીમાન ભૂરમલજી દલીચંદજી સાકરિયા (પૂ મ શ્રી
સ્વામીદાસજીના સપ્રદાય પૂ મ શ્રી ફતેહચ દજી મ ના
શિષ્ય ૫ મુની શ્રી કનૈયાલાલજી મ ના ઉપદેશથી ૮૮ વ ગરીશકર કાળીદાસ દેસાઈને સ્મરણાર્થે હસ્તે
ભૂપતલાલ ગેરીશકર ૮૯ શેઠ સાહેબ શ્રી નરામભાઈ હસરાજભાઈ કમાણ
બડેત ૫૦૧
સાઢેરાવ ૫૦૧
ઈદેર ૫૦૧ જમશેદપુર ૫૦૧
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૫૫ પારેખ રતિલાલ નાનચદ મેરબીવાળા તરફથી તેમના
પિતાશ્રી નાનચદ ગોવિદજીના સ્મરણાર્થે તથા તેમના ધર્મપત્ની આ સૌ વસત બહેનના અઠાઈતષ નિમિત્તે હા ભુપતલાલ રતિલાલ
અમદાવાદ ૫૫૨ પ૬ સ્વ શાહ ત્રીભવનદાસ મગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની
શીવકુંવરબાઈ તરફથી હા રતીલાલ ત્રીભવનદાસ શાહ અમદાવાદ ૫૧૧ પ૭ શ્રીમાન નાથાલાલ માણેકચ દ પારેખ
મુબઈ (માટુ ગા) ૫૦૧ ૫૮ શ્રી લીમડી સપ્રદાયના ગચ્છાધીપતિ પૂ આચાર્ય મહારાજશ્રી લાધાજી સ્વામીના સ્મરણાર્થે હા શેઠ જેશી ગભાઈ પિચાલાલ (મહારાજ શ્રી છોટાલાલજી સદાન દીને ઉપદેશથી)
અમદાવાદ ૫૦૧ ૫૯ સ્વ શ્રી વિનયમૂર્તિ શ્રી લક્ષમીચ દજી મહારાજના સ્મરણાર્થે
હા શેઠ જેશી ગભાઈ પાચાલાલ (મહારાજશ્રી છોટાલાલજી સદાન દીના ઉપદેશથી)
અમદાવાદ ૫૦૧ ૬૦ બે બ્ર પ્રભાવતીબેન કેશવલાલ ઉજેનવાળા તરફથી તેમની દીક્ષા પ્રસંગે
વીરમગામ ૫૫૧ ૬૧ શેઠ શ્રીયુત હરજીવનઠાસ રાયચદ હા છબીલદાસ હરજીવન અમદાવાદ ૫૦૧ ૬૨ શેઠ પોપટલાલ હ સરાજ તથા દિવાળીબેનના સ્મરણાર્થે હા શેઠ બાબુલાલ પોપટલાલ
અમદાવાદ ૫૦૨ ૬૩ અ સૌ લીલાવતીબેન ઈશ્વરલાલ
અમદાવાદ પ૦ ૨ ૬૪ હેમાણું પ્રભુદાસ ભાણજી
કલકત્તા ૫૫૧ ૬૫ કઠારી પોપટલાલ ચત્રભુજભાઈ
સુરેન્દ્રનગર ૫૦૦ ૬૬ શેઠ લક્ષમણુદાસ સજરામ
અમદાવાદ ૫૦૧ ૨૭ શ્રી સ્થા જેન મેટા સ ઘ
રાજકેટ ૫૦૧ ૬૮ શેઠ ચાદમcલ બીરધીચ દ
નાસિક સીટી ૫૦૧ ૬૯ ઝવેરી માણેકચ દજી પન્નાલાલ છજલાણી હ ધનવ તીબેન તથ કિરણબેન
દિલ્હી ૫૦૧ ૭. શેઠ હસરાજજી પૂર્ણમલજી કાકરીયા
ગગળાવ ૫૦૧ ૭૧ શ્રી ધે સ્થા જેન સભા
કલકત્તા ૫૦૧ ૭ર શેઠ તેજસિહજી ફતેહલાલજી છાજેડ
ઉદેપુર ૫૦૧ ૭૩ શેઠ રતનચ દ લક્ષ્મીચંદ
મુબઈ ૫૦૦ ૭૪ શાહ ઉમરશી ભીમશીભાઇ (શ્વ પિતાશ્રી ભીમશીભાઈ
તથા માતુશ્રી પાલાબાઈ તથા ધર્મપત્ની પાનબાઈના સ્મરણાર્થે) મુબઈ પાર
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૫૮૧ લાઈફ મેમ્બર
અમદાવાદ તથા પરાઓ
૧ ગીરધરલાલ કરમચંદ
૨૫૧ ૨ શેઠ છોટાલાલ વખતચદ હા ફકીરચંદભાઈ
૨૫૧ ૩ શાહ કાતિલાલ ત્રિીવનદાસ
૨૫૧ ૪ શાહ પોપટલાલ મેહનલાલ
૨૫૧ ૫ શેઠ પ્રેમચદ સાકરચંદ
૨૫૦ ૬ શાહ રતીલાલ વાડીલાલ
૨૫૧ ૭ શેઠ લાલભાઈ મગળદામ
૨૫૧ ૮ સ્વ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા કાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેસાઈ ૨૫૧ ૯ શાહ નટવરલાલ ચ દુલાલ
૨૫૧ ૧૦ શાહ નરસિંહદાસ ત્રિીભવનરામ
૨૫૧ ૧૧ શાહ બીપીનચદ્ર તથા ઉમાકાત ચુનીલાલ ગોપાણું
૩૦૧ ૧૨ શ્રી શાહપુર દરિયાપુરી આઠકેટી થા જૈન ઉપાશ્રય હા વહીવટ કર્તા શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરુત્તમદાસ
૨૫૧ ૧૩ શ્રી છીપાળ દરીયાપુરી આઠ ટી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ ચ દુલાલ અચરતલાલ
૨૫૧ ૧૪ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ Co શાહ બાલાભાઈ મહાસુખલાલ ૨૫૧ ૧૫ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી
૨૫૧ ૧૬ શ્રી સુખલાલ ડી શેઠ હા કુ સરસ્વતીબેન શેઠ
૨૫૧ ૧૭ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર સ્થા જેને મઘ હા છે. કાતિલાલ જીવણલાલ ૨૫૧ ૧૮ મેદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ ૧૯ શાહ મેહનલાલ ત્રિીકમલાલ
૨૫૧ ૨૦ શ્રી છોટી ખ્યા જેન સ વ હા શેઠ પિાચાલાલ પિતામ્બરદાસ ૨૫૧ ૨૧ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા ભાઈલાલ અમૃતલાલ ૨૫૧ ૨૨ શાહ નવનીતરાય અમુલખરાય ૨૩ શાહ મણીલાલ આરારામ
૨૫૧ ૨૪ શેઠ ચીનુભાઈ સાકશ્મદ
૨૫૧ ૨૫ શાહ વિરજીવનદાસ ઉમેદચદ
૨૫૧ ૨૬ શાહ રજનીકાત કરતુચ્ચદ
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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________________
૯૦ સ્વ મહાસજી શ્રી ધનદેવીજી મ સાના સ્મરણાર્થે સ્વ ખૂમચદ્રુજી સ ખવાલના ધર્મપત્ની શ્રીમતી જયદેવી તરફથી ( મહાસતીજી શ્રી સુદેશનામતિજી તથા ફુલમતીજીના ઉપદેશથી )
દિલ્હી ૫૦૧
૯૧ શ્રીમાન લાલાજી કપૂરચંદજી માથાના ધર્મપત્ની શ્રીમતી વસતદેવી હુ લાલા રાજમલજી હેમચદ્રજી તરફથી (મહાસતીજી શ્રી સુદ'નામતિજી તથા ફૂલમતિથ્ય મહાદેવીના ઉપદેશથી) દિલ્હી ૫૦૧
૯૨ સ્વ. મહાસતિજી
શ્રી દ્રૌપતાદેવીજી મ સા ના સ્મરણાર્થે
શ્રી એસ એસ જૈન મહિલા સધ તરફથી ( અનેક ગુણાલ કૃત મહાસતિજી શ્રી મેહનદેવીજી મ સા ની પ્રેરણાથી)
૯૩ સ્વ લક્ષ્મીચંદજી ના સ્મરણાર્થે ગિનાદેવી સુજતીના તરફથી હસ્તે સ ઘવી ડેમ તકુમાર જૈન
૯૪ સ્વ પિતાશ્રી લાલા જવેરી ઘત્તામલજી સુજતી ના સ્મરણાર્થે હસ્તે શ્રીમતી નગીનાદેવી
૯પ લાલાજી કસ્તુરચન્દજી ખુશાલચ દજી સચેતી હજ્ઞાનચદજી ખુશાલચ દ્રજી સંચેતી
સામ દ દફતરી
દિલ્હી ૫૦૧
૯૬ સ્વ પૂજ્ય પિતાશ્રી દુર્લભજી હું ગૌરીશકર દુર્લભજી દફતરી
દિલ્હી ૫૦૧
દિલ્હી ૫૦૧
અલવર ૫૦૧
મુબઈ ૫૦૦
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૨૫૧,
૨૫૧
પર શેઠ હીરજી રૂગનાથજીના સ્મરણાર્થે હા વાગમલજી રૂગનાથજી ૩૦૧ ૫૩ શેક મણીલાલ બાઘાભાઈ
૨૫૧ ૫૪ પટવા સુમેરમલજી અનેપચદજી જોધપુરવાળા
૩૦૧ ૫૫ સ્વ માણેકલાવ વનમાળીદાસ શેઠના સ્મરણાર્થે હા માલાલ માણેકલાલ
૨૫૧ ૫૬ વ શાહ ધનરાજજી મગજજીના સ્મરણાર્થે હા કનૈયાલાલ ધનાજજી
૩૦૧ ૫૭ શ્રી નાગપુર ટ આ કે થા જૈન સંઘ
હા શાહ રમણલાલ ભગુભાઈ ૫૧ ૫૮ દેશી હરજીવનદાસ છવગર તો લક્ષમાંબા લહેદના સ્મરણાર્થે હા દેગી મનહરલાલ કરશનદ મ મુળીવાળા
૫૧ ૫૯ શાહ પુનમચદ તેહદ
૨૫૧ ૬૦ શ્રીયુત ચતુરભાઈ ના દલાલ
૨૫૧ ૬૧ શ્રીયુત અમૃતલાલ ઈશ્વરલાલ મહેતા ૬૨ શાહ જાદવજી મેહનલાલ તથા શાહ ચીમનલાલ અમુલખભાઈ ૬૩ અ મા બેન લાભુબેન મગનલાલ હા શાહ અમૃતલાલ ધનજીભાઈ
વઢવાણ શહેરવાળા ૩૦૧ ૬૪ અ મ બેન કાન્તાબેન ગોરધનદાસ (ચાદમુનિને ઉપદેશથી) ૨૫૧ ૬૫ દેશી કુલચદ સુખલાલભાઈ બોટાદવાળાના સ્મરણાર્થે
હા દેશી છબીલદાસ કુલચ દભાઈ ૨૫૧ ૬૬ લાલાજી ગમકુવરજી જન
૨૫૧ ૬૭ શેઠ છોટાલાલ ગુલાબચ દ પાલનપુરવાળા
૨૫૧ ૬૮ શાહ ધીરજલાલ મોતીલાલ
૨૫૧ ૬૯ સઘવી સૂર્યકાત ચુનીલાલ મણાર્થે
૨૫૧ હા મઘવી જીવણલાલ ચુનીલાલ ૨૫૧, ૭૦ ભાવમા- મેહનલાલ અમુલખરાય ૭૧ મહેતા મૂળચંદ મગનલાલ ૭૨ વૈધ નરસહદામ ચાડચદના ધર્મપત્ની રેવાભાઇના સ્મરણાર્થે હા હરીલાલ નરસિંહદાસ
૨૫૧ ૭૩ શાહ કુલચ દભાઈ મુલચદ હા હસમુખભાઈ ફુલચંદભાઈ
૨૫૧ ૭૪ શેઠશ્રી મિશ્રીલાલજી જવાહરલાલજી બરડીયા
૨૫૧ ૭૫ શાહ લલુભાઈ મગનભાઈ ચૂડાવાળા હા જશવ તલાલ લલ્લુભાઈ ૩૦૧
૨૫૧
૨૫
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૧૦
૨૭ સઘવી જીણુલાલ છગનલાલ
૨૮ શાહુ શાતિવાલ મેાહનલાલ ધ્રાગધ્રાવાળા
૨૯
સૌ મેન રતનબેન નાદેચા હા શેઠે ધુલાજી ચ પાલાલજી ૩8 શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા
૩૧ શ્રી સરમપુર દરીયાપુરી આઠ કેાટી સ્થા જૈન ઉપાશ્રય હા ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ
૪૫ અ સૌ વિદ્યાબેન વનેચઇ દેસાઇ વર્ષીતપ તથા અઢાઇ પ્રસ ગે હા ભુપેન્દ્રકુમાર વનેચંદ દેશાઇ
૪ શાહે નટવરલાલ ગેાકળદાસ
૪૭ ૫ સૌ સરસ્વતીબેન મણિલાલ છગનલાલ
૪૮ - સૌ ૪૯ અ સૌ ૫૦ અ સૌ
૫૧
સૌ
૩૨ શેઠ પુખરાજજી સમત્તીરામજી પુનમિયા માદળીવાળા ૩૩ સ્વ પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂ ચાચાજી હજારીમલજી ખરડીયાના સ્મરણાર્થે હા મુળચંદ જવાહરલાલજી ખરડીયા ૩૪ સ્ત્ર ભાવસાર મુખાભાઈ ( મગળદાસ ) પાનાચ દના સ્મરણાથે હા તેમના ધર્મ પત્ની પુરીબેન
રૂપ સ્વ પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ માતુશ્રી મુળીમાઈના સ્મરણાર્થે હું કુકલભાઈ કાહારી
૩૬ ભાવસાર કેશવલાલ મગનલાલ
૩૭ શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા પાવતીમેન ૩૮ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચક્ર રાજસીતાપુરવાળા
૩૯ શ્રી સામરમતી સ્થા જૈન સધ હા શેઠે મણીલાલભાઇ
૪૦ ભાવસાર છેટાલાલ છગનલાલ
૨૫૧
૪૧ ભાવસાર શકરાભાઈ છગનલાલ
૨૫૧
૪૨ આ સૌ એન જીવીબેન રતિલાલ હા ભાવસાર રતિલાલ હરગેવિદાસ ૨૫૧
૪૩ ભાવસાર ભેાગીલાલ જમનાદાસ પાટણવાળા
૨૫૧
૪૪ સઘવી માલુભાઈ કમળશી તથા તેમના ધર્મ પત્ની આ સૌ ચ પાબેન તથા વસ તમેન તરફથી
૨૫૧
૨૫૨
૨૫૬
કકુઝેન (ભાવમાર ભેાગીલાવ છગનલાલના ધર્મપત્ની) વિતાબેન (જયતીલાલ ભાગીલાલના ધર્મ પત્ની) શાતાબેન (દીનુભાઈ ભેગીલાલના ધર્મ પત્ની) સુન દાબેન (મણુભાઈ ભેગીલાલના ધર્મ પત્ની)
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
૨૫૧
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૨૫૦
૨૫૧
૪૧૭
૨૫૧
૩૫૧
૩૦૯
૨૫૧
પા
૨૫૧
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૨૫૧
૯૭ અ સી લીલાવતી ધીરજલાલ મહેતા
do 3 ધીરજલાલ ત્રિકમલાલ મહેતા ૩૦૧ ૯૮ શેઠ રાજમલજી ઘાસીલાલજી કે ઠારી કેશીલવાળા
૨૫ ૯૯ શેઠ ચુનીલાલ ભગવાનજી C/o રતીલાલ ચુનીલાલ
૨૫૧ ૧૦૦ ભાગ્ય તી અવી દકુમાર Clo અવી દકુમાર સકરભાઈ ભાવસાર ર૫૧ ૧૦૧ આ સૌ ચ ચળબેન મનસુખલાલ હા મનસુખલાલ જેઠાલાલ રૂપેર
૨૫૧ ૧૦૨ સ્વ આસીબાઈ તથા શેઠ વરતીલજી ભેમાજીના સ્મરણાર્થે
હા શેઠ શ્રી શ્રીમલજી દેવચ દજી ઓસવાલ કેશવાળા ૨૫૧ ૧૦૩ સ્વ શેઠ કીશનમલજી માડતના સ્મરણાર્થે
હા શરિમલજી કીશનમલજી સેજવાલ ૨૫૧ ૧૦૪ સ્વ શેઠ વકતાવરમલજીના સ્મરણાર્થે
હા શેઠ ઘસાલાલજી મુકનરાજજી શીયારીયા (જોધપુગ્યાલા) ૨૫૧ ૧૦૫ શાહ મહાસુખલાલ ભાઈલાલ (સદાન દી ૫ ડિત મુનિશ્રી
છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી) ૧૦૬ અ સૌ માતાબેન કાળીદાસ C/o કુમાર બુક બાઈડીગ વર્કસ ૨૫૧ ૧૦૭ સ્વશેઠ હી મતલાલ મગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમના
સુપુત્રી મેસર્સ દ્વારકાદાસ એન્ડ બ્રધર્સ તરફથી ૧૦૮ અ સૌ કાતાબેનના સ્મરણાર્થે હા ભાવસાર નાગરદાસ હરજીવનદાસ
૨૫૧ ૨૦૯ શ્રી ઉમેદચ દ ઠાકરશી C/o M/s યુ ટી ગેપાણી એન્ડ સન્સ ૧૧૦ પૂ માતુશ્રીના સ્મરણાર્થે હા ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૧૧૧ શાહ શાતિલાલ મેહનલાલ
૨૫૧ ૧૧૨ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર પ્રભુદાસભાઈ મહેતા
૨૫૧ ૧૧૩ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર હા શાહ ભુરાલાલ કાળીદાસ
૨૫૧ ૧૧૪ સ્વ પિતાશ્રી મોતીલાલજીના સમરણાર્થે
હા મહેતા રણજીતલાલજી મતીલાલ ઉદેપુરવાળા ૧૧૫ શેઠ પતમદાસ અમરશીના ધર્મપત્ની સ્વ કુસુમબેનના સ્મરણાર્થે તથા આ સૌ સવીતાબેનના માસખમણના નિમિતે હા મચદ પરસોતમદાસ (પોર્ટ સુદાનવાળા)
૩૦૧
ફગ૧
૩૫૧
૨ ૫૧
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૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧,
૭૬ કુમારી પુષ્પાબેન હીરાલાલ (ચાદ મુનિના ઉપદેશથી) ૭૭ શાહ મણીલાલ ઠાકરશી હા કમળાબેન મણીલાલ લખતરવાળા
| (ચાદ મુનિના ઉપદેશથી) ૮ મીસ નલીનીબેન જ્ય તીલાલ ૭૯ સ્વ ઉમેદરામ ત્રિભુવનદાસના ધર્મપત્ની કાશીબાઈને સ્મરણાર્થે
હા શાં તલાલ ઉમેદરામ (ચાદમુનિના ઉપરથી) ૮૦ સ્વ ભાવસાર મેહનલાલ છગનલાલના ધર્મપત્ની દિવાળીબાઈના
સ્મરણાર્થે હા રતીલાલ માણેકલાલ (ચાદ મુનિના ઉપદેશથી) ૮૧ મહેતા દેવીચ દજી ખુબચદજી ધેકા ગઢસીયાણાવાળાના સ્મરણાર્થે
હા મહેતા ચુનીલાલ હરમાનચ દ ૮૨ ઘાસીલાલજી મેહનલાલજી કે ઠારી Clo લક્ષમી પુસ્તક ભડાર ૮૩ સ્વ શેઠ નાથાલાલ રતનાભાઈ મફતીયાના સ્મરણાર્થે
પુનાબેન તરફથી હા કરશનભાઈ (ચાદમુનિના ઉપદેશથી) ૮૪ શાહ મણીલાલ છગનલાલ ૮૫ ભાવસાર જયતીલાલ ભોગીલાલ ૮૬ ભાવસાર દિનુભાઇ ભેગીલાલ ૮૭ ભાવસાર રમણલાલ ભેગીલાલ ૮૮ ભાવસાર કનુભાઈ સાકરચંદ ૮૯ શેઠ ભેરૂમલજી સાહેબ જોધપુરવાળા ૯૦ સ્વ બેનાણી વર્ધમાન રામજીભાઈ કુદણવાળાના સ્મરણાર્થે
હા શાતિલાલ વર્ધમાન ૯૧ સ્વ શાહ કચરાભાઈ લહેરાભાઈના સ્મરણાર્થે
હા તિલાલ કચરભાઈ ૨ એક સ્વધર્મી બધુ હા શાહ રખભદાસજી જયતિલાલજી ૩ અ સૌ સરસ્વતીબેન મણીલાલ ચતુરભાઈ શાહ
(મદાનદી છટાલાલ મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી) ૯૪ ચીમનલાલ મણીલાલ શાહ (દરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂ તપસ્વી
મહારાજશ્રી માણેકચંદ્રજીના શિષ્ય મુનિશ્રી મગનલાલજી મહાજશ્રીના સ્મરણાર્થે) ૫ બેન જેકુવર વ્રજલાલ પારેખ ૯૬ પુનમચંદજી જવાહરલાલ બરાડીયા
૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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૧૫
આકેલા શેઠ કંચનલાલભાઈ રાઘવજી અજમેરા C/o મેસર્સ અજમેર બ્રધર્સ એન્ડકા (પૂ ભદાન દી મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી) ૨૫૧
ઇગતપુરી ૧ શેઠ પન્નાલાલ લખીચદ જેના
૨૫૧ ઇન્દિર ૧ અ સૌ બેન દયાબેન મોહનલાલ દેસાઈ જેતપુરવાળા (આ સૌ બેન વિદ્યાબેનના વધતપ નિમિતે) હા અરવિંદકુમાર તથા જીતેન્દ્રકુમાર
૨૫૧ ૨ શ્રીયુત ભાઈલાલ છગનલાલ તુરખીયા
૩૫૧. ઉદયપુર ૧ શેઠ રણજીતલાલજી મેનીલાલજી હિગડ
૨૫૧ ૨ શ્રીમતી સેહીનીબાઈ C/o રણજીતલાલજી મોતીલાલજી હિગડ ૨૫૧ ૩ અ સૌ બેન ચ દ્રાવતી તે શ્રીમાન બહાતલાલજી નાહરના ધર્મપત્ની, હા શેઠ રણુજીલાલજી મોતીલાલજી હિંગડ
૨૫૧ ૪ શેઠ છગનલાલજી બાગ્રેચા
૨૫૧ ૫ શેઠ મગનલાલજી બાગ્રેચા
૨૫૧ ૬ વ શેઠ કાબુલાલજી લેઢાના સ્મરણાર્થે હા શેઠ દેવતસિંહજી લેઢા
૨૫૧ ૭ સ્વ શેઠ પ્રતાપમલજી સાખલા સ્મરણાર્થે હા પ્રાણલાલ હીરાલાલ આખલા
૨૫૧ ૮ શેઠ ભીમરાજજી થાવરચંદજી બાફણ
૨૫૧ ૯ શ્રીયુત સાહેબલાલજી મહેતા
૩૦૧ ૧૦ શેઠ પનાલાલજી ગણેશલાલજી હી ગડ
૨૫૧ ૧૧ શેઠ દીપચ દરજી પન્નાલાલજી લેઢા
૨૫૧ ૧૨ શેઠ કસ્તૂ દજી નારૂમલજી
૨૫૧ ૧૩ શ્રી યૂ એલ કોઠારી
૩૦૧ ૧૪ બાબૂ પરશુરામ છગનલાલ શેઠ (ગુન્દાવાલા)
૨૫૦ ઉપલેટા ૧ શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ
૨૫૧
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૧૪
૧૧૬ શ્રીમાન જોરાવરમલજી ધર્મચંદ્રજી ડુગરવાલ
રાજીજી કાકેરડાવાળા (મુનિશ્રી માગીલાલજીના ઉપદેશથી) ૧૧૭ । ધનજીભાઇ પુરસેાત્તમદાસ
૧૧૮ સરસ્વતી પુસ્તકભ ડાર
૧૨૦ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર ૧૨૧ શેઠ ગેરિલાલજી સુગનલાલજી ઉદેપુરવાળા ૧૨૨ શેઠ કનૈયાલાલજી સુરાણા પીપલેાદાવાળા ૧૨૩ કામદાર વાડીલાલ રતીલાલ (સાખરમતી) ૧૨૪ કુમારી થપામેન ભાગીલાલ ભાવસાર ૧૨૫ કુમારી ઉષાબેન જયંતીલાલ ભાવમાર ૧૨૬ કુમારી ચંદ્રામેન જયંતીલાલ ભાવસાર ૧૨૭ કુમારી જયશ્રી રમણુલાલ ભાવસાર ૧૨૮ શાહ અ ખાલાલ ડાહ્યાભાઈ ૧૨૯ ખડિયા ચાદમજી જવાહીરલાલજી
અમલનેર
૧ શાહે નાગરદાસ વાઘજીભાઈ
૨ શ્રી સ્થા.જૈન સઘ હા શાહ ગાડાલાલ ભીખાલાલ
અજમેર
૧ શેઠ ભુરાલાલ મેહનલાલ ડુગરવાલ
અથર
૧ શ્રીમતી ચષાદેવી C/o મુદ્દામલજી રતનમલજી સચેતી ૨ ચાદમલજી મહાવીરપ્રસાદ પાલાવત
૩ શ્રીયુત રૂષભકુમાર સુમતિકુમાર જૈન
આસનસાલ
૧ આવીશી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની મણીખાઈ તરફથી હા રસિકલાલ, અનિલકાત, તથા વિનાદરાય
આટકેટ
૧ મહેતા ચુનીલાલ નારણુદાસ
આણંદ
૧ શેઠ રમણીકલાલ એ કપાસી હા મનસુખલાલભાઈ
F
૫૧
૨૫
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૨૫૧
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૧૭
કઠેર ૧ સ્થા જૈન સંઘ હ જેસી ગભાઈ પાચાલાલ
(માધવસિંહજી મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી) હા ઠાકોરભાઈ રામચંદ્ર
કેવાસાગઢ ૧ શ્રી જે સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ દેવચદ અમુલખભાઈ
૨૫૧
૨૫૧
કલ્યાણ
૧ સઘવી ઠાકરશીભાઈ સઘજીના સ્મરણાર્થે
હા શાહ હી મતલાલ હરખચ દ
૨૫૧
કાનપુર
૧ શાહ રમણીકલાલ પ્રેમચંદ
૩૦૦
કુદ-(આરકેટ) ૧ દેશી રતીલાલ કરશી
૨૫૧
કેલકી ૧ પટેલ ગોવિ દલાલ ભગવાનજી ૨ પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણે
(તેમના સ્વ સુપુત્ર રામજીભાઈના સમરણાર્થે)
૨૫૧
૩૦૨
કપાલા
૧ સ્વ શેઠ નાનચદ મેતીચ દ ધ્રાફાવાળાના સ્મરણાર્થે
હા તેમના સુપુત્ર જમનાદાસ નાનચંદ શેઠ - ૨ શ્રીમતી હીરાબેન, રતીલાલ નાનચંદ શેઠ ધ્રાફાવાળા
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
કુશળગઢ ૧ શેઠ ચ પાલાલજી દેવચ દજી
ખાખીજાળીયા ૧ બાટવીયા લાખચ દ લીલાધર
૪૦૧
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૨૫
૨૫૧
૨૫
૨૫
૨૫૧
૨ સ્વ બેન સંતકબેન કચરા હા ઓતમચ દભાઈ, છોટાલાલભાઈ
તથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણવાળા) ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા શેઠ પ્રતાપભાઈ ૪ દેશી વીઠ્ઠલજી હરખચ દ. ૫ સવાણી મુળશંકર હરજીવનભાઈના સ્મરણાર્થે હા તેમના પુત્રો જયતીલાલ તથા રમણીકલાલ
ઉમરગાવ રેડ ૧ શાહ મેહનલાલ પિપટલાલ પાનેલીવાળા
એડન કેમ્પ ૧ મહેતા પ્રેમચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે
હા રાયચ દભાઈ, પિપટલાલભાઈ તથા રસીકલાલભાઈ ૨ શાહ જગજીવનદાસ પુરૂષોત્તમદાસ ૩ શાહ ગોકળદાસ શામજી ઉદાણી
ક્લક ૧ શ્રી કલકત્તા જૈન ધ સ્થા (ગુજરાતી) સઘ
કલોલ ૧ શેઠ મેહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે
હા શેઠ આત્મારામ મોહનલાલ ૨ ડે મયાચદ મગનલાલ શેઠ હા ડે રતનચદ મયાચદ ૩ સ્વ નથાલાલ ઉમેદચ દના સ્મરણાર્થે હા શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૪ શેઠ મણીલાલ તલકચ દના સ્મરણાર્થે
હા મારફતીયા ચ દુલાલ મણીલાલ ૫ વ શ્રીયુત વાડીલાલ પરશેત્તમદાસના સ્મરણાર્થે
હા ઘેલાભાઈ તથા આત્મારામભાઈ ૬ શાહ નાગરદાસ કેશવલાલ ૭ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ શેઠ આત્મારામભાઇ મોહનલાલભાઈ
૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
૨પ૧
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
કડી ૧ શ્રી સ્થા દરિયાપુરી જૈન સંઘ
હા ભાવસાર દામોદરદાસભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ ૨ પાર્વતીબેન Clo જેસી ગભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ
૨૫૧ ૨૫૧
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૧૯
ગાલ
સ્વ.ખાખડા વચ્છરાજ તુલમીદાસના ધર્મ પત્ની કમળખાઈ તરફથી હા માણેકચ દભાઈ તથા કપુરચંદભાઈ
૨ પીપળીયા લીલાધર દામેાદર તરફથી તેમના ધર્મપત્ની એ સૌ લીલાવતી સાકરચ કેાઠારીના ખીજા વર્ષી તપની ખુશાલીમા
3 કામદાર જુઠાલાલ કેશવજીના સ્મરણાર્થે હા
૧
હરીલાલ જુઠાલાલ કામદાર
૪
સ્વ. કાઠારી કૃપાશ કર માણેકચક્રના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની પ્રભાકુ વરબેન
૫ કાઠારી ગુલાખચ દ રાયચંદ ૨જીનવાળા
૬ જસાણી રૂગનાથભાઈ નાનજી હા. ચુનીલાલભાઇ ७ માસ્તર હકમીચંદ દીપચઇ શેઠ
૧ શાહ ત્રીભાવનદાસ છગનલાલ
૨
સ્વ પ્રેમદ ઠાકરશીના સ્મરણાર્થે હા શાહ ચુનીલાલ પ્રેમચ દ
ઘટકણ
૧
શાહુ ચંદુલાલ કેશવલાલ
ગાદીયા
૧ સ્થા જૈન સ ઘ હૈં શાહ પ્રેમચદ ટાલાલ (શેઠ પેપિટલાલભાઇ તરફથી) ૨૫૦
ગાગ
ઘાલવડે (થાણા)
૧ મહેતા ગુલાબચ દ ગ ભીરમલજી
ઘેાડનદી
૧ શેઠ ચંદ્રભાણુÀાભાચ ઃ ગાદીયા
ચુડા
૧
શ્રી સ્થા જૈન સઘ હા રતીલાલ મગનલાલ ગાધી
૨૫૧
ચાટીલા
૧
શાહ વનેચંદ જેઠાલાલ શ્રી સ્થા જૈન મધને ભેટ
૩૦૧
૩૦૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
૩૦૧
૫૧
૩૦.
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
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________________
ખારાઘોડા ૧ સ્વ પિતાશ્રી હરજીવનદાસ લાલચ દ શાહ તથા સ્વ અ સી બેન જમકુબાઈ તથા લીલાબાઈના સ્મરણાર્થે
ઇસ હરજીવનદાસ ૨ સવ શેઠ ઓઘડલાલ લક્ષ્મીચંદના સ્મરણાર્થે ભાઈચદ ઘડભાઈ
ખાચન ૧ શેઠ કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ
૨૫૧ ૨પ
ઉપર
ખુરદારેડ ૧ ગીરધારીલાલજી સીતારામજી ખેડપવાળા ૨ શેઠ નરસિંહદાસ શાતિલાલજી ભાલાવાળા
(મુનિશ્રી ચાદમલજીના ઉપદેશથી)
૩૦૦
૨૫૧
મ સાત
૨૫૧
૧ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ ૨ શેઠ ત્રિભવનદાસ મગળદાસ ૩ શ્રી સ્થા જેન સ ઘ ૪ શાહ ચ દુલાલ હરીલાલ પ શાહ સાકરચદ મેહનલાલ ૬ શાહ સકરાભાઈ દેવચ દ ૭ શાહ સુખલાલ દોલતચદ ૮ ગાધી બાપુલાલ મેહનલાલ ૯ બેન લલિતા માણેકલાલ
૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
ગાધીધામ ૧ શાહ મેરારજી નાગજી એન્ડ કુ
ગુ દાલા ૧ શાહ માલશી ઘેલાભાઈ
ગુલાબપુરા ૧ શ્રી સંસ્થા જેન વર્ધમાન સંઘ
હા માગીલાલજી ઉકારમલજી ધપવાલા ૨ શ્રી એસવાલ ૫ચાયત હા ગુલાબચ દજી ચારડીયા
૨૫૧ ૨૫૧
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________________
૪
શાહ ૨ગીલદાસ પેાપટલાલ
૫ વકીલ મણીલાલ ખેગારભાઈ પુનાતર
૧ ઘેલાણી ત્રીકમજી લાધાભાઈ
૨૧
3 દેશી માણેકચંદ ભવાન
૪ પટેલ લાલજી જુમાભાઈ
૫. શેઠ ખાવનજી જેઠાભાઈ “શેઠ વ્રજલાલ ચુનીલાલ
જુનાગઢ
૧ શાહ મણીલાલ મીઠાભાઈ હા તુરિલાલભાઈ (હાટીનામાળીયાવાળા)
જામજોધપુર
૧ શ્રી સ્પા જૈન સ્ઘ હા શ્વેતા પાપટલાલ માવજીભાઈ ૨ શાહુ ત્રીભાવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા
૧ કાઠારી ડાલકુમાર વેણીલાલ
२
જીનારદેવ
જેતપુર
સૌ મેન સુરજકુવર વેણીલાલ કાઠારી
3
શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હા નરભેરામભાઈ (જસાપુરવાળા)
૪ કાશી ટાલાલ વનેચ દ
જેતલસર
૧
શાહુ લક્ષ્મીચંદ કપૂચ ૬
બે કામદાર લીલાધર જીવરાજના સ્મરણુાથે તેમના ધર્મ પત્ની જખકબેન તરફથી હા શાતિલાલભાઇ ગાડલવાળા
નેધપુર
૧. શેઠ નવરતમલજી ધનવતસિંહજી
૨. શેઠ હસ્તીમલજી મનરૂપલજી સામસુખા
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
३८७
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૦
૨૫૧
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________________
૨૦ ચારભુજાડ
૩૦૧
૧ શેઠ માગીલાલજી હીરાચદાજી ખાબેલ
જમશેદપુર ૧ દેશી ઝવેરચદ વલભજી
જલેસર (બાલાસર)
૨૫૧
૧ સ ઘવી નાનચદ પોપટભાઈ થાનગઢવાળા
૨૫૧
જયપુર
૧ શ્રીમાન હિમતસિહજી સાહેબ ગલુડિયા, એડિશનલ કમિશ્નર
અજમેર ડીવીઝનવાળાના ધર્મપત્ની એ સૌ માણેકકુવરબેન
તરફથી હા ખુશાલસિહજી ગલૂડિયા ૨ શ્રીમાન શેઠ શીરેમલજી નવલખાના ધર્મપત્ની આ સૌ પ્રેમલતદેવી ૨૫૧
૩૫૧
જસવંતગઢ
૧ શ્રીમાન સુન્દરલાલજી નેમીચંદજી તકેસરા
૩૫૧
જામખંભાળીયા
૧ શેઠ વસનજી નારણજી
૨ શ્રી સ્થા જેન સ ઘ હા મહેતા રણછોડદાસ પરમાણુ - ૩ સઘળી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ
૨૫૧ ૨૫૧
જામનગર
૨૫૧
૧ શાહ ઇટાલાલ કેશવજી ૨ વેર ચીમનલાલ દેવજીભાઈ ૩ સાહેબ પી પી શેઠ
૨૫૧
૨૫૦
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________________
૨૩
દિલ્હી
લાલાજી પૂચજી જૈન (સેન્ટ્રલ એકવાળા)
૨ શ્રીયુત કીશન ઇજી શ્વેતામચ દજી ચારડીયા
હા શ્રીમતી નગીનાદેવી તથા શ્રીયુત શ્વેતામચક્ર જૈન સૌ સજ્જનમેન ઇન્દરમલજી પારેખ
લાલાજી મીઠુંનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ
૧૦
એક સદ્મહસ્ય તરફથી હું મહેતામંચ જી જૈન ૧૧ એક સ્વધી અધુ તરફથી હસ્તે વિજિયાકુમારી એન ૧૨ ખાણુ નિરજન સિહજી જૈન
3
૪
૫
લાલાજી ગુલશનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ ૬ મેન વિયાકુમારી જૈન C/o મ્હેતાખચ↑ જૈન
૨૫૧
(વયેવૃદ્ધ મરલ સ્વભાવી ફુલમતીજી મહાસતિજીની પ્રેરણાથી) ૨૫૧ ७ શ્રીમાન લાલાજી રતનચંદજી જૈન / આઈ સી હાઝીયરી સ્વ ભાભાશ્રીચ ૪જી ડુંગરીયાના સ્મરણાથે રાજસ્થાન ન્યાયાધિકારી હુકમચ દજી જૈનના સુપુત્ર જીતેન્દ્રકુમાર વકીલના સુપુત્ર અનિલકુમાર તરફથી ભેટ હુ વિનયકુમારી
૯
સ્વ લાલા ચ પાલાલજી ચારડીયાના માથે લાલચદજી તથા હીરાલાલજી તરફથી હું શાતાદેવી
૧૩ સ્વ. શ્રી વીજયચ જી પારેખના સ્મરણાર્ચે લાલા પૂર્ણચક્રુજી રતનલાલજી પારેખના વતી હસ્તે શ્રીમતી પ્રેમાદેવી તરફથી શાત સ્વભાવી મહામતિજી શ્રી ફૂલમતિજી મ ના ઉપદેશથી
ધ્રાફા
૧ શેઠ મણીલાલ જેચ દભાઇ
૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી
ધાર
૩પ૧
ધાગધ્રા
૧ ભાવદીક્ષિત સૌ રૂપાળીબેન હિમતલાલ સઘવીની તપશ્ચર્યાથ સ ઘવી ચીમનલાલ પરસેાતમદાસ સઘવી તરફથી
૨૫૧
૫૧
૩૦૧
૩૦૧
૩૫૧
૩૫૧
૩૧
૩૦૧
૫૧
૩૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૫
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________________
૨૨
- ૩ શેઠ પુખરાજજી પદમરાજજી ( ડારી
૪ શેઠ વસ્તીમલજી આન દમલજી સામસુખા
૨૫૧ ૨૫૧
જોરાવરનગર શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ ચ પકલાલ ધનજીભાઈ
૧
૨૫૧
ઝરીયા શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ કનૈયાલાલ બી મોદી
૧
૨૫૧
ડેડાયા
૧
શ્રી સ્થા જૈન સંઘ
૨પ૦
ઢસા
૧ શ્રી ઢસાગામ સ્થા જૈન સંઘ હા એક સદગ્રહસ્થ તરફથી
૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા જેન સાઘ હા બગડિયા નરભેરામ જેઠાલાલ (ઢસા જ કાન) ૨૫૦
૧
તાસગવ સ્વ ચુનીલાલજી દગડના સમરણથે તેમના ધર્મપત્ની હેડુબાઈના તરફથી હા શેઠ રામચ દજી
૩૫૧
૨૫૧
થાનગઢ ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી ૨ શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભવનદાસ ૩ શાહ ધારશીભાઈ પાશવીરભાઈ હા સુખલાલભાઈ ૪ હસાબેન અરવીંદ હા ભાઈ રવીચદ માણેકચદ
૨૫૧
રપ૧ ૩૦૧
દહાણુરેડ
૧ શાહ હરજીવનદાસ ઓઘડ ખ ધાર (કરાચીવાળા)
૨૫૧
દાહોદ
૧ શેઠ માણેકલાલભાઈ ખેગારજી
૫૧
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________________
૨૫
નારાયણ ગામ
૧ શેઠ મેતીલાલજી હીરાચદજી ચેરડીયા બેટરીવાળા
ન દુરબાર
૧ શ્રી સ્થા જૈન સઘ હા શેઠ પ્રેમચ દ ભગવાનલાલ
નાગાર
૧ શ્રીપાલભાઈ એન્ડ કુા હા સાગરમલજી લુકડ ઝેરવાળા તરફથી
પાલનપુર
૧ મેન લક્ષ્મીખાઈ હા મહેતા હરિલાલ પિતામરદાસ ૨ લેાકાગચ્છ સ્થા જૈન પુસ્તકાલય હા કેશવલાલ જી શાહ
પાણસણા
૧ શ્રી સ્થા.જૈન સઘ હા શાહ છેટાલાલ પૂજાભાઈ
પાલેજ
૧
સ્વ મનસુખલાલ મેહનલાલ સઘવીના સ્મરણાર્થે હા ભાઇ ધીરજલાલ મનસુખલાલ
પ્રાતીજ
૧
સ્થા જૈન સઘ હા શ્રીયુત અખાલાલ મહાસુખરામ
પૂના
૧ શેઠ ઉત્તમચ ૪જી કેવળચ દજી ધેાકા
ફાલના
૧ મહેતા પુખરાજજી હસ્તીમલજી સાદડીવાલા
૨ મહેતા કુનમલજી અમરચ દજી સાદડીવાલા
૨૫૧
૨૫૦
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
૨૫૦
૩૫૧
૩૦૧
૨૫૧
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________________
૩૦૧,
૨૫૧
૨ સઘવી નરસિંહદાસ વખતચદ ૩ શ્રી સ્થા જેન મેટા સઘ હ મ ગળજી જીવરાજ ક ઠકકર નારણદાસ હરવિ દદાસ ૫ કોઠારી કપુરચદ મ ગળજી
૨૫૧ ૨૫૧
ધોરાજી
૪૫૧
૨૫૧
૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૦
૧ મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૨ અ સૌ બચીબેન બાબુભાઈ ૩ ધી નવસૌરાષ્ટ્ર ઓઈલ મીલ પ્રા લીમીટેડ ૪ સ્વ રાયચદ પાનાચદના સમરણાર્થે હા ચીમનલાલ રાયચંદ શાહ ૫ ગાધી પિપટલાલ જેચ દભાઈ ૬ દેશાઈ છગનલાલ ડાહયાભાઈ લાઠવાળાના ધર્મપત્ની દિવાળીબેન
તરફથી હા કુમારી હસુમતી ૭ અક સંગ્રહસ્થ હા મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ
૮ શેઠ દલપતરામ વસનજી મહેતા - ૯ સ્વ પિતાશ્રી ભગવાનજી કચરાભાઈના તથા ચિ હસાના સ્મરણાર્થે
હ પટેલ દલીચદ ભગવાનજી ૧૦ મહેતા હેમચ દ કાળીદાસ જામખ ભાળીયાવાળા
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
૩૦૧
૨૫૧
ધધુકા
૧ શેઠ પિપટલાલ ધારશીભાઈ ૨ સ્વ ગુલાબચદભાઈના સ્મરણાર્થે હા વેરા પિપટલાલ નાનચદ ૩ શ્રી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ વસાણી
૨૫ ૨૫૧
૨૫૧
ધુલિયા ૧ શ્રી અમલ જેન જ્ઞાનાલય હો શેઠ કનૈયાલાલ છાજેડ
૨૫૧
નડીયાદ
૧ શાહ મોહનલાલ ભુરાભાઈ ! !
૨૫૧
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________________
૨૭
બેંગલોર
૩૦૨
૧ બાટવીયા વનેચદ અમીચદ, મહાવીર ટેક્ષટાઈલ સ્ટોર તરફથી
ભાઈ ચન્દ્રકાન્તના લગ્નની ખુશાલીમાં ૨ શેઠ કિશનલાલજી કુલચદજી સાહેબ ૩ અજમેરા છોટાલાલ માનસિગ
૨૫૧
૩૫૧
બોટાદ
૧
૨૫૧
વ વસા હરવિંદદાસ છગનલાલના અમર હા તેમના ધર્મપત્ની છબલબેન
બેઠેલી
૨૫૧
૧ શાહ પ્રવીણચદ્ર નરસિંહદાસ સાણ દવાળ ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ
૨૫૧
ભાણવડ
૩પર ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
૧ શેઠ જેચંદભાઈ માણેકચંદભાઈ ૨ સ ઘવી માણેકચ દ માધવજી ૩ શેઠ લાલજી માણેકચ દ લાલપુરવાળા ૪ શેઠ રામજી જીણાભાઈ ૫ શેઠ પદમશી ભીમજી ફેફરીયા ૬ ફેફરીયા ગાડાલાલ કાનજીભાઈ હા આ સૌ શાંતાબેન વસનજી ૭ વ મહેતા પૂનમચદ ભવાતના સ્મરણાર્થે હા તેમના
ધમપત્ની દિવાળીબેન લીલાધર (ગુ દાવાળા)
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
ભાવનગર
૧
સ્વ કુવરજી બાવાભાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ લહેરચદ કુવરજી
૩૦૧
ભાદરણું શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ પટેલ દુલાભાઈ ઝવેરભાઈ
૧
૨૫૧
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________________
ગ્
શેઠ પેપટલાલ રાઘવજી રાઇડીવાળા હા નાનચ ૪ પ્રેમચ દ શાહુ સ્વ.માતુશ્રી જમકાઇના સ્મરણાર્થે હા દેશાઈ વ્રજલાલ કાળીદાસ
૨૬
બગસરા
૧ શાહે કાનજી શામજીભાઇ
સ્વ.મેહનલાલ નરસિંહદાસના સ્મરણાર્થે
હા તેમના ધર્મ પત્ની સુરજબેન મારાજી
અનાવર
૧ શ્રી વધમાન સ્થા. જૈન શ્રાવક સઘ હા મિશ્રીલાલ જૈન વકીલ
માલેાતરા
૧ શાહુ જેઠમલજી હસ્તીમલજી ભગવાનદાસજી ભણુસારી
મીદડા
બરવાળા ઘેલાશા
-
૧ શેઠ ભેદાનજી શેઠીયા
ખિકાનેર
મેશા
૧ શેઠ ગાગજી કેશવજી (જ્ઞાનભ ડાર માટે)
એલારી
શ્રી સ્થા.જૈન સઘ હા શેઠ હજારીમલજી હસ્તીમલજી રાકા
એરમા
૧ શ્રી મેરમા સ્થા જૈન સઘ હા મહેતા નવલચદ હાકેમચંદ
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૪
૫૧
૨૫૧
પા
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________________
જ છે અને
માંડવા ૧ શ્રી માડવા સ્થા જૈન સંઘ હા આ સૌ કચનગૌરી રતીલાલ ગોસલીયા (ગઢડાવાળા) ૨૫૧
માલેગાવ ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ હ ફતેલાલ, માલ જૈન
૨૫૧ માગારેલ ૧ શાહ ત્રીવનદાસ નાનજી
૨૫૦ ૨ દેશી ગીરધરલાલ જેઠાલાલ
૨૫૦ મુબઈ તથા પરાઓ ૧ સ્વ શ્રી પિતાશ્રી કુદનમલજી મોતીલાલજી સુથાના સ્મરણાર્થે
હા શેઠ મોતીલાલજી જુબારમલજી (અહમદનગરવાળા) ૨૫૧ ૨ વર્ધમાન સ્થા જૈન સંઘ હા કામદાર રૂપચંદ શીવલાલ (અ ઘેરી) ૨૫૧ ૩ અ સૌ કમળાબેન કામદાર હા કામદાર રૂપચંદ શીવલાલ (અંધેરી) ૨૫૧ ૪ સ્વ માતુશ્રી કડવીબાઈના સ્મરણાર્થે હા તેમના પૌત્ર
હકમીચદ તારાચદ દોશી (અધેિરી) ૨૫૧ ૫ શાહ હરજીવન કેશવજી
૨૫૧ ૬ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા એ સૌ કાનતાબેન રમણીકલાલ ૨૫૩ ૭ સ ઘવી હિંમતલાલ હરજીવનદાસ
૨૫૧ ૮ વેરા પાનાચ દ સઘજીના સ્મરણાર્થે ' હા બકલાલ પાનાચ દ એન્ડ બ્રધર્સ
૨૫૧ ૯ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા
૨૫૧ ૧૦ સ્વ જટાશકર દેવજીભાઈ દોશીના સ્મરણાર્થે રણછોડદાસ (બાબુલાલ) જટાશકર દેશી
૩૦૧ ૧૧ ઘેલાણું વલભજી નરભેરામ હા નરસી હદાસ વલભજી
૨૫૧ ૧૨ કપાસી મેહનલાલ શીવલાલ
૨૫૧ ૧૩ શાહ ત્રીવનદાસ માનસિંગભાઈ દેઢીવાળાના સ્મરણાર્થે
હા શાહ હરખચદ ત્રિવનદાસ ૧૪ ખેતાણી મણલાલ કેશવજી (વડીયાવાળા) ઘાટકે પર
૨૫૧ ૧૫ સ્વ પિતાશ્રી શામળજી કલ્યાણજી ગેડલવાળાના સ્મરણાર્થે હા વ્રજલાલ શામળજી બાવીસી
૩૦૧ ૧૬ શાહ રવિચન્દ સુખલાલભાઈ (દાદર)
૩૫૧
R
૨૫૧
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________________
૨૮
ભીલવાડા
૨૫૧
૧ શ્રી શાતિ જૈન પુસ્તકાલય હા ચાદમલજી મામલજી સ ઘવી ૨ શેઠ ભીમરાજજી મીશ્રી લાલજી
ભીમ
૧ ચ પકલાલજી જૈન પુસ્તકાલય હા શેઠ ગામલજી માગીલાલજી
ર૫૧
ભુસાવલ
૨૫૧
૧ શેઠ રાજમલજી ન દલાલજી ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ
ભેજાય ૧ જ્ઞાન મદિરના સેક્રેટરી શાહ કુવરજી જીવરાજ
૨૫૧
મદ્રાસ
૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચ દજી મહેતા ૨ હેતા મણલાલ ભાઈચદ ૩ મહેતા સુરજમલ ભાઈચ દ ૪ મહેતા બાપાલાલ ભાઈચ દ
મને ૧ શાહ શેરમલજી દેવીચ દજી જશવ તગઢવાળા
હા પૂનમચ દજી શેરમલજી બોલ્યા
૨૫૧
માનકુવા
૨૫૧
૧ વ મહેતા કુવરજી નાથાલાલના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની કુંવરબાઈ હરખચ દ (માનકુવા સ્થા જેન સઘ માટે)
માડવી ૧ શ્રી રથા છકોટી જૈન સંઘ હ મહેતા ચુનીલાલ વેલજી
૨૭
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________________
૨૧
૨૫
૪૪ શેઠ મણીલાલ ગુલાબચ દ
ઘાટ પર ૨૫૧ ૪૫ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ
૨૫૧ ૪૬ શાહ શિવજી માણેકભાઈ
૨૫ ૪૭ મેમર્મ સવાણી ટ્રાન્સપોર્ટ ક હ શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૪૮ શાહ નગીનદાસ કલ્યાણજી (વેરાવળવાળા)
૨૫૧ ૪૯ મહેતા રતીલાલ ભાઈચ દ
૨૫૧ ૫૦ શાહ પ્રેમજી હીરજી ગાલા
૨૫૧ ૫૧ બેન કેશરબાઈ ચ દુલાલ જેમ્ગભાઈ શાહ પર પારેખ ચીમનલાલ લાલચદ સાયલાવાળાના ધર્મપત્ની એ સૌ ચ ચળબાઈના સ્મરણાર્થે હા મારાભાઈ ચીમનલાલ
૨૫૧ પ૩ ધી મરીના મેડન હાઈસ્કુલ ટ્રસ્ટ ફડ હા શાહ મણીલાલ ઠાકરશી ૨૫૧ ૫૪ મહેતા મેટર સ્ટેમેં હા અને પચદ ડી મહેતા
૨૫૧ ૫૫ શેઠ રસીકલાલ પ્રભાશકર મોરબીવાળા તરફથી તેમના
માતુશ્રી મણુબેનના સ્મરણાર્થે ૩૦૧ ૫૬ શ્રીયુત જસવંતલાલ ચુનીલાલ વેશ
૨૫૦ પ૭ શાહ કુંવરજી હરાજ
૨૫૧ ૫૮ દડીયા જેસી ગલાલ ત્રીકમજી.
૨૫૧ ૫૯ મેરી અભેચ દ સુરચદ રાજકોટવાળા હા ડેમાલાલ અભેદ ૨૫૧ ૬૦ શાહ જેઠાલાલ ડામરશી ધાગધ્રાવાળા હા શાહ વાડીલાલ જેઠાલાલ ૨૫૦ ૬૧ સ્વ પિતાશ્રી ભગવાનજી હીરાચદ જસાણીની અમરણાર્થે
હા લક્ષ્મીચંદભાઈ તથા કેશવલાલભાઈ ૩૦૧ ૬૨ સ્વ પિતાશ્રી શાહ અબાલાલ પુરૂત્તમદાસના સ્મરણાર્થે
હા શાહ બાપાલાલ અબાલાલ ૨૫૧ ૬૩ વ કસ્તુરચદ અમરશીના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની ઝવેરબેન
મગનલાલ વતી જય તીલાલ કસ્તુરચદ મસ્કારીયા (ચુડાવાળા) ૨૫૧ ૬૪ શેઠ ડુંગરશી હસરાજ વીસરીયા
૨૫૧ ૬૫ શાહ રતનશી મણશીની કુલ
૨૫૧ ૬૬ શેઠ શીવલાલ ગુલાબચદ મેવાવાળા ૬૭ શાહ ચ દુલાલ કેશવલાલ
૨૫૧ ૬૮ સ્વ પિતાશ્રી વીરચદ જેસી ગ શેઠ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે
હા કેશવલાલ વીરચંદ ૨૫૧ ૬૯ ચદુલાલ કાનજી મહેતા
૨૫૧
૨૫૧
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૩૦
૨૫૧
૨
૨૫૧
૧૭ સ્વ આશારામ ગીરધરલાલના સમરણાર્થે હા શાતિલાલ આશારામ વતી જશવ તલાલ શાતિલાલ
૨૫૧ ૧૮ ગાધી કાતીલાલ માણેકચદ
૨૫૧ ૧૯ શાહ રવજીભાઈ તથા ભાઈલાલભાઈની કુ
(કાદવલી) ૨૫૧ ૨૦ અ સૌ લાછુબેન હ રવજીભાઈ શામજી
૨૫૧ ૨૧ સ્વ માતુશ્રી માણેકબાઈના સ્મરણાર્થે હ શેઠ વલભદાસ નાનજી ૩૦૧ ૨૨ એક સગ્રહસ્થ હા શેઠ સુદરલાલ માણેકલાલ ૨૩ શેઠ ખુશાલભાઈ એ ગારભાઈ
૨૫૦ ૨૪ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા
૨૫૧ ૨૫ સ્વ માતુશ્રી ગમતીબાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ પિપટલાલ પાનાચદ ૨૫૧ ર૬ કેટેચા જય તીલાલ રણછોડદાસ સૌભાગ્યચદ જુનાગઢવાળા ૨૫૧ ૨૭ વેરા ઠાકરશી જસરાજ
૨૫૧ ૨૮ કે ઠારી સુખલાલજી પુનમચ દજી
(ખારોડ) ૨૫૧ ૨૯ અ સૌ બેન કુદનગૌરી મનહરલાલ સ ઘવી ૩૦ કઠારી રમણીકલાલ કસ્તુરચદભાઈ
૨૫૧ ૩૧ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સમરણાર્થે હા દલીચદ અમૃતલાલ દેસાઈ
૨૫૧ ૩૨ સ્વ ત્રીભોવનદાસ વ્રજપાળ વીછીયાવાળાના સ્મરણાર્થે હા હરગોવિંદદાસ ત્રિભોવનદાસ અજમેરા
૨૫૧ ૩૩ તેજાણી કુબેરદાસ પાનાચ દ
૨૫૧ ૩૪ શેઠ સરદારમલજી દેવીચ દજી કાવડીયા (સાદડીવાળા)
૨૫૧ ૩૫ શેઠ નેમચદ સ્વરૂપચ દ ખ ભાતવાળા હા ભાઈ જેઠાલાલ નેમચન્દ ૨૫૧ ૩૬ શાહ કેરશીભાઈ હીરજીભાઈ
૩૦૧ ૩૭ શ્રીમતી મણીબાઈ વૃજલાલ પારેખ ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ ફંડ હા વૃજલાલ દુર્લભજી.
૨૫૧ ૩૮ દડિયા અમૃતલાલ રેતીચદ
(ઘાટકેપ૨) ૨૫૧ ૩૯ દેશી ચત્રભુજ સુદરજી
૨૫૧ ૪૦ દેશી જુગલકિશોર ચત્રભુજ
૨૫૧ ૪૧ દેશી પ્રવિણચ દ ચત્રભુજ
૨૫૧ ૪૨ શેઠ મનુભાઈ માણેકચ દ હ ઝાટકીયા નરભેરામ મોરારજી
૨૫૧ ૪૩ શાહ કાતીલાલ મગનલાલ
૨૫૧
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૩૩
* ૨૫૧ છે ૫૧
૯૦ દેશી કુલચદ માણેકચંદ
છે ૨૫૦ ૯૧ શેઠ ચંપકલાલ ચુનીલાલ દાદભાવાળા
by ૨૫૧ ૨ શ્રી વર્ધમાન સ્થા સૈન શ્રાવક સંઘ હા શાહ રવિચંદ સુખલાલ
(ાદ) ૨૫૧ ૯૩ શાતિલાલ ડુંગરની અદાણી ૯૪ શાહ કરશન લધુભાઈ કીશનલાલ શ્રી મહેતા
શીવ , ૫૧ ૯ માતુશ્રી જીવીબાઈના માથે હા શામજી શીવજી કરે છે ગુદાળાવાળા
ગોરેગાવ ર૫૧ ૯૭ સ્વ શાહ રાયશી કચરાભાઈના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની નેણબાઈ વતી હા, જે.લાલ રાયની
૨૫૧ ૯૮ શુશીલાબેન શકરાભાઈ Clo નવીનચંદ્ર વસતલાલ શાહ વિલેપાર્લે ૨૫૧ ૯ બેન ચદનબેન અમૃતલાલ વારિયા
૨૫૧ ૧૦૦ સ્વ વાળીદાસ જેઠાલાલ બહના સ્મરણાર્થે
હા સુમનલાલ કાળીદાસ (કાનપુવાળા) ૧૦૧ શાહ ત્રીભવન ગોપાલજી તથા અ સૌ બેન કસુ બા ત્રીભવન (વાનગઢવાળા)
શીવ ૫૧
૩૦૧
સુળી
૧ શેઠ ઉજમશી વીરપાળ હા શેકેશવલાલ ઉજમશી
૩૦૧
મોરબી
૧ દેશી માણેકચંદ સુદળજી
૩૫૧
આમા
૫૧.
૧ શ્રીયુત નાથાલાલ ડી મહેતા ૨ શાહ દેવાજ પેથરાજ
૫૦
૧૫૧
મહેમાણુ ૧ શાહ પદમશી સુદના સ્મરણાર્થે હા શિવલાલ પદમશી
યાદગીરી ૧ શેઠ બાદરમલજી સુરજમલજી બે કર્મ
૫૦
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________________
*
૨૫
ફર ૭૦ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન સંઘ હ કેશરમલજી અને પચ દજી ગુગલીયા
(મલાડ) ૨૫૧ શ્વ પિતાશ્રી પતભાઈ મોનાભાઈના સ્મરણાર્થે
હા શાહ કાનજી પતુભાઈ અ સૌ પાનબાઈ હા શેઠ પદમશી નરસિંહભાઈ
૨૫૧ ૭૩ સ્વ નાગશીભાઈ સેજપાલના સ્મરણાર્થે રામજી નાગશી ૭૪ સ્વ ગડા વણારશી ત્રીભોવનદાસ સરસઈવાળાના સ્મરણાર્થે
હા જગજીવન વણારશી ગડા ૭૫ સ્વ કાનજી મુળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈના
૧૬ ઉપવાસના પારણુ પ્રસગે હા જયતિલાલ કાનજી ” ૨૫૧ ૭૬ શાહ પ્રેમજી માલશી ગગર
* ૨૫૧ ૭૭ શાહ વેલશી જેસીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમના ધર્મપત્ની સ્વ નાનબાઈના સ્મરણાર્થે
૩૦૧ ૭૮ સ્વ પિતાશ્રી રાયશી વેલશીના સ્મરણાર્થે
૩૦૧ હા શાહ દામજી રાયશીભાઈ
૩૦૧ ૭૯ શાહ વરજાગભાઈ શીવજીભાઈ
૨૫૧ ૮૦ શાહ ખીમજી મુળજી પુજા ૮૧ અ સૌ સમતાબેન શાતિલાલ C/o શાતિલાલ ઉજમશી શાહ ” ૮૨ સ્વ કેશવલાલ વછરાજ કે ઠારીના સ્મરણાર્થે સુરજબેન તરફથી હા તનસુખલાલભાઈ
૨૫૧ ૮૩ સ્વ પિતાશ્રી હસરાજ હીરાના સ્મરણાર્થે
હા દેવશી હસરાજ કચ્છ બીદડાવાળા , રપ૧ ૮૪ ઘેલાણી પ્રભુલાલ ત્રીકમજી
બારીવલી) ૨૫૨ ૮૫ શેઠ ત્રબકલાલ કસ્તુરચદલીમડી અજરામર શાસ્ત્રભડારને ભેટ (માટુંગા) ૨૫૧ ૮૬ અ સૌ બેન રજનગૌરી Go શાહ ચ દુલાલ લહમીદ છે ૨૫૧ ૮૭ શાહ નટવરલાલ દીપચદ તરફથી તેમના ધર્મપત્ની આ સૌ
સુશીલાબેનના વષીતપની ખુશાલીમાં ૮૮ દેશી ભીખાલાલ વૃજલાલ પાળીયાદવાળા ૮૯ શાહ ગોવાળ માનસ
છ
૨૫૧
૨૫૧
»
૨૫૧
૨૫૧
૨૧
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________________
૩૫
૯ દેશી મેાતીચંદ ધારશી ભાઈ (રીટાયર્ડ એકઝીકયુટીવ એન્જીનીયર) ૨૫૧ કામદાર ચદુલાલ જીવરાજ (ધ્રાગધ્રાવાળા)
૧૦
૨૫૦
૧૧ હેમાણી ઘેલાભાઇ સવચ દ
૧૨ દફતરી પ્રભુલાલ ન્યાલચ દ
૧૩ સ્વ. મહેતા દેવચંદ પુરૂષાત્તમના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની હેમકું વરખાઇ ત૨ફથી હા જયતિલાલ દેવચંદ મહેતા
૨૫૧
૧૪ પારેખ શીવલાલ ઝુઝાભાઈ મામ્બાસાવાળા હા આ સૌ કચનબેન ૨૫૨
રાપર
૧ પૂજય વાલજીભાઈ ન્યાલચ દભાઈ
રામપુરા
૧ શેઠ તે જમલજી મને હરલાલજી એ કર
રાટી
૧ શેઠ મિયાચદજી જીહારમલજી કટારિયા
લખતર
શાહુ રાયચ કરશીના સ્મરણાર્થે હા શાતિલાલ રાયચ દ શાહ ભાવસાર હરજીવનદાસના સ્મરણાર્થે
૧
૨
હા ત્રીભાવનદાસ હરજીવનદામ
3 શાહુ તલકશી હીરાચદના સ્મરણાર્થે હા ભાઇ અમૃતલાલ તલકશી
૪ શાહુ ચુનીલાલ માણે દ
૫ શાહ જાદવજી એઘડભાઈના સ્મરણાર્થે હા શાતિલાલ જાદવજી હું દેશી ઠાકરશી ગુલાબચ દના મચ્છુાથે તેમના ધર્મ પત્ની સમરતબહેન તરફથી હા જય તિલાલ ઠાકરશી
લાલપુર
૧. નેમચ સવજી માઢી હા ભાઈ મગનલાલ ૨ શેઠ મુલચ ૪ પે।પટલાલ હા
મણીલાલ તથા જેશી ગભાઈ લાખેરી
૧ માસ્તર જેઠાલાલ માનજીભાઈ હા અમૃતલાલ જેઠાલાલ
(સીવીલ એન્જીનીયર સાહેબ)
૨૫૧
૨૫૧
લાકડીયા
૧
શ્રી લાકડીયા સ્થા જૈન સઘ હા શાહ રતનશી કરમણ
૨૫૧
૩૫
૩૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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૩૪
રતલામ
રાણપુર
૧ શ્રીમત્તિ માતુશ્રી સમરતબાઇના સ્મરણાર્થે હા । નરાતમદામ ચુનીલાલ કાપડીયા
અનેક ભકતજના તરફથી હા શ્રીમાન કેશરીમલજી ડક (શ્રી કેવળચંદ મુનિશ્રીના ઉપદેશથી)
૨ સ્વ પિતાશ્રી લહેરાભાઈ ખીમજીના સ્મરણાર્થે હા શેઠે કાલીદાસ લહેરાભાઈ વસાણી
૧
ગણાવાસ
૧ શેઠ જવાનમલજી નેમીચદજી હા બાપુ રીખખચ દ્રજી
૨
રાયચુર
સ્વ.માતુશ્રી મેઘીબાઇના સ્મરણાર્થે
હા શાહુ શીવલાલ ગુલાખચ દે વઢવાણુવાળા શેઠ કાળુરામજી ચાક્રમલજી સચેતી
રાજકોટ
વાડીલાલ ડાઇ ગ એન્ડ પ્રિન્ટીગ વસ
૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચક્રં ચીત્તલીયા
3 શેઠ મનુભાઇ મુળચદ (એન્જીનીઅર સાહેબ)
૪
શેડ શાતિલાલ પ્રેમચંદ તેમના ધર્મ પત્નીના વર્ષીતપ પ્રસ ગે
૫ શેઠ પ્રજારામ વીઠ્ઠલજી
એન સખાળા નૌતમાલ જસાણી (વર્ષી તપની ખુશાલી) 19 મેદી સૌભાગ્યચદ મેાતીચ દ
૮ બદાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમના ધર્મ પત્ની આ સૌ સમરતબેનના વર્ષીતપ નિમિત્તે
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
૩૦૧
૨૫૧
૨૫૧
૪૦૦
પા
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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________________
૩૫ ૯ દેશી ખેતીચ દ ધારશી ભાઈ (રીટાયર્ડ એકઝીકયુટીવ એજીનીયર) ૨૫૧ ૧૦ કામદાર ચ દુલાલ જીવરાજ (પ્રાગધાવાળા)
૨૫૦ ૧૧ હેમાણી ઘેલાભાઈ મવચદ
૨૫૧ ૧૨ દફતરી પ્રભુલાલ ન્યાલચ દા
૨૫૧ ૧૩ વ મહેતા દેવચંદ પુરૂત્તમના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની હેમકુ વરબાઇ તરફથી હા જય તિલાલ દેવચ દ મહેતા
૨૫૧ ૧૪ પારેખ શીવલાલ નું ઝાભાઈ મેમ્બાસાવાળા હા આ મી ક ચનબેન ૨૫૨
૨૫૧
રાપર ૧ પૂજય વાલજીભાઈ ન્યાલચંદભાઈ
રામપુરા ૧ શેઠ તે જમલજી મનહરલાલજી બે કર
૩૫
રાવટી
૩૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧ ૨૫૧
૧ શેઠ મિયાચદજી જુહારમલજી કટારિયા
' લખતર ૧ શાહ રાયચ દ વાનરશીના સ્મરણાર્થે હા શાતિલાલ ગયથ દ શાહ ૨ ભાવસાર હરજીવનદાસના સમરણાર્થે
હા ત્રીભવનદાસ હરજીવનદાસ ૩ શાહ તલકશી હીરાચ દના મણાર્થે
હા ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી ૪ શાહ ચુનીલાલ માણેકચ દ ૫ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈના સ્મરણાર્થે હા શાતિલાલ જાદવજી ૬ દેશી ઠાકરશી ગુલાબચ દના મચ્છથે તેમના ધર્મપત્ની સમરતબહેન તરફથી હા જયતિલાલ ઠાકરશી
લાલપુર ૧ નેમચર સવજી મેદી હા ભાઈ મગનલાલ ૨ શેઠ મુલચદ પોપટલાલ હ મણીલાલ તથા જેશી ગભાઈ
લાખેરી ૧ માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ હા અમૃતલાલ જેઠાલાલ (સીવીલ એનજીનીયર સાહેબ)
લાકડીયા ૧ શ્રી લાકડીયા થા જેન સ ઘ હા શાહ રતનશી કરમણ
૨૫.
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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૩૪
રતલામ
૧ અનેક ભક્તજને તરફથી હા શ્રીમાન કેશરીમલજી ડક
(શ્રી કેવળચદ મુનિશ્રીના ઉપદેશથી)
૨૫
રાણપુર
૨૫૧
૧ શ્રીમતિ માતુશ્રી સમરતબાઇના સ્મરણાર્થે
હા ડે નરોતમદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા ૨ સ્વ પિતાશ્રી લહેરાભાઈ ખીમજીના સ્મરણાર્થે
હા શેઠ કાલીદાસ લહેરાભાઈ વસાણું
૩૦૧
રાણાવાસ
૧ શેઠ જવાનમલજી નેમીચ દજી હા બાબુ રખબચ દજી
૩૦૧
રાયચુર
૧ સ્વ માતુશ્રી મોઘીબાઈના સ્મરણાર્થે
હા શાહ શીવલાલ ગુલાબચદ વઢવાણુવાળા ૨ શેઠ કાળુરામજી ચાદમલજી સચેતી
૨૫૧
૨૫૧
રાજકેટ
.
જ
૧ વાડીલાલ ડાઈગ એન્ડ પ્રિન્ટીગ વકર્સ ૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ ચાવીયા ૩ શેઠ મનુભાઈ મુળચદ (એજીનીઅર સાહેબ) ૪ શેઠ શાતિલાલ પ્રેમચદ તેમના ધર્મ પત્નીના વર્ષીતપ પ્રસંગે ૫ શેઠ પ્રજારામ વીઠ્ઠલજી ૬ બેન સથુંબાળા નૌતમલાલ જસાણી (વર્ષીતપની ખુશાલી) ૧૭ મોદી સૌભાગ્યચ દ મેતીચ દ ૮ બદાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમના ધર્મપત્ની આ સૌ
સમરતબેનના વર્ષીતપ નિમિત્ત
૪૦૦, ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧
ટે
૨પ૧
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________________
૨ વકીલ મણીલાલ કેશવલાલ શાહુ
૩ સ્વ પિતાશ્રી કીરચંદ પુજાભાઈના સ્મરણાર્થે
૧
૪ શેઠ ભવાનભાઈ કાળાભાઈ પચમીયા
વલસાડ
૧
૧
વણી
૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલના ધર્મપત્ની સ્વ ચચળબેન તથા
૩૭
શાહ ખીમચ ૬ મુળજીભાઈ
૧
હા રાહુ રમણલાલ ફકીરચ દ વડીયા
૨
3
૪
७
૧
ખ ઢરિયા કાતીલાલ ત્રંબકલાલ
૧ દફ્તરી ચુનીલાલ પાપટભાઇ મેરમીવાળા
વટામણ
શ્રી સ્થા જૈન સધ હા પટેલ ડાયાલાલ હલુભાઈ
વડગાવ
શેઠ માણેકચદજી રાજમલજી ખાા
વાકાનેર
૧
શ્રી સ્થા.જૈન સઘ હા અજમેરા રાયચંદ વ્રજપાળ
વિરમગામ
પુરીબેનના માથે હા મનહરલાલ નાનાલાલ મહેતા ૨૫૧
હા પ્રાણલાલ ચુનીલાલ તરી વીછીયા
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
માસ્તર વીઠલભાઇ મેટ્રી
શાહ નાગરદાસ માણેકચદ
શાહ મણીલાલ જીવણલાલ શાહપુરવાળા
શાહુ અમુલખ નાગરદાસના ધર્મ પત્ની એ સૌ એન લીલાવતીના વર્ષીતપ નિમિતે હા શાહ કાતીલાલ નાગરદાસ
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૦
૫
સ્વ શેઠ ઉજમશી નાનચન્દ્વના સ્મરણાર્થે હા શાહ ચુનીલાલ નાનચંદ ૨૫૧ સ્વ શેઠ મણિલાલ લક્ષ્મીચંદ ખાનાઘેડાવાળાના સ્મરણાર્થે
તેમના પુત્રી તરફથી હા ખીમચ દ્રભાઈ
સ્વ શેઠ હરિલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા અનુભાઈ
૨૫૧
૨૫૧
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________________
૧ શાહે ચકુભાઈ ગુલાબચ≠
3
૧
શાહે કું વર્જી ગુલામય દ
૨. છાજેડ ઘાસીરામ ગુલામચન્દ
3
૧
*
૧ શેઠ ધનગજજી મુલચદજી સુથા
3
૩૬
લીમડી (સૌરાષ્ટ્ર)
લીમડી (પચમહાલ)
શેઠ વીરચઇ પન્નાલાલજી કર્ણાવટ
શ્રી સ્થા જૈન સઘ હું શાહ શાતીલાલ ગુલાબચ દ
લેાનાવાલા
૧ ખાણુ રાજેન્દ્રકુમાર જૈન દિલ્હીવાળા
૧૪
૧
*
૫ વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ
વઢવાણ શહેર
·
શેઠ દીલીપકુમાર વાઈલાલ C/o શાહે સવાઈલાલ શ્રમકલાલ
કામદાર મગનલાલ ગાકલદાસ હા રતીલાલ મગનલાલ
લુધિયાના
સ ઘવી મુળચ ૬ બેચરભાઈ હા જીવણલાલ ગલદાસ
શેઠ કાતીલાલ નાગરદાસ
સ ઘવી શીવલાલ હીમજીભાઇ
G શાહ દેવશીભાઇ દેવકરણ
૮ વેારા ડાસાભાઈ લાલચ ≠ સ્થા જૈન સઘ વારા નાનચંદ શીવલાલ
હા
૯ વારા ધનજીભાઈ લાલચ સ્થા જૈન સઘ
હા વારા પાનાચંદ ગામરદાસ
૧૦ દોશી વીચંદ સુરચદ હા દેશી નાનચંદ ઉજમશી
૧૧
૧૨
૧૩
સ્વ.વેારા મણીલાલ મગનલાલ તથા વારા ચત્રભુજ મણીલાલ
શ્રી વૃજલાલ સુખલાલ
શાહુ વાડીલાલ દેવજીભાઈ
કામદાર ગારધનદાસ મગનનાલના ધર્મ પત્ની
અ સૌ કમળાએન ૨ઝુનવાલા
વડાદરા
કામા૰ાર કેશવલાલ હિંમતરામ પ્રેફેસર
૨૫૧
૨૫૧
પાદ
૨૫૧
૩૫૧
૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
પા
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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૩૯
૩૦૧ ૨૫૧
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૨૫૧
સાણંદ ૧ શાહ હીરાચદ છગનલાલ હ શાહ ચીમનલાલ હીરાચદ ૨ અ મ શ પાબેન હા દોશી જીવરાજ લાલચદ ૩ પટેલ મહાસુખલાલ ડોસાભાઈ ૪ શાહ સાકરચદ કાનજીભાઈ ૫ પુરીબેન ચીમનલાલ કલ્યાણજી સંઘવી લી બડીવાળાના સ્મરણાર્થે
હા વાડીલાલ મેહનલાલ કોઠારી ૬ પારેખ નેમચદ મેતીચ દ મુળીવાળાના સ્મરણાર્થે
હા પારેખ ભીખાલાલ નેમચંદ ૭ - ઘવી નારણદાસ ધરમશીના સ્મરણાર્થે હા જયતીલાલ નારણદાસ ૮ શાહ કસ્તુરચ દ હરજીવનદાસ
હા ડે માણેકલાલ કસ્તુરચંદ શાહ ૯ શેઠ મેહનલાલ માણેકચ દ ગાધી ચુડાવાળા તરફથી
તેમના ધર્મપત્ની મ છાબેન લલ્લુભાઈના સ્મરણાર્થે ૧૦ સઘવી કાન્તિલાલ હરખચ દ ૧૧ શાહ ભીખાલાલ નાગરદાસ
સાલબની ૧ દોશી ચુનીલાલ કુલ ૪
સાદડી ૧ શેઠ દેવરાજજી જીતમલજી પુનમીયા
સાસવર્ડ ૧ ચ દનમલ સુથાના ઘર્મપત્ની સો ગુબાઈ મુથા તરફથી
હ અમરચંદજી મુથા
૨૭૧
૩૦૧ ૩૦૧
૨૫૧
૨૫૦
૨૫૧
૨૫૧
સિંગાપુર
૨૫૧
૧ દેશી વનેચ દ વછરાજ
સુરત ૧ શ્રી ખ્યા જેન સઘ હ શાહ રતિલાલ લલ્લુભાઈ ૨ શ્રીયુત કલ્યાણચ દ માણેકચ દ હંડાલાવાળા ૩ શ્રી હરીપુરા છકેરી સ્થા જેન સ ઘ હા બાબુલાલ છોટાલાલ શાહ
સુરેન્દ્રનગર ૧ શેઠ ચાપશીભાઈ સુખલાલ ૨ ભાવસાર ચુનીલાલ પ્રેમચંદ
૨૫૧ ૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
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૮ સઘવી જેચ દભાઇ નારણદાસ
૯ સ્વ. શાહુ વેલશીભાઇ સાકરચંદ કત્રાસગઢવાળાના સ્મરણુાથે હા ભાઈ ચીમનલાલભાઈ ૧૦ પારેખ મણીલાલ ટોકરશી લાતીવાળા (મેાટી બેનના સ્મરણાથે) ૧૧ શાહ નારણદાસ નાનજીભાઈના પુત્ર વાડીલાલભાઈના ધર્મ પત્ની સૌ નાર્ગીમેનના વર્ષીતપ નિમિતે હા શાતીલાલ નારણુદાસ ૧૨ સ્લ છબીલદાસ ગોકળદાસના સ્મરણાર્થે' તેમના
ધર્મ પત્ની કમળાએન તરફથી હા મઝુલાકુમારી ૧૩ શ્રી સ્થા. જૈન શ્રાવીકા સઘ હા ૨ભાબેન વાડીલાલ ૧૪ સ્વ ત્રિભાવનદાસ દેવચંદ તથા સ્વ ચ ચળબેનના મરણાર્થે હુ ડા હિંમતલાલ સુખલાલ
2.
હા નથુભાઇ નાનચ દ શાહ
૧૮ શેઠ મણીલાલ શીવલાલ
૧૯ સ્વ. મણીયાર પરસેાતમદાસ સુદરજીના સ્મરણાર્થે હાસકરચ ≠ પસાતમદાસ શાહ
૨૦ સ્વ.મેહનદાસ શુહાભાઈના સ્મરણાર્થે હતેમના ધર્મ પત્ની નાથીબેનમાઇ તરફથી હા શકરલાલ તથા શાતીવાલ
વિજયનગર
૧ શ્રી વર્ધમાન શ્વે ક્થા જૈન શ્રાવક સઘ હા છે.ટુમલ અજીતમિહ
વેરાવળ
૧
२
શાહ કેશવલાલ જેચદભાઇ શાહુ ખીમચદ સૌભાગ્યચ દ
3 સ્વ શેઠ મદનજી જેચ દલાઇના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મ પત્ની લાડકું વરખાઈ તરફથી હા ધીરજલાલ મદનજી
૪ શ્રી સ્થા જૈન સઘ હા શાહ શાલેય કરશનજી
૫
શાહ હરકિશનદાસ ફુલચંદ કાનપુરવાળા
સરા
૧
શ્રી સરા સ્થા.જૈન સઘ હા દેશી પાનાચદ સામ દ
૨૫૧
૫૧
૨૫૧
૧૫ શાહ મુળચ દેં કાનજીભાઇ હા શાહ નાગરદાસ ઓઘડભાઈ ૧૬ શેઠ મેાહનલાલ પિતામ્બરદાસ હા ભાઈ કેશવલાલ તથા મનસુખલાલ ૨૫૧ ૧૭ શ્રીમતી હીરાબેન નથુભાઈના વષી'તપ નિમિતે
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૩૦૧
૫૧
૨૫૧
૫૧
રૂપા
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫૧
૨૫
૨૫૧
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॥ श्री वीतरागाय नमः ।।
जैनाचार्य-जैनधर्मदिवार-पूज्य-श्रीधामीलाल-प्रतिविरचितयाअगारधर्मसजीवन्यास्यया व्याख्यया समलङ्कृतं
श्री उपासकदशाङसूत्रम्
.....
॥ मङ्गलाचरणम् ॥ श्रीसिद्धराज स्थिरसिद्धिराज्य
प्रद गत सिद्धिगति विशुद्धम् । निरञ्जन शाश्वतसोधमध्ये,
विराजमान सतत नमामि ॥१॥ नम्रीभूतपुरन्दरादिमुकुटभ्राजन्मणिच्छायया,
चित्रानन्दकरी सदा भगवतो यस्याड्विलक्ष्मी. परा। सद्विजाननिरन्तसिन्धुलहरीमग्ना स्वकर्मक्षय, कृत्वाऽनन्तसुखस्य धाम भविन प्रापु श्रये तं जिनम् ॥२॥
संसारसिन्धुसन्तापावर्त्तसपतितान् जनान् । त्राता योऽनुपमस्तस्मै वीराय महते नम ॥३॥ श्रीसुधर्मा महावीर,-लब्धरत्नोज्ज्वलो गणी । निववन्ध तदुक्तार्थ, नमस्तस्मै दयालवे ॥४॥ अर्थतत्करुणालब्ध,-विवेकामृतबिन्दुना । उपासकदशाव्याख्या, घासीलालेन तन्यते ॥५॥
इह खलु भगवतीर्थङ्करोपदिष्टमर्थ रूपमागममुपादाय गणधरा सूत्ररूपेण जग्रन्थु । उक्तश्च
"अस्थ भासह अरिहा, सुत्त गथति गणहरा णिउणा" इत्यादि।
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૩ સ્વ કેશવલાલ મુળજીભાઈના ધર્મપત્ની અમરતબાઈને
સમરણાર્થે હા ભાઈલાલ કેશવલાલ શાહ ૪ શાહ ન્યાલચ દ હરખચ દ ૫ શાહ વાડીલાલ હરખચ દ ૬ શ્રી સ્થા જેને મઘ
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સુવઈ
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૨૫૧ ૨૫૧
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૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાનદી જેન મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ સ્થા જૈન સંઘ જ્ઞાનભ ડારને ભેટ
સજેલી ૨ શાહ લુણાજી ગુલાબચદભાઈ ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા શાહ પ્રેમચંદ દલીચ દ
સોજત ૧ એ સૌ ઘીસીબેન લાલચદજી મહેતા (ફતેહનગર સઘને ભેટ)
હારીજ ૧ શાહ અમુલખ મુળજીભાઈ હા પ્રકાશચંદ્ર અમુલખભાઈ ૨ સ્વ બેન ચકાતાના સ્મરણાર્થે હા શાહ અમુલખ મુળજીભાઈ
હાટીના માળીયા ૧ શેઠ ગોપાલજી મીઠાભાઈ ૨ શ્રીમતી આન દગૌરી ભગવાનદાસના સ્મરણાર્થે
હા તેમના નાનાબેન અ સૌ મ જુલાબેન ભગવાનદાસ ગાધી
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તા. ૨૦-૫-૬૧ સુધીના મેમ્બરની સ ખ્યા ૧૪ આદ્ય સુરીશ્રી ૨૪ સુરીશ્રી ૯૬ સહાયક મેમ્બર ૫૮૧ લાઈફ મેમ્બર ૫૭ બીજા કલામના જુના મેમ્બર
દરેક દાતાઓને સમિતિ તરફથી આભાર માનુ છુ
લી સેવક, રાજકોટ તા ૨૦-૫-૬૧
સાકરચંદ ભાઈચંદ શેઠ
મત્રી,
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___ अगारसञ्जीवनी टीम अ १ अनुयोगशब्दार्थः
___ अयमत्रानुयोगशब्दा:-(१) युज्यते-सम-यते भगवदुक्तार्थेन सहेति योग. कयनलक्षणो व्यापार , अनुरूपोऽकृलो वा योगः-अनुयोग.। भगवडापितार्थ तो न्यूनापिकविपरीतभावलक्षण्यमीपदपि गणधरोक्तमत्रेषु नास्तीति भगवदुरतार्थानुरूपः मतिपादनलक्षणो व्यापारोऽनुयोग इति निमः।
(२) अपवा-अनु-पश्चात् योजन-सूत्रेणे सह सम्बन्धनम् अर्थानुरूपमतिपादनम् अनुयोगः।
ये यत्तीस सूत्र चार अनुयोगों में विभक्त (पटे हुए) हे अतः पहलेपहल पाठकों के विशेप ज्ञान के लिए अनुयोगो का और अनुयोग के भेदों का व्यारयान करते है
अनुयोग का अर्थ (१) भगवान्ने जो तत्व कहा है उस के माय कथन के समन्ध होने को योग करते है। और जो अनु अर्थात् अनुकल सपन्ध हो उसे अनुयोग कहते है । तात्पर्य है कि भगवान्ने तत्वोका जैमा उपदेश दिया गावमाही उपदेश गणवरप्रणीत मत्रो मे है। गणधरी ने तत्वों के उन स्वरूप मे न कमी की है न अधिकता की है और न उसके तात्पर्य मे ही अन्तर पडने दिया है, दम लिए यह अनुयोग कहलाता है।
(२) अनु अर्थात् पश्चात् , योग अर्थात् सत्र के माय सबन्ध करनाअनुयोग है। इन व्युत्पत्ति का यह अर्थ हुआ कि अर्थ के अनुकल प्रतिपादन करनेको अनुयोग कहते है।
એ બત્રાનું સૂત્રે ચાર અનુગમાં વહેચાએવા છે એટલે સૌથી પહેલા વાચકોના વશેષ જ્ઞાન માટે આનુયોગેનું તથા અનુગના ભેદનું વ્યાખ્યાન કરવાની આવશ્યકતા છે
અનુયોગને અર્થ (૧) ભગવાને જે તત્ત્વ કહ્યું છે, તેની સાથે કથનને સબધ થાય તે યંગ કહેવાય છે, અને જે અનુ અર્થાતુ અનુકૂળ આ બધ હેય તે અનુગ કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કે ભગવાને તેને જે ઉપદેશ આપે હતું, તેજ ઉપદેશ ગણધર –પ્રત સૂત્રોમાં કહે છે ગણધએ તોના એ સ્વરૂપમાં નથી કાઈ ન્યૂનતા કરી કે નથી કોઈ અધિકતા કરી, તેમજ તેના તાત્પર્યમાં પણ કશું બતર પડવા દીધું નથી, તેથી જ તે અનુયાગ કહેવાય છે
(૨) અનુ એટલે પશ્ચત, એગ એટલે સૂનની સાથે સબંધ કરવો એ પ્રમાણે અનુગ શબ્દ સિદ્ધ થાય છેઆ રીતે વ્યુત્પત્તિની દષ્ટિએ તેને અર્થ એ થયે કે અનુકૂલ પ્રતિપાદન કરવું તેને અનુગ કહે છે
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
तत्र पूर्वापरविरोधरहितानि स्वतः प्रमाणभूतानि द्वात्रिंशत्नाणि सम्प्रति समुपलभ्यन्ते, तनाऽऽचाराङ्गादीन्येकादशाङ्गेनाणि (११), औपपातिकादीनि द्वाद शोपाङ्गनाणि (१२), नन्द्यादीनि चत्वारि मूलमनाणि (४), बृहत्स्यानीनि चत्वारि छेदनाणि ( ४ ), आवश्यकनमेक (१) चेति [३२] |
एतानि च सूत्राणि चतुर्विधेऽनुयोगे प्रतिभक्तानीति ताद् विनेयबुद्धिवैशचाय सभेदमनुयोग निवेदयाम:
हिन्दी-भाषानुवाद
तीर्थंकर भगवानने अर्थागमका उपदेश किया था। गणधरोंने उस आगमको सूत्ररूपमे गूँथा (सकलन किया) है । कहा भी है'अर्हन्त अर्थागम का उपदेश देते है और निपुण गणधर उसे सूत्ररूपमे गूथ देते है ।' इत्यादि ।
आजकल, पूर्वापर विरोध से रहित स्वत प्रमाणभूत बत्तीस सूत्र उपलब्ध है. आचाराग आदि ग्यारह अग (११) औपपातिक आदि बारह उपाग (१२) नन्दी आदि चार मूलसूत्र ( ४ ) बृहत्कल्प आदि चार छेद सूत्र (४) और एक आवश्यक सूत्र ( १ ) [३२] ગુજરાતી ભાષાનુવાદ
તીર્થકર ભગવાને મૂળ અર્થાગમના ઉપદેશ કર્યું હતેા એ આગમને ગણુ ધરીએ સૂન રૂપમાં ગૂંથ્યા ( સ કલિત કર્યાં ) છે કહ્યુ છે કે-અ`ત અર્ધાંગમના ઉપદેશ કરે છે અને નિપુણ ગણુધર તેને સૂત્રના રૂપમા ગૂથી દે છે” ઈત્યાદિ
આજકાલ પૂર્વાપવિરોધથી રહિત તથા મ્વત પ્રમાણભૂત એવા ખત્રીસ સૂત્ર ઉપલબ્ધ થાય છે –આચારાંગ આદિ અગીઆર અગ* (૧૧), ઔપપાતિક આદિ ૧૦ ઉપાગ (૧૨), નન્દી આદિ ચાર મૂળ સૂત્ર (૪), અર્ક ૫ આદિ ચાર છેદ સૂત્રા (४) भने आवश्यक सूत्र ( १ ) मे यत्रीस थया
(१) - यद्यपि प्रवचन द्वादशाङ्ग तथाऽपि दृष्टिवादमूत्ररूपस्य द्वादशस्याङ्ग स्याऽनुपलभ्यमानतयाऽगनायेकादशेत्युक्तम् ।
*यो तो मवचन के बारह अंग है किन्तु वारहवा दृष्टिवाद अग आजकल उपलब्ध नहीं हैं इसी से यहाँ अग ग्यारह ही रहे हैं ।
પ્રવચનના તા ૧૨ અગ છે, પરન્તુ ખારમુ દૃષ્ટિવાદ આગ આજકાલ મળતુ નથી, તેથી અહીં ૧૧ જ અંગ કલા છે
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अंगारसञ्जीवनी टीका अ १ अनुयोगशब्दार्थः
(६) अनु-भगवदुक्तार्थेन सह योगः-कथनम् अनुयोग । इह साहित्य चाविरोपित्वरूपानुकलत्वमेव ।। (७) अनु-परिपाटया-तीपवरपरम्परारीतिमनुसृत्य योग' कपनम् अनुयोगः।
अनुगदम्य-मादृश्य, लसण, बीमा, इत्थम्भाव', मह, परिपाटी, एतेऽी' गन्दकल्पद्रुमे प्रदर्शिताः।
यद्वा-मातभापानिबद्धस्य 'अणुओग' गन्दस्य 'अनुयोग अणुयोग. इत्युभय सस्कृत भवति, तर प्रथमो व्याख्यात', द्वितीयो व्याख्यायते
१ साहित्य-सहितत्वम् । शारीरिक मानमिक क्लेश पहुँचाना चाहिए, न परिताप उपजाना चाहिए, और न प्राणोसे मुक्त करना चाहिए" वैसा ही योग अर्थात् कथन करना अनुयोग है।
(३) अनु-भगवान द्वारा प्रतिपादित अर्थ के साथ योग-कथन करना अनुयोग है । पहा 'सार' का अर्थ अविरोधी अर्गत भगवान् के कयन के अनुकल, यह समझना चाहिए ।
(७) अनु-तीर्थकरी की परम्परा की रीति के अनुसार योग कयन करने-को अनुयोग कहते है।
'शरकल्पद्रुम' कोप मे 'अनु' शब्द के यहाँ बताये हुए सादृश्य, लक्षण, वीप्ला, इत्यम्भाव, सह और पारिपाटील्प अर्यों का उल्लख है।
प्राकृत भापामे 'अणुजो (ओ) ग' शब्द है। इस के सस्कृत भाषा मे दो रूप बनते हैं-एक 'अनुयोग' दुसरा 'अणुयोग'। इनमें શારીરિક-માનસિક કવેશ પહોચાડ ન જોઈએ પતિાપ ઉપજાવ નડએ, અને પ્રાણથી મુકત કરવા ન જોઈએ, ”—એવો વેગ અર્થાત્ કાન કરવું તે અનુગ છે
(૬) અનુ-ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત અર્થની સાથે ગ–કથન કરવું તે અનુગ છે અહીં “માથે” ને અર્થ અવિરેાધી અર્ધાતુ ભગવાનના કથનને અનુળ એમ સમજવું જોઈએ
. (૭) અનુ-નીર્થકરોની પ પરની નીતિને અનુસરીને યોગ-કથન કરવું, તેને અનુયાગ કહે છે
'श०६८पद्रुम' उपमा 'मनु' सना मा ताal माश्य, क्षय, વીસા, ઈન્થ ભાવ, મહ અને પરિપાટી ૩૫ અર્થોનો ઉલ્લેખ છે .
પ્રાકૃત ભાષામાં અણુઓ)ગ શબ્દ છે સંસ્કૃત ભામલે તેના બે રૂપ
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उपासमदशात्रे (३) भगवदुपदिष्टमर्थम् अनु लक्ष्यीकृत्य योगः कथनम् अनुयोगः ।
(४) अनु-भगवदुपदिष्टमर्थमर्थ प्रति योग'क्थनम् अनुयोग । एम्म यर्थम परित्यज्य कथनमित्यर्थ. जीवादिलकलपदार्थानामनेकान्तरूपेण निरूपणमिति भावः
(५) अनु इत्थम्भावेन भगवदुक्तार्थप्रकारेण-"मचे पाणा सब्वे भूया सव्वे जीवा मव्वे सत्ता ण हतन्या, ण अज्जावेयव्या, ण परिघेतवा ण परितावेयचा, ण किलामेयव्या ण उबद्दवेयव्या" इत्यादिरूपेण योग, . =कथनम्-अनुयोग ।
१ छाया-सर्वे प्राणाः, सर्वे भूताः, सर्वे जीवा, सर्वे सच्चा ,नहन्तव्या , ना ज्ञापयितव्या.,न परिग्रहीतव्याः, न परितापयितव्या ,न लामयितव्या, नोपद्रोतव्या.।
(३) भगवान् अर्हन्त द्वारा कथित अर्थ का अनु-ख्याल रखकर, योग अर्थात् कथन करना सो अनुयोग है।
(४) अनु अर्थात् भगवान् के बताए हुए प्रत्येक अर्थ का, योग अर्थात् कयन करना अनुयोग है। इस का तात्पर्य यह है कि भगवान्ने जितने पदार्थों का उपदेश दिया है उनमे से एक को भी न छोडकर जीवादि समस्त पदार्थों का अनेकान्त रूप से कथन करना अनुयोग कहलाता है।
(५) अनु अर्थात् भगवान्ने जैसा तत्त्व प्रतिपादन किया है कि"समस्त प्राणियो को, समस्त भृतों को, समस्त जीयां को और समस्त सत्वों को न मारना चाहिए, न दड कशादि से ताडना चाहिए, न दास दासी के समान बलात्कारसे पकडना चाहिए, न
(૩) ભગવાન અખ્ત દ્વારા કથિત અને અનુ-ખ્યાલ રાખીને, એગ અર્થાત કથન કરવું, તે અનુગ છે.
(૪) અનુ અર્થાત્ ભગવાને દર્શાવેલા પ્રત્યેક અર્થને રોગ અર્થાત્ કથન કરવુતે અનુગ છે એનું તાત્પર્ય એ છે કે ભગવાને જેટલા પદાર્થોને ઉપદેશ આપે છે તેમાથી એક પણ પદાર્થને છેડયા વિના જીવાદિ સમસ્ત પદાર્થોનું અનેકાન્ત રૂપે કથન કરવું એ અનુગ કહેવાય છે
(૫) અનુ અર્થાત્ ભગવાને તનુ જેવું પ્રતિપાદન કર્યું છે કે-“સમસ્ત મણિઓને, સમસ્ત બ્રુનેને સમસ્ત જીને અને સમસ્ન સો મારવા ન જોઈએ તેમને દડ આદિથી તાડન નકવુ જોઈએ, દામ-દાસીની પડે તેમને પકડવા મ જોઈએ
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अंगारमजीवनी टीका अ १ अनुयोगगब्दार्थः यार्था एव महान्तः, एकैकेन भगवदुक्तान बहुतरमुत्राणा मम्मन्यादिति । अथवा-(१) एन-अता, नु प्रस्तुत -कथितः-अनु', अनो: अर्हन्मस्तुतार्यस्य योगो यन सोऽनुयाग भगवदुपदिष्टजीवाजीवादिनवतत्वप्रतिपाठक इत्यर्थः ।
(0) अस्य अनन्तस्य जीवाद्यवस्थितानन्तरर्मस्य नुः निर्णेता योग अय नम् अनुयोग । निकाल कर यदि फैला दिया जाय तो वह इतना विस्तृत हो जायगा कि एक की तो बात ही क्या अनेक सन्दुक उससे बच सकते हैं। क्या वह मन्दक उस कपड़े से बडा है ? नहीं। इसी प्रकार मूत्र की अपेक्षा अर्थ ही विशाल होता है, क्योकि मर्वज्ञ कथित एक-एक अर्थके साथ यहतेरे सूत्रों का समन्ध होता है।
अनुयोग शब्द के और भी अनेक प्रकार से अर्थ होते हैं। जैसे(१) अ- अर्हन्तद्वारा
जो भगवदुपदिष्ट अर्थ नु- कथित [अर्थकी] है का ही कथन करे। याग- विद्यमानता होना _अनन्त अर्थात् जीवादिमे । जिस कथनसे जीवादि
पाये जानेवाले अनन्त वर्मों के अनन्न धर्मों का निर्णय नु- का निर्णय करनेवाला । किया गया हो।
योग-कथन લિવવામાં આવે તે તે એટલું વિસ્તૃત થઈ જશે કે એ તે શુ પણ એવી અનેક પેટીઓ એ વસ્ત્ર વડે બાધી લઈ શકાય, તે શુ એ પેટી એ વિશ્વથી મોટી છે એમ હેવાય ? ના એવીજ રીતે સૂત્રની અપેક્ષાએ અથજ વિશાળ થાય છે, કારણકે સર્વજ્ઞકથિત એક એક અર્થની સાથે અનેક સૂત્રને સ બ ધ રહેલું હોય છે.
અનુયોગ શબ્દના બીજા પણ અનેક પ્રકારના અર્થો થાય છે, જેવા કે(१) अ-मईत द्वारा नु-थित (अर्थनी)
જે, ભગવાને ઉપદેશેલા અર્થનુજ योग-विधमानता की
નતા હોવી | કથન કરે (१) अ-मनन्त अर्थात् वाहिमा ] જે કથનથી જીવાદિના અન ત
માલુમ પડતા અન ત ધર્મોનો ધર્મોને નિર્ણય કરવામાં આવ્યું – નિર્ણય કરનારૂ योग-४थन
હોય
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६
उपासन्दशासूत्रे
(१) अणुना=समीपेन भगवदुक्तार्थसामीप्येन योगः = सम्बन्धी यस्य सः अणुयोगः । इह सामीप्य चानुवादस्वरूपम् ।
-
(२) अणुना = स्वल्पेन = स्वल्पाप्रयवेन सूत्रेण वृहतोऽर्थस्य योगोऽणुयोग : । शङ्का — ननु कथ स्वल्पावर न यत्र बृहतोऽर्थस्य समावेशो मन्यते । यत्र हि मञ्जुपायानि त्रादीनि निधीयन्ते न तस्या पत्राद्यपेक्षयाऽणुल युज्यत, इति चेन्मैवम्,
समाधानम् - यथा मन्जूपानि हितैकबसनमुपादाय प्रसारितेन तेनैवाऽनेश मञ्जूपा बन्धनीया. परिदृश्यन्ते, कुत. पुनस्तस्या वस्त्रापेक्षया वृहच तथैव सूनापेक्ष से पहले 'अनुयोग' शब्द का सात प्रकारसे व्याख्यान किया है । अब दूसरे 'अणुयोग' शब्द का व्याख्यान करते हैं—
(१) भगवत्कथित अर्थ के सामीप्य से योग - जिस का सम्बन्ध हो उसे अणुयोग कहते है । यहाँ सामीप्य का अर्थ अनुवाद है अर्थात् भगवान् ने जो तत्त्व कथन किया है उसी को पुन कहना अणुयोग है । (२) अणु अल्प अवयव वाले ( सक्षिप्त ) सूत्र द्वारा विस्तृत अर्थ योग होजाना अणुयोग है ।
शङ्का - जिस सन्दूक (पेटी) मे बहुत से वस्त्र आदि पदार्थ रखेजाते है, वह उन पदार्थों से छोटा नही हो सकता । इसी प्रकार जिस सूत्रमे विस्तृत अर्थ भरा हो वह सूत्र कैसे छोटा (संक्षिप्त ) हो सकता है ? । समाधान - ऐसा न कहिए । सन्दूक में रखे हुए एक वस्त्र को बाहर नेमे अनुयोग ने जीले अणुयोग मेभाना पडेला अनुयोग शब्छनु सात પ્રકાર વ્યાખ્યાન કર્યું છે હવે બીજા અનુયોગ શબ્દનુ વ્યાખ્યાન કરીએ છીએ (૧) ભગવાને કહેલા અના સામીપ્યથી યેગ–સ બ ધ) જેને હાય તેને અણુયાગ કહે છે. અહી સામીપ્સ ને અર્થ અનુવાદ છે, અર્થાત્ ભગવાને જે તત્ત્વ કહ્યુ છે તેને પુન કહેવુ ત આડુંવેગ કહેવાય છે
3
(२) आशु - अप अवयववाणा (सक्षिप्त, सूत्र द्वारा विस्तृत अर्थनो योग थवे તે અશુગ છે
શકા—જે પેટીમા ઘણુ' વસ્ત્ર આદિ પદાર્થોં નાખવામા આવે છે, તે, તે પદાર્થોથી નાની હાઈ શકતી નથી એ પ્રમાણે જે સૂરમા વિસ્તૃત અર્થ ભર્યાં હાય, તે સૂત देवी रीतेनानो (मक्षिप्त ) हो थे ?
સમાધાન—એમ ન કહે. પેટીમા રાખેલા એક વસ્ત્રને બહાર કાઢીને જે
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अंगारमञ्जीवनी टीका अ १ अनुयोगशब्दार्थ
।
या एव महान्त, एकैकेन भगवदुक्तार्थेन बहुतरमुत्राणा सम्यन्यादिति । जवा - ( १ ) एन = अर्हता, नु. =मस्तुत - कथितः - अनु, अनोः = अर्हन्मस्तुतार्थम्य योगो यन सोऽनुयाग. भगवदुपदिष्टजीवाजीपादिनत्रतत्रपतिपादक इत्यर्थ' ।
( 2 ) अस्य = अनन्तस्य जीनाद्यवस्थितानन्त नर्मस्य नु' =निर्णेता योग =थनम् अनुयोगः ।
निकाल कर यदि फैला दिया जाय तो वह इतना विस्तृत हो जायगा कि एक की तो बात ही क्या अनेक सन्दूक उससे बंध सकते है । क्या
सन्दुक उस कपडे से बडा है ? नही । इसी प्रकार सूत्र की अपेक्षा अर्थ ही विशाल होता है, क्योकि सर्वज्ञ कथित एक-एक अर्थके साथ बहुतेरे सूत्रों का समन्य होता है।
अनुयोग शब्द के और भी अनेक प्रकार से अर्थ होते हैं । जैसे
अर्हन्तद्वारा
कथित [ अर्थकी ] विद्यमानता होना
(१) अ-
नु–
योग
अनन्त अर्थात् जीवादिमे पाये जानेवाले अनन्त धर्मों | नु- का निर्णय करनेवाला
योग - कथन
(२) अ—
(१) अ र्द्धन्त द्वारा नु-थित ( मर्धनी ) योग - विद्यमानता होवी
७
(२) अ- अनन्न અર્થાત્ જીવાદિમા
માલૂમ પડતા અનત ધર્માના नु- निर्याय स्नाइ
योग - ४ न
जो भगवदुपदिष्ट अर्थ
का ही कथन करे ।
ફેલવવામા આવે તે તે એટલુ વિસ્તૃત થઇ જશે કે એક તે! શુ પણુ એવી અનેક પેટીએ એ વજ્ર વડે ખાધી લઈ શકાય, તે શુ એ પેટી એ વજ્રથી મેરી છે એમ કહેવાય ? ના એવીજ રીતે સૂત્રની અપેક્ષાએ અજ વિશાળ થાય છે, કાણુકે સર્વજ્ઞકથિત એક એક અર્થની માથે અનેક સૂત્રાને સ મ ધ રહેલા હાય કે અનુયાગ શબ્દના ખીજા પણ અનેક પ્રકારના અર્ચા થાય છે, જેવા ડે
जिस कथन से जीवादि के अनन्त धर्मों का निर्णय किया गया हो ।
જે, ભગવાને ઉપદેશેલા અનુજ કથન કરે
અનત
જે કથનથી જીવાદિના ધર્માંના નિર્ણય કરવામા આવ્યા હાય
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उपासकदशास्त्रे (३) अस्य अनुकम्पायाः जीवरक्षाया नुः स्तुतिः-कीर्तन यत्र सः अनु'= प्रवचन, तस्य योगा आख्यानम्-अनुयोगः । अयमनुयोगश्चतुर्धा-(१) चरणरणानुयोगः, (२) धर्मकथानुयोगः,
(३) गणितानुयोगः, (४) द्रव्यानुयोगः। अथ (१) चरणकरणानुयोगो व्यारयायतेचर्यते गम्यते प्राप्यते भवोदये. पर कूल चतुर्दशगुणस्थानावस्थास्वरूपमनेनेति चरण-मूलगुणरूपम् । यद्वा-चरण-त्रतादि, तच सप्ततिसरयाम्, उक्तञ्च(३) अ-अनुकम्पा (जीवरक्षा) की जिसमे
नु स्तुति की गई हो उसे अनु अर्थात् प्रवचन कहते है । उस अनु-प्रवचन-का योग-कथन करना, अनुयोग कहलाता है। यह अनुयोग चार
प्रकार का है(१) चरणकरणानुयोग (२) धर्मकथानुयोग (३) गणितानुयोग
(४) द्रव्यानुयोग। (१) चरणकरणानुयोग ___ जिससे ससाररूपी समुद्र का दूसरा किनारा अर्थात् चौदहवा गुणस्थान प्राप्त हो उसे चरण ( मूलगुण ) कहते है । ब्रत आदिको भी चरण करते है। वह सत्तर (७०) प्रकार का है। कहा भी है। (३) अ-मनु ( रक्षा)नी रमा છે -સ્તુતિ કરવામાં આવી છે, તેને અનુ અર્થાત્ પ્રવચન કહે છે, એ
मनु-अवयन-नु योग-४थन ४२५, ते मनुयो। ४ाय छ
આ અનુયાગ ચાર પ્રકારનો છે – [૧] ચરણકરણનુગ [२] धर्म४यानुयो। [३] गणितानुयाय
[४] द्रव्यानुया।
(१) यानुयोग જેના વડે સ સાર રૂપી સમુદ્રને બીજે (સામે કિનારે અર્થાત્ ચૌદમુ ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત થાય, તેને ચરણ (મુલગુણ ) કહે છે વ્રત આદિને પણ ચરણ કહે છે તે સીરિ પ્રકાર છે, જે કે –
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अगारधर्मसजीवनी टीका अ १ चरणकरणानुयोगवर्णनम्
५
१०
१७
मूलम् - " वय समणधम्म सजम, वेयाचच च वभगुत्तीओ |
१२
४
७
णाणाइतिय तव कोहनिग्गहादी चरणमेय ॥१॥ " इति ॥ छाया - "त - श्रमणधर्मसयम - वैयावृत्य च ब्रह्मगुप्तयः ।
ज्ञानादिनिक तपः क्राधनिग्रहादि चरणमेतत् ॥ १ ॥ " इति । क्रियते चरणस्य पुष्टिरनेनेति करणम् - उत्तरगुणरूपम्, यद्वा करण - पिण्डविशुद्धवादि एतदपि सप्ततिसख्यरम् । उक्तञ्च
१२
१२
७०
पिविसोही ममई, भावण पडिमा य इदियनिरीहो । पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेच करण तु ॥ १ ॥ " इति । छाया - " पिण्डविशुद्ध, समिति, भावना, प्रतिमा च इन्द्रियनिरोधः । प्रतिलेखना गुप्तय', अभिग्रहाश्चैव करण तु ॥ १ ॥ " इति । तयोरनुयोग =भगवदुक्तार्थानुरूप प्रतिपादनमिति चरणकरणानुयोगः ।
Cs
--
( " पवन, १० श्रमणधर्म, १७सयम, १० वैयानृत्य, ( वेयावच ) ९ ब्रह्मचर्य की वाङ, ३सम्यग्ज्ञान - दर्शन - चारित्र, १२तप, ४क्रोध - मानमाया - लोभका निग्रह | यह मत्तर प्रकार का चरण है "।
चरण की जो पुष्टि करे उसको अर्थात् उत्तर गुण को करण कहते हैं । पिण्डविशुद्धि आदि भी रण कहलाते हैं, वे भी सत्तर प्रकार के है ।
कहा है
“४ पिण्डविशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना १२ पडिमा ५ इन्द्रिय| निग्रह, २५ पडिलेण, ३ गुप्तिया, ४ अभिग्रह । ये करण के सत्तर ७० भेद है "
जिसमे भगवान के कथन के अनुसार इन दोनों चरण और करण - का प्रतिपादन किया जाता है वह चरणकरणानुयोग है ।
" च व्रत, १० श्रमणधर्म, १७ सयभ, १० वैयावृत्त्य ( वेयावस्य ), ब्रह्मर्यनीवार्ड, 3 सभ्य ज्ञान-दर्शन-शास्त्रि, १२ तय ४ ठीघ, भान-भाया લેાભના નિગ્રહ એ સીત્તર પ્રકારના ચરણ છે” ચરણની જે પુષ્ટિ કરે તે કરણ પિશુદ્ધિ આ િપણ કરણ કહેવાય છે ૪ વિંડવિશુદ્ધિ ૫ સમિતિ, ૨૫ પડિલેહણુ, ૩ ગુમિયે, ૪ અભિગ્રહ
66
કહેવાય છે, અર્થાત્ ઉત્તરગુણ કહેવાય છે તેના પણ સીત્તર પ્રકાર છે, જેવા કે ૧૨ ભાવના, ૧૨ પડિમા ૫ ઈંદ્રિયનિગ્રહ, એ પ્રમાણે કરણના ૭૦ ભેદ્દો છે ” જેમા ભગવાનના કથનને અનુસરીને એ બેઉં-ચરણુ અને કરણ-નુ પ્રતિપાદન
કરવામા આવે છે, તે ચરણુ કણાનુયાગ કે
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उपासकदशागसूत्रे (३) अम्य अनुकम्पाया: जीवरक्षाया नुः स्तुति.-कीर्तन यत्र सः अनु'= प्रवचन, तस्य योगा आख्यानम्-अनुयोगः। अयमनुयोगश्चतुर्मा-(१) चरणरणानुयोग', (२) बमस्थानुयोगः,
(३) गणितानुयोगः, (४) द्रव्यानुयोगः । अथ (१) चरणकरणानुयोगो व्याख्यायतेचर्यते गम्यते प्राप्यते भवोदये' पर कल चतुर्दशगुणस्थानावस्थास्वरूपमनेनेति चरण-मूलगुणरूपम् । यद्वा-चरणअतादि, तच सप्ततिसरयरम्, उक्तञ्च(३) अ-अनुकम्पा (जीवरक्षा) की जिसमे
नु-स्तुति की गई हो उसे अनु अर्थात् प्रवचन कहते हैं । उस अनु-प्रवचन-का योग-कथन करना, अनुयोग कहलाता है। यह अनुयोग चार
प्रकार का है(१) चरणकरणानुयोग (२) धर्मकथानुयोग (३) गणितानुयोग
(४) द्रव्यानुयोग। (१) चरणकरणानुयोग __ जिससे ससाररूपी समुद्र का दूसरा किनारा अर्थात् चौदहवा गुणस्थान प्राप्त हो उसे चरण (मूलगुण ) कहते हैं । ब्रत आदिको भी चरण करते है। वह सत्तर (७०) प्रकार का है। कहा भी है। (३) अ-मनु: ५। (७१रक्षा) नी, सभा ૩-સ્તુતિ કરવામાં આવી હોય, તેને અનુ અર્થાત્ પ્રવચન કહે છે, એ
मनु-अवयन-नु, योग-४थन वु, ते मनुयो उपाय छ
આ અનુગ ચાર પ્રકારનો છે – [૧] ચરણકરણનુગ ]િ ધર્મકથાનુગ [3] गणितानुया
[४] द्रव्यानुयोग
(१) २२११२नुयो। જેના વડે સ સાર રૂપી સમુદ્રને બીજે (સામો) કિનારો અર્થાત્ ચૌદમુ ગુણસ્થાન પ્રાપ્ત થાય, તેને ચરણ (મૂલગુણ) કહે છે વ્રત આદિને પણ ચરણ કહે છે તે સીત્તોર પ્રકાર છે, જે કે
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अगारसञ्जीवनी टीका अ १ धर्मकथानुयोग निरूपणम्
1
"दयादनक्षमायेपु, धर्मा प्रतिष्ठिता । धर्मोपादेयताग बुधैर्धर्मकयोच्यते ॥ १॥ इति" । धर्मस्वाया अनुयोगः धर्मकयानुयोगः अत्र ज्ञाताधर्मकथाङ्गनम् उपा सक्दशाङ्गसृत्रम्, अन्तकाद्गम् अनुत्तरोपपातिकशास्त्रम् निपासू चैतानि पञ्चाङ्गाणि आपपातिस्मृत्र, राजमनीयसूत्र, निरयापलिकादीनि पञ्चति मिला सप्तोपासनाणि ७ उत्तराध्ययन- मूलसूत्र चेति सफलसङ्कनया त्रयोदशमनाणि यानि ।
,
>
११
अथ (३) गणितानुयोगोऽभिधीयते
गणितम्यानुयोग गणिनानुयोगः, गणित सख्यान विपयीकृत्य भगवदुक्तागमानुरूप गणधराणा स्वनवणी व्यापार इत्यर्थः । तत्र जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः, चन्द्रमाप्त, सूर्यमनप्तिश्चेत्युपागमननियम् ॥
"जो कवन दया दान क्षमा आदि धर्मके मुख्य अगोमे व्याप्त हो और जिसमे धर्मकी उपादेयता डिपी हा उसे विद्वान् धर्मकथा कहते है ।" धर्मकथा के अनुयोगको कर्मकथानुयोग कहते हैं । जाना धर्मकथाग, उपासकदशाग, ३ अन्तकृयाग, ४ अनुत्तरोपपानिकदशाग और पवित्राकसूत्र, ये पाँच अगमृत्र, ६ औपपातिकसूत्र, ७राजपश्नीयसूत्र, और १२ निरावलिका आदि पाँच सूत्र मिल कर सात उपागसूत्र, तथा १३ उत्तरा यय मूलसूत्र, ये सब तेरह सूत्र धर्मकयानुयोग में है । (३) गणितानुयोग
गणित के विषयमे भगवानने जिस अर्थागमका प्रतिपादन किया है और उसके अनुसार गणधरोने जो कथन किया है उसीको गणि“ જે કથન યા દાન ક્ષમા આદિ ધર્મના મુખ્ય અગામા વ્યાપ્ત હાય અને જેમા ધર્મની ઉપાદેયતા છુપાઇ નહી ડેય, તેને વિદ્વાને ધર્મકથા કહે છે,” ધર્મકથાના અનુયાગન ધર્મ કથાનુયોગ કહે છે જ્ઞાતાપ કયાગ (૧), उपासाग (२), शान्तगृर्हृशाग (3), अनुत्तरोपपातिश्ह्याग (४) भने पिगडसून (प), से पाथ मगसून, सोपयाति सूत्र (९) राष्अनीय सून (७) અને નિરયાવલિકા માદિ પાચ સૂત્ર (૧૨) મળીને સાત ઉત્તરાયન મૂલસૂત્ર, (૧૩) એ તેર સુત્રા ધ કથાનુયોગમાં આવે છે
(३) शथितानुयोग
ગણિતના વિષયમા ભગવાને જે અર્થાગમનુ પ્રતિપાદન કર્યું છે અને તેને અનુસરીને ગણધારાએ જે કથન કર્યું છે, તેને ગણુતાનુયોગ કહે છે
ગણિતાનુ
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उपासकदशा सूत्रे
अत्राऽऽचारागमूत्र प्रश्नन्याकरणमृत्र चेति द्वे अगमने, दर्शवकालिग-मूलमूत्रम् १, बृहत्कल्पादीनि चत्वारि छेदत्राणि ४, आवश्यकत्र १ चेत्यष्टौ भूत्राणि को यानि । प्राधान्यतश्चरणकरणयोधकतयैतेपा चरणकरणानुयोगत्व गिध्यति ।
चतुर्वनुयोगभेदेषु चरणकरणानुयोगस्यैव प्राधान्यम् , इतरेपात्वेतत्परिपोषकतया तदद्गत्वसिद्धे., यथा-अगुवर्तिमाया तदाययीभूतवादलगलामाद्यपेक्षयाऽगुरुद्रव्यस्यैव प्राधान्यम् ।
अथ (२) धर्मकथानुयोग प्रस्तूयते दुर्गतौ प्रपतन्त सच्चसडात धाग्यतीति धर्मः, तम्य कथन:स्था धर्मकथा-धर्मदेशनादिलक्षणवाक्यमान्यरूपा । उकञ्च
इस अनुयोगमे आठ सूत्र है-(१) आचारागसूत्र, (२) प्रश्नव्याकरण सूत्र, (३) दशवैकालिक सन्न, (७) वृहत्कल्प आदि चार छेदसूत्र, (ब) आवश्यकसूत्र । इन आठों सूत्रोमे मुख्यरूपसे चरण और करणका वर्णन है इसलिए ये चरणकरणानुयोगमे है। जैसे अगरबत्ती (धूपकी बत्ती) के साथ उसकी आधारभृत बासकी एक ग्वपञ्च (मलाक) भी होती है पर मुरयता अगरबत्तीकी ही है, उसी प्रकार इन चारों अनुयोगौमे इस चरणकरणानुयोगकी मुख्यता हे। शेप तीन अनुयोग इसीके पोपक है अत इसके ही अग हैं।
(२) धर्मकथानुयोग दुर्गतिमे गिरते हुए जीवो को 'जो, धारे ( उठावे ) उसे धर्म कहते है, धर्मके करन करनेको धर्मक या कहते है। कहा भी है
भी मनुयोगमा मा सूत्र -(१) माया11 सूत्र, (२) नव्या सूत्र, (૩) દશવૈકાલિક સૂત્ર (૭) બુડા આદિ ચાર કેદસૂત્ર, (૮) આવશ્યકસૂત્ર આ આઠે સૂત્રમાં મુખ્યત્વે કરીને ચરણ અને કરણનું વર્ણન છે જેથી તે ચરણકરશુનુ ગમાં આવે છે
જેમ અગરબત્તી ની સાથે તેની આધારભૂત એક વાસની સળી પણ હોય છે, પણ મુખ્યતા તે અગરબત્તીની જ છે, તેમ આ ચારે અનુયોગમાં આ ચરણકરણાનુગનીજ મુખ્યતા છે બાકીના ત્રણ અનુગ તેને પે પાક છે, તેથી તેનાજ અ ગરૂપ છે
(२) धर्मस्थानुयाय દતિમ પડતા જીને જે ધાર-ધ રણ કરી રાખીને-ઉચે ધરી રાખે (પા ન દે), તેને ધર્મ કહે છે ધર્મનું કથન કરવું, તે ધર્મકથા કહેવાય છે ४९ छ :
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अत्रारसञ्जीवनी टीश अ १ अगसूननिरूपणम्
१३ (२) सूत्रकृताङ्गम्-अत्र लोकालोकस्वरूपप्रतिपादनपूर्वक क्रियावादिप्रभृतीना सक्षेपतो मतनिराकरणम् ।
(३) स्थानाङ्गम्-अाखिलपदार्थाना दशम स्थानेषु स्थापनम् । (४) समवायगम्-अत्र जीवाजीवादितत्तत्सख्याविशिष्टपदार्थप्ररूपणम् ।
(५) भगवतीस्त्रम्-अत्र जीवाजीवलोकालोर-स्वसमय-परसमयादिविपये पत्रिंशत्सहस्र (३६०००) प्रश्नवाश्यानो समाधानम् । अस्यैव मूत्रस्य विवाहप्रज्ञप्तिस्तथा व्याख्यामज्ञप्तिरपि नामान्तरम् । (६) ज्ञाताधर्मकथाद्गसूत्रम्-अनाऽऽख्यायिादिवर्णनम् ।
(२) सूत्रकृताग-मे जीवादिके स्वरूपका प्रतिपादनपूर्वक तीनसौ तिहमठ (३६३) एकान्तक्रियावादी आदिको उनके मतका सक्षेपसे खण्डन करके स्वसमयमें स्थापन किया है।
(३) स्थानाग-मे आत्मादि पदार्थों को दस स्थानोंमे स्थापित किया है।
(४) समवायाग-मे जीव अजीव आदिका स्वरूप और एकसख्यक आदि पदार्योंका निरूपण है।
(५) भगवती-सूत्र-मे जीव, अजीव, लोक, अलोक, स्वसमय, परमसमय, आदि के विपयमें छत्तीस हजार प्रश्नोका समाधान किया गया है। भगवती-सूत्रका विवाहप्रज्ञप्ति तथा व्याख्याप्रजाप्ति भी नाम है।
(a) ज्ञाताधर्मकथाग-में विविध-वार्मिक शिक्षाप्रद कथाओका वर्णन है।
(૨) સૂત્રકૃતાગ–એમાં જીવાદિને સ્વરૂપના પ્રતિપાદનપૂર્વક ત્રણને ત્રેસઠ (૩૬૩) એકાન્તક્રિયાવાદી આદિને–તેમના મતના સજ્ઞિપ્ત ખડાપૂર્વક સ્વસમયમાં સ્થાપન કર્યા છે
(૩) સ્થાના – મા આત્માદી પદાર્થોને દસ સ્થાનમાં સ્થાપિત કર્યા છે
(૪) સમવાયાગ- મા જીવ અજીવ આદિનુ સ્વરૂપ એકમ ખ્યક આદિ પદનું નિરૂપણ છે
(५) लगती सूत्र- समा १, अ सो , म४, समय, ५२समय, આ વિષયેના છત્રીસ હજાર પ્રશ્નોનું સમાધાન કરવામાં આવ્યું છે ભગવતી સૂચના વિવાહપ્રજ્ઞપ્તિ અને વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ એવા પણ નામે છે
(૬) જ્ઞાતાધર્મકથાગ–એમા વિવિધ ધાર્મિક શિક્ષાપ્રદ કથાઓનું વર્ણન છે
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१२
उपासक दशाङ्गसूत्रे
(४) द्रव्यानुयोगे तु सूत्रकृतागसूत्र, स्थानागमुत्र, समनायामुत्र, भगवती - सून चेति चत्वार्यसत्राणि ४, जीवाजीवाभिगमन, प्रज्ञापनामुत्र चेति द्वे उपा सूत्रे २, नन्दिसूत्रम्, अनुयोगद्वारसूत्र चेति द्वे मूलमुत्रे चेति योगतोऽष्ट सूत्राणि । अथ प्रसङ्गवशात्क्षेपेण द्वात्रिंशत्सूत्रविषयमुपदर्शयाम:अगसूत्राणि (११)
(१) आचारागसूत्रम् - अत्र श्रमण निर्ग्रन्यानामाचारगोचरादिप्रतिपादनम् । तानुयोग कहते हैं । गणितानुयोग मे तीन उपाग सूत्र हैं- एक जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, दूसरी चन्द्रप्रज्ञप्ति और तीसरा सूर्यप्रज्ञप्ति । गौणरूपसे अगा दिकोंमे भी इसका वर्णन पाया जाता है | (४) द्रव्यानुयोग
जिसमे जीव आदि छह द्रव्यों का अथवा नव पदार्थों का तथा उनके ज्ञानादिगुणों का विवेचन भगवान् के अर्थागमके अनुसार हो उसे द्रव्या नुयोग करते हैं। दव्यानुयोगमे सूत्रकृतांग, स्थानाग, समवायाग और भगवतीसूत्र, ये चार अग है, जीवाजीवाभिगमसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र, ये दो उपाग हैं, नन्दिसत्र, अनुयोगद्वार सूत्र, ये दो मूलसूत्र हैं । इस प्रकार द्रव्यानुयोग में मुख्यतया आठ सूत्र हैं ।
अब यहाँ प्रसंगवश सक्षेप से बत्तीस सूत्रों का विषय कहते है( ग्यारह अग )
(१) आचारागसूत्र - इसमें श्रमण निर्ग्रन्थोंका आचार-गोचर बताया गया है ।
-
ચેગના ત્રણ ઉપાગ સુત્ર છે-એક જમ્બૂદ્વિપપ્રજ્ઞપ્તિ, બીજી ચદ્રજ્ઞપ્તિ, અને ત્રીજી સુપ્રપ્તિ ગૌણ રૂપે અગાદિમા પણ એનુ વર્ણન માલૂમ પડે છે ૪ દ્રવ્યાનુયાગ
જેમા જીવ આદિ છ દ્રવ્યેનુ અથવા નવ પદાર્થાનુ તથા તેના જ્ઞાનાદિ ગુણાનું વિવેચન ભગવાનના અય્યગમ અનુસાર હાય તેને દ્રવ્યાનુયોગ કહે છે. દ્રવ્યાનુયોગમા સૂત્રકૃત્તાગ સ્થાનાગ સમવાયાગ અને ભગવતીસૂત્ર એ ચાર અગે છે, જીવા-જીવાભિ ગમસૂત્ર અને પ્રજ્ઞાપનાસુત્ર એ બે ઉપગે છે. નન્દસૂત્ર, અયેંગદ્વાર સૂત્ર એ એ મૂલસુત્ર છે. એ પ્રમાણે દ્રવ્યાનુયેગમા મુખ્યત્વે કરીને આઠ સૂત્રો છે
હવે અહી પ્રસગવશ સક્ષેપમાં ત્રીસ સૂત્રાના વિષયે કડ્ડીએ છીએ અગીઆર અગ (१) मायाराग सूत्र- भेभा - श्रापशु नित्र थोना आयार-शेयर दर्शाव्यो छे
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अत्रारसञ्जीवनी टीम भ १ अङ्गसून निरूपणम्
(२) सूत्रकृताङ्गम् अत्र लोगलोकस्वरूपप्रतिपादनपूर्वक क्रियावादिप्रभृतीनां सक्षेपतो मतनिराकरणम् ।
(३) स्थानाङ्गम् - अनाखिलपदार्थाना दशसु स्थानेषु स्थापनम् । (४) समवायङ्गम् - अन जीवाजीवादितत्तत्सरया विशिष्टपदार्थप्ररूपणम् । (५) भगवती सूत्रम् - अत्र जीवाजीवलोकालोक-स्वसमय - परसमयादिविषये पट्टत्रिंशत्सहस्र (३६०००) प्रश्नवाक्यानां समाधानम् । अस्यैव नस्य विवाहज्ञप्तिस्तथा व्याख्यामज्ञप्तिरपि नामान्तरम् ।
(६) ज्ञाताधर्मकथासूत्रम् - अनाऽऽरयायिकादिवर्णनम् ।
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(२) सूत्रकृताग मे जीवादिके स्वरूपका प्रतिपादनपूर्वक तीन सौ तिरसठ (३०३) एकान्तक्रियावादी आदिको उनके मतका सक्षेप से खण्डन करके स्वसमय में स्थापन किया है।
(३) स्थानागमे आत्मादि पदार्थों को दस स्थानोंमें स्थापित किया है।
(४) समवायाग - मे जीव अजीव आदिका स्वरूप और एकसख्यक आदि पदार्थोंका निरूपण है ।
(५) भगवती - सूत्र - मे जीव, अजीव, लोक, अलोक, स्वसमय, परमसमय, आदि के विषय में छत्तीस हजार प्रश्नोका समाधान किया गया है । भगवती-सूत्रका विवाहप्रज्ञप्ति तथा व्याख्यामज्ञाप्ति भी नाम हैं। (६) ज्ञाताधर्मकथाग - में विविध धार्मिक शिक्षाप्रद कथाओका वर्णन है ।
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(૨) સૂત્રકૃતાગ-એમા છવાદિના સ્વરૂપના પ્રતિપાદનપૂર્વક ત્રણસોને ત્રેસઠ (૩૩) એકાન્તયાવાદી આદિને તેમના મતના મનિમ્ન ડનપૂર્વક સ્વસમયમાં સ્થાપન કર્યાં છે
(૩) સ્થાનાગ– મા આત્માદી પદાર્થીને ક્રમ સ્થાનામા સ્થાપિત કર્યાં છે (૪) મમવાનાગ– મા જીવ અજીવ આદિનું સ્વરૂપ એકમ ખ્યક આદિ પર્ઘાનું નિરૂપણ છે
(4) भगवती सूत्र- सेभाव, लव सो, असो, असभ्य, परसभय, કિવિયેના છત્રીસ હજાર પ્રશ્નોનું સમાધાન કરવામાં આવ્યુ છે ભગવતી સૂત્રના વિવાહપ્રજ્ઞપ્તિ અને વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ એવા પણુ નામે છે
(૬) જ્ઞાતા કથાગ—એમા વિવિધ ધાર્મિક શિક્ષાપ્રદ કયાઓનું વર્ણન છે
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उपासकदशाङ्ग सूत्र
(७) उपासकदशाङ्गसूत्रम् - अनाऽऽनन्दादीना दशाना श्रमणोपासनानामितिवृत्तप्रसङ्गेन श्रा+धर्मनिरूपणम् ।
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(८) अन्तकृद्दशाङ्गसूत्रम् - अन गौतमादीना महर्षीणा पद्मावतीप्रमुखाणा महासतीना च शिवान्तानि सुकृतानि मदितानि ।
(९) अनुत्तरोपपातिकदशाङ्गसूत्रम् - जन जालिमुरयानामृपीणा विजयाधनुत्तरविमानपञ्चकप्राप्तिवर्णनम् ।
(१०) प्रश्नव्याकरणसूत्रम् - अनाङ्गुष्ठादिपश्नविद्यामरूपणम्, आस्रवपञ्चकसवरपञ्चक-मरूपण चासीत्, परन्तु पञ्चमारकोनाना पुष्टाम्यनमतिसेवित्व मवेक्ष्य पूर्वाचार्यै प्रथमाश समुत्तारित इति तत्र द्वितीय एवाशो लभ्यते ।
(७) उपासकदशाग - मे आनन्द आदि दस श्रावकोके इतिहास के प्रसग से श्रावक धर्मका व्याख्यान किया गया है ।
(८) अन्तदशाग - मे गौतम आदि महान् ऋपियोके तथा पद्माचतो आदि महासतियोके मोक्षगमन पर्यन्त कार्योंका वर्णन है ।
(९) अनुत्तरोपपातिक दशाग मे जालि आदि ऋषियोंके विजय आदि पाच अनुत्तर विमानोकी प्राप्तिका कथन है ।
(१०) प्रश्नव्याकरणसूत्र - मे अगुष्ठादि प्रश्नवियाका निरूपण तथा आस्रवपचक और सवरपचकका निरूपण या परन्तु पाचवे आरे के जीवोको अधीरपने से पुष्टाssलम्बनके प्रतिसेवी समझ कर पहला अश निकाल दिया गया है । आजकल दूसराअश ही उपलब्ध है ।
(૭) ઉષામક શાગમા આનદ આદિ દસ શ્રાવકના ઈતિહાસના પ્રસગે દ્વારા ધર્મનું વ્યાખ્યાન કરવામા આવ્યુ છે
(૮) અતકૃશાગ——મા ગૌતમ આદિ મહાન ઋષિઓના પદ્માવતી આદિ મહાસતીઓના મેક્ષગમન સુધીના કાર્યાંનું વર્ણન છે
(૯) અનુત્તર પપાતિકદશાગ—મા લિ આદિ ઋષિના વિજય અદ્રિ પાચ અનુત્તર વિમાનાની પ્રાપ્તિનું કથન છે
असव
(૧૦) પ્રશ્નાકર સૂત્ર–મા અ ગુષ્ઠાદિ પ્રશ્નવિદ્યાનુ નિરૂપણુ તથા પચક અને સવ-૫ચકનું નિરૂપણુ હતુ, પરન્તુ પાચમા આરાના જીવેને અધીનપણાથી પુષ્ટાલમ્બનના પ્રતિસેવી સમજીને તેમાના પહેલે ભાગ કાઢી નાખવામા આવ્યે છે હાલમાં બીજો ભાગજ ઉપબ્ધ થાય છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ उपागमूत्र निरूपणम्
१५
(११) विपाकसूत्रम् - अन मृगापुत्र - सुनाहुमभृतीना दुःखविपाकः सुखविपाकय प्रदर्शितः ।
उपागसूत्राणि (१२)
(१) औपपातिकसूत्रम् - इदमाचाराङ्गस्योपाङ्गम्, अन नारकोत्पादवैचित्र्यवर्णनम् ।
1
(२) राजप्रश्नीयम् - इद सूत्रकृताङ्गोपाङ्गम् अत्र प्रदेशिनाम्ना नृपेणाऽक्रियापादितमाश्रित्य कृताना तज्जीवतच्छरीरविपयप्रश्नाना समाधानम् । सूत्रकृ ताङ्गम+टितम क्रियावादिमतखण्डनप्रकार मालम्व्येव तत्ममापनकरणेनास्मिन् सूत्रे सूत्रकृताङ्गगत विशेषमस्टनात्सूत्रकृताङ्गोपाङ्गत्यम् ।
(११) विपाकसूत्र - मे मृगापुत्र आदिका दुग्वविपाक और सुवाहुकुमार आदिका सुखविपाक दर्शाया गया है ।
( वारह उपागसूत्र )
(१) औपपातिक सूत्र - यह आचारागका उपाग है और इसमे नारको के उत्पादकी विचित्रताएँ बताई गई है।
(२) राजप्रश्नीय सूत्र - यह मृत्रकृतागका उपाग है । राजा प्रदेशीने अफियावादियो मतका आश्रय लेकर केशी श्रमणसे तज्जीवतच्छरीर विषयक तेरे प्रश्न किये थे । उन सबका इसमे समाधान किया गया है । जिम ढंग से सूत्रकृतागमे अक्रियावादियोके मतका खडन हे प्राय. उसी ढँग से इसमे राजा प्रदेशीके प्रश्नोंका समाधान है किन्तु इसमें कुछ विशेषता है, इस कारण यह सूत्रकृतागका उपाग है ।
(૧૧) વિપાકસુન–મા મૃગાપુર માદિના દુ ખવિપાક અને સુબાહુકુમાર આદિને સુખવિપાક દર્શાવવામા આવ્યે છે
માર્ ઉપાગ સૂત્રો
(૧) ઓ પાતિક સૂત-આ આચારાગતુ ઉપાત્ર છે અને તેના નાનકી જીવેના ઉત્પાદનની વિચિત્રતાએ બતાવવામાં આવી છે
(૨) રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર–આ સૂત્રકૃતાગનું ઉપાગ છે પ્રદેશી રાજાએ અક્રિયાવદીઓના મતને આશ્રય લઇને દેશી શ્રમણને તજીવ-તછરીર વિષેના પ્રશ્નો પૂછ્યા હતા, એ બધાનું એમા સમાધાન કરવામા આવ્યુ છે જે પ્રકારે સૂત્રકૃતાગમાં અક્રિયાવાદીઓના મતનુ ખડન કરવામા આવ્યુ છે, તે પ્રકારે આમા રાજા પ્રદેશીના પ્રશ્નોનુ સમાધાન કરવામા આવ્યુ છે, પરન્તુ આમાં કાર્યક વિશેષતા છે, તે કારણુથી આ સૂત્રકૃતાગનુ ઉપાગ છે
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उपासादशाहमूत्रे
(३) जीवाजीगाभिगमनम्-इद स्थानागस्योपानम् । अत्र जीवाजीर तत्वमरूपणम् ।
(४) प्रज्ञापनासूत्रम्-इद समवायागोपागम् । पत्रिंशता पदैर्जी गाजीव भावनिरूपणम् ।
(५) जम्मूद्वीपप्रज्ञप्ति -इय भगवतीमूत्रस्योपागम् । जम्बूद्वीप-4-वर्ष परनदी-हदादीना स्वरूपवर्णनम् तथाऽऽदिजिनजन्मोत्सवचक्रानिदिग्विजयादीना वर्णनम् ।
(६) सूर्यमज्ञप्तिः -इय ज्ञाताधर्म कथाङ्गम्योपाङ्गम् । अब सूर्यचन्द्रविचारप्रतिपादम् । (७) चन्द्रप्रज्ञप्ति इयमुपासम्दशागस्योपागम् । अवापि सर्यप्रज्ञप्तिवत्सूर्य
(३) जीवाजीनाभिगमसूत्र-यह स्थानागका उपाग है । इसमे जीव अजीव आदि तत्वोका निरूपण है।
(४) प्रजापनासूत्र-यह समवायागका उपाग है। इसमे उत्तीस पदो द्वारा जीव अजीवके भावोंका कथन है।
(५) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-यह भगवतीसूत्रका उपाग है इसमे जम्बूद्वीप, भरत आदि वर्ष, वर्षधर (हिमवत आदि पर्वत), नदी, हृद आदिका वर्णन है। भगवान् आदिनाय के जन्मोत्सवका तथा चक्रवर्ती के दिग्विजयका वर्णन है।
(६) सूर्यप्रज्ञप्ति-यह ज्ञाताधर्मकथाग का उपाग है। इसमें सूर्य और चन्द्रमा सम्बन्धी विचार किया गया है। (७) चन्द्रप्रज्ञप्ति-यह उपासकदशागका उपाग है। इसमेभी सूर्य
(૩) જીવાજીવાભિગમસૂત્ર—આ સ્થાનાગનુ ઉપાગ છે એમાં જીવ અજીવ આદિ તત્તનોનું નિરૂપણ છે
(૪) પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર—આ સમવાયાગતુ ઉપાગ છે અમા છત્રી પદે દ્વારા જીવ અજીવના ભાવેનું કથન છે
(૫) જબૂદીપ પ્રજ્ઞપ્તિ–આ ભગવતીસૂત્રનું ઉપાગ છે અમાં જબૂદીપ, ભરત આદિ વર્ષ, વર્ષધર (હિમવત આદિ પર્વત), નદી, હદ આદિનું વર્ણન છે. ભગવાન આદિનાથના જન્મોત્સવનું તથા ચક્રવર્તીના દિગ્વિજયનું વર્ણન છે
(૬) સ્પ્ર જ્ઞપ્તિ–આ જ્ઞાતાધર્મકથાગનું ઉપાગ છે એમાં સૂર્ય અને ચદ્રમા સ બ ધી વિચાર કરવામાં આવ્યું છે
(૭) ચ દ્રપ્રજ્ઞાપ્ત–એ ઉપાસકશાગતું ઉપાગ છે એમાં પણ સૂર્યપ્રજ્ઞપ્તિની
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अगरधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ मृत्रपरिचयः
चन्द्रविचारमतिपादनम् । शब्दतोऽर्थतश्च ततो नातिभेद, किन्त्वन मुख्यतश्चन्द्रविचार स्टोकृत । केचित्तु 'इयमङ्गनामकीर्ण रूपा नोपाङ्गपदे विलसती' त्याहुः । (८) निरयानलिका - अस्योपाङ्गस्य कल्पिकेति नामान्तरम् । एपा चान्तकृद्दशाङ्गोपाङ्गम् । एतस्मादुपाङ्गादारभ्य वृष्णिशोपाङ्गपर्यन्तेषु पञ्चसपाङ्गण्याबलिस पविष्टारिकानासाना प्रसङ्गतस्तद्गामिना नरतिरश्वा वर्णनम् ।
(९) कल्पावतसिका - इयमनुत्तरोपपतिकदशाङ्गस्यापाङ्गम् । (१०) पुष्पिका - इदमुपाग मश्नव्याकरणम्नस्य । (११) पुष्पचूलिका - उदाङ्ग विपासूत्रम्य ।
१७
प्रज्ञप्तिकी भाँति चन्द्रमा और सूर्यसम्बन्धी कथन है इन दोनोमें शब्द और अर्थका अधिक भेद नही है । किन्तु चन्द्रमज्ञप्ति मे चन्द्रमा सम्बन्धी विचार मुख्य है । किसीके मत से यह अगनाहा प्रकीर्णक सूत्र है, उपांग नही |
[C] निरावलिका — इस उपागको कल्पिका भी कहते है । यह अन्तकृद्दशागका उपांग है । इस उपांगसे लेकर वृष्णिदशोपाग तक पाँच उपागमे आवलिकाप्रविष्ट आदि नरकावासीका प्रसग है और उनमें जानेवाले मनुष्यों तथा तिर्यचोका भी वर्णन है ।
(९) कल्पावर्तासिका - यह अनुत्तरोपपातिकदशागका उपाग है । (१०) पुष्पिका - यह प्रश्नव्याकरणसूत्रका उपाग है । (११) पुष्पिचूलिका – यह विपाकसत्रका उपाँग है ।
પેઠે ચક્રમા તથા સૂર્ય સખધી કથન છે એ બેઉમા શબ્દો અને અર્થાન વધારે તફાવત નથી પરંતુ ચંદ્રપ્રજ્ઞપ્તિમાં ચક્રમા સબંધી વિચાર મુખ્ય છે ક્રાઈ—કોઇના મતાનુસાર આ અગબાહ્ય પ્રક્રીક સૂત્ર છે. ઉષાગ નથી
(૮) નિરયાવલિ—આ ઉપાગને કલ્પિકા પણ કહે છે આ અતકૃશાગનુ ઉપાગ છે આ ઉપપગથી લઇને વૃષ્ણુિદશેપગ સુધીના પાચ ઉપાગેમા આલિકાપ્રવિષ્ટ આદિ નરકાવાસેાને પ્રસગ છે અને તેમા જનારા મનુષ્યેા તથા તિય ચાનુ પણ વર્ણન છે
(૯) કપાવતસિકા~~~આ અનુત્તરાષપાતિક શાગનુ ઉપાગ છે (૧૦) પુષ્પિકા—આ પ્રશ્નવ્યાકરણ સૂત્રનુ ઉપાગ છે (૧૧) પુષ્પચૂલિકા——મ વિપાકનુ ઉપાગ છે
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उपासकदशासूत्रे
(३) जीराजीनाभिगमनम् इद स्थग्नागस्योपाद्गम् । अत्र जीवाजीवतत्ररूपणम् ।
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(४) मज्ञापनानम् - इद समरायागोपाद्गम् । परत्रिंशता पदैर्जीवराजीव भावनिरूपणम् ।
(५) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - इय भगवती मृत्रस्योपाङ्गम् । जम्बूद्वीप-रनटी - इदादीना स्वरूपवर्णनम् तथाऽऽदिजिनजन्मोत्सवचक्र पर्तिदिग्विजयादीना वर्णनम् ।
(६) सूर्यप्रज्ञप्तिः - इय ज्ञाता नर्मस्थाङ्गस्योपाद्गम् । अन सूर्यचन्द्रविचारप्रतिपादम् ।
(७) चन्द्र प्रज्ञप्ति इयमुपासन्दशाङ्गस्योपानम् । अनापि सर्यप्रज्ञप्तिवत्सूर्य (३) जीवाजी नाभिगमसूत्र - यह स्थानागका उपाग है । इसमे जीव अजीब आदि तत्त्वोका निरूपण है ।
(४) प्रज्ञापनासूत्र - यह समवायागका उपाग है। इसमे छत्तीस पदो द्वारा जीव अजीवके भावोंका कथन है |
(५) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - यह भगवती सूत्रका उपाग है इसमे जम्बूद्वीप, भरत आदि वर्प, वर्षधर (हिमवत आदि पर्वत), नदी, हृद आदिका वर्णन है । भगवान् आदिनाथ के जन्मोत्सवका तथा चक्रवर्ती के दिग्विजयका वर्णन है ।
(६) सूर्यप्रज्ञप्ति - यह ज्ञाताधर्मकथाग का उपाग है । इसमे सूर्य और चन्द्रमा सम्बन्धी विचार किया गया है ।
(७) चन्द्रप्रज्ञप्ति - यह उपासकदशागका उपाग है । इसमे भी सूर्य
(૩) જીવાજીવાભિગમસૂત~~આ સ્થાનાગનુ ઉપાગ છે એમાં જીવ અજીવ આદિ તાનુ નિરૂપણ છે
(४) प्रज्ञापनासू ।—भा समवायागनु ઉપાગ છે અમા છત્રીમોદ્વારા જીવ જીવના ભાવેનુ કથન છે
(૫) જમ્મૂઠ્ઠીપ પ્રસિ——
ભગવતીસૂમનુ ઉપગ છે અમા જમ્મૂઢીપ, ભરત આદિ વર્ષી, વર્ષેધ (હિમવત આદિ પર્વત), નદી, ઉદ દિનુ વર્ણન છે ભગવાન્ આદિનાથના જન્માત્સવનુ તથા ચક્રવર્તીના દિગ્વિજયનુ વર્ણન છે
(६) सूर्यभज्ञास्ति 1—આ જ્ઞાત ધ કથાગનું ઉપાગ છે એમા સૂર્ય અને ચંદ્રમા સબધી વિચાર કરવામા આવ્યે છે
(૭) ચદ્રપ્રજ્ઞાપ્ત~એ ઉપાસકન્શાગનું ઉષાગ છે. એમા પણ સૂ`પ્રજ્ઞપ્તિની
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अगारधर्मसजीवनी टीका अ १ मुत्रपरिचयः चन्द्रविचारमतिपादनम् । शब्दतोऽर्थतश्च ततोनातिभेद., स्न्त्विन मुख्यतश्चन्द्रविचार प्रस्टोकृत ! केचित्तु इयमग ह्यप्रकीर्णरूपा नोपाङ्गपदे विलसती' त्याहुः ।
(८) निरयावलिका-अस्योपाङ्गस्य कल्पिकेति नामान्तरम् । एपा चान्तकृदशाङ्गोपाङ्गम् । एतस्मादुपाङ्गादारभ्य प्णिदशोपाङ्गपर्यन्तेषु पञ्चसपाङ्गप्वावलिमा प्रविष्टादिनरकावामानां प्रसङ्गतम्तद्गामिना नरतिरश्वा वर्णनम् ।
(९) कल्पावतसिका-इयमनुत्तरोपपतिकदशाङ्गस्यापागम् । (१०) पुष्पिका-इदमुपाङ्ग प्रश्नव्याकरणम्त्रस्य ।
(११) पुष्पचूलिका-इदमुराग विपारमूत्रम्य । प्रज्ञप्तिकी भाति चन्द्रमा और सूर्यसम्बन्धी कथन है इन दोनोमें शब्द और अर्थका अधिक भेद नहीं है। किन्तु चन्द्रप्रज्ञप्तिमें चन्द्रमा सम्बन्धी विचार मुख्य है । किसीके मतसे यह अगाह्य प्रकीर्णक मूत्र है, उपाग नहीं ।
[८] निरयावलिका-इस उपागको कल्पिका भी कहते हैं। यह अन्तकृशागका उपांग है । इस उपांगसे लेकर वृष्णिदशोपाग तक पाच उपांगोमे आवलिकाप्रविष्ट आदि नरकावासोका प्रसग है और उनमें जानेवाले मनुष्यों तथा तिर्यचौका भी वर्णन है।
(९) कल्पावसिका—यह अनुत्तरोपपातिकदशागका उपाग है। (१०) पुष्पिका-यह प्रश्नव्याकरणसूत्रका उपाग है।
(११) पुप्पिचूलिका-यह विपाकसूत्रका उपौंग है। પઠે ચ દ્રમા તથા સૂર્ય સબ વી કથન છે એ બેઉમાં શબ્દ અને અર્થોને વધારે તફાવત નથી પરંતુ ચદ્રપ્રકૃતિમાં ચદ્રમા સ બ ધી વિચાર મુખ્ય છે કેઈ–ઈના મતાનુસાર આ અગાધ પ્રકીર્ણક સૂત્ર છે ઉપાગ નથી
(૮) નિરયાવલિ–આ ઉપાગને કદિપકા પણ કહે છે આ અતકુશાગનું ઉપાગ છે આ ઉપાગથી લઈને વૃષ્ણિદાપાગ સુધીના પાચ ઉપાગમા આવલિકાપ્રવિણ આદિ નારકાવાસને પ્રસંગ છે અને તેમા જનાર મનુષ્ય તથા તિર્યg પણ વર્ણન છે
(૯) કપાવતસિતા–આ અનુત્તરપપાતિકદશાગનુ ઉપાગ છે (૧૦) પુષ્યિકા–આ પ્રશ્નવ્યાકરણ સૂત્રનુ ઉપાગ છે (૧૧) પુષ્પચૂલિકા–આ વિપાકસત્રનુ ઉપાગ છે
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उपासकदशाङ्गमुत्रे
(१२) वृष्णिदशा - इदमुपान दृष्टिवादाङ्गस्य । अस्योपाङ्गस्य 'वह्रिदशा' इति नामान्तरम् ।
इमानि निश्यावलिकादिनि पञ्चोपादानि निरयापलिकाशब्देनाप्यभिधीयन्ते । मूलसूत्राणि (४)
(१) नन्दिमूत्रम् - अत्र ज्ञानपञ्चक- तद्भेदवर्णनम् ।
१८
(२) अनुयोगद्वारसृत्रम् - अत्रोपक्रमादिनिरूपणम् । (३) दर्शवेकालिकसूत्रम् - अन हिंसासयमतपोरूपाणा साधुधर्माणा निरूपणम् (४) उत्तराध्ययनम्रत्रम् - इह विनयश्रुतादिप्रतिपादनम् ।
छेदसूत्राणि (४]
(१) वृहत्कल्पसूत्रम् - अत्र मूलगुणापरा मायश्चित्तानामृनरगुणापराधमाय वित्ताना च निरूपणम् ।
(१२) वृष्णिदशा - यह दृष्टिवादका उपाग है । इसका दूसरा नाम 'दिशा' भी है ।
इन निरयाबलिका आदि पाँचों उपागोको एक 'निरयावलिका' शब्दसे भी कहते है ।
( चार मूलसूत्र )
(१) नन्दिसूत्र - इसमें पाँच ज्ञानोका और उनके भेद-प्रभेद आदिका वर्णन है ।
(२) अनुयोगद्वारसूत्र - इसमें उपक्रम आदिका विवेचन है । (३) दवैकालिकसूत्र - इसमे अहिमा सयम और तप रूप साधुके धर्मोका कथन है ।
(४) उत्तराध्ययन सूत्र - इसमे विनयश्रुत आदिकी प्ररूपणा है । (૧૨) વૃષ્ણુિ શા—આ દૃષ્ટિવાદનુ ઉપાગ છે એનુ બીજુ નામ પણ છે
'दिशा'
આ નિરૈયાવલિકા આદિ પાચે ઉષાગેને એક ‘ નિરયાવલિકા ’ શબ્દથી પણ ઓળખવામા આવે છે
ચાર ભૂલક્ષ
(૧) નન્તિસૂત્ર—એમા પાચ જ્ઞાનનુ અને તેના ભેદ–પ્રભેદ આદિનું વર્ણન છે (૨) અનુયાગદ્વારાસૂત—એમા ઉપક્રમ અાદિનુ વિવેચન છે
(3) शवेातिसून - सेभा अहिंसा, सयम भने तय इथी साधुधर्भानु કથન છે
(૪) ઉત્તરાધ્યયનસૂત્ર—એમા વિયશ્રુત આદિની પ્રરૂષણા
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सुत्रपरिचयः
(२) व्यवहारसूत्रम्-इह बृहत्कल्पोक्तप्रायश्चित्ताना दानविधिरालोचनाविधिश्च निरूपितः ।
(३) निशीथमत्रम्-आचारागस्य पञ्चमचूलायामुक्तो विषयोऽत्रापि निरूपित
(४) दशाश्रुतस्कन्धमूत्रम्-अत्र प्रत्याख्यानपूर्वतः समुतानामसमाधिस्थानादीना निरूपणम् ।
उतरावयवावनाय द्रव्यतो विषादिसापिताइगुल्यादिशरीरभागन्दनमित्र पूर्वपर्यायाशे दृपिते सति तस्यावच्छेदोऽवशिष्टपर्यायरक्षानिमित्त करणीय इति चतुभिरेभिः सूत्रै प्रतिपाद्यतेऽत इमानि छेदमुत्राणि निगद्यन्ते ।
(चार छेदसूत्र) (१) वृहत्कल्पमत्र-इसमे सायुके मूलगुणों और उत्तरगुणों में लगेहुए दोपोंके प्रायश्चित्त बतलाए गए हैं।
(२) व्यवहारमत्र-इममे बृहत्कल्पमे वर्णन किये हुए प्रायश्चित्तोके देने और आलोचना करनेकी विधि बताई गई है।
(३) निशीथमन्त्र-इसमे उसी विपयका प्ररूपण है, जो आचारागकी पाचवी चूलामे है।
(४) दशाभूतस्कन्धसूत्र-इसमे प्रत्याख्याननामक पूर्वसे उद्धृत किये हुए समाधिम्यान आदिका निरूपण है।
दूसरे अवयवाकी रक्षाके लिए जैसे विष आदिसे दृषित अगुली आदि शरीरके अवयवोको काट डालना आवश्यक होताहै । उसी प्रकार
यार छहसूत्र (૧) બૃહપસૂત્રએ સાધુના મૂતરા તથા ઉત્તરગુણેમાં લાગેલા દેનું પ્રાયશ્ચિત્ત દર્શાવ્યું છે
(૨) વ્યવહા-સૂત્ર–એમાં બહ૮૮૫માં વર્ણવેલા પ્રાયશ્ચિત્તો આપવાની અને આચના કરવાની વિધિ બતાવવામાં આવી છે
(૩) નિશીથસૂત્ર—એ આચારગની પાચમી ચૂવામાં આવેલા વિષયનુ પ્રરૂપણ છે
(૪) દશાશ્રુતસ્ક ધ સૂત્ર–એમા પ્રત્યાખ્યાન નામક પૂર્વથી ઉદ્ધત કરેના સમાધિસ્થાન આદિનુ નિરૂ કર્યું છે,
શરીરના બીજા અવયવે રક્ષણને માટે જેમ વિષાદિથી દૂષિત આગળી આદિ અવયના કાપી નાખવાની જરૂર પડે છે, તે પ્રમાણે પૂર્વપયરૂપ અશ જે
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उपासकदशामु
(१२) वृष्णिदशा - इदमुपाङ्ग दृष्टिवादाङ्गस्य । अस्योपाङ्गस्य 'वहिदशा' इति नामान्तरम् ।
इमानि निश्यावलिकादिनि पञ्चोपाङ्गानि निरयापलिकाशब्देनाप्यभिधीयन्ते । मूलसूत्राणि (४)
(१) नन्दित्रम् - अत्र ज्ञानपञ्चक- तद्भेदवर्णनम् ।
(२) अनुयोगद्वारसूत्रम् - अत्रोपक्रमादिनिरूपणम् । (३) दर्शवेकालिकसूत्रम् - अन हिंसासमत पोरूपाणा साधुधर्माणा निरूपणम् (४) उत्तराध्ययन सूत्रम् - इह विनययुतादिमतिपादनम् ।
छेदसूत्राणि (४ ]
१८
(१) बृहत्कल्पसूत्रम् - अत्र मूलगुणापराधमायचित्तानामुत्तरगुणापराधप्रायचित्ताना च निरूपणम् ।
(१२) वृष्णिशा - यह दृष्टिवादका उपाग है। इसका दूसरा नाम 'दिशा' भी है ।
इन निरयावलिका आदि पाँचों उपागोको एक 'निरयावलिका' शब्दसे भी कहते है ।
( चार मूलसूत्र )
(१) नन्दित्र - इसमें पाँच ज्ञानोंका और उनके भेद-प्रभेद आदिका वर्णन है ।
(२) अनुयोगद्वारसूत्र - इसमे उपक्रम आदिका विवेचन है । (३) दशवैकालिकसूत्र - इसमे अहिंमा सयम और तप रूप साधुके धर्मोका कथन है |
(४) उत्तराध्ययन सूत्र - इसमें विनयश्रुत आदिकी प्ररूपणा है ।
(१२) पृथ्युि शा-सा दृष्टिवाध्नु उयाग छे मेनु जीवनु नाम 'दिशा' પણ છે
આ નિરયાવલિકા આદિ પાચે. ઉપાગાને એક ‘ નિયાવલિકા’ શબ્દથી પણ આળખવામા આવે છે
ચાર ભૂલસૂત્ર
(૧) નન્તિસૂત્ર——એમા પાચ જ્ઞાનનુ અને તેના ભેદ–પ્રભેદ દિનુ વર્ણન છે (૨) અનુયાગદ્વારાસૂત્ર——એમા ઉપક્રમ અાદિનું વિવેચન છે
(૩) દશવૈકાલિકસૂત્ર—એમા અહિંસા, સયમ અને તાપ રૂપી સાધુધર્મોનું
કથન છે.
(૪) ઉત્તરાધ્યયનસૂત્ર—એમા વિન્ધશ્રુત અાદિની પ્રરૂષણા છે
--APPG
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीम अ १ अनगारागारधर्म निरूपणम्
"जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धार यमुर्विति, तमेव वम्म दुविह आइरखड, तजहा-अगारधम्म, अणगारधम्म च । अणगारधम्मोताव इह सलु सव्वओ सम्वत्ताए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पञ्चयह, मचाओ पाणाडवायाओ वेरमणं, सब्बाओ मुमावायाओ वेरमणं, सव्याओ अदिन्नादाणाओवेरमण, मचाओ मेटणाओ वेरमण, मचाओ परिग्गहाओ वेरमण, सव्याओ राइभोयणाओ वेरमण, अयमाउसो ! अणगारसामहरा धम्मे पण्णत्ते । एयम्स धम्मम्स सिक्खाए टिए निग्गये वा निग्गथी वा विहरमाणे आणा आराहए भवइ ।
१ या-यथा च परिहीणकर्माणः सिद्धा. सिद्धालय सुपयन्ति, तमेव धर्म द्विविधमारयाति, तद्यथा-अगारधर्मः, जनागारधर्मश्च । अनगारवमस्तावदिहखलु सर्वतः सर्वनया मुण्डो भूत्वा, अगाराद् जनगारता माजति, सर्वम्मात् प्राणातिपाताद् विरमणम् (१) सर्वस्मान्मृपावादाद् विरमणम् , (२) सर्वस्माददत्तादानाद् विरमणम् , (३) सर्वस्मानमैथुनाद विरमणम् , (४) सर्वस्मात्परिग्रहाद विरमणम् , (५)सर्वम्माद् रात्रिभोजनाद् विरमणम् , (६) जयमायुष्मन् । अनगारसामयिको धर्म प्रज्ञप्त । एतस्य धर्मस्य शिक्षायामुपस्थितो निन्थो वा निर्गन्थी वा विहरन् आज्ञाया जागको भवति ।
_ "जिससे समस्त कर्माको रसपाकर सिद्ध भगवान् सिद्ध गतिको प्राप्त होतेह वर धर्म दो प्रकारका है-(१) अगारधर्म (२) अनगार धर्म ।
(२) सम्पूर्ण रूपसे (द्रव्य-भावसे) मुण्डित होकर गृहका त्याग कर अनगार-(साबु) पने को प्राप्त होना,-समस्त प्रकारके प्राणातिपातसे विरत हो जाना, सर्व प्रकारके मृपावादसे विरत हो जाना, मन प्रकारके अदत्तादानसे विरत हो जाना, सब तरह के मैयुनोसे विरत हो जाना, समस्त परिग्रहसे विरत हो जाना, समस्त रात्रिभोजनसे विरत हो जाना
* જે વડે સમસ્ત કર્માને ખપાવીને સિદ્ધ ભગવાન સિદ્ધગતિને પામે છે, તે ધર્મ બે પ્રકારના છે (૧) અગારધર્મ, (૨) નગારધર્મ
(૨) સ પર્ણરૂપે (દ્રવ્ય-ભાવથી મુડિત થઇને ગૃહ ત્યાગ કરીને અનગાર (સાધુ)પણને પ્રાપ્ત થવુ–સર્વ પ્રકારના પ્રણાતિપાતથી વિરક્ત થવું, સર્વ પ્રકારના મૃષાવાદથી વિહત થવુ, સર્વ પ્રકારના અદત્તાદાનથી વિરત થવુ, સર્વ પ્રકારના મૈથુનથી વિરત થવુ, સમસ્ત પરિગ્રહથી વિરત થવુ, સમસ્ત રાત્રિભેજયથી વિરત
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उपासक दशासूत्रे
मूलसूत्रम् (१)
(१) आवश्यकसूत्रम् - अन श्रमण श्रापकादीनामुभयकालावश्यकरणीय क्रियाकलापनिरूपणम् ।
अह द्वादशाङ्गात्मके माचने चतुर्विधगतिपरिभ्रमणन्धाने कविनदुःखजालकरालदावानलसन्तप्यमानमानसाना भव्याना भव्याय भगवता सुधारसाऽपारपारा वारसमानानन्तसुखधामनयनधर्मो धर्मोऽभिदधे । स चानगारधर्मागारधर्मभेदेन द्विविध' । उक्त चौपपातिकसूत्रे
पूर्वपर्यारूप अश यदि दूषित हो जाय तो नाकी बची हुई पर्यायकी रक्षा के लिए उसको छेद देना ही आवश्यक है । इन चार सूत्रोमे इसी विषयका वर्णन है, अत' ये 'छेदसून ' कहलाते है ।
( एक आवश्यक सूत्र )
(१) आवश्यकसूत्र - इसमें साधु और श्रावकों की उभयकाल (प्रात और साथ - काल) में अवश्य की जाने योग्य क्रियाओ (आवश्यकों) का वर्णन है ।
कर्मो के कारण जीव चार गतिरूप समारमे भ्रमण करते है और उमसे नाना दुःग्वोंके तीव्र दावानलसे सतप्त होता हैं । ऐसे जोवोंके हितके लिए भगवान्ने द्वादशांग रूप प्रवचनमे धर्मका उपदेश दिया है । वह धर्म अमृत रसके समुद्रकी तरह अनन्त सुग्वके स्थान में (मोक्षमे ) पहुँचानेवाला है। वह धर्म दो प्रकारका हे - ( १ ) अनगारधर्म (२) अगार धर्म- गृहस्थ धर्म । औपपातिक सूत्रमे कहा है
દૂષિત થઇ જાય તે ખાકી હૈની પર્યાયના રક્ષણુને માટે તે (પૂ પર્યાય)ને કાપી નાખવી એ જરૂરનુ છે. આ ચાર સૂત્રમા એ વિષનું વર્ણન છે, તેથી તેને છેદસૂન કહેવામાં આવે છે
એક આવશ્ચક સૂત્ર
(૧) આવશ્યક સૂત્ર—એમા સાધુ અને શ્રાવની મેઉ કાળે ( સવાર અને સાર્જ) અવશ્ય કરવા ચેગ ક્રિયાઓ ( આવશ્યકૈા ) નુ વર્ણન છે
કના ઉ ચે કરીને જીવ ચારતિરૂપ સસારમાં ભ્રમણ કરે છે, અને તેથી વિવિધ દુ ખેાના તીવ્ર દાવાનળથી સતઘ્ન થય છે એવા જીવાના હિતને માટે ભગવાન દ્વાદશાગ રૂપ પ્રવચનમાં ધર્મના ઉપદેશ આપ્યો છે તે ધર્મ અમૃતરમના સમુદ્રના જેવા અન ત સુખના સ્થાનમા ( મેક્ષમા ) પહેચાડનારી छे ते धर्म में अमरनो छे (१) थानगारधर्म, (२) मणारधर्म -गृहस्थ धर्भ ઔપાતિક સૂત્રમાં કહ્યુ છે
કે
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aartaaraat टीका अ १ अवतरणा
विक्म्, देशावकाशिकम्, पौषधोपवासः, अतिथिसविभागः, अपश्चिम - मारणान्तिक - सलेखनाजोपणाऽऽराधना । अयमायुष्मन् ! अगारसामयिको धर्म्मः प्रज्ञप्तः, एतस्य धर्मस्य शिक्षायामुपस्थितः श्रमणोपासको वा श्रमणोपासका वाहिरन आज्ञाया आराधो भवति" ।। इति ।
तत्र ज्ञाताधर्मकथनामके पण्ठेऽङ्गे विविधतानवासार्थसार्थेन चित्रित भिक्षाचराचरणीय श्रुतचारित्मकमनगार धर्म प्रतिरोधयन् भगवान् सकलविरतिसम्पद्विभूषिताः संयता निरस्तममस्तभत्र पुनरागमानवाशेऽनन्तसुरवास्पदे मोक्षपढे विलसन्तीत्यमुमर्थ समर्थयामास ।
ओमे जानेकी मर्यादा करना, (३) उपभोग- परिभोगका परिमाण करना । चार शिक्षावत ये हैं- (१) ममायिक, (२) देशावकाशिक दिशा ओंमें अवान्तर मर्यादा करना, (३) पोपधोपवास (पोसा) करना, (४) अतिविसविभाग अन्तिम मारणान्तिक सलेग्वना, झूसणा, आराधना ।
हे आयुष्मन् ! यह अगार धर्म है और जो श्रमणोपासक या श्रमगोपासिका इस धर्मका पालन करते ( हुए विचरते ) हैं वे जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञाके आराधक हैं ।
"
ज्ञाताधर्मकथा नामक छठे अगमे अनेक प्रकारकी ज्ञान और धर्मकी कथाओं द्वारा चित्रित किए हुए माधुओंके श्रुत चारित्र रूप धर्म को समझाते हुए भगवानने यही प्ररूपणा की हैं कि सकलविरति रूपी सम्पत्ति से शोभायमान सयत (साधु) ही ऐसे मोक्ष पदको प्राप्त करते हैं कि जहाँ न मासारिक दुःखोका लवलेश है, न जहाँसे फिर
थार शिक्षाप्रत था प्रभो (1) सामायिक (२) देशावशि (शायोमा अवान्तर भर्यादा १२वी), (3) पोषधोपवास ( पोसो) उरखो, (४) मतियिस विभाग अन्तिम - भारशान्ति-सोमनी, असला, माराधना
હું આયુષ્યમન્ એ અગાર ધર્મ છે, અને જે શ્રમણેાપાસક અથવા શ્રમણાપાસિકા એ ધર્મનુ પાલન કરે છે (રતા વિચરે છે), તે જિનેન્દ્ર ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક છે
જ્ઞાતાધકથાગ નામના છઠ્ઠા અગમા અનેક પ્રકારની જ્ઞાન અને ધર્માંની કથા દ્વારા ચિત્રિત કરેલા સાધુએના શ્રુત-ચારિત્રરૂપ ધર્મને સમજાવતા ભગવાને એવી પ્રરૂપણ કરી છે કે સકવિ-તિરૂપી સમ્પત્તિથી શોભાયમાન સયત (સાધુ)જ એવા મેક્ષપદને પ્રાપ્ત કરે છે, કે જ્યા સાસારિક દુખાને
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उपासकदशासूत्रे
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अगारधम्म दुवालमहि आइरसह, तजहा-पच अणुब्वयाइ, तिणि गुणव्वयाइ, चत्तारि सिखावयाइ । पच अणुन्वयाह, तजहा-यूलाओ पाणाइबायाओ वेरमण, धूलामो मुसाबायाओ वेरमण, यूलाओ अदिनोदाणाओ वेरमण, सदारसतोसे, इच्छापरिमाणे । तिणि गुणन्वयाइ, तजहा -अणत्थदडवेरमण, दिसिव्वय, उपभोगपरिमोगपरिमाणं । चत्तारि सिपिग्वावयाइ, तजहा-सामाइय, देमागामिय, पोसहोववासे, अतिरिसविभावे, अपच्छिम मारणतिय-सलेहणा-झूसणा-राहणा, अयमाउसो ! अगारसामइए धम्मे पण्णत्त, एयस्म धम्मस्म मिक्खाए उवहिए समणोवासए वा समणोयासिया वा विहरमाणे आगाए आरा हा भवई" इति ।
१ छाया-अगारधर्म द्वादशविधमाख्याति, तद्यथा-पञ्चाणुप्रतानि, त्रीणि गुणतानि, चत्वारि शिक्षानतानि । पञ्चाणुवनानि, तद्यथा स्यूलात्माणानिपाता द्विरमणम् , स्थूलान्मृपावादाद्विरमणम् , स्यूलाददत्तादानाद्विरमणम् , स्वदारस न्तोप., इन्चापरिमाणम् । श्रीणि गुणव्रतानि, तद्यथा-अनर्थदण्डविरमणम् , दिग्नतम् , उपभोगपरिभोगपरिमाणम् । चत्वारि शिक्षाप्रतानि, तयथा-सामाअनगार धर्म है । हे आयुष्मन् ! इस धर्मका पालन करनेवाले निग्रन्थ और निर्ग्रन्थी (आर्यिका) भगवान्की आज्ञाके आराधक होते है।
(१) अगार धर्म भगवान्ने बारह प्रकारका कहा है। वह इस प्रका । रसे है-पाच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। पाँच अणु
व्रत ये है-(१) स्थूल प्राणातिपातसे विरमण, (२) स्यूल मृषावादसे विरमण, (३) स्यूल अदत्तादानसे विरमण, (४) स्वदारसन्तोष, (५) इच्छाका परिमाण कर लेना।
तीन गुणव्रत ये है-(१) अनर्थदण्डका त्याग करना, (२) दिशाથવું એ અનગારધમ છે હે આયુશ્મન ' આ ધર્મનું પાલન કરનારા નિર્ચ થ અને નિર્ચ થાઓ (બાયઓ) ભગવાનની આજ્ઞાના આરાધક છે
(૧) અગારધમ ભગવાને બાર પ્રકારને કહ્યો છે, તે આ પ્રમાણે પાચ અણુવ્રત, ત્રણ ગુણવ્રત અને ચાર શિક્ષાનત
' 'પાચ અણુમન આ પ્રમાણે –(૧) - સ્થવ પ્રાણાતિપાતથી વિરમણ, (२) २) भूषापाथा विभए (3) -थून महत्तानथी विभ, () पारस ताप, (૫) ઈછાપરમાણ
ત્રણ ગુણવત આ પ્રમાણે -(૧) અનર્થ દડને ત્યાગ કર, (૨) દિશાઓમા જવા મર્યાદા કરવી, (૩) ઉપભેગ-પરિભેગની મર્યાદા કરવી
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___ अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ समयमरूपणा
मस्तीति, कलाना=समयादीना समूह इति वा कालः । वस्तुतस्तु वदृणालखणो कालो' इति भगवद्वचनात् कलयति-नवजीर्णादिरूपतयामवर्तयति वस्तुपर्यायमिति कालस्तस्मिन । तस्मिन् हीयमानलमणे समये सम्=सम्यक अयते-गन्तीति समयो-ऽवसरस्तग्गिन् ।
___ अथ समयप्ररूपणां व्याचक्षे, तथाहि___ प्रयोगज्ञको दी जान• कर्मपारगो वलतारुण्यादिविशिष्टगुणोपेतस्तन्तुवायदारक पटगाटिकादिक गृहीत्वाऽतित्वरितमेकहस्तममाणित युगपदिव स्फाटयति, तत्र सख्याततन्तूना समुदय-समिति-समागमेन पटादिनिप्पधते, तेषु च कलाओ (समयो) के समूहको काल करते हैं, किन्तु भगवानने निश्चय -कालका वर्तनारूप लक्षण कहा है। अर्थात् जो द्रव्यकी पर्यायोंको नयी पुरानी करता है वही निश्चय काल हैं। जो सम्यक् प्रकारसे चला जा रहा है-चीत रहा है उसे समय कहते है।
समयकी प्ररूपणा इस प्रकार हैप्रयोगका जानकर, कामको पूरा कर डालनेवाला, बलवान जवान और अत्यन्त निपुण ततुवाय (जुलाहे) का लडका वस्त्र या साड़ी आदिको पकड कर हनना जरदी फाड डालता कि देखनेवालोंको ऐसा प्रतीत होता है मानो सारा का सारा कपडा एकही साथ फाड डाला है, किन्तु ऐसा नहीं होता। सख्यात तन्तुओंसे कपड़ा बनता है और जब સમૂડને કાળ કહે છે, ૫ તુ ભગવાને નિશ્ચય–કાળનું વર્તનારૂપ લક્ષણ કહ્યું છે અર્થાત-જે દ્રવ્યની ખ્યને નવી જુની કરે છે તે નિશ્ચયકાલ છે
જે સમ્યફ પ્રકારે ચાલી રહ્યો છે, તેને સમય કહે છે સમયની પ્રાપણું આ પ્રમાણે છે –
પ્રયેગને જાણકાર, કમને પૂરું કરી નાખનાર, બળવાન, જુવાન અને અત્યત નિપુણ વણકરને કરે વસ્ત્ર યા સાડી આદિને પકડીને એટલી ઉતાવળથી ફાડી નાખે કે જેનારાઓને એમ જ પ્રતીત થાય કે આખુ ને આખુ કપડુ એકી સાથે ફાડી નાખ્યુ છે, પરંતુ એમ થતુ નથી એ ખ્યાત હતુઓનું કપડું બને છે,
र 'तस्य समूह' इत्यण, एव च “साना समूह काम, वकाना समूहो राम" मित्यादाविर नपुसस्त्वस्यौचित्येऽपि रूढे शिष्टप्रयोगाच लोकत पुस्त्वम् , तथाचोक्ताम्-“लिङ्गमगिष्य लोकाश्रयत्वाल्लिङ्गम्य" इति ।
२ 'वर्तनालझण काल' इतिच्छाया ।
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उपासकदशासूत्रे ये तु खलु सकलविरतिसाधनाऽक्षमा भवाटपीभ्रमणलाफलितसन्तापकलाप व्याकुलितात्मानो भव्याम्तेपामुपकारायाऽगारधर्म गोधयितुमनेस्श्रमणोपासक चारिनिचिाणपुरस्सरमिदमुपासकदशास्य सप्तमार वितन्यन्नाह-'तेणकालेण' इत्यादि ।
( मूलम् )-तेण कालेणं तेण समएणं चपा नाम नयरी होत्था, वण्णओ । पुण्णभद्दे चेइए, वपणओ ॥ १ ॥ ___ (छाया)-तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी आसीत्, वर्णकः । पूर्णभद्रश्चैत्यः, वर्णकः । ॥१॥
(टीका) तस्मिन्-चतुर्थारफलक्षणे कोणिकभूपशासनात्मके, काले-कलयन्ति'मामोऽय सवत्सरोऽय'-मित्यादिरूपेण निश्चन्वन्ति तत्वज्ञायमिति, क्लन सख्यान 'पाक्षिकोऽय मासिकोऽय'-मित्यादिरूपेण निरूपण कालः, सोऽस्मिलौटना पडता है और जो अनन्त सुखोंका धाम है, किन्तु जो सकल विरतिकी साधना करनेमे समर्थ नहीं है और ससाररूपी विकट अट वीमे भ्रमण करनेरूप नाना कष्टोसे छट-पटा रहा हैं, उन भव्य प्राणि योके उपकारके लिए श्रावक धर्मको समझानेके उद्देश्यसे अनेक श्रावकोके चरित्रोंका चित्रण करते हुए भगवान् उपासकदशानामक यर मातवा अग प्रारभ करते है- 'तेण कालेण' इत्यादि ।
महीना, वर्प आदि रूपसे जिसका कलन (निश्चय) तत्त्वज्ञाता करते हैं उसे माल कहते है । अथवा 'यह पखवाडेका है, महीनेका है। इस प्रकारके कलन (गिनती-सख्या) को काल कहते हैं। अथवा લેશ માત્ર નથી, જ્યાથી ફરી જન્મ લેવું પડતું નથી, અને જે અનત સુખનું ધામ છે પરન્તુ જેઓ સકલવિરતિની સાધના કરવામાં સમર્થ નથી, અને સ સારરૂપી વિકટ અટવી (વન)માં ભ્રમણ કરવા રૂપ વિવિધ કટૈયા તરફડી રહ્યા છે, એ ભવ્ય પ્રાણીઓના ઉપકારને માટે શ્રાવકધર્મ સમજાવવાના ઉશ્યથી અનેક શ્રાવના ચરિત્રનું ચિત્રણ કરતા “ઉપાસકદશા” નામક આ સાતમા भगना प्रारम ४३ छ -'तेण सालेण' या . * ૨ મહિને વર્ષ, આદિ રૂપે જેનુ કલન (નિશ્ચય) તવ કરે છે તેને “કાલ કહેવાય છે અથવા “આ પખવાડીયાનું છે, “આ મહિનાનું છે, એ પ્રમાણે કલન (ાણત્રી–સખ્ય)ને કાળ કહેવામાં આવે છે, અથવા કલાઓ (સા) ને
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अगरधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ समयमरूपणा
पक्ष्मगोटन न सभवतीति प्रत्येकमुपरितनपक्ष्मसु योऽनन्तपरमाणूना विशिष्टाकारपरिणतिरूपः सघातः, तादृशानन्तसघाताना यः समुदयस्तादृशानन्तसमुदयाना या समितिस्तादृशीनामनन्तसमितीना समागमेनैकस्य वस्तुनः सम्पादनाय मिलित्वोपरितनपक्ष्म (पटशा टिकादे ) सम्पद्यते, तस्यैतस्योपरितनपक्ष्मणश्छेदने यावत् कालो लगति तस्यात्य-त स्रक्ष्मोंऽशः 'समय' इत्युच्यते, इत्थमत्र तात्पर्यम् - स्फाट पुरुषप्रयत्नम्याऽचिन्त्यशक्तिरत्वेन प्रतिसमयमनन्तपरमाणुसघाताना छेदन भवितुमर्हति,
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ख्यान - सरयात पक्ष्म (ग) हैं । उन रुँओमेभी ऊपरका रुँआँ पहले छिदना है तब कही उसके नीचेका रुँआ छिदता है । अनन्त परमाणुओंकी विशिष्ट प्रकारकी परिणति (एक साथ मिलजाने) को सघात कहते हैं। ऐसे अनन्त सघातोंका एक समुदय होता है । अनन्त समुदयकी एक समिति होती है और ऐसी अनन्त समितियाँ जन सगठित होती है तन कही जाकर एक वस्तुका ऊपरका एक रुओं बनता है । इन सबका छेदन क्रमश' होता हे । अर्थात् तन्तुके पहले रुँएँ [ की पहली समिति के पहले समुदय के पहले सघात] के छेदनमें जितना समय लगता है उसका भी अत्यन्तही सूक्ष्म अश समय कहलाता है ।
मतलब यह है कि फाडनेवाले मे अचिन्त्य शक्ति होने के कारण प्रतिसमय अनन्त परमाणुओं के सघातो का छेदन हो सकता है, किन्तु उन सब सघातो को एक स्थूलतर सपात कहा जाता है । ऐसे स्थूलतर
*મશ
એ વામા પણ ઉપરના રૂવા પહેલા છેદાય છે ત્યાર પછી તેની નીચેના રૂવા છેદાય છે અનત પરમાણુઓની વિશિષ્ટ પ્રકારની પરિણતિ (એક સાથે મળી જવુ તે) ને સાત કહે છે એવા અન ત સઘાતને એક સમુય થાય છે અનત સમુ દયાની એક સમિતિ થાય છે, અને એવી અનત સમિતિએ જ્યારે સગઠિત થાય છે, ત્યારે એક વસ્તુનું ઉપરનું ૩વુ બને છે એ ખધાનું છેદન થાય છે અર્થાત્ તતુના પહેલા રૂા(ની પહેલી સમિતિના પહેલા પહેલા સ ઘાત)નું છેદન થવામા જેટલા સમય લાગે છે, તેને પણ અત્યંત સૂક્ષ્મ અશ એ સમય કહેવાય છે તાપ એ છે કે વસ ફાડનારમા અચિન્ય શક્તિ હેાવાને કારણે પ્રતિસમયે અનત પરમાણુઓના સઘાતેનું છેદન થઈ શકે છે, પરંતુ એ અંધા સધાતાને એક જૂન સઘાત કહેવામા આવે છે, એવા વતર સધાત એક
સમુદયન
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उपासकदशासूत्रे ततुपूपरितनतन्तुच्छेदमन्तरेण तदधोऽधःस्थिततन्तुच्छेदासम्भवात्परस्परमस्त्येव तन्तुच्छेदे कालभेदः, यथा-शत कमलाना पत्राणि पश्चिन मुढो निपुणः मुच्यादिना विष्यति, तत्राऽऽपाततो लाघवाद् युगपद्वेधनस्य प्रतीताबाप वस्तुतो न युगपळेधन किन्तु क्रमेणैव, यथा पा-अद्यत्वे तारयन्त्रमेकर म्थेशनादापाहन्यमान युगपदिव क्रोशसहस्रमुल्लङ्घयत् प्रतिभाति, वस्तुतस्तु सूक्ष्मतमः क्रमस्तत्रापि वर्तत एवेति, तथा चप्रकृते मतितन्त्वपि सख्यातपक्ष्मणा सत्वेन प्रथमपक्ष्मत्रोटन विना तत्परापरतक ऊपरके तन्तु न फटे तबतक नीचे के तन्तु फट नही सकते, अतः कपडेके फटनेमे कालका भेद अवश्य होता है। जैसे एक दूसरेसे मटे हुए कमलके सो पत्तोंको कोई निपुर्ण और बलवान् व्यक्ति एक दम सुई आदिसे छेद देता है उससमय भी सहमा ऐसा प्रतीत होता है कि सौ पत्ते माथ ही छिद गए है, परन्तु यह भी भ्रम ही है, क्योंकि जिस समय पहला पत्ता छिदा था उस समय दूसरा नहीं छिना, और जब दसरा छिदा तब तीसरा नही छिदा या, अत. वास्तवमें सब पत्तोंका छेदन क्रमश. हुआ है । अथवा जैसे-आजकल तार-घर या स्टेशन आदिमे एक जगह तार खटखटाते ही हजारों कोस तक वह एकही समयमे चला गया प्रतीत होता है, किन्तु वहाभी सूक्ष्म कम अवश्य है। इसी प्रकार कपडेके विपयमेभी समझिए । (यह तो कदही चुके हैं कि कपडा सख्यात तन्तुओसे बना है किन्तु) एक एक तन्तुमे भी स. અને જ્યાસુધી ઉપરના તતુઓ ન તૂટે ત્યા સુધી નીચેના ત તુએ તૂટી શક્તા નથી એથી કપડુ ફાટવામા કાળને ભેદ અવશ્ય થાય છે જેમ એક બીજાને ચે ટકી રહેતી કમળની સો પાદડીઓને કેઈ નિપુણ અને બલવાન વ્યકિત એકદમ સેય આદિથી છેદી નાખે છે, તે વખતે પણ સહસા એમ જ પ્રતીત થાય છે કે સોએ પાદડી એકી સાથે છે ઈ ગઈ છે, પરંતુ એ પણ ભ્રમ જ છે, કારણ કે જે સમયે પહેલી પાદડી દઈ હતી તે સમયે બીજી પાદડી છેદાઈ નહોતી, અને જ્યારે બીજી છેદાઈ હતી ત્યારે ત્રીજી છેદાઈ નહતી તેથી વસ્તુત બધી પાદડીઓનુ છેદન ક્રમશ થયું છે અથવા જેમ આજકાલ ટેલીગ્રાફિક ઓછીસ વગેરેમાં એક જગ્યાએ તાર ખટખટાવતાજ હારે કેસ દૂર સુધી તે અવાજ એકજ સમયે ચાલ્યા ગયે એમ પ્રતીત થાય છે, પરંતુ તેમાં સૂકમ કમ અવશ્ય હોય છે એ જ પ્રમાણે કપડાની બાબતમાં પણ સમજવુ (એ તે કહેવામાં આવ્યુ છે કે કપડુ સખ્યાત હતુઓનું બનેલું છે, પરતુ) એક એક ત તુમાં પણ્ સ ખ્યાત–સખ્યાત પક્ષમ (રૂવા) છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ चम्पानगरी वर्णनम्
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पर्वताथ, तद्वदचलादुन्नतत्वाच्च प्रासादादयोडाप, ते सन्ति यस्या सा, इति
निरुक्ति. । यद्वा
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"पुण्यपापक्रियाविज्ञै, - दयादानप्रवर्त्तकै, कलाकलापकुशलै', सर्ववर्णे. समाकुलम् ॥ भाषाभिर्विविधाभिश्च युक्त नगरमुच्यते ॥”
इत्युक्तलक्षणा न | 'नकरी' इतिच्छायापक्षे तु न विद्यते करगोमहिप्यादीनामष्टादशवियो राजग्राह्यो भागो ( जकात ) यत्र सेत्यर्थः, अभवत् । वर्णकः= वर्णन ज्ञातव्य इति शेष. । तद्यथा
जो न गमन करे उसे नग कहते ह अर्थात् वृक्ष और पर्वत | परन्तु प्रासाद (महल) आदि भी वृक्ष और पर्वतोकी तरह ऊँचे और अचल होते हैं इस लिए उन्हें भी नग कहते है । ये नग (मासाद आदि) जिसमे पाए जाएँ उसे नगरी कहते है ।
अथवा - "पुण्य और पाप की क्रियाओ के ज्ञाता, दया और दान की प्रवृत्ति करनेवाले, चिचिन कलाओ मे कुशल पुरुष, तथा चारो वर्ण वाले जिसमे निवास करते हो और जिसमे भाँति-भाँति की भाषाएँ वोली जाती हों उसे नगर कहते हैं ।" यही लक्षण नगरी का है ।
'नवरी' शब्द की छात्रा 'नकरी' भी हो सकती है। नगरी का अर्थ यह है कि जिस मे गाय नैस आदि पर अठारह प्रकारका कर ( जकात ) न लगता हो ।
જે ગમન ન કરે તેને નગ કહે છે, એટલે કે વૃક્ષ અને પત પરન્તુ પ્રાસદ (મહેલ) અહિંદ પણ વૃક્ષ અને પતાની પેઠે ઉંચા તથા અચલ હાય છે તેથી તેને પણ નગ કહેવામા આવે છે એ નગ (પ્રાસદ આદિ) જેમા ઢાય છે તે નગરી કહેવાય છે
66 अथवा પુણ્ય અને પાપની ક્રિયાએાના જ્ઞાતા, દયા અને જ્ઞાનની પ્રવૃત્તિ કરનાગ, વિવિધ કલાઓમા કુશળ પુરૂષા, તથા ચારે વધુ વાળાએ જેમા નિવાસ કરતા હાય અને જેમા ભાત-ભાતની ભાષાએ ખેલાતી હોય, તેને નગર કહે છે ” એજ લક્ષણ નગરીનું છે ‘નયરી’ શબ્દની છાયા નકરી' પણ થઇ શકે છે. નકરીના અર્થ એ છે કે જેમા ગાય ભેન આદિ ઉપર અઢાર પ્રકારના કર અથવા જકાત ન લેવાતી હાય
१ 'नगपापाण्डुभ्यो र 'इति वार्त्तिकेल 'नग' शब्दान्मत्वर्थीयो र प्रत्ययस्तत. 'पिद्गौरादिभ्यश्च' इति ङीप् ।
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उपासकदशासूत्रे एव च सत्येस्मिन् समये यापन्तः सघाताभियन्ते तैरनन्तः सघातःस्थूलतर एक एव सघातो विवक्ष्यते, एतादृशाश्च स्थूलतरा सघाता पस्मिन् पक्ष्मण्य सख्याता एव भवन्ति नत्वनन्ता इति तेषा कमेण वेदने, असरयातसमये-- ज्वेवोपरितनपक्षमच्छेदो भवतीत्येकस्य पक्ष्मणश्छेदने यागन् कालो व्यस्येति तदसख्याततमोऽशः समयः।
इत्येव चोक्तरूपस्य समयशब्दार्थस्य सत्वेऽपि प्रकते तादृशेऽतिम्रक्ष्मे समये चम्पानगर्याः सद्भारस्य, आर्यसुर्मस्वामिनोऽवतरणस्य चाऽसम्भवादन समयपद लक्षणया हीयमानत्वबोधक, ततश्च 'तम्मिन् काले तम्मिा समये' इत्यस्य 'चतुर्थारके हीयमाने ' इत्यर्थोऽत एवं 'समये' इत्यस्य न वैयर्थ्यमिति मूक्ष्मदृशाऽवधार्यम् ।
चम्पा-एतम्नामिका नाम प्रसिद्धौ नगरीन गच्छन्तीति नगा =क्षा: सघात एक-एक ए में असख्यात होते है, अनन्त नही, अत उन्हें क्रम से छेदने पर असख्यात समयों में ही एक रुऍ का छेदन होता है, अतः एक रुएँ के छेदने मे जिलना काल लगता है उसका असख्याता हिस्सा एक समय कहलाता है ।
यद्यपि 'समय' शब्दका यही अर्थ है तथापि इतने सूक्ष्मतम अश में चम्पा नगरी का अस्तित्व और आर्यसुधर्मा स्वामी का पधारना नहीं हो सकता अत यहाँ 'समय' शब्द का अर्थ 'हीयमान' रूप लेना चाहिए, वह समय शब्द यहा व्यर्ध नहीं है । अस्तु ।
उस काल अर्थात् चौथे आरे मे, जधकि महाराज कोणिक का राज्य था और उन हीयमानरूप समयमें चम्पा नाम की प्रसिद्ध नगरी थी । એક રુવામાં અને ખ્યાત હોય છે, અનત નહિ, તેથી એ સ ઘાનાન ક્રમશ, છેદવા જતા અસખ્યાત સમયમાજ એક રૂવાનું છેદન થાય છે તેથી એક રૂવાના છેદનમાં જેટ કાળ લાગે છે, તેને અમ ખ્યાતમે ભાગ એક સમય કહેવાય છે
જે સમય નાદને અર્થ આ પ્રમાણે છે, તે પણ એટલા સૂક્ષમતમ અશમાં ચપા નગરીનુ અસ્તિત્વ અને આર્ય સુધર્મા સ્વામીનુ પધારવુ થઈ શકતુ નથી, તેથી અહી “સમય” શબ્દને અર્વ હીયમાન રૂપ લેવો જોઈએ, તે સમય શબ્દ અહી વ્યર્થ નથી - એ કાળે અથત ચોથા આરામાં જ્યારે મહારાજ કોવિકનું રાજ્ય હતુ અને એ હીયમાનરૂપ સમયમાં ચ પા નામની પ્રસિદ્ધ નગરી હતી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ चम्पानगरीवर्णनम्
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श्रवणान्धार्या अर्थावधारणाद्गृहीतार्था, सामयिकार्थमन करणात्पृष्टार्थाः, प्रश्नार्थाभिगमनादभिगृहीतार्थाः, इत्थम्भूतस्यार्थस्योपलम्भाद्विनिश्चितार्थाः, निर्ग्रन्थमवचनतो विद्युधैरप्यनतिभेद्या, अस्थिमज्जानुगतजिनममाण सन्तः पुनकलनादीन् प्रत्यपि - "जैवातृका. ! इदमेव निर्ग्रन्थप्रवचन परमार्थ' शेपोऽनर्थ', यदपि च धनधान्यपुत्रकनककान्तानन्धुप्राज्यराज्यविलासादिक तदपि क्षणभगरतया, परिणामनीरसतया, निर्ग्रन्थप्रवचनपथकण्टकतया च परिहरणीयमेव, कपाय लुपिताऽऽशयो हि नैहिको नाप्यामुष्मिक इत्युभय लोकपरिभ्रष्टः कष्टपरिणामोऽनुशोचति न च स्वप्नेऽपि कल्पतेऽल्पी यसेऽपि श्रेयसे, तन्मृतमनु, गृहद्वारमात्रमुपयान्तीं रमणीं, चितास्थलीकक्षा और जुगुप्सा (दुगुडा) रहित, अर्थ के श्रवण करने से नार्थ, अर्थ को धारणा करनेसे गृहीतार्थ, सन्दिग्य विषय मे प्रश्न करने से पृष्टार्थ, पूठे हुए अर्थ को ममझ लेनेसे अभिगृहीतार्थ, 'इत्थम्भूत' (यह अर्थ ऐसा ही है) अर्थ को जान लेनेके कारण विनिश्चितार्य, और देवनाओं द्वारा भी निर्ग्रन्य-प्रवचन से चलायमान न होनेवाले थे। उनकी हड्डी-हड्डी और मिंजी - मिंजी मे जिन भगवानका प्रेम रमा हुआ था । वे अपने पुत्र और पत्नी आदिको भी ऐसा समझाते थे
"जैवातृक । यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही परमार्थ है, शेष मव अनर्थ हैं । वन-धान्य, सुत - सुवर्ण, पत्नी-परिवार प्राज्य - राज्य, यह सब क्षणभंगुर है, परिणाममें दुखदाई है और निर्ग्रन्थ प्रवचन के पथका कण्टक है, इसलिए यह त्यागने योग्य है । जो कपायों से कलुषित हृदय ઘરના ખારણા ખુના રાખનારા, નથ પ્રચનમા શ કાક્ષા અને જુગુપ્સા (દુર્ગુ છા)થી રહિત, અનુ શ્રવણુ કવાયી લખ્યા, અની ધારણા કરવાથી ગૃહીતા, સદિગ્ધ વિષયમાં પ્રશ્ન કરવાચી પૃષ્ટા પૂછેલા અર્થને સમજી सेवाथी गभिगृहीतार्थ, इत्यभूत अर्थने लगी सेवाने द्वारा विनिश्चितार्थ, मने દેવતાઓ દ્વારા પણ નિર્માંન્થ–પ્રવચનથી ચલાયમાન ન થાય તેવા હતા એમના હાડહાડમા અને મન્નાએ મજ્જામા જિન ભગવાનને પ્રેમ નમણુ થઈ રહેલે હતે તેએ પેાતાના પુત્ર અને પત્ની આદિને પણ એમ સમજાવતા હતા –
હું આયુષ્યમ તે 1 એ નિન્ય પ્રવચન જ પરમાર્થ છે, બાકી બધે અન छे धन-धान्य, सुत-सुवर्थ, पत्नी-परिवार, प्रान्य-राज्य से मधु क्षणभर छे, પરિણામે દુખદાયી છે અને નિત્થ--પ્રવચનના પથના કટકે છે, તેથી એ મધુ ત્યજવાગ્ય છે કષાયેાથી કર્ણષત જે હૃદય છે તે નથી અહીંનુ કે નથી તહીંનુંએક
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उपासक दशाङ्गमूत्रे
आसीदसख्यातद्वीपसमुद्रान्तः स्थितस्य लक्षयोजन विततस्य जम्बूद्वीपम्य दक्षिण भरत थे अनामनि जनपदे नियमितमाणिमात्रानुकम्पा चम्पाऽभिधाना नगरी | यदुद्भवाश्च भावुकाः अभिगतजी राजीवा उपलब्न पुण्यपाप, आसनसवर निर्जरा क्रियाधिकरणनन्धमोक्षकुशलाः, देवादिसाहाय्यनिरपेक्षतया निजनिज कर्तव्यमात्राधीनत्वेनादीन मनोभावाः, रद्धिजीविकादि रुलान्नरव्या पारतयाऽऽयोगप्रयोगसमवृत्तावरचाटलम्पटादीनामभावेनाऽऽत्मशौयौदार्यातिशयेन वा निर्भया, दानाय सततमुद्धाटितकपाटगृहद्वाराः निर्ग्रन्यप्रवचने निश्शङ्किता, निर्विचिकित्साः, अर्थ
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चम्पा नगरी का वर्णन इस प्रकार है
मध्य लोक में असख्यात द्वीप समुद्र है । उन सब के बीच में एक लाख योजन विस्तार वाला मध्य जम्बूद्वीप है । जम्बूद्वीप के दक्षिण भरत मे अग नामक देश है । उस देश मे नियम से प्राणीमात्र पर अनुकम्पा करनेवाली चम्पा नाम की नगरी थी ।
यहाँ के श्रावक जीव - अजीव तत्त्व के ज्ञाता, पुण्य-पाप को जानने वाले, आस्रव सवर निर्जरा क्रिया अधिकरण बन्ध मोक्ष मे कुशल, देवादि की सहायता की पर्वाह न करके अपने कर्त्तव्य मे जुटे रहने के कारण अदीन मन वाले, वृद्धिजीविका आदि कलान्तर व्यापार वाले होने से लेन-देन मे प्रवृत्त, चोर चाट लम्पट आदि का अभाव होने के कारण अथवा अपनी शूरता उदारता आदिकी अधिकता के कारण निर्भय, तथा दान देने के लिए सदा निवाड खुले रखनेवाले, निर्ग्रन्थ प्रवचन में शका
ચ પાનગરીનુ વર્ણન આ પ્રમાણે છે
મધ્ય લેકમા અસ ખ્યાત દ્વીપસમુદ્ર છે એ બધાની વચ્ચે એક લાખ યેાજનના વિસ્તારવાળા જમૂદ્દીપ છે. જમ્મૂ દ્વીપના દક્ષિણુ ભારતમા અત્રુ નામના દેશ છે એ દેશમા નિયમપૂર્વક પ્રાણીમાત્ર પર અનુકપા ધારણ કરનારી ચ પા નામની નગરી હતી ત્યાના શ્રાવકે જીવ-અજીવ તત્ત્વના ज्ञाता, पुष्य पापना भागवावाणा, સત્ર સવર નિરા ક્રિયા અગિકરણ મધ મે ક્ષમા કુશળ દેવાદિની મહાયતાની પરવા કર્યા વિના પેાતાના કબ્યામા લાગી રહેવાને કારણે અીન મનવાળા, વૃદ્ધિજીવિકા આદિ કલા તર વ્યાપારવાળા હેવાને કારણે લેવા દેવામાં પ્રવૃત્ત ચાર ચાડિયા, લ પટ અદ્દિના અભાવને કારણે અથવા પેાતાની શૂરવીરતા, ઉદારતા આદૅિની અધિકતાને કારણે નિર્ભય, દાન દેવાને માટે સદા પેાતાના
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ चम्पानगरीवर्णनम्
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तानि च - च्यवन (गर्भ) - जन्म - दीक्षा - केवलज्ञान-निर्वाणाख्यानि, तत्र ( १ ) च्यव नस्य मासो ज्येष्ठः, पक्षो नदि (बहुलः), तिथिर्नवमी, नक्षत्र शतभिषक, राशिः कुम्भः, वेळा चार्द्धरात्र., च्यवन च प्राणतदशम देवलोकतः । (२) जन्म च जया वसुराजाभ्या मातापितृभ्या, तस्य (जन्मनः) मासः फाल्गुनः पक्षो वदि (बहुल :), तिथिश्चतुर्दशी, नक्षत्रादिक गर्भोक्तमेव, गोत्र चैतस्य भगवत. काश्यप, वश इक्ष्वाकुः । (३) दीक्षाया मासादिर्ज मोक्त एव, दीक्षाया वेला दिवसस्य चतुर्थः प्रहरः, दीक्षाग्रहणस्थल विहारवनीपस्याशोकतरोस्तलम् । (४) केवलज्ञानमाप्तेः स्थान पाटलिग्क्षम्याधस्तात्, वेला च पूर्वाह्नः छमस्थावस्थाया कालो नव मासाः,
'
पाँचों कल्याणक हुए थे । वे ये है - (१) गर्भ (२) जन्म (३) दीक्षा (४) केवलज्ञान (५) मोक्ष । गर्भ (च्यवन) जेठ वदी नवमीको, शतभि पत्र नक्षत्र, कुम्भ राशिमें अर्ध रात्रिके समय दशवें देवलोक प्राणतसे हुआ था ।
(२) जया माता और वसुराज पितासे जन्म हुआ था । फागुन वदी चतुर्दशी के दिन उक्त नक्षत्र और राशिमें हुआ था । भगवान् का गोत्र कश्यप और वर्ग इक्ष्वाकु था ।
(३) दीक्षा कल्याणक का मास, तिथि वही फागुन वदी चतुर्दशी थी। दिन के चौथे पहरमें दीक्षा ली थी । विहार-बनीपकके ( वाटिका) अशोक वृक्ष का तल दीक्षास्थान है ।
(४) पाटलि वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । पूर्वाह्नका समय था । छट्मस्थ अवस्था नौ मास रही जोडने से आपही मालूम हो जायगा । उस्या थया ना मे उदयालु मा प्रभालु - (१) गर्भ, (२) ४-२ (3) हीक्षा, (४) ठेवलज्ञान, (५) भोक्ष
(१) गर्भ, (य्यवन), ते ॠ नामने हिवसे, शतभिषा नक्षत्र, शुभ राशिमा, અધ રાત્રિને સમયે' દસમા દેવલેક (પ્રાણુત)માથી થયે હતે (ર) જયા માતા અને વસુરાજ પિતાથી જન્મ થયેા હતેા ફાગણ વદ ચૌદશને દિવસે ઉત નક્ષત્ર અને રાશિમા જન્મ થયેા હતેા ભગવાનનુ ગોત્ર કાશ્યપ અને વશ ઇક્ષ્વાકુ હતે.
(૩) દીક્ષા કલ્યાણકના માસ, તિથિ, ફાગણ વદ ચૌદશના હતા દિવસના ચાયા પહેારમા દીક્ષા લીધી હતી વિહારનીપકના અશેાક વૃક્ષનુ તળ દીક્ષાસ્થાન હતુ
(૪) પાટિલ વૃક્ષની નીચે કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થયુ હતુ . પૂહૂર્ણના સમય હત છાસ્ય અવસ્થા નવદ્ભાસ રહી, તે મેળ મેળવવાથી માલૂમ પડી આવશે.
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उपासकदशाश्त्र
मात्रमुपगच्छतः पुत्रादीच सर्वथा असाराननुभूय भवोद्भूतप्रभृतभीतिनिरासायाऽनवरतमाश्रयणीय" मित्यादिनमनिशमुपदिशन्तोऽभयदान सुपात्रदान - म्रियमाणप्राणिमाणपरित्राणपरायणाः, शीलवत - गुणनतविरमण परिपूर्णाः, अष्टमी - चतुर्दशी - पाक्षिक - पोपधापवासकरणशीलाः पौरुप्यादिमत्याख्यानमसिता आढ्या यावदपरिभूता श्रमणोपासका व्यद्योतिपत ।
यत्र च श्री राज्यस्य भगवती द्वादशतीर्थङ्करस्य समभूवन् पञ्च कल्याणानि, है वह न धरका है न उधरका है दोनों लोंकोसे भ्रष्ट है, उसे स्वप्न में भी जरासा श्रेय प्राप्त नही होनेका । अत' मृत्यु होनेके बाद घरकी देहली तक साथ देनेवाली स्त्री और चिता तक साथ चलनेवाले पुत्रों की निस्सारताका अनुभव करो और समारसे उत्पन्न हुए भीषण भयको दूर करने के लिए उसी निर्ग्रन्थ प्रवचनका आश्रय लो !
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वे श्रावक अभयदान, सुपात्रदान और मरते हुए जीवको बचाने में सदा तत्पर रहते थे, शीलवत, गुणव्रत और बैराग्यसे युक्त थे, अष्टमी चतुर्दशी पक्खीको पोषधोपवास (पोसा) किया करते थे, 'पोरसी ' आदिका प्रत्याख्यान करते थे, और आढय यावत् अपरिभूत थे ।
यह वही चम्पा नगरी है जिसमे बारहवें तीर्थकर श्रीवासुपूज्य के લેાકથી ભ્રષ્ટ છે, તેથી સ્વપ્નમા પડુ જરાએ શ્રેય પ્રાપ્ત થવાતું નથી તેથી મૃત્યુ થયા પછી ઘરની ડહેલી સુધી સાથ કરનારી સ્ત્રી અને ચિતા સુધી સાથ કરનારા પુત્રાની નિસ્સારતાને અનુભવ કરે અને સસારથી ઉત્પન્ન થયેલા ભીષણ ભયને દૂર ક૨વાન માટે એ નિન્ય-પ્રવચનને આશ્રય લ્યે છ
એ શ્રાવકે અભયદાન, સુપાત્રદાન અને મરતા જીવેાને બચાવવામાં સદા તત્પર રહેતા હતા, શીવ્રત, ગુણુવ્રત અને વૈરાગ્યથી યુક્ત હતા, આટૅમ ચૌદશ પાખીના પાષધાપવાન ( પાસા ) ક નારા હતા, પેપ સી આદિના પ્રત્યાખ્યાન કરનારા હતા અને ૪ આાઢથી માડી અભૂિત તા
એવી એ ય પાનગરી છે, જેમા આખમા તી કર શ્રી વાસુપૂજ્યના પાચે
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१ 'आय' से 'अपरिभूत' तक के शब्दों स्पष्टार्थ पाठकगण आगे आनेवाले आनन्द श्रावकके वणनमे देख लेवें ।
* અ ય થી ‘· અમૃત' સુવીના શબ્દોને સ્પાય વ ચર્ચાએ આગળ આવનારા આનંદ શ્રાવકના વર્ણનમ થી વાંચી લેવા
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ चम्पानगरीवर्णनम् स्यस्थजयकीर्तिमुनीश्वरोपदिऐनाऽऽचामाम्लनाम्ना यतेनाऽऽस्थितेम सपधेव समजनि सफलोपद्रवानिवृत्तिः, तद्वृत्तान्तो यथा___“विसिटुप्पहारवओ भगवी दुवालसतिस्थयरस्स देवादिदेवस्स सिरित्रामपुज्जस्स विहुयणवडिसबसपरपराए भद्दवसुणाम राया हवीभ । सोय एगया अतदचंदधवलाए रत्तीए सपरियारसामतचक्कोवेओ अट्टालियाए उपविसतो गगणगणे चदाइसोह पासमाणी अहेसि । अझाडम्मि पर तारापडणमालोक नदिहतेण समारासारयामोधारतो झत्ति वेग्ग पत्तो ।
एतच्छाया चैवम्"विशिष्टमभाववतो भगवतो द्वादशतीर्थकरस्य देवाधिदेवस्य श्रीवासुपूज्यस्य त्रिभुवनारतसवशपरम्पराया भयमुर्नाम राजा बभूव । स चैकदाऽतन्द्रचन्द्रधवलाया रात्रौ सपरिवारसामन्तचक्रोपेतोऽट्टालिकायामुपविशन् गगनाङ्गणे चन्द्रादिशोभा पश्यन्नासीत् , अकाण्ड एव तारापतनमालोक्य तदृदृष्टान्तेन ससारासारतामधारयन् झटिति वैराग्य प्राप्त । मांस में विराजमान जयकीर्ति मुनिके यताए हुए आयपिल नामक व्रत के करने से यह (उपमर्ग) शीघ नष्ट हो गया, उसका वृत्तान्त इस प्रकार है
विशेष प्रभावशाली वारहवे तीर्थकर देवाधिदेव भगवान् वासुपूज्यकी तीनो लोकोंमें श्रेष्ठ वशपरपगमें भद्रवस्तु नामक एक राजा हो गया है। वह राजा किसी समय चन्द्रमाके स्वच्छ प्रकाश से प्रकाशमान रात्रिमें अपने सामन्त तथा परिवारके लोगोंके साथ छत पर बैठा हुआ चन्द्रमाकी शोभा निरख रहा था। देखते-देखते असमयमें ही एक तारा टूट गया । राजाको इस उदाहरणसे समारकी असारताका भान हुआ और वह तत्काल विरक्त हो गया। કીર્તિ મુનિએ બતાવેલ આય બિલનામનું વ્રત કરવાથી એ ઉપસર્ગ શa નષ્ટ થઈ ગયા હતા એને વૃત્તાન આ પ્રમાણે છે
વિશેષ પ્રભાવશાળી બારમા તિર્થ કર દેવાધિદેવ ભગવાન વાસુપૂજ્યની ત્રy લેકમ શ્રેષ્ઠ વશર પરામાં ભદવસુ નામનો એક રાજા થઈ ગયો છે એ રાજા એક સમયે ચદ્રમાના સ્વચ્છ પ્રકાશથી પ્રકાશમાન રાત્રિના પિતાના સામતે તથા પરિવારની માણસ સાથે છત પર બેસીને ચદ્રમાની શોભા જોઈ રહ્યો હતો તે જોતા અસમયમાં જ એક તારે તરી પડયે રાજાને એ ઉદાહરણથી સંસારની અસારતાનું ભાન થયું અને તે તત્કાળ વિરકત થઈ ગયે
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उपासकदशा सङ्कलनया स्वयमनुमवनीयः। (५) निर्माणकल्याण चाऽऽपाहमुदिचतुर्दश्या अपराहे नक्षत्रादय इहापि मागुपाता एवेति ।
याम यासीनाव सर्वार्थसिद्धे मुहूर्ते समुत्थाय नमस्कारमन्त्रपाठपूर्वक नियमचतुर्दशक मनोरयत्रिक विचिन्त्य स्वस्वशरीरकृत्यनिहत्ता मातापितमभृतिविनयो तर गुरुसदेशमासाद्य 'तिवसुत्तो' पाठेन कृतसविधिगुरुवन्दनास्तद्वदनान्मालिक भ्याख्यान चाऽऽकर्णयन्ति स्म समयप्रतिपालमा वालका अपि ।।
यम्यां च विशिष्टप्रभाश्वतो द्वादशतीर्थकरस्य देवाधिदेवस्य श्रीरामपूज्यस्प त्रिभुवनावतसरशपरम्पराया जाते वृहदसौ नरपती शासति कदाचन देवोपघात सजातभरकमहोपद्रवदूताना सर्वेषा नागरिकाणा सनृपाणा तत्रैव तद्वर्षीयचातुर्मा
(५) निर्वाण-कल्याणक अपाढ़ सुदी चतुर्दशी के अपराह्न समयमें हुआ। नक्षत्र आदि पूर्वोक्त ही थे।
वहा सिद्धान्तके अनुगमन करनेवाले वालक सर्वार्थसिद्ध मुहर्समें उठ कर णमोकार' मत्रका, पाठ करके चौदह नियमों और तीन मनोरथों चिन्तवन करके शारीरिक कृत्य से निवृत्त होकर मातापिता आदि बडोका विनय करनेके बाद गुरुओंके पास आकर 'तिक्खुत्तो' के पाठ से उन्हें वन्दना करते थे, और उनके मुखसे मांगलिक तथा व्याख्यान सुनते थे।
जिस नगरीमे विशिष्ट प्रभाववाले बारहवें तीर्थकर देवाधिदेव श्री वासुपूज्य भगवान के पवित्र वशपरपरामे उत्पन्न बृहदसु नामक राजाके राज्यमें एक समय देवकृत मरकीका उपसर्ग हुआ था, उस समय चातु' (૫) નિર્વાણ-કવ્યાણ અષાઢ સુદી ચૌદશના મધ્યાહ્ન પછીના (અપરહણ) સમયમાં થયુ નઝુત્રાદિ પૂર્વ જણા યા તે પ્રમાણે હતા, (
ત્યા સિદ્ધાતનું અનુશમન કરનારા બાળકે સર્વાર્થસિદ્ધ’ મુહર્તમાં ઉઠીને “શુમેકકાર' માત્રને પાઠ કરી ચૌદ નિયમે અને ત્રણ મને રથનુ ચિંતન કરી શારીરિક કૃત્યથી નિવૃત્ત થઈ માતા-પિતા આદિ વડીલેને વિનય કર્યો પછી ગુરૂઓની પાસે આવી “તિફખુત્ત'ના પાઠથી તેમને વદન કરતા હતા, અને એમના મુખથી માલિક તથા વ્યાખ્યાન સાભળતા હતા
એ નગરીમાં વિશિષ્ટ પ્રભાવવાળા બારમા તીર્થકર સેવાધિદેવ શ્રી વાસુપૂજય ભગવાનના પવિત્ર પર પરામાં ઉત્પન્ન થયેલા બૃહદ્ર નામના રાજાના રાજ્યમાં એક વખત દેવકૃત મરીનો ઉપસર્ગ થયા હતા, તે વખતે ચાતુમાં વિરાજમાન -
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अंगारधर्ममञ्जीवनी टीका म १ चम्पानगरीवर्णनम् अह रनो बुहवमुणो सहाययाए सदलाल त नपरि अहिकरिउ समागयम्मि चदवमुम्मि तप्पुण्णप्पहावेण पणद्वाऽपराजियत्यसत्ती सपरिवारो सो पिद्दकित्ती राया सगामे पराजेऊण पायपरिभट्ठो पयापरिपथी पमुमार मारिओ पचत्त गन्जी। चदवम् य निकटय तीसे नयरीए सासण करेउमाढवीन अह णियस्य चिरस्स मित्तम्स वागदणेण अइरुहो धरणिददेवो चाबादणनियाण चपाहीसमोगच सीयतेओरलेण तीए चपाए मरगाइज्जुवसग्ग विकुणमाणो तण्णयरीवासिणो जणे अईयोवट्ठयव, जन्मयेण सन्चे एवं
अथ राज्ञो वृहद्वसोः सहायतया सदलबल ता नगरीमधिकर्तुं समागते चन्द्रचसौ तत्पुण्यप्रभावेन प्रणटापराजितास्त्रशक्तिः सपरिधारः स पृथुकीती राजा सग्रामे पराजित्य न्यायपरिभ्रष्टः प्रजापरिपन्थी पशुमार मारितः पञ्चत्वमगात् । चन्दवसुश्च निकण्टक तस्या नगर्या शासन कुत्तुमारेभे।
अब निजम्य चिरस्य मिनस्य व्यापादनेनातिरुष्टो धरणेन्द्रदेवो व्यापादननिदान चम्पाधीशमवगत्य स्वीयतेजोवलेन तस्या चम्पाया मरसायुपमगे विकुर्माण स्तनगरीवासिनो जनानतीवोपद्रुतवान, यद्येन तनगरीस्थाः 'हा हतोऽस्मि, गता
चन्द्रवमु राजा वृद्धसुकी सहायता लेकर नगरी पर अधिकार जमानेके लिए दलपलके साथ चल दिया। चन्द्रवसु वडा पुण्यात्मा था। उसके पुण्यके प्रभावसे पृथुकीर्तिके अपराजित अस्त्रकी मारी शक्ति नष्ट हो गई। वह युद्ध में हार गया। प्रजाका दुश्मन, न्यायसे भ्रष्ट पृथुकीर्तिको पशुओंकीसी मार मारी गई कि मार खाते-खाते उसका दम निकल गया। चन्द्रवसुने उस नगरी पर निष्कटक राज्य-शासन करना आरभ कर दिया। व धरणेन्द्र देव अपने चिरकालीन मखाकी मृत्युसे अति क्रोधित हो गया। उसने चपाके राजा को ही मित्रकी मृत्युका कारण समझा इम लिए चपामें महामारीकी यीमारी फैला दी। प्रजामें त्राहि-त्राहि मच
ચદ્રવસુ રાજા બૃહદસુની સહાય લઈને સિદ્ધા નગરી પર અધિકાર બેસાડવા લાવ-લશ્કરની સાથે ચાલી નીકળે ચદ્રવસુ ભારે પુણ્યાત્મા હતા તેના પુણના પ્રભાવથી પૃથકીર્તિના અપરાજિત અસ્ત્રની બધી શકિત નષ્ટ થઈ ગઈ તે યુદ્ધમાં હારી ગયે પ્રજાને દશમન અને ન્યાયથી ભ્રષ્ટ પૃથકીર્તિને પશુઓની પેઠે માન મારવામાં આવ્યો અને માર ખાતા ખાતા તેને દમ નીકળી ગ ચદ્રવસુએ એ નગરી પર નિષ્ક ટક રાજ્યશાસન આર ભ કરી દીધે
- ધરણેન્દ્રદેવ પિતાના લાબા સમયના મિત્રને મૃત્યુ પાણી ક્રોધની આગથી મળવા લાગ્યા તેણે ચ પાના રાજાને જ મિત્રના મૃત્યુને કારણે માન્ય, તેથી ચ પામાં
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। उपासकदशामने
____ अहा कहपि राइमइवाहिऊण जाए पभाए जिपुत्तस्स बहुवसवे रजमार, कणिहस्स भाउस्स चदवसवे य सिंधुदेसट्टिय सिद्धानाम नयरी दाऊण सय दिक्ख घेत्तूण तव तविउ गओ।
सिद्धाणयरीए य पुचओ पिहुकित्तिणाम णरपई भदवमुणा णगरीस्वखट तस्थ निउत्तो आसी, जस्स पुन्वभवमित्तेण धरणिंददेवेण पसज्ज अपराजियणामगमत्य दिगण, जस्स पभावेण अमू पिझुकित्ती सया विजयवमहेसि। __ अथ कथञ्चिद्रात्रिमतिवाझ जाते प्रभाते ज्येष्ठपुत्राय वृहद्वसवे राज्यभार, कनिष्ठाय भ्रात्रे चन्द्रवसवे च सिन्धुदेशस्था सिद्धा नाम नगरी दचा स्वय च दीक्षा गृहीत्वा क्वचन नपस्तप्तु गत ।। __सिद्धानगर्या च पूर्वतः पृथुकीर्तिनामा नृपतिभंद्रवसुना नगरीरक्षार्थ तत्र नियुक्त आसीत् , यस्मै निजेन पूर्वभव मित्रेण धरणेन्द्रदेवेन प्रसघाऽपराजितनामकमत्र दत्तम्, यस्य प्रभावेणासौ पृथुकीर्तिः सदा विजयवानासीत् । ___उसने किसी तरह रात विताई, और ज्योंही प्रातःकाल हुआ कि अपने बड़े लडके बृहदसुको राज्य सोंप दिया, तथा अपने छोटे भाई चन्द्रवसुको सिन्धु देशकी सिद्धा नामक नगरी देदी । स्वय दीक्षा ग्रहण कर कहीं तपस्या करने चला गया।
सिद्धा नामक नगरीका राज्य पहेलेसे ही भद्रवसुने उसकी रक्षाके लिए पृथुकीर्तिको सौंप रखाथा। पृथुकीर्तिके पूर्वभव के मित्र धरणेन्द्र देवने उस पर प्रसन्न होकर उसे अपराजित नामक एक अस्त्र दिया था। उस दिव्य अस्त्र के प्रभावसे पृथुकीर्ति सदा विजयी रहताथा-कभी किसीसे नहीं हारता था। - તેણે કોઈ પણ રીતે ન વીતાડી, અને પ્રાત કાળ છે કે તુરત તેણે પિતાના મોટા પુત્ર બૃહદ્રસુને રાજ્ય સેપી દીધુ તથા પિતાના નાનાભાઈ ચ દ્રવસુને સિંધુ દેશની સિદ્ધા નામની નગરી અંપી દીધી પછી પિતે દીક્ષા લઈને કયાક તપસ્યા કરવા ચાલે ગયે ,
સિદ્ધા નામની નગરીનું રાજ્ય પહેલેથી જ ભવસુએ તેના રક્ષણ માટે પૃથુકીર્તિને સોપી દીધું હતું પૃથકીર્તિના પૂર્વભવના મિત્ર ધરણે દેવે તેના પર પ્રસન્ન થઈને તેને અપરાજિત નામનું એક અસ્ત્ર આપ્યુ હતુ એ દિવ્ય અસ્ત્રના પ્રભાવથી પૃથકીર્તિ સદા વિજયી રહેતું હતું કેઈવાર કેઈથી હરતો નહિ - 1 1 +
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ चम्पानगरीवर्णनम्
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जओ - " तवोत्ति अहियासए" इच्चारणा “भिक्खाणवत्तीए सभ एव तत्रो सिद्धमिय विचितिऊण मुणी छुहापरीसह सम्म सहे " इय भगवतो उबदेसीअ । इषेव सीसे सिक्खतो सयपि छुद्दापरिसह जयमाणो चत्तारिविघाइयकम्माइ विणासिऊण केवलणाण पत्तव ।
अह केवलमहोच्छवम्मि नहदुदुभिणायाडणा तत्थ समागय देवगण विजाणिऊण ' कहमिह आगया अज्ज देवा ? ' इय पुढेण सामतेण के लियुत्त त बुत्तो । मिक्षाया अभाये ? यतः " तवोत्ति आहियासए " इत्यादिना, “भिक्षाऽनवासो स्वत एव तपः सिद्धमिति विचिन्त्य मुनिः क्षुधापरिषद सम्यक सहते " इति भगवानुपदिदेशेत्येव शिष्यान् शिक्षयन् स्वयमपि क्षुधापरिषद जयन् चत्वापि घातिककर्माणि विनाश्य केवलज्ञान प्राप्तवान् ।
अथ केवल महोत्सवे नभोदुन्दुभिनादादिना तन समागत देवगण विज्ञाय 'कथमिहागता अद्य देवाः ?' इति पृष्टेन सामन्तेन केवलितान्तमुक्तो निजनगरी भी गृहस्थ उसमें नही था । आखिर शिष्योको खाली उपाश्रय में लौट आना पडा । आचार्यजी बोले- हे आयुष्मन् ! भिक्षाका लाभ नहीं हुआ तो चिन्ताकी क्या बात है ? " तवोत्ति अहियासए" अर्थात् यदि भिक्षाका लाभ नही हुआ तो आपही तपस्या हो गई । इस प्रकार आचार्य महाराजका उपदेश सुनकर साधु तथा स्वयं आचार्य महाराज क्षुधा - परीपहको सहन करते हैं। इस प्रकार परीपद को जीतते जीतते आचार्य महाराज के चारों घन-घातिया कर्म नष्ट हो गए और उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई ।
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केवलज्ञानका महोत्सव हुआ आकाशमें दुन्दुभी बजी । राजा बृहूसुने दुन्दुभीका बजना सुनकर देवताओंका आना जान लिया। उसने નગરીમાં પધાર્યા, પરંતુ નગરી સૂની હતી એક પણ ગૃહસ્થ નગરમા નહાતા છેવટે શિષ્યાને ગે ચરી લીધા વગર ઉપાશ્રપમા પાછા ફરવુ પડયુ આચાયે કહ્યુ રે આયુષ્મન્ भिक्षा न भजी, तो तेभा थिता नेवु शु छे ? ' तवोत्ति अहियास' अर्थात् ले ભિક્ષા ન મળી તે આપેઆપ તપસ્યા થઈ ગઈ એ પ્રમાણે આચાય મહારાજના ઉપદેશ સાભળીને સાધુ ક્ષુધા-પરીષહને સહન કરે છે. આચાર્ય મહારાજ પણુ પેતે પરીષહુને સહન કરે છે. અહીતે પરીષદ્ધને જીતતા-જીતતા તેમના ઘનઘાતી ચારે કર્મ નષ્ટ ચઈ ગયા અને તેમને કેવલજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થઈ
કેયલજ્ઞાનના મહાત્સવ થયા. આકાશમા દુભિ ખજવા લાગ્યાં રાજા મહસુએ દુભિને અવાજ સાભળીને દેવતાએ આવ્યા હોવાનું જાણી લીધુ
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उपासनाने तन्नयरिद्वा-"हा हओम्हि, गया मह वधवा, हा देव ! किं कुणेमि, कर्हि गन्छेमि, को मज्झ सरण " इय सोराहोडणमुच्चै अकोसता णयरीओ पत्रलज जहोगास स स अप्पाणमारक्खिउमिओ तो अवहरीभ । सहपरिवारो सपरिको रायावि घुडवसू समभम णयरिं अवहाय तबाहिर सीम।
तीए य चपाए जाणालद्धिमतस्स जयकित्तिणामस्स आयरिस्स मुणिगणपरिवुडस्स चाउम्मासमहेसि । तस्स सीसगणो अन्नया भिक्खाए नयरीमज्झ गओ। मिहत्थाभावेण अपत्तभिक्खो ठाणयमु वासिओ, तया आयरिओ आह-भो आउसता ! का चिन्ता भिक्खाए अभावे?
मे बान्धवाः, हा देव ! किं करोमि, क गच्छामि, को मे शरण'-मिति सोरस्ताडनमुच्चरा क्रोशन्तो नगरीत प्रपलाग्य यथाऽवकाश स्त्र स्वमात्मानमा रक्षितुमि तस्ततोऽगच्छन् । सहपरीवार. सपरिच्छदश्व राजाऽपिवृहद्वसु ससम्भ्रम नगरीमपहाय तवहिरुवास।
तस्या च चम्पाया नानलब्धिमतो जयकीर्तिनाम्न आचार्यस्य मुनिगणपरिवृतस्य चातुर्मास्यमासीत् । तस्य शिष्यगणोऽन्यदा भिक्षायै नगरीमध्य गतो गृहस्था भावेनाऽप्राप्तभिक्षः स्थानकमुपाश्रितस्तदाऽऽचार्य आह भो आयुष्मन्त.! का चिन्ता गई। उसके डरके मारे लोग चिल्लाने लगे-'हाय ! मरे ! बन्धु-जन चल बसे ! हायरे भाग्य !! क्या करें, कहाँ जाएँ, किसका सहालिं?' इस प्रकार चिल्लाते-बिलबिलाते हुए नगरीके लोग, इधर-उधर जहाँ जिसका सीग समाया वही अपनी-अपनी जान बचानेकेलिए भाग गये!
राजा ब्रदसु भी अपने कुटुयी तथा अन्य परिच्छदों के साथ नगरी छोडकर बाहर आ बसा।
विविध लब्धियोंके धारक अनेक साधुओंसे युक्त जयकीर्ति नामक आचार्यका चौमासा उस वर्ष चम्पा नगरीमें ही था। एक बार आचार्यजी के शिष्य गोचरिके लिऐ नगरीमें पधारे, परन्तु नगरी सूनी थी-एक મહામારીની બિમારી ફેલાવી દીધી પ્રજામાં ત્રાહિ-ત્રાહિ પિોકાર પડવા લાગે મરકીને ડરથી લોકે પિકાર કરવા લાગ્યા – “હાય મૂઆ ! બધુજને ચાલ્યા ગયા હાયરે ભાગ્ય ! શું કરવું ? કયા જવું ? કેને આશ્રય લે? એ પ્રમાણે પિકાર અને વિલાપ કરતા નગરીને લેકે અહીં-તહીં, જ્યા જેને ફાવ્યું તેમ પિત-પિતાને જીવ બચાવવાને નાસી ગયા +
' રાજા બહાસુ પણ પિતાના કુટુંબીઓ તથા બીજા પરિવાર સાથે નગરી છોડીને બહાર જઈ વચ્ચે
વિવિધ લબ્ધિઆના ધારક અનેક સાધુઓથી મુકત જયકીર્તિ નામક આચાર્યનું ચોમાસુ એ વર્ષે ૨ પાનાગરીમા જ હતુ એક વાર આચાર્યના કિપે ગોચરીને માટે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ चम्पानगरीवर्णनम्
राया पुन्छीय-" भगव ! लिखण आयपिल तब?" ति । भगवतो बदीन-"विगइरहियाण ओयणभनियचणगाठयाण लुक्खभन्नाण अचित्तम्मि उदगे परियप्प एगासणहेण सड भोयगमायपिट णाम तवो चुच्चड, तहा य वुत्त
'विगहररियस्म ओयण, भजियचणगाइलुखअन्नस्स । सित्ता जले अचित्ते, खाण आयपिल जाण ॥' इति ।
"तमिणमेर तर आण य मुवेमात्रिणीए गमिणमिण्टमीए सम्वेहि चेव पुरजणेहि राह सय च कुणेह जड़ मरगोरसग्गप्पसममभिकखसि" त्ति
राजाऽपृच्छत्-'भगनन् ! रिलक्षणमाचामाम्ल तपः ?' इति, भगवानवादीविकृतिरहितानामोग्न-भर्जितचणमातीना रुक्षानानामचित्तउदके मक्षिप्यकासनस्थेन सकृद्धोजनमाचामाम्ल नाम तप उन्यते । तथा चोक्तम्
" विकृतिरहितानामोदन-भर्जितचणकादिक्षान्नानाम् । क्षिप्त्वा जले अचित्ते खादनमाचामाम्ल जानीहि " इति ।
" तदिदोर तपो ध्यान च श्वोभाविन्यामाधिनकृष्णाष्टम्या सर्वेरेव पुरजनैः कारय स्वय च कुरु यदि मरकोपसर्गप्रशममभिकाक्षसी" ति राजानमाभाष्य स्मरण करता है, उसके मरी आदि उपसर्ग-जन्य समस्त रोग शीघ्र ही शान्त हो जाते है।
राजाने पूछा-भगवान् ! आबिल सप किस प्रकारका होता है ?
भगवान्ने उत्तर दिया-विगयरहित चावल या भुंजे हुए चना आदि रूसे-सुखे अन्नको अचित्त जलमें डालकर एक आसनसे दिन में एकबार आहार करना-खाना-आंबिल तप कहलाता है । कहा भी है
“विगयरहित चावल या भुजे हुए चने आदि रूखे-सुखे अन्नको अचित्त जलमे डाल कर एक बार खानाआंधिल व्रत समझना चाहिए।" કરી ભગવાન વાસુપૂજ્યનું સ્મરણ કરે છે તેને મરકી આદિ ઉપસર્ગજન્ય બધા રે શીવ્ર શાન્ત થઈ જાય છે
રાજાએ પૂછ્યું ભગવન્! આબીલ તપ કેવા પ્રકાર હોય છે?
ભગવાને ઉત્તર આપે- વિગયરહિત ચેખા અથવા સેકેલા ચણા આદિ લુખા–સૂકા અનને અચિત્ત જળમા નાખી એક આસને દિવસમાં એકવાર આહાર उरवा-माधु, मे मामीलत५ पाय छे ४यु छ
વિગધ રહિત ચોખા અથવા એકલા ચણા આદિ લુખ્ખા-સકા અને અચિત જળમાં નાખી એકવાર ખાવું, તેને આખીલ વ્રત સમજવું જોઈએ ”
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उपासकदशास्त्रे णियणयरीमरगप्पसमकामो राया घुडवम् सपरिवारसामतो तस्थ अहियच्चुइऊण भगवतस्स धम्मदेसण आमुच्च णियणयरीवमाणमरगसकडप्पसमोवाय भगवत पुच्छीम,
भगवतो वदीम-"जो भन्यो आसिणपिण्हटमीए आयक्लि गाम तब चरइ, जो य पमज्जियाए भूमि समज्जिय आसणम्मि पुत्राहिमुडो उत्तराहिमुहो वा समुत्रविस्स सदोरग मुहात्थिय मुहोवरि घधिऊण सजइदिओ भगवत वामपुज्ज सुमरइ तस्स सन्चे एव मरगादओ उपसग्गिया रोगा आसु उवसामति" त्ति। मरकाशमामो राजा बृहद्वसुः सपरिवारसामन्तस्तत्रागत्य भगवतो धर्मदेशनामाश्रुत्य निजनगरीवर्तमानमरकसङ्कटप्रशमोपाय भगवन्तमपृच्छत् , भगवानवदत्-"यो भव्य आश्विनकृष्णाष्टम्यामाचामाम्ल नाम तपश्चरति, यथ प्रमाणिस्या भूमि सम्माया॑ऽऽसने पूर्वाभिमुख उत्तराभिमुखो ना समुपविश्य सदोरकमुखवत्रिका मुखोपरि बद्ध्वा सयतेन्द्रियो भगवन्त वासुपूज्य स्मरति तस्य सर्व एव मरकादय
औपसर्गिका रोगा आशूपशाम्यन्ती"ति । सामन्तसे पूछा 'आज यहाँ देवता क्यों आये है"। सामन्तने केवलीका सब वृत्तान्त सुनाया। नगरीमें शान्तिका अभिलापी राजा परिवार और सामन्तोंके साथ केवली भगवानके पास आया। उसने धर्मदेशना सुनकर नगरीमे फैली महामारीकी बीमारी शान्त होनेका उपाय भगवानसे पूछा।
भगवान्ने फरमाया-जो भव्य जीव आश्विन कृष्णा अष्टमीके दिन आबिल नामक तपस्या करता है, और जो पूजणी से भूमि पूजकर पूर्व या उत्तर दिशाकी ओर मुंह करके बैठ कर तथा डोरा सहित मुखवस्त्रिदर मह पर बाध कर, अपनी इन्द्रियोको वशमे करके भगवान् वासुपूज्यका
તેણે સામતને પૂછ્યું કે “આજે અહી દેવતાઓ કેમ આવ્યા છે?” સામે તે કેવલીને બધે વૃત્તાત રાજાને સંભળાવ્ય નગરીમા શાન્તિ થાય તેવી અભિલાષા વાળે રાજા પરિવાર અને સામન્તની સાથે કેવલી ભગવાનની પાસે આવ્યે તેણે ધર્મદેશના સાભળીને નગરીમા ફેલાયેલી મહામારીની બિમારી શાન્ત થવાને ઉપાય सापानने
ભગવાન કહ્યું –જે ભવ્ય જીવ આ વદ આઠમને દિવસે આ બીલ નામની તપસ્યા કરે છે, અને જે ૫ જણથી જમીન પૂછને પૂર્વ અથવા ઉત્તર દિશા તરફ મેટ કરી બેસીને તથા દેરા સાથે મુખવકિા મુખ પર બાધી-પિતાની ઇકિયેને વશ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ चपानगरीवर्णनम्
४३
जैनिकानमस्कारावलिरुभयोः कालयोः सामायिकमतिक्रमण कुर्वाणा नियमेन भगवन्तमर्हन्त सन्ततमनुस्मरन्त्यासीत् ।
धनाजे
अथेदमीयरूपलावण्यशीलयौवनादिसमस्तशस्तगुणलुब्धबुद्विरद्वगो नगतोSपि मोपधि जिन धर्म जी प्रत्यह यथासमय, तथा सदोरम्मुग्वत्रिका निबद्धमुखः सप्रमार्जनीक सामायिक प्रतिक्रमणादिगुरुवन्दनान्ताः क्रिया कर्तुमारभत यथा तदीयतदानीनाऽऽचारमात्रपरिमोहितः
" कुल-घण-वय-विज्ञा, - वम्म-मील - स्सरूच, इय हवर गुणाण जस्म सत्ताण जोओ । मयलगुणवरिट्ठा रूवलावण्णपुण्णा,
सविति वियरणिजा तस्स तारण कम्न्ना कुल-वन-वयो - विधा- धर्म - शील-स्वरूपम्, इति भवति गुणाना यस्य सप्ताना योगः । सकलगुणवरिष्ठा रूपलावण्यपूर्णा,
"1
" ॥ १ ॥
"
सविधि वितरणीया तस्मै तातेन कन्या ॥ इतिच्छाया । वह मुखपर डोरासहित मुग्ववस्त्रिका पाँधकर और पूजणी लेकर नमस्कारपूर्वक दोनों समय सुबह - साम सामायिक प्रतिक्रमण करती थी और अर्हन्त भगवानका सदा स्मरण किया करती थी ।
एक समय एक पथिक ( मुमाकर ) उसके रूप लावण्य शील और यौवन आदि समस्त सद्गुणों पर माहित हो गया । यद्यपि वह धन कमाने के लिए आया था, तो भी आडवर करकेधर्मकी नाक बन बैठा वह प्रतिदिन यथाकाल, तथा डोरासहित मुखवस्त्रिका मुँह पर बाँधकर पूजणीसहित सामायिक प्रतिक्रमण आदि गुरुवन्दना तककी समस्त क्रियाएँ करने लगा। नीतिमे कहा है
1
"जो वर, कुल धन, वय, विद्या, धर्म, शील, सुन्दरता, इन सात મુખસ્ત્રિકા આધી, અને પૂજણી લઇ નમસ્કારપૂર્વક બેઉ સમયસવા—સાજ સામાયિક પ્રતિક્રમણ કરતી હતી અને અર્હન્ત ભગવાનનુ સદા સ્મરણુ કર્યાં કરતી હતી
એક વખતે એક મુસાફ઼ર તેના રૂપ લાવણ્ય શીલ અને યૌવન આદિ સદૃગુ પર મેહિત થઇ ગયે જોકે તે ધન કમાવાને માટે આવ્યા હતા, તે પણ આડ ખર કરીને ધર્મના નાક જેવા બની બેઠા તે રાજ યથાકાળે દારા સહિત સુખસ્તિકા સુખપર ખાધીને પૂજણી સાથે સામાયિક પ્રતિકમણુ આદિ ગુરૂવદના સુધીની બધી ક્રિયાા કરવા લાગ્યા, नीतिमा छु छे - नेवर दुज, धन, वय, विद्या, धर्म, शीस, सुहरता मे सात
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उपासकदशाङ्गमत्रे __रायाणमामासिऊण केवली काल्फमेण सिद्धगइ गओ रन्ना य केवलिनिद्देसेण
त वय कय जणपए कारिय च । तपयस्स पभावेण सजो पसतसयलवदवो दुयमेव सकुडुरसामतो सपोरजणो धम्माणुरागरत्नो राया त णयरी जहपुत्र महिचट्ठीम" इति। केवली कालक्रमेण सिद्धगतिं गतः, राज्ञा च केलिनिर्देशेन तद्रत स्वय कृत जनपदे कारित च । तदनतस्य प्रभावेण झटिति मशान्तसकलोपटवो द्रुतमेव सपौरजनो धर्मानुरागरक्तो राजा ता नगरी यथापूर्वमधितष्ठो"। ___ यामधिष्ठितस्यातिप्रतिष्ठितस्य श्रष्ठजिनदासस्य सुभद्रा नाम्नी जिन वर्मपरायणा ऽऽसीदसीमसौन्दर्यसारमयी तनया, या हि सदोरसमुसवस्त्रिकानिवद्धमुग्वी सप्रमा
यदि महामारीके उपसर्गकी शान्ति चाहते हो तो यही आंबिल तप और ध्यान, कल आनेवाली आश्विन वदि अष्टमीको सरस्त नगरी निवासियों से कराओ और तुम स्वयभी करो । केवली भगवान राजासे इतना कह कर कालक्रमसे मोक्ष पधार गए । राजाने केवली भगवानकी आज्ञानुसार उक्त व्रत स्वय किया और जनतासे भी करवाया।
इस व्रतके प्रभावसे समस्त उपद्रव शीघ्र दूर हो गया और राजा कुटुम्बीजनों, मामन्तों तथा नगर-निवासियों के साथ धर्मका अनुरागी होकर पहलेकी तरह चम्पा नगरीमे निवास करने लगा।
यह वही चपा है जिसमे निवास करनेवाले प्रतिष्ठित सेट जिनदासकी सुभद्रा नामक अनुपम सुन्दरी और जिनधर्मपरायण पुत्री थी।
જે મહામારીના ઉપસર્ગની શાન્ત ઈરછતા હો તે એ આબીલ તપ અને ધ્યાન, કાલે આવતી આસો વદ આઠમે બધા નગરનિવાસીઓ પાસે કરાવે, અને તમે પિતે પણ કરે કેવલી ભગવાન રાજાને એ પ્રમાણે કહીને કાલક્રમે મલે પધાર્યા
રાજાએ કેવલી ભગવાનની આજ્ઞાનુસાર એ વ્રત પેતે કર્યું અને જનતા પાસે પણ કરાવ્યું
એ વ્રતના પ્રભાવથી બધે ઉપદ્રવ શીધ્ર દૂર થઈ ગયે, અને રાજા કુટુંબીજને સામન્ત તથા નગરનિવાસીઓ સાથે ધર્મને અનુરાગી થઈ પહેલાની પેઠે ચ પ નગ રીમાં નિવાસ કરવા લાગે ૮
આ એ ચપનગરી છે જેમાં નિવાસ કરનારા પ્રતિષ્ઠિત શેઠ જિનદાસની સુભદ્રા નામની અનુપમ સુંદરી અને જિનધર્મપરાયણ પુત્રી હતી તે મુખપર તે સાથે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ चपानगरीवर्णनम्
___ ४३ निकानमम्कारावलिरुभयोः पालयोः सामायिकमतिक्रमण कुर्वाणा नियमेन भगवन्तमर्हन्त सन्ततमनुस्मन्त्यासीत् । ____ अथेदमीयरूपलावण्यशीलयौवनादिसमम्तशस्तगुणलुब्धघुद्विरद्वगो धनार्जनागतोऽपि मोपर्धािजन यम वजी प्रत्यह यथासमय, तथा मदोरस्मुखवस्त्रिकानिवद्धमुग्वसपमाननीर सामायिकमतिक्रमणादिगुरुवन्दनान्ताः क्रिया कर्त्तमारभत यथा तदीयतदानींननाऽऽचारमात्रपरिमोदितः
" कुल-धण-वय-विजा, धम्म-मील-स्सरूव,
हय हवर गुणाण जस्म सत्ताण जोओ। मयलगुणवरिट्ठा रूवलावण्णपुण्णा,
सविहि वियरणिना तस्स तारण कन्ना" ॥ १ ॥ " कुल-चन-वयो-विद्या-धर्म-शील-स्वरूपम् ,
इति भवति गुणाना यस्य सप्ताना योगा। सकलगुणवरिष्ठा रूपलावण्यपूर्णा,
सविधि वितरणीया तस्मै तातेन क्न्या" ॥ इतिन्छाया । वह मुखपर डोरासहित मुखवस्त्रिका बाधकर, और पूजणी लेकर नमस्कारपूर्वक दोनों समय-सुबह-साम सामायिक प्रतिक्रमण करती थी और अर्हन्त भगवान्का सदा स्मरण किया करती थी। . एक समय एक पथिक (मुमाफर ) उसके रूप लावण्य शील और यौवन आदि समस्त सद्गुणो पर माहित हो गया । यद्यपि वह धन कमाने के लिए आया था, ता भी आडर करकेधर्मकी नाक बन बैठा। वह प्रतिदिन यथाकाल, तथा डोरासहित मुखवस्त्रिका मुँह पर बांधकर पूजणीसहित सामायिक प्रतिक्रमण आदि गुरुवन्दना तककी ममस्त क्रियाएँ करने लगा। नीतिमें कहा है
"जो वर, कुल धन, वय, विद्या, धर्म, शील, सुन्दरता, इन सात મુખવસ્ત્રિકા બાધી, અને પૂજાણી લઈ નમસ્કારપૂર્વક બેઉ સમયસવાર-સાજ સામાયિક પ્રતિક્રમણ કરતી હતી અને અહંન્ત ભગવાનનું સદા સમરણ કર્યા કરતી હતી
એક વખતે એક મુસાફર તેના રૂ૫ લાવણ્ય શીલ અને યૌવન આદિ સદગુણે પર મેહિત થઈ ગયે જોકે તે ધન કમાવાને માટે આવ્યું હતું, તે પણ આડબર કરીને ધર્મના નાક જે બની બેઠે તે જ યથાકાળે દેરા સહિત મુખવસ્ત્રિકા મુખપર બાધીને
જણ સાથે સામાયિક પ્રતિક્રમણ આદિ ગુરૂવદના સુધીની બધી ક્રિયા કરવા લાગ્ય, નીતિમાં કહ્યું છે કે- જે વર કુળ, ધન, વય, વિદ્યા, ધર્મ, શીલ, સુદરતા એ સાત
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उपासकदशासूत्रे
इति माक्तनीं वाहिनीतिपद्धति विस्मृत्य स नीतिचतुरोऽपि जिनदासस्तदीय हिरङ्गजैन ग्र्मोड्डामराऽऽडम्नरोद्दीन चित्तत्तिरप्रकटकपटजिनधर्मपरिणे वस्तुतो बौद्धाय, अन्तरङ्गोल्लसदसद्वादयस्तबुद्धिवैभवाय मिथ्यावादापनीताऽऽत्ममहिम्ने यथार्थनाम्ने बुद्धदासाय सहजातसर्वभद्रा ता सुभद्रा परिणयनविधिना डाकू प्रदाय नवरत्न ही पादासीदासाऽऽसन याना दियो रे, प्रमार्जन्या, सदोर कमुख स्त्रिया च समलङ्कृता यथाकुळव्यवहार ससम्मान श्वशुरालय प्रेपितवान् । गुणों से युक्त हो, उस वरको पिता समस्त गुणोंसे युक्त रूप और लावण्य (सौन्दर्य) से भरपूर कन्या देवे ॥१॥"
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लेकिन उसके इस आडम्परपूर्ण आचरणसे जिनदास उस पर मोहित होगए । उन्होंने विवाहकी पुरानी चाल भुला दी । वह उसके दिखाऊ धर्मात्मापन से आकृष्ट होगए । उन्हें नहीं मालूम था कि बुद्धदास कपट कर रहा है । उन्होने उसे जैनधर्मका अनुयायी ममझ लिया। वह वास्तवमें बौद्ध, स्याद्वादसे शून्यहृदय, वुद्विहीन, मिथ्या वादसे आत्म-गौरवको नष्ट करनेवाले और यथानाम तथा गुणवाले उस बुदामको ही जिनदासने अपनी, स्वभावसे भद्रा सुभद्रा पुत्री विवाह - विधिसे शीघ्र प्रदान करदी और विविध प्रकारके रत्न, सुवर्ण, हीरे आदिके आभूषण, दास, दामी, आसन, यान आदि, तथा पूजणी, रासहित मुखवत्रिकासे शोभायमान करके कुलकी रीतिके अनुसार सम्मान के साथ ससुराल भेज दी ।
સુધાથી યુક્ત હાય તે વરને પિતા બધા ગુણેાથી યુકત રૂપ અને લાવણ્યથી ભરપૂર
उन्या खाये "
પરન્તુ તેના આ આડ ખ પૂર્ણ આચણુથી જિનદાસ તેના પર માર્હુિત વર્ઝ ગા, તેથી તે લગ્નની જૂની ચાલ-રીતિ જૂની ગયે, ને તેના આડ અરી ધર્માત્માપણાથી આકર્ષાઈ ગયે તેને ખખર નહતી કે બુદ્ધદાસ ૯પ૮ કરી રહ્યો છે. તેણે તેને જૈનધર્મના અનુયાયી માની લીધે વસ્તુતઔદ્ધ, સ્યાદૃાદથી શૂન્યહૃદય, બુદ્ધિહીન, મિથ્યાવાદથી આત્મગૌરવને નષ્ટ કરનાર અને યથાનામ તથા ગુણવાળાએ બુદ્ધદાસનેજ જિનદાસે પેાતાના સ્વભાવથી ભદ્રા એવી સુભદ્રા નામની પુત્રીને લગ્નવિધિથી શીઘ્ર परथाची हीधी, भने विविध प्रभारना रत्नो भुवर्थ, हीरा महिना आलूषो!, हास-हासी, આસન, વાન આદિ, તથા પૂજણી દેરાસહિત સુખસિકાથી શૅાભાયમાન કરીને કુળની રીતિને અનુસાર સમાનપૂર્વક સામર મેકલી દીધી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ चपानगरीवर्णनम्
४५ अथ श्वशुरालयमागताऽपि जन्मसिद्धा सामायिकप्रतिक्रमणादिक्रिया नात्या क्षीत्, यदक्तम्
“सा तत्यवि सामाइय,-पडिकमणमु भयकालणियमेण । रक्ख जीवस्साभय,-सुपत्तदाणाइय च कुणहम्द ।।" इति । "सा तत्रापि सामायिक प्रतिक्रमणमुभयकालनियमेन ।
रक्षा जीवस्याभय-मुपानदानादिक च करोति स्म ।" इतिच्छाया। तथा चोक्तम्
"ते चन्ना जिअलोए, जे जिण-धम्म कुणति पञ्चक्ख । धन्नाणचि ते धन्ना, कुणति देसतरगया वि " इनि । "ते पन्या जीवलोके, ये जिनधर्म कुर्वन्ति प्रत्यक्षम् ।
चन्यानामपि ते धन्याः, कुर्वन्ति देशान्तरगता अपि ॥” इतिच्छाया। अथ सदाचारिणीमपि वस्तुत उभयकुलतारिणीमपि च निजकुलविरद्धाचारिणी मत्वा-"पुनि ! नैव स्वकुलपारम्पर्यागत काव्य तन्मामास्त्विमेव"-मिति
सुभद्रा ससुराल आनेपर भी जन्म-सिद्ध सामायिक-प्रतिक्रमण आदि क्रिया पूर्ववत् करती थी। कहा भी है
"वह वहा पर भी सामायिक प्रतिक्रमण उभय काल नियन-पूर्वक करती थी, और जीवरक्षा, अभयदान तथा सुपात्रदान भी करती थी॥१॥"
और भी कहा है
"लोकमे बे अन्य हे जो जिन वर्मका पालन करते है किन्तु वे धन्यों में भी धन्य है जो विटेश मे जाकर भी धर्मका पालन करते है ॥१॥"
सुभद्रा की सासूने समझा कि सुभद्रा यद्यपि सदाचारिणी है और वास्तवमे उभय-कुल तारिणी भी है तथापि अपने कुलसे विरुद्ध आच रण करती है। वह बोली- "बेटी ! अपने घरमें बुद्ध-देवकी उपासना
સુભદ્રા સાસરે આવ્યા પછી પણ જન્મસિદ્ધ સામાયિક-પ્રતિક્રમણ આદિ ક્રિયા પૂર્વવત્ કરતી હતી કહ્યું છે કે
તે ત્યા પણ સામાયિક–પ્રતિક્રમણ ઉભયકાળ નિયમપૂર્વક કરતી હતી, અને જીવરક્ષા, અભયદાન તથા સુપાત્રદાન પણ કરતી હતી એમ પણ કહ્યું છે કે –
લોકમાં તેઓ ધન્ય છે કે જેઓ જિનધર્મનું પાલન કરે છે, પરંતુ તેઓ ધન્યમા પણ ધન્ય છે કે જેઓ વિદેર ગયા છતા પણ ધર્મનું પાલન કરે છે”
સુભદ્રાની સાસુએ એમ માન્યું કે જે કે સુભદ્રા સદાચારિણું છે અને વસ્તુત ઉભયકુલતારિણી છે, તે પણ પિતાના કુળથી વિરૂદ્ધ આચરણ કરે છે તેણે કહ્યું,
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उपासकदशास्त्रे इति माक्तनी वैवाहिकनीतिपद्धति विस्मृत्य स नीतिचतुरोऽपि जिनदामस्त दीयाहिरङ्गजैन मर्मोडामराऽऽडम्मरोहीनचिरत्तिरमकटकपटजिनधर्मगरिणे वस्तुतो चौद्धाय, जन्तरझोल्लसदसद्वाद पम्तयुद्विभाय मिथ्यावादापनीताऽऽस्ममहिम्ने यथार्थनाम्ने बुद्धदासाय सहजातसर्वभद्रा ता सुभद्रा परिणयनविपिना द्वार प्रदाय नैरविधरत्नसुवर्णहीरमादिभूपाढामीदासाऽऽसन-यानादियोतु , प्रमार्जन्या, सदोर कमुखरस्त्रिया च समलङ्कता यथाकुलच्याहार ससम्मान श्वशुरालय पेपितवान् । गुणो से युक्त हो, उस परको पिता समस्त गुणोंसे युक्त रूप और लावण्य (सौन्दर्य) से भरपूर कन्या देवे ॥१॥"
लेकिन उसके इस आडम्बरपूर्ण आचरणसे जिनदास उस पर मोहित होगए। उन्होने विवार की पुरानी चाल भुला दी। वह उसके दिसाऊ धर्मात्मापनसे आकृष्ट होगए। उन्हें नहीं मालूम था कि बुद्धदास कपट कर रहा है। उन्होंने उसे जैनधर्मका अनुयायी ममझ लिया। वह वास्तवमें बौद्ध, स्यावादसे सून्यहृदय, बुद्विहीन, मिथ्या वादसे आत्म-गौरवको नष्ट करनेवाले और यथानाम तथागुणवाले उस वुद्वदामको ही जिनदासने अपनी, स्वभावसे भद्रा सुभद्रा पुत्री विवाह-विधिसे शीघ्र प्रदान करदी जौर विविध प्रकारके रत्न, सुवर्ण, हीरे आदिके आभूषण, दास, दासी, आसन, यान आदि, तथा पूजणी, डोगसहित मुग्ववस्त्रिकासे शोभायमान करके कुलकी रीतिके अनुसार सम्मानके साथ ससुराल भेज दी। ગુણેથી યુક્ત હોય તે વરને પિતા બધા ગુણોથી યુકત રૂપ અને લાવયથી ભરપૂર न्या माये"
પરન્તુ તેના આ આડબ-પૂર્ણ આચણથી જિનદાસ તેના પર હિત થઈ ગયે, તેથી તે લગ્નની જૂની ચાલ-રીતિ ભૂલી ગયે, ને તેના આડબરી ધર્માત્માપણથી આકર્ષાઈ ગયે તેને ખબર ન હતી કે બુદ્ધદાસ કપટ કરી રહ્યો છે તેણે તેને જૈનધર્મને અનુયાયી માની લીધે વસ્તુત બૌદ્ધ, સ્યાદ્વાદથી શૂન્યાહદય, બુદ્ધિહીન, મિથ્યાવાદથી આત્મગૌરવને નષ્ટ કરનાર અને યથાનામ તથા ગુણવાળાએ બુદ્ધદાસનેજ જિનદાસે પિતાના સ્વભાવથી ભદ્રા એવી સુભદ્રા નામની પુત્રીને લગ્નવિધિથી શીધ્ર ५२वीधी, अन विविध २ना रत्नो, भुप, २० माना माभूपाशा, हास-हासी, આસન, વાહન આદિ, તથા પૂજઈ દેરાસહિત મુખસ્ત્રિકાથી શોભાયમાન કરીને કુળની રીતિને અનુસાર સમાનપૂર્વક સાસરે મોકલી દીધી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ चम्पागनरीवर्णनम् तिलक तम्य मुनेललाटे सलग्नम् , तदवलोक्य प्राप्तावसरतया प्रकुपिता तदीयश्वनिजमात्मज-बुद्धदासमाहृयाऽवोचत्-'पश्येय कुल्टैवमाचर्यकुल कलङ्कितपती-'ति श्रुत्वैतत्सा निरका मुभद्रा कायोत्सर्गाय व्यानममिताऽभवत , तदनु तदीयभक्तिम सन्नया शामनदेव्या 'समापय कायोत्सर्ग श्वस्तेऽसौ रलकोऽपयाते-'ति प्रतियोध्यमाना कायोत्सर्गव्यापाराद्वयरसीत् ।
अब जाते प्रमाते देवात्कृताहुप्रयत्नेनापि द्वारपालेन नगरद्वारकवाटमनुदुधाटनीयमालोक्य सर्वे विसिप्मियिरे । समाकर्णि वर्णामणि राज्ञा जितशत्रुणाऽपि
स, उसने बडी चतुराईसे जीभके द्वारा बह निकाल दिया। उस समय दोनोंके मस्तक भिड गये थे इसलिए सुभद्राके ललाटमे लगा हुआ तिलक मुनिके ललाटमे भी लग गया । सासूको मन-चाहा मौका मिल गया। उसने कुपित होकर अपने लडकेको बुलाया और कहा-'देख इम कुलटाने यह करतूत करके कुल कलकित किया है। सुभद्राने जर यह सुना तो वह शान्तिके साय कायोत्सर्ग करनेके लिए यान धरकर बैठ गई। शामनदेवी सुभद्राकी भक्ति से प्रसन्न होकर प्रगट हुई और बोली-वस, कायोत्सर्ग रहने दो, तुम्हारे ऊपर लगा हुआ कलक कल दूर हो जायगा। शाशनदेवीके द्वारा प्रतियोधित होने पर सुभद्राने कायोत्सर्ग पार दिया।
प्रभात हुआ। द्वारपाल नगरके फाटक खोलने गया । मगर अचा नक यह क्या हो गया द्वारपालके लाख प्रयत्न करने पर भी फाटक हिले तक नहीं। सब लोग आश्चर्यचकित हो गए। राजा जितशत्रुके આખમાતુ કાણુ પિતાની જીભ વડે કાઢી નાખ્યું, એ વખતે બેઉના મસ્તક પરસ્પર અડકી ગયા હતા, તેથી સુભદ્રાના કપાળમાને ચાદલે મુનિના કપાળને ચાટી ગયે સાસુને મરજી મુજબની તક મળી ગઈ તેણે શુદ્ધ થઈને પુત્રને બોલાવ્યું અને કહ્યું
જે, આ કુલટાએ આવુ કરતૂત કરીને કુળને કલકિત કર્યું છે” સુભદ્રાએ જ્યારે વાત સાભળી ત્યારે તે શાંતિપૂર્વક કાર્યોત્સર્ગ કરવાને માટે ધ્યાન ધરીને બેસી ગઈ શાસનદેવી સુભદ્રાની ભકિતથી પ્રસન્ન થઈને પ્રકટ થઈ અને બેલી “બસ કાયેત્સર્ગ રહેવા દે, તારી ઉપર લાગેલ કલક કા દૂર થઈ જશે, શાસનદેવી દ્વારા પ્રતિધિત થતા સુભદ્રાએ કાર્યોત્સર્ગ પાયે
પ્રભાત થયુ દ્વારપાળ નગરને દરવાજો ઉઘાડવા આવ્યું, પણ અચાનક આ શુ થઈ ગયુ ? દ્વારપાળના લાખો પ્રયત્ન છતા પણ દરવાજે જરાએ ચસકયે પણ નહીં ! બધા લેકે આશ્ચર્યચકિત થઈ ગયા રાજા જીવશત્રુને કાને એ વાત પહોચી
हा
।
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उपासकाशास्त्रे श्वश्वा प्रतियोधिता मायाविनो निजपत्युः सर्वमेव कापटयमवगत्य देवगत्या अध टितघटनाया जातायामपि स्वधर्मों न हापनीयः' इति निधिन्वाना लोकयात्रा गम यन्त्यासीत् । इदमीया अथर्य गपि कलविरुद्वाऽऽचरणान्मनसा सुभद्राये द्रुति स्म तथापि निष्कारण किश्चिदपयर्नुमक्षमा क्षमान्चितर तूष्णीकामाम्ते स्म । ____ अथैक्दा पश्चनको महान जिनमल्पी मुनिर्गोचरी ग्रहीतु तद्गृहमागतस्तमव लोक्य सुभद्रा यदा तस्मै भिक्षा दातुमुपेतातदैवाक्षुद्रशरा तस्य मुनेश्वसुपि प्रनिष्टा चक्षुःशक्त्युपधातिका समीक्ष्य 'प्रतिकारो विधेय एवेति च निश्चित्य चातुयेण जितया तन्नेगात्तामपनीतवती,किन्तु मियो मुखसम्बन्येन मुभद्राललाटफलकावस्थित होतो है, तुम भी उन्हीं की उपासना किया करो।" जय सासने उसे यह प्रतिबोध दिया तो वह अपने पतिका सारा कपट-पूर्ण रहस्य समझ गई। उसने निश्चय किया-"देव-गतिसे यह अनहोनी भवितव्यता हो गई है तो भी अपने धर्मका त्याग नहीं करना चाहिए।" इस प्रकार निश्चय करके वह अपना समय व्यतीत करने लगी।अपने कुलसे विरुद्ध आचरण देख कर सास. यद्यपि सुभद्रा पर करती थी तथापि वह किमी कारण विना कुछ कर नही सकती थी, इसलिए वह चुप-चाप रही।
एक समय की बात है-एक महान जिनकल्पी मुनि गोचरी के लिए सुभद्राके घर पधारे। वह ज्योंही भिक्षा देनेके लिए समीप आई त्योही उसने देखा कि-मुनिराजके नेत्रमें रजकण पड गया है। उससे नेत्रको हानि पहुँच सकती थी। सोचा-उपाय अवश्य करना चाहिए। પુત્રી ! આપણા ઘરમાં બદ્ધદેવની ઉપાસના થાય છે, માટે તું પણ તેમની જ ઉપાસના કર્યા કર” જયારે સાસુએ તેને એ પ્રમાણે કહ્યું ત્યારે તે પોતાના પતિનુ બધુ કપટ પૂર્ણ રહસ્ય સમજી ગઈ તેણે નિશ્ચય કર્યો કે દૈવગતિથી આ ન થવી જોઈતી ભાવતવ્યતા થઈ છે, તે પણ મારે મારા ધર્મનો ત્યાગ ન કરે જોઈએ” એ પ્રમાણે નિશ્ચય કરીને તે પિતાને સમય વ્યતીત કરવા લાગી પિતાના કુળથી વિરૂદ્ધ આચપણ જોઈને તેની સાસુ કે સુભદ્રા ઉપર ચીઢાતી હતી, તે પણ તે કેઈ કારણ વિના કશુ કહી શકતી નહોતી, તેથી તે ચૂપ રહી
એક વાર એક મહાન જિનકપી મુનિ ગેચરીને માટે સુભદ્રાને ઘેર પધાર્યા તે જ્યા ભિક્ષા આપવાને માટે મુનિની સમીપે આવી, ત્યાં તેણે જોયું કે મુનિની આખમાં કાઈ રજકણું પડયું છે, તેથી એમની આખને ઈજા થવાને સ ભવ છે તેણે વિચાર્યું કે તેને કાઈ ઉપાય જરૂર કરવું જોઈએ સુભદ્રાએ ચતુરાઈથી મુનિની
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अगारसज्जीवनी टीका अ० १ ० १ चम्पानगरीवर्णनम्
४९ अबऽऽकाशयाचा शासनदेव्याऽभ्यधायि- या काचित्मुभद्रातोऽन्यासती वर्त्तते तयाऽवशिष्ट द्वारमुाटनीय-'मिति, किन्तु मुभद्रामन्तरेण न कयाचिदितरया कपाटमुद्घाटयितुमशक्यत, ततो-'धन्याऽसि प्रतियते । शीलगालिनि ! भद्रकरि ! सुभद्रे !' इत्यादिभि निभिर्गगनमण्डलममण्डि । देवैश्च शीलमहिमैवमगीयत--
(मालिनी) "कुणमि दुयमकम्हा सील ! मप्प सुमाल,
विमममियमररिंग सीयल सीमेण । अलमहियगिराए ज तवाल गाण,
मिरणिहिअणिण्सा णिचमग्गे वयपि ॥" इति । " करोपि द्रुतमस्मात् शील । सर्प सुमालाम् ।
____विपममृतमयाग्निं शीतल मिहमेणम् ।। अलमपिफगिरा यत्तवाऽऽलम्पकाना,
शिरोनिहितनिटेगा नित्यमग्रे वयमपि ॥” इतिच्छाया । पश्चात् शामन-देवीने आकाशवाणीमे फिर कहा-"सुभद्रा के सिवाय और कोई सती हो तो वह चौथा दरवाजा खोले । " लेकिन सुभद्राके अतिरिक्त एक भी स्त्री दरवाजा न ग्बोल सकी। तय-"हे सुभद्रा' हे शीलवती पतिव्रता! तु धन्य है। पन्य है। की ध्वनिसे आकाश-मडल गूज उठा। देवताओने शीलकी हम प्रकार स्तुति की
"हे शील तुम अनायास ही सर्पको माला, विपको अमृत, अग्निको शीतल और शेरको हरिण बना देते हो। अधिक क्या कहे जो तुम्हारा आलपन लेते है उनकी आज्ञा हम लोग (देवता) भी शिरोधार्य करते है।"
પછી શાસનદેવીએ આકાશવાણીમાં ફરીથી કહ્યું “સુભદ્રા સિવાય બીજી કે સતી હોય તે તે દરવાજે હાડે” પર તુ સુભદ્રા સિવાય એક પણ સ્ત્રી દર વાજે ન ઉઘાડી શકી ત્યારે તે સુ ! હે શીલવતી પતિવ્રતા ! તને ઘન્ય છે, ધન્ય છે ! એવા ધનિથી સાકળમ ડળ ગુજી ઉઘુ દેવતાઓએ શીલની સ્તુતી આ પ્રમાણે કરી –
“હે શીલ! તુ અનાયાનેજ સર્વને માળા, વિષને અમૃત, અગ્નિને શીતલ અને સિંહને હરિણું બનાવી દે છે વધારે શુ કહીએ જેઓ તારૂ આલ બન લે છે, તેમની આજ્ઞા અમે લેકે (દેવતાઓ) પણ શિરોધાર્ય કરીએ છીએ
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उपासक्दशास्त्र वृत्तान्तोऽसौ । ततश्च तदानीमकस्मात् “यदि काचित्पतित्रता भीलवती योपिढाममुत्रेण कृपात्तितउनाऽप आहत्य स्पाट सिन्चेत्तदैतदुद्घाटःस्यान्नेतरथे-"त्यारा शवायुदचरत् , ता निशम्य तथाऽऽचरित समागतासु सतीम्मन्यासु रहीषु निष्फलासु सुभदा श्वश्रू भार्थयत-'मातरहमेतज्जलमपहर्गमाशापनीया' इति, श्वश्र्वा च'मा क्लति मुहुरस्मारमुज्ज्वल कुल-मिति प्रत्यषिध्यत ।
तदनु शीलमहिम्ना-'शीलपालिनि! मतिनते ! मुभद्रे ! भद्र ते भूया,-दपहर त्व तथा जलमभिपिच्य चौद्घाटय कपाट'-मित्यागशवच अत्ता सा तथाऽऽम मूनसनद्वतितउना कृपाजलमादाय यदेव पाटममिपिपेच तदैव द्वारत्रयमुदघाटि! पाम भी कानोकान खबर पहुँची । उसी समय आकाशवाणी हुई" यदि कोई पतिव्रता, शीलवती स्त्री कच्चे धागेसे चालनीमे पानी निकाल कर सीचे तो फाटक खुल सकते है अन्वया नहीं।" आकाशवाणी सुन कर अपनेको सती समझने वाली बटुतेरी ओरते आई, मगर सब निष्फल हुई। तय सुभद्राने अपनी साससे जल निकाल कर फाटक सीचने की आज्ञा मागी । सास बोली- हमारे पवित्र कुलको फिर कलक न लगा' और रोक दिया। - इसके बाद शीलके प्रभावसे फिर यह आकाशवाणी हुई- " हे शोलवती पतिता सुभद्रातृ जल खींच और सीचकर फाटक खोल ।" इस आकाशवाणीको सुनकर सुभद्राने कच्चे धागेमें बंधी हुई चालनीसे जल निकालकर ज्याही फाटक पर छिडका त्याही नगरके तीन द्वार खुल गए। એ વખતે આકાશવાણી થઈ ને કઈ પતિવ્રતા શીલવતી સ્ત્રી કાચા સૂતરના તાત gશી ચાળણીમાં પાણી કાઢીને નીચે તે દરવાજો ઉઘડી શકશે, અ યથા નહી આકાશવાણી સાંભળીને પિતાને સતી સમજનારી અનેક સ્ત્રિઓ આવી પણ બધી નિષ્ફળ થઈ, ત્યારે સુભદ્રાએ સાસુ પાસે આજ્ઞા માગી કે “મને કુવામાથી જળ કાઢીને દર વાજા પર છાટવા દો” સાસુ બેલી અમારા પવિત્ર કુળને ફરીથી કલક ન લગાડ” અને તેણે સુભદ્રાને જવા ન દીધી
ત્યારબાદ શીલના પ્રભાવથી ફરીથી એવી આકાશવાણી થઈ કે “હે શીલવતી પતિવ્રતા સુભદ્રા ! તુ જળ ખેચીને દરવાજાને છાટ !” બા આકાશવાણી સાંભળીને સુભદ્રાએ કાચા સૂતરે બાલી ચાળણુથી કુવામાથી જળ કાઢ્યું અને જ્યાં તેણે તે જળ દરવાજા પર છાયુ ત્યા તે સહસા નગરના ત્રણ દરવાજા ઉઘડી ગયા !
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अगारसजीवनी टीका अ० १ ० १ चम्पानगरीवर्णनम्
rassकाशवाचा शासनदेव्याऽभ्यधायि - या काचित्सुभद्रातोऽन्यासती वर्त्तते तयाऽवशिष्ट द्वारमुद्घाटनीय - ' मिति, किन्तु सुभद्रामन्तरेण न कयाचिदितरया क्पाटमुद्द्घाटयितुमशक्यत, ततो- 'धन्याऽसि प्रतिप्रते । शीलशालिनि । भद्रङ्करि ! सुभद्रे !' इत्यादिभिनिभिर्गगनमण्डलमण्डि । देवैश्व शीलमहिमैवमगीयत( मालिनी ) कुणमि दुयमकम्हा सील ! मप्प सुमाल, विममयिमररिंग सीयल सीहमेण ।
अलमहियगिराए ज तबालनगाण,
मिरणिहिअणिएसा णिचमग्गे वयपि ॥" इति । " करोषि हुतम+स्मात् शील। सर्प मालाम् । विममृतमया शीतल मित्रमेणम् ॥
अपरा यत्तवाऽऽलम्मकाना,
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शिरोनिहितनिदेशा नित्यमग्रे वयमपि ॥ " इतिच्छाया ।
पश्चात् शामन - देवीने आकाशवाणीमे फिर कहा - "सुभद्रा के सिवाय और कोई सती हो तो वह चौथा दरवाजा ग्वोले । " लेकिन सुभद्रा के अतिरिक्त एक भी स्त्री दरवाजा न ग्वोल सकी । तब - "हे सुभद्रा' हे शीलवती पतिव्रता । तृ धन्य है । धन्य है । की ध्वनि से आकाश-मडल ग्रज उठा। देवताओने शीलकी इन प्रकार स्तुति की - " हे गील | तुम अनायास ही सर्पको माला, विपको अमृन, अग्निको शीतल और शेरको हरिण बना देते हो । अधिक क्या कहें जी तुम्हारा आलान लेते है उनकी आज्ञा हम लोग (देवता) भी शिरोधार्य करते है |
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પછી શાસનદેવીએ કાગવાણીમાં ફરીથી કહ્યુ સતી હેાય તે તે ચેાથે દરવાજો ઉઘાડ” પરંતુ સુભદ્રા વાજો ન ઉઘાડી શકી ત્યારે હું સુટ્ટા હૈ શીલવતી છે, ધન્ય છે ' એવા ધ્વનિથી ાકાશમડળ શુજી ઉયુ આ પ્રમાણે કરી
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“સુભદ્રા સિવાય બીજી કોઈ સિવાય એક પણ સ્ત્રી દર પતિવ્રતા 1 તને ધન્ય દેવતાઓએ શીલની સ્તુતી
“હે શીલ 1 તુ આનાયાનેજ સર્પને માળા, વિષને અમૃત, અગ્નિને શીતલ અને બિહુને હરિણ બનાવી દે છે વધારે શુ કહીએ ? જેએ તારૂ ભાલઅન લે છે તેમની આજ્ઞા અમે લેકે (દેવતાએ ) પશુ સિધાય કરીએ છીએ
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उपासकदशास्त्रे
वृत्तान्तोऽसौ । ततश्च तदानीमकस्मात् " यदि काचित्पतित्रता शीलवती योषिदाम सुत्रेण कृपात्तितउनाऽप आहृत्य पाट सिन्चेतदेतदुदुघाटः स्यान्नेतरये - "स्याग शत्रागुदचरत् ता निशम्य तथाऽऽचरितु समागतासु सतीम्मन्यास नही निफ लासु सुभद्रा श्वश्रू प्रार्थयत - 'मातरहमेतज्जलमपहर्त्तमाज्ञापनीया' इति, वश्र्वाच' मा क्लकि मुहुरस्माम्मुज्ज्वल कुल-मिति मत्यविध्यत ।
,
तदनु शीलमहिम्ना - ' शीलपालिनि । मतिनते ! सुभद्रे ! भद्र ते भृया -दपहर त्व तथा जलमभिषिच्य चोद्घाटय क्पाट' - मित्याकाशवच' श्रुत्वा सा तथाऽऽम मूसन्नद्धतितउना पाज्जलमादाय यदैव कपाटमभिषिपेच तदैव द्वारयमुदघाटि । पास भी कानोकान खबर पहुँची । उसी समय आकाशवाणी हुई"यदि कोई पतिव्रता, शीलवती स्त्री कच्चे बागेसे चालनीमे पानी निकाल कर सीचे तो फाटक खुल सकते हे अन्यथा नहीं ।" आकाश वाणी सुन कर अपनेको सती समझने वाली पटतेरी ओरते आई, मगर सब निष्फल हुई । तब सुभद्राने अपनी साससे जल निकाल कर फाटक सीचने की आज्ञा मागी । सास बोली- ' हमारे पवित्र कुलको फिर कलक न लगा' और रोक दिया ।
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इसके बाद शीलके प्रभावसे फिर यह आकाशवाणी हुई- " हे शीलवती पतिव्रता सुभद्रा ! तू जल खींच और सीचकर फाटक खोल । " इस आकाशवाणीको सुनकर सुभद्राने कच्चे धागे में बधी हुई चालनी से जल निकालकर ज्योंही फाटक पर छिडका त्योही नगरके तीन द्वार
खुल गए।
એ વખતે આકાશવાણી થઈ જો કેાઈ પતિવ્રતા શીલવતી સ્ત્રી કાચા સૂત-ના તાત ણાથી ચાળણીમાં પાણી કાઢીને સીચે તે દવાો ઉઘડી શકશે, અન્યથા નહીં” આકાશવાણી સાભળીને પેાતાને સતી સમજનારી અનેક સ્રિએ આવી પણ બધી નિષ્ફળ થઇ, ત્યારે સુભદ્રાએ સાસુ પાસે આજ્ઞા માગી કે “મને કુવામાથી જળ કાઢીને દર વાજા પર છાટવા દે” સાસુ મેલી અમારા પવિત્ર કુળને ફરીથી કલક ન લગાડ” અને તેણે સુભદ્રાને જવા ન દીધી
ત્યારમાદ શીલના પ્રભાવથી ફરીથી એવી આકાશવાણી થઈ કે હું શીલવતી પતિવ્રતા સુભદ્રા I તુ જળ ખેચીને દરવાજને છાટ !” બા આકાશવાણી સાભળીને સુભદ્રાએ કાચા સૂતરે ખાધેલી ચાળણીથી કુવામાથી જળ કાઢયુ અને જ્યાં તેણે તે જળ દરવાજાપર છાટ્યુ ત્યા તે સહસા નગરના ત્રણે દરવાજા ઉઘડી ગયા !
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १ ० १ चम्पानगरीवर्णनम्
अयऽऽकाशवाचा शासनदेव्याऽभ्यधायि- या काचित्सुभद्रातोऽन्यासती वर्तते तयाऽवशिष्ट द्वारमुद्घाटनीय-'मिति, किन्तु सुभद्रामन्तरेण न कयाचिदितरया कपाटमुद्घाटयितुमशक्यत, ततो-'धन्याऽसि प्रतियते । शीलशालिनि ! भद्रकरि ! सुभद्रे !' इत्यादिभि निमिर्गगनमण्डलममण्डि । देवैश्च शीलमहिमैवमगीयत
(मालिनी) "कुणमि दुयमकम्हा मील ! मप्प सुमाल,
विमममियमग्गि सीयल सीहमेण । अलमहियगिराए ज तवाल गाण,
मिरणिहिअणिएमा णिचमग्गे वयपि ॥" इति । " करोपि द्रुतमरस्मात् शील! सर्प सुमालाम् ।
विपममृतमथानि शीतल सिंहमेणम् ॥ अलग्गविगिरा यत्तवाऽऽलम्पकाना,
शिरोनिहितनिदेशा नित्यमग्रे उयमपि ॥” इतिच्छाया । पश्चात् शासन-देवीने आकाशवाणीमे फिर कहा-" सुभद्रा के सिवाय और कोई सती हो तो वह चौथा दरवाजा खोले।" लेकिन सुभद्राके अतिरिक्त एक भी स्त्री दरवाजा न ग्वोल सकी। तब-"हे सुभद्रा' हे शीलवती पतिव्रता तु वन्य है। धन्य है। की ध्वनिसे
आकाश-मडल गूज उठा । देवताओने शीलकी इस प्रकार स्तुति की___ "हे शील! तुम अनायास ही सर्पको माला, विपको अमृत, अग्निको गीतल और शेरको हरिण बना देते हो। अधिक क्या कहे जो तुम्हारा आलान लेते है उनकी आज्ञा हम लोग (देवता) भी शिरोधार्य करते है।"
પછી શાસનદેવીએ આકાશવાણીમાં ફરીથી કહ્યું “સુભદ્રા સિવાય બીજી કઈ સતી હોય તે તે ચે દરવાજો ઉઘાડે” પર તુ સુદ્રા સિવાય એક પણ સ્ત્રી દર વાજે ન ઉઘાડી શકી ત્યારે “હે સુ હા ! હે શીલવતી પતિવ્રતા ! તને ધન્ય છે, ધન્ય છે ! એવા ધ્વનિથી આકાશમ ડળ ગુજી ઉઠયુ દેવતાઓએ શીલની સ્તુતી આ પ્રમાણે કરી –
હે શીલ ! તુ અનાયાસે જ સપને મળા, વિષને અમૃત, અગ્નિને શીતલ અને સિંહને હરિણ બનાવી દે છે વધારે શું કહીએ ? જેઓ તારુ આલ બન લે છે તેમની આજ્ઞા અમે લેરી (દેવતાઓ) પણ શિરોધાર્ય કરીએ છીએ
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
यस्या च श्रेणिकसुतोऽशोकचन्द्रनामा कूणिकाऽपराभिधानः पितु. शोकाद्राजगृहमपहाय निजराजधानीमकार्षीत् । सुदर्शनः श्रेष्ठी च स्त्रीयशीलप्रभावेन शूल सिंहासन व्यधत्त ।
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चतुर्दशपूर्वरः शम्यम्भवः स्वामी च यामध्यास्य श्रुतज्ञानवलेन 'मनक' - नानो निजपुत्रस्याऽऽयुः पण्मासमानावशेष परिज्ञाय - 'कथमय पण्मासपरिशिष्टेना ऽऽयुपादुष्पार प्रवचन - सागर काल्स्र्त्स्न्येन पारये' - दिति वारुण्यरसाऽऽप्लुतस्तदभ्य यनसौकर्याय पञ्चमाऽस्वस्थाना भव्यजीवाना परमोपकाराय च पूर्वेभ्यो निस्सार्य दशाभ्ययनीस्वरूप दर्शकालिक नाम सूत्र व्यरीरचत् ।
यह वही चपा नगरी है, जिसमें निवास करनेवाले महाराज श्रेणिक के सुपुत्र अशोकचन्द्र - अपर नाम कृणिक-ने पितृशोकके कारण राजगृह को त्यागकर इसे राजधानी बनाया था । और सेठ सुदर्शनने अपने शील प्रभाव से शूली को सिंहासन बना दिया था। चौदह पूर्वधारी शय्यभव स्वामीने श्रुतज्ञान के थलसे, मनक नामक पुत्रकी छः महीने की आयु शेप समझ कर और इन्दो छ महीनोमे अपार आगम-सागर को पार करने के लिए, सरलतापूर्वक अध्ययन करनेके निमित्त, और पाचवे आरे के भव्य जीवोंके भी हितार्थ पूर्वीसे छोट-छाँट कर दश अध्ययनोंका दशवैकालिक सूत्र बनाया था।
મા એજ વ્ય પા નગરી છે, જેમા નિવાસ કરનારા મહારાજ શ્રેણિકના સુપુત્ર અÀાચદ્ર અથવા કૃણિકે પિતૃÀકને કારણે રાજગૃહ નગરનેા ત્યાગ કરીને તેને રાજધાની બનાવી હતી, અને શેઠ સુદર્શને પેાતાના શીલના પ્રભાવથી શૂળીને સિંહાસન બનાવી દીધુ હતુ ચૌદ-પૂર્વ ધારી શય્ય ભવ સ્વામીએ શ્રુતજ્ઞાનના ખળથી મનક નામના પુત્રનુ છ માસનુ આયુષ્ય બાકી રહ્યુ સમજીને “ માલક છ માસમાં અપાર આગમ-સાગરને કેવી રીતે પાર કરી શકશે” આવી કરૂણાથી તેને સરલતાપૂર્ણાંક અધ્યયન કરવાને અર્થે, અને પાચમા આરાના ભવ્ય જીવાના પણ હિતાર્થે, પૂર્વાંમાથી તારણ કરીને દશ અધ્યયનેનુ દશવૈકાલિક સૂત્ર બનાવ્યુ હતુ १ आत्ममवादनम्न पूर्वत पड्जीवनिका ययनम् । प्रवादत पिण्डैपणाध्ययनम् । सत्यवादतो वाक्यशुद्धिनामम ययनम् । प्रत्याख्यानपूर्वम्य तृतीयाद्वस्तुनोऽशिष्टान्यभ्ययनानि निवद्धानि ।
I
१ आत्मवाद' नामक पूर्व से 'पदजीवनिका' 'जध्ययन 'वर्ममवाद' पूर्व से
આભાપ્રવાદ ’ નામના પૂર્વમાંથી પથ્વનિકા અધ્યયન, ‘ક’પ્રવા પૂત્ર માથી
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० १ चम्पानगरीवर्णनम्
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यम्या च वीरो भगवान् " मुखोपरि सढोरकमुखपत्रिकायन्यनपुरस्सर सविधि सामायिकाऽऽचरणेनाऽनन्ताना कर्मणा निर्जरा भवती" - त्युपदिदेश राजे कृणिकाय यस्याच मेघदत्तनामा श्रेष्ठी साधुवेपनिन्दया मृत्वा मातद्गपुत्रता माप्य क्षयादिरोग पोडशकाऽऽकान्तो मुनिमालोक्य लब्धजातिस्मृतिर्दीक्षा गृहीत्वा मोक्षगतिं गतः ।
या चावितिष्टन् राजा कूणिकः कदाचन प्रभातवात सिपेविषया यानाधिरूद्रो वहिर्भ्राम्यन कचन बहुभिर्वधर्के सचतुञ्चरणवन्ध भूमौ विनिपात्य निर्दयतया खड्गमादाय सक्कणमाक्रोशन्तमनाथ कातरेक्षणमजमे वयमान निरीक्ष्य
जिस नगरीमें भगवान् महावीरने- ' डोरा सहित मुखवस्त्रिका बाँध वर विधि - पूर्वक सामायिक करने से अनन्त कर्मोकी निर्जरा होती है ' ऐमा उपदेश महाराज ऋणिक को दिया था । और मेघदत्त सेठ साधुवेपकी निन्दा करने से चाडालका पुत्र हुआ था और क्षय आदि सोलर रोगोसे एक ही साथ आक्रान्त हो गया था । पश्चात् मुनिको देखकर, जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त कर और दीक्षा ग्रहण करके मोक्ष गया था ।
उसी चषा में रहनेवाले महाराज कृणिक एकबार प्रात कालीन वायु का सेवन करनेको सवारी पर सवार हो बाहर निकले थे। एक जगह बहुत से कसाई एक बकरे के चारा पैर बाघ जमीन पर गीराकर वडी
જે નગરીમા ભગવાન મહાવીરે ‘ઢારાસહિત મુખવશ્વિમ બાધીને વિધિપૂર્વક સામાયિક કરવાથી અનન્ત કર્મોની નિર્જરા થાય છે’ એને ઉપદેશ મહારાજ કૃષુિકને આપ્યા હને, અને મેઘદત્ત શેઠ સાધુવેષની નિંદા કરવાથી ચાડાલના પુ થયેા હતેા, અને ક્ષય આદિ સાળ રાગયી એકી સાથે માકાન્ત થયેા હતેા, પછી મુનિને જોઈને જાતિમ્મરણ જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરી તથા દીક્ષા ગ્રતુણુ કરી મેલ્લે ગયેા હતે
એ ચપામા રહેતા મહારાજ કૃણિક એકવાર પ્રાત કાળના વાયુનુ સેવન કન્વાને ઘોડા પર સવાર થઇ મહાર નીકળ્ય હતા એક સ્થળે ફૅટલાક ફસાઇએ એક અકરાને ચારે પગે આધી જમીન પર પટકી બહુ નિર્દયતાથી તેને મારી રહ્યા હતા બિચારા 'पिटेपणा' अ ययन 'सत्यमवाद' पूर्व से 'दाक्यशुद्धि' नामक अ ययन निकाला और 'प्रत्याख्यान' पूर्व की तीसरी वस्तुसे वाकीसे सब अध्ययन निकाले गये
'पिंडेय' अध्ययन 'सत्ययवा ' पूर्वभाथा 'वायशुद्धि' नाभनु अध्ययन श्यामा यान्यु, અને ‘પ્રત્યાખ્યાન પૂર્વની ત્રીજી વસ્તુમાંથી બીના બધા અધ્યયના કાવામા આવ્યા
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उपासकशाहमने मक्षु विभुन्धचेतास्तानुचित दण्डयित्वा परुणारुणाल्यो राज्ये राजगृहे पिठ वत्सर्वत्रामारीमुद्घोप्य दीनजीवानरक्षत् । । अयमेव चम्पाया वर्णको नाम, इतोऽधिकजिज्ञामुभिरीपपातिके कणेह त्यावलोकनीयम् ।
'पुण्णभद्दे' इति, पूर्णभद्रो - दक्षिणयक्षनिकायाधिपतिस्तस्मामिलात्तन्ना मकम् , चैत्यम् परितो नानाकुसुमलतामतानहरितभरितोद्यानविलसित स्थानम् । 'वण्णओ' इति वर्णकः एतद्वर्णन विस्तरभयादिहानुपन्यस्तमप्यौपपातिकमूत्रतो. ऽवगन्तव्यम् । तत्रेति शेप• ॥ १ ॥ निर्दयना के साथ उसे मार रहे थे। बेचारा बकरा करुण आकोश कर रहा था और कायर दृष्टिसे देख रहा था। महाराज तो यह दृश्य देख कर अत्यन्त क्षुब्ध हुए और उन्होंने कसाइयोंको उचित दन्ड दिया। उन्होने राजगृहमे और समस्त राज्यमे घोषणा कराकर दीन-हीन प्राणियोंकी रक्षा की थी।
यही चपाका वर्णन है। विशेप जिज्ञासुओको औपपातिक मुत्र में अच्छी तरह देख लेना चाहिए।
इस चपा नगरी मे पूर्ण भढ़ नामक चैत्य था । पूर्ण भद्र दक्षिण यक्ष निकाय का स्वामी है। वही इम चैत्यका स्वामी या, इसलिए इस चैत्य का नाम भी पूर्णभद्र पड गया था। चारों ओर विविध प्रकारके फलो और देलोंसे हरे भरे उद्यानसे शोभित स्थानको चैत्यकहते है। इस चैत्यका वर्णन विस्तार-भयसे यही नहीं करते अत औपपातिक सूत्रसे समझ लेना चाहिए ॥१॥ બકરે કરૂણાજનક ચીસો નાખતો હતો અને ભયભીત દષ્ટિથી જોઈ રહ્યો હતે મહા રાજ તે એ દશ્ય જોઈને અત્યત ક્ષુબ્ધ થઈ ગયા અને તેમણે કમાઈઓને વાજબી શિક્ષા કરી તેમણે રાજગૃહમાં અને આખા રાજ્યમાં વેષણ કરાવીને દીન-હીન પ્રાણી એનુ રક્ષણ કર્યું હતું,
આ ચ પાનું વર્ણન છે વિશેષ જિજ્ઞાસુઓએ ઔપપોતિક સમા સમ્યક્ પ્રકારે જોઈ લેવું
એ ચ પ નગરીમાં પૂર્ણભદ્ર નામનુ વૈત્ય હતુ પૂર્ણભદ્ર દક્ષિણ ક્ષનિકાયને સ્વામી છે તે આ ચિત્યને સ્વામી હને, તેથી તે ચિત્યનું નામ પણ પૂર્ણભદ્ર પડી ગયું-- હત ચારે બાજુએ વિવિધ પ્રકારના ફૂ અને વેલીઓવાળા લીલા છમ ઉદ્યાનથી શોભિત સ્થાનને ચત્ય કહે છે તેથી તે પણ ઔપતિક સૂત્રમાથી સમજી લેવું કે ૧
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अंगारसञ्जीवनी टीका अ० १ ० २ सुधर्मजम्यूपश्नोत्तरः
(मलम) तेण कालेण तेण समएण अजसुहम्मे समोसरिए जाव जंबू पज्जुवासमाणे एव वयासी-जइण भंते । समणे भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण छ?स्त अगस्त नायाधम्मकहाण अयमहे पण्णत्ते । सत्तमस्स ण भंते । अंगस्स उवासगदसाणं समणेण जाव सपत्तेणं के अहे पण्णते । एवं खलु जब समणेण जाव सपत्तेण सत्तमस्स अगस्त उवासगदसाण दस अज्झयणा पण्णत्ता तजहा
"आणदे १ कामदेवे २ य, गाहावइ-चुलणीपिया ३ ।सुरादेवे ४ चुल्लसयए ५,गाहावइ-कुडकोलिए ६ । सद्दालपुत्ते ७ महासयए ८ नदिणीपिता ९ सालिहोपिया १० ।
जइण भते । समणेणंजाव सपत्तेणं सत्तमस्स अगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता | पढमस्सणं भते । स मणेण जाव सपत्तेणं के अहे पण्णत्ते ॥ सू २॥
डाया-तम्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यमु धर्मा समामृतः यावत् जम्मू. पर्युपासीन एवमवादीत-यदि खलु भदन्त श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्समाप्तेन पष्ठम्य अङ्गस्य-ज्ञाताधर्मकथानामगमर्थ प्रज्ञप्तः । सप्तमस्य खलु भदन्त । अगस्य 'तेणं कालेण ' इत्यादि सूत्र ॥ २ ॥
( मूलका अर्थ ) उम काल और उस समयमे आर्य सुधर्मास्वामी (चपामे) पधारे। जम्बूस्वामीने उनकी पर्युपासना करके कहा "भगवन् । (यावत्) मुक्तिकों प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने उठे जाताधर्मस्थागका यह अर्थ फर
'तेण कालेण' या सूत्र ॥ २ ॥
એ કાલે અને એ સમયે આર્ય સુધર્માસ્વામી (ચ પાનગરીમા) પધાર્યા જ બૂ સ્વામીએ તેમની પપાસના કરીને કહ્યું “ભગવાન ! (વાવ) મુકિતને પ્રાપ્ત થએલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે છઠા જ્ઞાતાધર્મકથાગને એ અર્થ દર્શાવ્યું છે, પરંતુ
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
मड्भु विशुन्धचेतास्तानुचित दण्डयित्वा वरुणावरुणाय राज्ये राजगृहे प वत्सर्वत्रामारीमुदघोष्य दीनजीवनरक्षत् ।
अयमेव चम्पाय वर्णको नाम, इतोऽधिकजिज्ञासुभिरोपपातिके कह यावलोकनीयम् ।
1
'पुष्णभद्दे' इति, पूर्णभद्रो दक्षिणयक्षनिकायाधिपतिस्तत्स्नामिलान्ना मकम्, चैत्यम् = परितो नानाकुसुमलतामतानहरितभरितोद्यानविलसित स्थानम् । 'वण्णओ' इति वर्णक: एतद्वर्णन विस्तरभयादिहानुपन्यस्तम प्योपपातित्रतोऽवगन्तन्यम् । तत्रेति शेषः ॥ १ ॥
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निर्दयता के साथ उसे मार रहे थे। बेचारा बकरा करुण आक्रोश कर रहा था और कायर दृष्टिसे देख रहा था । महाराज तो यह दृश्य देख कर अत्यन्त क्षुध हुए और उन्होंने कसाइयोंको उचित दन्ड दिया । उन्होने राजगृह में और समस्त राज्यमे घोषणा कराकर दीन-हीन प्राणियोंकी रक्षा की थी।
यही चपाका वर्णन है । विशेष जिज्ञासुओको औपपातिक सूत्र अच्छी तरह देस लेना चाहिए ।
इस चपा नगरी मे पूर्णभद्र नामक चैत्य था । पूर्ण भद्र दक्षिण यक्षनिकाय का स्वामी है । वही इम चैत्यका स्वामी था, इसलिए इस चैत्य का नाम भी पूर्णभद्र पड गया था। चारों ओर विविध प्रकार के फूल और वेलोंसे ररे भरे उद्यान से शोभित स्थानको चैत्यकहते है | इस चैत्यका वर्णन विस्तार - भयसे यहाँ नहीं करते अत औपपातिक सूत्रसे समझ लेना चाहिए ॥ १ ॥
મકરા કરૂણાજનક ચીસા નાખતા હતા અને ભયભીત દૃષ્ટિથી જોઈ રહ્યો હત મહા રાજ તા એ દૃશ્ય જોઇને અત્યંત ક્ષુબ્ધ થઈ ગયા અને તેમણે કસાઈઓને વાજબી શિક્ષા કરી તેમણે નજગૃડુમા અને આખા રથમાં ઘાષણા કરાવીને દીન-હીન પ્રાણી આનું રક્ષણ કર્યું હતુ
આ શ્પાનુ વર્ણન છે વિશેષ જિનાસુએએ ઔપાતિક સૂતમા સભ્યઙ્ગપ્રકારે ોઇ લેવુ
એ ચપા નગરીમાં પૂર્ણભદ્ર નામનું ચૈત્ય હતુ પૂ ભદ્ર દક્ષિણુ ચક્ષનિકાયને સ્વામી છે તે આ ચૈત્યના સ્વામી હતા, તેથી તે ચૈત્યનુ નામ પશુ પૂર્ણ ભદ્ર પડી ગયુ-~~ હતુ . ચારે બાજુએ વિવિધ પ્રકારના ફૂલે અને વેવીએવાળા લીલા છમ ઉદ્યાનથી શેભિત સ્થાનને ચૈત્ય કહે છે તેથી તે પણ ઔપપાતિક સૂત્રમાંથી સમજી લેવુ ॥ ૧ ॥
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अंगारसञ्जीवनी टीका अ० १ मृ० २ सुधर्मजम्यूप्रश्नोत्तरः
(मलम) तेण कालेण तेण समएण अजसुहम्मे समोसरिए जाव जवू पज्जुवासमाणे एव वयासी-जइण भंते । समणे भगवया महावीरेण जाव सपत्तेण छटस्स अंगस्प्त नायाधम्मकहाण अयमहे पण्णत्ते। सत्तमस्स णं भंते । अंगस्स उवासगदसाणं समणेण जाव सपत्तेणं के अहे पण्णत्ते । एवं खलु जब । समणेण जाव सपत्तेण सत्तमस्स अगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता तजहा____ "आणदे १ कामदेवे २ य, गाहावइ-चुलणीपिया ३ । सुरा
देवे ४ चुल्लसयए ५, गाहावड-कुडकोलिए ६ । सद्दालपुत्ते ७ महासयए ८ नदिणीपिता ९ सालिहीपिया १० ।
जडणं भते । समणेणं जाव सपत्तेणं सत्तमस्स अगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता ! पढमस्सण भते । स मणेण जाव संपत्तेणं के अहे पण्णत्ते ॥सू २॥ ___ छाया-तम्मिन् काले तस्मिन् समये भार्यमुपर्मा समवस्त. यावत् जम्मू. पर्युपासीन.एवमवादी-यदि खलु भदन्त अमणेन भगवता महागीरेण यावत्समाप्तन पष्ठम्य ङ्गस्य-ज्ञाताधर्म कथानामयमर्थ प्रज्ञप्तः । सप्तमम्य ग्यलु भदन्त ! अङ्गस्य
तेणं कालेण ' इत्यादि सूत्र ॥ २ ॥
(मृलका अर्थ ) उस काल और उस समयमे आर्य सुधर्मास्वामी (चपामे) पधारे। जम्बृस्वामीने उनकी पर्युपासना करके कहा "भगवन् । (यावत्) मुक्तिको प्राप्त श्रमणे भगवान् महावीरने उठे जाताधर्मकथागका यह अर्थ फर___तेण कालेण.' त्यादि सूत्र ॥ २ ॥
भूजन। मथ એ કાલે અને એ સમયે આયે સુધર્માસ્વામી (ચ પાનગરીમા) પધાર્યા જ બૂ સ્વામીએ તેમની પ પાસના કરીને કહ્યું “ભગવાન ! (ચાવત્ ) મુકિતને પ્રાપ્ત થએલા શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે છઠા જ્ઞાતાધર્મકથાગને એ અર્થ દર્શાવ્યું છે, પરંતુ
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
उपासकदशाना श्रमणेन यावत् समाप्तेन कः अर्थः प्रज्ञप्तः ? | एव खलु जम्बूः । श्रम न यावत् समाप्तेन सप्तमस्य अङ्गस्य उपासकदशाना दश अभ्ययनानि प्रज्ञप्तानि,
वद्यथा
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"आनन्द: (१) कामदेव (२), गाथापति - चुल्नीपिता (३) सुरादेवः (४) क्षुद्रशतकः ( ५ ) गायापति कुण्डकौलिकः (६) सद्दालपुत्रः ( ७ ) महाशतकः (८) नन्दिनी पिता ( ९ ) शालेयिकापिता (१०) || ”
यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन सप्तमस्य अगस्य उपासकदशाना दश अध्ययनानि मज्ञप्तानि । प्रथमस्य खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्रातेन क अर्थः प्रज्ञप्तः १ ॥ २ ॥
माया है । किन्तु हे भगवान् ! उन ( यावत् ) मुक्तिको प्राप्त श्रमण भगवान् महावीरने सातवें उपासक दशांगका क्या अर्थ निरूपण किया है ? " आर्य सुधर्मास्वामी बोले- हे जम्बू ? मुक्तिको प्राप्त उन श्रमण भगवान् महावीरने सातवें अग उपासकदशाके दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं, वे इस प्रकार हैं- (१) आनन्द, (२) कामदेव, (३) गाथापति चुलनीपिता, (४) सुरा देव, (५) क्षुद्रशतक, (६) गाथापति कुण्डकौलिक, (७) सद्दालपुत्र, (८) महाशतक, (९) नन्दिनीपिता, (१०) शालेयिकापिता ।
जम्बूस्वामीने कहा - भगवन् ! यदि मुक्तिको प्राप्त श्रमण भगवान् महावीरने सातवें अग उपासकदशाके दश अध्ययन निरूपण किये है तो हे भगवन् ! उन श्रमण भगवान् महावीरने प्रथम अध्ययनका क्या अर्थ निरूपण किया है ? ॥ २ ॥
હે ભગવન્ ! એ (યાવત) મુકિતને પ્રાપ્ત થએલા શ્રમણુ ભગવાન્ મહાવીરે સાતમા ઉપાસકદશાગને શો અથ નિરૂપણુ કર્યાં છે?” આ સુધર્માસ્વામી બેયાડુ જમ્મૂ ! ( યાવત) મુકિતને પામેલા એ શ્રમણ ભગવન્ મહાવીરે સાતમા અંગ ઉપાસક દશાના दृश अध्ययन प्रतिपादन ऊर्जा छे, ते या प्रमाणे - (१) मानन्द, (२) अभद्देव, (3) गाथापनि युवनीपिता, (४) सुराहेव, (५) क्षुद्रशत, (६) गाथापति उजैसिङ, (७) सद्दासपुत्र, (८) भहाशत, (८) नहिनीपिता, (१०) शायिअपिता
એ વર્ષ
જમ્મૂ સ્વામીએ કહ્યુ કે ભગવન્ ! જે મુક્તિને પામેલા મહાવીરે સાતમા આગ ઉપાસકદશાના દસ અધ્યયન નિરૂપણુ કર્યાં છે, તે હૈ ભગવન્ ભગવાન મહાવીરે પ્રથમ અધ્યયનના કેવા અ નિરૂપ્યું છે ? (૨)
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अगारसखीच टीका अ० १ सू० २ सुधर्मजम्बूमश्नोत्तरः
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(टीका ) - ' तेण कालेन तेण समरण इति व्याख्यातपूर्वम् । 'अज्ज' इति - अर्यते=माप्यते यथाभिलपिततस्वजिज्ञासुभिरित्यर्य आयो वा स्वामीत्यैर्थः, यद्वा समस्तेभ्यो हेयधर्मेभ्य आराद = पृथक् यायते=माप्यतेऽर्थाद्गुणैरिति, अथवा विषयदारुकर्त्तकत्वेनाऽऽरासादृश्यादारा = रत्नत्रय, तद्द्याति = प्राप्नोतीति निरुक्तवृत्याssकारलोपे कृते आर्यः सर्वया सकलफल्मपराशि कलुषितवृत्तिरहित इत्यर्थः, तथा चोक्तम्
"अज्जड भविहिं आरा - जाइज्जड हेअधम्मओ जो वा । रयणत्तयव वा, आर जाइत्ति अज इय वृत्तो " 11 इति ॥ ३" अते भविभि', आरात् - यायते हेयधर्मतो योवा ।
रत्नत्रयरूप वा, आर यातीति आर्य इत्युक्त ॥ १॥" इतिच्छाय टीकाका अर्थ- 'अज्ज' शब्दकी छाया 'अर्य' और 'आर्य' दोनो प्रकार होती है । यथार्थ तत्त्वके जिज्ञासुओं द्वारा जो प्राप्त किया जाता है उसे 'अर्थ' कहते हैं । और 'आर्य' का अर्थ स्वामी है । अथवा जो त्यागने योग्य समस्त धर्मोसे पृथक् अर्थात् गुणोंके द्वारा जो प्राप्त हो उसे 'आर्य' कहते हैं । अथवा पाँच इन्द्रियोंके विषयरूपी काष्टको काट डालने वाले 'आरा' के समान रत्नत्रय है, और उस रत्नत्रय की जिन्ह प्राप्ति हो गई हो उन्हें 'आर्य' कहते हैं । तात्पर्य यह कि जिनकी वृत्ति पूर्णरूप से निर्दोष हो उन्हें आर्य' कहते है । कहा भी हैं - " अज्जड भविहिं" इत्यादि । इसका अर्थ ऊपरके समान ही है ।
टीना अर्थ- 'अज्ज' शम्हनी छाया 'अर्थ' मने 'आर्य' मेम में प्रारनी थाय છે પાર્થ તત્ત્વના જિજ્ઞાસુએ દ્વારા જેપ્રાપ્ત કરવામા આવે છે, તેને ‘અર્થ' કહે છે અને ‘આર્ય' ના અર્થ સ્વામી છે અથવા જે ત્યાગવા યોગ્ય બધા ધર્માંથી પૃથ અર્થાત ગુણે!દ્વારા જે પ્રાપ્ત થાય તેને આ કહે છે અથવા પાચ ઈદ્રિયે ના વિષયરૂપી
કાને કાપી નાખનારા ‘આરા' ના જેવા જે ત્રણ સ્નેા છે, તે રત્નાની જેમને પ્રાપ્તિ થઇ છે તેને ‘આર્ય' કહે છે તાપ એ છે કે જેની વૃત્તિ પૂર્ણરૂપે નિર્દોષ હાય तेने 'आर्य' आहे हे ' अज्जइ भनिहिं धत्याहि मे गाथाना अर्थ उपरनी
પે જ છે
१ "ऋ- गतौ" अम्मात् 'अर्य स्वामि वैश्ययो- रिति यत्, पक्षे- 'ऋलोत्' इति यत् ।
,
- तदुनम् - "वर्णागमो वर्णविपर्ययव, द्वा चापरौ वर्ण-विकारनाशा घातोस्तन्यतिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविन निरुक्तम् ॥
17
इति
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उपासकदशाङ्गमुत्रे
भयदान्तः स एव भद इति ना, किंवा भान्ति = दीप्यन्ते समुहसन्ति वस्त्र विषयेष्विति भानि इन्द्रियाणि तानि दान्तानि येन स एव भदतैः यद्वा भाति = सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रदीप्यत इति मान्तः स एव भदन्तः ।
५८
एव यथामति व्युत्पच्यन्तरेष्वपि निरुक्तोक्तशान्टायनादिमतिपादितरीत्या साधनमविया गोडव्या, हे भगवन् ! इत्यर्थः । यदि श्रमणेन = श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणस्तेन - सार्द्धद्वादशवर्षाणि घोरतपश्चरणाच्छमण इति प्रसिद्धि लब्धवता, यद्वा " श्रमणेन, शमनेन, समनसा, समणेन" इत्येतेषा माऊते 'समणेण' इति रूप होता हो, (५) जिन्होंने भय उत्पन्न करनेवाले भोगोंका अन्त कर दिया हो, (६) जिन्होने भयको जीत लिया हो, (७) जिन्होंने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली हो, अथवा (८) जो सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्रसे देवीप्यमान हो उन्हें भदन्त कहते हैं ।
इन व्युत्पत्तियों के अतिरिक्त निरुक्त और शाकटायन आदिमें बताई हुई रीतियोके अनुसार और और व्युत्पत्तियों द्वारा भी 'भदन्त ' का अर्थ कर लेना चाहिए ।
जो तपस्या करते है उन्हें श्रमण कहते है । भगवान महावीरने साढे चार वर्ष पर्यन्त तीव्र तपश्वरण किया था, इस कारण वे 'भ्रमण' विशेषणमे प्रसिद्ध हुए है । प्राकृनमे 'समणेण' पद है। इसकी संस्कृत छात्रा ' श्रमणेन ' ' शमनेन' 'समनसा' और 'समणेन' होती है । કરનારા ભાગેનેા અત્ત કરી નાખ્યા હાય, (૬) જેમણે ભયને જીતી લીધે હા, (७) मा ४ द्रियों पर विनय पास मेरी सीधी हाय, अथवा (८) ले सम्यग्दर्शन, અને સમ્યક્ ચારિતથી દેદીપ્યમાન હોય તેમને ભદન્ત' કહે છે.
આ વ્યુત્પત્તિએ ઉપરાંત, નિરૂકત અને શાકટાયન આદિમા પતાવેલી રીતિએને અનુસરીન બીજી જૂદી યુપત્તિએદ્વારા પણ ભદન્તને અ કરી લેવે!
જે તપસ્યા કરે છે તેમને શ્રમણ' કહે છે ભગવાન્ મહાવીરે સાડા ખાર વર્ષ સુધી તીવ્ર તપશ્ચર્યાં કરી હતી, તેથી તે ‘શ્રમણુ’ વિશેષણુથી સુપ્રસિદ્ધ થયા પ્રાકૃતમા સમળેજ પદ છે તેની સસ્કૃત છાયા श्रमणेन शमनेन, समनसा, भने समणेन थाय छे मेमाथी 'श्रमधुनी व्याच्या ६५२ ४२वामा भावी
ता
६ निष्ठान्तस्य परनिपात आहिताग्न्यादिपाठात, यलोपहस्वौ पृषोदरादिपाठकृतौ । ७ निष्ठन्त परनिपातः माग्वत् पृपोदरादित्यादाकारस्य ह्रस्व । ८ ' भा दीप्ती ' अस्मादौणादिकोऽन्तप्रत्यय, सिद्धि पृषोदरादिपाठादेव ।
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अ० १ ० ० भगशब्दार्थ: भाति, तन प्रथमझल्पो व्याख्यातपूर्वः, कल्पान्तरव्याख्या यथा-शमयति-प्रवचनामृतोपदेशेन शान्ति नयति भपिजीवानिति शमनस्तेन, समान स्वपरेपु तुल्य मनो यस्य, यद्वा सम् सम्यगानयतिरत्ननयदानेन जीवयति-अर्थाज्जागरयति प्रसुप्तमात्मान यः स समनास्तेन, अथवा सम्मम्यक अणति-प्रवचनमुपदिशतीति, सम्य गण्यते प्रवचन मुपदिश्यतेऽनेनेति वा समणस्तेन,भगवता भगः ज्ञान-सकलपदार्थविषयक (१), माहात्म्यम् अनुपम-महनीयमहिमसम्पन्नत्व (२), यश-विविधानुकूलप्रतिकूल परीपहोपसर्गसहनसमुद्भता जगद्रक्षणप्रज्ञासमुत्था पा कीतिः (३), इनमें से 'श्रमण' की व्याख्या ऊपर की जा चुकी है। जो प्रयचनरूप पीयूष की वर्षा (उपदेश) करके भव्य जीवोंको शान्ति प्राप्त कराता है। जो स्व और पर के ऊपर समान मन (भाव) रखता है अथवा रत्नत्रयका उपदेश देकर [प्रमाद आदिसे मूर्छित] आत्माको सावधानजागृत करता है उसे 'समनस्' कहते है। जो प्रवचनका सम्यक प्रकारसे उपदेश देता है उसे 'समण' कहते हैं ।
'भगव'-भगवान्-पदमे जो 'भग' शब्द है उसके अनेक अर्थ होते है। वे इस प्रकार हैभग-(१) ज्ञान-तीन लोक और तीन काल सबन्धी समस्त पदार्थों
को जानना । (२) माहात्म्य-अनुपम और महनीय महिमासे युक्त होना। (३) यश-अनुकूल प्रतिकूल परीपहो और उपमोंको सहनेसे,
तथा ससारके प्रत्येक प्राणीकी रक्षा करने की प्रज्ञा છે જે પ્રવચનરૂપી અમૃતની વૃષ્ટિ (ઉપદેશ કરીને ભવ્ય અને શક્તિ પમાડે છે, તેને “શમન કહે છે જે પિતા પર અને બીજા પર સમાન મન (ભાવ) રાખે છે અથવા રત્નત્રયને ઉપદેશ આપીને (પ્રમાદ આદિથી મૂછિત) આત્માને સાવધાન -જાગૃત કરે છે, એને “મમનસ્ કહે છે, જે સમ્યક પ્રકારે પ્રવચનને ઉપદેશ આપે છે તેને “સમણ' કહે છે ___enq -भावान्- ५६मा रे 'म' श छ, तेना भने मर्य याय छ, તે આ પ્રમાણે – ભગ– (૧) જ્ઞાન-ત્રણ લોક અને ત્રણ કાળ સ બ ધી બધા પદાર્થોને જાણવા તે
(૨) માહાભ્ય-અનુપમ અને મહનીય મહિમાથી ચુકત થવું તે
(૩) યશ-અનુકૂળ-પ્રતિકૂળ પરિષદે અને ઉપસર્ગો સહેવાથી તથા સંસારના પ્રત્યેક પ્રાણીની રક્ષા કરવાની પ્રજ્ઞા (ભાવના) થી ઉત્પન્ન થનારી કીર્તિ
१ द्वितीयस्मिन् 'समना.' इति पक्षे इस्त्र पृपोदरादिस्वात् ।
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उपासकदशाङ्गमुत्रे
भयदान्तः स एव भदन्ते इति ना, किंवा भान्ति = दीप्यन्ते = समुल्लसन्ति स्वस्व विपयेष्विति भानि= इन्द्रियाणि तानि दान्तानि येन स एन भदन्तः यद्वा भाति = सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रदीप्यत इति मान्तः स एव भदन्तः ।
५८
एव यथामति व्युत्पन्यन्तरेष्वपि निरुक्तोक्तशाक्टायनादिमतिपादितरीत्या साधनमविया बोद्धव्या, हे भगवन् । इत्यर्थः । यदि श्रमणेन श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणस्तेन - सार्द्धद्वादशवर्षाणि घोरतपश्ररणाच्छमण इति प्रसिद्धि लब्धवता, यहा "श्रमणेन, शमनेन, समनसा, समणेन" इत्येतेषा माक्रते 'समणेण' इति रूप होता हो, (५) जिन्होंने भय उत्पन्न करनेवाले भोगोंका अन्त कर दिया हो, (६) जिन्होंने भयको जीत लिया हो, (७) जिन्होंने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर ली हो, अथवा (८) जो सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र से देवीप्यमान हो उन्हें भदन्त कहते है ।
इन व्युत्पत्तियों के अतिरिक्त निरुक्त और शाकटायन आदिमें बताई हुई रीतियोंके अनुसार और और व्युत्पत्तियों द्वाराभी 'भदन्त ' का अर्थ कर लेना चाहिए ।
जो तपस्या करते हैं उन्हें श्रमण करते हैं। भगवान महावीरने साढे चार वर्ष पर्यन्त तीव्र तपश्चरण किया था, इस कारण वे 'श्रमण' विशेषण से प्रसिद्ध हुए हैं । प्राकृनमे 'समणेण' पद है। इसकी संस्कृत छाया 'श्रमणेन' 'रामनेन' 'समनसा' और 'समणेन' होती है । કરનારા ભાગેાના અત કરી નાખ્યેા હાય, (૬) જેમણે ભયને જીતી લીધા છે, (७) नेमाणे ) द्रियो पर विनय पास उरी सीधी होय, अथवा (८) ने सभ्यग्दर्शन, અને સમ્યક્ ચારિત્રથી દેદીપ્યમાન હોય તેમને ‘ભદન્ત' કહે છે.
આ વ્યુત્પત્તિઓ ઉપરાત, નિરૂકત અને શાકટાયન આદિમા બતાવેલી રીતિએને અનુમરીન બીજી શૂળ વ્યુપત્તિએદ્વારા પણ ભદન્તને અ કરી લેવે જે તપસ્યા કરે છે તેમને શ્રમણ' કહે છે ભગવાન્ મહાવીરે સાડા બાર વર્ષ સુધી તીવ્ર તપશ્ચર્યા કરી હતી, તેથી તે ‘શ્રમણ’ વિશેષણુથી સુપ્રસિદ્ધ થયા પ્રાકૃતમાં સમળેજ પદ છે તેની સંસ્કૃત છાયા श्रमणेन शमनेन, समनसा, अने समणेन थाय हे समाधी 'श्रम'नी व्याना उपर ४२वाभा भाषी ६ निष्ठान्तस्य परनिपात आहिताग्न्यादिपाठाद, यलोपस्वी पृषोदरादिपाठकृती | ७ निष्टन्तपरनिपात माग्वत्, पृपोदरादित्यादाकारस्य स्व । ८ ' भा दीप्तौ ' अस्मादौणादिक्रोऽन्तप्रत्यय., सिद्धि. पृपोदरादिपाठादेव ।
તા
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अगारसञ्जीवनी टीका मू. २ वीरशन्दार्थः पराक्रमते मोक्षानुष्ठाने इति वीर', यद्वा वि-विशेषेण ईरयनि-पक्षिपति पनघातिनर्मपटरूपमारमिति, वि-विशेषेण ईरयति धेरयति सयमायनुष्ठाने प्राणिन इति वा वीर', महाश्चासौ पीरश्च तेन श्रीवर्धमानरपामिनेत्यर्थः । यावत् साफ्ल्येनेत्यर्थ , एतेन-"आइगरेण तित्थयरेण सयसवुद्रेण पुरिमुत्तमेण पुरिससीहेण पुरिसवरपुडरीएण पुरिसवरगपत्थिण लोगुत्तमेण लोगनाहेण लोगहिएण लोगपईचेण लोगपनायगरेण अभयदएण चरखुदयेण मग्गदयेण सरणदएण जीवदएण योहिदएण धम्मदण्ण धम्मदेमिएण धम्मनायगेण धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरत चकवष्टिणा" इत्यादिविशेषणसग्रहो योद्धव्यः । एपा पदाना व्याख्यान च मत्कृता____ मोक्षके अनुष्ठान (साधना) मे जो पराकम करता है अथवा जो चार धन घातिया कर्मरूपी रज (कृडा कचरा) हटा देता है, अथवा जो प्राणियोंको लयम आदिके अनुष्ठानमे विशेपरूपसे प्रेरित करता है, उसे 'वीर' कहते हैं। जो वीरोमे भी बीर अर्थात् महान् वीर हो उसे 'महावीर' करते है, अर्थात् वर्धमान स्वामी । _ 'जाव' (यावत् ) शब्दसे-' आइगरेणं, तित्थयरेण, सयमबुद्धण, पुरिसुत्तमेण' पुरिमसीहेण, पुरिसवरपुडरीएण, पुरिसवरगघथिणा, लोगुत्तमेण, लोगनाहेण, लोगहियेणं, लोगपईवेण, लोगपजोयगरेण, अभयदयेण, चवखुदयेणं, मग्गदयेण, सरणदयेण, जीवदयेण, घोदियेण, धम्मदयेण, धम्मदेसिएण, धम्मनायगेण,धम्मसारहिणा, धम्मवरचाउरतचक्कवहिणा' इत्यादि विशेपणोंका सग्रह समझना चाहिए। इन पदोंका - મેક્ષના અનુષ્ઠાન (સાધના) મા જે પરાક્રમ કરે છે, અથવા જે ચાર ઘનઘાતી કર્મરૂપ રજ (કચરો) ને હઠાવી દે છે, અથવા જે પ્રાણુઓને આ ચમદિ અનુનમાં વિશેષ રૂપે પ્રેરિત કરે છે, તેને “વીર’ કહે છે જે વીરોમાં વીર અર્થાત્ મહાન વીર હોય તેને “મહાવીર” કહે છે, અર્થાત વર્ધમાન સ્વામી
_on' (यात) यी 'आइगरंग, तित्ययरेंग, सयसयुद्धेण पुरिसुत्तमेण, पुरिससीहेण, पुरिसवरगदहत्थिणा लोगुत्तमेण, लोगनाहेण, अभयदयेण, चक्खुदयण, मगदयेण, सरणदयेण, जीवदयेग, भोहिदयेण, धम्मदएग, धम्मदेसियेण, धम्मनायगेण, धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचक्कवहिणा'
२-, वीर विक्रान्तों' अस्मात्पचाधन् । __३-४-व्युत्सर्गकात 'ईर गतौ कम्पने च' इत्यस्मात् 'ईर क्षेपे' इत्यस्माता धातो' • पचायच् ।
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
वैराग्य= क्रोधादिरुपायनिग्रहलक्षणम् (४), मुक्ति: = मालाक्षणी मोक्ष' (५), रूप=सुरासुरनरनिकरहृदयहारि सौन्दर्य (६), वीर्यम् = अन्तरायान्तजन्यमनन्त सामर्थ्य (७), श्री ' = घाति++पटल विघटन जनितानन्तचतुष्टयलक्ष्मीः (८), धर्मः अपवर्गद्वार पाटोद्घाटनसाधन श्रुतादिरूपो यथाख्यातचारितरूपोना (९), ऐश्व र्य = त्रैलोक्याधिपत्य (१०) चाऽस्यास्तीति भगवान, तेन, महावीरणत्रीरयति= ( भावना) से उत्पन्न होनेवाली कीर्त्ति । (४) वैराग्य-क्रोध आदि कपायोंको जीतना । (५) मुक्ति - समस्त कर्मोंका अत्यन्त क्षय हो जाना । (६) रूप - सुर-असुर और नरके 'मनको' हरने वाली सुन्दरता । (७) वीर्य - अन्तराय फर्मके नाश होनेसे उत्पन्न होनेवाला अनन्त सामर्थ्य |
(८) श्री- चार घन घातिया कर्मोके क्षयसे उत्पन्न होनेवाली अनन्तचतुष्ठयरूप लक्ष्मी ।
(९) धर्म- मुक्तिरूपी द्वारके किवाड खोलने वाला श्रुतरूप और यथाख्यात चारित्ररूप धर्म |
(१०) ऐश्वर्य - तीन लोकका स्वामीपन |
ये अर्थ जिसमें पाये जाते हैं उसे भगवान् कहते हैं ।
(૪) વૈરાગ્ય—ધ આદિ કાને જીતવા તે
(4) भुक्ति-मधा उभेना अत्यत क्षय ६५
ते
(૬) રૂપ-સુર અસુર અને નરના મનને હરનારી સુદ તા (૭) વીર્ય –અ તરાય ક ને! નાશ થવાથી ઉત્પન્ન થતુ અનત સામ (૮) શ્રી-ચાર ઘનઘાતી કર્યાંના ક્ષયથી ઉત્પન્ન થનારી અન ત ચતુષ્ટયરૂપી
લક્ષ્મી
(૯) ધર્મમુકિતરૂપી દરવાજાના કમાડ ઉઘાડનાર શ્રૃતરૂપ અને યથાખ્યાત ચારિત્રરૂપ ધ
(૧૦) અશ્ર્વ-ધર્મ ત્રણ લોકનુ સ્વામીપણુ
એ અર્થા જૈનમા હાય છે તેને ભગવાન કહે છે
१ 'भग' शब्दात् तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुपू, अय च मतुप्प्रत्यप्तेऽत्र नित्ययोगे, तथोक्तम् "भूम - निन्दा - प्रशसासु नित्ययोगेऽतिशायने । सबन्धेऽस्तिविय क्षाया, भवन्ति मतुबादय || इति स्पष्टमिद मनोरमा - शब्दरत्नयो ।
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अगारमञ्जीवनी टीका अ १ मू २ द्वादर्शाङ्गनीरूपणम् दक्षिणजड्डास्थानीय स्थानागम् (३), वामनड्डास्थानीय समवायाङ्गम् (४) दक्षिणोरुस्थानीय भगवतीमूत्रम् (५), पामोरुस्थानीय शाताधर्मकथाद्गम् (8) दक्षिणपार्श्वस्थानीयमुपासशाङ्गम् (७), वामपावस्थानीयमन्तकृतद्गम् (८), दक्षिणनाहुस्थानीयमनुत्तरोपपातिकम् (९), वामवाहुम्थानीय प्रश्नव्याकरणम् (१०) ग्रीवास्थानीय विपाकसूत्रम् (११), मस्तरस्थानीय दृष्टिवादनामागम् (१२) ।।
इत्येतेपु द्वादशस्वङ्गेषु पप्ठ ज्ञाताधर्मस्थान, तस्य-तत्सम्बन्धिनीनामित्यर्थः । ज्ञाताधर्मस्थाना-दुर्गतौ प्रपततो जन्तुन धारयति दुर्गतेरुदत्य शुभे स्थाने स्था पयतीति धर्म:-इहामुत्र च सुखसाधक इति यावत्, तस्य तत्प्रधाना वा कथा देशनादिलक्षणवाक्यपरन्धरूपाः, ज्ञातानि-उदाहरणानि तानि प्रधानानि यामु ताग वाय पैरके समान (२), तीसरा स्थानाग दाहिनी पिंडी के समान (३), चौथा समवायाग बाई पिंडी के समान (४),पाचवा भगवती अगदाहिनी जधाके समान (५), छठाज्ञाताधर्मकथागवाई जायके समान (६), मातवा उपासकद शाग दाहिने पसवाडेके समान (७), आठवा अन्तकृशाग याये पसबाडेके समान (८), नौवा औपपातिक-अग दाहिनी सुजाके समान(९), दसवा प्रश्नव्याकरण-अग बाई भुजाके समान (१०), ग्यारहवा विपाक सूत्र ग्रीवाके समान(११), और बोरहवा दृष्टिवाद सिरके ममान(१०) है।
दुर्गति मे गिरते हुए प्राणियों को जो आश्रय दे, अथवा दुर्गति मे पड़े हुए जीवोंका उद्धार करके जो शुभ स्थानमें धारण करे उसे 'धर्म' कहते है। जिन कथाओ मे धर्मकी प्रधानता रहती है उन्हें 'धर्मकया' कहते है । ज्ञातका अर्थ उदाहरण है, अतः उदाहरणो की કૃતાગ ડાબા પગની સમાન, ત્રીજુ (૩) સ્થાનાગ જમણી પી ડી સમાન, ચોથ (૪) સમવાયાગ ડાબી પીડી સમાન, પાચમુ (૫) ભગવતી આ ગ જમણ જાગ સમાન, (૬) જ્ઞાતાધર્મકથાગ ડાબી જાગ સમાન, સાતમુ (૭) ઉપાસકદશાગ જમણ ५७मा समान, मामु (८) मता ॥ ५४मा समान, नवY (6)
પપાતિક અગ જમણી ભુજા સમાન, દસમુ (૧૦)પ્રશ્નવ્યાકરણ આગ ડબી ભુજા સમ ન, અગીઆરમુ (૧૧) વિપાકસૂત્ર ગરદન સમાન અને બારમુ (૧૨) દૃષ્ટિવાદ મસ્તક સમાન છે
દુર્ગતિમાં પડતા પ્રાણીઓને જે આશ્રય આપે અથવા દુર્ગતિમા પડેલા જીવને ઉદ્ધાર કરીને જે શુભ સ્થાનમાં ધારણ કરે તેને “ધમ કહે છે જે કથાઓમાં ધર્મની પ્રધાનતા હોય છે તેને “ધર્મ કથા' કહે છે “જ્ઞાતાને અર્થ ઉદાહરણ છે
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
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यामात्रश्य सूत्रस्य मुनितोषणीटीकाया द्रष्टव्यम् । सम्माप्तेन = निखिलानि कर्माणि क्षपयित्वा सिद्धगतिं गतेनेत्यर्थः । पष्ठस्य पण्णा पूरण पष्ठ तस्य, अङ्गस्य = अज्यते=व्यक्तीभवति दीप्यते प्राप्यते या भगवदुक्तोऽर्यो यैरित्यङ्गानि तानि वेड द्वादश, तथाहि तथा पुरुषस्य द्वो चरणों, द्वे जसे, द्वावूरू, द्वौ गात्रा, द्वौ बाहू, ग्रीवा, शिरवेत्येतैर्द्वादशभिरङ्गैरभिव्य क्तिर्दीप्तिरुपलन्निव भवति तथाऽत्र श्रुतरू पस्य परमपुरुषस्य सन्त्याचारादीनि द्वादशाङ्गानि तत्र-
दक्षिणचरणस्थानीयमाचाराङ्गम् (१), वामचरणस्थानीय सुत्रकृताङ्गम् (२), [[हिन्दी] व्याख्यान मेरी रची हुई आवश्यकसूत्रकी सुनितोषिणी टीका [के अर्थ] मे देखना चाहिए ।
समस्त कर्मोंको क्षय करके जो सिद्धि गतिको प्राप्त हुए है। जिनके द्वारा भगवानका निरूपण किया हुआ अर्थ प्रगट या प्राप्त होता है उसे अग करते है । वे अग बारह हैं। जैसे पुरुष के दो पैर, दो पिंडी, दो जाघे, दो पसवाडे, दो भुजाएँ, एक ग्रीवा (गर्दन) और एक सिर, इन बारह अगौसे उसकी अभिव्यक्ति (प्रगटपन) दीसि (प्रकाश) और उपलब्धि ( प्राप्ति होती है, इसीमकार श्रुतरूपी महापुरुषके आचाराग आदि बारह अग हैं ।
इनमें से पहला आचाराग दाहिने पैर के सम्मान (१), दूसरा सूत्रकृ ઇત્યાદિ વિશેષશેાના સગ્રહ સમજવે એ પદે. (ગુજરાતી) વ્યાખ્યાન મારી નચેવી ‘આવશ્યક સૂત્ર” ની સુનિતાષિણી ટીકા (ના અ`)મા જોઈ લેવુ બધા કર્મોનો ક્ષય કરીને જે સિદ્ધિગતિને પ્રાપ્ત થયા છે
જેના દ્વારા, ભગવાને નિરૂપે અર્થ, પ્રકટ અથવા પ્રાપ્ત થાય છે તેને આગ' કહે છે તે અંગ ખાન છે જેમ પુરૂષની એ પગ, એ પિડી કે જાગ, કે પડખા, એ ભુજાઓ, એક ગરદન અને એક મસ્તક એમ ખોર અ ગ્રંથી અભિકિત (अणु), दीप्ति (प्रकाश) भने उपलब्धि (आप्ति) थाय छे, तेम श्रत३पी મહાપુરુષના પણ આચારાગ આદિ ખાર અગે છે
भानु पाडेलु (१) मायाराग माशा पानी समान, भीलु (२) सूत्र १- 'पप्' शब्दात् 'तस्य पूरणे उट्' इति डट्ट, ततथ तस्मिन् 'षट्कतिपय चतुरा थुक्' इति थुगागम' |
२-अ धातो' 'करणाधिकरणयोश्च' इति घन्, 'चजो कु०, इति कुत्वम् ।
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अगरञ्जीवी टीका अ. १ सू० २ सुधर्म- जम्नुमश्नोत्तर
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दशाभ्ययनात्मकमित्य ययमाहुल्यतात्पर्यादशा इति बहुवचनम्, यद्वोपासक सम्प विनीता धर्मदेशना वर्णनादशा इति, तासामुपासरुदशानाम्, 'समणेण जान सपत्तण' व्याख्यातानी मानि, कः 'अ पण्णत्ते इति पदद्वयमपि माग व्याख्यातमैत्र। एवं जनस्वामिना सविनय पृष्टो महामुनिः सुर्मा स्वामी माह 'एच' इत्यादिना - एम्=अनुपदम पक्ष्यमाणप्रकारेण 'खलु' इति, अय शब्दः संस्कृतमातो. समानाऽव्ययोsन शिष्यानुनये, निश्रये, वाक्यालङ्कारे वा, जम्मू हे जम्बू : ! 'समणेण जात्र सपत्तेण सत्तमस्स अगम्स उनासगदसाण' व्यारयातेय पट्पदी, दश 'अज्झ०' इति, अयन्ते विनयादिक्रमेण गुरुसमीपे पठ्यन्त इति, अनन्ते= परिज्ञायन्ते जीवादयोऽर्था यैरिति, अधिक मर्यादयेति यावत् जयन=तीर्थकरण पर पितानामर्थाना प्रापण येभ्य इति, अधीयन्ते सर्वतोभावेन मोक्षार्थ स्मर्यन्ते भव्यैरिति, अनीयते=मोक्षार्थं यथाविनिगुरुसकाशात्पठन्ति शिष्या शास्त्रको उपासकदशा कहते है । इसमे दम अभ्ययन है । इन बहुत से अध्ययनोके कारण ही इन शास्त्र को 'दशा' ऐसी बहुवचन चाली सज्ञा दी गई है । अथवा उपासकोंकी धार्मिक दशाओ (अवस्थाओं) का इसमें वर्णन किया गया है अत. 'दशा' कहते है ।
जो विनय आदिके क्रमसे पढे जाते है, अथवा जिनसे जीव आदि पदार्थोंका ज्ञान होता है, या तीर्थङ्कर गणवर महाराज आदि द्वारा प्ररूपित अर्थकी जिससे प्राप्ति होती है, या जिनको भव्य जीव मुक्तिकी कामनापूर्वक पठन करते ह, या जिनको शिष्य-समुदाय गुरुजीके समीप मोक्षके लिए विधिपूर्वक पढ़ते है उन्हें अध्ययन कहते है । इस सूत्र में ऐसे दम अभ्ययन हैं
માટે ચેલા શાસ્ત્રને •ઉપાસકદશા' કહે છે. બામા દસ અધ્યયન છે એ ઘણા અધ્યયનેને કા ણે જ આ શાસ્ત્રને ‘જ્ઞા’ એની મહુવચનવાળી સજ્ઞા આપામી આવી છે અથવા ઉપાસકેાની ધાર્મિક દશાએ (અવસ્થાઆ)નુ આમાં વર્ણન કર્યું हे, तेथा 'दशा' हे छे
'
જે વિનય આદિના મથી જણાય છે, અથવા જેનાથી જીવ આદિ પદા થાન નાન થાય છે અથવા નીર્થંકર ગણુધર મહારાજ આદિ દ્દાના પ્રરૂપિત અની જેનાથી પ્રાપ્તિ થાય છે અથવા જેને ભવ્ય જીવ મુકિતની કામનાપૂર્વક પઠન કરે છે અથવા જેને શિષ્યસમુદાય ગુરૂદેવની સમીપે માક્ષને અર્થે વિધિપૂર્ણાંક ભણે છે તેને અધ્યયન કહે છે આ સૂત્રમા એવા દસ અધ્યયને છે –
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२.
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उपासपदशामने तथाभूता., यद्वा ज्ञातानि- प्रथमश्रुतस्कन्वोक्तान्ये कोनविंशतिसहयान्यध्यय नानि, धर्मपथा द्वितीयसन्धोक्ता धर्मदेशनालक्षण रायमरन्धरूपा यामु पद्धतिषु ता ज्ञाताधर्मकथास्तासाम्। अयम् अनुपद मागुक्तस्वस्प 'इदमस्तु सनिकृष्टे' इत्यादिन्यायात् । अयंते मार्थ्यते, यद्वा अर्यते-पाप्यते मोक्षगतिभिरित्यर्थः
शब्दसमुदायात्मकारयतात्पर्यविपयीभूतः, प्रदप्तः परपितः, यद्वा प्रज्ञपितासदेवमनुष्यपरिपदि स्वयमुपदिष्टः । सप्तमस्य 'ण' खल्वर्थे पूर्ववहाक्यालङ्कारे पा, भदन्त ! व्याज्यातपूवोऽसौ भदन्तशब्दः, अगम्य-मागुक्तप्रमारस्य 'उपे'ति उपासका साधूना सेवकाः, अन उपासमायोपासिकाचेत्ये शेषेण श्रावका विका इत्यर्थस्तेषा दशा:तटीयाणुप्रतादिक्रियासमुदायोपनिषद्ध शास्त्र तच्च प्रकृते जिसमे प्रधानता हो उसे 'ज्ञाताधर्मकथा' कहते हैं। अथवा सातवें अगके प्रथम श्रतस्कन्ध में कथित उन्नीस अध्ययनोको 'जाता' कहते हैं
और दूसरे शतम्कन्ध में जो कथानक हैं उन्हें 'धर्मकथा' कहते है। इस प्रकार दोनों श्रुतस्कन्धोके समुदायका 'ज्ञाताधर्मकथा' नाम है। (इसके अयं का भगवान्ने निरूपणे किया)। - साधुओं की उपासना (सेवा) करनेवाले उपासक श्रावक कहलाते हैं। यहाँ यद्यपि 'उपासक' पद है तथापि एकशेष समाससे उपासिका (श्राविका) काभी ग्रहण होता है। उस उपासक [और उपासिका] की दशा अर्थात् अणुव्रत आदि प्रतिपादन करने के लिए रचे हु" એટલે જેમ ઉદાહરણની પ્રધાનતા હોય, તેને જ્ઞાતા-ધર્મકથા કહે છે અથવા સાતમા અગના પ્રથમ શ્રુતસ્કન્દમાં કહેલા ઓગણીસ અધ્યયનેને “જ્ઞાત કહે છે, અને બીજા થતષ્ક ધમાં જે કથાનક છે, તેને ધર્મકથા” કહે છે એ પ્રમાણે મe શ્રતક ના સમુ નુ નાતાધર્મકથા” એવું નામ છે (એનો અર્થ જાગવાને નિરૂપે છે)
સંધુઓ ની ઉપાસના (સેવા) કરનારા ઉપાસક કહેવાય છે અહીં જેકે ઉપાસક પદ છે, તે પણ એકશેષ સમાસથી ઉપાસિકા (શ્રાવિકા) શબ્દનું પણ પ્રહણ થાય છે એ ઉપાસક (અને ઉ સિકા)ની દશા અર્થાત અણુવ્રત આદિ પ્રતિપાદન કરવાને
१ नोइरादिगणपाठाही। --'अर्थ उपयायाञ्चायाम् ' इत्यस्माद्नाहुलकास्फर्मणि घन् । ३ 'ऋ गत' अस्मात् औणादिक कर्मणि थम् , गुण । ४-उपासते सेवन्त इत्युपासका , कर्तरि "तुल् । ५-एपशेषच 'पुमान स्त्रिया' इत्यनेन ।
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अगारसजीवनी टीका अ० १ सू० ३ वाणिजग्रामनगरादिवर्णनम्
६७
रस्स वहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए दूइपलासए नामं चेइए । तत्थ णं वाणियगामे नयरे जियसत्तूराया होत्था वण्णओ । तत्थ णं वाणियगामे आणदे नाम गाह्रोवई परिवसइ, अट्ठे जाव अपरिभूए ॥ ३ ॥
छाया - एव खलु जम्बूः? तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिजग्राम नाम नगरमासीत्, वर्णक' । तस्माद्वाणि जग्रामान्नगराद्वहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे दूतिपलाशक नाम चैत्यम् । तत्र खलु वाणिजग्रामे नगरे जितशत्रू राजाऽभवत् वर्णक' । तत्र खलु वाणिजग्रामे आनन्दो नाम गाथापति परिवसति, आढयो यावत् अपरिभूतः ॥३॥
टीका- 'एव खलु जम्बू. ! तेण कालेन तेण समएण' व्याख्यातेय सप्तपदीं । 'वाणिये - ' ति वाणिजाना वैश्यानां व्यापारकुशलानामिति यावत्, ग्राम इति आर्य सुधर्मा स्वामी 'एव' इत्यादि कहकर उत्तर देते है( मूल का अर्थ )
जम्बू ! उस काल और उम समय में वाणिजग्राम नामक नगर या । (वर्णक- उसका वर्णन अन्य स्थानसे समझ लेना) उस वाणिज ग्राम नगर के बाहर, उत्तर पूर्व दिशा के भाग ( ईशान कोण) में दूतिपलाशक नाम चैत्य था । उस वाणिजग्राम नगर मे जितशत्र राजा था। (वर्णक - राजा का वर्णन अन्य स्थानसे समझ लेना) उस वाणिजग्राम नगर में आनन्द नामक गायापति निवास करता था । वह आढय ( सपन्न ) और ( यावत् ) अपरिभूत ( माननीय ) था ।
( टीका का अर्थ )
हेज ' उस कालमे और उस समयमे वाणिज-ग्राम नामक नगर
आर्य सुधर्मा स्वाभी उत्तर आये है - ' एव' त्याहि
મૂળના અથડે જમ્મૂ 'તે કાળે અને તે સમયે વાણૢિજગ્રામ નામનું નગર હતુ (વર્ણીક-એનુ વર્ણન અન્ય સ્થાનેથી સમજવુ) એ વિહગ્રામ નગરની બહુર ઉત્તર-પૂર્વ દિશાના ભાગમા (ઇશા કેણુમા) કૃતિપલાશક નામનું ચૈત્ય હતુ એ વણિજગ્રામ નગરમાં જિતશરૃ ન મેં રાજા હતેા (વક રાજાનું વર્ણન અન્ય સ્થાનેથી સમજી લેવુ) એ જિગામ નગરમા આનદ નામે ગાથાપતિ નિવાસ ४२ते इतो ते माढ्य (सपन्न) भने ( यावत् ) भरिरभूत ( भाननीय ) ते
અ
ટીકાના
હે જમ્મૂ ' તે કાળે અને તે સમયે વિભુજગામ નામે નગર હતુ ષષ્ઠી તત્પુરૂષ સમાસથા વાણુન્ત અર્થાત વચ્ચેનુ ગ્રામ-વાણિજાશ્રમ કહેવાય છે પરંતુ
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उपासक्दशासूत्रे यानीति वा अ ययनानि, प्रज्ञप्तानि, माग्व्यारयातः प्रज्ञप्तपदार्थः,तथा तदेव दर्यते
"आनन्दः (१), कामदेवः (२), गायापति-चुलनीपिता (3) मुरादेव, (४), क्षुद्रशतकः (५), गाथापति कुण्डकौलिकः (6), सद्दालपुत्रः (७), महाशतक, (८), नन्दिनीपिता (९), शालेयिका पिता (१०)। एतन्नामानि तानि दशा ययनानिीति सम्बन्धः। ___अथ सुधर्मस्वामिनोक्त सामथै हदि निधाय क्वचिद्विपये सदिहानो जम्बूस्वामी पुनः पृच्छति 'यदि खलु भडन्त ! अमणेन यावत्समाप्तेन सप्तमस्य अगस्य उपासक दशाना दश अभ्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त श्रमणेन यावत् समाप्तेन का अर्थ. प्रज्ञप्त. ?' इति, प्रथमस्येति अध्ययनस्येति गम्यम् , परिशिष्टानि प्रागेव व्याख्यातानि ॥२॥
उत्तरयति सुधर्मा स्वामी-'एच' इत्यादि,
मूलम्-एव खल्ल जबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणि. यगामे नाम नयरे होत्था, वण्णओ । तस्स वाणियगामस्स नय.
"(१) आनन्द, (२) कामदेव, (३) गाथापति-चुलनीपिता, (४) सुरादेव, (५) क्षुद्रशतक, (६) गाथापति कुण्डकोलिक, (७) सद्दालपुत्र, (८) महाशतक, (९) नदिनीपिता, (१०) शालेयिकापिता।", ____ आर्य सुधर्मा स्वामो के उत्तर दे देने पर भी किसी बातमे जिज्ञासा होनेसे श्री जम्बूस्वामीने फिर पूछा-भगवन्! यदि श्रमण भगवान महावीरने सांतवें अग (उपासकदशा)के दस अध्ययनों का निरूपण किया है तो उनमेसे प्रथम अध्ययनका क्या अर्थ निरूपित किया है ? ॥२॥
'१ मान, (२) मन, () मायापति-युद्धनीविता, (४) सुवि (५) क्षुद्रशत (९) यापति ओलि, (७) सहलपुत्र, (C) महाशds, (.) महिनापित(१०) शायिपिता
આર્ય સુધમાં સ્વામીએ ઉત્તર આપ્યા પછી પણ કઈ વાતમાં જિજ્ઞાસા રહે વાથી શ્રી જ બૂસ્વામીએ ફરીથી પૂછયું “ભગવદ્ જે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સાતમા બગ (ઉપાસકદશા)માં દસ અધ્યયને નિરૂપ્યા છે, તે તેમના પ્રથમ मययन। ३॥ २५ नि३-यो !" (२)
१-अधिपूर्वकात् इन्धातो , इक्यातो , अय्धातो , 'इंट, किट, कटी' इत्यत्र पश्लिष्टात् 'ई' धातोर्वा करणाधिकरणयो हुलकाव कर्मणि च ल्युट प्रत्यय ।
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__ अगारसम्जीवनी टीका अ० १ सू० ३ वाणिजग्रामनगरादिवर्णनम् ६७ रस्स वहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए दूइपलासए नाम चेइए।
तत्थ णं वाणियगामे नयरे जियसत्तूराया होत्था वण्णओ । तत्थ ___णं वाणियगामे आणंदे नाम गाहोवई परिवसइ, अट्टे जाव अपरिभूए ॥३॥
छाया-एव खलु जम्बूः तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिजग्राम नाम नगरमासीत् , वर्णकः । तस्माद्वाणिजग्रामानगराद्वहिरुत्तरपोरस्त्ये दिग्भागे तिपलाशक नाम चैत्यम् । तत्र खलु वाणिजग्रामे नगरे जितशत्रू राजाऽभवत् वर्णकः । तत्र खलु वाणिजग्रामे आनन्दो नाम गाथापति परिवसति, आढयो यावत् अपरिभूतः॥३॥
टीका-'एव खलु जम्मूः ! तेण कालेण तेण समएण' व्याख्यातेय सप्तपदी। 'वाणिये-' ति वाणिजाना त्रैश्यानां व्यापारकुशलानामिति यावत्, ग्राम इति आर्य सुधर्मा स्वामी 'ए' इत्यादि कहकर उत्तर देते है
(मूल का अर्थ) हेजम्बू ! उस काल और उस समय मे वाणिजग्राम नामक नगर था। (वर्णक-उसका वर्णन अन्य स्थानसे समझ लेना) उस वाणिजग्राम नगर के बाहर, उत्तर पूर्व दिशा के भाग (ईशान-कोण) मे दूतिपलाशक नाम चैत्य था। उस वाणिजग्राम नगर मे जितशत्र राजा था। (वर्णक-राजा का वर्णन अन्य स्थानसे ममझ लेना) उस वाणिजग्राम नगर मे आनन्द नामक गाथापति निवास करता था। वह आढय (सपन्न) और (यावत् ) अपरिभृत (माननीय ) या।
(टीका का अर्थ ) हेजम्बु । उस कालमे और उस समयमे वाणिज-ग्राम नामक नगर माय सुधा स्वामी उत्तर मापे - 'एव' त्या
મૂળનો અર્થ છે જબૂતે કાળે અને તે સમયે વાણિજગ્રામ નામનું નગર હતુ (વર્ણક-એનું વર્ણન અન્ય સ્થાનેથી સમજવું) એ વણિજગ્રામ નગરની બહાર ઉત્તર-પૂર્વ દિશાના ભાગમાં (ા કેણમા) પ્રતિષલાશક નામનું ચિત્ય હતુ એ વણિજગ્રામ નગરમાં જિતશત્રુ નામે રાજા હતા (વક–રાજાનું વર્ણન અન્ય સ્થાનેથી સમજી લેવું) એ વણિજગ્રામ નગરમાં આનદ નામે ગાથાપતિ નિવાસ ४२ते ते ते मादय (स पन्न) भने ( यावत् ) अरिभूत ( भाननीय ) &
टीना अथ જબૂ' તે કાળે અને તે સમયે વણિજગ્રામ નામે નગર હતુ ષષ્ઠી તપુરૂષ સમાસથી વાણિજે અર્થાત વચ્ચેનું ગ્રામ-વાણિજશ્ચમ કહેવાય છે પરંતુ
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उपासकथासूत्रे
१
पठीतत्पुरुषसमासे वाणिजग्रामः, वस्तुतस्तु 'पाणिग्राम' - पदस्य नगरविशेषणत्वा द्वाणिजाना=व्यापारिणा ग्रामः = सङ्घो यस्मिन्निति व्यधिकरण नहुनीहिणा वाणिज ग्राममिति न सक विज्ञेयमिति यम् । नाम=प्रसिद्ध नगरम् । एतद्वयाख्यान व मागुक्तनगरीशब्दे द्रष्टव्यम्, अभवत् । 'वर्णकः' इति, तद्वर्णनमपि प्रागुक्तचम्पा वर्णनव देव केवल 'स्त्रीलिङ्गनगरी विशेषणस्थलेषु नपुसकलिङ्ग नगरविशेषणतयौचित्या दवगन्तव्यमित्येव विशेष. | 'ate वाणिearner नररस' इत्यत्र गे पञ्चम्या औचित्येsपि प्राकृतव्युत्पत्ते वैचित्र्यात्सयन्यसामान्ये वा पष्ठी । पहिरित्य व्यय वाह्यऽर्थे, नगराद्वहिः, कुत्रेति जिज्ञासायामाह - उत्तरपौरस्त्य इति, उत्तरशब्द उत्तरदिश', पुरःशब्दधान पूर्वदिशो नाच स्तथाच - उत्तरथ पुरखेत्युत्तरपुरस्तत्र भव था । पष्ठीतत्पुरुष समास से वाणिजो अर्थात् वैश्यों व्यापारीयोका ग्राम वाणिज - ग्राम कहलाता है । किन्तु यहा वाणिज - ग्राम, नगरका विशे पण है इसलिए व्यधिकरण बहुवीहि समास से उसका असली अर्थ यह है - जिसमे वाणिजो ( व्यापारियों) का ग्राम-समूह रहे उसे वाणिज ग्राम कहते हैं, यह हमारा मत है । इस नाम का नगर था । नगर शब्द की व्याख्या पहले 'नगरी शब्द में कर चुके है। इसका वर्णन भी चम्पा नगरी के समान ही है । विशेषता सिर्फ यह है कि 'नगरी' के विशेषण स्त्रीलिंग कहे गए हैं, पर नगर के नपुसकलिंग [ और हिन्दीमें नपुसकलिंग नही होता अत एव पुलिंग ] समझने चाहिए। उस वाणिग्राम नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा के
तु
અહીં વાણિજ—ગ્રામ એ નગરનું વિશેષણુ છે, તેથી કૃધિકરણુ-મહુવ્રીહિ સમાસથી એના ખરા અર્થ એ છે કે જેમા વાણિજો (વ્યાપારીએ)ના ગ્રામ સમૃદ્ધ હૈ, તેને વાણિજગ્રામ કહે છે એવા અમારા મત છે. એ નામનું નગર 'नगर' શબ્દની વ્યાખ્યા પહેલા ‘નગરી' શબ્દમાં કરી ગયા છીઅે. એનું વર્ણીન પણ ચમ્પા નગરીના જેવુ જ છે વિશેષતા માત્ર એ છે કે નગરી'ના વશેષણા નારી જાતીમા કહ્યા છે, પરં તુ નાન્યતર જાતિ (નપુ સક ૢ 1)ના શબ્દ છે [અને હિંદીમા નપુસક લિંગ નહિ હાવાથી નરજાતિમા એ શબ્દ વપરાય છે એટલે [ગુજરાર્તીમા] તેને માટે નાન્યતર જાતિના વશેષણે વાપર્યાં છે એ જગામ નગરની બહાર ઉત્તર
१- पञ्चम्या औचित्य तु 'अप परिवहिरञ्चव पञ्चम्या ' इत्यनेन 'वहि 'शुब्दयोगे पञ्चम्यन्तसमासविधानसामर्थ्यादु'वहियेंगे पञ्चमी' ति भाष्यकृत्कल्पनात्।
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १ ० ३ जानन्दगापापतिवर्णनम् ६९ उत्तरपोरम्त्यः, यहा पुर शन्दोऽग्रवाचक एव, ततश्च पुरोऽग्ने भगा पौरस्त्या पूर्व दिक उत्तरस्या, पारस्त्याया (पूर्वम्या) व दिशोऽन्तराल उत्तर पौरस्त्यस्तस्मिन् दिग्भागे-दिशो भागो दिग्भागस्तस्मिन् ,दूतिपलाशक नाम चैत्यम् उद्यानमस्तीति शेप । इहैव च भगवतो महागीरम्य समवसरणत्तान्तनिरूपणमनुपद भविष्यतीत्यत एतदुपात्ततत्रेति ध्यातव्यम् । तर खलु पणिजग्रामे नगरे जितशत्रू राजाऽभवद् । वर्णको वर्णन कर्तव्यमिति भावः । तत्र ग्वलु वणिजग्रामे आनन्दो नाम गाथापतिः =गीयते स्तयते लोकेधन धान्य समृदयादियुक्ततयेति, यद्वा गाधतेवन धान्यपशुवश समुन्नत्यादिना 'अहो ! धन्यमिद सकल समृद्धिसम्पन्न गृह' मित्येव प्रश सितत्वात्प्रतिष्ठिता भवतीति गाथा-प्रशस्ततम गृह, तस्या. पति =अभ्यक्षः सः तथा क्षेत्रवस्तु हिरण्य पशुदाम पौरुप-समलवृत. मद्गृहस्थ इत्यर्थः, परिवसति-नित्य भागमे अर्थात् ईशान-कोणमे दृतिपलाशक नाम उद्यान या। इली उन्यानमें भगवान महावीर स्वामी के समवसरण का वृत्तान्त इमसे आगे बताया जायगा, इस कारण यहाँ हम उद्यान का उल्लंग्व किया गया है। उस वाणिज-ग्राम नगर में जितात्र राजा था। उसका वर्णन अन्य स्थानसे समझना चाहिए | उस वाणिज-ग्राममें आनन्द नामक गायापति रहता था। धन-धान्य और समृद्धिसे युक्त होने के कारण लोग जिसकी प्रशसा करते हे उसे गायापति करते है । अथवा धन-धान्य और पशु-वश की समुन्नतिसे 'अहो । यह घर सर प्रकारकी समृद्धिसे भरा-पूरा है। इस प्रकार प्रशसित ह नेसे जो प्रतिष्ठायुक्त हो वह गाया (प्रतिष्ठित घर) और उसके अध्यक्षको -પૂર્વ દિશાના ભાગમાં અથત ઇશાન કોણમાં દૂતિ પલાળક નામે ઉદ્યાન હતુ એ ભગ ાન મહાવીર સ્વામીના સમવસરણને વ્રત્તાત આગળ આપવામાં આવશે, તેથી અહીં એ ઉદ્યાનને ઉલ્લેખ કરવામાં આવ્યા છે એ વણિજગ્રામ નગરમાં જિતશત્ર રાજા હતા તેનું વર્ણન અન્ય સ્થાનેથી જાણું લેવું એ વણિજગ્રામમાં આનદ નામને ગાથાપતિ હિતે ધનધાન્ય સમૃદ્ધિથી યુક્ત હોવાને કારણે લે જેની પ્રશંસા કરે છે તેને નાથાપતિ કહે છે અથવા ધન-ધાન્ય અને પશુવશની મમુનતિથી જ અહ ! આ ઘર સર્વ પ્રકારની સમૃદ્ધિથી ભરપૂર છે ” એવી રીતે પ્રશસિત થવાને લીધે જે પ્રતિષ્ઠાયુકત હોય, તે ગાથા (પ્રતિ 1 ઘર) અને તેને જે પતિ-અધ્યક્ષ તેને ગાથપતિ કહે છે તાત્પર્ય એ છે
२- 'दक्षिणापश्चात्पुरसस्त्यक' इति पुर.शब्दात्या । ३-अत्र 'दिदनामान्यन्तराले' इत्यनेने बहुव्रीहि ।
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उपासकरशासन
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सर्वतोभावेन वा निवसति स्मेति शेपः । आत्या महान् ऋदयाटिपूर्णों वा । 'जाव' यावत्-'अडे' इत्यारभ्य 'अपरिभूए' इत्येतत्पर्यन्तोक्तसमस्तविशेषणविशिष्ट इत्य थस्तेन-'दित्ते वित्थिण्णविउल-भवण सयणासण-जाण-पाहणाइण्णे बदुधण बहुना यख्व रयए आओगपभोगसपउने पिच्छवियपिउलमत्तपाणे बहुदासीदासगोमहि सगपेलयप्पभूए बहुजणस्स' इत्येपा समन्वयः कर्तव्यः ।
एतच्छाया च-दीप्तो विस्तीर्ण विपुल भवन शयनाशन-यान पाहनाऽऽकीणों बहुधनबहुजातरूपरजत आयोग-प्रयोगसमयुक्तो विछर्दितविपुलभक्तपानी बहुदासगोमहिपगवेलकमभूतो बहजनस्य' शस्ट इति, तन-दीप्त =उज्ज्वला दर्पितो बा, विस्तीर्णानि-विस्तृतानि विपुलानि पहनि भग्नानि-गृहाः, शयनानि
ग्या आसनानि पीठकादीनि, यानानि गाडीमभृतीनि, वाहनानियाद यस्तैराकीण व्याप्त समुपेतो वा, बहु विपुल, धन-गणिमप्रभृति यस्य स बहुधना, बहु-विपुल जातरूप-सुवर्ण, रजत= रूप्य यस्य सबहुजातरूपरजतः, बहुधनश्वासौ बहुजातरूपरजतश्चेति बहुपनबहुजा तरूपरजत., आ-समन्ताद् योजन-द्विगुणादिलाभार्थ रूप्यादीनामधमणोदिया नियोजनमायोगस्तस्य, प्रप्रकर्षण योजनम् उपायचिन्तन, प्रयोग , यद्वा आयोगेन -द्विगुणादिलिप्सयाप्रयोग., अधमर्णाना सविधे द्रव्यस्य वितरणमायोग प्रयोग ,स समयुक्ता प्रतत्र्तितो येन, तस्मिन् वा समयुक्त सलग्नो य.स आयोग प्रयोग सपयुक्त गाथापति कहते है । तात्पर्य यह है कि क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, पशु, दास, पौरूष आदिसे शोभित गृहस्थको गाथापति कहते हैं। वह आनन्द गाथापति विशाल समृद्धिसे युक्त था। 'जाव' शब्द से 'आढय', लेकर "अपरिभूत' पर्यन्त समस्त विशेषण जोडने चाहिए। अथात तेजस्वी, विस्तृत और विपुल भवन, शयन (शय्या), आसन (तख्त
आदि) यान (गाडी आदि) वाहन (घोडे आदि) से युक्त बहुत धन (गणिम-रूपये पैसे आदि) वाला, बहुत सोने वाला, बहुत चादी वाला, तथा नीतिपूर्वक व्यापारसे धन कमाने वाला था। जिसके यहा भोजन :-क्षेत्र, पास्तु, सोनु, पशु, हास, पो३५ (५२) माहिथी शमित खथन ગાથાપતિ કહે છે એ આનદ ગાથાપતિ વિશાળ સમૃદ્ધિથી યુકત હતે “જાવ” શબ્દથી આઢયથી લઈ “અપરિભૂત સુધીના બધા વિશેષણો જોડવા, અથત तस्वी , विस्तृत अने विya (माटु) सपन शयन, मासन (तत वर्ग३), या (use ३) पान (घास ३) थी युत, धा धन (शुभ રૂપિયા પૈસા વગેરે) વાળે, ઘણુ સનાવાળે, ઘણા રૂપાવાળે, તથા નીતિયુકત વેપારથી ધન કમાનારે હતે તેને ત્યાં ભેજન થઈ ગયા બાદ પણ ઘણું
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भंगारसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ३ आनन्दगाथापतिवर्णनम्
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नीत्या द्रव्योपार्जनमवृत्त इत्यर्थ. भक्त च पान च भक्तपाने' विपुले च ते भक्तपाने विपुल भक्तपानः, वि-विशेषेण उर्दिते= भोजनावशिष्टे भत्तपाने यस्य स विच्छदितविपुलभक्त पानः दास्यश्च दासाथ गावच महिपाश्च गवेलका (उरभ्रा) श्रेति दासीदास गोमपिगवेलरास्ते प्रशस्ताश्च ते दासीदासगोमहिषगवेल्का इति बहु दासीदासगोमहिपगवेलफास्ते प्रभूताः = मचुरा यस्य स बहुदासीदास गोमहिपगवेलकमभूता अन गवादिपद स्त्रीगव्यादीनामप्युपलक्ष+; यद्वा गोपदस्य स्त्री पुगनयोरविशेषेण वाचकत्वादविरोध एव, महिप गवेल+शब्दयोथ 'पुमान् स्त्रिया ' इत्येकशेषान्महिष्यादीनामपि ग्रहणम् । बहुजनस्येति जातिविवक्षयैकवचन सबन्धसामान्ये च पप्ठी, तेन 'बहुजन' रित्यर्थी वो यः, अत्र 'अपी' स्यस्या याहाराद्वहुजनैरपीति तत्रम् 'अपरिभूतः = पराभवरहितः, यद्वा क्तमत्ययार्थस्याविवक्षितत्वादपरिभवनीय - बहुजनैरपि पराभवितुमशक्य इत्यर्थ । एपृक्तविशेषणेषु “अड्डे दित्ते, अपरिभूए" एभिस्त्रिभिर्विशपणैरानन्द - गायापतौ प्रदीपदृष्टान्तोऽभिप्रेतस्तथाहि - यथा मदीपस्तैल- वर्तिभ्या शिखया च सपनो निर्माते स्थाने सुरक्षितः कर लेने के बाद भी बहुत अन्न पान बचता था, अर्थात् इस उदार बुद्धि से पाक बनाया जाता था कि सन परिवारके जीम जाने पर बचे हुए अन्नादिसे अनेक गरीनों का पोषण होता था, जिसके घर में बहुत दास दासी गाय बैल भैंसें पाडे उरभ्र (बकरे बकरी गाडरे) आदि थे । बहुत, से मनुष्य भी उस ( आनन्द गाथापति) का पराभव नहीं कर सकते थे, अर्थात् वह वडा शक्तिशाली और माननीय था ।
'आदय दीस और अपरिभूत' इन तीन विशेषण से आनन्द गाथापति में दीपकका दृष्टान्त अभिप्रेत है । वह इस प्रकार - जैसे दीपक, तेल यत्ती और शिखा (लो) से युक्त होकर वायुरहित स्थानमें सुरक्षित रहकर અન્ન-પાન વધતુ હતુ, અર્થાત્ એટલી ઉદારતાથી રસાઇ કરવામા આવતી હતી કે ધેા પરિવાર જમી રહ્યા પછી પણ ઘણી રસેાઈ વધતી હતી અને તેમાથી અનેક ગરીબેાનું પાષણ થતુ હતુ તેના ઘરમા ઘણા દાસ દાસી, ગાય, ખળદ ભેશ પાડા, २ (जपुरा, गहरी, गाउ२) वगेरे हुता धाया भाथुसे। पशु तेना, (मानह गाथा પતિને) પરાભવ કરી શકતા નહીં, અર્થાત્ તે ઘા શકિતશાલી અને માનનીય હતા આઢય, દીપ્ત અને અપમૃિત' એ ત્રણ વિશેષશેાથી આનદ ગાથાપતિમા દીપકનુ દૃષ્કૃત અભિપ્રેત છે, તે આ પ્રમાણે,—જેમ દીપક, તેલ, દીવેટ અને શિખા (ઝ ળ)થી યુક્ત થઇને વાયુ-હિત સ્થાનમાં સુરક્ષિત રહી પ્રકાશિત થાય છે
१ 'विभाषा सुपो बहुच पुरस्तात्तु' इत्यनेन बहुच्प्रत्ययः पूर्वमयुक्तः
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उपासकरशा
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सर्वतोभावेन वा निवमति स्मेति शेषः । भादयः = महान् ऋद्रयादिपूर्णो वा । 'जान' यावत्- 'अदे' इत्यारभ्य 'अपरिभूए' इत्येतत्पर्यन्तोक्तसमस्त विशेषणविशिष्ट उत्प र्थस्तेन- 'दित्ते वित्थष्णविल-भरण सयणासण-जाण- प्राणाइणे बदुषण बहुजा यख्व रयए आओगपभोगसपउने विच्छडियउलभत्तपाणे हुदासीदासगोमहि सगपेलयप्पभूए बहुजणस्स' इत्येषा समन्त्रयः कर्त्तव्यः ।
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रूप्य यस्य
एतच्छाया च दीप्तो निस्तीर्ण त्रिपुल भवन शयनाशन यान नानाकीर्णो बहुधन पहुजातरूपजत आयोग- प्रयोगसमयुक्ती विच्छर्दितविपुलभक्त पानी बहूदासगोमहिप ग वेलकमभूतो बहुजनस्य' शकट इति, तत्र दीप्त = उज्ज्वलो दर्पितो वा, विस्तीर्णानि=विस्तृतानि विपुलानि = हूनि भवनानि = गृहाः, शयनानि = शून्या आसनानि=पीठकादीनि यानानि गाडीमभृतीनि वाहनानि = दयाद यस्तैराकीर्ण. ज्याप्त समुपेतो वा हु= विपुल, धन-गणिमप्रभृति यस्य स बहुधन, बहु = विपुल जातरूप = सुवर्ण, रजत = सहुजातरूपरजतः, बहुपनश्वासौ बहुजातरूप रजतश्चेति बहुधनबहुजा तरूपरजत, आ=समन्ताद् योजन= द्विगुणादिलाभार्थ रूप्यादीनामधमर्णादिभ्यो नियोजनमा योगस्तस्य, म=मकर्पेण योजनम् = उपायचिन्तन, प्रयोग', यद्वा आयोगेन = द्विगुणादिलिप्सया प्रयोग', =अधमर्णाना सवि ने द्रव्यस्य वितरणमायोग प्रयोग, स समयुक्त. = पतर्त्तितो येन, तस्मिन् वा समयुक्तः = सलग्न यस आयोग प्रयोग समयुक्त' गाथापति कहते हैं । तात्पर्य यह है कि क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, पशु, दास, पौरूष आदि से शोभित गृहस्थको गाथापति कहते हैं। वह आनन्द गाथापति विशाल समृद्धि से युक्त था । 'जाव' शब्द से 'आय' से लेकर 'अपरिभूत' पर्यन्त समस्त विशेषण जोडने चाहिए। अर्थात् तेजस्वी, विस्तृत और विपुल भवन, शयन ( शय्या), आसन (तरुत आदि) यान (गाडी आदि) वाहन (घोडे आदि) से युक्त बहुत धन (गणिम-रूपये पैसे आदि) वाला, बहुत सोने वाला, बहुत चाटी वाला, तथा नीतिपूर्वक व्यापारसे धन कमाने वाला था। जिसके यहा भोजन
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- क्षेत्र, वास्तु, सोनु, पशु, हास, यो३ष (पराईभ ) माहिया शोलित गृहस्थने ગાથાપતિ કહે છે. એ આનદ ગાથાતિ વિશાળ સમૃદ્ધિથી યુકત હતે 'ona' શબ્દથી આઢય 'થી લઈ અભૂિત' સુધીના બધા વિશેષણા જોડવા, અર્થાત तेस्वी, विस्तृत भने वियुस (मोटु ) भवन, शयन, शासन तिथला वगेरे), याम' (गाडी वगेरे) वार्डन (घोडा वगेरे) थी युक्त, धाला धन ( इपिया पैसा वगेरे) वाणी, धाया सोनावाजो, धाथा इयावाणी, तथा नीतियुक्त વેપારથી ધન કમાનારા હતા તેને ત્યા લેાજન થઈ ગયા બાદ પણ ઘણું
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अंगारसञ्जीवनी टीका अ० १ ० ३ आनन्दगाथापतिवर्णनम् ७१
नीत्या द्रव्योपार्जनप्रवृत्त इत्यर्य. भक्त च पान च भक्तपाने' विपुले च ते भक्तपाने विपुलमक्तपानः, वि-विशेषेण उर्दिते भोजनावशिष्टे भत्तपाने यस्य स विन्छतिविपुलभक्तपानः दास्यश्च दासाश्च गावश्च महिपाश्च गवेलका (उरभ्रा) थेति दामीदासगोमहिपगवेलास्ते प्रशस्ताश्च ते दामीदासगोमहिपगवेलका इति बहु दामीदासगोमहिपगवेलफास्ते प्रभूताः प्रचुरा यस्य स बहुदासीदासगोमहिपगवेलकमभूता , अत्र गत्रादिपद स्त्रीगन्यादीनामप्युपलथा, यहा गोपदस्य स्त्रीपुगवयोरविशेषेण वाचावादविरोध एव, महिप गवेलक्शन्दयोश्च 'पुमान् स्त्रिया' इत्येक्शेपान्महिप्यादीनामपि ग्रहणम् । बहुजनस्यति जातिविवक्षयैकवचन सवन्यसामान्ये च पप्ठी, तेन 'बहुजनै' रित्यर्थों वो यः, अत्र 'अपी' त्यस्या याहाराद्धहुजनैरपीति तत्त्वम् 'अपरिभूतः पराभवरहितः, यद्वा क्तमत्ययार्थस्याविवक्षितत्वादपरिभवनीयः-बहुजनैरपि पराभवितुमशक्य इत्यर्थ । एपृक्तविशेषणेषु “अड़े दित्ते,अपरिभूए" एभित्रिभिर्विशपणैरानन्द-गाथापतौ प्रदीपदृष्टान्तोऽभिप्रेतस्तथाहि-यथा प्रदीपस्तैल-पतिभ्या शिखया च सपन्नो निर्वाते स्थाने सुरक्षित. कर लेने के बाद भी बहुत अन्न पान रचता था, अर्थात् इस उदार वुद्धि से पाक बनाया जाता था कि मत्र परिवारके जीम जाने पर बचे हुए अन्नादिसे अनेक गरीनों का पोपण होता था, जिसके घर में बहुत दास दासी गाय बैल भैसें पाडे उरभ्र (पकरे बकरी गाडरे) आदि थे। बहुत, से मनुष्य भी उस (आनन्द गाथापति) का पराभव नहीं कर सकते थे, अर्थात् वह पडा शक्तिशाली और माननीय था।
आढय दीप्त और अपरिभूत' इन तीन विशेषणोसे आनन्द गाथापतिमें दीपकका दृष्टान्त अभिप्रेत है। वह इस प्रकार-जैसे दीपक, तेल
यत्ती और शिग्वा(लौ)से युक्त होकर वायुरहित स्थानमें सुरक्षित रहकर _ અન–પાન વધતુ હતુ, અર્થાત્ એટલી ઉદારતાથી નઈ કરવામાં આવતી હતી કે બધે પરિવાર જમી ધા પછી પણ ઘણી રસોઈ વધતી હતી અને તેમાથી અનેક ગરીબોનું પિષણ થતુ હતુ તેના ઘરમાં ઘણા દાસ દામી, ગાય, બળદ ભેંશ પાડા, ઉરભ્ર (બકરા, બકરી, ગાડર) વગેરે હતા ઘણા માણસો પણ તેને, (આનદ ગાથા પતિને) પરાભવ કરી શકતા નહી, અર્થાત તે ઘણે શકિતશાલી અને માનનીય હતે.
“આઢય, દીપ્ત અને અપરિભૂત” એ ત્રણ વિશેષથી આનદ ગાથાપતિમાં દીપકનુ દૃષ્ટાતં અભિપ્રેત છે, તે આ પ્રમાણે જેમ દીપક, તેલ, દીવેટ અને શિખા (ઝળ)થી યુક્ત થઈને વાયુરહિત સ્થાનમાં સુરક્ષિત રહી પ્રકાશિત થાય છે
१ 'विमापा मुपो बहुच पुरस्तात्तु' इत्यनेन बहुचमत्ययः पूर्वमयुक्तः।
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७२
उपासकदशास्त्र प्रकाशमासादयति, एमयमपि तेल-वत्ति स्थानीयया आयताऽपरपर्यायाद्धर्या, शिखा-स्थानीययोदारता-गम्भीरतादिरूपया दीप्त्या च सपनो निर्वातस्थानस्थानीयया मदाचारमर्यादापालनादिरूपयाऽपरिभृततया च सपन्न समुज्ज्वलतीति हेतुताऽमन्छेदकधर्मस्याऽऽढयता-दीप्त्यपरिभूततेतत्रितयनिष्टस्यैकस्य सत्वान्न तृणा रणिमणिन्यायेन प्रत्यक्षानुमानाऽऽगमशब्देपु प्रामाण्यमित्र प्रत्येक हेतुता प्रदीपवदेव ॥ ३॥
मूलम्-तस्स ण आणंदस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ वुड्डिपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, चत्तार वया दसगो. साहस्सिएण वएण होत्था ॥४॥
छाया तम्य खलु आनन्दस्व गायापतेश्चतस्री हिरण्यरोटयो निधानप्रयुक्ता, प्रकाशित होता है, वैसे ही आनन्द गाधापति, तेल और बत्तीके समान आढयता अर्थात् ऋद्विसे, शिखा की जगह उदारता गभीरता आदिस और दीप्तिसे युक्त होकर, वायुरहित स्थानके समान मर्यादाका पालन आदिरूप मदाचार से तथ पराभवरहितपनसे सयुक्त होकर तेजस्विता धारण करता था। अत आढयता दीप्ति और अपरिभृतता, इन तीनाम रहनेवाला हेतुनाऽवच्छेदक धर्म एक है, इस कारण तृणारणिमणि न्याय से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम शब्दोंमे प्रमाणताके ममान प्रत्यक (सिर्फ आढयता, सिर्फ दीप्त, या केवल अपरिभूतता) को हेतु नहा मानना चाहिए ॥३॥
તેમ આનદ ગાથાપતિ, તેલ અને દીવેટની પેઠે આઠયતા અર્થાત્ ઋથિ શિખાની જગ્યાએ ઉતારતા ગભીરતા આદિથી, અને દીનિથી ચુકત થઈને વાયુરહિત સ્થાનની સમાન મર્યાદાના પાલન અદિપ સદાચારથી તથા પરાભવરહિતપણે અપરિભૂતતા, એ ત્રણેમાં રહેલે હેતુસાવચ્છેદક ધર્મ એક છે તે કારણથી તૃણ રણિમણિ ન્યાયે પ્રત્યક્ષ, અનુમાન અને આગમ શબ્દોમાં પ્રમાણુતાની પડે પ્રત્યેકને (માત્ર આઢયતા, માત્ર દીપ્તિ અથવા કેવળ અપરિભૂતતા-એ એકને) હિતુ માન નહીં છે કે તે , -१-अयम् आनन्दगायापति ।
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अगारधर्मसजीवनी टीका य १ सू. ५ आनन्दगाथापतिवर्णनम् ७३ चतस्रो हिरण्यकोटयो वृद्धिप्रयुक्ताः, चतस्रो हिरण्यकोटय प्रविस्तरप्रयुक्ताः, च त्वारो व्रजाः दशगोसाहसिकेण जेनाआसन् ॥४॥
टीका-'तस्ये ति तस्य वर्णितप्रफारस्य खलु-निश्चये वाक्यालङ्कारे वा, आनन्दस्य एतनाम्नो गाथापते चतस्र'चतु सरयोपेता, हिरण्यकोटया हिरण्यानिधीनाराणि तेपा कोटया सख्याविशेपतया प्रसिद्धा. दीनारकोटिचतुष्टयमिति यावत् निधानप्रयुक्ता निधानेकोपादौ निक्षेपणे मयुक्ता नियुक्ताअर्यातेनेव गाथापतिना, एवमग्रेऽपि सम्बन्ध कार्य । वृद्धिप्रयुक्ता इति, वृद्धि -अनवर्धनेच्छया द्रविणमयोगस्तदर्थं प्रयुक्ता , शेप पूर्ववत् । प्रविस्तरः गृहोपारण तस्मै प्रयुक्ता । दशगोसादस्रिकेणेति, गवा दशमहस्रसरयकेन ब्रजेन चत्वारो गोबजाः, चत्वारिंशत्सहस्राणि गाव इति तात्पर्यार्थः, अभवन्भासन् ॥ ४॥
मूलम् -से णं आणदे गावाहई वहण राईसर जाव सत्थवाहाणं वहसु कज्जेसु य कारणेसु य मतेसु य कुडुवेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिजे सयस्सवि य णं कुर्भुवस्स मेढी, पमाण, आहारे, आलंवणं, चक्खू , मेढीभूए जाव सबकजवडावए यावि होत्था ॥५॥
(मृल और टीका का अर्थ) 'तस्स ण' इत्यादि । उस आनन्द गाथापतिके चार करोड दीनारे खजाने में रखी थीं, चार करोड दीनारे व्यापारमें लगी थीं, चार करोड दीनारे गृहसवन्धी सामानमें लगी थी और दस दस हजार गायोंके चार गोकुल थे अर्थात् आनन्द गाथापतिके बारह करोड दीनारे और चालीस हजार गोवर्गके पशुओकी सरया थी ॥ ४ ॥
(भू मने आनी मथ) तस्स ण त्या
એ આનદ ગાથાપતિને ચાર કરોડ દીનારે ખજાનામાં હતી, ચાર કરોડ દીનારો તેણે વેપારમા રેકી હતી, ચાર કરેડ દીનારો ઘર સામગ્રીમાં રેકી હતી અને દસ-દસ હજાર ગાયના ચાર ગેકુલે હતા, અર્થાત્ આનદ ગાથાપતિ પાસે બાર કરેડ દીનાર અને ચાલીસ હજાર ગેવર્ગના પશુઓની સંખ્યા હતી કો
१ दीनार-उसवक्तका एक मोने का सिक्का । ૧ ટીનાએ વખતે પ્રકારને સેનાને સિકકા દો
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७४
उपासकदशासूत्रे
छाया - स खलु आनन्दो गायापती राजेश्वर - यावत्सानाहाना बहुषु कार्येषु च फारणेषु च मन्त्रेषु च कुदुम्नेषु च गोषु च रहस्येषु च निश्रयेषुच व्यवरेषु च आमच्छनीयः, परिमन्छनीयः, स्वरस्यापि च खलु कुटुम्पस्य मेनि, प्रमाण, - माधारः, आलम्नन, चक्षु मेधिभूतो, यावत्कार्यवर्द्धश्वाऽप्यभवत् ॥ ५ ॥
टीका 'स' इति - राजेश्वर - यावदिति जत्र 'जान' शब्देन तबर माड निकोनियइभ सेट्ठि सेवा" इत्येषा सग्रहस्तेन राजेश्वर तलवर-मण्डविर(माडम्पिक) कोडुम्निकेभ्य श्रेष्ठि सेनापति सार्थानामितिसन्य, तत्र राजानो = माण्डलिका नरपतय, ईश्वरा. ऐश्वर्यसम्पन्ना', तारा=सन्तुष्ट भूपाल दत्तपट्टमूलका अर्थ- ' से ण आणढे' इत्यादि ।
वह आनन्द गावापति, राजा ईश्वर यावत् सार्थवाहोंके द्वारा उनसे कार्यों, कारणो (उपायों) मे, मात्र (मलाह) में, कुम्नोमे, गुह्यो में, रहस्योमे, निश्वयों और व्यवहारोंमे एकवार पूछा जाता था, चार वार पूछा जाता था । और वह अपने कुटुम्बका भी मेधि, प्रमाण, आधार, आलम्बन, चक्षु, मेधिभृत यावत् समस्त कार्योंको बढानेवाला था ॥७॥ टीका का अर्थ
मूलमे राईसर' के आगे के 'जाव' शब्द से राजा ईश्वर, तलवर, माण्डविक या माsम्पिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह का ग्रहण होता है । माण्डलिक नरेशको राजा और एश्वर्य वालोंको ईश्वर कहते हैं । राजा सन्तुष्ट होकर जिन्हें पहलध देता है वे राजा समान से विभूषित लोग तलवर कहलाते है। जो वस्ती
भूलना अर्थ-से ण आणदे इत्याहि
એ આનદ ગાયાપતિને, રાજા ઈશ્વર યાવત સાવાહે તરફથી ઘણુા ार्योभा, आरो। (उपायो)ना, मंत्र (ससाई)मा, मुटुमामा, गुद्योमा, रहस्येभा, નિશ્ચયેમા અને વ્યવહારમા એકવાર પૂછવામાં અવાતુ हतु, પૂછવામાં આવતું હતુ અને ત પાતાના કુટુંબના પણ મેધિ, પ્રમાણ, આધાર, આલ મન ચક્ષુ, મૈધિભૂત, યાવત અધા કાર્યોને આગળ વધારનારા હતા (૫)
વારવાર પણ
टीझनो अथ-भूणमा 'सर' पछी 'लव' शम्हथी 'राम, ४श्वर, तसवर, માવિષ્ટ અથવા માડખિક, કૌટુમ્બિક, ઇશ્ય, શ્રેષ્ટી, સેનાપતિ અને સાર્થવાહ એટલા શબ્દનું ચક્ષુ થાય છે માલિક નરેશને રાજા અને ઐશ્વર્ય વાળાઓને ઈશ્વર કહે છે. રાજા સતુષ્ટ બને જેને પટ્ટધ આપે છે તે રાજાએના જેવા પટ્ટા પથી વિભૂષિત લેાકૅ તરવર કહેવાય છે જેની વસ્તી છિન્ન ભિન્ન હાથ તેને
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १ ० ५ आनन्दगायापतिवर्णनम् ७५ वन्धपरिभूपितराजरल्पाः, माण्डविका-छिन्नभिन्नजनाश्रयविशेपो मण्डवस्तत्राधिकृता', 'माडम्मिका' इतिचयापक्षे तु ग्रामपञ्चशतीपतय इत्यर्थः, यवा सार्द्धकोशद्वयपरिमितमान्तरैर्विन्छिद्य विन्उिय स्थिताना ग्रामाणामपिपतय , कौटुम्बिकाः= कुटुम्नभरणे तत्परा, यद्वा बढुकुटुम्बप्रतिपालका , उभ्या =इभो हस्ती तत्पमाणं द्रव्यमहन्तीति' तथा ते च जयन्यम यमोत्कृष्टभेटास्त्रिप्रकाराम्नत्र-हस्तिपरिमितमणि-मुक्ता प्रचार मुवर्ण रजतादिद्रव्यराशिम्बामिनो जयन्याः, हस्तिपरिमितवज्रमणि माणिक्यराशिम्बामिनो म यमा, इम्निपरिमितकेवलबजराशिम्वामिन उत्क्रष्टा छिन-भिन्न हो उसे मण्डव और उसके अधिकारीको नाण्डविक कहते है। 'माडचिय' की छाया यदि माडम्बिक की जाय तो माडम्बिकका 'पाँच मो गांवों का स्वामी, अर्थ होता है । अथवा ढाई-ढाई कोसकी दूरी पर जो अलग-अलग गाव बसे हों उनके स्वामी को माडम्बिक कहते हैं। जो कुटुम्बका पालन-पोषण करते हैं या जिनके द्वारा यनसे
कुटुम्मों का पालन होता है उन्हें कौटुम्यिक कहते हैं। इभ का अर्थ है । रायी, और हाथी के रायर द्रव्य जिमके पास हो उसे इभ्य कहते हैं। जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेदसे इभ्य तीन प्रकार के हैं। जो हाथोके यरायर मणि, मुक्ता, प्रवाल (मुंगा), सोना, चादी आदी द्रव्य-राशिके स्वामी हों वे जघन्य इभ्य हैं । जो हाथी के बराबर हीरा और माणिककी राशिके स्वामी हों वे मध्यम इभ्य है । जो हाधीके यरावर केवल हीरोंकी राशि स्वामी हों वे उत्कृष्ट इभ्य हैं। लक्ष्मीकी મડવ અને તેના અધિકારીને માડાવક કહે છે “માડબિયરની છાયા જે “માડ મ્બિક કરવામાં આવે તે “માડાિકને અર્થ પાસે ગામનો ધણી” એવો અર્થ થાય છે અથવા અઢી-અઢા ગાઉને અતરે ને જુદા-જુદા ગામે વસ્યા હોય તેના ધણીને માડમ્બિક કહે છે જે કુટુનું પાલન-પોષણ કરે છે અથવા જેની દ્વારા ઘણું કુટુંબોનું પાલન થાય છે, તેને કોટુમ્બિક કહે છે, “ઈભ” નો અર્થ “હાથી” છે, અને હાથીન, જેટલુ દ્રવ્ય જેની પાસે હય, તેને ઈશ્વ કહે છે જઘન્ય, મધ્યમ અને ઉત્કૃષ્ટ ભેદે કરીને ઈભ્ય ત્રણ પ્રકારના છે હાથીની બરાબર મણિ, મેતી, પરવાળા, સોનુ, ચા આદિ દ્રવ્યના ઢગલાના જે સ્વામી તેઓ જઘન્ય ઈશ્ય છે હાથીની બરાબર હીરા અને માણેકના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ મધ્યમ ઇશ્ય છે હાથીની બરાબર કેવળ હીરાના ઢગલાના જે સ્વામી હોય તેઓ ઉત્કૃષ્ટ ઈભ્ય છે જેમની ઉપર લકમીની
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उपासकशास्त्र
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श्रेष्ठिनो -लक्ष्मीकृपाकटाक्षमत्यक्षलक्ष्यमाण-द्रविणलक्ष-लक्षणविलक्षणहिरण्यपट्टसम लद्धतमूर्धानो नगरप्रधानन्याहारः, सेनापतया चतुरङ्गसेनानायकाः, सार्थ पाहा: गणिम धरिम मेय परिच्छेद्य स्पक्रय विक्रेयवस्तुजातमादाय लाभेन्छयादशा न्तराणि जता सार्थ पाइयन्ति योग-क्षेमाभ्या परिपालयन्तीति, दीनजनोपकाराय मूलधन दत्वा तान् समद्धयन्तीति तथा, तन गणिमम् एम द्वित्रि-चतुरादिसख्या क्रमेण गणयित्वा यहीयते, यथा नालिकेर पूगीफल-कदलीफलादिनम्, धरिम-तुला सूत्रेणोत्तोल्य यद्दीयते, यथा त्रीहि या लाण सितादि, मेय=शराव लघुभाण्डादिनोजिस पर पूरी-पूरी कृपा हो और उस कृपाकोरके कारण जिनके लाखोंके खजाने हो तथा जिनके सर पर उन्हींको सूचित करने वाला चादीका विलक्षण प शोभायमान हो रहा हो, जो नगर के प्रधान व्यापारी हो उन्हें श्रेष्ठी करते हैं। चतरग सेनाके स्वामीको सेनापति कहते हैं। जो गणिम, धरिम, मेघ और परिच्छेद्य रूप खरीदने-बेचने योग्य वस्तुओ को लेकर नफाके लिए देशान्तर जानेवालेको साथ ले जाते है, योग (नयी वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा के द्वारा उनका पालन करते है, गरीबोंकी भलाईके लिए उन्हें पूजा देकर व्यापार द्वारा धनवान बनाते है उन्हें सार्थवाह कहते हैं । एक दो, तीन, चार आदि सख्याके हिसाब से जिनका लेन-देन होता है उसे गणिम कहते हैं, जैसे-नारियल, सुपारी, केला आदि । तराजू पर तोल कर जिसका लेन-देन हो उसे धरिम कहते हैं, जैसे धान, પૂરેપૂરી કૃપા હોય અને એ કૃપાને કારણે જેમની પાસે લાખનો ખજાને હૈય, તથા જેમને માથે તેનું સુચન કરનાર ચાદીને વિલક્ષણ પદ્ધ ભાયમાન થઈ રહો હેય, જે નગરના મુખ્ય વ્યાપારી હોય, તેને શ્રેષ્ઠી કહે છે ચતુરગ સેનાના સ્વામીને સેનાપતિ કહે છે ગણિમ ધરિમ મેય અને પરિચ છે ? ખરીદવા–વેચવા ગ્ય વસ્તુઓ લઈને નફાને માટે દેશાતર જનારાઓને જે સાથે લઈ જાય છે એગ (નવી વસ્તુની પ્રાપ્તિ) અને ક્ષેમ (પ્રાપ્ત વસ્તુને રક્ષણ) ની દ્વારા તેમનું પાલન કરે છે ગરીબોના ભલા માટે તેમને પૂછ આપીને વેપાર દ્વારા ધનવાન બનાવે છે, તેમને સાર્થવાહ કહે છે એક, એ ત્રણ, ચાર આદિ સંખ્યાના હિસાબે જેની લેણ-દેણ થાય છે તેને ગણિમ કહે છે. જેમકે નાળીએર, સોપારી ઇત્યાદિ ત્રાજવાથી તેલને જેની લેબ્રુ–દેણ કરવામા આવે છે તેને ધરિમ કહે છે, જેમકે ધાન્ય જવ, મીઠું, સાકર ઈત્યાદિ
१ अलब्धस्य लाभो योग , लब्धस्य परिपालन क्षेमः।
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १ ० ५ आनन्दगाथापतिवर्णनम्
तोय यद्दीयते, यथा दुग्ध घृत तैल प्रभृति, परिच्छेय च प्रत्यभतो निकपादिपरीक्षया यदीयते, यथा मणि मुक्ता प्रचालाऽऽभरणादि । ' सार्थवाहाना ' - मित्यत्र 'कृत्याना कर्त्तरि वे' ति कर्त्तरि पष्ठी, अग्रेतनम्य 'आमच्छनीय परिमच्छनीयः' इत्यनीयरमत्ययस्य योगात्, ततथ राजभिरीश्वरैस्तल व रैमडम्बिके: ( माण्डविकै ) कौटुम्बिकैरभ्यैः श्रष्टिभि सेनापतिभिः सार्थवाहैथेत्येव व्याख्यातव्यम् । बहुपु = प्रचुरेषु, जम्य सर्वैरेव सप्तम्यन्तै सम्बन्ध | कार्येषु = +व्येषु प्रयोजनेष्विति यावत्, कारणेषु=कार्यजातसम्पादकहेतुषु । मन्त्रेषु = कर्त्तव्यनिश्चयार्थं गुप्तविचारेषु | कुटुम्नेषु–वान्यवेषु । गुह्येषु = जना गोपनीयेषु व्यवहारेषु । रहस्येषु = रहसि = एकाते भवा रहस्यास्तेषु प्रच्छन्नव्यवहारेष्विति यावत् । निवयेषु पूर्णनिर्णयेषु । व्यवहारे ==पवहारष्टव्येषु यद्वा बान्धवादिसमाचरितलो+विपरीतादिक्रियामायश्चितेषु, विषयसप्तम्या 'एतेषु विषये' इत्यर्थ' । आईपत् सकृदिति यावत् प्रच्छनीय जौ, नमक, शकर आदि । सरावा जेटे बर्तन आदिसे नाप कर जिमका लेन-देन होता है उसे मेय कहते हैं, जैसे दूध घी तैल आदि । सामने कमौटी आदि पर परीक्षा करके जिसका लेन-देन होता है उसे परिच्छेद्य कहते है, जैसे मणि, मोती, मृगा गहना आदि ।
आनन्द गायापति, उन राजा, ईश्वर आदिके द्वारा बहुत से कार्यों में, कार्य को सिद्ध करनेके उपायों में, कर्त्तव्यको निश्चित करनेके गुप्त विचारों में, बाधवों में, लज्जा के कारण गुप्त रखेजानेवाले विषयो में, एकान्त में होनेवाले कार्यों में, पूर्ण निश्चयों में, व्यवहार के लिए पूछेजाने योग्य कार्यों में, अथवा बान्धवों द्वारा किये गये लोकाचारसे विपरीत कार्योंके प्रायश्चित्तों (दडों) में, अर्थात् उल्लिखित सब मामलो में एकचार પાલી કે પવાલુ જેવા માપના વાસણથી માપીને જેની લેણ-દેણુ કરવામા આવે છે તેને મેય કહે છે, જેમકે દૂધ, ઘી, તેલ વગેરે કસેાટી આદિથી પરીક્ષા કરીને જેની લેણુદેથે કર્વામા આવે છે તેને પરિચ્છેદ્ય કહે છે, જેમકે ણુ, મેાતી, પરવાળા, ધરેણુ વગેરે
આનદ ગાથાતિને, એ રાજા, ઇશ્વર આદિ તરફથી ઘણા કાર્યોંમા, કાનિ સિદ્ધ કરવા માટેના ઉપાયામા, કર્તવ્યને નિશ્ચિત કરવાના ગુખ્ત વિચારામા, માધવેામા, લજ્જાને કારણે ગુપ્ત રાખવામા બાવતા વિષયામા, એકાતમા કરવામાં આવતા કાર્યોમા, પૂર્ણ નિશ્ચયેમા, વ્યહારને માટે પૂછવા યેાગ્ય કાર્યોમાં, અથવા આધવા તરફથી કરવામા આવતા લેાકાચારથી વિપરીત કાર્યાંના પ્રાયશ્ચિત્તો (૪૩)માં
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उपादशाङ्गस
=प्रष्टयः परि=सर्वतोभावेन अमकृदिति यात् प्रच्छनीय: = मव्य 'होस्था' = आसीदित्यग्रेतनेन सम्बन्धः । आह नतु कार्यकारणयोरन्यतरस्यैवोपादानेनेतरान्यथानुपपत्याssक्षेपाद्बोध' मियेदिति 'कार्येषु' ' कारणेपु' इत्युभयोपादानमनिश्चि त्करमिति तदत्यन्तममत्, यत कथित् केवल कायसम्बन्ध एनमश्न कराति यथा, भो ! मया किं धन्त्रण विनेय ? कि राजादिसेना कर्त्तव्या उत क्रमविक्रयादिव्य हारः कर्त्तव्य ? इत्यादि, कश्चिच केवल कारणमन्त्र एन प्रश्न करोति यथा किं भो. या ना राजादिसेवा कर्त्तव्या ? केन वा विधिना क्रयविक्रयादिव्यवहार कर्त्तव्य ? इत्यादीति सर्वजनमसिद्धमिदम् ।
और चार बार पूछा जाता था-इन सब बातों में राजा आदि समस्त वडे-बडे आदमी आनन्दकी सम्मति लेते थे ।
शका - का और कारण, इन दोनों मेंसे एकका ग्रहण करनेसे ही दोनोंका बोध हो जाता है, क्योकि कारणके बिना कार्य नहीं होता और faar कार्य कारणोका अन्वेषण करनेकी आवश्यकता नहीं है फिर मृल-पाठ मे 'कार्यों में' 'कारणो में, इस प्रकार दोनोंका पृथकपृथक गिनाना वृथा है ।
समाधान- यह कथन बिलकुल ठीक नही । क्योकि कोई-कोई केवल कार्यके विषय मे ही प्रश्न करता है, जैसे- 'महाशय ! मुझे क्या धधा करना चाहिए ! राजा आदि की नौकरी करूँ या लेन-देन (व्यापार) करू ?" इत्यादि । कोई-कोई केवल कारणके विषय मे ही पूछना है, जैसे- 'क्यों जी, मैं राजा आदि की सेवा किस प्रकार करूँ ? अथवा लेन-देन का व्यवहार किस ढंग से करूँ' इत्यादि यातें ससारप्रसिद्ध है ।
અર્થાત્ એવા બધા પ્રકરણામા એક વાર તથા વાર વાર પૂછવામાં આવતુ હતુ. મે બધી વાતામા રાજા વગેરે મેા માણુસે પણ આનદની સમતિ લેતા હતા
શકા-કાર્ય અને કારણ એ એઉમાથી એકનુ ગ્રહણ કરવાથી જ બેઉના આધ થઈ જાય છે, કારણ કે કારણ વિના કાર્ય થતુ નથી, અને કાર્ય વિના કારણુ શેાધન કરવાની જરૂર હાતી નથી તે! પછી મૂળ પાર્ટમા ' अर्योभा' ' अरशोभा' थे પ્રમાણે બેઉને જૂદા જૂદા ગણાવવા એ વૃથા છે
,"
સમાધાન-એ કથન બીલકુલ ખરાબર નથી, કારણ કે ઇ કેવળ કા'ની માખતમાં જ પ્રશ્ન કરે છે, જેમકે—મહાશય ! મારે કયા ધા કરવા જોઇએ ? રાજા વગેરેની નેકરી કરૂ કે લેણદેણુ (વેપાર) કરૂ ? વગેરે કાઈ કેવળ કારણની ખાખતમા જ પૂછે છે જેમકે,કેમ ભાઇ! હું નાજા આદિની સેવા કેવી રીતે કરૂ ? અથવા લેબુંદેણુને વ્યવહાર કેવી રીતે કરૂ ?, એ બધી વાતે જગતમા જાણીતી છે
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अगारसज्जीवनी टीका अ. १ सू० २ आनन्दगाथापतिवर्णनम्
नन्वेवमपि - " मन ेपु, गुह्येषु, रहस्येपु" इत्येषा त्रयाणामपि विशेषणानामेकार्यकत्वात्पृथगुपादानमनुचितमिति चेत्तत्र प्रश्न एरानुचितो विशेषणानामेषा मिथो भिन्नार्थकत्वात्तथाहि - देशहितचिन्तार्थ राज्यादिहितचिन्तार्थ वैान्तरिचारो मन्न, परस्त्रीगमनादिरूपनिकृष्टगृह च्छिद्रमती रचिन्तनार्थम कान्तविचारो गृह्यम्, भ्रूणहत्यादिरूपनिष्टतम गृहच्छिद्रमती कार चिन्तनार्थमेकान्तविचारो रहस्यमिति तेजस्तिमिरजद्गगन - पातालवच्चै पामत्यन्तमन्तरमस्तीति । इह सर्वे चकाराःसमुच्चयार्था
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शा-अच्छा, मान लिया' कार्य-कारण के विषयमे अलगअलग प्रश्न हो सकते है, पर 'मत्रों, गुयोमें, रहस्योंमें, ' इन तीन विशेषणोको ग्रहण करना तो अनुचित ही है, क्योकि इनका एक ही अर्थ है ।
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समाधान - माई। तीनो विशेषणों का अर्थ जुदा-जुदा है, इसलिए तुम्हारा प्रश्न ही अनुचित है, तीनोंका अलग-अलग करना अनुचिन नही है । देखो -- देश अथवा राज्यका हित सोचनेके लिए एकान्त में जो विचार किया जाता है उसे मन्त्र कहते हैं । परस्त्रीगमन आदि घर के कलका को दूर करनेके लिए एकान्त मे किये जाने वाले विचार को गुह्य कहते है, भ्रूणहत्या आदि घर के कलकों को दूर करनेके लिए एकान्तमे किये जाने वाले परामर्शको रहस्य कहते है । इस प्रकार तीनों विशेषणो मे प्रकाश अन्धकार अथवा आकाश-पाताल जितना महान् अन्तर है । मूल- पाठमे जितने 'च' है वे मन समुच्चयके बोधक हैं। ગા—બારૂ, મા દયે કે કાર્ય-કારણની નાળનમાં ન્યૂ 1 ન્યૂ ! પ્રશ્નો થઈ શકે છે, પરન્તુ મત્રામા શુદ્ઘોમા, રહસ્યામા, ' એ ત્રણુ વિશેષાને ગ્રહણ કરવા એ તે અનુચિત જ છે, કારણ કે તેને અથ એક જ સમાધાન—ભાઇ ! એ ત્રણે વિશેષણેના અર્થા તમારા પ્રશ્ન જ અનુચિત છે ત્રણેને જુદા જૂદા કહેવા દેશ અથવા રાજ્યનું હિત વિચ ગ્વાને માટે એકાતમા જે छे, तेन मन्त्र કહે છે. પરસ્ત્રીગમન આદિ ઘરના કલ એકાતમાં કરવામાં આવતા વિચારને ગુહ્ય કહે છે કલાને દૂર કરવાને માટે એકાતમા કરવામાં આવતા એ પ્રમાણે ત્રણે વિશેષણોમા પ્રકાશ અધકાર
"
થાય છે જૂ જૂદા છે, તેથી અનુચિત નથી જુએ, વિચાર કરવામા આવે
દૂર કન્વાને મટે
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અથવા આકાશ પાતાળ
જટલું મહાન્ અંતર છે મૂળ પાઠમા જેટલા ક્રૂ' તે છે અધા સમુચ્ચયના માધક છે
ભ્રૂણહત્યા આદિ ઘરના પરામને રહસ્ય કહે
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
प्रोक्तविशेषणविशिष्टतया सर्वेषा महामान्यत्य परमविश्वासभूमित्व विशालबुद्धिशारिश्व यथोचितसम्मतिमदत्व चास्य व्यक्तीकृतमिति विभावयन्तु विद्वासः ।
स्वस्यापि स्वकीयस्यापि चो-त्रिषयान्तरपरिग्राथेः । खलु निश्वयेन, कुटुम्बस्य = परिवारजनस्य, मेधिःत्रीहि या गोधूमादिमर्दनार्थ खले निखाय स्थापितो दादिमय पशुन्धनस्तम्भो यन पक्तिशोद्धा ग्लीनर्दादयो नीयादिमर्दनाय परितो भ्राम्यन्ति तत्सादृश्यादयमपि मेधि', अर्थादेतदालम्नेनैव सर्वस्यापि कुटुम्बस्या वस्थानमिति। कुटुम्नस्यापीत्यत्रापिशन्दवलाग्न केवल स्वकुटुम्बस्यैवापि तु सर्वस्यापि
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इन सब विशेषणोंसे सूत्रकारने यह प्रकट किया है कि आनन्द गाथापतिको सभी लोग मानते थे, वह अत्यन्त विश्वास - पात्र था, विशाल बुद्धिशाली था और सबको उचित सम्मति देता था ।
धान, जो, गेह आदि की दाय करने (लाटा - दाने निकालने) के लिए गढ़ा खोद कर एक लकडी आदिका स्तम्भ गाडा जाता है। उसके चारो ओर एक पक्तिमे लाखो कुचलनेके लिए बैल आदि घूमते हैं उस स्तम्भको मेधि-मेढी - कहते है । बैल आदि उस समय उसी पर निर्भर रहते है । यहि वह स्तम्भ न हो तो कोई बैल कही चला जाय कोई कही सब व्यवस्था भग हो जाय । गाथापति आनन्द अपने कुटुम्बकी मेधि-मेढ़ी के समान थे, अर्थात् कुटुम्ब उन्ही के सहारे था- वे ही उसके व्यवस्थापक थे । मूल पाठ मे 'वि' (अपि) शब्द है, उसका तात्पर्य यह है कि वें केवल कुटुम्बके ही आश्रय न थे वरन्
એ ધા વિશેષણા વડે સૂત્રકારે એમ પ્રકટ કર્યું છે કે આનદ ગાથા પતિને બધા લોકો માનતા હતા, તે અત્યંત વિશ્વાસપાત્ર હતા, વિશાળ બુદ્ધિથી યુક્ત હતા અને બધાને વાજબી જ સલાહ–સ મતિ આપતેઃ તે
કરે છે, એ ખાલાને
ધાન્ય, જવ, ઘઉં વગેરેને કણસલામાથી છૂટા કરવાને એક ખાસ ખેાદી તેમા એક લાકડાને ખાલા ખેડવામાં આવે છે અને પછી તેની ચારે બાજુએ એક સાથે કણસલાને કચરવા માટે બળદ વગેરે ફર્યાં મેધિ કહે છે. બળદ વગેરે એ વખતે એ ખાલાને આધારે જ ફર્યા કરે છે. જો એ ખાભા ન હાય તે એક ખળદ એક ખાજુએ ચાટ્યા જાય અને ખીજે ખીજી માજુએ ક્રૂ, એ રીતે વ્યવસ્થાભગ થઈ જાય ગાથાપતિ આનદ પેાતાના કુટુમ્બાની મધિ મધ્યસ્થ સ્થલ જેવા હતા, અર્થાત્ કુટુંબ અેને આધારે હતું, તેજ કુટુ ખના વ્યવસ્થાપક હતેા મૂળ 41831 fâ (afq) qve I, Ag १ प्राकृत के समान हिन्दीमें भी मेधिका अर्थ मेढी है ।
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १ ० ५, आनन्दगाथापतिवर्णनम् ८१ जनस्पेत्यवोयमेवमग्रेऽपि । प्रमाणम् प्रत्यक्षादिप्रमाणवद्धेयोपादेयपत्तिनिवृत्तिरूपतया सगयराहित्येन पदार्थमापरिन्छेद (पत्याय)कः । आगर: आपारवत्सर्वेपामाश्रयभृत । आलम्बनम्रज्जुस्तम्भादिवद्विपदावटपतन्ननोद्धारकनयाऽवलम्बनम् । ननु कोऽनयोर्भेट ' इति चेत् , यमधिष्ठाय जन उन्नति गन्छति स्वरूपावम्यो वा वर्तते स आधार', यदवलम्बनेन च विपदो विनिवर्त्तते तदालम्बनमिनि भेद गृहाणा समस्त लोगोंके भी आधार थे, जैमाकि ऊपर बताया जा चुका है। आगे जहाँ-जही 'वि' (अपि-भी) आया है वहा मर्वत्र यही तात्पर्य समझना चाहिए।
आनन्द गायापति अपने कुटुम्बके भी प्रमाण थे। अर्थात् जैसे प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाण सटेड आदिको दूर करके हेय (त्यागने योग्य) पदार्थों से निवृत्ति और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) पदार्थों में प्रवृत्ति कगते हुए पार्योंको जनाते हैं, उसी प्रकार आनन्द भी अपने कुटुम्बियों बताते थे कि अमुक कार्य करने योग्य है, अमुक कार्य करने योग्य नहीं है, यह पदार्थ ग्राह्य है, यह अग्राह्य है।
आनन्द अपने कुटुम्बके भी आधार (आश्रय)थे, तथा आलम्बन थे, अर्थात् विपत्तिमें पड़ने वाले मनुष्यको रस्सी या स्तभ के समान सहारे थे।
शका-आधार और आलम्बन में क्या अन्तर है ?
समाधान-जिस आश्रयके कारण मनुष्य उन्नति करता है या તાત્પર્ય એ છે કે તે કેવળ કુટુંબના જ આધારૂપ નહેાતે, પર તુ બધા કેના પણ આશ્રરૂપ હતું, કે જેમ ઉપર દર્શાવવામાં આવેલ છે આગળ પણ જ્યા ज्या वि (अपी पy) माव्य छ, त्या त्या मवे मे तात्पर्य समयानु छ
આનદ ગાથાપત પિતાના કુટુંબના પણ પ્રમાણ રૂપ હતું, અર્થાત્ જેમ પ્રત્યક્ષ અનુમાન આદિ પ્રમાણુ સદેહ આદિને દૂર કરીને હેય (ત્યજવાયેગ્ય) પદાર્થોથી નિવૃત્તિ અને ઉપાદેય (ગ્રહણ કરવાગ્ય) ૫દામાં પ્રવૃત્તિ કરાવતા તે પદાર્થોને દર્શાવે છે, તેમ આનદ પણ પોતાના કુટુંબીઓને બતાવતે હતો કે–અમુક કાર્ય કરવું યોગ્ય છે, અમુક કાર્ય કરવું એગ્ય નથી, અમુક પદાર્થ ગ્રાહ્ય છે અમુક પદાર્થ અગ્રાહ્ય છે, ઈત્યાદિ
આનદ પિતાના કુટુંબને પણ આધાર (આશ્રય) હતા, તથા આલ બન હતા, અર્થાત્ વિપત્તિમાં પડેલા મનુષ્યને દોરડું અથવા થાભલાના જેવા આધાર રૂપ હતો
શકા–આધાર અને આલ બનમાં શુ અતર છે. સમાધાન–જે અશ્રયને કારણે મનુષ્ય ઉન્નતિ કરે છે, અથવા જે ને તે
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
च= पश्यत्यनेनेति चक्षुः तत्सर्वेषा सार्थमदर्शकः यदुक्तम् "मेधिः प्रमाण, मानारः, आलम्बन, चक्षु" रिति, तदेव स्पष्टमतिपत्तये ओपस्यवाचि भूत शब्दसम्मेलनेन पुनरावर्त्तयति 'मेधीभूतः' इत्यादि, यादिति यात्रउन्टेन' पमाण भूए आहारभृए आलपणभूए चाए" इत्येषा सग्रहो वो स्तन - 'प्रमाणभूतः, आधारभूत, आलम्पनभूत', चतुभूत' इति छाया, पीनस्तयवारण तु मेथि मेधीभूतो मेधसदृश इति यावत् प्रमाणमर्थात् प्रमाणभूतः प्रमाणमदृश इतियावत् आधारोऽर्थादाधारभूत आधारतुल्य इति यावत, आलम्बनमर्यादाम्नभूत आलम्बनसदृश इति यावत् चक्षुरर्याचभूतः - चक्षु'सह इति यावदिति रीत्या समन्वयाद्भवतीति सूक्ष्मचक्षुपाऽप्रेक्षणीयम् । चकिञ्च सर्वकार्यवर्द्धक सर्वे कार्याणा सम्पादकोऽपि आसीत् अभूत् ||५||
"
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जैसा का तैसा - जहा का तहाना रहता है उसे आधार कहते हैं, और जिस निमित्त से मनुष्य विपत्ति से बचता है उसे आलम्बन कहते है । यह इन दोनोंमे अन्तर है ।
आनन्द अपने कुटुम्न के चक्षु थे, अर्थात् जैसे च मार्गको प्रकाशित करता है वैसे ही आनन्द, कुटुम्बियों के भी ममस्त अर्थो के प्रदर्शक ( सन्मार्गदर्शक ) थे ।
दूसरी बार मेधीभृत आदि विशेषण स्पष्ट बोध के लिए दिए है। 'जाव' शब्द से प्रमाणभून, आधारभूत, आलम्बनभूल, चक्षुर्भुत, इनका संग्रह होता है । यश स्पष्टता के लिए 'भूत' शब्द अधिक दिया है । इनका तात्पर्य यह है कि आनन्द मेढी अर्थात् मेढीके सदृश थे, प्रमाण अर्थात् प्रमाणके सदृश थे, आधार अथात् आधार के सदृश थे, કે જ્યા ન ત્યા બની રહે છે તેને આધાર અન જે નિમિત્તથી મનુષ્ય વિત્તિમાંથી ખર્ચે છે તેને આલ મન કહે છે એ બેઉમાં ગ્લુ અતર છે
આનદ પેતાના કુટુમ્બના ચક્ષુરૂપ તે, અર્થાત્ જેમ ચક્ષુ માર્ગોને પ્રકાશિત કરે છે. તેમ આનદ સ્વકુટુ બીના પશુ બધા અર્થોના પ્રકાશક ( સન્માર્ગદર્શક હતા શ્રીજી વાર મેÜભૂત આદિ વિશેષ્ણુ સ્પષ્ટ એધને માટે આપેલા છે શબ્દથી પ્રમાણભૂત અધારભૂત, લખનભૂત, ચક્ષુર્ભૂત, એ બધાના સગ્રહ થાય છે અહી સ્પષ્ટતાને માટે ‘ ભૂત' શબ્દ વધારે આપ્યા છે. એનુ તાત્પર્ય એ છે કે બાનદ નૈષિ અર્થાત સૈધિની સમાન તે પ્રમાણુ અર્ધીત પ્રમાણુની સમાન હતા, આધાર
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જાવ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ शिवानन्दावर्णनम्
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मलम-तस्सण आणंदस्स गाहावइस्स सिवानदा नाम भारिया होत्था, अहीण-जाव-सुरूवा। आर्णदस्स गाहावडस्स इट्टा, आणदेणं गाहावडणा सद्धि,अणुरत्ता अविरत्ता इट्टा सदा जाव पचविहे माणुस्सए कामभोए पञ्चणुभवमाणी विहरइ ॥६॥ __छाया-तस्य खलु आनन्दस्य गाथापतेः शिवानन्दा नाम भार्याऽसीत् । अहीन यावत् मुरूपा, आनन्दस्य गाथापतेरिष्टा, आनन्देन गाथापतिना सार्द्धमनुरक्ता, अविरक्ता, इष्टा, शब्द यावत्पञ्चविधान् मानुष्यान् कामभोगान् प्रत्यनुभव न्ती विहरति ॥६॥
टीका-'तस्ये ति, तस्येत्यादि गाथापतेरित्यन्ता व्याख्यातपूर्वाः, 'शिवेति शान्तस्वभावतयाऽऽनन्दस्वभावतया च शिवानन्देत्यन्वर्थसज्ञावतीत्यभिप्रायः, आलम्बन अर्थात् आलम्बनके सदृश थे और चक्षु अर्थात् चक्षुके सदृश थे। आनन्द समस्त कार्यों के सम्पादन करनेवाले भी थे ॥५॥
मूलका अर्थ-'तस्स ण' इत्यादि ॥६॥ पूर्वोक्त आनन्द गायापति की शिवानन्दा नामकी पत्नी थी। वह अहीन यावत् सुन्दरी थी। आनन्द गाथापतिको वह इष्ट (प्रिय) थी और वह आनन्द गायापतिमे अनुरक्त थी, तथा आनन्द के मनोनुकूल व्यवहार करनेवाली थी। शब्द यावत् पाच प्रकारके मनुष्य-सम्बन्धी कामभोगोको भोगती हुई (विचरती रहती) थी ॥६॥
टीकाका अर्थआनन्द गाथापति की शिवानन्दा पत्नी थी। वह शात स्वभाववाली અર્થાત્ આધારની સમાન હતું, આલબન અર્થાત આલ બનની સમાન હતું અને ચક્ષુ અર્થાત ચક્ષુની સમાન હતા આનદ બધા કાર્યોનું સ પાદન કરનારે પણ હવે (૫)
भूजन। मथ-' तस्स णत्याहि (6) પૂકત આનદ ગાથાપતિના શિવાન દા નામની પત્ની હતી તે અહીન યાવત સુ દરી હતી આનદ ગાથાપતિને તે પ્રિય હતી અને તે આન દ ગાથાપતિમાં અનુરકત હતી અને પતિને મનોનુકૂલ વ્યવહાર કરનારી હતી શબ્દ-ચાવતા પાચ પ્રકારના મનુષ્ય સબધી કામને ભગવતી તે વિચરતી હતી (૬)
ટીકાને અર્થ આનદ ગાથાપતિની શિવાન દા પનીહતી તે શા તસ્વભાવવાળી અને
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उपासकदशासूत्रे -भाभरणीया वीति यारत् , 'अहीन यार' दिति, अत्र यावन्छन्दवलेन 'अहीण पचिंदियसरीरा लाग्णरजणगुणोरवेया माणुम्माणप्पमाणपडि पुण्णमुनायसवग सुन्दरगा ससिसीमाकारा कता पियदसणा मुख्वा' इत्येर विशेपणानामन्यत्रोक्ताना समन्वयोगोद्धव्यस्तत्र'-अहीनपञ्चेन्द्रियशरीरा लक्षणाव्यञ्जनगुणोपपेता मानोन्मान ममाणपरिपूर्णमुजातसद्गिमुन्दराङ्गाशगिसौम्याकारा कान्ता मियदर्शना मुरूपा' इति च्छाया । अथैतानि विशेषणानि प्रतिपद व्याचक्ष्महे-अहीनानि-लक्षण-स्वरूपाभ्या परिपूर्णानि पञ्च इन्द्रियाणि यम्मिस्तादृश शरीर यस्या सा अहीनपश्चेन्द्रियशरीरा स्वस्वविषयग्रहणसम पूर्णाकारच सुरादीन्द्रियविशिष्रेत्यर्थः, 'लक्षणे-ति लक्ष्यन्ते चिस्यन्ते यैस्तानि लक्षणानि स्त्रीचिहानि हस्तस्थविद्या धन जीवित रेखारूपाणि और आनन्द स्वभाववाली थी,इसलिए वह 'यधानामन्तथागुणवाली' थी। 'अरोन' के आगे जो 'जाव' शब्द है उससे इतना सग्रह किया है-"अहीणपचिंदियसरीरा लस्वणवजणगुणोववेया, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वगसुदरगा, ससिसोमाकारा, कता, पिय दसणा, सुख्या।। ये विशेषण अन्यत्र कहे गये हैं, अत एव इन्हीका यहा सग्रह है, इनका अर्थ-~ ___ अहीणपचिंदियसरीरा-लक्षण और स्वरूप से परिपूर्ण (पूरी) पाच इन्द्रिया महित शरीरवाली थी अर्थात् जिसकी चक्षु आदि पाचा इन्द्रिया अपना अपना विषय ग्रहण करनेमे पूर्ण सावधान तथा यथायोग्य आकारवाली थी।
लवरवणवजणगुणोववेया-जिनके द्वारा पहिचान होती है उन्हें लक्षण (चिह्न) कहते है, अथवा हाथ आदि में बनी हुई विद्या, तथा धन, जीवन आदिकी रेखाओको लक्षण करते हैं। जिनके द्वारा अभिव्यक्ति આનદ સ્વભાવવાળી હતી, તેથી તે “યથાનામતથાગુણ હતી “અહી” પછી જે જાવ यात शह छ तथा माता होना स य छ- अहीणपचिदियसरोरा उकजणवजणगुणाववेया माणुम्माणपमाणपडिपुण्णमुजायसव्व गमु दर गा, ससिसोमाकारा क्ता पियद सणा સુરવા એ વિશેઘણે અન્યત્ર કહેલા છે તેથી તેને જ અહી સ ગ્રડ છે અથ -
अहीणपचिदियसरीरा-सक्षण भने स्व३५या पर पाय दिया સહિત શરીરવાળી થતી અર્થાત જેની આખે વગેરે પચે ઈદ્રિયે પિતાપિતાને વિષય ગ્રતુણુ કરવામાં પૂર્ણ સાધન તો અથાગ્ય આકારવાળી હતી
लसणव जणगुणाववेया-रेनी द्वारा पिछा न्याय के रोने लक्ष! (यिन्स) કહે છે, અથવા હાથ વગેરેમાની વિદ્યા ધન જીવન આદિની રેખાઓને લક્ષણ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ६ शिवानन्दावर्णनम्
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वा, व्यज्यन्ते यैस्तानि व्यञ्जनानि= तिलकालकादीनि, गुणा - सौशील्य पातिप्रत्यादयो, - यद्वा पूर्वोक्तमकारैर्लक्षणैर्व्ययेन्ते इति लक्षणव्यञ्जनास्ते च ते गुणाः, अथवा प्रोक्तस्वरूपाणा लक्षणव्यञ्जनाना ये गुणास्तैः, उपपेता - समन्विता, अत्र 'उप' 'अप' इत्युपसर्गयो. शकवादित्वात्पररूपम् । हस्तस्थप्रधानरेग्वालक्षणानि यथा -
"जस्स व बहुरेहो, त्यो अहवा रहियसयलरेहो । सो अप्पाऊ अहणो, तहा दुही खणन्तु णिहि ॥१॥ एगेगगुलिमज्झे, होई पणवीस बच्छर आऊ । जाणह जीवियरेह, जा य कणिट्टगुलीमूला ||२|| करहाओ घणरेहा, अणिवत्ता तदेव पिउरेहा । एया सव्वा पुण्णा, हवति चे आउ गोत्त वण लाहो || ३ || इति |
एतच्छाया च- -" यस्य भवति हुरेखा, हस्तोऽथवा रहित सकलरेखः । सोऽल्पायुरधनस्तथा दुखी लक्षणननिर्दिष्ट ॥१॥
(प्रकटपन) होती है उन तिल और मस आदिको व्यञ्जन कहते है । सुशीलता पतिव्रता आदि गुण है । इन तीनोंसे जो स्त्री युक्त हो उसे 'लक्षणव्यञ्जनगुणोपेता' कहते है । या लक्षणोंके द्वारा व्यक्त होनेवाले गुणोंको लक्षणव्यञ्जनगुण कहते है, और इनसे युक्त स्त्री को 'लक्षणव्यञ्जनगुणोपेता' कहते है । अथवा पूर्वोक्त लक्षणो और व्यञ्जनोंके गुणोंको लक्षणत्रयञ्जन गुण कहते हैं, और इनसे युक्त स्त्री को 'लक्षणत्रयञ्जन गुणोपेता' कहते है ।
हाथ की प्रधान - प्रधान रेखाओं के लक्षण इस प्रकार है
जिसके हाथ में बहुत रेखाए हों या बिलकुल रेखाएँ न हों वह अल्प आयुवाला, निर्धन और दुःखी होता है, ऐसा लक्षणके जानने वालोने कहा है ॥१॥
કહે છે જેની દ્વારા અભિવ્યકિત (પ્રકટતા) થાય છે તે તલ અને મસા દિને વ્યાજન કહે કે સુશીલતા, પાતિત્રત્ય આદિ ગુણે છે એ ત્રણેથી યુકત જે સ્ત્રી હાય તેને ‘લક્ષણન્ય જનગુણપપેતા' કહે છે અથવા લક્ષÌદ્વારા વ્યકત થનારા ગુણ્ણાને લક્ષણ-વ્યંજન—ગ્ર કહે છે, અને તેથી યુકત સ્ત્રીને પપેતા' કહે છે અથવા પૂર્વાંત લક્ષણ અને વ્યંજનાના ગુણેને કહે છે અને તેથી ચુકત સ્ત્રીને ‘લક્ષણવ્ય જનગુણ્પપેતા’કહે છે હાથની મુખ્ય મુખ્ય રેખ એના લક્ષણ આ પ્રમાણે ઠે “જેના ખાયણા ઘણી રેખા હાય ચા ખીલકુલ રેખાએ નહાય તે અપઆયુવાળે, નિર્ધન અને દુખી થાય છે એમ લક્ષણુના જાણનારા વિદ્વાનોએ કહ્યુ છે
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१ बाहुल्कात्कर्मणि ल्युट् ।
લક્ષણવ્ય જનગુણાલક્ષણન્ય જનગુણુ
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उपासकदशाङ्गमुत्रे
}
एकैकालीमध्ये भरति पञ्चविंशतिवत्सरमायुः । जानीत जीवित रेखा, या कनिष्टलात् ॥२॥ करभाजन रेखा, मणिनन्धा, तथैव पिठरेखा । एताः सर्वाः पूर्णा भवन्ति चेदायुर्गोत्र धनलाभ ॥३॥ इति ।
'माने' - ति, मीयते - परिच्छिद्यते पदार्थोऽनेनेति मान, तुलाङ्गली प्रस्थादिना तोलन, यद्वा - जलादिपरिपूर्ण कुण्डादिप्रविष्टे पुरुषादौ यदा द्रोणपरिमित जलादि निरस्सरति तदा स पुरुषादिर्माननुच्यत तदेव, उन्मानम् ऊर्च मान, यद्वा अ
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जो रेखा कनिष्ट अगुलीके मलसे निकली है वह जीवन (आयु) की रेखा है। एक-एक अगुली में पच्चीस-पच्चीस वर्ष की आयु होती है- अर्थात् यदि आयुकी रेखा एक अगुली तक है तो पच्चीस वर्षकी आयु, दो अगुलियों तक हो तो पचास वर्षकी आयु, इसी हिसाब से आगे समझना चाहिए ||२||
१
धन की रेखा करभ (गुद्दे) से निकलती है, और मणिबन्धसे पितृरेखा फूटती है। यदि ये सब रेखाएँ पूर्ण हों तो आयु, गांत्र और धन का लाभ होता है ३||||"
द्वारा
माम्माणमाणपडिपुण्णसुजाय सव्चगसुदरगा— जिसके पदार्थ मापा जाय उसे मान कहते हैं अर्थात् तराजू, उगली, सेर, छुटाक आदिके द्वारा तोलना । अथवा कोई पुरुष आदि जलसे लबालब भरे हुए आदिमे घुसे और उसके घुसने से यदि एक द्रोण (परिमाण विशेष) जल बाहर निकले तो उस पुरुष आदिको मानवान् (मानसे युक्त) कहते
(૧) જે રેખા ટચલી આંગળીના મૂળથી નીકળે છે તે આયુષ્યની રેખા છે એક એક આગળીમા ૨૫-૨૫ વર્તુ આયુષ્ય હોય છે, અર્થાત્ જો આયુષરેખા એક આગળી સુધી હાય છે તેા પચીસ વર્ષોંનુ આયુષ્ય, બે ભાગની સુધી હોય તે પચાસ વર્ષનું આયુ ય એ હિસાબે આગળ સમજી धेषु (२) ધનની રેખા ૧કરભથી નીકળે છે અને મણિમ ધમાથી પિતૃરેખા ફૂટે છે જો એ બધી રેખાએ પૂર્ણ હાય તેા આયુષ્ય, ગેન અને ધનના લાભ થાય છે (ક)” माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायस न गमुदरगा- भेनी द्वारा ફાઈ પદાર્થોને માપવામા આવે તેને માન उहे छे, अर्थात- त्राधु, भागणी, शेर, नवटा, આદિ દ્વારા તેલવુ, અથવા કોઇ પુરૂષ આદિ જળથી ભરપૂર ભરેલા કુંડ આદિમ પૈસે અને તેના પેસવાથી ને એક દ્રોણુ (પરિમાણવશેષ) જળ મહાર નીકળો જાય તે એ પુરૂષ આદિને માનવાન (માનથી યુકત) કહે છે १. मणि वधसे लेकर कनिष्ठिका पर्यंत हाथ के बाह्य भाग को 'करभ' कहते हैं ॥ ૧ મણિમ ધપી લઇને ટચલી આગળી સુધીના હાથના બહુારના ભાગને કરલ કહે છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ ६ शिवानन्दावर्णनम्
भाररूपः परिमाणविशेष', प्रमाण सर्वतो मान, यद्वा निजाङ्गुलीभिरष्टोत्तरशताङ्गुलिपरिमितोद्राय', इत्थच-मान चोन्मान च प्रमाण चेत्येपा द्वन्द्वे मानोन्मानप्रमाणानि, तैः प्रतिपूर्णानि = सम्पन्नानि अत एव सुजातानि=यथोचितावयवसन्निवेशव न्ति, सर्वाणि=सम्न्ानि अङ्गानि = अज्यते - व्यज्यते प्राणी यैस्तानि मम्वकादारभ्य चरणान्तानि यस्मिंस्तत्, अत एव सुन्दरमद्ग वपुर्यस्या सा तथोक्ता, 'शशी ति शशो विद्यते लक्ष्मतयाऽस्येति शशी == चन्द्रस्तद्वत् = सौम्यो = रमणीय आकार = स्वरूप यस्या सा, गन्ता = नमनीया, 'प्रिये'- ति मिय=दर्श+जनमनोहार दर्शहैं । मान शब्द से यहा इसीका ग्रहण करना चाहिए । मानसे अधिकको, अथवा अर्ध भार ( एक परिमाण) को उन्मान कहते है | सर्वतोमानको अथवा अपनी उगलीसे एकमौ आठ उगली उचाईको प्रमाण कहते है। इन मान, उन्मान और प्रमाणसे युक्त होने के कारण यथायोग्य अवयवोंकी रचनावाला समस्त अग सुन्दर कहलाता है । ऐसा सुन्दर शरीर जिस स्त्री का हो उसे ' मनोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णसुजात सर्वागसुन्दरा' कहते है। जिसके द्वारा प्राणी व्यक्त होता हैकिसी शकल (आकृति) के रूप मे दिग्वाई देता है उसे अर्थात् पैरोंसे लेकर मस्तक तकके अवयवों को अग (शरीर) कहते है ।
ममिसोमाकारा - शा (खरगोश) जिसका चिन्ह हो उसे शशी (चन्द्रमा) कहते है । चन्द्रमाके समान रमणीय जिस स्त्री का स्वरूप हो उसे 'शशिसौम्याकारा' कहते है ।
८७
कता - जो कमनीय (सुन्दरी) हो उस स्त्री को 'कांता' कहते हैं । માન શબ્દથી અહી એ અથ ગ્રહણ કરવાને ઠે માનથી અધિક હાય તેને અથવા અભાર (એક પશ્મિાણ)ને ઉમાન કહે છે સતામાનને અથવા પેાતાની આગળી ૧૦૮ આગની ઉંચાઈને પ્રમાણુ કહે કે એ માન, ઉન્માન, અને પ્રમાણથી યુકત હોવાને કારણ યથાયેાગ્ય અવયવની રચનાવાળુ આખુ અગ સુદ કહેવા છે એવુ સુદ- શરીર જે સ્ત્રીનું હોડ તેને માનેમાન પ્રમાણપ્રતિપૂર્ણ સાતમર્વાંગસુદા' કહે છે જેની દ્વારા પ્રાણી વ્યકત થતા હાયકોઈ આકૃતિના ૩૫મા દેખાતા હોય તેને-અર્થાત્ પગથી માડીને મસ્તક સુધીના અવયવેાને અગ (શરીર) કહે છે
सिमाकारा शश (असधु) नेनु चिन्ह होय तेने शशी (यद्रमा) उडे છે ચદ્રમાના જેવુ રમણીય જે સ્ત્રીનુ સ્વરૂપ હોય તેને શશિસૌમ્યાકારા કહે છે क्ता જે કમનીય (સુ દરી) હોય તે સ્ત્રીને કાતા કહે છે
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उपासशास्त्र एकैकालीमध्ये, भाति पञ्चविंशतिवत्सरमायु.। जानीत जीवितरेग्वा, या च कनिष्टाइलीमूलात् ॥२॥ करभाद्धनरेखा, मणिपन्या, त्तथैव पिठरेखा । एताः सर्वाः पूर्णा भान्ति चेदायुर्गोत्र धनलाभः ॥३॥ इति । ___ 'माने'-ति, मीयते-परिच्छिद्यते पदार्थोऽनेनेति मान, तुलाङ्कली प्रस्थादिना तोलन, यद्वा-जलादिपरिपूर्णकुण्डादिप्रविष्टे पुरुपादौ यदा द्रोणपरिमित जलादि निरस्सरति तदा स पुरुषादिनियानुन्यत वदेव, उन्मानम् ऊमान, यहा अर्द्ध
जो रेखा कनिष्ट अगुलीके मूलसे निकली है वह जीवन (आयु) की रेखा है। एक-एक अगुली में पच्चीस-पच्चीस वर्ष की आयु होती है-अर्थात यदि आयुकी रेग्वा एक अगुली तक है तो पच्चीस वर्षका आयु, दो अगुलियों तक हो तो पचास वर्षकी आयु, इसी हिसाब से आगे समझना चाहिए ॥२॥
धन की रेखा करभ (गुद्दे) से निकलती है, और मणिबन्धसे पितरेखा फुटती है। यदि ये सब रेखाएँ पूर्ण हों तो आयु, गोत्र और धन का लाभ होता है ३॥"
माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वगसुदरगा-जिसके द्वारा पदार्थे मापा जाय उसे मान कहते है अर्थात् तराजू , उगली, सेर, छटाक आदिके द्वारा तोलना । अथवा कोई पुरुष आदि जलसे लबालब भरे हुए कुड आदिमे धुसे और उसके घुसनेसे यदि एम द्रोण (परिमाण विशेष) जल बाहर निकले तो उस पुरुष आदिको मानवान् (मानसे युक्त) कहत
(૧) જે રેખા ટચલી આંગળીના મૂળથી નીકળે છે તે આયુષ્યની રેખા છે એક-એક આગળીમ ૨૫-૨૫ વર્ષનું આયુષ્ય હેય છે, અર્થાત્ જ આયુષરેખા એક આગળી સુધી હોય છે તે પચીસ વર્ષનું આયુષ્ય, બે આંગળી સુધી હોય તે પચાસ વર્ષનું આયુ ચ એ હિસાબે આગળ સમજી લેવું (૨) * ધનની રેખા ૧કરભથી નીકળે છે અને મણિ ધમાથી પિતૃરેખા ફૂટે છે જે એ બધી રેખાઓ પૂર્ણ હોય તે આયુષ્ય, ગોત્ર અને ધનને લાભ થાય છે (૩)”
माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायसनगमुदरगानी द्वारा उ पहार्थन भाषवामा मात्र ते मान ले छे, मति-alv, भाजी, २२, नवटा, આદિ દ્વારા તેલવું, અથવા કે પુરૂષ આદિ જળથી ભરપૂર ભરેલા કુડ આદિમા પેસે અને તેને પસવાથી જે એક દ્રોણ (પરમાણુવિશેષ) જળ બહાર નીકળી જાય છે એ પુરૂષ આદિને માનવાનું (માનથી ચુકત) કહે છે
१.मणि वधसे लेकर कनिष्ठिका पर्यंत हायके वाद्य भागको 'करम' कहते हैं। ૧ મણિન ધથી લઇને ટચલી આંગળી સુધીના હાથના બહારના ભાગને કરમ કહે છે
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aartaalaat टीका अ १ सू ६ शिवानन्दावर्णनम्
भाररूपः परिमाणविशेषः, प्रमाण = सर्वतो मान, यद्वा निजाद्गुलीभिरष्टोत्तरशताङ्गुलिपरिमितोन्त्राय इत्य च मान चोन्मान च प्रमाण चेत्येपा द्वन्द्वे मानोन्मानप्रमाणानि, तै. प्रतिपूर्णानि =सम्पन्नानि अत एव सुजातानि=पथोचितावयवसन्निवेशवन्ति, सर्वाणि=सकलानि अङ्गानि = अज्यते - व्यज्यते प्राणी यैस्तानि मस्तकादारभ्य चरणान्तानि यस्मिंस्तत्, अत एव सुन्दरम वपुर्यस्याः सा तथोक्ता, 'शशी ति शशो विद्यते लक्ष्मतयाऽस्येति शशी == चन्द्रस्तद्वत् = सौम्यो = रमणीय आकार =सरूप यस्या सा, कान्ता = कमनीया, 'प्रिये' - ति प्रिय दर्शकजनमनोहाद दर्शहैं | मान शब्द से यहा इसीका ग्रहण करना चाहिए। मान से अधिकको, अथवा अर्ध भार ( एक परिमाण) को उन्मान कहते है | सर्वतोमानको अथवा अपनी उगलीसे एकसौ आठ उगली उचाईको प्रमाण कहते है । इन मान, उन्मान और प्रमाणसे युक्त होने के कारण यथायोग्य अवयवोकी रचनावाला समस्त अग सुन्दर कहलाता है । ऐसा सुन्दर शरीर जिस स्त्री का हो उसे ' मनोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णसुजातसर्वगसुन्दरा' कहते है । जिसके द्वारा प्राणी व्यक्त होता हैकिसी कल (आकृति) के रूप मे दिखाई देता है उसे अर्थात् पैरोसे लेकर मस्तक तकके अवयवों को अग (शरीर) कहते है ।
ससिसोमाकारा - शश (खरगोश) जिसका चिन्ह हो उसे शशी ( चन्द्रमा) कहते है । चन्द्रमाके समान रमणीय जिस स्त्री का स्वरूप हो उसे 'शशिसौम्याकारा' कहते है ।
८७
कता - जो कमनीय (सुन्दरी) हो उस स्त्री को 'कांता' कहते है । માન શબ્દથી અહી એ અથગ્રહણ કરવાના છે માનથી અધિક હાય તેને અથવા અભાર (એક પરિમાણુ)ને ઉમાન કહે છે સામાનને અથવા પેાતાની આગળી ૧૦૮ આગળી ઉંચાઈને પ્રમાણુ કહે છે એ भान, उन्मान, અને પ્રમાણથી યુકત હોવાને કારણ યથાયેાગ્ય અવયવેના રચનાવાળુ આખુ અગ સુઃ- કહેત્રાય છે એવુ સુદર શરીર જે સ્ત્રીનું હોય તેને ‘માનેાન્માન પ્રમાણપ્રતિપૂર્ણ સુજાતસર્વાંગસુધા' કહે છે જેની દ્વારા પ્રાણી વ્યકત થતા હાયકોઈ આકૃતિના રૂપમા દેખાતા હાય તેને-અર્થાત્ પગથી માડીને મસ્તક સુધીના અવયવાને અગ (શરીર) કહે છે
ससिसेमाकारा राश (सससु) नेनु थिन्ह होय तेने शशी (द्रमा) उडे છે ચદ્રમાના જેવુ રમણીય જે સ્ત્રીનુ સ્વરૂપ હોય તેને ર્શાશસૌમ્યાકારા કહ્યું છે
क्ता ने अमनीय (सु हरी) होय ते खीने आता हे छे
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८८
उपासकदशामने नमवलोकन यस्या सा प्रियदर्शना, यत्तु दर्शन रूपमिति व्याख्यात तत्पूर्वोत्तरी पातविशेषणपौनरुत्तयापत्या हेयमेव । यत एष रिशेपणपिशिष्टाऽत एक मूरूपासर्वातिशायिस्यलापण्याती, रूपेण लावण्यस्याप्युपलक्षितत्वाव आनन्दस्य 'गाये' ति-प्राग्व्याख्यातप्रकारस्य इटाअभिलपणीय मनोऽनुकलव्यवहीत्वाइलमा आनन्देन गाथापतिना साई-सह, अनुरक्ताम्सातिशयस्नेहपूर्णा, तदुक्तम्
"घरसम्मवावडा जा, सबमिणेह-पट्टणी दक्खा । छाया चित्र भत्तणुगा, अणुरना, सा समरखाया ||" इति । एतच्छाया च
"गृहकर्मव्यापृता या, सर्वस्नेह मवर्द्धनी दक्षा ।
छायेर भत्रनुगा अनुरक्ता सा समाख्याता ॥" दति । पियदसणा-जिसकी दृष्टि (चितवन-अवलोकन) दर्शकोंके मन दर्शन की व्याख्या 'रूप' करना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा करनेसे. पुनरुक्ति दोष आता है, अर्थात् आगेके विशेपणमें और इसमें कुछ भेद नहीं रहता।
सुरुवा-श्रेष्ठ रूप और लावण्य वालीको 'सुरूपा' कहते हैं। शिवानन्दा पूर्वोक्त समस्त प्रशस्त गुणोंवाली अत एव "सुरूपा' था
वह आनन्द की इच्छा के अनुकूल वर्ताव करती थी इसलिए उसकी वल्लभा (प्रिय) थी। वह आनन्द में अनुरक्त (अत्यन्तस्नेहवाली) थी।
कहा भी है-"जो स्त्री घरके काम-काज मे लगी रहती है, सबका स्नेह बढाने वाली होती है, चतुर होती है, परछाईकी नाई पतिकी अनुगामिनी होती है, वह 'अनुरक्ता' कही गई है ॥१॥"
पियदसणा-नुशन (43) नेनारायाना मनमा माया Sura કરતુ હોય તે સ્ત્રીને પ્રિયદર્શના કહે છે દર્શનની વ્યાખ્યા “રૂપે કરવી એ બરાબર નથી કારણ કે તેમ કરવાથી પુનરૂકિતદોષ આવે અર્થાત- આગળના વિશેષણમાં અને આમાં કોઈ ભેદ રહે નહિ
सुरूवा-०४ ३५ मने सापश्यपाणी श्रीन स३५॥ ४ शिवान પકત બધા પ્રશસ્ત ગુણવાળી હોઈ સુરૂપ હતી
તે આનદની ઈચ્છાને અનુકૂળ વર્તાવ કરતી હતી તેથી તેની વલ્લભા (યાદી) હતી તે આજ દમાં અનુરકત (અત્યત નેડવાળી) હતી કહ્યું છે કે
જે સ્ત્રી ઘરના કામકાજમાં લાગી રહે છે બધાને સનેહ વધારનારી હોય છે, ચતુર હોય છે, પડછાયાની પેઠે પતિની અનુગામિની હોય છે તેને અનુરકતા કહેવામાં આવે છે
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मेगारी टीका अ० १ सू० ६ शिवानन्दावर्णनम्
अविरक्ता=प्रातिकृल्प गतेऽपि पत्यौ स्वयं सदा प्रसन्नवदना तदयुक्तम्"पडिऊलेवि य भत्तरि, विचित्र रुद्वा ण जा हवड जाउ । मिडभासिणी य णिच, सा अविरतति णिदिवा ॥ " इति । एतच्छाया च
८९
“प्रतिकूलेऽपि च भर्त्तरि, किञ्चिदपि रुष्टा न या भवति या तु । मृदुभाषिणी च नित्य, सा अविरक्तेति निर्दिष्टा ॥ " इति । इष्टा = इन्द्रियमन. प्रमोद कर्त्री, शब्द यावत्पञ्चविधानिति - शब्द रूप गन्ध रसस्पर्शात्मकान् पञ्चविधान=पश्च विधा=पारा येषा तार, मानुष्यान् = मनुष्याणामिमे मानुष्यास्तान् मनुप्यसम्बन्धिन इति यावत् कामभोगान कम्पन्ते-अभिलच्यन्त इति कामा'=शब्दरूपलक्षणा, सुज्यन्ते सेव्यन्तेऽर्थात्मुग्वानुभवविपयीकि= यन्त इति भोगा., कामाच भोगाथ कामभोगा, यद्वा काम इच्छा तदनुकूला भोगा' कामभोगाः = यथेच्छ भोगास्तान् प्रति प्रत्येक प्रतिदिन वा अनुभवन्ती = उपभुञ्जाना विहरति ॥ ६ ॥
मूलम् - तस्स ण वाणिय- गामस्स वहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए एत्थ ण कोल्लाए नाम सन्निवेसे होत्या । रिद्ध-त्थिमियजाव
वह अविरक्त थी- अर्थात् पति यदि प्रतिकूल होजाय तो भी मुह नही फुलाती थी- प्रसन्नमुख रहती थी। वह भी कहा है- 'पडिकले वि य' इत्यादि ।
'पति के प्रतिकूल होजाने पर भी जो स्त्री भी जरा भी रोप नही करती और सदा मधुर वाणी वोलती है वह 'अविरक्ता' कही गई है |
शिवानन्दा अनुरक्त थी अविरक्त थी और इन्द्रिय-मन को आनन्द देने वाली थी । वह शब्द रूप गन्ध रस और स्पर्श, इन पाचों मनुष्यसन्धी भोगोंको भोगती हुई विचरती ( रहती थी ||६||
તે અવિરત હતી અર્થાત પતિ જો કદાચ પ્રતિકૂળ થઇ જાય તે પણ ન્હો थडावती नहि भने सहा प्रसन्नमुख रहेती हृती उछु छे ठे-'पढिकले विय' त्याहि ‘પતિ પ્રતિકૂળ થાય તે પણ જે સ્ત્રી કદી જરા પણ રેષ કરતી નથી અને સદા મધુર વાણી મેલે છે તેને અવિરકતા કહે છે
અને સદા મધુર પ્રિય વાણી ખેલે છે તેને વિરકતા કહે છે” (૨) "શિવાનન્દા અનુરકત હતી, વિરકત હતી અને પ્રક્રિય-મન ને આનદ આપનારી સ્ત્રી હતી તે શબ્દ, રૂપ, ગધ રસ અને સ્પર્શ, એ પાચે મનુષ્ચ સબધી ભેગેને ભાગવતી વિચરતા હતી (૬)
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उपासादशाङ्गमूत्रे नमवलोकन यस्या सामियदर्शना, यत्तु दर्शन रूपमिति व्याख्यात तत्पूर्वोत्तरो पात्तविशेषणपौनरुत्तयापत्या हेयमेर । यत एर विशेषणविशिष्टाऽत एर मुरूपा सर्वातिशायिस्यलारण्याती, रूपेण लावण्यस्याप्युपलक्षितत्वात आनन्दस्य 'गाये ति-माग्व्याख्यातमकारस्य इटा-अभिलपणीय मनोऽनुहलव्याहीत्वावलभा आनन्देन गायापतिना साई-सह, अनुरक्ता-सातिशयस्नेहपूर्णा, तदुक्तम्-~~
"घरसम्मवावडा जा, सबसिणेह-प्पणी दक्खा । छाया चित्र भत्तणुगा, अणुरत्ता, सा समक्खाया ॥” इति । एतच्छाया च
" गृहर्मव्यापता या, सर्वस्नेह प्रवर्द्धनी दक्षा ।
छायेर भत्रनुगा अनुरक्ता सा समाख्याता ॥" दति । पियदसणा-जिसकी दृष्टि (चितवन-अवलोकन) दर्शकोंके मन दर्शन की व्याख्या 'रूप' करना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा करनेसे. पुनरुक्ति दोष आता है, अर्थात् आगेके विठोपणमें और इसमें कुछ भेद नहीं रहता।
सुरुवा-श्रेष्ठ रूप और लावण्य वालीको 'सुरूपा' कहते हैं। शिवानन्दा पूर्वोक्त समस्त प्रशस्त गुणोंवाली अत एव 'सुरूपा' थी ___ बह आनन्द की इच्छा के अनुकूल वर्ताव करती थी इसलिए उसकी वल्लभा (प्रिय) थी। वह आनन्द में अनुरक्त (अत्यन्तस्नेहवाली) थी।
कहा भी है-"जो स्त्री घरके काम-काज में लगी रहती है, सबका स्नेह बढाने चालो होती है, चतुर होती है, परछाईकी नाई पतिकी अनुगामिनी होती है, वह 'अनुरक्ता' कही गई है ॥१॥"
पियदसणारे शन (वन) नारायाना मनमा RAISIra કરતુ હોય તે સ્ત્રીને પ્રિયદર્શના કહે છે દર્શનની વ્યાખ્યા “રૂપ” કરવી એ બરાબર નથી કારણ કે તેમ કરવાથી પુનરૂકિતદોષ આવે અર્થાત- આગળના વિશેષમાં અને ખામાં કાઈ ભેદ રહે નહિ
सुरूवा-४ ३६ अनावश्यवाणी श्रीन स३५॥ ४ छ शिवाना પૂર્વોક્ત બધા પ્રશસ્ત ગુણોવાળી સુરૂપી હતી
તે આન દની ઈચ્છાને અનુકૂળ વર્તાવ કરતી હતી તેથી તેની વલભા (પ્યારી હતી તે આન દમા અનુરકત (અત્યત રનેડવાળી) હતી કહ્યું છે કે
- જે સ્ત્રી ઘરના કામકાજમાં લાગી રહે છે બધાને સનેહ વધારનારી હોય છે, ચતુર હોમ છે, પડછાયાની પેઠે પતિની અનુગામિની હોય છે તેને અનુરકતા કહેવામાં આવે છે”
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ स्.७-८ कोल्लाकसन्निवेशवर्णनम् ९१ इति संवतन्त्रसम्मतत्वात् , ततच्च तस्मात्खलु वाणिजग्रामाद बहि पूर्वक्रान्ते उत्तर पौरस्त्ये दिग्भागे' इत्येव समन्वितोऽर्थः, खलु-लोकमसिद्धः, प्रसिद्ध व्यक्तसुधर्मणोर्गणधरयोर्जन्मस्थानत्वाद्वीरजिनेन्द्रेणेहस्थस्यैव बहुलब्राह्मणस्य गृहात्मथमभिक्षोपलपेश्व, कोल्लाको नाम कोल्लाक इत्येतनामकः सनिवेशः सन्निविशन्ति निवास कुर्वन्ति जना यस्मिन् स ग्रामविशेष इति यावत् , अभवत् आसीत् । ऋद्धस्तिमितयावदिति अत्र यावच्छन्दवलेन'ऋद्धस्तिमितसमृद्धे'-त्याधौपपातिकसूत्रोक्तः क्रमोऽबसेयः, इयास्तु विशेष:-यत्तत्र नगरीवर्णनतात्पर्येण स्त्रीलिङ्गतयोक्तानि विशे.
आए हुए में । इदम्, एतत् और अदम्' शब्द प्रक्रान्त, प्रसिद्ध और - अनुभूत अर्थ के वाचक हैं, इस बातको सभी ग्रन्थ मानते हैं। इसलिए वाणिजग्राम नगरसे यहार प्रक्रान्तअर्थात् पूर्वप्रकरण निर्दिष्ट ईशान कोणमें लोकप्रसिद्ध कोल्लाक नामक सनिवेश (ग्राम) था। खलु का अर्थ है 'लोकप्रसिद्ध। कोल्लाक सन्निवेश लोकप्रसिद्ध इसलिए था कि यही व्यक्त और सुधर्मा गणधर का जन्म स्थान था, और भगवान् महावीर स्वामी को इसीमें रहनेवाले यहुल ब्राह्मणके घरसे पहले-पहल भिक्षालाभ हुआ था। 'जाव' शब्द 'ऋद्धसे, स्तिमित और समृद्ध' इत्यादिका औपपातिक सूत्र में कहाआ क्रम यहा समझना चाहिए। विशेषता केवल इतनीसी है कि वहा नगरी का वर्णन होने से इन विशेपणोंका स्त्रीलिंगमें વાચક છે, એ વાતને બધા પ્રથ૪ માને છે તેથી વાણિજ ગામ નગરની બહાર, પ્રકાન અર્થાત્ પૂર્વ પ્રકરણ નિર્દિષ્ટ ઈશાન કોણમા લેકપ્રસિદ્ધ કેટલાક નામે એક સુંદર સન્નિવેશ (ગ્રામ) હતે લન્ડ ને અર્થ કપ્રસિદ્ધ છે કે લાક સન્નિવેશ લેકપ્રસિદ્ધ. એટલા માટે હતું કે એ વ્યકત સ્વામી અને સુધર્મા સ્વામી ગણધરનું જન્મસ્થાન હતું, અને ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીને, ત્યાં રહેનારા બહલ બ્રાઘાણના ઘેરથી પહેલવહેલે ભિક્ષાલાભ થયે હતે “જવ’ શબ્દથી “ઝ, સ્તિમિત અને સમૃદ્ધ ઈત્યાનિ ઔપપાતિક સમા કહેલો ક્રમ અહી સમજ આમા વિશેષતા કેવળ એટલી જ છે કે ત્ય નગરીનું વર્ણન હોવાથી એ વિશેષ નારીજાતિમાં ઉપયોગ કરવામાં આવ્યું
१-सर्व-' एतच जिज्ञामुभि' काव्यप्रकाशस्य सप्तमे समुल्लासे, साहित्यदर्पणस्य च सप्तमे परिच्छेदे, रसगङ्गाधरादौ च मनोहत्याऽवलोकनीयम् ।।
१ जिज्ञासुओं को यह विपय काव्यप्रकाश के सातवें समुल्लासमें साहित्यदर्पणके सातवें परिच्छेदमें रसगगाधर आदि ग्रन्थोमें सावधानीसे देखना चाहिए। * જિજ્ઞાસુઓએ આ વિષય કાવ્યપ્રકાશના સાતમા સમુલ્લાસમા, સાહિત્યર્પણના સાતમા પરિચ્છે મા અને રસગગાધર આદિ ગ્રંથમાં સાવધાનતાથી જોઈ લેવો
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पासादीए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे ॥७॥ तत्थ णं कोलाए सन्निवेसे आणदस्स गाहावइस्स बहुए मित्तणाइणियगसयणसवधिपरिजणे परिवसइ, अड़े-जाव अपरिभूए ॥८॥
छाया तस्मात्खलु पाणिजग्रामाद पहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागेऽत्र खल कोलाको नाम सनिवेशोऽभवत् । बरुद्ध स्तिमित यावत्प्रासादीयोदर्शनीयोऽभिरूप प्रतिरूपः ॥७॥ तत्र खलु कोल्लाके सनिवेशे आनन्दस्य गाथापतेवहुमो मित्र ज्ञाति निजक स्वजन सन्धिपरिजनः परिवसति आढयो यावदपरिभूतः ||८||
टीका-'तस्मा-'दित्यारभ्य 'दिग्भागे-इत्यन्तो व्याख्यातपूर्वः, अत्र अस्मिन __ काले, यद्वा पूर्वपक्रान्ते इत्यर्थः, इदमेतदद:-शब्दा प्रक्रान्तमसिद्धानुभूतार्थका
(मूलका अर्थ) तस्स ण वाणियगामस्स' इत्यादि ।७।८।। उस वाणिजग्राम नगरके बाहर उत्तर पूर्वके दिग्भाग (ईशान कोण) में कोल्लाक नामक सनिवेश था। वह ऋद्ध, स्तिमित, यावत प्रासादीय. दर्शनीय आभास
और प्रतिरूपया। उस कोल्लाक सन्निवेश में आनन्द गाथापतिके बहुतस मित्र, ज्ञाति (जाति), निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजन निवासकरते थे। वे आढय यावत् अपरिभूत थे ॥ ७८॥
(टीकाका अर्थ) 'तस्स' से लेकर 'दिसीभाए' तक पदों काव्याख्यान पहले किया जा चुका है । पत्थ' (अत्र)का अर्थ है 'इस समय में अथवा 'पूर्व प्रकरणस
મૂળને અર્થ तस्स ण वाणिगामस्स या६ (७-८) તે વાણિજ ગ્રામ નગરની બહાર ઉત્તર-પૂર્વના દિભાગ (ઈશાન કોણ)માં કેટલાક નામે સન્નિવેશ હ તે અદ્ધ, તિમિત, યાવત પ્રાસાદીય, દર્શનીય અભિરૂપ, અને પ્રતિરૂપ-ઘણજ સુંદર હતું તે કેટલાક સન્નિવેશમા આનદ ગાથાપતિના ઘણા મિત્રે જ્ઞાતિ (જાતિ), નિજક, સ્વજન, સધી અને પરિજને નિવાસ ४२ता ता, तेयो गाढ५ यत् अपरिभूत ता (७-८)
ટીકાને અર્થ _ 'तस्स' थी भाडीने 'दिसीमा सुधाना पहानु व्यायान पडसा रामा मायु छ एत्य (मत्र)ना मर्थ छ 'मा समयमा' अथ 'पू' या मावामा, इदम्, एतत् भने अदम् श६ Reird, प्रसिद्ध भने अनुभूत अर्थना
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ मृ७-८ कोल्लाकसन्निवेशवर्णनम्
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मित्र=मग्वा सर्वदा निर्व्यभिचारिहितोपदेष्टेत्यर्थ, ज्ञातिः=समानाचारविचारसयुक्तस्वजातिवर्ग, निजक: = मातापितापुत्रात्रादि स्वजनः = भ्रातृ-पितृव्य-मातुलादि, सम्बन्धी=श्ववर जामातृ श्यालादिः, परिजनोऽमात्य भूत्य दास दास्यादिः मित्रादिपरिजनान्तस्य कर्मारय, जात्यभिप्रायेण चैकवचनम् | मित्रादीना रमणमुक्तश्च
"मित्त सयेगव, हियमुनसिड प्पिय च त्रितणोड । तृल्लायारविपारी, सजाइग्गो य सम्मया णाई || १ || माया पिउ पुताई, णियगो, सयगो पिउच भायाई । सधी ससुरार्ट, दासाई, परिजणी ॥ ॥” इति ।
एतच्च्याच - "मित्र सदैक्रूप हितमुपदिशति प्रिय च वितनोति । तुल्या चारविचारी, स्वजातिवर्गश्च सम्मता ज्ञातिः ॥१॥ माता- पितृ पुनादिर्निजकः, स्व जनः पितृव्यभ्रात्रादिः । सवन्धी श्वशुराविर्दासादि परिजनो ज्ञेय ||२||" इति ॥८॥
•
सदा सर्वदा एकान्त हितका उपदेश देनेवाले सग्वाको मित्र कहते है । समान आचार विचार वाले जाति समूहको ज्ञाति कहते है, माता, पिता, पुत्र, कलत्र प्रभृतिको निजक कहते हैं । माई, काका, मामा, आदिको स्वजन कहते है । ससुर, जमाई (दामाद), माले, बहनोई आदिको सम्वन्धी कहते है । मन्त्री, नौकर, दास, दासी आदिको परिजन कहते है । मित्र जादिके लक्षणों के विषय में और भी कहा है
"मित्र वह है जो सदा हितकी बात बनाना है और सदा हित ही करना है । ममान आचार विचार वाले स्वजातिवर्गको ज्ञाति, माता पिता पुत्र आदिको निजक, काका भाई आदिको स्वजन, ससुर आदि - को सम्बन्धी और दाम आदिको परिजन कहते हैं ॥१-२॥"
મદા-સર્વાંદા એટાહિતના ઉપદેશ આપનાર સખને મિત્ર હે છે સમાન માચા-વિચામ્બાળા તિ–સમૂહને જ્ઞાતિ કહે છે માતા, પિતા પુત્ર કલન્ન વગેન निगड आहे हे, लाई अा, भाभा, महिने स्वन आहे हे असून, भाई भाषा, મનેવી વગેરેને ન બધી કહે છે મંત્રી ને-૨, દામ, દામી વગેરેને જિન કહે છે મિત્ર અાદિના લક્ષણે, વિષે કહ્યુ છે કે—
મિત્ર એ છે જે જે સદા હિતની વાત પતાવે છે અને નદા તિ જ રે છે નમાન આચાવિચારવાળા સ્વજાતિવર્ગને જ્ઞાતિ, માતા પિતા પુત્ર પુત્રી આદિને નિજક, કાકા ભાઈ આદિને સ્વજન, સમા સાળા આદિને સબંધી અને દામ આદિને પરિજન કહે છે (૧-૨)
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उपासकदशास्त्रे पणानीह सनिवेशवर्णनतात्पर्येण पुंलिङ्गतया योज्यानीति । तत्र-ऋदान्धनभवन पौरजनैः सातिशय वृद्धिमुपगतः, स्तिमितः चाट-तस्कर दुर्घत्त महासाहसिक डमरादिसमुत्थमभयसम्बन्ध शून्यः, समृद्ध:-धनधान्यादिसम्पन्नः, शिष्टानि विशेषणानि वोपपातिकसूत्रव्याख्यातो व्याख्येयार्थानि। मासादीयामसाटो-मन प्रसन्नता तस्मै हितः, यवा प्रसादश्चित्तानन्दः प्रयोजनमस्य स तथा, दर्शनीय दर्शनाय हिता, यहा द्रष्ट योग्यः, अभिरूप अभिमत रूप यस्य स मनोज्ञ इत्यर्थः, अतएव प्रति रूपा भति-विशिष्टमसाधारणमिति यावत् , रूप यस्य सः ॥७॥
'तत्र खलु कोल्लाके सन्निवेशे आनन्दस्य गाथापते-रित्यन्तः पाठो निगद व्याख्यात । 'यधि-ति-चहरेवहुका, स्वार्थ कामचुर इत्यर्थ , 'मित्रे'-ति व्यवहार किया गया है पर यहां सन्निवेशका वर्णन है अतः पुलिंग समझना चाहिए। धन जन भवन आदिसे जो अत्यन्त घृद्धिको प्राप्त हो उसे ऋद्ध कहते है। चाट (कपटी), चोर दुराचारी, महासाहसिक
और डमर (राजविप्लव) आदिके भयसे जो सर्वथा रहित हो उस स्तिमित करते हैं। जो धन धान्यसे युक्त हो उसे समृद्ध कहते है ! शेष विशेषणोंकी व्याख्या औपपातिक सूत्रकी टीकासे जाननी चाहिए। जिससे मनको प्रसन्नता प्राप्त हो उसे प्रासादीय कहते है। जिस देखनेमे आनन्द आता हो-जो देखने योग्य हो उसे दर्शनीय कहत है। जो मनोज्ञ हो उसे अभिरूप और जो एकदम असाधारण--- अनुपम सुन्दर हो उस प्रतिरूप कहते हैं । तात्पर्य यह है कि कोल्लाक सनिवेश उस समय, क्या धन जनमे, क्या सदाचारमें, क्या सुन्दरता मे खूब ही बढ़ा-चढ़ा था ॥७॥ છે, પણ અહી સનિનાનું વર્ણન છે તેથી ન જાતિ સમજવાની છે ઘન જન ભવન આદિથી જે અત્યંત વૃદ્ધિને પ્રાપ્ત હોય તેને શ્રદ્ધા કહે છે કપટી, ચોર, દુરાચારી, દુષ્ટ હિંસક મહાસાહસિક અને ડમર-બડ (રાજવિપ્લવ) આદિના ભયથી જે સર્વથા રહિત હોય તેને તિમિત કહે છે બાકીના વિશેષણોની વ્યાખ્યા ઔપપાતિક સત્રની પીયુષવર્ષિણ ટીકામાથી જાણી લેવી, જેથી મનને પ્રમ નતા પ્રાપ્ત થાય, તેને પ્રાસાદીય કહે છે જેને જોવામાં આન દ મળે ને જોવા ગ્યા હોય તેને દર્શનીય કહે છે જે મને હોય તેને અભિરૂપ અને જે એકદમ અસાધારણ--અનુપમ સુંદર હોય તેને પ્રતિરૂપ કહે છે તાત્પર્ય એ છે કે કેટલાક સન્નિવેશ એ સમયે, ધનન્જનમાં સદાચારમા, સુદરતામાં ખૂબ જ આગળ વધે તે (૭)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ९ परिपवर्णनम्
त्पदेन स्थानविशेष एव पर्यवसीयते, तन्निर्गमन चाऽजीवत्वेन निष्क्रियत्वादत्यन्तमसम्भवि तथाप्याधाराधेययो- (स्थान-स्थानिनो ) - रमेदोपचारात्परिपत्स्थिठाना सर्वेपा निर्गमनतात्पर्येणैतादृशप्रयोगाणा लोक्तोऽपि प्रसिद्धेरदोपस्तथा च भवति वक्ता- 'परिषदेय वार्त्ताऽनुमोदिते' - त्यादि । इय च परिपत्निमकारा - 'ज्ञा, अज्ञा, दुर्विदग्या चे' - ति, तत्र कुत्सितमताऽस्पृष्टचित्ता गुण दोपविवेसीसन्निभा च सामान्यस्यापि वक्तुर्वक्तव्यसारमन्तः प्रविश्याशेपतो ग्रहीतु समर्येति यावत्, एता दृशी ज्ञा, ईपज्ज्ञानपर्ववती ज्ञापरिपत्तो विभिन्नस्वभावा किन्तु सुखोपदेशनीया यद्यपि किसी स्थानका ही बोध होता है और स्थान अजीब होनेके कारण निष्क्रिय है अत एव वह निकल नहीं सकता, तथापि यहाँ स्थान और स्थान में रहने वाले अर्थात् आधार और आवेयमें उपचार से अभेद है इसलिए परिषद में उपस्थित सब व्यक्तियोंके निकलने का अभिप्राय है । लोकमे भी स्थानको परिषद् नहीं कहते किन्तु स्थानविशेषमें इकट्ठे हुए व्यक्तिओंको परिषद् कहते है, इसलिए यह कथन निर्दोष है। लोकमें कहते है- ' परिपने इस प्रस्तावका अनुमोदन किया है' आदि |
परिषद् तीन तरह की है-- (१) ज्ञा, (२) अजा (३) दुर्विदुग्धा । जिसके चित्तमें निन्दनीय मतका स्पर्श तक न हो, जो गुण-दोषका विचार करने में हसिनी जैसी हो, और साधारण वक्ताके भी वक्तव्य (कथन) के सार को गंभीर विचार करके पूरी तरह ग्रहण करनेमें समर्थ हो वह जा (समझदार) परिषद् कहलाती हैं । जो थोडे ज्ञानથાય, છે અને સ્થાન અજીવ હાવાથી નિષ્ક્રિય છે, તેથી તે નીકળી શકતુ નથી, તે પણ અહીં સ્થાન અને સ્થાનમા હેનારા મ્ર્થાત્ આધાર આધેયમા ઉપચારથી અભેદ છે, તેથી પરિષદ્મા એકઠી થએલી બધી વ્યકિતઓના નીકળવાને અભિપ્રાય છે લેકામા પણુ સ્થાનને પમ્પિંદું કહેવામા આવતી નથી, પરન્તુ સ્થાનવિશેષમા એકઠી થયેલી વ્યકિતઓન પરિષદ્ કહે છે તેથી આ કચન નિર્દોષ છે લેકામા કહેવાય છે કે “પરિષદે આ ઠરાવને અનુમેદન આપ્યુ છે” વગેરે. परिषदत्र प्रारणी हे (१) ज्ञा, (२) अन्ना, (3) दुर्विदग्धा જેના ચિત્તમા નિંદનીય મતને સ્પર્શી સુદ્ધા ન હોય, જે ગુણ-દ્વેષને વિચાર કરવામા હમી જેવી ય અને માધા ણ વકત્તાના પણ કથનના સારને ગંભીર વિચાર કરીને પૂરી રીતે ગ્રહણુ કરવામાં સમય હોય તે જ્ઞા (સમજદાર)
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उपासकशा
मूलम्
-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए । परिसा निग्गया । कूणिए राया जहा तहा जियसत निंग्गच्छइ । निग्गच्छित्ता जाव पज्जुवासइ ॥ ९ ॥
छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरो यावत्सममटत । परिपन्निर्गता, कृणिको राजा यथा तथा जितशत्रुनिर्गच्छति । निर्गत्य यावत् पर्युपास्ते ॥ ९ ॥
टीका- ' तस्मि ' निति- 'नस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान महापीरो यावन्मत्रसृत. ' एपा व्याख्या भामहोध्या । 'परी'- ति परि सर्वतोभावेन सीदन्ति - उपविशन्ति गच्छन्ति वा जना यस्या सा परिपत्= सभा, यद्यपि परिष कोल्लाक सन्निवेशमें आनन्द गाधापति के बहुतसे मित्र आदि निवास करते थे । वे सब आढच दीप्त आदि पूर्वोक्त विशेषणों से विशिष्ट थे ||८||
मूल का अर्थ 'तेण कालेन' इत्यादि ॥९॥
उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर पधारे । परिषद् (सभा) निकली, राजा कृणिक की तरह जितशत्रु राजा निकला | निकल कर यावत् पर्युपासना की ॥ ९ ॥
(टीकाका अर्थ) 'समणे भगव महावीरे जाव समोसरिए' इन पदोंका अर्थ पहले की तरह समझना चाहिए । मनुष्य चारों ओर से जिसमें उप स्थित होते हैं या जाते हैं उसे परिषत् (सभा) कहते हैं । 'परिषद्' शब्द से १- (पूर्वोक्त) देखो आनन्दके विशेषण |
કેટલાક સન્નિવેશમા આનદ ગાથાતિના ઘણા મિત્રા વગેરે વસતા હતા તે બધા આઢય ડીસ આદિ પૂકિત વિશેષણૈાથી વિશિષ્ટ હતા (૮) भूजना अर्थ-तेण कालेन छत्याहि (E)
એ કાળ એ સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પધાર્યાં પરિષદ્ (સભા) નીકળી રાજા કૂણિકની પેઠે જિતશત્રુ રાજા નીકળ્યા નીકળીને યાવત પર્યું પાસના કરી (૯) ટીકાના અ 'समणे भगव महावोरे जाव समासरिए मे સમજવા જેમા ચારે બાજુએથી મનુષ્યે તેને પરિષત (સભા) કહે છે ‘પરિષદ્' * જીએ આનના વિશેષજ્ઞે
पहोना અ પહેલાની પેઠે એકઠા થાય છે અથવા જાય છે શબ્દથી જો કે કોઈ સ્થાનના જ
માધ
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अगाध सञ्जीवनी टीका अ. १ सू० ९ परिपद्वर्णनम्
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प्रोक्ता त्रिमाराऽप्येषा पुनर्द्विविधा - लौकिकी लोकोत्तरा चेति, तत्र लौकिकीराष्ट्र देश सङ्घ-जाति कुल नगर-ग्रामादिहिताहित चिन्तनार्थमायोजिता, लोकोत्तरा तु केवल श्रुत चारित्रादिधर्मश्रवणमननोगेता, तदप्युक्तम्-
"जा रट्ठाह - हियह, विहिया सा लोईया मया परिसा । लोगुत्तरिया उ पुणो, सुयचारित्ताइ चचिया हवइ ||" इति । एतच्छाया च-
१
" या राष्ट्रदिहितार्थे विहिता सा लौकिकी मता परिषत् । कोकोत्तरातु पुनः श्रुतचारित्रादिचर्चिता भवति ॥ " इति । अत्र च लोकोत्तराया एव परिपदो ग्रहण प्रकरणादिति विस्तरभयाद्विरम्यते । है । अज्ञा परिषद् भी प्रायः ऐसी होती हैं, पर दुर्विदग्धा परिषद् लाख उपाय करने पर भी नही समझती ॥१॥"
यह उल्लिखित तीन प्रकारकी परिषद् भी प्रत्येक दो प्रकार की है -- (१) लौकिकी और (२) लोकोत्तरा, जिस परिषद्की योजना राष्ट्र, देश (प्रान्त), सघ, जाति, कुल, नगर, ग्राम आदिके हित-अहित पर विचार करनेके लिए की गई हो वह लौकिकी परिषद् है । जिसमें केवल श्रुतधर्म और चारित्र-धर्म का श्रवण वा मनन होता हो वह लोकोत्तर परिषद् है । सो भी कहा है-
"जो राष्ट्र आदिके हित के लिए की गई हो वह परिषद् लौकिकी मानी गई ह और जो श्रुत चरित्र धर्मके निमित्त हो वह लोकोत्तरा है || १||" प्रकरणका अनुसरण करते हुए यहा लोकोत्तर परिषद् ग्रहण करना चाहिए । विस्तार के डर से इस विषयको समाप्त करते है । પરિષદ્ પશુ પ્રાય અવીજ હોય હૈ, પરંતુ ક્રુવિન્ધા પરિષદ્ લાખ ઉપાય કર્યો પણ समन्ती नथी” (१)
એ પ્રમાણે ત્રણ પ્રકારની પરિષદ્ પણ પુન પ્રત્યેક એ પ્રકારની છે –(૧) લૌકિકી અને (૨) લત્તા, જે પરિષની ચૈાજના राष्ट्र, देश (प्रात), संध જાતિ, કુલ, નગર, ગામ અાદિના હિત—અહિત ન ખાધી વિચાર કરવા માટે કરવામા આવી હોય તે લૌકિકી પરિષદ ધ્ જેમા કેવળ श्रुतव અને ચારિત્ર્યધર્મનુ શ્રવણુ યા મનન થતુ હોય તે લેાકેાત્તા પરિષદ છે કહ્યુ છે કે-“જે રાષ્ટ્રઆદિના હિતને માટે કરવામા આવી હોય, તે પરિષદ લૌકિકી મનાય છે અને જે શ્રુત-ચરિત્ર ધર્મ ને માટે પરિષદ હોય તે લેત્તા મનાય છે” (૧) પ્રકરણનું અનુસરણ કરતા અહી ते! अत्तर-परिषड़ ગ્રહમ કરવી જોઇએ વિસ્તારલયથા આ વિષયને સારાસ કરીએ છીએ
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उपासकदशावत्रे अज्ञा, मिथ्याऽहकारगर्वितायतस्ततः परिमितानि पदयाश्यान्यादायमादायमपि विज्ञम्मन्या विज्ञसमाजर्जिताऽपि निखपा लोके निजयोग्यता ख्यापयितु विस्कृत्य सर्वतोऽग्रवादिनी सर्वेष्वपि विपयेपु पल्लामात्रग्राहिणी किमपि मनाक पृष्टा पवन परिपूर्णा भनेव निःश्वसन्ती समुचितमपि परोपदेशमभिमोनादनास्वादयन्ती व दुर्विदग्धा, तदुक्तम्--
"अकिलेस 'उवदिस्सा निकवडा हवइ जाणिया परिमा। अण्णावि एवमेवा,-णुवदिस्सा दुचिअट्टा उ ॥१॥" इति । एतच्छाया च---
" अक्लेशमुपदेश्या, निष्कपटा भवति ज्ञा परिपत् ।
अज्ञाऽप्येवमेवानुपदेश्या दुर्विदग्धा तु ॥ १॥" इति । वाली हो, ज्ञा परिपत् से भिन्न स्वभाव वाली किन्तु सहज ही उपदेश मान लेने वाली हो वह अज्ञा परिषत् है। जो मिथ्या अहकारसे गवित हो, इधर- उधर के थोडे-बहुत पद-चाक्योको रटकर अपनका बृहस्पतिका अवतार समझती हो, विद्वानों द्वारा तिरस्कृत होने पर भा जिसे लज्जा न आति हो, ससार में अपनी योग्यताका ढिढोरा पाटनक लिए सबसे पहले चिल्ला-चिल्ला कर बोलती हो, प्रत्येक विषय में पल्लवमा-ग्राहिणी (ऊपरी पडिताईवाली) हो, कोई जरासी बात पूछ तो हवासे भरी हुई भस्त्रा (धुवण) की भाति सासें लेने लगे, घमडका मारी दूसरे के हितकारी उपदेशको भी ग्रहण न करती हो वह दुर्विदग्धा परिषत् है । कहा भी है--- - "ज्ञा परिषद् सहज ही उपदेश मानने वाली और निष्कपट होती પરિષદ કહેવાય છે કે થોડા જ્ઞાન વાળી હોય, જ્ઞા પરિવથી ભિન્ન સ્વભાવવાળી પરંતુ સહજમા ઉપદેશ માની લે તેવી હોય, તે અને પરિષદ કહેવાય છે જે મિઆ અહકારથી ગાવત હોય, અહી તહીના થોડા–ઘણા પદ લેક વાકયને બોલી બતાવીને પિતાને હસ્પતિને અવતાર સમજતી હોય, વિદ્વાનેથી તિરસ્કૃત થયા છતા પણ જેને જરા પણ લાજ ન આવતી હોય, જગતમાં પિતાની યોગ્યતાને ઢઢરે પીટાવવાને માટે સોની પહેલા બૂમાબૂમ કરીને બોલતી હોય, પ્રત્યેક વિષયમાં પડતવમાત્રગ્રહિણી (ઉપર-ઉપરની પડિતાઇવાળી) હોય, કઈ ઘેડીક વાત પૂછે તે હવાથી ભરેલી ધમણની પેઠે શ્વાસ લેવા લાગી જાય, ઘમડની મારી બીજાઓના. હિતકારી ઉપદેશને પણ ગ્રહણ ન કરે, તે દુર્વિદગ્ધા પરિષદ કહેવાય છે કહ્યું છે કે –
“જ્ઞા પરિષદુ સહજમાં ઉપદેશ માનનારી અને નિષ્કપટી હોય છે અજ્ઞા
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अगरधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ९ अभिगमनवर्णनम्
लामालामभृतीना व्युत्सर्जनया = परित्यागेन, अचित्ताना= वस्त्राभरणादीनाम्, अव्युत्सर्जनया=अपरित्यागेन, 'एके' ति - एकमात्र मर्यादस्यूत यच्छाटक तस्य य उत्तरासद्ग=भापानिरवद्यत्वार्थ मुखोपरि स्थापन, तस्य करणमाचरण तेन, चक्षुः स्पर्शे = भगवद्दर्शने जाते, सति सप्तमीयम्, अञ्जलिपग्रहेण = अञ्जलिवन्धनेन, मनसः = चित्तम्य एकत्रीकरणेन स्थिरीकरणेन येनैव = यस्मिन्नेत्र 'दिग्भागे' इति शेषः, _ श्रमणो भगवान महावीरः, अत्र 'अस्तीत्यध्याहार्यम्, तेनैव = तस्मिन्नेव दिग्भागे उपागच्छति = सभीपमायाति, उपागत्य = समीपमागत्य त्रिकृत्वः = त्रिवारम् ओदक्षिण = निजमुखस्य दक्षिणभागतः सम्पुटितमञ्जलिमारभ्य प्रदक्षिण= परिभ्रान्तपरिवर्तित - करोति, कृत्वा = तथा मदक्षिणीकृत्य वन्दते = स्तौति स्तुतिश्च"अद्य प्रभो । त्रिभुवनेश ! मदीयमेतद्, यात जनुः सफलता तव दर्शनेन ।
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आदि) द्रव्योको त्याग कर (२) अचित्त (वस्त्र आभूषण आदि) द्रव्यों को न त्याग कर, (३) एकशाटिक (विगर साधेका पूरा एक वस्त्र) का उत्तरासग करके अर्थात् भाषाकी निरवद्यता के लिए एक मात्र वस्त्र को मुख पर रख कर, (४) भगवान् के दृष्टिगोचर होते ही अजली बाध कर, (५) मन को स्थिर करके । जिस ओर श्रमण भगवान् महावीर थे उस ओर गया । वहा जाकर तीन बार अपने मुखके दाहिने भागसे आरभ करके प्रदिक्षणाएँ की । प्रदक्षिाएँ करके स्तुति की, नमस्कार किया । राजा जितशत्रुने श्रमण भगवान् महावीर की इस प्रकार स्तुति की थी
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द्रव्याने त्यलने, (२) सक्ति ( वस्त्र आभूषण माहि) द्रव्याने त्यन्या विना, (२) એકાટિક ( વગર સાધાનું માત્ર એક વસ્ત્ર )ના ઉત્તરામ ગ કરીને, અત્યંત નિરવદ્યતાને માટે એક માત્ર વસ્ત્રને સુખપર રાખીને (૪) ભગવાન્ દૃષ્ટિએ પડતા જ અલિ આધીને (હાથ જોડીને), (૫) મનને સ્થિર કરીને, જે ખાજુએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર હતા તે બાજુએ તે ગયે ત્યા જઈને ત્રણ વાર પેાતાના મુખના જમણાભાગથી આર ભીને પ્રદક્ષિણા કરી પ્રદક્ષિણાએ કરીને સ્તુતિ કરી, નમસ્કાર કર્યાં રાજા જિતશત્રુએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની આ પ્રમાણે સ્તુતિ કરી હતી
१ अत्र मर्यादार्थकोऽभिवि यर्थको ना आडू, तद्योगे च द्वितीया, तेन दक्षिण-दक्षिणभाग मर्यादी कृत्याभिव्याप्य वेत्यर्थस्तत्फलितमे वाऽऽह - 'निजे ' - त्यादिना ।
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उपासकदशास्त्रे
निर्गता = निरगच्छत् । कृणिको राजा यथेति यथा तथा शब्दाचीपम्यवाचिनो, तेन कृषिको राजेत्र जितशत्रू निर्गच्छतीति वाक्यार्थसमन्त्रयो विप्रेयः । निर्गत्य यारदिति, अन गावच्छन्देन - "समण भगव महावीर पचविद्देण अभिगमेण अभि गच्छति, तजहा - अचित्ताण दव्वाण विसरणयाए, अचिताण दव्वाण अत्रिउसरणयाए, एगसाडियउत्तरा सगकरणेण, चरसुप्फा से अजल्पिग्गहेण, मणसोएगत्ती कर पेण, जेणेव समणे भगन महावीरे तेणे उपागच्छति, उवागच्छित्ता समण भगव महावीर तिक्सुतो आयाहिण पयाहिण करेति करिता वर णमसर, वटित्ता नम् सित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स गश्वासने पाइदूरे समाणे णमसमाणे पलिउडे अभिमुद्दे णिएण" इत्येतानि सगृह्यन्ते । एतच्छाया च - " श्रमण भगवन्त महावीर पश्चविधेनाभिगभेनाभिगच्छति, तद्यथा सचित्ताना द्रव्याणा व्युत्सर्जनया, अचित्तग्ना द्रव्याणामच्युत्सर्जनया, एकशाटको तरासङ्ग करणेन, चक्षुःस्पर्शेऽञ्जलिमग्रहेण, मनस एकत्रीकरणेन, येनैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तेनैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमण भगवन्त महावीर निकृत्व आदक्षिण मदक्षिण करोति कृत्वा वदते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य नात्यासने नातिदूरे शुश्रूषमाणो नमस्यन् प्राञ्जलिपुटोऽभिमुखो विनयेन" इति एषा च 'पर्युपास्ते' इत्यग्रेतनेन सम्वन्धः, तत्र 'श्रमण भगवन्त महावीर' - मिति पदार्थ. प्रागेव व्याख्यात', कर्मत्व त्वयेन्या अभिगमनक्रियाया योगेन, 'पचे'-ति- पञ्च विधाकारा यस्य स पञ्चविधस्तेन, अभिगमेन-मर्यादया अभिगच्छति=अभि मुख्येनोपसर्पति, तद्यथा तदेव पञ्चविधमभिगम दर्शयति- सचिताना = ताम्बू वह परिषद् निकली। जैसे कूणिक राजा निकला था वैसेहो, अर्थात् कूणिक राजा जिस राजसी ठाट-बाट से भगवान्को बदन करने के लिए निकला उसी तरह जितशत्रु राजा मी निकला | 'निग्गच्छित्ता के आगे 'जाव' शब्द मे उससे इतना सग्रह होता है--" (वर) श्रमण भगवान् महावीरके निकट पाच प्रकार का अभिगम (मर्यादा) करके गया, वह इस प्रकार --- (१) सचिन्त (पान, इलायची, माला એ પરિષદ્ નીકળી જેવી રીતે અદ્યાત્ જેવા ઠાઠમાઠથી કૂણિક મહારાજા ભગવાનને વદન કરવા જવાને માટે નીકળ્યે તેવા જ ઠાઠમાઠથી જિનચક્ષુ રાજા या नात्यो 'निग्र्माच्छिता' शब्हनी पछी ने जावे શબ્દ છે તેથી આટલેા સ ગ્રહ થાય છે -‘(તે) શ્રવણુ ભગવાન્ મહાવીરની પાસે પાચ પ્રકારના અભિગમ (મર્યાદા) हरीने गये, ते भा प्रभारी - ( 3 ) सचित्त (पान धतायभी, भाषा भाहि )
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मगार सञ्जीवनी टीका अ. १ सू० ९ जितशत्रुकृत स्तुति
अद्यापि तावक पदाम्बुजपोतमेत
मासाय हृद्यमखिलेश 1 भवाम्बुराशिम् । गोवत्स पादमिव कर्तुमह समर्थो,
नाथ ! त्वदीयकरुणाविनिवृत्तकर्मा ||३||" इति । इत्युक्तप्रकारा । नमस्यति = प्रणमति, वन्दित्वेत्यादयः स्पष्टार्थाः, नात्यासन्न = नातिनिकटे, नातिदूरे = नात्यन्त विप्रकृष्टे, अवग्रहभूमिं परिहाय ममुचिते स्थाने स्थित इत्यर्थः, अत्यास नातिदूरयोरुभयोरप्याशातनादिहेतुत्वादिति भाव । शुश्रूपमाणः=प्रवचन श्रोतुमिच्छन्, नमस्यन् = मुहुर्मुहुः प्रणमन् प्राञ्जलिपुटः = प्रकृष्ट प्रबद्ध वाऽञ्जलिपुट यस्य सः, यद्वा-अञ्जलिपुट प्रगतः - सर्वथा सविधि बद्धाञ्जलि - रित्यर्थः, अभिमुख. = सम्मुखः, विनयेन=नम्रतया पर्युपास्ते= यथाविधि सेवते ।
तेरे चरण-जहाज, आज पानेसे ईश !' बछडेके खुरके, समान है भव-वारीश । कर्मोंको मैं शीघ्र, दूर अथ कर पाऊँगा,
मुक्ति-लाभ कर पुन, लौट कर क्यों आऊँगा १ ॥ बाथ ! मनोहर पद-युगल, तत्र तक नित मनमें रहै ।
जब तक इनका दास यह, परम मुक्ति पदको गहें ॥" || ३ || इति स्तुति और नमस्कार करके श्रमण भगवान् महावीरसे न अधिक नजदीक और न अधिक दूर शुश्रूषा ( प्रवचन सुनने की अजलि बाधे हुए सामने
इच्छा) करता हुआ, नमस्कार करता हुआ, विनय पूर्वक पर्युपासना (सेवा) करने लगा ।
१०१.
તારા ચરણજહાજ હું પામ્યા હુ આ ટાણે આ ભવસાગર માનુ નાનુ ખામેચિયુ જાણે કર્માંને હું શીઘ્ર વિદ્યારી નાખીશ આજે, મુકિત પામીને પછી ફરી હુ આવુ શાને નાથ મનેાહર પ–યુગલ, ત્યા સુધી મુજ મનમા રહે,
જ્યા સુધી આ દીન દાસ એ પરમ મુકિતપદને પ્રહે ॥ ૩ ॥
સ્તુતિ અને નમસ્કાર કરીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરથીન અહુ નજીક અને બહુ દૂર શ્રુષા ( પ્રવચન સાંભળવાની ઈચ્છા ) કન્તા, નમસ્કાર डरता, અજલિ માધીને સામે વિનયપૂર્વક પડ્યું પાસના (સેવા) કરવા લાગ્યા
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उपासक दशाहे
धन्योऽस्मि देव ! भवदाननचन्द्रनिर्यदाश्चर्यकारि वचनामृतपानभाग यः ॥ १ ॥ विन्दन् प्रभो ! भवदुदारपदारविन्द, - निःष्यन्दमानमकरन्दचय मनोऽलिः आनन्दघृन्दमधुना मम याति यत्तद्,
वस्तु न शक्तिरथ कोऽस्तु तव स्तवस्तु ||२|| "तीन लोक के नाथ, देव ! दर्शन पा तेरा,
आज हुआ यह जन्म, सफल भगवान् ! है मेरा । आस्य सुधानिधि - निर्गत, पावन परम मनोहर,
विस्मयकर उपदेश, -सुधा पीनेका अवसर ॥ नाथ ! आज मुझको मिला, इसीलिए मैं धन्य हूँ । भाग्यवान कृतकृत्य मैं, और अहीन अनन्य हूँ ॥ १ ॥ तच उदार पादार, विन्दके रजको स्वामी !
लेने में मम मन, - मिलिन्द है अतिशय कामी । उससे जो आनन्द मुझे मिलता है भारी,
उसके वर्णन में भी, मेरी वाणी हारी ॥ नाथ ! वाक असमर्थ है, उसके वर्णनमें कहो । किस प्रकार स्तुति करू ? नही सूझता कुछ अहो ॥ २ ॥
હું મિલેકના નાથ । પામીને દર્શન તા૩, સફળ થયુ भगवान्, આજ જીવતર મારે, તવ મુખ ક્ષીરસમુદ્ર થકી શુભ પરમ મનહર, વિસ્મયકર ઉપદેશ-સુધા પીવાના અવસર, મળ્યે ન્યાજ મુને પ્રભુ 1 મનુ જીવન ફળ્યા મનેરથ માહરા ભાગ્યવાન હું અનન્ય ક તમ ઉદાર પાદારવિંદની રજ હે સ્વામી ! ગ્રહવાને મમ મન-મધુપ છે અતિશય કામી, જે નિરવધિ આન દ મળે છે મુજને તેથી,
धन्य छु,
વન તેનું શકુ કરી નહી આ સુખેથી नाथ ! वैजरी वाली ते, वर्षाचा अभूभर्थ छे, નવ સૂઝે કયમ હું મ્તવુ, સ્વામી પરમ સમથને ॥ ૨ ॥
॥१॥
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ९ अभिगमविचारः
१०३
1
,
चित्येन दुस्साहसाऽऽचरणरूपत्वात् दृश्यते हि लोकेऽपि यद्वस्तु यदन्तिकमप्यानेतु न कल्पते तत्तस्मै साक्षात्सुतराम कल्प्य नहि शास्त्रद्भितत्वेन दूरीकृतमद्य सेवन केनचिद्भक्त्योपहृत मद्यमनवद्यमिद मदर्थमिति कश्चिदपि विपश्चित्सम्मनुते । ननु'यथा समवसरणे देवाः पुष्पाणि वर्षन्ति तथा वयमपि भगवत. कल्पितमूर्तेरुपरि पुष्पादीन्युक्ल्पयामः " इति चेतदयुक्त देवकर्त्तकपुष्पवर्पणादेरचित्तत्व योगेन दृष्टान्तवैपम्यात् । अथ वयमपि न सचित्तानि किन्त्वचित्तान्येव द्रव्याणि भगवते भक्तिभावोद्रे केणोपहराम इति ब्रू वे, तर्हि यूयमेव पृष्टा निष्पक्षपात क्षणमाकुञ्चि
व्यवहारमे भी यही यात देखी जाती है कि जो वस्तु जिसके पास भी लाना अकल्प्य है वह उसके लिए साक्षात् तो स्वय ही अकल्पनीय है । जिसने शरानको शास्त्र से निषिद्ध समझ कर आज त्याग कर दिया हो वही किसी भक्त द्वारा, भक्तिपूर्वक लाई हुई शरान को निर्दोष समझ कर स्वीकार कर ले, एसा कोई विवेकी नही है ।
शका - जैसे समवसरण में देवता पुष्पों की वर्षा करते हैं, वैसे हम भी भगवान् की कल्पित मूर्ति पर पुष्प आदि चढाते हैं ।
समाधान- यह कथन अनुचित है । देवताओं द्वारा की जानेवाली पुष्पवर्षा अचित्त होने के कारण आपका उदाहरण विषम है ।
शका -- हम लोग भी सचित्त नहीं किन्तु अचित्त द्रव्य भगवान्को भक्ति भावके साथ अर्पण करें तो क्या हरज है ?
समाधान -- यदि आप यह कहते हैं तो पक्षपातकी बात को छोड़
પડે છે કે જે વસ્તુ જેની પાસે લાવવી અકલ્પ્ય છે, તે વસ્તુ તેને પેાતાને માટે કેવળ તે પનીયજ છે જેણે દારૂને શાસ્ત્રથી નિષિદ્ધ સમજીને ત્યજી દીધા હાય તે કાઇ ભકતે ભક્તિપૂર્વક તેની પાસે આવેલા દારૂ નિર્દોષ સમજીને સ્વીકારી લે, એવા ત્યાગી કેઇ વિવેકી હાઈ શકે નહિ
શકા—જેવી રીતે સમવસરણમા દેવતાએ પુષ્પની વૃષ્ટિ કરે છે, તેવી રીતે અમે પણ ભગવાનની કલ્પિત મૂર્તિ પર પુષ્પ ઢિ ચડાવીએ છીએ
સમાધાન—એ કથન અનુચિત છે. દેવતાઓએ કરેલી પુષ્પવૃષ્ટિ અચિત્ત હવાને કારણે આપનુ ઉદાહરણ વિષમ છે
શકા—અમે પણ સચિત્ત નહિ તો ચિત્ત દ્રવ્ય ભગવાનને ભકિત ભાવથી અપભુ કરીએ તો શે. વાધે છે ?
સમાધાન—જે આપ એમ કહે છે તે પક્ષપાતની વાત છેડીને, આખે
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उपासकदवार अभिगमविचारः। एवेन प्रघट्टकसमुदायेन वीतरागस्य अरूपिणो भगवतोईतो मूर्ति परिकल्प्य तदुद्देशेन साक्षाद्भगवत्मतिपिद्ध-सचित्तपुष्पजलेलालवलीताम्बूलदलफलमालाद्राक्षेप धूपादिसमर्पण दगपास्तम्, विहरमाणतावस्थायामपि यस्य केवलमभिमुग्वमानि गमिपन् राजाऽपि नितशत्रुः पञ्चविधाभिगमसपादनेन निरवशप सचित्तद्रव्याणि व्युत्ससर्ज, तस्य परित्यक्तसमस्तविषयासहास्य प्रवचनपीयूषाऽऽसाराभिवर्षणेन भविजीवान मत्यपि सचिनवस्तूनि त्यागिसदेशमानेतु प्रतिषेधतः सिद्धगति गतस्य वीतरागस्य कल्पिताया मृतरुपरि साक्षात्सचित्तवस्तुजातोपढौकनस्याऽत्यन्तमनों
'अभिगमन' पर विचार इस सग्रह से वीतराग अरूपी अर्हन्त भगवान् की मूर्ति बनाकर उस (भगवान्) के लिए साक्षात् भगवान द्वारा निषिद्ध सचित्त पुष्प, जल, इलायची, लवली (लताविशेष), ताम्बूल, पत्ता फल, माला, दाख, ईख, धूप आदि समर्पण करना तो स्वय ही निषिद्ध हो गया। जय भगवान् स्वय विहार कर रहे थे, उस समय भी उनके सामन जाते हुए राजा जितशत्र ने पाच प्रकार की मर्यादा धारण करक समस्त सचित्त द्रव्योका त्याग कर दिया था, क्योंकि सय विषयाक त्यागी भगवान्ने उपदेश रूपी पीयूष (अमृत) की मूसल धार वर्षा करके भव्य जीवोंको भी सचित्त वस्तुएँ त्यागी जनोंके पास लानेका भी निषेध किया था, फिर मुक्तिको प्राप्त वीतरागकी कल्पित मूर्ति पर साक्षात् सचित्त पदार्थ चढाना अति साहसका और अनुचित काम है। लोक
___ निगम' ५२ पियार આ સ ગડથી વીતરાગ અરૂપી અહંન્ત ભગવાનની મૂર્તિ બનાવીને તે ( ભગવાન )ને માટે સાક્ષાત ભગવાન દ્વારા નિષિદ્ધ, સચિન, પુષ્પ, જળ, ઈલાययी, BER (ताविप), ताल, पान, ३१, भाषा, प्राक्ष, ५५ माहि समर्पण કરવા તે સ્વયે જ નિષિદ્ધ થ5 ગયું જ્યારે ભગવાન પોતે વિહાર કરી રહ્યા હતા, ત્યારે પણ તેમની સામે જતા રાજા જિતશત્રુએ પાચ પ્રકારની મર્યાદા ધારણ કરીને બધા સચિત્ત દ્રવ્યનો ત્યાગ કર્યો હતે, કારણ કે સર્વ વિષયોના ત્યાગી ભગવાને ઉપદેશરૂપી અમૃતની મૂશળધાર વૃદ્ધિ કરીને ભવ્ય જીને પણ સચિત્ત વસ્તુઓ, ત્યાગી જનેની પાસે લાવવાનો નિષેધ કર્યો હતો, તે પછી મુક્તિ પામેલા વીતરાગની કપિત મૂર્તિ પર સાક્ષાત સચિત્ત પદાર્થો ચઢાવવા એ અતિસાહસનું અને અનુચિત કામ છે લેકવ્યવહારમાં પણ એમ જ માલુમ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सु १० आनन्दगाथापतिवर्णनम्
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मूल्म्—तए णं से आणदे गाहावर्ड इमीसे कहाए लट्टे समाणे, “एव खलु समणे जाव विहरड, तं महाफलं गच्छामि गं जाव पज्जुवासामि" एव सपेहेइ, संपेहित्ता पहाए, सुद्धप्पावे साइ मंगलाई वत्थाइ पवरपरिहिए अप्पमहग्घाभरणालकियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमड, पडिनिक्खमित्ता सकोरेंटमलदामेण छत्तेण धरिजमाणेण मणुस्वग्गुरापरिक्खिते पायविहारचाणं वाणियगामं नयरं मज्झं-मज्ज्ञेण निगच्छड, निगच्छित्ता जेणामेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिण करेइ, करिता वदइ नमसइ जाव पज्जुवासइ ॥ १० ॥
छाया-ततः खलु स आनन्दो गाथापतिरस्या कथायालार्थ' सन, - " एव खलु श्रमणो यात्रद्विहरति, तन्महत्फल गच्छामि खलु यावत् पर्युपासे' एव सप्रेक्षते,
" जो परमत्यागी वीतरागकी सावद्य पूजा करता है ।
वह अविवेकी बहुत काल तक ससार में भटकता है ॥१॥" अतः कपोलकल्पित इस अत्यन्त निस्सार कथन को रहने दीजिए ||०||९||
मूल का अर्थ- 'तर ण से आणदे' इत्यादि ॥१०॥
जन आनन्द गायापतिको ज्ञात हुआ कि राजा जितशत्रु भगवान् की पर्युपासना कर रहा है तब उसने इस बात को समझ कर सोचाश्रमण भगवान् महावीर यावत् विचर रहे हैं अर्थात् ममवसृत “ જે પરમત્યાગી વાનગની સાવદ્ય પૂજા કરે છે તે વિવેકી ઘણા કાલ સુધી નનામા ભટકે છે”
માટે તે અત્યત નિ સાર અને કપેાલકલ્પિત કથનને રહેવા દેં (સૂ ) भूझना अर्थ - तए ण से आगदे त्याहि (१०)
જ્યારે આનદ ગચાપતિને ખબર પડી કે નાજા જિતશત્રુ ભગવાનની પ પાસના કરી રહ્યો છે, ત્યારે તણે મનમા એ પ્રમાણેં વિચાર્યું શ્રમણ ભગવાન મહાવીર
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। १०४
__ ' ' उपासना तपक्ष्मचक्षुप मेक्षायोगेन सूक्ष्मेसिम्यासमीम -यदि कथनोपासको भक्तिरसा प्लुतोऽमलेनाऽचित्तेन जलेन स्नपयित्वा अचित्तगन्धाऽऽदिमियुष्मान समर्चयेत् । स्वयमभ्याहत्याचित्तानि भक्तपानादीनि वायुप्मन्यमुपकल्पयेत्तकिमेवविधया तदीयभक्या यूय (त्यागिनः ) प्रसत्स्यथे ? ति, नो चेद्वैपम्ये बीजाभाव', यूय चैत्र विधानि सचित्तान्यचित्तानि पा द्रव्याणि स्वार्थमाल्पितानि मन्यध्वे, यश्च सिद्ध गतिं गतः परमत्यागी वीतरागो मगवास्तदर्य च कल्पितान्यनुमोदयध्वे, इत्यहो' युष्माक व्यामोहविज़म्भणम् । उक्तश्च
"जो सावज सपञ्च, कुणइ महाचाइवीयरागस्स।
सो भम्मइ ससारे, दीह काल जहा जाओ ॥१॥" इति। एतच्छाया च
"य. सावधसपयों करोति महात्यागिवीतरागस्य ।
स भ्राम्यति ससारे, दीर्घ काल यथा जात.॥१॥” इति। तत्कृत कपोलकल्पितानल्पासारजल्पितेन ॥९॥ कर, नेत्रोंको जरा देर मूद कर, बुद्धिमत्ताके माथ सूक्ष्म-दृष्टिसे विचार कीजिए यदि कोई भक्त, भक्तिके रस मे डूबा हुआ, निर्मल अचित्त जल से स्नान कराकर आपको अचित्त गन्ध आदि से पूजे, और स्वय लाए हुए अचित्त भक्त-पान आदि देवे तो क्या उस भक्तकी इस प्रकारका भक्ति से आप (त्यागी) प्रसन्न होंगे? यदि कहो-नही, तो फिर यह दोनों बातें समान ही हुई। आप इस प्रकारके सचित्त और अचित्त पदाथोंका अपने लिये अकल्पनीय मानते हैं, और जो भगवान मुक्ति लाभ कर चुके है। परम त्यागी है, वीतराग है, उनके लिए उन पदायाँकी कल्पनीय विषयक अनुमोदना करते हो ! वाह ! आपकी इस व्यामोह-विडम्बना को। कहा भी हैજરા બંધ કરીને, બુદ્ધિમત્તાની સાથે સૂફમદષ્ટિથી વિચાર કરે કે-જે કોઇ ભકત ભકિત રસમાં ડૂબી જઈને નિર્મળ અચિત્ત જળથી સ્નાન કરાવીને આપને આંચ ગધ આદિથી પૂજે, અને તે આણેલા અચિત્ત ભેજન–પાન આદિ આપે, તો શું એ ભક્તની એ પ્રકારની ભકિતથી આપ (ત્યાગી) પ્રસન્ન થશે? જે ના કહે, તો પછી એ બેઉ વાત સરખી જ થઈ આપ આ પ્રકારના સચિત અને અચિત્ત પદાર્થોને પિતાને માટે કલ્પનીય માનો છે, અને જે ભગવાન મુકિતલાભ કરી ગયા છે, પરમત્યાગી છે, વીતરાગ છે, એવા ભગવાનને માટે તે પદાર્થોની કવાડપનીયવિષયક અનુમોના शो! पाह! मापना मे यामाह-पनाने धन्य छे, छ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ.१ म् १० समवसरणवार्ता अस्या दूतिपलाशे भगवत्समवसरणस्वरूपाया कथाया-वार्तायाम् 'इमीसे कहाए' इत्यत्र 'द्वितीया-तृतीययो सप्तमी' (हैम०८।३।१३५) इतिमूत्रबलात्तृतीयास्थाने सप्तमी, तेन 'अनया कथया' इत्यर्थः, लब्धार्थः लब्धः दूतादिमुखात्माप्त: अर्थ: भगवदागमनरूपः आशयो येन तादृश. सन् एवम्-इत्य सपेक्षते पर्यालोचयति, एव कथम् १ इति जिज्ञासायामाह-'एव खलु' इति, एव-वक्ष्यमाणरीत्या, खल-निश्चयेन श्रमणः, व्याख्यातः श्रमण शब्दार्थः, 'याव'-दिति-अन 'जाव' शब्देन भगव महावीरे आइगरे तित्थयरे' इत्यारभ्य-'सपाविउकामे इत्यन्तानि, पुवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगाम दुइज्ज माणे इह हबमागए इह सपत्ते इह समोसढे इहेव वाणियगामस्स नयरस्स वाहिदुइपलामए चेइए अहापडिरूव उग्गह उगिण्हित्ता सजमेण तवमा अप्पाण भावेमाणे' इत्यन्तानि च विशेपणानि सगृह्यन्ते, तत्र 'सपाविउकामे' इत्यन्ताना छाया न्यारया च श्रमणावश्यफमूत्रस्य मुनीतोपणी टीकाया मत्कृताया द्रष्टव्या, इतरेपा छाया च-'पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्राम द्रान् इह हव्यमागतः इह समाप्तः, इह ममवस्तः, इहैव वाणिजग्रामे नगरे बहितिपलाशके चैत्ये यथामतिरूपमवग्रहम वगृह्य सयमेन तपसा आत्मान भावयन् ' इति व्याख्या तु-पूर्वानुपूर्वी यथाक्रम,
यद्वा पूर्वपा-पूर्वतीर्थकराणा या आनुपूर्वी परिपाटी मर्यादेति यावत् , ता चरन्__ आचरन् परिपालयन्नित्यर्थ , ग्रामानुग्रामम्-एक ग्राममनुपश्चाद् यो ग्रामस्तम्,
अर्थादनुक्रमेण ग्रामादामान्तर द्रवन-विहरन् , इह-अत्र, हव्यम् अस्मात् , 'हव्य' मित्यय शब्दोऽद्यापि मगधे 'अपस्मा'-दर्थे प्रसिद्ध', आगत.समन्ताद्विहत्योपस्थित , न केवलमिहागत एवं किन्तु इह समाप्तः यथावसरमवस्थातुमिमामेव नग बात का आशय दूत आदि से समझ कर वह सा विचार करने लगा____ "इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर, आदिकर-धर्मकी आदि करने वाले, तिर्थकर-साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूप चार तीर्थ के करने वाले, इत्यादि यावत् सिद्धिगति नामके स्थानको प्राप्त होनेवाले पूर्व तीर्थङ्करोकी परिपाटीका परिपालन करते हुए क्रमश एकके बाद दूसरे ग्राममें विचरते हुए अकस्मात् ही इस नगरके बाहर दूतिपलाश चैत्य દત આદિથી સમજીને તે એમ વિચાર કરવા લાગ્યું કે “આ પ્રમાણે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર, આદિકર—ધર્મની આદિ કરનારા, તીર્થ કર–સાધુસાધ્વી શ્રાવક શ્રાવિકારૂપ તીર્થના કરનારા, ઈત્યાદિ યાવત સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત થનારા, પૂર્વ તીર્થકરની પરિપાટીનું પરિપાલન કરતા, ક્રમશ એક પછી બીજા ગામમાં વિચરતા, અકસમાત્ જ આ નગરની બહાર હતિ પલાશ ત્યમાં પધાર્યા છે, એટલું જ નહિ, પણ ત્યાં તેઓશ્રી બિરાજ્યા પણ
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उपासकदशानने समेक्ष्य स्नातः शुद्धात्मा वेश्यानि (शुन्द्रमवेश्यानि) माल्यानि वस्त्राणि मवरपरिहितः अल्पमहाCऽऽभरणालढतशरीरः स्वकतो गृहत्त' पविनिष्क्रामति मतिनिष्क्रम्य सकोरण्टमाल्यदाम्ना उत्रेण भियमाणेन मनुष्यवागुरापरिक्षिप्त. पादविहारचारेण पाणिजग्राम नगर मध्य मयेन निर्गच्छति, निगत्य यौव तिपलाश चैत्य, यमेव अमणो भगवान महावीरस्तत्रयोपागच्छति, उपागत्य निकृत्व आदक्षिण पदक्षिण करोति, कृत्वा चन्दते नमस्यति यावत्पर्युपासते १०
टीका-'तप ण से' इत्यादि । ततः 'जितशवणाराज्ञा भगवत्पर्युपासन क्रियते' इति वा श्रवणानन्तर, ग्वलुप्रसिद्ध, सा-पूविनितम्वरूप:आनन्दो गाथापति', हुए हैं, यह महान फल-प्रद है, अत. मैं जाऊँ यावत् पर्युपासना (सेवा) करू । इस प्रकार विचार पर स्नान करके, शुद्ध आर सभाके योग्य मागलिक वस्त्र धारण करके, अल्प किन्तु बहुमूल्य भूपणासे शरीरको भूपित करके अपने घरसे निकला। निकल कर कोरट (हजारा)के पुप्पोंकी मालासे युक्त, दास आदि द्वारा लगाए हुए छत्रसे सहित, जनसमुदायसे घिरा हुआ वह (आनन्द) पदल चलते-चलते चणिजग्रामके बीचो-बीच होकर निकला । निकल कर जहाँ दूतिपलाश चैत्य था और (उसमें) जहा श्रमण भगवान महावार थे वही आया । आकर तीन बार अपने मुखके दाहिने भागसे आरभ करके प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना नमस्कार यावत् पर्युपासना (सेवा) की॥१०॥
टीकाका अर्थ-जय आनन्द गाथापतिने राजा जितशत्रुकी पयु पासना करनेकी बात सुनी तब दृतिपलाश चैत्यमे भगवानके पधारनेकी યાવત વિચરી હ્યા છે, અર્થાત સમવસ્ત્રત થયા છે, એ મહાન ફળપ્રદ છે, માટે હું જઉ યાવત પપાસના (સેવા) કરૂ? એ પ્રમાણે વિચારીને, સ્નાન કરીને, શુદ્ધ અને સભાને 3 માંગલિક વસ્ત્ર ધારણ કરીને, અટલ પરન્તુ મૂ યવાન ભૂષણેથી શરીરને ભૂષિત કરીને પિતાના ઘેરથી નીકળે નીકળીને કુર ટના પુપની માળાથી યુકત, દાસ આદિએ ધરેલા છ સહિત જનસમુદાયથી ઘેરાએલો આનદ પગે ચાલતા ચાલતે વાણિજગામની વચ્ચોવચ થઈને નીકળે નીકળીને જ્યાં પ્રતિપલાશ મૈત્ય હતુ અને તેમાં જય શ્રમણ ભગવાન મહાવીર હતા ત્યા તે આવ્યે આવીને ત્રણવાર પિતાના મુખના જમણા ભાગથી આર ભીને પ્રદક્ષિણાપૂર્વક વદના નમસ્કાર યાવત પર્ય પાસના
*'' ટીકાને અર્થ-જ્યારે આન દ ગાથાપતિએ રાજા જિનશતની પર્યું પાસના કરવાની વાત સાંભળી તાર દૂતિપલાશ ચંત્યમાં ભગવાન પધાર્યા હોવાની વાતને આશય
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(सेवा) 30 (10)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० १० आनन्दगाथापतेर्विचारवर्णनम् १०९ शब्देन-"समण भगव महावीर वदामि नमसामि सरकारेमि सम्मामि क्लाणं मगल देघय चेडय विणएण" इत्येषा सग्रहो बोद्धव्यः, तेपा च 'पन्जुवासामि' इत्यनेनाग्रेतनेन समन्वय । एतच्छाया च 'श्रमण भगवन्त महावीर वन्दे नमस्यामि कल्याण मङ्गल दैवत चैत्य विनयेन' इति, तत्र श्रमणादयो नमस्यामीत्यन्ताः शब्दाव्यान्यातपूर्वा , सत्कारयामि-अभ्युत्थानादिानरवयक्रियासम्पादनेनाऽऽरा. घयामि, सम्मानयामिम्मनोयोगपूर्वकमहदुचितवाक्यप्रयोगादिनाऽऽरापयामि, कल्याण-कर्मवद्धसम्लोपापिव्याधिवापराविधुरत्वात आल्यो-मोक्षस्तम्,आ-समन्तात् नयति पापयतीति ज्ञानादिरत्न तयलक्षणमोक्षमार्गोपदेशदानद्वारा भविजनान् , रल्यान्-जन्मजरादिरोगमुक्तान् आणयतिधातूनामनेकार्थव्यात्सपादयतीति वा कल्याणस्तम् , मगल सफलहितमापकत्वाच्छुभमय, यद्वा मा गालयति-भवाब्वेस्तारयतीति मङ्गलः, अथवा मगते अजरामरत्वगुणेन भविजनान् भूषयतीति मङ्गो मोक्षम्त लाति-आदत्त इात मङ्गलस्तम्, दैवतम् आरा' यदेवस्वरूपम् , अत्र देवतैव दैतमिति स्वार्थेऽण चैत्य-चित्ते भव तदस्याम्यास्तीति, यद्वा चित्ति-विशिष्टज्ञान अर्थात्--'श्रमणे भगवान महावीरको वन्दना नमस्कार करूँ, अभ्युत्थान (उठना) आदि निरवद्य क्रियाएँ करके सत्कार करूँ, मनोयोग-पूर्वक अर्हन्त भगवान्के योग्य वाक्य-प्रयोग आदि द्वारा सम्मान करूँ, कर्मजन्य समस्त उपाधियों-व्याधियों-बाधाओंसे रहित होनेसे कल्य (मोक्ष) को प्राप्त कराने वाले, अथवा ज्ञानादि रत्नत्रयरूप मोक्ष-मार्गका उपदेश देकर ससारी जीवोंको जन्म जरा आदि रोगों से मुक्त करने वाले (कहाण) कल्याणरूप,समस्त हित-रूप होनेसे या ससार सागर से पार उतारनेवाले होनेसे अथवा अजरता अमरता आदि गुणोंसे भापत करनेवाले मोक्षको देनेवाले होनेसे (मगल) मगलरूप, (देवय)યાવત’ અથ– શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વદના નમસ્કાર કરૂ, અદ્ભુત્વાન આદિ નિવદ્ય ક્રિયાઓ કરીને સત્કાર કર, મનોવેગપૂર્વક અન્ત ભગવાનનું યોગ્ય વાયપ્રયોગ આદિ વડે સમાન કરૂ, કર્મજન્ય બધી ઉપાધિ, વ્યાધિઓ, પીડાઓથી રહિત હોઈને મોક્ષને પ્રાપ્ત કરાવનાર, અથવા જ્ઞાનાદિ-રત્નત્રયરૂપ મેક્ષમાગનો ઉપદેશ આપીને મારી જીન જન્મ જરા આદિ -ગોથી મુક્ત c.nt -(वरलाण) ४८या॥३५, समस्त ति३५ डावाथी ससा सारथी 0 ઉતારનાર હેવાથી અથવા અજરતા અમરતા આદિ ગુણોથી ભૂષિત કરનાગ–મોક્ષને
१चैत्यशदान 'अर्श आदिभ्योऽच' इति पा० मुत्रेण मत्वर्थीयोऽचमत्यरम्तत प्य। रिती सज्ञाने' इत्यस्मात् 'स्त्रिया तिन् इति तन् प्रत्ययस्तत• प्य।
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उपासकदशाम्रो रीमधिगतान , इह इत्यर्थः, समरसता सदेवमनुष्यपरिषदि भव्यानुपदेष्टु समुपस्थित', कुन समरस्तः ? इति जिज्ञासायामाह-उहेच वाणिजग्रामे नगरे, नगरेऽपि कुत्रे ! त्याह-वहिरिति बाह्ये इत्यर्थः, ननु गाहोऽपि कुत्र ? इत्याह-दूतिपला शके चैत्ये इति, यथामतिरूप यथासयमिकल्पम्, अवग्रहम्मामासायमुधानपा लस्याऽऽज्ञाम् अपगृहा=आदाय सयमेन-सप्तदशपिधेन तपसान्द्वादशविन आस्मान भावयन्यासयन् सयोजयनिति यारदिति, ए सन किं करोती? त्याह-विहरति विराजते । तत्-तस्मात् , महत्-विशाल,फल-शुभपरिणामलक्षणम् , अत्र 'अत एर' इति शेष', गच्छामि-उपसमि 'ण' खलु निश्चयेन यावदिति अत्र 'जाव' में पधारे है, इतना ही नही चहा चिराजे (ठहरे) भी हैं और देव मनुष्योकी परिपद में भव्य जीवों को उपदेश देनेके लिए समवस्त हुए (समोसरे) हैं। सयमियोकी मर्यादाके अनुसार उद्यानपालस निवास करनेकी आज्ञा लेकर, सत्रह प्रकारके सयम और बारह प्रकारके तपसे आत्माको भाते हुए विराजमान हैं। अत. उस प्रकारक अरिहन्त भगवान के नाम गोत्र सुननेसे भी महा फल होता है, तो फिर उनके सामने जानेकी तथा वन्दन नमस्कार वार्तालाप और सेवा करने की तो बात ही क्या? इसलिए में भी (वहा) जाऊँ और 'यावत्' છે, અને દેવ મનુષ્યની પરિષદમાં ભવ્ય જીવોને ઉપદેશ આપવાને માટે સમવસૃત થયા (સમય) છે સયમીઓની મર્યાદાને અનુસરીને ઉદ્યાનપાલ પામે નિવાસ કરવાની આજ્ઞા લઈને, સત્તર પ્રકારના સ યમ અને બાર પ્રકારના તપથી અતિભા ભાવતા બિરાજમાન છે એ પ્રકારના અરિહ ત ભગવાનનના નામ ગોત્ર સાભળવાથી પણ મહાફળ થાય છે તે પછી તેમની સમક્ષ જવાનો અને વદન નમસ્કાર–વાર્તાલાપ અને સેવા કરવાની તે વાત જ શી ? માટે હું પણ ત્યાં જાઉ અને
१-सयमिकल्पमपरित्यज्येत्यर्थ । 'यथामतिरूप-मित्यत्र 'यथाऽसादृश्ये' इति यथार्थ 'अव्यय विभक्ती'ति वाऽव्ययीभाव ।
0-इह 'महप्पल' इत्यतोऽग्रे-'खलु तनख्वाण अरिहताण भगवताण णाम गोयस्सपि सरणयाए स्मिग पुण अभिगमण वदण णमसण पडिपुच्छण पज्जुषा सणयाए एकम्सवि आरिरस्स सुक्यणस्म सवणयाए रिमग पुण विउलस्स अस्स गहणयाए, त०' ति पाठ सचिदुपलभ्यते तत्र-'खलु तथारूपाणामहेता भगवता नाम गोत्रस्यापि प्रवणतया स्मिङ्ग पुनरभिगमन बन्दन-नमस्यन मतिपच्छन पर्युपा सनेनैरम्यापि आर्यम्य यामिरस्य सुवचनस्य अरणतया रिमग पुननिपुल स्यार्थस्य ग्रहणतया, तत्' इति छाया, व्याख्या तु स्वयमूहनीया।
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू० ११ भगवतः धर्मकथाश्रवणम्
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क्तरूप छोपलक्षित इत्यर्थः, मनुष्यवागुरा परिक्षिप्तः = मनुष्याणा वागुरया = समुदायेन परिभिप्त. = सर्वतोव्याप्तः पादविहारचारंण = पादाभ्या यो विहारो = विहरण तद्रूपो यश्चार' =सचरण तेन पादचारेणेत्यर्थः, वाणिजग्राम = वाणिजग्रामस्य, म यम येन= मायभागतः । शिष्टा निगदव्याख्याता ॥ १० ॥
•
- तणं समणे भगव महावीरे आणदस्स गादावइस्स, मूलम् - तीसे य महइ - महालियाए परिसाए जाव धम्मका । परिसा पडिगया, राया य गए ॥ ११ ॥
,
छाया - तत खलु श्रमणो भगवान् महावीर आनन्दाय गाथापतये तस्या च महात्या परिषदि यावद्धर्मकथा । परिषत् प्रतिगता, राजा च गत' ॥ ११ ॥ से घिरा हुआ पैदल, वाणिजग्राम नगरके बीचो-बीच होकर निकला। निकलकर दूतिपलाश चैत्यकी ओर, जहा भगवान् विराजमान थे वही आया । आकर प्रदक्षिणा आदि पूर्वोक्त सब विवि की और पर्युपासना (सेवा) करने लगा | ॥ १० ॥
मूलका अर्थ- 'तर ण समणे' इत्यादि ॥११॥
इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर ने, आनन्द गाथापतिके लिए उस अतिविशाल परिषद् मे ( यावत्) धर्मकथा की । परिषद् लौट गई राजा भी लौट गया ॥ ११ ॥
જનસમુદાયથી ઘેરાયલા, પગપાળા, વાણિગ્રામનગરની વચ્ચે થઈને નીકળ્યે નીકળીને દૂતિપલાશ ચૈત્યની તરફે જ્યા ભગવાન્ બિરાજમાન હતા ત્યા તે આવ્યે આવીને પ્રદિક્ષણા આદિ પૂર્વોકત બંધ વિધિ કર્યાં અને પર્યુંપાસના (સેવા) ईवा साग्यो (१०)
भूणना मर्थ - तएण समणे त्याहि (११) त्यारणाः श्रमायु भगवान् महावीरे - આનદ ગાથાપતિને માટે એ અતિ વિશાળ પિરષદ્મા (યાવ) ધ કથા કહી પરિષદ પાછી ફરી અને રાજા પણ પા કર્યાં (૧૧)
१ अत्र 'एनपा द्वितीया' इति पष्ठयर्थे द्वितीया । ननु 'एनवन्यतरस्यामदूरे पञ्चम्या ' इत्यत्र पूर्वसूत्रात् 'उत्तरापरदक्षिणात्' इत्यनुवृत्तेर्मभ्यशब्दादेनव् दुर्लभ इति चेत्सत्य किन्तु मतान्तरे पूर्वसूत्राननुवृत्तेर्द उन्द मात्रा देन प्रवृत्तिस्तदुक्त सिद्धान्तकौमुद्याम् -' इह के चिदुत्तरादीनननुवर्त्य दिक्छन्दमात्रादेनपमाहू -- पूर्वेणग्रामम्, अपरेण ग्रामम्' इति ।
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११०
उपासक दशाम
J
तया युक्तमिति सर्वथापिशिष्टज्ञानवन्तमित्यर्थः, एतद्वयाख्या च सविस्तरमग्रे वक्ष्यते, विनयेन = प्रतिपत्तिविशेषेण पर्युपासे सेवे, एवम् अनयोक्तरीत्या समेक्षते = पर्यालोचयति समेक्ष्य पर्यालोच्य स्नातः = कृतस्नानः, शुद्धात्मा=निर्मलान्तःकरण, वेश्यानि भवेशयोग्यानीत्यर्थ । 'शुद्धमवेश्यानि' इतिच्छायाक्षे तु शूद्रानि च तानि प्रवेश्यानि=प्रवेश योग्यानीत्यर्थः, 'पावेसाई' इत्यत्र दीर्घरवा स्वात्, मङ्गलानि=शुभसूचकानि खाणि वासांसि प्रवरपरिधितः =परमुत्कृष्ट यथा स्यात्तथा यथोचितमिति यावत् परिहितः परिहितवान् वसान इति यावत्, यद्वा प्राकृते 'पवर' इति द्वितीयवचनान्त तस्य माराणि श्रानीत्यर्थः, अत्र क्त' प्रत्ययो पाहुल कात्कर्त्तरि, अल्पमहार्घाभरणालट्रकृतशरीर = पानि=स्तो भारवन्ति, महार्घाणि= हुमृल्यानि यानि आभरणानि भूषणानि तैरल्पकृत = भूषित शरीर यस्य येन वा सः स्वतः स्वकीयात्, गृहतः गृहात् प्रतिनिष्क्रामति= निर्गच्छति, प्रतिनिष्क्रम्य = निर्गत्य, सक्कुरण्टमाल्यदाना=सकुरण्टानि पीतवर्णकुरण्टमज्ज्ञ ( 'हजारा' इति प्रसिद्ध ) पुष्पयुक्तानि माल्यदामानिमाला यत्र तेन, छत्रेण= आतपत्रेण, त्रियमाणेन भृत्य करतो गृह्यमाणेन, अनोपलक्षणे तृतीया, तस्मादुआराध्यदेव और (चेइय) विशिष्ट ज्ञानवान् (भगवान्) की मै विनय पूर्वक पर्युपासना (सेवा) करूँ ।"
गाथापति आनन्द ने इस प्रकार का विचार किया । विचार करने के बाद उसने स्नान किया और निर्मल अन्त. करण होकर उसने सभा मे पहनने योग्य शुद्ध, यथोचित मंगल-सूचक वस्त्र धारण किए । थोडे भार वाले किन्तु बहुतमूल्य भूषणोंसे शरीरको भूषित किया और अपने गृहसे निकला | निकल कर कुरण्ट (हजारा) के फूलों की माला सहित और नौकरके हाथ में थमे हुए छत्रसे युक्त होकर, जन ममुदाय मायववाजा होवाथी (मंगल) भगव३य, (देवय) माराध्य देव राने (चेइय) * વિશિષ્ટ જ્ઞાનવાનું (ભગવાન) ની હું વિનયપૂર્વક પ પાસના (સેવા) કરૂ ગાથાતિ માનદ્દે આ પ્રમાણ વિચાર કર્યો પછી તેણે સ્નાન કર્યું અને અત કરણને નિર્દેળ કરીને તેણે સભામા પહેરવા લાગ્ય શુદ્ધ, યથાથત મગળ સૂચક વસ્ત્ર ધારણ કર્યાં થાડા ભારવાળા પરન્તુ મૂલ્યવાન ભૂષણાથી તેણે શરીરને ભૂષિત કર્યું. અને પછી તે પોતાને ઘેરથી નીકળ્યે નાંકળીને કુર ટના ફૂલની માલા સહિત અને નાકના હાથમા ધારણ કરાયેલા છત્રથી યુક્ત થઈ,
23
१ ' तत्र साधु' - रिति यत्प्रत्यय |
चैत्य' शब्दकी विस्तृत व्याख्या आगे - ( अन्नउत्थियपरिग्गहियाइ अरिeasers at ) इसकी व्याख्यामें की जायगी।
यागण ( अन्नउत्थियपरिग्ाहियाइ अरिह -
* ચૈત્ય શબ્દની વિસ્તૃત વ્યાખ્યા इयाइ वा ) सेनी व्यायाम स्वामी यावरी
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aartaalaat aamा अ. १. ११ धर्मकथा
धर्मकथा
" अत्थि लोए, अत्थि अलोए। एव जीवा, अजीवा, वधे, मोक्खे, पुण्णे,
११३
एतच्छाया च
" अस्ति लोक., अस्त्यलोक' । एवजीवाः, अजीवा', बन्धः, मोक्षः, पुण्य,
एतद्वयाख्या चैत्रम्--अस्ति = वर्तते लोक,लोक्यते य सः । ननु कोऽय लोकपयार्थः ? किं येन केनचिद य. कश्चिदेको ग्रामोऽवलोकितस्तावानेव लोक. १ मैत्रम्, अपरेण ततोऽप्यधिकग्रामदर्शनात् । किं तर्हि यावद्रामादिकमस्माभिरवटोक्यते तावानेव लोकः १, नहि, अनन्ताज्ञनसपन्नेन सर्वज्ञेन यो विलोक्यते लोक इत्याशयात् । नन्वेतेनाऽलोक्स्यापि लोकत्वप्रसङ्गस्तस्यापि सर्वज्ञेनावलोकितत्वाद, कथा' पद दिया है। औपपातिक सूत्रमेधर्मकथाका वर्णन इस प्रकार है-धर्मकथा
-
लोक है । जो अवलोकन किया जाय उसे लोक कहते है । शका – 'लोक' पदका क्या अर्थ है ! यदि किसीने कोई एक गाव का अवलोकन किया (देखा) तो क्या उतना ही लोक है ? समाधान - - ऐसा न कहो । क्योंकि दूसरा उससे भी अधिक ग्राम देखता है।
शका -- तो क्या जितने गाव आदि हम लोग देखते है उतना ही लोक है ?
समाधान- नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि अनन्तज्ञानवान् भगवान् सर्वज्ञ द्वारा जो देखा जाता है वह लोक है ।
ગામને અવ
ધર્માં કથાનુ વર્ણન ઔષપાતિક સૂત્રમા આ પ્રમાણે છે ધર્મકથા લાક છે જે અવલેાકી શકાય તેને લેાક કહે છે શકા— લાક’ પદને અ ને ? જો ફઇએ કેઇ એક सोम्यु (लेयु) तो शु खेटलो ४ सोड ? સમાધાન—એમ ન કહે, કેમકે ખીજે એનાથી પણ વધારે ગામે જુએ છે શકા—તા શુ જેટલા ગામ આદિ આપણે જોઈએ છીએ તેવાજ લેાક છે ? धर्मकथा सस्कृतीकामें देख लेवें, ।
ધથા સંસ્કૃત ટીકામાં જોઇ લેવા
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११२
उपासकदशास्त्रे
टीका- 'तए ण समणे' इत्यादि । ततः तदनन्तर 'तए' शब्दस्य प्राकृते 'तन.' इत्यर्थकाययत्यात्, खल्वादयः स्पष्टा व्याख्याताथ । तस्या = मात्रणित स्वरूपाया, महातिमहत्याम् = अतिविशालाया परिषदि सभायाम् । 'याव' दिति, अत्र 'जाव' शब्दवान्यानि 'मज्झगए विचित्त धम्ममाइनखर जहा जीवा बज्जाति सुचनि जह य सकिलिस्सति' इत्येतानि पयानि तेषा छाया च मयगतो विचित्र धर्ममाख्याति यथा जीना नभ्यन्ते मुच्यन्ते यथाच सलिश्यन्ते' इति, तत्र विचित्रम् =अद्भुत वर्म=माख्यारयातस्वरूपम् 'आख्याति=सत्यमुपदिशति, क्थ सम्यग् ' इति शङ्कायामाह - 'ग्रंथे ' तियथा येन प्रकारेण जीवा वयन्ते यथा मुच्यन्ते यथा च सक्लिश्यन्ते= महद्भिर्दुखे, परिपीडयन्ते तथेत्यर्थ । ननु कतिविधोऽसौ धर्म स्वरूपश्च भगवानुपदिशती इति, यद्वा ननु कीदृशी सा धर्मक्या या भगवतोपदिष्टे ? ति जिज्ञायामपिपातिकती विस्तरेण धर्मव्याख्याऽवगन्तयेति सङ्केतयितुमाह-, धर्मकथे' -ति, परिपत्= उपस्थितजनसमुदायः, प्रतगिता = प्रत्यावृत्ता, राजा चेत्यादि, स्पष्ट, । इह धर्मकथा चौपपातिकसूत्रतो ज्ञातस्येत्यर्थः तथाहि-
टीकाका अर्थ —तदनन्तर उस अतिविशाल परिषद् के बीच में भगवान् ने अद्भुत (अलौकिक - अश्रुतपूर्व) सम्यक् उपदेश दिया। वह सम्यक् कैसे था ? सो कहते है-- जिस प्रकार जीव कर्मोंसे बघते हैं, जिस प्रकार मुक्त होते हैं और जिस प्रकार सक्लेश पाते हैं । भगवान्ने यह सब यथार्थ निरूपण किया इसलिए उनका उपदेश सम्यक् था । जिसका भगवान् उपदेश देते है वह धर्म कितने प्रकार का है ? उसका क्या स्वरूप है ?, अथवा भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्मकथा किस प्रकार की है ? इन जिज्ञासाओंका विस्तारपूर्वक समाधान औपपातिक सूत्रसे समझना चाहिए। इसी बातका सकेत करनेके लिए मूलमे 'धर्म
टीडाना अर्थ- પછી એ અતિ વિશાળ પરિષદ્ની વચ્ચે ભગવાને અદ્ભુત (અલૌકિ— અશ્રુતપૂ^) સમ્યક્ ઉપદેશ આપ્યા તે ઉપદેશ સમ્યક્ શા માટેહતા ? તા કહેછે પ્રકારે જીવે કર્માથી અ ધાય છે, જે પ્રકારે મુકત થાય છે અને જે પ્રકારે સકયેશ પામે છે, તે બધુ ભગવાને યથાથ નિરૂપણ કર્યું તેથી તેમને ઉપદેશ સફ્ હતેા ભગવાન જેને ઉપદેશ આપે છે તે ધર્મ કેટલા પ્રકારના છે ? એનુ કેવુ સ્વરૂપ છે ? અથવા ભગવાને ઉપદેશેતી ધર્મકથા કેવા પ્રકારની છે ? એ જિજ્ઞાસા એનું વિસ્તારપૂર્ણાંક સમાધાન ઔષતિક સૂત્રથી સમજી લેવુ એ વાતના સાકેત કરવાને માટે જ મૂળમાં ધથા પદ આપેલુ
છે,
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ म् ११ लोकालोकस्वरूपवर्णनम्
११५
"
प्रमाणाभावत्, इन्द्रियाऽगोचरे चार्थे मनःप्रवृत्तेः कढाऽप्यसम्भवादिति तु नाऽऽशङ्कनीयम् इन्द्रिय नोइन्द्रिय विषयत्वाभावमात्रदर्शनेन तदस्तित्वनिराकरणस्याशक्यवक्तव्यत्वात्, अन्यथा मृताना प्रपितामहादीनामप्यभावमसक्ते, एवं च यथा 'आसन् प्रपितामहादयोऽम्मदादिशरीराणामन्यथाऽनुपपन्नत्वात् इत्यनुमानेन प्रपितामहादीनामस्तित्व साध्यते तथा लोकास्तित्वसिद्धेरप्यनिवार्यत्वात्, तथाहिलोक सप्रतिपक्ष, व्युत्पत्तिमन्डपदाभिपेयत्वात्, यो हिन्पुत्पत्तिमच्छुद्धपदाभिवेयः मानते हैं इसलिए वह इन्द्रियोसे नहीं जाना जा सकता । अतः अलोक को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है । रहा मन, सो बाह्य वस्तुमें मन की प्रवृत्ति तब होती है जब इन्द्रियों द्वारा पदार्थको जान लिया जाय, अलोक जन इन्द्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता तो मन द्वारा भी नहीं जाना जा सकता, फिर आप अलोक कैसे मानते है ?
समाधान- यह शका ठीक नहीं है । इन्द्रिय और माके द्वारा न जान सकने के कारण अलोकके अस्तित्वका खडन नहीं किया जा सकता । नही तो मृत पितामह, प्रपितामह, वृद्व प्रपितामह आदिका भी अभाव मानना पडेगा, क्योंकि उन्हें भी इन्द्रियोंसे नहीं जान सकते, और जब इन्द्रियों द्वारा नहीं जान सकते तो आपके ही कथनानुसार मनसे भी नहीं जान सकते। किन्तु जैसे पितामह आढिका अस्तित्व इस अनुमान से सिद्ध किया जाता है कि पितामह आदि थे, क्योंकी उनके विना हमारा शरीर उत्पन्न नहीं हो सकता।' इसी प्रकार "लोक જાણી શકાતા નવા માટે અદ્યને માઁ કરનારૂ કૈાઇ પ્રમાણ નથી બાકી ધુ મન, પણ બાહ્ય વસ્તુમા મનની પ્રવૃત્તિ ત્યારે જ વાય છે કે જ્યારે ઈંદ્રિય દ્વાન પદાને જાણી લેવામા આવે, અલેકને જયારે ઇદ્રિય દ્વારા નથી જાણી શકાતા, તે મનદ્વાન પણ નથી જાણી શકાતે, તે પછી અલેક દૈવી રીતે માને છે ?
સમાધાન પ્રકા ખાખ નથી ઇન્દ્રિય અને મનની દ્વારા ન જાણી શકવાને કારણે અલેકના અસ્તિત્વનું ખડન કરી શકાતુ નથી, નહિં તે મરણુ પામેલા દાદા, વડદાદા માદા પણુ અભાવ માનવે પશે, કારણુ કે તેમને પણ ઈક્રિયાથી નથી જાણી શકાતા, તે આપના કથનાનુસાર મનથી પણ નથી જાણી શકાતા, પરન્તુ જેમ દદા આદિનુ અસ્તિત્વ જેવા અનુમાનથી સિદ્ધ કરવામા આવે છે કે ‘દાદા અદ્ઘિ પૂત્ર હતા, કાણુ તેમના વિના અમારૂ શરીર ઉત્પન્ન થઈ શકત નહિ,' તેમ “લેક સપ્રતિપક્ષ છે, કાન્ગ્યુ કે
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उपासकदवाक्यत्रे
तथा चाडलोकोऽपि लोकः प्रसज्येतेति चेन्न, यतो लोक्यते धर्मास्तिकायाद्याधा रभूतआकाशविशेषो यस लोक छवि हृद्यम् । स च टिवटोभयपार्श्वतो निहित हस्तद्वयो निस्फारितपादयुगलोऽनस्थितः पुरुष इन नृत्य भैरोपास ऊस्तिर्यग्भेदभिन्नचतुर्दशरज्जुपरिमिताऽसदर यातम देशात्मक आकाशविशेषः ।
कृतिको वा
अलोकः लोकप्रिपरीतः । नन्वस्तु लोको जीवपुद्गादीनामनाधारतयाऽत्र स्थानासभवात, अरस्तु कथ 2 तस्याऽमृर्त्तत्वेनेन्द्रियागोचरतयाऽस्तित्वसानक शका - तर तो अलोक भी लोक हो गया ! क्योकि सर्वज्ञ भगवान् उसे भी देखते हैं ।
समाधान -- नही । धर्मास्तिकाय आदिका आधार भृत जो आकाश विशेष सर्वज्ञ द्वारा देखा जाता है वह लोक है । हमारे कथनका यही तात्पर्य है ।
वह लोक दोनो हाथ कमर पर रखकर, तथा पैर फैलाकर खडे - हुए पुरुष के समान, अथवा नाचते हुए भैरव के उपासक (भोपा) की आकृतिके समान है। ऊर्ध्व, मध्य और अध के भेद से उसके तीन भेद हैं । चौदह रज्जु प्रमाण वाला तथा असख्यात प्रदेशी है ।
अलोक, लोकसे विपरीत है ।
शका -- जीव पुल आदि विना आधारके नहीं रह सकते, इस कारण उनका आधारभूत लोक तो हो सकता है, परन्तु अलोक का अस्तित्व नही स्वीकार किया जा सकता, क्योकि उसे आप अमूर्त
શકા—ત્યારે તે અલક પણ લાક થઈ ગયે । ભગવાન તેને પણ જુએ છે
કારણ કે સન સમાધાન—નહી, ધર્માસ્તિકાય આદિના આધારભૂત જે આકાર્શાવશેષને સČજ્ઞ કૈખે છે તે લેાક છે અમારા કથનનુ એજ તાત્પ છે
એ લેાક બેઉ હાથ કમર પર રાખીને તથા મગ પસારીને ઉભેલા પુરૂષની સમાન અથવા નાચતા હૌરવના ઉપાસક (ભુવા)ની આકૃતિની સમાન છે ઉ, મધ્ય અને અધ (નીચેના)ના ભેદથી તેના ત્રણ ભેદ છે ચૌદ રજી પ્રમાણજાળા તથા અસયાત પ્રદેશી છે અલેક, લાકથી વિપરીત છે
राही राहता नथी, मेनु-
અલેાકનું અસ્તિત્વ તેથી તે ઇ ક્રિયાથી
શકા-જીવ પુદગલ આદિ આધાર વિના
કાણુ એના
આધારભૂત લેક તે હાઈ શક છે, પરંતુ સ્વીકારી શકાતુ નથી, કાણુ કે તેને આપ અમૂર્ત માને છે,
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ१ सू ११ जीवाजीवादिस्वरूपवर्णनम् ११७
जीवा: अजीवन् , जीवन्ति, जीविष्यन्ति चेति तथा, ससारित्व सिद्धत्वावस्थाद्वयेऽप्युपयोगवन्त इत्यर्थः, 'जीवो उवओगलक्खणो, इति वचनात् । एतद्विवरण च मत्कृतात्तत्वमदीपादवगन्तव्यम् अजीवा जीवविपरीतस्वरूपाः धर्माधर्माऽऽका शपुद्गलास्तिकायाद्धासमयलक्षणाः । वन्धः अभ्यते-परतन्त्रीक्रियत आत्मा येन सः, अभीष्टस्थानप्राप्ति गतिमतिरोधलक्षणो जीव कर्मणोरयोगोलकबस्योरिव तादात्म्यापत्तिलक्षणो वा। मोक्षा=मोचनम् आत्मनः पृथग्भवन, तच्च द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो निगडादितः, भावतो ज्ञानावरणीयाधष्टविधकर्मपाशतः पुण्य--पुणति=
जो जीवित था, जीवित है और जीवित रहेगा, वह जीव है, अर्थात् ससार अवस्था और मुक्त अवस्था दोनो अवस्थाओंमें (सदासर्वदा) जो उपयोग से युक्त रहे उसे जीव कहते है। कहा भी है-- "जीव, उपयोगस्वभाववाला है।" इत्यादि जीवतत्त्वका विशेष कथन मेरे बनाए हुए 'तत्त्वप्रदीप' ग्रन्थ में देखना चाहिए।
जीवसे विपरीत स्वभाववाला अजीव है, धर्मास्तिकाय, अधर्मा स्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय तथा काल, ये मव अजीव हैं।
जिसके द्वारा परतन्त्र हो जाय-पॅध जाय उसे वध कहते है। अथवा अभीष्ट स्थान पर पहुँचने मे याचा पहुँचानेवाला, लोहे के गोले और अग्निके समान आत्मा और कर्मको एकमेक करदेनेवाला वध है। __ आत्मा का मुक्त (स्वतन्त्र) हो जाना मोक्ष है। वह दो प्रकारका है-- (१) द्रव्यसे और (२) भाव से । वेडी आदिसे छूट जाना द्रव्य मोक्ष है
જે જીવિત હતા, જીવિત છે અને જીવિત રહેશે, તે જીવ છે, અર્થાત સ સાર અવસ્થા અને મુક્ત અવસ્થા–બેઉ અવસ્થાઓમાં ( સદા સર્વદા ) જે ઉપયોગથી યુકત રહે તેને જીવ કહે છે કહ્યું છે કે “જીવ, ઉપગ સ્વભાવવાળે છે ” ઈત્યાદિ જીવત ત્વનું વિશેષ કથન મારા બનાવેલા “તત્વપ્રદીપ” ગ્રંથમાં જોઈ લેવુ
જીવથી વિપરીત સ્વભાવવાળે અજીવ છે -ધર્માસ્તિકાય, અધમસ્તિકાય આકાશાસ્તિકાય પગલાસ્તિકાય તથા કાલ એ બધા અજીવ છે
જેની દ્વાન પરત થઈ જાય–બ ધાય–તેને બંધ કહે છે અથવા અભીષ્ટ સ્થાન પર પહોંચવામાં બધા પહોંચાડનાર, લોઢાના ગેળા અને અગ્નિની સમાન આત્મા અને કર્મને એકમેક કરી દેનાર બધ છે
આત્માન મુકત–સ્વત ત્ર–થઈ જવુ એ મેક્ષ છે તે બે પ્રકારને છે, (૧) દ્રવ્યથી, અને (૨) ભાવથી બેડી વગેરેથી છૂટી જવુ તે દ્રવ્યમેક્ષ છે અને
१--'पुण कर्मणि शुभे च' इति धातो रूपमिदम् ।
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११६
उपासकदशासूत्रे
स समतिपक्ष एव भवति यथा घटः, यश्च लोकमतिपक्षः स एव सतो लोकः अस्तित्वचत पत्र प्रतिपक्षित्यादिति ।
प्रतिपक्ष है क्योंकि यह व्युत्पत्तिवाले शुद्ध पदका वाच्य है, जो व्युत्पत्तिवाले शुद्ध पदका वाच्य होता है वह सप्रतिपक्ष होता है, जैसे घट | " और लोकका प्रतिपक्ष सत्तावान् अलोक ही है, क्योंकि प्रतिपक्ष वही होता है जिसमें सत्ता पाई जाती है। तात्पर्य यह है कि 'लोक' शब्दकी 'लोक्यते इति लोक.' ऐमी व्युत्पत्ति है । इसलिए यह 'लोक' शब्द व्युत्पत्तिवाला है । तथा 'लोक' शब्द समान नहीं हैअनेक पदकों मिलानेसे 'लोक' शब्द नही बना है किन्तु वह स्वतन्त्र एक शब्द है, इसलिए वह शुद्ध (एकही) पद है । ऐसा नियम है कि जो पदार्थ व्युत्पत्तिवाले शुद्ध पद का वाच्य होता है, उसका प्रतिपक्ष अर्थात् विरोधी (उलट) मी अवश्य होता है, जैसे घटका विरोधी अघट (घटसे भिन्न तत्सदृश अन्य) पदार्थ भी अवश्य है । इस मर्वसम्मत नियमके अनुसार लोaar विरोधी भी तत्सदृश कोई पदार्थ अवश्य होना चाहिए । बस, उसका जो विरोधी और उसके सदृश - आकाशविशेष - है वही अलोक है । वह अलोक भी अस्तित्ववान् है, क्योंकि व्युत्पत्तिवाले शुद्ध पदका विरोधी अस्तित्ववान् होता है। इस प्रकार अलोक सिद्ध होता है ।
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તે વ્યુત્પત્તિવાળા યુદ્ધ પદનેા વાચ્ય છે જે વ્યુત્પત્તિવાળા શુદ્ધ પને વાચ્ય હોય છે તે સપ્રતિપક્ષ હોય છે, જેમ કે ઘટ” અને લેાકના પ્રતિપક્ષ સત્તાવાન અલેકજ છે, કારણ કે પ્રતિપક્ષ એજ હાય છે કે જેનામા સત્તા રહેલી હોય છે તાપય એ છે કે લેક' શબ્દની लक्यते इति लेोन भेवी व्युत्पत्ति छे ते માટે એ ‘લેક’ શબ્દ વ્યુત્પત્તિવાળા છે વળી લેક' શબ્દમા સમાસ નથી–અનેક પટ્ટાને મેળવીને લેાક' શબ્દ અન બ્યા નથી પરંતુ તે સ્વતન એક શબ્દ છે તે માટે તે શુદ્ધ એકજ પદ્મ છે એવા નિયમ છે કે જે પદાર્થ વ્યુત્પત્તિવાળા શુદ્ધ પદના વચ્ચે હાય છે, તેના પ્રતિપક્ષ અર્થાત્ વિરોધી (ઉલટ) પણ અવશ્ય ડ્રાય છે, જેમ કે ઘનેે વિધી અઘટ (ઘટથી ભિન્ન તેના જેવા બીજો કાઇ પદાર્થ પણ અવશ્ય છે, આ સ સ મત નિયમાનુસાર લેકના વિરાધી પણ તેના જેવા કાઇ પદાર્થ અવશ્ય હાવા જોઇએ जस, એને જે વિદ્યાધી અને એના જેવા આકાશવિશેષ-છે તે જ અલાક છે તે લેાક પણ અસ્તિત્વવાનુ છે, કારણ કેવ્યુત્પત્તિવાળા શુદ્ધ પદના વિરોધી અસ્તિત્વવાન્હાય છે એ પ્રમાશે અલાક સિદ્ધ થાય છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू ११ सवरादिस्वरूपवर्णनम्
११९
चमकाया मुनितोपण्या द्रष्टव्यः । आस्रवः = = समन्तात् स्रवति = प्रविशत्यर्थादात्मनि ज्ञानावरणीयाद्यष्टविध कर्म येन सः आश्रच इतिच्छायापक्षे तु आश्रीयते = समुपायते कर्म येन स इति व्याख्याभेदोऽवगन्तव्यः, सर्वथा जीवतडागे कर्मलिलमवेशाय नालिकारूप इति यावत् । सवरः = सनियते = निरु यते आस्रवत्कर्म येन स एप च द्रव्वभावभेदाभ्या द्विविधः, तत्र द्रव्यतस्तथाविधद्रव्येण (चिकणमृदादिना ) सलिलोपरि तरण्यादेरनरवरतमविशनी राणा विराणा पिधानम्, भावतः समितिगुप्तिप्रभृतिभिरात्मतरण्या तरत्कर्मजलाना स्थगनम्, प्रकरणादि भाववरस्यैव ग्रहण को यम् । वेदना=वेदन - स्वाभाव्यादुदीरणा चौथे अध्ययनमे देखना चाहिए | और पाप तत्त्व का कथन श्रमणसूत्रकी 'मुनितोषिणी' टीकामे देखना चाहिए ।
जिसके द्वारा ज्ञानावरण आदि आठ प्रकारके कर्म आत्मामे सब ओरसे प्रवेश करते है उसे आस्रव कहते है । 'आमवे' की छाया यदि 'आश्रव" की जाय तो उसका तात्पर्य यह हैं वि जिसके द्वारा कर्मोंका उपार्जन हो उसे आस्रव कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जीवरूपी तालान में कर्मरूपी जलके प्रवेश के लिए जो नालीके समान हो वह आस्रव है ।
जिसके द्वारा आए हुए कर्म रुक जायँ उसे सवर कहते है । यह दो प्रकारका है - - (१) द्रव्यसवर और (२) भावसवर । चिकनी मिट्टी आदि द्वारा नौग आदिके उन छिद्रोंका बन्द हो जाना जिनसे सदा जल प्रविष्ट होता रहता है, द्रव्यसवर है । आत्मारूपी नौकामे आने (चूने वाले समिति गुप्ति आदिके द्वारा रुक जाना भावसवर है यहां भावसवरका ही प्रकरण है अतः उसीका ग्रहण समझना चाहिए । લેવુ, અને પાપ તત્વનું કથન શ્રમણુસૂત્રની ‘મુનિતેષણી' ટીકામા જોઇ લેવુ જેની દ્વારા જ્ઞાનાવરણુાદિ આઠ પ્રકારના કર્મ આત્મામા બધી ખાજુએથી પ્રવેશ કરે છે તેને આમ્રવ કહે છે 'आमवे' नी छाया ने 'आश्रव' वाभा આવે તે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જેની દ્વારા કર્માનું ઉપાર્જન થાય તેને અન્યત્ર કહે છે તાપ એ છે કે જીવરૂપી તળાવણા કર્મરૂપી જળના પ્રવેશને માટે જે નળીની સમાન થાય તે આસ્રવ છે
बेनी द्वारा
આવેલા કર્માં રોકાઇ જાય તેને સવર કહે છે એ એ પ્રકારના છે (૧) દ્રવ્યસ વર્ અને (-) ભાવસ ભર ચીકણી માટી સ્માદિ દ્વારા નાવ અાદિના છિદ્રનુ અંધ વધુ જવું કે જે છિદ્વારા હમેશા જળ અદર દાખલ થતુ રહેતુ હાય તે ક્રૂવ્યસ વન છે. આત્મારૂપી નાવમાં આવનારો કર્યાંનું સમિતિ ગુપ્તિ આદિ દ્વારા રોકાઇ જવુ તે ભાવસ વર છે, અહી ભાવસ વરનું જ પ્રકરણ છે, માટે તેનુ ગ્રહણુ સમજવુ
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શ્ય
उपासकदशासूत्रे
[ धर्मकथामूलम् ]
पावे, आसवे, सवरे, वेयणा, णिज्जरा, अरिहता, चक्वट्टी, बलदेवा, वासुदेवा,
[ धर्मकयाजाया ]
पापम्, आश्रमः, सवरः, वेदना, निर्जरा, अर्हन्तः, चक्रर्त्तिनः, वलदेवाः, वासुदेवाः, शुभयति, यद्वा पुनाति = पवित्रीकरात्यात्मानमिति, पूयते = पविनीक्रियते आत्माऽ नेनेति वा तत् ससारपारावारोचरणतरणिभूतमिति भावः । पाप = पातयति= शुभ परिणामाद वसयत्यात्मानमिति यद्वा पाति = रक्षत्यात्मनोऽशुभ स्थानमिति तद्, आत्ममालिन्यकारणमित्यर्थः । बन्याद् पुण्यान्ताना नयाणा व्याख्याविस्तरस्तु मत्कृताया दशबै कालिस्टीकायामाचारमणिमजूपाया चतुर्थेऽ ययने, पापपदार्थस्य और ज्ञानावरण आदि आठ से छूट जाना भाव-मोक्ष है ।
जो भलाई करे, अथवा आत्माको पवित्र बनावे वह पुण्य हैं । अथवा जिसके निमित्तसे आत्मा पवित्र हो, उसे पुण्य कहते हैं । तात्पर्य यह है कि पुण्य, ससाररूपी समुद्र से पार उतरने के लिए तरणि (नौका) के समान है ।
जो आत्माको शुभ परिणामोंसे दूर कर देता है वह पाप है । अथवा जो आत्मा अशुभ स्थान (परिणाम) की रक्षा करता है वह पाप है, तात्पर्य यह कि जो आत्मामे मलिनता उत्पन्न करनेका कारण हो वह पाप है ।
बन्धसे लेकर पुण्य पर्यन्त तीन तत्वोंका विस्तारपूर्वक कथन मेरी बनाई हुई दशकालिकमुत्रकी 'आचारमणिमञ्जूषा' नामकी टीका के જ્ઞાનાવરણુ આદિ આઠ કમેîથી છટી જવુ એ ભાવમાક્ષ છે જે ભલુ કરે અથવા આત્માને પવિત્ર નિમિત્તથી આત્મા પવિત્ર થાય તેને પુણ્ય સ સારરૂપી સમુદ્રથી પાર ઉતરવાને માટે તરણ
મનાવે તે કહે છે
જેના છે અથવા પુણ્ય તાત્પય એ છે કે-પુણ્ય (નામ) ની સમાન છે
જે આત્માને શુભ પરિણામેથી દૂર કરી નાખે તે પાપ છે અથવા જે આત્માને અશુભ સ્થાન (પરિણામ)ની રક્ષા કરે છે તે પાપ તાત્ક એ છે કે જે આત્મામા મલિનતા ઉત્પન્ન કરવાનું કારણ છે તે પાપ છે
અધથી લઈને પુણ્ય સુધીના ત્રણ તત્વાનુ વિસ્તારપૂર્વક કથન મારી બનાવેલી દશવૈકાલિક સૂત્રની ‘આચારમણિમજીષા’ નામની ટીકાના ચોથા અધ્યયનમા જોઇ
२ ' पुत्र पवने' इति धातो रूपमिदम् ।
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १ मू० ११, धर्म० नरकादिस्वरूपवर्णनम् १२१
[धर्मकथामूलम् ] गरगा, णेरइया, तिरिक्खजोणिया, तिरिक्खनोणिणीओ, माया, पिया, रिसओ,
[धर्मकयाछाया] नरका , नैरयिकाः, तिर्यग्योनिकाः, तिर्यग्योनयः (स्त्रिय ,),माता, पिता, ऋषयः,
अहन्तः अहन्ति मिद्धिपद ये ते, एतद्विस्ततव्यारया च मत्कृताया श्रमणसूत्रस्य मुनितोपण्या टीकाया कणेहत्यावलोग्नीया । चक्रवर्तिन' पटवण्डभरतस्वामिनो भरतादयो द्वादश । बलदेवाः प्रसिद्धः । वासुदेवाः त्रिखण्डभरते वर मसिद्धा' । नरका-नरान् कायन्ति यातनामदानद्वारा शब्दयन्तीति, यद्वा यातनामापन्ना नराः काति-शब्दायन्ते यत्रतोदृशा. पापिना यातनास्थानविशेपा रत्नप्रभादिलक्षणाः । नैरयिकाः निर्गतः अय. शुभफल येभ्यस्ते निरयास्तत्रभवा नरकनिवासिन इत्यर्थः । तिर्यग्योनिका तिर्यग्योनिभवाः देवमनु
जो सिद्धि पद प्राप्त करनेको अई (योग्य) हा गये है वे अर्हन्त है। 'अन्ति' की विस्तृत व्याख्या मेरी बनाई हुई श्रमणसूत्रकी मुनितोपणी टीकामें देख लेना चाहिए।
जो छ खण्ड वाले भरत क्षेत्रके पूर्ण स्वामी हों वे चक्रती है। भरत आदि बारह चक्रवर्ती इस अवसर्पिणी कालके] है। रलदेव प्रसिद्ध है भरत क्षेत्रके तीन खण्डोके स्वामीको वासुदेव कहते है।
विविध प्रकारकी यातनाएं देकर जीवांसे जो चिल्लाहट (हाहाकार) मचवाते है. अथवा यातनाओको प्राप्त जीव जहा हाहाकार मचाते हैं, वह नरक है । अर्थात् पापी जीवोकी यातनाओके स्थान-रत्नप्रभाआदि को नरक कहते हैं।
જે સિદ્ધિપદ પ્રાપ્ત કરવાને અર્ડ (ગ્ય) થઈ ગયા છે તે અહંન્ત છે “અહંન્ત” ની વિસ્તૃત વ્યાખ્યા મારી બનાવેલી શ્રમણસૂરની “મુનિતેષણ’ ટીકામ પૂર્ણ રીતે જોઈ લેવી
જે છ ખડવાળા ભરત ક્ષેત્રના પૂર્ણ સ્વામી હોય તે ચક્રવર્તી છે ભરત આદિ બાર ચકવતી (આ અવસર્પિણ કાળના) છે બળદેવ પ્રસિદ્ધ છે ભરતક્ષેત્રના ત્રણ ખંડેના સ્વામીને વાસુદેવ કહે છે
વિવિધ પ્રકારની યાતનાઓ આપીને જીવે પાસે જે કકળાટ ( હાહાકાર ) કરાવે છે, અથવા માતાના પામેલા છે જ્યાં હાહાકાર મચાવે છે, તે નરક છે આર્થાત્ પાપી જીવની યાતનાઓના સ્થાન રતનપ્રભા આદિને નરક કહે છે -
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१२०
उपासकदशा सूत्रे
1
कृत्वा वा य उदयावलिकामनुप्रविष्टस्य कर्मणोऽनुभवस्वरूपेति यावत्, सुखदुःखानुभवस्त्रभाना वेद्यन्तेऽनयेति वेदनेति केचित् इय च विपाकौदयिकी - प्रदे शौदयिक्याभ्युपगमिक्यौपक्रमिक्या दिभेदादने व मकारेयन्यत्र विस्तर' | नर्जरा = निःशेषेण जरणमर्थाद्देशत आत्ममदेशात्कर्मणा परिशटनम्, अयमेत्र मोक्ष निर्जरयोदः, मोक्षो हि सर्वत एन कर्मणा परिशटनमुच्यते नतु देशत इति ।
आवाधा वाली स्थिति पूर्ण करके, अथवा उदीरणा करके, उदयमें आये हुए कर्मों का अनुभव करना वेदना है। किसी आचार्यके मतसे सुख, दुःख, अनुभव और स्वभाव जिसके द्वारा वेदे (भोगे) जाएँ वह वेदना है । यह विपादयिकी, प्रदेशौदयिकी, आभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी आदि अनेक प्रकारकी है। इसका विस्तार अन्य ग्रन्थोंसे जान लेना चाहिए । एक देशसे अर्थात् कुछ कमौका आत्मासे क्षीण हो जाना निर्जरा है । निर्जरा और मोक्षमे यही भेद है कि कुछ कमका क्षीण होना निर्जरा है और समस्त कर्मोका क्षीण हो जाना मोक्ष है।
ચ્યાબાધાકાલની સ્થિતિ પૂર્ણ કરીને અથવા ઉદીરણા કરીને, હ્રદયમા આવેલા કર્માના અનુભવ કરવા એ વેદના છે કોઈ આચાર્ય ના મતાનુસાર સુખ, દુખ, અનુભવ અને સ્વભાવ જેની દ્વારા વેદાય (ભગવાય) તે વેદના છે એ વેદના વિપાકીયિકી, પ્રદેશૌયિકી, અપમિકી, ઓપક્રમિકી આદિ અનેક પ્રકારની છે એના વિસ્તાર અન્ય ગ્રન્થેામા જોઇ લેવા
એક દેશથી અર્થાત કાઇ કર્યાંનુ આત્માથી ક્ષીણ થઈ જવુ તે નિર્જરા છેનિરા અને મેક્ષમા એટલે ભેદ છે કે કેટલાક કર્માંનુ ક્ષીણ થવુ એ નિરા છે અને અધા કર્મોનુ ક્ષીણ થવુ એ મેાક્ષ છે
का उदय दो प्रकार से होता है । - ( १ ) आबाधाकाल (बध होत्रके पश्चात् और उदय होने से पूर्व तक का समय) पूरा होने पर स्वयं ही कर्म उदयमें आता है । (२) आवाघाकानी स्थिति पूर्ण होनेसे पहले ही तीव्र तपश्चरण आदि निमित्तोंसे कर्म उदयमें आ जाता है उसे 'उदीहरणा' कहते हैं ।
+ કર્માંના ઉય એ પ્રકારે થાય છે (૧) આબાધાકાલ (બંધ થયા પછી અને ઉદ્ય થયા પૂર્વ સુધીના સમય) પૂરા થતા કપાતે જ ઉધ્યમા આવે છે. (૨) આખાધા કાલની સ્થિતિ પૂર્ણ થયા પહેલા જ તીવ્ર તપશ્ચરણ આ િનિમિત્તોથી કર્મ ઉથમા આવે
છે, તેને ઉદીરણા કહે છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू.११ धर्म० प्राणातिपातादिस्वरूपवर्णनम् १२३
[धर्मकथामूलम् ] मुसावाए, अदिण्णादाणे, मेहुणे, परिग्गहे। अत्थि कोहे, माणे, माया,
[ धर्मस्थाछाया ] पातः, मृपावादः, अदत्तदान, मैथुन, परिग्रहः। अस्ति-क्रोधः, मान, माया, च्याऽगच्छन् लोकाग्रमिति, तथा चरमशरीरतस्ततीयभागन्यूना जघन्यतोऽष्टाङ्ग लाधिकरत्निप्रमाणाः,मध्यमतश्चतुर्हस्ताधिकपोडपरत्निप्रमाणाः, उत्कृष्टतो द्वात्रिंश दङ्गलसमधिकत्रयस्त्रिशदुत्तरशतत्रयधनुः-परिमिता. । परिनिर्वाण-निःशेषतः सकलकर्मक्षयजन्यमात्यन्तिक सुखम् । परिनिवृता अपुनरारत्या सकलसन्तापकलापपरिवर्जिता।
प्राणातिपातपाणाउच्छवास निश्वासादयस्तेपामतिपात पाणिभ्यो. वियोजनः पाणिहिंसनमिति यावत्, तदुक्तम्
"पञ्चन्द्रियाणि विविध बल च,
उच्छ्वामनिःश्वासमयान्यदायुः। प्राणा दशैतेभगवद्भिरुक्ता-,
स्तेपा वियोजीकरण तु हिंसा ॥१॥” इति रहित होकर जो लोकके अग्र भागमे प्राप्त हो चुके है उन्हे सिद्ध कहते है। वे सिद्ध चरम शरीरसे तृतीयभाग-हीन, जघन्य एकहायआठ अगुल अधिक एक रत्नि अवगाहनावाले, तथा उत्कृष्ट बत्तीस अगुल अधिक तीनसौ तेतीस धनुप अवगाहनावाले होते है। समस्त कर्मोके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होनेवाले आत्यान्तिक सुखको परिनिर्वाण कहते है। पुनरागमनसे तथा ससार सम्बन्धी समस्त सतापके सम्हसे रहित जो हो उन्हे परिनिवृत कहते है ॥
उच्छ्वास निःश्वास आदि प्राणोका अतिपात-प्राणीसे वियोग करना-प्राणातिपात या हिसा है। कहा भी हैભાગને પ્રાપ્ત થઇ ચૂકયા છે તેને સિદ્ધ કહે છે એ સિદ્ધ ચરમ શરીરથી તૃતીય ભાગહીન, જઘન્ય આઠ આગળ અધિક એક રનિ અવગાહનાવાળા, તથા ઉત્કૃષ્ટ બત્રીસ આગળ અધિક ત્રણસે તેત્રીસ ધનુષ અવગાહનાવાળા હોય છે બધા કમૉન સર્વથા ક્ષયથી ઉત્પન્ન આત્યંતિક સુખને પરિનિર્વાણ કહે છે પુનરાગમનથી તથા સસારસ બધી બધા સતાપના સમૂહથી રહિત જે હોય તેને પરિનિર્વત કહે છે
ઉરહવાસ નિ શ્વાસ આદિ પ્રણેને અતિપાત-પ્રાણથી વિદ્યાગ કરવો એ, પ્રાણાતિપાત અથવા હિંસા એ કહ્યુ છે કે
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१२२
उपासकदशास्त्रे [धर्मकयामूलम् ]] देवा, देवलोया, सिद्धी, सिद्धा, परिणिचाण, परिणिन्युया, अस्थि पाणाइवाए,
[धर्मकथाछाया ] देवाः, देवलोका , सिद्धि सिद्धाः, परिनिर्माण, परिनिट ता', । अस्ति-प्राणाति प्यनारकव्यतिरिक्ता एकेन्द्रियादयः । तिर्यग्योनयः तिर्यकत्रीत्वेन प्रसिद्धाः । मागादयोऽपि प्रसिद्धा एव। ऋपयापन्ति-पश्यन्ति पदजीपनियमान्मतुल्य मिति, ऋपन्ति गच्छन्ति मोक्षमार्गमिति तथा । देवाः दीव्यन्ति-पुण्यजनिताम लौकिकी क्रीडामनुभवन्तीति तथा भवनपत्यादय इत्यर्थः। देवलोका:-देवानामुक्त प्रकाराणा लोका' स्थानानि सौधर्मादीनि सिद्धि सि यन्ति निष्ठितार्था भवन्ति यस्या सा!: सिद्धा' असि यन्त कृत्या अभान्निति, यद्वा असेधन अपुनराट
जिनमें से शुभ फल निकल गया हो उन्हें 'निरय और निरयोमें उत्पन्न होने वाले जीवोको नैरयिक (नारकी) कहते हैं।
देव मनुष्य और नारकसे भिन्न-एकेन्द्रिय आदि जीवीको तियन्या निक (तिर्यच) कहते है | जो तिर्यच स्त्री हो वह तिर्यग्योनि है ।
माता और पिता प्रसिद्ध हैं। जो पड्जीवनिकायको आत्माक समान मानते है, अथवा जो मोक्षमार्गमे [विशेष] प्रवृत्ति करते है उन्हें ऋषि कहते है। पुण्यसे प्राप्त होनेवाली अलौकिक क्रीडाको भागन वाले भवनपति आदि, देव (देवता) कहलाते है। देवोंके सौधर्म ऐशान आदि स्थानोको देवलोक करते है।
जिसे प्राप्त करके सिद्ध (कृतकृत्य) होते है उसे सिद्धि कहते हैं। जो कृतकृत्य हो चुके हैं उन्हें सिद्ध करते हे, अथवा पुनरागमनसे
જેમાથી શુભ ફળ નીકળી ગયું હોય તેને “નિરય અને નિરમા ઉત્પન્ન થનારા જીવેને નૈરયિક ( નારકી ) કહે છે
દેવ મનુષ્ય અને નારકથી ભિન્ન-એ દ્રિય આદિ ને તિર્થાનિક ( તિર્થં ચ ) કહે છે જે તિર્ય, સ્ત્રી હોય તે તિનિ છે
માતા અને પિતા પ્રસિદ્ધ છે જેઓ ષડૂજીવનિકાયને આત્માની સમાન માને છે, અથવા જેઓ મોક્ષમાર્ગમાં (વિશેષ) પ્રવૃત્તિ કરે છે, તેમને ઋષિ કહે છે પથી પ્રાપ્ત થનારી અલૌકિક ક્રીડાને બે ગવનારા ભવનપતિ આદિ દેવ (દેવતા) કહેવાય છે દેના સોધમ અશાન આદિ સ્થાનેને દેવક કહે છે
જેને પ્રાપ્ત કરીને સિદ્ધ (કૃતકૃય) થાય છે તેને સિદ્ધિ કહે છે જેઓ કૃતકૃત્ય થઈ ચૂક્યા છે તેને સિદ્ધ કહે છે, અથવા પુનરાગમનથી રહિત થઈને જે લેકનાં અગ્ર
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ११ धर्म० रागादिस्वरूपवर्णनम् १२५ माया = मायामोहनीयो जीवस्य वञ्चनपरिणतिविशेषः- स्वपरव्यामोहोत्पादकमा - चरणमिति यावत् । लोभः = लोभमकृत्युदयवशाद्द्रव्याद्यभिलापलक्षणो जीवस्य परिणामविशेष: ' या ' दिति अत्रत्येन 'जाव' - शब्देन - "रागे, दोसे, क्लहे, अभक्खाणे, पेमुण्णे, परपरिवाए, रई, अरई, माया मोसे, मिच्छादसणस " एपा सग्रहो योद्धव्यस्त - 'रागो, छेपः, कलहः, अभ्याख्यान पैशुन्य, परपरिवादो, रतिररतिर्मायामृपा मिथ्यादर्शनशल्यमितिच्छाया । एतद्वयाख्या च-रागः = रज्यत आत्माऽनेनेति पुत्रकनाद्यभिष्वङ्ग परिणामविशेष, स च यद्यपि द्विविधः प्रशम्तोऽप्रशस्तथ, तत्र प्रशस्तो देवगुरुधर्मविषयक, अनुकम्पादानादिविषयकथ, अमशस्तस्तु कादिविषयक, तथाचोक्तम्
उदयसे उत्पन्न होनेवाले वञ्चना ( ठगाई) रूप आत्मा के परिणामको माया कहते है, अर्थात् स्व परमे व्यामोह पैदा करनेवाला आत्माका आचरणविशेष माया कहलाती है । लोभ प्रकृति के उदयसे होनेवाले द्रव्य आटिकी अभिलापारूप आत्मपरिणामको लोभ कहते हैं ।
यहा जो 'जाब' (यावत् ) शब्द है उससे राग, द्वेष, कलह, अभ्यारयान, पैशुन्य, परपरिवाद, रनि अरति, माया मृपा मिथ्यादर्शनशल्यका ग्रहण करना चाहिए।
आत्मा जिससे रक्त-अनुरञ्जित हो वह राग है अर्थात् आत्माके मूर्च्छारूपी परिणामको राग कहते हैं। राग दो प्रकारका है - एक प्रशस्त दूसरा अप्रशस्त, देव, गुरु, धर्मके विषयमे अथवा अनुकम्पादान आदिके विषय मे होनेवाला राग प्रशस्त राग है, और स्त्रीआदिविषयक राग अप्रशस्त राग है । कहा भी है
પરિણામને માયા કહે છે, અર્થાત્ —પરમા વ્યામેાહુ પેદા કરનારા આચરણવશેષને માયા કહે જે લાભપ્રકૃતિના ઉદયથી બનારા અભિલાષારૂપ આત્મપરિણામને લેાભ કહે છે
અભ્યા
साड़ी ने 'लव' (यावत् ) शब्द छे, तेथी राग, द्वेष उस, म्यान, येशुन्य, परयविवाह रति-भरति, भाया- भृषा, मिथ्यादर्शनशयनुग्रड ४२वु આત્મા જેનાથી રક્ત-અનુરજિત થાય, તે રાગ છે અર્થાત્ આત્માના મૂર્છારૂપ પરિણામને રાગ કહે છે રાગ બે પ્રકારના છે. એક પ્રશમ્ત અને ખીજે અપ્રશસ્ત દેવ ગુરુ ધર્મના વિષયમાં અથવા અનુક પા—દાન આદિના વિષયમા થત રાગ પ્રશસ્ત રાગ છે, અને શ્રી આદિ વિષયક રાગ અપ્રશસ્ત રાગ છે, કહ્યુ છે કે
આત્માના દ્રવ્ય આદિની
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उपासकदवाने मृपावादामृपा-मिश्या पादः पदनमस तार्थसभापणमिति यावत् । अदत्तादानम्-न दत्तमदत्त देव गुरु भूप गाथापति-साधमिरतनुज्ञात तस्याऽऽदानग्रहणम् । मैथुनम् मिथुनेन=त्रीपुमाभ्या नित फर्म कामक्रीडेत्यर्थ । परिग्रह
परि सर्वतोभावेन गृह्यते जन्मजरामरणाढिदवटयत आत्माऽनेनेति, या परिगृयते समृर्छ स्वीक्रियत इति । क्रोधा-कोपमोहनीयमकृत्युदयेन स्वपरचित्तविकृतिजनक आत्मनः परिणामविशेपः । मान =स्वापेक्षयाऽन्य हीन मन्यते जनो येन सः, मानमोहनीयोदयममुत्थोऽन्यहीनतामननलक्षण आत्मनः परिणतिविशेषः । __ "पाच इन्द्रिया, तीन बल, (मन, वचन, काय), उपास-निःश्वास (श्वासोचास) और मायु, ये भगवान्ने दम प्राण निरूपण किये हैं। और इनका वियोग करना हिंसा कहा है ॥१॥
असत्य भाषण करने को मृषावाद कहते है। देव, गुरु, गजा, गावापति और साधर्मीकी आजा विना किसी वस्तुको ग्रहण करना अदत्ताऽऽदान है । मिथुन (स्त्री-पुरुप) द्वारा किये जाने वाले मका अर्थात् कामकीडाको मैथुन करते है। जिसके द्वारा आत्मा, जन्म जरा मरण आदिके दुःखोसे गृहीत (युक्त) की जाती है अथवा ममतारूप परिणामोसे ग्रहण किया जाता है उसे परिग्रह कहते है।
क्रोधमोहनीय कर्मके उदयसे स्व और परके चित्तमे विकार करन चाले आत्माके परिणाम विशेषको क्रोध करते है। जिसके होनेस मनुष्य, दुसरेको अपनेसे हीन मानता है, उस मान-मोहनीयके उदयस उत्पन्न होनेवाले परिणाम विशेषको मान करते है। माया मोहनीयक
“पाय छद्रियो,' ५ ( भन, क्यन, आय) वास-नवास (ધારવામ) અને આયુ, એ પ્રમાણે દસ પ્રાણુ ભગવાને નિરૂપ્યા છે, અને એની वियोग ४२व तन लिसाडी छ " (1)
અસત્ય ભાષા, ક તેને મૃષાવાદ કહ્યો છે દેવ, ગુરુ, રાજ ગાથા પતિ અને સાધમીની આજ્ઞા વિના કોઈ વસ્તુને ગ્રવણ કરવી તે અદત્તાદાન છે મિથુન (સ્ત્રી-પુરૂષ) દ્વારા કરાતા કમને અર્થાત્ કામકોડાને મેથુન કહે છે જેના દ્વારા આત્માને, જન્મ જરા મરણ આદિના દુ ખેથી ગૃહીત (યુકત) કરવામાં આવે છે અથવા મમતારૂપ પરિણામેથી ગ્રહણ કરવામાં આવે છે તેને પરિગ્રહ કહે છે
bધ-મેહનીય કર્મના ઉદયથી સ્વ અને પરના ચિત્તમાં વિકાર કરનારા આત્માના પરિણામવિષને ક્રોધ કહે છે જેને લીધે મનુષ્ય બીજાને પિતા કરતા હીનતુચ્છ માને છે, તે માનમોહનીયના ઉદયથી ઉત્પન્ન થનારા પરિણામવિશેષને માન કહે છે માયા--મેહનીયન ઉદયથી ઉત્પન્ન થનારા વચના (ઠગાઈ) રૂપ આત્માના
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__ अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ.१ सू० ११ धर्म माया मृपादिस्वरूपवर्णनम् १२७
[धर्मकथामृलम् ] __ लोभेजाव मिन्छादसणसल्ले। अन्थि पाणाइवायवेरमणे, जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे।
[वर्मकथाछाया। लोभो यावन्मिध्यादर्शनगल्यम्। अस्ति-प्राणातिपातविरमण यावन्मिन्यादर्शन रतिः-रतिविपरीता-सयमविपयकोऽनमिलाप इति यावत् । वस्तुतस्तु 'अरतिरति' इत्येक पद, ततश्चाऽरतिभोहोदयाचित्तोडगस्तत्परिणामो, रतिपियाभिरुचिरित्ययः । मायामृपा-मायया सह मृपेति, यद्वा माया च मृपा चेति तथा, सफपटमिथ्यामापणमित्यर्थ । मिथ्यादर्शनशल्य-मिय्यादर्शनमेव शल्यमिति, यहा मिथ्यादर्शन शल्यमिवेति तथा, शल्य हि शराग्रादि दुखद भवति तद्वन्मिथ्यादर्शनमिति भाव । प्राणातिपातविरमण-प्राणातिपातात्मागुक्तस्पाद्विरमण-सम्यरज्ञानश्रद्धानपूर्वक विनिवृत्ति । 'याच'-दिति-अत्र यावच्छन्दसगृहीता -मृपा वाढादत्तादानमैथुनपरिग्रहकोधमानमायालोभरागद्वेपकलहाभ्यारयानपैशुन्यपरपरिआदि विषयक अभिलापा न होनेको अरति कहते हैं। वास्तवमें 'अरतिरति' यह एक ही पद है। इसलिए मोहके उदयसे होनेवाले चित्तके उद्वेगको अरति और विपयोंमें होनेवाली रुचिको रति कहते हैं। मायासहित मृपा, अथवा माया और मृपको अर्थात् कपट-पूर्वक असत्य भापण करने को मायामृपा कहते हैं। मिथ्यादर्शन रूप शल्य को मिथ्यादर्शनशल्य कहते हैं । तीरकी नोक आदि शल्य जैसे दुखदायी होता है उसी प्रकार मिथ्यादर्शन भी दुखदायी है इसीसे मिथ्यादर्शनको शल्य कहा है।
सम्यग्ज्ञान और सम्यक् श्रद्धानपूर्वक पूर्वोक्त प्राणातिपातका त्याग करना प्राणातिपातविरमण है, ન હેવી તેને અતિ કહે છેવસ્તુત “અરતિ રતિ એક જ પદ તેથી મેહના ઉદયથી થતા ચિત્તના ઉગને અરતિ અને વિશ્વમાં થતી રૂચિને રતિ કહે છે માયા સહિત મૃષા અથવા માયા અને મૃપાને અર્થાત કપટપૂર્વક અસત્ય ભાષણને માયામૃષા કહે છે મિથ્યાદર્શન રૂપ શલ્યને મિથ્યાદર્શનશલ્ય કહે છે તીરની અણિ શલ્ય જેમ દખદાયી હોય, તેમ મિથ્યાદર્શન પણ દુખદાયી છે તેથી મિથ્યાદર્શનને शल्य घुछ...
સગ્યજ્ઞાન અને સમ્યક્ શ્રદ્ધાપૂર્વક પૂર્વેત પ્રાણાતિપાતને ત્યાગ કરે એ પ્રાણાતિપાત વિરમણ છે.
भहीन one' ( यापत् ) Avथी-भूषापा, महत्ताहान, भैथुन, परियड,
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उपासक्दशास्त्र "राओ दुहा पसत्वाऽ-पसत्य-भेरि मत्थणिदिहो ।
पढमो देवाहगओ, धीओ थी-आइविसओ य ॥१॥" इति । एतच्छाया च-- " रागो द्विधाप्रशस्ता ऽपशस्त-भेदाभ्या शास्त्रनिर्दिष्टः ।
प्रथमो देवादिगतो, द्वितीयः स्यादिपिपयश्च ॥ १॥” इति । किन्तु प्रकरणावेपसाहचर्याचार म्यादिपिपयस्यैव रागस्य ग्रहण विविक्षतम् । देपा द्वेपणम् आत्मनोऽप्रीतिलक्षण परिणाम' । कलह-क्ल'-आनन्दस्त हन्तीति तथा वाचिकद्वन्द्वमित्यर्थः । अभ्याख्यान-समरटमसदोपाऽऽरोपणम् । पैशुन्य-पिशुनभाव.-परगुणासहिष्णुतया तद्दोपोद्घाटनम् । परपरिचाद:-परेपा परिवदन-काकादिभिर्दोपाविष्करणम् । रतिः रमण-रिपयाभिरुचिरित्यर्थ । अ.
"शास्त्रमे दो प्रकारके रागका कथन किया गया है-एक प्रशस्त, दूसरा अप्रशस्त । देव आदि विपयक प्रशस्त और स्त्रीआदि विषयक अप्रशस्त राग है ॥१॥"
लेकिन इन दोनों भेदोमेसे प्रकरणवश और द्वेप के साथ कहने के कारण स्त्रीआदि विपयक अप्रशस्त रागका ही यहां ग्रहण समझना चाहिए।
आत्माके अप्रीतिरूप परिणामको ढेप कहते हैं। कल (आनन्द) की जो -हत्या (नाश) करे उस वाग्युद्धको कलह कहते है। खुल्लमखुल्ला झूठा दोप लगाना अभ्याख्यान है। दूसरे के गुणोंको न सह सकनेके कारण उसके दोप प्रगट करना पैशुन्य है। काकु (वक्रोक्ति) अर्थात् टेढी बोली आदिके द्वारा दसरोके दोष हूँढना परपरिवाद है। विषयसम्बन्धी अभिरूचिको रति कहते है। सयम
“શાસ્ત્રમાં બે પ્રકારનો રાગ કહ્યો છે એક પ્રશસ્ત અને બીજે અપ્રશસ્ત દેવ આદિ વિષયક પ્રશસ્ત અને સ્ત્રીઆદિ વિષયક અપ્રશસ્ત રાગ છે” (૧).
પરંતુ એ બેઉ ભેદમાથી પ્રકરણવશ અને દેશની સાથે રહેવાને કારણે શ્રી આદિ વિષયક અપ્રશસ્ત રાગનુ જ અહી ગ્રહણ કરવાનું છે
આત્માના અપ્રીતિરૂપ પરિણામને ષ કહે છે કલ (આન દ)ની જે હત્યા નાશ) કરે તે વાગ્યુદ્ધને કલહ કહે છે ખુલ્લી રીતે જ દેષ લગાડે તે અભ્યાખ્યાન છે બીજાના ગુણે ન સહી શકવાને કારણે એના દેષ પ્રકટ કરવા તે પશુન્ય છે કાકુ (વકૅકિત) અર્થાત કટાક્ષકથન આદિ દ્વારા બીજાઓને દેષ ધ એ પરપરિવાદ છે વિષયસ બધી અભિરૂચિને રતિ કહે છે સયમ આદિ વિષયક અભિલાષા
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__ अगारधर्मसञ्जीवनी टीका ११ सू. ११ धर्म० सुचीर्णकर्मादिस्वरूपवर्णनम् १२९
. [ धर्मकथामूलम् ]. मुचिण्णफलाभवति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफेला भवति।फुसइ पुण्णपावे । पञ्चायति जीवा । मफले कल्लाण पावए ।
[ धर्मकथाजाया ]] मुचीर्णानि कर्माणि सुवीर्णफलानि भवन्ति, दुधीर्णानि कर्माणि दुश्वीर्णफलानि भवन्ति स्पृशति पुण्य-मापे। प्रत्याया(य)न्ति जीवा । सफले कल्याण पापके । जीवोऽजीवत्वेऽजीव.' इत्यादि । सर्व नास्तीति- अजीवत्वेऽजीवोऽपटत्वेऽपट.' इत्येवरूपो भावो नास्तिभावस्तम् । मुचीर्णानि-नु-प्रशस्ततया सपादितानि, क
र्माणि दानादीनि, सुचीर्णफलानि-मुचीर्ण फल येपा तानि-मुचरितमूलकत्वात्पु. ण्यकर्मवन्धादिफलचन्तीत्यर्थ । दुवीर्णानि-कुत्सितानीत्यर्थः,दुचीर्णफलानि-कुत्सितफलवन्ति । स्पृशतिम्ब नाति । के ' इत्याह-पुण्य-पापे इति, पुण्य च पाप चेति ते अर्थाच्छुमतदितरक्रियाभिम्तत्र शुभक्रियाभिः पुण्यमशुभक्रियाभिश्च पाप वध्नातीति यथासरय समन्वयो विषय ।
ननु जीवस्य शरीरेण सहैव नागात्कः पुण्य पापे स्पृशतीति चेत्न गह-पत्या इति प्रत्यायान्ति-पुनरुद्भवन्ति जीवा =मागिन , सर्व एव जीवा मृत्वा मृत्वा पुनरुत्पधन्ते न तु भस्मान्तमेव सर्वमिति भावः एतेनहोने पर अजीव है' इत्यादि । अजोवत्वे अजीव , अपटत्वेऽपटः' इस प्रकारके भावकों नाम्तिभाव कहते हैं।
प्रशस्त रूपसे सपादित कर्म अर्थात् दान आदि शुभकर्म शुभ फल देनेवाले होते हैं और दुष्कर्म दुप्फल देनेवाले होते हैं । शुभक्रियाओंसे पुण्य वधता है और अशुभक्रियाओसे पापकर्म यधता है ।
शका-शरीरके साथ जीवका भी नाश हा जाता है, फिर पुण्य-पापका कौन बाधता है ?
ममाधान-समस्त जीव पुन -पुन जन्म-मरण करते हैं, 'अजीवत्वे अजीद अपटत्वे-अपट में प्रधान सावने नस्तमा ३ छ
પ્રશન્તરૂપ સ પાદિત કમ અર્થાત્ દાન આદિ શુભકર્મ શુભફળ દેનારા હેય છે અને દુષ્કર્મ દુષ્કળ દેનારા હોય છે શુક્રિયાઓથી પુય બધાય છે અને અશ્રુમક્રિયાએ પાપકમ બધાય છે
શકા–શરીરની સાથે જીવને પણ નાશ થઈ જાય છે, તો પછી પુયપાપ ना छे ? સમાધાન-બધા જ પુન પુન જન્મ મરણ કરે છે, શરીરની સાથે
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उपासकलशास्त्र [धर्मकथामूलम् ] सच अस्थिभाव अथिति पयति, सय पत्थिभाव णत्यिति वयति, मुचिण्णा कम्मा
[धर्मकथामृलम् ] शल्यविवेकः । सर्वमस्तिभाउमस्तीति बदति, सबै नास्तिभाव नास्तीति वदति । वादरत्यरतिमायामृपापर्यन्ताम्तथाच 'मृपागदादीनारभ्ये '-ति यावन्छब्दार्थ, मिथ्यादर्शनशल्यविवेका= मिन्यादर्शनशल्यात्मागुनलक्षणाद्विवेकः पृथग्भवनम् एव च यापन्छन्दद्योतितेभ्यो मृपागदादिभ्यो मिथ्यादर्शनशल्याच पृथग्भ वनमिति फलति । 'मा'-ति-सर्वसकतम्, अस्तिभाव-सत्तारूपक्रियासहितो भावो वस्तुसत्व-जीवोऽस्त्य-जीयोऽस्ति पुण्यमस्ति पापमस्ति' इत्यादिरूपेण वस्तु यथार्थस्वरूपनिरूपणमिति यावत् , तम्-'अस्ति' इति कृत्वा वदति-यथा 'जीवत्वे
यहाके 'जाव' (यावत्) शन्दसे मृपावाद, अदत्तादान, मैथुन, परित्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, दप, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, रत्यरति, मायामृपा पर्यन्त सगृहीत हैं, इसलिए 'जाव' शब्द का अर्थ है-'मृपावाद आदिसे आरभ करके मिथ्या दर्शनरूप पूर्वोक्त शल्यसे पृथक होना' उसका त्याग करना मियोदर्शनशल्यविवेक है। इस प्रकार 'यावत्' शब्दसे गृहीत मृषावाद आदिसे तथा मिथ्यादर्शनशल्यसे पृथक होना, यर अर्थ निकलता है।
सत्तारूप क्रियासे सहित भावको वस्तुसत्त्व कहते है अर्थात "जीव है, अजीव हैं, पुण्य है, पाप है" इत्यादिरूपसे वस्तुके यथार्थ म्वरूपका निरूपण करना अस्तिभाव कहलाता है । इस 'अस्ति' की अपेक्षा ही कहा जाता है कि-'जीवत्व हाने पर जीय है, अजीवत्व
ध, भान, भाया, सोनम, देष सड, भल्याभ्यान, पेशय, ५२परिवाई, રત્યરતિ, માયા-મૃષા, સુધીના સગ્રહ કરે છે તેથી “જાવ’ શબ્દને અર્થ આ પ્રમાણે છે – “મૃષાવાદ આદિથી લઈને મિચ્છાદનરૂષ પૂવેતિ શયથી પૃથ (દા) થવું” તેને ત્યાગ કરે–મિથ્યાદર્શન શયવિવેક છે એ પ્રમાણે “યાવત' શબ્દથી ગૃહીત મૃષાવાદ આદિથી તથા મિથ્યાદશનશયથી પૃથક થવુ (રહિત થવું) એ અર્થ નીકળે છે
સત્તારૂપ ક્રિયાથી સહિત ભાવને વસ્તુસવ કહે છે અર્થાત-જીવ છે અજીવ છે, પુણ્ય છે પાપ છે” ઈત્યાદિ રૂપે વસ્તુના યથાર્થ સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરવું એ અસ્તિભાવ કહેવાય છે આ “અસ્તિીની અપેક્ષાએ જ કહેવાય છે કે “જીવત્વ હોવાથી જીવ છે, અજીવતવ હોવાથી અજીવ છે ઈત્યાદિ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ स ११ धर्मकथाचाकिमतवि १३१
___ चार्वाक-नास्तिक मनविचार। चाक-यत्तु-"विलक्षणधर्मार्णा नानौपधीनामेकन मेलनेन विलक्षणगुणोत्पत्तिबद्, यद्वा दकिंगोमयादिसमुदायामिष्ठादचेतनाचेतनो वृश्चिकादिरिक,धातकीपुप्पगुडजलादिसमुदायान्मद्यादिनच्च पृथिव्यादिभूतपञ्चकानीवश्चेतनपर्यायः प्रतिशरीरमभिनवोऽभिनवो जायत एष, नतु-एको जीयो जन्मभेदेन नानाशरीरमावि शति,न च वाच्यम्-'येपामपयवे शक्ति म्ति तेपा समुदायेऽपि सा न,यथैका सिक ता तैलदानाऽसमर्थति कृत्वा तत्समुदाय खारीसहस्रपरिमितोप्यसमर्थ' मिति न्यायेन
चार्वाक-(नास्तिक) मत-विचार । चार्वाकजैसे भिन्न भिन्न गुणवाली अनेक ओपधियोको इकट्ठा कर देनेसे एक विलक्षण ही गुण उत्पन्न हो जाता है, अथवा जमीन पर पड़े हुए दही और गोचर आदिके अचेतन समूहसे चेतन-निच्छ आदि की उत्पत्ति हो जाती है, अथवा धातकी पुष्प, गुड और जल आदिके सयोगसे मद्य बन जाता है, वैसे ही पृ. वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश हन पाच भूतोसे प्रत्येक शरीरमे नया नया चेतन पर्याय (चैतन्य) उत्पन्न हो जाता है, किन्तु एकही आत्मा नाना शरीरोंमें नहीं प्रवेश करता है।
तथा-"जिन पदार्थोके एक अवयवमे जो शक्ति नहीं होती वह शक्ति उन्हे मिलाने पर भी उत्पन्न नहीं हो सकती। जैसे वालूके एक कणमे तेल देने की शक्ति नहीं है, इस कारण उसका समूह हजार खारी भी तेल देने में असमर्थ ही है । इस न्यायसे जब कि
या (नारित) मत-पियार ચાર્વાક-જેમ ભિન્ન ભિન્ન ગુણવાળી અનેક ઔષધિઓને એકઠી કરવાથી એક વિલક્ષણ જ ગુણ ઉત્પન્ન થાય છે, અથવા જમીન પર પડેલા દહી અને છાનું આદિન અચેતન સમૂહથી ચેતન–વી છી આદિની ઉત્પત્તિ થાય છે, અથવા ધાતકીપુષ્પ ગોળ અને જળ આદિના સગથી મદ્ય-દારૂ બને છે, તેમજ પૃથ્વી, જળ, અગ્નિ, વાયુ અને આકાશ એ પાચ ભૂતેથી પ્રત્યેક શરીરમાં નવા નવા ચેતનપર્યાય ચેનન્ય) ઉત્પન્ન થાય છે, પરંતુ એક જ આભા જૂદા જૂદા શરીરમાં પ્રવેશ કરતો નથી
તેમજ, “જે પદાર્થોના એક અવયવમાં જે શક્તિ નથી હોતી, તે શકિત એમના મિશ્રણથી પણ ઉત્પ ન નથી થઈ શકતી જેમ વેળુના એક કણમાં તેલ આપવાની શક્તિ નથી, તેથી વેળુની હજાર પાડીને સમૂહ પણ તેલ આપવા અસમર્થ
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१३० ।
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1 १
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उपासकदशाम
___ "यावज्जीवेत्सुग्व जीवेद कण कृत्वा घृत पिवेत् । 'भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमन कुतः ॥ १ ॥ त तमाचरताऽऽनन्द, म्व न्द य यमिच्छथ ।
आत्मा देहादिसघातात्पृथक् कोऽपि न ताचिक. || ० ॥ स्याचैतन्य तु सघात,-धर्मों नानौपधादिवत् ।" इत्यादि चायाँ कमतमपाम्तम् , इन्द्रिय प्राणापाननिमेपोन्मेपजीवनादिमत्त्वेभ्यः सुखित्वदुःखित्वाभ्या च शैशवशरीरम्यापि गरीरान्तरपूर्वरत्वेन म्यमादिदृष्टान्तेन च जीर्णपटत्यागपूर्वग्नूतनपटग्रहणन्यायेन च पुनर्जन्मनो निम्विादसिद्धत्वात् ।। शरीरके साथ नष्ट नहीं हो जाते । इम कयनसे चार्वाकका यह मत खण्डित हो जाता है कि-"जन तक जीना है, सुखसे जिय (गाठमे पैमा न हो तो) ऋण लेकर भी घी पिये। क्योकि इस देहकी जय खाग्व हो जायगी तो वापम आना कैसे होगा ॥ १ ॥ जिसकी जैसी इच्छा हो यह वैसाही स्वच्छन्दतापूर्वक आनन्दक साथ आचरण करे। देह आदिके सघातसे जुदा कोई तात्त्विक आत्मा नहि।।।
जसे अनेक औपधोंके मिलने से एक विशिष्ट गुणवाला पदार्थ तैयार हो जाता है उसी प्रकार पृथिवी जल आदिके संघातस चैतन्य बन जाता है।
इन्द्रिय, प्राण, अपान, निमेप, उन्मेप, जीवन आदि गुणोंस, सुख-दु खयुक्तपनेसे, शिशुका भी शरीर किसी अन्य शरीरसे हा उत्पन्न होता है, इससे स्वप्न आदिके दृष्टान्तसे और जीर्ण वस्त्रका त्याग कर नया वस्त्र धारण करनेके न्यायसे निर्विवाद पुनर्जन्म सिद्ध है। નષ્ટ થતા નથી આ કથનથી ચાર્વાકને એ મત ખ હિત થાય છે કે-જયા સુધી જીવવુ છે, ત્યાં સુધી રાખે છે, (ગાઠે પૈસા ન હોય તે) દેવું કરીને પણ ઘી પીએ કારણકે આ દેહની જ્યારે ભસ્મ થઈ જશે તે પછી પાછા આવવાનું કેવી રીતે બનશે ? (૧) જેની જેવી ઈરછા થાય તેમ તેણે સ્વચ્છ દતાપૂર્વક આનંદઆચરણ કરવું દેહ આદિથી જૂદે કાઈ તાત્વિક આત્મા જ નથી (૨) જેમ અનેક ઔષધોના મિશ્રણથી એક વિશિષ્ટ ગુવાળે પદાર્થ તૈયાર થાય છે પૃથિવી તેમ જળ આદિના મિશ્રણથી ચૌતન્ય બની જાય છે (૩)”
ઈન્દ્રિય, પ્રાણ અપાન, નિમેષ, ઉન્મેષ જીવન આદિ ગુણેથી, સુખદુ યુક્તપણ, બાળકનું પણ શરીર કોઈ અન્ય શરીરથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી સવઆદિના છત્તથી અને જીરું અને ત્યજીને નવું વસ્ત્ર ધારણ કરવાના ન્યાયથી નિવિવાદ पुनम सिराय
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arraatait टीका अ १ म् ११ धर्म. चार्वाकमतविचारः
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नोपलभ्यते चेम्नास्त्येव शशाश्वादिविपाणवत्, न च मृतशरीरे वायु तेजसोरसच्च दव्यभिचार इति वाच्यम्, नलिकादिद्वारक फुत्कारादितः पवनदाने वह्निसयोजने जातेऽपि तत्र चैतन्यानुपलम्भस्यैव प्रत्यक्षसिद्धत्वात्, विशिष्टवायु- तेजसोस्तदा मसच्चाददोष इति चेदागतो मदीयः पन्थाः - वैशिष्टच हि भूतपञ्चकव्यतिरिक्तस्र ssत्मन एच सभवति नेतरस्येति । किञ्च - वास्यादिकरणाना लोके जिदादिक प्रति कर्त्तारमन्तरेणाकिञ्चित्करत्वस्येवेन्द्रियरूपाणामपि करणाना शयनासनभोजन तो अवश्य उपलब्ध होता, किन्तु उपलब्ध होता नहीं, इस कार उसका वहा अभाव ही सिद्ध होता है, जैसे खरगोश वा अश्वके सीग
"मृतशरीरमे वायु और तेज विद्यमान नही रहते इसलिए चैतन भी विद्यमान नही रहता, अतएव आपका दिया हुआ दोष ठीक नही तो यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि नलीके द्वारा या फुक मारक वायुका प्रवेश करा देनेसे और अग्निका भी सयोग करा देने चैतन्यकी उपलब्धि नही होती, यह बात प्रत्यक्ष सिद्ध है । यदि य कहो कि - "विशिष्ट वायु और तेजका उसमे अभाव रहता है इसलि मुर्दे चैतन्य नही पाया जाता" तब तो हमारा ही मत सिद्ध हुआ क्योकि आप जो विशिष्टता कहते हैं वह पाच भूतोंसे भिन्न आत्मार्क ही हो सकती है, अन्यकी अर्थात् भूतोंकी नही, क्योंकि भूत तं मौजूद ही है।
दूसरी बात यह है कि जैसे कर्त्ता (बढई) के बिना वसूला आदि ઉપલબ્ધ થાત, પરન્તુ ઉપલબ્ધ થતુ નથી તેથી તેને ત્યા અભાવ જ સિદ્ધ થા છે, સસલા ચા ઘેાડાના શિંગડાની પેઠે
મુડદામા વાયુ અને તેજ વિદ્યમાન હોતુ નથી તેથી શૈતન્ય પણ વિદ્યામા હાતુ નથી તેથી આપે બતાવેલે દ્વેષ બરાબર નથી” એ કથન પણ ખરાખર નથી કારણુકે નળી દ્વારા યા ફૂંક મારીને વાયુને પ્રવેશ કરાવવાથી અને અગ્નિને પણ સચેઝ કરાવવાથી ચૈતન્યની ઉપબ્ધિ નથી થતી, એ વાત પ્રત્યક્ષ સિદ્ધ છે જે એમ કહેા કે—“વિશિષ્ટ વાયુ અને તેજને તેમા અભાવ છે, તેથી મુડદામા રીત ૨ માલુમ પડતુ નથી” તેથી તે અમારા જ મત સિદ્ધ થયે, કારણ કે આપ જે વિશિષ્ટતા કહેા છે, તે પચ ભૂતાવી જૂદી આત્માની જ હોઇ શકે છે, ખીજા કશાની અર્થાત્ ભૂતાની નહિ, કારણકે ભૂત તા મેનૂદ જ છે
બીજી વાત એ છે કે-જેમ કર્તા ( ક્રિયા કરનારા–સુથાર ) વિના વાસલે! કે
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उपासकदशास्त्रे
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पृथिव्यादे' प्रत्येक चैतन्यानुपलब्धेस्तत्समुदायेऽपि तदनुपलम्भ एवेति त्रिपरीत दृष्टान्तस्यापि प्रत्यक्षत उपलम्भात्तथाहि - एकस्तिलस्तैलदाने समर्थस्तस्समुदायश्व खारीशतपरिमितोपि समर्धएवेति प्रत्येकमपि पृथिव्यादौ सदैव निगूढ चैतन्य समुदाये कल्प्यते ' प्रत्येकानतिरिक्तः समुदायः' इति न्यायादिति नास्तिकाः " - तदज्ञान विजृम्भितमानम् दृष्टान्त - दार्शन्ति क्यों पम्यात चैतन्यस्य पृथिव्यादिभूतपञ्चक धर्मत्वे मृतशरीरेऽपि तदुपलम्भमसङ्गाङ्गतत्वस्य तत्रापि तदवस्थत्वात् प्रत्युत मृतश रीरदृष्टान्तेन पृथिव्यादौ चैतन्यानुपल येरेव द्रढी यस्तमत्वात्, यदि स्यादुपलभ्येत अलग अलग पृथ्वी आदि भूतों में चैतन्य उपलब्ध नहीं होता तो उनके समुदायमे भी वह उपलब्ध नहीं हो सकता ।" यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि इससे विपरीत दृष्टान्त भी प्रत्यक्ष से देखा जाता है, वह इस प्रकार कि जैसे एक तिलमें तेल देनेकी शक्ति है, अतएव उसके समुदाय सौ खारीमें भी तेल देनेकी शक्ति है । इसीप्रकार प्रत्येक पृथ्वी आदि भूतमें चैतन्य अव्यक्त रूपसे मौजूद रहता है, वही (चैतन्य) उनके समुदायमे व्यक्त हो जाता है, ऐसी हमारी मान्यता है ।
यह are afrain ज्ञानका फल है। क्योकि दृष्टान्त और दान्तिक की समानता नही है। यदि चैतन्यको पृथिवी आदि पाच भूतोका धर्म मान लिया जाय तो मृतशरीर (मुद्दे) मे भी चैतन्य मानना पडेगा, क्योंकि शव (मृतक ) मे भी भूतोंके गुण विद्यमान रहते हैं, लेकिन इससे सर्वथा विपरीत, मृतशरीर के दृष्टान्तसे पृथिवी आदिमें चैतन्यकी गैरमौजूदगीका ही निश्चय होता है। यदि मृतशरीर में चैतन्य होता
છે, તે ન્યાયે તે અલગ અલગ પૃથ્વી આદિ ભૂતેમા ચૈતન્ય ઉપલબ્ધ થતુ નથી, તે તેના સમૂહમા પણ એ ઉપલબ્ધ થઈ શકતુ નથી,” આ કથન પણ ખરાખર નથી, કારણુકે એથી વિપરીત દૃષ્ટાન્ત પણ પ્રત્યક્ષ જોવામા આવે છે, તે એ પ્રમાણે કે જેમ એક તલમા તેલ આપવાની શક્તિ છે તેથી તેના સા ખાડીના સમૂહમા પણ તેલ આપવાની શકિત છે, તે પ્રમાણે પ્રત્યેક પૃથ્વી આદિ ભૂતમા ચૈતન્ય અવ્યક્તરૂપે ભજ્જૂદ રહે છે એજ (ચતન્ય) એના સમૂહમાં વ્યકત થઇ જાય છે એવી અમારી માન્યતા આ કથન નાસ્તિકાના આજ્ઞાનનુ ફળ છે, કારણ કે દૃષ્ટાન્ત અને દાર્ભ્રાન્તિકની સમાનતા નથી ને ચતન્યને પૃથિવી આ પાચ ભૂતના ધર્મ માનવામા આવે તે મૃત શરીર (મુદ્દા)મા પણ ચૈતન્ય માનવુ પડશે, કાણુ કે મુડદામાં પણ ભૂત 1 ગુજ વિદ્યમાન હૈાય છે, પરતુ એથી સર્વથા વિપરીત, મુડદાના દૃષ્ટાન્તથી પૃથ્વી આદિમા ચૈતન્યની ખીનમેન્જીદગીના જ નિશ્ચય થાય છે જે મુડદામા નૌતન્ય હાય તે અવશ્ય
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अगारधर्मसञ्जीरनी टीका अ १ म ११ निग्रन्थमवचनमहिमा
१३५ [धर्मकथामूलम् ], " धम्ममाइक्खइ-इणमेवे निग्गथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे के लिए ससुद्धे पडिपुण्णे णेयाउए सलकत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे णिवाणमग्गे णिज्जाणमग्गे जवितह
1 [धर्मकयाछाया] ममाख्याति-इदमेव नैन्थ्य प्रवचन, सत्यमनुत्तर, वलिक, सशुद्ध, पति- पूर्ण, नैयायिक, शल्यकर्तन, सिद्धिमार्गो, मुक्तिमार्गो, निर्वाणमार्गों, निर्याणमार्गः,
धर्ममाख्याति-अस्यादौ 'पुनर्विशेषतः' इति शेषः । इदमेव लोकमसिद्धमेव, यद्वा युग्माभिर्यविद्वानी मन्मुसाउनुभूयते तदेव नैर्ग्रन्थ्य याद्याभ्यन्तरग्रन्था निक्रान्ता., यहा निगतो ग्रन्थो पाह्याभ्यन्तरस्वरूपो येभ्यस्ते निग्रन्थास्तेपामिद, प्रवचन-प्रगत प्रशस्त या वचनम् । मत्य सङ्ग्या-प्राणिभ्यः पदार्थेभ्यो मुनिभ्यश्च हित, यद्वा यथावस्थितजीवादितव्यस्वरूपचिन्तनेन ससम्मुनिप्रभृतिषु साधु', किंवा सन्त-जीवादिलक्षणमर्थमाययति-प्रत्याययति-स्वस्पद्रव्यगुणपर्यायरूपतया
१-'तस्मै हित'-मिति यत् । २-'तत्र साधु' रिति यत् । जन्मके पुण्य-पाप उम जन्मान्तरमे भी शुभ अशुभ फल देते है, अत' वे निष्फल नहीं, सफल ही है।
पुन विस्तारपूर्वक धर्मकी व्याख्या कहते हैं
लोकप्रसिद्ध अथवा अभी जो तुमने मेरे मुखसे सुना है यह वाद्या भ्यन्तर परिग्रहसे रहित निग्रन्थोंका प्रवचन (श्रेष्ठ वचन) सत्य हैअर्थात् प्राणियोंको पदार्थोको और मुनियोंको हितकारक है, अथवा जीव आदि पदार्योंका यथार्थ स्वरूप चिन्तन करनेसे मुनि आदिके लिए साधु (करयाणकारी) है । अथवा सत् अर्थात् जीवादिके स्वरूपको द्रव्य गुण और पर्यायरूपसे यथार्थ प्रतिपादन करने वाला है। यह निर्ग्रन्थ જન્માન્તરને ધારણ કરે છે અને પૂર્વ જન્મના પુણ્ય-પાપ એ જન્માતમા પણ શુભ અશુભ ફળ આપે છે તેથી તે નિષ્ફળ નથી, સફળ જ છે
પુન વિસ્તારપૂર્વક ધર્મની વ્યખ્યા કરીએ છીએ –
લેકપ્રસિદ્ધ અથવા હમણ તમે મારા મુખથી જે સાભળ્યું છે તે બાહ્યાભ્યન્તપરિગ્રહથી રહિત નિર્ચનું પ્રવચન (શ્રેષ્ઠ વચન) સત્ય છે-અર્થાત પ્રાણીઓને પદા
ને અને મુનિઓને હિતકારક છે, અથવા જીવ આદિ પદાર્થોનું યથાર્થ સ્વરૂપ ચિંતન કરવાથી મુનિ આદિને માટે સાધુ (કવાણકારી) છે અથવા સત્ અ થત છવાદિન સ્વરૂપને દ્રવ્યગુણ અને પર્યાયરૂપે યથાર્થ પ્રતિપાદન કરનારૂ છે એ નિર્ચન્જ પ્રવચન
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उपायकदशा सूत्रे
दिकार्याणि मत्यपि कर्त्ता र शरीरव्यतिरिक्तमात्मानमन्तरेण तथैव निष्प्रयोजनत्वनु मानात्, तिलतैलदृष्टान्तस्त्यश्रुतादृष्टाध्यात्मतय विवेकस्य देवानाम्प्रियस्य तवैत्र शोभते प्रत्येक जडत्वेन पृथिव्यादो चैतन्यानुपलम्भस्य सर्वजनीनत्वादिति कृतम सारग्रन्यसमीक्षा विस्तरेण ।
प्रकृतमनुसरामः - इत्थमुक्तरीत्या जीवस्योत्पत्ती सिद्धाया, सफले कल्याण पाप के = पुण्यपापजन्यशुभाशुभफलयोर्जी वे सधात्तस्य चोत्पत्तिमत्वेन जन्मान्तरीयपुण्यपापयोर्जन्मान्तरेऽपि सोभाग्य तदितरफञ्जन तया तत्फलभोक्तुम्तादृशपुण्य पापकर्तुरात्मनः सत्वेन तत्कृते पुण्य पापे अपि सफले, फलस्य कर्तृनिष्ठत्यादिति परमार्थ ।
करण काष्ठको छेदन करनेमें अकिञ्चित्कर है, वैसे ही शरीर से भिन्न आत्मारूप कर्त्ता के बिना, इन्द्रियरूप करण-शयन, आसन (बैठना ), भोजन आदि कार्यो करने मे सर्वथा असमर्थ है । इस अनुमान से भी आत्माकी सिद्धि होती है । और तिल-तैल का दृष्टान्त तो तुम सरीखे को ही शोभा देता है, जिन्होंने अध्यात्मतत्त्व का विवेक न कभी सुना है न कभी देखा है | सब लोग यह भली भात जानते ह कि पृथ्वी आदि महाभूत जड है, इसलिए उनमे से किसी भी चैतन्य नहीं है। अस्तु । इन निस्सार बातोको हम अधिक नही बढाना चाहते ।
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अब प्रस्तुत प्रकरण पर आते है । जब उक्त प्रकार से यह सिद्ध हो चुका कि जीव नयी नयी पर्यायोंमें उत्पन्न होता है तो पुण्य और पाप भी सफल सिद्ध हो गये । तात्पर्य यह है कि पुण्य पापका शुभ-अशुभ फल जीव भोगता है । जीव जन्मान्तरको धारण करता है और पूर्व - કરવત આદિ રણુ ( સાધન) કાષ્ઠને દવામા અકિંચિત્કર છે, તેમ શરી-થી ભિન્ન આત્મારૂપ કર્તા ઇન્દ્રિયરૂપી કષ્ણુ-શયન, આસન (બેસવુ), ભેજન આદિ કાર્યાં કરવામા સવથા અસમર્થ છે. એ અનુમાનથી પણ આત્માની સિદ્ધિ થાય છે અને તલ-તેલનુ દૃષ્ટાન તે તમારા જેવાને જ શોભે છે, કે જેમણે અધ્યાત્મતત્ત્વના વિવેક કદી સાભ
થૈ કે જોયા નથી બધા માસે સારી પેઠે જાણે છે કે પૃથ્વી આદિ મહાભૂત જ છે, તેથી તેમાના એકકેમા પણ ચૈતન્ય નથી અન્તુ એ નિસ્સાર વાતને અમે વધારે લખાવવા છિતા નથી
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હવે પ્રસ્તુત પ્રકરણ પર આવીએ છીએ જ્યારે ઉકત પ્રકારે એ સિદ્ધ થઈ ચૂકયુ કે જીવ નવા નવા પર્યાયમા ઉત્પન્ન થાય છે, તા પુણ્ય અને પાપ પણ સફળ સિદ્ધ થયા તાત્પર્ય એ છે કૈં પુણ્ય-પાપના શુભ-અશુભ ળ જીવ ભાગવત છે
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अगारधर्मसोवनी टीका अ १ स् ११ धर्म नरकादिगतिमाप्तिस्यान १३९
विराजितवक्षसहारैःमौक्तिकादिमालाभिर्विराजित-शोमित वक्षः = उर स्थल येपा ते । 'याव'दिति अत्रत्येन 'जाव' शब्देन-"क्डगतुडियथभियभुया, अगयकुडल्मद्धगडयालकण्णणिपीढधरा, विचित्तहत्याभरणा, दिव्वेण सघाएण, दिश्वेण सठाणेण, दिव्याए उडढीए, दिवाए पभाए, दिवाए छायाए' दिवाए अबीए, दिव्वेण तेएण, दिवाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा" इत्येषा सग्रहः, तच्छाया च-" कटकत्रुटितस्तम्भितभुजा अगदकुण्डला गण्डपालणनिपीडधरा विचित्रहस्ताभरणा दिव्येन महातेन, दिव्येन सस्थानेन, दिव्यया ऋद्रया, दिव्येन तेजसा, दिव्यया लेश्यया दश दिश उद्योतयन्तः"इति, तत्र 'कटके' ति क्टका
बलया., त्रुटितानिचाहुरक्षिकास्तै. स्तम्भिताः स्तव्धीकृता. भुना येषा ते। "अगदे'-ति अङ्गदानि केयूराणि, कुण्डलानि-वर्णभूषणतया प्रसिद्धानि, अर्द्धगण्डपालानिन्कुण्डलाकाराणि विस्तृतानि गोकुलाख्यान्याभरणानि, कर्णनिपीडानिकुण्डलादिभिन्नानि कर्णामक्तान्याभरणानि, तेपा धरा धारकाः। 'विचित्रे-तिविचित्राणि नानारूपाणि हस्ताभरणानि-अगलीयवादीनि येपा ते। दिव्येनअलोकिकेन । सघातेन शरीररचनया । सस्थानेन अवयवसनिवेशविशेषेण । महाद्युतिवाले, महायलवाले, महायशवाले, महानुभाग और द्रगतिक (अनुत्तर देव) होते हैं। उनके वक्षस्थल में मोतियों आदि की मालाएँ शोभायमान होती हैं, उनकी भुजाएँ कडे और त्रुटित (बाहुओंका एक गहना) से स्तभित सी हो जाती हैं, वे अगद (भुजयन्ध), कुण्डल, अर्द्धगण्डपाल (गोकुल नामक आभूपण-विशेष) कर्णनिपीड (कानका आभूपण-कर्णफूल) को धारण करते है, हाथोमे चित्र-- विचित्र प्रकारके गहने पहनते हैं, दिव्य सघात (शरीरकी रचना), दिव्य सस्थान (शरीरकी आकृति), दिव्य ऋद्धि, दिव्य कान्ति, दिव्य छाया, दिव्य दीप्ति, दिव्य तेज और दिव्य लेश्यासे दशो दिशाओंको, ઋદ્ધિવાળા, મહાદ્યુતિવાળા, મહાબળવાળા, માયશવાળા મહાનુભાગ, અને દૂરગતિક (અનુત્તરદેવ) થાય છે એમના વક્ષસ્થળમાં મેતી આદિની માળાઓ શોભે છે, એમના ભુજાએ કડા અને બાહુબધ (બાહ પર બાધવાના ઘરેણા)થી સ્તભિત સરખી થઈ છે. તેઓ અગદ (ભુજ), કુડલ, અર્ધગડેપાલ (ગેકૂળ નામક આભૂષણવિશેષ), કર્ણ નિપીડ (કાનનું ઘરેણુ-કર્ણફેલ)ને ધારણ કરે છે, હાથમા ચિત્ર-વિચિત્ર પ્રકારના घरेश पाडेरे छ, दिव्य संघात (शरीफ्नी श्यना), दिव्य सस्थान (शरीरनी मालि), દિવ્ય ઋદ્ધિ, દિવ્ય કાન્તિ, દિવ્ય છાયા, દિવ્ય દીતિ દિવ્ય લેસ્યાથી દશે દિશાઓને
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
[ धर्मकथामूलम् ]
गइ चिरपि । तेण तत्थ देवा भवति महिदया जब चिड़िया हार २ 'जान' शब्दात् - 'महज्जुइया, महावला, महाजसा, महाणुभागा, दूरगइया' इति दृश्यम् ।
[ धर्म थालाया ]
"
महासौख्येषु दूरगतिकेषु चिरस्थितिकेषु । ते खलु तत्र देवा भवन्ति महर्द्धिका यावत् = पूर्वार्जिताना कर्मणा परिशेपेग, अन्यतरेषु अन्यतमेषु देवलोकेषु = देव भनेषु, देवत्वेन = देव भावेन उपपत्तार उपपन्ना भवन्ति । कीदृशेषु देवलोकेषु ? इत्याह महर्द्धिकेषु = महती = विमानपरिवारादिसपन्नतया विशाला ऋद्धिः - दिव्या सुखसम्पत् येषु तादृशेषु । याच ' -दिति अत्रत्येन ' जाव ' शब्देन ' महायुतिकेषु, महाबुछेषु, महायशस्सु, महानुभागेषु इति शब्दा ग्राद्या. । व्याख्या स्पष्टा । महासौख्येपु=महत् सौख्य येषु तादृशेषु उपशान्त रुपायतया मन ममापि पुलमुखस पन्नेषु । दूरगतिकेषु = अनुत्तरनिमानादिषु, चिरस्थितिकेषु = चिरा बहुसागरोपमा स्थितिर्येषु तेषु । ते= पूर्वोक्ता पुण्यप्रकृतयो भदन्ता खलु निश्चयेन तत्र कीदृशा भवन्ती ? म्याह- 'महर्द्धिका' इत्यादि । हार १ महर्द्धिकाः 'महाद्युतित्रा, महावला', महायशस., महानुभागा, दूरगतिकाः' इति ज्ञेयम् ।
अर्थात् निर्ग्रन्थ प्रवचनके आराधक महापुरुष, पूर्व भवके उपार्जित कुछ कर्मोंके अवशेष रह जानेसे उसी भवमें मुक्त नही होते वरन् देवलोक में जाकर तथाविध वैमानिक देव होते हैं और फिर एकबार मनुष्य जन्म धारण करके मुक्त हो जाते हैं । इसीको स्पष्ट करते हैं कि - वे विमान परिवार आदिसे महान ऋद्धि वाले ('जाव' शब्दसे) महान् द्यति वाले, महान बल वाले, महान् यश वाले, और महान् अनुभाग वाले, तथा जहाँ पायोंके उपशान्त हो जाने के कारण मनकी समाधिरूप विपुल सुखवाले, और बहुत सागरोंकी स्थिति वाले, अनुत्तर विमान आदिमे उत्पन्न होते हैं । वे, महान ऋद्धिवाले,
મહાપુરૂષા પૂર્વભવના ઉર્જિત કર્યાં અવશેષ રહી જવાથી એજ ભવમા મુકત નથી થતા, પરન્તુ દેવલેાકમા જઈને વૈમાનિક ધ્રુવ થાય છે અને પછી એક વાર મનુષ્ય જન્મ ધારણ કરી મુકત થઈ જાય છે આ વાતને હવે વિશેષ સ્પષ્ટ કરે છે કે તેઓ વિમાન પરિવાર આદિથી મહાન ઋદ્ધિવાળા, ( ‘જાવ” શબ્દથી મહાન્ દ્યુતિવાળા, મહાન્ બળવાળા મહાન યશવાળા, મને મહાન અનુભાગવાળા, તથા જ્યાં કષાયે ઊપશાન્ત થઈ જવાને કારણે મનની માધિરૂપ વિપુલ મુખવાળા અને ઘણા સાગશની સ્થિતિવાળા અનુત્તર વિમાન આદિમા ઉત્પન્ન થાય છે, એટલે તેએ મહાન્
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अ० टीका अ. १ सु. ११ धर्म० नरकादिगतिमाप्तिस्थान (४) निरूपणम् १४१ [ धर्मकथा मूलम् ]
रइयत्ताए कम्म पकरेत्ता रइएस उववज्जति, तजहा- महारभयाए, महापरिंगयाए, पचिदियत्रण, कुणिमाहारेण । एवं एएण अभिलावेण तिरिक्खनोणिएस [ धर्मस्याछाया ]
नैरयिकताया. नर्म प्रकृत्यनैरयिकेषु उपपद्यन्ते, उद्यया - महारम्भतया, महापरिग्रहतया, पञ्चेन्द्रियत्रधेन, कुणपाहारेण । एवमेतेनाभिलापेन तैर्यग्योनिकेपु, मायितया पुन प्रकारान्तरेण वक्तुमाह
'त' मिति - त=धर्मम् । एवद् अग्रे वक्ष्यमाणरीत्या | खलु निथयेन। स्थानैः = प्रकारैः। नैरयिकतायाः=नारस्त्विस्य । प्रकुर्वन्ति नन्ति । प्रकृत्य = वध्वा, नारकनाम गोत्रे कर्मणी वा मृत सन्नित्यर्थ' । एव मनुष्यादिष्वपि सगमनीयम् । नैरयिकेषु = निरयभवेषु नार+जीवेष्वित्यर्थं । उपपद्यन्ते = उत्पन्ना भवन्ति । तद्यथा तान्येव चत्वारि स्थानानि दर्शयति- महारम्भतया = महान् आरम्भ' =पञ्चेन्द्रियादिव धवलः सर' शोषणोष्टाश्वादिवाहनादिरूपो येपा, तद्भावो महारम्भता, तया (१) । महापरिग्रहत पा=महान् परिग्रह =धनधान्यादिममन्व येषा तद्भावो महापरिग्रहता तया (२) । पञ्चेन्द्रियत्रप्रेन= मनुष्यतिर्यकप्राणनाशनेन (३) । कुणपाहारेण= मासभक्षणेन (४) । एवमेतेनाभिलापेन = इत्थमनेनैव क्रमेण - "एव खलु चतुर्भि स्थानदूसरी तरहसे धर्मका व्यारयान करते हैं
चार स्थानोंसे जीव नरकका आयुकर्म बाधता है और काल करके नारकी में उत्पन्न होता है । वे चार स्थान इस प्रकार हैं(१) महा आरभ करनेसे - जिसमें पचेन्द्रिय आदिका वध होता हो ऐसे तालाव सुखाने आदिसे, (२) महापरिग्रह रखनेसे अर्थात् धनधान्य आदिमें तीव्रतर लालसा रखने से, (३) मनुष्य तिर्यच आदि पचेन्द्रिय का वध करनेसे, (४) मास- मक्षण करनेसे |
इसी प्रकार चार स्थानीसे जीव तिर्यच आयुकर्म नापता है હવે ખીજી રીતે ધર્મનું વ્યાખ્યાન કરીએ છીએ
ચા સ્થાનેાથી જીવ નરકનું આયુકમ ખાધે છે અને કાળ કરીને નારકીમા ઉત્પન્ન થાય છે તે ચાર સ્થાન આ પ્રમાણે (૧) મહાઆરભ કરવાથી–જેમા પચે ક્રિય આદિના વધ થતે હાય એવા તલાવ સુકાવવા વગેરેથી, (૨) મહાપરિગ્રહ નાખવાથી અર્થાત્ ધન ધાન્ય આદિમા તીવ્રતર લાલસા રાખવાથી, (૩) મનુષ્ય તિર્યં ચ અર્દિ પચેદ્રિયના વધ કરવાથી, (૪) માસ ભક્ષણ કરવાથી.
ચ્યા પ્રમાણે ચાર સ્થાનાથી જીવ તિર્યંચ-આાયુક ખાધે છે અને કાળ કરીને
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धर्मकथामूलम् ] विराइयवच्छा जाब पभासेमाणा, कप्पोवगा, गतिमल्लाणा, ठिकल्लाणा, आगमे सिभक्षा नाव पडिरूया।
तमाइक्खड-एव खलु चउहि ठाणेहिं जीना णेरइयत्ताए कम्म पकरेंति, ___३ 'जान' शब्दात्-'पासादीया, दरिसणिज्ना, अभिरुवा' इति दृश्यम् ।
[धर्मकयाछाया ] चिरस्थितिकाः, हारविराजितवक्षसः यावत्मभासयन्त', कल्पोपगा गतिकल्याणाः स्थितिकल्पाणा आगमिष्यद्भद्रा यावत्प्रतिरूपाः । । तमाख्याति-ए। ग्वलु चतुर्भिः स्थानर्जीवा नैरयिकतायाः कर्म प्रकुर्वन्ति, अवशिष्टाः प्रसिद्धार्थकाः। दिव्येन सघातेनेत्यादिपु करणार्थे तृतीया, करणत्व चोद्योतनादिक्रियापेक्षया । उद्योतयन्तामफाशयन्तः, प्रभासयन्त प्रकर्षण शोभयन्त । कल्पोपगा. कल्प -इन्द्रसामानिरुत्रायस्त्रिंशादिव्यवहारस्वरूपआचार स्तमुपगता माता -सौधर्मादिदेवलोकरासिनो वैमानिका देवा ।गतिकल्याणागतिर्देवगति सैव तया वा कल्याण येपा ते । स्थिनिकल्याणा:-स्थितिस्त्रयस्त्रि शत्सागरोपमलक्षणा सैव कल्याण येपाते। अत एव आगमिष्यद्भद्रा: आगमिष्यति =भविष्यति काले भद्र-सिद्धिप्राप्तिलक्षण येषा ते । 'याव' दिति, अत्रत्य 'जाव' शब्दवाच्याः प्रासादीयादय प्राग्व्याख्याताः। .
१ 'प्रासादीया , दर्शनीयाः, अभिरूपा, प्रतिरूपाः ।। इति ज्ञेयम् । । उद्योतित करते हुए, प्रकाशित करते हुए, प्रभासित (प्रभायुक्त) करते हुए, इद्र सामानिक प्रायस्त्रिंश आदिके व्यवहार के अनुकूल आचरण करनेवाले वैमानिक देव होते हैं। देवगति ही कल्याणरूप है, अथवा देवगतिसे उनका कल्याण होता है, वे अनुत्तर विमानमि उत्कृष्ट तेतीस सागर तक स्थित रह सकते है इसलिए वे स्थिति कल्याण है, भविष्य कालमे मुक्तिरूप भद्र (कल्याण) को प्राप्त करते हैं। तथा प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होते है । ઉદ્યોતયુકત કરનારા, પ્રકાશિત (પ્રભાયુકત) કરનારા, ઈદ્ર સામાનિક ત્રાયશ્વિશ આદિના વ્યવહારને અનુકળ આચરણ કરના વૈમાનિક દેવ થાય છે દેવ ગતિ જ કલ્યાણરૂપ છે, અથવા દેવગતિથી એમનુ કલ્યાણ થાય છે તેઓ અનુત્તર વિમાનમાં ઉત્કૃષ્ટ તેત્રીસ સુધી સ્થિત રહી શકે છે, તેથી તેઓ સ્થિતિકલ્યાણ છે, ભવિષ્ય કાળમા ભદ્ર (કલ્યાણ)ને પ્રાપ્ત કરે છે, તથા પ્રાસાદ, દર્શનીય અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે -
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अ० टीका अ.१ सू.११ धर्म० नरकादिगतिमाप्तिस्थान (४) निरूपणम् १४१
[धर्मफया मूलम् ] णेरइयत्ताए कम्म पकरेत्ता णेरइएस उपवज्जति, तजहा-महारभयाए, महापरिगहयाए, पचिंदियवहेण, कुणिमाहारेण । एव एएण अभिलावेण तिरिक्खनोणिएम
[धर्मस्थाछाया ] नैरयिकतायाम प्रकृत्यनैरयिकेपु उपपद्यन्ते, तद्यथा-महारम्भतया, महापरिग्रहतया, पञ्चेन्द्रियवघेन, कुष्पपाहारेण । एउमेतेनाभिलापेन तैर्यग्योनिकेषु, मायितया
पुनः प्रकारान्तरेण वक्तुमाह___ 'त'मिति-त-धर्मम् । एवद्-अग्रे क्ष्यमाणरीत्या। खलु-निश्चयेन । स्थान:प्रकारैः। नरयिस्तायाः नाररित्वस्य । प्रकुर्वन्ति प्रश्नन्ति । प्रकृत्य बदध्वा, नारक नाम गोत्रे मणी वद् वा मृत' समित्यर्थः । एव मनुष्यादिष्वपि सगमनीयम् । नैरयिकेपु-निरयभवेषु नारकजीवेष्वित्यर्थः । उपपद्यन्ते उत्पन्ना भवन्ति । तद्यथातान्येव चत्वारि स्थानानि दर्शयति-महारम्भतया-महान् आरम्भः पञ्चेन्द्रियादिव धबहुल: सर शोपणोष्ट्राचादिवाहनादिरूपो येपा, तझायो महारम्भता, तया (१)। महापरिग्रहतया महान् परिग्रह अनधान्यादिममत्व येपा तद्भावो महापरिग्रहता तया (२) । पञ्चन्द्रियवन-मनुष्यतिर्यप्राणनाशनेन (३)। कुणपाहारेण-मास भक्षणेन (४)। एवमेतेनाभिलापेन इत्यमनेनैव क्रमेण-"एव खलु चतुर्मि स्थान
दूसरी तरहसे धर्मका व्याख्यान करते है
चार स्थानों से जीव नरकका आयुकर्म यांधता है और काल करके नारकी में उत्पन्न होता है । वे चार स्थान इस प्रकार हैं(१) महा आरभ करनेसे-जिसमें पचेन्द्रिय आदिका वध होता हो ऐसे तालाब सुखाने आदिसे, (२) महापरिग्रह रखनेसे अर्थात् धनधान्य आदिमें तीव्रतर लालसा रखनेसे, (३) मनुष्य तिर्यच आदि पचेन्द्रिय का वध करनेसे, (४) मास-भक्षण करनेसे ।
इसी प्रकार चार स्थानोसे जीव तिथंच--आयुकर्म धिता है હવે બીજી રીતે ધર્મનું વ્યાખ્યાન કરીએ છીએ –
ચાર સ્થાનેથી જીવ નરકનું આયુકર્મ બાંધે છે અને કાળ કરીને નારકીમા ઉત્પન્ન થાય છે તે ચાર સ્થાન આ પ્રમાણે -(૧) મહાઆર ભ કરવાથી–જેમાં પચે દિય બાદિન વધ થતું હોય એવા તલાવ સુકાવવા વગેરેથી, (૨) મહાપરિગ્રહ રાખવાથી અથત ધન ધાન્ય આદિમ તીવ્રત૨ લાલસા રાખવાથી, (૩) મનુષ્ય તિર્યંચ આદિ પચેદ્રિયને વધ કરવાથી, (૪) માસ ભક્ષણ કરવાથી
આ પ્રમાણે ચાર સ્થાનેથી જીવ તિર્યચ-આયુકર્મ બાંધે છે અને કાળ કરીને
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उपासकदवाने [ धर्म कथामूलम् ] माइल्लयाए, णियडिल्लयाए, अलिययणेण, उकवणयाए, वचणयाए । माणुस्सेस
[धकयाछाया ] निकृतिमत्तया अलीकवचनेन, उत्कुश्चनया, पञ्चनया । मनुष्येषु प्रकृतिभद्रतया जीवास्तग्योनिकतायाः कर्म मकुर्वन्ति, तैर्यग्योनिकतायाः कर्म प्रकृत्य" इत्येव रूपया वाक्यपद्धत्येत्यर्थः । एवमग्रेऽपि यथोचितशब्दपरिवर्तनया वाक्यपद्धति' स्वय प्रकल्पनीया । तैर्यग्योनिकेपु-तिर्यग्योनिभवजीवेषु "उपपद्यन्ते, तद्यथा" इतिपदद्वय सर्वयोज्यम् ।मायितया माया परमतारणबुद्धि सैपामस्तीति मायिन स्तद्भावो मायिता तया, तदयुक्तयेत्यभिमाय , अस्य निकृतिमत्तयेत्यनेन सम्बन्धः। 'मायावितया' 'मायिकतया' इतिच्छायाद्वयपक्षेऽप्ययमेवार्थी ज्ञेय.। निकृतिमत्तयार निकृतिः-मायासवरणार्थ मायान्तरकरण सैपामस्तीति निकृतिमन्तस्तद्भावो नि कृतिमत्ता तया(१) अलीकवचनेन अमत्यभापणेन (२)। उत्कुञ्चनया-उत्कृञ्चनउत्कोच. (रिश्वत, घूस) इतिभापाप्रसिद्धति यावद , तया (३)। वञ्चनया साक्षात्प्रतारणया (४) । अन्यत्र तु मायिता, गढमायिता ऽलीकवचन, कृटतोलन कूटप्रमाणे चेत्येव स्थानचतुष्टयमुपलभ्यते । मनुष्यजीवेषु पुन वैश्वनुभिः स्थान रुप्तधन्ते , तदर्शयितुमाह-'मनुष्ये'-वित्यादि, प्रकृतिभद्रतया प्रकृत्या स्वभा वेन भद्रा सरलास्तद्भावः प्रकृतिभद्रता तया (१) । प्रकृतिविनीततया स्वभावता
और काल करके तिर्यच होता है। वे चार स्थान इस प्रकार है(१) मायावी होकर अर्थात् दूसरोंको ठगनेकी बुद्धि रख कर एक मायाको ढकनेके लिए पुन मायाचार करनेसे, (२) मृषावाद बोलनेस (३) रिश्वत (घुस) लेनेसे, (४) वञ्चना-साक्षात् गाई करनेस । कहीं-कहीं-'माया, गूढमाया, असत्य बोलना और खोटा नापना तोलना' इस प्रकार भी चार स्थान पाये जाते हैं। .
इसी प्रकार चार स्थानोंसे जीव मनुष्य-आयुकमे बांधता ए તિય ચ થાય છે તે ચાર સ્થાન આ પ્રમાણે છે(૧) માયાવી થઈને એથતિ બીજા એને ઠગવાની બુદ્ધિ રાખીને માયાને છુપાવવાને પુન માયાચાર કરવાથી, (२) भपापा सातवाथी, (3) वाय पाया, (४) क्या -छतरपी रवाय કઈ રળે માયા, ગૂઢ માયા, અસત્ય બોલવુ અને બેટા તેલ-માપ કરવા” એ પ્રમાણે પણ ચાર સ્થાન માલુમ પડે છે
એ પ્રમાણે ચાર સ્થાનેથી છવ મનુષ્ય-આયુકમ બધે છે અને કાળ કરીને
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ११ धर्म० नरकादिगतिस्वरूपनिरूपणम् १४३
[ धर्मकथामूलम् ] पग महयाए, पटविणीययाए, साणुकोसयाए, अमच्छरियाए । देवेसुसरागसजमेण सजमासजमेण, अकामणिज्जराए, वाळवोकम्मेण ।
[ धर्मकयाछाया ]
प्रकृतिविनीततया, सानुक्रोशतया, अमत्सरितया । देवेषु सरागसयमेन, सयमा सयमेन, अकामनिर्जरया, बाळतपःकर्मणा ।
विनयवत्तयेत्यर्थ (२) । मानुक्रोशतया अनुक्रोश = कृपा भूतानुकम्पेत्यर्थस्तत्सहिता' सानुक्रोशास्तद्भाव सानुक्रोगता तया (३) अमत्सरितया = मत्सरो ऽन्यश्शुभद्वेषस्तदभा वोऽमत्सर - परगुणग्राहित्व सोऽस्त्येपामित्यमत्सरिणस्तद्भावोऽमत्सरिता तथा (४) । देवेषु = देवलोकेषु | देवत्वमाप्तिहेतुभूतानि चत्वारि स्थानानि दर्शयति- 'सरागे'त्यादि= मरागसयमेन = रागेण भासत्या सहितः सराग, म चासौ सयमय सरागसयमम्तेन–कषाय सपृक्तचारित्रेणेत्यर्थ (१) । सयमा सयमेन - सयमयुक्तोऽसयमस्तेन (२) । अकामनिर्जरया=अकामेन=अभिलापमन्तरेणेत्यर्थ, निर्जग=मुदादिसहन तया (३) । बालतप कर्मणा - बालमादृश्याब्दाला मिथ्यादृशस्तेपा तप - कर्म - बालतप कर्म तेन (४) ॥
और काल करके मनुष्य होता है । वे चार स्थान बताते हैं- (१) स्वभावसे भद्र (सरल) होनेसे, (२) स्वभाव से ही विनीत होनेसे, (३) प्राणियों पर अनुकम्पायुक्त होनेसे, (४) अन्यकी भलाईमें द्वेष न करने वाले होनेसे और दूसरेके गुणोंका ग्राही होनेसे ।
इसी प्रकार चार स्थानोंसे जीव देव- आयुकर्म यांधता है और काल करके देव - पर्याय में उत्पन्न होता है । वे चार स्थान इस प्रकार हैं- (१) सराग सयमसे अर्थात् आसक्ति (पाय ) युक्त चारित्रसे (२) देशविरति (श्रावकपने) से, (३) अकामनिर्जरासेबिना इच्छाके (जबर्दस्ती) क्षुधा आदिको सहन करनेसे, (४) याल तपस्यासे - मिथ्यात्व युक्त होकर तपस्या करनेसे ॥
મનુષ્ય થાય છે તે ચાર સ્થાન આ પ્રમાનું -સ્વભાવે સદ્ન ( મરલ ) વ્હેવાથી, (૨) સ્વભાવથી વિનીત રહેવાથી, (૩) પ્રાણીએ ઉપર અનુક પાયુકત રહેવાથી, (૪) ખીજાના ભલામ્પ દ્વેષ ન કન્ધાથી તથા ખીજાના ગુણ્ણાના માહી થવાધી
એ પ્રમાણે ચાર સ્થાનેથી જીવ આયુક આધે છે અને કાળ કરીને દેવપ ૉંચમા ઉત્પન્ન થાય છે એ ચાર સ્થાન આ પ્રમાણે છે(૧) ઞરાગ સયમથી અર્થાત્ આમકિત ( કષાય युक्त शास्त्रिधी, (२) देश-विशति ( श्रावश्था थी,
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- [धर्मकयामूलम् ] तमाइक्खइ-जह णरगा गम्मति, जे णरंगा जातवेदणा णरए । सारीरमाणसाई, दुक्खाइ तिरिक्खजोणीए ॥१॥ माणुस्स च अणिच वाहिजरामरणवेयणापउर ।
[धर्मस्थाछाया] तमाख्याति-यथा नरका गम्यन्ते ये नारका जातवेदना नरके । शारीरमानसानि - दुःखानि तिर्यग्योन्याम् ॥१॥ मानुष्य चानित्यं, व्याधिजरामरणवेदनाप्रचुरम् ।
तमाख्याति पुनः प्रकारान्तरेण धर्ममादिशतीत्यर्थः, कथमादिशती ? त्याह'यथे-'त्यादि, यथा येन प्रकारेण नरका.नरयस्थानानि, गम्यन्तेमाप्यन्त माणिभिरिति शपः, यथा च-ये नारका' नरकनिगासनः, यातवेदना' याताः प्राप्ता वेदना: शीतोप्णादिदशविधक्षेत्रयातना यैस्ते, कुत्र यातवेदना.? इत्याह'नरके' इति । यथा च तिर्यग्योन्या शारीरमानसानि-शरीरसम्बन्धीनि मनःसम्ब न्धीनि च दुःखानि भान्ति प्राणिनामिति शेपस्तथा भगवान् परिकथयति-सदेवमनुष्यपरिपत्मपदिशति । एव व्याधयो-ज्वरादयः, जरा वार्द्धक, मरणम्मासमा वेदनाःमागुक्तस्वरूपा', प्रचुरा विशदा यस्मॅिस्तादृशम् , अतएव अनित्य-क्षण भगर, मानुष्य-मनुष्यभव परिकथयति, तथा देवान् , च-पुन' देवलोकान्, दव
पुनः धर्मका कथन करते हैं
नारकी जीव नरकमें जिस प्रकार सर्दी गर्मी आदिकी दस प्रकार की क्षेत्रवेदना भोगते है, तिथंच गतिमें तिर्यच जिस प्रकारके शारीरिक
और मानसिक कष्ट पाते है, उन सबका कथन भगवान् देव और मनुष्योंकी परिषद्में करते है । भगवान् यह भी प्ररूपणा करते हैं कि इस मनुष्य पर्यायमे भी जो ज्वर आदि व्याधिया, बुढापा, मृत्यु, आदि वेदनाये होती है वे स्पष्ट ही हैं। यह मनुष्य पर्याय क्षणविनाशी है। (3) અકામ નિજેરાથી-ઇરછા વિના (જબરદસ્તીથી ) ભૂખ આદિને સહન કરવાથી - (૪) બાળ તપસ્યાથી–મિથ્યાત્વયુકત થઈને તપસ્યા કરવાથી
પુન ધર્મનું કથન કરે છે –
નરકી જીર્વે નરકમાં જે પ્રમાણે શરદી-ગરમી આદિના દસ પ્રકારની વેદના ભગવે છે. તિર્ય ચ ગતિમા તિર્થં ચ જે પ્રકારના શારીરિક અને માનસિક કષ્ટો પોમ છે, એ બધાનું કથન ભગવાન, દેવ અને મનુષેની પરિષદમાં કરે છે ભગવાન્ એવી પણ પ્રરૂપણ કરે છે કે આ મનુષ્યપર્યાયમાં પણ જે જવર આદિ વ્યધિઓ, વૃદ્ધાવસ્થા, મૃત્યુ, આદિ વેદના થાય છે તે સ્પષ્ટ જ છે એ મનુષ્યપર્યાય ક્ષવિનાશી છે ભગવાન
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ११ धर्म० नरकादिगतिस्वरूपनिरूपणम् १४५ [ धर्मकथामूलम् ]
देवे य देवलोए, देवडूिं देवसक्वाइ ||२|| णरंग तिरिक्ग्वजोणि, माणुसभाव व देवलोग च । सिद्धे य सिद्धवसहि, छज्जीवणिय परिकहेइ || ३ || जब जीवा बज्झति, मुञ्चति जह य परिफिलिम्सति । जड दुक्खाण अत, करेति केइ य अपडिचद्धा ||४|| [ धर्मकथाछाया ]
देवा देवलोकान, देवर्द्धि देवसौख्यानि || २ || नरक तिर्यग्योनिं मानुषभाव च देवलोक च । सिद्धाव सिद्धवसतिं षडजीवनिका परिकथयति ॥ ३॥ यथा जीवा बध्य ते मुच्यन्ते यथा च परिक्लिश्यति । यथा दुखानामन्त कुर्वन्ति, केऽपि चाप्रतिबद्धा ||४||
,
"
र्द्धि = देवसमृद्धिं देवसौख्यानि = देवमम्बधीनि सुखानि । एतान्येव नरकादीनि सगृह्य ब्रूते - नरक = नरकवास, तिर्यग्योनिं मानुषभाव = मनुष्यत्व च देवलोक च । चकिच सिद्धान् सिद्धासर्वि= सिद्धक्षनम् अपि च पजीवनिका परिकथयति । एव यथा जीवा चभ्यन्ते वन्य प्राप्नुवन्ति, मुच्यन्ते= मुक्ता भवन्ति, यथा च परि= सर्वथा क्लिश्यन्ति = विशिष्ट क्लेशमनुभवन्ति । चविश्व केऽपि कतिचित जीवा इत्येव, अप्रतिबद्धा =मतिअन्वरहिता सन्त' दु खाना = शारीरादीनाम् अन्त-नाश कुर्वन्ति । यथा च जीवा आर्चदुर्घटितचित्ताः = आर्चा =पीडिताः अत एत्र दुर्घटितम् भगवान् देव, देवलोक, देवोंकी ऋद्धि, देवोंके सुख, इसी प्रकार नरकनरकावास, मनुष्यभव, देवलोक, मिद्ध सिद्धक्षेत्र और पट्टकायके जीवों का भी कथन करते हैं । जीव जिस प्रकार कर्मोसे बघते है, जिस प्रकार कर्मासे मुक्त होते है, जिस प्रकार अत्यन्त क्लेश पाते हैं, इसका कथन करते है । समस्त जीव कितने हैं, कितने जीव प्रतिबन्धरहित होकर शारीरिक आदि दुःखोंका अन्त करते है, यह भी निरूपण करते है । जिस प्रकार जीव दुखी होकर चचल होते है अथव आध्यान से खिन्न मन या पीडाओंके कारण दुःखी और विचलितचित्त દેવ દેવલોક, દેવેની ઋદ્ધિ, દેવેના સુખ એજ પ્રમાણે નરક નરકાવામ, મનુષ્યભવ, દેવલાક, સિદ્ધ, સિદ્ધક્ષેત્ર અને ષટ્રકાયના જીવાનુ પણ કથન કરે છે, જે પ્રકારે જીવ કર્માથી બધાય છે. જે પ્રકારે જીવ કર્મોથી મુક્ત થાય છે, જે પ્રકારે અત્યન્ત કલેશ પામે છે, એનુ કથન કરે છે બધા જીવા કેટલા છે, કેટલા જીવ પ્રતિષ્ઠ ધરહિત થઈને શારીરિક આદિ ૬ ખાના અત કરે છે પ્રકારે જીવ દુખી થને ચચળ થાય છે અથવા આત ધ્યાનથી ખિન્ન મન, ચા પીડાને કારણે હું ખી અને વિચલિતચિત્ત થાય છે, જે પ્રકારે જીવ દુ ખેાના સમુદ્રમા ડૂબે છે, જે પ્રકારે જીવ વૈરાગ્ય પ્રાપ્ત કરીને કર્મોના
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उपासकदवाने [ धर्मकथामूलम् ] अदुट्टियचित्ता नह जीवा दुक्खसागरमुर्वेति । जा रंगमुवगया, कम्मसम्मा विहाडेति ॥ ५॥जह रागेण कडाण, कम्मा पारयो फलविवागो । जह य परि हीणकम्मा, मिद्धा सिद्धालयमुर्विति ॥६॥ तमेव धम्म दविह आइस्पा, तनहा-अगारधम्म, अणगारधम्म च । अनगार
[ धर्मस्थाछाया ] "आतंदुर्घटितचित्ता यथा जीना दखसागरमुपयन्ति । यथा बेराग्य मुपगता' कमसमुद् विघाटयन्ति ।। ५ ॥ यथा रागेण कृताना मणा पापका फलविषाकः । यथा च परिहीणरमाण सिद्धाः सिद्धालयमुपयन्ति ॥६॥
तमेव धर्म द्विविधमाख्याति, तप्रथा-अगारधर्म , अनगारधर्मश्च । अनगार अनवन्धित चित्त येषा तादृशा., 'अट्टा अट्टियचित्ता' इति पाठान्तरपक्षे तु आता दार्तितचित्ताः' इातच्छाया, तत्र-आतिम्मानध्यानाद आतित-पीडित चित्त येपा ते, 'अनियट्टियचित्ता' इति पाठान्तरपक्षे 'आर्तन्यर्दितचित्ताः' इतिच्छाया, तत्र आना-पीडाना समूह आर्स तेन नितरामर्दित-दुखित, यद्वा विचलित चित्त येषा ते, यथा च जीवाः दुःखसागरन्दुःखरूप समुद्रम् उपयन्तिमाप्नुबान्त यथा च वैराग्यम् उपगता-माता कर्मसमुन्द-कर्मणा समुन्द-मजूपा कमराशि मिति यावत् विघाटयन्ति त्रोटयन्ति नाशयन्तीति यावत् । यथाच रागेण-आसत्या कृताना-सपादिताना कर्मणा फलविपाक =फलपरिणामः पापका पापमय ।
१-आत्ति सञ्जाताऽस्येति-'आतित'-तारकादित्वादितच । होते है, जिस प्रकार जीव दुवोंके समुद्र में डूबते है, जिस प्रकार वैराग्य प्राप्त करके कौके समूहको नष्ट कर डालते है, जिस प्रकार रागसे उपार्जित किये हुए कर्म पापरूप फल देते है, जिस प्रकार समस्त काँसे रहित सिद्ध भगवान् सिद्धगतिको प्राप्त होते है, भगवान इन सघका वर्णन करते है।
भगवान पूर्वोक्त धर्मको दो प्रकारसे निरूपण करते है-एक अगारधर्म दूसरा अनगारधर्म । સમડને નાશ કરી નાખે છે, જે પ્રકારે રાગથી ઉપાજિત કમ પાપરૂપ ફળ આપે છે જે પ્રકારે બધા કર્મોથી રહિત સિદ્ધ ભગવાન સિદ્ધગતિને પ્રાપ્ત થાય છે, ભગવાન એ બધાનું વર્ણન કરે છે
* ભગવાન પૂર્વોક્ત ધર્મને બે પ્રકારને નિરૂપે છે -એક અગાર-ધર્મ, બીજે અનગાર-ધમ
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अगारधर्मी टीका अ० १ सू० ११ धर्म० अनगारधर्म स्वरूपवर्णनम् १४७
[ धर्मकथामूलम् ]
धम्मो ताव- इह खलु सन्चओ सव्वत्ताए मुडे भविता अगाराभो अणगारिय पव्वयई [ धर्मकथाछाया ]
धर्मस्तावत्-इह खलु सर्वत सर्वात्मना मुण्डो भूत्वा अगारतोऽनगारिता मव्रजति, यथाच येन प्रकारेण च, परिहीण कर्माण = परिहीगानि विनष्टानि कर्माणि येषा ते. सिद्धाः=प्राग्व्याख्यातस्त्ररूपाः, सिद्धालय = लोकान्तक्षेत्रलक्षण स्थानम्, उपयन्ति= माप्नुवन्ति तथा भगवान परिकथयतीति पूर्वेणान्वयः ॥ ६ ॥
'तमेवे' ति-तमेत्र=पूर्वोक्तमेव धर्म द्विविध= द्विमकारम् आख्याति = उपदिशति । तद्यथातत् = धर्मद्वैत्रिय यथा यथाऽऽख्याति तथोच्यते इत्यर्थः । अगारधर्मः, =न गच्छन्तीत्यगा. = वृक्षास्तानर्थात् पुष्पितफलितत्व। दिमाम्यात्तत्चुलनामृच्छति =पामोतीनि, यद्वा न गीर्यन्ते= निवासस्थानमाप्या न निवासादिराग्रस्ना भवन्ति मनुष्या यस्मिन्नित्यगार = गृह तात्स्थ्यादगारा गृहम्या. - आधाराचेययोरभेदोपचारात् 'गृहा दारा' इत्यादिवत्, यद्वा-अगारमस्त्येपामित्यर्थे 'अर्श आदिभ्योऽच' इति मत्वर्थीयाच्प्रत्ययान्तत्वात् तेपा धर्म = पूर्वोक्तस्वरूप• । चविञ्च - अनगारधर्मः =
つか
जो गमन न करे उसे अग (वृक्ष) कहते हैं । अग (वृक्ष) में पुष्पितपना फलितपना आदि होते हैं, इस सदृशताको लेकर ही घरको अगार कहते हैं, अथवा जिसमें रह कर मनुष्य निवास आदिके कष्टोंको नही पाता उसे अगार (घर) कहते हैं । घर आगार है और उसमें निवास करने वाला है । यहा आधार और आधेका उपचारसे अभेद है, इसलिए अगार (घर) में रहने वालेको भी अगार कहा गया - है । जैसे कही कहीं स्त्रीको ही 'गृह' कह दिया जाता है । अथवा 'अगार (घर) हैं जिनके' ऐसो भी व्युत्पत्ति हो सकती हैं। अस्तु । गृहस्थोंके धर्मको अगारधर्म कहते हैं।
જે ગમન ન કરે તેને અગ (વૃક્ષ) કહે છે વૃક્ષમા પુષ્પિતપણુ, ફલિતપણુ, વગેરે હોય છે, એ સરખાપણાને કારણે જ ઘરને પણ અગાર કરે છે, અથવા જમા રહીને મનુષ્ય નિવાસ આદિના કષ્ટને પામતા નથી, તેન અગાર (ઘર) કહે છે. ર્ આધાર છે, અને તેમા નિવાસ કરનાર આયેય છે. અહીં આધાર અને માયને ઉપચારથી અભેદ છે, તેથી અગાર (ઘર)મા રહેનારાને પણ અગાર કહેવામા આવ્યા છે. જેમ કથાય-કયાય શ્રીન જ ગૃહ' કહેવામા આવે છે અથવા અગાર (ધર્યુ છે જેને' એવી વ્યુત્પત્તિ થઇ શકે છે. ઋતુ ગૃહસ્થાના ધર્માંને ભગાર ધર્મ કહે છે
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उपासकदमागसूत्रे
[ धर्मकथामूलम् ] सन्चाओ पाणायामओ वेरमण, सचाओ मसावायाओ वेरमण, सन्त्राओ मदि
[ धर्मक्याछाया 1 सर्वस्मात् माणातिपाताद्विरमण, सर्वस्मान्मपादाद्विरमण, मर्वस्माददत्तादानादि न विद्यतेऽगार-गृह येपा तेऽनगागः साधवस्तेपा धर्मः। एनयोरगारधर्मानगार धर्म योरल्पत्वात्सूचीस्टाहन्यायेन प्रथममनगारधर्ममव ध्याचप्टे
(अनगारधर्मस्वरूपम् ) _ 'अनगारे' ति, इह-जिनशासन इत्यर्थः, ग्वल-निश्चयेन, सर्वतः सर्वथा, सर्वथात्वच केवल द्रव्यतोऽपि केरल या भरतोऽपि भवितुमहतीत्यतस्तद्वारणार्थमार -'सर्वात्मने ति द्रव्यतो भावतश्वेत्यर्थः, यद्वा सर्वतः द्रव्यत ,सर्वात्मना-भावतः,
जिनके अगार नहीं है उन्हें अनगार कहते हैं, अर्थात् साधु । साधुओंके धर्मको अनगारधर्म कहते हैं।
'सूची-कटाह' न्यायसे पहले अनगार धर्मका कथन करतह कोंकि उसका वर्णन अल्प है।
अनगारधर्मका स्वरूप मूलमें 'सव्वओ' और 'सव्यत्ताओ' दो पद है।..
'सव्वओ' का अर्थ है सर्वथा। यदि केवल 'सव्वओ' कहतता उसका अर्थ-'सिर्फ द्रव्यसे या सिर्फ भावसे सर्वथा' लिया जा सकता था किन्तु यह इष्ट नही, इसलिए इस अनिष्ट अर्थको रोकने के लिए दूसरा पद 'सव्वसाओ' दिया गया है। 'सव्वत्ताओ' का अर्थ हैसब रूपसे अर्थात् द्रव्यसे भी और भावसे भी। अर्थात् 'सव्वओ' ' જેને અગાર નથી એને અનાગાર કહે છે, અર્થાત્ સાધુ સાધુઓના ધર્મને અને ગાર-ધમ કરે છે.
સૂચી-કટાહ” ન્યાયે કરીને પહેલા અનગાર-ધન કથન કરીએ છીએ કારણ એનું વર્ણન શેડુ છે
- सनार-धनु २१३५ भूमा सवओ मने मबत्तायो वारे ५६ छ सन्धओन। म छेसक्या જે કેવળે એ કહેત તે અર્થ “માત્ર દ્રવ્યથી યા માત્ર ભાવથી સર્વથા એમરી શકાત, પરતુ એ ઈષ્ટ નથી તેથી એ અનિષ્ટ અર્થને રાકવાને માટે બીજી પણ सव्वत्तायो आवामा भाव्य सम्वताओ ने अय-३५०ी-Muloया
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सञ्जीवनी टीका अ.१ म् ११ अनगारधर्मस्वरूपवर्णनम्
[ धर्मख्यामूलम् ] भादाणाओ वेरमण, सवाभो मेहुणाओ वेरमण, सन्चाओ परिग्गहाओ वेरमण,
[धर्मकथाछाया ] रमण,मम्मान्मे थुनाहिरमण, मर्पस्मात्परिग्रहाद्विरमण, सर्वम्माद्रात्रिभोजनाद्विरमणम् मात्मपरिणामेनेत्यर्थ । मुण्ड मुण्डनसोऽस्याम्तीति मुण्डधर्मयोगान्मुण्डित इत्यर्थः, तत्र व्यतो मुण्डितो मस्तककेशापनयनयुक्तो मावतच रागढेपापनयनयुक्तो भूत्वा पगारागृहात गृह परित्यज्येत्यर्थ , अनगारिता साधुत्व पत्रजति-परर्पण समम्तममत्वपरित्यापूर्वक स्वीकरोति । पत्रज्योत्त च यः साधुधर्मस्त ममासेनाह 'सर्वे त्यादि-सम्मात्मरणत्रिक योगनिम्स्वरूपात माणातिपातात्-माणा स्पर्शनेन्द्रियादय सन्त्येपामितिप्राणी =एकेद्रियादयो जीवास्तेषामविपातो-वियो मन हिंसनमित्यर्धस्तस्माद्विरमण-निवर्तनम् ॥१३ सर्वस्माम् प्रागुक्तरूपात् (एवम ग्रेऽपि) मृपावादाद-मिध्याभाषणाद् विरमणमिति माग्वत् , एवमग्रेऽपि-१२।
१ 'मुडि खण्डने' अस्माद्भावे घन् । २ 'अर्श आदिभ्योऽच' इत्यच । ३ 'ल्यवलोपे कर्मण्यधिकरणे च' इति पञ्चमी ।
१ इहापि-अर्थ आदित्वादेवाच । का अर्थ 'द्रच्यसे ऐसा लेना चाहिए और 'मव्वात्ताओ का अर्थ 'भावसे ऐसा लेना चाहिए।
द्वन्यसे मस्तकके केशीको अगल कर देना भावसे रागाद्वेषको दर करना मुडन कहलाता है। इस प्रकार मुण्डित होकर गृहका त्याग कर जो मावुपना स्वीकार करता है--प्रव्रज्या धारण करता है, और प्रव्रज्याके पश्चात् जिम धर्मका पालन करता है उस साधु-धर्मका सक्षिप्त स्वरूप खत्रकार प्रतिपादन करते है--
हे आयुप्मन् ! तोन करण, तीन योगसे एकेन्द्रिय आदि समस्त प्राणियोकी हिमासे निवृत्त हो जाना (१), तीन करण तीन योगसे પણ અને ભાવથી પણ અથવા સત્તને અર્થ દ્રવ્યથી' એમ કરવું જોઈએ અને सव्यताओने अर्थ 'सा' अम ४२३ न
દ્રવ્યથી મસ્તકના કેશને દૂર કરવા અને ભાવથી રાગદ્વેષને દુર કરવા, એ મુડન કહેવાય છે એ પ્રમાણે મુડિત થઈને ઘરને ત્યાગ કરી જે સાધુપણુ સ્વીકારે છે–પ્રવ્રાજ્યા ધારણ કરે છે અને પ્રવૃન્યા પછી જે ધર્મનું પાલન કરે છે તે સાધુધર્મનું સંક્ષિપ્ત સ્વરૂપ સૂત્રકાર પ્રતિપાદન કરે છે
છે આયુમન ! ત્રણ કરવું, ત્રશુગથી એકેન્દ્રિય આદિ બધા પ્રાણુઓની હિંસાથી નિવૃત્ત થઈ જવું (૧), ત્રણે કરણ ત્રણ ચગે મૃષાવાદથી નિવૃત્ત થવું (૨), ત્રણ કરવું
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उपासना
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. [ धर्मकथामूलम् ] सन्धाओ राइमोयणाओ वेरमण । अयमाउसो ! अणगारसामाए भम्मे पण्बवे, एयस्य धम्मस्स सिक्खाए उवहिए निग्गधे वा निग्गथी वा विहरमाणे आणार आराहए भवति ॥
[ धर्मक्याछाया ] अयमायुप्मन् ! अनगारसामयिको धर्म , प्राप्त , एतस्य धर्मस्य शिक्षायामुपस्थितो निर्ग्रन्यो वा निर्ग्रन्थी वा विहरमाण आज्ञाया आराधको भवति । .. अदनादाना=न दत्तमदत्त देवगुरु भृप गाथापति साधर्मिफेरननुज्ञात तस्याऽऽदा नग्रहण तस्मात् ॥३॥ मैथुनाव-मिथुनेनन्त्रीपुसाभ्या निवृत्त कर्म मैथुन काम क्रीडालक्षण तस्मात् । ४। परिग्रहाव-परिम्सर्वतोभावेन गृह्यतेज-मजरा मरणादिजनितेश्वैःष्टयत आत्मानेनेति, परिगृह्यतेसमृई वीबियत इति वा परिग्रहः धर्मोपकरणभिन्न सर्व मित्यर्थस्तरमात्।५। रात्रिभोजना=रात्रौ भोजन -रात्रिभोजन तस्मात् । ६ ।। अयम्-उपर्युक्तःसर्वविधप्राणातिपातविरमणादिलक्षण, आयुष्मन् !हे चिरजीविन् ! अनगारसामयिक =अनगाराणा साधूना समयसिद्धान्ते, यद्वा आचारे भवः, धर्मः प्रज्ञप्त' प्रणीत । एतस्य उक्तलक्षणस्य धर्मस्य मृषावादसे निवृत्त हो जाना (२), तीन करण तीन योगसे देव, गुरु राजा, गाधापति और साधर्मीके द्वारा न दिये हुए पदार्थको ग्रहण कर नेरूप अदत्तादानसे विरत हो जाना (३), तीन करण तीन योगस मैथुनसे निवृत्त हो जाना (४), जिसके निमित्तसे आत्मा जन्म जरा मरणादि दुखोसे व्याप्त होता है, अथवा जिसको जीव ममत्व परिणाम के द्वारा ग्रहण करता है उसे परिग्रह कहते है। धर्मके उपकरणांक अतिरिक्त सब पदार्थ परिग्रह है। उस परिग्रहसे तीन करण तीन योगस निवृत्त हो जाना (५), तीन करण तीन योगसे रात्रि भोजनसे विरत हो जाना (६), यह सब अनगारधर्म भगवान्ने प्रतिपादन किया है। ત્રણ વેગે દેવ, ગુરૂ, રાજા ગાથાપાંત અને સાધીદાર ને અપાયેલા પદાર્થનું ગ્રહણ કરવું એવા અદત્તાદાનથી વિરત થવુ (૩) ત્રણ કરણ ત્રણ ગે મેથુનથી નિવૃત્ત થયું (૪ો, જેના નિમિત્તથી આમાં જન્મ જરા મરશાદિ દુખેથી વ્યાપ્ત થાય છે, અથવા
ને જીવ મમત્વપરિણામે કરીને ગ્રહણ કરે છે. તેને પરિગ્રહ કહે છે ધર્મના કર સિવાયના બધા પદાર્થો પરિગ્રહ છે એ પરિગ્રહથી ત્રણ કરશું ત્રણ ચાને ન થઈ જવું (પ), ત્રણ કરણ ત્રણ રાત્રિભેજનથી વિરત થવું (૬) એ બધે અનગાર ધર્મ ભગવાને પ્રતિપાદિત કર્યો છે જે સાધુ શ્રા સાથ્વી એ ભગવતિ પર્મગ્ર wથત જ
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भगारधर्मसञ्जीवनी टीका ११ मू. ११ धर्म. अगारधर्मस्वरूपवर्णनम् १५१
[ धर्मकया मूलम् ] भगारधम्म दुवालसविह आइक्खइ, जहा-पच अणुबयाई, तिष्णि गुणब्बयाइ, चत्तारि सिक्खावयाइ॥पच अणुच्चयाइ, तनहा-धूलाओ पाणाइवायामो वेरमण, धूलामो मुसावायाओ वेरमण, थूलाओं अदि भादाणाओ वेरमण, सदारसतोसे, इन्छापरिमाणे। तिणि गुणधयाइ, तनहा अणत्पडवेरमण, दिसिब्बय, उवभोगपरिभोगपरिमाण । चतारि सिग्वावयाइ, तजहा मामाइय, देमावगासिय, पोसहोमासे, अतिहिसविभागे, अपच्छिमा मारणतिया-सछेहणा-झमणा राहणा,
भयमाउसो! अगारसामडए पम्मे पणत्ते, एयस्म धम्मस्स मिक्खा उवहिए __ ममणोवासए का समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवड ॥"
[धर्मकयाछाया ] __ अगारधर्म द्वादशविधमाख्याति, तघया पश्चाणुगतानि, त्रीणि गुणरतानि, चत्वारि शिक्षावतानि । पञ्चाणुव्रतानि, तद्यथा स्थूलात्प्राणातिपाताद्विरमण, म्यूकान्मृपावादाद्विरमण, स्थूलाददत्तादानाद्विरमण, स्वतारमन्तोष , इच्छापरिमाण । श्रीणि गुणतानि, तद्यथा अनर्थदण्डविरमण,दिग्वनम् , उपभोग परिभोगपरिमाणम् । चत्वारि शिक्षारतानि, तद्यथा-मामायिक, देशावकाशिक, पोषधोपवासः, अतिथिसविभागः, अपश्चिमा मारणान्तिकी सलेखना-जापणा राधना, भयमामुप्मन् ! भगारसामयिको धर्म प्राप्तः, एतस्य धर्मस्य शिक्षायामुपस्थितः, श्रमणोपासको वा श्रमणोपासिका वा विहरमाण आझाया आराधको भवति ।" इतिन्छाया। शिक्षायाम् आसेवने उपस्थितः उधुक्त', निर्गन्यः साधु , निर्ग्रन्थी-साध्वी, "मावीपक्षे च उपस्थितपदार्थों लिङ्गव्यत्ययेन सम्बन्धनीयः" विहरमाण-विघरन् आजाया -सर्वज्ञोपदेशस्य आरायक-पालगे भवतीति ।।
इत्थमनगारवर्ममभिधाय मप्रत्यगारधर्म दर्शयतिजो साधु या माध्वी इम भगवत्प्रणीत धर्मके पालन करने में सदा उद्योगशील रहता हुआ विचरता है वही (माधु-माची) सर्वज भगवानकी आजाका आराधक होता है।
इस प्रकार अनगारधर्मका निरूपण करके अब अगारधर्म (आवक वर्म) दिखलाते हैવામા સદા ઉદ્યોગશીલ રહીને વિચરે છે તે (સાધુ-સાધ્વી) સર્વજ્ઞ ભગવાનની આજ્ઞાના
એ પ્રમાણે અનગાર ધર્મનું નિરૂપણ કરીને હવે અગાર ધર્મ (શ્રાવક ધર્મ)
આરાધક છે
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उपासदार सामान्याऽगार-(गृहस्थ)-धर्मस्वरूपम्
"मुहर्ते सर्धार्थसिद्धे, नमस्कारसमन्वित । नित्य प्रातः समुस्थाय, धर्मजागरणा चरेत् ॥१॥ सा च
"अडणिस्सारे विसए, विसोवमे मम कह भणी जाउ । माणुसजम्म णिचा, मए रड किं च किं च ओसिह ॥१॥
'भगारे'-ति अगारधर्मो विविधः-सामान्यरूपा विशेषरूपश्च, तत्र सामान्य रूप. स य मर्वसाधारणजनानुष्ठानोचित , स यथा
भावार्थ-सर्वार्थसिदे मुहूत्ते नित्यमुत्थाय नमस्कारमन्त्रोच्चारणपूर्वक धर्म जागरणा कुर्यात् , सा च
" अतिनिस्सारे विपये, विपोपमे मम फथ मनो याति । मानुपजन्म नीत्वा मया कृत किच, विश्चावशिष्टम् ॥ १ ॥
अगारधर्म दो प्रकारका है-(१) सामान्यरूप (२) विशेषरूप! सर्वसाधारण लोगोंके अनुप्टान करने योग्य धर्मको सामान्य धर्म कहते हैं । वह इस प्रकार है
सामान्य अगार (गृहस्थ) धर्मका स्वरूप सर्वार्थसिद्ध मुत्त मे उठकर नमस्कार मन्त्रोचारण पूर्वक धम जागरणा करे वद इस प्रकार
"अहा ! ये इन्द्रियोके विषय सर्पधा निस्सार हैं, विषके समान हैं। मेरा मन इनकी ओर क्यो आकर्षित होता है यह मनुष्य जन्म पाकर मैंने इसे अकारथ खो दिया । जितना यह शेष रहा है इसमें क्या करना चाहिए १ ॥१॥ १ सूर्योदयके पूर्व चार घडी में पहली दो घडी 'सर्वार्थसिद्ध' मुहूर्त है ।
અગાર ધર્મ બે પ્રકાર છે - (૧) સામાન્ય રૂ૫ અને (૨) વિશેષ સર્વ સાધારણ લેકને અનુષ્ઠાન કરવા ગ્ય ધર્મને સામાન્ય ધર્મ કહે છે તે माप्रमाणे -
સામાન્ય અગર (ગ્રહસ્થ) ધર્મનું સ્વરૂપ વસર્વાર્થસિદ્ધ મુહૂર્તમાં ઉઠીને નમસ્કાર મિત્રે ચારણ-પૂવક ધજાગર; २ ते मा प्रमाणे
“અહા ! આ ઈદ્રિયોના વિષયે સર્વથા નિસ્સાર છે. વિષ સરખા છે માર મને તેની તરફ કેમ આકર્ષાય છે? આ મનુષ્ય–જન્મ પામીને મે તેને વ્યય ગુમાવી દીધે એટલે એ બાકી રહ્યો છે તેમાં શું કરવું જોઈએ !
( સ ય પહેલા ચાર ઘડીમાંથી પહેલી બે ઘડીને સર્વાર્થસિધ્ધ મુહૂર્ત છે
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गुरोश्च मात कृत्य समाया नाणदसणाहा मध्यमहरासी
बगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ१ सू. ११ धर्म सामान्यानगारधर्मवर्णनम् १६३
अहुणा किमणुट्टेय, एसो यस्सोचिओ तहा कालो ।। णिच मच्चू सहओ अणुधावइ पुट्ठलग्गो मे ॥ २ ॥
णहि सह गच्छइ वधू, धण धम क्लत्त-पुत्त मिचाई। णियकयकम्मदुमफलरसस्स ससायओ पला जीवो ॥ ३ ॥
तम्हा एगो अप्पा, सच्चो णिचो य मन्चमुहरासी। चिचा वाहिरभाव, दयो नाणदसणाहारो ॥ ४ ॥" इति ।
प्रातःकृत्य समास्थाय, मातापित्रभिवन्दन । गुरोश्च दर्शन कुर्याक्तिश्रद्धादिसयुतः ॥ २ ॥
धर्मोपदेश शृणुयात्तमा श्रद्धानवान् भवेत् । देवे गुरौ च धर्मे च, सर्वदाऽऽलस्यवर्जितः ॥ ३ ॥
अधुना मिनुष्ठेयम् , एप कम्योचितस्तथा काल. । नित्य मृत्यु सहजोऽनुधावति पृष्ठलग्नो मे ॥ २ ॥
__नहि सह गन्छति बन्धुर्धन धान्य कलत्र पुत्र-मित्रादि । निजकृतकर्मद्गु मफलरसस्य सस्वादको वलाजीव ॥ ३ ॥
तस्मादेक आत्मा सत्यो नित्यश्च सईमुग्वराशि । त्यक्त्वा पाह्यभावान् , द्रष्टव्यो ज्ञानदर्शनाधारः ॥ ४ ॥" इति ।
यह समय किस कर्त्तव्यमें लगाना चाहिए ? मृत्यु अनिवार्य है और यह मदैव परछाईकी नाई मेरे पीछे पीछे लगी रहती है ॥२॥
बन्धु बान्धव, वन धान्य, कलत्र-पुत्र और मित्र, कोई भी साथ जानेवाला नहीं है। जिमने जैमा कर्मरूपी वृक्ष लगाया है, उसे वैसेही वृक्षके फलका रस (अनुभाग) भोगना पडता है ॥३॥ इसलिए समस्त बाद्य वस्तुओं का परित्याग कर, सत्य, नित्य, सर्व सुखों के समूह, अनन्त ज्ञान दर्शनके धारक केवल आत्माको साक्षात् करो ॥४॥"
(૧) એ સમય કયા કર્તવ્યમાં ગાળવે જોઈએ ! મૃત્યુ અનિવાર્ય છે અને તે સદા પડછાયાની પેઠે મારી પાછળ પાછળ લાગી રહ્યું છે (૨) બધુ-બાધવ, ધનધાન્ય, કલત્ર-પુત્ર અને મિત્ર કેઈ પણ સાથે આવનારૂ નથી જેણે જેવું કર્મરૂપી વૃક્ષ વાવ્યું છે, તેને તેવા જ વૃક્ષના ફળને રસ ભોગવવું પડે છે (૩) માટે બધી માહ્ય વસ્તુઓનો પરિત્યાગ કરીને સત્ય, નિત્ય, સર્વ સુખને સમડ, અનત જ્ઞાનર્શનને ધારક કેર્લૅળ આત્માને સાક્ષાત્કાર કરે ()
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उपासकदसामने दानशीलो भवेत्तस्मतां सङ्ग न हापयेत् । सेवेत तिनः किञ्च, वृद्धान् दीनांस्तु रक्षयेत् ॥४॥
भृत्यान् महावयेन्नित्य, सुपात्रादिप्रदानवान् । आश्रितानात्मवत्पश्यत्ममारितमतिस्तथा ॥७॥
द्रव्यादिभावानालोक्य प्रवत्तेत यथोचितम् । धर्मशास तथा नीतिग्रन्थाश्च परिलोकयेत् ॥६॥
महता पुरतस्तदविनयेन ममाचरेत् । विपत्तो धैर्यशाली म्यात्मम्पद्यनभिमानवान् ॥७॥
सुकार्य परसाहाय्य, विध्याद्विजितेन्द्रियः।
यदन्नाापलभ्येत, तदद्यात्तुष्टमानसः ॥८॥ - इत्येव धर्मजागरणा समाचरेत् ,मात कृत्यानन्तर मातापित्यन्दन, गुरुदशन च कुर्यात् , धर्मोपदेश च श्रृणुयात् , देवगुरुपर्माणामुपरि श्रीधीत,सर्वदायथाशा दानशीलो भवेत् , सत्सङ्गतिं कुर्यात् , व्रतधारिणो हाथ सेवेत, दीनान् माणना रक्षेत्, भृत्यान् सद्भावेन पश्येत् , अभयदान सुपात्रदान करुणादानानि कुया. आश्रितानात्मवत्परिपालयेत्, द्रव्य क्षेत्र काल-भावान् समीक्ष्य प्रत्ति कुयो। धमा शास्त्र नीतिग्रन्याश्च समवलोकेत, महता पुरतो विनयेन व्यवहरेत् , विषदि पर
__ इस प्रकारकी वर्मजागरणा करे, माता-पिताके चरणो में मस्तक नमाए, गुरूओ-मुनियो का दर्शन करे, धर्मका उपदेश सुने, देव गुरु और धर्म पर परम प्रतीति रखे, शक्ति के अनुमार सदा दानशील रहे। सत्सगित करे व्रतधारियों और वृद्धजनोकी सेवा शुश्रूपा कर, दानहीन प्राणियों की रक्षा करें, नौकर-चाकरोंसें प्रेममय व्यवहार कर अभयदान सुपात्रदान और करूणादान दे, आश्रित जनोंको निजका नाई पालन पोषण करे, द्रव्य क्षेत्र काल भावको देखकर प्रवृत्ति कर, धर्म शास्त्रोका स्वाध्याय करे, नीति शास्त्रोका अवलोकन करे, गुरु
ये ४२नी घमा २, मातापिताना यहाभा भरत नाव, કાર-સનિઓનું દર્શન કરે ધર્મનો ઉપદેશ આભળે. દેવ. ગુરૂ અને ધર્મ * પરમ પ્રતીતિ રાખે શક્તિ પ્રમાણે સદા ઘનશીલ રહે, સત્સ ગતિ કરે, વ્રતધારીએ અને વૃધ્ધ જનેની સેવા-સુશ્રુષા કરે, દીન-હીન પ્રાણીઓની રક્ષા કરે, નાકર ચાકરે સાથે પ્રેમમય વ્યવહાર કરે, અભયદાન સુપાત્રદાન અને કરૂણાદાન છેઆત જન પોતાની પેઠે પાલનપોષણ કરે, દ્રવ્ય ક્ષેત્રકાળભાવને જોઈને પ્રવૃત્તિ કર, ધર્મશાસ્ત્રને સ્વાધ્યાય કરે, નીતિશાસ્ત્રનું અવલોકન કરે, ગુરૂજનની સન્મુખ વિનય
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अगारधर्मसत्रनी टीका अ० १ सू० ११ धर्म० सामान्यानगारधर्मवर्णनम् १५५
पुरादौ साधवो विज्ञ - श्रावका यत्र सस्थिताः । तत्रैव निवसेन्मार्ग, समालोक्य विलङ्घयेत् ||९|| sssम्बर वेप, समनस्कश्वरेत्कृतिम् । सर्वैः सह सदा मैत्रीं विदधीत विशेषत ॥१०॥ दुःखी स्यात्परटुखेन, सुखेन च सुखी भवेत् । किं भक्ष्य किमभक्ष्य च तद्विशिष्य विचारयेत् ॥११॥ देशस्य धर्म जात्योच, पारम्पर्यक्रमागतौ । duissचारौ सदा रक्षेत्मत्कुर्याच गृहागतम् ||१२||
(- 'श्रावकाश' इति चकारघटितो व्याख्येय - ' गामश्व परुप पशु' मित्यादौ तथाश्रते ।
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सम्पदि च निरभिमानता कुर्यात्, प्रशस्त कार्येषु परेभ्य साहाय्य दद्यात् जितेन्द्रियो भवेत, यादृशमनादिकमुपलभ्येत तदेव प्रसन्नमना भुञ्जीत, यन पुरादौ साधवो विशेषज्ञश्राकाश्च निवसेयुस्तत्र निवसेत् दृष्ट्वाऽम्वान गच्छेत्, आडम्बरशेप परिबर्जयेत्, मनोयोगेन कर्त्तव्यमाचरेत्, सर्वै सह मैत्रीं विदधीत, परस्य दुःखेन दुग्बी सुखेन च सुखी भवेत्, भक्ष्याभक्ष्ये विचारयेत्, देशस्य नर्मस्य जातेच पारम्पर्यक्रमनोके सन्मुख विनय पूर्वक बर्ताव करे, विपत्ति आने पर धैर्य चरे, संपत्ति होने पर अभिमान न करे, शुभकार्योंमे दूसरोको सहायता दे, saint वशमे रखे, जैसा भोजन पान प्राप्त हो जाय उसीको प्रसन्नचित्त होकर खावे, जिस नगर आदिमे साधु या विशेषज्ञ विद्वान् श्रावक निवास करते हो उसी नगर आदिमे निवाम करे, रास्ता देख कर चले, आडम्परका वेप (शोकीनोंका ठाट बाट) न रसे, कर्त्तव्यका पालन मनसे करे, सबके साथ मित्रता रखे, दूसरे के दुख में दुखी और सुखमे सुखी हो, भक्ष्य-अभक्ष्य का विचार रखे, अपने देशका પૂર્ણાંક વર્તન કરે, વિપત્તિ આવતા ધૈર્ય ધારણ કરે, સપત્તિ પ્રાપ્ત થતા અભિમાન ન કરે, શુભ કાર્યોંમા બીજાઓને સહાયતા આપે, ઇંદ્રિયાને વશ રાખે, જેવું ભેાજન–પાન પ્રાપ્ત થઈ જાય તેને પ્રસન્નચિત્ત થઇને ખાય, જે નગર આદિમા સાધુ યા વિશેષજ્ઞ—વિદ્વાન્ શ્રાવકે નિવામ કરતા હોય તે નગર આદિમા નિવાસ ४२, रस्ता लेने यावे, भाउम्रनेो वेश (शोभीनानो ठाउभाउ) न राधे तंव्यनु પાલન મનથી કરે, સૌની સાથે મિત્રના રાખે, બીજાના દુખે દુખી અને મુખે સુખી થાય ભક્ષ્ય-અભક્ષ્યને વિચાર રાખે, પેાતાના દેશને ધર્મના અને જાતિના
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उपासकदवाइन
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अनुव्रजेत्सत्यधर्म, दध्याज्जीवदयां तथा । पवित्रो मृदु भाषेत, कापण्य च परित्यजेत् ॥१३॥
निशाया नैव भोक्तव्य, भ्रमादपि कदाचन । न केनापि क्यां कुर्याद, गहितां च तथा वृथा ॥१४॥
नाम्भ पिवेत्पटापूत, मृपाभाषां च वर्जयेत्। आसन्नत न च फापि, शयान न प्रयोधयेत् ॥१५॥
न दृयेत परोन्नत्या, निन्ध कार्याणि नाऽऽचरेत्। अकाले चाधुभुक्षाया न भुञ्जीत प्रमारतः ॥१६॥
वीयान्नायाधिक धर्म,-विरुद्ध नाऽऽचरेत्तथा। मलमूत्रे नावरुन्ध्या,-तंत्र ते न समुत्सृजेत् ॥१७॥ १-विशिष्टकारण विनेति शेपः। --सम्मलमूनोपरि । ३-ते-मलमूत्रे । मागत वेपमाददीत, गृहाऽऽगत सत्कुर्यात् , सत्य धर्ममनुयायात, सर्वेषा जीवाना दयेत, पवित्रतया वर्नेत, सर्वदामदु भाषेत, कार्पण्य त्यजेत् , रात्रिभोजन तथा विगहिता स्था च कथा न कुर्यात् , वस्त्रापूत जल न पित् , मिथ्या न भाषेत, कस्मिन्नाप वस्तुनि विशिष्टामासक्तिं न कुर्यात्, गिशष्टकारणमन्तरेण शयान न प्रबोधयत् । परोन्नतिमालोक्य न येत, निन्धानि कार्याणि दूतः परिहरेव , अकाछे बुभुक्षा विना च भुञ्जीत, आयादधिक न वीयात् , धर्मविरुद्ध नाऽऽचरेत् , मलमूत्रे नाव धर्मका और जातिका प्राचीन वेप धारण करे, जो घर पर आवे उसका सत्कार करे, सत्य धर्मका पालन करे, प्राणी मात्र पर अनुकम्पा रख, पवित्रता पूर्वक प्रवृत्ति करे, सदा कोमल वाणी बोले, कृपण (कजूस) न हो, रात्रि भोजन न करे, वृथा यकवाद न करे, विना छना पानी न पिए, मिथ्या भाषण न करे, किसी वस्तुमें अत्यन्त आसत न हो, विशेष कारण विना सोतेको न जगावे, परका अभ्युदय दम दुस्वी न हो, निन्दनीय कार्योंसे दूर रहे, असमयमें और विना भूख क भोजन न करे, आयसे अधिक व्यय न करे, धर्म विरुद्ध आचरण પ્રાચીન વેશ ધારણ કરે, જે ઘેર આવે તેને સત્કાર કરે સત્ય ધર્મનું પાલન કરે પ્રાણીમાત્ર પર અનુક પ રાખે, પવિત્રતાપૂર્વક પ્રવૃત્તિ કરે, સદા કોમળ વાણી બોલે કનુસ ન બને, રાત્રિભોજન ન કરે, વૃથા બકવાદ ન કરે, અણગળ પાણી ન પીએ મથ્યા ભાષણ ન કરે, તે વસ્તુમાં આસકત ન થાય, સુતેલાને ન જગાડે, પરના અક્ષય જોઈ દુખી ન થાય, નિ દનીય કાર્યોથી દૂર રહે, અસમયે અને વિનામૂખે કલેજને ન કરે, આવકથી વધારે ખર્ચ ન કરે, ધર્મ વિરુદ્ધ આચરણ ન કર,
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अंगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू० ११ धर्म० सामान्यानगाग्धर्मवर्णनम् १५७
मित्रेण सह कापट्य, न कुर्यान्नाविचारितम् । कोधाभिमानरूक्षत्वाकर्त्तव्यानि विवर्जयेत् ॥ १८ ॥ सदा निरस्येवालस्य, स्वकर्त्तव्येषु यत्नवान् । बन्धुभिश्च महद्भिश्च विरुन्ध्याज्जातु न क्वचित् ॥ १९ ॥
त्यजेदयोग्यमुद्वाह, मनियोग मनागपि । प्रजाहितेच्छुना तद्वद्विद्रोह च महीक्षिता ||२०|| द्यूत मास सुरा चौर्य, वेश्याऽऽखेट परस्त्रियः । रसलोलुपतामाह, स्वाप निन्दा परस्य च ॥२१॥ तृष्णामरयातिना तत्सम्वन्ध कुलरोगिणा । 'त्ये जेत्' इति त्रिंशतितमश्लोकोक्तया क्रियया सम्बन्ध' । रुन्यात्, मलमृनोपरि मलमूत्रे नोत्सृजेत्, मित्रेण सह कपट नाचरेत्, विशिष्ट विचारमन्तरेण किमपि कार्य न कुर्यात्, कोधाभिमानरूक्षता अकर्त्तव्य च दूरत' परिहरेत् कर्त्तव्येप्वालस्य निरस्येत्, बन्धुवर्गेण महता च मह न जातु विरुन् यात्, अयोग्य विवाहमभियोग राजद्रोह, धूत मास- सुरा चौर्य वेश्या पापद्वि परस्त्रीसेवनरूपाणि सप्त व्यसनानि, रसलोलुपता, दिवास्त्राप, कस्यचिनिन्दा परधनतृष्णामपरिचितेन कौलि+रोगिणा च सह विवाहादिसम्बन्ध च परिवर्जयेत्, सत्यमाप समियमेव करे, मल सूत्रको न रोके, मलमूत्र पर मल मुत्रत्याग नही करे, मित्रके साथ कपट न करें, विशेष विचार किये बिना कोई भी कार्य न करे क्रोध, मान, कखाई और अकर्त्तव्य से दूर रहे, करने योग्य कार्य में प्रमाद न करे, वन्धु वर्ग तथा महान् जनांसे विरोध न नावे, अयोग्य विवाह, अपराध, राजद्रोह, जुआ-माम भक्षण-मदिरापानचोरी - वेश्यागमन - पापर्द्धि (शिकार खेलना ) - परस्त्रीसेवन - रूप सात व्यसन, चटोरापन, दिनमे नींद लेना, पराई निन्दा, परधनकी तृष्णा, अपरिचित और कौलिक (कुलपरम्परासे आये हुए छूतके) रोगी के साथ विवाहादि सम्बन्धका परित्याग करे । प्रिय ही सत्य बोले, निना મળમૂત્રને ન રોકે, મળમૂત્ર પર મળમૂત્રને ત્યાગ ન કરે, મિત્રની સાથે કપટ ન કરે, વિશેષ વિચાર કર્યા વિના કોઈ પણ કાર્ય ન કરે, ક્રોધ, માન, રૂક્ષતા અને અકર્તવ્યથી દૂર રહે, કરવા ચેાગ્ય કાર્યમા પ્રમાદ ન કરે, ખવર્ગ તથા મહાન્ જનો સાથે વેરવિધિ ન ખાધે, અયેાગ્ય વિવાહ, અપરાધ, રાજદ્રોહ જુગાર-માસભક્ષણુ-~મદિરાપાન —शोरी-वेश्यागमन-पापर्धि (शिर) - परस्त्रीसेवन-३५ सात व्यसन, स्वाहीसा દિવસે ઉંઘ, પરનિદા, પરધનની તૃષ્ણા, અરિચિત અને કૌલિક (કુલપર પરાથી ઉતરેલા
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उपासक दशाङ्गणे
प्रियमेव वदेत्सत्य - मपृष्टो नोत्तर स्पृशेत् ||२२|| मध्ये कस्यापि वार्त्ताया, विच्छेद न समाचरेत् । न ब्रूयात्स्वगृरच्छिद्र, पुरतो यस्य कस्यचित् ॥२३॥ नैव चस्तु व्यवहारे - दज्ञातमपरीक्षितम् । न कुर्यात्कस्यचित्कीर्त्ति, -खण्ड विश्वासघातनम् ||२४|| योगक्षेम च्छेद-भेदी, ग्रामादीना न साधयेत् । न भुञ्जीतावण्टयित्वा वस्तु किञ्चिदपि कचित् ||२५|| अनीत्या नार्जयेद्द्रव्य, निजमूलधनापहम् । तन्नाऽऽचरेज्जातु यत्स्यादिहामुत्र च गर्हितम् ||२६|| परस्त्रिया सहैकाकी, न गच्छेन्न च सवदेत् । न वा तया महैकान्तवासमामादयेदपि ॥२७॥
१ 'सत्य चे' त्यर्थ ।
वदेत्, अपृष्टो नोत्तर दद्यात्, म ये रस्यापि वार्त्तायाम्छेद न कुर्यात्, गृहच्छिद्र कस्मैचिदपि न कथयेत्, किमपि त्वपरीक्ष्यापरिज्ञाय च न व्याहरेत् कस्यापि मतपत्ती हस्तक्षेप, विश्वासघात, ग्रामादेयोग क्षेमयोभ्छेदभेद । च न कुर्यात्, अष्ट freवा किश्चिदपि न जातु गुञ्जीत, अनीतिच्या द्रव्य नात्
"
1
,
पूछे उत्तर न दे, कोई बात चीत करता हो तो श्रीचमें न बोले, घरकी बुराई किसीसे न कहे, विना जाने और परीक्षा किये किसी वस्तुका व्यवहार न करे, किमीको प्रतिपत्तिमे हस्तक्षेप न करे, विश्वासघात न करे, ग्राम नगर आदिके योग-क्षेम (अलब्ध वस्तुके लाभ करने और mount रक्षा करने) मे विघ्न न डाले । विना बाटे ( पास में बैठे हुओको विना दिये) कभी किसी वस्तुको न खावे, अन्याय से धनोपाजैन न करे, इसलोक परलोकसे प्रतिकूल न करे, परस्त्री के साथ शेपना) रोगोनी साथै विवाहाहि - सघन परित्याग भरे, प्रिय सत्य मासे, વિના પૂછયે ઉત્તર ન દે કાઈ વાતચીત કરતા હાય તેના વચ્ચે ન મેલે, ઘરના છિદ્રની વાત કોઈને ન કહે, એળખ્યા વિના અને પરીક્ષા કર્યા વિના કોઇ વસ્તુના વ્યવહાર ન કરે, કાષ્ટની પ્રતિપત્તિમા હાથ ન ઘાલે વિશ્વાસઘાત ન કરે, ગામ નગર આદિના વેગક્ષેમમા (અલબ્ધ લબ્ધ વસ્તુની રક્ષા કરવામા) વિઘ્ન ન નાખે, ભાગ અપ્યા વિના) કદાપિ કઇ વસ્તુ ન ખાય, ઇહલેાક પલેાકથી પ્રતિકૂળ કાર્યો ન કરે, પરસ્ત્રીની
કરવામાં અને
વસ્તુના લાભ વહેચ્યા વિના (પાસે રહેલાઓને અન્યાયથી ધનપાન ન કરે, સાથે એકલેા ન જાય, ન મેલે
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गारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू ११ धर्म सामान्यानगारधर्मवर्णनम् १५९
न गृहोयात्तधोत्कोच, गृहादीनि प्रमार्जयेत् । न व्याप्रियेत प्रमादा, दल्पमूलधनेन च ॥२८॥
नान्यायमवलम्बेत, जातुचित्मकटेऽपि सन् । मरापरिग्रह किञ्च, महोरम्भ विवर्जयेत् ॥२९॥ __ अन्यायिनो न पक्षी स्था, नाहेत्वन्यस्य वेश्मगः । न व्रजेदुर्गम मार्ग, मेलो मुग्धमानस ॥३०॥
न नदी नापि कासार,-प्रभृति याहुतम्तरेत् । बालक-प्रथयो-ग्लान, गर्भिणी-चेटका-श्रितान् ॥३१॥ __ असन्तोष्य न भुञ्जीत, न च कश्चित्कलद्धयेत् । न द्रुह्येद् गुरु देवाय, धर्माय च कयञ्चन ॥३२॥
विटी-तमाल-भद्गादि,-व्यसनानि विवर्जयेत् । इत्येवमुक्तः सामान्यो,-ऽगारधर्मों जिनेश्वरैः ॥३३॥" इति । नाऽऽचरेत् , परवनितया सहकाकी न गच्छेन्न सभापेत न चैकान्तवास कुर्यात् , उत्कोच न गृहोयात् , गृहादीनि द्विसन्ध्य परिमार्जयेत् , अल्पेन मूलधनेन नाधिक व्याप्रियेत, सङ्कटापन्नमाणोऽपि नानातिमवलम्नेत,महारम्भ महापरिग्रहयो कर्त्तव्य नाचरेत , अन्यायिनः पक्ष नाश्रयेत् , निप्पयोजन स्यापि गृह न भविशेद , विकट मागमेको नगन्छेत, पाहुभ्या नदीमासारादि न तरेत् , बाल वृद्ध ग्लान गर्भवती. भृत्याऽऽश्रितादीनपरितोष्य न भुञ्जीत, कमपि कलङ्कित न कुर्यात् , गुरवे धर्माय अकेला न जावे, नयोले और न एकान्तमे निवास करे, धूस (रिश्वत) न ले, सुबह साम धरकी सफाई करे, थोडी पूजीसे बडा व्यापार न करे, प्राणों पर सफट आने पर भी अनीतिका आश्रय न ले, महा आरम्भ महापरिग्रह वाला काम न करे, अन्यायीका पक्ष न ले, विना प्रयोजन किसी के घर में प्रवेश न करें, विकट मार्गमें अकेला न जावे, भुजाओसे नदी तालाव आदिमें न तेरे, यालक वृद्ध रोगी गर्भवती भृत्य और आश्रितको मन्तुष्ट किये बिना भोजन न અને ન એકાંતમાં નિવાસ કરે, લાચ ન લે સવાર-સાજ ઘર સાફ કરે, થોડી પૂછથી મેટો વેપાર ન ખેડે, પ્રાણ પર સંકટ આવતા પણ અનીતિને આશ્રય ન લે, મહાઆર ભ મહાપરિગ્રહવાળું કામ ન કરે, અન્યાયીને પક્ષ ન લે, પ્રયજન વિના કેઇના ઘરમાં પ્રવેશ ન કરે, વિકટ માર્ગમાં એકલે ન જાય, ભુજાઓથી નદી-તળાવ આદિમા ન તરે, બાલક વૃદ્ધ રેગી ગભર્વતી ચાકર અને આશ્રિતને સંતુષ્ટ કર્યા વિના ભેજન ન કરે, કોઈને કલકિત ન કરે, ગુરૂ અને ધર્મની સાથે દ્રોહ કરવાની ઈચ્છા પણ ન કરે, બીડી તમાકુ અને ભાગ આદિ વ્યસનને સર્વથા ત્યાગ કરે-ઈત્યાદિ.
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उपासकदशा
च मनसाऽपि न दुह्येत्, टिका तमाल विजयादिव्यसनानि च सर्वथा परिव जेत् " इत्यादि ॥
1
विशेषागार - ( श्रावक ) - धर्मस्वरूपम्
विशेषरूपस्तु- सम्यग्दर्शनाशुवतादिलक्षणस्तत्र सम्यग्दर्शन प्रशम - सवेगादि लक्षण आत्मपरिणामस्तत्यार्थश्रद्धान या नवाना जीवादितत्वाना देवगुरुधर्माणां च यथार्थस्वरूपेषु बुद्धिपूर्वक श्रद्धानमित्यर्थः, तत्र - जीवः = माग्न्यारयातस्वरूपः । पुण्यादयो मोक्षान्ता अपि प्रागेव व्याख्याता । अजीवश्च जीवव्यतिरिक्तः धर्मा स्तिकाया - ऽधर्मास्तिकायाऽऽकाशास्तिकाय- काल पुद्गलास्तिकायलक्षणस्तत्र धर्मा
१ - ' अगारधर्मः' इति भूतपूर्वेण (१६१ पृष्ठ गतेन) सम्बन्धः । करे, किसी को पति न करे, गुरु और धर्म के साथ द्रोह करनेकी इच्छा तक न करे, वीडी, तमाखु और भाग आदि व्यसनो का सर्वथा त्याग करे, इत्यादि ।
सामान्यरूप अगारधर्मग भगवान्ने इस प्रकार वर्णन किया है। अब विशेषरूप आगार - धर्मका वर्णन करते है-विशेषरूप - अगार ( श्रावक ) धर्म
सम्पद्र्शन और अणुव्रत आदिको विशेष आगार-धर्म कहते हैं । प्रशम सवेग-निर्वेद - अनुकम्पा आस्तिक्यरूप आत्म परिणामको, अथवा तत्त्वार्थके अर्थात् जीव आदि नौ तत्वोंके तथा सचे देव गुरु और धर्म के यथार्थबुद्धिपूर्वक श्रद्धानको सम्यग्दर्शन ( समकित ) कहते हैं ।
जीवनतत्त्वका व्याख्यान पहले कर चुके है, और पुण्यसे लेकर मोक्ष पर्यन्त तत्त्वोका स्वरूप भी पहले लिखा जा चुका है। रहा अव तत्त्व, सो, जीव न हो वह अजीव है। अजीव पाच हैं - (१) સામાન્યરૂપ અગારધ ૢ ભગવાને એ પ્રમાણે વર્ણન કર્યું છે. હવે વિશે--ષરૂપ અગારધર્માં વર્ણન કરે છે ——
विशेषइप-मगार (श्राव3) धर्म
સભ્યશ્ન અને અણુવ્રત આદિને વિશેષ અગારધમ કહે છે. પ્રશમસ વેગનિવે દ–અનુક પા–આસ્તિકયરૂ આત્મપરિણામને અથવા તત્ત્વાર્થીના અર્થાત્ જીવ આદિ નવ તત્ત્વા તથા સાચા દેવ ગુરૂ અને ધર્માંના યથાર્થ બુદ્ધિપૂર્વક શ્રદ્ધાને સમ્યગ્દર્શન (સમકિત ) કહે છે. જીવતત્ત્વનું વ્યાખ્યાન પહેલા કરી ગયા છીએ, અને પુણ્યથી મેક્ષ સુધીના તવેનુ મ્ભરૂપ પણ પહેલા લખી ગયા છીએ, બાકી રહ્યુ અજીવ તત્ત્વ,
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बगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १०११ धर्म० श्रावकधर्मनिरूपणेजिवादिस्व. १६१ स्तिकायः धर्मद्रव्य- विचरतो मत्स्यादेर्जलमित्र गतिमता जीवाना पुद्गलाना च साहाय्यदानेनाऽऽधारभूत इत्यर्थः, एप श्रमौतिक. सर्वलोकव्यापी जीवपुद्गलगतेनिमित्तकारणम् । अधर्मास्तिकायः अधर्मद्रव्य - पथिकादीना वृक्षादिच्छायेत्र स्थितिमता जीवाना पुद्गलाना च साहाग्यदानेनाऽऽधारभूत इत्यर्थः, एष हि निजशक्तपाऽवतिष्ठमानाना जीवाना पुद्गलाना च प्रेरणामन्तरेणैवावस्थितिनिमित्तम् । धर्मधर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) काल और (५) पुद्गलास्तिकाय ।
(१) धर्मास्तिकाय - चलनेवाले जीवों और पुद्गलोंको जो चलने में सहायता पहुँचाता है उसे धर्मास्तिकाय या धर्मद्रव्य कहते है, जैसे जलमें चलनेवाली मछली के चलने-फिरने में जल सहायक होता है । धर्मास्तिकाय - अरूपी (अमृर्तिक) और समस्त लोकाकाशमें व्यापक है, और जीव पुद्गलोंकी गति में निमित्त कारण है ।
(२) अधर्मास्तिकाय --जैसे चलता हुआ मुसाफिर यदि ठहरना चाहे तो वृक्षकी छाया उसके ठहरने में उदासीन कारण होती है उसी प्रकार स्थितिमान् जीवों और पुद्गलोकी स्थिति में जो महशयक होता है उसे अधर्मास्तिकाय या अवर्मद्रव्य कहते हैं । अधर्मद्रव्य ठहरते हुए को ठहरनेसे सहायक मात्र होता है, प्रेरणा करके ठहराता नहीं है । यह भी धर्मास्तिकां की ही तरह अरूपी और समस्त लोकाकाशव्यापी
જેમા જીવ ન હેાય તે અજીવ છે अत्र पाय प्रभारना डे (१) धर्मास्ताय, (२) अधर्मानिय (3) आअगस्तिजय, (४) अस सने (५) युद्धगसा निकाय
(૧) ધર્માસ્તિકાય—ચાલનારા જીવે અને પુદગલે ને જે ચાલવામાં મહા યતા કરે છે તેને ધર્માન્તક ય અથવા ધદ્રવ્ય કહે છે, જેમકે જળમા ચાલારી માછતીને ચાલવા-કૂવામાં જળ સહાયક થાય છે ધર્માસ્તિકાય-અરૂપી ( અમૂર્તિક ) અને સમત લાકાકાશમા વ્યાપક છે અને જીવ–પુદ્ગલાની ર્શનમા નિમિત્ત-કાણુ છે અધર્માસ્તિકાય—જેમ ચ લના મુસાફર જો થાભવા ઇચ્છે તે વૃક્ષની છાયા તેના ચૈાભવામાં ઉદાસીન ક્રાણુ અને છે, તેમ સ્થિતિમાન જીવે અને પુત્રàાની સ્થિતિમા જે સહાયક બન છે તેને અધર્માસ્તિકાય અથવા અધમ દ્રવ્ય કહે છે અધર્મ ન્ય થાભનારને થેભવામા સહાયકમત્ર બને છે પ્રેરણા કરીને થેભાવતુ નથી એ પણ ધર્માસ્તિકાયની પેઠે અરૂપી અને સમસ્ત લેાકાશવ્યાપીછે ધદ્રવ્ય
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१६२०
उपासकदशाङ्गसूत्रे
द्रव्याsधर्मेद्रव्ये च लोकालोकमर्यादयोरसाधारणे कारणे स्तः, एतद्द्वयामाचे चाळो कस तेति यथाक्रममन्त्रयव्यतिरेकात्र बोद्धव्यौ । आकाशस्तिकाय: =भाकाशदृष्य - जीवादिसर्व पदार्थस्यावकाशदानेन निमित्तमनन्तोऽमतिको लोकालोब व्यापी चेत्यर्थः । कालः - अमौचिकः सन् द्रव्यावस्थापरिवत्तिनिदानम् - एकस्मिक्षेत्र मनु यादौ चाल यौवन का प्रस्थापरिणाम हेतुर्नव्यानि जीर्णयन् जीर्णानि च नव्यय अमौतिकोऽमदेशी द्रव्यविशेष इत्यर्थः । पुद्गलास्तिकायः = पुद्गलद्रव्यम् - परमाणु मारभ्य यावद्घटपटादिपदार्थसार्थ इत्यर्थः, एतल्लक्षण च वर्णस्पर्शरसगन्धवन्त्रम्, है । धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य, लोकाश और अलोकाकाश की मर्यादाके कारण है। जहां ये द्रव्य है वह लोकाकाश और जहा इनका सद्भाव नहीं है वह अलोकाकाश कहलाता है । (३) आकाशास्ति -- जीव आदि द्रव्योको जो अवकाश देता है वह आकाशास्तिकाय या आकाशद्रव्य, है । आकाशद्रव्य अनन्त प्रदेशी है, अमूर्त्तिक है और लोक तथा अलो मे व्याप्त है ।
(४) काल -- कालद्रव्य अमूर्त्तिक है और द्रव्यकी पर्यायोंकी परिवर्तन का कारण है । मनुष्य आदिमें वालक, युवा और वृद्ध अवस्था कालही के प्रभाव से होती है । यह पुरानेको नया और नये को पुराना करता है, और अप्रदेशी द्रव्य है - इसके प्रदेश नही होते ।
(५) पुद्गलास्तिकाय - परमाणुसे लेकर घट पट आदि सभी दिखाई - देने वाला पदार्थ पुद्गलास्तिकाय या पुद्गलद्रव्य ही है। जिसमें रूप, અને અધદ્રવ્ય, લેકાકાશ અને અલેાકાકાશની મર્યાદાના કારણુ છે જ્યા એ દ્રવ્ય હૈ, તે લેાકકાશ અને જ્યા એને સદ્દભાવ નથી તે અલેાકકાશ કહેવાય છે (૩) આકાશાસ્તિકાય-જીવ આદિ દ્રવ્યેને જે અવકાશ આપે છે તે આકાશાસ્તિકાય અથવા આકાશ દ્રવ્ય છે આકાશદ્રવ્ય અનતપ્રદેશી છે, અમૂતિક છે અને લેાક તથા અલેાકમા વ્યાપ્ત છે
(૪) કાલ——કાલદ્રવ્ય અમૃતિક છે અને દ્રવ્યની પર્યાયના પરિવર્તનનું કારણુ છે મનુષ્ય આદિમા ખાળક, યુવા અને વૃદ્ધ અવસ્થા થાય છે એ જૂનને નવુ અને નવાને જૂતુ કરે છે, અને અપ્રદેશી દ્રવ્ય છે. એના પ્રદેશા થતા નથી
ફાલના જ પ્રભાવથી
(૫) પુદ્ગલાસ્તિકાય.પરમાણુથી લઈને ઘટ પટ આદિ બધા પદાર્થોં પુદ્ગલાસ્તિકાય અથવા જ છે. જેમા રૂપ, સ્પ રસ
દેખતા
१६,
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भगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ ० ११ धर्म० श्रावकधर्मनिरूपणे जीवादिस्व० १६३ एकस्मात्स्थानानिर्गत्य (विघटय) स्थानान्तरपूरण पुद्गलपदार्यः, पुद्गलस्य निरशो भागः परमाणुः, यावदेक. परमाणुरपरेण परमाणुना सह सम्मिलितोवर्तते तावत्स 'प्रदेश' इति व्यवहियते, द्वित्रादिभिः परमाणुपदेशैश्च स्कन्धो भवतीति । धर्माऽधर्माऽऽशजीवाना प्रदेशाः प्रदेशान्तरविलक्षणा घनीभूततया स्वेभ्यः सर्वथैवाऽपृथग्भूता न तु पटापटप्रदेशवद्भिन्नाः । आह-ननु किमिद धर्मादीनामस्तिकायत्व १ कथ च कालस्तच्छ्न्यो व्यवाहियते ? इति, उच्यते-अस्तया प्रदेशा', काय:समुदायस्ततश्वाऽस्तीनाम्मदेशाना काय समुदायोऽस्तिकायः, एव च धर्मरूपोऽस्पर्श, रस, गध पाये जाएँ वही पुद्गल है । एक पदार्थसे विभक्त होकर दूसरे पदार्थकी पूर्ति करनेसे इसे पुद्गल कहते हैं।
जिसका दूसरा अश न हो सके ऐसे, पुद्गलके सबसे सूक्ष्म अश को परमाणु कहते हैं। एक परमाणु जब तक दूसरे परमाणुके माध मिला रहता है, तब तक उसे प्रदेश कहते हैं । जब वह दो, तीन, चार
आदि अधिक परमाणुओं या प्रदेशोंके साथ मिल जाता है तब स्कन्ध कहलाता है।
जैसे पटके प्रदेश पट (वस्त्र) से पृथक होते हैं वैसे धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य और जीवद्रव्यके प्रदेश प्रथक नहीं किये जा सकते। वे अत्यन्त घनीभूत-अखण्डपिण्डरूप-होकर रहते हैं।
प्रश्न-धर्म आदिके माय जो 'अस्तिकाय' लगाया है, उसका अभिप्राय क्या है ? और कालके साथ 'अस्तिकाय' क्यो नहीं लगाया गया है ?
उत्तर-'अस्ति'का अर्थ है प्रदेश और 'काय' का अर्थ है समूह, માલુમ પડે તે પુદગલ છે, એક પદાર્થથી વિરકત થઈને બીજા પદાર્થની પૂર્તિ કરતા હોવાથી એને પુદગલ કહે છે
જેને બીજો અ શ ન થઈ શકે એવા, પુગલના સૌથી સૂક્ષમ અને પરમાણુ કહે છે એક પરમાણુ જ્યા સુધી બીજા પરમાણુની સાથે મળી રહે છે, ત્યા સુધી તેને પ્રદેશ કહે છે જ્યારે તે બે, ત્રણ, ચાર આદિ અધિક પરમાણુઓ યા પ્રદેશની સાથે મળી જાય છે, ત્યારે સ્કન્ધ કહેવાય છે
જેમ પટના પ્રદેશ પટ (વસ્ત્ર)થી પૃથફ હોય છે, તેમ ધર્મદ્રવ્ય અધર્મદ્રવ્ય આકશદ્રવ્ય અને જીવદ્રવ્યના પ્રદેશ પૃથક કરી શકાતા નથી તે અત્યંત ઘનીભત-- અખડપિંડરૂપ થઈને રહે છે
પ્રશ્ન-ધર્મ આદિની સાથે જે અસ્તિકાય લગાડે છે તેને અભિપ્રાય છે છે? અને કાલની સાથે “અસ્તિકાય કેમ નથી લગાડે?
ઉત્તર–અસ્તિને અર્થ છે પ્રદેશ, અને કાર્યને અર્થ છે સમહ,
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उपासकदा
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स्तिकायो धर्मद्रव्यमिति फलति एवमधर्मास्तिकायादिष्वपि बोभ्यम्, कालस्य तु भूतस्य नष्टत्वाद भविष्यतश्चेदानीम सच्चाद्वर्त्तमानतामात्रमवशिष्यत इति नास्त्यस्ति कायत्वव्यपदेशः । एषु धर्माधर्मजीना असख्यातमदेशात्मकाः, आकाश चानन्तमदेशात्मकः, इयोस्तु विशेषः- यल्लोकाशोऽसख्यातमदेशात्मकोऽलोकाकाशभा नन्तमदेशात्मक इति 1
देवस्वरूपम् !
देवः स यो दोपवर्जितो ज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयनान्, लोकालोकयथावस्थितस्त्र रूपोपदेशकः, प्रमाण नय स्याद्वाद प्रस्पस्से वीतरागस्त्यागी च इसलिए अस्तिकाय का अर्थ 'प्रदशोंका समूह' ऐसा हुआ । धर्मास्ति कायमा अर्थ निकला - घमरूप प्रदेशोंका समृह । इसी प्रकार अधर्मा स्तिकाय आदिके विषयमें भी समझना चाहिए। किन्तु कालके प्रदेश नही है, क्योकि अतीत (बीता हुआ) काल नष्ट हो चुका है और भविष्य काल इस समय विद्यमान नहीं है। सिर्फ वर्त्तमान काल समयमात्र शेष रह जाता है इसलिए उसे अस्तिकाय नहीं करते। इसे धर्म अधर्म और जीवद्रव्य ये असख्यात प्रदेशवाले हैं, और आकाश अनन्तप्रदेशी है । विशेषता यह है कि आकाशमें भी लोकाकाश तो असख्यातप्रदेशी है पर अलोकाकाश अनन्तप्रदेशी है । देवका स्वरूप |
देव -- जो दोपोंसे सर्वथा मुक्त हो, अनन्त चतुष्टदसे युक्त हो लोक अलोकके यथार्थ स्वरूपका उपदेशक हो, प्रमाण नय स्वाहा તેથી અસ્તિકાયને અ ‘પ્રદેશના સમૂહ એવા થયેા ધર્માસ્તિકાયને અર્થ નીકળ્યા. ધર્મારૂપ પ્રદેશના સમૂહ' એ પ્રમાણે અધર્માસ્તિકાય આદિના વિષયમાં પણ સમજી લેવુ પરન્તુ કાલના પ્રદેશે નથી, કારણ કે અતીત (વીતી ગમેલે) કાલ નષ્ટ થઈ ચૂકયા છે અને ભવિષ્યકાળ અત્યારે વિદ્યમાન નથી માત્ર વર્તમાનકાળ સમયમાત્ર શેષ રહી જાય છે, તેથી તેને અસ્તિકાય નથી કહેતા, એમાથી ધ, અધમ અને એક જીવદ્રવ્ય એ અસ ખ્યાત પ્રદેશવાળા છે, અને આકાશ અનતપ્રદેશથી હે વિશેષતા એ છે કે આકાશમા પણ ત્રૈકાકાશ તે અસખ્યાતપ્રદેશી છે, પરન્તુ અનેાકાકાશ અતતપ્રદેશી છે
દેવનુ સ્વરૂપ
દેવ-જે દોષોથી સČથા મુકત હોય, અનત ચતુષ્ટયથી યુકત હાય, લાક અલેકના યથાર્થ સ્વરૂપના ઇપદેશક હાય, પ્રમાણુ નય સ્યાદ્વાદની પ્રરૂપણા કરનારા હાય
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भंगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ ११ धर्म श्रावकधर्मनिरूपणेदेवस्त्र १६५
तदुक्तम्---
"णिद्दोसो सजुत्तो, चउहिं णाणाहहिं अणतेहिं । लोयालोय जहट्टिय, सख्यणिदेसगो य जो होई ॥ १ ॥ एव पमाण-णय सियवाय प्पन्नावगो विगयराओ ।
अवि जो परमचाई सो देवो जेणसासणे वृत्तो ॥ २ ॥” इति ।
एतच्छाया च-
"निर्दोषः संयुक्तचतुर्भिर्ज्ञानादिभिरनन्तेः ।
लो कालो यथास्थित, - स्वरूपनिर्देशकच यो भवति ॥ १ ॥ एव प्रमाण नय स्याद्वाद ज्ञापन विगतरागः ।
จ
अपि यः परमत्यागी, स देवो जैनशासने उक्तः ॥ २ ॥” इति । तन- दीपाः दानान्तरायादयोऽष्टादश मत्कृता-तत्त्वप्रदीपा दवसेयाः। ज्ञाना धनन्तचतुष्टय चानन्तज्ञानानन्तदर्शनानन्तसुखानन्तवीर्यरूपम् । लोकालोको चपा
१ - जन्तराया दानलाभ, वीर्यभोगोपभोगगा । हास्यं रत्यरती भीति, र्जुगुप्सा शोक एव च ॥ २॥ कामो मिथ्यात्वमज्ञान, निद्रा चानिरतिस्तथा । रागद्रे पौ प्रभुप्रोक्ता, दोपा अष्टादश त्वमी ||२||" इति ।
प्ररूपणा करने वाला हो, वीतराग और त्यागी हो वही सच्चा देव है । कहा भी है
" जो निर्दोष, अनन्त चतुष्टयसे युक्त, लोकालोकके यथार्थ स्वरूप का प्ररूपक, प्रमाण नय स्याद्वादका उपदेशक, वीतराग और परम त्यागी हो, वही जैन शासनमे देव माना गया है || २ || "
यहा दोपसे दानान्तराय आदि अठारह दोषोंका ग्रहण है । उनका कथन मेरे द्वारा निर्मित 'तत्वप्रदीप' नामक ग्रन्थमे देखना चाहिए । अनन्तचतुष्टयका अर्थ अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुम और अनन्त वीर्य हे । लोक और अलोकका स्वरूप पहले बता चुके है । વીતરાગ અને ત્યાગી હાય તે સાચા દેવ છે કહ્યુ છે કે— “જે નિદોષ, અન ત ચતુષ્ટથી યુકત, લેાકાલેાકના ચથા સ્વરૂપને પ્રરૂપક, પ્રમાણ નય સ્યાદ્વાદના ઉપદેશક, વીતરાગ અને પરમત્યાગી તેને જૈનશાસનમા દેવ मानेसो छे (१)
અહીં દ્વેષથી દાનાન્તરાય િ મારા स्थेला 'तत्व प्रदीप' નામના
અનત જ્ઞાન, મન તદન, અનત સુખ અને
અઢાર ઢાષાનુ ગ્રહણ એનુ કયન ગ્રંથમા જોવુ અનત ચતુષ્ટયનો અ અનત શક્તિ છે લેાક અને અલેાકનું
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उपासकदा
ग्व्याख्यातस्वरूपौ । प्रमाण च तद् येन पदार्थाः प्रमीयन्ते, सशय विपर्ययानायक सायभिन्न, सम्यग्ज्ञानमिति यावद, एतच्च मति श्रुता यधि मनः पर्यत्र केवलज्ञान भेदात्पञ्चविधम् मत्यादिस्वरूप च मत्कृते तत्त्रमदीपे मपश्चितम् । [ नयमरूपणम् ]
नयति नानाशात्म पदार्थमेकाशानलम्बनेन प्रतीतिविषय प्रापयतीति, यद्वा नीयते = परिच्छिद्यते पदार्थों येन यस्माद्वेति नयः = नानाधर्मात्मत्रस्य वस्तुन एका शपरिच्छेद इत्यर्थ, यद्वा सर्वे घट-पट कट-करट वरटादयः पदार्था निज नित्र
२ मा - (ज्ञान) - विपयीक्रियन्ते चोध्यन्त इत्यर्थ. ।
,
जिससे पदर्थोका यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण करते हैं, अर्थात् सशय विपर्यय और अनध्यवसायसे भिन्न ज्ञान अथवा सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है । सम्यग्यज्ञान (प्रमाण) मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल ज्ञानके भेद से पाच प्रकारका है । इसका विस्तृत वर्णन 'तत्त्वप्रदीप' मे किया गया है ।
(७) नयोका प्ररूपण ।
पदार्थ मे अनन्त धर्म पाये जाते हैं उन सब धर्मो का समुदाय यह पदार्थ है । उन अनन्त धर्मोंमे से किसी एक विवक्षित धर्मको मुख्य करके और शेष धूमको गौण करके अर्थात् उस मुख्य धर्मका आलजन लेकर जो पदार्थका ज्ञान करावे उसे नय कहते हैं । अथवा जिसके द्वारा अनन्तधर्मात्मक पदार्थका एक धर्म जाना जाय उसे नय कहते हैं अथवा घट पट आदि समस्त पदार्थ अपने -अपने मूल द्रव्य સ્વરૂપ પહેલા ખતાવી ગયા છીએ જેથી કરીને પદાર્થોનુ યથાર્થ જ્ઞાન થાય તેને પ્રમાણ કહે છે, અર્થાત સ શય વિપંચ અને અનવ્યવસાયથી ભિન્ન જ્ઞાને અથવા સભ્યજ્ઞાન જ પ્રમાણુ છે सभ्यग्ज्ञान (प्रमाणु) मति, श्रुत, अवधि, મન પર્યાવ અને કેવળજ્ઞાનના ભેઢે કરીને પાચ પ્રકારનું છે એનુ વિસ્તૃતવર્ણન ‘તવ પ્રદીપ'મા કરેલુ છે
(૭) નચેાનુ પ્રરૂપણુ
પદ્મામા અને તેધમ માલુમ પડે છે, એ સ ધર્મોના સમુ ય એ પદાર્થ છે. એ અતત ધર્મોમાથી કેઈ એક વિક્ષિત ધર્મને મુખ્યત્વે કરીને અને શેષ ધર્માંને ગૌણુર્વે કરીને અર્થાત્ એ મુખ્ય ધનું માલ બન લઈને જે પદાનું જ્ઞાન કરાવે તેને નય' કહે છે અથવા જેની દ્વારા અનતધર્માંત્મક પદાર્થોના એક ધ જાણુવામા આવે તેને નય કહે છે અથવા ઘટ પટ આદિ બધા પદાર્થોં પોતપોતાના
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अ० टीका भ १ सू.११ धर्म० श्रावकधर्मनिरूपणे नयमरूपणम् १६७ मूलद्रव्याण्यपेक्ष्य नित्याः सन्तोऽपि तत्तद्वटपटाद्याकारपरिणतिमपेक्ष्यानित्या इवि पदार्थमात्रशतो नित्यमशतश्चानित्य यन्मन्यते सोऽय नय उच्यते ।
अय च तावद्विविधः द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकत्वाभ्याम् । तत्र तत्तत्पर्यायानदुद्रवति द्रोप्यति वेति द्रव्य, स एवार्थे द्रव्यार्थः, सोऽस्त्यस्मिन्निति द्रव्यार्थिकः १ | की अपेक्षासे नित्य है किन्तु घट पट आदि पर्यायोंकी अपेक्षा अनित्य भी हैं । अर्थात् घट (घड़ा) पुद्गलरूप है । जब घटके पुद्गल, घट बनने से पहले मिट्टी के रूप में थे, तब भी पुद्गल थे, जब घटकी आकृति ( शकल ) मे आये तब भी पुद्गल ही है, अगर कोई घटको पटक कर टुकडे टुकडे कर डाले तब भी वे टुकडे पुद्गल ही रहेगे, यदि कोई उन टुकड़ोको पिसकर मिट्टी में मिला कर फिर उनसे घट बनाए तब भी वे पुद्गल ही रहेंगे । इस प्रकार उन उन पुदगलोंका पुद्गलपन कदापि नष्ट नहीं होता, इसी कारण वे द्रव्य-दृष्टिसे नित्य है । परन्तु वे सदा एक ही अवस्थामें नही रहते- कभी मिट्टी के रूपमे, कभी घटके रूपमें, कभी टुकडे के रूपमे और कभी सक्ष्म रजके रूपमे आते है । ये सब रूप द्रव्य पर्याय - दृष्टिसे पदार्थ अनित्य है । जो किसी अपेक्षा नित्य और किसी अपेक्षा अनित्य मानता है उसको नय कहते है ।
नय दो प्रकारका है - (१) द्रव्यार्थिक और ( २ ) पर्यायार्थिक । जो भूत कालमें था । वर्तमानमें है और भविष्य मे भी रहेगा મૂલદ્રવ્યની અપેક્ષાએ નિત્ય છે, પરન્તુ ઘટપટ આદિ પર્યાયાની અપેક્ષાએ અનિત્ય પણ છે અર્થાત્ ઘટ (ઘડા) પુદ્ગલરૂપ છે. જ્યારે ઘના પુદ્ગલે, ઘટ ન્યા પહેલા માટીના રૂપમાં હતા, ત્યારે પણ એ પુદ્ગલા હતા જ્યારે તે ઘટની આકૃતિમા આવ્યા ત્યારે પણ પુદ્ગલ જ છે, અગર જો કોઇ ઘટને પછાડીને ટુકડે-ટુકડા કરી નાખે ત્યારે પણ તે ટુકડ પુદ્ગલ જ રહેશે, જો કાઇ સ્પે ટુકડાને ખાડી–દળીને માટીમા મેળવી દઇ ફરી એમાથી ઘટ બનાવે ત્યારે પણ એ પુદ્ગલ જ રહેશે, એ પ્રમાણે એ પુદ્દગલાનું પુદ્દગલપણુ કર્રાપ નષ્ટ થતુ નથી, તે કારણથી તે દ્રવ્યદૃષ્ટિએ કરીને નિત્ય છે પરન્તુ તે સદા એક જ અવસ્થામા રહેતા નથી---ાઇવાર માટીના રૂપમાં, કોઈવાર ઘટના રૂપમા કાઇવાર ટુકડાના રૂપમા અને કોઇવાર સૂક્ષ્મ રજના રૂપમા આવે છે એ બધા રૂપ દ્રવ્યના પર્યાય-દ્રષ્ટિએ કરીને પદાર્ય અનિત્ય છે જે કાઈ અપેક્ષાએ નિત્ય અને કોઇ અપેક્ષાએ અનિત્ય માને છે, તેને નય કહે છે નય એ अारना छे (१) द्रव्यार्थि मने (२) पर्यायार्थि४
જે ભૂતકાળમા હતુ, વમાનમા છે અને ભવિષ્યમા હશે, તેને દ્રષ્ય કહે
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पर्येति = माप्नोत्युत्पत्तिनाशाविति पर्यायः स एवार्थः पर्यायार्थः सोऽस्त्यस्मिन्निति पर्यायायिकः (२) ।
=
तयोर्द्रव्यार्थिकस्य नयस्य नैगम-सग्रह व्यवहाररूपात्रयो भेदास्तत्रनैके हुविधाः गमानोधमार्गा यस्य, यद्वा नि-नितरा सर्वयेत्यर्थ गमा बोधा यस्य स निगमस्तत्र भवः कुशलो वा नेगमः - सार्वकालिक - वावगमोपायभूत इत्यर्थः, यथा कञ्चिद्धूतकाल लक्ष्यीकृत्योच्यते लोके-'भद्यानुकस्य जन्मोत्सव' इत्यादि (१) ।
उपासका
१ - इत्यादि =एव वर्त्तमान- भविष्यतोरपि बोध्यम् ।
उसे द्रव्य करते हैं । जो नय द्रव्यको अर्थ (विषय) करे उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं ।
जो उत्पत्ति और विनाशको प्राप्त होता है उसे पर्याय करते हैं। जो नय पर्यायको विषय करता है उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं ।
द्रव्यार्थिक नयके तीन भेद है - (१) नैगम, (२) संग्रह, (३) व्यवहार । जो अनेक प्रकारोंसे ज्ञान कराता है, अथवा जो सर्वदा (त्रिकाल) पातको जाननेमे कुशल हो उसे नैगम नय कहते हैं। जैसे-पि भगवान महावीरस्वामी निर्माणको प्राप्त हो चुके हैं तथापि यह नय भूतकी विवक्षासे प्रत्येक वर्षकी चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को महावीर स्वामी के जन्मको तिथि मानता है, और इसीको प्रधान करके लोग कहते हैं कि-' आज भगवानकी जयन्ती है।' इसी प्रकार वर्त्तमान और भविष्य कालके उदाहरण स्वय समझ लेने चाहिए । છે જે નચ દ્ર યને અર્થાં (વિષય) કરે તેને દ્રવ્યર્થિક ન્ય સંહે કે
જે ઉત્પત્તિ અને વિનાશન પ્રાપ્ત થાય છે તેને પર્યાય કહે છે જે નય પર્યાર્મે અને વિષય કરે છે તેને પર્યાર્થક નય કહે છે
2
द्रव्यार्थि नयना ना लेहे। हे - (१) नैगम, ( २ ) स श्रई, ( 3 ) व्यवहार અનેક પ્રકારે જ્ઞાન કરાવે છે, અથવા જે સદા (ત્રિકાળસખ ધી) વાતને જાણવામાં કુશળ હાય તેનું નાગમનય કહું છ જેમકે ો કે ભગવાન મહાવીર સ્વામી નિર્વા પામી ચૂકયા છે તથા િએ ન્ય મૃતની વિવક્ષાએ કરીને પ્રત્યેક વર્ષીની ચૈત્ર સુ તેરશે મહાવી સ્વામીના જન્મની તિથિ માને છે અને તેના પ્રધાનત્ત્વે કરીને લે કહે છે કે ‘આજે ભગવાનની જય તી છે’ એજ રીતે વર્તમાન અને ભવિષ્યકાળના ઉદાહરણા પણ સમજી લેવા
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ सू ११ श्रावकधर्म० नयमरूपणम्
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विशेषनैरपेक्ष्येण सत्र द्रव्यत्वादिरूप सामान्यमात्र सगृहाति = एकरूपतया क्रोडीकरोतीति सद्ग्रहः - सामान्योक्त्या तद्धर्मावच्छिन्नाना विशिष्टाना सर्वेपा सम्यग्राहक इत्यर्थः, यथा - 'जीवश्चेतनालक्षणः' इत्युक्ते सर्वेपा जीवाना प्रतीतिर्भवतीति (२) । सच्च द्रव्यत्वादीन पदार्थानुक्तस्वरूपेण सग्रहनयेन गृहीत्वा यदवान्तर धर्मात्र च्छिन्नतया विभज्य व्यवहरण स व्यवहारः, यथा - ' जीवो द्विविधः - ससारी मुक्त-त्यादि (३) ।
जो नय विशेष की अपेक्षा न कर सामान्यको ग्रहण करता है वह सग्रह नय है, अर्थात् सामान्यके कथनसे उस सामान्य धर्म वाले समस्त पदार्थोंका सम्यक् प्रकारसे ग्रहण करने वाला सग्रह नय है। जैसे'जीवका लक्षण चेतना है' ऐसा कहनेसे समस्त जीवोका ग्रहण होता है।
सत्त्व, द्रव्यत्व आदि सामान्य धर्मके कारण सग्रह नयके द्वारा सग्रहरूपसे ग्रहण किये हुए पदार्थों में विशेष धर्मो के द्वारा विभाग करके जो ग्रहण करता है वह व्यवहार नय है ।
तात्पर्य यह है कि पदार्थो में सामान्य धर्म भी है और विशेष धर्म भी हैं। दूध और जल दोनों में द्रवत्व ( पतलापन) समान है किन्तु उनके अन्य गुणोमें भेद है । 'सत्व' गुण समस्त पदार्थों में है, अतः सग्रह नय इस गुणकी अपेक्षा समस्त पदार्थोंको एक मानता है । किन्तु व्यवहार नय कहता है - सब पदार्थ एक नही हो सकते, क्योकी किसी-किसी मे जीवत्व गुण है, किसी किसी में जीवत्व गुण
જે નય વિશેષની અપેક્ષા ન કરતા સામાન્યને ગ્રહણુ કરે છે તે સંગ્રહનય છે, અર્થાત્ સામાન્યના કથન કરીને એ મામાન્ય ધર્માવાળા અધા પદાર્થોનું સમ્યક્ પ્રકારે ગ્રહણ કરનારો સગ્રહનય છે જેમકે-‘જીવનું લક્ષણ ચેતના છે, એમ કહેવાથી અધા જીવેનું ગ્રહણ થાય છે
સત્ત્વ, દ્રવ્યત્વ આદિ સામાન્ય ધર્મને કારણે સગ્રહ નયની દ્વારા સગ્રહરૂપે મહણ કરેલા પર્ધામા વિશેષ ધર્માંદ્વારા વિભાગ કરીને જે ગ્રહણ કરે છે તે વ્યવહા
રય છે
તાત્પર્ય એ છે કે પદાર્થામા સામાન્ય ધર્માં પણ છે, અને વિશેષ ધર્મ પણ છે દૂધ અને જલ એઉમા દ્રવ્યત્વ (પ્રવાહિત્ય) સમાન છે, પરન્તુ તેના ખીજ ગુથેામા ભેદ છે. સત્ત્વ' ગુણુ ખધા પદાર્થાંમા છે, તેથી સત્ર નય એ ગુણુની અપેક્ષાએ બધા પદાર્થાંને એક માને છે પરંતુ વ્યવહાર ના કહે છે કે બધા પદાર્થોં એક નથી હાઈ શકતા કારણ કે કાઇ–ઢાઈમાં જીવત્વ ગુણુ છે, કેાઈ-ફાઈમાં જીવત્વ
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उपासकदशासूत्रे
नहीं है, अतः दोनों एक कैसे हो सकते हैं? सग्रह कहता है-जीवत्व गुण एक है और वह गुण जिन-जिनमें पाया जाता है वे सब एक द्रव्य है । व्यवहार नय करता है -कोह जीन ससारी है, को मुक्त है, अतः दोनों भिन्न-भिन्न है । मग्रह रहता है-- जिन-जिनमें ससारीपन पाया जाय वे सब एक है । व्यवहार कहता है-- कोई स है कोई स्थावर, दोनों एक नहीं है । सग्रह कहता है - जिन-जिनमें
सपन हो वे सब एक है । व्यवहार कहता है-- कोई द्विन्द्रिय, कोई त्रीन्द्रिय, कोई चतुरिन्द्रिय और कोई पचेन्द्रिय होते हैं, अतः भिन्न-भिन्न हैं । तात्पर्य यह है कि सग्रह नय सामान्य धर्म पर दृष्टि रखता है और व्यवहार विशेष (भिन्न धर्मों पर ॥
एक नय दुसरे का विरोध नही करता है। नय, तब तक ही सुनय है जब तक वे दूसरे नयका विरोध न करके दूसरे नयको उदासीनतापूर्वक देखते हुए अपने विषयको जानते है । जब कोई नय अन्य नयकी अपेक्षा न रख स्वतंत्र वन जाता है अनेकवाद से विपरीत एकान्त वादको आश्रय देनेके कारण मिथ्या नय हो जाता हैं । सौगतोका अनीत्यतावाद ऋजुसूत्र नयसे सगत
तब वह
ગુરુ નથી, તે બેઉ એક કેવી રીતે હોઇ શકે ? સગ્રા કહે છે કે જીવવ ગુણ એક છે અને એ ગુણુ જેમા જેમા માલૂમ પડે તે બધા એક દ્રવ્ય છે વ્યવહાર નથ કહે છે કે ઇ જીવસ સારી છે, કોઇ મુત્ છે, માટે બેઉ ભિન્ન ભિન્ન છે સ કહે છે કે જેમા જેમા સ સારીપણુ માલૂમ પડે તે બધા એક છે વ્યવહાર કહે છે કે કોઇ ત્રસ છે કેાઈ સ્થાવર છે, માટે એઉ એક નથી સગ્રહ કહે છે કે જેમા જેમ ત્રસપણ હાય તે બધા એક છે વ્યવડાર કહે છે કેકોઇ નઇ દ્રિય, કોઇ શ્રીન્દ્રિય, કોઇ ચતુરિન્દ્રિય અને કોઈ પચેન્દ્રિય હાય છે, માટે તેએ ભિન્ન છે. તાત્પર્ય એ છે કે સગ્રહનય સામાન્ય ધર્મોપર દ્રષ્ટિ રાખે છે અન વ્યવહાર નય વિશેષ (ભિન્ન) ધમાં પર દ્રષ્ટિ રાખે છે
એક નચ બીજાને વિરોધ નથી કરતા નય એ ત્યા સુધી જ સુનય છે કે જ્યા સુધી તે ખીજા નયના વિરોધ ન કરતા અા નયને ઉદાસીનતા પૂર્વક જોઇ રહી પૈાતાના વિષયને જાણે છે જ્યારે કાઇ નય અન્ય નયની અપેક્ષા ન રાખતા સ્વતંત્ર અની જાય છે ત્યારે તે અનેકાતવાદથી વિપરીત એકાન્તાવાદને આશ્રય આપવાને કારણે મિથ્યાનય ખની જાય છે. સૌગતાને અનિત્યતાવાદ છન્નુસૂત્ર નચે કરીને ભગત છે,
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अगारधर्मसजीवनी टीका अ० १ सू० १९ श्रावकधर्म० नयप्ररूपणम् १७१ पर्यायार्थिकस्य च नयस्य ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढै-वम्भूतरूपाश्चत्वारो भेदास्तत्रसदपि द्रव्य गुणीभावादपरिबोधयन् ऋजु = वर्त्तमानक्षणस्थायिपर्यायमात्र मधानतया सूत्रयन्नभिप्राय विशेष ऋजुम्रत्रनयः, यथा - 'सप्रति सुखमस्ती' - त्यादि, है किन्तु वह बौद्धमिद्धान्तमे अन्य नयोंसे निरपेक्ष होनेके कारण मिथ्याकजुसूत्र हो गया है। यही बात अन्य नयोके विषयमे भी जान लेनी चाहिए । सग्रह और व्यवहारकी जो विषय विभिन्नता ऊपर दिखलाई गई हैं वह भी इसोके अनुसार समझनी चाहिए, अर्थात् संग्रह नय सामान्यका प्रतिपादन करता है और विशेषको गौण करके उसकी विवक्षा नहीं करता, किन्तु विरोध भी नहीं करता। इसी प्रकार व्यवहार नय अपने विषयका प्रतिपादन ही करता है सग्रहके विषयका विरोध नही करता । सक्षेषमे यह कह सकते है कि नय, महेलियों की तरह रहते है, ईर्ष्यालु मौतों (सपत्नियो ) की तरह नहीं । पर्यायार्थिक नयके चार भेद है - (१) ऋजु सूत्र, (२) शब्द, (३) समभिरूढ, (४) एवभूत |
(१) द्रव्य यद्यपि विद्यमान है तो भी उसे गौण (अप्रधान) करके उसकी विवक्षा न करता हुआ जो नय वर्त्तमान क्षणमें विद्यमान पर्याय को ही प्रधानतासे बोध करता है, वह ऋजु-सूत्र नय है । जैसे - ' इस समय सुख है'। इस प्रकार यह नय विद्यमान द्रव्यको પરન્તુ એ બૌદ્ધ સિદ્ધાન્તમા અન્ય નયાએ કરીને નિરપેક્ષ હોવાને કારણે મિથ્યા જીત્ર થઇ ગયે છે એજ વાત અન્ય નયાની ખાખતમા પણુ જાણી લેવી સ ગ્રહ અને વ્યવહારની જે વિષય વિભિન્નતા ઉપર બતાવવામાં આવી છે તે પણુ એ પ્રમાણે જ સમજવી, અર્થાત્ સ ગ્રહ નય. સામાન્યનું પ્રતિવાદન કરે છે અને વિશેષને ગૌણુ કરીને એની વિવક્ષા કરતા નથી, પરન્તુ વિરેધ પણ કરતા નથી, એજ પ્રમાણે વ્યવહાર નય પાતાના વિષયનુ પ્રતિવાદ્ન કરે છે, સગ્રહના વિષયને વિરોધ કરતા નથી સક્ષે ૫મા કહી શકાય કે નય સાહેલીઓની પેઠે રહે છે, ઇર્ષ્યાળુ શાકયની પેઠે નહિ
पर्यायार्थि नयना यार ले छे - (१) ऋसूत्र, (२) शण्ड, (3) समलि३ढ, (४) शेव भूत
(૧) દ્રવ્ય ો કે વિદ્યમાન છે, તા પણ તેને ગૌણુ ( અપ્રધાન ) કરીને એની વિવક્ષા ન કરતા જે નય વર્તમાન ક્ષણમા વિદ્યમાન પર્યાયના જ પ્રધાનતાએ કરીને બેાધ કરાવે છે, જીસૂત્ર નય છે જેમકે આ સમયે સુખ છે' આ પ્રમાણે આ નય
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उपासकद
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एवमादिभिर्हि वाक्यैरात्मादीनि द्रव्याणि गुणीभूतत्वेनापरिबोध्य क्षणावस्थायि सुखात्मक पर्यामात्र प्रधानतया सूत्रित भातीति (१) ।
शब्द पते उपचार्यत इति शब्द लिहू काल पुरुषो पसर्गभेदेना rs भेदस्तत्प्रधानो नय:- शन्दनयः- पर्यायनानात्वेऽप्यर्थाभेदक इत्यर्थः यथासुनासीर वासवेन्द्र पुरुहूत पुरन्दरादिभिः पर्याये रेकस्यैव सुरपतिरूपस्यार्थस्य प्रतिपत्तिरिति (२) ।
प्रतिवाचक शब्दमर्थभेद इति यः समभिरोहति समाश्रयति स समभिरूढः, अयमभिप्रायः - यदा पुरन्दरादिरूपा सव्ज्ञा वक्ता विवक्षति, तदा तदितरवावादि गौण कर देता है-उसका बोध नही कराता रिन्तु क्षणस्थायि वर्तमान कालीन सुख पर्याय ही प्रधान करके उसका सूचन करता है ।
(२) जो बोला जाता है उसे शब्द कहते हैं । अर्थात् लिंग, कारक काल, पुरुष और उपसर्ग (प्र, वि, आदि) आदिका भेद होने पर भी जो पदार्थ में भेद नही मानता वह शब्द नय है । जैसे- शुनासीर, वासव, इन्द्र, पुरत, पुरन्दर - इत्यादि पर्यायवाची शब्दोंसे एक इन्द्र अर्थका बोध होता है । तात्पर्य यह है कि चाहे शुनासीर कहिए चाहे वासव या इन्द्र कह लीजिए चाहे पुरुहृत बोलिए या पुरन्दर बोलिए, शब्द नय की दृष्टिमें इनका भिन्न भिन्न अर्थ नहीं है, क्योंकि इन सबसे इन्द्र अर्थ ही प्रतीत होता है ।
(३) जो नय प्रत्येक शब्दका अर्थ भिन्न-भि न मानता है वह समभिरुढ नय है। तात्पर्य यह कि शब्द धातुसे बनते है और વિદ્યામાન દ્રવ્યને ગૌણુ કરી દે છે–તેના માધ નથી કરાવતા, પરન્તુ ક્ષણસ્થાયી વર્તમાનકાલીન સુખ–પર્યાયને જ પ્રધાન કરીને એનુ સુચત કરે છે
(२) ने मोसादवामा आवे छे मेने शब्द उहे छे अर्थात् सिग, २४ पुस, પુરૂષ અને ઉપસ ( ×, વિ, આદિ ) દિના ભેદ હાવા છતા પણ જે પદાર્થ મા लेह नथी भानतो ते शब्द नय छे मरे, शुनासीर, वासव, ४९, ५३हूत, चु२४२, ઇત્યાદિ પર્યાયવાચક શબ્દોએ કરીને એક જ ઇદ્ર અર્થના માપ થાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે ચાહે શુનાસીર કા ચાહે વાસન ચા ઇદ્ર કહેા ચાહે પુરૂર્હુત એલે કે પુરકર એલા, શબ્દનયની દ્રષ્ટિમા એના ભિન્ન ભિન્ન માઁ નથી, કાણુ કે એ બધા શબ્દેથી ઈંદ્ર અજ પ્રતીત થાય છે
(૩) જે નય પ્રત્યેક શબ્દના અર્થોં ભિન્ન ભિન્ન માને છે તે સબિશ્ય નય છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू ११ श्रावकधर्म० नयमरूपणम्
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सानिरपेक्षत्वेन कादाचित्कःपुरदारणादिक्रियायोगेन तामेव पुरन्दरादिरूपा सज्ञामर्थोधतया विषयी कारयति यः स तत्तदर्थसमभिरोहण क्रियाभिसम्बन्धात्सभिरूढः, एतस्मिनये हि पुरन्दरादिशब्दवाच्यस्तत्पर्याय - नासवादिशब्दवाच्येभ्योSपि कादाचित्कतत्तद्गुणक्रियाभिसम्बन्धाद्भिन्न एवात एवं घटपटादीनामर्थाना पर स्पर भेदः, तथाच पुरन्दरत्वादिप्रवृत्तिनिमित्तभेदाद्भिन्नार्थकत्वकल्पनया स स शब्दएक धातुमे एक ही गुणके बोध कराने की शक्ति होती है अतः उससे बना हुआ शब्द भी एक ही गुणका प्रतिपादन करता है इसलिए शब्दो का अर्थ एक यही हो सकता । जैसे पुरन्दरका अर्थ है-पुरको दारण करने वाला, और इन्द्रका अर्थ है- परम ऐश्वर्यसे दीपने वाला | जय कोइ वक्ता पुरन्दररूप सज्ञाकी विवक्षा करता है तब इन्द्र आदि सञ्ज्ञाकी अपेक्षा न रख कर, कभी-कभी होनेवाली पुरदारणरूप क्रियाके योग से पुरन्दररूप सञ्ज्ञाका बोध कराता है, यही समभिरूढ नय है । इसी नयकी अपेक्षासे 'शब्दभेदादर्थ भेदोऽर्थ भेदाच्छन्द भेदः' अर्थात् शब्द के भेदसे अर्थका भेद और अर्थके भेदसे शब्दका भेद होता है, यह नियम सगत बैठता है। इस नयकी अपेक्षा 'पुरन्दर' शब्दका वाच्य पुरन्दरके पर्यायवाची 'इन्द्र' शब्द के वाच्यसे भिन्न है । क्योंकि शब्दोंका सम्बन्ध कभी-कभी होनेवाले गुण और क्रियासे है । जैसे पुरको दारण करनेके निमित्तसे पुरन्दर कहलाता है । इसी कारण घट और पट आदि पदार्थों मे परस्पर भेद होता है । यदि गुण તાત્પર્ય એ છે કે-શમ્મૂ ધાતુમાથી ખને છે અને એક ધાતુમા એક જ ગુણુને બેધ કરાવવાની શક્તિ હેાય છે, તેથી તેમાથી અનેલે શબ્દ પણ એક જ ગુણુનું પ્રતિપાદન કરે છે, તેથી કરીને શબ્દોના અર્થ એક નથી થઇ શકતા, જેમકે પુરદરને અર્થ છે પુરનુ દારણુ કરનારા, અને ઇદ્રના અર્થ છે પરમ એશ્વર્યાંથી દીપાયમાન થનારો, જ્યારે કાઈ વકતા પુરદરરૂપ સત્તાની વિક્ષા કરે છે, ત્યારે ઇદ્ર આદિ સ જ્ઞાની અપેક્ષા ન રાખતા કાઇ—કાઇવાર થનારી પુરદારણુરૂપી ક્રિયાના ચેાગથી પુર દરરૂપ સ જ્ઞાના આધ ४रावे छे से समलि३ढ नय छे नयनी अपेक्षाओ ने शब्दभेदादर्थदोऽर्थभेदा च्छदभेद" मर्थात् शहना तेहथी अर्थनो लेह भने अर्थना तेहथी शण्डना ले થાય છે, એ નિયમ સગત અને છે મા નયની અપેક્ષાએ ‘પુરદર' શબ્દના વાચ્ય પુર ઘરના પર્યાયવાચક ‘ઈદ્ર’ શબ્દના વાચ્યથી ભિન્ન છે, કારણકે શબ્દોના સખ ધ ફાઇ કોઇવાર થનારા ગુણ ક્રિયાની સાથે હાય છે, જેમકે પુરનુ દારણુ કરવાના નિમિત્તે કરીને પુરદર કહેવાય છે, તેજ કારણે ઘટ અને પટ આદિ પદાર્ધામા પરસ્પર ભેદ
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उपासकदशास्त्रे स्त तमेवार्थमभिधत्ते नेतरमितरमिति न मियो घट पटादिपु सशयो, न वा विपर्ययोनापि सक्रमो, नापि चैकत्वमिति । प्रतिनिमित्तत तु-धान्यस्वे सति वाच्य तित्वे च सति पाच्योपस्थितीयमयारताऽऽश्रयत्वम्' भवति च पुरन्दरत्वादिविशिष्ट
और क्रियासे पदार्थोके भेदकी कल्पना न की जाय तो पदार्थों में परस्पर भेद न रहे। तात्पर्य यह है कि जल धारण करने आदिशी शक्ति जिसमे होती है उसे घट कहते है, और शीत-निवारण आदिकी शक्ति जिसमे होती है उसे पट करते है । यदि इन दोनो की इस भिन्न शक्ति (गुण) का ख्याल न किया जाय तो दोनों (घट पट)में भेद ही क्या रहेगा ?, इसीसे गुण और क्रियासे भेदसे वाच्य पदार्थों में भी भद किया जाता है। बस, इसी नियमके अनुसार पुरन्दर शब्द में जा शक्ति है और उससे जिस क्रियाका भान होता है, वह शक्ति (गुण) और क्रिया जिसमें पाई जाती है उसे पुरन्दर शब्दका वाच्य कहते है। तथा इन्द्र शब्द में जो शक्ति पाई जाती है और उससे जिस क्रियाका भान होता है वह शस्ति और क्रिया जिसमें पाई जाती है उसे इन्द्र शब्दका वाच्य कहते हैं। इससे यह मालूम हुआ कि 'पुरन्दर शब्दका वाच्य और इन्द्र शब्दका वाच्य एक नहीं है-अलग-अलग है, क्योंकि दोनों शब्दोंकी शक्ती और उससे भासित होनेवाला क्रिया अलग-अलग है, प्रवृत्तिनिमित्त का भेद है। इसी प्रकार अन्य
હોય છે જે ગુણ અને કિયાએ કરીને પદાર્થોના ભેદની કલ્પના ન કરવામાં આવે તે પદાર્થોમાં પરસ્પર ભેદ ન રહે તાત્પર્ય એ છે કે જળ ધારણ કરવું આદિના શકિત જેમા હેય છે તેને ઘટ કહે છે, અને ટાઢ નિવારવા વગેરેની શક્તિ જેમાં હિય છે તેને પટ કહે છે જે એ બેઉની આ ભિન્ન શકિત (ગુણ) ને ખ્યાલ ને કરવામાં આવે તે ઘટ અને પટ એ બેઉમાં ભેદ જ શે રહે? તેથી ગુણ અને ક્રિયાના ભેદે કરીને વાચ્ય પદાર્થોમાં પણ ભેદ કરવાના આવે છે બસ, એજ નિયમાનુસાર ૩ દર શબ્દમાં જે શકિત છે અને તેથી જે ક્રિયાનું ભાન થાય છે, તે શકિત (ગુણ) અને કિયા જેમા માલુમ પડે છે તેને પુર દર શબ્દનો વાચ્ય કહે છે. તેમજ. ઇદ્ર શબ્દમાં ર શકિત માલુમ પડે છે અને તેથી જે ક્રિયાનું ભાન થાય છે, તે શકિત અને પ૧ જેમા માલુમ પડે છે તેને ઈદ્ર શબ્દને વાચ કહે છે એથી એમ માલુમ પડે છે કે “પુર દર શબ્દને વાસ્થ (અર્થ)અને “ઈ દ્રશબ્દને વાચ એક નથી-જુદા જુદા છે, કારણકે ઉ શબ્દની શકિત અને તેથી ભાસિત થનારી ક્રિયા જુદી જુદી છે. પ્રતિનિમિત્તની
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अगारधर्मसजीवनी टीका अ० १ ० ११ श्रावधर्म० नयनरूपणम् १७५ पुरन्दरादिशब्दवाच्ये पुरदारणकर्तृरूपेऽर्थे पुरन्दरत्वादेर्वाच्यत्व पुरदारणकर्तरूपो यो वान्यस्तदृत्तित्व, तथा पुग्न्दरत्वविशिष्टे पुरदारणरूपे वाच्ये योपस्थितीयाप्रमा रता पुरदारणकत्र्तनिष्ठविशेप्यतानिरूपिता तदाश्रयत्वम् । एव वासवत्वेन्द्रत्व घटत्वपटत्वादीनामपि प्रवृत्तिनिमित्तत्व सगमनीयमिति सर्वमवदातम् , एतदुदाहरण च निरूढतयोपन्यस्तम् , तुरग विहग भुजग पङ्कज-गवादिक स्वयमूहनीयम् । ३ । शब्दों को शक्ति और क्रियामें भी भेद होता है, इसलिए वे सब वास्तव मे भिन्न अर्थके बोधक हे । इस नियम को स्वीकार कर लेनेसे न घट-पट आदि मे सशय होता है, न विपर्यय होता है, न सक्रम होता है और न दोनो एक होते है । शब्दो की प्रवृत्ति का निमित्त वह है जो वाच्य (शब्दार्थ) हो और उसमें रहनेवाला हो, तथा प्रत्येक शब्द के अपने-अपने जितने अर्थ होते है उनमे विशेपण होके रहे । उक्त स्थलमे पुरन्दर शब्दका अर्थ है 'पुरन्द्रत्व धर्म वाला' उसमे पुरन्दरत्व प्रवृत्तिनिमित्त है अर्थात् जिममे पुरन्दरत्व धर्म देखा जायगा उसको कथन करने के लिये पुरन्दर शब्दकी प्रवृत्ति होगी, क्योकि 'पुरन्दरत्व' पुरन्दर शब्दका वाच्य (अर्थ) भी है और 'पुरन्दरत्व धर्म वाला' इतना जो वाच्य (अर्थ) उसमे रहनेवाला भी है, तथा उक्त शब्दार्थ मे विशेषणरूपसे भी है। इसी प्रकार से वासव शब्द में वासवत्व, इन्द्र शब्द मे उन्द्रत्व, घटमे घटत्व, पटमे पटत्व, आदिको प्रवृत्तिनिमित्त समझना चाहिए । उक्त उदाहरण, अधिक प्रसिद्ध होनेके कारण
ભેદ છે એ પ્રમાણે બીજા શબ્દની શકિત અને ક્રિયાઓમાં પણ ભેદ હોય છે, તેથી એ બધા વસ્તુત ભિન્ન અર્થના બાધક છે આ નિયમને સ્વીકાર કરવાથી ઘટ-પટ આદિમા સશય થતો નથી, વિપર્યય થતો નથી, આ ક્રમ થતો નથી અને બેઉ એક થતા નથી શબ્દોની પ્રવૃત્તિનું નિમિત્ત એ છે કે જે વા (શબ્દાર્થ) હોય અને એમાં રહેનારે હાય તથા પ્રત્યેક શબ્દના પિતાના જેટલા અર્થો થતા હોય તેમાં વિશેષણ થઈને રહે ઉકત સ્થળે પુર દર શબ્દનો અર્થ છે “પુર દરવ ધર્મવાળે, તમ પુરદરત્વ પ્રવૃત્તિનિમિત્ત છે, અર્થાત્ જેમાં પુર દરવ ધર્મ જોવામાં આવશે તેને કથન કરવાને માટે પુર દર શબ્દની પ્રવૃત્તિ થશે, કારણકે “પુર દરવ” પુર દર શબ્દને વાય (અર્થ) પણુ છે, અને “પુરદરત્વ ધર્મવાળે એટલે જે વાચ્ય (અર્થ) એમાં રહેનારે પણ છે, તથા ઉકત શબ્દાર્થમાં વિશેષ રૂપે કરીને પણ છે આ પ્રમાણે વાસવ શબ્દમાં વાસવ ઈદ્ર શબ્દમાં ઈન્દ્રવ, ઘટમાં ઘટત્વ, પટમા પટત્વ, આદિને પ્રવૃત્તિનિમિત્ત સમજવા
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
दिया गया है और तुरंग, विहग, भुजग, पकज, गो आदि स्वयं जान लेना चाहिए ।
समभिरूढ नय को ठीक-ठीक समझने के लिए एक और उदाहरण लीजिए
महीरुह और पादप इन दोनों शब्दोंका अर्थ वृक्ष समझा जाता हैं, पर समभिरूढ नय करता है - महीरुर का असली अर्थ है मही (पृथ्वी) पर उगने वाला और पादप का अर्थ है पाद (पैरो अर्थात् जडों) से पानी आदि अपना खुराक चूमने वाला। कहा पृथ्वी पर उगने चाला और कहा अपनी जड़ों से खुराक ग्रहण करने वाला ? यदि इन दोनों शब्दों का वाच्य (अर्थ) एक मान लिया जाय तो बडा भारी वैपम्य (घोटाला) हो जायगा । भिन्न भिन्न भाषाओमे जितने भी शब्द उपलब्ध होते है उन सबका अर्थ एक ही मानना पड़ेगा। ऐसी हालत मे अगर कोई दीपक मागेगा तो दूसरा तुरन्त उसके आगे लेखनी (कलम) रख देगा । और कोई लेखनी मागेगा तो दूसरा उसके सामने दीपक रख देगा | जब पृथ्वी पर उगना और जडसे खुराक लेना एक ही हो गया तो दीपक और लेखनी का एक हो जाना क्यों अनुचित है ?
यदि आशका उठाई जाय कि लेखनी ओर दीपक मे तो आकाशજોઈએ ઉકત ઉદાદ્ધરણ ખૂબ પ્રસિદ્ધ હોવાને કારણે આપવામા આવ્યુ છે, અને તુસ્ત્ર વિગ, ભુજંગ, પકજ, ગા માદિ પેાતાની મેળે જાણી લેવા
સભઢ નયને ખરાબર સમજવા માટે એક વધુ ઉદાહરણ લઈએ
અને
મહીહ અને પાપ એ એક શબ્દને અથ વૃક્ષ સમજવામા આવે છે પરતુ સમભિરૂઢ નય કહે છે કે-મહીરૂદ્ધના ખરા અથ છે મહી (પૃથ્વી) પર ઉગરનારી પાદપના અર્થ છે પાદ (પગ અર્થાત્ મૂળ) થી પાણી આદિ પાતાના ખારીક ચૂસનાર કયા પૃથ્વીપર ઉગનારૂ અને કયા પોતાના મૂળદ્વારા ખારાક ગ્રહમ કનાર્ । જે આ એઉ શબ્દોના વાચ્ય (અર્થા) એક જ માની લેવામા આવે તા માટે ગોટાળા (વૈષમ્ય) થઇ જાય જૂદી જૂદી ભાષાઓમાં જેટલા શબ્દે ઉપલબ્ધ થાય છે તે બધાનો અર્થ એક જ માનવા પડશે એવી સ્થિતિમા જો કઇ દીપક માગશે. તે ખીજે તુરત તેની પાસે કલમ લાવી મૂકશે, અને કઇ કલમ માગશે તે ખીને તેની સામે દીવા લાવીને મૂકશે જો પૃથ્વી પર ઊગવુ અને મૂળદ્વારા ખેારાક લેવા એ બેઉ એક થઈ જાય તે દીપક અને કલમનુ એક થઈ જવુ છુ અનુચિત છે
જો એવી થકા ઉઠાવવામા આવે કે કલમ અને દીપકમા તે આકાશ પાતાળ
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aritrafeteria टीका अ १ सू० ११ धर्म० श्रावकधर्म० नयमरूपणम् १७७
पातालका सा अन्तर है । लेखनी लिखने के काम आती है और दीपक प्रकाशके लिए उपयोग मे आता है । अतः दोनो एक नहीं हैं ।
समभिरूढ नय कहता है - बिल्कुल ठीक। यही तो हम कहते हैमहीरुह पृथ्वी पर उगता है और पादप जडोसे खुराक देता है । दोनो में आकाश पातालका सा अन्तर है, फिर इन दोनो शब्दों का अर्थ एक कैसे हो सकता है ? आखिर गुण और क्रियासे पदार्थों (वाच्यो) में भेद मानना ही पडेगा, और जब ऐसा माने बिना छुटकारा नही तो गुण और क्रियाके भेदको पर्यायवाची शब्दोके अर्थमे भी लागू करना चाहिए। लेखनी और दीपक मे जब गडबडी पडती है तब तो गुण और क्रियाके आगे ले जाते हो, और जन पर्यायवाची शब्दों की बारी आती है तो गुण और क्रियाको छुपा लेते हो, यह कहाँ का न्याय है ? जब गुण - क्रियाके भेदसे शब्द के वाच्य में भेद माना तो पर्यायवाची शब्दों मे भी गुण क्रियाके भेदसे भेद मानिए ।
यही समभिरूढ का मत है । वह नहीं चाहता कि भूपति ( धरती के मालिक) और नरपति (मनुष्यों के मालिक) का एक ही अर्थ माना जाय। वह कहता है- यदि भूपति और नरपति एक है ता भूपति, જેટલુ આ તર છે. કલમ લખવાના ડોમમા આવે છે અને દીપક પ્રકાશને માટે ઉપ ચેગમા આવે છે, માટે તે બેઉ એક નથી
माश
સમાભિરૂઢ નય કહે છે કેઝીક કહેા છે. અમે પણ એજ કહીએ છીએ– મહીશ્ડ પૃથ્વીપર ઉગે છે અને પાઇપ મૂળ વડે ખેાક લે છે, બેઉમા પાતાલ જેટલુ અંતર છે, તે પછી એ બેઉ શબ્દના અર્થો એક જ કેવી રીતે થઈ શકે ? છેવટે ગુણુ અને ક્રિયાએ કરીને પદાર્થk ( વાગ્યે )મા ભે. માનવા જ પડશે, અને જો એમ માન્યા વિના છૂટકે નથી, તે ગુણ અને ક્રિમાના લેને પર્યાયવાચક શબ્દોના અર્થામા પણ લાગુ કરવા ોચે કલમ અને દીપકમા જ્યારે ગરઅર્ડ થાય છે, ત્યારે તે ગુણુ અને ક્રિયાને આગળ લઇ આવે છે, અને જ્યારે પર્યાયવાચક શબ્દોના વારે આવે છે ત્યારે ગુણુ અને ક્રિયાને છુપાવી દે છે, એ ક્યાને ન્યાય ? જો ગુણ-ક્રિયાના ભેદે કરીને શબ્દના વચ્મા ભેદ માન્ય, તે પર્યાયવાચક શબ્દમા પણ ગુણ—ક્રિયાના ભેઢે કરીને ભેદ માને
એવા સમભિરૂઢને મત છે તે નથી ઈચ્છતા કે–ભૂતિ (ધ તીના માલિક ) અને નરપતિ ( મનુષ્યાને માલિક )ને એકજ અર્થ મનાય તે કહે છે કે એ ભૂપતિ
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उपासकदशाङ्गवत्रे
}
एवम् शक्रन - पुरदारणा ऽऽखण्डनादि क्रिया नासत्वादिगुण च मकारमात्र मिति यावत् यद्वा एवम् = तत्कालोपलभ्यमानगुण क्रियान्यतरमा वस्तुभूत प्राप्तः एवम्भूतः । एतनयस्यायमाशयः शब्दार्थयामिथोऽन्वयव्यतिरेवसङ्गावाद् यत्रैव शयनादिक्रियाभिसम्बन्धः प्रयोगकाल उपलभ्यमानो यते तत्र शक्रादि शब्दमयोगी नेतरत्र । एत्र प्रयोगपाले जलाहरण पनिताशिरोऽवस्थित्यादिरूप घटन (चेन) क्रियादरुपल •यमानत्वे सत्येव घटादिशब्दप्रयोग इति । एतदुदाहरण चैतेनेोपलक्षितमित्य यत्र पञ्चितम् ॥४॥
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खगपति (गरुड), सुरपति (इन्द्र), पशुपति (महादेव), लखपति, क्रोडपति, मयके सब एक ही होने चाहिए। यदि ये सब एक नहीं तो भूपति और नरपति भी एक नहीं ।
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(४) एवम्भूत - शान, पुरदारण और आखण्डन आदि क्रियाओं तथा वासवत्व आदि गुणोंको अथवा वर्तमान क्षणमें पाई जाने वाली क्रिया और गुणको जो प्राप्त हो वह एवभूत नय है । इस नयका आशय इस प्रकार है - शब्द का और अर्थका परस्पर अन्वयव्यतिरेक है, अत 'श' आदि सद बोल्नेके कारण जिस क्षण जिस पदार्थ में शकन क्रिया पाई जाय उसी क्षण उसको शक्र शब्द का वाच्य मानना चाहिए, दूसरे समय नहीं । अतएव इस नयकी अपेक्षासे घट जब जलको धारण कर रहा हो, पनिहारीके सिर पर रखा हो - इस प्रकार की घटना ( चेष्टा) से युक्त हो तब ही वह घट कहा जा सकता है । इसका उदाहरण भी यही है ।
मने नरपति रोड छे तो सूरत, भगपति ( गइड ), सुरपति (हद्र) पशुपति ( મહાદેવ ), લખર્પત, રોડપતિ, એ બધા એક જ હાવા જોઈએ જો એ બધા એક નથી, તે ભૂતિ અને નપતિ પણ એક નથી
(૪) એવભૂત~~શયન, પુરદારણુ અને આખડન આ ક્રિયા તથા વાસ વત્વ મંદ ગુણ્ણાને, અથવા વમાન ક્ષણમા માલુમ પડતી ક્રિયા અને ગુણને જે પ્રાપ્ત થાય, તે એવદ્ભૂત નય છે એ નયના આશય આ પ્રમાણે છે શબ્દને અને मर्थन परस्पर अन्वयव्यतिरे5 छे, भाटे ' શક ' આદિ શબ્દ ખેલવાની ક્ષણે જે પટ્ટામાં શકન ક્રિયા માલુમ પડે, એ ક્ષણે એને શક શબ્દના વાચ્ય માનવા જોઈએ, આજે સમયે નહીં માટે આ નયની અપેક્ષ એ કરીને ઘટ જ્યારે જળને ધારણ કરી રહ્યો હાય, પણીહારીના માથા પર રહયા હૈાય એ પ્રકારની ઘટતા ( ચેષ્ટા )થી યુક્ત હાય, ત્યારે જ એને ઘટ કહી શકાય છે એનુ ઉદાહરણ પણ એજ છે
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भगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू. ११ धर्म० श्रावकधर्म० स्याद्वाय मरूपणम् १७९
[स्यादप्ररूपणम् ।] स्याद्वादो-ऽनेकान्तमा:-स्यादिति ह्यने कान्तार्थद्योतकमव्यय तेन स्यात= __ अनेकान्तस्य-अनेकान्तपक्षस्येति यावत , चाद' अभ्युपगम: स्याद्वादः,-मत्येक घटपटादिरूप वस्तु नित्यत्वानित्यत्वोभयधर्मसमन्वित न त्वेकान्ततो
तात्प यह है समभिरुढ नय के मत से शकन क्रियासे युक्त पदार्थ को शक्र कह सकते है, चाहे वह उस क्रिया से किसी समय युक्त हो या किसी ममय रहित हो, दोनों अवस्थाओ में वह शक शब्द का वान्य है, परन्तु एवम्भूत नय इससे भी अधिक सूक्ष्म है । उसके मतसे शकन शक्ति मौजूद होनेसे ही किसीको शक्र नहीं कह सकते पल्कि जिस समय शकन क्रियाका उपयोग कर रहा हो उसी समय वह शक शब्द का वाच्य है-अन्य क्षणोमे नहीं। अतएव अध्यापक जिस समय अध्यापन कर रहा हो तभी अध्यापक कहा जा सकता है। कृपकको कृपक तय ही कह सकते है जब वह खेती कर रहा हो, जिस क्षणमे वह खेती नहीं कर रहा हो उस क्षणमे उसे कृपक नहीं कह सकते।
[स्याद्वादका निरूपण ] _ 'म्यादाद' शब्दके दो भाग हैं--एक स्यात् दूसरा वाद । 'स्यात्' अव्यय है और अनेकान्त (कथञ्चित् ) अर्थका द्योतन करता है । 'याद' का अर्थ स्वीकार करना या कहना। अर्थात् घट-घट आदि समस्त
તાત્પર્ય એ છે કે સમભિરૂઢ નયને મતે શકન ક્રિયાથી યુકત પદાર્થને શકે કહી શકાય છે, ચાહે તે એ ક્રિયાથી કઈ સમયે યુક્ત હોય છે કેઈ સમયે રહિત હાય, બેઉ અવસ્થાઓમાં એક શક શબ્દને વાચ્ય છે, પરંતુ એવભૂત નય તેથી પણ વધારે સૂફમ છે એને મતે શકન શકિત મેજૂદ હવાથી જ કેઈને પણ શક ન કહી શકાય, બકે જે સમયે શકન ક્રિયાને ઉપયોગ કરી રહયે હય, ત સાથે એ શક શબ્દને વાય છે અન્ય ક્ષણે નહી માટે અયાપક જે સમયે અધ્યાપન કરાવી રહયા હોય, ત્યારે જ તેને અયાપક કહી શકાય કે ખેડૂતને ખેડૂત ત્યારે જ કહી શકાય છે કે જ્યારે તે ખેતી કરી રહયે હોય, જે ક્ષણે તે ખેતી ન કરે હેય તે ક્ષણે તેને ખેડુત ન કષા શકાય
[ स्याहानु नि३५९४ ] સ્વાદ' શબ્દના બે ભાગ છે એક “સ્યા અને બીજો “વાદ “સ્થા અવ્યય છે અને અનેકાન્ત (કચિત) અર્થને ઘાતક છે “વા'નો અર્થ સ્વીકાર કરે યા કહેવુ અર્થાત ઘટ-પટ આદિ બધા પદાર્થ દ્રવ્ય-પર્યાયરૂપ હોવાથી કથચિત્ નિત્ય
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उपासकदशा सूत्र
नित्यमेवानित्यमेमने कान्तपसाऽऽश्रयणमित्यर्थ । इत्थमत्राकृतम् - पर्वमेव वस्तुजान द्रव्य - पर्यायात्मकतया, द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्यरूप, पर्यायार्थिकनयापेक्षया चानित्यरूपमिति नित्यानित्योभयात्मक, तथाहि सुवर्ण रूपमेक वस्तु पुद्गलद्रव्यरूपत्वेन नित्य, पट+कुण्डलादिरूपपर्यायात्मकत्वेन चानित्य मिति न सर्वथा नित्यमेवेद सुपर्ण - ' मिति, न वा 'सर्वथाऽनित्यमेवेद सुवर्ण' मित्येकान्ततो नित्यमनित्यवर्णे, उत्पाद व्यय श्रीन्यात्मक सत्' इति सिद्धान्ताद्वस्तुमात्रस्य पर्यायार्थस्नयमपेक्ष्योत्पादव्ययशीलत्वेन द्रव्या freeमपेक्ष्य धीव्यशीलत्वेन च मारु प्रदर्शितत्वात्, अन्यथा वस्तुस्वरूपानुपयउभ्यापतेः । उक्तञ्चान्यन-'सुपर्ण काढचिदाकृत्या युक्त पिण्डो भवति, पिण्डाकृति पमरुका क्रियन्ते, रुचातिमुपम स्वस्तिका क्रियन्ते, स्वस्तिकाssa पदार्थ, द्रव्य पर्याय रूप होने से कथञ्चित् नित्य है, कथञ्चित् अनित्य हैं, कथञ्चित् नित्यानित्य है, इस प्रकारके सिद्धान्तको स्याद्वाद कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पदार्थ garer भी है और पर्यायरूप भी है । द्रव्यरूप होने से प्रत्येक पदार्थ नित्य है, पर्यायरूप होने से अनित्य है, और उभयरूप होनेसे नित्यानित्य है । पदार्थ की नित्यता और अनिता को नय प्रकरणमें उदाहरण देकर स्पष्ट कर चुके हैं तथापि ठीhath समझाने के लिए दूसरा उदाहरण इस प्रकार है
मोना पुद्गलद्रव्य है, वह द्रव्य रूपसे सदा पुद्गल ही बना रहता है और बना रहेगा, इसलिए नित्य है परन्तु वह सोना सदा समान अवस्था में नहीं रहता, कभी वह कडारूप पर्याय धारण करता है, कभी कुण्डलरूप पर्याय धारण करता है इसलिए पर्याय की अपेक्षा છે કચિત્ અનિત્ય છે. કચિત્ નિત્યાનિત્ય છે, એ પ્રકારના સિદ્ધાન્તને સ્યાદ્ધ દકહે છે તાત્પર્ય એ છે કે—પ્રત્યેક પદાર્થ દ્રવ્યરૂપ પણ છે અને પર્યાવરૂપ પણ દ્રવ્યરૂપ હાવાથી પ્રત્યેક પાથ' નિત્ય છે, પર્યાયરૂપ હોવાથી અનિત્ય છે અને ઊભયરૂપ હાવાથી નિયનિત્ય તે પદાર્થોની નિત્યતા અને અનિત્યતાને નયના પ્રકરણમાં ઉદાહરણ આપીને સ્પષ્ટ કરી ચૂકયા છીએ, તે પણ ખરાબર સમજાવવા માટે બીજી ઉદાહરણુ આ પ્રમાણે છે.
છે
સેાનું પુદગલ દ્રવ્ય છે, એ દ્રવ્યરૂપે સદા પુદગલ જ બની રહે છે, અને બની રહેશે, માટે નિત્ય છે પરંતુ એ સૈાનુ સદા સમાન અવસ્થામા હેતુ નથી, કેઈવાર તે કડારૂપ પર્યાય ધારણ કરે છે, કેાઈવાર કુડલરૂપ પર્યાય ધા-સુ કરે તે, માટે પર્યાયની અપેક્ષાઅે તે અનિત્ય પશુ છે તેથી એમ નથી કહી
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अॅ० टीका अ १ सु. ११ धर्म० श्रावकधर्मनिरूपणे स्याद्वाय प्ररूपणम् १८१
तिमुपम कर्णिकाः क्रियन्ते, पुनरपरयाऽऽकृत्या युक्तः सुवर्णपण्ड. खदिरागारसवर्णे कुण्डले भक्तो द्रव्य पुनस्तदेव, आकृतिरन्या चान्या च भवति, आकृत्युपमर्देन द्रव्यमेवावशिष्यते' इति । आह च
वह अनित्य भी है। अतः यह नहीं कह सकते कि यह सुवर्ण-द्रव्य सर्वथा नित्य है, और न यही करना युक्त है कि वह सर्वथा अनित्य है । सिद्धान्त यह है कि जो सत् ( अस्तित्ववान् ) है वह उत्पाद व्यय और प्रौव्य स्वरूप अवश्य होता है । और उत्पाद तथा व्यय पर्यायदृष्टिसे होते है, अतः उस दृष्टिसे पदार्थ अनित्य है, तथा धौव्य द्रव्यदृष्टिसे होता है, अत उस दृष्टि से पदार्थ नित्य है । यह बात पहले बता चुके है । अन्यन्त्र भी कहा है कि-सुवर्ण पहले डलीके आकार मे रहता है, फिर डलीके रूप से परिवर्तित (व्यय) होकर रुचक (कठका गहना) के रूपमे उत्पन्न होता है, फिर रुचकसे परिवर्तित होकर स्वस्तिकरूपमें उत्पन्न होता है, स्वस्तिकरूपसे बदल कर कर्णिका (कर्णफूल) के रूपमें उत्पन्न होता है, फिर वही सुवर्ण अनेकानेक आकारों को धारण करते करते चम फीले कुण्डलth रूपमे आ जाता है, किन्तु इन सन अवस्थाओ में सुवर्ण वही रहता है जो पहले डलीके रूपमे था । सिर्फ आकार ही आकार घदलते रहते हैं । यदि वह सुवर्ण किसी भी आकृति के रूपमे न देखकर शुद्धरूपसे देखा जाय तो वह सिर्फ द्रव्य ही है। और भी कहा है
શકતુ કે એ સુવર્ણ દ્રવ્ય સથા નિત્ય છે, અને એમ કહેવુ પણુ ચુકત નથી કે એ સથા અનિત્ય છે, સિદ્ધાન્ત એ છે કે સત્ (અસ્તિત્વવાન) છે તે ઉત્પાદ, વ્યય અને ધ્રેવ્ય સ્વરૂપ અવશ્ય થાય છે અને ઉત્પાદ તથા વ્યય પર્યાયદૃષ્ટિએ કરીને થાય છે, માટે એ દૃષ્ટિએ પદાર્થ અનિત્ય તથા પ્રૌવ્ય દ્રવ્યદૃષ્ટિએ કરીને થાય છે, માટે એ દૃષ્ટિએ પદાર્થ નિત્ય છે એ વાત પહેલા બતાવી ચૂકયા છીએ અન્યત્ર પશુ કહ્યુ છે કે સુવર્ણ પહેલા લગડીના આકારમા રહે છે, પછી લગડીના રૂપમાથી પરિવર્તિત (વ્યય) થઈને હાર (કઠના ઘરેણા)ના રૂપમા ઉત્પન્ન થાય છે, પછી હારમાથી પરિવર્તિત થઇને સ્વસ્તિકના રૂપમાં ઉત્પન્ન થાય છે, સ્વસ્તિક રૂપમાંથી બદલાઇને તે ક ફૂલના રૂપમાં ઉત્પન્ન થાય છે, પછી એજ સુવર્ણ અનેકાનેક આકારેને ધારણ કરતા કરતા ચમકતા કુડલેનારૂપમા આવી જાય છે, પરંતુ એ અધી અવસ્થાએમા સુવર્ણ એજ રહે છે કે જે પહેલા લગડીના રૂપમા રંતુ માત્ર આકાર જ બદલાતે રહે છે જો એ સુવર્ણને જેઇપણ અકૃતિના રૂપમા ન જોતા શુદ્ધ રૂપથી સેવામા આવે, તે એ માત્ર દ્રવ્ય જ છે. વળી કહ્યું છે કે
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उपासकदशासूत्रे
"णियपुत्तीकीटणग, कणगघट भजिऊण नरवालो | णियपुत्तगस्स तेणं, तयत्थिओ गेदुय कृणावे ॥१॥ पुत्ती सोग्रह, पुत्तो गेंदुलाहेण रस्सिओ जाओ । कणगत्तर्ण जहट्टिय, मत्थिति ण हरिस विन्या रन्नो', ॥२॥इति ।
Supp
एतच्छाया च
" निजपुत्रीक्रीडनक, कनकपट भवत्या नरपाल | निजपुनकाय तेन तदर्शितो गेन्दुक कारयति ॥१॥ पुत्री शोचति पुत्रो गेन्दुक्लाभेन हर्षितो जान. नकल यथास्थितमस्तीति न हर्प - विस्मयौ राज्ञः ॥ २ ॥ इति । एव घटपटाकाशादिद्रव्यान्तरेष्वपि बोध्यम् । ननु केवलन्यधर्म स्वेनी
"
"एक राजा अपनी पुत्रीके खेलनेके सुवर्ण घटको तुडवा कर पुत्र के खेलने के लिए गेंद बनवा देता है ।। यह देख कर पुत्री शोक करतो हैं और पुत्र गेंद मिलने से हर्ष मनाता है । मोनेका घडा मिटा, गेंद बन गई, पर सोना ज्यो का त्यों बना हुआ है, यह देखकर राजा को न हर्ष होता है न विपाद || २ || "
यही बात घटाकाश पटाकाश आदि में समझनी चाहिए । अर्थात् कल तक किसी स्थान पर घट रखा था, आज घट हटा लिया और उस स्थान पर पट (वस्त्र) रख दिया। जब तक घट रखा था तब तक वहां का आकाश घटाकाश था, अब पट रख देने पर पदाकाश हो गया । इस प्रकार घटकाशका नाश हो गया, पटाकाशका उत्पाद हो गया पर आकाश ध्रुव हैं ( ज्यों का त्यों हैं । )
“એક રાજા પાતાની પુત્રીને રમવાને સુવર્ણના ઘડા તાડાવીને પુત્રને માટે રમવાને દડા અનાવરાવી આપે છે. એ જોઇને પુત્રી શાક કરે છે અને પુત્ર દડા મલવાથી હર્ષ પામે છે સાનને ડૉ નાશ પામ્યા અને ઈંડા અન્ય રહ્યુ છે, તે ોઇને રાજાને નથી હુ થછ્તા કે
પશુ સેન્તે. જેમનું તેમ नयी विषाह थतो (२) "
એજ વાત ઘાકાશ-પટાકાશ આદિમા સમજવાની છે અર્થાત્ કાલ સુધી કેઇ સ્થાને ઘટ રાખ્યા હતા, માજે તે સ્થળેથી ઘટ ઉઠાવી લીધે (વસ્ત્ર) મૂકી દીધું જ્યા સુધી ઘ રાખ્યા હતા ત્યા સુધી હતુ, હવે પટ રાખવાથી પટાકાશ બની ગયુ એ પ્રમાણે ગયે, પટાકાશના ઉત્પાદ થઇ ગયે, પણુ આકાશ તે ધ્રુવ છે
અને એ સ્થાને પટ ત્યાનુ આકાશ ઘનશ ઘટાશને નાશ થઈ જેમનુ તેમજ છે )
(
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अ० टीका अ १ सू ११ धर्म. श्रावकधर्मनिरूपणे स्याद्वाय प्ररूपणम् १८३ पलभ्यमान आकाशादिरूपे वस्तुन्युत्पादव्ययाभावानित्यत्वानित्यत्वे कथ सगच्छे ताम् ? इति चेदुच्यते-आकाशमवगाहमाना जीवपुद्गला यदैवस्मादाकाशस्य प्रदेशात्मदेशान्तरमुपसकामन्ति तदानी प्रामदेशपविभागपूर्वम्मग्रिमपदेशसयोगीत्पत्या तस्मिन्नेकम्मिन्नप्यामाशे विभागसयोगरूपस्य मिथो विरुद्धस्य धर्मद्वयस्योपलव्धेः प्राक्मदेशादपरः प्रदेशो भिन्न इति मन्तव्य, 'भेदहेतुविरुद्धधर्माभ्यास इति भवताऽपि स्वीकृतत्वात् , ततश्च माक्र्सयोगविनाशाविनष्टमिति, उत्तरसयोगो
प्रश्न-आकाश आदि पदार्थों मे ध्रौव्य ही उपलब्ध होता है-न तो उत्पाद मालूम होता है न व्यय ही। फिर आप प्रत्येक पदार्थको नित्य और अनित्य से कहते है ? ___ उत्तर-सुनिये । जीव या पुद्गल आकाश मे रहते है । जब कोई जीव या पुद्गल एक आकाशप्रदेशमे चलकर दूसरे आकाशप्रदेश मे चला गया तो पहले आकाशप्रदेशसे उसका विभाग हुआ, और दूसरे आकाशप्रदेश से उसका सयोग हुआ, अर्थात् अब तक जिस प्रदेश में सयोग था उसमें विभाग होगया, और जिसमे विभाग था उसमे सयोग हो गया, इस प्रकार दोनो प्रदेश में सयोग-विभाग हुए। सयोग और विभाग आपसमे विरोधी धर्म हैं। तात्पर्य यह हुआ किसयोग विशिष्ट आकाश नष्ट हो गया और विभाग विशिष्ट आकाश उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार दूसग विभाग विशिष्ट आकाश नष्ट हुआ
और सयोग-विशिष्ट आकाश उत्पन्न हुआ। आपने स्वय माना है कि विरोधी धर्मका पाया जाना ही भेद का कारण है। हा, आकाशरूपसे
પ્રશ્ન-આકાશ આદિ પદાર્થોમા ધ્રૌવ્ય જ ઉપલબ્ધ થાય છે—નથી ઉત્પાદ માલુમ પડતે કે નથી વ્યય પણ માલુમ પડતે તે પછી આપ પ્રત્યેક પદાર્થ ને નિત્ય અને અનિત્ય કેમ કહે છે!
ઉત્તર-સાભળે જીવ યા પુદગલ આકાશમાં રહે છે, જ્યારે કેઈ જીવ યા પુદગલ એક આકાશ-પ્રદેશથી નીકળીને બીજ આકાશ પ્રદેશમાં ચાલ્યા ગયે, ત્યારે પહેલા આકાશ પ્રદેશથી તેનો વિભાગ છે, અને બીજા આકાશ પ્રદેશ સાથે તેને સ ગ થા, અર્થાત્ અત્યાર સુધી જે પ્રદેશમાં સ ગ હતું તેમાં વિભાગ થઈ ગયે અને જેમાં વિભાગ હસ્તે તેમા સ ગ થઈ ગયે એ પ્રમાણે બેઉ પ્રદેશમાં સ ગ–વિભાગ થયા સાગ અને વિભાગ આપસઆપસમા વિધી ધર્મ છે તાત્પર્ય એ છે કે-ન્સ લેગ-વિશિષ્ટ આકશ નષ્ટ થયુ અને વિભાગ–વિશિષ્ટ આકાશ ઉપન્ન થયું એ પ્રમાણે બીજુ વિભાગ-વિશિષ્ટ આકાશ નષ્ટ થયું અને સગ-વિશિષ્ટ આકાશ ઉત્પન્ન થયુ આપે પંતે માન્યું છે કે વિરોધી ધર્મને પ્રાપ્ત થવું એ જ ભેદનું
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उपासकदशा त्पत्या चोत्पममित्याकाशादिषभप्यस्त्येवोत्पादच्ययधर्मादिति नित्यत्वानित्यत्वे इहाप्यक्षते, अतएवानित्यत्वाभिप्रायेणोन्यतेऽपि लोके-'घटाया पटाकाश' मि स्यादि, आगशद्रव्यत्वेन तु नित्यत्वमक्षतमेर, 'उत्पत्ति विनाशसत्वेऽप्यन्वयिता घरछेदकसम्पत्येनावस्थितत्व नित्यत्व'-मिति तल्लक्षगात न चास्मिन् धामणि मिथो विरुद्धधर्मद्वयसमावेशो न कचिददृष्टइति वाच्यम् , नरसिंहादौ तथादृष्टत्वात् । भूव रहा-न नष्ट हुआ न उत्पन्न हुआ, अत: सिद्ध हुआ कि आकाश आदि पदार्थ, उत्पाद, व्यय रूप भी है, इमलिए वे कश्चित् नित्य भी है । अनित्यताके अभिप्रायसे ही पटाकाश घटाकाश आदि लोक व्यवहार होता है, और आकाशकी द्रव्यकी अपेक्षा नित्यता मानना निर्दोपही है, क्योंकी उत्पत्ति विनाश (अवस्थाओं में) होते रहने पर भी अन्वितरूपसे पदार्थ का स्थित रहना नित्यताका लक्षण है, वह आकाश-द्रव्य में घटता है ।
प्रश्न--एक पदार्थमें परस्परविरोधी धोका रोना कहीं नही देखा गया, फिर आप नित्यता और अनित्यता जैसे विरोधी धर्मों (गुणों) को एक ही पदार्थ में कैसे घटाते है ?
उत्तर-ऐसा न करिए शेरका आकार और नरका आकार दोना परस्पर विरोधी है, तथापि वे एक ही नरसिहमें देखे जाते हैं । जब एक जगह विरोधी धर्म पाये जा सकते है तो दूसरी जगह क्यों न पाये आएँगे' यदि कहो कि विरोधी धर्म वे होते है जो एक કારણ છે હા, આકાશ રૂપે કરીને ધવ રહું, ન નષ્ટ થયું કે ન ઉત્પન્ન થયુ , તથા સિદ્ધ થયું કે આકાશ આદિ પદાર્થ, હત્પાદ, વ્યય રૂપ પણ છે તેથી કરીને તે કથા અનિત્ય પણ છે અનિત્યતાના અભિપ્રાયે કરીને જ પટાકાશ ઘટાકાશ આદિ લેગ્યુલેઉ* થાય છે અને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આકાશની નિત્યતા માનવી નિર્દોષ જ છે, કારણ કે ઉત્પત્તિ વિનાશ (અવસ્થાઓમા) થતા રહેવા છતા પણ અન્વિત રૂપે પદાર્થોનું સ્થિત રહેવું એ નિત્યતાનું લક્ષણ છે, તે આકાશ દ્રવ્યમા ઘટે છે
પ્રશ્ન-એક પદાર્થમાં પરસ્પર–વિરોધી ધર્મોનું હોવું કયાય જોવામાં આવ્યું નથી, તે પછી આપ નિત્યતા અને અનિત્યતા જેવા વિધી ધર્મો (ગુણોને એકજ પદાર્થમાં કેવી રીતે ઘટાડે છે ?
ઉત્તર–એમ ન કહો સિંહને આકાર અને નરને આકાર બેઉ પરસ્પર વિરોધી છે, તે પણ તે એક જ નરસિહમા જોવામાં આવે છે જે એક જગ્યાએ વિરોધી ધર્મ માલુમ પડી શકે છે તે બીજી જગ્યાએ કેમ ન માલુમ પડે !
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अ० टीका अ १ सू ११ धर्म० श्रावकधर्मनिरूपणे स्याद्वादप्ररूपणम्
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ननु यनित्य तत्परमाणुरूप द्रव्य, यच्चानित्य तत्मारूप द्रव्यमिति परमाद्रव्यत्व कार्यद्रव्यत्वभेदाभ्या धर्मिभेदादेकस्मिन् धर्मिणि नित्यत्वानित्यत्वे वस्तुतो न स्त' ? इति चेतन्मन्दम् प्रापविपादितदिशा सुवर्णत्वाकाशत्वादिना धर्मिणस्तत्र तत्रैrत्वेन स्फुट प्रतिभासात् पूर्वपूर्व पर्यायनाशपूर्व को त्तरोत्तरपर्यायावस्तु में न पाए जाएँ। 'अनुपलम्भसाध्यो हि विरोध' अर्थात् जिनकी एकत्र उपलब्धि न हो वे ही विरोधी समझे जाते है । नर और सिंहके आकार की एक स्थान पर उपलब्धि है अतः उनमे विरोध नही है, तो इसका समाधान यह है कि विरोधके इसी लक्षणसे नित्यता- अनित्यता आदि वस्तुगत धर्मों मे परस्पर विरोध नही घटता, क्योंकि ये धर्म अपेक्षासे एक ही वस्तु में पाये जाते है । यदि इनमे विरोध होता तो ये एकत्र उपलब्ध ही न होते ।
प्रश्न - जो द्रव्य नित्य होता है वह परमाणुरूप है और जो अनित्य होता है वह कार्यरूप द्रव्य ( स्कन्ध) है। अर्थात् परमाणुद्रव्यमें नित्यता और कार्य द्रव्य में अनित्यता पाई जाती है । दोनों गुणों के आधारभूत द्रव्य भिन्न भिन्न हैं, फिर आप एक ही द्रव्य (धर्मी) में नित्यता और अनित्यता क्यों कहते हैं ?
उत्तर - पहले हम आकाश और सुवर्ण का उदाहरण देकर बता चुके हैं कि — भिन्न-भिन्न पर्याय में एक ही द्रव्य रहता है । यह बात स्पष्ट प्रतीत होती है । यदि पूर्व२ पर्यायके नाश और उत्तर - उत्तर જો એમ કહેા કે વિાધી ધમ એ હેય છે કે જે એક વસ્તુમા ન હૈય 'अनुपलम्भसाध्यो हि विरोध અર્થાત જેની એકત્ર ઉપલબ્ધિ ન થાય તે જ વિરોધી ગણાય છે નર અને સિંહના આકરની એક સ્થાને ઉપલબ્ધિ છે માટે તેમા વિરેાધ નથી તે એનુ સમાધાન એ છે કે વિરેાધના એ લક્ષશે કરીને નિત્યતા—અનિત્યતા આદિ વસ્તુગત ધમા પરસ્પર વિરેાધ ઘટતા નથી, કારણકે એ ધર્માં અપેક્ષાએ કરીને એકજ વસ્તુમા માલૂમ પડે છે જો એમા વિરોધ હેાત તે એ એકત્ર ઉપલબ્ધ જ ન થાત પ્રશ્ન—જે દ્રવ્ય નિત્ય હાય છે તે પરમાણુરૂપ છે અને જે અનિત્ય હાય છે તે કાર્યરૂપ દ્રવ્ય ( સ્ક ધ ) છે અર્થાત્-પરમાણુદ્રવ્યમાં નિત્યતા અને કાર્યં દ્રવ્યમા અનિત્યતા માલુમ પડે છે. એઉ ગુશેના આધારભૂત દ્રવ્ય ભિન્ન-ભિન્ન છે તે! પછી આપ એકજ દ્રવ્ય ( ધી)મા નિત્ય અને અનિત્યતા કેમ બતાવા છે ?
ઉત્તર—પહેલા અમે આકાશ અને સુવર્ણનું ઉદાહણું આપીને બતાવી ગયા છીએ કે–ભિન્ન ભિન્ન પર્યાયામા એક જ દ્રવ્ય રહે છે એ વાત સ્પષ્ટ પ્રતીત થાય છે જે પૂર્વી પૂત્ર પર્યાયના નાશ અને ઉત્તર ઉત્તર પર્યાયના ઉત્પાદને કારણે જ
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उपासकदशासूत्रे त्पत्या चोत्पमित्याकाशादियमध्यस्त्येवोत्पादव्ययधर्मादिति नित्यत्वानित्यत्वे इहाप्यक्षते, अतएवानित्यत्वाभिमायणोन्यतेऽपि लोके 'घटायाग पटाकाश मि त्यादि, आगाशद्रव्यत्वेन तु नित्यत्वमक्षतमेश, उत्पत्ति विनाशसत्वेऽप्यन्वयिता पच्छेदसमम्मन्येनारस्थितत्व नित्यत्त'-मिति तल्लक्षगात् । न चास्मिन् धामणि मियो विरुद्धधर्मद्वयसमावेशो न कचिदृष्ट इति गन्यम् , नरसिंहादौ तथादृष्टत्वात् । धव रहा-न नष्ट आ न उत्पन्न हुआ, अत' सिद्ध हआ कि आकाश आदि पदार्थ, उत्पाद, व्यय रूप भी हैं, इसलिए वेकश्चित् अनित्य भी है । अनित्यताके अभिप्रायसे ही पटाकाश घटाकाश आदि लोक व्यवहार होता है, और आकाशकी च्यकी अपेक्षा नित्यता मानना निर्दीप ही है, क्योंकी उत्पत्ति विनाश (अवस्थाओं में) होते रहने पर भी अन्वितरूपसे पदार्थ का स्थित रहना नित्यताका लक्षण है, वर आकाश-द्रव्य में घटता है।
प्रश्न-एक पदार्थ में परस्परविरोधी धोका होना कहीं नहीं देखा गया, फिर आप नित्यता और अनित्यता जैसे विरोधी धर्मों (गुणी) को एक ही पदार्थ मे कैसे घटाते हैं ?
उत्तर-ऐसा न कहिए । शेरका आकार और नरका आकार दोनों परस्पर विरोधी है, तथापि वे एक ही नरसिहमें देखे जाते है । जब एक जगह विरोधी धर्म पाये जा सकते है तो दूसरी जगह क्यों न पाये आएँगे? यदि कहो कि विरोधी धर्म वे होते है जो एक કારણ છે હા, આકાશ રૂપે કરીને જીવ રહ્ય, ન નષ્ટ થય કે ન ઉત્પન્ન થયું, તેથી સિદ્ધ થયુ કે આકાશ આદિ પદાર્થ ઉત્પાદ, વ્યય રૂપ પણ છે તેથી કરીને તે કથચિત અનિત્ય પણ છે અનિત્યતાના અભિપ્રાયે કરીને જ પટાકાશ ઘટાકાશ આદિ લોકવ્યવહન થાય છે અને દ્રવ્યની અપેક્ષાએ આકાશની નિત્યતા માનવી નિર્દોષ જ છે, કારણ કે ઉત્પત્તિ વિનાશ (અવસ્થાઓમા) થતા રહેવા છતા પણ અન્વિત રૂપે પદાર્થનું સ્થિત રહેવું એ નિત્યતાનું લક્ષણ છે, તે આકાશ દ્રવ્યમા ઘટે છે
પ્રશ્ન–એક પદાર્થમાં પરસ્પર વિરોધી ધર્મોનું કયાય જોવામાં આવ્યું નથી, તે પછી આપ નિત્યતા અને અનિત્યતા જેવા વિરોધી ધર્મો (ગુણેને એકજ પદાર્થમાં કેવી રીતે ઘટાડે છે ?
ઉત્તર-એમ ન કહો સિંહને આકાર અને નરને આકાર બેઉ પરસ્પર વિરોધી છે, તે પણ તે એક જ નરસિહમા જોવામાં આવે છે જે એક જગ્યાએ વિધી ધર્મ માલુમ પડી શકે છે તે બીજી જગ્યાએ કેમ ન માલુમ પડે !
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अधर्मी टीका अ० १ सू० ११ धर्म० सप्तभट्टी ०
[ सप्तभङ्गी ]
भज्यन्ते=विभिद्यन्तेऽर्था यैस्ते भगा = चाकमकारः सप्ताना भङ्गाना समाहारः सप्तभट्टी - प्रत्यक्षादिनाधापरिहारपूर्वकमेकस्मिन्नेव पदार्थ एकैकधर्मविषयक प्रश्नवलेन पृथग्भूतयोरपृथग्भूतयोश्च विधिनिपेनयो' कल्पनया स्याच्छदसहितः सप्तभि योग इत्यर्थस्तद्यथा
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ऋण लेने वाला मे नही हूँ । जिमने ऋण लिया हो उसीसे वसूल करो । तात्पर्य यह है कि अवस्था ( पर्याय) के परिवर्त मात्र से यदि अवस्थावान् (य) में परिवर्तन होना स्वीकार किया जाय तो समस्त व्यवहार नष्ट हो जाएँगे । अत पर्यायोके परिवर्तन होने पर भी द्रव्यमे परिवर्तन मानना अयुक्त तो है ही, साथ ही व्यवहारका लोपक भी है । [ सप्तभंगी ]
वस्तुमें जो अनन्त धर्म पाये जाते हैं, उन सब धर्मोकी अनन्त सप्त भगियां बनती हैं। अर्थात् अनेकात सिद्धान्त के अनुसार वस्तुके धर्मो विश्लेषण करनेसे प्रत्येक धर्मके मात भग होते है । उन धर्मों में प्रत्यक्ष आदि किसी प्रमाणसे वाधा नही आती । कही केवल विधि होती है, कहीं केवल निषेव होता है, और कहीं दोनों क्रमशः सम्मिलित होते है, कही युगपत् - एक साथ सम्मिलित होते हैं। उन सातो भगोंके पहले स्पष्टता के लिए 'स्यात् ' अव्यय लगाया जाता है । अस्तित्व धर्मके सान भाग इस प्रकार है
હાય તેની પાસેથી વસૂલ કરા તાત્પર્ય એ છે કે અવસ્થા ( પર્યાય )ના પરિવર્તનથી તે અવસ્થાવાન્ (દ્રવ્ય)મા પરિવર્તન થવાનું સ્વીકારવામા આવે । ખધે વ્યવહાર નષ્ટ થઈ જાય માટે પર્યાયનુ પિરવત ન થવા છતા પણુ દ્રશ્યમાં પરિવર્તન માનવુ અયુક્ત તે છે જ, તે સાથે વ્યવહારનુ લેાપક પણ છે )
[ सप्तलगी ]
વસ્તુમા જે અનન્ત ધર્યું માલુમ પડે છે, એ બધા ધર્મોની અનન્ત સપ્તભગીએ ખને કે અર્થાત્ અનેકાન્ત સિદ્ધાન્તને અનુસરી વસ્તુના ધર્માનુ વિશ્લેષણ કરવાથી પ્રત્યેક ધર્મોના સાત ભગ (ભાગા) થાય છે એ ધર્મોંમા પ્રત્યક્ષ આદિ કાઈ પ્રમાણથી ખાધા આવતી નથી કયાક કેવળ વિધિ થાય છે, કયાય કેવળ નિષેધ થાય છે, અને કયાય બેઉ ક્રમશ મર્મિલિત થાય છે, કયાક યુગંપત (એકી સાથે) સમિ લિત થાય છે એ માતે ભાગાની પહેલા, સ્પષ્ટતાને માટે પ્રાય ‘સ્યાત્’ અવ્યય લગા ડવામા આવે છે. અસ્તિત્વ ધર્મના સાત ભાગા આ પ્રમાણે છે
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(१) स्यदस्त्येव सर्वम्-अर्थात् प्रत्येक पहाय, स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वछाल भने સ્વભાવની અપેક્ષાએ કે આ ભાગામા કેવળ વિધિની કલ્પના કરવામા આવી છે
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उपासकदशाकमुत्रे
पत्तिमात्रेण धर्मिभेदाङ्गीकारे नाल्य यौन पार्द्धभेदादेकस्मिन पुरुषादावपि व्यक्ति भेदाssपत्तेदुर्निवारत्यादित्यास्ता विस्तरः । एतस्य सप्तभङ्गी भगति-
पर्याय के उत्पादके कारण हो द्रव्यमें भेद मानोगे तो एक मनुष्य जय बाल्यावस्थाको त्याग कर युवावस्था में आएगा तब उसे भी दूसरा मनुष्य मानना पडेगा, और जब युवावस्थाका परित्याग कर वृद्धावस्था मेआएगा तो उसे तीसरा ही मनुष्य मानना पडेगा । ऐसा मानने से समस्त लोकव्यवहार नष्ट हो जायगा । (यज्ञदत्तका पुत्र देवदत्त बालक अवस्थाको लाँघ कर जन जवान होगा तो वह उसका पुत्र नही रहेगा - दूसरा ही हो जायगा और न यज्ञदत्त, देवदत्त का पिता रहेगा । जवानी भर नौकरी करनेके बाद वुढापे में जन पेंशन पानेका अवसर आएगा तो गवर्नमेंट कहेगी - नौकरी करने वाला दूसरा था, तुम्हारी अवस्था बदल गई है, अत. तुम नौकरी करनेवाले नहीं रहे, अब तुम्हें पेंशन किस बात की दें ? बेचारे यज्ञदत्त की कैसी दुर्दशा होगी ? इधर तो उसका पितापन नष्ट हो गया और उधर पेंशन पर रुक पड़ गया ।
एक आदमी युवावस्थामे लाखो का ऋण लेगा और जब बुढापेमें उस पर कोई नालिश करेगा तो न्यायालय में जाकर कह देगा - ऋण लेने वाला दूसरा था, मैं दुसरा हूँ | मेरी अवस्था बदल गई है, इसलिए દ્રવ્યમાં ભેદ માનશે। તે એક મનુષ્ય જ્યારે ખાલ્યાવસ્થાને ત્યજીને યુવાવસ્થામા આવશે, ત્યારે તેને પણ ખીજો મનુષ્ય માનવા પડશે, અને જ્યારે યુવાવસ્થાના પર ત્યાગ કરીને વૃદ્ધવસ્થામા આવશે, ત્યારે તેને જ ત્રીને મનુષ્ય માનવે પડશે એમ માનવાથી બધે લેાકવ્યવહાર નષ્ટ થઈ જશે (યજ્ઞદત્તને પુત્ર દેવદત્ત બાલ્યાવસ્થાને ઉલ્લધીને જ્યારે જુવાન થશે ત્યારે તે તેના પુત્ર નહિ રહે, ખીજે જ થઇ જશે અને યજ્ઞદત્ત દેવદત્તના પિતા પણ રહેશે નહિં જીવાનીમા નાકરી કર્યા બાદ ઘડપણમા જ્યારે પેન્શન લેવાના વખત આવશે ત્યારે સરકાર કહેશે કે નાકરી કરનાર ખીને હતા, તમારી અવસ્થા બદલાઇ ગઇ છે, માટે તમે નેાકરી કરનાર કહ્યા નથી, તે તમને પે શન શા માટે આપીએ ? બિચારા યજ્ઞદત્તની કેવી દુર્દશા થશે ? આ બાજુએ તેનુ પિતા પશુ નષ્ટ થઈ ગયુ અને પેલી બાજુએ પેન્શન પર ધાડ આવી !
એક માણસ જીવાનીમા લાખાનુ કરજ કરશે અને જ્યારે ઘડપણમા તેની ઉપર ાઈ દાવા કરશે ત્યારે ન્યાયાલયમા જઈને કહી દેશે કે કરજ લેનાર ખીજે હતા, હું બીજો છુ મારી અવસ્થા ખદલાઇ ગઇ છે માટે કરજ લેનાર હું નથી જેણે જ લીધુ
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अगारधर्मसज्जीवनी टीका अ० १ सू० ११ धर्म० सप्तभही
'स्यादवक्तत्य मेवे ' - ति विधि निषेधौ च माल्प्य पञ्चमः (५) । 'स्यान्नास्त्येवे'ति केवल निषेध ' स्यादद्वक्तत्यमेवे - ति यौगपद्येन विधिनिषेधौ च प्रकल्प्य पठः (६)। 'स्यादस्त्येवे' - ति केवल विधि 'स्यान्नास्त्येवे' - ति केवल निषेध 'स्यादवक्तव्यमेवे'- ति यौगपद्येन विधिनिषेधौ च प्रकल्प्य सप्तमः (७) | [ भङ्गाना स्पष्टीकरणम् ]
तत्र - स्यात् कथञ्चित् परकीयद्रव्य क्षेत्र काल-भावानपेक्षतया केवल स्वकीय(५) 'स्यादस्त्यवक्तव्यमेव सर्वम्, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ अस्तित्व वान् होता हुआ अवक्तव्य है । यह भग, पहले और चौथे भगके सम्मेलन से बना है, इसमे केवल विधि और युगपद् विधि - निषेध की विवक्षा है |
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(६) 'स्यान्नास्त्य वक्तव्यमेव सर्वम्' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ नास्तित्ववान् होता हुआ अवक्तव्य है । यह भग, दूसरे और चौथे भगके मिश्रण से बना है । इसमें केवल निषेध और युगपद् विधि-निषेध की विवक्षा है ।
(७) 'स्यादस्ति नास्ति - अवक्तव्यमेव सर्वम्' - प्रत्येक पदार्थ अस्तित्ववान् तथा नास्तित्ववान् होता हुआ अवक्तव्य है । यह भग तीसरे और चौथे भागको मिलानेसे बना है । इसमे क्रमशः विधि - निषेध और युगपद् विधि - निषेधको विवक्षा है ।
( सातो भगो का स्पष्टीकरण )
(१) जय हम कहते हैं- 'घडा है' तो घटविषयक द्रव्यादिचतुष्टय (५) स्यादस्त्यवक्तव्यमेव सर्वम् अर्थात् प्रत्ये पहार्थ अस्तित्ववान् होवा સાથે વકતવ્ય છે આ ભાગ પહેલા અને ચેાથા ભાગાના સમેલનથી બન્યો છે, એમા કેવળ વિધિ અને યુગપત્ વિધિ નિષેધની વિવક્ષા છે
(९) स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेव सर्वम् - - अर्थात् प्रत्ये पहार्थ नास्तित्ववान् होवा સાથે અવક્તવ્ય છે. આ ભાગે ખીજા અને ચોથા ભાગાના મિશ્રણથી બન્યા છે એમા કેવળ નિષેધ અને યુગપદું વિધિ-નિષેધની વિવાક્ષા છે
(७) स्यादस्ति नास्ति - अवक्तव्यमेव सर्वम्-अर्थात् प्रत्येक चहार्थ अस्तित्ववान् તથા નાસ્તિત્વવાન હાવા સાથે અવકતવ્ય છે આ ભાગે ત્રીજા અને ચાથા ભાગાના મિશ્રણથી બન્યા છે એમા ક્રમશ વિધિનિષેધ અને યુગપદ્ વિધિ-નિષેધની વિવાા છે
[ साते भागानु स्पष्टी४२ए ]
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(૧) જ્યારે આપણે કહીએ છીએ કે ઘડે છે.”, ત્યારે ઘવિષયક
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उपासकदमागमूत्रे
'स्थादस्त्येव सर्व-मिति केलनिधि पाल्प्य प्रथमः (१)। 'स्यान्नास्स्पेव सर्व'-मिति केवल निषेध प्रकल्प्य द्वितीयः (२) । स्यादरस्येव स्याबास्स्येवे' ति क्रमिको विधिनिषेधौ प्रकल्प्य उतीयः (२) । 'स्थादवक्तत्यमेवे'-ति योगपधेन विधि-निषेधौ पाल्प्य चतुर्यः (४)। स्यादस्त्येवे-ति केवल विधि
(१) 'स्यादस्येव सर्वम्' अर्थात् प्रत्येक पदार्थ, स्त्रद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षासे है। इस भगमें सिर्फ विधिको __ कल्पना की गई है। ___(२) 'स्यानास्त्येव सर्वम्'-अर्थात् प्रत्येक पदार्थ, पर द्रव्य, पर
क्षेत्र, पर काल और पर भाव की अपेक्षा नरी है। इस भगमें सिर्फ निषेधकी कल्पना है।
(३) 'स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव सर्वम्---अर्थात् प्रत्येक पदार्थ, स्व द्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षा है, परद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षा नहीं है। इस भगमें विधि और निषेध दोनोंकी क्रमशः कल्पना की गई है।
(४) 'स्यादवक्तव्यमेव सर्वम्-अर्थात् प्रत्येक पदार्थ किसी अपेक्षा अवक्तव्य (वचन के अगोचर) है। यहां विधि और निषेधकी युगपत् (एकही साथ) कल्पना है। एक समयमें एक ही धर्मका कथन हा सकता है, अनेक धर्मों का नहीं हो सकता । यहा एक ही साथ दी धर्मों की विवक्षा है, और दोनों का युगपत् कथन नहीं हो सकता, अत इस अपेक्षा से पदार्थ अवक्तव्य है।
(२) स्थानास्त्येव सर्वम्-अर्थात प्रत्ये: पाय ५२द्रव्य, क्षेत्र, ५२31 અને પરાવની અપેક્ષાએ નથી આ ભાગમાં માત્ર નિષેધની ક૯૫ના છે
(3) स्यादस्त्येव स्यानास्त्येव सर्वम्मर्थात प्रत्ये: पाथ', २१व्याहिચતુષ્ટયની અપેક્ષાએ છે, પરદ્વવ્યાદિચતુષ્ટયની અપેક્ષાએ નથી આ ભાગમાં પલા અને નિષેધ એ બેઉની ક્રમશ કલ્પના કરી છે
(४) स्यादवकत्यमेव सर्वम्-मर्थात प्रत्ये? पहा अपेक्षा आता ( વચનને અગોચર) છે અહી વિધિ અને નિધની એકી સાથે ૮૫ના કરી છે સમયે એક જ ધર્મનું કથન થઈ શકે છે, અનેક ધર્મોનું નથી થઈ શકતું અહી સાથે બે ધર્મોની વિવફા છે, અને બેઉનુ એકી સાથે કથન નથી થઈ શકતુ માટે આ અપેક્ષાએ પદાર્થ અવક્તવ્ય છે
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__ अगारधर्मसज्जीवनी टीका अ० १ ० ११ धर्म सप्तमट्टी
'स्यादवक्तत्यमेवे-ति विधि-निषेधौ च प्राप्य पञ्चमः (५)। 'स्थानास्त्येवे'ति केवल निषेध 'म्यादवक्तत्यमेवे'-ति योगपधेन विधिनिषेधौ च पाल्प्य पठः (६)। 'स्यादस्त्येवे-ति केवल विधि 'स्यानास्त्येवे'-ति केवल निषेध 'स्यादवक्तव्यमेवे'-ति योगपधेन विधिनिषेधौ च प्रकल्प्य सप्तमः (७)।
[ भङ्गाना स्पष्टीकरणम् ] तत्र-स्यात् कथञ्चित् परकीयद्रव्य क्षेत्र काल-भावानपेक्षतया केवल स्वकीय
(५) 'स्यादस्त्यवक्तव्यमेव सर्वम्, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ अस्तित्ववान् होता हुआ अवक्तव्य है। यह भग, पहले और चौथे भगके सम्मेलनसे बना है, इसमे केवल विधि और युगपद् विधि-निषेध की विवक्षा है।
(६) 'स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेव सर्वम्-अर्थात् प्रत्येक पदार्थ नास्तित्ववान् होता हुआ अवक्तव्य है। यह भग, दूसरे और चौथे भगके मिश्रणसे बना है । इसमे केवल निषेध और युगपद् विधि निषेध की विवाक्षा है।
(७) 'स्यादस्ति नास्ति-अवक्तव्यमेव सर्वम्'-प्रत्येक पदार्थ अस्ति त्ववान् तथा नास्तित्ववान होता हुआ अवक्तव्य है। यह भग तीसरे और चौथे भगको मिलानेसे बना है। इसमे क्रमशः विधि-निषेध और युगपद् विधि-निषेधकी विवक्षा है।
(सातो भगों का स्पष्टीकरण) (१) जप हम कहते हैं-'घडा है' तो घटविषयक द्रव्यादिचतुष्टय
(५) स्यादस्त्यवक्तव्यमेव सर्वम्-अर्थात प्रत्ये: पहा अस्तित्ववान् सपा સાથે અવકતવ્ય છે આ ભાગો પહેલા અને ચોથા ભાગાના સમેલનથી બન્યું છે, એમા કેવળ વિધિ અને યુગપ વિધિનિષેધની વિવક્ષા છે
(6) स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेव सर्वम्-मयात् प्रत्ये: पार्थ नातियान डावा સાથે અવકતવ્ય છે આ ભાગે બીજા અને ચોથા ભાગના મિશ્રણથી બન્યા છે એમા કેવળ નિષેધ અને યુગપદ વિધિનિષેધની વિવાલા છે
(७) स्यादस्ति नास्ति-अवक्तव्यमेवसवम्-~-मर्थात् प्रत्ये पहा अस्तित्ववान् તથા નાસ્તિત્વવાન હવા સાથે અવક્તવ્ય છે આ ભાગે ત્રીજા અને ચોથા ભાગના મિશ્રણથી બને છે એમાં ક્રમશ વિધિનિષેધ અને યુગપદુ વિધિ-નિષેધની વિવાક્ષા છે
[सात सागानु २५टी ] (૧) જ્યારે આપણે કહીએ છીએ કે “ઘડે છે”, ત્યારે ઘવિષયક
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उपासकदशाङ्गमुत्रे
'स्यादत्येव सर्व' - मिति केरल विधि प्रवस्य प्रथमः (१) । 'स्यान्नास्त्येव सर्व' - मिति केवल निषेध मकल्प्य द्वितीयः (२) । ' स्यादस्त्येव स्पान्नास्त्येवे' ति क्रमिक विधिनिषेध मय तीयः (२) । 'स्यादवक्तस्य मेवे 'ति यौगपद्येन विधि - निषेध मध्य चतुर्थ' (४) । स्यादस्त्येवे - ति केवल विधि
(१) 'स्यादस्येव सर्वम्' - अर्थात् प्रत्येक पदार्थ, स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षासे है । इस भगमें सिर्फ विधिकी कल्पना की गई है ।
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(२) 'स्यान्नास्त्येव सर्वम्' - अर्थात् प्रत्येक पदार्थ, पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल और पर भाव की अपेक्षा नहीं है । इस भगमें सिर्फ निषेधकी कल्पना है ।
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(३) 'स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव सर्वम्' - अर्थात् प्रत्येक पदार्थ, स्व द्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षा है, परद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षा नहीं है। इस भगमें विधि और निषेध दोनोंकी क्रमश: कल्पना की गई है।
(४) स्यादवक्तव्यमेव सर्वम्'- अर्थात् प्रत्येक पदार्थ किसी अपेक्षा अवक्तव्य ( वचन के अगोचर ) है । यहा विधि और निषेधकी युगपत् ( एकही साथ) कल्पना है । एक समयमें एक ही धर्मका कथन हो सकता है, anant at नही हो सकता । यहा एक ही साथ दो धर्मों की विवक्षा है, और दोनों का युगपत् कथन नहीं हो सकता, अत इस अपेक्षा से पदार्थ अवक्तव्य है ।
(२) स्यान्नास्त्येव सर्वम्-अर्थात् प्रत्येक पदार्थ परद्रव्य, परक्षेत्र, परीस અને પરભાવની અપેક્ષાએ નથી આ ભાગામા માત્ર નિષેધની કલ્પના છે
(3) स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव सर्वम् अर्थात् प्रत्येक चहार्थ स्वद्रव्याहिચતુષ્ટયની અપેક્ષાએ છે, પદ્મવ્યાદિ ચતુષ્ટયની અપેક્ષાએ નથી આ ભાગામા વિધિ
અને નિષેધ એ બેઉની ક્રમશ કલ્પના કરી છે
(४) स्यादत्यमेव सर्वम् अर्थात् प्रत्येक पहार्थ अष्ट अपेक्षाको अवतव्य ( વચનને અગેચર ) છે અહી વિધિ અને નિષેધની એકી સાથે કલ્પના કરી છે, એક સમયે એક જ ધર્મનું કથન થઇ શકે છે, અનેક ધમતુ નથી થઇ શકતુ અહી એકી સાથે એ ધર્મોની વિવક્ષા છે, અને એનુ એકી સાથે કથન નથી થઇ શકતુ, માટે એ અપેક્ષાએ પદાર્થ અવકતવ્ય છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ स ११ धर्म० सप्तभङ्गी० ___घट' स्वद्रव्यक्षेत्राद्यपेक्षयाऽस्ति, परद्रव्यक्षेत्राधपेक्षया च नास्तीत्यरत्वेवाऽऽपेक्षिक घटेऽस्तित्व नास्तित्व चेति धर्मद्वदमित्येव य क्रमिको वचनप्रकारः स तृतीयो भङ्ग' (३)।
आपेक्षिक घटेऽस्तित्व नास्तित्व च तृतीये भड्ने यदुक्त तत्क्रमिकरूपतया वक्त सुशक, क्रममपहाय तु यौगपद्य कस्मिन् घटादावस्तित्व नास्तित्व चापेक्षाकृत नहीं है, ग्रीष्म आदि जिस कालमे है उससे भिन्न कालमे नही है, रक्तता आदि गुण यदि उसमे पाये जाते है तो नीलता आदि भावोंकी अपेक्षा नहीं है । यदि दूसरे द्रव्य आदिकी भी अपेक्षा घटका अस्तित्व माना जाय तो घटका नियत स्वरूपादि नहीं बन सकता। अर्थात् घटमें यदि अन्य स्वरूपादिसे नास्तित्व न माना जाय तो घट-पट आदि भेद ही पदार्थोंमे न रहे । अतः घटमे परचतुष्टयसे नास्तित्व रहता है यह दूसरे भगका आशय है।
(३) जब हम कहते है-घट है भी और नही भी है, तो उल्लिखित प्रथम और द्वितीय भगमे बताये हुए स्वद्रव्य क्षेत्र आदि, तथा पर द्रव्य आदि दोनों की क्रमशः विवक्षासे कहते है । यह क्रमवार वचनप्रकार तीसरा भग है।
(४) जैसा कि पहले कह चुके है, कि घट मे आपेक्षिक अस्तित्व नास्तित्वका कथन क्रमिक कर सकते हैं, परतु एक ही साथ अस्तित्व नास्तित्व, કરીને નથી ગમ આદિ જે કાળમા છે તે તેથી ભિન્ન કાળમાં નથી, લાલાશ આદિ ગુણ જો એમ માલૂમ પડે છે તે લીલાશ આદિ ભાવની અપેક્ષાએ નથી જે બીજા દ્રવ્ય આદિની પણ અપેક્ષાએ ઘટનું અસ્તિત્વ માનવામાં આવે તે ઘટન નિયત
સ્વરૂપ નથી બની શકતુ અર્થાત ઘટમાં જે અન્ય સ્વરૂપાદિએ કરીને નાસ્તિત્વ ન માનવામાં આવે તે ઘટ-પટ આદિ ભેદ જ પદાર્થોમા - રહે માટે ઘટમાં પચતુષ્ટયે કરીને નાસ્તિત્વ રહેલું છે આ બીજા ભાગાને આશય છે
(૩) જ્યારે આપણે કહીએ છીએ કે ઘટ છે પણ ખરે અને નથી પણ ખરે, ત્યારે ઉપર કહેલા પહેલા અને બીજા ભાગમાં બનાવેલા સ્વદ્રવ્ય ક્ષેત્ર આદિ તથા પદ્રવ્ય આદિ બેઉની ક્રમશ વિષાક્ષાએ કરીને કહીએ છીએ એ ક્રમવાર વચનપ્રકાર ત્રીજે ભાગે છે
(૪) જેમકે પહેલા કહી ગયા છીએ કે, ઘટમાં આપેક્ષિક અસ્તિત્વ નાસ્તિત્વને કથન કૅમિક થઈ શકે છે પરંતુ એકી સાથે અસ્તિત્વ નાસ્તિવ બેઉ ધર્મો વચન દ્વારા
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उपासकदशासूत्रे
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द्रव्यक्षेन कालभावापेक्षयाऽस्त्ये वर्त्तत एव स घट पटादि तयाहि - घटः- पार्थिव यावच्छेदेन द्रव्यतः, नाराणसेयत्या उच्छेदेन क्षेत्रतः, ग्रैवावच्छेदेन कालतः, रक्तत्यावच्छेदेन च भावतो वर्तते । तदेतद् घटग्य वर्तन जलीय पाटलिपुत्रशारदत्व - नीलादिरूपा परकीय द्रव्यक्षेत्र कालभावापेक्षामन्तरेणैवास्ति । इतरथा रूपान्तरापादनेन स्वस्वरूपमन्यप्रसक्ते । अस्त्येवेत्येवकारच नास्तीत्यन्ययोग व्यवच्छेदार्थ. । इति प्रथमभद्गाशयः (१) ।
"
स्यात् = कथञ्चित्-परकीयद्रव्यक्षेत्र कालमानानपेक्ष्य नास्त्येव घट इश्यापेक्षिको घटाभाव एव पटादिष्वपि योज्यमिति द्वीतीयभङ्गाऽऽशयः (२) । की अपेक्षा ही कहते है। अर्थात् घड़ा यदि मृत्तिकाद्रव्य का बना है तो वह मृत्तिकाद्रव्यकी अपेक्षासे ही है। यदि सका है तो बनारस क्षेत्री अपेक्षा है । ग्रीष्म आदि जिस कालमें है उसी काल की अपेक्षा है । ललाई आदि जो-जो गुण उसमें पाये जाते हैं, उन्हीं गुणी (भावों) की अपेक्षा है। तात्पर्य ( मतलब ) यह है कि 'घडा है' इस कथन का आशय यही है कि घडा अपने नियत द्रव्य आदि की अपेक्षा है । यदि अपने द्रव्य आदि चतुष्टयसे घडेका अस्तित्व न माना जाय तो वह गधेके सीगकी नाई असत् हो जायगा, अतः स्वचतुष्टयसे प्रत्येक पदार्थमे अस्तित्व अवश्य मानना चाहिए ।
(२) जब हम कहते है --- 'घडा नही है तो घटसे भिन्न द्रव्य आदि की अपेक्षासे कहते हैं । अर्थात् | घडा यदि मिट्टी का बना है तो वह जल की अपेक्षा नही है, बनारस में है तो पटना क्षेत्रकी अपेक्षा દ્રષ્યાદિ–ચતુષ્ટયની અપેક્ષાએ જ કહીએ છીએ અર્થાત ને ઘડા માટીરૂપ દ્રવ્યને અન્યા તેા એ માટીરૂપ દ્રવ્યની અપેક્ષ એ કરીને જ છે, જે બનારસના છે તે બનારસ ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ કરીને છે, ગ્રીષ્મ આદિ જે કાળમા છે એ કાળની અપેક્ષાએ કરીને કે, લાલાશ આદિ જે જે ગુણ એમા માલૂમ પડે છે, એ ગુણે ( ભાવે )ની અપેક્ષાએ કરીને અે તાપ ( મતલખ ) એ છે કે ઘડે છે' એ કથનના આશય એ છે કે ઘડા પેાતાના નિયત ક્રૂન્ય આદિની અપેક્ષાએ કરીને છે જો પેાતાના દ્રવ્યાદિ ચતુષ્ટય કરીને ઘડાનુ અસ્તિત્વ ન માનવામા આવે તો તે ગધેડાના શીંગડાની પેઠે અસત થઇ જશે, માટે સ્વચતુષ્ટયે કરીને પ્રત્યેક પદાર્થમાં અસ્તિત્વ અવસ્ય માનવું ોઇએ (૨) જ્યારે આપણે કહીએ છીએ કે “ઘડા નથી”, ત્યારે ઘટથી ભિન્ન દ્રષ્ય આદિની અપેક્ષાએ કરીને કહીએ છીએ અર્થાત્ ધડા જો માટીના બન્યા છે તે તે જલદ્ભવ્યની અપેક્ષાએ કરીને નથી, બનારસમા છે તે તે પણક્ષેત્રની અપેક્ષાએ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ११ सप्तमी
द्वितीयभगोक्त परकीयद्रव्यादपेक्षयाऽमद्रप सर्व (घटपटादिरूप) वस्तु योग पधेन विधिनिषेधा परिकल्प्य, 'अवक्तव्यमपी'-त्येव यो वामकारः स पष्ठो भग. (६)। __स्वद्रव्याधपेक्षया सद्प परकीयद्रव्याद्यपेक्षया चासद्रूप सर्व (घटपटादिरूप)
वस्तु योगपधेनाऽस्तित्व नास्तित्वाभ्यामवक्तव्यमपीत्येवविधो वाकूपयोग. सप्तमो __ भङ्ग इति दिव (७) एतत्परूपकः। पुनश्च--
वीत. विनष्ट , राग -आसक्तियस्य स वीतरागः, रागपदेन द्वेपस्याप्युपलक्षणार्क्सवथा रागद्वेषरहित इत्यर्थः, देवो भवति । ननु यदि देवो रागदेपरहितस्तदा (६) द्वितीय भगमें परद्रव्यादि-चतुष्टयकी अपेक्षा पदार्थमें नास्तित्व कहा गया है, उसके साथ ही युगपत् विधि-निषेध को कल्पना करनेसे अवक्तव्यता भी पाई जाती है। यही 'नास्ति-अवक्तव्य रूप छठा भग है।
(७) स्व-दव्य आदि की अपेक्षा सत् और परद्रव्यादिकी अपेक्षा असत् वस्तु युगपत् विधि निषेधकी कल्पना करनेसे अवक्तव्य भी है। यही 'अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य' रूप सातवें भग का आशय है।
यहां दिशासूचन के लिए केवल 'अस्तित्व' धर्मको उदाहरण पना कर सात भग घटाये है। इसी प्रकार नित्यत्व आदि प्रत्येक धर्म पर सात-सात भग स्वय घटा लेने चाहिए। इन सबकी प्ररूपणा करने वालेको, तथा जिसका राग नष्ट हो गया हो अर्थात् वीतराग हो
उसे देव कहते है। 'राग' पद 'देष' का उपलक्षण है, इससे 'देष' का नाश भी समझना चाहिए ।
(૬) બીજા ભાગમા પર દ્રવ્યાદિચતુષ્ટયની અપેક્ષાએ પદાર્થમા નાસ્તિત્વ બતાવ્યું છે, એની સાથે જ યુગપતું વિધિ-નિધની કલ્પના કરવાથી અવકતવતા પણ મેળવી શકાય છે એ “ નાસ્તિ-અવકતવ્ય રૂપ છઠ્ઠો ભાગો છે
() સ્વદ્રવ્ય આદિની અપેક્ષાએ સત અને પર-દ્રવ્યાદિની અપેક્ષાએ અસત વસ્તુ, યુગપત્ વિધિનિષેધની કલ્પના કરવાથી અવકતવ્ય પણ છે એ અસ્તિનાસ્તિ—અવકતવ્ય રૂપ સાતમા ભાગે આશય છે
અહીં દિશાસૂચનને માટે કેવળ “અસ્તિત્વ ધમને જ ઉદાહરણ બનાવી સાત ભાગ ઘટાવ્યા છે એ પ્રમાણે નિત્યવ આદિ પ્રત્યેક ધર્મ પર સાતસાત ભાગા પિતાની મેળે ઘટાવી લેવા આ બધાની પ્રરૂપણા કરવાવાળે, અને–જેનો રાગ નષ્ટ થઈ ગયું હોય એટલે વીતરાગ હેય તે દેવ કહેવાય છે “રાગ પદ દૈષનુ ઉપલક્ષણ છે, માટે તે વડે દ્વેષને નાશ પણ સમજવા
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उपासकदशास्त्रे सद्रूपमपि सर्वथा वक्तुमशक्य, विधिमुखेन प्रतिपादने निपेघस्य निषेधमुखेन प्रति पादने च विधेसगमाभावप्रसगात्तस्मादेवविधस्थले 'आक्तव्य'-शब्दप्रयोग एवं
दसिद्धान्त इत्यतः 'कश्चिदवक्तव्य एपाय घट" इत्यादिरूपो यो वचनमकार' स चतुर्थो भगः (४)।
एषु चतुर्यु भङ्गेपु मूलभूती केवलविधिगर्भकेवलनिषेधगौं प्रथम द्वितीयौ, शेपौ तु वो तदुभयभग सम्बन्धादेव स्तः, इयास्तु विशेष:-यत्तृतीयो भङ्गः-प्रथम द्वितीयभोक्तौ विधि-निषेधौ क्रमेणाऽऽश्रित्य मार्तते, चतुर्यस्तु योगपरेनैवेति।।
स्वद्रव्यक्षेत्रमालभावावपेक्ष्य सद्रूप (घटपटानिरूप ) सर्व वस्तु योगपद्येन विधि निषेधौ परिकल्प्यावक्तव्यमपीत्येव वाकमयोग' पञ्चमो भग' (५)। दोनो धर्मोको वचन द्वारा नहीं कर सकते। 'ह' कहें तो उससे 'नहीं' का कथन नहीं होता, और 'नहीं' कहें तो उससे ह' का कथन नहीं होता। इसके अतिरिक्त ऐसा कोई भी शब्द नहीं है जिससे अनेक धर्मोंका एक साथ प्रतिपादन किया जा सके, इस अपेक्षासे घटका अवक्तव्य कहा है। यहा अस्तित्व और नास्तित्व दोनो धर्मोंकी युगपत विवक्षा है । यही चौथे भगका आशय है ।।
इन चार भगोमेसे केवल विधि-प्रतिपादक पहला, और केवल निषेध-प्रतिपादक दूसरा भग ही मूल भग है। तीसरा और चाया भग इन्हीं को क्रमशः और युगपत् मिलाने से बना है।
(५) स्व-द्रब्य क्षेत्र काल भावसे वस्तु (घट) सत् और युगपत् विधि-निषेध के साथ विवक्षित होने पर अवक्तब्य रूप होती है। यह पाचवा भग है। નથી કહી શકાતા છે કહીએ તે તેથી “નથી” ન કથન નથી થતુ અને “નાથા કહીએ તે તેથી છે નું કથન નથી થતું તે સિવાને એ કઈ પણ શબ્દ નથી કે જેનાથી અનેક ધર્મોનું એકી સાથે પ્રતિપાદન કરી શકાય, એ અપેક્ષાએ ઘટન અવકતવ્ય કહ્યો છેઅહીં અસ્તિત્વ અને નાસ્તિત્વ એ બેઉ ધમની યુગપત વિવા છે એ ચેથા ભાગને આશય છે.
આ ચાર ભાગમાથી કેવળ વિધિ-પ્રતિપાદક પટેલે અને કેવળ નિષેધ–પ્રતિ પાદક બીજો ભાગ જ મૂળ ભાગ છે ત્રીજો અને એથે ભાગે એ બેઉને ક્રમશ અને યુગપત મેળવવાથી બન્યા છે
(૫) સ્વ-દ્રવ્યક્ષેત્રકાલભાવથી વસ્તુ (ઘટ) સત છે અને યુગપત વિધિ-નિષેધની સાથે વિવક્ષિત થવાથી અવકતવ્ય રૂપ થાય છે આ પાચમે ભાગે છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ.१ म् ११ धर्म. देवस्वरूपवर्णनाम् १९५ रागद्वेषवानात्माऽपि स्फटिकोपम निज नैर्मल्यगुण परित्यज्य तत्तदुपरञ्जकविषयसपर्कवशादुत्तरोत्तर मलिनीभवत्यन्ततश्च दुर्गतिमात्रफलक भवति तस्मात्सर्वदुर्गतिमूलभूतौराग द्वेपो भव्येन प्रयत्नतोऽपनेयो, तदपनयनार्थमेवामौ रागद्वपविनिमयो देव उपासितव्यः। तथाहि दृश्यते लोके-यो रोगाक्रान्तः स नीरोगमगदड्कार, यो वैरकृतपराभवापन्नो दुलः स प्रपल राजादि, योऽल्पद्विकानवान् म महाद्विकानिन श्रेष्ठिप्रभृति, यश्च शीताः स तेजोमय मर्यादि समुपास्य कृतकृत्योभवतीति। एव चानन्तशान्तिनिधानस्य सर्वथा निष्कलङ्कस्य भगवतो निरवद्योपासनया चित्तैइतनी बढ़ जाती है कि वह सिर्फ मेंढकोके कामका रह जाता है। ___इसी प्रकार राग-द्वेप वालो आत्मा, अपनी म्फटिक के समान निर्मलताको त्याग कर मलिन बनाने वाले विषयोके ससर्ग से क्रमशः अधिकाधिक मलिन होती हह, अन्तमे दुर्गतिका पात्र बनती है । इमलिए समस्त दुर्गति के मूल कारण राग-द्वेष हैं। भव्य जीवको प्रयत्न करके इन्हे दूर कर देना चाहिए । इन्हे दूर करने (नष्ट करने) के ही लिए राग-द्वेष रहित देवकी उपासना करनी चाहिए। यही बात लोकमें देखी जाती है । रोगी नीरोग करने वाले वैद्यकी उपासना करता है, वैरियों के द्वारा तिरस्कार पाया हुआ निर्वल व्यक्ति सयल राजा आदिकी उपासना करता है, छोटी द्विकान (दुकान) बाला वडी दुकान वाले सेठ आदिका आश्रय लेता हैं, और शीतसे ठिठुरा हुआ मनुष्य सूर्य आदि गर्म वस्तुओंकी शरण लेता है और सफल होता है। इस प्रकार अनन्त शक्तिके आगर, मर्वथा निष्कलक भगवान् की निर्दोप उपासनाले चित्तमें एकाग्रता उत्पन्न होती है, और उस પિતાની સ્ફટિક સરખી નિર્મળતાને ત્યજીને મલીન બનાવનારા વિષેના સ સગ થી ક્રમશ આધિકાધિક મલીન થતા છેવટે દુર્ગતિનું પાત્ર બની જાય છે માટે સમસ્ત દુર્ગતિના મૂળ કારણ રાગ-દ્વેષ છે ભવ્ય જીવેએ પ્રયત્ન કરીને તેમને દૂર કરવા જોઈએ એને દૂર (નષ્ટ) કરવાને માટે રાગદ્વેષ રહિત દેવની ઉપાસના કરવી જોઈએ એ વાન લેકમાં જોવામાં આવે છે રેગી નીગ કરનાર વૈદ્યની ઉપાસના કરે છે શત્રુઓથી તિરસ્કાર પામનારી નિર્બળ વ્યકિત સબળ રાજા આદિની ઉપાસના કરે છે, નાની દુકાનવાળે મેટી દુકાનવાળા શેઠ આદિને આશ્રય લે છે, અને ટાઢથી થરથરતો માણસ સૂર્ય આદિ ગરમ વસ્તુઓનું શરણુ લે છે અને સફળ થાય છે એ પ્રમાણે અનત શકિતના આગર, સર્વથા નિષ્કલક ભગવાનની નિર્દોષ ઉપાસનાથી ચિનમાં એકાગ્રતા ઉત્પન્ન થાય છે, અને એ એકાગ્રતાથી આત્માનું
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उपासक्दशासूत्रे तदुपासनमकिश्चित्कर, यतो भादुत्तरीत्या तस्योपासनारहित प्रति न ढेपो न वा उपासीन मति राग इत्युपासनाया तायामपि भगवत्तक मसादासम्भवाद व्य थैव सा? इति चेद् भ्रान्तोऽसि नहि य मसादयितु भगवन्तमुपास्महेऽपितु स्व: सामान परिशोध्य निष्फलीपर्तमे। आत्मारडूश्च मोहादिजनित विषयमी गलोलुपत्व, तच्च रागद्वेपमहाणमन्तरेणोपशमितुन समाति, मत्युत यथा नील पीत रक्तादिसम्मन्धात्पड़ादिसम्बन्धाद्वा सल्लि, निज स्वच्छत्वगुणमपहाय तत्तदगुणा न्तर धृत्वोत्तरोत्तर मालिन्यगहल्यमुपयाति भेकोपभोगयोग्य च पर्यवस्थति-तथा
शका-यदि देव, राग ओर देपसे रहित है तो उनकी उपासना करना वृथा है-उनकी उपासना करनेसे कोई प्रयोजन नहीं सिद्ध हो सकता । क्योंकि आपके कथनानुसार वे (देव) अपनी उपासना करने वाले पर राग नहीं करेगे और उपासना न करनेवाले पर द्वेष नहीं करेंगे। ऐसी अवस्था में उपासना करने पर भी उनकी प्रसन्नता प्राप्त नहीं की जा सकती, अत एव ऐसे देवकी उपासना करना व्यथे है।
समाधान-यह तुम्हारी भूल है। हमारी उपासना भगवान् का प्रसन्न (खुश) करने के लीए नही किन्तु अपनी अपनी आत्माको शुद्ध करके सर्वथा निर्विकार बनाने के लिए है। मोह आदिसे उत्पन्न हान वाली विषय-भोगकी लोलपता ही आत्माका विकार (कलक) है। उसका नाश राग-द्वेषके नाश हुए विना नहीं हो सकता। जल-नील, पीत और रक्त आदि वर्ण के सयोगसे अपने स्वच्छतागुणको त्याग कर, नीला पीला या लाल हो जाता है। धीरे-धीरे उसकी मलिनता
શકા–-જે દેવ, રાગ અને દ્વેષથી રહિત છે, તે તેની ઉપાસના કરવી વૃથા છે તેની ઉપાસના કરવાથી કોઈ પ્રોજન સિદ્ધ થઈ શકતું નથી, કારણકે આપના કથનાનુસાર એ (દેવ પિતાની ઉપાસના કરનારાઓ પર રાગ નહી કરે અને ઉપાસન ન કરનાર પર દ્વેષ નહિ કરે એવી સ્થિતિમાં ઉપાસના કરવાથી પણ તેની પ્રસન્નતા પ્રાપ્ત કરી શકાતી નથી, માટે તેની ઉપાસના કરવી વ્યર્થ છે
સમાધાન–એ તમારી ભૂલ છે અમારી ઉપાસના ભગવાનને પ્રસન્ન (મુ) કરવાને માટે નથી પરંતુ પિતતાના આત્માને શુદ્ધ કરીને સર્વથા નિવિકાર બનાવવા માટે છે મેહ આદિથી ઉત્પન્ન થનારી વિષયÊગની લેલુપતા જ અતિમાન વિકાર (કલક) છે તેને નાશ રાગદ્વેષને નાશ થયા વિના થઈ શકતું નથી જળ લીલા, પીળા અને રાતા વર્ણ આદિના સાગથી પિતાની સ્વચ્છતાનો ગુણ ત્યજીને લીલુ પીધુ કે લાલ થઈ જાય છે ધીરે ધીરે એની મલિનતા એટલી વધી જોય છે કે તે માત્ર દેડકાઓના કામનું જ રહે છે, એ પ્રમાણે રાગ-દ્રષવાળે આત્મા
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ.१ म् ११ धर्म देवस्वरूपवर्णनाम् १९५ रागद्वेपवानात्माऽपि स्फटिकोपम निज नैर्मल्यगुण परित्यज्य तत्तदुपरञ्जकविषयसपर्कवशादुत्तरोत्तर मलिनीभवत्यन्ततश्च दुर्गतिमानफलक भवति तस्मात्सर्वदुर्गतिमूलभूतौ राग द्वेपो भव्येन प्रयत्नतोऽपनेयौ, तदपनयनार्थमेवामौ रागद्वपविनिमुयो देव उपासितव्यः। तथाहि दृश्यते लोके-यो रोगाक्रान्तः स नीरोगमगदवार, यो वैरकृतपराभवापन्नो दुर्बलः स प्रबल राजादि, योऽल्पद्विकानवान् म महाद्विकानिन श्रेष्ठिमभृति, यश्च शीता स तेजोमय मर्यादि समुपास्य कृतकृत्यो भवतीति। एव चानन्तशान्तिनिधानम्य सर्वथा निष्कलङ्कस्य भगवतो निरवद्योपासनया चित्तइतनी बढ़ जाती है कि वह सिर्फ मेढकोके कामका रह जाता है। - इसी प्रकार राग-द्वेप वालो आत्मा, अपनी स्फटिक के समान निर्मलताको त्याग कर मलिन बनाने वाले विषयोके ससर्ग से क्रमशः अधिकाधिक मलिन होती हुह, अन्तमे दुर्गतिका पात्र बनती है । इसलिए समस्त दुर्गति के मूल कारण राग-द्वेष है। भव्य जीवको प्रयत्न करके इन्हे दूर कर देना चाहिए । इन्हें दूर करने (नष्ट करने) के ही लिए राग-द्वेप रहित देवकी उपासना करनी चाहिए। यही बात लोकमे देखी जाती है । रोगी नीरोग करने वाले वैद्यकी उपासना करता है, वैरियों के द्वारा तिरस्कार पाया हुआ निर्बल व्यक्ति सबल राजा आदिकी उपासना करता है, छोटी द्रिकान (दुकान) वाला वडी दुकान चाले सेठ आदिका आश्रय लेता है, और शीतसे ठिठुरा हुआ मनुष्य सूर्य आदि गर्म वस्तुओकी शरण लेता है और सफल होता है। इस प्रकार अनन्त शक्तिके आगर, सर्वथा निष्कलक भगवान की निर्दोप उपासनासे चित्तमें एकाग्रता उत्पन्न होती है, और उस પિતાની સ્ફટિક સરખી નિર્મળતાને ત્યજીને મલીન બનાવનારા વિષયેના સસગયો ક્રમશ આધિકાધિક મલીન થતા છેવટે દુર્ગતિનું પાત્ર બની જાય છે માટે સમસ્ત દુર્ગતિના મૂળ કારણ રાગ-દ્વેષ છે ભાગ્ય એ પ્રયત્ન કરીને તેમને દૂર કરવા જોઈએ એને દૂર (નષ્ટ) કરવાને માટે રાગદ્વેષ રહિત દેવની ઉપાસના કરવી જોઇએ એ વાન લેકમાં જોવામાં આવે છે રેગી નીગ કરનાર વવની ઉપાસના કરે છે શત્રુઓથી તિરસ્કાર પામનારી નિર્બળ વ્યકિત સબળ રાજા આદિની ઉપાસના કરે છે, નાની દુકાનવાળે મેટી દુકાનવાળા શેઠ આદિને આશ્રય લે છે, અને ટાઢથી થરથરતે માણસ સૂર્ય આદિ ગરમ વસ્તુઓનું શરણ લે છે અને સફળ થાય છે એ પ્રમાણે અનત શકિતના આગર, સર્વથા નિષ્કલક ભગવાનની નિર્દોષ ઉપાસનાથી ચિનમાં એકાગ્રતા ઉત્પન્ન થાય છે, અને એ એકાગ્રતાથી આત્માનું
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उपासकदशामित्रे काग्रतोत्पद्यते, तया वीतरागतायामात्मपरिणन तेन रागडे पाहाण, ततश्च परि शुद्धिः, तया चास्य स्वरूपेऽस्थानम् । नहात्मनः स्पारस्थानास्पर विमप्यक्षय्य मुखमस्नीति रागद्वेषप्रहाणमेव नित्यनिरतिशयमुखनिदानम् । तदर्थ च वीतरागदेवो पासनमतीवाऽऽवश्यक, किन्तु नात्र देवस्य रागो ना द्वेषोऽपितु यो राग द्वेषौ मजिहासति स एनमु पास्य परितामिलापो भवति, यथाऽन्धकारमपनिनीषुः स्त्र यमेव प्रकाश शरणीकृत्य पूर्णकामो भवन दृश्यते रोके नतु तत्र प्रकाश उपसर तीति । एतेन सायद्योपासना प्रत्युक्ता यत एतया जीवहिंसायामारम्भस्तेन वर्मन न्धम्तस्माच ससारपरिभ्रमणमिति, यथोक्तम्-- एकाग्रतासे आत्माका वीतराग अवस्थामें परिणमन होता है। जब आत्मा वीतराग अवस्था मे आता है तो राग वेपका विनाश हो जाता है । राग-द्वेपका विनाश होनेसे शुद्धि होती है। आत्म शुद्धि होने से वह अपने शुद्ध सहज स्वभावमें स्थिर हो जाता है । आत्माका शुद्ध स्वभावमें स्थिर हो जाना ही सर्वोत्कृष्ट सुख है । वही सुख अविनाशी है । अत. राग द्वेषका विनाश ही सर्वश्रेष्ठ शाश्वत सुखका साधन है, और इसी सुखको प्राप्तिके लिए वीतराग देवकी उपासना करना नितान्त आवश्यक है। यहाँ (इस उपासने में ) देवका न तो राग है और न ढेप, किन्तु जो राग द्वेषा त्याग करना चाहता है वह इसकी उपासना करके सफल मनोरथ होता है । जैसे लोकमें जो अन्धकारको दूर करना चाहता है वह स्वय प्रकाशकी शरण लेनेसे ही सफल होता है, न कि प्रकाश स्वयं ही उसके पास दोडा जाता है। વીતરાગ અવસ્થામાં પરિણમન થાય છે જ્યારે આત્મા વીતરાગ અવસ્થામાં આવે છે, ત્યારે રાગદ્વેષને વિનાશ થઈ જાય છે રાગદ્વેષને વિનાશ થવાથી શુદ્ધિ થાય છે આશુદ્ધિ થવાથી તે પિત ના શુદ્ધ સહજ સ્વભાવમાં સ્થિર થઈ જાય છે આત્માને શુદ્ધ સ્વભાવમાં સ્થિર થઈ જવું એજ સત્કૃષ્ટ સુખ છે એજ સુખ અવિનાશી છે. માટે રાગદ્વેષને વિનાશજ સર્વશ્રેષ્ટ શાશ્વત સુખનું સાધન છે, અને એ સુખના પ્રાપ્તિને માટે વિતરાગ દેવની ઉપાસના કરવી નિતાન્ત આવશ્યક છે અહીં (આ ઉપાસનામાં) દેવને રાગ નથી કે દ્વેષ નથી પરંતુ જે રાગદ્વેષને ત્યાગ કરવા ઇ છે તે એની ઉપાસના કરીને સફળ–મને રથ થાય છે જેમકે-લોકમાં જ અધકારને દૂર કરવા ઈચ્છે છે તે પોતે પ્રકાશનું શરણ લેવાથી જ સફળ થાય છે. નહિ કે પ્રકાશ પિતે તેની પાસે દેડી જાય છે એથી સાવદ્ય ઉપાસનાનું ખડન થઈ
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ११, धर्म० गुरुस्वरूपनिरूपणम् १९७
सावज्जसपज्जाए, समुन्भवह जीवहिंसणारभो ।
तम्हा वज्झइ कम्म, तेण य ससारचक्कसपाओ ॥ १ ॥ " इति । एतच्छाया-
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" सावधपर्यया समुद्भवति जीवहिंसनाऽऽरभः ।
तस्माद्भ्यते कर्म तेन च ससारचक्रसम्पात ॥ १ ॥ " इति । दोषान्तराणि च मामतिपादितान्येवेत्यलमाम्रेडितेन ॥
गुरुस्वरूपम् |
गृणात्युपदिशति मोक्षमार्गमिति गुरु, स चाहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्याऽपरिग्रहरूपमहाव्रतपञ्चधारी, रात्रिभोजन परिहारी, पञ्चानामात्रत्राणा निवारकः, सरपञ्चकारा, पञ्चेन्द्रियनिग्राहकः, पञ्चाना समितीना तिसृणा गुप्तीना च इससे सावद्य उपासनाका खण्डन हो गया, क्योंकि सावद्य उपासना से जीवहिंसामें आरंभ होता है, आरभसे कर्मबन्ध होता हे और कर्मबन्धसे ससारमे परिभ्रमण करना पडता है । कहा भी है
"सावध उपासना से जीवहिंसारूप आरभ होता है, उससे कर्मबन्ध होता है ओर कर्मवन्यसे ससाररूपी चक्रमें घूमना पडता है ॥ १ ॥ " अन्यान्य दोपोंका पहले प्रतिपादन किया जा चुका है अतः यहा इतना कहना ही बस ( पर्याप्त ) है ।
गुरुका स्वरूप
जो मोक्षमार्ग का उपदेश देते है वे गुरु है। वे अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाच महाव्रतोंके धारी, रात्रिभोजनके त्यागी, पाच आस्रवोंके निवारक, पाच सवरोंके आराधक, ગયુ, કારણકે સાવદ્ય ઉપાસનાથી જીવહિંસારૂપ આર ભ થાય છે, આર નથી કખ ધ થાય છે અને કખ ધથી સ સારમા પરિભ્રમણ કરવુ પડે છે. કહ્યુ છે કે~
“ સાવદ્ય ઉપાસનાથી જીવહિંસારૂપ આર ભ થાય છે, તેથી કખ ધ થાય છે અને ક્રમબધથી સસારરૂપી ચક્રમા ઘૂમવું પડે છે” (૧)
બીજા દેાષાનું પ્રતિપાદન પહેલા કરવામા આવ્યુ છે, એટલે અહીં આટલું થન જ પૂરતુ છે
ગુરૂનુ સ્વરૂપ
જે મેક્ષમાના ઉપદેશ આપે છે તે ગુરૂ છે. એ અહિંસા, સત્ય, અસ્તેય, પ્રજ્ઞાચય અને અપરિગ્રહરૂપ પાચ મહાવ્રતાના ધારણુ કરનારા, રાત્રિભાજનના ત્યાગી, પાચ આસ્રવેાના નિવારક, પાચ સવાના આરાધક, પાચ ઇંદ્રિયાના નિગ્રહ કરનારા
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उपासकदशाङ्गसुत्रे
धारकः, पट्कायरक्षकः, व्यसनसप्तस्य मदाष्टकस्य च परिहारवान, गुप्तबह्मचारी, दशाना यतिधर्माणा धारक, तपः सयमादिविविधगुणनान, गज हय गाडी पाल्यङ्की वहियान पाइयान मुष्टिल ( यान ) वायुयान विधान ताम्रयान शिविकादिवाहन मानानारोही, पादविहारी, परित्यक्त च्छ पादुकोपानुत्पादत्राणश्च भवति, निर्दोषा नादिग्राहकः, सचितजलत्यागी सार्थ संपादिते सेवार्थ साथै गच्छतो गृहस्थस्य चानपाने न गृह्णाति, न नाते स्वार्थे निर्मापयते, शिर केशान्निर्लुञ्चयति, वायुकायादिरक्षणार्थ मुखोपरि सदा सदोग्कमुखखिका निनाति, जीवरक्षणार्थं च रजोहरण प्रमार्जिके धारयति, स्त्रियो न स्पृशति, न वा तत्सपृक्त स्थाने रात्रिषु, १ पालखी रेल साइकिल मोटर हवाईजहाज ट्रामचे तामजान खड़खडिया (ताँगा घोड़ागाडी ) इति भाषा २ ते = अन्नपाने |
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पाचो इन्द्रियोंके निग्रह करने वाले, पाच समिति तीन गुप्तिके पालक, पह्काय के रक्षक, सप्त व्यसन और आठ मदोंके त्यागी, गुप्तब्रह्मचारी, दस यति-धर्मो के बारी, तप सयम आदि विविध गुणोंसे युक्त, हाथी घोडा, गाडी, पालकी, रेल, साइकिल, मोटर, हवाइजहाज, ट्राम्बे, तामजान आदि किमी भी सवारी पर सवार न होने वाले, पैदल विहार करने वाले, छत्र, पादुका, जूता, मोजा आदि के त्यागी, निर्दोष आहार के ग्राहक, सचित्त जलके त्यागी, भक्ति-भाव से साथ चलने वाले गृहस्थ का तथा अपने लिए बनाया हुआ - आहार न लेनेवाले होते हैं । वे अपने लिए भोजन नही बनवाते, सिरके केशांकों लोच करते हैं, वायुकाय आदि की रक्षा के लिए मुख पर सदैव डोरा सहित मुखस्त्रका बाधे रहते हैं, जीवो की रक्षा के लीए रजेाहरण और પાચ સમિતિ ત્રણ ક્રુમિના પાલક, ષટ્કાયના રક્ષક, સસ બ્યસન અને આઠ મદાના ત્યાગી ગુપ્તપ્રાચારી, દસ યતિધર્માંના ધારક, તપ સયમ આદિ વિવિધ ગુણૈાથી युक्त हाथी, घोडा, गाडी, पासणी, रेस, सायम्स, भोटर, हवाई विमान, दावे આદૃિ કાઇ પણ વાહનપર સવાર ન થનારા, પગપાળા વિહાર કરનારા, ધૃત્ર, પાદુકા, જોડા, મેજા વગેરેના ત્યાગી, નિર્દોષ આહારના ગ્રાહક, સચિત્ત જળના ત્યાગી, ભકતભાવે સાથે ચાલનારા ગૃહસ્થાના અને પાતાને માટે બનાવવામા આવેલ આહાર ન લેનારા હાય છે તેઓ પેાતાને માટે ભેજન બનાવરાવતા નથી, માથા પરના કેશને લાચ કરે છે, વાયુકાય આદિની રક્ષાને માટે સુખપર સદેવ દેરા સાથેની
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अंगारसञ्जीवनी टीका अ १ स ११ धर्म गुरुस्वरूपनिरूपणम् १९९ नापि वा स्त्री पशु पण्डकाऽकुलाया वसताववतिष्ठते, नापि च स्त्रीसभे समुपदिशति, युद्धस्तत्वज्ञश्च सम्नहिसाधर्ममुपदिशति ।।
एतद्विपयसमाहिका गाथाश्चमा:-- जो गरइ मोरखमम्ग, हाइ समिइगुत्तिधारओ सता । सतो दतेो चाई, सरण मे सो गुरू होउ ॥ १ ॥ अदुमयविप्पमुक्को,-ऽणारभो गुत्तवभयारी जो । सावज्जजोगविरओ, सरण मे सेो गुरू होउ ॥ २ ॥ जइधम्मधारओ जो, तवसजमव परीसह जिण्णू । सत्ताविसागुणव सरण मे सेो गुरू होउ ॥ ३ ॥ जयण मुहपत्ति, सदोरग वधए मुहे निच्च ।। जो मुकरागदासो, सरण में सो गुरू होउ ॥ ४ ॥ रयहरणगोच्छ परिमिय वत्थापत्ताइधारओ जो य । छत्तोपाणवनी, सरण मे सेा गुरू होउ ॥ ५ ॥ जिणवक्षणामियसिंधू, पवणविहारी थिरा य मेरुच्च । भवियणकुमुयमसी जो, सरण मे सो गुरू होउ ॥ ६ ॥ पचमहन्वयधारी, जो उण उकायरक्खओ होइ । जो य विसुद्धाहारी, सरण मे सो गुरू होउ ॥ ७ ॥ पज्जुमिय-तकमीसिय-चणाहअन्न य मोयग जो उ। समभावेण भुजड, सरण मे से गुरू होउ ॥ ८ ॥ मियमाणजीवरक्खा,-वएमगो धम्मकजमत्तडो।
वह य पायविहारी, सरण मे सो गुरू होउ ॥ ९ ॥
१ ' अशाला च' इति नपुसक्मत्र । पूजनी रखते हैं, स्त्रीयोंका स्पर्श नहीं करते, स्त्रीयोंके सपर्क वाले स्थानमें रात्रिके समय निवास नहीं करते, स्त्री पशु पण्डक बोली वसतिमें नही ठहरते, स्त्रियोंकी सभामै उपदेश नहीं देते. बोधवान और तत्वज्ञाता होते हुए अहिंसा धर्मका उपदेश देते हैं। इस विषय की सग्रह गाथाएं इस प्रकार हैમુખવસ્ત્રિકા બાધી શખે છે જેની રક્ષાને માટે રજોહરણ અને પૂજ રાખે છે, સ્ત્રીઓને સ્પર્શ કરતા નથી, સ્ત્રીઓના સપર્કવાળા સ્થાનમાં રાત્રીને સમય નિવાસ કરતા નથી, સ્ત્રી–પશુ-પડકવાળી વસ્તીમાં રહેતા નથી, સ્ત્રીઓની સભામાં ઉપદેશ આપતા નથી, બાધવાનું અને તત્ત્વજ્ઞાતા થઈને અહિંસા ધર્મને ઉપદેશ આપે છે આ વિષયને સંગ્રહ કરવાવાળી ગાથાઓ આ પ્રમાણે છે
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उपासकदशास्त्रे झाणग्गिअप्पकत्त, स्सरमलससोरणेगणिहाओ । सन्यप्पभावपुण्णो, मरण मे सो गुरू होउ ॥ १० ॥ जो विसयजालवेढिय, भरियणरत्वावलण निच्च । परुणानिही सरणओ, सरण मे सो गुरू होउ ॥ ११ ।। घाइत्तमुत्तमपि ण, जह सोहइ वायग विणा जाउ ।
तह ज विणा सुभन्चो, सरण मे सो गुरू होउ ॥ १२ ॥ छाया-" यो गृणाति मोक्षमार्ग, भवति समितिगुप्तिधारकः शान्तः ।
क्षान्तो दान्तस्त्यागी, शरण मे स गुरुभपतु ॥ १ ॥ अष्टमदविषमुक्तोऽनारम्भी गुप्तब्रह्मचारी यः ।। सावधयोगविरतः, शरण मे स गुरुभवतु ॥ २॥ यतिधर्मधारको यस्तपःसयमवान् परोपहजिष्णुः । सप्तविंशतिगुणवान, शरण मे स गुरुभवतु ॥ ३ ॥ यतनार्थ मुखपत्री, सदोरका वनाति मुखे नित्यम् । यो मुक्तरागद्वेष , शरण मे स गुरुर्भवतु ॥ ४ ॥ रजोहरण गोच्छर परिमित वस्त्र पात्र-धारको यश्च । छनोपानहर्जी, शरण मे स गुरुभवतु ॥ ५ ॥ जिनवचनामृतसिन्धुः, पवनविहारी स्थिरश्च मेरुवत् । भषिजनकुमुदशशी य शरण मे स गुरुभवतु ॥ ६ ॥ पञ्चमहाप्रतधारी, य' पुनः पकायरक्षको भवति । यश्च विशुद्धाहारी, शरण मे स गुरुभवतु ॥ ७ ॥ पर्युपित तक्रमिश्रित, चणकाधन्न च मोदक यस्तु । समभावेन भुडक्ते शरण मे स गुरुभवतु ॥ ८ ॥ म्रियमाणजीवरक्षोपदेशको धर्माजमार्तण्ड । भवति च पादविहारी, शरण मे स गुरुर्भवतु ॥९॥ ध्यानाग्न्यात्म कात्तस्वर मलसशोधनै कनिष्णात. । सर्वात्मभावपूर्ण, शरण मे स गुरुभवतु ॥१०॥ यो विषयजाल वेष्टित, भविजनहस्तावलम्बन नित्यम् । करुणानिधि. शरणद , शरण मे स गुरुर्भवतु ॥११॥ वादित्रमुत्तममपि न यथा शोभते वादक विना जातु।
तथा य विना सुभव्य , शरण मे स गुरुभवतु ॥१२ ।।" इति । एतद्वयाख्या च मारुपतिपादितस्वरूपैव । इनका अध पूर्वोक्त प्रकार ही है। આને અર્થ પૂર્વોકત પ્રમાણે જ છે
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १ ० ११ अहिंसाव्रतवर्णनम् २.१
धर्मस्वरूपम्। धर्मः भाग-व्याख्यातस्वरूप. पूर्णदयामयमप्रवृत्तिरूपत्वादहिंसा मूलस्तीर्थकरोपदिष्टः॥
__ द्वादशवतानि (१-अणुव्रतम्-स्थूलपाणातिपातविरमणम् ) हवए थूलप्पाणाहवायओ विरमण वय पढम । दुविहा थूला हिंसा, सकप्पाऽऽरभयाभेया ॥ १ ॥
एतच्छाया च
" भवति स्यूलमाणातिपाततो विरमण व्रत प्रथमम् ।
द्विविधा स्थूला हिंसा, साल्पाऽऽरम्भनाभेदात् ॥ १॥ 'डादशे '-ति, द्वादश विधा' प्रकारा यस्य तम् , तदेव दर्शयति-'तद्यथे' -त्यादिना-त्रियतेमाप्यते सद्गतिरनेनेति नत नियम इत्यर्थः, पञ्चत्वादन व्रतानीति बहुवचनम् । अति लघूनि च तानिव्रतान्यणुनतानि, अणुत्व च महाव्रता
धर्मका स्वरूप धर्मका पहले व्याख्यान कर चुके हैं। जो पूर्ण दयामय प्रवृत्तिरूप होनेसे अहिंसा भूलक और तीर्थकर भगवान् हारा उपदिष्ट हो, वही धर्म है।
वह धर्म धारह प्रकार का है। जिससे सद्गतिकी प्राप्ति हो वह व्रत कहलाता है । जो महाव्रतो से छोटा व्रत हो उसे अणुव्रत कहते हैं। अणुव्रत पाच हैं, वे इस प्रकार है
ધર્મનું સ્વરૂપ પહેલા ધર્મનું વ્યાખ્યાન કરી ગયા છીએ જે પૂર્ણ દયામય પ્રવૃતિરૂપ હેઈને અહિંસામૂલક અને તીર્થકર ભગવાન્ દ્વારા ઉપદિષ્ટ છે, તેજ ધર્મ છે
એ ધર્મ બાર પ્રકાર છે જેથી સદ્ગતિની પ્રાપ્તિ થાય તે વ્રત કહેવાય છે જે મહાવતેથી નાનું વ્રત હોય તેને અશુવ્રત કહે છે આશુત્ર પાચ છે, તે આ પ્રમાણે –
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उपासकदशाम
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पढमा मसाइकण, इच्छाए णिरवरारिणो हिसा। पीया तसजीवाण, पुढचीखणणाहहिं अणिच्छाए ॥ १ ॥ प्रथमा मासादिकृते, इच्छया निरपराचिनो हिंसा ।
द्वितीया सनीगना, पृथिवीखननादिभिरनिच्च्या ॥ २ ॥ पेक्षया। तेषु प्रथममाह-' स्थूला'-दिति-माणातिपातात्-माणिप्राणनाशगद् चिरमण-नित्तिः इत्यमत्राशयः-स्थल मुक्ष्मभेदाद्विविधा जीवा सन्ति, तत्र स्थूला-द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रियरूपा', मूक्ष्मा:-एकेन्द्रियाः कवळ तत्वदर्शिभि शास्त्रमर्मज्ञैश्व मुज्ञाना. अत एप गृहस्थैः परिहत्तै दुःशकत्वात्साधुभि रेव परिहरणीयास्तेपा हिंसा । स्थलः माणातिपातो द्वीन्द्रियादीना हिंसन सूक्ष्मश्च केन्द्रियाणाम् । स्थूलदिसा च सकल्पनाऽऽरम्भजाभेदादविया, तन मास नख दत
(१) अणुव्रत (१) स्थूलप्राणातिपातविरमण--स्थूल हिंसासे निवृत्त होना । तात्पर्य यह कि--जीव दो प्रकार के है---(१) स्थूल (२) सूक्ष्म । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पचेन्द्रिय जीव स्यूल हैं, तथा एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म है । सूक्ष्म जीवोंको तत्त्वदर्शी और शास्त्रममा ही जान सकते है, अतः गृहस्थ उनकी हिंसाका त्याग नहीं कर सकता सूक्ष्म जीवों (एकेन्द्रियजीवों) की हिसाका त्याग साधु ही करते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि दीन्द्रिय आदि जीवोकी हिंसा स्थूल हिसा है
और एकेन्द्रिय जीवों की हिसा सूक्ष्म हिंसा है। स्थूल हिंसा दो प्रकारका है--(१) सकल्पजा और (२) आरभजा । मास, नाखून, बाल, चमडा,
(१) मानत (૧) શૂલપ્રાણાતિપાત વિરમણ-સ્થૂલ હિસાથી નિવૃત્ત થવુ તે તત્પર્ય એ છે કે-જીવ બે પ્રકારના છે (૧) સ્થલ અને (૨) સૂકમ બેઈદ્રિય ત્રાદ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પરિદ્રય જીવ સ્થલ છે તથા એકેન્દ્રિય જીવ સૂકમ છે સૂમિ જીને તત્વદશી તથા શાસ્ત્રમર્મજ્ઞ જ જાણી શકે છે, તેથી ગૃહ એ જીની હિસાને ત્યાગ કરી શકતા નથી સૂફમ જીવે (એકેન્દ્રિય જી) ની હિંસાને
ત્યાગી સાધુ જ કરે છે તાત્પર્ય એ છે કે બેઈદ્રિય આદિ જેની હિંસા ભૂલ હિંસા છે અને એકેન્દ્રિય જીવોની હિસા સૂરમ હિસા છે સ્થલ હિસા બે પ્રકારની छे-(१) स४६५ मन (२) मा२म भास, नभ, वाण, याम भने sisal
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ सू० ११ धर्म० अहिंसात्र तवर्णनम्
" इति ।
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छड्डति तत्थ पढम, सड्डा वीया उ दूसगा चढउ । इच्छाए किसियाड, कज्जइ जेण गित्येहिं ॥ ३ ॥ त्यजन्ति तत्र प्रथम श्राद्धाः, द्वितीया तु दुःशका त्यक्तुम् । इच्छया कृप्यादि क्रियते येन गृहस्थैः ॥ ३ ॥ इति । रोम-चर्मा स्वयादिकृते निरपरापस्य प्राणिन इच्छया हनन सकल्पजा हिंसा, रथचक्रा दिभ्रमणेन हल- कुंदारादिकरण भूसननादिना च किमि मत्कोटवादेरनिच्छापूर्वकमगत्या हनन चाऽऽरम्भजा । एनयो सम्ल्पजा हिंसामाजीवन श्रमणोपासकाः परित्यजन्ति, करणयोगमर्यादा चेह यथेच्छमस्ति । आरम्भजा हिंसा तु गृहस्थैः परिहत्तदशका, गृहनिर्माण-कृषिकर्मादि सम्पादनमन्तरेण गार्हस्थ्यस्यासम्भवात्तेषु च तस्या अवश्यम्भावात् ।
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८
१ कुदाला ' इति भाषा |
और हड्डी आदिके लिए निरपराध प्राणियोंका इन्जपूर्वक हनन करना सकल्पजा हिंसा है । रथके पहिए अथवा रथ और चाक आदिके चलनेसे, और हल तथा कुदाल आदि द्वारा जमीन खोदनेसे, कीडी मकोडी आदिका चिन इच्छा के घात हो जाना आरभजा हिमा है । श्रावक दोनो प्रकार की हिसामेंसे आजीवनके लिए सकल्पी हिंसा का त्याग करते ह ? हाँ, करण और योग की मर्यादा उनकी इच्छा पर निर्भर है, अर्थात् कोई श्रावक एक करण एक योगसे, कोई दो करण ढी योग से या इच्छाके अनुसार अन्य प्रकारकी मर्यादासे त्याग करते हैं, किन्तु श्रावक आरभजा हिंसाका त्याग नहीं कर सकते । घर बनाये और खेती वाडी आदि कार्य किये बिना गृहस्थ जीवनका આદિને માટે નિરપરાધી પ્રાણીઓને ઇચ્છાપૂર્વક ઘાત કબ્વા એ સત્લા હિંસા છે “થના પૈડા અથવા રથ અને ચાક આદિ ચાલવાયી, અને હળ તથા કાંદાળી આદિ વડે જમીન ખેદવાથી, કીડી-મકેાડી આદિને ઇચ્છાવિના ઘાત થઇ જાય એ આરભ મિા છે, શ્રાવણી બેઉ પ્રકારની હિમામાથી માછવનને માટે સકલ્પ હિંસાને ત્યાગ કરે છે ? હા, કણુ અને ચેગની મર્યાદા એની ઇચ્છા પર નિર્ભર છે, અર્થાત્ કાઇ શ્રાવક એક કરણ એક ચેગથી, કેાઈ એ કચ્છુ બે ટૈગથી અથવા ઈચ્છાને અનુસરી અન્ય પ્રકારની મર્યાદાએ કરીને ત્યાગ કરે છે, પરન્તુ શ્રાવક આર ભજા હિંસાના ત્યાગ કરી શકતે નથી ધર બનાવ્યા વિના અને ખેતી-વાડી આદી કાર્ય કર્યાં વિના ગૃહસ્થ જીવનના નિર્વાહ થવા અસવિત છે અને એ કાર્યામા હિંસા અનિવાય છે- અવશ્ય થાય છે
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उपासकदशास्त्र (२-अणुनतम् -स्थूलमपारादपिरमणम् ) यूलमुसावायाओ, वेरमण बुचए वय यीय । एयपि सुहम धूल प्पमेयी दुप्पगार च ॥ १ ॥ पयलाइओवी पुट्टो, वयह-'ण पयलाइओमि' इय ज त ।
सुटुम धूल चले, पत्थुम्मि असचभासण णेय ॥ २ ॥ एतच्छाया च
" स्थूलमपापादाद्विरमणमुच्यते व्रत द्वितीयम् । एतदपि सूक्ष्म स्थूल प्रभेदतो द्विप्रकार च ॥१॥ नन्वेव सम्ल्पजहिंसामानपरित्यागेनाऽहिंसक्श्चेत्सभाति तदा कथमसी स्थू लानामेव माणिनामहिसक ,न ह्यसाविच्छया सूक्ष्मानपि माणिनो हिनस्ति तस्मादनन सर्वमाण्यहिंसकेन भाव्यमितीह मथमे व्रते स्यूल पद रिमर्थम् ? इति वेणु गृहस्थो हीच्च्यैव पृथिव्यादीन्युपभुक्ते तस्मात्सकल्पजाया मूक्ष्महिंसायानिस्ता न जातु शक्नोतीति प्रागुक्तमेवेति प्रथममणुव्रतम् ॥ १ ॥ निर्वाह होना असम्भव है और इन कार्यों में हिसा अनिवार्य हैअवश्य होती है।
शका-यदि सकल्पी हिसाका त्याग करनेसे ही हिंसाके त्यागी हो सकते है, तो श्रावकको स्थल प्राणियोकी हिंसाका त्यागी क्या कहते है ? वह इच्छापूर्वक तो सूक्ष्म प्राणियोंकी भी हिंसा नहीं करता, इसलिए स्थूल-सूक्ष्म सभी प्राणियोंकी हिंसाका त्यागी मानना चाहिए। फिर पहले व्रतमे 'स्यूल' पदकी क्या आवश्यकता थी?
समाधान-सुनो । गृहस्थ पृथ्वीकाय, हरितकाय आदिको इच्छा पूर्वक ही भोगता है, इसलिए वह सूक्ष्म सकल्पी हिसासे नहीं बच सकता । यह बात पहले कह चुके है ॥१॥
શ કા–જે સક૫જા હિસાનો ત્યાગ કરવાથી જ હિંસાના ત્યાગી શકાય છે, તે શ્રાવકને લ પ્રાણીઓની હિંસાનો ત્યાગી કેમ કહે છે ? ઈછાપૂર્વક સૂફમ પ્રાણીઓની પણ હિસા નથી કરતે, માટે સ્થલ સૂફમ પ્રાણીઓની હિંસાને ત્યાગી માને જોઈએ તે પછી પહેલા વ્રતમા “સ્કૂલ” પદની શી જરૂર હતી ?
સમાધાન-સાભળે ગૃહસ્થ–પૃથ્વીકાય, હરિતકાય આદિને ઈચ્છાપૂર્વક જ ભગવે છે, માટે તે સૂક્ષ્મ સ૫જા હિસાથી બચી શકતા નથી એ વાત પહેલા કહી ગયા છીએ ! ૧ |
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अगारसञ्जीवनी टीका अ १ सू ११ सत्यव्रतवर्णनम्
थूलाई पच कन्ना पुढवी-गो नास-कूडसक्खाइ । तत्थ य कनालीय, कन्नाए दूसण वुत्त ॥ ३ ॥ पुढवी अलीयमेय, पुढवीए ज वयण्णहाकरण ।
गोगययाइविसए, विवरीय खावण गवालीय ॥ ४ ॥ प्रचलायितोऽपि पृष्टो, वदति न प्रचलायितोऽस्मीति यत्तत् । सूक्ष्म, स्थल स्थूले वस्तुन्यमत्यभापण ज्ञेयम् ॥२॥
स्थूलानि पञ्च कन्या पृथिवी गो न्यास कूटसाक्ष्याणि । तत्र च कन्यालीक, कन्याया दूपणमुक्तम् ॥ ३ ॥ पृथिव्यलीकमेतत्पृथिव्या यत्तदन्यथाकथनम् ।
गोगजयादिविपये, विपरीत रयापन गयालीयम् ॥ ४ ॥ द्वितीय व्रत ब्रूते-'स्थूलामृपावादादिति-मृपा मिथ्या वादा भापण मृपा चादस्तस्मात्-अनृतभापणादित्यर्थः, विरमण-नित्तिः । अनृतभाषणमपि द्विविधसूक्ष्म स्यूल च, तत्र सूक्ष्म-मित्रादिना सह सलापादौ विनोदाद्यर्थ, यद्वा दिवा नि द्रालु. कश्चित्सावधानीकत्तं पृष्टः-कि भो । अनवसरेऽपि प्रचलायसे " इति, तदा तदुत्तरे-'नाह प्रचलायितोऽस्मी'-त्यादिरूपमसत्यभापण प्रथमम् । स्यूले वस्तुनि दुरम्यवसायेन असत्यभापण द्वितीयम् । एतच्च कन्या-भूमि गोन्यास कूट
(२) द्वित्तीय व्रतका वर्णन । स्थूल मृपावादसे विरमण होना द्वितीय अणुनत है । मृपावाद भी दो प्रकारका है-(१) सूक्ष्म और (२) स्यूल । मित्र आदिके साथ मनोरजनके लिए असत्य भापण करना, अथवा कोई दिनमें बैठा २ नीद ले रहा हो
और दूसरा उसे सावधान करने के लिए कहता-"क्यो जी बेमौके भी नीद लेते (ऊँघते) हो ?" तो वह उत्तर देता है-"नही, ऊंघ नहीं रहा है। इस प्रकारका भापण सूक्ष्म मृपावाद है। स्यूल वस्तु में खोटे परिणामोसे अमत्य बोलना स्थूल मृपावाद है । यह पाच प्रकारका है
(૨) બીજા વ્રતનું વર્ણન સ્થૂલ મૃષાવાદથી વિરમણ થવુ એ બીજુ આણુવ્રત છે મૃષાવાદ પણ બે પ્રકારનો છે (૧) સૂક્ષ્મ અને (૨) સ્થલ મિત્ર આદિની સાથે મનેર જનને માટે અસત્ય ભાષણ કરવું અથવા કેઈ માણસ દિવસે બેઠે બેઠે ઉઘ લઈ રહ્યો હોય અને બીજે તેને સાવધાન કરવાને માટે કહે કે “કેમ ભાઈ ! કળાએ પણ ઉઘ છે કે ?” તે એ ઉત્તર આપે છે “ના, ઉ ઘતે નથી ”, એ પ્રકારનું ભાષણ સૂમ મૃષાવાદ છે, સ્કૂલ વસ્તુમાં ખેટ પરિણામેથી અસત્ય બોલવું એ સ્થલ
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उपासकदशास्त्रे
हेमाईण निभिट्ठवण वीसासपुव्वग नासो । तरिंस ज अचलवण, त नासालीयमागमे भणिय ||५||
हेमादीना निभृतस्थापन विश्वासपूर्वक न्यासः । तस्मिन् यदपलपन तन्न्यासालीकमागमे भणितम् ॥ ५ ॥ साक्ष्याणा विषयाणा भेदात्पञ्चविधम्, कुलशीलरूपादिसपनायामदूषिताया क्न्या या दोषारोपण, कुलादिनिक्लत्वेन च दूषिताया तस्या दोषाभावख्यापन कन्या लीकम्, न्याशन्दोऽन मनुष्यमानोपलक्षण | भूर्मायुरायामनुर्वरात्वस्यानु राया चोर्वरात्त्रस्य तथा बहुमूल्यायामल्पमूल्यात्वस्याल्पमूल्याया च बहुमूल्या स्वस्यख्यापन भूम्यलीकम् भूमिपदेनाप्युपलक्षणत्वात्सचित्ताना फलादीनामचि ताना सुवर्णादीनाच ग्रहण नोध्यम् । गवाश्वमहिपीभृतिषु चतुष्यदेषु प्रशस्तेष्व १ गोपदस्याप्युलक्षणत्वात् ।
(१) कन्यासबन्धी, (२) भूमिसबन्धी, (३) गोसन्धी, (४) न्यास (धरो हर) सबन्धी, (५) झूठी साक्षी देना ।
(१) कुल, शील, रूप आदिसे युक्त निर्दोष कन्याको दूषित ठहराना, और कुल आदिसे रहित दूषित कन्याको निर्दोष कहना कन्यालीक है । यहा 'कन्या' शब्दसे मनुष्य मात्रका, उपलक्षणसे ग्रहण होता है ।
(२) उपजाऊ जमीनको अनुपजाऊ कहना और अनुपजाऊको उप जाऊ कहना, कम - मूल्यवालीको बहुमूल्य करना और बहुमूल्यको कम मूल्यवाली कहना भूमि अलीक है । यहा भूमि शब्द भी उपलक्षण है, इसलिए भूमि शब्दसे सचित्त फल आदिका और अचित्त सुवर्ण आदिका ग्रहण करना चाहिए ।
भूषावाह छे से पाय प्रारतो हे (१) उन्या-समधी, (२) भूमि-साधी, (3) गाय वगेरे समधी, (४) थापाय - समधी, (५) भूही साक्षी यायची
(१) स, शील, ३५, खादीथी युक्त निर्दोष उन्याने दूषित उरावपी, भने ब આદિથી રહિત દૂષિત કન્યાને નિર્દોષ કહેવી તે કન્યાલીક છે અહીં કન્યા શબ્દથી મનુષ્ય માત્રનુ, ઉપલક્ષણે કરીને ગ્રહણ થાય છે
(૨) કસદાર ( સારા પાક ઉગી શકે તેવી) જમીનને કસ વિનાની કહેવી અને ીનકસદાર જમીનને કસદાર કહેવી, ઓછા મૃત્યવાળીને માઘા મૂલ્યવાળી કહેવી અને માધા મૂલ્યવાળીને એછા મૂલ્યવાળી કહેવી, એ ભૂમિ--અલીક છે અહી ભૂમિશબ્દ પણ ઉપલક્ષણ છે, માટે ભૂમિ શબ્દથી સચિત્ત ફળ આદિનુ અને ઋચિત્ત સુવર્ણ આદિનું ગ્રહણ કરવુ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ सू ११ धर्म. सत्यत्रतवर्णनम्
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ज जम्हा कम्हाइय घेत्तणुक्कोयमण्णा भणइ | त वह कूडसक्खा, -लीय जिणसामणे समुबइ ॥ ६ ॥
यद्यस्मात्कस्माच्चिच, गृहीत्वोत्कोचमन्यथा भणति । तद्भवति कूटसाक्ष्यालीक जिनशासने समुपदिष्टम् ॥ ६ ॥ प्रशस्तत्वस्यापास्तेषु च प्रशस्तत्वस्य, तथा प्राग्यबहुमूल्येप्पल्पमूल्यत्वस्याल्पमूल्येषु च वष्टुमृल्यत्वस्य यद्वा चमुक्षीरास्वल्पक्षीरात्वस्यात्पक्षीरासु च बहुक्षीरात्वस्य रयापन गवालीकम् । निष्क-रूप्यक हिरण्य रजत वस्त्र धान्यादीना कस्यचिद्विश्वस्तस्थ पुरुषस्य सविधे निभृत स्थापन न्यासस्तद्विषये यन्मिथ्याभाषणनाह जानामि तत्रस्तु कदा त्व महामनाः १ कः साक्षी ?" इत्यादिरूप तन्न्यासालीकम् | कस्यचिदपकारबुद्धया च यम्मात्कस्माच्चिदुपदामादाय - 'अहमनोप
(
(३) गाय, घोडा, भैस आदि चौपायों मे जो प्रशस्त हो उन्हें अप्रशस्त कहना और जो अप्रशस्त हो उन्हे प्रशस्त कहना, तथा पहले की तरह अल्पमूल्यवालों को बहुमूल्य और बहुमृल्योको अल्पमूल्य वाला कहना, अथवा अधिक दूध देनेवाली गोको कम दूध देनेवाली कहना, और कम दूध देनेवालीको अधिक दूध देनेवाली कहना गो-अलीक है ।
(४) किसी विश्ववासपात्र पुरुषके पास मुहर, रुपया, सोना, चादी, वस्त्र, धान्य आदि रख देनेको न्यास या धरोहर कहते हैं । उसके विषय में मिथ्याभापण करना न्यास - अलीक है । जैसे -"मै तुम्हारी वस्तु नही जानता, तुमने मुझे कब दी थी ? बताओ कौन साक्षी - ( गवाह ) है ?" इत्यादि ।
( 3 ) गाय, घोडा, लेश माहि योपगामा ने प्रशस्त ( सारा ) होय तेमने અપ્રશમ્સ ( નઠારા) કહેવા અને જે અપ્રશત હાય તેમને પ્રશન્ત કહેવા, તથા પહેલા સુજખ એછા મૃત્યવાળાને મેઘા મૃલ્યવાળા અને મેઘા મૃત્યવાળાને આછા મૂલ્યવાળા કહેવા, અથવા વધારે દૂધ દેનારી ગાયને ઓછુ દૂધ દેનારી કહેવી અને ઓછુ દૂધ દેનારીને વધુ દૂધ દેનારી કહેવી એ ગે-અલી
(४) अध विश्वासपात्र चु३षनी पासे महोरो, ३पिया, सोनु, ३५, वस्त्र, धान्य ઞાદિ અનામત મૂકવા એ થાપણ કહેવાય છે તેના સખધમા મિથ્યાભાષણ કરવુ એ न्याय-असी ( थापा भोसो ) छे नेभड़े - "भने तारी वस्तुनी अमर नथी, ते भने हयारे भाथी हुती ? अडे, आयु तेनेो साक्षी छे ?" इत्याहि
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
एव पचविहस्स य, धूलमुसाभासणस्स सचाओ । जो दोहिं करणेहिं जोएहिं तीहि त वय बीय ||७|| इति । ( ३- अणुव्रतम् - स्थूलादत्तादानविरमणम् ) दुविमदिन्नादाणा, वेरवण पीर वह पुण्व व । सुम दुग्भावेण, हरण तण सक्कराइयाण ज ॥ १ ॥
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एव पञ्चविधस्य च, स्थूलमृपाभापणस्य सत्यागः । यो द्वाभ्या करणाभ्या योगेस्त्रिभिस्तद् व्रत द्वितीयम् || ७ ||" इति । एतच्छाया च—
" द्विविधमदत्तादानाद्विरमणपीड भवति पूर्ववत् । सूक्ष्म दुर्भावेन हरण व्रणशर्करादीना यत् ॥ १॥
स्थित आस ममाग्रे सर्वमिद जात युक्तमय वक्ती' - त्यादिरूपेण, यद्वा करिमँश्रि निस्पराधेऽपि - 'अयमीदृशोऽपराधी सर्वमेतस्य चरितमह जानामि, एनेन तदाच रित यत्सर्वथैवानाचरणीयम् ' इत्यादिरूपेण मिथ्याभाषण कृटसाक्ष्यालीकम् । अस्य पञ्चविधस्य स्थूलमृपावादस्य द्वाभ्या करणाभ्या नियोगैश्व परित्यागः स्थूलमृपावाद विरमण मिति तु पिण्डितोऽर्थ ॥२॥
(५) "मैं उस वक्त वहाँ मौजूद था, यह सब बातें सच्ची-सच्ची कह रहा है, मेरे सामने ये सब बातें हुईं थी । " इस प्रकार किसीका अप कार करने के अभिप्रायसे या घुस लेकर झूठी गवाही देना कूटसाक्षी है । अथवा यह ऐसाही अपराधी है, मै इसकी सब करतृतें जानता हूँ, इसने ऐसा काम किया जो किसी भी तरह नही करना चाहिए । इस प्रकार झूठ बोलना कूट- साक्षी है ।
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इस स्थूल - मृपावादका दो करण तीन योगसे त्याग करना स्थूलमृषावादविरमण त कहलाता है ||२||
(૫) “હુ એ વખતે ત્યા હાજર હતા, એ બધી વાતે સાચી કહે છે, મારી સામે એ ખધી વાત થઇ હતી ” એ પ્રમાણે કાઈનેા અપકાર કરવાના હેતુથી, અથવા લાચ લઈને જૂડી જીમાની આપવી તે જૂઠી સાક્ષી છે અથવા “ એ એવા જ અપરાધી છે, હુ એના બધા કરતૂત જાણુ છુ, એણે એવુ કામ કર્યું છે કે જે કોઈ પણ રીતે न ४२५ धये ” से प्रभारी नूहु मोलवु मे ईट-साक्षी (दुडी शाम) छे
આ સ્થૂલ મૃષાવાદના એ કરણ અને ત્રણ વેગે કરીને ત્યાગ કરવા એ સ્થૂલમૃષાવાવિમરણુ વ્રત કહેવાય છે ॥ ૨ ॥
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ स्. ११ धर्म० अस्तेयत्रतवर्णनम्
धूल तेयाहरण, हेमाईण परेसिं ज । पूल पि दुप्पगार, वृत्तमचित्त सचित्त च ॥ २ ॥ पढम चत्थाईण, सुन्नत्थाईणमवहरण |
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धीय गवाइयाण, सुन्नात्थईणमवहरण ॥ ३ ॥ एव दुविहस्सम्सा, इदिन्नादाणस्स सपरिच्चाओ । जो दोहिं करणेहिं, जोएहि तीहि त वय तोय || ४ || इति ।
स्थल स्तेयाहरण हेमादीना परेपा यत । स्थूलमपि द्विमकारमुक्तमचित्त सचित्त च ॥ २ ॥ प्रथम वस्त्रादीना सुन्यस्तादीनामपहरणम् । द्वितीय गवादीना सुन्यस्तादीनामपहरणम् ॥ ३ ॥ एव द्विविधस्यास्याऽदत्तादानस्य सपरित्यागः ।
यो द्वाभ्या करणाभ्यां योगैस्त्रिभिस्तद् नत उत्तीयम् ||१४||" इति ।
अथ तृतीय व्रतमाह-- 'स्थूलाददत्तादाना' - दिति, नदत्तमदत्तमर्थाद्वस्तुस्वामिना• sदत्त, तस्याऽऽदान ग्रहणमदत्ताऽऽदान तस्माद् विरमणमिति पूर्ववत्, एतदपि प्राग्वदद्विधा - तत्रास्वामिकाना तृणशर्करादीनामदुर यवसायपूर्वेक ग्रहण सूक्ष्मम्, यद्ग्रहणेन चौर्यापराधो लगितु शक्नोति तादृशस्य कस्यचित्परकीयस्थ सुवर्णादेर्वस्तुन आत्मसात् ग्रहण स्थूलम् । एतच्च सचित्ताचित्तभेदाद्विविध, तयो. सचित्ता(३) तृतीय व्रतका वर्णन
जिस वस्तुका जो स्वामी है उसके द्वारा दिये विनाही उसे ग्रहण कर लेना अदन्तादान है, उससे निवृत्त होना अदत्तादानविरमण व्रत है । अदत्तादान भी सूक्ष्म और स्थूल के भेदसे दो प्रकारका है । जिनका कोई स्वामी नही है ऐसे तृण शर्करा (ककर) आदिका बुरे अभिप्राय के विना ग्रहण करना सूक्ष्म अदत्तादान है, और जिसके ग्रहण करने से चोरीका अपराध लग सकता है, ऐसे दूसरेसे सुवर्ण आदि पदार्थों का ग्रहण करना स्थूल अदत्तादान है । यह दो प्रकारका है- (१) सँभाले हुए ત્રીજા વ્રતનુ વર્ણન
અદત્તાદાન
જે વસ્તુના જે માલીક છે, તેણે આપ્યા વિના તે વસ્તુ ગ્રહણ કરી લેવી એ અદત્તદાન છે, તેનાથી નિવૃત્ત થવુ એ અદત્તાદાનવિરમણુ ન છે પણ સૂમ અને સ્થૂલના ભેદે કરીને બે પ્રકારનું છે જેને કાઈ માલીક નથી એવું પ્રાસ, કાકરા, વગેરેને ખરાબ હેતુ વિના ગ્રહણ કરવા એ સૂક્ષ્મ અદત્તાદાન છે, અને જે ગ્રહણ કરવાથી ચારીના અપરાધ લાગે, એવુ ખીજા કાર્બનુ સેનુ વગેર પાર્થાનુ મણ કરવુ, એ સ્થૂલ અદત્તાદાન છે એ બે પ્રકારનું (१) अ भाजता,
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उपासकदवारले (४-अणुव्रतम्-स्वदारसन्तोपः) पिउपभिइ पहजागा, सहसा दार ति जे खु ते दारा । तेहि जो परितोसो, पुच्चइ एसो सदारसतोसो ॥ १ ॥ एतच्छाया चपिवप्रभृति पतियोगात्सहसा दारयन्ति ये खलु ते दाराः।
तैर्यः परितोप उच्यते एप स्वदारसन्नोपः ॥ १ ॥ दत्तादान-परकीयाणा मन्यस्त दुर्व्यस्त विस्तृत सघातागतादिगोमहिप्यादीना सचि तानामपहरणम् । अचित्तादत्तादान च-परसीयाणा सुन्यस्त दुन्यस्त विस्मृताना वासोरथसुवर्णादीनामचित्तानामपहरणम् । एनयोः सचित्ताचित्तयोद्धाभ्या कर णा-या त्रिभिर्योगैश्च परित्यागः-स्थलादत्ताऽऽदानविरमणम् ॥ ३ ॥ __अथ चतुर्थे व्रतमाह-'स्वदारसन्तोप' इति, दारयन्ति-पतिसवन्धन पर भ्रानादिस्नेह भिन्दन्तीति दारा, स्वस्य आत्मन दारा यथाविधिपरिणतिा: या न संभाले हुए, विस्मृत, या समूहमे आये हुए गाय, भस आदि सचित्त पदार्थोंफा अपहरण करना सचित्त अदत्तादान है। (२) सभाल कर रखे हुए, विना सँभालके रखे हुए या विस्मृत वस्त्र रथ सुवर्ण आदि अचित्त पदार्थों का अपहरण करना अचित्त अदत्तादान है। इन सचिन और अचित अदत्तादानका दो करण तीन योगसे त्याग करना स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत्त है ॥ ॥
(४) चतुर्थवतका वर्णन पतिके साथ सबंध जोडकर, पिता, भाई आदिके सबन्धको जा दारण कर देति है-उन्हे दार कहते है । विधिपूर्वक विवाहित स्त्रीका યા ન સ ભાળતા, ભૂલાઈ (વાઈ) ગએલા યા ટેળામાં આવેલા ગાયઆદિ સચિત્ત પદાર્થોનું અપહરણ કરવું સચિત અદત્તાદાન છે (૨) સંભાળ રાખેલા કે સ ભાળ્યા વિના રાખેલા, ખવાઈ ગએલા, વસ્ત્ર રથ, સુવર્ણ આદિ અચિત્ત પદાર્થોનું અપહરણ કરવું એ અચિત્ત અદત્તાદાન છે એ સચિત્ત અને અચિત્ત અદત્તાદાનને બે કરણ ત્રણ વેગે કરીને ત્યાગ કર એ સ્થૂલ અદત્તાદાનવિમરણુવ્રત છે કે ૩ છે
(४) व्याथा प्रतनु पर्जुन પતિની સાથે સબંધ જોડીને, પિતા ભાઈ આદિના સ બ ધને જે દારણ કરી નાખે છે, તેને દાર કહે છે વિધિપૂર્વક વિવાહિત સ્ત્રીને સ્વદાર કહે છે સ્વદારમાં જ
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__ भगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ११, धर्म० स्वदारसन्तोपत्रतम् २११
तम्हा कन्ना-वेस्सा,-परइत्थीणं सयेव सचाओ। फलिओ परिसखाए, परपडिसेहा सदारसद्देणं ॥ २ ॥ परिणीया विहिपुन्व, जा सेव हि दारसइओ बच्चा । तत्थ य 'स'-पया चाओ, कन्ना वेस्सा परत्थीणं ॥ ३ ॥ तेण कयकीयाण, सुकुसोयाडहिं णीयाणं । सम्वेसिं पडिसेहो, वियकवणेहिं सय विवित्त वो ॥४॥ तस्मात्कन्या-वेश्या परस्त्रीणा सदैव सत्यागः । फलितः परिसख्यया परप्रतिषेधात्स्वदारशब्देन ॥२॥ परिणीता विधिपूर्व या सैव हि दारशब्दतो वाच्या । तत्र च 'स्व'-पदाच्यागः कन्या वेश्या परस्त्रीणाम् ॥ ३ ॥ तेन क्रयक्रीताना, शुल्कोत्कोचादिभिश्व नीतानाम् ।
सर्वासा प्रतिषेधी, विचक्षणः स्वय विवेतन्यः ॥ ४ ॥ स्वदारास्तैराभिजपत्नीमात्रेण सन्तोप. स्वदारसन्तोपः-परस्त्रीवेश्यादितः सर्वथा विरमणमिति तु फलितोऽर्थः ।
ननु क्रयक्रोता वेश्या कन्यकादयोऽपि स्वदारा एव स्वाधीनीकृतत्वेन पत्नीत्वाविशेषादिति चेद्वन्त विभ्रान्तोऽसि, गजनिमीलिकया शृङ्गपुन्छयोरेकी करणस्वदार करते है । स्वदारमें ही सन्तोप होना स्वदार सन्तोष कहलाता है। अर्थात् परस्त्री-वेश्या आदिसे मर्पधा निवृत्त होना और धर्मपत्नी में ही सन्तोष रखना स्वदार सतोष व्रत है।
शका-कीमत देकर खरीदी हुई वेश्या कन्या आदिभी स्वदार है क्योकि उन्हें अपने अधीन कर लिया है, इसलिये उन्हे भी पत्नी मानना चाहिए।
समाधान- खेद है, तुम्हे भ्रम हो गया । तुम आँखे मीचकर सींग और पूछको एक कर रहे हो, भगवानके अभिप्रायका विचार नहीं તેષ રાખવે એ સ્વદાર–સતેષ કહેવાય છે અર્થાત્ પરસ્ત્રી–વેશ્યા થવું અને ધર્મપત્નીમા જ સતેજ રાખવે, એ સ્વદાસ તેષ વ્રત છે
શ કાકી મત આપીને ખરીદેલી વેશ્યા કન્યા આદી પણ સ્વદાર છે કારણકે તેના પિતાને અધીન કરી લેવામાં આવી હોય છે, માટે એને પણ પત્ની માનવી જોઈએ
સમાધાન-દિલગીરીની વાત છે કે તમને છમ થઈ ગયેલ છે તમે આ મીંચીને શીગડા–પૂછડાને એક કરી રહ્યા છે અને ભગવાનના અભિપ્રાયને
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उपासकर्दशास्त्र मवृत्तत्वेन भगवतात्पर्यपर्यालोचनौधुर्यात्, दारशब्दो हि मागुक्तव्युत्पन्या यथा विधिपरिणीतायामेव स्त्रिया पूर्तते, सफलकाव्यकोपाभिधानादिषु तथैवोपरम्भात्। क्या चाऽमरे
"पत्नी पाणिगृहिीती च, द्वितीया सर्मिणी । __ भार्या जायाऽथ पु-भूम्नि दाराः" इति,
"दारेषु च गृहाः" इति च “निभुवननयलक्ष्मीमेंथिली वस्य दाराः" इति रामायणे, " स्त्रदारनिरतश्चैव" इति मनुस्मृति याज्ञवल्क्ययोच, एवं अन्दकल्पद्रुमादावापि, तस्मादारपदेन यधाविधिपरिणीताया ग्रहणाद्वेश्याकन्यादाना, स्वपदेन च यथाविधिपरिणीताया अपि स्वधर्मपत्न्या एवं ग्रहणात्परस्म्यादीना मतिषेधोऽवगन्तव्यः । इयमेव परिसहख्येत्याहुस्तथा चोक्तम्
"विधिरत्यन्तमप्राप्ती, नियमः पाक्षिके सति ।
तत्र चान्यन्त्र च प्राप्ती, परिसख्या निगद्यते ॥" इति । करते । पहले 'दार' शब्दकी जो व्युत्पत्तिकी है, उससे सिद्ध है कि 'दार' शन्दका प्रयोग विवाहिता स्त्रोके लिए ही होता है । सब कोन्यों तथा कोषों आदिमें भी ऐसाही प्रयोगा पाया जाता है। इसलिए 'दार' शन्दसे विध-पूर्वक विवाहित पत्नीका ग्रहण होता है, अत. वेश्या और कन्याका निषेध समझना चाहिए । तथा 'स्व' पदसे अपनी पत्नीका ही ग्रहण होता है इसलिये यथाविधविवाहित होने पर भी परस्त्रीका निषेध सिद्ध होता है । इसीको परिसख्या कहते है । कहा भी है
__ "जो अर्थ किसी वाक्यसे प्राप्त न हो-अर्थात जिसका कहीं पहले विधान न किया गया हो तब विधि होती है । जय पक्षमें (विकल्प
१ कान्य कोष आदिके नाम सस्कृत टीकामें देखलेवे। વિચાર કરતા નથી પહેલા દાર શબ્દની જે વ્યુત્પત્તિ કરી છે, તેથી સિદ્ધ થાય છે કે દાર શબદને પ્રગ વિધિપૂર્વક વિવાહિતા સ્ત્રીને માટે જ થાય છે બધા કાવ્ય તથા કે આદિમા પણ એ જ પ્રાગ માલમ પડે છે માટે “દાર' શબ્દ કરીને વિધિપૂર્વક વિવાહિત પત્નીનું ગ્રડ થાય છે, તેથી વેશ્યા અને કન્યાને નિર્ણય સમજ જોઈએ વળી “વ' શબ્દથી પોતાની પત્નીનું જ ગ્રહણ થાય છે, માટે યથાવિધિ વિવાહિત થયા છતા પણ પરસ્ત્રીને નિષેધ સિદ્ધ થાય છે એને પરિસ ખ્યા કહે છે
૨ જ અર્થ કોઈ વાક્યમાથી પ્રાપ્ત ન થતો હોય અર્થાત્ જેનું કયાય પહેલા વિધાન ન કરવામા આવ્યું હોય ત્યારે વિધિ થાય છે જે પક્ષમાં (વિક રૂપે કરીને)
+ કાવ્ય કવિ આદિના નામ સરસ્કૃત ટીકામાં જોઈ લેવા
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जगारसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ११ धर्म स्वदारसन्तोपव्रतम् २१३ ___ "एकस्यानेकत्र प्रसक्तम्यान्यतो निवृत्त्यर्थमेकत्र पुनर्विधान परिसख्ये" ति हि तल्लक्षणमित्येव चैकस्य-विपयभोगस्याने कत्र=स्वस्त्री-परस्त्यादौरागतःमसकस्य-प्राप्तस्यान्यता परस्त्र्यादितो निवृत्यर्थम् , एकत्र यथाविधिपरिणीतायास्व. परल्या पुनर्विधान 'स्वदार'पदेन प्रतिपादनमस्तीति मस्फुट घटते। परिसग्च्या, यया
" सेवनीयो वीतरागो, दर्शनीय च तत्पदम् ।
सपादनीय ज्ञानादि, श्रवणीय च तवचः ॥" इति । एतयोक्त्या हि वीतरागव्यतिरिक्तस्य सेवनादेनिषेधः पर्यवसीयत इत्यलमतिप्रसङ्गन, प्रकृतमनुसरामरुपसे) प्राप्त हो तर नियम होता है । जो एक स्थान पर प्राप्त हो भौर साथही अन्यत्र भो प्राप्त हो तय परिसख्या होती है ॥"
"जर एक अर्थ अनेक स्थलों पर पाप्त हो तो अनेक स्थलोंसे निवृत्त करके फिर एक स्थल परही उसका विधान करना परिसख्या है, यह इसका लक्षण है । प्रकरणमें इस प्रकार समझना-एक विपय-भोग, स्वस्त्री -परस्त्री आदि अनेक स्थलों में प्राप्त था, अतः दूसरे-परस्त्री आदि स्थलोंसे निवृत्त करनेके लिए एक स्थान अर्थात् विधिपूर्वक विवाहित स्वधर्मपत्नीमें 'स्वदार'पदसे विधान करना, यहीपरिसख्या है। जैसे__ "वीतराग भगवानकी भक्ति करने चाहिए, उनका दर्शन करना चाहिए।ज्ञान आदि प्राप्त करना चाहिए और उनके वचन सुनने चाहिए।" .. इस वाक्यमें वीतरागकि भक्ति आदिका विधान है इसलिए उनसे. પ્રાપ્ત થાય તે નિયમ થાય છે જે એક સ્થાન પર પ્રાપ્ત થાય અને તે સાથે અન્યત્ર પ્રાપ્ત થાય તે પરિસ ખ્યા થાય છે?
“જે એક અર્થ અનેક સ્થળોએ પ્રાપ્ત થાય તે અનેક સ્થળેથી નિવૃત્ત કરીને પછી એક સ્થળે જ એનુ વિધાન કરવું એ પરિસ ખ્યા છે' એ એનું લક્ષણ છે. પ્રકરણમાં આ પ્રમાણે સમજવુ –એક વિષય-ભેગ, સ્વી–પી આદિ અનેક સ્થળેમાં પ્રાપ્ત હય, માટે બીજી પરસ્ત્રી આદિ સ્થળેથી નિવૃત્ત કરવાને માટે એક સ્થાન અર્થાત વિધિપૂર્વક વિવાહિત સ્વધર્મપત્નીમા “સ્વદાર” પદે કરીને વિધાન કરવું, એ પરિસ ખ્યા છે જેમકે
“વીતરાગ ભગવાનની ભકિત કરવી જોઈએ એમનું દર્શન કરવું જોઈએ, જ્ઞાન આદિ પ્રાપ્ત કરવા જોઈએ અને એમના વચન સાંભળવા જોઈએ.”
આ વાક્યમાં વીતરાગની ભકિત આદિનું વિધાન છે, માટે તેનાથી ભિન્ન સરગીની ભકિતને નિષેધનું તાત્પર્ય પ્રકટ થાય છે હવે મૂળ વાત એ છે કે –
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ओरालियtसरुवा, एवमणोरालियस्सरूवा य ।
इय दुविहा परइत्थी, आगमसिद्धत्थि तस्थ पदमा उ ॥ ५ ॥ माणुस तिरियमरीरा, देवसरीरा उ बुचर बीया । वित्थरओ एएसिं, बुत्तो अन्नत्थ परिवेगो ॥ ६ ॥” इति । (५- अणुव्रतम् - इच्छापरिमाण: 1) धणधन्नाहमणोरह - विसए ज पुत्रणिच्छियाए वि । मज्जायाए चाओ, त घुचड पचम वय सत्थे ॥ १ ॥ जहसति च जहिच्छ, परिग्गहस्सोइयेर मज्जाया । जह तिप्पीभावा, वह ता किं तु करणिज्ज ॥ २ ॥ इति औदारिकत्वरूपा एवमनौदारिम्स्वरूपाच ।
इति द्विविधा परस्त्री, आगमसिद्धाऽस्ति वन प्रथमा तु ॥ ५ ॥ मानुषतिर्यक्जरीरा, देवशरीरातूच्यते द्वितीया विस्तरत एनयेारुक्तोऽन्यत्र मविवेकः ॥ ६ ॥" इति । एतच्छाया च
" धनधान्यादिमनेारथविषये यत्पूर्वनिश्चिताया अपि । मर्यादायास्त्यागः, तदुच्यते पञ्चम व्रत शास्त्रे ॥ १ ॥ परस्त्री द्विविधा - औदारिकानौदा रिकशरीर विशिष्टत्वभेदात्, तत्र मनुष्यतिर्यत्र शरीरधारिण्य औदारिकशरीरिण्य' देवशरीरधारिण्यश्च वैक्रियिकशरीरिण्य, आसा सर्वासामपि परिवर्जनेन केवल यथाविधिपाणिगृहीतीमात्रेण सन्तोष इति भावः । भिन्न सरागीकी भक्ति के निषेधका तात्पर्य प्रगट होता है । अस्तु । मूल बात यह है
परस्त्री दो प्रकारकी है - (१) औदारिक शरीरवाली और (२) औदा रिकशरीरवाली से भिन्न । मनुष्य और तिर्यचों के शरीरको धारण कर नेवाली औदारिक शरीरधारिणी हैं और देव शरीरको धारण करनेवाली वैक्रियिकशरीरधारणी हैं। भावार्थ यह है कि इन सबका परित्याग करके केवल स्वपत्नी में सन्तोष करना स्वदारसन्तोष परदारविरमण-व्रत है ॥
પરસ્ત્રી એ પ્રકારની છે (૧) ઔદારિક શરીરવાળી અને (૨) ઔદારિક શરીર વાળીથી ભિન્ન મનુષ્ય અને તિય ચાના શરીરને ધારણ કરનારી ઔદાકિશરીનધારિણી છે અને દેવશરીરને ધારણ કરનારી વૈક્રિયશરીરધારિણી છે ભાવાર્થ એ છે કે એ બધાને પરિત્યાગ કરીને કેવળ સ્વપત્નીમા સ તાષ રાખવે એ સ્વહારસન્તુષ–પરદારવિરમણુ–વ્રત છે
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भारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ सू० ११ धर्म० इच्छापरिणामत्रतम्
यथाशक्ति च यथेच्छ, परिग्रहस्याचितेह मर्यादा | यथा तृष्णाल्पीभावो भवति तथा किन्तु करणीयम् ॥ २ ॥ " इति । अथ पञ्चम तमाह 'इच्छापरिमाणे' ति, इच्छा=पनधान्यादिनवविध परिग्रहविषयकमियत्तानियमनमित्यर्थः, मनुष्यगजाश्व गमिष्यादिन् सचेतनान्, बासोरत्न हिरण्यादींश्वाचेतनार पदार्थान ममत्वभावपूर्वक निजायते रक्षितुम् - " एतावन्त एव मनुष्यगजाश्वादय, एतावन्त्येव च वासो रत्नहिरण्यादीनि भया सग्रहीतव्यानि नातोऽधिकानी" - त्येव मर्यादाविधानमिति भावः । अत्र च मर्यादा करण श्रावकाणामिच्छाधीनमिति सर्वैर्यथाशक्ति यथेच्छ च निजनिजग्राहमर्यादा 'कर्त्तुं शक्यते, किन्तु तृष्णारूपीकरणार्थमेव मर्यादावचनमिति यथा तृष्णाल्पत्व भवेथा यतनीय, तत्रैवास्य नतस्य तात्पर्यात् । उक्तश्च
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(५) पाचवें व्रतका वर्णन
धन धान्य आदि नौ प्रकारके परिग्रहकी मर्यादा कर लेना इच्छापरिमाण व्रत है । मनुष्य, हाथी, गाय, घोडा, भैंस आदि मचेतन, और वस्त्र, रत्न, सोना-चादी आदि अचेतन पदार्थों को ममत्वभावपूर्वक ग्रहण करने पर उनकी रक्षा के लिए इस प्रकार की मर्यादा कर लेना इच्छापरिमाण हैं, जैसे--"मैं इतने मनुष्य गज अश्व आदि रखूँगा, इनसे अधिक नहीं, इतने वस्त्र रत्न हिरण्य आदि रखूँगा, इनसे ज्यादा नही ।" कितनी मर्यादा करना यह श्रावणकोंकी इच्छा पर निर्भर है, इसलिए सब, शक्ति और रुचि के अनुसार मर्यादा कर सकते हैं, किन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि मर्यादा का प्रयोजन तृष्णा को कम करना है, इसलिए ऐसी मर्यादा करनी चाहिए जिससे तृष्णा कम हो । यही इस व्रत का तात्पर्य है, कहा भी है-
(૫) પાચમા વ્રતનુ વર્ણન
ધનધાન્ય આદિ નવ પ્રકારના પરિગ્રહેાની મર્યાદા કરવી એ ઇચ્છાપરિમાણ વ્રત मनुष्य, हाथी, गाय, घोडा, लेश आदि सचेतन, अने वय, रत्नू, सोनु, ३५. વગેરે અચેત પદાર્થાને મમત્વભાવપૂર્વક ગ્રહણ કરીને તેના રક્ષણને માટે એ પ્રકારની મર્યાદા કરવી એ ઇચ્છા-પરિમાણુ છે, જેમકે- “હું આટલા મનુષ્ય ગજ અશ્વ આદિ રાખીશ, તેથી વધારે નહિ, આટલા વજ્ર રત્ન હિરણ્ય આદિ રાખીશ, એથી વધારે નહી ” કેટલી મર્યાદા કરવી એ શ્રાવાની ઈચ્છા પર આધાર રાખે છે, એટલે સૌ કાઇ પેાતાની શકિત અને રૂચિને અનુસરીને મર્યાદા કરી શકે છે, પરન્તુ એટલું ધ્યાનમા રાખવાનુ છે કે મર્યાદાનુ પ્રયાજન તૃષ્ણાને આછી કરવાનુ છે, માટે એવી મર્યાદા રવી જોઈએ કે જેથી તૃષ્ણા એછી થાય એવુ આ વ્રતનુ તાત્પર્ય છે. કહ્યુ છે કે—
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उपासकदचाङ्गसूत्रे
"
जह जह लोहो अप्पो, जह जहप्पो परिग्गहारभो । तह तह सुहस्स लाहो, णिज्जरणं चावि कम्माणं ॥ १ ॥ अणट्ठमूल सव्व, चहऊणं णं परिग्गह भाषा । afle धम्मारामे, रमति जे ते जणा धन्ना ||२|| इति गुणवतानि ( ३ )
( ६ अनर्थदण्डविरमणव्रतम् ) " णीहेउ जीवपीडायरण ज सो अणहृदडो य । चत्तारि अस्स भैया, अवझाणायरियणामगो पढमेाः ॥ १ ॥ एतच्छाया च
46 यथा यथा लोभोऽल्पो यथा यथाऽल्पः परिग्रहारम्भः । तथा तथा सुखस्य लाभो निर्जरण चापि कर्मणाम् ॥ १ ॥ अनर्थमूल सर्व त्यक्त्वेम परिग्रह भावात् ।
ललिते धर्मारामे, रमन्ते ये ते जना धन्याः ॥ २ ॥ " इति । " निर्हेतु जीवपीडाचरण यत्सोऽनर्थदण्ड ।
चत्वारोऽस्य भेदा अपभ्यानाचरितनामक प्रथमः ॥ १ ॥ "लोभ ज्यों-ज्यो अल्प होता जाता है, त्यो त्यों परिग्रह और आरम्भ कम होते जाते हैं, सुख बढता जाता है और कर्मोंकी निर्जरा होती हैं सब अनथका मूल परिग्रह है। जो इसे भावोंके साथ त्याग कर धर्मरूपी सुन्दर उद्यान में रमण करते है वे महापुरुष धन्य हैं ||२||" गुण व्रत (३)
(६) (छठे व्रतका वर्णन )
अन्य व्रतोंके पालन करनेमे जो सहायता पहुँचाते है, उन्हें गुणवत
“ લાભ જેમ જેમ આછે થતા જાય છે, તેમ તેમ પરિગ્રહ અને આર આછા થતા જાય છે, સુખ વધતુ જાય છે અને કર્મોની નિજા થાય છે. (૧) બધા અનચેŕનુ મૂળ પરિગ્રહ છે જે એને ભાવપૂર્વક ત્યાગ કરીને ધરૂપી સુર ઉદ્યાનમાં રમણુ કરે છે, તે મહાપુરુષને ધન્ય છે” (૨)
शुशुवत (3)
(१) छठ्ठा धत्तनु पर्शन - (पहेतु शुशुव्रत)
અન્ય મતેનુ પાલન કરવામા જે સહાય કરે છે, તેને ગુણવ્રત રહે છે. ગુણવ્રત
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मगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू० ११ धर्म अनर्थदण्डविरमणव्रतम् २१७
अवि य पमायायरिओ, बीओ हिंसापयाणमह तीओ। चोत्थो तहेव धुत्तो, जिणसत्थे पावकम्म-उवएसो ॥ २॥ अक्साइज्झाणेहिं, परखेयविही निरट्ठय पढमो । पीओ पमायओ अव,-भासा तेलाइभायणुग्घाडो ॥ ३ ॥
छाया-अपि च प्रमादाचरितो द्वितीयो हिंसाप्रदानमय तृतीयः। चतुर्थस्तथैवोक्तः, जिनशास्त्रे पापकर्मोपदेशः ॥२॥ या दिध्यानः परखेदविधिनिरर्थक प्रथमः । द्वितीयः प्रमादतोऽपभापा तैलादिभाजनोद्घाट' ॥ ३ ॥
अथ गुणव्रतान्याह-'त्रीणी'-त्यादि, व्रतान्तरपरिपालनेन साधकतमानि व्रतानि गुणत्रतान्युच्यन्ते, तानि त्रीण्यौपंपातिकक्रमेण वक्तुमाह-'तधथे,-ति
. उपासकदशाङ्गे तु प्रथम दिग्नत, तत उपभोगपरिभोगपरिमाण, ततोऽनर्थदण्डविरमणमित्येव क्रमः । 'अनर्थे ति अर्थ' प्रयोजन तदर्थमर्थात् क्षेत्र धन-गृह शरीर-कुल-दासी दास-दाराद्यर्थ यो दण्ड सोऽर्थदण्डस्तद्भिन्नोऽनर्थदण्ड:-निष्पयोजन कस्यचित्माणिन.सक्लेशनव्यापार इत्यर्थः । एषोऽपध्यानाऽऽचरित प्रमादाऽऽचरित हिंसामदान पापकर्मोपदेश भेदाचकहते हैं । गुणवत तीन हैं। 'औपपातिकसूत्रके क्रमके अनुसार उनका वर्णन करते हैं
(१) अनर्थदण्डविरमणव्रत-क्षेत्र, धन, गृह, शरीर, कुल, दासी दास, दारा (स्त्री) आदिके लिए अर्थात् प्रयोजन के लिए जो दड किया जाता है वह अर्थ-दण्ड है और निष्प्रयोजन दण्डको अनर्थदण्ड कहते हैं, अर्थात् विना प्रयोजन ही किसी जीवको सक्लेश पहुँचाना अनर्थदण्ड है। यह अनर्थदण्ड चार प्रकारका है-(१) अपध्यानाचरित, ત્રણ છે પાતિક સત્રના કૅમાનુસાર તેનું વર્ણન કરીએ છીએ –
(१) मन पिरभशु-प्रत-त्र, धन, गुड, शरीर, मु, हासी, दाम, દારા, (સ્ત્રી) અડદિને માટે અર્થાત્ પ્રજનને માટે જે દડ દેવામાં આવે છે તે છે તે અર્થદડ છે અને નિષ્ણજન દડને અનર્થદંડ કહે છે, અર્થાત્ પ્રયજન વિના જ કેઈ જીવને સ લેશ પહોચાડ એ અનર્થદડ છે એ અનર્થદડ ચાર પ્રકારને
१ उपासकदशागमें पहला दिखत, दूसरा। उपभोगपरिभोग परिमाण, और तीसरा अनर्थदण्डविरमण है।
* ઉપાસદગમાં પહેલુ હિઝત, બીજુ ઉપગપરિત્રપરિમાણ, અને ત્રીજી અન વિરમણ છે.
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उपासकदशास्त्रे फस्सवि णियेवि हत्थे, विहल खग्गाहधारण तीओ । पोत्थो सो सावज्जो,-वएसदाण भणिज्जए जमिह ॥ ४ एएसिं सव्वेसिं, पुष्धुत्ताण चउहमिह सत्थे ।
विहिपुन्य सचाओ, अक्खायमणत्यदडवेरमण ॥ ५ ॥” इति । तुर्धा, तत्रापध्यानेनाऽऽचरितमपभ्यानाऽऽचरितमारौद्रभ्यानवशतया निप्पयोजन प्राणिसक्लेशनमित्यर्थः । प्रमादेनाऽऽचरित-प्रमादाऽऽचरित प्रमादतो निष्प्रयोजन मपभापणादिकरण, घृततैलादिभाजनान्युद्घाटय रक्षण चेत्यर्थः। हिंसासाधनत्वाहिसा तरवारि-शूल भल्ल गणाशादिशस्त्र तस्य प्रदान-हिंसाप्रदान-निष्पयोजन कस्यचिद्धस्ते शस्त्रादीना समर्पणमित्यर्थः। उपलक्षमेतभिष्पयोजन स्वहस्त धारणस्यापि । पापप्रधान यद्वा पापजनक कर्म-पापकर्म तस्योपदेशः पापकोप देश'-निष्प्रयोजन सावधोपदेशदानमित्यर्थः । एभ्यश्चतुभ्योऽनर्थदण्डेभ्यो विरम णमनर्थदण्डविरमणम् । (२) प्रमादाचरित, (३) हिंसाप्रदान, और (४) पापकर्मोपदेश । आतल्यान
और रौद्रध्यानके वश होकर प्राणीको सक्लेश पहुंचाना अपध्यानाचरित है (१), प्रमादके वश होकर व्यर्थ धुरे (कष्टप्रद वचन बोलना आदि, अथवा प्रमाद वश घी तेल आदिके वतनाका उघाडा (खुला) रखना प्रमादाचरित है (२), विना प्रयोजन, तलवार, शूल, भाला, गडाशा आदि हिंसाके साधनभूत शस्त्रांको किसीक हाथमें देना उपलक्षणसे अपने होथमें रखना भी हिंसा प्रदान अनर्थ दण्ड है (३), पापकी प्रधानता वाला अथवा पापको पैदा करने वाला अर्थात् सावध उपदेश देनापापकर्मोपदेश अनर्थ दण्ड है (४)। इन चारा प्रकारके अनर्थदण्डों से विरत हो जाना अनर्थ-दण्ड विरमण व्रत है । छ(१) मध्यानायरित, (२) प्रभाहायरित (3) साहान, (४) पाप पहेश. આર્તધ્યાન અને રૌદ્રધ્યાનને વશ થઈને પ્રાણીને નિપ્પન સકલેશ પહોચાડવે આ અપધ્યાનાચરિત છે (૧) પ્રમાદને વશ થઈને વ્યર્થ ખરાબ (કષ્ટપ્રદ) વચને બોલવા વગેરે, અથવા પ્રમાદવશ થી તેલ આદિના વાસણાને ઉઘાડા રાખવા એ પ્રમાદારત છે (૨) પ્રયજન વિના તલવાર શૂળી, ભાલા, આદિ હિસાના સાધનભૂત શસ્ત્રોને કેાઈના હાથમાં આપવા, ઉપલક્ષણે કરીને પિતાના હાથમાં રાખવા એ પણ હિંસાપ્રદાન અનર્થદંડ છે (૩) પાપની પ્રધાનતાવાળા અથવા પાપને પેદા કરનારા અથત સાવલ-ઉપદેશ આપ એ પાપકર્મોપદેશ અનર્થદડ છે (૪) એ ચારે પ્રકારના અનર્થદડથી વિરત થઈ જવુ તે અનર્થદડવિરમણ વ્રત છે ?
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अगारपर्मसञ्जीवनी टीका धर्म० सू. ११ दिग्वतम्
(७-दिग्वतम् ) मज्जाया गमणे होइ, पुवाइसु दिसासु जा । एय सिया दिसिवय, तिविह त च कित्तिय ॥ १ ॥ अट्टाहोतिरियवाण, भेया तत्थाइम तु त । प वयाइसमारोहे, जो मज्जायाविणिच्छओ ॥ २ ॥ क्स्यापि निजेऽपि हस्ते, विफल खड्गादिधारण तृतीयः। चतुर्थ स सावधोपदेशदान भण्यते यदिह ॥ ४ ॥ एतेषा सर्वेषा पूर्वोक्ताङ्गा चतुर्णामिह शाखे । विधिपूर्व सत्याग आरयातमनर्थदण्डविरमणम् ॥ ५ ॥" इति । "मर्यादा गमने भवति, पूर्वादिषु दिक्षु या। एतत्स्यादिग्वत, त्रिविध तच कीर्तितम् ॥ १ ॥ ऊर्ध्वास्तिरचा भेदात् , तत्राऽऽदिम तु तत् ।
पर्वतादिसमारोहे, यो मर्यादाविनिश्चय : ॥ २ ॥ अथ गुणवतेपु द्वितीयमाह-'दिगि'-ति-दिशा दिक्षु वा प्रत दिग्नतम, पूर्वादिषु दिक्षु विषये यद्-'अस्या दिश्येतावत्येव दूरे मया गन्तव्य नातोऽअधिकतर-इत्येव दिकसम्बन्धिव्रत तदित्यर्थ ,एत्तय्यो धस्तिर्यग्भेदात्रिविधम्, तत्री र्धाया दिशि-पर्वताधारोहणविपये यत्-'एतावत्येव पर्वतादिमागे मयाऽऽरोहाव
(७) सातवें व्रतका वर्णन
(दुसरा गुणव्रत,). (२) दिग्वत-" पूर्व पश्चिम आदि दिशाओंमें, मैं इतना दूर तकही जाऊँगा, इससे आगे नहीं जाऊँगा।" इस प्रकार दिशाओंकी या दिशाओंमें मर्यादा कर लेना दिग्बत है। यह व्रत तीन प्रकारका है-(१) जर्व (२) अध और (३) तिर्यदिशासब-धी।
ऊर्व दिशामें इस प्रकारकी मर्यादा कर लेना कि 'पर्वतके इस भाग तकही मैं चढूँगा, इससे उपर नहीं' यह ऊर्ध्वदिग्वत है। चावडी,
सातमा तनु वर्णन -(मान गुरामत) (ર) દિવ્રત–“પૂર્વ પશ્ચિમ આદિ દિશાઓમા, હું આટલે દુર સુધી જ જઈશ, એથી આગળ નહિ જહ’ એ પ્રમાણે દિશાઓની ય દિશાઓમાં મર્યાદા કરી લેવી એ દિવ્રત છે એ વ્રત ત્રણ પ્રકારનું છે (૧) ઊર્વ, (૨) અધ, અને (3) तिय हिशासपी
ઊદ્ધ દિશામાં આ પ્રકારની મર્યાદા કરી લેવી કે પર્વતના અમુક ભાગ સુધી જ હુ ચઢીશ, એથી વધારે ઉપર નહી” એ ઊર્ધ્વ-દિવ્રત છે વાવ, કુવા,
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उपासना पीय वाची-कृव-भुमि,-धराइविसर तहा । वायव्वाइसु कोणेसु, पुल्याइसु दिसासु य ॥ ३ ॥ मज्जायाए णियमण, चाखाय तिरियन्वय ।' इति ।
(८-उपभोग-परिभोग परिमाणवतम्। उपभोगाइसु होड, मज्जायाणियमो उ जो । गुणव्वयेसु त तीय, वयमेत्य जिणागमे ॥ १ ॥ भोयणा कम्मओ चेव, तमेय दुविर मय । तत्थ भोयणओ माव, वेमि एगेगसो कमा ॥ २ ॥ तजहो-ल्लणिया दत,-वण चेव फल तरा।
अन्भ गणुन्बट्टणाई, मज्जण वत्यमेव य ॥ ३ ॥ द्वितीय वापी कूप भूमि गृहादिपिपये तथा । वायव्यादिपु कोणेपु, पूर्वादिपु दिक्ष च ॥ ३ ॥ मर्यादाया नियमन, व्याख्यात तिर्यग्नतम् । " इति । "उपभोगादिषु भवति मर्यादा नियमस्तु य । गुणव्रतेषु तत्ततीय, तमन जिनागमे ॥ १ ॥ भोजनाकमतश्चैव, तदेतद्विविध मतम् ।। तत्र भोजनतस्तावहवीम्येकैकशः क्रमात ॥२ ॥ तद्यथा-ऽऽनयनिका दन्तधावन चैव फल तथा ।
अभ्यञ्जनोद्वतने, मज्जन लत्रमेव च ॥ ३ ॥ रोहौ विधातव्यो' इत्येव मर्यादाकरण तध्वदिग्वतम् । वापी रूप तडाग भूमि ग्रहाद्यारोहणावरोहणविपये यन्मर्यादाया नियमन तदधोदिग्बतम । पूर्वपश्चिमा दिदिक्षु वायस्यादिगिदिक्षु च विपये यन्मर्यादानि पमन तित्तिर्यग्दिवतम् । दिन तधारणेन मर्यादितदिग्व्यतिरिक्तदिगाश्रिताना जीवाना हिमादिदण्डो न भवतीति हि तस्यास्य फलमत्रगन्तव्यम् । कुआ, तालाव, भूमिगृह (मोहरा) आदिमें प्रवेश करने की मर्यादाका नियम करना अधोदिग्नत है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, दिशामि तथा वायव्य, नैऋत्य, ईशान ओर आग्नेय कोणोमे मर्यादाका नियम करना कि-'अमुक दिशामे इससे आगे नहीं जाऊंगा'यह तिर्यग्दिग्बत है। તળાવ, મેયર આદિમા પ્રવેશ કરવાની મર્યાદાને નિમે કરો એ અદિગ્દત છે,
વ, પશ્ચિમ, ઉત્તર, દક્ષિણ દિશાઓમાં તથા વાયવ્ય, તત્ય, ઈશાન, અને આનેય ખુણાઓમાં મર્યાદાને નિયમ કહે કે “અમુક દિશામાં એથી આગળ હું નંહિ જઉ', એ તિર્યંગ દિગ્ગત છે
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मंगारसञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ११ धर्म० उपभोग परिभोगवतम् विलेवण तहा पुष्फा - SSभरण चैव धूवणं । एव ज लोयविक्खाय, पेय भक्खणमोयणो ॥ ४ ॥ सूवो विगह- सागा य, माहुर जेमण तहा ! पाणीय मुहवासा य, वाहणो- पाहणा पुणो ॥ ५ ॥
विलेपन तथा पुष्पiss भरणं च धूपनम् ।
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एव लोकविख्यात, पेय" भक्षणमोदनः ॥ ४ ॥
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विकृति-शाकौ च, माधुर जेमन तथा ।
पानीय मुखवासव, वाहनों पानही पुनः ॥ ५ ॥ "अयात्र गुणत्रतेषु तृतीय घृते 'उपे' ति उपभोग पम्भिोगौ प्राग्व्यास्यति स्वरूप, तयो परिमाण = मर्यादानियमनमुपभोग परिमाणम् । एतद् द्विः विधम्- भोजनत: कर्मतच, तत्र - आर्द्र नयनिका - दन्तधावन - फला-भ्यखनौ-द्वचन -मज्जन-बस्त्र बिले पन पुष्पा ऽऽमरण" ग्रूप पेय भक्षणौ-दन धूप- विकृति
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- शाक - माधुकर - जेमन - पानीय-मुसवास वाहनो पान - च्यन - सचित्त द्रव्येपूपभोग परिभोगयोग्येषु पार्थेषु परिमाण (मर्यादा) करण भोजनतस्तथाहि
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आठवें व्रत्तका वर्णन
( तीसरा गुणव्रत )
(३) उपभोग-परि भोग परिमाण व्रत-उपभोग और परिभोगकी व्याख्या पहले कर चुके है । उनकी मर्यादा करना उपभोग परिभोगपरिमाण व्रत है । यह व्रत दो प्रकारका है - (१) भोजन से और (२) कर्मसे । आनयनि, दन्त वावन, फल, अभ्यञ्जन, उद्धर्त्तनमज्जन, वस्त्र, विलेपन, पुष्प, आभरण, धूप, पेय, भक्षण, ओदन, सूप, विकृति,
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शांक, माधुरक, जेमन, पानीय, मुखवास, वाहन, उपानत्, शयन, सचित्त, और द्रव्य, इन उपभोग - परिभोग योग्य पदार्थो में मर्यादा करना, भोजन से - उपभोग - परिभोग - परिमाण व्रत है । यह इस प्रकार
આઠમા વ્રતનું વર્ણન–(ત્રીજી ગુણવ્રત)
(3) उपभोग - परिभोग- परिभाशु व्रत- 3 लोग भने परिभोगनी व्याच्या પહેલા કરી ગયા છીએ એની મર્યાદા કરવી એ ઉપભાગ–પરિભેગ પશ્મિાણુ વ્રત છે, मे व्रत प्रभारनु है, (1) लोनथी भने (२) उर्मथी १ आर्द्र नयनित्र, २ हतधावन, 3, ૪ અભ્યજન, ૫ ઉર્દૂન ૬ મન, ૭ વસ્ત્ર, ૮ લેપન, ૯ પુષ્પ, ૧૦ આભરણ, १२ धूप, १२, १३ लक्ष १४ सेहिन, १५ भूष, १६ विश्रुति, १७ शा, १८ मधुर, १७ मयु, २० पानी, २१ भुवा, २२ वाहुन, २३ उपान २४ शायन, ૨૫ સચિન, ૨૬ દ્રવ્ય, એ ઉપભેગ–પરિભેગ ચગ્ય પાર્ટીમા મર્યાદા કરવી, તે से ४नथी- उपभोग- परिभोग - परिभाष व्रत हे ते मा प्रभा -
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
[ भोजनत उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रतम् ] स्नानाऽऽद्र शरीर मोरिछतु यद्वस्रमर्यादाकारणं तदानयनिकाविधिपरिमाणकरणम् (१) दन्तमलापनोदनाय दन्तकाष्ठादेर्मर्यादाकरणं-दन्तधावनविधिपरिमाणकरणम् (२) स्नानापूर्व शिरभ दिविलेपनार्थमामलक्यादि फलाना विषये मर्यादानियमन - फलविधिपरिमाणकरणम् (३) । स्नानात्पूर्व शरीरमर्दनार्थ शतपाकसहस्रपाकादीना तैलाना त्रिषये मर्यादा नियमनमभ्यञ्जनविधि परिमाणकरणम् (४) । स्नानात्पूर्व शरीरमलापनोदनार्थे पिष्टकादिमर्यादा करणमुदन विधिपरिमाणकरणम् (५) । स्नानार्थ जलविषये मर्यादानि यमो मज्जनविधिपरिमाणकरणम् (६) । परिधानाद्यर्थं वस्त्रविषये मर्यादा नियमो चत्र विधिपरिमाणकरणम् ( ७ ) । चन्दनकुङ्कुमकेशरादिविषये मर्यादा नियमो -शाक - माधुकर-जेमन - पानीय- मुखवास- वाहनो - पान-यन- सचित-द्रव्येषुपमोगपरिभोगयोग्येषु पदार्थेषु परिमाण (मर्यादा)-करण भोजनतस्तथाहि
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(१) स्नान करने से भीगे हुए शरीर पोंछने के लिए वस्त्रो (अँगोछे) की मर्यादा करना आर्द्रनयनिका विधिपरिमाण है । (२) दातों का मैल दूर करने केलिए दातौन आदिका मर्यादा करना दन्तधावनविधिपरिमाण है । (३) स्नान करनेसे पहेले मस्तक आदि पर लेप करनेके लिए आवले आदि फलोंकी मर्यादा करनेको फलविधिपरिमाण कहते हैं । (४) स्नान से पूर्व शरीर पर मालिस करने के लिए शतपाक सहस्रपाक आदि तैलोंकी मर्यादा करना अभ्यञ्जनविधिपरिमाण है । (५) स्नान से पहले शरीरका मैल हटाने के लिए पीठी आदिकी मर्यादा करना उद्वर्त्तनविधि परिमाण है । (६) स्नान के लिए जलको मर्यादा करना भज्जनविधि परिमाण है । (७) पहनने ओढ़ने आदि के लिए वस्त्रोंकी मर्यादा करना वस्त्रविधिपरिमाण है । (८) चन्दन, कुकुम, केशर आदि की मर्यादा
કર્યો
(१) स्नान ४रवाथी लीलया शरीर झूछवाने भाटे कत्रो (2 गूडी) नी મર્યાદા કરવી તે આ નયનિષ્ઠાવિધિપરિમાણુ છે (૨) દાતના મેલ દૂર કરવાને દાતણુ આદિની મર્યાદા કરવી એ દતધાવનવિધિપરિમાણુ છે. (૩) સ્નાન પહેલા મસ્તક આદિ પર લેપ કરવાને આબળા આદિ કળાની મર્યાદા કરવી તે વિધિપરિમાણુ છે (૪) સ્નાન પહેલા શરીર પર માલીસ કરવાને શતપાક સહસ્રપાક આદિ તેલેટની મર્યાદા કરવી એ અભ્ય જનવિધિપરિમાણુ છે (પ) સ્નાન પહેલા શરીરના મેલ દૂર કરવાને પીડી ટ્ટિની મર્યાદા કરવી એ ઉદ્દેત્ત નિધિપરિમાણુ છે (६) स्नानने भाटे જળની મર્યાદા કરવી એ ભજનવિધિપરિમાણુ છે. (૭) પહેરવા એઢવા વગેરેને માટે વસ્ત્રોની મર્યાદ્રા કરવી એ વસ્ત્રવિધિપરિમાણુ છે (૮) ચંદન, કેમ, કૈસર આદિની મા કરવી એ
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मगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू. ११ धर्म० उपभोगपरिभोगव्रतम् २२ विलेपनविधिपरिमाणकरणम् (८) । शरीरादिपु धारणार्थ पुष्पविपये मर्यादानियमः पुष्पविधिपरिमाणकरणम् [९] । शरीरशोभार्थ कटक कुण्डल केयूराघाभूपणविपये मर्यादानियमनमाभरणविधिपरिमाणकरणम् [१०] । वस्त्रशरीरादिक मुवासयितु धूपनयोग्याना पदार्थाना मर्यादानियमो धूपविधिपरिमाणकरणम् (११)। पानयोग्याना कायौपधप्रपान(ण)कादीना विषये मर्यादानिवमन पेयविधिपरिमाणकरणम् (१२)। पकानाना विषये मर्यादानियमन भक्षणविधिपरिमाणकरणम् (१३)। फलमादिरूपे शालौ मर्यादाकरणमोदनविधिपरिमाणकरणम् (१४)। ओदनादौ सम्मेल्य खाधाना दालाना विषये मर्यादानियमः सूपविधिपरिमाणकरणम् । (१५) घृतदुग्धादिविपये करना विलेपनविधिपरिमाण है। (९) शरीर पर धारण करने के लिए पुष्पोंकी मर्यादा करना पुष्पविधि परिमाण है । (१०) शरीरकी शोभा पढ़ानेके लिए कडा, कुडल, केयूर आदि आभूषणोंको मर्यादा करना आभरणविधिपरिमाण है । (११) वस्त्र और शरीरको सुगन्धित करनेके लिए धूप दिये जाने योग्य पदार्थों की मर्यादा करना धूपविधिपरिमाण है। (१२) पीने योग्य काथ (काढ़ा) औषध तथा प्रपाणक (शर्वत) आदि वस्तुओंकी मर्यादा करना पेयविधिपरिमाण है। (१३) पकवानोकी मर्यादा करना भक्षणविधि परिमाण है। (१४) कलम आदि जातिके शालि (चावल)की मर्यादा करना ओदनविधिपरिमाण है। (१५) चाचल आदिमे मिलाकर खाने योग्य दाल आदिकी मर्यादा करना सूपविधिपरिमाण है । (१६) घी ध आदिकी मर्यादा करना विकृतिविधिવિલેપનવિધિપરિમાણ છે (૯) શરીર પર ધારણ કરવાને પુષ્પોની મર્યાદા કરવી એ પુષ્પવિધિપરિમાણ છે (૧) શરીરની શોભા વધારવાને કડા, કુડલ, કેયુર આદિ આભૂષણેની મર્યાદા કરવી એ આભરણુવિધિપરિમાણ છે (૧૧) વસ્ત્ર અને શરીરને સુગધિત કરવાને ધૂપ દેવાના પદાર્થની મર્યાદા કરવી એ ધૂપવિધિપરિમાણ છે (૧૨) પીવા યોગ્ય કવાથ, (કાઢા, ઔષધ તથા શરબત આદિ વસ્તુઓની મર્યાદા કરવી એ પિવિધિપરિમાણ છે (૧૩) પકવાની મર્યાદા કરપી એ ભક્ષણવિધિપરિમાણ છે (૧૪) કમદ આદિ જાતિના ચેખાની મર્યાદા કરવી એ એદનવિધિપરિમાણ છે (૧૫) ચેખા આદિમાં મેળવીને ખાવા માટેની દાળની મર્યાદા કરવી એ સૂપવિધિ પરિમાણ છે (૧૬) ઘી દૂધ આદિની મર્યાદા કરવી એ વિકૃતિવિધિપરિમાણ છે
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Dammame
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____“उपासवचारले सयण सचित्त दव्व, इच्चेव सव्ववस्थुस । मज्जायाए णियमण, मय, भोयणओ वय ॥ ६ ॥ इति । शयन सचिन द्रव्यम् , इत्येव, सर्ववस्तुषु ।
मर्यादाया नियमन, मत भोजनतो व्रतम् ॥ ६ ॥ इति । मर्यादानियमो विकृतिविधिपरिमाणकरणम् (१६)। वास्तूकादीना शाकाना विपये मर्यादानियमः शाकविधिपरिमाणकरणम् (१७)। खाधाना पक स्वाध मिष्ट कदली रसाल पनसादीना फनाना विपये मर्यादानियमोमाधुकविधि परिणामकरणम् (१८) । सेव पूप पकवटी प्रभृतीना विषये मर्यादानियमो जेमनविधिपरिमाणकरणम् (१९)। जलविपये मर्यादानियमः पानीयविधि परिमाणकरणम् (२०)। मुख वासयितु लवकर्पूरादीना विपये मर्यादानियमा मुखवासवीधिपरिमाणकरणम् (२१)। बहनार्थ इस्त्यश्चमवहणादिविषये मर्यादानियमन-वादनविधिपरिमाणकरणम् (२२) । पादरक्षार्थमुपानन्मो परिमाण है। (१७) बथुआ आदि शामोंकी मर्यादा करना शाकविधि परिमाण है। (१८) पके हुए, केला, आम, पनस आदि फलोकी मर्यादा करना माधुरकविधिपरिमाण है। (१९) सेव, पूआ, बडा, पकौडी आदिकी मर्यादा करना जेमनविधिपरिमाण है । (२०) पीनक जलकी मर्यादा करना पानीयविधिपरिमाण है। (२१) मुखको सुवा सित करने के लिए लौंग कपूर आदि वस्तुओंकी मर्यादा करना मुखवास विधिपरिमाण है । (२२) वाहन चार प्रकारके होते है-(१) चलनेवालेघोडा, ऊँट, हाथी, बलद आदि, (२) फिरनेवाले-गाडी, मोटर, ट्राम, साईकल, रथ आदि, (३) तैरनेवाले-स्टीमर, डोगी आदि (४) उडनेवाले-हवाईविमान, घलुन आदि, इन चार प्रकारके वाहनाका (૧૭) ભાજી આદિ શાકેની મર્યાદા કરવી એ શાવિધિપરિમાણ છે (૧૮) પાક,
સ્વાદિષ્ટ, મીઠા કેળા, કેરી, ફણસ આદિ ફળની મર્યાદા કરવી એ માધુરકવિધિકરવી એ માધુરકવિધિપરિમાણ છે (૧૯) સેવ, પૂડા, ભજીયા, પકેડી આદિની મર્યાદા કરવી એ જમણુવિધિપરિમાણ છે મુખને સુવાસિત કરવાને લવ ગ મર્યાદ વસ્તુઓની મર્યાદા કરવી એ મુખવાસવિધિપરિમાણ છે (૨૨) વીર यार ना मतान्या छ- (१) वा -या, हाथी, ne (वार, (२) ३२वापाण-II, भाटर, ट्राभ, सास, २५ विगैरे. (3) तराषाणाસ્ટીમર, વહાણ, હડી વિગેરે () ઉડવાવાળા હવાઈ જહાજ, બટ્ટન વિરાટ આ ચાર પ્રકારના વાહનેની જવા – આવવા કે ફરવા માટે મર્યાદા કરવી એ
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अगारधर्म सज्जीवनी टीका सू० ११ धर्म० उपभोग परि०
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चकादिपु मर्यादानियम उपानद्विधिपरिमाणकरणम् (२३) । शयनार्थ मञ्च कादिविपये मर्यादा नियमन शयनविधिपरिमाणकरणम् (२४) । मचित्तेएलादिसचित्तवस्तुविषये मर्यादानियमः सचित्तविधिपरिमाणकरणम् (२५) । द्रव्याणा खाद्यास्वाद्यादीनामेयादिसरया विपये मर्यादानियमन द्रव्यविधिपरिमाण करण (२६) मिति । अदमवधेयम्-
स्तुव्रतधारी तेन चतुर्विधमहार प्रासूक एव ग्रहीतव्यः तदभावेऽमा सुकोऽपि सचित्तवर्जः, तदभावे चानन्तकाय बहुवीजवर्ज ॥
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सर्वाऽसामथ्यै तु - " सचित्त दव्व-विगह वाणह तनोल वत्थं कुसु
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मेसु । वाहण सण विलेषण वभ - दिसि पहाण-भत्तेसु ॥ १ ॥ इत्युक्तप्रकाराणा चतुर्दशाना सचित्त द्रव्य निकृ त्युपानत्ताम्बूल वस्त्र कुसुम-वाहन-शयन - घूमने धरने आदिके लिए मर्यादा करना वाहनविधिपरिमाण है । (२३) पैरोकी रक्षा के लिए जूते (पगरखी), मौजे आदिकी मर्यादा करना उपानद्विधिपरिमाण है । (२४) सोनेके लिए खाट पलंग आदिकी मर्यादा करना शयनविधिपरिमाण है । (२५) इलायची नाम्बूल आदि सचित्त वस्तुओंकी मर्यादा करना सचित्तविधिपरिमाण है । (२६) खादिम स्वादिम आदि द्रव्योंके विषयमें एक दो आदि सख्याकी मर्यादा करना द्रव्य विधिपरिमाण है ।
तात्पर्य यह है कि जो उत्कृष्ट व्रतधारी है उसे चारो प्रकारका प्रासुरु ही आहार ग्रहण करना चाहिए, यदि प्रासुक न ग्रहण करे तो सचित्तका त्याग करना चाहिए, यदि सचित्तका भी त्याग न करे तो अनन्तकाय और बहुबीजका त्याग तो करना ही चाहिए। उपरोक्त सब न कर सके तो कमसे कम - सचित्त १, द्रव्य (खाद्यपदार्थोंकी सख्या) २, विकृति (विगई - दूध आदि) ३, उपानत् (पगरखी मौजे आदि) ४, વાહનવિધિપરિમાણુ છે (૨૩) પગની રક્ષાને માટે પગરખા માજા વગેરેની મર્યાદા કરવી એ ઉપાનવિધિપરિમાણ છે (૨૪) સૂવાને માટે ખાટ ખાટલા આદિની મર્યાદા કરવી એ શયનવિધિપરિમાણ છે (4) सायशी, तासूस, माहि સચિત્ત વસ્તુઓની મર્યાદા કન્વી એ ચિત્તવિધિપરિમાણુ છે (२६) आदिभ સ્વાદિમ આદિ દ્રન્ગેાની બાબતમા એક બે આદિ સખ્યાની મર્યાદા કરવી એ દ્રવ્યવિધિપરિમાણુ છે
તાત્પર્ય એ છે કે જે ઉત્કૃષ્ટ વ્રતધારી છે તેણે ચારે પ્રકારના પ્રાસુક આહાર જ ગ્રહણુ કરવા જોઇએ, જો પ્રાસુક ન ગહણ કરે તે ચિત્તને ત્યાગ કરવા જોઈએ, જો સચિત્તના પણ ત્યાગ ન કરે તેા અનતકાય અને બહુબીજને ત્યાગ તે કરવા જ જોઈએ એ બધુ ન કરી શકે તા ૧ સચિત્ત, ૨ દ્રવ્ય ( अद्य पहार्थोनी सख्या ), 3 विकृति (विगड - दूध विगेरे ) ४ उपानतु
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उपासकदशास्त्रे ॥ कर्मत उपभोगपरिभोग परिमाणवतम् ॥ उवभोगाइसु सारण, दव्याणमुवज्जणाय वावारो। तस्सि ज परिमाण, चहऊणऽचतमावज्ज ॥१॥ इणमुवभोगाईण, कम्मा चयमागमे समक्वायं । इति । एतच्छाया च--
" उपभोगादिपु साधन द्रव्याणामुपार्जनाय व्यापारः। तस्मित् यत्परिमाण, त्यक्त्वाऽत्यन्तसावधम् ॥ १ ॥
इदमुपभोगादीना कर्मतो व्रतमागमे समाख्यातम् । " इनि। विलेपन ब्रह्मचर्य दिशा स्नान भक्तानां विपये प्रतिदिन यथाशक्ति नियमोऽवश्य कत्तव्यः ॥
अथ कर्मत उपभोग परिभोग परिमाणव्रत व्याख्यास्यामः
उपभोगपरिभोगसाधनीभूतद्रव्योपार्जनार्थ यो व्यापार सोऽप्युपचारादुप भोगपरिभोगशब्देनोच्यते, इत्येव च कर्मतः व्यापारत इत्यर्थस्तस्मादुपभोग परिभोगयो. प्राप्त्यर्थमत्यन्तसावधव्यापारपरित्यागपूर्वक यन्मर्यादाक्रण तत्क मत उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रतमिति भाव ॥ ताम्बूल ५, वस्त्र ६, पुष्प ७, वाहन ८, शयन (खाट-पलग आदि) " विलेपन (चन्दनादि) १०, ब्रह्मचर्य ११, दिशा १२, स्नान १३ आर भक्त (भोजन) १४, इनके विषयमे मर्यादा करने रूप चौदह नियम तो श्रावकको यथाशक्ति प्रितिदिन अवश्य चितारने (करने) चाहिए।
अब कर्मसे उपभोग-परिभोग परिमाणवतका व्याख्यान करते हैं
उपभोंग परिभोगके योग्य पदायाँकी प्राप्तिका साधन द्रव्य है. अत उस द्रव्यको उपार्जन करने के लिए किया जाने वाला व्यापार भी उपभोग परिभोग शब्दसे कहा जाता है, इसलिए इसका अर्थ यह हुआ कि उपभोग परिभोगको प्राप्तिके लिए अत्यन्त सावध व्यपारका (५५मा भात), ५ तास, ६ पर, ७ पु०५, ८ पान, ८ शयन (पाट५० वगैरे ), १० विवेपन (यहना), ११ प्रायः, १२ , १३ स्नान અને ૧૪ ભ ભેજન), એટલી બાબતમાં મર્યાદા કરવા રૂપ ચૌદ નિયમે તે શ્રાવકે યથાશક્તિ પ્રતિદિન અવશ્ય કરવા જોઈએ
હવે કર્મથી ઉપભેગ-પરિભેગ– પરિમાણુ–વતન વ્યાખ્યાન કરીએ છીએ -
ઉપભોગ– પરિભેગને ચગ્ય પદાર્થોની પ્રાપ્તિનું સાધન દ્રવ્ય છે એટલે એ દ્રવ્યને ઉપાર્જન કરવાને માટે કરવામાં આવતે વ્યાપાર પણ ઉપભોગ પરિભેગ શબ્દથી જ કહેવામા આવે છે, તેથી એને અર્થ એ થયો કે ઉપભેગ–પરિભાગની
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका मू० ११ धर्म० उपभोगपरि०
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शिक्षात्रतानि (४) इह सवुत्ता सिक्खा, परमपयप्पत्तिसाहिया किरिया । तब्बलाई चयाइ, जाइ सिक्खाया एयाइँ ॥ १ ॥ सामाड च टेसावगामिय पोसहोवधासो य । अहहीण सविभागो, इञ्चेव ताणि चत्तारि ॥२॥ एतच्छाया च--- "इह समुक्ता शिक्षा, परमपदमाप्तिसाधिका क्रिया । तद्वहुलानि व्रतानि, यानि शिक्षाव्रतान्येतानि ॥ १ ॥ सामायिक च देशावकाशिक पोपपोपवासश्च । अतिथीना सविभागः, इत्येव तानि चत्वारि ॥ २ ॥ अथ शिक्षात्रतान्याह-~
'चत्वारि शिक्षे-'ति--शिक्षण शिक्षा परमपदमाप्तिसाधनीभूता क्रिया तस्यै, यवा तत्मभानानि प्रतानि-शिक्षानतानि पुन जुनरासेवनार्हाणीत्यर्थः। एतानि चत्वारि यथा-सामायिक, देशावकाशिक, पोषधोपवासोऽतिथिसविभागश्चेति । तत्रपरित्याग करके (व्यापारकी) मर्यादा कर लेना कर्मसे उपभोग परिभोग परिमाण व्रत है।
शिक्षाबत (४) परम पदको प्राप्त करनेकी कारणभूत क्रियाको शिक्षा कहते है। शिक्षाके लिए व्रत या शिक्षा प्रधान व्रत शिक्षावत कहलाते है, अर्थात् शिक्षाबत वे है जिन्हे बारम्बार सेवन करना पड़ता है। शिक्षाव्रत चार हैं-(१) सामायिक, (२) देशावकाशिक, (३) पोपधोपवास और (४) अतिथिसविभाग। પ્રાપ્તિને માટે અત્યંત સાવદ્ય વ્યાપારને પરિત્યાગ કરીને (વ્યાપારની મર્યાદા કરી લેવી એ કર્મથી–ઉપગ-
પગપરિમાણ વ્રત છે
शिक्षारत (४) પરમ પદને પ્રાપ્ત કરવાની કારણભૂત ક્રિયાને શિક્ષા કહે છે શિક્ષાને માટે વ્રત યા શિક્ષાપ્રધાન વ્રત એ શિક્ષાવ્રત કહેવાય છે. અર્થાત્ શિક્ષાવ્રત એ છે – જેને વાર વાર સેવન કરવું પડે છે શિક્ષાવ્રત ચાર છે (૧) સામાયિક, (૨) દેશવકાશિક, (૩) પિપવાસ, અને (૪) અતિથિસ વિભાગ
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उपासकदशास्त्रे
( ९ सामायिकव्रतम् ) -
जो सव्वजीवेत समाणभावो, अगगदोसेण समो इहेसो । एयस्म आयो कहिओ समायो, मामाहय रोह वय तयत्थ ॥ ३ ॥ चाओ सावज्जजोगाण, णिरवज्जाण संचण । आवस्सग चये अस्ति, - मुभय किंति बुचड ॥ ४ ॥
यः सर्वrty समानभावः, भरागदोषेण सम उप० । एतस्याऽऽयः कथितः समाय, सामायिक भवति व्रत तदर्थम् ॥ ३ ॥ त्यागः सावद्ययोगाना निरपद्याना सेवनम् । आवश्यक तेऽस्मिन्नुभय किमित्युच्यते ॥ ४ ॥
सामायिकम् - सम' - समत्व = रागद्वे परहितत्वेन सर्वेषु जीवेषु स्वात्मसाम्यचन्च, सम शब्दस्यात्र भावप्रधाननिर्दित्वात् तस्यऽऽय. =माप्तिः समायः प्रवर्द्ध मानशारदचन्द्र लावत्मतिक्षणविलक्षणज्ञानादिलाभ, स प्रयोजनमस्य सामायिक, यद्वो समस्याऽऽयो यस्मात्तत्समाय तटेल सामायिक, तच्च तद्वतच सामायिक व्रतम् । एतद्धि सर्वसुखनिदानभूताया' सर्वेषु जीवेषु स्वात्मतुल्यदर्शनरूपाया समताया: प्राप्तयेऽनुष्ठीयते । अत्र च माद्ययोगपरिवर्जन निरवद्ययोगप्रतिसेवन चाssवश्यक, तन पापोत्पादकाना कायिक- वाचिक मानसिकाना व्यापा ( ९वें व्रतका वर्णन )
(१) सामायिक - सम भावका आय (प्राप्ति) होना समाय है, और समाय के लिए की जानेवाली क्रिया को सामायिक कहते हैं । समस्त सुखोके साधन और प्राणीमात्रको अपने समान देखनेवाले ऐसे समता भावकी प्राप्ति के लिए सामायिक व्रतका अनुष्ठान किया जाता है। इसमें सावध योगका त्याग और निरवद्ययोगका सेवन करना आवश्यक है । मन वचन और कायाके पाप-जनक व्यपारोंका कालकी मर्यादा करके त्याग कर देना
( ८-नवमा व्रतनु चार्जुन)
(१) सामायिङ -- समभावनी साय (प्राप्ति) थपी यो समाय छे, आने
સમાયને માટે કરવામા આવતી ક્રિયાને સામયિક કહે છે અધા સુખાના સાધનભૂત અને પ્રાણીમાત્રને પેતાની સમાન જોનારા એવા સમતાભાવની પ્રાપ્તિ માટે સામાયિક વ્રતનું અનુષ્ઠાન કરવામાં આવે છે એમા સાવધયેગના ત્યાગ અને નિરવદ્યયુગનુ સેવન કરવુ આવશ્યક છે. મન, વચન અને કાયાના પાપજનક १ - - ' तदस्य प्रयोजनम्' इति ठक् । २ -- विनयादित्स्वार्थे ठकू ।
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका मू० ११.धर्म० उपभोगपरि० २२९
कम्माण पावहेऊण, कालओ परिवज्जण । सावजजोगसचाओ, णेओ एत्थ जिणागमे ॥५॥ सुद्धाण किरियाण ज, सव्वहा परिपालणं । तमेय णिरवज्जक्ख,-जोगसेवणमीरिय ॥ ६ ॥ समत्तापत्तये चऽस्सो,-भयस्सावस्सगत्तण । तम्हा एय दुग तुल्छ, जयणेण समायरे ॥ ७ ॥ वोच्छ सामात्यस्सास्स, वयस्मायरणे विहिं ।। समणस्सतिए गच्चा, कुज्जा सामाइयव्यय ॥८॥ ज वा पोसहसालाए, उज्जाणे वा गिहेवि वा । सुविवित्ते थले ठिच्चा, अणुचिढ़े जहिं-कहिं ॥९॥ कर्मणा पापहेतना, कालतः परिवर्जनम् । सावद्ययोगसत्यागो ज्ञेयोऽत्र जिनागमे ॥ ५ ॥ शुद्धाना क्रियाणा यत्सर्वथा परिपालनम् । तदेतन्निरवद्याख्य योगसेवनमीरितम् ॥ ६ ॥ समत्वापत्तये चास्योभयस्यारश्यकत्यम् । तस्मादेतदद्विक तुल्य, यतनेन समाचरेत् ॥ ७ ॥ वक्ष्ये सामायिकस्यास्य, व्रतम्याचरणे विधिम् । श्रमणस्यान्ति के गत्वा, कुर्यात्सामायिव्रतम् ॥ ८॥ यद्वा पोपधशालायामुथाने वा गृहेऽपि वा ।
सुविविक्त स्थले स्थित्वा,-ऽनुतिष्ठेद् यत्र कुत्र ॥९॥ राणा (दोषाणा) कालमर्यादया परित्यागः-सावद्ययोगपरिवर्जनम् ॥ ५॥शुद्धाना क्रियाणामाचरण निरवद्ययोगप्रतिसेवनम्, साम्यभावप्राप्तये चैनयोस्तुल्य प्रयोजनमस्ति तस्मात् सावधयोगपरिवर्जनयन्निरवद्ययोगपरिसेबनेऽपि सप्रयत्नेन भाव्यम्। सावधयोग परित्याग है और शुद्ध क्रियाओंमे प्रवृत्ति करना निरवद्य योगका प्रतिसेवन है । समताभावकी प्राप्ति करनेके लिए ये दोनों समान रूपसे उपयोगी हैं, अत सावद्य योगके त्याग करनेकी तरह निरवद्य योगमें प्रवृत्ति करनेका भी प्रयत्न करना चाहिए । વ્યાપારની કાળની મર્યાદા કરીને ત્યાગ કર એ નવગ-પરિત્યાગ છે અને શુદ્ધ ક્રિયાઓમાં પ્રવૃત્તિ કરવી એ નિરવદ્ય-યાગનું પ્રતિસેવન છે સમતાભાવની પ્રાપ્તિ કરવાને એ બેઉ સરખી રીતે ઉપયેગી છે, માટે સાવદ્યોગને ત્યાગ કરવાની પદે નિરવદ્ય-ગમ પ્રવૃત્તિ કરવાને પણ પ્રયત્ન કરે જોઈએ
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उपासकदशास्त्रे
धओत्तरीओ परिहाणवस्थ, तहेव मुरोगदस वसाणो । बहु सदोर मुहवत्तिमासे, पमट्टभूसधरियासणट्टो ॥ १० ॥ सणमुकरणो रमा तयाणि, ममण वा जिणमेव वदिऊण | हरियावहियाविाणजुत्तो, समणाणाअ घरे य काउसग ||११||
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धृतोत्तरीयः परिधानत्र, तथैव मुकेन्दश प्रसान |
वा सदरा मुग्ववत्रीमास्ये, प्रमृष्टभूसम्तृतासनस्थः ॥ १० ॥ सनमस्करणो रसात्तदानी श्रमण वा जिनमे नन्दित्वा । ऐर्यापथिकी विधानयुक्तः श्रमणानया चरेच कायोत्सर्गम् ॥ ११ ॥ एतद्व्रताचरण विधिर्यथा
श्रमणोपाये, पोपधशालायामुयाने स्वपरगृहे वा अर्थाद् यत्र निर्व्यापा रता चित्तस्थिरता च सर्वथा स्यादेतादृशे विविक्त स्थले यत्र कायि-उत्तरीय मुक्तक दश परिधानवास वसानः प्रमार्जन्या प्रमृष्टाया भूमावास्तआसने समुपविष्ट समतिलेखन सदोरकमुखवत्रिका मुखे वदध्वा नमस्कारमन्नमुच्चार्य श्रमगसर त तद्सत्वे श्री वर्द्धमानस्वामिन पन्दित्वा सामायिकार्थ तत्सकाशादाज्ञामादाय श्रावक
१ श्रमणोपाश्रये - " समणीस्सए " इति भगवती ८ उ ५ । इस व्रत आचारणकी विधि इस प्रकार है
मुनिके समीप, पौपधशालामे, उद्यानमे या स्व परके गृहमें अर्थात् जहाँ मनमें सकल्प विकल्प न उठें और चित्त स्थिर रहे, ऐसे किसी भी एकान्त स्थानमे मुक्तैकदश होकर अर्थात् धोतीकी एक लॉग खुली रख कर उत्तरासण ( दुपट्टा) ओढकर पूँजणीसे पूँजी हुई भूमिमें बिछे हुए आसन पर बैठ कर, पडिलेहण करके डोरासहित मुखवस्त्रिका मुख पर बाँध कर, 'णमोक्कार' मत्र वोल कर यदि साधुजी हो तो उन्हें वन्दना करके, और यदि न हो तो श्री वर्धमान स्वामीको वन्दना करके उनसे सामायिकको आज्ञा लेकर श्रावक, क्रमसे ऐर्यापथिक कायोत्सर्ग
વ્રતના આચરણની વિધિ આ પ્રમાણે છે
સુતિની સમીપે, પૌષધશાળામાં, ઉદ્યાનમાં ચા પારકા કે પાતાના ઘરમા અર્થાત્ જયા મનમાં સકલ્પ-વિકલ્પ ન ઉઠે અને ચિત્ત સ્થિર રહે એવા કેાઇ પશુ એકાન્ત સ્થાનમા મુકીકદશ થઇને અર્થાત્ ધાતીયાની પાટલી છૂટી કરીને ઉત્તરાસણુ (પ્રેસ) ઓઢીને પૂજણીથી પૂજેલી ભૂમિમાં બિછાવેલા આસન परभीने, પડિલેહણ કરીને, દેારાસતિ મુખવસ્ત્રિકા મુખ પર याधीने, 'शुभार भत्र ખોનીને જે સાધુજી હૈાય તે તેમને વદના કરીને અને ન હોય તે શ્રી વધ માન સ્વામીને વદના કરીને અને તેમની પાસેથી સામાયિકની આજ્ઞા લઈને શ્રાવક,
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अगारधर्मसजीवनी टीका सू० ११ धर्म० उपभोग परि० २३१ तओ पढिय 'लोगस्म,' पाढ सडो समाहिओ। समणस्स मुहा विन्न सावगस्स मुहावि वा ॥ १२ ।। तयभावे सय वावि, पसन्नप्पा वियक्वणो । 'करेमि भते' इच्चस्स, पाढ किच्चा जिइदिओ ॥ १३ ॥ दोहिं करणओ तीहिं जोएहिं च जहिन्छिय । गिहिज्जा ममणोवासी, वय सामाहय सया ॥ १४ ॥ 'निमोत्यु णे'-ति तप्पच्छा, दुवार पपढे सुही। समण बद्धमाण वा, वदिऊण तहा पुणो ॥ १५ ॥ तत पठित्वा 'लोकस्य'-पाठ -श्राद्धः समाहितः । अमणस्य मुखाविज्ञश्रावकस्य मुसादपि वा ॥ १२॥ तदभावे स्वय वाऽपि, प्रसन्नात्मा विचक्षणः। 'फरेमि' भते' इत्यस्य, पाठ कृत्वा जितेन्द्रिय ॥१३॥ द्वाभ्या करणाभ्यां निभियोगैश्च यथेच्छितम् । गृहीयाच्छमणोपासी, त सामायिक सदा ॥ १४ ॥ 'नमोत्यु ण-इति तत्पश्चाहिवार प्रपठेत्सुधी. ।
श्रमण वर्द्धमान वा, वन्दित्वा तथा पुनः ॥ १५ ॥ क्रमेणैर्यापथिक्याः कायोत्सर्गपालयेत्ततो लोगस्स' इति पठित्वाश्रमणमुखाद् विज्ञ स्य श्रमणोपासनस्य मुग्यात्स्वयमपि वा 'फरेमि भते' पाठेन द्वाभ्या करणाभ्या त्रिभियोगैश्च यथेच्छमेक्वयादिक्रमेण सामायिक गृह्णीयात्, तदनु द्विः 'नमोत्यु ण' पठेत, पुनः श्रमण श्रीवर्द्धमानस्वामिन चा वन्दित्वाऽधस्तनोक्तविधिना पञ्च पालन करे । इसके पश्चात् 'लोगस्स' का पाठ करे । फिर माधुजीसे या विद्वान् श्रावकसे अथवा अपने ही मुखसे 'करेमि भते, के पाठ द्वारा दो करण तीन योगोसे इच्छानुसार एक दो तीन आदि सामायिक ले लेवे। इसके पश्चात् 'नमोत्थु ण' का दो बार पाठ करे। फिर श्रमण (साधु) या श्री महावीर स्वामीको वन्दना करके, नीचे लिखी हुई विधिके ક્રમ કરીને પથિક તાયેત્સર્ગ પાલન કરે, પછી “લોગસ્સને પાઠ કરે, પછી साधु पामेथी या विद्वान् श्रायपासेथी मया पोताना भुमडे 'करोमि મિ ના પાઠ દ્વારા બે કરણ ત્રણ ચગે કરીને ઈચ્છાનુસાર એક બે ત્રણ આદિ सामायि: दावे त्या२पछी नमोत्यु ण'नेमे पा२ ५४ ४रे पछी श्रम (સાધુ) યા શ્રી મહાવીર સ્વામીને વદના કરીને, નીચે લખેલી વિધિ પ્રમાણે
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उपासकवचामो समिइपचग-गुत्तितिगासिओ, वचारे य मुणीव समाहिओ । पवयणामियसाययसगओ, गियसरूवविचिंतणतप्परो ॥ १६ ॥ सज्झाय झाणओ धम्म चच्चाए य मुह मुह । अणुचिट्टे वय सामा, हय दोसविवज्जिये ॥ १७ ॥" इति ।
समितिपञ्चगुप्तिकाश्रितो व्यवहरेच मुनिरिच समाहितः । प्राचनामृतम्पादयशगतो निजम्वरूपरिचिन्तनतत्परः ॥ १६ ॥ स्वाध्याय ध्यानतो धर्मचर्चया च मुहुर्मुहुः ।।
अनुतिष्ठेद् गत सामायिक दोपविवर्जितम् ॥ १७॥" इति । समितीस्तिस्त्रो गुप्तीश्चाऽऽराधयन् मुनिवप्रमत्तो व्याहरेत, स्वाध्याय ध्यान धर्मच चर्चाभिर्दोपरहित-दोपैमनोवाकायसम्बन्धिभिद्वात्रिंशझो रहित वर्जित मुहुर्मुहुः सामायिकमनुतिष्ठेत्, तर मनसो दश, वचसो दश, कायस्य द्वादशेत्येव सर्वे द्वात्रिंशद्दोपा भवन्ति, तत्र
मनसो दश दोपा यथा"अविवेग जसो-कित्ती लाभत्थी गच्च-भय-नियाणथी ।
ससरोस अविणओ अवहुमाए य भणियव्वा" ॥१॥ अनुसार पाच समिति तीन गुप्तिकी आराधना करता हुआ मुनिकी तरह अप्रमादी होकर विचरे । अर्थात्-स्वाध्याय, ध्यान, धर्मचर्चा आदि करता हुआ बारम्बार निर्दोष सामायिकमे रहे ।
सामायिकमे मन वचन काया सम्बन्धी बत्तीस दोष होते हैं वे इस प्रकार
सामायिकमे मनके दस दोप(१) विवेक विना सामायिक करे तो 'अविवेक' दोष । (२) यशकीर्तिके लिये सामायिक करे तो ' यशोवाछा' दोष । પાચસમિતિ ત્રણ ગુપ્તિની આરાધના કરતા મુનિની પેઠે બપ્રમાદી થઈને વિચરે અર્થા–સ્વાધ્યાય, ધ્યાન, ધર્માચર્યા આદિ કરતા વાર વાર નિર્દોષ સામયિકમા રહે
સામાયિકમાં મન-વચન-કાયા–સ બધી બત્રીસ દોષ હોય છે તે मा प्रमाणे
સામાયિકમા મનના દસ દોષ– (૧) વિવેક વિના સામાયિક કરે તે “અવિવેક દેશ (૨) યશકીર્તિને માટે સામાયિક કરે તે યશેવાળા દોષ
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भगारधर्मसञ्जीवनी टीका सूत्र ११ धर्म० श्रावकधर्म सामायिकम्
वचसो दश दोप यथा
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'कुवयणं सहसाकारे सच्छदसखेव कलर च ।
विगहा विहासोऽसुद्ध, निरवेक्खो मुणमुणा दोसा (दस) ॥२॥
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(३) धनादिकके लाभ की इच्छासे सामायिक करे तो 'लाभवांना' दोष । (४) गर्व - अहकार ( घमन्ड ) सहित सामायिक करे तो 'गर्व' दोष । (५) राजादिकके भयसे सामायिक करे तो 'भय' दोष ।
(६) सामायिक में नियाणो (निदान) करे तो 'निदान' दोष । (७) फलमें सन्देह रखकर सामायिक करे तो 'सशय' दोष । (८) सामायिकमें क्रोध, मान, माया, लोभ करे तो 'रोप' दोष । (९) विनयपूर्वक सामायिक न करे, तथा सामायिकमें देव, गुरु, धर्मकी अविनय आशातना करे तो ' अविनय ' दोष ।
(१०) बहुमान - भक्तिभावपूर्वक सामायिक न करके घेगार (वेठ) समझ कर सामायिक करे तो 'अवटुमान ' दोष | वचनके दश दोप
(१) कुत्सित वचन बोले तो 'कुवचन ' दोष । (२) विना विचारे बोले तो 'सहसाकार ' दोष |
(३) सामायिक में राग उत्पन्न करनेवाले ससारसबन्धी गीत ख्याल आदि गाने गावे तो 'स्वच्छन्द ' दोष |
(૩) ધનાર્દિકના લાભની ઇછાથી સામાયિક કરે તેા ‘લાભવાછા’ રાજ (૪) ગવાહ કાર સહિત સાયિક કરે તે ગવ દોષ (૫) રાજાદિકના ભયથી મામાયિક કરે તે ભય' દાષ (९) सामायिकमा नियालु (निधान) उरे तो 'निधान' होष
(૭) ફળમા સદેહે રાખીને સામાયિક કરે તે સય” દોષ (८) सामाविमा अध, भान, भाया, बोल रे तो 'शेष' होष (૯) વિનયપૂર્ણાંક સામાયિક ન કરે, તથા સામાયિકમાં ધ્રુવ ગુરુ ધના અવિનય અશાતના કરે તે અવિનય' દેષ
(૧૦) મહુમાન-ભક્તિ ભાવપૂર્વક સામાયિક ન કરતા વેઠ સમજી સામાયિક કરે તે ‘અબહુમાન’ દ્વેષ
વચનના हस होष
(૧) કુત્સિત વચન ખોલે તે ‘કુવચન’ દાષ
(ર) વિના વિચાયે બોલે તે; ‘સહસાકાર' કાય
(૩) સામાયિકમા રાગ ઉત્પન્ન કરનારા સસારસ ખધી ગીત ખ્યાલ અાદિ ગાણા ગાય તે સ્વચ્છંદ' દોષ
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RRY , . . " कायस्य द्वादश दोपा यया
" कुआसण चलासणं चलदिट्टी, , सावनकिरिया-लपणाकुचण-पसारण । (४) सामायिक पाठ और वाक्यको टूका करके योले तो 'सक्षेप' दोष। (५) सामायिकमें क्लेशकारी वचन बोले तो 'कलह ' दोष । (६) 'राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा, भोजनकथा' इन चार कथामिस
कोई कथा करे तो 'विकथा' दोप। (७) सामायिकमें हसी, मसखरी, ठहा, रोल करे तो 'हास्य' दोष । (८) सामायिकमें गडपड़ करके उतावलार योले, और अशुद्ध पाठ
बोले तो 'अशुद्ध' दोप । (९) सामायिकमे उपयोग विना घोले तो निरपेक्ष' दोष। . (१०) सामायिकमें स्पष्ट उच्चारण न करके गुण २ योले तो मुणमुण दोष।
कायाके चारह दोप(१) सामायिकमे अयोग्य आसनसे बैठे, जैसेकि-ठासणी मारके बैठे,
पाच पर पाव रख कर बैठे, ऊचा आसन पलाठी मार कर बैठा इत्यादि अभिमानके आसनसे बैठे नो 'कुआसण' दोष । (૪)-સામાયિકમાં પાઠ અને વાકયને , તા કરીને બોલે તો “સ ક્ષેપ છેષ - (५) सामायिसभा सेशनु क्यान मात (૬) “ રાજકથા દશકથા, સ્ત્રીકથા, ભજન કથા” એ ચાર કથાઓમાંથી
કઈ કથા કરે તે વિકથા” દેષ (७) सामायिमा बासी, भ५४३, हो, याका ४रे तो हास्य' दुष (૮) સામાયિકમાં ગરબડ કરીને ઉતાવળે-ઉતાવળે બેલે અને અશુદ્ધ છે
તે “અશુદ્ધ દેષ (૯) સામાયિકમાં ઉપગ વિના બોલે તે નિરપેક્ષા દોષ
સામાયિકમાં સ્પષ્ટ ઉચ્ચારણ ન કરતા ગુણ-ગુણ બાલ 'भुरभु होष
કાયાના –બારદોષ (૧) સામાયિકમાં અગ્ય આસને બેસે જેમકે પગ બાંધીને બેસે, પગ પર
પગ ચડાવીને બેસે, ઉચા આસને પલાઠી મારીને બેસે, ઈત્યાદ અભિમાનના આસને બેસે તે “કુસણું ષ
(१
)
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aritratait टीका सू० ११ धर्म० सामायिकम्
८
२
१०
आलस मोडण मल विमासणं,
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निधा वैयावचन्ति पारस कायदोसा ॥ ३ ॥ " इति ।
(२) सामायिकमे स्थिर आसन न रखे (एक और एकही जगह आसन न रखे, आसन बदले, चपलाई करे ) तो ' चलासन ' दोष । (३) सामायिक दृष्टि स्थिर न रखे इधर उधर दृष्टि करे तो चलदृष्टि ' दोष |
(४) सामायिक में शरीरसे कुछभी सावद्य क्रिया करे, घरकी रखवाली करे, शरीर से इशारा करे तो 'सावधक्रिया' दोष, किन्तु कोई जीव जलता हो गिरता हो इत्यादि कष्टमे पडा हो उस पर दया करके उसे बचानेमे दोष नही है क्योंकि यहां सावद्य क्रियाका निषेध है निरवद्यका नही ।
C
પ
(५) सामायिकमे भीत आदिका आधार लेवे तो 'आलयन' दोष | (६) सामायिकमे चिना प्रयोजन हाथ पगको सकोचे पसारे तो 'आकुचन -पसारण' दोष |
(७) सामायिकमे अग मोडे तो ' आलस ' दोष |
(८) सामायिकमे हाथ पैरको मोडे - कडका काढे तो 'मोटन' दोष ।
(૨) સામાયિકમા સ્થિર આસન ન રાખે (એકને એક જગ્યાએ આસન ન રાખે, આસન ખુલે, ચપલતા કરે) તે ‘ચલાસન’ દોષ (૩) સામાયિકમાં સૃષ્ટિ સ્થિર ન રાખે, આમ તેમ દૃષ્ટિ ફેરવે તે
'यसष्टि' होष
(૪) સામાયિક્રમા શરીરે કાઈપણ સાવદ્ય ક્રિયા કરે, ઘરનું રખવાળુ કરે, શરીરથી ઇશારા કરે તે ‘સાવદ્ય ક્રિયા’ દોષ પણુ કેાઈ જીવ બળતા હાય, પડતે હાય, ઇત્યાદિ કષ્ટમાં પડયા હાય તેની પર દયા કરીને તેને ખચાવવામા દોષ નથી, કારણ કે તેમા સાવક્રિયાને નિષેધ છે, નિરઘના નહિ
(૫) સામાયિકમા ભીંત ક્રિને આધાર લે તે ‘આલ ભન' દોષ (૬) સામયિકમા પ્રયેાજન વિના હાથ-પગને સાચે પસાર તે આકુચન પસારણ પ
(૭) સામાયિકમા અગ મરડે તે આલસ' દેષ
(૮) સામયિકમા હાથપગના ટાચકા ફાટ તા મેટન દ્વાષ
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(१०-- देशावकाशिकवतम् )
परिमाण दिसियर, गाहिय जारिस पुरा । देशाचगासो तस्सेगदेसावद्वाणमीरिओ ॥ १ ॥
एतच्छाया च
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परिमाण दिखते, गृहीत यादृश पुरा । देशावकाशस्तस्यैक - देशवस्थानमीरितः ॥ १ ॥
अत्रेदमवधेयम्-गार्हस्थ्यकार्यनिर्वाहकः श्रावकैरनुमोदनया सर्वेषा सावध कर्मणा परित्यागो दुःशकः कर्तुमिति सामायिकानुष्ठानवेलाया सुनितुल्यत्वेऽपि केवल द्वाभ्या करणाभ्या त्रिभियोगश्चैव सावधयोगपरित्यागः क्रियत इति । एकस्य सामा
(९) सामायिकमें मेंल उतारे तो 'मल ' दोष ।
(१०) गलेमें तथा गाल पर हाथ लगाकर शोकासनसे बैठे तो 'विमा सण ' दोष ।
(११) सामायिक में नींद लेवे तो ' निद्रा ' दोष ।
(१२) सामायिक विना खास कारण दूसरेके पास वैयावच करावे तो वैयावृत्य ' दोष |
C
उपासकशामु
ये ३२ दोष सामायिकके हैं इन बत्तीस दोषोंको टालकर शुद्धनिर्दोष सामायिक करना चाहिये । इति ।
यहाँ यह तात्पर्य समझना चाहिए- गृदस्थोके काम करनेवाले श्राव कोसे अनुमोदना द्वारा समस्त सावध कार्योंका परित्याग होना कठिन हैं, इसलिए सामायिकके समय साधुओंके समान होने पर भी वे दो
(4) सामायिम्भा भेल उतारे तो 'भ' द्वेष
(૧૦) ગળામા તથા ગાલ પર હાથ લગાડીને ‘વિમાસણ’ દ્વેષ
શેકાસને બેસે
કવી જોઈએ
તે
(૧૧) સામાયિકમા ઉંઘ લે તે નિદ્રા” દ્વેષ (૧૨) સામાયિકમા ખાસ કારણ વિના બીજા પાસે વૈયાવશ્ય કરાવે તે
વૈયાવૃત્ય' દોષ
એ બત્રીસ દેષ સામાયિકના છે, તે ટાળીå શુદ્ધ નિર્દોષ સામાયિક
અહીં એ તાપ સમજવાનુ છે કે-ગૃહસ્થાશ્રમનું કામ અનુમાઇનદ્વારા બધા સાવદ્ય-કમાંના પરિત્યાગ કરવાનું કઠણ છે, એટલે સામયિકને અમયે સાધુઓની સમાન રહેવા છતા પણ તે એ કરણ ત્રણ ચેગે કરીને સાવધ
કરનારા શ્રાવકાથી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका सू० ११ धर्म० देशावकाशिक
निव्युत्त ज वय तेणमेय देसावगासिय ।
आजीवणमहठ्ठ, चोमासट्टमहावि वा ॥२॥ दिसासु कियमज्जाओ, कुज्जा एगे दिणे पुणो । ज मज्जायाविहिं देसावगासियमिणं मय ॥३॥ निवृत्त यव्रत तेनैतद्देशावकाशिकम् । आजीवनार्थमन्दार्थ चातुर्मास्यार्थमथापिवा ॥२॥ दिक्षु कृतमर्याद , कुर्यादेकस्मिन् दिने पुनः ।
यन्मर्यादाविधि, देशावकाशिकमिद मतम् ॥३॥ यिकस्य कालस्तु मुहूर्त' यावत् ।। __गत सामायिक व्रतम् । अथ तदुत्तरस्थमाह-'देशे'-ति-दिग्वते गृहीत यदिपरिमाण तस्यैकदेशो देशस्तत्रावकाशगमनाद्यवस्थान-देशावकाशस्तेन नित्त देशावकाशिकम्-दिग्वतगृहीतस्य दिक्परिमाणस्य प्रतिदिन सक्षेपकरणमित्यर्थः । केचित्तु मागुक्तसर्वत्रतसक्षेपलक्षण देशावकाशिमित्याहुः । कश्चिदाजीवनार्य वत्सरार्थ चातुर्मास्यार्थ वा गमनागमनयो "एतावत्येव प्रदेशे मया
१ मुहूर्त (घटीद्वय) विंशत्युत्तरशतपलपरिमितः 'अड़तालीम (४८) मिन्ट' इति भाषामसिद्धः काल इति ।। करण तीन योगसे सावद्य योगका त्याग करते है । एक सामायिकका काल एक मुहर्त दो घडी-अर्थात् अडतालीस मिन्टका होता है।
(१०) दसवें व्रतका वर्णन ) (२) देशावकाशिक व्रत-दिग्वतमें जो दिशाओंकी मर्यादा की है उम मर्यादाको भी प्रतिदिन कम कर लेना-देशावकाशिक व्रत है। किसी-किसीका मत यह है कि पहेले के समस्त व्रतोंमें की हुई मर्यादाका सकोच करना देशावकाशिक व्रत है। तात्पर्य यह कि जिसने आजीवन, वर्ष या चौमासेमें यह मर्यादा कर ली है कि-'मैं इतनी दूर ચેગને ત્યાગ કરે છે એક સામાયિકને કાલ એક મુહુર્ત-બે ઘડી–અથવા અડતાળીસ મિનિટને છે
(१०) इसमा प्रतनु वर्णन (૨) દેશાવકાશિક વ્રત–દિગવ્રતમાં જે દિશાઓની મર્યાદા કરી છે, એ મર્યાદાને પણ પ્રતિદિન ઓછી કરી લેવી એ દેશવાશિક વ્રત છે કઈ કઈને એ મત છે કે-પહેલાના બધા વ્રતમાં કરેલી મર્યાદાને સકેચ કરો એ દેશાવકાશિક શ્રત છે તાત્પર્ય એ છે કે–જેણે આજીવન, વર્ષ યા ચોમાસામાં એવી મર્યાદા કરી
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उपास
एव चयाण सव्वेसिं, वृत्ताणमुवलक्खणं ।
तम्हा सखेवण कज्ज, सव्वत्येवं सुबुद्धिणा ॥ ४ ॥ " इति ।
एवं व्रताना सर्वेषामुक्तानामुपलक्षणम् । तस्मात्संक्षेपण कार्य, सर्वयेन सुबुद्धिना ॥ ४ ॥ " इति ।
गन्तव्य नातोऽधिके " इत्येव सर्वदिग्विषये कृतमर्यादस्ते ने कस्मिन् दिने पञ्चमह राय तयोस्तथाविध मत्यह मर्यादाकरणमिति भार | उपलक्षणमिद प्रागुक्ताना सर्वेषामेव व्रताना सक्षेपकरणस्य, तेन दिग्व्रतभिन्नेषु स्थलमाणातिपातनिरमणादि प्येवमेव सक्षेपः स्वयमूहनीयः, यथा - कस्यचिदपराधिनोऽताडनार्थमप्रतिज्ञातवता केनचित् महराद्यर्थ प्रतिज्ञातमित्यादि ।
एतद्व्रताङ्गीकारस्याऽयमाशयः -- यन्मर्यादिताद्वहिःस्थले गमनागमन प्रतिरोधेन प्राण्युपमर्दाभावेऽपि परद्वारा वाह्यकार्यसम्पादने सम्यग्नतरक्षण भवितु नाति तक ही जाऊँगा, इससे आगे नही' इस दिशाकी मर्यादामें एक दिन या पाँच पहर आदिके लिए और भी कम कर लेना देशावकाशिक व्रत है । पूर्वोक्त समस्त व्रतोका यह उपलक्षण है, इसलिए दिव्रत के सिवाय स्थूल प्राणातिपातविरमण आदि व्रतोमे सक्षेप करना भी देशावकाशिक व्रत है, यह बात स्वय विचार लेनी चाहिए। जैसे कि पहले जिसने अपराधोको तान न करनेकी प्रतिज्ञा नही ली है और वह एक दीन या पहरके लिये अपराधीको भी ताडन न करनेकी प्रतिज्ञा लेले तो वह भी देशावकाशिक व्रत है । इत्यादि ।
इस व्रतका आशय यह है-मर्यादा किये हुए स्थान से बाहर गमना गमनकी निवृत्ति हो जाती है, अतः वह प्राणियोंका उपमर्दन नहीं होता, तथापि दूसरे के द्वारा बाहरके काम कराने से व्रतकी भली भाँति
લીધી હાય કે “ હુ આટલે દૂર સુધી જ જઈશ, તેથી આગળ નહિ જ” તેણે એ દિશાની મર્યાદામાં એક દિન યા પાચ પહેાર આદિને માટે વધારા ઘટાડો કરી લેવા એ દેશાવકાશિક મત છે પૂર્વોક્ત બધા વ્રતનું એ ઉપલક્ષણ છે, એટલે દિગ્દત ઉપરાંત સ્કૂલ પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ તેમા સક્ષેપ કરવા એ પણ દેશાવકાશિત વ્રત છે, એ વાત પાતે ધારી લેવી જોઇએ, જેમકે જેણે અપરાધીને પ્રાતજ્ઞા લીધી ન હોય અને તે એક દિન કે પહેારને માટે અપરાધીને પણ તાડન ન કરવાની પ્રતિજ્ઞા લે, તેા તે પણ દેશાવકાશક વ્રત છે, ઇત્યાદ્ધિ
ન મારવાની
આ વ્રતના આશય એ છે કે—મર્યાદા કરેલા સ્થાનથી અહાર ગમનાગમનની નિવૃત્તિ થઈ જાય છે, એટલે ત્યા પ્રાણીઓનુ ઉપમન થતુ નથી, તથાપિ શ્રીન
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अगरधर्मसञ्जीवनी टीका सु. ११ धर्म० पौषधोपवासवतवर्णनम् (११- पौषधोपचासव्रतम् )
पुट्टी पोसो त जो, धाइ हवह पोसहो एसो । सो एच वा तहि जो, याओ पोसहोववासो सो ॥१॥ पव्वक्खा चउरो जे ते, अहमी-पमुहा तिही । विग्गहे एत्थ बीए उ, गेज्झा पोसहमहओः ||२||
एतच्छाया च
"पुष्टिः पोपस्त यो दधाति पोषध एपः ।
स एव वा तत्र च त्यागस्तुः पोपधोपवासः सः ॥१॥ पख्याश्चत्वारो ये तेष्टृमीमुखास्तिथयः । विग्रहेऽत्र द्वितीये तु ग्राह्याः पोपधशब्दत ॥२॥
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तत्र तादृशस्याऽऽकारस्यासम्भवात् । दिग्नतसक्षेपणे प्रेत्यप्रयोगादयो, व्रतान्तराणा माणातिपातादीना सक्षेपणे च बधबन्धादय एव भवन्त्यती चारा इति दिग्बतसक्षेप - करणमेव साक्षादुक्त देशावकाशिक नेतरदित्यवेयम् ।
गत देशात्र काशिकम् । अथैकादश व्रतमाह - 'पोपघे'- ति पोषण पोष पुष्टिरित्यर्थस्त धत्ते= गृह्णातीति पोषध, सचासावुपवासश्चेति यद्वोक्तयैव व्युत्पच्या पोपधमष्टम्यादिरूपाणि पर्वदिनानि, तत्र आधारादित्यागरूप गुणमुपेत्य वासः= रक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि यहाँ ऐसे आगारका अभाव है । दिग्व्रतको सकुचित करने पर प्रेप्यप्रयोग आदि, तथा प्राणातिपातविरमण आदिको सोचनेसे बध यन्ध आदि अतिचार ही होते हैं । इस प्रकार दिग्व्रतका सक्षेप करना ही साक्षात् देशावकाशिक व्रत है, भिन्न नहीं । ( ११ ग्यारह व्रतका वर्णन. )
(३) पोषधोपचास व्रत जो पोषणको धारण करे - अर्थात् पोषण करे उसे प्रोषध कहते है, और पोपध X उपवासको पोषधोपवास कहते માણુસ દ્વારા બહારના કામ કરાવવાથી વ્રતની રક્ષા સારી રીતે થતી નથી કારણ કે ત્યા એવા આઞાનના અભાવ છે દિવ્રતને મકુચિત કરીને પ્રેપ્સ–પ્રયાગ આદિ, તથા પ્રાણાતિપવિરમણુ આદિને સકુચિત કરીને વધઅન્ય આદિ અતિચાર જ થાય છે. એ પ્રમાણે દિગ્દતના સક્ષેપ કરવા એ સાક્ષાત્ દેશાવકાશિક વ્રત છે, તેથી ભિન્ન નથી (११) अभीभारभु प्रत
(૩) વૈષયપવાસ વ્રત જે પાપણને ધારણ કરે, અર્થાત પાષણ કરે તેને પાષધ વ્રત કહે છે, અને પોષધ–ઉપવાસને પાયેાપવાસ કહે છે અથવા એ
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COM
उपासकदा
आहारो गत्तसकारी, यभवेरं तहा पुणो । अव्वावारोति तन्भेया चउरो परिकित्तिया ॥ ३ ॥ ऍिएवि दुविश घुत्ता, देसओ सव्वओ तहा । कहेमि लक्खण एसिं, सव्वेसिं च पि पि ॥ ४ ॥
आहारो गात्रसत्कारो ब्रह्मचर्ये तथा पुनः । अव्यापार इति तद्भेदात्वारः परिकीर्तिताः ॥३॥ एतेऽपि द्विविधा उक्ता देशतः सर्वतस्तथा । कथयामि लक्षणमेपा सर्वेषा च पृथक् पृथक् ॥४॥
निवसनमुपवास इति पोषधोपवासः । एतत्तु व्युत्पत्तिमात्रमस्य मवृत्तिनिमित्तत्व त्वाहारादिचतुष्टयपरित्याग एवेति ध्येयम् । अष्टमीचतुर्दश्यमावास्यापूर्णिमास पर्वतिथिषु व्रताऽऽचरणाद्वैशद्येन धर्मपुष्टिः सपद्यते इत्यासु तिथिषु यदुपवसन तद्ि त्यर्थः । अय च - आहार शरीरसत्कारत्याग ब्रह्मचर्याऽव्यापारभेदाचतुर्द्धा, एते चत्वारो द्विधा - देशतः सर्वतश्च तत्र - आचामाम्लादिकरण देशत आहार, चतुर्विहैं । अथवा इसी व्युत्पत्ति के अनुसार अष्टमी आदि पर्वतिथियों को भी पोषध कहते हैं । उनमें आहार आदिका त्यागरूप गुणको धारण करके निवास करना पोष॑धोपवास है । यह अर्थ तो व्युत्पत्तिजन्य है, इसका प्रवृत्ति- अर्थ है आहार - आदि-चतुष्टयका परित्याग करना । तात्पर्य यह कि अष्टमी, चतुर्दशी, अमावास्या और पूर्णमासी, इन पर्व- दिनों में इस व्रतका आचरण करनेसे धर्मकी अधिक पुष्टि होती है, इसलिए इन दिनोंमें उपवास करना पोषधोपवास है । यह चार प्रकारका है --( आहार त्याग, (२) शरीर सत्कार त्याग, (३) ब्रह्मचर्य और (४) अव्यापार । इन चारोंके दो दो भेद हैं- एकदेशसे और सर्वदेशसे । (१) आषिल
વ્યુત્પત્તિને અનુસરીને આઠમ આદિ પતિથિને પણ પેષધ કહે છે એ તિથિમા આહાર આદિના ત્યાગરૂપ ગુણને ધારણ કરીને નિવાસ કરવા એ રાષધે:પવાસ છે એ અ તા વ્યુત્પત્તિજન્ય છે, એના પ્રવૃત્તિ-અર્થ છે. માહાર આદિ ચતુષ્ટયના પરિત્યાગ કરવા તે તાપ એ છે કે આઠમ, ચૌદશ, અમાસ અને પૂનમ, પદિનામા એ વ્રતનુ આચરણ કરવાથી ધર્મની અધિક પુષ્ટિ થાય છે, માટે દિવસેામા ઉપવાસ કરવા એ પાષધાપવાસ છે એ ચાર પ્રકારને છે. (૧) આહાર त्याग, (२) शरीर-सत्र - त्याग, (3) ब्रह्मार्थर्य गने (४) ब्यापार એ ચારેના પુન ખષે ભેદ છે, એકદેશે કરીને અને સર્વદેશે કરીને (૧) અય ખિલ આદિ
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अगारधर्मसजीपनी टीका सू० ११ धर्म. पोपधोपवीसनतवर्णनम् २४१
आयविलाहकरणमाहारो देमओ मओ । अहोरत्तट्ठमाहारपरिचाओ य सव्वओ ॥ ५ ॥ एवमुबट्टणाईण, चाओ कस्सवि देसओ । णेओ सरीरसधारो, सव्वेसिं सवओ तहा ॥६॥ रत्तीए दियसे वावि, कुमीलस्स विवज्जण । देसओ सधओ बभ' चेर सम्वत्थ वज्जण ॥७॥
आचामाम्लादिकरणमाहारो देशतो मतः । अहोरानार्थमाहापरित्यागश्च सर्वतः ॥ ५ ॥ एवमुद्वर्तनादीना त्याग स्यापि देशतः । ज्ञेयः शरीरसत्कार सर्वपा सर्वतस्तथा ॥६॥ रात्रौ दिवसे वाऽपि, कुशीलस्य विवर्जनम् ।
देशतः सर्वतो ब्रह्मचर्य सर्वत्र पर्जनम् ॥ ७ ॥ धस्याप्याहारस्याहोरागार्थ सर्वथा परित्यागम्तु सर्वत (१), उद्वर्तनाभ्यास्नानानुलेपगन्यताम्बूलादीना पदार्थानामन्यतमस्य परित्यागो देशतः शरीरसत्कारत्यान , सर्वे पा चैपामहोरात्रार्थ सर्वथा परित्यागश्च सर्वत. (२), एव केवल रात्रि दिवा वा यावत्तुशीलपरित्यागो देशतो ब्रह्मचर्यम् । अहोरात्र सर्वथा परित्यागस्तु
१ राब्वत्थ-अहोरात्रमित्यर्थः । आदि करना देश आहार त्याग पोषधोपवास है, और एक दिन रातके लिए चारो प्रकारके आहारका सर्वथा त्याग करना सर्व-आहार-त्याग पोषधोपवास है। (२) उद्वतन, अभ्यगन, स्नान, अनुलेपन, गन्ध,नाम्बूल आदि पदार्थों में से किसी एकका या अधिकका त्याग करना देशत. शरीरसत्कारत्यागपोषधोपवास है, और अहोरात्रके लिए इन सबका सर्वथा त्याग करना सर्वत-शरीरसत्कारत्यागपोपधोपवास है। (३) इसी प्रकार केवल रात्रिमें या केवल दिनमे कुशीलका त्याग करना કરવુ એ દેશ-આહાર-ત્યાગ–પિધેપવાસ છે, અને એક દિવસ-રાતને માટે ચાર પ્રકારના આહારને સર્વથા ત્યાગ કરે એ સર્વ–આહાર–ત્યાગ-પષધપવાસ છે (૨) ઉદ્વર્તન, અશ્વ ગન, સ્નાન, અનુપન ગન્ધ, તાબૂલ, આદિ પદાર્થોમાંથી એકને યા અધિકને ત્યાગ કરે એ દેશત શરીર–સત્કાર–ત્યાગ–પષધપવાસ છે, અને અહેરાત્રને માટે એ બધાને સર્વથા ત્યાગ કર એ સર્વત –શરીર–મત્કાર ત્યાગ પષધેપવાસ છે (૩) એ પ્રમાણે કેવળ રાત્રિમા ય કેવળ દિવસના કુશીલને ત્યાગ
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उपासकदशा मूत्रे एवमेयाअ रीईए, जिणमत्याणुमारओ । अव्वाचारोवि चिन्नेओ, देमओ सधओ सय ॥ ८॥ इति । एउमेतया रीत्या, जिनगावानुमारतः ।
अव्यापारोऽपि निशेयो, देशतः सर्वतः म्यम् ॥८॥" इति । सर्वतः (३), तथाऽमुक व्यापार करिष्यामि नामुकमित्येव व्यापाराणामन्यन्तमस्य त्यागो देशतोऽव्यापारः, अहोरात्रार्थ मपा तेपा सर्वथा त्यागस्तु सर्वतः (१)। उपलक्षणमिद पोपघातस्यापि, तच सधर्मरन्धमिनादीभिः सह पिपुलाशनादि कुन तोऽष्टम्यादितिथिप्वेककरणस्योगादिना सायपव्यापारत्यागपूर्वमहोरात्रयापन 'दया' अथवा 'छकाया' इति भाषामसिद्धम् । एतदातस्य ग्रहणविधिः सामायिक
तोक्त एक, नत्वतिरिच्यते । देशत:ब्रह्मचर्यपोपधोपवास है । और दिन रातके लिए सर्वधा कुशीलका त्याग करना सर्वत. ब्रह्मचर्यपोषधोपवास है। (४) तथा अमुक व्यापार करूँगा, अमुक नहीं करूँगा' इस प्रकार व्यापारोमेसे किसी किमाका त्याग करना देशत' अव्यापार पोपधोपवास है, और समस्त व्यापाराका अहोरात्र के लिए सर्वथा त्याग करना सर्वत अव्यापार पोपधोपवास है।
उपलक्षणसे-साधर्मी, बन्धु, मित्र आदिके साथ विपुल अशनाद करके अष्टमी आदि तिथियोंमे एक करण एक योग आदिसे सावध व्यापारका त्याग करके अहोरात्र व्यतीत करना भी पोषधवत कहलाता है, जो कि 'दया' या 'छक्काया' के नामसे प्रसिद्ध है।
इसके ग्रहण करनेकी विधि वही है जो सामायिककी विधि है कुछ विशेषता नहीं है। કરે એ દેશત બ્રહ્મચર્ય—પષધોપવાસ છે, અને દિવસ-રાતને માટે સર્વથા કુશીલને ત્યાગ કરે એ સર્વત બ્રહ્મચર્ય-પિષધપવાસ છે (૪) અમુક વ્યાપાર કરીશ અમુક નહિ કરૂ” એ પ્રમાણે વ્યાપારમાથી કઈ કઈને ત્યાગ કરવા દેશત અવ્યાપાર–પિષપવાસ છે, અને બધા વ્યાપારને અહેરાત્રને માટે સોયા ત્યાગ કરે એ સર્વત અવ્યાપાર-પષપવાસ વ્રત છે
ઉપલક્ષણથી–સાધમ, બધુ, મિત્ર આદિની સાથે ખૂબ અનાદિ કરીને આઠમ આદિ તિથિઓમાં એક કરણ એક પેગ આદિએ કરીને સાવધ વ્યાપારને ત્યાગ કરી અહોરાત્ર વ્યતીત કરવી એ પણ પિષધવ્રત કહેવાય છે, જે કે દયા યા છકાયા’ના નામથી તે પ્રસિદ્ધ છે
એ ગ્રહણ કરવાની વિધિ એવી જ છે કે- જેવી સામાયિકની વિધિ છે, કોઈ વિશેષતા નથી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका मू० ११ धर्म० अतिथिसविभागवतम् २४३
(१२-अतियिसविभागवतम् ) अतिही समणो तस्स, न्नप्राणाइममप्पण ।
सकारज्जेहि-महहि, सविभागो पकित्तिओ ॥ १ ॥ इति । एतच्छाया च
"अतिथिः अमणम्तस्यानपानादिसमर्पणम् ।
सत्कारावैरतिथिसविभागः प्रकीर्तितः ॥१॥ इति । गत पोपधोपचासव्रतम् । अथ द्वादशमाह-'अतिथी'-ति अविद्यमानस्तिथियस्यासापतिथि.-माधु. प्राकृतजनवत्ति याचपेक्षाराहित्येन भोजनवेलाया गृहस्थगृहे समुपस्थानात्तम्मै, सम् सङ्गतोऽर्धानीत्युपाजिताना कल्पनीयाना चान्नपानादीना देशकालश्रद्धासत्कारक्रमविशिष्टो भाग. स्वात्मकल्याणभावनया समर्पणम्अतिथिसविभाग. ।
। इति द्वादश व्रतानि समाप्तानि ।
[सलेग्वना] सपाइऊण वारस, वयाइ एव पवुत्तरीईए । णिक्खमणिज्ज कज्जो, तयसत्तीए य सथारो ॥१॥
(१२ घारहवें प्रतका वर्णन ) (४) अतिथिसविभाग व्रत-जिसकी तिथि निश्चित न हो उसे अतिथि अर्थात् साधु कहते है। प्राकृत जनके समान तिथि आदिकी अपेक्षा न रख कर, भोजनके समय गृहस्थके घर पहुँचनेवाले साधुको न्यायसे उपार्जित कल्पनीय अन्न पान आदि, देश, काल, श्रद्धा और सत्कार आदिके साथ आत्म कल्याणकी भावनासे समर्पण करना अतिथिसविभाग व्रत है । । इति श्रावकके बारह प्रत समाप्त ॥ १२ ॥
(१२) मारभु नत (૪) અતિથિ વિભાગ વત–જેની તિથિ નિશ્ચિત ન હોય તેને અતિથિ અર્થત સાધુ કહે છે પ્રાકૃત જનની પિઠે તિથિ આદિની અપેક્ષા ન રાખતા ભજનને સમયે ગૃહસ્થને ઘેર પહોંચનારા સાધુને ન્યાયથી ઉપાર્જિત ક૯૫નીય અન્ન-પાન આદિ, દેશ, કાલ, શ્રદ્ધા અને સત્કાર આદિએ કરીને આત્મકલ્યાણની ભાવનાથી સમર્પણ કરવા એ અતિથિસ વિભાગ છે
ઈતિ શ્રાવકના બાર વ્રત સમાપ્ત
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उपासकदशाङ्ग
छम्मासे वारसद्दे वा फसाए गत्तमेव य । सायगो दुव्लीकृज्जा, तप्पच्छा य समारिओ ॥ २ ॥
एतच्छाया च-
"" सम्पाद्य द्वादशतानि एन मोक्तिरीत्या | निष्क्रमणीय, कार्यस्तदशकौ च सस्तारः ॥ १ ॥
पण्मासान् द्वादशाब्दाना कपायान् गानमेव च । भावको दुर्बलीकुर्यात्, तत्पथाच समाहितः ॥ ॥ इत्थमुक्तानि द्वादश व्रतानि यथाविधि सम्पाद्य श्रावण निष्क्रमितव्य तद शक्ती मरणासत्ति वेलाया सम्तारश्रमणत्वमपितव्य तदाह
'अपश्चिमे' - त्यादि, न विद्यते पश्चिमः (कालो) यस्याः साऽपश्चिमा, मरणमन्त =अनधिर्यस्यस मरणान्त' (काल) तत्र भना मारणान्तिकी, सलिरयते क्रशीक्रियते शरीर रुपायादिकमनयेति सलेखना, अपथिमा चासो मारणान्ति की च सलेखनेत्यपश्चिममारणान्तिकस लेग्वना=तपोविशेषस्वरूपा तस्या जोप ना=सेवा - अपश्चिममारणान्तिकसलेखनाजोपणा तस्या आराधना- निरवच्छिन्न तया सम्पादनमपश्चिममारणान्तिकस लेखनाजोपणाऽऽराधना कर्त्तव्येति शेष. 1 अमाशय - श्रावको हि प्रथमत, स्वशरीर रुपायाच जघन्यतया पण्मासानुत्कृष्टतया च द्वादश वर्षाणि सलेखनाद्वारा दुर्बलीकुर्नीत, तदनु पोपधशालायामुद्याने गृहे वा
इस प्रकार पूर्वोक्त बारह व्रतों को विधिपूर्वक धारण करके श्रावकको दीक्षित हो जाना चाहिए । यदि इतनी सामर्थ्य न हो तो मृत्यु कालमें 'सस्तार श्रमणत्व ' का अवलम्बन करना चाहिए। उसी को बताते हैसलेखना-विधि
"
जिसका कोई नियत समय नही हो, जो नृत्यकालमे की जाती हो ऐसी सलेखनाको 'अपश्चिममारणान्तिकी सलेखना' कहते हैं । उसके सेवन करनेको जोषणा कहते हैं । तात्पर्य यह है कि पहले पहल श्रावक अपने aerat और aपायोंको जघन्य छह मास और उत्कृष्ट बारह वर्ष
એ પ્રમાણે પૂર્ણાંકત આર તેને વિધિપૂર્વક ધારણ કરીને શ્રાવકે દીક્ષિત થઈ જવુ જોઈએ જે એગ્લુ સામર્થ્ય ન હોય તે મૃત્યુકાળે સસ્તા-શ્રવણત્વ'નુ અવલબન કવુ જોઇએ એ હવે દર્શાવીએ છી,
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સલેખના વિધિ
જેને કાઈ નિયત સમય ન હોય, જે મૃત્યુકાળે કરવામા આવતી હાય એવી સ લેખન ને અપશ્ચિમ-મરણાન્તિકી સલેખના' કહે છે એનું સેવન કરવું તુ એષણા કહેવાય છે તાપ એ છે કે-સૌથી પહેલા શ્રાવક પાતાના શરીરને અને કપાયાને જન્ય છે માસ અને ઉત્કૃષ્ટ ખાર વર્ષ દુČળ કરે, પછી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका धर्म • सलेखनाव्रतवर्णनम्
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गच्चा पोसह मालाए, उज्जाणे चा गिहेवि वा । पमलिऊण विहिणा, भूमिं सप्पडिलेहण ॥ ३ ॥ भाहमणामीणो तओ पुव्युत्तरामुहो । बधिऊण मुहे मडो, सदोर मुह्वत्थिग ॥ ४ ॥ नमिकण जिण सिद्ध, धम्मायरियमेव य । करणेहि च जोएहिं ताहिं चत्तारि सव्वा ॥ ५ ॥ आहारे पडियाइखे, पावट्ठारहग तहा । समाहिपुच्चग सेस, काल च ववए सुही ॥ ६ ॥ उवसग्गे उ सधारो, सागरो पसमावही | अप्पसते उ एम्सि, धरिज्जो जीवणावही ॥ ७ ॥ इति ।
गत्वा पोपधाया मुद्याने वा गृहेऽपि वा । प्रमृज्य विना भ्रमिं समतिलेखनम् ॥ ३ ॥ दर्भाद्यासनामीनस्ततः पूर्वोत्तरामुख ।
यद् वा मुखे श्राद्ध, सदोरा मुग्वस्त्रिम् ॥ ४ ॥ नवा जिन सिद्ध, धर्माचार्यमेव च । करणैश्च योगैस्त्रिभिश्चतुर, सर्वथा ॥ ५ ॥
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जाहारान् मत्याचसीन, पापाष्टादशक तथा । समाधिपूर्वक शेष, गल च क्षपयेत् सुधीः ॥ ६ ॥ उपसगे तु सस्तार', साकार. प्रशमावधिः अशान्तेत्येतस्मिन् वरणीयो जीवितावधि ॥ ७॥ " इति ।
यत्र काप्येकान्ते स्थळे गत्या तत्स्थान सविधि प्रतिलेख्य प्रमार्ण्य च दर्भासनादिषु पूर्वाभिमुख उत्तराभिमुखो ना मुखद्धसदोरम्मुखवत्रिक. पद्मासनादिनोपविश्य भगवन्त सिद्धमन्त धर्माचार्य च सविधि नमस्कृत्य निभि करणैस्त्रिभिर्योगेश्व दुर्बल करे, इसके पश्चात् पोषधशाला, उद्यान, गृह या अन्य किसी एकान्त स्थान में जाकर, उस स्थानको विधिपूर्वक पडिलेह कर तथा पूज वर, कुश आदिके आसन पर पूर्वदिशा या उत्तर दिशा की ओर मुँह करके, डारा सहित मुखवस्त्रिका मुँह पर बाध कर, पद्मासन आदिसे પાષધશાળા, ઉદ્યાન ગ્રહ, યા અન્ય ડેઈ એકાન્ત સ્થળે જઇને એ સ્થાનને વિધિ પૂર્ણાંક પડિલેહણ કરે તથા પૂજે, કુશ આદિના આસન પર પૂર્વ દિશા યા ઉત્તર દિશાની તરફ઼ ન્હા કરી દોનાહિત મુખમિકા મ્હા પર ખાધીને પદ્માસન આદિ
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२४६
उपासकदशास्त्रे चतुर्विधमाहारमष्टादश पापानि च प्रत्याशीत, तद्गतशेपकालच समाधिपूर्वक भएपेर
उपसर्गोपस्थिती सस्तारधारणार्थमय विधिः-- प्रमुष्टाया भूमी पद्मा वामनेन पूर्वाभिमुख उत्तराभिमुखो वा समुपविश्य भग चन्तमईन्त सिद्ध धर्माचार्य च नमस्कृत्याऽऽनारचतुष्टय, पापाटादशक शरीरादि ममत्व च साकार परित्यजेत् । एप परित्याग उपसपिशमनपर्यन्त एव । उपसर्गा नुपशमे तु यावज्जीरनार्थ एवेत्यररेयम् । __इत्थ गृहस्थधर्म यथावदभिधाय शिष्यमाधानयनपसहरति-'अय एवं'-मिति,
१ सागर-सविकल्प, सविशेप, सभेद, सापदिमित्येकाः । अर्जुनमाला कारकृनोपसर्गे सुदर्शनोदाहरण ज्ञेयम्, अन्तकृत्स्ने ६-वर्गे।। बैठ कर, भगवान् सिद्ध, अर्हन्त, और धर्माचार्यको नमस्कार करके, तीन करण तीन योगसे चार प्रकारके आहारका तथा अठार पापार परित्याग करे। शेप समय ध्यानमे व्यतीत करे। पदि वीचमें कोई उपसर्गआजाए तोसागार सथारा कर लेना चाहिए। उमकी विधि यह
पूजी हुई भूमिमें पद्मासन आदि किसी सुखामनसे बैठ कर, पूर्व या उत्सरदिशाकी ओर मुह करके, भगवान्, सिद्ध अर्हन्त और धमा चायेको नमस्कार करके, चार प्रकारका आहार, अठारह पाप, आर शरीर-आदि विपथक ममत्वका, सागार ( आगार सहित) त्याग कर। जब तक उपसर्ग बना रहता है तभी तक यह त्याग रहता है। यदि उपसर्गकी शान्ति नहीं होवे तो आजीवन त्याग हो जाता है। .
गृहस्थ धर्मका यथार्थ व्याख्यान करके शिष्यको सावधान करत આસને બેસે, ભગવાન સિદ્ધ, અહંન્સ, અને ધર્માચાર્યને નમસ્કાર કરી, ત્રણ કરણ ત્રણ વેગે ચાર પ્રકારના આહારને તથા અઢાર પાપને પરિત્યાગ કરે એવી સમય ધ્યાનમાં વ્યતીત કરે છે વચ્ચે કાઈ ઉપસર્ગ આવે તે સાગર સ થારી કરી લેવું જોઈએ એની વિધિ આ પ્રમાણે છે -
પૂજેલી ભૂમિમાં પદ્માસન આદિ કોઈ સુખાસને બેસી, પૂર્વ ચ ઉત્તર દિશાની તરફ હે કરી, ભગવાન્ અર્હત, સિદ્ધ અને ધર્માચાર્યને નમસ્કાર કરી ચાર પ્રકારનો આહાર, અઢાર, પાપ, અને વરીર આદિ વિષયક મમત્વને અગરિ રાખી ત્યાગ કરે ત્યા સુધી ઉપસર્ગ રહે, ત્યાસુધી એ ત્યાગ રહે છે જે ઉપગન શાન્તિ નહિ થાય તે આજીવન ત્યાગ થઈ જાય છે
ગૃહસ્થ ધર્મનું યથાર્થ વ્યાખ્યાન કરીને શિષ્યને સાવધાન કરતા કહે છે
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अगारधर्म सञ्जीवनी टीका अ० १ ० १२ आनद व्रताङ्गीकार प्रतीज्ञा २४७
मूलम्- तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हटतु जाव एव वयासीसदहामि ण भते। निग्गथं पात्रयणं, पत्तियामि णं भंते। निग्गथ पावयण, रोएमि ण भते। निग्गंथं पावयण, एवमेयं भते । तहमेय भते । अवितहमेय भते। इच्छियमेयं भते । पडिच्छियमेय भते । इच्छियपडिच्छियमेय भंते । से जहेयं तुम्भे वयहत्ति कह, जहा ण देवाणुप्पियाणं अतिए वहवे राई-सर-तलवरमाडचिय-कोडुविय-सेट्रि-सेणावइ-सत्थवाह-प्पभिइया मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइया, नो खल्लु अह तहा सचाएमि मुडे जाव पव्वइत्तए । अहण्णं देवाणुप्पियाणं अतिए पचाअगारधर्म:-गृहस्थधर्म । श्रमणोपासक. यावर , श्रमणोपासिका-श्राविका। शिष्टा अनगारधर्मनिरूपणपकरणे व्याख्याताः ॥ इति सूत्रार्थ ॥ ११ ॥
। इति सलेखना। । इति सामान्यविशेषात्मकोऽगारधर्मः ।
। इति धर्मकथा।
हुए कहते है-यस, यही गृहस्थ धर्म है, इसमे उद्यमवान् श्रावक या प्राविका भगवान की आज्ञाका आराधक होता है। सू०॥ ११ ॥
। इति सलेखना। । इति सामान्य विशेषात्मक अगारधर्म समाप्त ।
इति धर्मकथा
બસ એજ ગૃહસ્થને ધર્મ છે એમાં ઉદ્યમવાનું શ્રાવક યા શ્રાવિકા ભગવાનની અજ્ઞાન આરાધક થાય છે (સૂ૧૧) .
"धति सोमना ઈતિ સામાન્ય-વિશેષાત્મક અગારધર્મ સમાપ્ત
ઈતિ ધર્મકથા
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उपासकदशास्त्रे
व्वइयं सत्तसिखावय दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जिस्सामि । अहासुह देवाणुप्पिय । । मा पडिवंधं करेह ॥१२॥
छाया - ततः खलु स आनन्दो गाधापतिः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्ति के धर्म श्रुत्वा निशम्य इष्ट-तुष्ट या देयमनादीव-दधामि खलु भदन्त | नैन्थ्य प्रवचन, प्रत्येमि खलु भदन्त । चैन्य प्रवचन, रोचयामि खलु भदन्त | नैर्ग्रन्थ्य वचनम् । एनमेतद् भदन्त 1, तथ्यमेतद् भदन्त ! अतिथमेतद भदन्त !, उष्टमे तद् भदन्त ! प्रतीष्टमेतद् भदन्त । इष्टगतीष्टमेतद् भदन्त । तद्यथैतद् यूय वद येति कृत्वा, यथा खलु देवानुमियाणामन्तिके बहवो राजेश्वर तलवर माडम्बिक कौटुम्बिक श्रेष्ठि-सेनापति-सार्थवाह प्रभृतयो मुण्डा भूत्वा अगारादनगारिता पत्र जितः, नो खल्बह तथा शक्नोमि मुण्डो यात्मनजितुम् अह खलु देवानुमियाणा मन्तिके पञ्चाणुवतिक सप्तशिक्षानतिक द्वादशविध गृहिधर्म प्रतिपत्स्ये । यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्ध कुरु ॥ १२ ॥
टी' तए ' - इति । प्रत्येमि = विश्वसिमि - विश्वास विषय करोमीत्यर्थ । रोचयामि=रुचिविषय करोमि । समर्थयितुमाह- 'एव' - मिति यथोक्त भवता तथे त्यर्थः । अवितथमिति - यद्यपि तथ्याऽवितथशब्दावेकार्थको तथापि देशना श्रवण मुखसजातहर्षोत्कर्षत्रशाद्विरुक्ति । इष्टम् = ईप्सितम् । मतीष्टम् = अत्यन्त मीप्सितम् ।
तएण से आदे' इत्यादि तत्पश्चात् गाथापति आनन्द, श्रमण भगवान महावीरके समीप धर्म ( का व्याख्यान ) सुन कर हृष्ट तुष्ट हो कर इस प्रकार बोला - "हे भदन्त ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मे श्रद्धा करता हूँ । हे भदन्त । मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर प्रत्यय ( विश्वास ) करता हूँ । है भदन्त । मै निर्ग्रन्थ प्रवचन पर रुचि करता हूँ । है भदन्त 1 यह प्रवचन वैसा ही जैसा आपने कहा है । हे भदन्त ! यह तथ्य है, अवितथ है । हे भदन्त ! यह इष्ट है और अत्यन्त ' तेण से आणदे ' घेत्याहि ते पछी गाथापति ज्ञान छ, श्रमाणु भगवान् મહાવીરની સમીપે ધનુ (વ્યખ્યાન) સાભળીને હૃષ્ટ-તુષ્ટ થઈ પ્રમાણે મેલ્યે “ હે ભદન્ત । નિન્થ પ્રવચન પર હું શ્રદ્ધા કરૂ છુ હું ભરન્તુ હું નિન્થ પ્રવચન પર પ્રત્યય (વિશ્વાસ) કરૂ છુ હું નિન્હેં પ્રવચન પર રૂચિ કરૂ છુ હે ભદન્ત ! એ પ્રચલન જેવુ આપે કહ્યુ તેવુ જ છે હે ભદન્ત ! એ તથ્ય છે, અતિથ છે કે ભદન્ત !
આ
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डे महत !
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सूत्र १३ - १६ आनन्दाणुव्रत ० २४९
मूलम् - तए णं से आणदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्सा अतिए तप्पढमयाए थूलगं पाणाइवाय पञ्चक्खाड, जावजीवाए दुविह तिविहेण न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा ॥ १३ ॥ तयानंतर च णं थूलग मुसावाय पञ्चाक्खाइ, जावज्जीवाए दुहितविण न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा ॥ १४ ॥ तयाणतर च णं थूलग अदिण्णादाणं पञ्चकखाड, जावजीवाए दुविह तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा
इच्छितमिति पाठे तु–इच्छासजाताऽस्येति व्युत्पत्तिरर्थस्तु प्रागुक्त एव । इष्ट प्रती टम् ईप्सितेप्सिततमोभयस्त्ररूपम् | प्रतिपत्स्ये = स्वीकरिष्यामि । इत्थमानन्दगाथापतेरभ्यर्थना श्रुत्वा भगवानाह - यथेति सुखमनतिक्रम्य यथामुख यथेच्छसि तथेत्यये । प्रतिबन्ध= विलम्बम् । शिष्टा स्पष्टा ॥ १२ ॥
१ - " तदस्य सञ्जात तारकादिभ्य इतच् " इतीतच् ।
इष्ट है । हे भदन्त ' यह इष्ट अति इष्ट है। यह आपके कथनानुसार ही है। आप देवानुप्रिय के समीप बहुतसे राजा, ईश्वर, तलवार, मानिक, कौटुबिक, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह आदि मुडित हो कर गृहस्थ साधु बने है, किन्तु मुझमे ऐसी शक्ति नही है कि मैं मुडित हो कर साधु दीक्षा धारण क्रूँ। मैं आप देवानुमियके समीप पाँच अणुव्रत और सात शिक्षावत इस प्रकार यारह तरह के गृहस्थ धर्मको स्वीकार करूँगा" इस प्रकार आनन्दकी प्रार्थना सुन कर भगवान् बोले - " हे देवानुप्रिय ? तुम्हें जिससे सुख प्राप्त हो, ऐसा ही करो, विलम्म न करो " ॥ १२ ॥
એ થ્રુ છે અને सत्यत श्रेष्ट हे હે ભદ્દન' એ ઇષ્ટ-અતિ-ઇષ્ટ છે એ આપના કથાનાનુસાર જ છે. આપ દેવાનુપ્રિયની સમીપે ઘા રાજાએ ઈશ્વર, તલવર, માડબિક, કૌટુબિક શ્રેષ્ઠી મેનાપતિ, સાવાહ આદિ મુ ડિત થઈને ગૃહસ્થમાથી સાધુ અન્યા છે, પર તુ મારામા એવી શકિત નથી કે જેથી હુ ક્રુ તિ થઇ સાધુ–દીક્ષા ધારણ કર્ હું આપ દેવાનુપ્રિયની સમીપે પાચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાવ્રત એ પ્રમાણે બાર પ્રકારના ગૃહસ્થ ધર્મના સ્વીકાર કરીશ” એ પ્રમાણે આનદની પ્રાર્થના સાભળી ભગવાન્ ખેલ્યા • હે દેવાપ્રિય' તમને જેથી सुभ प्राप्त थाय, तेमन उरो, विषण न ४ ' (१२)
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उपासकदशासूत्रे कायसा ॥१५॥ तयाणतर च ण सदारसतोसिए परिमाणं करेइ। नन्नत्थ एकाए सिवानदाए भारियाए, अवसेस सब मेहुणविहि पञ्चग्यामि ॥१६॥
छाया-ततः मलु सआनन्दोगाथापति अमणस्य भगतो महावीररयान्तिक तहाथमतया म्युलक प्राणातिपात प्रत्यारवाति । यानी विविध विक्विन न करोमि न कारयामि गनमा पचमा कायन ॥ १७ ॥ तदननार व मल स्पून मृपावाद प्रत्याग्याति यावनी द्विविध निरिपेन न करोमि न कारयामि मनमा वचसा पायेन ।। १४ ।। तदनन्तर च ग्बलु स्थूलस्महत्तादान प्रत्यारयाति यावज्जीव द्विविध नितिन न करोमि न मारयामि मनसा वचसा गायन ॥१५॥ तदनन्तर च खलु स्वदारसन्तोपिके परिमाण रोति । नान्यत्रकस्या शिवानन्दाया भार्याया , अवशेष सर्व मैथुनविधि पत्याख्यामि ॥ १६ ॥
टीमा तत्प्रथमेति-तेपु-अणुप्रतादिपु प्रथमः मुख्यस्तत्मथमम्तझावस्तत्मथ मता तया सर्वेपामणुप्रतादीनामादिभृतत्यादित्यर्थ । स्वदारसन्तोष एवं
टीकार्थ-'तए ण से आणंदे' इत्यादि इसके बाद आनन्द गाथापतिन श्रमण भगवान महावीर के समोप, सर व्राम प्रधान होने के कारण प्रथम स्थूल प्राणातिपातका दो करण तीन योगसे प्रत्याख्यान किया कि यावजीवन (जावजीव) मन वचन कायासे ( स्थल प्राणातिपात ) न करूगा, न कराऊँगा ॥ १३ ॥ इसके बाद उसने दो करण तीन योगसे स्थूल मृषावादका प्रत्याख्यान किया कि मन वचन कायस स्थूल मृषानाद न करूँगा न कराऊँगा ॥ ५४॥ इसके बाद उसने दो करण तीन योगसे स्थूल अदत्तादानका प्रत्याख्यान किया कि-दो करण तीन योगसे स्थूल अदत्तादान न करूंगा, न कराऊँगा ॥१५॥ इसक
टीकाथे-'तए ण से आणदे' या त्या मानाया पतिम अg ભગવાન મહાવીરની સમીપે, બધા નોમ પ્રધાન હોવાને કારણે પહેલી એવા સ્થલ-પ્રાણાતિપાતનુ છે કરણ જણ જે કરીને પ્રત્યાખ્યાન કર્યું કે યાવજ જીવન (જાવજીવ) મન વચન કાયાએ કરીને સ્થૂલ પ્રાણાતિપાત કરીશ નહીં, કરાવીશ નહ (૧૩) ત્યારબાદ તેણે છે કરણ ત્રણ ચાર્ગ કરીને સ્થૂલ મૃષાવાદનું પ્રત્યાખ્યાન કર્યું કે-મન વચને કાયાએ કરીને સ્થૂલ મૃષાવા કરીશ નહીં, કરાવીશ નહી (૧૪) ત્યારપછી તેણે બે કરણ ત્રણ ચગે કરીને સ્કુલ અદત્તાદાનનુ પ્રત્યાખ્યાન કર્યું કે--બે કરશુ ત્રણ યંગે કરીને સ્થૂલ અદત્તાદાન કરીશ
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अगारसजीवनी टीका अ १ . १७-२१ आणदाणुात०
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मल्म्-तयाणंतर चणं इच्छाविहिपरिमाणं करेमाणे हिरण्णसुवण्णविहिपरिमाण करेड । नन्नत्थ चउहि हिरण्णको डिर्हि निहाणपउत्ताहि, चउहि बुडिपत्ताहि, चउहि पवित्थरपउत्ताहि अवसेस सवं हिरण्णसुवण्णविहि पच्चक्खामि ॥१७॥ तयानंतर च णं चउप्पयविहिपरिमाणं करेड, नन्नत्य चउहि वएहि दसगोसाहस्सिएण, व्रण, अवसेस सङ्घ चउप्पयविहि पच्चक्खामि ||१८|| तयाणतर चण खेत्तवत्थुविहिपरिमाण करेड | नन्नत्थ पंचहि हलसएहि नियत्तणसइएण हलेण, अवसेस सब खेत्तवत्थु विहि पच्चखामि ||१९|| तयाणतर चण सगडविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थपचहि सगडसएहि दिसायत्तिएहि, पचहि सगडसएहि सवाहणिएहि, अवसेस सब सगडविहि पञ्चखामि ॥२०॥ तयातरच पण वाहणविहिपरिमाणं करेइ । नन्नत्य चउहिं वाहणेहिं
स्वदारसन्तोषिको विशेषस्तस्मिन, परिमाण= मर्यादाम् । कीदृशी - 2 मित्याह नेनि जन्यन=नन्यस्याम्, अन्यस्या मैथुन नाऽऽचरिष्यामीत्यभिमन्धि किमन्ययाम् इत्याह- ' एकस्या शिवानन्दाया.' इति, नन्वेतनामिकाया किं परस्त्रिया ? नेत्याह- 'मार्याया.' इति, यथाविनिपरिणीताया इत्यर्थ. । एतदवस्फोरयितुमाह अवशेषमित्यादि अवशिष्यत इत्यवशेष शिवानन्दातिरिक्तस्वदारविपयामपीत्यर्य । शेषा निगदव्याख्याता ।। २३-२६॥
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बाद उसने स्वदासन्नोप व्रतकी मर्याग की कि विधिपूर्वका विवाहित शिवानन्दा मार्याके सिवाय, अन्यत्र [विवाहिता भी दूसरी स्त्री सम्बन्धी आदि] समस्त मैथुनविविका प्रत्यारयान करता हूँ ॥ २३-२६ ॥
નહીં કરાવીશ નહીં (૧૫) વાપછી તેણે વ્રુદઞતેષ વ્રતની મર્યાદા કરી કેવિધિપૂર્વક વિવાહિત ગિવાનદા ભાર્યા સિવાય, અન્યગ (ત્રિવાત પણ ખીજી સ્ત્રી સબંધી આદિ) સમન્ત મૈથુનવિધિનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૧૬)
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उपासकदशात्मत्रे
दिसायत्तिएहि, चउर्हि वाहेणेहिं सवाहणिएहिं, अवसेस सवं वाह णविहि पच्चक्खामि ॥ २१ ॥
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छाया - तदनन्तरच खलु इच्छाविधिपरिमाण कुर्वन हिरण्य सुवर्णविधिपरिमाण करोति । नान्यन चतसृभ्यो हिरण्यकोटिभ्यो निधानमयुक्ताभ्य, चतसृभ्यो वृद्धिम युक्तभ्यः, चतसृभ्यः प्रविस्तरमयुक्ताभ्य, अवशेष सर्वे हिरण्यविधिं प्रत्या ख्यामि ॥ १७ ॥ तदनन्तर च खलु चतुष्पदनिधिपरिमाण करोति । नान्यत्र चतु भ्य वजेभ्यो दशगोसाहस्रिकेण, वजेण, अवशेष सर्व चतुष्पदविधिं प्रत्याख्यामि ॥ १८ ॥ नदनन्तर च खलु चतुप्पदविधिपरिमाण करोति । नान्यत्र पञ्चभ्यो हल्शतेभ्यो निर्त्तनशतिकेन हलेन, अवशेष सर्व क्षेत्रास्तुनिधि प्रत्यारयामि ॥ १९ ॥ तदनन्तर च सलु शकटविधिपरिमाण करोति । नान्यत्र पञ्चभ्यः शकटशतेभ्यो दिग्यानिकेभ्यः, पञ्चभ्य. शकटशतेभ्यः, सावाहनिकेभ्यः, अवशेष सर्व शकटविधि प्रत्याख्यामि || २० || तदनन्तर च खलु पाहनविधिपरिमाण करोति । नान्यत्र चतुभ्य वाहनेभ्यो दिग्यांत्रिकेभ्य चतुभ्य वाहनेभ्य, सावाहनिकेभ्य, अवशेष सर्व वाहन विधि प्रत्याख्यामि ॥ २१ ॥
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टीका-क्षेत्रेति अन्यत्र=अन्यत् भूम्यन्तरमिति शेषः । निवर्त्तनेति दशहस्तमितेन
टीका 'ताणतर चे 'त्यादि इसके अनन्तर [आनन्द गाथापतिने] इच्छा विधिका परिमाण करते हुए हिरण्य सुवर्णका परिमाण किया कि कोष [खजाने] में रखी हुई चार करोड हिरण्यो मुहरों के, और व्यापार में लगी हुई चाकरांड हिरण्यों [मुहरों] के, घरसवधी उपकरणोंमे लगी हुई चार करोड हिरण्यो (मुहरो ) के, सिवाय अन्य सबका प्रत्याख्यान करता हुँ ||१७|| इसके बाद उसने चौपायाका परिमाण किया कि दश हजार गायोंके एक एक गोकुलके हिसाब से चार गोकुलों [ ४००००गोवर्ग] के सिवाय अन्य चौपायोंका प्रत्याख्यान करता हूँ ॥ १८ ॥ इसके बाद
ટીકા तयाणतर च ' त्याहि त्यारपछी (मान गाथायतियों) इच्छाविधिनु પરિમાણુ કરતા હિરણ્યસુવર્ણીનું પરિમાણુ કર્યું કે ખજાનામા રાખેલી ચાર કરોડ હિરણ્યા ( મહાર), વ્યાપારમાં રશકેલી ચાર કરાડ મહારા, ઘર સ ન ધી ઉપકરણેામાં કાયલી ચાર કરોડ મહેારા, સિવાય ( ના કરતા વધારે ) ખીજા અધા ( સુવર્ણ) નું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૧૭) પછી તેણે ચાપગા જાનવાનુ પરિમાણુ કર્યું કે દસ હજાર ગાયાના એક એક ગેાકુળને હિસાબે ચાર ગાકુળ (૪૦૦૦૦ ગાવી જાનવર) સિવાય અન્ય ચેપગાનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ. (૧૮)
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अगारधर्म सञ्जीवनी टीका अ० १ सु० २२-२३ आणन्दो भोगपरिभोग २५३
मलम-तयाणंतर चणे उवभोगपरिभोगविहि पच्चक्खाएमाणे, उल्लणियाविहिपरिमाणं करेइ । नन्नत्थ एगाए गंधकासाईए,अवसेसं सब उल्लणियाविहिं पच्चक्खामि ॥२२॥ तयाणतरं च णं दंतवविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ एगेणं अल्ललट्टीमहुएणं, अवसेस वशदण्डेन चतुरस्रविंशनिवशदण्डपरिमिता भूमिनिवर्तन, लोके 'वीघा' इति मसिद्ध, निवर्तनाना शत निवर्तनशत, तदस्यास्तीति निवर्सनशतिक तेन-तादशहलसख्ययेत्यर्थस्ततश्च निवत्तन (पीघा)शतिकहलसग्ख्यया पञ्चशतेभ्यो हलेभ्योऽन्यद्भूम्यन्तर प्रत्याख्यामीति निर्गलितोऽर्थः । यात्रा प्रस्थान सा प्रयोजन येषा तानि यानिकाणि दिक्षु यात्रिकाणि-दिग्यात्रिकाणि तेभ्यः, । सवाहनम्तृणधान्यादी नामुडौफन तत्प्रयोजनमेषामिति साराहनिकानि तेभ्यः । फलितमाह अवशेष मिति । एवमग्रेऽपि । शिष्टाः स्पष्टाः ॥ १७-२१ ॥ उसने क्षेन-वास्तुका परिमाण किया कि एक हलसे सौ बीघा दशहाय वासके दडसे चोरस चीसवास परिमाणभूमिको बीघा कहते है । भूमिके हिसारसे पाचसो लौकी अर्थात् पाच हजार वीघा भूमिके सिवाय, अन्य समस्त भूमिका प्रत्यारयात करता हूँ॥ १९ ॥ इसके बाद उसने शकटका परिमाण किया कि पाचसो यात्रासबन्धी और पाचसौ गृहोप करणादि [माल आसपाव] ढोनेके शकटोके सिवाय अन्य समस्त शको [गाडियो] का प्रत्याख्यान करता हूँ ॥२०॥ इसके बाद उसने वाहनका परिमाण किया कि चार यात्राके वाहन [सवारी] और चार माल ढोनेवाले वाहनोंके सिवाय अन्य समस्त वाहनोंका मैं प्रत्याख्यान करता हूँ॥ २१ ॥ પછી તેણે ક્ષેત્ર–વાતુનું પરિમાણ કર્યું કે એક હળથી સો વીઘા (દસ હાથ વાસના દડથી ચરસ વીસ વાસ માપવાળી ભૂમીને વધુ કહે છે ) ભૂમિને હિસાબે પાચસે હળની અથત પાચ હજાર વીઘા જમીન સિવાય બીજી બધી ભૂમિનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૧૯) પછી તેણે શકટનું ગાડા વગેરેનું) પરિમાણ કર્યું કે- યાત્રા સબ ધી અને પાચસે ગ્રહોપકરણાદિ (માવ-સામગ્રી) વહેવા (લાવવા લઈ જવા)ના શકટે સિવાય બીજા બધા શકટેનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૨૦) ત્યારપછી તેણે વાહનનું પરિમાણ કર્યું કેચર યાત્રાના વાહન અને ચાર માલ લઈ જવાના વાહન સિવાય બીજા બધા વાહનનુ હુ પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૨૧)
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उपामकशास्त्रे दंतवणविहिंपच्चरखामि॥२३॥तयाणतरंचणफलविहिपरिमाणं करेडानन्नत्थ एगेणं खीरामलएण,अवसेसं फलविहिंपच्चरखामि३ ॥ २४ ॥ तयाणतरं च णं अभगणविहिपरिमाण करेड । नन्नत्थ सयपाग-सहस्सपागेहि तेल्लेहि,अवसेसं अब्भगणविहिं पञ्चम्खामि३ ॥२५॥ तयाणंत्तर च णं उबविहिपरिमाण करेड । नन्नत्थ एगेण सुरहिणा गंधट्टएण, अवसेसं उबणविहिं पञ्चस्खामि३ ॥२६॥ तयाणंतर च णं मजणविहिंपरिमाण करेड । नन्नत्थ अहिं उहिएहि उदगस्स घडएहि, अवसेस मज्जणविहिं पच्चक्खामि३ ॥२७॥ तयाणंतर च णं वत्थविहिपरिमाणं करेड । नन्नत्थ एगण खोमजयलेण, अवसेस वविहि पञ्चक्खामि ॥२८॥ तयाणतर चण विलेवणविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ अगुरुकुकुमचदणमाइएाह,
छाया-तदनन्तर च खलु उपभोगपरिभोगविधि प्रत्यारयन् आद्रनयानका विधिपरिमाण करोति । नान्यन एक्स्या गन्धकापाग्या,, अवशेष सत्रमाद्रनपान काविधि प्रत्याख्यामि ॥ २२ ॥ तदनन्तर च खल्लु दन्तधावनविधिपरिमाण करोति । ना यस्माद् आईयष्टिमधो., अवशेष दन्तधावनविधि प्रत्यारयामि २ ॥२३॥ तदनन्तर च खलु फलविधिपरिमाण करोति । नान्यत्रैकस्मारक्षीरामलाद, अवशेष फलविधि पत्यारयामि३ ॥२४॥ तदन्तर च खलु अभ्यञ्जनविधिपरिमा करोति । नान्यत्र शतपाक सहस्रपाकेभ्यस्तैलेभ्य. अवशपमभ्यञ्जनाकार प्रत्याख्यामि३ ॥२५॥ तदन्तर च खलु उद्वर्तनविधिपरिमाण रोति । नान्यत्र कस्मात्सुरभेगन्धाहकाद, अवशेषमुद्वर्तनविधि प्रत्याख्यामि ॥२६।। तदनन्तर च खलु मज्जनविधिपरिमाण करोति । नान्यत्राष्टाभ्य उष्टिकेभ्य उदकस्य घटेभ्य , अवशेप मजनविधि प्रत्याख्यामि३ ॥२७॥ तदनन्तर च खलु क्स्त्रविधिपरिमाण करोति । नान्यत्रैकस्मात् भोमयुगलाद् , अवशेष वस्त्रविधि प्रत्याख्यामि३ ॥२८॥ तदनन्तर च सलु विलेपनविधिपरिमाण करोति । नान्यनागुरु कुङ्कुमचन्दनादिभ्य ,
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १ ० २९-३५ आनन्दोपभोगपग्भिोगव्रतम् २५५ अवसेसं विलेवणविहि पञ्चक्खामि३ ॥२९॥ तयाणतर च णं पुप्फविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ एगेणं सुद्धपउमेणं मालइकुसुमदामेणं वा, अवसेस पुप्फविहि पञ्चक्खामि३ ॥३०॥ तयाणंतर च णं आभरणविहिमाणं करेइ । नन्नत्थ मट्टकण्णेज्जएहिं नाममुद्दाए य, अवसेसं आभरणविहिं पञ्चक्खामि३ ॥३१॥ तयाणंतर च णं धूवणविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ अनुरुतुरुक्कधूवमाइएहिं, अवसेस धूवणविहिं पञ्चक्खामि३ ॥३२॥ तयाणतर चण भोयणविहिपरिमाणं करेमाणे पेजविहिपरिमाणं करेइ नन्नत्थ एगाए कट्रपेजाए, अवसेस पेजविहिं पजक्खामि ॥३३॥ तयाणतर चणंभक्खविहिपरिमाणं करेड। नन्नत्थ एगेहि घयपुण्णेहि खडखज्जएहि वाअवसेस भक्खविहिं पच्चस्वामि३ ॥३४॥ तयाणतर चणं ओयणविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ कलमसालिओयणेण, अवसेसंओ
अवशेष रिलेपनविपि प्रत्याख्यामि ॥२९॥ तदनन्तर च खलु पुष्पविपिपरिमाण
रोति । नान्यत्रैकस्माच्छुद्रपद्मात्मालतीकुसुमदान्नो वा, अवशेष पुप्पविधि प्रत्यारयामि३ ॥३०॥ तदनन्तर च खलु आभरणविधिपरिमाण करोति । नान्यत्र मृष्टकार्णयकेभ्यो नाममुद्रायाश्च अवशेपमाभरणविपि प्रत्याख्यामि ॥३१॥ तदनन्तर च ग्वलु पनविधिपरिमाण करोति । नान्यत्रागुरुतुरुकधुपादिकेभ्य , अवशेष धूपनविधि प्रत्याख्यामि३ ॥३२॥ तदनन्तर च खलु भोजनविधिपरिमाण कुर्वन् पेयविधिपरिमाण करोति । नान्यत्रैश्स्याः , काष्ठपेयाया , अवशेष पेयविधि प्रत्याख्यामि३ ॥३३।। तदनन्तर च खलु भक्ष्यविधिपरिमाण फरोति । नान्यत्रैकेभ्यः घृतपूर्णेभ्य खण्डखायेभ्योवा, अवशेष भक्ष्यविधि प्रत्याख्यामि ॥३४॥ तदनन्तर च खलु ओदनविधिपरिमाण करोति । नान्यत्र कलमशाल्योदनात्, अवशेषमोदनविधि प्रत्यारत्यामि३ ॥३५॥ तदनन्तर च खलु सूपविधिपरिमाण करोति । नान्यत्र
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उपासकशास्त्रे
दंतवणविहिंपच्चक्खामि३ ॥२३॥ तयाणतर च णफलविहिपरिमार्ण करे | नन्नत्थ एगेणं खीरामलएण, अवसेसं फलविहि पच्चखामि३ ॥ २४ ॥ तयाणतरं च णं अभंगणविहिपरिमाणं करेड । नन्नत्थ सयपाग-सहस्स पागेहिं तेले हि, अवसेसं अभगणविहिंपच्चखामि३ ॥२५॥ तयानंतर च णं उष्णविहिपरिमाण करेs | नन्नत्थ एगेणं सुरहिणा गंधट्टएण, अवसेसं उट्टणविहिं पञ्चखामि ॥२६॥ तयाणतरच पण मज्जणविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्य अहिं उहिए हिं उदगस्स घडएहि, अवसेस जणविहिंपच्चक्खामि ॥२७॥ तयानंतर च णं वत्थविहिपरिमाण करेड । नन्नत्थ एगेण खोमजुयलेणं, अवसेस वत्थविहि पच्चक्खामि ॥२८॥ तयाणतर चण विलेवणविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ अगुरुकुकुमचंद्रणमाइ एहि,
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छाया - तदनन्तर च खलु उपभोगपरिभोगविधि प्रत्यारयन् आनयनिका विधिपरिमाण करोति । नान्यन एक्स्या गन्धकापाम्या,, अवशेष सर्वमानयनि काविधिं प्रत्याख्यामि३ ।। २२ ।। तदनन्तर च खलु दन्तधावन विधिपरिमाण करोति । नान्यनैक्स्माद् आर्द्रयष्टिमधो', अवशेष दन्तधावनविधि प्रत्याख्यामि ३ ||२३|| तदनन्तर च खलु फलविधिपरिमाण करोति । नान्यत्रैकस्मात्क्षी रामलाद, अवशेष फलविधिं प्रत्याख्यामि३ ||२४|| तदन्तर च स अभ्यञ्जनविधिपरिमाण करोति । नान्यन शतपाक सहस्रपाकेभ्यस्तै लेभ्य मत्याख्यामि ३ ||२५|| तदन्तर च खलु उद्वर्त्तनविधिपरिमाण रोति । नान्यत्रै कस्मात्सुरभेन्धाहकाद्, अवशेषमुद्वर्त्तनविधि प्रत्याख्यामि३ ॥२६॥ तदनन्तर च खलु मज्जनविधिपरिमाण करोति । नान्यनाष्टाभ्य उष्टिकेभ्य उदकस्य घटे, अवशेष मज्जनविधिं प्रत्याख्यामिरे ॥२७॥ तदनन्तर च खलु क्त्रविधिपरिमाण करोति । नान्यत्रैकस्मात् श्रीमयुगलाद्, अवशेष विधिं प्रत्याख्यामि ||२८|| तदनन्तर चलविलेपनविधिपरिमाण करोति । नान्यनागुरु कुङ्कुमचन्दनादिभ्य
अवशमभ्यञ्जन
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raraर्मसञ्जीवनी टीका अ १ ० ४२ (६) आनन्दोपभोगपरिभोग० २५७
टोका - 'गन्धे' -ति कषायेण रक्ता गाटीकापायी, गन्धमधाना गन्धयुक्ता शाटी पायी तस्या, साई शरीर मोजितु सुवासितायाः कपायरागरक्ताया आर्द्रनयनिकाया इत्यर्थ, अन्यत्र = अन्यत्, न ' व्यवहरिष्यामी 'ति शेषः, फलितमाह अवशेषमित्यादि, एवमग्रेऽपि । 'आर्द्रयष्टी' -ति-आर्द्रा हरितो यो यष्टिमधुरेतनाम्ना प्रसिद्धो वनस्पतिविशेषस्तस्मात् । ' क्षीरे' ति-क्षीरच तदामस्क- गमलकम् - अनम्ल धानीफल तस्मादेकम्मादन्यत्फलान्तर न व्यवहरिष्यामि । 'सुरभे' रिति- सुरभे. रमणीयात् गन्धाट्टकात् = गन्धयुक्तोऽट्टो = गोधूमादिवृण स . एवं गन्धाहरस्तस्मात् । 'उष्ट्रिके' ति उप्ट इव प्रतिकृतिरुष्टिश- वृहदाकार तैलादिमृद्भाण्ड, तत्पूरण प्रयोजन येषा ते घटा अप्युपचारादृष्ट्रि कास्ततोष्ट्रिका१- 'तेन रक्त रागात्' इत्यण, टिड्डेति ङीप् ।
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२ - 'इवे प्रतिकृतौ ' इति क्न, स्त्रीत्व तु लोकात् प्राकृतगर्तेर्वैचित्र्याद्वा । तयाणतरच ण उवभोगे० ' -त्यादि ॥ २२-४२ ॥ टीकार्थ - इसके अनन्तर आनन्द गाथापातने उपभोग परिभोग विधिका प्रत्याख्यान करते हुए आर्द्रनयनिका (शरीर पोंछने के कपडे अगौछे ) का प्रत्याख्यान किया कि - भीगे हुए शरीर को पोंछने के लिए एक सुगन्धित और कापाय आर्द्रनयनिका (अगौछे ) के सिवाय अन्य सबका प्रत्याख्यान करता हूँ || २२ || इसके बाद दातौनका परिमाण किया कि - हरी यष्ठियधु (जेठीमध मुलैठी ) के अतिरिक्त और मय दातौनोका प्रत्याख्यान करता हूँ || २३ || इसके बाद फलविधिका परिमाण किया कि एक क्षीर आमलक (मीठे आमले ) के सिवाय अन्यफलोका परित्याग करता हूँ ॥२४॥ इसके बाद अभ्यञ्जनविधिका परिमाण किया कि शतपाक- सहस्त्रपाक तैलाके सिवाय और सब अभ्यञ्जनका प्रत्याख्यान करता हूँ ॥ २५ ॥
टीकार्थ- " तयाणतर च ण उपभोगे - त्यादि " ત્યારપછી આનંદ ગાયાપતિએ ઉપગ પરિગ વિધિનુ પ્રત્યાખ્યાન કરતા આર્દ્ર નનિકા ( शरीर सूछवा । અ ગૂ ) નુ પ્રત્યાખ્યાન કર્યું કે ભીંજાયલા શરીરને લૂછવ માટે એક સુગંધિત અને કાષાય આર્દ્ર નનિકા સિવાય બીજા ખધનુ પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૨૨) પછી દાતણનુ પરિમાણુ કર્યું કે–લીલી ચષ્ટિમ (જેઠીમધની સાઠી) સિવાય બીજા બધા દાતણનુ પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૨૩) પછી ફળવિધિનું પરિમાણ કર્યું કે એક મીઠા આખા સિવાય ખીજા અેને પરિત્યાગ કરૂ છુ (૨૪) પછી અલ્તજન વિધિનું પરિમાણુ કર્યું કે શ્રુતપાર્ક તથા સસ્ર પાક તેલેા સિવાય ખીજા બધા અભ્યજનુ પ્રાખ્યાન કરૂ છુ (૨૫) પછી ઉજ્જૈન વિધિનું પરિમાણુ કર્યું કે-રમણીય ઘઉં આદિના એક આટા સિવાય ખીજા
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उपासकदशासूत्रे
यणविहिं पञ्चक्खामि३ ॥ ३५ ॥ तयानंतर च ण सूवविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ कलायसूवेण वा मुग्गमाससूवेण वा, अवसेस सूव विहिं पञ्चखामि३ ॥ ३६ ॥ तयाणतर व णं घयविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ सारइएण गोघयमढेणं, अवसेस घयविहिं पञ्चकखामि ॥३७ तयाणतर चण सागविहिपरिमाणं करेड । नन्नत्थ वत्थुसा एण वा चूच्चुसाएण वा तुवसाएण वा सुत्थियसाएण वा मुडुक्किय साएण वा, अवसेस सागविहि पच्चक्खामि३ ॥३८॥ तयानंतर चणं माहुरयविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ एगेण पालगामाहुरएण, अ वसेसं माहुरयविहिं पञ्चखामि३ ॥३९॥ तयाणतरण जेमणवि हिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ सेहवदालयवेहि, अवसेस जेमणविहिं पच्चक्खाभि३ ॥४०॥ तयाणतर च पण पाणियविहिपरिमाण करेड़ । नन्नत्थ ऐगेणं अतलिक्खोदणं, अवसेस पाणियविहि पञ्चक्खामि ॥ ४१ ॥ तयानंतरं च ण मुहवासविहिपरिमाण करेइ । नन्नत्थ पंच सोधिएण तबोलेण, अवसेस मुहवासविहिं पञ्चक्खामि ॥४२॥
कलायसूपाद्वा मुद्द्रमापमुपाद्वा, अवशेष सूपविधिं प्रत्याख्यामि३ || ३६ || तदनन्तर च खलु घृतविधिपरिमाण करोति । नान्यत्र शारदिकाद गोघृतमण्डात्, अवशेष घृतविधिं प्रत्याख्यामि३ ॥ ३७॥ तदनन्तर च खलु शाकविधिपरिमाण करोति । नान्यत्र वास्तुशाकाद्वा चूच्चुशाकाद्वा तुम्पशाकाद्वा सौवस्तिकशाकाद्वा मण्डकिका शाकाह्रा, अवशेष शाकविधिं प्रत्याख्यामि३ ||३८|| तदनन्तर च खलु माधुरक त्रिधिपरिमाण करोति, नान्यत्रैकस्मात् पाल माधुरकात्, अधशेष माधुरकविधि प्रत्याख्यामि३ ॥ ३९ ॥ तदनन्तर च ग्वल जेमनविधिपरिमाण करोति । नान्यत्र सेधाम्ल - दालिकालेभ्य, अवशेष जेमनविधिं प्रत्याख्यामि३ ||४०|| तदनन्तर च खलु पानीयविधिपरिमाण करोति । नान्यत्रैकस्मादन्तरिक्षोदकाद, अवशेष पानीयविधिं प्रत्याख्यामि३ ॥४१॥ तदनन्तर च खलु मुखवासविधिपरिमाण करोति । नान्यन पञ्चगन्धिकाताम्बूलात्, अवशेष मुखवासविधि प्रत्याख्यामि३ ॥४२॥
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका ११ सू. २२-४२ आनन्दोपमोगपरिभोगवतम् २५९ मतीत । कुर्वन-चिकीर्षन । 'काष्ठति -पान्ठपेयाया:=मुद्गादेपा , घृततलिवस्य तण्डलस्य याजिकाढा, देशीयोऽय 'काठपेया' शब्दः । एकेभ्यः एकमकारेभ्यः, घृतपू(राः)ः-'धेवर'-इति प्रसिद्धास्तेभ्यः, 'खण्डे'-ति-खण्ड-शर्कराभेदः, खाद्य बहुमण्डसपादितत्वापा, यवा खण्डेन (खण्डयोगेन) खाधानि-खण्डखाद्यानि तेभ्य:-'खाजा' इति लोरमसिद्धेभ्यः । 'कलमे'-ति-ओदनेपु, 'कलम' नामको य. शालिस्तद्रूपो यओदनस्तस्मात् । शरदिकात् शरदि भवात्, गोघृतमण्डा
घृतसहित मण्ड-दधितक-घृतमण्ड, यद्वा मण्ड=सारभृत स्फीतमित्यर्थः, घृतघृतमण्ड, गोघृतमण्ड गोघृतमण्ड तस्मात् । 'शाका'-दिति-चून्यादयो मण्डषि
१-आहिताग्न्यारेराकृतिगणन्वान्मण्डशब्दस्य परनिपातः, पूर्वनिपातप्रकरणस्यानित्यत्वाद्वा । करता हूँ ॥३०॥ इसके बाद आभरणविधिका परिमाण किया किउज्ज्वल कुण्डलो और अपने नामकी मुद्रिका (अगूठी)के सिवाय अन्य सब आभरणौका प्रत्याख्यान करता हूँ॥३१॥ इसके पश्चत् धूपनविधिका परिमाण किया कि-अगर, लोबान और धूप आदिके सिवाय और सर धृपनविधिका प्रत्याख्यान करता हूँ ॥३२॥ इसके बाद मोजन विधिका परिमाण करते हुए पेयविधिका परिमाण किया कि-एक मूंग आदिके यूप (ओसामण-कट) अथवा घीमे भुने हुए चावलोंकी काजीके
अतिरिक्त और सर पेय पदार्थों का प्रत्यारयान करता हूँ ॥३३।। पश्चात् 'भक्ष्यविधिका परिमाण किया कि-एक घेचर अथवा खाजेके सिवाय अन्य भक्ष्य विधिका प्रत्याख्यान करता हूँ ॥३४॥ फिर ओदनविधिका परिमाण किया कि-कलम नामक चावल के ओदनके सिवाय और सब પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૩૦) પછી આભરણુવિધિનું પરિમાણ કર્યું કે- ઉજજવળ કુડો અને પોતાના નામની વી ટી સિવાય બીજા બધા આભરણેનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૩૧) પછી ધૂપન વિધિનું પરિમાણ કર્યું કે અગર લેબાન અને ધૂપ આદ સિવાયના બાકી બધા ધૂપન વિધિનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૩ર) પછી ભજનવિધિનું પરિમાણ કરતા પિયવિધિનું પરિમાણ કર્યું કે- એક મગ આદિનું ઓસામણ અથવા ઘીમાં ભુજેલા (સેકેલા) ચોખાની કાજી સિવાય બાકીના બધા પિય પદાર્થોનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૩૩) પછી ભઠ્ય વિધિનું પરિમાણ કર્યું કે એક ઘેવર અથવા ખાજા સિવાય બાકીના ભયવિધિનું પ્રત્યાખ્યાત કરૂ છુ (૩૪). પછી એદન-વિધિનું પરિમાણ કર્યું કે–કલમ નામના ચોખાના ભાત સિવાય બીજા
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उपासकदभागने (माटा) भरणयोग्येन्योऽष्टाभ्यो घटेभ्य इत्यर्थः । क्षोमेति-शुमा अतसी तया 'निमिते बस्ने क्षौमे, तैलादिशब्दवदुपचारात्कार्यासिके अपि, तयोयुगल-परिधानोस रीयरूप तस्मात् । 'मृष्टे'ति-पृष्टानिसमुज्ज्वलानि यानि कार्णेयकानि (कणिका.) कुण्डलाभिधानानि कर्णाभरणानि तेभ्यः, नामाद्भिता मुद्रा-नाममुद्रा, तस्याःनामाद्भितादगलीयकादित्यर्थः आगुरु-मसिद्धः,तरुपका सिंहल 'लोवान इतिला
१-माकृतपाठानुरूपत्वान्छायामानमिद, शन्दरतु 'कणिका' इत्येव तस्यव कर्णाभरणपर्यायत्वेनोपलभ्यमानत्वात्साधुत्वाच । इसके बाद उद्वर्तनविधिका परिमाण किया कि-रमणीय गेहूँ आदिके एक आटेके सिवाय अन्य सर उद्धर्तनों (उपटनों)का प्रत्याख्यान करता हूँ ॥२६॥ इसके पश्चात् उसने मन्जनविधिका परिमाण किया कि-अटक आकारकी अर्थात् अरहटकी घड़ीके आमारकी लपी यानी जिसस वडा घडा भरा जाय ऐसी बडे लोटेके आकारवाली छोटी आठ कल शिया भर जलके सिवाय और सबका प्रत्याख्यान करता हूँ ॥२॥ तदनन्तर वस्त्रविधिका परिमाण किया कि-पहनने औढनेके लिए एक जोडा क्षौम (अलसीके ) वस्त्रके सिवाय, और उपचारसे कषास आदि वस्त्रके जोडेके सिवाय अन्य सब वस्त्रोको प्रत्याख्यान करता हूँ ॥२८ इसके बाद विलेपनविधिका परिमाण किया कि-अगर कुकुम आर चन्दन आदिके अतिरिक्त सब विलेपनाविधिका प्रत्याख्यान करता है ॥२९।। इसके बाद पुष्पविधिका परिमाण किया कि-एक शुद्ध कमलका और मालतीके पुष्पोकी मालाको छोडकर और सब पुष्पोंका प्रत्याख्यान બધા ઉદ્વર્તનને (ઉવટણા–પીઠી) નું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૨૬) પછી તે મજજન વિધિનું પરિમાણું કર્યું કે ઉન આકારની અર્થાત્ રહે ટના ધડ આકારની લાબી ઘડી કે જેમાના પાણીથી મેટ ઘડો ભરાઈ જાય, એવા માટે લેટાના આકારના નાના આઠ કળશીયા ભરાય તેટલા પાણી સિવાય બાકી ગાડી પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૨૭) પછી વસ્ત્ર વિધિનું પરિમાણ કર્યું કે પહેરવા-ઓઢવા માટે એક જોડી ક્ષોમ વસ્ત્ર સિવાય અને ઉપચાર કરીને કપાસ આદિ વચન
ટા સિવાય બીજા બધા વસ્ત્રોનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છું (૨૮) પછી તે વિધિ પ્રયખ્યાન કર્યું કે–અગર, કુકમ અને ચદન આદિ સિવાય બીજા બધા વિલેપન વિધિનું પ્રત્યાખ્યાય કરૂ છુ (૨૯) પછી વિધિનું પરિમાણ કર્યું ? એક શુદ્ધ કમળ અને માલતીના પુષ્પોની માળા સિવાય બીજા બધા પાર્ક
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अगारसञ्जीवनी टीका अ० १म्र० ४३-४४ सम्यक्त्वातिचार० २६१
मूलम्-तयाणंतर च णं चउविह अणटादड पचक्खामि, तंजहा. अवज्झाणायरिय,पमायायरिय,हिंसप्पयाण, पावकम्मोवएस ॥४३॥
मूलमू-इह खल्ल आणंदाइ समणे भगवं महावीरे आणंद समणोवासग एवं बयासी एव खल्लु आणंदा। समणोवासएणं अभिगयजीवाजीवेणं जाव अणइकमणिज्जेण सम्मत्तस्स पंच अड. यारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा,तजहा सका, कखा, विइगिच्छा, परपासडपसंसा, परपासडसथवे ॥ ४४ ॥
छाया-तदनन्तर च खलु चतुर्विधमनर्थदण्ड प्रत्याग्व्यामि, तद्यथा-अप' यानाचरित, प्रमादाचरित, हिमापदान, पापकर्मोपदेशम् ॥ ४३ ॥ ____टीका-'तदनन्तर'मित्यादि - प्राग्व्याख्यातानी सर्वाणि पदानि ॥४॥ पानीयविधि परिमाण किया कि-आकाशसे वर्तन आदिमें गिरे हुए जलके सिवाय और सब पानीका प्रत्याख्यान करता हूँ ॥४१।। इसके पश्चात् मुखवास विधिका परिमण किया कि-पाँच सुगन्धियुक्त ताम्बूलों के सिवाय सब मुग्ववास विधिका प्रत्याख्यान करता हूँ ॥४२॥
टीमार्थ-'तयाणतर' इत्यादि पश्चत् आनन्द गाथापतिने कहा भदन्त ! मैं अपभ्यानचरित, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान, और पापकर्मोपदेश, इन चारों प्रकारके अनर्थ दडका प्रत्याख्यान करता है । अनर्थ दडोंके स्वरूपका पहले व्याख्यान किया जा चुका है ॥ ४३ ॥
કરૂ છુ (૪૦) પછી પાનીય-વિધિનું પરિમાણ કર્યું કે- આકાશમાંથી વાસણ વગેરેમાં પડેલા પાણી સિવાય બાકી બધા પાણીનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૪૧) પછી મુખવામ-વિધિનું પરિમાણ કર્યું કે–પાચ સુગધિયુક્ત તાબુ સિવાયના બધા મુખવાસવિધિનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૪૨). टीगार्थ-'तयाणतर' या पछी मान मायापतिये ४- महन्त ! અપધ્યાનચરિત, પ્રમાદા– ચરિત, હિંસાપ્રદાન અને પાપકર્મોપદેશ, એ ચારે પ્રકારના અનર્થદડનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ અનર્થદડના સ્વરૂપનું વ્યાખ્યાન પહેલા કરવામાં આવી ગયું છે (a).
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उपासकदशात्रे
कान्ता लोकमतीतः । ' पालङ्गे' वि-पालग= पूर्वदेशम सिद्धां लताफलविशेष आन वा तथ तन्माधुरक च पालद्गमाधुरक तस्मात । 'सेघे' ति सेधन सेधः = सिद्धिस्त स्मिन् सति, अम्लमचुरवेसना र सस्कृतत्वादम्लानि, सेधाम्लानि, दाल्किया =मुद्रादिरूपया सम्पादितानि तथैवाम्यानि दालियाम्नानि सेधाम्लानि च दालिकाम्लानि च सेधाम्ल दालिकाम्लानि, - तेभ्य तल्लिा तदधिकाञ्जिकादिध्वम्लपदार्थ लिन्नाना, यहा अम्लवेसपारसस्कृताना सुचणादीना चटकादिभ्य इत्यर्थ । 'अन्तरिक्षे ' वि कास्यादिभाजनोपर्याकाशात्पतित जलमन्तरिक्षोदक तस्मात् । 'पञ्च' विस्फोटैलालबङ्गजातीफलम्र्पूरस्पैः पञ्चभिः सुगन्धि द्रव्ये ' संस्कृत = पञ्चसौगन्धिक तस्मात् ॥ २२-४२ ॥
ओदनोका प्रत्याख्यान करता हूँ ||३५|| फिर सूपविधिका परिमाण कीया की - फलाय (मटर), मूँग और माप ( उड़द) को दालके सिवाय और सब दालोंका प्रत्याख्यान करता हूँ || ३६ || फिर घृतविधिका परिमाण किया कि शरद ऋतुमे होने वाले गोघृतमण्ड (गाय के घी सहित दहीछात्र अथवा घी) के अतिरिक्त सब घृत विधिका प्रत्याख्यान करता हूँ ||३७|| फिर शाकविधिका परिमाण कीया की वास्तूक (वथुआ) चून् तथा सौवस्तिक शाकविशेप और मण्डकिक शाकके सिवाय सब शाकों का प्रत्याख्यान करता हूँ ||३८|| इसके बाद माधुरकविधिका परिमाण किया कि - पालन ( पूर्वदेशमे प्रसिद्ध, वेलमे लगने वाला फल अथवा आम ) माधुरकके सिवाय और सब माधुरक विधिका प्रत्याख्यान करता हूँ ||३९|| फिर जेमनविधिका परिमाण किया कि दालके बने हुए और अधिक खटाईमे डाले हुए पदार्थ (जैसे दही वडा ) fra और सब जेनविधिका प्रत्याख्यान करता हूँ ||४०|| फिर બધા ભાતનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૩૫) પછી સૂપ-વિધિનું પરિમાણુ કર્યું ક વટાણા, મગ અને અડદની દાળ સિવાય છાકી બધી દાળનુ પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૩૬) પછી ધૃતવિધિનું પરિમાણ કર્યું કે શબ્દ ઋતુમા થતા ગેાધૃતમડ (ગાયના ઘી સાથે દહીં-છાશ અથવા તાવેલા ઘી) સિવાય બીજી ધૃત-વિધિનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૩) પછી શાક-વિધિનુ પરમાણુ કર્યું કે વાસ્તુક (વધુ), સૂચુ, કૃદ્ધિ, સૌતિક અને મડૂકિક શાક સિવાયના બાકીના બધા શકીનુ પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છું (૩૮) માધુર*-વિધિનું પરિમાણુ કર્યું 3-પાલગ (પૂર્વ દેશમા જાણીતા, વેલે થતા કુળ અથવા કેરી ) માધુરક સિવાય બાકી બધા માધુરક-વિધિનું પ્રત્યાખ્યાન કરૂ છુ (૩૯) પછી જમણુ--વિધિનું પરમાણુ કર્યું કે દાળના બનાવેલા અને ખૂબ નાખેલા (જેવા કે દહીંવડા) પદા સિવાય બીજા ખધા જમણ-વિષનું પ્રત્યાખ્યાન
પછી
શમા
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू० ४४ सम्क्त्वातिचारनिरूपणम्
२६३
'वे' त्यादिरूप सशयकरणम् । परपापण्डमशसा = सर्वज्ञानुपदिष्टस्य धर्मस्य प्रशसनम् । परपापण्डसस्तवः = सर्वशानुपदिष्टस्य धर्मस्य परिचयः । उक्तानि च शङ्कादिना स्वरूपाणि यथा
" जिणोवट्टतत्तेसु, सच्चओ असओवि वा । असचन्तणससीई, सत्थे सका णिरुविया ॥१॥ सव्वओ देसओ एव, मिच्छादसणकेखण | सम्मत्तस्साइयारेसु, घीओ कखत्ति कितिओ ॥२॥ तवोदाणाइयाणं मे, पयासेण फल सिय ण वत्ति ससओ जो सा, वितिमिच्छा पकित्तिया ॥३॥ सव्वन्नाणुवहट्ठस्स, धम्मस्स य पससणं । विष्णेया परपाखड, प्पससा जिणसासणे ||४|| तहेब जो परिचओ, सवन्नाणुत्तधम्मगो | पचमो अइयारी सो, परपाखडसावो ||५|| इति | एतच्छाया च—
45
जिनोपदिष्टतवेषु सर्वतोऽशतोऽपि वा ।
निरूपिता ॥ १ ॥
असत्यत्वसाशीति, शास्त्रे शङ्का सर्वतो देशत एव मिथ्यादर्शनकादक्षणम् । सम्यक्त्वस्यातिचारेषु द्वितीयः काक्षेति कीर्तितः ॥२॥ तपोदानादिकाना मे प्रयासेन फल स्यात् ।
न वेति सशयो य सा विचिकित्सा प्रकीर्त्तिता ॥३॥ सर्वज्ञानुपदिष्टस्य, धर्मस्य च प्रशसनम् । विज्ञेया परपापण्डप्रशसा जिनशासने ||४|| तथैव य परिचयः, सर्वज्ञानुक्तधर्मग. | पञ्चमोऽतीचार' स, परपापण्डसस्तव. ||५|| " इति । इति सूत्रार्थ. ||४४||
शका आदिका स्वरूप और भी कहा है - [गा०१-५] | इन गाथाओंका अर्थ ऊपर आचुका है ॥ ४४ ॥
ચકા આદિનું સ્વરૂપ ખીજી રીતે પણ કહેલુ છે –(ગા૦ ૧૫) એ ગાથાઓને અથ ઉપર આવી ગમે છે (૪૪)
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उपासकदवा
छाया - इह खलु हे भानन्द ! श्रमणो भगवान महावीर मानन्द श्रमणोपासकमेवमवादीत् एव खलु भानन्द 1 श्रमणोपासकेनाभिगतजीवाजीवेन यावदनतिक्रमणीयेन सम्यक्त्यस्य पञ्चातीचाराः प्रधाना ज्ञातव्यान समाचरितव्याः तद्यथा शङ्का, फाड़ा, विचिकित्सा, परपापण्डमशसा, परपापण्डसस्तवः ॥ ४४ ॥
टीका - सम्यक्त्वस्य = पाहूनिर्दिष्टस्वरूपस्य । 'पेयाल' इति प्रधानवाचको देशी शब्दः । तद्यथा तानेव पञ्चातीचारान् दर्शयति शङ्कादुपदिष्टेषु तत्वेषु सर्वतोऽशो चा असत्यतया सशयकरणम् । काक्षा=सर्वतो देशतच मिथ्यादर्शन स्याभिलापः । विचिकित्सा = एतस्य महनस्तपोदानादिमयासस्य फल भविष्यति न
टीकार्थ- 'इह खलु' इत्यादि भ्रमण भगवान् महावीर, आनन्द श्रावक से इस प्रकार बोले - " हे आनन्द ! जीव अजीवके स्वरूपको जाननेवाले यावत् अनतिक्रमणीय श्रावकको पूर्वोक्त सम्यक्त्वके पाँच प्रधान अतिचार जानने चाहिए, किन्तु उनका आचरण न करना चाहिए। वे अतिचार इस प्रकार हैं-- (१) शङ्का, [२] काहक्षा, [३] विचिकित्सा, [४] परपापण्डप्रशसा, [प] परपाषण्डसस्तव । सर्वज्ञ भगवान् द्वारा कथित तस्योंमे थोड़ी या पूरी असत्यताकी शका करना शका-अतिचार है १ । एक देशसे या सर्व देशसे मिथ्यादर्शन की अभिलाषा करना काक्षा अतिचार है २ । ' इस महान् दान या तपका फल मिलेगा या नहीं इत्यादि सशय करना विचिकित्सा अतिचार है ३ । सर्वज्ञ द्वारा न कहे हुए धर्मकी प्रशंसा करना पर पाषण्डप्रशसा 'अतिचार है ४ । सर्वज्ञद्वारा न कहे हुए धर्मका परिचय करना परपाषण्ड सस्तव अतिचार है ५ | टीकार्थ - "इह खलु" इत्याह श्रमायु भगवान् महावीर मान६ श्रात्रउने आ प्रभा કહ્યુ હું આનદ જીવ–મજીવના સ્વરૂપને જાણનારા યાવત્ અનતિક્રમણીય શ્રાવક પૂર્ણાંકત સમ્યક્ત્વના પાચ પ્રધાન અતિચારા જાણવા જોઇએ, પણ આચરવા ન જોઈએ
-
પરપાખ ડપ્રશ સા, (૫) પરપાખડેસ સ્તવ સર્વજ્ઞ ભગવાને કહેલા તત્ત્વામા ચાડી કે વધુ અસત્યતાની શ કા કરવી એ શૂકા – અતિચાર છે (૧) એક દેશે કરીને અથવા સર્વી દેશે કરીને મિથ્યાદર્શનની અભિલાષા કરવી એ કાક્ષા અતિચાર છે આ મહાન્ દાન અથવા તપનુ ફળ મળશે કે નહિ ? એ પ્રમાણે સશય કરવે એ વિચિકિત્સા અતિચાર છે . (૩) સર્વાગે ન કરેલા ધર્સની પ્રશંસા પરપાખ ડપ્રશ સા—અતિચાર છે (૪) સન્ને ત કરેલા ધમના પરિચય परभाय्म उस स्तव-मतियार छे (4)
6
(२)
કરવી એ કરવા. એ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सृ० ४४ सम्यत्वातिचारनिरूपणम् वे' त्यादिरूप सशयकरणम् । परपापण्डप्रशसा = सर्वज्ञानुपदिष्टस्य धर्मस्य मशसनम् । परपापण्डसस्तवः = सर्वज्ञानुपदिष्टस्य धर्मस्य परिचयः । उक्तानि च शङ्कादिनां स्वरूपाणि यथा
" जिणोवहहत तेसु, सव्यओ असओवि वा ।
असचत्तणससीई, सत्थे सफा णिरुविया ॥ १ ॥ सव्वओ देसओ एव, मिच्छादसणकेखण | सम्मत्त साइयारेसु, घीओ कखत्ति कित्तिओ ॥२॥ तचोदाणाइयाण मे, पयासेण फल सिय । ण वत्ति ससओ जो सा, वितिमिच्छा पकित्तिया ॥३॥ सव्वन्नाणुवइहस्स, धम्मस्स य पससण | विष्णेया परपाखड, प्पससा जिणसासणे ||४|| तहेव जो परिचओ, सन्वन्नाणुत्तधम्मगो । पचमो अहयारी मो, परपाखडसबवो ||५|| इति । एतच्छाया च
जिनोपदिष्टतवेषु सर्वतोऽशतोऽपि वा । असत्यत्वसशीतिः, शास्त्रे शङ्का निरूपिता ||१|| सर्वतो देशत एव, मिथ्यादर्शनका दक्षणम् । सम्यक्त्वस्यातिचारेषु द्वितीयः काक्षेति कीर्त्तितः ॥२॥ तपोदानादिकाना मे प्रयासेन फल स्यात् । न वेति सशयो यः सा विचिकित्सा मकीर्त्तिता ॥३॥ सर्वज्ञानुपदिष्टस्य, धर्मस्य च प्रशसनम् । विज्ञेया परपापण्डमशसा जिनशासने ||४|| तथैव यः परिचयः, सर्वज्ञानुक्तधर्मंग | पञ्चमोऽतीचार. स, परपापण्डसस्तव ||५|| " इति । इति सूत्रार्थं ॥४४॥
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शका आदिका स्वरूप और भी कहा है - [ गा०१-५ ] | इन गाथा ओंका अर्थ ऊपर आचुका है ॥ ४४ ॥
શકા આદિનું સ્વરૂપ બીજી રીતે પણ કહેલુ છે –(ગા॰ ૧-૫) એ ગાથાઓના અર્થ ઉપર આવી ગયા છે (૪૪)
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उपासकदशास्त्र मूलम्-तयाणतरं च ण थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएण पंच अइयारा पेयाला जाणियबा न समायरियावा, तंजहा-बंधे, वहे,छविच्छेए,अतिभारे, भत्तपाणवोच्छेए १॥४५॥
छाया-तदनन्तर च सलु स्थूलास्य माणातिपातविरमणस्य श्रमणोपासकेन पश्चातीचाराः प्रधाना ज्ञातव्या न समाचरितन्या , तद्यथा-पन्धः, बधः, छवि च्छेदः, अतिभारः, भक्तपानव्यपछेदः १ ॥ ४० ॥
टीका-'बन्धे'-ति-पन्धनम्माणिनो रज्ज्वादिना सयोजन,वधः शादिना परिपीडन, छविच्छेद =शस्त्रादिनाऽवयवकर्तनम् , अतिभार.-माणिसन्धपृष्ठाधुपरि परिमाणाधिकभारापेण, भक्तपानव्यवच्छेदः अन्नपानाधदान तद्दानोद्यतस्य वाऽन्तरायकरणम् । ___ अत्राहुः प्राश्च आचार्या -न्यो द्विविधः-द्विपदबन्धश्चतुष्पदबन्धश्चेति, टीकार्थ-तयाणतर चेत्यादि। इसके अनन्तर श्रावकको स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रतके पाच प्रधान अतिचार जानना चाहिए पर आचरण न करना चाहिए। वे इस प्रकार है-[१] बन्ध, [२] वध, [३] विच्छेद, [४] अतिभार और [५] भक्तपानव्यवच्छेद ।
किसी जीवको रस्सी आदिसे बाधना बन्ध है। कोडा आदिसे मारना वध है। शस्त्र आदिसे उसके अवयवो (अगों)को काटना छवि च्छेद है। कन्धे या पीठ पर परिमाणसे अधिक भार लादना अतिभार है, और अन्नपानी न देना, अथवा दूसरा देता हो तो अन्तराय करना भक्त पानव्यवच्छेद अतिचार है।
प्राचीन आचार्योंके मतसे बन्ध दो प्रकारका है-द्विपदबन्ध और टीकार्थ-ताणतर चेत्यादि त्यारपछी श्रावस्यसायातिपातविरभर व्रतना पाय પ્રધાન અતિચાર જાણવા જોઈએ પણ આચરવા ન જોઈએ, તે આ પ્રમાણે છે (૧) , (२) वध, (3) छविर, (४) अतिसार भने (4) पानव्य५२४
કઈ જીવને દોરડા વગેરેથી બાધવે તે બધ છે કેરડા વગેરેથી મારા એ જ છે શસ્ત્ર આદિથી તેના અવયવોને કાપવા તે છવિ છેદ છે ખાધ અથવા પીઠ પર પરિમાણથી વધુ ભાર લાદવે એ અતિભાર છે, અને અને પાણી ન આપવા અથવા બી દેતા હોય તેમાં અન્તરાય કરવો એ ભકત-પાન વ્યવહેદ અતિચાર છે
પ્રાચીન આચાર્યને મતે બધ બે પ્રકારને છે દ્વિપદ ધ અને ચતુષ્પદબંધ
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अगारधर्म सञ्जीवनी टीका अ० १ सू० ४५ सम्यक्त्वविचारवर्णनम्
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तत्र द्विपदवन्धो मनुष्यादिनन्धश्चतुष्पदवन्धश्व पशुपन्धः । प्रकारान्तरेण पुनरय द्विविधः - अर्थवोऽनर्थवन्धश्चेति = प्रयोजन शाब्दन्धनम्, अनर्थयो= निष्प्रयोजनवन्धनम् । अर्थमन्धोऽपि द्विविधः - सापेक्ष निरपेक्षभेदात्, तत्र सापेक्षो=रज्ज्यादिभिर्मज्जुलपदार्थैः सम्पादितो, यो हि पचादिभये समुपस्थिते सुखच्छेो भवितु शक्नोति, नायमतीचारः किन्तु यः प्राणी बन्धनमन्तरेण यथो चित नावतिष्टते तन्मात्रार्थः । अध्ययनादिविपयिकामाज्ञामपालयता शिशुमभृतीना मन्यापराधिना दासीदासचोरादीना चाग्न्यादिभयसरक्षणगर्भः शिक्षार्थं यो वन्धः स सापेक्ष इति यावत् । यत्त निर्दयतया मनुष्य पश्वादीना बन्धन स निरपेक्षो पन्धः
चतुष्पवन्ध | मनुष्य आदिको नाधना विपद बन्ध है और पशुओंको याधना चतुष्पद बन्ध है। दूसरी तरहसे भी बधके दो भेद है - [2] अर्थबन्ध और (२) अनर्थबन्ध । प्रयोजन से वाधना अर्थबन्ध है और विना प्रयोजनही बाध देना अनर्थबन्ध है | अर्थ बन्ध भी दो प्रकारका है - [१] सापेक्षनन्य और [२] निरपेक्षवन्ध । कोमल रस्सी आदिसे ऐसा बाधना कि अग्नि लगने आदिका मय होने पर शीघ्र ही सरलता से छोडा जा सके उसे सापेक्ष बन्ध कहते है यह अतिचार नहीं है, केवल विना वावे ठीक न रहनेवाले प्राणियोंके लिए है । तात्पर्य यह है कि पढाई आदि सबन्धी आज्ञा न मानने वाले बालकोंको, अन्य अपराधियोंको तथा दासी दास चोर आदिको अग्नि आदिके भयसे उनकी रक्षाका लक्ष रखते हुए केवल शिक्षा देने के लिए बाधना सापेक्ष बन्ध है । मनुष्य
મનુષ્ય આદિને ખાધવા તે દ્વિપદખ ધ છે અને પશુઓને ખાધવા તે ચતુષ્પદ્રુમધ છે બીજી રીતે પણ મધના બે ભેદ છે. (૧) અમધ (ર) અનબંધ પ્રયાજન માટે ખાધવા તે અખધ છે અને વિનાપ્રયોજને ખાધવા તે અનખ ધ છે. અખ ધ પણ એ પ્રકારના ડે (૧) સાપેક્ષમધ અને (૨) ખીન્ને નિરપેક્ષમધ કામળ દેરડા વગેરેથી એવી રીતે માધવા કે આગ લાગવા વગેરેના ભય ઉપસ્થિત થતા તેમને ઝડપથી અને સહેલાઇથી છેડી દઇ શકાય તે સાપેક્ષમ ધ છે એ અતિચાર નથી, કેવળ આધ્યા વિના બરાબર ન રહે તેવા પ્રાણીઓને માટે તે છે તાત્પર્ય એ છે કે ભણતર આદિ સમ્બન્ધી આજ્ઞા ન માનતા હોય તેવા ખાળાને, અન્ય અપરાધીઓને તથા દાસ-દાસી ચેાર આદિને અગ્નિ આદિના ભયથી તેમની રક્ષાનુ લક્ષ રાખીને કેવળ શિક્ષા કરવા માટે બાધવા એ સાપેક્ષમધ છે મનુષ્ય પશુ આદિને નિર્દયતાપૂર્વક
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उपासकदशा
अयमतीचाररूपत्वान्ायकेः सर्वथा परित्याज्यः | १ | धादीना स्वरूप विधि बन्धनवदेन । इहापि निरपेक्षता सनिर्दय कस्यचित्ताडनमतीचारः । सस्यत्रसरे प्राणिनः प्राणरक्षणमपेक्ष्य मर्मस्थानत्यागपूर्वक सापेन ताडनमनतीचारः |२| एव छविच्छेदेऽपि वर्णनासाहस्तपादादीना निर्दयतया छेदनमतीचार | प्राणिनखाणार्थ व्रण विस्फोटकादिच्छेदनमनतीचारः 13 अतिभारे च वाहकाना शक्ति मनपेक्ष्य परिमाणाधिकभारापण चिरकालपर्यन्त हल शकटादिषु योजन चातीचार स्वद्भिनोऽनतीचारः, किन्तु समयति गत्यन्तरे भारोद्वहनेन जीवीका ग्रहण गर्हितमेपशु आदिको निर्दयता के साथ बाधना निरपेक्ष बन्ध है । यह बन्ध अतिचार रूप है, श्रावकों को इसका सर्वथा त्याग अवश्य करना चाहिए।
वध आदिका स्वरूप और विधि बन्धन के ही समान हैं। यहां भी निर्दयतापूर्वक किसीको ताडन करना अतिचार है और अवसर होने पर प्राणोंकी रक्षाका ध्यान रखते हुए मर्मस्थानों में चोट न पहुँचा कर सापेक्ष ताडन करना अतिचार नही है २ । इसी प्रकार कान नाक हाथ पैर आदि अगोको निर्दयतासे छेदना (काटना) छविच्छेद अतिचार है, और प्राणीकी रक्षाके लिए घाव या फोडे आदिको चीरना- काटना अविचार नहीं है ३ । अतिभारमें, जुलने वाले बैल आदिकी शक्तिकी परवाह न करके परिमाणसे अधिक बोझ लाद देना, अथवा गाडी आदिमें लगातार बहुत समय तक जोते रवना अतिचार है । शक्तिके अनुसार या थोडे समय तक जोतना अतिचार नही है । हाँ, यह स्मारक માધવા એ નિરપેક્ષખધ છે એ બધ અતિચારૂપ છે, શ્રાવકાએ તેને સર્વથા
ત્યાગ કરવા જોઈએ
એમા પણ
નિર્દયતા
વધ દિનુ સ્વરૂપ અને વિધિ અધનની પેઠે જ છે. પૂવક ફાઈને તાડન કરવુ એ અતિચાર છે અને અવસર માગ્યે પ્રાણાની રક્ષાનું ધ્યાન રાખીને મમ સ્થાન પર ચાટ ન લગે એવી રીતે સાપેક્ષ તાડન કરવુ એ અતિચાર નથી (૨) એજ પ્રકારે કા! નાક હાથ પગ આદિ અગેને નિર્દયતા પૂવક કાપવા એ વિચ્છેદ અતિચાર છે પ્રાણીની રક્ષાને માટે ઘા અથવા ક્લા વગેરેને ચીરવા–કાપવા એ અતિચાર નથી (૩) અતિભારમા, ગાઢ નૈડાનારા અળદ અહિંની શકિતની દરકાર રાખ્યા વિના પરિમાણુથી વધારે બેજો લાદવા, અથવા ગાડા સાથે સળગ વધુ વખત સુધી તેમને જોડી રાખવા એ અતિચાર હે શકિત પ્રમાણે અથવા થાડા વખત જોડવા એ અતિચાર નથી હા, એ ધ્યાનમા
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___ अगारसञ्जीवनी टीका अ०१ मू० ४५ (१) अहिंसावततिचारवर्णनमू २०७
वेति तु स्मरणीयम्(४)भक्तपानव्यवच्छेदेऽपि निष्कारण कस्यचिबुभुक्षा पिपासाs ऽतुरस्योपवासनमतीचारः,रोगादेस्यविद्वोपद्रवस्य प्रशमार्थ तूपवासनमनतीचारः 1५। एपु पन्धनादिपु केचितु क्रोधाऽऽविष्टेन कस्यापि बन्धादीनि न कर्तव्यानीत्याहुरिति अत्रेमा सङ्ग्रहगाथा.
" बधण वह छविछेया इभारमह भत्तपाणधुच्छेओ ।
एए पचाइयारा, हवति एयस्स तत्थ पढम तु ॥१॥ पग्गग्जोगो जीवे, कसाइहि पीडण वहो णेओ । तीओ अवयवकत्तण,-महभारो बहुलभारसठवण ॥ २ ॥ अन्नाईणमदाण, पडिसेहो भत्त पाणवुन्छेओ ।
केसिंचि मए बधो, दुविहो दुपयाण चोपयाण च ॥ ३ ॥ छाया-" बन्धन वध-च्छविच्छेदा ऽतिभारमय भक्तपानव्यवच्छेदः ।
एते पश्चातीचारा भवन्ति एतस्य, तत्र प्रथम तु ॥१॥ प्रग्रहयोगो जीवे कशादिभिः पीडन वधो ज्ञेयः । तृतीयोऽवयवकर्तन, मतिभारो बहुलभारसस्थापनम् ॥२॥ अन्नादीनामदान, प्रतिपेयो भक्तपानव्यवच्छेदः ।
केपाञ्चिन्मते बन्धो, द्विविधो द्विपदाना चतुप्पदाना च ॥३॥ रखना चाहिए कि आजीविकाका दुसरा उपाय होने पर श्रावकको बोझ लादनेकी आजीविका करना निन्दनीय है ४ । भक्तपानव्यवच्छेदमें किसी भूखे प्यासेकी विना कारण ही भक्त-पान (अन्न जल) न देना अतिचार है, किन्तु रोग आदि कारणसे या अन्य किसी उपद्रवसे भक्त पान न देना अतिचार नहीं है ६। बन्धन आदि अतिचारोंके विषयमें कोई कोई आचार्य ऐसा करते हैं कि क्रोधित होकर बन्धन
आदि न करने चाहिए। सग्रह गाथाओंका अर्थ भी यही है ॥ ४५ ॥ રાખવું જોઈએ કે- આજીવિકાનું બીજુ સાધન હેવા છતા શ્રાવકે બે જે લાદવાને ધ ધે કરી આજીવિકા ચલાવવી એ નીદનીય છે (૪) ભકત પાનવ્યવહેદમાં કઈ ભૂખ્યા-ત્તરસ્યાને વિના કારણે અન્નપાણી ન આપવા તે અતિચાર છે, પરંતુ રેગ આદિ કારણે અથવા બીજા કેઈ ઉપદ્રવને લીધે અન–પાણી ન આપવા એ અતિચાર નથી (૫) બંધન આદિ અતિચારના વિષયમાં કઈ કઈ આચાર્ય એમ કહે છે કે કેધિત થઈને ધન આદિ ન કરવા જોઈએ સગ્રહ ગાથાઓને અર્થ પણ એજ છે (૪૫)
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उपासकदशास्त्र [सग्रहगायाः] पढमो दासाईण, घीओ णेमो तहा पसूण, च । एसो पुणोवि दुविरो, अट्टाणप्पमेएण ॥४॥ अट्ठोचि दुप्पगारो, सावेरखो वह किंच हिरवेक्खो । सावेक्खो मिउलेटिं, यधो रस्सिप्पभिहहिं भणिओ ॥ ५॥ अग्गिप्पभिईओ जो, भवि सजाय सुहच्रेजो । पडिऊलायरियाण, सिसुदासीदासचोरगाईणं ॥६॥ णिहयताए माणुस, पसुबधो पत्ध होड णिरवेरखो । अइयारस्वताप, सो सहिं चयणिजो ॥ ७ ॥ जयधण वहाइस्सरूवविहिणो सय मुणेयव्वा । णीदीसह जद भेओ, तहा उ अग्गे विसेसस्वेण ॥ ८॥ जिरवेस्खाए तालण, मइयारो णिद्दयत्तणेण वहे । एयव्विधरीओ पुण, सत्ये चुत्तो अणइयारो ॥९॥ णियताए कण्णा, ईण छेओ तहत्थि अइयारो । छविछेवि वणाइ,-फोडणेमेव अणहयारो ॥१०॥
छाया प्रथमो दासादीना, द्वितीयो ज्ञेयस्तथा पशूना च । एप पुनरपि द्विविध., अर्थानर्थप्रभेदेन ॥४॥ अर्थोऽपि विविध , सापेक्षो भवति किञ्च निरपेक्ष । सापेक्षो मृदुलैबन्धी रश्मिप्रभृतिभिर्भणितः ॥६॥ अग्निप्रभृतितो यो भयेऽपि सजायते सुखच्छेद्यः । प्रतिकूलाचरिताना, शिशुदासीदासचोरकादीनाम् ॥६॥ निर्दयतया मानुपपशुपन्धोत्र भवति निरपेक्ष । अतिचाररूपतया, एप श्राद्धेस्त्याज्य ॥७॥ यथाबन्धन वधादिस्वरूपविधय. स्वय ज्ञातव्या. । निर्दिश्यते यथा भेदस्तथा त्वग्रे विशेषरूपेण ॥८॥ निरपेक्षतया ताडन-मतिचारो निर्दयत्वेन चधे । एतद्विपरीत पुन. शास्त्रे उक्तोऽनतिचार , ॥९॥ निर्दयतया वर्णादीना छेदस्तथाऽस्त्यतीचारः । छविच्छेदेऽपि प्रणादिस्फोटनमेवमनविचार ॥१०॥
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अगारसञ्जीवनी टीका अ १ मू. ४६ सत्यव्रताविचारवर्णनम्
२६९ [सग्रहगायाः] अहभारेवि य वाहग, सत्ति अणवेक्ख भारसठवणं । अइयारो, तन्भिन्नो णिरुवाए अणइयारो य ॥ ११ ॥ एव पचमभेए, छुहापिवासाउलस्स णीहेउ । उववासणमइयारो, हरए रोगाहसु अणइयारो ॥ १२ ॥ कोहाऽऽवेसा कस्मवि, वधोड जाउ णेव करणिज्ज । बधाईणं विसए, केसिंचि मय तु एमेव ॥ १३ ॥ छाया-अतिभारेऽपि च वाहकशक्तिमनपेक्ष्य भारसस्थापनम् ॥
अतिचारः, तद्भिन्नो निरुपायेऽनतिचारश्च ॥१२॥ एव पञ्चमभेए क्षुधा-पिपामाकुलस्य निहेतु ।। उपवासनमतिचारों भवति रोगादिष्वनतिचार. ॥१२॥ कोधाऽऽवेशाकस्यापि बन्धादि जातु नैव करणीयम् । बन्धादिना विषये, केपाञ्चिन्मत तु एवमेव ॥१३॥" इति ।
इति सूत्रार्थः ॥४॥ मुल्म तयाणंतर च णं थूलगस्स मुसावायवेरमणस्स पंच अइयाराजाणियवान समायरियव्वा,तजहा-सहसा अब्भक्खाणे, रहसा अभक्खाणे, सदारमतभेए, मोसोवएसे कूडलेहकरणे॥४६॥
छाया-तदनन्तर च खलु स्थलकस्य मृपावादविरमणस्य पञ्चातीचारा ज्ञातव्या न समाचरिव्या , तद्यथा-सहसाऽभ्याख्यान, रहोऽभ्यारयान, स्वदारमन्त्रमेदः, मृपोपदेशः, कृटलेग्वकरणम् ॥ ४६ ॥
टीका-'महसे' ति-सहसा विचारमकृत्वैवाऽऽवेशवशाज्झटिति, अभ्याख्यान=कम्यचिदुपरि मियादोपाऽऽरोपण सहसाभ्याख्यानम् 'त्व चौरोऽसि,
टीकार्थ-तयाणतर चेत्यादि इसके अनन्तर स्थूलमृपावादविरमण व्रतके पांच अतिचार जानना चाहिए किन्तु आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-(१) सहसाऽभ्याख्यान, (२) रहोऽभ्याख्यान, (३) स्वदारमन्त्रभेद, (४) मृपोपदेश, (५) कूटलेखकरण ।
विचार किये बिना ही आवेशमें आकर अट किसी पर मिथ्या आरोप टीमार्थ-तयाणतर चेत्यादि त्या२पछी भ्यूसमृषापाविरभए प्रतना पाय मतियार જાણવા જોઈએ, પણ આચરવા જોઈએ નહિ, તે આ પ્રમાણે – (૧) સહસાભ્યાખ્યાન, (२) २ाक्याभ्यान, -4हार-भसे,-(४) भृवापस, (५) दूटवेम४२९५
વિચાર કર્યા વિના જ આવેશમાં આવી જઈને ઝટપટ કાઈની ઉપર મિથ્યા
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उपासकदशासूत्रो त्व जारजन्माऽसि, इय च डाग्नीर प्रतिभाती'-त्यादिरूपम् । १ । रहसिएकान्ते भव-रहस्य तस्मिनभ्याख्यान-मिथ्याभियोगो रहस्याभ्याख्यानम् एकान्ते समुपविश्य कस्मिंश्चिद्विचारे गुद्य मन्त्रयतो जनानवलोक्य- एते राजादिविरुद्ध मिय आमन्नयन्ती'-त्यादिरूपम् । एते सहसाभ्याख्यानरहस्याभ्याख्याने व्रतमगण यित्वा घुद्धिपूर्वक क्रियमाणे अनाचारता भजतः, असावधानतया क्रियमाणे चाती चाररूपताम् । २। स्वस्य दारा पत्नी स्वदारास्तेपा मन्त्री-विसम्भभाषण तस्य भेद.-परस्मै कथन-निजया पल्या सहकान्ते कृतस्य कामविलासादिविषय कस्य गोपनीयस्य सलपनादेरन्य प्रति समुद्घाटनमित्यर्थ , स्वदारपदमत्र स्वमित्रा दीनामप्युपलक्षाम् । ननु स्वदारमन्त्रभेदको यथास्थितपस्तुप्रतिपादकत्वान्न मिथ्या लगा देना सहमाऽभ्याख्यान है । जैसे-" तृ चोर है, जारपुत्र है-गोला है, यह तो डाकिनसी मालूम होती है।" इत्यादि ॥१॥ लोग एकान्तम बैठ कर कुछ गुप्त परामर्श कर रहे हों तो उन पर मिथ्या दोष लगा देना रहोऽभ्याख्यान है। जैसे "ये लोग आपसमें राजाके विरुद्ध सलाह कर रहे थे" इत्यादि ।
ये सहसाभ्याख्यान ओर रहोभ्याख्यान, यदि व्रतकी परवाह न करके जान बूझ कर सेवन किये जावें तो अनाचार हो जाते हैं, और याद असावधानीसे इनका सेवन हो जाय तो अतिचार होते हे ॥२॥
अपनी पत्नी के साथ एकान्तमें किये हए कामविलास आदि तथा गुप्त वार्तालाप आदि दूसरेसे कह देना स्वदारमन्त्रभेद है। 'स्वदार' पद यहा पर उपलक्षण है, उससे अपने मित्र आदिका भी ग्रहण होता આરોપ લગાડી દે એ સહસાવ્યાખ્યાન છે જેમકે –“તુ ચાર છે, જાપુત્ર–ગાલ છે, એ તે ડાકણ જેવી જણાય છે” ઇત્યાદિ (૧) લેકે એકાતમાં બેસીને કાઈ ગુપ્ત પરામર્શ કરી રહ્યા હોય તે તેમની ઉપર સિદેષ લગાડ એ રહયાખ્યાન છે જેમકે “એ લેકે મહેમાહે રાજાની વિરુદ્ધ સલાહ કરી રહ્યા હતા” ઈત્યાદિ
જે વ્રતની દરકાર રાખ્યા વિના એ સહસાવ્યાખ્યાન અને હેગ્યાખ્યાન જાણી બુજીને સેવવામા આવે તે અનાચાર વ્રતભગ) થાય છે અને જે અસાધન ધાનતાથી એ દેનું સેવન થઈ જાય તે તે અતિચાર થાય છે (૨)
પિતાની પત્નીની સાથે એકાન્તમાં કરેલા કામવિલાસ આદિ તથા એક વાર્તાલાપ આદિ બીજાને કહી દેવા એ સ્વદાર–મત્રભેદ છે “સ્વદાર શબ્દ અઢા ઉપલક્ષણ છે, તેથી પિતાના મિત્ર આદિનુ પણ ગ્રહણ થાય છે, અર્થાત મિત્ર આદિએ
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अगारमञ्जीवनी टीका अ. १ ४६ (२) सत्यत्रताविचारवर्णनम् भापीति कथमिदमतीचारेषु परिगणितमिति चेत्सत्यमुक्त, किन्तु गुप्तवार्त्ताया प्रकटिताया लज्जादिपावश्याद्रोपाऽऽवेगाद्वा स्त्र्यादि स्वपरमाणाघाताद्यनये क शक्नोति तम्मादयमप्यतीचार इति । ३ । मृषा = मिथ्या तस्य स चासौ बोपदेश.ऐहिकामुष्मिकाभ्युदयनिश्रेयसविषये सन्दिहानजनपृष्टेन तत्वार्थमजानता हिंसादिसम्पृक्त तद्विपरीतोपदेशदान - मृपोपदेशः । अयमप्याभोगतश्वेदनाचारोऽनाभोगतश्चातिचार इति स्वय विवेक्तव्यम् |४| कटम् - असद्भूत वस्तु तस्य लेखः= है, अर्थात् मित्र आदिने जो गुप्त बात एकान्तमें कही हो उसे मस्ट करदेना भी अतिचार हैं ||
शका - अपनी पत्नीकी गुप्त बात कहनेवाला यथार्थ (सचा ) बोलता है, फिर वह मृपावादी कैसे हुआ ? और ऐसी बात कहना अतिचारों में क्यों शामिल किया गया है ? |
समाधान — ठीक है । पर गुप्त नात प्रगट हो जानेसे, लज्जा आदिके कारण क्रोध और आवेश आ जाता है। इससे स्त्री आदि, स्व परके प्राणोंका घात आदि अनर्थ कर बैठती है, इसलिए इसे अतिचार कहा है ॥३॥
मिथ्यात्वका या मिथ्या उपदेश देना मृपोपदेश है, इह-परके लोकसम्बन्धी उन्नति के विषयमें किमीको सन्देह हो और वह दूसरेसे पूछे, किन्तु वह वास्तविकताको न जानता हुआ हिंसा आदिसे युक्त उलटा उपदेश देवे तो वह उपदेश मृषोपदेश है। अगर जान बूझकर झूठा उपदेश दे तो अनाचार है और विना जाने दे तो अतिचार है, इसमें उतना भेद स्वय कर लेना चाहिए ॥ ४ ॥ झूठ लेख लिखना अर्थात्
જે ગુપ્ત વાત એકાન્તમા કહી હોય તે પ્રકટ કરી દેવી એ પણુ અતિચાર છે -- पोतानी पत्नीनी गुप्त बात आहेनार यथार्थ (सायु ) मोठे, तो पड़ी મૃષાવાદી કી રીતે થયે ? અને એવી વાત કહેવી એ અતિચારામા કેમ દાખલ કરી ? સમાધાન—ઝીક છે, પરન્તુ ગુપ્ત વાત પ્રકટ થઈ જવાથી લજ્જા આદિને કારણે ક્રોધ અને આવેશ આવી જાય છે તેથી શ્રી આદિ, સ્વ-પરના પ્રાણાના ઘાત આદિ અનર્થ કરી બેસે છે, તેથી તેને અતિચાર !હ્યો છે. (૩)
મિથ્યાત્વના યા મિથ્યા ઉપદેશ ધ્રુવે એ મૃષપદેશ ઠે धड-प-सસમધી ઉન્નતિના વિષયમા કોઈને સદેડ હેય અને બીજાને પૂછે, પરન્તુ તે વાવિકતા ન જાણતા હૈાવાથી હિંસા આદિથી યુકન ઉલટો ઉપદેશ આપે તે તે ઉપદેશ મૃપેપદેશ છે બગ લણી-મૂછને જૂઠે ઉપદેશ આપે તે તે અનાચાર છે અને નજાણુતા આપે તે અતિચાર છે એમા એટલે ભેદ પેતાની મેળે કરી લેવા(૪)
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उपासकदशास्त्रे
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लेखन, तद्रूपा क्रिया कूटलेख किया - अन्यदीया मुद्राद्यङ्कितां लिपि हस्तादिकौशलवशा दक्षरशोरनुकृत्य परश्चनार्थ सर्वथा तदाकारतया लेखनमित्यर्थः, अनाचारातीचारी तु माग्देवभोगानाभोगाभ्यामवगन्तव्या । ५ । इत्थमत्र सहगाया :एत्थ य पचयारा, बुचते लाख लवणोवेया । महसम्भवाण तह, अव्मक्ग्वाण रह्स्सस्स ॥ १ ॥ णियदार मतभेओ, मुसोवणसो य कडलेही य । एएसिं पचण्ड, कमसो रूव भणिजए अग्गे ॥ २ ॥ अवियार जो मित्रा, दोसारोनो परत्थ' तु चोरो ! तु णीओ' इचेव, सहसम्भवाणमागमे वृत्त ॥ ३ ॥ एगते मितेहि, गुज्झ ज किंपि मतयतेसु । मिच्छादोमाऽऽरोवो, अभक्खाण रहस्समक्खाय ॥ ४ ॥ णिय थी मित्ताईण, सभेओ गुज्झमतपभिइस्स | णियदारमतभेओ, णायच्वो अह मुमोवएसो सो ॥ ५ ॥
एतच्छाया च-
66 अत्र च पञ्चातीचारा उच्यन्ते लक्ष्यलक्षणोपेताः । सहसाभ्याख्यान तथा अभ्याख्यान रहस्यस्य ॥ १ ॥ निजदारमन्त्रभेदो मृपोपदेशश्च कूटलेखच । एतेपा पञ्चाना क्रमशो रूप भण्यतेऽग्रे ॥ २ ॥ ̈ अविचार यो मिथ्या दोषारोप पत्र 'त्व चौरः । त्व नीच" इत्येव, सहसाभ्याख्यानमागमे उक्तम् ॥ ३ ॥ एकान्ते मित्रैर्गुह्य, यत्किमपि मन्त्रयत्सु । मिथ्यादोषारोपोऽभ्याख्यान रहस्यमाख्यातम् ॥ ४ ॥ निजी मित्रादीना, सभेदो गुमन्त्रप्रभृतेः । निजदारमन्त्रभेदो, ज्ञानव्योऽथ मृषोपदेश' स ' ॥ ५ ॥
दूसरेकी मुहर आदि लगाकर, हाथकी सफाईसे दूसरेके अक्षरोकी बहू नकल करके उसीके ढँगले लिख देना कूटलेख क्रिया है । यहभी पहले की तरह ही यदि बुद्धिपूर्वक हो तो अनाचार है और बुद्धिपूर्वक न हो तो अतिचार है । सग्रह गाथाओका अर्थ भी यही है ॥ ४६ ॥
જોઠ લેખ લખવા અર્થાત્ બીજાને સહી – સીક્કો કરવા, હાથની સફાઇથી ખીજના અક્ષરાની હુહૂ નકલ કરવી અને એની ઢબે લખાણ કરવુ, એ કૂ લેખક્રિયા છે એ પણ પહેલાની પડે બુદ્ધિપૂર્વક થાય તે અનાચા છે અને બુદ્ધિપૂર્વક ન થઈ હાય તે અતિચ છે (૧) સગ્રહ ગાથાઓના અ પણ એજ છે (૪૬)
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अगारधर्मसीवनी टीका सू० ४७ अस्तेयव्रतातिचारनिरूपणम् २७३
ज अन्भुयए णीसेयसे य सदेहयत्यचित्तण । पुट्ठो मिच्छोवइसइ, तत्सत्यस्सापरिभाणा ॥ ६ ॥ यदभ्युदये निःश्रेयसे च सन्देहग्रस्तचित्तेन । पृष्टो मिथ्योपदिशति, तत्वार्थस्याऽपरिज्ञानात् ॥ ६ ॥
[सग्रहगाथा ] हत्थाइकोसलेण, अणुगरण ज परक्खराईणं ।
परवचबुद्धीए, विनेया कूडलेहकिरिया सा ।। ७ ।।" इति। छाया-हस्तादिकौशलेनानुकरण यत्पराक्षरादीनाम् । परवचननुदया, विज्ञेयो कूटलेखक्रिया सा ॥ ७ ॥" इति ।
इति सूत्रार्थ ॥ ४६ ॥ मलम्-तयाणतरं च णं थलगस्स अदिण्णादाणवेरमणस्स पच अइयारा जाणियबा न समायरिवा। तंजहा-तेणाहडे, तक्करप्पओगे, विरुद्धरजाइक्कमे, कूडतुल्ल (ला) कडमाणे, तप्पडिरूवगघवाहारे ३ ॥४७॥
छाया-तदनन्तर च खलु स्थूलकस्याऽदत्तादानविरमणस्य पञ्चातीचारा सातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा-स्तेनाहत, तस्करप्रयोग', विरुद्धराज्यातिक्रमः कटतुल्य (ला) कूटमान, तत्मतिरूपकव्यवहारः ३ ॥४७॥
टीका-'स्तेने-ति स्तेना:-चौरास्तैश्चौर्यवृत्या समानीत हिरण्यधान्यादि स्तेनाऽऽहतम् चोरिनस्य वस्तुनो लोभपारवश्यादल्पमूल्यव्ययेन ग्रहणमित्यर्थः ॥१॥
टीकार्थ-तयाणतर चेत्यादि इसके अनन्तर स्थूल अदत्तादानविरमण व्रतके पाच अतिचार जानना चाहिए पर आचरण न करना चाहिए। वे अतिचार ये हैं-- (१) स्तेनाहत, (२) तस्कर प्रयोग, (३) विरुद्ध-राज्यातिक्रम, (४) कूटतुला कूटमान, (५) तत्प्रतिरूपक व्यवहार । __स्तेन भर्थात् चोरद्वारा आहत अर्थात् चोरी करके लाई हुई सोना
ast-'तयाणतर चेत्यादि' त्या५७ २५-महत्तहान-विश्भ बना पाय અતિચાર જાણવા જઈએ, પણ આચરવા ન જોઈએ એ અતિચાર આ પ્રમાણે છે(१) स्नात, (२) २४२प्रयोग, (३) वि३६ यातिभ, (४) e-del-ट भान, (૫) તત્પતિરૂપક શ્વવહાર
સ્તન અર્થાત્ ચિરકાર આફત અથત ચોરી કરીને લાવેલા સેના-ચાર
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- उपासकशास्त्र तस्कराणा चौरागा प्रयोगः 'हरत परधनानि यूय'-मित्यादिवाक्यैः प्रेरणतस्करप्रयोगः-चौर्यार्थ चौरायोत्साहमदानमित्यर्थः १२१ विरुद्धस्या यद्वा विरुद्ध यद्राज्य तद्विरुद्वराज्य, तस्य तस्मिन वा अतिक्रम =मित्रराज्यत्यागपूर्वक सम्प्राप्तिः विरुद्धराज्यातिक्रमः-यस्य राज्ये निगासः स्यात्तदीयाज्ञामन्तरेण तद्विरोधिनो राज्ये प्रवेशादिकरण राजदेयभागस्यापहरण वेत्यर्थः । ३ । कृटतुलाकृटमान करणम् तुला-तुलामत्रत्वेन प्रसिद्धा, मान-पितस्ति कुडवादि, कुटव न्यूनाधिक भावस्तश्च कटया न्यूनाधिकरूपायास्तुलायाः, कटस्य न्यूनाधिकरूपस्य मानस्य च कारण-सम्पादनमित्यर्थ , कापटयेन तुलागलीवितस्तिमस्थादिद्वारा न्यूनस्य वस्तुनो दानमधिकस्य च ग्रदणमिति यावत् । ४ ।
तस्य प्रतिरूपक, सदृश तत्मतिरूपक, तस्य व्यवहारः-व्यवहरण प्रक्षेप इत्य थेस्तत्मतिरूपकव्यवहार -नमूल्य यस्मिपि वस्तु स्वरूपादितो यादृश तस्मिस्ता चांदी आदि वस्तुको लोभवश अल्प मूल्य में ग्रहण कर लेना स्तेनाहृत अतिचार है॥१॥ चोरोंको चोरी करनेकी प्रेरणा करना या उत्साह देना तस्करप्रयोग अतिचार है। जैसे-'हा तुम परधनको चुराआ' आदि ॥२॥ जिस राजाके राज्यमे निवास करते हैं उसकी आज्ञाके विना उसके विरोधी राज्यमे प्रवेश आदि करना, अर्थात् शत्रु राज्यम घुसना, राज्यकर (डाण) आदिकी चोरी करना आदि विरुद्धराज्यातिक्रम है ॥३॥ खोटा तोलना खोटा मापना अर्थात कपट करके तराजू। अगुली या हथेली घाट आदि द्वारा थोडी वस्तु देना और अधिक लेना कुटतुला कूटमान अतिचार है॥४॥ किसी वस्तुमे उसीके समान दूसरी वस्तु मिलाकर असली वस्तुके रूपमें व्यवहार करना अथात् આદિ પદાર્થોને લેભ વશ થ5 અપમ્ માં લેવા એ તેન હત અતિ શેરાને ચેરી કરવાની પ્રેરણા કરવી યા ઉત્સાહ આપે તે તસ્કરગ અતિચા* છે, જેમકે “હા તમે પરધન ચારી જાઓઈનાદિ (૨) જે રાજાને રાજયમાં નિવાસ કરતા હોઈએ તેની આજ્ઞા વિના તેના વિરોધી રાજ્યમાં પ્રવેશ આદિ કરવા, અર્થાત શત્રુ રાજ્યમાં પેસી જવુ રાજ્યકર અર્થાત દાણની ચોરી કરવી, આ વિરૂદ્ધરાજ્યાતિકમ છે (૧) ખેટુ તેલવું અને બોટ માપવુ અર્થાત્ કપટ કરીને ત્રાજવું નમાવવું અથવા આગળી કે હથેળી વડે છૂપી રીતે ચાલાકી કરી છે આપવું અને વધારે લેવું, એ કુતુલા-કુટમાન અતિચાર છે () કઈ વસ્તુમાં એના જેવા બીજી વસ્તુ મેળવવી અને અસલ વસ્તુના રૂપમાં તેને વ્યવહાર કરવો
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका सू० ४७ अस्तेयत्रतातिचारनिरूपणम् २७५५ दशस्यैवाल्पमूल्यस्य वस्तुन, सम्मिश्रणेन व्यवहरणमिति भावः । एतद्विविधम्स्वल्पमूल्यकसदृशाऽसदृशवस्त्वन्तरसम्मिश्रणभेदात् , तत्र वर्ण-स्नेहनादिना घृतादितुल्यरूप भेद आलूकादि वृता सम्मेल्य घृतादिमूल्येन तद्वयवहरण प्रथमम् (१) वर्णादित. किश्चिद्भेदेऽपि वहुमूल्य के सजातीये शाल्यादावल्पमूल्यक शाल्यन्तरादिर सम्मेल्य नद्वयवहरण द्वितीयम् (२) ॥५॥ अत्रेत्य संग्रहगाथाः
"एत्थवि पचइयारा, तेणाड तकरप्पओगा य। विरुद्धरजाइक्कमे, कूडतुलारुडमाणे य ॥१॥ एव तप्पडिस्वग, ववहारो आगमा णेओ ।
अग्गे कमसो वुच्चह, लक्खणमेगेगसेसि ॥२॥ एतच्छाया च
" अनापि पञ्चातिचाराः स्तेनाहूत-तस्करमयोगी च । विरुद्धराज्यातिक्रमः, कटतुला-कूटमान च ॥१॥ एव तत्पतिरूपन-व्यहार आगमाद् ज्ञेय ।
अग्रे क्रमश उच्यते, लक्षणमेकेरमेतेपाम् ॥२॥ घहुमूल्यवाली वस्तुके समान अल्पमूल्यकी वस्तु इसमे मिलाकर बहुमूल्य वस्तुके भावमें उसे बेचना आदि तत्प्रतिरूपक व्यवहार है । यह अतिचार दो प्रकारका है-(१) अल्पमूल्यको समान वस्तु मिलाना और (२) अल्पमूल्यकी असमान वस्तु मिलाना । रग रूप और चिकनाईमें घीके समान मेद और आलू आदि मिलाकर घीकी कीमतमें उसे व्यवहार करना (वेचना) पहला भेद है, और रूप रग आदिमे कुछ भिन्नता होने परभी बहुमूल्य गालि (चावल) आदिमे कम कीमती शालि आदि मिला कर बहुमूल्यकी कीमत लेना दूमरा भेद है । सग्रह गाथाओंका अर्थ यही है ॥ ४७ ॥ અથતું બહુમૂલ્યવાળી વસ્તુના જેવી અ૮૫ મૂલ્યવાળી વસ્તુ તેમાં મેળવીને બહુમૂલ્યવાળી વસ્તુને ભાવે તેને વેચવી તે તપ્રતિરૂપક વ્યવહાર છે (૫) એ અતિચાર બે પ્રકાર છે (૧) અ૮૫મૂલ્યની એકસરખી વસ્તુ મેળવવી અને (૨) અ૫મૂલ્યની બીજી જાતની વસ્તુ મેળવવી જગરૂપ અને રકાશમા ઘીના જેવી ચરબી, બટાટા આદિ મેળવવા અને ઘીની કીમતે તે વેચવા એ પહેલે ભેદ છે અને ગ– રૂપમાં કોઈ ફેરફાર હેય પણ ઉચી કીંમતના ચેખા આદિમ ઓછી કીંમતના ચેખા મેળવી ઉચી કીંમત લેવી એ બીજો ભેદ છે (૫) સ ગ્રહ ગાથાઓને પણ એજ અર્થ છે (૭)
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उपासकदा
[ समरगाथा: ]
पढमो लोहवसा ज, चोरिय पारका वत्थुणो गहणं । सो तकरप्पओगो, चोरस्स्सुसारदाण ज ॥ ३ ॥ णियरायप्पयिऊले, रज्जे समतिकमो भवे तीओ | hasterd तोलण माणेसु जो चउत्थो सो ॥ ४ ॥ घयतदुलाइए ज, सरिसा सरिसप्पमुलवत्थूण | समेलो छलभावा, अइयारो पचमो एसी ॥ ५ ॥ " इति । छाया - प्रथमो लोभवशाद् यच्चोरित - परकीयवस्तुनो ग्रहणम् । स तस्करमयोगचौरस्योत्साहदान यत् | ॥३॥ निजराजप्रतिकूले, राज्ये समतिक्रमो भवेत्तृतीयः । कपटाचारस्तोलन - मानयोर्यश्वतुर्यः सः ||४|| घृततन्दुलादिके यत्, सदृशासदृशाल्पमूल्य वस्तुनाम् । समेल छलभावादतिचारः पश्चम एषः ||५॥ इति । इति सूत्रार्थः ||४७ ||
मूलम् - तयाणतर ष णं सदारसतोसीए पच अइयारा जाणियवा न समायरियन्वा, तजहा- इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, अणंगकीडा, परविवाहकरणे, कामभोगतिवा भिलासे ४ ॥ ४८ ॥
गमनन्,
छाया - तदनंतर च खलु स्वदारसन्तोषिकस्य (स्वदारमन्तुष्टेः) पश्चातीचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्या, तद्यथा - इत्वरिकपरिगृहीतागमनम्, अपरिगृहीता अनङ्गक्रीडा, परविवाहकरण, कामभोगतीव्राभिलाप ४ ॥ ४८ ॥ टीका-इत्वरिके'ति-एति परपुरुष प्राप्नोतीतीस्वरी - कुलटा, सा चासौ टीकार्थ "ताणतर चे 'त्यादि इसके अनन्तर स्वदार सन्तोष व्रतके पाच अतिचार जानना चाहिए किन्तु आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार है- (१) इत्वरिक परिगृहीतागमन, (२) अपरिगृहीताग मन, (३) अनङ्गक्रीडा, (४) परविधाहकरण, (५) कामभोगतीमाभिलाष ।
टीडार्थ - ' तयाणसर चे' - त्याहि पछी स्वहारसतोष मतना पाय अतियार ला જોઇએ પણ આચરવા ન જોઇએ. તે આ પ્રમાણે છે (૧) ઇત્યરિકરિગૃહીતાગમન,(૨) (3) अनगडीडा, (४) परविवार ४५२), (५) अमलोगतीप्रभिलाष
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मगारधर्मसञ्जीवनी टीका सू० ४८ स्वदारसतोपप्रतातिचारनिरूपणम् २७७ परिग्रहीता चेति, यद्वा इत्वरशब्दोऽल्पार्थकोऽपि, तथा च-इत्वरम्-इस्वरकालमपकालार्थमिति यावत्, परिगृहीता स्वीकृतार्याभाटकोत्कोचदानादिद्वारा वदन्ययावा,तस्यां ,गमन परस्त्रिया सह मैथुनसेवनम् वस्तुतस्तु इत्वरशब्दोऽल्पकालार्थकोऽल्पकालिकार्यकश्च ततध-इत्वरम् स्वल्पकाल यावत्, यद्वा इत्वरी-स्वल्पकालिकी पासौ परिगृहीता चेतीत्वरपरिगृहीता वाग्दत्तेत्ययस्तस्या गमनमित्वरपरिग्रहीता. गमनम्, अत एवापरिगृहीतेत्यस्य न वैयध्यमिति सूक्ष्मेक्षिकयाऽवेक्षणीयम् । अय पातिकम व्यतिक्रमाऽतीचारपर्यन्तरस्थोऽतीचारस्तदुपरिगतश्चानाचार उच्यते,तत्र
(१) परपुरुषगामिनी स्त्रीको इत्वरिका करते हैं, अथवा 'इत्वर का अर्थ है थोड़ा समय, अतः थोड़े समयके लिए स्वीकार की हुई स्त्री इत्वरिकपरिगृहीता कहलाती है। तात्पर्य यर है कि-भाड़ा या घूस देकर परस्त्रीका सेवन करना-इत्वरिकपरिगृहीतागमन है। किन्तु वास्तवमें 'इत्वर' शब्द अल्प और अल्पकालीन अर्थका वाचक है, अतएव इरवरिकपरिगृहीताका अर्थ यह हुआ कि-अल्प काल तक अथवा अल्पकालवाला स्वीकार की हुई अर्थात् वागदत्ता (जिसके साथ वाग्दानसगाई-होगया हो), उस वाग्दत्ता के साथ गमन करना इत्वरिफपरिगृहीतागमन अतिचार है। इससे 'अपरिगृहीता' विशेषण भी सार्थक सिद्ध हो जाता है। यह इत्वरिकपरिगृहीतागमन जब अतिक्रम, व्यक्ति क्रम और अतिचार की सीमा तक रहता है तय तक वह अतिचार है, इसके ऊपर अनाचार हो जाता हैं। किसी दूषित कार्य को करनेका सकल्प होना अतिक्रम है। सकल्प
(૧) પરપુરુષગામિની સ્ત્રીને ઈરિકા કહે છે, અથવા “ઇવરને અર્થ છે ડે સમય, એટલે ચેડા સમયને માટે સ્વીકાર કરેલી સ્ત્રી ઈવરિપરિગ્રહતા કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કે–ભાડુ યુ બક્ષીસ આપીને પરસ્ત્રીનું સેવન કરવું એ છત્વરિપરિગૃહિતાગમન છે પરંતુ વસ્તુત “ઈવર” શબ્દ અ૫ અને અલ્પકાલીન અર્થને વાચક છે, એટલે ત્વરિકપરિગ્રહતાને અર્થ એ થયે કે– અ૫કાળ સુધી અથવા અલ્પકાળવાળી સ્વીકાર કરેલી અર્થાત્ વાત્તા (જેની સાથે વાગ્દાન–સગાઈ થઈ હેય), એ વાગ્દત્તાની સાથે ગમન કરવું એ ઈત્વરિપરિગૃહીતાગમન અતિચાર છે એથી “અપરિગ્રહીતા’ વિશેષણ પણ સાર્થક સિદ્ધ થાય છે એ ઇત્વરિપરિગ્રહીતગમન જ્યારે અતિકમ, વ્યતિક્રમ અને અતિચારની સીમા સુધી રહે છે ત્યા સુધી તે અતિચાર છે, તેથી ઉપર જતા તે અનાચાર થઈ જાય છે
કેઈ દૂષિત કાર્ય કરવાને સક૫ થાય તે અતિક્રમ છે અકલ્પ કરેલા
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उपासकदवाने कस्यचिपितस्य कार्यस्य सङ्कल्पमात्रमतिक्रमः,सकल्पितस्य चास्य कार्यस्य सिदयर्य तत्साधनसद्ग्रहो व्यतिक्रमः,साधनसइग्रहे जाते तस्य सङ्कल्पितस्य दूषितकार्यस्या रम्भोऽतीचारोऽन्ततो निर्वहण चाऽनाचार' । १ । अपरिगृहीता-पाणिगृहीतीभिमा विधवा च, तर पाणिग्रहीतीभिन्ना वेश्या फन्पके, तथा चापरिगृहीतास-वेश्या कन्यका विधामु गमनमपरिगृहीतागमनम् । केचित्तु अपरिगृहीतेस्य नेनैव वाग्दत्ताया ग्रहणमित्याहुः । अत्राप्यतिक्रमादयः पूर्ववदेव ।। न अगमनङ्ग तस्मिन्नर्थाद्विषय भोगाय माकृत यदङ्ग योनिरिति, तद्भिन्ने दारुचर्मादिनिर्मितकृत्रिमयोन्यादौ मुखादौ वा क्रीडा-कामान्धतया विषयभोगोऽनङ्गक्रीडा ३३ परेपा-निजापत्यभिधाना किए हुए कार्यकी सिद्धिके लिए साधन जुटाना व्यतिक्रम है। साधन जुट जाने पर उस पित कार्य को आरभ करना अतिचार है, और उस कार्य को पूरा करदेना अनाचार है।
(२) पाणिग्रहण की हुई पत्नी से भिन्न वेश्या, कन्या, विधवा आदि के साय गमन करना अपरिगृहीतागमन है। कोई-कोई अपरि गृहीता का अर्थ वाग्दत्ता मानते है। यहा पर भी अतिक्रम, व्यतिक्रम,
और अतिचार पर्यन्त अतिचार है, और इससे आगे अनाचार हा जाता है।
[३] विषयभोग के लिए जो स्वाभाविक अग है, उनसे भिन्न लकडी, चमड़ा या रबर आदिकी बनी हुई कृत्रिम योनि आदि अथवा मुख आदिमे कामान्ध होकर विषय-भोग करना अनङ्गक्रीडा आत चार है।
[४] अपनी सन्तानसे भिन्न का, स्नेह आदिके वश होकर કાર્યને સિદ્ધિને માટે સાધન જવુ એ વ્યતિકમ છે સાધન એજ્યા પછી એ દૂષિત કાર્યને આર ભ કરે એ અતિચાર છે અને એ કાર્યને પૂરું કરવું એ અનાચાર છે.
(૨) પાણિગ્રહણ કરેલી પત્નીથી જૂદી વેશ્યા, કન્યા, વિધવા આદિની સાથે ગમન કરવું એ અપરિતાગૃહીતાગમન છે, કેઈ કઈ અપરિગ્રહીતાને અર્થે વાર્ધતા માને છે એમાં પણ અતિક્રમ, વ્યતિક્રમ અને અતિચાર સુધી અતિચાર છે, અને તેથી આગળ જતા અનાચાર થઈ જાય છે
(૩) વિષયભેગને માટે જે સ્વાભાવિક અગ છે તેથી બિન કાષ્ઠ, ચામ થા રમ્બરની બનાવેલી કૃત્રિમ નિ આદિ અથવા મુખ આદિમ કામા બનીને વિષયભોગ કરો એ અન ગક્રીડા અતિચાર છે
(૪) પિતાના સંતાન સિવાય અન્યને, નેહ આદિથી વશ થઈને, વિવાહ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका मू० ४८ स्वदारसतोपव्रततातिचारनिरूपणम् २७९ स्नेहादिना यवा सापेक्षया परस्या जाती विवाहकरण =परिणयनसम्पादन परविवाहकरणम् ।४। कामा-शब्दो रूप च, भोगः गन्धो रसः स्पर्शश्च, तयोःशब्दरूपगन्धरसस्पर्शानामित्यर्थः, तीचा अत्युत्कटः, अभिलापः =इच्छा कामभोगतीवाभिलापः, अय हि स्वदारेष्वपि निरन्तरमुखभोगेच्छारूपः, स च कामो. द्वेजमवाजीकरणादिपरिपेवणेन क्षतस्य क्षारमिव भृश कामस्योपजननेनाऽऽत्मनो मालिन्यसम्पादकत्वादतीचारः । ५ । इत्थमत्र सग्रहगाथा:- .
[सग्रहगाथा ] " अस्सवि पंचऽइयारा, वयस्स इत्तरपरिग्गदिया ।
अपरिग्गहियेयासु, गमण पढमो तहा वीओ ॥ १॥ तीओ अणगकीडा, अवि तुजो परविवाह करण च। । एव कामे भोए, तिवहिलासो य पचमो णेओ ॥२॥ सुक्कुक्कोयाइवसा, जा णीया होइ किंचि कालट्ठ । अह्वा वयदिन्ना जा, सा वुत्तेत्तरपरिग्गहियों ॥३॥ तीए गमण पढमो, अपरिग्गहिया उ पन्नगा वेस्सा । परइत्थी य हमासु, गमण बीओ इहत्यि अइयारो ॥४॥ केसिचि मए अपरिग्गहियेव विणिच्छिएह वदिन्ना। एत्य य सईदोरगणाया गमण अणायारो ॥ ५॥ जोणिविभिन्नगे जा, कीला विसयस सिडिविवरीया।
कामधवुद्धिवसओ, चिन्नेयाऽणगकीला सा ॥ ६ ॥ विवाह कराना परविवाहकरण अतिचार है।
[५] शब्द रूप गन्ध रस स्पर्श आदि विषयों की अत्यन्त तीव्र लालसा रखना, काम भोग तीब्राभिलाष अतिचार है । स्वपत्नी के साथ भी सदैव सुख भोगकी इच्छा रखना इसी अतिचारमे शामिल है। यह कामके वेगको बढ़ाने वाले वाजीकरण आदिके सेवनसे, घावपर नमक छिडकनेके समान कामवर्द्धक होनेके कारण आत्माकी मलिनता का कारण है॥४८॥ કરાવે એ પરવિવાહકરણ અતિચાર છે
(૫) શબ્દ રૂપ ગ ઘ રસ સ્પર્શ આદિ વિષયેની અત્યંત તીવ્ર લાલસા રાખવી, એ કામગ તીવ્રભિલાષ અતિચાર છે સ્વપત્નિની સાથે પણ સદેવ સુખ-ભેગની ઈચ્છા રાખવી એ આ અતિચારમાં ગણાય છે કામના વેગને વધારનારા વાજીકરણ આદિ સેવનથી ઘા ઉપર મીઠું છાટવાની પેઠે કામવર્ધક થવાનું કારણ હોવાથી આત્માની મલીનનાનું કારણ છે (૪૮).
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२८.
सिणेहान्छाए जो य, परस्स ज वा समिमजाइम्मि । उध्वहणं ज सहसा, णायन्य परविवाहकरणं त॥७॥ कामासदो रुव, गेजमा भोएण गध-रस-फासा। तेसि तिव्वा वंछा, अध्यारो पचमों कुत्तो ॥८॥ कामुन्वेयग वाईकरणाइणिसेवणा हि कामस्स । अइयुड़ी खारा विय, वयस्स तेणप्पमलिणत ॥९॥ तम्हा तिन्वहिलासो, कामे भोए य जो हवा सोधि।
अझ्यारो मतव्वो, जिणसासणतत्सविन्नेहिं ॥१०॥" इति । एतरगया च
" अस्यापि पश्चातीचारा प्रतस्य, इत्वरपरिग्रहीता। अपरिगृहीता, एतयोर्गमन प्रथमस्तथा द्वितीयः ॥१॥ वतीयोऽनङ्गक्रीडा, अपि तुर्यः परविवाहकरण च । एव कामे भोगे तीव्राभिलाषश्च पञ्चमो ज्ञेयः ॥ २ ॥ शुल्कोत्कोचादिवशाद् या नीता भवति किश्चित्कालार्यम् । अथवा वाग्दत्ता या, सा उक्तत्वरपरिगृहीता ॥ ३ ॥ तस्या गमन प्रथम, अपरिगृहीता तु कन्यका वेश्या । परस्त्री च इमामु गमन द्वितीय इहास्त्यतीचार ॥४॥ केपाश्चिन्मते-अपरिगृहीतैव विनिश्चितेह बाग्दत्ता । भत्र च सूचिदवरकन्यायादगमनमनाचारः ॥५॥ योनिविभिन्ना या, विषयस्य सृष्टिविपरीता । कामान्धबुद्धिवशतो, विज्ञेयाऽनङ्गक्रीडा सा ॥ ६ ॥ स्नेहेच्छया यश्व परस्य, यद्वा स्वभिन्नजाती । उद्वहन यत्सहसा, ज्ञातव्य परविवाहकरण तत् ॥७॥ फामात्-शब्दो रूप ग्राह्या भोगेन गन्ध-रस स्पर्शाः । तेषा तीवा वान्छा, अतिचार पश्चम उक्तः ॥८॥ कामोद्वेजक-वाजीकरणादिनिषेवणादि कामस्य । अतिवृद्धि क्षारादिव क्षतस्य तेनाऽऽत्ममलिनत्वम् ॥९॥ तस्माचीवाभिलाष कामे भोगे च यो भवति सोऽपि । अतिचारो मन्तव्यो जिनशासनतत्ववित्र ॥१०॥” इति ।
इति सूत्रार्थ. ॥४८॥
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका सू० ५० इच्छापरिमाणव्रतातिचारनिरूपणम् २८१
मलम-तयाणंतरं च ण इच्छापरिमाणस्त समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियवान समायरिया, तजहा खेत्तवत्थुपमाणाइक्कमे, हिरणसुवण्णपमाणाइक्मे, धणधन्नपमाणाइकमे, दुपयच्चउप्पयपमाणाइकमे, कुवियधातुपमाणाइकमे ५ ॥४९॥
छाया- तदनन्तर च खलु इच्छापरिमाणम्य श्रमणोपासकेन पञ्चातीचारा ज्ञातव्या न समचरितव्या तद्यथा-क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम , हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रमः, धनधान्यप्रमाणातिक्रम , द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रम', कुप्यधातुप्रमाणातिक्रम ॥५॥ ४९ ॥
टीका क्षेत्र'-नि-दृष्टिनद्यादिजलसेकेन मस्योन्पादनसमर्था भूमि क्षेत्र, भूमिगृहोपरिगृहतदुभयगृहस्वरूप च वास्तु, एनयोयत्ममाण-मर्यादा तदतिक्रमः तदुल्लङ्कन प्रथमः (१) । दीनारालङ्करणादिरूपे घटितम्याघटिस्य वा रजतस्य
टीकार्थ-'तयाणतर चे'-त्यादि इसके अनन्तर श्रमणोपासकको इच्छा परिमाण व्रत के पाच अतिचार जानना चाहिए, किन्तु सेवन न करना चाहिए। वे इस प्रकार है-(१) क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम, (३) धनधान्यप्रमाणातिक्रम, (४) द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिकम, (५) कुप्यधातुप्रमाणातिक्रम।
(१) वर्षा या नदी आदिके जलसे सीचे जाने पर धान्यको उत्पन्न करनेवाली भूमिको क्षेत्र कहते हैं । एक मजिल वाले और अनेक मजिल वाले दोनों प्रकार के गृहों को वास्तु कहते हैं। इनकी जितनी मर्यादा की हो उसका उल्लघन करना क्षेत्रवास्तुममाणातिकम है।
(२) दीनार (मुहर-सिक्का) तथा आभूषण रूप अर्थात् घडी हुई या टीकाथे-'तयाणतर चे'-त्या पछी श्रमपास ४२७परिभाय बना पाय पतिચાર જાણવા જોઈએ, પણ સેવવા ન જોઈએ તે આ પ્રમાણે છે – (૧) ક્ષેતવાસ્તુપ્રમयातिभ, (२) हिरण्यसुवर्य प्रभातिभ, () बनधान्यभायातिभ, (४) द्वि५६ न्यतु०५६प्रभातिभ, (५) यमातिम
વરસાદ કે નદી અદિનું પાણી સીંચીને ધાન્યને ઉત્પન્ન કરનારી ભૂમિને ક્ષેત્ર કહે છે એક મજલાવાળા અને અનેક મજલાવાળા-બેઉ પ્રકારના હેને વાસ્તુ કહે છે એની જેટલી મર્યાદા કરી હોય તેનું ઉલઘન કરવુ એ ક્ષેત્ર-વાસ્તુ પ્રમાણતિકમ છે
(૨) સોના મહોરે તથા આભૂષણરૂપ અર્થાત્ ઘડેલા કે નહીં ઘડેલા સોન–
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उपासकदशास्त्रे सम्बन्धे या स्वनिचिता मर्यादा, तदुल्लहुन द्वितीयः (२) घृत दुग्ध दधि-गुड प्रकरादिक धन, शालि गोधूम मुद्ग माप या मकादिक च धान्यम्, एतदुभयविषये या स्वानिश्चिता मर्यादा तदुल्लहन तृतीय (३)। दासीदासादयो मनुष्या इस मयूरादयः पक्षिणश्च विपदाः, तथा गज़ गया व महिप्यादयश्चतुष्पदा., एतद्विषये या स्वनिश्चिता मर्यादा, तदुल्लहन चतुर्थः (४) । शय्यासनस्त्रभाजनादि कुष्य, तद्विये या स्त्रनिश्चिता मर्यादा, तदल्लइन पञ्चमः (५), आसा सर्वासा मागु क्ताना मर्यादानामनाभोगत उल्लद्धनमतीचार आभोगतस्त्वनाचारः । अत्रत्य सइग्रहगाथा:--
"पत्थवि पचऽइयारा, खेत्ताइपमाणलघण पढमो ।
बीओ हिरणपभिइ, पमाणपरिलघण चेव ॥१॥ छाया-" अत्रापि पश्चातीचारा, क्षेत्रादिप्रमाणलङ्घन प्रथमः ।
द्वितीयो हिरण्यप्रभृति, प्रगणपरिलड्न चैव ॥ १ ॥ विना घडी हुई रजत (चादि-सोने) की निश्चित मर्यादा का उल्लघन करना दुसरा अतिचार है।
(३) घी, दूध, दही, गुड, शक्कर आदि धन, और चावल, गेहू, मूग, उडद, जौ, मक्का , आदि धा य कहे जाते हैं। इन दोनों के विषय म जो मर्यादा की हो उसका उल्लघन करना तीसरा अतिचार है।
(४) दासी, दास आदि मनुष्य और इस मोर आदी पक्षी द्विपद तथा हाथी, घोडा, गाय, बैल, भैस आदि चतुष्पद कहलाते हैं । इनक सम्बन्धमें की हुई मर्यादाको उल्लंघन करना चौथा अतिचार है। .. (५) शय्या, आमन, वस्त्र, वर्तन आदि कुप्यधातु हैं । उनका सबन्ध मैं की हुई मर्यादाको उल्लंघन करना पाचवा अतिचार है। सग्रह गा थाओंका अर्थ भी यही है ॥४९॥ ચારીની નિશ્ચિત મર્યાદાનું- ઉદવ ઘન કરવું એ બીજો અતિચાર છે
(3) घी, दुध, नाक, सार माहि धन भने ये भा, घड, म, म જવ, મકાઈ આદિ ધાન્ય કહેવાય છે એ બેઉની જેટલી મર્યાદા કરી હોય તેવું ઉદલ ઘન કરવુ એ ત્રીજો અતિચાર છે.
(४) सी, स, माद मनुष्य तय स, मार माह पक्षी द्विप, मन હાથી, ઘેડા, ગાય, બળદ ભેસ આદિ ચતુષદ કહેવાય છે એ સબ પે કરેલી મયદાનું ઉલઘન કરવું એ ચે અતિચર છે
(૫) શધ્યા, આસન, વસ્ત્ર, વામણ આદિ કુખ્ય કહેવાય છે એ સબબ કરેલી મર્યાદાનું ઉલઘન કરવું એ પાચમે અતિચાર છે સગ્રહ ગાથાઓને પણ એજ અર્થ છે (૪૯)
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भगारधर्मसञ्जीवनी टीका सू० ५० इच्छापरिमाणव्रतातिचारवर्णनम् २८५
तीओ धणाइविसय,-प्पमाणलघो अह चउत्यो उ । दुपयाहणो पमाणु, ल्लघो कुप्पस्स पचमो णेओ ॥ २ ॥ खेत्त सस्सुप्पायण, सत्ता भूमीगिहाइँ तह बत्यु । एसि जा मचाया, ताए उल्लघण हवइ पढमो ॥ ३ ॥ दीणाराइसु घडिया,ऽघडियाण ज सुवण्णाण । रुप्पाइसु रययाण, तह मज्जायावहकमो बीओ ॥ ४ ॥ गुड घय दुग्धाईण, तह जव गोदुम सालिपभिईण । जो दढमनायाण, अइकमो वह सो तीओ ॥५॥ दोसीदासाहसु तह, हसाइलु सिंच गाय याइसु ज । तारिसमजायाए, समहकमण चउत्थो सो ॥ ६ ॥ एव मनायाए सेजाऽऽसणवत्थ भायणाइसु ज ।
उल्लघणमिह पुत्तो, अइयारो पचमो एसो ॥ ७ ॥" इति । एतच्छाया च
तृतीयो धनादिविषयप्रमाणलव , अथ चतुर्थस्तु । द्विपदादे. प्रमाणोल्लद्धः कुप्यस्य पञ्चमो ज्ञेय ॥२॥ क्षेत्र शस्योत्पादनसत्ता भूमिगृहादि तथा वास्तु । एपा या मर्यादा, तस्या उल्लङ्घन भवति प्रथमः ॥३॥ दीनारादिषु घटिताऽघटिताना यत्सुवर्णानाम् । रूप्यादिपु रजताना, तथा मर्यादाव्यतिक्रमो द्वितीय ॥४॥ गुड घृत दुग्धादीना तथा यव-गोधूम शालिमभृतीनाम् । यो दृढमर्यादाया अतिक्रमो भवति म उतीय ॥५॥ दासीदासादिषु तथा, सादिपु किञ्च गज हयादिषु यत् । तादृशमर्यादाया. समतिक्रमण चतुर्थे स ॥६॥ एव मर्यादाया शय्याऽऽसनवस्त्रभाजनादिषु यत् । उल्लङ्घनमिहोक्त , अतिचार. पञ्चम एपः ॥७॥' इति ॥
इति सूत्रार्थ ॥४९॥ मूलम्-तयाणंतर च णं दिसिवयस्स पच अइयारा जाणियवा न समायरियचा, तजहा-उदिसिपमाणाइक्कमे, अहोदिसिपमाणाइक्कमे, तिरियदिसिपमाणाइक्कमे, खेत्तबुड्डी, सइअतराद्वा६ ॥५०॥
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उपासक दशासूत्रे
सम्वन्धे या स्वनिश्चिता मर्यादा, तदुलहन द्वितीयः (२) घृत दुग्ध दधि गुड शर्क रादिक धन, शालि गोधूम मुद्र माप या मक्कादिक च धान्यम्, एतदुभयविषये या स्वानिचिता मर्यादा तेदुलहन तृतीय (३) । दासीदामादयो मनुष्या हस मयूरादयः पक्षिणथ द्विपदाः, तथा गज गया व महिष्यादयश्चतुष्पदाः, एतद्विषये या स्वनिचिता मर्यादा, तदुलहन चतुर्थः (४) । शय्यासन भाजनादि कुप्य, तद्वये या स्वनिचिता मर्यादा, तदुल्लइन पञ्चमः ( ५ ) । आसा सर्वासा मागु काना मर्यादानामनाभोगत उल्लङ्घनमतीचार आभोगतस्त्वनाचारः । अत्रेत्य सङ्ग्रहगाथाः-
" एत्थवि पचयारा, खेत्ताइपमाणलघण पढमो ।
बीओ हिरण्णभिह, प्पमाणपरिलघण चेव ॥ १ ॥ छाया - " अत्रापि पञ्चातीचारा, क्षेत्रादिममाणलङ्घन प्रथमः । द्वितीयो हिरण्यमभृति, प्राणपरिल्डन चैव ॥ १ ॥
विना घडी हुई रजत (चादि - सोने) की निश्चित मर्यादा का उल्लघन करना दुसरा अतिचार है ।
(३) घी, दूध, दही, गुड, शक्कर आदि धन, और चावल, गेहूँ, मूँग, उडद, जौ, मक्का, आदि धाय कहे जाते हैं। इन दोनों के विषय में जो मर्यादा की हो उसका उल्लघन करना तीसरा अतिचार है ।
(४) दासी, दास आदि मनुष्य और इस मोर आदी पक्षी द्विपद्, तथा हाथी, घोडा, गाय, बैल, भैस आदि चतुष्पद कहलाते हैं। इनके सम्बन्धमे की हुई मर्यादाको उल्लघन करना चौथा अतिचार है ।
(५) शय्या, आमन, वस्त्र, वर्त्तन आदि कुप्यधातु हैं । उनका सबन्ध में की हुई मर्यादाको उल्लघन करना पाँचवाँ अतिचार है । सग्रह गाथाओका अर्थ भी यही है ।। ४९ ।।
ચાદીની નિશ્ચિત મર્યાદાનું-ઉલ્લંઘન કરવુ એ બીજો અતિચાર છે
(3) धी दूध, हा गोण, सार्डर आहि धन भने थोमा, घ, भग, मह, જવ, મકાઈ આદિ ધાન્ય કહેવાય છે એ બેઉની જેટલી મર્યાદા કરી હાય તેનુ ઉલ ઘન કરવુ એ ત્રીજો અતિચાર છે
(४) हासी हास, आदि मनुष्य तथा इस, भोर आहि पक्षी द्विपह, अने हाथी, घोडा, गाय, मह, लेस माहि चतुष्पदेवाय हे મર્યાદાનું ઉલઘન કરવુ એ ચૈયૈ અતિચાર છે
એ સમયે કરેલી
(4) शय्या, आसन, वस्त्र, वायु आदि शुभ्य उदेवाय छे કરેલી મર્યાદાનું ઉલ્લંઘન કરવુ એ પાચમા અતિચાર છે शेत्र ार्थ हो (४८)
સગ્રહ
એ સખી ગાથાઓને પણ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका सू० ५० इच्छापरिमाणव्रतातिचारवर्णनम् तीओ घणाहविसय, -प्पमाणलघो अह चडत्थोउ । दुपाहणी पमाणु, त्यो कुप्पस्स पचमो ओ ॥ २ ॥ खेत्त सस्सुप्पायण, सत्ता भूमीगिहाइँ तह वत्थु । एसि जा मज्जाया, ताए उल्लघण वह पढमो ॥ ३ ॥ दीणारा घडिया, घडियाण ज सुवण्णाण | रुप्पासु रययाण, तह मज्जायावकमो वीओ ॥ ४ ॥ गुड घय दुग्धाईण, तह जब गोहुम सालिपभिईण | जो दढमज्नायाए, अक्कमो वह सो तीओं ॥ ५ ॥ दोसीदासासु तर, हमाइलु किंच गाय हयाइस ज | तारिसमज्जायाए, समहकमण चउत्थो सो ॥ ६ ॥ एव मज्जायान सेज्जाssसणवत्थ-भायणाइसु ज । उल्लघणमिह वृत्ती, अइयारो पचमो एसो ॥ ७ ॥ " इति ।
एतच्छाया च
तृतीयो वनादिविषयप्रमाणलच, अथ चतुर्थस्तु । द्विपदादेः प्रमाणोलड. कुप्यस्य पञ्चमो ज्ञेयः ॥ २ ॥ क्षेत्र शस्योत्पादनसत्ता भूमिगृहादि तथा वास्तु | एपा या मर्यादा, तस्या उल्लङ्घन भवति प्रथमः ॥ ३ ॥ दीनारादिषु घटिताऽघटिताना यत्सुवर्णानाम् । रूप्यादिपु रजताना, तथा मर्यादाव्यतिक्रमो द्वितीय ॥४॥ गुड घृत दुग्धादीना तथा यवगोधूम शालिमभृतीनाम् । यो मयादाया अतिक्रमो भवति स तृतीयः ||५|| दासीदासादिषु तथा, हसादिषु किश्च गज हयादिषु यत् । तादृशमर्यादायाः समतिक्रमण चतुर्थ स ॥६॥ एव मर्यादायाः शय्याऽऽसनवस्त्रभाजनादिषु यत् । उल्लङ्घनमिहोक्त, अतिचार पञ्चम एप ॥७॥' इति ॥ इति सूत्रार्थ ॥ ४९ ॥
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मूलम् - तयाणतर चणं दिसित्रयस्स पत्र अइयारा जाणियता न समायरिया, तंजहा- उड्डू दिसिपमाणाइक्कमे अहोदिसिपमाणाइक्कमे, तिरियदिसिपमाणाइकमे, खेत्तवुड्डी, सहअंतराद्वा६ ॥५०॥
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उपासकदशामने छाया-तदनन्तर च खल दिग्नतस्य पञ्चातीचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्या तघथा उर्चदिक्रममाणातिक्रमः, अघोदिममाणातिक्रम, तिर्यन्दिाममाणातिक्रम क्षेत्रद्धिः स्मृत्यन्तर्धानम् ६ ॥ ५० ॥
टीका-वाति-यथाक्रममा दिदिइमर्यादाया अतिक्रम प्रथमो द्वितीय स्तृतीयश्च । एते त्रयोऽनाभोगतोऽतीचाराशपूर्वादिदिभुगमनाऽऽगमनार्थ नियतस्य क्षेत्रस्य कार्यावश्यकत्यवशादेवस्या दिशः सकाशात्कश्चिदशमपहत्याऽऽवश्यकतानु सार दिगन्तरे सयोज्य परिवर्तन-क्षेत्रद्धिः । अय च व्रतमपेक्ष्य समाचरितत्वादती चार।४ा स्मृतेम्मरणस्य अन्तर्धा व्यवधान स्मृत्यन्तर्धा स्मरणापभ्रश इत्यर्थः। यस्या दिशि याशी नियतामर्यादा तस्या विस्मरणमिति भाव.।५।भरेमाःसग्रहगाथा:
[सग्रहगाथा ] " वयस्सस्सवि पचेव, अइयारा पकित्तिया । उड्डे हे? तिरिस्खम्मि, मज्जायाए अइकमा ॥ १ ॥ पुन्वाइसु नहा मज्जाइयश्खेत्तविवडूण । मज्जायाणियमो जेसिं, दिसाए जारिसो कओ।॥ २॥
एयविमरण चेच, कमेणे णिदसिया।" इति । टीकार्थ-'तयाणतरचे'-त्यादि इस के अनन्तर दिग्वत के पांच अति चार जानना चाहिए किन्तु सेवन नहीं करना चाहिए। वे ये हैं-(१) ऊर्वदिक्प्रमाणातिक्रम-ऊची दिशाके प्रमाणको उल्लघन करना, (२) अधोदिक्प्रमाणातिकम-नीची दिशाकी सीमाको भग करना (३) तिग्दि
प्रमाणातिक्रम-तिरछीपूर्व आदि दिशाओंकी मर्यादाका उल्लघन करना, (४) क्षेत्रवृद्धि-पूर्वादि दिशाओमें गमन-आगमन के लिए नियत किय हुए क्षेत्रको आवश्यकता होने पर दुमरी दिशाके कुछ अशको मिला कर बढा लेना, (५) स्मृत्यन्तर्धान-नियतमर्यादाको भूल जाना। इनमेस पहेलेके तीन अतिचार बुद्धिपूर्वक न हों तब अतिचार कहलाते हैं,
दीकाथ-'तयाणतर' चे-त्या त्या२पछी हिजतना पाय मतियार तgalanjan પણ સેવવા ન જોઈએ તે આ પ્રમાણે – (૧) ઊધ્વરિપ્રમાણતિક્રમ-ઉચી_દિશાના પ્રમાણુ ઉલ ઘન કરવું, (૨) અદિપ્રમાણતિકમ–નાચી દિશાની સીમાને છે કરવા, (૩) તિથ્રિપ્રમાણુતિક્રમ-તિછ પૂર્વ આદિ દિશાઓની મર્યાદાનું છે કરવું, (૪) ક્ષેત્રવૃદ્ધિપૂર્વાદ શાઓમાં જવા-આવવાને માટે નક્કી કરેલા છે કઈક ભાગ જરુર પડતા બીજી દિશામાં મેળવીને વધારે કરી લે, (પ) મૃત્ય અનિયત મર્યાદાને ભૂલી જવી તે એમાના પહેલા ત્રણ અતિચર બુદ્ધિપર્ક -
नय
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अगरधर्मसञ्जीवनी टीका सू० ५० इच्छापरिमाणत्रताविचारनिरूपणम् २८५
एतच्छाया च—
" व्रतस्यास्यापि पञ्चैवातीचाराः प्रकीर्त्तिताः । उस्तिरश्चि मर्यादाया अतिक्रमाः ॥ १ ॥ पूर्वादिपु तथा मर्यादितक्षेत्र विवर्द्धनम् । मर्यादा नियमो येषादिशो यादृशः कृतः ॥ २ ॥ एतद्विस्मरण चैत्र, क्रमेणेह निदर्शिता . ॥” इति । ॥ इति सूत्रार्थः ॥ ५० ॥
मूलम् - तयानंतर जणं उवभोगपरिभोगे दुविहे पण्णत्ते, त जहा - भोयणओ कम्मओ य । तत्थ ण भोयणओ समणोवासएणं पच अइयारा जाणिवा न समायरियन्वा, तजहा सचित्ताहारे, सचित्त पडिवद्धाहारे, अप्पउलिओ सहिभक्खणया, दुप्पउलिओ सहि भक्खणया, तुच्छोसहिभक्खणया ।
कम्मओ णं समणोवासएण पणरस कम्मादाणाइ जाणियव्वाइ, न समायरियव्वाई, त जहा
(१) इगालकम्मे, (२) वणकम्मे, (३) साडीकम्मे, (४) भाडीकम्मे, (५) फोडीकम्मे, (६) दत्तवाणिजे, (७) लक्खवाणिजे, (८) रसवाणिज्जे, (९) विसवाणिज्जे (१०) के सवाणिज्जे, (११) जंत
जान-बूझकर कोई ऊर्व आदि किसी दिशा के प्रमाणका उल्लघन करे तो अनाचार होगा । चौथा अतिचार भी तन तक ही रहता है, जब तक कि व्रतकी अपेक्षा रखता हो, आगे वह भी अनाचार हो जाता है । सग्रह गाथाएँ गतार्थ हैं ॥ ५० ॥
તા અતિચાર કહેવાય છે, જાણી-ખૂઝીને કાઇ ઊર્ધ્વ આદિ દિશાનું ઉલ્લંઘન કર્યુ હાય તે તે અનાચાર થાય છે ચેથા અતિચાર પણ જ્યા સુધી વ્રતની અપેક્ષા રાખતા હાય ત્યા સુધીજ તે અતિચાર રહે છે, આગળ જતા તે પણ અનાચાર થઈ જાય છે સગ્રહ ગાથાએ ગતાય છે (૫૦)
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उपासकदशास्त्र पीलणकम्मे, (१२) निल्लछणकम्मे, (१३) दवग्गिदावणया, (१४) सरदहतलायसोसणया,(१५)असईजणपोसणया ७॥सू ५१॥ ____ छाया-तदनन्तर च खलु उपभोगपरिभोगो द्विविध' प्रज्ञप्तः, तद्यथाभोजनत' कर्मतश्च । तत्र खलु भोजनत' श्रमणोपासकेन पश्चातीचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा-सचित्ताहारः, सचित्तप्रतिवद्धाहारः, अपकीपधिभक्ष णता, दुष्पकौपधिभक्षणता, तुच्छोपधिभक्षणता ।
कर्मतः खलु श्रमणोपासकेन पञ्चदश कर्मादानानि ज्ञातव्यानि न समाचरित व्यानि, तद्यथा-(१) इङ्गालकम, (२) वनकर्म, (३) शाकटिकर्म, (४) भाटीकर्म, (५) स्फोटीम (६) दन्तवाणिज्य, (७) लाक्षावाणिज्य, (८) रसवाणिज्य, (९) विपवाणिज्य, (१०) केशवाणिज्य, (११) यन्त्रपीडनकर्म, (१२) निर्लाञ्छनकम, (१३) दवाग्मिदापन,(१४) सरोहदतडागशोपण,(१५) असतीजनपोपणम् ७ ॥१॥
टीकार्थ-'तयाणतर चे'-त्यादि इसके अनन्तर उपभोगपरिभोगपरि माण व्रत है, वह दो प्रकार का है-(१) भोजनसे और (२) कर्मसे । पहल भोजनसे श्रमणोपासकको पाच अतिचार जानना चाहिए, सेवन नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-(१) सचित्ताहार, (२) सचित्तप्रति यद्धाहार, (३) अपक ओषधि (वनस्पति) का खाना, (४) अधकच्ची (मुश्किलसे पकनेवाली ) ओषधि खाना, (५) तुच्छ ओषधिका खाना। __ कर्मसे श्रावकको पन्द्रह कर्मादान जानना चाहिए परन्तु उनका सेवन नहीं करना चाहिए । वे ये है-(१) इगालकम, (२) वनकम, (३) शाकटिककर्म, (४) भाटीकर्म, (५) स्फोटोफर्म, (६) दन्तवाणिज्य, (७) लाक्षावाणिज्य, (८) रसवाणिज्य, (९) विषवाणिज्य, (१०) केश
टीमार्थ-'तयाणतर' चे-याहित्यारपछी परिमापरिभात छ,२२ પ્રકારનું છે– (૧) ભેજનથી અને (૨) કર્મથી પહેલા ભોજનથી શ્રમણોપાસકે પાચ અતિચાર જાણવા જોઈએ, સેવવા ન જોઈએ, તે આ પ્રમાણે છે –(૧) સચિત્તાહાર, (२) सथित्तप्रतिमद्धार, (3) २५५४१ मोवधि (वनस्पति) भावी ते, (४) मा (યશ્કેલીથી પાકનાર) ઔષધી ખાવી તે (૫) તુચ્છ ઔષધી ખાવી તે
કર્મથી શ્રાવકે ૫દર કર્માદાન જાણવા જોઈએ પણ સેવવા ન જોઈએ, તે આ प्रभारी -(१) Umes, (२) नमः, (3) टिभी, (४) सारी (५) २८ ४म, (6) तवाणिज्य, (७) क्षारय (८) २सवाशिलन्य, (6) विgarh,
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अगारसञ्जीवनी टीका अ. १ सू ५१ दिग्नतातिचारनिरूपणम् २८७
टोकग-अथ प्रथम भोजनत उपभोगपरिभोगपरिमाणवतस्यातीचारानाह
'सचित्ते'ति-मचित्तपदार्थपरिहारिणा सचित्तस्य तद्विपये परिमाणवता वा तदधिकस्य सचित्तस्य वादन प्रथमः । १ । सचित्ते सचेतने वृक्षादावित्यर्थः, प्रतिवद्ध-सम्बद्ध यद् गुन्द्रादि पकफलादि वा तस्याऽऽहारो, यद्वा 'सचित्तत्वदष्ठिं निस्सार्य क्षेप्स्यामि केवल रसादिमात्र चूषिष्यामी'ति बुद्धाऽऽनादिफलानामाहारो द्वितीय । २। ईपत्पकाः अपकाः, अल्पार्थकोऽत्र नळू 'अनुदरा कन्ये'-त्यादिवत्, तदुक्तम्
" तत्सादृश्यभावश्च, तदन्यत्व तदल्पता ।
अप्राशस्त्य विरोपश्च, नगाः पट् प्रकीर्तिता. ॥१॥" इति । पाणिज्य, (११) यन्त्रपीडनकर्म, (१२) निर्लान्छनकर्म, (१३) दवाग्निदापन, (१४) सरोहृदतडागशोपण, (१५) असतीजनपोपण ।
पहले भोजनसे उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रतके अतिचार कहते हैं
(१) सचित्ताहार -मचित्त पदार्थों के त्यागी, अथवा मर्यादा करलेने वाले द्वारा परिमाणसे अधिक सचित आहारका खाया जाना।
(२) सचित्तप्रतिकद्वाहार-सचित्त वृक्ष आदिके साथ मिले हुए गोद, पके फल आदिका भोजन करना, अथवा "गुठली सचित्त है उसे फेंक दगा और रस-रस चूस लँगा"ऐसा विचार कर आम आदिका खाना दूसरा अतिचार है।
(३) अपकौषधिभक्षणता-अपक्क अर्थात् अल्प (थोडी) पकी हुई वनस्पतिका भक्षण करना तीसरा अतीचार है । दोनो रूप मिले रहनेके (२०) BAngrय, (११) यीsम', (१२) निef , (१३) ४ापन, (१४) सहितागापy, (१५) असतीशनपोषय
પ્રથમ ભેજનથી ઉપભેગપરિભેગપરિમાણવ્રતના અતિચાર કહે છે
(૧) સચિત્તા,૨–સચિત્ત પદાર્થોના ત્યાગી અથવા મર્યાદા કરનારા દ્વારા પરિમાણથી વધારે સચિત્ત આહાર ખવાઈ જ તે
(૨) સચિત્તપ્રતિબદ્ધાહાર-સચિત વૃક્ષ આદિની સાથે મળેલ ગુદર, પાકા ફળ, આદિનું ભજન કરવું તે, અથવા “ગેટલી સચિત્ત છે તે ફેકી દઈશ અને રસ-રસ ચૂમી લઈશ” એમ વિચારીને કેરી આદિ ખાવી તે બીજે અતિચાર છે - (૩) અપકવવધિભક્ષણતા-અપકવ અર્થાત છેડી પાકેલી વનસ્પતિનું ભક્ષણ કરવુ તે ત્રીજો અતિચાર છે બેઉ (કાચા-પાકા) રૂપ મળેલા હોવાથી પાકેલાને સદેહ થત
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उपासकवचायने तथा चापकाया: ईपत्पकाया भोपधेर्भक्षणमित्यर्थः,मिश्ररूपत्वेन पकत्वसन्दे हात्सभवति भक्षणमित्यस्यातीचारत्वम्, एप तृतीयः।३। दुष्पकीपधिः धिराग्नि तापपरिपारुसाधितोऽलाधू-चपल्फलीमभृतिस्तस्या भक्षण चतुर्थः, अस्याऽऽरम्भ वाहुल्यान्मिश्रत्यसन्दहाचातीचारत्वम् ।४।तुच्छा=पिराधनाबहुलाऽल्पप्तिकारिका यौपधिः सा तुच्छौपधिः-यथावत्परिपकोऽपि भूशिम्मीसीताफलादिस्तस्या भक्षण पञ्चमः। ५। एतेऽप्यनाभोगतोऽतिक्रमादिनाऽतीचारा आभोगतस्त्वनाचारा एवेति वोभ्यम् । इत्ामत सङ्ग्राहकाः श्लोकाः
[सग्रहगाथा] " अइयारा उ पचेव, एयस्सवि णिरूविया ।
सचित्तच्चायसकप्पे, कये ज तस्स भग्वण ॥१॥ मजाइयसचित्तणाहियस्सऽडयाऽऽइमो ।
गुद पक्क-फलाईण ज वाऽणटिफलस्स जो ॥२॥ कारण पके हुएका सन्देह होनेसे ईपत्पकका भी भक्षण हो सकता है, इसलिए इस अतिचारकी सभावना है।
(४) दुष्पकौपधिभक्षणेता-चिरकालसे अग्निकी आँच द्वारा सिझने वाली तृबी, चवलेकी फलो आदिका भक्षण करना। इसमे आरभ अधिक है और मिश्र होनेका सन्देह रहता है, अत' यह अतिचार है।
(५) तुच्छौषधिभक्षणता-जिसमे विराधना अधिक और तृप्ति कम हो ऐसी वनस्पतिको तुच्छ वनस्पति कहते हैं। जैसे-मुगफली सीताफल आदि । उसका भक्षण करना तुच्छौपधिभक्षण है। - ये भी अवुद्धिपूर्वक हों तो अतिचार है, और यदि बुद्धिपूर्वक हो तो अनाचार है। सग्रह गाथाओका अर्थ भी यही है। ઈષત્પકવન પણ ભક્ષણ થઈ શકે છે, તે માટે આ અતિચારની સંભાવના છે.
(૪) દુષ્પકવૌષધિભક્ષણતા–લાએ વખતે અગ્નિની આચથી ૨ધાતી તથા (બી), ચાળાની શીંગ આદિનું ભક્ષણ કરવું તે એમા આરબ અધિક છે અને મિશ્ર હવાન સદેહ રહે છે, તેથી તે અતિચાર છે
(૫) તુચ્છૌષધિભક્ષણતા–જેમા વિરાધના વધારે અને તૃપ્તિ ઓછી હોય તેવી વનસ્પતિને તુચ્છ વનસ્પતિ કહે છે, જેમકે મગફળી, સીતાફળ વગેરે, તેનું શ્રેય કરવુ એ તુચ્છૌષધિભક્ષણ છે
એ પણ જે અબુદ્ધિપૂર્વક થાય તે અતિચાર છે, અને જે બહિપૂર્વક થાય તે અનાચાર છે સપ્રહ ગાથાઓને અર્થ એજ છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ०१ सू०५१ उपभोगपरिभोगव्रततिचारवर्णनम् २८९
आहारो सो मओ बीओ, अइयारो वये इह । ओसंहीएसिपक्काए भक्खण चेव तीयगो ॥३॥ दुरपक्कोसिहि आहारो, अइयारो चउत्थगो । भूसिंरिप्पभिईआ य, मुच्छाए ओसहीअ ओ॥४॥
आहारो अइयारो सो, वए एत्थत्थि पचमो।" इति एतच्छाया च-" अतीचारास्तु पञ्चैवैतस्यापि निरूपिताः ।
अवित्तत्यागसकल्पे कृते यत्तस्य भक्षणम् ॥ १ ॥ मर्यादितसचित्तेनाधिकस्यास्याथवाऽऽदिमः । गुन्द्रपक्कफलादीना, यवाऽनष्ठिफलस्य य. ॥२॥ आहारः स मतो द्वितीयोऽतीचारो त इह । ओषधेरीपत्पकाया भक्षण चैव तृतीयकः ॥ ३ ॥ दुप्पकोपन्याहारोऽतीचारश्चतुर्थ । भूशिम्बीमभृतेश्च तुच्छाया ओषधेयः ॥ ४॥
आहारोऽतीचार स व्रत इहास्ति पञ्चम. ॥" इति ॥ अथ कर्मत उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रतम्याऽतीचारान (पञ्चदश वर्मादाननि) प्रदर्शयत्राह-'इगाले' ति-उङ्गाले (कोयलापताभिधै) वाणिज्याचरणमिङ्गालकर्म, एतेन हि मभूताना पकायानामुपमर्दन भवतीत्यस्यातीचारत्वम् , एवमग्रेऽप्यनुक्तस्थळे पहनीयम्(१) । वन छिचा काष्ठविक्रयण बनकर्म(२) । शकटनिर्माणव्यापा
१ 'ओसहीअ, ' ईसिपक्काए, इति पदच्छेदः ।
अय कर्मसे उपभोगपरिभोगपरिमाणवतके अतिचार (पन्द्रह कर्मादान) कहते हैं
(१) इगालकर्म-लकडिया जलाकर उनके कोयलोंका व्यापार करना । इससे पटकायकी यहुत हिंसा होती है इसलिए यह अतिचार है। आगे भी इसी कारण अतिचार समझना चाहिए।
(२) वनकर्म-जगल काट कर लकडिया वेचना । હવે કર્મથી ઉપભોગપરિભેગપરિમાણવ્રતના અતિચાર (૫દર કર્મદાન) કહે છે–
(૧) ઈગાલક–-લાકડા બાળીને તેને બનાવેલા કોયલાને વેપાર કરે તેમાં ષકાયની બહુ હિંસા થાય છે, તેથી તે અતિચાર છે, આગળ પણ એજ અતિચાર
(૨) વનકર્મ–જગલ કાપીને લાકડા વેચવા
સમજવા
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उपासवान तथा चापकाया: ईपस्पकाया भोपधेर्मक्षणमित्यर्थः मिश्ररूपत्वेन पालसन्दे हासभपति भक्षणमित्यस्यातीचारत्यम्, एप तृतीयः ।।दुष्पकीपधि:-चिराग्नि तापपरिपारसाधितोऽला-चपलफलीमभृतिस्तस्या भक्षण चतुर्थः, अस्याऽऽरम्भ चाहुल्यान्मिश्रवसन्दहागातीचारत्वम् ।४।तुच्छा-विराधनाबहुलाऽल्पप्तिकारिका यौपधिः सा तुच्छौपधिः-यथावत्परिपकोऽपि भूशिम्मीसीताफलादिस्तस्या मक्षण पञ्चमः । एतेऽप्यनाभोगतोऽतिक्रमादिनाऽतीचारा आभोगतम्त्वनाचारा एवेति बोभ्यम् ॥ इत्तमन सङ्ग्राहकाः श्लोका:--
[सग्रहगाया ] " अयारा उ पचेव, एयस्सवि णिरूविया ।
सचित्तचायसकप्पे, कये ज तस्स भरवण ॥१॥ मजाइयसचित्तणाहियस्सऽहवाऽऽइमो ।
गुद पक्क-फलाईण ज वाऽटिफलस्स जो ॥ ॥ कारण पके हुएका सन्देह होनेसे ईपत्पकका भी भक्षण हो सकता है, इसलिए इस अतिचारकी सभावना है।
(४) दुप्पकौपधिभक्षणेता-चिरकालसे अग्निकी आँच द्वारा सिझने वाली तृबी, चवलेकी फलो आदिका भक्षण करना। इसमें आरभ अधिक है और मिश्र होनेका सन्देह रहता है, अत: यह अतिचार है।
(६) तुच्छौषधिभक्षणता-जिसमे विराधना अधिक और तृप्ति कम हो ऐसी वनस्पतिको तुच्छ वनस्पति करते हैं । जैसे-मुगफली सीताफल आदि । उसका भक्षण करना तुच्छौपधिभक्षण है।
ये भी अधुद्धिपूर्वक हो तो अतिचार है, और यदि वुद्धिपूर्वक हाँ तो अनाचार है । सग्रह गाथाओंका अर्थ भी यही है। ઈષત્પવન પણ ભક્ષણ થઈ શકે છે, તે માટે આ અતિચારની સંભાવના છે
(૪) દુષ્પકવોષધિભક્ષણતા-લાએ વખતે અગ્નિની આચથી રાધાતી ફી (તબી, ચેળાની શીંગ આદિનું ભક્ષણ કરવું તે એમા આરબ અધિક છે અને મિશ્ર હવાન સદેહ રહે છે, તેથી તે અતિચાર છે
(૫) તુચ્છોવધિભક્ષણતા–જેમા વિરાધના વધારે અને તૃપ્તિ ઓછી હોય તેવી વનસ્પતિને તુચ્છ વનસ્પતિ કહે છે, જેમકે મગફળી, સીતાફળ વગેરે, તેનું ભs કરવુ એ તુચ્છૌષધિલક્ષણ .
* એ પણ જે અબુદ્ધિપૂર્વક થાય તે અતિચાર છે, અને જે બુદ્ધિપૂર્વક થાય તો અનાચાર છે સમહ ગાથાઓને અર્થ એજ છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १० ५१ उपभोगपरिभोग व्रतातिचारवर्णनम् २९१
यविक्रयव्यापारेण जीविका निर्वहण रसवाणिज्यम्, अस्य धन्धादि जनकत्वादतीचारत्वम् (८) । विपाणा-शृङ्गकसोमलादीना क्रयविक्रयव्यापारेण जीविका निर्वहण-विषवाणिज्यम्, अस्य प्रत्यक्षतः प्राणव्यपरोपणहेतुत्वादतीचार त्वम् (९)। केशपदेन तेवति लक्षणया दासीदासादीना द्विपदाना ग्रहणानेपा क्रयविक्रयव्यापारः केशवाणिज्यम् , अस्य दास्यादिपारवश्यान्पर्हिसादिहेतुत्वादतीचारत्वम् (१०)। यन्त्रद्वारा तिलसर्पपादिनिप्पीडनव्यापारो यन्त्रपीडनकर्म(११) १ अनेन गोमहिष्यादयः पशवो,मयूरादि पक्षिणश्च ग्राह्याः। (भगवतीसूत्र श ८उ ५)
(८) रसवाणिज्य-मदिरा आदि रसोंका व्यापार करके जीविका कमाना रसवाणिज्य है। यह वध कन्ध आदि अनर्धाको उत्पन्न करता है, अत' अतिचार है।
(९) विषवाणिज्य-शृगल सोमल आदि विपोका व्यापार करके जीविका निर्वाह करना । यह साक्षात् ही प्राण नाशका कारण है, अत एव इसे अतिचार कहा है ।
(१०) केशवाणिज्य-केशका अर्थ है केशवाला । लक्षणासे दास दासी आदि द्विपदोका ग्रहण होता है, उनका व्यापार करना केशवाणिज्य है । इममें चमरी गाय आदि पशुओंके बालोंके तथा मोर आदि पक्षीयोकी पीछोंके व्यापारका समावेश होता है, दासी आदिकी पराधीनता पन्ध और हिंसा आदिका हेतु होनेसे इसे अतिचार कहा है।
(११) यन्त्रपीड़नकर्म-यत्र (कोहलू आदि) द्वारा तिल सरसों आदि पैरनेका व्यापार करना।
(૮) રસવાણિજ્ય–દારૂ આદિ રસના વેપાર કરીને આજીવિકા ચલાવવી તે રસવાણિજ્ય છે એ વધ બંધ આદિ અનર્થોને ઉત્પન્ન કરે છે, તેથી અતિચાર છે
૯) વિષવાણિજ્ય-શુગક સેમલ આદિ વિષેનો વેપાર કરીને આજીવિકા ચલાવવી તે, એ સાક્ષાત્ પ્રાર્થનાશનું કારણ છે, તેથી તેને અતિચાર કહ્યો છે
(૧૦) કેશવાણિજ્ય–કેશને અર્થ છે કેશવાળા લક્ષણએ કરીને દાસ-દાસી આદિ બે પગને તેમાં સમાવેશ થાય છે, તેને વેપાર કર એ કેશવાણિજ્ય છે આમાં ચમરીગાય આદિ પશુઓના વાળ, મેર આદિ પક્ષિઓના પીંછા વિગેરેના વ્યાપારને પણ સમાવેશ થાય છે દાસી આદિની પરાધીનતા બધ અને હિંસા અદિને હેતુ હેવાથી તેને અતિચાર કહે છે
(૧૧) ચત્રપીડનકર્મ-પત્ર (કેલૂ ઘાણ વગેરે) દ્વારા તલ, સરસવ આદિ પીલવાને વેપાર કરે
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उपासकदशास्त्र रतो जीविका निर्वहण शाकाटिस्कर्म (३)। भाटकाऽऽदानेन पवादिद्वारा जीवि कानिर्वहण भाटीकर्म (४) भूग्वनन मस्तरादिविदारणब्यापारेण जीविकानिर्वहणं स्फोटीफर्म (५) । दन्तक्रयविक्रयव्यापारेण जीविका निर्वहण दन्तवाणिज्यम्, एव सतिलोभाकुलाःकिराता हस्त्यादिजीवधमाचरितमुत्सहन्ते इत्यस्यातीचारत्वम् (६) जतुक्रयविक्रयव्यापारेण जीविका निम्हण लाक्षावाणिज्यम्, लाक्षापदेनोपलक्षणवामन शिला साबू-क्षार टकणादयोऽपि ग्राह्याः, एतेन हिलाक्षादिसदृशवर्णादिमता कुन्थुमभृतीना जीवानामुपमर्दनसम्भवादतीचारत्वमस्य (७) रसाना-मद्यादीनां
(३) शाफटिक कर्म-शकट (गड़ी) पना यनाकर जीविका चलाना ।
(४) भाटीकर्म-भाडा लेकर पशुओं आदिके द्वारा जीविका निर्वाह करना।
(५) स्फोटीकर्म-जमीन खोदकर और पत्थर आदि फोडकर जीविका चलाना।
(६) दन्तवाणिज्य-दातों का लेन-देन (व्यापार) करके जीविका करना। ऐसा करनेसे लोभी किरात आदि हाथी आदिको मारने क लिए उत्साहित होते है, इसलिए इसे अतिचार कहा है।
(७) लाक्षावाणिज्य-लाखका व्यापार करके जीविकानिर्वाह करना। लाख उपलक्षण है, इसलिए मेनसिल, साबू, क्षार (सजीआदि),टकण खार आदिका भी ग्रहण करना चाहिए। इसमें लाख आदिके वर्णवाले कुथुवा आदि जीवोंकी हिसा होती है इस कारण इसे अतिचार कहा है।
(૩) શાકટિકકર્મ–ગાડીઓ બનાવી–બનાવીને તે પર આજીવિકા ચલાવવી (૪) ભાગકર્મ–ભાડુ લઈને પશુઓ આદિ દ્વારા આજીવિકાને નિર્વાહ કરવા
(૫) સ્કેટીકર્મ–જમીન ખેદીને અને પત્થર આદિ ફે ડીને આજીવિકા ચલાવવી
(૬) દતવાણિજ્ય–ાતને વેપાર કરીને આજીવિકા ચલાવવી એમ કરવાથી લેભી ભીવિગેરે હાથી આદિને મારવામાં ઉત્સાહિત થાય છે, તેથી તેને અતિચાર ४ो छ
(૭) લાક્ષાવાણિજ્ય-લાખનો વેપાર કરીને આજીવિકા ચલાવવી લાખ ઉપલક્ષણ છે, તેથી મનસીલ, સાબુ સાજીખાર, ટકખાર, વગેરે પણ તેમજ ગણવા લાખ વગેરેના વર્ણવાળા કથવા આદિ જીવેની હિંસા થાય છે, તેથી તેને અતિચાર કહ્યો છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सु. ५१ उपभोगपरिभोग० व्रतातिचारवर्णनम् २९३ कठोराणा कर्मणामादान=ग्रहण यैरिति व्युत्पत्तेः । एतानि पञ्चदश कर्मादानानि श्रमणोपासका न स्वय कुर्वन्ति, नान्यद्वारा कारयन्ति, कुर्वन्त वाऽन्य नानुजानन्तितथा चोक्त भगवत्याम् -
" जे इमे समणोवासमा भवति तेर्सि नो कप्पति इमाइ पण्णरस कम्मादाणाइ सय करेत्तए वा करेंत वा अन्न समणुजाणेत्तए ।" इति । अत्रेत्थ सङ्कहगाथाः—
अस्सऽइयारा पणरस, स्वति अग्गे कमेण दट्ठव्वा । दहिऊण जाय, तम्सिंगालेहि जीवियायण ॥ १ ॥ इगालकम्मणामा, पढमो अस्सऽत्थि अइयारो । वणकम्मम्वो बीओ, छित्ता ज कट्ठविषयावरण ॥ २ ॥ सगडविणिम्मिइकज्ज, साडीकम्माभिहो तीओ। पसुपाभइहिं च भाडंग, गहणा ज जीवियासमायरण ॥ ३ ॥ सो अइयारो चोत्थो, भाडीकम्माभिहो णेओ । पत्थरदारण पुढवी, खणणव्वाचारजी वियावरण ॥ ४ ॥ फोडीक मक्खो इह, अइयारो पचमो बुत्तो । छट्ठो गयाइदत, - व्वावारो हवइ दतवाणिज्ज ॥ ५ ॥ तयणु य जउक्यविक्कय वावारो लक्खवाणिज्ज । मज्जा इक्कय विक्कय, - वावरा जीवियाअ णिव्वाहो ॥ ६ ॥ एतच्छाया च-
" अस्यातिचारा पञ्चदश भवन्ति, अग्रे क्रमेण द्रष्टव्याः । दग्भ्वा काष्ठजात, तस्येद्गालैर्जीविकाऽऽचरणम् ॥ १ ॥ इङ्गालकर्मनामा, प्रथमोऽस्यास्त्यतिचार |
वनकर्माख्यो द्वितीयछत्वा यत्काष्ठविक्रयाचरणम् ॥ २ ॥ शक्टविनिम्मितिकार्य, शावदिककर्माभिधस्तृतीयः । पशुप्रभृतिभिश्च भाटकग्रहणाद्यज्नी विकासमाचरणम् ॥ ३ ॥ सोऽतिचारथतुर्थी भाटीकर्माभिधो ज्ञेय. । प्रस्तरदारण पृथिवीखनन व्यापारजोविकाचरणम् ॥ ४ ॥ स्फोटीकर्माख्य इहातीचारः पञ्चम उक्तः । पठो गजादिदन्तव्यापारो भवति दन्तवाणिज्यम् ॥ ५ ॥ तदनु च जतुक्रयविक्रय- व्यापारी लाक्षावाणिज्यम् । मद्यादिक्रय विक्रय व्यापाराजीविकाया निर्वाह' ॥ ६ ॥
"
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उपासकदशामित्रे वृषमहिपाजादिना पण्डकरणव्यापारी निर्लान्छनकर्म, कृपादीनां प्रचुरसक्लेशहेतुत्वादस्यातीचारत्वम् (२)| भूमेरास्वशत्युत्पादनाय दवाग्निमज्वलनविधिदेवामि दापनम् , प्रसस्थानराणामुपमर्दननस्वादयमतीचार (१३)। धान्यानिवपनार्थमुप्ताना वा धान्यादीना परिपोपणार्थ यःमरो-द तडागादीनामुदरानल निस्सार्य तेषा शोपणविधिस्तत्सरोदतडागशोपणम् , अस्य प्रत्यक्षतस्त्रसस्थावरोपमदेवत्वा दतीचारत्व प्रस्फुटमेव (१४)। असतीना-कुलटावेश्यामभृतीना जन गणोऽसू. तीजनस्तस्य पोपण-भाटरग्रहणेन तदुद्वारा जीसिनिर्वहणार्थ परिरक्षणमसती जनपोपणम्-सनिर्यमूलस्य ब्रह्मचर्यनाशस्य निदानत्वादयमतीचारः (१५)। एतानि पञ्चदश वर्मादानपदवान्यानि, कठौराणि पाण्यादीयन्ते गृह्यन्ते,यद्वा
(१२) निर्लान्छनार्म-चैल, भैस, पकरा आदिको नपुसक बनाना (बधिया बनाना)। इससे बैल आदिको अत्यन्त पीड़ा होती है इस लिए यह अतिचार है।
(१३) दवाग्निदापन-भूमिको उर्वरा ( उपजाऊ ) यनाने के लिए दवान प्रज्वलित करना । त्रस स्थावर जीवोंको हिंसाका कारण होनेसे इस अतिचार कहा है।
(१४) सरोहृदतडागशोपण-धान्य आदि योनेके लिए, या थाय हए धान्योंको पुष्ट करनेके लिए सर हद तडाग आदिमेंसे जल निकाल कर उन्हें सुखा देना। यह साक्षात् ही बस-स्थावर जीवांकी रिसाका कारण है इससे इसे अतिचार कहा है।
(१५) असतीजनपोषण-जीविकानिर्वाह करनेके लिए कुलटा स्त्रियोंको भाड़ा देकर रखना। यह सब अनर्थोंका मूल और ब्रह्मचर्यका नाशक है, इसलिए इसे अतिचार कहा है।
(૧૨) નિલાં છ-કર્મ-બળદ, પાડા, બકરા આદિને નપુસક બનાવવા (ખા કરવા) તે તેથી બળદ વગેરેને અત્યંત પીડા થાય છે તેથી તે અતિચાર છે
' (૧૩) દવાગ્નિદાપન-જમીનને કસવાળી બનાવવા માટે દવાન સળગાવવા ત્રસ–સ્થાવર જીવોની હિંસાનું કારણ હોવાથી તેને અતિચાર કહ્યું છે " (૧૪) સરહદતડાગશેષણ- ધાન્ય આદિ વાવવાને માટે, યા વાવેલા ધાન્યને પુષ્ટ કરવાને માટે સરેવર, ધરા, તળાવ વગેરેમાથી જળ કાઢી ને તેને સુકવી દેવા તે એ સાક્ષાત્ બસ-સ્થાવર જીવોની હિંસાનું કાર છે, તેથી તેને અતિચાર કહ્યો છે
(૧૫) અસતીજનપિષણ–આજીવિકાને નિવાહ કરવાને કલટા અને ભાડુ આપીને રાખવી એ બધા અનર્થોનું મૂળ અને બ્રહ્મચર્યનું નાશક છે, તથા તેને અતિચાર કહ્યો છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १० ५१ उपभोगपरिभोग व्रताविचारवर्णनम् २९५
छाया - रसवाणिज्यपदास्योऽतिचारोऽष्टमो विनिर्दिष्ट. | व्यापारथ विपाणा यः श्रृङ्गसोमलादीनाम् ॥ ७ ॥ स एषोऽतिचारो विषवाणिज्पाभिधो नवम' । अथ दशमोऽतिचार इहोच्यते केशवाणिज्यम् ॥ ८ ॥ क्रयविक्रयव्यापारो, दासीदासादीना यः । तिलसर्पपादिपीडन, व्यापारो यन्त्रपीडन कर्म ॥ ९॥ aa adsविचारः, कथित एकादश एवम् | अजप महिषादीना यः पण्डीकरणरूपव्यापारः ||१०|| निलब्डिन कर्मारयोऽतिचारो द्वादश एपः । यच्च दवानलदान, भूम्या उर्वरात्व कर्तुम् ॥११॥ स त्रयोदशातिचारी, दवाग्निदापनपदाख्यात । धान्यादिवपनपोपणकृते च सरोद तडागानाम् ॥ १२॥ य शोप स सरोहृदतागशोषणमतीचार । कुलटावेश्यादीना पोपो भाटेन जीविका य ॥१३॥ सोऽसतीजन पोषणमतिचार पञ्चदशो ज्ञेय " इति । इति सूत्रार्थः ॥५१॥
मूलम्-तयाणतर च र्ण अणट्टदडवेरमणस्स समणोवासएणं पच अइयारा जाणिवा, न समायरियवा तं जहा- कंदष्पे, कुक्कुइए मोहरिए, सजुत्ता हिगरणे, उवभोगपरिभोगाइरित्ते ८ ॥ ५२ ॥
छाया -- तदनन्तर च खलु अनर्थदण्डविरमणस्य श्रमणोपासकेन पञ्चातीचारा झात या न समाचरितव्याः, तद्यथा कन्दर्प, कौकुच्य, मौखर्य, सयुक्ताधिकरणम्, उपभोगपरिभोगातिरिक्तम् ८ ॥ ५२ ॥
टीका- 'क' तिमुख, तेन दृप्यतीति यद्वा कुत्सितो दर्पोऽस्यास्तीति कन्दर्प = मस्तदुदीप वाकप्रयोगोऽप्युपचारात् कन्दर्प कामोद्वेगपरवशतया
टीकार्य ' तयाणतर चे 'त्यादि इसके पश्चात् श्रमणोपासकको अनर्थदण्डविरमण व्रत के पाच अतीचार जानने चाहिए परन्तु सेवन नहीं करने चाहिए। वे इस प्रकार है - (१) कन्दर्प, (२) कौकुच्य, (३) मौर्य, (४) सयुक्ताधिकरण, (५) उपभोगपरिभोगातिरेक ।
अर्थ- ' तयाणवर' चे -त्याहि पछी श्रमशोपाय अनर्थ विरमधुव्रतना पाय અતિચાર જાણુવા જોઇએ પણ સેવવા ་ ले, ते या प्रमाये छे - (१) उन्ह (२) भैश्य, (3) मौर्य, (४) सयुक्ताधि४२, (4) उपसेोगयरिसोगातिरे
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उपासकदवा
[ समहगाथा ] रसवाणिज्जयक्सो, अध्यारो अट्टमो विणिदिट्ठो | धावारो य विसाण, जो सिंगयसोमलाईण ॥ ७ ॥ सो एसो अइयारो, विसवाणिज्जाभिहो णमो । अह दसमो अइयारो, इह घुचर केसवाणिज्ज ॥ ८ ॥ कविक्वावारो, दासीदासाइयाण जो । तिलसरिसवाइपीलण, वावारो जतपालण कम्म ॥ ९ ॥ एत्थ वए अइयारो, कहिओ एगारसो एव । अज वस महिसाईण, जो सढीकरणरूचचावारो ॥ १० ॥ निलछणकम्मरखो, अइयारो घारसो एसो । ज च दवाणलदाण भूमीए उव्वरत्तण करिउ ॥ ११ ॥ सो तेरसाइयारो, दवग्गिदावणपयखाओ । धन्नाइववणपोसण, कए य सरदहतलायाण ॥ १२ ॥ जो सोसो सो सरदह, तलाय सोसणईयारो । कुलडा वेसाईणं, पोसो भाडेण जीवियह जो ॥ १३ ॥ सो असईजणपोसण, महयारो पणरसो ओ ॥ " इति ।
ये पन्द्रह कर्मादान कहलाते हैं । जिनके द्वारा कठिन कर्मोंका बन्ध होता है, या कठोर कर्मोंका जिनके द्वारा आदानग्रहण होता हो उन्हें कर्मादान कहते है । इन कर्मादानोंको श्रावक न स्वय करते हैं, न दूसरेसे कराते हैं, न करते हुए की अनुमोदना करते हैं । भगवती सूत्रमे कहा है-
"जो श्रावक है उन्हें पन्द्रह कर्मादान स्वय करना, कराना, या दूसरे करते हुए को भला जानना नहीं कल्पता है ॥ " गाधाएँ गतार्थ हैं ॥ ५१ ॥
આ પદર કદાન કહેવાય છે, જેશે કરીને કઠીન કર્માંના ખધ થાય છે, ચા કંઠાર કર્મીનુ આદાન-ગ્રહણ થાય છે, તેને કદાન કહે છે એ કર્માદાના શ્રાવક મેતે કરતા નથી, ખીજા પાસે કરાવતા નથી અને કરનારની અનુમેદન કરતા નથી ભગવતી સૂત્રમાં કહ્યુ છે કે
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જે શ્રાવક છે તેને પદર કર્માદાન પેતે કરવા, કરાવવા, કે ખીએ ધરત હાય તેને ભલા જાણુવા કપતા નથી” ગાયામાના ખ એજ છે (૫૧)
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अगारधर्म सञ्जीवनीटीका अ०१०५२ अनर्थदण्डविरमणत्रताविचारवर्णनम् २९७ रणम्-उदूखल मुसल-घरट्ट-वासी कुठारादि, सयुक्त च तद्धिकरण सयुनाधिककरणम्-उदुखलादिक हि नैकल किञ्चिदपि कार्य कत्ते क्षममपितु मुसलगदिना मिथः सयोगेनैव,एव वास्याद्यपि दण्डादिसयोगेनैव छिदादिकार्य सम्पादयितुमल न त्वेकलमिति भवति सयुक्त भूत्वाऽधिकरणमिति निर्गलितार्थः । सयुक्तस्याधिकरणस्य हिंसाहेतुत्वेनोपचारादतीचारत्वमवगन्तव्यम् । अय च हिंसामदानस्यातीचारः४। उपभुज्यन्त इत्युपभोगाखान-पानादयः पदार्थास्ते पा परिम्समन्ताद्भोगस्तस्य तस्माद्वाऽतिरेक.,यद्वा उपभोगा सकृद्भोगयोग्यमनपानसकचन्दनादि, परिभोग= पुनः पुनर्भोगयोग्य भवनाऽऽसनादि, तयोस्ताभ्या वाऽतिरेक. आधिक्यम्-उप
१-'वासी'-'धमुला' इति भापा ।
२-'शाम्भवी शक्तिरेकला'-इत्यमरपीयूपव्याख्या ।। आदि, इनको सयुक्त ( मिला) करके रखना । अकेला ऊखल आदि कुछभी कार्य करने में समर्थ नहीं है किन्तु मूसल आदिके सयोगसे ही कार्य कर सकता है। इसी प्रकार अकेला वसूला, कुल्हाडीभी कार्य नहीं कर सकते, ये भी डडा आदिके सयोगसे सर्य करते हैं, इसलिए घह सयुक्ताधिकरण है। इसी प्रकार गोली आदि भरकर बन्दूक आदिका रखना भी सयुक्ताधिकरण है। यह सयुक्त अधिकरण हिंसाका कारण है, अत. उपचारसे अतिचार है। यह हिंसाप्रदानका अतिचार है।
(५) उपभोगपरिभोगातिरेक-ग्वान पान आदि पदार्थोंके भोगनेकी अधिकताको, अथवा एक बार भोगमें आनेवाले अन पान माला चन्दन आदि पदार्थ उपभोग कहलाते हैं, और बारम्बार भोगमे आने योग्य मकान आसन आदि परिभोग कहलाते हैं, इन दोनोकी अधिकताको રાખવા એકલા ઉખલ આદિ કાઈ પણ કામ કરી શકતા નથી પરંતુ મૂળ આદિન સંચાગથી જ કરી શકે છે, એ જ રીતે એકલો વાસ કે કુહાડી પણ કામ કરી શકતા નથી, તે પણ દાડા-હાથા આદિના રાગથી કામ કરી શકે છે, તેથી તે સ ચુતાધિકરણ છે એજ રીતે ગેળી આદિ ભરીને બ દૂક વગેરે રાખવા એ પણ સ યુકતાધિકરણ છે એ સ યુકત અધિકરણ હિંસાનું કારણ છે, તેથી ઉપચાર કરીને અતિચાર છે એ હિંસાપ્રદાનને અતિચાર છે
(५) 6पोगपरिनागाति२:-- मान - पान All पहायाने सागवानी અધિકતાને, અથવા એકવાર ભેગાવવામાં ઉપયોગી થાય તેવા અન્ન-પાન માળા થદન આદિ પદાર્થો ઉપભેગ કહેવાય છે, અને વાર વાર ભેગાવવામાં ઉપયેગી થાય તેવા મકાન આસન વગેરે પરિગ કહેવાય છે, એ બેઉની અધિકતાને ઉપલોગ
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उपासकदवानाचे तत्मवर्द्धकवचनोदिरणेत्यर्थः । एप प्रमादाचरितस्यानर्थदण्डस्यातीचारः ।। कुत्सितः कुचः कुकुचस्तस्य भावः फर्म वा कौकुच्य भागचेष्टितयन्मुख नासा भूनेनादीना वैरूप्यकरणेन हास्योपादनमित्यर्थः । अय मपि द्वितीयभेदस्यैव, यद्वा अप-यानाऽऽचरितस्यातीचारः २। मुखरः बहुविधाऽ सम्बद्धभापी, तस्य भाव कर्म वा मौखर्यम्-अमासनिकमसम्मद कुत्सित च यद्वा भापमाणेसु बहुपु निज वापलेन सत्वरमपिचारित बहुभापणमित्यर्थ । एप च पाप कर्मोपदेशस्यातीचारः ३। अधिक्रियतेसम्मध्यते दुर्गतिप्वात्माऽनेनेति-अधिक
(१) कन्दर्प-कन्दर्प कामको कहते है। पामका उद्दीपक वचन भी उपचारसे कन्दर्प कहलाता है। तात्पर्य यह की-कामके वेगसे परवश होकर कामवद्धक वचन बोलना कन्दर्प अतिचार है। यह प्रमादाचरित अनर्थदडचिरमणका अतिचार है।
(२) कौकुच्य-भाणोकी चेष्टाके समान मुंह, नाक, भाह, आख आदि अगोको बिगाड़-विगाड कर हसना कोकच्य है । यह भी दूसरे भेद (प्रमादाचरित )का, अथवा अपध्यानाचरितका अतिचार हैं।
(३) मौखर्य-ऊटपटाग, कुत्सित, अथवा चपलता के कारण शीघ्र विना विचारे बोलनेवाला मुग्वर, और ऐसा बोलना मौखर्य कहलाता है। यह पापकर्मोपदेशका अतिचार है।
(४) सयुक्ताधिकरण-जिससे आत्मा दुर्गतिका अधिकारी बने उसे अधिकरण कहते है, अर्थात् ऊखल, मूसल, घरह, वमूला, कुल्हाड़ी
- (૧) કન્દર્પ–કન્દર્ષ કામને કહે છે કામનું ઉદીપક વચન પણ ઉપચાર કરીને કદપ કહેવાય છે તાત્પર્ય એ છે કે કામના વેગથી પરવશ થઈને કામ વર્ધક વચન બેલિવુ એ કદર્પ અતિચાર છે એ પ્રમાદાચરિત અનર્થદડવિરમણની અતિચાર છે
(२) य-मानी यानी पेठे भडा. न. समर, आम माEिઅગેને બગડી (વાકાચૂકા કરી) હસાવવુ એ કીકુરય છે એ પણ બીજા ભેદ (પ્રમાદાચરિત)ને અથવા અપધ્યાનાચરિતને અતિચાર છે
(3) भोप-८५टाग, पुत्सित, अथवा अपाताने ४२२ ताणे-ना વિચાર બેલનાર મુખર અને એવું બોલવું તે મૌખય કહેવાય છે એ પાપકર્મોપદેશનો અતિચાર છે
(૪) સ યુકતાધિકરણ-જેથી આત્મા દુર્ગતિનો અધિકારી અને તેને અધિકરણ કહે છે, અર્થાત ઉખલ (ખાડણી) મુશળ, વાસલે, કુહાડી વગેરેને મેળવી
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भगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू० ५३ सामायिकवताचारवर्णनम्
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मूलम् - तयानंतर चणं सामाइयस्स समणोवासएण पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियन्वा, तंजहा - मणदुप्पडिहाणे, वयदुष्पsिहाणे, काय दुष्पडिहाणे, सामाइयस्स सइअकरणया, सामाइयस्स अणवट्रियस्स करणया ९ ॥ ५३ ॥
छाया - तदनन्तर च खलु सामायिकस्य श्रमणोपासकेन पञ्चातीचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा - मनोदुष्प्रणिधान, वचोदुष्प्रणिधान कायदुष्प्रणिधान, सामायिकस्य स्मृत्यकरण, मामायिकस्यानवस्थितस्य करणम् । ९ ॥ ५३ ॥
टीका -- 'मनो' - इति- मनस. - चित्तस्य दुष्ट = सावध प्रणिधान = प्रवर्तन - मनोदुष्प्रणिधान - सामायिकानुष्ठानसमये गृहसम्भन्धिसुकृतदुष्कृतपरिचिन्तनमित्यर्थः । १। बचसो दुष्प्रणिधान वचोदुष्प्रणिधान = सामायिकसमये निष्ठुरसावद्यभापोदोरणमित्यर्थः । २ । कायस्य शरीरस्य दुष्प्रणिधान = काय दुष्प्रणिधानम्मार्जितानिरीक्षितभूमौ हस्तपादादिमसारणमित्यर्थ' । ३ । सामायिकसम्ब
टीकार्थ- ' तयाणतर चे 'त्यादि इसके अनन्तर श्रावकको सामा किके पाँच अतिचार जानने चाहिए, किन्तु सेवन नही करने चाहिए । वे ये हैं- (१) मनोदुष्प्रणिधान, (२) वचोदुष्प्रणिधान, (३) कायदुष्प्रणिधान, (४) सामायिकका स्मृत्यकरण, (५) अनवस्थित सामायिककरण |
(१) मनोदुष्प्रणिधान - मनकी खोटी प्रवृत्ति करना, अर्थात् सामा किके समय गृहस्थी सबन्धी भला बुरा विचारना । (२) वचोदुष्प्रणिधान - सामायिकके समय कठोर और सावद्य भाषा बोलना । (३) कायदुष्प्रणिधान - कायकी खोटी प्रवृत्ति करना, अर्थात् विना पूँजी बिना देखी जगह में हाथ पैर पसारना । ( ४ ) सामायिकका स्मृत्यकरण-' अमुक
टीकार्थ- 'तयाणवर चे 'त्यादि त्यारपछी श्रावडे सामायिना पाय अतियार જાણવા જોઈએ પણ સેવવા ન જોઇએ તે આ પ્રમાણે છે -(૧) મનેાદુપ્રણિધાન, (२) वयोहुष्प्रविधान (3) भयहुष्यविधान, (४) सामायिउनु स्मृत्यारथ, (4) અનવસ્થિતસામાયિકકરણ
(૧) મનદુપ્રણિધાન~મનની ખાટી પ્રવૃત્તિ કરવી અર્થાત સામાયિકને સમયે ગૃહસ્થી સખધી મારૂ-માઠું વિચારવું (૨) વચે દુપ્રણિધાન–સામાયિકને સમયે કઠોર અને સાવધ ભાષા એલવી (૩) કાયદુપ્રણિધાન-કાયાની ખેાટી પ્રવૃત્તિ કરવી અર્થાત પૂજ્યા વિનાની કે જોયા વિનાની જગ્યામાં હાથ-પગ પસારવા
(४)
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उपासकमाने भोग-परिभोगातिरेकः-सस्य स्वसम्बन्धिना चाऽऽवश्यकताऽधिकवस्तूनामुपयोजनमित्यर्थः 1५। अप्रेत्थ सग्रहगाथा:
[सग्रहगाथा] " अस्सवि पचऽइयारा, कटप्पो कुक्कुय च मोहरिय। तह सजुत्तहिगरण, उपभोगाइप्पमाणवहरेगो ॥१॥ कामुग्वेयगवयणोदीरणमेएस धुचए पढमो। मुहभमुयाइविगारा, हासचिहाण तहा पीओ ॥ २ ॥ कुच्छियमप्पासगिय, मवियारियमवगयट्ठसयध । पहुभासिणमिह तीओ, अइयागे जेणसासणे मणिओ ॥ ३ ॥ वासिकुढारघरहो, क्खलमुसलप्पभिइसजुय तुनो । हिंसाहेउत्तणओ, अस्सइयारत्तण मुणेयन्व ॥ ४ ॥ चदणमाला भवणासणाइयाण तहोवओगी जो ।
अहिओ सो अइयारो, एत्थ वए पचमो वुत्तो ॥५॥” इति । एतच्छापा च
" अस्यापि पश्चातीचाराः, कन्दर्प कौकुच्य च मौखर्यम् । तथा सयुक्ताधिकरणम् , उपभोगादिममाणव्यतिरेकः ॥ १ ॥ कामोद्वेजकवचनोदीरणमेतेषु उच्यते प्रथमः ।। मुखभ्रूवादिविकाराद् हास्य विधान तथा द्वितीयः ॥ २ ॥ कुत्सितमपासगिक,-मविचारितमपगतार्थसम्बन्धम् । बहुभापणमिह तृतीय , अतीचारो जैनशासने भणितः ॥ ३ ॥ वासी कुठार घरहो दूखल मुसल प्रभृतिसयुत तृतीय । हिंसाहेतुत्वताऽस्याऽतीचारत्व ज्ञातन्यम् ॥ ४ ॥ चन्दन माला भवनाऽऽसनादिनाना तथोपयोगो य । अधिर. सोऽतीचागेऽत्र व्रते पश्चम उक्त ॥ ५ ॥” इति ।
इति मृतार्थ ॥ ५२ ॥ उपभोगपरिभोगातिरेक करते हैं। तात्पर्य यह कि अपनी और अपने सम्बन्धियोंकी वस्तुओंको आवश्यक्तासे अधिक भोगना उपभोगपरि भोगातिरेक है । सग्रहगाथाएँ सुगम हैं ॥ ५२ ।। પરિભેગાતિરેક કહ છે તાત્પર્ય એ છે કે પોતાના અને પિતાના સ બ ધીઓની વસ્તુઓને જરૂરીયાત કરતા વધારે જોગવવી એ ઉપગ-પરિભગતિરેક છે સગ્રહ ગાથાઓ સુગમ છે (૫૨)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू०५४ देशावकाशिक व्रतातिचारवर्णनम् ३०१ मूलम्-तयाणंतरं च ण देसावगासिस्स समणोवासएणं पच अईयारा जाणियचा न समायरिग्वा, तजहा-आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे,सदाणुवाए,रूवाणुवाए,बहियापोग्गलपक्खेवे॥१०॥५४॥
छाया-तदनन्तर च खलु देशावकाशिकस्य श्रमणोपासकेन पञ्चावीचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्या, तद्यथा-आनयनमयोगः, प्रेष्यमयोगः, शब्दानुपात., रूपानुपातः, वहि:पुद्गलप्रक्षेपः । १० ॥ ५४॥
टीका-"आनयने'ति--स्वगमनागमनार्थ नियतात्क्षेत्राद्वाह्याना पदार्थाना मन्यद्वारा स्वसमीपे प्रापण प्रथमः ।। नियतात्क्षेनाद्वाह्याना कार्याणा सम्पादनार्थ भृत्यादि पण द्वितीयः।२। नियतात्क्षेत्रावहिः कार्योपस्थितौ छिक्कोकासीप्रभृतिभिः शब्दैः प्रातिवेशिकादि प्रतिवोय तत्कार्य सम्पादनचेष्टन तृतीयः ॥३॥ अनवस्थितसामायिककरण-सामायिकसयन्धी व्यवस्था न रखना, अर्थात् कभी करना, कभी न करना, और कभी समय पूरा होनेसे पहले ही सामायिक पार लेना ॥ सग्रहगाथाएँ गतार्थ हैं ॥५३ ॥
टीकार्थ-तयाणतर चेत्यादि इसके अनन्तर श्रावकको देशावकाशिक व्रतके पाच अतिचार जानने चाहिए किन्तु सेवन न करने चाहिए। पांच अतिचार इस प्रकार हैं-(१) आनयनप्रयोग, (२) प्रेष्यप्रयोग, (३) शब्दानुपात, (४) रूपानुपात, (५) बहि पुद्गलमक्षेप । ___ [१] आनयनप्रयोग-अपने गमनागमनके लिए मर्यादा किये हुए क्षेत्र से बाहारके पदायोंको दूसरेसे अपने पास मगाना।२] प्रेष्यप्रयोगमर्यादा किए हुए क्षेत्रसे बाहरके कार्योको सपादन करने के लिए नौकर જ (૫) અનવસ્થિત સામાયિકકરણ- સામાયિક સંબધી વ્યવસ્થા ન રાખવી, અર્થાત કેઈવાર કરવી, કોઈવાર ન કરવી, અને કઈવાર સમય પૂરો થયા પહેલા સામાયિક પાણી લેવી સ ગ્રહ ગાથાઓને એજ અર્થ છે (૫૩)
टीकार्थ- 'तयाणतर चे'-त्या पछी श्राप शशि प्रतना पाय અતિચાર જાણવા જોઇએ પણ સેવવા ન જોઈએ, તે પાચ અતિચાર આ પ્રમાણે છે – (१) मानयनप्रयाग, (२) पध्यप्रयोग, () शहानुपात, (४) ३पानुपात, (५) બહિ પુદ્ગલપ્રક્ષેપ
(૧) આનયનપ્રયોગ–પિતાને ગમનાગમન માટે મર્યાદિત કરેલા ક્ષેત્રની બહારના પદાર્થો બીજાની મારફતે પિતા પાસે મગાવવા (૨) પૃધ્યપ્રગ-મર્યાદિત ક્ષેત્રની બારના કાર્યોને સંપાદન કરવા માટે નોકર-ચાકર મેકલવા, (૩) શબ્દાનુપાત
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उपासावकार धिनी या स्मृतिः स्मरण तस्या अकरणम् अनाश्रयण-स्मृत्यकरणम्-"अमुक समये मया सामायिक कृत, कर्तव्य, फरिप्यमाण वे" स्येव निश्चित-सामायिक समयस्य विस्मरणमित्यर्थः । ४ । अनवस्थितिः अनवस्था-व्यवस्थाया अभाव इत्यर्थस्तस्याः करण-मनवस्थितिकरणम्-सामायिकस्य कदाचिदाचरण कदाचिदनाचरण, कदाचिच समयमसमाप्येवोत्थानमित्यर्थः 1५। अत्रेमा:समहगाया:
[सग्रहगाथा ] " मणवायाकायाणं, दुप्पडिहाणाणि तिन्नि एयस्स । सहअकरण चउत्थो, अणवट्ठाऽऽपायण च पचमगो ॥ १ ॥ अइयारा इमे पच, सरूव दरखवामि सिं । पयमो तत्थ सावज्ज, माणसस्स पवट्टणं ॥२॥ बीओ णिरसावज्ज,-भासोदीरणमीरिय । तीओ थले अप्पमठे, हत्थाईण पसारण ॥३॥ सामाइय वय कन्ज,- ममुए समए मए । इच्चाइणो विसरणं, चउत्थो परिकित्तिओ ॥४॥ वयस्सायरणे जाउ, जाउ नायरण तहा।
असमप्पेव वा जाउ, उहाणं होइ पचमो ॥ ५॥ इति । छाया-" मनोवाकायाना दुष्पणिधानानि त्रय एतस्य ।
स्मृत्यकरण चतुर्थोऽनवस्थाऽऽपादन च पञ्चमकः ॥ १ ॥ अतिचारा इमे पञ्च, स्वरूप दर्शयाम्येपाम् । प्रथमस्तत्र सावध, मानसस्य प्रवर्तनम् ॥ २ ॥ द्वितीयो निष्ठुरसावधभाषोदीरणमीरितम् । ठतीय स्थले अप्रमृष्टे, हस्तादीना प्रसारणम् ॥ ३ ॥ सामायिक व्रत कार्य, ममुके समये मया । इत्यादेविस्मरण चतुथे परिकीर्तित ॥ ४ ॥ व्रतस्याऽचरण जातु, जातु नाऽऽचरण तथा । असमाप्यैव वा जात, उत्थान भवति पञ्चमः ॥ ५ ॥" इति ।
इनि मुत्रार्थ ॥ ५३॥ समय मैंने सामायिक की थी, अमुक समय करना चाहिए, अमुक स काँगा' इस प्रकार सामायिक निश्चित समयको भूल जाना। સામાયિકનુ ન્યૂયકરણ– અમુક સમયે મે સામાયિક કરી હતી, અમુક સમ કરવી જોઈએ, અમુક સમયે કરીશ” એ પ્રમાણે સામાયિકને નિશ્ચિત સમય ભલે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १५० ५५ पोपधोपवास व्रताविचारवर्णनम् ३०३
मूलम्-तयाणंतरं च ण पोसहोववासस्स समणोवासएणं पच अइयारा जाणियबा न समायरियवा,तंजहा-अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहियसिज्जासंथारे, अप्पमज्जियादुप्पमज्जियसिज्जासंथारे, अप्पडिलेयि दुप्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमी, अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जि यउच्चारपासवणभूमि,पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया११।५५।
छाया-तदनन्तर च ग्वलु पोषधोपवासस्य श्रमणोपासकेन पञ्चातीचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा अप्रतिलेखित दुमतिलेखितशग्यासस्तारः, अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितशय्यासस्तारः, अपतिलेखितदुष्पतिलेखितोच्चारप्रस्रवणभूमिः, अपमा. जितदुष्पमार्जितोचारप्रस्रवणभूमि', पोपधोपवासस्य सम्यगननुपालनम् ११॥५५
टीका-'अप्रतिलेखिते' -ति-शय्या-सस्तारकाणा सर्वथा न प्रतिलेखन मन्यमनस्कतया प्रतिलेखन च प्रथमः ।१। तेषामेव सर्वथा ममार्जनाभावोऽन्यतार आदिभी समझना चाहिए। [४] रूपानुपात-नियत क्षेत्रसे बाहरका काम करनेके लिए दूसरेको हाथ आदि दिखाकर उस कामको सिद्ध करनेकी चेष्टा करना। उपलक्षणसे टेलीफोनद्वारा स्वरूप प्रेपणको भी समझना चाहिये, क्योकि आजकल टेलीफोनद्वारा बातचीत करनेवालेका फोटूभी सामने खीच जाता है। [२] बहिःपुद्गलप्रक्षेप-नियतक्षेत्रसे बाहरका प्रयोजन होने पर उसे सिद्ध करने के लिए ककर पत्थर आदि फेंककर दूसरेको सकेत (इशारा) करना । गाधाओंका अर्थ यही है ॥५४॥
टीकार्थ-' तयाणतर चे -त्यादि तत्पश्चात् श्रमणोपासकको पोपधोपवास व्रतके पाच अतिचार जानने चाहिए किन्तु सेवन न करने તા–ટેનીફેન વગેરે પણ સમજી લેવા (૪) રૂાનુપાત–નિયત ક્ષેત્રની બહારનું કામ કરવાને બીજાને હાથ વગેરે બતાવીને તે કામ સિદ્ધ કરવાની ચેષ્ટા કરવી ઉપ લક્ષણો કરીને ટેલીફોન દ્વારા સ્વરૂપ પ્રેષણને પણ સમજી લેવું કારણ કે આજકાલ ટેલીફેન દ્વારા વાતચીત કરનારને ફેટે પણ સામેથી ખેચી શકાય છે(૫) બહિ - પુદગલપ્રક્ષેપ-નિયત ક્ષેત્રથી બહારનું પ્રયોજન ઉપસ્થિત થતા તેને સિદ્ધ કરવા માટે કાકરે, પત્થર, વગેરે ફેકીને બીજાને સકેત(ઈશારો)કરો સંગ્રહ ગાથાઓને અર્થ એજ છે (૫૪)
टीकार्थ-'तयाणतर चे'त्यादि ते पछी श्रमपास पोषधा५पास इतना પાચ અતિચાર જાણવા પરંતુ સેવવા નહિ તે આ પ્રમાણે -(૧) અપ્રતિલેખિત
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उपासकदशास्त्रे
नियतात्क्षेत्राद्वहि स्थित फार्यसम्पादनार्थं परस्मै स्वहस्तादि दर्शयित्वा वेष्टनम्, आग्लभाषामसिद्ध 'टेलीफोन, टेलीग्राफ' ममतेरुपलक्षण च चतुर्थः ॥४॥ निय तारक्षेत्रादून प्रयोजनसद्भावे तत्स पादनायें पुद्गलानां छोष्टशिला पुत्रकादीना प्रक्षे पेण तटस्थ प्रति सकेतीकरण, यद्वा टेलीफोनयन्त्रद्वारा स्वप्रतिकृतिप्रेषणस्याप्युप लक्षणम् । तद्यन्त्रेण सभापण कर्त्तृराकृतिरपि निर्दिष्टे स्थले प्रकटी भवतीत्यर्थः । इति पञ्चम । ५ ॥ नत्रेत्थ सदग्रहगाथा:
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दममस्सऽहयारपचग से, पउगो आणवणस्स पेसणस्स । अवि सहग रूवगाणुवाओ, बहिया पुग्गलखेवण तहेव ॥१॥ परेण घज्झवत्थूण, पावण ज नियतिगे । पढमो मो एवमेव, बीओ भिचाइपेमण ॥ २ ॥ तीओ छिकाइचेद्वारिं, तवायरण मओ । तहा चउत्थो हत्थाह, चेट्ठण परिकित्तिओ ॥ ३ ॥ सक्कराइविणिक्खेवा, चेहण होइ पचमो । परेण बज्झकज्जाण, सपाए णेन तारिस ॥ ४ ॥ वयस्स रक्खण तम्हा, सत्य देसावगासिय ।" इति ॥ एतच्छाया च---
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दशमस्या तिचारपश्च कमस्य, प्रयोग आनयनस्य प्रेषणस्य । अपि शब्दक रूपकानुपातो वहि. पुद्गलक्षेपण तथैव ॥ १ ॥ परेण वाह्यवस्तूना, मापण यन्निजान्तिके ।
प्रथमः स एवमेव द्वितोयो भृत्यादिप्रेषणम् ॥ २ ॥ तृतीयकादिचेष्टाभिस्तथैवाऽऽचरण मत | तथा चतुर्थी हस्तादिचेष्टन परिकीर्त्तित ॥ ३ ॥ शरादिविनिक्षेपाचेष्टन भवति पश्चम । परेण बाह्यकार्याणा सम्पादे नैव तादृशम् ॥ ४ ॥ व्रतस्य रक्षण तस्मात्सार्थ देशावकाशिकम् ॥” इति । इति त्रार्थ ॥ ५४ ॥
चारोको भेजना। [३] शब्दानुपात - नियतक्षेत्र से बाहारका कार्य आ पाडने पर छींक कर, खास कर या अन्य कोई शब्द करके, पड़ोसी आदिको इशारा करके कार्य कराने का प्रयत्न करना । उपलक्षणसे टेलीफोन —નિયત ક્ષેત્રથી મહારનુ કાર્ય આવી પડતા છીંકીને, ખાખારીને યા ખીજા કોઇ શબ્દ કરીને પાડોશી આદિને ઇશારા કરી કાર્ય કરાવવા પ્રયત્ન કરવા, ઉપલક્ષણે કરીને
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जगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सूत्र ५६ अतिथिसविभागवताविचार० ३.५
उच्चारप्रस्रवणभूविपये क्रमश इदम् ।। चेत्मकारद्विक, तृतीयश्चतुर्थः समतस्तदा ॥३॥ पवमः पालनाभावः, पोपधस्य यथाविधि । प्रतस्यैतस्य ग्रहणे, विधि. सामायिके यथा ॥४॥" इति ।
इति सूत्रार्थः ॥५५॥ मलम तयाणंतर च ण अतिहिसंविभागस्स समणोवासएणं पच अइयाराजाणियव्वा न समायरियधा, तंजहा सचित्तनिक्खे वणया,सचित्तपेहणया,कालाइक्कमे,परववएसे, मच्छरिया ॥१२॥५६॥
छाया-तदनन्तरं च खलु अतिथिसरिभागस्य श्रमणोपासकेन पश्चातीचारा सातव्यान समाचरितव्याः, तद्यया-सचित्तनिक्षेपण, सचिनपिधान, कालातिक्रमः परव्यपदेशः, मत्सरिता । १२ ॥५६॥
टीका-सचित्ते' -ति-सचितेषु धान्यादिष्वदानबुद्धया निक्षेपण-सम्मेग्न, यद्वा सचित्ताना निक्षेपणमर्थात्कल्पनीयेवचित्तेष्विति सचितनिक्षेपण सचिरा
(३) उच्चार प्रस्रवणे (मल-मूत्र )की भूमिकी पडिलेहना न करना या दुचित्ता होकर पडिलेहना करना तीसरा अतिचार है।
(४) उच्चारप्रस्नवणकी भूमिको न पूजना या असावधानी से पूजना चौथा अतिचार है।
() शास्त्रोक्त विधिसे पोषधोपवासका सम्यकपसे पालन व करना और पोसेमें रहकर आहार, शरीरसस्कार, मेथुन आदि अनेक प्रकारके व्यापारोंका विचारना पांचवा अतिचार है।गाथाएँ गतार्य हैं ॥५५॥ ___टीकार्थ-'तयाणतर चे'-न्यादि तदनन्तर आवकको अतिथिसविभाग भ्रतके पाच अतिचार जानने चाहिए किन्तु सेवन न करने चाहिए। ભૂમિની પડિલેહણા ન કરવી એ ત્રીજે અતિચાર છે (૪) ઉચ્ચાર-પ્રસવણની બમિને ન પૂજવી યા અસાવધાનીથી પૂજવી એ ચોથે અતિચાર છે (૫) શાસ્ત્રોકતવિધિથી પિષપવાસનુ સમ્યકરૂપે પાલન ન કરવું અને પિસામાં રહીને, આહીર, શરીરસત્કાર, મિથુન આદિ અનેક પ્રકારના વ્યાપારને વિચાર કરે છે પાચમે અતિચાર છે ગાથાઓને અર્થ સ્પષ્ટ છે (૫૫)
टीकार्य- 'तयाणतर ई-त्यादि पछी श्रीमतिसिविमानता पार 1 અતિચાર જાણવા જોઈએ પરંતુ સેવવા ન જોઈએ તે આ પ્રમાણે ) ચિત્ત
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उपासमारने मनस्कतया ममार्जन च बितायः । एवमेवोच्चारमस्रवणभूमौ क्रमेण प्रकारद्वये तृतीय-चतुर्थी।३।४। प्रवचनोक्त विध्यनुसारेण पोपधव्रतस्य सम्यगनुपालनामावो, व्रतसमय आहार-शरीरसत्काराऽब्रह्मादिपिविधव्यापाराणामनुचिन्तन च पञ्चमः॥५॥ अत्य सङ्ग्रहगाथा:
" सिज्जासधारगाण ज, सवराऽपडिलेरण । पमायप्पडिलेहो वा, अइयारो इराइमो ॥१॥ अप्पमज्जणमेणसि,-मण्णहा चा पमज्जणं । घुत्तो एत्थ लए घोओ, अध्यारो जागम ॥ २ ॥ उच्चार पासवणभू , चिसए कमसो इणं ।। चे पगारदुग तीओ चउत्थो समओ तया ॥ ३ ॥ पचमो पालणाभावो, पोसहस्स जहाविहि ।
वयस्सेयस्स गहणे, विही सामाहए जहा ॥४॥" इति । एतच्छाया च--
शग्यासस्तारकाणा यत्सर्वथाऽप्रतिलेखनम् । प्रमादप्रतिलेखो वा, अतिचार इहाऽऽदिमः ॥१॥ अममार्जनमेतेपा, मन्यथा चा प्रमार्जनम् ।
उक्तोऽत्र व्रते द्वितीयोऽतिचारो यथाऽऽगमम् ॥२॥ चाहिए। वे ये है-(१) अप्रति लेखित दुष्पतिलेखितशय्यासस्तार, (२) अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितशय्यासस्तार, (३) अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखित उच्चारप्रस्रवणभूमि, (४) अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जित उच्चाप्रस्रवणभूमि, पाप धोपवासका सम्यक् अननुपालन |
(१) शय्यासथारे आदिकी पडिलेहना न करना या असावधानीस पडिलेहणा करना प्रथम अतिचार है।
(२) शग्या सथारे आदिको न पूजना या असावधानीसे पूजना दूसरा अतिचार है। દુષ્પતિલેખિત શય્યાસ સ્તાર (૨) અપ્રમાર્જિતદ્મમાર્જિત-શધ્યાસસ્તાર, () अतिमित - हुप्रतिभित - यार - प्रस१३) - भूमि, (४) मानतપ્રમાર્જિતઉચાર-પ્રસવણ-ભૂમિ, (૫) પિષયવાસનુ સમ્યક અનનુપાલન
૧ શા સથારા આદિની પડિલેહણ ન કરવી, યા અસાવધાનીથી પડિલેહણા કરવી એ પ્રથમ અતિચાર છે (૨) શયથા સ થારા અદિને ન પૂજવા યા અસાવધાનીથી પૂજવા એ બીજે અતિચાર છે ૩ ઉચ્ચાર પ્રસવણ (મલમત્ર)ની
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अंगारसञ्जीवनी टीका अ १ सू. ५६ अतिथिसविभागव्रताविचार० परव्यपदेशः = अदानयुद्धया-' परकीयमिदमनादिक न ममे - त्यादेर्वाक्यस्य सांधुसमीपे भापणमित्यर्थः स्वय सुस्थितोऽपि दातु परस्य कथन वा एप चतुर्थ' |४| मत्सर' = परशुभद्वेप, अनतूपचारादीर्ष्या, यद्वो मत्सरः = कृपणस्वस्य भावो मात्सर्य, ततथ - 'अनेन सानवे इद् दत्त किमहमस्माद्दीनो य दास्ये ' इत्येवमवत्व, दाने कार्पण्याचरण वेत्यर्थः । केचित्तु ' - मत्सर = कोप • स एव मात्सर्य - कोपपुरस्सर साधवे भिक्षादानमित्यर्थः ' इति वदन्ति, एप
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पञ्चम |५|
तेषु पञ्चसु यथाकथञ्चिदपि दानम्य सद्भावादतीचारत्वमेव न तु भङ्गत्वम्, समयको टालकर भिक्षा देने को तैयार होना कालातिक्रम अतिचार है । [४] परव्यपदेश- अर्थात् दूसरेका कह देना । भिक्षा न देनेके अभिप्राय से ' यह आहार आदि दूसरेका हे मेरा नही ' ऐसा कहना अथवा आप [ स्वय ] सूझता [शुद्ध-आहारादि देने योग्य ] होने पर भी आहारादि देनेके लिए दूसरेको कहना परव्यपदेश अतिचार है ।
[५] मत्सरिता- दूसरे के भले में छेप करना मत्सर है । यहाँ उपचार से मत्सरका अर्थ ईर्ष्या है । ' इसने साधुको यह दिया है, मैं क्या इससे कम हूँ कि मै यह पदार्थ न दूं ' इस प्रकार ईर्ष्या करना मात्सर्य है । अथवा दान देनेमें कजूसी करन मात्सर्य अतिचार है । कोई कोई मत्सरका अर्थ क्रोध है ' ऐसा कहते है, उनके मत से क्रोध पूर्वक साधुको भिक्षा देना मात्सर्य अतिचार है ।
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ये पाचों अतिचार ही हैं, क्योंकि सभी में किसी न किसी रूपमें અને આહાર પણ ન દેવા પડે’ એવી ભાવનાથી સાધુના ભાજનના સમયને ટાળીને ભિક્ષા દેવાને તૈયાર થવુ એ કાલાતિક્રમ છે
(૪) પરબ્યપદેશ—અર્થાત્ ખીજાને કહી દેવુ ભિક્ષા ન આપવાના હેતુથી આ આહાર આદિ બીજાના છે-મારા નથી’ એમ વ્હેવુ, અથવા પેાતે સૂઝતા (આહારાદિ વેારાવી શકે તેવેા) હાવા છતા પશુ આહાર દેવા માટે બીજાને કહેવુ, એ પરબ્યપદેશ અતિચાર છે
(૫) મત્સરિતા—ખીજાના ભલામા દ્વેષ કરવે એ મસર છે. અહીં ઉપચારે કરીને મત્સરને અ ઈર્ષ્યા છે. એણે સાધુને આ આપ્યુ છે, હું થ્રુ તેનાથી કમ છુ કે એ પદાર્થ ન આપુ?” એ પ્રમાણે ઇર્ષ્યા કરવી એ માસ છે અથવા દાન આપ વામા કસાઈ કરવી એ માત્સર્યાં અતિચાર છે. કાઇ કાઇ કહે છે કે મત્સરના • અર્થ કાધ છે' તેમને મતે ક્રોધપૂર્ણાંક સાધુને ભિક્ષા આપવી એ માત્સર્યાં અતિચાર છે એ પાચે અતિચાર જ છે, કેમકે એ બધામા કોઇ ને કોઇ રૂપમા દાન દેવાને
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मादिक, यहा-
भावनया सानाs
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६ . ", ,
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. उपसिंपदा शाल्यादिपु सम्मिलितमचित्तमन्नादिक, यद्वा-अचित्तष्यमादिषु निसिल सचिते शाल्यादि चेत्तदा कल्पितत्वात्साधुन ग्रहीप्यतीति भावनया संचितष्वचित्तस्थाऽचित्तेपुरा सचित्तस्य सम्मेलनमिर्त्यः, एप प्रथमः ॥ एवं सचित्तेनाऽचित्तस्याऽचित्तेन या सचित्तस्य' पिधान-सचित्तपिधान नाम द्वितियः ।२। काला साधो जनसमयस्तस्यातिकमा उल्लइन-कालातिकमः 'साधुःसत्कृतोऽऽपि भवेंद्रोजनीयमपि न पीया' दिति बुद्धचा साधुमोजनसमयमविक्रम्य मिक्षा दानार्थ प्रस्तुतीभवनमित्यर्थःएप प्रतीय. १,३1 परस्य, व्यपदेशाच्याहारवे इस प्रकार हैं-(१) सचित्त-निक्षेपण, (२) सचित्तपिंधान,,[३] काला तिक्रम, [४] परव्यपदेश, [५] मत्सरिता। 1, - (१) सचित्तनिक्षेपण-दान न देनेके अभिप्रायसे अचित्त वस्तुओंको
सचित्तधान्य आदिमें मिला देना, अथवा, कल्पनीय वस्तुओंमें सचित्त वस्तु-मिला देना सचित्तनिक्षेपण है । तात्पर्य यह है कि-" सचिच शालि आदिमे, अगर अचित्त मिला देंगे, या अचित्त अन्न आदिमें सचित्त शालि आदि मिला देंगे तो साधु-ग्रहण नहीं करेगे ऐसी 'भावना करके सचित्तमे अचित्त और अचित्त में सचित्त मिला देना
सचित्तनिक्षेपण अतिचार' है। 1. [२] सचित्तपिधान-इसी प्रकार पूर्वोक्त भावनासे सचित्त वस्तुसे
अचित्तको और अचित्तसे,सचित्तको हाक देना सचित्तपिधान अतिचार है। ...[३].फालातिकम-अर्थात् समयका उल्लघन करना। 'साधुकासत्कार
भी हो जाय और आहार भी न देना पड़े ऐसी भावनासे साधुके भोजन नि , (२) सत्तियिधान,-(3) selfit, (४) ५०यपहेश (५), भासरिता
(1) सभित्तनिक्षय-हान न पाना उत्तुशा अयित्त तुमान सथित धान्य આદિમ મેળવી દેવી, અથવા કથની વસ્તુઓમાં-સચિત્ત વસ્તુઓ મેળવી દો ' સચિત્તનિક્ષેપણું છે તાત્પર્ય એ છે કે સચિત્ત શાલિ આદિમાં જે અચિત્ત
મેળવી દઈશું, યા અચિત્ત અનાદિમા સચિત્ત શાલ આદિ મેળવી દઈશુ, તે સાધુ અતિ ગ્રહણ નહિ કરે એવી ભાવનાએ કરીને સચિત્તમ અચિત્ત અને ચિત્તમાં 'શ્ચત પદાથે મેળવી લેંવા‘એ સચિતનિક્ષેપણ અંતિચાર છે ?
(૨) સચિત્તપિધાન–એજ પ્રમાણે મૂક્ત ભાવનાથી સચિન પરથી અચજાને અને ચિત્તથી સચિત્તને ઢાકી દે એ ચિતપિધોને અતિચારે છે । (stallatio-मयत सभयनु GEL "सान wine
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'मगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू० ५७ सलेखनातिचारवर्णनम्
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[ सग्रहगायाः ]
'ण भोवणीयपि मए पयेय, हवे जहेसो समणोवि तुट्टो' । ईव कालप्पडिजावण ज, सो एत्थ कालाइकमी पगीओ ||४| अन्नाय सव्वणि परस्स, न मामईणं ति अदाणभावा । सकार सद्धाइ विहाणपुव्व, ज भासण सो कहिओ चउत्थो || ५ ॥ इमेण दिन किमह न तारिसो, इश्च्चैवमीसायरण तहेव । पाणकावण्णविही य ज वा, कोवेण दाण च मओ तहतो ॥६॥ इति ।
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छाया.
न भोजनीयमपि मया प्रदेय भवेद यथैव श्रमणोऽपि तुष्टः । इतीव कालमतियापन यत्, सोऽत्र कालातिक्रमः प्रगीतः ॥ ४ ॥ अनादिक सर्वमिद परस्य न मामकीनमित्यदानभावात् ॥ सत्कारश्रद्धादिविधानपूर्व, यद् भाषण स कथितचतुर्थ ||५|| अनेन दत्त किमह न तादृश. १, इत्येवमर्थ्याचरण तथैव । प्रदानकार्पण्यविधि यद्वा, कोपेन दान च मतस्तथाऽन्त. ६ " इति । इति सूत्रार्थ ||२६||
मूलम् - तयाणतर चणं अपच्छिममारणतियसंलेहणाझसणाराहणार पंचअहियारा जाणियद्वा न समायरियधा, तंजहाइहलोगास सप्पओगे, परलोगास सप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणास सप्पओगे, कामभोगाससप्पओगे । १३ ॥ ५७ ॥
छाया - तदनन्तर च ग्वलु अपश्चिममारणान्तिकसले खनाजोपणाऽऽरावनायाः पश्चातीचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा - इहलोकाशसाप्रयोगः, परलोकाशसामयेोग, जीवीताशसाप्रयोगः, मरणाशसाप्रयोगः, कामभोगाशसामयोग ॥१३॥५७॥
टीका — 'इहे' -ति- सस्तारग्रहणोत्तरम् - इहलोके मनुष्यलोके आशसामयोग' 'मृत्वा चक्रवर्ती वा राजा वा तन्मन्त्री वा भूयास ' - मित्यादिरूपाभिलायहाँ 'यथा' पद अभ्यागत हीन दीन आदिका भी उपलक्षण है । शास्त्रों में सर्वत्र ऐसाही देखा जाता है । गाथाओंका अर्थ यही है ॥५६॥ टीकार्थ- ' तयाणतर चे 'त्यादि इसके अनन्तर अपश्चिममारणाઅહીં થયા, પદે અભ્યાગત દીન ન આદિનુ પણ ઉપલક્ષણ છે. શાઓમા સત્ર એમજ જોવામા આવે છે (૫૬)
टीकार्थ- ' तयार चे 'त्याहि त्यार पछी अपश्चिम-भारयाति-स भेवना
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___उपासकवासले पदि सर्वथा न दधाहदत प्रतिषेधेहसे वा परियेत तदा तु मास्व, यदुक्तम्"ण देह वारेह य दिज्जमाण, तहेव दिने परितप्पए य । .
इयेरिसोजो किवणस्स भावो, भगो वये पारसगे इहेसो॥१॥" इति छाया-"न ददाति वारयति च दीयमानम् , तथैव दत्ते परितप्यते च ।
इत्येतादृशो यः कृपणस्य भावः, महोः व्रते द्वादशके एहेपः॥१॥"इति। 'यथा'-पद चात्राभ्यागतादीनामप्युपलक्षण, तथैव शास्त्रादिषु सवेत्रोपरम्भात् । अत्रेत्य सङ्ग्रहगाथा:--
"अस्सवि पचइयारा, सचित्तनिक्खेवणाविराणाइ । एव कालाइकम परववएसा य मच्छरिय ॥१॥ धन्नाइसु सचित्तेसु, मचित्तपरिमेलण । एयस्स विवरीय वा, पढमो परिकित्तिओ ॥ २ ॥ अचित्तस्स सचित्तण, पिहाण बुकमोवि वा ।
भोयणाइपयत्थेसु, जो सो बीओ उदाहिओ ॥ ३ ॥ एतच्छाया च" अस्यापि पश्चातीचारा', सचित्तनिक्षेपणापिधानादि ।
एव कालातिक्रम,-परव्यपदेशौ च मात्सर्यम् ॥१॥ धान्यादिषु सवित्तषु, अचित्तपरिमेलनम् । एतस्य विपरीत चा, प्रथम परिकीर्तित ॥२॥ अचित्तस्य सचित्तेन, पिधान व्युत्क्रमोऽपिवा ।
भोजनादिपदाथेषु, य. स द्वितीय उदाहत ॥ ३ ॥ - दान देनेका सद्भाव पाया जाता है। अत. इनके होने पर भी व्रत भग नहीं
होता। यदि आहारादि देवे ही नहीं, या देते हुए कोरोके, अथवा देकर पश्चात्ताप करे तो व्रतभग समझना चाहिए। कहा भी है
" स्वय न देवे, देते हुए दूसरेको निषेध करे, अथवा देकर पश्चात्ताप करे, ऐसा जो कृपणका भाव होता है उससे यह बाररवा व्रत खण्डित होता है ॥" સદ્દભાવ માલુમ પડે છે તેથી એ હોવા છતા વ્રતભગ થતું નથી જે દાન આપે નહિ અને આપનારને રેકે, અથવા આપીને પશ્ચાત્તાપ કરે તે વ્રતભ ગ સમજવા
પિતે ન દે, બીજે આપે તેને નિષેધ કરે, અથવા આપીને પશ્ચાત્તાપ કર, જે પણ ભાવ થાય છે તેથી આ બારમા વ્રતનો ભાગ થાય છે”
એ
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अंगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ सू० ५७ सलेखनातिचारवर्णनम् ३०९
[सग्रहगाथाः] 'ण भोयणीयपि मए पयेय, हवे जहेसो समणोवि तुट्टो' । इईव कालप्पडिजावण ज, सो एत्थ कालाइकमो पगीओ ॥४॥ अन्नाइय सम्वमिण परस्स, न मामईणं ति अदाणभावा । सकारसद्धाइविहाणपुव्व, ज भासण सो कहिओ चउत्थो ॥५॥ इमेण दिन्न किमह न तारिसो, इच्चेवमीसायरर्ण तहेव । पयाणकावण्णविही य ज वा, कोवेण दाण चमओ तहतो॥६॥"इति ।
छाया. न भोजनीयमपि मया प्रदेय भवेद् यथैव श्रमणोऽपि तुष्टः । इतीव कालपतियापन यत्, सोऽत्र कालातिक्रमः प्रगीतः ॥४॥ अन्नादिक सर्वमिद परस्य, न मामकीनमित्यदानभावात् ॥ सत्कारश्रद्धादिविधानपूर्व, यद् भापण स कथितश्चतुर्थः ।।५।। अनेन दत्त किमह न तादृशः १, इत्येवमीया॑चरण तथैव । प्रदानकार्पण्यविधिश्च यद्वा, कोपेन दान च मतस्तथाऽन्तः ६"इति ।
इति सूत्रार्थः ॥५६॥ मूलम्-तयाणतर च ण अपच्छिममारणतियसंलेहणाझूसणाराहणाए पंचअहियारा जाणियबा न समायरियवा, तजहाइहलोगासलप्पओगे, परलोगाससप्पओगे, जीवियाससप्पओगे, मरणाससप्पओगे, कामभोगाससप्पओगे । १३ ॥ ५७ ॥ छाया-तदनन्तर च खल अपश्चिममारणान्तिकसलेखनाजोपणाऽऽराधनायाः पश्चातीचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तद्यथा-इहलोकाशसाप्रयोगः, परलोकाशसाप्रयोगः, जीवीताशसामयोगः, मरणाशसामयोगः, कामभोगाशसामयोग ॥१३॥५७॥
टीका- 'इहे'-ति-सस्तारग्रहणोत्तरम्-इहलोके मनुष्यलोके आशसाम- योगः 'मृत्वा चक्रवर्ती वा राजा वा तन्मन्त्री वा भूयास '-मित्यादिरूपाभिला
यहाँ • यथा' पद अभ्यागत हीन दीन आदिका भी उपलक्षण है। शास्त्रोंमे सर्वत्र ऐसाही देखा जाता है । गाथाओंका अर्थ यही है ॥५६॥ टीकार्थ-' तयाणतर चे'-त्यादि इसके अनन्तर अपश्चिममारणा
અહીં “યથા, પદ અભ્યાગત દીન હીન આદિનું પણ ઉપલક્ષણ છે. શાઓમાં સર્વત્ર એમજ જોવામાં આવે છે (૫૬)
टीकार्थ-'तयाणर थे'-त्या त्या२ पछी अपश्चिम-भाराति:-सपना
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उपासकवारले पकरणम् । १। एव परलोकाऽऽशसामयोगः- देवो भूयास'-मित्यादिरूपा मिलापकरणम् ।। सम्मानादिलोमेन जीवीतस्य माणधारणस्याऽऽशसाप्रयोगाथिमिलापकरण-जीरिताऽऽशसामयोगः ।३। कर्यशक्षेत्रादिनिवासभयुक्तक्षुदा घुपततया सम्मानाधभावेन 'क्दाऽह म्रियेय' इत्यादिरूप मरणस्यामिलापकरण मरणाऽऽशसाप्रयोगः । ४ । कामौ शब्दरूपे भोगा-गन्धरसस्पर्शास्तत्राऽऽश सामयोगा-अभिलापकरण कामभोगाऽऽशसांप्रयोगा-रुचिरविषयस्पृहयालुते त्यर्थः ।५। अत्रेत्थ सडग्रहगाथा:" पचऽइयारा अम्सावि, ते विसेसेण वजए ।
तेसिं सरूवमेगेग,-मग्गे एत्थ निघज्नइ ॥१॥ 'रायाई होमु मचाह 'मिच्चाससणमाइमो ।
एव देवाइविसया, ऽऽससा बीओ पकित्तिओ ॥ २ ॥ तीओ सम्माणाइलोहा, जीवधारणकखण । कया मरिस्स' मिच्चाई, अहिलासो चउत्थओ ॥ ३ ॥ सहख्वाइविसया,ऽऽससा जा वयधारिणो ।
पचमो अइयारो सो, णेओ एत्थ जहागम ॥४॥" इति। न्तिकसलेखना जोषणा आराधनाके पाँच अतिचार जानने चाहिए किन्तु उनका आचरण न करना चाहिए। वे ये है-[१] इहलोकाश साप्रयोग, (२) परलोकाशसाप्रयोग, (३) जीविताशसाप्रयोग, (8) मरणाशसाप्रयोग, (५) कामभोगाशसाप्रयोग।
(१) इहलोकाशसामयोग-सधारा (अनशन) ग्रहण करनेके पश्चात् 'मरकर मै मनुष्यलोकमे चक्रवती होऊँ, राजा होऊँ, राजमत्री हा इत्यादि अभिलाषा करना।
(२) परलोकाशसाप्रयोग-'मृत्यु के बाद इन्द्र होऊँ, देवता हाऊ' इत्यादि परलोक सबन्धी अभिलाषा करना। જેષણ-આરાધનના પાચ અતિચાર જાણવા જોઈએ તે આ પ્રમાણે - (१) AAस-प्रयोग, (२) पास-प्रयोग, (3) वितशक्षा-प्रया, (४) भरणाय सा-प्रयोग, (५) मालागासा-प्रये
(૧) ઈહલોકાશ સા-પ્રયાગ––સ થાર (અનશન) પ્રહણ કર્યા પછી “માન છે મનુષ્યલોકમાં ચક્રવતી થઉં, રાજા થઉં, રાજમત્રો થઉં? ઈત્યાદિ અભિલાષા કરવા,
(२) ५ NAI-प्रयोग-भृत्यु पछी ४.२ 46. देवता 48' Uearts પરલેક સ બ ધી અભિલાષા કરવી
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भगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ ० ५७ सठेखनाविचारवर्णनम् एतच्छायाँ च.. -- - - - - "पश्चातीचारा अस्यापि, तान विशेषेण वर्जयेत् । तेषां स्वरूपमेकमग्रेज निरभ्यते ॥ १ ॥ " . .
राजादिर्भवेय. मृत्वाऽहम् ' इत्याशसनमादिमः । - - . - .. एव देवादिविपयाऽऽशसा द्वितीयः प्रकीर्तित ॥ २ ॥...
तृतीयः सम्मानादिलोभाजीवधारणकाङ्क्षणम्। }}', 'कदा मरिष्यामी'-त्याधमिलापश्चतुर्थकः ॥ ३ ॥ - गन्द-रूपादिविपयाऽऽशसा या ततधारिणः । - पञ्चमोऽतिचारः स ज्ञेयोऽत्र यथाऽऽगमम् ॥ ४ ॥” इति।
इति भूत्रार्थः ।। ५७॥ " - मूलम्-तए णं से आणदे गाहावई समणस्स भगवओमहावीरस्त अतिए पचाणुवइय सत्तसिक्खावइय दुवालसविह - सावयधम्म पडिवजइ, पडिवज्जिता समण भगव महावीर वंदइ नमसइ, वदित्ता नमसित्ता एव वयासी
(३) जीविताशसाप्रयोग-'मैं जीता रह जाऊँ मेरी प्रशसा होगी' इस प्रकार इच्छा करना। : - (४) मरणाशसाप्रयोग-कर्कश क्षेत्र आदिमें निवास द्वारा होनेवाले कष्टसे,भूख, आदिकी पीडासे पीडित होकर और सम्मान न होनेसे 'मैं कर मर जाऊँ' इत्यादि मरनेकी इच्छा करना।
(५) कामभोगाशसाप्रयोग-काम [शब्द और रूप] तथा भोग [गन्ध, रस, स्पर्श ] में अभिलाषा करना, अर्धात् मनगमते.विषयोंकी लालसा रखना। गाथाएँगतार्थ हैं । सग्रंह गाथाओंका अर्थ यही है ।।५७॥
(5) लक्तिशा प्रयोग तो रही 6, भारी प्रशसा 2' मेवा २७ ४२वी...
(ઈ મરણશસ-પગ-કર્કશ ક્ષેત્ર આદિમા નિવાસ દ્વારા થંનારા કષ્ટથી, ભૂખ દિની પીડથી પીડિત થવાથી અને સમાન ન થવાથી હું હવે કયારે મરી જઉ” એ પ્રમાણે કરવાની ઈચ્છા કરવી
(In सा-अयोज-4 (298 भने ३५) तया जाध, रस, સ્પર્શની અભિલાષા કરવી, અર્થાત મનગમતવિષયેની લાલસા -રાખવી - સંગ્રહ यामेाना अर्थ छ (७) । "
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पकरणम् । १ । एव परलोकाऽऽशसापयोग= देवो भूयास'-मित्यादिरूपा मिलापकरणम् ।२। सम्मानादिलोभेन जीपीवस्य माणधारणस्याऽऽशसाप्रयोगःअभिलापकरण-जीविताऽऽशसाप्रयोगः ।३। फर्यशक्षेत्रादिनिवासभयुक्तक्षुदा घुपहततया सम्मानाधभावेन 'कदा म्रियेय' इत्यादिरूप मरणस्यामिलापकरण मरणाऽऽशसाप्रयोगः । ४ । कामौ शब्दरूपे भोगा-गन्धरसस्पर्शास्तत्राऽऽश सामयोगः अभिलापकरण कामभोगाऽऽशसोप्रयोगः रुचिरविषयस्पृहयालते 'त्यर्थः ।५। अत्रेत्य सडग्रहगाथा:
"पचऽझ्यारा अम्सावि, ते विसेसेण चन्नए ।
तेसिं सरूवमेगेग,-मग्गे एत्थ नियज्यइ ॥ १ ॥ 'रायाई होमु मचार' मिचाससणमाइमो ।
एव देवाइविसया,ऽऽससा धीओ पकित्तिओ ॥ २ ॥ तीओ सम्माणाइलोहा, जीवधारणकखण । ' कया मरिस्स 'मिच्चाई, अहिलासो चउत्थओ ॥ ३ ॥
सदख्वाइविसया, ऽऽससा जा वयधारिणो ।
पचमो अइयारो सो, णेओ एत्थ जहागम ॥४॥" इति । न्तिकसलेखना जोपणा आराधनाके पाच अतिचार जानने चाहिए किन्तु उनका आचरण न करना चाहिए। वे ये है-[१] इहलोकाश साप्रयोग, (२) परलोकाशसाप्रयोग, (३) जीविताशसाप्रयोग, (४) मरणाशसाप्रयोग, (५) कामभोगाशसापयोग।
(१) इहलोकाशसाप्रयोग-सथारा (अनशन) ग्रहण करने के पश्चात - 'मरकर मै मनुष्यलोकमे चक्रवती होऊँ, राजा होऊँ, राजमत्री होऊ इत्यादि अभिलाषा करना ।
(२) परलोकाशसाप्रयोग-'मृत्यु के बाद इन्द्र होऊँ, देवता होऊ' इत्यादि परलोक सबन्धी अभिलाषा करना। જેષણું-આરાધનના પાચ અતિચાર જાણવા જોઈએ તે આ પ્રમાણે – (१) USA सा-प्रयाग, (२) ५RAINसा-प्रयोग, (३) छवितास-अया, (४) भरणाय सा-प्रयाग, (५) मालागासी-प्रये
(Usatसा-प्रयोग-सथा। (मनशन) II र्या छी' भशन - મનુષ્યલોકમાં ચક્રવત થઉ, રાજા થઉ, રાજમત્રો થઈ” ઈત્યાદિ અભિલાષા કરવા,
(२) ५२astast-प्रयोग-'भृत्यु पछी - 46, देवता 48. Vrat પરલેક સબધી અભિલાષા કરવી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सूत्र ५८ आनन्दगाथापते मतिज्ञावर्णनम् ३१३:
छाया-ततः स आनन्दो गाथापतिः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पञ्चाणुवतिक सप्तशिक्षावतिक द्वादशविध श्रावधर्म प्रतिपद्यते, प्रतिपय श्रमग भगवन्त महावीर वदन्ते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीव___"नो खलु मे भदन्त ! कल्पते अद्यमभृति अन्ययूयिकान् वा, अन्ययूथियादेवतानि वा, अन्ययूयिकपरिगृहीतान् अर्हचैत्यान वा नन्दितु वा नमस्यितु चा, पूर्वमनालापकैरालपितु वा सलपितु वा, तेपामशन वा पान वा खाद्य वा स्वाध वा दातु वा अनुमदातु वा, नान्यत्र राजाभियोगात्, गणाभियोगात्, बलाभियोगात्, देवताभियोगात् , गुरुनिग्रहाद्, वृत्तिकान्तारात् । कल्पते मे श्रमणान् निर्ग्रन्यान् प्रामुकेनैपणीयेनाऽशन-पान खाद्य स्वागेन वस्त्रकम्बलपतद्ग्रह (प्रतिग्रह)पादमोन्छनेन, पीठफलकशग्यासस्तारकेण, औपधभैषज्येण च प्रतिलाभयतो विहत्तुम् "___इति कृत्वा, इममेतद्रूपमभिगृह्णाति, अभिगृह्य प्रश्नान् पृच्छति, पृष्ट्वार्थानाददाति, आदाय अमण भगवन्त महावीर विकृत्वो वन्दते, वन्दित्वा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिका तिपलाशाचैत्यात्मतिनिक्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रव वणिग्राम नगर, यत्रैव स्वक गृह तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य शिवानन्दा भार्यामेवमवादीत्-"एव खलु देवानुप्रिये ! मया अमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्मों निशान्त सोऽपि च धर्मों ममेष्ट' प्रतीष्टो ऽभिरुचित , तद गरम खलु त्व देवानुप्रिये ! श्रमण भगवन्त महागीर वन्दस्व यावत् पर्युपास्स्व, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्ति के पश्चाणुव्रतिक सप्तशिक्षाप्रतिक-द्वादशविध गृहिधर्म प्रतिपद्यस्व ॥ ५८॥ ____टीका-'अन्ये'ति-अन्यत्-तीर्थकरसघापेक्षया भिन्न यद यूथ-सघस्तदन्ययूथ तदस्त्येपामित्यन्ययूथिकाः शाक्यादिभिक्षवस्तान्, अन्ययूथिकाना दैवतानि
टीकार्थ-'तए ण से' इत्यादि-इसके अनन्तर आनन्द गाथापति श्रमण भगवान् महावीर के समीप पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत, इस प्रकार बारह तरहके श्रावक धर्मको स्वीकार करता है, श्रमण भगवान् महावीरको वन्दना नमस्कार करता है, चन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहता है
टीकार्थ-'तए ण से' त्या त्या५५छी भान सयापति श्रम भगवान મહાવીરની સમીપે પાચ અણુવ્રત, સાત શિક્ષાવ્રત એ પ્રમાણે બાર પ્રકારને શ્રાવક ધર્મ સ્વીકારે છે, શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વદના-નમસ્કાર કરે છે, વદના નમસ્કાર કરીને આ પ્રમાણે કહે છે -
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“नो खल्ल मे भते । कापइ अज्जप्पभिई अनउस्थिए या अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणिअरिहंतचेझ्याइ वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा पुचि अणालत्तेणं आवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसि असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं वा दाउ वा अणुप्पदाउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं चलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकतारेणं । कप्पड़ मेसमणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेण असणपाणखाइमसाइमेण वत्थकंवलपडिग्गहपायपुछणेणं पीढफलगसिज्जासथारएणं ओसहभेसज्जेणं य पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए "
-त्ति कटु इमं एयारूव अभिगह अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता पसिणाइ पुच्छइ, पुच्छित्ता अठाई आदियइ, आदिइत्ता समणं भगव महावीर तिक्खुत्तो वदइ, वंदित्तासमणस्स भगवओं महावीरस्स अतियाओ दुइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ताजेणेव वाणियग्गामे नयरे,जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिवानंद भारिय एवं वयासी-"एव खल्लु देवाणुप्पिया। मए समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतिए धम्म निसते, सेवि य धम्मे मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, त गच्छण्णं तुमं देवाणुप्पिया । समणं भगवं महावीरं वंदाहि जाव पज्जुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए पाणुव्वाय सत्तसिक्खावइयं दुवालसविह गिहिधम्म पडिपज्जाहि" ॥५८॥
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका सू० ५८ आनन्दगाथापतेः प्रतिज्ञावर्णनम्
३१५
निर्गन्ध श्रमणोको प्रासु एषणोय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, कम्पल, प्रतिग्रह [ पात्र ] पाढप्रोंछन, पीठ, फलक, शय्या, सस्तार, औषध, भैषज प्रतिलाभ कराते हुए विचारना मुझे कल्पता है । "
इस प्रकार कहकर उसने उसका अभिग्रह लिया, फिर प्रश्न पूछे, प्रश्न पूछ कर अर्थको ग्रहण किया, फिर श्रमण भगवान् महावीरको तीन वार वन्दना की । वन्दना करनेके बाद श्रमण भगवान् महावीरके समीपसे, दूतिपलाश चैत्यके बाहर निकला, निकल कर जहाँ वाणिजग्राम नगर और जहाँ उसका घर था वहीं आया। आकर अपनी पत्नी शिवानन्दासे इसप्रकार कहने लगा- "हे देवानुप्रिये मैंने श्रमण भगवान् महावीरके समीप धर्म सुना और वह वर्म मुझे इष्ट है, बहुत ही इष्ट है, मुझे रुचा है। हे देवानुप्रिये ! इसलिए तुम भी जाओ, श्रमण भगवान् महावीरको वन्दना करो यावत् पर्युपामना करो और श्रमण भगवान महावीर से पाँच अणुव्रत और सात शिक्षावत, इस प्रकार बारह तरहका गृहस्थ धर्म स्वीकार करो | "
'अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहलचेडयाड' इस मूल चाक्यमें नपुंसक लिंग है सो प्राकृत होनेके कारण ऐसा हुआ है । कहा भी है
निर्भय श्रम आसुर मेषीय अशन, पान, ध्याध, स्वाद्य, वन, ४ म अतिथंड (यात्र), पाइप्रोछन, थाई, इसड, शय्या, सस्तार, औषध, अष४, प्रतिसान કરાવતા વિચગ્યુ મને કત્લે છે”
એ પ્રમાણે કરીને તેણે તેના અભિગ્રહ લીધે, ફરીથી પ્રશ્નો પૂછયા, પ્રશ્ન પૂછીને અ ગ્રહણુ કર્યો, પછી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ત્રણવા॰વદના કરી વશ્વના કર્યા પછી શ્રમજી ભગવાન્ મઢાવીની મમીપેથી કૃતિપલાશ ચૈત્યની બહાર નીકળ્યે નીકળીને જ્યા વાણિજગ્રામ નગ અને જ્યા તેનુ ઘર હતુ ત્યા તે આવ્યે આવીને પેાતાની પત્ની શિવાનદાને કહેવા લાગ્યે હે દેવાતુપ્રિયે મેં શ્રમજી ભગવાન્ મહાવીરની સમીપે ધર્મ માન્યે અને એ ધર્મ મને ઇષ્ટ છે, ખડ્રેજ ઈષ્ટ છે, મને રૂચ્છે હૈ દેવાનુપ્રિયે । તેથી તમે પણ જા, શ્રમજી ભગવાન મહાવીરને વના કરે ચાવત્ પ પામના કરે! અને શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પાસેથી પાચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાવ્રત, એ પ્રમાણે ખાર પ્રકારના ગૃહસ્થધા स्वी४२ रे।”
"
'अन्न उत्थियपरिग्गडियाणि अरिहतचेइयाह' मे भूज वायमा नपुसट લિંગ છે, તે પ્રાકૃત હવાને કારણે એમ થયુ છે કહ્યુ છે કે– ‘લિંગ સ્વતંત્ર હાય
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३१४
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उपासकदशास्त्रे अन्ययूयिकदेवतानिअर्हदिनानि, अन्ययूयिकैः परिगृहीता स्वीकता:-अन्ययूयिकपरिगृहीताः यथाकयश्चित्तैथिकान्तरसम्मिलिता इत्यर्थः,उपलक्षणमेतदवसमा पार्थस्थादीनामपि,अर्हता वीतरागस्य चैत्या:-चित्य-ज्ञान तदस्स्येपामित्य ईश्वत्याः -जिनसाधवस्तान् तैथिकान्तरसाधन पार्थिफान्तरदेवान् पायथाक्यश्चित्तेयिका न्तरसम्मिलितान जिनसाधुन् वेति पिण्डितोऽर्थ., पन्दितु या नमस्यितु वा 'मन कल्पते' इति सम्पन्धः। 'अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहतचेडयाइ' इति भूले नपुसकनिर्देशस्तु प्राकृतत्वाव , तथाचोक्तम् “लिङ्गमतन्त्रम् " (४४५) इति, अपि च"सुप्तिडुपग्रहलिङ्गनराणा, काललचूस्वरकर्तृयडा च। व्यत्यमिच्छति शास्त्रकृदेपा,सोऽपि च सिध्यति याहुलकेन ॥"इति । " लिङ्गमतन्त्र, लोकाश्रयत्वाल्लिङ्गस्य" इति च ।
" भगवान् ! आजसे मुझे, वीतराग-सघसे भिन्न सघवालेको वीतराग-सघसे भिन्न देवको, अन्ययूधिरों द्वारा स्वीकृत अर्थात् अन्यतीर्थिक साधुओंमें मिले हुए अरिहतचैत्य [जिनसाधुओं] को, तथा उपलक्षणसे अवसन्न पार्श्वस्थ आदिको भी वन्दना नमस्कार करना नहीं कल्पता है। पहले उनके विना पोले उनके साथ बोलना या पुनः पुनः वार्तालाप करना, उन्हें गुरुवुद्धिसे अशन पान खाद्य स्वोद्य आदि एक वार देना या वार वार देना नहीं कल्पता है इन आगारोंके सिवाय राजाके अभियोग [ आग्रह से, गण [ सघ के अभियोगसे, बलवानक अभियोगसे, देवताके अभियोगसे, गुरु अर्थात् मातापिता आदिक निग्रह [परवशता] से और वृत्तिकान्तार [आजीविका निर्वाह के अभाव]स अर्थात् इन कारणोंके होने पर देना क पता है।
“ભગવદ્ આજથી, વીતરાગ ગ ઘથી ભિન્ન સ ઘવાળાઓને, વીતરાગ ન ઘથી ભિન્ન દેવને, અન્ય યુથિકે એ સ્વીકારેલા અથત અન્યતીથિક સાધુઓમાં મળેલા અરિહત ચત્ય (જિન સાધુઓ)ને તથા ઉપલક્ષણે કરીને અવસાન પાર્થ આદિન પણ વદન-નમસ્કાર કરવાનું મને કહપતુ નથી પહેલા તેઓ બોડના વિના તેમની સાથે બોલવાનું યા પુન પુન વાતચીત કરવાનું, તેમને ગુરૂબુદ્ધિથી અશન પાન ખાદ્ય વાઘ આદિ એકવાર યા વાર વાર દેવાનું ક૯૫તુ નથી પરતું તેમા એ અગર છે કે–રાજાના અભિગ (ગ્રહ)થી ગણ ( ઘ)ના અભિગથી, બળવાનના અભિયેગથી, દેવતાના અગિથી, ગુરૂ અથત માતાપિતા આદિના નિગ્રહ (પરવશતા)થી અને વૃત્તિકાન્તાર (આજીવિકનિહના અભાવ)થી અર્થાત એ કારણે હોય તે દેવાનું કહે છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका सु० ५८ आनन्दगाथापतेः प्रतिज्ञावर्णनम्
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निर्गन्ध श्रमणोंको प्रासुरु एषणोय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, कम्पल, प्रतिग्रह [ पात्र ] पादमोंछन, पीठ, फलक, शय्या, सस्तार, औषध, भैषज प्रतिलाभ कराते हुए विचारना मुझे कल्पता है । "
इस प्रकार कहकर उसने उसका अभिग्रह लिया, फिर प्रश्न पूछे, प्रश्न पूछ कर अर्थको ग्रहण किया, फिर श्रमण भगवान् महावीरको तीन वार वन्दना की । वन्दना करनेके बाद श्रमण भगवान् महावीरके समीपसे, दूतिपलाश चैत्यके बाहर निकला, निकल कर जहाँ वाणिजग्राम नगर और जहाँ उसका घर था वहीं आया। आकर अपनी पत्नी शिवानन्दासे इसप्रकार कहने लगा- "हे देवानुप्रिये मैने श्रमण भगवान् महावीर के समीप धर्म सुना और वह धर्म मुझे इष्ट है, बहुत ही इष्ट है, मुझे रुचा है। हे देवानुप्रिये ! इसलिए तुम भी जाओ, श्रमण भगवान् महावीरको वन्दना करो यावत् पर्युपामना करो और श्रमण भगवान महावीरसे पाँच अणुव्रत और सात शिक्षावत, इस प्रकार बारह तरहका गृहस्थ धर्म स्वीकार करो। "
'अन्न उत्थियपरिग्गहियाणि अरिहतचेडयाड' इस मूल वाक्यमें नपुंसक लिंग है सो प्राकृत होनेके कारण ऐसा हुआ है । कहा भी है
निर्भय श्रम आसुर मेपलीय अशन, पान, मद्य, स्वाद्य, वस्त्र, ४ जण प्रतिथड (पात्र), पाइप्रोछन, चीड, इस शय्या, सस्तार, औषध, लेषण, प्रतिदान કાવતા વિચરવુ મને ક૨ે છે”
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એ પ્રમાણે કરીને તેણે તેને અભિગ્રહ લીધેા, ફરીથી પ્રશ્નો પૂછ્યા, પૂછીને અ ગ્રહણુ કર્યાં, પછી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને ત્રણવાર વદના કરી વદના કર્યાં પછી શ્રમણુ ભગવાન્ મહાવીની મીપેથી કૃતિલાશ ચૈત્યની બહાર નીકળ્યે નીળીને જ્યા વાણિજગ્રામ નગર અને જ્યા તેનુ ઘર હતુ ત્યા તે આવ્યે આવીને પેાતાની પત્ની શિવાનદાને કહેવા લાગ્ય હે દેવાનુપ્રિયે । મે શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરની સમીપે ધમ સાભળ્યે અને એ ધર્મી મને ઈષ્ટ છે, બહુજ ઈષ્ટ છે, મને રૂએ કે હૈ દેવાનુપ્રિયે ! તેથી તમે પણ જાએ, શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરને બદના કરી. ચાવતું પર્યું પાસના કરી અને શ્રમણુ ભગવાન મહાવીર પાસેથી પાચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાવ્રત, એ પ્રમાણે બાર પ્રકારના ગૃહસ્થધર્મોને स्वी४र ।"
सिंग हे
'अन्नउत्थियपरिग्गडियाणि अरिहतचेइयाइ' मे भूज वा४यमा नपुस४ પ્રાકૃત હોવાને કારણે એમ થયુ છે કહ્યુ છે કે- ‘લિંગ સ્વતંત્ર હોય
તે
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उपासकदशास्त्रे
'चत्य = साधु ' - रित्युक्त बृहत्वल्पभाप्य पष्ठोद्देशे, तथाहि तत्र
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'आहा आधयकम्मे, आग्राहम्मे य अत्तकम्मे य ।
"
त पुण आहाकम्म, कप्पचि ण च कप्पइ तम्म ॥ इति गाथाव्याख्याया क्षेम कीर्तिमृरिणोक्तम् 'त्योद्देशिवस्य = साधुनुद्दिश्य कृतस्य ' इति ।
'अरिहत चेहय - शब्दस्यार्थः
यत्तु 'अरिहतचेयाह' इत्यस्यात्मतिमेत्यर्थस्तदपव्याख्यान प्रकरणभङ्ग प्रसङ्गात्, तथाहि - आनन्दगाथापतिकर्तृक प्रथम धर्मस्वीकारमभिधाय सम्प्रत्यवसर " लिंग स्वतन्त्र होता है, वह लोक व्यवहार पर निर्भर है । "
अर्थात् प्रत्येक भाषाके धुरन्धर विद्वान जिस शब्दको जिस२ जगह जिस२ लिंगमे व्यवहार करते आये है उस शब्द मे उसर जगह उसी२ लिंगका व्यवहार करना चाहिए, अतः यहापर उस समयके प्राकृत व्यवहार के मुताबिक नपुंसक लिंग है ॥
'चैत्य' शब्दका अर्थ माधु होता है, बृहत्कल्प भाष्यके छठे उद्देश के अन्दर - ' आहा आधयकम्मे० ' गाथाको व्याख्यामे क्षेमकीर्त्तिसूरिने 'चत्यादेशिकस्य'का “साधुओं को उद्देश करके बनाया हुआ अशनादि" यह अर्थ किया है । इमसे सिद्ध होता है कि चैत्यका अर्थ साधु है । ' अरिहतचेइय' शब्दका अर्थ
'अरितचेइयाड' का 'अर्हन्त की प्रतिमा' अर्थ करना असंगत हैं, क्योकि प्रकरण ठीक नहीं बैठता । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैછું તે લેાક વ્યવહાર પર નિČર ૐ” અર્થાત્ પ્રત્યેક ભાષાના ધુર્ ધર વિદ્વાન જે જે શબ્દના જે જે જગ્યાએ જે જે નિગમા વ્યવહાર કરતા આન્યા છે, તે તે રાખ્તમાં તે તે જગ્યાએ તે તે લિગના વ્યવહાર કબ્વે જોઇએ, એટલે અહીં તે સમયના પ્રાકૃત વ્યવહાર મુજબ નપુ મક લિંગ છે. ચૈત્ય શબ્દના અર્થ ‘સાધુ थाय छेड आना छुट्टी उद्दशामा 'आहा आधयकम्मे० ' गाथानी व्याभ्या भा क्षेमडीर्ति सुरमे 'चैत्योदेशिकस्य' ना "साधुमने उद्देशाने मनावेला मशनाहि" એ પ્રમાણે અ કર્યો છે તેથી સિદ્ધ થાય છે કે ચૈત્ય’ના અર્થ સાધુ’ છે રિહત ચેઇય' શબ્દના અ
'अरिहाचेइयाई' नो अर्थ 'सन्नी प्रतिमा' शुभ उरपोते असंगत है, કારણ કે પ્રકરણ બરાબર બુધ બેસતુ નથી એનુ સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે
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- अगारधर्मसञ्जीवनी टीका सू० ५८ अरिहतचेइय - शब्दार्थः
प्राप्त देवगुर्वेरेव प्रतिज्ञानमिति, तयोश्च वन्दन नमस्करणविषये क्रमेणान्ययूथित्वा न्ययूथिकपरिगृहीतत्वे नाधकत्वेनोपदर्शिते इत्यर्थादापतति यत्स्व यूथिकानि दैवतानि स्वयंथिक परिगृहीतानशिथिलाचारादीन् वाऽईत्साधूँश्च वन्दितु वा नमस्यतु वा मह्य कल्पत इति भवन्यानन्दस्य गावापतेः सकल्पपूर्तिः, यदिस्वन चैत्यपदेन प्रतिमाऽभिमैण्यत तदा 'अन्ययूथि दैवतानि ' इत्यनेन सह पौनरुक्त्य वज्रलेपायितमभवियत् प्रतिमाया हि वन्दन नमस्कारौ देवत्वभावनयैव भवता कर्त्तुं शक्येते नेतरथेति
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पेहले यह बात बताई गई है कि आनन्द गाथापतिने श्रावस्धर्मको स्वीकार किया । अन अवसर प्राप्त देव और गुरू सन्धी प्रतिज्ञा नलाई है । इन्हीं दोनोंको वन्दना नमस्कार करनेके विषय मे क्रम से अन्ययूविक और अन्यपृथिक परिगृहीत, ये दोनों निषिद्ध कहे हैं, इससे स्वय सिद्ध हो गया कि स्वयूधिक देव तथा स्वयूथिकपरिगृहीत शास्त्रोक्ताचारी अर्हन्तके साधुओको वन्दना नमस्कार करना मुझे कल्पता है । इसीसे आनन्द गायापति की प्रतिज्ञा पूरी होती है । यदि यहाँ 'चैत्य' पदका प्रतिमा अर्थ माना जाय तो 'अन्य यूधिकदैवतानि ' इस पदसे पुनरुक्ति दोप अनिवार्य होगा। क्योकि प्रतिमाको वन्दना और नमस्कार आप देवकी
१ ममक्ति देते समय - 'देव अरिहत, गुरु निर्ग्रन्थ, धर्म केवलिमापित दयामय का श्रद्धान करना' इत्यादि समझाया जाता है अत आनन्द श्रावकने प्रथम धर्मको समझकर स्वीकार किया यह जात बतलाई, अप ' देव गुरु किस मकारके मानने चाहिये' सो यहा शास्त्रकारने जताया है । પહેલા એ વાત બતાવી
કે આનદ ગાથાપતિએ શ્રાવકધર્મોના સ્પોકાર કર્યાં હવે અવસરવી પ્રાપ્ત થતા દેવ અને ગુરૂ સ ખ ધી પ્રતિજ્ઞા બતાવી છે એ એકને વદના નમસ્કાર કરવાની બાબતમા ક્રમે કરીને અન્યયૂવિક અને અન્યયૂથિક પરગૃહીત’ એ બેઉને નિષિદ્ધ બતાવા છે, તેથી સ્વયંસિદ્ધ થાય છે કે સ્વયૂથિક દેવ તથા યુથિકપરિગૃહીત શાસ્રોક્તાચારી અર્જુન્તના માધુઓને વદના “નમસ્કાર કવા મને કન્યે છે તેથી આનંદ ગાથાપતિની પ્રતિજ્ઞા પૂરી થાય છે જે અહી ‘ચૈત્ય' શબ્દને અર્થ પ્રતિમા માનવામા આવે તા 'अन्यथितानि' से यहे उरीने पुनइतिहोष अनिवार्य थशे, आशु ने प्रतिभाने
+ સમકિત આપતી વખતે દેવ અરિહંત, ગુરુ નિચ, ધવલિભાષિત યામય, એનુ શ્રદ્ધાન કરવુ ત્યાદિ સમજાવવામા આવે છે, એને આનદ શ્રાવકે પહેલાં ધમ સમજીને સ્વીકાર્યાં એ વાત ખતાવી હવે દેવ ગુરૂ કેવા પ્રકારના માનવા જોઈએ તે અહીં શાસ્ત્રકારે બતાવ્યુ છે
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उपासम्बनाये चैत्यम्यापि भवन्मतेऽत्र देवमात्रार्थकत्वादिति भक्षितेऽपि लशुने न शान्तो व्याधिः।
अपि च चैत्यस्य प्रतिमार्थकत्वस्वीकारे-"पुन्वि अणालसण आलवित्तए वा सलवित्तए वा तेसि असण चा ४ दाउ वा अणुप्पदाउ वा" इति वाक्य पेण सद सम्बन्धोऽपि सर्वया दुःसम्पादः स्यात्, नहि प्रतिमाभिः सहाऽऽला प सलापाऽशनपानादयो नातु घटितुमर्हन्ति, आलापादेवेतनधर्मस्वेन प्रतिमास्त्र सम्भवात् । अव्यवहितपूर्वपरामर्शकेच 'तेसिं' इति तच्छन्देन च 'अरिहतभावनासे ही कर सकते हैं, अन्यथा नहीं, इसलिए 'चैत्य का अर्थ भी आपके मतसे देव ही हुआ। तात्पर्य यह है कि 'अन्यधिक देवीको वन्दना आदि करना नहीं कल्पता' इस कथनसे ही यह यात सिद्ध हो चुकी थी कि स्वयूथिक देवको वन्दना करना कल्पता है फिर अन्य यूथिक चैत्यको वन्दना करना नही कल्पता' इस कथनमें आप चैत्यका अर्थ प्रतिमा करके अन्ययुथिक देवताका ही निषेध करते हैं, क्योंकि प्रतिमाको वन्दना आदि देव-वुद्धिसे ही आप करते है। ऐसी हालतम दोनों पदोका एक ही अर्थ होता हैं, अतः पुनरुक्ति दोष आता है।
दूसरी बात यह है कि यदि चैत्यका अर्थ प्रतिमा करें तो "पुब्धि आणालत्तण-" इत्यादि आगेके वाक्याशसे सम्बन्ध नहीं जुडता, क्योकि प्रतिमाके साथ न तो आलाप सलाप किया जाता है, न उसे कभी अशन पान आदि दिये जाते हैं। आलाप आदि चेतनके धर्म है
और वे प्रतिमाओंमें सभव नहीं है । अगर कहोगे कि-"पुदिव अणा વદન અને નમસ્કાર પિતે દેવની ભાવનાથી જ કરી શકે છે, અન્યથા નહિ તેથી ચિત્યને અર્થ પણ પિતાને મતે કરીને દેવજ થયે તાત્પર્ય એ છે કે અન્યયુથિક દેને વદના આદિ કરવાનું ક૯૫તુ નથી, એ કથનથી જ એ વાત સિદ્ધ થઈ ચૂક હતી કે સ્વથિક દેવને વધના કરવી કાપે છે પછી અન્યથિક ચૈત્યને વદના કરવી કલ્પતી નથી, એ કથનમા તે ચિત્યનો અર્થ પ્રતિમા કરીને અન્યયુથિક દેવતાનો પણ નિષેધ કરે છે, કારણકે પ્રતિમાને વદના આદિ દેવબદ્ધિથી જ પિતે કરે છે એવી સ્થિતિમા બેઉ શબ્દને એક જ અર્થ થાય છે, તેથી પુનરૂક્તિ દોષ આવે છે
भीलवात मेछेने त्यो म प्रतिभा शतप्रवि अणालणઇત્યાદિ આગળના વાક્યાશ સાથે બરાબર સબ ધ બેસતું નથી. કારણ કે પ્રતિમાના સાથે આલાપ-સ લાપ કરી શકતા નથી કે તેને કપિ અશન-પાન આદિ આપવામાં આવતા નથી આલાપ આદિ ચેતનને ધર્મ છે અને પ્રતિમાઓમા એ સ ભવ नथी ने मेम 33 "पुन्धि अणालत्तेण-." त्याना स मात्र
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अगारधमर्सञ्जीवनी टीका अ १ सू. ५८ अरिहतचैड़यशब्दार्थः
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वेइया' इत्यस्यैव ग्रहणात्, अन्यतैर्थिकै. सहालापादिनिषेधस्त्वार्थिकार्य इति सूक्ष्मेक्षिकयाऽवधारणीयम् ।
"
किञ्च चत्यशब्देन साधोरग्रहणे तैर्थिकान्तरपरीगृहीतानामवसन्नपार्श्वस्थादीना च साधूना वन्दन - नमस्करणे अतिमसज्जेता, तच्चानिष्टमित्युभयतः पाशारज्जुस्तस्माद 'अर्हचैत्यानि ' इत्यस्य 'अर्हत्प्रतिमालक्षणानि ' इत्यर्थकल्पन पूर्वापरप्रकरणस्याननुसन्धानपूर्वकत्वेन प्रामादिकमेव प्रकरणस्याभिधालत्तेण - ०" इत्यादिका सम्बन्ध सिर्फ " अन्नउत्थिए " के साथ ही है औरों के साथ नहीं, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि समुदित वाक्य के शेप (अवसान ) मे रहने के कारण " पुव्वि अणालत्तण - ० " आदिका 'अरिहत वेइयाइ 'के साथ सम्बन्ध होना नितान्त आवश्यक है और सूत्रकारका आशय भी यही है, अन्यथा ' अरिहतचेइयाइ 'का प्रयोग अन्तमें न करके सूत्रकार उस जगह पर 'अम्नउत्थिए ' का ही प्रयोग करते । तब रहा अन्यतैर्थिकों का निषेध, सो तो अन्यतैर्थिकपरिगृहीत अर्हत्साधुओंके साथ पहिले आलापादिका निषेध किया है तो खास अन्यतैर्थिकोंका तो कहना ही क्या है, इस प्रकार उनका तो अर्थापत्ति से ही निषेध हो जायगा । अतएव आगे पड़े हुए ' तेसिं ' पदके साथ भी विरोध नही पडता क्योकि तत् ' शब्द अव्यवहित पूर्वको ही पक्डनेवाला है, व्यवहितको नहीं, सो अव्यवहित जो है 'अरिहत चेहयाई' उसका अर्थ आप मूर्ति लोगे तो उनका अशन पान आदिके साथ सम्बन्ध असभव हो जायगा ।
"
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"अन्नउत्थिए "नी माथे ४ छे, मीलयोनी साथै नथी तो प्रेम अहेवु थो यागु जरामर नथी, आरशु समुहित वायना शेष (अत)मा रहेवाने भरणे "पुव्वि अणालतेण - ०" महिना “अरिहतचेइयाइ" नी साथै समध थव। यो नितान्त मावश्यक हे मने सूत्ररनो आशय यागु मे छे, मन्याथा "अरिहत्चेइयाइ" ने प्रयोग तमा न उरता सूत्रभर मे "अन्न उत्थिए" नो प्रयोग ४४२ હવે રહ્યો અન્યોથિકને નિષેધ, તે તે જે અન્યૌર્થિક પરિગૃહીત અત્યાધુઓની સાથે પહેલા આલાપાદિના વિષેધ કર્યાં છે, તે પછી ખાસ અન્યચિકેત્તુ તે કહેવુ જ શુ ? એ રીતે તેમના તા અર્થાત્તથી જ વિષેધ થઇ જશે એટલે આગળ આવેલા 'तेसिं' पहनी साथै पशु विरोध भावतो नथी अरस्थ डे 'तत्' शब्द मव्यवहित पूर्वने ४ उडनाश छे व्यवस्तिने नहि ते गव्यवहित ने 'अरिहतचेडयाइ' छे, તેના અર્થ આપ મૂર્તિ કરશે! તે તેને અશન પાન આદિની સાથે સધ અસ ભ
વિત મની જશે
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३२०
उपासकदशासत्रे
नियामकत्वेन न्यायव्याकरणादिषु विस्तरे गोपपादितत्वात् तथा चोक्तम्" शक्तिग्रह व्याकरणोपमान कोपाऽऽप्तवास्याद्वयवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति, सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः ॥ १ ॥ 'अर्थः प्रकरण लिङ्गम् ' इत्यादि । ।
अत एव सविस्तरश्रावकधर्मकथोपदेशमस भगवताऽऽनन्दाय प्रतिमां पूजाविषये न किमप्युपदिष्टन या सम्यक्त्वतातीचारयत्यतिमापूजा विषय काऽविचारो दर्शितः।
तीसरी बात यह है कि यहाँ यदि 'चैत्य' शब्दका साधु अर्थ न लिया जाय तो अन्ययूथिकों (अन्यमत के साधुओं) में सम्मिलित हुए जैन साधु तथा पात्था आदिको बन्दना नमस्कार करनेका निषेध नहीं सिद्ध होगा, अतः उन्हें भी वन्दना आदि करनेका प्रसग होगा, और ऐसा करना इष्ट नही है । इस प्रकार 'इधर कुँआ इधर खाई' वाली कहा वत चरितार्थ होती है । अत एव अच्चैत्यानि का 'अर्हन्तप्रतिमा ' अर्थ करना आगे-पीछेका सबन्ध नही बैठनेके कारण ठीक नही है ।
शब्दार्थका नियम करनेवाला प्रकरण होता है । यह विषय न्याय व्याकरण आदिमें विस्तारसे कहा गया है । कहा भी है" शक्तिग्रह व्याकरणो० " इत्यादि, तथा
" अर्थ. प्रकरण लिङ्गम् " इत्यादि ।
इसीसे भगवान्ने विस्तारपूर्वक श्रावक धर्मके कथनमें न प्रतिमा पूजनका उपदेश दिया है और न सम्यक्त्व या व्रतोके अतीचारौकी तरह प्रतिमा पूजनके अतिचार ही बताए है ।
ત્રીજી વાત એ છે કે અહીં જો ચૈત્ય’ શબ્દના અર્થ સાધુ ન લેવામા આવે તા અન્યયુથિકા (અન્ય મતના સાધુએ)મા સમિલિત થએલા જૈન સાધુ તથા પાસથા આદિને વદના-નમસ્કાર કરવાને નિષેધ સિદ્ધ નહિ થાય, એટલે તેમને પણ વદના કરવાને પ્રસ ગ આવશે, અને એમ કરવુ ઇષ્ટ નથી તે રીતે આ ખાજુએ हुवे। अने मे आलुमे या'वाणी अडवत चरितार्थ थाय छे भेटले 'अर्हच्चैस्यानि' नो अर्हन्त - प्रतिमा' भेवो अथ उरवा ते भागण-पाछजना सधनहि मेसतो होषाने કારણે ખરાબર નથી
શબ્દાના નિયમ કરનારૂ પ્રકરણ હાય છે એ વિષય ન્યાય વ્યાકરણ દિમા विश्नारथी आयु छे ४ उठे "शक्तिग्रह व्याकरणो - " त्याहि, तथा--- "अर्थ प्रकरण लिङ्गम्" इत्याहि
એ રીતે ભગવાને વિસ્તારપૂર્વક શ્રવકધમના કથનમા પ્રતિમાપૂજનને ઉપદેશ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका में १सू ५८ अरिहतचेइय-शब्दार्यः ३२१
किञ्च चैत्यशब्देन प्रतिमार्थम्य कचिदपि शास्त्रा-ऽभिधान-कोप काव्यादिष्वनुपलम्भ एव, तथाहि प्रमाणानि
'चैत्योद्देशिकस्य साधूनुदिश्य कृतस्य' इति प्रागुक्तकल्पभाष्यव्याख्याया क्षेमकीतिरभिवानराजेन्द्रश्च, 'चैत्य' व्यन्तरायतन मिति सूत्रकृताङ्ग स्थानाग-समवायाग भगवती ज्ञातामकयो पाशकदशा ऽन्तकृदशा ऽनुत्तरोपपातिकदशा प्रश्नव्याकरण विपाकेपु, 'चैत्यमुद्यान' मिति, 'पुण्णभद्दे चेहरा' 'गुणसिलए चेहए' 'छत्तपलासए चेहए' 'पुप्फचेहए' 'दुइपलासए चेहए' 'बहुसालए चेइए' 'कोहए चेइए' इत्यादिनौपपातिकादिशास्त्रेषु, 'चैत्य साक्षानिन सुप्रशस्तमनोहेतुत्वा'दिति राजप्रश्नीयव्याख्याया मलयगिरि ।
इसके अतिरिक्त 'चैत्य' शब्दका प्रतिमा अर्थ किसीभी शास्त्र, व्याकरण, कोश, काव्य आदिमे नहीं पाया जाता। प्रमाण इस प्रकार है
पूर्वोक्त वृहत्कल्प भाष्यकी टीकामे क्षेमकीर्तिने कहा है-"चैत्योदेशिकस्य" अर्थात् माधुके लिए किये हुए अशन आदिका । यही अभिधान राजेन्द्र कोपमे भी कहा है । सूत्रकृताग, स्थानाग, समवायाग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण और विपाकसूत्रमें चैत्यका अर्थ व्यन्तरायतन किया है । 'पुण्ण भदे चेइए, गुणसिलए चेहए, छत्तपलासए चेहए, पुष्फचेहए, दूइपलासए चेहए, बहुसालए चेहए, कोट्ठए चेहए' इत्यादि पदोंमें चैत्यका अर्थ उद्यान किया है। राजप्रश्नीय सूत्रकी व्याख्यामें આપ્યું નથી, તેમજ સમ્યકત્વ યા તેના અતિચારોની પેઠે પ્રતિમાપૂજનના અતિચારો પણ બતાવ્યા નથી
से 6Iत "थैत्य" Aण्टन अर्थ "प्रतिमा" प शास व्या४२९, કિશ, કાવ્ય આદિમાં જોવામાં આવતું નથી પ્રમાણે આ રહ્યા -
पूर्वजित ७.४६५ मायनी मा समातिय ४ छ । चैत्योद्देशिकस्य' અર્થાત્ સાધુને માટે તૈયાર કરેલા અશનાદિને એમજ અભિધાન રાજેન્દ્ર કેષમાં પણ ४ा समानाम, स्थाना1, मभपायाग, सती, धर्म४या GIR४-४ा, આ તકૃદશા, અનુત્તરપપાસક દશા, પ્રશ્ન-વ્યાકરણ, અને વિપાકસૂત્રમાં ચિત્યને અર્થ व्य-तरायतन देशो "पुण्यमद्दे चेइए, गुणसिलए चेइए, छत्तपलासए चेहए, पुप्फवेइए, दुइपलासर चेइए, बहुसालए चेइए, फोटुए चेइए" ઈત્યાદિ પદાર્થોમાં મૈત્યને અર્થ ઉદ્યાન કર્યો છે, રાજશ્રીય સૂત્રની વ્યાખ્યામા મલયગિરિએ ચત્યને અર્થ સાક્ષાત જિન ભગવાન કહ્યો છે, અને કારણે એવું
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नसः, करमः, कुञ्जर
ह, यज्ञशाला, नगर-
विवक्षा,
३२२
उपासकदशाभूत्रे अन्यमतप्रमाणानि यथा'चीयते सञ्चीयत इतिचित्यः अग्निस्तस्येद चैत्य-यज्ञस्थान, यद्वाऽऽयतन, बुद्धः, पिम्प,विल्क्ष .'इति भरतः। 'शेपः, देवतरुः, करमा, कुञ्जरः' इति त्रिकाण्डशेपः । 'गृह, यज्ञशाला, नगर-ग्रामादिसमीपस्थमुद्यानम्, अश्वत्थक्षा, बिल्वरक्षः, भिक्षु , चौद्धसन्यामिना मटविहार', आदिबुद्धमुदिस्य निर्मित गृह, चिता सम्बन्धि स्तूपक्षादिः, ग्रामादिपु मसिद्धो क्षः' इति हिन्दुविश्वकोषः। चित्याया इदम्-'आयतने' अमरः, 'मुग्यरहिते सचित्ये (सामिके) अचित्ये (निरमिके) वा अज्ञाऽऽयतने, भरतः। रिम्ने, उदेश्ययक्षे, ग्रामादिषु प्रसिद्ध महा वृक्षे, जिनतरौ-यस्याधस्तास्थितस्य भगात केवलज्ञानलाभ , यज्ञ भेदे, इति मलयगिरिने चैत्यका अर्थ साक्षात् जिन भगवान किया है, और कारण यह कहा है कि-चे (भगवान्) सुप्रशस्त मन (भावना) के कारण है इसलिए भगवान् चैत्य हैं ।
फिर अन्यमतके ग्रन्योका प्रमाण भी लीजिएचैत्य-यज्ञस्थान, आयतन, बुद्भ, बिम्ब, बिल्ववृक्ष, भरत, शेष, देववृक्ष,
करभ, कुञ्जर, त्रिकाण्डशेप, गृह, यज्ञ शाला, नगर ग्राम आदिक निकटका बाग, पीपलका वृक्ष, भिक्षु, बौद्ध सन्नासियोका मठ-विहार आदि युद्ध के निमित्त बना हुआ घर, चिता सम्बन्धी स्तूपवृक्षादि छन्त्री आदि, ग्रामके प्रसिद्ध वृक्ष, हीन्दी-विश्वकोप] (हीन्दीशब्दसागर), आयतन, विना दरवाजेकी यज्ञशाला, बिम्ब, उद्देश्य वृक्ष, गामका प्रसिद्ध वृक्ष, जिन वृक्ष-जिसके नीचे भगवानको
केवल ज्ञान प्राप्त हुआ [वाचस्पत्य बृहदभिधान तथा शब्दकल्पद्रुम, બતાવ્યું છે કે તે (ભગવાન) સુપ્રશસ્ત મન (ભાવના) નું કારણ છે તેથી ભગવાન
હવે અન્યમતના ગ્રથનુ પ્રમાણ પણ લઈએ – त्य-यज्ञस्यान, मायतन, सुख, Pu, मिल्प वृक्ष, [भरत], शेष वृक्ष,
४२१, शुगर, [विशेष ], 'डयज्ञशाला, नाभ माहिना निटना બગ, પીપળાનું વૃક્ષ, ભિક્ષુ, બૌદ્ધ સન્યાસીઓને મઠ-વિહાર આદિ, બુદ્ધને નિમિત્તે બનાવેલ ગૃષ, ચિતા સ બધી છત્રી આદિ, ગામનું પ્રસિદ્ધ વૃક્ષ, [ હિંદી વિશ્વકોષ– (હિંદી શબ્દસાગર)], આયતન દરવાજા વિનાની થાશાલા, બિસ્મ,
હદે વૃક્ષ, ગામનું પ્રસિદ્ધ વૃક્ષ, જિન-વૃક્ષ જેની નીચે ભગવાનને કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત ચિયું [વાચસપત્ય બૃહદભિધાન તથા ૐકામ, ગામનું પ્રસિદ્ધ વૃક્ષ, વ્યતાના
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अगरसञ्जीवनी टीका अ. १ ५८ 'अरिहतचेईय' शब्दार्थनिरूपणम् ३२३ वाचस्पत्यबृहदभिधान शब्दकल्पदुपमश्च । 'चित्याया इदमित्यर्थेऽण, ग्रामादिषु प्रसिद्धो क्षः, देवावासक्षः चिताचिह्न, जनसभा,यज्ञस्थान,जनविश्रामगृह विम्नश्च इति लवपुरीय(लाहोरके)पद्मचन्द्रकोपे। चिता स्तूपे यथा यत्र यूधा मणिमयाश्चे त्याश्चापि हिरण्मया , इति(२।३।१२), 'रक्षाः पतन्ति चैत्याश्च ग्रामेषु नगरेपु च' इति (६।३। ४०) च महाभारते । अश्वत्थक्षे यथा 'अनेकशाखश्चैत्यश्च निपपात महीतले' इति वाणोत्पातप्रकरणे हरिवशे। चतुप्पथस्थे वृक्षे यथा वेदिका त्यसश्रयाः' इति, आयतने यथा-'चैत्यमासादो न विनाशित' इति च वाल्मी कीये सुन्दरकाण्डे, 'वभज 'चैत्यप्रासादम्' इत्य यात्मरामायणेऽपि । परमात्मनि यथा-"अथास्य हृदय भिन्न, हृदयान्मनउत्थितम् । मनसश्चन्द्रमा जातो बुद्धि बुद्धगिराम्पति. ॥१॥ अहङ्कारस्ततो रुद्रश्चित्त चैत्यम्ततोऽभवत्" इति भागवते (३।२६)। इह प्रकरणे मतान्तरग्रन्थाना प्रमाणत्वेनोपन्यासस्यायमाशय:-यदि 'चैत्य' शब्दस्य प्रतिमार्थः सस्कृतग्रन्थेष्वभविष्यत्तदा तेपा धर्मग्रन्थेष्वप्युपालप्स्यत न चोपलभ्यते नापि च प्रवचनेषु कुहचनेति सर्वथा काल्पनिकोऽयमों यच्चै त्य प्रतिमेतीति ।
गामका प्रसिद्ध वृक्ष, व्यन्तर देवके निवासका वृक्ष, चिताका चिह्न, जन सभा, यज-स्थान, मनुष्योंके ठहरनेका स्थान (धर्म शाला सराय आदि ), पिम्न [ लाहौरका पद्मचन्द्र कोश]. चितास्तृप [महाभारत २।३।१२ तथा ६।३।४०] पीपलका वृक्ष [हरिवश बाणोत्पात ], आयतन तथा चौराहेका वृक्ष [ वाल्मीकीय तथा अध्यात्म रामायण सुन्दर काण्ड ], परमात्मा [भागवत ३ । २६ ।।
यही पर अन्य मतके ग्रन्थोंका प्रमाण देनेका तात्पर्य यह है किअगर चैत्य' शब्दका 'प्रतिमा' अर्थ सस्कृत ग्रन्थोमें होता तो उनके धर्मग्रन्थोंमें अवश्य मिलता किन्तु ऐसा उनमें कहीं नहीं मिलता और નિવાસનું વૃક્ષ, ચિતાનું ચિન્હ, જન–સભા, યજ્ઞસ્થાન, મનુષ્યએ શૂભવાનું
સ્થાન (ધર્મશાળા સરાઈ આદિ), બિમ્બ [ લાહેરને પચદ્ર કેશ, थिता स्तू५ [ महाभारत २-३-१२ तथा 2-3-४०], पायार्नु वृक्ष [ હરિવશ બાપાત ], આયતન તથા ચેકમાનું વૃક્ષ [ વાલ્મીકીય તથા मध्यात्म रामायय-सु४२ ], ५२भामा [मागपत ३-२६]
અહીં અન્ય મતના થેનું પ્રમાણ આપવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જે બૌત્ય' ! શબ્દને “પ્રતિમા અર્થ સકૃત પ્રથામાં હેત તે તેના ધર્મગ્રમાથી અવશ્ય
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उपासकदशागसूत्रे ननु कोपादिपुचैत्यस्य विनोऽर्थी लभ्यते,पिम्पच प्रतिमवेति चेढहो व्यामोहर, _ 'विमोऽस्त्री मण्डलम्' इत्यादिकोपादिपु विम्यगन्देन माक्षात्स्वरूपरूपस्य मण्डल
स्यैव गृहीततया प्रतिमार्थग्रहणासम्भपात , मतिमार्थे हि 'प्रतिविम्ब' शब्दो न तु विम्बस्तथाचामर:- प्रतिमान प्रतिनिम्नतिमा प्रतियाता मतिन्छाया प्रतिकृतिः इति, तम्माद्ध्वनि प्रतिभमन्योरिक, मानमतिमानयोरिक, मा प्रतिमयोरिच, यातना प्रतियातनयोरिव, गया पतिच्छाययोरिन, कृति प्रतिकृत्योरिव च विम्ब प्रतिबिम्ब योरपि मिथो भिन्नार्थत्वमेव, उपलभ्यतेऽपि च पिम्वशब्दः सर्वत्र वस्तुयथार्थ स्वरूप एप, तथाहिन कहीं शास्त्रोंमे ही मिलता है, अत एव 'चैत्य ' का 'प्रतिमा' अये करना ठीक नहीं।
शका-कोप आदिमें बिम्ब अर्थ तो मिलता है और बिम्ब ही प्रतिमा है, इसलिए चैत्यका अर्थ प्रतिमा हुआ।
समाधान-यह ठीक नहीं है, क्योंकी कोप आदिमे 'यिन' वस्तुके यथार्थ स्वरूपको करते है, न कि प्रतिमाको । प्रतिमा अर्थमे तो प्रति बिम्ब शब्दका प्रयोग होता है, विम्न शब्दका नहीं। अमरकोश शूद्र वर्ग श्लोक ३६ मे कहा है-" प्रतिमान, प्रतिबिम्ब, प्रतिमा, प्रतियातना, प्रतिन्छाया, प्रतिकृति" ये प्रतिकृतिके नाम हैं, अत जैसे ध्वनि और प्रतिध्वनि, मान और प्रतिमान, मा और प्रतिमा, यातना और प्रति यातना छाया और प्रतिच्छाया, कृति और प्रतिकृतिके अर्थमे भेद है, उसी प्रकार विम्ब और प्रतिविम्बके अर्थमें भी अन्तर है । वस्तुके यथार्थ મળત, પરંતુ એ અર્થ તેમાં કયાયથી મળતું નથી અને શાસ્ત્રોમાથી પણ મળતા નથી, એટલે ચૈત્યને અર્થ “પ્રતિમા” કરે એ બરાબર નથી
શ કા–કોષ આદિમાં બિઓ અર્થ તે મળે છે, અને બિમ્બ જ પ્રતિમા છે, તેથી ચિત્યને અર્થ પ્રતિમા થયે
સમાધાન–એ બરાબર નથી, કારણ કે કોષ આદિમા “બિમ્બ વસ્તુના યથાર્થ સ્વરૂપને કહે છે, પ્રતિમાને નહિ પ્રતિમા અર્થમાં તે પ્રતિબિમ્બ શબ્દને પ્રોગ થાય છે, બિમ્બ શબ્દને નહિ અમરકેશ શુદ્ધ વર્ગ કલેક ૩૬મા કહ્યું છે 3-"प्रतिभान, प्रतिनिस, प्रतिभा, प्रतियातना, प्रतिछाया, अतिति" मे मया પ્રતિકતિના નામ છે એટલે જેમ ઇવનિ અને પ્રતિધ્વનિ, માન અને પ્રતિમાન, મા અને પ્રતિમા, યાતના અને પ્રતિયાતના, છાયા અને પ્રતિ છાયા, કૃતિ અને પ્રતિકૃતિના અર્થમાં ભેદ છે, તેમ બિમ્બ અને પ્રતિબિમ્બના અર્થમાં પણ અતર છે કે વસ્તુના
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अगारसञ्जीवनी टीका मू० ५८ 'अरिहतयेइय' शब्दार्थनिरूपणम् ३२५
(१) 'विम्य धभासे वियो' इति पण्डितराजो जगन्नाथः ।
(२) 'एतद्विभाति चरमाचलवूडचुम्मि, (डि) हिण्डीरपिण्डरुचिशीतमरीचि विम्बम्' इति विश्वनाथः ।
(३) 'रविविम्ममिवाम्बरात्' इति च मार्कण्डेयपुराणम्, एवमन्यत्रापि । ___ अतएवालङ्कारिकाणा दृष्टान्तालङ्कारः सगच्छत्ते, सहि निरपेक्षवाक्यान्तरोपात्तेन प्रकृतेन वस्तुना सह निरपेक्षवाक्यान्तरोपात्तस्य तत्तुल्यधर्मवतोऽप्रकृतस्य वस्तुनो पिम्ब-प्रतिविम्वभावः, यथास्वरूप में ही चित्र शब्दका प्रयोग सर्वत्र देखा जाता है। वह इस प्रकार
'चन्द्रका विम्ब प्रकाशित हुआ' [ पण्डितराज-जगन्नाथ ]। ' ममुद्र के फेनकी छटासे युक्त, अस्ताचलकी चोटी पर यह चन्द्र-विम्न विरा जता है' [विश्वनाथ कवि ] । (वह शूल) सूर्यके विम्बकी तरह चमकता हुआ आकाशसे गिरा' [मार्कण्डेय पुराण ] 1 इसी प्रकार और और ग्रन्थोमें भी समझ लेना। असली सूर्य चन्द्रमाको ही 'सूर्ग विम्ब' और 'चन्द्ररिम्स' कहा है।
ऐसा माननेसे ही अलङ्कारशास्त्रियोंका माना हुआ दृष्टान्ताऽलङ्कार बन सकता है। निरपेक्ष वाक्यान्तरसे गृहीत प्रकृत वस्तुके साथ, निरपेक्ष वाक्यान्तरसे गृहीत उसके समान धर्म (गुण )वाली वस्तुका, बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव होना ( दृष्टान्तरूपसे जोडना) दृष्टान्तालङ्कार है। जैसेયથાર્થ સ્વરૂપમાં જ બિબ શબ્દને પ્રયોગ સર્વત્ર જોવામાં પણ આવે છે તે मा प्रमाणे -
“य प्रशित यु" [पति नाथ ], "समुद्रना ફિણની છટાથી યુકત, અસ્તાચલના શિખર પર એ ચદ્રબિંબ વિરાજે છે” [વિશ્વનાથ કવિ “(એ શૂલ) સૂર્યના બિંબની પેઠે ચમતે આકાશમાંથી પડયે” [માર્કડેય પુરાણ]. એ પ્રમાણે બીજા ગ્રંથોમાં પણ સમજી લેવું યથાર્થ સૂર્ય ચદ્રને જ “સૂર્યબિંબ” અને “ દ્રબિંબ” કહેવામાં આવે છે
એમ માનવાથી જ અલકારશાસ્ત્રીઓએ માનેલે દુષ્ટાતાલકાર બની શકે છે 1 નિરપેક્ષ વાકયારે કરીને ગૃહીત પ્રકૃત વસ્તુની સાથે, નિરપેક્ષ વાકયાતરે કરીને ગૃહીત તેના સમાન ધર્મ (ગુણવાળી વસ્તુને, બિંબ–પ્રતિબબ્રિભાવ હે (દાણાનારૂપે ડો) એ દષ્ટાન્તાલકાર છે જેમકે –
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३२४
उपासादशासूत्रे ननु कोपादिपु चैत्यस्य विम्भोऽर्थी लभ्यते,निम्नश्च मतिमैवेति चेदहो व्यामोहा, 'विमोऽस्त्री मण्डलम्' इत्यादिकोपादिपु विम्मगन्देन साक्षात्स्वरूपरूपस्य मण्डल स्यै गृहीततया पतिमार्यग्रहणासम्भपात, प्रतिमार्थे हि 'प्रतिविम्ब' शब्दो न तु विम्नस्तथाचामर:-'मतिमान प्रतिविम्मतिमा पतियातना प्रतिच्छाया प्रतिकृतिः इति, तस्माद्ध्वनि प्रतिभ्नन्योरिंग, मानमतिमानयोरिट, मा प्रतिमयोरिच, यातना प्रतियातनयोरिव, गया पतिन्छाययोरित्र, कृति प्रतिकृत्योरिव च विम्म प्रतिबिम्ब योरपि मिथो भिन्नार्थकत्वमेव, उपलभ्यतेऽपि च विम्मगन्दः सर्वत्र वस्तुयथार्थ स्वरूप एक, तथाहिन कही शास्त्रोमे ही मिलता है, अत एव 'चैत्य' का 'प्रतिमा' अर्थ करना ठीक नहीं।
शका-कोप आदिमें बिम्ब अर्थ तो मिलता है और बिम्ब ही प्रतिमा है, इसलिए चैत्यका अर्थ प्रतिमा हआ ।
समान-यह ठीक नहीं है, क्योकी कोप आदिमे 'विम्ब' वस्तुके यथार्थ स्वरूपको कहते है, न कि प्रतिमाको । प्रतिमा अर्थमें तो प्रति बिम्ब शब्दका प्रयोग होता है, बिम्म शब्दका नहीं। अमरकोश शूद्र वर्ग श्लोक ३६ मे कहा है-" प्रतिमान, प्रतिबिम्ब, प्रतिमा, प्रतियातना, प्रतिच्छाया, प्रतिकृति" ये प्रतिकृतिके नाम है, अत. जैसे ध्वनि और प्रतिध्वनि, मान और प्रतिमान, मा और प्रतिमा, यातना और प्रति यातना छाया और प्रतिच्छाया, कृति और प्रतिकृतिके अर्थमे भेद है, उसी प्रकार बिम्ब और प्रतिबिम्बके अर्थमे भी अन्तर है । वस्तुके यथार्थ મળત, પરંતુ એ અર્થે તેમાં કયાયથી મળી નથી અને શાસ્ત્રોમાંથી પણ મને નથી, એટલે ચિત્યને અર્થ “પ્રતિમા” કરવો એ બરાબર નથી
શ કા–કોષ આદિમા બિમ્બ અર્થ તે મળે છે, અને બિમ્બ જ પ્રતિમા છે, તેથી ચિત્યને અર્થ પ્રતિમા થયે
સમાધાન-એ બરાબર નથી, કારણ કે કોષ આદિમા “બિમ્બ વસ્તુના યથાર્થ સ્વરૂપને કહે છે, પ્રતિમાને નહિ પ્રતિમા અર્થમાં તે પ્રતિબિમ્બ શબ્દને પ્રયોગ થાય છે, બિમ્બ શબ્દને નહિ અમરકેશ શૂદ્ર વર્ગ કલેક ૩૬મા કહ્યું છે 3-"प्रतिभान, प्रतिनि, प्रतिभा, प्रतियातना, प्रतिछाया, प्रतिति" से पधा પ્રતિકતિના નામ છે એટલે જેમ વનિ અને પ્રતિવનિ, માન અને પ્રતિમાન, માં અને પ્રતિમા, યાતના અને પ્રતિયાતના, છાયા અને પ્રતિ છાયા, કૃતિ અને પ્રતિકૃતિના અર્થમાં ભેદ છે, તેમ બિમ્બ અને પ્રતિબિમ્બના અર્થમાં પણ અતર છે કે વસ્તુના
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १९०५८ 'अरिहत चेइय' शब्दार्थनिरूपणम् ३२७ प्रतिविम्भावस्वरूप कुवलयानन्दकृन्मतेनोपदर्शित-" वस्तुतो भिन्नयोरप्युपमानोपमेयधर्मयो' परस्परसादृश्यादभिन्नयोः पृथगुपादान-पिम्नप्रतिविम्भाव: इत्यप्पयदीक्षिताः" इति, अव च काव्यप्रकाशोक्त 'प्रतिविम्बन -मिति प्रतीकमुपादायोक्त वामनाचार्येण प्रतिविम्वन-पिम्पप्रतिविम्मभावो न त्वेकत्व मिति 'विम्ब शरीर प्रतिविम्व-तत्मन्छाया तयोर्भावः' इति च । तस्मादलमति दूरधावनेन यत्सिद्ध विम्नो वस्तुयथार्थस्वरूप पतिविम्नश्च तढाकागनुकरणमिति । अत एव 'त गन्छामि ण समण भगव महावीर वदामि मसामि सका रेमि सम्माणेमि कल्लाण मगल देवय चेहय०' इति राजप्रश्नीयव्याख्याया टीमाओंमें 'विम्ब प्रतिविम्ब भाव' शब्दकी व्याख्या, प्रमाणरूपसे कुवलयानन्दकार अप्पय दीक्षितके सिद्धान्तको लेकर की है कि-"वास्तव में भिन्न भिन्न उपमानत्व और उपमेयत्वका, परस्परकी तुलनाके कारण अभिन्न मानकर अलग अलग कयन करना विम्र-पतिचिम्न भाव है ॥"
इसके अतिरिक्त काव्यप्रकाशकी उपर्युक्त कारिकामे जो 'प्रतिविम्बन ' शब्द आया है उस प्रतीक ( अश)को लेकर वामनाचार्यने कहा है-'प्रतिविम्बनका अर्थ विम्ब प्रतिनिम्ब भाव है, दोनोकी एकता नहीं । विम्व शरीर है और प्रतिबिम्ब शरीरकी पच्छाया है, वही दोनों निम्ब प्रतिविम्ब होते है । अस्तु । बहुत दूर जानेसे क्या लाभ ? यह सिद्ध तो हो ही चुका कि वस्तुमा यथार्थ स्वरूप निम्न है और वस्तुके आकारकी नाल प्रतिविम्म है। इसीलिए आचार्य मलयगिरिने रायपसेणी सूत्रकी टोकामें "त गच्छामि ण" इत्यादि पदोंकी व्याख्या करते પ્રતિનિભાવ” શબ્દની વ્યાખ્યા પ્રમાણરૂપે કુવલયાનન્દકાર અપયદીક્ષિતને સિદ્ધાન્તને લઈને કરી છે કે “વસ્તુત ભિન્ન ભિન્ન ઉપમાનત્વ અને ઉપમેયત્વ, પરસ્પરની તુલનાને કારણે અભિન્ન માનીને અલગ-અલગ કથન કરવું-એ બિંબપ્રતિબિબભાવ છે”
से 6रात ४०यIA-l 6५२ ४sel मा २ 'प्रतिविम्बन' શબ્દ આવ્યો છે એ પ્રતિક (અશ)ને લઈને વામનાચાર્યે કહ્યું છે કે–પ્રતિબિંબનને અથ બિંબ–પ્રતિબિંબ ભાવ , એ બેઉની એકતા નહિ બિ શરીર છે અને પ્રતિબિંબ શરીરની પ્રતિષ્ઠાયા છે, એ બેઉ બિંબ-પ્રતિબિબ બને છે અસ્તુ બહુ દૂર જવાથી લાભ? એ તે સિદ્ધ થઈ ચૂકયું જ છે કે વસ્તુનું યથાર્થ સ્વરૂપ બિંબ છે અને વસ્તુના આકારની નકલ એ પ્રતિબિંબ છે એથી આચાર્ય
यगिरि शय सूत्री मा "त गच्छामि ण-." त्यात पटानी
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३२६
" अविदितगुणाऽपि सत्कवि
भणितिः कर्णेषु चमति मधुधाराम् । अनधिगतपरिमलाऽपि हि,
हरति दृश मालतीमाला ॥ १ ॥ " इति साहित्यदर्पणे । यथा" तवाहवे साहसकर्मशर्मण.,
उपासकदशाङ्गसूत्रे
कर कृपाणान्तिकमानिनीपतः । भटा. परेषा विशरारुतामगु,
"
दधत्वाते स्थिरता हि पासव ॥ १ ॥ sarooraat | अन काव्यप्रकाशोक्ता दृष्टान्त पुनरेतेषा सर्वेषां प्रतिनिम्नम्" इति कारिका प्रकृत्य तट्टीक्यो. सारबोधिनी सुधासागरयोर्विम्ब
<<
" उत्तम कवियोकी वाणीके गुणको कोई भलेही न जाने पर वह कानों में तो मधुकी धारा उड़ेल ही देती है। जैसे कोई मालतीमाला की सुगन्ध को न जाने, पर नेत्रों को तो हरण करही लेती है ।" [ साहित्य दर्पण ] अथवा जैसे (कोई कवि किसी राजासे कहता है कि ) "हे राजन् आप साहस बाँध कर ज्यों ही हाथसे तलवार उठाना चाहता हैं इतनेही में आपके सब शत्रु तितर बितर हो जाते हैं, ठीक है, क्योंकि वाके वहने पर भला धूल ठहर सकती है ? कदापि नहीं ॥" [काव्य प्रकाश ] यहा काव्यप्रकाशकी " दृष्टान्त पुनरेतेषा सर्वेषा प्रतिबिम्बनम् " इस कारिकाको आश्रित करके, उसकी सारबोधिनी और सुधासागर ઉત્તમ કવિઓની વાણીના ગુણેાને કેઇ ભલે ન છું, પરંતુ તે કાનમાં તા મધુની ધારા વહાવે છે જ જેમ કોઇ માલતીમાલાની સુગધને ન જાણે, પણ નેત્રને તે તે હરી લ છે જ”
[ साहित्यदर्प
અથવા જેમ ( કેઇ કવિ કાઇ રાજાને કહે છે કે “હે રાજન! આપ સાહસ કરીને જ્યા હાથે તલવાર પકડવા જાઓ છે, ત્યા તો આપના બધા થત્રુએ વીખરાઈ જાય છે, ખરાખર છે, કારણ કે પવન વહેવા લાગે છે ત્યારે ધૂળ માર્ક સ્થિર રહી શકે છે ભલા? ક્યાપિ નહુિ
१
1
[अव्यप्रकाश 1 पुनरेतेषा सर्वेषां प्रतिविम्बनम् "
खर्डी भव्यप्राशनी "दृष्टान्तः કારિકાને અનુસરીને, તેની સારમેાધિની અને સુષાસાગર - ટીકાનોમા
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अगारधर्मीपनी टीका अ० १ सूत्र ५८ 'अरिहतचेइय' शब्दार्थनिरूपणम् ३२९ लुप्' इत्यर्यस्ततश्च यत्र प्रतिमया जीविकानिर्वाहो न तु मूर्त्तिविक्रयस्तत्रैव कन् प्रत्ययस्य लुत्र नान्यत्र, तदुक्तमंत्र व सुत्रे सिद्धान्तकौमुद्याम् -“दैवलकाना जीविकार्थासु देवप्रतिकृतिष्विद”मिति, तल्कि जीविकानिर्वाहहेतुः पते मूर्त्तिर्भवते ? |
ननु येषु येषु साक्षात् परम्परया वा चयनक्रियायोगस्तेषामेव यज्ञस्थानादीनां चैत्यशब्देन ग्रहण सभवति न तु भवदुक्तरीत्या साधोरिति चेत्मतिमायाः कथमिति विभावयतु भवान्, प्राग्दर्शितानि च प्रमाणानि क्रोडीकृत्य व्याकरणमनुसधत्ता यतो न हो, उस अर्थ में कन् प्रत्ययका लोप होता है। अन्य किसी भी अर्थ में लोप नही होगा । इस घातको इसी सूत्रकी टीकामे सिद्धान्तकौमुदीकारने स्पष्ट कर दी है कि - " दैवलकाना जीविकार्थासु देवप्रतिकृतिविदम् " अर्थात् यह सूत्र देवलकों (देवल के पूजारियो ) की जीविका के लिए बनाई गई देवप्रतिमाओंके समन्धमे है, अन्यथा ( 'चैत्यकी प्रतिमा' इस अर्थ में ) चैत्यक' होगा किन्तु 'चैत्य नहीं । इस अवस्थामें क्या यह प्रतिमा जीविकानिर्वाहके लिए मानी जाती है, जिससे ' कन् ' प्रत्ययका लोप करते हो ? |
शका - जिन जिनमें साक्षात् या परम्परासे चयन क्रियाका योग है उन सब यज्ञस्थान आदिका 'चैत्य' शब्द से ग्रहण होता है, किन्तु आपके कथनानुसार साबुका ग्रहण नही हो सकता ।
समाधान-तो प्रतिमाका ग्रहण कैसे होता है ? यह आप विचारिये और पहले दिए हुए प्रमाणोंको लक्ष्यमे लेकर व्याकरणकी तर्फ ध्यान कन् प्रत्ययनो बोय थाय બીજા કેઈપણુ અમા લેપ નહે થાય એ વાત से सुननी टीमा सिद्ध न्तरे स्पष्ट है " दैचलकाना जीविकार्थानु देवप्रतिकृतिष्विदम्" अर्थात् देवस! (देवजना यूलरियो)नी सुविधाने भाटे બનાવેલી દેવપ્રતિમાઓના સ ખ ધમા છે અન્યથા (‘ચૈત્યની પ્રતિમા” એ અમા) રીત્યક” થશે, પરન્તુ “શૈત્ય” નહિ એ સ્થિતિમા શુ એ પ્રતિમા જીવિકાનિર્વાહને માટે માનવામાં આવે છે, કે જેથી વન પ્રત્યયના લેાપ કરે છે?
શકા—જેમા જેમા માક્ષાત્ યા પર પરાથી પ્રયન ક્રિયાને યાગ છે, એ સવ યજ્ઞ-સ્થાન આદિનું ચત્ય શબ્દથી ગ્રહણુ થાય છે, પરંતુ આપના કથનાનુસાર “સ” શનુ ગ્રહુણ નથી થઈ શકતુ
સમાધાન—તે પ્રતિમાનું ગ્રહણુ કેવી રીતે થાય છે તે આપ વિચારી જુઓ, અને પહેલા આપેલા પ્રમાણેને લક્ષ્યમાં લઈને વ્યાકરજીની તરફ ધ્યાન
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
'कल्याण कल्याणकारित्वात्, मङ्गल दुरितोपशमकारित्वाद, दैवत = देव त्रैलोक्या धिपतित्वात्, चैत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वा दित्युक्तया 'चैत्यः साक्षाजिनभगवान तु तत्मतिते' - ति स्पष्टमभिहितमाचार्य मलयगिरिणापि ।
ननु चैत्यो जिनः स इस प्रतिकृतियैत्यो मूर्त्तिः 'इवे प्रतिकृती' (५१३९६) इति विहितस्य कनः 'जीविकार्थे चापण्ये ' ( ५/३/९९) इत्यनेन लुप्तत्वात्, यथा वासुदेवस्य प्रतिकृतिर्वासुदेव ' इत्यादीति चेद्धन्त प्रस्खलितो भवानभिप्रायात्, atra चाण्ये' इत्यस्य हि जीविका यदविक्रीयमाण तस्मिन वान्ये कनो हुए कहा है- " कल्याणकारी होनेसे कल्याण, पापोंके नाशक होनेसे मगल, तीन लोकके स्वामी होनेसे देव और सुप्रशस्त मनके कारण होनेसे भगवान चैत्य है ।" इस कथन से स्पष्ट सिद्ध होता है कि मलय गिरि आचार्यने भी साक्षात् भगवान्को ही चैत्य कहा है-उनकी प्रति माको नही कहा ।
शका - बस, चैत्यका अर्थ हुआ जिनेन्द्र, और जिनेन्द्र के समान उनकी प्रतिकृति को भी चैत्य कह सकते हैं। क्योंकि व्याकरण के नियमसे 'इवे प्रतिकृतौ ' ( ५ । ३ । ९६ ), इस सूत्र से विधान किये हुए 'कन ' प्रत्यया 'जीविका चापण्ये' (५। ३ । ९९ ) सूत्रसे लोप होकर 'चैत्य' बन जायगा । जैसे वासुदेवकी प्रतिकृतिको वासुदेव करते हैं।
समाधान-- - आप असली अभिप्रायको भूल गये हैं । 'जीविकाथै 'वापण्ये ' इस सूत्र से जो प्रतिमा जीविकाके लिए हों, परन्तु बेचनेकी વ્યાખ્યા કરતા કહ્યુ છે કે ‘કલ્યાણકારી હાવાથી યાણુ, પાપાના નાશક હાવાથી મગલ, ત્રણ લેાકના સ્વામી હાવાથી દેવ અને સુપ્રશસ્ત મનના કારણુ હાવાથી ભગવાન ચૈત્ય છે છ આ કથનથી સ્પષ્ટ સિદ્ધ થાય છે કે મલયગિરિ આચાર્યે પશુ
સાક્ષાત્ ભગવાને જ ચૈત્ય કહ્યા છે, એમની પ્રતિમાને નથી કહ્યા
}
શકા—સ, ચૈત્યના અ થયા જિનેન્દ્ર, અને જિનેન્દ્રની સમાન તેમની પ્રતિકૃતિને પણ ' ચૈત્ય કહી શકાય છે, કારણ કે વ્યાકરણુના નિયમાનુસાર 'इवे प्रतिकृतौ ' ( ५-३-६६ ), से सृत्रथी विधान धरेला 'कन्' પ્રત્યયન ‘जीविकार्थे चापण्ये' (५–३–६८), सूत्रथी साथ थाने चैत्य, मनी, कुशे म - વાસુદેવની પ્રતિકૃતિને વાસુદેવ કહે છે
1 ई
1
"}। सभाधान—आप भरा अभिप्रायने भूली गया Br: - 'जीविकार्थे चापण्ये'
1
1
'ध्ये सूत्रथी ने प्रतिभा'छविमाने आटे हाय, परन्तु ब्रेथवानी'न'
એ આઈમ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० १ सू०५८ 'अरिहतचेइय'शब्दार्थ निरूपणम् ३३१ शास्त्राभिधानादिप्रसिद्धिरेव प्रतिनिमित्तमितरथा गो गवय कुशल शङ्ख शण्ढादिशब्दे वर्थव्यभिचारो भवता कालत्रयेऽपि दुर्निवार. मसज्जेत,न होतेषु व्युत्पत्योपलक्ष्यमा णा गमन गोप्राप्ति कुशग्रहण शमनादय. क्रिया: प्रतिनिमित्ततया घटन्ते शयनादिकालेऽपिसास्नादिमत्वमात्रमर्थमभिप्रेत्य गवादिशब्दाना प्रवृत्तेर्दर्शनात् किञ्चैव सति चैत्योदेशिकस्य साधूनुद्दिश्य कृतस्य" इति मागुक्त बृहत्वल्पभाष्यमप्यसामञ्जस्य मापद्यतेत्यास्ता विस्तर. ॥ वही प्रसिद्धि उनका प्रवृत्ति-निमित्त है। यदि ऐसा न माना जाय तो ‘गो, गवय, कुशक, शग्व, शढ, आदि' शब्दोमें अर्थ उलट-पलट होगा
और उसे आप तीन कालमे रोक नही सकगे । 'गो'का अर्थ हैं जो गमन करे, 'गवय' का अर्थ है 'गो'की प्राप्ति, 'कुशल'का अर्थ है कुश (डाम)को लानेवाला, 'शख' और 'शट'का अर्थ है शमन करनेवाला । इनमें प्रवृत्तिनिमित्त नही घटता है। यदि प्रवृत्तिनिमित्तसे ही व्यवहार माना जाय तो गाय जिस समय गमन न कर रहो हो सोती हो उस समय उसे गो नहीं कहना चाहिए । परन्तु सास्लादिमत्व (गलेमे लटकती हुई कम्बल आदि )के कारण उसे उस समय भी गो कहते है, इस लिए शास्त्र, कोष आदिमें जो अर्थ प्रसिद्ध हो गया है यही रूढ शब्दोंका प्रवृत्ति निमित्त मानना चाहिए । एक बात और है-- ऐसा माननेसे ही पूर्वोक्त वृहत्कल्प भाग्य भी ठीक बैठता है, जिसमें लिला है कि 'चैत्यको उद्देश करके' अर्थात्-माधुओंके लिए किये गये अशन आदिका । यदि चैत्यका अर्थ माधु नहीं मानोगे तो यह भाष्य भानवामा मावत "शी, क्य, सुश, शम, श" माह शम्टोमा अर्थGAL પાલટ થઈ જશે અને આપ તેને ત્રણ કાળમાં રોકી નહિ શકો ને અર્થ જે વામન કરે તે, ગવયનો અર્થ છે ગની પ્રાપ્તિ, “કુશવને અર્થ છે કશ (ડાભ)ને લાવનાર, શ ખ” અને “શઢીને અર્થ છે શમન કરનાર, એમા પ્રવૃત્તિ-નિમિત્ત ઘટતું – બ ધ બેસતું નથી જે પ્રવૃતિ-નિમિત્તથી જ વ્યવહાર માનવામા આવે તે ગાય જે સમયે ગમન ન કરતી હૈય-સૂતી હોય, તે સમયે તેને ' ન કહેવી જોઈએ, પરંતુ સાસ્નાદિમત્વ (ગળામાં લટકતી કમ્બલ આદિ)ને કારણે તેને તે સમયે પણ એ કહે છે, તેથી શાશ્વ, કષ આદિમા જે અર્થ પ્રસિદ્ધ થઇ ગયેલ છે તેજ રૂઢ શબ્દનું પ્રવૃત્તિ નિમિત્ત માનવું જોઈએ એક બીજી વાત પણ એ છે કે-એમ માનવાથી પૂર્વોક્ત બૃહત્ક૮૫ ભાષ્ય પણ બરાબર બંધ બેસે છે, જેમાં લખ્યું છે કે-“રમૈત્યને ઉદ્દેશ કરીને” અર્થાત–સાધુઓને માટે તૈયાર કરવામાં આવેલા અશનાદિનું જે ચત્યને અર્થ સાધુ
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उपासक दशाङ्गसूत्रे
न केवल 'चिव चयने' इत्यस्मादेव धातोयैत्यशब्दसिद्धिरपितु 'चिती सज्ञाने' इत्यस्मादपि ततश्च 'यथार्थ शन्दव्युत्पत्तिः' इत्यभियुक्तोक्तमनुरुध्यैव व्युत्पत्ति रनुसरणीयेतीह 'चिती सज्ञाने' इत्यस्मादेव धातोर्निर्वचनमकारो नतु 'चित्र चयने' इत्यस्मात्, सज्ञान च सम्यग्ज्ञान चैतन्य या, अस्तु वा 'वि चयने ' इत्येतन्मूवि रुक्तिश्रीयन्ते ज्ञानादयो गुणा अनेनेत्यर्थात् व्युत्पत्तिर्हि शना यथाकल्पन भिद्यते, नानार्थमाना तु प्रवृत्तिनिमित्तमपि, तथा चात्र ज्ञानवत्त्व मवृत्तिनिमित्तमादाय साधौ चैत्यशब्दमरत्तिः, यद्वा निरुदन्दानामर्थप्रत्यायने दीजिए कि “चैत्य ' शब्द न केवल 'चिञ् चयने ' धातुसे ही बनता है, किन्तु 'चिती सज्ञाने ' घातुसे भी घनता है । " शब्दोकी व्युत्पत्ति, अर्थके अनुसार होनी चाहिए " इस मान्यता के अनुसार अर्थको ध्यान में रख कर व्युत्पत्ति करनी चाहिए, अतः यहां 'चिती सज्ञाने' इस धातुसे ही चैत्य' शब्द बनाना चाहिए 'चिञ् चयने ' धातुसे नहीं क्योंकि सज्ञानका अर्थ सम्यग्ज्ञान या चैतन्य होता है । अथवा 'चित्र 'चयने' धातु से भी पना सकते है, वहा इसका अर्थ यह होगा कि 'जिसके द्वारा ज्ञानादि गुणोंका चयन होता है उसे चैत्य कहते हैं । कल्पनाके अनुसार व्युत्पत्तिमे भेद हो जाया करता है, और अनेकार्थ कोंका प्रवृत्ति-निमित्त भी भिन्न भिन्न होता है । अत एव यहाँ 'ज्ञानवत्व' इस प्रवृत्तिनिमित्तको लेकर ' साधु ' अर्थ में 'चैत्य' शब्दकी प्रवृत्ति होती है । अथवा जो रूढ शब्दोंकी शास्त्र आदिमे जिस अर्थमे प्रसिद्धि है थायो } "येत्य" शब्द an "चिञ् चद्यने" धातुथी जनता नथी, परतु “चिती सम्झाने " धातुथी पशु भने छे “शण्डोनी व्युत्पत्ति अर्थाने अनुसरीने થવી જોઈએ” એ માન્યતાનુસાર અર્થાને ધ્યાનમા રાખીને વ્યુત્પત્તિ કરવી જોઈએ, स्पेटो भी "चिती सव्ज्ञाने " मे धातुमाथी
शो
ચૈત્ય” શબ્દ બનાવવે है सज्ञाननो अर्थ सभ्यग्ज्ञान भा
लेह मे " चित्र चयने" धातुमाथी नहि, र शैतन्य थाय छे अथवा चित्र चयने" धातुमाथी या मनावी, तो तेनार्थ એવા થશે કે “જેની દ્વારા જ્ઞાનાદિ ગુણેનું ચયન થાય છે. તેને ઐ ય કહે છે” લ્પનાને અનુસરીને વ્યુત્પત્તિમા લે થયા ४रे छे, भने अनेकार्थानु प्रवृत्तिનિમિત્ત પણ જૂદું નૃદુ હાય છે એટલે અહીં 'જ્ઞાનવત્ત્વ એ પ્રવૃત્તિ-નિમિત્તને લઈને ‘સાધુ' અર્થમા ચૈત્ય શબ્દની પ્રવૃત્તિ સાસ્નાદિમા જે અમા પ્રસિદ્ધિ છે તે સિદ્ધિ
થાય છે, અથવા જે એનુ પ્રવૃત્તિ-નિમિત્ત છે એ એમ ન
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શબ્દાની
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अगारधर्म सञ्जीवनीटीका अ०१०५९ शिवानन्दाधर्मस्वीकृति गौतममश्नश्व ३३३
राजाभिभव गणाभिमा पलवदभिभव देवताभिभव गुरुनिग्रह वृत्तिकान्तारेषु तु तैः सहापि चन्दनादिः कल्पत एवेति समुदितोऽर्थः । एषु प्राकृते तृतीया तु पञ्चम्यर्थे ॥ ५८ ॥
मलम-तए ण सा सिवानदाभारिया आणंदेण समणोवासएण एववुत्ता समाणा हट्टतुट्ट कोडुवियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव लहुकरण जाव पज्जुवाप्तइ ॥५९ ॥
तए ण समणे भगव महावीरे सिवानदाए तीसे य महइ जाव धम्मं कहेड ॥ ६ ॥ तए णं सा सिवानंदा समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट जाव गिहिधम्म पडिबजइ, पडिजित्ता तमेव धम्मिय जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहित्ता जामेव दिस पाउन्भूया तामेव दिस पडिगया ॥ ६१ ॥
छाया-ततः सा शिवानन्दा भार्या आनन्देन श्रमणोपासकेन एवमुक्ता सती हृस्तृष्टा कौटुम्विकपुरुपान् शब्दयति, शब्दयित्वैवमवादी-क्षिप्रमेव लघु करण यावत् पर्युपास्ते ॥ ५९ ॥ __तत. खलु श्रमणो भगवान महावीरः शिवानन्दाय तस्या च महति-यावद् धर्म कथयति॥६॥तत खलु सा शिवानन्दा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्म श्रुत्या निशम्य हृष्ट यावद् गृहिधर्म प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य तदेव धाम्मिक यान पवरमारोहति, आरह्य यस्या एवं दिश. मादुर्भूता तामेव दिश प्रतिगता ॥६१॥
" अनुकम्पा दानको जिनेन्द्र भगवान्ने कहीं कभी निपिद्ध नही पताया है ॥ १॥"
वाकी सब सूत्रका अर्थ पहले आ चुका है ।। ५८॥
टीकार्थ-'तए ण सा' इत्यादि आनन्द प्रावकका कयन सुनकर भार्या शिवानन्दा हृष्ट-तुष्ट हुई और कौटुबिक पुरुपोंको बुलाया और
“અનુક પાદાનને જિનેન્દ્ર ભગવાને કયાય ત્યારે પણ નિષિદ્ધ નથી બતાવ્યુ” (૧) બાકી બધા સૂત્રને અર્વ પહેલા આવી ગયા છે (૫૮),
टीमार्थ-'तए ण सा' इत्याहि भान या१४४ ४थन सामजी कार्या શિવાન દા હૃષ્ટપુષ્ટ થઈ અને કોટુંબિક પુરૂને બોલાવીને કહ્યું – લઘુકરણ – હલકા
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उपासकदशास्त्रे
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पूर्व = प्रथमम् अनालापकैः मया सह भाषणमकुर्वद्भिः, 'सहार्ये तृतीया ' आलपितु = मकृद्भापितु, सलपितु = पुनः पुनर्भाषितम्, 'अणान्तेण इत्यत्र क्तमत्ययैकवचने सार्थत्वात् । 'ते' मिति तन्त्रान्यरहित पूर्वनिर्दिष्टत्वाचच्छेदस्त्वोपलक्षितधर्माच्छिन्नार्थवाचकः, सम्बन्धसामान्ये च पष्ठी, तनश्च तेषामित्यस्य अन्ययू थिक परिगृहीतेभ्योऽयसनपार्श्वस्थादिभ्यश्च साधुभ्य इत्यर्थः । अशन वा पान वा खाद्य वा स्वा यदातु = सकद्वितरीतुम्, अनुमदातृम्=असकृद्वितरीत 'मे न कल्पते' इति पूर्वोक्तनैव सम्बन्ध', 'तैर्थिकान्तरपरिगृहीतत्वादिवारणेन जिनसाधुभ्यो दातु कल्पत इत्यस्य तु कथन केत्यर्थापत्याऽन्यूथिकाना व्यावृत्तिः । गुरुबुद्धधा दानस्यैवैप निषेधस्तेन वरुणाभावेन तु यथेष्ट तेभ्यापि दद्यादेव, करुणादानस्य पानपात्रसाधारणमाणिविषयत्वात् यदुक्तम्---
" परउत्थियाइदाण, गुरुनुद्धीए णिसेहिय होई । अणुकम्पादाण पुण जिणेहि कत्थवि णो णिसिद्ध ॥ १ ॥ छाया - परयथिकादिदान, गुरुबुद्धया निषेधित भवति । अनुकम्पादान पुनर्जिनैः कुत्रापि नो निषिद्धम् ॥ १ ॥ किं सर्वत्र न पते? नेत्याह- 'नान्यत्रे' ति राजकृतोऽभियोगः=अभिभवः = (पारवश्य) राजाभियोगस्तस्मादन्यन न कल्पते इत्यर्थः । गणाभियोगात् सङ्घाभिभवात्, पलाभियोगात् = लवदभिभवात् देवताभियोगात्= देवताभि भवात्, 'गुर्वि ' ति गुरसमानाभिभूतवस्तेषां निग्रह = पारवश्य गुरुनिग्रह स्वस्मान्, ' वृत्ती 'ति वृत्ति आजीविका तस्याः वान्तार= दुर्गमार्ग - जीवन निर्वाहाभावस्तस्मात् ।
असगत हो जायगा । बस अब अधिक विस्तार नही करते ।
यहा मूल पाठ अन्ययूथिकोको अन्न पानका दान निषिद्ध कहा है, इसका कारण यह है कि यहाँ लोकोत्तर धर्मका व्याख्यान है, अतः गुरुबुद्धिके अभिप्रायसे ही यहा निषेध हैं, क्रुणा भावसे दानका निषेध नही है । करुणा दानमे पात्र अपात्रका विचार नही होता, वह सब प्राणियों को देने योग्य है । कहा भी है
નહિ માના તે એ ભાષ્ય અસગ થઈ જશે ખસ, હૅવે વધુ વિસ્તાર કરતા નથી અહીં મૂળ પાઠમા અન્યયૂથને અન્ન-પાનના દાનને નિષિદ્ધ બતાવેલ છે, તેન કાણુ એ છે કે અહીં લેકેાત્તર ધર્મનું વ્યાખ્યાન છે એટલે કરીને જ અહી નિષેધ છે. કરૂણાભાવથી દાનને નિષેધ નથી અપાત્રને વિચાર નથી થતા, તે બધા પ્રાણીઓને આપવા ચેાગ્ય
બુદ્ધિના અભિપ્રાય કરૂણાદાનમા પાત્ર છે કહ્યુ છે કે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका सू० ६२ शिवानन्दाधर्मस्वीकृति गौतममश्नव ३३५
छाया - हे भदन्त । इति भगवान् गौतम श्रमण भगवन्त महावीर वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्त्वैिवमवादीत् - "प्रभुः खलु भदन्त ! आनन्द श्रमणोपासको देवानुमियाणामन्तिके मुण्डो यावत्मत्रजितुम् ?" " नायमर्थः समर्थः, गौतम | आनन्द खलु श्रमणोपासको बहनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्याय पालयिव्यति, पातयित्वा यावत्सो धर्मे क्लोस्णामे विमाने ठेवतयोत्पत्म्यते । तत्र खलु अस्त्ये+केपा दवाना चत्वारि पल्योपमानि स्थिति प्रनप्ता, तत्र चाऽऽनन्दस्यापि श्रमणोपासकस्य चत्वारि पत्योपमानि स्थिति प्रज्ञप्ता" || ६२ ॥
टी- 'अय' - मिति त्वयोक्तः । समर्थः = युक्तः । श्रमणोपासकपर्याय = श्रमणोपमम् ॥ ६२ ॥
•
धर्मको स्वीकार किया । गृहस्थ धर्म स्वीकार करके उसी धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई । सवार होकर जिस ओर से आई थी उमी ओर चली गई ॥ ६१ ॥
टीकार्थ-' भते त्ति ' इत्यादि ' 17 भगवन् इस प्रकार भगवान् गौतमने श्रमण भगवान् महावीरको बन्दना की नमस्कार किया, और वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहने लगे
" है भगवान् ? क्या आनन्द श्रावक देवानुप्रियके समीप मत्रजित होनेको समर्थ है ? " ( भगवान् ने कहा ) - " हे गौतम ? ऐसा नहीं है, आनन्द श्रावक बहुत वर्षो पर्यन्त श्रावकपन पालन करेगा, और पालन करके सौधर्मreपके अरुणाभ विमान में देवतारूपसे उत्पन्न होगा। वहाँ कितनेक देवताओं की स्थिति चार पल्योपमकी कही गई है, तदनुसार आनन्द श्रावककी भी चार पल्योपमकी स्थिति कही गई है ( होगी) | ॥६२॥ ધાર્મિક ઉત્તમ રથમા ખેડીબેસીને જે ખાજુએથી આવી હતી તે ખાજુએ थाली गई (६१)
टीकार्थ- 'भते त्ति' धत्याहि 'भगवन् " मे प्रभा भगवान् गौतभे श्रभ ભગવાન મહાવીરને વદના કરી, નમસ્કાર ર્યાં અને વદના—નમસ્કાર કરીને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા – ‘હે ભગવન્ ! આનદ શ્રાવક દેવાનુપ્રિયની સમીપે પ્રત્રજિત ચવાને શુ સમર્થ છે ?” (ભગવાને કહ્યુ −) “હું ગૌતમ! એમ નથી, આનદ શ્રાવક ઘણા વર્ષાં સુવી શ્રાવકપણુ પાળશે અને પાળીને સૌધ કલ્પના અરૂણાભ વિમાનમા દેવતારૂપે ઉત્પન્ન થશે ત્યા કેટલાએક દેવતાઓની સ્થિતિ ચાર પયેાપમની કહી છે, તદનુસાર આનદ શ્રાવકની પશુ ચાર પત્યેાપમની સ્થિતિ કહી છે (યશે)” (૬૨)
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माध्ययने स्फुटया-मिति व्या धार्मिक
उपासकदशाागे टीका-शब्दयतिमाहयति । 'याव' दिति अत्रस्प यावन्छन्दवान्याश्च सप्त माध्ययने स्फुटीभविष्यन्ति ॥ ५९ ॥
टीका-'तस्था'-मिति व्याख्यातोऽय पाठ. प्रागानन्दोद्देश्यमधर्मकयोपदेश प्रकरणे । निशम्य हदि निधाय । धार्मिक-धर्मः मयोजनमस्य तद् । यानपवरम्उत्तम रथम् । प्रादुर्भुता आगता । स्पष्टाः शिष्टाः || ६० ॥ ६१ ॥
मूलम्-भंते-त्ति भगव गोयमे समणं भगव महावीर बदइ नमसइ, वदित्ता नमसित्ता एव वयासी-" पह ण भते। आणदे समणोवासए देवाणुप्पियाण अतिए मुडे जाव पव्वइत्तए”। " नो इणहे समहे, गोयमा आणदे णं समणोवासए बहूइ वासाई समणोवासगपरियाय पाउणिहिइ, पाउणित्ता जाव सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववजिहिइ।” तत्थ ण अत्थेगइयाणं देवाण चत्तारि पलिओवमाइ ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं आणदस्सवि समणोवासगस्स चत्तारि पलिओवमाइ ठिई पण्णत्ता ॥ ६२ ॥
चुलाकर कहा-लघुकरण-हलके उपकरणोंवाला (रय) यावत् पयुपासना की। यहा 'जाब' ( यावत् ) शब्दसे जितना अर्थ सगृहीत किया है वह सातवें अध्ययनमें स्पष्ट किया जायगा ॥ ५९ ।।
टीकार्थ -'तए ण समणे' इत्यादि इसके बाद श्रमण भगवान महावीरने शिवानन्दाके लिए पडी परिषद में यावत धर्मका कथन किया ॥६०॥ तब शिवानन्दा श्रमण भावान् महावीरके समीप धर्म श्रवण करके और हृदयमे धारण करके सृष्ट तुष्ट हई यावत् उसने गृहस्थ
ઉપકરણોવાળે (ર) યાવત્ પયુ પાસના કરી “જાવે” (યાવતુ) શબ્દથી જેટલી અર સગૃહીત કર્યો છે તે સાતમા અધ્યયનમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે (૫૯).
टीकाथे- 'तए ण समणेत्याहि त्या२पछी श्रमश भगवान् महावार શિવાન દાને માટે મેટી પરિષદમાં યાવતુ ધર્મનું કથન કર્યું (૨) એટલે શિવાન શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સમીપે ધર્મને શ્રવણ કરીને અને હદયમાં ધારણ કરીને હટતુષ્ટ થઈ યાવત્ એણે ગ્રહસ્થધર્મને સ્વીકાર કયે ગૃહસ્થ ધર્મ સ્વીકારીને તે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका मु०६६-६८ आनन्दधर्मप्राप्तिपतिशानिरूपणम् ३३५ "एवं खल्ल पुत्ता अहे वाणियगामे वहूर्ण राईसर जहाचितियंजाव विहरित्तए । त सेयं खलु मम इदाणिं तुमं सयस्त कुडुवस्स आलंवणंट ठवेत्ता जाव विहरित्तए" ॥६६॥ तए णं जेहपुत्ते आणंदस्स समणोवासगस्स तहत्ति एयमटुं विणएणं पडिसुणेइ॥६७॥ तए णं से आणंदे समणोवासए तस्सेव मित्त जाव पुरओ जेट्रपुत्तं कुडुवे ठवेइ ठवित्ता एवं वयासो-“मा णं देवाणुप्पिया। तुम्भे अज्जप्पभिडं केइ मम वहसु कन्जेसु जाव पुच्छउ वा पडिपुच्छउवा, मम अटाए असणं वा४ उवक्खडेउ वा उपकरेउ वा ॥ ६८ ॥
छाया-वतः खलु श्रमणो भगवान महावीरोऽन्यदा कदापि वहिर्यावद विहरति ॥६॥ ततः खल स आनन्दः श्रमणोपासको जातोऽमिगतजीवाजीवो याव. स्मतिलम्भयन विहरति॥६४॥ ततःग्वल्लु सा शिवानन्दा भार्याश्रमणोपासिका जाता यावत्पतिलम्भयन्ती विहरति ॥६५॥ तत• ग्वल्लु तस्याऽऽनन्दस्य श्रमणोपासकस्योच्चावचैः शीलवतगुणविरमणमत्याख्यानपोषधोपवासैरात्मान भावयतश्चतुर्दश सवत्सरा व्युत्क्रान्ता । पञ्चदशेसवत्सरमन्तरा वर्तमानस्यान्यदा कदापि पूर्वरात्रापरत्रकालसमये धर्मजागरिका जाग्रतोऽयमेतद्रूप आ यात्मिकश्चिन्तितः कल्पितः पार्थितो मनोगतः सकल्पः समुदपद्यत-"एव खल्वर वाणिजग्रामे नगरे वहूना राजेश्वर-यावत्स्वकस्यापि च खल कुटुम्बस्य यावदाधार, तदेतेन व्याक्षेपेणाह नो शक्नोमि श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽऽन्तिकी धर्मपज्ञप्तिमुपसपद्य विहर्तुम्, तच्छ्रेय खलु मम क्ल्य यावज्ज्वलति (सति)विपुलमशन४ यथा पूरणो यावज्ज्येष्ठपुत्र कुटुम्मे स्थापयित्वा त मित्र-यावज्ज्येष्ठपुत्र चाऽऽन्य कोल्लाके सभिवेशे ज्ञातकुले पोपधशाला प्रतिलिख्य श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽऽन्तिकी धर्मप्रनप्तिसपसम्पध विहर्जुम्।"एव सम्मेक्षते, समप्रेक्ष्य कल्य विपुल तथैव जिमितमुक्तो. तरागतस्त मित्र यावद् विपुलेन पुप्प वस्त्र गन्ध माल्या-ऽलवारेण च सस्करोति सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य तस्यैव मित्र यावत्पुरतो ज्येष्ठपुत्र शब्दायते, शब्दा यित्वा एवमवादीद-"एव खलुपुत्र । अहवाणिजग्रामे बहूनाराजेश्वर यथाचिन्तितं यावद्विहर्तुम् तच्छेय खलु ममेदानीं त्वा स्वकस्य कुटुम्बस्याऽऽलम्बन४ स्थापयित्वा यावद्विहर्त्तम्" ॥६६॥ ततः खलु ज्येष्ठपुत्र आनन्दस्य अमणोपासकस्य 'तथेति'
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उपासकदशास्त्र मूलम्-तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जाव विहरइ ॥ ६३ ॥ तए ण से आणदे समणोवासए जाए अभि गयजीवाजीवे जाव पडिलोभेमाणे विहरइ ॥ ६४ ॥ तएणं सा सिवानंदा भारिया समणोवासिया जाया जाव पडिलाभेमाणी विहरइ ॥६५॥तए ण तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स उच्चावएहि सीलव्वय-गुण वेरमण पच्चक्खाणपोसहोववासेहि अप्पाणं भावे माणस्स चोदस सवच्छराइ वइकताई। पण्णसमस्त संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत्त कालसमयसि धम्मजागरिय जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चितिए कप्पिए पत्थिए मणोगए सकल्पे समुप्पज्जित्था-"एव खल्लु अहवाणियगामे नयरे वहूर्ण राईसर जाव सयस्सवि य णं कुडुबस्स जाव आधारे। त एएण वक्खेवेण अह नो सचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिय धम्मपण्णत्ति उवसपज्जित्ताण विहरित्तए। त सेय खल्लु मम कल्ल जाव जलते विउलं असण४ जहा पूरणो जाव जेट्टपुत्त कुडुवे ठवेत्ता त मित्त जाव जेट्रपुत्त च आपुच्छित्ता, कोल्लाए सन्निवेसे नायकुलसि पोसहसाल पडिलेहिता समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिय धम्मपण्णत्ति उसपजित्ताण विहरित्तए'। एव सपेहेइ, सपेहिता कल्ल विउल तहेव जिमियभुत्तुत्तरागए त मित्त जाव विउलेण पुप्फ०५ सकारेइ सम्माणेइ, सकारिता सम्माणित्ता तस्सेव मित्त जाव पुरओजेहपुत्त सद्दावेइ, सदावित्ता एव वयासी
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अंगरसञ्जीवनी टीका भ. १ सृ ६६-६८ आनन्दधर्मप्रज्ञप्तिप्रतिज्ञानिरूपणम् ३३९ विपयीकृतः, कल्पित:=कल्पनारूपेण व्यवस्थितः प्रार्थितः = प्रार्थनाविषयीकृतः, मनोगतः=मनस्येवावस्थितो न तु वचनेन प्रकाशित, समुदपद्यत = अभवत् । व्याक्षेपेण व्यग्रतया । आन्तिकीम् = अन्तिके निकटे भवा आन्विकी ताम्-भगवतः पावस्थाभित्यर्थ उपस्कुरुत = रन्धयत, उपकुरुत मम समीपे समानयत । अवशिष्टा सुस्पष्टा ॥ ६३-६८ ॥
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राजा, ईश्वर यावत् आत्मीय जनोंका भी आधार हूँ, इस व्यग्रताके कारण मैं श्रमण भगवान् महावीरके समीपकी धर्ममज्ञप्तिको स्वीकार कर विचरनेमें समर्थ नहीं हूँ | इसलिए यह अच्छा होगा कि सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य ( सगा समन्धी आदिको जिमा कर ) पूरण श्रावककी तरह यावत् ज्येष्ठ पुत्रको कुटुम्बमें स्थापित करके मित्रों यावत् ज्येष्ठ पुत्र से पूछकर कोल्लाक सन्निवेशमें ज्ञातकुलकी पोपधशालाका प्रतिलेखन कर श्रमण भगवान् महावीरके समीपकी धर्मज्ञप्ति स्वीकार कर विचरूँ ! " उसने ऐसा विचार किया, विचार कर दूसरे दिन मित्र आदिको विपुल अशन पान खाद्य स्वाद्य जिमानेके बाद पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलकारोंसे उनका सत्कार किया, सन्मान किया । सत्कार- समान करके उन मित्रों आदिके समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्रको बुलवाया, घुलवाकर कहा - " बेटे ! मैं वाणिजग्राम नगर में बहुतसे राजा ईश्वर आदिका आधार हूं यावत् मैं ऐसा विचार कर रहना चाहता हूँ । अतः मेरे लिए यही अच्छा है कि मैं अब तुम्हें ઇશ્વર યાવત આત્મીય જનાના પણુ આધાર છુ, એ વ્યગ્રતાને કારણે હું શ્રમણ્ ભગવાન મહાવીર સમીપેની ધર્મપ્રાપ્તિને સ્વીકારીને વિચરવામા સમર્થ નથી તેથી એજ સારૂં છે કે—સૌંદચ થતા ખૂબ અશન, પાન, ખાદ્ય, સ્વાદ્ય (સ ખ ધી વગેરેને જમાડીને) પૂણ શ્રાવકની પેઠે યાવત્ જ્યેષ્ઠ પુત્રને કુટુંબમા સ્થાપિત કરી મિત્ર ચાવત્ જ્યેષ્ઠ પુત્રને પૂછી કાલ્લાક સનિવેશમા જ્ઞાતકુલની પેષધશાળાનુ પ્રતિલેખન કરી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સમીપની ધર્મ પ્રતિ સ્વીકારી હુ વિચરૂ ' તેણે એવા વિચાર કર્યા વિચારીને બીજે દિવસે મિત્ર આદિને ખૂબ અશન પાન ખાવ સ્વાદ્ય જમાડી પુષ્પ, વજ્ર, ગંધ, માલા અને અલકારાથી એમને સત્કાર કર્યો, સમ્માન કર્યું. સત્કાર-સમ્માન કરીને એ મિત્રા આદિની સમક્ષ પોતાના જ્યેષ્ઠ પુત્રને માલાબ્યા અને કહ્યું “પુત્ર ! હું વાણિજગ઼ામનગરમાં ઘણુા રાજા ઇશ્વર દિના આધાર છુ, યાવત્ હું આવે! વિચાર કરી રહેવા ચાહુ છુ માટે મારે માટે એજ સારૂ છે કે હું હવે તમને આપણા કુટુંબના ભાર સોપીને વિચર્
"
(६६)
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३३८
उपासका
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एतमर्थं विनयेन प्रतिशृणोति ॥६७॥ तत ग्लु स-भानन्दः श्रमणोपासकस्तस्येच मित्रयावत्पुरतो ज्येष्ठपुत्र कुटुम्बे स्थापयति, स्थापयित्वमवादीत् मा खलु देवा मियाः ! यूयमधमभृति केऽपि मम वहुषु कार्येषु यात्रस्पृच्छत वा प्रतिपृच्छत वा, मायाशन ना पान वा खायास्वाद्य वा उपस्कुरुत वा उपकुरुत वा ॥ ६८ ॥ टीका - उच्चाचै:- अनेकप्रकारैः | शीलवतानि = अणुव्रतानि, गुणाः = गुण व्रतानि, विरमण = रागादिविनिवृत्तिः, प्रत्याख्यानाति=पौरुप्यादीनि, पोषधोपत्रासः== माग्व्याख्यातस्वरूपस्तै' - शीलतादिद्वारेत्यर्थः । अन्तरा=मध्ये | 'पूर्व' - ति रात्रेः पूर्व - पूर्व रात्रः रात्र. पूर्वी भागः, तस्मादपरः = अपरो भाग - पूर्वरात्रापरस्तस्मिन् पूर्व रात्रापरत्र = जाग्रतः=धातूनामनेकार्थत्वादनुतिष्ठत इत्पर्य, अत एव 'धर्मजा गरिकाम्' इत्यत्र द्वितीया । आध्यात्मिकः = आत्मनि समुत्थितः चिन्तित. चिन्ता १ अन्तराशब्दयोगे नित्यद्वितीयामाप्तावपि 'सर्वोच्छरस्स' इति मूले षष्ठी त्वामयोगात् ।
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टीकार्थ- ' तए ण समणे ' इत्यादि तदनन्तर किसी समय श्रमण 'भगवान् महावीर यहि ( बाहिर ) यावत् विहार कर रहे थे ॥ ६३ ॥ वह आनन्द, श्रावक हो गया था, जीव अजीवको जाननेवाला यावत् प्रतिलाभ (हान) करता हुआ रहता था ।। ६४ । उसकी भार्या शिवा नन्दा भी श्राविका हो गई थी जीव अजीवको जाननेवाली यावत् प्रतिलाभ (दान) करती हुई रहती थी ॥ ६५ ॥ आनन्द श्रावकको अनेक प्रकार - शीलवत, गुणव्रत, विरमण (वैराग्य), प्रत्याख्यान, पोष घोपवाससे आत्म सस्कार युक्त करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गये । पन्द्रहवाँ वर्ष जब चल रहा था तो एक समय पूर्वरात्रिके अपर ( उतरार्ध ) समय में धर्मका अनुष्ठान करते करते इस प्रकारका मानसिक सकल्प आत्माके विषयमें उत्पन्न हुआ- "मैं वाणिजग्राम नगर में बहुत से
टीकार्थ- 'तर ण समणे' - छत्याहि पछी अर्थ समये श्रमाशु भगवान महावीर અહિં (મહા) યાવત્ વિહાર કરી રહ્યા હતા (૧૩) તે આનદ શ્રાવક થઇ ગયા હતા જીવ એજીવને જાણુનારા યાવત પ્રતિલાભ (દાન) કરી ઘો હતા (૬૪) તેની શાય શિવાનન્દે પશુ શ્રાવિકા થઈ ગઈ {હતી જીવ-અજીવને જાણનારી ચાવત તિલાભ (हान) रती रहती हती (१५) આનદ શ્રાવકને અનેક પ્રકારે શીલવ્રત, ગુણવ્રત, વિરમણ (વૈરાગ્ય), પ્રત્યાખ્યાન પાષધાપવાસથી આત્માને સમ્કારયુકત કર્તા ચો વર્ષે ગૃતોત થઇ ગયા જ્યારે પદરમું વર્ષ ચાલતુ હતુ ત્યારે એક સમયે પૂર્વ રાત્રિના ઉત્તરા સમયમાં ધર્મનું અનુષ્ઠાન કરતા કરતા આત્માના વિષયમા એ પ્રકારના માનસિક સ કલ્પ ઉત્પન્ન થયા કે "હું વાણિજગ્રામનગરમાં ઘણા રાળ,
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अंगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १.६९-७१ आनन्दप्रतिमा(पडिमा)निरूपणम् ३४१ आणंदे समणोवोसए दोच्चं उवासगपंडिमं, एवं तच्चं, चउत्थं,पंचम छठं, सत्तम, अट्टम, नवमं, दसम एक्कारसम जाव आराहेइ॥७१॥
छाया-ततः खलु स आनन्दः श्रमणोपासको ज्येष्ठपुत्र मित्रज्ञातिमापृच्छति, आगृच्छय स्वकाद् गृहात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य वाणिग्राम नगर मन्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य येनैव कोल्लाका सनिवेशः, येनेव ज्ञातकुल, येनैव पौषधशाला तेनैवोपागच्छति, उपागत्यपोपंधशाला प्रमार्जयति,प्रमायोचारप्रसवणभूमि प्रतिलेखयति, प्रतिलेख्य दर्भसस्तारक सस्तृणाति, सस्तीर्य दर्मसस्तारक दरोहति, दूरुह्य पोपधशालाया पौषधिको दर्भसस्तारोपगत श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽऽन्तिकी धर्मप्रज्ञप्तिमुपसपद्य विहरति ॥ ६९ ।। तत खल्लु स आनन्दः श्रमणोपासक उपासकमतिमा उपसपध विहरति, प्रथमामुपासकमतिमा यथासूत्र ययाकल्प यथामार्ग यथातत्व सम्यक् कायेन स्पृशति, पालयति, शोधयति, तीरयति, कीर्तयति, आराधयति ॥ ७० ॥ ततः खल्ल स आनन्दः श्रमणोपासको द्वितीयामुपासकप्रतिमाम्, एव तत्तीया, चतुर्थी, पञ्चमी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमीम् , एकादशीम, यावदाराधयति ॥ ७१॥
टीका-'उपासके-ति-उपासका =श्रावकास्तेपा प्रतिमा:-प्रतिज्ञाः-अभिग्रहविशेषलक्षणास्ताः। आसामेवादनाना व्याख्याविस्तरो मत्कृताया श्रमणमूत्रस्य ____टीमार्थ-तए ण से आणदे' इत्यादि इसके अनन्तर आनन्द श्रावकने ज्येष्ठपुत्रसे, मित्रोंसे और ज्ञातिसे आज्ञा ली आज्ञा लेकर अपने घरसे निकला। निकल कर वाणिजग्राम नगरके बीचो बीच होकर निकला । निकल कर जिस ओर कोल्लाक सन्निवेश, जिस ओर ज्ञातकुल और जिस ओर पोषधशाला थी उसी ओर पहुँचा । पहुँच कर पोषधशालाको पूजा, पूजार उच्चार प्रस्रवण भूमि (टद्दी-पेशायकी जगह )की पडिलेहणा की। पडिलेहणा करके दर्भ (डाभ)के सथारे (आसन)को यिछाया।
टीकार्य-'तए ण से आणदे' त्यात त्यापछी भान श्राप 43 पुत्र પાસેથી, મિત્રો પાસેથી અને જ્ઞાતિ પાસેથી આજ્ઞા લીધી અને પિતાના ઘેરથી નીકળે ઘેરથી નીકળીને વાણિજગ્રામ નગરની વચ્ચે વચ્ચે થઈ નીકળે નીકળીને જે બાજુએ કેટલાક નિવેશ, જે બાજુએ જ્ઞાનકુલ અને જે બાજુએ પિષધશાળા હતી તે બાજુએ ગમે ત્યાં પહોંચીને પિષધશાળાને પુછ, પૂજીને ઉચ્ચારપ્રસવણ ભૂમિ (મળમૂત્ર કરવાનું સ્થાન)ની પડિલેહણા કરી પછી (દર્ભ) ડાભને સ થાર (આસન) બીછા, અને સથારાપર બેઠે બેસીને પિષધશાળામાં પિષધ
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1 मूलम्-तए णं से आणदे समणोवासए जेहपुतं मिलणाई आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सयाओ गिहाओ पाणिक्खमई, पडिणिक्खमित्ता वाणियगामं नयरं मज्झ-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे,जेणेव नायकुले जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमजह, पमजित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दम्भसंथारय संथरइ, संथरित्ता दम्भसथारय दुम्हइ, दुरुहित्ता पोसहसालाए पोसहिए दम्भसथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिय धम्मपण्णति उवसंपज्जित्ताण विहरई ॥६९।। तए णं से आणंदे समणो. वासए उवासगपडिमाओ उवसंपजित्ताण विहरइ । पढम उवासगपडिम अहासुत अहाकप्प अहामग्ग अहातच्च सम्म कारण फासेइ पालेइ सोहेइ तीरेइ किटेइ आराहेइ ॥७०॥ तए णं से अपने कुटुम्बका भार देकर विचरूँ ॥ ६६ ॥" तय आनन्द श्रमणो पासकके इस कथनको बड़े बेटेने तथेति' (जैसी आपकी इच्छा) कह कर विनयके साथ स्वीकार किया ॥६७॥ तदनन्तर आनन्द श्राव कने उन मित्र आदिके समक्ष ही अपने बड़े लड़केको कुटुम्बमें स्थापित कियाऔर स्थापित करके सबसे इस प्रकार कहा-हे देवानुपियों ! आजसे तुम लोग किसीभी कार्य में मुझसे एक वार'या वार वार मत पूछना, और न मेरे लिए अशन, पान, खाध, स्वाध बनाना, न उन्हें मेर वास्ते मेरे पास लाना ॥६८॥
ત્યારે આનદ શ્રમ પાસકન એ કથનને વડા પુત્ર “તથતિ' (જેવી આપની ઈછ) એમ કહીને વિનયપૂર્વક સ્વીકારી લીધુ (૬૭) પછી આનદ શ્રાવકે એ મિત્ર આદિની સમક્ષ જ પિતાના વડા પુત્રને કુટુંબમાં સ્થાપિત કર્યો અને બધાને એ પ્રમાણે કહ્યું કહે દેવાનુપ્રિય! આજથી તમે બધા કઈ પણ કાર્યમા મને એક વાર કે વાર વાર ન પૂછો, અને મારે માટે અશન, પાન, ખાધ, સ્વાદ્ય પણ ન બનાવશે કે ન તો મારે માટે મારી પાસે લાવશે, (૬૮)
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अंगारधर्मसञ्जीवनी टीका म १९०७२-७३ आनन्दसलेखनानिरूपणम् .. ३४३ कीर्तयति इह याकर्तव्य तन्मयानुक्रमश• सम्पादित'-मित्याशुदीरयति । आराघयतिसमन्तात् सेवते ॥ ६९-७१ ॥
मलम-तए णं से आणंदे समणोवासए इमेण एयारूवेणं उरालेण विउलेण पयत्तेण पग्गहिएण तवोकम्मेणं सुक्के जाव किसे धमणिसतए जाण ॥७२॥ तए ण तस्स आणदस्स समणोवास
गस्स अन्नया कयाइ पुव्वरता जाव धम्मजागरियं जागरमाणस्स __ अयं अज्झथिए ५-"एव खल्लु अह इमेण जाव धमणिसतए जाए,
त अस्थि ता मे उट्टाणे कम्मे चले बीरिए पुरिसकार-परक्कमे सद्धाधिइसवेगे। त जाव ता मे अस्थि उटाणे६ सद्धाधिइसंवेगे, जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगव महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ ताव ता मे सेय कल्लं जाव जलते अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझुसणाझूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स कालं अ: णवकखमाणस्स विहरित्तए" एव सपेहिइ, संपेहित्ता कल्ल पाउ जाव अपच्छिममारणतिय जाव काल अणवकंखमाणे विहरद॥७३॥
छाया-तत. खलुस आनन्द. श्रमणोपासकोऽनेनैतद्रूपेणोदारेण विपुलेन प्रयत्नेन भगृहीतेन तप कर्मणा शुप्को यावत्कृयो धमनिसन्ततो जात १७२॥ ततः खलु तस्याऽऽनन्दस्य श्रमणोपासकस्यान्यदा कदाचित पूर्व रात्रा यावद्धर्मजागरिका जाग्रतोऽयमाभ्यात्मिक.५ "एव खल्वहमनेन यावद्धमनिसन्ततो जात , तदस्ति । तावन्मे उत्थान कर्म वल वीर्य पुरुपकारपराक्रम श्रद्धाधृतिसवेगम् । तद् यावत्ताचन्मेऽम्ति उत्थान६ श्रदातिसवेगं, यावश्च मे धर्माचार्यो धर्मोपदेशकः श्रमणो भगवान महावीरो जिनः मुहस्ती विहरति, तावत्तावन्मे श्रेय. कल्य यावज्ज्वलति
श्रावककी ग्यारह पडिमाओंकी विस्तारपूर्वक व्याख्या मेरो बनाईहुई श्रमणसूत्रकी मुनितोपिणी टीकासे जानना चाहिए ॥ ७१ ॥
શ્રાવની અગીઆર પડિમાઓની વિસ્તારપૂર્વક વ્યાખ્યા મારી બનાવેલી શમણુસૂત્રની મુનિષિણી ટીકામાથી જાણું લેવી (૭૧)
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मुनी तोपणीटीकायाः सकाशादवगन्तव्यः । यथासूत्राप्यनतिक्रम्य सूत्राम्यनुसृत्येत्यर्थं । यथाकल्प = श्रावकमतिमा चारमनुल्लङ्घ्य । 'यथामार्ग- मिति मार्गः:= क्षायोपशमिको भावस्तमंजुलध्य । 'यथातस्त्र' मिति तत्त्र = दर्शनप्रतिमाशब्दस्यानु गतोऽर्थस्तमनुल्लङ्घय । स्पृशति = गृहाति, धातूनामनेकार्थस्त्रात् । पालयति उपयोग भावनया सावधानी रक्षति । शोधयति = अतीचारपरित्यागेन निर्मलीकरोति । तीरयति मत्याख्यान कालावधी पूर्णेऽपि किञ्चिदधिककाळावस्थानेन तीर नयति । बिछाकर दर्भके सारे पर बैठा। बैठकर पोपघशाला में पोषधयुक्त होकर दर्भके सारे पर बैठा हुआ ही श्रमण भगवान् महावीरके पासकी धर्मप्रज्ञप्तिको स्वीकार कर विचरने (रहने) लगा ॥ ६९ ॥
तदनन्तर आनन्द श्रावकने श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओं ( पडि माओ ) को स्वीकार किया, उनमेंसे पहली परिमाको सूत्र के अनुसार, पडिमा सन्धी कल्पके अनुसार, मार्ग ( क्षायोपशमिक भाव ) के अनु सार, तत्व ( दर्शनप्रतिमा शब्दके अर्थ ) के अनुसार - सम्यक् रूपसे कायद्वारा ग्रहण किया । उपयोगपूर्वक रक्षण किया। अतिचारोका त्याग करके विशुद्ध किया । प्रत्याख्यान का समय समाप्त होने पर भी कुछ अधिक समय स्थित रहकर पूरा किया । ' जो करने योग्य थो उसे मैने क्रमशः किया है' ऐसा विचार किया और खूब अच्छी तरह आराधित किया || ७० || इसके बाद आनन्द श्रमणोपासकने दूसरी, तीसरी, चौथी, पाचर्थी, छठी, सातवीं, आठवीं, नौवी, दशवीं और ग्यारहवीं डिमाको यावत् आराधित किया ||
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पासा
યુક્ત થઈ ડાભના સથાળ પર બેઠાબેઠા જ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની ધ પ્રજ્ઞપ્તિને स्वारी वियरवा (रवा) लाग्यो (९६)
પછી આનદ શ્રાવકે શ્રાવકની અગીઆર પ્રતિમાએ (પડિમાએ) ને સ્વીકાર કર્યા એમાની પહેલી ડિમાને સૂત્રાનુસાર, પઢિમા સબધી કલ્પને અનુસાર, મા ( क्षायोपशभिः भाव) अनुसार, तत्त्व ( दर्शन प्रतिमा शण्डना 'अर्थ ) ने अनुसारસમ્યરૂપે કાયદ્વાન ગ્રહણ કરી, ઉપયેગપૂર્વક રક્ષણ કરી, અતિચારાને ત્યાગ કરીને વિશુદ્ધ કરી, પ્રત્યાખ્યાનના સમય સમાપ્ત થતા પશુ ચેડા વધુ સમય સ્થિત રહીને પૂરી કરી “જે કરવા ચેગ્ય હતુ તે મે ક્રમશ કર્યુ છે” એવા તેણે વિચાર ક અને સારી રીતે આરુષિત કર્યાં (૭૦) ત્યારબાદ આન શ્રમણાપાસકે પીછે, श्री, बोथी, पायभी, छठ्ठी, सातभी, आरंभी, नवभी, सभी मने ममारभी ડિમાને યાવત્ આરાધિત કરી
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अगारसञ्जीवनी टीका अ १ सू० ७४ अनन्दावपिज्ञाननिरूपणम्
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मूलम्-तए ण तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अन्नया कयाइ सुभेण अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेण, लेसाहिं त्रिसुज्झमाणीहिं तदावरणिज्जाणं कम्माण खओवसमेणं ओहिनाणे समुप्पन्ने । पुरत्थिमे ण लवणसमुद्दे पच जोयणसयाड खेत्त जाणड पासइ, एव दक्खिणं पञ्चत्थिमेण य । उत्तरे ण जाव चुल्लहिमवत वासधरपव्वयं जाणइ पासङ । उड्डू जाव सोहम्म कप्प जाणइ पासङ । अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोल्लुयच्चुय नरय चउरासीइवाससहस्य जाणड पासइ ॥ ७४ ॥
छागा - ततः खलु तस्याऽऽनन्दस्य श्रमणोपासकस्यान्यदा कदाचित शुभेना भ्यवसायेन, शुभेन परिणामेन, ऐश्याभिर्विशुद्धयन्तीभिस्तदावरणीयाना कर्म्मणा
धृति (धैर्य) ओर मवेग ( विषयोकी उदासीनता ) है, अतः जय तक कि ये उत्थान आदि मेरेमें हैं, और जनतक मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर जिन सुहस्ती विचरते है, तब तक ( उत्थान आदिकी तथा भगवान् की मौजूदगी में ही) कल सूर्योदय होने पर अपश्चिममारणान्तिक मलेखनाकी जोपणा ( सेचना ) से जोपित (युक्त) होकर भक्तपानका प्रत्याख्यान करके मृत्युकी आकांक्षा न करते हुए विचरना ( रहना) ही मेरे लिए यहार है || ७३ ||
(વિષયેની ઉદાસિનતા) છે, એટલે જ્યાસુધી એ ઉત્થાન બાદિ મારામા કે મને જ્યાસુધી માન ધોંચાય ધર્મોપદેશક શ્રમણ ભગવાન મહાવી- જિન સુસ્તી ધનવે છે, ત્યાસુત્રી ઉત્થન આદિની તથા ભગવાનની ઉપસ્થિતિમાં જ) કાલ સૂર્યોદય થતા અપશ્ચિમ મારણાતિક સલેખના જોષણા (સેના)થી જોષિત (યુ) ને ભકતાનનુ પ્રત્યાખ્યાન કરીને મૃત્યુની આકાલા ન કરતા વિચરવુ (રડવુ) એજ મારે માટે श्रेय 5 (93)
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१४४ अपधिममारणान्तिकसँठेखनाजोपणाजोषितस्य भक्तपानपत्याल्यातस्य कामना पकाईतो विहर्तुम् । एव समेक्षते, समेक्ष कल्प मादुर्यावदपविममारणान्तिक यावत्कालमनवकाईन् विहरति ॥७३॥
टीका-'धमनी'-ति-धमनिमिः नाडीभिः सन्ततः व्याप्त:-प्रक्षीणमासतया लक्ष्यमाणनाडीक इत्यर्थः ।उत्थानं शरीरचेष्टन, कर्म गमनादि क्रिया, बल-शरीर सामर्थ्य, वीर्यम् आस्मतेज.,पुरुपकारपराक्रम-तत्र पुरुषकारः उत्साहः, पराक्रमः इष्टसाधनशक्तिः, उभयो समाहारद्वन्द्वः, 'श्रद्धे' ति श्रद्धा विशुदचित्तपरिणतिः, धृतिः शोकमयादिजनितक्षोभनिवारकचित्तवृत्तिविशेषः, सवेगः विषयविरति, श्रद्धा च धृतिश्चसवेगवेतिद्वन्द्वः, मूले पुसत्वमेकवचनत्व च प्राकृतत्वात् ।।७२-७३।।
१ मूळे पुंस्त्व प्राकृतत्वात् , यद्वा पुरुषकारेण सहित. पराक्रम इति मध्यमपदलोपी समासोऽत्र ।
टीकार्थ-'तए ण से आणदे'-इत्यादि तदनन्तर आनन्द श्रावक इस उदार और विपुल प्रयत्न (कर्तव्य) का पालन करनेसे, तथा तपस्या करनेके कारण सूख गया यावत् उसकी नस-नस दिखाई देने लगी ॥७२॥ पश्चात् आनन्द श्रावकको किसी समय पूर्वरात्रिके अपर समयमें यावत् धर्मजागरणा करते हुए यह आध्यात्मिक आदि (विचार) उत्पन्न हुआ “मै इस कर्तव्यमे हड्डियोंका पिंजरा मात्र रह गया हूँ, तो भी हाल मुझमें उत्थान (शरीरकी चेष्टा करना), कर्म (गमनादि क्रिया), बल (शारीरिक शक्ति), वीर्य (आत्मतेज), पुरुषकार (उत्साह), पराक्रम (इच्छित कार्य करनेकी शक्ति), श्रद्धा (चित्तका.शुद्ध परिणाम),
टीकार्थ-'तए ण से आणदे' या पछी मान श्राप में हार भने વિપુલ પ્રયત્ન (ર્તવ્યનું પાલન કરવાથી, તથા તપસ્યો કરવાને કારણે સુકાઈ ગયા થાવત એના શરીરની નસેનસ દેખાવા લાગી (૭૨) પછી આનદ શ્રાવકને કંઈ સમયે પૂર્વ રાત્રિના ઉત્તરાર્ધ ભાગમાં યાવત ધર્મજાગરણ કરતા આ આધ્યાત્મિક આદિ (વિચાર) ઉત્પન્ન થયા – હું આ કર્તવ્યથી હાડકાનું પાજરૂ માત્ર રહૃાો છું, તેપણું અત્યારે મારામા ઉત્થાન (શરીરની ચેષ્ટા કરવી) કર્મ (ગમનાદિ ક્રિયા), म (शाश४ि शहित), वीर्य (मात्मते), ५३५४१२ (Geसाई), पराम (UPura કાર્ય કરવાની શક્તિ), શ્રદ્ધા (ચિત્તને શુભ પરિણામ), ધૃતિ (દીર્ય અને સવેગ
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अंगारसञ्जीवनी टीका अ १ सू० ७४ अनन्दावविज्ञाननिरूपणम् ३४५
मूलम्-तए ण तस्स आणदस्त समणोवासगस्स अन्नया कयाड सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेण, लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिज्जाण कम्माण खओवसमेणं ओहिनाणे समुप्पन्ने। पुर'थिमे ण लवणसमुद्दे पच जोयणसयाड खेत्तं जाणइ पासइ, एव दक्खिणणं पञ्चत्थिमेण य । उत्तरे ण जाव चुल्लहिमवत वामधरपव्वय जाणइ पासड । उड्ड जाव सोहम्म कप्पं जाणइ पासड।
अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयञ्चयं नरय चउरासी___ इवाससहस्सटिइय जाणड पासड ॥७४ ॥
__ छाया-तत खलु तस्याऽऽनन्दस्य श्रमणोपासकम्यान्यदा कदाचित शुभेना भ्यवमायेन, शुभेन परिणामेन, लेश्याभिर्विशुद्वयन्तीभिस्तवावरणीयाना कर्मणा
धृति (धैर्य) ओर मवेग (विपयोकी उदासीनता) है, अत: जय तक किये उत्थान आदि मेरे में हैं, और जबतक मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर जिन सुहम्ती विचरते हैं, तर तक (उत्थान आदिकी तथा भगवान्की मौजूदगी में ही) कल सूर्योदय होने पर अपश्चिममारणान्तिक सलेखनाकी जोपणा (सेवना)से जोषित (युक्त) होकर भक्तपानका प्रत्याख्यान करके मृत्युकी आकाक्षा न करते हुए विचग्ना (रहना) ही मेरे लिए श्रेयस्कर है ।। ७३ ।।।
(વિષયેની ઉદાસિનતા) છે, એટલે ત્યાસુધી એ ઉત્થાન આદિ મારામાં છે અને
જ્યા સુધી માગ ધમાચાર્યો ધમપદેશક શ્રમણ ભગવાન મગાવીને જિન સુરસ્તી ધરાવે છે, ત્યાસુધી (ઉવન આદિની તથા ભગવાનની ઉપસ્થિતિમાં જ) કાલ સુર્યોદય થતા અપશ્ચિમ મારણતિક સલેખના લેણા (તેના)થી જેષિત (યુકત) થઈને ભકતાન પ્રત્યાખાન કરીને મૃત્યુની આકાંક્ષા ન કરતા વિચરવુ (રહેવું) એજ મારે માટે श्रेय. ६ (७3)
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उपासकदशाम मूलम्-तेण कालेणं तेण समएणं समणे भगवं महावारे समोलरिए। परिसा निग्गया जाव पडिगया॥७५॥ तेणंकालेण तेणं समएण समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? अतेवासी इंदभूई क्षयोपशमेनापधिज्ञान समुत्पन्नम्। पौरस्त्ये सल लवणसमुद्रे पश्चयोजनशतानिक्षेत्र जानाति पश्यति, एव दक्षिणात्ये पाचात्ये च । औत्तरे खलु यावत् क्षुल्लहिमवन्त वर्षधरपर्वत जानाति पश्यति, ऊर्च यावत्सौधर्म कल्प जानाति पश्यति । अधो यावद् अस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या लोलुपाच्युतनामक नरकावास चतुरशीतवर्षे सहस्रस्थितिक जानाति पश्यति ॥ ७४ ॥ टीरा-शुभेन प्रशस्तेन, अध्यवसायेन माथमिकेन मनोभावविशेषेण, परिणामेनतदुत्तरकालिकेन मनोभावविशेषेण, लेश्याभिः चरममनोभावस्वरूपाभिः ॥७॥
टीकार्थ-'तए ण तस्स -इत्यादि पश्चात् आनन्द प्रावकको किसी समय शुभ अध्यवसाय (पहलेका मानसिक विचार )से, शुभ परिणाम (बाद के मानसिक विचार )से और विशुद्ध होती हुई लेश्याओं (अन्तिम मनोभावों)से अवधिज्ञानको आवरण-करने ( ढकने )वाले कमौका क्षयोपशम हो जानेसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, ( उससे यह आनन्द ) पूर्व दिशामें लवणसमुद्र के अन्दर पाचसौ योजन क्षेत्र जानने और देखने लगा, इसी प्रकार दक्षिण पश्चिममे । उत्तर दिशाम क्षुल्लहिमवन्त वर्षधर पर्वतको जानने और देखने लगा, ऊर्ध्व दिशामें सौधर्मकल्प तक जानने और देखने लगा । अधोदिशामे चौरासी हजार स्थितिवाले लोलुपाच्युत नरकावास तक जानने और देखने लगा ||७४॥
टीकार्थ-'तए ण तस्स' पछी मान श्रावन ४ समये शुभ यवसाय (પહેલાને માનસિક વિચાથી શુભ પરિણામ (પછીને માનસિક વિચાર)થી અને વિશુદ્ધ થતી વેશ્યાઓ (બતિમ મનોભાવ)થી, અવધિજ્ઞાનને આવરણ કરનાર (ना२) भनि। क्षयोपशम यवाथी अवविज्ञान 64-1 थयु (तथी त-मान६) પૂર્વ દિશામાં લવણસમુદ્રની અંદર પાચ જન ક્ષેત્ર જાણવા અને જોવા લાગ્યા, એજ પ્રમાણે દક્ષિણ પશ્ચિમમા પણ જોવા લાગ્યો ઉત્તર દિશામાં સુલ હિમવત વર્ષધર પર્વતને જાણવા અને જેવા લાગે ઊર્ધ્વ દિશામાં સૌધર્મક૫ સુધી જાણવા અને જેવા લાગે અધે દિશામા શે રાસી હજાર સ્થિતિવાળા લેઉપાશ્રુત નરક સુધી જાણવા અને જોવા લાગ્યો (૭૪)
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अगारसञ्जीवनी टीका अ १ मू. ७६-७७ आनन्दगौतममश्नोत्तरनिरूपणम् ३४७ नाम अणयारे गोयमगोत्ते णं सत्तुस्सेहे, समचउरंससंठाणसठिए, वज्जरिसहनारायसघयणे, कणगपुलगनिघसपन्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, घोरतवे, महातवे, उराले, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरवंभ
चेरवासी उच्छूढसरीरे, संखित्तविउलतेउलेस्से छ?-छट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेण संजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ ॥७६॥ तए णं से भगव गोयमे छट्रक्खमणपारणगसि पढमाए पोरिसीए सज्झाय करेइ, विइयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाण पोरिसीए अतुरिय अचवल असंभते मुहपत्ति पडिलेहेइ, पडिलेहिता भायणवत्थाइ पडिलेहेड पडिलेहिता भायणवत्थाइ पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाइ उग्गाहेइ,उग्गाहित्ताजेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समण भगव महावीरं वंदइ नमसइ, वदित्ता नमसिता एव वयासी-"इच्छामिण भते। तु भेहि अम्भणुपणाएसमाणे ट्रक्खमणपारणगसि वाणियगामे नयरे - छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान महावीर समवमृतः । परिपन्निर्गता यावत्मतिगता ॥७५|| तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ज्येष्ठोऽन्तेवासी इन्द्रभूति माऽनगारो गौतमगोत्रः खलु सप्तोत्सेध , समचतुरस्रसस्थानसस्थित., वज्रर्पभनाराचसहननः, कनकपुलकनिकपपद्मगौर., उग्रतपा, दीप्ततपा', घोरतपाः, महातपा, उदार , घोरगुण घोरतपस्वी, घोरब्रह्मचर्यवासी, उत्क्षिप्तशरीर. सक्षिप्तविपुल तेजोलेश्य , पष्ठपण्ठेनाऽनिक्षिप्तेन तप कर्मणा सयमेन तपसाऽऽत्मान भावयन् विहरति ॥ ७६ ॥ तत खलु स भगवान गौतम पप्ठक्षपणपारणके प्रथमाया पौरुष्यास्वायाय करोति, द्वितीयाया पौरुष्या ज्यान यायति, तृतीयाया पोरुपयामत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तो मुखवस्त्रीं प्रतिसयति, प्रतिलेख्य भाजनवस्त्राणि प्रतिलेग्वयति, प्रतिलेख्य भाजनवस्त्राणि प्रमार्जयति, प्रमाज्य भाजनान्युद्गृह्णाति, उद्गृह्य यनैव श्रमणो भगवान् महावीरस्त नैवोपागन्छति, उपागत्य अमण भगवन्त महावीर वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एक्मवादीत्-"इच्छामि खलु भदन्त ! युप्मामिभ्यनुज्ञात'
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३४८ ।
: र उपासकदशागसूत्रे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाएं अडित्तए।" अहासुहं देवाणुप्पिया। मा पडिवध करेह ॥ ७७ ॥ तए गंभगवं गोयमे समणेण भगवया महावीरेणं अभYण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओइपलासाओ चेडयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचलमसंभते जुगतरपरिलोयणाए दिट्रीए पुग्ओ इरिय सोहेमाणे जेणेव वाणियगामे नयरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता वाणियगामे नयरे उच्चनीयमज्झिमाइ कुलाइ घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाएअडइ॥७॥ तए णं से भगव गोयमे वाणियगामे नयरे, जहा पण्णत्तीए तहा जाव भिक्जायरियाए अडमाणे अहापज्जत भत्तपाणं सम्म पडि ग्गाहेइ, पडिग्गाहित्ता वाणियगामाओ पडिणिग्गच्छइ, पडिणिग्ग च्छित्ता कोल्लायस्स सन्निवेसस्स अदूरसामतेण वीईवयमाणे बहु जणसद्द निसामेइ । बहुजणो अन्नमन्नस्स एवसाइक्खइ३-“एव खल्लु देवाणुप्पिया । समणस्स भगवओ महावीरस्स अतेवासी
पष्ठक्षपण पागण के वाणिजग्रामे नगरे उच्च नीच म यमानि कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्याय अटितुम्"। (म०) "यथासुख देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्ध कुरु ॥७७॥ तत खलु भगवान गौतम श्रमणेन भगवता महावी रेणाभ्यनुज्ञात मन श्रमणस्य भगवता महावीरस्यान्तिकाद् दतिपलाशाचैत्यात्मतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्यात्व रितमचपलममम्भ्रान्ता युगान्तरपरिलोग्नया दृष्टया पुरत ईर्ष्या शोषयन येनव वाणिजग्राम नगर तेनेयोपागन्छति, उपागत्य वाणिजग्रामे नगरे उच्च निच माय मानि कुलानि गृहममुदानस्य भिक्षाचर्यायै अटति ॥७८॥ तत खलु स भगवान् गौतमो वाणिजग्रामे नगरे यथाज्ञप्त्या तथा यावद्विक्षाचर्याय अटन यथापर्याप्त भक्तपान सम्या प्रतिगृह्णाति, प्रतिगृह्य वाणिजग्रामात्मतिनिर्गच्छति, प्रतिनिगत्य कोल्लाकस्थ सग्निवेशस्याऽदरसामन्ते यतिव्रजन बहुजनशब्द निशाम्यति । बहु जनोऽन्योन्यस्मै एवमाख्याति४-"एव ग्वलु देवानुमिय श्रिमणस्य भगवतो महा
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अंगारपर्ममञ्जीवनी टीका अ१ म ७९-८१ आनन्दगौतममश्नोत्तरनिरूपणम् ३४९. आणदे नामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम-जाव-अणवकखमाणे विहरण' ॥७९॥ नए णं तम्म गोयमस्स वहजणम्स अतिए एयसोचा निसम्म अयमेयारूवे अज्झथिए ५'त गच्छामि ण आणंद समणोवासय पासामि " । एव सपेहेड, सपेहिता जेणेव कोल्हाए सन्निवेसे जेणेव आणदे समणोवासए, जेणेव पोसहसाला तेणेव उगावच्छड ॥८०॥ तए ण से आणदे समणोवासए भगव गोयम एज्जमाण पासह पासित्ता हट्ट जाव हियए भगव गोयमं वदइ नमसड, वदित्ता नमसित्ता एव वयासी-" एवं खल्लु भते । अहं उमेण उरालेण जाव धमणिसतए जाए, नो संचाएमि देवाणुप्पियस्स अतिय पाउभवित्ताणं तिम्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवंदित्तए।तुभेण भते । इच्छाकारेण अणभिओगेणं इओ चेव एह, जाण देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेण पाएसु वदामि नमसामि ८१
तए ण से भगव गोयमे जेणेव आणंदे समणोवासए
वीरम्यान्तेवामी आनन्दो नाम श्रमणोपासकः पोप पशालायामपश्चिमयावत्-अनव काइसन विहरति"||७९||ततः खलु तस्य गोतमम्य बहुजनस्यान्तिके एतच्या निशम्यायमेतद्रूप ना यात्मिक ५-तद् गच्छामि ग्वल आनन्द अमणोपासक परमि" । एव मप्रेषते, समक्ष्य येनैव शेल्लाक शनिवेशो येनैवाऽऽनन्दः श्रम णोपामा , येनैव पोपरगाला तेनैवोपागच्छति ॥८०॥ तत ग्बल स आनन्द' यमणोपामको भगवन्त गौतममेजमान पश्यति, दृष्ट्वा हृष्ट यापहृदयो भगवन्त गौतम बदन्ते नमम्यति, पन्दित्वा नमस्यित्वैत्रमवादी- 'एव विलु मदन्त ! अहमनेनोदारेण यावत् धमनिमन्ततो जातो नो शक्नोमि देवानुप्रियम्यान्तिक प्रादु भूयविकन्यो मूर्ना पादावभिवन्दितुम्। यूय खलु भदन्त इन्छासारेणाऽनभियोगेनेतश्चत्र एत, यस्मालवल देवानुपियाणा विकृत्वो मूर्ना पादयोर्वन्दे नमस्यामि" ८१
तत खलु स भगवान् गौतमो येनैवाऽऽनन्द श्रमणोपासकस्तेनैवोपाग
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उपासकदशास्त्र तेणेव उवागच्छइ ॥ ८२ ॥ तए णं से आणंदे भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वदइ नमसइ, वंदित्ता नम सित्ता एवं वयासी-"अत्थि णं भते । गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स
ओहिनाण समुपज्जइ " । " हता अत्थि"।जइ ण भते । गिहिणो जाव समुप्पज्जइ, एवं खल्ल भंते । मम वि गिहिणो गिहमज्झाव सतस्स ओहिनाणे समुप्पन्ने-पुरस्थिमे णं लवणसमुद्दे पचजोयण सयाइ जाव लोलुयञ्चय नरयं जाणामि पासामि" ॥८३ ॥ तए णं से भगव गोयमे आणंद समणोवासयं एव वयासी-" अस्थि णं आणदा। गिहिणो जाव समुप्पज्जइ,नोचेवणं अयमहालए।तणं तुम आणंदा। एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव तवोकम्म पडिवजाहि ॥४॥ तए णं से आणंदे भगवं गोयम एव वयासी" अस्थि णं भंते । जिणवयणे सताणं तच्चाणं तहियाण सम्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाव पडिवज्जिज्जइ” (गो०) "नो इणहे सणहे”।
च्छति ॥८२॥ ततः खलु स आनन्दो भगवतो गौतमस्य त्रिकृत्वो मूर्धा पाद योर्वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वैवमवादीव-"अस्ति खलु भदन्त ! गृहिणी गृहमन्यावसतोऽवधिज्ञान समुत्पद्यते ?" (गौ०) "हन्त ! अस्ति" ! (आ०) "यदि खलु भदन्त ! गृहिणो यावत्समुत्पद्यते, एव खलु भदन्त ! ममापि गृहिणों गृहमध्यावसतोऽवविज्ञान समुत्पन्नम्-पौरस्त्ये खलु लवणसमुद्रे पञ्चयोजनशतानि यावत्-लोलुपाच्युत नरक जानामि पश्यामि" ॥८३॥ तत• खलु स भगवान् गौतम आनन्द श्रमणोपासकमेवमवादीव-"अस्ति खलु आनन्द ! गृहिणो याब स्समुत्पते, नो चैव खलु एतन्महालय, तत्खलु त्वमानन्द ! एतस्य स्थानस्य (विपये) आलोचय यावत्तप कर्म. प्रतिपद्यस्व" ॥ ८४ ॥ तत• खलु स आनन्दो भगवन्त गौतममेवमवादी-" अस्ति खल भदन्त ! जिनवचने सतां सत्वाना तथ्याना सद्भूताना भावाना (विपये) आलोच्यते यावस्पतिपद्यते"?
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. १ सू० ८६ आनन्दगौतममश्नोत्तरनिरूपणम् ३५१ (आनन्द.) “जड़ णं भंते । जिणवयणे सताणं जाव भावाणं नो आलोइज्जइ जाव तवोकम्मं नो पडिवज्जिजइ,त णं भते । तुम्भ चेव एयरस ठाणस्स आलोएह जाव पडिवज्जह" ॥८६॥ तए ण से भगव गोयमे आणंदेणं समणोवासएण एव वुत्ते समाणे सकिए कंखिए विइगिच्छासमावन्ने आणंदस्त अतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दूइपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते गमणागमणाए पडिकमइ, पडिकमित्ता एसणमणेसणे आलोएइ आलोइत्ता भत्त-पाणं पडिदसेइ, पडिदसित्ता समणं भगवे महावीर वदइ नमसइ, वदित्ता नमसित्ता एव वयासी “एव खल्ल भते । अह तुम्भेहि अभणुण्णाए त चेव सव्व कहेइ जाव तए ण अहं सक्किए ३ आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिणिक्खमामि, पडिणिक्खमित्ता (गौ०) " नायमर्थः समर्थः"। (आ०) " यदि खलु भदन्त ! जिनवचने सता यावद्भावाना (विपये) नो आलोच्यने यावत्तपःम नो पतिपद्यते, तत्खलु भदन्त ! यूयमेवैतस्य स्थानस्य (पिपये) आलोच्यते यावत्पतिपद्य वम्" ||८|| ततः खलु स भगवान् गौतम आनन्देन श्रमणोपासक नैवमुक्त सन् शङ्कित काक्षितो विचिकित्सासमापन्न आनन्दस्यान्तिकात्मतिनिक्रामति, मतिनिक्रम्प येनैव दृतिपलाशश्चैत्यो येनैव श्रमणो भगवान महावीरस्तेनैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणस्य भगवतो महावीरस्थादूरसामन्ते गमनागमनस्य प्रतिक्रामति, प्रतिक्रम्य एषण मनेपणमालोचयति, आलोच्य भक्त पान प्रतिदर्शयति, प्रतिदय श्रमण भगवन्त महावीर चन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वैवमवादीत्-एव खलु भदन्त ! अह युष्माभिरभ्यनुज्ञातः, तदेव सर्व क्थयति यावत् ततः खल्वह शङ्कित.३ आनन्दस्य अमणापासकस्यान्तिकात्पतिनिष्कामामि, प्रतिनिष्क्रम्य
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३५२ .
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उपासकदशाम जेणेव इह तेणेव हव्वमागए, त णं भंते । किं आणंदेणं समणोपासएणं तस्स ठाणस्स आलोएयव जाव पडिवजेयव उदाहुमए" गोयमाइ समणे भगवंमहावीरे भगव गोयम एव वयासी गोयमा तुम चेव ण तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि, आणदं च समणोवासय एयम खामेहि" ॥८६॥ तए ण से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स " तहत्ति" एयम विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिवजइ,आणद च समणोवासय एयमह खामेड।।८७॥तए णं समणं भगव महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जणवविहार विहरइ ॥८॥ तए णं से आणंदे समणोवासए बहूहिं सीलव्वएहि जाव अप्पाण भावेत्ता वीसं वासाई समणोवासगपरियाग पाउणित्ता मासियाए सलेहणाए अत्ताण झूसित्ता सद्वि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता आलोइथपडिकते समाहिपत कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिसगस्स येनैवेह तेनैव हव्यमागतः, तत्खलु भदन्त ! किमानन्देन श्रमणोपासकेन तस्य स्थानस्याऽऽलोचितव्य गायत्पतिपत्तव्यमुताहा ! मया " गोतम । इति श्रमणो भगवान महावीरो भगान्त गौतममेचमवादित-"गौतम! त्वमेव सल तस्य स्थानस्याऽऽलाचय यावत्प्रतिपद्यस्त, आनन्द च श्रमणोपासकमेतमर्थ क्षामय" ॥८६॥ तत खलु स भगवान् गौतम श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य "तथेति" एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य तस्थ स्थानस्याऽऽलोचयति यावत्मतिपद्यते, आनन्द च श्रमणोपासकमेतमर्थ क्षामयति ॥८७॥ तत. खलु अमणी भगवान् महावीरोऽन्यदा कदाचिद् बहिर्जनपदविहार विहरति ॥८८॥ ततः खलु स आनन्द. अमणोपासको बहुभि शीलवतैर्यापदात्मान भावयित्वा विंशति वर्षाणि श्रमणोपा सम्पर्याय पालयित्वा, एकादश चोपासकमतिमा सम्यक् कायेन स्पृष्ट्वा मासिक्या सलेखनयाऽऽत्मान जोपयित्वा पष्टिं भक्तान्यनशनेन छिरवा, आलोचितप्रतिक्रान्त.
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अगारसञ्जीवनी टीका अ १ मू. ८९-९० आनन्दगौतमप्रश्नोत्तरनिरूपणम् ३५३ महाविमाणस्स उत्तरपुरस्थिमे णं अरुणे विमाणे देवत्ताए उववन्ने । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाण चत्तारि पलिओवमाइ ठिई पप्णत्ता, तत्थ णं आणंदस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पपणत्ता ॥८॥" आणंदे णं भंते । देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएण अणंतर चयं चइत्ता कहि गच्छिहिह" कहि उववजिहिइ" (भ०)"गोयमा महाविदेहे वासे सिज्झिहिड" ॥ निक्खेवो ॥९॥ समाधिप्राप्तः कालमासे काल कृत्वा सौधर्मावतसकस्य महानिमानस्योत्तरपौरस्त्ये खल अरुणे विमाने देवत्वेनोपपन्न', तत्र खलु अस्त्येफकेपा देवाना चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्र खल्लु आनन्दस्यापि देवम्य चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।।८९॥ आनन्दः खलु भदन्त ! देवस्तस्मादेवलोकादायुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेणाऽऽनन्तर चय न्युत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्रोत्पत्स्यते ॥ गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ॥ निक्षेप. ९० ॥
॥ सप्तमस्याङ्गस्योपासकदशाना प्रथममध्ययन समाप्तम् ॥१॥ टीका:-'निक्षेप' इति-निगमन यथा-"एव खलु जबू! समणेण जाव उवासगदसाण पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्तत्ति वेमि" इति, "एव खलु जम्बूः । श्रमणेन यावत्-उपादकदशाना प्रथमस्याऽभ्ययनस्यायमर्थ प्रज्ञप्तः, इति ब्रीमि" इतिन्छाया । अन्यत्स्पष्टम् ॥ ७५-९० इतिश्री-विश्वविख्यात-जगहल्लम-मसिद्धवाचक-पश्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहुछत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त-"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु वालब्रह्मचारी जैनशास्त्राचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल
प्रति-विरचितायामुपासकदशाङ्गसूत्रस्याऽगारधर्मसञ्जीवन्याख्याया व्याख्याया प्रथम मानन्दाख्यमभ्ययन
समाप्तम् ॥ १ ॥
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उपासकदशासूत्रे
टीकार्य - ' तेण कालेण ' इत्यादि उस कालमें और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर समोसरे, परिषद् निकली यावत् वापस चली गई ।। ७५ ।। उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीरके गौतम गोत्रीय ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति सात हाथकी अवगाहनावाले, समच तुरस्र सस्थानवाले, वज्रर्षभनाराच सघयणवाले, सुवर्ण, पुलक, निकष और पद्मके समान गोरे, उग्रतपस्वी, दीप्त तपवाले, घोर तपवाले, महातपस्वी, उदार, बहुत गुणवान, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचारी, उत्सृष्ट शरीरवाले अर्थात् शरीरसस्कार न करनेवाले, सक्षिप्त विपुल तेजो लेश्याधारी, पष्ठ २ भक्त ( बेला आदि ) के निरन्तर तपः कर्मसे, सयमसे और अनशनादि बारह प्रकारकी तपस्यासे आत्माको भावित करते हुए विचरते थे || ७६ || तब भगवान् गौतमने छुट्ट ग्वमणके पारणे के दिन पहली पारसी में स्वाध्याय किया, दूसरी पोरसी में ध्यान किया और तीसरी पोरसी धीरे धीरे चपलता न करते हुए असभ्रान्त होकर (एकाग्रतासे) सदोरकमुखवत्रिकाकी पडिलेहणा की, पात्रों और वस्त्रोंकी पडि लेहणा की, पडिलेहणा करके वस्त्र पात्रोंकी प्रमार्जना की, प्रमार्जना करके पात्रोंका ग्रहण किया, ग्रहण करके जिस और श्रमण भगवान् महावीर
yas,
टीकार्थ- 'तेण काले' त्याहि मे अणे अने मे समये श्रम लगवान મહાવીર સમે સર્યાં પનિષદ્ નીકળી યાવત્ પછી ચાલી ગઈ(૭૫) એ કાળે એ સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના ગૌતમ-શેત્રીય જ્યેષ્ઠ શિષ્ય ઇંદ્રભૂતિ સાત હાથની અવગાહના વાળા, સમચતુરસ્ર સંસ્થાનવાળા, વજી ભનારાચસ ઘયણુવાળા, સુવર્ણ, નિકષ न्मने पद्मनी समान गोरा, अथ तपस्वी, हीस तयवाणा, घोर तपवाजा, भडा तपस्वी, ધાર બ્રહ્મચારી, ઉત્ક્રુષ્ટ શરીરવાળા અર્થાત્ શરીરસસ્કાર ન કરનારા, સક્ષિપ્ત વિપુલ तेने वेश्याधारी, छ:-छ भउत (मेसु) महिना निश्तर तयर्भथी, सयभथी भने અનશનાદિ બાર પ્રકારની તપસ્યાથી આત્માને ભાવિત કરતા વિચરતા હતા (૭૬) ત્યારે ભગવાન ગૌતમે છઠ્ઠ ખમણના પારણાને દિને પહેલી પારસીમા સ્વાધ્યાય કર્યો, મીજી પારસીમા ધ્યાન કર્યું અને ત્રીજી પેરસીમા ધીરે ધીરે, ચપળતા ન કરતા અસ ભ્રાન્ત થઈને (એકાગ્રતાથી) મુખર્વાઅકાની પડિલેહણા કરી, પાત્રો અને વસોની પડિલેહુણા કરી, વજ્ર પાત્રોની પ્રમાના કરી, પાત્રાની પ્રમાના કરી, પાત્રને ગ્રહણ કર્યાં, અને જે સ્થળે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર હતા તે સ્થળે પહોંચ્યા પછી શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરને વદના નમસ્કાર કર્યાં, અને આ પ્રમાણે કહેવા
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ १ मू.७७ आनन्दगौतममश्नोत्तरनिरूपणम् ३५५ थे उसी ओर पहुँचे । पहुँचकर श्रमण भगवान महावीरको वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहने लगे-" भगवान् ! आपकी आज्ञा मिलने पर पष्ठ खमणके पारणेके लिए वाणिजग्राम नगरमें धनवान् गरीय
और साधारण-सय घरोंमें समुदानी (क्रमसे जाते हुए किसी घरको न छोड कर की जानेवाली) भिक्षाचर्याके लिए जाना चाहता हूँ।" भगवान्ने कहा-" जिसमें सुख हो वैसा करो, विलम्ब न करो" ।। ७७॥ तव भगवान् गौतम श्रमण भगवान महावीरसे आज्ञालेकर श्रमण भगवान महावीरके समीपसे और दुतिपलाश ,त्यसे बाहर निकले । निकलकर धीरे धोरे चपलता न करते हुए सावधानीसे, शूसरप्रमाण पृथ्वीको देखते हुए सामने ईर्या सोधते हुए जहां वाणिजग्राम नगर था वहाँ गए । जाकर वाणिजग्राम नगरमें उचनीच और मध्यम कुलोंमें यथाक्रम भिक्षाचर्याके लिए भ्रमण करने लगे ॥७८ ।। तब भगवान् गौतमने वाणिजग्राम नगरमें कल्प के अनुसार भिक्षा चर्या के लिए भ्रमण करते हुए यथा प्राप्त हो भक्त पान ग्रहण किया। ग्रहण करके वाणिजग्राम नगरसे निकले, निकल कर कोल्लाक सन्निवेशके समीप जय आ रहे थे तो बहुतसे मनुष्योंका शब्द सुना। यहुतसे मनुष्य आपसमें यों कह रहे थे-" देवानुप्रियो ! श्रमण લાગ્યા “ભગવન! આપની આજ્ઞા મળે તે છઠ ખમણના પારણાને માટે વાણિજગ્રામ નગરમાં ધનવાન, ગરીબ અને સાધારણુ બધા ઘરમાં મમુદાની (ક્રમે આવતા કેઈ ઘરને ન છેડતા કરવામાં આવતી ) ભિક્ષાચયને માટે જવા ઈચ્છું છું” ભગવાને કહ્યુ “જેમ સુખ થાય તેમ કર ” (૭૭) એટલે ભગવાન ગૌતમ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની આજ્ઞા લઈને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સમીપેશી તિલાશ
ત્યમાથી બહાર નીકળ્યું અને ધીરે ધીરે ચપળતા ન કરતા સાવધાનીથી ધૂસરા પ્રમાણ પૃથ્વીને જોતા જોતા, સામે ઈર્યા શોધતા શોધતા જ્યા વાણિજગ્રામ નગર હતુ ત્યા ગયા, જઈને વાણિજગ્રામ નગરમાં પ્રતિષ્ઠિત, અપ્રતિષ્ઠિત અને મધ્યમ કુળમાં યથાક્રમ ભિક્ષાચને માટે ભ્રમણ કરવા લાગ્યા (૭૮) ભગવાન ગૌતમે વાણિજગ્રામ નગરમાં કપને અનુસરીને ભિક્ષાચયને માટે બ્રમણ કરતા જેટલુ પર્યાપ્ત થાય તેટલું ભકત-પાન ગ્રહણ કર્યું પછી વાણિજગ્રામ નગરમાથી નીકળીને કેટલાક સન્નિવેશની સમીપે જ્યારે તે જઈ રહ્યા હતા, ત્યારે ઘણા માણસને શબ્દ તેમણે સાભળ્યો ઘણા માણસે મહામહે એક બીજાને કહી રહ્યા હતા કે
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उपासकदशाशे भगवान महावोरके शिष्य आनन्द श्रावक पोपधशालामें अपश्चिम यावत् मृत्युकी आकाक्षा न करते हुए विचरते है" ॥७९॥ यत जनोंसे ऐसा सुनकर और मनमें सोचकर गौतमको इस प्रकारका आध्यात्मिक आदि (विचार) उत्पन्न हुआ “जाऊँ और आनन्द प्रावकको देख आउ।" ऐसा विचार कर कोल्लाक साग्निवेश, आनन्द श्रावक और पोपधशाला जहा थी वहाँ पहुँचे ॥८०॥ तब आनन्द श्रावकने भगवान् गौतमको आते देख कर दृष्ट-तुष्ट (जाव) हृदय होकर भगवान् गौतमको वन्दना की, नमस्कार किया और चन्दना नमस्कार कर इस तरह कहा-" भगवन् ?में इस विशाल प्रयत्नसे यावत् नस नस ही रह गया है, अतः देवानुप्रिय के समीप आकर तीन बार मस्तक नमाफर चरणोमे वन्दना करनेम असमर्थ है, हे भगवन् ! आपही इच्छाकार और अनभियोगसे यहा पधारिये, जिससे मैं देवानुप्रियको तीन बार मस्तक नमाकर चरणाम वन्दना-नमस्कार करूँ" ॥ ८१ ॥ तय भगवान् गौतम आनन्द श्रावकक समीप गये ॥ ८॥ आनन्दने भगवान् गौतमको तीन वार मस्तक झुका कर चरणोंमे वन्दना-नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार कर बोला --" भगवन् ! घरमे रहते हए गृहस्थको क्या अवधिज्ञान उत्पन्न हा सकता है ?" गौतम-"हाँ, हो सकता है।" आनन्द-" भगवन् ! याद
દેવાનુપ્રિયે ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના શિપ આનદ શ્રાવક પોષશાળામાં અપશ્ચિમ યાવત મૃત્યુની આકાંક્ષા ન કરતા વિચરે છે (૭૯) ઘણા માણસોનું એવું બેલગુ સાભળીને અને મનમાં વિચારીને ગૌતમને આ પ્રકારને આધ્યાત્મિક આદિ (વિચાર) ઉત્પન્ન થયે “ જઉ અને આનદ શ્રાવકને જોઈ આવુ” એમ વિચારીને કેટલાક નિવેશ, આનદ શ્રાવક અને પિષધશાળા જે બાજુએ હતા એ બાજુએ તે પહેચ્યા (૮૦) આનદ શ્રાવકે ભગવાન ગૌતમને આવતા જોઈ જાવ) હુષ્ટતુષ્ટ હદય થઈને ભગવાન ગૌતમને વદના કરી, નમસ્કાર કર્યો અને આ પ્રમાણે કહ્યું
ભગવન! હું આ વિશાળ પ્રયત્ન કરીને ચાવત નસેનસ રહી ગયા , એટલે ત્રેવાનુપ્રિયની સમીપે આવીને ત્રણ વાર મસ્તક નમાવી ચરણોમાં - વદના કરવા અસમર્થ છુ હે ભગવાન! આપજ ઈચ્છાકાર અને અને અનભિગે અહીં પધારે, જેથી હું દેવાનુપ્રિયને ત્રણ વાર મસ્તક નમાવી ચરા વદના નમસ્કાર કરૂ”૮૧
એટલે ભગવાન ગૌતમ આનદ શ્રાવકની સમીપે ગયા (૮૨) આનદે ભગવાન -ગૌતમને ત્રણ વાર મસ્તક નમાવી ચરણમાં વદન-નમસ્કાર કર્યા અને કહ્યું
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__ अगारधर्मसञ्जीवनीटोका अ. १ मु०८३-८६ मानन्दगौतमप्रश्नोत्तरनिरूपणम् ३५७
गृहस्थको हो सकता है तो हे भगवन ! मुझ-धरमे रहनेवाले गृहस्यको भीअवधि ज्ञान उत्पन्न हुआ है, उससे पूर्व दिशाकी तरफ लवणसमुद्र में पांचसौ योजन तक यावत् लोलुपान्युत नरक तक मैं जानता और देखता हूँ" -८३॥ तन भगवन् गौतम आनन्द श्रावकसे कहने लगे-"गृहस्थको घरमे रहते हुए अवधिज्ञान हो सकता है परन्तु इतने अधिक क्षेत्रमें नहीं, इसलिए हे आनन्द । तुम इस स्थानकी आलोचना निंदना करके यावत् तपस्या स्वीकार करो" ॥ ८४ ॥ तब वह आनन्द भगवान् गौतमसे बोला-" भगवन् । क्या जिन प्रवचनमे मत्य, तात्त्विक, तथ्य
और सद्भूत भावोके विपयमे भी आलोचना की जाती है यावत् तपाकर्म स्वीकार किया जाता है ?"। गौतम-"नहीं, ऐसा नहीं है।" आनन्द"भगवन् ! यदि जिन वचनमे सत्य यावत् भावोके विपयमे आलोचना नहीं की जाती, और यावत् तप'र्म नही म्बीकार किया जाता तो हे भगवन् । आपही इस स्थानकी आलोचना कीजिए यावत् तप कर्म स्वीकार कीजिए"॥८५॥ तदनन्तर भगवान् गौतम, आनन्द श्रावकके इतना कहने पर शका, काक्षा, और विचिकित्साको प्राप्त होकर आनन्द के पाससे निकले। निकल कर जहा दूतिपलाश चैत्य और श्रमण
ભગવાન ! ઘરમાં રહેતા ગૃહસ્થને શુ અવધિજ્ઞાય ઉત્પન્ન થઈ શકે?” ગૌતમે કહ્યું “હા, થઈ શકે ” આન દે કહ્યું “ભગવાન ! જે ગૃહસ્થને થઈ શકે તે મને-ઘરમાં રહેનારા હસ્થને પણ અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું છે, તેથી પૂર્વ દિશાની બાજુએ લવણસમુદ્રમા પાચ જન સુધી યાવત્ લેલુ પામ્યુત નરક સુધી હું જાણુ–દેખુ છુ” (૮૩) એટલે ભગવાન ગૌતમ આનદ શ્રાવકને કહેવા લાગ્યા “ગૃહસ્થને ઘરમાં રહેતા અવધિજ્ઞાન થઈ શકે છે, પરંતુ આટલા મોટા ક્ષેત્રમાં નહિ, તેથી છે આનદ ! તમે આ સ્થાનની આલોચના કરે અને યાવત તપસ્યા સ્વીકારે” ત્યારે આનંદે ભગવાન ગૌતમને કહ્યું “ભગવાન ! શું જિન-પ્રવચનમાં સત્ય, તાત્વિક, તથ્ય અને સદભૂત ભાવના વિષયમાં પણ આલોચના કરવામાં આવે છે થાવત તપકર્મ સ્વીકારમાં આવે છે?” ગૌતમે કહ્યું “ના, એમ નથી ” આનદે કહ્યું – “ભગવાન ! જે જિન વચનમા સત્ય થાવત ભાવના વિષયમાં આલેચના નથી કરવામાં આવતી અને યાવત તપકર્મ નથી સ્વીકારવામાં આવતુ, તે હે ભગવાન આપ જ આ સ્થાનની આલોચના કરે યાવત તપ કર્મને વીકાર કરે છ૮૫ પછી ભગવાન ગૌતમ, આનદ શ્રાવકના આટલા કથનથી શકા, કાલા, અને વિચિકિત્સાને પ્રાપ્ત થઈ આનદની પાસેથી નીકળ્યા, અને જે બાજુએ
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उपासक दशा सूत्रे भगवान महावीर थे वहाँ गये । जाकर श्रमण भगवान महावीरके समीप बैठ कर गमनागमनका प्रतिक्रमण किया, प्रतिक्रमण करके एष णीय और अनेपणीयकी अलोचना की । आलोचना करके भक्त पान दिग्वलाया और दिखला कर श्रमण भगवान् महावीरको वन्दना की, नमस्कार किया, वन्दना नमस्कार करके कहने लगे-" भगवान्! मैं आपकी आज्ञा प्राप्त करके - ( इत्यादि गौतमने सारा वृत्तान्त कहा शक्ति, कांक्षित और चिचिकित्सायुक्त होने तक ) मैं आनन्द श्रावक के यहाँ से निकला । निकल कर यहाँ शीघ्र आया हूँ । भगवन् ! उस स्थानकी आलोचना आनन्दको करनी चाहिए या मुझे ?" " गौतम !" इस आमन्त्रणसे श्रमण भगवान् महावीरने गौतमसे कहा - " हे गौतम! तुम्ही उस स्थानके विषय मे आलोचना करो यावत तप कर्म स्वीकार करो, और इसके लिए आनन्द श्रावकको खमाओ " ॥ ८६ ॥ गौतमने "तहत्ति " कहकर श्रमण भगवान् महावीरका कथन विनयके साथ स्वीकार किया, स्वीकार करके उस स्थानकी आलोचना की गावत् तप *र्म स्वीकार किया और इस बात के लिए आनन्द श्रावकको खमाया ॥८७॥
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इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर किसी दूसरे समय देशों देशो में विचर रहे थे ॥ ८८ ॥ तब आनन्द श्रावक बहुतसे शील व्रत आदिसे आत्माको भावित ( सस्कारयुक्त) करके, वीस वर्ष पर्यन्त श्रावकपना કૃતિપલાશ ચૈત્ય તથા શ્રમણુ ભગવાન મહાવીર હતા તે ખાજુએ ગયા પછી ગૌતમે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સમીપે એસીને ગમનાગમનનુ પ્રતિક્રમણ કર્યું, અને એષણીય તથા અનમેષણીયની આલેાચના કરી આલેચના કરીને ભકતપાન બતાવ્યા અને શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરને વદના-નમસ્કાર કરી કહેવા લાગ્યા ભગવન! હું આપની આજ્ઞા લઈને (ઇત્યાદિ ગૌતમે બધે વૃત્તાન્ત કહ્યો-શક્તિ, કાશ્ચિંત અને વિચિકિત્સાયુકત થવા સુધીના ) હું માનદ શ્રાવકની પાસેથી નીકળીને શીઘ્ર અહીં માન્ચે છુ ભગવન! એ સ્થાનની આલેચના આનદે કરવી જોઇએ કે મારે ?” " गौतम " એવા આમ ત્રણે કરીને શ્રમણ ભગવાન મહાવી? ગૌતમને કહ્યુ “હું ગૌતમ ! તમે એ સ્થાનની આલેચના કરા યાવત તપક સ્વીકારી, અને તેને માટે માનદ શ્રાવકને ખમાવે * (૮૬) ગૌતમે ઃ તહત્તિ ” કહીને શ્રમણ્ ભગવાન મહાવીરનું કથન વિનયપૂર્વક સ્વીકાર્યું અને એ સ્થાનની આલેચના કરી ચાવત તપકમ સ્વીકાર્યું અને એ વાતને માટે આનદ શ્રાવકને ખમાગ્યે (૮૭) ત્યારબાદ શ્રમણુ ભગવાન મહાવીર કેઇ ખીજે સમયે દેશ વિચરી રહ્યા હતા (૮૮) તે વખતે આનદ શ્રાવક શીલવ્રત આદિથી (સસ્કારયુકત) કરીને, વીસ વર્ષ સુધી શ્રાવકપણુ પાળીને,
આત્માને ભાવિત શ્રાવકની અગીઆર
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका म् ८९-९० अ ययनसमाप्ति पाल कर, श्रावककी ग्यारह पडिमाओंका भली भाति कायसे पालन कर, एक मासकी सलेखनासे आत्माको जूपित (सेवित युक्त) कर, अनशन द्वारा साठ भक्तों ( साठ दिनों दो महीनेके भोजन) कात्याग कर, आलोचना प्रतिक्रमण करके समाधिको प्राप्त होकर काल मासमें काल करके सौधर्म कल्पमे सौधर्मावतसक महाविमानके ईशानकोणमें स्थित अरुण विमानमें देव पर्यायसे उत्पन्न हुआ। वहा किसी-किसी देवकी चार चार पत्योपमकी स्थिति कही गई है, अतः वहा आनन्द देवकी भी चार पल्योपमकी स्थिति कही है ।। ८९ ॥ (गौतम बोले) " भगवन् ! आनन्द देव उस देवलोकसे, आयु, भव, और स्थितिका क्षय होने पर तदनन्तर चव पर कहां जायगा? कहा उत्पन्न होगा?" भगवानने कहा-"गौतम! महाविदेह क्षेत्रमें सिद्ध होगा।"
निक्षेप-"सुधर्मा स्वामी बोले हे जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीरने यावत् उपासकदशागके प्रथम अध्ययनका यही अर्थ कहा है, वैसा ही में तुझसे करता हूँ।" ॥ २० ॥ इति श्री उपासकदशाङ्गसूत्रके प्रथम अभ्ययनकी अगारसजीवनी नाम
_व्याख्याका हिन्दी-मापानुवाद समाप्त ॥१॥ પડિમાઓને સારી રીતે કાયાથી પાળીને, એક માસની સલેખનાથી આત્માને જૂષિત (सवित-युत) शन, मनशनद्वारा सा मत (As पिसे- भडिनाना सोन) ને ત્યાગ કરીને, આલોચના-પ્રતિક્રમણ કરીને, સમાધિને પ્રાપ્ત થઈ કાળમાસમા કાળ કરી સૌધર્મ–કપમાં સૌધર્માવત સક મહાવિમાનના ઈશાન કોણમા સ્થિત અરૂણ વિમાનમાં દેવપર્યાયે ઉત્પન્ન થયે ત્યા કેઈ–કઈ દેવની ચાર-ચાર ૫૫મની સ્થિતિ કહેવામાં આવી છે, એટલે ત્યાં આન દદેવની પણ ચાર પલ્યોપમની સ્થિતિ કહી છે (૮૯) ગૌતમે કહ્યું “ ભગવન! આનદદેવ એ દેવકથી, આયુ. ભવ અને સ્થિતિને ક્ષય થાય પછી ૨ચવીને કયા જશે? કયા ઉત્પન્ન થશે?” ભગવાને કહ્યું “ગૌતમ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સિદ્ધ થશે”
નિક્ષેપ–“ સુધમાં સ્વામી બેયા હે જ બૂ! શ્રમણ ભગવાન્ મહાવીરે ચાવત ઉપાસકદીગના પ્રથમ અધ્યયનને એજ અર્થ કહ્યો છે, અને તે જ तनहु छु”, (६०)
ઈતિ શ્રી ઉપાસકદશાગ સૂત્રના પ્રથમ અધ્યયનની
અગાસછવની નામક વ્યાખ્યાન ગુજરાતી અનુવાદ સમાપ્ત, (૧).
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उपासकदशास्त्रे ॥ द्वितीयाध्ययनम् ॥ अथ द्वितीय कामदेवारयम ययनमारभ्यते 'जड ण भते' इति । . मूलम्-जइण भते। समणेण भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाण पढमस्त अल्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते । दोचस्स णं भते । अझयणस्स के अटे पण्णत्ते ॥११॥ एवं खल्ल जंबू । तेणं कालेण तेण समएण चंपानाम नयरी होत्था । पुण्णभद्दे चेइए । जियसत्तू राया। कामदेवे गाहावई । भद्दा भारिया। छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ बुड्डिपउत्ताओ, छ पवित्थरपउत्ताओ, छ चया दस गोसाहस्सिएणं वएणं । समोसरण । जहा आणंदे तहा निग्गए। तहेव सावयधम्म पडिवज्जइ । सा चेव वत्तवया जाव जेट्टपुत्त मित्तनाइ आपुच्छित्ता जेणेव पोलहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जहाआणदे जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिय धम्मपण्णत्ति उवसपजित्ताणं विहरइ ॥९२॥तए
ण तस्स कामदेवस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयसि • एगे देवे मायी मिच्छट्टिी अतिय पाउन्भूए ॥ ९३॥ * छाया-यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत् सम्प्राप्तेन 'सप्तमस्याङ्गस्योपासनदशाना मथमाध्ययनस्यायमर्थ. प्रशप्त ,द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य कोऽर्थ. प्रज्ञास॥९१॥ एव ग्वलु जम्बूः तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगर्यासीत् । पूर्णभद्रथैत्य । जितशत्रू राजा । कामदेवो गाथापति । भद्रा भार्या । पङ् हिरण्यकाटयो निधानपयुक्ता,पड वृद्धिमयुक्ता', षट् मविस्तरप्रयुक्ता, पड़ वजा दशगोसाहसिकेण व्रजेन । समवसरणम् । यथाऽऽनन्दस्तथा निर्गत:। तथैव श्रावकधर्म प्रतिपद्यते । सा चैव वक्तन्यता यावज्ज्येष्ठपुत्र मित्र ज्ञातिमाए च्छय येनैव पोपधशाला तेनेवोपागच्छति, उपागत्य यथाऽऽनन्दो यावत् श्रमणस्य भगवतो महावीरम्याऽऽन्तिकी धर्ममज्ञप्तिमुपसम्पध विहरति ॥१२॥ तत खलु तस्य कामदेवस्य श्रमणोपासकस्य पूर्वरात्रापरत्रकालसमये एको देवो मायी मिथ्याटिरन्तिक मार्दुभूत ॥ ९३ ॥
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अगारसञ्जीवनी टीका अ २ ० ९१-९३ कामदेवऋद्धिवर्णनम्
टीका -- इत्य भगवतो पदर्शिततत्त्वतया सज्जातानुरागो जम्बूर्द्वितीयाभ्ययनवियमत्रोद्धु मुहुर्भगवन्तमापृच्छति - 'यदि ग्वल्वि' - त्यादि । भगवा - ( सुधर्मा - स्वामी) नादिशति - ' एव खल्वि 'ति । मायी मायावी । शेषामछायाव्यारयाताः ॥ ९१-९३ ॥
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अब दूसरा कामदेव अध्ययन प्रारम्भ किया जाता है
टीकार्य' एव खलु ' इत्यादि ( जम्बू स्वामीने पूछा ) भगवन् ? यदि श्रमण भगवान् महावीर यावत् मुक्तिको प्राप्तने सातवें अग उपासक दशाके प्रथम अध्ययनका यह अर्थ प्ररूपित किया है, तो भगवन् ! दूसरे अध्ययनका क्या अर्थ बताया है ? ॥ ९१ ॥
( सुधर्मा स्वामीने उत्तर दिया ) हे जम्बू ! उस काल उस समय में चम्पा नामकी नगरी थी । पूर्णभद्र चैत्य था । जितशत्रु राजा था। कामदेव गाथापति था । भद्रा नामकी उसकी भार्यां थी। छह करोड सोनैये उसके खजाने में थे, छह करोड़ व्यापारमें लगे थे, छह करोड़ प्रविस्तर ( लेन देन ) में थे, और दस हजार गायोंके एक व्रजके हिसाब से छह व्रज थे अर्थात् माठ हजार गोवर्ग था । वह आनन्दकी तरह निकला श्रमण भगवान् महावीरके समीप आया, उसी प्रकार श्रावक धर्मको स्वीकार किया | यहा सब वृत्तान्त पूर्वोक्त ही समझना चाहिए कि હવે ખીજા કામદેવ અધ્યયનના પ્રારભ કરવામા આવે છે, टीकार्थ- 'एव खलु' इत्यादि (लघु स्वाभीमे गृछ्यु -) भगवन् । શ્રમણ ભગવાન મહાવીર થાવત મુક્તિને પામેલાએ સાતમા અગ ઉપાસક દશાના પહેલા અધ્યનમા એ અથ પ્રરૂપિત કર્યાં છે, તેા ભગવન । ખીજા અધ્યયનમાં શેક અર્થ ખતાવ્યા છે (૯૧)
જો
(સુધાં સ્વામીઅે ઉત્તર આપ્યા --) હું જખુ ! એ કાળે એ સમયે ચપા નામની નગરી હતી. પૂર્ણભદ્ર ચૈત્ય હતુ તિશત્રુ રા હતા. કામદેવ ગાથાપતિ હતા ભદ્રા નામની તેમની સ્ત્રી હતી છ કરાડ સાનૈયા એના ખાનામાં હતા, છ કરોડ વેપારમાં રાયા હતા, છ 81 प्रविस्तर (बेलु-हेयु) मा गुथाया हता, અને દસ હજાર ગાયાના એક વ્રજને હિસઅે છ વ્રજ હતા, અર્થાત્ સાઠ હજાર ગેાવના પશુઓ તેની પાસે હતા તે આનન્દની પઠે નીકળ્યે મણુ ભગવાન મહાવીરની સમીપે આવ્યે એજ પ્રકારે તેણે શ્રાવક ધર્મના સ્વીકાર કર્યાં અહીં બધા વૃત્તાત પૂર્વોક્ત પ્રકારના જ સમજી લેવા કે~ કામદેવ યાવતુ વડા પુત્રને,
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उपासकदशास्त्रे मूलम्-तए णं से देवे एगं महं पिसायरूव विउबइ । तस्सण देवस्स पिसायरूवस्स इमे एयारूवेवण्णावासेपण्णत्ते सीस सेगोकलिंजसठाणसठिय, सालिभसेल्लसरिसा से केसा कविलतेएण दिप्पमाणा, महल्लरट्रियाकभल्लसठाणसठिय निडाल, मुगुसपुछ व तस्स भुमगाओ फुग्गफुग्गाओ विगयवीभच्छदसणाओ, सीसघडिविणिग्गयाइ अच्छीणि विगयवीभच्छदसणाइ, कण्णा जह सुप्पकत्तर चेव विगयवीभच्छदसणिज्जा, उरभपुडसन्निभा से नासाझुसिरा, जमलचुल्लीसठाणसठिया दोवि तस्स नासापुडया, घोडयपुंछ व तस्स मसूई किवलकविलाई विगयवीभच्छदसणाइ, उट्ठा उस्स चेव लबा, फालसरिसा से दंता, जिब्भा जह सुप्पकत्तर
छाया -ततः खलु स देव एक महान्त पिशाचरूप विकुरुते, तस्य ग्वल देवम्य पिशाचरूपम्यायमेतद्रूपो वर्णकव्यास: प्रज्ञप्त -शीर्ष तस्य गोक लिञ्जसस्थानसस्थित, शालिमसेल्लसदृशास्तस्य केशा सपिलतेजसा दीप्यमाना, महोष्टिकाकभल्लसस्थानसस्थित ललाट, मुगुसपुच्छवत्तस्य भ्रवौ फुग्गफुग्गा विकृतवीभत्सदर्शनौ, शीर्पघटीपिनिर्गते अक्षिणि विकृतवीभत्सदर्शने, वाँ यथा शूर्पकर्तरे एव विकृतबीभत्स दर्शनीयो, उरभ्रपुटसन्निभा तस्य नासा शुपिरा, यमलचुल्लीसस्थानमस्थिते द्वे अपि तस्य नासापुटे, घोटकपुच्छचत्तस्य श्मश्रुणि कापलकपिलानि विकृतवीभत्सदर्शनानि, ओष्ठी उष्ट्रस्येव लम्बा, कामदेव यावत् ज्येष्ठ पुत्रसे मित्रोंसे और ज्ञातिसे पूछकर जहां पोषधः शाला धी चहा गया। वहाँ जाकर आनन्दकी तरह श्रमण भगवान महावीरके समीपकी धर्मप्रज्ञप्तिको स्वीकार कर विचरने लगा ॥ ९२ ! इसके बाद उस कामदेव श्रावकके पास पूर्वरात्रिके दूसरे समय (पिछली रात्रि में एक कपटी मिथ्यादृष्टि देव आया ॥ ९३ ॥ મિત્રને અને જ્ઞાતિને પૂછીને જ્યાં પિષધશાળા હતી ત્યા ગયે ત્યાં જઈને આન ની પિઠે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સમીપની ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિને સ્વીકાર કરી વિચારવા લાગે (૨) ત્યારબાદ એ કામદેવ શ્રાવકની પાસે પૂર્વ રાત્રિને બીજે સમયે (મધરાત્રે) એક કપટી મિથ્યાદિ દેવ આવ્યે (૯૩)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. २ ० ९४ पिशाचरूपधारिदेववर्णनम् ३६३ चेव विगयवीभच्छदसणिज्जा, हलकुद्दालसठिया से हणुया, गल्लकडिल्ल च तस्स खड्डु फुट कविलं फरुस महल्लं, मुइंगाकारोवमे से खधे, पुरवरकवाडोवमे से वच्छे, कोट्टियासठाणसठिया दोवि तस्स वावा निसापाहाणसंठाणसठिया दोवि तस्स अग्गहत्था, निसालोढसठाणसठियाओ हत्थेसु अंगुलीओ, सिप्पिपुडगसठिया से नक्खा, णावियपसेवओ व उरंसि लवंति दोवि तस्स थणया, पोटं अयकोट्रओव्व वह, पाणकलदसरितासे नाही, सिकगसंठाणसंठिए से नेत्ते, किण्णपुडसंठाणसठिया दोवि तस्स वणसा, जमलकोट्रियासंठाणसंठिया दोवि तस्स ऊरू, अज्जुणगुच्छं व तस्स जाणूइ कुडिलकुडलिई विगयवीभच्छदंसणाइ, जंघाओ करकडीओ लोमेहि उवचियाओ, अहरीसठाणसंठिया दोवितस्स पाया,अहरोलोढसंठाणसठियाओ पाएसु अगुलीओ सिप्पिपुडसठिया से नक्खा ॥९४॥
फालसदृशास्तस्य दन्ताः, जिहा यथा सर्पवर्तरमेव विकृतवीभत्सदर्शनीया, हलकुदा लसस्थिता तस्य हनुका, गल्लकडिल्ल च तस्य गत स्फुट कपिल परुप महत, मृदगाकारोपमौ तस्य स्कन्धौ, पुरवरकपाटोपम तस्य वक्षः, कोष्ठिकासस्थानसस्थिती द्वावपि वाहू,निशापापाण सस्थानसस्थितौ द्वावपि तस्याग्रहस्तो, निशालोष्टसस्थानसस्थिता हस्तयोरगुल्य , शुक्तिपुटकसस्थितास्तस्य नखा , नापितप्रसेवकाविवो रसि लम्ते द्वावपि स्तनकौ, उदरमय कोष्ठकवद्वृत्त, पानकलन्दसदृशीतस्य नामि०, शिक्यकसस्थानसस्थिते तस्य नेत्रे, किण्वपुत्रसस्थानसम्थितौ द्वावपि तस्य पणौ, यमलकोष्ठिकासस्थानसस्थितौ द्वावपि तस्योरू, अर्जुनगुच्छमिव तस्य जानुनी कुटिलकुटिले विकृतवीभत्सदर्शने, जद्धे करकटी रोमभिरुपचिते, अधरीसस्थानसस्थिती द्वावपि तस्य पादौ, अधरीलोष्टसस्थानसस्थिताः पादेवगुल्या, । शक्तिपुटसस्थितास्तस्य नरखा ॥ ९४ ॥
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उपासकदशासूत्रे टीका-वर्णक-व्यास-स्वरूपप्रकारः । शीप-शिरः । 'गोकलिजे'-ति गवादेर्भक्षणसौकर्याय निर्मित वंशमय भाजन-गोलिञ्ज तस्य यस्सस्थान स्वरूप मर्थादधोमुखीकृतस्यतस्येति तद्वत्सस्थितमपस्थितम् । शाली'-ति-'भसेल्ल' इत्यय शब्दो देशीयः कणिश शूकार्थे, ततश्च शालिभसेल्लसदृशा इत्यस्य शालीना ये भसेल्ला! कणिश-का-मञ्जरीकिंशारवस्तत्सदृशा इत्यर्थः । कपिलतेजसापिङ्गवर्णकान्त्या । 'महे'-ति-महती चासावुष्टिका च महोष्टिका-विपुलमृदाजन 'माटा' इति मसिद्धा, तस्या कभल्ल कपाल तस्य सस्थानमाकारस्तद्वत्सस्थि तम् । 'मुगुसे' ति मुगुसानकुलस्तस्य पुच्छचन, फुग्ग फुग्गी-विकीर्णरोमाणी, विकृतमत एव वीभत्स, यद्वा विकत वीभत्स च दर्शन ययोस्ते । 'शीर्षे' ति शीर्ष-मस्तक तदेव घटीवद्गोलाऽऽकृतित्वात, तस्या विनिर्गते विनिष्क्रान्ते शीघटीविनिर्गते घटयाफारमस्तकमतिक्रम्याऽवस्थिते इत्यर्थः,अक्षिणी-नेत्रे,विक तेत्यादि प्राग्वत् । शूर्पकर्तरे-शूर्पखण्डे,विकृतेति विकृत वीभत्स च यथा स्यात्तथा ___टीकार्थ-'तए ण से देवे ' इत्यादि उस देवने एक महान पिशाचके रूपकी विक्रिया की। उस पिशाचमा ऐसा स्वरूप था-" गाय आदि पशुओके घास मेरलतासे खाये जानेके लिए जो गोकलिंज नामक एक बास आदिका पात्र ( वोइयाटोपला) बनाया जाता है, उसक समान उसका मस्तक था। शालिभसेल्ल अर्थात चावल आदिकी मजरीके शकके समान रूखे और मोटे भूरे रंगकी कातिसे देदीप्यमान उसक केश थे। उसका ललाट बड़े मिट्टीके माटेके कपाल जैसा लम्बा चौडा था। उसकी भौहे नौलेकी पूछके समान बिखरे हुए बालोसे विकृत
और बीभत्स (भयानक) दीख पडती थी । उसी आँखें शीर्षघटीमस्तकरूप गोल मटोल घटी (छोटा घडा) से बाहर निकली हुई (उची
टीकार्थ-'तए से देवे' या सवे से महान पिशायना ३५ना વિક્રિયા કરી એ પિશાચનું આવું સ્વરૂપ હત “ગાય આદિ પશુઓ સહેલાઈથી ઘાસ ખાઈ શકે તે માટે જે ગોકલિંજે નામને એક વાસને ટોપલે બનાવ આવે છે, તેના જેવડું તેનું મસ્તક હત શાલિભસેલ એટલે ચેખા આદિ મજરીને શકના જેવા સુકા અને મોટા ભૂરા ૨ગની કાતિથી દેરીવ્યમાન તેના કેશ હતા મેટા માટીના માટલાના કપાળ જેવુ લાબુ-પહેલુ તેનું લવાટ હતું તે ભમ્મરે નેળીયાની પૂછડીની પેઠે વિખરાયેલા વાળથી વિકૃત અને ભયાનક જેવામાં આવતી હતી તેની આખે શીર્ષઘટી–મસ્તકરૂપ ગોળ મટેળ ઘડી (નાનો ઘડે)માંથી બહાર નીકળેલી (ઉચી ઉઠી આવેલી) હેવાથી વિકૃત અને અત્યંત ખરાબ દેખાતી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० २ मू०९४ पिशाचरूपधारिदेववर्णनम् .. ३६५ दर्शनीयौ । उरभ्रपुटसन्निभा मेपनासापुटतुल्या, शुपिरा शुपिर विवर तयुक्ता गहराकाररन्त्रवतीत्यर्थः । 'यमले' ति यमले सयुते ये चुल्ल्यौ तयो सस्थानम् आकारस्तद्वत्सस्थिते । कपिलपिलानि अतिपिगलानि । 'हलकुदाले ति दलकुदाल हलस्य मुख येन भूमियते तद्वत्सस्थानयुक्ता, हनुका-हनुः कपोलाधो. भागः । 'गल्ले' ति गल्ल' कपोल कडिल्लमित्र-मोजनविशेष इव, एतदेव विशिष्टि 'गत-मित्यादि गर्त-वभ्रवनिम्नमभ्य, स्फुट-विदीर्णस्वरूपम्, इदमेवाभिप्रेत्य गडिल्लमित्युक्तम्, कपिल=पिङ्गल, परुप-कठोरस्पर्शम् । मृदङ्गे-ति मृदगः स्वनामप्रसिद्धो माधविगेपस्तस्य य आकारपरूप तेनोपमा सादृश्य ययौस्तौ, स्कन्धौ
भुजमूलभागौ । पुरेति पुरेपु वर-पुरवर-प्रधाननगर तस्य यत्कपाटमर्याद द्वारस्थितमतिविशाल तेनोपमा सादृश्य यस्य तत् अतिविशालमित्ययः,वक्षः उरस्य उठी हुई) होनेसे विकृत और अत्यन्त धुरी दीखती थीं। कान उसके टूटे हुए सूपडे के समान बडा ही विचित्र और देखनेमे भयकर थे। नाक उसकी मेढ़ेकी नाक जैसी थी, गढ़े सरीखे छेद उसमें बने हुए थे। नारके दोनों छेद ऐसे थे मानों जुडे हुए दो चूल्हे हों। उसकी मुडे घोडेकी पूँछ जैसी और अत्यन्त भूरी होनेसे विकृत दुर्दर्शनीय थी। दोनों होठ ऊँटके होठोंके समान लये थे । फाल (लोहेकी हलवाणी) के समान उसके तीखे तीखे दात थे । जीभ सूपडे के टुकडे के समान विकृत और देखनेमे बीभत्स थी। उसकी हड़यची हलके अग्रभागके समान याहार निकली हुई थी। उसके गाल कडिल्ल वर्तन (ऊडे पात्र) के समान गहरे तथा फटे हुए दीखते थे, और भूरे रंगके अत्यन्त कर्कश(कठोर)थे। उसके कधे मृदगोके समान थे। किसी प्रधान नगरके फाटके समान चौडी उसकी छाती थी। उसकी दोनों भुजाएँ कोष्ठिका હતી તેના કાન તૂટેલા સુપડાના જેવા અન્ય ત વિચિત્ર અને જોવામાં ભયંકર લાગતા હતા તેનું નાક ઘેટાના નાક જેવું હતું તેમાં ખાડા જેવા છેદ હતા નાકના બેઉ છેદ એવા હતા કે જાણે એક બીજાથી જોડાયેલા બે ચૂલા હેય તેની મૂકે ઘેડાના પૂછ જેવી અને અત્યત ભૂરી હેવાથી વિકન દુર્દર્શનીય હતી બેઉ હાઠ ઊટના હેઠન જેવા લાબા હતા હળના લોઢાના ફળા (જે વડે જમીન ખોદાય છે હળની અદર બેસેલી લોઢાનો કેશ) જેવા તેના અણીદાર દાત હતા જીભ સૂપડાના ટુકડા જેવી વિકૃત અને જોવામાં ભયાનક હતી તેની હડપચી હળના અગ્રભાગની પિઠે બહાર નીકળેલી હતી, તેના ગાલ કડિટ્ટ (ઉડુ વાસણ) જેવા ઉડા અને ફાટેલા દેખતા હતા અને ભૂરા રંગના અન્ય ત કઠોર હતા તેની ખાધ મૃદ ગે જેવી હતી કઈ મેળ નગરના દરવાજા જેવી પહેલા તેની છાતી હતી તેની બેઉ ભુજાઓ
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उपासकदशास्त्रे लम् । कोष्ठिकेति कोष्ठिका-पवनसबरणार्थ भनाया मुखाग्रे स्थापिता मन्मयी कुसूलिका तस्या यत्सस्थानमाकारम्तदस्थितौ परुपौ विपुलौ चेत्यर्थः, बाहभुजौ । निशेति निशापापाण-घरट्टस्तत्सस्थानवत्पृथुलतया सस्थिती, अग्र हस्तो-हस्ताग्रभागौ करतले इत्यर्थः । निशालोप्टेति निशालोट-शिलापुत्रकस्त तुल्या:-शिलाखण्डवचिपिटा इत्यर्थः । शुक्तिपुटरसस्थिता:-शुक्तिपुटतुल्याः ! नापितेति-नापितस्य प्रसेवको क्षुरनखल्वादिनिधानपात्रे (रधानी रछानी) ताविव उरसि-वक्षःस्थले। अय कोष्ठकवत् लोहकुसूलवत्, वृत्त वर्तुलम् । पानेति पान तन्तुवायैवस्वेपु दीयमान धान्यरससम्पादित जल तस्य कलन्द कुण्ड तत्सदृशी गम्भीरेत्यर्थः । शिक्यकेति शिक्या-शिक्य दव्यादिसरक्षार्थ रज्जुनिर्मित लोके प्रसिद्ध तत्तुल्याकारे । किण्वेति किण्वमत्रोपचारातण्डुलादिनिधानी गोणी 'बोरी इति प्रसिद्ध तस्य यत्पुट-भागद्वयमर्थात्तण्डुलादिसभृततया विपुलाकृति तत्तुल्याकारों (हवा रोकने इकट्ठी करने के लिए भस्त्रा फुकनी के मुह के सामने बनी हुई मिट्टीकी कोठी )के समान थीं। उसकी हथेलिया घट्टी (चक्की)के पाटके समान मोटी थी । उसके दोनों हाथोंकी अगुलिया शिलापुत्रक (पत्थरकी लौढ़ी) के समान चपटी थी। उसके नाखून सीपके सपुटोके समान थे। उसके दोनो स्तन छाती पर खूब लम्बे लटक रहे थे, जैसे नाईका रछन्निया-(ऊस्तरे आदि रखने की चमडेकी थेलिया ) हो। उसका पेट लोहेके कुसूल (कोठे )के समान गोल था। नाभि ऐसी गहरी था जैसे जुलाहो द्वारा वस्त्रमे लगाये जानेवाले आटेके जल (माड) का कुण्ड हो। नेत्र छींके के समान थे। दोनों अण्डकोष भरे हुए पास पास पडे दो थेलों (बोरियों के समान लम्बे चौडे थे । उसकी जघाएँ समान आकारवाली दो कोठियों के समान थी। दोनों घुटने अर्जुन કઠી (હવા રવા માટે ધમણના મહેની સામે બનાવવામાં આવતી માટીની કેડી)ના જેવી હતી તેની હથેળીઓ ઘટીના પત્થર જેમ જાડી હતી તેના બેઉ હાથની આગળીઓ શિલાપુરક (દાળ વાટવાના લાબા પત્થર) જેવી હતી તેના નામ સીપના સ પુર જેવા હતા તેના બેઉ સ્તન છાતી પર ખૂબ લાબા લટકી રહ્યા હતા, જાણે હજામના હથીયાર રાખવાની કોથળીઓ હોય તેનું પેટ લેઢાના કે જેવું ગેળ હતુ નાભિ એવી ઉડી હતી કે જાણે વણકરોને કપડાને લગાવવાની એળ-કાળનેન્કડ હેય નેત્રે લીંક જેવા હતા બેઉ અડકેષ ભરેલા અને પાસે પાસે પડેલા બે થેલા (બેરીઓ) જેવા લાબા-પહેળા હતા તેની જા સમાન આકારવાળી બે કઠીઓના જેવી હતી બેઉ ઘુટણે અર્જુન વૃક્ષના ગુરછા જેવા
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अगारघम सञ्जीवनीटीका अ० २ ० ९४-९५ पिशाचरूपधारीदेववर्णनम् ३६७ मूलम् — लडहमडहजाणुए, विगयभग्गभुग्गभुमए, अवदालिय वयणवित्ररनिल्लालियग्गजीहे, सरडकयमालियाए, उंदुरमालापरि सुकयचिंधे, नउलकयजण्णपूरे, सप्पकयवेगच्छे, अप्फोडते, अभिगज्जते, भीममुक्कट्टट्टहासे, नाणाविहपचवण्णहिं लोमेहि उवचिए एग मह नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासं असिं खुरधारं गहाय जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेवे समणोवासम् तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आसुरते रुहें कुविए चडिकिए मिसमि सीमाणे कामदेव समणोवासयं एव वयासी- "हभो कामदेवा । समणोवासया । अप्पत्थियपत्थया । दुरंतपतलक्खणा । हीणपुण्णचाउसिया । सिरिहिरिधिइकित्तिपरिवज्जिया । धम्मकामया । पुण्ण
कृपण = अण्डकोपौ । मलेति यमले = समानाकारयुग्मरूपे ये कोष्ठिके कुम्लीद्वय तदाकारण संस्थितों उरु सक्थिनी । 'अर्जुने 'नि- अर्जुनः = इन्द्रवृक्षस्तस्य गुच्छ'= स्तवक, यद्वा अर्जुन धान्यादिरूप तस्य गुच्छः = स्तम्वस्तद्वत् जानुनी=उरु पर्वद्वयम्, तदेव विशिनष्टि कुटिलेति-कुटिल कुटिले= अतिकुटिले, विकृतेति माग्वत् । जो = जान्वधोभाग, करकटी कठिने, उपचितेध्याते। अधरिति अधरी=पेपणी शिला नत्सस्थानस स्थितौ तत्तुल्यौ । अघरीष्ट= शिलाखण्डम् । शुक्तिपुटेतिमाग्व्याख्यातम् ॥९४॥
वृक्षके गुच्छेके समान बिल किल टेढ़े विकृत और बीभत्स दर्शनवाले थे । पिण्डलियाँ कठोर और बालोसे भरी हुई थीं। दोनों पैर दाल पीसने की शिलाकी तरह थे। पैरोकी अगुलियाँ शिला पर पीसनेके पत्थरकी आकृतिवाली थीं। पैरोंके नख भी सिप्पीसपुटके समान थे । ॥ ९४ ॥
તદ્ન વાકા, વિકૃત અને બીભત્સ દનવાળા હતા પીંડીએ કંઠાર અને વાળથી ભરેલી હતી બેઉ પગ દાળ વાટવાના પત્થર (એસીયા) જેવા હતા પગની આગળી દાળ વાટવાની સિલા ઉપરના લાખ પત્થરની આકૃતિવાળી હતી, પગના નખ પણ સીપના સપુટ જેવા હતા (૯૪)
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
कामया । सग्गकमिया ? मोक्खकामया ! धम्मकंस्विया ४ ! धम्म पिवासिया ४ । नो खलु कप्पड़ तत्र देवाणुप्पिया ! जं सीलाइ या वेरमणा पच्चक्खाणाड पोसहोववासाइं चालित्तए वा खोभित्तए वा खडित वा भंजित्तए वा उज्झित्तए वा परि चइत्तए वा तं जइ णं तुमं अज्ज सीलाइ जाव पोसहोववा साइ न छडसि न भंजेसि तो ते अह अज्ज इमेणं नीलुप्पल जाव असिणा खडाखंडिं करेमि, जहा ण तुम देवाणुप्पिया । अट्ट दुहट्टवसटे अकाले णेव जीवियाओ ववरोविजसि ॥९५॥
छाया - लडहमडहजानुकः, विकृतभप्रभुप्रभू, अवदारितवदनवित्ररनिललिता ग्रजिह्व, सरटकृतमालिकः, उन्दुरुमालापरिणद्धसुकृतचिह्नः, नकुलकृत कर्णपूरः, सर्पकृतवैकक्षः, आस्फोटयन्, अभिगर्जन, भीममुक्ताट्टाट्टहास, नानाविधपञ्चवर्णैरोमभिरु पचित एक महान्त नीलोत्पल गवलगुलिकाऽतसीकुसुमप्रकाशमसिं क्षुरधार गृहीला येनैव पोषधशाला येनैव कामदेवः श्रमणोपासकस्तेनैवोपागच्छति, उपागत्य, आ शुरक्तो रुष्टः कुपितचाण्डिक्यितो मिसमिसायमान' कामदेव श्रमणोपासकमेवमवा दीव - "ह भो' कामदेव ! श्रमणोपासक !, अप्रार्थितमार्थक !, दुरन्तमान्तलक्षण 1, हीनपुष्णचातुर्दशिक', श्रीह्रीधृतिकीर्तिपरिवर्जित !, धर्मकाम, पुण्यकाम!, स्वर्ग काम, मोक्षकाम!, धर्मकाक्षिते। ४, धर्मपिपासित ४नो खलु कल्पते तत्र देवानु मिया यत् शिलानि व्रतानि विरमगानि प्रत्याख्यानानि पोपधोपवासान् चालयितु वा, क्षोभयितु वा, खण्डयितु वा, भक्तु वा, उज्झितु, परित्यक्तु वा, तद्यदि खलु त्वमद्य शीलानि यावत्पोषधोपवासान् न त्यक्ष्यसि न भक्ष्यसि तर्हि तेऽह मद्यानेन नीलोत्पल यावदसिना खण्डाखण्डि करोमि, यथा खलु त्व देवानुप्रिय ! आर्त्तदु खार्तवशातेऽकाल एव जीविताद् व्यपरोप्यसे" ॥९५॥
टीका-लडहेति-लडहे-लम्बाने, मडहे = कम्पमाने च जानुनी वस्य सः । विकृतेति विकृते रूप् माप्ते भग्ने= खण्डिते, भुग्ने= कुटिले च भ्रुवौ यस्य सः । १ धर्म काडक्षा सजाताऽस्येत्यर्थे तारकादित्वादितच्, एव धर्मपिपासितेत्यत्रापि ।
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका २ ० ९४-९५ पिशाचरूपधारिदेववर्णनम् ३६९ अवदारितेति-आदारितच्यात इनमेय विवर येन म, तथा निर्लालिता-मुग्वानिस्सारिता अग्रनिहा-जिहाग्रभागो येन सः, अवदारितवदनविवरचायौ निलालिताग्रजिह्वश्चेति,यद्वा अपदारित व्यात्त यद्वदनरूप विवरवम्मान्निालिता वहिनि स्सारिता अग्रजिहा जिहया अग्रो भागो येन स , सरटेति-सरटा: कृमलामास्तै. कृता-सपादिता मालिका'लघुस्रजो (मस्तकादिषु) येन सः। उन्दर्वितिउन्दुरखो मूपिकास्तेपा मालया सना परिणद्ध-वेष्टितमत एव मुकृत-मम्यक्नया रचित चिद स्वकीय लक्षण येन, यहा उन्दुरूणा मालया परिणद्धः अतएव सुकृत सम्यग्रचित चिन्ह येनेत्युभया. कर्मधारयः । नकुलेति नकुलाभ्या='नेवला' इति लोकप्रसिद्धाभ्यां भुजपरिसर्पजन्तुविशेषाभ्या कृता-सम्पादितः वर्णपूर: कर्णाभरण येन स सर्पति-सपैं. कृत-सम्पादित वैकक्षम्-उर स्थलोपरितिर्यकलिप्तमाला विशेपो येन स , 'बैंकक्षमुत्तरासन' इति व्याख्यान तु गजनिमीलिफयैव कोपाधनवलोकनात् । आस्फोटयन्याहुकरस्फोट कुर्वन् । अभिगर्जन्–घोर निनदन् भीमेति भीम-भयङ्कर यथा स्यात्तथेति क्रियाविशेषणमिद, मुक्त'-कृत अट्टाहहासा-महाहासो येन स । नानेति-एकैकस्मिन्नपि वर्णे नानारूपत्वान्नानाविवत्वम्
टीकार्थ-' लडह-मडहे '-त्यादि उसके जानुएँ (घुटने ) लम्बे थे और काप रहे थे। खडित टेढ़ी भौंहें विकृत हो गई थी। उसने मुह फाड़ रखा था और जिहवाका अगला भाग बाहार निकाल रखा था। वह सरटों (गिरधोना किरकाटिया) की माला मस्तक आदि पर पहने हुए था। चूहोकी मालाओंसे वह सजा था । कानोंके गहनेकी जगह वह नेवले पहने हुए था। साँसे उसने वक्षस्थल सजाया था। उस पिशाचने भुजाओं पर हाथ ठेक कर धन घोर भयकर गर्जना करते हुए अट्टहास किया (खिल खिलाया)। एक होते हुए भी अनेरूप पाच वर्णवाले रोमोसे युक्त, पड़ी भारी नील कमल, भस
टीकार्थ-'लडइमड हे'-त्या तेना नुम। (धुर) मा त भने ४५ રહ્યા હતા ખડિન વાકી ભ્રમરો વિકૃત થઈ ગઈ હતી તેણે હે ફાડી રાખ્યું હતું અને જીહાને આગલે ભાગ બહાર કાઢી રાખ્યું હતું તેણે સરડા (કાચીંડા)ની માળા મસ્તક અદિ પર પહેરી હતી, ઉદરની માળા ધારણ કરી હતી કાનના ઘરેણાની જગ્યાએ તેણે નેળીયા પહેર્યા હતા સાપેથી તેણે પોતાના વક્ષસ્થળને શણગાર્યું હતું તે પિશાચે ભુજાઓ પર હાથ લગાવી લગાવીને ઘેર ભાકર ગર્જના કરતા અટ્ટહાસ્ય કર્યું (ખડખડાટ હ) એક હેવા છતા અનેકરૂપ પાચ
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उपासनदशास्त्रे उपचितः च्याप्त , नीलोत्पलेति नीलोत्पल प्रसिद्ध, गाल-महिषा, गुलिकानीली, अतसी 'तिस्मो इति अलसी'इति च प्रसिद्धी धान्यविशेषस्तस्याः कुसुमपुष्पमित्येपा द्वन्द्वे नीलोत्पल गवल गुलिकाऽतसीकुसमानी, तेपा प्रकाश इव वर्ण इव प्रकाशो यम्य तमतिश्याममित्यर्थ , असिम्तरवारिं, सुरति पुरस्य धारेव (तीक्ष्णा) धारा यस्य तम्। आशुरक्ता शीघ्र क्रोधावेश गत , आचरक कुफ्ति चण्डिक्यित पिसमिसायमान शब्दा एकार्था अपि पिशाचस्यातिमानोद्धत क्रोधममि व्यक्तुमुपात्ताः । अप्रेति अमार्थितस्य केनाप्यमनोरथीकृतस्य (मृत्योः) पार्थक ! कामुक!। दुरन्तेति-दुष्ट. अन्त'=अवसान यस्य तादृश, प्रान्तम्-असम्यक, लक्षणचिन्ह यस्य तथाभूत ' ही नेति हीन पुण्य यस्यामों हीनपुण्यः, चतुर्दश्या जातश्चातुर्दशिर, हीनपुण्यश्चासौ चातुर्दशिक्श्चेति - हीनपुण्यचातुर्दगिक - पापात्मेन्यर्थः, तत्सम्बोधने । धर्मति-धर्म कामयत इति धर्मकामस्तत्सम्बोधने, के सोंग, नील और अलसीके फूलके समान श्याम रगकी, क्षुराकी धारके समान तीग्वी तलवार लेकर जिधर पोषधशाला थी, और जिधर काम देव श्रावक था उधर ही आया । आकर लाल,पीला होकर कुपित और भयकर क्रोधाविष्ट होकर दात किडकिडाता हुआ, तात्पर्य यह कि चरम सीमा पर क्रुद्ध (आग बबूला) होकर कामदेव श्रावकसे इस प्रकार करने लगा-"अरे कामदेव श्रावक! तू मौतकी इच्छा कर रहा है, तेरे आखिरी बुरे होने के लक्षण हैं। तू अभागी चतुर्दशीमे पैदा हुआ है । तू श्री (कान्ति) ही (लजा) धृति (धीरज) और कीर्तिसे कोरा है ! अहाहाहा!!! तू धर्मकी कामना करता है ? पुण्यकी कामना करता है ? स्वर्गकी कामना करता है ? मोक्षकी कामना करना है? धर्म पुण्य स्वर्ग आर मोक्षका વર્ણવાળા મેથી યુકત, બહુજ ભારે, નીલકમલ, મેશના શીંગડા, નીલ અને અળસીના ફૂલના જેવી શ્યામ રંગની તીખી તલવાર લઈને, જ્યાં પિષધશાળા હતી અને જ્યાં કામદેવ શ્રાવક હતું ત્યાં તે આવ્યે આવીને લાલ-પીળો થઇ, કુપિત અને ભયકર ક્રોધાવિષ્ટ થઈ, દાત કચકચાવતે, તાત્પર્ય એ કે એટલી હદ સુધી
ધાધ થઈને તે કામદેવ શ્રાવકને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું “અરે કામદેવ શ્રાવક! તુ મતની ઈચ્છા કરી રહ્યો છે છેવટનું ભુડ થવાના તારા લક્ષણુ છે અભાગી ચૌદશે પેદા થયે છે શ્રી (ક્તિ), હી (લજ્જા, કૃતિ (ધીરજ) અને કીર્તિથી હીન છે અહાહાહા !!! તુ ધર્મની કામના કરે છે ? પુણ્યની કામના કર છે? સ્વર્ગની કામના કરે છે? ધર્મ પુણ્ય સ્વર્ગ અને મોક્ષની કાક્ષા કરે છે
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० धर्म० टीका अ. २ ९६-९८ पिशाचरूपधारिदेवोपसर्गवर्णनम् ३७१
सलम्—तए ण से कामदेवे समणीवासए तेणं देवेण पिसाय रूवेण एवं वृत्ते समाणे अभीए, अत्तत्थे, अणुविग्गे, अक्खुभिए, अचलिए, असते, तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरड़ || ९६ || तर ण से देवे पिसायरूवे कामदेव समणोवासयं अभीयं जाव धम्मज्झाणोवगय विहरमाण पोसई, पासित्ता दोपि तच्चपि एव पुण्यकामाद्यपि, परिहासघोतकानीमानि सम्बोधनानि । नो खल्वति - इत अरभ्य 'परित्यक्तु वा' इत्यन्तोच्या वस्तुस्थिति प्रदर्शिता । खण्डाखण्डखण्ड खण्डमित्यर्थः । व्यपरोष्य से पृथक क्रियसे ॥ ९५ ॥
१ अव्ययमिदमिचप्रत्ययान्तम् । तत्र तेनेदमिति सरूपे' बहुव्रीहिः' 'इचू कर्मव्यतीहारे' इती चु, तिष्ठद्गुप्रभृतिषु इचः पाठादव्ययीभावत्वादव्ययत्वम्, 'तत्र 'तेनेद' मिति मृत्रे महरणविषयता च विवक्षिता, तेन 'महत्येद युद्ध मवृत्त' - मित्यर्थाभावेऽपीदमवृत्ति, यथा 'कर्णाणि' इत्यादावित्युक्त विस्तरेण प्रयोगदर्पणादौ ||
आकाक्षा करता है ? तू धर्म पुण्य स्वर्ग और मोक्षका पिपासु है ? देवों के दुलारे ! अपने शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान और पोपधोपवाससे डिगना, क्षुब्ध होना, उनको खण्डित करना, भग करना, त्याग या परित्याग करना तुझे नही कल्पता है । सो तू आज अगर शील आदि यावत् पोषधोपवासोको न छोडेगा-न भाँगेगा, तो देख, इस नीलकमल आदिके ममान श्याम रगकी तीखी तलवार से इस प्रकार तेरे टुकड़े २ कर डालूगा जिससे तू हे भले मानुष ! अतिविकट दु ख भोगता हुआ अकाल (असमय ) मे ही इस जिन्दगी ( जीवन ) से हाथ धो बैठेगा ॥ ९५ ॥
તુ ધર્મ પુણ્ય સ્વર્ગ અને મેક્ષને પિપાસુ છે ? દેવાના પ્રિય ' પેાતાના શીલ, વ્રત વિરમણુ, પ્રત્યાખ્યાન અને પેષધાસથી ડગવું, ક્ષુબ્ધ થવુ તેને ખડિત કરવા ભગ્ન કરવા, ત્યાગ યા પરિત્યાગ કવા, એ કઇ તને નથી પતુ ? પણ તુ બાજે શીલ આદિ યાવત પૌષધેાપવાસને નહિ છેડે, નહિં ભાગે, તે ો, આ નીલ કમળ આદતા જેવી શ્યામ રંગની તીખી તત્ત્વારથી આ પ્રમાણે તારા ટુકડે ટુકડા કરી નાખીશ, તેથી g હૈ ભલા માણુમ ! અતિ વિકટ દુખ ભેગવતા અકાળે (અમમયે) જ આ જીદગીથી હાથ ધોઇ બેસીશ” (૯૫)
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उपासक्दशामित्र कामदेवं एव वयासी-"ह भो कामदेवा । समणोवासया । अप्पत्थियपत्थया । जइण तुमं अज्ज जाव ववरोविजसि" ॥१७॥ तए णं से कामदेवे समणोवासए तेण देवेण दोचंपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ ॥९८॥
छाया-ततः खलु स कामदेव अमणोपासकस्तेन देवेन पिशारूपेणैवमुक्तः सन्-अभीतोऽत्रस्तोऽनुद्विग्नोऽक्षुब्धोऽचलिनोऽसम्भ्रान्तस्तप्णीको धर्मध्यानोपगतो विहरति ॥९६॥ ततः खलु स देवः पिशाचरूप कामदेव श्रमणोपासक्रमभीत यावद्धर्म यानोपगत विहरमाण पश्यति दृष्ट्वा द्वितीयमपितृतीयमपि कामदेवमेवमवा दीव-' इमो.! कामदेव ! श्रमणोपासक! अप्रार्थितमार्थक ! यदि खलु त्वमय यावद् व्यपराप्यसे" ॥ ९७ ॥ तत खलु स कामदेव श्रमणोपासकस्तेन देवेन द्वितीयमपि ठतीयमप्येवमुक्तासन्-अभीतो यावद्धर्मभ्यानोपगतोविहरति॥९८॥
टीका-द्वितीय-द्वितीयवारमेव तृतीयम् । 'हभो !' इति सम्बोधनम्।।९६-९८॥ ____टीकार्थ-'तए ण से' इत्यादि पिशाचरूपधारी देवताके ऐसा करने पर भी श्रावक कामदेवको न भय हुआ, न त्रास हुआ, न उद्वेग हुआ, न क्षोभ हुआ, न चचलता हुई, और न सभ्रम हुआ। वह चुप-चाप धर्मध्यानमे स्थिर रहा ॥९६॥ पिशाचरूपधारी देवने श्रावक कामदेवको निर्भय यावत् धर्मध्यानमे स्थित देखा तो दूसरी बार और तीसरी बार भी बोला-"अरे मृत्युकामी श्रावक कामदेव ! यदि आज तू शील आदिका परित्याग नहीं करेगा तो यावत् तू मारा जायगा" ॥ ९७ ॥ आवक कामदेव दूसरी और तीसरी बार कहने पर भी निर्भय यावत् धर्मध्यानमे स्थित ही रहता है ॥ ९८ ॥
टीकार्थ-'तए ण से'-या पिशाय३णारी हेताना मेवा अयनयी पy શ્રાવક કામદેવને ન ભય લાગે, ન ત્રાસ થયે, ન ઉગ થયે, ન ક્ષેભ થયે, ન ચ ચળતા થઈ, અને ન સ ભ્રમ થયે તે ચૂપચાપ ધર્મશાનમા સ્થિર રહ્યો (૯) પિશાચરૂપધારી દેવે શ્રાવક કામદેવને નિર્ભય યાવત ધર્મધ્યાનમાં સ્થિત જોયા, એટલે બીજીવાર અને ત્રીજીવાર પણ તે બે “અરે મયુકામી શ્રાવક કામદેવ! જે તે આજ શીલ આદિને પરિત્યાગ નહિ કરે, તે યાવત તુ માર્યો જશે” (૭) બીજી અને ત્રીજી વાર કા છતા શ્રાવક કામદેવ યાવત ધર્મધ્યાનમાં સ્થિત જ २९ छ (64)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ २ मृ ९९-१०२ हस्तिरूपदेववर्णनम् ३७३
मूलम्-तए ण से देवे पिसायरूवे कामदेव समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाण पासइ,पासित्ता आसुरुते४ तिवलिय भिउडि निडाले साहहु कामदेव समणोवासयं नीलुप्पल जाव असिणी खडाखडि करेइ ॥९९॥ तए णं से कामदेवे समणोवासए त उज्जलं जाव दुरहियासंवेयण सम्म सहइ जाव अहियासेइ ॥१०॥ तए णं से देवे पिसायरूबे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाण पासइ पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेव समणोवासय निग्गथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संते तते परितते सणियं२ पच्चोसका, पच्चोसक्त्तिा पोसहसालाओ पडिणिस्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिव्व पिसायरूव विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एग मह दिव हत्थिरूव विउव्वइ ॥१०१॥ सत्तगपइठियं सम्म सठिय सुजायं, पुरओ उदग्ग, पिट्टओ वराह,अयाकुच्छि,अलवकुच्छि,पलंवलंबोदराधरकर, अन्भु
छाया तत खलुस देवः पिशाचरूप.कामदेव श्रमणोपासकमभीत यावद्विहरमाण पश्यति, दृष्ट्वा, आशुरक्त ४ त्रिवलिका भृकुटि सहत्य कामदेव श्रमणोपासक नीलोत्पल-यावदसिका खण्डाग्वण्डि रोति ॥ ९९ ॥ तत. खलु स कामदेव' श्रमणोपासकस्तामुज्ज्वला दुरध्यासा वेदना सम्यक् सहते यावदध्यास्ते ॥१०॥
छाया-ततः खलु स देव. पिशाचरूपः कामदेव श्रमणोपासकमभीत यावद्विहरमाण पश्यति, दृष्ट्वा यदा नो शक्नोति कामदेव श्रमणोपासक नन्थ्यात्मवचनाचालयितु वा क्षोभयितु वा विपरिणमयितु वा तदा शान्तस्तान्त परितान्तः शनैः शनै मत्यववष्कते, प्रत्यवप्वष्क्य पोपधशालातः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य दिव्य पिशाचरूप विमजहाति, विमहायक महद दिव्य इस्तिरूप विकुरुते ॥ १०१॥ सप्ताङ्गमतिष्ठित सम्यक्सस्थित सुजात पुरत उदग्र, पृष्टतो वराहम्, अजाकृक्षि,
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___उपासकदशामो गयमउलमल्लियाविमलधवलदतं, कंचणकोसीपविठ्ठदंत,आणामियचावललियसवेल्लियग्गसोंड, कुम्मपडिपुण्णचलण, वीसइनक्ख, अल्लीणपमाणजुत्तपुच्छं, मत्तं मेहमिव गुलगुलेंतं,मणपवणजइणवेगं, दिव हत्थिरूव विउबइ,विउवित्ताजेणेव पोसहसाला जेणेव काम देवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता कामदेवसमणो वासय एव वयासी-हभो कामदेवा। तहेव भणइ जाव न भंजेसि तो ते अज अह सोडाए गिण्हामि, गिणिहत्ता पोसहसालाओ नीमि, नीणित्ता उड वेहास उव्विहामि, उविहित्ता, तिक्खेहि दंतमुसलेहि पडिच्छामि, पडिच्छित्ता अहे धरणितलसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेमि,जहाण तुम अदृदुहवस अकाले चेव जीवि याओ ववरोविज्जसि ॥१०२ ॥ अवलम्बकुक्षि, प्रलम्बलम्बोदराधरकरम्, अभ्युद्गतमुकुलमल्लिकाविमलधवलदन्त, काञ्चनकोशीप्रविष्टदन्तम्, आनामितचापललितसवेल्लिताग्रशुण्ड, कूर्मप्रतिपूर्णचरण, विंशतिनखम्, आलीनप्रमाणयुक्तपुच्छ, मत्त मेघमिव गुडगुडायमान, मन पवन जयिवेग, दिव्य हस्तिरूप विकुरुते, विकृत्य येनैव पोपधशाला येनैव कामदेवः श्रमणोपासस्तेनैवोपागच्छति, उपागत्य कामदेव श्रमणोपासक्मेवमवादीत्-हभो। कामदेव ! श्रमणोपासा ! तथैव भणति यावन भनक्षि तर्हि तेऽद्याह शुण्डया गृह्णामि, गृहीत्वा पोषधशालातो नयामि, नीत्वा विहाय समुद्रहामि, उदुह्य तीक्ष्णेदन्तमु सलै प्रतीच्छामि, पतीष्याधो धरणितले त्रिकृत्व. पादयोलोलयामि, यथा खलु त्वमात्तदु.खावशातॊाल एव जीविताद्वयपरोप्यसे ॥ १०२ ॥
टीका-उज्ज्वला तीवाम्, दुर यासा=सोहुमशक्याम् । क्षोभयितु-विक्षिप्त चित्त कत्तम्, विपरिणमयितु-पवितयितुम् । शान्त =पूर्वोक्तात क्रोधाऽऽवेगाभि वृत्तः, न केवल शान्त एपितु तान्त ग्लानिमाप्त, परितान्ता नितान्त ग्लान कीदृशेन गर्वेण समागतोऽ मागत्यच कीदृशो हतगों जात इति । प्रत्यत्रवष्कते
टीकार्य-नए ण से '-इत्यादि पिशाच रूपधारी देवने श्रावक काम देवको निर्भय यावत् धर्मध्यान निष्ठ विचरते देखा । देख कर कुद्ध ४
टीकार्थ-'तए ण से' त्यil (५शाय३५धारी व श्राप भवन निकाय થાવત ધર્મસ્થાનનિષ્ઠ વિચરતા છે, તેથી કુદ્ધ થઈને લલાટ પર ત્રણ વાકી શુટિ
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अ० धर्म० टीका अ २ ९९ - १०२ हस्तिरूपधारिदेवोपसर्गवर्णनम् ३७५ परावर्त्तते । मत्यनवक्य पोपधशालातः मतिनिष्क्रामनि= निस्सरति, प्रतिनिष्क्रम्य दिव्य पिशाचरूप विप्रजहाति परित्यजति, विमहाय एक महद् = विशाल दिव्य हस्तिरूप विकुरुते । कथ विकुरुते ? इत्याह- सप्तेति-चरणचतुष्टय-शुण्डादण्ड शिश्नलाद्गुलरूपै सप्तभिरङ्गै' प्रतिष्ठितम् = उपेतम् यद्वा एतानि सप्तान्यङ्गानि प्रतिष्ठितानि= अतिस्थूलानि यस्य, अथवा सप्ताङ्गमतिष्ठा = सप्तद्ग विशालता मञ्जाता यस्य तत् । पुरतः = होकर ललाट पर तीन टेही भ्रुकुटिया चढ़ाकर नील मल के समान यावत् तलवारसे कामदेव श्रावकके टुकड़े-टुकडे करने लगा ।। ९९ ॥ कामदेव श्रावक उस तीव्र और असह्य वेदनाको सम्यक् प्रकार महन करने लगा और धर्म ध्यानमे स्थिर बना रहा || १०० ॥ पिशाचरूपी देवने तब भी श्रावक कामदेवको निडर एव ध्याननिष्ठ देखा, और जब श्रावक कामदेवको निर्ग्रन्थ प्रवचन से चलायमान, विक्षिप्त चित्तवाला करने तथा उसके मनोभावों को पलटाने मे समर्थ न हुआ तो शान्त (ठडा) हो गया, और न केवल शान्त हवा बल्कि ग्लानि और अत्यन्त ग्लानिको प्राप्त हुआ कि देखो मैं कैसा घमण्ड करके आया था पर यहा सारा घमण्ड चकनाचूर हो गया । वह धीरे धीरे पिछले पैरोसे ही लौटा, लौट कर पोपधशालासे बाहर निकला और दिव्य पिशाचके - रूपको त्याग दिया। यह रूप त्याग कर उसने दिव्य हाथीके रूपकी विक्रिया की ॥ १०१ ॥ चार पैर, सृड, लिंग और पूछ, इन सातों अत्यन्त स्थूल असे युक्त, सम्यक् प्रकार से सस्थित, सुजात, आगेसे ચડાવીને તે નીલ કમળના જેવી યાવત્ તારથી કામદેવ શ્રાવકના ટુકડે ટુકડા ðરવા લાગ્યા (૯૯) કામદેવ શ્રાવક એ તીવ્ર અને અસહ્ય વેદનાને સમ્યક્ પ્રકારે મહુન કરવા લાગ્યું અને ધર્મધ્યાનમા સ્થિર રહ્યો (૧૦૦) પિશાચરૂપી ધ્રુવે ત્યારે પણ શ્રાવક કામદેવને નિડર અને ધ્યાનનિષ્ઠ જજે, અને જ્યારે શ્રાવક કામદેવને નિગ્રન્થ પ્રવચનથી ચલાયમાન, વિક્ષિપ્ત ચિત્તવાળે કરવામા તથા તેના મનેાલાવાને પલટાવવામા સમર્થ ન થયે ત્યારે શાન્ત (ઠંડા) થઈ ગયે, એટલુજ નહિ પણ ગ્લાનિ અને અત્યંત ગ્લાનિને પ્રાપ્ત થયેઃ કેજુએ, હું કેવે! ઘમડ કરીને આવ્યે હુતે, પણુ અહીં મારા ઘુમડના ચૂરા થઇ ગયા તે ધીરે ધીરે પાપગે પ ફી, પાષધશાળામાંથી બહાર નીકળ્યે અને દિવ્ય પિશાચના રૂપને તેણે ત્યાગ કર્યાં એ રૂપ ત્યજીને તેઘે દિવ્ય હાથીના રૂપની વિક્રિયા કરી (૧૦૧) ચાર પગ, સૂઢ, લિંગ અને પૂઠ્ઠું, એ સાતે અત્યત સ્થૂલ અગેથી યુક્ત, સમ્યક્ પ્રકારે
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उपासकदशासन शिरोभागतः, उदग्रम्-उच्छ्रितम्, पृष्ठतःपश्चाद्भागतः वराह सुकराऽऽकारम् । अजेति-अजा-छागी तस्याः कुक्षिः जठर तद्वत्कुतिर्यस्य तत्, आयामतायामुपमानमिदम् । अवलम्बकुति अधोलम्बमानोदरम् । प्रलम्नेति मलम्मा दीर्घ लम्बा दरस्येव-गणेशस्येव अधर अधरोष्ठः, कर:-शुण्डा च यस्य तत् । अभ्युद्गतातअभ्युद्गतौ मुखाभिर्गतौ मुकुलभृतमल्लिकापुप्पादिमली धवली च दन्तौ यस्य, यद्वा अभ्युद्गतः निस्मृतः मुकुल. कुड्मलो यस्यास्वादशी यामल्लिका-पुष्पविशेष., तद द्विमलौ मनोहरी घालौ स्वच्छौ च दन्तो यस्य, अथवा मल्लिकामुकुलवदभ्युद्तो विमलौ धवलौ च दन्तौ यस्य तम्, अत्र पक्षे समासस्तु प्राकृतगतेवैचित्र्यादव गन्तव्यः। काश्चनेति-काश्चनस्य सुवर्णस्य कोश्यौ-खगादिपिधानीवदन्तममाणेन निर्मिती नातिपयर्दीधौं च सम्पुटौ तयो प्रविष्टौ-तदारछनावित्यर्थः, दन्तौ यस्य तत् । आनामितेति-आईपत् नामितः मम्रीकृतो यश्चापः-धनुस्तद्वल्ललितासुन्दरी सवेल्लिना-तिर्गसञ्चालिताच अग्रशुण्डा-शुण्डाग्रभागो यस्य तत् । कृमति कूर्म कमठस्तद्वत् प्रतिपूर्णा: स्थूलचिपिटाश्चरणा यस्य तत् । विंशतीति विशात
१ व्याख्यास्वरूपमात्रमिदम्, समासस्तु-अधरश्च करश्वाधरकर-(पाण्यङ्ग त्वादेकवद्भावः-) लम्बोदरस्येवाधरकर-लम्बोदराधरकरम् मलम्प लम्बोदाधर कर यस्य तदिति । ऊँचा और पीछेसे सुअरके आकारका रूप बनाया। उसका पेट बकराक पेटके समान लम्या और नीचे लटकता हुआ था। उसकी सूड और होठ खूब मोटे और गणेशजीकी सूड तथा होठके समान थे। उसके दात मूहके बाहर निकले हुए मुकुलित मल्लिका पुष्पको भाति निर्मल
और सफेद थे, और मानो सोनेकी म्यानमें रखे हुए हों, उसी प्रकार दातोंके ठीक बराबर सुवर्णके वेष्टनसे युक्त थे। उसकी सूडका अन भाग कुछ कुछ मुडे हुए धनुषके समान मुडा हुआ था। उसके पर कछुए के समान स्थूल और चपटे थे। उसके वीस नख थे। उसका સસ્થિત, સુજાત, આગળથી ઉચું અને પાછળથી સુઅરના આકારનું રૂપ બનાવ્યું એનું પિટ બકરીના પેટની પિઠે લાબુ અને નીચે લટકતુ હતુ તેની સૂઢ અને ખૂબ મોટા અને ગણેશની સૂઢ તથ, હોઠના જેવા હતા, તેના દાત મહેની બહાર નીકળેલા અને ખીલેલા મલિકાપુષ્પના જેવા નિર્મળ તથા સફેદ હતા, અને જાણે સોનાના ધ્યાનમાં રાખેલા હોય એ પ્રમાણે દાત સારી રીતે સોનાના વેણનથી યુક્ત હતા તેની સૂઠને અગ્રભાગ જરા-ર મરડાએલા ધનુષ્યની પેઠે મરડાયેલ હતા
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अगरधर्मसञ्जीवनी टीका सु ९९ - १०२ हस्तिरूपधरिदेवोपसर्गवर्णनम् ३७७ खा यस्य तत् । आलीनेति-आ किश्चित लीन=लग्न प्रमाणयुक्त = प्रमाणोपेत पुच्छ= लागल यस्य तत् । मत्त = मदोन्मत्त, मेघमित्र गुडगुडायमान = गुड - गुड' - ध्वनि कुर्वत् । मन इति मनश्च पवनश्च मनः पवनौ तौ जेतु शीलमस्य मनःपवनजयी तादृशो वेगो यस्य तत् मनः पवनाधिकवेदित्यर्थ. । मागुक्तमेव स्मारयन्नुपसहरतिदिव्यमित्यादि । तेन्याम्, 'मूळे द्वितीयार्थे पष्ठी माक्रतत्वात' । विहायसम् = आकाशे, द्वितीया तु धातोर्द्विकर्मकत्वात् उद्वहामि उत्क्षिपामि । दन्त - मुसलै = दन्तरूपैर्मुसलेः प्रतीच्छामि = आकाशात्पतन्त गृह्णामि भविष्यत्वेऽपि कालासत्तियोधनाय वर्त्तमानप्रयोग - अयमागच्छामीत्यादिवत् एवमग्रेऽपि । पादयोः चरणाभ्याम् 'तृतीयार्थे सप्तमी' लोलयामि = मर्दयामि ॥९९ - १०२ ॥
१ तथा चोक्त तथा स्यानीहृकृबहाम्' इति स्पष्ट सिद्धान्तकौमुद्याम् । २ उक्तञ्च - वर्तमानसामीप्ये वर्त्तमानवद्या' (पा ३ | ३ | १३१ ) इति । पूछ कुछ चिपकी हुईसी और प्रमाणोपेत - जितनी होनी चाहिए उतनी थी । वह मदोन्मत्त था । मेघके समान 'गुड - गुड ' ध्वति कर रहा था । उसका वेग मन और पवनसे भी तीव्र था । देवताने ऐसे दिव्य हाथी के रूपकी विक्रया की । विक्रिया करके जिधर पोपधशाला और कामदेव श्रावक था, उधर पहुँचा । पहुँच कर कामदेव श्रावकसे इस प्रकार बोला- " अबे ओ कामदेव श्रावक ' जैसा कहता हूँ वैसा तू न करेगा तो मै तुझे अपनी मुडमें पकडूगा, और पकड कर पोपधशाला से ले जाऊँगा । ले जाकर ऊपर आकाशमे उछाल दूंगा, और उछाल कर अपने पैने ( तीखे ) दातरूपी मूमलोंपर झेल लुगा (ग्रहण कर लूगा) झेलकर तीन वार नीचे पृथ्वीतल पर रख कर पैरोंसे मसल दूंगा, जिससे तू अत्यन्त दु खसे आर्त्त होकर असमय में ही जीवनसे हाथ धो बैठेगा ' ॥१०२॥ તેને વીસ નખ હતા તેનું પૂછડું જરા ચેટી ગએલુ અને પ્રમાણે પેત જેટલુ લાબુ હાવુ જોઈએ તેટલુ લાભુ હતુ ત મદેન્મત્ત હતે મેઘની પેઠે ‘ગુડ ગુડ' ધ્વનિ કરી રહ્યો હતા તો વેગ મન અને પવન કરતા પણ તીવ્ર હતા. દેવતાએ એવા દિવ્ય હાથીના રૂપની વિક્રિયા કરી પછી જ્યા પાષધશાળા અને કામદેવ શ્રાવક હતા, ત્યા તે પહેાગ્યે પહેાચીને કામદેવ શ્રાવકને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું. ‘ અરે એ કામદેવ શ્રાવક ! હું જેમ કહુ છુ તેમ તુ નહિ કરે, તે હુ તને મારી સૂઢમા પકડીશ, અને પકડીને પેષધશાળામાથી લઈ જઈશ, ઉછાળીને મારા તીખા દારૂપી મૂશળેા પર ઝીવી લઇરા, ઝીન્નીને ત્રણવાર નીચે–પૃથ્વી પર મૂકી પગથી કચડી નાખીશ, એથી તુ અત્યત ૬,ખથી આર્ત્ત થઇને અસમયેજ જીવનથી હાથ
मेसी' (१०२)
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उपासकदशासन शिरोभागतः, उदग्रम्-उच्छ्रितम्, पृष्ठतःपवाड़ागतः वराह कराऽऽकारम् । अजेति-अजा-छागी तस्याः कुक्षिा जठर तद्वत्कुतिर्यस्य तव, आयामतायामुपमानमिदम् । अवलम्बकुक्षि अधोलम्बमानोदरम्। प्रलम्नेति प्रलम्बा-दीर्घ लम्बो दरस्येवगणेशस्येव अधरः अधरोष्ठः, कर:-शुण्डा च यस्य तत् । अभ्युद्गतेतिअभ्युद्गतौ मुखानिर्गतौ मुकुलभूतमल्लिकापुप्पपछिमली धवलौ च दन्तो यस्य, यद्वा अभ्युद्गतः निस्सृतः मुकुला-कुड्मलो यस्यास्तादृशी या मल्लिका-पुष्पविशेषः, तद द्विमलौ मनोहरौ धवलौ स्वच्छौ च दन्तौं यस्य, अथवा मल्लिकामुकुलबदभ्युद्तो विमलौ धवलौ च दन्तौ यस्य तम्, अत्र पक्षे समामस्तु प्राकृतगतेवचित्र्यादव गन्तव्यः। काश्चनेति-काश्चनस्य सुवर्णस्य कोश्यौ-खड्गादिपिधानीवदन्तप्रमाणेन निर्मिती नातिपृथू र्दीधौं च सम्पुटो तयोः प्रविष्टौ-तदारछनावित्यर्थः, दन्तौ यस्य तत् । आनामितेति-आईपत् नामिता-मम्रीकृता यश्चाप =धनुस्तद्वल्ललितासुन्दरी सवेल्लिना-तिर्गसञ्चालितोच अग्रशुण्डा-शुण्डाग्रभागो यस्य तत् । कृर्मति कूर्म =कमठस्तद्वत् प्रतिपूर्णाः स्थूलचिपिटाश्चरणा यस्य तत् । विंशतीति विशति
१ व्याख्यास्वरूपमात्रमिदम्, समासस्तु-अधरश्च करश्वापरकर-(पाण्यङ्ग वादेकवद्भाव:-) लम्बोदरस्येवाधरकर-लम्बोदराधरकरम् मलम्ब लम्बोदराधर कर यस्य तदिति । ऊँचा और पीछेसे सुअरके आकारका रूप बनाया। उसका पेट बकराक पेटके समान लम्या और नीचे लटकता हुआ था। उसकी सूड और होठ खूब मोटे और गणेशजीकी सूड तथा होठके समान थे। उसके दाँत मूहके बाहर निकले हुए मुकुलित मल्लिका पुष्पको भाति निर्मल
और सफेद थे, और मानो सोनेकी म्यानमें रखे हुए हों, उसी प्रकार दातों के ठीक बराबर सुवर्णके वेष्टनसे युक्त थे। उसकी सूडका अन भाग कुछ कुछ मुडे हुए धनुषके समान मुडा हुआ था। उसके पैर कछुए के समान स्थूल और चपटे थे। उसके वीस नख थे। उसकी સસ્થિત, સુજાત, આગળથી ઉચુ અને પાછળથી સુઅરના આકારનું રૂપ બનાવ્યું એનું પિટ બકરીના પેટની પિઠે લાબુ અને નીચે લટકતું હતું તેની સૂઢ અને આઠ ખૂબ મોટા અને ગણેશની સૂઢ તથ, હોઠના જેવા હતા, તેના દાત હોની બહાર નીકળેલા અને ખીલેલા મલિકાપુપના જેવા નિર્મળ તથા સફેદ હતા, અને જાણે સોનાના સ્થાનમાં રાખેલા હેય એ પ્રમાણે દાત સારી રીતે સોનાના વેટનથી યુક્ત હતા તેની સૂઠનો અગ્રભાગ જરા-તારા મહાએલા ધનુષ્યની પેઠે મરડાયેલ હતા
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ २ मू० १०३ १०७ सर्परूपधारिदेववर्णनम् ३७९ घोरविस महाकायं मसीमूसाकालगं नयणविसरोसपुण्ण अंजणपुजनिगरप्पगासं रत्तच्छ लोहियलोयणं जमलजुयलचचलजीह धरणीयलवेणिभूयं उक्कुडफुडकु डिलज डिलकक्क सवियडफुडाडोवकरणदच्छ लोहागरधम्ममाणधमधमेंतघोस अणागलियतिवचडरोस सप्परूव विवड, विउवित्ता जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेवे समणोवासप तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता कामदेव समणोवासय एवं वयासी - हभो कामदेवा । समणोवासया । जाव न भंजेसि तो ते अज्जेव अह सरसरस्स काय दुरुहामि, दुमहित्ता पच्छिमेणं भाएणं तिक्खुत्तो गीव वेढेमि, वेढित्ता तिक्खाहिं विसपरिगयाहिं दादाहि उरसि चेत्र निकुट्ठेमि, जहा णं तुमं अहदुहट्टवसत्ते अकाले चेत्र जीवियाओ ववरोविजसि ॥१०७॥ महाकाय पीपालक नयनविपरोपपूर्णम् अञ्जनपुखनिकरमकाश रक्ताक्ष लोहितलोचन यमलयुगलचञ्चलजिष्ठ धरणीतलवेणिभृतम् उत्कटस्फुटकुटिलनटिल+श विक्टस्फटाटोपकरणदक्ष, लोहाकग्ध्मायमानधमधमद्घोषम् अना+लिततीव्रचण्डरोप सर्पस्प विकुरुते, विकृत्य येनैव पौपधशाला येनैव कामदेव श्रमणोपासनस्तेन चोपागच्छति, उपागत्य कामदेव श्रमणोपासकमेवमवादीत् - "हभोः कामदेव ! श्रमणोपासक ! यावत् न भनक्षि नर्हि तेऽचैवाह सरसरेनि काय दुरोहामि दुरुय पश्चिमेन भागेन त्रित्वो ग्रीवा वेष्टयामि वेष्टयित्वा तीक्ष्णाभिर्विपपरिगताभिदंष्ट्राभिरुरस्येव निकुट्टामि यथा खलु स्वमार्त्तदु खार्त्तवशातकाल एवं जीवि ताद व्यपरोप्यसे ॥ १०७ ॥
टीका- उग्रेति- उग्रविपादय या एकार्था अपि विषाऽऽतिशय्यद्योतनायोक्ताः, व्यारयान्तर तु +टक्ल्पनासिद्धत्वाद्धेयमेव । मपी=ममी कज्नलादि" भूपा=मूपिकी
टीकार्थ- ' तर ण से ' इत्यादि । हाथीरूपधारी देवताके ऐसा कहने पर भी श्रावक कामदेव भयभीत न हुआ यावत् ध्याननिष्ठ
टीकार्थ- 'तए ण स' त्याहि हाथीउपधारी देवताना मेवा उथनथी पष्णु श्राव કામદેવ ભયભીત ન થયો, યાવતુ ધ્યાનનિષ્ઠ વિચરી નથ્થો (૧૦૩)પાર્ટીફપધારી દેવતાએ
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उपासकदशासत्रे मूलम्-तए ण से कामदेवे समणोवासए तेण देवेणं हत्थिरूवेण एव वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ ॥१०३॥ तए ण से देवे हस्थिरूवे कामदेवे समणोवासय अभीय जाव विहरमाणं पासइ,पासित्ता दोच्चपि तच्चपि कामदेव समणोवासय एव वयासी हभो कामदेवा । तहेव जाव सो विहरइ ॥१०४॥ तए ण से देवे हत्थिरूवे कामदेव समणोवासयं अभीय जाब विहरमाणं पासड, पासित्ता आसुरुते४ कामदेव समणोवासयं मोडाए गिण्हेइ, गिण्हित्ता उड्ड वेहास उविहइ, उविहित्ता तिक्खेहि दंतमुसलेहि पडिच्छइ, पडिच्छित्ता अहे धरणितलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेइ ॥१०५॥ तए ण से कामदेवे समणोवासए त उजलं जाव हि यासेइ ॥१०६॥ तए ण से देवे हत्थिरूवे कामदेव समणोवासय जाहे नो सचाएइ जाव सणियर पञ्चोसकर, पच्चोसकित्ता पोसहसालाओपडिणिक्खमइ,पडिणिक्खमित्ता दिन हत्थिरूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एग मह दिव सप्परूव विउबइ-उग्गविस चडविस __ छाया-तत खलु स कामदेव श्रमणोपासकस्तेन देवेन हस्तिरूपेणैवमुक्तः सन्नभीतो यावद्विहरति ॥१०३॥ तत. खलु स देवो हस्तिरूप, कामदेव श्रमणो पासकमभीत यावद्विहरमाण पश्यति, दृष्ट्वा द्वितीयमपि तृतीयमपि कामदेव श्रमणोपासकमेरमवादीत्-"हभो कामदेव !” तथैव यावत्स रिहरति ॥१०४॥ ततः खल्लु स देवो हस्तिरूप कामदेव श्रमणोपामकमीत यावद्विहरमाण पश्यति, दृष्ट्वा आशुरक्त ४ कामदेव श्रमणोपासक शुण्डया गृह्णाति, गृहीत्वा अ विहायसमुद्वहति, उदुह्य तीक्ष्णैर्दन्तमुसलैः प्रतीच्छति, प्रतीष्याधी धरणितले त्रिकृत्व पादयोर्लोलयति ॥ १०५ ॥ तत खल स कामदेव श्रमणोपासक्स्तामुज्ज्वला यावदभ्यास्ते ॥१०६॥ तत खलु स देवो हस्तिरूप कामदेव श्रमणोपासक यदा नो शक्नोति यावत्-शनै २ प्रत्यवष्वकते, मत्यवप्वप्क्य पोपधशालात प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्कम्य दिव्य हस्तिरूप विप्रजहाति, विप्रहायैफ महद् दिव्य सर्परूप विकुरुते-उग्रविष चण्डविष घोरविन
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अ० धर्मसञ्जीवनी टीका २ ० १०३-१०७ सर्परूपधारिदेवोपसर्गवर्णनम् ३८१ लोचनमित्याभ्या विशेषणाभ्यामतिरक्तनेत्रत्वमभिव्यज्यते। यमलेति मला=ससक्ता युगलरूपा चञ्चला-चपला (ललन्ती) च जिहा यस्य तत्, यतश्च मपीमूपाकालकमञ्जनपुञ्जनिकरप्रकाश चात एष धरणितलवेणिभूत-भूतलस्य केशवन्धवत्मतीयमानम् । उत्तटेति उत्स्ट =अनभिभवनीयतया तीनतर., स्फुट:-प्रकाशमानतया व्यक्तः, कुटिल अर्द्रचन्द्राकारतया भुग्न', जटिल:=पृथुल , कश'मार्दवाभावेन कठोरः,विकट: अतिविशालतया भयङ्कर', इत्यम्भूतो य. रफटाटोपः फणामण्डल, तस्य करणे-विधाने दक्ष-समर्थम् । लोहेति- मायमानः शब्दायमानो यो लोहाकरे -लोहतापनस्थान (भस्त्रामुखमिति तु प्रतिभाति) तस्येव धमधमन्='धम धम' इन्यामारक' (उपलक्षणमेतत् 'फूत' उत्यामारकस्यापि) घोप:-शब्दो यम्य तत् । अनाकलितेति-अनामलित अपरिमितत्वेन निरोद्धमशक्तः,अतएवतीव्रः नितान्तः प्रचण्ड: दारुण रापः क्रोधो यस्य तत् । सरसरेति-सरसर' इति कृत्वा झटि
१. पूर्वनिपातमकरणम्यानित्यत्वात्प्राकृतत्वाद्वा'लोहायर' इत्यस्य पूर्वनिपातः। प्रकाश (वर्ण) था। 'रक्त' और 'लोहित' इन दो विशेपोंसे यह प्रकट होता है कि उसके नेत्र अत्यन्त लाल थे । उसकी जुडी हुई दोनों जीमें लपलपा रही थी । चकि वह अत्यन्त काला था इससे ऐसा प्रतीत होता था जैसे वसुन्धरासुन्दरीका केशपाश (केशवन्ध जडा) हो । वह उत्कट (तीव्र), प्रगटरूप, कुटिल (टेढे), जटिल (मोटे), कठोर तथा भयकर फण फैलाने में समर्थ था। लोहेको तपानेके स्थान (सभवतः भस्त्रा के मुख )के समान 'धमधम' उपलक्षणसे 'फू-फू' शब्द करता था। असीम होने के कारण रोका न जा सरने योग्य तीव्रतर भयकर उसका क्रोध था। उस देवताने ऐसा सापका रूप बनाया । बना कर जिधर पोषधशाला और कामदेव था उधर पहुँचा । पहुँच कर कामदेव વર્ણ જતા “રકત” અને “હિત” એ બે વિશેષણથી એમ પ્રકટ થાય છે કે તેના નેત્રો અત્ય ત લાલ હતા તેની જોડાયેલી બે જીભે લપલપ કરી રહી હતી તે અત્યત કાળે હતું તેથી એમ પ્રતીત થતુ હતુ જાણે વસુ ધરા સુ દરાને કેશપાશ (वाणी गुछ।) डाय ते 6rse (ala), ५४८३५, इटिस (4181), ra (1), કઠોર તથા ભયકર ફણા ફેલાવવા સમર્થ હતે લેહાને તપાવવાના સ્થાન (જેમકે ભઠ્ઠીનું મહે) ની પડે “ધમ ધમ” ઉપલક્ષણે કરીને “ફ” શબ્દ તે કરતે હવે અસીમ હેવાને કારણે રહી ન શકાય તે તીવ્રતર ભયકર તેને ક્રોધ હતે એ દેવતાએ એવુ સાપનું રૂપ ધારણ કર્યું, અને જ્યાં પિષધશાળા અને કામદેવ
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उपासकदशा
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तद्वत्कालप= श्यामम् । नयनेति नयनयो =नेत्रयोनिष नयनविष रोषोऽमर्षस्ताभ्यां पूर्णम् | अञ्जनेति अञ्जनाना = कज्जलाना पुखाः अञ्जन पुखास्तेषा निक्रः = रागः कज्जलमहापुञ्ज इत्यर्थः, स इन प्रकाशते यद्वा तद्वत्माशो यम्य तत् रक्ताक्ष लोहित विचरता रहा || १०३ || हाथीरूप धारी देवताने कामदेव श्रावकको निर्भय यावत् विचरते देखा | देखकर दूसरी बार और तीसरी बार उसने कामदेव श्रावसे वही कहा परन्तु वह जैमा का तैसा यावत् विचरता रहा ||१०४ || फिर भी हाथीरूपधारी देवने कामदेव भावक को निर्भय यावत् विचरते देखा । देखकर लाल पीला आदि ४ होस्र कामदेव श्रावकको सूडसे पकडा | पकडकर ऊपर आकाशमे उछाल दिया और उछाल कर तसे दातो पर झेल लिया | झेलकर नीचे जमीन पर रखार तीनवार पैरौसे मसला || १०५|| तब भी कामदेव श्रावकने उस असह्य यावत् वेदनाको सहा || १०६ || जब हाथीरूप धारी देवता कामदेव श्रावकको डिगा न सका तो यावत धीरेधीरे लौट गया । लौट कर पोपधशाला से बाहर निकला, और निकल कर दिव्य हाथीके रूपको त्याग दिया । त्याग कर अबकी बार उसने एक दिव्य महान सर्पका रूप धारण किया । वह सर्प उग्रविषवाला, चडविषवाला, घोरचिपवाला महाकाय ( बहुत लम्बा चौडा ) था । मपी ( स्याही) और सृषी ( चूही ) के समान काला था । उसके नेत्र विष और रापसे परिपूर्ण थे । काजलके महापुज (ढेर ) के समान उसका કમદેવ શ્રાવકને નિર્ભય યાવત્ વિચરતા જોઈને બીજી વાર અને ત્રીજી વાર તેઓૢ કુમદેવ શ્રાવકને એજ પ્રમણે કહ્યુ પરન્તુ તે તે! જેમને તેમજ વિચરી રહ્યો (૧૦૪) ક્રીથી પણ હાથીરૂપધારી દે તાએ કામદેવ શ્રાવકને નિર્ભય યાવતુ વિચરતા જોકે, એટલે તેણે લાલ પીળા વગેરે થઈને કામદેવ શ્રાવકને સૂંઢથી પકડયા, ઉપર આકાશમા ઉછાળ્યે, ઉછાળીને તીખા દાંતા પર સીલી લીધે પછી નીચે જમીન પર મૂકીને ત્રણ વાર પગથી કચડયે (૧૦૫), ત્યારે પશુ કામદેવ શ્રાવકે એ અસહ્ય વેદનાને સહન કરી (૧૦૬) જ્યારે હાથીરૂપધારી દેવતા કામદેવ શ્રાવકને ડગાવી ન શકયે ત્યારે યાવત ધીરે ધીરે તે પાછા ક્યાં પહેા કરીને પેષધશાળા માથી નીકળ્યે અને દિવ્ય હાથીના રૂપને તેણે ત્યાગ કર્યા પછી તેણે એક દિવ્ય મહાન્ સનું રૂપ ધારણ કર્યું એ સર્પ ઉદ્મ વિષવાળે, ચષિવાળા, ધાર વિષેવાળે, મહાકાય (ખૂબ લાખે પહેાળા) હતે શાહી અને કાળી ઉંદરડી જેવા તે કાળા હતા તેના નેત્રા વિષે અને રાષથી પરિપૂર્ણ હતા કાજળના ઢગલા જેવા તેને
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अ० धर्म० टीका अ २ स् १०८-१११ दिव्यरूप पारिदेवदर्शनम् ३८३. रुत्ते ४ कामदेवस्स सरसरस्स काय दुरुहइ, दुरुहित्ता पच्छिमभाएणं तिक्खुत्तो गीव वेढेइ, वेढित्ता तिक्खाहिं विसपरिगयाहि दाढाहिं उरंसि चेव निटे ॥१०९ ॥ तए ण से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव अहियासेइ ॥११०॥ तए ण से देवे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीय जाव पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेव समणोवासय निग्गथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे सते तते परितते सणियर पञ्चोसकड, पच्चोसकित्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिन सप्परूव विप्पजहइ,विप्पजहिता एग महं दिव देवरूवं विउबड़॥१११॥
त्पश्यति, दृष्ट्वा आशुरक्त.४ कामदेवस्य सरसरेति काय दूरोहति, दूरुह्य पश्चिम भागेन त्रिकृत्वो ग्रीचा वेष्टयति, वेष्टयित्वा तीक्ष्णामिविषपरिगताभिदंष्ट्रामिकरस्येव निकुट्टति ॥१०९|| तत खलु स कामदेव श्रमणोपासास्तामुज्ज्वला यावद भ्यास्ते ॥११०॥ तन. खलु स देवः सर्गरूप कामदेव श्रमणोपासकमभीत यावत्पश्यति, दृष्ट्वा यदा नो शक्नोति कामदेव श्रमणोपासक नन्थ्यात्मवचना चालयितु या क्षोयितु वा विपरिणमयितु वा तदा शान्त., तान्तः, परितान्तः और देखकर यावत लाल पीला आदि ४ होकर सरमराता हुआ शरीर पर सवार हो गया। पीछेकी ओरसे तीन बार गर्दनकों लपेट ली और विषैली तीक्ष्ण दाढ़ोसे उसके वक्षस्थलमें डसने लगा ॥१०९ ॥ ता भी कामदेव श्रावकने उस असह्य वेदनाको सहन किया ॥ ११० ।। तय सर्परूप देवताने कामदेव श्रावकको निर्भय (यावत) देखा। देखकर जब कामदेव श्रमणोपासकको निग्रंन्य प्रवचनसे चलायमान
-- - ---- - નિર્ભય યાવત્ છે, અને જોઇને યાવત લાલ-પીળો આદિ થઈને સડસડાટ કરતે શરીર પર સવાર થઈ ગયે, પાછળની બાજુએથી ત્રણ વાર ગર્દનને લપેટા લીધા અને ઝેરીલી તીણ દાઢેથી તેની છાતીમાં ડખ માય (૧૦૮) તે પણ કામદેવ શ્રાવકે એ અસહ્ય વેદનાને સહન કરી (૧૧૦) સર્પરૂપ દેવતાએ કામદેવ શ્રાવકને નિર્ભય (વાવ) જે અને જ્યારે કામદેવ શ્રમણોપાસકને નિર્મભ્ય પ્રવચનથી
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उपासकदशासूत्रे
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मूलम् - तएण से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेण सप्परू वेणं एव बुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ । सोवि दोचंपि तचपि भाइ, कामदेवी वि जाव विहरइ ॥ १०८ ॥ तए ण से देवे सपरूवे कामदेव समणोवासय अभीय जाव पासई पासित्ता आसु तीत्यर्थः, दूरॊहामि=आरोहामि - आरोक्ष्यामीति यावत्-लकारः प्राग्चत् । विषपरि गताभिः = विषपूर्णाभि निकुट्टामि= सातिशय दशामि ॥१०३ - १०७॥
छाया - ततः खलु स कामदेव' श्रमणोपासकस्तेन देवेन सर्परूपेणैवमुक्त सन् अभीतो यावद्विहरति । मोऽपि द्विवारमपि त्रिवारमपि भणति, कामदेवोऽपि यावद्वि हरति ॥ १०८ ॥ ततः खल्ल स देवः सर्परूपः कामदेव श्रमणोपासकमभीत याव श्रावकसे इस प्रकार बोला- “ अरे कामदेव श्रावक ! तू शील आदिको भग नही करता तो मै शीघ्र ही तेरे शरीर पर ' सर-सर ' करता हुआ चढ़ता हूँ | चढ़कर पीछेसे तीन बार गलेको लपेट लूगा, जिससे तू अत्यन्त दुःखसे वेहोस होकर असमय मे ही जोवन से हाथ धो लेगा । "
यहाँ ' उग्रविष, चढविष ' आदि पदों का प्रायः एकसा अर्थ है किन्तु अत्यन्त ही विषैला बताने के लिए अनेक पदोंका प्रयोग किया है ।। १०७ ॥ टीकार्थ- ' तर ण से ' इत्यादि सर्परूप धारी देवता के ऐसा कहने पर भी कामदेव श्रावक निर्भय यावत् विचरता रहा । उसने दूसरी बार कहा, तीसरी बार कहा, मगर कामदेव जैसा का तैसा विचरता रहा ||१०८|| तब सर्परूप देवने कामदेव श्रावकको निर्भय यावत् देखा, હતા ત્યા તે પડેાગ્યે પછી કામદેવ શ્રાવકને આ પ્રમાણે કામદેવ શ્રાવક ! તુ શીવ આદિને બગ નહીં કરે તે હું સડસડાટ કરતે ચઢીશ, પછી ત્રણવાર ગળાને લપેટા લઈશ, દાઢાથી તારી છાતીમા ડંખ દઈશ, જેથી તુ અત્યત ૪ ખથી
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३८२
કહેવા લાગ્યા “ અરે શીઘ્ર તારા શરીર પર અને તીવ્ર ઝેરીલી બેહોશ થઈને અસમયેજ
भुवन शुभावी मेसीश
અહીં विष 'विष' आहि होना आय, मेसरा अर्थ है, પરંતુ અત્યંત ઝેરીલે બતાવવાને માટે અનેક પદેના પ્રયાગ
કરવ મા આવ્યે છે. ૧૦૭
टीकार्थ- 'तर ण से' इत्यादि सर्प३पधारी देवता भधा छता अमदेव શ્રાવક નિર્ભીય યાવત્ વિચરી રહ્યો તેણે બીજી વાર કહ્યું, કામદેવ જેમના તેમ વિચરી રહ્યા (૧૦૮) ત્યારે સર્પરૂપ
ત્રીજી વાર કહ્યું, પરંતુ દેવતાએ સમદેવ શ્રાવકને
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ २ ११२ देवकृतकामदेवमशसावर्णनम्
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अभिसमन्नागया । एवं खलु देवाणुपिया । सके देविंदे देवराया जान सक्कसि सीहासणसि चउरासीईए सामाणियसाहस्सीण जाव अन्नेसि च बहूण देवाण य देवीण य मज्झगए एवमाइक्खंइ ४" एव खलु देवाणुप्पिया । जंबुदीवे दीवे भारहे वासे चपाए नयरीए प्रतिपत्तिच्या, प्राप्ता, अभिसमन्वागता । एव ग्खलु देवानुप्रिय ! शो देवेन्द्रो देवराजो यावत् काक्रे सिंहामने चतुरशीते मामा निमसाखीणा यावदन्येषा च बहूना देवाना च देवीनाच मन्यगत एवमाख्याति४- 'एव खलु देवानुमियाः । जम्बूद्वीपे
etare - 'हारविराइये - त्यादि उसका वक्षस्थल हारसे विभूषित था । यावत् अपनी कान्तिसे दसों दिशाओंको प्रकाशमय करते हुए उसने प्रामादीय, दर्शनीय, अभिरूप, प्रतिरूपदिव्य देवरूपनी विक्रिया की । विक्रिया करके कामदेव श्रमणोपासनकी पोषाला प्रवेश किया । प्रवेश +रके आकाशमे स्थितवरछोटी छोटी घटियों वाले उत्तम पाच वर्ण के वस्त्रोको धारण कर कामदेव श्रावकसे इस प्रकार कहने लगा" हे कामदेव श्रमणोपासक ' तुम धन्य हो, देवानुमिय ! तुम कृतार्थ हो, कृतलक्षण हो । देवानुप्रिय | मनुष्य जन्मश फल तुम्हारे लिए सुलभ है, क्योंकि तुम्हें निर्ग्रन्ध प्रवचनमें हम प्रकारकी यह प्रतिपति (जानकारी) लब्ध हुई, माप्त हुई और सामने आई है । देवानुमिय ! देवेन्द्र देवराज शक्र महाराजने अपने शक सिंहासन परसे चौरासी हजार सामानिक तथा अन्य बहुतसे देवों तथा देवियोंके बीच ऐमा
टीकार्य - 'हारविराइये' - त्याहि तेनु वक्ष स्थल हान्थी विभूषित तु તે યાવત્ પેાતાની કાન્તિથી દશે દિશાઅને પ્રકાશમય કરતા હતા તેને પ્રાસાદીય, દર્શનીય, અભિરૂપ, પ્રતિરૂપ દિવ્ય દેવરૂપની વિક્રિયા કરી પછી તેણે કામદેવ અમણેાપાસકની પૈાષધશાળામા પ્રવેશ કર્યાં આકાશમા રહીને અને નાની નાની ઘડીઓવાળા ઉત્તમ પાચ વર્ષોંના વસ્રોને ધારણ કરીને તે કામદેવ શ્રાવકને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યે હું કામદેવ શ્રમણાપાસક । તુ ધન્ય છે, દેવાનુપ્રિય ! તુ કૃતાર્થ છે, કૃતલક્ષણ છે, દેવાનુપ્રિય 1 મનુષ્યજન્મનું ફળ તારે માટે સુલભ છે, કારણકે તને નિન્ય પ્રવચનમા આ પ્રકારની પ્રતિપત્તિ (જાણવાપણુ) લબ્ધ થઇ છે, પ્રાપ્ત થઈ તે અને સામે આવી છે દેવાનુપ્રિય ! વેન્દ્ર દેવરાજ ઇકમઢારાજે પેાતાનાં શક્ર સિંહાસન પરથી ચેરાશી હજાર સામાનિક તથા બીજા ઘણા ને તથા દેવીઓની વચ્ચે એવું કહ્યું “ ઢવાનુપ્રિયે ! જમૂદ્દીપની
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उपासकदशाङ्गसूत्रे
मूलम् - हारविराइयवच्छं जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाण पासाईय दरिस णिज्ज अभिरुव पडिरूव दिव देवरूत्र विवाह, विउवत्ता कामदेवस्स समणोवासयस्स पोसहसालं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता अतलिक्खपडिवन्ने सखिखिणियाई पचवण्णाई वत्थाइ पवरपरिहिए कामदेव समणोवालय एव वयासी हंभो काम देवा । समणोवासया । धन्नेसि ण तुम देवाणुप्पिया । सपुण्णे कयत्थे कयलक्खणे,सुलहे ण तवदेवाणुप्पिया | माणुस्सए जम्मजीवियफले, जस्स पण तव निग्गथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता शनैः २ प्रत्यवण्वकते, प्रत्यवष्वष्वय पोषधशालात प्रतिनिष्क्रमति, प्रतिनिष्क्रम्य दिव्य सर्परूप त्रिजहाति विमहायक महद्दिव्य देवरूप त्रिकुरुते ॥ १११ ॥ टीका --- व्याख्या छायया गतार्था || १०८ - १११ ॥
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छाया - हारविराजितवक्षो यात्रत् दश दिशा उदद्योतयत् प्रासादीय दर्शनीयम भिरूप प्रतिरूप दिव्य देवरूप विकुरुते, विकृत्य कामदेवस्य श्रमणोपासकस्य पोषध शालामनुप्रविशति, अनुमविश्यान्तरिक्षप्रतिपन्नः सेकिङ्किणीकानि पञ्चवर्णानि वस्त्राणि प्रवरपरिहितः कामदेव श्रमणोपासकमेवमवादीत् - " हभो कामदेव ! श्रमणोपासक ! धन्योऽसि खलु व देवानुप्रिय ' सम्पूर्ण कृतार्थं, कृतलक्षण सुलभ खलु तव - देवानुप्रिय ! मानुष्य जन्मजोवितफल, यस्य खलु तत्र ग्रन्थ्ये प्रवचने इयमेतद्रूपा १ ' किडिण्य =क्षुद्रघण्टिकास्तामि सहितानि ' इति व्याख्या |
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न कर सका, उसका चित्त चचल न कर सका, एव उसके परिणामों को बदल न सका तो शान्त, ग्लानियुक्त और अत्यन्त ग्लानियुक्त लज्जित होकर धीरे धीरे लौट गया । लौट कर पोषधशाला से निकला । निकल कर दिव्य सर्प रूपको त्यागा । त्याग कर देवताके दिव्य रूपको धारण किया ।। १११ ॥
ચલાયમાન ન કરી શકયે, તેના ચિત્તને ચચળ ન કરી શકયા, તેમજ તેના પરિણામેાને ન બદલાવી શકયા, ત્યારે તે શાન્ત, ગ્લાનિયુકત અને અત્યં ત ગ્લાનિયુકતલજ્જિત થઈને ધાર-ધીરે પાછળ ચાલ્યે ગયેા પાછે ફરીને તે પાષધશાળામાથી બહાર નીકળ્યે, દિવ્ય સર્પરૂપના તેણે ત્યાગ કર્યાં અને દેવતાના દિવ્ય રૂપને भार (१११)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ २ सू ११२ देवकृतकामदेवप्रशसावर्णनम् ३८५ अभिसमन्नागया। एव खलु देवाणुपिया ! सके देविदे देवराया जाव सकसि सीहासणसि चउरासीईए सामाणियसाहस्सीण जाव अन्नेसि च वहण देवाण य देवीण य मज्झगए एबमाइक्खड़ ४"एव खलु देवाणुप्पिया। जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चपाए नयरीए प्रतिपत्तिलब्धा, प्राप्ता, अभिसमन्वागता । एव ग्वलु देवानुपिय ! शक्रो देवेन्द्रो देवरामो यावत् साक्रे मिहामने चतुरशीते सामानिम्साहस्रीणा यावदन्येपाच रहना देवाना च देवीना च मन्यगत एवमाख्याति-'एन ग्खलु देवानुमियाः। जम्मूद्वीपे
टीकार्थ-'हारविराइये त्यादि उमका वक्षस्थल हारसे विभूषित था। यावत् अपनी कान्तिसे दसों दिशाओको प्रकाशमय करते हुए उसने प्रासादीय दर्शनीय, अभिरूप, प्रतिरूपदिव्य टेवरूपपी विक्रिया की। विक्रिया करके कामदेव श्रमणोपासाकी पोपधशालामे प्रवेश किया। प्रवेश करके आकाशमे स्थितवह छोटी छोटी घटियों वाले उत्तम पाच वर्ण के वस्त्रोको धारण कर कामदेव श्रावकसे इस प्रकार कहने लगा" हे कामदेव श्रमणोपासक ' तुम धन्य हो, देवानुप्रिय ! तुम कृतार्थ हो, कृतलक्षण हो । देवानुप्रिय ! मनुष्य जन्मका फल तुम्हारे लिए सुलभ है, क्योंकि तुम्हे निर्ग्रन्ध प्रवचनमें हम प्रकारकी यह प्रतिपत्ति (जानकारी) लब्ध हुई, प्राप्त हुई और सामने आई है। देवानुप्रिय ! देवेन्द्र देवराज शक्र महाराजने अपने शक मिहामन परसे चौरासी हजार सामानिक तथा अन्य बहुतसे देवों तथा देवियोंके बीच ऐसा
टीकाथै--'हारविराइये-यात तेनु वक्षस्थल हारथी विभूषित तु ते થાવત્ પિતાની કાનિતથી દશે દિશાઓને પ્રકાશમય કરતા હતા તેને પ્રાસાદીય, દર્શનીય, અભિરૂપ, પ્રતિરૂપ દિવ્ય દેવરૂપની વિક્રિયા કરી પછી તેણે કામદેવ શ્રમણોપાસકની પિષધશાળામાં પ્રવેશ કર્યો આકાશમાં રહીને અને નાની નાની ઘટડીઓવાળા ઉત્તમ પાચ વર્ણના વસ્ત્રો ધારણ કરીને તે કામદેવ શ્રાવકને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યું હે કામદેવ શ્રમણોપાસક તુ ધન્ય છે, દેવાનુપ્રિય તુ કૃતાર્થ છે, કૃતલક્ષણ છે, દેવાનુપ્રિય! મનુષ્યજન્મનુ ફળ તારે માટે સુલભ છે, કારણકે તને નિન્ય પ્રવચનમાં આ પ્રકારની પ્રતિપત્તિ (જાણવાપણુ) લબ્ધ થઈ છે, પ્રાપ્ત થઈ છે અને સામે આવી છે દેવાનુપ્રિય! દેવેન્દ્ર દેવરાજ મહારાજે પિતાના શક સિંહાસન પરથી ચોરાશી હજાર સામાનિક તથા બીજા ઘણા દે તથા દેવીઓની વચ્ચે એવું કહ્યું “દેવાનુપ્રિયે! જબૂદ્વીપના
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उपासकदशास्त्रे कामदेवे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए दब्भसंथारोवगए समणस्स भगवओमहावीरस्सअतिय धम्मपण्णत्ति उवसपजिताण विहरइ ।नो खल्ल से सका केणइ देवेण वा जाव गधव्वेण वा निग्गथाओ पावयणाओचालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा। तए ण अहं सक्कस्स देविंदस्स देवरपणो एयम असदहमाणे३ इह हत्वमागए । त अहो ण देवाणुप्पिया। इड्डी ६ लद्ध ३, त दिवाणं देवाणुप्पिया । इड्डी जाव अभिसमन्नागया, तं खामेमि णं देवाणुप्पिया। खमतु मज्झ देवाणुप्पिया। खंतुमरिहंति ण देवाणुप्पिया। नाइं भुज्जो करणयाए" ति कट्ट पायवडिए पंजलिउडे एयम भुजो भुजो खामेइ, खामित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिस पडिगए ॥ ११२ ॥ द्वीपे मारते वर्षे चम्पाया नगा कामदेवः श्रमणोपासक. पोषधशालाया पोषधिको दर्भसस्तारोपगतः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽऽन्तिकी धर्मप्रज्ञप्तिमुपसपध विह रति । नो खलु स शक्यः केनापि देवेन वा यावद् गन्धर्वेण वा नैर्ग्रन्ध्यात्मवचना चालयितु वा क्षोभयितु वा विपरिणामयितु वा तत खलु अह शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्यैतमर्थमश्रद्दधत्३ इह हव्यमागतस्तदहो ! खलु देवानुप्रिय ! ऋद्धिः ५ कहा ४-"देवानुप्रियों ! जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रकी चम्पानगरी में कामदेव श्रावक पोषधशालामें पोषध लेकर डाभ के सथारे पर बैठा हुआ श्रमण भगवान महावीरके समीपकी धर्मप्रज्ञप्तिको स्वीकार कर विचरता है। किसी देव अथवा यावत गर्वमें ऐसा सामर्थ्य नहीं है कि वह उस कामदेव श्रावकको निर्ग्रन्थ प्रवचनसे डिगा सके, उसका चित्त चचल कर सके या परिणाम पलटा सके।" देवेन्द्र देवराज शक्रकी ભરતક્ષેત્રની ચપાનગરીમા કામદેવ શ્રાવક પિષધશાળામા પિષધ લઈને ડાભડાના સારા પર બેસી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સમીપની ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિને સ્વીકાર કરી વિચરે છે કે દેવ અથવા યાવત્ ગધર્વમાં એવું સામર્થ્ય નથી કે જે એ કામદેવ શ્રાવકને નિર્થ થ પ્રવચનથી ડગાવી શકે, એનું ચિત્ત ચચળ કરી શકે, યા પરિણામ પલટા શકે ” રેવેદ્ર દેવરાજ શક્રની આ વાત પર મને વિશ્વાસ ન આવ્યું. હું તરતજ
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भ० धर्म० टीका अ० २२० ११३-११५ भगवद्वन्दनार्थकामदेवगमनवर्णनम् ३८७
मूलम्-तए णं से कामदेवे समणोवासए 'निरुवसग्ग' इइ कट्ट पडिम पारेइ ॥११३॥ तेण कालेणं तेण समएणं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ ॥११४॥ तए ण से कामदेवे समणोवासए इमीसे कहाए लद्धढे समाणे-'एव खलु समणे भगव महावीरे जाव विहरइ, त सेयं खलु मम समण भगवं महावीरं वदित्ता नमंसित्ता तओ पडिणियत्तस्स पोसह पारित्तए" त्ति कह एव सपेहेइ, सपेहित्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता य चंपं नगरि मज्झ-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा सखो जाव पज्जुवासइ ॥११५॥ लब्धा ३, तद् दृष्टा खलु देवानुप्रियाः ! ऋद्धिर्यावदभिसमन्वागता, तत् क्षामयामि खलु देवानुमिया' !, क्षमन्ता मम देवानुमियाः ! क्षन्तुमर्हन्ति खलु देवानुमियाः । न भूय करणतया " इति कृत्वा पादपतितः पाञ्जलिपुट एतमथै भूयो भूप. क्षाम यति, क्षामयित्वा यामेव दिश (अधिकृत्य) प्रादुर्भूतस्तामेव दिश प्रतिगतः ॥११२॥ टीका छायागम्या ॥ ११२ ।।
______ __ _ इस बात पर मुझे विश्वास न हुआ ३ । मैं फौरनही घरा आया। अहो देवानुप्रिय । ऐसी ऋद्धि ६ तूने पाई वह ऋद्धि हे देवानुमिय ! देखी यावत् सामने आई। अत. देवानुप्रिय ! मै क्षमाकी प्रार्थना करता है, मुझे क्षमा कीजिए, देवानुभिय । आप क्षमा करनेके योग्य हैं, अब फिर कभी ऐसा काम नही किया जायगा।" इतना कहकर दोनों हाथ जोड पैरों पर गिर पड़ा और बारम्बार इस यातको खमाया। खमाकर-क्षमा कराकर-जिस दिशासे आया था उसी दिशामें चला गया ॥ ११२ ॥ અહીં આ અહે દેવાનુપ્રિય! આવી અદ્ધિ તમે પ્રાપ્ત કરી, એ ઋદ્ધિ, હે દેવાનુપ્રિય! મે જોઈ યાવત્ સામે આવી તેથી દેવાનુપ્રિય હ ક્ષમાની પ્રાર્થના કરૂ છુ, મને ક્ષમા કરે, દેવાનુપ્રિય ! તમે ક્ષમા કરવા ગ્ય છે હવે ફરીથી હું કદી આવું કામ નહિ કરૂ ” આટલું કહીને બે હાથ જોડી તે પગે પડશે અને વાર વાર એ માટે ખમાવવા લાગે ખમાવીને-ક્ષમા કરાવીને, જે દિશામાથી તે આવ્યા હતા તે દિશામાં ચાલે ગયે (૧૧૨)
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मासकदशामने छाया-ततः खलु स कामदेवः श्रमणोपासकोः 'निरुपसर्गम् ' इति कृत्वा मतिमा पारयति ॥११३॥ तस्मिन् काले तस्मिन समये समणो भगवान महावीरो यावत्-विहरति ॥ ११४ ॥ ततः खलु म कामदेव श्रमणोपासकोऽस्यों क्याया लब्धार्थः सन्-“एर खल्लु अमणो भगवान महावीरो यापद विहरति, तच्छेयः खल मम श्रमण भगवन्त महावीर पन्दिता नमस्थित्वा ततः प्रतिनिवृत्तस्य पोषध पारयितु"मिति कृत्वा एव सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य पौषधशालातः प्रतिनिष्क्रामति तिनिष्फम्यच चम्पा नगरी मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैत्र पूर्णभद्रश्चैत्यो यथा शहो यावत्पर्युपास्ते ॥ ११५ ॥
१-उपसर्गस्य-उपद्रवस्याऽभावो निरुपसर्गम्-'अव्यय' मिति सूत्रेणान्ययीभा वत्वानपुसकत्व, जातमिति शेपः।
२-तृतीयार्थे सप्तमी, तेन 'अनया कथये' त्यर्थः ॥
टीका~पोपमित्याहारपोषधमित्यर्थः शङ्का शङ्खनामा श्रावकः भ श १२ उ १ स यथा पौषधिकस्तथैवेत्यर्थः - ११३-११५ ॥
टीकार्थ-'तए ण से' इत्यादि तदनन्तर उस कामदेव श्रावकने उपसर्गरहित हो कर पडिमा पारी ॥ ११३ ॥ उस काल उस समय श्रमण भगवान महावीर (यावत्) विचरते है ॥ ११४ ॥ कामदेव. श्रावकने यह पात सुनकर सोचा “अच्छा होगा श्रमण भगवान महावीर जब विचरते हैं तो श्रमण भगवान महावीरको वन्दना नमस्कार करके वहासे वापस लौट कर आहार पोषधको पारूँ"ऐसा विचार कर वह पौपधशालासे निकला । निकलकर चम्पा नगरीके बीचों बीच होकर पूर्णभद्र चैत्यमें जाकर शख श्रावककीतरह यावत पयंपासनाकी॥११५।।
टीकाथ-'तए ण से'-त्या पछी अमहव श्राप सहित 4 न परिभा पारी (११३). એ કાળે એ સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર (યાવત) વિચરી રહ્યા છે (૧૧) કામદેવ શ્રાવકે એ વાત સાંભળીને વિચાર્યું “શ્રમણ ભગવાન મહાવીર જ્યારે વિચારી રહ્યા છે, તે શ્રમણ-ભગવાન મહાવીરને વદના-નમસ્કાર કરીને ત્યાંથી પાછા ફર્સ આહારપષધને પારૂ તે બહુ સારૂ ” એમ વિચારીને તે પિષધશાળાથી નીકળે અને ચ પાનગરીની વચ્ચે વચ્ચે થઈને પૂર્ણભદ્ર ચર્ચામાં જઈ શખ શ્રાવકની પેઠે તે ચાવત पर्युपासना री ( ११५)
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अ०-धर्म० टीका अ.२ मू०११६-१२४ भगवत्कृतकामदेवप्रशसावर्णनम् ३८९ .. मूलम्-तए ण समणे भगव महावीरे कामदेवस्स समणोवास यस्स तीसे य जाव धम्मकहा सम्मत्ता ॥११६॥ कामदेवा इ समणे भगव महावीरे कामदेवं समणोवासय एवं वयासी-से नूणं कामदेवा । तुम पुहरत्तावरत्त कालसमयंसि एगे देवे अंतिएपाउन्भूए । तए णं से देवे एग महं दिव पिसायरूव विउच्चइ,विउवित्ता आसुरत्ते४ एग मह नीलुप्पल जाव असि गहाय तुम एव वयासीहंभोकामदेवा। जाव जीवियाओ ववरोविज्जसि। त तुम तेण देवेणं
छाया-तत सलु श्रमणो भगवान महावीरः कामदेवस्य श्रमणोपासकस्य तस्या च यावद्धर्मकथा समस्ता ॥ ११६ ॥ शामदेव ! इति श्रमणो भगवान महावीरः कामदेव श्रमणोपासर मेवमवादील-अथ नून कामदेव । तव पूर्वरात्रापरत्रकालसमये एको देवोऽन्तिके प्रादुर्भूतः। ततः ग्वलु स देव एक महदिव्य पिशाचरूप विकुरुते, विकृत्य आशुरक्त. ४ एक महान्त नीलोत्पल-यावदसिं गृहीत्वा त्वामेवमवादी
१-इति इति सम्बोध्येत्यर्थः।।
टीकार्य-'तए ण समणे' इत्यादि । श्रमण भगवान् महावीरने कामदेवो उस पडी परिषदमें यावत् धर्मकथा सपूर्ण कही ॥ ११६ ॥
'हे कामदेव !' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महावीर कामदेव श्रावकको कहने लगे “हे कामदेव ? पूर्वरात्रिके अपर (दूसरे) समयमें एक देवता तुम्हारे सामने प्रगट हुआ था। उस देवताने एक विशाल महान् दिव्य पिशाच के रूपकी विक्रिया की थी। विनिया करके क्रोधित होता हुआ एक रडी नील कमलके समान श्याम वर्णकी यावत् तलवार लेकर तुझे यों कहने लगा-" अरे कामदेव !
टीकार्य-'तए ण समणे' या श्रमय भगवान महावीरे अभवन में मोटर પરિષદમા યાવત્ ધર્મકથા પૂર્ણ કહી (૧૧૬) “ હે કામદેવ” એ પ્રમાણે સબોધન કરીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીર કામદેવ શ્રવકને કહેવા લાગ્યા –“કામદેવ પૂર્વરાત્રિના બીજા સમયમાં એક દેવતા તમારી સામે પ્રકટ થયે હતું એ દેવતાએ એક વિશાળ મહાન દિવ્ય પિશાચના રૂપની વિક્રિયા કરી હતી વિક્રિયા કરીને ક્રોધિત થતા એક મેટી નીલ કમળ જેવી શ્યામવર્ણની યાવત્ તલવાર લઈને તમને એમ
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उपासकदवारको एव वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरसि । एव वण्णगरहिया तिण्णि वि उवसग्गा तहेव पडिउच्चारेयवा जाव देवो पडिगओ। से नूण कामदेवा । अहे सम? ? हता अस्थि ॥१९७॥ अज्जो इ समणे भगवं महावीरे वहवे समणे निग्गंथे य निग्गंधीओ य आमंतेत्ता एव वयासी-जइ ताव अज्जो । समणोवासगा गिहिणो गिहमज्झावसंता दिवमाणुसतिरिक्खजोणिए उवसग्गे सम्म सहति जाव अहियासेंति, सका पुणाइ अज्जो । समणेहि निग्गंथेहिं दुवालसंग भो कामदेव ! यावत् जीविताद् व्यपरोप्यसे । ततस्त्व तेन देवेनैवमुक्तः सन् अभीतो यावद् विहरसि । एक वर्णरहितास्त्रयोऽप्युपसर्गास्तथैवोच्चारयितव्या यावत्-देवः प्रतिगत । स नून कामदेव ! अर्थ. समर्थः ? हन्त अस्ति ॥११७॥ हे आर्याः ! इति श्रमणो भगवान् महावीरो वहन् श्रमणान् निग्रंन्याश्च निग्रन्थी श्वाऽऽमन्ध्यैवमवादी-यदि तावदार्याः ! श्रमणोपासका गृहिणो गृहमभ्याऽऽवसन्ता दिव्यमानुष्यतर्यग्योनिकानुपसर्गान् सम्यक् सहन्ते यावदभ्यासते, शक्या:पुनरायाः । यावत् जीवनसे नष्ट हो जायगा।" तथ तुम देवके यों कहने पर भी निडर होकर यावत विचरते रहे। इसी प्रकार तीनों उपसर्ग वर्णन रहित समझ लेने चाहिए, यावत् देव लौट गया। क्यो कामदेव ! यह बात ठीक हैन " कामदेव-हा भगवान् । ठीक है॥ ११७॥ __'आयो !' इस प्रकार यहुतसे श्रमण निग्रन्थ और निग्रेथियोंको सबोधन करके भगवान् महावीर कहने लगे-"आर्यों ! घरमें रहने वाले गृहस्थ श्रावक दिव्य, मानुष और तिर्यच सबन्धी उपसगोंको सम्यक प्रकार सहन करते है यावत् ध्याननिष्ठ विचरते है। हे आर्य द्वादशाग કહેવા લાગે –“અરે કામદેવ ! યાવત્ જીવનને નષ્ટ કરી નાખીશ” ત્યારે તમે દેવના એવા કથન છતા પણ નિડર થઈ યાવત્ વિચારી રહ્યા એ પ્રમાણે ત્રણે ઉપસર્ગ વર્ણન રહિત સમજી લેવું પછી દેવ પાછો ચાલ્યા ગયે કેમ કામદેવ એ વાત मसर छन " भवे ४ा, “, पान ! परामर छ " (११७)
“ઓયે!” એ પ્રમાણે ઘણા શ્રમણ નિર્ગથ અને નિર્ચ થીઓને સંબોધન કરીને ભગવાન મહાવીર કહેવા લાગ્યા, “આર્ય! ઘરમાં રહેનારા ગૃહસ્થ શ્રાવક દિવ્ય, માનુષ અને તિર્યંચ સબધી ઉપસર્ગોને સમ્યફ કાર સહન કરે છે, થાત
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अ० धर्म० टीका अ २ . ११६ - १२४ भगवत्कृतकामदेव सावर्णनम् ३९१ गणिपि अहिमाणेहिं दिवमाणुसतिरिक्खजोणिया (उवसग्गा) सहित्तए जाव अहियासित ॥ ११८ ॥ तओ ते समणस्स भगवओ महावीरस्स तहत्ति एयमट्ट विणएणं पडिसुणंति ॥ ११९ ॥ तए णं से कामदेवे समणोवासए हट्ट जाव समणं भगवं महावीर पसिणाइ पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्टमादियइ अट्टमादिइत्ता जामेव दिस पाउव्भूए तामेव दिसं पडिगए ॥ १२० ॥ तणं समणे भगव महावीरे अन्नया कयाइ चंपाओ पडिणि
श्रमणैर्निर्ग्रन्यैर्द्वाशाङ्ग गणिपिटक अधीयानैः, दिव्यमानुषतैर्यग्योनिकाः (उपसर्गाः) सोड यावद यासितुम् ॥ ११८ ॥ ततस्ते श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य ' तयेति' एतमर्थे विनयेन प्रति शृण्वन्ति ॥ ११९॥ ततः खलु म कामदेवः श्रमणोपासको हृष्ट- यावत् - श्रमण भगवन्त महावीर प्रश्नान् पृच्छति, पृष्ट्वा - अर्थमाददाति, अर्थमादाय यामेवदिश प्रादुर्भूतस्तामेव दिश प्रतिगत' ॥ १२० ॥ ततः खलु श्रमणो भगवान्
गणिपिटक (चारह अगरूपी आचार्यकी पेटी) के धारक श्रमण निर्ग्रन्थोंको तो ऐसे उपसर्ग सहन करने में हमेशा समर्थ ( मजबूत) रहना ही चाहिए ।
श्रमण भगवान् महावीरकी यह बात उन्होंने विनय के साथ 'तहत्ति (तथेति ) कह कर स्वीकार की ॥ ११९ ॥ इसके बाद कामदेव श्रावकने हर्षित होकर यावत् श्रमण भगवान् महावीर से प्रश्न पूछे, और प्रश्न पूछकर उनका अर्थ ग्रहण किया, अर्थ ग्रहण करके जिधर से आया था उधर ही चला गया || १२०|| इसके नाद किसी समय श्रमण भगवान्
ધ્યાનનિષ્ઠ વિચરે છે. હું આ 1 દ્વાદશાંગ ગણિપિટક ખાર અગરૂપી આચાર્યની પેટી) ના ધારક શ્રમણુ નિગ્ર ચાએ તે એવા ઉપસ સહન કરવામા હમેશા સમ ( भन्न्भूत) रहेवु ४ लेभे " (११८)
"
શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરની એ વાત તેણે વનયપૂર્વક तहत्ति ' ( तथेति ) કહીને સ્વીકારી (૧૧૯) પછી કામદેવ શ્રાવકે હર્ષિત થઈને યાવત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને પ્રશ્નના પૂછ્યા અને પ્રશ્નો પૂછીને એના બ ગ્રહણ કર્યો અ ગ્રહણુ કરીને ન્યાથી આવ્યા હતા ત્યા ચાયેા ગયા (૧૨૦) પછી કાઈ સમયે શ્રમણુ
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उपासकदशायरी क्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥१२॥ तए णं से कामदेवे समणोवासए पढम उवासगपडिम उवसंपजिताणं विहरइ ॥१२२॥ तए णं से कामदेवे समणोवासए बहहि जाव भावेत्ता वीस वासाइं समणोवासगपरियाग पाउणित्ता, एकारस उवासगपडिमाओ सम्म कारणं फासेत्ता मासियाए
सलेहणाए अप्पाण झुसित्ता, सद्धि भत्ताइ अगसणाए छेदेत्ता __ आलोइयपडिकते समाहिपत्तेकालमासे काल किच्चा सोहम्मे
महागीरोऽन्यदा कदाचिजम्पात प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य पहिर्जनपदविहार विहरति ॥ १२१ ॥ तत सलु स कामदेव श्रमणोपासका प्रथमामुपासकप्रतिमा मुपसम्पद्य विहरति ।। १२२॥ तत खलु स कामदेवः श्रमणोपासको बहुभिर्यावद् भावयित्वा विंशतिं वणि श्रमणोपासकपर्याय पालयित्वा, एकादशोपासकमतिमा. सम्यक् कायेन स्पृष्ट्वा मासिक्या सलेखनयाऽऽत्मान जोपयित्वा, पष्टिं भक्तानि अनशनेन छिच्चा, भालोचितप्रतिक्रान्तः समाधिमाप्तः कालमासे काल कृत्वा सौधर्म महावीर चम्पासे बाहर पधारे । पधार कर देश देशमे विहार करने लगे ॥१२१।। कामदेव श्रावक, श्रावककी पहली पडिमा अगीकार करके विचरने लगा॥१२२॥ फिर कामदेव श्रावक बहुतसे शील, व्रत आदिसे
आत्माको भावित (सस्कार युक्त) करके बीस वर्ष तक श्रावक पर्याय पालकर,ग्यारहों प्रतिमाओंको भली भाति कायसे स्पर्श करके मासिकी (एक मासकी) सलेखनासे आत्माको जूपित (सेवित) करके, साठ भक्त (भोजन) अनशन द्वारा त्याग कर, आलोचनो प्रतिक्रमण करके, समाधिको प्राप्त होता हुआ काल समयमे काल करके सौधर्म कल्पमें,
ભગવાન મહાવીર ચ પાથી બહાર પધાર્યા અને દેશદેશ વિહાર કરવા લાગ્યા (૧૨) કામદેવ શ્રાવક પહેલી પડિયા અગીકાર કરીને વિચરવા લાગે (૧૨૨) પછી કામદેવ શ્રાવક ઘણુ શીલ, વ્રત અદિથી આત્માને ભાવિત (સસ્કારયુકત) કરીને વીસ વર્ષ સુધી શ્રાવક પર્યાય પાળી, અગીઆરે પડિમાઓને સારી રીતે કાયાથી સ્પર્શ કરી, માસિક (એક માસની) સલેખનાથી આત્માને શાષિત સિવિત) કરી, સાઠ ભકત ભેજન) અનશન દ્વારા ત્યાગ કરી, આલેચના પ્રતિક્રમણ કરી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ २ सु. ११६-१२४ मययनसमाप्तिः ३९३ कप्पे सोहम्मवडिसयस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरथिमेणं अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने । तत्थ ण अत्थेगडयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइ ठिई पण्णत्ता ॥१२३॥ “से णं भंते । कामदेवे देवे ताओ देवलोगाओ अउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणतर चय चइत्ता कहि गमिहिड ? कहि उववजिहिइ ? गोयमा । महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ" ॥ निक्खेवो ॥१२॥
सत्तमस्स अगस्स उवासगदसाग घीय
__ अज्झयण समत्त ॥२॥ यल्पे सौधर्मावतसकस्य महाविमानस्योत्तरपौरस्त्येऽरणाभे विमाने देवतयोपपन्न । तत्र खलु अस्त्येककेपा देवाना चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता ॥ १२३ ।। स खलु भदन्त ! कामदेवो देवस्तस्मादेवलोकादायु क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेणानन्तर चय न्युत्वा कुत्र गमिप्यति ? कुत्रोत्पत्स्यते ? गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ! निक्षेपः ॥ १२४ ।।
सप्तमस्यागस्योपासक्दशाना द्वितीय
__ मध्ययन समाप्तम् ॥२॥ टीका-चय देवशरीरम् । च्युत्ता-धातूनामनेकार्थत्वात् त्यक्त्वेत्यर्थः ॥ ॥ ११६-१२४ ॥ इतिश्री विश्वविख्यात-जगढल्लम-सिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहुछत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त-"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु वालाह्मचारी जैनशास्त्राचार्य-जैन धर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालप्रति-विरचितायामुपासकदशागमूत्रम्याऽगारधर्मसञ्जीवन्या व्याया व्याख्याया द्वितीय कामदेवाख्यमभ्ययन
समाप्तम् ॥ २ ॥ सौवर्माचतमक महाविमानके उत्तर पूर्वभाग (ईशान कोण)के अरुणाभ नामक विमानमें देवरूपसे उत्पन्न हुआ। वहा किसी किसी देवकी चार पल्योपमकी स्थिति कही गई है, सो कामदेव देव की भी चार સમાધિને પ્રાપ્ત થતે જળ સમયે કાળ કરી સીધમ કહ૫મા, મૌધર્માવત એક મહા વિમાનના ઉત્તર-પૂર્વ ભાગ (ઈશાન કોણ) ના અરૂણાભ નામક વિમાનમાં દેવરૂપે ઉત્પન્ન થયે ત્યા કેઈ કેઈ દેવની ચાર પાપમની સ્થિતિ બતાવી છે કામદેવ
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॥ तृतीयमध्ययनम् ॥
तइयस्म' इत्यादि ।
अथ तृतीयम नयनमारभ्यते- 'उवखे मूलम् उक्खेवो तइयस्स अज्झयणस्स । एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समएण वाणारसी नाम नयरी | कोट्टए चेइए । जियसत्त राया ॥ १२५ ॥ तत्थ णचाणारसीए नयरीए चुलणीपिया नाम गाहावई परिचस अड्डे जाव अपरिभूए । सामा भारिया । अट्ट हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, अटु बुढिपत्ताओ, अट्ट पवित्रपउत्ताओ, अटू वया दसगोसाहस्सिएणं वएण । जहा आणदो राईसर जाव सङ्घकज्जवड़ावए यावि होत्था । सामी समोसढे । परिसा निग्गया, चुलणीपिया वि जहा आणंदो तहा निग्गओ 1
छाया - उत्क्षेपस्तृतीयस्याध्ययनस्य । एव खलु जम्बू ' तस्मिन काले तस्मिन समये वाराणसी नाम नगरी । कोष्ठक चैत्यम् । जितशत्रू राजा ॥ ११५ ॥ तत्र खलु वारास्या नगर्या चुलनीषिता नाम गाथापतिः परिवसति, आढ्यो यावदपरिभूतः । श्यामा भार्या । अष्ट हिरण्यकोट्यो निधानमयुक्ताः, अष्ट वृद्धिमयुक्ता, अष्ट प्रविस्तरप्रयुक्ता', अष्ट व्रजा दगगोसाहस्रिकेण वजेन । यथा आनन्दो राजेश्वर - यावत्सर्वकावासीत् । स्वामी समग्रस्त' । परिपनिर्गता, चुलनीपिताऽपि यथाऽऽनपल्योपमकी स्थिति है ॥ १२३ ॥ गौतम स्वामी- "भगवन कामदेव उस देवलोक आयु, भव और स्थितिका क्षय करके अनन्तर देव पर्याय छोडकर वहाँ जायगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? " भगवान् - ' गौतम ! महाविदेह क्षेत्रमे सिद्ध होगा || १२४ ॥
'
मातवें अग उपास दशागमूत्र के दूसरे कामदेव अध्ययनका हिन्दी भाषानुवाद समाप्त ॥ २ ॥
દેવની પણ ત્યા ચાર પત્યેાપમની સ્થિતિ છે (૧૨૩)
ભગવાન માન્યા ર સાતમા
ગૌતમ સ્વામી એલ્યા ' વન। કામદેવ દેવતા એ દેવલેાકથી આયુ, ભત્ર અને સ્થિતિના શ્ચય કરીને પછી દેવ પર્ચોચ ડેાડી કયા જશે ? કયા ઉત્પન્ન થશે ?” गोतम भाविक क्षेत्रमा सिद्ध थशे" (१२४) ઉપાસાગસૂત્રના બીજા નામદેવ અધ્યયન ગુજરાતી ભાષાનુવાદ સમાપ્ત (૨)
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अ०धर्म० टीका अ ३ सू १२५ - १०७ चुलनीपिगाथापतिवर्णनम् ३९५ तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ । गोयमपुच्छा तहेव सेसं जहा कामदेवस्स जाव पोसहसालाए पोसहिए वंभयारी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिय धम्मपण्णत्ति उवसपजित्ताण विहरड ॥ १२६ ॥ तण तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स पुवरत्तावरत कालसमयंसि एगे देवे अतिय पाउन्भूए ॥ १२७ ॥
न्दस्तथा निर्गतः । तथैव गृहिधर्मे प्रतिपद्यते । गौतमपृच्छा तथैव पय कामदेवस्य यावत् पौधशालाया पौषधिको ब्रह्मचारी श्रमणस्य भगवता महावीर - स्पाऽऽन्तिक धर्मप्रप्तिमुपसम्पद्य विहरति ॥ १२६ ॥ तत' खलु तम्य चुलनीपितृ' श्रमणोपासनस्य पूर्वराजापर काल्समये एको देवोऽन्तिक प्रादुर्भूत. ।। १२७ ।।
टीका - उत्क्षेप = पारम्भवाक्यमर्थाद्य प्रथम द्वितीययोर ययनयो सुधर्मस्वामिन पति जम्बूस्वामिना प्रश्न कृतस्तादृश एवास्याप्यन्ययनम्यारम्भे स्वयमूह नीय इति । शेष सर्व स्पष्टम् || १२०-१२७ ॥
अन तीसरा अध्ययन कहते है
टीकार्थ- ' उक्खेवो तहयस्म इत्यादि प्रथम द्वितीय अध्ययनकी नाई तीसरेका भी प्रारम्भ सुधर्मा स्वामीके प्रति जम्बू स्वामीके प्रश्न करनेसे हुआ है । हे जम्बू ! उस काल उम समयमें वाराणसी (बनारस) नगरी, मटक चेत्य और जितशत्रू राजा था || १२५ || उस बनारस नगरी में चुलनीपिता नामक गाथापति रहता था। वह सब प्रकार सम्पन्न यावत् अपरिभूत ( अजेय) या । श्यामा उसकी भार्या थी । आठ करोड मोनैया निधान (खजाने ) मे रखे थे, आठ करोड व्यापारमें ત્રીજું અધ્યયન
હવ ત્રીજી અધ્યયન કહીએ છીએ —
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टीकार्थ - " उक्खेवो तइयम्स " - इत्याहि प्रथम द्वितीय अध्ययन्नी पेठे श्रीन અધ્યનના પણ પ્રારંભ સુધર્માંસ્વામી પ્રત્યે જમ્મૂવામીના પ્રશ્નથી થયેા છે હે જમ્મૂ એ કાળે, એ સમયે વારાસણી ( બનાસ ) નગરી, કેષ્ટક ધૃત્ય અને જિતશત્રુ નજા હતે. (૧૨૫) એ ખન રસ નગરીમાં ચુલનીતિ નામક ગાથાપતિ રહેનેા હતે એ સર્વ પ્રકારે સપન્ન યાવત્ અપરિભૂત (અજેય) હતા. શ્યામા તેની ભાË હતી. माठ रोड भोनेया निधान (अन्ननामा ) गभ्या इता, આઠે કરડ
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उपासकदशास्त्रे भरियंसि कडाहयंसि अदहेड, अद्दहिता चुलणीपियस्स समणोवासयस्स गायं मसेण य सोणिएण य आडचड ॥१३१॥ तए ण से चलणीपिया समणोवासए त उज्जलं जाव अहियासेइ ॥१३२॥ तए णं से देवे चुलणीपिय समणोवासय अभीय जाव पासइ,पासित्ता दोच्चपि तच्चपि चुलणीपिय समणोवासय एवं वयासी हभो चुलणी पिया । समणोवासया । अपत्थियपत्थया। जाव न भजेसि तोते अह अन्ज मज्झिम पुत्त साओ गिहाओ नीणेमि, नीणित्ता तव अग्गओ घाएमि जहा जेठ पुत्त तहेव भणड,तहेब करेइ । एव तच्चपिकणीयस जाव अहियासेइ ॥१३३।। तए ण से देवेचुलणी पियं समणोवासय अभीयं जाव पासइ, पासित्ता चउत्थापि चुलणी पियं समणोवासयं एवं वयासी-हभो चुलणीपिया। समणोवासया अपत्थियपत्थया। जइ णं तुम जाव न भजेसि तओ अह अज जा इमा तव माया भद्दा सत्थवाही देवयगुरुजणणी दुक्करदुकरकारिया
मासशूल्यकानि करोति, कृत्वा आदहनभृते कटाहे आदहति, आदह्य चुलनीपितु श्रमणोपासरस्य गात्र मासेन च शोणितेन चाऽऽसिञ्चति ॥ १३१॥ तत खलु स चुलनीपिता अमणोपासनस्तामुज्ज्वला यावद यास्ते ॥ १३२ ॥ तत खलु स देवचुलनीपितर श्रमणोपासकभीत यावत् पश्यति, दृष्ट्वा द्वितीयमपि ठतीयमपि चुल नीपितर श्रमणोपासकमेवमवादीत-" हभो चुल्नीपित श्रमणोपासक ! अमाथितमार्थक । यावन्न भनक्षि तर्हि तेऽहमद्य मध्यम पुत्र स्वस्माद् गृहान्नयामि, नीत्वा तवाऽग्रतो घातयामि" यथा ज्येष्ठ पुत्र तथैव भणति, तथैव परोति । एव तृतीय मपि स्नीयास यावदभ्यास्ते ॥१३३।। तत ग्खलु स देवचुलनीपितर श्रमणोपास मभीत यावत्पश्यति, दृष्ट्वा चतुर्थमपि चुक्नीपितर श्रमणोपासकमेवमवादीत-"हभो चुल्नीपित. ? श्रमणोपासक ? अमार्थितमार्थक ? यदि खलु स्व यावा भनक्षि ततोऽहमध येय तब माता भद्रा सार्थवाही देवतगुरुजननी दुष्करदुष्करकारिका
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. ३ मू० १२८-१४७ देवकृतोपसर्गवर्णनम् ३९९ त ते साओ गिहाओ नीणेभि, नीणित्ता तव अग्गओ घाएमि, घाइत्ता तओ मंससोल्लए करेमि करित्ता आदाणभरियसि कडाहयसि अबहेमि, अद्दहित्ता तव गाय मसेण य सोणिएण य आइचामि, जहा णं तुम अदृदुहवसहे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविनसि ॥१३४॥ तए ण से चुलणीपिया समणोवालए तेण देवेणं एव वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरड ॥११५॥ तए णं से देवे चुलणी पियं समणोवासयं अभीय जाव विहरमाण पासड, पासित्ता चुलणी पियं समणोवासय दोच्चपि तच्चपि एव वयासी हभो चुलणीपिया। समणोवासया | तहेव जाव ववरोविज्जसि ॥१३॥ तए ण तस्त चुलणीपियस्त समणावासयस्स तेण देवेण दोच्चपि तच्चपि एव वृत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए०-"अहो णं इमे पुरिसे अणारिए अणारियवुद्धी अणारियाइ पावाड कम्माइ समायरइ, जे ण मम जेट्र पुत्त साओ गिहाओ नीणेड,नीणित्ता मम अग्गओ घाएइ, घाइत्ता जहा कयं तहा चितेड जाव गाय आडचइ, जे ण
ता ते स्वम्माद् गृहाम्नयामि, नीत्वा तवाग्रतो घातयामि, पातयित्वा त्रीगि मामशूल्यकानि रोमि, कृत्वाऽऽदहनभृते कटाहे आदहामि, आदह्य तव गात्र मासेन च गोणितेन चाऽऽमिश्चामि यथा खलु त्वमात्तद.सातवशात्तौडमाल एव जीविता द्वयपरोप्यसे"॥१३४ ॥ तत खलु स चुलनीपिता श्रमणोपासस्तेन देवेनैवमुक्त सनभीतो यावद्विहरति ॥ १३५॥ तत ग्वलु स देवचुलनीपितर अमणो पासम्मभीत यावद विहरमाण पश्यति, दृष्ट्वा चुलनीपितर अमणोपासक द्वितीयमपि वतीयमप्येवमवादीत्-"हभो चुलनीपितः । श्रमणोपासक यावद् व्यपरोप्यसे" ॥ १३६ ॥ तत ग्बल तस्य चुलनीपितु श्रमणोपासकस्य तेन देवेन द्वितीयमपि ततीयमप्ये मुक्तस्य सतोऽयमेतद्रूप आ यात्मिा ०-" अहो । खलु अय पुरुपोऽनार्यः अनार्यबुद्धिरनार्याणि पापानि कर्माणि समाचरति, य खलु मम ज्येष्ठ पुत्र स्वस्माद् गृहान्नयति, नीत्वा ममाग्रतो घातयति, घातयित्वा ' यथा कृत
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उपासकदशास्त्र मम मज्झिमं पुत्त साओ गिहाओ जाव सोणिएण य आइचइ, जेणं मम कणीयस पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव आइचइ, जावि यणं इमा मम माया भदा सत्थवाही देवगुरुजणणी दुक्कर-दुक्कर कारिया तपि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाइत्तए,त सेयं खल्लु मम एय पुरिसंगिणिहत्तए"-त्ति कटु उद्याइए, सेवि य आगासे उप्पइए, तेणे च खभे आसाइए, महया महया सदेणं कोलाहले कए ॥१३७॥ तए णं सा भद्दा सत्थवाही त कोलाहलसद्द सोचा निसम्म जेणेव चुलणीपिया समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चुलणीपियं समणोवासय एव वयासी-"किण्ण पुत्ता। तुम महया२ सण कोलाहले कए" ॥१३८॥ तए ण से चुलणीपिया समणोवासए अम्मयं भद्द सत्थ याहिं एव वयासी-“एव खलु अम्मो। न जाणामि केवि पुरिसे आसुरत्ते ५ एग मह नीलुप्पल० असिं गहाय मम एव वयोसी.
सथाचिन्तयति यावद्गात्रमासिञ्चति, य. खलु मम मध्यम पुत्र स्वस्माद् गृहाद् यावत्शोणितेन चाऽऽसिञ्चति, येन मम स्नीयास पुत्र स्वस्माद् गृहात्तथैव यावद्-आसि भवति, याऽपि च खलु-इय मम माता भद्रा सार्थवाही दैवतगुरुजननी दुष्परदुष्कर वारिका तामपि च खलु इच्छति स्वस्माद् गृहान्नीत्वा ममाग्रतो घातयितुम् , तच्छ्रेय खलु ममैत पुरुप ग्रहीतुम् ,, इति कृत्वोत्थितः, सोऽपि चाकाशे उत्पतित', तेन च स्तम्भ आसादित., महता महता शब्देन कोलाहल कृतः ॥ १३७ ॥ तत खल सा भद्रा सार्थवाही त कोलाहलशब्द श्रुत्वा निशम्य येनैव चुलनीपिता श्रमणों 'पासास्तेनैवोपागच्छति, उपागत्य चुलनीपितर श्रमणोपासकमेवमवादी"कि खलु पुत्र ! त्वया महता महता शब्देन कोलाहल कृत " ॥१३८॥ तत खलु स चुलनीपिता श्रमणोपासकोऽम्बिका भद्रा सार्थवाहीमेव मवादी-"एव खलु अम्ब ! न जानामि कोऽपि पुरुष आशुरक्त ५ एक महान्त
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अ० धर्म० टीका अ ३ म. १३९-१४७ देवकृतोपसर्गवर्णनम् ४०१ हंभो चुलणीपिया। समणोवासया अपत्थियपत्थया जाव वज्जिया। जइ णं तुम जवा ववरोविनसि ॥१३९॥तए णं अहं तेण पुरिसेणं एव वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरामि॥१४०॥ तए ण से पुरिसे ममं अभीय जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता मम दोच्चंपि तच्चपि एव वयासी-हंभो चुलणीपिया। समणोवासया। तहेव जाव गाय आइचड ॥१४१॥ तए ण अह त उज्जल जाव-अहियासेमि। एवं तहेव उच्चारेयव सब जाव कणीयसं जाव आइचइ। अह तं उज्जलं जाव अहियासेमि ॥१४२॥ तए णं से पुरिसे ममं अभीय जाव पासइ, पासित्ता मम चउत्थंपि एवं वयासी-हंभो चुलणीपिया। समणोवासया। अपस्थियपत्थया। जाव न भजेसि तो ते अज्ज जा इमा माया देवयगुरु जाव ववरोविजसि ॥१४॥ तए णं अह तेणं
पुरिसेण एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरामि ॥१४४॥ तए णं ., से पुरिसे दोचपि तच्चपि मम एव वयासी-हभो चुलणीपिया।
नीलोत्पल० असिं गृहीत्वा ममैवमवादीत्-"हभोः चुलनीपितः ! श्रमणोपासक ! अमार्थितमार्थक ! यावद् वर्जित ! यदि खलु त्व यावद्वथपरोप्यसे" ॥१३९।। तत खल्बह तेन पुरुषेणैवमुक्त सनभीतो यावद्विहरामि ॥१४०॥ ततः खलु • स पुरुपो माम् अभीत यावद् विहरमाण पश्यति, दृष्ट्वामम दितीयमपि तृतीयमप्येबमयादीत्-"हभो चुलनीपित' ! श्रमणोपासक ।" तथैव यावद् गात्रमासिञ्चति ॥१४१॥ ततः खल्वह तामुज्ज्वला यावद् अध्यासे । एव तथैवोच्चारयितव्य सर्व यावत्कनीयास यावद् आसिञ्चति । अह तामुज्ज्वला यावद् अ-यासे ॥१४२॥ ततः खलुस पुरुषो मामभीत यावत्पश्यति, दृष्ट्वा मम चतुर्थमप्येवमवादी-हमोः चुलनीपित. ! श्रमणोपासक ! अपार्थितमार्थक ! यावन्न भनति तर्हि तेऽद्य या इय माता दैवत गुरु यावद् व्यपरोप्यसे ॥१४३॥-तत खल्वह तेन पुरुषेणैवमुक्तः सन्नभीतो यावद् विहरामि ॥१४४॥ ततः खलु स पुरुषो द्वितीयमपि तृतीयमपि
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उपासकदशाओं मम मज्झिमं पुत्त साओ गिहाओ जाव सेोणिएण य आइचइ, जेणं मम कणीयस पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव आइचइ, जावि यणंइमा मम माया भद्दा सत्थवाही देवगुरुजणणी दुकर-दुक्कर कारिया तपि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाइत्तए,त सेयं खल्लु मम एय पुरिसं गिण्हित्तए”-त्ति कटु उहाइए, सेवि य आगासे उप्पइए, तेणे च खभे आसाइए, महया महया सदेणं कोलाहले कए ॥१३७॥ तए णं सा भद्दा सत्थवाही त कोलाहलसंह सोचा निसम्म जेणेव चुलणीपिया समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चुलणीपिय समणोवासय एव वयासी-"किण्ण पुत्ता | तुम महया२ सद्दण कोलाहले कए?" ॥१३८॥ तए ण से चुलणीपिया समणोवासए अम्मयं भद्द सत्थयाहिं एव क्यासी-"एव खलु अम्मो। न जाणामि केवि पुरिसे आसुरत्ते ५ एग मह नीलुप्पल० असिं गहाय मम एव वयोसी
सथाचिन्तयति यावद्गात्रमासिञ्चति, यः खलु मम म यम पुत्र स्वस्माद गृहाद् यावत् शोणितेन चाऽऽसिञ्चति, येन मम स्नीयास पुत्र स्वस्माद् गृहात्तथैव यावद्-आसि श्वति, याऽपि च खलु-इय मम माता भद्रा सार्थवाही देवतगुरुजननी दुष्परदुष्कर पारिका तामपि च खलु इच्छति स्वस्माद् गृहान्नीत्वा ममाग्रतो घातयितुम् , तन्लेय. खलु ममैत पुरुप ग्रहीतुम् ,, इति कृत्वोत्थित , सोऽपि चाकाशे उत्पतित', तेन च स्तम्भ आसादित', महता महता शब्देन कोलाहल कृत ॥ १३७ ॥ तत खलु सा भद्रा सार्थवाही त कोलाहलशब्द श्रुत्वा निशम्य येनैव चुलनीपिता श्रमणों पासास्तेनैवोपागच्छति, उपागल्य चुलनीपितर श्रमणोपासक्मेवमवादी" कि खलु पुत्र ! त्वया महता महता शब्देन कोलाहल कृत " ||१३८॥ तत खलु स चुलनीपिता श्रमणोपासकोऽम्बिा भद्रा सार्थवाहीमेव मवादी-"एव खलु अम्ब ! न जानामि कोऽपि पुरुष आशुरक्त ५एक महान्त
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मगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ३ ० १३९ - १४७ देवकृतोपसर्गवर्णनम्
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टीका- 'मासे' -ति शूले ग्रथित्वा पचनीयानि शूल्यानि तान्येव शूल्यका नि मामशूल्य कानि= मासखण्डानि । आढति आदहनमतिपक्व तैलादि 'अदहन' इति लोकप्रसिद्ध तेन भृते= पूर्णे, आदहामि = उत्कालयामि । कनीयास=कनिष्ठम् । भद्रा=
टीकार्थ- ' तए ण से ' इत्यादि वह देव नील कमलके समान यावत् तलवार लेकर चुलनीपिता श्रावकसे बोला- " हे चुलनीपिता श्रावक ! 'कामदेवकी तरह करना' यावत् शील आदिको भग नही करेगा तो तुम्हारे वडे लडकेको घरसे लाता हूँ और लाकर तुम्हारे सामने उसका घात करूँगा । उसे घात कर में शूल (सूया) में पिरो कर पचाने के योग्य तीन, मासके खण्ड करडालूंगा, और खण्ड करके अदहन (आधन) भरी हुई कढाई में उकालूगा | उकाल कर मास और रक्तसे तुम्हारा शरीर इम प्रकार सीचूंगा कि जिससे तू अत्यन्त दुःखकी पीडित होकर अकालमें ही जीवितसे अलग हो जायगा अर्थात् मर जायगा ।। १२८ || चुलनीपिता श्रमणोपासक देवता के ऐसा कहने पर निर्भय यावत् विचरता रहा ।। १२९ ॥ तब देवने
लनीपिता श्रावकको निर्भय यावत् देखा और देखकर दूसरी यार ओर तीसरी बार चुलनीपितासे इसी प्रकार कहने लगा- " हे श्रावक चुलनीपिता । " इत्यादि सब पूर्वोक्त प्रकार धमकी दी, मगर चुलनी पिता निर्भय ही बना रहा । देवने देखा अब भी चुहनीपिता श्रावक
टीकार्थ- 'ते पण से' - त्याहि मे देव नीसम्मत देवी यावत तरवार લઇને ચુલનીપિતા શ્રાવક પ્રતિ બેત્યો ુ ચુલનીપિતા શ્રાવક ! (ડામદેવની પેઠે સમજી લેવુ ) યાવત્ શીલ આદિના ભગ નહિં કરે, તે તારા માટા પુત્રને ઘેરથી લાવીશ અને તારી સામે તેના ઘાત કરીશ તેના ઘાત કરીને હું શૂળીમાં પરાવી પચાવવાને ચેષ્ય માસના ત્રણુ ખડ કરીશ, અને ખડ કરી આધણુભરી કઢાઇમા ઉકાળીશ પછી માસ અને લેાહી તારા શરીર પર એ પ્રમાણે સીંચીશ કે જેથી તુ અત્યંત દુખની પીડાથી પીડિત થઈને અકાળે જ भरयु पाभीश " (१२८) ચુલનીપિતા શ્રમણ્ાપાસક દેવતાનું આવુ કથન સાભળીને પણ નિય યાવતુ વિચરી રહ્યો (૧૨૯) પછી દેવે ચુલનીપિતા શ્રાવકને નિર્ણય ચાવર્તી તૈયો અને બીજીવાર તથા ઋજીવાર તેને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યે • હું શ્રાવક ચુલનીપિતા !' ઇત્યાદિ પૂર્વોકત પ્રકારે ધમકી આપી, પણ ચુલનીપિતા શ્રાવક ભયભીત થયે નહિ, યાત્ એમ તે એમજ વિચરી રહ્યો (૧૩) એટલે દેવ ક્રોધિત થઈને ડ્યુલનીપિતા
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उपासक दशाङ्गसुत्रे समणोवासया । अज्ज जाव ववरोविजसि ॥ १४५ ॥ तए णं तेणं पुरिसेणं दोच्चंपि तच्चपि मम एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए० अहो पणं इमे पुरिसे अणारिए जाव समायरइ, जेणं मम जेहूं पुत्त साओ गिहाओ तहेव जाव कणीयसं जाव आइवइ, तुन्भेवि य ण इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाइतए, त सेय खलु मम एय परिसं गिव्हित्तएति कट्टु उट्टाइए, सेविय आगासे उप्पइए, मएवि य खभे आसाइए, महया महया सण कोलाहले कप ॥ १४६ ॥ तए णं सा भद्दा सत्थवाही पुलणीपिय समणोवासय एव वयासी - नो खलु केइ पुरिसे तव जाव कणीस पुत्त साओ गिहाओ नीणेइ, नीणित्ता तव अग्गओ घा एइ । एस ण केइ पुरिसे तव उवसग्गं करेइ । एस ण तुमे विदरिसणे दिट्ठे । त णं तुम इयाणि भग्गनियमे भग्गपोसहे विहरति । तणं तुमं पुत्ता। एयस्त ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि ॥ १४७॥
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ममवादीत्-भो. चुलनीपित' ! श्रमणोपासक 1 अद्य यावद् व्यपरोप्य से ॥१४५॥ तत' खलु तेन पुरुषेण द्वितीयमपि तृतीयमपि ममेवमुक्तस्य सतोऽयमेतद्रप आयात्मिक ० - अहो ! खल्वय पुरुषोऽनाय यावत्समाचरति य' खलु मम ज्येष्ठ पुत्र स्वस्माद् गृहात्तथैव यावत्कनीयांस यावदासिश्चति,युष्मानपि च खल्विच्छति स्वस्माद् गृहीत्वा ममाग्रतो घातयितु, तच्छ्रेयः खलु ममैंत पुरुष ग्रहीतुमिति कृत्वोत्थित, सोऽपि चाऽऽकाशे उत्पत्ति मयाऽपि च स्तम्भ आसादित', महता २ शब्देन कोलाहलः कृत ॥१४६॥ तत खलु सा भद्रा सार्थवाही चुलनीपितर श्रमणोपासकमेवमवादीत्-नो खलु कोऽपि पुरुषस्तव यावत्कनीयास पुत्र स्वस्माद् गृहाभयति, नीत्वा तवाग्रतो घातयति, एष खलु कोऽपि पुरुषस्तवोपसर्गे करोति, एव खलु स्वया विदर्शन दृष्ट, तत्खलु त्वमिदानीं भग्ननियमो भनपोषघो विहरसि । * तस्स्वल व पुत्र ! एतस्य स्थानस्य आलोचय यावत्प्रतिपचस्व ॥ १४७॥
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ३ सू० १३९ - १४७ देवकृतोपसर्गवर्णनम् ४०५ =अतिगर्हितानि । आसादितः=गृहीतः। विदर्शन= विपरीत यद्वा विरूपाकार दर्शनम् । भग्नेति - भग्नः = विनष्टः नियम =स्थूलपाणातिपातविरनणरूप व्रत यस्य सः, कपायोदयेन विचलितचित्तत्वात् । ननु सापराधार्थे तथाऽऽचरण युक्तमेव व्रतस्य भग नही करता तो यह जो तेरी पूज्य होने से देवतास्वरूप, सदुपदेश देनेवाली और हितचिन्तक होनेके कारण गुरु और जन्म देनेवाली होने से जननी, गर्भधारण लालन पालन आदि दुष्कर से दुष्कर कार्य करनेवाली माता भद्रा सार्यवाही है उसे घर से लाता हूँ और लाकर तेरे सामने ही उसके प्राण लेता हूँ । प्राण लेकर उसके मांसके तीन टुकड़े करके अदहन भरे कामे उकालता हूँ । उकाल कर तेरे शरीरको उसके माँस और लोहसे सीचता हूँ, जिससे तू अत्यन्त दुःखी होकर अकाल ही कालके गाल में चला जायगा अर्थात् मरजायगा ॥ १३४॥ चुलनीपिता श्रावक देवके ऐसा कहने पर भी निर्भय यावत् विचरता रहा ।। १३५॥ देवताने उसे निर्भय विचरता देखा तो उससे दूसरी बार और तीसरी बार भी ऐसा ही कहा - " अहो चुलनीपिता श्रावक ! उसी प्रकार यावत् मारा जायगा ॥ १३६ ॥ देवके दूसरी तीसरी बार ऐसा कहने पर चुलनीपिता श्रावक इस प्रकार विचारने लगा - " अहो यह पुरुष अनार्य है, इसकी बुद्धि अनाथ है, यह अनारी पाप कर्मोंका आचरण करता है, इसने मेरे बडे पुत्रको घर से उठा लाया और मेरे सामने उसे मार डाला 'इस प्रकार આજે તારી પૂજ્ય હેઇને દેવતાસ્વરૂપ, સદુપદેશ આપનારી અને હિતચિંતક હાઈને ગુરૂ ત્યા જન્મ દેનારી હાઇને જનની, ગર્ભ ધારણ લાલન-પાલન આદિ દુષ્કરમા દુષ્કર કાર્ય કરનારી માતા ભદ્રા સાÖવાહી છે, તેને તારા ઘેરથી લાવુ છુ અને તારી સામેજ તેના પ્રાણુ લઉં છુ પ્રાણુ લઈને તેના માસના ત્રણ ટુકડા કરી આધણુભરી કઢાઈમાં ઉકાળીશ અને તારા શરીર પર તે માસ અને લેાહી છાટીશ જેથી તુ અત્યંત દુખી થઇને અકાળે જ મૃત્યુને પામીશ (૧૩૪) દેવે એમ કહ્યા છતા ચુલનીપિતા શ્રાવક નિય યાવત વિચરી રહ્યો (૧૩૫) દેવતાએ તેને નિય રહેલા જોઇને બીજીવાર અને ત્રીજીવાર પણ એમજ કહ્યું કે ૮ અહે। ચુલનીપિતા શ્રાવક ! એ પ્રમાણે યાવત તુ માર્યાં જશે” (૧૩૬) ધ્રુવે બીજીવાર અને ત્રીજીવાર પશુ કહ્યુ એટલે ચુલનીપિતા શ્રાવક એ પ્રમાણે વિચારવા લાગ્યા કે “ મહેા ! પુરૂષ અના છે, તેની બુદ્ધિ અનાય છે, એ અના–પાપકર્માંના આચરણ કરે છે તેણે મારા મેટા પુત્રને ઘેરથી ઉપાડી લાવી મારી સામે તેને મારી નાખ્યા ( એ
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उपासकदशास्त्रे
भद्रानाम्नी, दैवतगुरुजननी= पूज्यत्वाद्देवतस्वरूपा, हितचिन्तयत्व सदुपदेशदात्रीत्वा भ्या गुरुस्वरूपा, जन्मदात्रीत्याच जननी । दुष्करेति दुष्कर दुष्कराणाम् अति दुष्करणा गर्भस्थापन जन्मदान पालनादीना कर्मणा कारिका = सम्पादिका । अनार्याणि भयभीत नहीं हुआ यावत् बेसाही विचरता रहा ॥ १३० ॥ तो वह क्रोधित होकर चुलनीपिता श्रावकके बडे लडकेको घरसे ले आया । लाकर उसके सामने घात करने लगा । घात कर तीन मासके टुकडे किये । टुकड़े करके अदहन चढे हुए हेमें उकाला, उकाल कर चुलनीपिता श्राचकका शरीर मास और खून से सींचने लगा ॥१३१॥ चुलनी पिता श्रावकने उस असह्य वेदनाको सहन किया || १३२|| तब भी देवने चुलनोपिता श्रावकको निर्भय यावत् देखा तो दूसरी बार और तीसरी बार भी चुलनीपिता श्रावकसे कहा-भो चुलनीपिता श्रावक ! अरे अनिष्टके कामी ! यावत् तू शील आदिको भग नही करता तो मै आज तुम्हारे मँझले लडकेको घरसे लाता हूँ और तेरे सामने घात करता हूँ । ज्येष्ठ पुत्रके लिए जैसा कहा था वैसा ही कहा और किया । इसी प्रकार तीसरे छोटे लडके के लिए भी कहा और वैसा ही किया । तब भी चुलनीपिता श्रावकने यावत् असह्य वेदनाको सहन किया ॥ १३३ ॥ तब उसने चौथी बार चुलनीपिता श्रावकसे कहा" ओ चुलनीपिता श्रमणोपासक । अनिष्टके कामी ! यदि तू यावत् શ્રાવકના મોટા પુત્રને ઘેરથી લઇ આવ્યો, અને તેની સમીપે જ તેના પુત્રના ધાત કરવા લાગ્યાઘાત કરીને માસના ત્રણ ટુકડા કર્યાં, આધણુ ચડાવેલી કડાઈમાં ઉકાળ્યા અને પછી ચુલનીપિતા શ્રાવકના શરીર પર માસ અને લેહી સીંચવા (छाटवा) साग्यो ( १३१ ) थुलनी पिताओ मे असह्य वेदना सहन उरी (१३२ ) ત્યારે પણ દેવે ચુલનીપિતાને નિર્ભય યાવત જોયો, એટલે ખીજી અને ત્રીજીવાર પશુ ચુલનીપિતા શ્રાવકને કહ્યું હું ચુલનીપિતા શ્રાવક । અરે અનિષ્ટના કામી ! ચાવત્ તુ શીલ આદિના ભગ નહિ કરે તે હું આજ तारा मध्यम ( वस्येट ) પુત્રને ઘેરથી લઇ આવીશ અને તારી સામે તેના ઘાત કરી મોટા પુત્રના સબંધમા જેવુ કહ્યું હતુ તેવુજ કહ્યુ અને ક એ જ પ્રમાણે ત્રીજાં નાના કરાના સ મ ધમા પશુ કહ્યુ અને કર્યું, તે પણ ચુલનીપિતા શ્રાવકે ચાવત અસદી વેદના સહન કરી (૧૩૩) એટલે સૂવે ચેાથી વાર ચુલનીપિતાને કહ્યું ચુલનીપિતા શ્રમણેાપાસક ! અનિષ્ટના કામી ને તુ યાવત ભગ નહિ કરે તે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ३ . १३९ - १४७ देवकृतोपसर्गवर्णनम् ४०७ कहने पर मै भयभीत न होता हुआ विचरता हूँ ॥ १४० ॥ तब उसने मुझे निर्भय विचरते देख, दूसरी तीसरी बार फिर ऐसा ही कहा- " हे चुलनीपिता श्रमणोपासक ! " " पहलेकी तरह ' यावत् शरीरको सींचा ॥ १४१ ॥ मैंने उस असह्य वेदनाको सह लिया । इसी प्रकार सब कहना चाहिए यावत छोटे लडकेको मार डाला और मेरे शरीरको मांस ओर खून से सींचा। मैंने उस असह्य वेदनाको भी सह लिया ॥ १४२ ॥ उसने मुझे निर्भय देखा तो चौथी बार फिर बोला- “ हे चुलनीपिता श्रावक ! अनिष्टके कामी ! यावद् तू व्रतभग नही करता तो जो यह तेरी माता देव-गुरु स्वरूप है यावत् तू मर जायगा ॥ १४३ ॥ तब उसके ऐसा कहने पर भी मैं निर्भय विचरता रहा ॥ १४४ ॥ तब वह दूसरी तीमरी वार भी मुझे ऐसा ही बोला कि - " चुलनीपिता श्रावक ! आज यावत् मारा जायगा " ॥ १४५ ॥ उसके दूसरी तीसरी बार ऐसा कहने पर मुझे ऐसा विचार आया- " यह अनार्य पुरुष है, इसकी बुद्धि भी अनार्य है अतः अनार्य आचरण करता है, इसने मेरे बडे मझले और छोटे लडकेको मार डाला और मेरा शरीर खून से सींचा, अब यह माँको (तुम्हें) भी मेरे सामने लाकर मार डालने की इच्छा करता है, अतः इसे पकड लेना ही अच्छा है" | ऐसा विचार कर ज्यों ही मैं उठा कि वह आकाशमें उड़ गया, मैनें खभा पकड लिया और जोर जोर से चिल्लाया " ॥ १४६ ॥ વિચરી રહ્યો છુ (૧૪૦) એમ મને નિચ વિચરતા જોઇ, તેણે ખીજી—ત્રીજીવાર ફરીથી એમ કહ્યુ કે “હું ચુલનીપિતા શ્રમણાામક (પહેલાની પેઠે) યાવત શરીર પર માસ–લેહી છાયા (૧૪૧) મે એ અસહ્યં વેદનાને સહી લીધી એ પ્રમાણે બધુ કહ્યુ, યાવત્ નાના પુત્રને મારી નાખ્યું અને મારા શરીર પર લેહી અને માસ છાંટયુ મે એ અસહ્ય વેદનાને સહી લીધી (૧૪૨) તેણે મને નિર્ભય જોયા એટલે ચાથીવાર આણ્યે. હું ચુલનીપિતા શ્રાવક' અનિષ્ટના કામી। યાવત તુ શિલાદિને ભગ નથી કરતે તે જે આ તારી માતા દેવ-ગુરૂ સ્વરૂપ છે ચાવતા તુ મરી જઇશ (૧૪૩) તેણે એમ કહ્યુ છતા પણ હું નિર્ભય રહ્યો (૧૪૪) પછી તેણે ખીજી—ત્રીજીવાર પત્તુ મને એમજ કહ્યુ કે ચુલનીપિતા શ્રાવક । આજ યાવત માર્યાં જઈશ” (૧૪૫) એણે ખીજી—ગીજીવાર એવુ કહેતા મને એવા વિચાર માન્યે કે “આ અનાર્ય પુરૂષ છે, તેની બુદ્ધિ પણ બનાય છે, તેથી તે અના આચરણ કરે છે, એણે મારા મેટા, વચેટ અને નાના પુત્રને મારી નાખ્યા, તેમના માસ–àાહી મારા શરીરે છાયા, હવે તે માતાને (તમને) પણ મારી સામે લાવી મારી નાખવાની ઇચ્છા કરે છે, માટે એને પકડી લેવા એ જ ઠીક છે, એમ વિચારીને હું ઉઠયે, ત્યા તે આકાશમાં ઉડી ગયે, મે થાબલા પકડી લીધે અને એથી ચીસ પાડી, (૧૪૬) પછી ભદ્રા સાર્થવાહી ચુલનીપિતાને કહેવા લાગી
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उपासकदशास्त्रे निरपराधमात्रविपयकत्वादोति चेन्न, अनेन चुलनीपित्रा सापराधनिरपराधोभयवि पयकवतस्याङ्गीकरणात् । भग्नपोपधारिचलितचित्तत्वाटेव । एतस्येति अत्र 'विषये' इत्यस्य शेप ,यद्वा 'प्राकृतत्वाद् द्वितीयाथै पष्ठी- एतत्स्थान'-मित्यर्थः,आलोचयदेवने जो जो किया सो सर सोचने लगा। फिर मेरे शरीरको मांस लोहसे सीचा, बाद मेरे मझले लडकेको लाया यावत् मेरे शरीरको मांस और लोहसे सींचा, फिर मेरे छोटे लडकेको घरसे ले आया यावत् खूनसे मेरे शरीरको सींचा। इतने पर भी इसे सन्तोष नहीं हुआ, अब यह जो मेरी देवता और गुरु स्वरूप जननी, मेरे लिए कठोरसे कठोर कष्ट सहने वाली माता भद्रा सार्थवाही है उसे भी घरसे लाकर मेरे सामने मार डालना चाहता है, अब इस पुरुषको पकड लेनाही अच्छाह।" ऐसा विचार कर वह उठा किन्तु वह देवता आकाशमें उछल गया, चुलनीपिताने एक खभा पकड़ लिया और जोर जोर से चिल्लाया ॥ १३७॥ भद्रा सार्थवाहीने उस चिल्लाहटको सुन कर समन कर जिस ओर चुलनीपिता आवक था उसी ओर आई और आकर चुलनीपिता श्रावकसे बोली-"वेटा ! तुम ऐसे जोर जोरसे क्यों चिल्लाए " ॥१३८॥ चुलनीपिता श्रावक अपनी माता भद्रा सार्थवाहीसे कहने लगा-"ह मा! न जाने कौन पुरुष क्रोधित होकर एक बड़ी नीली तलवार लेकर मुझसे बोला-" हे चुलनीपिता श्रावक ! अनिष्टके कामी ! यदि शीला दिका त्याग न करेगा तो यावत् मार डालूंगा" ५३९॥ उसके ऐसा પ્રમાણે દેવે જે જે કર્યું તે બધુ તે વિચારવા લાગ્યા પછી મારા શરીર પર માસલેહ છાટયા, તે પછી મારા વચેટ પુત્રને તે લાવ્યો યાવત્ મારા શરીર પર માસ અને લેહ છાયા, તે પછી મારા નાના પુત્રને ઘેરથી લાવી ચાવત લેહી મારા શરીર છાયું એટલાથી પણ તેને સ તેષ ન થયે હવે તે મારી દેવતાસ્વરૂપ અને રસ જનના, મારે માટે કઠેરમાં કઠેર કષ્ટ સહન કરનારી માતા ભદ્રા સાર્થવાહી છે તેને પણ ઘેરથી લાવી મારી સમીપે મારી નાખવા ઈચ્છે છે, હવે મારે એ પુરૂષને પકડી લે એજ ઠીક છે” . એમ વિચાર કરીને તે ઉઠ, પરંતુ તે દેવતા આકાશમાં ઉડી ગયે, ચુલની પિતાએ એક થાભલાને પકડી લીધે અને જોરથી ચીસ નાખી (૧૩) ભદ્રા સાર્થવાહી એ ચીસ સાભળી સમજીને જે બાજુએ ચુલનીતિ શ્રાવક હતા તે બાજુએ આવી અને ચુલની પિતા શ્રાવકને કહેવા લાગી “બેટા તે એમ જોરથી કેમ ચીસ શાહ ૧૦ ૧૧) ચુલની પિતા શ્રાવક પિતાની માતા ભદ્રા સાર્થવાહીને કહેવા લાગ્યા
હે મા શી ખબર, કેઈ પુરૂષ કોધિત થઈને એક મેટી નીલી તલ્હાર લઈને મને કહેવા લાગે છે ચુલની પિતા શ્રાવક! અનિષ્ટના કામી જે તે શીલાદિને ત્યાગ નહિ કરે તે યાવત મારી નાખીશ.” (૧૩૯) તેના એવા કથનથી હું ભયભીત ન થતા
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ३ सू. १३९-१४७ देवकतोपसर्गवर्णनम् ४०७ कहने पर मै भय भीत न होता हुआ विचरता हूँ ।। १४० ।। तब उसने मुझे निर्भय विचरते देख, दूसरी तीसरी बार फिर ऐसा ही कहा-"हे चुलनीपिता श्रमणोपासक ! "'पहलेकी तरह ' यावत् शरीरको सींचा ॥१४१॥ मैंने उस असह्य वेदनाको सह लिया। इसी प्रकार सब कहना चाहिए यावत् छोटे लडकेको मार डाला और मेरे शरीरको मांस ओर खुनसे सींचा । मैंने उस असह्य वेदनाको भी सह लिया ॥ १४२॥ उसने मुझे निर्भय देखा तो चौथी वार फिर वोला-" हे चुलनीपिता श्रावक ! अनिष्टके कामी ! यावद् तू व्रतभग नहीं करता तो जो यह तेरी माता देव-गुरु स्वरूप है यावत् तू मर जायगा"॥१४३॥ तय उसके ऐसा कहने पर भी मैं निर्भय विचरता रहा ॥ १४४ ॥ तब वह दूसरी तीसरी वार भी मुझे ऐसा ही पोला रि-"चुलनीपिता आवक ! आज यावत् मारा जायगा" ॥ १४५ ॥ उसके दूसरी तीसरी वार ऐसा कहने पर मुझे ऐसा विचार आया-" यह अनार्य पुरुप है, इसकी बुद्धि भी अनार्य है अतः अनार्य आचरण करता है, इसने मेरे बडे मझले और छोटे लडकेको मार डाला आर मेरा शरीर खूनसे सींचा, अब यह माँको (तुम्हें) भी मेरे सामने लाकर मार डालनेकी इच्छा करता है, अतः इसे पकड लेना ही अच्छा है। ऐसा विचार कर ज्यों ही में उठा कि वह आकाशमें उड़ गया, मैनें खभा पकड लिया और जोर जोरसे चिल्लाया"॥ १४६॥ વિચરી રહ્યો છુ (૧૪૦) એમ મને નિર્ભય વિચરતે જોઈ, તેણે બીજી–ત્રીજીવાર ફરીથી એમ કહ્યું છે “હે ચુલની પિતા શ્રમણોપાસક' (પહેલાની પેઠે) યાવત શરીર પર માસ_હી છાયા (૧૪૧) મે એ અસહ્ય વેદનાને સહી લીધી એ પ્રમાણે બધુ કહ્યું, યાવત નાના પુત્રને મારી નાખ્યું અને મારા શરીર પર લેહી અને માસ છાટ્યુ મે એ અસહ્ય વેદનાને સહી લીધી (૧૪) તેણે મને નિર્ભય જોયો એટલે ચેથીવાર બોલ્યા “હે ચુલની પિતા શ્રાવક' અનિષ્ટના કામી યાવત તુ શિલાદિને ભાગ નથી કરતે તે જે આ તારી માતા દેવ-ગુરૂ સ્વરૂપ છે યાવતું તુ મરી જઈશ (૧૪૩) તેણે એમ કહ્યું છતા પણ હુ નિર્ભય રહ્યો (૧૪૪) પછી તેણે બીજી–ત્રીજીવાર પણ મને એમજ કહ્યું કે “ચુલનીપિતા શ્રાવકઆજ યાવત માર્યો જઈશ” (૧૪૫) એણે બીજી–બીજીવાર એવું કહેતા મને એ વિચાર આવે કે “આ અનાર્ય પુરૂષ છે, તેની બુદ્ધિ પણ અનાર્ય છે, તેથી તે અનાર્ય આચરણ કરે છે, એણે મારા મોટા, વચ્ચેટ અને નાના પુત્રને મારી નાખ્યા, તેમના માસ-લેહી મારા શરીર છાયા, હવે તે માતાને તમને પણ મારી સામે લાવી મારી નાખવાની ઈચ્છા કરે છે, માટે એને પકડી લે એ જ ઠીક છે, એમ વિચારીને હ ઉઠયે, ત્યા તે આકાશમાં ઉડી ગયે. મે થાભલે પકડી લીધે અને જોરથી ચીસ પાડી. (૧૪) પછી ભદ્રા સાર્થવાહી ચુલની પિતાને કહેવા લાગી
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उपासकदवाने गुरुसमक्ष प्रकटय यावदिति-अन यापच्छन्देन पडिकमाहि निंदाहि गरिहाडि विउट्टाहि विसोहेहि अन्भुटेहि अहारिह तवोसम्म पायच्छित्त पडिवजाहि' इत्येषा ग्रहणम्, तच्छाया च 'मतिकाम, निन्द, गर्हस्व, वित्रोटय, विशोधय, अभ्युत्तिष्ठस्त्र, यथाई तपाकर्म प्रायश्चित्त प्रतिपद्यस्व' इति, तन प्रतिक्राम-निवर्तस्वास्मादकरणाव , निन्द-स्वसाक्षिका कुत्सा कुरु, गईस्व-गुमसमक्ष कुत्सा कुरु, वित्रोटय-तहा वानुनन्ध छिन्धि, विशोधय अतिचारमलमपनोदयेत्यर्थ., स्पष्टमन्यत् । अत्र 'यथाई तपाकर्म प्रायश्चित्त प्रतिपद्यम्ब' इत्यभिधानाजीतव्यवहारेण श्रावकमाय श्चित्तस्यापि निशीथादौ गम्यमानत्व प्रतीयते ॥ १२८-१४७ ॥ तव भद्रा सार्थवाही चुलनीपिता श्रवकसे बोली-कोई भी पुरुष किसी भी पुत्रको घरसे नहीं लाया, न तेरे सामने मारा है। किसी पुरुषने तुझे यह उपसर्ग किया है। तुने यह भयकर घटना देखी है । अब कषायके उदयसे चलितचित्त होकर उस पुरुषको मारनेकी प्रवृत्ति तेरी हुई। उस घातकी प्रवृत्तिसे स्थूल प्राणातिपातविरमाणवत और पोषधव्रतका भग हुआ। अगर कहें कि श्रावकको तो निरपराध प्राणीकी हिंसाका त्याग होता है और वह तो सापराधी था, सो यह कहना ठीक नही, क्योंकि श्रावकको पोषधव्रतमे सापराध और निरपराध दोनोंके मार नेका त्याग होता है, इसलिए बेटा ! इस स्थान (विषय )की तुम आलोचना करो, प्रतिक्रमण करो, अपनी और गुरुकी साक्षीसे निन्दा गहीं करो, तद्विषयक परिणामोंके अनुबन्धों कारों, अतिचार के मलका दूर करके आत्माको शुद्ध करो, सन्मुख ऊठो और यथायोग्य तप कमें रूप प्रायश्चित्तको स्वीकार करो ॥ १४७ ॥ કેઈપણ પુરુષ એકકે પુત્રને ઘેરથી લાવ્યું નથી, તારી સમીપે એકકેને માથે નથી, કેઈ પુરૂષે તને આ ઉપસર્ગ કયે છે તે એક ભયકર ઘટના જોઈ છે હવે કષાયના ઉદયથી ચલિતચિત્ત થઈને એ પુરૂષને મારવાની પ્રવૃત્તિ થઈ એ ઘાત પ્રવૃત્તિથી સ્કૂલ–પ્રાણાતિપાત વિરમણ વ્રત અને પિષધનતનો ભાગ થયો અગર, જે કોઈ એમ કહે કે શ્રાવકને તે નિરપરાધી પ્રાણીની હિંસાને ત્યાગ હોય છે, અને તે તે સાપરાધી હતા, તે એ કહેવુ બરાબર નથી, કારણકે શ્રાવકને તે પિષધવ્રતમાં સાપરાધી અને નિરપરાધી બેઉને મારવાને ત્યાગ હોય છે, એટલા માટે, હે પુત્ર! આ સ્થાન (વિષય) ની તુ આલેચના કર, પ્રતિક્રમણ કર પિતાની અને ગુરૂની સાક્ષીથી નિન્દા-ગહ કર, તષિયક પરિણામેના અનુબ ધેને કાપ, અતિચારના મેલને દૂર કરીને, આત્માને શુદ્ધ કર, સન્મુખ ઉઠ અને યથાયેગ્ય તપ કર્મરૂપ પ્રાયશ્ચિત્તને स्वी४.२ ४२ (१४७), : , .
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अधर्म० टीका अ ३ मू १४८-१५० चुलनीपितृस्वर्गावासवर्णनम् ४०९
मलम-तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मगाए तहत्ति एयमट्ट विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ, जाव पडिवज्जइ ।।१४८॥ तए णं से चुलणीपिया समणोवासए पढम उवासगपडिमं उवसपजित्ताणं विहरइ । पढमं उवासगपडिम अहासुत्त जहा आणदो जाव एकारसमंपि ॥१४९॥ तए णं से चुलणीपिया समणोवासए सेण उरालेणं जहा कामदेवो जाव सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिसगस्स उत्तरपुरस्थिमेण अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने । चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। महाविदेहे वासे सिन्झिहिइ ॥१५०॥ निक्खेवो ॥ सत्तमसा अगस्स उवासगदसाण तइय अज्झयण
समत्त ॥ ३ ॥ छाया-तत खलु स चुलनीपिता श्रमणोपासकोऽम्बिकाया 'तथेति एतमर्य विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य तस्य स्थानस्य (विषये) आलोचयति यावत्मति पद्यते ॥१४८॥ तत खल स चुलनीपिता श्रमणोपासा' प्रथमामुपासकमतिमा मुपसम्पय विहरति । प्रथमामुपासकप्रतिमा यथासूत्र यथाऽऽनन्दयावको यावदेका दशीमपि ॥ १४९ ॥
टीकार्य-'तए ण से चुलणी 'त्यादि तय चुलनीपिता श्रावक्ने माताकी बात 'तहत्ति' ( ठीक है ) कह कर विनयपूर्वक स्वीकार की, फिर उस विषयकी आलोचना की यावत् तप.कर्म स्वीकार किया ॥१४८ ॥ फिर चुलनीपिता श्रावक, श्रावककी पहली पडिमाको स्वीकार कर विचरने लगा। पहली उपासक पडिमाको यथासूत्र (स्त्रोक्त विधिसे) आनन्दकी तरह यावत् ग्यारहों प्रतिमाओंका पालन किया ।। १४९ ॥
टीमार्थ-'तए ण से चुलणी' 4 पछी युनीता श्राव भातानी पात 'तहत्ति' (१२ छ) मेम हीन विनयपूर्व वा पछी मे विषयनी આલોચના કરી યાવત તપ કર્મને સ્વીકાર કર્યો (૧૪૮) પછી ચુલનો પિતા શ્રાવક, શ્રાવકની પહેલી પડિમાને સ્વીકાર કરીને વિચારવા લાગ્યા પહેલી ઉપાસકપડિમાને યથાસૂત્ર (સૂક્ત-વિધિપૂર્વક) આન દની પેઠે યાવત અગીઆરે પ્રતિમાનું પાલન
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उपासकदशासूत्रे
ततः खलु स चुलनीपिता श्रमणोपासकस्तेनोदारेण यथा कामदेवो यावत्साधर्मे कल्पे सौधर्माववस कस्योत्तदपौरस्त्येऽरुणाभे विमाने देवतयोपपत्रः । चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः मज्ञप्ता | महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ॥ १५० ॥ निक्षेपः।। सप्तमस्याङ्गस्योपास दशाना तृतीयमध्ययन
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समाप्तम् ॥ ३ ॥
टीका - व्याख्या तु छाययैव गतार्था । १४८ - १५० ॥ इतिश्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धाचक - पञ्चदशभाषाकलितललितकुळापालापक- प्रविशुद्धगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमक- श्रीशाहछत्रपति - कोल्हापुरराजप्रदत्त - "जैनशास्त्राचार्य " - पदभूपित - कोल्हापुर राजगुरु बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालव्रति विरचितायामुपासकदशाङ्ग सूत्रस्याऽगारधर्मसञ्जीवन्या ख्याया व्याख्याया तृतीय चुलनीपित्राख्यमध्ययन समाप्तम् ॥ ३ ॥
इस उदार कृत्य से चुलनीपिता कामदेवको भाँति सौधर्मकल्पमें सौधर्मा वतस + के उत्तरपूर्व (ईशान कोण) के अरुणाभ विमान मे देवरूपसे उत्पन्न हुआ। वहा उसकी चार पल्योपमकीस्थिति कही गई है। वह (चुल नीपिता देव) महाविदेह क्षेत्रमे सिद्ध होगा निक्षेप - उपसहार पूर्ववत्
॥ १४८-१५० ॥
सातवाँ अग उपासकदशाके तीसरे अध्ययनकी अगारसञ्जीवनी टीकाका हिन्दी-भाषानुवाद समाप्त ॥ ३ ॥
કયુ (૧૪૯) એ ઉદ્યાન કૃત્યથી ચુલનીપિતા કામદેવની પેઠે સૌધર્મો કપમા સૌધર્માવર્તસકના ઉત્તરપૂ` (ઈશાન કાણુ)ના અરૂણુાભ વિમાનમા દેવરૂપે ઉત્પન્ન થયો ત્યાં ચાર પયોપમની તેની સ્થિતિ કહી છે એ (ડ્યુલનીપિતાદેવ) મહાવિદેહ क्षेत्रमा सिद्ध थशे निक्षेप - उपस द्वार पूर्ववत (१५० )
હંત શ્રી ઉપાસકદશાગસૂત્રના ત્રીજા અધ્યયનની અગાસ જીવની ब्याख्याना, गुनशती-भाषानुवाद सभारत (3)
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॥ चतुर्थाध्ययनम् ॥
सम्मति चतुर्थी ययनमारभ्यते - 'उक्खेवओ चउत्थसे' त्यादि । मूलम् उक्खेबओ चउत्थस्स अज्झयणस्स । एवं खलु जवू । तेण कालेन तेण समएणं वाणारसी नामं नयरी, कोइए चेइए, जियसत्तू राया, सुरादेवे गाहावई अड्डे० । छ हिरण्णकोडीओ जाव छया दसगोसाहस्सिएण वरण, धन्ना भारिया, सामी समोसढे, जहा आणदो तहेव पडिवज्जइ गिहिधम्मं, जहा कामदेवो जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिय धम्मपण्णत्ति उवसपज्जिताण विहरड ॥ १५१ ॥ तए ण तस्स सुरादेवस्स समणोवालयस्त पुव्वरत्तावरत्त कालसमयंसि एगे देवे अतियं पाउन्भवित्था | से देवे एग मह नीलुप्पल जाव असि गहाय सुरादेव समणोवासय एव वयासी - "हभो सुरादेवा समणोवासया । अपत्थियपत्थया । जइ णं तुमं सीलाइ जाव न भजसि तो ते जेह पुत्त साओ गिहाओ नीणेमि, नीणित्ता तव अग्गओ घाएमि, घाइत्ता पच सोल्लए करेमि, करिता आदाणभरियसि कडाहयसि अहहेमि, अदहित्ता तव गाय
छाया - उत्क्षेपकचतुर्थस्याध्ययनस्य । एव खलु जम्बू, । तस्मिन् काले तस्मिन समये वाराणसी नाम नगरी, कोष्ठक चैत्य, जितशत्रू राजा, सुरादेवो गाथापति, आढय० । पट् हिरण्यनयो यावत् पड् व्रजा दशगोसाहस्रिकेण व्रजेन, धन्या भार्या, स्वामी समवसृत, यथाऽऽनन्दस्तथैव प्रतिपद्यते गृहिधर्म, यथा कामदेवो यावत् श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽऽन्तिकी धर्ममज्ञप्तिमुपसम्पद्य विहरति ॥ १५१ ॥ ततः खलु तस्य सुरादवस्य श्रमणोपास+स्य पूर्वरात्रापरत्रकारसमये एको देवोऽन्तिक प्रादुरासीत् स देव एक महान्त नीलोत्पल - यावद् असिं गृहीत्वा सुरादेव श्रमणोपासकमेवमवादीत्-हम्भो. सुरादेव श्रमणोपासक ! अप्रार्थितमार्थक ! यदि खलु त्व शीलानि यावन्न भनक्षि तर्हि ते ज्येष्ठ पुत्र स्वस्माद्गृहानयामि, नीस्वा तातो घातयामि, घातयित्वा पञ्च शूल्यकानि करोमि, कृत्वा आदहनभृते कटाहे
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उपासक्दशाङ्गमो. मसेण य सोणिएण य आइचामि, जहा णं तुम अकाले चेव जी.' वियाओ ववरोविज्जसि । एवं मज्झमयं, कणीयस, एकेके पंच सोल्लया तहेव करेइजहा चलणीपियस्स.नवर एकेक्के पंच सोल्लया ॥१५२ ॥ तए णं से देवे सुरादेव समणोवासय चउत्थापि एव वयासी-हभो सुरादेवा । समणोवासया ! अपत्थियपत्थया। जाव न परिचयसि तो ते अज सरीरसिजमगसमगमेव सोलस रोगायंके पक्खिवामि, तंजहा-सासे कासे जाव कोढे, जहा ण तुमं अट्टदुहट्ट-जाव ववरोविजसि ॥१५३॥ तए ण से सुरादेवे समणोवासए जाव विहरइ। एव देवो दोच्चपि तच्चपि भणइ जाव ववरोविजसि ॥१५४॥ तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस तेण देवेणं दोच्चपि तच्चपि एववुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए.
छाया-आदहामि, आदह्य तव गात्र मासेन च शोणितेन चाऽऽसिञ्चामि, यथा खलु त्वमकाल एव जीविताद्वयपरोप्यसे । एव मध्यमक, कनीयासम्, एकैकस्मिन् पञ्च शूल्यकानि तथव करोति यथा चुलनीपतु., नवरमेकैकस्मिन् पञ्च शूल्यकानि ॥ १५२ ॥ तत• खल्ल स देवः सुरादेव श्रमणोपासक चतुर्थमप्येवमवादीइभोः सुरादेव! श्रमणोपासक! अमार्थितपार्थक ! यावन्न परित्यजसि तर्हि तेऽध शरीरे यमकसमकमेव षोडश रोगातवान् प्रक्षिपामि, तद्यथा-श्वासः कास:-यावस्कुष्ठम्, यथा खलु त्वमात्तेंदुःखात यावन्यपरोप्यसे ।। १५३ ।। ततः खलु स मुरादेव' श्रमणोपासको यावद्विहरति । एव देवो द्वितीयमपि तृतीयमपि भणति यावद् व्यपरोप्यसे ॥१५४॥ तत. खलु तस्य मुरादेवस्य श्रमणोपासकस्य तेन देवेन द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमुक्त सतोऽयमेतद्रूप आध्या
टीका-यमकसमकम् युगपत् । रोगातवान् रोगाश्चाऽऽतडाति द्वन्द्वस्तानतत्र रोगा-ज्वरदासादयः, आतङ्का -शुलादय । 'श्वास' -इति-वासं• कासी ज्वरो दाई. कुक्षिशैल भगन्दरोऽ ऽजीर्ण टेष्टिरोगो मस्तक्शूलमरोकोऽक्षिवेदना कर्णवेदना कण्डूरुदररोगे' कुष्टं चेति पोडश। (१५३) ॥
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अंगारसज्जीवनी टीका अ ४ मू. १५१-१५७ देवकृतोपसर्गवर्णनम् .. ४१३ अहो ण इमे पुरिसे अणारिएं जाव समायर, जेणं ममं जेट्रं पुत्त जाव कणीयसं जाव आइंचड,जेवि य इमे सोलस रोगायका तेवि य इच्छड मम सरीरगसि पक्खिवित्तए, त सेयं खल्ल मम एयं पुरिस गिण्हितएत्ति कट्ठ उट्टाइए, सेवि य आगासे उप्पड़ए, तेण य खंभे आसाइए, महया महया सद्देणं कोलाहले कए ॥१५५ ॥ तए णं सा धन्ना भारिया कोलाहलं सोचा निसम्म जेणेव सुरादेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एव वयासी-किपणं देवाणुप्पिया। तुम्भेहि महया महया सद्देणं कोलाहले कए ? ॥१५६॥ तए ण से सुरादेवे समणोवासए घन्नभारिय एवं वयासीएव खल्लु देवाणुप्पिए । केवि पुरिसे तहेव कहेइ जहा चुलणीपिया। धन्नावि पडिभणइ जाव कणीयसं, नो खल्लु देवाणुप्पिया। तुन्भे केवि पुरिसे सरीरसि जमगसमगं सोलस रोगायके पक्खिवइ, एस ण केवि चुरिसे तुभं उवसग्ग करेइ । सेस जहा चुलणीपि
छाया-त्मिकः ०-अहो! खल्वय पुरुपोऽनार्यों यावत्समाचरति, यः खल्ल मम ज्येष्ठ पुत्र यावत्कनीयास यावदासिञ्चति, येऽपिचेमे पोडश रोगातवास्तानपिचेच्छ ति मम शरीरे प्रक्षेप्तु, तच्छेयः खलु ममैत पुरुष ग्रहीतुम्-इति कृत्वोत्थितः,सोऽपि चाऽऽकाशे उत्पतित , तेन च स्तम्भ आसादित., महता महताशब्देन कोलाहलाकृतः ॥१५५॥ ततः खलु सा धन्या भार्या कोलाहल श्रुत्वा निशम्य येनैव मुरादेव' श्रमणोपासनस्तेनैवोपागछति,उपागत्वमवादीव किं खलु देवानुपिया ! युप्माभिमहता महता शब्देन कोलाहल कृत.? ॥ १५६ ॥ तत खलु स मुरादेव अमणोपामकोधन्या भार्यामेवमवादी-एव खलु देवानुमिये कोऽपि पुरूपस्तथैवाययति यथा चुलनीपिता। न्यापि प्रतिभणति यावत्कनीयास, नो खलु देवानुपिया.! युप्माक कोऽपि पुरुष शरीरे यमकसमा पोडश रोगातकान् प्रक्षिपति, एप खल मोऽपि पुरुषो युप्माक्मुपमर्ग करोति, शेप यथा चुन्नीपित्रे भद्रा भणति ।, एव
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उपासनाने यस्स भद्दा भणइ एवं निरवसेसं जाव सोहम्मे कप्पे अरुणकते विमाणे उववन्ने । चत्तारि पलिओवमाई ठिई महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ॥ १५७ ॥ निक्खेवो ।। सत्तमस्स अगस्स-उवासगदसाण चउस्य अज्मयण
समत्त ॥ ४ ॥ निरवशेप यावत्सौधर्मे कल्पेऽरुणकान्ते विमाने उपपन्नः । चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः। महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ॥ १५७ ॥ निक्षेपः ।।
सप्तमस्यागस्योपासफदशाना चतुर्थमभ्ययन
समाप्तम् ॥ ४ ॥
टीका सुगमैव ॥ १५१-१५७ ॥ इतिभी-विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्ववाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापा लापक-प्रविशुद्धगद्यपचैनकनन्यनिर्मापक-बादिमानमर्द-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूपित-कोल्हापुरगजगुरु' बालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य-श्री घासीलाल व्रति विरचितायामुपासकदशाङ्गमूत्रस्याऽगारधर्मसञ्जीवन्या ख्याया व्याख्याया चतुर्थ सुरादेवाख्यमभ्ययन
समाप्तम् ॥ ४ ॥
चौथा अध्ययन । अब चौथे अध्ययनका प्रारम्भ करते हैं____टोकार्थ -' उक्खेवो चउत्थस्स' इत्यादि उत्क्षेप-जम्बूस्वामीने कहा"भगवन् ! श्रमणे भगवान् महावीरने चौथे अध्ययनका क्या अर्थे कहा है?"
मुधर्मा स्वामीने 'उत्तर दिया-जम्बू ! उस काल उस समय बनारस नामकी नगरी थी। कोष्ठक चैत्य था। जितशत्रू राजा था । सुरादेव
चोथ अध्ययन । । હવે ચોથા અધ્યયનને પ્રારંભ કરીએ છીએ --
टीकार्थ- 'उक्खेवओ चउत्थस्स' या (१५१ थी १५७)
ઉલ્લે૫-જ બૂ સ્વામીએ કહ્યું “ભગવન! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામી, ચોથા અધ્યયનને શો અર્થ કહ્યો છે ”
સુધમાં સ્વામીએ ઉત્તર આપે - જ બૂ' એ કાળે. એ સમયે બનાસ નામની નગરી હતી કેઠક ચિત્ર હતુ જિતશત્રુ રાજા હતા સુરાવ ગાથાપતિ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ४ मू० १५१-१५७ देवकृतोपसर्गवर्णनम् ४१५ गाथापति था। वह सब प्रकार पन्न यावत् अजेय था। छह करोड़ सोनया उसके खजानेमे थे, छह करोड़ व्यापार में लगे थे, और छह करोड प्रविस्तर ( लेन देन )मे लगे हुए थे। उसके छह गोकुल अर्थात् साठ हजारका गोवर्ग था। धन्या नामकी भार्या थी । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी समोसरे । सुरादेव आनन्दकी तरह गया और गृहस्थ धर्मको स्वीकार किया। वह कामदेव के समान यावत् श्रमण भगवान् महावीरके निकटकी धर्मप्रज्ञप्तिको स्वीकार कर विचरने लगा ॥ १५१॥ इसके अनन्तर सुरादेव श्रावकके सामने पूर्वरात्रिके अपर समयमे एक देवता प्रगट हुआ। वह देवता नील कमलके समान यावत् तलवार लेकर सुरादेव श्रमणोपासकसे बोला-"अरे सुरादेव श्रावक ! ओ मृत्यु के कामी ! यदि तू शील आदिको यावत् भग नहीं करता तो तेरे बडे लड़केको घरसे लाता है, और लाकर तेरेही सोमने उसका घात करता हूँ। उसे मार डालनेके वाद उसीके मासके पाच टुकडे करूँगा औरअदहनसे भरे हुए कढाहमे उकालुगा। अकाल कर तेरे शरीरको मांससे और लोहुसे सीचुगा, जिसमे तृ अकाल ही जीवनसे हाथ धो बैठेगा"। इसी प्रकार मझले और सबसे छोटे लडके के लिये कहा । जय सुरादेव निर्भय बना रहा तो क्रमशः उसके पुत्रोंको लाया और मार डाला। प्रत्येकके मासके હતે તે સર્વ પ્રકારે સપન યાવત્ અજેય હતે છ કરોડ સોયા તેના ખજાનામા હતા, છ કરોડ વ્યાપારમાં રોકાયા હતા અને છ કરોડ પ્રાવસ્તર (લેણદેણ) માં લગાડયા હતા, તેની પાસે છ ગોકુળ અથત ૬૦ સાઈઠ હજાર વર્ગના પશુઓ હતા ધન્યા નામની ભાર્યા હતી શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામી સમસય સુરદેવ આનદની પેઠે ગયે અને તેણે પ્રહસ્થ ધર્મને સવીકાર કર્યો તે કામદેવની પેઠે યાવત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સમીપની ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ સ્વીકારી વિચારવા લાગ્યું (૧૫૧) ત્યારપછી સુરાદેવ શ્રાવકની સામે પૂર્વરાત્રિના અપર સમયમાં એક દેવતા પ્રકટ થયે એ દેવતા નીલકમલન જેવી ચાવત તલવાર લઈને સુરદેવ શ્રમણોપાસકને કહેવા લાગે “અરે સુરાદેવ શ્રાવક! હે મૃત્યુના કામી! જે તુ શીલ આદિને યાવત ભાગ નહિ કરે તે તારા મોટા પુત્રને ઘેરથી લાવું છું અને તારી સમીપે જ તેને ઘાત કરૂ છુ તેને મારીને તેના માસના પાચ ટુકડા કરીશ અને આધણથી ભરેલી કડાઈમાં ઉકાળીશ, પછી તાના શરીર પર એ માસ અને લેહી છાટીશ, જેથી તુ અકાળે જ જીવન ગુમાવી બેસીશ” એ પ્રમાણે વચેટ અને સૌથી નાના પુત્રને માટે પણ કા સુરાદેવ નિર્ભયજ રહ્યો એટલે ક્રમશ તે દેવ તેના પુત્રને લાળે, તેમને
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उपासक्तशामसूत्रे पाँच-पाँच टुकड़े कर प्रत्येकसे सुरादेवके शरीरको सींचा ॥ १५२ ।। देवताने जर देखा कि सुरादेव अप भी भय-भीत नहीं हुआ ता चौथी पार योला-"अरे सुरादेव श्रावक मृत्यु के कामी ! यदि त यावत् शील आदिका परित्याग नहीं करता तो तेरे शरीर में एक साथ ही-श्वास कास, ज्वरे, दार्ट, कुक्षिशले, भगन्दरं, अर्श (यवामी), अजीर्ण, दृष्टि रोग, मस्तकशल, अरुचि, अक्षिवेदनों, कर्णवेदना, खुजली पेटका रोग और को, ये सोलह रोग (ज्वरादि) और आतक (शुल आदि) डालता है, जिससे तृ तडप तडप कर प्राण छोडेगा" ॥१५॥ सुरा देव फिरभी भय भीत न हो विचरता रहा । देवताने इसी तरह दूसरी
और तीसरी बार भी कहा ॥१५४॥ इस प्रकार देवताके दो तीन बार करने पर सुरादेव श्रावकके मनमें यह विचार आया-"यह अनार्य पुरुष है, अनार्य बुद्धिवाला है अत' आचरण भी अनार्य करता है, इसने मेरे बड़े मझले और छोटे लडकेको मार डाला, उनके मास लोहसे मेरे शरीरको सींचा, अब मेरे शरीर में सोलह रोगातक डालना चाहता है, इसे पकड लेनों ही ठीक है।" ऐसा विचार कर सुरादेव उठा, और देवता
મારી નાખ્યા અને પ્રત્યેકના માસના પાચ ટુકડા કરી પ્રત્યેકના લેહી–માસને સુરાદેવના શરીર પર છાયા (૧૫૨) દેવતાએ જ્યારે જોયું કે સુરદેવ હજી પણ ભયભીત નથી થયે, ત્યારે ચોથીવાર તે બે – “અરે સુરાદેવ શ્રાવક' મૃત્યુના કામી' જે તુ યાવત શીલ આદિને પરિત્યાગ નહિં કરે તે તારા શરીરમાં એક साथै (१) वास, (२) अस, (3) पर, (४) हाड, (५) मुक्षिक्ष (6) M२ (७) मर्श (२स-भसा), (८) (6) टिस, (१०) भरतशूस, (११) भय, (१२) मक्षिवहन(13) ४f वना, (१४) मस-Yareी, (१५) २२, मन (१६) अढ, भे सो रोग (Male) भने मात (शूल-माह) नाभीश, था तु તરફડીને પ્રાણ છેડીશ (૧૫૩) તેથી પણ સુરદેવ ભયભીત ન થતા વિચારી રહ્યો દેવતાએ એ પ્રમાણે બીજી અને ત્રીજીવાર પણ કહ્યું (૧૫) એ પ્રમાણે દેવતાએ બે ત્રણ વાર કહેતા સુરદેવ શ્રાવકના મનમાં એ વિચાર આવે કે “ આ અનાર્ય પુરૂષ છે, અનાર્ય બુદ્ધિવાળે છે, એટલે તે આચરણ પણ અનાર્થ જ કરે છે, તેણે મારા મેટા, વચ્ચેટ અને નાના પુત્રને મારી નાખ્યા, તેના માસ-લેહી મારા શરીરે છાયા, હવે મારા શરીરમાં સોળ રોગ તે નાખવા ઇરછે છે, માટે તેને પકડી લે એજ ઠીક છે” એમ વિચારી સુરદેવ ઉઠ, અને દેવતા આકાશમાં વિલીન
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अगारधर्म सञ्जीवनीटीका अ० ४ १० १५१-१५७ देवकृतोपसर्गवर्णनम् ४१७
आकाशमें विलीन हो गया। सुरादेवके हाथ एक खभा आ गया। वह उसे पकड कर कडे जोरसे कोलाहल मचाने लगा ॥१५५॥ उमकी पत्नी घन्याने कोलाहल सुना तो वह दौड़ कर सुरादेव श्रवकके ममीप आई, वहाँ आकर बोली "देवानुप्रिय ! आपने इतने जोरसे कोलाहल क्यो किया ॥१५६|| सुरादेव श्रावक धन्यासे कहने लगा-"देवानुपिये ! कोई अनार्य पुरुप" इत्यादि वही सब बात कही जैसे चुलनीपिताने अपनी मातासे कही थी। चन्या बोली-देवानुप्रिय । कुछ भी नहीं हुआ, न बड़ा लड़का मारा गया, न मॅझला और न छोटा, न कोई आपके शरीरमें रोगातक ही डालता है, पिन्तु कोई पुरुप आपको उपसर्ग कर रहा है।" इसके बाद वही सब बात कही जो भद्राने चुलनीपितासे कही थी। याकी सन पूर्वकी नाई यावत् अन्तमे सुरादेव सौपर्म कल्पमें अरुणकान्त विमानमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उसकी चार पत्योपमकी स्थिति है। वह महाविदेह क्षेत्रसे सिद्ध होगा ॥ १५७ ॥
निक्षेप-अन्तमें श्री सुधर्मास्वामी कहने लगे-"हे जम्बू ! मैंने श्री महावीरस्वामीसे जैमा सुना है वैमा हो तुम्हें कहा है" ॥ श्री उपासकदशाग मूत्रके चौथे अध्ययनमी अगारसञ्जीवनी टीकाका
हिन्दीमापानुवाद समाप्त हुआ ॥४॥ થઈ ગયે સુરદેવના હાથમાં એક થાભલે આવી ગયે તે એને પકડીને મોટા જોરથી બૂમ પાડવા લાગ્યું (૧૫૫) તેની પત્ની ધન્યા તે સાભળીને સુરાદેવ શ્રાવકની સમીપે દોડી આવી અને બેલી દેવાનુપ્રિય તમે આટલા જોરથી બૂમ કેમ પાડી?” (૧૫૬) સુગદેવ શ્રાવક ધન્યાને કહેવા લાગે “દેવાનુપ્રિયે! કેઈ અનાર્ય પુરૂષ ઈત્યાદિ” બધી વાત કહી કે જે પ્રમાણે ચુલનીપિતાએ પિતાની માતાને કહી हती, पन्या मी - “पानुया शुय थयु नथी, मोटा परयेट नाना पुत्रने કેઈએ મારી નાખ્યા નથી, તેમજ આપના શરીરમાં કોઈ ગાતક પણ નાખn નથી, પરતુ કે પુરૂષ આપને ઉપસર્ગ કરી રહ્યો છે” પછી તેણે તેને બધી વાત કહી કે જે ભદ્રાએ ચુલની પિતાને કહી હતીબાકી બધુ પૂર્વવત યાવત્ છેવટે સુરદેવ સૌધર્મ ક૫મા અરૂણકાન્ત વિમાનમાં ઉત્પન થયે ત્યાં તેની ચાર પાપમની સ્થિતિ છે તે મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સિદ્ધ થશે (૧૫૭)
નિક્ષેપ-છેવટે શ્રી સુધર્માસ્વામીએ કહ્યું “હે જ બૂ! મે શ્રી મહાવીર સ્વામી પાસેથી જે પ્રમાણે સાભળ્યું છે તે પ્રમાણે મે તને કહ્યું છે”
ઈતિ શ્રી ઉપાસદશા સૂત્રના ચોથા અધ્યયનની અગાર મછવની ટીકાને ગુજરાતી ભાષાનુવાદ સમાપ્ત, (૪)
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॥पञ्चममध्ययनम् ॥ अथ पञ्चमम' ययनमारभ्यते-'उखेगो पचमस्स' इत्यादि ।
मलम्-उक्खेवो पचमस्त । एवं खलु जव । तेणं कालेण तेणं समएण आलभिया नाम नयरी, संखवणे उजाणे, जियसत्तू राया, चुल्लसयए गाहावई अड्डे जाव छ हिरण्णकोडीओ जाव छ बया दस गोसाहस्सिएणं वएण । वहुलाभारिया, सामी समोसढे,जहा आणंदो तहा गिहिधम्म पडिवजइ । सेसं जहा कामदेवो जाव
छाया-उत्क्षेपः पञ्चमस्य । एव खलु जम्मूः। तस्मिन् काले तस्मिन् समये आलभिका नाम नगरी, शवनमुधान, जितशत्रू राजा क्षुद्रशतको गाथापतिराढयो यावत् पडू हिरण्यकोटयो यावत् पट्ट वजा दसगोसाहस्निकेण व्रजेन । बहुला भार्या । स्वामी समवस्तो यथाऽऽनन्दस्तथा गृहिधर्म भतिपद्यते। शेष यथा
पांचवा अध्ययन । अब पांचवें अध्ययनका प्रारभ करते हैं
'उक्खेयो पचमस्स' इत्यादि ॥१५८-१६५॥ उत्क्षेप-जम्बूस्वामी कहते है-भगवान् ! पाचवें अध्ययनका अर्थ क्या है ? । सुधर्मास्वामी कहते हैं
उस काल उस समय आलभिका नाम नगरी थी। शखवन उद्यान, जितशत्रु राजा और क्षुद्रशतक गाथापति था। वह आढय यावत् छह छह करोड़ सोनये खजाने आदिमे रखे हुए थे। उसके छह गोकुल अर्थात् साठ हजार गोवर्ग था बहुला उसकी भार्या थी। श्रमण भगवान् महा वीर समोसरे । क्षुद्रशतकने आनन्दकी तरह गृहस्थ धर्मको स्वीकार
પાચમુ અધ્યયન, હવે પાચમા અધ્યયનને પ્રારં ભ કરીએ છીએ –
टीकार्थ-"उक्खेवो पचमस्स" त्या (१५८ थी १६५) ઉક્ષે૫–જબૂ સ્વામી કહે છે – ભગવન! પાચમા અધ્યયનને અર્થ શું છે ? સુધમાંસ્વામી કહે છે એ કાળે એ સમયે આલભિકા નામની નગરી હતી શખવન, ઉદ્યાન જિતશત્રુ રાજા અને કુશતક ગાથાપતિ હતું તે આત્ય યાવત્ છ-છ કરેડ સેનિયા ખજાના આદિમા રાખતું હતું તેને છ કુળ અથત ૬૦ હજાર વર્ગના પશુઓ હતા બહુલા નામની ભાર્યા હતી શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સામેસર્યા ક્ષુદ્રશતકે
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अगारधर्म सञ्जीवनीटीका अ० ५ देवकृतोपसर्गवर्णनम्
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धम्मपणत्ति उवसंपज्जित्ताणं विहरड़ ॥ १५८ ॥ तए णं तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अतियं जाव असिं गहाय एव वयासी - " हंभो चुल्लसयगा । समगोवासगा । जाव न भजेसि तो ते अज्ज जेट्टं पुत्तं साओ गिहाओ नीम, एवं जहा चुलणीपिय, नवर एक्केके सत्त मंससोल्ल्या जाव कणीयसं जाव आइचामि ॥ १५९ ॥ तएण से चुल्लसयए समणोवास जाव विहरइ ॥ १६०॥ तए ण से देवे चुल्लसयग समणोकामदेवो यावद्धर्ममज्ञप्तिमुपसम्पत्र विहरति ॥ १५८ ॥ तत. खलु तस्य क्षुद्रशतकस्य श्रमणोपासकस्य श्रमणोपास+स्य पूर्वरात्रापरत्रकालसमये एको देवोऽन्तिक यावदसिं गृहीत्वैवमवाढीत् हभो. क्षुद्रशतक ! श्रमणोपासक । यावन्नू भनक्षि तर्हि su ज्येष्ठ पुत्र स्वस्माद्गृहान्नयामि, एव यथा चुलनी पितर, नवर मेकैर स्मिन् सप्त मास शुल्यकानि यावत्कनीयास यावदासिश्चामि ॥ १५९ ॥ ततः खन्नु क्षुद्रशतक श्रमणोपासको यावद्विहरति ॥ १६० ॥ ततः खलु सदेव क्षुद्रशतक श्रमणोपासक
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किया । शेष कथा कामदेवके समान है, यावत् धर्मप्रज्ञप्तिको स्वीकार कर विचरने लगा || १५८|| तर क्षुद्रशतक श्रावकके सामने, पूर्वरात्रिके प्रथम प्रहरमें अपर रात्र याने रात्रिके पिछले समय मे एक देवता यावत् तलवार लेकर प्रगट हुआ और बोला- “हे क्षुद्रशतक श्रावक ! यदि तृ शील आदिको भग नहीं करता तो तेरे बडे लडकेको आज घर से लाता हूँ । इसके अतिरिक्त और सब नही बात कही जो चुलनीपितासे कही थी । हाँ विशेषता इतनीसी है कि प्रत्येक लड़के के मासके सात सात खण्ड करके शरीर को सींचने का कहा ॥ १५९ ॥ वह क्षुद्रशतक માનદની પઠે ગૃધમ ને સ્વીકાર કર્યાં શેષ કથા કામદેવની સમાન છે, યાવત્ ધ પ્રપ્તિના સ્વીકાર કરી વિચરવા લાગ્યા (૧૫૮) પછી મુદ્રશતક શ્રાવકની સામે, પૂર્વ રાત્રિના પ્રથમ પ્રહરમા અને અપરાત્રીના પાછલા પ્રહરમા અપર સમયમા એક દેવતા ચાવર્તી તલવાર લઇ પ્રકટ થયા અને બેત્યે “ હું ક્ષુદ્રશતક શ્રાવક ! જો તુ શીલ આદિને ભગ નહિ કરે, તે તારા મેળ પુત્રને આજ ઘેરથી લાવુ છુ, એ ઉપરાત જે વાત ચુલનીપિતાને કહી હતી તે બધી વત ઢેરે ક્ષુદ્રશતકને કહી વિશેષતા એટલી છે કે પ્રત્યેક પુત્રના માસના સાત-સાત ખ ડ કરીને તેને શરીરે તેમના લેાહી-માસ
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उपासकाशास्त्र वासय चउत्थपि एवं वयासी-"हंभो चुल्लसयगा। समणोवासया! जाव न भजसि तो ते अज जाओ इमाओ छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ,छ वुडिपउत्ताओ.छ पवित्थरपउत्ताओ ताओसाओं गिहाओ नीणेमि, नीणित्ता आलभियाए नयरीए सिघाडग जाव पहेसु सबओ समता विप्पइरामि जहा णं तुम अदृदुहवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि ।।१६१॥ तए णं से चुल्लसयए समणोवासए तेणं देवेण एव वुत्ते समाणे अभीए जाब विहरइ चतुर्थमप्येवमवादीत-हभो क्षुद्रशतक ! अमगोपासक ! यावन भनक्षि तर्हि तेऽय या इमाः पड् हिरण्यकोटयो निधानप्रयुक्ता पडू द्धिप्रयुक्ताः षट् प्रविस्तर प्रयुक्तास्ता. स्त्रस्माद्गृहाम्नयामि, नीत्वाऽऽलभिमाया नगर्या सड्ढाटकयावत्पदेषु सर्वत्रः समन्ताद विपरिरामि यथा खलु त्वमानदु खार्तवशात्तोंऽकाल एव जीविता द्वयपरोप्पसे ॥ १६१ ।। तत' खल स क्षुद्रशतक. श्रमणोपासकस्तेन देवेन वमुक्त सम्नभीतो यावद्विहरति ॥ १६२॥ ततः खलु स देव क्षुद्रशतक श्रमणोपास श्रावक यावत् जैसेका तैसा विचरता रहा ॥१६०॥ तब देव क्षुद्रशतक श्रावकसे चौथी धार यों परने लगा-“हे क्षुद्रशतक श्रावक ! यदि तू शील व्रत आदिको भग नहीं करता तो यह जो तेरे छह करोड सोनैया खजानेमें रखे हुए है, छह करोड व्यापारमें रगे हुए है। छह करोड लेन देनमें लगे हुए है, उन सबको घरसे लाऊँगा और आलभिका नगरीके सघाटक तथा चतुष्पथ (चौराहा) पर सब जगह विखेर दूगा, जिससे तू अत्यन्त दुखित होकर अकालमें ही कालके गालमें चला जायगा-मर जायगा" ॥१६॥ देवता के इतना कहने पर भी क्षुद्रशतक निर्भय यावत् विचरता रहा ॥१६२॥ देवताने क्षुद्रशतक છાટવાનું કહ્યું (૧૫૯) એ સુશતક શ્રાવક યાવત જેમ ને તેમ વિચરી રહ્યા (૧૬૦) પછી દેવશુદ્ધશતક શ્રાવકને ચોથી વાર કહેવા લાગે - “હે સુદ્રશતક શ્રાવક! જે તુ શીલ વ્રતઆદિને ભગ નહિ કરે, તે જે તારા છ કરોડ ના ખજાનામાં રાખેલા છે, છ કરોડ વેપારમાં રાખ્યા છે અને છ કરોડ લેણ-દેણમાં રહ્યા છે, તે બધા ઘરમાથી લઈશ અને આલબિકા નગરીના ન ઘાટક તથા ચતુપથ (ક) પર બધી જગ્યાએ વેરી નાખીશ, જેથી તુ અત્યત દુખિત થઈને અકાળે જ મૃત્યુ પામીશ.” (૧૬) દેવતાએ એટલુ કહુ તેપણ મુશતક નિર્ભય યાવત વિચરી રહ્યો (૧૨)
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अगारसञ्जीवनी टीका अ ५ स १६३-१६० देवकृतोपसर्गवर्णनम् ४२१ ॥१६शा तए ण से देवे चुल्लसयग समणोवासय अभीयं जाव पासित्ता दोच्चपि तच्चपि तहेव भणइ जाव ववरोविज्जसि ॥१६३ ॥ तए ण तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चपि तच्चपि एव वुत्तस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए०-"अहोण इमे पुरिसे अणारिए जहा चुलणीपिया तहाचितेइ जाव कणीयस जाव आइचड, जाओवि य णं इमाआ मम छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ छ वुडिपउत्ताओ छ पवित्थरपउत्ताओ, ताओवि य ण इच्छइ मम साओ गिहाओ नीणेत्ता आलभियाए नयरीए कमभीत यावद् दृष्ट्वा द्वितीयमपि ततीयमि तथैव भणति यावयपरोप्यसे ॥ १६३॥ तत ग्वलु तस्य क्षुद्रशतकस्य श्रमणोपासकस्य तेन देवेन द्वितीयमपि ततीयमप्येवमुक्तस्य सतोऽयमेद्प आध्यात्मिक. -"अहो। ग्वल्पय पुरुपोऽनार्यो यथा चुलनीपिता तथा चिन्तयति यावत्स्नीयास यावदासिञ्चति, या अपि च खलु इमा मण पइ हिलगयकोटयो निधानपयुक्ताः, पट् पृद्धिप्रयुक्ताः भविस्तरमयुक्ता., ता अपि च खलु इच्छति मम स्वस्माद्गृहान्नीत्वाऽऽलभिकाया नगर्या सड्ढाटक यावद्श्रावकको निर्भय थावत् देखकर दूसरी और तीसरी बार ऐमाही कहा यावत् मर जायगा ॥१६३|| दो तीनवार कहने पर क्षुद्रशतक श्रावकके मनमे इस प्रकारका विचार आया-"अहो ! यह आनर्य पुरुप है-इत्यादि चुलनीपिताकी तरह विचार करने लगा,-यावत् इसने छोटे लडके तकको मार डाला, मेरा शरीर मास लोहसे सीचा,
और इससे भी इसे शान्ति न हुई तो अब छह करोड खजानेमे रखे हुए, छह करोड व्यापारमे और छह करोडलेन देनमे लगे हुए सोनयोंको દેવતાએ મુદ્રશતકને નિર્ભય થાવત્ જોઈને બીજી અને ત્રીજીવાર એવું કહ્યું, યાવત્ મરી જઈશ (૧૬૩) બે ત્રણ વાર કહેતા સુદ્રશતક શ્રાવકના મનમાં આ પ્રમાણે વિચાર આવ્યું “અહો ! આ અનાર્ય પુરૂષ છે” ઈત્યાદિ ગુલનીપિતાની પેઠે વિચાર કરવા લાગે - યાવત “તેણે નાના પુત્ર સુદ્ધાંતને મારી નાખે, મારા શરીરે માસ-લેહ છાયું, અને તેથી પણ તેને શાન્તિ ન થઈ એટલે હવે છ કરોડ ખજાનામાં રાખેલા, છ કરોડ વેપારમાં લગાડેલા અને છ કરોડ લેણ-દેણમા રેકેલા
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उपासकदशासूत्रे
सिंघाडग जाव विप्पइरित्तए, त सेयं खलु ममं एय पुरिसं गिहितए" -त्ति त" ति कट्टु उट्ठाइए जहा सुरादेवो । तहेव भारिया पुच्छइ, तव कइ ॥ १६४ ॥ सेसं जहा चुलणीपियस्स जाव सोहम्मे कप्पे अरुणसिद्धे विमाणे उववन्ने । चत्तारि पलिओ माइ ठिई । सेसं तहेव जाव विदेहे वासे सिज्झिहि ॥ १६५ ॥ निक्खेवो ॥
सत्तमस्स अगस्स उवासगदसाग पचम अज्झयण समत्त ॥ ५ ॥
विकिरितु तच्छ्रेयः खलु ममैत पुरुष टहीतु" मिति कृत्वोत्थितो सुरादेव । तथैव भार्यापृच्छति तथैव कथयति ॥ १६४॥ | शेष यथा चुलनी पितुर्यावत्सम् कल्पेऽरुणसिद्धे विमाने उपपन्न. । चत्वारि पल्योपमानि स्थिति । शेष तथैव यावन्महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ॥ १६५ ॥ निक्षेप. ॥
सप्तमस्याङ्गस्योपासन्दशानां पञ्चममभ्ययन समाप्तम् ॥ ५ ॥
घरसे लाकर आलभिका नगरीके सघाटक यावत् चतुष्पथ ( चौराहे ) आदिमें विखेर देना चाहता है, अत इस पुरुषको पकड़ लेना ही अच्छा है ।" ऐसा सोच कर वह सुरादेवकी तरह उठा । उसी प्रकार उसकी भार्याने चिल्लानेका कारण पूछा। उसी प्रकार क्षुद्रशतकने सब वृत्तात कहा ||१६४ || शेष सब चुलनीपिता के समान यावत् वह सौधर्म कल्प में अरुणसिद्ध विमानमें उत्पन्न हुआ । वहा उसकी चार पल्योपमकी स्थिति है । शेष पूर्ववत् यावत् महाविदेह क्षेत्रमे सिद्ध होगा ||१६५||
સેાનૈયા ઘરમાંથી લઈ જઈને આર્લભકા નગરીના સઘાટક યાવત્ ચાક આદિમા વેરી નાખવા ઇચ્છે છે, માટે આ પુરૂષને પકડી લેવા એજ ઠીક છે” એમ વિચારીને તે સુરાદેવની પેઠે ઉયે પૂર્વોક્ત રીતે તેની શ્રએ તેને બૂમ પાડવાનુ કારણ પૂછ્યુ અને એ પ્રમાણે ક્ષુદ્રશતકે બધે વૃત્તાત કહ્યો (૧૬૪) શેષ બધુ ચુલનીપિતાની પેઠે જાણવુ, યાવત્ એ સોધ કપમા અણુસિદ્ધ વિમાનમા ઉત્પન્ન થયે ચાર પચેપમની સ્થિતિછે શેષ પૂવત, યાવત મહાવિદેહ ક્ષેત્રમા સિદ્ધથશે (૧૬૫)
ત્યા તેની
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ५ सू० १५८ - १६५ देवकृतोपसर्गवर्णनम्
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daar - अस्य सर्वस्यापि पञ्चमा व्ययनस्य टीका छायागम्यैव ॥ १५८ ॥ १६५॥
इतिथी - विश्वविख्यात - जगह लभ - प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक- प्रविशुद्धगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाहू छत्रपति - कोल्हापुरराजमदत्त - "जैनशास्त्राचार्य " - पदभूपित - कोल्हापुर राजगुरु पात्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर - पूज्य - श्री घासीलाल- - प्रति-विरचितायामुपासकदशाङ्ग सूत्रस्याऽगारधर्मसञ्जीवन्याख्याया व्याख्याया पञ्चम चुलनीपित्राख्यमभ्ययन समाप्तम् ।। ५ ।।
निक्षेप - अन्त मे श्री सुधर्मास्वामी बोले हे जम्बू ! मैंने श्रमण भगवान् महावीरसे जैसा सुना वैसे तुम्हें सुनाया है ॥
सातवे अग श्री उपासकदशाके पाचवें अध्ययनका हिन्दी - भापानुवाद समाप्त हुआ ||५||
निक्षेप - मत —અતમા શ્રી સુધર્માં સ્વામી ખેલ્યા હૈ જમ્। મે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પાસેથી જેવુ સાભળ્યુ તેવુ તને સ ભળાવ્યુ છે
સાતમા અગ શ્રી ઉપાસક દશાના પાચમા અધ્યયનના शुभराती भाषानुवाद सभारत (4)
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॥ षष्ठमभ्ययनम् ॥ अथ पठमभ्ययनमारभ्यते-ढस्स' इत्यादि । मूलम्-छट्टस्स उक्खेवो । एव खल्ल जंबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं कंपिल्लपुरे नयरे,सहस्संववणे उजाणे,जियसत्तू राया, कुडकोलिए गाहावई, पूसा भारिया, छ हिरण्णकोडीओ निहाण पउत्ताओ०,छ वया दस गोसाहस्सिएणं वएणं, सामी समोसढे । जहा कामदेवो तहा सावयधम्म पडिवजइ । सच्चेव वत्तवया जाव पडिलाभेमाणे विहरइ ॥१६६॥ तए ण से कुडकोलिए समणोवासए अन्नया कयाइपुवावरण्हकालसमयसि जेणेव असोगवणिया
छाया-पष्ठस्योत्क्षेपक । एव खलु जम्। तस्मिन् काले तस्मिन् समये काम्पिल्यपुर नगर, सहस्राम्रवणमुद्यान, जितशत्रू राजा, कुण्डकौलिको गाथापतिः, पूषा भार्या, पद हिरण्यकोल्यो निधानप्रयुक्ताः०, पद वजा दशगोमाहसिकेण व्रजेन । स्वामी समरसृतः । यथा कामदेवस्तथा श्रावकधर्म मतिपद्यते । सा चैव वक्तव्यता यावत् मतिलाभयन् विहरति ।। १६६ ॥ तत. खल्लु स कुण्डकौलिकः श्रमणोपासकोऽन्यदा कदाचित्पूर्वापराह्नकालसमये येनेवाऽशोकवनिका टीका-पूर्वेति-पूर्वापराह्नकालसमयेमन्याह्नकाले ।
छठा अध्ययन अब छठा अध्ययन कहते हैं
टोकार्थ-' छट्ठस्से '-त्यादि उत्क्षेप पूर्ववत् । हे जम्बू । उस काल उस समय काम्पिल्यपुर नगर, सहस्राम्रवन उद्यान, जितशत्रु राजा, कुण्डकौलिक गाथापति, पूषा भार्या थी। कुण्डकौलिक गाथापतिके छह करोड़ सोनया खजानेमे थे। छह करोड व्यापारमें और छह
છઠું અધ્યયન હવે છઠું અધ્યયન કહીએ છએ टीकार्थ-'छदुस्से त्यात (१९६ थी १६९)
ઉક્ષેપ-પૂર્વવ-નહે જ બૂ! એ કાળે એ સમયે કાપિદયપુર નગર, સહસ્ત્રાવન - ઉશન, જિતશત્રુ રાજા, કુડકોલિક ગાલાપતિ, પૂષા શા હતી કડકૌલિક ગાલાપતિ
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अ० धर्म० टीका अ ६ सू. ११६-१६९ कुण्डकौलिक-देवप्रश्नोत्ता ४२५ जेणेव पुढविसिलापट्टए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नाममुद्दग च उत्तरिजग च पुढविसिलापट्टए ठवेइ, ठवित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिय धम्मपण्णति उपसंपज्जित्ताणं विहरड ॥१६७॥ तए णं तस्स कुडकोलियरस समणोवासयस्स एगे देवे अतिय पाउन्भवित्था ॥१६८॥ तए णं से देवे नाममुदं च उत्तरिज च पुढविसिलापट्टयाओ गेण्हइ, गिण्हित्ता सखिखिणिक अतलिक्खपडिवन्ने कुंडकोलिय समणोवासयं एवं वयासी-हंभो कुडकोलिया । समणोवासया । सुंदरीणं देवाणुप्पिया। गोसालस्स मखलिपुतस्स धम्मपण्णत्ती, नथि उठाणे इ वा कम्मे इ वा वले इ वा वीरिए इ वा परिसकारपरकमेइ वा, नियया सवभावा ।मगुली ण समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती, अस्थिउहाणे इ वा जाव परकमे इ वा, अणियया सवभावा ॥१६९॥
येनैव पृथिवीशिलापट्टकस्तेनेवोपागच्छति, उपागत्य नाममुद्रिका चोत्तरीयक च प्रथिवीशिलापट्टके स्थापयति, स्थापयित्वा अमणस्य भगवतो महावीरस्याऽऽन्तिकी धर्मप्रज्ञप्तिमुपसम्पध विहरति ॥ १६७ ॥ तत खलु तस्य कुण्डकौलिफस्य श्रमणोपासकस्यैको देवोऽन्ति के प्रादुरासीत् ॥१६८॥ तत. सलु स देवो नाममुद्रा चोत्तरीय च पृथिवीशिलापट्टमाद् गृह्णाति, गृहीत्वा समिड्किणिक अन्तरिक्षप्रतिपन्न कुण्डकौलिक श्रमणोपासकमेवमवादीत्-हभो कुण्डकौलिक ! श्रमणोपासक ! सुन्दरी खलु देवानुपिय । गोशालस्य मबलिपुत्रस्य धर्मप्रज्ञप्तिः, नास्ति उत्थानमिति वा, कर्मेति वारलमिति वा, वीर्यमिति वा, पुरुषकारपराक्रम इति वा, नियता. सर्वभावा.। मङ्गुली खलु श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य धर्मप्रज्ञप्ति , अस्ति उत्थानमिति वा यावत्पराक्रम इति वा, अनियता. सर्वभावा ॥१६९।।
*टीका-उत्थानमित्यादि उत्थानम्-उपविष्टस्यो/भवन, गर्म-गमनादि, वल शरीरजन्या शक्ति वीर्यम् आत्मतेज., पुरुपकारः पौरपम्, पराक्रमः-पौरपाति
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उपासकदशाभूत्रे शयः पुरुपशक्तिविशेषरूपः । अत्र सर्वत्र या शब्दो विकल्पार्थः, इति शब्दच पूर्वोक्तानामुत्थानादीनो सग्रहार्थस्ततचायमर्थ:-जीवानामुत्थानादीनि न पुरुषार्य मसाधकानि अन्वयव्यतिरेकाननुविधायित्वात, तस्मात् नियता:-नियतिकताः सर्वभावा=सर्वे सुखदु खादिरूपाः भागः पदार्थाः । करोड देन लेनमें लगा रखे थे। उसके छह गोकुल थे। महावीर स्वामी पधारे । आनन्दकी तरह कुण्डकौलिकने गृहस्थ धर्मको स्वीकार किया यावत् श्रमण निर्ग्रन्थोंको भक्तपानका प्रतिलाभ कराता हुआ विचरता था ॥ १६६ ।। एक समयकी बात है कि पूर्वापराङ्ग (दोपहर के समय अशोकवनीमें पृथिवीशिलापटककी ओर कुण्डकोलिक श्रावक आया, आकर उसने अपने नामकी मुहर (अगूठी)और उत्तरासण वस्त्र (दुपट्टा) उतार शिला पर रग्वा । रग्व कर श्रमण भगवान् महावीरके समीपका धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर विचरने लगा ॥१६७॥ तय उसके समीप एक देव प्रगट हुआ।। १६८ ॥ उसने नामकी मुद्रिका उत्तरीय वस्त्रका शिला परसे उठा लिया और छोटी छोटी घटियोंवाले उत्तम वस्त्र धारण करके आकाशमें रहा हुआ कुण्डकौलिक श्रावकसे बोला-"अरे कुण्डको लिक श्रावक । हे देवानुप्रिय ! मग्वलिपुत्र गोशालकी धर्मप्रजसि सुन्दर हितकर है। वहा उत्थान (उठना), कर्म (गमनादि क्रियाएँ ), बल (शारीरिक शक्ति), वीर्य (आत्माका तेज ), पुरुषकार (पौरुष । પાસે છ કરેડ સેનૈયા ખજાનામાં હતા છ કરોડ વેપારમાં અને છ કરોડ લેણ-દેણમાં શક્યા હતા તેની પાસે છ ગોકુળ હતા મહાવીર સ્વામી પધાર્યા આનદની પેઠે કુડકૌલિકે કહસ્થ ધર્મને સ્વીકાર કર્યો, યાવત્ શ્રમણ નિગ્ર શેને ભકત પાનને પ્રતિ લાભ કરાવતે વિચરતે હતો (૧૬૬) એક સમયની વાત છે કે જ્યારે પૂર્વાપરાણું (બપોર)ને સમયે અશેકવનરાજિમ પૃથિવીશિલાપટ્ટકની તરફ કુડકૌવિક શ્રાવક આ અને તેણે પોતાના નામવાળી વીટી તથા ઉત્તરાસણ વસ્ત્ર (ખેસ ઉતારી શિલાપર મૂક્યા પછી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સમીપની ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ સ્વીકારીને વિચારવા લાગે (૧૬૭) પછી તેની સમીપે એક દેવ પ્રકટ થયે (૧૬૮) તેણે નામવાળી વીટી અને એસ શિલા પરથી ઉઠાવી લીધા અને નાની નાની ઘટડીઓવાળી ઉત્તમ વસ્ત્ર ધારણ કરીને આકાશમાં રહી કડકૌલિક શ્રાવક પ્રતિ બે “અરે કુડકોલિક શ્રાવક! હે દેવાનુપ્રિય! મખલિપુત્ર ગશાળની ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ સુદર હિતકર છે તેમાં ઉસ્થાન (ઉઠવું) કર્મ (ગમનાગમનાદિ ક્રિયાઓ), બલ (શારીરિક શકિત) વીર્ય (આત્માનું તેજ), પુરૂષકાર (39), પરાક્રમ (કચડ પુરૂષાર્થ, એમાની કોઈ પણ
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अगर वर्मसञ्जीवनीटीका अ ६ भाग्यपुरुपार्थचर्चा
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अयमाशयः- जीवाना सुखदुःखादि सर्व नियतिकृत नतु पुरुषकारकृत व्यभिचारात्, तथाहि दृश्यते लोके कस्यचित्पुरुपव्यापाराभावेऽपि तत्तत्फलमाप्तिः, कस्यचिच्च पुरुपव्यापारसच्त्वेऽपि तत्तत्फलानुपलम्भ इति । किञ्च यदि पुरुषकारकृत सुखदुःखा दिकममस्यत तदा आगोपालवालहाल्कि सर्वेपा सुख वा दुख वा समानमेवोपापत्स्यत, सुखदुःखकारणतया भवदभिमतस्य पुरुषकारस्य सर्वत्राविशेषाद्, नचैपराक्रम (प्रचण्ड पुरुषार्थ ), इनमे से कोई भी नही है, सर्व पदार्थ नियत ( भाग्यके भरोसे ) हैं । और श्रमण भगवान् महावीरकी धर्मप्रज्ञप्ति अच्छी ( सच्ची ) नही है, क्योंकि उसमे उत्थान यावत् पराकण है, और सय (कोई भी) पदार्थ भाग्यकृत नहीं हैं ॥
मूल पाठ में उत्थान आदि प्रत्येकके साथ 'वा' शब्द है वह चिकपार्थ है, और 'इति' शब्द पूर्वोक्त उत्थानादिके सग्रहके लिए है, अर्थात् इन सभीका अस्तित्व नही है । तात्पर्य यह कि उत्थान आदि जीवके कार्यके साधक नहीं हैं, क्योंकि उत्थान आदिके होने पर भी कभी-कभी कार्य सिद्ध नहीं होता और कभी कभी इनके न होने पर भी कार्य सिद्ध हो जाना है । इसलिए क्या सुग्व, क्यादु ख, सभी पदार्थ भाग्यके अधीन हैं । इसलिए सुख दुख आदिका कारण उत्थान आदि न मानकर होनहार ही मानना चाहिए । यदि उत्थान आदिसे कार्य सिद्ध होते तो सभी पुरुषार्थ करनेवालोंको सफलता प्राप्त होती, किन्तु
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વસ્તુ નથી, સર્વ પદાર્થ નિયત (ભાગ્યને ભરાસે) છે, અને શ્રમણુ ભગવાન મહા વી-ની ધર્મપ્રાપ્તિ માચી નથી, કારણ કે તેમા ઉત્થાન યાવન પરાક્રમ છે અને અધા (કાઈપણ) પદાર્થ ભાગ્યકૃત નથી
મૂળ પાઠમા ઉત્થાન આદિ પ્રત્યેકની નાથે “વા” શબ્દ છે. તે વિકલ્પાથે છે, અને ‘તિ' શબ્દ řકત ઉત્થાનાદિના સંગ્રહને માટે છે, અર્થાત્ એ બધાનુ અસ્તિત્વ નથી તાપ એ છે કે ઉત્થાન આદિ જીવને કાર્યના સાધક નથી હાતા, ક રણ ઉત્થાન આદિ હાવા છતા પણ કાઈ કઈ દ્વાય સિદ્ધ નથી થતા અને કોઇ કે વાર એ ન હેાવા છતા પણ કાર્ય સિદ્ધ થઈ જાય છે તેટલા માટે સુખ દુખ બધા પદાર્થા ભાગ્યને બધીન છે. માટે સુખ-દુ ખનુ કારણ ઉત્થાન દ ન માનતા નિયતિ
(થવા કાળ હતું માટે થયુ એમ)જ માનવી જોઈએ જે ઉત્થાન આદિથી કાર્ય સિદ્ધ થતા હોત તા ખધાય પુરૂષાર્થ કરનારાઓને સફળતા પ્રાપ્ત થતી હાત, પરન્તુ એમ
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उपासक दशाङ्गसूत्रे
तदुपपद्यते, राजसेवादिव्यापृतस्यापि कस्यचित्तत्फलभूतधनादिमाप्त्यदर्शनात्, कस्यचिच तत्सेवाभावेऽपि मचुरधनादिमाप्तिदर्शनात्ः यतश्चैव व्यभिचारो वैसा दृश्य च ततो न पुरुषव्यापारजन्य सुखदुखादि सभवति ।
नन्वस्तु तर्हि काल एव सुखादिकारण नतु निपतिरिति चेत्र, कालस्य कारण ताङ्गीकारे तस्यैकरूपतया प्रत्यक्ष दृश्यमानस्य जगत्फलवैचित्र्यस्यासाङ्गत्यापत्तेः, कारणऐसा नहीं देखा जाता। किसीको प्रवृत्ति न करने पर भी फल मिल जाता है और किसीको प्रवृत्ति करने पर भी फल नहीं मिलता।
दूसरी बात और सुनिये | आप कहते हैं कि पुरुषार्थसे फल मिलता है । अगर यह बात सच है तो ग्वाले हलवाले बालक आदि प्रत्येकको एक समान सुख या दुःखको प्राप्ति होनी चाहिए, क्योंकि सबमें समान रूपसे पुरुषार्थ विद्यमान है, मगर ऐसा नही होता- सबको समान फल नही प्राप्त होता । राजाकी सेवा आदिमें लगे हुए भी किसी पुरुषको घनादिकी प्राप्ति नहीं देखी जाती, और कोई कोई सेवा आदि कुछ भी नही करते तो भी खूब धन पा लेते हैं। इस प्रकार इस पक्ष में विसदृशता (वैपम्य) होनेसे यही सिद्धान्त समीचीन है कि सुख दुःख आदिपुरुषार्थ से पैदा नहीं होते ।
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शका - अच्छा, अगर सुख दुःखका कारण पुरुषार्थ नहीं तो कालको ही क्यों नही मान लेते ? नियति ( होनहार ) का क्यों मानते हो ? 1 જોવામા આવતુ નથી કાઇ કાઇને પ્રવૃત્તિ ન કરવા છતા પણ ફળ મળી જાય છે અને ફોઇ ને પ્રવૃત્તિ કરવા છતા પણ ફળ નથી મળતુ
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હવે બીજી વાત માલળા આપ કહે છેકે પુરુષાથી ફળ મળે છે. જો એ વાત સાચી હોય તે ગોવાળ, હુળવાળા, બાળક સ્માદિ પ્રત્યેકને સમાન સુખ યા ફુ ખની પ્રાપ્તિ થવી જોઇએ, કારણુકે ખધામા સમાનરૂપે પુરૂષાર્થ વિદ્યમાન છે, પરંતુ એમ નથી થતુ, બધાને સરખુ ફળ નથી પ્રાપ્ત થતુ રાજાની સેવા વગેરેમા લાગેલા એવા કોઇ પુરૂષને ધનાદિની પ્રાપ્તિ થતી નથી એવામા આવતી, તે કઇ કઇ સેવા આદિ શું ન કરતા હેાવા છતા પશુ ખૂબ ધન પ્રાપ્ત કરે છે એ પ્રમાણે આા પક્ષમાં વિસĚશતા વિષમતા) હેાવાથી, એજ સિદ્ધાન્ત સમીચીન છે ક્રૅન્સુખ દુખ આદિ પુરૂષાર્થથી પેદા થતા નથી
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श - वा३, सुम-हु यातु भर युषार्थ नथी, तो भजने उस नयी भानी सेता ? नियतिने हम भाता है ?
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अगारधर्मसजीवनी टीका अ. ६ ० ९६६-९६९ भाग्यपुरुषार्थचर्चा ४२९ भेदाभावे कार्यभेदस्याप्यभावात, यदुक्तमाकरे-'अयमेव भेदो भेदहेतुर्वा यद्विरुद्धधर्मा यास कारणभेदश्च' इति । न चेवरः मुखादिर्ता, तस्य मूर्त्तत्वे प्राकृतपुरुषस्येव समग्रजगत्फलफर्तृत्वासम्भवान, अमूर्त्तत्वे चाकाशस्येव निष्क्रियतया कत्तत्वासगते., एव स्वभावोऽपि न कारण, स हि पुरुषाद्भिन्नः सन पुरुषगत सुखादि
१ आकरे-भाष्ये, इत्यर्थः । २ अध्यास: आरोपो ज्ञान वा ।
समाधान-नही, काल भी कारण नहीं हो सस्ता । काल एक है। अगर इसे कारण मान लें तो उससे एक ही कार्य-सुख या दु.ख उत्पन्न होगा, किन्तु ससारमें भिन्न भिन्न तरह के कार्य प्रत्यक्षसे देखे जाते है। जब कारण एक ही होता है उममें भेद नहीं होता-तो कार्य में भी भेद नहीं होता। आकर (भाष्य)मे कहा है-"विरुद्ध धर्मोको पाया जाना
और कारण मे भेद होना ही भेद और भेदका कारण है" अर्थात् विरुद्ध धर्मोके होनेको ही भेद करते हैं और उसके कारणोमें भेद होना उस पदार्थके भेदका कारण है। अस्तु । काल एक है, अगर वह कारण होता हो तो कार्यमें भेद नहीं होता । कार्योमे भेद पाया जाता है, अत सल कारण नहीं है।
ईश्वर भी सुख दुःख आदिके कर्त्ता नहीं है। अगर कर्ता मानते हो तो ईश्वरको मूर्त मानोगे या अमूर्त १। अगर मृत मानो तो साधारण पुरुषोंके समान वह भी समस्त ससार के कार्योंका कर्त्ता नहीं हो
સમાધાન–નહિ, કાળ પણ કારણ નથી થઈ શકતુ કાળ એક છે જે તેને કારણુ માની લઈએ, તે તેથી એકજ કાર્ય–સુખ યા દુ ખ ઉત્પન્ન થશે, પરંતુ જગતમાં જૂની જૂદી જાતના કાર્યો પ્રત્યક્ષ જોવામાં આવે છે જે કારણ એક જ હોય છે–નેમા ભેદ નથી તેને કાર્યમાં ભેદ નથી હોતે આકર (ભાગ્યમા) કહ્યુ છે કે “વિરૂદ્ધ ધર્મોનુ પ્રાપ્ત થવું અને કારણમાં ભેદ હા એજ ભેદ અને ભેદનું કારણ
” અર્થાત્ વિરૂદ્ધ ધર્મો હેવા એજ ભેદ કહેવાય છે અને તેના કારમા ભેદ હવે એજ એ પાર્થના બે ને કારણ કે અસ્તુ કાળ એક છે, જે તે કારણ હતા તે કાર્યમાં ભેદ ન હેત કાર્યોમાં ભેદ છે, એટલે કાળ એ કારણ નથી
ઈશ્વર પણ સુખ-૬ખ આદિને કર્તા નથી અગર જે તેને કર્તા માનતા છે તે ઈશ્વરને મૂર્ત માનશે કે અમૂ? જે મુર્ત માને તે સાધારણ પુરૂની પિઠ એ પણ સમસ્ત જગતના કાર્યોને કર્તા નથી હોઈ શક્ત જે ઈશ્વરને અમૂર્ત માને છે તે આકાશની પેઠે નિષ્ક્રિય હોવાથી કેઈ પણ કાર્ય કરી શકે જ નહિ
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उपासकदचासत्रे
साधयितु न प्रभवति, पुरुषरूपवेत्समग्र जगत्फल कर्त्ता स्वत एव न सभवति, एक् मन्यदपि तस्मान्नियतिरेव सुखदुःखादिकारण नान्यत् उक्तश्च --- "नाभाव्य कचिदपि जायते जनाना,
भाव्य वा न विगलति प्रयत्नतोऽपि । लभ्यन्ते नियतिलात्फलानि सर्वे, -
पारो भवतु न चा शुभाशुभानि ॥ १ ॥ भाव्य प्रयत्नरहितोऽप्युपयात्यवश्य,
नाभाव्यमेति शतशः कृतचारुयत्न | तस्मादिद नियतिरेव सुग्वादि सर्वे,
सूते जनस्य सहसा हतपौरुषस्य " ॥ २ ॥ इत्यादि । इति । मुङ्गली=असमोचीना ॥ १६६ - १६९ ॥ सकता । अगर ईश्वरको अमूर्त स्वीकार करो तो वह आकाशकी तरह निष्क्रिय होनेसे कोई कार्य कर ही नहीं सकता ।
इसी प्रकार स्वभाव भी कारण नही । क्योकि स्वभावको यदि पुरुपसे भिन्न मानोगे तो वह पुरुषके अन्तर्गत सुख दुःख पैदा नही कर सकेगा । अगर स्वभावको पुरुषरूप ही मानोगे तो पुरुष समस्त ससारके कार्योंका कर्त्ता नहीं हो सकता। इसी प्रकार औरोका भी विचार कर लेना । इसलिए यही मान्यता ठीक है कि भाग्य ही सुख दुःखका कारण है, अन्य नही । कहा भी है
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" कितना ही प्रयत्न करो, जो नही होनेवाला है, वह कदापि नहीं होगा, और जो होनेवाला है वह कदापि नही टलेगा । कोई प्रवृत्ति करे या न करे, नियतिकी शक्ति से सबको शुभ अशुभ फल प्राप्त हो जाता है " || १॥ એજ પ્રમાણે સ્વભાવ પણ કારણ નથી, કેમકે સ્વભાવને જે પુરૂષથી ભિન્ન માનશે તે તે પુરૂષના અતત સુખદુ ખને પેઢા નહુ કરી શકે જો સ્વભાવને પુરૂષરૂપ જ માનશે તે પુરૂષ સમસ્ત જગતના કર્માંના કર્તા નહિ થઈ શકે એ પ્રમાણે ખીજાઓને ‘પણ વિચાર કરી લેવા એટલા માટે એ માન્યતા બરાબર છે કે ભાગ્યેજ સુખ–દુ ખનુ કારણ છે, ખીજુ કાઇ નહિ કહ્યુ છે કે
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“ ગમે તેટલા પ્રયત્ન કરો, જે નથી થવાનુ તે કદાપિ થવાનું છે તે કદાપિ નહિ ટળે. કોઇ પ્રવૃત્તિ કરે યા ન કરે, ચુભ અશુભ ફળ પ્રાપ્ત થાય છે. (૧)
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નહિં ચાય, અને જે નિયતિની શકિતથી સૌને
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका ब ६ स १७० माग्यपुरुषार्थचर्चा . ४३१
मूलम्-तए णं से कुंडकोलिए समणोवासए तं देव एवं व्यासी जइ ण देवा । सुदरी गोसालस्त मखलिपुत्तस्त धम्मपण्णत्ती-नत्थि उदाणे इवा जाव नियया सवभावा, मंगुली णंसमणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती अस्थि उटाणे ड वा जाव अणियया सबभावा । तुमे ण देवा । इमा एयारूवा दिवा देविड्डी, दिवा देवज्जुई, दिवे देवाणुभावे किणा लद्धे ? किणा पत्ते? किणा अभिसमन्नागए? कि उटाणेणं जाव पुरिसकारपरकमेणं उदाह ! अण्डाणेणं अकम्मेणं जाव अपुरिसक्कारपरकमेणं ॥१७॥
छाया-ततः ग्वलु स कुष्डकौलिक श्रमणोपासकस्त देवमेवमवादीत् यदि खलु देव ! सुन्दरी गोशालम्य मइखलिपुत्रस्य धर्मप्रज्ञप्तिः-नाम्त्युत्थानमिति वा यावन्नियता सर्वभावाः, मङ्गुली खलु श्रमणम्य भगवतो महावीरस्य धर्मप्रज्ञप्तिः अस्त्युत्थानमिति वा यावदनियता सर्वभावाः । त्वया खलु देवानुप्रिय ! इयमेतद्रूपा दिव्या देवर्द्धि , दिव्या देवद्युति', दिव्यो देवानुभावः केन लब्धः? केन प्राप्तः ? केनाभिसमन्वागत ?, किमुत्थानेन यावत्पुरुषकारपराक्रमेण ? उताहो ! अनुत्थानेनाऽर्मणा यावदपुरुपकारपराक्रमेण ? ॥ १७० ॥
टोका-तत इति ततः इत्य गगनगतेन देवेनोपन्यस्तस्य गोशालकमतस्य
जो होनहार है वह विना प्रयत्न ही हो जाता है। जो होनहार नहीं, उसके लिए चाहे जितनी चतुराईसे प्रयत्न करो, वह नहीं होगा। इसलिए यह भाग्य ही पौरुषहीन भी मनुष्योंके सुखादि फलोको उत्पन्न करता है ||0||" इत्यादि ॥ १६९ ॥
टीकार्थ-तए ण से '-इत्यादि तय कुडकौलिक श्रावक ने देवसे कहा देव ! यदि मखलिपुत्र गोशाल की धर्मप्रज्ञप्ति समीचीन है कि
- “જે કઈ થવાનું છે તે વિનાપ્રયને જ થઈ જાય છે જે થવાનું (નિયત) નથી, તેને માટે ગમે તેટલી ચતુરાઈથી પ્રયત્ન કરે, તે પણ તે નહિ થાયે એટલાં માટે એ ભાગ્યે જ પૌરૂષહીન મનુષ્યને પણ સુખાદિ ફળ પ્રાપ્ત કરાવે છે (૨)” त्यादि (१९८) टीकार्थ-'तए ण से' या पछीओlas श्राप हेवन खु-
हे ने મખલિપુત્ર ગોશાલની ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ સમીચીન છે કે- ઉથાન નથી ચાવત સર્વ
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उपासकदशास्त्रे
मूलम् - तए णं से देवे कुंडकोलिय समणोवासयं एव वयासीएव खलु देवाणुप्पिया । मए इमेयारूवा दिवा देविड़ी अणुट्टाणेण जाव, अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लडा पत्ता अभिसमन्नागया ॥ १७१ ॥
तए ण से कुंडकीलिए समणोवासए त देव एव वयासीजइ णं देवा । तुमे इमा एयारूवा दिवा देविट्टी अण्डाणेण जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, जेसि णं जीवाण
श्रवणोत्तरम् । केनेति - हेतावेपा उतीया - 'केन हेतुने ' - त्यर्थः, एवमग्रेऽपि । उताहो = अथवेत्यर्थः ॥ १७० ॥
छाया--ततः खलु स देवः कुण्डकौलिक श्रमणोपासकमेनमवादीत् एव खलु देवानुप्रिय ! मयेयमेतद्रूपा दिव्या देवर्द्धिरनुत्थानेन यावद् अपुरुषकारपराक्रमेण लब्धा प्राप्ता अभिसमन्वागता ॥ १७१ ॥ ततः खलु स कुण्डकौलिक श्रमणोपासकस्त देवमेवमवादीत्-यदि खलु देव ! स्वयेयमेतद्रूपा दिव्या देवर्द्धिनुत्थानेन यावद् अपुन कारपराक्रमेण लया प्राप्ता अभिसमन्वागता, (तदा) येषा खलु
उत्थान नहीं है यावत् सब पदार्थ भाग्यकृत हैं, और श्रमण भगवान् महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति समीचीन नहीं है कि उत्थान है यावत समस्त पदार्थ भाग्यकृत नही है, तो हे देव ! तुम्हारी यह दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव द्युति, दिव्य देवानुभाव ( अलौकिक प्रभाव ) कहा से आया है ? कैसे तुम्हें प्राप्त हुआ है ? किस प्रकार सामने उपस्थित हुआ है ? उत्थान यावत् पुरुषकार पराक्रमसे यह सब प्राप्त हुआ है या अनुत्थानस अकर्मसे यावत् अपुरुषकार पराक्रम से प्राप्त हुआ है ? || १७०॥
( પદાર્થો ભાગ્યકૃત છે,અને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની ધપ્રજ્ઞપ્તિ સમીચીન નથી કે ઉત્થાન છે યાવત બધા પદાર્થોં ભાગ્યકૃત નથી, તા હે દેવ ! તમારી એ દિવ્ય हेवं-ऋद्धि, दिव्य देव धुति, हिव्य हेवानुभाव ( सोडिङ अलाव ) क्याथी भाव्या તમને કેમ પ્રાપ્ત થયા કેવી રીતે સામે ઉપસ્થિત થયા ? ઉત્થાન ચાવત પુરૂષકાર ,પરાક્રમથી એ અધુ પ્રાપ્ત થયુ છે યા અનુસ્થાનથી અમથી યાવર્ત પુરૂષકાર પરાક્રમથી પ્રાપ્ત થયુ છે? (૧૭૦)
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अगारधर्ममञ्जीवनी टीका अ६ स. १७१-१७२ पुरुषार्थचवर्णत्रम् ४३३ नत्थि उटाणे इ वा जाव परकमेड वा ते किं न देवा ॥ अहण देवा! तुमे इमा एयारूवा दिवा देविड्डी उट्ठाणेण जाव परकमेणं लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, तो ज वदसि सुंदरी ण गोसालस्स मखलि पुत्तस्स धम्मपण्णत्ती-नस्थि उट्ठाणे इ वा जाव नियया सवभावा, मगुली ण समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती अस्थि उहाणे इ वा जाव अणियया सबभावा त ते मिच्छा ॥१७२॥ जीवाना नास्त्युत्थानमिति वा यावत् पराक्रम इति वा ते किं न देवा' अथ बलु देव ! न्ययेयमेतद्रूपादिव्या देवर्द्धिस्त्यानेन यावत्पराक्रमेण या प्राप्ता अभिममन्वागता, ततो यद्वदसि सुन्दरी खलु गोशालस्य मलिपुत्रस्य वर्मप्रज्ञप्ति -नास्त्युत्थानमिति वा यावनियता. सर्वभागा., मगला खलु अमणस्य भगवतो महावीरस्य धर्मज्ञप्ति:-अस्त्युत्थानमिति पा यावदनियता. सर्वभावास्तत्ते मिथ्या ॥१७॥
दीका-येपामिति-अन 'तदा' इत्यम्य शेप । तेस्तमपापाणादयः । देवा इति-पत्र 'जायन्ते' इति क्रियापटमध्याहार्यम् । अथ यदि । तदिति तत् सर्वम्, __टीकार्थ-'तए ण से ' इत्यादि देव बोला-हे देवानुप्रिय । मैंने यह इस प्रकार की दिव्य देव ऋद्धि, अनुत्थान से यावत् अपुरपकारपराक्रम से पाई है यावत् सामने आई है ॥ १७१ ॥ कुण्डकौलिक रहता है हे देव । अच्छा, अगर तुमने यह देव-ऋद्रि आदि विना पुस्पार्थ पराक्रम के पाई है तो जिन जीवों में " उत्थान आदि नहीं पाये जाते, ऐसे वृक्ष पापाण आदि देव क्यों नहीं हो जाते । अर्थात् जर देवऋद्धि प्राप्त करनेके लिए पुरुपार्थकी आवश्यकता नहीं है तो एकेन्द्रिय आदि समस्त जीवों को देव ऋद्धि प्राप्त हो जानी चाहिए। यदि यह
टीकार्य-'तए ण से' त्या हे मान्यो- वानुप्रिया में मा પ્રકારની દિવ્ય દેવ-દ્ધિ, અનુત્થાનથી યાવત અપુરુષકારપરાઇમથી પ્રાપ્ત કરી છે યાવત સામે ઉપસ્થિત થઈ છે (૧૭૧) કુડકલિક કહે છે--હે દેવ ! બહુ સારૂ જે તે એ દિવ્ય દેવ-ઋદ્ધિ આદિ પુરૂષાર્થ પરાક્રમ વિના પ્રાપ્ત કરી છે, તે જે જીમા ઉત્થાન આદિ નથી જોવામાં આવતા, એવા વૃક્ષ પાષાણ આદિ દેવ કેમ નથી બની જતા? અર્થાત જે દેવ-ઋદ્ધિ પ્રાપ્ત કરવા માટે પુરુષાર્થની જરૂર નથી તે એકેન્દ્રિય આદિ બધા જીને દેવ-ઋદ્ધિ પ્રાપ્ત થઈ જવી જોઈએ જે એ નહિ
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उपासकदशास्त्रे
मूलम् - तरणं से देवे कुंडकोलिय समणोवासयं एव वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया । मए इमेयारुवा दिवा देविड्डी अणुट्टाणेण जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेण लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया ॥ १७१ ॥
तए ण से कुडकीलिए समणोवासए त देव एव वयासीजइ णं देवा | तुमे इमा एयारूत्रा दिवा देविट्टी अणुड्डाणेण जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, जेसि णं जीवाण श्रवणोत्तरम् । केनेति - देवावेषा तृतीया - 'केन हेतुने' - त्यर्थः एवमग्रेऽपि । उताहो = अथवेत्यर्थ ॥ १७० ॥
छाया -- तत. खलु स देवः कुण्ड कौलिक श्रमणोपासकमेनमवादीत् एत्र खल देवानुप्रिय ! मयेयमेतद्रूपा दिव्या देवर्द्धिरनुत्थानेन यावद् अपुरुषकारपराक्रमेण लब्धा प्राप्ता अभिसमन्त्रागता || १७१ ॥ ततः खलु स कुण्डकौलिकः श्रमणोपासकस्त देवमेवमवादीत्-यदि खलु देव ! स्वयेयमेतद्रूपा दिव्या देवर्द्धिनुत्थानेन यावद् अपुरुषकारपराक्रमेण लभा माप्ता अभिसमन्वागता, (तदा) येषा खलु
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उत्थान नही है यावत् सब पदार्थ भाग्यकृत हैं, और श्रमण भगवान् महावीर की धर्मप्रज्ञप्ति समीचीन नही है कि उत्थान है यावत समस्त पदार्थ भाग्यकृत नहीं है, तो हे देव! तुम्हारी यह दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव द्युति, दिव्य देवानुभाव ( अलौकिक प्रभाव ) कहासे आया है ? कैसे तुम्हें प्राप्त हुआ है ? किस प्रकार सामने उपस्थित हुआ है ? उत्थान यावत् पुरुषकार पराक्रमसे यह सब प्राप्त हुआ है या अनुत्थानसे अकर्मसे यावत् अपुरुषकार पराक्रम से प्राप्त हुआ है ? ॥ १७० ॥
( પદાર્થોં ભાગ્યકૃત છે, અને શ્રમણુ ભગવાન મહાવીરની ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ સમીચીન નથી કે ઉત્થાન છે યાવત બધા પદાર્થો ભાગ્યકૃત નથી, તે હે દેવ ! તમારી એ દિવ્ય हेव-द्धि, दिव्य देव धुति, हिव्य हेवानुभाव ( असोङि अलाव ) ध्याथी माया ? તમને કેમ પ્રાપ્ત થયા ? કેવી રીતે સામે ઉપસ્થિત થયા ? ઉત્થાન યાવત પુરૂષાર પરાક્રમથી એ મધુ પ્રાપ્ત થયું છે યા અનુત્યાનથી અકર્માથી ચાવર્ત અપુરૂષકાર પરાક્રમથી પ્રાપ્ત થયુ છે? (૧૭૦)
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अगारधर्मसञ्जीवनीटीका अ६ सू १७१-१७२ भाग्यपुरुषार्थचर्चा ४३५
" काकतालीयवत्प्राप्त, दृष्ट्वाऽपि निधिमग्रतः ।
न स्वय देवमादत्ते, पुरुषार्थमपेक्षते ॥" इति च । क्रिया च प्रतिकत्तभेदेनावश्य भिन्नति फलचैचित्र्यमपि युक्तमेव, कारणमेदे सति कार्यभेदस्य क्लप्सत्वात् । ___यत्तु कचित्तत्तृव्यापारे जातेऽपि फलानुपलम्भस्तत्रापि यथोचित कर्णप्रय
नाभावोऽवगन्तव्य , यद्वा कत्र्तव्यापारसहकृता नियतिरप्यस्माफ कारणत्वेनाभिमता, तस्याश्च तत्राभावान फलोद्गमः ।
"काकतालीय न्याय से (सयोगवश-अचानक ही) सामने रखे हुए खजाने को भी देव अपने-आप नहीं ले सकता है। उसे ग्रहण करने में भी पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है ॥ २॥
क्रिया प्रत्येक मनुष्यको जूदी जूदी होती है, इसलिए फलकी विचित्रता ठीक तरह सगत हो जाती है। क्योंकि कारणके मेद से कार्य में अवश्य भेद हो जाता है। ___ कही कही मनुष्य प्रवृत्ति तो करता है परन्तु फल नहीं प्राप्त कर पाता। इसका कारण यह नही कि प्रवृत्ति फल में कारण नहीं, बल्कि इसका कारण यह है कि उस कार्य को सिद्ध करने के लिए जैसे और जितने प्रयत्न की आवश्यकता है उतना और वैसा प्रयत्न नहीं किया गया।
अथवा कर्ता के व्यापारसे सहकृत (युक्त) नियतिको भी हम कारण मानते हैं, अत: उसका अभाव होनेसे फलकी प्राप्ति नहीं होती।
“કાકતાલીય ન્યાયથી (સગ વશ-અચાનક જ) સામે રાખેલા ખજાનાને પણ દૈવ પિતાની મેળે નથી લઈ શકતે તેને ગ્રહણ કરવામાં પણ પુરુષાર્થની ४३२ ५४ छ (२)"
ક્રિયા પ્રત્યેક મનુષ્યની જારી જૂદી હોય છે, એટલે ફળની વિચિત્રતા બરાબર રીતે સગત થઈ જાય છે, કારણ કે કારણના ભેદથી કાર્યમાં જરૂર ભેદ પડી
કયાક કયાક માણસ પ્રવૃત્તિ તે કરે છે, પરંતુ ફળ પ્રાપ્ત કરી શકતો નથી, તેનું કારણ એ નથી કે પ્રવૃત્તિ ફળમાં કારણ નથી, બલકે એનું કારણ એ છે કેએ કાયને સિદ્ધ કરવાને માટે જેવા અને જેટલા પ્રયત્નની જરૂર હોય છે તે અને તેટલા પ્રયત્ન કરવામાં આવે, હેતે નથી
અથવા કર્તાના વ્યાપારથી યુકત નિયતિને પણ અમે કારણ માનીએ છીએ, એટલે તેને અભાવે હેવાથી ફની પ્રાપ્તિ થતી નથી
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उपासकदशासो मिथ्येति प्रागुक्तरीत्या फल प्रत्युत्थानादीना कारणत्वात्, अय भावः-फलमात्र प्रतिक्रियाया निमित्तत्वात्क्रियायाथोत्थानादिरूपत्वात्सव मुखादिनिमित्त न तु नियतिस्तथा चोक्तम्-"अनुयोगेन तैलानि तिलेभ्यो नाप्तुमर्हति" इति । यत्रापि च दैवजात मुखाशुपलभ्यमान दृश्यते तत्राप्यन्तत उस्थानादयः कारणम्, तदप्युक्तम्--
"पथा शेकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् ।
तथा पुरुपकारेण विना देव न सिध्यति ॥" इति, ऋद्धि तुम्हें पुरुषार्थ आदि से प्राप्त हुई है तो फिर गोशालक मखलिपुत्र की " उत्थान आदि नहीं हैं, समस्त पदार्थ भाग्यकृत हैं" यह धर्मप्रज्ञप्ति अच्छी है, और "उत्थान आदि हैं यावत् पदार्थ भाग्यकृत नही है" यह अमण भगवान महावीर की धर्म प्ररूपणा ठीक नहीं है, तुम्हारा ऐसा कथन मिथ्या है। क्यों कि उत्थान आदि फलकी प्राप्तिमे कारण हैं, यह बताचुके है। तात्पर्य यह है-प्रत्येक फल की प्राप्ति के लिए क्रिया की आवश्यकता है, और वही क्रिया उत्थान आदि हैं, अत उत्थान आदि ही सुखादिके प्रति निमित्त हैं, भाग्य नहीं । कहा भी है
"विना उद्योग किये (पिले विना) तिलोंसे तेल नहीं निकल सकता।"
जहा कही सुख आदि भाग्यसे मिले मालूम होते हैं वहां भी अन्त मे उत्थान आदि ही कारण हैं। कहा भी है--
"जैसे एक चम्के से रथ नहीं चल सकता। इसी प्रकार पुरुषार्थ के विना देव (भाग्य) सिद्ध नहीं होता ॥१॥" તને પુરુષાર્થ અ દિથી પ્રાપ્ત થઈ છે, તે પછી ગોશાલક મ ખલિપુત્રની “ઉત્થાન આદિ નથી, બધા પાર્થ ભાગ્યકત છે” એ ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ સાચી છે, અને “ઉત્થાન આદિ છે યાવત પદાર્થ ભાગ્યકૃત નથી” એ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની ધર્મપ્રરૂપણ બરાબર નથી, એવુ તારૂ કથન મિથ્યા છે, કારણકે ઉત્થાન આદિ ફળની પ્રાપ્તિમાં કારણ છે એ હ બતાવી ચૂક્યો છુ તાત્પર્ય એ છે કે પ્રત્યેક ફળની પ્રાપ્તિ માટે ક્રિયાની આવશ્યકતા છે, અને એ ક્રિયા ઉત્થાન આદિ છે, એટલે ઉત્થાન આદિ જ સુખાદિના પ્રતિ નિમિત્ત છે, ભાગ્ય નથી કહ્યું છે કે- “ઉદ્યોગ કર્યા વિના તલમાંથી તેલ નીકળી શકતું નથી જ્યા કાઈ સુખ આદિ ભાગ્યથી મળેલા માલુમ પડે છે, ત્યા પણ છેવટે ઉત્થાન આદિજ કારણ હોય છે કહ્યું છે કે* જેમ એક પગથી ‘રથ નથી ચાલી શકતા, તેમ પુરુષાર્થ વિના દેવ (माय) सियतु नथी (१)"
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अगारधर्मसञ्जीवनीटीका अ ६ सू १७१-१७२ भाग्यपुरुषार्थचर्चा ४३५
"काकतालीयवत्प्राप्त, दृष्ट्वाऽपि निधिमग्रतः । ___ न स्वय देवमादत्ते, पुरुषार्थमपेक्षते ॥" इति च । क्रिया च प्रतिकत्तभेदेनावश्य भिन्नेति फलवैचित्र्यमपि युक्तमेव, कारणभेदे सति कार्यभेदस्य क्लुप्तत्वात् । ____ यत्तु कचित्तत्तृव्यापारे जातेऽपि फलानुपलम्भस्तत्रापि यथोचित कर्तमय
नाभावोऽवगन्तव्य, यद्वा कर्तव्यापारसहकृता नियतिरप्यस्माक कारणत्वेनाभिमता, तस्याश्च तनाभावान फलोद्गमः ।
"काकतालीय न्याय से (सयोगवश-अचानक ही) सामने रखे हुए खजानेको भी दैव अपने-आप नहीं ले सकता है। उसे ग्रहण करने में भी पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है ॥२॥
क्रिया प्रत्येक मनुष्यको जूदीजूदी होती है, इसलिए फलकी विचित्रता ठीक तरह सगत हो जाती है। क्योंकि कारणके भेद से कार्य में अवश्य भेद हो जाता है।
कही कही मनुष्य प्रवृत्ति तो करता है परन्तु फल नहीं प्राप्त कर पाता। इसका कारण यह नहीं कि प्रवृत्ति फल में कारण नहीं, बल्कि इसका कारण यह है कि उस कार्य को सिद्ध करने के लिए जैसे और जितने प्रयत्न की आवश्यकता है उतना और वैसा प्रयत्न नहीं किया गया।
अथवा कर्ता के व्यापारसे सस्कृत (युक्त) नियतिको भी हम कारण मानते हैं, अत. उसका अभाव होनेसे फलकी प्राप्ति नहीं होती।
કાકતાલીય ન્યાયથી (સોગ વશ-અચાનક જ) સામે રાખેલા ખજાનાને પણ દેવ પિતાની મેળે નથી લઈ શકતે તેને ગ્રહણ કરવામાં પણ પુરુષાર્થની ४३२ ५ छे (२)"
ક્રિયા પ્રત્યેક મનુષ્યની જૂને જુદી હોય છે, એટલે ફળની વિચિત્રતા બરાબર રીતે સગત થઈ જાય છે, કારણ કે કારણુના ભેદથી કાર્યમાં જરૂર ભેદ પડી
કયા કયાક માણસ પ્રવૃત્તિ તે કરે છે, પરંતુ ફળ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, તેનું કારણ એ નથી કે પ્રવૃત્તિ ફળમાં કારણ નથી, બલકે એનું કારણ એ છે કેએ કાયને સિદ્ધ કરવાને માટે જેવા અને જેટલા પ્રયત્નની જરૂર હોય છે તે અને તેટલા પ્રયત્ન કરવામાં આવ્યું હેતે નથી
અથવા કર્તાના વ્યાપારથી યુકત નિયતિને પણ અમે કારણ માનીએ છીએ, એટલે તેને અભાવ હોવાથી ફળની પ્રાપ્તિ થતી નથી
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उपासादीङ्गम एव काल एकान्ततोऽकारण सम्नपि सहकारितयाऽश्यमस्ति कारणमितरथा चम्पक बकुल पाटलादीना पुप्पाणा पनसाऽऽनसेवादीना फलाना च तस्मिस्तस्मि नियतकाल एवोद्गमानुपपत्तेः । सहकारीमात्रत्वादेव च जगद्वैचित्र्य नासङ्गतम् । तथेश्वरस्यापि कर्तृत्वमस्त्येव यत ईश्वगे न कश्चिदपूर्वोआत्माऽतिरिक्त अपि तु मात्मैव तत्र तत्रोत्पद्यमानतया समस्तजगद्वथापनेन " आमोति:च्यामोति सर्व जग"-दिति व्युत्पत्तेः सुघटत्वात, तस्य च मुखादिकर्तत्वमविसवादमेव, अमून स्वादिक त्वेव सति स्वत एव दरापेतम् । ___ एव स्वभावोऽपि यथाकश्चित्सहकारितया कर्ता सभवत्येव यत आत्मन उपयोगलक्षणमसङ्ख्येयप्रदेशत्व, पुद्गलाना मूर्त्तत्व, धर्मास्तिकायादीनाममूतत्वा दिक च स्वभावाक्रान्तमेवेति कृतमतिविस्तरेण ॥१७१ -१७२॥
इसी प्रकार काल एकान्तसे कारण न होने पर भी सहकारी रूपसे कारण है ही। चम्पा, बकुल, पाटल (गुलाब) आदि पुष्प, तथा पनस, आम, सेव आदि फल, नियत नियत कालमें होते हैं। यदि कालका कारण न माना जाय तो यह व्यवस्था नहीं बन सकती। सहकारी मात्र माननेसे ससारकी विचित्रता भी युक्ति युक्त बनती है।
ईश्वर भी कर्ता है, क्योंकि आत्मा के अतिरिक्त और कोई विचित्र ईश्वर नही है । आत्मा ससारमें सर्वत्र उत्पन्न हुआ हो रहा है, इसलिए वह व्यापक है, इस प्रकार व्युत्पत्ति भी असगत नही है। उस आत्माको सुख आदिका कर्ता मानने में कुछ विवाद नहीं है । ह।। ऐसा माननेस अमृतत्व आदि गुण तो दूर ही रहते हैं।
स्वभाव भी कथञ्चित् कर्ता है। क्योंकि आत्माका उपयोग (ज्ञान दर्शन) तथा असख्यातप्रदेशिता-स्वभाव, पुद्गलोंका मूतत्व-स्वभाव
એ રીતે કાળ એકાત ક રણ ન હોવા છતા પણ સહકારી રૂપે કારણુજ છે ચપ, બકુલ, ગુલાબ આદિ પુષ્પ તથા કણમ, કેરી, આદિ ફળ નિયત-નિયત કાળમાં થાય છે જે કાળને કારણ ન માનવામાં આવે તે એ વ્યવસ્થા ન બના શકે સહકારી માત્ર માનવાથી જગતની વિચિત્રતા પણ યુકિતયુકત બને છે
ઈશ્વર પણ કર્તા છે, કારણ કે આત્મા સિવાય બીજો કોઈ વિચિત્ર ઈશ્વર નથી આત્મા જગતમાં સર્વત્ર ઉત્પન્ન થયો-થઈ રહ્યો છે. તેથી તે વ્યાપક છે, એ પ્રકારની વ્યુત્પત્તિ પણ અસ ગત નથી એ આત્માને સુખ આદિને ર્તા માનવામાં શે વિવાદ નથી હા, એ માનવાથી અમૂર્તવ આદિ ગુણ તે દૂર જ રહે છે
સ્વભાવ પશુ કયચિત કર્તા છે, કારણ કે આત્માને ઉપયોગ (જ્ઞાનદર્શન
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अगरधर्मज्जावनी टीका अ ६ सू० १७३ पराजितदेवस्यस्वर्गगमनम् ४३७
मूलम् - तर ण देवे कुडकों लिएणं एव बुत्ते समाणे सकिए जाव कलुससमावन्ने नो संचाएइ कुडकोलियस्स समणोवासयस्स किंचि पामोक्खमाइ क्खित्तए, नाममुद्दयं च उत्तरिज्जय च पुढविसिलापट्टए ठवेइ, ठवित्ता जामेव दिसं पाउए तामेव दिस पडिगए ॥ १७३ ॥
छाया-तत ग्वलु स देवः कुण्डकौलि के नैत्रमुक्तः सन् शङ्कितो यावत्कलुपसमापन्नो नो शक्नोति कुण्डफोलिक्स्य श्रमणोपासकस्य किञ्चित्प्रमोक्षमाख्यातुम् । नाममुद्रिका चोत्तरीयक च पृथिवीशिलापट्टके स्थापयति, स्थापयित्वा यामेव दिश प्रादुर्भूतस्तामेव दिश प्रतिगत.
टीका - शङ्कि इति - 'महावीरस्यापि मतमेतेन युक्तित. समर्थितमिति किं गोशालकस्य मत सत्यमुत महावीरस्येति शङ्काऽऽक्रान्तो जात इत्यर्थ. 1 कलुषेति - 'अहो गोशालकमतमविचारेणोपन्यस्याहमनेन पराजितः' इति ग्लानिमापन इत्यर्थ. । प्रमोक्षम् = उत्तरम् ॥ १७३ ॥
धर्मास्तिकाय आदिका अमूर्त्तत्व-स्वभाव, उन-उनमे स्वभावसे ही रहता है । किसी अन्य कारणसे वह उत्पन्न नही हुआ । यस अधिक विस्तार अन्यत्र देख लेवे ॥ १७२ ॥
टीकार्थ- ' तर ण से ' इत्यादि इसके अनन्तर कुण्डकौलिकका कथन सुनकर देवताको शका हुई कि महावीर स्वामीका मत युक्त है या गोशालकका ? | और अपने पराजित होनेसे ग्लानि भी हुई। वह अब कुडकौलिकको कुछ भी उत्तर देने में समर्थ नहीं हो सका, अतः उसने नाम मुद्रा और उत्तरीय वस्त्र शिलापट्टक पर रख दिये । रखकर जिधरसे आया था उधर ही चला गया ॥ १७३ ॥
तथा असण्यात-प्रहेशिता - स्वलाव, चुगलानो भूर्त्तत्व-स्वभाव, धर्मास्तिमय माहिन। અમૂર્ત્તત્વ-સ્વભાવ, તે-તેમા સ્વભાવથી જ રહેલા છે. કઈ અન્ય કારણથી તે ઉત્પન્ન થયા નથી ખસ, હવે વધુ વિસ્તાર કરતા નથી ” (૧૭૨)
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टीकार्थ- 'तए ण से' - ४त्याहि त्यारयछी औसिउनु अथन सालजीने દેવતાને શકા થઇ કે મહાવીર સ્વામીના મત યુક્ત છે કે ગે શાલકના ? અને પેતે પરાજિત થવાથી તેને ગ્લાનિ પણ ઉત્પન્ન થઈ હવે તે કૌલિકને કાઈ પણ ઉત્તર આપવાને સમ ન થઇ શકયે, એટલે એણે નામમુદ્રા અને ઉત્તરીય વસ્ર શિલાપટ્ટક પર પાછા મૂકી દીધા, અને જ્યાથી આવ્યે હતા ત્યા ચાન્ચે ગયે (૧૭૩)
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उपासकदशासू
मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे ॥१७४॥ तर से कुडको लिए समणोवासए इमीसे कहाए लखट्टे० हट्ठे जहा कामदेवो तहा निग्गच्छइ जाव पज्जुवा सड़ । धम्मका ॥ १७५ ॥
कुडकोलिया इसमणे भगवं महावीरे कुंडकोलिय समणोवासय एवं वयासी से नूण कुंडकोलिया । कल तुन्भ पुवावरण्हकालसमयसि असोगवणियाए एगे देवे अंतिय पाउन्भवित्था । तए णं से देवे नाममुद्दच तहेव जाव पडिगए । से नूण कुंडको
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छाया -- तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसतः ॥ १७४॥ ततः खलु सकुण्डकौलिकः श्रमणोपासकोऽस्या कथाया लब्धार्थः (सन् ) हृष्टो यथा कामदेव स्तथा निर्गच्छति यावत्पर्युपास्ते । धर्मकथा || १७५ || 'कुण्ड+ौलिक!' इति श्रमणो भगवान् महावीरः कुण्डकौल्कि श्रमणोपासकमे रमवादीत्-अथ नून कुण्डकौलिक ! कल्ये व पूर्वापराह्नकालसमये अशोकवनिकायामेको देवोऽन्तिके प्रादुरासीत् । टीका- 'कुण्डकौलिक 'इति' इति - ' हेकुण्डकौलिक ' इति कृत्वेत्यर्थः । कल्ये = गतदिवसे |
टीकार्य - ' तेण कालेन ' इत्यादि उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर पधारे ॥। १७४ ॥ कुण्डकौलिक भगवान्के आनेकी बात सुनकर प्रसन्नचित्त होकर कामदेवकी तरह निकला और यावत्. वहाँ पहुँच कर पर्युपासना की । धर्मोपदेश हुआ ॥ १७५ ॥ 'कुण्डकौलिक " इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीरने कुण्डकौलिकसे कहा- " हे कुण्ड कौलिक ! कल अशोकवनी मे पूर्वापराह्न (दोपहर ) के समय एक देव तुम्हारे सामने प्रगट हुआ था। तब वह देव नामकी मुद्रा यावत्
टीकार्थ- 'तेण काठेण' इत्याहि मे आणे थे समये श्रमायु भगवान મહાવીર પધાર્યા (૧૭૪) કુડકૌલિક ભગવાન આવ્યાની વાત સાભળીને પ્રસન્નચિત્ત થઈ કામદેવની પેઠે નીકળ્યો અને યાવત ત્યા પહેરીને પાસના કરી ધર્મોપદેશ थयो (१७५) શ્રમણુ ભગવાન્ મહાવીરે કુડકૌલિકને આ પ્રમાણે કહ્યુ કડકૌલિક! કાલે અચેકવનાજિમા પેરને સમયે એક ટ્રુવ તમારી સામે પ્રકટ થયે હતા તે રવે નામવાળી વીંટી લીધી યાવત્ તે પાછે ચાલ્યે ગયે હૈં
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ६ भगवत्कृतकुण्डकौलिकपशसा लिया । अह सम? ' हता अस्थि । त धन्नेसि णं तुम कुडकोलिया। जहा कामदेवो । अज्जो इ समणे भगव महावीरे समणे निग्गथे य निग्गथीओय आमंतित्ता एवं वयासी-जइ ताव अजो। गिहिणो गिहिमज्झावसता णं अन्नउत्थिए x अटेहि य हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य निप्पटुपसिणवागरणे करेंति, सका पुणाइ अज्जो । समणेहि निग्गंथेहि दुवालसग गणिपिडगं ततः खलु स देवो नाममुद्रा च तथैव यावत्मतिगतः । म नून कुण्डकौलिक अर्थः समर्थः । इन्तास्ति । तद्धन्योऽसि खलु त्व कुण्डकौलिक ? यथा कामदेवः । 'आर्याः!' इति श्रमणो भगवान् महावीरः श्रमणानिन्थाश्च निर्ग्रन्थीश्वाऽऽमन्यै वमवादीत् यदि तावदार्या ! गृहिणो गृहमभ्यावसन्तः खलु अन्ययूथिकान अर्थश्च हेतुभिश्व प्रश्नश्च कारणैश्च व्याकरणैश्च नि स्पष्ट(नि.प्पिष्ट)मश्नव्याकरणान् कुर्वन्ति,
*आमन्त्र्य-सम्बोध्य । अर्थैः-मूत्राभिधेयैर्जीवादिभिर्वा, हेतुभिः अन्यथानुपपत्तिरूपै', प्रश्नै मच्छनः, कारणे: युक्तिभिः, व्याकरण =पृष्टोत्तरस्वरूपै । निःस्पष्टति-नि स्पष्टानि=निःशेषेण व्यक्तानि निम्साराणीत्यर्थः, निष्पिष्टेति छायापक्षे-निष्पिष्टानि-निरुत्तरीकृतानि प्रश्नव्याकरणानि येपा तान् । लौट गया । हे कुण्डकौलिक ! क्या यह यात ठीक है ? " कुण्डकौलिकने कहा-" हा भगवान् ! ठीक है।" महावीरस्वामी-" कुण्डकौलिक ! तुम धन्य हो ।" इत्यादि कथन कामदेवकी तरह समझना । "आर्य" इस प्रकार से सवोधन कर श्रमण भगवान् महावीर, श्रमण निग्रंन्यों तथा निर्ग्रन्थिओं आर्यिकाओंको बुलाकर कहने लगे “ हे आर्यगण ! यदि गृहमे रहनेवाले गृहस्थ भो अन्ययूथिकोको, अर्थोसे, हेतुओंसे, प्रश्नोंसे, युक्तियोंसे और उत्तरोंसे निरुत्तर कर सकते हैं, तो हे आर्यगण ! કુડકોલિક? એ વાત શુ બરાબર છે?” કુડદૌલિકે કહ્યું “હા ભગવાન તે બરાબર છે મહાવીર સ્વામીએ કહ્યું “કુડકૌલિક તુ ધન્ય છે” ઈત્યાદિ કથન કામદેવની પેઠે સમજવુ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર શ્રમણ નિર્ગળે તથા નિર્ચથીઓ-અર્થિંકા એને બેલાવીને કહેવા લાગ્યા “હે આર્યગણી જે ગૃહમાં રહેનારા' પ્રહસ્થા પણ અન્ય યુથિકને, અર્થોથી, હેતુઓથી, પ્રશ્નોથી, યુક્તિઓથી અને ઉત્તરેથી નિરૂત્તર
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४४०
उपासकदशाम
अहिजमाणेहिं अन्नउत्थिया अहे हि य जाव निष्पट्टपसिणा करितए || १७६ || तर ण समणा निग्गंथा य निग्गथिओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तहत्ति एयमहं विणएण पडिसुणंति ॥ १७७॥
मूलम् - तएण कुंडकोलिए समणोवासए समण भगव महा वीर वदड़ मसइ, वदित्ता नमसिना पसिणाड पुच्छड, पुच्छित्ता अट्टमादियइ, अट्टमादिइत्ता जामेव दिसं पोउवभृए तामेव दिस पडगए । सामी बहिया जणवयविहार विहरड ॥ १७८ ॥ तए ण शक्या पुनरार्याः | श्रमणैर्निर्ग्रन्यैर्द्वादशाङ्ग गणिपिटनमधीयानेरन्यपृथिका अर्थैश्व यावम्नि स्पष्टप्रश्नाः कर्त्तुम् ॥ १७६ ॥ ततः खलु श्रमणा निर्ग्रन्याश्च निर्गन्ध्यश्र श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'तथेति' एतमर्थं विनयेन मतिशृण्वन्ति ॥ १७७॥ छाया-ततः खलु कुण्डकौलिक श्रमणोपासक श्रमण भगवन्त महावीर चन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रश्नान् पृच्छति, पृवाऽर्थमाददाति, अर्धमादाय यामेव दिश मादुर्भूतस्तामेव दिश प्रतिगतः । स्वामी बहिर्जन पदविहार विहरति प्रतिशृण्वन्ति = स्वीकुर्वन्ति ॥ १७४ - १७७ ॥
19
दादशा का अध्ययन करनेवाले निर्गन्ध श्रमणों को तो, उन्हें ( अन्ययू frist ) असे यावत् निरुत्तर अवश्य कर देना चाहिए" ॥१७६॥
श्रमण निर्ग्रन्थोंने श्रमण भगवान् महावीरका यह कथन विनयके साथ 'तहत्ति ' ( तथेति ) कहकर स्वीकार किया || १७७ ॥
टीकार्थ- ' तर ण कुडे ' -त्यादि कुण्डकौलिक श्रावक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दन- नमस्कार करके प्रश्न पूछे और अर्थ को ग्रहण किया । फिर जिस और से કરી શકે છે, તે હું આ ગણુ ! દ્વાદશાગવું અધ્યયન કરનારા નિગ્રન્થ શ્રમણે તે તેમને (અ યયૂથિકને) અર્થાથી ચાવત નિરૂત્તર અવશ્ય કરી દેવાજ ોઇએ (૧૭૬) શ્રમણુ નિર્ભ્રાન્થાએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરનુ એકચન વિનયપૂર્વક वहत्ति' (तयेति) हीने स्वीकार्य (१७७)
टीकार्थ- 'तए ण कुडे' -त्याहि ओसिक श्रावडे શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વદના કરી નમસ્કાર કર્યાં, અને પ્રશ્નો પૂછયા તથા અને ગ્રહણ કર્યાં
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ६ सू० १७८-१७९ अध्ययनपरिसमाप्ति तस्स कुंडकोलियस्स समणावासयस्स वहूहिं सील जाव भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छराइ वइक्कताइ, पणरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अन्नया कयाइ जहा कामदेवो तहा जेठपुत्त ठवेत्ता तहा पोलहसालाए जाव धम्मपण्णत्ति उवसपजित्ताणं विहरइ । एव एक्कारस उवासगपडिमाओ तहेव जाव सोहम्मे कप्पे अरुणज्झए विमाणे जाव अत काहि ॥ १७९ ॥ निखेवो ॥
सत्तमस्य अगस्य उवास गदसा छ अज्झयण समत्त ॥ ६ ॥
॥१७८॥ ततः खलु तस्य कुण्डकौलिकस्य श्रमणोपासकस्य बहुभिः शील यावद् भावयतश्चतुर्दश सवत्सरा व्युत्क्रान्ता, पञ्चदश सवत्सरमन्तरा वर्तमानस्यान्यदा कदाचिद् यथा काम देवस्तथा ज्येष्ठपुत्र स्थापयित्वा तथा पोषधशालाया यावद्धर्ममज्ञसि मुपपद्य विहरति । एवमेकादशोपासम्मतिमास्तथैव यावत्सौधर्मे रल्पेऽरुणध्वजे विमाने यावदन्त करिष्यति || १७९ || निक्षेप | सप्तमस्याङ्गस्योपासकदशाना पष्ठमध्ययन
समाप्तम् ।। ६ ।।
टीका - व्याख्या जाययैवान्तः कृता ।। १७८-१७९ ॥
इतिश्री - विश्वविग्ध्यात- जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषाकलित ललित कलापालापक- प्रविशुद्ध गद्यपद्येन+ग्रन्यनिर्मापक - वादिमानमर्दक- श्री शाहू छत्रपति - कोल्हापुरराजप्रदत्त - "जैनशास्त्राचार्य " - पदभूपित - कोल्हापुरराजगुरु' बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैनधर्म दिवाकर - पूज्य श्री घासीलालव्रति विरचितायामुवासकदशाङ्ग मूत्रस्याऽगारवर्मसञ्जीवन्या ख्याया व्याख्याया पठ कुण्डकौलिकाख्यम ययन समाप्तम् ॥ ६ ॥
आया था, उसी और चला गया । श्रमण भगवान् महावीर स्वामी भी देश देशों में विहार करने लगे ॥ १७८ ॥ कुण्डकौलिक श्रावक પછી જ્યાથી આવ્યે હતેા ત્યા ચાલ્યે ગયે શ્રમણુ ભગવાન મહાવીર સ્વામી પણ દેશ-દેશ વિહાર કરવા લાગ્યા (૧૭૮) કુૌલિક શ્રાવકને શીલ આદિનું પાવન
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उपासकदशासूत्रे
अहिज्जमाणेहिं अन्नउत्थिया अहे हि य जाव निष्पट्टपसिणा करितए ॥१७६॥ तए णं समणा निग्गंथा य निग्गथिओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तहत्ति एयमहं विणएणपडिसुणंति ॥ १७७॥
मूलम् - तएण कुडकोलिए समणोवासए समणं भगव महावीर वदड मस, वदित्ता नमसिना पसिणाई पुच्छड, पुच्छित्ता अट्टमादियइ, अट्टमादिइत्ता जामेव दिसं पोउवभृए तामेव दिस पडगए । सामी वहिया जणवयविहार विहारइ ॥ १७८ ॥ तए १ शक्या पुनरार्या ! श्रमणैर्निर्ग्रन्यैर्द्वादशाङ्ग गणिपिटक मधीयानैरन्ययूथिका अथैश्व यानि स्पष्टमना कर्तुम् ॥ १७६ ॥ ततः खल श्रमणा निर्ग्रन्थाथ निर्गन्ध्यश्व श्रमण भगवतो महावीरस्य 'तथेति' एतमर्थ विनयेन मतिशृण्वन्ति ॥ १७७॥
छाया --- ततः खलु कुण्ड+ौलिकः श्रमणोपासक, श्रमण भगवन्त महावीर चन्द ते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा प्रश्नान पृच्छति, पृवाऽर्थमाददाति, अर्थमादाय यामेव दिश मादुर्भूतस्तामेव दिश प्रतिगत. । स्वामी वहिर्जनपद विहार विहरति
& प्रतिशृण्वन्ति=स्वीकुर्वन्ति ॥ १७४ - १७७॥
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द्वादशागका अध्ययन करनेवाले निर्गन्ध श्रमणको तो, उन्हें ( अन्ययू furiat ) असे यावत् निरुत्तर अवश्य कर देना चाहिए" ॥१७६॥
श्रमण निग्रन्थोंने श्रमण भगवान् महावीरका यह कथन विनयके साथ 'तहत्ति ' ( तथेति ) कहकर स्वीकार किया || १७७ ॥
टीकार्थ-'त पण कुडे 'त्यादि कुण्डकौलिक श्रावक ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार करके प्रश्न पूछे और अर्थ को ग्रहण किया। फिर जिस और से કરી શકે છે, તે હું આય ગણુ ! દ્વાદશાગનું અધ્યયન કરનારા નિગ્રન્થ શ્રમણેએ તા તેમને (અ યથિકને) અર્થાથી યાવત્ત નિરૂત્તર અવશ્ય કરી દેવાજ જોઈએ (૧૭૬) શ્રમણ નિન્થાએ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરનું એ કથન વિનયપૂર્વ ક तहत्ति' (तथेति) हीने स्वमायु (१७७) टीकार्थ- 'चए ण कुडे'-त्याहि મહાવીરને વદના કરી નમસ્કાર કર્યાં,
અને
अओसिक श्राबद्धे શ્રમણ્ ભગવાન પ્રશ્નો પૂછ્યા તથા મને ગ્રહણ કર્યાં
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॥ अथ सप्तममध्ययनम् ॥ अथ सप्तममारभ्यते 'पोलासपुरे' इत्यादि ॥ मूलम्-पोलासपुरे नामं नयरे । सहस्सववणे उज्जाण । जियसत्त राया ॥१८०॥ तत्थ ण पोलासपुरे नयरे सद्दालपुत्ते नाम कुंभकारे आजीविओवासए परिवसड । आजीवियसमयसि लट्टे गहियढे पुच्छियटे विणिच्छियटे अभिगय? अद्धिमिजपेमाणुरागरत्ते य “अयमाउसो। आजीवियसमए अटे, अय परमद्दे, सेसे
अण?" ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥१८॥ ___ छाया-पोलासपुर नाम नगरम् । सहस्रामवणमुबानम् । जितशत्रू राजा ॥१८०॥
तत्र खलु पोलासपुरे नगरे सद्दालपुत्रो नाम कुम्भकार आजीविकोपासका परिचसति । आजीविझसमये लण्यार्यः, गृहीतार्थ., पृष्टारः, विनिश्चितार्थः, अभिगतार्थः, अस्थिमज्जामानुरागरक्तश्च-"अयमायुष्मन् ! आजीविकसमयोऽर्थः, अय परमार्थ , शेपोऽनर्थ." इत्याजीविकसमयेनाऽऽस्मान भावयन् विहरति ॥१८॥
टीका-आजीविकेति-आजीविका गोशालकशिप्यास्तेपा समय =सिद्धान्तस्तस्मिनोलयेत्यादि-अयश्रवणालब्धार्थ ,अवधारणाद् गृहीतार्थ.,साशयिका र्थप्रश्नकरणात्पृष्टार्थ., इत्थम्भूतस्यार्थस्योपलम्भाद्विनिश्चितार्थ ,मन्नाभिगमना
सातवा अध्ययन टीकार्थ- 'पोलासपुरे' इत्यादि पोलासपुर नामक नगर, सहस्राप्रवन उद्यान, और जितशत्र राजा या ॥ १८० ॥ उस पोलासपुर नगरमें सद्दालपुत्र नामक कुभार रहता था। वह आजीविक (गोशाल) के मतका अनुयायी-श्रावक था। वह गोशालके सिद्धान्तोंमें-अर्थके
सातमु मध्ययन. टीकार्थ-'पोलासपुरे' या मधु. नाभन न, समापन ઉધાન, અને જિતશત્રુ રાજા હતે (૧૮૦) એ પલાસપુર નગરમા ગદલપુત્ર નામને કુભાર હેતે હતે એ જીવિત (ગેશળ) ના મતને અનુયાયી શ્રાવક હિતે એ ગશાળના સિદ્ધાન્તમા–અર્થને સાભળવાથી લભ્યર્થ, અર્થને ધારણ
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उपासकदशा सूत्र के शील आदि का पालन, और यावत् आत्मा को भावित करते करते चौदह वर्ष व्यतीत हो गये । जय पन्द्रहवां वर्ष बीत रहा था तो किसी समय कुण्डकोलिक, कामदेव की तरह ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार देकर पोषधशालामे धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर विचरने लगा। उसने प्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका पालन किया, यावत् सौधर्मकल्पके अरुणध्वज विमानमें देवपने उत्पन्न हुआ। यावत् समस्त कमोंका अत करेगा सिद्ध होगा ॥ १७९ ॥
सातवें अग उपासकदशाके छठे अध्ययनकी अगारसञ्जीवनी नामक
व्याख्याका हिन्दीभाषानुवाद समाप्त ॥२॥
અને આત્માને યાવત ભાવિત કરતા કરતા ચૌદ વર્ષ વીતી ગયા જયારે પદરસ વર્ષ જતુ હતુ, ત્યારે કોઈ સમયે કડકલિક કામદેવની પેઠે મોટા પુત્રને કુટુંબના ભાર સેપી પિષધશાળામાં ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ સ્વીકારી વિચારવા લાગ્યું એણે શ્રાવકના અગીઆર પ્રતિમાઓનું પાલન કર્યું, યાવત સૌધર્મક પના અરૂધ્વજ વિમાનમાં દેવપણે ઉત્પન્ન થયે યાવત સમસ્ત કને અત કરશે-સિદ્ધ થશે (૧૭૯)
સાતમા આ ગઉપાસકદશાના છઠ્ઠા અધ્યયનની અગારમજીવની
નામક વ્યાખ્યાને ગુજરાતી-ભાષાનુવાદ સમાપ્ત (૬)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७० १८४ - सद्दालपुत्रवर्णनम्
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वहवे पुरिसा दिण्णभइभत्तवेयणा कल्लाकलिं वहवे करए य arre य पिese य घडए य अवघड य कलस य अलिजरए य जंबूलए य उहियाओ य करेंति । अन्ने य से वहवे पुरिसा दिष्णभइभत्तवेयणा कल्लाकहिं तेहिं चहहिं करएहि य जाव उट्टियाहि य रायमग्गसि वित्तिं कप्पे माणा विहति ॥ १८४ ॥
I
भक्तवेतना ल्याकल्पि बहून् +रकाश, वारकाथ, पिठरकाच, घटकाचा घटकाच, कल्शाश्चालिञ्जराथ, जम्बूलका थोष्ट्रिय कुर्वन्ति । जन्ये च तस्य बहवः पुरुषा दत्तभृतिभक्तवेतना ल्याकल्यि तैर्बहुभि करकेथ यात्रदुष्टिकाभिश्च राजमार्गे वृत्ति कल्पयन्तो विहरन्ति ॥ १८४ ॥
वेत
टीका - दतेति-भृतयः =द्रप्यरूपा•, भक्ता =अन्नपानलक्षणा., नानि = भरण्यानि चेत्येतानि दत्तानि येभ्यस्ते । कल्याक लिय= प्रतिक्ल्य-प्रतिप्रभातमित्यर्य । करकान=जल्पटी, वारका कान, पिठरकान स्थाली, घटकान =पटान, अर्द्धपटकान= लघुपटी, कलशान=पटानेव महत, अलिञ्जरान् = मणिकान् 'माटा ' इति प्रसिद्धान्, जम्बूलमान=' सुरादी, कुँजा ' इत्यादिलोकप्रसिद्धान, उष्ट्रिका महान्ति तैलादिपात्राणि ॥ १८२-१८४ ॥
टीका- " तस्स ण " इत्यादि आजीविकके उपासक सद्दालपुत्र के एक करोड मोनैया खजानेमे थे, एक करोड व्यापार में लगे थे, और एक करोड़ लेन देने में लगे हुए थे। उसके दस हजार गोपशुओंका एक गोकुल था ॥ १८२ ॥ आजीविकोपासक सद्दालपुत्रके अग्निमित्रा नामक पत्नी ॥ १८३ ॥ उस सद्दालपुत्रके पोलासपुरके बाहर पांचसौ कुमारोंकी दुकानें थीं । उन दुकानोंमें खूब चहल-पहल रहती थी । किसीको भृति (द्रव्यरूप), किसीको भोजन और किमीको वेतन दिया जाता था । वे प्रतिदिन ( प्रभात होते ही ) जल भरनेके घडे, गडक
टीकार्य - 'तस्य ण' - धत्यादि याधुविडना उपास सहानपुत्र पासे थे! કરાડ સાનૈયા ખજાનામા હતા, એક કરોડ વેપારમા લગાડયા હતા અને એક કરેડ વેણુ-દેણુમાં કેિલા હતા તેની પાસે દશ હજાર ગાવના પશુઓનું એક ગેાકુળ હતુ (૧૮૨) આજીવિકાપાસક સાલપુત્રને અગ્નિમિત્રા નામની પત્ની હતી (૧૮૩) એ સાલપુત્રની પેાલાસપુરની બડ઼ાર પાથસેા કુંભારની દુકાને હતી એ દુકાનેામા કામકાજની ખૂબ ધમાલ -હેતી હતી કેાઈને ભૂતિ (દ્રવ્યરૂપ), કાઈને ભોજન અને
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उपासकदशास्त्र मूलम्-तस्स णं सदालपुत्तस्स"आजीविओवासगस्स एका हिरण्णकोडी निहाणपउत्ता एका बुडिपउत्ता, एका पवित्थरपउत्ता, एके वए दसगोसाहस्सिएणं वएण ॥१८२॥ तस्स ण सदालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स अग्गिमित्ता नाम भारिया होत्था ॥१८३॥ तस्स ण सदालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पोलासपुरस्स नगरस्स बहिया पच कुभकारावणसया होत्था । तत्थ णं दभिगृहीतार्थ., अस्थिमलेति-प्रमानुरागाभ्या रक्ताः अस्थि-मज्जे यस्येति बहुव्रीहि --'आहिताग्न्यादिपाठानिठान्तस्य परनिपात.' । तत्र अस्थि-कीकस, हड्डीति प्रसिद्धः मज्जा चास्थिमध्यगता धातुविशेषः ॥ १८०-१८१ ॥
छाया-तस्य खलु सदालपुत्रस्याऽऽजीविकोपासकस्यैका हिरण्यकोटी निधान• प्रयुक्ता, एका दृद्धिमयुक्ता, एका प्रविस्तरपयुक्ता, एको व्रजो दशगोसाहसिकेण व्रजेन ॥ १८२ ॥ तस्य खलु सदालपुत्रस्याऽऽजीविकोपासकस्यानिमित्रा नाम भार्याऽऽसीत् ॥ १८३ ॥ अस्य खलु सद्दालपुगस्याऽऽजीविकोपासकस्य पोलासपुरा नगराद् वहि• पञ्च कुम्भकारापणशतान्यासन् । तत्र खलु बहवः पुरुषा दत्तांत सुननेसे लब्धार्थ, अर्थके धारण करनेसे गृहीतार्थ, सशययुक्त विषयोका प्रश्न करनेसे पृष्टार्थ, इत्यम्भूत अर्थकी प्राप्ति होनेसे विनिश्चितार्थ, और उस अर्थके जान लेनेसे अभिगतार्थ था। उसकी रग रगमे गोशालके सिद्धान्तोंका प्रेम और अनुराग भरा हुआ था । " हे आयुष्मन् ! यह आजीविक सिद्धान्त ही अर्थ है, यही परमार्थ है, और दूसरे सब अनर्थ है " इस प्रकार आजीयिक मतसे अपनी आत्माको भावित करता हुआ विचरता था ।। १८१ ।। કરવાથી ગૃહીતાર્થ, ન શયયુક્ત વિષને પ્રશ્ન કરવાથી પૃષ્ટાર્થ, ઈથભૂત અર્થની પ્રાપ્તિ થવાથી વિનિશ્ચિતાર્થ અને તે અર્થને જાણી લેવાથી અગિતાર્થ હતે એની રગ-રગમ શાળના સિદ્ધાન તેને પ્રેમ અને અનુરાગ ભર્યો હતો “હે આયુમન્ ! એ આજીવિક સિદ્ધાન્ત જ અર્થ છે, એ જ પરમાર્થ છે, અને બીજા બધા અનર્થ છે” એ પ્રમાણે આજીવિક મતે કરીને પિતાના આત્માને ભાવિત કા તે વિચરતે હો (૧૮૯૧)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ सू० १८४ - सद्दालपुत्रवर्णनम्
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बहवे पुरिसा दिण्णभइभेत्तवेयणा कल्लाकलिं वहवे करए य वारए य पिहडए य घडए य अवघडए य कलसए य अलिजरए य जंबूलए य उहियाओ य करेंति । अन्ने य से वहवे पुरिसा दिष्णभइभत्तवेयणा कल्लाकालि तेहिं वहूहि करहि य जात्र उट्टियाहि य रायमग्गसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति ॥ १८४॥ भक्तवेतना•क्ल्यारुल्यि बहून् करकाव, वारकाँच, पिठरकाथ, घटकाचा घटकाथ, कलशाचालिजराथ, जम्मूलका थोष्ट्रिकाच कुर्वन्ति । जन्ये च तस्य बहवः पुरुषा दत्तभृतिभक्तवेतना ल्याकल्पितैर्बहुभि करकैश्व यात्रदृष्ट्रिकाभिश्च राजमार्गे दृत्तिं कल्पयन्तो विहरन्ति ॥ १८४ ॥
टीका - दतेति भृतय' =द्रप्यरूपाः,
भक्ताः=अम्न्नपानलक्षणाः, वेतनानि = भरण्यानि चेत्येतानि दत्तानि येभ्यस्ते । कल्याक लिय=प्रतिक्ल्य- प्रतिप्रभातमित्यर्थ. । करकान= जल्पटी, वारकान्डुकान, पिठरकान=स्थाली, घटकान =पटान, अर्द्धघटकान= लघुघटी, कलशान=पटानेव महत', अलिञ्जरान= मणिकान् 'माटा' इति प्रसिद्धान्, जम्बूलान् = ' सुराही, कूंजा ' इत्यादिलोकप्रसिद्धान, उष्ट्रिका. =महान्ति तैलादिपात्राणि ॥ १८२ - १८४ ॥
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टीकार्य - " तस्स ण " इत्यादि आजीविकके उपासक सद्दालपुत्र के एक करोड सोनैया खजानेमें थे, एक करोड व्यापार में लगे थे, और एक करोड़ लेन देने में लगे हुए थे। उसके दस हजार गोपशुओंका एक गोकुल था ॥ १८२ ॥ आजीविकोपासक सद्दालपुत्रके अग्निमित्रा नामक पत्नी थी ॥ १८३ ॥ उस सद्दालपुत्र के पोलासपुर के बाहर पांचसौ कुमारोंकी दुकानें थीं । उन दुकानोंमें खूब चहल-पहल रहती थी । किसीको भृति (द्रव्यरूप), किसीको भोजन और किमीको वेतन दिया जाता था । वे प्रतिदिन ( प्रभात होते ही ) जल भरनेके घडे, गड्डुक
टीकार्थ- 'वस्म ण' - इत्यादि भालुविना उपास सातपुत्र पसे थोड કરાડ સેનૈયા ખજાનામા હતા, એક કરોડ વેપારમાં લગાડયા હતા અને એક કરોડ લેણુ દેણુમા શકેલા હતા તેની પાસે દશ હજાર ગેવના પશુઓનું એક ગેાકુળ હેતુ (૧૮૨) આવિકાપાસક સાલપુત્રને અગ્નિમિત્રા નામની પત્ની ખેતી (૧૮૩) એ સાલપુત્રની પાલાસપુરની બહાર પાથસે કુભારની દુકાના હતી એ દુકાનામા કામકાજની ખૂબ ધમાલ રહેતી હતી કેાઈને ભૂતિ (દ્રવ્યરૂપ), 'કાઈને ભજન અને
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उपासकदशास्त्रे
मूलम् - तए णं से सदालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ पुवावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छछ, उवागच्छित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अंतियं धम्मपण्णत्त उवसंपजित्ताण विहरड़ ॥१८५॥तएण तस्स सदालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एगे देवे अतियं पाउन्भवित्था ||१८६ ॥ तए ण से देवे अतक्खिपडिवन्ने सखिखिणियाइ जाव परिहिए सद्दालपुत्त आजीविओवासग एव वयासी - "एहिद ण देवाणुप्पिया। कह इह महामाहणे उत्पन्नणाणदंसणधरे तीयपडुप्पन्ना णागयजाणए अरहा जिणे केली सङ्घदरिसी तेलोक्कवहियम हियपूइए सदेवमणुयासुरस्त लोगस्स अच्चणिज्जे वणिजे सक्कारणिजे सन्माण णिज्जे
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छाया - तत' खलु स सदालपुत्र आजीविकोपासकोऽन्यदा कदाचित्पूर्वापराह्णकालसमये येनैवाऽशोकवनिका ते नैवोपागच्छति, उपागत्य गोशालस्य मखलि पुत्रस्याऽऽन्तिकी धर्मप्रज्ञप्तिमुपसम्पद्य विहरति ॥ || १८५ ।। तत खलु तस्य सद्दाल पुत्रस्याऽऽजीविकोपासकस्यैको देवोऽन्तिके प्रादुरासीत् ||१८६ ॥ ततः खलु स देवोऽन्तरिक्षमतिपन्न सकिङ्किणीकानि यावत्परिहित सद्दालपुत्रमाजीविकोपासक मेवमवादीत् - "एप्यति खलु देवप्रिय ! क्ल्य इह महामाहन ( महाब्राह्मण) उत्पन्नज्ञानदर्शनधरोऽतीतमत्युत्पन्नानागतज्ञोऽर्हन् जिनः केवली सर्वदर्शी त्रैलोक्य
( गड्डुआ ), थाली, घडे, छोटी घडिया, कलसा ( वडे घडे ) माटा, सुराही, कृजा तथा उष्टिका (तैल आदिके बड़े बड़े बर्त्तन) बनाते थे। दूसरे बहुतसे भृति, भोजन और वेतन लेनेवाले प्रतिप्रभात घडे वगैरह से सड़कों पर आजीविका कमाते थे ॥ १८४ ॥
ફાઇને વેતન આપવામાં આવતુ હતુ તે રાજ (પ્રભાત થતાજ) જળ ભરવાના घडा, गाडवा, थाणी, घड, नानी घडीओ, उश्या, भाटसा, डूल, तथा उष्ट्रि (તેલ આદિ ભરવાના મેટા વાસણ) બનાવતા હતા બીજા ઘણા ભૂતિ વેતન લેનારાએ રાજ પ્રભાતમા ઘડા વગેરે દ્વારા
ભજન અને આજીવિકા
સડકો પર બેસી
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प्रभुता ता (१८४)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ मु १८५-१८७ देवप्रादुर्भाववर्णनम् ४४७ कल्लाणं मंगल देवयं चेइय जाव पज्जुवासणिजे तच्चकम्मसंपया संपउत्ते, तं णं तुमं वदेजाहि जाव पज्जुवासेजाहि पाडिहारिएणं पीढफलगसिजासथारएणं उवनिमतेजाहि' दोबपि तच्चपि एव वयड, वडत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिस पडिगए ॥१८७॥ वहित महित पूजितः सदेवमनुजामुरस्य लोपस्याऽर्चनीको वन्दनीय सत्करणीयः सम्मानतीयः कल्याण मगल दैवत चैत्यो यावत्पर्युपासनीय,तथ्यकर्मसम्पदा सम्पयुक्त', त खलु त्व बन्दस्त्र यावत्पर्युपास्त्र, प्रातिहारिकेण पीठफलकशय्यासस्तारकेणोपनिमन्त्रय” द्वितीयमपि तृतीयमप्येव वदति, उदित्वा यामेव दिश प्रादुर्भूतस्तामेव दिश पतिगतः ॥ १८७ ॥ ____टीका-महेति-पर प्रति माहनेत्येव यो ब्रूने म माहनः, महाथासौ मानव महामाहनः सम्रपाणिमाणत्राणोपदेशक इत्यर्थ. त्रैलोक्येत्ति-त्रयो लोगस्वैगम्य लोक्त्रयवासिजनसमुदायस्तेन वैहित' अवहित =अवधानविपयीकृत -तदेस्तानतया त्रैलोक्यम्य मनोगत इत्यर्थः, महिता-कदाऽमावस्मादृशा समारा यो भवेद्भग
१-'चतुवर्णादीना स्वार्थ उपसरयानम्' इति (३०९१) कात्यायनवार्तिकेनात्र स्वार्धे प्यन् प्रत्ययः । २-'अवाप्योरुपमर्गयो-रिति वचनादवोपसर्गारगेपः ।
टीशर्थ-'तए ण' इत्यादि वह आजीविकोपामक सद्दालपुत्र एक यार दोपहरके समय अशोकवनीमे गया। वहा मखलिपुत्र गोशालक्के समीपकी बर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर विचरने लगा ॥ १८५ ।। इसके घाः सगलपुत्रके सामने एक देव प्रगट हुआ ॥ १८६॥ ॥ आवागमें ठहरा हुआ छाटी फोटो घटियो सहित उत्तम वस्त्र पहन कर उससे जोन्ग- हे देवानुप्रिय ! अप्रतिहत ज्ञानदर्गनके धारी, भूत-भविष्यत् वर्तमानके ज्ञाता, अर्हन्त, जिन, केवली, मदगी, तीन लोके द्वारा एकाग्रस्पसे ध्याए हुए, विधिपूर्वक स्तुति किए हुए, मन वचन कायसे
टीगार्थ-'तए ण'-त्या में माळविपास सातपुत्र मेपा२ पारने સમયે અશેકવનરાજમાં ગમે ત્યાં મખલિપુત્ર ગશાળની સમીપની ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ સ્વીકારી વિચારવા લાગે (૧૮૫) ત્યારબાદ માલપુત્રની સામે એક દેવ પ્રકટ થયે (૧૮૬) આકાશમાં રહીને નાની નાની ઘટડીઓવાળા ઉત્તમ વસ્ત્રો પહેરીને તે તેને કહેવા લાગ્યું “હે દેવાનુપ્રિય! અપ્રતિડત જ્ઞાન-દર્શનના ધ રક, ભૂત-ભવિષ્યવર્તમાનના જ્ઞાતા, અન્ત, જિન, કેવલી, સર્વદશીં, ત્રણે લેક જેનુ એકાગ્રરૂપે
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उपासकशास्त्रे वानित्येवमभिलपितः सविधिसस्तुतो चा, पूजितः मनोवाकायेराहतः । एतदेव मुस्पष्ट व्याचष्टे-सदेवेति-सदेवमनुजारस्येत्या कर्तरि पष्ठी, जातिविवक्षया चैकवचन,ततश्च देवमनुनासुरसहितैसिभिलॊकरित्यर्थः, अर्चनीया अष्टादशदोषरा हित्येन प्रमाणनीयः, यद्वा यथोचितपचनपतिपत्या पूजनीयः, वन्दनीय स्तवनी योऽभिवादनीयो वा, सत्करणीयः भत्त्याऽऽदरणीयः, सम्माननीया अभ्युस्था नादिना सम्मानकरणयोग्यः । कल्याणमित्यादि (यत)कल्याण-कल्याणस्वरूपः, मङ्गल मङ्गलस्वरूप दैवत देवस्वरूपः, चैत्य =केवलज्ञानवान् (अत') पर्युपास नीयः सर्वतोभावेन सेवनीयः । तथ्येति-तथ्यानाम् अवश्यम्भाविसत्फलवता कर्मणा देशनादिरूपाणा क्रियाणासम्पदा-समृद्धचा मम्प्रयुक्त. सयुक्तः। तमिति तम् पूर्वोक्तविशेषणविशिष्ट भगवन्तम्, तदिति छायापक्षे तु तत्-तस्मात् । प्रातिहारिकेण-प्रत्यर्पणीयेन ॥१८५-१८७ ॥ आदर किये हुए, अर्थात् देव मनुष्य और असुरोके अर्चनीय-'अठारह दोपोंसे रहित हैं। इस प्रकार विश्वसनीय, अथवा यथोचित वाक्यरचना द्वारा पूजनीय, वन्दनीय, सत्कार करने योग्य, सन्मान करने योग्य, कल्याणमय, मगलमय, देव स्वरूप, केवल ज्ञानवान् यावत् पयुपासना करने योग्य, अवश्यम्भावी सत्फलवाली देशना आदि क्रियाओंकी समृद्धिसे युक्त महामान यहा कल पधारेगे, सो तुम उनको वन्दना करना यावत् उनकी पर्युपासना करना । पडिहारे (पीछा लिये दिये जानेवाले) पीठ, फलक, शग्या, सस्तारक आदिके लिए उपनिमन्त्रणा (विनति) करना।" देबने दूसरी घार और तीसरी बार भी यही बात कही। कहकर जिधरसे आया था उधर ही लौट गया ॥१८७।।
१ मत मारो, ऐसा उपदेश देनेवाले माहन कहलाते है । महान् माहनको ___महामाहन कहते हैं।
ધ્યાન કરે છે, જેની વિધિપૂર્વક સ્તુતિ કરે છે, મન, વચન કાયાએ કરીને જેને આદર કરે છે તેવા, અથોત દેવ, મનુષ્ય અને અસુરોના અર્ચનીય– “અઢારે દાષાથી રહિત છે એ પ્રકારે વિશ્વાસનીય અથવા યથેચિત વાકયરચનાદ્વારા પૂજનીય, વદનીય, સતકાર કરવા ગ્ય, સન્માન કરવા યોગ્ય, કલ્યાણમય, મ ગળમય, દેવ સ્વરૂપ, કેવળ જ્ઞાનવાનું યાવત પપાસના કરવા ગ્ય, અવશ્ય ભાથી સલ્ફળવાળી દેશને આદિ ક્રિયાઓની સમૃદ્ધિથી યુક્ત મહામહન અહી કાલે પધારશે, માટે તુ એમને વદના કરજે યાવત એમની પર્યું પાસના કરજે પડિહારા (પાછા લઈ દઈ શકાય એવા પીઠ, ફલકા, શવ્યા, સસ્તા૨ક આદિને માટે ઉપનિમ ત્રણા (વિનતિ) કવર દેવે બીજીવાર અને ત્રીજીવાર પણ એ જ વાત કહી કહીને જ્યાંથી તે આવ્યો હતો ત્યાં તે ચાલ્યા ગયે (૧૮૭)
મા મારે' એ ઉપદેશ આપનારા ભાઇન કહેવાય છે મહાન માહનને મહામહને કહે છે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका १० ७ मू० १८९ सद्दालपुत्रनिर्गमनम् ४४९
मूलम्-तए णं तस्स सदालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तेणं देवेणं एवं वुत्तस्स समागस्स इमेयारूवे अज्झथिए५ समुत्पन्ने
एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते, से णं महामाहणे उत्पन्नणाणदसणधरे जाव तच्चकम्मसंपउत्ते, से ण कल्ल इहं हवमागच्छिस्सइ, तए णं त अह बंदिस्सामि जाव पज्जुवासिस्लामि, पाडिहारिएणं जाव उवनिमतिस्लामि" ॥१८८॥ तए ण कल्लं जाव जलते समणे भगव महावीरे जाव समोसरिए। परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ ॥ १८९ ॥
छाया-ततः खलु तस्य सदालपुत्रस्याऽऽजोविकोपासकस्य तेन देवेनैवमुक्तस्य सतोऽयमेतद्रूप आ यात्मिकः ५ समुत्पन्ना-एच खलु मम धर्माचार्यों धर्मोपदेशको गोशालो मलिपुत्रः, स खलु महामाहन उत्पन्नज्ञानदर्शनधरो यावत्तथ्यकर्मसम्पदा. सम्पयुक्तः, स खलु कल्ये इह हव्यमागमिष्यति, ततः खलु तमह वन्दिये यावत्पयुपासिष्ये, प्रातिहारिकेण यावदुपनिमन्त्रयिष्यामि ॥ १८८ ॥ ततः खलु कल्ये यावज्ज्वलति श्रमणो भगवान महावीरो यावत्समवसृतः। परिपनिर्गता यावत्पर्युपास्ते ॥ १८९ ॥
दीकार्थ - तए ण' इत्यादि देवताके ऐसा कहने पर आजीविकोपासक सनालपुत्रने मोचाकि ऐसे महामाहन मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक मखलिपुन गोशालक की है। वे माहमान उत्पन्न ज्ञान दर्शनके धारी यावत् अवश्यम्भावी मत्फलवाली देशनादि क्रियाओंसे युक्त हैं। वे कल यहाँ आवेंगे। मैं बन्दना कलंगा यावत् पर्युपासना करूँगा। पडिहारे वापस लिये दिये जाव योग्य पीठ फलक आदि दूगा" ॥१८८ ॥
टीकार्थ-'तेए ण-त्यात ठेवता सम वाथी साविप સાલપુત્રે વિચાર્યું કે-એવા મામાન મારા ધર્માચાર્ય ધર્મોપદેશ મ ખલિપુત્ર
શાલક જ છે તે મહામહન ઉત્પન્ન જ્ઞાન-દર્શના ધારક યાવત અવશ્ય ભાવી સફુલવાળી દેશનદિ ક્રિયાઓથી યુક્ત છે તે કાલે અહીં આવશે. હુ વદન કરીશ યાવત પપાસના કરીશ “પાછા લઈદઈ શકાય એવા પડિહાર પીઠ ફલક આદિ
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उपासकदशासत्रे
मूलम् - तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए इमीसे कहाए लट्ठे समाणे - " एव खलु समणे भगव महावीरे जाव विहरह, त गच्छामि ण समणं भगव महावीर वदामि जाव पज्जुवासामिएवं सपेहेइ, संपेहित्ता पहाए जाव पायच्छित्ते सुद्रप्पावेसाइ जाव अप्पमहग्घाभरणालकियसरीरे मणुस्तवग्गुरापरिगए साओ गिहातो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पोलासपुर नगर मज्झ
छाया--- ततः खलु स सदालपुत्र आजीविकोपासकोऽस्या क्थाया लब्धार्थः सन्- " एव खलु श्रमणो भगवान महावीरो यावद्विहरति, तद् गच्छामि खलु श्रमण भगवन्त महावीरवन्दे यावत्पर्युपासे "एन सम्प्रेक्षते, सम्मेक्ष्य स्नातो यावत्मायश्चित्तः शुद्धमवेश्यानि यावद् अल्पमहार्घा भरणालङ्कृतशरीरो मनुष्यवागुरापरिगतः स्वस्माद् गृहात्मतिनिष्क्रामति,प्रतिनिष्क्रम्य पोलासपुर नगर मध्य मध्येन निर्गच्छ इसके बाद दूसरे दिन सूर्योदय होने पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिषद् निकली यावत् वह पर्युपासना करती है ॥ १८९ ।।
टीकार्थ- ' त ण' इत्यादि सद्दालपुत्रने महामाहन के पधारनेका वृत्तान्त सुनकर सोचाकि श्रमण भगवान् महावीर यावत् विश्वरते हैं। तो मैं उनको वन्दना करने यावत् पर्युपासना करनेको जाऊँ। ऐसा विचार कर उसने स्नान किया और यावत् कौतुक ( तिलकादि ) मगल ( दधि अक्षत आदिका रखना) आदि किया । शुद्ध वस्त्र और बहुमूल्य अल्प भारवाले आभूषणोंसे शरीरको अलङ्कृत करके जनसमूहसे घिरा हुआ अपने घर से निकला, निकल कर पोलामपुर नगर के बीचो बीच આપીશ” (૧૮૮) ત્યારબાદ બીજે દિવસે સુદર થતા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામી પધાર્યાં પરિષદ નીકળી યાવત્ તે પર્યુંપાસના કરે છે (૧૮૯)
टीकार्थ- 'तए न' - छत्याहि सद्दासपुत्रे महाआनना पधारवानी वृत्तात સાભળીને વિચાર્યું કે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર યાવત વિચરે છે તે હું એમને વઢતા કરવા ચાવતું પશુ પાસના કરવાને જઉં એમ વિચારી તેણે સ્નાન કર્યુ અને યાવત કૌતુક (તિલકાર્ત્તિ) મગલ (દધિ અક્ષત આદિ રાખવા) આદિ કર્યો શુદ્ધ વસ્ત્ર અને બહુમુલ્ય અપભા વાળા આભૂષાથી શરીરને અલકૃત કરી જનસમૂડથી વી ટળ′ પેાતાને ઘેરથી નીકળ્યા અને પેલાસપુર નગરની વચોવચ થઈને ચાટ્યા પછી ત્યા
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अ० धर्म० टीका अ ७ मू. १९०-१९५ सद्दालपुत्रभगवद्वार्तालापवर्णनम् ४५१ मज्झेणं निग्गच्छड, निग्गच्छित्ताजेणेव सहस्सववणे उज्जाणे जेणेव समणे भगव महोवीरे तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण-पयोहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता जाव पज्जुवासड ॥१९०॥ तए णं समणे भगव महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तीसे य महइ जाव धम्मकहा समत्ता ॥१९१॥ सदालपुत्ताइ समणे भगव महावीरे सदालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-से नूणं सदालपुत्ता । कल्लं तुम पुवावरण्हकालसमयसि जेणेव असोगवणिया जाव विहरसि तए ण निर्गत्य येनैव सहस्राम्रवणमुद्यान यत्रैव श्रमणो भगवान महावीरस्तेत्रैवोपागच्छति, उपागत्य त्रिकृत्व आदक्षिणप्रदक्षिण करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा यात्पर्युपास्ते ॥ १९० ॥ ततः खलु अमणो भगवान् महावीरः सद्दालपुत्रस्याऽऽजीविकोपासस्य तस्या च महाति यावद् धर्मस्था समस्ता॥१९॥ सद्दालपुत्र! इति श्रमणो भगवान् महावीर. सद्दालपुत्रमाजीविकोपासकमेवमवादी"स नून सगलपुर ! कल्ये व पूर्वापराह्नकालसमये येनैवाऽशोकवनिका यावद् होकर चला । फिर जिधर सहस्रम्रवन उद्यान था और जिधर श्रमण, भगवान् महावीर थे उपर ही गया। जाफर दाहिने भागसे तीन प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया यावत् पर्युपासना की ॥१९० ॥ तय श्रमण भगवान महावीरने उस बडे परिषदमें आजीविकोपासक सहालपुत्रको धर्मकथा रही ॥ १९१ ॥
'सदालपुत्र !' इस सम्बोधनसे अमण भगवान् महावीरने सद्दालपुत्रसे कहा-हे सदालपुत्र ' कल तुम अशोकानीमें यावत् विचरते थे સહસ્સામ્રવ 1 ઉદ્યાન હતુ અને જ્યાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીર હતા ત્યાજ તે ગયે જઈને જમણુ ભાગથી ત્રણ પ્રદક્ષિણા કરી વદના કરી, નમસ્કાર, કર્યા, યાવત પપાસના કરી (૧૦) પછી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે એ મોટી પરિષદમાં આજીવિકપાસક સદાલપુત્રને ધર્મકથા કહી (૧૯૧) “ સદ્દાલપુત્ર!” એવા સંબંધને કરીને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સદાલપુત્રને કહ્યું “હે સાલપુત્ર' કાલે તમે અશે વનમાયાવત વિચરતા હતા, ત્યારે એ દેવ- તમારી પાસે આવ્યું હતું તે દેવ
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४५.
___ उपामादशाङ्गसूत्रे तुभ एगे देवे अतियं पाउभवित्था। तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने एव वयासी-"हंभो सदालपुत्ता | त चेव सव्व जाव पज्जुवासिस्सामि ।से नूण सदालपुत्ता । अहे सम' हता अस्थि । नो खल्ल सदालपुत्ता। तेण देवेण गोसाल मखलिपत्तं पणिहाय एव कुत्ते ॥१९२॥तए ण तस्स सदालपुत्तस्स आजीविओवासयस्स समणेण भगवया महावीरेणं एव वुत्तस्स समाणस्स इमे एयारूवे अज्झिथिए०-"एस णं समणे भगव महावीरे महामाहणे उप्पन्नणाणदसणधरे जाव तच्चकम्मसपया सपउत्ते, त सेय खलु मम विहरसि, तत खलु तवैको देवोऽन्तिके मादुरासीत् । तत खलु स देवोऽन्तरिक्षप्रतिपन्न एवमवादीत्-"हभो सद्दालपुन ! तदेव सर्व यावत्पर्युपासिष्ये"! सनून सद्दालपुत्र ! अर्थः समर्थः? हन्ताऽस्ति । नो खलु सद्दालपुत्र ! तेन देवेन गोशाल मङ्गलिपुत्र प्रणिधायैवमुक्तः ।।१९२॥ तत खलु तस्य सद्दालपुत्रस्याऽऽजीविका पासकस्य श्रमणेन भगवता महावीरेणैवमुक्तस्य सतोऽयमेतद्रूप आध्यात्मिक ४ "एष खलु श्रमणो भगवान महावीरो महामाहन उत्पन्नज्ञानदर्शनवरो यावत्तथ्यकम
टीका प्रणिधायेति-त्व गोशालकमतानुयाय्यसीति लक्ष्यीकृत्येति परमार्थः । तष एक देव तुम्हारे पास आया था। वह देव आकाशमें स्थित होकर यो बोला-" हे सद्दालपुत्र !" इत्यादि 'तू पर्युपासना करना' तक । हे सद्दाल पुत्र ! क्या यह बात ठीक है?" सद्दालपुत्र-" हा ठीक है।" भगवान्-हे सद्दालपुत्र! उस देवने मखलिपुत्र गोशालकको लक्ष्य करक नहीं कहा था ॥ ११२ ॥ श्रमण भगवान् महावीरकी बात सुनकर आजा विकोपासक सद्दालपुत्रने सोचा-"ये उत्पन्न ज्ञान दर्शनके धारी यावत् तथ्य-कर्मसम्पदासे अर्थात् पूर्वभवमें वीस स्थानकोंकी आराधना करने આકાશમાં રહીને બોલ્યા ” હે સદાલપુત્ર” ઈત્યાદિ યાવત “તુ પર્યા સને કરજે ” હે સદાલપુત્ર ! શું એ વાત બરાબર છે?” સદાલપુત્રે કહ્યું
81, से वात राम छ" भगवान ४धु . सदासपुत्र ! मे व મખલિપુત્ર શાળકને લય કરીને કહ્યું ન હતું ? (૧૨) શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની વાત સાંભળીને આજીવિકપાસક સદાલપુત્રે વિચાર્યું “ આ ઉત્પન્ન જ્ઞાન-દર્શનના ધારક યાવતુ ત-કર્મસ પદાથી અથત પૂર્વભવમા વીણ
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अगारधर्म सञ्जीवनीटीका अ० ७ पुरुषार्थविषयक-उपदेशः
४५३ समणं भगवं महावीर वदित्ता नमसित्ता पाडिहारिएणं पीढफलगजाव उवनिमतित्तए” एवं संपेहेइ, सपेहित्ता उट्टाए उट्टेड, उट्टाए उद्वित्ता समणं भगव महावीरं वदड नमसइ, वदित्ता नमसित्ता एवं वयासी-"एव खल्ल भंते । मम पोलासपुरस्स नयरस्स पहिया पंच कुंभकारावणसंया,तत्थ णं तुम्भे पाडिहारिय पीठ जाव संथारयं ओगिण्हित्ताण विहरइ ॥१९३॥तए ण समणे भगव महावीरे सादलपत्तस्स आजीविओवासगस्स एयमट्र पडिसुणेड, पडिसु. सम्पदा तव्यानि सत्य फलानि अभिविचरितानि कर्माणि क्रिया तत्सपदा-तत्स मृध्या सम्पयुक्त , पूर्वाभवोपार्जिततीर्थकरनामगोत्रकर्ममभावेण गोकादि अष्टम प्रत्याहारयुक्त तन्ड्रेयः खलु मम श्रमण भगवन्त महावीर पन्दित्वा नमस्यित्वा प्रातिहारिकेण पीठफलक-यावद्रुपतिमन्त्रयितुम्" एव सप्रेक्षते, सप्रेक्ष्य उत्थयोतिप्ठति, उत्थयोत्थाय श्रमण भगवन्त महावीर वन्दते नमस्यति, रन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-एव खलु भदन्त ! मम पोलासपुरानगराद्वहि पञ्च कुम्भकारापणशतानि, तत्र खलु यूय मानिहारिक पीठयावत्सस्तारकमवगृह्य विहरत ।। १९३ ।। से उपार्जित तीर्थकर नाम गोत्रके प्रभावसे होनेवाले अशोकवृक्षादि अष्टमहाप्रतिहारसे युक्त अमण भगवान महावीर स्वामी महामाहन हैं, इसलिए इन्हें वन्दना नमस्कार करके पडिहारे पीठ फलक आदिके लिए आमन्त्रित करना ठीक है।" ऐसा विचार कर ऊठा। ऊठकर श्रमण भगवान् महावीरको वन्दना नमस्कार किया फिर बोला"हे भदन्त !मेरे पोलासपुर नगरके वाहार पाँचसौकुमारकी दुकाने हैं, वहा आप पडिहारे पीठ यावत् सस्तारक ग्रहण करके विचरे" ॥ १९३ ।। સ્થાનકની આરાધના કરવાથી ઉપાર્જિત તીર્થ કરનામશેત્રના પ્રભાવથી થવાવાળા અશોક વૃક્ષાદિ આઠમહા પ્રતીહારથી યુક્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામી મહામાહન છે, માટે તેમને વદન-નમસ્કાર કરી પડિહાર પીઠ ફલક આદિને માટે આમંત્રિત કરવા એ ઠીક છે ' એમ વિચારીને તે ઉઠ અને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વદના નમસ્કાર કરીને બે “છે ભદન્ત! પિલાસપુર નગરની બહાર મારી પાસે કભારની દુકાને છે, ત્યાં આપ પસ્કિાર પીઠ યાવત સસ્તારક ગ્રહણ કરીને વિચરે” (૧૯) શ્રમણ ભગવાન્ મહાવીર
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उपासकदशावणे णित्ता सदालपुत्तस्स आजीविओवासगस्ल पंचसु कुंभकारावणसएसु फासुएसणिज पाडिहारियं पीढफलगसिज्जासथारयं ओगिणिहत्ता विहरइ ॥१९४॥ तए णं से सदालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ x वायाहयय कोलालभंडं अतोसालाहिंतो वहिया नीणेइ, नीणिता आयवसि दलयइ ॥ १९५॥
तए ण समणे भगव महावीरे सदालपत्त आजीविओवासय एव क्यासी-सदालपुत्ता | एस ण कोलालभडे कओ ॥१९६॥ तत खलु श्रमणो भगवान महावीर सदालपुत्रस्याऽऽजीविकोपासास्यैतमर्थ प्रतिशृगोति,प्रतिश्रुत्य सद्दालपुत्रस्याऽऽजीविकोपासकस्य पञ्चमु कुम्भकारापणशतेषु मासुकैपणीय प्रातिहारिक पीठफलफशय्यासस्ताकमवगृह्य विहरति ॥ १९४ ॥ ततः खलु स सदालपुत्र आजीविकोपासकोऽन्यदा कदाचिद वाताहतक कोलाल. भाण्डमन्तःशालाभ्यो पहिनेयति, नीत्वाऽऽत्तपे ददाति ॥ १९५ ॥
ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीर सदालपुत्रमाजीविकोपासकमेवमवादीत-सद्दालपुन ! एप खलु,कोलालभाण्डः कुतः ? ॥ १९६ ॥ ततःखलु x वाताहतक-बातेन आईपत् हतक-हत शोपितम्, आममेव वायुना शोषितरस मित्यर्थः। कौलालेति-कुलालाना-कुम्भगाराणामिद कौलाल, तच्च तद् भाण्ड कौलालभाण्ड, कुम्भकारसम्बन्धिभाण्डानीत्यर्थ., जातिपक्षमाश्रित्येहाप्येकवचनम्। 'आतपे' इति, अत्र-शोषयितु '-मिनि क्रियाया अभ्याहारः ॥ १९५॥ -
कोलालभडे ' ज्ञति मूले पुस्त्व तु पाकृतत्वात् । (१९६) समण भगवान महावीरने सद्दालपुत्रकी इस प्रार्थनाको स्वीकार की, और एपणीय और पडिहारे पीठ फलक शय्या सथारा ग्रहण कर विचरने लगे ॥ १०४ ॥ इसके अनन्तर एक बार आजीविकोपासक सद्दालपुत्र, हवासे कुछ-कुछ सूखे हुए कुभार सबधी बत्तनोको अन्दरकी शालासे बाहार निकलता था, और निकाल निकाल कर खूब सुखानेके लिए 'धूपमें रख रहा था ॥ १९५॥ . સદાલતની એ પ્રાર્થના સ્વીકારી અને સદાલપત્રની પાસે દુકાનમાંથી પ્રાસક, એષી અને પડિહારા પીઠ ફલક શગ્યા સ થ ગ્રહણ કરીને વિચારવા લાગ્યા (૧૪) ત્યારબાદ એકવાર આજીવિકપાસક સાલપુત્ર, હવાથી જરાતરા સાયલા, કુંભારઆ બધી વાસણને, દરની શાળામાંથી બહાર કાઢતે હતો, અને કાઠી કાઢીને ખૂબ સુકાવવા માટે તડકામાં મૂકતે હેતે (૧૫)
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अगार धर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ पुरुषार्थविषयम-उपदेशः ४५५
तए ण से सदालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीर एवं क्यासी-एस ण भते पुछि मट्टिया आसी, तओ पच्छा उदएणं निमिज्जइ, निमिजित्ता छारेण य करिसेण य एगओ मीसिज्जइ, मीसिजिता चक्के आरोहिज्जइ, तो वहवे करगा य जाव उटियाओ य कजति ॥१९७॥ तए णं समणे भगव महावीरे सदालपुत्त ओजीविओवासय एव वयासी-सदालपुत्ता । एस ण कोलालभडे किं उदाणेण जाव पुरिसकारपरकमेणं कति
स सद्दालपुत्र भाजीविकोपासकः श्रमण भगवन्त महावीरमेवमादी-एप खलु भदन्त ! पूर्व मृत्तिकाऽऽसीत्, तत. पश्चादुदकेन निमज्ज्यते, निमज्ज्य क्षारेण च करीपेण चैकतो मिश्यते, मिश्रयित्वा चक्रे आरोझते, ततो वहव. करकाश्च यावदुष्टिकाश्च क्रियन्ते ॥१९७|| तत. खलु अमणो भगवान महावीरः सद्दालपुत्रमा
टीकार्थ-'तए ण समणे' इत्यादि तब श्रमणे भगवान महावीर आजीविकोपासक सहालपुत्रसे बोले-" हे सद्दालपुत्र ! यह कुलालभाण्ड (कुभारके बनाए हुए वर्तन) कहाँसे आया ? कैसे उत्पन्न हुआ ? ॥१९६ ॥ ___ सद्दालपुत्र-" भदन्त ! यह पहले मिट्टी था। फिर इसे पानीमें भिगोया। फिर क्षार (राखोडी) तथा करीप के साथ इसे मिलाया गया। मिलाकर चाक पर चढाया गया तय करक यावत् उष्टिका (वर्तन) बनाये गये ॥ १९७ ॥
टीकार्थ-'तए ण समणे' या श्रमायु मगवान् महावी२ माटवियास સદાલપુત્રને કહ્યું “હે સદાલપુત્ર! આ કુભારના બનાવેલાં વાસણે કયાથી આવ્યા? ४वारीत जपन्न थया ?" (१८६)
સદાલપુત્રે કહ્યું “ભદ ત! એ પહેલા મટીરૂપે હતા પછી તેને પાણીમાં ભીંજવી, પછી ક્ષાર રાખેડી) તથા કરીષની સાથે તેને મેળવી, પછી ચાક ઉપર यावी, असे ४५६ यावत 6ष्ट्र (वास) भने छे" (१७)
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उपासकदशाङ्गसूत्रे उदाहु अणुहाणेणं जात्र अपुरिसक्कारपरकमेणं कजति ? ॥१९८॥ तएणं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समण भगव महावीरं एव वयासी-भंते | अणुट्टाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेण, नस्थि उदाणे इ वा जाव परकमे इ वा, नियया सबभावा ॥१९९॥ जीविकोपासकमेवमवादीत् सदालपुन ! एतत्खलु कौलालभाण्ड किमुत्थानेन याव त्पुरुपकारपरक्रमेण क्रियते उताहो! अनुत्थानेन यावदपुरुपकारपराक्रमेण क्रियते? ॥१९८॥ ततः खलु स सद्दालपुन आजीविकोपासक अमण भगवन्त महावीरमेवमवादी-भदन्त ! अनुत्थानेन यावदपुरुपगारपराक्रमेण, नास्त्युत्थानमिति वा यावत्पराक्रम इति वा, नियताः सर्वभावाः ॥१९९॥
*टीका-अनुत्थानेनेत्यादि,-भगवन्निदर्शितोक्तकुलालभाण्डदृष्टान्तेनावगतवस्तुसारोऽपि निजमतखण्डन परमताङ्गीकारयोर्दोपमवगच्छन् पुनरपि गोशालकमत नियतिवादमेवानुमोदयति-अनुत्यानेन यावदपुरुषकारपराक्रमेणेत्यादि ॥१९९॥
भगवान महावीर-" सद्दालपुत्र ! ये वर्तन उत्थान यावत् पुरुषकार पराक्रमसे बनते है या धिना उत्थान और यावत् विना पुरुषकार परा क्रमसे बन जाते है " ॥ १९८ ॥
सद्दालपुत्र, भगवान के कथनका रहस्य समझ गया किन्तु अपने मतके खण्डनका और परमतकी स्वीकृतिका दोष जानकर गोशालकके मत (नियतिवाद )की ही अनुमोदना करता हुआ बोला
“भदन्त ! ये विना उत्थान और विना पुरुषकार पराक्रमके ही बन गये हैं। उत्थान यावत् पुरुषकार पराक्रम तो है ही नही । सब पदार्थ नियति (होनहार ) से होते हैं ॥ १९९ ॥ , , ભગવાન મહાવીરે કહ્યું “સાલપુના એ વાસણ યાવતુ પુરૂષકાર પરાક્રમથી બને છે કે ઉત્થાન વિના યાવત પુરૂષકાર પરાક્રમ વિના બની જાય છે?” (૧૯૮)
સલપુત્ર ભગવાનના કથનનું રહસ્ય સમજી ગયે, પરંતુ પિતાના મતના ખડનને અને પરમતના સ્વીકારને દેવ જાણીને શાલકના મત (નિયતિવાદ)નીજ અનમેદના કરતે બન્યું “ભદન્ત' એ ઉત્થાન વિના અને પુરૂષકાર પરાક્રમ વિના જ બની ગયા છે ઉત્થાન યાવતુ પુરૂષકાર પરાક્રમ તે છે જ નહિ , पहा नियतिया १ याय छ” (१९८)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ पुरुषार्थविषयक उपदेशः
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तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एव वयासी - सद्दालपुत्ता। जइ णं तुभे केइ पुरिसे X वाया हय वा पक्केलयं वा कोलालभड अवहरेजा वा विक्खिरेजा वा भिदेजा वा अच्छिदेजा वा परिद्ववेज्जा वा अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धि विउलाई भोगभोगाइ भुंजमाणे विहरेज्जा, तस्स णं तुम पुरिसस्स कि दंड वत्तेज्जासि १ । (सद्दाल० - ) भते । अहं णं त पुरिस आओसेज्जा वा, हणेजा वा, बधेजा वा, महेज्जा वा, तजेजा वा, तालेज्जा
ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः सद्दालपुत्रमाजीविकोपासकमेत्रमवादीत् - सद्दालपुत्र यदि खलु तब कोऽअपि पुरुषो वाताहत वा पक्व वा कौलाल भाण्डम पहरेद्वा, विकिरेद्वा, भिन्द्याद्वा, आछिन्द्याद्वा, परिष्ठापयेद्वा, अग्निमित्रया वा भार्यया सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरेत् तस्य खलु त्व पुरुषस्य कि दण्ड वर्त्तयेः ? | ( सालपुत्र ) भदन्त । अह खलु त पुरुषमाक्रोशयेय वा न्यावा, बनीया या मथ्नीया वा, तर्जयेय वा, ताडयेय वा' निश्छोटयेय वा, निर्भर्त्सयेय वा, अकाल एव जीविताद्वयपरोपयेय वा ।
नियतिवादनिरासाय पुनराह - 'सद्दालके ' -त्यादि ।
1
X वाताहतम् = अपरिपक्व किन्तु गतेन शोषितजलभागम् । अपहरेत् = चोरयेत, विकिरेत् = विक्षिपेत् भिन्द्यात् = स्फोटयेत्, आच्छिन्द्यात्-लपूर्वक हस्ताद्गृहीयात्, परिष्ठापयेत् = बहिरानीय त्यजेत् । भोगभोगान् = कामभोगान् । वर्त्तयेः= कुर्याः । आक्रोशयेय=शपेयम्, हन्याम् = दण्डादिभिराहत कुर्याम्, वधीयाम् = रज्ज्ञा
टीकार्थ- ' तर ण समणे इत्यादि श्रमण भगवान् महावीर बोले सालपुत्र ! यदि कोई पुरुष हवासे सूखे हुए ( कच्चे ) वर्तनको या पके हुए को चुराले, फक दे, फोड दे, जबर्दस्ती हाथसे छुड़ा ले, बाहर लाकर रख दे, अथवा तुम्हारी अग्निमित्रा भार्याके माथ मन-माने भोग भोगे तो उस पुरुषको तुम क्या दड दोगे ? "
टीकार्य - 'तर ण समणे' इत्याहि श्रमायु भगवान મહાવીર મોળ્યા • સાલપુત્ર ! જો ટાઇ પુરૂષ હવાથી સુકાયલા (કાચા) વાસણને યા પાકેલા વાસણને ચારી લે, ફેકી દે, ફાડી નાખે, જખરદસ્તીથી હાથમાથી છેડાવી લે, બહાર લાવીને રાખે, અથવા તમારી અગ્નિમિત્રા ભાર્યાની સાથે મનમાન્યા લેગ ભાગવે તે એ પુરુષને તમે કેવા ૪૭ દેશે ?”
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1 उपासकदशा सूत्रे
वा, निच्छोडेज्जा वा, निग्भच्छेज्जा वा, अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेज्जा वा । (भगवान्) सद्दालपुत्ता। नो खलु तुब्भ केइ पुरिसे वायाय वा पक्केल्ल्य वा कोलालभंड अवहरइ वा जाव परिवेइ वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाइ भोगभोगाइ भुजमाणे विहरs | नो वा तुम त पुरिस आओसेज्जसि वाहणेज्जसि वा जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेज्जसि । जइ
( भगवान्- ) सदालपुन ! नो खलु तत्र कोऽपि पुरुषो नाताहत नाप वा कौलाल भाण्ड मपहरति या यावत्परिष्ठापयति वा, अमिमित्रया वा भार्यया सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान भुञ्जानो विहरति । नो वा त्व त पुरुषमाक्रोशयसि वा हसि वा यावदकाल एवं जीविताद्वय परोपयसि । यदि नास्त्युत्थानमिति वा यावत्पराक्रम दिना द्र कुर्याम्, मनीयाम् = पादाघातादिना मर्दयेयम्, तर्जयेयम् = धिक् त्वाँ नीच' मित्यादिवाक्यैर्भर्त्सयेयम्, ताडयेयम् = चपेटादिना महरेयम्, निश्छोटयेयम् = त्वचमपकर्षयेय यद्वा धनमपहरेयम्, निर्भर्त्सयेयम् = परुपत्राक्यप्रयोग सातिशय धिक्कुर्याम्, जीविताद्वय परोपयेयम् = मारयेयम् । इत्थ भगवान सद्दालपुत्रमुखा देव
सद्दालपुत्र- " भदन्त ! मैं उस पुरुषको शाप (गाली) दू, डडेसे मारू - रस्सी आदिसे बाध दू, पैरों तले रौ डालू, धिक्कारूँ, थप्पड जमाऊँ, चमडा पकड़कर खींचू या धन लूट लू बुरे बुरे शब्दोंसे फटकारूँ, यहाँ तककी प्राण लेलू | "
भगवान् सद्दालपुत्रके मुखसे ही पुरुषकारका समर्थन करा कर उसके पक्षका खण्डन करने के लिए बौले-“ सद्दानपुत्र ! तुम्हारी मान्यता के अनुसार न तो कोई पुरुष हवासे सुखे हुए कच्चे या पके वर्त्तनको
सद्दासपुत्रे उधु "लहन्त । हु मे पुरुषने शाय (गाय) ह, हाथी भाइ, દોરડા આદિથી ખાધુ, પગતળે ચગદ્ગુ, ધિર, થપ્પડ લગાવું, ચામડી પકડીને “यु या घन लूटी स ખરાખ શબ્દોથી ડીટકાર્, ત્યા સુધી કે હું તેના भालु पशु AS "
ભગવાન સાલપુત્રના મુખથી જ પુરૂષકારનું સમન કરાવીને તેના પક્ષનુ ખંડન કરવાને બોલ્યા સાલપુત્ર ! તમારી માન્યતા અનુસાર ન કોઇ પુરૂષ
"
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ पुरुषार्थ विषयक- उपदेश.
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नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा नियया संवभावा । अहणं तुम्भ केइ पुरिसे वायाहय जाव परिवेइ वा, अग्गिमित्ताए वा जाव विहरड़, तुमं वा त पुरिस आओसेसि वा जाव वबरोवेसि, तो जं वदसि - " नत्थि उट्टाणे इ वा जाव नियया सवभावा” तं ते मिच्छा ॥ २०० ॥
इति वा नियताः सर्वभावा., अथ खलु तत्र कोऽपि पुरुषो वाताहत यावत्परिष्ठापयति वा, अनिमिया का यावद्विहरति त्व वा त पुरुषमाक्रोशयसि वा यावद्वयपरोपयसि, तर्हि दस - " नास्त्युत्थानमिति वा यावन्नियताः सर्वभावा" स्वत्ते मिथ्या ||२०० ||
पुरुषकारपक्ष ख्यापयित्वा तन्मत नियतिवाद निरसितुमाह - 'सद्दालपुत्रे' त्यादि । अथ=क्ञ्चि। तर्हि=तन्ग-एवमुक्तरीत्या स्वयं पुरुषकार विधित्सुः सन्नपीत्यर्थः॥ २००॥
चुराता है, न यावत् बाहर फेकता है और न अग्निमित्रा भार्या के साथ कोई विषय भोगता है, न तुम उस पुरुषको शाप देते हो, न मारते हो, न यावत् असमयमे ही प्राण लेते हो। क्योकि उत्थान यावत् पुरुपकार तो है ही नही, जो कुछ होता है अपने आप भवितव्यतासे ही हो जाता है । ओर यदि कोई पुरुष तुम्हारे कच्चे या पके वर्तनको चुराता फोडता यावत् बाहर फेंक देता है, या अग्निमित्रा भार्या के साथ विषय भोगता है, और तुम शाप देते हो यावत् मार डालते हो तो तुम्हारा यह कथन मिथ्या है कि - " उत्थान यावत् पुरुषार्थ कुछ नही है सब भवितव्यता से हो जाता है" ||२००||
હુવાથી સુકાબલા ફાર્મ યુ પાકાં વાસણને ચારે છૅ, ન થાવત્ બહાર ફેકે છે, અને ન અગ્નિમિત્રા ભાર્યાની સાથે કેઈ વિષય ભાગવે છે ન તમે તે પુરૂષને શાપ દે-છે, ન મારા છે, ન ચાલત અસમયે પ્રાણ લે છે. કારણ કે ઉત્થાન યાવત પુરૂષકાર તે છેજ નહિ જે કાઈ થાય છે તે પેાતાની મેળે ભવિતવ્યતાથીજ થાય છે અને જે કાઈ પુરૂષ તમારા કાચા ચા પાકા વાસણને ચારે ફેડે ચાવત બહાર ફેંકી
દે, યા અગ્નિમિત્રા ભાર્માંની સાથે વિષ્ય ભાગવે, મારી નાખે, તે તમારૂ એ કથન મિથ્યા છે કે છેજ નહિ, ખધુ ભવિતવ્યતાથી જ થઈ જાય છે.’
અને તમે તેને શાપ દે, ચાવત ઉત્થાન યાવત પુરૂષાર્થ કર્યુ
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(२००)
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उपासकदशसूत्रे एत्थ णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए सबुद्ध ॥ २०१॥ तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगव महावीर बदइ नमसइ, वदित्ता नमंसित्ता एव वयासी-इच्छामि णं भंते। तुभ अतिए धम्मं निसामेत्तए ॥ २०२ ॥ तए ण समणे भगवं महावीरे सदालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तीसे य जाव धम्म परिकहेइ ॥२०३॥ तए ण से सदालपुत्ते आजीविओवासए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म हट्ट तुट्ट जाव हियए जहा आणंदो तहा गिहिधम्म पडिवजइ, नवरं एगा __ अत्र खलु स सद्दालपुत्र आजीवीकोपासक. सम्बुद्ध ॥ २०१॥ ततः खलु स सद्दालपुत्र आजीविकोपासकः श्रमण भगवन्त महावीर वदन्ते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत-इच्छामि खलु भदन्त ! युष्माकमन्निके धर्म निशामयितुम् ॥२०२॥ तत खलु श्रमणो भगवान महावीर सद्दालपुनस्याऽऽ जीविकोपासकस्य तस्या च यारद्धर्म परिकथयति ॥२०३॥ तत खलु म सदालपुत्र आजीविकोपासक श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्ट यावहृदयो यथाऽऽनन्दस्तथा गृहिधर्म प्रतिपद्यते, नवरमेका हिरण्यकोटी निधान
'एत्य ण' इत्यादि इतना वार्तालाप होने पर आजीविको पासक सद्दालपुत्रको प्रतियोष हुआ ॥ २०१ ॥ उसने श्रमण भगवान महावीरको वन्दना नमस्कार किया और बोला-" भदन्त ! आपसे धर्मका स्वरूप सुनना चाहता हूँ ॥ २०२।। तब श्रमण भगवान् महावीरने आजीविकोपासक सद्दालपुत्रको धर्मोपदेश दिया ॥२०॥ - धपदेश सुन्कर महालपुत्रं मनने खूष प्रसन्न हुआ और आनन्द श्रावककी तरह उसने गृहस्थ धर्मको स्वीकार किया ।
टीकार्थ-'एस्थ -याहि परसो पातfen५ यता मालविकास महाम પુગને પ્રતિબંધ થયે (૨૧) તેણે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વેદના નમસ્કાર કર્યા અને કહ્યુ “ભદન્ત! આપની પાસેથી ધર્મનું સ્વરૂપ સાભળવા છુ છું” ૨૦૨) એટલે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે આજીવિકપાસક સદાલપુત્રને ધર્મોપદેશ આ (૨૩). ધર્મોપદેશ સાંભળીને સદાલપુત્ર મનમાં ખૂબ પ્રસન્ન થયા અને આનદ શ્રાવકની પેઠે તેણે ગૃહસ્થ ધર્મને સ્વીકાર કર્યો આનદ કરતા સાપુત્રમા
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ सद्दालपुत्रव्रतधारणवर्णनम् ४६१ हिरण्णकोडी निहाणपउत्ता, एगा हिरण्णकोडी बुडिपउत्ता, एगा हिरपणकोडी पवित्थरपउत्ता, एगे वए दसगोसाहस्सिएण वएणं जाव समण भगव महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता जेणेव पोलासपुरे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोलासपुरं नयर मज्झ-मझेणं जेणेव सए गिहे जेणेव अग्गिमित्ता भारिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अग्गिमित्तं भारिय एवं वयासी-एव खलु देवाणुप्पिए । समणे भगव महावीरे जाव समोसढे, त गच्छाहि णं तुम समण भगव महावीरं वंदाहि जाव प्रयुक्ता, एका हिरण्यकोटी वृद्धिप्रयुक्ता, एका हिरण्यकोटी प्रविस्तरमयुक्ता, एको व्रजो दशगोसाहसिकेण व्रजेन यावत् श्रमण भगवन्त महावीर वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा येनैव पोलासपुर नगर तेनैवोपागच्छति,उपागत्य पोलासपुर नगर मध्य मन्येन येनैव स्वक गृह येनैवाग्निमित्रा भार्या तेनैवोपागच्छति,उपागत्या मिमिगा भार्यामेवमवादी-एव खलु देवानुमिये ! श्रमणो भगवान् महावीरो आनन्दसे सद्दालपुत्रमे इतना भेद समझना कि इसके एककरोड सोनैया खजानेमें एक करोड व्यापारमे और एक करोड लेन-देनमे लगे थे । इसके दश हजार गायोका एक गांकुल था । यावत् सद्दालपुत्रने श्रमण भगवान् महावीरको वन्दना नमस्कार किया और पोलासपुर नगरकी ओर चला गया। आकर नगरके बीचों-बीच होता हुआ जहां अपना घर था- जहा अग्निमित्रा भार्यां थी वहा आया । आकर अग्निमित्रा भार्यासे कहने लगा-“हे देवानुप्रिये अमण भगवान महावीर पधारे हैं, એટલો તફાવત સમજે કે તેની પાસે એક કરેડ સેનીયા ખજાનામા હતા, એક કરોડ વેપારમાં અને એક કરોડ લેણદેણમા રેકાયેલા હતા તેની પાસે દસ હજાર ગવગીય પશુઓનું એક ગોકુળ હતુ યાવત સદાલપુત્રે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વદના-નમસ્કાર કર્યા, અને પિલાસપુર નગરની તરફ તે ચાલે ગયે નગરની વચ્ચેવચ્ચે થઈને જ્યા પિતાનું ઘર હતું, જ્યાં અગ્નિમિત્ર ભાર્યા હતી, ત્યા તે આવ્યે, અગ્નિમિત્રાને કહેવા લાગ્યો “હે દેવાનુપ્રિયે! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર
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उपासकदशास्त्रे
पज्जुवा साहि, समणस्स भगवओं महावीरस्स अंतिए पचाणुवइयं सत्तसिक्खावइय दुवालसविहं गिहिधम्म परिवज्जाहि ॥ २०४ ॥ तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया सद्दालपुत्तस्स समणोवासगस्स 'तहत्ति' एयमह विणएण पडिसुणेइ ॥ २०५ ॥
तए णं से सदालपुत्ते समणोवासए कोडुंबिय पुरिसे सदावेs, सदावित्ता एव वयासी - खिप्पामेव भो देवाशुप्पिया । लहुकरणजुत्त जोइयसमखुरवालिहाणसम लिहियसिगए हिजनूणयामयकलावजोत्तपइवि सिट्टएहि रययामयघटसुत्तरज्जुगवरकचणयावत्समवस्टतः, तद् गच्छ खलु त्व श्रमण भगवन्त महावीर व दस्व, यावत्पर्युपास्स्व श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्ति के पश्चाणुवतिक सप्तशिक्षावतिक द्वादशविध गृहिधर्म प्रतिपवस्व ॥ २०४॥ ततः खलु साऽग्निमिना मार्या सालपुत्रस्य श्रमणो पासकस्य ' तथेति' एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति ॥ २०५ ||
ततः खलु स सद्दालपुत्र श्रमणोपासकः कौटुम्बिक रुपान् शब्दयति, शब्दयित्वैवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः । लघुकरणयुक्तयौगिक्समखुरबालधानसम लिखितशृङ्गाभ्या जाम्बूनदमयकलापयोक्त्रप्रतिविशिष्टाभ्या रजतमय घण्टसूत्ररज्जु कवर काश्चनखचितनस्तमग्रहात्रगृहीतकाभ्या नीलोत्पलकृताऽऽपीडकाभ्या
टीका निगदसिद्धैव ॥२०१-२०५॥
अत तुम जाओ, श्रमण भगवान महावीरको बन्दना नमस्कार करो यावत् उनकी पर्युपासना करो, और उनसे पाच अणुव्रत तथा सात शिक्षावन, इस तरह बारह प्रकारका गृहस्थधर्म स्वीकार करो" ॥२०४॥ अग्निमित्राने सालपुत्र के कथनको 'तथेति' (ठीक है) वह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया || २०५ ||
પધાર્યા છે, માટે તમે જાએ, અને શ્રી શ્રમણ ભગવાન મહાવીરપ્રભુને વદના નમસ્કાર ફરી ચાવતા તેમની પ પાસના કરી, અને તેઓશ્રીની પાસેથી પાચ અણુવ્રત તા સાત શિક્ષાવન, એ રીતે ખાર પ્રકારને ગૃહસ્થધર્મ સ્વીકારા” (૨૦૪) આગ્નમિત્રાએ સાલપુત્રના કથનને તયેતિ’ (બરાબર છે) એમ કહીને વિનયક શ્રીકાર્યું (૨૦૫)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ मृ० २०६-धामिकरथवर्णनम् ४६३ खइयनत्थापग्गहोगहियएहि नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहि नाणामणिकणगघटियाजालपरिगय, सुजायजुगजुत्तउज्जुगपसत्थसुविरडयनिम्मियं पवरलक्षणोक्वेय जुत्तामेव धम्मिय जाणप्पवर उवटवेह, उवटुवित्ता मम एमाणत्तिय पञ्चप्पिणह ॥२०६॥ तए ण ते कोडंवियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणति ॥२०७॥तए ण सा अग्गिमित्ता भारिया पहाया जाव पायच्छित्ता सुद्धप्यावेसाड जाव अप्पमहग्घाभरणालकियसरीरा चेडियाचकवालपरिकिपणा धम्मिय जोणप्पवर दुरुहह, दुरुहित्ता पोलासपुर नगर मझं-मज्झेण निग्गच्छड, निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्तववणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पञ्चोम्हड, पच्चोरुडत्ता चेडियाचकवालपरिवुडा जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो जाव वंदइ नमसइ, बदित्ता नमसित्ता नचासन्ने नाइदूरे जाव पंजलिउडा ठिइया चेव पज्जुवासड ॥२०८॥ प्रवरगोयुवभ्या नानामणिकनकपष्टिकाजाल्परिगत मुजातयुगयुक्तर्जुकमशस्तमविरचितनिर्मित प्रवरलक्षणोपेत युक्तमेव धार्मिक यानप्रवरमुपम्थापयत, उपस्थाप्य ममैतामाप्तिा प्रत्यर्पयत ॥२०६॥ तत बल ते कौटम्बिकपुरपा यावत्मत्यर्पयन्ति ॥ २०७ ।। ततः ग्वलु माऽग्निमित्रा भार्ग स्नाता यावत्मायश्चित्ता शुद्धप्रवेश्यानि (शुद्धात्मवेष्याणि) यावदल्पमहाभिरणालट्कृतशरीरा चेटिकाचक्रवाल परिकीर्णा धार्मिक यानप्रवर दरोहति, दूध पोलासपुर नगर मय-मयेन निर्गति, निर्गत्य येनैव सहस्राम्रवणमुद्यान तेनैवीपागच्छति उपागत्य धार्मिका यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य चेटिकाचक्रवाल्परिता येनव श्रमणो भगवान महावीरस्ते नैवोपागच्छति, उपागत्य विकृत्वो यावद्वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा नात्यासन्ने नातिरे यावत्माञ्जलिपुटा स्थितेव पर्युपास्ते ॥ २०॥
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उपासकदशास्त्रे पज्जुवासाहि, समणस्स भगवओं महावीरस्स अंतिए पंचाणुवइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविह गिहिधम्म पडिवजाहि ॥ २०४ ।। तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया सहालपुत्तस्स समणोवासगस्स 'तहत्ति' एयमह विणएण पडिसुणेइ ॥२०५ ॥ ।
तए णं से सदालपुत्ते समणोवासए कोडंबियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एव वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया। लहुकरणजुत्तजोइयसमखुरवालिहाणसमलिहियसिगएहि जंबणया मयकलावजोत्तपइविसिट्रएहि रययामयघटसुत्तरज्जुगवरकेचण यावत्समवसृतः तद् गच्छ खलु त्व श्रमण भगवन्त महागीर व दस्व, यावत्पर्युपास्स्त्र श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्ति के पश्चाणुव्रतिक मप्तशिक्षाबतिक द्वादशविध गृहिधर्म प्रतिपवस्व ।।२०४॥ तत' खलु साऽग्निमिना भार्या सद्दालपुत्रस्य श्रमणापासकस्य तथेति' एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति ॥२०५।।
ततः ग्वलु स सद्दालपुत्र श्रमणोपासकः कौटुम्विकपुरुपान् शब्दयात, शब्दयित्वैवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुपियाः! लघुकरणयुक्तयौगिक्समखुरवालधानसमलिखितशृङ्गकाभ्या जाम्बूनदमयकलापयोक्त्रमतिविशिष्टाभ्या रजतमय घण्टसूत्ररज्जुकवरकाञ्चनखचितनस्तपग्रहात्रगृहीतकाभ्या नीलोत्पलकृताऽऽपीडकाभ्या
टीका निगदसिद्धव ॥२०१-२०५॥ अत तुम जाओ, श्रमण भगवान महावीरको वन्दना नमस्कार करो यावत् उनकी पर्युपासना करो, और उनसे पाच अणुव्रत तथा सात शिक्षाबन, इस तरह बारह प्रकारका गृहस्थधर्म स्वीकार करो" ॥२०४॥ अग्निमित्राने सद्दालपुत्रके कयनको 'तथेति' (ठीक है) कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया ॥२०॥ પધાર્યા છે, માટે તમે જાએ, અને શ્રી શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પ્રભુને વદના નમસકાર કરે ચાવત તેમની પર્યું પાસના કરે, અને તેઓશ્રીની પાસેથી પાચ અણુવ્રત તખ સાત શિક્ષાવ્રત, એ રીતે બાર પ્રકારને નૃહસ્થધર્મ સ્વીકારે” (ર૪) આનુમિત્રાને સદાલપુત્રના કથનને “તતિ” (બરાબર છે) એમ કહીને વિનયપેક સવીકાર્યું (૨૦૦૫)
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भगारधर्मसञ्जीवनीटीका अ. ७ ०२०६ - २०८ अग्निमिश्रा पर्युपासनावर्णनम् ४६५ गोयुवानौ ताभ्याम्, युक्तमेव = सम्बद्धमेवेत्यग्रेतनेन सम्बन्धः । नानेति-नाना बहुविधाना मणीना, कनकाना=सुवर्णानां च घण्टिकाः किडिण्यस्तासा जालेन समूहेन परिगत = व्याप्तम् । सुजातेति सुजात=सुन्दरदारुसम्भव युग 'जुआ' इति लोकमतीत युक्त=समीचीनम्, ऋजु = सरल, प्रशस्तम् उत्तम, सुविरचित=सुघटित, निर्मित निवेशित यस्मिंस्तत् । प्रवरेति मराणि श्रेष्ठानि यानि लक्षणानि तैरुपेत= सहितम् । ('युक्तमेवे' त्यस्य तु 'प्रवरगोयुवभ्या' मित्यनेनैव सम्बन्ध इत्युक्त, 'जुत्तामेव ' इति पाठ: 'पवरगोणजुवाणएहिं' इत्यनन्तरमेवाऽऽसीत्, प्रमादपारम्पर्येण तु 'परलक्खणोववेग' इत्यस्यानन्तरमुपलभ्यत इति मे प्रतिभाति ) । धार्मिकधर्मः प्रयोजन यस्य तत्, यानमवर =यानेषु प्रवर = श्रेष्ठम् । स्नाता = कृतस्नाना यावदिति अत्र ' कयवलिकम्मा कयकोउयमगलपायच्छित्ता ' इति पदद्वय 'जाव' शब्दग्राह्य, तद्वयाख्या छायचित्रम् कृत=सम्पादित बलिकर्म नैत्यिक यथाशक्ति मणियो तथा सुवर्णकी बहुतसी घटीयोंसे युक्त हो, जिसका जुभा यढिया लकडीका बना हुआ, एकदम सीधा, उत्तम और अच्छी बनावटवाला हो, जो उत्तमोत्तम लक्षणोंसे सहित हो, ऐसा एक धार्मिक श्रेष्ठ रथ हाजिर करो । हाजिर करके मेरी यह आज्ञा मुझे वापस करो || २०६ || सेवकोंने ऐसा ही किया और आज्ञा वापस की ॥२०७॥ तय अग्निमित्रा भावने स्नान किया, (नैत्यिक कर्म) किया अर्थात् पामर प्राणियोको यथाशक्ति अन्न दान किया, तथा कज्जल तिलक आदि कौतुक, और दुःस्वमादिका नाशक होनेसे प्रायश्चित्तस्वरूप दधि अक्षत चन्दन कुकुम आदि मंगल किया, शुद्ध उत्तम वस्त्र धारण किए और थोडे भारवाले बहुमूल्य अलकारोंसे शरीरको अलकृत किया, फिर दासियोंके समूह से घिरी हुइ अग्निमित्रा रथ पर सवार हुई । सवार એ બળદ જેમા બ્લેડેલા હાય, અને જે અનેક પ્રકારના મણીએ તથા સુવણુની અનેક ઘટડીએથી યુકત હાય, જેનુ ધૂસરૂ ઉત્તમ લાકડાનું બનાવેલું હોય, એકદમ સીધા, ઉત્તમ અને સારી મનાવવાળા હોય, જે ઉત્તમાત્તમ લક્ષણેાથી સહિત હાય, એવા એક ધાર્મિક શ્રેષ્ઠ રથ હાજર કરો, અને હાજર કરીને મને ખબર આપેા” (૨૦૬) સેવકાએ જે પ્રમાણે કર્યું અને ખખર આપી (૨૦૭) પછી અગ્નિમિત્રા ભાર્યાએ સ્નાન કર્યું, અલિકમ (નૈત્યિક ક) કર્યું, અર્થાત્ પામર પ્રાણીઓને યથાશકિત અન્નદાન આપ્યુ, તથા કાજલ તિલક આદિ કૌતુક અને ૬ સ્વપ્નાદિના નાશક હાઇને પ્રાયશ્ચિત્તસ્વરૂપ દધિઅક્ષત ચંદનકુકુમ આદિ મગલ કર્યું, શુદ્ધ ઉત્તમવસ્ત્ર ધારણ કર્યાં,, થડા ભારવાળા મૂલ્યવાન અલ કારાથી શરીરને અલગૃત કર્યું, પછી દાસીએના (સમૂહથી વીંટળાઇને અગ્નિમિત્રા રથ પર સવાર થઇ,તે એવી રીતે પાલાસપુર
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उपासकदवाने . टीका-लध्विति-लघुकरण क्षिप्रक्रिया-गमनकोशलमिति यावत् , तेन युक्ती, च तौ यौगिको खुरविषाणादिप्रशस्तयोग(लक्षण)सपमाविति लघुकरणयुक्तयौगिकों तथा समाः सदृशाःसुराः वालधानेपुच्छौ च ययौस्तो समखुरवालधानी, समः तुल्यरूप यथास्यात्तथा लिखिते नानापर्णचित्रिते शृङ्गे ययोस्तौसमलिखितशृङ्गको, समखुरवालधानौच तो समलिखितङ्गकाविति समखुरवालधानसमलिखितशतको, लधुकरणे युक्तयौगिकौ च तो समसुरवालधानसमलिखिताकाविति लघुकरण युक्तयौगिकसमखुरवालधानसमलिखितचङ्गको ताभ्याम् । जाम्बूनदेति-जाम्बूनदसुवर्ण तन्मयौ तत्मचुरौ यौ कलापो कण्ठाभरणे, योक्त्रे-युगकण्ठबन्धनरज्जू च, तैः प्रतिविशिष्टौ सयुक्तौ सुशोभितौ वा ताभ्याम् । रजतेति रजतमग्यौ रूप्यनिमिते घण्टे ययोस्तौ-रजतमयघण्टौ,सूत्ररज्जुके कासिनिर्मिते त्रिगुणिते सूक्ष्माकारे च ते वरकाञ्चनखचिते- श्रेष्ठसवर्णसम्मिलिते नस्ते-नासारज्जू इति सूत्ररज्जुक वरकाञ्चनखचितनस्ते तयोः भग्रह' रश्मिस्तेन तद्ग्रहणपूर्वकमित्यर्थः, अवगृहीतको
अवगृहीतो अवष्टम्भितौ वाहकैरित्यर्थादिति सूत्ररज्जुकवरकाश्चनखचितनस्तप्रग्रहावगृहीतको, रजतमयघण्टौ च तौ सूत्ररज्जुकवरकाञ्चनखचितनस्तप्रग्रहावग्रही तकाविति रजतमयघण्टमूत्ररज्जुकवरकाञ्चनखचितनस्तप्रग्रहावगृहीतको ताभ्याम् । नीलेति नीलोत्पलानिम्नीलकमलानि तैः कृता सम्पादित' आपीड. शेखर• (मस्तकाभरण) ययोस्ताभ्याम् । भवरेति प्रवरौ श्रेष्ठौ च तौ गोयुवानो भर
टीकार्थ-'तए ण से इत्यादि । तदनन्तर सद्दालपुत्र श्रावकने अपने कौटुम्बिा पुरुषों (सेवको)को बुलाया और कहा-'हे देवानु प्रिय ! तेज चलनेवाले समान खुर और पूछवाले एक ही रगके, तरह तरह के रंगोंसे रगे हुए सोगवाले, कठके सोनेके (सुनहरी)गहनों
और सोनेके जोतोंसे युक्त चादीके घट पहने हुए, जिनकी नाक सोना मिली हुई सूतकी पतलीसी रस्सी पड़ी है, वह रस्सी पकड़ कर चलानेवालो सहित, नीलकमलसे बनाए हप आपीड़ (मस्तकके गहने )से युक्त दो बैल जिसमें जुते हों, और जो अनेक प्रकारको
टीकार्थ-'तए ण से-त्यादि पछी सापुत्र श्राप पाताना गुना પર (સેવક)ને લાવ્યા અને કહ્યુ “હે દેવાનુપ્રિય! ઉતાવળે ચાલનારા, સમાને ખરીઓ અને પૂછડીવાળા, એકજ ૨ગના, ભાતભાતના ૨થી ૨લા શીગડાવાળા ૦ળામાં સોનાના (સોનેરી) ઘરેણુ તથા સેનાના જેતરથી ચુકત, ચાટીની ઘટએ પહેરેલા, જેના નાકમાં સેનેરી સૂતરની પાતળી નથ હૈિયએ નથી ચલાવનારાઓ સહિત, નીલકમળથી બનાવેલા આપીડ (મસ્તકને ઘરેણા) થી યુકત
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ. ७ अग्निमित्राधर्मश्रद्धावर्णनम्
४६७ मूलम्-तए ण समणे भगवं महावीरे अग्गिमित्ताए तीसे य जावधम्मं कहेइ ॥२०९॥ तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अतिए धम्म सोचा निसम्म हतुवा समणं भगव महावीर वंदइ नमसइ, वदित्ता नमंसित्ता एव वयासी सद्दहामि णं भंते । निग्गंथं पावयणं जाव से जहेय तुम्भे वयह । जहा णं देवाणुप्पियाणं । अतिए वहवे उग्गा भोगा जाव पवइयो, नो खल्लु अहं तहा सचाएमि देवाणुप्पियाण अतिए मुडा भवित्ता जाव अह णं देवाणुप्पियाणं अतिए पचाणुबडय सत्तसिक्खावइय ____ छाया-ततः खलु अमणो भगवान् महावीरोऽग्निमित्रायै तस्याच यावद् धर्म कथयति ॥२०९॥ ततः खलु सा अग्निमिना भार्या अमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा श्रमण भगवन्त महावीर चन्दते नमस्यति, पन्दित्वा नमस्यित्वैवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु भदन्त ! नन्थ्य प्रवचन यावत तद् यथैतद् यूय वदथ । यथा खलु देवानुप्रियाणामन्तिके वहव उग्रा भोगा यावत्पत्रजिता., नो खल्बह तथा शक्नोमि देवानुपियाणामन्ति के मुण्डा भूता यावद् अह ___टीकार्थ-'तए ण समणे' इत्यादि श्रमण भगवान महावीरने उस बडी परिपर्दो अग्निमित्राको धर्मका उपदेश दिया ॥२०९॥ अग्निमित्राने श्रमण भगवान महावीरसे धर्मोपदेश सुनकर हृष्ट तुष्ट होकर उन्हें चन्दना की, नमस्कार किया, और वन्दना नमस्कार करके कहने लगी "भदन्त ! मे निग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धान करती हूँ यावत् आप जो कहेते हैं वह यथार्थ है। जैसे आप देवानुप्रियके पास बहुतसे उग्रवशी, भोगवशी यावत् दीक्षा ग्रहण कर चुके हैं, उस प्रकार
टीकार्थ-'तए ण से-त्या श्रम भगवान महावीरे ये भोटरी परिसमा અનિમિત્રાને ધર્મને ઉપદેશ આપે (૨૯) અગ્નિમિત્રા શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પાસેથી ધર્મોપદેશ સાંભળીને હતુષ્ટ થઈ તે વદનનમસ્કાર કરીને કહેવા લાગી
ભદન્ત' હુ નિગ્રંથ પ્રવચન પર શ્રદ્ધાન કરૂ છું યાવત્ આ૫ જે કહે છે તે યથાર્થ છે આપ દેવાનુપ્રિયની પાસે ઘણા ઉગ્રવશી, ભેગવશી પાવત દીક્ષા ગ્રહણ કરી ચૂકયા છે, એ પ્રમાણે આ૫ દેવાનુપ્રિયની પાસે સુડિત થઇને દીક્ષા લેવાની
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उपासकदवासने माणिभ्योऽन्नदान यथा सा कृतवलिकर्मा, "दृश्यते बघापि मिथिलावणादिमान्तेषु निष्ठावन्तो ब्राह्मण क्षत्रिय-वैश्याः प्रत्यहस्नात्वा, देवामनुष्याः पशवो वयासि इत्यादिवाक्यदेवमनुष्यश्वकाकादीनुदिश्याऽऽमतण्डुलादिप्रदान कुर्वन्तो यद् बलिकर्मनाम्नैव तत्र तत्र मुव्यक्तमित्येव सत्यपि वलिकर्म'-त्यस्य 'स्वगृहदेवताना पूजन'-मिति व्याख्यान कीदृगसारमित्यत्र निष्पक्षविचक्षणा एवं साक्षिणः, चलिशब्दस्य हि-"भागधेयः करो बलि".रित्यादिकोपादिभ्योऽपि भाग एवार्थ आयाति न तु पूजेति।" कृतकौतुकमगलमायश्चित्ता-कृत-सम्पादित कौतुक-मषी कज्जलतिलकादि मङ्गलम्दध्यक्षतचन्दनकुङ्कुमादि, प्रायश्चित्त-दुःस्वभादिनाशक्त्ता मायश्चित्तरूपतया यया सा ॥२०६-२०८॥ होकर पोलासपुर नगरके बीचमे होकर निकली और सहस्राम्रवन उद्यानमें पहुँची। वहा पहुँचकर रथसे उतरी और दासियोसे घिरी हुई श्रमण भगवान महावीरके समीप आई। आकर श्रमण भगवान् महावीरको तीन प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार किया, और न बहुत दूर न बहुत पास यथायोग्य स्थानपर हाथ जोडकर खड़ी खडी पर्युपासना करने लगी।
मिथिला और बगाल आदि मान्तों में निष्ठावान् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, प्रतिदिन स्नान करके "देवा मनुष्या' पशवो वयासि" इत्यादि वाक्य बोलकर, देव मनुष्य पशुपक्षी आदिके लिए कच्चे चावलोका दान करते हुए अब तक देखे जाते हैं। उसे उन प्रान्तोंमें 'बलिकमे' ही कहते हैं। ऐसा होने पर भी वलिकर्मका अर्थ 'गृहदेवताकी पूजा करना कहना कितना निस्सार है, इस विषयमें निष्पक्ष विद्वान ही साक्षी है। "भागधेयः करो बलि" इत्यादि कोप, आदिसे 'बलि'का अर्थ 'भाग' ही सिद्ध होता है, न कि देवपूजा ॥२०८॥ -- નગરની વચ્ચે થઈને નીકળી અને સંસામ્રવન ઉદ્યાને પહેરી તે ત્યા રથમાથી નીચે ઉતરી અને દાસીઓથી વીંટળ અને શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની સમીપે આવી, શ્રમ લાગવાન મહાવીરને ત્રણ પ્રદક્ષિણા કરીને વદના નમસ્કાર કર્યા, અને તે બહુ દૂર તથા ન બહુ નજીક એમ યથાયોગ્ય સ્થાને હાથ જોડીને ઉભી ઉભા પપસના કરવા લાગી મિથિલા અને બાળ આદિ પ્રાન્તમાં નિષ્ઠાવાન શ્રાવણ क्षत्रिय, वैश्य प्रतिदिन स्नान शने "देवा मनुष्या. पशवो वयासि" Uruils
કય બોલી, દેવ મનુષ્ય પશુ પક્ષી આદિને માટે કાચા ચોખાનું દાન કરતા હજી પણ જોવામાં આવે છે તેને એ પ્રાન્તમાં “બલિકમ જ કહેવામાં આવે છે એમ હોવા છતા પણ બલિકર્મને અર્થ “ગૃહદેવતાની પૂજા કરવી” એમ કહે છે ३२९ निस्सार छ, विष निपक्ष विधानर साक्षी के "भागधेय करो पनि" ઈયાદિ કે આદિથી “બાલને અર્થ “ભાગજ સિદ્ધ થાય છે, તેવપૂજા નહિ (૨૮)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ अग्निमित्रावतपारणवर्णनम् ४६९ तएणं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पोलासपुराओसहस्संववणोओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता वहिया जणवयविहार विहरइ ॥२१२॥ तए णं से सदालपुत्ते समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ ॥२१३॥ तए णं से गोसाले मखलिपत्ते इमीसे कहाए लट्टे समाणे-"एवं खलु सदालपुत्ते आजीवियसमय वमित्ता समणाण निग्गथाणं दिट्टि पडिवन्ने, तं गच्छामि णं सद्दालपुत्त आजीविओवासयं समणाण निग्गंथाण दिदि वामेत्ता पुणरवि आजीवियदिदि गेहावित्तए'-ति कट्ठ एव सपेहेइ, महावीरोऽन्यदा कदाचित्पोलासपुरात्सहस्रानवणात्मतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य वहिर्जनपदविहार विहरति॥२१॥ततः खलु स सदालपुत्रःश्रमणोपासकोऽअभिगत जीवाजीवो यावद्विहरति ।२१३॥ ततः खलु स गोशालो मखलिपुतोऽस्या कथाया रब्धार्थ सन्-"एव खलुसद्दालपुत्र आजीविकसमय वमित्वाश्रमणानानिग्रेन्यानादृष्टि प्रतिपन्न, तद् गच्छामि खलु सदालपुत्रमाजीविकोपासक श्रमणाना निर्ग्रन्यानां दृष्टिं वामयित्वा पुनरप्याजीविकदृष्टिं ग्राहयितुम्" इति कृत्वा,एव सम्प्रेक्षते,सम्प्रेक्ष्याअनन्तर किसी समय, श्रमण भगवान् महावीर पोलासपुरके सहस्रा. भ्रवन उद्यानसे निकले और बाहर देशो देश विहार करने लगे ॥२१॥ और श्रमणोपासक शकडालपुत्र जीव अजीवका जानकार यावत् विचरता है। __जय मखलिपुत्र गोशालने यह वृत्तान्त सुना कि शकडालपुत्रने आजीविक मतको त्यागकर निग्रन्थ श्रमणका मत अगीकार कर लिया है, तो उसने सोचा-"मैं जाऊँ और आजीविकोपासक शकडालपुत्रको निर्ग्रन्थ ત્યારપછી કોઈ સમયે શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પલાસપુરના સહસ્ત્રામવન ઉદ્યાનથી નીકળ્યા અને બહાર દેશદેશ વિહાર કશ્વા લાગ્યા (૨૧૨) અને શ્રમણોપાસક શકડાલપુત્ર જીવ અજીવને જાણકાર ચાવત્ વિચારવા લાગ્યું (૨૦૧૩)
જ્યારે મખલિપુત્ર શાલકે એ વૃત્તાત સાભળે કે શકટાલપુત્રે આજીવિક મતને ત્યાગ કરીને નિગ્રંથ શ્રમણને મત અગીકાર કરી લીધું છે, ત્યારે તેણે વિચાર્યું , “હું જઉ અને આજીવિકેપસક શકડાવપુત્રને નિર્ચન્ય શ્રમણને મત છોડાવીને પાછું આજીવિકા મતને અનુયાયી બનાવ” એમ વિચારીને તે આજીવિક સંઘથી વિંટળાઈ,
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" 1 उपासकर्दशासूत्रे दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामि । अहासुहं देवाणुप्पिया । मा पडिबंध करेह॥२१० तएणं साअग्गिमित्ता भारिया समणस्से भगवओ महावीरस्त अतिए पंचाणुवइय सत्तसिक्खावइय दुवालसविह सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवजित्ता समण भगवं महावीर वंदइ नमसइ, वदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहित्ता जामेव दिस पाउन्भूया तामेव दिस पडिगया ॥२११॥ खलु देवानुभियाणामन्तिके पश्चाणुातिक सप्तशिक्षाप्रतिक द्वादशविध गृहिधर्म मतिपत्स्ये । यथासुख देवानुपिये! मा प्रतिबन्ध कुरुत ॥२१०॥ ततः खलु सानिमित्रा भार्या श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यान्तिके पश्चाणुव्रतिक सप्तशिक्षावतिक द्वादशविध श्रावकधर्म प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य श्रमण भगवन्त महावीर चन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा तदेव धार्मिक यानप्रवर दूरोहति, दूरुख यामेव दिशं मादुर्भूता तामेव दिश मतिगता ।।२११॥ ततः खलु श्रमणो भगवान् आप देवानुप्रियके पास मुण्डित होकर दीक्षा लेनेकी मुझमे शक्ति नहीं है, अतः मे आप देवानुप्रियके समीप पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाबत-इस प्रकार चारह प्रकारका गृहस्थ धर्म स्वीकार करती हूँ" भगवान्-“हे देवानुप्रिये ! जैसी इच्छा हो करो उसमे विलम्ब न करो" ॥२१०॥ अग्निमित्राने पाच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत,ऐसे बारह प्रकारका गृहस्थ धर्म स्वीकार किया। श्रमण भगवान मावीरको वन्दनाकी नमस्कार किया और उसी धार्मिक रथ पर सवार हुई। सवार होकर जहाँसे आई थी वही लौट गई ॥२११॥ इसके મારામાં શકિત નથી, એટલે હું આપ દેવાનુપ્રિયની સમીપે પાચ અણુવ્રત તથા સાત શિક્ષાવ્રત-એ પ્રમાણે ખાર પ્રકારને ગૃહસ્થ ધર્મ સ્વીકારુ છુ” ભગવાને धु " पानुप्रिये! २वी हाय तम री, तमा विलमन ४२॥" (૨૧) અગ્નિમિત્રાએ પાચ અણુવ્રત અને સાત શિક્ષાત્રત, એમ બાર પ્રકારને ગ્રતુધર્મ સ્વીકાર્યો શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને વદન નમસ્કાર કરીને તે પિલા ધાર્મિક રથમાં બેઠી અને ક્યાથી આવી હતી ત્યા પાછી ફરી (૨૧૧)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ० ७ सद्दालपुत्रगोशालवार्तालापवर्णनम् ४७१ मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तेण समणोवासएणं अणाढाइजमाणे अपरियाणिजमाणे पीढफलगसेज्जासंथारट्राए समणस्स भगवओ महा वीरस्स गुणकित्तणं करेमाणे सद्दालपुत्तं समणोवासय एव वयासी आगए ण देवाणुप्पिया। इहं महामाहणे ॥२१६॥ तए ण से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मखलिपुत्त एव वयासी के णं देवाणुप्पिया। महामाहणे ॥२१७॥ तए णं से गोसाले मंखलि. पुत्ते सद्दालपुतं समणोवासयं एव वयासी समणे भगव महावीरे महामाहणे। से केणट्रेणं देवाणुप्पिया। एव वुच्चइ समणे भगवं नानााद्रयमाणोऽपरिज्ञायमान पीठफलकशय्यासस्तारार्थाय श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य गुणकीर्तन कुर्वाणः सद्दालपुत्र श्रमणोपासकमेवमवादीत्-आगतः खलु देवानुपिय ! इह महामाहनः ॥२१६|| ततः खलु स सदालपुत्रः श्रमणोपासको गोशाल मङ्खलिपुत्रमेवमवादीत्-क. खल देवानुमिय! महामाहनः।।२१७॥ ततः खलु स गोशालो मझलिपुत्र. सद्दालपुत्र श्रमणोपासकमेवमवादीत-श्रमणो भगवान् महावीरो महामाहनः। तत्केनार्थेन देवानुमिय! एवमुच्यते श्रमणो भगवान् महान आदर करता है, न परिज्ञान करता है तो पीठ, फलक, शय्या और सधारे प्राप्त करनेके लिए श्रमण भगवान महावीरके गुणोंका बखान करता हुआ कहने लगा
गोशाल-"देवानुप्रिय ! यहा क्या महामहान पधारे थे" ॥२१६॥
शकडालपुत्र-“देवानुप्रिय ! आप किस महामानके लिए पूछ रहे हो" ॥ २१७ ॥ ___ गोशाल-"श्रमण भगवान् महावीर महामान"। પણું કરતો નથી, એટલ પીઠ, ફલક, શવ્યા અને સ થારે પ્રાપ્ત કરવાને માટે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરના ગુણેના વખાણ કરતા તે કહેવા લાગ્યું –
शा - “देवानुप्रिय! मी शु महामासन पधार्या त ?” (२१९)
શકહાલપુત્ર–“દેવાનુપ્રિય! આપ કયા મહામાહનના સબ ધમાં પૂછી २६॥ छ। (२१७)
गा -"श्रम भगवान महावीर महाभारन"
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उपासकदशाङ्गमुत्रे
संहत्ता आजीवियसंघसपरिवुडे जेणेव पोलासपुरे नयरे जेणेव आजीवियसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आजीवियसभाए भडगनिक्खेव करे, करिता कइवएहिं आजीविएहिं सद्धि जेणेव सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छइ ॥ २१४॥
मूलम् -तएण से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसाल मंखलिपुत एजमाण पासइ, पासित्ता नो आढाइ नो परिजाणइ, अणाढायमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए सचिट्ठा ॥ २१५ ॥ तए ण से गोसाले
ऽऽजीविकसङ्घ सपरिवृतो येनैव पोलासपुर नगर येनैवाऽऽजी विकसभा तेनैवोपागच्छति उपागत्याऽऽजीविकसभाया भाण्डक निक्षेप करोति, कृत्वा कतिपयैराजीविकै साद येनैव सद्दालपुत्र. श्रमणोपासकस्तेनैवोपागच्छति ॥ २१४॥
टीका छायागम्यैव ॥२०९-२१४॥
·
छाया - तत• खलु स सद्दालपुत्रः श्रमणोपासको गोशाल मसलिपुत्र मेजमान पश्यति, दृष्ट्वा नो आद्रियते नो पारिजानाति । अनाद्रियमाणोऽपरिजानन् तूष्णीकः सतिष्ठते ॥१५॥ ततः खलु स गोशालो मङ्खलिपुत्रः सद्दालपुत्रेण श्रमणोपासकेश्रमणके मतका त्याग कराकर फिर आजीविक मतका अनुयायी बनाऊँ।" ऐसा विचार कर वह आजीविक सघसे घिरा हुआ, पोलासपुरमें जहा आजीविक सभा थी वहा आया । वहा आकर आजीविक सभामें अपने भाण्ड उपकरण रख दिये और कुछ आजीविक के साथ शकडालपुत्र श्रावकके पास आया || २१४ ॥
टीकार्थ -- 'तएण से, इत्यादि ॥ शकडालपुत्र श्रावकने मखलिपुत्र गोशालको आते देखा । देखगर उसने न आदर किया न परिज्ञान ही किया- चुप-चाप बैठा रहा ||२१५ || जब गोशालने देखा कि यह પાલાસપુરમા જ્યા આજીવિક સભા હતી ત્યા આવે તેણે આવિક સભામા પેાતાના પાત્ર —ઉપકરણાદિ મૂકયા અને કેટલાક આજીવિકાની સાથે તે શકડાલપુત્રની પાસે આવ્યે (૨૧૪)
टीकार्य - 'तए न से' इत्याहि शडासपुत्र श्रावडे भ असिपुत्र गोशासने આવતા જોયે જોઈને તેણે તેને આદર ન કર્યો કે રિજ્ઞાન પણ ન કર્યું ઝુપચાપ એસી રહ્યો (૨૧૫) જ્યારે ગાલે જોયુ કે મારો આદર કરતા નથી કે પરિક્ષાન
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अगारधर्म सञ्जीवनीटीका अ० ७ सद्दालपुत्र-गोशालवार्तालापवर्णनम् ४७३ देवाणप्पिया। समणे भगव महावीरे संसाराडवीए वहवे जीवे नस्समाणे विणस्तमाणे खञ्जमाणे छिज्जमाणे भिज्जमाणे लुप्पमाणे विल्लुप्पमाणे धम्ममएण दंडेणं सारक्खमाणे सगोवेमाणे निवाणमहावाडं साहित्थि सपावेइ,से तेणटेणं सद्दालपुत्ता ! एवं बुच्चइसमणे भगवं महावीरे महागोवे । आगए णं देवाणुप्पिया । इहं प्रिय । इह महासार्थवाहः कः खलु देवानुप्रिय ! महासार्थवाहः। सद्दालपुत्र! श्रमणो भगवान महावीरो महासार्थवाहः । तत्केनार्थेन । एव खलु देवानुमिय! श्रमणो भगवान महावीरः ससाराटव्या वहून् जीवान् नश्यतो विनश्यतो यावद्विलप्यमानान् धर्ममयेन पथा सरक्षन निर्वाणमहापतनाभिमुखान् स्वहस्तेन सम्मापयति, तत्तेनार्थेन सद्दालपुत्र । एवमुच्यते श्रमणो भगवान महावीरो महासार्थवाहः आगतः खलु देवानुपिय ! इह महाधर्मकथी। कः खलु देवानुप्रिय ! महाधर्मकथी। श्रमणो भगवान महावीरो महाधर्मकथी। तत्केनार्थेन श्रमणो भगवान महावीरो महाधर्मकथी। एव खलु देवानुपिय! श्रमणो भगवान् महावीरो महातिमहालये ससारे
टीका केनार्थेन केनाभिप्रायेण महागोप इति, गाःपातिरसतीति गोपायतीति वा गोपः, महाश्चासौ गोपो महागोप.-इतरेभ्यो गोपालकेभ्योऽविशिष्टत्वात् । एतदेव वैशिष्टय रूपकमुखेन वनाति-'एव खल्वि'-त्यादि, ससाराटव्या-ससाररूपा याऽटवी-महावन तस्या,नश्यतः कपायव्यालग्रस्ततयाप्रवचनमार्गात्मच्यवत
गोशाल-"श्रमण भगवान् महावीर-मरागोप हैं" ।
शकडालपुत्र-"आप श्रमण भगवान महावीरको किस अभिप्रायसे महागोप कहते हैं ?" ॥
गोशाल-"देवानुप्रिय ! इस ससाररूपी विकट अटवी (वन )में कपाय वश होकर प्रवचन-मार्गसे भ्रष्ट होनेवाले, प्रतिक्षण मरते हुए मृग आदि डरपोक योनियों में उत्पन्न होकर हिंसक-व्याघ्र आदिसे खाए
गा --" अभय लगवान महावीर महानी "
શકડાલપુર–“આપ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને કેવા અભિપ્રાયે કરીને મહાપ કહે છે.”
ગોશાલ–દેવાનુપ્રિય! આ સંસારરૂપી વિકટ અટવી (વન)માં કાથ વશ થઈને પ્રવચનમાર્ગથી ભ્રષ્ટ થનારા પ્રતિક્ષણે મરનારા, મૃગ આદિ ડરપોક એનિમા ઉત્પન્ન થઈ હિંસક વ્યાધ્ર આદિનું ભક્ષય થનારા, મનુષ્ય આદિ નિઓ
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उपासवामध्ये महावीरे महामाहणे । एव खल्ल सहालपुत्ता समणे भगवं महावीरे महामाहणे उत्पन्नणाणदसणधरे जाव महियपूइए, जाव तच्चकम्मसंपया सपउत्ते,से तेणटेणं देवाणुप्पिया एवं बुञ्चइ समणे भगवं महावीरे महमाहणे । आगए ण देवाणुप्पिया। इह महागोवेकेणं देवाणुप्पिया। महगोवे समणे भगवं महावीरे महागोवे ।सेकेणट्रेणं देवाणुप्पिया जाव महागोवे' एवं खलु वीरो महामाइनः । एव खलु सदालपुत्र ! श्रमणो भगवान महावीरो महामाइन उत्पन्नज्ञानदर्शनधरो यावन्महितपूजितो यावत्तथ्यकर्मसम्पदा सम्भयुक्ता, तत्तेनार्थन देवानुप्रिय ! एवमुच्यते श्रमणो भगवान महावीरो महामाहन । आगतः खलु देवानुपिय ! इह महागोप. ? । क. खलु देवानुप्रिय ! महागोपः । श्रमणों भगवान महावीरो महागोपः। तत्केनार्थन देवानुप्रिय ! यावन्महागोप.१ । एवं खलु देवानुप्रिय ! श्रमणो भगवान् महवीर' ससाराटव्या बहन् जीवान नश्यता विनश्यतः खाधमानान् छिद्यमानान् भिद्यमानान् लुप्यमानान् विलुप्यमानान् धर्ममयेन दण्डेन सरक्षन,सगोपयन् निर्वाणमहावाट स्वहस्तेन सप्रापयति, तत्तेनार्थन सदालपुत्र ! एवमुच्यते-श्रमणो भगवान महावीरो महागोपः आगत. खल देवानु
शकडालपुत्र-“देवानुप्रिय ! आप श्रमण भगवान महावीरको किस अभिप्रायसे महामाहन कहते हैं | - + गोशाल-"शकडालपुत्र ! श्रमण भगवान महावीर, महामाहन है। केवलज्ञान केवलदर्शनके धारी यावत् महित पूजित यावत् सत्फलप्रदान करनेवाले कर्तव्यरूपी सम्पत्तिसे युक्त हैं। इसी अभिप्रायसे मैं कहता
कि 'श्रमण भगवान महावीर महाभारन हैं"। देवानुप्रिय ! क्या महागोप (गायो अर्थात् प्राणियोंके रक्षकोंमें सबसे बडे)आये थे?" ।
शकडालपुत्र-“देवानुप्रिय ! महागोप कौन"। '
શડાલપુત્ર–દવાનુપ્રિય! આપ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને કેવાઅભિપ્રાય કરીને મહામાન કહે છે ,
गोश-"Aay! अभय भगवान महावीर भाभा ,.. aa જ્ઞાન કેવલદર્શનના ધારક યાવતુ મહિત – પૂજિત યાવત સત્કલ-પ્રદાન કરનારા કિર્તરૂપી સંપત્તિથી યુક્ત છે એ અભિપ્રાયે કરીને હું કહું છું કે શ્રમ ભગવાન મહાવીર મહામહન છે દેવાનુપ્રિય -શુ મહાપ (ચે અથત પ્રાણીઓના રક્ષકામાં સૌથી મેટા) આવ્યા હતા ?
Naya-Ramful warm? ,, -- uk
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अगारधर्म सञ्जीवनीटीका अ० ७ सद्दालपुत्र-गोशालवार्तालापवर्णनम् ४७३ देवाणुप्पिया। समणे भगव महावीरे संसाराडवीए वहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे खञ्जमाणे छिज्जमाणे भिज्जमाणे लप्पमाणे विलुप्पमाणे धम्ममएण दंडेणं सारक्खमाणे सगोवेमाणे निवाणमहावाड साहित्थिं संपावेइ,से तेणटेणं सद्दालपुत्ता । एवं बुच्चइसमणे भगव महावीरे महागोवे । आगए णं देवाणुप्पिया। इहं मिय ! इह महासार्थवाहः कः खलु देवानुप्रिय ! महासार्थवाहः। सद्दालपुत्र! श्रमणो भगवान् महावीरो महासार्थवाहः । तत्केनार्थेन । एव खलु देवानुप्रिय! श्रमणो भगवान महावीरः ससाराटव्या वहून जीवान नश्यतो विनश्यतो यावद्विलप्यमानान् धर्ममयेन पथा सरसन निर्वाणमहापतनाभिमुखान् स्वहस्तेन सम्प्रापयति, तत्तेनार्थेन सद्दालपुत्र । एवमुच्यते श्रमणो भगवान् महावीरो महासार्थवाहः आगतः खलु देवानुप्रिय ! इह महाधर्मकथी। कः खलु देवानुप्रिय ! महाधर्मकथी। श्रमणो भगवान महावीरो महाधर्मकथी। तत्केनार्थेन श्रमणो भगवान महावीरो महाधर्मकथी। एव खलु देवानुमिय! श्रमणो भगवान् महावीरो महातिमहालये ससारे
टीका-केनार्थेन केनाभिमायेण महागोप इति, गाःपाति-रक्षतीति गोपायतीति वा गोपः, महाश्चासौ गोपो महागोपः-इतरेभ्यो गोपालकेभ्योऽविशिष्टत्वात् । एतदेव वैशिष्टय रूपकमुखेन वनाति-'एव खल्वि'-त्यादि, ससाराटव्या-ससाररूपा याऽटवी महावन तस्या,नश्यता कपायव्यालग्रस्ततयाप्रवचनमार्गात्मच्यवत
गोशाल-"श्रमण भगवान महावीर-महागोप हैं"।
शकडालपुत्र-"आप श्रमण भगवान् महावीरको किस अभिप्रायसे महागोप कहते हैं ?" ।
गोशाल-"देवानुप्रिय ! इस ससाररूपी विकट अटवी (वन )में कपाय वश होकर प्रवचन-मार्गसे भ्रष्ट होनेवाले, प्रतिक्षण मरते हुए मृग आदि डरपोक योनियों में उत्पन्न होकर हिंसक-व्याघ्र आदिसे खाए
ગોશાલ–“શ્રમણ ભગવાન મહાવીર મહાપ છે?
શકડાલપુત્ર–આપ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને કેવા અભિપ્રાયે કરીને મહાપ કહે છે >
गा -" हैवानुप्रिय! मी ससा२३था विट मटकी (वन)मा वाय. વશ થઈને પ્રવચનમાર્ગથી ભ્રષ્ટ થનારા, પ્રતિક્ષણે મરનારા, મૃગ આદિ ડરપેક એનિમા ઉત્પન્ન થઈ હિંસક વ્યાધ્ર આદિનું ભલય થનારા, મનુષ્ય આદિ નિએ
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४७४
। उपासकामासने महासत्थवाहे ? के ण देवाणुप्पिया महासत्थवाहे? सहालपुत्ता। समणे भगव महावीरे महासत्थवाहे । से केणटेणं । एव खलु देवाणुप्पिया। समणे भगव महावीरे ससाराडवीए बहवे जीवे नस्समाणे विणस्तमाणे जाव विल्लुप्पमाणे धम्मएण पण सारक्खमाणे निवाणमहापट्टणाभिमुहे साहत्थि सपावेइ, से तेणटेण सद्दालपुत्ता । एवं वुच्चइ समणे भगव महावीरे महासत्थवाहे । विनश्यता प्रतिक्षण म्रियमाणान् ,खाधमानान् मृगादिकातरयोनिषु समुपधहिौ याघ्रादिभिर्भक्ष्यमाणान् ,छिद्यमानान् मनुष्यादियोनिषु समुत्पद्यापि क्वचित् समा मादौ खड़ादिना खण्डीक्रियमाणान् , भिधमानान-कुन्तशुलादिभिर्भेदविषयी क्रिय माणान् , लुप्यमानान्-कचन कलहादौ व्यभिचारचौर्यादौ वा कर्णनासादिकत्तनेन विकलाङ्गीक्रियमाणान्, विलुप्यमानान-विशेषेण विकलाङ्गीक्रियमाणान् यहा धनाद्यपहारविषयी क्रियमाणान् , सरक्षन-देशनादिना पाल्यन,सगोपयन्-रत्नत्रय दानेन पोपयन । 'निर्वाणे'-ति निर्वाणरूपो यो महावाट: महागोष्ठ 'वाडा' इति प्रतीतस्त, स्वहस्तेनेति-यथा गोपो गाः सर्वतो रक्षन् दिनावसाने निज इस्तेन गोष्ठ मवेशयति तथैव साक्षादित्यर्थ । साथैति-सार्थ वाहयति योगक्षेमपरि पालनपुरस्सर नयतीति सार्थवाह.। पथा-मार्गेण,निर्वाणमहापत्तनाभिमुखान-मोक्ष जानेवाले, मनुष्य आदि योनियोमें उत्पन्न होकर भी युद्ध आदिमें कटने वाले, भाले आदिसे बेधे जानेवाले, कलह, व्यभिचार या चोरी आदि करने पर नाक कान काटकर अगहीन बनाए जानेवाले, तथा अत्यन्त विकलाग किये जानेवाले, अथवा धनादिसे लुटे हुए बहुतसे जीवोंको, धर्म मय डडेसे सरक्षण करते हुए, गोपन करते हुए निर्वाण (मोक्ष) रूपी बाडेमें अपने हाथसे प्रवेश करानेवाले-जैसे चरवाहा (गोप ग्वाला) गायोंकी रक्षा करता हुआ साझके समय स्वय उन्हें बाडेमें पहुँचा देता है,उसी प्रकार स्वय ससारी जीवोंको निर्वाणरूपी बाड़में पहुँचानेवालेમા ઉત્પન્ન થયા છતા પણ યુદ્ધ આદિમા કપાઈ મરનારા, ખાણ આદિથી વીંધાઈ જનારા, કલહ વ્યભિચાર અગર ચારી આદિ કરીને નાક-કાન કપાવી અ ગહીન બનાવી દેવાનારા તથા અત્યંત વિકલાગ કરવામાં આવનારા, અથવા ધનાદિથી લુટીઈ ગએલા ઘણુ જીને, ધર્મમય દડાથી સરક્ષણ કરત ગોપન કરતા નિર્વાણ (મક્ષ) રૂપી વાડામાં પોતાના હાથથી પ્રવેશ કરાવનારા-જેમ ગોવાળ ગાયની રક્ષા કરતા સાજને સમયે પિતે તેમને વાડામાં પહોંચાડી દે છે તેમ પિતે સસારી અને
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अगारधर्मसञ्जीवनीटीका अ०७२१५-२१८ सद्दालपुत्रगोशालवार्तालापवर्णनम् ४७५ आगए णं देवाणुप्पिया! इहं महाधम्मकही के णं देवाणुप्पिया। महाधम्मकही। समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही। से केणटेणं समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही । एव खल्लु देवाणुप्पिया। समणे भगव महावीरे महइमहालयसि संसारंसि वहवे जाव नस्समाणे विणस्लमाणे उम्मग्गपडिवन्ने सप्पहविप्पण? मिच्छत्तवलाभिभूए अविहकम्मतमपडलपडोच्छन्ने वहहि अट्रहि य जाव वागरणेहि य चाउरताओ संसारकंताराओ साहत्थिं नित्थारेइ, से तेणटेणं देवाणुप्पिया । एव वुच्चइ समणे भगव महावीरे महाधम्मकही। आगए णं देवाणुप्पिया। इह महानिजामए के गंदेवाणुप्पिया। महानिजामए 'समणे भगव महावीरे महानिजामए । से केणट्रेणं। एवं खलु देवाणुप्पिया । समणे भगवं महावीरे ससारमहासमुद्दे वहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे वुड्डमाणे निव्वुडमाणे उप्पियमाणे धम्ममईए नावाए निवाणतीराभिमुहे साहत्थिं सपावेद,से तेणट्रेणं देवाणुप्पिया। एव वुच्चइ समणे भगव महावीरे महानिजामहे ॥२१८॥
वहून जीवान नश्यतो विनश्यत उन्मार्गप्रतिपमान सत्पथविप्रनष्टान मिथ्यात्ववला. भिभूतानष्टविधकर्मतमःपटलपत्यवच्छन्नान् बहुभिरथेच यावद् व्याकरणैश्च चातुर न्तात्ससारकान्तारात्स्वहस्तेन निस्तारयति, ततेनार्थेन देवानुपिय! एवमुच्यते श्रमणो भगवान महावीरो महाधर्मकथी। आगतः खलु देवानुप्रिय ! इह महानिर्यामकः । कः खलु देवानुमिय! महानिर्यामकः? । श्रमणो भगवान महावीरो महानिर्यामकः । तत्केनार्थेन? । एव खलु देवानुपिय ! श्रमणो भगवान् महावीरः ससारमहासमुद्रे वहून जीवान नश्यतो विनश्यतो त्रुडतो नित्रुडत उत्प्लवमानान् धर्ममय्या नावा निर्वाणतीराभिमुखे स्वहस्तेन सम्मापयति, तत्तेनार्थेन देवानुपिय! एवमुच्यते-श्रमणो भगवान् महावीरो महानिर्यामकः ॥२१८॥ रूपमहानगरसम्मुग्वात् । महाधर्मेति-महती चासौ धर्मकथा महाधर्मकथा साऽस्यास्तीति
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- . ., जपासकवचासो महाधर्मकथी। नाशविनाशयोतमुपदर्शयितुमाह-'उन्मार्ग, त्यादि, उन्मार्गः= कुशासन तत्पतिपमानतदाश्रितान् , सत्पथपविनष्टान्सत्पथा=निनशासनमार्ग स्तस्मात् पविनष्टान भ्रष्टान, अत्र हेतुमाह-'मिथ्यात्वे-त्यादि,मिथ्यात्वबलाश्रमण भगवान महावीर हैं। इसी अभिप्रायसे उन्हें महागोप कहा है।
गोशाल-"क्या यहाँ महासार्थवाह आये थे? ।" शकडालपुत्र-"कौन महासार्थवार ?।" गोशाल-"शकडालपुत्र ! श्रमण भगवान महावीर महासार्थवाह।" शकडालपुत्र-"किस अभिप्रायसे आप उन्हें मासार्थवाह करते हैं।"
गोशाल-" देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर, ससाररूपी अटवीमें नष्ट भ्रष्ट यावत् विकलाग किए जानेवाले बहुतसे जीवोको धर्म मार्ग बताकर उनका सरक्षण करते हैं और स्वय मोक्षरूपी महान् नगरकी ओर सन्मुख करते हैं, इस अभिप्रायसे मैं उन्हें महासार्थवाह कहता हूँ।"
गोशाल-"देवानुप्रिय ! क्या यहा महाधर्मकथी आये थे।" शकडालपुत्र-“हे देवानुप्रिय ! कौन महाधर्मकथी ?" गोशाल-"श्रमण भगवान महावीर महाधर्मकथी"
शकडालपुत्र-"श्रमण भगवान् महावीरको महाधर्मकथी किस अभिप्रायसे कहते हो।" નિર્વાણુરૂપી વાડામાં પહોંચાડનાર -શ્રમણ ભગવાન મહાવીર છે, એ અભિપ્રાય કરીને હું એમને મહાપ કહુ છુ ગોશાળ-શુ અહીં મહાસાર્થવાહ આવ્યા હતા
पुत्र-"भासार्थ वा eg?" ગાશાળ–શકડાલપુત્ર ' શ્રમણ ભગવાન મહાવીર મહાસાર્થવાહ” } શકહાલપુત્ર–કયા અભિપ્રાયે કરીને આપ એમને મહાસાર્થવાહ કહે છે?”
गशा--देवानुप्रिय! श्रभ लान महावीर ससारी भावाभा નષ્ટ-ભ્રષ્ટ ચાવત્ -વિકલાગ કરવામાં આવનારા ઘણુ અને ધર્મમાર્ગ બતાવી એમનું સંરક્ષણ કરે છે, અને પિતે મેક્ષરૂપી મહાન નગરની તરફ ઉન્મુખ, કરછ એ અભિપ્રાયે કરીને હું એમને મહાસાર્થવાહ કહુ છુ * *
શાળ-હે દેવાનુપ્રિયાં મહાધર્મકથી આવ્યા હતા? saya-वानुप्रिया भाभी अस?" --- श-"भ गवान महावीर महाभया"
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___ अ० धर्म० टीका अ मू. ७२१५-२१८ सद्दालपुत्रगोशालवार्तालापवर्णनम् ४७७ भिभूतान् मिथ्यात्वस्योदयेन विवशानित्यर्थः । अप्पविधेति,-अष्टविधर्मरूप यत्तमःपटल-बान्तसमूहस्तेन प्रत्यवच्छम्नान-समातान, चातुरन्तात्-चतुर्गतिकात् 'ससारेति'-ससार एवं कान्तारः दुर्गममार्गस्तस्मात् निस्तारयति-पार नयति। बुडतः निमजतः, निवडतः सातिशय निमज्जतः, उत्प्लवमानान्-प्रवाहवेगेन जन्ममरणादिजलोपरि लुठतः ॥२१५-२१८॥
गौशालक-“हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर, इस विशाल ससारमे बहुतसे नष्ट, विनष्ट, कुमार्ग (मिथ्यामत)में गमन करनेवाले, सुमार्ग (जिनमत)से हटे हुए, मिथ्यात्वके प्रयल उदयसे पराधीन, आठ प्रकारके कर्मरूपी अन्धकार-समूहसे ढंके हुए जीवोंको बहुतसे अर्थों यावत् व्याकरणों (प्रश्नोत्तरों)से [प्रतियोध देकर चार गतिवाले ससाररूपी दुर्गम मार्गसे पार लगाते हैं । इस अभिप्रायसे उन्हें महा धर्मकथी (धर्मके महान् उपदेशक) कहा है।"
गोशालक-देवानुप्रिय ! यहां क्या महानिर्यामक आये थे?" शक्डालपुत्र-“देवानुप्रिय ! कौन महानिर्यामक ? ।" गोशालक-"श्रमण भगवान महावीर महानियामक ।"
शक्डालपुत्र-"किस अभिप्रायसे आप श्रमण भगवान महावीरको महानिर्यामक करते है ?"
શકઠાલપુત્ર--“શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને મહાધર્મકથી કયા અભિપ્રાય કરીને કહે છે”
ગશાળ–“હે દેવાનુપ્રિય | શ્રમણ ભગવાન મહાવીર આ વિશાળ સંસારમા ઘણુ નષ્ટ વિનષ્ટ, (મિથ્યા મત) મા ગમન કરનારા, સુમાર્ગ ( જીિન મત) થી પાછાહઢેલા, મિથ્યાત્વ ના પ્રબળ ઉદયથી પરાધીન, આઠ પ્રકારના કમરૂપી અધકાર સહમથી ઢંકાયેલા છને ઘણું અર્થો યાવત વ્યાકરણ (પ્રશ્નોત્તર)થી (પ્રતીબધ દઈન) ચાર ગતિવાળા સ સારરૂપી દુર્ગમ માર્ગથી પાર લગાડે છે એ અભીપ્રાયે કરીને એમને મહાધર્મકથી ધર્મના મહાનઉપદેશક) કહું છું
ग ण-- देवानुप्रिय ! मह शु महानियाभ: माल्या सता ?,,. શકડાલપુરા-દેવાનુપ્રિય ' કેણ મહાનિયામક ?” गाण- "भय सरावान महावीर भानियाभ"
શક્કાલપુત્ર-“કયા અભીપ્રાયે કરીને આપ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને મહાનિયામક કહે છે”
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४७८
उपासकदशास्त्रे
मूलम् - तए णं सदालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुतं एव वयासी - तुब्भेण देवाशुप्पिया । इयच्छेया जाव इयनिउणा इयनयवादी इयउवएसलद्धा इयविण्णाणपत्ता । पभू णं तुब्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं भगवया महावीरेणं सद्धिं विवाद करेत्तए ? | नो इण समट्टे । से केणट्टेणं देवाणुप्पिया । एवं gas - नो खलु पभू तुम्भे मम धम्मायरिएणं जाव महावीरेण बुच्चइ सद्धि विवादं करेत्त' । सद्दालपुत्ता 1 से जहानामए - केइ पुरिसे तरुणे बलव जुगव जाव निउणसिप्पा वगए एवं मह अथ वा एलय वा सूयरं वा कुक्कुड वा तित्तिर वा वट्टयं वा लावयं वा कवोय वा कविजल वा वायसं वा सेणयं वा हत्थसि वा पायसि वा खुरसि वा पुच्छसि वा पिच्छसि वा सिगसि वा विसाणसि वा रोमसि वा नहिं जहिं गिues तहिं तर्हि निञ्चल निदं धरे । एवामेव समणे भगव महावीरे मम बहू हिं अट्ठेहि य हेऊहि य जाव वागरणेहि जहिं जहिं गिव्ह तहि तहि निष्पटुपसिणवागरणं करेइ, से
गोशाल - "देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर, ससाररूपी महान् समुद्र में नष्ट विनष्ट होनेवाले, डूबनेवाले, बारम्बार गोते खानेवाले, तथा बहनेवाले, बहुतसे जीवोंको धर्मरूपी नौकासे निर्वाणरूप किना रेकी ओर ले जाते है; इसलिए श्रमण भगवान् महावीरको महा नियमक कहा है ॥ २९८ ॥
11 है
ગાશાળ~~ દેવાનુપ્રિય ! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર, સસારરૂપી મહાનું સમુદ્રમા નષ્ટ વિનષ્ટ થનારા, ડુખનારા, વારવાર ગાયા ખાતારા, તથાં તણાઈ જનારા ઘણા જીવાને ધર્મરૂપી નૌકાએ કરીને નિર્વાણુરૂપ કિનારાની તરફ લઈ જાય છે, એટલા માટે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરને મહાનિર્યામક કહ્યા છે”(૨૧૮)
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ सू० २१९ सद्दालपुत्र गोशालवालापवर्णनम् ४७९ तेणट्टेण सद्दालपुत्ता । एव बुच्चइ-नो खलु पभु अहं तवं धम्मायरिएणं जाव महावीरेणं सद्धि विवाद करेत्तए ॥ २१९ ॥
छाया-तत' खलु स सद्दालपुत्रः श्रमणोपासको गोशाल मलिपुत्रमेवमत्रा दीव - पूय खलु देवानुमियाः । इतिच्छेका यावद् इतिनिपुणाः, इतिनयवादिनः, इत्युपदेशला', इतिविज्ञानप्राप्ताः । प्रभवो खलु यूय मम धर्माचार्येण धर्मोपदेश केन भगवता महावीरेण सार्द्ध विवाद कर्त्तुम् । नायमर्थः समर्थः । तत्केनार्थेन देवानुमियाः । एवमुच्यते-नो खलु प्रभवो यूय मम धर्माचार्येण यावन्महावीरेण मार्द्ध विवाद कर्तुम् ? | सद्दालपुत्र । तद्यथानामकः - कोऽपि पुरुषस्तरुणो चलवान युगवान् यावनिपुण शिल्पोपगत एक महान्तमज वा, एडक वा, सूकर वा, कुक्कुट वा तित्तिरिं वा, वर्त्तकवा, लायक वा, कपोत वा, कपिञ्जल वा, वायस वा, श्येनक वा, हस्ते वा पादे वा, खुरे वा, पुच्छे वा, पिच्छे वा, श्रृङ्गे वा विपाणे वा, रोणि वा, यत्र यत्र गृह्णाति तत्र तत्र निथल निस्पन्द धरति । एवमेव श्रमणो भगवान् महावीरो मा बहुभिरयैव हेतुभिश्च यावद् व्याकरणैव यत्र यत्र गृह्णाति तत्र२ निस्पष्टप्रश्नव्याकरण करोति, तत्तेनार्थेन सदालपुत्र । एवमुच्यते नो खल्लु प्रभुरह तव धर्माचार्येण यावन्महावीरेण सार्द्ध विवाद कर्तुम् ॥ २१९ ॥
टीका - इतीति - अत्र सर्वत्र 'इति' - शब्द एवमर्थे', ततश्च इति= एव = यथा युष्माभिः प्राक् श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य महत्वमुक्त तयेत्यर्थः, छेका=विदग्धाः प्रस्तावपण्डिता इति यावत् । यावदिति 'जाव' शब्दात् 'इयदक्खा इयपट्टा' इत्यनयोर्ग्रहणम्, 'इति दक्षाः, इति मष्ठाः' इति च तच्छाया, तत्र - दक्षाः = क्षिप्रकार्य कर्त्तारः, ष्ठात्राग्मिणामग्रेसराः, निपुणाः = सूक्ष्मदर्शिनः । नयेति - नयः नीतिः,
टीकार्थ- 'तए ण' इत्यादि फिर शकडालपुत्र श्रमणोपासक मखलि-पुत्र गोशालकसे कहने लगे - "हे देवानुप्रिय ! आप जो कहते हैं सो ठीक है, आप अवसरके जानकार ( यावत् - शब्द से ) शीघ्र कार्य करडालने वाले, अच्छे चाग्मा ( वाणीके चतुर), निपुण (सूक्ष्मदर्शी )
6
टीकार्थ- ' तए ण से ' इत्याहि यछी शासन श्रमशोपासक भक्षीपुत्र ગાશાળકને કહેવા લાગ્યું “ હે દેવાનુપ્રિય ! આપ જે કહેા, તે બરાબર છે આપ અવસરના જાણુકાર (યાવત્–શબ્દથી), શીઘ્ર કાર્ય કરી નાખનારા, સારા વાગ્મી (વાણીના ચતુર), નિપુણ ( સૂક્ષ્મદશી), નીતી અને ઉપદેશને જાણવાવાળા અને
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४८०
उपासकदशासूत्रे
'उपदेशे 'ति - उपदेशः लब्धो यैस्ते । विज्ञानेति-विशिष्ट ज्ञान-विज्ञान सोपस्त त्माप्ता इति तत्पुरुषाः इत्यमुक्तैर्विशेष्य सम्मति वक्तव्यमाह - प्रभव इत्यादि । प्रभवः शक्ताः । गोशाळो ब्रूते- नायमिति । पुनः शकडालपुत्रः पृच्छति तस्केने त्यादि । केनार्थेन केन हेतुना । नोखत्विति - अस्यादौ किमित्यन्याहार्यं ततश्च 'किं नो खलु मभवो युव मम धर्माचार्येण यावन्महावीरेण सार्द्ध विवाद कर्तुम् " इत्येव वाक्यस्वरूपमवगन्तव्यम् । गोशालः पुनराह सदालेत्यादि, यथेति यथा=अनिर्दिष्ट नाम यस्यः स यत्किञ्चिन्नामवानित्यर्थः । तरुणः = प्रवर्धमानत्रयाः, बलवान् = सामर्थ्यवान्, युगवान् =शुभमुहूर्त्तवान्, शुभमुहूर्तस्य बल्वृद्धिकरस्वात् । यावदिति - अत्र 'जाव' शब्देन "जुवाणे, अपायके, थिरग्गहस्थे, दढपाणिपाए,
१ उपदेशेति - आहिताग्न्यादिपाठा "लब्ध' - शब्दस्य परनिपातः । २ तत्पुरुष इति - 'द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्ताऽऽपन्नः' इत्यनेन द्वितीयातत्पुरुष इति भावः ।
नीति और उपदेशको जानने वाले और अच्छा ज्ञान प्राप्त किए हुए है । क्या आप मेरे धर्माचार्य धर्मोपदेशक भगवान् महावीरके साथ विवाद ( शास्त्रार्थ) करनेमें समर्थ है । "
?
गोशाल - "नही, ऐसा नहीं है " । शक्डालपुत्र- " देवानुप्रिय । किस हेतुसे आप ऐसा कहते हैं ? क्या आप मेरे धर्माचार्य यावत् भगवान् महावीर के साथ विवाद करनेमें असमर्थ हैं ? |
"
गोशालक - जैसे अज्ञात नामवाला कोई पुरुष - तरुण है, बलवान् है, युगवान् अर्थात् शुभ मुहर्त्तवाला है, क्योंकि शुभमुहूर्त्त बलवृद्धि करनेवाला है, यावत् शब्द से - " युवा (ज्वान), नीरोग है, जिसका સારી પેઠે જ્ઞાન પ્રાપ્ત કરેલા છે, શુ આપ મારા ધર્માંચા ધર્મોપદેશક ભગવાન મહાવીરની સાથે વિવાદ (ધમ ચર્ચા) કરવા સમર્થ છે?”
गोशाण - "ना, भेभ नथी "
શકેડાલપુત્ર—“દેવાનુપ્રિય ! કયા હેતુથી આપ એમ કહેા છે ? શુ આપ મારા ધર્માચાય ચાવત્ ભગવાન મહાવીરની સાથે વિવાદ કરવામા અસમર્થ છે?”
ગાશાળ—“ જેમ અજ્ઞાત નામવાળા ફ્રાઈ પુરૂષ તરૂણ છે, બળવાન્ છે, યુગવાન અર્થાત શુભ મુહૂર્ત વાળાછે, કેમકે શુભ મુહૂર્ત ખળવૃદ્ધિ કરવાવાળુ છે,' थापत शब्दथी-“ युवा (ब्बुवान) नीरोगी होय, मेना थोथे तो न हाय, स्थिर
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अगारधर्मसञ्जीवनीटीका अ० ७ २१९ सहालपुत्र गोशालवार्तालापवर्णनम् ४८१ पास पिट्टतरोरुपरिणए, तलजमलजुयलपरिघनिभवाहु, घणनिचयवट्टपा लिखधे, चम्मेद्वगदुहणमोट्ठियसमाहूयनिचियगायकाए, लघणपवणजवणवायामसमध्ये, उरस्सबलसमा गए, छेए, दक्खे, पत्तट्ठे कुसले, मेहावी, निउणे ।" इत्येतेषां ग्रहण, तच्छाया च - "युवा, अपातङ्कः, स्थिराग्रहस्त, दृढपाणिपादः, पार्श्वपृष्ठान्तरोरुपरिणत', तलयमलयुगल परिघनिभवाहुः, घननिचयवृत्तपालिभ्कन्ध' चर्मे एकघ णमौष्टिकसमाहतनिचितगात्रकाय लड्डनप्लवनजवनव्यायामसमर्थः, औरसवलसमागतः, छेकः, दक्षः, प्राप्तार्थ, कुशलः, मेधावी, निपुण. ।" इत्येवम्, तत्र - "युवा= प्राप्तत्रयाः, अपेति - अपगतः आतङ्कः = रोगो यस्मात्, यद्वा आतङ्का अपगत' - नीरोग इत्यर्थः, स्थिरेति-स्थिरः न तु कम्पित अग्रहस्तः हस्ताग्रभागो यस्य सः दृढेतिपग्णी च पादौ च पाणिपाद दढ = बलवत् पाणिपाद यस्य सः, पार्श्वेति - पार्श्वे च पृष्ठान्तरे च ऊरू च पार्श्वपृष्ठान्तरोरु तत्परिणत दृढतर यस्य सः, तलेति-तलो = वालवृक्ष तर्योर्यमलयो समकक्षपोर्युगल युग्म, तथा परिघ = अर्गलेति केचित्, वस्तुतस्तु लोहसम्बद्धहस्तप्रमाणो त्रिपुलकारो लगुडमकारस्तत्सनिभौ-ततुल्यौ बाहू =भुजौ यस्य सः आयतविशालवाहुरिति यावत्, घनेति - घनः दृढ निचयः माससमुदायो यस्य स तथा, वृत्तः = वर्तुलः पालिवत् = तडागाद्यङ्कवत् स्कन्धः=अगो यस्यः स चर्मेति-चर्मेट म् इष्टकाखण्डारिपूर्णचर्मकुतुपः, द्रघण. - मुग्दरः, मौष्टिक= मुष्टिपरिमित चर्मरज्जुप्रोत पापाणगोलकादि तैथ में टकद्रुघणमौष्टिकै समाहतानि= सम्यगाहतानि व्यायामसमये ताडितानि, तथा निचितानि = व्याप्तानि तच्चिह्नस्य पउचा कापता नहीं स्थिर है, जिसके हाथ पैर मजबूत हैं, जिसके पसवाडे, पीठका निचला भाग तथा जायें खूब बलवान् है, लोहे के डडेके समान लम्बी और विशाल भुजाओंवाला, दृढ, मासल, तालाव की पालीके समान गोल-गोल कघेवाला, ईंटोंके खण्ड आदिसे भरे हुए चमड़े के कुतुप (कुप्पे ), मुद्गर, मुट्ठी बराबर चमडेकी रस्सीमे पोये हुए पाषाणगोलक आदिसे व्यायाम करते समय खूब ताडित करनेसे जिसका शरीर उनके चिह्नोंसे व्याप्त हो, लाघने कूदनेंमें तथा अत्यन्त वेगवालों હાય, જેના હાથ-પગ મજબૂત હૈય જેના પડખા, પીઠને વચલે ભાગ તય જાવે ખૂબ ખળવાન્ હાય, લાઢાના દડાના જેવી લાખી અને વિશાળ ભુજાામેવાળે, દૃઢ, માસલ, તળાવની પાળ જેની ગાળ ગાળ ખાધાવાળા, ઈટાના ટુકડાથી ભરેલા ચામડાના કુપ્પા, મુગર, મુઠી જેવે ચામડાના દોરડાથી ખાધેલું! પત્થરના ગાળા વગેરેથી વ્યાયામ કરતી વખતે ખૂબ તાહિત કરવાથી ( મારવાથી ) જેવુ શરીર
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उपासकदासमे
सर्वनाङ्गेषु लक्ष्यमाणत्वात्, गात्राणि= अङ्गानि यस्य तादृशः कायः शरीर यस्य सः, लड्ङ्घ नेति - लङ्घनम् = अतिक्रमण, पुननम्, -उच्छलन जवनव्यायामः =जवनानाम्=अति वेगना व्यायामस्तेषु समर्थ :- पटुः | और सेति - उरसिध्वक्षसि भत्रमौरसमर्थादान्तर यद्वल= सामर्थ्यातिशयस्तेन समागत = युक्तः, छेक इनि- 'छेक - दक्ष' शब्दार्थों प्रागुक्तौ प्राप्तार्थः =अधिकृत कर्मसमाप्तिकारी, कुशलः समीक्ष्यकारी, मेधावी धारणा वती बुद्धिर्मेधातवान् झटिति वस्तुतच्चानुभवितेत्यर्थ, निपुणः = उपायारम्भकर्ता"। इति व्याख्या वो या । निपुणेति निपुण = सातिशय यथा स्यात्तथा शिल्प कलाकौशलम् उपगतः =प्राप्तः । अज=जागम् । एडक = मेषम् | सुकर = वराह 'मूअर' इति प्रतीतम् । कुक्कुट कृकवाकु 'मुर्गा' इतिमतीतपक्षिविशेषम् । तित्तिरिं=स्त्रनाम ख्यात क्षुद्रपक्षिणम् । वर्त्तक= 'वटेर ' इतिमतीतम् | लाव = लावम् । कपोत= पारा वत 'परेवा, कबूतर' इत्यादिना प्रसिद्धम् । वायस= काकम् । श्येनक= श्येन 'बाज' इति प्रतीतम् । हस्ते वेत्याशुक्तिस्तु 'भोक्तेष्वजादिषु य यस्मिन्न धर्तुमिच्छति त यथासम्भव यथेच्छ तस्मिन्नेवानायासेन धरती' स्यर्थमभिव्यञ्जितुम् । पिच्छे - हे । कुक्कुटस्यैतत्सभवति । विपाण इति विपाणमत्र सूकरदन्तः । 'निश्चल, निःस्पन्द' - मिति पदद्वय क्रियाविशेषणमनायासत्वद्योतनाय ॥ २१९ ॥
के व्यायाम चतुर और आन्तरिक सामर्थ्य वाला हो, तथा छेक दक्ष, आरभ किये हुए कामको पूरा पाडनेवाला, विचारशील, मेधावी अर्थात किसी बात साराको शीघ्र समझ लेनेवाला, निपुण (प्रयत्न करनेवाला) और अत्यन्त कला कौशलका जानकर हो । ऐसा बलवान् मनुष्य एकबडे से बकरेको, मेढेको, सुअरको, मुर्गेको, तीतरको, बटेरको, लावकको, कबूतरको, कपिंजल (कुरझ) को, कौआको अथवा बाजको हाथ, पैर, खुर, पूछ, पख, सींग, दात बाल जहा कहीं पकड़ता है वहीं निश्चल और नि स्पन्द (निष्कम्प) दबा देता है, उसे जराभी इधर उधर हिलने તેના ચિહ્નો થી વ્યાપ્ત હોય, ડવ કૂદવામાં તથા અન્ય ત વેગવાળાના ય યામમા ચતુર અને આતરિક સામ વાળા હાય, તથા છેક દક્ષ, આાર ભેલા કાને પૂ કરનારા, વિચારશીલ, મેધાવી અર્થાત્ કેઇ વાતના સારાશને એકદમ સમજી લેનાર, નિપુણ ( પ્રયત્ન કરનારા અને અત્યંત કલાકૌશલને જાણકાર હાય, એવા
जवान् भनुष्य ोड भोगणाराने, मेढाने, सुमरने, भुरधाने, तेतरने, वर्तने, सावने, उणूनरने, पिसने, झगडाने अथवा जाने, हाथ, पग, परी, चूछ પાખ, સીગ, દાત વાળ, જ્યાથી પકડે છે ત્યાજ નિશ્ચલ અને નિ સ્પન્હ ( નિષ્કર્ષ ) દબાવી દે છે, તેને જરાય આમતેમ ચમકવા દેતા નથી એ પ્રમાણે શ્રમણુ ભગવાન
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ सू २२०-२२२ सद्दालपुत्र-धर्म दृढतावर्णनम् ४८३ तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी जम्हा णं देवाणुप्पिया । तुब्भे मम धम्मायरियस्त जाव महावीरस्स संतेहिं तच्चेहि तहिएहि सन्भूएहिं भावेहि गुणकित्तणं करेह, तम्हाण अह तुब्भे पाडिहारिएणं पीढ जाव सथारएणं Safaadaa | नो चेव णं धम्मोत्ति वा तवोत्ति वा, तं गच्छह णं तुभे मम कुभारावणेसु पाडिहारिय पीढफलग जाव ओगिव्हित्ताणं विहरेह ॥ २२० ॥ तए ण से गोसाले मखलिपुत्ते सदालपुत्तस्स समणोवासयस्स एयमहं पडिसुणेइ, पडिणित्ता कुभारावणेसु
ततः खलु स सद्दालपुत्रः श्रमणोपासको गोशाल मखलिपुत्र मेवमवादित् यस्मात्खलु देवानुप्रिया ? यूय मम धर्माचार्यस्य यावन्महावीरस्य सद्भिस्तचै स्वयैः सद्भूतैर्भावैर्गुणकीर्त्तन कुरुथ, तस्मात्खलु यह युष्मान् प्रातिहारिकेण पीठयावत्सस्तारकेणोपनिमन्त्रयामि, नो चैव खलु धर्म इति वा तप इति रा, तद्गच्छत खलु यूय मम कुम्भकारापणे पुप्रातिहारिक पीठफलक यावद् अवगृह्य विहरत ॥ २२० ॥ नही देता है | इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर, बहुतसे अर्थो और हेतुओं यावत् व्याकरणोंसे जहां कही कुछ प्रश्न करता हूँ वही मुझे निरुत्तर कर देते है | सद्दालपुत्र । इमीलिए मैं कहता हूँ कि तुम्हारे धर्माचाय यावत् महावीर के साथ विवाद ( शास्त्रार्थ) करने मे मै समर्थ नहीं हूँ ॥ २१९ ॥
टीकार्थ - ' तर ण से ' इत्यादि । तब सद्दालपुत्र श्रमणोपासकने मखलिपुत्र गोसाल से कहा- “ देवानुप्रिय ! क्योंकि आप मेरे धर्माचार्य यावत् भगवान् महावीर के यथार्थ तत्त्वोंसे एच वास्तविकतासे गुणोंका कीर्तन करते हैं, अतः मैं आपको प्रातिहारिक पीठ (पीढ़ा) यावत् संधारा देता हूँ । इसे धर्म या तप समझ कर नही । इस મહાવીર ઘણુ અ અને હેતુએ યાવત્ વ્યાકરણેાથી—યા હું કાઈ પ્રશ્ન કરૂ છુ યાજ–મને નિરૂત્તર મનાવી દે છે સદૃાલપુત્ર! એટલા માટેજ હું કહું છુ કે તમારા ધર્માચા યાવતું મહાવીરને સાથે વિવાદ ( શાસ્ત્ર ) કરવામાં હું સમર્થ નથી
टीकार्थ :- 'तए ण से ' इत्यादि पछी शडासपुत्र श्रमो पास डे भ भक्षिपुत्र ગૌશાળને કહ્યુ ન દેવાનુપ્રિયો આપ મારા ધર્મોચય યાવત્ ભગવાન્ મહાવીરના ચયા તવાથી તેમજ વાસ્તવિકતાથી શુષ્ણેાનુ કીર્તન કરે છે, તેથી હું આપને પ્રતિહારિક પીઠે ચાવત્ સથારે આપુ છુ તેને ધર્મ કે તપ સમજીને નથી અપતે
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उपासकदवास सर्वत्राऐयु लक्ष्यमाणत्वात्, गात्राणि-अङ्गानि यस्य तादृशः कायः शरीर यस्य सः, लड्डनेति-लहनम् अतिक्रमण धनम्, उच्छलन जवनव्यायामा जवनानाम् अति वेगिना व्यायामस्तेषु समर्थः-पटुः। औरसेति-उरसि वक्षसि भवमौरसमर्यादान्तर यदल सामातिशयस्तेन समागत =युक्तः, छेक इनि-'छेक-दक्ष' शब्दायों मागुक्ती, माता अधिकृतकर्मसमाप्तिकारी,कुशलःसमीक्ष्यकारी, मेधावी धारणा वती बुद्धिर्मेधातदान झटिति वस्तुतच्चानुभवितेत्यर्थः,निपुणः उपायारम्भकर्ता" इति व्याख्या योध्या। निपुणेति-निपुण-सातिशय यथा स्याचथा शिल्प-कलाकौशलम् उपगतः भात। अज-नागम् । एडकम्मेपम् । मुकर वराह 'मुअर' इति प्रतीतम् । कुक्कुट कृरुवाकु 'मुर्गा' इतिमतीतपतिविशेपम् । तित्तिरि स्वनाम ख्यात क्षुद्रपक्षिणम् । वर्तक-'वटेर' इविमतीतम् । लाव लावम् । कपोतः-पारा बत 'परेवा, कबूतर' इत्यादिना प्रसिद्धम् । वायस काकम् । श्येनक-श्येन 'बाज' इति प्रतीतम् । हस्ते वेत्याधुक्तिस्तु 'मोक्तेष्वजादिषु य यस्मिन्नङ्गे धर्तुमिच्छति त यथासम्भव यथेच्छ तस्मिन्नेवानायासेन धरती' त्यर्थमभिव्यजितम् । पिच्छेघहें । कुक्कुटस्यैतत्सभवति । विपाण इति विपाणमत्र सूकरदन्तः । 'निश्चल, नि:स्पन्द'-मिति पदद्वय क्रियाविशेषणमनायासत्वधोतनाय ॥२१९।। के व्यायाममे चतुर और आन्तरिक सामर्थ्यवाला हो, तथा छेक दक्ष, आरभ किये हुए कामको पूरा पाडनेवाला, विचारशील, मेधावी अर्थात 'किसी वातके साराशको शीघ्र समझ लेनेवाला,निपुण (भयत्न करनेवाला)
और अत्यन्त कला कौशलका जानकर हो । ऐसा बलवान् मनुष्य एक बडे से बकरेको, मेढेको, सुअरको, मुर्गेको, तीतरको, बटेरको, लावकको, कबूतरको, कपिंजल (कुर झ)की, कौआको अथवा पाजको हाथ, पैर, खुर, पूछ, पग्व, मीग, दात, बाल जहा कही पकडता है वही निश्चल
और नि स्पन्द (निष्कम्प) या देता है, उसे जराभी इधर उधर हिलने તેના ચિહ્નો થી વ્યાપ્ત હય, દડવ કુદવામાં તથા અન્ય ત વેગવાળાના વ્ય યામમાં ચતુર અને આંતરિક સામર્થ્યવાળે હૈય, તથા છેક દક્ષ, આર સેલા કાર્યને પૂરે કરનારે, વિચારશીલ, મેધાવી અર્થાત્ કઈ વાતના સારાશને એકદમ સમજી લેને, નિપુણ (પ્રયત્ન કરનાર) અને અત્યત કલાકૌશલને જાણકાર હેય, એવો બળવાન મનુષ્ય એક મોટાબકરાને,મેઢાને, સુઅરને મુરઘાને, તેતરને, વર્તકને, લાવકને, કબૂતરને, કપિંજલને, કાગડાને અથવા બાજને, હાથ, પગ, ખરી, પુછ પાખ, સીગ, દાત વાળ -જ્યાથી પકડે છે ત્યાજ નિશ્ચલ અને નિ સ્પન્દ (નિકમ્પ) દબાવી દે છે, તેને જરાય આમતેમ ચસકવા દેતે નથી એ પ્રમાણે શ્રમણ ભગવાન
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अगारधर्म सञ्जीवनीटीका अ०७ मृ २२३-२३० सहालपुत्र-देवोपसर्गवर्णनम् ४८५
तए ण तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहुर्हि सील जाव भावेमाणस्स चोदस सवच्छरा वइक्ता। पणरसमस्त संवच्छरस्स अतरा वट्टमाणस्स पुवरत्तावरत्त काले जाव पोसहसालाए समणस्स भगवओमहावीरस्स अतियं धम्मपण्णति उवसंपजित्ताणं विहरइ ॥२२३॥ तए ण तस्स सदालपुत्तस्स समणोवासयस्स पुवरत्तावरत्त काले एगे देवे अंतिय पाउन्भवित्था ॥२२४॥ तएणं से देवे एग मह नीलुप्पल जाव असि गहाय सदालपुत्त ___ तत• खलु तस्य सद्दालपुत्रम्य श्रमणोपासकस्य बहुभिः शील-यावद्भावयतश्चतुर्दशसवत्सरा व्युत्क्रान्ताः । पञ्चदशसवत्सरमन्तरा वर्तमानस्य पूर्वरात्रा परत्र काले यावत्पोपधशालाया श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽऽन्तिकी धर्मप्रज्ञप्तिमुपसम्पध विहरति ॥२२३॥ ततः खलु तस्य सदालपुत्रस्य श्रमणोपासकस्य पूर्वरात्रापरत्र काले एको देवोऽन्तिके मादुरासीत् ॥२२४॥ ततः खलु स देव एक महान्त नीलोत्पल-यावद् असिं गृहीत्वा सद्दालपुत्र श्रमगोपासकमेवमवादी-यथा
टीकार्थ-' तए ण से' इत्यादि इस प्रकार सहालपुत्र श्रावकको विविध प्रकारके शील आदि पालन करते यावत् आत्माको भावित (सस्कार युक्त) बनाते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गये। पन्द्रहवा वर्ष जब चालू था, पूर्वरात्रिके उत्तरार्द्ध भागमें यावत् पोपधशालामें श्रमण भगवान् महावीरके अतिनिकटकी धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार कर (सद्दालपुत्र) विचरने लगा ॥ २२३ ॥ तब पूर्व रात्रिके उत्तरार्ध कालमें उसके समीप एक देवता आया ॥ २२४ ॥ वह देव नील कमलके समान काली यावत् तलवार लेकर उससे बोला । चुलनीपिता श्रावकके
टीकार्य-'तए ण' या 2 प्रभाय ARRY श्रावने विविध प्रश्ना शाख આદિ પાલન કરતા યાવત્ આત્માને સાવિત (સ સ્કારયુક્ત) બનાવતા ચૌદ વર્ષ વ્ય તીત થઈ ગયા પદનમુ વર્ષ જ્યારે ચાલતું હતું, ત્યારે પૂર્વ રાત્રિના ઉત્તરાર્ધ ભાગમાં યાવત પૌષધશાળામાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની અનિનિકટની ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિ સ્વીકારીને શકડાલપુત્ર વિચરવા લાગે (૨૨૩) પછી પૂર્વ રાત્રિના ઉત્તરાર્ધ કાળે તેની સમીપે એક દેવતા આજો (૨૨૪) તે દેવ નીલ કમળના જેવી વાત તલવાર લઈને તેને કહેવા લાગે ચુલનીપિતા શ્રાવકની પેઠે તે દેવતાએ બધા
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.. • उपासकशास्त्र पाडिहारियपीढ जाव ओगिहित्ता कविहरइ ॥ २२१ ॥ तए ण से गोसाले मलिपुत्तं सदालपुत्त समणोवासयं जाहे नो संचाण्ड वहहिं आघवणाहिय पण्णवणाहिय सण्णवणाहिय विण्णवणाहि य निग्गथाओ पावयणोओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे सते तते परितंते पोलासपुराओ नगराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिस्खमित्ता पहिया जणवयविहार विहरइ ॥२२२॥ ततः खलु स गोशालो मलिपुत्रः सद्दालपुत्रस्य यमणोपासकस्यैतमर्थ प्रतिशृणोति, पतिश्रुत्य कुम्मकारापणेषु प्रातिहारिक पीठ यावद् अवगृह्य विहरति ॥२२१।। तत' खलु स गोशालो मसलिपुत्र सदालपुत्र श्रमणोपासक यदा नो शक्नोति बहुभिराख्या पनाभिश्च मज्ञापनाभिश्च सज्ञापनाभिश्व विज्ञापनाभिश्व नैनन्ध्यात्मवचनाचालयितु वा क्षोभयितु वा विपरिणमयित वा तदा शान्तस्तान्तः परितान्तः पोलासपुरानगरा त्पतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिर्जनपदविहार विहरति ॥२२२॥
टीका-आग्व्यापनाभिः-आख्यान. सामान्यत कथनैरित्यर्थः, प्रज्ञापनाभि -विविधवस्तुमरूपणाभिः, सज्ञापनाभिः प्रतियोधनः, विज्ञापनाभि =अनुनयवचनः। लिए आप जाइए और मेरी कुम्भकारीकी दुकानोंसे पडिहारे पीठ फलक आदि ले लीजिए ॥२२०॥ मखलिपुत्र गोशाल श्रमणोपासक सदालपुत्रकी यह बात सुनकर उसकी दुकानोंसे पडिहारे पीठ यावत् ग्रहण कर विचरने लगा ॥२२१॥ इसके अनन्तर गोशाल मखलिपुत्र जब सामान्य बातोंसे, विविध प्रकारकी प्ररूपणाओंसे, प्रतिबोधक वाक्योसे और अनुनय-विनय (आरजू-मिन्नत स्वार्थमय-विनय) करके सद्दालपुत्र श्रावकको निग्रन्थ प्रवचनसे डिगाने,क्षुब्ध करने यावत् परिणाम पलटा देने में असमर्थ रहा तो शान्त, उदास और ग्लान (निराश) होकर पोलासपुर नगरसे निकला, निकल कर बाहर देशो देश विचरने लगा ।। २२२॥ તેથી આપ જાઓ અને મારી કુભકારીની દુકાનમાંથી પ્રાતિહારિક (પડિહાપાછા આપી દેવાય તેવ) પીઠ ફલક આદિ લઈ (૨૦) મ ખલિપુત્ર શાળ શ્રમણોપાસક કડાલપુત્રની એ વાત સાંભળીને તેની દુકાનમાથી પડીહારા પીઠ યાવત, ગ્રહણ કરી વિચરવા લાગ્યા (૨૧) ત્યારપછી ગોશાળ મ ખલિપુત્ર ત્યારે સામાન્ય વાતેથી, વિવિ પ્રકારની પ્રરૂપણાએથી પ્રતિબંધક વાકયથી અને અનુનયનવિનય (સ્વાર્થમય વિનય) કરીને શકટાલપુત્ર શ્રાવકને નિન્ય પ્રવયનથી ડગાવવા, ક્ષુબ્ધ કરવા ચાવત્ પરિણામે પલટાવવામાં અસમર્થ રહો ત્યારે શાન્ત, ઉદાસ અને મહાન (નિરાશ) થઈને પિલાસપુર નગરથી નીકળે અને બહાર રદેશ વિચરવા એ. (૨૨)
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अगारधर्म सञ्जीवनीटीका अ०७ स २२३-२३० सद्दालपुत्र-देवोपसर्गवर्णनम् ४८७ दुक्खसहाइया,तं ते साओ गिहाओ नीणेमि, नीणित्ता तव अग्गओ घाएमि, घाइत्ता नव मंससोल्लए करेमि. करित्ता आदाणभरियसि कडाहयंसि अहहेमि, अदहित्ता तव गाय मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा ण तुम अदृदुहट्ट जाव ववरोविज्जसि ॥२२७॥ तए ण से सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ ॥२२८॥ तए णं से देवे सद्दालपुत्त समणोवासयं दोच्चपि तच्चपि एव वयासी-हभो सदालपुत्ता । समणोवासया । तं चेव भणइ ॥२२९॥ तए णं तस्त सदालपुत्तस्स सहायिका, ता ते स्वस्माद् गृहानयामि, नीत्वा तवाग्रतो घातयामि, घातयित्वा नव मासशूल्यकानि करोमि, कृत्वाऽऽदानभृते स्टाहे आदहामि, आदह्य तब गात्र मासेन च शोणितेन चाऽऽसिञ्चामि, यथा खलु स्वमार्गदुःखात यावद् व्यपरोप्यसे ॥" ||२२७॥ तत खलु स सद्दालपुत्र. श्रमणोपासास्तेन देवेनैवमुक्तः सम्मभीतो यावद् विहरति ॥२२८॥ तत खलु स देव सद्दालपुत्र श्रमणोपासक द्वितीयमपि उतीयमप्येवमवादी-हभो' सदालपुत्र ! श्रमणोपामक तदेव भणति दुख सुखमें समानरूपसे सहायता करनेवाली जो अग्निमित्रा भार्या है, उसे तेरे घरसे लाताहूँ और तेरे ही सामने उसका घात करता हूँ। उसे मार कर नौ टुकडे करूगा और अदहनसे भरे हुए कढाहमें उबालूगा। उबालकर उस मास और लोहसे तेरा शरीर सीचगा, जिससे तु अत्यन्त दुःखित होकर यावत मर जायगा ।" ॥ २२७ ॥ देवताकी यह अत्यन्त भयकर बात सुनकर भी शकडाल पुत्र भयभीत न हुआ यावत् विचरता रहा ॥ २२८ ॥ तर देवताने दूसरी बार और तीसरी बार भी यही यात અનિમિત્રા ભાર્યા છે તેને તારે ઘેરથી લાવું છું, અને તારી જ સામે તેને ઘાત કરૂ છુ એને મારીને નવ ટુકડા કરીશ અને આપણુથી ભરેલી કઢાઈમાં ઉકાળીશ પછી એ માસ અને લેહી તારા શરીર છાટીશ, જેથી તુ અત્યત દુખિત થઈને ચાવતું મરી જઈશ ?' (૨૨૭) દેવતાની આવી અત્યંત ભયકર વાત સાંભળીને પણ શકહાલપુત્ર ભયભીત ન થયે યાવત્ વિચરતે રહયે (૨૨૮) ત્યારે દેવતાએ બીજીવાર અને ત્રીજીવાર પણ એજ વાત કહી એ પ્રમાણે એ દેવતાએ બે ત્રણ વાર કહ્યા
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उपासकवायचे समणोवासय एवं वयासी-जहा चुलणीपियस्स तहेव देवो उवसग्ग करेड, नवर एकेके पत्ते नव मससोल्लए करेइ जाव कणीयसं घाएइ, घाइत्ता जाव आयचइ ॥२२५॥तए णं से सहालपुत्ते समणीवासए अभीए जाव विहरइ ॥२२६।। तए णं से देवे सदालपुत्त समणोवासय अभीयं जाव पासित्ता चउत्थंपि सदालपुत्तं समणोवासय एव वयासी-हंभो सदालपुत्ता " समणोवासया। अपत्थियपत्थया जाव न भजसि तओ ते जा इमा अग्गिमित्ता भारिया धम्मसहाइयां धम्मविइज्जिया धम्माणुरागरत्ता समसुह. चुलनीपितुस्तथैव देव उपसगै करोति, नवरमेकैकस्मिन् पुत्रे नव मासशुल्यकानि करोति, यावत्कनीयास घातयति, घातयित्वा यावदासिञ्चति ॥ २२० ॥ ततः खलु स सहालपुत्रः श्रमणोपासकोऽभीतो यावद्विहरति ॥२२६॥ ततः खल स देवः सद्दालपुत्र श्रमणोपासकमभीत यावद् दृष्ट्वा चतुर्थमपि सदालपुत्र श्रमणोपासकमेवमवादीत-"हभोः सदालपुन ! श्रमणोपासक ! अप्रार्थितमार्थक ! यावन्न भनाक्ष ततस्ते येयमग्निमित्रा भार्या धर्मसहायिका धर्मवैधिका धर्मानुरागरक्ता समसुखदुःख समान उस देवताने सब उपसर्ग किए । विशेषता इतनी ही थी कि उसने शकडालपुत्रके प्रत्येक पुत्रके मासके नौ नौ टुकड़े किए, यावत् सबसे छोटे लडकेको भी मार डाला और शकडालपुत्रका शरीर मास लोहसे सीचा ॥२२५॥ तो भी शकडालपुत्र श्रमणोपासक निर्भय यावत् विचरता रहा ॥ २२६ ॥ देवताने उसे निर्भय देखकर चौथी बार भी कहा-" हे शकडालपुत्र आवक । मौतको चाहनेवाला ! यावत् तु शील आदिको भग नही करता तो तेरी यह धर्ममें सहायता.देनेवाली, धमेको वैद्य अर्थात् धर्मको सुरक्षित रखनेवाली, धर्मके अनुरागमें रंगी हुई, ઉપસર્ગો કર્યા વિશેષતા એટલી જ હતી કે તેણે શકડાલપુત્રના પ્રત્યેક પુત્રના માસના નવ-નવ ટુકડા કર્યા, યાવત્ સૌથી નાના પુત્રને પણ મારી નાખે, અને શકીલપુત્રના પર માસહી છાયા (૨૨૫) તે પણ શકપાલપુત્ર શ્રામપાસક નિર્ભય વિત વિચરતા રહયે (૨૨૬) દેવતાએ એને નિર્ભય જોઈને ચોથી વાર પણ કહયુ “ શકહાલપુત્ર શ્રાવક! તને ચાહનારી ! યાવત તું શીલ આદિને ભગ નહિ કરે, તે તારી આ ધર્મમાં સહાયતા દેનારી, ધર્મની શૈદ્ય અર્થાત્ મને સુરક્ષિત રાખ નારી ધર્મનો અનુરાગથી ૨ મિલી, દુખ સુખમાસમાનરૂપે સહાયતા કરનરી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ७ सु. २२३-२३० अध्ययन समाप्ति
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अग्गमित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणइ । सेसं जहा चुलणीपियावत्तव्वया, नवर अरुणभूए विमाणे उववन्ने जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहि ५ ॥ २३० ॥ निक्खेवो ॥
सत्तमस्स अगस्स उवासगदसाण सत्तम
अज्झयण समत्त ॥ ७ ॥
अग्निमित्रा भार्या कोलाहल श्रुत्वा भणति । शेष यथा चुलनीपितृवक्तव्यता, नवरमरुणभूते विमाने उपपन्नो यावन्महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ५ || २३० ॥ निक्षेपः ॥ सप्तमस्याङ्गस्योपासकदशाना सप्तममभ्ययन
समाप्तम् ॥ ७ ॥
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व्याख्या निगदसिद्धा ।। २२३-२३० ।।
इतिश्री - विश्वविख्यात - जगद्वल्लभ - प्रसिद्धवाचक- पञ्चदशभाषा+लित ललितकलापालापक- प्रविशुद्ध गद्यपद्यनेकग्रन्थ निर्मापक - वादिमानमर्दक- श्रीशाछत्रपति - कोल्हापुरराजप्रदत्त - " जैनशास्त्राचार्य " - पदभूपित - कोल्हापुर राजगुरु' बालब्रह्मचारि - जैनाचार्य - जैन धर्म दिवाकर - पूज्य - श्री घासीलालप्रति विरचितायामुपासकदशाद्ग सूत्रस्याऽगारधर्मसञ्जीवन्या
ख्याया व्याख्याया सप्तम सद्दालपुत्राख्यमभ्ययन समाप्तम् ॥ ७ ॥
कही। शेष सब बातें चुलनीपिताके समान समझना, हाँ, यह विशेषता है कि शकडालपुत्र अरुणभूत विमान में उत्पन्न होकर यावत् महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा ॥ २३० ॥ निक्षेप पूर्ववत ॥
सातवें अग उपासकदशा के सातवें अध्ययनकी अगारसञ्जीवनी - नामक टीकास हिन्दी भाषार्थ समाप्त ॥ ७ ॥
પિતાની પેઠે જ સમજવી વિશેષતા એટલી છે કે શકડાલપુત્ર અણુભૂત વિમાનમા ઉત્પન્ન થઈને યાવત્ મહાવિદેહ ક્ષેત્રે સિદ્ધ થશે (૨૩૦)
નિશ્ચેષ પૂ વત
સાતમા અગઉપાસક઼દગાના માતમાં અધ્યયનની અગારમજીવની નામક વ્યાખ્યાને ગુજરાતી-ભાષાનુવાદ સમાપ્ત (૭)
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उपासकदशास्त्रे समणोवासयस्स तेणं देवेर्ण दोच्चपि तच्चपि एवंवुत्तस्स समाणस्स । अयं अज्झथिए ५ समुप्पन्ने । एवं जहा चुलणीपिया तहेव चिंतेइ,
जे णं मम जेडं पुत्तं, जे ण मम मज्झिमय पुतं, जे णं मम कणीयस पुतं, जाव आयचड, जावि य ण ममं इमा अग्गिमित्ता भारिया समसुहदुक्खसहाइया, तपि य इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता भम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खल्लु मम एवं पुरिसं गिणिहत्तएत्ति कछु उट्ठाइए, जहा चुलणीपिया तहेव सब भाणियब, नवर॥२२९॥ तत. खलु तस्य सद्दालपुत्रस्य श्रमणोपासकस्य तेन देवेन द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमुक्तस्य सतोऽयमा न्यात्मिकः५ समुत्पन्नः। एव यथा चुलनीपिता तथैव चिन्तयति याखलु मम ज्येष्ठ पुत्र, यः खलु मममध्यमक पुत्र, यः खलु मम कनीयास पुत्र यावद् आसिञ्चति,याऽपि च खलु ममेयमग्निमित्रा भार्या समसुखदुःखसहायिका, तामपि चेच्छति स्वस्माद् गृहानीत्वा ममाग्रतो घातयितु, तच्छ्रेय. खलु ममेत पुरुष ग्रहीतुमिति कृत्वोत्थितः, यथा चुस्नीपिता तथैव सर्व भणितव्य, नवरम् दुहराई ॥२२९॥ इस प्रकार उस देवताके दो तीन बार कहने पर शकडाल पुत्र श्रीवकने मनमे वही सोचा, जो चुलनीपिताने सोचा था कि-" इसन मेरे बडे, मझले और छोटे लडकेको मार डाला, मेरे शरीरको लोहू-मासस सोंचा। अब मेरी अग्निमित्रा भार्याको भी, जो मेरे सुखदुखमें समान रूपसे सहायक है, घरसे लाकर मेरेही सामने मार डालना चाहता है। इस पुरुषको पकड लेना ही अच्छा है। "यह सोच कर वह उठा।आगेकी कथा सब चुलनीपिताके समान है। विशेषता यह है कि इसका कोल। हल इसकी पत्नी अग्निमित्राने सुना और अग्निमित्राने ही सब बात છતા પકડાલપુત્ર શ્રાવકે મનમાં વિચાર્યું, કે જે પ્રમાણે ચલપિતાએ વિચાર્યું હતું કે,” એણે મારા મેટા, વચેટ અને નાના પુત્રને મારી નાખ્યું મારા શરીરે લાહી માસ છાખા હવે મારી અગ્નિમિત્રા ભાર્યા કે જે મારા સુખદુ ખમા સમાન રે સહાયક છે તેને પણ ઘેરથી લાવીને મારી જ સામે મારી નાખવા ઈચ્છે છે આ પુરૂષને પકડી લે એ જ ઠીક છે એમ વિચારીને તે ઉઠ આગળની કથા બધા ચુલની પિતાની પેઠે જ છે વિશેષતા એ છે કે-એને કોલાહલ એની પત્ની અનિમિત્રાએ સાભળ્યો અને અગ્નિમિત્રાએ જ બધી વાત કહી બાની બધી વાતે ચુતની
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अगारधर्मसञ्जीवनी टोका अ ८ स २३१-२३९ महाशतकवर्णनम् ४९१ सकसोओं पवित्थरपउत्ताओ, अg क्या दसगोसाहस्सिएणं वएणं ॥२३२॥ तस्स ण महासयगस्स रेवईपामोक्खाओ तेरस भारियाओ होत्था, अहीण जाव सुरूवाओ ॥२३३॥ तस्स णं महासयगस्स रेवईए भारियाए कोलघरियाओ अटू हिरणकोडीओ, अट्र वया दसगोसाहस्सिएणं वएण होत्था। अवसेसाण दुवालसहं भारियाणं कोलघरिया एगमेगा हिरणकोडी, एगमेगे य वए दस गोसाहस्सिएण वएणं होत्था २३४॥ तेण कालेणं तेण समएण सामीसमोलढे, परिसा निग्गया।जहा आणदो तहा निग्गअष्ट हिरण्यकोटय समास्वा प्रविस्तरपयुक्ताः, अष्ट प्रजा दशगोसाहसिकेण व्रजेन ॥२२॥ तस्य खलु महाशतकम्य रेवताप्रमुखास्त्रयोदश भार्या आसन् अहीनयावत्सुरूपा ॥२॥ तम्य खलु महाशतरस्य रेवत्या भार्यायाः कौलगृहिका अष्ट हिरण्यकोटयोऽष्ट वजा दशगोसाहस्रिकेण व्रजेनाऽऽसन् । अवशेषाणा द्वादशाना भार्याणा कौलगृहिका-एकैका हिरण्यकोटी एकैकश्च वजो दशगोसाहस्निकेण व्रजेनाऽऽसीत् ॥२३४॥ तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृत परिष
अकोलेति कुर=पिठ्वशस्तत्सम्बन्धि कौल, तच्च तद् गृह च कौलगृह, तस्मादागता कौलगृहिका । ॥३४॥ खजानेमें, आठ करोड व्यापारमे एव आठ करोड लेन देनमे लगी थीं। दस दस हजार गोसख्याके आठ गोकुल थे ॥ २३२ ॥ उसके रेवती आदि तेरह यथायोग्य (पूर्ण) अगवली थावत् सुन्दरी स्त्रिया थीं ॥२३३॥ रेवतीके आठ करोड सोनैया उसके मायके (पियर)के थे,
और आठ ही गोकुल दस दस हजार गायोंके थे ।शेष वारह स्त्रियों के एक एक करोड सोनैया और एक एक गोकुल पियरका था ॥२३४॥ કડ લેણ-દે, મા રેકેવા હત દસ દસ કજિાર ગવર્ગીય પશુઓના આઠ ગોકુળ હતા (૩ર) તેને રેવતી આની તેર યથાયોગ્ય (પૂર્ણ) મગવાળી ચાવત સુદર સ્ત્રિઓ હતી (૨૩) રેવતી આ કરોડ સોનેયા તેના પિયરના હતા, અને આઠ ગોકુળ દસ-દસ હજાર ગે વગય પશુઓના હતા બાકીની બાર જિઓના એક-એક કરોડ સેના અને એક-એક ગોકુળ પિયરના હતા (૨૩૪) એ કાળે એ સમયે મહાવીર
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॥ अष्टमाध्ययनम् ॥ अथाष्टममध्ययनमारभ्यते-'अट्ठमस्स' इत्यादि । मूलम्-अट्ठमस्स उक्खेवो ॥ एवं खल्ल जंबू। तेण कालेण तेणं समएण रायगिहे नयरे, गुणसिले चेइए, सेणिए राया ॥२३१॥ तत्थ णं रायगिहे महासयए नामं गाहावई परिवसइ अड्डे, जहा आणदो, नवर अट्ट हिरण्णकोडीओ सकंसाओ निहाणपउत्ताओ, अट्र हिरणकोडीओसफसाओ वुडिपउत्ताओ, अट्ट हिरण्णकोडीओ ___ छाया-अष्टमस्योत्क्षेप । एव सल जम्मू ! तस्मिन काले तस्मिन् समये राजगृह नगरम्, गुणशिल चैत्यम्, श्रेणिको राजा ॥२३१॥ तत्र खलु राजगृहे महाशतको नाम गाथापति परिचसति आढयो यथाऽऽनन्द , नवरमष्ट हिरण्यकोट्य. सास्या निधानप्रयुक्ता , अष्ट हिरण्यकोटयः समस्या वृद्विप्रयुक्ता,
टीका-समास्याः कास्य पात्र विशेपो येन रूप्यकादीनि द्रव्याणि मीयन्ते, तेन सह वर्तन्त इति समास्या. ॥२३२॥
आठवा अध्ययन टीकार्थ-' अट्ठमस्स उक्खेवो' इत्यादि । आठवेंका उत्क्षेप पूर्ववत् जम्बूस्वामीके प्रश्न करने पर सुधर्मा स्वामी कहने लगे-"जबू! उसकाल उस समयमें राजगृह नगर, गुणशिल चैत्य और श्रेणिक राजा था ॥ २३१ ॥ उसी राजगृहमें महाशतक नामक गाथापति निवास करता था। वह आढय (यावत् ) एव आनन्द प्रावककी तरह सब विशेषों वाला था। उसके कासेके वर्तनसे नापी हुई आठ करोड सोनैया
આઠમુ અધ્યયન - टीकार्थ-अट्ठमस्स उक्खेवो' त्या मामा अध्ययन २५ पूर्ववत જબૂ સ્વામીએ પૂછેલા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં સુધર્માસ્વામી કહેવા લાગ્યા - જબૂ! એ કાળે એ સમયે રાજ ગૃહ નગર, ગુણશીલત્ય અને શ્રેણિક રાજા હતા (૨૩૧) એ રાજગૃહમાં મહાશતક નામક ગથાપતિ રહેતું હતું એ આઢય (ચાવતું). તેમજ અનદ શ્રાવકની પેઠે બધા વિશેષણોવાળે હવે તેની પાસે કાસાના એક વાસણથી માપેલ આઠ કરોડ સેનેયા ખજાનામા, માઠ કરોડ વેપારમાં અને આઠ
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अ० धर्म० टीका अ ८ मू. २३१-२३९ रेवती दुर्भाववर्णनम् ४९३ याए कसपाईए हिरण्णभरियाए संववहरित्तए ॥२३५॥ तए ण से महासयए समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरह ॥२३६॥ तए णं समणे भगवं महावीरे वहिया जणवयविहारं विहरइ॥२३७॥ तए णं तीसे रेवईए गाहावइणीए अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयसि कुडंव जाव इमेयारूवे अज्झथिए ५"एवं खल्लु अह इमासिं दुवालसण्ह सवत्तीण विधाएणं नो.सचाएमि महासयएण समणोवासएण सद्धिं उरालाई माणुस्सयाइं भोगभोगाइ भुजमाणी विहरित्तए, तं सेय खल्ल ममं एयाओ जातोऽभिगतजीवानीवो यावद्विहरति ॥२३५॥ तत' खलु अमणो भगवान् महावीरो वहिर्जनपदविहार विहरति ॥२३७॥ तत. खलु तस्या रेवत्या गाथापन्या अन्यदा कदाचित्पूर्वरानापरत्रकालसमये कुटुम्ब-यावद्-अयमेतद्रूपा या त्मिक ५-" एक खलु अहमासा द्वादशाना सपत्नीना विधातेन नो शक्नोमि महाशतकेन श्रमणोपासकेन सार्द्धमुदारान् मानुन्यकान् भोगभोगान भुञ्जना विहर्तुम्,
हिरण्यभृतया सुवर्णादिपूर्णया ॥१३५॥
इसके अनन्तर महाशतक जीव अजीवका जानकार आवक हो गया यावत् आत्माको व्रतसे भावित करता हुआ विचरने लगा ॥२३६।। बाद श्रमण भगवान् महावीरभी यत्र-तत्र देशोमे विचरने लगे ॥२३७॥ तदनन्तर गाथापत्नी रेवतीको पूर्वरात्रिके अपर समय (उत्तरार्धभाग) मे कुटुम्ब जागरणा जागती हुईको इस प्रकारका विचार आया-"इन यारह सोतों के विघात (विघ्न)के मारे महाशतक गाथापतिके माय मैं मनमाने भोग नहीं भोग सकती हूँ, अत' अच्छा हो कि इन જાણકાર શ્રાવક થઈ ગયે યાવત્ આત્માને ભાવિત કરતે વિચરવા લાગે (૨૩૬) પછી શ્રમણ ભગવાન મહાવીર પણ ય–તત્ર દેશમાં વિચરવા લાગ્યા (૨૩૭) ત્યારબાદ ગાથાપની રેવતીને પૂર્વરાગીના ઉત્તરાર્ધ ભાગમાં કુટુંબ જાગરણ જાગતા એ પ્રકારને વિચાર થયે કે “આ મારે શેકના વિઘાત (વિષ્ણ) ને લીધે મહાશતક ગાથાપતિની સાથે હુ મનમાન્યા ભેગ ભેગવી શકતી નથી, માટે એ બારે શેને
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उपासकदशासूत्रे च्छइ,तहेव सावयधम्म पडिवच्चइ,नवरं अट्ट हिरण्णकोडीओ सकसा
ओनिहाणपउत्ताओ०-उच्चारेड,अट्टवया,रेवईपामोरवाहि तेरसहि भारियाहि अवसेस मेहुविहिं पञ्चक्खाइ,सेस सब तहेव । इम च णं एयारूव अभिग्गह अभिगिण्हइ-कल्लाकलिंकप्पइ मेx वेदोणिनिर्गता, यथाऽऽनन्दस्तथा निर्गच्छति, तथैव पावकधर्म प्रतिपद्यते, नवरमष्ट हिर __ण्यकोटयः समास्या निधानप्रयुक्ता (इति) उच्चारयति, अष्ट बजाः, रेवतीप्रमुखा भित्रयोदशभिर्भार्याभिरवशेष मैथुनविधि प्रत्याख्याति, शप सर्व तथैव । इम च खलु एतद्रूपमभिगृहमभिगृह्णाति-कल्याकल्यि कल्पते मे द्विद्रोणिक्या कास्यपान्या हिरण्यभूतया सव्यवहत्तम् ॥२३६।। तत. खलु स महाशतकः श्रमणोपामको
उच्चारयति-पतिजानीते । पल्याकल्यि-प्रतिकल्य प्रतिदिनमित्यर्थः ।
xविद्रोणीति द्रोण: आढकचतुष्टयपरिमितो मानविशेपः, द्वौ द्रोणौ प्रयोजनमस्या.,यद्वा द्वाभ्या द्रोणाभ्यापूर्यत इति द्विद्रौणिकी, तया द्विद्रोणपरिमितद्रव्यतोलनक्षमयेत्यर्थ', (२३५)
उस काल उस समय महावीर स्वामी पधारे। परिषद निकली । महाशतक भी आनन्द श्रावककी भाति निकला, और उसी प्रकार उसने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया। विशेषता यह है कि इसने कास्य पात्रसे मापी हुई आठ२ करोड सोनैया खजाने
आदिमें, तथा आठ गोकुल रखनेकी मर्यादा ली। रेवती आदि तेरह स्त्रियोंके अतिरिक्त अन्य स्त्रियोंसे मैयुन करनेका त्याग किया। और सब आनन्दकी तरह । इमने ऐसा अभिग्रह भी लिया-"प्रतिदिन दो द्रोण (चार आढकका एक द्रोण होता है) वाली, सुवर्णसे पूर्ण कासको पात्री (वर्तन)से व्यवहार करूँगा ( इससे अधिक नहीं)" ॥२३५॥ સ્વામી પધાય પરિષદુ નીકળી મહાશતક પણ આનદ શ્રાવકની પિઠે નીકળે અને એ પ્રમાણે તેણે ગૃહસ્થધર્મ સ્વીકાર્યો વિશેષતા એ છે કે તેણે કાસાના વાસણથી માપેલા આઠ-આઠ કરેડ સેનયા ખજાના આદિમા તથા આઠ ગોકુળ રાખવાની મર્યાદા કરી રેવતી આદિ તેર સ્ત્રીઓ સિવાયની બીજી ઓિ સાથે મૈથુન કરવાને ત્યાગ કર્યો બાકી બધુ આનદની પેઠે સમજવું એણે એ પ્રમાણે અભિગ્રહ પણ લીધા કે
પ્રતિદિન એ દ્રોણ (ચાર આઢકને એક દ્રોણ થાય છે. વાળા, સેનવાથી પૂર્ણ કાસાના પાત્રથી વ્યવહાર કરીશ એથી વધારે નહિ” (ર૩૫) પછી મહાશતક જીવ-અજીવને
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ८ सू २४०-२४९ रेवतीदुष्कर्मवर्णनम् ४९५ कोलधरियं एगमेगं हिरण्णकोडिं एगमेगं वयं सयमेव पडिवजइ, पडिवजित्ता महासयएण समणोवासएण सहिं उरालाइ भोगभोगाइ भुंजमाणी विहरइ ॥२३९ ॥
तए ण सा रेवई गाहावडणी मसलोल्लया मैसेसु मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना बहुविहेहिं मंसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य सुरं च महु च मेरगं च मज्ज च सीधु च पसन्न च आसाएमाणी४ विहरइ ॥२४०॥ तए ण रायगिहे नयरे प्रयोगेणोपद्रवति, उपद्रुत्य तासा हादशाना सपत्नीना कौलगृहिकामेका हिरण्यकोटिमेकैक व्रज स्वयमेव प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य महाशतकेन श्रमणोपासकेन साई मुढारान् भोगभोगान् मुञ्जाना विहरति ॥२३९।। ___तन. ग्वल सा रेवती गाथापत्नी मासलोलुपा मासेपु मून्छिता, गृद्वा, ग्रथिता, अयुपपन्ना, बहुविवैमासैश्च शूल्यकैश्च तन्तिश्व भर्जितैश्च सुरा च, मधु च, मैरेय च, मय च, सी (शी)धु च, प्रसन्ना चाऽऽम्वादयन्ती ४ विहरति ॥२४०॥ कर उनके मायके (पितृगृह) की एक करोड सोनैया और एक एक गोकुल स्वय ले लिया । और महाशतक गाथापतिके साथ विपुल काम-भोग भोगती हुई विचरने लगी ॥ २३९ ॥
टीकार्य-'तए ण सा' इत्यादि । मांसमें लोलुप, मास भक्षणके दोष न जानकर उसमें मृति , कभी मास-भक्षणसे तृप्त न होने वाली, अग-अगमें मांस भक्षणके अनुरागसे भरी हुई, मांसभक्षणका ही सदा विचार करती रहनेवाली वह गायापतिनी रेवती, अनेक प्रकारके तले हुए और भूजे हुए मास एव मांमके टुण्डोंके साथકડ મેનિયા અને એક-એક ગોકુળ પતે લઈ લીધી અને પછી તે મહાશતક ગાથા પતિની સાથે ખૂબ કામગ ભેગવતી વિચારવા લાગી (૨૩૯)
टीमार्थ-'तए ण सा-त्यादि भासमा सोलुप, भासमाना होप न याने તેમાં મૂતિ, કઈ વાર પણ માસ ભક્ષણથી તૃપ્ત ન થનારી, અગેઅગ માસ ભક્ષણના અનુરાગથી ભરેલી, માંસભક્ષણને જ મદા વિચાર કરતી રહેનારી એ ગાથા પતિની રેવની, અનેક પ્રકારના તળેલા અને ભૂજેલા માસ તેમજ માસના ટુકડા સાથે
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उपासकवारसूत्रे दुवालसविसवत्तियाओ अग्गिप्पओगेण वा सत्थप्पओगेण वा विसप्पओगेण वा जीवियाओ ववरोवित्ता एयासि एगमेग हिरपणकोडि एगमेगं वय सयमेव *उवसंपजित्ताणं महासयएणं समणो. वासएणं सद्धिं उरालाइ जाव विहरित्तए।” एव संपेहेइ, संपेहित्ता तासि दुवालसण्हं सवत्तीणं अतराणि य छिदाणि य विरहाणि य पडिजागरमाणी२ विहरइ ॥२३८॥ तए ण सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ तासि दुवालसण्ह सवत्तीणं अतर जाणित्ता छ सवत्तीओ सत्थप्पओगेण उद्दवेइ, उदवित्ता छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्दवेइ, उदवित्ता तासि दुवालसण्ह सवत्तीण तन्य खलु ममता द्वादशापि सपत्न्योऽग्निभयोगेण वा शस्त्रप्रयोगेण वा, विषप्रयोगेण वा जीविताद्वयपरोप्यैतासामेकैका हिरण्यकोटिमक प्रज स्वयमेवोप सम्पध महाशतकेन श्रमणोपासकेन सार्द्धमुदारान् यावद्विहर्तुम् । " एव सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य तासा द्वादशाना सपत्नीनामन्तराणि च छिद्राणि च विरहांश्च पनिजाग्रती२ विहरति ॥२३८॥ ततः खलु सा रेवती गाथापत्नी अन्यदा कदाचित्तासा वादशाना सपत्नीनामन्तर ज्ञात्वा पट् सपत्नी! शस्त्रपयोगेणोपद्रवति, उपद्रुत्य षट् सपन्नीविष
उपसम्पद्य-प्राप्य ॥२३८॥ घारहों सौतोको अग्नि, शस्त्र या विषके प्रयोगसे मारकर, और इन प्रत्येककी एक एक करोड सोनैया और एक एक गोकुल स्वय लेकर महाशतक गाथापतिके साथ मन चाहे भोग भोगती हुई विचरू ।" ऐसा सोचकर उसने बारहो सौतोके अन्तर छिद्र विरह ढूढने लगी ॥२३८॥ अनन्तर रेवतीने बारहो सौतोका अ तर (मौका) पाकर उसने छह सौतोको शस्त्रसे और छहको विष देकर मार डाला। मार અ1િ, શસ્ત્ર યા વિષના પ્રયોગથી મારીને અને એ પ્રત્યેકના એક–એક રેડ સેનયા તથા એક–એક ગેકુળ હુ પિતે લઈને મહાશતક ગાથાપતિની સાથે મનમાન્યા ભેગ ભેગવી વિચરૂ તે બહુ સારૂ” એમ વિચારી તે બારે શકના અતર છિદ્ર વિરહ શોધવા લાગી (૨૩૮) પછી રેવતીએ બરે શેકીને લાગ જોઈ અને તેમની છ ને શસ્ત્રથી તથા છને વિષ દઈને મારી નાખી પછી તેમના પિયરના એક-એક
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ८ सू २४०-२४९ रेवतीदुष्फर्मवर्णनम् ४९५ कोलधरिय एगमेग हिरण्णकोडिं एगमेगं वयं सयमेव पडिवजइ, पडिवजित्ता महासयएण समणोवालएण सद्धि उरालाइ भोगभोगाइ भुंजमाणी विहरइ ॥२३९ ॥
तए ण सा रेवई गाहावइणी मसलोलुया मंसेसु मुच्छिया गिद्धा गढिया अज्झोववन्ना वहुविहेहि मंसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य सुर च महु च मेरगं च मज च सीधु च पसन्न च आसाएमाणी विहरइ ॥२४०॥ तए ण रायगिहे नयरे प्रयोगेणोपद्रवति, उपद्रुत्य तासा द्वादशाना सपत्नीना मौलगृहिकामेका हिरण्यकोटिमेकैक व्रज स्वयमेव प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य महाशतकेन श्रमणोपासकेन सार्द्ध मुदारान् भोगभोगान भुञ्जाना विहरति ॥२३९॥
ततः खलु सा रेवती गाथापत्नी मासलोलुपा मासेपु मूच्छिता, गृद्धा, ग्रथिता, अभ्युपपन्ना, बहुविधैमासैश्च शूल्यश्चि तलितैश्च भर्जितैश्च सुरा च, मधु च, मैरेय च, मय च, सी (शी)धु च, प्रसन्ना चाऽऽम्वादयन्ती ४ विहरति ॥२४०॥ कर उनके मायके (पितृगृह) की एकएक करोड सोनैया और एक एक गोकुल स्वय ले लिया । और महाशतक गाधापतिके साथ विपुल काम-भोग भोगती हुई विचरने लगी ॥ २३९ ॥
टीकार्थ-'तए ण सा' इत्यादि । मांसमे लोलुप, मास भक्षणके दोप न जानकर उसमे मूति , कभी मास-भक्षणसे तृप्त न होनेवाली, अग-अगमें मांस भक्षणके अनुरागसे भरी हुई, मांसभक्षणका ही सदा विचार करती रहनेवाली वह गायापतिनी रेवती, अनेक प्रकारके तले हुए और भूजे हुए मास एव मांसके टुकडोंके साथકરેડ સેના અને એક-એક ગોકુળ પિતે લઈ લીધા અને પછી તે મહાશતક ગાથપતિની સાથે ખૂબ કામગ ભેગવતી વિચવા લાગી (૨૩૯)
टीकार्थ-'तए ण सा-त्याहि भासभा सदुप, भासमक्षा योन oneीने તેમાં મૂર્થિત, કઈ વાર પણ માસ ભક્ષણથી તૃપ્ત ન થનારી, અગેઅ ગમા માસ ભક્ષણના અનુરાગથી ભરેલી, માંસભક્ષણને જ સદા વિચાર કરતી રહેનારી એ ગાથા પતિની રેવની, અનેક પ્રકારના તળેલા અને ભૂજેલા માસ તેમજ માસના ટુકડા સાથે
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उपासकदशास्त्रे टीका-"गोडी पेष्टी चमाध्वी च, विज्ञेया त्रिविधा सुरा।" इति ।
तत्र मधुशब्दस्य पृथगुपादानादत्र मुरापटेन गौडी पैंटयोर्ग्रहणम् । मधु-मधुक पुष्पभव मद्यम् । मैरेयम्-इक्षुशाकोदिप्रभवमासवाभिधमपरिपक्व मघम् । मयम्ताड खजूर-धातक्यादिप्रभवम् । “यधपि 'मदिरा कश्यम' इति कोषान्मयस्य मुरापर्यायत्व तथापीह पृथगुपादानान्मदहेतुभूतद्रवद्रव्यमात्रार्यवोधकत्वेन बहुत्र दृष्टत्वाच न मुरापर्यायता, तथाचोक्तम्-"मदहेतुर्द्रवद्रव्य मद्यमित्यभिधीयते' इति।" सी (शी)धु-मुरारुल्कम्, प्रसन्ना-मुगन्धिद्रव्यसम्मेलिता मुराम् । प्रसभा शब्दोऽपि सुरापर्याय एव-"गन्धोत्तमा प्रसन्नेरा" इति कोपात्, पृथगुपादाना चिहोक्तरीत्या क्थञ्चिद्भेदोऽवगन्तव्यः आस्वादयन्ती सम्यक् रसयन्ती ॥२४०॥ आमाघातः समन्तान्माहननम् अमारिरित्यर्थ., घुष्टः घोपणाविषयीकृतः॥२४१।। कौलगृहिकान-पितगृहसम्बन्धिन सोपोतको गोवत्सौ,उपद्रवत घातयताउपनयत
१ पोतकाचिति-पोत =शावक' स एव पोतकः । गुड पीठा (आटा) आदिसे बनी हुई, मधूक (महुआ) से बनी हुई, तथा गन्ने आदिसे बने हुए 'आसव' नामक अपरिपक्क मद्य, ताडा, खजूर धातकी (धावडे ) आदिसे बने हुए मद्य, सीधु (शराबका कल्क घूछा) तथा सुगन्धयुक्त शरायको खूब आस्वादन करने लगी ४ ।
कोपोंमे सुरा और मद्यको पर्यायवाची कहा है तथापि मूल पाठम उन्हें अलग अलग कहनेसे दोनोंको एक नही समझना चाहिए। इसके अतिरिक्त मद्य शब्द मदको उत्पन्न करनेवाले द्रव (पतले) पदार्थका ही बोधक है, इसलिए भी वह सुराका पर्यायवाची नही । 'प्रसन्ना-शब्द सुराका पर्यायवाची है तो भी मूल पाठमे जुदा जुदा नाम आनेस उनका अर्थभी जुदा-जुदा समझना चाहिए ।। २४०॥ एक समय राजगृह नगरमें अमारि (हिंसाबन्दी ) की घोषणा हुई ॥२४॥ -ગળ આટો આદિ મેળવીને બનાવેલી મહુડામાંથી બનાવેલી (સરા), તથા શેરડી આદિમાથી બનેલા “આસવ” નામના અપરિપકવ મઘ, તાડી, ખજૂર ધાતકી (ધાવડી) આદિમાથી બનાવેલા મદ્ય સીંધુ (દારૂને કટક) તથા સુગ ધયુકત દારૂનું ખૂબ આસ્વાદેને ४२वा all ४
મા સુરા અને મને પર્યાયવાચી કહ્યા છે. તે પણ મૂળ પાઠમાં તેને અલગ અલગ કહ્યા છે એટલે બેઉને એક ન સમજવા જોઈએ તે ઉપરાંત મદ્ય શબ્દ ઉત્પન્ન કરનાર દ્રવ (પાતળા) પદાર્થને જ બેધક છે માટે પણ એ સુરાને પર્યાયવાચી નથી “પ્રસન્ના શબ્દ સુરાને પર્યાયવાચી છે, તે પણ મૂળ પાઠમાં જુદા જુદા નામ આવવાથી એમને અર્થ જુદાજુદો સમજવું જોઈએ (૨૪) એક સમયે રાજગૃહ નગરમાં અમારિ (જિ.સાબ ધી) ની ઘોષણા થઈ (૨૪) એટલે માલુપા ( આદિ
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ८ स २४०-२४९ रेवतीदुष्कर्मवर्णनम् ४९७ अन्नया कयाइ आमाघाए घुटे यावि होत्था ॥२४१॥ तए णं सा रेवई गाहावडणी मसलोलुया मसेसु मुच्छिया ४ कोलघरिए पुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता एव वयासी-तुम्भे देवाणुप्पिया । मम कोलघरिएहितो वएहितो कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गणोपोयए उहवे उद्दवित्ता मम उवणेह ॥२४२॥ तए ण ते कोलघरिया पुरिसा रेवईए गाहावइणीए तहत्ति एयम, विणएण पडिसुणति,पडिसुणित्ता रेवईए गोहावइणीए कोलघरिएहितो वएहितो कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गोणपोयए वहेंति, वहित्ता रेवईए गाहावडणीए उवणेति॥२४॥त एणं ततः खलु राजगृहे नगरेऽन्यदा कदाचिद् जामाचात. (अमारिः) घुष्टश्चाप्यासीत् ॥४१॥ तत* खल सा रेवती गाथापत्नी मासलोलुपा मासेपु मून्न्तिा४ कोल गृहिसान पुस्पान् शब्दयति, शब्दयित्वैवमवाढीत-यूय देवानमिया । मम कौल. गृहिकेभ्यो प्रजेभ्यः कल्यामल्यि द्वौ द्वौ गोपोनपटवत, उपद्रुत्य ममोपनयत ॥२४२॥ तत ग्वल ते कौल गृहिका. पुरुपा रेवत्या गायापल्या 'तथेति' एतमर्थ विनयेन प्रतिशृण्वन्ति, प्रतियुत्य रेवत्या गाथापत्न्या कोलगृहिकेभ्यो व्रजेभ्यः कल्याकल्यि द्वौ द्वी गोपोतकी नन्ति, हत्वा रेवत्यै गाथापत्न्य उपनयन्ति ॥२४३।।
टीका-मासलोलुपा-मासभक्षणलुब्धा, एतदेव विशिनष्टि मासेपु-मामविपये मूञ्छिता-मासभषणदोपानभिनतया मोहमुपगता,ट्रद्धा भोगोनरमप्यनुपरतकाक्षा वती, ग्रथिता प्रत्यङ्गमुत्पन्नमासभक्षणानुरागतन्तुभि कृतसन्दर्भा, अध्युपपन्नातदेवचित्ता । जत किं रोती? त्याह- बहुभिरित्यादि, बहुभि =मामान्यविशेषरूपैः, नलितै घृततैलादिनाऽग्निसम्मतै , भर्जितै =केवलराग्निपाचित, (सर्वत्र सहार्थे तृतीया)। मुरा-गुड मधु पिष्टसम्भवा, तढक्तम्
तर मामलोलुपा ४ रेवतीने अपने पितगृहके नोकरोंको बुलाया और उनसे कहा-"देवानुप्रिया तुम लोग मेरे मायके के गोकलोंसे प्रतिदिन दो बडे मेरे लिए मार लाया करो ॥२४|| मायके के नौकरीने 'ठीक है' कह कर उसकी सात विनयपूर्वक मान ली। वे लोग दो बछडे मारकर प्रतिदिन रेवतीके पास लाने लगे ॥४३॥ ઉપર દર્શાવેલા ચાર વિશેષણોથી યુકત) રેવતીએ પિતાના પિયરના નરોને લાવ્યા અને તેમને કહ્યું “દેવનુપ્રિય! તમે લકે મારા પિયરના કુલેમાથી જ છે વાછડા મારીને માર માટે લાવ્યા કરે” (ર૪ર) પિયરના નિકોએ “વારૂ” કહીને એની વાત વિનયપૂર્વક માની લીધી તે લેટ બે વાછડા મારીને રોજ રેવતીની પાસે લાવવા લાગ્યા (૨૩) માસલોલુપ થાપતિની રેવતી પહેલાની પિઠે માસ–મદિરાર્ન
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उपासकदशासूत्रे सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोणमसेहिं सोल्लेहि य ४ सुर च ६
आसाएमाणी ४ विरहइ॥२४४॥ तए ण तस्स महासयगस्स सम ___णोवासगस्स बहूहि सील जाव भावेमाणस्स चोदस संबच्छरा वह कता। एव तहेव जेट्टपुत्त ठवेइ जाव पोसहसालाए धम्मपण्णन्ति उवसंपजित्ताण विहरइ ॥२४५॥ तए ण सारेवई गाहावइणी मत्ता ललिया विइण्णकेसी उत्तरिजय विकड्रमाणी२ जेणेव पोसहसाला तत खलु सा रेवती गाथापत्नी तैगोमासेः शूल्यकैश्च४ मुरा च६ आस्वादयन्ती४ विहरति ॥२४४॥ ततः खलु तस्य महाशतकस्य श्रमणोपासकम्य बहुभि शीलयावद् भावयतश्चतुर्दश सवत्सरा व्युत्क्रान्ता । एर तथैव ज्येष्ठ पुत्र स्थापयति यावत्पोषध शालाया धर्मप्रज्ञप्तिमुपमम्पद्य विहरति ॥२४५।। तत सलु सा रेवती गाथापत्नी मत्ता लुलिता विकीर्णकेगा उत्तरीयक विकर्पन्ती २ यत्रैव पोपधशाला यत्रैव महा =आनयत ॥२४२-२४५॥ मत्ता-मुरादिपानजन्यमदाकुला, न केवल मत्तैवाऽपितु लुलिता-मटावेगवशेन परखच्चरणा, विकीर्णकेशा=विक्षिप्तमुक्तकेशा । उत्तरीयकम् मासलोलुपा ४ गाथापतिनी रेवती पहलेकी तरह मास-मदिराका सेवन करती हुई समय बीताने लगी ॥ २४४ ॥ इधर महाशतक गाथापतिको विविध प्रकारके व्रत-नियमोका पालन करते यावत् भावना भाते चौदह वर्ष व्यतीत हो गये । इस प्रकार आनन्दकी भाति इसने भी जेठे लडकेको कुटुम्बका भार सौपा और यावत् पोपधशालामे धर्मप्रज्ञप्तिको स्वीकार कर विचरने लगा ॥२४५।। मास लोलुपा गाथापतिनी मदिराके नशेसे उन्मत्त होकर, और नशेकी तीव्र तासे पैरोको लडखडाती हुई (इधर उधर डगमगाती हुई), बालोको खोल (विखेर)क्र, ओढनेके वस्त्रको खीचती हुई, अर्थात् शराबकी उन्म સેવન કરતી સમય વીતાવવા લાગી (૨૪૪) આ બાજુએ મહાશતક ગાથાપતિને વિવિધ પ્રકારના વ્રત–નિયમનું પાલન કરતા યાવત્ ભાવના ભાવતા ચૌદ વર્ષ વ્યતીત થઈ ગયા એ પ્રમાણે આનદની પેઠે એણે પણ મોટા પુત્રને કુટુંબને ભાર એ અને યાવતુ પિષધશાળામાં ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિને સ્વીકારી વિચારવા લાગ્યા, (૨૪૫) માસáલુપ ગાથાપતિની મદિરાના નશાથી ઉ મત્ત થઈને અને નશાની તીવ્રતાથી પગે લડથડતી, વાળ વીખેરી નાખી, ઓઢવાના અને ખેચતી, અર્થાત મદ્યપાનની ઉન્મત્તતા તથા
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अगारधम सञ्जीवनीटीका अ०८ र २४०-२४९ रेवतीकामोन्मत्ततावर्णनम् ४९९ जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोहम्मायजणणाइ सिंगारियाइ इस्थिभावाइ उवदसेमाणीर महासयय समणोवासय एव वयासी-हभो महासयया । समणोवासया धम्मकामया। पुण्णकामया । सग्गकामया । मोक्खकामया ।, धम्मकखिया १४, धम्मपिवासिया | ४, किण्ण तुब्भ देवाणुप्पिया। धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मोक्खेण वा, जण्णं तुम मए शतक. अमणोपासशस्तेयोपागच्छति, उपागत्य मोनोन्मादजननान शाारिकान् स्त्रीभावान उपदर्शयन्ती २ महाशतक श्रमणोपासकमेवमवादीत्-हभो. महाशतक !
श्रमणोपासक ! धर्म कामुक ! पुण्यकामुक ! स्वर्गकामुक मोक्षकामुक | धर्माहित । ___४, मंपिपासित ! ४, किं सलु तब देवानुप्रिय ! धर्मेण वा ? पुण्येन गा ? स्वर्गेण
=अङ्गोपरिवारणीयद्विपट्टचस्त्र, विपन्ती-अपकर्पन्ती, मद्यमोहचिह्नमेतत् कामचेष्टित वा । मोहोन्मादजननान्-मोहश्चोन्मादश्च मोहो मादो तयोर्जननान-उत्पादकान, शारिकान्-शृङ्गारसम्बन्धिन , स्त्रीभावान्टाक्षभुजाक्षेपादीन् । 'हभोः' इत्यारभ्य 'नो विहरसि' इत्यन्तस्य वाक्यसमुदायस्याभिप्रायः यत् धर्म-पुण्यस्वर्ग मोक्षादिकामना सुखधियैव क्रियते, तच्च सुख विषयसेवनात्पर न कापि सभ वतोति सर्व दुष्करधर्माद्यासेवनमपहाय मया सह यथामनोरथ विषयसुखमेवानुभवेदिति ।। २४६ ॥ त्तता तथा कामुकता के चिह्न प्रगट करती हुई पोपयशालामे महाशतक श्रावकके समीप जा पहुंची। वहाँ पहुच कर मोह और उन्मादको उत्पन्न करने वाले शृगार भरे हावभाव कटाक्ष आदि स्त्रीभावों (नखरों)को दिखा दिखाकर महाशतकसे बोली-"रे महाशतक श्रावक ! तुम बडे धर्मकामी, पुण्यकामी, स्वर्गकामी,मोक्षकामी, धर्मकी आकाक्षा करनेवाले, धर्मके प्यासे बन बैठे हो ! देवानुप्रिय ! तुम्हें धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्षका क्या करना है ' तुम मेरे साथ मन माने भोग क्यों नहीं भोगते કામુકતાના ચિહ્ન પ્રકટ કરતી પિષધશાળામાં મહાશતક શ્રાવકની સમીપ જઈ પહોચી ત્યા મોહ અને ઉમાદને ઉત્પન્ન કરનારા શ્ર ગારભર્ચા હાવભાવ કટાક્ષ આદિ સ્ત્રીભાવ (નખરા)ને બતાવતી મહાશતકને કહેવા લાગી “હે મહાશતક શ્રાવક' તમે મોટા ધર્મકામી, પુચકામી, સ્વર્ગકામી, મેક્ષકામી, ધર્મની આકાંક્ષા કરનારા, ધર્મના તરસ્યા બનીને બેઠા છે! દેવાનુપ્રિય! તમારે ધર્મ, પુણ્ય, સ્વર્ગ અને મેક્ષને શું કરવા છે?
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उपासकदशामने सद्धि उरालाइ जाव मुंजमाणे नो विहरसि ? ॥२४६॥ तए णं से महासथए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए एयमटुंनो आढाइ नो परियाणाइ, अणाढायमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए धम्म ज्झाणोवगए विहरइ ॥२४७॥ तए णं सा रेवई गाहावड़णी महासयय समणोवासय दोच्चपि तचंपि एव वयासी-हभो त चेव भणइ । सोवि तहेव जाव अणोढायमाणे अपरियाणमाणे विहरइ वा? मोक्षेण गा ? यत्खलु व मया सामुदारान यावद् भुञ्जानो नो विहरसि ? ॥२४६॥ तत• ग्वलु स महाशतकः श्रमणोपासको रेवत्या गाथापत्न्या एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति, अनाद्रियमाणोऽपरिजानस्तूप्णीको धर्मध्यानोपगतो विहरति ॥२४७॥ तत खलु सा रेवती गाथापत्नी महाशतक श्रमणोपासक द्वितीयमाप तृतीयमप्येवमवादीत्-हभोः । तदेव भणति । सोऽपि तथैव यावद् अनाद्रियमाणोऽपरिजानन् विहरति ॥२४८॥ ततः खलु सा रेवती गाथापत्नी हो' तात्पर्य यह है-धर्म पुण्य आदि सुखके लिए ही क्येि जाते हैं,
और विषयभोगसे बढकर दूसरा कोई सुख नहीं है, इसलिए इन झझटोंको छोडो ओर मेरे साथ मनमाने भोग भोगो ॥२४६॥
महाशतक श्रावकने रेवती गाथापतिनीके इस कथनको न आदर दिया न परिज्ञान किया, अर्थात् इस तरफ ध्यान भी नहीं दिया, वह मौन रह कर धर्म ध्यानमे लगा रहा ।। २४७ ॥ तब गाथापतिनी रेवतीने महाशतक श्रावकसे दूसरी बार और तीमरी बार भी वही बात कही, किन्तु महाशतक तो उसकी यातको उसी प्रकार यावत् स्वीकार, तथा परिज्ञान न करके विचरने लगा ॥ २४८ ॥ तव रेवती गाथापतिनी महा તમે મારી સાથે મનમાન્યા ભેગ કેમ ભગવતા નથી ? તાત્પર્ય એ છે કે ધર્મ પુણ્ય આદિ સુખને માટે કરવામાં આવે છે, અને વિષય ભેગથી ઉચુ બીજુ કૈઈ સુખ નથી, માટે આ માથાફેડ છેડા અને મારી સાથે મનમાન્યા ભેગ ભેગો (૪૬).
મહાશતક શ્રાવકે રેવતી ગાથાપતિનીના આ કથનને આદર ન આવે, પરિજ્ઞાન ન કર્યું, અર્થાત તે તરફ ધ્યાન પણ આપ્યું નહિ, તે મૌન રહીને ધમધ્યાનમાં લાગી રહ્યો (૨૪૭) એટલે ગાથાપતિની વતીએ મહાશતક શ્રાવકને બીજીવાર અને ત્રીજીવાર પણ એજ વાત કહી, પરંતુ મહાશતક તે જ પ્રમાણે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ८ महाशतकअवधिज्ञानवर्णनम्
५०१
॥ २४८ ॥ तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयएण समणोवासएण अणाढाइजमाणी अपरियाणिजमाणी जामेव दिसं पाउबभूथा तामेव दिसं पडिगया || २४९ ॥
मूलम् - तए ण से महासयए समणोवासए पढमं उत्रासगपडिम उवसपजित्ताणं विहरड । पढम अहासुत एक्कारसवि ॥ २५० ॥ तएण से महासयए समणोवासए तेणं उरालेणं जाव किसे धम सितए जाए ॥ २५९ ॥ तए णं तस्स महासयस्स समणोवासयस्स अन्नया कयाइ पुवरत्तावरत काले धम्मजागरिय जोगरमाणस्स महाशतकेन श्रमणोपासकेनाऽनाद्रियमाणा अपरिज्ञायमाना यामेव दिश मादुर्भूता तामेव दिश प्रतिगता ॥ २४९ ॥
छाया - ततः खलु स महाशतक श्रमणोपासक प्रथमामुपासकप्रतिमामुपपद्य विहरति । प्रथमा यथासूत्र यावदेकादशापि ॥ २५० ॥ ततः खलु स महाशतकः श्रमणोपासकस्तेनोदारेण यावत्कृशो धमनिसन्ततो जातः || २५१ ॥ ततः
शतक श्रावक द्वारा अनाहत और अपरिज्ञात ( अस्वीकृत ) अर्थात् तिरस्कृत होकर जिधर से आई थी उधर ही चली गई ॥ २४९ ॥
टीकार्थ-' तर ण से ' इत्यादि तदनन्तर महाशतक श्रावक पहली डिमाको अगीकार कर विचरने लगा। पहली यावत् ग्यारहो पडिमाओका शास्त्रानुसार पालन किया ।। २५० || इस उग्र कर्त्तव्य से वह महाशतक श्रमणापासक यावत् बहुत ही कृश ( दुबला पतला ) हो गया, यहा तक कि उसकी नस नस दिखाई देने लगी ॥ २५९ ॥ एक समय તેની વાતના સ્વીકાર કે પરજ્ઞાન કર્યાં વિના વિચરવા લાગ્યા (૨૪૮) એટલે પછી રેવતી ગાથાતિની મહાશતક શ્રાવકથી અનાવૃત અને અરિજ્ઞાત (અમ્નીકૃત) અર્થાત તિરસ્કૃત થઈને જ્યાથી આવી હતી ત્યા જ ચાલી ગઈ (૨૪૯)
टीकार्थ- 'तएण से' - ४त्याहि यछी महाशत શ્રાવક પહેલી પડિમાને અગીકારને વિચરવા લાગ્યું। પહેલી યાવત અગીઆરે પડિમાએનું શાસ્ત્રાનુસાર પાલન કર્યું (૨૫૦) એ ઉગ્ર કન્યથી તે મહાશતક શ્રમણેાપાસક ચાવત્ બહુજ કુશ (દુખળા) થઈ ગયે, ત્યા સુધી કે તેના શરીરની નસેનસ બહાર દેખાવા લાગી
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उपासकदशाङ्ग
सद्धि उरालाइ जाव भुंजमाणे नो विहरसि ? ॥ २४६ ॥ तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए एयमहं नो आढाइ नो परियाणा, अणाढायमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए धम्मज्झाणोare विहरइ || २४७॥ तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयय समणोवासय दोच्चपि तचंपि एव वयासी- हभो । त चेव भइ । सोवि तहेव जाव अणोढायमाणे अपरियाणमाणे विहरइ वा? मोक्षेण वा ? यत्खलुत्व मया सार्द्धमुदारान् यावद् भुञ्जानो नो विहरसि ? ॥२४६ ॥ तत खलु स महाशतक' श्रमणोपासको रेवत्या गाथापल्या एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति, अनाद्रियमाणोऽपरिजानस्तृष्णीको धर्म व्यानोपगतो विहरति ॥२४७॥ तत खलु सा रेवती गाथापत्नी महाशतक श्रमणोपासक द्वितीयमाप तृतीयमप्येवमवादीत - भोः । तदेव भणति । सोऽपि तथैव यावद् अनाद्रियमाणोऽपरिजानन् विहरति ॥ २४८ ॥ तत. खल सा रेवती गाथापत्नी हो ? तात्पर्य यह है धर्म पुण्य आदि सुखके लिए ही किये जाते हैं, और विषयभोगसे बढकर दूसरा कोई सुख नही है, इसलिए इन झझटोंको छोडो ओर मेरे साथ मनमाने भोग भोगो ॥ २४६॥
महाशतक श्रावकने रेवती गाथापतिनीके इस कथनको न आदर दिया न परिज्ञान किया, अर्थात् इस तरफ ध्यान भी नही दिया, वह मौन रह कर धर्म ध्यान मे लगा रहा || २४७ ॥ तब गाथापतिनी रेवतीने महाशतक श्रावक से दूसरी बार और तीसरी बार भी वही बात कही, किन्तु महाशतक तो उसकी बातको उसी प्रकार यावत् स्वीकार, तथा परिज्ञान न करके विचरने लगा || २४८ ॥ तब रेवती गाथापतिनी महा
તમે મારી સાથે મનમા યા ભાગ કેમ ભાગવતા નથી ? તાત્પર્ય એ છે કે ધર્મ પુણ્ય આદિ સુખને માટે કરવામા આવે છે, અને વિષય ભાગથી ઉંચુ ખીજી કોઈ સુખ નથી, માટે આ માથાફેડ છેડે અને મારી સાથે મનમાન્યા ભાગ ભાગવા (૨૪૬) મહાશતક શ્રાવકે રેવતી ગાયાપતિનીના આ કથનને આદર नयाथ्यो, પજ્ઞાન ન કર્યું, અર્થાત્ તે તરફ ધ્યાન પણ આપ્યુ નહિ, તે મૌન રહીને ધ ધ્યાનમા લાગી રહ્યો (૨૪) એટલે ગાયાપત્તિની રેવતીએ મહાશતક શ્રાવકને ખીજીવાર અને ત્રીજીવાર પણ એજ વાત કહી, પરંતુ માર્થાતક તેા એજ પ્રમાણે
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ८ महाशतकअवधिज्ञानवर्णनम् ५०१ ॥२४८॥ तए णं सा रेवई गाहावाणी महासयएण समणोवासएण अणाढाइजमाणी अपरियाणिजमाणी जामेव दिस पाउभूया तामेव दिसं पडिगया ॥२४९॥ मूलम्-तए ण से महासयए समणोवोसए पढमं उबासगपडिम उवसंपजित्ताणं विहरड । पढम अहासुत्त एकारसवि ॥ २५० ।। तए ण से महासयए समणोवासए तेणं उरालेणं जाव किसे धमणिसंतए जाए ॥२५१॥ तए णं तस्स महासयस्स समणोवासयस्स अन्नया कयाड पुवरत्तावरत्त काले धम्मजागरिय जोगरमाणस्स महाशतकेन श्रमणोपासकेनाऽनाद्रियमाणा अपरिज्ञायमाना यामेव दिश प्रादुर्भूता तामेव दिश प्रतिगता ॥२४९॥
छाया-तत. ग्वलु स महाशतर श्रमणोपासक प्रथमामुपासकातिमामुपसपद्य विहरति । प्रथमा यथासूत्र यावदेशादशापि ।।२५०॥ ततः खलु स महाशतकः श्रमणोपासकस्तेनोदारेण पावत्कृगो धमनिसन्ततो जातः ॥२५१॥ ततः शतक श्रावक द्वारा अनाहत और अपरिज्ञात ( अस्वीकृन) अर्थात् तिरस्कृत होकर जिधरसे आई थी उधर ही चली गई ॥ २४९ ॥
टीकार्थ-'तए ण से' इत्यादि तदनन्तर महाशतक श्रावक पहली पडिमाको अगीकार कर विचरने लगा।पहली यावत् ग्यारहो पडिमाओका शास्त्रानुसार पालन किया।॥ २५० ।। इस उग्र कर्तव्यसे वह महाशतक श्रमणापासक यावद बहुत ही कृश (दुबला पतला) हो गया, यहां तक कि उसकी नस नस दिखाई देने लगी ।। २५१ ॥ एक समय તેની વાતને સ્વીકાર કે પરિજ્ઞાન કર્યા વિના વિચરવા લાગે (૪૮) એટલે પછી રેવતી ગાથાપતિની મહાશતક શ્રાવકથી અનાદૃત અને અપરિજ્ઞાત (અસ્વીકૃત) અર્થાત તિરસ્કૃત થઈને જ્યાંથી આવી હતી ત્યાં જ ચાલી ગઈ (૨૪૯)
टीकार्थ-'तए ण से'-त्याहि पछी भाशत: श्राप पडी पडिभाने અગીકારને વિચરવા લાગ્યા પહેલી વાત અગીઆરે પડિમાઓનું શાસ્ત્રાનુસાર પાલન કર્યું (૨૫૦) એ ઉગ્ર કર્તવ્યથી તે મહાશતક શ્રમણોપાસક યાવત્ બહુજ કુશ (દુબળો) થઈ ગયે, ત્યાં સુધી કે તેના શરીરની નસેનસ બહાર દેખાવા લાગી
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उपासकरशामने अयं अज्झथिए ५-एव खल्ल अहं इमेण उरालेणं जहा आणंदो तहेव अपच्छिममारणंतियसलेहणाए झुसियसरीरे भत्तपाणपडियाइक्खिए कालं अणवकखमाणे विहरड ॥२५२॥ तए ण तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स सुभेणं अज्झवसाणेण जाव खओवसमेण ओहिणाणे समुप्पन्ने । पुरस्थिमेण लवणसमुद्दे जोयणसाहस्सिय खेतं जाणइ पासइ, एवं दक्षिणे ण पञ्चत्थिमे ण उत्तरे ण खलु तस्य महाशतकस्य अमणोपासकस्यान्यदा कदाचित्पूर्वरात्रापरत्रकाले धर्म जागरिका जाग्रतोऽयमा यात्मिकः ५-एव खलु अहमनेनौदारेण यथाऽऽनन्दस्तथे चापश्चिममारणान्ति कसलेखनयाजोपितशरीरो भक्तपानमत्याख्यान कालमनवका
झन् विहरति ॥२५२॥ तत खलु तस्य महाशतकस्य श्रमणोपासकस्य शुभे नाऽ यवसायेन यावत्क्षयोपशमेनावधिज्ञान समुत्पन्नम् । पौरस्त्ये खलु लवणसमुद्र योजनसाहसिक क्षेत्र जानाति पश्यति, एव दाक्षिणात्ये खलु, पाश्चात्ये खलु, धर्मजागरणा करते करते पूर्वरात्रिके अपर कालमे महाशतक श्रावकको यह विचार आया-" मै इस उग्र कर्तव्यसे " इत्यादि आनन्दके समान । वह अन्तिम मारणान्तिक सलेखनासे जोषित शरीर होकर भक्त पानका प्रत्याख्यान (परित्याग ) कर मृत्युकी कामना न करता हुआ विचरने लगा ।। २५२ ।। उसके बाद शुभ अयवसाय (परिणामसे यावत् अवधिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे उस महाशतक श्रावकको अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। वह पूर्वदिशामे लवणसमुद्रके अन्दर एक हजार योजन क्षेत्र तक जानता देखता था। इसी प्रकार दक्षिण और (૫૧) એક સમયે ધર્મજાગરણ કરતા પૂર્વ રાત્રિના અપરકાળમાં મહાશતક શ્રાવકને એ વિચાર આવ્યું કે “હું આ ઉગ્ર કર્તવ્યથી ” ઈત્યાદિ આનદ શ્રાવકની પેઠે સમજવું તે અતિમ મરણ તક આ લેખનાથી જેષિત-શરીર થઈને ભકત-પાનનું પ્રત્યાખ્યાન (પરિત્યાગ કરીને મૃત્યુની કામના ન કરતે વિચારવા લાગ્યો (૨૫૨) તેના પછી શુભ અધ્યવસાય (પરિણામ)થી થાવત અવધિજ્ઞાનાવરણ કર્મના ક્ષયપ શમથી તે મહાતક શ્રાવકને અવધિજ્ઞાન ઉત્પન્ન થયું તે પૂર્વ દિશામાં લવણ સમદ્રની અંદર એક હજાર જન ક્ષેત્ર સુધી જાણત-રેખતે હો એ પ્રમાણે
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भगारधम सञ्जीवनीटीका अ०८ २५० २५१ रेतीकामोन्मत्ततावर्णनम् ५०३ जाव चुल्लहिमवत वासहरपचय जाणइ पासइ, अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं नरयं चउरासीइवाससहस्सट्ठिय जाणइ पासइ ॥२५३॥ तए ण सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ मत्ता जाव उत्तरिज्जयं विकमाणी २ जेणेव महासयए समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासयय तहेव भणइ जाव दोञ्चपि तच्चपि एव वयासी हंभो । तहेव ॥२५४॥ तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए अत्तिरे खलु यात्रत्क्षुद्रहिमवन्त वर्षधर पर्वत जानाति पश्यति, अधोऽस्या रत्नप्रभाया पृथिव्या लोलुपाच्युत नरक चतुरशीतिवर्षसहस्रस्थितिक जानाति पश्यति || २५३॥ ततः खलु सा रेवती गाथापत्नी अन्यदा अदाचिन्मत्ता यावदुत्तरीयक विकर्षन्ती २ येनैव महाशतकः श्रमणोपासको यत्रैव पोपधशाला तेनैवोपागच्छति, उपागत्य महाशतक तथैव भणति यावद् द्वितीयमपितृतीयमप्येवमवादीत् = हभोः । तथैव।। २५४॥ ततःखलु स महाशतकः श्रमणोपासको रेवत्या गाथापत्न्या द्वितीयमपि तृतीयमप्ये
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पश्चिममे भी लवणसमुद्र के भीतर एक हजार योजन क्षेत्र तक जानता देखता था । उत्तरमे क्षुद्र हिमवन्त पर्वत तक जानता देखता था । अधो (नीची) दिशामे इस रत्नप्रभा पृथ्वी में चौगसी हजार वर्ष की स्थितिवाले लोलुपाच्युत नरक तक जानता देखता था || २५३ ||
इसके अनन्तर एक बार गाथापतिनी रेवती फिर उन्मत्त होकर यावत् ओढनेके वस्त्रको खीचती हुई महाशतक श्रावकके पास आई, आकर तीनवार तक वही बात कही, जो पहले कही थी || २५४ ॥ दो દક્ષિણ અને પશ્ચિમમા પણ લવણુસમુદ્રની અંદર એક હજાર યેાજન ક્ષેત્ર સુધી જાણતા દેખતા હતા ઉત્તરમાં ક્ષુદ્ર હિમવત્ત પર્યંત સુધી જાણતા દેખતા હતા અધે! (નીચી) દિશામા આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમા ચારાસી હજાર વષ ની સ્થિતિવાળા बोसुपाभ्युत नर सुधी लघुतो - हेमतो तो (243)
પછી એક વાર ગાથાતિની રેવતી ફરી પાછી ઉન્મત્ત થઈને યાવત્ એઢ વાના વસ્ત્રને ખેચતી મહાશતક શ્રાવકની પાસે આવી અને તેણે પહેલાના જેવીજ વાત ત્રણવાર કહી (૨૫૪) એમ વાર વાર બે ત્રણવાર કહેવાથી મહાશતકને ક્રોધ આવી
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उपासकदवाने दोच्चपि तचंपि एव वुत्ते समाणे आसुरन्ते ओहि पउंजइ, पउंजिता
ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता रेवइ गाहावइणि एवं वयासीहंभो रेवई । अपत्थियपस्थिए ४ । दुरतपतलक्खणे हीनपुण्णचउद्दसी सिरिहरिकित्तिवजिए एवं खल्ल तुम अंतो सत्तरत्तस्स वमुक्तः सन् आशुरक्तः ४ अवधि मयुनक्ति प्रयुज्यावधिना-आभोगयति, आभोग्य रेवती गाथापत्नीमेवमवादीत्-हभोः रेवति ! अप्रार्थिनमार्थिक ! दुरन्तपान्त लक्षणे हीनपुण्यचतुर्दशि श्री ही धी कीर्तिवर्जिते एव खलु त्वमन्त
टीका-आभोगेति-आभोग ज्ञान तत्करोति-आभोगयति, (तत्करोति तदाचष्टे' इति णिच्) तेन आभोगयति-जानाति, आभोग्य ज्ञात्वेत्यर्थःअलसाविचिका, अग्निमान्यरोग इति केचित, तदुक्तम्
" ऊर्धाधोगमनाशक्तो येन मन्दतरानलः ।
नरोऽलसामाशय स्यात्स व्याधिरलसः स्मृतः ॥" इति । श्वयथुपर्यायः शोफरोगः-अलस, येन रक्तहासादितो हस्तपादादिस्तम्भन शोथश्च समपद्यते, तदप्युक्तम्" स्तम्भन हस्तपादादेयेन रक्तस्य दूषणात् ।
शोथमेत विजानीयादलस भिपजाँ वरा ।" इति ।। 'अपत्थियपत्थिए' अमार्थिकमार्थिके-अप्रार्थित यत्केनापि न प्रार्थ्यते मरण तत्मार्थयमि इति अप्रार्थिकमार्थिक तत्सम्बुद्धौ अमार्थिकमाथिके यावत् करणात् 'दरतपतलक्खणे, दुरन्तपान्तलक्षणे तर दुरन्तोनि दुष्टपर्यन्तानि मान्तानि-अप्रशस्तानि लक्षणानि यस्या तत्सम्बुद्धौ हे दुरन्तप्रान्तलक्षणे तथाच 'होनपुण्णचउदसी', हीनपुण्यचतुर्दर्शि तत्र हीना असमया पुण्या पवित्रा चतुर्दशी तिथिर्यस्याः सा तत्मम्सुद्धौ ‘सिरिहिरि रित्तिवज्जिए' श्री ही धी कीति तीन धार कहनेसे महाशतकको क्रोध आ गया। उसने अवधि ज्ञानको प्रयोग करके उपयोग लगाया, उपयोग लगा कर अर्थात् अवधिज्ञान द्वारा जानर वह बोला-"अपना अनिष्ट चाहनेवाली हे हीनपुण्य चतुर्दशी में जन्म लेनेवाली हे कुलक्षणवाली हे लक्ष्मी लज्जा बुद्वि और कीति ગયે જેથી એણે અવધિજ્ઞાનને પ્રયાગ કરીને મનમા ઉપર લગાવ્યું. અર્થાત ઉપયોગ લગાવીને અવધિજ્ઞાન દ્વારા જાણીને તે બે પિતાનું અનિષ્ટ ચાહનારી હેપ રહિત, ચાદશમાં જન્મ લેનારી કુલક્ષણા લમી, લજજા બુદ્ધિ અને દીતિવગરની
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीकाअ ८ सू २५०-२५७ रेवतीशापस्वरूपनिरूपणम् ५०५ अलसएण वाहिणा अभिभूया समाणी अदुहवसहा असमाहिपत्तो कालमासे काल किच्चा अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए चउरासीइवाससहस्सहिडएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववजिहिसि ॥२५५॥ तए ण सा रेवई गाहावडणी महासयएणं सप्तरात्रस्यालसकेन व्याधिनाऽभिभूता सती आनंद खार्तवशा" असमाधिप्राप्ता कालमासे काल कृत्वाऽधोऽस्या रत्नप्रभाया पृथिव्या लोलुपाच्युते नरके चतुरशीतिवर्षसहस्रस्थितिकेपु नैरयिकेपु नेरयिस्तयोत्पस्यसे ॥२५५॥ ततः खलु सा वर्जिते तत्र श्री शोभा-ही-लना धीधुद्धि कीर्ति -प्रशस्तसाधुवादरूपा ताभिर्वर्जिता तत्सम्बुद्रो हे श्री ही पी कोतिर्जिते
नैरयिकतया नारकिकत्वेन नारम्किी भूत्वेत्यर्थ , उत्पत्स्यसे उत्पन्ना भषिप्यसि । हीमः प्रीतिरहित ,अप-याता=दु-र्यानविपयता नीता । कुमारेण=कुत्सितेन मारेण । रहित रेवती ! तृ सात रात्रिके भीतर-भीतर अलस रोगसे पीडित होर शोक समुद्र में गोता लगाती हुई तीव्र दुःखके वश होकर (अशान्त चित्त)से असमाधि यथासमय काल करके इस रत्नप्रभा पृथ्वीके नीचे लोलपाच्युत नरकमे चौरासी हजार वर्षकी स्थितिवाले नारकियोंमें नारकीरूपसे उत्पन्न होगी" ॥ २५५ ॥
१ अलस विपूचिमा । कोइ कोइ इसे मन्दाग्निमा रोग कहते है। कहा भी है-"ऊपर नीचे गमन न कर सके, अग्नि मन्द हो जाय, आमाशय ठीक-ठीक काम न करे, जिस व्याधिसे मनुप्य इस प्रकार हो जाय उसे अलस रोग कहते हैं॥" शोफ (मूजन) रोगमो भी अलस कहते है-जिसके होनेसे रक्त के दुषित
और कम हो जानेसे हाथ-पैरोमा स्तम्भन हो जाताहै और सूजन चढजाताहै।। રેવતી ! તુ સાત રાત્રિની અંદર અલસ રોગથી પીડિત થઈને શોકસમુદ્રમાં ગેથા ખાતી તીવ્ર દુખને વશ થઈ મહાન અસમાધિ ( અશાત ચિત્ત )થી યથાસમય કાળ કરીને આ રત્નપ્રભ પૃથ્વીની નીચે લાલુપાયુત નરકમ રાશી હજાર વર્ષની સ્થિતિવાળા નારકીઓમાં નારકી રૂપે ઉતપન્ન થઇશ” (૨૫૫)
અલસ એટલે વિકૃચિકા (કલેરા-મરકી ઇત્યાદિ) કેઈ કે તેને મદગ્નિનો રોગ કહે છે કહ્યું છે કે “ ઉપર નીચે ગમન ન કરી શકે, અગ્નિ મંદ થઈ જાય, આમાશય બરાબર કામ ન કરે, જે વ્યાધિથી માણસ આ પ્રકારને થઈ જાય તેને અસલ રોગ કહે છે ” સેજાના
ગને પણ અસલ કહે છે તે રોગથી શરીરનું લેહી બગડી અને ઓછું થઈ જવાથી હાથ પગનું તે ભન થઈ જાય છે અને મેજા ચડે છે
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उपासकदशाङ्गसूत्रे समणोवासएण एवत्ता समाणी एव वयासी- रुडेण मम महासयए समणोवास, हीणे णं ममं महासयए, अवज्झाया णं अह महासयणं समणोवासएण, न नज्जइ णं अहं केणवि कुमारेण मारिज्जिस्सामित्ति कट्टु भीया तत्था नसिया उद्विग्गा सजाय भया सणिय २ पच्चीसक्कड़, पच्चोसक्कित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ओहय - जावज्झियाइ ॥ २५६ ॥ तए ण सा रेवई गाहावइणी अतो सत्तरत्तस्स अलसएण वाहिणा अभिभूया अह नष्टा=अलक्षिता || २५० - २५७॥
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रेवती गाथापत्नी महाशतकेन श्रमणोपासकेनैवमुक्ता सत्येवमवादीत् "रुष्ट' खल मम महाशतक श्रमणोपासक, हीन खलु मम महाशतक, अव याता खल्वह महाशतकेन श्रमणोपासकेन, न ज्ञायते खल्वह केनापि कुमारेण मारयिष्ये" इति कृत्वा भीता त्रस्तानष्टा उद्विग्ना सञ्जातभया शनैः शनै प्रत्यवष्वकते, प्रत्यवध्वष्वय येनैत्र स्त्रक गृह तेनैवापागच्छति, उपागत्य, अवहत यात्रद् ध्यायति ॥ २५६ ॥ ततः खल्लु सा रेवती गाथापत्नी अन्त सप्तरानस्यालसकेन व्याधिनाऽभिभूताऽऽत्तदुःखार्त्त
महाशतककी बात सुनकर रेवती ( मनही मन ) विचारने लगी" अन महाशतक मुझसे रूठ गया है, वह मुझ पर प्रेम नही रग्वता और मेरा बुरा सोचता है, न जाने यह मुझे किस बुरी मौतसे मरवा डालेगा " ऐसा सोच कर वह डरी और घृजती (कापती) हुई छुप कर क्षुब्ध और भयभीत होती हुई वहासे धीरे-धीरे निकली । निकल कर जहा अपना घर था वहा आई और उदास होकर यावत् सोच-विचार मे पड गई || २५६ || तत्पश्चात् गाथापतिनी रेवती सात
મહાશતક શ્રાવકની આ ભય ક વાત સાભળીને રેવતી (મનમા) વિચારવા લાગી હવે મહાશતક મારાથી રીસાઇ ગયા છે, તે મારા પર પ્રેમ રાખતે નથી અને માર્ ભૂંડુ ચાહે છે, શી ખબર મને તે કેવાય ભૂડ માટે મરાવી નાખશે ” એમ વિચારીને તે ડરી ગઈ અને ધ્રૂજતી ધ્રૂજતી છુપાઇને ક્ષુબ્ધ નથા ભયભીત થતી ત્યાંથી ધીરે ધીરે નીકળી અને જ્યા પેાતાનું ઘર હતું ત્યાં આવી પછી ઉદાસ થઈને તે યાવત્ વિચારમા પડી ગઇ (૨૫૬) પછી ગાથાપતિની રૈવતી સાત રાતની
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ८ मृ० २५८-२६१ गौतमभगद्वार्तालापवर्णनम् ५०७ दुहवसट्टा कालमासे काल किच्चा दमीसे रयणापभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए चउरासीइवाससहस्सटिडएसु नेरइएसु नेरइय त्ताए उववन्ना ॥२५७॥
मलम-तेण कालेण तेणं समएणं समणे भगव महावीरे। समोसरण जाव परिसा पडिगया ॥२५८ ॥ गोयमा इ समणे भगव महावीरे एव वयासी-एव खल्लु गोयमा । इहेव रायगिहे नयरे मम अतेवासी महासयए नाम समणोवासए पोसहसालाए वशार्ता कालमासे माल कृत्वाऽस्या रत्नप्रभाया पृथिव्यां लोलुपाच्युते नरके चतुरशीतिवर्पसहयस्थितिकेपु रयिस्तयोपपन्ना ।।-५७।।
छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये अमणो भगवान् महागीरः । समवसरण यावत्परिपत् प्रतिगता ॥२५८॥ गौतम! इति श्रमणो भगवान महावीर एवमवादीत्-एव खलु गोतम! इहैव राजगृहे नगरे ममान्तेवासी महाशतको नाम श्रमणो. रातके भीतर अलस रोगसे ग्रसित हो, तीव्र शोक और दुःखके मारे आतध्यान करती हुई काल अवसर पाल करके, इसी रत्नप्रभा पृथिवी के लोलुपाच्युत नरकमे, चौरासी हजार वर्षकी आयुवाले नेरइयोंमें, नारकी रूपसे उत्पन्न हुई ॥ २५७ ॥
'तेण कालेण' इत्यादि । उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर पधारे। समवसरण रचा गया। परिषद् निकली और धर्मकथा सुनकर यावत् लौट गई ॥२५८|| "गौतम" इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीरने कहा-"गौतम ! इसी राजगृह नगरमे मेरा शिष्य महा
અદ-અલસ (મદાગ્નિરેગ) રેગથી ગ્રસિત થઈ, તીવ્ર શોક અને દુખની મારી આધ્યાન કરતી કરતી યથાસમયે કાળ કરીને, આ રત્નપ્રભા પૃથિવીના લોલુપચુત નરકમાં, ચેરાશી હજાર વર્ષના આયુષ્યવાળા નેઈઓમા (નારકીઓમા) નારકીરૂપે ઉપન્ન થઈ (૨૫૭)
टीकार्थ- तेण कालेण'-याहि ते आणेते समये श्री श्रम मन् मह વીર પ્રભુ પધાર્યા દેવ દ્વારા સમવસરણ અયુ પરિષદ નીકળી અને ધર્મકથા સાભળીને યાવત પછી ચાલી ગઈ (રપ) “ગૌતમ” એ પ્રમાણે સબોધન કરી શ્રમણ ભગવાન્ મહાવીરે કહ્યું “ગૌતમ ” આ રાજગૃહ નગરમાં મારો શિષ્ય મહાશતક
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उपासकद्रशास्त्रे अपच्छिममारणतियसलेहणाए झुसियसरीरे भत्तपाणपडियाइविखए काल अणवकंखमाणे विहरइ ॥२५९॥ तए ण तस्स महासयगस्स रेवई गाहावइणी मत्ता जाव विकमाणी २ जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए तेणेव उवागया, मोहुम्माय जाव एव वयासी-तहेव जाव दोच्चपि तच्चपि एव वयासी ॥२६०॥ तए ण से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोचंपि तच्चपि एव वुत्ते समाणे आसुरत्ते ४ ओहि पउजइ, पउजित्ता ओहिणी पासकः पोपधशालायामपश्चिममारणान्तिकसलेखनया जोपितशरीरो भक्तपानप्रत्याख्यात कालमनवकाङ्क्षन् विहरति ॥२५९।। तत खलु तस्य महाशतकस्य रेवती गाथापत्नी मत्ता यावद विकर्पन्ती यत्रैव पोपपशाला यत्रैत्र महाशतकस्त त्रैवोपागता, मोहोन्माद यावद् एवमवादीत-तथैव यावद् द्वितीयमप्येव तृतीयमप्येव मवादीत् ॥२६०॥ तत खलु स महाशतक. श्रमणोपासको रेवत्या गाथापल्या द्वितीयमपि ततीयमप्येवमुक्त. सन् आशुरक्त. ४ अवधि प्रयुनक्ति, प्रयुज्यावधिना शतक श्रावक, पोषधशालामे, अन्तिम समयमें मारणान्तिक सलेखनासे जोषितशरीर होकर, भक्त-पानका प्रत्याख्यान कर काल (मृत्यु)को कामना न करता हुआ विचरता है (था) ॥२५९॥ तच महाशतकको पत्नी रेवती गाथापतिनी नशेमे उन्मत्त होकर यावत् अपने ओढनेके वस्त्रको खीचती हुई पोपधशालामें महाशतकके पास आई। दो तीन वार वही पूर्वोक्त मोह और उन्मादको उत्पन्न करनेवाली बाते कहीं ॥२६०॥ ऐसे दो तीन बार कहने पर महाशतकने क्रोधित ४ ही શ્રાવક પિષધશાળામાં અતિમ સમયે મારણાનિક સ લેખનાથી જેષિતશરીર થઈને,ભકતપનનું પ્રત્યાખ્યાન કરી કાળ (મૃત્યુ)ના કામના ન કરતા વિચારી રહ્યો છે (હતા) (૨૫) ત્યારે મહા શતકની ૫ ની રેવતી ગાથાપતિની નશામા ઉન્મત્ત થઈને યાવત પિતાના ઓઢવાના અને આમતેમ ખેચતી પિવધશાળામા મહાશતકની પાસે આવી બે ત્રણવાર એ પૂર્વોકત મેહ અને ઉન્માદને ઉત્પન્ન કરનારી વાત કહી (૨૬) એમ બે ત્રણ વાર કહતા મહા શતકે ક્રોધિત થઈને અવધિજ્ઞાનના પ્રયોગ કર્યો, તે પ્રગ
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भगारधर्मसञ्जीवनी टीका अटम २५८-२६१ गौतम-भगवद्वार्तालापवर्णनम् ५०९ आभोएइ, आभोइत्ता रेवड गाहावइणि एवं वयासी-जाव उववजिहिसि । नो खल कप्पड गोयमा समणोवासगस्स अपच्छिम जाव झसियसरीरस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स परो सतेहिं तच्चेहि तहिएहि सन्भूएहि अणि?हिं अकंतेहि अप्पिएहि अमणुण्णेहि अमणामेहि वागरणेहिं वागरित्तए, त गच्छ णं देवाणुप्पिया! तुम महासययं समणोवासय एव वयाहि नो खल्ल देवाणुप्पिया कप्पड़ आभोगयति, आभोग्य रेवती गाथापत्नीमेवमवादीत् यावदुत्पत्स्यसे । नो खलु कल्पतेगौतमाश्रमणोपासकस्याऽपश्चिमयावलोपितशरीरस्य भक्तपानमत्याख्यातस्य परः सस्तित्त्वैस्तथ्य सद्भरनिष्टैरकान्तैरप्रियैरमनोहरमन-आपैयाकरणैाकत, तद्गन्छ खलु देवानुप्रिय! त्व महाशतक अमणोपासकमेव वद नो खलु देवानुपिय ।
टीका-सद्धि' विद्यमाने , तथ्य - यथोक्तमकारैरेव नतु न्यूनाधिकै , सद्भुत. =यथार्थस्वरूपैं , अनिष्टैः अाइक्षितैः,अकान्तः अमुन्दरै, अप्रिय अमीतिकारकैः, अमनो-मनसाऽप्यनभिलपितैः, अमनाप.-मनसाऽपि माप्तुमयोग्यैः, व्याकरणः वाक्यप्रयोगः, व्याकृता प्रतिपादिता ॥२५८-२६१।। अवधिज्ञानका प्रयोग किया,प्रयोग करके उस अवधिज्ञान द्वारा सब हाल जाना, जानकर रेवती गायापतिनीसे कहा-'वही सब यात यावत् पूर्ववत् तृ नरकमें उत्पन्न होगी। हे गौतम । अन्तिम सलेखनासे जूपित शरीर वाले, भक्त-पानका पञ्चक्खाण किए हुए श्रावकको जो बात सत्य, तत्व (खास), तथ्य हो किन्तु दृमरेको अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज
और विचार करनेसे भी दुखदायी हो तो ऐसा वचन बोलना नहीं कल्पता । अतः हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ और महाशतक श्रावकसे કરીને તે અવધિજ્ઞાન દ્વારા બધી સ્થિતિ જાણે અને રેવતી ગાથાપાતનીને પૂર્વવત કહ્યું કે “યાવત તુ નરકમા ઉત્પન્ન થશે” હે ગૌતમ ! અતિમ સ લેખનાથી જૂષિત શરીરવાળા, ભકત-પાનના પચ્ચખાણ કરેલા શ્રાવકને-જે વાત મત્ય, તત્ર, તથ્ય હોય પરંતુ બીજાને અનિટ, અકાત, અપ્રિય, અમને અને વિચારવાથી પણ દુ ખદાયી હેય તે એવુ વચન બોલવુ કપતુ નથી માટે હે દેવાનુપ્રિય! તમે
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उपासकदशाभूत्रे समणोवासगस्स अपच्छिम जाव भत्तपाणपडियाइक्खियस्स परो सतेहिं जाव वागरित्तए। तुमे य णंदेवाणुप्पिया | रेवई गाहावइणी सतेहि अणितुहिं वागरणेहिं५ वागरिया, तणं तुम एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव जहारिह च पायच्छित्त पडिवजाहि ॥२६१॥
मूलम-तए ण से भगव गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहत्ति एयमट्ट विणएण पडिसुणेड, पडिसुणित्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिह नयर मज्झं-मज्झेण अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ ॥२६२॥ कल्पते श्रमणोपासकस्यापश्चिमयावद् भक्तपानप्रत्यारयातस्य पर सद्भिर्यावद् व्याकरणैाकृत, तत्खलु त्वमेतस्य स्थानस्य (विपये) आलोचय यावद् यथा हेच प्रायश्चित्त प्रतिपद्यस्व ॥२६॥ ____ छाया-तत. खलु स भगवान् गौतम. श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'तथेति' एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य ततः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य राजगृह नगर मध्य म येनानुपविशति, अनुपविश्य यत्र महाशतकस्य श्रमणोपासकस्य गृह कहो कि-देवानुप्रिय । इस अन्तिम अवस्थामे ऐसे वचन सत्य होने पर भी बोलना नहीं कल्पता है । तुमने गाथापतिनी रेवतीसे ऐसे कहा है, अत इस विषयमे आलोचना करो, और यावत यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार करो ॥२६॥
टीकार्थ-"तए ण से भगव गोयमे' इत्यादि ॥ तदनन्तर भगवान् गौतमने श्रमण भगवान महावीरके कथनको 'तथेति' (ठीक है) कहकर જાઓ અને મહાશતક શ્રાવકને કહે કે-દેવાનુપ્રિય ! આ અતિમ અવસ્થામાં એવા વચન સત્ય હોવા છતા પણ બોલવા ક૫તા નથી તમે ગાથાપતિની રેવતીને આવું કહ્યું છે, માટે એ વિષયમાં આવેચના કરે અને યાવત્ યથાયોગ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત સ્વીકારો (૨૬૧)
दीकार्थ-'तए ण से भगव गोयमे' या पछी समवान् गौतम શ્રી શ્રમણ ભગવાન મહાવીર સ્વામીના કથનને તથતિ ( બરાબર છે) એમ કહીને
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अ० धर्म० टीका अ ८ मू. २६२-२६८ महाशतकमायश्चित्तवर्णनम् ५११ तए ण से महासथए समणोवासए भगव गोयम एज्नमाण पासइ, पासित्ता हट्र जाव हियए भगव गोयम वंदइ नमसइ ॥ २६३ ॥ तए ण से भगव गोयमे महासयय एवं वयासी-एव खल देवाणुप्पिया । समण भगवं महावीरे एवमाइक्खा भासह पण्णवेइ परूवेड- 'नो खलु कप्पइ देवाणुप्पिया। समणोवासगस्स अपच्छिम जाव वागरित्तए, तुमे ण देवाणुप्पिया । रेवई गाहावइणी सतेहिं जाव वागरिया, तं ण तुम देवाणुप्पिया। एयस्स ठाणस्स एलोएहि जाव पडिवजाहि ॥१४॥ तए ण से महासयए समणो. यत्रैव महाशतक श्रमणोपासास्तवोपागच्छति ॥२६२॥ ततः खलु स महाशतकः श्रमणोपासको भगवन्त गौतममेजमान पश्यति, दृष्ट्वा हृष्ट यारत हृदयो भगवन्त गौतम वन्दते नमस्यति ॥२६३॥ तत खलु स भगवान् गौतमो महाशतकमेवमवादी-एव खलु देवानुमिय' अमणो भगवान् महावीर एवमाख्याति भापते मज्ञापयति प्ररूपयति-"नो खलु कल्पते देवानुप्रिय । श्रमणोपासकस्यापश्चिम यावव्याकत, त्वया खलु देवानुप्रिय ! रेवती गाथापत्नी सद्भिर्यावद् व्याकृता, विनयपूर्वक स्वीकार किया । वे बहासे चले, चलकर राजगृह नगरमें प्रविष्ट हुए, और जहा महाशतक अमणोपासक या वहा पहुँचे ॥२६॥ महागतकने भगवान् गौतमको आते देवा तो बहुत प्रसन्न और सन्तुष्ट हुआ, वन्दना की नमस्कार किया ॥२६३|| भगवान् गौतमने महाशतकसे कहा-"देवानुप्रिय । श्रमण भगवान महावीर ऐमा कहते, भाषण करते, सूचित करते, एव प्ररूपित करते है कि-"देवानुप्रिय !
अन्तिम सलेखनाधारी आवकको ऐसा कहना नहीं कल्पता है। વિનયપૂર્વક સ્વીકાર્યું અને તેઓ ત્યાંથી ચાલ્યા અને રાજગૃહનગરમાં પ્રવિણ થયા, અને જ્યાં મહ શતક શ્રમણોપાસક હતું ત્યા પહોચ્યા (ર૬) મહાશતકે ભગવાન ગૌતમને આવતા જોયા એટલે તે બહુ પ્રસન અને સંતુષ્ટ થયો, વદના નમસ્કાર કર્યા (૨૩) ભગવાન ગૌતમે મહાશતકને કહ્યું –“દેવાનુપ્રિય 1 શ્રમણ ભગવાન મહાવીર એમ કહે છે, ભાષણ કરે છે, સૂચિત કરે છે અને પ્રરૂપિત કરે છે કે, દેવાનુપ્રિય અતિમ સખનાધારી શ્રાવકને આવું કહેવું ક૯૫તુ નથી દેવાનુપ્રિય તમે રેવતી
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उपासकदशासूत्रे वासए भगवओ गोयमस्स तहत्ति एयम विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव अहारिहं च पायच्छित्त पडिवजई ॥२६५॥ तए ण से भगव गोयमे महासयगस्स समणोवासयस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिह नयर मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगव महावीर वदइ नमसइ, वदित्ता नमसित्ता सजमेणं तवसा अप्पाणं भावे तत्खल त्व देवानुप्रिय ! एतस्य स्थानस्याऽऽलोचय यावत्मतिपद्यम्ब " ॥२६४॥ तत खलु स महाशतकाश्रमणोपासको भगवतो गौतमस्य तथेनि एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य तस्य स्थानस्य (विपये) आलोचयति यावद् यथाहं च प्रायश्चित्त प्रतिपद्यते ॥२६५॥ ततः खलु स भगवान् गौतमी महाशतकस्य अमणी पासकस्यान्तिकात्मतिनिष्कामति,प्रतिनिष्क्रम्य राजगृह नगरमा य म येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव श्रमणो भगवान महावीरस्तेत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमण भगवन्त महावीर वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यिता सयमेन तपसाऽऽत्मान भावयन् देवानुपिय ! तुमने रेवती गाथापतिनीसे ऐमा कहा है, अत इस विषयमे आलोचना करो यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त लो" ॥२६४॥ महाशतक आवकने भगवान् गौतमकी यात विनयपूर्वक 'तहत्ति' कह कर स्वीकार कीया और उसके विपयमें आलोचना तथा यावत् प्रायश्चित्त किया ॥२६५॥ तब भगवान गौतम महाशतक श्रावकके पाससे लोटे
और राजगृह नगरके बीचमे होकर भगवान महावीर के पास आये। वहा आकर भगवानको वन्दना-नमस्कार करके वार्ता निवेदन किया। वन्दना ગાથા પતિનીને એવું કહ્યું છે, માટે એ વિષયમાં આવેચના કરે થાવત્ યથાયોગ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત લ્યો (૨૬૪) આ પ્રમાણે મહાશતક શ્રાવકે ભગવાન ગૌતમસ્વામીની વાત विनयपूर्व 'ति' तथेति (तथेति) डीने सारी भने मे विषयमा અચના તથા યાવત પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યું (૨૬૫) પછી લાગવાન ગૌતમ મહાશતક શ્રાવકની પાસેથી પાછા ફર્યા અને રાજગૃહનગરની વચ્ચે થઈને ભગવાન મહાવીરની પાસે આવ્યા ત્યાં આવીને ભગવાનને વદના–નમસ્કાર કર્યા અને સયમ તથા તપથી
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अगारधर्मसञ्जीवनी टीका अ ८ मू. २६२-२६८ महाशक्तिगतिवर्णनम् ५१३ माणे विहरइ।।२६६॥तए ण समणे भगव महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता वहिया जण वयविहारं विहरइ ॥२६७॥ तए णं से महासयए समणोवासए बहहिं सील जाव भावेत्तावीसं वासाइं समणोवासगपरियाय पाउणित्ता, एकारस उवासगपडिमाओ सम्म काएण फासित्ता मासियाए सलेहणाए अप्पाण झूसित्ता सट्रि भत्ताइ अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे काल किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणवडिसए विमाणे देवत्ताए उववन्ने । चत्तारि पलिओवमाड ठिई। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ॥२६८॥ निक्खेवो ॥
सत्तमस्स अगस्स उवासगदसाण अहम
अज्झयण समत्त ॥८॥ विहरति ॥२६६।। तत खलु श्रमणो भगवान् महावीरोऽन्यदा कदाचिद् राजगृहानगरात्प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य पहिर्जनपदविहार विहरति ।। २६७॥ ततः खलु स महाशतकः श्रमणोपासको पहुभिः शील यावद भावयित्वा विंशति वर्षाणि श्रमणोपासकपर्याय पालयित्वा, एकादशोपासकप्रतिमा. सम्यक् कायेन स्पृष्ट्वा मासिक्या सलेविनयाऽऽत्मान जोपयित्वा पष्टिं भक्तान्यनशनेन उिवा, आलोचित नमस्कार करके सयम और तपसे आत्माको भाते हुए विचरने लगे।।२६६॥ तदनन्तर एक समय श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगरसे निकले और देश देश विचरने लगे ॥ २६७॥ तन महाशतक आवक बहुतसे शील आदिसे यावत् आत्माको भाषित करके वीस वर्ष तक श्रावकपर्याय पालकर ग्यारह प्रतिमाओका भलीभाति सेवन कर मासिकी ( एक मासकी) सलेखनासे आत्माको जूपित (सेवित) कर, साठ આત્માને ભાવિત કરતા વિચારવા લાગ્યા (૨૬૬) પછી એક સમયે શ્રમણ ભગવાન શ્રી મહાવીર પ્રભુ રાજગૃહ નગરથી નીકળ્યા અને દેશદેશ વિચરવા લાગ્યા (૨૬૭) પછી મહાશતક શ્રાવક ઘણું શીલ આદિ તથા રાવત આત્માને ભાવિત કરીને વિસ વર્ષ સુધી શ્રાવક પચાય પાળીને, અગિઆર પ્રતિમાઓને સારી સેવીને, માસિકી (એક માસની) સખનાથી આત્માને જૂષિત (સેવિત કરીને, સાઠ ભકતનું અનશન
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उपासकदशासूत्रे वासए भगवओ गोयमस्स तहत्ति एयमट्ट विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव अहारिहं च पायच्छित्त पडिवजइ ॥२६५॥ तए ण से भगव गोयमे महासयगस्स समणोवासयस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्वमित्ता रायगिह नयर मझं मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव समणे भगव मावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगव महावीर वदइ नमसइ, वदित्ता नमसित्ता सजमेणं तवसा अप्पाण भावे तत्खलु त्व देवानुप्रिय । एतस्य स्थानस्याऽऽलोचय यावत्पतिपद्यस्व " ॥२६४|| तत खलु स महाशतकाश्रमणोपासको भगवतो गौतमस्य तथेति' एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति, मतिश्रुत्य तस्य स्थानस्य (विपये) आलोचयति यावद् यथाहं च प्रायश्चित्त प्रतिपद्यते ॥२६५॥ तत खलु स भगवान् गौतमो महाशतकस्य अमणो पासकस्यान्तिकात्प्रतिनिष्कामति,प्रतिनिष्क्रम्य राजगृह नगरम य म येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव श्रमणो भगवान महावीरस्तेत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमण भगवन्त महावीर वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा सयमेन तपसाऽऽत्मान भावयन् देवानुपिय ! तुमने रेवती गाथापतिनीसे ऐमा कहा है, अत इस विषयमे आलोचना करो यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त लो" ॥२६४॥ महाशतक श्रावकने भगवान् गौतमकी बात विनयपूर्वक 'तहत्ति' कह कर स्वीकार कीया और उसके विषयमें आलोचना तथा यावत् प्रायश्चित्त किया ॥२६५॥ तय भगवान् गौतम महाशतक श्रावकके पाससे लौट
और राजगृह नगरके बीच में होकर भगवान् महावीरके पास आये। वहा आकर भगवान्को वन्दना-नमस्कार करके वार्ता निवेदन किया। वन्दनाગાથા પતિનીને એવું કહ્યું છે, માટે એ વિષયમાં આવેચના કરો યાવત્ યથાયોગ્ય પ્રાયશ્ચિત્ત લે (૨૬૪) આ પ્રમાણે મહાશતક શ્રાવકે ભગવાન ગૌતમસ્વામીની વાત विनयपूर्व 'ति' तथेति (तथति) हीन सागरी भने से विषयमा અલેચના તથા યાવત પ્રાયશ્ચિત્ત કર્યું (૨૬૫) પછી ભગવાન ગૌતમ મહાશતક શ્રાવકની પાસેથી પાછા ફર્યા અને રાજગૃહનગરની વચ્ચે થઈને ભગવાન મહાવીરની પાસે આવ્યા ત્યાં આવીને ભગવાનને વદના–નમસ્કાર કર્યા અને સયમ તથા તપથી
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॥ नवमाध्ययनम् ॥
मूलम् -' उक्खेओ । एव खलु जबू। तेणं कालेणं - नवमस्स तेणं समएणं सावत्थी नयरी, कोट्ठए चेइए, जियसत्त राया । तत्थ सावत्थीए नयरीए नंदिणीपिया नाम गाहावर्ड परिवसइ, अड्डे | चार हिरण्कोडीओ निहाणपउत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडीओ बुडिपत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, चत्तारि वया दस गोसाहस्सिएण वरण | अस्सिणी भारिया || २६९ ॥ सामी समोसढे जहा आणंदो तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ । सामी वहिया०
छाया - नवमस्योत्क्षेपक एव खलु जम्मू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रावस्ती नगरी, कोष्ठक चैत्यम्, जितशत्रू राजा । तन खलु श्रावस्त्या नगर्यो नन्दिनीपिता नाम गाथापति परिवसति, आढयः । चतस्रो हिरण्यकोटयो निधानमयुक्ताः, चतस्रो हिरण्यकोटयो वृद्धिमयुक्ता चतस्रो हिरनोट प्रविस्तरमयुक्ताः, चत्वारो नजा दशगोसाहस्रिकेण व्रजेन । अश्विनी भार्या || २६९ || स्वामी समवसृतः । यथाऽऽनन्दस्तथैव गृहिधर्म प्रतिपद्यते । स्वामी वहि: ० विहरति ॥ २७० ॥ ततः नौवा अध्ययन
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टीकार्य - ' नवमस्से ' त्यादि नौवाका उत्क्षेप पूर्ववत् । सुधर्मा स्वामीने कहा- हे जम्बू ' उस काल उस समय श्रावस्ती नगरी, कोष्ठक चैत्य, जितशत्रु राजा था । श्रावस्ती नगरीमे नन्दिनीपिता नामक गाथापति निवास करता था । उसके चार करोड सोनैया खजानेमे, चार करोड व्यापारमे और चार करोड टेन लेनमें लगे थे । दस दस हजार गायोके चार गोकुल थे | अश्विनी नामक पत्नी थी ॥ २६९ ॥ स्वामी (भगवान નવસુ અધ્યયન,
टीकार्थ - ' नवमस्से' त्याहि नवमा अध्ययनना उत्क्षेप पूर्ववत् सुधर्मास्वामी વધુ હે જમ્મૂ એ કાળે એ સમયે શ્રાવસ્તી નગરી, કાષ્ટક શૈત્ય, જિતશત્રુ રાજા હતા શ્રાવતી નગરીમા નદિનીપિતા નામના ગાથાપતિ રહેતા હતા તેની પાસે ચાર કરાડ સેાનૈયા ખજાનામા, ચાર કરાડ વેપારમા અને ચાર કરોડ લેણુ-દેણુમા હતા દસદસ હજાર ગાવીય પશુમેના ચાર ગેકુળ હતા અશ્વિની નામની પત્ની
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उपासकदशासूत्रे प्रतिक्रान्तःसमाधिप्राप्तः कालमासे पाल कृत्वा सौधर्म क्रूपेऽरुणावतसके विमाने देवतयोपपन्नः । चत्वारि पल्योपमानि स्थितिः । महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ||२६८॥ निक्षेपः ॥
सप्तमस्यागस्योपासरदशानामष्टमम ययन
समाप्तम् ।।८॥
व्याख्या सुस्पष्टा ॥ २६२ -२६८ ॥ इतिश्री-विश्वविख्यात-जगहल्लम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापा-- लापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहुछत्रपति कोल्हापुरराजप्रदत्त-"जैनशास्त्राचार्य-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु बाल ब्रह्मचारी जैनशास्त्राचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालति-विरचितायामुपासकदशाद्गमूत्रस्याऽगारधर्मसञ्जीवन्या ख्याया व्याख्यायामष्टम महाशतकाख्यमभ्ययन
समाप्तम् ॥ ८॥
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भक्तका अनशन करके, आलोचना प्रतिक्रमण किया हुआ समाधिपूर्वक यथासमय काल करके सौधर्मकल्पके अरुणावतसकविमानमें देवपने उत्पन्न हुआ ॥ उसकी चार पल्योपम स्थिति है । महाविदेह क्षेत्रमे सिद्ध होगा ॥ २६८ ॥ निक्षेप पूर्ववत् ॥
सातवें अग उपासकदशाके आठवें अभ्ययनकी अगारसञ्जीवनी
टीकामा हिन्दी भाषानुवाद समाप्त ॥८॥
કરીને, આલેચના પ્રતિક્રમણ કરી સમાધિપૂર્વક યથાસમય કાળ કરી, સૌધર્મકcપના અરૂણાવત સક વિમાનમાં દેવપણે ઉત્પન્ન થયો એની ચાર પલ્યોપમ સ્થિતિ છે મહાવિદેહ ક્ષમા સિદ્ધ થશે (૨૬૮) નિફોપ પૂર્વવત ઈતિ શ્રી ઉપાસકદશાગસત્રના આઠમા અધ્યયનની અગાસ જીવની
વ્યાખ્યાને ગુજરાતી-ભાવાનુવાદ સમાપ્ત (૮)
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अगारधर्मसञ्जीवनीटीका अ ९ मू० २६९-२७२ अभ्ययनसमाप्तिः ५१७ नानात्वमरुणगवे विमाने उपपात । महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ॥२७२॥ निक्षेपः॥
सप्तमस्यास्योपासकदशना नवमम व्ययन
समाप्तम् ॥९॥
इतिश्री-विश्वविरयात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचा-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीशाहूछत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त-"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु वाल्ब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालव्रति-विरचितायामुपासमदशागमूत्रस्याऽगारधर्मसञ्जीवन्या ख्याया व्याख्याया नवम नन्दीनीपित्राख्यम ययन
समाप्तम् ॥ ९ ॥
कुटुम्य का भार सौंपा। अपने धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार की। वीस वर्ष तक श्रावकपनका पालन किया। अरुणगव विमानमें उत्पन्न हुआ। महाविदेह क्षेत्रमें सिद्ध होगा ॥२७॥ निक्षेप पूर्वकी तरह ॥ सातवा अग उपासकदशाके नौवे अध्ययनकी अगारसञ्जीवनी
टीकाका हिन्दी-भाषानुवाद समाप्त ॥ ९ ॥
ધર્મપ્રજ્ઞપ્તિને સ્વીકાર કર્યો વીસ વર્ષ સુધી શ્રાવકપણુ પાલન કર્યું અરૂણગવ વિમાનમા ઉત્પન્ન થયે મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સિદ્ધ હશે (૨૨) નિક્ષેપ પૂર્વવત
સાતમા આગ ઉપાસદશાના નવમા અધ્યયનની અગાર
સજીવનીટીકાને ગુજરાતી-અનુવાદ સમાપ્ત ૯
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उपासकदशासूत्रे विहरइ ॥२७०॥ तए ण से नदिणीपिया समणोवासए जाए जाव विहरइ ॥२७१॥तए ण तस्स नंदिणीपियस्स समणोवासयस्स बहूहि सीलवयगुण जाव भावेमाणस्स चोदस संबच्छराइ वइकंताई। तहेव जेटु पुत्तं ठवेइ । धम्मपण्णत्ति । वीसं वासाई परियाग । नाणत्तं अरुणगवे विमाणे उववाओ । महाविदेहे वासे सिज्झिहिंइ ॥२७१॥ निक्खेवो ॥
सत्तमस्स अगस्स उसगदसाण नवम अज्झयण
॥ समत्त ९॥
खलु स नन्दिनीपिता श्रमणोपासको जातो याद्विहरति ॥२७१॥ ततः खलु तस्य नन्दिनीपितुः धमणोपासकस्य वहुभिः शीलवतगुण-यावद् भावयतश्चतुर्दशसवत्सरा व्युत्क्रान्ताः। तथैव ज्येष्ठ पुत्र स्थापयति । धर्मप्रज्ञप्तिम् विंशतिं वर्षाणि पर्यायम् ।
महावीर ) पधारे। नन्दिनीपिताने आनन्दकी भाँति गृहस्थ धर्म स्वीकार किया। स्वामी बाहर (नाना देशोमे) विहार करने लगे ॥ २७० ।। नन्दिनीपिता जीव अजीवका जानकार श्रावक हो गया यावत् विचरत रहा ॥ २७१ ॥ इस प्रकार विविधशील, व्रत गुणवत, आदिका पालन करते हुए चौदह वर्ष बीत गए । तब आनन्दकी तरह ज्येष्ठपुत्रको
હતી (૨૬૯) સ્વામી (ભગવાન મહાવીર) પધાર્યા નદિનીપિતાએ આનદની પેઠે ગૃહરથધર્મ સ્વીકાર્યો સ્વામી બહાર (જુદા જુદા દેશોમા) વિહાર કરવા લાગ્યા (૨૭૦) નાદની પિતા જીવ-અજીવને જાણકાર શ્રાવક થયે, યાવત વિચરતે રહ્યો (ર૭૧) એ પ્રમાણે વિવિધ શીલ, વત ગુણવ્રત, આદિનું પાલન કરતા ચૌદ વર્ષ વીતી ગયા, ત્યારે આનદની પેઠે વડા પુત્રને કુટુંબને ભાર સોચ્ચે, અને તે
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अगारधर्मसञ्जीवनीटीका अ० १० स २७३-२७६ शालेयिकापित वर्णनम् ५१९
सामी समोसढे । जहा आणंदो तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ । जहा कामदेवो तहा जेहं पुत्त ठवेत्ता पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ति उवसपज्जित्ताणं विहरइ । नवरं निरुवस्सग्गाओ एकारस वि उवासगपडिमाओ तहेव भाणियबाओ। एवं कामदेवगमेण नेयव जोव सोहम्मे कप्पे अरुणकीले विमाणे देवत्ताए उववन्ने । चत्तारि पलिओवमाइ ठिई ।महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ॥२७॥
स्वामी समवसृतः । यथाऽऽनन्दस्तथैव गृहिधर्म प्रतिपद्यते । यथा कामदेवस्तथा ज्येष्ठ पुत्र स्थापयित्वा पोपधशालायर्या श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य धर्मप्रज्ञप्तिमुपसम्पद्य विहरति, नवर निरुपसर्गा एकादशाप्युपासकपतिमाम्तथैव भणितव्याः। एव कामदेवगमेन नेतन्य यावत्सोधर्मे कल्पेऽरुणकीले विमाने देवतयोपपन्नः। चत्वारि पल्योपमानि स्थिति । महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ॥२७४॥ महावीर प्रभु पधारे।शालेयिकापिताने आनन्दको भाति गृहस्थधर्मधारण किया, और कामदेवकी तरह बडे लडकेको कुटुम्बका भार सम्भलाकर
आप पोपधशालामें श्रमण भगवान महावीरकी धर्मप्रज्ञप्ति अगीकार कर विचरने लगा। अन्य श्रावकौकी अपेक्षा इसके जीवनमें विशेषता यह है कि इसे किसी प्रकारका उपसर्ग न हुआ। विना उपसर्ग ही इसने श्रावककी ग्यारह पडिमाओंका पालन किया । सौधर्मकल्पके अरुणफील विमानमें देवरूपसे उत्पन्न हुआ। वहा चार पल्योपमकी स्थिति है । महा विदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा। शेप सय कथन कामदेवके समान ही है ।।२७४॥
સ્વામી પધાર્યા શલેયિકાપિતાએ આનદની પેઠે ગૃહસ્થ ધર્મ ધારણ કર્યો અને કામદેવની પેઠે મોટા પુત્રને કુટુંબને ભાર ભળાવીને પોતે પિષધશાળામાં શ્રમણ ભગવાન મહાવીરની ધમપ્રજ્ઞપ્તિ અગીકાર કરી વિચારવા લાગ્યો બીજા શ્રાવકેની અપેક્ષાએ તેના જીવનમાં વિશેષતા એ છે કે તેને કઈ પ્રકારને ઉપસગ ન થયે ઉપસર્ગ વિના જ તેણે શ્રાવકની અગિઆર પડિમાઓનું પાલન કર્યું સૌધર્મક૫ના અરૂશકીલ વિમાનમા દેવરૂપે ઉત્પન્ન થયે ત્યા ચાર પલ્યોપમની સ્થિતિ છે મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સિદ્ધ થશે. બાકી બધું કથન કામદેવની પેઠે સમજી લેવું (૨૭૪)
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५१८
॥ दशमाध्ययनम् ॥ ___ सम्पति दशममभ्ययन समारभ्यते 'दसमस्स' इत्यादि ।
मूलम्-दसमस्स उक्खेवो । एवं खल जबू। तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी, कोट्टए चेइए, जियसत्तू राया। तत्थ णं सावत्थीए नयरीए सालिहीपिया नाम गाहावई परिवसइ, अड्डे, दित्ते। चत्तारि हिरण्णकोडीओ, निहाणपउत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडीओ बुड्डिपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरउपत्ताओ, चत्तारि वया दसगोसाहस्सिएण वएण, फग्गुणी भारिया ॥२७३॥
छाया-दशमस्योत्क्षेपः। एव खलु जम्बूः ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रावस्ती नगरी, कोष्टक चैत्यम्, जितशत्रु राजा। तन खलु श्रावस्त्या नगयाँ शाल यिकापिता नाम गाथापतिः परिवसति । आढयो दीप्त' । चतस्रो हिरण्यकोटयों निधानप्रयुक्ताः, चतस्रो हिरण्यकोटयो वृद्धिप्रयुक्ताः, प्रतस्रो हिरण्यकोटयामविस्तरप्रयुक्ताः, चत्वारो बजा दशगोसाहसिकेण ब्रजेन । फाल्गुनी भार्या ॥२७॥
॥दशवा अध्ययन ॥ टीकार्थ-'दसमस्से' त्यादि। दसवें अध्ययनका उत्क्षेप पूर्ववत् । सुधर्मा स्वामी बोले-हे जम्ब ! उसकाल उस समय, श्रावस्ती नगरी, कोष्ठक चैत्य, और जितशत्रु राजा था। उस श्रावस्ती नगराम शालेयिकापिता नामक गाथापति निवास करता था। उसके चार करोड सोनैया खजानेमे थे, चार करोड व्यापारमें लगे थे और चार करोड लेन देनमे लगे थे । दस दस हजार गायोके चार गोकुल थे। उसकी पत्नीका नाम फाल्गुनी या ॥२७॥
દશમું અધ્યયન टीकार्थ-'दसमस्से' त्याशिमा मध्ययनना A५ पूर्ववत् सुधारवाभा બેયા હે જ બૂ ! એ કાળે એ સમયે, શ્રાવતી નગરી, કોઠક નૌત્ય અને જિતશત્રુ રાજા હતા એ શ્રાવસ્તી નગરીમા શલેયિકાપિતા નામક ગાથાપતિ રહેતા હતા તેની પાસે ચાર કરોડ ના ખજાનામાં હતા, ચાર કરોડ વેપારમાં લાગેલા હતા અને ચાર કરોડ લેણ-દેણમાં રેકાયેલા હતા દસ-દસ હજાર ગોવગય પશુઓના ચાર ગોકુળ હતા એની પત્નીનું નામ ફાગુની હd (૨૭૩)
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__ अगारधर्मसञ्जीवनी टोका अ १० उपसहार
५२१ उपासकद्शाना सप्तमम्याङ्गस्यैक. श्रुतस्कन्यो, दशाऽ ययनानि एवम्बरकाणि, दशस्वेव दिवसेदिश्यन्ते ॥
सप्तमस्यागस्योपासस्दशाना दशम्मययन
समाप्तम् ॥ १० ॥ ।। उपासक्दशा' समाप्त' ।
टीका स्पष्टा ॥ २७३-२७६ ॥ इतिश्री-विश्वविख्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगधपद्यनैक्ग्रन्थनिर्गपर-वादिमानमर्दम-श्रीशाह छत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त-"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूपित-कोल्हापुरगजगुरु' वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवापर-पूज्य-श्री घासीलाल
व्रति विरचितायामुपासकदशाग मूत्रस्याऽगार पर्मसञ्जीवन्या त्याया व्याख्याया दशम भालेयिकापित्रारयम ययन
समाप्तम् ॥ १० ॥ इस उपासकदशा नामक सातवें अगमे एक श्रुतस्कन्ध है, और दस अध्ययन हैं । देशविरतिका कयन करनेके कारण ये सर अभ्ययन एक स्वर (एक समान) है। दस दिनोमें इन दस अ ययनोंका उपदेश किया जाता है ।। सातवें अग उपासक्दशाके दसवें अययनकी अगारसजीवनी
टीकाका हिन्दी-मापानुवाद समाप्त ॥१०॥ ॥ इति श्री उपासकदशाङ्गमूत्रका हिन्दीभापानुवाद सम्पूर्ण ॥
આ ઉપાસકદશા નામક સાતમા અગમા એક શ્રુતસ્કંધ છે અને દસ અધ્યયન છે દેશવિરતિનું કથન કરવાને કારણે એ બધા અધ્યયન કવર(એક સમાન) છે દસ દિવસમાં એ દસ અધ્યયને ને ઉપદેશ કરવામાં આવે છે સાતમા અગ શ્રી ઉપાસકદશાના દસમા અધ્યયનની
અગરસછવની ટીકાને ગુજરાતી
सापानुवाद समाप्त (१०) ઈતિ શ્રી ઉપાસકદશા સૂત્રને ગુજરાતી અનુવાદ સમાપ્ત
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उपासकदशास्त्रे (उपसहार.) दसण्ह वि पणरसमे संवच्छरे वहमाणाणं चिता। दसह वि वीसं वासाइ समणोवासयपरियाओ ॥३७५ ॥ एव खल्ल जंबू। समणेण जाव सपत्तेण सत्तमस्स अगस्स उवासगदसाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते ॥२७६॥
उवासगदसाणं सत्तमस्स अंगस्स एगो सुयक्खंधो,दस अज्झयणा एकसरगा, दससु चेव दिवसेसु उदिस्सति । सत्तमस्स अगस्स उवासगदसाण दसम अज्झयण समत्त ॥१०॥
॥ उवासगदसाओ समत्तओ ॥ दशानामपि पञ्चदशे सवत्सरे वर्तमानाना चिन्ता दशानामपि विंशति वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायः ॥ २७५ ॥ एव खलु जम्पः १ श्रमणेन यावत्समाप्तेन सप्तमस्याङ्गस्योपासकदशाना दशमस्याऽभ्ययनस्यायमर्थ प्रज्ञप्तः ॥२७६॥
उपसंहार दसों श्रावकोको पन्द्रहवें वर्ष में कुटुम्बका भार परित्याग कर विशिष्ट-धर्म साधनकी चिन्ता (विचार) हई । दसोने बीस बीस वर्ष पर्यन्त श्रावकपन पाला ॥ २७५ ॥
आर्यसुधर्मा-स्वामीने जम्बू-स्वामीसे कहा-" हे जम्बू ! यावत् सिद्धिगति नामक स्थानको प्राप्त श्रमण भगवान महावीरने सातवें अग उपासकदशाके दसबै अध्ययनका यही अर्थ प्ररूपित किया है ॥२७६।।
१ तीर्थकर भगवान् अर्थागगका उपदेश करते है, इसी लिए सर्वत्र यही कहा गया है कि-"अमुक अध्ययनका अमुक अर्थ कहा है " ॥
ઊપસંહાર દસેય શ્રાવકને પદરમા વર્ષે કુટુંબના ભારને પરિત્યાગ કરીને વિશિષ્ટ-ધર્મ સાધનને વિચાર થયે દસેએ વીસ-વીસ વર્ષ સુધી શ્રાવકપણું પાળ્યું (૨૭૫)
આર્ય સુધર્મા સ્વામીએ જ સ્વામીને કહ્યું છે તે જ બૂ? ચાવત્ સિદ્ધિ ગતિ નામક સ્થાનને પ્રાપ્ત શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે સાતમા અ ગ ઉપાશક દશાના દસમા અધ્યયનને એજ અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે , (૨૭૬).
તીર્થકર ભગવાન અથગમનો ઉપદેશ કરે છે, તેથી સર્વત્ર એમ કહેવામાં આવ્યું છે કે અમુક અધ્યયનને અમુક અર્થ કહ્યો છે?
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अगारधर्मसञ्जीवनी टोका अ १० उपसहार
५२१ उपासकदशाना सप्तमम्याङ्गस्यैकः श्रुतस्तन्यो, दगाऽ ययनानि एकस्वरकाणि, दशस्वेव दिवसेपृदिश्यन्ते ॥
सप्तमस्यागस्योपासकटगाना दशम्मन्ययन
समाप्तम् ॥१०॥ ॥ उपासक्दशा' समाप्तः ।।
टीका स्पष्टा ।। २७३-२७६ ।। इतिश्री-विश्वविग्व्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचा-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैक्ग्रन्थनिर्मापर-वादिमानमर्दक-श्रीशाह छत्रपतिकोल्हापुरराजमदत्त-"जैनशास्त्राचार्य"-पदभूषित-कोल्हापुरराजगुरु' वालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैन धर्मदिवारर-पूज्य-श्री घासीलाल
व्रति विरचितायामुपामशान मरस्याऽगारधर्ममजीवन्या ख्याया व्याख्याया दगम शालेयिकापित्रारयम ययन
समाप्तम् ॥ १० ॥ इस उपासकदशा नामक मातवें अगमे एक श्रुतस्कन्ध है, और दस अध्ययन हैं। देशविरतिका कथन करनेके कारण ये मम अध्ययन एक स्वर (एक समान) हैं। दस दिन में इन दस अ-ययनोंका उपदेश किया जाता है । सातवें अग उपासकदशाके दसवें अ ययनकी अगारसञ्जीवनी
टीकाका हिन्दी-मापानुवाद समाप्त ॥१०॥ ॥ इति श्री उपासमटशागमूत्रका हिन्दीभाषानुवाद सम्पूर्ण ॥
આ ઉપાસદશા નામક સાતમા અગમા એક શ્રતધ છે અને દસ અધ્યયન છે દેશવિરતિનું કથન કરવાને કારણે એ બધા અધ્યયન કરવ(એક સમાન) છે દસ દિવસમાં એ દસ અધ્યયનને ઉપદેશ કરવામાં આવે છે સાતમા આગ શ્રી ઉપાકિદશાના દસમા અધ્યયનની
અગારસ જીવની ટીકાને ગુજરાતી
ભાષાનુવાદ સમાપ્ત (૧૦) ઈતિ શ્રી ઉપાકિદશા સૂત્રને ગુજરાતી અનુવાદ સમાપ્ત
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६२ उगममत्रस्त्वेग वाचार्यप्रणीता
नाहगाया- माने पावे य वाणारमीए नमीण।
मग पुरिवरी कपिलपुर व बोदल ॥ १ ॥
गजगिह मारल्याप पुरीए टोषि भवे।
पामा नारा बलु ति बोद्धच्या ॥ २ ॥ मिपर भामामा घायहर-पृस-अग्गिमिसा य ।
रेया अस्लिनि मह फागु य मन्त्राण नामाइ || - मान बारापस्या गम् । - मका हामित्यपुर च बोद्धव्यम् ॥ १॥
mer माता द्वाभिवताम् । ए
गि सल भान्ति बोदव्यानि ॥०॥ उतशा सूत्रके पूर्वाचार्यप्रणीत
महगाथाओंका भाषान्तर सा
सापकों के नाम नगर, भार्या, उपसर्ग, गरतार, मलनिति परिमाण, अभिग्रहसख्या, अवधिज्ञान को सदा पनि और आगामी भवौंका विवरण इसप्रकार है।
सार पसभापक आनद २ दसरां कामदेव ३ तीसरा वृलिनी पिता पौभा सरादेप ५ पांचवा चुल्लशतक ६ छठा कुडकौलिक ५ गातो सपापुस ८ आठवां महाशतक ९ नौवा नन्दिनी पिता रामा शालिनी पिता।
गरी के गाम- आनद का नगर वाणियगाव २ कामदेव रामरी पुलिनी पिता की नाराणसीनगरी ४ सुरादेव की मीरी । यो में श्रेष्ठ आलभिकानगरी
पोलासपुर ८ महाशतकका • नगरी और १० शालिनी
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सङ्ग्रहगाथाः
ओहिणाण पिसाए, माया-वाहि-वण-उत्तरिने य । मज्जा य सुन्वया दुवया निरुवमरगया दोन्नि ॥४॥ अरुणे अरुणाभे ग्वल, अरुणप्पह अमणकत-सिटे य । अरुणज्झए य छट्टे, भूय-वडिंसे गवे कीले ॥ ५ ॥ शिवानन्दा-भद्रा-उयामा, पन्या पहला पूपा ऽग्निमित्राच । रेवती अश्विनी तथा फाल्गुनी च भार्याणा नामानि ॥३॥ अवधिज्ञान, पिशाचो माता-व्यापि-धनोत्तरीयक च । मार्या च मुव्रता दुर्वता निरुपसर्गको द्वौ ॥४॥ अरुणेऽरुणाभे ग्वलु, अम्णप्रभा ऽरुणकान्त शिष्टे च । अरुगध्वजे च पप्ठि भूताऽवतसको गन पील. ॥७॥
भार्याओंके नाम-१ आनद श्रावककी भार्या शिवानदा २ कामदेवकी भार्या भद्रा ३ चुलनी पिताकी भार्या श्यामा ४ सुरादेवकी भार्या धन्या ५ चुलशता को भार्या ला ६ कुडको. लिककी भार्या पूपा ७ सद्दालपुत्र की भार्या अग्निमित्रा ८ महाशतक की भार्या रेवती ९ नदिनीपिता की भार्या अश्विनी और १० गालिनी पिताकी भार्या फाल्गुनी ॥३॥
उपसर्ग-२ आनदको देवकृत उपमर्ग हुआ तथा अवधिज्ञान हुवा २ कामदेवको देवकृत पिशाच, गज और मर्पका उपमर्ग हुवा ३ चुलनीपिताका देवकृत उपसर्ग और माताने प्रतिगोधढिया सुरादेवको देवकृत उपसर्ग, में देवने व्याधिकी धमकी दी ५ चुहानको देवकृत उपसर्ग में देवने धनहरण कियेजानेकी धमकीदी ६ कुडकौलिक्को देवकृत उपसर्ग, में देवहारा वस्त्र (दुपट्टा) और नाममुद्रिकाका अप हरण दुवा । ७ सालपुत्रको देवकृत उपसर्ग, और उसे अपनी अग्निमित्रा नामकी सुव्रताभार्याने व्रतमे स्थिर किया ८ महाशतक को अपनी रेवती नामकी दुर्वता (दुराचारिणी) मार्या द्वारा उपमर्ग और अवधिज्ञान ९-१० नदिनीपिना और शालिनी पिता इन दोनोसो कोई उपसर्ग नहीं हवा ||४||
गत्यन्तर-दमोंही श्रावक सलेग्वना मरणसे मौधर्म नामके प्रथम देवलोकमें जहा उत्पन्न हर उन विमा के नाम-१ आनन्द श्रावक मौधर्म देवलोकमे अम्ण नामके विमानमें उत्पन्न हवा । . कामदेव अरुणाभ विमानमें ३ चुलनीपिता अरुणप्रम विमानमें ४ सुरा
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५२४
उपासकदशास्त्रे
चाली सह असीई, मट्टी मट्टी य सहि दममरस्सा | असीड चत्ता चत्ता, वह ण्याण य महस्मा ण ॥ ६ ॥ बारम अट्ठारम चउ, घीस तिण्हच अट्टरस नेय | धनेण तिचउवीस, बारस वारस य फोटीओ ||७||
चत्वारिंशत्, पष्टिः, अशीति, पष्टि पेष्टिय पष्टिर्दश महस्राणि । अशीतिचत्वारि चत्वारि व्रज एतेषा च सहस्राणि ॥ ६ ॥
१०
१
3
४६५
द्वादशे अष्टादश, चतुर्विंशति', त्रयाणाच, अष्टादश ज्ञेया. ।
९
ू
धनेन तिस्र, चतुवैिशतिः, द्वादश द्वादश च कोटः ||७||
देव अम्णकान्त विमान में ५ चुल्लातक अरुणशिष्ट विमानमे ६ कुण्डकौलिक अरुणभ्वज विमान में ७ सद्दालपुत्र अरुणभूत विमानमे ८ महाशतक अरुणाऽवतस विमान मे ९ नदिनीपिता अरुणराव विमानमे और १० शालिनीपिता अरुणकील नामके देवविमानमे उत्पन्न हुवा | व्रजसख्या - गायोंके समुदायको व्रज कहते है । एक व्रजमें दस हजार गाये होती है । १ आनद श्रावक के ४ चार गोकुल (४०००० गायें थी) । २ कामदेव के ६ छ गोकुल (६०००० गायें) । ३ चुलिनी पिताके आठ गोकुल ( ८०००० गाये ) । ४ सुरादेवके ६ छगोकुल (६०००० गाये ) । ५ पाचवें चुशतक के ६ छ गोकुल ( ६०००० गायें कुडकौलिकके ६ उ गोकुल (६०००० गाये) । ७ मग १ एक गोकुल (१०००० गाये ) । ८ महाशतक के ८ आठ गोकुल (८०००० गायें) ९ नदिनीपिता के ४ चार गोकुल (४०००० गाये) । और १० शालिनीपिता के ४ चार गोकुल (४०००० गाये ) थीं ॥ ६ ॥
वैभव परिमाण - आनंद आवक के बारहकोटि सुवर्णमुद्रा थी (दीनारे) धन थी । २ कामदेव के अठारह कोटि दीनारे ३ चुलिनी पिता के चौवीसकोटि दीनारे ४ सुरादेव के अठारह कोटि दीनारे ५ चुल शतक के अठारह कोटि दीनारे ६ कुडकौलिक के अठारह कोटि दीनारे ७ सगलपुत्र के तीन कोटि दीनारे ८ महाशतके चौबीस कोटि दीनारे । ९ नदिनी पिता के बारह कोटि दीनारे और शालिनी पिता के बारह कोटि दीना रेथीं ॥७॥ ५ चोलोकी मर्यादा इन दश भावोने की जिनमे से
१ वाहन (पगरखी आदि ) २ वाहन ३ शयन ४ मचित्त और " द्रव्य इन पांच चोलोकी मर्यादा को इसी सूत्र में उच्चपरिमाण विधिप्रकरण से जान लेना । औरगाधा में निर्दिष्ट इफीस २१ घोलोगी मर्यादा इस प्रकार है
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१
१२
सङ्ग्रहगाथा:
५२५ उल्लण -दतवण फले, अमिंगणुव्वदृणे मिणाणे य । क्व क्लेिवण पुप्फे, आभरणे धृच पेज्जाए ॥ ८॥ भक्खोयण सूव घ सागे मादृस्य जिमण पाणे य ।
तबोले इगवीस, आणदाईण अभिग्गहा ॥९॥ आईनयनिादन्तपवन फले, अभ्यञ्जनोद्वर्तनयो. स्नाने च । वस्त्र विलेपन पुप्पे, जाभरणे धूपपेययो ॥ ८॥ भयो दन मप घृते शाके, मापुरकजेमन पाने च । ताम्मूले, एकविंशतिरानन्दाढोनामभिग्रहा ॥९॥
१ उलणिया (आईनयनिका) विविमें अगपोच्ने का तोलिया के मिवाय सबका त्याग २ दतवन विधिमें गीली मयुयष्टि जेठीमधु के सिवाय सघका त्याग ३ फल विधिमें मोटा आंवला के मिवाय सवका त्याग ४ अभ्यग (तैलमर्दन) विधिमे शतपाकसहस्रपाक तैल के सिवाय सबका त्याग ८ उद्वर्तन (उपटना) विधिमें सुगन्धियुक्त गेहूँ आदि के चूर्ण (आटे) के सिवाय सरका त्याग ६ मजनविधि (म्नान) मे आठ यडे कलगो के मिवाय मरका त्याग ७ वन्त्र विधिमें दो रईसे पने वन्त्री के सिवाय सरका त्याग ८ विलेपन विधिमे अगर चन्दनकुकुमादिके विलेपन के सिवाय सरका त्याग ९ पुष्पविधिमें कमल और चमेली के पुष्पोकी माला के सिवाय सरका त्याग १० आभरणविधिमे दो कुडल और एक नाममुद्रा (अगूटी) के सिवाय सरका त्याग १५ धूप विधिमें अगुरु लोगान के धूपके सिवाय सरका त्याग १२ भोजनपेय विधिमे मृग आदिदालोका झोल और चावल का मड के सिवाय मरका त्याग १३ भक्ष्यविधिमे घेवर और ग्वाजा पकान्नके सिवाय सका त्याग १४ ओदनविधिमे क्लमशालि (साठी चावलो के भात) के सिवाय सबका त्याग १५ मपविधिमे मृग उडद
और मटर की दाल के सिवाय सरका याग १६ वृतविधिमें शरद'ऋतके गौधत के सिवाय सवका त्याग १७ शाक विधि में वयुवा चुचू तुव (आलटी लाकी) शाक के सिवाय मरका त्याग १८ माधुरक विपिमें पालक के मिवा सबका त्याग १९ जेमन विधिमे खटाईसे भावित दाल शाम के सिवाय सवरा त्याग २० पानीय विधिमें अन्तरिक्षोदक (माहेन्द्रजाल जो वृष्टि के जलको पात्रो में सग्रह किया
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११
उपासकदचासो उड सोहम्मवरे लोलुए अहो उत्तरे य हिमवते । पचसण तह तिदिसिं, ओरिण्णाण दसगणस्स
ओही आणदसयगो ॥१०॥ दसण वय सामाइय पोसह पडिमाओ-अबभ सञ्चित्तेआरभ पेस उदिट वजए समणभूण य ॥ ११ ।। इकारस पडिमाओ, वीस परियाभो अणसण मासे ।
सोहम्मे चउपलिया, महाविदेहमि मिज्झिहिह ॥१२॥" इति ऊचे सौधर्मवर लोलुपोऽध , उत्तरे हिमवान् । पञ्चशत तथा त्रिदिशि. अवधिः आनन्दशतक्या ॥ १० ॥ दर्शन व्रत सामायिक पोपध-प्रतिमा. अब्रह्म-सचित्तआरम्भ मेष्या दिष्ट वर्जका• श्रमणीभूतश्च ॥ ११ ॥ एकादश प्रतिमाः, विंशति' पर्याया , अनशन मास ।
सौधम चतुष्पल्यका , महाविदेहे सेत्स्यन्ति ॥१०॥" इति । जाय) के सिवाय सबका त्याग और २१ मुखवाल विधिमे कपूर
कोल जातीफल एला लवग इन पच गधद्रव्योंसे वासित ताम्बूल के सिवाय सबका त्याग ।।८-९॥
आनद आदि दश श्रावकों के इसमकार २१ सालों को मर्यादा या अभिग्रह जानना। श्रावकोके अबधिज्ञान की विषय मर्यादा
आनद और महाशतक इनदोनों श्रावको का अवविज्ञान ऊवं. दिशामे सौधर्म नामके प्रथम देव पर्यन्त अधोदिशामे लोलुप नामके प्रथम नरकावास पर्यन्त उनरदिशामें हिमवान पर्वतपर्यन्त त्रिदिशामें (पूर्व पश्चिम दक्षिण दिशामें)५००-५०० योजन तक (लवर्णसमुद्रमे) देखनेकी शक्ति जाननी ॥१०॥
११ श्रावकों की प्रतिमाओं के नाम
१ दर्शनप्रतिमा २ व्रतप्रतिमा ३ सामाषिक प्रतिमा ४ पौषधप्रतिमा पाच साल प्रतिमा ६ कुशीलत्याग प्रतिमा ७ सचित्त वस्तु त्यागप्रतिमा ८ स्वयआरभ करने का त्याग ९ दूसरोंसे प्रारभरवानेका त्याग १० उद्दिष्ट त्याग (अपने निमित्त दिये गये भोजनादिमें अनुमोदन का त्याग) और ११ श्रमणीभुद प्रतिमा ॥११॥
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ग्रन्थमशस्तिः
॥ ग्रन्थप्रशस्ति ॥ (अनुष्टुप् ) देशस्य मेदपाटस्य राजधानी चिरन्तनी । ख्यातोदयपुराऽऽस्यास्ति, तस्या आसन्नवर्त्तिनि ॥ १ ॥ प्रधानमन्त्रिण श्रीमत्कोठारिजिमहाधिय. । आडग्रामान्तिके गङ्गोद्भवोद्यानेऽतिम जुले ॥ २ ॥
२४५७
अश्व-सवर - भाषाऽ-ऽभि - सम्मिते वीरवत्सरे । मङ्गलेऽहनि सप्तम्यां तपस्ये धवले दले ॥ ३ ॥ उपासकदशाङ्गस्य व्याख्या सर्वोपयोगिनी । यत्नात्सन्दर्भिता - ऽगार, - धर्मसञ्जीवनी मंया ॥ ४ ॥ १ - मया =यासिलालेनेत्यर्थ'
५२७
दशोही श्रावकोने इन ग्यारह प्रतिमाओं को पालनकिया और विसवर्ष श्रावकके व्रतोकी पर्याय रह+र अन्तसमय में मामलका अनशनपूर्वरु समाधिकरण अगीकार किया जिससे वे विधर्म नामके प्रथम देवलोकके विभिन्न विमानों में चारपत्योपम स्थितिवाले देव उत्पन्न हुए । आगे वे देवपर्याय पूर्णकरके महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यपर्याय धारण करके तपस्या ( तप सजमकी आराधना) करके सिद्धगति को प्राप्त होवेंगे ॥१२॥ | ग्रन्थप्रशस्ति |
पाट (मेवाड ) देशकी प्राचीन राजधानी उदयपुर है । उसके निकट || १ || आड ग्राममें श्रीमान् धीमान् प्रधानमन्त्री कोठारीजीका 'गगोद्भव' नामक उद्यान है । वह अत्यन्त मनोहर है ॥ २ ॥ उस उद्यान में, चैत्र शुक्ला सप्तमी मंगलवार, वीर सवत् चौवीस सौ सत्तावन (२४५७ ) के दिन ||३ मैंने ( घासीलाल नामक मुनिने) सर्व साधारण के ગ્રન્થપ્રશસ્તી
તેની નિકટ (૧)
મેવાડ (મેદપાટ) દેશની પ્રાચીન ગજધાની દયપુ છે
આડ ગામમાં શ્રીમાન્ ધીમાન્ પ્રધાનમત્રી ઊરીજીનુ ગગોદ્ભવ, નામનુ ઊદ્યાન છે. એ અત્યત મનહર છે (ર) એ Cદ્યાનમા ચૈત્ર સુદ સાતમ ને મગળવાર, વીર ભવત્ ૨૪૫૭ને દિને (૩) મે (ધામીલાલ મુનિ) સમધારણને ઉપયેગી
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उपासका टीका-निर्माण-काले यमुनिभिः सुस्थितोऽभवम् । साहाय्य-कारिणां तेषां नामानीमान्यनुक्रमात् ॥५॥
(सन्ततिलका) शास्त्रानुचिन्तनपटुश्चटुलार्थसार
व्याख्यानदानकुशलो मृदुलस्वभाव । ज्ञानादि-सद्गुण-समर्जन दत्त चित्त,
उत्साहवान्मुनि-मनोहरलालभिक्षु ॥६॥ शास्त्रीय तत्व परिवोधन शान्ति-दान्ति
क्षान्ति-श्रित सरल-निर्मलचित्तवृत्ति । वैराग्य-राज्य कलनेन तपस्विराज ,
चारित्रशालि-मुनि-सुन्दरलालभिक्षु ॥७॥ उपयोगी, श्रीउपासकदशाङ्ग सूत्रकी " अगार धर्मसञ्जीवनी" टोकाको, यत्नसे रचना की समाप्ति की ॥४॥ टीकाकी रचना करते समय में जिन जिन मुनियोंके साथ था, उन सहायता प्रदान करनेवाले मुनियोंके नाम अनुक्रमसे ये हैं ॥५॥
शास्त्रके विचारमे चतर, चटुलार्थसार ( परमार्थसाधक) व्याख्यान देनेमे कुशल, कोमलस्वभाववाले, जानादि सदगुणोको प्राप्त करनेम दत्तचित्त, उत्साही मुनि मनोहरलालजी ॥६॥ मार्मिक शास्त्रीय ज्ञान, शान्ति, दान्ति (इन्द्रियनिग्रह) और क्षान्ति (क्षमा )से युक्त, सरल और निर्मल मनोवृत्तिवाले, वैराग्यरूपी राज्यको प्राप्त करनेके कारण तपस्विराज, चारित्रगुणसे सुशोभित मुनि सुन्दरलालजी ॥७॥ आर. શ્રી ઉપાસદશાગસૂનની “ અગારધર્મસજીવની ટીકાની, યાને કરીને રચના કરી-સમાપ્ત કરી (૪) ટીકાની રચના કરતી વખતે મને જે જે મુનિઓને સાથ મને હવે તે તે સહાયતા આપનારા મુનિઓના નામ અનુક્રમે આ પ્રમાણે છે (૫)
શાસ્ત્રના વિચારમાં ચતુર, ચટુલાઈ સાર (પરમાર્થસાધક) વ્યાખ્યાન આપવામાં કુશળ, કેમળ સ્વભાવવાળા જ્ઞાનાદિ સદ્દગુણેને પ્રાપ્ત કરવામા દત્ત ચિત્ત, ઉત્સાહી भनि भनौ २९19 (6) भाम शात्रीय ज्ञान, शाति, हन्ति (नियnिs) અને ક્ષાતિ (ક્ષમા)થી યુકન સરલ અને નિર્મલ મનવૃત્તિ વાળા, વૈરાગ્યરૂપી રાજ્યને પ્રાપ્ત કરવાને કારણે તપસ્વિરાજ, સદ્દગુણેથી શોભિત મુનિ સુન્દરલાલજી (૭)
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ग्रन्थप्रशस्ति
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( आर्या )
चरम समीर - महो, गुरुसेवायां समीर इव मल. । लघुरपि गुरुर्बुभृy - बाल - ब्रह्मचर्यमाचरति ॥८॥ केसरिवर इव वपुषा, वचसा यासा च तेजसा ललितः । केसरिसिंहजिरासी, स्प्रधानसचिवोऽस्य मेदपाटस्य ॥ ९ ॥ ( वसन्ततिलका )
सामादिनीति-निपुणो नृपति प्रियैपी,
तज्ज प्रधानसचिवो जनतोपकारी । कोठारिज प्रवचनी श्रित- पुत्र-पौत्र, साहाय्यमत्र कृतवान् वलवन्तसिह ||१०||
तीसरे सबसे छोटे मुनि ममीरमलजी है । ये ममीरमलजी गुम् सेनामें समीर (पवन) के सदृश मह तथा बालब्रह्माचारी है। इन्हीं कारणोंसे ये शरीरसस्थानमें लघु होने पर भी गुरु (डे) न जाना चाहते हैं अत् यह मुनि उत्साही - उन्नतिशील हैं ||८||
हम मेवाडदेश के प्रधानमन्त्री केशरीसिंहजी थे । वे शरीर से, वचन से, यश (कीर्त्ति ) से, और तेज (कान्ति) से ललित ( सुन्दर ) श्रेष्ट केशरी सिंह के समान थे ||९|| साम दाम दण्ड भेद नीतियोंमें निपुण, मेवाडमहीपतिके मगरकी कामना करने वाले, प्रजाके उपकारी, प्रवचन के परिपालन, पुत्र पौत्री से सपन्न कोठारी नलवन्तसिंहजी उनके पुत्ररत्न हैं । इन्होंने हममें प्रथम सहायता प्रदान की है ||२०|| ये बलवन्तसिंहजी અને ત્રીજા સૌથી નાના મુનિ સમીરમલજી એ મૌરમજી ગુરૂએવામા સમીર (પત્રન)ના જેવા મહલ તથા ખાલબ્રહ્મચારી છે. એ કા શૈાથી એ શુીર-ઞસ્થાનમા લઘુ હાવા છતા પણ શુરૂ (મેટા) વઇ જવા ઈચ્છે છે મ્ભર્થાત્ આ મુનિ ઉત્સાહી અને ઉન્નતિ શીલ હૈ (૮)
આ મેવાડના પ્રધાનમંત્રી કેશરીસિહજી હતા તે મારી, વચને, યશે (डीर्ति मे), रमने ते? (अन्तियों) सहित (सुहर) श्रेष्ठ देशीनि हुना लेवा हुता (૯) સામ–દાન–દડ ભેદની નીતિમાં નિપુણ, મેવાડ મહિપતિના મગળની કામના કરવાવાળા, પ્રજાના ઉપકારી, પ્રવચનના પરિપાલ, પુત્ર પૌત્રાએ કરીને સપન્ન કાઠારી બલવતસિહજી એમના પુત્ર રત્ન છે એમણે આત્મા પ્રથમ સહાયતા પ્રદાન કરી છે(૧૦)
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५३०
उपासकदशासूत्रे राज्य प्रजोभय-हिताय सुनीति-धारा ,
सञ्चाल्य दीनजन-गोकुलरक्षणेन । ख्याति गत. प्रथितभारतपूर्वभावो, यो मेदपाट-नरपालकृपैकपात्रम् ॥११॥
( आर्या ) पृथ्वीराजजितनयो, साहवलालश्च मेघराजश्च । ज्येष्ठ साहवलालजि, राजीव धर्मतत्पर समभूत् ॥१२॥
(इन्द्रवज्रा भेदो वाणीच्छन्दः) शीलव्रतस्कन्धयुतो निशासु,
चतुर्विधाहारविवर्जकश्च । कालद्वयाऽवश्यककृत्प्रभूत,
सामायिक. साधुनिवद्धभाव ॥१३॥ कोठारि राज्य और प्रजा दोनोंके हितके लिए सुनीतिकी धाराएँ (न्याय का प्रवाह और अच्छे कानूनीकी दफाऍ) चालू करके प्रसिद्धिको प्राप्त हुए। मेवाड-महाराणाके ये अद्वितीय कृपापात्र है। इन्होंने भारतक प्राचीन रीति-रिवाजोंको प्रसिद्ध कर दिये हैं ॥११॥ __ पृथ्वीराजजी के साबलालजी और मेघराजजी ये दो पुत्र हैं। इनमे बडे पुत्र माहयलालजी जीवन- पर्यन्त धर्ममें तत्पर रहे ॥ १२॥ शील व्रतके खधसे युक्त, रात्रिमे चारो प्रकारके आहारका परिहार करनेवाला प्रात -साय दोनों समय आवश्यक (प्रतिक्रमण) और बहुतसी सामायिक करने वाले, साधुओंके प्रति मतत सद्भावना रखनेवाले ॥ १३ ॥ खेमએ બલવ તસિહજી કોઠારી રાજ્ય અને પ્રજા–બેઉના હિતને માટે સુનીતિના ધારાઓ (ન્યાયનો પ્રવાહ અને સારા કાયદા કાનની ચાલુ કરીને પ્રસિદ્ધિને પ્રાપ્ત થયા મેવાડ મહારાણાના એ અદ્વિતીય કૃપાપાત્ર છે એમણે ભારતના પ્રાચીન શત રીવાજોને પ્રસિદ્ધ કર્યા છે (૧૧)
પૃથ્વીરાજજીના સાહબલાલજી અને મેઘરાજજી એ બે પુત્ર છે એમાં મેટા પુત્ર સાહબલાલજી જીવન પર્યંત ધર્મમા તત્પર રહયા હતા (૧૨) શીલવ્રતના
ધથી યુકત રાત્રિમાં ચારે પ્રકારના આકારને પરિહાર કરવા વાળા, પ્રાત - માય બેઉ સમયે આવશ્યક પ્રતિક્રમણ અને ઘણું સામાયિક કરવાવાળા, સાધુઓને ઉપર સર્વદા સદ્ભાવના રાખવાવાળા (૧૩) પેમેરા (ખીવસ) કુળરૂપ કમળને માટે મુર્યો
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ग्रन्थमशस्तिः
( वसन्ततिलका )
खेमेसराकुलसरोज विकासभानु., शुद्धो गुणी प्रवचनानुभवी सहिष्णुः । पर्वोत्सवादिषु च पोषधकृ द्वितीय,
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साहायक समतनोदिह मेघराज ॥१४ ॥ ( अनुष्टुप् ) विशाल बोर्दियावंश, ध्वजो जैनाध्वमध्यग । गम्भीरभावनो जज्ञे, विज्ञो गम्भीरमलजि ॥१५॥ ( आर्या ) तत्तनयो धृतविनयो, जज्ञाते फौजमलजि. प्रथम | अपरो जुहारमलजि, रुभौ समौदार्य वीर्यगुणयुक्तौ ॥१६॥ ( रथोद्धता ) फौज मल्लजिरतिप्रसिद्धिमान्, देव-धर्म-गुरुभक्तिभाववान् । मन्जुल. सुकृतमार्गवर्धक, शुद्धबुद्धिघृतधर्मधूर्वह ॥१७॥
सरा (खीरा) कुलरूपी कमलके लिए सूर्यके सदृश, शुद्ध, गुणी, शास्त्र के मर्मज्ञ, सहनशील, पर्वों और उत्सवोंके दिन पोपध करने वाले मेघराजजी दूसरे सहायक हैं ||१४||
विशाल बोर्दिया (बोरदिया) वशकी ध्वजा के समान, जैनमार्ग के मध्यमे चलने वाले, गभीर भावनासे युक्त विज्ञ गभीरमलजी थे । ||१५|| उनके विनयवान् पहले पुत्र फौजमल्लजी और दूसरे जुहारमलजी है। ये दोनों उदारता और वीरता गुणोंमे समान हैं ॥ ६ ॥ फौजमलजी बहुत प्रसिद्ध, સમાન, શુદ્ધ, ગુણી, શાસ્ત્રના મજ્ઞ સહનશીલ પર્ટી અને ઉત્સાને દિને પૌષધ કરવાવાળા મેઘરાજજી ખીન્ન સહાયક છે (૧૪)
વિશાળ એયિા (એરક્રિયા) વશી ધ્વજા સમાન જૈન માર્ગીની વચમા ચાલવાવાળા, ગંભીર ભાવનાથી યુકત વિજ્ઞગભીરમલજી હતા (૧૫) તેમના વિનયવાન્ પહેલા પુત્ર ફૌજમલજી અને બીજા જુહારમલજી છે એ બેઉ ઉદારતા અને વીરતા ગુÀામા સમાન છે (૧૬) ફૌજમલજી ખૂબ પ્રસિદ્ધ, દેવ-ગુરૂ-ધર્મીમા ભકિતભાવ રાખવા
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________________ 532 उपासकदशाम ( आर्या) प्रियधर्मा दृढधर्मा, मुनिराजानन्यभक्तिभावयुत / सोऽयं जुहारमल्लजि, रपि साहाय्य व्यधत्तेह // 18 // देव, गुरु और धर्ममे भक्ति-भाव रग्वनेवाले, मजुल (कोमल) स्वभावी, पुण्यमार्गको बढानेवाले, शुद्ध धर्म और बुद्धिकी धुराको धारण करते हैं // 17 // प्रियधर्मी-धर्मप्रेमी, दृढधर्मी (धर्ममे दृढ), मुनिराजोमे अनन्य भक्तिभाव पूर्ण जुहारमलजीने भी इस कार्यमे सहायता प्रदान की है // 18 // વાળા, મજુત (કૅમળ) સ્વભાવી પુણ્યમાર્ગને વધારનારા, શુદ્ધ ધર્મ અને બુદ્ધિની ધુરાને ધારણ કરે છે (17) પ્રિયધમી—ધર્મપ્રેમી, દૂધમી (ધર્મમાં દ), મુનિરાજેના અનન્ય ભકિતરસથી પૂર્ણ જહારમલજીએ પણ આ કાર્યમાં સહાયતા આપી છે (18)