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उपासकदमागसूत्रे
[ धर्मकथामूलम् ] सन्चाओ पाणायामओ वेरमण, सचाओ मसावायाओ वेरमण, सन्त्राओ मदि
[ धर्मक्याछाया 1 सर्वस्मात् माणातिपाताद्विरमण, सर्वस्मान्मपादाद्विरमण, मर्वस्माददत्तादानादि न विद्यतेऽगार-गृह येपा तेऽनगागः साधवस्तेपा धर्मः। एनयोरगारधर्मानगार धर्म योरल्पत्वात्सूचीस्टाहन्यायेन प्रथममनगारधर्ममव ध्याचप्टे
(अनगारधर्मस्वरूपम् ) _ 'अनगारे' ति, इह-जिनशासन इत्यर्थः, ग्वल-निश्चयेन, सर्वतः सर्वथा, सर्वथात्वच केवल द्रव्यतोऽपि केरल या भरतोऽपि भवितुमहतीत्यतस्तद्वारणार्थमार -'सर्वात्मने ति द्रव्यतो भावतश्वेत्यर्थः, यद्वा सर्वतः द्रव्यत ,सर्वात्मना-भावतः,
जिनके अगार नहीं है उन्हें अनगार कहते हैं, अर्थात् साधु । साधुओंके धर्मको अनगारधर्म कहते हैं।
'सूची-कटाह' न्यायसे पहले अनगार धर्मका कथन करतह कोंकि उसका वर्णन अल्प है।
अनगारधर्मका स्वरूप मूलमें 'सव्वओ' और 'सव्यत्ताओ' दो पद है।..
'सव्वओ' का अर्थ है सर्वथा। यदि केवल 'सव्वओ' कहतता उसका अर्थ-'सिर्फ द्रव्यसे या सिर्फ भावसे सर्वथा' लिया जा सकता था किन्तु यह इष्ट नही, इसलिए इस अनिष्ट अर्थको रोकने के लिए दूसरा पद 'सव्वसाओ' दिया गया है। 'सव्वत्ताओ' का अर्थ हैसब रूपसे अर्थात् द्रव्यसे भी और भावसे भी। अर्थात् 'सव्वओ' ' જેને અગાર નથી એને અનાગાર કહે છે, અર્થાત્ સાધુ સાધુઓના ધર્મને અને ગાર-ધમ કરે છે.
સૂચી-કટાહ” ન્યાયે કરીને પહેલા અનગાર-ધન કથન કરીએ છીએ કારણ એનું વર્ણન શેડુ છે
- सनार-धनु २१३५ भूमा सवओ मने मबत्तायो वारे ५६ छ सन्धओन। म छेसक्या જે કેવળે એ કહેત તે અર્થ “માત્ર દ્રવ્યથી યા માત્ર ભાવથી સર્વથા એમરી શકાત, પરતુ એ ઈષ્ટ નથી તેથી એ અનિષ્ટ અર્થને રાકવાને માટે બીજી પણ सव्वत्तायो आवामा भाव्य सम्वताओ ने अय-३५०ी-Muloया