Book Title: Mulshuddhi Prakaranam Part 01
Author(s): Dharmdhurandharsuri, Amrutlal Bhojak
Publisher: Shrutnidhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीमत्प्रद्युम्नसूरि विरचितं मूलशुद्धिप्रकरणम् (प्रथमो भागः) सम्पादक आचार्य धर्मधुरंधरसूरिजी पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजक प्रकाशक श्रुतनिधि शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर अहमदाबाद-३८०००४ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीमत्प्रद्युम्नसूरिविरचितं मूलशुद्धिप्रकरणम् [प्रथमो भागः] Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतनिधि-ग्रन्थांक : १ प्रधान सम्पादक जितेन्द्र बी. शाह Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसंवत् २५२८ श्रीमद् देवचन्द्रसूरिसन्दृब्धवृत्तिसहितं आचार्य श्रीमत्प्रद्युम्नसूरिविरचितं ' स्थानकानि ' इत्यपरनामकं मूलशुद्धिप्रकरणम् [ प्रथमो भागः ] सम्पादक आचार्य धर्मधुरंधरसूरिजी पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजक प्रकाशक श्रुतनिधि शारदाबहेन चीमनभाई ऐज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर, अहमदाबाद- ३८० ००४. विक्रमसंवत् २०५८ ईस्वीसन् २००२ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलशुद्धिप्रकरणम् आचार्यधर्मधुरंधरसूरिजी पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजक प्रकाशक श्रुतनिधि शारदाबेन चिमनभाई एज्युकेशनल रिसर्च सेन्टर 'दर्शन', शाहीबाग, अहमदाबाद-३८० ००४ - PHONE : 079-2868739. FAX : 079-2862026 e-mail : sambodhiad1@Sancharnet.in Website : www.scerc.org © श्रुतनिधि द्वितीय आवृत्ति, सन् २००२ मूल्य : रुपये २२५/ प्रति : ५०० मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टिंग प्रेस नोवेल्टी सिनेमा के समीप, घी-काँय मार्ग, अहमदाबाद-३८० ००१. फोन : ५५०८६३१, ५५०९०८३ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंथसमप्पणं पुण्णा जोगा मण-वयण-काइया जाण संतयं सेया । अणवरयसत्थसंसोहणे रया जे य अपमत्ता ॥१॥ सोहण - संपायणविसए जा मम गई हवइ किंचि । सा जप्पसायलेसप्पभावओ चेव संपत्ता ॥२॥ पुण्णपहीणं पण्णाणपवित्ताणं च पुज्जपायाणं । आगमपहायराणं ताणं सिरिपुण्णविजयाणं ॥३॥ निग्गंथाणं करकमलकोसमज्झम्मि एस गंथवरो । अप्पिज्जइ अमएणं सीसेणं बालएणं च ||४|| Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थसमर्पण [प्रथम आवृत्ति : प्रथम भाग] जिनके मन-वचन-काय के पवित्र व्यापार सतत श्रेयस्कर हैं, जो अप्रमत्त होकर सदैव शास्त्रसंशोधन में रत हैं, जिनके प्रसादांश के प्रभाव से मेरे में संशोधन-संपादन की गति है, ऐसे पुण्यमार्ग के पथिक, प्रज्ञान से पवित्र, पूज्यपाद आगमप्रभाकर श्री पुण्यविजयजी निर्ग्रन्थ के करकमल में यह ग्रन्थवर उनके शिष्य बालक अमृत के द्वारा समर्पित है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतनिधि के सहयोगी प. पू. युवाचार्य श्री रत्नाकरसूरिजी म. सा. की प्रेरणा से . १. श्री पंच महाजन समस्त संघ : रानीवाडा खुर्द ( राजस्थान) * २. श्री झवेरी पार्क जैन संघ, अहमदाबाद की ओर से प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकाशन में हार्दिक आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है। संस्था उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक प्राप्तिस्थान अहमदाबाद : मुंबई : श्री पारसगंगा ज्ञानमंदिर मणिलाल यु. शाह बी-१०४, केदार टावर D-1-२०३, स्टार गेलेक्सी राजस्थान हॉस्पिटल के सामने, एल. टी. रोड़, बोरीवली (वेस्ट) शाहीबाग, अहमदाबाद-३८०००४. मुंबई-४०००९२ दूरभाष : Clo. ०७९-२८६०२४७ (राजेन्द्रभाई) दूरभाष : (R) ८०११४६९ (0) ८९३१०११ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'मूलशुद्धि प्रकरणम्' ग्रंथ का प्रकाशन करते हुए हम अत्यन्त हर्षान्वित हैं । प्रस्तुत ग्रंथ का प्रथम भाग कुछ समय पहले प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी के द्वारा प्रकाशित हुआ था किन्तु उसका दूसरा भाग छप नहीं पाया था। हालाँकि दूसरे भाग का संपादन कार्य ही शेष था और इस कार्य के लिए पं. श्री दलसुखभाई मालवणियाजी एवं आचार्य प्रद्युम्नसूरिजी अत्यन्त चिंतित भी थे पर संजोग ही कुछ ऐसे बनते चले की कार्य खटाई में पड़ गया पर आखिरकर पंडित श्री अमृतभाई भोजक एवं आचार्यश्रीधर्मधुरंधरसूरीजी ने गंभीरतापूर्वक इस कार्य को हाथ में लिया और संपन्न किया । आज यह ग्रंथ दो भाग में प्रकाशित हो रहा है। यह ग्रंथ जैन सिद्धान्त के परिचय के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है । इस के प्रकाशन के लिए प्रज्ञाशील आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरिजी म. की सतत प्रेरणा एवं अनुरोध रहे हैं और आचार्य श्री रत्नाकरसूरिजी म. के उपदेश से ग्रंथ प्रकाशन के लिए सुंदर आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है, हम दोनों आचार्य भगवंतों के प्रति कृतज्ञताभाव व्यक्त करते हैं । रंज इस बात का है कि इस ग्रंथ के एक संपादक श्री अमृतभाई भोजक आज हमारे बीच नही हैं । यदि वे जीवित होते तो इस ग्रंथ के प्रकाशन से अवश्य संतुष्ट होते । पू. विद्वान् आचार्य श्री धर्मधुरंधर मरिजी म. ने भी बड़ी मेहनत व लगन के साथ संपादनकार्य संपन्न किया है । वे हम उनके भी ऋणी हैं । I इस ग्रंथ के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग प्रदान करने वाले श्री झवेरी पार्क जैन संघ, अहमदाबाद का हम आभार व्यक्त करते हैं । हमें आशा एवं विश्वास है कि प्रस्तुत ग्रंथ जिसकी संरचना ग्यारहवीं शताब्दी के समर्थ जैनाचार्य आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरिजी ने की है, जिज्ञासुजनों के लिए अत्यन्त उपयुक्त सिद्ध होगा । जितेन्द्र बी. शाह अहमदाबाद फरवरी - २००२. -- Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रत में पादटीप में जो स्थाननिर्देश किये गये है, उनकी संज्ञागत सूची इस प्रकार है । सं. यह प्रति श्री हेमचन्दाचार्य जैन ज्ञानमंदिर पाटन में स्थित श्री संघ जैन ज्ञानभंडार की है। वा. यह प्रति उपर्युक्त ज्ञानमंदिर में स्थित श्री वाडीपार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार की है । -ला. यह प्रति श्री कच्छी दशा ओसवाल जैन महाजन के हस्तक अनंतनाथजी महाराज के मन्दिर (मुंबई) .. में रखे हुए ज्ञानभंडार की हैं एवं सेठ श्री डोसाभाई अभेचन्द जैन संघ (भावनगर) के भंडार की है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ General Editor's Preface (First Edition) The Mūlaśūddhi, also called Sthānaka, that is being published here for the first time is a . Jain religious text in Prakrit, written in the eleventh century by Pradyumna Sūri of the Purņatalla Gaccha. A Sanskrit commentary on this work with illustrative stories in Prakrit (except one which is in Apabhrarśa) was written in 1089-1090 A. D. by Devacandra Sūri. He was a disciple of Gunasena Sūri, who himself was a disciple of Pradyumna Sūri. The Devacandra Sūri is the same as the Guru of the famous polymath Hemacandrācārya. The present volume contains the first part of the text of the Mülaśuddhi (based on six manuscripts) and the commentary (based on five Mss.) The rest of the original and the commentary will form the second volume. The Mülaśūddhi, itself is in the long tradition of Jain religious and didactic tracts. It prescribes the duties of a Jain believer with regard to sacred images, temples and texts and to the fourgold Samgha. As such it has little claim to a wider interest or importance. But it is quite different with Devacandra Sūri's commentary (henceforth referred to as MC.) It contains numerous religious tales and narratives (Akhyānakas, Kathanakas and Udāharanas) and in this respect it is in no way different from a Kathākośa type of tale-collection. Further it forms a link in the long series of similar commentaries or religious-didactic works that contain sizeable collections of illustrative stories. The portion of the commentary covered by the present volume contains thirtyfour (or if we count the two subtales, thirtysix) tales. Apart from their general relevance for the study of tale-motifs and tale-types, Indian and non-Indian, they are quite valuable for investigation the sources and parallels for several widely current and interesting Jain narratives. Here we find, for example, the stories of Müladeva, King Samprati (along with that of Candragupta and Cāņakya), Kālakācārya, Khapuţācārya, Candanā, Ardrakumāra, Rauhineya, Krtapunya and Ārāmaśobhā among others. There are numerous earlier and later recasts, parallels, versions and adaptations of many of these stories in Jain works written in Sanskrit, Prakrit, Old Gujarati and other old languages. All these require to be studied comparatively so that we can trace their evolution in correlation to changing cultural conditions prevalent at different periods. We have already some noteworthy efforts of varying scope in this direction, e. g. the studies pertaining to the stories of Agadadatta' (L. Alsdorf), Manipati(R. Williams), Jambūsvāmin 34 (A. Shah, V.P. Jain), Sāmba-Pradyumna' (M. Shah), Candana-Malayāgrió (R. Jani), Sadaya 1. A New Version of the Agadadatta story, New Indian Antiquary. Vol. 1, p. 281-299. 2. R. Williams, Two Prakrit Versions of the Manipaticarita, 1959. 3. R. C. Shah, Yośovijayjī krut Jambusvāmi-Rās, 1961. 4.V.P. Jain, Vir-kavi-viracit Jambūsvāmicariu, 1968. 5. M. B. Shah, The Pradyumna Tale in Medieval Gujarati Literature (Unpublished doctoral dissertation, University of Bombay, 1967). 6. R. N. Jani, The Jaina and Non-Jaina Versions of the Popular Tale of Candana-Malayagiri from Prakrit and other Early Literary Sources', Mahavir Jain Vidyālaya Golden Jubilee Vol. Part 1, 1968, p. 225-232. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० vatsa-Sävalimga' (A. Nahta, M. Majmudar), Käṣṭhaśreşthin" (H. Bhayani) etc. These studies have different orientations, some concentrating on the literary-historical aspect and others on the folk-tale aspect. Of the stories mentioned above those of Müladeva, Kälaka and Aramaśobhä have been so far fortunate in receiving scholarly attention. Bloomfield's pioneering effort to study the Muladeva cycle now requires to be supplemented by a comparative-historical treatment of all the available materials. Brown's study of the Kalaka legend stands in need of some revision in the light of additional materials" made available by A. Shah. It should be noted in passing that among the thirtysix different texts collected by Shah there also figures the Kalala story from Devacandra's Mulasüddhi commentary. Of course Shah edited it" independently of the present endeavour. As to the story of Arämaśobhã, now that we know it from the MC., H. Jain's view13 on the influence of the Sugandhadasami story on it is to be revised. The MC. version of the Ārāmasobha is prior to the earliest known version of the Sugandhadasami. One further consequence of this is that the question of the immediate Indian original of the Cinderella too shall have to be reconsidered. Anothe aspect of the importance of the MC. is brought out by the fact that several Jain authors have drawn upon or borrowed liberally from its stories. We shall casually mention here only two such instances. In his commentary on Haribhadra's Samyaktvasaptati" Samghatilaka Sūri has reproduced almost verbatim the Kalaka story from the MC. The slight changes he has made here and there mostly consist of substituting synonyms and changing constructions. Similarly on the strength of significant verbal resemblance it seems probable that the Müladeval story in MC. served as a source for the version found in the Kumarapalapratibodha. In this connection, we should also mention a few stories of this collection that clearly preserve the stamp of a folk-tale. The side story about the origin of Gajägrapada, the name of a mountain, occurring in the Arya-Mahägiri story belongs to the cycle of the stories of cuckoldry such as we find in popular collections like the Sukasaptati. The story of Bhima and Mahābhima presents a version of a widely current tale illustrating the principle "You reap what you sow." 7. A. Nahta, "Sadayavatsa Såvalimga Ki prem-kathā, Rajasthan-Bhārati, Vol. 3, 1, pp. 49 f; M. Majmudar, Sadayavatsa Vira Prabandha, 1961. 8. H. C. Bhayani, The Magic Bird-Heart', Bharatiya Vidya, 23. 1-4. 1963, 99-114; Sodh ane Svadhyay, 1965, p. 43. 74; Kästha-seth-ni Damtakatha Lokagurjari, 5, 1968, 1-2. 9. The Character and Adventures of Müladeva. Proceedings of the American Philosophical Society, 52, 616-650. See also Bloomfield's Foreword to Tawney-Penzer. The Ocean of Story, Vol, 7. p. XII; A. N. Upadhye, "The Dhürtäkhyäna a Critical Study' in Haribhadra's Dhürtäkhyāna, ed. by Jinavijaya Muni, 1944, p. 23. 10. N. Brown, The Story of Kalala, 1933. 11. A. P. Shah, Sri-Kalakācārya-Katha - Samgrah, 1949. 12. See pp. 6-22 of the work. 13. H. Jain, Sugandhadasami Kathā, 1966, Introduction, pp. 16-18. 14. Samyaktvasaptati, with Samghatilaka's Commentary, ed. by Lalitvijay Muni, 1916. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ The story of Dhanyā occurring also in the Kumarapālapratibodha, has the same motif as a Gujarati folk tale, ghankā ane ghaņki nī vārtā ‘The tale of the male and female wood-worm.' A third version of the same motif is found in the story of the monkey couple transformed into human beings that we come across in some of the tale-groups connected with the life-story of Jambūsvāmin (see, e.g. pp. 99-100 in Guņapāla's Jambucariya. It also occurs in Jambū’s biography given in Hemacandra's Sphavirävali). Linguistically too the MC. has its several points of interest. Firstly, it has one whole story, viz., Sulasakkhānu, in Apabhramsa. It is called Akhyāna as well as Samdhi, and its structure conforms with that of other known poems of the Sandhi-type in Late Apabhrarśa. As has been stated by the editor (p. 43, footnote), this Sulasāsaṁdhi is found also as a self-contained work preserved separately from the MC. Besides this, MC. has numerous short passages in Apabhraíśa. Their value as specimens of the Apabhramba of Hemacandra's times is quite obvious. Secondly, the Prakrit of the MC. has numerous words, constructions and idioms which are significant for the study of Apabhraíśa and early Gujarati. The following few words and forms, picked up in a casual reading of the firse thirtyfive pages only, would suffice to illustrate the point (Abbreviations : DN. =Deśīnāmamālā of Hemacandra. SH. = Siddhahema of Hemacandra.) Feres41 (3,56) gech (cf. DN. 3, 36; SH. 8, 2, 174; PC. 5, 13, 9 etc.) fsf54 (3, 65) 'a wayward rascal (cf. the Dimļins of Lāța described in the Padatāļitaka Bhāņa.) setem (20,3) 19% (cf. $a124 at Saṁdeśarāsaka, 143). 18 (5, 11, 6, 7.) 'tree'. (cf. Fits 'thicket DN. 3, 57; Guj. tree.) at Or I (fem) (5, 15; 17) 'front portion of the upper garment covering the lap.' (cf. UIN (masc). 'ibid'. DN. 2, 80; Guj. aldt 'ibid', 'lap'.) ataru (5. 7) 'act of sweeping'. (cf. af 'sweeper', 966o 'broom', Abhidhānacintamani, 363, 1016; 73eri, atero broom' DN. 6m 97; Hindi GERI, gert.) w (5, 11, 5, 6, 25) 'some sweetmeat etc. sent as present to ones kin living afar, (from Pk. w, Sk. and the diminutive suffix-2) cf. Guj. Mardi home-made lunch taken outside.' aset (?) (5, 19). The verse line in which this word occurs is as follows: बझंति तरुवरेसुं चंचलतुरयाण वरवलच्छीओ। The corresponding passage in the Ārārnaśobhā in the Samyaktvasaptati commentary of Sarnghatilaka, written in 1365 A. D., reads - तरलतरंगवलच्छ वझंति समंतआ तरुमूले । (Here तरंग is an obvious mistake for तुरंग). The word is the same as चलत्थ (v. 1. वलच्छ) which occurs at Saṁdeśarāsaka, 169 (in the compound form ginenfefs), and which the Sanskrit commentary renders as J 15. The word also occurs in the form of acte (compounded as Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8p 3749een in the Jain Sanskrit of Purnabhadra's Pañcākhyānkar? (composed in 1199). See the glossary in the Harvard Oriental Series edition (No. 11). For the present, the period of currency of the word can be fixed as from 11th to 14 century. We may also note here a few interesting forms and constructions from the MC. The possessive suffix-cay-16 is found in the form stoupari (Mülasuddhi, Gäthä 26) and q@yours (3, 41). धिसि धिसि (3, 120) deriving from धिगसि धिगसि and meaning धिग् धिग् occurs several times in Haribhadra's Apabhramsa epic Nemināhacariya composed in 1160 A. D. It occurs in other Prakrit works also composed in or about the twelfth century. The possessive suffix -7- (SH. 8, 2, 159; Pischel's Comparative Grammar of Prakrit Languages & 600) is found in You (v. 1. HUGIŞTI) (20, 18) 'those having wine' and HŞTI (20, 19) those having meat. Its connotation here is nearer to Hindi 'vālā', Gujarati vālā.' 947311 arifa (6, 13) 'the hot summer gusts blow.'cf. Guj.qare in the same sense. These instances can be easily multiplied. The index of select words proposed to be given at the end of the second volume will seek to cover data of special lexical importance. These few remaks may suffice to point out the value of MC. Such a precious work of Prakrit narrative literature cannot but attract the attention of a connoisseur like Muni Jinavijayaji. Shri A. M. Bhojak, who has scholarly editions of several important Prakrit works to his credit, is to be congratulated for preparing the present critical edition of the text at Muniji's instance. But as pointed out by Shri Bhojak in his editorial forword, though the work was ready for the press several years back various circumstances delayed its completion and publication all these years. Now the Prakrit Text Society is glad to publish it. The Society also hopes to bring out the remaining portion of the text at an ealy date. March 1, 1971 H. C. Bhayani Ahmedabad . 15. This has been already noted by me on p. 104. of my introduction to the Samdeśarāsaka. 16. See H. C. Bhayani, Three Old Marathi Suffixes', Vidyā, 12, 2, 1969, 4-10. To the forms with the possessive -- collected there from Early Prakrit Literature, kaftet belonging to the hostile forces occuring in the Niśitha Cūrni of Jinadāşa is to be added.. 17. Here it may be pointed out that in the introduction to Ślänka's Caupannamahāpurisacariya (p. 47) Shri Bhojak has drawn our attention to Devacandra Sūri's indebtedness to Stanka regarding the story of Candanā and Brahmadatta. It is to be hoped that he will also deal with this aspect of the subject in his introduction to the second volume of the Mülaśuddhi. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय [ प्रथम आवृत्ति : प्रथम भाग ] प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्पादन-संशोधन में टीका की चार प्रतियों का सम्पूर्ण उपयोग किया गया है। इन चार प्रतियों की संज्ञा A B C और D दी गई है। इसके अतिरिक्त एक टीका की प्रति का भी उपयोग कहीं कहीं किया गया है। टीका की इस पाँचवीं प्रति की संज्ञा E दी गई है । टीका की इन पाँच प्रतियों के सिवाय 'मूलशुद्धिप्रकरण' मूल की एक प्रति का भी यहाँ सम्पूर्ण उपयोग किया गया है । यह प्रति पाटण के भण्डार की प्रकीर्णक संग्रह की ताडपत्रीय प्रति है । उसमें अनेक प्रकरणों के साथ मूलशुद्धिप्रकरण भी दिया गया है। मूल की इस प्रति की संज्ञा भी E ही दी गई है। अतः जहाँ मूल गाथा के पाठभेद में जहाँ E संज्ञा हो वहाँ उस पाठभेद को मूल की ताडपत्रीय प्रति का समझना चाहिए। तथा टीका के पाठभेद में जहाँ E संज्ञा हो वहाँ उस पाठभेद को टीका की E प्रति का पाठभेद समझा जाय । उक्त प्रतियों का परिचय इस प्रकार है A संज्ञक प्रति— यह प्रति श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिर (पाटण) में स्थित श्री संघ जैन ज्ञानभण्डार की है और यह कागद पर लिखी हुई है। सूची में इसका क्रमाङ्क १४१५ है । २६४ पत्रात्मक इस प्रति की लम्बाई चौड़ाई १०|४|| इंच प्रमाण है। प्रथम पत्र की पहली और अन्तिम पत्रकी दूसरी पृष्ठि कोरी है। प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि में १५ पंक्तियाँ हैं । और प्रत्येक पंक्ति में ६० अक्षर हैं, प्रत्येक पृष्ठि के मध्य में कोरा भाग रखकर शोभन बनाया गया है। इसकी स्थिति मध्यम और लिपि सुन्दर है । इस प्रति के अन्त में लेखक की प्रशस्ति-पुष्पिका नहीं है। अनुमानतः इस प्रति का लेखनसमय विक्रमीय १७ वीं सदी का होना चाहिए । B संज्ञक प्रति— I यह प्रति भी उपर्युक्त ज्ञानमन्दिर में स्थित श्री वाडीपार्श्वनाथ जैन ज्ञानभण्डार की है और यह कागद पर लिखी हुई है। सूचि में इसका क्रमांक ७०७३ है । २७५ पत्रात्मक इस प्रति की लम्बाई चौड़ाई १०|४|| इंच हैं । प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि में १५ पंक्तियाँ हैं । और प्रत्येक पंक्ति में ५६ अक्षर हैं । प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि के मध्य में कोरा भाग रखकर उसके मध्य में लालरंग का गोलाकार शोभन बनाया है । उसी तरह पत्र की दूसरी पृष्ठि के दोनों तरफ मार्जिन के मध्यभाग में लालरंग का गोलाकार शोभन किया हुआ है। इसकी लिपि सुन्दर और स्थिति मध्यम है । अन्त में लेखक की प्रशस्ति-पुष्पिका नहीं है। अनुमानतः इसका लेखनसमय विक्रम का १५वाँ शतक होना चाहिए । C संज्ञक प्रति— यह प्रति श्री कच्छी दशा ओसवाल जैन महाजन हस्तक के अनन्तनाथजी महाराज के मन्दिर (मुंबई) में रहे हुए ज्ञान भण्डार की है । भण्डार की सूचि में इसका नम्बर १४२८ है । पुरातत्त्वाचार्य मुनिजी श्री जिनविजयजी ने वि० सं० २००१ की साल में यह प्रति उपयोग करने के लिए मुझे दी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी। इसके कुल पत्र ३८४ हैं । ३८३ वें पत्र की दूसरी पृष्ठि की पाँचवीं पंक्ति में मूलशुद्धिप्रकरणटीका की समाप्ति के बाद समस्त ग्रन्थगत कथाओं की सूचि दी है। वह ३८४ वें पत्र की दूसरी पृष्ठि में पूर्ण होती है। प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि में १३ पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्ति में कम से कम ३८ और अधिक से अधिक ४८ अक्षर हैं । स्थिति अच्छी है और लिपि सुवाच्य है। इसकी लम्बाई चौड़ाई १०.१४५ इंच प्रमाण है। अन्त में लेखक ने मात्र लेखनस्थल और लेखनसमय ही दिया है। वह इस प्रकार है- "अहम्मदावादनगरे सं० १९४८ भादरवा शुदि ११॥" । D संज्ञक प्रति सेठ श्री डोसाभाई अभेचन्द जैनसंघ (भावनगर) के भण्डार की यह प्रति भी पुरातत्त्वाचार्य मुनि श्री जिनविजयजी ने मुझे 'C' संज्ञक प्रति के ही साथ उपयोग करने के लिए दी है। इसके पत्र २५९ है। २५८ वें पत्र में मूलशुद्धिप्रकरणटीका पूर्ण होती है। २५९वें पत्र में समग्रग्रन्थगत कथाओं की सूची दी है। प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि में १५ पंक्तियाँ हैं । कम से कम ४० और अधिक से अधिक ७० अक्षरों वाली एक पंक्ति है। स्थिति अच्छी और लिपि सुवाच्य है। इसकी लम्बाई चौड़ाई १०x४॥ इंच है। अन्त में लेखक की पुष्पिका आदि कुछ भी नहीं है । अनुमानतः इसका लेखनसमय वि. २० वाँ शतक कहा जा सकता है। E संज्ञक प्रति (मूलशुद्धिटीका) - श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर (अहमदाबाद) में स्थित अनेक हस्तलिखित ग्रन्थसंग्रहों में से पूज्यपाद आगमप्रभाकरजी मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी महाराज के विशाल ग्रन्थसंग्रह की यह प्रति है। और यह कागज पर लिखी हुई है। यह प्रति आज से २० वर्ष पहले पू. पा. मु. श्री पुण्यविजयजी महाराज को मिली थी। उस समय प्रस्तुत ग्रन्थ का संशोधन-कार्य पूरा हो गया था फिर भी उसी समय ही इस प्रति को उनके पास से लेकर पाठभेदादि के अनेक स्थानों को मिलाते समय निश्चित किया कि यह प्रति तो अशुद्ध है ही फिर भी यह 'C' और 'D' संज्ञक प्रति के प्राचीन कुल की है। इस वजह से इस प्रतिका सम्पूर्ण उपयोग नहीं किया । मूलशुद्धिटीकाकार आ. श्री देवचन्दसूरिजी की प्रशस्ति में किसी किसी स्थान पर 'C' और 'D' संज्ञक प्रति में अक्षरों के स्थान खाली रखे हुए हैं, वे सब स्थान इस प्रति में सम्पूर्ण हैं। इस दृष्टि से यह प्रति उपयोगी हो गई है । A और B संज्ञक प्रति में तो प्रशस्ति अपूर्ण ही मिलती है । इस प्रति में टीकाकार की प्रशस्ति को किसी विद्वान् ने संशोधित की है। यहाँ प्रशस्ति के सातवें पद्म में ('C' और 'D' प्रति में) कतिपय खाली रखे हुए अक्षरों के स्थान में "गुणसेमसूरिः" लिखा हुआ था । उसको सुधारकर किसीने 'गुणसोमसूरिः' किया है । जबकि वस्तुतः वहाँ 'गुणसेनसूरिः' होना चाहिए, कारण कि आo श्री देवचन्द्रसूरिरचित प्राकृतभाषानिबद्ध 'संतिनाहचरिय' शान्तिनाथचरितम्(अप्रकाशित)की ग्रन्थकारकृत प्रशस्ति में 'गुणसेणसूरि नाम मिलता है। इससे स्पष्ट मालूम होता है कि इस प्रशस्ति के संशोधक ने गहरी चिकित्सा नहीं की है, ऐसा कह सकते हैं । प्रस्तुत प्रशस्ति के पाठ के अतिरिक्त समग्र ग्रन्थ में किसी ने कुछ भी संशोधन नहीं किया है। इस प्रति के लेखक ने जिस प्रति पर से नकल की Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ है उस प्रति में, इस प्रति के बारह पत्र जितने पाटवाले पत्रों के बदले आ० श्री शीलांकसूरिरचित आचारांगसूत्रटीका की प्रति के पत्रोंने स्थान पा लिया होगा, इससे इस प्रति के ४६ वें पत्र की दूसरी पृष्ठि की ११ वीं पंक्ति के अन्तिम दो अक्षरों से ५८ वें पत्र की दूसरी पृष्ठि की आठवीं पंक्ति (अंत्य पाँच अक्षर के अतिरिक्त) तक का ग्रन्थसंदर्भ आचारांगसूत्र के दूसरे अध्ययन के प्रथम उद्देश की टीका का है । अर्थात् प्रस्तुत मुद्रित ग्रन्थ के ७३ वें पृष्ठ की १६ वीं पंक्ति में आये हुए 'छलिओ' शब्द के 'छ' के बाद से ९६ वें पृष्ठ की १६ वीं पंक्ति में आये हुए 'पडिलाहिया' शब्द में आये हुए 'ला' तक का मूलशुद्धिटीका का ग्रन्थसंदर्भ प्रस्तुत 'F' प्रति में नहीं है किन्तु उसके बदले आचारांगसूत्रटीका का सूचित पाठ है । इस प्रति की पत्रसंख्या २५२ है । प्रथम पत्र की प्रथम और अन्तिम पत्र की दूसरी पृष्टि कोरी है । २५२ वें पत्र की प्रथम पृष्ठि की चौथी पंक्ति में समग्र ग्रन्थ पूर्ण होता है । प्रत्येक पत्र की प्रत्येक पृष्ठि १५ पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्ति में कम से कम ५२ और अधिक से अधिक ५८ अक्षर हैं। किसी-किसी में ४९ अक्षर भी मिलते हैं। प्रत्येक पृष्ठि के मध्य में अलिखित कोरा भाग रखकर सुन्दर शोभन बनाया हुआ है। इसकी लिपि सुन्दरतर है और स्थिति भी अच्छी है। इसकी लम्बाई चौडाई १०॥.२४ | इंच प्रमाण है । प्रति के लेखक की पुष्पिका नहीं है । अनुमानतः इसका लेखनसमय विक्रम की १७ वीं सदी का पूर्वार्द्ध होना चाहिए । इस प्रति को लिखाने के कितनेक • समय के बाद लालशाही से लिखी हुई एक छोटी सी पुष्पिका भी इसमें है और वह इस प्रकार है -" साह श्री वच्छासुत साह सहस्रकिरणेन पुस्तकमिदं गृहीतं सुतवर्द्धमान [-] शांतिदासपरिपालनार्थं "। इस पुष्पिका पर यह मालूम होता है कि सहस्रकिरण नामके श्रेष्ठी ने अपने ग्रन्थभण्डार के लिए यह प्रति (?) मूल्य से खरिदी होगी। इस श्रेष्ठी ने स्वयं ग्रन्थ लिखाकर और दूसरी जगह से ग्रन्थ प्राप्त कर एक ग्रन्थसंग्रह किया होगा क्योंकि इस श्रेष्ठी द्वारा लिखाई हुई और प्राप्त कि हुई प्रतियों के अन्त में लिखाई हुई ऐसी छोटी २ पुष्पिका वाली अनेक पोथियाँ मेरे देखने में आई हैं। इस श्रेष्ठी द्वारा लिखाये हुए नन्दीसूत्र का तो हमने उपयोग भी किया है, देखिये श्री महावीर जैन विद्यालय संचालित आगम प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित 'नंदिसुत्तं अणुओगद्दाराई च' ग्रन्थ का सम्पादकीय का पृ० २ । 'P' संज्ञक प्रति (मूलशूद्धिप्रकरण-मूल ) - जैसा कि प्रारंभ में बताया है, यह छोटी छोटी रचना के संग्रह वाली ताडपत्रीय प्रति पाटन के किस ज्ञानभण्डार की थी यह अब मेरे स्मरण में नहीं है। इस प्रति का उपयोग आज से २४ वर्ष पूर्व किया था । उपरोक्त प्रतियों में से C और D संज्ञक प्रति अति अशुद्ध है। फिर भी सम्पादन कार्य में जिन जिन स्थानों में A और B संज्ञक प्रतियों के पाठ शंकित थे वहाँ इन दो प्रतियों का उपयोग हुआ है । और जहाँ जहाँ A. B संज्ञक प्रतियों के पाठ नष्ट हो गये हैं वहाँ वहाँ इन दो प्रतियों ने उसे पूरा करने में सहयोग दिया है, (देखो चतुर्थ पृष्ठ की ११ वीं और ३२ वें पृष्ठ की आठवीं टिप्पनी) । यद्यपि ये दो प्रतियाँ (c. D) अर्वाचीन और अशुद्ध है फिर भी सम्पादनकार्य में महत्त्व की सिद्ध हुई है। ये दो प्रतियाँ (c. D) विक्रम की २० वीं सदी में लिखाई हुई होने पर भी इसमें कतिपय स्थानों में 'थथथथ' और 'छछछछ' जैसे अर्थशून्य अक्षरों का निष्कारण लेखन हुआ है। इससे यह निश्चित कहा जा सकता है कि यह प्रति ताडपत्रीय परम्परा की है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताडपत्रीय प्रतियों के पत्र में जहाँ जहाँ दरारे पड़ी हो, अथवा लिखते समय अक्षरों के बिगड़ने की जहाँ २ संभावना हो वहाँ मुख्यतः प्रतिलिपिकार को पाठपतन का भ्रम न हो उसके लिए उतने स्थान को रिक्त न रखकर थथथथथ' अथवा 'छछछछछ' ऐसे फल्गु अक्षरों से भर दिया जाता था। प्रस्तुत ग्रन्थ के मेटर का संशोधन होने के बाद ही मूलशुद्धिप्रकरणटीका की जो 'E' संज्ञक प्रति मिली है वह c और D प्रति के कुल की प्राचीन प्रति है। ७७ वें पृष्ठ में आई हुई मूल की १९ वी गाथा के अन्त में आया हुआ 'वराओ' शब्द के स्थान में टीका में 'पराओ' शब्द प्रतीक के रूप में दिया है। उससे उपयुक्त प्रतियों में टीकाकारसम्मत मूलपाठ क्वचित् नहीं भी मिला ऐसा कह सकते हैं । टीकाकार ने मूल की सम्पूर्ण गाथाओं को उद्धृतकर के टीका की रचना की है। अत: टीका की प्रतियों के मूलपाठ सम्पूर्ण है ऐसा समझना चाहिए । संशोधन यहाँ उपर बताई गई प्रतियों में से जिस प्रति का पाठ सुसंगत लगा है उस को मूल में स्वीकृत करके शेष प्रतियों के पाठ टिप्पण में दिये गये हैं। ___जहाँ मूलगाथा के शब्द को टीका में प्रतीक रूप से लेकर उसका संस्कृत में अर्थ किया गया है वहाँ मूलगाथा के उन शब्दों को " " ऐसे अवतरण-चिह्न के मध्य में रख दिये हैं। जहाँ मूलगाथा के विभक्त्यन्त प्राकृत शब्द के संस्कृत पर्याय लिखकर उन संस्कृत पर्यायों का अर्थान्तरटीका में बताया गया है वहाँ मूल के उस प्राकृत शब्द के संस्कृत पर्याय को ' ' ऐसे अवतरणचिह्न के मध्य में रख दिए हैं । जहाँ मूल के सामासिक वाक्य में आए हुए प्राकृत शब्द के संस्कृत पर्याय लिखकर उसका अर्थान्तरटीका में बताया है वहाँ मूल के समासगत उन प्राकृत शब्द के संस्कृत पर्याय और उनके अर्थान्तर के बीच में = ऐसा चिह्न दिया गया है । वाचकों की अनुकूलता के लिए ग्रन्थगत कथाओं में उन कथाओं के पात्रों के वक्तव्य को ' ' ऐसे और आवश्यक हो वहाँ " " ऐसे अवतरण चिह्नों के मध्यमें रख दिये हैं । शेष चिह्नों के सम्बन्ध में प्राकृतगन्थ परिषद् के तीसरे ग्रन्थाङ्क रूप से प्रसिद्ध "चउप्पन्नमहापुरिसचरियं" ग्रन्थ की प्रस्तावना का पृ. ३७ को देखनेका सूचन करता हूँ। ___ उपर बताये गये चिह्नों की एवं प्रतियों की संज्ञा तथा ग्रन्थान्तर के पाठ की गाथाओं के अलग टाइप रखने आदि की पसन्दगी आज से २५ वर्ष पहले भारतीय विद्याभवन मुंबई के सम्मान्य नियामक एवं श्री सिंघी जैन ग्रन्थमाला के प्रधान सम्पादक और संचालक पुरातत्त्वाचार्य मुनिजी श्री जिनविजयजी ने निर्णीत कर दी थी। प्रस्तुत विशाल ग्रन्थ में आये हुए ग्रन्थान्तर के अवतरणों का सम्पूर्ण पृथक्करण करना मेरे लिये मुश्किल था फिर भी आज से २५ वर्ष पूर्व के मेरे तथाप्रकार के अतिस्वल्प अभ्यास के अनुसार उन अवतरणों को अलग सईप में देने का प्रयत्न किया है जो अपर्याप्त है। यहाँ ग्रन्थान्तर की अनेक सुभाषित गाथाओं का तो पृथक्करण करना अशक्य ही है। ___ग्रन्थ और ग्रन्थकार आदि के विषय में विशेष जानकारी दूसरे भाग की प्रस्तावना में देना मैंने उचित माना है। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ वृत्ति, व्याख्या आदि शब्दों को उन उन ग्रन्थों की टीका के रूप में पहचानना यह एक प्रवाह है । इससे वर्षों पहले के मेरे इस प्रकार के प्रवाह के संस्कार से प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'मूलशुद्धिप्रकरणटीका' दिया है। किन्तु ग्रन्थकार ने प्रस्तुत टीका को व्याख्या ( पृ० १, पं० ८), विवरण (प्रत्येक स्थानक के अन्त की पुष्पिकामें) और वृत्ति ( टीकाकार की प्रशस्ति का १० वाँ और १५ वाँ पद्य) के नाम से कहा है । प्रस्तुत प्रथम भाग में रही हुई अशुद्धियों का शुद्धिपत्रक दिया गया पढ़ने का मेरा सूचन है । । उसके अनुसार सुधारकर पूज्यपाद पुरातत्त्वाचार्य मुनि श्री जिनविजयजी (मुनिजी) ने २५ वर्ष पहले मेरी योग्यता का विचार करके श्री सिंघी जैनग्रन्थमाला में यह ग्रन्थ प्रकाशित करने के लिए मुझे सम्पादन के लिए दिया था इसके लिये मैं उनका, अनेक उपकारों के स्मरणपूर्वक विनीत भाव से आभार व्यक्त करता हूँ । प्रेस आदि की अव्यवस्था और पूज्य मुनिजी राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्थापित राजस्थान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान के सम्मान्य नियामक के स्थान पर होने के कारण प्रस्तुत ग्रन्थ के मुद्रण में सुदीर्घ समय बीत गया, मैं भी पूज्यपाद आगमप्रभाकरजी विद्वद्वर्यमुनि श्री पुण्यविजयजी महाराज के आदेश से प्राकृत ग्रन्थ परिषद् (PRAKRTA TEXT SOCIETY) में और उसके बाद श्री महावीर जैन विद्यालय संचालित ‘आगम प्रकाशनविभाग' में नियुक्त हुआ । ऐसें समय प्राकृत ग्रन्थ परिषद् के सम्मान्य मंत्री एवं श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर के मुख्य नियामक, भारतीय दर्शनों के गम्भीर अभ्यासी श्री दलसुखभाई मालवणियाजी ने पूज्य मुनिजी से परामर्श करके इस रुके हुए प्रकाशन की उपयोगिता जानकर इसे प्राकृत ग्रन्थ परिषद् से प्रकाशित करने का निर्णय लेकर मेरे कार्य में जो प्रोत्साहन दिया उसके लिए मैं श्री मालवणियाजी के प्रति ऋणिभाव व्यक्त करता हूँ । मैं जो कुछ भी यत् किंचित् संशोधनकार्य करता हूँ उस में जहाँ कहीं भी शंकित स्थान आ हैं उनका समाधान प्राप्त करने के लिए पूज्यपाद आगमप्रभाकरजी मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी महाराज का अमूल्य समय ३५ वर्ष से लेता आ रहा हूँ । इन उपकारी पुरुष की ऋणवृद्धि भी मुझे सविशेष धन्यता का अनुभव करा रही है । इस ग्रन्थ का संस्कृत में लिखा हुआ विषयानुक्रम देखकर योग्य सूचन करने के लिए पं० श्री हरिशंकरभाई अंबाराम पंड्या का मैं आभारी हूँ । श्री महावीर जैन विद्यालय संचालित आगम प्रकाशन विभाग लुसावाडा-मोटी पोळ जैन उपाश्रय अहमदाबाद- १ २४ से २८ फार्म और सम्पादकीय आदि के मुद्रण में श्रीरामानन्द प्रिन्टिंग प्रेस के मुख्य संचालक स्वामी श्रीत्रिभुवनदासजी शास्त्रीजी ने जो सहकार दिया है उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञभाव प्रकट करता हूँ । विद्वज्जनविनेय अमृतलाल मोहनलाल भोजक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमः विषयः पृष्ठाङ्कः मड्गलम् १-४ सम्यग्दर्शनप्राप्त्युपायाः, सम्यक्त्वप्रतिपत्तिक्रमः, प्रतिपन्नसम्यक्त्वस्याकल्प्याचारनिरूपणं च ४-७ सम्यक्त्वस्य भूषण दूषण- लिङ्ग- श्रद्धान- च्छिण्डिका - स्थानकाख्यं द्वारषट्कम् ७-८ ८-७५ ८ ८-१६ १७-१८ सम्यक्त्वस्य प्रथमं भूषणद्वारम् जिनशासननिपुणता - प्रभावना - तीर्थसेवा-भक्ति-स्थिरत्वाख्यानि पञ्च सम्यक्त्वभूषणानि जिनशासननिपुणताख्ये प्रथमे सम्यक्त्वभूषणे आर्द्रकुमारकथानकम् प्रभावनाख्ये द्वितीये सम्यक्त्वभूषणे आर्यखपुटाचार्यकथानकम् तीर्थसेवाख्ये तृतीये सम्यक्त्वभूषणे द्रव्यतीर्थसेवाविषयकं अन्तर्गत 'एलकाक्ष - कथानक-गजाग्रपदपर्वतनामोत्पत्तिकथा' समेतं आर्यमहागिरि तीर्थसेवाख्ये तृतीये सम्यक्त्वभूषणे भावतीर्थसेवाविषयकं भीम - महाभीमकथानकम् भक्त्याख्ये चतुर्थे सम्यक्त्वभूषणे जिनभक्तिविषयकं आरामशोभाकथानकम् भक्त्याख्ये चतुर्थे सम्यक्त्वभूषणे साधुभक्तिविषयकं शिखरसेनकथानकम् स्थिरत्वाख्ये पञ्चमे सम्यक्त्वभूषणेऽपभ्रंशभाषानिबद्धं सुलसाख्यानकम् सम्यक्त्वस्य द्वितीयं दूषणद्वारम् शङ्का-काङ्क्षा-विचिकित्सा-कुतीर्थिकप्रशंसा-कुतीर्थिकाभीक्ष्णसंस्तवनाख्यानि पञ्च सम्यक्त्वदूषणानि शङ्काख्ये प्रथमे सम्यक्त्वदूषणे श्रीधरकथानकम् काङ्क्षाख्ये द्वितीये सम्यक्त्वदूषणे इन्द्रदत्तकथानकम् विचिकित्साख्ये तृतीये सम्यक्त्वदूषणे पृथ्वीसार- कीर्तिदेवकथानकम् कुतीर्थिकप्रशंसाख्यं चतुर्थं सम्यक्त्वदूषणम् कुतीर्थिकाभीक्ष्णसंस्तवनाख्ये पञ्चमे सम्यक्त्वदूषणे जिनदासकथानकम् सम्यक्त्वस्य तृतीयं लिङ्गद्वारम् क्षान्ति-संवेग-निर्वेद-अनुकम्पा - अस्तित्वभावाख्यानि पञ्च सम्यक्त्वलिङ्गानि सम्यक्त्वस्य चतुर्थं श्रद्धानद्वारम् जीवादिवस्तुपरमार्थसंस्तव- सुदृष्टभावयतिसेवना- व्यापन्नदृष्टिवर्जन- कुदृष्टिवर्जना ख्यानि चत्वारि सम्यक्त्वस्य श्रद्धानानि सम्यक्त्वस्य पञ्चमं छिण्डिकाद्वारम् राजाभियोग-गणाभियोग- बलाभियोग-सुराभियोग- कान्तावृत्ति - गुरुनिग्रहाख्याः सम्यक्त्वस्य षट् छिण्डिकाः प्रथमायां राजाभिग्रहच्छिण्डिकायां कार्तिकश्रेष्ठिकथानकम् २१-२६ २७-३० ३०-४६ ४७-५९ ५९-७५ ७५-९० ७६ ७६-७७ ७८-७९ ८०-८६ ८७ ८७-९० ९०-९१ ९०-९१ ९१-९२ ९२-९३ ९३-९९ ९३ ९३-९४ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ द्वितीयायां गणाभियोगच्छिण्डिकायां रङ्गायणमल्लकथानकम् तृतीयायां बलाभियोगच्छिण्डिकायां जिनदेवकथानकम् चतुर्थ्यां सुराभियोगच्छिण्डिकायां कुलपुत्रकथानकम् पञ्चम्यां कान्तारवृत्तिच्छिण्डिकायां सुराष्ट्राश्रावककथानकनिर्देशः षष्ठ्यां गुरुनिग्रहच्छिण्डिकायां देवानन्दकथानकम् सम्यक्त्वस्य षष्ठं स्थानकद्वारम् जीवास्तित्व- जीवनित्यत्व- जीवकर्तृत्व- जीववेदकत्व-निर्वाणास्तित्वनिर्वाणोपायाख्यानि षट् सम्यक्त्वस्थानानि सम्यक्त्वमाहात्म्यम् अवाप्तसम्यक्त्वविधेयस्य वक्तव्ये सप्तस्थानकप्रवृत्तिनिरूपणम् जिनबिम्ब-जिनभवन-जिनागम-साधुकृत्य - साध्वीकृत्य-श्रावककृत्य श्राविकाकृत्याख्य सप्तस्थानकनामनिरूपणम् जिनबिम्बाख्यं प्रथमं स्थानकम् जिनप्रतिमानिर्मापण - तदष्टप्रकारपूजोपदेशः अष्टप्रकारपूजाप्ररूपणम् पुष्प - गन्धपूजास्वरूपनिरूपणम् पुष्पपूजायां धन्याकथानकम् धूप-दीप-अक्षत-फल-घृत- जलपूजास्वरूपनिरूपणम् जिनपूजायाः सर्वदुःखविमोचकत्वम् जिनपूजाया विशिष्टसुखदायकत्वम् प्रथमस्थानकोपसंहारः [जिनप्रतिमानिर्मापण-तत्पूजा - यात्राद्युपदेशः ( पृ० ११७-११९), नूतनजिनबिम्बकरणात् सीदत्परकृतजिनबिम्बपूजनस्य बहुगुणत्वम् ( पृ० ११९ ), जिनबिम्ब- चैत्यद्रव्ययोः रक्षण-वर्द्धनविषयकः कर्तव्योपदेशश्च ( पृ० ११९-१२०)] जिनभवनाख्यं द्वितीयं स्थानकम् जिनमन्दिरनिर्माणोपदेशः [जिनमन्दिरवर्णनम्, 'कानि जिनायतनानि निदर्शनीकृत्य केषु स्थानेषु जिनमन्दिराणि विधापयेत् ?' एतन्निरूपणं च] जन्मान्तरोपात्तपुण्यसम्प्राप्तसम्पदा शुभाशयेन परमादरेण च जिनमन्दिरनिर्माणोपदेशः चैत्यद्रव्यरक्षाविषये संकासश्रावकजीवकथानकम् जिनभवननिर्माणविषये सम्प्रतिनृपकथानकम् द्वितीयस्थानकोपसंहारः [जिनमन्दिरार्थं द्रव्य-भूमि - गोकुलदानोपदेशः, जीर्णशीर्णजिनालयोद्धारोपदेशश्च] ९६ ९७ ९८ ९९ ९९-१०० १००-१०१ १०० - १०१ १०१-१०३ १०३ - १०५ १०४ १०५-१२० १०५-१०७ १०७-११५ १०७ १०८ - ११२ ११२-११३ ११३ - ११५ ११६-११७ ११७- १२० १२१-१५१ १२१-१२६ १२६ १२७-१२९ १३० - १५१ १५१ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागमाख्यं तृतीयं स्थानकम् जिनवचन (जिनागम) माहात्म्यम् २० लौकिकधर्मविषये ग्रामधर्मनिरूपकं नागदत्तकौटुम्बिककथानकम् नाथ-बन्धु-चक्षुः- जननी - जनक - सार्थवाह - हस्तालम्बकपुरुष- भाण्डागारचिन्तामण्युप-माभिर्जिनागमस्वरूपप्ररूपणम् जिनागमादर - बहुमानमाहात्म्यं जिनागमप्रामाण्यप्ररूपणं च जिनागमश्रवणानादरे मन्दरपुण्यतायाः कथनम्, एतद्विषये वसुदत्तकथानकं च जिनागमापमान-जिनाज्ञाव्यतिक्रमदोषनिरूपणम् साधुकृत्याख्यं चतुर्थं स्थानकम् जिनागममाहात्म्यप्ररूपणम् त्राण - महानायक -स्वजन - जननी - जनक- मित्र - सुगति-मति - द्वीपत्वेन जिनागमस्य निर्देशः जिनागमस्य खण्डितत्वे कालदोषप्रभावकथनम्, एतद्विषये कालकाचार्यकथानकं च विद्यमानजिनागममहिमा, एतद्विषये रौहिणेयकथानकं च १५२ - १९३ १५२ - १५६ १५४-१५५ जिनागमपठनानुष्ठानप्ररूपणम् गुरूणां पुस्तकानां च जिनागमसाधनरूपत्वेन निरूपणम् १९०-१९१ जिनागमलेखन-पूजा-दान-श्रवण - वाचन - स्वाध्यायाद्युपदेशः, तृतीयस्थानकोपसंहारश्च १९१-१९३ १९४-३०२ १९४-१९६ १९६-१९८ साधुपर्युपास्तिनिरूपणम्, साधुमाहात्म्यं च साधुषु काय-वाङ्-मनोविनयकर्तव्यस्य निरूपणम् १५७ - १६० १६० - १६१ १६२ - १६४ १६४ १६५ - १६६ १६६ १६७ - १८२ १८३-१८९ १८९ - १९० साधुवर्णवादप्ररूपणम् साधुभ्योऽशनादि - पीठ - फलकादि- धर्मोपकरणानां दानस्योपदेशः साधुभ्योऽशनादीनां दानस्य माहात्म्यकथने दृष्टान्ताः अशनादिदानविषये इहलोकफलसंसूचकं मूलदेवकथानकम् अशनादिदानविषये इहलोकफलसंसूचकं देवधरकथानकम् अशनादिदानविषये इहलोकफलसंसूचकं देवदित्रकथानकम् अशनादिदानविषये इहलोकफलसंसूचकं अभिनव श्रेष्ठिकथानकम् अशनादिदानविषये परलोकफलसंसूचकं धनसार्थवाहकथानकम् अशनादिदानविषये परलोकफलसंसूचकं ग्रामचिन्तकोदाहरणम् अशनादिदानविषये परलोकफलसंसूचकं श्रेयांसकथानकम् अशनादिदानविषये परलोकफलसंसूचकं चन्दनार्याकथानकम् अशनादिदानविषये परलोकफलसंसूचकं द्रोणकाख्यानकम् अशनादिदानविषये परलोकफलसंसूचकं सङ्गमकाख्यानकम् अशनादिदानविषये परलोकफलसंसूचकं कृतपुण्यकाख्यानकम् साधुशय्यादानोपदेशः, साधुमाहात्म्यम्, शय्यादानमाहात्म्यम्, साधुप्रतिपत्त्युपदेशः, चतुर्थस्थानकोपसंहारश्च १९८ १९८ - २०१ २०१ २०१-२१७ २१७ - २३० २३०-२४४ २४४-२४५ २४५ - २४८ २४८ - २५१ २५१ - २६६ २६६-२७३ २७३ - २८२ २८२ - २८९ २८९ - २९६ २९६- ३०२ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। णमो त्थु णं समणस्स भगवओ महइमहावीरवद्धमाण सामिस्स ।। ।। णमो त्थु णं अणुओगधराणं थेरभदंताणं ।। श्रीमद्देवचन्द्रसूरिसन्दृब्धविवरणोपेतं आचार्यश्रीप्रद्युम्नसूरिविरचित्तं 'स्थानकानि' इत्यपरनामकं मूलशुद्धिप्रकरणम् । ॐ नमः सर्वज्ञाय । बालत्वे शैलराजं चलदखिलधरामण्डलं कम्पयित्वा, शुद्धं सम्यक्त्वरत्नं सुरविसरपतेर्मानसे यशकार । तं नत्वा वर्द्धमानं चरमजिनपतिं मूलशुद्धेः स्वशक्त्या, स्पष्टां व्याख्यां विधास्ये निजगुरुचरणद्वन्द्वसद्भक्तियोगात् ।। तत्र सुगृहीतनामधेयो भगवान् श्रीमत्प्रद्युम्नसूरिः श्रमणोपासकप्रतिमासङ्क्षिप्तस्वरूपावबोध बुद्धि(द्धि)श्रावकप्रार्थनात: सझेपत एव तत्स्वरूपमभिधातुकामो मिथ्यात्वान्धकारबहलपटलान्तरितदर्शनान् भूरिभव्यजीवानपि भगवत्सर्ववेदिप्रभुप्रणीतप्रवरप्रवचनप्रतिपादितप्रकारेणोफ्लभ्य तदवबोधकं दिनकर इव भास्वरकरनिकरमादित एव दर्शनप्रतिमायाः किञ्चिद्विशेषस्वभावाविर्भावकं मूलशद्ध्यभिधानं स्थानकानीत्यपरनामकं प्रकरणमारब्धवान् । अस्य च सम्यक्त्वशुद्ध्यादिप्रतिपादनत: स्वर्गापवर्गसंसर्गहेतुभूतत्वेन श्रेयोभूतत्वाद् विघ्नाः सम्भवन्ति । यत उक्तम् श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां क्वापि यान्ति विनायकाः ।।१।। इत्यतो विघ्नविनायकोपशान्तये । तथा प्रयोजनादिरहितेऽपि शास्त्रे धीधना न प्रवर्तन्ते, उक्तं च......... सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वाऽपि कस्यचित् । यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् तत् केन गृह्यताम् ? ।।२।। तथा१. सं० वा० सु० 'थशुद्धि ।। २. ला० 'बहुल' ।। ३. सं० वा. 'लम्भ त । सु० 'लभत' ।। ४. सं० वा० सु० 'मायां ।। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्ध: सप्रयोजनः ।।३।। अत: प्रयोजनादिप्रतिपादनार्थम् । अन्यच्च शिष्टा: क्वचिदिष्टे वस्तुनि प्रवर्तमाना: सन्तोऽभीष्टदेवतानमस्कृतिकरणपूर्वकमेव प्रवर्तन्ते, अत: शिष्टसमयानुपालनमपि न्यायोपपन्नम् । यत उच्यते शिष्टसमयानुपालनविकलं सच्छास्त्रकरणमपि नैव । विद्वजनप्रशस्यं भवति यतोऽसौ समनुपाल्यः ।।४।। इति तत्प्रतिपालनाय चाऽऽदावेव नमस्कारमाह वंदामि सव्वनजिणिंदवाणी पसन्नगंभीरपसत्थसत्था । जुत्तीजुया जं अभिनंदयंता नंदंति सत्ता तह तं कुणंता ।।१।। व्याख्या-सा च संहितादिक्रमेण भवति । यत उक्तम् समदितपदामादौ विद्वान पदेष्विह संहितां. तदनु च पदं तस्यैवार्थं वदेदथ विग्रहम् । निपुणभणितं तस्याऽऽक्षेपं तथाऽस्य च निर्णयं, बुधजनमता सूत्रव्याख्या भवेदिति षड्विधा ।।५।। तत्राऽस्खलितपदोच्चारणमेव संहिता । वन्दे सर्वज्ञ जिन इन्द्र वाणीमित्यादीनि तु पदानि । पदार्थः पुन: 'वन्दे' स्तुवे । कम् ? 'सर्वज्ञजिनेन्द्रवाणी' सर्व-समस्तं स्व-परपर्यायभेदभिन्नं पदार्थसार्थं जानाति-बुध्यत इति सर्वज्ञ: निखिलवेदी, रागादिशत्रुजेतृत्वाद् जिना:-सामान्यकेवलिनः, तेषाम् इन्दनाद् अष्टमहाप्रातिहार्याद्यैश्वर्ययुक्तत्वाद् इन्द्रः नायको जिनेन्द्रः तीर्थकृत्, सर्वज्ञश्चाऽसौ जिनेन्द्रश्च सर्वज्ञजिनेन्द्रः, तस्य वाणी-वाक्, अङ्गा-ऽनङ्गादिभेदभिन्ना, ताम् । कथम्भूताम् ? 'प्रसन्नगम्भीरप्रशस्तशास्त्रां' प्रसन्नानि-प्रत्यायकानि सुखावबोधानीत्यर्थः, गम्भीराणि दृष्टजीवाऽजीवादिगम्भीरपदार्थत्वात् परैरलब्धमध्यानि, प्रशस्तानि मंगल्यानि हिंसादिनिवारकत्वात्, शास्त्राणि-ग्रन्था यस्याः सा तथा ताम् । यद्वा प्रसन्न:-जितक्रोधादित्वेनोत्तमोपशमरसवान्, गम्भीरः श्रुतकेवलित्वात् परैरलब्धमध्यः, प्रशस्त:=निःशेषमङ्गलालयत्वात्; शास्ता=प्ररूपक: सूत्ररूपतया गणधरो यस्या: सा प्रसन्नगम्भीरप्रशस्तशास्तृका, ताम् । पुनरपि कथम्भूताम् ? 'युक्तियुतां' युक्त्या उपपत्त्या युता-समेता युक्तियुता, न तु पुराणादिवदाज्ञासिद्धैव । उक्तं च तद्वेदिभि: १. सं० वा० सु० ज्ञायोप' ।। २. ला० 'वाणीं ।। ३. ला० •णीमित्या' ।। ४. सं० वा० सु० मङ्गलानि ।। ५. सं० वा० सु० यस्यां ।। ६. सं० वा० सु० प्रसन्ना ।। ७. सं० वा० सु० रसा वाग, गम्भी ।। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मङ्गलादिवर्णनम् पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकित्सितम् । आज्ञा सिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि युक्तिभिः ।।६।। एतच्च प्रतिपादयद्भिस्तैस्तेषां युक्तिपरीक्षणाक्षमत्वमावेदितं भवति । उक्तं च अस्ति वक्तव्यता काचित् तेनेदं न विचार्यते । निर्दोषं काञ्चनं चेत् स्यात् परीक्षाया बिभेति किम् ? ।।७।। अतस्ताम् । 'नीय लोवमभूया य आणिये' त्यादिप्राकृतलक्षणादिह पूर्वत्र चानुस्वारलोपो द्रष्टव्यः । तथा यां 'अभिनन्दयन्तः' स्तुवन्तः । तथा तथाशब्दस्य समुच्चयार्थत्वात्, तां कुर्वन्तश्च । तदुक्तानुष्ठानकरणात् किम् ? 'नन्दन्ति' नराऽमराऽपवर्गसुखसमृद्धिप्राप्त्या समृद्धा भवन्ति । 'सत्त्वाः ' प्राणिन इति । उक्तः पदार्थः । पदविग्रहोऽपि पदार्थेनैव सहोक्त इति न पृथगुच्यते । अधुना चालना-प्र - प्रत्यवस्थाने सममेवोच्येते । ननु किमर्थं सर्वज्ञजिनेन्द्र इति पदत्रयोपादानम् ? सर्वज्ञ इत्युक्ते जिन इति लभ्यत एव । सर्वज्ञस्य हि निःशेषान्तरशत्रुविजयेनैव सर्वज्ञत्वोपपत्तेः । नैवम्, हरि-हर-हिरण्य गर्भादीनामपि परैः सर्वज्ञत्वेनाभ्युपगतत्वाद् मा भूत् तद्वाण्यामपि सम्प्रत्यय इति तन्निषेधार्थं जिनपदग्रहणम् । तर्हि सर्वज्ञजिन इत्येतदस्तु । इन्द्र इत्येतदतिरिच्यते, सर्वज्ञजिनानां शेषदेवापेक्षयेन्द्रत्वात् । सत्यम्, सामान्यकेवलिनामपि सर्वज्ञजिनत्वेनाव्यभिचारादिति तीर्थकरप्रतिपत्त्यर्थमिन्द्रपदोपादानम् । यद्येवं सर्वज्ञेन्द्र इत्येतदस्तु, जिनेत्येतन्निरर्थकम्, सर्वज्ञेन्द्रस्यान्तररिपुविजयेन जिनत्वाद् । अस्त्येवम्, किन्तु शिव - केशव सुरज्येष्ठानामपि तत्पाक्षिकैरेवमङ्गीकृतत्वात् तन्निषेधार्थं जिनपदकरणम् । एवं तर्हि सर्वज्ञ इति पदमपार्थकं जिनेन्द्रस्य सर्वज्ञत्वेनाव्यतिरेकात् । सत्यम्, किन्तु श्रुत-सामान्यावधि-ऋजु मतिमनःपर्यायज्ञानिजिनापेक्षया परमावधिविपुलमतिमन: पर्यायज्ञानिजिनानामिन्द्रत्वाद् मा भूत् तेष्वपि सम्प्रत्यय इति सर्वज्ञपदोपादानमिति स्थितम् । एवमन्यत्रापि चालनाप्रत्यवस्थाने अभ्यूह्ये । अत्र च वन्दामीत्यादिनमस्कारकरणस्य पापपङ्कप्रक्षालकत्वेन मङ्गलत्वाद्, मङ्गलस्य च विघ्नविनाशकत्वाद् विघ्नापोहमाह । प्रयोजनं चैहिकमामुष्मिकं च । तदपि श्रोतुः कर्तुश्च । तत्रैहिकं श्रोतुः शास्त्रावगमः, कर्तुश्च सत्त्वानुग्रहः, पारत्रिकमुभयोरपि स्वर्गा ऽपवर्गप्राप्तिः, तदत्र नन्दन्तीत्यनेन प्रतिपादितं द्रष्टव्यम् । अभिधेयं पुनरस्य प्रकरणस्य सम्यक्त्वशुद्ध्यादि, तच्चाभिनन्दयन्त इति, अनेनाऽऽगमस्य च विघ्नविनायकत्वाद् विघ्नाश्रद्धानविषयताम्, कुर्वन्तश्चानेन तदुक्तानुष्ठानकरणं च दर्शयतोक्तं भवति । सम्बन्धश्चास्य शास्त्रस्य वचनरूपापन्नस्योपायत्वाद् दर्शनशुद्ध्यादेश्चोपेयत्वादित्युपायोपेयलक्षणः, १. बृहत्कल्प सूत्र चूर्ण्यादिप्राचीनग्रन्थेष्वियं गाथेदृश्युपलभ्यते 'नीया लोवमभूया, य आणिया दीहबिंदुदुभावा । अत्थं गर्मेति तं चिय, जोतेसिं पुव्वमेवाऽऽसी ।। २. ला० स्थाने उच्येते ।। ३. सं० वा० सु० 'मपि स' ।। ४. वा० 'ज्ञान' ।। ५. सं० वा० सु० 'पर्याय' ।। ६. सं० वा० सु० 'स्य श्रद्धानविष' ।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे सामर्थ्यादेवोक्तो दृश्य इति प्रथमवृत्तार्थः ।।१।। ___यामभिनन्दयन्त इत्यनेन सम्यक्त्वशुद्ध्यादि भणिष्यामीति सूचितम्, तच्च सम्यक्त्वं निसर्गादधिगमाच्च भवति । तत्र निसर्गलाभो बहलमिथ्यात्वमलपटलान्तरितत्वाद् दुःषमालोकानां दुर्लभः, गुरूपदेशाच्च साम्प्रतं प्राय उपलभ्यत इति गुरूपदेशमेव तावदादावेवाऽऽह जिणाण धम्मं मणसा मुणेत्ता, सो चेव वायाएँ पभासियव्वो । कारण सो चेव य फासियव्वो, एसोवएसो पयडो गुरूणं ।।२।। जिना:=रागाद्यरातिजयवन्तः, तेषां सम्बन्धिनं 'धर्म' श्रुत-चारित्राख्यम् । तत्र दुर्गतिप्रपतदङ्गिगणधरणात् सुगतौ च धारणाद् धर्मः । उक्तं च दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून् यस्माद्धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने तस्माद्धर्म इति स्मृतः ।।८।। अतस्तं 'मनसा' अन्त:करणेन ‘मत्वा' ज्ञात्वा स चैव 'वाचा' वचनेन ‘प्रभाषितव्यः' अत्यर्थं भणनीयोऽन्येषां पुरत इति शेषः । तच्छब्दः पूर्वप्रक्रान्तधर्मवाची । एवशब्दोऽवधारणे, स चैवमवधारयति—जिनधर्म एव भणनीयः, नशाक्यादिसम्बन्धी । यत उक्तं परमगुरुभिः श्रावकवर्णके एस णं देवाणुप्पिया ! निगंथे पावयणे अट्टे, अयं परमट्टे, सेसे अणट्टे । इति अनेन च श्रुतधर्ममाह, तस्य वागोचरत्वात् । ‘कारण शरीरेण स चैव च ‘स्पर्शनीय' अनुचरणीयः । अत्रापि तच्छब्द: पूर्ववत् । 'च:' समुच्चये, स च भिन्नक्रमे स्पष्टव्यश्चेत्यत्र द्रष्टव्यः । ‘एव' अवधारणे, अनेन तु चारित्रधर्ममाह, तस्य हि क्रियारूपत्वात् । द्वितीयश्चकारश्चानुक्तसमुच्चये। स चैतत् समुच्चिनोति आदावागमश्रवणम्, श्रवणानन्तरं च मननम्, तदनन्तरं च शेषाणीति । एषः' अनन्तरोक्तः 'उपदेशः' अनुशासनं 'प्रकटः' प्रसिद्धो 'गुरूणां' यथावस्थितशास्त्रार्थप्ररूपकाणां सम्बन्धीति वृत्तार्थः ।।२।। आदावागमश्रवणं विधेयमित्युक्तं तस्य च महाकल्याणकारकत्वमाह सिद्धंतसाराई निसामयंता, सम्मं उसगासे मुणिपुंगवाणं । पावेंति कल्लाणपरंपराओ, गुणंधरा हुंति वयंति सिद्धिं ।।३।। सिद्धान्त:= सर्वविद्वचनम्, तस्य सारान् सूक्ष्मपदार्थरूपान् ‘निशमयन्तः' शृण्वन्त: ‘सम्यग्' १. ला० 'दादावाह ।। २. ला० कायेन ।। ३. सं० वा० सु० स एव ॥ ४. सं० वा० सु० द्रष्टव्यचे ।। ५. ला० चैवं समु ।। ६. ला० सयासे ।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरूपदेशवर्णनम् अवैपरीत्येन विनयादिक्रमरूपेण । यतो विनयवत एव यथावस्थितार्थश्रुतलाभो भवति, न दुर्विनीतस्य । उक्तं च विणयण्णियस्स मुणिणो दिति सुयं सूरिणो किमच्छेरं ? । को वा ण देइ भिक्खं अहवा सोवण्णिए थाले? ।।९।। सेहम्मि दुव्विणीए विणयविहाणं ण किंचि आइक्खे । न वि दिजइ आभरणं पलियत्तियकण्ण-हत्थस्स ।।१०।। 'सकाशे' पार्श्वे । 'मुनिपुङ्गवानां' प्रवचनधरसूरीणाम्, 'प्राप्नुवन्ति' लभन्ते, कल्याणं-शुभं तस्य परम्परा:=उत्तरोत्तरशुभसन्ततिरूपाः । उक्तं च मोहं धियो हरति कापथमुच्छिनत्ति, संवेगमन्त्रमयति प्रशमं तनोति । सूतेऽनुरागमतुलं मुदमादधाति, जैनं वचः श्रवणत: किमु यन्न दत्ते ।।११।। ततश्च गुणान् ज्ञानादिकान् क्षान्त्यादिकांश्च धारयन्ति=बिभ्रति गुणधरा भवन्ति-जायन्ते । अनुस्वारः पूर्ववत् । गुणधराश्च भूत्वा 'व्रजन्ति' गच्छन्ति सिद्धिं मुक्तिमिति वृत्तार्थः ।।३।। सम्यग्दर्शनलाभस्योपायमभिधायाधुना तत्प्रतिपत्तिक्रमं श्लोकेनाऽऽह समणोवासगो तत्थ, मिच्छत्ताओ पडिक्कमे । दव्वओ भावओ पुव्रि, सम्मत्तं पडिवज्जइ ।।४।। श्राम्यन्तीति श्रमणा:-साधवस्तेषामुपासक: सेवकः श्रमणोपासकः । तथा च भतिभानिन्भरंगो सयधम्मत्थी तिकालमणुदियहं । जो पजुवासइ जई तं समणोवासगं बेंति ।।१२।। तत्रशब्द उत्क्षेपार्थः । मिथ्यात्वम् अदेवादिषु देवत्वादिप्रतिपत्तिरूपम् । तथा च अदेवासाध्वतत्त्वेषु यद्देवत्वादिरोचनम् । विपरीतमतित्वेन तन्मिथ्यात्वं निगद्यते ।।१३।। [?तस्मात्] 'प्रतिक्रामति' प्रतीपं गच्छति। 'द्रव्यत:' बाह्यवृत्त्या तत्कृत्यपरित्यागेन। १. सं० वा० सु० र्थस्वरूपलाभो ।। २. सं० वा० सु० यण्णुयस्स ।। ३. 'परिकर्तितकर्णहस्तस्य' इत्यर्थः ।। ४. सं० वा. सु नवरसू ।। ५. सं० वा. सु० धत्ते ।। ६. “नीया लोव" इत्यादिना प्रथमगाथाटीकायां निदर्शितेन प्रमाणेन 'गुणधरा' इत्येतत् सिद्धं ज्ञेयम् ।। ७. ला० ‘वासओ ।। ८. ला० पुव्वं ।। ९. सं० वा० सु० याति ।। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे 'भावत:' अन्त:करणवृत्त्या तत्प्रतिपत्तिपरिहारेण । 'पूर्व प्रथमं सम्यक्त्वा- [, ततश्च सम्यक्त्वं मिथ्या- त्वविपरीतं 'प्रतिपद्यते' अङ्गीकरोति । यद्वा काकाक्षिगोलकन्यायेन द्रव्यतो भावतः । पूर्वमित्युभयत्र सम्बध्यते । तेन द्रव्यतश्चैत्यवन्दना २] दिकृत्यकरणतः, भावतोऽनन्यचेतोवृत्त्या पूर्वमणुव्रतप्रतिपत्तेः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यत इति श्लोकार्थः ।।४।। प्रतिपन्नसम्यक्त्वस्य च यद् यद् न कल्पते तत् तद् वृत्तद्वयेनाऽऽह न कप्पए से परतित्थियाणं, तहेव तेसिं चिय देवयाणं । परिग्गहे ताण य चेइयाणं, पभावणा-वंदण-पूयणाई ।।५।। लोगाण तित्थेस सिणाण दाणं, पिंडप्पयाणं हुणणं तवं च । संकंति-सोमग्गहणाइएसुं, पभूयलोगाण पवाहकिच्वं ।।६।। परतीथिकानां वन्दनादि न कल्पत इति सम्बन्ध: । 'न कल्पते' न युज्यते, 'से' तस्य प्रतिपन्नदर्शनस्य, परे आत्मव्यतिरिक्तास्तीर्थिका: दर्शनिनः, परे च ते तीर्थकाश्च परतीर्थिकास्तेषाम्। 'तथैवभ' तेनैव प्रकारेण, तेषां परतीथिकानाम्, 'चिय' त्ति अवधारणार्थस्तेन तेषामेव परतीथिकानां या देवता:-शास्तृरूपाता(स्ता)सां ‘परिग्रहे' स्वीकारे । 'तेषां च' तेषामेव चैत्यानां जिनबिम्बानां तत्परिगृहीतजिनायतनानामित्यर्थः । प्रभावना-प्रशंसादिभिः, वन्दनं-प्रणामादिभिः, पूजनं-पुष्पादिभिः, आदिशब्दाद् विनय-वैयावृत्त्य-स्नात्रयात्रादिकमपि गृह्यते । उक्तं च- - नो से कप्पड़ अज्जप्पभिई अनउत्थिए वा, अन्नतित्थियदेवयाणि वा, अनउत्थियपरिग्गहियाणि चेइयाणि वा, वंदित्तए वा नमसेत्तए वा, पुब् िअणालत्तएणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पयाउं वा, तेसिं गंधमल्लाइं पेसिउं वा । इति (आवश्यकसूत्रप्रत्याख्यानाध्ययने, पत्र ८११ तमम्) ।।५।। तथैतदपि न कल्पत इति योग: । ‘लोकानां' मिथ्यादृष्टिजनानां 'तीर्थेषु' वाराणसीगयाप्रभृतिषु गत्वेति शेषः । ‘स्नानम्' अङ्गप्रक्षालनम्, 'दान' वितरणम्, 'पिण्डप्रदानं' पितृनिमित्तकल्पितौदनपिण्डस्य नीरादिप्रक्षेपणम्, 'हवनम्' अग्नावाहुतिक्षेपरूपम्, 'तपः' तीर्थोपवासादिकम्, 'च:' समुच्चये । स्नानादीनि तु डमरुकमध्यग्रन्थिन्यायाद् उभयत्र सम्बध्यन्ते । अत: १. सं० वा० सु० तत्प्रवृत्तिपरिहा ।। २. [] एतचिह्नान्तर्वी पाठः की-ला. प्रत्योरेवेति विज्ञेयम् ।। ३. ला० 'णाई ।। ४. ला० लोयाण । ५. तासु य ण्हाण दाणं । ६. ला. 'कादीनां । ७. सं० वा. सु० 'नादि कल्पत । ८. सं० वा० सु० देवता । ९.सं० वा० सु० बिम्बा तत्प।१०.ला. अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नतिथियपरिग्गहियाणि वा अरिहंतचेयाणि वंदि। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वशुद्धिवर्णनम् सङ्क्रान्ति-सोमग्रहणादिष्वप्यायोज्यन्ते । सङ्क्रान्तौ = रवे राश्यन्तरसङ्क्रमणे, सोमग्रहणे = चन्द्रविमानस्य राहुविमानान्तरणे, आदिशब्दात् सूर्यग्रहणाऽमावास्या - व्यतीपातादयोऽवबोद्धव्याः । किमित्यदो न कल्पते ? यत: ‘प्रभूतलोकानां' बहुजनानां प्रवाहकृत्यं गड्डरिकाप्रवाहवद् अज्ञानविजृम्भितमेतदिति शेषः । 1 जहा कोई बंभणो पोक्खरं गओ । सो य तिपुक्खरे न्हाणत्थं ओयरिउकामो हत्थट्ठियतंबभायणं एगत्थ ठवित्ता साहिण्णाणनिमित्तं उवरि वालुगाए उक्कुरुडं काउं पुक्खरे पट्ठो । इओ य जत्तागयाणेगलोगेहिं चिंतियं ' जहेस लंबचोडबंभणो विउसो वेयवी बहुजाणगो एवं करेइ तहा नज्जइ एवं कज्जमाणं महाफलं होइ ।' तओ सयललोगो वालुयाए उक्कुरुडं काउं न्हाणत्थं ओयर । सो य बंभणो न्हाउत्तिण्णो जाव तं तंबभायणोक्कुरुडं पलोएइ ताव कयाणि कज्जमाणणि य अगा उक्कुरुडाणि पिच्छइ । तओ तं निउक्कुरुडमजाणमाणो विमणदुम्मणो जाओ । ताहे मित्तेण भणिओ 'मित्त ! तुमं गिहाओ धम्मत्थी आगओ इह तित्थे न्हाउत्तिण्णो सहसा किं संपइ दुम्मणो जाओ ? । ' तओ तेण भणियं— 1 गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः । पश्य लोकस्य मूर्खत्वं हारितं ताम्रभाजनम् ।।१४।। ईदृशो लोकस्य प्रवाह इति वृत्तद्वयार्थः ।।५-६।। साम्प्रतं सम्यग्दर्शनस्यैव भूषणादीन्यभिधातुकाम उत्क्षेपं वृत्तेनोक्तवान् — पंचेव सम्मत्तविभूसणाई, हवंति पंचेव य दूसणाई । लिंगाईं पंच च (च्च) उ सदहाण, छच्छिंडिया छच्च हवंति ठाणा ।।७।। 'पञ्च' इति सङ्ख्या, ऍव' अवधारणे, सम्यक्त्वस्य = सम्यग्दर्शनस्य, विभूषणानि= आभरणकल्पानि सम्यक्त्वविभूषणानि, 'भवन्ति' जायन्ते । तथा 'पञ्चैव' पञ्चसङ्ख्यान्येव, 'च: ' समुच्चये, 'दूषणानि', विकृतिजनकानि, सम्यक्त्वस्यैव इति सर्वत्र योजनीयम् । 'लिङ्गानि ' चिह्नानि । 'पञ्च' इति तथैव । 'चउ'त्ति चत्वारि 'श्रद्धानानि' यैर्विद्यमानं सम्यक्त्वं श्रद्धीयते । प्राकृतत्वाद् एकवचननिर्देशः । ‘षड्' इति संख्या, 'च' समुच्चये, 'छिण्डिकाः' अपवादाः । षट् च भवन्ति 'स्थानकानि' सम्यक्त्वावस्थानानि । पुंल्लिङ्गनिर्देश: प्राकृतत्वादेव । द्वितीयक्रियोपादानं त्वाद्यन्तग्रहणे मध्यग्रहणमिति न्यायप्रदर्शनार्थमिति वृत्तार्थः ।।७।। साम्प्रतं यथोद्देशं तथा निर्देश:' इति न्यायमाश्रित्य भूषणानि वृत्तेनाऽऽह — १. ला० चान्द्र । २. ला० पोक्करं । ३. ला० 'फलं भवइ । ४. सं० वा० सु० णि अणेगाणि य उक्कु' । ५. ला० निजुक्कुरु । ६. ला० लोकप्रवाह । ७. ला० भवंति ।। ८. ला० एवः ।। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे कोसल्लया मो जिणसासणम्मि, पभावणा तित्थनिसेवणा य । भत्ती रित्तं च गुणा पसत्था, सम्मत्तमेए हु विभूसति ।।८।। ‘कोसल्लया’ कुशलता=निपुणत्वम् । [मो इति पादपूरणे । ] 'जिनशासने' अर्हद्दर्शने, या सा प्रथमं सम्यक्त्वभूषणमिति । इयं च कुशलता यथाऽभयकुमारेणाऽऽर्द्रककुमारप्रतिबोधनं प्रतिकृ विधेया, सम्यक्त्वभूषणाय च भवति । कथानकं च सूत्रानुपात्तमपि मुग्धजनोपकारार्थं कथ्यते— ( १. आर्द्रककुमारकथानकम् ) अत्थि इह जंबुदीवे भारहखेत्तस्स मज्झखंडम्मि | अच्छेरयसयकलिओ पमुइयजणसंकुलो रम्मी । । १ । । दुद्धरधम्मधुरंधरजिण-गणहरचरणफरिसणपवित्तो । धणियं धण-धन्नसमिद्धिबंधुरो जणवओ मगहा । २ नगरगुणाण निवा विंउलाविलयाया तिलयसंकासं । दससु दिसासु पगासं नगरं तत्थत्थि रायगिहं ॥३॥ जं च नंदणवणं व महासालालंकियं, विजयदारं व, फैलिहाणुगयं, मेरुसरीरं व कल्लाणट्ठाणं, केलाससिहरं व ईसरनिवासं, सुरालयभूयलं व देवकुलालंकियं, गंगणं च चित्तोवसोहियं, महाकुलं व बहुसयणसमणियं । किं बहुणा ? वररायमग्ग-चच्चर-संघाडय-तिय- चउक्कसुविभत्तं । हट्ट-पवा-सह-उववण-सर-वावी - कूंवरमणिज्जं ।।४।। तं अमराउरिसरिसं वरनगरं दरियरायकरिसीहो । उवसंतडिंबडमरं परिवालइ सेणिओ राया ||५|| जो य महाविदेहं व वरविजयकलिओ, माणसं व सया रायहंससेविओ, विण्डु व्व सुदरिसणधरो, उदयमित्तो व्व अणुरत्तमंडलो, पयावइ व्व कमलालओ, चंदो व्व सयललोगलोयणाणंदणो त्ति । तस्स दुवे भज्जाओ पियंवयाओ सुरूवकलियाओ । विण्णाण - विणय - सम्मत्त सत्त चारित्तजुत्ताओ।६। सोहग्गगव्विरीओ पंचाणुव्वय - गुणव्वयधरीओ । णामेण सुणंदा - चेल्लणाओ रायस्स इट्ठाओ |७| तत्थ सुनंदा नियबुद्धिमाहप्पपरितुलियबहस्सई पंचसयमंतिप्पहाणो सयलमहारज्जभरोव्वहणधवलो अभयकुमारो णाम उत्तो । ताणं च पंचप्पयारमणिंदियविसयसुहमणुहवंताणं धम्मत्थोवज्जणं कुणंताणं सिरिसमणसंघपूयापरायणाणं सिरिवीरजिणमाराहयंताणं वच्चए कालो । इओ य जलहिमज्झट्ठिओ अत्थि अद्दयदेसो नाम देसो । तत्थ अद्दयउरं नाम महानगरं । तहिं १. ला० विना जिणसासणे ।। २. ला० सं० धरणीविलयाए तिल ॥ ३. सं० वा० सु० पलिहा० ।। ४. ला० भूतलं ।। ५. ला० गयणं ।। ६. ला० °सिंघाड' ।। ७. ला० 'कू' ।। ८. ला० पुत्तो ।। ९. ला० पराणं ।। १०. ला० अद्दयपुरं || Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्द्रककुमारकथानकम् ९ च पणमंतमहंताणेयसामंतमउलिमउडमणिमसिणियकमवीढो अद्दयराओ नाम राया । तस्स य रूवाइगुणगणोहामियतियससुंदरी अद्दया णाम देवी । तीसे य पहाणहारो व्व गुणगणावासो जंतुसंतावणासो सच्छयाणिवासो सुवित्तआसओ बहुनरणारीहिययसमासासओ अइसुद्धत्तणाओ अविजमाणदो अद्दयकुमारो णाम पुत्तो । सो य जम्मंतरोवज्जियविसिट्ठविसयसुहमणुहवंतो चिट्ठइ। इओ य सेणियराय- अद्दयराईणं पुव्वपुरिसपरंपरागयपीईपरिपालणत्थं पइदिणं परोप्परपहाणकोसल्लियपेसणेण कालो परिगलइ । अन्नया य समागओ सेणियरायपेसिओ महंतओ । सो य पडिहारेण पवेसिऊण निवेइओ ‘देव ! सेणियमहंतओ दुवारे चिट्ठइ ।' तओ सिणेहरसनिब्भरसमुब्भिज्जमाणरोमंचकंचुगेण भणिओ राइणा 'लहुं पवेसेह' त्ति वयणाणंतरमेव पविट्ठो । पामं क निविट्ठो दिन्नासणे । सम्माणिओ य जहोचियतंबोलाइपडिवत्तीए । भणियं च 'अइ ! कुसलं सपरियणस्स महारायसेणियस्स ? ।' तेण भणियं 'देव ! कुसलं' ति । तओ समप्पियाणि महंतएण वरवत्थ-कंबल - निंबपत्त-सोवंचलाइयाणि कोसल्लियाणि । ताणि य दद्दूण भणियं राइणा 'सेणियरायं मोत्तूण को अम्ह अण्णो परमबंधवो ?' त्ति । तओ नियुपिउणो अच्वंतसिणे हसंभमसाराइं वयणाइं सोऊण भणियमद्दयकुमारेण 'ताय ! को एस सेणियमहारायराओ ? ।' तओ रन्ना जंपियं 'पुत्त ! मगहाजणवयवई महासासणो नरवई । तैण य समाणं अम्ह कुलक्क मागया गरुयपीई । तस्संतिओ य समागओ एस उवायणाणि गहेऊण महंतओ' । तओ महंतयं उद्दिसिय पुच्छियमद्दयकुमारेण 'भो किमत्थि कोइ तुम्ह सामिणो जोगउत्तो ? एयमायन्निऊण सहरिसं जंपियं महंतएण ‘उप्पत्तियाइचउविहबुद्धिजुओ मंतिपंचसयसामी । सूरो सरलो सुहगो पियंवओ पढमआभासी ।।८ दक्खो कयण्णुओ यसत्थपारंगओ कलाकुसलो । विन्नाण- विणय-लज्जा - दाण- दया- सीलपरिकलिओ ||९|| 1 दढसोहिओ सुरूवो पयाणुसारी सलक्खणो धीरो । अविचलसम्मत्तधरो सावगधम्मम्मि उज्जुत्तो ॥ १० ॥ सिरिवीरजिणेसरचरणकमलभसलो सुसाहुजणभत्तो । उचियकरणोज्जयम साहम्मिय - पयइ-पणईणं ॥ ११ ॥ किं बहुणा तियसेहि वि माणिज्जइ जो गुणि त्ति कलिऊण । सेणियरायंगरुहो सो अभओ नाम वरकुमारो ॥१२॥ भुंइ सययमचिंतो जस्स पभावेण सेणिओ भोए । तेलोक्कपायजसो सो कुमर ! तए कह न नाओ ?' ||१३|| १. सं० वा० सु० तीसे पहा' ।। २. सं० वा० सु० 'या सम' ।। ३. सं० वा० सु० 'णं परम ।। ४. ला० सेणियराओ ।। ५. ला० 'यसामी ।। ६. सं० वा० सु० तेण समा' ।। ७. सं० वा० सु० ० या पीई ।। ८. ला० जोग्गपुत्तो । ९. सं० सु० पयईणं ।। १०. सं० वा० सु० पसाएण ।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे इमं च सोऊण हरिसभरनिब्भरंगेणं जंपियं कुमारेण 'ताय ! जहा तुम्हाणं पीई तहा अम्हे वि काउं इच्छामो ।' राइणा भणियं 'पुत्त ! जुत्तमेयं जं कुलक्कमागया पीई पालिज्जई । भणियं च उट्ठइ सणियं सणियं वंसे संचरइ गाढमणुलग्गो । थेरो व्व सुयणणेहो न वि थक्कइ बिउणओ होइ ।।१५।। ते धन्ना सप्पुरिसा जाण सिणेहो अभिन्नमुहरागो । अणुदियहवड्डमाणो रिणं व पुत्तेसु संकमइ ।।१६।। तओ कुमारेण भणिओ महंतओ ‘जया ताओ विसजेइ तया तुम मम मिलेज्जासु ।' तेण भणिय मेवं'ति । तंओ रायपुरिसदंसिए पासाए समावासिओ । राइणा वि पउणीकयाणि रयण-मुत्ताहलविद्युमाइयाणि पहाणकोसल्लियाणि । तओ अन्नम्मि दिणे वत्था-ऽऽभरणाइएहिं सम्माणेऊण उवायणसमेयनियपहाणपुरिससहायजुत्तो विसज्जिओ समाणो गओ कुमारसमीवं । कहिओ विसज्जणवुत्तंतो । कुमारेण वि अइथूलमुत्ताहल-सुतेयमहारयणाइयाणि अव्वंगाणि समप्पिऊण जंपियं जहा 'मह वयणेण भणिज्जासु अभयकुमारं जहा-तए सह अद्दयकुमारो पीइं काउं इच्छई' त्ति भणेऊण विसज्जिओ । अणवरयसुहपयाणेहि य पत्तो रायगिहं । पडिहारनिवेइओ य पविठ्ठो, पणामपुव्वयं च उवविट्ठो । समप्पियाणि य अद्दयरायपहाणपुरिसेहिं उवायणाणि, अभयस्स वि समप्पियाणि कुमारपेसियाणि अव्वंगाणि । पिच्छिऊण त ताणि 'अहो सुंदराणि' त्ति भणंता परं विम्हयं उवगया सेणियादओ । कहिओ अद्दयकुमारसंदेसगो । जिणवयणकोसल्लयाऽवदायबुद्धिणा य चिंतियमभएण 'नूणं एस को वि ईसिविराहियसामण्णो अणारियदेसे समुप्पन्नो, किंतु पच्चासन्नसिद्धिगामी, तओ मए सह पीइं काउं इच्छइ । न य अभव्व-दूरभव्व-गुरुकम्माणं मए सह मेत्तीमणोरहो वि संभवइ । जओ भणियं पाएण होइ पीई जीवाणं तुल्लपुण्ण-पावाणं । एगसहावत्तणओ तहेव फलहेउओ चेव ।।१७।। ता केणइ उवाएण जिणधम्मे पडिबोहिऊण परमबंधुत्तणं पगासेमि । जओ भवगिहमज्झम्मि पमायजलणजलियम्मि मोहनिदाए । उट्ठवइ जो सुयंतं सो तस्स जणो परमबंधू ।।१८।। ता कयाइ जिणपडिमादसणेण जाईसरणं उप्पजइ, ता पेसेमि उवायणच्छलेण भगवओ बिंब' ति चिंतिऊण पउणीकया सव्वरयणमई पसंतकंतरूवा भगवओ जुगाइदेवस्स पडिमा, संगोविया य १. ला० मिलेज्जसु ।। २. ला० कुमरेण ।। ३. सं० वा० सु० णि सव्वंगाणि सम ।। ४. ला० भणिजसु ।। ५. सं० वा० सु० 'सुल्पया' ।। ६. सं० वा० सु० ०ण ताणि ।। ७. सं० वा० सु० ०मी मए ।। ८. सं० वा० स० सर्म(मं) ।। ९. सं० वा. सु० हेउगो ।। १०. ला० जाइस्सरणमुप्प ।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ आर्द्रककुमारकथानकम् मंजूसामज्झम्मि समुग्गए, तप्पुरओ य धूयकडच्छुयघंडियाइपूओवगरणाणि, पुणो य तालयाणि दाऊण निययमुद्दाए मुद्दिया । जया य सेणिएण आभरणाइ बहुदव्वं कोसल्लियाणि य दाऊण विसज्जिया अद्दयरायपुरिसा तया समप्पिया ताण मंजूसा । भणिया य ते 'मह वयणेण भणेज्जह अद्दयकुमारं जहेमं ममोवायणं एगागिणा एगते सयमेव उम्मुदिऊणोग्घाडेत्ता निरूवियव्वं, न य अन्नस्स कस्सइ दंसणीयं' । ‘एवं होउ' त्ति भणिऊण निग्गया पुरिसा । अणवरयपयाणेहि य पत्ता नियनगरं । पुव्वक्कमेण सव्वं जहोचियं काऊण गया कुमारभवणं । साहियं सव्वं पि जहासंदिढं। ताहे पविट्ठो कुमारो कोट्ठयब्भंतरे, उग्घाडिया य मंजूसा जाव नियपहाजालेण उज्जोययंती दस वि दिसाओ दिट्ठा पडिमा अहो अच्छरियं ! किं पि अम्हेहिं अदिठ्ठपुव्वं एयं । तो किं सीसे कन्ने कंठे अहवा वि बाहुजुगलम्मि । परिहेमि हत्थ पाए किंचि सरूवं ण याणेमि । १४। किंच एयं किंपि कहिंचि दिठ्ठपुव्वमिव पडिहासइ, ता कहिं दिठ्ठपुव्वं ?' इइ चिंतयंतो ईहापोहमग्गणगवेसणं कुणमाणो मुच्छाए निवडिओ धरणिवढे । सयमेव समाससिऊणोडिओ कुमारो। खणंतरेणं समुप्पन्नजाईसरणो य चिंतिउमाढत्तो जहा 'अहं ईओ तइयजम्मे मगहाजणवए वसंतपुरे गामे सामाइओ नाम कुंडंबी अहेसि । बंधुमई मे भारिया । अन्नया सुट्टियायरियसमीवे धम्म सोऊण संसारभउब्विग्गो सभारिओ पव्वइओ । गहियदुविहसिक्खो य संविग्णसाहूहिं समं विहरतो समागओ एणं नगरं । सा वि सहुणीहिं समं विहरमाणा समागया तम्मि चेव नगरे । दळूण पुव्वरयसरणाओ तं पइ जाओ मे रागाणुबंधो । साहिओ य बिइयसाहुस्स । तेण वि निवेइओ पवत्तिणीए । तीए वि बंधुमईए । तओ भणियं बंधुमईए 'अहो विचित्ता कम्मपरिणई, जओ एस गीयत्थो वि एवमज्झवसइ । तो भगवइ ! न मम अन्नत्थ गदाए वि अणुबंधं मुयही, ता संपयं अणसणं चेव जुत्तं । यतः वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं न चाऽपि भग्नं चिरसश्चितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणो न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ।।१९।। इय सामत्थिय, भत्तं पच्चक्खिय उब्बंधिऊण मया । तं च सव्वं सोऊण परमसंवेगावनेण मए, चिंतियं जहा-'तीए महाणुभावाए वयभंगभयाओ एवमणुट्ठियं, मम उण वयं भग्गमेव, ता अहं १. ला० निअमुद्दाए ।। २. सं० वा० सु० जया इ ।। ३. सं० वा० सु० जहेयं ।। ४. ला० न अन्न' ।। ५. ला० अहो अच्चब्मुयं अहो अच्चन्मयं किंपि एयं अदिट्ठपुव्वमम्हेहि, ता किं सी ।। ६. ला० किंपि ।। ७. ला० जाणामि ।। ८. ला० ईहावूहम ।। ९. ला० करमाणो ।। १०. सं० वा० सु० समासासि ।। ११. ला० ऊण उडिओ खणंत ।। १२. सं० वा० सु० इओ य त ।। १३. सं० वा० सु० वसंतपुरए । १४. सं० वा० सु० सुव्वयायरि ।। १५. ला० गहियसिक्खो ॥ १६.-१७. ला० सह ।। १८. सं० वा० सु० 'ओ बिइ ।। १९. ला० अचिंता ।। २०. ला० गयाए चित्रणुबंधं मुइही ।। २१. ला० इइ ।। २२. ला० समत्थिय ।। २३. ला० एयमणुट्ठियं मम पुण ।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे पि भत्तं पच्चक्खामि' त्ति चिंतिऊण गुरूणं च अणाचक्खिय भत्तं पच्चक्खायं । मरिऊण गओ देवलोगं । तओ चइऊण इहं समुप्पन्नो । ता सुगुरुसामगि सव्वविरइं च लभ्रूण कह माणसियरागाणुबंधकरणाओ अणारिओ जाओ म्हि ? अणारियत्तणे वि जेणाहं पडिबोहिओ सो चेव मज्झ सव्वगोरवट्ठाणेसु वट्टइ ।। तहा यसोच्चिय अभयकुमारो मज्झ गुरू बंधवोसुही जणओ। जेण पडतो नरगे उद्धरिओ निययबुद्धीए ।१५। जइ तेण समं मेत्ती महाणुभावेण मज्झ न हुहुंता । ता धम्मकलावियलो भमडंतो नूण संसारे ।।१६।। ता किं इयाणि बहुणा संतप्पिएण ? । तत्थेवाऽऽरियदेसे गंतूण सव्वदुक्खविमोक्खणक्खमं पवज्जामि पव्वजं' ति चिंतिऊण उठ्ठिओ । मग्गिया य पुरिसा पुप्फाइ पूओवयारं । पूइऊण य पडिमं गओ रायसमीवं । भणिओ य राया 'ताय ! संजाया ताव मह अभयकुमारेण सह पीई । ता जइ तायस्स पैडिहाइ तो गंतूण तत्थ परोप्परदसणेण परमपीई काऊणाऽऽगच्छामि ।' रना भणियं 'पुत्त ! एवं चेव अम्हाण पीई । ता सव्वहा न गंतव्वं तुमए ।' तओ अविसज्जणाओ जहोचियमुवभोगाइयमकुणंतं दद्दूण ‘अवस्समकहिऊण गमिस्सई' ति कलिऊण दिण्णाणि पंचसयाणि सामंताणमंगरक्खगाणि राइणा । भणिया य ते एगते 'जइ कुमारो गच्छइ ता तुम्होवरि ।' 'आदेसो' त्ति भणिऊण लग्गा कुमारपुट्ठीए । कुमारेण वि 'वंचित्ता एए गच्छामि' त्ति चिंतिऊण एगम्मि दिवसे भणिया जहा भो आसवाहणियाए गच्छामो ।' तेहिं वि 'जं कुमारो आइसई' त्ति भणंतेहिं कडिया जच्चतुरंगमा वंदुराओ । गया वाहियालिं । वाहिया तुरंगमा । गओ कुमारो थेवं भूमिभागं । एवं दिणे दिणे अहियाहियं गच्छंतो जाइ जाव असणं, तओ थेववेलं गमेऊण नियत्तइ । एवं जाव मज्झण्हे आगच्छइ । ते वि छायाए ठिया निरिक्वेता अच्छंति । एवं वीसासित्ता समुद्दतीरे पच्चइयपुरिसेहिं पहाणजाणवत्तं रयणाणं भरावेऊण, पडिमं संकामिऊण य, तत्थाऽऽरुहिऊण समागओ आरियदेसं । पडिममभयस्स पेसिऊण, जिणाययणेसु महिमं कराविय, पच्चइयपुरिसदीणाणाहाईणं रयणाणि दाऊण, पडिग्गहाइयं गहेऊण, लोयं काऊण जाव सव्वविरइसामाइयं उच्चारेइ ताव जंपियं आगासट्ठियदेवयाए 'भो महासत्तय ! मा सव्वविरई पडिवज्जसु । अज्ज वि तुहऽत्थि भोगहलियं कम्मं । तं भुंजिऊण पव्वयसु ।' तओ वीरसप्पहाणयाए 'किं मज्झ कम्मं काहिइ ?' ति गहिऊण सव्वविरइं विहरिउमाढत्तो । कमेण पत्तो वसंतपरं नाम नगरं । तत्थ बाहिरदेवठले ठिओ काउस्सग्गेण । १. ला० मे ।। २. ला० पूयोव' ।। ३. ला० पडिहासइ ॥ ४. ला० तो ॥ ५. ला० रक्खाणि ॥ ६. ला० रेणावि ।। ७. सं० वा. गच्छंते ।। ८. ला० थोववेलं ।। ९. ला० निरिक्खंता ।। १०. सं० वा० सु० काराविया ।। ११. ला० दीणाईण य रय' ।। १२. ला० गिहिऊण ।। १३. ला० महासत्त ! ।। १४. सं० वा० सु० त्ति, अज्ज ।। १५. ला० गिहिऊण ॥ १६. ला. 'तपुरं ।। १७. मुप्र० 'देवले ।। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ आर्द्रककुमारकथानकम् इओ ये सा पुन्वभवभारिया बंधुमई देवलोगाओ चइऊण तत्थेव नगरे इन्भकुले पहाणसेट्ठिस्स देवदत्तस्स धणवईए भारियाए सिरिमई नाम दारिगा जाया । सा य नयरबालियाहिं सह तहिं चेव देवउले पइरामणेण रमइ । भणियं च ताहिं 'हला ! वरे वरेह ।' तओ अन्नाहिं अन्ने कुमारया वरिया । सिरिमईए भणियं 'मए एस भट्टारगो वरिओ ।' तव्वयणाणंतरं च देवयाए 'अहो सुवरियं अहो सुवरियं इमाए बालियाए' ति भणंतीए गज्जियरवेणं रयणवुट्ठी मुक्का । तओ सा गज्जियरवोत्तत्था तस्स पाएसु विलग्गा । तओ ‘अणुकूलोवसग्गो' त्ति कलिऊण गओ तुरिय-तुरियं साहू अन्नत्थ । रयणवुट्टि निवडियं सोऊण समागओ सपउरो राया । तओ राया तं रयणवुटिं गेण्हिउमाढत्तो । देवयाए फुरंतफडाडोयभीसणसप्पाइउट्ठाणेण वारिओ । भणियं च 'मए एयाए दारियाए वरणए एयं दत्तं ।' तओ संगोवियं तीए जणएण । पविट्ठा य नयरं । समागच्छंति य तीसे वरया । भणियं च तीए ‘ताय ! किमेए समागच्छंति ? ।' सेट्ठिणा भणियं 'पुत्ति ! तुज्झ वरया।' तीए समुल्लवियं 'ताय ! नीइसत्थे वि विरुद्धं कन्नगाणं बिइयं दाणं । यत: सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति साधवः । सकृत् कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ।।२०॥ दिना य अहं तुब्भेहिं जैस्स संतियं धणं पडिच्छियं । किं च देवयाए वि अणुमन्नियं । ता कहमन्नं वरेमि ?, सो चेव मे पई ।' सेट्टिणा भणियं 'पुत्ति ! सो कहं णज्जिही? ।' तीए भणियं 'तया मए गज्जियरवोत्तट्ठाए पाएसु विलग्गाए तस्स दाहिणपाए एयारिसं लंछणं दिट्ठमासि; तेण णज्जिही ।' तओ सेट्टिणा समाणत्ता ‘जइ एवं ता पुत्ति ! सव्वभिक्खयराणं तुमं भिक्खं देहि, मा कयाइ सो समागच्छइ ! ।' इओ य भवियव्वयानिओगेण मूढदिसाभागोसो समागओ बारसमे संवच्छरे । पच्चभिन्नाओ य तीए । भणिउं चाढत्ता । अवि य “हानाह! हा गुणायर! मह हिययाणंद ! इत्तियं कालं । कत्थ ठिओमंदीणं दुहियमणाहं पमुत्तूणं ?।१७। जप्पभिइंसामि ! तुम तइया वरिओ मए सइच्छाए । तप्पभिई मह हियए अन्नस्सय नत्थि अवगासो।१८। संपइ मह पुण्णाई बलियाइं जमिह आगओतं सि । ताकुणेसुदयं पिययम ! पाणिग्गहणेण मह इण्डिं।१९। इमं च सोऊण समागओ सेट्ठी । हक्कारिओ राया । तेहिं वि भणिओ 'महाभाग ! भणिया वि अणेगसो न एसा तुमं वज्जिय अन्नं मणेणावि वंछइ । भणइ य १. ला० अ ।। २. ला० सु० पइरावणे ।। ३. सं० वा० सु० "यं इमाए ।। ४. ला० बालाए ।। ५. ला. ' ढिंच निव।। ६. ला० "ए य फुरं ।। ७. ला० वरणे ।। ८. सं० वा० सु. °ण य । पविट्ठा नयरं ।। ९. सं० वा० सु यं तीए ।। १०. ला० ताइ ।। ११. ला० जस्संतियं ।। १२. ला० 'गो समागओ सो बा || १३. ला० स्स न अस्थि ।। १४. सं० वा० सु० स सयं ।। १५. ला० वि य णेगसो ।। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणें मूलशुद्धि प्रकरणे वा महाणुभावो मह देहं छिवइ कोमलकरेहिं । अहवा जलंतजालो जलणो एयं वयं मज्झ ।। २० ।। ता पडिवज्जसु एयाए पाणिग्गहणं' ति । तओ अवस्सवेइयव्वकम्मोदयाओ, देवयावयणसुमरणाओ, तेसिं च निब्बंधाओ, परिणीया । भोगे य भुंजंतस्स समुप्पन्नो पुतो । जाव सो किंचि वत्तो जाओ ताव मोक्कलाविया जहा 'पव्वयामि, संपयं एस ते दुइओ' त्ति । तओ सा पुत्तवुप्पायणाणिमित्तं पूर्णियं चत्तं च गहाय कत्तिउमाढत्ता । तओ सुएण भणिया 'किमंब ! इयरजणपाउग्गं कम्मं काउमाढत्ता ? ' । तीए भणियं 'पैइरहियाण नारीणं एयं चेव विभूसणं ।' तेण संलत्तं 'हा किमंब ! तायम्मि विज्जमाणे एवं वाहरसि ?' तीए भणियं 'गंतुकामो दीसए ते जणगो ।' तेण वि 'कहिं गच्छइ ?, बंधित्ता धरेमि त्ति मम्मणुल्लाविरेण तीए हत्थाओ चत्तं गहाय पाएस सुत्ततंतूहिं वेढित्ता भणियं 'अम्मो ! वीसत्था चिट्ठाहि, एस ताओ मए बद्धो न कहिंचि गमिस्सइ ।' तओ तेण चिंतियं 'अहो ! बालयस्स ममोवरि सिणेहासंघओ; ता जत्तिया णेण वेढया दिन्ना 'तेत्तियवरिसाणि चिट्ठिस्सार्मिं' त्ति, जाव गणेइ ताव दुवालस । ठिओ दुवाल वासाणि । तदंते य रयणीए चरमजामम्मि पडिबुद्धो सुमरिऊण पुव्ववुत्तंतं विलविउमाढत्तो । तहा य १४ धी धी अहं अणज्जो घेत्तुं जो सव्वविरइसामइयं । एवं पमायवसगो विसयामिसकद्दमे खुत्तो ।। २१ ।। वारिंतीए वि य देवयाइ चडिउं पइन्नगिरिसिहरे । हा हा कह ल्हसिऊणं पडिओ संसारकूवम्म ।। २२ ॥ good मसावि भग्गम्मि वए अणारिओ जाओ । अहह न जाणे संपइ कीए य गईइ गंतव्वं ? | २३ | धिसि धिसि अलर्ज्जिरेणं जाणंतेणावि जं मए एयं । ववहरियं तं मन्ने भमियव्वं नूण संसारे ।। २४ ।। जओ भणियं सोच्चा ते जियलोए जिणवयणं जे नरा न याणंति । सोच्वाण वि ते सोच्चा जे जाऊणं न वि करन्ति ।। २१ ।। अहवा किमिणा संतप्पिएण बहुएऽईयविसयम्मि ? इण्हिं पि भावसारं करेमि तवसंजमोज्जोयं ॥२५॥ भणियं च पच्छा वि ते पयाया खिप्पं गच्छंति अमरभुवणाई । जेसिं पिओ तवो संजमो य खंती य बंभचेरं च ।। २२ ।। ओ पाए संभासित्ता पिययमं, पडिवज्जिऊण समणलिंगं, सीहो व्व गिरिकंदराओ निग्गओ गेहाओ, चलिओ य रायगिहं पइ । तदंतराले य जाणि तस्स रक्खणत्थं पंचसयाणि सामंताण १. ला० माढत्तं ।। २. ला० पइविरहि ।। ३. ला० किमम्बे ! ।। ४. ला० गच्छइ ।। ५. ला० तत्तियाणि aft ।। ६. ला० 'मि, जाव ।। ७. ला० ठिओ य दु ।। ८. सं० वा० सु० 'जिएणं ।। ९. सं० वा० सु० 'ईवि ।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्द्रककुमारकथानकम् जणगेण णिरूवियाणि ताणि य अंतराले अडवीए चोरियाए वित्तिं कप्पेमाणाणि दिट्ठाणि, पच्चभिन्नायाणि य । ताणि वि तं ओलक्खिऊण निवडियाणि तस्स चरणेसु । पुच्छियाणि य साहुणा 'भो किमेसा निंदणिज्जजीविया तुब्भेहिं समाढत्ता ?' तेहिं भणियं 'सामि ! जया तुम्हे वंचिऊण पलाया तया अम्हे तुम्ह गवसणं कुणमाणा समागया इत्तियं भूमिभागं । न य कत्थ वि तुम्ह पउत्ती वि उवलद्धा । तओ कहमकयकज्जा रायस्स मुहं दंसेस्सामो ? ति लज्जाए भएण य ण गया रायसमीवं । अनिव्वहंता य एयाए जीवियाए जीवामो ।' तओ भगवया भणियं 'भो भद्रा: । धर्म एव यत्नो विधेय: । यत: सम्प्राप्य मानुषत्वं संसाराम्भोधिमध्यमग्नेन । , सकलसमीहितकरणे धर्मविधौ भवति यतितव्यम् ।।२३।। . . न च प्रमादपरैर्भाव्यम् । उक्तं च यत् सम्पत्त्या न युक्ता जगति तनुभृतो यच्च नापद्विमुक्ता, यन्नाऽऽधि-व्याधिहीनाः सकलगुणगणालङ्कृताङ्गाश्च यन्नो । यन्न स्वर्ग लभन्ते गतनिखिलभयं यच्च नो मोक्षसौख्यं, दुष्टः कल्याणमालादलनपटुरयं तत्र हेतुः प्रमादः ।।२४।। तस्मादेनं परित्यज्य धर्मोद्यमं कुरुत ।' तओ तेहिं बद्धकरयलंजलीहिं विनतं 'भगवं ! जइ जोग्गा ता देहि अम्ह पव्वजं ।' साहुणा य वुत्तं 'पव्वयह ।' ते वि तह' त्ति भणेऊण पयट्टा तेण सह । भगवं पि अद्दयरिसी जाव रायगिहस्साऽसण्णीहूओ ताव गोसालगो अद्दयरिसिं पत्तेयबुद्धं भगवतो वंदणत्थमागच्छंतं सोऊण वाएणुवट्ठिओ । सो य अद्दगेणोत्तर-पडुत्तरेहिं पराजिओ । तव्वायवत्तव्वया य सूयगडंगाओ विण्णेया । इह उण गंथवित्थरभयाओ नो लिहिया । तओ जाव अग्गओ गच्छइ तओ रायगिहस्स पच्चासण्णतरे हत्थितावसाणमासमपयं । ते य एगं महप्पमाणं हत्थिं मारेत्ता तेणाऽऽहारेण बहूणि दिवसाणि गमंति । भणंति य 'किमेएहिं बहुएहिं बीयाइजीवेहिं विणासिएहिं ?, वरं एगो चेव हत्थी मारिओ ।' तत्थ निययासमे तेहिं वणंताओ एगो महागयवरो बंधित्ता आणिओ । सो य दढभारसंकलानिबद्धो महंतलोहग्गलाहि य अग्गलिओ चिट्ठइ । जाव य तत्थ ट्ठाणे महरिसी समागओतीव सो हत्थी समुप्पन्नविसिट्ठविवे यत्तणओ भगवंतं पंचसयरायउत्तपरिवारियं बहुजणवंदिज्जमाणं दळूण 'अहं पि वंदामि' त्ति जाव मणे संपहारेइ ताव १. ला० चलणेसु ।। २. ला० तुन्मे ।। ३. ला० करेमाणा ।। ४. ला० एत्तियं भूभागं ।। ५. सं० वा० सु० भव्वा ।। ६. ला० भयवओ दंसणत्थमा' ।। ७. ला० पुण ।। ८. ला० न ।। ९. सं० वा० सु० पच्चासण्णंतरे ।। १०. ला० ०ण पभूयदिव' ।। ११. ला० “सो दढ ।। १२. सं० वा० सु० महेसी ।। १३. ला० ताव य सो ।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे भगवओ पहावेण तस्स हथिस्स संकलग्गलाओ सयखंडीभूयाओ । निरग्गलो य पयट्टो भगवओ वंदणत्थं । तओ लोगो ‘हा हओ एस महारिसी एएणं' ति भणमाणो पणट्ठो । सो वि करी अवणामियकुंभत्थलफरिसियसाहुपयपंकओ साहुमणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणो वणं पविठ्ठो । ते य तावसा तं साहुस्साइसयमसहमाणा अमरिसवसेण विप्पडिवत्तीए उवट्ठिया । ते वि भयवया सियवायावदायबुद्धिणा णिरुत्तरा कया, धम्मदेसणाए पडिबोहिया, पेसिया य भगवओ तित्थयरस्स समोसरणे । ते वि तत्थ गंतूण पव्वइया। इओ य सेणिओ राया लोगपरंपराओ हत्थिमोयणाइअच्छेरयभूयं साहुप्पभावं सोऊणं विम्हयउप्फुल्ललोयणो अभयकुमाराइपरियणसमेओ तुरियं तत्थाऽऽगओ । दिट्ठो य साहू । भत्तिब्भरनिब्भरंगेण य तिपयाहिणापुव्वयं वंदिओ । तथा हि परिचत्तगिहावासय ! आवासय ! सयलसंजमगुणाणं । गुणगव्वियपरतित्थियगइंदवणसिंह ! तुज्झ नमो ।।२६।। दिन्नो साहुणा धम्मलाभो, तथा हिकल्लाणपद्धइकरो दुरियहरो पावपंकसलिलोहो । तुह होउ धम्मलाभो नरिंद! सिवसोक्खसंजणगो॥२७॥ पुच्छित्ता य अणाबाहं निसन्नो सुद्धभूमीए । भणियं च राइणा 'भगवं ! महच्छरियमेयं जं निययप्पहावेण दढबंधणेहिंतो मोइओ हत्थी ।' तओ भणियं भगवया न दुक्करं बंधणपासमोयणं गयस्स मत्तस्स वणम्मि रायं ! । जहा उ चत्तावलिएण तंतुणा सुदुक्करं मे पडिहाइ मोयणं ।।२८।। राइणा विन्नत्तं 'भगवं ! कहमेयं ? ।' तओ साहियंपुव्ववुत्तं नियचरियं । ‘ता भो महाराय ! जे ते मह बालगेण चत्तावलियतंतुबंधा दिण्णा ते सिणेहतंतवो मए वि दुक्खेण तोडिय त्ति काऊण गयबंधणमोयणाओ वि दुम्मोयापडिहासंति । अओ मए एवं पढियं ।' एयं च णिसामिऊण पडिबुद्धा बहवे पाणिणो । सेणिय-अभयकुमारा वि परं परिओसमागया वंदित्ता य गया सट्ठाणेसु । महरिसी वि भगवंतं महावीरं वंदित्ता उग्गविहारेणं विहरित्ता केवलवरणाणं उप्पाडेत्ता पत्तो परमसोक्खं मोक्खं ति । १. सं० वा० सु० ०लो पयट्टो ।। २. 'स्याद्वादावदातबुद्धिना' इत्यर्थः ।। ३. सं० वा० सु० णापडि ।। ४. सं० वा० सु० पुव्ववुत्तनि ।। ५. ला० दुक्खं तो ।। ६. सं० वा० सु 'मोयणओ ।। ७. सं० वा० सु० .. पडिहायंति ।। ८. सं० वा० सु० एवं च ।। ९. सं० वा० सु० 'त्ता गया ।। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्यखपुटाचार्यकथानकम् गतमार्द्रककथानकम् (१) अत्र चाभयकुमारेणाऽऽकप्रतिबोधनं प्रति या कुशलता कृता तया प्रयोजनमित्येव । 'कोसल्लया मो जिण सासणम्मि' इत्यनेन प्रथमं सम्यक्त्वभूषणमभिहितम् । द्वितीयमाह 'पभावण' त्ति प्रभावना-तीर्थस्योन्नतिकरणम् । सा चाष्टभिः प्रकारैर्भवति । यत उक्तम् पावयणी धम्मकही वाई नेमित्तिओ तव्वस्सी य । विजासिद्धो य कई अटेव पभावगा भणिया ।।२५।। तत्रोल्लेखमात्रदर्शनार्थं शेषनिदर्शनान्यनादृत्य विद्यासिद्धाऽऽर्यखपुटाचार्यकथानकमाख्यायते ( २. आर्यखपुटाचार्यकथानकम् ) अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे नम्मयाए महाणईए तीरट्टियं भरुयच्छं नाम महाणगरं । तत्थ य विहरंता समागया अज्जखवडा णामायरिया । ते य बहसिस्सपरिवारा सिद्धाणेगविज्जा विज्जाचक्कवट्टियो । ताण य एगो चेल्लओ भाइणेज्जो आयरियाणं वंदण-णमंसणसुस्सूसणापरायणो । तेणाऽऽयरियाणं गुणताणं विज्जाओ कण्णाहाडियाओ । विज्जासिद्धस्स य णमोकारेणावि विज्जाओ सिझंति त्ति काउं सिद्धाओ । इओ य गुडसत्थाओ नगराओ समागओ एगो साहुसंघाडगो । आयरिए वंदित्ता विन्नवेइ ‘भगवं तत्थ नगरे एगो परिव्वायगो अकिरियावाई आगओ अहेसि । सो यनत्थित्थ कोइ देवो न य धम्मो नेय पुन्न-पावाई । न य परलोगाईया न य अत्ता भूयवइरित्तो ।।१।। एमाइ बहुपगारं पलवंतो आगमोववत्तीहिं । साहूहिं जिओ संतो अवमाणेणं गओ निहणं ।।२।। नामेण वड्डुकरओ तत्थेव पुरम्मि वंतरो जाओ । कूरो अइप्पयंडो जाणित्ता पुव्ववुत्तंतं ।।३।। विगरालख्वधारी आगासत्थो तओ इमं भणइ । रेरे पावा! पासंडियाहमा ! लज्जपरिहीणा! ॥४॥ तइया वायम्मि ममं जिणमाणा णो वियाणहा तुब्भे । मारेमि आरडंते संपइ विविहाहिं पीडाहिं ।।५।। जइ पविसह पायाले आगासेवा विजाह जइजह वि । तो विन छुट्टह तुब्भे दुक्कयकम्मेहिँ नियएहिं'।६। इय जंपतो तो सो विविहुवसग्गेहिँ समणसंघायं । उवसग्गिउं पवत्तो इण्हिं तुब्भे पमाणं ति ।।७। तव्वयणसवणाणंतरमेव सूरिणो सबालवुडं गच्छं तं च भाइणेजं तत्थेव मोत्तूण विज्जाबलेणं झड त्ति गुडसत्थे गया । तस्स वंतरस्स कन्नेसु उवाहणाओ विलाइत्ता पावरणेणऽप्पाणं पावरित्ता तप्पुरओ चेव सुत्ता । देवकुलिओ य खणंतरेणाऽऽगओ । सो य पडिमाकण्णेसु उवाहणाओ १. सं० वा० सु० खपटा' ।। २. ला० खउडा' ।। ३. ला० सुस्सूसापरा' ।। ४. ला० रूयधारी।। ५. ला० दुक्कड़क' ।। ६. ला० विलयित्ता ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे ६ विलइयाओ, भगवंतं च सुहपसुत्तं पासेत्ता आसुरुतो 'अहो ! को एस अणज्जो ? जो देवस्सेवं करेइ ! ता निवेएमि एयं सपउरस्स राइणो जेण से एवं निग्गहं करेड' त्ति चिंतिऊण निवेइयं सपउरस्स राइणो । समागओ य तुरियतुरियं सपउरो राया । भणियं च तेंण रे उडवेह ताव एयं ।' सोय सहिं महंतेहिं वि न उट्ठेइ । उग्घाडिओ य एगो पएसो जाव अहोभागं पेच्छंति । एवं जत्थ जत्थ उग्घाडंति तत्थ तत्थऽहोभागमेव पेच्छंति । तओ राइणा जंपिय ' अरे ! बिभीसियापायं किंपि यं ति, ता आहणह कस-लउड - पत्थरप्पहारेहिं ।' तओ जावाऽऽहणंति, ताव ते पहा अंतेउरियाणं संकामेइ । ताओ य पीडेज्जंतीओ विरसमारसंति । विन्नत्तं च आगंतूण महल्लगेण 'देव ! कीय वि कसप्पहारो उवलपहारो पुणो य अन्नाए । कीय वि लउडपहारो लग्गइ अद्दिट्ठओ चेव ।।८।। सा का वि णत्थि देवी जीसे अंगम्मि लग्गइ न घाओ । अच्छंति रडंतीओ संपइ देवो पमाणं ति ।। ९ ।। स्न्ना वि ‘विज्जासिद्धो को वेस महप्पा जो एवमंतेउरै पउरे घाए सँकामेइ । ता जाव सव्वे वि खयं न नेइ ताव पसाएमो' [? त्ति चिंतिऊण तप्पसायणत्थमाणत्ता सव्वे जणा रायसहिया ] खामेंति य जहा— ८ १८ ‘खमसु महायस ! इण्हिं जं अवरुद्धं अयाणमाणेहिं । पणिवइयवच्छल च्चिय भवंति तुम्हारिसा जेण ॥ १० ॥ इमं च सौऊणोट्ठिओ भगवं । लग्गो य पिट्ठओ वड्डुकरओ, पट्टियाणि य तप्पिट्ठओ अन्नाणि वि उप्फिडंताणि देवरूवाणि । तस्स य देवउलस्स दुवारे अर्णेगणरसहस्ससंचालणेज्जाओ महइमहालियाओ दोन्नि पहाण दोणीओ चिट्ठति । ताओ वि हक्कारियाओ चलियाओ तप्पिट्ठओ। ताणि य देववाणि ताओ खडहडावेंति जाव समागओ णगरमज्झभागे । तओ लोगेण पासु पडिऊण विण्णत्तो 'भगवं ! मुंच देवरूवाणि ।' ताहे मुक्काणि । ताओ वि दोणीओ तत्थेव धरियाओ 'जो मए समाणो सो ठाणे पराणेउ' त्ति । अज्ज वि तहेव चिट्ठति । वड्डकरओ वि 'उवसंत पवयणस्स महामहिमं करेइ । लोओ वि पभूओ पडिबुद्धो पसंसेइ 'अहो ! जिणसासणस्स माहप्पं जत्थेरिसा अइसया दीसंति । सव्वहा जयइ जिणसासणं' ि इओ य भरुयच्छे सो भाइणेज्जचेल्लओ आहारगेद्धीए भिक्खडो जाओ । तस्स विज्जापभावेण पत्ताणि आगासेणं उवासगाणं घरेसु जंति, भरियाणि आगच्छंति । तमइसयं दद्धुं पभूयलोगो तम्मुहो जाओ । भणइ य ‘बुद्धसासणं मोत्तुं कत्थ अन्नत्थ एरिसो अइसयो ?' त्ति । ओहामिज्जइ १७ । १. ला० सो चेव ।। २. सं० वा० सु० य तुरियं सव' ।। ३. ला० अरे ।। ४. सं० वा० सु० 'हिं न उ° ।। ५. सं० वा०सु० °ति तओ ताव ।। ६. ला० पहारे ।। ७. ला० लउलप' ।। ८. सं० वा० सु० रन्ना विज्जा' ।। ९. सं० वा० सु० जो राउले अंतेउरे ।। १०. ला० रे घाए ।। ११. सं० बा सु० संकमेइ ।। १२. ला० सुणिऊण उट्ठ० ।। १३. ला० ०गपुरिससयसंचालणिज्जाओ ।। १४. सं० वा० सु० महयमहा ।। १५. ला० तुल्लो ।। १६. ला० भिक्खाडो ।। १७. सं० वा० सु० भणइ बु० ।। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयसम्यक्त्वभूषणवर्णनम् १९ संघेण सूरीण जाणावियं जहा 'इत्थ एरिसा ओहावणा हे वइ ।' तओ समागया सूरिणो । कहिओ सेव्वो वित्तंतो । तेसिं च पत्तयाणं पुरओ सेयवत्थपच्चुत्थओ पडिग्गहगो वच्चइ गच्छइ य । टोप्परिया सव्वपवरे आसणे कया चेइ । अन्नत्थ कया एइ । ताणि य पत्ताणि उवासगेहिं पूरिऊण भरियाणि जावाऽऽगासेणोप्पयंति ताव सूरीहिं अंतराले सिला विउव्विया । तत्थ य पडित्ता सव्वाणि भग्गाणि । चेल्लओ वि एयमायन्निऊण 'नूणं मम गुरू समागओ' त्ति भयेण णट्ठो । सिरिअज्जखउडसूरिणो वि गया बुद्धविहारे । तओ भणिया भिक्खूहिं 'एह, वंदह ।' आयरिएहिं भणियं 'एहि पुत्त ! बुद्धा ! सुद्धोयणसुया ! ममं वंदाहि ।' तओ निग्गया बुद्धपडिमा निवडिया सूरीण पापं । त विहारस्स दुवारे थूमो चिट्ठइ, सो वि भणिओ 'तुमं पि ममं वंदाहि ।' सो वि तहेव पाएसु निवडिओ | विभणिओ 'अद्धोणओ चिट्ठाहि ।' तहेव ठिओ नियंठोणामियणामो त्ति पसिद्धिं गओ । लोगो य विम्हयउप्फुल्ललोयणो जिणसासणाणुरत्तो जंपिउमाढत्तो— 1 'पिच्छह भो अच्छरियं अइसयरूवं जिणिदधम्मस्स । जं सूरीणं पाए वंदंति अजंगमा देवा ।। ११ ।। सो जयउ जिणो सिरिवद्धमाणसामी उसासणं जस्स । वंदिज्जइ तियसेहिं विभत्तिभरोणमियसीसेहिं | १२ | किं बहुणा भणिएणं ? जइ इच्छह सयलसोक्खसंपत्तिं । तो जिणवरिंद भणिए कुणह सया आयरं धम्मे । १३ । [आर्यखपुटाचार्यकथानकं समाप्तम् । २.] ता एवं सासणं जो पभावेइ तस्स सम्मत्तं भूसिज्जइ । एवमन्येऽपि दृष्टान्ता अभ्यूह्य इति । द्वितीयं भूषणमभिहितम् । सम्प्रति तृतीयमभिधीयते । 'तित्थनिसेवणा य' त्ति । तरन्ति संसारसागरमनेन प्राणिन इति तीर्थम्, द्रव्य भावभेदाद् द्विधा । तत्र द्रव्यात् सकाशात् संसारनीराकरस्तीर्यत इति कृत्वा द्रव्यतीर्थं तीर्थकृतां जन्मभूम्यादिलक्षणम् । तन्निषेवा सम्यक्त्वभूषणम्, यतस्तया सम्यक्त्वं शुध्यति । उक्तं च जम्मं णाणं दिखा तित्थयराणं महाणुभावाणं । जत्थ य किर निव्वाणं आगाढं दंसणं होई । । २६ ।। जन्मभूम्यादिषु गतानां दर्शनमागाढं शुद्धं भवति । तथा भावनामाश्रित्याऽऽचाराङ्गनिर्युक्तावप्युक्तम्जम्माभिसेय-निक्खमण -चवण- -णाणुप्पया य णिव्वाणे । दियलोगभवण-मंदर-नंदीसर - भोमनगरेसु ।। २७ ।। १. ला० वट्टइ ।। २. सं० वा० सु० सव्वो वु' ।। ३. ला० एय (यं) बुद्धं वंदह ।। ४. ला० 'हिं वि जंपियं एहि ।। ५. ला० 'चरण || Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे अट्ठावय उजिंते गयग्गपयए य धम्मचक्के य । पास रहावत्तनगं चमरोप्पायं च वंदामि ।।२८।। (गा. ३३१-३३२) २२२).. .. अनयोर्व्याख्या तदुक्तैव लिख्यते तीर्थकृतां जन्मभूमिषु, तथा निष्क्रमण-च्यवन-ज्ञानोत्पत्तिभूमिषु, तथा निर्वाणभूमिषु, तथा देवलोकभवनेषु, मन्दरेषु, तथा नन्दीश्वरद्वीपादौ, भौम्येषु च-पातालभुवनेषु च यानि शाश्वतचैत्यानि तानि, वन्देऽहम्' इति द्वितीयगाथान्ते क्रियेति । एवमष्टापदे, तथा श्रीमदुज्जयन्तगिरी, गजाग्रपदे-दशार्णकूटवर्तिनि, तक्षशिलायां धर्मचक्रम् (चक्रे), तथाऽहिच्छत्रायां पार्श्वनाथस्य धरणेन्द्रमहिमास्थाने, एवं रथावर्ते पर्वते वैरस्वामिना यत्र पादपोपगमनं कृतम्, यत्रश्रीवर्धमानमाश्रित्य चमरेन्द्रेणोत्पतनं कृतम्, एतेषु च स्थानेषु यथासम्भवमभिगमन-वन्दन-पूजनोत्कीर्तन-निषेवणादिकाः क्रियाः कुर्वतो दर्शनशुद्धिर्भवतीति ।।" (पृष्ठ: २७९) __भावतीर्थं तु ज्ञानादिगुणयुक्ता: साधवः, तत्पर्युपासनाऽपि सम्यक्त्वं भूषयति, तदुपदेशश्रवणादिना भण्यते च नाणाइगुणसमग्गे जो णिच्चं पजुवासए साहू । सम्मत्तभूसणाई तस्स गुणा होति णेगविहा ।।२९ . तथाऽऽचारनियुक्तावप्युक्तम् तित्थयराण भगवओ पवयण-पावयणि-अइसइवीणं । अभिगमण णमण दंसण कित्तण संपूयणं थुणणा ।।३०।। (गा.३३३) अस्या अपि तदक्षरैर्व्याख्या तीर्थकृतां भगवताम्, प्रवचनस्य द्वादशाङ्गस्य . गणिपिटकस्य, तथा प्रानिकानाम् =आचार्यादीनां युगप्रधानानाम्, तथाऽतिशयिनामृ द्धिमतां के वलिमन:पर्यायावधिमच्चतुर्दश- पूर्वविदाम्, तथा आमौषध्यादिप्राप्तझैनाम्, यदभिगमनम्, यच्च नमनम्, गत्वा च दर्शनम्, तथा गुणोत्कीर्तनम्, सम्पूजनं गन्धादिना, स्तोत्रैः स्तवनम्, तदपि सम्यग्भावनाहेतुरिति । (पत्र ३८५ तमे) १. ला० ण-चरणज्ञा ।। २. ला० शाश्वतानि चै ।। ३. ला० चक्रम् अहिछत्रा ।। ४. ला० श्रीमद्वर्ध ।। ५. ला० 'वासई ।। ६. सं० वा० सु० ‘णाइ ।। ७. ला० ण दरिसण ।। ८. सं० वा० सु० यणा ।। ९. ला० रैव व्याख्या ।। १०. ला० चनिनाम् ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ आर्यमहागिरिकथानकम् अत्र च द्रव्यतीर्थनिषेवायामार्यमहागिरय उदाहरणम् । तथा च [३.आर्यमहागिरिकथानकम्] सिरिथूलभद्दसामिस्स दोणि सीसा महायसा जाया । दसपुव्वधराधीरा गुणगणकलिया जुगपहाणा ।११ पढमो अज्जमहागिरिसूरी सम्मत्त-णाण-चरणटो । बीओ अज्जसुहत्थी तत्तुल्लगुणो तदणुसेवी ।२। वोच्छिन्ने जिणकप्पे पडिकम्मं तस्स महगिरी कुणइ । अज्जसुहत्थिस्स गणं दाऊणं गच्छपडिबद्धो ।३। अह अनया कयाई अजसुहत्थी गओ विहरमाणो । पाडलिउत्तम्मि.पुरे ठिओ य पवरम्मि उजाणे ।४। वसुभूइसेट्ठिपमुहो विणिग्गओ तस्स वंदणणिमित्तं । पुरलोगो वंदित्ता उवविठ्ठो सुद्धभूमीए ।।५॥ तीसे परिसाएँ तओ पारद्धा सयलदुक्खनिद्दलणी । सद्धम्मकहा संवेगरंगसंसग्गसंजणणी ।।६।। “भो भो भव्वा! संपाविऊण अइदुल्लहं मणुयजम्मं । सिरिसव्वन्नुपणीए कुणह सया आयरं धम्मे ॥७॥ पडिवज्जह अट्ठारसदोसेहिँ विवज्जियं जिणं देवं । वरसाहुणो य गुरुणो, जीवाइपयत्थसदहणं ।।८॥ परिहरह मोहजालं, राग-द्दोसारिणो णिसुभेह । चयह कसाए, इंदियतुरंगमे दमह दुईते ।।९।। चइऊण घरावासं असेसगुरुदुक्खसंतइ निवासं । पंचमहव्वयजुत्तं विवज्जियं राइभत्तेण ।।१०॥ तहिँ गुत्तीहिँ सुगुत्तं पंचहिँ समिईहिँ संवुडमुयारं। खंताइदसपगारं पडिवज्जह साहुवरधम्मं ।।११॥ जइणविसक्कह एयं काउंतोपंचऽणुव्वयसमेयं । तिगुणव्वय-चउसिक्खाकलियंपालेह गिहिधम्म।१२॥ रिद्धीओं जोव्वणं जीवियं च खणभंगुराणि णाऊण । जेणोज्झिय संसार संसारं जाह सिद्धिउरं ॥१३॥ इय सोऊणं सव्वा परिसा संवेगमागया धणियं । तो वसुभूई जंपइ पणमित्ता सूरिपयकमलं ।।१४॥ 'भगवं ! जं तुब्भेहिं आइटें तत्थ नत्थि संदेहो । किंतु जईणं धम्मं ण समत्थो दुक्करं काउं ॥१५॥ तापसिऊणं देज्जउ गिहत्थधम्मो इमो महं नाह! ।' ‘एवं' ति होउ गुरुणा भणिए, घेत्तूण गिहिधम्म।१६। नियगेहे गंतूणं तं धम्मं कहइ सयणवग्गस्स । सो जाव ण पडिवज्जइ ता गंतुं गुरुसमीवम्मि ।।१७। पभणइकयंजलिउडो जिणधम्मो एसमेसमक्खाओ।सयणाण किंतु तेसिं मम वयणेणंणपरिणमइ ।१८। ता तेणुवरोहेणं गंतूणं तत्थ पहु ! समुद्धरह । भवजलहिम्मि पडते नियदेसणजाणवत्तेणं' ।।१९।। अज्जसुहत्थी वितओपडिवजिय तम्मिहम्मिगंतूण । अखिविय देसणाए जा देइ अणुव्वए ताव।२०। अज्जमहागिरि भगवं जिणकप्पविहाणओ विहरमाणो । संपत्तो दटुंता सहसा अब्भुट्टिओ सूरी ।।२१। तंदणं सेट्ठी पभणइ 'तुम्भं पि किं गुरू अन्नो? ।' सूरी वि आह आमं, एसो भगवं गुरू अम्ह ।।२२। दुक्करकिरियानिरओ करेइ अइदुक्करं तवच्चरणं । पेयवणाइसु पडिमं ठाइ सरीरम्मि निरवेक्खो ।।२३। १. सं० वा. सु० णत्यो ।। २. ला० लिपुत्तम्मि ।। ३. सं० वा० सु० साहु जिणधम्म ।। ४. सं. वा० सु० काउं पंचेवऽणुव्व ।। ५. शोभन: सारः यस्मिन् तत् संसारं सिद्धिपुरम् ।। ६. सं० वा० सु० देसिं ।। ७. सं० वा० सु० णवइ ।। ८. ला. तो ता दटुं ।। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे बहुविहउवसग्णसहो बावीसपरीसहे पराजिणइ । दसपुव्वमहासुर्यनीरनाहपारं परं पत्तो ।।२४।। उज्झियहम्मं गेण्हइ भत्तं पाणं च जं न कायाई । वंछंति दूरदेसट्ठिया विधीसंजुओ धीरो ।।२५।। एवं तगुणनिगरं वण्णेत्ताऽणुव्वयाइँ तेसिंच । दाऊण गओ सूरी, सेट्ठी वि य भणइ नियवग्गं ।।२६।। 'जइया एसो भगवं भिक्खट्ठा एइ तइय भत्ताई । छड्डेजह जइ कह वि हु लेइ तओ होइ बहु पुण्णं ॥२७॥ तत्तो य बीयदिवसे तमउव्वं पेच्छिऊण भगवं पि । उवओगपुव्वयं जाणिऊण तत्तो च्चिय णियत्तो।२८। आवस्सयावसाणे जाव सुहत्थी वि वंदए. गुरुणो । ता भणिओ 'किं अज्जो ! अणेसणा अज्ज मह विहिया?।।२९।। सोआह कहं?' भगवंपिभणइ अब्भुट्ठिओजओकलं ।'णाऊण इमंतत्तोखामइपरमेण विणएणं ।३०। तत्तो णिग्गंतूणं उज्जेणिं पुरवरिं गया तत्थ । जीवंतसामिपडिमं भत्तिब्भरणिब्भरा णमिउं ।।३१।। तत्तो गयग्गपयनगवरस्स नमणत्थमेलॅगच्छम्मि । संपत्ता, तं च पुरं कह जायं एलगच्छं ? ति ।।३२।। [४. एलकाक्षकथानकम्] तं आसि दसण्णपुरं तत्थाऽऽसी साविगा गुणसमिद्धा । धणसत्थवाहधूया रूववई धणसिरी णाम ।३३। उत्तमसम्मत्तधरी अणुवयसिक्खावएहिँ परिकलिया । मिच्छादिट्ठिगिहम्मी परिणीया देव्वजोएण । ३४। चियवंदणं विहेउं वियालवेलाएँ पइदिणं सा उ । गेण्हइ पच्चक्खाणं हसइ तओ तीए भत्तारो ।।३५।। ‘पच्चक्खामि अहं पि य' अन्नम्मि दिणम्मि तेण सा भणिया । 'भंजिहिसि तुम' तीए भणियो पडिभणइ सो एवं ॥३६॥ नहु कोइ वि रयणीए उठ्ठित्ता भुंजई अओ देहि । पच्चक्खाणं मज्झं, दिनं तीए तओ पच्छा ।।३७।। एत्तोय तीए गुणगणआवज्जियदेवया विचिंतेइ । 'कह वेलवेइ सड्डिं मूढो? ताअज्ज सासेमि' ।।३८।। गेण्हित्तु वरपहेणगछलेण भोजं समागया सा उ । तप्पुरवत्थव्वाए भगिणीए तस्स रूवेण ।।३९।। पभणइ य‘उट्ठ भाउय! तुज्झकएभोयणंमएसुरसं ।आणीयंउवभुंजसु' सोवियतंभोत्तुमाढत्तो ।।४०।। भणिओ य सावियाए ‘पच्चखिय भुंजसे किमेयं ?' ति । 'तुब्भच्चएहि अम्हं किमालवालेहि' सो भणइ ॥४१॥ देवी वि तओ रुसिउं तलप्पहारेण दो वि अच्छीणि । भूमीए पाडेत्ता, खिंसिय निययं गया ठाणं ।४२। सड्डी वि मज्झअयसोएसो' त्ति मणम्मिदेवयं काउं । काउस्सग्गम्मिठिया, समागयादेवया पुण वि ।४३॥ ___ जंपइ य 'जेण कज्जेण सुमरिया साविगे ! तयं भणसु ।' १. सं० वा० सु० ०यहरना० ।। २. ला० थिइसंजुओ ।। ३. ला० "नियरं ।। ४. सं० वा० सु० जह ।। ५. ला० उ ।। ६. सं० वा० सु० गपओगे जा ।। ७. ला० वंदई ।। ८. सं० वा० सु० 'लमच्छिम्मि ।। ९. सं० वा. सु० दिट्ठीगेहे ।। १०. सं० वा० सु० देवीए तओ ।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजानपदपर्वतनामोत्पत्तिकथा सा भणइ ‘अप्पविहियं अयसं अवणेहि मह एयं॥४४।। तत्तोय निप्पएसाणि ताणिनाऊण तस्सअच्छीणि । केण वितखणमारियएलयसपएसअच्छीणि ॥४५॥ आणेऊणं देवी संजोइता गया नियं ठाणं । इयरो वि य पच्चूसे पुच्छिज्जइ नगरलोगेहिं ॥४६॥ 'किंतुज्झएलगस्सवअच्छीओभद्द! अजदीसंति?' । तेण वितेसिंसव्वं कहियं रयणीऍजं वित्तं।४७ । सो वि य तप्पभिईए जाओ सुस्सावगो गुणसमिद्धो । एसो वि य वुत्तंतो पयडोसव्वत्थ संजाओ ॥४८॥ कोऊहलेण यजणाअन्नत्तोइंति पिच्छगा तस्स । कत्थगमिस्सह?' पुट्ठा, वयंतिते एलगच्छउरं ॥४९॥ एसा णामोप्पत्ती वियाहिया एलगच्छणगरस्स । तत्थ य गयग्गपयगो अत्थि नगो जिणघराइन्नो ॥५०॥ [गजाग्रपदपर्वतनामोत्पत्तिकथा] पुव्विं दसन्नकूडो णामं तस्साऽऽसि संपयं एयं । जह संजायं णामं तह भण्णंतं निसामेह ॥५१॥ तत्थाऽऽसि पुरे राया सूरो वीरो पियंवओ सरलो । नीसेसकलाकुसलो सावगधम्मम्मि उज्जुत्तो ॥५२॥ पणमंतभूरिसामंतमउलिमणिमसिणिऊरुपयवीढो । निद्दलियदरियसत्तू णामेण दसण्णभद्दो त्ति ॥५३॥ उवसंतडिंबडमरं सो पालइ कुलकमागयं रज्जं । उव्वहइ य अच्वंतं गव्वं णियरिद्धिवित्थारे ॥५४॥ इत्तो य भरहवासे वराडविसयम्मिधण-जणसमिद्धो । णामेण धण्णपूरयगामो गुणसंजुओ अत्थि।५५। तत्थ यमयहरउत्तो निवसइ एगो समुज्जयसहावो । तब्भज्जा छिछइया डिंडियसइवेण सह वसइ ॥५६ । अह अन्नया य जायं रम्मंणडपेक्खणं तहिंगामे । दिट्ठो य छिछईए कयचलणयपरिहणो णट्टो ॥५७।। तं 'पुरिसं' ति मुणेउं संजाओ तीइ तम्मि अणुराओ। तो भणिओ अणुणट्टो जइ एस मए समं रमइ।५८। एएणं चिय वेसेण देमि दम्मट्ठसयमणूणं तें' । सो वि तयं पडिवज्जिय भणइ 'तुहं पिट्ठओ चेव ॥५९। आगच्छइ एस, परं साहसु अम्हाण अप्पणो गेहं' । सा वि सचिंधं कहिउं गंतुं गेहम्मि रंधेइ ॥६०॥ जोगंइमस्स खीरिं, पत्तोणट्टोवि, चलणसोयम्मि । विहियम्मिय उवविठ्ठो, परिविट्ठातीऍतोखीरी।६१। घयगुलपुण्णं थालं दिन्नं जा नेय भुंजए ताव । संपत्तो सो सइवो, वुत्तो णट्टो तओ तीए ॥६२॥ 'एत्थ तिलोयरगम्मी पविससु जा पट्टवेमि एयं' ति ।। तत्थ पविट्ठो णट्टो, इयरो वि य भणइ 'किमियं?' ति ॥६३॥ साजंपइ भुंजामि' पडिभणियंतेण चिट्ठतावतुमं ।भुंजामिअहं' 'अच्चंतभुक्खियाह' इमाभणइ ॥६४। उवविठ्ठो सो वि बला, जावऽज विणेय भुंजए ताव । संपत्तो से भत्ता, तीऍ तओ जंपिओ सइवो।६५। पविससु इत्थोवरए गंतव्वं णेय दूरभूमीए । जम्हा सप्पो चिट्ठइ परओ अइकसिणतणुधारी ॥६६॥ १. ला० स्सइ ।। २. ला० धीरो ॥ ३. ला० 'बे, दसण्णभद्दो त्ति नामेण ॥ ४. ला० विराडविसयम्मि जण-धणस' ॥ ५. ला० तीऍ तम्मि अहिलासो ॥ ६. ला० मे ॥ ७. सं० वा० सु० खीरं ॥ ८. ला० उ ॥ ९. ला० तिलोवर ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे सो विपविट्ठो तत्तो, पण वि हु पुच्छियाइमा 'किमियं ? | तीए वि य संलत्तं 'जेमेमि छुहाइया णाह!' । ६७ सो भइ 'चिट्ठस तुमं ताव अहं चेव किंचि भुंजामि' । सा वि तओ पडिजंपइ ‘कह अन्हा ओप भुंजिहिसि ? ॥६८॥ जम्हा उ अट्ठमिदिणं अज्ज तओ पहाइऊण भुंजाहि' । सो भइ 'अहं भुंजामि ताव पहाएज्जसु तुमं' ति । । ६९ ।। ३ इय पिऊण भुत्तो, एत्तो य णडेण तेण छुहिएणं । घेत्तूण फूमिय तिला, तं सोऊणं तओ सइवो ॥७०॥ 'सप्पं' ति मण्णमाणो पलाइ तत्तो दुयं विणिग्गंतुं । नट्टो वि तयणुमग्गेण निग्गओ अवसरं मुणिउं ॥ ७१ ॥ मयहरउत्तो उ तओ तं दडुं पुच्छए तयं महिला (लं) 'किमियं पिये ! पसाहसु' सविसाया सा वि जंपेइ ।७२। 'हाऽणज्ज! तुमं पुव्वं पि वारिओ न य करेसि मह वयणं । एयं उमा-महेसरजुगलं तुह गेहगब्भत्थं ॥ ७३ ॥ निवसंतं [तं] अज्जट्ठमीऍ जं खंडिओ तए धम्मो । तेण वि णिग्गंतूणं न नज्जए कत्थ वि पलाणं' ॥७४॥ तं सोऊणंविमणो महिलंपडिभणइ 'कोपुणउवाओ ? । जेणाऽऽगच्छेज्ज पुणो एयं महगेहमज्झम्मि' ॥७५॥ सा जंप 'बहुदव्वं विढवेत्ता ताण कुणसु महपूयं । जेण पुणो तुह उवरिं परितुट्ठे होइउं एई' ॥ ७६ ॥ तं सोऊणं एसो चलिओ दव्वस्स विढवणनिमित्तं । 'किर एयाणं पूयं काहामि' मणे विचिंतंतो ॥७७॥ ari हाओ पत्तो अन्नत्थ दूरदेसम्मि । काऊण तत्थ कम्मं सुवण्णयं विढवए एसो ॥ ७८ ॥ दसगद्दियाणगा ऊ माणेणं थोवयं ति न हु तुट्ठो । तह वि हु नियघरहुत्तं संचलिओ जाइ मग्गम्मि । ७९ । एगत्थ तरुतलेम्मि य उवविट्ठो जाव चिट्ठए ताव । राया दसण्णभद्दो समागओ तुरयअवहरिओ ||८०|| थक्को तत्थ तरुतले तुरंगमो जाव मग्गपरिसंतो । तावुत्तिन्नो राया, दंसइ एसो वि से नीरं ॥ ८१ ॥ तुराओ पल्ला अवणि विस्सामए तओ रायं । पुट्ठो य नरवरेणं नियवुत्तंतं कहइ सव्वं ॥ ८२ ॥ चिंतइ तओ नरिंदो "मुद्धो एसो पवंचिओ तीए । किंतुच्छाहो गरुओ 'अविज्जमाणं पि विढवेत्ता ॥८३॥ किरपू कहा, ' ता किं एयस्स कम्मपुरिसस्स । अहियं करेमि, अहवा नेमि इमं तत्थ नियनयरे ॥ ८४ ॥ जेणुवगारी एसो” इय जा चिंतेइ ताऽणुमग्गेण । पत्तं णिवस्स सेण्णं, तेण समं जाइ तं घेत्तुं ॥८५॥ नयनरम्म नरिंदो अत्थाणत्थो य भणइ तं 'भद्द ! | भण किं दिज्जउ तुज्झं ?' सो वि हु पडिभणइ 'मह देव ॥ ८६ ॥ दिज्जउ पूयाहेउं किंचि वि’पंडिवज्जियं तयं राया । कोऊहलेण चिट्ठइ विविहालावेहि तेण समं ॥८७|| इत्तो य देवमहिओ तेलोक्कदिवायरो जिणो वीरो । विहरंतो संपत्तो वियालवेलाएँ तम्मि पुरे ॥८८॥ देवेहिँ समोसरणे रइयम्मि, तओ निउत्तपुरिसेहिं । गंतूणं विन्नतो दसन्नभद्दो महाराया ! ॥८९॥ १. सं० वा० सु० वभुंजि ॥ २. ला०वि ॥ ३. ला० गेहमज्झत्थं ॥ ४. ला० णो एसो प' ।। ५. ला० 'लम्मिं, उव० ॥ ६. प्रतिपद्य ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गजाग्रपदपर्वतनामोत्पत्तिकथा २५ 'वद्धाविजसि नरवइ ! नरिंद-देविंदवंदपरियरिओ । समणगणसंपरिवुडो अइसयचउतीससंजुत्तो ॥१०॥ उप्पन्नदिव्वनाणो अट्ठमहापाडिहेरपरियरिओ । इह चेव समोसरिओ दसण्णकूडे जिंणो वीरो' ॥९१॥ तं सोऊणं सहसा राया रोमंचपुलइयसरीरो । अब्भुट्ठिऊण तुरियं तत्थ ठिओ वंदई सिरसा ॥१२॥ वद्धावयपुरिसाणं दाऊणं रुप्पमइयदम्माणं । अद्धत्तेरसलक्खा अंगविलग्गं च आभरणं ॥९३॥ चिंतइ य तहा कल्लं वंदामि जिणं जहा ण केणावि । वंदियपुव्वो भयवं सव्वाए नियसमिद्धीए' ॥१४॥ एवंच चिंतिऊणंतंरयणिंहरिसनिब्भरोगमइ ।तित्थयर-चक्कि-बल-केसि-साहु-सप्पुरिसचरिएहिं ।९५ देइ तओ आएसं पहायसमयम्मि मंतिवग्गस्स । जह-सव्वा सामग्गी करेह पउणा विसेसेणं ॥१६॥ जामि जिणवंदणत्थं जेणाहं तह य पडहयरवेण । घोसाविजउ नयरे जह ‘राया सव्वविभवेणं ॥९७॥ जाइ जिणवंदणत्थं तम्हा सव्वे वि सव्वरिद्धीए । आगच्छंतु सयासं अकालहीणं नरिंदस्स' ॥९८॥ तव्वयणं आणाए सव्वं संपाडियं अमच्चेहिं । सव्विड्डीए लोगं आगच्छंतं निवो दटुं ॥१९॥ हाओकयबलिकम्मोसव्वालंकारभूसियसरीरो । सेयदुगुल्लोकयसियविलेवणोसेयकुसुमधरो ॥१०॥ सेयगइंदारूढो सियछत्तो सेयचामरुक्खेवो । सव्वोरोहसमग्गो लीलाएँ गओ समोसरणे ॥१०१॥ उत्तरिय गयवराओ, काऊणपयाहिणंच तिक्खुत्तो ।अभिवंदिऊणय जिणं, उवविठ्ठो निययठाणम्मि१०२ ताव य भगवं धम्मंजोयणनीहारिणीऍ वाणीए । नियनियभासापरिणामिणीऍ कहिउंसमाढत्तो ॥१०३॥ इत्थंतरंम्मि सक्को धीधी कह अलियगव्वमुव्वहइ । एस निरिंदो एवं?, ता संबोहेमि' चिंतेउं ॥१०४॥ उत्तुंगधवलदेहं मणिकंचणरयणभूसियसरीरं । एरावणं विलग्गो, विहेइ तस्सट्ठ उ मुहाई ॥१०५॥ एक्कक्कयम्मि वयणे अट्ठट्ठ करेइ दंतमुसलाई । एक्कक्कयम्मि दंते अट्ठट्ठ ठवेइ वावीओ ॥१०६॥ वावीए वावीए विउव्वए अट्ट अट्ठ पउमाइं । इक्केक्कयम्मि पउमे अट्ठट्ठदले पकप्पेइ ॥१०७॥ इक्केक्कयम्मि य दले बत्तीसइपत्तविहियनट्टाई । अट्ठट्ठ सुरम्माई विउव्वए नाडयवराई ॥१०८॥ सामाणिय-दोगुंदुग-पारिसय-सुनद्धअंगरक्खेहिं । लोयप्पाला-ऽणीयाहिवेहि सत्तहियअणिएहि।१०९। नीसेसपइन्नय-आभिओग-किब्बिसिय-अच्छरगणेहिं । परिवारिओसमंतासुरिंदरिद्धीइ दिप्पंतो॥११०। एवं आगंतूणं पयाहिणं तविलग्गओ चेव । दाऊणं अवणामइ अग्णपए तस्स हत्थिस्स ॥१११ ॥ ताणि य सिलायलम्मी सक्कपभावेण तत्थ खुत्ताणि । अज्ज वि दीसंति, अओ गयग्गपयगो गिरी जाओ ॥११२।। भत्तिभरनिब्भरंगो सक्को नमिउं जिणस्स पयकमलं । सन्भूयगुणनिबद्धं एवं थुइमंगलं पढइ ॥११३॥ भवनीरायरनिवडंतजंतुसंताणतारणतरंड ! । तियसिंदवंद-असुरिंदवंदपरिवंदिय ! मुणिंद ! ॥११४॥ १. ला० पणिवइओ ॥ २. सं० वा० सु० पयन ॥ ३. ला० "विंद ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे जियदुज्जयमयरद्धयसुहड ! महामोहमल्लबलहरण ! । करकलियविमलमुत्ताहलं व परिकलियतेलोक्क ॥११५।। दुट्ठठ्ठकम्मतरुकढिणगंठिनिट्ठवणनिट्ठरकुठार ! । .... तियलोयतिलय ! नमिमो जिणिंद ! पयपंकयं तुम्ह ॥११६॥ माणस-सारीरियदुहसहस्ससंपीडियाण सयकालं । कुणसु पसायं सामिय ! सिवसुहसंपायणेणऽम्ह ॥११७॥ एवं थोऊण जिणं, भत्तिब्भरनिब्भरो तओ सक्को । नियठाणे उवविट्ठो, धम्मं सोउं समाढत्तो ॥११८॥ तंपेच्छिऊण राया चिंतइ संवेगमागओधणियं । 'सुटुअणेणं धम्मो कओजओ एरिस विभूई ॥११९॥ धिसि धिसि अलज्जिरेणं अलियं गव्वं समुव्वहंतेण ।। तिण-तूलसयासाओं वि धणियं लहुईकओ अप्पा ॥१२०।। एयस्स य रिद्धीए महरिद्धीए य अंतरंगरुयं । ता कह अयाणुएणं अहियं आयासिओ अप्पा? ॥१२१॥ एवंविहाणि अवमाणणाणि दीसंति जत्थ संसारे । ता पज्जतं तेणं, करेमि तवसंजमोजोयं' ॥१२२॥ एयं विचिंतिऊणं, वंदित्ता जिणवरस्स पयकमलं । पभणइ ‘जइ हं जोग्गो ता देजउ मज्झ मुणिदिक्खा' ॥१२३॥ संवेगरंगमउलं जाणित्ता तस्स तक्खणं चेव । भगवं पि देइ दिक्खं मुणिगणसंसेवियमुयारं ॥१२४॥ दट्ठण गहियदिक्खं इंदो भत्तीइ वंदिउं भणइ । 'नत्थि मह एस सत्ती, विजिओ हं संपयं तुमए' ॥१२५॥ पन्नासरहसहस्सा सत्त य पमयासयाइँ चइऊण । काऊण तवं घोरं दसण्णभद्दो गओ मुक्खं ॥१२६॥ सो वि हु मेहरपुत्तो दटुं नरनाहसंतियं चरियं । संवेगभावियप्पा पव्वइओ जिणसगासम्मि ॥१२७॥ तत्थ यगयग्गपयनगें सिरिअज्जमहागिरीहिँ सूरीहिँ । तित्थे परमपवित्तेणिसग्गसुभभावसंजणणे।१२८ वंदेत्तु चेइयाई वित्थिन्नसिलायले सुरमणीए । उत्तमसत्ताऽऽइण्णं पायवगमणं कयं तेहिं ॥१२९॥ पत्ता य देवलोगं, एवं किल दव्वतित्थसंसेवा । दसणसुद्धिनिमित्तं सूरीही महागिरीहिँ कया ॥१३०॥ [आर्यमहागिरिकथानकं समाप्तम् । ३.] भावतीर्थनिषेवायां भीम-महाभीमावुदाहरणम् । तत्र च सम्प्रदाय: १. ला० 'ल्लनिद्दलण! ॥ २. ला० तइलो ॥ ३. ला० एवं ॥ ४. ला० संजणगे ॥ ५. ला० यां तु भी ॥ ६. ला० तत्र सम्प्र || Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीम-महाभीमयोः कथानकम् ( ४. भीम-महाभीमयो: कथानकम् ) ___ अत्थि गयणतलविलग्गदुग्गसिहरसयसंकुलो नाणादुमसंडमंडियनियंबुद्देसो संचरंतभीसणसावयकुलमेहलातडविभागो बहुगुहानिवसंतसबरसंघाओ परिपेरंतभमंतवणहत्थिजूहो महानइनम्मयापवाहुप्पत्तिभूमी निज्झरणझरंतझंकारबहिरियदिसावलयो वन्नरबुक्कारपउरो सिहिगणकेक्कारव-कोइलाकुलकोलाहलमुहलो विज्झो नाम पव्वओ । तस्स य विसमाहोभागनिविट्ठा अत्थि वंसकलंकी नाम चोरपल्ली । तीए य समत्थचोराहिवा भीम-महाभीमाहिहाणा दुवे भायरो परिवसंति । ते य सम्मद्दिट्ठिणो वि अविरया पाणिवहाइपसत्ता पायं चोरियाए चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति । अन्नया य सत्थेणं सह अणिययविहारेणं विहरमाणो चंदो व्व सोमयाए, सूरो व्व तवतेयदित्तीए, धरणीतलं व खंतीए, जलहि व्व गंभीरयाए, सुरसेलो व्व थिरयाए, गयणतलं व निरालंबयाए, मेहो व्व दुहसंतावतवियभव्वसत्तसंतावावहारयाए, सुरगुरु व्व बुद्धीए तक्कालवट्टमाणसुयसागरपारगामी परोवगारकरणेक्कतल्लिच्छचित्तो, किं बहुणा ? जिणधम्मो व्व मुत्तिमंतो सुसाहुजणपरिवुडो समागओ तं पल्लिप्पएस धम्मघोसो नाम सूरी । एत्थंतरस्मि य आवरियं गयणयलं तमालदलसामलेहिं जलएहिं । अइगज्जियसदेणं फुट्टइ व नहंगणं सहसा ॥१॥ विजू य चमकंती, पीवरधाराहि निवडए सलिलं । पूरागया नईओ, चिक्खल्लचिलिच्चिला मग्गा ॥२॥ जलपुन्ना संगाहा, भमंति इंदोयगाइबहुजीवा । किं बहुणा ? संजाया उब्भिन्ननवंकुरा धरणी ॥३॥ तं च तारिसं पाउससिरिमवलोइऊण भणिया गुरुणा साहुणो जहा संपयं गच्छंताणमसंजमो, ता गवेसह इत्थेव पल्लीए पाउसकरणनिमित्तं वसहि' । तओ ‘इच्छं'ति भणिऊण पविट्ठा तत्थ पल्लीए । पुच्छिओ मज्झत्थवओ कोइ जहा 'अत्थि इत्थ कोइ जो अम्हाण उवस्सयं देइ ?' तेण भणियं ‘वच्चह इत्थ गेहे पल्लीवईण समीवं, ते तुम्ह भत्ता । तओ पविट्ठा तत्थ गेहे साहुणो । दिट्ठा य तेहिं । तओ 'अहो ! असंकप्पिओ गेहंगणे कप्पडुमुग्गमो, अचिंतिओ चिंतामणिसंगमो, अकामियं कामधेणुसमागमणं, अप्पत्थिया कामघडसंपत्ति' त्ति चिंतेता हरिसुप्फुल्ललोयणापडिया पाएसु । भणियं च ‘आइसह जमम्हेहिं कायव्वं ?' । साहूहिं भणियं जहा 'पेसिया अम्हे गुरुणा चाउम्मसिकरणजोगोवस्सयगवेसणनिमित्तं, ता किमत्थि कोइ उवस्सओ ?' । तओ 'अणुग्गहो' त्ति भणमाणेहिं दंसिओ जइजणास पाउग्गो उवस्सओ । समागया य सूरिणो । संभासिऊण सेज्जायरे ठिआ तत्थ नियधम्मजोगपरायणा । ते य पल्लिनाहा तब्भत्तिसंजुत्ता गमिति कालं । अवि य– १. ला० रझरं ॥ २. ला० पाणव' ॥ ३. सं० वा० सु० “वद्धमा ॥ ४. ला० उ ॥ ५. ला० ओ य म ॥ ६. ला० णमुव ॥ ७. भक्तौ उपासकावित्यर्थः ॥ ८. सं० वा० सु० "प्पियगे ॥ ९. ला० 'म्मासक ॥ १०. ला० 'णपाओग्गो । ११. सं० वा० सु० ते पल्लि ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे कइया वि हु सज्झायं मुणिवरवयणाओं निग्गयं महुरं । संवेगभावियमणा सुणंति अमयं व घोट्टिन्ता ।४/ कइया वि धम्मझाणं झियायमाणे मुणीसरे मुइया । तम्मुहनिहित्तनयणा खणमेक्कं पज्जुवासेन्ति ॥५॥ कइया वि हु पडिलेहण-पमजणाईसु उज्जए साहू । अवलोइऊण हरिसं वच्चंति गुणाणुरागेण ॥६॥ कइया वि हु वक्खाणं सुगंति गुरुमुहविणिग्गयं तुट्ठा । दुत्तरभवनीरायरतारणवरजाणवत्तं व ॥७। एवं च भत्तिभरणिब्भराण जइपज्जुवासणपराणं । संवेगभावियाणं वोलीणो पाउसो ताणं ॥८॥ अह अन्नया कयाई पढंति गुरुणो मुणी समुद्दिसिउं । एयं गाहाजुयलं ताण सुणंताण दोण्हं पि ॥९॥ उच्छू वोलिंति वई तुंबीओ जायपुत्तभंडाओ ।। वसहा जायत्थामा गामा पंव्वायचिक्खल्ला ॥३१॥ अप्पोदगा य मग्गा वसुहा वि य पक्कमट्टिया जाया । अन्नोक्कंता पंथा साहूणं विहरियं कालो ॥३२॥ तओ इमं विहारक्कमसूयगं सुणिऊण उव्वाहुलयभरभरेज्जमाणमाणसेहिं वंदिऊण भणियं तेहिं 'जहा भयवं ! महारंभाइपसत्ताण तुम्ह पायसुस्सूसणापयपवाहपखालेजमाणपावपंकाणं अम्हाणं अणुग्गहठ्ठाए किं ण इत्थ चेव चिड्रेस्सह, जेण एवं भणह ?' । गुरूहि भणियं ‘सावया ! न एस कप्पो साहूणं । जओ भणियमागमे समणाणं सउणाणं भमरकुलाणं च गोउलाणं च । अणियाओ वसहीओ सारइयाणं च मेहाणं ॥३३॥ ता महाणुभावा ! न इत्थऽत्थे आगहो कायव्वो, वट्टमाणजोगेण य चाउम्माससमत्तीए विहरिस्सामो' । अन्नम्मि य दिणे संवहंतेसु साहूसु आमंतिऊण ते भणियं(?या) गुरूहिं जहा ‘पभाए अम्हाणं अणुकूलं पत्थाणदिणं ता भो भद्दा ! परिभाविऊण संसारासारत्तणं, चवलत्तणमिंदियाणं, खणरमणीयत्तणं विसयाणं, निच्चपरिसडणसीलत्तणमाउयदलाणं, दुग्गइनगरगमणपगुणमग्गत्तणं च पावायरणाणं, गेण्हह सव्वविरइपमुहं किंचि विरइट्ठाणं' । तओ ‘कहिं मरुत्थलीए कप्पपायवो ?, कहिं मायंगगेहे एरावणो हत्थी ? कहिं दालिद्दियगेहे रयणवुट्ठी ?, कहिं अम्हारिसा पाणिणो ?, कहिं एवंविहा सामग्गि ?' ति संपहारिऊण भणियं तेहिं 'भयवं ! जमम्हाण मुचियं तं सयमेव संपहारिऊण उवइसह । तओ गुरूहि ‘एयस्सेव उचिय'ति चिंतिऊण दिन्नं ताण रायभोयणवयं । कहिया य तद्दोसा जहा १. मुनीन् ॥ २. इमे ३१-३२ अङ्कयुक्ते द्वे गाथे ओघनिर्युक्ते: १७०-१७१ अङ्कतमे स्तः, बृहत्कल्पभाष्ये १५३९-४० अङ्कवत्यौ च द्वितीयगाथाचतुर्थचरणपाठान्तरसमेते लभ्येते, तद्यथा-विहरणकालो सुविहियाणं ॥ ३. प्रम्लानकर्दमाः ॥ ४. विहर्तुम् ॥ ५. गाथेयं ओघनिर्युक्तौ १७२तमी समुपलभ्यते ॥ ६. सं० वा० सु० णे सुसंव ७. सं० वा० सु० णसमग्ग' ।। ८. ला० व परिभाविऊण ॥ ९. ला० राईभो० ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीम-महाभीमयोः कथानकम् मालिंति महियलं जामिणीसु रयणीयरा समंतेणं । ते विट्टालिंति फुडं रयणीए भुंजमाणा उ ॥१०॥ मेहं पिपीलियाओ हणंति, वमणं च मच्छिया कुणइ । जूयाजलोयरत्तं, कोलियओ कुट्ठरोगं च ॥११॥ वालो सरस्सभंगं, कंटो लग्गइ गलम्मि दारुंच । तालुम्मि विंधइ अली वंजणमज्झम्मि भुंजतो ॥१२॥ जीवाण कुंथुमाईण घाइणं भाणधोयणाईसु । एमाइ रयणिभोयणदोसे को साहिउं तरइ ? । ॥१३॥ तथा निशीथभाष्येऽप्युक्तम् जइ वि हु फासुयदव्वं कुंथू-पणगाइ तह वि दुप्पस्सा । पच्चक्खणाणिणो वि हु राईभत्तं परिहरंति ॥३४॥ जइ वि हु पिवीलिगाई दीसंति पईवमाइउज्जोए । तह वि खलु अणाइन्नं मूलवयविराहणा जेणं ॥३५॥ __(निशीथभाष्यगा० ३३९९-३४००) एवं च दाऊण तेसिमणुसहिँ राईभोयणवयं च पभायसमये पट्ठिया सूरिणो । ते य दो वि करकलियकरालकरवाला पट्ठिया गुरूण पुरओ, जाव पत्ता गुरुणो सीमंतं । तओ नियत्तिउकामेहिं वंदिया तेहिं गुरुणो । भणियं च गुरूहिं जहा वयभंगे गुरुदोसो थेवस्स वि पालणा गुणकरी उ ।' तम्हा दढव्वएहिं होयव्वं एत्थ वत्थुम्मि ॥१४॥ एवं(व) भणिऊण गुरुणो अन्नं देसंतरं गया, ते वि । ‘इच्छंति भाणिऊणं संपत्ता निययगेहम्मि ॥१५॥ अह अन्नया कयाई चोरसमेएहिँ अण्णविसयम्मि । गंतुं अइप्पभूयं आणीयं गोहणं तेहिं ॥१६॥ तं गहिऊणं पत्ता पच्चासन्नम्मि निययपल्लीए । गामम्मि, तस्स बहिया चोरा महिसं विणासंति ॥१७॥ तं अद्धया पयंती, मजट्ठा अद्धया गया गामे । मन्तंति मजयत्ता गोहणलोभेण चलियमणा ॥१८॥ घाएमु मंसइत्ते जेणऽम्हाणं इमं हवइ सव्वं । इय मंतिऊण खेतं अद्धयमजे विसं तेहिं ॥१९॥ इयरेहिँ वि तम्घायणविसयं चिंतित्तु अद्धए मंसे । जाव विसं पक्खेत्तं ताव य अत्थं गओ सूरो ॥२०॥ 'रयणीजाय' ति दढव्वएहिँ सेणाहिवेहिँ नोभुत्तं । अण्णोण्णदिण्णविसभोयणेण इयरेमयासव्वे ॥२१॥ द₹ण वइससं तं धणियं संवेगमागया दो वि । ते भीम-महाभीमा जपंति परोप्परं एवं ॥२२॥ अहह ! कह अविरईए दारुणया इमे मया सव्वे । अम्हं पुण एगस्स वि वयस्स एयं फलं जायं ॥२३॥ जंन मया तह रिद्धी इह लोए चेव एरिसा पत्ता । परलोए पुण मोक्खो होही कमसो न संदेहो ॥२४॥ १. ला० ०ओ कोढरोगं ॥ २. ला० घायणं भाणधोईणा' ॥ ३. एकादशमोद्देशके ॥ ४. पञ्चाशके पञ्चमपञ्चाशकस्य द्वादशमीगाथायाः पूर्वार्धमिदम् ।। ५. ला० मज्जइत्ता ।। ६. सं० वा० सु० 'मज्झे ॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे एवं च जंपिऊणं तं सव्वं गोहणं गहिऊण गया नियगेहं । काऊण य चोरपरियणस्स जहोचियं कायव्वं, संजायपच्चएहिं य जहासत्तीए गहियाओ अन्नाओ वि निवित्तीओ । एवं च विसुद्धसम्मत्तसंजुयाणं पडिवण्णणिवित्तिपरिवालणुज्जयाण सुसाहुजणपज्जुवासणागुणाणुरंजियमाणसाणं दीणा-ऽणाहाइदाणपरायणाणं पसत्थभावणाभावियाणं जिणिंदवंदण-पूयणाइपसत्ताणं नियदुच्चरियनिंदणं कुणंताणं समागओ अहाउयकालो । तओ पंचनमोक्कारपरा मरिऊणं उप्पन्ना देवलोगे देवत्ताए । तओं चुया सुमाणुसत्त-सुदेवत्ताइकमेण सिद्ध त्ति । [भीम-महाभीमयोः कथानकं समाप्तम् । ४.] ___एवं भावतीर्थसेवा सम्यक्त्वं भूषयतीति । व्याख्यातं तृतीयभूषणम् । सम्प्रति चतुर्थम् । तत्र ‘भत्ति' ति सूत्रावयवः, भक्ति:' विनयवैयावृत्त्यरूपा बाह्या प्रतिपत्ति: सा च सम्यक्त्वं भूषयति, उक्तं च तित्थयराणं वरमुणिगणाण संघस्स पवरभत्तीए । सम्मत्तं भूसिज्जइ अणवरयविहिजमाणीए ॥३६॥ तम्हा अणवरयं चिय भत्ती एएसु होइ कायव्वा । सम्मत्तभूसणत्थं भवभयभीएहिँ भव्वेहिं ॥३७॥ तत्र तावत् तीर्थकरभक्ताबुदाहरणं प्रतिपाद्यते [५. आरामशोभाकथानकम्] इह चेव जंबुदीवे दीवे दीवोयहीण मज्झत्थे । भरहं ति नामखेत्तं छक्खंडं अत्थि सुपसिद्धं ॥१॥ तत्थ य मज्झिमखंडे गोमहिससमाउलो महारम्मो । देसाण गुणनिहाणं अत्थि कुसट्ट त्ति वरदेसो ॥२॥ तत्थ य परिस्समकिलंतनर-नारीहिययं व बहुसासं, महामुणि व्व सुसंवरं, कामिणीयणसीसं व ससीमंतयं अत्थि थलासयं नाम महागामं । पमुइयजणसयरम्मं अविगम्मं दुट्ठ-राय-चोराणं । दाण-दया-दमनिलयं तं गामं सयलगुणकलियं ॥३॥ तं च गामं सरूवेणेव ज्झाडवज्जियं, अवि यचाउद्दिसिं पि गामस्स तस्स मोत्तुं तिणाणि णो अन्नं । उढेइ किं पि झाडं जोयणमित्ताएँ भूमीए ॥४॥ इओ य अत्थि तत्थ गामे रिउवेयाइपाढगो अग्गिसम्मो नाम बभणो । तस्स जलणसिहा १. ला० गिहिऊण || २. सं० वा० सु० 'ताए क’ ॥ ३. ला० कुसल त्ति ॥ ४. ला० विप्पो । चंडरुद्दा नाम से भारिया । ताणं ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरामशोभाकथानकम् नाम बंभणी । ताणं च विसयसुहमणुहवंताणं जाया एगा दारिया । कयं च से नामं विजुप्पह त्ति। सा य अईवरूवाइगुंणगणोवेया, अवि य रूवोहामिय जीएँ, सुरंगण, गइ-वयणेहि य वरहंसग्गण । चंदलेह सोमत्तणि नजइ, गोरि नाइ सोहगिं छज्जइ ॥५॥ दक्ख विणीय गुरूयणभत्ती, इत्थिपसत्थकलागमजुत्ती । सच्चसोयसीलेहिँ अलंकिय, सरलसहाव कया वि अवंकिय॥६॥ तीसे य जाव अइक्वंताणि अट्ठ वरिसाणि ताव य रोग-जराकिलेसदाढाकरालं पविठ्ठा मच्चुवयणं से जणणी । तओ सा चेव सव्वं गिहवावारं काउमाढत्ता, अवि यउट्टित्तु पभायम्मिं करेइ गोदोहणं तओ पच्छा । छाणुवलेवण-बोहारणाइ सव्वं विहेऊण ॥७॥ जाइ गोरक्खणत्थं, पुणो वि मज्झण्हकालसमयम्मि । आणेउं गावीओ करेइ गोदोहणं पुण वि ॥८॥ जणयस्स भोयणविहिं काऊण सयं पि भुंजिउं बाला । गावीण रक्खणत्थं जाइ पुणो एइ सायम्मि ॥९॥ सव्वं पओसकिच्चं काऊणं निद्दमोक्खणं कुणइ । एवं घरकम्मेणं णिच्चं उब्भज्जए बाला ॥१०॥ तओ अन्नम्मि दियहे अच्चंतपराभग्गाए लज्जं मोत्तूण भणिओ जणओ ‘ताय ! तहा करेसु जहा मह माया भवइ, जओ हं गिहकम्मं करंती पराभग्गामि' । तओ जणएण 'सोहणं भणई' त्ति मण्णमाणेण संगहिया का वि । सा वि तीसे चेव भारं निक्खिविऊण ण्हाण-विलेवण-विभूसाइवावई चेट्ठइ । तओ विजुप्पभाए चिंतियं जहा 'सुहनिमित्तं मए एयं कारियं जाव दुगुणयरो मह संतावो जाओ' । तओ जा पभाए निग्गच्छइ सा अइक्कंते भोयणसमये समागच्छइ, तत्थ य जं किंचि उव्वरियगाइ भोत्तूण जा जाइ सा पुणो रयणीए समागच्छइ । एवं च महया किलेसेणं अइकंताणि दुवालसवरिसाणि । अन्नदियहम्मि य गावीसु चरंतीसु चेव छायाअभावाओ पसुत्ता सा खडमज्झे । इत्थंतरम्मि य समागओ तमुद्देसं एगो विसहरो, अवि य- . अइकसिणमहाकाओ रत्तच्छो चवलजमलजीहालो । __विहियफडो तुरियगई भयभीओ तीऍ पासम्मि ॥११॥ सो नागकुमारसुराहिट्ठियदेहत्तणेण जंपेइ । माणुसभासाएँ तओ कोमलवयणेहिँ उट्ठवइ ॥१२॥ तो उठ्ठियं तयं जाणिऊण अह भणइ विसहरो एवं । 'वच्छे! भयभीओहंसमागओ तुज्झपासम्मि।१३। एए मह पुट्टीए जम्हा धावंति दुट्ठगारुडिया । मा एयाण करंडयपिंडियदेहो दुही होवं ॥१४॥ ता बाले ! नियखोलाइ ढक्किउं उवरिमेण वत्थेण । रक्खेहि ममं भीयं मा पुत्ति! बहुं विमालेहि ॥१५॥ ___ १. सं० वा० सु० गुणोवेया ॥ २. ला० कुणंता भजामि ॥ ३. ला. 'डा । तओ ॥ ४. सं० वा. सु० "म्मि गावी ॥ ५. सं० वा० सु० तओ उट्ठिः ॥ ६. ला० होहं ॥ ७. ला० नियकोलाएँ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे अहयं नागकुमाराहिट्ठियदेहो न चेव एएसिं । मंतस्स देवयाए सक्केमिह लंघिउं आणं ॥१६॥ तामा बीहि तुमं मह वयणं कुणसु निव्वियप्पेणं' । इय भणियाए तीए छूढो कोलाऍ सो नागो ॥ १७ ॥ I इत्थंतरम्मि य ओसहिवलयगहियकरयला समागया ते ग्रारुडिया । पुच्छिया य तेहिं सा ‘किं वच्छे ! दिट्ठो को वि तए एएण मग्गेण वच्चंतो महानागो ?' । तीए भणियं 'अहमुवरिल्लछइयवयणा इह सुत्ताठिया, ता किं ममं पुच्छह ?' । तओ तेहिं भणियं 'अरे बाला खु एसा, महानागं दहूण कूवंती पणट्ठा हुंता, जइ एईए दिट्ठो हुंतो, ता निच्छयं न एयाए दिट्ठो अग्गओ लोह' । 1 अगओ पिट्ठओ य पलोइऊण कत्थ वि तमपिच्छेता 'अहो कहं पेच्छंताणं चेव पणट्ठो सो ?' विम्हउप्फुल्ललोयणा जहागयं पडिगया ते गारुडिया । तओ भणिओ तीए सो सप्पो जहा 'निम्गच्छाहि संपयं जओ गया ते नरिंदा' । नीसरिओ य एसो । तओ तेण तय हिट्ठायगनागकुमारदेवेण पच्चक्खीहोऊण आवरिऊण य तं नागरूवं पयडिऊण सुररूवं भणिया एसा 'वच्छे ? तुट्ठो हं तुज्झ एएणं अणण्णसरिसेणं परोवयारकरणरसिएणं धीरत्तणचेट्ठिएणं, ता वरेहि वरं जेण तं पयच्छामि' । तओ चलमाणकुंडलाहरणं तियसमवलोइऊण भणियमेईए 'ताय ! जइ एवं ता करेहि महच्छायं जेण सुहेण चेव गावीओ चारेमि, अन्नहा बाढं घम्मेण बाहेज्जामि' । देवेण चिंतियं 'अहो ! मुद्धा वराइणी जा मह तौसे वि एवं पभणइ, ता करेमि अहं पि एईए उवयारं 'ति चिंतिऊण कओ ती वर महारामो । अवि य— ३२ नाणाजाइपहाणरुक्खनिलओ सव्वोउदिन्नप्फलो, निच्चं फुल्लपरागवासियदिसो मत्तालिसद्दाउलो । सव्वत्तो रविपायरुद्धपसरो चित्ताणुकूलो दढं, आरामो वरवण्ण-गंधकलिओ देवेण से निम्मिओ ॥१८ । भणिया य ‘वच्छे ! महप्पभावेण एसो जत्थ जत्थ तुमं वच्चिहिसि तत्थ तत्थ तुज्झोवरिं ठिओ गच्छस्स, गेहाइगयाए तुह इच्छाए सम्माइऊण तदुवरिं चिट्ठिस्सइ, आवइकाले पओयणे य मं सुमरिज्जसु' त्ति भणिऊण गंओ य सुरो । सा वि अमयफलासायणविगयतण्हा - छुहा तत्थेव ठिया जाव संजाया रयणी । तओ गावीओ घेत्तूण गया गेहं । आरामो वि ठिओ घरोवरिं । 'भुंजसु 'त्ति जणणीए भणियाए ‘नत्थि छुह' त्ति उत्तरं दाऊण ठिया । रयणीपच्छिमजामे य गावीओ घेत्तूण गया अरण्णं । एवं दिणे दिणे कुणंतीए गयाणि कैंयवि वासराणि । अन्नया य अडविट्ठियाए आरामतलसुहपसुत्ताए समागओ तेणंतेणं विजयजत्तापडिनियत्तो पाडलिपुत्तपुराहिवो जियसत्तू णाम राया । दिट्ठो य तेण सो आरामो । भणिओ य मंती 'देसु एत्थेव रम्मारा आवासं । तओ मंतिणा वि ' आएसो 'त्ति भणिय पहाणसहयारपायवतले दिन्नं १. ला० मह भणियं ॥ २. सं० वा० सु० 'या गारु ॥। ३. सं० वा० सु० तोसेण एवं ॥ ४. ला० • एवं पि । वां० मि एईए ॥ ५. तस्याः ॥ ६. ला० गओ असुरो ॥ ७ ला० णीभणि ॥ ८. सं० वा० सु० छुहा' उत्त° ॥ ९. सं० वा० सु० 'मे गावी ॥ १०. ला० कड़वयवास ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरामशोभाकथानकम् राइणो सीहासणं । निविठ्ठो तत्थ राया । तओ यबझंति तरुवरेसुं चंचलतुरयाण वरवलच्छीओ । पल्लाण-कवियमाईणि ओलइज्जति साहासु ॥१९॥ महखंधदुमेसु तहा गाढं बझंति मत्तकरिनाहा । करभाइवाहणाणि य जहारुहं संठविजंति ॥२०॥ ईओ य खंधावाररवायण्णणेण उठ्ठिया सा बाला । दिट्ठाओ य तीए करिवराइभउत्तट्ठाओ दूरं गयाओ गावीओ । तओ पेच्छंतस्सेव मंतिणो पहाइया सा ताण वालणत्थं । तओ गओ सव्वो वि आरामो तुरंगमाईए घेत्तूण तीए समं । 'किं किमेयं ?' ति संभमुभंतलोयणो उठ्ठिओ नरनाहाइलोओ। तओ किमेयमिंदयालं पिव दीसइ ?' ति पुच्छिओ मंती राइणा । मंतिणा भणियं 'देव ! अहमेवं वियक्केमि जहा—इमाओ पएसाओ निद्दाखयविबुद्धा उठ्ठिऊण नियकरयलेहिं चमढंती दो वि अच्छीणि उत्तट्ठलोयणा पहाइया एसा बालिया, एईए समं एसो वि पयट्टो आरामो, ता एईए पभावो को वि लक्खिज्जइ, न य एसा देवया अच्छिचमढणाओ संभाविजइ, ता सच्चवेमि एयं' ति भणमाणेण पहाविऊण कओ तीए सहो । 'किं भणह?' ति भणमाणी ठिया सा तत्थ सहारामेण। 'इओ एहि' ति सदिया णेण । तीए भणियं 'मम गावीओ दूरं वटुंति ।' मंतिणा वि 'अम्हे आणेमो' त्ति भणिऊण पेसिया आसवारा । आणियाओ गावीओ । सा वि समागया रायसमीवं । ठिओ तह च्चिय आरामो । तओ रण्णा तीए तमइसयं दद्दूण पलोइया सव्वंगं, लक्खिऊण य कुमारि संजायाणुराएण पलोइयं मंतिवयणं । मंतिणा वि लक्खिऊण राइणो भावं भणिया विजुप्पहा, अवि यसयलपुहईइ नाहं पभूयसामंतपणयपयकमलं । भद्दे ! नरिंदनाहं पडिवज्जसु पवरभत्तारं ॥२१॥ तओ तीए भणियं 'नाऽहं अप्पवसा' । मंतिणा भणियं 'कस्स पुण तुमं वसा ?' । तीए भणियं 'जणणिजणयाणं । मंतिणा भणियं को तुज्झ जणओ ? कत्थ वा वसइ ? किं वा से नामं?'। तीए जंपियं 'इत्येव गामे अग्गिसम्मो नाम माहणो परिवसइ । तओ राइणा भणिओ महंतओ जहा 'गच्छ तुम तत्थ एवं वरिऊण आगच्छ' । तओ गओ मंती गामं । पविट्ठो य तस्स मंदिरे । दिह्रो य तेण समागच्छंतो मंती । अब्भुट्ठिऊण य दिनमासणं, भणियं च 'आइसह जं मए करणेजं' । तेण भणियं 'भद्द ! किमत्थितुज्झ का वि दुहिया ?' । तेण भणियमामं । मंतिणा भणियं 'जइ एवं तो दिज्जउ सा देवस्स' । तेण भणियं 'दिन्ना चेव, जओ अम्ह पाणा वि देवसंतिया किं पुण कन?' ति। मंतिणा भणियं तो आगच्छ देवस्स समीवं' । तओ गओ रायसमीवं अग्गिसम्मो । आसीवायपुरस्सरं निसन्नो रायसमीवे । कहिओ य वुत्तंतो मंतिणा । तओ रना कालविलंबभयेण गंधव्वविवाहेणं १. ला० तओ ॥२. ला० तुरगाईए ॥३. सं० वा० सु० किमेवमिं ॥४. सं० वा० सु० णा उभणि ॥५. ला० तत्थेवस' । ६. ला० वर्षेति ॥७. सं० वा० सु० ण कुमा' ॥ ८. ला० अत्थेव ॥९. ला 'त्थि कावि तुज्झ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे परिणीया सा । पुव्वनामं परावत्तिऊण कयं अन्ननामं, अवि यजम्हा इमीएँ उवरिं रेहइ बहुतरुवरेहिँ रमणिजो ।आरामो तेण इमा नामेणाऽऽरामसोह त्ति ॥२२॥ तओ राया ‘संपयं एस मे ससुरओ भणिऊण नजिहि त्ति लजमाणो दाऊण दुवालस वरगामाणि पयट्ठो अग्गओहुत्तं । निवेसिया करिवरस्सुवरि आरामसोहा । ठिओ य तदुवरि चेव समाइऊण आरामो । एवं च परिहिट्टतुट्ठो वच्चए राया । अवि यतीए लंभेण णिवो सकयत्थं जीवियं ति मन्नेइ । अहवा को वररयणं लडुं न य तोसमुव्वहइ ? ॥२३॥ तीऍ वयणावलोयणवावडचित्तो पहम्मि सो जाई । अहवा सुंदरगम्मी खुप्पइ दिट्ठी किमच्छेरं? ॥२४॥ इक्वं रूवाइजुया, बीयं पुण देवयापरिग्गहिया । मोहेइ जं नरिंदं किमित्थ अच्छेरयं भणह ? ॥२५॥ तओ जाव पत्ताणि कमेण पाडलिपुत्तं ताव समाइट्ट राइणा, अवि यकारेह हट्टसोहं, उच्छल्लह गुड्डियाउ सव्वत्थ । मंचाइमंचकलियं सव्वं वि य पुरवरं कुणह ॥२६॥ किं बहुणा ? सविसेसं अजं सव्वं पि कुणह सामगिं । जेण पविसामि नयरे देवीएँ समं विभूईए ॥२७॥ संपाडियम्मि सव्वम्मि सासणे राइणो पुरजणेण । पविसइ ठाणे ठाणे कयकोउयमंगलो राया ।।२८।। पविसंतम्मि नरिदे कोऊहलपूरिओ जणो सव्वो । एइ निव-देविदंसणसमूसुओ नियगिहेहिंतो ।।२९।। पुरिसा वण्णंति निवं, देविं पुणवण्णयंति इत्थीओ । तत्थ भणइ कोइ जुवा कयपुण्णो एस नरनाहो।३० जेणेयं थीरयणं निज्जियतियलोयजुवइलाइण्णं । पत्तं महप्पहावं खाणी संसारसुक्खाणं' ।।३१।। वुड्डो को वि पयंपइ ‘पुव्वज्जियधम्मपरिणई एसा । ता तं चेव करेमो जेणऽनभवम्मि इय होमो' ॥३२॥ बालो विजंपइ इमंदळूणफलाइँ करिवरस्सुवरिं । अहह अहो विविहफलाअम्हे कहपाविमो एए?'1३३॥ जंपइकाविहुनारी हला! हला!पेच्छ अइसओईए' ।बीयाएसाभणिया देवपभावोइमोसव्वो' । ३४॥ अण्णाएँ पुणो भणियं पेच्छसु एयाएँ रूवसंपत्ती' । बीयाएं समुल्लवियं 'वत्थाभरणेहिँ नणु रूवं' ।३५॥ अण्णाइ पुणो भणियं ‘एस च्चिय जयउ जीवलोगम्मि। जा नरवइणा सद्धिं एक्कासणसंठिया जाई'।३६। इयरीऍ समुल्लवियं कहएयं वण्णसे तुमं सुयणु! ।अजालोयाण समक्खं निवसहिआलज्जए नेय ?|३७ । अन्ना का विपयंपइ पेच्छ हले! कोउयं अइमहंतं । करिवरस्स उवरिंआरामोसुटुरमणिज्जो' ।।३८।। बीया पयंपइ तओ 'न एयमम्हाण कोउगं किं पि । जं देवयाणुभावेण होइ एयारिसं सव्वं' ।।३९।। इय विविहजंपिरस्स उ जणस्स मझेण सो निवो पत्तो । नियभुवणम्मि विसाले उत्तरइ गयाओं तीइ समं ।।४०।। १. सं० वा० सु० ओ तदु ॥ २. ला० व कमेण पत्राणि पाडौं ॥ ३. ला० लावण्णं ।। ४. ला० करिनाहस्सुवरि ॥ ५. ला० यभवण ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरामशोभाकथानकम् अभिंतरं पविठ्ठाण ताण सो मंदिरस्स उवरिम्मि । आरामो ठाइ लहुं दिव्वो देवाणुभावेणं ।।४१।। इय एवं तीइ समं भुंजतो विसयसोक्खमणवरयं । दोगुंदुगु व्व देवो गयं पि कालं न याणेइ ।।४।। इओ य तीसे सवक्किजणणीए समुप्पन्ना धूया । जाया य जोव्वणत्था । तओ चिंतियं तीए 'जइ कहिंचि सा आरामसोभा न भवइ तओ तीए गुणाणुरत्तो मम धूयं पि परिणेइ राया, ता केणइ पओगेण तहा करेमि जहा सा न भवई' । एवं चिंतिऊण भणिओ तीए भट्टो जहा 'किं न आरामसोभाए जोगं किंपि भत्तुल्लगाइयं पेसेसि?। तेण भणियं 'पिए ! किमम्ह भत्तुल्लगेण ? तीसे किं पि ऊणं ?'। तीए भणियं 'सच्चं, न किंचि ऊणं परं अम्हाण चित्तनिव्वुई न भवई' । तओ तीसे आगहं नाऊण भणिया 'जइ एवं ता करेहि किं पि' । तीए वि हरिसुप्फुल्ललोयणाए कया सीहकेसरया मोयगा, संजोइया पभूयसंभारणदव्वेहि, भाविया महुरगेणं । पक्खित्ता अव्वंगकुडभणिओ य तीए भत्ता जहा 'नेहि संयं चेव एए मोयगे, मा अवंतराले अण्णो को वि पच्चवाओ भविस्सई' । तओ सो माहणो सरलसहावो तीए दुट्ठभावमलक्खंतो सयं चेव एगागी लंछियं मुद्दियं काऊण तं घडयं सिरे समारोविऊण जाव पयट्टो ताव भणिओ तीए जहा एयं मम भत्तुल्लगं आरामसोहाए चेव समप्पियव्वं भणियव्वा य वच्छा जहा—एयं तए सयं चेव भुत्तव्वं, न अन्नस्स कस्सइ दाइव्वं, मा हं एयस्स विरूवत्तणेण रोयकुले हसणिज्जा भविस्सामि' । ‘एवं होउ' त्ति भणिऊण पयट्ठो एसो । तिसंझं च पडियग्गमाणो, मुदं च संवायंतो, सुयणकाले य उस्सीसगमूले ठवयंतो, कमेण पत्तो पाडलिऊत्तस्स नयरस्स बाहिं । तत्थ य उव्वाउ त्ति पसुत्तो एगस्स वडरुक्खस्स महयमहालयस्स हेट्ठओ । कम्मधम्मसंजोगेण य तत्थ वडरुक्खकयकीलानिवासेण चिंतियं तेण तीए परिचियनागकुमारदेवेण 'हंत ! को वि एस पहिओ दीहरऽद्धाणलंघणपरिस्सम-निस्सहंगो सुवइ ता को पुण एसो ?' ति चिंतेण पसारियं नाणं, तेण य जाणिओ जहा—एसो सो आरामसोहाजणओ त्ति । तापुण किं कारणं एसो इत्थ पट्टणे पविसिउकामो ?, किं वा एयस्स संबले चिट्ठइ ? एवं च जाव णिरूवइ ताव पेच्छइ ते विसमोयगे। दळूण य चिंतियमणेण जहा 'अहो से जणणीए दुट्टया !, ता किं मए विजमाणम्मि चेव एसा विवज्जिस्सइ ?' ति परिभावितेण अवहडा ते विसमोयगा, पक्खित्ता अन्ने तत्थ अमयमोयगा । खणंतरेण य विबुज्झिऊण सो पविठ्ठो नयरमज्झे । पत्तो रायभवणदुवारं । तओ पडिहारमुद्दिसिऊण भणियमणेण भद्द ! निवेएहि राइणो जहा–आरामसोहाजणओ दुवारदेसे देवदंसणमणुकंखई' । पडिहारेण वि.निवेइयं रण्णो । राइणा भणियं 'लहुं पविसेहिं । तव्वयणाणंतरं च पवेसिओ पडिहारेण । तेण वि उवसप्पिऊण 'भूर्भुवः स्वस्ति स्वाहा वषड् इन्द्राय' १. ला० इ पेसे ॥ २. सं० वा० सु० संपयं ॥ ३. सं० वा० सु० रे काऊण जाव ॥ ४. सं० वा० सु० य भुत्त' ॥ ५. सं० वा० सु० रायस्स कुले ।। ६. ला. 'तनयरस्स ।। ७. ला० महईम' ।। ८. ला० ता किं पुण कार' ।। ९. ला० हारं समुद्दि ।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे इत्यादिमन्त्रपठनपूर्वकं समप्पियमुवायणं नरवइपच्चासन्नोवविट्ठाए आरामसोहाए । भणियं च जहा 'देव ! विन्नत्तं वच्छाजणणीए जहा — एयं भतुल्लगं मए जं वा तं वा मायाहियएण पेसियं, अओ वच्छाए चेव समप्पणीयं, किं बहुणा ? जहा हं रायकुले हसणेज्जा ण भवामि तहा कायव्वं' । तओ राइणा निरूवियं वयणं देवीए, तीए वि नियदासचेडीए हत्थे दाऊण नीयं सगेहे । आभरण-वत्थाsiकारा - इदाणेण कओ उवयारो माहणस्स । देवी वि सगिहं गया । उट्ठिए य अत्थाणे गओ राया देविमंदिरं । सुहासणोवविट्ठो य विण्णत्तो तीए, अवि य ३६ 'देव ! मह कुण पसायं, नियदिट्ठि देह, जेण सो कुडओ । उग्घाडिज्जइ संपइ' इय सोउं जंपए राया ॥४३॥ 'देवि ! कुणमा वियप्पं, इमं पि अण्णं पिजं तए विहियं । तं अम्हाण पमाणं, उग्घाडहि तो तयं झत्ति ॥ ४४ ॥ तसा तं उघाइ जाव ताव सहस त्ति । निद्धाइ तओ गंधो जो दुलहो मच्चलोगम्मि ।। ४५ ।। गंधेण तेण राया अक्खित्तो जाव ता पलोएइ । अमयप्फलसारिच्छे सुपमाणे मोयगे दिव्वे ।।४६ ।। अइकोउगेण राया दंसेऊणं चओरजीवस्स । भुंजेइ मोयगे जा अच्चत्थं विम्हिओ ताहे ।। ४७ ।। तओ भणियं राइणा जहा "देवि ! 'अपुव्वरस'त्ति काऊण पेसेहि एगेगं मोयगं नियभगिणीणं”। तीए वि तह चेव कयं । तओ उच्छलिओ साहुवाओ जणणीए जहा 'न अण्ण एवंविहं विण्णाणं'ति । तत्तो य विसज्जाविया अग्गिसम्मेण जहा 'देव ! विसज्जेह कं पि कालं वच्छं, व आजह' । रणा भणियं 'भट्ट ! असूर्यम्पश्या राजदाराः ' । तओ निच्छयं नाऊण गओ भट्टो नाणं । कहिओ सव्वो वि वुत्तंतो तीए । तओ चिंतियमणाए 'हंत ! किहमेयं निष्फलं जायं ?, नूर्णं सुंदरं भविस्सइ महुरयं ता अन्नं सुंदरतरं बीयवाराए करिस्सामि तहेव । केहिंचि दिणेहिं वियक्कंतेहिं फीणियाकरंडयं घेत्तूण पेसिओ भट्टो । तेणेव कमेण पत्तो तं वडपायवं । दिट्ठो देवेण । अवहरियं विसं । तहेव जाया सलाहा । पुणो तइयवाराए आवन्नसत्तं सोऊण सुपरिक्खियतालपुडसंजोइयमंडियाकरंडयं समप्पिऊण भणिओ 'इण्हिं तहा कायव्वं जहा इत्थागंतूण वच्छा पसवइ, जइ कहंचि राया न पडिवज्जइ तो बंभणसरूवं दंसणीयं' । ' एवं 'ति पडिवज्जिऊण गओ एसो । तहेव वडरुक्खं पत्तस्स अवहरियं गरलं देवेण । तेणेव कमविभागेण विण्णत्तो राया जहा 'देव! इहिं विसज्जेह एयं, जेण तत्थ गंतूण पसवइ' । राइणा भणियं 'ण एयं कयाइ संभव' । ओ भट्टे निवेसिऊण उयरे छुरियं भणियं 'जइ न विसज्जेह तओ अहं तुम्हाणमुवरि बंभणो होमि' । तओ से निच्छयं नाऊण मंतिणा सह सामत्थिऊण विसज्जिया महासामग्गीए । तओ तमागच्छंतं नाऊण खणाविओ नियगेहपिट्ठओ महंतो से मायाए कूवो । ठाविया य पच्छन्ना भूमिघरयम्मि नियधूया । पत्ता १. सं० वा० सु० 'ए निय' ।। २. ला० 'डीहत्थे ।। ३. सं० वा० सु० 'पि एव (वं) पिजं ।। ४. ला० 'णं न सुंद° ।। ५. ला० विइक्कं ।। ६. सं० वा० सु० 'व वणे कमे' ।। ७. ला० णो तओ ।। ८. सं० वा० सु० 'या पच्छन्ना ॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरामशोभाकथानकम् ३७ य तत्थ महाभडचडगरेणं आरामसोहा । कयं सव्वं पि करणिज्जं । पत्त्य पसूइसमये पसूया देवकुमारसरिसं दारयं । तओ अन्नया कयाइ दूरत्थाणं अंगपडियारियाणं दिव्वजोएण आसन्नाए मायाए उठ्ठिया एसा सरीरचिंताए नीया पच्छिमदुवारेणं । दळूण य कूवयं भणियमिमीए ‘अम्मो ! कया एस कूवओ निप्पन्नो ?' । तीए भणियं 'पुत्त ! तुज्झागमणं णाऊण विससंचरणाइभएण गिहे चेव एस मए खणाविओ' । तओ सा जाव कोउगेण कूवतलं निरूवइ ताव निद्दयं नोल्लिया जणणीए निवडिया अहोमुहा । निवडंतीए य सुमरिऊण सुरसंकेयं भणियमणाए ‘ताय ! संपयं तुह पाया सरणं' ति । तओ झत्ति तेण नागकुमारदेवेण पडिच्छिया करयलसंपुडेण, कूवयंतराले य काऊण पायालभवणं ठविया सा तत्थ चिट्ठइ सुहेण । आरामो वि पविट्ठो कूवयम्मि । तियसो वि कुविओ तजणणीए । 'जणणि'त्ति काऊण उवसामिओ अणाए । तीए वि णिवेसिया कयसूइयावेसा तत्थ पल्लंके नियधूया । खणंतरेण य समागयाओ परिचारियाओ । दिट्ठा य सा ताहिं, अवि यईसीसिफरलदिट्ठी थोवयलावण्णरूवतणुतेया । किंचि सरिच्छावयवा दिट्ठासा ताहिँ सयणगया ।।४८॥ भणिया 'सामिणि ! किं ते देहं अण्णारिसं पलोएमो ?' । सा भणइ 'न जाणामि, किंतु न सच्छं मह सरीरं' ।। ४९।। तोताहिंभीयाहिंपुट्ठाजणणी 'किमेरिसंएयं?' ।सावितओमाइल्लाताडंती हियव(य) यंभणइ ।।५० ।। 'हा! हा! हया हयासा वच्छे ! हं मंदभाइणी नूणं । जेण तुह रूवसोहा अन्न च्चिय दीसए देहे ।५१ ।। किंहुज्जदिट्टिदोसो? किंवावायस्स विलसियं एयं? । किंवापसूइरोगोसंजाओतुज्झ देहम्मि? ।।५२।। इय विलवंतीतोसाभणियापडिचारियाहिं मारुयसु ।जंइत्थंकरणे किंपितयंकुणसु सिग्घयरं'॥५३॥ इय भणियाए तीए नाणाविहकोउगाइँ विहियाइं । तह विन कोइ विसेसो संजाओ तीए देहम्मि ।।५४।। तओ रायभएणं विसन्नाओ पडिचारियाओ । इत्थंतरम्मि य समागओ रायपेसियमहंतओ । भणियं च तेण 'देवो आणवेइ देविं कुमारं च घेत्तूण सिग्घमागच्छह' । तओ कयासव्वसामग्गी। पत्थाणसमए य भणिया देवी परियणेणं 'कत्थ आरामो ? किं वा अज्ज वि न पयट्टइ ?' । तीए भणियं 'घरकूवे जलपाणत्थं मुक्को पच्छा आगमिस्सइ पयट्टह तुब्भे' । पयट्टो सव्वो वि परिवारो । कमेण य पत्ताई पाडलिपुत्तं । वद्धाविओ नरवई । तओ हरिसभरनिब्भरेणं काराविया हट्टसोहा। आइडं वद्धावणयं । पयट्टो सयं अम्मोगइयाए जाव दिट्ठा देवी कुमारो य । तओ देविरूवं निएऊण पुच्छियं राइणा जहा 'देवि ! किमन्नारिसं तुह सरीरं पेच्छामो ?' । तओ पडिचारियाहिं भणियं 'देव ! पसूयाए एयाए दिट्ठिदोसेण वा वातदोसेण वा पसूइरोगेण वा कहिं(ह) चि एवंविहं सरीरं जायं, न सम्मं वियाणामो' । तओ नरवइणा पुत्तजम्मन्भुदयहरिसिएणावि अंधारियं वयणं १. सं० वा० सु० ते पसू ॥ २. ला० झडत्ति ॥ ३. सं० वा० सु० 'मो पविट्ठो ॥ ४. ला० सव्वा साम || ५. ला० पाटलिपुत्तं ॥ ६. ला० ओ अइरहसभर' ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे देविवइयरसवणाओ, तहा वि धीरयं काऊण पविट्ठो नयरं । भणिया य सा 'किमारामो न दीसेइ ?'। तीए भणियं 'पिट्ठओ मुक्को पाणियं पियंतो चिट्ठइ, सुमरियमित्तो समागमिस्सई' । तओ राया जया जया तीए सरीरं सव्वंगं पेच्छइ तया तया संदेहावनो भवइ, 'किमेसा सा अन्ना व ?' ति । अन्नया य भणिया राइणा जहा 'आणेहि आराम' । 'पत्थावेणं आणेस्सामि' त्ति भणंतीए सुन्नयं उडुप्पाडं द₹ण जाया महल्लयरी आसंका 'मन्ने न चेव एसा सा, अण्णा काई' ति वियकंतो अच्छइ । इओ य तीए आरामसोहाए भणिओ सो देवो जहा 'कुमारविरहो मह अच्वंतं बाहइ, ता तहा करेहि जहा कुमारं पेच्छामि' । तओ भणियं नागकुमारदेवेण 'वच्छे ! जइ एवं गच्छ मम सत्तीए, परं दद्दूण नियसुयं सिग्घमेवाऽऽगंतव्वं' । तीए भणियं ‘एवं होउ' । देवेण भणियं 'जाई! तुमं तत्थेव सूरोग्गमं जाव चिट्ठिहिसि, तओ परं नत्थि मए सह तुह दंसणं, पच्चओ य जया हं पुणो नाऽऽगमिस्सामितया हं मयगनागरूवं तुहकेसपासाओ निवडतं दंसिस्सामि' । तीए भणियं ‘एवं होउ, तहा वि पेच्छामि नियतणयं' । तओ विसज्जिया तियसेण । तप्पहावेण य खणमित्तेण चेव पत्ता पाडलिपुत्तं । विहाडेऊण य वासभवणं पविट्ठा अब्भंतरे । जं च केरिसं ?, अवि यपज्जलियरयणदीवं मणिमोत्तियरयणजणियओऊलं । पुप्फोवयारकलियं, मघमहियसुधूववल्लिल्ल।।५५॥ वरकक्कोलय-एला-लवंग-कप्पूरकलियपडलम्मि । ठवियवरनागवल्लीदलबीडय-पूगसंघायं ।।५६॥ बहुखज्ज-पेज्जकलियं संजोइयजंतसउणआइण्णं । पासुत्तराय-नियभगिणिजुत्तपल्लंकपरिकलिय।।५७।। तं च दद्दूण किंचि पुव्वरयसुमरणुप्पन्नमयणवससंजायसिंगाररसनिब्भरं, किंचि नियदइयालिंगणपसुत्तभगिणीदंसणवसुप्पन्नईसारसं, किंचि जणणीकूवयपक्खेवसुमरणुब्भवकोवरसपसरं, किंचि सुयसुमरणुप्पण्णसिणे हरसगन्भिणं, किंचि समत्तनिययपरियणावलोयणसंजा यहरिस गरिसनिवडं तआणंदबिंदुसंदोहं, खणमेक्कमच्छि ऊण गया जम्मि पएसे पच्चासन्नपसुत्तधाइमाइपरियणो रयणजडियकणयमयपालणयारूढो कुमारो चिट्ठइ । तओ तं कुमारं घेतूण कोमलकरहिं रमाविऊण खणंतरं, पक्खिविऊण चाउद्दिसिं कुमारस्स निययारामफलफुल्लनियरं गया सट्टाणमेसा । तओ पभाए विनत्तो णरणाहो कुमारधावीए जहा 'देव ! अज्ज सविसेसं केणावि कयफल-फुल्लच्चणो कुमारो दीसई' । तं च सोऊण गओ राया तम्मि ठाणे । दिट्ठो य सो फलफुल्लनियरो । तं च दद्रूण पुच्छिया सा जहा 'किमेयं ?' ति । तीए भणियं ‘एयाणि आरामाओ अज्ज मए सुमरिऊण आणियाणि' । राइणा भणियं 'संपयं किं न आणेसि?' । तीए भणियं 'न दिवसओ आणिउं तीरति' । तं च तीए सुन्नयं उटुप्पाडं विद्दाणवयणकमलं च दद्दूणं चिंतियं राइणा १. ला० मं ।। २. ला० 'यं सुसिग्य ॥ ३. सं० वा. सु० जया (जाय !) ॥ ४. ला. पुणो वि ना ॥ ५. ला० तया मयग ॥ ६. ला० निवडतयं ॥ ७. सं० वा० सु० बीडं पूग ॥ ८. ला० णसमुप्पन्न' ॥ ९. ला० नियपरि ॥ १०. ला० यपहरिसनिवडं ॥ ११. सं० वा. 'कडय' ॥ १२. ला० वट्टइ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरामशोभाकथानकम् 'नणं वइससं किं पि 'संभाविज्जई' । तओ बीयदिणे वि तह च्चेव दळूण, तइयरयणीए तीए पसुत्ताए राया गहियकरालकरवालो ठिओ संकोइयंगो दीवयच्छायाहेछओ । खणंतरेण य आगया आरामसोहा । तं च दणं नरवइणा चिंतियं ‘एसा सा मह प्पियपणइणी, इमा का वि अण्णा, ता न याणामि किमेत्थ परमत्थं' ति चिंतयंतस्स सव्वं पुव्वविहियविहिं काऊण गया एसा । राया वि अणेगवियप्पाउलमाणसो पसुत्तो । पभाए अ भणिया सा जहा 'अज्ज तए निच्छएण आरामो आणियव्वो' त्ति । तं च सोऊण अच्वंतं विदाणा एसा । चउत्थराईए वि जाव सव्वं काऊण नियत्तइ ताव गहिया करयले नरनाहेणेसा, भणिया य ‘आ पिये ! किमेवं सब्भावसिणेहरसनिब्भरं भं विप्पयारेसि' । तीए भणियं 'नाह ! न विप्पयारेमि किंतु किंचि कारणमत्थि' । राइणा भणियं 'किं कारणं तं ?' । तीए जंपियं 'कल्लं कहेहामि, संपयं पुण विसजेहिं ।राइणा भणियं 'किं को वि बालो वि अमयं हत्थगयं विमुंचइ ?' । तीए भणियं 'नाह ! एवं कज्जमाणे तुज्झमवि महंतो पच्छायावो भविस्सई' । रण्णा लवियं 'जइ एवं ता कहेहि ताव कारणं' । सा वि जाव मूलाओ आरब्भ जणणीदुन्विलसियं कहेइ, ताव संजाओ अरुणुग्गमो । एत्थंतरम्मि य जाव ल्हसियकसकलावबंधणत्थं समारेइ ताव तड त्ति निवडिओ केसकलावाओ मयगविसहरो । तं च दद्रूण 'हा ताय' ति सखेयं भणमाणी मुच्छाए निवडिया धरणिवढे । तओ रण्णा वाउदाणाइणा समासासिऊण भणिया एसा 'पिए ! किं कारणं एवमच्चतमप्पाणयं खेयसि?' । तीए भणियं 'नाह ! जो सो नागकुमारो देवो मह सन्निझं कुणंतो तेणाहमेवं भणिया आसि ‘मे जइ अणणुण्णाया अरुणुग्गमं जाव अन्नत्थ चिट्ठिहिसि तेओ मए सह एत्तियं चेव ते दंसणं, मयगनियरूवदंसणं च एत्थ पच्चओ' तमेयं तुन्भेहिं अविसज्जियाए संजायं' ति । तओ ठिआ तत्थेव सा । पभाए य रण्णा कोवमुवगएण बंधाविया इयरी, कसं च घेत्तूण जाव ताडेइ ताव चलणेसु निवडिऊण विण्णविओ आरामसोहाए, अवि यदेव!जइमज्झउवरिंसपसाओतामुयाहिमे भगिणिं ।पुव्वंवपेच्छसुतहामहउवरिंकरियकारुण्णं ।५८॥ भणइ निवो देवि ! इमं न हुजुत्तं एरिसं कुणंतीए । एयाए पावाए, तह विन लंघेमि तुह वयणं' ।।५९।। छोडेत्तु सा वि धरिया नियपासे चेव भगिणिबुद्धीए । अह सुयण-दुजणाणं विसेसमिव दंसयंतीए ।६०। __तओ सद्दाविऊण नियपुरिसा आइट्ठा राइणा 'अरे फेडेत्ता दुवालस वि गामाणि लहुं करेह १. सं० वा० सु० करयलकरवालो ॥ २. ला० अच्चत्थं ॥ ३. ला० “ए य जाव ॥ ४. ला० रण्णा जंपियं 'किं कोइ बालो ।। ५. ला. जंपियं ।। ६. ला० तुज्झ वि मज्झ वि महंतो ।। ७. ला० भणियं ।। ८. ला० केसपासाओ ।। ९. सं० वा० सु० तं दटूण ।। १०. ला० आसि 'जइ मए अण' ।। ११. ला० तो।। १२. ला० तमेवं तुम्हेहिं ।। १३. ला० अय(व) रा ।। १४. ला० विण्णत्तमाराम' ।। वा० विण्णविओ(य) माराम' ।। १५. ला० छडे (डे)त्तु ।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे तं बंभणं निव्विसयं, तं पि से भारियं लयकन्नोडनासियं काऊण नीसारेह मम देसाओ' । एयं च समायण्णिऊण चलणेसु निवडिऊण पुणो वि विण्णत्तो राया, अवि य जइंखाइकहविसुणहो ताकिंसोचेवखज्जइपुणो वि? ।इयनाऊणंएएदेव! विसज्जेहममजणए ।।६१॥ जेण कएणं महई पीडा चित्तस्स देव ! अम्हाण । हेवइ तयं परिवजह जणयाणं दंडकरणं ति ।।६२।। एवं भणिओराया भणइ पिए! जेण तुज्झ मणपीडा। होइ तयं गरुयं पिहुकजं अम्हेहिँ परिचत्तं ॥६३॥ ___एवं च ताण पंचप्पयारमणिंदियविसयसुहमणुहवंताणं वच्चए कालो । अन्नया य राय-देवीणं एगओवविठ्ठाणं किंचि धम्मवियारं कुणमाणाणं जाओ संलावो, अवि यजंपइ देवी एवं ‘आईए नाह ! दुक्खिया अहयं । होऊणं पुण पच्छा समत्थसुहभायणं जाया ।।६४।। ता केणं कम्मेणं एयं ? पुच्छामि एइ जइ को वि । इहई दिव्वन्नाणी अम्हाणं पुण्णजोएणं' ।।६५।। भणइ निवो 'जइ एवं समत्थउज्जाणपालए देवि! निजेमि अहं जेणं कहंति मह आगयं नाणिं' ॥६६॥ इय जा निव-देवीणं खणमेत्तं वट्टए समुल्लावो । उज्जाणपालओ ता पप्फुल्लमुहो समायाओ ।६७।। भूलुलियसीसकमलो पणमित्ता विण्णवेइ ‘देव! जहा । चंदणवणउजाणे समोसढो दिव्वनाणधरो ।६८॥ करकलियविमलमुत्ताहलं वजोमुणइसयलतेलोक्कं। तीआ-ऽणागय-परिवट्टमाणभावेहिँ अणवरयं।६९ नामेण वीरचंदो साहूण सएहिँ पंचहिँ समग्गो। नर-विजाहर-सुरपहुवंदियचलणो वरमुणिंदो ॥७०। तं सोऊणं राया भत्तिवसोल्लसियबहलरोमंचो । भणइ ‘पिए ! संपण्णा अजेव मणोरहा तुज्झ ।।७१ ।। तो उठेहि लहुं चिय पिएँ ! पगुणा होसुजेण वच्चामो । सूरिस्स वंदणत्थं, पुच्छामो संसयं तह य' ७२। इय भणिया सा देवी संवूढा झत्ति, तो निवो तीए । समयं चिय संपत्तो उज्जाणं तक्खणेणेव ।।७३ ।। दिट्ठो य तत्थ सूरी बहुविहपरिसाएँ मज्झयारम्मि । देसंतो जिणधम्मं समत्थजीवाण सुहजणयं ।।७४ ॥ तो सूरिपायपंकयपणामपुव्वं समम्मि भूमितले । उवविट्ठाई दोण्णि वि नऽच्चासन्नम्मि सूरिस्स ।।७५।। भयवं पि विसेसेणं पत्थावइ धम्मदेसणं तत्तो । जह-इत्थं संसारे अणोरपारम्मि भममाणा ।।७६ ।। कह कहवि माणुसत्तं जीवापावंति कम्मविवरेण । तत्थ वि विविहं सोक्खं जायइ सुकरण धम्मेण ७७॥ जाई कुलमारोगं रिद्धी सोहग्गमोत्तमा भोगा । रूवं बलं जसो वि य भवंति सुकरण धम्मेण ।।७८ ।। इट्ठजणसंपओगो आणाकारी य परियणो सव्वो । अन्नं पि सुहं सव्वं जायइ सुकरण धम्मेण ।।७९।। सग्गंगणासणाहो पहाणभोगोवसाहणे(गो) सग्गो । नीसेसकेसमुक्को मोक्खो वि य होइ धम्मेणं ।।८०॥ १. ला० होइ ।। २. सं० वा० सु० पडिव' ।। ३. ला० तु ।। ४. ला० एगट्ठाणोववि' ।। ५. सं० वा० सु० तो ।। ६. ज्ञापयामि ।। ७. सं० वा० सु० सुरवहु ॥ ८. ला० तं खणेणेव ॥ ९. इत आरभ्य गाथात्रिकं ला. प्रतौ नोपलभ्यते ॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरामशोभाकथानकम् ४१ एत्थंतरम्मिय भालवट्ठमिलंतकरकमलमउलयाए विण्णत्तमारामसोहाए 'भयवं ! जइ सव्वमेयं धम्मफलं ता किं पुण मए पुव्वजम्मे कयं जस्सेरिसो विवागो ?' त्ति । तओ सजलनवजलहरोरालगंभीरधीरसारेणं सरेणं भयवं कहिउमाढत्तो, अवि य इह चेव जंबुदीवे भरहे वासम्मि चंपनयरीए । अत्थि पसत्थो सेट्ठी कुलंधरो धयसमविहवो । ८१ । तस्सऽत्थि कुलाणंदा भज्जा नामेण रूवगुणकलिया। तीसे य भोगलच्छिं तेण समं भुंजमाणीए । ८२ । जायाओ धूयाओ रूयाइगुणेहिँ संपउत्ताओ । सत्त अणन्नसमाओ, ताणं तु इमाइँ नामाई ।। ८३ ।। कमलसिरी कमलवई, कमला लच्छी सिरी जसोएवी । पियकारिणी उ, ताओ सव्वाओं वि उत्तमकुलेसु ।। ८४ ॥ परिणीयाओ विहिणा, भुंजंति अणोवमे विसयसोक्खे । अह कमसो अन्ना वि य संजाया अट्ठमा कण्णा ।। ८५ ।। 1 I ती जम्मम्म जणओ जणणी वि य दुक्खियाइँ जायाइं । निव्वेन्नयाइँ नामं पि नेय कुव्वंति से कहवि । ८६ । तो सा अणायरेणं वङ्खंती तह वि जोव्वणं पत्ता । पिय-माइदुक्खजणणी विसिहरूयायिजुत्ता वि ।।८७ । निब्भग्गिय त्ति नामेण सव्वलोएण सा य वुच्छंती । जणणि जणयाण दुक्खं दीसंति देइ अणवरयं । ८८ । अन्नदियहम्मि सेट्ठी भणिओ लौएहिं 'किं न नियकन्नं । परिणावसि ? जेणं इमं वट्टइ तुह जंपणं गरुयं । ८९ । एवं जण वृत्तो सेट्ठी चित्तम्मि सुड्डु निव्विन्नो । अणभिप्पेअत्तणओ अच्छइ चिंतावरो धणियं ॥ ९० ॥ अह अन्नम्म दिणम्मी चिंतावण्णस्स तस्स सेट्ठिस्स । वीहीऍ निविट्ठस्स उ एक्को पहिओ समायाओ । ९१ । मलमलचेलदेहो दीहरपहलंघणाओं परिसंतो । वीसमणत्थं एसो उवविट्ठो सेट्ठिहट्टम्मि ॥ ९२ ॥ पुच्छइ सेट्ठी वितयं 'भद्द ! तुमं आगओ कुओ इत्थं ?' । भणइ इमो 'नीरायरपाराओ चोडविसयाओ । ९३ ‘कोसितुमं ? काजाई? किंनामो? किंच आगओइहई ? ' । सोभणई' कोसलाए वत्थव्वगनंदइब्भस्सा ९४ सोमाइ भारिया पुत्तो हं नंदणो ति नामेणं । खीणे विहवम्मि गओ अत्थत्थी चोडविसयम्मि | ९५| तत्थ वि दारिद्दहओ अभिमाणेणं गओ न नियनयरं । परवृत्तयकरणेणं वसामि तत्थेव कयवित्ती ॥९६॥ तोगरण वणिणा वसंतदेवेण किंचि नियकज्जं । आसज्ज पेसिओ हं लेहं दाऊण इह तु ॥ ९७ ॥ सिरिदत्तसेट्ठिपासे ता दावह तग्गिहं, अहं जेण । गच्छामि तस्स पासं एयं लेहं समप्पेमि' ॥९८॥ चिंतइ कुलंधरो ता ‘मह धूयाए इमो वरो पवरो । जेणं सामन्नसुओ अत्थविहूणो विदेसत्थो ॥९९॥ घेण इमं एसो वच्चेही तत्थ, न य पुणो एही । अत्थाभावाओं हिं माणधणो दीस जेण' ॥१०० ॥ इय चिंतिऊण जंपइ 'पुत्त! तुमं एहि मज्झ गेहम्मि । तुज्झ पिया जेण महं आसि अणन्नस्समो मित्तो' । १०१ । १. ला० 'याइजुत्ता ॥ २. ला० लोएण ।। ३. ला० नियगेहं ।। ४. ला० महं ॥ ५. ला० विहीणो || Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे सोभणइ 'जेण कज्जेण आगओ तं निवेइउं पच्छा । आगच्छिस्सामि तओ तुह पासे ताय ! अविगप्पं ॥ १०२ पेसेइ नियं पुरिसं सेट्ठी सिक्खाविउं जहा 'भद्द ! लेहम्मि अप्पियम्मी घेत्तूणेयं इहं एज्ज' ॥ १०३ ॥ तं घेत्तुं सो पुरसो वच्चइ सिरिदत्तसेट्ठिगेहम्मि । लेहम्मि अप्पियम्मी कहियाइ समत्थवत्ता ॥ १०४॥ तो पुण विणंदणेणं सिरिदत्तो जंपिओ इमं वयणं । जह 'मह पिउणो मित्तं कुलंधरो इत्थ जो सेट्ठी १०५ मं दडुं पट्ठविओ आहवणत्थं इमो निओ पुरिसो । ता वच्चामि तहिं ता, पुणो वि इह आगमिस्सामि' । १०६ । तो सो सेट्ठिगिहम्मिं समं गओ तेण चेव पुरिसेणं । सेट्ठी वि ण्हाविऊणं णियंसए वत्थजुगलं से ॥१०७॥ भुंजाविऊण तत्तो पभणइ ‘परिणेहि मह सुयं वच्छ!' । सो भणइ 'मए अज्ज विगंतव्वं चोडविसयम्मि १०८ जंपइ कुलंधरो वि हु ‘घेत्तूण इमं पि तत्थ वच्चाहि । पेसेस्सामि तहिं चिय तुह जोगं णीविगाईयं' ।१०९। पडिवन्नम्मि इमेणं, परिणावइ कन्नयं तओ सेट्ठी । वत्ते वीवाहदिणे, सिरिदत्तो णंदणं भणइ ॥ ११० ॥ 'जइ तुममित्थेव थिरो तो अन्नं पट्ठवेमि तत्थाहं । जेण महंतं कज्जं अम्हाणं वट्टए तत्थ' ॥१११॥ जंपेइ णंदणो तो 'अवस्स गंतव्वयं मए तत्थ । मोयावित्ता सेट्ठि तुह वत्तमहं कहिस्सामि ॥१९२॥ अणम्मि दिने सेट्ठी विण्णत्तो तेण 'ताय ! गच्छामि । जेणऽत्थि तत्थ कज्जं मह गरुयं चैउडविसयम्मि' ॥११३॥ ४२ सेट्ठी वि चिंतियत्थस्स साहगं तेण मंतियं सोउं । भणइ 'जइ णिच्छओ ते तो पुत्त ! करेह एवं ति ॥ ११४ ॥ किंतु इमं णियभज्जं घेत्तूणं जाह चोडविसयम्मि । जेण तहिं चेवाहं तुह भंडं पट्ठवेस्सामि' ॥११५॥ कहिया य तेण वत्ता सिरिदत्तस्स उ जहा 'अहं पउणो । गणत्थं तु वियजं भणियव्वं तयं भणह' ॥ ११६ ।। तेण वि समप्पिओ से णियलेहो अक्खिया य संदेसा । एवं पगुणम्मि कए चलिओ घेत्तूण तं भज्जं । ११७ गागी चैवेसो संबलमेत्तं पंगेण्हिउं किंचि । अणवरयपयाणेहिं पत्तो उज्जेणिणयरीए ॥११८॥ तो चिंतियं च णेणं ‘लहुप्पयाणेहिँ इत्थ विसयम्मि । खीणं बहु संबलयं, पंथाओ तह य भग्गो हं । ११९ । तो पासुत्तं एयं मोत्तुं गच्छामि इच्छियं देसं' । इय चिंतिऊण वृत्ता 'पिऍ ! तुट्टं संबलं पायं ॥१२०॥ ता किं करेमि संपइ ? होही भमियव्वया जओ भिक्खा । ता भमिहिसि किं भिक्खं ?' सा जंपइ 'णाह ! णिसुणेहि ॥ १२१ ॥ तुह पिट्ठिविलग्गाए भिक्खा वि हु णाह मज्झ रमणीया' । एवं जंपेऊणं रयणीए दो वि सुत्ताई । । १२२ । गरीऍ बाहिरम्मिं एगाऍ अणाहपहियसालाए । रयणीएँ उट्ठिओ सो घेत्तुं संबलयपोट्टलियं । । १२३ ।। 1 ॥ १. सं० वा०सु० 'मि तुह च्चिय ।। २. ला० चोडवि ।। ३. ला० जाहि पिक' ।। ५. ला० चेव इमो, सं° ।। ६. ला० पि गिहिउं ।। ७. ला० तेणं ।। करेसु (मु) संपइ ॥ ४. सं० वा० सु० पगुणं ८. ला० सा वि(िकिं) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरामशोभाकथानकम् ४३ सणियं सणियं ओसक्किऊण अन्त्रेण चेव मग्गेणं । भिक्खाए लज्जंतो तं मोतुं झत्ति वोलीणो । १२४ ।। अह उग्गयम्मि सूरे उट्ठइ एसा अपेच्छिउं कंतं । जाणइ मुक्का अहयं संबलयमपेच्छमाणीए ।। १२५ ।। चिंतइ हियएण तओ 'ण सुट्टु मह सामिएण परिविहियं । एगागिणी जमेत्थं मुक्का गेहाओं णीणेउं ॥ १२६ ॥ हा ! हा ! अलज्ज ! णिक्किव ! एवं णवजोव्वणम्मि वट्टंतिं । मं मोतुं णियवयणं अज्ज ! भण कस्स दाविहिसि ? ॥ १२७ ॥ नवजुव्वणम्मि वालय ! जइ हं अन्त्रेण कहवि घिप्पानि । ता तुज्झ कुले निद्दय ! होही वइणिज्जयं एयं ॥ १२८ ॥ अहवा किमिणा परितप्पिएण ? रक्खेमि ताव नियसीलं । किंचि समासइऊणं वाणियगं जणयसामण्णं ॥ १२९ ॥ पिउगेहे वि गया मज्झ अउन्नाइ आयरो णत्थि । ता इत्थेव ठिया हं कम्माईयं करेस्सामि' ॥१३०॥ इय चिंतिऊण तो सा हियए धीरत्तणं विहेऊणं । पविसइ णगरीमज्झे आलोयंती दस दिसाओ ॥१३१॥ तो एत्थ गिम्मिं भद्दागारं नियेइ सा पुरिसं । पाएसु निवडिऊणं विण्णवइ मणोहरसरेणं ॥१३२॥ 'ताय ! मह होहि सरणं एत्थ अणाहाइ दीणविमणाए । जेणमणाहा णारी पावइ वइणेज्जयं णियमा । १३३| ( ग्रन्थाग्रम् १००० ) चंपापुरीऍ अहयं धूया उ कुलंधरस्स सेट्ठिस्स । सत्थाओ परिभट्ठा वच्चंती चोडविससु ॥ १३४ ॥ सह भत्तुणा णिएणं एत्तियभूमिं कमेण संपत्ता । इण्हिं तु तुमं जणगो होहि महं दुक्खतविया ' ॥१३५॥ तो तीऍ वयणविणयाइएण परिरंजिओ इमं भणइ । सो माणिभद्दसेट्ठी 'वच्छे ! तं मज्झ धूय त्ति ।१३६ अच्छसु जह नियपिउणो गेहे तह इत्थ मज्झ गेहम्मि । सत्थगवेसणमाई सव्वं पि अहं करेस्सामि' ।१३७। इय भँणिय निययपुरिस पट्ठविया तेण माणिभद्देण । Do य उवलद्धा कत्थ वि इमेहिँ सत्थस्स वत्ता वि १३८ तेहिँ कहियम्मि, सेट्ठी चिंतइ हियएण सुड्डु संसइओ । 'किं एयाए वयणं सच्चमसच्चं ? परिक्खेमि' । १३९ इयेचिंतिऊण तेणं चंपाए पुरवरीऍ णियपुरिसो । सेट्ठिकुलंधर पासे पट्ठविओ जाणणाहेउं ॥ १४० ॥ तेण वि गंतूण तहिं पुट्ठो सो 'अत्थि तुज्झ कइ धूया ? | परिणाविया उ कत्थ व ? कहसु जओ माणिभद्देण ॥ १४१ । । पट्टविओहं तुम सह संबंधं विहेउकामेण' । सो भणइ 'मज्झ धूयाओं अट्ठ, इह चेव नगरीए ।।१४२ ॥ १. ला० वयणि ॥ २. ला० अवलोयंती ॥ ३. ला० निएवि ॥ ४. ला० सयम्मि ॥ ५. ला० ० एहिं परि० ॥ ६. सं०वा०सु० इमो ॥ ७. ला० भणिउं नियपु० ॥ ८. एतच्चिह्नान्तर्वर्ती पाठः सं० वा० सु० प्रतिषु नास्ति । । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे परिणीयाओ सत्त उ, परिणीया संपयं पुणो भद्द ! । अट्टमिया सा वि गया पइणा सह चउडविसयम्मिं ॥१४३॥ अन्ना उ नत्थि कन्ना, कह संबंधं विहेमि सह तेण? । इय सव्वं गंतूणं कहियव्वं माणिभद्दस्स' ॥१४४। तेण वि आगंतूणं सव्वं सेट्ठिस्स अक्खियं सो वि । जाणित्ता परमत्थं विहेइ अहिगोरवं तीए ।।१४५।। सा तस्स गिहे बाला अच्छइ धूय व्व सुटु परितुट्ठा । विणयाईहिँ य तीय वितं गेहं रंजियं सव्वं ।१४६ । अहसो विमाणिभद्दो पालइ जिणदेसियं वरं धम्मं । कारावियं च तेणं उत्तुंगं जिणवराययणं ।।१४७।। तो तम्मि जिणहरम्मिं उवलेवण-मंडणाइवावारं । सा कुणइ भत्तिजुत्ता पइदियहं धम्मसद्धाए ।।१४८।। साहूण साहुणीण यसंसग्गीएय सावियाजाया।सुलसव्वअणण्णसमा, किंबहुणाइत्थभणिएणं?।१४९। जं जं वियरइ सेट्ठी दव्वं भत्तुल्लगाइकजेण । तं तं रक्खेवि इमा कुणइ जिणिंदालए रच्छं ।।१५०।। सेट्ठी वि दुगुण-तिगुणं जा निच्चं तीएँ रंजिओ देइ । ता छत्तत्तयरयणं कारवियं तीइ अइरम्मं ।।१५१।। अवि यकणगविणिम्मियमालोवमालियं विविहरयणचिंचइयं । वरमुत्ताहलझुल्लंतविविहपालंबकयसोहं॥१५२। भुयइंदमुक्कनिम्मोयसरिसपढेंसुगेहिँ उत्थइयं । विविहमणिरयणचित्तियचामीयरघडियवरदंडं ।।१५३।। एवंविहं विहेउं विविहभूईऍ जिणहरे देइ । अन्नं पि कुणइ सव्वं तव-दाणाई जहाजोगं ।।१५४।। पूएइ साहु-साहुणि-साहम्मियवग्गमेव अणवरयं । सज्झाय-ऽज्झयणाइसु अहिगं अब्भुज्जम कुणइ ॥१५५॥ अह अन्नया कयाई चिंताभरसागरम्मि निब्बुडं । पेच्छित्तु तयं सेटिं पुच्छइ परमेण विणएणं ।।१५६।। 'किं ताय ! अज दीसह अहियं चिंतापिसायपरिहत्था ?' । सो भणइ 'पुत्ति ! णिसुणसु चिंताए कारणं मज्झ॥१५७॥ जिणमंदिरआरामो फल-फुल्लसमाउलो परमरम्मो । .. अणिमित्तेणं सुक्को, ण य होइ पुणण्णवो कहवि ॥१५८॥ एएण कारणेणं अहिगं चिंताउरो अहं जाओ' । ‘मा कुणसु ताय ! खेयं एत्थत्थे' जपए बाला ॥१५९॥ . 'जइ ण पुणण्णवमेयं करेमि णियसीलसाहसवसैण । तो ण वि पारेमि अहं आहारं चउपयारं पि' ।१६०। १. ला० अट्ठमिया सं॥ २. ला० परिणीया सा वि गया सह पइणा चोडवि ॥ ३. ला० कहेहि तं मा' || ४. सं० वा० सु० अह गो ॥ ५. ला. 'याइएहिं ती ॥ ६. सं० वा० सु० साहू-साहुणीण य ।। ७. सं० वा० सु० वि।। ८. सं० वा० सु० रत्थं ॥ ९. ला० "रिघत्था॥ १०. ला० जंपई ॥ ११. ला० संबलेण।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरामशोभाकथानकम् इय निच्छयं विहेउं वारितस्सावि तस्स सेहिस्स । उवविट्ठा जिण वणे सासणदेविं मणे काउं ।।१६१ ।। तो तइयम्मि दिणम्मी रयणीए झत्ति होइ पच्चक्खा । सासणदेवी तीए, जंपइ‘मा कुणसुतं खेयं ।।१६२॥ अजं पभायकाले पुणण्णवो होहिई इमो मलओ। पडणीयवंतरोवद्दवाउ तुह सत्तिओ मुक्को ।।१६३।। इय भणिऊणं देवी सट्टाणं झत्ति उवगया जाव । ताव विहाया रयणी, तिमिररिऊ उग्गओ सहसा।।१६४।। कहियाइ रयणिवत्ता सव्वा सेट्ठिस्स ताव एसो वि । हरिसुप्फुल्लियणयणोगओ तयं जिणहरारामं ॥१६५। अप्पुव्वपत्त-फल-फुल्लरेहिरं सजलमेहसमवण्णं । तं दद्दूणं तुरियं समागओ तीऍ पासम्मि ।।१६६ ।। पभणइ य पुत्ति! पुन्ना मणोरहा मज्झ तुह पभावेणं । ता उट्ठ वच्च गेहं पारणयं कुण गुणविसाले ! ।१६७/ इय भणिऊणं सेट्ठी समत्थसिरिसमणसंघसंजुत्तो । तूरणिणाएण तयं णेइ गिह लोगपच्चक्खं ।।१६८।। जंपइ यतओ लोगो पेच्छह एयाएँ सीलमाहप्पं । तहसुक्को विखणेणंआरामो कह पुणण्णविओ! ।१६९ ता एसा कयउन्ना धन्ना सहलं च जीवियमिमीए । सन्निज्झं तियसा वि हु जीए एवं पकुव्वंति ।।१७०।। अहवाइमो विधण्णो सेट्ठीणामेणमाणिभद्दो त्ति । चिंतामणिव्व एसाजस्सघरेणिवसएसययं'।१७१। एवं सयलजणेणं वण्णिजंती गिहम्मि संपत्ता । पडिलाहिउं चउब्विहसंघं तो कुणइ पारणयं ।।१७२।। अह अन्नया कयाई रयणीए पच्छिमम्मि जामम्मि । सुत्तविउद्धा चिंतइ सरिऊणं पुव्ववुत्तंतं ।।१७३।। ते धन्ना इत्थ जए जे सव्वं पयहिऊण विसयसुहं । पव्वइउं निस्संगा करेंति तवसंजमोजोयं ।।१७४।। 'अहयं तु पुण अधन्नालुद्धा जा इत्थ विसयसोक्खम्मि । न य पावाएँ तयं पिहुपत्तीए विसंपडइ।१७५। इत्तियमित्तेण पुणो धन्ना जं पावियं जिणिंदाणं । धम्म अणण्णसरिसं भवन्नवुत्तारणतरंडं ।।१७६।। ता एयं लभ्रूणं जुत्तं मह सव्वविरइसामण्णं । घेत्तुं जे, किंतु अहं असमत्था तविहाणम्मि ।।१७७।। ता उगं तवचरणं करेमि नियगेहसंठिया अहयं' । इय चिंतिउं पहाए, आढवइ तमेव काउं जे ।।१७८ । जाव तवसुसियदेहाजाया ताकुणइ अणसणं विहिणा । कालं काऊण तओ सोहम्मे सुरवरोजाया।१७९। चइऊण तओ एसा बंभणदुहिया तुमं समुप्पन्ना । विज्जुप्पह त्ति णामं जाया दुहभायाणं किंचि ।।१८०।। सेट्ठी विमाणिभद्दो देवो होउं तओ चुओ पढमं । पुणरवि मणुओ होउंणागकुमारो इमो जाओ ।१८१ । मिच्छत्तमोहियाए पिउगेहठियाएँ किंचिजं विहियं । पावं तस्स विवागो जाओ दुहकारणं पढमं ।१८२ ।। जं माणिभद्दगेहट्ठियाएँ विहियं तए सुकयकम्मं । तस्स पभावेणेमं अणण्णसरिसं सुहं पत्तं ।।१८३।। जंतइया जिणमंदिरमलओतुमए पुणण्णवो विहिओ । तं एस देवदिण्णो तए समंभमइआरामो ।।१८४। १. ला० °भवणे ।। २. ला० "रिवू ।। ३. ला० य ।। ४. ला० दळूण तुरियतुरियं ।। ५. ला० पुत्त ।। ६. 'जे' पादपूरणे ।। ७. ला० न समत्था ।। ८. ला० गिहिधम्मसंठिया ।। ९. सं० वा० सु० जाओ । १०. ला० 'वेण इमं ।। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे जं तइया जिणभत्ती तुमए विहिया अणण्णसारिच्छा । तं पत्तं रज्जमिणं समत्थसंसारसुहजणगं । । १८५ ।। जं छत्तत्तयमउलं दिण्णं तुमए जिणिंदनाहस्स । तं छत्तच्छायाए भद्दे ! परिभमसि निच्चं पि ।।१८६ ।। जं तइया रच्छाइं पूयंगाई बहुप्पगाराई । दिन्नाइं तं तुज्झं जायाई भोगअंगाई ।।१८७।। 1 इय जिणभत्तीऍ फलं जायं, देवत्तणम्मि वरसोक्खं । इहयं तु रज्जसोक्खं, कमसो सिद्धिं पि पाविहसि । १८८ । इय सुणिउं सा सहसा मुच्छावसणट्ठगरुयचेयण्णा । पडिया धस त्ति धरणीयलम्मि सव्वाण पच्चक्खं । १८९ । पवणाईदाणेणं खणेण आसासिया परियणेणं । पणमेत्तु सूरिचलणे विन्नवइ परेण विणणं । । १९० ।। ‘जं एयं तुब्भेहिं कहियं णाऊण दिव्वणाणेण । तं संपइ पच्चक्खं संजायं जाइसरणाओ ।।१९१।। तं तुम्हाणं वयणं सोउं देडुं च णिययचरियं च । इण्हिं भववासाओ सामि ! विरतं महं चेत्तं ।।१९२ ।। ता जाव मुयावेमिं णरणाहं ताव तुम्ह पयमूले । भवसयदुहनिद्दलेणं पव्वज्जमहं गहिस्सामि' ।।१९३।। इय वयणं देवीए सोऊणं भणइ णरवरिंदो वि । ' एवंविहं पि गाउं भगवं ! को रमइ संसारे ? ।।१९४ । जा अहिसिंचार्मि अहं देविसुयं मलयसुंदरं रज्जे । ता तुम्हाण समीवे अहं पि घेच्छामि पव्वज्जं ' ॥१९५॥ भगवं पि भइ 'भो ! भो ! मा पडिबंधं करेस्सह खणं पि । दब्भग्गलग्गजलबिंदुचंचले जीवलोगम्मि' ॥ १९६ ॥ एवं ति भाणिऊणं राया देवी इ दो वि गंतूणं । निययगिहे रज्जम्मी अहिसिंचंती तयं कुमरं । । १९७ ।। अहिसिंचिऊण कुमरं रज्जे, तत्तो महाविभूईए । दोहि वि गहिया दिक्खा बहुपरिवारेहिँ गुरुमूले । । १९८ । गिण्हित्तु दुविहसेक्खं गीयत्थाइं कमेण जायाइं । नियपयपवत्तिणित्ते ठवियाई दो वि ते गुरुणा । । १९९ ।। संबोहिऊण भविए, पज्जंते अणसणं विहेऊण । दो वि गयाई सग्गं तत्तो वि कमेण चविऊण । । २०० ।। मणुयत्त - सुरत्ताइं कमेण सिवसंपयं लहिस्संति । एयं जिणभत्तीए अणण्णसरिसं फलं होई । । २०१ । । ४६ [ आरामसोहाकहाणगं सम्मत्तं । ५. ] साहू व भत्ती कल्लाणपरंपरं लहड़ जीवो । तह सम्मत्तं सुद्धं जायइ णत्थित्थ संदेहो ।। ३८ ।। १. सं० वा० सु० भमिसि ।। २. सं० वा० सु० इं अंगभोगाई ।। ३. ला० इहई ।। ४. ला० क्खं जायं महजाइस' ॥ ५. ला० दट्ठूण नियय' ।। ६. ला० 'लणिं ।। ७. ला० इय देवीए वयणं ।। ८. ला० 'मि लहुं दे ॥ ९. ला०य ।। १०. सं० वा० सु० देइ ॥ ११. ला० आरामशोभाकथानकं समाप्तम् ॥ १२. ला० तह सुद्धं सम्मत्तं । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरसेनकथानकम् तत्राऽप्याख्यानकमाख्यायते— ४७ [६. शिखरसेनकथानकम् | अत्थि इहेव गिरिवरो जंबूदीवम्मि भारहे वासे । विंझो त्ति सिहरसंचयपज्जलियम होसहिसणाहो । १ । दरियगयदलियपरिणयहरिचंदणसुरहिपसरियामोओ । फलफुल्लतरुवरट्ठियविहंगगणगरुयसद्दालो ।२। निज्झरझरंतझंकारसद्दपडिउन्नदसदिसिर्विभागो । णाणाविहसावयसयभमंततलमेहलाभोगो ॥ ३ ॥ तत्थऽत्थि सबरणाहो विक्खाओ सिहरसेणनामों ति । बहुसत्तहणणनिरओधणियं विसएसु आसत्तो ।४ देवी वि तस्स सिरिमइणामा णवजौव्वणुद्धुरा अस्थि । वक्कलदुगुल्लवसणा गुंजाहलमाइआहरणा ॥५॥ तीएँ समं विसयसुहं सो भुंजइ गिरिनिउंजदेसेसु । विच्छोअइ बहुगाई सारंगाईण जुगलाई ॥६॥ सिरिमइदेवी वि तओ दडुं विच्छोइयाइँ जुगलाई । हरिसभरनिब्भरंगी कंपंतपओहरा हसइ ॥७॥ अह अन्नया कयाई संतावियधरणिमंडलो गिम्हो । कुनरिंदो इव पत्तो पीडंतो सयलसत्तोहं ॥८ ॥ जयकोट्ठयमज्झत्थो अयगोलय इव पयंडपवणेण । जत्थ धमिज्जइ सूरो नीसेसजणाण दाहक ॥९॥ परिसडइ पत्तनियरो कलिकालम्मि व जयम्मि रुक्खाणं । उत्तणयइत्थिया इव वियसइ अहमल्लिया नवरं दरआयंबिरसुमणसभिउडियणयणाओं पाडलाओ वि । जायाओ रोसेण व निएवि जयतावणं गिम्हं । ११ । कुसुमसमिद्धिविहीणे दडूण व बहुतरू सिरीसा वि । निययपसूणसिरीए हिरीऍ सुयणोव्व सामलिया । १२ जयसंतावकरीओं लुयाओ वायंति अग्गिजाल व्व । दज्झइ णीसेसजणो खरतरविकिरणणियरेण ॥१३॥ दडुं जयसंतावं खलु व्व तोसेण वड्ढिया दिवसा । झिज्जंति जामिणीओ सुयण व्व परावयं दडुं । ।१४।। पिज्जंति पाणियाइं पुणो पुणो सुसियकंठउट्ठेहिं । सेयजलाविलगत्ता खेज्जंति णिरंतरं सत्ता ।। १५ ।। पाऊण पवासु पयं घम्मत्ता जत्थ पहियसंघाया । छायासु वीसमंता हा हा हा ह ! त्ति जंपंति ।।१६।। हरिणक-हार - हम्मयल- वियण - किसलय - जलद्दजलनिलया । चंदणविलेवणाईणि जत्थ जायंति अमयं व ।।१७।। एवंविहे णिदाहे सिरिमइदेवीऍ संजुओ राया । निज्झरण-वणगुहासुं वियरइ सच्छंदलीलाए ।। १८ ।। एत्थंतरम्मि एगो गच्छो साहूण पहपरिब्भट्ठो । परिखीणो हिंडतो समागओ तत्थ देसम्म ।।१९।। दट्टूण तयं राया अणुकंपाएं मणम्मि चिंतेइ । 'हा ! किं भमंति एए अइविसमे विज्झकंतारे ?' ।।२० ॥ गंतूण तओ पुट्ठा रण्णा 'किं भमह इत्थ रन्नम्मि ?' । साहूहिँ तओ भणियं 'सावग ! पंथाओं पब्भट्ठा' । २१ । १. ला० 'रियंदण' ॥ २. ला० फलपुप्फतरु ॥ ३. ला० 'विहाओ ॥ ४. ला० 'तघायणओ ॥ ५. सं० वा० सु० जोव्वणोव्वरा ॥ ६. ला० दाहयरो ॥ ७. ला० सुयण व्व ॥ ८. सं० वा० सु० लूया वायंति ॥ ९. ला० जलं ॥ 1 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे हिरण 'देवि ! कहं पेच्छ गुणणिही एए । देव्ववसेणं पत्ता अइविसमदसंतरं अज्ज' ॥ २२ ॥ पण य तओ देवी तं 'सामि ! महातवस्सिणो एए । उत्तारेहि सउने भीमाओ विंझरणाओ ।। २३ ।। पीहिय फल-मूलाइएहिँ अइविसमतवपरिक्खीणे । नूणं णिहाणलंभो एस तुह पणामिओ विहिणा' | २४| इय भणिएण ससंभमहरिसवसपयट्टपयडपुलगेण । उवणीयाइँ सविणयं पेसलफल-मूल- कंदाई | २५ | साहूहि ँ तओ भणियं ‘सावग ! णेयाणि कप्पणिज्जाणि । अम्हाण जिणवरेहिँ जम्हा समए निसिद्धाई' |२६| भइ ओ सबरवई 'तह वि हु अम्हाणऽणुग्गहं कुणह । अन्नहकरण गाढं उव्वेगो होइ अम्हाणं' |२७| णाऊण परमसद्धालुयत्तणं बहुगुणाण संजणयं । तेसिं अणुग्गहत्थं गुणंतरं ठावियं हियए ॥२८॥ साहूहिँ तओ भणियं 'जइ एवं विगयवण्ण-गंधाई । दिज्जंतु अम्ह णवरं फलाइँ चिरकालगहियाई । २९ । इय भणिएणं तेणं सिग्घं गिरिकंदराओं घेत्तूणं । पडिलाहिया तवस्सी परिणयफल-मूल- कंदेहिं ॥३०॥ ओयारिया य मग्गे जायासहिएण सुद्धभावेण । मन्नतेण कयत्थं अप्पाणं जीवलोगम्मि ॥३१ ॥ तेहिं च ताण धम्मो कहिओ जिणदेसिओ सुसाहूहिं । पडिवन्नो य सहरिसं कम्मोवसमेण सो सम्म। ३२ । दिन्नो य णमोक्कारो सासयसिवसोक्खकारणब्भूओ । बहुमाणभत्तिभरनिब्भरेहिं गहिओ य सो तेहिँ | ३ ३ । नाऊण तह य तेसिं जम्मं कम्माणुभावचरियं च । साहूहिँ समाइट्ठ 'कायव्वमिणं तु तुब्भेहिं ॥३४॥ पक्खस्सेगदिणम्मी आरंभं वज्जिऊण सावज्जं । एगंतसंठिएहिं अणुसरियव्वो णमोक्कारो ॥ ३५ ॥ तमि यदि मि तुभं जइ वि सरीरस्स घायणं को वि । चिंतेज्ज करेज्जा वा तहा वि तुब्भेहिँ खमियव्वं ॥ ३६॥ एवं सेवंताणं तुब्भं जिणभासियं इमं धम्मं । होही अचिरेण धुवं मणहरसुरसोक्खसंपत्ती' ॥३७॥ हरिसापूरियहियएहिँ तेहिँ सोऊण तं मुणीवयणं । ' एवं ' ति अब्भुवगयं, गएहिँ साहूहिँ चिन्नं च ॥ ३८ ॥ तह चेव कंचिकालं अईवपरिवड्ढमाणभावेहिं । अह अन्नया य ताणं पोसहपडिमं पवन्नाणं ॥ ३९ ॥ तुंगम्म विंझसिहरे करिकुंभत्थलवियारणेक्करसो । धुयपिंगकेसरसढो दरियमयंदो समल्लीणो ॥ ४० ॥ तस्स भयभीयहिययं दइयं दट्टूण सिहरसेणेण । वामकरगोयरत्थं गहियं कोदंडमुद्दामं ॥ ४१ ॥ भणियं च ' भीरु ! मा भायसु त्ति एयस्स मं समल्लीणा । एसो य पसवराया ममेगसरघायसज्झो' त्ति ।४२। तो सिरिमईऍ भणियं 'एवमिणं नत्थि इत्थ संदेहो । किंतु सुगुरूण वयणं एवकए होइ पम्मुक्कं ॥ ४३ ॥ जम्हा गुरु आएसो सरीरविणिवायणं पि जइ कोइ । तुम्हाण तम्मि दिवसे करेज्ज तो तस्स खमियव्वं ॥४४॥ ता कह गुरूण वयणं पिययम ! गुणभूसियं सरंतेहिं । परलोगबंधुभूयं कीरइ विवरीयमम्हेहिं ?' ॥४५॥ ३ ४ ४८ १. ला० ठाविउं ॥ २. ला०ति ॥ ३. ला० हु ॥ ४. ला० पि तुम्हाणं । जइ कोइ तम्मि ॥ ५. ला० णं सुमरंतेहिँ गुणभूसियं नाह ! । पर । • Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरसेनकथानकम् ४९ 1 त्वरं ते ओ सिरिमई इमं भणिया । 'सच्चं, गुरु आएसो कह कीरइ अन्नहा सुयणु ! ४६ किंतु तुहमोहमोहियहियएण मए इमं कयं आसि । ता अलमेएण पिए ! गुरुवयणे आयरं कुणसु' ॥४७॥ इत्थंतरम्मि रुंजियसद्देण णहंगणं भरंतो सो । महिदिन्नतलपहारं उवडिओ केसरी ताणं ॥४८॥ परिचिंतियं च तेहिं ‘गुरूवएसपरिपालणाणिहसो । उवयारि च्चिय एसो अम्हाणं पसवगणराया ॥४९॥ इय चिंतंताणि तओ णहरेहिं वियारियाणि तिक्खेहिं । कुविएण अकुवियाई सुहभावाइं मइदेण ॥ ५० ॥ अहियासिओ य तेहिं दोहिँ वि अइदारुणो हु उवसग्गो । जो चिंतिओ वि जणयइ उक्कंपं कायरनराणं । ५१ । चइऊण तओ देहं विसुद्धचित्ताइँ दो वि समकाले । सोहम्मे उववन्नाइँ इडिमंताइँ सयराहं ॥५२॥ पलिओवमाउयाइं, तत्थ य भोगे जहिच्छिए भोक्तुं । आउक्खएण तत्तो चइऊण इहेव दीवम्मि ॥ ५३ ॥ अवरविदेहे खेत्ते चक्कउरं नाम पुरवरं आसि । उत्तुंगसाल - धवलहरसोहियं तियसणगरं व ॥ ५४ ॥ तं परिपालइ राया हरि व्व वरपुरिसलोयणसहस्सो । सइवडियविसयसुहो णामेणं कुरुमयंको ति ॥५५॥ तस्सऽत्थि अग्गमहिसी देवी णामेण बालचंद त्ति । तौए उयरे चविउं उप्पन्नो सिहरसेणो सो ॥ ५६ ॥ चइऊण सिरिमई वि य रण्णो सालयसुभूसणणिवस्स । देवीऍ कुरुवईए उववन्ना कुच्छिमज्झम्मि ॥५७॥ ताण बहुहिँ दोह वि मणोरहसएहिँ सुप्पसत्थदिणे । जायाइँ तया ताइं रूवाइगुणेहिं कलियाई ॥ ५८ ॥ समरमियंको णामं रण्णो विहियं गुरूहिँ समयम्मि । देवीए वि य णामं असोगदेवि त्ति संगीयं ॥ ५९ ॥ काले ओ दोणि विसयलकलागहणदुव्वियड्डाइं । कुसुमाउहवरभवणं जोव्वणमह तत्थ पत्ताई ॥ ६० ॥ दिन्ना सुभूसणेणं समरमियंकस्स सा तओ कन्ना । णामेणऽसोगदेवी परिणीया सुहमुहुत्ते ॥ ६१ ॥ भुंजंताण जहेच्छं विसयसुहं ताण वच्चए कालो । हरिसभरनिब्भराणं अण्णोण्णं बद्धरागाणं ॥ ६२ ॥ अह अन्नया णरिंदो वायायणसंठिओ कुरुमयंको । चिट्ठइ देवीय समं विविहविलासेहिं विलसंतो॥६३॥ चिहुरे समारयंती रयणीयरकरसरिच्छयं रुइरं । दट्ठूण सिरे पलियं पभणइ 'सुण देव ! विन्नत्तिं ॥६४॥ पलियच्छलेण दूओ कण्णासण्णम्मि संठिओ भणइ । आगच्छइ एस जरा जं कायव्वं तयं कुणह' ॥ ६५ ॥ तं सोऊणं राया समरमियंकस्स रज्जनिक्खेवं । काऊणं पव्वइओ देवीऍ समं गुरुसमीवे ॥ ६६ ॥ समरमियंक वितओ राया जाओ विणिग्गयपयावो । चिट्ठइ देवीऍ समं भुंजतो मणहरे भोगे ॥ ६७ ॥ इत्थंतरम्मि तं णिरवराहबहुजीवघायणनिबद्धं । कम्मं पुव्वभवगयं उइयं अइविरसपरिणामं ॥ ६८ ॥ अथ तहिं चि विसए बंभाणगरम्मि सिरिबलो राया । तेण सह तस्स जाओ अणिमित्तो विग्गहो कहवि ॥ ६९ ॥ 1 १. सं० वा० सु० गुंजिय° ॥ २. ला० णो उवस्सग्गो ॥ ३. ला० 'कालं ॥ ४. ला० अत्थि ॥ ५. ला० तीऍ गब्भम्मि चविउं ॥ ६. ला० सिरियं ॥ ७ ला० समीवं ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे जे जे पहाणजोहा ते सव्वे सिरिबलं समल्लीणा । अब्भुवगओ तहा वि हु समरमियंकेण संगामो ॥७०॥ संजा संगामे महाविमद्देण सिरिबलेण तओ । निहओ समरमियंको विणिहयनियसेण्णसेसेण ॥ ७१ ॥ रुद्दज्झाणेण तओ मरिऊणं भीसणम्मि नरगम्मि । सत्तरससागराऊ उववण्णो णारगत्तेण ॥ ७२ ॥ सोऊण कंतमरणं असोगदेवी वि विरहसोग़त्ता । मुच्छावसेण धणियं धस त्ति धरणीयले पडिया ॥ ७३ ॥ आसासिया समाणी रुद्दज्झाणेण घोरपावकरं । महमोहमोहियमणा णियाणमेवंविहं कुइ ॥७४॥ 'राया समरमियंको उप्पन्नो णवर जत्थ ठाणम्मि । तत्थेव मंदभग्गा अहं पि जाइज्ज नियमेण ॥७५॥ तो जल यिदेहं किलिट्ठचित्ता दहेवि मरिऊण । जत्थेव णिवो णरगे इमा वि तत्थेव उववण्णा ॥७६ ॥ सत्तरससागराइं निच्चुव्विग्गेहि परमदुहिएहिं । कारुण्णजंपिरेहिं भीएहिं कहव गमियाई ॥ ७७ ॥ उव्वट्टेऊण णिवो णरगाओ पुक्खरद्धभरहम्मि । जाओ गहवइपुत्तो वेण्णाऍ दरिद्दगेहम्मि ॥ ७८ ॥ विजया तत्थेव य भारहम्मि वासम्मि । जाया दरिद्दधूया तस्सेव समाणजाईए ॥ ७९ ॥ ओ दोन वि उद्दामं जोव्वणं उवगयाइं । जाओ अ ताण तत्थ वि वीवाहो विहिणि ओगेण । ८० पुव्वभवब्भासेणं धणियं अण्णोण्णबद्धरागाई । दारिद्ददुक्खविमुहाइँ ताइँ चिट्ठति सुक्खेणं ॥ ८१ ॥ अह अन्नया कयाई ताणं गेहंगणम्मि पत्ताओ । समणीओ गुणजुयाओ भिक्खट्ठा हिंडमाणीओ ॥ ८२ ॥ दहूण तओ तेहिं फाय- एसणियभत्त-पाणेहिं । पडिलाहियाओ विहिणा हरिसवसुभिन्नपुलएहिं । ८३ । 'कत्थ ट्ठियाओं तुब्मे ?' एवं पुट्ठाहि ताहिँ पडिभणियं । वसुसिट्ठिघरसमीवे उवस्सए तस्स पडिबद्धे तो मज्झण्हे ताइं गयाइं परिवढमाणसद्धाई । दिट्ठा य तत्थ गणिणी सुपसन्ना सुव्वया णाम ॥ ८५ ॥ पुरओ संठियपोत्थयनिविट्ठदिट्ठी णमंततणुणाला । लोयणभमरभरोणयसुवयणकमला कमलिणि व्व ॥ ८६ ॥ ५० वित्थिण्णमहत्थाइं ठियाइँ एगारसं पि अंगाई । कमलदलकोमलम्मि वि जीसे जीहाइ अग्गम्मि ॥८७॥ सा वंदिया य तेहिं विम्हयउप्फुल्ललोयणजुगेहिं । भक्तिभरणिब्भरेहिं रोमंचच्चइयगत्तेहिं ॥८८॥ तीइ वि धवलपडंतरविणिग्गउत्ताणिएगकरकमलं । अद्धुण्णामियवयणाऍ भाणियं धम्मलाहो ति ॥ ८९ ॥ वंदेत्तु सेसियाओ वि साहुणीओ पुणो वि गणिणीए । वंदेत्तु पायकमलं नच्चासण्णे णिविट्ठाई ॥ ९० ॥ गणिणीऍ तओ भणियं निम्मलपरिणितदसणकिरणाए । 'परिवसह कत्थ तुब्भे ?' 'इहेव' अह जंपियं तेहिं ॥९१॥ गोयरगयाइ जीए दिट्ठाई साहुणीऍ तो ताए । भणियं 'अज्जेवऽम्हे वसहिं पुट्ठाओं एएहिं ॥९२॥ १. ला० उव्वट्टिऊण य निवो ।। २. ला० सुपसंता ।। ३. सं० वा० सु० लोयणकमलभरो ।। ४. सं० वा० सु० रोमंचच्च || Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरसेनकथानकम् गोयरगयाओं धणियं सद्धावंताइ तह य एयाइं । तुम्हाण वंदणत्थं भत्तीऍ इहाऽऽगयाइं' ति ॥१३॥ गणिणीऍ तओभणियं 'साहु कयं धम्मनिहियचित्ताई । जंइत्थ आगयाइं किच्चमिणं भव्वपाणीणं ॥९४। जम्हा जयम्मि सरणं धम्मं मोतूण णत्थि जीवाणं । सारीर-माणसेहि य दुक्खेहि अभिट्ठयाण फुडं ॥९५। ण य सो तीरइ काउं जहट्ठिओ वज्जिऊण मणुयत्तं । तं पुण चलं असारं सुमिणय-मायंदजालसमं ॥९६। मणुयत्तं लद्धृण वि धम्मं न करंति जे विसयलुद्धा । दहिऊण चंदणं ते करेंति इंगालवाणिजं ॥९७॥ धम्मेण सव्वभावा सुहावहा हुँति जीवलोगम्मि । धम्मेण सासयसुहं लब्भइ अचिरेण सिद्धिपयं' ।।९८। इय सोऊणं तेहिं पडिवन्नो सुद्धभावजुत्तेहिं । धम्मो जिणपन्नत्तो कया इ जहसत्तिओ विरई ।।९९।। गमिऊणकंचिवेलंगणिणिंतह साहुणीऑणमिऊण ।गेहम्मिपत्थियाई,णवरंगणिणीऍभणियाइं। १०० ‘एजह इह पइदिवसं, एवं चिय तह सुणिजह य धम्मं । दुक्खविरेयणभूयं पन्नत्तं वीयरागेहि' ।।१०१।। पडिवज्जिऊण य तओगणिणीवयणं गयाणि णियगेहं। हिट्ठहिययाणिधणियं धम्मम्मि कयाणुरागाई।१०२। कयवयदिवसेसु तहा जायाई तिव्वभत्तिजुत्ताई । उक्किट्ठसावगाई विसयसुहणियत्तचित्ताई ।।१०३।। अणुपालिऊण पवरं सावगधम्मं अहाऽऽउयं जाव । मरिऊण बंभलोगे दुण्णि विजायाइँ वरदेवा ।१०४। भोत्तूण तत्थ सोक्खं पवरं सत्ताहियाइँ अयराइं । तत्तो य सबरजीवो चइउं इह जंबुदीवम्मि ।।१०५।। भरहम्मि समुप्पन्नो मिहिलाणगरीऍ कित्तिवम्मस्स । रन्नो सिरिकंताए देवीए कुच्छिमज्झम्मि । १०६। दिठ्ठो य तीऍ सुमिणे सीहकिसोरो मुहेण उयरम्मि । पविसंतो लीलाए ससज्झसा उठ्ठिया तत्तो ।१०७। गंतूण णिवसमीवे कयंजली साहए तयं सुमिणं । सोऊण तयं राया कयंबकुसुमं व कंटइओ ।।१०८।। परिभावियसुमिणत्थो पभणइ अह नरवरो तई देविं । हरिसखलियक्खराए कोइलअइकोमलगिराए ॥१०९॥ 'देवि! तुह दरियनरवरकरिकरडवियारणेगखरणहरो । पुहवीएँ एगवीरो होही णरकेसरी पुत्तो' ।।११०। तंणरवइणो वयणं तहेव बहुमन्निऊण सा देवी । परिवहइ तयं गब्भं पूरियसुपसत्थडोहलया ।।१११ ।। अह अन्नया कयाई कमेण पत्ते पसूइसमयम्मि । देवकुमारसरिच्छं पसवइ वरदारगं देवी ।।११२।। वद्धाविओ य राया पियंगुलइयाइ दासचेडीए । तीए य पीइदाणं दाउ निवो धोवए सीसं ।।११३।। तयणंतरं रण्णो आएसेणं समत्थरजम्मि । जायं वद्धावणयं उब्भियजुय-मुसल-धय-चक्कं ।।११४।। अवि य १. ला० 'माणसेहिं दु ।। २. ला० न इमो ती ।। ३. ला० 'माइंद' ।। ४. ला० य ।। ५. ला० दियहं ।। ६. ला० "याइँ ।। ७. ला कंइवयदिणेसु ताई जाया० ।। ८. ला० वरतियसा ॥९. ला० दिट्ठो तीए सु० ॥ १०. ला० उट्ठिउं तत्तो ॥११. ला० तयं ॥ १२. ला० कलकोइलकोमलगिराए । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे मुच्चंतसव्वबंदयं, वजंत तूररुंदयं । णच्चंतणारिसत्थयं, हीरंतसीसवत्थयं ।।११५।। गिजंतमंगलोहयं, किजंतहट्टसोहयं । घोलंतकंचुईयणं, लोटुंतखुजवामणं ।।११६।। वण्णेतभट्ट-बंदिणं, दिजंतहत्थिसंदणं । तुटुंततारहारयं सामंततोसकारयं ।।११७।। दिजंतभूरिदाणयं, पिजंतचारुपाणयं । भुजंतचित्तभोज्जयं, दीसंतणेगच्चोज्जयं ।।११८।। आवेतअक्खवत्तयं, पूएजमाणपत्तयं । उन्भेजमाणछत्तयं, माणेजमाणखत्तियं ।।११९।। खिप्पंतसीसअक्खयं, कीरंतबालरक्खयं । उप्पन्नसत्तुदुक्खयं संजायमित्तसोक्खयं ।।१२०।। वद्धावणगमहसवमणुहवमाणस्स राइणो एवं । संपुनो अह मासो कमसो य मणोरहसएहिं ।।१२१ ।। काऊणं उवयारंरण्णासुहि-सयण-बंधुवग्णस्स । सोहणदिणम्मिणामं तस्स कयं विजयवम्मोत्ति।१२२। पंचहिँधावीहिँ तओलालिजंतो कमेणसंजाओ।किंचूणअट्ठवरिसो, कलाओअहगाहिओतत्तो।१२३। सव्वकलासंपण्णं मयरद्धयरायरायभवणम्मि । वर्दृतं अहिणवजोव्वणम्मि णाऊण राएणं ।।१२४ ।। उत्तमकुलुब्भवाणं उब्भडलावण्णवण्णजुत्ताणं । णवजोव्वणोद्धराणं रइरसजलभरियसरसीणं ।।१२५। सव्वकलाकुसलाणं सिंगारागार-चारुवेसाणं । बत्तीसण्हं वरकन्नगाण गिहाविओ पाणिं ।।१२६ ।। एत्तो य एत्थ भरहे धरणीविलयाएँ तिलयसंकासं । अत्थि पुरं सुपयासं सुहवासंणाम बहुसासं १२७। तत्थ निहयारिपक्खो अणहक्खो बहुजणाण कयरखो । सव्वकलागमदक्खो अत्थि णिवो णाम विमलक्खो ॥१२८।। तस्स गुणाणं णिलया विलयालीलाएँ तुलियतेलुक्का । कमलदलदीहणयणा देवी कमलावईणाम ।१२९। तीसे गन्भम्मि तओ देवो चइऊण बंभलोगाओ । सो सिरिमईएँ जीवो धूयत्ताए समुप्पन्नो ।।१३०।। पेच्छइ य चंदलेहं देवी णियअंकसंठियं सुविणे । साहइ पइस्स, तेण वि धूयाजम्मो समाइट्टो ।।१३१ । संपूरियदोहलया कमसो पत्ते पसूइसमयम्मि । सोहणदिणम्मि देवी पसवइ वरबालियं हिट्ठा ।।१३२।। वत्ते बारसमदिणे सम्माणेत्ता णियल्लए णामं । सुमिणाणुसारउ च्चिय कुणइ णिवो चंदवम्मत्ति ।।१३३।। पंचहिँ धावीहिँ तओलालेजंती कमेण संजाया । किंचूणअट्ठवरिसा, कला गिण्हाविया तत्तो ।१३४। अह अन्नया कयाई सव्वालंकारभूसिया बाला । पिउणो उच्छंगगया चिट्ठइ णाणाविणोएहिं ।।१३५ ।। निव्वण्णिऊण तीए रूवं राया विसज्जिउं कन्नं । चिंताउरो पयंपइ मइसागरमंतिमुद्दिसिउं ।।१३६।। 'को वण्णिउंसमत्थो ? मंति ! इमंकन्नगंजओएसा । विंझाडइव्वसुगया, बंभणजीहव्वसत्थिरया।१३७/ १. ला० तप्पिजमा' ।। २. ला० खत्तयं ॥ ३. ला० 'यरायसोम्खयं ॥ ति ॥ ४. ला० लापत्तटुं मय' ।। ५. ला० °ण्णपुण्णाणं ।। ६. सं० वा० सु० 'यरासीणं ।। ७. सं० वा० सु० साणं ॥ ८. ला० सुमिणे ॥ ९. सं० वा० सु० धूयाएसो ॥ १०. सं० वा० सु० °यदेहलया ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरसेनकथानकम् वेयवइ व्वसुचरणा, विणयसुजाया यगरुडमुत्ति व्व । हरिबुंदिव्वससच्चा, सनाणया टकसाल व्व।१३८। गिरिराइव्व सुसरला, जिणिंदवाणिव्व कोमलालावा । वासरिउव्वसमेहा, अकलंकाचंदलेहव्व।१३९। मन्ने जियाओं सोहग्ग-रूव-लावण्ण-कंति-दित्तीहिं। हर-मार-विण्हु-ससि-वासवाण-घरिणीऑ एयाए ।।१४०।। उत्तुंगपीणथणवठ्ठलठ्ठया पिहुनियंबबिंबयडा । सयलविलासणिहाणा वट्टइ वरजोव्वणे एसा ।।१४१ ।। ता को इमीएँ भत्ता अणुरूवो हुन्ज इत्थ भवणम्मि? । एएण कारणेणं धणियं चिंताउरो अहयं' ।।१४२ । सोऊण वयणमेयं, जंपइमइसागरोतओमंती। मादेव! कुणसुचितं, इत्थ विहीअवहिओचेव'।१४३। इत्थंतरम्मि सहसा संजाओ कलयलो अइमहंतो । नगरस्सेगदिसाए ‘हण हण' संसद्दगद्दब्भो ।।१४४।। अंधारियं च तत्तो तमालदलसामलं दिसावलयं । चंचलतुरगखुरक्खयधूलीनिवहेण बहलेण ।।१४५। 'किं एयं ? सवियक्को राया जावाणवेइ पडिहारं । तज्जाणणाणिमित्तं ताव तलारो तहिं पत्तो ।।१४६।। सन्नद्धबद्धकवओ दढविरिओणाम तुरियपयखेवो । धूलिरयधूसरंगो सिरम्मि आबद्धकरकमलो।१४७ विजयउ देवो' एवं भणमाणो विण्णवेइ “देव! जहा । मणपवणवेगतुरगारूढो अहयं सपरिवारो।१४८। नगरस्स दाहिणदिसासंठियरण्णम्मि दुट्ठपुरिसाण । अज गवेसणहेउं जाव गओताव णिसुणेमि ।।१४९। अइतुमुलं सम्मई, गओ य वेगेण तत्थ पिच्छामि । एरावणे व धवले चउदसणे मत्तकरिणाहे।।१५० । आरूढं वरकुमरं चउद्दिसिं वेढियं बहुभडेहिं । धणियं पहरंतेहिं इंदं पिव असुरणिवहेहिं ।।१५१।। ताव बहुपहरपहओ सो रुट्ठो गयवरो गुलुगुलंतो । चुनेइ तं भडोहं कुमरेणऽप्फालिओ संतो ।।१५२।। तस्स भएणं सव्वे ओसरिया जाव दूरदूरेणं । ता सो विहणिय सुहडे हत्थी वि इहागओ देव ! ।।१५३। पहरकरालियदेहोसायरआवत्तणामयसरम्मि । पविसइ जलपाणत्थं कुमरो वि य कुणइ जलकीडं १५४ अम्हे वि तयणुमग्गेण आगया जावतं पलोएमो । तावुत्तरिउं कुमरो वीसमइ तरुस्स छायाए ।।१५५ ।। इत्थंतम्मि पत्तो बहुतूरणिणायभरियणहविवरो । चउरंगबलसमेओ सूररहो णाम णरणाहो ।।१५६।। पभणइ रे पाविट्ठ! दुट्ठ! निल्लज्ज! अज्ज वि इहेव । हणिऊणं मह सुहडे वीसत्थो चिट्ठसि तहेव ।१५७। अज वि पुव्विल्लं चिय वीसरइ ण मज्झ तुज्झ पिइवेरं । संपइ पुणण्णवमिणं पाव! तए अज परिविहियं ॥१५८॥ ता ठाहि सवडहुत्तो, सरणं वा विससु कस्सई धिट्ठ !। जइ पविससि पायालं तह वि य न हु छुट्टसे अज' ।१५९। १. ला० राय व्व ॥ २. ला० भवणम्मि || ३. ला. वयणं ॥४. सं० वा० स० पवाद ला० विजओ ॥ ६. ला० भणिऊणं वि ॥ ७. सं० वा० सु० वणो व्व ध ॥ ८. ला० "करिवाहे ॥ ९. ला० ०णं अम्हे ओ० ॥ १०. ला० वि हणिय सुहडे हत्थी इह आगओ ॥ ११. ला० चुक्कसे । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे तं सोऊणंकुमरोवीररसोन्भिज्जमाणपुलओहो । भणइ किमुत्तमपुरिसाअप्पपसंसं निव! कुणंति?।१६०। पुव्वपुरिसज्जियजसो अज तए णासिओ नरवरिंद! ।जं पुरिसयारेवियलं विहलं चिय जंपसे एवं'।१६१। तोरुसिओ सूररहो अप्फालइ जाव पवरगंडीवं । ताव कुमारो तुरियं आरुहइ तमेव गयणाहं ।।१६२। चोइज्जंतो वि करी ण मुयइ जा सीयलं जलं कहवि । मच्छुव्वत्तं करणं दाऊणं जाइ अन्नगयं ।।१६३।। हणिउं तस्सारोह, सज्जीवं कुणइ सो विवरचावं । ताअहयं संजाओ तलवग्गे तस्स कुमरस्स ।।१६४।। तलवग्गठियं नाउं मं दूयं पट्टवेइ सूररहो । ‘मा मह वइरियकजे जमगेहं वच्च' सो भणइ ।।१६५।। 'मा नाससु पहुपीइं, णचेव सरणागओ इमो तुम्ह' । तं सोउं, पयरक्खं णियपरिवारं तहिं काउं ।।१६६ । इत्थागओ तुरंगो निवेयणत्थं तु देवपायाणं । एगागी चेवाहं, संपइ देवो पमाणं' ति ।।१६७।। दछुट्टभिउडिभासुरवयणो तो जंपए णरवरिंदो । 'दे देह समरभेरि सन्नज्झह तुरियतुरियतरं ।।१६८।। अब्भागयस्स मज्झं अच्चन्भुयविरियसत्तिजुत्तस्स । अच्चाहियं भविस्सइ मा तस्स महाणुभावस्स'।१६९। इय भणिउं विमलक्खोराया आरुहइ रहवरं जइणं । चउरंगबलसमेओखणेण पत्तो समरधरणिं ।१७० । एत्थंतरम्मि जे ते दढविरियनिरूविया कुमारस्स । तलवग्गपवरसुहडा भग्गा परसेण्णपहरहया । १७१। ते दह्णं भग्गे विमलक्खणरिंदसंतियं सेण्णं । हक्कतं वगंतं अन्भिट्ट इयरसेण्णम्मि ।।१७२ ।। दप्पुर्धराण ताणं दोण्ह वि सेण्णाण विजयलुद्धाणं । सामिकज्जोज्जयाणं संजाओ घोरसंगामो ।।१७३।। अवि य पडहिँ खुरप्पछिन्न धयचिंधयं, नच्चहिँ वग्गिरविविहकबंधयं । रडहिँ गइंद भिन्नकुंभत्थल, निवडहिँ छिन्नकरग्गह हत्थल ॥१७४॥ अच्चिउ सिरकमलिहिँ धरणीयलु, रुहिरपवाहहि हूएकज्जलु । निहयारोह तुरंगम हिंसहिं, कायर भयउक्कंपिर णासहि ॥१७५।। वायसगिद्धिहिँ अंबरु छाइउ, पेच्छंसुरहँ चमक्कउ लाइउ । आमिसलुद्धसिवहु फिक्कारहिं, चुणिजइँ रह मुग्गरघायहिं ।।१७६ ।। सत्थखणखणरविण सुरंगण, अवरुंडहिँ नियपइ भीयम्मण । तो विमलक्खह सेन्निण भग्गउ, इयरसेण्णु णासेवइ लग्गउ ।।१७७।। भज्जंतं दद्दूणं णियसेण्णं तक्खणेण अह राया । सूररहो मेहो इव वरिसइ सरनियरधाराहिं ॥१७८॥ १. ला० ररहियं विह ॥ २. ला० रुसियं ॥ ३. ला० कुमरो वि तुरियं ॥ ४. दूतः ॥ ५. ला० सत्तजु' ॥ ६. ला. 'वग्गियवर ॥ ७. ला० चिंधइं ॥ ८. ला० बंधइं ॥ ९. ला० च्छयसुर° १०. ला० ज्जहिं रह॥ ११. सं० वा० सड्डखण ॥ १२. ला० इयरु से ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरसेनकथानकम् ५५ तं कुमसीह किसोरो व्व तस्स आवडिओ | ताणं च तओ जुद्धं संजायं देवभयजणगं ॥ १७९ ॥ बहुविहकरणेहिँ तओ नियसिक्खं दाविऊण कुमरेणं । लहुहत्थयाऍ बद्धो वसीकओ सूररहराया । १८० मुत्तूण कुसुमवरिसं कुमरोवरि तो भणेत्तु जयसद्दं । पेक्खयदेवा पत्ता विम्हइया णिययठाणेसु ॥ १८१ ॥ इत्थंतरम्मि परियाणिऊण कुमरं पयंपई बंदी । रोमंचंचियदेहो कलकोइलकोमलगिराहिं ॥१८२॥ ‘जयउ कुमारो णिज्जियपडिवक्खो रूवतुलियरइणाहो । सिरिकित्तिवम्मउत्तो णामेणं विजयवम्मो त्ति ॥१८३॥ को वणिउं समत्थो गुणणियरं तुज्झ कुमर ! गुणणिलय ! | जो व सहस्सजीहो असंखवासाउओ णेय ' ॥ १८४ ॥ ण सोणेयं या हरिसेण ण माइ णिययदेहम्मि । किल मह मित्तस्स सुओ एसो सो विजयवम्मो त्ति । १८५ । रहसेणाऽऽलिंगेउं आइसिय पडिट्ठपुरिसवणकम्मं । छोडियसूररहेणं कुमरेण य सह उरं पत्तो ।। १८६ ।। वद्धावणगमहूसवमाइसइ णिवो समत्थणयरम्मि । कुमरसमागमतुट्ठो आणंदजलाविलऽच्छिजुगो ।१८७। पत्थावेण य पुट्ठो सूररहो ‘किमिह तुज्झ कुमरेणं । सह संजायं वेरं ?' सो भणइ 'णरीसर ! सुणेहि । १८८ । जो एसो चउदसणो वरपीलू चंदसेहरो णाम । सो गुरुसमरं काउं अम्ह हढो कित्तिवम्मेणं । । १८९ ।। तं वेरं सरिऊणं बलदरिसणणिग्गएण दहूण । एगागिं कुंभिजुयं कुमरं तो एयमायरियं' ।। १९० ।। ओ कुमारी 'गागी वच्छ ! कह तुमं जाओ' । सो भणइ 'ताय ! निसुणसु मम वयणं अवहिओ होउं ।।१९१।। नियगेहे अच्छंतो अहयं कीलामि विविहकीलाहिं । हय रह - करिमाई वि य वाहेमि निरंतरं मुइओ । १९२। अन्नदिणे आरूढो कलावमापूरिऊण इत्थ गए । वुट्ठोदगगंधेण य अवसीभूओ इमो झत्ति ।।१९३।। हत्थिरयणं ति काउं करुणाए णेय घाइओ एसो । एयस्स य लोभेणं करणं दाऊण उत्तिणो । । १९४ ।। मणपवणजइणवेगो पत्तो य इमो कमेण आवेंतो । नयरबहिसंठियस्स उ दिट्ठिपहं सूररहरणो । । १९५ । एत्तो परं तु विइयं तुम्हाणं' जाव जंपई एवं । तावाणुमग्गलग्गो पत्तो सिरिकित्तिवम्मणिवो । । १९६ ।। तं णाऊणं सव्वे अम्मोगइयाऍ निग्गया झत्ति । महया विच्छड्डेणं पविसेइ णिवो तहिं नगरे ।।१९७।। आणंदमुव्वहंतो जा चिट्ठइ तत्थ कइवइदिणाणि । ता पत्थावं गाउं विमलक्खेणं इमो भणिओ १९८ ‘अब्भागयस्स तुज्झं कुमरकएणं मए इमा दिण्णा । धूया गुणसंपन्ना णामेणं चंदवम्म' त्ति ।।१९९ ।। तेण वि पडिच्छिया सा, तत्तो सोहणदिणे विभूईए । वत्तं पाणिग्गहणं कन्नाए सह कुमारस्स ।। २०० ।। १. सं० वा०सु० कलकोमलकोइलगिराए ॥ २. ला० मह ॥ ३. सं० वा० सु० व ॥ ४. ला० पविसरइ निवो ॥ ५. ला० 'इवयदि ॥ ६. ला० इमं ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे उचिओवगारउव्वं विसज्जिया तेण दो वि रायाणो । णियणगरेसुं पत्ताभुंजंति जहिच्छिए भोए ।।२०१। अह अन्नया कयाई मुणिवइदेविंदपायमूलम्मि । निक्खमइ कित्तिवम्मोरजं दाऊण कुमरस्स ।।२०२॥ चरिऊण तवमुयारं, अट्ठ विकम्माणि निद्दलेऊण ।संपत्तविमलणाणो पत्तो सो सासयं ठाणं ।।२०३। इयरो वि विजयवम्मो साहेत्ता मंडलंतरे बहुए । अणुहवइ भोगलच्छिं तीए सह चंदवम्माए ।।२०४।। जम्मंतरनिव्वत्तियसिणेहसंबंधबद्धरागाए । तीऍ समं अच्छंतो गयं पि कालं ण याणेइ ।।२०५।। अह अन्नया कयाई अत्थाणे संठियस्स णरवइणो । सा चंदवम्मदेवी इत्थीरयणं ति काऊण ।।२०६।। मंतविहाणणिमित्तं हरिया केणावि मंतसिद्धेण । अंतेउरमज्झगया णिवचित्तमयाणमाणेण ।।२०७।। कहिओय तस्स एसो वुत्तंतो कह वि विजयदेवीए । सोऊण य मोहाओगओय राया महामोहं ।।२०८। परिवीजिऊण तत्तो चंदणससित्ततालियंटेहिं । पडिबोहिओ य दुक्खं से चिरेणं वारविलयाहिं ।।२०९। गहिओ य महादुक्खेण सोजहा तीरए ण कहिउं पि । तह दुक्खत्तस्स य से वोलीणा तिनऽहोरत्ता ।।२१०। नवरं चउत्थदियहे समागओ तिव्वतवपरिक्खीणो । भूइपसाहियगत्तो जडाधरो मंतसिद्धो त्ति ।।२११ ।। भणियं च तेण ‘णरवइ ! कज्जेण विणाऽऽउलो तुमं कीस ? । मंतविहाणणिमित्तं णणु जाया तुह मए णीया॥२१२॥ कप्पो य तत्थ एसो जेण तुमंजाइओणतं पढमं । न य तीऍ सीलभेओजायइ, देहस्सपीडा वा ॥२१३।। तामासंतप्पदढं छम्मासाआरओतुमंतीए । जुन्जिहिसिणियमओच्चिय' भणिऊणादसणोजाओ।२१४। राया वि गओ मोहं, तहेव आसासिओ परियणेणं । हा ! देवि ! दीहविरहे ! कत्थ तुमं ? देहि पडिवयणं॥२१५।। मोहवसगाण जे जे आलावा होंति तम्मि कालम्मि । परिचत्तरज्जकज्जो चिट्ठइ सो तेहिँ विलवंतो।२१६। दळूण भवणवावीरयाइँ विलसंतहसमिहुणाई । परियणपीडाजणगं बहुसो मोहावयइ मोहं ॥२१७॥ किं बहुणा ? णरयसमं तस्स तया दुक्खमणुहवंतस्स ।। वोलीणा पलिओवमतुलिया मासा कह वि पंच ॥२१८॥ कइवयदिणेहिँ मुक्को नवरं अणिमित्तमेव दुक्खेण । परियणजणियाणंदोजाओ य महापमोओसे॥२१९। जाया य तस्स चिंता 'अण्णो च्चिय णूणमंतरप्पा मे । जाओ पसन्नचित्तो तापुण किं कारणं एत्थ ?' ॥२२०॥ इत्थंतरम्मि सहसा सिर्ट वियसंतलोयणजुगेणं । वद्धावरण तस्स उ ‘समागओ देव! तित्थयरो' ।२२१। १. ला० रे संवत्ता ॥ २. ला० रजं कुमरस्स दाऊण ॥ ३. ला० कम्माइं ॥ ४. सं० वा० सु० संपण्णवि ॥ ५. ला० सवेविरं वार ॥६. ला० हिँ नवरं मुक्को अणि ॥ ७. ला तो किं पुण का ।। ८. ला० उ जहाऽऽगओ। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखरसेनकथानकम् सोऊण इमं वयणं, हरिसवसपयट्टेबहलपुलगेणं । वद्धावयस्स रहसा दाऊण जहोचियं दाणं ॥२२२ ।। गंतूण भूमिभागं थेवं पुरओ जिणस्स काऊण । तत्थेव नमोक्कारं,परियरिओ रायविदेहिं ।।२२३।। दाऊण य आणत्तिं करेह करि-तुरग-जुग्ग-जाणाइं । सयराहं सज्जाइं वच्चामो जिणवरं नमिउं ।।२२४ । भूसेह यअप्पाणं वत्था-ऽऽभरणेहिँ परमरम्मेहिं'। सयमवियजिणसगासंसंजाओअहगमणसज्जो।२२५। भुवणगुरुणो य ताव य निम्मवियं तियसनाहभणिएहिं । देवेहि समोसरणं तिहुयणलच्छीइ गेहं व । २२६। अइअच्चब्भुयभूयं तिलोगनाहत्तसूयगं तुंगं । जिणपुन्नुक्कुरुडं पिव पुरीऍ पुव्वुत्तरदिसाए ॥२२७॥ तं तस्स समोसरणं सिर्ट तत्तो समागएणेव । कल्लाणएण अवरं देवी तत्थेव दिट्ठ त्ति ॥२२८॥ तत्तो य संपयट्टो जिणवंदणवत्तियाए सयराहं । सिंगारियमुत्तुंगं, धवलगइंदं समारूढो ॥२२९॥ तूररवोप्फुन्नदिसं तुट्ठो नगरीऍ निग्गओ राया । जंपाणजुग्गरहवरगएहिँ तुरगेहि परिगरिओ ॥२३०॥ थेवमि(?म)ह भूमिभागं तुरियं गंतूणगयवराओं तओ।ओइण्णो तियसकयं दद्दूण महासमोसरणं।२३१। हरिसवसपुलइयंगो तत्थ पविठ्ठो य परियणसमेओ । दारेण उत्तरेणं दिट्ठो य जिणो जयक्खाओ॥२३२। दहूण जयपईवं जिणं तओ हरिसपुलगियसरीरो । भूलुलियभालकरकमलसंपुडो थुणियुमाढत्तोबार अवि य मयणसरपसरवारण ! वारणगइगमण ! मुणियतियलोय । लोयग्णपयपसाहय ! हयमय !मयसरण ! रणरहिय ! ।।२३४।। हियनीसेसोवद्दव ! दववज्जिय ! जियकसाय ! अयपवर! । वरकर ! करणणिवारय ! रयमलजल ! जलण ! दुहतरुणो ।।२३५ तरुणरविप्पह ! पहयंतरारिभडविसर! सरण! पणयाण। पणयाण देसय ! सया नमो नमो तुज्झ जिणइंद ! ॥२३६।। इंदनमंसिय! सियवायपयडपयडियपयत्थसब्भाव! ।भावनयस्स महामह! महसुक्खं सासयं देसुरा एवं थोऊण जिणं, गणहरमाई वि साहुणो णमिउं । इंदाइणो य कमसो, उवविठ्ठो निययठाणम्मि ।२३८ एत्यंतरम्मि भगवं जोयणणीहारिमहुरसद्देणं । संसारजलहिपोयं इय धम्मं कहिउमाढत्तो ॥२३९॥ अवि यदुइंता इंदिया पंच संसाराय सरीरिणं । ते चैव दमिया सम्मं निव्वाणाय भवंति हि ॥२४०॥ १. ला० 'दृपयडपु॥ २. ला० परिगहिओ ॥ ३. सं० वा० सु० गयंदं ॥ ४. जगत्ख्यातो 'जय' इत्याख्यो वा ॥ ५. ला० यतइलो ॥ ६. मृतशरण ! ॥ ७. सं० वा० सु० अइप' || ८. प्रणतानाम् ॥ ९. प्रणयानाम् प्रकृष्टनयानाम् ॥ १०. ला० उवविट्ठा ॥ ११. ला० व नियमिया ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे दुईतेहिदिएहऽप्पा उप्पहं हीरए बला । दुइंतेहिं तुरंगेहिं सारही वा महाहवे ॥२४१॥ इंदिएहिं सुदंतेहिं न संसरइगोयरं । विधेएहिं तुरंगेहिं सारही वा वि संजुगे ॥२४२ ॥ पुव्वं मणं जिणित्ता णं चरे विसयगोयरं । विवेगगयमारूढो सूरो वा गहियाउहो ॥२४३॥ जित्ता मणं कसाए य जो सम्म कुणई तवं । संदिप्पए स सुद्धप्पा अग्गी वा हविसा हुए ।।२४४।। सम्मत्तनिरयं वीरं दंतकोहं जियंदियं । देवा वि तं णमंसन्ति मोक्खे चेव परायणं ।।२४५।। आणं जिणिंदभणियं सव्वं सव्वण्णुगामिणीं । सम्मं जीवाभिणंदन्ता मुच्चंती सव्वबंधणा ।।२४६ ।। वीयमोहस्स दंतस्स धीमओ भासियं जए । जे जरा णाभिणंदंति ते धुवं दुक्खभागिणो ।।२४७।। जेऽभिणंदंति भावेण जिणाणं तेसि सव्वहा । कल्लाणाई सुहाइं च रिद्धीओ वि न दुल्लहा ।।२४८।। इय भणिऊणं जाए तुण्हिक्के तक्खणं जिणवरम्मि । परिसा कयंजलिउडाधणियं संवेगमावण्णा।।२४९॥ धरणिणमिउत्तमंगा इच्छामो सासणं'ति जंपती । उन्नामियमुहकमलापुणो वि निययं गया ठाणं ।।२५०। तत्थ य केइ पवण्णा सम्मत्तं, देसविरइवयमण्णे । अण्णे उ चत्तसंगा जाया समणा समियपावा ।।२५१।। इत्थंतरम्मिरण्णा दिट्ठा देवी तर्हि समोसरणे । जाया य तस्स चिंता 'हंत! कुओ इत्थ देवि ?' त्ति । २५२। सरियंचमंतसिद्धस्स तेणतंपुव्वमंतियं वयणं । परिचिंतियं चएयंपुच्छामि जिणं ति, किंबहुणा? ।२५३। 'किंउणमए कयंपरभवम्मि जस्सेरिसोविवागो? ति।भगवं! देवीसंगमजणियंसुहमासिमहमउलं ।२५४। पुल्विं, पच्छा य तओतीए विरहम्मि दारुणं दुक्खं । अणुभूयमणन्नसमंणारगदुक्खस्स सारिच्छं ?' ।२५५। इयपुच्छिओ जिणिंदोकहिऊणं पुव्ववण्णियं चरियं । पभणइ जं निव! तइयासबरभवे वट्टमाणेण।२५६। विच्छोइयाइँ बहुसो रणे हरिणाइयाण जुगलाई । देवीए वि य अणुमन्नियाइँ तक्कम्मसेसमिणं ।।२५७।। बहु अणुहूयं णरगे, मणुस्सजम्मे विखुद्दजाईए । संपइ खवियं कम्मंणरिद ! तुह पुव्वभवजणियं ।२५८। जं पुण सुहं विसिटुं सुसाहुभत्तीऍ तं फलमसेसं । जम्हा सुसाहुभत्ती करेइ नीसेसकल्लाणं ।।२५९।। सग्गाऽपवग्गसंगमसंसग्गपवत्तगा इमा चेव । न य अन्नं वरतरयं विजइ एईऍ जियलोए ।।२६०।। तम्हा जुज्जइ काउं तत्थेव य उज्जमो बुहजणाणं । ताकुण पयत्तमउलंसुसाहुभत्तीऍ णरणाह!' ।।२६१ । तं जिणवयणं सोउं, पुव्विल्लं सुमरिऊण तो जाई । मुच्छाविरमे जंपइ एवमिणं णाह! सव्वं ति ।।२६२। निविण्णकामभोगो संपइ काऊण रज्जपरिसुत्थं । गहिऊण समणलिंग तुह पासे पव्वइस्सामि' ।।२६३। देवीपमुहजणेणं एवं चिय जंपियं तओ भगवं । जंपइ ‘मा पडिबंधं कुणह अणिच्चम्मि संसारे' ।।२६४ । वंदित्तु जिणवरिंद, गिहम्मि गंतूण जिट्ठउत्तस्स । रज्जाभिसेयमउलं करेइ जसवम्मणामस्स ।।२६५ ।। १. ला० धीरं ॥ २. ला० जिइंदिः ॥ ३. सं० वा० सु० णंदित्ता ॥ ४. ला० य ॥ ५. ला० 'द तं पुव्व। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसाख्यानकम् सिबियारूढो य तओ देवीपमुहेहिँ परिवुडो सहसा । जिणपामूले गंतुं गिण्हइ मुणिसेवियं दिक्खं । २६६ । सिक्ख दुविहं सिक्खं, अंगाण दुवालसण्ह पज्जंते । जा पत्तो ता ठविओ सूरिपए जिणवरिदेण ।। २६७ । अजाई चंदवम्मा एगारसअंगधारिणी जाया । पत्ता पवत्तिणित्तं कुणइ तवं सुद्धपरिणामा । । २६८ ।। पडिबोहिऊण दुण्णि विगामाइसु भवियकमलसंघायं । केवलमुप्पाडेउं, पत्ताइं सासयं ठाणं ।। २६९ ।। [शिखरसेनकथानकं समाप्तम् । ६] ५९ एवं दर्शनभक्तिर्विधीयमाना सम्यक्त्वं भूषयतीति । गतं चतुर्थभूषणम् । सम्प्रति पञ्चमम् । तत्र च “ थिरत्तं च " त्ति सूत्रावयवः । 'स्थिरत्वं' स्थैर्यं परतीर्थिकर्द्धि-दर्शनेऽप्यक्षोभ्यत्वं जिनशासन इति सम्बध्यते । अत्र चोपाख्यानकम्— [७. सुलसाख्यानकम्] (१) अत्थि समत्थदीवमज्झट्ठिउ, जंबुद्दीवु अणाइपइट्ठिीउ, तसु दाहिणभरहद्धि विसिट्ठउं, मज्झिमखंडु जिनिंदु हिउ, मगहाजणवउ तहिँ सुपसिद्धउ, बहुविहजण धण - धन्नसमिद्धउ, गामा - ssगर - गोउलेहिं रवन्नउ, नाणाविहतरुवरसंछन्नउ, मढ - विहार - आरामेहिँ मंडिउ, परचक्कागमभऍण अखंडिउ, पमुइयजणकीलासयजुत्तउ, जिण - गणहरपयफंसपवित्तउ, किं बहुणा ? अच्चब्भुयसारइ, तहिँ जणवइगुणगणवित्थार, अत्थि नयरु रायगिहु पयासउं, रम्मत्तणि सुरपुरिसंकासउं, १. ला०वि ॥ २. ला० °ते । तच्च सम्यक्त्वं भूषयति अत्राव्याख्यान ॥ ३. अस्याख्यानकस्यैका ताडपत्रीया प्रतिर्वैक्रमीये ११९१ वर्षे लिखिता अणहिल्लपत्तनस्थसंघवीपाटक-ज्ञानभाण्डागारेऽस्ति । अन्या अपि बह्वयः प्रतयो भवेयुरस्याः कथाया इति सम्भाव्यते । उपर्युक्तप्रतौ पद्यमिदमादावधिकं समुपलभ्यते— पणमवि तित्थेसरु, वीरजिणेसरु भणमि सुलसा (स) सावि [य] चरिउ । स (सं) मत्तसमन्नि उ, विबुर्हहिँ वन्निउ, दंसण-नाणगुणावरिउ || " अस्य कथानकस्य संस्कृत-प्राकृतानभिज्ञजनोपयोगप्राचुर्यं दृष्ट्वा 'मङ्गलविकले पुस्तकलेखन-वाचने अमङ्गलाय' इति मन्वानैः श्रीमद्देवचन्द्रसूरिपादैरन्येन वा विदुषा मङ्गलाभिधेयप्रख्यापकं पद्ममेतद् विरचय्यादावुपन्यस्तं प्रतिभाति । एवंविधमङ्गलादिनिदर्शकपद्यस्य मूलशुद्धिविवरणान्तर्गतान्यकथानकानामादावनुपलब्धेः ला० सं० वा० सु० पु० संज्ञासु पञ्च स्वप्यत्रोपयुक्तासु प्रतिष्वनुपलब्धत्वाच्च पद्यमिदं टिप्पणौ स्वीकृतम् ।। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे अवि य कूव- तलाव - वावि-वणसोहिउ, कणयविणिम्मियसालयरोहिउ, हट्ट-पवा-सह-भुंवणविराइउ, करभरदंडकुदंडाचाइउ, तं परिपालइ सेणियराऊ, जसु घरि समरि करट्ठिउ चाऊ, कामिणिकडुयकडक्खियकाऊ, जासु न गंजिउ वरभडवाऊ, जो अरिकरिकुंभत्थलसीहु, जो परपोरुसफूसियलीहु, जो खाइयसम्मत्तसमन्निउ, जो सुरनाहिं भत्तिय वन्नि, जासु सुनंददेवि गुणवंती, अभयकुमारमाय सुपसंती, सीलालंकि यह वल्लह, जिणवरभत्त अउन्नह दुल्लह, सो ती समन्निउ, विउसें हि वन्निउ, रायलच्छ परिवालइ । सिरिवीरजिणिंदह, पणयसुरिंदह, भत्तिय नियरउ खालइ ।। १ ।। [२] अन्नु वि नागरहिउ तर्हिं निवसइ, दाणु दिंतु अत्थियैणिह विहस, नाण-चरण- दंसणसंजुत्तउ, जिणमुणिपयकमलह जो भत्तउ, जो बंधवकुमुयाहँ मयंकू, लोह - माणवज्जियउ अवंकू, जो परनारिनियत्तियचित्तउ, जो कलिकालि केण नवि छित्त जोव्वण-रूव-सलोणिमबंधुरु, रयणरासि अंतरइ जु सिंधुरु, अत्थि तासु गेहिणि गुणवंती, सुलसनामि सुकुलीण पसंती, जा पवित्तेण सीलेण सुयलंकिया, जा य सम्मत्तरयणम्मि नवि संकिया, सोहए जीऍ गुणरयणवरकंठिया, मोक्खसोक्खम्मि निच्चं पि उक्कंठिया, जान केणावि धम्मा चालिज्जए, जा कला-गुणें हिँ निच्वं पि मालिज्जए, जा य सिरिवीरपयपंकयाऽऽसत्तिया, साहुणी - साहुवग्गम्मि निरु भत्तिया, जा य साहम्मिपडिवत्तिपरिहत्थिया, जा य नियपरियणे सव्वया सत्थिया, जा य विन्नायजीवाइसुपयत्थिया, जा य नियरूव -लावन्नसुपसत्थिया, १. ला० भवण° ।। २. सं० वा० सु० 'दडावाइउ ।। ३. सं० वा० सु० 'याणि जु विह° ॥ ४. ला० ससंकू ॥ ५. ला० ‘कालि कलिलि नवि ॥ ६. सं० वा० सु० 'रुवसुलोणि' । पु० 'रूवसलूणि ॥ ७. सं० वा०सु० 'मयंधरु पु० महंधुरु । ८. ला० सुलसु नाम सुकु । ९. ला० इ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसाख्यानकम् किंचि जीएँ सोहंति कुम्मुन्नया चलणया, नं महीवीढसंचारिमा नलिणया, जीएँ जंघाजुयं रेहए सोहणं, नं रईनाहभवणम्मि वरतोरणं, जीएँ गंगानईपुलिणसुपसत्थयं, सोणिबिंबं सुवित्थिन्नमच्चत्थयं, जीएँ नीराऽऽकरावत्तसंकासयं, नाभियामंडलं मयणआवासयं, तियसनाहाऽऽउहस्सेव अइखामयं, जीएँ मज्झं रईसोक्खआरामयं, जीएँ पीणुन्नया वट्ट सुपओहरा, कामकरिकुंभसारिच्छ सुमणोहरा, जीएँ बाहाऑ सरलाओं सुकुमालया, कामतावाऽवहारम्मि नं सालया, जीएँ सुपसत्थरेहाऽरुणा हत्थया, रत्तकंकेल्लि नं पल्लवा सत्थया, कंबुसारिच्छ दीसंति कयसोहया, जीएँ गीवाएँ रेहाऑ नरमोहया, जीएँ नीसेसलोयाण कयविन्भमं, आणणं फुल्लसयवत्तसिरिविन्भमं, जीएँ आकुंचिया सिहिण मिउ केसया, गवल-अलिवलय-सिहिगलयसंकासया, किं व अहवा वि सुलसाएँ वन्निज्जए, जा जिणेणावि सम्मत्ति उवमिजए, तसु जिण-मुणिभत्तहि, नियपइजुत्तहि, विसयसोक्खु माणंतियहिं । जाइ कालु निरवच्चहि, गयदोगच्चहि, निरु सोहग्गसमन्नियहिं ।।२।। अह सो नागरहिउ सुयकारणि, चिंतावन्नु वुत्तु सहचारिणि, 'नाह ! काइँ दीसहि चिंतावरु, वारिबंधि नं बद्धउ गयवरु, रायउत्तु नं रजह टालिउ, नं ओहुल्लमलउ नवमालिउ, लीहाछोहिउ नं जूयारिउ, नं कावुरिसु वेरिपरिवारिउ, नं खीणाऽऽउहु सुहडु रणंगणि, भट्ठविज्जु नं खयरु नहंगणि, नं निजामउ नट्ठदिसावहु, नं परिखीणआउ तियसप्पहु, नं भंडवइ फुडन्तइ पवहणि, नं नट्ठप्पहु पहिउ महावणि, नं कामाउरु विमुहिँ वें साजणि, नं भट्ठव्वउ भावियवरमुणि, किं राइं अवमाणिउ किंचि वि ?, किं मुट्ठउ केणावि पवंचिवि ?, किं व महायणु तुज्झ विलोट्टउं ?, किं निहाणु अंगारविसट्टउं ?, १. पु० पत्तया॥ २. ला० सहिण ॥ ३. ला० णावि परिसाएँ उव ॥ ४. सं० वा. सु० नं अकयागमु पडिउ महा ।। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे किं व बालकवि हियइ खुडुक्कइ ?, किं व मरणु आसन्नउं ढुक्कइ ?, जइ अइरहसु नाह ! नवि किज्जइ, तो ऍउ कज्जु मज्झु साहिज्जई', तं निसुणेप्पिणु, ईसि हसेप्पिणु, नागरहिउ पडिभणइ तउ । 'तं कज्जु न किं पि वि, अइरहसं पि वि, जं न कहिज्जइ कंति ! तउ ।।३।। पर किंतु न नंदणु अत्थि तुज्झु, ऍउ हियइ खुडुक्कइ मज्झु गुज्झु', पडिभणइ वयणु तो सुलस एउ, 'जिणवयणवियड्ड वि काइँ खेउ ? किर करहि नाह ! नवि सुऍण कोइ, रखिज्जइ नरइ पडंतु जोइ, नवि रक्खइ वाहिवियारु इंतु, सुउ सामि ! गुणड्ड वि रूववंतु, किं तणउ देइ सग्गा-ऽपवग्गु ?, पर होइ नाह ! संसारमग्गु', 'जाणामि सयलु' तो पिउ भणेइ, ‘पर लच्छि अपुत्तह राउ लेइ, परिवारु सयलु पिएँ ! दिसि घडेइ, नियबंधु वि अन्नह संघडेइ' तं सुणवि पयंपइ ‘मइविसाल !, मुहं अन्न का वि परिणेहि बाल,' सो भणइ 'विढप्पइ जइ वि रज्जु, महु अन्न भज किंचि वि न कज्जु, जइ होइ पुत्तु कह कह वि तुज्झु, तो चित्तु संयन्नउं होइ मज्झु', जाणेवि विनिच्छउ पियह भज, हुय तियसाऽऽराहणि झत्ति सज्ज, सुविसुद्धबंभ भूमिहिँ सुवेइ, जिणपडिमह पूयहु कारवेइ, पडिलाहइ भत्तिएँ समणसंघु, आयंबिलाइतउ तवइ सिग्घु, हरिणेगमेसि सुरु मणि धरेइ, नियमट्ठिय अन्नु वि बहु करेइ, जा ठिय साऽणुट्ठाणि महल्लइ, ता हरिणाऽऽणणआसणु हल्लइ, तं पेक्खेविणु चित्ति चमक्किउ, अवहि पउंजइ चवणाऽऽसंकिउ, तो परियाणिवि सुलसहि चेट्टिङ, सुरसेणावइ झत्ति समुट्ठिउ, उत्तरवेउव्विउ सविसेसिं, विउरुव्ववि संचल्लिउ रहसिं, अवि यफुरंतमउडभूसणो, रणंतकिंकिणीसणो, चलंतचारुकुंडलो, निबद्धतेयमंडलो, ललन्ततारहारओ, लुलंतवत्थधारओ, सुरम्मतालमालओ, विसट्टमुंडमालओ, १. ला० दिस ।। २. ला० सइत्तउ ।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसाख्यानकम् ६३. रवट्टसुत्तसारओ, परिद्धिवारवारओ, सुगंधफुल्लसेहरो, सुरिंदसिन्नमेहरो, कुरंगतुल्ललोयणो, संपुन्नरूवजोव्वणो, समुद्दघोसनिस्सणो, विपक्खपक्खभीसणो, सुवेयगइपयारओ, नमन्तकज्जकारओ, महंतभत्तिचोइओ, समागओ सुरो इओ, त्ति अह तियसु निरंगणु, पयडियपंगणु, ठियउ झत्ति सुलसहि पुरउ । सा नियवि ससंभम, तं गयविब्भम, देइ वरासणु नट्ठरउ ।।४।। उवविसवि तेत्थु तो भणइ देवु, 'किं साविएँ ! हउँ पइसरिउ एउ, भण किं पि ज किज्जइ कज्जु तुज्झु, तेलोक्के वि जं किर सज्झु मज्झु', तो भणइ सुलस गुरुसत्तिजुत्त !, सुरसेणनाह ! वरनाणवंत !, , विनायसमत्थपयत्थसत्थु, किं न मुणहि मह मणरुइउ अत्थु ?', तं सुणवि समप्पिय तीय तेण, बत्तीस गुलिय विहसंतएण, 'खाएजसु एक्कक्किय कमेण, तो होसहिं तुहु सुय विणु चिरेण, बत्तीस गुणड्ड पुणो ममं ति, सुमरेज पओयणि कुंददंति !', इय एरिस वयणु पयंपिऊण, सुर हुयउ अदंसण तक्खणेण, पुणु सुलस करेप्पिणु तासु पूय, वरभोगपरायण पुण वि हूय, रिउसमइ समागइ तीऍ चिंत, उप्पनी एरिस अइमहंत, 'इट्ठाहँ वि को किर एत्तियाहं, मल-मुत्त मलेसइ नंदणाहं, ता एक्कु कालु भक्खेमि ताओ, गुलियउ जा देविं दिन्नियाओ, बत्तीससुलक्खणु जेण पुत्तु, महु एक्कु होइ वरसत्तिजुत्तु,' इय चिंतवि गुलियउ तीऍ ताओ, बत्तीस वि समयं भक्खियाओ, तो ताहँ पभाविण तीऍ जाय, बत्तीस गब्भ सुविभत्तकाय, समगं चिय ते वडंति जाव, हुय वेयण दुद्धर उयरि ताव, जा सक्कइ वेयण नवि सहेवि, ठिय काउसणि सुरु मणि धरेवि, सुरु पुण वि समागउ भणइ ‘कज्जु, किं साविएँ ! पुणरवि हुयउं अज्जु, तो सुलस कहइ तं सव्वु तासु, नियबुद्धिएँ जं किउ अप्पयासु, 'हा हा अकज्जु तइं कियउं मुद्धि !', सुरु भणइ 'सुनिम्मलकुलविसुद्धि !, १. ला० परिट्टिचार' । २. ला० करेविण ।। ३. सं० वा० सु० गुलियाओ जा देविं ।। ४. ला० वरसत्तजुत्तु ।। ५. ला० सुविवद्ध ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे होहिंति तुज्झ बत्तीस पुत्त, पर किंतु समाऽऽउय संपत्त, जइ भिन्न भिन्न भक्र्खेत ताउ, तो हुत नियाऽऽउय तुह सुया उ', सा भइ 'जीवि जं बद्धु जेंव, तं कम्मु तियस ! परिणमइ तेंव, कयकम्मह नवि संसारि को वि, पडिमल्लु होइ सुविक्खणो वि तो हरहि पीड मेहु तणुतवंत, जइ सज्झ तुज्झ सुर ! धम्मवंत !,' सारंगवणु तो तीऍ अंगि, गउ पीड हरेविणु सग्गि वेग, सुलस वि गयवेयण, धम्मपरायण, सुहिण गब्भु परिवह थिर । अहवा सुरमहियहि, परियणसहियहि, काइँ खूंणु तहिं होइ किर ? ।।५।। (६) नवमासें हि अह पडिपुन्नएहिं, अद्धट्ठमदिवससमन्निएहिं, सा पसवइ सुहनक्खत्तलग्गि, आसन्नइ पडिचारियहँ वग्गि, समगं चिय वर बत्तीस पुत्त, नीसेससुलक्खणसंपउत्त, नियकंतिपयासियगब्भगेह, नं मिलिय पओयणि तियसनाह, नागु वि वद्धाविउ चेडियाए, रहसेण पियंकरिनामियाए, तोसेण दिन्नु तो तीऍ दाणु, आइसइ महूसवु अप्पमाणु, अवि य घुम्मंतरुंदमद्दलो, नच्चंतनारिगुंदलो, कीरंतजक्खकद्दमो, दीसन्तवेसविब्भमो, वज्र्ज्जततूरसद्दओ, सुव्वंतगेयसद्दओ, धावन्तदासि दासओ, घिप्पंतसीसवासओ, दिज्जं तणेयदाणओ, पूइज्जमाणजाणओ, उब्भिज्जमाणजूयओ, पढंतभट्ट-सूयओ, गिज्जंतसव्वमंगलो, आविंतबंधुमंडलो, रोलंतसूयमाइओ, माणिज्जमाणदाइओ, कीरन्तदेवपूयणो, मुच्वंतगुत्तिबंधणो, पूइज्जमाणसंघओ, दिज्जंतखंडसहघओ, तुप्पंतसाहुपत्तओ, भुज्जंतचारुभत्तओ, आविंतअक्खवत्तओ, दिज्जंतपूयपत्तओ, त्ति इय विहवविमद्दि, जणसम्मद्दि, वद्धावणउं करेवि ऍहु । देवय पूएविणु, गुरुहु नमेविणु, नामुच्चारणु कुणइ लहु ।।६।। १. ला० होंत ॥ २. ला० मह ॥ ३. ला० 'ण देवि सो तीऍ ॥ ४. सं० वा० सु० 'तूरकंदओ || ५. ला० पु० सत्यमं ॥ ६. ला० खंडसंघओ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसाख्यानकम् जिणभद्द-वीरभद्दाइयाई, नामाइँ कुमारहँ ठावियाई, तो पंचधाइपरिपालिया उ, हुय अट्ठवरिस सुहलालिया उ, संवद्धमाण कमसो कुमार, संजाय कलागमपार सार, बत्तीस वि धम्मकलावियड्ढ संपुन्नसुजोव्वण-गुणगणड्ड, बत्तीस वि दारियवइरिवार, सोहग्गोहामियसुरकुमार, बत्तीस वि जिणमुणिविहियपूय, नियरूवविणिज्जियमयणरूव(य), बत्तीस वि समवय सेणियस्स, उस्सप्पिणिभाविजिणेसरस्स, बत्तीस वि अइपिय नरवरस्स, दरियारिकरिंदमयाहिवस्स, बत्तीस वि माणुम्माणजुत्त, वरलक्खणवंजणसंपउत्त, बत्तीस वि बंधवकुमुयचंद, आणंदियकामिणिलोयवंद, बत्तीस वि सरलसहावसत्थ, जीवाइवियाणियनवपयत्थ, बत्तीस वि ते कुलबालियाओ, परिणाविय गुणगणमालियाओ, अह ताहँ ललंतहँ, मुंह माणंतहँ, जाइ कालु निरुवद्दवहं ।। नियगेहिँ वसंतहँ, निरु निच्चंतहँ, जह व सग्गि दोगुंदुयहं ।।७।। (८) एतो य अत्थि नयरी विसाल, वेसाली नाम सुसालसाल तं पालइ चेडउ नरवरिंदु, निकंदुक्कंदियवैरिविंदु, तसु अत्थि दोन्नि वर नंदणाओ, अभिहाणेण जेट्ठा-चेल्लणाओ, उत्तुंगपीणसुपओहराओ, नियरूवोहामियअच्छराओ, जीवाइपयत्थवियक्खणाओ, जिणसासणरत्त सुदंसणाओ, पंडित्तगव्वभरउद्धराओ, सिंगारफारतणुबंधुराओ, अह अन्नदियहि सुपसंतियाहं, अंतेउरमज्झि रमंतियाहं, कुंडिय-तिडंड-भिसियाविहत्थ, नियसासणनायसमत्थसत्थ, पव्वाई एक्क सुजिन्नकाय, तहिँ कन्नतेउरि संपयाय, सा कहइ ताहँ नियसोयधम्मु, जो बालह जो भावइ सुटु रम्मु, १. ला० ०वैरि० ॥ २. सं० वा० सु० 'यविंद ॥ ३. ला० सुह ॥ ४. ला० हं गलइ का ॥ ५. सं० वा० सु० तणुगब्वियाओ॥ ६. सं० वा० सु० हत्थु, नियसासणवाय' || ७. सं० वा० सु० सांपराय || Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे तं सुणवि जिणागमभावियाए, सा वुत्त जेठ्ठवरसावियाए, 'जह वत्थु किं पि रुहिरेण लितु, हलें ! रुहिरेणेव य धोवियतु, नवि सुज्झइ तह तुह धम्मि मुद्धि !, पावेण विणिम्मिउ अइअसुद्धिं, तं कम्मु विसुज्झइ पावि केव, सोयाइविणिम्मविएण चेव ?', एमाइवयणबहुवित्थरेण, सा विहिय निरुत्तर तक्खणेण, तो कयमुहबहुवग्घाडियाहिं, पहसन्तिहिँ जेट्ठह चेडियाहिं, कंठम्मि घित्तु रायंगणाओ, सा धाडिय वलिय वरंगणाओ, पव्वाइय बहुविहकूडवंत, तो चिंतइ कोविं धगधगेंत, 'पंडित्तणगव्विय एह पाव, ससवक्कइ पाडमि दुट्ठभाव,' तो जेट्ठरूवु फलहइ लिहेवि, गय सेणियरायह पासि लेवि, दक्खालइ कयउचिओवयार, तं रायह नियकज्जम्मि सार, निव्वनिवि तं अणुरायजुतु, पव्वाई भणइ वियारपत्तु, 'किं अस्थि विविहरयणायरम्मि, एयारिसु रूवु रसायलम्मि?', सा भणइ 'न सक्कइ कु वि लिहेवि, तहिँ रूवहु ए(?प)हु ! आयरसु को वि (?), ऍह चेडयरायह कन्नधूय, मइ अक्खिय निव ! तुज्झाणुरूव', इय जंपवि हरिसभरंतगत्त, पव्वाई नियठाणम्मि पत्त, राउ वि तसु रूविं, सल्लसरूविं, मुच्छिउ निच्चलु हुयउ किह । निप्पंदसलोयणु, निच्चलचेयणु, परमझाणि वरजोइ जिह ।।८।। एत्वंतरि अभयकुमारु पत्तु, निय जणयह जो निच्चं पि भत्तु, पणमेवि अजाणिउ जं निविठ्ठ, ता जाणिउ जणयह चित्तु नछु, पय सीसि विघट्टिवि मइविसालु, तो पुच्छइ जाणियदेसकालु, 'चिंतावरु दीसह काइँ अज्जु ?, साहेह जेण साहेमि कज्जु', पच्चागयचेयणु तो नरेसु, अभयह तं साहइ निरवसेसु, अभएण वुत्तु मा करहि खेउ, पेसिजउ दूउ अकालखेउ, १. सं० वा० सु० वुत्ति ॥ २. ला० पाविनेव ॥ ३. कृतमुखबहुहास्यालापाभिः ।। ४. ला० चलिखरं ।। ५. ला० पव्वाई ब ।। ६. ला० आरिसुकोवि ।। ७. श्रेष्ठयोगी॥ ८. सं० वा० सु० दीसहु ।। ९. ला० अज ।। १०. ला० कज ।। ११. सं० वा० सु० मं ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसाख्यानकम् वरणत्थु तीऍ वरकन्नयाए, चेडयसमीवि सामन्नयाए', तो पेसिउ दूउ नरेसरेण, संपत्तु तेत्थु सो चडयरेण, पडिहारनिवेइउ संपविडु, अत्थाणि नमेविणु पुणु बहु, विहिओवयारु निवचेडएण, विन्नवइ दूर कमवाडएण, ‘जा देव ! तुम्ह कऽवि अत्थि, बाल, नीसेसकलागमगुणविसाल, वरणत्थ तीऍ निवसेणिएण, हउं पेसिउ वरभडसेणिएण', तं निसुणवि कोवफुरंतकाउ, पडिभणइ वयणु सो मणुयराउ, रेहकुलसंभूय धूय, वाहियकुलम्मि नवि देमि दूय !', तं सव्वु दूउ निवसेणियस्स, आवेवि कहइ अभयऽन्नियस्स, तं निवि सामलवणु जाउ, निवु राहुगहिउ नं रिक्खराउ, तो भइ अभउ मंती 'ये (म) सोउ, चित्तम्मि करह साहेमि एउ', तं सुवि हि पुण वि जाउ, सेणिउ रोमंचियसव्वकाउ, ओ व विणिग्गउ, गेहि समागउ, लिहइ रूवु सेणियनिवह । फलहइ सुविभत्तउं, अइसयपत्तउं, वाहियकुलवंसुब्भवह || ९ || (१०) गुलियाऍ कर विसर - वन्नभेउ, साभाविउ छायवि रूवु तेउ, फलहयसमग्गु वाणियगवेसि, गउ चेडउ राणउ जेत्थु देस, पविसरवि नयरि वेसालियाए वीहीय निविडु महालियाए, रायउलदुवाराऽऽसन्नियाए, बहुगंधदव्वपडिपुन्नियाए, तो जेट्ठकुमारिहि दासि तेत्थु, आविंति सुगंधह गिण्हणत्थु, तो अभउ विसेसिं देइ ताहं, पूएइ फलहु पेच्छंतियाहं, कोड्डेण निएविणु पुरिसरूवु, पुच्छंति ताउ तो तस्सरूवु, जह 'सेट्ठि ! काइँ पूएहि एउ ?,' सो पभणइ 'सेणियराउ देउ, महु हु मयच्छि ! हु सामिसालु, भत्तिएँ आराहमि तं तिकालु', तो ताउ पुरउ कन्नहँ कहिंति, जह 'चोज्जु दिट्टु किर नत्थि भंति, ६७ १. ला० णत्थु ॥ २. ला० हुं ॥ ३. ला० वरभडभोइएण ॥ ४. ला० कोवि फु ॥ ५. पु० य ( प ) मोउ ॥ ६. ला० जत्थ ॥ ७ ला० गंध-वत्थपडि || ८. ला० ता ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ - सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे अम्हेहि अज वाणियगपासि' 'किं तं ?' पडिपुच्छइ जेट्ट दासि, अक्खंति तीएँ नीसेसु ताउ, आणवइ सा वि नियचेडियाउ, 'उप्पन्नु कोड्ड हलि ! महु महंतु, तो आणहु कहवि तयं तुरंतु', सामिणिकएण मगंतियाहं, अभओ वि न अप्पइ चेडियाहं, जंपइ ‘अवन्न मह सामियस्स, किर तुम्हि करेसह तहिँ गयस्स,' तो ताहिँ सवह बहुविह करेवि, पंच्चाइउ अप्पइ संवरेवि, दक्खिंति ताओं नियसामिणीए, वररायहंसगयगामिणीए, अवलोयइ रूवु कुमारि जाम्व, किय झत्ति परव्वस मयणि ताम्व, बोल्लइ ‘हलॅ ! पभणह सेट्टि एउ, जइ होइ कंतु महु तुज्झ देउ, तो जीविउ अत्थि न एत्थु भंति, फुट्टेइ हियउं अन्नह तड त्ति,' तं अभयह अक्खिउ ताहिं, सव्वु, अभएण वि पभणिउ करवि गव्वु, 'जइ निच्छउ एहु कुमारियाए, तो करमि कज्जु अवियारियाए, पर किंतु सुरंगमुहम्मि तीए, अमुगत्थ अमुगपुन्निमतिहीए, ठाएवउं जेण नरिंदु तेत्थु, हडं आणिसु गुणवियसव्वसत्थु,' संकेउ करेविणु, मणि विहसेविणु, जाणाविउं तं सेणियहु । सिरिअभयकुमारिं, मंतिहिँ सारिं, आवेहु सुरंगहिँ सिग्घु पहु ! ।।१०।। (११) तो आगउ सेणिउ पुहइराउ, सविसेसाहरियसमत्थकाउ, आरुहिय पहाणमहारहम्मि, सज्जीकयबहुविविहाऽऽउहम्मि, बत्तीसहिँ सुलसहिँ नंदणेहिं, संजुत्तु जुत्तवरसंदणेहिं, नियमित्तकजि निरु वच्छलेहिं, अवमन्नियवहारच्छलेहिं, तेत्तीसहिँ रहिँ हिँ सुरंगदारि, पविसरवि पत्त जहिं ठिय कुमारि, संकेयठाणि तो नरवरेण, संभासिय वरहंसस्सरेण, 'हउं तुज्झ कजि आइउ मयच्छि !, जइ इच्छहि तो रहि चडहि दच्छि !,' एत्तो य तीऍ निवनंदणाए, आपुच्छिय चेल्लण गममणाए, तो चेल्लण भणइ 'अहं पि भगिणि !, आवेसु तए सह हंसगमणि !', १. ला० पच्छाइउ ॥ २. ला. जाव ॥ ३. ला० ताव ॥ ४. ला० मह ॥ ५. ला० 'पुण्णत्तिहीए ॥ ६. ला० आवेह ॥ ७. सं० वा० सु० संजुत्तजुत्तवर' ॥ ८. सं० वा० सु० अवराहच्छलेहि || Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसाख्यानकम् २ तो तीएँ जुत्त रोमंचियंग, आरुहइ जीम्व रहि रूवचंग, ता भइ जेट्ठ 'मह रयणपुन्न, वीसरिय करंडी बहुसुवन्न, आज साहु ! महत्थ, खणु एक विमालह ताव एत्थ', गय जाव जेट्ठ इत्तिउ भणेवि, ता वुत्तु नराहिवु कम नमेवि, सुलसासुएहिँ ‘अरिगेहि देव !, चिरु कालु विलंबु न जुत्तु एव,' तं निसुणवि सेणिउ वलिउ झत्ति, चेल्लण गिण्हेविणु रूववंति, अह जेट्ठ पत्त एत्थंतरम्मि, दुयवियड सुरंगहि वरमुहम्मि, तंत्रनिवि विणु विमद्दि, धाहाविउ तीऍ महंतसद्दि, 'हा मुट्ठ मुट्ठ दे धाह धाह, मह भगिणि हरिज्जइ ऍह अणाह', तंव कोफुरंतउड्डु, करघायवियारियभूमिवड्डु, ६९ सन्नद्धउ चेडयराउ जाव वीरंगउ भडु विन्नवइ ताव, “पहु ! खेउ कहिँ किं एत्थ कज्जि ?, आएसु देहि लहु मई विसज्जि', वीसज्जिउ तो निवचेडएण, सो दिन्ननिययकरबीडएण, लहु मज्झि सुरंगहि जाम्व जाइ, ता पेच्छइ रह ते रविहि नाइ, कमसंठिय नागह पुत्त तेसु, असुर व्व नियच्छइ नं सुरेसु, अह एक बाणु मेल्लेवि तेण, ते मारिय भड वीरंगएण, संकिन्नसुरंगमुहम्मि जाव, बत्तीस वि रह अवणेइ ताव, गउ सेणिउ लंघवि दूरदेसु, इयरो वि वलिवि गउ जहिँ नरेसु, साहेइ असेस वि तस्स वत्त, पणमंतसीसु जा जेंव वित्त, धूयावहाीिँ दूमिउ नरेसु, सेणियभडमारणि हॅू सतोसु, जेट्ठ वि मणि चिंतइ तं सुणेवि, निव्विन्नकाम भवगुण मुणेवि, 'सि सि रत्थु भोगाहँ जेत्थु, वंचइ नियभगिणि वि इय निरत्थु, धिसि धिसि मलमुत्तसमुब्भवाहं, कामाहँ विहियबहुपरिभवाहं, धिसि धिसि खणमेत्तसुहावहाहं, कामाहँ नरयपुरसुप्पहाहं, धिसि सि पज्जं दुहाऽऽकराहं, कामाहँ अथक्कविणस्सराहं, सिधिसि गुणसालमहानलाहं, कामाहँ विणासियतणुबलाहं, एयाण उवरि जो रइ करेइ, सो दुक्खहैं अप्पउं धुरि धरेइ, १. ला० जाव ॥ २. ला० वृत्त नराहिव ॥ ३. ला० चिरका ॥ ४. ला० धाहाविअ ॥ ५. ला० एत्थु ।। ६. ला० मय ।। ७. सं० वा० सु० 'करपीड' ।। पु० 'करवाड ।। ८. ह्रस्वतोष:, भूतः स तोषो वा । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे तो परिहरामि' चिंतेवि एउ, गय जणयह पासि करेवि वेउ, अक्खइ नीसेसु वि तासु केज्जु, मई ताय ! विसज्जि झडत्ति अज्जु, तो तेण विसज्जिय, हुय सा अज्जिय, बंभचेर-तव-नियमधर । गुणरयणिहि मंडिय, आगमि चड्डिय, चंदणउज्जपासम्मि वर ।।११।। (१२) एत्तो य मग्गि सेणिउ तुरंतु, वच्चइ जेट्ट त्ति समुल्लवंतु, सा पभणइ 'न वि हउं जेट्ट सामि !, तेहु भगिणि लहुय चेल्लण भवामि !,' तो जंपइ सेणिउ 'सव्वजेट्ट, तुहु पिययम ! महु गुणगणवरिट्ठ !', तो चेल्लणलाहिँ हि हिट्ठचित्तु, वरमित्तविणासिं सोयतत्तु, चेल्लण वि भगिणिवंचणविसन्न, सेणियवरलाहिं अइपसन्न, संपत्तु नरिंदु कमेण गेहि, तहिँ चेल्लण मेल्लवि क्डभडेहिं, परिवारिउ नागह गेहि पत्तु, सुयमरणु कहइ अंसुय मुयंतु, तं सुणवि नागु सहुँ परियणेण, अक्कंदइ दुखिउ इय मणेण, 'हा पुत्त ! पुत्त ! कहिँ तुम्हि पत्त, जमगेहि अयंडे वि जीय चत्त, हा दारुणदुक्खमहनवम्मि, हउं काइँ खित्तु विहि ! दुत्तरम्मि, हा हा निरु निम्षिण ! अइअणज!, एउ काइँ विहिउ पइँ विहि ! अलज !, जं एक्कु कालु मह नंदणाहं, हिउ जीविउ अरिबलमद्दणाहं, मई जाणिउ किर विद्धत्तणम्मि, पालेसहिँ सुय हरिसिउ मणम्मि, तं सव्वु निरत्थउं मज्झ जाउ', इय विलवइ सो भूलुलियकाउ, निवडिय सुलसा वि य धरणिवट्टि, गयबंधण जह किर इंदलट्ठि, आसासिय परियणि रुयइ दीणु, 'सइँ कियउं एउ मई मइविहीणु, जइ भग्ग ! अलक्खण हउं अपुन्न, समयं गुलियाउ न खंतऽवुण्ण, तो मज्झ एउ नवि दुक्खु हुंतु, समगं सुयमरणसमुब्भवंतु, हा पुत्त ! पुत्त ! कसु निययवयणु, तुम्हाहँ मरणि दंसेमु दीणु, हा एक्कु कालु हउँ किय अणाह, कसु पुरउ पुत्त ! मेल्लेमि धाह ?', इय ताहं रुअंतहँ, दुहसंतत्तहँ भणइ अभउ एरिसु वयणु । १. ला० ता ।। २. ला० कज्ज ।। ३. ला० अज ।। ४. ला० मवर ।। ५. ला० तहि ।। ६. ला० 'लाभिं हि ।। ७. ला० बहुभडेहिं ॥ ८. ला० तुम्हाहि ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसाख्यानकम् ' जाणिय संसारहँ, अइसुवियारहँ, नवि जुज्जइ सोगह करणु ।।१२।। (१३) जेण भो एस संसारवित्थारओ, सक्ककोदंडविज्जुच्छडासारओ, संज्झमेहावलीरायरेहासमो, मत्तमायंगकन्नंतलीलोवमो, उन्हकालम्मि मायण्हियासच्छहो, वायवेउद्धुयाऽऽलोलतूलप्पहो, सायरुडंतकल्लोलमालाचलो, कामिणीलोयणक्खेववच्चंचलो, एरिसे एत्थ अच्वंतनीसारए, केम्व तुम्हाण सोगो मणं दारए ?, जेण तुम्हेहिं सव्वन्नुणो भासियं, जाणिऊणं सरीरेण संफासियं, किंच मच्चू न देवेहिँ रक्खिज्जए, पोरुसेणं बलेणं न पेलेज्जए, मंत-तंतोसहेहिं न वारिज्जए, भूरिदव्वव्वएणं न धारिज्जए, तो वियाणित्तु संसाररूवं इमं, सोयमुज्झेत्तु कुव्वेह धम्मुज्जमं, जेण नो अन्न जम्मे वि एयारिसं, होइ तुम्हाण दुक्खं महाकक्कसं', इय अभयह जंपिउ, सुणवि बुहप्पिउ, किंचिसोयपरिवज्जियां । कयलोइयकिच्चइं, विहियजिणऽच्चइं, जायइ धम्मसमुज्जयई । । १३ ।। (१४) सेणिय - अभया विय सह नरेहि, उट्ठित्तु पत्त नियनियघरेहिं, नियधम्मकम्मपरिसंपउत्त, कालेण जाय गयसोगगत्त, अह एत्तो चंपापुरवरीए, तियसिंदनयरिगुणगणधरीए, गामा - ssगर - नगरेहिं विहरमाणु, असुरिंदसुरिंदिहि विहियमाणु, मारारिवीरनिद्दलियमाणु, उप्पाडियकेवलदिव्वनाणु, मिच्छत्ततिमिरहरणेक्कभाणु, संपत्तु जिणेसरु वद्धमाणु, तियसा-ऽसुरकयओसरणि धम्मु, परिसाऍ मज्झि सो कहइ रम्मु जह भवसमुद्दि किरमणुयजम्मु, कह कहवि हु लब्भइ खवियकम्मु, तत्थ वि य जिणिंदह तणउ धम्मु, कॉ वि लहइ सउन्नउ परमरम्भु, ता धम्मकम्मि उज्जमु करेह, अइदरियपमायरिवू दलेह, १. ला० तुमेहिं ॥ ७१ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे पंचविहमहव्वयभरु धरेह, अइदुक्कर बहुविहु ते करेह, जिं पावह गयदुहु मोक्खमग्गु, अहवा वि सुरंगणरम्मु सग्गु, एत्थंतरि भिसिय-तिदंडहत्थु, छत्त (? न्न) यछन्नालयजुत्तसत्थु, अम्डु नामेण गुणोतु, परिवायगु साक्यधम्मवंतु, संपत्तु जिणिंदह वंदणत्थु, काऊण पयाहिण गुणमहत्थु, सक्कत्थउ भणवि पणामचंगु, संथुणइ एम्व रोमंचियंगु, जय अमरनयचरण ! मयधरणकरचरण !, गयमरण ! गयकलह ! हयमयणगयकलह !, जय कम्मरयसमण !, कयअणहगणसमण !, जय भव्वजणसरण ! तव चरणधरसरण, जय कलकलय ! भवतत्तजणमलय !, जग ? (य) भवणबलहरण ! परसमयबलहरण !, जय डमररयजलय ! नरभमरवरजलय !, घणरसयदलनयण !, अपवग्गगमनयण !, जय सयलजगपणय ! दयपरमवरपणय !, समकट्ठ-धणरयण ! वरसवण - कररयण !, जय सजलघणपसर ! खयकवडभडपसर !, वयभरयमहधवल ! जसपसरभरधवल !, जय करणहयदमण ! मयमत्तगयगमण !, छलसप्पकप्परण!, भवरयणवयतरण !, इय अखलियसासण !, भवभयनासण !, वीरनाह ! पहु ! विगयमल ! दीणहँ दय किज्जउ, मह सिवु दिज्जउ, देवचंदनयपयकमल ! ।।१४।। ।। एकस्वरस्तुतिः । [१५] इय थुणवि निसन्नउ जिणहँ पासि, आयन्नइ धम्मु गुणोहरासि, पत्थाविण चल्लिउ जिणु नमेवि, रायगिहगमणि जा मणु धरेवि, ता भणिउ सो वि जगीसरेण, महुमासमत्तकोइलसरेण, 'पुच्छेज्ज पउत्ति सुकोवियाए, महु वयणिण सुलसासावियाए', 'इच्छं 'ति भणेवि नहंगणेण, रायगिहि पत्तु सो तक्खणेण, चिंतेइ 'पेच्छ कह वीयराउ, सुर-नरमज्झम्मि वि पक्खवाउ, X सुलसाऍ कर ण वि गुणेण ?, तं सव्वु परिक्खमि' इय मणेण, गउ तीऍ गेहि रूवंतरेण, परिमग्गइ भोयणु आयरेण, धम्मत्थु न सा जा कह वि देइ, ता पुरह वारि सो नीसरेइ, अह पुव्वपओलिदुवारदेसि, विउरुव्ववि सो ठिउ बंभवेसि, १. ला० तव ।। २. ला० जं ॥ ३. सं० वा० सु० 'णवणसरण ॥ ४. ला० मह ॥ ५. ला० 'पतोलि ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसाख्यानकम् ७३ चउराणणु पउमासणि निविदु, धयरट्ठगमणु चउबाहला, बंभक्खसुत्त-जड-मउडजुत्तु, सावित्तिपत्तिपरिसंपउत्तु, जा कहइ धम्मु ता पुरजणोहु, आवज्जिउ किर बंभाणु एहु, सुलस वि हक्कारिय सहियणेण, डंभो त्ति न गय निच्चलमणेण, तो बीयदिवसि दाहिणदिसाए, गरुडासणु सहुँ लच्छीवराए, गय-संख-चक्क-सारंगपाणि, लच्छीहरु हुवहु कवडखाणि, तेणावि न रंजिअ सुलस जाम्व, हू तइयदिवसि पच्छिमहि ताम्व, ससिसेहरु भूइविभूसियंगु, वसहासणु गोरिकयद्धसंगु, डमरुय-खट्टंग-तिसूलहत्थु, गणपरिवुडु अक्खइ धम्मसत्थु, जा तेत्थु वि नागय गुणविसाल, ता उत्तरदिसिहिँ करेइ साल, रयणाइविनिम्मिय तिन्नि सार, कविसीसय-तोरण-वार फार, मज्झम्मि ताण सीहासणम्मि, कंकेल्लितलम्मि समुज्जलम्मि, तहिँ उवरि निविट्ठउ चउसरीरु, जिणु कम्मसत्तुनिट्ठवणवीरु, परिनिम्मियअठ्ठसुपाडिहेरु, दंसियउवसन्ततिरिक्खवेरु, जा अक्खइ धम्मु चउप्पयारु, जइ-सावयभेइं अइसुतारु, तं सुणवि विणिग्गउ पुरह लोउ, रोमंचिउ भणिएँ ण्हाउ धोउ, सुलसा वि भणाविय अम्मडेण, 'निद्दलहि पाउ जिणवंदणेण,' तो सुलस वुत्तु 'न वि ऍहु जिणिंदु, सिरिवीरु पणयतियसिंद-विंदु, चउवीसमु जो तित्थंकराहं, कम्मट्ठसत्तुबलखयकराहं', तो पभणिय तेण 'अईवमुद्धि !, पणुवीसमु जिण एँह होइ सुद्धि !', सा भणइ 'न होइ कया वि एउ, पणुवीसमु जं किर होइ देउ, कावडिउ को वि जणवंचणत्थु, इय अक्खइ जिणवरधम्मसत्थु', तिं पभणिय मं करि एत्थु भेउ, सासणह पहावण एहु होउ', सा भणइ ‘पभावण न वि य एह, अलिएणोहावण इह अछेह', इय जाम्व न सक्किय, चालिवि सत्तिय, सुलस अमडु चिंतेइ तउ । सिरिजिणमुणिभत्तहिँ, दढसम्मत्तहिँ, जुतु पसंसणु जिणेंण कउ ।।१५।। १. सं० वा० सु० सुत्त-चउमुहें हि जुत्तु ॥ २. सं० वा० सु० हक्कारिउ ॥ ३. ला० जाव ॥ ४. ला० ताव ॥ ५. ला० तावुत्तर ॥ ६. णधीरु ॥ ७. सं० वा० सु० पणवीसमु एह साहावसुद्धि ॥८. सं० वा० सु० तं पणमिय। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे संवरवि असेसु वि सुलसगेहिं, गउ अम्मडु हरिसिउ निययदेहि, पविसरइ निसीहिय जा करेवि, ता सुलस समुट्ठिय इय भणेवि, 'अहु सगउ सागउ तुह गुणड !, महधम्मबंधु ! जिणधम्मसड !, पक्खालइ तो सा तस्स पाय, अइवच्छल जह किर निययमाय, दक्खालइ तो गिहचेइयाई, वंदेइ सो वि विहिपुव्वयाई, उवविसइ दिन्नपवरासणम्मि, अइहरसिं निब्भर नियमणम्मि, सो जंपइ ‘साविएँ ! चेइयाई, वंदाविय सासय-ऽसासयाई', तो लायवि सिरु कर भूमिवट्ठि, सा वंदइ मणि कयगरुयतुट्ठि, सो पुण वि पयंपइ विहसियंगु, जिणसासणि निच्चल अंतरंगु, 'तुहं धन्न सपन्न कयत्थ एक्क, तुहु जम्मु सहलु तुह पणयसक्कं, जिं मणुय-तिरिक्ख-सुरा-ऽसुराण, मज्झट्ठिउ तेयसुभासुराण, तुह पुच्छइ वत्त जिणिंदु वीरु, मारारिवीरदलणेक्कवीरु', तं सुणवि सुलस पुलइयसरीर, संथुणइ 'जिणेसरु जयहि वीर !, मिच्छत्तमेहनासणसमीर !, जय मोहमल्लबलमलणधीर !, .. जय पणयसुरा-ऽसुरइंद-चंद !, चलणंगुलिचालियगिरिवरिंद !, जय केवलकलियभवस्सरूव !, जय वीर ! तिलोयऽब्भहियरूव !', इय थुणवि सुलस भूलुलियसीस !, पुणु पुणु जिणु वंदइ गयकिलेस, तो पुण वि पयंपिय सुलस तेण, सविसेसपरिक्खवियक्खणेण, जह 'किर बंभाई पुरवरस्स, दारेसु धम्मु अक्खहि जणस्स, कोड्डेण वि सुंदरि ! ताण पासि, किं कारणु जं किर नवि गया सि ?', सा भणइ 'सुहय ! किर कांइ इम्व, उल्लवहि अईवअयाणु जेम्व ?, जिणु वीरू नमेविणु कह व तेसु, मणु मज्झु घुलइ अघडंतएसु, जओ भणियंजो एरावयगंडयलगलियमयरंदपरिमलग्घविओ । सो विहसियं पि न रमइ पिचुमंदं महुयरजुवाणो ॥१॥ भरुयच्छकच्छवच्छुच्छलंतमयरंदगुंडियंगस्स । भमरस्स करीरवणे मणयं पि मणं न वीसमइ ॥२॥ १. सं० वा० सु० अह ॥ २. सं० वा० सु० वंदेहि ॥ ३. ला० 'हरसिहं नि' ॥ ४. सं० वा० सु० कोडेण॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : सुलसाख्यानकम् ७५ जो माणसम्मिवसिओ वियसियसयवत्तमासलाऽऽमोए।सो किंफुल्लपलासेसविलासंछप्पओ छिवइ।३। जो कयसीयलतीरे नीरे रेवाएँ मज्जइ जहिच्छं । सो किं इयरे वियरे गयराओ देइ दिहि पि ? ॥४॥ जो नासियधवगंगं(?) गंगं धवलुजलं जलं लिहइ । गयसोहं सो हंसो किं सेसनईपयं पियइ ? ॥५॥ जो पोढपुरंधिरए रओ पकामं पकामकामम्मि । सो किं मोहियमारो वारयकामे मणं कुणइ ? ॥६॥ जो गंतुजेन्तनए नए नओ होइ वसइ वरवच्छे । सो नीलगलो विगलो किं विगयतलं मरुं सरइ ? ॥७॥ जो घणलयसामलए मलए मयरंदवासिए वसिओ । सारंगो सारंगो सो किं अवरे धरे रमइ ? ॥८॥ इय वीर! धीर! माणहण! तुज्झ पयपंकयं नयंजेण । सो हरि-हराण किं सुहसमूहमहणे कमे नमइ ?॥९। इयजो जिणिंदनिरुपमवयणामयपाणपियणदुल्ललिओ।सोसेसकुनयमयकंजिएसुन यनेव्वुईकुणइ ।१०। इय वीरजिणेसर, दुहतमणेसर, जेहिँ पणउ पयकमलु तुह । ते हरि-हरमाइसु, कामिय-माइसु, सुवियक्खण ! पणमंतु कह ?' ॥१६॥ (१७) अह सुलस पसंसवि महुरवाणि, आपुच्छवि अम्मडु गयउ ठाणि, इय सुलस सुनिच्चल सणम्मि, कमसो य पत्त पच्छिमवयम्मि, जाणेविणु पच्छिमसमउ झत्ति, संलेहण करइ अमोहसत्ति, जिणु चित्ति धरन्ती वद्धमाणु, आखंडलमंडलविहियमाणु, पंचहँ परमेट्ठिहिँ थुइ सरन्त, नीसेससत्तखामण करंत, कयअणसण छड्डिवि पूइ देहु, हुअ तियसु सुरालइ सा अमोहु, तत्तो चवित्तु आगामिणीए, तित्थयरु भविस्सुस्सप्पिणीए, पनरसमउ नामिं निम्ममत्तु, अप्परिमियनाण-चरित्तसत्तु, होयवि पाडिबोहियभव्वसत्थु, सिज्झिस्सइ तो जगमत्थयत्थु, एह संधि पुरिसत्थपसत्थिय, देवचंदसूरीहिँ समत्थिय, इय बहुगुणभूसिउ, जिणसुपसंसिउ सुलसचरिउ धम्मत्थियहं । निसुणंत-पढंतह, भत्तिपसत्तहं, देउ मोक्खु मोक्खत्थियहं ।।१७।। - सुलसाऽऽख्यानकं समत्तं । ७. _ 'गुणा पसत्थ' त्ति गुणा: ‘प्रशस्ता:' मङ्गलालया: । 'सम्मत्तं' ति सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनम् । 'एए'त्ति एते पूर्वोक्ता: कुशलतादयः । 'हुः' एवकारार्थस्तेन चायमर्थः-एत एव सम्यक्त्वं भूषयन्ति १. ला० सो किं मो हयमोरे खोरे कामे ॥ २. पु० ०नुह० ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे नान्ये, एतेषामेव सम्यक्त्वभूषणत्वेन प्रतिपादितत्वात् । 'विभूसयंति' त्ति विभूषयन्ति विशेषेण भूषयन्ति अलङ्कुर्वन्ति । भण्यते च सुर-णर-तिरिया जह भूसणेण रूवस्सिणो विरेहति । तह सुंदरं पि दंसणमिमेहिं भूसेजइ गुणेहिं ।।३९।। जह वा सालंकारं कव्वं विउसार(ण) मज्झयारम्मि । सोहइ सम्मत्तं पि हु तहऽलंकारेहिँ एएहिं ।।४।। इति वृत्तार्थः ।।८।। उक्तानि भूषणानि । तद्व्याख्यानाच्च व्याख्यातं मूलद्वारवृत्ते भूषणद्वारम् । तदनन्तरं च द्वितीयं दूषणद्वारम् । तत्स्वरूपकथनाय च वृत्तमाह संका य कंखा य तहा विगिंछा, कुतित्थियाणं पयडा पसंसा । अभिक्खणं संथवणं च तेसिं, दूसंति सम्मत्तमिमे हु दोसा ।।९।। 'संका य' त्ति शङ्का च, शङ्कन-शङ्का 'किमेतदस्ति नाऽस्ति वा ?' इति सन्देहरूपा । चकारो देश-सर्व शङ्काभेदसूचकः । तत्र देशशङ्का 'किमासन् साधूनां ऋद्धयो न वा ?' इत्यादिस्वभावा । सर्वशङ्का तु 'किं सर्वमेवैतज्जिनदर्शनं सत्यमुत धूर्तरचनाकल्पितम् ?' इत्येवमादिलक्षणा । उभयस्वभावापीयं विधीयमाना सम्यक्त्वं दूषयतीति तद्रूषणं भण्यते । इयं चेहलोकविषयापि क्रियमाणा महतेऽनर्थाय जायत इति । अत्र कथानकमाख्यायते [८. श्रीधरकथानकम्] अत्थि इहेव जंबुद्दीव दीवे भारहे वासे उत्तरावहे गिरिउरं नाम णगरं । तत्थ य महंतसामंतसामी अजियसेणो णाम राया । तस्स य रूविणीणाम देवी । इओ य अत्थि तत्थ सिरिधरो णाम खण्णवाइओ । सो लोगप्पवायाओ खणइ निहाणगाई, न य सामग्गीविगलत्तणओ एणं पि संपावए । एवं च गच्छए कालो। अह अन्नया कयाई भमडंतो सिरिउरं गओ तित्थं । तत्थेगम्मि पएसे पेच्छइ वरपुत्थियारयणं ॥१॥ पंडि-पट्टउलयवेढणयवेढियं पट्टसुत्तनिक्खिवणं । वरपंचवण्णपुप्कोवगारकयविविहअच्वणयं ।। कप्पूरा-ऽयरु-मयणाहिधूवगंधोद्धयाभिरामेल्लं । गोरोयण-रत्तंदण-कुंकुम-सिरिखंडकयपुंडं ।।३।। . १. ला० भूसणेहिं रूवस्सिणो विसोहंति ॥ २. सप्तमवृत्ते ॥ ३. ला० 'वृत्तेन भू० । ४. ला० विगिच्छा ।। ५. ला० ता० दूसिंति॥ ६. ला० 'दसंसूचकः ॥ ७. ला० 'वे भार। ८. ला० णाम महादेवी ॥ ९. ला० तणाओ ॥ १०. ला० वच्चए॥ ११. ला० पोत्थिया' ॥ १२. सं० वा० सु० पडि-वट्टोलयवेट्टणयवे' ॥ १३. ला० अच्चणियं ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधरकथानकम् ७७ सुसुगंधसालिअक्खयबलिकम्मं वासवासियं रम्मं । गहिऊण जाव पयडइ हरिसवसोल्लसियरोमंचो।४। ता पेच्छइ मणिचित्तियविद्दुमणिम्मवियपट्टयसणाहं । रयणमयपुप्फयंतं चामीयरदोरियानद्धं ।।५।। तओ य ‘अवस्सं एत्थ किंचि अञ्चब्भुयभूयं भविस्सईत्ति चिंतंतो छोडिऊण वाइउं पयत्तो जाव अणेगसाइसयमंत-तंत-कुहेडग-कोउगाणं मज्झगयं पेच्छइ समंडलं सविहाणं समंतं सरक्खं खन्नवाइकप्पं । तं च दद्दूण उल्लसिओ चित्तेण । 'अहो ! पत्तं जं मए पावियव्वं' ति चिंतिऊण तब्भणिओवाएण णिरूविउमाढत्तो । निरूवंतेणं परिभावियं एगत्थ ठाणे महाणिहाणं । तओ एगम्मि दिणे कयं तम्मि पएसे महाबलिविहाणं, वत्तियं मंडलं, ठविया चउदिसिं पि तमालदलसामलकरालकरवालवावडकरा दिसावालयपुरिसा, वावराविया य के वि खणिउं, सयं चाऽऽढत्तो मंतं जपिउं । जाव खणमिक्कं खणंति ताव चिंतिउमाढत्तो साहगो जहा 'कओ बलिविहाणाइसु महंतो अत्थव्वओ, न य अज वि पयडीहोइ णिहाणं, ता न नजइ किमेत्थ किंचि भवेस्सइ किं वा न व ?' ति। तओ एवं सकाए चंचलचित्तं साहगं णाऊण णिहाणदेवयाए विउरुब्विया बिहीसियाकिलकिलाइउं पयत्ता वेयाला, फेक्कारंति डाइणीओ, रडंति सिवाओ, नच्वंति रक्खसा, निवडंति आगासाओ सिलासंघाय त्ति । तओ एवंविहं दह्ण नट्ठा दिसारक्खगपुरिसा । तेसिं पिट्ठओखणंतगपुरिसा वि । साहगो वि चलचित्तो मंतं जपेंतो अच्छइ। चलचित्तं च साहगं हुंकारेण धरणीयले पाडेऊण पूरिऊण खड्डं गया देवया । एत्थंतरम्मि पहाया रयणी । आगओ य तत्थ अणेगसिद्धविजो सिवभूई णाम सिद्धो । दिट्ठा य तेण मंडलसामग्गी बहुपुरिसपयाणि य । तओ आसन्नीहोऊण जाव णिरूवेइ ताव दिह्रो पासट्ठियपोत्थियारयणो अक्खसुत्तवावडकरो थरथरेंतसव्वंगो उग्गिरंतफेणमुहो भूमीए लुढमाणो सिरिधरो । नायं च तेण जहा-एस कोइ विजासाहगोअसिद्धविज्जो छड्डिओ विजाए। 'तामा मरउ वराउ'त्ति चिंतिय अणुकंपाए बद्धा से सिहा, आलिहियमणेण मंडलं, बद्धाओ दिसाओ, आहओ सत्तहिं उदयच्छडाहिं । तओ उठ्ठिओ सहसा । समासासिओ य सिवभूइणा, बद्धा वि य से पुणो बद्धा सिहा। पुच्छिओ ये सो वुत्तंतं । कहिओ य तेणं सवित्थरो पुत्थियालाभप्पभिई । तओ णायं तेण सोहणे ठाणे लद्धा। जओ कयं तत्थ पाणोवक्कमणं सिवभूइणा । अणेगविण्णाणायसयसंपन्नो य सो आसि । ता तस्स संबंधिणं एवं पुत्थियारयणं । 'जं च किंचि एत्थ लिहियं तं सव्वमवितह, ताजाएमि एयं' एवं चिंतिय भणिओ सोता किं एयाए अणेसोवद्दवालयाए पुत्थियाए?, ण याणसे य तुमं एयाए परिवालणोवायं' । तेण भणियं जइ एवं तागेण्ह तुम एयं, जओ गुरू तुम पाणप्पओय, संपयं च तुमं आणवेसितमहं करेमि' । सिवभूइणा १. ला० ओ अव' ॥ २. सं० वा० सु० 'चन्मयं ॥ ३. ला० वायक' ॥ ४. ला० तेण य परि ॥ ५. सं० वा० सु० 'कार(ए)चलचित्तसा ॥ ६. सं० वा० सु० विरूविया ॥ ७. ला० आगासतलाओ ।। ८. ला० 'तो चेव मंतं ॥ ९. ला० लढमाणो ॥ १०. सं० वा० सु० “एमा ॥ ११. सं० वा० सु० चिंतियं ॥ १२. सं० वा० सु० 'द्धा से पुणो सिहा ॥ १३. ला० य वुत्तं ॥ १४. ला० णाइसय' ॥ १५. ला० एयं च चिं ॥ १६. ला० एईए ॥ १७. ला० प्राणप्रदः प्राणार्पको वा ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे वि एवं'ति भणिऊण गहिया पुत्थिया । दिट्ठो य तेण खण्णवायमंतो, साहणोवाओ य । सव्वं च विहिं संपाडेऊण 'णिस्संसयं एवमेयं' ति कलिय आढ़त्तो णिहाणगहणोवाओ । 'दढो' त्ति ण सक्किओ णिहाणदेवयाए खोभं काउं । जाव पयडीभूयं निहाणयं गहियं च । कया अतिहि-देवयाण पूया । विलसियं च जहेच्छाए । पत्तो परं पसिद्धिं ति । [श्रीधरकथानकं समाप्तम् । ८.] तदेवं शङ्कहलोकविषयाप्यनर्थकारिणी, सम्यक्त्वविषया तूभयलोकयोरप्यनर्थहेतुरिति यत्नतः परिहर्तव्या । गतं शङ्काद्वारम् । साम्प्रतं काङ्क्षाद्वारम् । तत्र 'कंखा य' त्ति सूत्रावयवः । ‘काङ्क्षा' आकाङ्क्षाऽन्यान्यदर्शनग्रहणरूपा, ज्ञानावरणादिकर्मोदयादनिश्चितचित्तस्यापरापरदर्शनोक्तानुष्ठानकरणरूपेति भावः। चकारो देशसर्वकाङ्क्षाभेदसूचकः। तत्र देशकाङ्क्षा अन्यतरशाक्यादिदर्शनाकाङ्क्षारूपा। सर्वकाङ्क्षा तु सर्वदर्शना-काङ्क्षणस्वभावेति भावः । तत्राप्यैहिकमेवोदाहरणम् [९. इन्द्रदत्तकथानकम्] अत्थि इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे बहुधण-जणसमिद्धं मालवनगरं नाम णगरं । तत्थ सयलपयापरिपालणपरो पयावऽकं तपरपक्खो पुहइपालो णाम राया । तस्स णियरूवोहामियमयणमहिला रइसुंदरी णाम अग्गमहिसी । इओ य तम्मि चेव णगरे बहुबुद्धिसंपन्नो दक्खिण्णमहोयही विणीओ य कयण्णुओ उत्तरपच्चुत्तरदाणणिउणो अत्थि इंददत्तो णाम कुलपुत्तगो। तस्स य अणुरत्ता भत्ता गुणवई णाम भारिया । तओ अन्नया कयाइ परियाणिया तस्स य कुलपुत्तगस्स गुणे राइणा । पेसिओ य कस्सइ राइणो समीवे । समागओ य सविसेसं कज्जं साहिऊण । तओ ‘साहु' त्ति करिय पेसेइ राया तं चेव सव्वेसु वि रायउलेसु । सो वि य रायाऽऽएसमवगण्णिउमचयन्तो काले अकाले वि वच्चइ । तओ अन्नया वरिसाकालसमये पेसिओ उज्जेणिं रायकजेणं। सा वि तस्स भारिया गेहेगदेसे देवालयं काऊण ठविऊण तत्थ जक्खपडिमं वंदणण्हवण-बलिपूयाविहाणपुरस्सरं पइदिणमाराहेऊण विण्णवेइ‘भयवं! जक्ख! महायस! पंथे सेले णईऍ अडवीए। गाम-णगरा-ऽऽगराइसु रक्खेजसु मज्झ भत्तारं।१। सव्वत्थ वि मह पइणो सन्निझं कुणसु जक्ख ! णिच्चं पि । पणिवइयवच्छल च्चिय हवंति तुम्हारिसा जेण' ॥२॥ १. ला० दढचित्तस्स य न सक्कि ॥ २. ला० खोभो ॥ ३. सं० वा० सु० निहाणा(णं) ॥ ४. ला० 'दसंसूचकः ॥ ५. ला० काङ्गणरूपा ॥ ६. ला० बहुजण-धणस' ॥ ७. ला० "स्स य निअरू ॥ ८. ला० 'ओ कय’ || ९. सं० वा० सु० य तस्साणुरत्ता ॥ १०. ला० ‘स्स कुल ॥ ११. ला० वि राया ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ इन्द्रदत्तकथानकम् जक्खो वि तीऍ बहुमाणभत्तिसारं सुणेत्तु विण्णत्तिं । धणियं परितुट्ठमणो सण्णिहिओ चिट्ठए तस्स ॥३॥ सो वि उजेणीओ रजकजं काऊण जाव घरमागच्छइ तावंतरा गिरिणई । तीए य उत्तरणत्थं जाव ओइण्णो ताव उवरिवरिसियसमागयणईपूरेण वोढुमारद्धो । तओ चलंतमणिकुंडलेणं दिप्पंतमउडमणिभासुरेणं हारविरायंतवच्छत्थलाभोगेणं जक्खेणं करसंपुडे काऊण उत्तारिओ त्ति । उत्तारेऊण अइंसणीहूओ जक्खो । तं च सुविणयमिव मण्णमाणो गओ सणगरं । णिवेइयरायकजो य गओ सगेहं । कहियं च सव्वं सवित्थरं गुणवईए । तीए य जंपियं 'जक्खो सो, जओ हं तुज्झ गमणदिणाओ समारब्भ पइदिणं जक्खमाराहेमि' । तेण भणियं कत्थ सो जक्खो?' । दंसिओ य तीए देवालए । तेण भणियं 'जइ एगस्स वि एत्तिओ पहावो ता सव्वदेवाणं पडिमाओ देवालए काऊण आरोहेहि। तओ रुक्खाईणं हिट्ठाओ आणिऊण ठवियाओ देवालए सव्वदेवयाणं पडिमाओ। आराहिंति य पइदिणं । अन्नया य समागओ पुणो वि पाउसो, अंधारियं गयणतलं तमालदलसामलेहिं जलदवलएहिं, कयंतजीह व्व चमक्कियाओ विजुलयाओ । एत्यंतरे पुणो वि पेरिओ सो रायकजेण । तओ दिट्ठभएणं भणिया भज्जा जहा 'सव्वदेवाणं विसेसेणं पूया-सक्काराइणा समाराहणं करेजसि' । एवं च अप्पाहिऊणं गओ । जाव समागच्छइ ताव तहेव समागओ णईपूरो । तेण य णीओ छज्जोयणमेत्तं भूमिं । तत्थ आउयसेसत्तणेण कहिंचि विलग्गो तीरे । समागओ य गेहं । भजाए उवरि कोवेणं धमधमंतो [? चिंतेइ] जहा ‘ण कया होहिइ तीए पावाए देवयाणं पूया, जेण ण कयं केणावि मम सणाहत्तणं' । तओ भणिया सा तेण 'आ पावे ! देवयाणं पूयं ण करेसि?' । तीए भणियं 'मा रूससु, जइ ण पत्तियसि ता णिरूवेहि गंतूणं सव्वे सविसेसं पूइए' । निरूवियं च जाव तहेव' त्ति ताहे कोवाभिभूओ कुहाडयं घेत्तूण 'सव्वे भंजेमि' त्ति परिणओ जाव घायं उप्पाडेइ ताव गहिओ पुव्वजक्खैण हत्थे, भणिओ य ‘मा एवं करेहि, जया तुमं मं एगं पूयंतो तया हं निययाववायभीओ तुज्झ सया सन्निहिओ चेहँतो, सपयं पुण अम्हाणं जक्खोवे क्खा जाया' । तओ तेण तव्वयणपडिबोहिएण तमेगं वज्जिय सेसा सव्वे जहाऽऽणीयट्ठाणेसु मुक्का । [इन्द्रदत्तकथानकं समाप्तम् । ९.] यथा चैषानेकदेवाकाङ्क्षा तस्य दोषाय संवृत्ता, एवमियमपीति ।। गतमाकाङ्क्षाद्वारम् । साम्प्रतं विचिकित्साद्वारम् । तत्र 'विगिच्छ' त्ति सूत्रावयवः । १. ला० रायकजं ॥ २. ला० 'डभासु ॥ ३. ला० ण उत्तारित्ता य अइंस ॥ ४. सं० वा० सु० च सवित्थ ॥ ५. ला. 'देवाणं॥ ६. सं० वा० सु० या समागओ पाउसो ॥ ७. ला० रे वि पुणो वि ॥ ८. सं० वा० सु० वि भोणउ से पेसिओ राय ॥ ९. ला० 'देवयाणं ॥ १०. सं० वा० सु० एयं ॥ ११. ला० गयो । १२. ला० तत्थ यआ || १३. ला० कोहेण ॥ १४. ला० रूंस, जइ ॥ १५. सं० वा० सु० सव्वं ॥ १६. सं० वा० सु० ण, भणि' ॥ १७. सं० वा० सु० करेह ॥ १८. ला० 'वेक्खी ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे ‘विचिकित्सा’ आत्मानं प्रति फलाविश्वासरूपा चित्तविप्लुतिः 'भवेयुर्ममानेनानुष्ठानेन स्वर्ग - मोक्षादयो न वा भवेयुः ?' इति रूपा । विद्वज्जुगुप्सा वा विद्वांसः = मुनयस्तेषां जुगुप्सा = निन्देति । तत्रोभयस्वभावायामप्येकमेव कथानकमाख्यायते [१०. पृथ्वीसार- कीर्तिदेवयोः कथानकम् ] अत्थि इह जंबुद्दीवे महाविदेहम्मि सिरिउरं नाम नयरं, नयरगुणाणं णिवासठाणं व निरुवहयं । जं च जिर्णेदवयणं व नेगम-संगह - ववहार-समद्धासियं पहाणायारं च, गगणतलं व सूर-राय-मंगल-बुहगुरु-कवि-हंस-सुयसमण्णियं चित्तोवसोहियं च, विण्हु व्व सुदरिसणाधारं लच्छीनिवासं च, गिरिवरो व्व वंससयसंजुयं सावयाउलं च, कोदंडं व सनिकेयणं सगुणं च । किं बहुणा ? तं सुरनयरसमाणं पवरपुरं अरिकरिंदवणसीहो । भडचडगरपरिउत्तो पालइ सत्तुंजओ राया ॥१॥ जो य जणगो व्व पयापरिवालणोज्जओ, महाधणुधरो व्व सरलो, नवजोव्वणुद्धुरकामुउ व्व पियाभिलावी, तिकूडसेलो व्व निक्कलंको, महेसरो व्व सभूई, सूरो व्व गोणायगो ति । किं बहुणा ? जो गुणगणणिप्फायणपच्चलो सुवित्तं व । तस्सत्थि पिया सोहग्गव्विया जयसिरी णाम ८० जा य हंसि व्व निम्मलोभयपक्खा, बाणगइ व्व उजुसहावा, सूरमुत्ति व्व सुवित्ता, सरयकालरयणि व्व सुनिम्मलणहा, कण्हगोणि व्व सुपया, वरसुत्तहारणिम्मियदेवकुलिय व्व सुजंघा, पव्वयमेहल व्व सुणियंबा, महाडइ व्व ससूयरा, तुंबवलि व्व सुनाहिया, पाउसलच्छि व्व सुपओहरा, कावोडि व्व सुवाहिया, पयापालणरवइभूइ व्व सुकरा, रामायणकह व्व ससुग्गीवा, जच्चसारिय व्व सुवयणा, महाधणसाहुवणियतणु व्व अहीणणासा, रविधय व्व सुनेत्ता, साविय व् सुसवणा, आएज्जवयणगुरुमुत्ति व्व सुसीसा, बालिय व्व सुमुद्धय त्ति । ताणं च जम्मंतरोवज्जियविसयसुहमणुहवंताणं वच्चए कालो । 1 अन्नया य पसूया जयसिरी एगसमएण चेव पुत्तजुयलयं । समए य पइट्ठावियाइं ताण णामाइं पढमस्स पुहइसारो, बीयस्स कित्तिदेवो त्ति । सो य राया देवी य सावगाणि विसुद्धसम्मत्तसंजुत्ता-णुव्वयधराणि । तओ ताणि ते पुत्ते पाडिंति जिणबिंव - गुरूणं पाएसु । ण य पडंति, बला पाडिज्जंता आरडंति । तओ पवड्ढमाणा जाव जाया अट्ठवारिसिया ताव सिक्खाविया बाहत्तरी कलाओ, ण य मणागं पि धम्मे पयट्टंति । तओ चोइया जणएण जहा 'करेह पुत्त ! तिकालं चेइयवंदणं, पज्जुवासेह साहुणो' इच्चाई | य किंचि पडिवज्जंति जाव जाया जोव्वणत्था । तओ अन्नया कयाइ कित्तिदेवस्स पुव्वकम्मदोसेणं जायं ८ 1 १. वा० सु० च, जं च गगण, सं० प्रत्यादर्शे पाठोऽयं त्रुटितः ॥ २. वा० 'यमंजुयं, सं० सु० प्रत्योः पाठत्रुटिः ॥ ३. ला० °रसरिच्छं ॥ ४. ला० 'परिकिण्णो ॥ ५. ला० सुवन्नं ॥ ६. वा० सु० °यं । मयट्ठा', सं० प्रतौ पाठभङ्गः ।। ७. ला० तरिं ॥ ८. ला० नइ किंचि ।। ९. ला० पुव्वकम् ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीसार- कीर्तिदेवकथानकम् ८१ अईवकिसं सरीरं सत्तिवियलं च जाव तिणं पि फुज्जीकाउं ण सक्केइ, गहिओ य महावेयणाए । समात् य रायणा वेज्जा जहा 'लहुं पउणीकरेह कुमारं ' । समाढत्ता य विज्जेहिं किरिया । ण जाओ विसेसो । तओ पउत्ताणि मंत-तंत-जंताईणि, ऊसरवावियबीयं व ताणि वि जायाणि णिप्फलाणि । तओ भणिओ राइणा ‘वच्छ ! विसमो ते वाहिवियारो, न गम्मो पुरिसयारस्स, ता करावेहि जिणाययणेसु महापूयाओ, पडिलाभेहि साहुणो, देहि दीणा - ऽणाहाईणं महादाणाई, पडिवज्जसु सम्मत्तमूलाई अणुव्वयाई, करेहि जहासत्तीए तवं भावेहि भावणाओ' । एवं भणिओ वि जाहे ण पडिवज्जइ ताहे चिंतिउं पयत्तो राया 'अहो ! गुरुकम्मयाए माहप्पं ! जेण आवइकाले वि चोइज्जंता वि एए न पयट्टंति धम्मे । एत्थंतरम्मि समागंतूण विण्णत्तं कल्लाणदेवाहिहाणेण उज्जाणपालेर्ण जहा 'देव ! वद्धाविज्जसि पीईए जओ समागओ इत्थ कुसुमाऽऽयरोज्जाणे करयलकलियकुवलयफलं व परिकलियसयलते लोक्क समत्थपयत्थसत्थवित्थारपरमत्थवित्थारो अणेगसमणगणपरिवुडो देवदाणववंदिज्जमार्णपयपंकओ संजमसिंहसूरी णाम केवली' । तव्वयणसवणाणंतरं च कयंबपुप्फं व संजायपयडपुलयकंटएण भणियं राइणा 'अरे ! लहुं पउणीकरेह सामग्गिं, जेण गच्छामो भगवओ वंदणत्थं' । संपाडिओ णरणाहाऽऽएसो महंतएहिं । गओ राया उज्जाणं । तिपयाहिणापुरस्सरं वंदिऊण उवविट्ठो सुद्धमहीवट्ठे । पत्थुया य भगवया धम्मदेसणा । अवि य— धम्म सुतरुमूलं धम्मो दुहसेलदलणदढकुलिसं । जहचिंतियऽत्थसंपाडणम्मि चिंतामणी धम्मो ॥३॥ सामीण परमसामी बंधूणं परमबंधवो धम्मो । मेत्ताण परममेत्तं संगामजयावहो धम्मो ||४|| तियसाहिवासगेहारोहणसोवाणपंतिया धम्मो । अपवग्गमग्गपट्ठियजियाण वरसंदणो धम्मो ।।५।। किं बहुणा ? पडिवज्जह धम्मं जिणइंददेसियमुयारं । भो भो ! जइ णिव्विण्णा भवभमणपरंपरदुहाओ ।६। ताऊ पुच्छयं राइणा 'भगवं ! किं मम पुत्ता अणेगहा भण्णमाणा वि धम्मं ण पडिवज्जंति?, कित्तिदेवस्स य किं महंतो वाहिवियारो' ? | भगवया भणियं 'अत्थि इत्थ कारणं, किंतु आणेह कुमारे मम सयासे, जेण साहेमि सव्वं सवित्थरं । तओ बीयदिणे मायापीईहिं उवरोहिऊण णीया ते गुरुसमीवं, निसण्णा य भयवओ पायमूले । तओ पुणो विमा भगवया धम्मका । अवि य १४ इत्थं संसारकंतारे सरंताण सरीरिणं । सया वि सुलहं णेय सम्मत्तं सुहकारणं ।।७।। १. वा० 'ओ महा" । सं० सु० प्रत्योः पाठभङ्गः ॥ २. ला० १ दाणं ॥ ३. वा० सु० तओ । सं० प्रतौ पाठभ्रंशः ॥ ४. ला० पवत्तो ॥ ५ ला० म्मि यसमा ॥ ६. ला० पालएणं ॥ ७. सं० वा० सु० मत्थो अणे ॥ ८. ला० णपायपं ॥ ९. ला० सूरिनामो ॥ १०. ला० मंतीहिं ॥ ११. ला० 'ओ य राया ॥ १२. ला० 'या भग° ॥ १३. ला० जिणयंद ॥ १४. सं० वा० सु० ०त्ता धम्मकहा भगवया । अ° ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे कयाइ कम्मविवरेण तं लभ्रूण वि पाणिणो । अन्नाणमोहमूढप्पा विराहेति तयं पुणो ।।८।। विराहिएण तेणेह संकाईएहिँ जंतुणो । ण लहंति पुणो बोहिं दुहपव्वयदारणिं ।।९।। सारीर-माणसाइं च ते दुक्खाइं लहंति य । तिक्खाई घोररूवाइं उवमा जाण ण विज्जई ।।१०।। सुणेह एत्थ अत्थम्मि कहेजंतं कहाणयं । मए, संजायए जेणं दढो तुम्हाण पच्चओ ।।११।। तओ भणियं राइणा कहेह भयवं ! दत्तावहाणा अम्हे' । भयवया भणियं अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे इहेव सलिलावईविजए तिलयउरं णाम णगरं । तत्थ य सूरप्पहो णाम राया। चंदसिरी से महादेवी । इओ य तम्मि णयरे अत्थि सयलनगरसेट्ठिवरिट्ठो णागसेट्टी । णागसिरी णाम से भारिया। ताण य सयलिंदियाणंदमणहरं पंचप्पयारं विसयसुहमणुहवंताणं वच्चए कालो । अन्नया य पहाणसुमिणसूइयं जायं णागसिरीए पुत्तजुयलं । वद्धाविओ य सेट्ठी पियंकराहिहाणाए दासचेडीए । तीए पारिओसियं दाऊण कयं सेट्ठिणा वद्धावणयं। णिवत्तियबारसाहे पइट्ठावियाई पुत्ताण णामाई वीरचंद सूरचंद त्ति । पंचधावीपरिग्गहिया य जाया अट्ठवारिसिया । गाहियाओ कलाओ, जाव पत्ता णवजोव्वणं । परिणाविया य तयणुरूवाओ भारियाओ । ताहि य समं उदारभोगे भुंजमाणा चिट्ठति । __ अन्नया कयाई जणयसमेया समारूढा पासायावलोयणे । जाव णगरसोहं णियच्छंति ताव ण्हायं सियनेवत्थनेवत्थियं सव्वालंकारभूसियं हत्थगयपुप्फाइपूओवयारं एगदिसिं निग्गच्छमाणं पेच्छंति पभूयजणसमुदायं। तं च दद्दूण पुच्छियं तेहिं 'किमज्ज णयरे कोइ महसवो जेणेस लोगो वच्चइ ?' । तओ विण्णायवुत्तंतेण कहियमेगेण पुरिसेण जहा ‘ण इत्थ महूसवो किंतु अइसयणाणी को वि समागओ उज्जाणे, तस्स वंदणत्थमेस लोगो वच्चई' । एयं सोऊण भणियं तेहिं 'जइ एवं तो पउणीकरेह रहवरे, जेण अम्हे वि गच्छामो' । वयणाणंतरमेव पउणीकयं सव्वं निउत्तपुरिसेहिं । तओ महाविभूईए गया उज्जाणं जाव दिट्ठो धम्मो व मुत्तिमंतो चउणाणाइसयसंपण्णो अणेयजणपज्जुवासेजमाणचरणसरोरुहो विसुद्धधम्म उवइसंतो भगवं मुणिचंदसूरी । वंदिओ भावसारं । णिसण्णा य जहोचिए पएसे । एत्थंतरम्मि य भणियं भगवया धम्म-ऽत्थ-काम-मोक्खा चत्तारि हवंति इत्थ पुरिसत्था । सव्वाण ताण पवरो मोक्खो चिय होइ णायव्वो॥१२॥ तस्स णिमित्तं जत्तो कायव्वो तं, तहा मुणेयव्वं । सम्मत्त-णाण-चारित्तलक्खणं बुद्धिमंतेहिं ।।१३।। १. ला० कहेहि ॥ २. ला० ०लनर-सेटिवरिठ्ठो वसिट्टो नाम सिट्ठी । नागसिरी ॥ ३. सं० वा० सु० 'णयसू ।। ४. सं० वा० सु० य तीए सेट्ठी ॥ ५. सं० वा० सु० "ए । पारि ॥ ६. ला० 'वत्ते य ॥ ७. ला० या य क' ।। ८. ला० रवि भू॥९. ला० को वि ॥ १०. ला० गच्छइ ॥११. ला० विना मोक्खे ॥ १२. ला० तिहा॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ पृथ्वीसार- कीर्तिदेवकथानकम् भिर्णियपयत्थाणं जं सद्दहणं तयं तु संमत्तं । णाणमवबोहरूवं, फरिसणरूवं तु चारित्तं ॥ १४ ॥ उक्तं च त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीव-षट्काय- लेश्याः, पञ्चान्ये चास्तिकाया व्रत समिति - गति - ज्ञान - चारित्रभेदाः । इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितैः प्रोक्तमर्हद्भिरीशैः, प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ।।४१।। ता तत्थ कुणह जत्तं जइ इच्छह मोक्खसोक्खसंपत्तिं । भो भव्वजणा ! सिग्घं किमेत्थ बहुणा पलत्तेणं ? ॥ १५ ॥ गुरुवणं सोउं जणयसमेया कुमारया दो वि । पडिवज्जिऊण सावगधम्मं निययं गया गेहं ॥ १६ ॥ 1 तओ सावयधम्मे महंतं पयत्तमुव्वहंताणं वच्चए कालो । अन्नया असुभकम्मोदयवसेणं वीरचंदस्स जाया वितिगिच्छा । चिंतियं च तेण जहा 'जिणवंदण - जइपज्जुवासणसामाइयकरणाइकिरियाए करेमि सरीरपरिकिलेसं, तहा जिणपूयण - मुणिपडिलाहण- दीणाइदाणाईसु य विहेमि महंतमत्थव्वयं, अत्थि य निस्संदिद्धमेयं जमरिहंताणं भगवंताणं आणाए पयट्टमाणाणं जायंति सग्ग- मोक्खा, किंतु मम भविस्संति किं वा नो ? इति न याणीय ' । विचिगिच्छंतो कालमइवाहेइ । सूरचंदस्स वि अन्नया कयाइ गेहंगणत्थस्स समागयं विविहतवसोसियसरीरत्तणओ किसं धमणीसन्निहं निम्मंससोणियँ किडिकिडियाभूयं अट्ठिपंजरावसेसं साहुजुगलयं । तं च दट्ठूण तस्स जाया विदुगुंछा, चिंतियं च णेण जहा 'परस्स पीडाण कायव्वा एवमप्पणो वि ण जुत्ता, संति य अण्णाणि वि सुहसेवँणाणि दाण-दयाईणि मोक्खसाहणाणुट्ठाणाणि, ता तैहिं वि य मोक्खो भविस्सइ, दंसिओ य अन्नेहिं वि दरिसणेहिं सुकरेण चेवाणुट्ठाणेणं मोक्खो, ता भगवं पि तहा चेव जइ उवइसंतो ता किमेत्थासोहणं हुतं ?' । एवं विइगिच्छं कुणंताणं समागओ अहाउयकालो । ओ विंतिगिच्छादोसेण दूसेऊण सम्मत्तं णिबंधिऊणाऽबोहिलाभाइपुव्वयं कम्मं मरेऊण उप्पण्णा वंतरसुरेसु । सेट्ठी वि कालं काऊण गओ सोहम्मे । तत्तो य चविऊण उप्पण्णो सोहंजणीए नगरीए सिरिदेवस्स सिट्ठिणो जसोहराए भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए । जाओ य कालक्कमेणं । कयं से णामं सीहो त्ति । कलाकलावाईहि य परं १. ला० °णियाणत्थाणं ॥ २. ला० °या य अ° ॥ ३. ला० धमणिसंतयं नि° ॥ ४. सं० वा० सु० यं किडिया ॥ ५. ला० 'जुअलं । तं ॥ ६. सं० वा० सु० वितिगिंछा ॥ ७. ला० ' वणिजाणि ॥ ८. ला० णाणि द्वाणाणि ॥ ९ ला ० तेहि चेव मो ॥ १०. ला० 'वं च वि ॥ ११. ला० विइगिंछा ॥ १२. सं० वा० सु० 'ऊणोप्पण्णो ॥ १३. सं० वा० सु० साहंजणीए ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे पगरिसं उव्वहतो पत्तो जोव्वणं । परिणाविओ य समाणकुल-सील-रूव-जोव्वण-लावण्णसंपण्णं रूविणीणाम कण्णयं । तीए य सह विसेसेण सयलिंदियाणंदमणहरं दोगुंदुगदेव व्व विसयसुहमणुहवंतो गमेइ कालं । अन्नया य सो पाउससिरिसोहासमुंदयावलोयणत्थं समारूढो पासायसिहरं । सा वि य रूविणी तयणुमग्गेण चेव समारुहंती अंतराले चेव चड त्ति विजूए णिवडिऊण पंचत्तं उवणीया । जाओ य हाहारवो । तओ सो सीहो तं तारिसं दळूण विलविउमाढत्तो । अवि य हा हा पिये ! सुरूवे ! मह हिययाणंददायगे ! सुहगे!। सारयपव्वणिससिसमवयणे ! कंदोट्टदलणयणे ! ।।१७।। मिउ-सहिण-कसिण-कुंचिय-दीहर-सुसिणिद्धकुंतलकलावे ! । कत्थ गया मं मोत्तुं दुहियमणाहं गुणणिहाणे !?॥१८॥ एत्थंतरम्मि णिव्वत्तियं सयणेहिं सयलं मयगकिच्चं । तयवसाणे य जाव सो सो गाइण्णो चिट्ठइ ताव ओयरिओ णहयलाओ एगो चारणरिसी । तं च दद्दूण अब्भुट्टिओ णेण । दिण्णमासणं। उवविठ्ठो य भगवं। पत्थुया धम्मदेसणाछलेण तस्साणुसट्ठी जहा-असारो एस संसारो जओ वियरइ सच्छंदप्पयारं इत्थ मच्चू । भणियं च हंदि ! जराधणुहत्थो वाहिसयविइण्णसायगो एइ । .. माणुसमिगजूहवहं विहाणवाहो करेमाणो ।।४।। ण गणेइ पच्चवायं ण य पडियारं चिराणुवत्तिं वा । सच्छंदं हणइ जिए मच्चू सीहो व्व हरिणउले ।।४३।। बहुरोगफडाभासुरवसणविसाणुगयदीहदाढस्स । कत्थ गओ वा चुक्कड़ कयंतकण्हाऽहिपोयस्स ? ।।४४।। न वि जुद्धं न पलायं कयंतहत्थिम्मि अग्घइ भयं वा । ण य से दीसइ हत्थो गेण्हइ य घणं अमोक्खाए ।।५।। जह वा लुणाई, सस्साइँ कासगो परिणयाइँ कालेण । इय भूयाइँ कयंतो लुणाइ जायाइँ जायाइं ।।४६।। १. ला० एणवण(ण्ण)-संप' ॥ २. ला० ०देवो व ॥ ३. सं० वा० सु० 'मुदाया' ॥ ४. सं० वा० सु० णी चेव तयणुमग्गेण समा' ॥ ५. ला० रा चेव ॥ ६. सं० वा० सु० तयावः ॥ ७. ला० 'गाउण्णो॥ ८. ला. व य ओ || ९. सं० वा० सु० 'दाणस्स ॥ १०. ला० 'इ सासा. कासवो ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीसार-कीर्तिदेवकथानकम् ता मा कुणसु विसायं सुंदर ! एसा अणिच्चया सरिसा। हु मच्चुदाढलीढं इंदो वि पहू णियत्तेउं ।१९। किंचसंपत्थियाण परलोगमेगसत्थेण सत्थियाणं व । जइ णाम कोइ पुरओं वच्चइ तो किंथ सोएण? ॥२०॥ कीरइयणाम सोगोमओ यजइतेण वल्लहो एइ । मरमाणो यधरिज्जइ, अहण, तओ किंथसोगेण?।२१। इय उज्झिऊण सोगं सुंदर ! धम्मम्मि उज्जमं कुणसु । जेण इमं दुहपउरं लंघसि संसारकंतारं ॥२२॥ संपेसिओ य अहयं सुगहियणामेण धम्मघोसेण । तुह वयदाणणिमित्तं केवलणाणेण णाऊणा२३। तामाकुणसुविलंब,गेण्हसुमुणिसेवियं इमं दिक्खं ।सयलदुहाचलचयचूरणम्मिबलसूयणऽत्थं व॥२४। इमं च सोऊण संजायचरणपरिणामेण मोयावेऊण जणणि-जणए गहिया तस्स अंतिए दिक्खा। गओ य तेण सह गुरुसमीवे । गहिया य तेण सिक्खा । जाओ य गीयत्थो । णिवेसिओ य गुरुणा णिययपए । सुक्कज्झाणाणलेण य डहेऊण घणघायकम्मेंधणं उप्पाडियं केवलणाणं । विहरंतो य पत्तो इत्थ सो यअहयं ति। ते य दो वि वीरचंद-सूरचंदा वंतरेहिंतो चइऊणोप्पण इत्थेव सिरिउरणयरे । जाव इत्तियं जंपइ भगवं ताव मुच्छावसेण दो वि कुमारया पडिया धरणिवढे । तओ सित्ता चंदणजलेण, वीइया वत्थंचलाइणा, खणंतरेण य जाया सत्था । पुच्छिया य राइणा वेच्छा ! किमेयं ?' ति । कुमारएहिं भणियं 'ताय ! अइदुरंतं महामोहविलसियं, जओ अम्हाण पडिबोहणत्थं अम्ह चेव संतियं भगवया इमं चरियमाइक्खियं, पच्चक्खीभूयं च सव्वमम्हाणं जाइस्सरणाओ । अहह परलोयचिंतियदुक्कडकम्मस्स इत्तिओ जाओ। विरसो अम्ह विवागो चिंतितो वि दुव्विसहो ।२५। अहवा अम्ह सरिच्छो पाविट्ठो एत्थ णत्थि को वि जिओ । सव्वण्णुणो वि वयणे जेहिँ विगिच्छा कया एवं' ॥२६।। अह भणइ कित्तिदेवो 'महमोहविमोहिएण ताय ! मए । विदुगुंछाए अप्पा कह खेत्तो दुक्खमज्झम्मि? ।।२७।। णिस्संग-णिम्ममाणं णिरहंकाराण गुणसमिद्धाणं । विदुगुंछाए अहवा कित्तियमैयं फलं ताय! ? ।।२८॥ जम्हा विदुगुंछाए बहुविहदुक्खाणि घोररूवाणि । अणुहवमाणा जीवा भमंति संसारकंतारे ।।२९।। १. ला० नहि ॥ २. ला० दहिऊण घणघाइकम्मिंध ॥ ३. ला० अहं ति ॥ ४. ला० चविऊ ।। ५. ला० वच्छ ! ॥ ६. ला० हूयं ॥ ७. ला० परिचिंतियस्स वि, दुक्क ॥ ८. ला० 'टो नत्थि एत्थ ॥ ९. ला० दुहसमुद्दम्मि || १०. सं० वा० सु० 'मेत्तं ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे ता संपाडेस्सामो संपयं भयवओ तुम्हाणं च जमभिमयं' ति । राइणा भणिय ‘जाय ! धम्मपडिवत्तिकरणमेव अम्हाणमभिमयं' । तओ वंदिऊण भयवंतं विण्णत्तं तेहिं भगवं! आइससु संपयं जमम्हेहिं कायव्वं' । भगवया वि तज्जोगयं णाऊण उवइट्ठो तेसिं सावगधम्मो । पडिवण्णो य तेहिं भावसारं । एत्थंतरम्मि य करकमलमउलं उत्तमंगे काऊण विण्णत्तं णरणाहेण 'भयवं! जाव कुमारे रज्जे अहिसिंचामि ताव तुम्भं पायमूले सव्वसंगपरिच्चारण सफलीकरेस्सामि करिकण्णसरिसं मणुयत्तणं' । भगवया भणियं 'देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेजासि' । तओ ‘इच्छं' ति भणिऊण गओ णरवई णियोहे । आपुच्छेऊण मंति-सामंताइणो तयणुमएण य कओ पुहइसारस्स रज्जाभिसेओ, कित्तिदेवस्स य भगवओ पहावेण धम्मसामत्थेण य अवगयरोगस्स जुवरजाभिसेओ। अण्णं पि सव्वं रज्जसुत्थं काऊण महाविभूईए निक्खंतो राया । पालिऊण य अहाउयं जाव णिक्कलंकं सामण्णं अंतगडकेवली होऊण गओ सव्वदुक्खविमोक्खं मोक्खं ति । इयरे वि जाया पयंडसासणा महारायाणो । तओ तिवग्गसंपायणपराणं रजसुहमणुहवंताणं वच्चए कालो। अन्नया य राईए चरमजामेसु दक्खजागरियं जागरमाणाणं जाया चिंता जहा 'जम्मंतरकयविगिंछाकम्मविवागं दद्दूण वि हा ! कहमियाणिं अणेगावायकारए दुग्गइगमणपउणमग्गे आयास-किलेसावासे पमायपरममित्ते असुहज्झवसाणणिबंधणे रजे गिद्धिं काऊण ठिया एत्तियं कालं ?, ता संपयं पि भयवओ पायमूले गहेऊण दिक्खं करेमो संजमाणुट्टाणे उजमं' । एयावसरम्मि य ताण परिपागसमयं णाऊण समवसरिओ भगवं संजमसिहसूरी। तप्पउत्तिवियाणयमुहाओ य णाऊण भगवओ समागमणं हरिसभरणिब्भरा गया भगवओ वंदणत्थं। वंदेऊण य भावसारं उवविठ्ठा तदंतिए। निसुओ य धम्मो । तओ गुरुणो णिययाभिप्पायं णिवेइऊण पविठ्ठा णगरे। ठाविऊण णियपुत्ते रजम्मि पहाणपरियणेणाणुगम्ममाणा पव्वइया गुरुसमीवं । संवेगाइसयाओ य काऊण तव-संजमाणुट्ठाणेसु, य उज्जमं, पालिऊण य अहाउयं जाव अक्खलियं सामण्णं, कालमासे कालं काऊण उववण्णा सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे तेत्तीससागरोवमाऊ देवा । तओ चडऊण तम्मि चेव विजए रायपरे णगरे रायपुत्ता होऊण सिद्ध त्ति । - [पृथ्वीसार-कीर्तिदेवयो: कथानकं समाप्तम् । १०.] एवं विकित्सा विद्वज्जुगुप्सा वा सम्यक्त्वं दूषयति, अनर्थनिबन्धना चासौ, अत: परिहार्येति । १. ला० 'यं जाव जाइ ! ध ॥ २. ला० यं गई नाऊण || ३. ला० ण्णचंचलं माणुसत्तणं ॥ ४. ला० गेहं, आपुच्छिऊण य मंति ॥ ५. ला० वि ॥ ६. ला० तो ॥ पालि ॥ ७. सं० वा० सु० 'क्खं ति॥ ८. ला० परं र ।। ९. ला० अ ॥ १०. ला० 'मसूरी ॥ ११. ला० 'समीवे ॥ १२. ला० सु उज॥ १३. ला० तत्तो चविऊ ॥ १४. ला० न्धनं ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदासकथानकम् गतं तृतीयदूषणम् । साम्प्रतं चतुर्थम् । तत्र च कुतित्थियाणं पयडा पसंस' त्ति सूत्रावयवः । कुतीर्थिका:=सौगतादयस्तेषाम् । 'प्रकटा' प्रकाशा प्रभूतजनप्रत्यक्षेति भावः । 'प्रशंसा' स्तुतिस्तगुणोत्कीर्तनरूपा। इयं तु प्रच्छन्नापि विधीयमानात्मनः सम्यक्त्वं दूषयति । बहुलोकसमक्षं क्रियमाणान्येषामपि मिथ्यात्वस्थिरीकरणेन महादोषकरीत्येतस्यार्थस्य ज्ञापनार्थं प्रकटविशेषणोपादानम् । यत उक्तं निशीथे— इयरह वि ताव दिप्पड़ मिच्छत्तं अप्पणो सहावेण । किं पुण जो उववूहइ साहू अजयाण मज्झम्मि ? ।। ४७ ।। ८७ अत्र च व्यत्ययेनोदाहरणं सुलसी । सुलसया यथा कुतीर्थिकानां प्रशंसा न कृता, एवमन्येनापि न कार्येति । कथानकं प्राग् भूषणद्वारे थ उक्तं चतुर्थं दूषणम् । सम्प्रति पञ्चमम् । तत्र च ' अभिक्खणं संथवणं च सिं सूत्रावयवः । ‘अभीक्ष्णं' वारंवारम् । 'संस्तवनं' परिचयकरणम् । 'तेषां' कुतीर्थिकानाम् । कथञ्चिद्राजाभियोगादिना सैकृत्तत्संस्तवकरणेऽपि न तस्य दूषणत्वमिति ज्ञापनार्थमभीक्ष्णग्रहणम् । परमिदमपि महतेऽनर्थायेति यत्नतो वर्ज्यम् । अत्र च कथानकम् — [११. जिनदासकथानकम् ] अत्थित्थ जंबुदीवे भारखेत्तस्स मज्झखंडम्मि । सुणिविट्ठगामगोट्ठो तडट्ठिओ णीरणाहस्स |१| बहुदुट्ठधट्ठपररट्ठरायनिन्नट्ठकट्ठभयहिट्ठो । पत्तऽट्ठविसिट्ठजणो लट्ठो रट्ठाण सोरट्ठो ।।२।। तत्थ य महाणरिंदो व्व बहुसरणं, सूरपुरिससत्तुकुलं व बहुविहवं, चित्तयम्मं व बहुवण्णयं, दारिद्दकुलं व बहुपयं, समुद्दो व बहुवाणियं, गंधव्वं व बहुसरं, कुणरिंदो व्व बहुभंड, पलयकालसमओ व्व बहुसूरं, अत्थि उज्जिंतसेलतलवट्ठठियं गिरिणयरं नाम नगरं । तहिं च, विण्णायणवपयत्थो सुपत्त- दीणाइदाणवइयऽत्थो । भावियभावणसत्थो सावयकिरीयाऍ सुपसत्थो । ३ । वज्जियकुस्सुइँसत्थो अणुवय - सिक्खावयाइणियमत्थो । पालियसिट्ठावत्थो जाणियसंसारभावत्थो ।४। पडओ व्व गुणावासो, अद्दिण्णपमायसत्तुअवगासो । जिण आणाकयवासो परिहरियणियाणया ऽऽसंसो ।।५।। कयमिच्छत्तविणासो सिद्धंतस्सवणजणियउल्लासो । दुक्खियसत्ताऽऽसासो सुसावगो अत्थि जिणदासो ।।६।। १. सं० वा० सु० णं सुलसया ॥ २. ला० सा, यथा सुलसया कुतीर्थिक प्रशंसा ॥ ३. सं० वा० सु० सकृत्सं° ॥ ४. ला० 'हवासस्स ॥ ५. ला० दरिद्द ॥ ६. सं० वा० सु० बहुपाणियं ॥ ७. ला० 'इयत्थो ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे सो अन्नया कयाइ संजाए दुभिक्खे अणिव्वहंतो सत्थेण सह पट्टिओ उज्जेणिं । अंतराले य कहिंचि पमायजोगओ भोलिओ सत्थस्स । संबलयं पिं सत्येण चेव सह गयं । तओ अण्णं तहाविहं सत्थमलहंतो मिलिओ भिक्खुसत्थस्स । भणिओ य भिक्खूहिं 'जइ अम्हसंतियं संबलपोट्टलियं वहेसि तो ते भोयणं पयच्छामो' । तओ कंतारवित्तिछिंडियं चित्ते परिभाविऊण वहिउमाढत्तो । दिति य ते सिणिद्धं मोयगाइभोयणं, जओ एवंविहं चेव ते भुंजंति । उक्तं चं नास्तिकमतानुसारिभिः [ग्रन्थाग्रम् २०००] मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, भक्तं मध्ये पानकं चाऽपराह्ने । द्राक्षा खण्डं शर्करा चार्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यसिंहेन दृष्टः ।।४८॥ तहा मणुण्णं भोयणं भोच्चा मणुण्णं सयणासणं । मणुण्णंसि अगारंसि, मणुण्णं झायए मुणी ।।४९।। अन्नया य तेण सिणिद्धभोयणेण तस्स अजीरमाणेण जाया विसूइया, पाउन्भूया महावेयणा। अडवीए य तहाविहपडियाराभावाओ अच्चंतं पीडे जमाणो 'आगाढं' ति परिकलिय रइयपलियंकासणो भणिउमाढत्तो, अवि यसिरिअरहंताण णमो, सिद्धाण णमो, णमो गणहराणं ।उवझायाणं च णमो, णमो सया सव्वसाहूणं ।७। अरहंत-सिद्ध-साहू केवलिपरिभासिओ तहा धम्मो । एए हवंतु निययं चत्तारि वि मंगलं मज्झ ।।८।। एए च्चिय सव्वस्स वि भुवणस्स य उत्तमा अओ चेव । एएसिं चिय सरणं तिविहेणं उवगओ इण्डिं ॥९॥ हिंसा-ऽलिय-चोरिक्का-मेहुण्ण-परिग्गहं तहा देहं । पच्चक्खामि य सव्वं तिविहेणाऽऽहारणामं च ।१०। एवं च णमोक्कारं सुमरंतो अणसणं विहेऊण । चइऊण पूइदेहं सोहम्मे सुरवरो जाओ ।।११।। अइभासुरे विमाणे अन्तमुहुत्तेण चारुरूवधरो । उट्ठइ सयणेजाओ पुलइंतो दिव्वदेवेड्डि ।।१२।। तो किंकरजयसदं सोऊणं चिंतिउं समाढत्तो । 'किं कयमण्णभवम्मी पत्ता जेणेरिसा रिद्धी ?' ।।१३।। तओ ओहिणाणेण जाव णिरूवइ ताव पेच्छइ करुणापवण्णेहिं भिक्खूहि नियायारं काऊण रत्तचीवरेहिं वेढिऊण एगंते परिठवियं णियसरीरं । तओ अहिणवुप्पण्णत्तणेण अव्वत्तत्तणओ ओहिनाणस्स चिंतिउमाढत्तो 'अहो ! अहं भिक्खू आसि, जओ दीसइ रत्तंबरवेढियं मम सरीरयं, ता १. ला० सो य अ ॥ २. सं० वा० सु० च ॥ ३. ला० लयं (य) पोलियं ॥ ४. ला० च तत्समयानुसारिभिः।। ५. ला० मध्ये भक्तं पा || ६. सं० वा० सु० उवज्झया ॥ ७. ला०वि लोगस्स विउत्त॥ ८. ला. “सरीरयं ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीसार- कीर्तिदेवकथानकम् ८९ महापभावं खु एर्यं बुद्धदरिसणं जप्पभावेणं एरिसो जाओ म्हि, ता करेमि संपयं भिक्खूण भत्तिं' ति। संपहारिऊण समागओ उज्जेणिं । वंदिया भिक्खुणो । विहारमज्झट्ठियाण य ललियसयलाभरणविभूसिएणं हत्थेण परिवेसइ देवणिम्मियं मणोहराहारं दिने दिने । जाओ बुद्धसासणस्स वण्णवाओ 'अहो ! जयउ बुद्धदरिसणं जस्सेरिसो पहावो' । धणियं मोहाविज्जंति सावया । इत्थंतरम्मि य अहाविहारेणं विहरमाणो समागओ धम्मघोसाहिहाणो सूरी । तव्वंदणणिमित्तं च गया सावगा । वंदिऊण य साहिओ सव्वो वृत्तंतो । विण्णत्तं च जहा तुब्भेहिँ वि नाहेहिं जइ एवं पवयणं जिणिंदाण । ओहामिज्जइ धणियं, ता संपइ कस्स साहेमो ? |१४| ता तह करेहि भयवं ! जिणसासणउण्णई जहा होइ । तुब्भे मुत्तूण जओ न एयकज्जक्खमो अण्णा' |१५| ओ सूरीहिंसुओवओगपुव्वयं जाणेऊण तस्सरूवं पेसिओ एगो साहुसंघाडगो, भणिओ य जयाभिक्खुणो तुम्हं तेण हत्थेण भत्तं पयच्छावेंति तया तुब्भे तं हत्थं हत्थेण गहिऊण नमोक्कारं पढित्ता एवं भणेज्जह 'बुज्झ गुज्झगा ! बुज्झ, मा मुज्झ' । 'इच्छं' ति भणिऊण साहुणो गया बुद्धविहारं । ते वि भिक्खुणो साहुणो इंते दहूण इड्ढीगारवेण सम्मुहं गंतूण भणति 'एह एह जेण तुब्भं पि देवणिम्मियमाहारं पयच्छामो' । साहुणो वि गया जत्थ सो हत्थो परिवेस । भिक्खुव जाव साहूणं पि दाउमाढत्तो ताव साहूहिं णियहत्थेण गहेऊण णमोक्कारपढणपुव्वयं भणिओ 'बुज्झ गुज्झगा ! बुज्झ, मा मुज्झ' । तं च सोऊण जाव ओहिणाणेण सम्ममाभोगेइ ताव सम्मं वियाणिऊण णियसरूवं पडिबुद्धो, मिच्छादुक्कडं दाऊण णिययरूवेण साहुणो वंदेत्ता, 'इच्छामो अणुसट्ठि' ति भत्ता, अट्टट्टहासं मोत्तूण, गओ गुरुसमीवं । तओ य मउडविराइयसीसो मणिकुंडलजुयलघट्टगंडयलो । हार - ऽद्धहार - तिसरय- पालंबोत्थइयवच्छ्यलो।१६। वरकडय-तुडियभूसियवेल्लहलोव्विल्लमाणभुयजुयलो । कणयमयमुद्दियप्पहपिंगीकयकोमलंगुलिओ ॥ १७ ॥ कलकणिरकिंकिणीजालकलियरयरहियदेवदूतधरो । भूलियमउलिमालो पणमेत्ता सूरिपयकमले ||१८|| करकमलमउलमउलं सिरम्मि रइऊण जंपई तो सो । 'सम्मं अणुग्गहीओ भगवं ! तुब्भेहिं अज्जाहं । १९ । संसारपारवारे अणोरपारम्मि घोरदुहपउरे । मिच्छत्तमोहियमई निवडतो अन्नहा णिययं ।। २० ।। इय भणिय गओ जिणमंदिरेसु काऊण तत्थ महिमाओ । भत्तिभरणिब्भरंगो उव्वेल्लभुओ पणच्चेइ । २१ । १. सं वा० सु० यं (भि) क्खुदरि ॥ २. ला० व्वो वि वुत्तं ॥ ३. सं० वा० सु० प्रतिलेखकैरस्या गाथायाः पादत्रयं पूर्वस्मात् प्रत्यादर्शान्नोपलब्धम्, तत्प्रमाणा पङ्क्ति स्व-स्वपुस्तके रिक्ता मुक्ता ॥ ४. ला० तो ॥ ५. सं० वा० सु० एहि एहि ॥ ६. ला० ण य जाव ॥ ७. सं० वा० सु० 'णमाभो' ॥ ८. ला० नियरू ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे जंपइ य लोयपुरओ एसो जिणइंददेसिओ धम्मो । संसारोत्तरणसहो अवंझबीयं सिवतरुस्स ।।२२।। ताभो ! करेह जत्तं, इत्थेव य, किं व बहुपलत्तेण?' । तत्तो बहुलोगेहिं पडिवणं जिणमयं तइया ।२३। एवं च वण्णवायं काऊणं सासणस्स सो तियसो । उप्पइय णहयलेणं पत्तो तियसालयं झत्ति ।।२४।। तम्हा आईओ च्चिय ण कायव्वो परपासंडसंथवो इति ।। [जिनदासकथानकं समाप्तम् । ११] गतं पञ्चमं दूषणम् । एतानि च दर्शनं दूषयन्ति । यत आह दूसंति सम्मत्तमिमे हु दोस' त्ति सूत्रावयवः । ‘दूषयन्ति' मलिनीकुर्वन्ति सम्यक्त्वम् । एते' पूर्वोक्ता: । 'हुः' पूरणे । 'दोषा:' दूषणानीति वृत्तार्थः ।।९।। उक्तं मूलद्वारवृत्ते दूषणद्वारम् । सम्प्रति लिङ्गद्वारोपदर्शनार्थं वृत्तमाह सुहावहा कम्मखएण खंती, संवेग णिव्वेय तहाऽणुकंपा । अत्थित्तभावेण समं जिणिंदा, सम्मत्तलिंगाइमुदाहरंति ।।१०॥ 'सुहावहा कम्मखएण खंति' त्ति 'सुखावहा' शर्मोत्पादिका, ‘कर्मक्षयेण' तदावरणविनाशेन, 'क्षान्ति:' उपशमरूपा, सम्यक्त्वलिङ्गं भवति । उक्तं च पयईए णाऊणं कम्माणं वा विवागमसुहं ति । अवरद्धे वि ण कुप्पइ उवसमओ सव्वकालं पि ॥५०॥ 'प्रकृत्या' सम्यक्त्वाणुवेदकजीवस्वभावेन । 'कर्मणां' कषायनिबन्धनानाम् । अशुभविपाकं यथा-कषायाविष्टोऽन्तर्मुहूर्तेन यत् कर्म बध्नाति तदनेकाभि: सागरोपमकोटीकोटीभिर्दुःखेन वेदयतीत्येवं ज्ञात्वा । अत्र च सुखावहत्वविशेषणं क्षान्तेनि:शेषगुणत्नाधारत्वोपलक्षणार्थमुक्तम् । उक्तं चक्षान्तिरेव महादानं क्षान्तिरेव महातप: । क्षान्तिरेव महाज्ञानं क्षान्तिरेव महादमः ।।५१।। क्षान्तिरेव महाशीलं क्षान्तिरेव महाकुलम् । क्षान्तिरेव महावीर्यं क्षान्तिरेव पराक्रमः ।।५२।। क्षान्तिरेव च सन्तोषः क्षान्तिरिन्द्रियनिग्रहः । शान्तिरेव महाशौचं क्षान्तिरेव महादया ।।५३।। क्षान्तिरेव महारूपं शान्तिरेव महाबलम् । शान्तिरेव महैश्वर्यं धैर्य क्षान्तिरुदाहृता ।।५४।। शान्तिरेव परं ब्रह्म सत्यं क्षान्तिः प्रकीर्तिता ।क्षान्तिरेवपरामुक्तिःक्षान्तिः सर्वार्थसाधिका।५५ शान्तिरेव जगद्वन्द्या क्षान्तिरेव जगद्धिता। क्षान्तिरेव जगज्ज्येष्ठा शान्तिः कल्याणदायिका ५६ १. ला० 'गेणं ॥ २. मुपा० त्ति ॥२४॥ ता केत्तिया एवंविहा सूरिणो भविस्संति जे एवं पडिबोहिस्संति । तम्हा आईओ॥ ३. सप्तमवृत्ते ॥ ४. ता० गाणि मुदा ॥ ५. ला० गुणाधार ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वस्य लिङ्गानी श्रद्धानानि च क्षान्तिरेव जगत्पूज्या क्षान्तिः परममङ्गलम् । शान्तिरेवौषधं चारु सर्वव्याधिनिबर्हणम् । ५७। क्षान्तिरेवारिनिर्णाशं चतुरङ्गं महाबलम् । किं चात्र बहुनोक्तेन सर्वंक्षान्तौ प्रतिष्ठितम् ।।५८।। इति प्रथमं लिङ्गम् । ‘संवेग'त्ति ‘संवेगः' मोक्षाभिलाष: । उक्तं च णर-विबुहेसरसोक्खं दुक्खं विय भावओ उ मण्णंतो । संवेगओ ण मोक्खं मोत्तूणं किंचि पत्थेइ ।।५९।। (धर्म० गा० ८०९) इति द्वितीयं लिङ्गम् । 'निव्वेय' त्ति 'निर्वेदः' संसारोद्वेगः । उक्तं च णारय-तिरिय-णरा-ऽमरभवेसु णिव्वेयओ वसइ दुक्खं । अकयपरलोगमग्गो ममत्तविसवेगरहिओ वि ।।६०।। (धर्म० गा० ८१०) कथम्भूतः सन् दुःखं वसति ? 'अकृतपरलोकमार्ग:' अनासेवितसदनुष्ठान इत्यर्थः । 'ममत्वविषवेगरहितोऽपि' प्रकृत्या निर्ममत्व एव, विदिततत्त्वत्वाद् । इति तृतीयं लिङ्गम् । 'अणुकंपत्ति, ‘अनुकम्पा' दुःखितप्राणिदया । उक्तं च दट्टण पाणिणिवहं भीमे भवसागरम्मि दुक्खत्तं । अविसेसओऽणुकंपं दुहा वि सामत्थओ कुणइ ।।६१।। (धर्म० गा० ८११) 'अविशेषत:' आत्मीयेतरविचाराभावेन । 'द्विधापि' द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यत: प्राशुकपिण्डादिदानेन, भावत: सद्धर्मयोजनया । इति चतुर्थं लिङ्गम् । 'अत्थित्तभावेणं'ति, ‘अस्तित्वभावेन' जीवादिपदार्थविद्यमानतापरिणामेन । उक्तं चमण्णइ तमेव सच्चं णिस्संकं जं जिणेहिं पण्णत्तं । सुहपरिणामो सव्वं कंखाइविसोत्तियारहिओ ।।६२।। (धर्म० गा० ८१२) 'समं'ति सह । इति पञ्चमं लिङ्गम् । 'जिणिंद'त्ति, 'जिनेन्द्राः' तीर्थकृतः । 'सम्मत्तलिंगाणि'त्ति, 'सम्यक्त्वलिङ्गानि' सम्यग्दर्शनचिह्नानि । 'उदाहरंति' त्ति, ‘उदाहरन्ति' कथयन्तीति वृत्तार्थः ।।१०।। . . ---...... उक्तं मूलद्वारवृत्ते लिङ्गद्वारम् । साम्प्रतं श्रद्धानद्वारप्रतिपादनाय वृत्तमाहजीवाइवत्थूपरमत्थसंथवो, सुदिट्ठभावाण जईण सेवणा। दूरेण वावण्ण-कुदिट्ठिवजणा, चउव्विहं सद्दहणं इमं भवे ।।११।। १. सं० वा० सु० प्रथमलि' ॥ २. सं० वा० सु० द्वितीयलि' ॥ ३. सप्तमवृत्ते ॥ ४. ला० "नप्रति ॥ ५. सं० वा० सु० सेवणं ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे 'जीवाइवत्थूपरमत्थसंथवो'त्ति जीवनात् प्राणधारणाजीवा: पृथिव्यप्-तेजो-वायु-वनस्पतिद्वि-त्रि-चतुः-पञ्चेन्द्रिया-ऽनिन्द्रियभेदाद् दशधा, ते आदिर्येषामजीव-पुण्य-पापा-ऽऽश्रव-संवरनिर्जरा-बन्ध-मोक्षाणां तानि जीवादीनि, तानि च तानि वस्तूनि पदार्था जीवादिवस्तूनि । तेषां परमार्थेन-वस्तुवृत्त्या, संस्तव: परिचयः, परमार्थसंस्तवः तत्त्वपरिज्ञानम् । तेन च सम्यक्त्वं श्रद्धीयते। यत: परमत्थेणं जीवाइवत्थुतत्तत्थवित्थरविहन्नू । जो तम्मि सद्दहेजइ जीवो णियमेण सम्मत्तं ।।६३।। अतस्तच्छ्रद्धानं भण्यते । अत्र च कौतुकादिना मिथ्यादृष्टयोऽपि जीवादिवस्तुपरिचयं कुर्वन्ति तन्निराकरणार्थं परमार्थविशेषणोपादानम् । इत्याद्यं श्रद्धानं ।। 'सुदिट्ठभावाण जईण सेवा'त्ति सुष्ठ अतिशयेन यथाववृत्त्या, दृष्टाः अवलोकिता:, भावा:=पदार्था यैस्ते, तथा यतयः-साधवः, तेषाम् । 'सेवना' पर्युपासना । सा श्रद्धानं भवति, यतस्तयापि सम्यक्त्वं श्रद्धीयत इति । अत्र च सम्यगविज्ञातपदार्थयतिनिषेधार्थं सुदृष्टभावविशेषणम्, यस्मादगीतार्थयतिपर्युपासनातो न केवलं सम्यग्दर्शनं न श्रद्धीयते किन्तु तद्देशनाश्रवणत उभयोरप्यनर्थः। यत उक्तम् किं एत्तो कट्ठयरं मूढो अणहिगयधम्मसम्भावो । अण्णं कुदेसणाए कट्ठतरागम्मि पाडेइ ॥६४॥ (पञ्चव० गा० १६०३) तथा यद्भाषितं मुनीन्द्रैः पापं खलु देशनापरस्थाने । उन्मार्गनयनमेतद् भवगहने दारुणविपाकम् ।।५।। किञ्चाऽगीतार्थस्य देशनैव न युक्ता । उक्तं च सावज-ऽणवजाणं वयणाणं जो ण याणइ विसेसं । वोत्तुं पि तस्स ण खमं, किमंग उण देसणं काउं ? ।।६६।। भवसयसहस्समहणो विबोहगो भवियपुंडरीयाणं । धम्मो जिणपण्णत्तो पकप्पजइणा कहेयव्वो ।।६७।। इति द्वितीयं श्रद्धानम् । १. सं० वा० सु० सेवणं ति ॥ २. सं० वा० सु० प्रतिषु 'तथा' इति न वर्तते ॥ ३. ला० जाणइ ।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकश्रेष्ठीकथानकम् 'दूरेणं'ति, 'दूरेण' अतिविप्रकृष्टतया । 'वावण्ण-कुदिट्ठिवंजण' त्ति व्यापन्न-कुदृष्टिवर्जना । दृष्टिशब्दस्योभयत्र सम्बन्धाद् व्यापन्ना=विनष्टा दृष्टि:=दर्शनं येषां ते तथा, निह्नवादयः । कुत्सिता स्वच्छन्दानुरूपप्ररूपणया दृष्टिर्येषां ते तथा, यथाच्छन्दादय:। तयोर्वर्जना तद्वर्जना सम्यक्त्वश्रद्धानाय भवतीति तच्छ्रद्धानमुच्यते, यस्मात् तद्वर्जना यतीनामपि दूरादूरतरेणोक्ता किं पुन: श्रावकाणाम् ? इति। उक्तं च वावण्णदिट्ठीहिँ ण चेव संगो, जुत्तो जओ तव्वयणाणि सोउं । जायंति तत्थेव दढाणुरागा, सीसा जहा णिण्हवगाइयाणं ।।६८।। तथा इत्तो चिय तेसिमुवस्सयम्मि तुडिवसमुवागओ साहू । तेसिं धम्मकहाए कुणइ विघायं सइ बलम्मि ।।६९।। इहरा ठवेइ कण्णे तस्सवणा मिच्छमेइ साहू वि । अबलो किं पुण सट्टो धम्मा-ऽधम्माण अणभिण्णो ? ।।७।। इति तृतीय-चतुर्थश्रद्धाने । 'चउव्विहं ति, 'चतुर्विधं चतु:प्रकारम् । ‘सद्दहणं तिश्रंद्धानम्। 'इमं' ति एतत् । ‘भवे'त्ति भवतीति वृत्तार्थः ।।११।। व्याख्यातं मूलद्वारवृत्ते श्रद्धानद्वारम् । साम्प्रतं छिण्डिकाद्वारं व्याख्यानयन् वृत्तमाह रायाभियोगो य गणाभियोगो, बलाभियोगो य सुराभियोगो । कंतारवित्ती गुरुणिग्गहो य, छच्छिंडियाओ जिणसासणम्मि ।।१२।। ‘रायाभियोगो य' त्ति राज्ञः नृपतेरभियोग:=पारवश्यताऽऽज्ञेत्यभिप्रायः । तेन चाऽकल्प्यमपि समाचरन्नातिचरति सम्यग्दर्शनम्, तस्य छिण्डिकात्वेन मुत्कलत्वाद् । अत्र च कार्तिकश्रेष्ठ्युदाहरणम् । तत्सम्प्रदायश्चायम् - १२. कार्तिकश्रेष्ठिकथानकम् अत्थि इह जंबुदीवे भारहखेत्तस्स मज्झयारम्मि । कुरुजणवयम्मि रम्मं वरणयरं हत्थिणायपुरं ॥१॥ तत्थ य राया णिययप्पयावअक्कंतदरियणरणाहो । जियसत्तू णामेणं समत्थगुणरयणसरिणाहो ॥२॥ अण्णो वि सुप्पसिद्धो सेट्ठी णामेण कत्तिओ अस्थि । नेगमसहस्ससामी जीवा-ऽजीवाइतत्तविऊ ॥३॥ १. सं० वा० सु० 'वजणं ति ॥ २. ला० जुत्तो, संगो ज° ॥ ३. ला० वजाइयाणं ॥ ४. सं० वा० सु० श्रद्दधानम् ॥ ५. सप्तमवृत्ते ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे चालेजइ तियसेहिँ वि जो ण वि जिणसासणाओ थिरचित्तो । संवेगभावियप्पा, किं बहुणा ? अभयसारिच्छो॥४॥ बीओ वि तत्थ सेट्ठी पुव्वोइयगुणजुओ महासत्तो । णामेण गंगदत्तो रिद्धीए धणयसारिच्छो ॥५॥ अह अन्नया कयाई वरकेवलणाणकिरणजालेण । उज्जोइयभुवणयलो मुणिसुव्वयसामितित्थयरो ।६। गामा-ऽऽगर-णगराइसु विहरंतो समणसंघपरिकिण्णो । तियसिंदपणयचलणो संपत्तो हत्थिणायउरे।७। देवेहिँ समोसरणे रइए उवविसइ जाव जिणइंदो । तियसा-ऽसुर-नर-तिरिएहिँ पूरियं ता समोसरणं ।८। भगवं पि तओ धम्मं कहेइ णवजलयसरिसणिग्घोसो । सोऊण तयं बहवे पडिबुद्धा पाणिणो भव्वा ।९। इत्थंतरम्मि सो गंगदत्तसेट्ठी भवण्णवोव्विग्गो । वंदेत्तु जिणं विण्णवइ पयडरोमंचकंचुइगो ॥१०॥ 'भगवं ! जा पढमसुयं ठावेमि गिहम्मि ताव पव्वजं । गिण्हामि तुम्ह चलणाण अंतिए मोक्खसोक्खत्थी' ॥११॥ 'मा काहिसि पडिबंध' भणियम्मि जिणेण, तो गिहे गंतुं । ठाविय सुयं कुडुंबे सिबियारूढो विभूईए।१२। गंतुं जिणपयमूले पव्वजं गेण्हिऊण णिरवेक्खो । णिययतणुम्मि महप्पा काऊणोग्गं तवच्चरणं ॥१३॥ णिद्दड्डयायकम्मो उप्पाडियविमलकेवलण्णाणो । मोत्तूण देहकवयं संपत्तो सासयं ठाणं ॥१४॥ एत्तो य तत्थ णयरे णाणाविहतवविसेसखवियंगो । परिवायगकिरियाए उज्जुत्तो सत्थणिम्माओ ॥१५॥ लोएण महिज्जंतो एगो परिवायगो समणुपत्तो । अइगव्वमुव्वहंतो मासंमासेण खवयंतो ॥१६॥ तं सव्वं पि ये णयरं जायं तब्भत्तयं, तओ तं तु । पुरमझेणं इन्तं पाएणऽब्भुट्ठए लोओ ॥१७॥ णवरं कत्तियसेट्ठी णिम्मलसम्मत्तरयणसंजुत्तो । जिणसासणाणुरत्तो अब्भुट्ठइ णेय तं एगो ॥१८॥ एवं च णिएऊणं ईसावसपवणदीविएणं तु । कोवाणलेणसययं अच्वत्थं दज्झए एसो ॥१९॥ अह अन्नया णरेंदो तगुणगणरायरंजिओ अहियं । विण्णवइ पार्यपडिओ भगवं ! पारेह मह गेहे'।२०। पडिवजइ ण य एसो, राया वि य विण्णवेइ पुणरुत्तं । जाव तओ तेण णिवो भणिओ ईसावसगएण।।२१॥ 'जइ परिवेसइ कत्तियसेट्ठी पारेमि तो तुह गिहम्मि' । भत्तिवसणिब्भरेण पडिवण्णं तं णिवेणावि २२ तत्तो कत्तियगेहे राया सयमेव-जाइ सहस त्ति । सेट्ठी वि पहुं दटुं अब्भुट्ठाणाइपडिवत्तिं ॥२३॥ काउंजोडियहत्थो विण्णवई सामि! किंकरजणे वि । अइसंभमकरणमिणं किं कारणमाइसह तुरियं'।२४। १. सं० वा० सु० भणिऊण जि ॥ २. ला० घाइक ॥ ३. ला० वि ॥ ४. ला० त्तस त संजु ॥ ५. सं० वा० सु० णिवेऊणं ॥ ६. ला० ण एसो अ॥ ७. ला० 'ए सययं ॥ ८. सं० वा० सु० ओ सययं। ९. ला० यवडि १०. सं० वा० सु० ईसाइवसगेण ॥ ११. ला० सपरवसेणं ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकश्रेष्ठीकथानकम् राया वि करे घेत्तुं पभणइ ‘मह संतियं इमं वयणं । कायव्वमेव एणं गेहम्मि समागयस्स तए ॥२५॥ पारेंतस्स भगवओ भगवस्स उ मह गिहम्मि तुमए वि । नियहत्थेणं सुंदर ! परिवेसेयव्वमवियारं' ।२६। सेट्ठी वि आह ‘एवं ण कप्पए मज्झ, किंतु तुह वासे । जेण वसेज्जइ कायव्वमेव एवं मए तेण' ।।२७॥ परितुट्ठो णियगेहे गओ णिवो जाव पारणदिणम्मि । हक्कारिओ य सेट्ठी परिवेसइ चेत्तमड्डाए ।।२८।। परिवायगो वि सेट्ठी तजंतो अंगुलीए भुंजेइ । सेट्ठी वि तओ चिंतइ अच्वंतं दूमिओ चित्ते ।।२९।। 'धण्णो कयउण्णो सो मुणिसुव्वयसामिणोसमीवम्मि । तइय च्चियपव्वइओजोसेट्ठीगंगदत्तोत्ति।३०। जइ तइय च्चिय अहयं पि पव्वयंतो जिणिंदपयमूले । परतित्थियपरिवेसणमाईयविडंबणं एयं ।।३१।। न लहंतो' इय चिंतापरस्स भोत्तूण सो णिवगिहाओ । नीसरइ हट्टतुट्ठो परिवाओ विहियसम्माणो ।३२। सेट्ठी वि गिहे गंतुं जेट्टसुयं ठाविउं णियपयम्मि । पभणइ वणियसहस्सं जह अहयं पव्वइस्सामि ॥३३॥ तुब्भे किं च करेस्सह ?' इय भणिया ते तओ पडिभणंति । 'तुब्भे अणुपव्वामो किमण्णमालंबणं अम्हं ?' ॥३४॥ 'जइ एवं णियऊते णिययकुडंबेसु ठाविउं सिग्घं । पउणा होह य' इत्थंतरम्मि एगेण पुरिसेणं ।।३५ ।। वद्धाविओ य सेट्ठी जह ‘भगवं सुर-णरिंदणयचलणो । मुणिसुव्वओ जिणिंदो समोसढो इत्थ णयरम्मि' ॥३६॥ तो हरिसपुलइयंगो सेट्ठी तं भणइ नेगमसहस्सं । 'भो ! पुण्णपभावेणं अजऽम्ह मणोरहा पुण्णा' ।३७ तो सयलं सामगि काऊणं जिणवरिंदपासम्मि । नेगमसहस्ससहिओ पव्वइओ कत्तिओ सेट्ठी ।।३८ । काऊण तवमुयारं संपत्ते मरणदेसकालम्मि । अणुनविय जिणं अणसणविहिणा देहं चएऊण ।।३९ ।। पढमम्मि देवलोगे सोहम्मवडिंसए विमाणम्मि । बत्तीसविमाणाऽऽवासलक्खसामी समुप्पण्णो । ४० एगऽवयारो सक्को, तत्तो चविऊण सिज्झिही इत्थ । परिवायगो विमरिउं जाओ अइरावणो हत्थी।४१। तस्सेव वाहणत्ताएँ अवहिणा तो इमं मुणेऊण । दो रूवाइँ विउव्वइ इंदो वि करेइ दो रूवे ।।४२।। एवं दूमियचित्तो जत्तियरूवाणि सो विउव्वेइ । इंदा वि तत्तिया होंति, जाव एवं पिणवि ठाइ ।।४३।। ताव हरिणा वि वजेण ताडिओ सो तओ सभावत्थो । अभियोगियकम्मेणं सम्मं वहिउं समाढत्तो॥४४॥ __ [कार्तिकश्रेष्ठिकथानकं समाप्तम् । १२] साम्प्रतं द्वितीयछिण्डिका । तत्र च 'गणाभिओगो'त्ति सूत्रावयवः । गण-मल्लादीनां समुदाय १. सं० वा० सु० 'यम्मि त ॥ २. ला० "स्स भए(य भगवस्स भगवओ मह ॥ ३. ला० किं ववसिस्सह ॥ ४. सं० वा० सु० तो ॥ ५. सं० वा० सु० अणुनवि य जिणं अण' || ६. ला० रूवाणि ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे स्तस्याऽभियोग: पारवश्यता । तेन कदाचित् किश्चिदकल्प्यमपि कुर्वन् नातिचरति सम्यग्दर्शनमित्येवमग्रेतनपदेष्वपि व्याख्येयम् । तत्र च कथानकम् [१३. रंगायणमल्लकथानकम् ] अत्थि इह भरहवासे सविलासं णाम पुरवरं रम्मं । तं परिवालइ राया सुरिंददत्तो विगयसत्तू ।।१।। तस्सऽत्थि महादेवी रूववई णाम दसदिसिपयासा । इत्तो य तत्थ णगरे वसंति बहवे पवरमल्ला ।।२॥ विण्णाण-णाण-बल-दप्पगब्वियाकरणदच्छयाकलिया। जुद्ध-णिजुद्धपहाणाअणेगरजेसुलद्धजया ३ पुव्वोइयगुणजुत्तो ताण समत्थाण सेहरो अस्थि । तोसियबहुणरणाहो मल्लो रंगायणो णाम ।।४।। अह अण्णया कयाई कमेण विहरंतया तहिं पत्ता । बहुसीसगणसमग्गा सूरी णामेण धम्मरहा।।५।। ताणं च वंदणत्थं विणिग्गया णरवरिंदमाईया । नीसेसपुरजणा, मयहरो य अह णिग्गओ तुरियं ।।६।। उवइट्ठा सट्ठाणे सूरिं णमिऊण सुद्धभूमीए । सूरी वि कहइ ताणं जिणिंदपहुदेसियं धम्मं ।।७।। ‘मिच्छत्तणीरपुरे कसायपायालकलसगंभीरे । कुग्गाहजलयरगणे मोहावत्ते महाभीमे ।।८।। बहुविहरोगतरंगे आवयकल्लोलमालियाकलिए । मयणग्गिवाडविल्ले संसारमहासमुद्दम्मि ।।९।। निवडतयाण नित्थारणम्मि जाणं व एस जिणधम्मो । ता तत्थेव पयत्तं सिवसुहफलए सया कुणह'।१०। इय सूरिवयणमायण्णिऊण बुद्धा तहिं बहू सत्ता । पव्वजमब्भुवगया, अवरे सुस्सावगा जाया ।।११।। रंगायणो वि घेत्तुं पंचाणुव्वयसमण्णियमुयारं । पवरोवासयधम्म परिसाएँ समं गिहं पत्तो ।।१२।। पुण्णम्मि मासकप्पे सूरी अण्णत्थ विहरिउं पत्तो । रण्णा चामुंडाए महई जत्ता समाढत्ता ।।१३।। रण्णा तत्थाऽऽणत्ता ते मल्ला तेहिं सेहरो भणिओ । 'संवहसु लहुं जेणं वच्चामो' तेण पडिभणियं ॥१४॥ 'भोभो! वच्चहतुब्भे अहयं पुणअजणागमिस्सामि' । तब्भावंणाऊणं पडिभणिओतेहिँ तो एसो ।१५। 'जइ णाऽऽगच्छह तुब्मे अम्हे वि हु णिच्छएण णो जामो'। णाउं गणाभिओगं इच्छावियलो वि सो चलिओ ॥१६॥ पत्तो तहिं, तओ णच्चिओ य, तुट्ठो य णरवई धणियं । पभणइ र रंगायण ! मग्गसु जं तुज्झ पडिहाइ' ॥१७॥ तुट्टेण तेण भणियं ‘जइ एवं तो ण अण्णतित्थेसु । एवमहं जाजीवं पुहईसर ! आणवेयव्वो' ।।१८।। ‘एवं' ति णिवेण तओ पडिवण्णे 'मह पसाय' ई वोत्तुं । पत्तो णियगे गेहे अकलंकं पालिउं धम्मं ।१९। जीयंते संपत्ते अणसणविहिणा समाहिणा मरिउं । जाओ एगवयारो पढमे कप्पे महातियसो ।।२०।। रंगायणमल्लकथानकं समाप्तम् । १३.] १. सं० वा० सु० वि ॥ २. ला० रया ॥ ३. इति ।। ४. सं० वा० सु० पालियं ॥ ५. ला० जाओ पढमे कप्पे, एगवयारो महा ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनदेवकथानकम् सम्प्रति बलाभियोगछिण्डिका । तत्रे च ' बलाभियोगो' त्ति सूत्रावयवः । 'बल' ति बलात्कारेण बलवता केनचित् किञ्चित् कार्यमाणोऽपि नातिचरति दर्शनम् । अत्र कथानकम्— ९७ [१४. जिनदेवकथानकम् ] अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे संखवद्धणो णाम गामो । तत्थ य सावयकुलसमुब्भूओ जीवा -ऽजीवाइपयत्थवित्थरवियक्खणो सामाइयाइकिरियाणुट्ठाणणिरओ मेरु व्व णिच्चलसम्मत्तो जिणदेवो णाम सावगो, ण य कयाइ कस्स वि उवरोहेणावि धम्मविरुद्धमायरइ । सो य अन्नया कयाइ पट्ठिओ गामंतरं । अंतराले य मिलिओ महामिच्छद्दिट्ठिणो णियसालयस्स महेसरदत्तस्स । कया समालिंगणदाणाइया उचियपडिवत्ती । पुच्छिओ य ते जिणदेवो ‘भाउय ! कत्थ तुमं पत्थिओ ?' । तेण भणियं 'धूयाणयणत्थं वसंतपुरणगरं' । इयरेण जंपियं 'जइ एवं तो पट्टेसु, जओ अहं पि तत्थेव पओयणंतरेण गमेस्सामि' । तो पयट्टा दोणि वि । गच्छंताणं कहिंचि जाओ धम्मवियारो । तओ जिणवयणपरिकम्मियमइणा णिरुत्तरीकओ अणेण महेसरदत्तो, पउट्ठो तस्सेसो । गच्छंतेहि य दिट्ठ महाणइतडट्ठियं एगं लोइयं देवउलं । तं च जंपियं महेसरदत्तेण जहा 'एयं संयंभाययणं परमतित्थं, ता वंदामो एत्थ देवं, करेमो परमपवित्तमत्ताणयं' ति । जिणदेवेण भणियं 'अहं अच्वंतं परिस्संतो ता इत्थेव इतीरे वीसमेस्सामि' । तओ विण्णायतयभिप्पायनिच्छएणं महाबल - परक्कमेण भजामि एयस्स मरट्ट इति बाहासु संगहेऊण णीओ तत्थ । धरिऊण य कियाडियाए देवस्स परतित्थियाणं च पाडिओ पाए । जिणदेवो वि 'धिरत्थु संसारवासस्स जत्थेरिसाओ विडंबणाओ पावेज्जंति, ता पडिणियत्तो गिण्स्सामि पव्वज्जं' ति भावेमाणो वसंतपुराओ घेत्तूण णियदुहियं गओ णियगेहं । ठावेऊण पुत्तं कुटुंबे सुगुरुसमीवे पव्वइओ । पालिऊणय णिक्कलंकं सामण्णं मरिऊणोववण्णो सव्वट्ठसिद्धे महाविमा । ओ चुओ खिइपइट्ठिए रायउत्तो होऊण सिज्झिस्सइ त्ति । [ जिनदेवकथानकं समाप्तम् । १४.] उपनयः सर्वत्र स्वबुद्ध्या वक्तव्यः । इदानीं देवाभिओगछिण्डिका । तत्र 'सुराभिओगे' त्ति सूत्रम् । सुर:= देवता तदभियोगाद् नातिचरति दर्शनम् । अत्र च कथानकम्— १. ला ० ' बला' ।। २. ला० कस्स ।। ३. ला० 'यासमाणयणत्थं ।। ४. ला० °नयरे ॥ ५. ला० तो ॥ ६. ला० तओ पय ॥ ७ ला० 'ताण य क ॥ ८. सं० वा० सु० 'णपरिक ॥ ९. ला० 'हाणईत ॥ १०. ला० नईती ॥ ११. ला० भंजेमि ॥ १२. ला० मरहं ति ॥ १३. ला० कियाणयाए । १४. ला० ण निक्क ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे १५. कुलपुत्रकथानकम् अत्थि एगत्थ गामे एगो कुलपुत्तगो । सो य अन्नयाकयाई साहुसंसग्गीए जाओ सावगो। तओ तेण पुव्वपरिचियदेवयाणं परिचत्तं पूयणाइयं, करेइ भत्तिं देव-गुरूणं । अपि य काऊण महापूयं वंदइ तिक्कालियं जिणवरिदे । ताण बलि-ण्हवण-जत्ता-महूसवे कुणइ अणुदियहं ।। भत्तिभरणिब्भरोब्भिज्जमाणरोमंचकंचुयसणाहो । पप्फुल्लवयणकमलो आणंदपवाहपुन्नच्छो ।।२।। 'धन्नो कयउन्नो हं' एवंविहभावणाएँ जिणमुणिणो । पइदियहं पडिलाभइ तह चेव य पज्जुवासेइ ।।३॥ एवंविहं च तं दद्दूण एगा पुव्वपरिचियदेवया पओसमावण्णा मग्गइ पुणो पुव्वपवत्तं पूओवयारं .। ण य सो तीए उत्तरं पि पइच्छइ । तओ तीए भणियं 'जाणिहिसि जइ ण पडिवज्जिहिसि मम वयणं ?' । तेण भणियं 'कडपूयणे ! को तुज्झ बीहेइ ?' । तओ तीए अहिययरपउट्ठाए गावीहिं समं गओ समाणो सगावीओ चेव अवहरिओ से पुत्तो । तेण वि सव्वायरेण गवेसिओ ण य दिह्रो । तओ आउलीहूओ एसो । एत्थंतरम्मि य तीए देवयाए आवेसिया एगा वुड्डणारी, उव्वेल्लियमंगं, कंपाविया सिरोहरा, विहुणिया करयला, आहयं भूमिवटुं, पयत्ता जंपिउँ 'एत्तियमित्तेणं चिय किं भद्द ! समाउलो तुमं जाओ ? । अण्णं पि पेच्छ जमहं करेमि तुह दारुणं दुक्खं ॥४॥ जेणऽट्टदुहवसट्टो जीवियववरोवणं अकालम्मि । पाविसि, इय णाऊणं मह पूयं कुणसु अवियप्पं' ।५। पभणइ तओ य सड्ढो 'जं रोयइ तुज्झ किं पि अन्नं पि। तं कुणसु, तह वि अहयं ण तुज्झ पूर्व करेस्सामि' ॥६॥ णाऊण णिच्छयं सावगस्स जंपेइ देवया एवं । 'तह वि हु पत्तियखंड पि देसु मा कुणसु निब्बंध' ।।७।। तो देवयाभियोगं कलिऊणं सावगो इमं भणइ । 'जइ एवं तो जिणवरपडिमा हेम्मि ठायव्वं ।।८।। जिणपूयणं कुणंतो तुह वि खिविस्सामि पत्तियाखंडं' । तं पडिवज्जइ तो सा आणइ पुत्तं सगावीयं ॥९॥ एवं तु णिक्कलंकं सम्मत्तं पालिऊण एसो वि । जीयस्संते पत्ते संपत्तो देवलोगम्मि।।१०।। [कुलपुत्रकथानकं समाप्तम् । १५.] अधुना पञ्चमछिण्डिका । तत्र 'कंतारवित्ति' त्ति सूत्रम् । कान्तारं छिन्नापाताटवीप्रभृति, तत्र वृत्ति:-वर्तनं निर्वाहस्तयाप्यकल्प्यमपि समाचरन् नातिचरति सम्यक्त्वम् । अत्र च १. ला० कयाइ ॥ २. ला० बीहइ ॥ ३. ला० "उं, अवि य-ए" ॥ ४. ला० यं परिविहेमि ॥ ५. सं० वा० सु० म्मि कायव्वं ॥ ६. ला० "म्मि ॥१०॥ त्ति । अधु ॥ ७. सं० वा० सु० 'ना पर्वताट' ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवानन्दकथानकम् सुराष्ट्राश्रावककथानकम् । तच्च प्राग्दूषणद्वारे प्रतिपादितमिति । इदानीं षष्ठछिण्डिका । तत्र ‘गुरुणिग्णहो य' त्ति सूत्रम् । गुरव:-मातृ-पितृप्रभृतयः । यत उक्तम् माता पिता कलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः ।।७१।। तेषां निग्रह: निश्चय: ‘एतदेवमेव कर्तव्यम्' इत्येवंरूपः, तेनाप्यकल्पनीयमपि कुर्वन् न विराधयति सम्यग्दर्शनम् । अत्र च कथानकम् [१६. देवानन्दकथानकम्] अत्थ इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वच्छाजणवयालंकारभूया कोसंबी णाम णगरी । तत्थ य महाधणवई धणदत्तो णाम सेट्ठी । तस्स य रूवाइगुणगणालं किया जीवाऽजीवाइपयत्थवित्थरवियक्खणा जिणसाहुपयपंकयमहुयरी अत्थि देवई णाम कण्णगा । सा य घरोवरि कंडुगलीलाए ललमाणी दिट्ठा पाडलीउत्तपुरागयभिक्खुभत्तसिरिदत्तसेट्ठिसुएण देवाणंदेणं । तं च दद्दूण विसमसरसरपसरनिवायविहुरिज्जमाणमाणसेणं चिंतियमणेणं ‘अहो ! रूवाइसओ, अहो ! कलाकोसल्लपगरिसो, ता वरावेमि एयं' ति । पेसिया णियपहाणपुरिसा तीए वरणत्थं । 'अण्णधम्मिओ' त्ति काऊण ण दिण्णा पिउणा । तओ तीए लोभेण संजाओ कवड-सावगो। णिरंतरसिद्धंतायन्नणाईहि य परिणओ सम्मं धम्मो, जाओ मेरु व्व णिप्पकंपो । तं च तारिसं दळूण दिण्णा पिउणा से कण्णगा । समुव्बूढा य महाविभवेणं । गओ तं घेत्तूण सणगरं । 'भिण्णधम्माणि मायापित्ताणि' त्ति कयं जुयहरयं । तओ य जिणपूयण-वंदण-ण्हवण-जत्त-बलिकरणमाइणिरयस्स । सज्झाय-ज्झाणपरायणस्स जइसेवणजुयस्स ।।१।। पत्तम्मि विविहदाणं देंतस्स कुतित्थिए चयंतस्स । जा जाइ कोई कालो जणणी-जणगाइ ता तस्स ।२। भणियाइँ भिक्खुएहिं 'किं सो तुम्हाण सन्तिओ पुत्तो। अच्वंतं भत्तो वि हु णाऽऽगच्छइ अम्ह पासम्मि?' ॥३॥ तो तेहिं कहिओ सव्वो सवित्थरो से वुत्तंतो ! भिक्खुएहिं भणियं 'जइ एवं ताआणेह १. दृश्यतां ६४ तमे पत्रे जिनदासकथानकम् ॥ २. सं० वा० सु० ‘रपसर° ॥ ३. ला० माया-वित्ताणि ॥ ४. ला० को वि ॥ ५. ला० तओ तेहिं ॥ ६. ला० तो कहिं (हं)चि आणेह एक्कवारं ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे कहवि एगवारं, तओ पच्छा भलेस्सामि(मो)' । जणणि-जणएहि य भणिओ जहा 'अम्हऽवरोहेण वि अज णिच्छएणं गंतव्वं' । गुरुणिग्गहछिंडियं च चित्ते भाविऊण गओ सो । वंदिया भिक्खुणो विज्जाभिमंतियं च दिण्णं से तेहिं फलं । पुव्वब्भासेण य भक्खियमणेण । परावत्तियभावो य समागओ गेहं । भणियाणि माणुसाणि जहा लहुं मम गिहे भिक्खूण भोयणं सजेह' । तओ हट्ठ-तुट्ठाणि ताणि तहा काउमाढत्ताणि । देवई य भत्तुणो चलचित्तत्तणमसद्दहंती गया गुरुसमीवे । कहिओ वुत्तंतो । तेहि वि समप्पिओ पडिजोगो । दिण्णो तीए तस्स। जाओ सहावत्थो । तओ पुच्छियं तेण 'किमेयं ?' ति । माणुसेहिं भणियं 'तए भिक्खूण भोयणं सज्जावियं' ति । तेण भणियं ‘णाहं जिणजइणो मोत्तूण अन्नेसिं धम्मट्ठा पयच्छामि' । कहिओ य देवईए सव्वो वि परमत्थो । तओ 'गुरुणिग्गहेण मणागं छलिओ मिति भणंतेण ‘फासुएसणिज' ति काऊण पडिलाहिया मुणिणो । [देवानन्दकथानकं समाप्तम् । १६.] तदेवं गुरुनिग्रहेण किञ्चिदकल्प्यमपि कुर्वन् नातिचरति दर्शनम् । परं ‘कियन्त ईदृशा गुरवो भविष्यन्ति?' इति मत्वाऽऽदित एव न विधेयम् । 'छ छि(च्छिं)डियाओ'त्ति ‘षड्' इति संङ्ख्या, 'छिण्डिका:' अपवादा: 'जिणसासणम्मि त्ति, 'जिनशासने' अर्हद्दर्शन इति वृत्तार्थः ।।१२।। व्याख्यातं मूलद्वारवृत्ते छिण्डिकाद्वारम् । साम्प्रतं स्थानकद्वारं विवृण्वन् वृत्तमाह अत्थी य णिच्चो कुणई कयाई, सयाइँ वेइए सुहा-ऽसुहाई । णिव्वाणमत्थी तह तस्सुवाओ, सम्मत्तठाणाणि जिणाहियाणि ।।१३।। 'अत्थी य' त्ति ‘अस्ति' विद्यते, चकारस्यावधारणार्थत्वादस्त्येवेति, जीव इति गम्यते, तत्प्रतिपादकचिलैरिति । उक्तं च चित्तं चेयणसण्णा विण्णाणं धारणा य बुद्धी य । ईहा मई वियका जीवस्स उ लक्खणा एए ।।७२।। (दश० नि० गा० २२४) जो चिंतेइ 'सरीरे णत्थि अहं' स इह होइ जीवो त्ति । ण हु जीवम्मि असंते संसयउप्पायगो अन्नो ।।७३।। (दश० भा० गा० २३) १. सं० वा० सु० 'ट्ठाणि तहा ॥ २. ला० यं । तेण ॥ ३. पु० संज्ञकप्रतौ एतत् 'छलिओ' शब्दगत 'लिओ' इत्यत आरब्धस्य प्रस्ततग्रन्थस्य ९६तमपष्ठस्य त्रयोदशीपंक्तिगत 'पडिलाहिया' शब्दान्तर्गत 'ला' विस्तृतसन्दर्भस्य स्थाने, तथा ला० संज्ञकप्रतौ अत्र सूचित ' लिओ' इत्यत आरब्धस्य प्रस्तुतग्रन्थस्य ९९ तमपृष्ठस्य द्वितीयपंक्तिगत पूरेमि' इत्येतत्पर्यन्तस्य विस्तृतसन्दर्भस्य स्थाने शीलाङ्काचार्यकृताऽऽचाराङ्गसूत्रवृत्तेर्द्वितीयाध्ययनप्रथमोद्देशकवृत्तिगत: सन्दर्भ उपलभ्यते ॥ ४. सं० वा० सु० सङ्ख्यापवादाङ्घि (श्छि)ण्डिका 'जिण ।। ५. सं० वा० सु० "म्मि जिन ॥ ६. सप्तमवृत्ते ॥ ७. सं० वा० सु० वि ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वमाहात्म्यादि १०१ इत्यादि जीवास्तित्वमननं प्रथमं सम्यक्त्वस्थानकम्, अवस्थानमिति भावः । अनेनं नास्तिकमतनिषेधमाह । ' णिच्चो' त्ति, 'नित्यः' अप्रच्युता - ऽनुत्पन्न- स्थिरै केत्वभावः पूर्वकृतस्मरणात्। अनेन च बौद्धमतनिरासाद् द्वितीयं सम्यक्त्वस्थानकमभिहितम् । 'कुणइ’त्ति, ‘करोति’ विदधाति शुभा- ऽशुभानीति सम्बध्यते, एवमेव युक्तियुक्तत्वाद्, अन्यकर्तृकत्वे तु कृ तनाशा-ऽकृ ताभ्यागमादिदोषप्रसङ्गाद् । अनेन तु कपिलमततिरस्करणात्, तृतीयं दर्शनस्थानकमुक्तम् । ‘कयाई सयाई वेएइ सुहा - ऽसुहाई' त्ति ' कृतानि' निर्वर्तितानि । 'स्वकानि' आत्मीयानि । 'वेदयति' अनुभवति । जीव इति गम्यते । 'शुभा - शुभानि' पुण्य-पापानि, 'सुखाsसुखानि' वा पुण्य-पाप- फलजन्यशर्मा - शर्माणि । एतच्चाकर्ता जीव इति दुर्णयनिरासात् चतुर्थं सम्यक्त्वस्थानकम्। ‘निव्वाणमत्थि' त्ति, 'निर्वाणं' मोक्षः सकलकर्मनिर्मुक्तजीवावस्थानमिति भावः । 'अत्थि' त्ति, 'अस्ति' विद्यते तत्प्रतिपादकागम प्रमाणसद्भावात् । अनेन च, दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चिदथ क्षयात् केवलमेति शान्तिम् । ।७४।। जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्, क्लेशक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ।। ७५ ।। इति सर्वाभावप्रतिपादकमोक्षपरदुर्णयनिरासः कृतो भवतीति पञ्चमं दर्शनस्थानम् । 'ह तस्सुवाओ 'ति तथा तस्योपायः, तस्य = मोक्षस्योपायः = तत्प्राप्तिलक्षणः सम्यग्दर्शनादिकः सन्मार्ग इति भावः, “सम्यग्दर्शनज्ञान - चारित्राणि मोक्षमार्ग: (तत्त्वा० अ० १ सू० १) " इति वचनात् । अनेन च मोक्षोपायाभावप्रतिपादकदुर्णयनिरासः कृतो भव [ ? ती] ति षष्ठं सम्यक्त्वस्थानकम् । ‘सम्मत्तठाणाइं’ति सम्यक्त्वस्थानानि=दर्शनावस्थानानि, सम्यक्त्वमेतेषु सत्स्वेव भवतीति भावः । 'जिणाहियाई' ति जिनाहितानि तीर्थकरप्रतिपादितानीति वृत्तार्थः ।। १३ ।। भूषणादीनि प्रतिपाद्य तस्यैव माहात्म्यख्यापकं वृत्तद्वयमाह मूलं इमं धम्ममहादुमस्स, दारं सुपायारमहापुरस्स । पासायपीढं व दढावगाढं, आहारभूयं धरणी व लोए ।।१४।। पहाणदव्वाण य भायणं व, माणिक्क - णाणामणिमाइ - मुत्ता- । सिल-प्पवाला-ऽमललोहियक्ख-सुवण्णपुण्णं व महाणिहाणं ।।१५।। १. ला० न च नास्ति ॥ २. सं० वा० सु० 'कस्वभावः ॥ ३. सं० वा० सु० 'नमभि ॥ ४. सं० वा० सु० 'दक आग° ॥ ५,६ ला० 'वनीं ७. ला० °ख्यापनं ॥ ८. ला० धरणीं व ॥ ९. ला० मुत्त - सि । ता० पु० मोत्ता - सि ॥ १०. सं० वा० सु० खा ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे 'मूलं'ति, मूलमिव मूलं कन्दोऽधोवर्त्ति । ‘इम' एतत् सम्यक्त्वम् । 'धम्ममहादुमस्स'त्ति धर्म एव महाद्रुमः प्रधानतरुर्धर्ममहाद्रुमस्तस्य । तथा च पाडेजइ वायाईहिँ जह उ अनिबद्धमूलओ रुक्खो । तह सम्मत्तविहीणो धम्मतरू नो दढो होइ ।।७६ ।। जह सो चिय दूरंगयमूलो सच्छायओ दढो होइ । तह धम्मतरू वि दढो जायइ सम्मत्तसंजुत्तो ।।७।। 'दार'ति द्वारमिव द्वारं-मुखं प्रतोलीति यावत् । 'सुपायारमहापुरस्स'त्तिं सुष्टु-शोभन: प्राकार:=शालो यत्र तत् सुप्राकारम्, महच्च तद्-बृहत्, पुरं च-नगरं महापुरम्, सुप्राकारं च तन्महापुरं च सुप्राकारमहापुर-मतस्तस्य । तथा हि जह दाररहियणयरं ण किंचि णयरप्पओयणं कुणइ । सम्मत्तदारवियलं तह धम्मउरं पि विण्णेयं ।।७८।। तथा 'पासायपीढं व दढावगाढंति प्रसीदन्ति नयन-मनांसि यत्रासौ प्रासादः देवकुलम्, तस्य पीठं गर्तापूरकः, दृढम् अत्यर्थमवगाढम् आजलान्तभूतलावमग्नम्, तदिव । तथा हि आनीरान्तमहीतलगतगर्तापूरको दृढो यद्वत् । प्रासादो धर्मोऽपि च तद्वत् सम्यक्त्वसंयुक्तः ।।७९।। तथा 'आहारभूयं धरणी व लोए' ति आधार:=आश्रयस्तद्भूतं तत्तुल्यम्, धरणिरिव-भूमिवत्। कस्य ? षष्ठ्यर्थे सप्तम्याः प्रयुक्तत्वाद् लोके-लोकस्य जगतः । तथा हि जह पुहईतलमेयं समत्थलोयस्स होइ आहारो । तह सम्मदंसणं पि य आहारो होइ धम्मस्स ।।८।। तथा ‘पहाणदव्वाण य भायणं व' त्ति प्रधानानि प्रवराणि, तानि च तानि द्रव्याणि च क्षीरादीनि अतस्तेषाम् । चकार: समुच्चये । भाजनं कुण्डादि तद्वत्-तदिव । तथा च कुण्डादिभाजनविशेषविवर्जितस्तु, निःशेषवस्तुनिचयो व्रजति प्रणाशम् । यद्वत् तथा विविधर्मविशेषराशि:, सद्दर्शनप्रवरभाजनविप्रहीण: ।।८१।। तथा 'माणिक्क-णाणामणिमाइ- मुत्ता-सिल-प्पवाला-ऽमललोहियक्ख-सुवण्णपुण्णं व १. ला० 'तो ॥ इति भावना । 'दारं' ति॥ २. सं० वा० सु० मनांसीति प्रासा' ॥ ३. सं० वा. सु० प्रस्तुतत्वाद् ॥ ४. ला० नि चैतानि ॥ ५. सं० वा० सु० 'मुत्त-सि ॥ ६. ला. यखा-सु ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्त्वमाहात्म्यादि १०३ महाणिहाणं'ति माणिक्यानि-महामौक्तिकानि, नाना=अनेकप्रकारा मण्यादय:-चन्द्रकान्ताद्याः, आदिशब्दाद् हीरकादिग्रहः, मुक्ता:-मौक्तिकानि, शिला: स्फटिकोपला:, प्रवालानि-विद्रुमाणि, अमललोहिताक्षाणि निर्मलरक्तरत्नानि, सुवर्णं काञ्चनम्, माणिक्यानि च नानामणयश्चेत्यादिद्वन्द्वः, तैः पूर्ण-भृतं महानिधानवत्-तबृहद्भाजनमिव । तथा हि जह बहुविहमाणिक्काइदव्वपरिपूरियं महणिहाणं । संसारिअणेयसुहाण कारणं होइ जीवस्स ।।८२।। तह बहुविहधम्मविसेससंजुयं संम्मदरिसणमिमं पि । अचंतियनिरुवममोक्खसोक्खसंसाहगं होइ ।।८३।। इति वृत्तद्वयार्थः ।।१४-१५।। एतच्चेदृग्विधं महाप्रभावमत्यन्तदुःप्रापं चावाप्य यद्विधेयं तदाह एयं महापुण्णफलं सहावसुद्धीऍ लभ्रूण अलद्धपुव्वं । जिणाणमाणाएँ पयट्टियव्वं, विसेसओ सत्तसु ठाणएसु ।१६।। 'एयं'ति एतत् पूर्वोक्तम् । ‘महापुण्णफलं'ति महापुण्यफलं-बृहच्छुभसञ्चयकार्यम् । यत: बहुभवकोडीविरइयकम्ममहासेलदलणवरकुलिसं । पाविजइ सम्मत्तं उवज्जिए पुण्णसंघाए ।।८।। मोक्खमहातरुणिरुवहयबीयभूयं विसुद्धसम्मत्तं । जं लब्भइ जीवेहिं तं बहुविहपुण्णमाहप्पं ।।८५।। 'सहावसुद्धीए' त्ति स्वभावशुद्ध्या अकामनिर्जरादिकर्मक्षयावाप्तपञ्चदशाङ्गीक्रमलक्षणया । उक्तं च भूएसु जंगमत्तं, तेसु वि पंचेंदियत्तमुक्कोसं । तत्तो वि य माणुस्सं, माणुस्से आरिओ देसो ॥८६॥ देसे कुलं पहाणं, कुले पहाणे य जाइ उक्कोसा । तीय वि रूवसमिद्धी, रूवे वि बलं पहाणयरं ॥८७॥ १. ला० सारियणेय ॥२. ला० सम्मदंसणमिमं ॥३. ला० सुद्धीअल । ता० सुद्धीय ल ॥४. ला० क्तं महापुण्य ॥ ५. ला० °ण्णपब्मारे ॥६.सं० वा० सु० तीए रू० ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे होइ बले वि य जीयं, जीए वि पहाणयं तु विण्णाणं । विण्णाणे सम्मत्तं, सम्मत्ते सीलसंपत्ती ॥८८॥ सीले खाइयभावो, खाइयभावे वि केवलं णाणं । केवलिए पडिंउण्णे पत्ते परमक्खरे मोक्खो ॥८९॥(प० व० गा० १५६-१५९) [?'लभ्रूणं' ति, ‘लब्ध्वा' प्राप्य ।] ‘अलद्धपुव्वं' ति अलब्धपूर्वम्-अप्राप्तप्रथमम् । तथा हि अट्ठविहकम्मतलसीससूइसरिसस्स मोहणिजस्स । उदहीसरिणामाणं इगुहत्तरिकोडिकोडीओ ।।१०।। जइया जिएहि खवियाओ होंति करणेणऽहापवत्तेण । तइया अउव्वकरणं काउं पावंति सम्मत्तं ।।९१।। "जिणाणं'ति जिनानां मोहमहाराजनिर्मूलोन्मूलनावाप्तजयपताकानाम् । ‘आणाए'त्ति आज्ञायां-तदादेशलक्षणायाम् । 'प्रवर्तितव्यं' प्रवृत्तिर्विधेया । किमविशेषेण ? नेत्याह-'विसेसओ' विशेषत: तदन्यसमधिकतया । ‘सत्तसु'त्ति सप्तसु-सप्तसङ्ख्येषु, स्थानकेषु पात्रविशेषेषु बिम्बादिष्विति वृत्तार्थः ॥१६॥ इदानीं सप्त, स्थानकान्येव नामतः प्रतिपादयंस्तत्कृत्यादेशं वृत्तेनाऽऽहबिंबाण चेईहर-पुत्थयाणं, जिणाण साहूण य संजईणं । आणारुईसावय सावियाणं, समायरेजा उचियं तमेयं ।।१७।। 'बिंबाणं'ति (ण'त्ति) बिम्बानां प्रतिकृतीनाम् । तथा 'चेईहराणं'ति चैत्यगृहाणां= बिम्बाधारभवनानाम्। तथा ‘पुत्थयाणं'ति पुस्तकानां पत्रसञ्चयलिखितागमानाम् । 'जिणाणं'ति (ण'त्ति) जिनसम्बन्धिनाम् । अग्रेतनपदचकारस्यावधारणार्थस्यात्र सम्बन्धात्, तेन जिनानामेव सम्बन्धीनि यानि बिम्ब-चैत्यगृह-पुस्तकानि, न शाक्यादिसत्कांनि । तथा ‘साहूण'त्ति साधूनां सत्क्रियादिगुणान्वितयतीनाम्, यत एवंगुणा एव साधवो भवन्ति । उक्तं च यः सत्क्रियाप्रवृत्त: सज्ज्ञानी निस्पृहः क्षमासहितः । धर्मध्यानाभिरतश साधुरिति कथ्यते सद्भिः ।।१२।। १. ला० य ॥ २. ला. “डिपुण्णे ॥ ३. ला० द्धउव्वं ॥ ४. सं० वा० सु० “सरणा' ॥ ५. ला० 'कोडको ॥ ६. सं० वा० सु० °या होंती कर।। ७. सं० वा० सु० शेषेणेत्याह ॥ ८. ला० पोत्थयाणं ॥ ९. ला० 'क्षमादियुतः ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनप्रतिमावर्णना १०५ तथा 'संजईणं'ति संयतीनां साधुगुणोपेतसाध्वीनाम् । तथा 'आणाईसावय'त्ति विभक्तिलोपाद् आज्ञारुचिश्रावकाणाम् । आज्ञा-भगवदादेशस्तस्यां रुचि:=श्रद्धा येषां ते आज्ञारुचयः, शृण्वन्ति यतिमुखात् साधु-श्रावकसामाचारीमिति श्रावकाः । उक्तं च संपत्तदंसणाई पइदियहं जइजणा सुणेई इ । सामायारिं परमं जो खलु तं सावगं बेंति ।।१३।। आज्ञारुचयश्च ते श्रावकाच-उपासका आज्ञारुचिश्रावकास्तेषाम् । तथा 'सावियाणं'ति श्राविकाणां-पूर्वोक्तगुणयुक्तोपासिकानाम् । 'समायरेज'त्ति समाचरेत्=कुर्यात् । 'उचियं' ति उचितं-सप्तस्थानकयथायोग्यं कृत्यम् । तमेय'ति तदेतद् वक्ष्यमाणं कृत्यमिति वृत्तार्थः ।।१७।। 'यथोद्देशं तथा निर्देशः' इति न्यायमाश्रित्य बिम्बानामुचितं यत् प्राग् विधेयतयोक्तं तद् वृत्तद्वयेन प्रतिपादयति .. जिनबिम्बाख्यं प्रथम स्थानकम् । वजेंदनीलं-इंजण-चंदकंत-रिटुं-उंक-कक्केयण-विहुँमाणं । सुवण्ण-रुप्पा-ऽमलफालियाणं, साराण दव्वाण समुन्भवाओ ।।१८।। महंतभामंडलमंडियाओ, संताओ कंताओ मणोहराओ । भव्वाण णिव्वाणणिबंधणाओ, णिम्मावएजा पडिमा वराओ ।।१९।। 'वज'त्ति वज्राणि-सर्वरत्नप्रधानानि हीरका इत्यर्थः । 'इंदनील' त्ति इन्द्रनीलानि नीलवर्णमहारत्नानि । 'अंजण'त्ति कज्जलरुचिरत्नानि । 'चंदकंत'त्ति चन्द्रकान्ता: रजनिकरकरनिकरसंसर्गनीरक्षरणस्वभावा मणयः। 'रिट्ठ'त्ति रिष्टानि-कृष्णरत्नानि । 'अंक'त्ति अङ्का:-शुभ्ररत्नविशेषाः । 'कक्के यण' ति कर्के तकानिपीतरत्नानि । 'विदुम'त्ति विद्रुमाणि-प्रवालकानि । वज्राणि चेन्द्रनीलानि चेत्यादिद्वन्द्वस्तेषां सम्बन्धिनी: । तथा ‘सुवण्ण'त्ति सुवर्ण-काञ्चनम् । ‘रूप्पत्ति रूप्यं रजतम् । 'अमलफालिय'त्ति अमलस्फटिका:=निर्मलार्कोपला: । सुवर्णं च रूंप्यं चामलस्फटिकाच सुवर्ण-रूप्या-ऽमलस्फटिकाः, तेषां सम्बन्धिनी: । तथान्येषामपि 'साराणं'ति साराणाम् उत्तमानाम् । ‘दव्वाणं'ति द्रव्याणां वस्तूनाम् । ‘समुन्भवाओ'त्ति समुद्भवा: तत्समुत्था: । 'महंत-भामंडलमण्डियाओ'त्ति महच्च तद्-विशालं भामण्डलं १. सं० वा० स० यि ति ॥ २. ला० ०योग्यकत्यम ॥ ३. सं० वा० सु० तमेवं तदे०॥ ४. ला वजिंद ॥ ५. ला० संता य कंता य मणो ॥ ६. सं० वा. सु० वजे ति ॥ ७. सं० वा० सु० सम्बन्धीनि ।। ८,१०. ला० रूप्रं ॥ ९. सं० वा० सु० लस्फाटिका ॥ ११. ला० रूप्रा ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण प्रथम स्थानके च-प्रभाचक्रवालम्, तेन मण्डिता: शोभिता महाभामण्डलमण्डिता: । 'संताउ'त्ति शान्ता: रागद्वेषादि-संसूचकरमणी-प्रहरणादिचिह्नरहितत्वेन प्रशान्ताकृतयः। 'कंताउ'त्ति कान्ता:-दीप्तिमती: । 'मणोहराओ'त्ति मनोहरा:-चित्तानन्ददायिनी: । 'भव्वाणं'ति भव्यानां= मुक्तिगमनयोग्यानाम् । ‘णिव्वाणणिबंधणाओ'त्ति निर्वाणनिबन्धना:-मोक्षहेतुभूताः, विशिष्टभावोल्लासहेतुभूतत्वेन कर्मक्षयकारका इति भावः । उक्तं च पासाईया पडिमा लक्खणजुत्ता समत्तऽलंकरणा । जह पल्हाएइ मणं तह णिजर मो वियाणाहि ।।१४।। दह्रण मणभिरामं पसंतबिंबं जिणस्स भव्वजिया । आणंदपूरियंगा हवंति सिहिणो व्व घणसमए ।।९५।। 'निम्मावएज'त्ति निर्मापयेद्-विधापयेत् । 'पडिम'त्ति प्रतिमा:=प्रतिकृती: । 'पराउ'त्ति परा:=प्रधानाः। इति वृत्तद्वयार्थः ।।१८-१९।। केषां सम्बन्धिनी: प्रतिमा: ? इत्याह जिणेंदचंदाण णरेंद-चंद-नागेंद-देवेंदऽभिवंदियाणं । इति वृत्तार्द्धम् । 'जिणेंदचंदाण'त्ति जिनेन्द्रचन्द्राणाम्, जिना:=अवधिजिनादयः, तेषामिन्द्रा:-स्वामिन: सामान्यकेवलिन:, तेषां चन्द्रा इव चन्द्रा जिनेन्द्रचन्द्राः तीर्थकृतः, तेषां प्रतिमा निर्मापये दिति सण्टङ्कः । कथम्भूतानां तेषाम् ? अत आह-'नरेंद-चंद-नागेंददेवेंदऽभिवंदियाणं'ति नरेन्द्रा: चक्रवर्त्यादय: चन्द्रा:-ज्योतिष्केन्द्राः, नागेन्द्रा: भवनपतिविशेषनायका: शेषभवनपतीन्द्रोपलक्षणमे तत्, देवेन्द्राः त्रिदशपतयः, नरेन्द्राश्च चन्द्राश्चेत्यादिद्वन्द्वः, तैरभिवन्दिता नमस्कृता ये ते तथा [? तेषाम्] । उक्तं च सुर-असुर-जोइसाणं वण-विजाहर-णराण जे पहुणो । भत्तिभरणिन्भरेहिं जिणेंदचंदा णमेज्जंति ।।१६।। तासां प्रतिमानां स्व-परकारितानां यद् विधेयं तद् उत्तरार्धेनाऽऽह कुजा महग्घेहिँ महारिहेहिं, अट्ठप्पगारा पडिमाण पूया ।।२०।। इति वृत्तार्धम् । 'कुंज'त्ति कुर्याद्-विदध्यात् । 'महग्घेहिंति महाघैः-महामूल्यैः । १. पु० जिणिंदयंदाण ॥ २. ला० याणं ति । वृत्ता' ॥ ३. सं० वा० सु० "न्द्राः सामा' ॥ ४. सं० वा० सु० "ता ये ते ॥ ५. ला० तासां च प्र” ॥ ६. ला० ता० 'प्पयारा || ७. सं० वा० सु० प्रतिषु 'कुज त्ति इति पाठो नास्ति । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनपूजावर्णनम् १०७ ‘महारिहेहिं’ति महार्हैः = गौरव्यैः । ' अट्टप्पयार'त्ति अष्टप्रकारा= अष्टभेदा । 'पडिर्माण' त्ति प्रतिमानां=जिनप्रतिकृतीनाम् । 'पूय'त्ति पूजा = सपर्येति वृत्तार्थः ।।२०।। तस्या एवाऽष्टप्रकारपूजायाः प्रतिपादनार्थमाह वृत्तम् — पुप्फेहिं गंधेहिँ सुगंधिएहिँ, धूवेहिं दीवेहिँ य अक्खएहिं । णाणाफलेहिं च घएहिँ णिच्वं, पाणीयपुण्णेहिं य भायणेहिं । । २१ । । ‘पुप्फेहिं'ति पुष्पैः=जात्यादिकुसुमैः, पूजां कुर्यादिति पूर्ववृत्तानुवृत्तेन सम्बन्धः । उक्तं च प्रत्यग्रोन्मेषनिर्यद्बहलपरिमलैर्गुम्फसौन्दर्यरम्यै भ्राम्यत्सौगन्ध्यलुब्धभ्रमरकुलकलक्वाणवाचालितान्तैः । पुष्पैः किञ्जल्कवद्भिर्जलकणकलितैः प्रत्यहं पुण्यभाज:, श्रीमज्जैनेन्द्रबिम्बं पुलकितवपुषः पूजयन्त्यादरेण ।। ९७ ।। तथा 'गंधेहिं 'ति गन्धैः = वासैः । उक्तं च जातीफलेला-मलयोद्भवादिक्षोदोद्भवत्वात् स्फुटजातगन्धैः । कर्पूरपानीयकृताधिवासै र्वासैर्जिनं पुण्यकृतोऽर्चयन्ति ।।९८।। सुगंधिएहिं’ति सुगन्धिभिः = घ्राणेन्द्रियैप्राणिजनकैः । । एतच्च विशेषणमुभयपदयोरप्यायोज्यम् । यतः पुष्पैरपि सुगन्धिभिरेव पूंजा विधेया, सुगन्धिपुष्पसद्भावे विशिष्टभावोत्पादकत्वात् । उक्तं च पवरेहिँ साहणेहिं पायं भावो वि जायए पवरो । न य अण्णो उवओगो एएसिँ सयाण लट्ठयरो ।। ९९ ।। ( पञ्चा० गा० १६० ) अथ चेत् सुगन्धिपुष्पाण्येव न सम्पद्यन्ते, शक्तिर्वा न भवति, ततो यथासम्भवमपि पूजा विधीयमाना गुणाय सम्पद्यते । उक्तं च कल्हारपत्तियाए णइणीरेणं जिणेंदपूयाए । धन्ना कल्लाणपरंपराऍ मोक्खम्मि संपत्ता । । १०० ।। अत्र चोक्तगाथायां धन्याकथानकं सूचितम् । तदपि मुग्धनपूजाभावर्प्रकर्षप्रतिपादनार्थं लिख्यते— १. सं० वा० सु० माणं' ति ॥ २. ला० ° नार्थं वृत्तमाह ॥ ३. ला० सुहं (यं) धि ॥ ४. ला० 'यप्रीतिजन ॥ ५. ला० °या यथाशक्तिपुष्प' ॥ ६. ला० प्रकर्षसम्पादनार्थं ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण प्रथम स्थानके १७. धन्याकथानकम् __ अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे महोदयाणईए पच्चासण्णं सिरिवद्धणं णाम णयरं। तत्थ य दरियारिमत्तमायंगघडाकुंभनिन्भेयपच्चलपउट्ठकंठीरवो सिरिवम्मो णाम राया । तस्स य सयलं ते उरप्पहाणा निजियरइरू वलावण्णा सिरिकंता णाम महादेवी । ताणं च जम्मंतरोवजियपुण्णपब्भारसंजणियविसिट्ठविसय सुहमणुहवंताणं वच्चए कालो । अन्नया य देवी फल-फुल्लरेहिरं णियकंतिविच्छाइयासेसवणलयं कप्पलयं सुमिणे पासेत्ताणं पडिबुद्धा । साहियं च जहाविहिणा सुमिणयं दइयस्स । तेण वि समाइलैं जहा 'देवि ! तुह सयलविलयायणप्पहाण बहुजणोवगारिणी धूया भविस्सइ । देवी वि एवं होउत्ति अभिणंदिऊण गया सट्ठाणं । तओ तं चेव दिणमाइं काऊण पवड्डमाणगब्भा पूरेज्जमाणजिणबिंबपूया-ण्हवणाइडोहला नियसमए य पसूया देवी । दिट्ठा य नियपहाजालेणोज्जोयंती तमुद्देसं दारिया । निवेइओ य धूयाजम्मो णरेंदस्स । तेणावि जहोचियं ठिइपडियं काऊण निव्वत्तसुइजायकम्माए पइट्ठियं णाभं धूयाए रयणप्पभ त्ति । सा ये निव्वाय-निव्वाघाय-गिरिकंदरसमल्लीण व्व चंपयलया वड्डइ देहोवचएण, सुक्कपक्खचंदलेह व्व कलाकलावेण य, जाव जायाचोद्दसवारिसिय त्ति । तओ दासचेडियाचक्कवालसंपरिवुडा कंचुइसमेया पाइक्कवंदसंपरिखित्ता सुवण्णमयजंपाणारूढा हिंडइ पइदिणं अभिरममाणी उज्जाण-वावि-दीहियासरोवराईसु । __ अन्नया भणिया पियंकरियाऽहिहाणाए दासचेडीए ‘सामिणि ! न कयाइ अम्हे महोदयानइतीरट्ठिय उज्जाणेसु गयाओ, ता जइ सामिणीए पंडिहासइ तो तत्थ गंतूण उजाणसिरिं नई च पेच्छामो' । तओ सा सहरिसं ‘एवं होउ'त्ति जंपमाणी गया तत्थ । अवलोइया य परिपेरतेसु भमिऊण महानई, पविठ्ठा य कोउगेण नईतीरट्ठियं वरोज्जाणं । तत्थ य असोय- पुण्णाय-नायहिंताल-ताल-तमाल-सरल-सज्जऽजुण-सहयार-चंपय-बउल-तिलय-लउय- छत्तोयसत्तिवण्णाइपहाणतरुवरमज्झट्ठियं पेच्छइ अदब्भसरयब्भविब्भमं जिणमंदिरं। तं च दळूण हरिसुप्फुल्ललोयणा जाव पविसइ ताव दिट्ठा अंकमहारयणविणिम्मिया भयवओ चंदप्पहसामितित्थंकरस्स पडिमा । 'कहिं मण्णे मए एसा पडिया एयं च मंदिरं दिढ'ति ईहाऽपूहमग्गणगवेसणं कुणमाणी मुच्छावसविमउलमाणलोयणा पव्वायंतवयणकमला थरथरंतसव्वंगोवंगा विमुक्कसंधिबंधणा धसत्ति धरणीयलम्मि निवडिया । तओ पच्चासण्णपरियणो 'किमेयं किमेयं ?' ति हाहक्कंदपरो विविहाओ चेट्टाओ काउमाढत्तो । अवि य १. सं० वा० सु० 'द्दीवे भारहे ॥ २. सं० वा० सु० णाम देवी ॥ ३. सं० वा० सु० ‘यविसय ॥ ४. ला० “प्पह त्ति ॥ ५. ला० वि ॥ ६. सं० वा० सु० या [च] उदसवरि ॥ ७. सं० वा० सु० पहासइ ॥ ८. सं० वा० सु० हिंताल-तमा' ॥ ९. ला० 'सत्तव ॥ १०. ला० हरिसप्फु ॥ ११. ला० यलं संनिव' ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्याकथानकम् अंगाइँ मलइ को वि हु, को वि हु सलिलेणे सिंचई तुरियं । को विहु वीयइ वरतालियंटवाएण अणवरयं ॥ १ ॥ १०९ गोसीसचंदणेणं सरसेणं को वि लिंपई देहं । को वि हु तुरियं तुरियं गंतुं रायस्स पासम्मि ।।२।। विण्णवर्इ ‘देव ! परितायह त्तिण यै किंचि कारणं मुणिमो । किंतु अवत्था गरुई वट्टइ कुँमरीऍ देहम्मि’॥३॥ तओ राया तं निसामिऊण बोहोल्ललोयणो संभमवसखलंतवयणो ‘अरे ! वाहरह तुरियं विज्जं 'ति भणमाणो जच्चतुरंगमारूढो झड त्ति गओ जिणमंदिरं । तयणुमग्गेण य सिरिकंतादेवीपमुहमंतेउरं, सामंत - मंति:- पउर- र - लोगो य । इत्थंतरम्मि य सुमरेऊण पुव्वजाई लद्धचेयणाउट्ठिया कुमरी । रण्णा य उच्छंगे णिवेसिऊण पुच्छिया 'वच्छे ! किमेयं ?' । तीए भणियं— ‘अड़इहिं पत्ता णइहिँ जलु तो विण हा हत्थ । अम्मो ! तसु कव्वाडियह अज्ज विसा इ अवत्थ' ॥४॥ राइणा भणियं 'वच्छे ! ण किंचि एयमवगच्छामो ।' तीए संलत्तं 'ताय ! उवविसावेह लोयं, होह दत्तावहाणा, जेण सव्वं सवित्थरं साहेमि एयस्स दूहयस्स अत्थं' । वयणाणंतरं च पडिहारेण णिवेसिओ सव्वो वि लोगो । राइणा वि भणियं 'वच्छे ! दत्तावहाणो चेवाहं ता साहेहि सव्वं । रयणप्पहाए भणियं अत्थि ताव तुम्हाण पसिद्धं चैवं एयं सिरिवद्धणं णाम णगरं । इत्थ य अत्थि आजम्मदरिद्दोवहओ पइदिणं कट्ठभारयाऽऽणयणजणियभोयण ऽच्छायणवित्ती भग्गलिया - हिहाणो कव्वा । तस्स य धन्ना णाम भारिया । ताणि य पइदिणं पच्छिमरयणीए उत्तरिऊण इमं महोदयं महाणां वच्वंति कट्ठाणं । सीसारोवियभारगाणि समागच्छंति जाव एस जो उज्जाणस्स अदूरसामंते वडरुक्खो, तस्स य छायाए वीसमेऊण नगरं पविसंति । अन्नम्मि दिणे वीसमंती ओ भत्ता धणा 'नाह ! मम तिसाए कंठो सुसइ, ता जइ तुमं भणसि तो हं णईए पाणियं पिबित्ता समागच्छामि ।' तेण भणियं 'भद्दे ! घरं पि नाइदूरत्थं, ता तत्थेव वच्चामो ।' तीए भणियं ‘बाढं तिसार्भिर्भूय म्हि’। तेण भणियं 'जइ एवं तो सिग्घमागच्छाहि ।' गया य सा । पाउं च पाणियं १. सं० वा० सु० 'लेहिं सिंचए ॥ २. सं० वा० सु० 'इ को वि परि ॥ ३. सं० वा० सु० वि ॥ ४. सं० वा० सु० कुमरिस्स देह° ॥ ५. सं० वा० सु० बाहल्ल' ॥ ६. सं० वा० सु० 'ण सिरि ॥ ७. सं० वा० सु० 'णा य उ° ॥ ८. ला० कुमारी ॥ ९. ला० भूहा ॥ १०. सं० वा० सु० अम्मी ॥ ११. सं० वा० सु० 'व सिरि ॥ १२. सं० वा० सु० ‘दरिद्दो' ॥ १३. ला० णवित्ती ॥ १४. सं० वा० सु० वच्चामि ॥ १५. सं० वा० सु० 'भूया तेण ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण प्रथम स्थानके जाव समागच्छइ ताव पेच्छइ एयं वरोज्जाणं । तओ तीए चिंतियं 'अहो ! अम्हेहिं मंदभग्गेहिं गच्छंतेहिं अंधयारत्ताओ, आगच्छंतेहिं भारकंतेहिं ण कयाइ वि एवं उज्जाणं सच्चवियं, दिट्ठव्वदरिसणफलाणि य लोयणाणि ता संपयं पि सहलीकरेमि लोयणाणि'त्ति । चिंतंती पइट्ठा एयमुजाणं। तओ विम्हय-कोउग-विप्फारियलोयणा इओ तओ वलियकंधरं णाणाविहतरुगहणं पेच्छमाणा समागया एवं उद्देसं । तओ सच्चवियं एवं जिणभवणं । अहो ! अच्छरियभूयं किं पि एयं देवहरयं दीसइ, ता पविसित्ता णिरूवेमि । पविसंती य पेच्छइरयणविणिम्मियसोवाणपंतियं मणिणिबद्धभूमितलं । कंचणमयखंभुग्गयबहुविहभंगेल्लपुत्तलियं ॥५॥ ईसरवरगेहं पिव रमणीयमणेगरूवयाइण्णं । भोयणमंडवसरिसं वसिप्पकरोडयाईहिं ।।६।। आगासं व सुतारं सचंदयं वित्थडं सचित्तं च । वरणयरं व सुसालं सग्गं व विमाणदेवजुयं ।।७। एवंविहं णियंती जा पविसइ ताव पेच्छई सहसा । रागग्गिपसमजलहरचंदप्पहणाहवरबिंबं ।।८॥ तं पेच्छिऊण सहसा भत्तिवसोल्लसियपयडरोमंचा । भूलुलियभालवट्ठा पडिया पाएसु देवस्स ।९ विण्णवइ ‘गुणे वंदणविहिं च जाणामि तुज्झणोणाह!।जंपुण तुह भत्तीए होइ फलं होउ तं मज्झ'।१०। तयणंतरं च चिंतियं तीए ‘जइ कह वि ण्हवणपुव्वयं पूजिऊण वंदिज्जइ ता सोहणं हवइ, कत्तो पुण अम्हाणं पुण्णवियलाणं पुप्फाइसामग्गीअभावाओ एवं संभवइ ?' त्ति । चितंतीए पडिया चित्ते अडविकेयारे दिट्ठा कल्हारपत्तिया । 'कल्लं विहीए पूयं करिस्सामि'त्ति मणोरहापूरिजमाणहियया गया भत्तुणो समीवे । तेण पुच्छिया 'किं चिरावियं ?' । तीए भणियं ‘णाह ! मए कस्सइ देवस्स एवंविहमच्चब्भुयं बिंब दिटुं, तमवलोयंती य ठिया इत्तियं वेलं, ता तुमं पि गंतूणावलोइडं वंदेत्ता य करेहि णियणयण-जम्म-जीवियाइं सहलाई । तेण वि ‘आ पावे ! अम्हाणं ऊसूरं वेट्टइ, तुमं पुण खजसि लग्गा देवेणं' ति भणमाणेणं उप्पाडिओ क् हारओ । पविठ्ठाणि य णयरं । बीयदिणे पच्चग्गवारयं घेतूण नईपुलिणे नूमेत्ता गया अडविं । आगमणसमए य वत्थंचले घेतूण कल्हारपत्तियं समागया वीसमणट्ठाणं । तओ तीए भणियं ‘णाह ! वच्चामो तस्स देवस्स वंदणत्थं, एसा य मए आणीया कल्हारपत्तिया, एयं च णेईपाणीयं, ता ण्हवेत्ता पूइत्ता य वदामो; जओ एवंविहदेवस्स पूयाइयं इहलोए परलोए य कल्लाणकारयं भवई' । तेण भणियं 'णिल्लक्खणे ! किं मज्झ वि जहा तुझगहो तहा विलग्गो ?' । तीए भणियं 'जं किंचि तुह पडिहासइ तं भणसु कुणसु य, अहं पुण जाव तस्स १. ला० दट्ठ व्व' ॥ २. सं० वा० सु० "णि त्ति, संप ॥ ३. ला० 'माणी ॥ ४. सं० वा० सु० :वियं जिण ॥ ५. सं० वा. सु० खंभग्गय ॥ ६. ला० "सिप्पिक' || ७. सं० वा० सु० सुसारं ॥ ८. ला० 'हजिणबिंबं ।। ९. ला. 'ण तो सा भत्ति ॥ १०. ला० 'यपाडरो ॥ ११. सं० वा० सु० करेह ॥ १२. ला० वि पावे ॥ १३. ला० वट्टए ॥ १४. 'भारओ ॥ १५. ला० "लिणम्मि नूमित्ता ॥ १६. ला० गहिऊण ॥ १७. ला० नईए पा ॥ १८. ला. वंदेमो ॥ १९. ला. ज्झ तहा गहो विल' || Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्याकथानकम् १११ देवस्स चलणजुगलं ण वंदियं ताव णागच्छामि त्ति निच्छओ' । तेणावि णिच्छयं णाऊणे जंपियं 'जं तुह रोयइ तं कुणसुत्ति । तओ गया धण्णा । णईए पक्खालिया कर-चरणा । भरिओ सलिलस्स वारओ। पविट्ठा देवहरयं । हविया पडिमा । पूइऊण य पुव्वक्कमेण वंदिया । तओ भगवंतं चेव हियएणुव्वहंती गया सत्थामं । एवं दिणे दिणे करेइ, जाव अन्नम्मि दिणे पुव्वकयकम्मदोसेण संजाओ तीए सरीरे महंतो रोगायंको । तेण ये पीडिज्जमाणीए चिंतियं “अहो ! महमपुण्णता जेणऽज्ज भगवओ वंदणत्थं ण सक्केमि गंतुं, न णज्जइ ‘एवंविहसरीरकारणे किं पि मे भवेस्सइ ?' ता सो चेव भगवं इहलोए परलोए य मह सरणं"। ति झायंती मरिऊण समुप्पण्णा एसा हं तुज्झ धूय त्ति। अज पुण एयं परमेसरवरबिंबं दद्दूण समुप्पण्णं मे जाईसरणं । तेण कारणेण मए एवं पढियं। जइ उण तायस्स न पच्चओ तो. वाहरावेह भग्गलियं । तओ रण्णा पुच्छिओ दंडवासिओ 'अरे अस्थि एत्थ भग्गलियाहिहाणो कव्वाडिओ ?' । तेण भणियं 'देव ! अत्थि' । राइणा भणियं 'सिग्घमाणेहि' । तओ कंपंतसव्वंगो आणीओ झत्ति तेण सो । रण्णा अभयपयाणाइणा समासासिऊणं पुच्छिओ 'किमत्थि का वि तुज्झ भज्जा ?' । तेण भणियं 'देव णत्थि संपयं, पुव्वं पुण आसि धण्णा णाम, किंतु पणरसमं वरिसं मयाए तीसे वट्टई' । तओ राइणा भणियं 'भद्द ! किं दरिसि] जइ सा तुज्झ ?' । तेण भणियं ते(दे)व! किं मयाणि कत्थ दीसंति ?'। राइणा भणियं 'दीसंति चेव, जओ चिट्ठइ पच्चक्खा चेव एसा तुह भारिया' । तेण जंपियं ‘ण एसा मह भारिया किंतु तुम्ह धूय'त्ति । तओ रयणप्पहाए भणियं ‘अरे मुरुक्ख ! सा चेवाहं तुज्झ भारिया धण्णाहिहाणा एयस्स भयवओ सयलदेवाहिदेवस्स तियसिंदविंदवंदिजमाणचरणारविंदस्स चिंतामणि-कामधेनु-कप्पपायवऽन्भहियस्स पूयाइप्पहावेणं सयलकलाकलावाइगुणकलिया रायधूया संजाय म्हि'। साहियाई एगंतरमियहसियाइयाणि सव्वाणि सपच्चयाणि चिण्हाणि । तओ तेण जंपियं 'देव ! संभवइ एयं जओ जाणइ एसा मह दइयासंतियाणि रहस्साणि' । तीए भणियं 'पुव्वं ताव मए भण्णमाणेणावि ण पडिवण्णं तए मह वयणं ता संपयं पि करेहि जिणपूयाइयं धम्माणुट्ठाणं, जेण जम्मंतरे वि ण होसि एवंविहदुक्खाण भायणं' । तओ गुरुकम्मयाए जाहे ण किंचि पडिवजइ धम्मवयणं तओ 'अहो । असुहकम्मपरिणई जेण एवंविहे वि पच्चए ण पडिवजइ एस धम्मति चिंतिऊण किंचि उचियं दाऊणावहीरिऊण तं, धम्माभिमुहं च काऊण पभूयलोयं उठ्ठिया रायदुहिया रायाइनीसेसलोगो य । गयाणि य सव्वाणि सट्ठाणं ति । १. सं० वा० सु० ‘ण जं तुह॥ २. सं० वा० सु० सत्थानं ॥ ३. सं० वा० सु० वि ॥ ४. ला० मज्झाउण्णया ॥ ५. ला० सरबिंबं ॥ ६. ला० 'वेहि ॥ ७. ला० °णा आइटुं सि ॥ ८. सं० वा. सु० सि ओ पुः ॥ ९. सं० वा० सु० “ए त्ति तीसे ॥ १०. सं० वा० स० त्ति । स्य ॥ ११. ला० तह भज्जा ध ॥ १२. ला. याणि य ए॥ १३. ला. 'हो कम्मप ॥ १४. ला. हं काऊ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण प्रथम स्थानके तओ पइदिणं जिणवंदणे - T-Sच्चण- हवण-जत्ताइयाणि कुणंतीए, गुरुजणमाराहयंतीएं, सुसाहुजणमुहविणिग्गयसिद्धंतं सुणंतीए, सुपत्ताइं पडिलाहयंतीए, दीणा - ऽणाहाइमणोरहे पूरंतीए, साहम्मियजणवच्छ्ल्लुमायरंतीए, जणणि- जेणगाण पडिबोहमुप्पायंतीए जाव गच्छंति कैइवयदिवसा ताव अन्नम् दिवसे समागओ महपुरणयर सामिरिउविजयरॉयसंतिओ महंतओ । कयजहोचियपडिवत्तिणा य विण्णत्तं तेण जहा 'देव! तुह धूयागुणगणमायण्णिऊण दढमावज्जियहि तीसे वरणत्थं पेसिओ हं देवेण रिउविजयराइणा, तो जइ तुम्ह पडिहाइ तो देज्जउ सा देवस' । राणा वि एवं होउ 'ति भणेऊण सक्कारेत्ता विसर्जिओ महंतओ । तओ सोहणदिणे महया भडचडगरेण सयंवरा चेव पेसिया रयणप्पहा । परिणयासोहणदिणे । तओ ताणं सब्भावसारं तिवग्गसंपायणपरं विसयसुहमणुहवंताणं वच्चए कालो । अन्नया य कंचुगिवयणाओ वियाणेऊण चउणाणसंपण्णविजयसिंहसूरिसमागमणं णिग्गयाणि वंदणवडियाए । वंदेत्ता य णिसण्णाणि जहोचिये भूभागे । धम्मलाभपव्वयं च भणियं भगवया ११२ जम्मण-मरणजलोहो दालिद्दमहोम्मिवीइपरिकलिओ । वाहिसयजलयरगणो एसो रुद्दो भवसमुद्दो | ११ | एत्थ य र तिरिएसुं हिंडतो णिययपावपडिबद्धो । दुक्खेहिं माणुसत्तं लहइ जिओ कम्मविवरेण । १२ । तं तुब्भेहिं लद्धं माणुसजम्मं कुलाइसंजुत्तं । तौ उज्झिउं पमायं कुणह सया उज्जमं धम्मे ।।१३।। एवं च सोऊण संजायचरणपरिणामेहिं विण्णत्तं तेहिं 'भयवं ! जाव जेट्ठउत्तं रज्जे हिसिंचामो ताव तुब्भं पायमूले पव्वज्जागहणेण सहलीकरेस्सामो करिकण्णचंचलं माणुसत्तणं 'ति । भयवया विमा पडिबंधं करेज्जाह 'त्ति भणिए गयाणि णियमंदिरं । साहिऊण य मंति - सामंताइयाण णिययाभिप्पायं, अहिसित्तो पुरंदराहिहाणो जेट्ठउत्तो रज्जे । तओ महाविभूईए सिबियारूढाणि गाणि भगव समीवे। आगमविहिणा य दिक्खियाणि भयवया । समप्पिया रयणप्पहा पवत्तिणीए । तओ अब्भसिऊण किरियाकलावं, कांऊण विविहाणि तवच्चरणाणि, आराहिऊण गुरुयणं, संलिहिऊण अप्पाणं, पालिऊण णिक्कलंकं सामण्णं, पडिवज्जिऊणाऽणसणं, सुहज्झाणजोगेण चइऊण देहपंजरं गयाणि देवलोगं । एवं च कल्लाणपरंपराए सा धण्णा सिद्धति । [धन्याख्यानकं समाप्तम् । १७] ता पहाणपुप्फाईणमसंपत्तीए इयरेहि वि पूया विहेज्जमाणा महाफला भवइ । संपत्ती पुण पहाणेहिं चैव कायव्वा । अतो भणितम् 'सुगंधिएहिं 'ति । 'धूवेहिं' ति धूपैः = अग्निदाह्यघनसार १. ला० 'वंदण - हव ॥ २. ला० 'इयं कु ॥ ३. ला० जण (णं) समारा ॥ ४. ला० 'ताणि प° । ५. ला० 'जणयाइयाण ॥ ६. ला० कइ वि दियहा ॥ ७. ला० दिणे ॥ ८- ९. ला० 'रिवु ॥ १०. ला० या यसो ॥ ११. ला० तो ॥। १२. ला० णं । भ० ।। १३. सं० वा० सु० सुगंधेहिं ।। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनपूजाफलवर्णना सारङ्गमद-मीनोद्गारा-ऽगरु-प्रभृतिद्रव्यनिकरसंयोगैः । उक्तं च कर्पूरा-ऽगरु-चन्दनादिसुरभिद्रव्यव्रजोत्पादितै वयुल्लासितलोलधूमपटलव्याप्तावकाशैर्दिशम् । सान्द्रामोदहृतालिजालजटिलैर्घाणेन्द्रियाह्लादिभि धूपैर्धन्यजना जिनस्य सततं कुर्वन्ति पूजां मुदा ।।१०१।। तथा 'दीवेहिं यत्ति दीपैश्च-अन्धकारापहवर्ति-तैलसंयोगप्रज्वालिताग्निकलिकारूपैः उक्तं चपूजाविधौ विमलवर्तिसुगन्धतैलैरुद्यत्प्रभाहितदेवगृहान्धकारम् । श्रीमजिनेन्द्रपुरतः प्रतिबोधयन्ति, धन्या नरा विशदभक्तिभरेण दीपम् ।।१०२।। तथा अक्खएहिंति अक्षतैः अष्टमङ्गलकादिरचनारचिताखण्डशाल्यादितण्डुलैः । उक्तं चशङ्ख-कुन्दावदातै लक्षालितैर्गन्धशालैर्विशालैः सुगन्धोत्कटैः । सर्वदैवाक्षतैरक्षतैः पूजनं, तीर्थनाथस्य भक्त्या विधेयं बुधैः ।।१०३।। तथा ‘णाणाफलेहिं च' त्ति नानाफलैश्च अनेकप्रकारपाकपूताम्रादिफलविशेषैः । उक्तं चपाकाधिरूढविविधोज्ज्वलवर्णशोभैर्नेत्राभिरामरचनैः स्पृहणीयगन्धैः । नानाफलैरपि च सुन्दरकन्द-मूलैः, पूजां जिनेन्द्रपुरत: प्रथयन्ति धन्याः ।।१०४।। तथा ‘घएहिति घृतैः-प्राज्याज्यभेदैः । उक्तं च स्वच्छैरिन्द्रियसौख्यहेतुभिरलं सद्भाजनेष्वर्पिते राज्यैः प्राज्यसुगन्धवर्णकलितैनि:शेषदोषापहैः । राग-द्वेषमदोद्भुरारिजयिनः श्रीमजिनस्याऽग्रतः । पूजां धन्यजनाः प्रहृष्टमनसः कुर्वन्ति सद्भक्तितः ।।१०५।। 'निच्चति नित्यं प्रतिदिनम् । यत: प्रतिदिवससञ्चयाद् वृद्धिमेति पुण्यं यदल्पमपि भवति । सरघामुखमात्रचितं, यथा हि मधु घटशतीभवति ।।१०६ ।। एतच्च विशेषणं समस्तपूजास्वायोज्यम् । तथा ‘पाणीयपुण्णेहिँ य भायणेहिंति चकारस्य व्यवहितसम्बन्धात् पानीयपूर्णभाजनैश्च सुगन्धि-स्वच्छ-शीतलजलभृतकरकादिस्थानविशेषैः । उक्तं च १. सं० वा० सु० ‘रागुरु' ।। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण प्रथम स्थानके निर्मलोज्ज्वलजलोपशोभितं, पूर्णपात्रनिकरं कृतादरः । ढोकयेत् सततमेव वेश्मभाग्, जातसान्द्रपुलको जिनाग्रतः ।।१०७।। ___ इह पूर्वत्रं च चकारोऽनुक्तसमुच्चये, तेन नैवेद्य-वस्त्रा-ऽऽभरण-विलेपनादिपूजानामप्यष्टप्रकारपूजायामन्तर्भावो द्रष्टव्य इति वृत्तार्थः ।।२१।। उक्तं पूजास्वरूपम् । साम्प्रतं यादृग्विधविशेषणयुक्तः सन् जिनबिम्बपूजाप्रवृत्तः प्राणी यादृग्विधदु:खभाग् न भवति तद् वृत्तद्वयेनाऽऽह पूयं कुणंतो बहुमाणवतो, उदारचित्तो जिणभत्तिजुत्तो । दारिद्द-दोहग्ग-दुरंतदुक्ख-दुव्वण्ण-दुग्गंध-दुरूवयाणं ।।२२।। संताव-संजोग-वियोग-सोग-णिहीण-दीणत्तणमाइयाणं । तिक्खाण दुक्खाण भवुब्भवाणं, ण भायणं होइ भवंतरे वि ।।२३।। ‘पूर्य'ति, पूजां सपर्या पूर्वोक्ताम् । 'कुणंतो'त्ति कुर्वन् विदधानः । 'बहुमाणवंतो'त्ति बहुमानवान् आन्तरप्रीतिविशेषयुक्तः सन् अटवीमध्यस्थितशिवकपूजार्थनिरूपितधार्मिकविहितविशिष्टपूजावामपादोत्सारकशिवकोपरिक्षिप्तमुखगण्डूषदक्षिणहस्तस्थितपुष्पपूजाकरणानन्तरपादपतितशिवकसम्भाषणकुपितधार्मिकप्रत्ययार्थोत्सारितैकलोचनशिवकदर्शनोद्भूतखेदबहुमानवशपरवशीभूतभल्ल्युत्खातनिजलोचनप्रदपुलिन्द्रकवत् । पुनरपि कथम्भूत: ? 'उदारचित्तो' त्ति उदारचित्त: अकृपणाशयः । पुनरपि कीदृशः ? 'जिणभत्तिजुत्तो'त्ति जिनभक्तियुक्तः, जिना:रागादिजेतारस्तीर्थकृतः, तेषां भक्ति: बाह्यकृत्यकरणरूपा तया युक्त:-समन्वितो जिनभक्तियुक्तः । ‘ण भायणं होइ भवंतरे वि' इति सण्टङ्कः । केषाम् ? इत्याह-'दारिद्द-दोहग्ग-दुरंतदुक्ख- दुव्वण्णदुग्गंध-दुरूवयाणंति दारिद्यं=निर्द्रव्यता, तच्च सर्वापदामास्पदम् । उक्तं चनिर्द्रव्यो ह्रियमेति हीपरिगतः प्रभ्रश्यते तेजसो, निस्तेजा: परिभूयते परिभवान्निर्वेदमागच्छति । निर्विण्णः शुचमेति शोकविहतो बुद्धेः परिभ्रश्यति, भ्रष्टश्च क्षयमेत्यहो ! निधनता सर्वापदामास्पदम् ।।१०८।। १. सं० वा० सु० 'त्र चकारो ॥ २. सं० वा० सु० पूजनमप्य' । ३. सं० वा० सु० धशेषगुणयुतः सन् || ४. ला० ता० दालिद्द ॥ ५. सं० वा० सु० भवोन्म ॥ ६. दृश्यतां बृहत्कल्पसूत्रप्रथमांशस्य २५३ तमपत्रप्रथमटिप्पणीगतं कल्पचूर्णे निष्टङ्कितमे तदुहारणम् ॥ ७. सं० वा० सु० 'त: उदारचित्तः ॥ ८. ला० पुन: कीदृ ॥ ९. सं० वा० सु० या संयुक्तः॥ १०. ला० सम्बन्धः ॥ ११. ला० 'स्पदम् यत उक्तम्-नि ॥ १२. ला. "हो अधन ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनपूजाफलवर्णना दौर्भाग्यं=सर्वजनाप्रियत्वं मैहामानसिकदुःखहेतुः । उक्तं च — दुस्सहदोहग्गकलंकजलणजालावलीपलित्ताणं । जीवंतभयाण णिरत्थएण किं तेण जम्मेण ? ।। १०९ ।। दुरन्तदुःखम् = अपाराशर्म । दुर्वर्ण: = विरूपा देहरुचि: । दुर्गन्धः = दुष्टगन्ध: । दु (? दू) रूपकं = विशोभाकृतित्वम्, स्वार्थे कप्रत्ययः । दारिद्र्यं च दौर्भाग्यं चेत्यादिद्वन्द्वः, तेषाम् । तथा 'संतावसंजोग-विओगसोग-णिहीण - दीणत्तणमाइयाणं तिक्खाण दुक्खाणं' ति सन्ताप: = चित्तखेद:, स च महादुःखकारणम्। यतः— माणसियक्खेयाओ मणुयाणं होइ जा महापीडा । अकहेजंता वि फुडं लक्खेज्जइ तणुतणुत्ताओ । ।११०।। संयोगः=अनिष्टजनमीलकः, सोऽपि दुःखाय यतः - जोsणिमाणुसेणं संजोगो मामि ! जायए कह वि । सो गरुयदुक्खदंदोलिदायगो होइ अबुहाण । । १११ । । वियोगः=अभीष्टबान्धवादिवस्तुविप्रयोगः, आक्रन्दादिमहाखेदकारणं चाऽसौ । यतोऽवाचि— रुदितं यच्च संसारे बन्धूनां विप्रयोगतः । तेषां नेत्राश्रुबिन्दूनां समुद्रोऽपि न भाजनम् । । ११२ । । ११५ तथा इट्ठाणं वत्थूणं पियजणमाईण विप्पओगम्मि । जायइ गरुयं दुक्खं, एंगं मोत्तूण गयरागं । । ११३ ।। शोकः=जनकादिमरणजनितश्चित्तखेदः, समस्तापदामास्पदं चासौ, यत उक्तम् - शोको हि नाम पर्यायः पिशाच्याः, रूपान्तरमाचक्षते पातकस्य, तारुण्यं तमसः, विशेषो विषस्य, अनन्तकः प्रेतनगरनायकोऽयम्, अनिर्वृत्तिधर्मा दहनोऽयम्, अक्षयो राजयक्ष्माऽयम्, अलक्ष्मीनिवासो जनार्दनोऽयम्, अपुण्यप्रवृत्तः क्षपणकोऽयम्, अप्रतिबोधो निद्राप्रकारोऽयम्, अनलसधर्मा सन्निपातोऽयम्, अशिवानुरोधो वैरो विनायकोऽयम्, अबुधसेवितो ग्रहवर्गोऽयम्, अयोगसमुत्थो ज्योतिःप्रकारोऽयम्, स्नेहाद् वायुप्रकोप:, मानसाद् अग्निसम्भवः, आर्द्रभावाद् रजः क्षोभ:, रसाद् १. सं० वा० सु० 'महामानसदुःख ॥ २. सं० वा० सु० 'द्वन्द्वः । तथा॥। ३. सं० वा० सु० 'वियोग: ॥ ४. ला० एक्कं ॥ ५. ला० पिशाचस्य, ॥ ६. सं० वा० सु० वरोधिना ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण प्रथम स्थानके अतिशोषः, रागात् कालपरिणाम इति । किञ्च संतावचित्तखेयं णाणाविहआवईओ मरणं च । धम्म-ऽत्थ-कामहाणिं लहइ णरो सोगसंतत्तो ।।११४।। ‘णिहीण'त्ति भावप्रधानत्वाद् निहीनत्वम् अकिञ्चित्करत्वम् तदप्यशर्मकारि । यत: प्रिंदिज्जइ अणवरयं पुरिसो णियणिद्धबंधवेहिं पि । रूंयजुओ वि हु ण हु जो, समत्थओ कजकरणम्मि ।।११५।। दीनत्वं सत्त्वविकलता, मानसिक-शारीरिकासुखनिमित्तं च तत् । यत:जनक ! सहोदर ! मामक ! पितृव्य ! सुत ! भागिनेय ! मम कार्यम् । एतत् कुरु देहीदं लल्लिं दीन: करोतीत्थम् ।।११६ ।। सन्तापश्च संयोगश्च वियोगश्च शोकश्च निहीनत्वं च दीनत्वं च संताप-संयोग-वियोग-शोकनिहीन-दीनत्वानि, तान्यादिर्येषां व्याधि-पारवश्या-ऽङ्गच्छेदादीनां तानि तथा, तेषाम् । 'तिक्खाण दुक्खाण' त्ति तीक्ष्णानां असह्यानां दु:खानाम् अशर्मणाम् । 'भवुब्भवाणं ति संसारोत्थानम् । न-नैव । ‘भायणं ति भाजनं स्थानम् । 'होइ'त्ति भवति-जायते । 'भवंतरे वि' त्ति भवान्तरेऽपि-जन्मान्तरेऽपि, आस्तामिह जन्मनीत्यपि शब्दार्थः । इति वृत्तद्वयार्थः ।।२२-२३।। जिनबिम्बपूजाकारी यादृग्विधो न भवति तदुक्तम् । साम्प्रतं यादृशो भवति तद् वृत्तद्वयेनाऽऽह भवे पुणोऽसेससुहाण ठोणं, महाविमाणाहिवई सुरेंदो । तओ चुओ माणुसभोगभागी, रायाहिराया व धणाहिवो वा ।।२४।। कलाकलावे कुसलो कुलीणो, सयाणुकूलो सरलो सुसीलो । सदेवमच्चा-ऽसुरसुंदरीणं, आणंदयारी मण-लोयणाणं ।।२५।। 'भवे'त्ति प्राकृतत्वाद् भवति जायते । पुन:शब्दो भिन्नवाक्यार्थः । ‘असेससुहाणं'ति अशेषसुखानां समस्तसौख्यानां दारिद्यादिविपरीतानाम् । 'ठाणं'ति स्थानम् =आस्पदम् । पूर्वत्रेहलोक-परलोकयो: प्रस्तुतत्वाद, एतदिहलोके । परलोके तु 'महाविमाणाहिवई' त्ति महाविमानाधिपति: महान्ति च तानि बृहत्प्रमाणानि विमानानि च देवनिकेतनानि महाविमानानि, १. ला० रूवजु ॥ २. ला० त्वं च सत्त्व' ॥ ३. ता० थाणं ।। ४. ला० सुरिंदो ॥ ५. सं० वा. सु० त्वादिह ॥ ६. सं० वा० सु० के महा || Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनपूजाफलवर्णना तेषामधिपति:=स्वामी । सुरेंदो' त्ति देवप्रभुः, उपलक्षणं चैतद् इन्द्रसामानिकादीनाम् । देवसुखमभिधाय पारलौकिकमेव मनुजसुखमाह 'तओ चुओ' त्ति ततः = :-देवलोकाच्च्युतः=व्युपरतः सन्निति गम्यते । ‘माणुसभोगभागि' त्ति मानुषाणां = मर्त्यानां भोगाः = शब्दादयस्तान् भ॑जते=सेवते तच्छीलश्चेति मानुषभोगभागी । 'रायाहिराया व 'त्ति राज्ञां = महासामन्तानामधिराजः=चक्रवर्ती राजाधिराजः, वा शब्द इन्द्राद्यपेक्षया विकल्पवाची । 'धणाहिवो व' त्ति धनाधिपः = द्रव्यस्वामीश्वर इत्यर्थ:, स च प्रस्तावात् क्षत्रियवणिग्-ब्राह्मणादिः । वा=विकल्पे । सोऽपि किम्भूतः ? इत्याह- 'कलाकलावे 'त्ति कला: = लेख्यादिविज्ञानरूपास्तासां कलाप:=सङ्घातः कलाकलापस्तस्मिन् । 'कुसलो' त्ति कुशलः = प्रवीण: । 'कुलीणो 'ति कुलीनः=विशुद्धपितृपक्षः, मातृपक्षोपलक्षणं चैतत् । 'सयाणुकूलो 'त्ति सदा सर्वकाल - मनुकूलः=प्रियकारी, सतां वा = सत्पुरुषाणामनुकूलः सदनुकूलो दीर्घत्वमलाक्षणिकम्, यद्वा सत्= संसत् परिषदित्यर्थः, सा अनुकूला यस्य सः सदनुकूलः । 'सरलो' त्ति सरल : = अकुटिलः । 'सुसीलो' त्ति सुशीलः-शोभनस्वभावः । ' सदेवमच्चा - ऽसुरसुंदरीणं' ति मर्त्याश्च = मनुजाः असुराश्च= भवनपतयो मर्त्या-ऽसुराः, सह देवैः = वैमानिकैर्वर्तन्ते ये ते तथा तेषां सुन्दर्यः = रामास्तासाम् । 'आणंदयारि'त्ति आनन्दकारी=रागाद्युत्पादयिता, भवतीति क्रिया सर्वत्र सम्बध्यते । 'मण - लोयणाणं 'ति मनोलोचनानां=चित्त-चक्षुषाम्, सुरार्दिवनितानन्दकत्वे च भरत उदाहरणम् । तथा च — ११७ जं गंगादेवीए अणुरायपरव्वसाए रइसोक्खं । सह भुंजतो वसिओ तीसे भवणम्मि बहुकालं ॥१॥ इत्थीरयणाईणं अण्णाण वि चित्तलोयणाणंदं । जणयंतो जं भुंजइ उदारभोगुब्भवं लच्छिं ।।२।। तज्जम्मंतरतद्दोसरोगपीडियजइस्स किरियाए । उव्वरियरयणकंबल - चंदण - गोसीसमोल्लेण ।। ३ ।। कारावियजिणमंदिरठावियतब्बिंबभत्तिकरणस्स । सोक्खाणुबंधजणयं अणण्णसरिसं फलं मुणह | ४ | इति वृत्तद्वयार्थः ।। २४-२५।। इत्थं बिम्बोचितकरणफलमुपदर्श्य सम्प्रत्युपदेशदानपूर्वकं प्रकरणोपसंहारमाह— कारेज्न तम्हा पडिमा जिणाणं, ण्हाणं पइट्ठा बलि पूय जत्ता अण्णच्चयाणं च चिरंतणाणं, जहारिहं रक्खण वद्धणं र्ति ।। २६ ।। 'कारेज्ज' त्ति कारयेद् - विधापयेत् । ' तम्ह' त्ति तस्मात् । 'पडिम' त्ति प्रतिमाः = प्रतिकृतीः । 'जिणाणं' ति जिनानां सम्बन्धिनीः । न केवलं प्रतिमा एव कारयेत्, किं तर्हि ? - - 'हाणं ति स्नानं=गन्धोदकादिस्नात्ररूपम् । उक्तं च १. ला० सुरिंदो ॥ २. सं० वा० सु० भजति ॥ ३. सं० वा० सु० 'वात् क्षात्र व ॥ ४. सं० वा० सु० यदि वा सत् ॥ ५. ला० पर्षदि° ॥ ६. ला० 'दिविलयानन्द' ॥ ७. ला० °हारं वृत्तेनाह ॥ ८. ला० °ति ॥ २६ ॥ पढमं ठाणं ति ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण प्रथम स्थानके गन्धर्वनृत्ययुक्तं नान्दी - जयघोषघूर्णितदिगन्तम् । स्नात्रं सद्गुणपात्रं कुरुत जना ! जिनवरेन्द्रस्य ।। ११७।। 'पइट्ठ'त्ति प्रतिष्ठां=पूर्वोक्तविधिकारितबिम्बानामाकारशुद्धि - स्नात्र - मन्त्रादिन्यासरूपाम् । ‘बलि’त्ति बलिं=विविधनैवेद्यरूपम् प्रतिमानामग्रत इति शेषः । 'पूय'त्ति पूजां पूर्वोक्तमेव । ‘जत्त’त्ति यात्रां=कल्याणका - ऽष्टाह्निकादिषूत्सर्पणारूपाम् । उक्तं च जत्तामसवो खलु उद्दिस्स जिणेस कीरई जो उ । सो जिजत्ता भइ तीइ विहाणं तु दाणाई । ।११८ । । दाणं तवोवहाणं सरीरसक्कार मो जहासत्तिं । उचियं च गीय-वाइय-थुइ थुत्ता पिच्छणाई य । । ११९ ।। (पञ्चा० गा० ४०४ - ४०५) तथैतच्च सर्वं यात्राप्रारम्भप्रस्तावे विधेयं यथा- प्रवचनप्रधानगुरुणा द्र्ष्टव्योऽनुशासनीयश्च राजा, यथा सामणे मणुत्ते धम्माओ णरीसरत्तणं णेयं । इय मुणिऊणं सुंदर! जत्तो एयम्मि कायव्वो । ।१२० ।। saण मूलमेसो सव्वासिं जणमणोहराणं ति । एसोय जाणवत्तं नेओ संसारजलहिम्मि । । १२१ । । जायइ य सुहो एसो उचियत्थापायणेण सव्वस्स । जाएँ वीरागाण विसयसारत्तओ पवरो ।। १२२ । । ईऍ सव्वसत्ता सुहिया खु अहेसि तम्मि कालम्मि । एहिं पि आमघाएण कुणसु तं चेव एतेसिं ।। १२३ ।। तम्मि असंते या दट्ठव्वो सावएहिं वि कमेण । कारेयव्वो य तहा दाणेण वि आमघाउ त्ति ।। १२४ ।। तेसिं पि घायगाणं दायव्वं सामपुव्वगं दाणं । तत्तियदिणाणमुचियं, कायव्वा देसणा य सुहा ।। १२५ ।। तित्थस्स वण्णवाओ एवं लोगम्मि, बोहिलाभो अ । केसिंचि होइ परमो अण्णेसिं बीयलाभो त्ति ।। १२६ ।। १. ला० स्नान - म ॥ २. ला० °ति विशेषः ॥ ३. सं० वा० सु० 'णाई या ॥ ४. ला० द्वो राजाऽनुशासनीयश्च यथा ॥ ५. सं० वा० सु० लोगाण || Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमस्थानकोपसंहारः जं च्चिय गुणपडिवत्ती सव्वण्णुमयम्मि होइ परिसुद्धा । स च्चिय जायइ बीयं बोहीए तेणणाएण ।।१२७ ।। इय सामत्थाभावे दोहिं वि वग्गेहिं पुव्वपुरिसाण । इय सामत्थजुयाणं बहुमाणो होइ कायव्वो ।।१२८।। ते धण्णा सप्पुरिसा जे एवं एवमेव णीसेसं । पुव् िकरिंसु किच्चं जिणजत्ताए विहाणेण ।।१२९ ।। अम्हे उ तह अधण्णा, धन्ना उण एत्तिएण जं तेसिं । बहुमण्णामो चरियं सुहावहं धम्मपुरिसाणं ।।१३०।। इय बहुमाणा तेसिं गुणाणमणुमोयणाणिओगेण । तत्तो तत्तुल्लं चिय होइ फलं आसयविसेसा ।।१३१।। ___(पञ्चा० गा० ४१७-४२८) किमेतत् स्वकृतानामेव बिम्बानां कारयेदुताऽन्यकृतानामपि ? इत्याह-'अण्णच्चयाणं च'त्ति देशिशब्दत्वात् चकारस्यापिशब्दार्थत्वाद् अन्यकृतानामपि परप्रतिष्ठापितानामपीत्यर्थः । 'चिरंतणाणं ति चिरन्तनानां-प्रभूतकालीयानां यतो नूतनबिम्बकरणात् सीदत्परकृतबिम्बपूजनं बहुगुणम् । 'जहारिहंति यथार्ह यथायोग्यम् । किं पूजादिकमेव कृत्यमुतान्यदपि ? इत्याह ‘रक्षण वद्धणं'ति चस्य गम्यमानत्वाद् रक्षणं वर्धनं च । रक्षणं तदुपद्रवकारिनिवारणतः । वर्धनं निर्मलताकरणाद्युत्तरोत्तरविशेषापादनत: । यद्वा रक्षणं वर्धनमपि च द्रव्यस्येति शेषः । तत्र रक्षणं भक्षितोपेक्षितप्रज्ञाहीनदोषवर्जनतः, यतश्चैत्यद्रव्य-रक्षणफलमुक्तमुपदेशपदेषु - जिणपवयणवद्धिकरं विभावणं णाण-दसण-गुणाणं । रक्खंतो जिणदव्वं परित्तसंसारिओ होइ ।।१३२।। (गा० ४१८) जिनप्रवचनवृद्धिकरं तत्सन्तानाव्यवस्थितिकारितया । विभावनं-दीपकम् । तद्विनाशे च महान् दोषः। यतस्तत्रैवोक्तम्------ चेइयदव्वं साहारणं च जो दुहइ मोहियमईओ । धम्म व सो ण याणइ अहवा बद्धाउओ पुव्विं ।।१३३।। (उप० गा० ४१४) १. सं० वा० सु० जं चिय ॥ २. ला० 'महम्मि ॥ ३. स्तेनज्ञातेन-चौरोदाहरणेन ॥ ४. ला० 'म्बकारणात् पूजनं ॥ ५. ला० वर्धनबिम्बद्रव्य ॥ ६. सं० वा० सु० णविद्धिकरं ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण प्रथम स्थानके चैत्यद्रव्यं =जिनेन्द्रबिम्बवित्तम् । साधारणं च-सङ्घसम्बन्धि च । य: पापकर्मा । द्रुह्यति भक्षयति। धर्म-नि:स्पृहतालक्षणम् । वाशब्दात् तद्भोगविपाकं च न जानाति । 'अथवा' इति प्रकारान्तरे । बद्धायुर्नरकादिषु, द्रोहणकालात् पूर्वमिति । किञ्च आस्तां श्रावकः साधूनापि तद्विनाशे नोपेक्षा विधेया । यत: चेइयदव्वविणासे तद्दव्वविणासणे दुविहभेए । साहू उविक्खमाणो अणंतसंसारिओ होइ ।।१३४।। (उप० ग० ४१५) चैत्यद्रव्यविनाशे । तद्रव्यं = तदुपयोगिदारूपलेष्टकादि । द्विविधभेदे नूतनलग्नोत्पाटितभेदात्, मूलोत्तरभेदाद्वा द्विप्रकारे । मूलं-स्तम्भ-कुम्भिकादि, उत्तरं छादनादि, तस्मिन् । यद्वा द्विविधभेदे स्वपक्ष-परपक्ष-जनितविनाशे । तथा संजइचउत्थभंगे चेइयदळ्वे य पवयणुड्डाहे । इसिघाए य चउत्थे मूलग्गी बोहिलाभस्स ।।१३५।। 'वद्धणं च' त्ति वर्धनं-कलान्तरप्रयोगादिना वृद्धिनयनम् । यत: जिणपवयणवुट्टिकरं पभावणं णाण-दंसण-गुणाणं । वहतो जिणदव्वं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ।।१३६ ।। चेइय-कुल-गण-संघे उवयारं कुणइ जो अणासंसी । पत्तेयबुद्ध गणहर तित्थयरो वा तओ होइ ।।१३७ ।। (उप० गा० ४१८-४१९) 'अनाशंसी' निस्पृहसेवोऽसौ जो निरुवलेवचित्तो चेइयदव्वं विवडए सो उ'। भुंजित्तु पवरलच्छिं संपावइ सासयं ठाणं ।।१३८।। कारयेदिति क्रिया सर्वत्र सम्बन्धनीया । ‘इति:' प्रकरणपरिसमाप्ताविति वृत्तार्थः ।।२६।। इति श्रीदेवचन्द्राचार्यविरचित्ते मूलशुद्धिविवरणे प्रथमस्थानकविवरणं समाप्तम् ।। १. ला० ०णविद्धिकरं || २. ला. वड़ितो ॥ ३. ला० निःस्पृहः तकोसौ ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभवनाख्यं द्वितीयं स्थानकम् व्याख्यातं प्रथमस्थानकम् । तदनन्तरं च क्रमायातं द्वितीयमारभ्यते । अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्ध: — पूर्वत्र जिनबिम्बकृत्यमभिहितम् । प्रतिष्ठितस्य जिनबिम्बस्य चैत्यगृहेण प्रयोजनमिति जिनभवनविधानमनेनोच्यत इति । अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्यादिसूत्राणि दश । जिणिंदयंदाण य मंदिराई, आणंदसंदोहणिसंदिराई । रम्माइँ रुंदाणि य सुंदराई, भव्वाण सत्ताण सुहंकराई ।। २७ ।। 'जिणिंदेयंदाण' त्ति जिनेन्द्रचन्द्राणाम्, जिना: = अवधिजिनादयस्तेषामिन्द्राः सामान्यकेवलिनो जिनेन्द्रास्तेषां चन्द्रा इव अष्टमहाप्रातिहार्याद्यैश्वर्ययुक्तत्वाद् उपरिवर्तिनस्तीर्थकृतो जिनेन्द्रचन्द्रास्तेषां सम्बन्धीनि। ‘मंदिराई’ति मन्दिराणि = आयतनानि विधापयेद् गृहीति दशमवृत्तपर्यन्ते (३६ तमे ) क्रिया-कारकसम्बन्धः । कीदृग्विधानि तानि ? । अत आह 'आणंदसंदोहणिसंदिराई 'ति प्राकृतत्वाद् आनन्दसन्दोहनिष्यन्दवन्ति, आनन्दः = सम्मदस्तस्य सन्दोहः = सङ्घात आनन्दसन्दोहस्तस्य निष्यन्दः = निर्यासः स विद्यते येषु तदुत्पादकत्वेन तानि तथा । तथा — आणंदणिब्भरंगो कयंबपुप्फं व पुलइओ पाणी । जहंसणेण जायइ कारेज्ज जिणालयं तमिह । । १३९ ।। 'रम्माइं' ति रम्याणि= रमणीयानि । ' रुंदाणि य'त्ति रुन्दानि = विस्तीर्णानि । 'च' समुच्चये । ‘सुंदराइं’ति सुन्दराणि=वास्तुविद्याभिहितयथावत्स्तरादिन्यासयुतानि । 'भाव्वाण'त्ति भव्यानां = मुक्तितगमनयोग्यानाम् । 'सत्तीण' त्ति सत्त्वानां = प्राणिनाम् । अनुस्वारस्याऽलाक्षणिकत्वात्, 'सुखकराणि' शर्मोत्पादकानि, शुभकराणि वा कल्याणहेतुभूतानि । अत्र भव्यग्रहणेनाऽभव्यानां निषेधमाह, यतस्तेषामास्तां जिनभवने, जिनेऽपि दृष्टे न सौख्यमुत्पद्यते पालकादीनामिवेति वृत्तार्थ: ।।२७।। तथा मेरु व्व तुंगाइँ सतोरणाई, विसालसालासबलाणयाइं । सोपाण-णाणामणिमंडियाई, माणेक्क- चामीकरकुट्टिमाई ।। २८ ।। ‘मेरु’व्व देवाचलमि(इ)व । ‘तुङ्गानि' उच्चानि । 'सतोरणानि ' ईलिकातोरणयुतानि । ‘विशालशालासबलाणकानि' विशाला:- विस्तीर्णाः, शाला: = पट्टशाला येषु तानि तथा । शालाशब्दे १ - २. ला०ता० दइंदाण ॥ ३. ला० ण य त्ति ॥ ४. ला० तानि ? एतदाह ॥ ५. ला० युक्तानि ॥ ६. सं० वा० सु० 'त्ताणं ति ॥ ७ ला० 'व्यादीनां ॥ ८. ला० पु० सोमाण ॥ ९. ला० ता० माणिक्क ॥ १०. ला० ईलका ॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् । सह बलाणकेन जगतीनिर्गमद्वारेण वर्तन्ते यानि तानि तथा । विशालशालानि च तानि सबलाणकानि चेति समास: । 'सोपान-नानामणिमण्डितानि' सोपान:-अवतरणैः, नानामणिभिश्च= चन्द्रकान्तप्रभृतिभिः, मण्डितानि-शोभितानि यानि तानि तथा । पूर्वापरनिपाताद् वा नानामणिमण्डितसोपानानि। 'माणिक्य-चामीकर-कुट्टिमानि' माणिक्यानि=महारत्नानि, चामीकरं-सुवर्णम्, तन्मयं कुट्टिमम् उत्तानपट्टो येषु तानि तथेति वृत्तार्थः ।।२८।। तथा विचित्तविच्छित्तिविचित्तचित्त, सच्छत्त-भिंगार-स(सु)चामराई । ससालभंजी-मयरद्धइंध, वाउद्भुयाणेयधयाउलाई ।।२९।। विभक्तिलोपाद् 'विचित्रविच्छित्तिविचित्रचित्राणि' विचित्रा: नानाप्रकारा:, विच्छित्तयः स्फीतयो येषु तानि तथा । विचित्राणि शोभनानि, चित्राणि-चित्रकर्माणि, येषु तानि तथा । विचित्रविच्छित्तीनि च तानि विचित्रचित्राणि चेति समासः । तथा पाठान्तराद्वा विचित्रा: अनेकप्रकारा:, विच्छित्तयः भक्तयः, ताभिर्विभक्तानि असम्मिलितानि पूतानि वा चित्राणि येषु तानि तथा । 'सच्छत्र-भृङ्गार-सुचामराणि' छत्रम् आतपत्रम्, तच्च छत्रत्रयरूपम् । तत् तु त्रैलोक्यदेवाधिदेवत्वसंसूचकं जिनस्यैव भवति । भण्यते च छत्तत्तउ तउ उवरि देवइंदिण करि धरियउ, कणयडंडुवरि हारलोलमालहिँ परियरियउ । तिजगमज्झि देवाहिदेवु किर अन्नु न अइसउ, -पयडइ एउ निरुत्तु एहु 'जण ! कुणहु म संसउ' ।।१४०।। भृङ्गारा: गजमुखाकृतयः स्नात्रोपयोगिभाजनविशेषाः । सुचामराणि-प्रधानप्रकीर्णकानि । ततश्च छत्रं च भृङ्गाराश्चेत्यादिद्वन्द्वस्तै: सह वर्तन्ते यानि तानि यथा । 'सशालभञ्जिका-मकरध्वजचिह्नानि' सह शालभञ्जिकाभि: लेप्यादिमयपुत्रिकाभिर्मकरध्वजचिह्नन च-महा(?झष)केतुलाञ्छनरूपेण वर्तन्ते यानि तानि तथा । मकरध्वजचिह्न हि मकरकेतनजयसंसूचकम् । भण्यते च तत्तुत्तिन्नवरेन्नवन्नसुसुवण्णविणिम्मिउ, __ जम्मि दंडु तंह धवलु चेलु मंदानिलघुण्णिउ । सो जाणह अरहंतचिंधु ऍहु गहिउ महद्धउ, णिजिणेवि जयजिणणजोहु दुजउ मयरद्धउ ।।१४१ ।। १. विभत्तचित्त इति टीकाकृनिर्दिष्टं पाठान्तरम् ॥ २. ला० 'देउ ॥ ३. सं० वा. सु० प्रधानानि प्रकीर्णकविशेषाः। ततश्च ।। ४. सं० वा० सु० तहिँ ॥ . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभवनवर्णना १२३ 'वातोद्भूतानेकध्वजाकुलानि' वातेन-समीरणेनोद्भूता: उत्क्षिप्ता:, अनेके-प्रभूताः, ध्वजा:देवकुलोपरिपताकारूपास्तै: आकुलानि-सङ्कीर्णानि यानि तानि तथेति वृत्तार्थः ।।२९।। तथा देवंग-पटुंसुय-देवदूसउल्लोयरायंतनिरंतराइं । विलोलमुत्ताहल-मल्लमालापालंबओऊलकुलाऽऽकुलाइं ।।३०।। पूर्वापरनिपाताद् ‘देवाङ्ग-पट्टांशुक-देवदूष्यराजदुल्लोचनिरन्तराणि' देवाङ्गानि-प्रधानसिचयानि, पट्टांशुकानि-पट्टसूत्रनिर्मितानि, देवदूष्याणि सुरवस्त्राणि, तै राजन् शोभमानो य उल्लोच: आकाशतलशोभा तेन निरन्तराणि व्याप्तानि यानि तानि तथा । विलोलमुक्ताफलमाल्यमालाप्रालम्बावचूलकुलाकुलानि' विलोला:=इतश्चेतश्चलन्त्यो मुक्ताफलानाम्-मौक्तिकानाम्, माल्यानां सुमनसाम्, या माला:-तद्ग्रथनरूपास्तासां प्रालम्बा:-लम्बमानपुष्पगण्डूषरूपास्तेषु अवचूला:-स्तबकास्तेषां कुलानि सङ्घातास्तैराकुलानि-व्याप्तानि यानि तानि तथेति वृत्तार्थः ।।३०।। तथा कप्पूर-कत्थूरिय-कुंदुरुक्क-तुरक्क-सच्चंदण-कुंकुमाणं । डझंतकालागरुसारधूयणीहारवासंतदिगंतराई ।।३१।। तत्र 'दह्यत्कालागरुसारधूपनिर्झरवास्यमानदिगन्तराणि' इति उत्तरार्धव्याख्या-दाश्चासौधूमावस्थामनुभवन् कालागरुसारश्च काकतुण्डागरुप्रधान: स चाऽसौ धूपश्च दह्यत्कालागरु-सारधूपः, तस्य निर्हार:=बहलगन्धस्तेन वास्यमानानि-सौगन्ध्यं नीयमानानि दिगन्तराणि येषु तानि तथा। केषां सम्बन्धीयो धूप: ? इत्यत आह 'कर्पूर-कस्तूरिका-कुन्दुरुक्क-तुरुक्क-सच्चन्दन-कुङ्कुमानाम्'इति पूर्वार्धम् । तत्र कर्पूर:=घनसारः, कस्तूरिका-मृगमदः, कुन्दुरुक्कं चीटा(डा), तुरुक्कंसीलकम्, सच्चन्दनं प्रधानश्रीखण्डम्, कुङ्कुमं-कश्मीरजम्, कर्पूरश्च कस्तूरिका चेत्यादिद्वन्द्वः, अतस्तेषामिति वृत्तार्थः ।।३१।। तथा चउव्विहाऽऽउज्जसुवजिराई, गंधव्व-गीयद्धणिउद्धुराई । णिचं पणच्चंतसुनाडंगाई, कुइंतरासासहसाऽऽउलाई ।।३२।। 'चतुर्विधातोद्यसुवादीनि' चतुर्विधं चतुःप्रकारं तत-वितत-घन-शुषिरभेदात्, तत्स्वरूपं च ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम् । घनं च कांस्यतालादि, वंशादि शुषिरं स्मृतम् ।।१४२।। १. सं० वा० सु० धानानि खिच ॥ २. सं० वा० सु० 'नां या मा' ॥ ३. सं० वा० सु० 'लागुरु ॥ ४. ला० ता० दियंत ॥ ५-६. सं० वा० सु० 'लागुरु' ॥ ७. सं० वा० सु० "ण्डागुरु॥ ८. ला० ता० ‘डयाई ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके तच्च तदातोद्यं च-वादित्रं चतुर्विधातोद्यम्, तेन सुष्ठु प्रतिरवरूपतया वादनशीलानि यानि तानि तथा। ‘गन्धर्व-गीतध्वन्युद्धराणि' गन्धर्व-देवनिकायकृतं गानम्, गीतं तु मनुजविहितम्, तयोर्ध्वनि:-मूर्च्छनादि-युक्तशब्दविशेषस्तेनोद्धराणि उद्धतानि यानि तानि तथा । नित्यं सदा । 'प्रनृत्यत्सुनाटकानि' प्रकर्षेण नृत्यन्ति-लास्यवन्ति सुष्टु-शोभनानि, नाटकानि पात्रसञ्चयनिर्मितानि येषु तानि तथा । 'कुर्दद्रासकसहस्राकुलानि' कुर्दन्त:-उल्ललन्तो ये रासका:-हस्ततालादानपुरस्सरतीर्थकरादिगुणगानप्रवृत्तपुरुषविशेषाः, स्त्र्याधुपलक्षणं च पुंलिङ्गनिर्देश: । तेषां सहस्राणि-दशशतात्मकानि । बहुत्वसङ्ख्योपलक्षणमेतत् । तैः सङ्कुलानि आकीर्णानि यानि तानि तथेति वृत्तार्थ: ।।३२।। तथा वंदंत पूयंत समोयरंत, रंगंत वग्गंत थुणंतएहिं । णच्चंत गायंत समुप्पयंत, उक्किट्टिनायाइकुणंतएहिं ।।३३।। देवेहिं देवीहिँ य माणवेहिं, नारी तिरिक्खेहिँ य उत्तमेहिं । भत्तीऍ कोऊहल णिब्भरेहि, लक्खेहिँ कोडीहिँ समाकुलाई ।।३४।। 'वंदंत'त्ति वन्दमानैः चैत्यवन्दनं विदधर्दैि । 'पूयंत' त्ति पूजयद्भिः अष्टप्रकारादिपूजां कुर्वद्भिः । ‘समोयरंत'त्ति समवतरद्भिः आकाशादागच्छद्भिः । 'रंगंत'त्ति रङ्गद्भिः=इतश्चेतश्च मन्दमन्दभ्रमद्भिः । ‘वणंत'त्ति वल्गद्भिः=फालादिदानवद्भिः । 'थुणंतएहिंति स्तुवद्भिः स्तुतिस्तोत्राणि पठद्भिः । ‘णच्चंत'त्ति नृत्यद्भिः । 'गायंत'त्ति गायद्भिः । 'समुप्पयंत'त्ति समुत्पतद्भिः=आकाशं गच्छद्भिः । 'उक्किट्टिनायाइकुणंतएहि ति उत्कृष्टि-नादादिकुर्वद्भिः । तत्रोत्कृष्टिनाद:-सिंहनाद:, आदिशब्दाद् हयहेषितादिग्रहः । कैरेवं कुर्वद्भिः समाकुलानि ? इत्याह-'देवैः' सुरैः, 'देवीभिश्च' अप्सरोभिः । चशब्दो विद्याधर-विद्याधरीसूचकः । 'मानवै: मनुजैः, 'नारीभि: मनुषीभिः, 'तिरिक्खेहिं य'त्ति तिर्यग्भिश्च। 'उत्तमैः' प्रधानैः। पुनरपि तैः कथम्भूतैः ? इत्याह भक्त्या' अन्तर्वासनया, कौतुकेन च-कुतूहलेन, निर्भरै:=पूर्णैः । कियद्भिः? लक्षैः कोटिभिश्च, चकारो गम्यते । 'समाकुलानि' सङ्कीर्णानि । 'रम्याकुलानि वा' रम्याणीति वृत्तद्वयार्थः ।।३३-३४।। कानि जिनायतनानि निदर्शनीकृत्य तानि विधापयेद् ? इत्यत आह विमाणमाला-कुलपव्वएसुं, वक्खार-नंदीसर-मंदरेसुं । अट्ठावए सासय-ऽसासयाई, जिणालयाई व महालयाई ।।३५।। १. सं० वा० सु० उक्कुट्टिना' || २. ता० भत्तीय ।। ३. वा० सु० ला० रमाकु। ता० रवाकु ॥ ४. सं० वा० सु० द्भिः। पूज' ॥ ५. ला० उक्कुट्टिना ॥ ६,७. सं० वा० सु० 'त्कृष्टना ॥ ८. ला० मानुष्याभिः ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभवनवर्णना १२५ 'विमानमाला-कुलपर्वतेषु' विमानमाला:-वैमानिकदेवनिवासपङ्क्तय: कुलपर्वता: हिमाचलादय:, विमानमालाश्च कुलपर्वताश्च विमानमाला-कुलपर्वतास्तेषु, तथा । 'वक्षार-नन्दीश्वर-मन्दरेषु' वक्षारा:-विजयविभागकारिपर्वता:, नन्दीश्वर:=अष्टद्वीपः, मन्दर: मेरुः, वक्षाराश्चेत्यादिद्वन्द्वस्तेषु तथा। अष्टापदे-अवध्याप्रत्यासन्नवर्तिति वैताट्यपादपर्वते यत्र भरतचक्रिविनिर्मितं चैत्यायतनमस्ति । उपलक्षणं चैतत् शत्रुञ्जयादीनाम् । कथम्भूतानि ? यानि शाश्वतानि-अकृत्रिमाणि विमानमालादिषु, अशाश्वतानि कृत्रिमाणि अष्टपदादिषु, जिनालयानीव-जिनायतनानिवत् तादृग्विधानीति भावार्थः । पुनः किम्भूतानि ? महालयानि-बृहत्प्रमाणानीति वृत्तार्थः ।।३५।। केषु स्थानेषु तानि कारयेत् ? इत्यत आह उत्तुंगसिंगेसु महागिरीसे, पुरेसु गामा-ऽऽगर-पट्टणेसु। पए पए सव्वमहीयलम्मि, गिही विहाणेण विहावएजा ।।३६।। 'उत्तुङ्गशृङ्गेषु, उच्चकूटेषु ‘महागिरिषु' बृहत्पर्वतेषूजयन्तादिषु । पुरेषु-नगरेष्ववध्यादिषु । 'ग्रामाऽऽगर-पत्तनेषु' ग्रसन्ति बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्रामा:-शालिग्रामादयः, आकरा:-लवणाद्युत्पत्तिभूमय: शाकम्भर्यादयः, पत्तनानि-जल-स्थलमार्गयुक्तानि भृगुकच्छादीनि, ग्रामाश्चाकराश्चेत्यादिविग्रहः तेषु । किं बहुना ? 'पदे पदे' स्थाने [स्थाने], 'सर्वमहीतले' निःशेषभूवलये, 'गृही' गृहस्थो यत: स एवात्राधिकारी, उक्तं च जिनभवनविधौ अहिगारी उ गिहत्थो सुहसयणो वित्तसंजुओ कुलजो । अक्खुद्दो धीबलिओ मंइमं तह धम्मरागी य ।।१४३।। गुरुपूजाकरणरई सुस्सूसाइगुणसंगओ चेव । नायाऽहिगमविहाणस्स धणियमाणापहाणो य ।।१४४।। (पञ्चा० गा० ३०४, ३५०) अनधिकारिणा तु तं विधीयमानं जिनभवनमपि दोषाय भवति यतस्तत्रैवोक्तं हरिभद्रसूरिणा अहिगारिणा इमं खलु कारेयव्वं, विवजए दोसो । आणाभंगाउ चिय, धम्मो आणाइ पडिबद्धो ।।१४५।। आराहणाएँ तीए पुण्णं, पावं विराहणाए य । एयं धम्मरहस्सं विण्णेयं बुद्धिमंतेहिं ।।१४६ ।। (पश्चा० गा० ३०२, ३०३) १. ला० कृतकानि ॥ २. ला० महालकानि ॥ ३,४. ता० पु० सं ॥५. सं० वा० सु० षु महा ॥ ६. ला० ष्ववन्त्यादिषु ॥ ७. सं० वा० सु० 'वाधिकारी॥ ८. सं० वा० सु० मयमं ॥ ९. सं० वा० सु० °णरुई। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके कथं कारयेत् ? 'विधानेन' विधिना, यस्माद्विधिनैव विधीयमानं सर्वमप्यनुष्ठानं फलवद्भवति । उक्तं च विधिना विधीयमानं धर्मानुष्ठानमखिलमिह भवति । फलदं यस्मात् तस्माद् यत्नस्तत्रैव कर्तव्यः ।।१४७ ।। विधापयेत् कारयेदिति वृत्तदशकार्थः [२७-३६] ।।६।। कीदृग्विधया सम्पत्त्या ?, किंविधेन च चित्तेन ?, कीदृशेन चाऽऽदरेण ?, कं वा निदर्शनीकृत्य तानि कारयेत् ? इत्यतोऽर्थं वृत्तमाह- . जम्मंतरोवत्तमहंतपुण्णसंभारसंपत्तसुसंपयाए । सुहासएणं परमायरेणं, संकासजीवो णिवसंपई वा ।।३७।। 'जन्मान्तरोपात्तमहत्पुण्यसम्भारसम्प्राप्तसुसम्पदा' जन्मान्तरं पूर्वजन्मरूपं तस्मिन्, उपात्तम् = उपार्जितम्, महद्-बृहत्, पुण्यं शुभम्, तस्य सम्भार: सञ्चयः, तेन सम्प्राप्ता-लब्धा, या सुसम्पत्=प्रधानलक्ष्मीस्तया । 'शुभाशयेन' इति शुभ: प्रशस्त:, आशय:-चित्तं शुभाशयोऽतस्तेन । यत उक्तम् पिच्छिस्सं इत्थ अहं वंदणगणिमित्तमार्गए साहू । .. कयउने भगवंते गुणरयणणिही महासत्ते ।।१४८।। सङ्क्लिष्टचित्तो हि धर्मानुष्ठानमपि कुर्वन् न तत्फलमासादयति । उक्तं चोपदेशपदेषु तवसुत्तविणयपूया न संकिलिट्ठस्स होंति ताणाय । खवगागमविणयरओ कुंतलदेवी उयाहरणा ।।१४९।। (गा० ४८५) तथा संक्लिष्टचित्तः प्रकरोति पुण्यं, यस्तस्य तद् दोषविधायि नूनम् । यद्वज्ज्वरे नूतन एव जाते, सदौषधं तच्छमनाय दत्तम् ।।१५० ।। 'परमादरेण' इति परम:=प्रकृष्टः, आदर: यत्नोऽतस्तेन । यत: न हु होइ किं पि फलयं अणायरेणं विहेजमाणं तु । इहलोइयं पि, किं पुण परलोगसुहावहो धम्मो ? ।।१५१।। १. ला० गये साहू ।। २. ला० हु किंपि होइ फ' ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्काशश्रावकजीवकथानकम् गृही जिनायतनानि विधापयेदिति सम्बन्धनीयम् । 'संकासजीवो व' त्ति इवार्थस्य गम्यमानत्वात् चैत्यद्रव्यभक्षकसङ्काशश्रावकजीववत् । तथा 'निवसंपई व' त्ति मौर्यवंशोत्पन्नसम्प्रतिसञ्ज्ञकनृपवद्वेति वृत्ताक्षरार्थः ।।३७।। भावार्थ: कथानकाभ्यामवसेयः, ते चेमे— (१८. सङ्काशश्रावकजीवकथानकम् ) अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे अणेगनगरीगुणखाणिभूया गंधिलावई णाम णगरी । ती अत्थि सम्मत्तमूलदुवालसवयजुत्तो उवलद्धजीवा - ऽजीवाइनवतत्तो सव्वैन्नुप्पणीयकिरियाणुट्ठाणप्पसत्तो सुसाहुपयपंकयभत्तो जिणसासणाणुरंजियनीसेसगत्तो सुपत्तदत्तणाओवत्तवित्तो समसत्तुमित्तचित्तो जिणवंदण-ऽच्चणाइकयपयत्तो, किं बहुणा ? समत्थगुणगणाऽऽहारसुपवित्तचित्तो संकासो णाम सावगपुत्तो । इओ य तत्थ अत्थि सक्कावयारं णाम चेइयभवणं । जं च १२७ उत्तुंगसिहरसंठियवायविधुव्वंतधयवडाडोवं । रूवयसयसंकिण्णं अदब्भसरयब्भसंकासं ।।१।। सक्कावयारणामं जिणभवणं तं पभूयदविणङ्कं । तेलोक्कसिरीसोभासमुदयसारेण घडियं व ।।२।। तत्थ य सो संकाससावगो पइदिणं करेइ तत्तिं, वद्धारए कलंतराइणा तं दव्वं, करेइ लेक्खगाइयं सव्वं सयमेव, 'वीसासत्थाणं' ति ण कोइ परिपंथए । एवं च काले वच्चमाणे काई कहिंचि असुभकम्मोदयाओ भक्खियं तेण चेइयदव्वं । पमायाओ विसयगिद्धीओ य न जाओ पच्छातावो, न कयमालोयण- निंदण - गरहणाइयं, न य चिण्णं पच्छित्तं । अकयपडियारत्तणओ यतप्पच्चयं च बंधिऊण पभूयं संकिलिङकम्मं, अहाऽऽउयक्खएण मओ समाणो तक्म्मविवागेण भमिओ चउगइसंसारकंतारे संखेज्जाइं भवगहणाई ति । अवि य णिच्वंधयारतमसे मेय-वसा - मंस - पूयचिक्खले । मयकुहियकडेवरसरिसगंधफुट्टंतनासउडे ।।३।। घाइज्जमाणजणपुण्णगामसमकलुणसद्दगद्दभे । कविर्यत्थुतुल्लफासे अच्चंताणिहरूव- रसे ।।४।। छिज्जंतो भिज्जंतो छुरिया - कुंताइएहिं तिक्खेहिं । पच्चंतो कुंभीसुं रोविज्जंतो या ।।५।। तो आलिंगणाइँ पज्जलियलोहनारीसुं । अच्छोडियंगमंगो सिलासु रयएहिँ वत्थं व ।। ६ ।। जुप्पंतोजाला उललोहरहे तत्तवालुयापंथे । पाइज्जंतो तिसिओ तत्ते तउ - तंब - लोहरसे ।।७।। फाडिज्जंतो करवत्त - जंतमाईहिँ जुन्नदारं व । छुब्भंतो जलणम्मी महिसभडितं व पावेहिं ।।८।। वेयरणी असिपत्ते वणम्मि बहुदुक्खसंकडाविओ । तक्कम्मविवागेणं वसिओ नरयम्मि बहुकालं ॥ ९ ॥ तथा १. ला० ‘सङ्कासश्रा° ॥ २. ला० °ई नयरी ॥ ३. ला० 'व्वण्णप्प' ॥ ४. ला० 'णाधार ॥ ५. सं० वा० सु० पवित्तो सं° ॥ ६. ला० रं चेइ ॥ ७. सं० वा० सु० 'कासो सा° ॥ ८. सं० वा० सु० 'त्थाण ति ॥ ९. सं० वा० सु० 'यच्चितु ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके डहणं-इंकण-छेयण-भेयणाइँ नत्थणय-लउड-कसपहरे । भारारोहण-चुंकण-मारण-दमणं छुहा तण्हा।।१०।। सीउण्ह-बंधणाईणि तिक्खदुक्खाइँ तेण सहियाइं । नारयदुहोवमाइं पत्तेण तिरिक्खजोणीसुं ।।११।। कर-चरण-जिब्भ-नासाछेयं कारागिहेसु बंधं च । नेत्तोप्पाडण-वहणं पावेतो निरवराहो वि ।।१२।। गुरुरोग-सोग-दालिद्द-जलणजालावलीपलित्तंगो । वसिओ मणुयगईए बहुजणधिक्कारिओ दीणो।१३। किब्बिसियत्तण-ईसा-विसाय-भय-आणकरणमाईणि । दुक्खाइँ सुरगणेसु वि सहियाइं तेण विसमाई ॥१४॥ तयणंतरं च इहेव जंबुद्दीवे दीवे तगराए नगरीए इन्भपुत्तत्ताए जाओ । तक्कम्मसेसप्पहावेण य कयं पिउणो वि दारिदं । 'मंदभग्ग'त्ति निंदिज्जए लोएणं । उवरए य पियरम्मि विविहवावारकरणपरायणस्स वि न संपज्जए भोयणमित्तं पि । तओ जत्थ जत्थ वच्चइ तत्थ तत्थ अंगुलीए दाइज्जइ । एवं च अईवणिविण्णस्स अन्नया कयाइ विहरमाणो समागओ तत्थ भगवं केवली । विरइयं देवेहिं कणगपउमासणं । उवविठ्ठो तत्थ भगवं । णिग्गओ वंदणत्थं सयलपुरलोगो । संजाओ य पवाओ जहा-तीया-ऽणागय-वट्टमाणजाणगो भगवं केवली समागओ । तं च सोऊण गओ वंदणत्थं संकासजीवइन्भउत्तो । वंदित्ता य उवविठ्ठो । तओ पत्थुया भगवया धम्मदेसणा । अवि संसारम्मि असारे परिब्भमंताण सव्वजीवाणं । जं अन्नभवोवत्तं तं को हु पणासिउं तरइ ? ॥१५॥ जं जं जीवाण जए उप्पज्जइ दारुणं महादुक्खं । तं तं अन्नभवंतरनिव्वत्तियपावकम्मफलं ।।१६।। तओ इत्थंतरम्मि पत्थावं णाऊण पुच्छियं संकासजीवेण ‘भयवं ! जइ एवं ता मए किमन्नभवे पावकम्मं कयं जस्सेरिसो दारुणो विवागो ?' त्ति । तओ साहिओ सवित्थरो देवदव्वभक्खणसंजणियदुक्खपउरो पुव्वभवप्पवंचो । तं च सोऊण संजायसंवेगो अत्ताणयं निंदिउमाढत्तो । अवि य "हा हा ! अहं अणज्जो पाविठ्ठो पावकम्मकारी य । निल्लज्जो अकयत्थो निद्धम्मो विगयमज्जाओ।१७। पुरिसाहमो अहण्णो जेण मए माणुसम्मि जम्मम्मि । लभ्रूण कुलं सीलं जिणिंदवरधम्मसंजुत्तं ।१८। णाऊण वि सिद्धंतं लोभाभिहएण मूढचित्तेणं । भुत्तं चेइयदव्वं एवंविहदुक्खसंजणगं ।।१९।। ता भयवं ! मे साहसु उवायमित्थं तु जेण तं कम्मं । नेमि खयं नीसेसं चिंतिजंतं पि भयजणगं' ।२०। १. ला० रोयण' ॥ २. सं० वा० सु० दाइयइ ॥ ३. सं० वा० सु० ओ भगवं ॥ ४. ला० निविट्ठो ॥ ५. ला० ओ य वं ।। ६. सं० वा० सु० "ली इहागओ ॥ ७. सं० वा० सु० सो विवागो दारुणो ? ति॥ ८. सं० वा० सु० ण तक्कम्मं ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्काशश्रावकजीवकथानकम् १२९ तओ भगवया भणियं 'भद्द ! करेहि चेइयदव्ववुद्धिं जेणाऽवगच्छइ तं कम्म'ति । तओ तेण भगवओ चेव पायमूले गहिओ अभिग्गहो जहा 'गासच्छायणमेत्तं मोत्तूण सेसं जं किंचि मज्झ वित्तं भविस्सइ तं सव्वं चेइयदव्वं, जहा तत्थोवगरइ तहा करेस्सामि' त्ति । तओ अचिंतमाहप्पयाए अभिग्गहजणिय-कुसलकम्मस्स वित्थरिउमाढत्तो विभवेणं । पेच्छिऊण य विभववित्थरं पमोयाइरेगाओ समुल्लसंतसुभ-सुभयरपरिणामाइसयसमुन्भिजंतरोमंचकंचुओ करेइ जिणभवणाइसु ण्हवण-ऽच्चणबलिविहाणाई, पयट्टावए अट्ठाहियामहिमाओ, विहेइ अक्खयनी(?नि)धियाओ, कारवेइ जिण्णोद्धारे । एवं च अक्खलियपसरं वयंतस्स वि जाव परिवडइ रिद्धी ताव निरइयाराभिग्गहपरिपालणबुद्धीए कारावियाइं पत्थुयपगरणवण्णियसरूवाइं जिणालयाई, परट्ठावियाई तेसु पुव्ववण्णियाई बिंबाइं, दिट्ठभयत्तणेण य परिहरइ पयत्तेण जिणाययणपरिभोगं। उक्तं चोपदेशपदेष्वप्यत्रैव कथानके निट्ठीवणाइकरणं असक्कहा अणुचियासणाई य । आययणम्मि अभोगो एत्थ य देवा उदाहरणं ।।१५२।। देवहरयम्मि देवा विसयविसविमोहिया वि न कयाइ । अच्छरसाहिं पि समं हास-क्किड्डाइ वि करेंति ।।१५३।। (गाथा० ४१०-४११) अनयोश्च तदुक्तैव व्याख्या निष्ठीवनं-मुखकफत्यागः । आदिशब्दात् प्रश्रवण-पुरीषा-ऽवील-ताम्बूलभक्षण-भोजनादिग्रहस्तेषाम् ‘अकरणं' त्यागः । 'असत्कथा' स्त्री-राजादिवार्ता, अनुचितम् अयोग्यमासनं पीठकादि, आदिशब्दात् शयनादिपरिग्रहः । 'आयतने' जिनालये, 'अभोग:' अवस्थानादिपरिहारेण । अत्राऽर्थे देवा उदाहरणम् । 'दैवगेहे' जिनालये, 'देवाः' अमरा:, 'विषयविषविमोहिता अपि' रागोत्कटा अपि, 'न कदाचित्' नैवाऽप्सरोभिरपि 'समं' सार्धं हास्य-क्रीडाद्यपि कुर्वन्ति । यथा ते तथेदानीन्तनैरपि पुरुषैरिदं स्त्रीभिः सह चैत्यालये वय॑मित्युक्तो गाथाद्वयार्थः । एवं च सो महाणुभावो आसायणमकरेंतो सव्वत्थ वि धम्माणुट्ठाणे अविहिपरिहारपरो आजम्मं पि विसुद्धमभिग्गहें परिपालेऊण सम्ममाराहगो जाओ ति । (सङ्काशश्रावकजीवकथानकं समाप्तम् १८) । १. ला० व्वस्स वु' ॥ २. ला० जिणाययणा ॥ ३. दृश्यतां षट्त्रिंशत्तमं यावत् वृत्तदशकम् ॥ ४. समालोक्यतामष्टादशैकोनविंशतिसङ्ख्यं वृत्तद्वयम् ॥ ५. ला० ध्वत्रैव ॥ ६. सं० वा० सु० सणाईणि ॥ ७. ला० 'लन-ता' ॥ ८.ला. देवगृहे ॥ ९. सं० वा० सु० सो ऊ(उ)ण म ॥ १०. सं० वा० सु० हं पाले ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके गतं सङ्काशजीवाख्यानकम् । अधुना सम्प्रतिनृपाख्यानकमाख्यायते । अपि च (१९. सम्प्रतिनृपाख्यानकम्) सुर-असुर-जोइ-वणयर-विज्जाहर-णरवईहिं पणिवइओ। आसि जियो सिरिवीरो वीरो अप्पच्छिमो भरहे ॥१॥ तेण चिराउयकलिओ' कलिऊणं पंचमो गणहरिंदो । निययपएऽणुण्णाओसामिसुहम्मोसुहम्मो त्ति।२। तस्स विणेओ जंबू जंबूणयणिघसतुल्लतणुतेओ । सुर-णरवंदियचरणो अपच्छिमो केवलहराणं ॥३॥ तत्तो गुणाण पहवो पहवो णामं गणाहिवो जाओ । सुयकेवली महप्पा, तस्स य सीसो तओ जाओ।४। सेजंभवो त्ति सेजं भवोयही तारगो जओ जेण। दसवेयालियमेयं मणगस्सट्ठाइ णिजूढं ।।५।। तस्सीसो जसमद्दो जसभद्दो गणहरो समुप्पण्णो । तत्तो च्चिय संभूओ णाम वरसूरी ।।६।। तत्तो य भद्दबाहु त्ति भद्दबाहू जुगप्पहाणगणी । तस्स वि य थूलभद्दो सुथूलभद्दो गणी जाओ ।।७।। चंउदसपुव्वधराणं अपच्छिमो जो इमम्मि भरहम्मि । उस्सप्पिणीइमाए अणेगगुणगारवग्धविओ ।।८॥ जो मयरद्धयकरिकरडवियडकुंभयडपाडणपडिट्ठो । दढदाढविउडियमुहो खरणहरो केसरिकिसोरो ।।९। दो सीसा तस्स तओ जाया दसपुव्वधारयाधीरा । जेट्टो अज्जमहागिरि अजसुहत्थी य अणुजेट्ठो।१०॥ तओ तेसिं दुण्हं पि थूलभद्दसामिणा जुयंजुया गणा दिण्णा । तहा वि अइपीइवसेण एगओ चेव विहरंति । अन्नया कयाइ अनिययविहारेण विहरमाणा कोसंबिणामणयरिं गया । तत्थ खुड्डलयवसहिवसेण पिहप्पिहं ठिया । तत्थ य तया महंतं दुब्भिक्खं वट्टइ । ततो अजसुहत्थिसाहुणो पविट्ठा भिक्खणिमित्तं महाधणवइधणसत्थवाहगेहं । तओ पविसंते दळूण साहुणो सहसा सपरियणो अब्भुट्ठिओ धणसत्थवाहो । वंदिया य साहुणो । आइट्ठा य भारिया जहा 'आणेहि लहुं सीहकेसरमाइयं पहाणाहारं जेण पडिलाहेमि भयवंते' । तव्वयणाणंतरमेव समाणिओ पहाणाऽऽहारो तीए । तओ समुभिजमाणरोमंचकंचुएणं हरिसवसविसटुंतवयणकमलेणं पडिलाहिया मुणिणो, वंदिया य सपरियणेणं, अणुव्वइया य गिहदुवारं जाव । एयं च सव्वं दिळं भिक्खट्ठा पविटेणं एगेणं दमगेणं । तं च दद्दूण चिंतियं तेण, अवि यधन्ना अहो ! कयत्था एए च्चिय एत्थ जीवलोगम्मि । एवंविहे वि एवं भत्तीए जे णमिजंति ॥११॥ नरलोयदुल्लहाणि य विविहपगाराणि भक्खभोज्जाणि । पज्जत्तीए अहियं लहंति दुब्भिक्खकाले वि।१२। १. ला० अवि या ॥ २. ला० रपहूहिं ॥ ३. “वीरो(रोड)ग्रणी: मु० टिप्पणी ॥ ४. ला० चलणो॥ ५. ला० लधराणं ॥ ६. ला० पभवो पभवो || ७. ला० तेण ॥ ८. ला० चोइसपु ॥ ९. ला० ‘या य क' ॥ १०. ला० ते साहूणो दटूण स’ ॥ ११. ला० 'हेहिँ एवं ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् अहयं तु पुण अधन्नो कयसणगासप्पमाणमित्तं पि । न य उवलभामि कत्थ वि बहुविहललिं कुणंतो वि ॥१३॥ विं कहंचि को विहु अणिसं दीणाइँ जंपमाणस्स । वियरइ कयसंणगासं तह वि हु अक्कोसए अहियं॥१४॥ जइ ता एच्चिय मुणिणो आहाराओ जहिच्छलद्धाओ । मग्गामि किंचिमेत्तं करुणाए दिंति जइ कह वि ॥ १५ ॥ १३१ 1 तओ एवं चिंतिऊण मग्गिया भत्तं तेण ते साहुणो । साहूहिं भणियं 'भद्द ! न एयस्स अम्हे सामिणो जाव गुरूणि अणुण्णायं, ता गुरू चेव इत्थत्थे जाणंति' । तओ सो साहूणं पिट्ठओ गओ जव दिट्ठा अजहत्थिसूरिणो, मग्गिया य । साहूहि वि कहियं जहा 'अम्हे वि मग्गिया आस' । तओ गुरूहिं दिण्णसुयणाणोवओगेहिं 'पवयणाहारो भविस्सइ' त्ति णाऊण भणिओ 'जइ पव्वयाहि तो देमो ते जहिच्छियमाहारं ' । ' एवं होउ' त्ति तेण पडिवण्णे दिक्खिओ | अव्वत्तसामाइयं च दाऊण भुंजाविओ जहिच्छं । तओ सिणिद्धाहारभोयणाओ जाया विसूइया । परिक्खीणत्तणओ य आउ समुप्पन्नमहावेयणासंघट्टो मरेऊण अव्वत्तसामाइयप्पभावओ उप्पण्णो अंधयकुणालकुमारस्स उत्तो । को सो कुणालो ?, कहं वा अंधओ जाओ ? एयं साहेज्जइ अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे गोल्लविसए सयलरम्मयागुणगणणिहाणं चणयामो णाम गाम । तत्थ रिजुवेय-जजुवेय- सामवेया - ऽथव्वणवेयजाणगो सिक्खा -वायरण-कप्प-च्छंदनिरुत्त-जोइसविऊ मीमंसावबोहगा णायवित्थरवियाणगो पुराणवक्खाणणिउणो धम्मसत्थवियारचउरो चणी णाम माहणो । सो य महासावगो । तस्स य घरे वसहीए ठिया सुयसागराहिहाणा सूरिणो I । अन्नया य तस्स माहणस्स भारिया सावित्ती णाम पसूया उग्गयांहिं दाढाहिं दारयं । तस्स य णिव्वत्तबारसाहस्स कयं णामं चाणक्को त्ति । पौडिय सूरीण पाएसु कहिओ दाढा आयरिएहिं भणियं 'राया भविस्सई' त्ति । माहणेण य घरंगएण चिंतियं 'हा कटुं ! कहं मम वि पुत्तो होऊण अणेगाणत्थसत्थणिबंधणं महारंभाइपावट्ठाणकारणं रज्जं करेस्सई ?, ता तहा करे न करेइ एस रज्जं' ति । घट्ठाओ सिल्लगेण - दाढाओ । तओ पुणो वि साहियं गुरूणं जहा 'घट्ठाओ म दारयस्स दाढाओ' । गुरूहिं भणियं “ दुहु विहियं, जओ जं जेण पावियव्वं सुहं व असुहं व जीवलोगम्मि । अण्णभवकम्मजणियं तं को हु पणासिउं तरइ ? । १६ । १. ला०वि हु य कहवि को ॥ २. सं० वा० सु० दिण्णं सुयणाणोवओगपुव्वयं 'पव' ॥ ३. ला० 'साविबो' ॥ ४. ला० पाडिओ य सू° ॥ ५. ला० 'ओ यदा ॥ ६. सं० वा० सु० 'इत्ति, ता ॥. ७. सं० वा० सु० पसाहियं गुरूणं 'घट्टा' ॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके जंजेणजह व जइया अन्नम्मि भवे उवज्जियं कम्मं । तं तेण तया(हा) तइया भोत्तव्वंणत्थि संदेहो।१७। धारेज्जइ इंतो जलणिही वि कल्लोलभिण्णकुलसेलो । ण हु अण्णजम्मणिम्मियसुहा-ऽसुहो दिव्वपरिणामो॥१८॥ ता णिच्छएण होयव्वं एएण पडंतरिएण राइणा" । तओ कमेण जाओ उम्मुक्कबालभावो चाणक्को । पढियाणि य तेण वि चउदस विजाठाणाणि । परिणाविओ य समाणकुल सीलभारियं । उवरए य पियरम्मि 'सावगो' त्ति अप्पसंतुट्ठो गमेइ कालं । अन्नयो कयाइ सा बंभणी गया भाइवीवाहे पेइयघरं । आगयाओ अण्णाओ वि ईसरगेहपरिणीयाओ, तासिं च ताणि मायापीइपमुंहाणि माणुसाणि कुणंति गोरवं । अवि यधोवेइ को वि पाए, सुगंधतिल्लेहिँ को वि मक्खेइ । नाणाविहेहिँ उव्वट्टणेहिँ उव्वट्टए को वि ॥१९॥ ण्हावेइ को वि, को वि हु वत्था-ऽलंकारमाइ अप्पेइ । को वि विलेवणमाणइ, किं बहुणा इत्थ भणिएणं ?॥२०॥ भोयण-सयणाईसु वि गोरवई परियणो पयत्तेण । विविहोल्लावकहाहिं आयरतरएण उल्लवइ ॥२१॥ तं च चाणक्कभजं 'अत्थहीण' त्ति काउं वयणमित्तेण वि ण को वि गोरवेइ, कम्मं च . कारेजइ। एगागिणी चेव एगदेसे चिट्ठइ । वत्ते य वीवाहे विसजणकाले इयराण विसिट्ठवत्थाऽलंकारा-ऽऽभरणेहिं महंतो उवयारो कओ, तीसे पुण इयरवत्थाइएहिं अप्पो चेव । तओ सा 'धिसि धिसि दारेद्दभावस्स जत्थ माया-वित्ताणि वि एवं परिभवं कुणंति'त्ति अट्टदुहट्टक्सट्टा महाचिंतासोगसागरगया पत्ता पइगेहं । ट्ठिा चाणक्केण 'हा ! किमेय ? जमेसा पीइहराओ वि समागया सखेया उवलक्खेज्जइ !' ति चिंतेऊणसमाउच्छिया खेयकारणं । ण य किंचि जपेइ । तओ णिब्बंधेण पुच्छियाए जंपियं जहा “अहं 'तुज्झ दरिद्दस्स करे विलग्ग'त्ति काऊण माया-वित्तेहिं वि अवमाणिया, 'अवमाणिय' त्ति काऊणाधीई जाया" । तओ चिंतियं चाणक्केण 'सत्यमेतत्, यतोऽर्थ एव गौरव्यः, न गुणा: । उक्तं च जातियतु रसातलं गुणगणस्तस्याऽप्यधो गच्छतु, शीलं शैलतटात् पतत्वभिजन: सन्दह्यतां वह्निना । १. सं० वा० सु० 'या होयव्वं ॥ २. ला० "म्मनियकम्मनिम्मिओ देवपरि ॥ ३. ला० विचोइस ॥ ४. सं० वा० सु० 'लभारियं ॥ ५. ला० या य क ॥ ६. सं० वा० सु० ओ ईसर ॥ ७. ला० 'मुहमाणसा वि कु ॥ ८. ला० कोइ ॥ ९. ला० जणाकाले ॥ १०. ला० "त्थाऽऽभरणा-लंकाराइएहिं महं ॥ ११. सं० वा. सु० सा चिंतेइ 'धिसि ॥ १२. ला० सट्टमहा' ॥ १३. सं० वा० सु० 'यं ? ति ज’ ॥ १४. ला० °ओ समागया वि ॥ १५. ला० °ण पुच्छिया ॥ १६. ला० माया-वित्तेण वि ॥ १७. सं० वा० सु० या इति काऊण || Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् सौ (शौर्ये वैरिणि वज्रमाशु निपतत्वर्थोऽस्तु नः केवलं, येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे । । १५४ । । तथा धनैर्दुः कुलीनाः कुलीनाः क्रियन्ते, धनैरेव पापाञ्जना निस्तरन्ति । धनेभ्यो विशिष्टो न लोकेऽस्ति कश्चिद् धनान्यर्जयध्वं धनान्यर्जयध्वम् ॥ १५५ ॥ किञ्च झणविहवो न अग्घइ पुरिसो विण्णाण - गुणमहग्घो वि । धणवंतो उण णीओ वि गारवं वंइह लोगम्मि ॥२२॥ कुल - सील- गुणा - सोडीर - चंगिमा तह य ललियमुल्लवणं । अकयत्थं सव्वमिणं होइ च्चिय अत्थरहियाणं ॥२३॥ कणकडुयं पिवणं घेप्पइ अमयं व धणसमिद्धस्स । न उण तं सयलकलाकलावकलियं पि अधणस्स ॥ २४ ॥ जस्सत्थ तस्स जणो, जस्सत्थो तस्स बंधवा बहवे । धणरहिओ उ मॅणूसो होइ समो दास-पेसेहिं ॥२५॥ ता वज्जियसंसारो सया समत्थो समत्थभुवणम्मि । मुणिणाहो व्व मज्जइ विबुहेहिँ वि नूण एसत्थो ॥२६॥ तया वि हुती हुंति, हुंता वि जंति जंतीए । ओजी समं णीसेसगुणगणा जयउ सा लच्छी ॥२७॥ १३३ ता सव्वप्पगारेहिं चेव अत्थो उवज्जियव्वो । अत्थि य पाडलिउत्ते नयरे नंदो नाम राया, सो य बंभणाण सुवण्णं देइ, ता तत्थ वच्चामि' । त्ति संपहारिऊण गओ तत्थ । पविट्ठो य कहिंचि दिव्वजोएण पमत्ताणं दारवालाणं रायसभाए । दिट्ठं च रायनिमित्तमुवकप्पियमासणं, उवविट्ठो य तत्थ। इओ य ण्हायसव्वालंकारविभूसिओ सनेमित्तिओ समागओ तत्थ नंदराया । चाणक्कं चहू जंपियं नेमित्तिएण जहा 'देव ! एरिसे मुहुत्ते एस बंभणो रायसीहासणे निविट्ठो जारिसे नंदवंसस्स छायं अवहरिऊण ठिओ, ता अरोसवंतेहिं सामेण विणएण य उट्ठवेयव्वो । तओ राइणा दवावियमण्णमासणं । भणियं च दासचेडीए जहा 'भट्ट ! एयं रायसीहासणं, ता पसायं काऊण इत्थ उवविसह' । तओ चाणक्केण चिंतियं 'एयं चेवाजुत्तं जमदिणे आसणे उवविसिज्जइ, एयं तु १. ला॰ लहइ ॥ २. ला० मणुस्सो ॥ ३. ला० 'लाईणं ॥ ४. ला० ° भाये । दिट्ठं रा° ॥ ५. ला० क्कं दडू ॥ 1 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके सव्वजहण्णं जमुट्ठिजई' । त्ति सामत्थेऊण 'अस्तु, अत्र मे कुण्डिका स्थास्यति' इति कुंडियं ठवेइ। पुणो अण्णं रइयमासणं तत्थ तिदंडं । अन्नत्थ जण्णोववीयं । एवं जं जंठवेइ तं तं रुंधइ । तओ 'धट्टो त्ति रुटेण राइणा पाएसु गहेऊण कड्डाविओ । उठ्ठित्ता य पइण्णं करेइ, यथा 'कोशेन भृत्यैश्च निबद्धमूलं, पुत्रैश्च मित्रैश्च विवृद्धशाखम् ।। उत्पाट्य नन्दं परिवर्तयामि, महाद्रुमं वायुरिवोग्रवेगः॥ - जइ एयं न उप्पाडेमि तो एयं न छोडेमि' त्ति सिहाए गंठिं बंधेइ । 'जं तुज्झ पिउणो रोयइ तं करेजासु'त्ति भणमाणेहिं पुरिसेहिं अद्धयंदं दाऊण निच्छूढो । तओ णिगंतूण णयराओ चिंतिउमाढत्तो जहा ‘कया मए कयत्थिज्जमाणेण कोहाभिभूएण माणमहापव्वयारूढेण अण्णाणबहलतमंधयारपडलावलुत्तविवेयलोयणेण महई पइण्णा, सा य णित्थरियव्वा । यत उक्तम् तरियव्वा व पइण्णिया, मरियव्वं वा समरे समत्थएण । असरिसजणउप्फेसणया न हु सहियव्वा कुले पसूएण ।।१५६।। ता कहं नित्थरियव्व ?' ति चिंतयंतस्स पुव्वसमायण्णियं चडियं चित्ते गुरुवयणं जहा 'मए पडतरिएण राइणा होयव्वं' । ण य तेसिं महाणुभावाणं वयणमण्णहा होइ । जओ अवि चलइ मेरुचूला, अवराओ उग्गमिज दिणणाहो । मुंचेज व मज्जायं जलणिहिणो, पडइ सग्गो वि ॥२९।। नरय व्व उवरि होजा, ससिणो बिंबंमुइजअग्गी वि । णयहोइअण्णहातं विसिट्ठणाणीहिँ जं दिलु । ३०। ता 'गवेसामि किं पि बिंब' ति । परिव्वायगवेसेणं गओ नंदस्स रण्णो मोरपोसगगामं । समुयाणंतो य पयट्ठो मयहरगेहं । जाव पिच्छइ तत्थ सव्वाणि माणुसाणि उब्विगाणि । पुच्छिओ य चाणको तेहिं जहा भगवं ! जाणसि किं पि ?' । चाणक्केण भणियं 'सव्वं जाणामि' । तओ तेहिं भणियं 'जइ एवं ता अवणेहि मयहरधूयाए चंदपियणदोहलयं, जओ दोहलयअसंपत्तीए कंठगयपाणा सा वराई, ता देहि पसायं काऊण माणुसभिक्खं' ति । तओ ‘हंत ! भवियव्वं इमीए गब्भे मम मणोरहाऽऽपूरणसमत्थेण केणावि सुपुरिसेणं' ति चिंतिऊण भणियं चाणक्केण ‘पूरेमि अहं इमीए दोहलयं जइ मे गन्भं पयच्छह' त्ति । तओ 'इमीए जीवमाणीए अण्णे गब्भा भविस्संति'त्ति सामत्थेऊण पडिवन्नं तेहिं । सक्खिसमक्खं च काऊण काराविओ चाणक्केण पडमंडवो । पुण्णिमारयणीए य नहयलमज्झभागट्ठिए ससहरे कयं उवरि छिदं । ठावियं च सव्वरसऽड्डखीरदव्वसंजोगपडिउण्णं हेट्टओ थालं । भणिया य सा 'पुत्ति ! तुज्झ निमित्तेण मए मंतेहिं १. ला० वइयं ॥ २. ला० ठविजइ ॥ ३. सं० वा० सु० पयन्नं ॥ ४. ला० 'जासि' ति ॥ ५. सं० वा० सु० 'हिं अद्ध ।। ६. सं० वा० सु० य पयण्णि' ।। ७. सं० वा० सु० वणइ ।। ८. ला० सव्वमाणु' ।। ९. ला० परिपुण्णं ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् १३५ आगरिसिऊण आणिओ एस चंदो ता पियसु' त्ति । तओ सा सहरिसं 'चंदं' ति मन्नमाणी जत्ति जत्तियं पिवइ तत्तियं तत्तियं उवरि पुरिसो उच्छाडेइ । अद्धपीए य 'किं गब्भो पडिउन्नो भवेस्सइ न व ?' त्ति परिक्खणत्थं भणिया जहा 'चिट्ठउ इत्तिओ, लोयाणं देज्जिही ' । सा नेच्छइ । तेण भणियं 'जइ एवं ता पियसु, लोगनिमित्तमन्नमाणिस्सामि' । त्ति पूरिऊण दोहलयं दव्वोप्पायणणिमित्तं गओ धाविव । तत्थे णाणाविहेहिं धाउवायप्पओगेहिं उवज्जियं पभूयं दविणजायं । आगओ य कालंतरेण तस्स गब्भस्स पउत्तिवियाणणत्थं । तओ पेच्छइ गामस्स बाहिं सँयललक्खणसंपुण्णं दारयं रायनीईए रममाणं । अवि य— धूलीर्विलिहियबहुदेस- -नगर-गामाण मज्झयारम्मि । फरिह - ऽट्टालय - पायार-भवणउवरइयणगरम्मि ॥३१॥ धूलीमयसिंहासणअभिरूढं डिंभमंति-सामंतं । नयरारक्ख-बलाहिय-पडिहार - पुरोहिय-भडेहिं (? डोहं ) ॥३२॥ भंडागारिय-तलवर - सेणावइ - कट्ठियाइपरिगरियं । तेसिं वि य विलहंतं गामा - ssगर - देसमाईणि । ३३ । सत्थाह- महायण-सेट्ठि-पगइपभिईहिं विण्णविज्जंतं । एमाइ नरवरीसरनीईपरमं तयं हुं ।। ३४ ।। परितुट्ठो चाणक्को पुरओ होऊण कुणइ पत्थणयं । तस्स परिक्खणहेउं विणएणं जंपए एवं । ३५ । ‘देवऽम्हं पि य देज्जउ किंचि पसायं विहित्तु' सो भणइ । 'तुह गोउलाई बंभण ! दिण्णाई गेण्ह गंतूणं' । ३६ । (ग्रन्थाग्रम् - ३०००) तओ चाणक्वेण भणियं 'देव ! गोउलाई गेण्हमाणो मारेज्जामि' । तेण भणियं 'वीर भोज्जा वसुंधरा' । तओ चाणक्केण 'विण्णाण - सूरत्तणाई पि अत्थि, ता जोगो एस मम मणोरहाणं’ति चिंतिऊण पुच्छिओ एगो डिंभो जहा 'कस्सेस दारगो ?, किं नामधेओ ?' । ओ डिंभेण भणियं जहा 'एस मयहरधीयापुत्तो परिव्वायगसंतिओ चंदगुत्तो नाम । तओ 'एसो सो त्ति हरिसभरणिब्भरंगेण चाणक्केण भणिओ चंदगुत्तो जहा 'अहं सो परिव्वायगो जस्स संतिओ तुमं, ता एहि वच्छ ! जा ते सच्चयं रायाणं करेमि ' । तओ " जंमाणवेइ अज्जो' ति जंपमाणो लग्गो तपिओ चंदगुत्तो । चाणक्को वि डिंभरूवाणं वृत्तंतं साहिय तं घेत्तूण पलाणो । मेलिऊण चाउरंगं बलं कओ चंदउत्तो राया । ठिओ अप्पणा मंतिपए । एवं च महासामग्गिं काऊण गया पाडलिउत्तं । रोहिऊण य तं ठिया । तओ नंदराया एयं णाऊण सव्वसामग्गीए निग्गओ । जायमाओहणं । अवि य 66 १. सं० वा० सु० 'रिसा ।। २. सं० वा० सु० इत्तियं ॥ ३ ला० 'त्थ य णा ॥ ४. ला० सव्वलक्ख ॥। ५. सं० वा० सु० 'विरइयब' ॥ ६ ला० सामंता ।। ७-८ ला० गोयला ॥ ९. ला० मधिजो ? ॥ १०. सं० वा० सु० जहा आणवेइ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके वजंततूरनिस्सणं, खिप्पंतसेल्लभीसणं । पढंतभट्टवंदयं, आतअद्धचंदयं ।।३७।। घुस्संतनाम-गोत्तयं, भगंततिक्खकुंतयं । पडतखणघाययं, मुच्चंतणेयसाययं ।।३८।। छिज्जंतरायचिंधयं, तुटुंतवम्मबंधयं । पडतआयवत्तयं, मरंतभूरिसत्तयं ।।३९।। इति । तओ एवंविहे समरभरे वट्टमाणे नंदरायजोहेहिं भग्गं चंदगुत्तसेण्णं, भयपराहीणं च महावायावधूय-अकालजलयपडलं व झत्ति विलीणं दिसोदिसिं । तं च तारिसं दळूण तुरंगमारूढा एगदिसिं गहाय पणट्ठा चंदगुत्त-चाणक्का । तेसिं च पिट्ठओ लग्गा आसवारा । तओ ‘मा नजीहामो' त्ति तुरंगे मुत्तूण पलायमाणा जाव चडिया सरोवरपालीए ताव पिच्छंति जच्चतुरंगमारूढं पिट्ठओ समागच्छमाणं एगं पुरिसं । तं च दखूण भणिओ चीरपक्खालणवावडो नीरतटट्ठिओरायरयगो चाणक्केण जहा 'अरे रे ! लहुं लहुं पलायसु जओ भग्गं चंदगुत्त-चाणक्केहिं पाडलिउत्तं, गवेसिऊण घेप्पंति य नंदवक्खिया' । तमायण्णिऊण पणट्ठो रयगो। गोविओ चंदगुत्तो पउमिणीसंडमज्झे । अप्पणा य रयगट्ठाणे ठिओ वत्थाणि धोविउमाढत्तो। तओ पुच्छिओ आसवारेण जहा रे ! दिट्ठा कत्थइ चंदगुत्त-चाणक्का ?'। चाणक्केण भणियं ‘ण याणामि चाणक्वं, चंदगुत्तो पुण एस पउमिणीसंडमझे निलुक्को चिट्ठई' । तेण वि णिरूविओ, दिट्ठो य । तओ अप्पिओ तेण चाणक्कस्स अस्सो । तेण भणियं 'बीहामि अहमेयस्स'। तओ झाडे बंधेऊण आसं, मोत्तूण खग्गमेगपासे, जलावयरणणिमित्तं जाव ओगुडिओ मुयइ आउगं ताव खग्गं गहाय चाणक्केण विणिवाइओ । सद्देऊण य, चंदगुत्तं, चडेऊण आसे पलाणा । ‘मा नज्जीहामो'त्ति भएण सो वि तुरंगमो मुक्को । वच्चंतेण य पुच्छिओ चंदगुत्तो चाणक्केण जहा रे ! किं चिंतियं जं वेलं मए सिट्ठो?'। चंदगुत्तेण भणियं ‘एवं चेव मे रज्जं भविस्सइ, अज्जो चेव जाणइ, ण गुरुवयणे वियारणा कायव्वा' । यत उक्तम् मिणगोणसंगुलीहिं गणेहिँ वा दंतचक्कलाइं से । 'इच्छं' ति भाणिऊणं कजं तु त एव जाणंति ।।१५७ ।। कारणविऊ कयाई सेयं कायं वयंति आयरिया । तं तह सद्दहियव्वं भवियव्वं कारणेण तहिं ।।१५८।। जो गेण्हड गुरुवयणं भण्णंतं भावओ विसुद्धमणो । ओसहमिव पिज्जतं तं तस्स सुहावहं होइ ।।१५९।। १. ला० 'यबंधयं ॥ २. ला० यं ॥ ति ॥ ३. ला० तुरंगमे ॥ ४. ला० रतीरडिओ ॥ ५. सं० वा. सु० हा कत्थह(इ) अरे दिट्ठा चंद ॥ ६. ला. जंपियं ॥ ७. सं वा० सु० संपुडम ॥ ८. ला० ण चंद ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् १३७ __तओ णायं जहा 'जोगो एसो ण कहिंचि विपरिणमई' । पुरओ वच्चंताणं छुहाए पीडिओ चंदउत्तो। तं एगत्थ वणगहणे पमुत्तूण भत्ताणयणणिमित्तं जाव पविसई एगत्थ गामे ताव पिच्छइ सम्मुहमागच्छंतं चच्चियसव्वंगं उत्ताणियपोटें एगं बंभणं । तं च दद्दूण पुच्छियं चाणक्केण 'किमत्थि कस्सइ गेहे भोजाइयं ?'। तेण भणियं ‘अत्थि एगस्स जजमाणस्स गेहे पगरणं, तत्थ बंभणाणं जहेच्छाए दिज्जए भोयणं । अवि यदिजइ विविहो कूरो दहिएण करंबिओ जहेच्छाए । अवगणियसत्तु-मित्तं ता वच्च तुमं पि तत्थेव ।४।। अइभत्तो सो दाया भट्टाण विसेसओ अओ वच्च । इण्डिं चेव य भोतुं अहमवि तत्तो समायाओ' ।४१॥ तओ 'मातत्थ पविट्ठ कोइ वियाणिही ता एयस्स चे पोट्टं फोडेऊण अहणोवभुत्तमविणहूँ करंबयं घेत्तूण वच्चामि'त्ति चिंतिऊण तस्स पोट्टं फालिय पुडगं भरित्ता आगओ चंदगुत्तसमीवं । भुंजाविय जहिच्छं चंदगुत्तं पुणो पट्ठिया । ___रयणीए पत्ता एगत्थ सन्निवेसे । तओ तत्थ भिक्खं भममाणा गया एगाए मयहरआभीराए गेहे । इत्थंतरम्मि य तीए णियडिंभरूवाणं उत्तरियमेत्ता चेव परिविट्ठा विलेवी । तओ एगेण अयाणमाणेण बोलेण छूढो तम्मज्झे हत्थो । दड्डो य सो जाव अक्कदइ ताव भणिओ तीए 'पाविट्ठ ! निब्बुद्धिय ! तुम पि चाणक्कवंगलो' त्ति । तओ चाणक्केण नियनामासंकिएण पुच्छिया सा 'अम्मो ! को एस चाणक्को जस्स संतिया तए एवं उवमा दिन्ना ?' । तीए जंपियं "पुत्त ! सुम्मए कोइ चाणक्को, तेण य चंदगुत्तो राया कओ, खंधावारं च काऊण रोहियं पाडलिउत्तं, तओ नंदेण समरं काऊण सचंदगुत्तो विणासिओ, ता मुरुक्खो सो जो एयं पि ण याणइ जहा ‘पढमं पासाणि धिप्पंति, तओ पासेहिं गहिएहिं नगरं गहियमेव भवई', ता पुत्त! एसो वि मम डिंभो तस्समाणो चेव जो रब्बाए पासाणि अघेतूण मज्झे हत्थं छुहई" । तओ ‘बालादपि हितं वाक्यं' इति नीइवक्कं सुमरंतेण अमयमिव गहियं तव्वयणं । ____ गओ हिमवंतकूडं नाम पव्वयं । तत्थ य पव्वयएण सबरराइणा सह कया पीई । भणिओ य सो जहा 'गेण्हामो पाडलिपुत्तं अद्धमद्धेणं च विभइस्सामो रज्जं । तेण वि तहेव पडिवण्णं । तओ महासामग्गीए मंडलंतराणि ओयविंता पत्ता एगत्थ णयरे । रोहियं च । सव्वपयत्तेण य लग्गाण वि न पडइ । तओ चाणको परिव्वायगवेसेण णगरवत्थुणिरिक्खणत्थं पविठ्ठो अन्भिंतरे । दिट्ठाओ य १. सं० वा० सु० णवइ ॥ २. ला० ओ य व ॥ ३. सं० वा० सु० छुहाइ ॥ ४. ला० णे मोत्तूण॥ ५. सं० वा० सु० इताव एगत्थ गामे पि ॥ ६. ला० चच्चिक्कियस ॥ ७. सं० वा० सु० स्स यगे ॥ ८. सं० वा० सु० मा पविटुं तत्थ कोइ ॥ ९. सं० वा० सु० व पिढें ॥ १०. ला० फालिऊण ॥ ११. ला० यहरियाभीरीए॥ १२. ला० बालएण॥ १३. ला० कंदेइ ॥ १४. ला० या ते उव ॥ १५. सं० वा० सु० वाच्यं ॥ १६. ला० महया साम' ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके सुहलग्गपइट्ठियाओं इंदकुमारियाओ। ताणं च पहावेणं ण पडइ तं नगरं । लोगो य आयत्तो पुच्छइ । चाणक्केण मायापवंचणिउणेण जंपियं, अवि य— 1 १३८ भो भो ! एरिसलग्गे इंदस्स कुमारियाओ एयाओ । इह ठाणे ठवियाओ न फिट्टई रोहओ जेण ॥४२॥ लक्खणबलेण एयं मे णायं पच्चओ य इह एसो । अवणिताण य तुब्भं ओसरिही रोहओ किंचि ॥४३॥ अवर्णेति जाव ते वि हु ओसारइ ताव रोहयं किंचि । तो दिट्ठपच्चएणं जणेण मूलाणि वि खयाणि ४४। I एवं च भंजेऊण नगरं गया पाडलिउत्तं । निस्संचारं च रोहिउं ठिया । करेइ य दिणे दि महासंगामं नंदो । एवं च वच्चंतेसु दिणेसुं जाव उवक्खीणो नंदराया ताव मग्गियं धम्मदुवारं । दन्नं च तैहिं जहा ‘एगरहेण जं सक्कसि तं णीणाहि' । तओ नंदराया, 'धिद्धि त्ति रायलच्छी अदीहपेही मुहुत्तरमणीया । परिचइऊणाऽऽढत्ता एगपए दुज्जणसहावा ।।४५।। खणमेत्तं रमणीया होऊण विणा वि कारणं सहसा । खलमहिल व्व विलुट्टा झंड त्ति एसा अहह ! कट्ठे ॥ ४६ ॥ ईय चिंतंतो दो भज्जाओ एवं च कन्नगारयणं पहाणरयणाणि य रहम्मि समारोवेऊण निग्गओ । निग्गच्छंतस्स य सा कण्णया चंदउत्तं पलोयंती नंदेण भणिया 'आ पावे ! मम सव्वं पि रज्जं एएण गहियं तुमं पि एयं चेव पलोयसि ता गच्छसु' त्ति रहाओ उत्तारेऊण मुक्का । चंदगुत्तरहर्म्मि समारुहंतीए भग्गा नव अरया । 'अवसउणो' त्ति मण्णमाणेण निवारिया चंदउत्तेण । चाणक्वेण भणियं “ मा णिवारेहि, 'णवपुरिसजुगाणि तुह रज्जं होहि' त्ति महासउणो एस" । तओ समारूढा एसा कण्णगा । पविट्ठा य ते नगरं । विभत्तं दोहिं विभागेहिं सव्वं । एग य कण्णगा, दोह वि अणुरागो ती उवरिं । तओ चाणक्केण 'सत्तुकण्णया मा सोहणा न भवेस्सइ' त्ति चिंतिऊण भणिओ चंदगुत्तो 'जे भाया तुज्झ एसो, ता एयस्स चेव एसा हवइ' त्ति भणेऊण णिवारिओ चंदगुत्तो । पव्वयगपरिणावणत्थं च समाढत्ता सव्वसामग्गी । अवि य 1 1 उब्भविया वरवेई संठवियं जलणकुंडमइरम्मं । मंगलतूरं विसरं पवज्जियं भरियनहविवरं । ।४७ ।। पज्जालियो य जलो महु - घयसित्तो य विसमजालाहिं । लायंजली उ खित्ता जोइसिएणं खणंद्रे (? णद्धे ) णं ॥ ४८॥ अंधारियं च गगणं तमालदलसामलेण धूमेणं । सुविसुद्धे वि हु लग्गे गणिए, दिव्वण्णभंती ।। ४९ ।। संकंत भूमिसुओ तक्खणम्मि नीयत्थो । एत्थंतरम्मि गहिओ कण्णाई करो णरिदेण ।। ५० ।। १. ला० ओ । ताणं ॥ २. ला० फिट्टए ॥। ३. सं० वा० सु० ते जहा ॥ ४. ला० नीणेहि ॥ ५. ला० इइ चिं ॥ ६. ला० एवं (गं) चकण्णयं पहा ॥ ७ ला० 'ण निग्गच्छं ॥ ८. ला० "म्मिय समा ॥ ९. ० 'ढाक' ॥ १०. सं० वा० सु० सयं । एगा । ११. ला० गा कण्ण ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् जा परियंचइ जलणं राया ता बालियाकरग्गाओ । विसभाविय त्ति काउं घोरविसंरायणो झत्ति ।।५१ ।। संचरियं तत्तो सो विसवेगऽब्भाहओ भणइ एवं। 'अइ भाय! भायवच्छल! मरिजए चंदगुत्त'त्ति ५२। तो विसवेगंणाउं ‘रुभामि विसं ति चंदगुत्तनिवो । जावाणवेइ पुरिसे भिउडिं ताकुणइ चाणको ।।५३। सुमरंतो नीईए वयणमिणं कलुसिओ सचित्तेणं । 'अर्धराज्यहरं मित्रं यो न हन्यात् स हन्यते' ।।५४ ।। णाऊणं तब्भावं मज्झत्थो चेव संठिओ राया । पव्वयगो वि य पंचत्तमुवगओ वेयणकंतो ।।५५।। तओ दोसु वि रज्जेसु चंदगुत्तो चेव राया जाओ । इओ य नंदरायसंतिया पुरिसा चोरियं कुणंति । चाणक्को वि चोरग्गाहमग्गणत्थं परावत्तियवेसो भिक्खं भमइ । तओ पिच्छइ नलदामकुविंदं पडयं वुणमाणं, तस्स य पुत्तो रममाणो मंकोडएहिं खइओ। सो य रडंतो पिउणो णिवेयइ । तेण वि कुद्धेण मुइंगबिलं खणेऊण कारीसं पक्खिविय सव्वे दड्डा । तओ ‘सोहणो एस जयरारक्खो'त्ति ठिओ चाणक्कचित्ते । घरं गएण सद्दावेत्ता ठाविओ तलारपए । तेण वि वीसासेत्ता भणिया सव्वे वि तक्करा जहा 'विलसह संपयं जहिच्छाए अम्ह चेव रज' । तओ अण्णम्मि दिणे सव्वे वि सपुत्तदारा णिमंतिया । भोयणोवविठ्ठाण य दाराई पिहित्ता गेहं पज्जालिऊण उत्थाइया । तओ णगरस्स सुत्थे जाए पुणो वि 'को मज्झ अहिओ ?' ति चिंतंतस्स कप्पडियत्तणे अदिनभिक्खो चडिओ एगो गामे चित्ते । रूसेऊणतस्सोवरिं दिनो गामेल्लगाणं खुद्दाएसो जहा रे ! तुम्ह गामे अंबगा वंसा य संति, ता अंबगे छितूण वंसाण परिक्खेवं करेह' । तओ तेहिं गामेल्लएहिं परमत्थमयाणमाणेहिं नियबुद्धीए ‘अंबगा रक्खणीय त्ति रायाएसो संभावेज्जइ' त्ति परिभावेऊण वंसे छिंदिऊण अंबगाण पागारो कओ । तओ तं विवरीयवयणकरणछिदं लाइऊण सनर-नारि-डिंभरूवचउप्पओ दाराणि पिहित्ता सव्वो पलीविओ गामो । तओ अन्नम्मि दिणे कोसणिरूवणं कुणंतेण दिढं सव्वं सुण्णं भंडागारं । तप्पूरणत्थं च कया कूडपासया । ठावियं च नियपुरिससमेयं दीणारपडिउन्नं सुवण्णमयं थालं । भणइ य सो पुरिसो 'जो ममं जिणइ सो एयं थालं गेण्हइ, अह मया जिप्पइ तो एगं दीणारं देई' । तओ तेण थाललोभेण पभूयलोगो रमइ, न य कोई जिणइ, जओ ते पासया तस्स पुरिसस्स इच्छाए पडंति । चाणक्केण य चिंतियं 'पभूयकालिओ एस उवाओ तो अन्नं उवायं पयट्टेमि' त्ति । ता ‘को उण उवाओ भवेस्सई ?, हुं नायं मजं पाएमि सव्वे कोडुंबिणो जेण णियघरवत्ताए परमत्थं कहंति, जओ १. ला० अइ भाइ ! भाइव' || २. सं० वा० सु० र भृत्यं यो ॥ ३. ला० मक्कोड ॥ ४. ला० ण य त || ५. सं० वा० सु० 'ओ विव' ॥ ६. सं० वा० सु० तो ॥ ७. सं० वा० सु० 'इ? त्ति हुँ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके कुवियस्स आउरस्स य वसणं पत्तस्स रागरत्तस्स । मत्तस्स मरंतस्स य सब्भावा पायडा हुति' ।।५६।। त्ति परिभाविऊण णिमंतिओ कोडुबियलोगो । पाइओ सव्वो वि मज्जं, न य अप्पणा पियइ। तओ जाव सव्वे मत्ता ताव मयपराहीणो व्व तेसिं भावपरिक्खणत्थं जंपिउमाढत्तो, अवि य दो मज्झ धाउरत्ताओ कंचणकुंडिया तिदंडं च । राया मे वसवत्ती, एत्थ वि ता मे होल वाएहि ।।१६० ।। अण्णो असहमाणो भणइ गयपोययस्स मत्तस्स उप्पइयस्स जोयणसहस्सं । पए पए सयसहस्सं, इत्थ वि ता मे होल वाएहि ।।१६१।। अन्नो भणइ तिलआढयस्स उत्तस्स निप्फण्णस्स बहुसइयस्स । तिले तिले सयसहस्सं, इत्थ वि ता मे होल वाएहि ।।१६२।। अन्नो भणइ नवपाउसम्मि पुण्णाएँ गिरिनइयाएँ सिग्यवेगाए । एगाहमहियमित्तेणणवणीएणपालिंबंधामि, इत्थ वितामे होल वाएहि॥१६३॥ अण्णो भणइ जच्चाण णवकिसोराण, तदिवसेण जायमित्ताण । केसेहिं नहं छाएमि, इत्थ वि ता मे होल वाएहि ।।१६४।। अण्णो भणइ दो मज्झ अत्थि रयणाणि, सालपसूई य गद्दभिया य । छिन्ना छिन्ना वि रुहंति, इत्थ वि ता मे होल वाएहि ।।१६५।। अन्नो भणइ सयसुकिलो णिच्चसुयंधो, भज अणुव्वय णत्थि पवासो । - निरिणो य दुपंचसओ, इत्थ वि ता मे होल वाएहि ।।१६६ ।। १-७. सं० वा० सु० वाएह ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् १४१ एवं च तेसिं भावं णाऊण मग्गिया जहोचियं दव्वइत्ता । गोहणइत्तों एगदिवसणवणीयं, आसवई एगदिवसजायतुरंगे, धण्णइत्तो सालिरयणाणि मग्गिओ । एवं भंडागार-कोट्ठागाराणि पडिपुण्णाणि कयाणि । तओ सत्थचित्तो रज्जधुरमणुपालेमाणो चिट्ठइ । अह अण्णया कयाई संजायं महारोरवं दुवालससंवच्छरियं दुब्भिक्खं । अवि यछुहसुसियमयकलेवरसुनिरंतरसंकुलाइ धरणीए । जीवंतयलोगाणं संजाया दुग्गमा मग्गा ॥५७॥ जत्थ य पुरिसाएहिं खजंतं जाणिऊण जणणिवहं । गामाओ गामं पि विन जाइ भयवेविरो लोगो ॥५८॥ जत्थ उ कोइ पुरंधी नियपुत्तं भोयणं विमगंतं । मुत्तूण जाइ अण्णं देसं णियजीयकंखाए ॥५९॥ का वि पुणो णियजीवियलुद्धा अइघोरपावपरिणामा । मोत्तूण कुलं सीलं भक्खइ वावाइउं पुत्तं ॥६०। अन्ना वि सत्तवंता गयजीयस्सावि णिययतणयस्स । अइणेहमोहियमणा वयणे पक्खिवइ आहारं ।६१। अन्ना वि रोवमाणं मगंतं भोयणं तओ कुद्धा । उव्वेइया छुहाए घायं दाऊण णिहणेइ ॥६२॥ जत्थ य भत्ता भजं मुंचइ, भजा वि णिययभत्तारं । जत्थ य भिक्खयरेहिं य लब्भइ किंचि काउं जे ॥६३। साहूण गिहत्थाण य गिहाओ गेहम्मि वच्चमाणाणं । हेजंति गोवियाइँ वि जत्थ डइल्लेहिं भत्ताइं ॥६४। किं बहुणाभणिएणं?, सव्वं असमंजसं तहिं जायं । अइघोरे दुब्भिक्खे पाडलिपुत्तम्मि णयरम्मि।६५। इओ य अणागयमेव णाऊण तत्थ विहारक्कमागएहिं जंघाबलपरिक्खीणेहिं सिरिविजयसूरीहिं तत्थेव वुट्ठावासं काउकामेहिं ठाविओ निययपए अण्णो सूरी । दिन्ना य एगंतठियस्स बहू सायिसओवएसा । पेसिओ सबाल-वुड्डाउलगच्छेण सह अन्नत्थ सुभिक्खदेसे । ___ तत्थ य दुवे खुड्डगा आयरियपडिबंधेण अइदूरं गयाण साहूण कहिंचि दिढिं वंचेत्ता समागया गुरुसमीवं। वंदिया गुरुणो । णिवेइओ णिययाभिप्पायवुत्तंतो । गुरूहि भणियं 'दुङकयं जमागया, जओ इत्थ अमाया-पुत्तं दुब्भिक्खं भविस्सइ, तो वच्चह पुणो वि साहुमज्झे । तेहिं भणियं 'तुम्ह चरणाराहणं कुणंताणं जं होइ तं होउ, जओ न चएमो तुम्ह पायमूलं मोत्तुं' । तओ धरिया सूरीहिं। जाए य पुव्ववण्णिए दुब्भिक्खे जं किंचि सूरिणो मणोजं लहंति तं तेसिं बालगाणं पयच्छंति । तओ चिंतियं खुड्डएहिं ‘ण एवं सुंदरं, जओ गुरुम्मि सीयमाणे का अम्हाणं गई भविस्सइ ?, जओजेण कुलं आयत्तं तं पुरिसं आयरेण रक्खेह। ण हु तुंबम्मि विणढे अरया साहारया हुंति ।६६। १. सं० वा० सु० 'साईहिं, मनुष्यभक्षकैरित्यर्थः ॥ २. ला० का वि पु ॥ ३. ला० ‘वाइयं पु ॥ ४. सं० वा० सु० काउं जं ॥ ५. ला० पाटलि' || ६. ला० वुट्ठवा ॥ ७. सं० वा० सु० य कयएगं ॥ ८. ला० 'साइस ॥ ९. ला० ओ य स ॥ १०. ला० 'भिप्पेय ॥ ११. ला० तो॥ १२. ला० चलणा' || १३. ला० गुरूहिं सीयमाणेहिं का ॥ १४. ला० रक्खाहि ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके विगलीयमयम्मि जरजज्जरम्मि हलंतदंतमुसलम्मि । होइ सणाहं जूहं जूहवइम्मिं धरतम्मि ।। ६७ ।। तो जो अम्हेहिं कुडुंतरिएहिं निसुणिओ अहिणवसूरीण गुरूहिं देज्जमाणो अंजणपओगो तं करेमु' त्ति । परोप्परं संवित्तीए तहेवाऽणुट्ठिओ, सिद्धो य । तेण य अंजणप्पओगेण अदिस्समाणा दो वि गया राइणो चंदउत्तस्स भोयणमंडवं । उवविट्ठा य रण्णो उभयपासेसु । भोत्तूर्ण य णरवइथाले दि दिणे समागच्छंति । राया वि अण्णदिणोव्वरियभत्तप्पमाणे जाए अजिण्णभएण उट्ठविज्जइ विज्जेहिं । एवं च एगजणभत्ते तिहिं जणेहिं भुज्जमाणे अतिप्पमाणो दुब्बलीहोइ चंदउत्तो । तं च तारसं दद्दू भणियं चाणक्वेण, 'किं तुमं पि दुक्कालिओ ? जेण दुब्बलो जाओ' त्ति । चंदगुत्तेण भणियं 'सच्चं, अज्ज ! ण याणामि कारणं, किंतु अहं ण तिप्पामि । चाणक्केण चिंतियं नूनं को विसिद्धो अवंतराओ एयस्साऽऽहारं भक्खेइ, अओ एस ण तिप्पइ' । तओ बीयदि पक्खित्तो संव्वत्थ भोयणमंडवे इट्टालचुण्णो, दिट्ठा य दुण्हं बालवयसाणं पयपंती, णायं च जहा 'दो लहुवयसा सिद्धा समागच्छंति' । अन्नम्मि दिणे भोयणमंडवस्स दुवारा पिहित्ता कओ मज्झे धूमो । तेण य गलियं तल्लोयणाणमंजणं । दिट्ठा य रण्णो उभयपासोवविट्ठा दुवे चेल्लया । तओ चंदगुत्तो 'अहमे हिं विट्टालिओ' त्तिविमणदुम्मणो जाओ । तं च तारिसमवलोइऊण चाणक्केण भणियं, अवि य १४२ रे! किं विमणो जाओ ? अज्जं चिय नूण सुद्धओ तं सि । बालकुमारजईहिं सह भुत्तो जं सि एगत्थ । ६८ । को साहूहिँ समाणं भोत्तुं पावेइ एगथालम्मि ? । ता तं चिय सकयत्थो सुलद्धमिह जीवियं तुज्झ । ६९ । पुणभाई परमपवित्तो तुमं चिय णरिंद ! । लाभा उ ते सुलद्धा जं बालमुणीहि सह जिमिओ ॥ ७० ॥ एए च्चिय सकयत्था जियलोए वज्जिऊण जे भोए । बालत्ते णिक्खंता जिणिदधम्मे जओ भणियं । ७१ । णा हु बालमणि बालत्तणयम्मि गहियसामण्णा । अरसियणिव्विसेसा जेहिँ न दिट्ठो पियवियोगो ॥७२॥ एवमणुसासेऊण चंदउत्तं विसज्जिया चेल्लया । अप्पणा य गओ गुरुसमीवं । भणिया य गुरु 'इब्भं पिसीसा एवं करेंति ता कत्थऽण्णत्थ सोहणं भविस्सइ ?, ता णिवारेज्जह एए' । ओ गुरूहिं भणिओ चाणक्को जहा 'भद्द ! सावगो होऊण अप्पाणं विगोएसि ?, नाममित्तेण चेव तुट्ठो ?, एवंविहपमत्तयाए नित्थरिहिसि संसारं ?, जमेएसिं दुण्हं पि खुड्डगाणं ण वहसि मणिं, ण व कारणेणं साहू अण्णत्थ पेसिया, एए उण वलिऊणाऽऽगया, ता किं इत्तियस्स पावारंभस्स अण्णं ते फलं भविस्सइ ?, उक्तं च १. 'ता' इति सं० वा० सु० प्रतिषु नास्ति ॥ २. ला० निसुओ ॥ ३. सं० वा० सु० सवित्ती ॥ ४. ला० ण ण ॥ ५. ला० णेहिं अ' ॥ ६. ला० समत्थभोय ॥ ७ ला० लाभा हु ते ॥ ८. ला० °ए उज्झिऊण || ९. सं० वा०सु० सिं खुड्डु ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् १४३ जस्स ण जइणो गेण्हंति कह वि जत्तेण जोइयं दाणं । सो किं गिही ? मुहा होइ तस्स घरवासवासंगो ।।१६७।। तथा प(व)ल्लरि पाणिइ नवइं तणि, अण्णु वि अण्णह उप्परि नाडइ । भल्लउ तावहिं जाणियइ, जावहि जलहरु बिंदु न पाडई' ।।१६८।। एयमायण्णिऊण लजिओ चाणक्को । 'इच्छामो अणुसडिं, जं उद्धरिओ अहं निवडमाणो । चोयणवरवहणेणं संसारमहासमुद्दाओ ।७३। फासुयएसणिएणं अहापवत्तेण भत्तपाणेणं । कारेजह अणुदिवसं अणुग्गहं मज्झ गेहम्मि ॥७४॥ खमियव्वं च असेसं जमुवालंभेणखेड्यासामि!' । इय भणिउं चाणक्को गओय निययम्मि गेहम्मि।७५ तत्थ य चिंतिउमाढत्तो 'हंत खुडओ व्व अदिस्समाणो जइ को वि वइरिओ विसं संकामेइ ता न सोहणं होइ, किंच पुव्वं पि विसकण्णगापओगाओ कहिंचि छुट्टो एस राया, तो संपयं तहा करेमि जहा विसप्पओ गाओ न चेव भयं हवई' । त्ति संपहारेऊण सहमाणं सहमाणं भुंजाविओ विसमिस्समाहारं। रण्णो य धारिणी णाम महादेवी । तीसे य पहाणगब्भाणुभावेण समुप्पण्णो दोहलओ, अवि यधण्णाओ कयत्थाओ ताओ जणणीऑ जाओ नरवइणा । भुंजंति एगथाले सहेगसीहासणगयाओ।७६। किं ताण जीविएणं ? विहलं चिय ताण गब्भउव्वहणं । जाओ न रण्णा समयं भुजंती एगथालम्मि ॥७७॥ तओ तम्मि दोहले अपुजमाणे परिदुब्बलंगी संजाया । तारिसिं च दद्दूण पुच्छियं चंदगुत्तरण्णा जहा 'पिए ! किं तुज्झ नेय पुजइ साहीणम्मि वि मए?, किमहवा वि भणिया केणइ किंचि वि दुव्वयणमणज्जकज्जेणं ॥७८।। किं वा वि केणइ तुहं आणाए खंडणं कयं देवि ! ? । कस्स अयंडे कुविओ जमराया अज्ज भो ! सहसा?' ।७९। पडिभणइ धारिणी तो 'नेयाणं होइ देव! एणं पि। गम्भाणुभावजणिओ किंतु महं डोहलो एसो।८०। १. ला० पत्तरि ॥ २. ला० तृणि ॥ ३. ला० मुद्दम्मि ॥ ४. ला० दियहं ॥ ५. ला० खुड्डय व्व॥ ६. ला० वेरिओ।। ७. ला० तारिसियं च ॥ ८. सं० वा० सु० केण य ॥ ९. ला० डे सहसा, जमराया अज परिकविओ ॥ १०. ला० णं देव ! होइ एवं पि ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके जइ नरवइणा सद्धिं अहयं भुंजामि एगथालम्मि' । तो भणइ णिवो चेकृसु वीसत्था, पूरिमो एयं' ।८१। तओ बीयदिणे भोयणोवविठ्ठो पंभणिओ तीए राया एगत्थभोयणं । तेण वि जाव तं तहेव पडिवन्नं। तओ णिवारिओ चाणक्केण जहा ‘मा देहि महुरयभाविओ एस सव्वो वि तुज्झ संतिओ आहारो' । तओ दिणे दिणे मग्गंतीए वि चाणक्कभएणं न देइ राया । अण्णदिणम्मि य अणागच्छंते चाणक्के मग्गिओ एगकवलं । दिण्णो य तेण । तओ जाव तं मुहगयमासाएइ ताव पत्तो चाणक्को। दिट्ठा य पलिसायंती । 'अहो ! अकजं, अहो ! अकजंति भणमाणेण छुरियं गहाय पोट्टे फालेऊण कड्डिओ दारगो । घयाइमझे य धरिऊण पूरियाणि अपुण्णदिणाणि । जणणीए तं कवलं पलिसायंतीए पडिओ तस्स उत्तमंगे एगो बिंदू, तेण तस्स बिंदुसारो चेव णामं कयं । वडिओ देहोवचएण कलाकलावेण य । उवरए य पियरम्मि सो चेव राया जाओ। भणिओ य धावीए जहा 'पुत्त ! सम्मं चाणक्कस्स वट्टेज्जसु' । सो वि तहेव वट्टइ । ___ अण्णया य एगंतसंठिओ भणिओ गंदसंतिएण सुबंधुणा सचिवेण जहा 'देव ! जइ वि अम्हाणमुवरितुब्भे अप्पसाया तहा वि जमेयस्स पट्टस्स हियं तमम्हेहिं विण्णवेयव्वं, तत्थ जो एस चाणक्कमंती सो अईवखुद्दो, जओ एएण देवस्स जणणी आरडंती पोट्टे फालेऊण मारिया, ता तुब्भे वि पयत्तेण अप्पाणं रक्खेजह' । तओ राइणा पुच्छिया अंबधाई जहा 'अंब ! किमेयं सच्चं जं मह जणणी चाणक्केण विणासिया ?'। तीए भणियं 'पुत्त ! सच्चति । तओ कुविओ चाणक्कस्सोवरि राया । आगच्छंतं दद्दूण ठिओ ज्झत्ति परम्मुहो । इयरो वि पिसुणप्पवेसं णाऊण तओ चेव णियत्तेऊण गओ नियगेहं । तत्थ दव्वं सयणवणं च जहोचियं निजोजिऊण एगत्थोवरगे मंजूसामज्झे गंधसमुग्णयं सपत्तयं छोढूण तालयाणि दाऊण णिग्गओ णयराओ । अणसणं गहाय ठिओ कारीसमज्झे इंगिणिमरणेण । इओ य अम्मधाईए भणिओ राया पुत्त ! दुट्ठ कयं जममच्चो परिभूओ, जओ एयसंतियं ते रज पाणा य' । त्ति भणिऊण साहिओ सव्वो वि पुव्वो वइयरो । 'ता खामित्ता सिग्घमाणेहि' । तमाइण्णेऊण राया वि गओ सपरियणो चाणक्कसमीवं । खामेत्ता य भणइ ‘एह पसायं काऊण घरं वच्चामो' । चाणक्केण भणियं 'सव्वं परिचत्तं मए, जओ पडिवण्णमणसणं' । तओ निच्छयं णाऊण खामेत्ता वंदित्ता य गओ बिंदुसारो णिययगेहं । सुबंधुणा वि‘जइ कह वि णियत्तइ ता ममं णिक्कंदं उप्पाडेई' त्ति चिंतिऊण विण्णत्तो राया जहा देव ! चाणक्कस्स संपयं समसत्तु-मित्तभावस्स देवाणुमएण पूयं करेमि ?' । राइणा वि एवं करेह' त्ति भणिए मायाए पूयं काऊण धूवमुप्पाडेऊण वियालवेलाए कारीसमझे इंगालं छोढूण गओ नियगेहे । इयरो वि तेण जलणेण डझंतो सम्मं सहइ । अवि य १. ला० पणइओ ॥ २. सं० वा० सु० झेण धरे' ।। ३. ला० °ए य तं ॥ ४. सं० वा० सु० “माणेह ॥ ५. सं० वा० सु० मम ॥ ६. ला० 'डेय त्ति ॥ ७. सं० वा० सु० गालमं(गं)छो ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् १४५ देहं असुइदुगंधं भरियं बहुपित्त-मुत्त - रुहिराणं । रे जीवे ! इमस्स तुमं मा उवरिं कुणसु पडिबंधं ॥८२॥ पुणं पावं च दुवे वच्च जीवेण णवरि सह एयं । जं पुण इमं सरीरं कत्तो तं चलइ ठाणाओ ? ॥ ८३ ॥ तिरियत्तणम्मि बहुसो पत्तोओ तुमे अणेगवियणाओ । तो ताओ संभरंतो सहसु इमं वेयणं जीव ! ॥८४॥ नरयम्मि वि जीव ! तुमे णाणादुक्खाइँ जाइँ सहियाई । इण्हिं तौइँ सरंतो विसहेज्जसु वेयणं एयं ॥८५॥ किंच— वन चामि हुं पाणेहिं इत्थ जीयसंदेहे । ताव इमं जिणवयणं सरामि सोमं मणं काउं ॥ ८६ ॥ एगो उ जाइ जीवो, मरइ य उप्पज्जई य तह एगो । संसारे भमइ एगो, एगो च्चिय पावए सिद्धिं ॥८७॥ नाणम्मि दंसणम्मि य तह य चरित्तम्मि सासओ अप्पा | अवसेसा दुब्भावा वोसिरिया जावजीवा ॥८८॥ हिंसा - ऽलिय- चोरि मेहुण्ण - परिग्गहे य निसिभत्ते । पच्चक्खामि य संपइ तिविहेणाऽऽहार- पाणीइं ॥ ८९ ॥ जे जति जिणा अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु । ते हं आलोएमो उवड़िओ सम्मभावेणं ॥ ९० ॥ छउमत्थो मूढमणो कित्तियमित्तं च संभरइ जीवो । जं च न सुमरामि अँहं मिच्छा मिह दुक्कडं तस्स ॥९१॥ अण्णं च मज्झ संपइ जुत्तं अप्पहियमेव काउं जे । मरणम्मि समावण्णे तम्हा सुमरामि अरहंते ॥ ९२ ॥ इमो अरहंताणं णमो, णमो तह य सव्वसिद्धाणं । आयरियुज्झायाणं णमो, णमो सव्वसाहूणं ॥ ९३ ॥ एवं सुहपरिणामो चाणक्को पयहिऊण णियदेहं । उववण्णो सुरलोगे विमाणमज्झम्मि तियसवरो ॥९४॥ सुबंधुणा विं पत्थावेण विण्णत्तो राया 'देव ! चाणक्वगिहेण पसाओ कीरउ' । णवणा वि 'ह' त्ति पडिवणे गओ तत्थ । दिट्ठे च तं सव्वं सुण्णं । सम्मं निरूवयंतेण दिट्ठे एगोवरगस्स ढक्कियं दुवारं । 'जं किंचि सारं तमित्थ भविस्सइ' त्ति चिंतंतेण विहाडियं जाव पिच्छाइ मंजूसं । ‘अरे ! पहाणरयणाणि इत्थ भविस्संति' त्ति भित्तूण तालयाणि सा वि उग्घाडिया जाव समुग्गयं मंघमघंतगंधमवलोएइ । 'हुं वइरा इत्थ होहिंति' त्ति परिभावेऊण उग्घाडिओ । पेच्छइ य तत्थ पत्तयं सुगंधिगंधियं । तओ गंधे अग्घाइऊण पत्तयं वाएइ । लिहियं च तत्थ ‘अग्घाइऊण गंधे एैए जो पियइ सीयलं सलिलं । भुंजइ मणोज्जैभुज्जं वरखाइम - साइमं चेव ॥९५॥ जिंघई सुगंधगंधे सुमणस - कप्पूरपभिइए रम्मे । पेच्छइ मणोहराई रूवाइं चित्तमाई ।। ९६ ।। १. सं० वा० सु० व तुमं इमस्स उवरिं मा कु ॥ २. सं० वा० सु० 'त्ता य तुमे ॥ ३. ला० ताय सरं ॥ ४. सं० वा०सु० न मुच्चामि ॥ ५. सं० वा० सु० 'गो वि जाइ ॥ ६. ला० णाणं ।। ७. ला० महं ॥ ८. सं० वा०सु० वि विन्नत्तो पत्थावेणं राया ।। ९. ला० भंतूण ।। १०. ला० 'मघितं गंध' ॥ ११. ला० सुगंधगं ॥ १२. सं० वा० सु० एयं जो ॥। १३. ला० 'जभोजं ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके वीणा-वेणुरवढं कायलगीयाइयं निसामेइ । विलया-तूलि-उवाहणगाई फासे ई सेवेइ ।।९।। किंबहुणा?, पंचण्ह वि विसयाण मणोहरं तु जो विसयं । भुंजइ सो जमगेहं वच्चइ णत्थेत्थ संदेहो ।९८॥ विहियसिरतुंडमुंडणवेसो पंतासणाइकयवित्ती । साहु व्व चिट्ठई सोधरइ जियं, अण्णहा मरई ।।१९।। इय वाइऊण तत्तो चिंतइ मंती सुबंधुणामो सो। धिसि धिसि मह बुद्धीए मएण जो मारिओ तेण ।१००। मइमाहप्पं सो च्चिय चाणक्को धरउ जीवलोगम्मि । जेण मएण वि अहयं जियंतमयगो विणिम्मविओ' इय चिंतिऊण तो सो विण्णासेत्ताअणाहपुरिसम्मि । जीवियलुद्धो धणियं चिट्ठइ वरसाहुकिरियाए।१०२ किंतु अभव्वत्तणओभावविहूणो भवम्मिभीमम्मि । भमिही अणंतकालं विसहतो तिक्खदुक्खाई।१०३। तस्स य बिंदुसारनरवइस्स पुहइतिलयाए देवीए अणुरत्तपत्तनियरो छायासमण्णिओ सुमणोवसोहिओ समाणंदियबहुजणो असोगतरु व्व संजाओ असोगसिरी नाम पुत्तो । सो य जुव्वणत्यो ‘सव्वकलाकुसलो'त्ति णिवेसिओ पिउणा जुवरज्जपए । उवरए पियरम्मि सो चेव मंतिसामंताईहिं अहिसित्तो रज्जे । रज्जधुरं उव्वहंतस्स य समुप्पण्णो कुणालाहिहाणो पुत्तो । बालत्तणे चेव ठाविऊण जुवरायपए ‘उवरयजणणीओ'त्ति सावकमायाभएण पहाणमंति-परियणसमेओ दाऊण उज्जेणिं कुमारभुत्तीए पेसिओ । तओ तत्थ अइसिणेहेण य पइदिणं पेसेइ सहत्थलिहियलेहे । अन्नया य कलागहणजोगं णाऊण कुमारं महंतए उद्दिसिऊण लिहियं लेहम्मि राइणा 'अधीयतां कुमारः' इति । पडिवाइऊण लेहं अणुव्वाणऽ-क्खरं' ति असंवत्तेऊण तत्थ चेव ठाणे मोत्तूण उठ्ठिओ राया सरीरचिंताए । रायपासोवविठ्ठाए य कुमारसक्किजणणीए ‘कस्स राया सव्वायरेण लेहं लिहइ ?' त्ति चिंतिऊण वाइओ । नियपुत्तरजत्थिणीए य दिन्नो अगारस्सोवरि बिंदू, मुक्को तम्मि चेव ठाणे । समागएणं राइणा ‘हत्थमुक्को लेहो पडिवाइओ वि पुणो वि पडिवाइयव्वो'त्ति वयणमसुमरंतेण संवत्तिओ । मुद्दिऊण य दिण्णो लेहवाहयहत्थे । तेण वि गंतूण समप्पिओ कुणालस्स । तेण वि लेहयस्स । सो वायइत्ता ठिओ तुण्हिक्को । कुमारेण भणियं 'किं न वाएसि लेहं ?' | तहा वि न किंचि जंपइ। तओ सयमेव घेत्तूण वाइओ जाव पेच्छइ 'अंधीयतां कुमारः' इति । तओ भणइ ‘अम्ह मोरियवंसे सव्वत्थ अप्पडिहया आणा, ता जइ अहं पि तायस्साऽऽणं लंघेमि ता को अन्नो पालेस्सइ ?, किंच जइ एवं तायस्स पियं तो एवं कीरई' त्ति । तत्तसलायं गहेऊण अंजियाओ दो वि अच्छीओ । इमं च सोऊण महासोगाभिभूएण चिंतियं राइणा__ अन्यथैव विचिन्त्यन्ते पुरुषेण मनोरथाः । देवेनाऽऽहितसद्भावा: कार्याणां गतयोऽन्यथा ॥१०४॥ १. ला० य ॥ २. सं० वा० सु० याइ दे ॥ ३. ला० °ए य पि ॥ ४. ला० 'क्यमा' ॥ ५. ला० ओ । तत्थ ॥ ६. अनुद्वाताक्षरम् अशुष्काक्षरम् ॥ ७. ला० ओ [सरीर चिंता ए राया ॥ ८. ला० ण य रा' ॥ ९. ला० गेण्हिऊण॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् १४७ अण्णह परिचिंतेज्जइ सहरिसकंडुज्जएण हियएण । परिणमइ अण्णह च्चिय कज्जारंभो विहिवसेण । १०५ ता ‘किमंधस्स रज्जेणं’ ?’ति दिण्णो एगो गामो । सव्व(व) क्किपुत्तस्स य दिण्णा कुमारभुत्ती उज्जेणी । कुणालो वि अईवगंधव्वेकलाकुसलो, गंधव्वे चेव पसत्तो चिट्ठइ । इत्थंतरम्मि सो कोसंबीदमगजीवो अज्जसुहत्थिसयासगहियअव्वत्तसामाइयप्पभावाओ समुप्पो तस्स कुणालस्स भज्जाए सरयसिरीए गब्भम्मि पुत्तत्ताए । संजाओ य दोसु मासेसु वइक्कंतेसु जिण-साहुपूँयणाइदोहलो । पूरिओ य जहासत्तीए कुणालेण । पसूया य कालक्कमेण सरयसिरी । वद्धाविओ य दासचेडीए कुणालो पुत्तजम्मेण । तओ 'चुल्लमायाए विहलीकरेमि मोरहे, गिहामि गियरज्जं ति चिंतिऊण निग्गओ गामाओ कुणालो अण्णायचरियाए । गायंतो पत्तो पाडलिपुत्तं । तत्थ वि मंति- सामंताईण गेहेसु गायमाणेण रंजियं सव्वं पि नगरं । भणिउं च पट्टो सव्वलोगो, अवि य— ‘पच्छण्णवेसधारी हाहा-हूहूण को वि अण्णयरो । एसो किंवा वि सयं समागओ तुंबुरू नूणं ? ॥१०६॥ किं वा गंधेव्वेसों ?, किं वावि हु किन्नरो, नरो अहवा ?' । एवं जंपंताणं लोगाणं रायपासम्मि ॥१०७॥ संजाओ उल्लावो कोऊहलपूरिएण तो रण्णा । हक्कारिओ कुणालो गायइ अह जवणियंतरिओ ॥१०८॥ म्हा' पुइपाला नियंति वियालिंदियं नरं नेय' । तम्हा अदूरपासे ठविओ सो जवणियंतरिओ । १०९ । गायंतेण य तेणं धणियं आवज्जिओ धरणिनाहो । भणइ 'वरं वरसु तुमं गंधव्विय ! दिज्जए जेण' । ११० । तओ कुणाले पढियं— चंदगुत्तप्पपुत्तो र्यं बिंदुसारस्स नत्तुओ । असोगसिरिणो पुत्तो अंधो जायइ कागिणिं ।। १११।। राइणा वि णाऊण णियतणयं बाहजलभरभरेज्जमांणलोयणेण अवणेऊण जवणियं णिवेसिओ णियउच्छंगे । भणियं च ' पुत्त ! किमप्पं जाइयं ? ' । तओ मंतीहिं भणियं 'देव ! न एयमप्पं किंतु पभूयं, जओ राईणं रज्जं कागिणी भण्णइ । पिउणा भणियं 'पुत्त ! किमंधस्स रेंज्जेणं ?' ति । तेण भणियं 'ताय ! पुत्तो मे करेस्सइ रज्जं ' । राइणा जंपियं 'कय ते तो सो ?' । भणियं 'संपइ 'ति । तओ राइणा वि संपई चेव णामं यं । वत् दसाहे आणावेऊण णिवेसिओ रज्जे । कालक्कमेण य जाओ पयंडसासणो णरवई । साहियं च अद्धभरहं। ओयविया य बहू अणारियदेसा । १. ला० ण्णा भुत्ती ॥ २. ला० 'व्वपसत्तो चेव चिट्ठइ ॥ ३. ला० पूयाइ ॥ ४. ला० पयत्तो ॥ ५. ला० °धव्वो सो ॥ ६. सं० वा० सु० ओ णरवरिंदो ॥ ७ श्लोकोऽयं बृहत्कल्पभाष्ये २९४ तमः ॥ ८. ला० उ ।। ९. ला० ‘णनयणजुअलेण अव ॥ १०. ला० रज्जेणं तेण ॥। ११. ला० 'या पुत्तो ॥ १२. ला० लवियं 'ताय ! संपइ त्ति ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके अणया य उज्जेणिसंठियस्स णरवइणो जियंतसामिपडिमावंदणणिमित्तं अहासंजमविहारेणं विहरमाणा समागया अज्जसुहत्थिसूरिणो । ते य कयाइ हट्टमग्गेण वच्चमाणा गया दिट्ठिगोयरमोलोयणठियस्स राइणो । दट्ठूण य चिंतियमणेण 'हंत ! कहिंचि मम दिट्ठपुव्व व्व पडिहासंति एए । ‘कत्थ मण्णे दिट्ठपुव्व ?' त्ति ईहापोहसमुब्भूयसंभमवसपरिक्खलमाणमग्गण - गवेसणं कुणमाणो णिवडिओ ओलोयणे । तओ पच्चासण्णपरियणेण सित्तो चंदणरसाइणा, ओ तालविंटवीयणगाईहिं । खणंतरेण य पुव्वजाई सरेऊण उट्ठिओ समाणो गओ सूरिसमवे । वंदिया सूरिणो । भत्तिभरनिब्भरोद्धुसियरोमणिवहेणं पप्फुल्लवयणसयवत्तेणं भालवट्ठणिहियकरकमलेण विण्णत्तं णरवइणा ‘भगवं ! जिणधम्मस्स किं फलं ?' । [ सूरिणा जंपियं] 'सग्गमोक्खा फलं ' । राइणा जंपियं ‘सामाइयस्स किं फलं ?’ । सूरिणा लवियं 'अव्वत्तस्स रज्जाइफलं' । तओ संजायपच्चएण भणियं 'एवेंमेयं, णत्थि संदेहो, परं किमोलक्खह न वा ममं ?' । तओ सूरीहिं सुओवओगं दाऊण भणि 'सुड्डु ओलक्खामो, जओ तुमं कोसंबीए मम सीसो आसि' । तओ सविसेसभत्तिबहुमाणसमुब्भूयसंभमवसपरिक्खलमाणऽक्खर वयणविण्णासेण पुणो वि वंदिया सूरिणो । अवि - 1 १४८ दुक्खत्तजंतुसंताणसुक्खसंदोहदायग ! गुणड्ढ ! । करुणाणीरमहोयहि ! विसिट्ठसुयणाणसंपण्ण! ॥११२॥ मिच्छत्ततिमिरदिणयर ! दप्पियंपरवाइवारणमइंद! । नर-विज्जाहर-सुरनय ! तुज्झ णमो होउ मुणिणाह ! ॥ ११३।। जइ तइया मह करुणं न करेंतो सामि ! तं सि जियजणय ! । तो णिच्छएण अहयं निवडतो दुहसयावत्ते । ११४ । तुह पायपसाएणं अणण्णसरिसं इमं मए रज्जं । पत्तं, ता इहिं पि वि जं कायव्वं तमाइससु ॥११५॥ तओ सूरीहिं भणियं ‘भद्द ! धम्मप्पहावो एस, ता संपयं पि तत्थेव जत्तं कुणसु' । ‘जमाईसंति गुरुपाय'त्ति भणिय गहिओ सावगधम्मो । तप्पभिर्इं च वंदइ जिणिंदबिंबे पूयइ अट्टप्पयारपूयाए । गुरुपज्जुवासणरओ पडिलाहइ समणवरसंघं ।। ११६।। दीणाईणं दाणं देइ जहेच्छाइ कुणइ जीवदयं । पेगरणवण्णियविहिणा कारवइ जिणेंदवरभवणे | ११७ गामा-ऽऽगर-नगराइसु जिणवरभवेणेहिं मंडिया वसुहा उत्तुंगधयवडेहिं तेण कया पुहइणाहेण । ११८ | समणाण सुविहियाणं तेणं सुस्सावएण नरवइणा । पच्वंतियरायाणो सव्वे सद्दाविया सिग्घं ॥ ११९॥ कहिओ य तेसँ धम्मो वित्थरओ गाहिया य सम्मत्तं । अप्पाहिया य बहुसो समणाणं सावगा होह । १२० । अह तत्थेव ठियाणं ताणुज्जेणीइ जिणहरे जत्ता । पारद्धा तीइ रहो विणिग्गओ महविभूईए ॥१२१॥ १. सं० वा० सु० °चि दिट्ठ' ॥ २. ला० 'हावूहमग्गणं (ण) - गवेसणं ॥ ३. सं० वा० सु० 'णा य ( प ) लवि ॥ ४. सं० वा० सु० 'वमेवं ॥ ५. सं० वा० सु० 'सबहुमाण - भत्तिसमु ॥ ६. ला० 'यवरवाइ ।। ७. ला० तुम्ह ।। ८. सं० वा० सु० 'इसइ ॥ ९. प्रस्तुतप्रकरणस्यैव सप्तविंशतितमादारभ्य षट्त्रिंशत्तमं यावत् वृतम्, तत्र वृतदशके वर्णितविधिना इत्यर्थः ॥ १०. ला० यरुवे कार ॥ ११. सं० वा० सु० 'वणेसु मं ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् १४९ अवि य भंम-भेरि-भाणयसद्दाउलु, जयजयसद्दविहियकोलाहलु । काहल-संख-करडसडुब्भडु, पवणोद्धयउदंडसुधयवडु ॥१२२॥ मद्दल-तिलिम-पंडहकयपटुरवु, भवियह विणिहयघोरमहाभवु । वेणु-वीण-सारंगियतारउ, रयणविणिम्मियरूवयसारउ ।।१२३।। कंसालय-कंसियसढुक्कडु, जणसम्म(सेरकयसंकडु । झल्लरिरावभरियगयणंगणु, नच्चिरसिंगारियविविहंगणु ।।१२४ ।। महुरगेजविम्हावियनरगणु, कुसुमोमालिउ नं नंदणवणु ।। उल्लसंतरासयसयसंकुलु, मुहलविलयगेजंतसुमंगलु ।।१२५।। थरि घरि कीरमाणआरत्तिउ, कमिण पडिच्छमाणजणभत्तिउ । इय अणेयअइसइगुणजुत्तउ, संपइरायह गेहि पहुत्तउ ।।१२६ ।। तो नरनाहु चित्ति विहसेविणु, निग्गउ अग्घु महग्घु लएविणु । पूयवि रहु रोमंचियगत्तउ, अणुगच्छइ सामंतिहिँ जुत्तउ ।।१२७।। तओ तमच्चन्भुयभूयं रहमहिमं निएऊण भणिया सव्वे वि सामंता 'जइ मं मण्णह तो तुब्भे वि सरज्जेसु एवं करेह' । तेहिं पि तहेव कयं । अत्राऽर्थे निशीथगाथा: जइ मं जाणह सामि समणाणं पणमहा सुविहियाणं । दव्वेण मे न कजं एवं खु पियं कयं मज्झ ।।१६९।। वीसज्जिया य तेणं गमणं घोसावणं सरजेसु । साहूण सुहविहारा जाया पच्चंतिया देसा ।।१७०।। घोसावणं = अमाघातायुद्धोषणारूपाम् । __ अणुजाणे अणुजाई पुप्फारुहणाइँ उक्किरणगाइं । पूयं च चेइयाणं ते वि सरज्जेसु कारंति ।।१७१।। अनुयानं रथयात्रा । तत्राऽनुयाति स राजा समस्तसामन्तादिपरिवृतः । पुष्पारोहणान्युत्किरणगानि-रथपुरत: पुष्पवृष्ट्यादिरूपाणि । चैत्यपूजां च राजा करोति । तच्च दृष्ट्वा तेऽपि स्वराज्येषु सर्वं कुर्वन्ति। १. सं० वा० सु० पडखु ।। २. ला० 'यहं वि।। ३. सं० वा० सु० "सारंगय || ४. ला. गेयवि' ।। ५. सं० वा० सु० 'मालिय नं ।। ६. ला० उल्ललंत ।। ७. सं० वा० सु० यानं रथयानं रथयात्रा ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण द्वितीय स्थानके ___अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि ठियं संपइराइणो चित्ते जहा ‘पइटेमि अणारियदेसेसु साहूण विहारं' । ति चिंतेऊण भणिया अणारिया 'जहा जहा मम पुरिसा तुब्भे करं मगंति तहा तहा देजह' । तओ पेसिया साहुरूवधारिणो पुरिसा । भणंति य ते जहा 'अम्हं एवंएवं बायालीसदोसविसुद्धवसहि-भत्त-पाण-वत्थ-पत्ताइयं देज्जइ, इमं इमं च अण्णं पढणाइयं कज्जइ, तओ राइणो पियं भवई' । अणारिया वि राइणो तोसणत्थं तहेव सव्वं करेंति । एवं च साहुसामायारीभाविएसु अणारियखित्तेसु विण्णत्ता सूरिणो जहा ‘भयवं ! किमणारिएसु न विहरंति साहुणो ?' । गुरूहिं भणियं 'जओ नाणाई नोवसप्पंति' । रण्णा भणियं 'किं कारणं नोवसप्पंति ?' । सूरीहिं भणियं 'न याणंति ते सामायारिं' । रण्णा जंपियं 'जइ एवं तो पेसह साहुणो, पेच्छह सरूवं' । तओ रण्णो उवरोहेण पेसिया सूरीहिं अणारिएसु कइवि संघाडगा । तओ ते दह्ण रायसंतिया एए बलाहिय'त्ति मण्णमाणा जहासिक्खवियसामायारीए सव्वं पयच्छंति । तओ साहूहिं आगंतूण अजसुहत्थिणोणिवेइयं जहा 'सव्वत्थ सुहविहारो, उस्सप्पंति णांणाईणि' । एवं च संपइराइणा अणारियदेसेसु वि साहूण विहारो पट्टिओ । ते य धम्मसिक्खागहणेण तप्पभिई भद्दगा जाया । भणियं च णिसीहे समणभडभाविएसुं तेसुं देसेसु एसणाईहिं । साहू सुहं विहरिया तेणं ते भद्दगा जाया ।।१७२।। उदिण्णजोहाउलसिद्धसेणो, स पत्थिवो निजियसत्तुसेणो । समंतओ साहुसुहप्पयारे, अकासि अंधे दमिले य घोरे ।।१७३।। कयाइ तेण राइणा पुव्वभवोदरियत्तणं सुमरेऊण कया चउसु वि नयरदुवारेसु महासत्तायारा । तत्थ दिजए अवारियसत्तु-मित्तं महादाणं । उवरियं च महाणसियाणं भवइ । ते रण्णा पुच्छिया 'उव्वरियसेसं कस्स भवइ ?' । तेहिं भणियं देव ! अम्हाणं' । तओ रण्णा ते समाइट्ठा जहा 'तुब्भे तं' साहूणं देजह, अहं तुम्हाणं दव्वं' दाहामि । ते तह'त्ति पंडिवज्जेऊण रायाएसं, तं साहूण दिति। नगरे य भणिओ कंदुइग-नेसत्थिय-दोसियाइओ सव्वो वि लोगो जहा 'जं साहूणं उवगरइ तं सव्वं देजह, अहं भे मोल्लं दाहामि' । तओ लोगो तहा काउमारद्धो । अजसुहत्थिसूरी पुणे एयं जाणमाणो वि सिस्साणुरागेण ण णिवारेइ । । इओ य अज्जमहागिरी विभिण्णोवासए ठिया । तेहिं च चोइया अजसुहत्थिणो जहा १. ला० या य क । २. ला० पयट्टेमि ॥ ३. ला० एवं बायालदोस ॥ ४. सं० वा० सु० इमं च अ' । ५. ला० यारी ए भावि ॥ ६. ला० रनाय भ ॥ ७. ण 'रणो सं॥ ८. ला. 'हत्थीण णि ॥ ९. ला०ति यणा ॥ १०. सं० वा० सु० दिवारि (१ दवावि)जए ॥ ११. ला० पडिच्छिऊण ॥ १२. ला० 'ण जाण ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ सम्प्रतिनृपाख्यानकम् ‘कीस अजो! जाणमाणा वि रायपिंडमणेसणियं च गेण्हह ?' । अजसुहत्थिणा भणियं “जहा राया तहा पय'त्ति रायाणमण्यत्तमाणा एए पयच्छंति" । तओ ‘माइ'त्ति काऊण रुटेहिं अजमहागिरीहिं भणिओ जहा 'अज्जो ! तुम मम अजप्पभिइ विसंभोगो । भणियं चाऽऽगमे सरिकप्पे सरिछंदे तुल्लचरिते विसिट्ठतरए वा । साहूहिँ संथवं कुजा णाणीहिँ चरित्तजुत्तेहिं ।।१७४।। सरिकप्पे सरिछंदे तुल्लचरित्ते विसिट्टतरए वा । आएज भत्त-पाणं सएण लाभेण वा तूसे ।।१७५।। एयं च सोऊण आउट्ठो अजसुहत्थी मिच्छादुक्कडं दाऊण भणइ 'न पुणो एवं काहामि, खमह मह एगावराह' । तओ पुणो वि संभुत्तो । संपइराया वि रजं काऊण विसुद्धं सावगधम्ममणुपालेऊण गओ देवलोगं । सुमाणुसत्ताइकमेण य सिद्धिं पावेस्सइ त्ति । - गतं सम्प्रतिनृपाख्यानकम् । इति वृत्तार्थः ।।३७।। भणितमपूर्वचैत्यनिर्मापणम् । अधुना तस्य परकृतचैत्यानां च यत् कृत्यं तत् प्रकरणोपसंहारं च वृत्तेनाऽऽह देजा दवं मंडलं-गोउलाइं, जिण्णाइँ सिण्णाइँ समारएज्जा । नट्ठाइँ भट्ठाइँ समुद्धरिजा, मोक्खंगमेयं खु महाफलं तिं ।।३८।। 'देज'त्ति दद्यात्=प्रयच्छे त् । ‘दवं'ति द्रव्यं = वित्तम् । ‘मंडल-गोउलाई'ति मंडलानि-जनपदान्, गोकुलानि गोव्रजान् तान्यपि दद्यादिति सम्बन्ध: । 'जिण्णाईति जीर्णानि जर्जरीभूतानि । 'सिण्णाईति खिन्नानि भूस्वेदादिनाऽधिकं दुर्बलीभूतानि । 'समारएज'त्ति समारचयेत् सन्धयेदित्यर्थः । 'नट्ठाईति नष्टानि भूतलसमीभूतानि । भट्ठाइंति भ्रष्टानि तत्प्रदेशस्याऽप्यलक्ष्यतया नाशमुपगतानि । 'समुद्धरिज'त्ति समुद्धरेत्=पुनर्नवीकुर्यात् । यत:= 'मोक्खंग'ति मोक्षाङ्ग निर्वाणाङ्गम् । 'एयंति एतत्पू र्वोक्तम् । 'महाफलंति बृहत्फलमित्यर्थः । इति:-प्रकरणपरिसमाप्ताविति वृत्तार्थः ।३८। श्रीदेवचन्द्राचार्यविरचिते मूलशुद्धिविवरणे द्वितीय स्थानकं विवरणत: समाप्तम् ॥ १. ला० °णुवत ॥ २. इमे गाथे बृहत्कल्पभाष्ये ६४४५-४६ तम्यौ ॥ ३. ला० तुस्से ॥ ४. ता. ति॥ जिणचेइयाणं ति बीयं ठाणं ॥ ५. ला० फलं बृह' ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जिनागमाख्यं तृतीयं स्थानकम् ] व्याख्यातं द्वितीयस्थानकम् । सम्प्रति तृतीयमारभ्यते । अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्ध: पूर्वत्र जिनभवनकृत्यमुक्तम्, तच्चाऽऽगमादेव जायत इति तत्स्थानकं वाच्यम् । तस्य च तन्माहात्म्यख्यापकमादिवृत्तमिदम् देवाहिदेवाण गुणायराणं, तित्थंकराणं वयणं महत्थं । मोत्तूण जंतूण किमत्थि ताणं, असारसंसारदुहाहयाणं ? ।।३९।। 'देवाहिदेवाणंति देवाधिदेवानाम्, देवा:=पुरन्दरादयस्तेषामधिदेवा:-नायका जिनाः, अतस्तेषां सम्बन्धि वचनं मुक्त्वा नाऽन्यत् त्राणमस्तीति सम्बन्धः । 'गुणायराणं'ति गुणाकराणाम्, गुणा:-क्षान्त्यादयस्तेषामाकरा: उत्पत्तिभूमयो गुणाकरा: । यथा ह्याकरेषु यानि वस्तून्युत्पद्यन्ते तानि तेषूच्चीयमानान्यपि न त्रुट्यन्ति, एवं भगवद्गुणा अपि वर्ण्यमाना न निष्ठां यान्तीत्यभिप्राय: । उक्तं च मइ-सुयतुरियतुरंगमसणाहओहीमणोरहरहेण । जस्स गुणत्थुइपंथे अंतं पत्तो न सक्को वि ।।१७६।।. अन्यदेवा अप्येवंविधा भविष्यन्तीत्याशङ्कापनोदार्थमाह-'तित्थंकराणं ति तीर्थकृताम्, तरन्त्यनेन प्राणिन इति तीर्थं द्रव्य-भावभेदाद् द्विधा । तत्र द्रव्यतीर्थं नद्यादिषु समवतारः, न तेनाऽत्राऽधिकारः । भावतीर्थं तु संसारसागरोत्तारणसमर्थं चतुर्विधश्रीश्रमणसङ्घरूपं प्रथमगणधररूपं वा, तत् कुर्वन्तीति तीर्थङ्कराः । अतस्तेषां 'वयणं'ति वचनम् =आगमः । ‘महत्थं'ति महार्थ-प्रभूतवाच्यम् । उक्तं च- । सव्वनईणं जा होज वालुया सागराण जं सलिलं । तत्तो वि अणंतगुणो अत्थो एगस्स सुत्तस्स ।।१७७।। 'मोत्तुं'ति [मोत्तूण त्ति] मुक्त्वा-विमुच्य । 'जंतूण'त्ति जन्तूनां शरीरिणाम् । 'किमत्थि'त्ति किमस्ति?, न किञ्चिदित्यभिप्राय: । 'ताणं ति त्राणं-शरणम् । कथम्भूतानां जन्तूनाम् ? 'असारसंसारदुहाहयाणं'ति असारसंसारदुःखाहतानाम्, असार:=निःसार:, संसार:=चतुर्गतिरूपस्तत्र दुःखम् = अशर्मरूपं तेनाऽऽहतानां पीडितानामिति वृत्तार्थः ।।३९।। जिनवचनमेव त्राणं नाऽन्यदित्युक्तम्, तच्च यथा त्राणं भवतीति तथा सार्धरूपकत्रयेणाऽऽह १. सं० वा० सु० इति स्थान॥ २. सं० वा० सु० त्थंगरा' ॥ ३. ला० ति देवा: पुर" ।। ४. ला० ना निष्ठां न या।। ५. ला० चतुर्वर्ण श्री ॥ ६. सं० वा० सु० °या सव्वउयहिजं तोयं ॥ ७. ला० एत्तो ॥ ८. ला० यः॥ त्राणं ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागममाहात्म्यम् नज्जंति जं तेण जिणा जिणाहिया, भावा मुणिज्जंति चरा -ऽचरं जगं । संसार - सिद्धी तह तग्गुणा-ऽगुणा, तक्कारणाइं च अणेगहा तहा ॥ ४० ॥ धम्मा-धम्मं गम्मा - ऽगम्मं गम्म आगमेणं, कज्जा - sकज्जं पेज्जा - ऽपेज्जं जं च भोज्जं न भोजं । जुत्ता - ऽजुत्तं सारा - सारं मज्झिमा -ऽमज्झिमं च, भक्खा - ऽभक्खं सोक्खा ऽसोक्खं जेण लेक्खति दक्खा । । ४१ ।। सद्धासंवेगमावन्ना भीया दुक्खाण पाणिणो । कुणंता तत्थ वुत्ताइं पावंति परमं पयं ।।४२।। तम्हा सो दुहत्ताणं ताणं सत्ताणमागमो ॥। ४३ पू० ।। ‘नज्जंति’त्ति ज्ञायन्ते=अवबुध्यन्ते । 'जं' ति यत् = यस्मात् । ‘तेणं’ति तेन=आगमेनेति सण्टङ्कः । ‘जिण’त्ति जिना:=तीर्थकरा अतीताऽनागत - वर्तमानाः । तथा 'जिणाहिया भावा मुणिज्जंति' त्ति जिनाहिता:=पारगतप्रतिपादिता: भावा:= जीवादिपदार्था औदयिकादयो वा, मुण्यन्ते= अवगम्यन्ते । 'चराऽचरं जगं ति चरा -ऽचरंत्रस - स्थावररूपम्, जगत्= त्रैलोक्यम्, तेनैव ज्ञायत इति योग: । 'संसारसिद्धि' त्ति संसार - सिद्धी = भव-‍ - मोक्षौ । तत्र संसार: = चतुर्गतिरूप:, उक्तं च— संसरणं संसारो सुर-नर- तिरि - नरयगइचउक्कम्मि । सिद्धिश्च=अष्टप्रकारकर्ममलरहितजीवस्वरूपावस्थानम् । उक्तं च १५३ मोक्खो उ कम्ममलवज्जियस्स जीवस्सऽवत्थाणं ।। १७८ ।। 'तह तग्गुणा - sगुण' त्ति तथा यथासम्भवं तद्गुणा-गुणौ । संसारस्याऽगुणाः = दुःखफलत्वादयः । उक्तं च दुक्खफ (फ) ले दुहायाणे दुक्खरू दुहाये । अहह ! वण्णेज्जमाणे वि लोमुद्धोसकरे भवे ।।१७९।। सिद्धेश्च गुणाः = अनन्तानन्द्र - सौख्यादयः । उक्तं च न वि अत्थि माणुसाणं तं सोक्खं नेय सव्वदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अव्वाबाहं उवगयाणं । । १८० ।। १. ला० लक्खिति । ता० लक्खेंति । २. ला० पाविंति ॥ ३. सं० वा० सु० 'ष्टकर्म ॥ ४. सं० वा० सु० दुहहफलदुहा ॥ ५. रोमोद्धर्षकाराः ॥ ६. ला० क्खं न वियस ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके सुरगणसुहं समग्गं सव्वऽद्धापिंडियं अणंतगुणं । न वि पावइ मुत्तिसुहं णताहि वि वग्गवग्गूहिं ।।१८१।। सिद्धस्स सुहो रासी सव्वऽद्धापिंडिओ जइ हवेजा । सो गंतवग्गभइओ सव्वागासे न माइजा ।।१८२।। (आव० नि० गा०९८०-९८२) 'तक्कारणाइं च अणेगह'त्ति तत्कारणानि च संसार-सिद्ध्योर्निमित्तानि, मिथ्यात्वादीनि संसारस्य, ज्ञानादीनि च सिद्धेः, अनेकधा अनेकप्रकाराणि, अनेकप्रकारैर्वा सूक्ष्म-सूक्ष्मतरभेदभिन्नैः । ज्ञायन्ते इति क्रिया सर्वत्र योजनीया । 'तहत्ति तथाशब्द उत्तरवृत्तसम्बन्धनार्थ इति वृत्तार्थः ।।४०।। __'धम्मा-ऽधम्मति धर्मश्चाऽधर्मश्च धर्मा-ऽधर्मम् । एवमग्रेतनपदेष्वपि समाहारो वाच्यः । तत्र धर्मा-ऽधर्मों लौकिक-लोकोत्तरभेदाद् द्विविधौ । लौकिकधर्मो ग्रामधर्मादिः । स च कथानकादवसेयः। तच्चेदम् । [२०. नागदत्तकौटुम्बिककथानकम्] अत्थि इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे लाडदेसे धन्नपूरयं नाम गामं । तत्थ कोडुंबिया न समुदायधम्मेण वद॒ति । ताण य मज्झे णागदत्तो णाम कोडुंबिओ । तेण य ते सिक्खविया जहा “न जुज्जए तुम्हाणं विसंहई काउं, यत उक्तं नीतिशास्त्रे संहतिः श्रेयसी पुंसां स्वपक्षे तु विशेषतः । तुरैरपि परित्यक्ता न प्ररोहन्ति तण्डुलाः ।।१८३।। न य विसंहयाणं रायकुले वि गयाणं पओयणं सिज्झइ, कुंढेहि य भक्खिजइ, ता मा विपडिवत्तिं कुणह" । न पडिवन्नं च तेहिं तव्वयणं । विसंहयं च णाऊण राय-कुंढ-भट्टपुत्ताइएहिं उवद्दविउमाढत्तो सो गामो । तारिसं च दद्दूण सो नागदत्तो निरुवद्दवनिवासनिरूवणत्थं सगडियाए आरोहेऊण गओ रंधेञ्जयं नाम गामं । जाव य तत्थ पहुत्तो ताव पेच्छइ नियपओयणेणेव केणवि उक्कुरुडिओवरि अत्थाइयामंडवे निविटे सव्वे गामगोहे । तओ तेण 'अहो ! सोहणं जायं जमेगस्थ मिलिया चेव सव्वे गामपुरिसा उवलद्ध'त्ति चिंतिऊण ताण पुरओ चेव उज्जुत्तेऊण मुक्का सगडी। काऊण य उचियपडिवत्तिं उवविठ्ठो तप्पुरओ, विण्णत्तं च जहा 'अहमेत्थ तुम्ह गामे वसिउं इच्छामि, जइ तुब्भे गुणे पयच्छह । तेहि वि गुणे दाऊण भणिओ 'सिग्घमागच्छाहिं'। तओ उठेऊण जाव १. ला० द्विधा ॥ २. ला० 'वेभार ॥ ३. सं० वा० सु० धण्णपुरयं ॥ ४. ला० गामो ॥ ५. ला० 'हइं च ।। ६. ला० 'कुंढपुत्ता ॥ ७. ला० 'वनियनिवा' ॥ ८. सं० वा० सु० गंधेजयं ना ॥ ला० रंधइजं ना ॥ ९. ला० णइ उक्कु ॥ १०. ला० उजोत्तिऊण ॥ ११. ला० 'क्का गड्डी । का ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागदत्तकौटुम्बिककथानकम् १५५ सगडिं जोत्तेइ ताव न पेच्छइ सगडीए एगं चक्कं । भणिया य तेण गामवरा जहा 'अवहडं मम सगडीओ केणावि एगं चक्कं, ता कहं गच्छामि ?' । तओ तेहिं एगवक्कयाए भणियं जहा ‘एगचक्केण चेवाऽऽगया एसा'। तेण भणियं 'कहमेगचक्केण गड्डी समागच्छइ ?, किंच मए आगच्छमाणेण सयमेव ओवंगेऊण जंतिया' । तेहिं भणियं 'दीसइ चेवेसा जंतिया, परं चक्कं विणा जंतिया, जओ अम्हेहिमेवं चेवाऽऽगच्छमाणा, दिट्ठ त्ति, ता भंतिओ तुम, जइ अम्हाणं न पत्तियसि ता पुच्छ एयाणि तुहागमणमग्गतडट्ठियाणि डिंभरूवाणि' । पुच्छियाणि तेण । तेहि वि तं चेव सिटुं । तओ तेण 'कहमेत्तिया मिच्छावाइणो भविस्संति ?, ता अहं चेव भंतिओ भविस्सामि'त्ति चिंतिऊण जोत्तिया सगडी । आरुहिऊण खेडिया बइल्ला । तओ तेहिं सद्देऊण भणिओ जहा ‘भद्द ! बालो वि एवं वियाणइ न एगचक्केण गड्डी वहइ, किंतु तुह विन्नत्तिवाउलस्स अम्ह मज्झाओ एगेण, चक्कमवहरिऊण तह चेव जंतिया, दिटुं च सव्वमेयमम्हेहिं, परमम्हाणमेस गामधम्मो जं एगेण सुंदरमसुंदरं वा कयं तं सव्वेहिं सबालवुड्डेहिं तहेव पडिपूरेयव्वं, ता जइ एएण गामधम्मेण सपुत्तदारो णिव्वहसि तो आगच्छाहि नऽनह' त्ति । तओ तेण हरिसियचित्तेण पडिवण्णमागमणं । तेहिं भणियं 'जइ एवं तो भण किं ते साहेजं करेमो ?' । तेण भणियं 'सव्वमक्खूणं मम, किंतु अप्पेह चक्कं जेण गंतूणाऽऽगच्छामि' । अप्पियं तेहिं चक्कं । गओ सो नियगेहं । काऊण य सह पुत्तकलत्तेहिं एगवक्कयं आगंतूण वसिओ तत्थ गामि त्ति । [नागदत्तकौटुम्बिककथानकं समाप्तम् २०] ईदृग् लौकिको धर्मस्तद्विपरीतस्त्वधर्मः । लोकोत्तरस्तु धर्मो यतीनाश्रित्य श्रुत-चारित्ररूप: सर्वतः, श्रावकांस्त्वङ्गीकृत्य स एव देशत:, अधर्मस्तूभयोरपि हिंसादिकः । 'गम्मा-ऽगम्मति गम्याऽगम्यम् । तत्र गम्यं लौकिकं स्वकलत्रादि, अगम्यं भगिन्यादि । लोकोत्तरं यतीनां गम्यमार्यक्षेत्रादि, अगम्यमनार्यविषयादिः, श्राद्धानां तु गम्यं स्वभार्यादि, अगम्यं परकलत्रादि । 'गम्मइ' त्ति गम्यते ज्ञायते, ‘सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थाः' इति वचनात् । ‘आगमेणं'ति आगमेन अर्हत्सिद्धान्तेन । 'कज्जा-ऽकजं'ति कार्या-ऽकार्यम् । लौकिकं कार्यमविरुद्धवाणिज्यादि, अकार्यं कूटतुलाकूटमानादि । लोकोत्तरं साधूनां कार्यं सदनुष्ठानादि, अकार्यं समाचारीविलोपादि; श्रावकाणां कार्य चैत्यपूजादि, अकार्यं लोकविरुद्धासेवनादि । 'पेज्जा-ऽपेजति पेया-ऽपेयम् । लौकिकं पेयं दुग्धादि, अपेयं रुधिरादि । लोकोत्तरं पेयं साधूनां प्राशुकैषणीयसौवीरादि, अपेयमप्कायादि; देशविरतानां पेयमुदकादि, अपेयं मद्यादि । 'जं च भोजं न भोजति चकारस्य व्यवहितसम्बन्धाद् यद्भोज्यं यच्च १. सं० वा० सु० गंडी । सु० गंती ॥ २. सं० वा० सु० उवंगेऊण ॥ ३. ला० "णि य ते ॥ ४. ला० वुहाऊलेहिं ॥ ५. ला० °यं च ते ॥ ६. सं० वा० सु० लत्तेण य ए॥ ७. ला० °चारित्र्यरूपः ॥ ८. ला० 'कांश्चाङ्गी ॥ ९. सं० वा० सु० 'गमेण त्ति ॥ १०. ला० त्तरं साधूनां पेयं ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके न भोज्यम् । तत्र भोज्यं लौकिकमोदनादि, न भोज्यं गोमांसादि । लोकोत्तरं भोज्यं यतीनामेषणीयपिण्डादि, न भोज्यं तदेवाऽनेषणीयादि, विरता ऽविरतानां तु भोज्यमसंसक्तभक्तादि, न भोज्यमनन्तकायादि । ‘जुत्ता - ऽजुतं' ति युक्ता - ऽयुक्तम् । लौकिकं युक्तमभ्यागतागतप्रतिपत्त्यादि, अयुक्तं परद्रोहादि । लोकोत्तरं युक्तं व्रतिनां परोपकारकरणादि, अयुक्तं सिद्धान्तार्थगूहनादि, श्राद्धानां तु युक्तं यतिपर्युपासनादि, अयुक्तं पाषण्डिकोपसेवादि । 'सारा - सारं 'ति सारा - ऽसारम् । लौकिकं सारं वज्र-गोशीर्ष-चन्दन-स्रग-ऽङ्गनादि, असारं खरोपलैरण्डकाष्ठ-कंण्डकादि । लोकोत्तरं सारं मुनीनां नवब्रह्मचर्य गुप्तिसनाथब्रह्मचर्य परिपालनादि, असारं तस्यैवातिक्रम-व्यतिक्रमा - ऽतिचाराऽनाचारादिदोषैर्मलिनीकरणादि; श्रावकाणां सारं सर्वविरतिलालसपरिणामादि, असारं प्रमादादि । 'मज्झिमा - ऽमज्झिमं' ति मध्या - sमध्यम् । तत्र मध्यमुभयपक्षेऽपि सारा - ऽसारमध्यवर्ति, अमध्यं तु सारा ऽसारमेव । 'भक्खा - ऽभक्ख' ति भक्ष्या- भक्ष्यम् । लौकिकं भक्ष्यं मोदक - नालिकेरादि, अभक्ष्यं किम्पाकफलादि । लोकोत्तरं भक्ष्यं यतीनां तदेवैषणीयादि, अभक्ष्यमप्राशुकादि, श्रावकाणामपि भक्ष्यं तदेवाविरुद्धम्, अभक्ष्यं भटित्रीकृतफलादि । 'सोक्खा - सोक्खं 'ति सौख्या - ऽसौख्यम् । लौकिकं सौख्यं विषयसुखादि, असौख्यं तदप्राप्त्यादि । लोकोत्तरं सौख्यं संयतानां व्रतपर्यायधृत्यादि, असौख्यं तत्रैवारत्यादि । उक्तं च १५६ देवलोगसमाणो उ परियाओ महेसिणं । रयाणं, अरयाणं च महानरयसालिसो । । १८४ । । (दश० प्र० चू० गा १०) श्रावकाणां सौख्यं पौषधानुष्ठानकरणादि, असौख्यं शङ्का - काङ्खाद्याकुलितचित्ताि उभयोरपि सौख्यं मोक्षः, असौख्यं संसारः । ' जेण' त्ति येन = आगमेन । ' लक्खंति' त्ति लक्षयन्ति= निश्चिन्वन्ति । ‘दक्ख’त्ति दक्षा:- पण्डिता इति वृत्तार्थ: ।।४१।। ततश्च-‘सद्धासंवेगं’ति श्रद्धासंवेगः, श्रद्धया = संयमानुष्ठानकरणरूपया, संवेग := सांसारिकसुखे दुःखाभिप्राय:, अतस्तम् । 'आवरण' त्ति आपन्नाः = प्राप्ताः । 'भीय'त्ति भीता: = चकिताः । ‘दुक्खाणं’ति दुःखानां=शारीरिक-मानसिकबाधारूपाणाम् । 'पाणिणो 'त्ति प्राणिनः = जन्तवः । 'कुणंत'त्ति कुर्वन्तः=विदधानाः । ' तत्थ वुत्ताइं 'ति तत्र = आगमे, उक्तानि = कथिता । 'प परमं ति प्राप्नुवन्ति = लभन्ते, परमं प्रकृष्टम् । 'पयं' ति पदं स्थानमिति श्लोकार्थ: ।। ४२ ।। निगमनमाह-‘तम्ह’त्ति तस्मात् । ' एसो 'त्ति एषः = प्रत्यक्ष: । ' दुहत्ताणं' ति दुःखार्तानां = दुःखपीडितानाम् । 'ताणं 'ति त्राणं = शरणम् । 'सत्ताणं ' ति सत्त्वानां = प्राणिनाम् । 'आगमो 'त्ति १. ला० कण्टका ॥ २. ला० 'चारदो ॥ ३. ला० 'यसारियो । ४. सं० वा० सु० 'कव्याधिरू || ५. ला० 'नि 'पाविति' [त्ति ] प्राप्नुवन्ति लभन्ते, 'परमं ति परमम् ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागममाहात्म्यम् : - सिद्धान्त इति श्लोकार्थार्थः ॥ ४३ पू० ॥ न केवलं त्राणम्, आलम्बनमप्यसौ । यत आह श्लोकस्योत्तरार्धम् — आगम: = भवकूवे पडंताणं एसो आलंबणं परं ।। ४३ ।। भवकूंपे= संसारावटे । पततां = निमज्जताम् । एषः =आगमः । आलम्बनम् = अवष्टम्भनमुद्धरणरज्जुरित्यर्थः । परं = प्रधानमिति श्लोकोत्तरार्धार्थः । । ४३ ।। साम्प्रतमागमस्य नाथ-बन्धुत्वे एकश्लोकेनाऽऽह— एसो णाहो अणाहाणं सव्वभूयाण भावओ । भावबंधू इमो चेव सव्वसोक्खाण कारणं ।।४४।। एष ‘नाथः’ नायकः । 'अनाथानाम्' अस्वामिकानाम् । केषाम् ? ' सर्वभूतानां' नि:शेषजन्तूनाम् । ‘भावतः' परमार्थतः । यथा हि स्वामी समाश्रितान् रक्षति एवमसावप्यहिंसाप्रतिपादनपरवाक्योपदेशतः सर्वजन्तून् रक्षति । तथा 'भावबन्धुः' परमार्थभ्राता । 'इमो चैवत्ति एष एव । 'सर्वसौख्यानां' समस्तनिर्वृतीनाम् । 'कारणं' हेतुः । तथा हि ज बंधू वरसिक्खं वियरंतो सोक्खकारणं होइ । तह आगमो वि सिवसुहहेऊ नाणाइदाणाओ ।। १८५ ।। इति लोकार्थ: ।। ४४ ।। अधुनाऽऽगमस्यैव दीपरूपतां श्लोकेन प्रतिपादयति १५७ अंधयारे दुरुत्तारे घोरे संसारचारए । एसो चेव महादीवो लोया - लोयावलोयणो ।। ४५ ।। 'अन्धकारे' तमोबहुले । 'दुरुतारे' कष्टनिर्गमे । 'घोरे' रौद्रे । 'संसारचारके' भवगुप्तिगृहे । एष चैव महादीप:, ‘लोका - ऽलोकावलोकन: ' निःशेषपदार्थप्रदर्शकः । इति श्लोकार्थः ।।४५।। आगमश्चक्षुर्भूत इति लोकेनाऽऽह जेणं सग्गा - ऽपवग्गाणं मग्गं दाएइ देहिणं । चक्खुभूओ इमो तेणं सव्वेसिं भव्वपाणिणं । ।४६।। १. सं० वा०सु० 'कूवे ॥ २. ला० °तानाम् । भावतः ॥ ३. सं० वा० सु० 'व' एव ॥ ४. ता० 'लोयऽव' ॥ ५. ला० 'दार्थदर्श ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके 'जेणं'ति येन कारणेन । 'स्वर्गा-ऽपवर्गाणां' देवलोक-मोक्षाणां 'मार्ग' पन्थानं ज्ञान-दर्शनचारित्ररूपम्। 'दाएई'त्ति दर्शयति । ‘देहिनां' प्राणिनाम् । 'चक्षुर्भूतः' दृष्टिकल्प: । ‘इमो' अयम्। 'तेणं'ति तेन कारणेन । 'सर्वेषां' समस्तानाम् । 'भव्यप्राणिनां मुक्तिगमनयोग्यजन्तूनाम्, यस्माद् अभव्यानामयमपि न सन्मार्गदर्शको जायतेऽतो भव्यानामित्युक्तम् । इति श्लोकार्थः ॥४६॥ सम्प्रति जननी-जनकरूपतामस्य श्लोकेनाऽऽह आगमो चेव जीवाणं जणणी णेहणिब्भरा ।। जोग-खेमंकरो निच्चं आगमो जेणगो तहा ।।४७।। आगमश्चैव जीवानां 'जननी' माता 'स्नेहनिर्भरा' अञ्जसाऽऽपूर्णा । तथा हि पालण-पोसण-परिवद्धणाइ पुत्ताण कुणइ जह माया । तह एसो जीवाणं करेइ जिणभणियसिद्धंतो ।।१८६ ।। 'जोग-खेमंकरो'त्ति तत्राऽभिनवस्योपार्जनं योगः, पूर्वोपार्जितस्य च रक्षणं क्षेमम्, ते करोतीति योग-क्षेमकर: । 'नित्यं' सदा । आगमो ‘जनकः' पिता । तथा तेनैव प्रकारेण । तथा हि पुव्वोवज्जियगुणरक्खणाओ अप्पुव्वकरणओ चेव । सिद्धंतो जीवाणं जणगो व सजोग-खेमकरो ।।१८७।। इति श्लोकार्थः ।।४७।। इदानीं सार्थवाहत्वमस्योपदर्शयन् श्लोकमाह राग-होस-कसायाइदुट्ठसावयसंकुले । एसो संसारकंतारे सत्थाहो मग्गदेसओ ।।४८।। राग-द्वेषौ प्रीत्यप्रीतिस्वभावौ, कषायाः क्रोध-मान-माया-लोभाः, ते आदिर्येषां महामोहादीनां ते तदादयः, त एव दुष्टश्चापदा:-रौद्रसिंह-व्याघ्रादयस्तैः संकुले व्याप्ते । एष 'संसारकान्तारे' भवारण्ये । 'सार्थवाहः' सार्थनायकः । मार्गदेशक:-वर्तनीप्रदर्शकः, तथा हि जह निरुवहयं मग्गं सत्थाहो तग्गुणे वियाणंतो । देसेइ सत्थियाणं कंतारे सावयाइण्णे ।।१८८।। तह जीवाणं बहुविहआवयसयसंकुलम्मि भवगहणे । णाणाईणिरुवहयं मग्गं दंसेइ जिणसमओ ।।१८९।। १. सं० वा० सु० 'इ' दर्श ॥ २. ला० ता० जोग-क्खेमं ॥ ३. ला० ता० °णओत" || ४. सं० वा० सु० व जननी माता जीवानां ॥ ५. सं० वा० सु० तं क ॥ ६. ला० °णउ व्व सुजोग' ॥ ७. ला० वइस॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ जिनागममाहात्म्यम् इति श्लोकार्थः ।।४८।। सम्प्रति हस्तालम्बकपुरुषत्वमस्य श्लोकेनाऽऽह सारीर-माणसाणेयदुक्ख-कुग्गाहांगरे । बुडुंताणं इमो झत्ति हत्थालंबं पयच्छेइ ।।४९।। 'शारीर-मानसानेकदुःख-कुग्राहसागरे' शरीरे भवानि शारीराणि शस्त्राभिघात-रोगाद्युद्भवानि, मनसि भवानि मानसानि राग-द्वेषा-चिन्ताजानि, अनेकानि-प्रचुराणि, दुःखानि पीडा:, कुग्राहा:-मिथ्याभिनिवेशाः, त एव सागर: समुद्रः शारीर-मानसानेकदुःख-कुग्राहसागरः तस्मिन् । 'बुढताणं'ति ब्रुडतां-निमजताम् । ‘इमो' अयम् । ‘झगिति' शीघ्रम् । हस्तालम्बमिव 'हस्तालम्बं' सामर्थ्यात् तन्निस्तरणोपायं सम्यक्त्वादि । प्रयच्छति ददाति । तथा हि जह सागरे पडतं हत्थालंबेण को वि उद्धरइ । दुहसागरे पडतं जिणसिद्धंतो तहुद्धरई ।।१९०।। इति श्लोकार्थः ।।४९।। इदानीं भाण्डागारतामस्य श्लोकेनाऽऽह महाविजासहस्साणं महामंताणमागमो । भूइट्ठाणं सुदिट्ठाणं एसो कोसो सुहावहो ।।५०।। महाविद्या:-प्रज्ञप्ति-रोहिणिप्रमुखस्त्रीसमधिष्ठिता: साधनविधि-युक्ता वाऽक्षरपङ्कयस्तासां सहस्रा: दशशतात्मकास्तेषाम् । 'महामन्त्राणां' चेटकादिपुरुषाधिष्ठितानां साधनविधिविकलानां वा वर्णसन्दर्भाणाम् । उक्तं च इत्थी विजाऽभिहिया पुरिसो मंतो त्ति तव्विसेसोऽयं । विज्जा ससाहणा वा साहणरहियो भवे मंतो ॥१९१ ।। (आव० नि० गा० ९३१) 'आगमः' सिद्धान्तः । 'भूयिष्ठानां' प्रभूतानाम् । ‘सुदृष्टानां' सातिशयानाम् । एष ‘कोश:' भाण्डागारम्। 'सुखावहः' सुखकृत् । अन्यदर्शनसिद्धान्तेष्वपि महाविद्यादयो दृश्यन्त इति चेत् । तन्न, तेषामित एवोद्धृतत्वात् । उक्तं च सिद्धसेनदिवाकरेण- . सुनिश्चितं नः परतन्त्रसूक्तिषु, स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तसम्पदः । तथैव ताः पूर्वमहार्णवोद्धता, जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविपुषः ।।१९२।। १. ला० ता० सायरे ॥ २. सं० वा० सु० च्छई ॥ ३. ला० शरीरभवा ।। ४. ला० ‘जातानि, अने ॥ ५. सं० वा० सु० ‘इ ॥ इदानीं ॥ ६. पु० ण आग ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके ___ इति श्लोकार्थः ।।५०।। चिन्तामणिरप्यसाविति श्लोकार्थमाह चिंताईयं फलं देइ एसो चिंतामणी परो ।।५१ पू०।। 'चिन्तातीतं' चिन्तातिक्रान्तम् । ‘फलं' कार्यम् । 'देई' त्ति ददाति । एष 'चिन्तामणिः' चिन्तारत्नम्। 'व(प)र:' प्रधान: चिन्तातीतफलदायकत्वादेव ।।५१ पू०।। कियद्वा शृङ्गग्राहं भणिष्यामि ? इति समस्तादेशसङ्ग्रहार्थं श्लोकोत्तरार्धमाह मण्णे तं नत्थि जं नत्थ इत्थ तित्थंकरागमे ।।५१।। मन्ये' इत्याऽऽप्तवादसंसूचकः । अवधारणस्य गम्यमानत्वात् तद् नास्त्येव यद् अत्र-जिनागमे नाऽस्तीति श्लोकार्थः ।।५१।।। आगमादरवता यत् कृतं भवति तच्छ्लोकेनाऽऽह आगमं आयरंतेणअत्तणो हियकंखिणा । तित्थणाहो गुरू धम्मो ते सव्वे बहुमण्णिया ।।५२।। आगमम् 'आद्रियमाणेन' प्रमाणीकुर्वता । कथम्भूतेन (?केन) ? जन्तुनेति गम्यते । 'आत्मनः' स्वस्य । 'हितकाङ्क्षिणा' श्रेयोर्थिना । 'तीर्थ नाथः' अर्हन् । 'गुरुः' यथावस्थितशास्त्रार्थवेदी । 'धर्मः' दुर्गतिप्रपतदङ्गिगणधारकः । 'ते' पूर्वोक्ता: । 'सर्वे' समस्ताः । 'बहुमता:' गौरव्या: । कृता भवन्तीति क्रियाध्याहारः। इति श्लोकार्थः ।।५२।। तद्बहुमानवता यत् कृतं भवति तच्छ्लोकेनाऽऽह बहुमाणेण एयम्मि नत्थि तं जं न मन्नियं । तेलोक्के मन्नणेजाणं वुत्तो ठाणं जओ इमो ।।५३।। 'बहुमानेन' आन्तरप्रीतिविशेषेण । 'एयम्मि' एतस्मिन्नागमे । 'नास्ति' न विद्यते । तद् यद् न 'मतम्' आदृतम् । 'त्रैलोक्ये' जगति । माननीयानां 'व्युक्तः' प्रतिपादित: । 'स्थानम्' =आश्रय:। 'जओ'तियत: यस्मात् कारणात् । ‘इमो'त्ति अयं सिद्धान्तः । इति श्लोकार्थः ।।५३।। किश्चाऽऽगमस्यैव प्रमाणतामुपदर्शयन् श्लोकमाह १. ला० 'त्थि एत्थं ति ता० "त्थि मेत्थं ति ॥ २. सं० वा० सु० 'मण्णे इ° ॥ ३. ला० तदाह श्लोकेन । ४. ता० णमत्त ॥ ५. ला० ता हि यत् ॥ ६. ला० ता० णमेय ॥ ७. सं० वा० सु० ति यस्मा' ॥ ८. ला० र्थः ॥५३॥ जिनागमस्यैव ॥ ९. ला० ‘णतां प्रदर्श॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागममाहात्म्यम् १६१ न यागमं पमोत्तूणमन्नं मण्णंति सूरिणो । पमाणं धम्ममग्गम्मि दिद्वंतं बेंति केवली ।।५४।। 'न च' नैव । आगमं प्रमुच्य-परित्यज्य । 'अन्यद्' एतद्व्यतिरिक्तम् । ‘मन्यन्ते' प्रमाणीकुर्वन्ति । ‘सूरयः' पण्डिता आचार्या वा । 'प्रमाणं' साधकम् । ‘धर्ममार्गे' धर्मविचारे । अत्राऽर्थे 'दृष्टान्तं' निदर्शनम्। 'ब्रुवते' तमेव प्रतिपादयन्ति, जिना इति गम्यते । 'केवलिनं' क्षीणरागादिदोषं प्रत्यक्षज्ञानिनम्, तथा चागमवता सिद्धान्तदृष्ट्या शोधितमाहारमाधाकर्मापि भुङ्क्ते केवल्यपि । उक्तं च ओहो सुओवउत्तो सुयणाणी जइ वि गिण्हइ असुद्धं । तं केवली वि भुंजइ अपमाण सुयं भवे इहरा ।।१९३।। (पि०नि० गा० ५२४) इति भाव इति श्लोकार्थः ।।५४।। किञ्च कल्याणभागिनामेवागमे बहुमान इति प्रतिपादनार्थं श्लोकमाह कल्लाणाणं महंताणं अणंताणं सुहाण य । भायणं चेव जे जीवा ते तं भावेंति भावओ ।।५५।। कल्याणानां' श्रेयसाम् । 'महतां' बृहत्प्रमाणानाम् । 'अनन्तानाम्' अपरिमेयाणाम् । 'सुखानां च' शर्मणां च । 'भायणं'ति भाजनं-स्थानम् । 'चैव' इत्यवधारणार्थः, तेन भाजनमेव । ये 'जीवा:' प्राणिनः। ते 'तं'ति तमागमम् । 'भावयन्ति' परिभावयन्ति चेतस्यवस्थापयन्तीत्यर्थः । ‘भावतः' बहुमानेन । इति श्लोकार्थः ॥५५॥ व्यतिरेकमाह अण्णाणं मंदपुण्णाणं णिसामंताण कत्थइ । कण्णसूलं समुप्पजे अमयं पि विसं भवे ।।५६।। 'अन्येषाम्' अपरेषामभव्यादीनाम् । 'मन्दपुण्यानाम्' अल्पशुभकर्मणाम् । 'निशमयतां' शृण्वताम् । 'कत्यइत्ति कापि जिनागमव्याख्यानादौ । 'कण्णसूलं ति कर्णशूलं-श्रवणदुःखम् । 'समुप्पज्जइ'त्ति समुत्पद्यते-जायते । एवं च तेषाम् ‘अमृतमपि' सुरान्नमपि । 'विषं' गरलम् । 'भर्वति' जायते इति । अत्रार्थे कथानकम् १. ला० नम् । कुर्वते प्रतिपा' ॥ २. सं० वा० सु० कर्मण्यपि ॥ ३. सं० वा० सु० उक्तम् ओहो ॥ ४. सं० वा० सु० नामागमे॥ ५. ला० ता० भाविति ॥ ६. ला० णाम् । 'भाय ॥ ७. सं० वा० सु० "त्थय त्ति ॥ ८. ला० ख्यादौ ॥ ९. सं० वा० सु० वतीति जायते इति । अत्रापि कथा' ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके (२१. वसुदत्तकथानकम्) अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे. वासे जयउरं नाम नगरं, जं च वरगंधव्वियकुलं व सद्दसत्थं व धणुद्धरसरीरं व ससरं, निसियकरवालं व माणससरं व सुकइवयणं व सुवाणियं, पडिवण्णवच्छलणरउलं व महामइहिययं व वाउसरीरं वै सुसरणं, समुद्दतलं व किमिरायरइयवत्थं व हत्थिवयणं व सुरयणं ति । तत्थयनमंतसामंतमउलिमणिरयणकिरणजालेहिं । विच्छुरियचरणजुगलोअस्थि णिवोणाम जियसत्तू।१। तस्स य निज्जियतिहुयणविलया रूवाइगुणगणोहेण । सयलंतेउरपवरा देवी कुंदप्पहा अस्थि ।।२।। अण्णो वि तत्थ सेट्ठी धणयत्तोणाम अस्थि विक्खाओ । सयलकलागमकुसलो गोरव्वोणरवरेंदस्स ।३। सो वसुमइणामाए पियाएँ सह पुव्वपुण्णसंजणिए । पंचपयारे भोगे भुंजइ सुरलोगसारिच्छे ।।४।। एवं च विसयसोक्खं भुंजंताणं कमेण अह ताणं । वसुदत्तो णाम सुओ उप्पण्णो पच्छिमवयम्मि ॥५॥ बावत्तरि कलाओ कमसो अह सिक्खिओ विसिट्ठाओ । सव्वकलापवराए सद्धम्मकलाइ वियलो उ।६। ___ तओ सिक्खविओ माया-वित्तेहिं 'वच्छ ! धम्मकलावियलाओ सव्वकलाओ वि विहलाओ चेव, जओबाहत्तरीकलापंडिया वि पुरिसा अपंडिया चेव । सव्वकलाण पहाणं जे धम्मकलं न याणंति ।।७।। विण्णाणविणयमाई नीसेसगुणा वि णिप्फला चेव । धम्मरहियाण पुत्तय !, ता जत्तं कुणसु तत्थेवा८। सो य जिणागमसवणाओं चेव जाणेज्जए अपरिसेसो । ता गंतुं पयमूले सुगुरूणं सुणसुतं चेव' ।।९॥ तओ एवं भणिओ वि गुरुकम्मयाए जाहे ण किंचि पडिवजइ तओ भणिओ जणणीए सेट्टी 'अजउत्त ! अम्हाणं पि पुत्तो होऊण एवंविहचरिएहिं भमिही संसारकंतारमेस कुमारो, ता तहा करेहि जहा निसुणेइ एस सिद्धतं' । सेट्ठिणा वि 'जुत्तं भणइत्ति मण्णमाणेण अणिच्छंतो वि उवरोहेण णीओ गुरुसमीवे, निवेसिओ य जिणागमवक्खाणे । अभव्वत्तणओ य जहा जहा निसुणेइ तहा तहा कण्णसूलं उप्पज्जइ चित्तखेओ य । जणओवरोहेण य वच्चइ पइदिणं, परं ण किंचि पडिहासइ सवणाइयं । भणइ य जहा १. ला० वे भार ॥ २. ला० रकुलं ॥ ३. ला० व ससरणं॥ ४. ला० 'लाणं पवरं जे ॥ ५. सं० वा० सु० 'माई असेस [?सु] गुणा ।। ६. सं० वा० सु० 'ण सुंदर ! ता ॥ ७. सं० वा० सु० एवंचरि ॥ ८. ला० निसुणेहि ॥ ९. ला० उवरोहिऊण ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुदत्तकथानकम् १६३ 'ताय ! किमालप्पालं एयं निसुणेज्जई असंबद्धं । वायसदसणपरिक्खणसच्छं व जियाइविरहाओ ।१०॥ णियबुद्धिसिप्पकप्पणविरइयसत्थेहिँ मुद्धजणणिवहं । भक्खंति वियारेउं विविहपयारेहिँ पासंडी।११। 'सव्वण्णुविरइयमिणं' भणंति लोगाण पच्चयणिमित्तं । वायावित्थरचडुला मायावी संतरूवधरा ।।१२। णत्थि च्चिय सव्वण्णू सिद्धंतो कह णु विरइयो तेण?। ता उम्मत्तयवयणे व्व तत्थ कह आयरो तुम्ह ?।१३। किञ्चएयं निसुणंताणं जायइ सवणाण वेयणा अम्ह । डझंति य अंगाई, ता वच्चामो गिहं ताय !' ।।१४॥ तओ सेट्ठिणा चिंतियं 'हंत अभव्वो कोवेस, ता किमणेण खेइएण ?' । उठ्ठित्ता गया णियगेहं । उचियसमएण य परिणीओ वसुदत्तो समाणकुलं बालियं । तीए य सह विसयसुहमणुहवंतस्स अत्थ-कामासेवणं कुणंतस्स धम्म-मुक्खविमुहस्स अगम्मा-ऽभक्खाऽपेयाइसु पइट्टस्स बहुजीवघायणिरयस्स रोद्द-ऽट्टज्झाणपरायणस्स समागओ अहाउयकालो । मरिऊण समुप्पण्णो अहे सत्तमपुढवीए । भोत्तूण य तत्थ तेत्तीसं सागरोवमाइं परमाउं समुप्पण्णो मच्छत्ताए । तत्थ नियआउयक्खएण मरिऊण समुप्पण्णो इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रिट्ठउरे नगरे चक्कचरगोभद्दमाहणस्स जलणप्पहाएं भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए । जाओ कालक्कमेणं । कयं च से णामं अग्गिदेवोत्ति । वड्डिओ देहोवचएणं, परं वायारहियमूयलओ कूरचित्तो विसतरु व्व सव्वजीवउव्वेयकारी। पियकमागयं च कुणइ चक्कचरवित्तिं ।। अण्णया य रायवल्लहपुरिसेण तप्पुरओ केलीए मोडियं तिणं । तओ कोहाभिभूएण लैंडडेणाहणेऊण विणासिओ रायवल्लहो । रोइणा वि नेत्तोप्पाडण-कर-चरण-सवण-नासाइछेयाइकयत्थणाहिं कयत्थेऊण मारिओ समाणो घोरपरिणामो समुप्पण्णो छट्ठपुढवीए उक्कोसठिई णारगो । तत्तो ज्वट्टेऊण समुप्पण्णो पुणो वि मच्छो । सो य जीवंतओ चेव गहिओ धीवरेहि। तत्ततिल्लाईहिं सिंचिऊण विणासिओ समाणो समुप्पण्णो आभीरघोसे आभीरत्ताए । परं महामुरुक्खो १. ला० परिक्खास' || २. ला० प्रती 'किञ्च' इति नास्ति ॥ ३. ला० णं उप्पज्जइ सवणवेयणा अम्हं ॥ ४. ला. तो ॥ ५. सं० वा० सु० "कुलला ॥ ६. ला० "म्म-मोक्ख ॥ ७. ला० पयदृ ।। ८. सं० वा. सु० रोद्दज्झाण ॥ ९. ला० ण य स ॥ १०. सं० वा० सु० तेत्तीससाग ॥ ११. ला० निययाउ ॥ १२. ला० पुरे ॥ १३. ला० °ए माहणीए कु॥ १४. सं० वा० सु० ओ कमेण ॥ १५. सं० वा० सु० वो। व ॥ १६. ला० उव्वेवयारी ॥ १७. ला० कयर' ॥ १८. ला० लउडएणा' || १९. ला० रायणा ॥ २०. ला० 'साच्छेया॥ २१. ला० उव्वडिओ समु ॥ २२. ला० मच्छओ ॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके जो मइवियलो सव्वहा पाहाणकप्पो न किंचि करणेज्जा - ऽकरणेज्जं वियाणइ जाव जाओ जोव्वणत्थो । जोव्वणोम्मायवसेण मुरुक्खत्तणेण य विद्धंसइ भगिणी - जणणीओ वि । अण्णा णियगेहपिओ सिणायंती तेणंतेण वच्चमाणेण दिट्ठा गामभोइयभारिया । गओ य तीए समीवे वाडिं उल्लंघेऊण । बलामोडीए भुंजमाणस्स पोक्कारियं तीए । समागओ ठक्कुरो । तओ तेण वसणछेयलिंगपलीवणाइकयत्थणाहिं कयत्थिज्जंतो मरेऊण समुप्पण्णो पंचमपुढवीए णारगो । उव्वट्टेऊण मेच्छजाईए संजाओ जाइधदारगो । तओ परिपालणभएण गलगं मोडेऊण जणणीए मारिओ, गओ य नरगे । एवं च अभव्वत्तणओ अनंतं संसारमाहिंडिस्सर । [वसुदत्तकथानकं समाप्तम् । २१. ] इति श्लोकार्थः ।। ५६ ।। अस्यैवाऽर्थस्य निगमनाय श्लोकमाह ता एवं जेsaमण्णंति बाला हीलंति आगमं । घोरंधारे दुरुत्तारे अहो गच्छंति ते नरा ।।५७ ।। 'तत्' तस्मात् । 'एयं' ति एनमागमम् । ये ' अपमानयन्ति' अगौरव्यतया पश्यन्ति । 'बाला:' अज्ञाः । तथा हीलन्ति दुर्वचनभाषणतः 'आगमं' सिद्धान्तम् । 'घोरान्धकारे' बहलरौद्रतिमिरे । ‘दुरुत्तारे' दुःखोत्तारे । 'अध:' नरकपृथ्वीलक्षणे । 'गच्छन्ति' प्रयान्ति । ते 'नरा: ' पुरुषाः, पूर्वकथानकोक्तश्रेष्ठिसुतवत् । इति श्लोकार्थः ।।५७।। 1 किञ्च जिणाssणं लंघए मूढो 'किलाहं सुहिओ भवे' । जाव लक्खाइँ दुक्खाणं आणाभंगे कओ सुहं ? ।। ५८ ।। ‘जिनाज्ञां’ जिनागमादेशरूपाम् । तां 'लङ्घयर्ति' व्यतिक्रामति । ‘मूढः' अज्ञः । ‘किल’ इत्याप्तवादसंसूचकः । ‘अहम्' इत्यात्मनिर्देश: । 'सुखित: ' शर्मवान् । 'भवे' त्ति भविष्यामि । परं यावल्लक्षान् दुःखानां प्राप्नोतीति गम्यते । यत 'आज्ञाभङ्गे' आज्ञाविनाशे 'कुतः ' कस्मात् सुखम् ? | १. सं० वा०सु० ण दस ॥ २. सं० वा० सु० 'ओ दारगो ॥ ३. ला० 'ण जणणीए गलगं मोडिऊण मा' ॥ ४. सं० वा० सु० इति श्लो' ॥ ५. ला० 'पृथिवील ॥ ६, ला० व्रजन्ति ते ॥ ७ ता० क्खाणि 'दुक्खा' ॥ ८. ला० °ति अतिक्रमयति ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागममाहात्म्यम् १६५ उक्तं च जह नरवइणो आणं अइक्कमंता पमायदोसेणं । पावंति बंध-धणहरण-वसण-मरणाऽवसाणाई ।।१९४।। तह जिणवराण आणं अइक्कमंता पमायदोसेणं । पावंति दुग्गइपहे विणिवायसहस्सकोडीओ ॥१९५॥(ओघनि०भा० गा०४५-४६) इति श्लोकार्थः ।।५८।। आगमस्यैव माहात्म्यख्यापकं श्लोकमाह कट्ठमम्हारिसा पाणी दूसमादोसदूसिया । हा ! अणाहा कहं हुंता ?, न हुंतो जइ जिणागमो ॥५९॥ 'कष्टम्' इति खेदे । 'अम्हारिस'त्ति अस्मादृशाः अस्मत्सदृशाः । 'प्राणिन:' जीवा: । 'दुःषमादोष-दूषिताः' चतुर्थाग्रेतनाऽरककलङ्काङ्किताः । उक्तं च ओहहइ सम्मत्तं मिच्छत्तबलेण पेल्लियं संतं । परिवर्ल्डति कसाया ओसप्पिणिकालदोसेणं ॥१९६॥ फिट्टइ गुरुकुलवासो, मंदा य मई वि होइ धम्मम्मि । एयं तं संपत्तं जं भणियं लोगनाहेणं ॥१९७॥ उवगरण-वत्थ-पत्ताइयाण वसहीण सड्डयाईणं । जुज्झिस्संति कएणं जह नरवइणो कुडंबीणं ॥१९८॥ कलहकरा डमरकरा असमाहिकरा अनिव्वुइकरा य । पाएण दूसमाए निद्धम्मा निद्दया कूरा ॥१९९॥ अह कोह-माण-मय-मच्छरेहिँ आवूरिऊण जणणिवहं । सव्वजव-तवसारो धम्मो वि जिओ अहम्मेणं ॥२०॥ विसयाउरा उ जीवा ववहारेसु य समुजया पावा । होहिंति दूसमाए पणट्टधम्मा कुसीला य ॥२०१॥ सयणो णिच्चविरुद्धो, लुद्धो गिद्धो य मित्त-सुहिसत्थो । चंडो निरणुक्कंपो तइया लजुज्झिओ लोगो ॥२०२॥ . १. ला० ओ ॥ त्ति श्लो' ॥ २. ता० होता ? न होंतो ॥ ३. सं० वा० सु० अस्मत्सदृशाः ॥ ४. ला० रा य जी ॥ ५. ला० °द्धो कुद्धो य ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके 'हा ! अणाह'त्ति हा इति प्रलापे, 'अनाथा:' त्राणवर्जिताः कथमभूवन् ? न कथश्चिदित्यर्थः। 'न हुँतो'त्ति नाऽभूद् यदि जिनागम: अर्हत्सिद्धान्त: परमत्रातेत्ययमाशय: । तथा हि दूसमकालम्मि नरा सरणविहीणा लहंति दुक्खाई। सारीर-माणसाइं नारय-तिरि-मणुय-देवेसु॥२०३॥ तायारमविंदंता चउविहगइगमणगुविलसंसारे । चुलसीइजोणिलक्खे सुदुक्खतविया भमंति जिया ॥२०४॥ आगमे तु त्रातरि दु:षमाकालेऽपि भवोदधिस्तीर्यत इति । उक्तं च कूरा वि सहावेणं विसयविसवसाणुगा वि होऊण । भावियजिणवयणमणा तेलुक्कसुहावहा हुंति ।।२०५।। इति श्लोकार्थः ।।५९।। यद्येवं तत: किम् ? तम्हा ताणं महाणाहो बंधू माया पिया सुही । गई मई इमो दीवो आगमो वीरदेसिओ ।।६० ।। 'तम्ह'त्ति तस्मात् । 'त्राणं' शरणम् । 'महानाथः' महानायकः । 'बन्धुः' स्वजन: । 'माता' जननी। 'पिता' जनकः । 'सुहृत्' मित्रम् । 'गति:' सुदेवत्व-सुमानुषत्व-सिद्धिगतिरूपा । 'मति:' स्वाभाविकी बुद्धिः। 'इमो'त्ति अयम् । 'दीवो'त्ति द्वीप: समुद्रान्तर्वर्तिस्थलरूपः, दीपो वा=चारकादिष्वन्धकारापहवह्निकलिकालक्षणः। आगमो 'वीरदेशित:' चरमतीर्थकरप्ररूपित इति श्लोकार्थः ।।६०।। अयं च साम्प्रतं क्रमादागतोऽल्पातिशयश्चेति प्रतिपादनार्थं श्लोकमाह सूरीपरंपरेणेसो संपत्तो जाव संपयं । किंतु साइसओ पायं वोच्छिन्नो कालदोसओ ।।६१।। सूरीणाम् आचार्याणां परम्परा-शिष्य-प्रशिष्यादिरूपा, लिङ्गव्यत्ययात्, तया । ‘एष:' अयम् । 'सम्प्राप्त:' आगतो यावत् ‘साम्प्रतम्' अद्यकालम् । किन्तु 'सातिशय:' महापरिज्ञाध्ययनाद्यतिशयग्रन्थरूप: । 'प्राय:' बाहुल्येन । 'व्यवच्छिन्नः' त्रुटित: । ‘कालदोषतः' दुःषमानुभावतः । तथा हि कालिकाचार्येण स्वपौत्रगर्ववत्सागरचन्द्राचार्यप्रतिबोधनाकाले १. ला० 'त्यभिप्रायः । तथा ॥ २. सं० वा० सु० "काले भवो ॥ ३. ला० तेलोक्क' || ४. ता० देवो ॥ ५. सं० वा० सु० वत्वं परत्वे सिद्धि (?) ।। ६. सं० वा० सु० ण प्रपौत्र । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकाचार्यकथानकम् १६७ प्रतिपादितोऽयमर्थः । स च कथानकगम्य: । तच्चेदम् [२२. कालकाचार्यकथानकम्। अत्थि इहे व जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे धरावासं णाम णगरं । तत्थ वइरिवारसुंदरीवेहव्वदिक्खागुरू वइरिसीहो णाम राया । तस्स य सयलंतेउरपहाणा सुरसुंदरी णाम देवी । तीसे य सयलकलाकलावपारगो कालगकुमारो णाम पुत्तो । सो य अण्णया कयाइ आसवाहणियाए पडिणियत्तो सहयारवणोजाणे सजलजलहरारावगंभीरमहुरणिग्घोसमायण्णेऊण कोउगेण तन्निरूवणत्थं पविठ्ठो तत्थ, जाव पेच्छइ सुसाहुजणपरिवारियं बहुजणाणं जिणपण्णत्तं धम्ममाइक्खमाणं भगवंतं गुणायरायरियं । वंदेऊण य उवविठ्ठो तप्पुरओ । भगवया वि समाढत्ता कुमारं उद्देसिऊण विसेसओ धम्मदेसणा ।अवि य “यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते, निघर्षण-च्छेदन-ताप-ताडनैः । तथैव धर्मो विदुषा परीक्ष्यते, श्रुतेन शीलेन तपो-दयागुणैः ।।२०६।। तथा जीवो अणाइणिहणो पवाहओऽणाइकम्मसंजुत्तो । पावेण सया दुहिओ, सुहिओ पुण होइ धम्मेण ।१। धम्मो चरित्तधम्मो सुयधम्माओ तओ य नियमेण। कस-छेय-तावसुद्धो सो च्चिय कणगं व विण्णेओ पाणवहाईयाणं पावट्ठाणाण जो ये पडिसेहो । झाण-ऽज्झयणाईणं जो य विही एस धम्मकसो ॥३॥ बज्झाणुट्ठाणेणं जेण ण बाहिज्जई तयं णियमा । संभवइ य परिसुद्धं सो उण धम्मम्मि छेउ त्ति ॥४॥ जीवाइभाववाओ बंधाइपसाहगो इहं तावो । एएहिँ सुपरिसुद्धो धम्मो धम्मत्तणमुवेइ ॥५॥ एएहिँ जो न सुद्धो अन्नयरम्मि वि न सुट्ठ णिव्वडिओ । सो तारिसओ धम्मो णियमेण फले विसंवयइ।६ एसो य उत्तमो, जं पुरिसत्थो एत्थ वंचिओ णियमा । वंचेजइ सयलेसुं कल्लाणेसुं न संदेहो ॥७॥ एत्थ य अवंचओण हि वंचिजइ तेसुजेण तेणेसो । सम्मं परिक्खियव्वो बुहेहिँ सइ निउणदिट्ठीए"८ इय गुरुवयणं सोउं कुमरो विगलंतकम्मपन्भारो । संजायचरणभावो एवं भणिउं समाढत्तो ॥९॥ 'मिच्छत्तमोहिओ हं जहवट्ठियधम्मरूवकहणेण । पडिबोहिओ महायस !, संपइ आइससु करणेजं' ॥१०।। तो भगवं तब्भावं गाउं आइसइ साहुवरधम्म । सो वि तयं पडिवज्जिय गओ तओ णिवसमीवम्मि ॥११॥ १. सं० वा० सु० °णा सुंदरी ॥ २. ला. यापडि ॥ ३. ला० सेसेण ध ॥ ४. ला० अपि च ॥ ५. सं० वा० सु० तथा हि ॥ ६. ला० उ ॥ ७. सं० वा० सु० वयं ॥ ८. सं० वा० सु० संसवइ य पडिसुद्धं ॥ ९. ला० य जाइ तओ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके अह महया कट्टेणं मोयाविय-जणय-जणणिमाईए । बहुरायउत्तसहिओजाओ समणो समियपावो ।१२। अह गहियदुविहसिक्खो गीयत्थो जाव भाविओ जाओ। तो गुरुणा णिययपए ठविओ गच्छाहिवत्तेण॥१३॥ .. पंचसयसाहुपरिवारपरिवुडो भवियकमलवणसंडे । पडिबोहितो कमसो पत्तो उज्जेणिणगरीए ॥१४॥ नयरस्स उत्तरदिसासंठियेवणसंडमज्झयारम्मि । आवासिओ महप्पा जइजोग्गे फासुयपएसे ॥१५॥ तं णाऊणं लोगो वंदण्वडिगाइ णिग्गओ झत्ति । पणमेत्तु सूरिपाए उवविठ्ठो सुद्धमहिवढे ॥१६॥ तो कालयसूरीहिं दुहतरुवणगहणदहणसारिच्छो । धम्मो जिणपण्णत्तो कहिओ गंभीरसद्देण ॥१७॥ तं सोऊणं परिसा सव्वा संवेगमागया अहियं । वण्णंती सूरिगुणे णियणियठाणेसु संपत्ता ॥१८॥ एवं च भवियकमलपडिबोहणपराण जाव वोलिंति कयवि दियहा ताव भवियव्वयाणिओएणं समागयाओ तत्थ साहुणीओ । ताणं च मज्झे सरस्सइ व्व पोत्थियावग्गहत्था, न याकुलीणा; गोरि व्व महातेयन्निया, न य भवाणुरत्तचित्ता; सरयकालनइ व्व सच्छासया, न य कुग्गाहसंजुया; लच्छि व्व कमलालया, ण य सकामा; चंदलेह व्व सयलजणाणंददाइणी, ण य वंकाः, किं बहुणा ?, गुणेहिं रूवेण य समत्थणारीयणप्पहाणा साहुणीकिरियाकलावुजया कालयसूरिलहु-भइणी सरस्सई णाम साहुणी वियारभूमीए णिगया समाणी दिट्ठा उज्जेणिणगरिसामिणा गद्दभिल्लेण राइणा, अज्झोववण्णेण य हा ! सुगुरु ! हा! सहोय र ! हा! पवयणणाह ! कालयमुणिंद ! । चरणधणं हीरते मह रक्ख अणजणरवइणा ॥१९॥ इच्चाइविलवंती अणिच्छमाणी बलामोडीए छूढा अंतउरे । तं च सूरीहिं णाऊण भणिओ जहा- 'महाराय ! प्रमाणानि प्रमाणस्थै रक्षणीयानि यत्नतः । विषीदन्ति प्रमाणानि प्रमाणस्थैर्विसंस्थुलैः ।।२०७।। किंच रायरक्खियाणि तवोवणाणि हुंति । यत: नरेश्वरभुजच्छायामाश्रित्याऽऽश्रमिणः सुखम् । निर्भया धर्मकार्याणि कुर्वते स्वान्यनन्तरम् ।।२०८।। १. ला० तो ॥ २. ला० यउज्जाणमज्झ ॥ ३. ला० णपडियाए । ४. ला० कइवि ॥ ५. ला० 'यानियोगेणं ।। ६. ला० दयारिणी ॥ ७. सं० वा० सु० रुवेहि सम ॥ ८. ला० 'हुयभ ।। ९. सं० वा० सु० 'तं रक्खेहि अण || मङ्गः ॥ ३ireणपडियारा॥ सा कहति ॥ १. ला० Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकाचार्यकथानकम् १६९ ता विसज्जेहि एयं, मा नियकुलकलंकमुप्पाएहि । यत उक्तम् गोत्तु गंजिदु [?गोत्तु गंजिदु] मलिदु चारित्तु, सुहडत्तणु हारविदु, अजसपडहु जगि सयलि भामिदु । मसिकुच्चउ दिनु कुलि जेण केण (?तेण, जेण) परदारु हिंसि(?हीरि)दु॥२०९॥ ता महाराय ! उचिट्ठकायपिसियं व विरुद्धमेयं । तओ कामाउरत्तणओ विवरीयमइत्तणओ य ण किंचि पडिवण्णं राइणा । यत: दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं, रागान्धस्तु यदस्ति तत् परिहरन् यन्नास्ति तत् पश्यति । कुन्देन्दीवर-पूर्णचन्द्र-कलश-श्रीमल्लतापल्लवा ___ नारोप्याशुचिराशिषु प्रियतमागात्रेषु यन्मोदते ।।२१०।। ‘ता मुंच राय ! एयं तवस्सिणिं मा करेहि अण्णायं । तइ अण्णायपवत्ते को अन्नो नायवं होइ ?' ।२०। एवं भणिओराया पडिवजइ जाव किंचिणो ताहे । चउविहसंघेण तओभणाविओ कालगजेहिं ।२१। संघो वि जाव तेणं ण मण्णिओ कह वि ताव सूरीहिं । कोववसमुवगएहिं कया पइण्णा इमा घोरा।२२। 'जे संघपच्चणीया पवयणउवघायगा नरा जे य । संजमउवघायपरा तदुविक्खाकारिणो जे य ।।२३।। तेसिं वच्चामि गई जइ एयं गद्दभिल्लरायाणं । उम्मूलेमि ण सहसा रज्जाओ भट्ठमज्जायं' ।।२४।। कायव्वं च एयं, जओ भणियमागमे तम्हा सइ सामत्थे आणाभट्ठम्मि नो खलु उवेहा । अणुकूलेअरएहिँ य अणुसट्ठी होइ दायव्वा ।।२११।। तथा साहूण चेइयाण य पडणीयं तह अवण्णवाइं च । जिणपवयणस्स अहियं सव्वत्थामेण वारेइ ।।२१२।। तओ एवं पइण्णं काऊण चिंतियं सूरिणा जहा ‘एस गद्दभिल्लराया महाबल-परक्कमो गद्दभीए महाविजाए बलिओ ता उवाएण उम्मूलियव्वो' । ति सामत्थेऊण कओ कवडेण उम्मत्तयवेसो तियचउक्क-चच्चर-महापहट्ठाणेसु य इमं पलवंतो हिंडइ-यदि गर्दभिल्लो राजा तत: किमत: परम् ?, यदि १. ला० भ्रामिदु ॥ २. सं० वा० सु० करेह ॥ ३. सं० वा० सु० वायं च ॥ ४. ला० सूरीहिं ज॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके वा रम्यमन्तःपुरं ततः किमतः परम् ?, यदि वा विषयो रम्यस्ततः, किमतः परम् ?, यदि वा सुनिविष्टा पुरी ततः किमतः परम् ?, यदि वा जनः सुवेषस्ततः किमतः परम् ?, यदि वा करोमि भिक्षाटनं ततः किमतः परम् ?, यदि वा शून्यगृहे स्वप्नं करोमि ततः किमतः परम् ? । इय एवं जंपंतं सूरिं दट्ठूण भणइ पुरलोगो । 'अहह ! ण जुत्तं रण्णा कयं जओ भगिणिकज्जम्मि ।।२५।। मोत्तूण णिययगच्छं हिंडइ उम्मत्तओ नयरिमज्झे । सयलगुणाण णिहाणं कट्ठेमहो! कालगायरिओ' |२६ गोवाल-बाल-ललणाइसयललोयाओ ऍयमइफरुसं । सोऊण निंदणं पुरवरीइ नियसामिसालस्स |२७| मंतीहिँ तओ भणिओ नरणाहो 'देव ! मा कुण एवं मुयसु तवस्सिणिमेयं अवण्णवाओ जओ गरुओ ।। २८ । । 1 किंच गुणीण अणत्थं जो मोहविमोहिओ नरो कुणइ । सोऽणत्थजलसमुद्दे अप्पाणं खिवइधुवमेयं ॥२९ तं मंतिवयणमायण्णिऊण रोसेण भणइ णरणाहो । रे रे ! ऐयं सिक्खं गंतूणं देह नियपिउणो' ।। ३० ।। तं सोउं हिक्का संजाया मंतिणो इमं हियए । काउं 'केण णिसिद्धो जलही सीमं विलंघंतो ? ' ।। ३१ । । तं च कुओ विणाऊण णिग्गओ णयरीओ सूरी । अणवरयं च गच्छंतो पत्तो सगकूलं णाम कूलं । तत्थ जे सामंता ते साहिणो भण्णंति । जो य सामंताहिवई सयलनरेंदवंदचूडामणी सो साहाणुसाही भण्णइ । तओ कालयसूरी ठिओ एगस्स साहिणो समीवे । आवज्जिओ य सो मंत-तंताईहिं । इओ य अण्णया कयाइ तस्स साहिणो सूरिसमण्णियस्स हरिसभरणिन्भरस्स णाणविहविणोएहिं चिट्ठमाणस्स समागओ पडिहारो, विण्णत्तं च तेण जंहा 'सामि ! साहाणुसाहिदूओ दुवारे चिट्ठा' | साहिणा भणियं 'लहुं पवेसेहि' । पवेसिओ अ वयणाणंतरमेव । णिसण्णो य दिण्णासणे । तओ दूएण समप्पियं उवायणं । तं च दट्ठूण नवपाउसकालणहयलं व अंधारियं वयणं साहिणो । तओ चिंतियं सूरिणा 'हंत ! किमेयमपुव्वकरणं उवलक्खेज्जइ ?, जओ सामिपसायमागयं दद्दूण जलददंसणेणं पिव सिहिणो हरिसभरनिब्भरा जायंते सेवया, एसो य सामवयणो दीसइ, ता पुच्छामि कारणं' ति । एत्थंतरम्मिं साहिपुरिसदंसियविडहरे गओ दूओ । तओ पुच्छियं सूरिणा 'हंत ! सामिपसाए विसमागए किं उव्विग्गो विय लक्खीयसि ? ' । तेण भणियं “ भगवं ! न पसाओ, किंतु कोवो समागओ, जओ अम्ह पहू जस्स रूसइ तस्स णामंकियं मुद्दियं छुरियं पट्ठवेइ, तओ १. ला० म् ?, विषयो यदि वार र ॥ २. ला० म् १, सुनिविष्टा पुरी यदि वा ततः ॥ ३. ला० ओका ॥ ४. ला० एवम ॥ ५. सं० वा० सु० णं ठवई ॥ ६. ला० एवं ॥ ७. ला० इ ॥ ८. सं० वा० सु० सूरिणो ( णा) सम ॥ ९. सं० वा० सु० 'णाविणो ॥ १०. सं० वा० सु० जहा साहा ॥ ११. ला० 'रणमवलक्खिज्जइ ॥ १२. ला० जायंति ॥ १३. ला० "म्मि य सा ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकाचार्यकथानकम् १७१ केणइ कारणेण अम्होरि रूसेऊण पेसिया एसा छुरिया, एईए यऽप्पा अम्हेहिं घाइयव्वो, 'उग्गदंडो'त्ति काऊण ण तव्वयणे वियारणा कायव्वा'। सूरिणा भणियं 'किं तुझं चेव रुट्ठो उयाह अण्णस्स वि कस्सइ ?' । साहिणा भणियं 'मम वज्जियाणमण्णेसि पि पंचाणउईरायाणं, जओ दीसइ छण्णउइमो इमीए सत्थियाए अंको' त्ति । सूरिणा जंपियं ‘जइ एवं ता मा अप्पाणं विणासेहि' । तेण भणियं 'न पहुणा रुटेण कुलक्खयमंतरेण छुट्टेज्जइ, मए उण मए ण सेसकुलक्खओ होई' । सूरिणा भणियं 'जइ एवं तहा वि वाहरसु णियदूयपेसणेणं पंचाणउई पि रायाणो जेण हिंदुगदेसं वच्चामो'। तओ तेण पुच्छिओ दूओ जहा 'भद्द ! के ते अण्णे पंचाणउई रायाणो जेसिं कुविओ देवो?'। तेण वि सव्वे णिवेइया । तओ दूयं विसज्जिऊण सव्वेसि पि पेसिया पत्तेयं णियदूया जहा 'समागच्छह मम समीवे, मा नियजीवियाइं परिच्चयह, अहं सव्वत्थ भलिस्सामि' । तओ ते दुपरिच्चयणीयत्तणओ पाणाणं सव्वं सामग्गिं काऊण आगया झडि त्ति तस्म ग्गीवे। ते य समागए दळूण तेण पुच्छिया सूरिणो 'भगवं! किमम्हेहिं संपयं कायव्वं ?' । सूरीहिं भणियं 'सबल-वाहणा उत्तरेऊण सिंधुं वच्चह हिंदुगदेसं' । तओ समारुहिऊण जाणवत्तेसु समागया सुरट्ठविसए । इत्थंतरम्मि समागओ पाउससमयो । तओ 'दुग्गमा मग्ग'त्ति काउं सुरट्ठविसयं छन्नउइविभागेहिं विभज्जिऊण ट्ठिया तत्थेव। एत्यंतरम्मिय महाराओ व्व रेहिरपुंडरीओ, गरुयसमरारंभसमओ व्व उल्ललंतबहुगोवो, पढमपाउसो व्व दीसंतसियबलाहओ, मुणिवइ व्व रायहंससंसेविओ, पहाणपासाओ व्व सच्चवेजंतमत्तवारणो समागओ सरयकालो । जत्थ य सुयणजणचित्तवित्तीओ व सच्छाओ महानईओ, सुकविवाणीओ व निम्मलाओ दिसाओ, परमजोगिसरीरं व नीरयं गयणंगणं, मुणिणो व्व सुमणोभिरामा सत्तच्छयतरुणो वरथवइनिम्मियदेवउलपंतीओ व सुताराओ रयणीओ त्ति । अवि यनिप्फण्णसव्वसासा जत्थ मही अहियरेहिरा जाया । ढिक्कंति दरियवसहा पमुइयगोविंदमज्झगया।३२। पीऊसपूरसरिसा ससहरकिरणावली तमिस्सासु । पव्वालेइ असेसं अहियं भुवणोयरं जत्थ ।।३३।। सालिवणरक्खणोज्जयपामरिगिजंतमहुरगीएहिं । पडिबझंता पहिया पंथाओ जत्थ भस्संति ।।३४।। इय बहुजियतोसयरे पत्ते सरयम्मि नवरि विद्दाणो । झत्ति रहंगो भवचित्तरूवसंसाहणत्थं व ।।३५ ।। एवंविहं च सरयकालसिरिमवलोइऊण णियसमीहियसिद्धिकामेण भणिया ते कालयसूरिणा जहा 'भो किमेवं णिरुज्जमा चिट्ठह ?' । तेहिं भणियं आइसह किं पुण करेमो ?' । सूरिणा भणियं 'गेण्हह १. ला० वरि रू' ॥ २. ला० तुज्झ ॥ ३. 'तेण भणियं' इति पाठ: ला० प्रतेरेवोपलब्धः ॥ ४. ला० मए पुसू मएण सेसकुलस्स रवेमं भवइ । ण ॥ ५. सं० वा० सु० हिंडग ॥ ६. सं० वा० सु० ते पंचा' ॥ ७. सं० वा० सु० सव्वसा' ।। ८. सं० वा० सु० या छड त्ति। ९. ला० समीवं ॥ १०. ला० यगोवंद ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके उजेणिं, जओ तीए संबद्धो पभूओ मालवदेसो, तत्थ पज्जत्तीए तुम्हाणं णिव्वाहो भविस्सई' । तेहिं भणियं एवं करेमो, परंणत्थि संबलयं, जम्हा एयम्मि देसे अम्हाण भोयणमेत्तं चेव जायं' । तओ सूरिणा जोगचुण्णचहुंटियामेत्तपक्खेवेण सुवण्णीकाऊण सव्वं कुंभारावाहं भणिया ‘एयं संबलयं गेण्हह'। तओ ते तं विभज्जिऊण सव्वसामग्गीए पेयट्ठा उजेणिं पइ । अवंतरे य जे के वि लाडविसयरायाणो ते साहित्ता पत्ता उज्जेणिविसयसंधिं । तओ गद्दभिल्लो तं परबलमागच्छंतं सोऊण महाबलसामग्गीए निग्गओ, पत्तो य विसयसंधिं । तओ दुहं पि दप्पुद्धरसेण्णाणं लग्गमाओहणं । अवि यनिवडंततिक्खसरझसर-सेल्ल-वावल्ल-सव्वलरउद्दो । खिप्पंतचक्क-पट्टिस-मोग्गर-णारायबीभच्छो।३६। असि-परसु-कुंत-कुंगीसंघटुटुंतसिहिफुलिंगोहो । भेडपुक्कारवड्डो रयछाइयसूरकरपसरो ।।३७।। एवंविहसमरभरे वटुंते गद्दभिल्लणरवइणो । सेण्णं खणेण णहँ वायाहयमेहवंदं व ।।३८।। तं भगं दणं वलिऊणं पुरवरीऍ णरणाहो । पविसित्तु तओ चिट्ठइ रोहगसजो णियबलेण ।।३९।। ___ इयरे वि निस्संचारवलयबंधेण णयरिं रोहेऊण ठिया । कुणंति य पइदिणं ढोयं । अन्नम्मि दिवसे जाव ढोएण उवट्ठिया ताव पेच्छंति सुण्णयं कोठें । तओ तेहिं पुच्छिया सूरिणो 'भगवं! किमज्ज सुण्णयं कोट्टं दीसइ ?। तओ सूरीहिं सुमरेऊण भणियं जहा अज्ज अट्ठमी, तत्थ य गद्दभिल्लो उववासं काऊण गद्दभिं महाविजं साहइ, ता निरूवह कथइ अट्टालोवट्ठियं गद्दभिं' । निस्वंतेहि य दिट्ठा, दंसिया य सूरिणं । सूरीहि भणियं जहा ‘एसा गद्दभी जावसमत्तीए महइमहालयं सदं काहिइ, तं च परबलसंतियं जं दुपयं चउप्पयं वा सुणेस्सइ तं सव्वं मुहेण रुहिरं उग्गिरंतं निस्संदेहं भूमीए निवडेस्सइ, ता सव्वं सजीवं दुपयं चउप्पयं घेत्तूण दुगाउयमित्तं भूमागमोसरह, अट्ठोत्तरसयं च सद्दवेहीणं महाजोहाणं मम समीवे ठावेह' । तेहि व तं तहेव सव्वं कयं । ते य सद्दवेहिणो भणिया सूरीहिं 'जया ईमा रासही सद्दकरणत्थं मुहं णिवाएइ तया अकयसद्दाए चेव एयाए तुब्मे नाराएहिं मुहं भरेज्जह, कयसद्दाए उण तुब्भे वि न सक्केस्सह पहरिउं, ता अप्पमत्ता आयण्णापूरियसरा चेट्टह' । तेहि वि तह चेव सव्वं कयं । तओ य आयण्णायड्डियधणुविमुक्कसरपूरपुण्णवयणाए तीए तिरिक्खीए पीडियाए न य चइयमारसिउं ‘पडिहयसत्ति' त्ति । तओ विज्जा तस्सेव साहगस्सुवरिं काउं मुत्तपुरीसं लत्तं दाऊण झत्ति गया । तओ सूरिणा भणिया ते जहा 'गेण्हह संपयं, इत्तियं चेव एयस्स बलं' ति । तओ ते पागारं भंजिऊण पविठ्ठा उजेणीए । गहिओ सजीवगाहं गद्दभिल्लो । बंधेऊण समप्पिओ १. ला० “ए पडिबद्धो ॥ २. ला० कुंभकारावाहं ॥ ३. ला० संबलंगिण्ह ॥ ४. ला० तेणं विभ' || ५. ला० पट्ठिया ॥ ६. ला० भडवुक्काररवहो ॥ ७. ला० 'चारं व ॥ ८. ला० 'त्थ वि अट्टालए ठवियं ॥ ९. ला० रूविते ॥ १०. सं० वा० सु० काहिसइ ॥ ११. ला० णं मम ॥ १२. ला० वि तहेव ।। १३. ला० इयं रा ॥ १४. ला० ण य स || Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकाचार्यकथानकम् १७३ सूरिपायाणं । सूरीहिँ तओभणिओ रेरे पाविट्ठ! दुट्ठ! निल्लज! ।अइणज्जकज्जउज्जमसज्ज! महारज्जपब्भट्ठ!।४०। जमणेच्छंतीए साहुणीइ विद्धंसणं कयं तुमए । न य मण्णिओ य संघो, तेणऽम्हेहिं इमं विहियं ॥४१॥ महमोहमोहियमई जो सीलं साहुणीइ भंजेइ । जिणधम्मबोहिलाभस्स सो नरो देइ मूलग्गिं ॥४२॥ निण्णट्ठबोहिलाभो भमिहिसि नूणं तुम पि संसारे । रे! णंतदुक्खपउरे किंच इहं चेव जं ज़म्मे ॥४३॥ पत्तो बंधण-ताडण-अवमाणणजणियविविहदुक्खाइं । संघावमाणणातरुवरस्स कुसुमोग्गमो एसो ।४४ नरय-तिरिक्ख-कुमाणुस-कुदेवगइगमणसंकडावडिओ । जमणंतभवे भमिहिसि तं पुण विरसं फलं होही ॥४५॥ । जो अवमण्णइ संघं पावो थेवं पि माणमयलित्तो । सो अप्पाणं बोलइ दुक्खमहासागरे भीमे ॥४६॥ सिरिसमणसंघआसायणाइ पावेंति जं दुहं जीवा । तं साहिउं समत्थो जइ पर भगवं जिणो होइ ॥४७॥ जेण महंतं पावं कयं तए णेय मण्णिओ संघो । संभासस्साणरिहो अम्हाणं जइ विरे! तह वि ॥४८॥ बहुपावभरक्कंतं दुहजलणकरालजालमालाहिं । आलिंगियं तुमं पासिऊण करुणाइ पुण भणिमो ॥४९॥ निंदण-गरिहणपुव्वं आलोएऊणकुणसुपच्छित्तं । दुक्करतवचरणरओजेणऽज वितरहि दुहजलहिं' ५० इय करुणाए सूरीहिँ जंपियं सुणिय गद्दभिल्लो सो । अइसंकिलिट्ठकम्मो गाढयरं दूमिओ चित्ते ॥५१॥ दूमियचित्तं णाउं कालयसूरीहिँ सो तओ भणिओ । 'मुक्को सि एगवारं संपइरे! जाहि णिव्विसओ'५२ तं सूरिवयणमायण्णिऊण पुहईसरेहिँ सो तेहिं । देसाओं धाडिऊणं मुक्को दुहिओ परिब्भमइ ।।५३।। भमिउं मओ समाणो चउगइसंसारसायरे भीमे । भमिही अणंतकालं तक्कम्मविवागदोसेणं ।।५४।। तो सूरिपज्जुवासयसाहिं रायाहिरायमह काउं । भुंजंति रज्जसोक्खं सामंतपयट्ठिया सेसा ।।५५।। सगकूलाओ जेणं समागया तेण ते सगा जाया । एवं सगराईणं एसो वंसो समुप्पण्णो ।।५६।। जिणसासणोण्णइपराण ताण कालो सुहेण परिगलइ । सूरिपयउमगब्भे छप्पयलीलं कुणंताणं ।।५७।। कालंतरेण केणइ उप्पाडेत्ता सगाण तं वंसं । जाओ मालवराया णामेणं विक्कमाइच्चो ।।५८ ।। पुहईऍ एगवीरो विक्कमअक्कंतभूरिणरणाहो । अच्छरियचरियआयरणपत्तवरकित्तिपन्भारो ।।५९।। नियसत्ताराहियजक्खरायसंपत्तवरतियवसेण । अविगणियसत्तु-मित्तं जेण पयट्टावियं दाणं ।।६० ।। पयराविओ धराएं रिणपरिहीणं जणं विहेऊण । गुरुरित्थवियरणाओ णियओ संवच्छरो जेण ।।६१ ।। १. सं० वा० सु० किंचि इ ॥ २. ला० तो ताडणं-बंधण अ ॥ ३. ला० पइट्ठिः ॥ ४. सं० वा० सु० °णयप' || ५. सं० वा० सु० केणय उ ।। ६. सं० वा० सु० ए ऊ(उ)ण ॥ ७. ला० °ययो स ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके 1 तस्स वि वंसं उप्पाडिऊण जाओ पुणो वि सगराया । उज्जेणिपुरवरीए पयपंकयपणयसामंतो ।। ६२ ।। पणतीसे वाससए विक्कमसंवच्छेराओ वोलीणे । परिवत्तिऊण ठविओ जेणं संवच्छरो णियगो । । ६३ । सगकालजाणणत्थं एयं पासंगियं समक्खायं । मूलकहासंबद्धं पमयं चिय भण्णए इण्हिं ।। ६४ ।। कालयसूरीहि तओ सा भगिणी संजमे पुणो ठविया । आलोइयपडिकंतो सूरी वि सेयं गणं वहइ ॥६५॥ १७४ इओ य अत्थि भरुयच्छं णामं णगरं । तत्थ य कालयसूरिभाइणेज्जा बलमेत्त - भाणुमेत्ता भायरो राय - जुवरायाणो । तेसिं च भगिणी भाणुसिरी । तीसे पुत्तो बलभाणू णाम कुमारो । तओ हिं बलमित्तभाणुमित्तेहिं परकूलाओ समागए सूरिणो सोऊण पेसिओ मइसागरो णाम णियमहंतओ उज्जे| तेण तत्थ गंतू सगराइणो महाणिब्बंधेण विसज्जावेऊण वंदिऊण य विण्णत्ता सूरिणो, अवि य— 'बलमेत्त - भाणुमेत्ता भयवं ! भूलुलियभाल - कर- जाणू । भत्तिभरनिब्भरंगा तुहपयकमलं पणिवयंति ॥ ६६ ॥ करकमलमउलमउलं मोलिम्मि ठवित्तु विण्णवंति जहा । तु विरहतरणिखरकिरणणियरपसरेण सयराहं ॥ ६७ ॥ संतावियाइँ धणियं जओ सरीराइँ अम्ह ता सामि ! । नियदंसणमेहोब्भवदेसणणीरेण निव्ववसु ।। ६८ ।। किं बहुणा ?, करुणारससमुद्द ! अम्हाणमुवरि कारुण्णं । काऊणं पावहरं वंदावसु निययपयकमलं' ।६९। ओकालयसूरिणो सगरण्णो सरूवं साहिऊण गया । भरुयच्छे । पवेसिया य महया विच्छड्डेणं । वंदिया भावसारं बलमेत्त - भाणुमेत्त - भाणुसिरि-बलभाणूहिं । समाढत्ता भगव भवणिव्वेयजणणी धम्मदेसणा, अवि य 1 तुसरासि व्व असारो संसारो, विज्जुलयाओ व चंचलाओ कमलाओ, उप्पहगामुयवोलावणयसामण्णं तारुण्णं, दारुणदृहदाइरोगा भोगोवभोगा, माणस-सारीरियखेयनिबंधणं धणं, महासोगाइरेगा इट्ठजणसंपओगा, णिरंतपेरिसडणसीलाणि आउयदलाणि । ता एवं ठिए भो भव्वा ! लद्धूण कुलाइजुत्तं ! माणुसत्तं निद्दलेयव्वो पमाओ, कायव्वो सव्वसंगचाओ, वंदणीया देवाहिदेवा, कायव्वा सुगुरुचलणसेवा, दायव्वं सुपत्तेसु दाणं, ण कायव्वं णियाणं, अणुगुणेयव्वो पंचणमोक्कारो, कायव्वो जिणाययणेसु पूयासक्कारो, भावियव्वाओ दुवालस भावणाओ, रक्खेयव्वाओ पवयणोहावणाओ, दायव्वा सुगुरुपुरओ णियदुच्चरियालोयणा, कायव्वा सव्वसत्तखामणा, पडिवज्जेयव्वं पायच्छित्तं, न धारियव्वमसुहचित्तं, अणुट्ठियव्वाणि जहासत्तीए तवच्चरणाणि, दमियव्वाणि र्दुद्दंताणि इंदियाणि, झाएयव्वं सुहज्झाणं वोच्छेज्जए जेण संसारसंताणं । किं बहुणा ?, १. ला० 'च्छरस्स वो' ॥ २. ला० सगं ॥। ३. सं० वा० सु० भायेण ॥ ४. ला० ण्णविंति ॥ ५. ला० "या यभा ॥ ६. सं० र्वा० सु० पस्सेडण ॥ ७ ला० मणुयत्तं ॥ ८. सं० वा० सु० वंदेयव्वा दे° ॥ ९. ला० 'चरण' ॥ १०. ला० दुद्दंतकरणाणि, झा ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ कालकाचार्यकथानकम् एवमायरंताणं तुम्हाणं भवेस्सइ अचिरेणेव निव्वाणं ति । इय सूरिवयणमायण्णिऊण संजायचरणपरिणामो । सो बलभाणू कुमरो रोमंचोच्चइयसव्वंगो॥७०॥ करकोरयं विहेउं सिरम्मि अह भणइ एरिसं वयणं । 'संसारचारगाओ णित्थारहि णाह! मं दुहियं ॥७१॥ भवभयभीयस्स महं उत्तमणरसेविया इमा सामि ! । दिजउ जिणेददिक्खा जइ जोग्गो मा चिरावेह' ॥७२॥ ___इय कुमरणिच्छयं जाणिऊण सूरीहिँ तक्खणं चेव । आपुच्छिऊण सयणे विहिणा अह दिक्खिओ एसो॥७३॥ रायाई परिसा वि य नमिउं सूरिंगया नियं ठाणं । मुणिणो विणिययसद्धम्मकम्मकरणोज्जया जाया॥७४॥ एवं चिय पइदियहं मुणिवइपयपंकयं णमंतेते । णरणाहे दणं भत्तिब्भरणिब्भरे धणियं ॥७५॥ सव्वो विणगरलोगोजाओ जिणधम्मभाविओअहियं । सच्चमिणं आहाणं जहराया तह पया होई'।७६ __ तं च तारिसं पुरक्खोहमवलोइऊण अवंतदूमियचित्तेणं रायपुरओ सूरिसमक्खं चेव भणियं राय-पुरोहिएण जहा 'देव ! किमेएहिं पासंडिएहिं तईबज्झायरणणिरएहिं असुइएहिं ?' ति । एवं च वयंतो सो सूरिहिं अणेगोववत्तीहिं जाहे णिरुत्तरो कओ ताहे धुत्तिमाए अणुलोमवयणेहिं राइणो विप्परिणामेइ । अवि य'एए महातवस्सी नीसेसगुणालया महासत्ता । सुर-असुर-मणुयमहिया गोरव्वा तिहुयणस्सावि ।।७७।। ता देव ! जेण एए पहेण गच्छंति तेण तुम्हाणं । जुत्तं न होइ गमणं अक्कमणं तप्पयाण जओ ।।७८।। गुरुपयअक्कमणेणं महई आसायणाजओ होइ । दुग्गइकारणभूया अओ विसजेह पहु! गुरुणो' ।।७९। तओ विप्परिणयचित्तेहिं भणियं राईहिं 'सच्चमेयं, परं कहं विसजिजंति ?' । तओ पुरोहिएण भणियं देव ! कीरउ सव्वत्थ णगरे अणेसणा, तीए य कयाए असुझंते भत्त-पाणे सयमेव विहरिस्संति' । तओ राईहिं भणियं ‘एवं करेहि' । तओ परूवियं सव्वत्थ णगरे पुरोहिएणं जहा ‘एवं एवं च आहाकम्माइणा पयारेण साहूण देजमाणं महाफलं भवई' । तओ लोगो तहेव काउमारद्धो । तं च तारिसमउव्वकरणं दद्दूण साहियं साहूहिँ गुरूणं । ते वि सम्मं वियाणेऊण रायाभिप्पायं अपज्जोसविए चेव गया मरहट्ठयविसयालंकारभूयं पइट्ठाणं णाम णगरं । तत्थ य सूरीहिं जाणावियं जहा 'न ताव पज्जोसवेयव्वं जाव वयं णागया' । तत्थ उण परमसावगो सायवाहणो णाम राया । सो य सूरिणो समागच्छंते णाऊण जलयागमुक्कंठियसिहि व्व हरिसणिब्भरो जाओ । कमेण य समागया तत्थ सूरिणो । तओ साइवाहणराया सूरिं समागयं १. सं० वा० सु० अचिरेण नि ॥ २. सं० वा० सु० पयदि ।। ३. ला० अच्चंतं दू ॥ ४. सं० वा. सु० रायाणो ॥ ५. ला० हवइ ।। ६. सं० वा० सु० जिस्संति ।। ७. ला० च अहोक' ।। ८. सं० वा० सु० ण देजमाणं साहूण म॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके णाऊण सपरियणो चउब्विहसिरिसमणसंघसमण्णिओ णिग्गओ अभिमुहं । वंदिया य भावसारं सूरिणो । अवि यभवियकमलावबोहय ! मोहमहातिमिरपसरभरसूर ! । दप्पिट्टदुट्ठपरवाइकुंभिणिद्दलणबलसिंह! ।८०। पणयणरविसरपहमउलिमउडमणिकिरणरंजियसुपाय! । जिणसासणोण्णईपर ! कलिकालकलंकमलसलिल !॥८१॥ कालाणुरूवपरिवट्टमाणसुयजलहिपारसंपत्त ! । सप्पंतदप्पकंदप्पसप्पकप्परणपरपरसु ! ॥८२॥ इय नीसेसगुणालय ! करुणापर! परमचरण ! रणरहिय!। सुगहियनाम ! नरुत्तम ! तुज्झ णमो होउ मुणिणाह!॥८३॥ एवं च पणयस्स णरवइणो दिण्णो भगवया धम्मलाभो । अवि य– कलिकालकलिलमलबहलपडलपक्खालणेगसलिलोहो। सयलदुहाचलकुलदलणजलियबलसूयणत्थसमो॥८४॥ चिंतामणि-कप्पडुम-कामियघड-कामधेणुमाईण । जियउज्जियमाहप्पो भवण्णवोत्तारणतरंडो ॥८५॥ सग्गा-ऽपवग्णदुग्गमनरगऽगलभंगमोग्गरसमाणो । तुह होउ धम्मलाहो नरेंद ! जिण-गणहरोद्दिट्ठो।८६। एवं च महाविच्छड्डेणं पविठ्ठा णगरे सूरिणो । वंदियाइं समत्थचेइयाइं । आवासिया य जइजणजोग्गासु अहाफासुयासु वसहीसु । तओ पइदिणं सिरिसमणसंघेण बहुमण्णेज्जमाणाणं सायवाहणणरिदेणं सम्माणेजमाणाणं विउसवग्गेण पज्जुवासेजमाणाणं णीसेसजणेण वंदेज्जमाणाणं भवियकमलपडिबोहणपराणं समागओ कमसो पंजोसणासमओ। तत्थ य मरहट्ठयदेसे भद्दवयसुद्धपंचमीए इंदस्स जत्ता भवइ । तओ विण्णत्ता सूरिणो राइणा जहा 'भयवं ! पन्जोसणादिवसे लोयाणुवत्तीए इंदो अणुगंतव्वो होही, तेण कारणेण वाउलत्तणाओ चेईयपूया-ण्हवणाइयं काउं न पहुप्पामो, ता महापसायं काऊण करेह छट्ठीए पन्जोसवणं' । तओ भगवया भणियं "अवि चलइ मेरुचूला, सूरो वा उग्गमेज अवराए । न य पंचमीऍ रयणिं पजोसवणा अइक्कमइ ।।२१३।। १. ला० लसीह ! ॥ २. सं० वा० सु० रिवहु ॥ ३. ला० णायर ! ॥ ४. ला० लणोक्कस ॥ ५. ला० जिणउजियः॥ ६. ला० साइवा ॥ ७. ला० हणं कुणं ताणं स ।। ८. ला० पजोवस(सव)णास ॥ ९. ला. 'सवणा॥ १०. ला० इयाणं पू ।। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ कालकाचार्यकथानकम् जओ भणियमागमे जहा णं भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइक्वंते वासावासं पजोसवेइ, तहा णं गणहरा वि। जहा णं गणहरा तहा णं गणहरसीसा वि । जहा णं गणहरसीसा तहा णं अम्ह गुरुणो वि । जहा णं अम्ह गुरुणो तहा णं अम्हे वि वासावासं पजोसवेमो, नो तं रयणिमइक्कमिजा" । राइणा भणियं 'जइ एवं तो चउत्थीए हवइ ?' । सूरीहिं भणियं ‘एवं होउ णत्थित्थ दोसो, जओ भणियमागमे-आरेणावि पजोसवेयव्वमिति । तओ हरिसवसुप्फुल्ललोयणेण जंपियं राइणा 'भगवं ! महापसाओ, महंतो अम्हाणमणुग्णहो, जओ मम अंतेउरियाणं पव्वोववासपारणए साहूणं उत्तरपारणयं भवेस्सई' । तओ गिहे गंतूण समाइट्टाओ अंतेउरियाओ 'तुम्हाणममावासाए उववासो होही, पारणए य साहूणं उत्तरपारणयं भवेस्सइ, ता तत्थ अहापवत्तेहिं भत्त-पाणेहिं साहुणो पडिलाहेह' । जओ भणियमागमे पहसंत-गिलाणेसु य आगमगाहीसु तह य कयलोए । उत्तरवारणगम्मी दाणं तु बहुफ(प्फ)लं होइ ।।२१४।। पज्जोसवणाए अट्ठमं ति काऊण पाडिवए उत्तरपारणयं भवइ । तं च दद्दूण तम्मि दिणे लोगो वि साहूणं तहेव पूयं काउमाढत्तो । तप्पभिई मरहट्ठविसए समणपूयालओ णाम छणो पवत्तो । एवं च कारणेण कालगायरिएहिं चउत्थीए पजोसवणं पवत्तियं समत्थसंघेण य अणुमन्नियं ।। तथा चावाचि कारणिया य चउत्थी चेइय-जइसाहुवासणनिमित्तं । उद्दिसिय सालवाहण पयट्टिया कालियऽजेण ।।२१५।। जतव्वसेण य पक्खियाईणि वि चउद्दसीए आयरियाणि, अण्णहा आगमोत्ताणि पुण्णिमाए त्ति । एवंविहगुणजुत्ताण वि कालयसूरीणं कालंतरेण विहरमाणाणं कम्मोदयवसेणं जाया दुन्विणीया सीसा। तओ चोइया सूरीहिं । तहा वि ण किंचि पडिबजंति । तओ पुणो वि भणिया जहा “भो भो महाणुभावा ! उत्तमकुलसंभवा महापुरिसा ! इंदाईण वि दुलहं लद्धं सामण्णमकलंकं ।८७। एवमविणीययाए गुरुआणाइक्कम विहेऊण । दुक्करतवचरणमिणं मा कुणह णिरत्थयं वच्छ ! । ८८। १. ला० न तं ।। २. ला० “ए भगवओ (भवउ)सू ॥ ३. ला० लाणम्मि य आगमगहणे य लोयकय दाणे। उत्तरपारणगम्मि य दाणं तु बहुफ(प्फ)लं भणियं ।।२१४॥४. एतादृचिह्नान्तर्गत: पाठ: मुद्रित पाठभेदे प्रत्यन्तरोपलब्धत्वेन निर्दिष्टः मुद्रिते प्रत्यन्तरगत वोपालभ्यते ॥ ५. स्वस्तिकद्विकान्तर्गत: पाठ: प्रत्यन्तरे नास्तीति मुद्रिते निर्दिष्टम् ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके यत उक्तमागमे छट्ठ-ऽट्ठम-दसम-दुवालसेहिँ मास-ऽद्धमासखवणेहिं । अकरितो गुरुवयणं अणंतसंसारिओ होइ ।।२१६ ।। गुरुआणाभंगाओ रणे कटुं तवं पि काऊण । तह वि हु पत्तो नरगं सो कूलयवालओ साहू ।।२१७ ।। गुरुआणाइक्कमणे आयावेतो करेइ जइ वि तवं । तह वि न पावइ मोक्खं पुव्वभवे दोवई चेव ।।२१८।।" एवं पि भणिया ते ण मुंचंति दुन्विणीययं, ण करेंति गुरुवयणं, न विहिंति पडिवत्तिं, जपंति उल्लुंठवयणाई, कुणंति सेच्छाए तवं, आयरंति णिययाभिप्पारण सामायरिं । तओ गुरुणा चिंतियं 'तारिसा मम सीसा उ जारिसा गलिग:भा । गलिगद्दभे चइत्ता णं दढं गेण्हइ संजमं ।।८९। तथा छंदेण गओ छंदेण आगओ चिट्ठए य छंदेण । छंदे ये वट्टमाणो सीसो छंदेण मोत्तव्वो ।।२१९।। ता परिहरामि एए दुविणीयसीसे' । तओ अण्णम्मि दिणे रयणीए पसुत्ताणं साहिओ सेजायरस्स परमत्थो जहा 'अम्हे नियसिस्ससिस्साणं सागरचंदसूरीणं पासे वच्चामो, जइ कहवि आउट्टा णिब्बंधेण पुच्छंति तओ बहु खरंटिऊण भेसिऊण य साहेजसु' । ति भणिऊण णिग्गया। पत्ता य अणवरयसुहपयाणएहिं तत्थ, पविट्ठा निसीहियं काऊण । 'थेरो को वि अजओ' त्ति काऊण अवज्जाए, अप्पुव्वं द₹णं अब्भुट्ठाणं तु होइ कायव्वं । साहुम्मि दिट्ठपुव्वे जहारिहं जस्स जं जोगं ।।२२०।। इति सिद्धतायारमसुमरेऊण न अब्भुट्ठिओ सागरचंदसूरिणा । वक्खाणसमत्तीए य णाणपरीसहमसहमाणेण पुच्छ्यिं सागरचंदेण ‘अजया ! केरिसं मए वक्खाणियं ?' । कालयसूरीहिं भणियं 'सुंदरं' । तओ पुणो वि भणियं सागरचंदसूरिणा ‘अजय ! पुच्छेहि किं पि'। कालगसूरीहिं भणियं 'जइ एवं तो वक्खाणेह अणिच्चयं'। सागरचंदेण भणियं 'अण्णं विसमपयत्थं १. ला. दहा ।। २. ला० अ ।। ३. ला० 'यसिस्से ॥ ४. सं० वा० सु० पयाणेहिं ।। ५. सं० वा० सु० "च्छिया सा॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकाचार्यकथानकम् १७९ वक्खाणावेसु' । तेण भणियं 'न विसमपयत्थमवगच्छामि' (ग्रन्थागू ४०००) । तओ समाढत्तो वक्खाणेउं 'तत्ति (?त्तं) धम्मह किं न चिंतेह ?' इच्चाइ । अत्राऽन्तरे भणितं कालिकाचार्य: 'नास्ति धर्मः प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरातिक्रान्तत्वात् खरविषाणवदिति । उक्तं च प्रत्यक्षेण ग्रहोऽर्थस्य निश्चितेन प्रशस्यते । तदभावेऽनुमानेन वचसा तद्ध्यतिक्रमः ।।२२१।। न तु प्रत्यक्षादिना प्रमाणेनाऽसौ गृह्यत इत्यलं तद्विषययत्नेन' । 'अव्वो ! पियामहाणकारी को वेस खडेक्करो मण्णमाणेण भणियं सागरचंदेण "तत्र यदुक्तं नाऽस्ति धर्मस्तत्र प्रतिज्ञापदयोर्विरोधं प्रकटमेव लक्षयाम:' नाऽस्ति चेद् धर्म इति कथम् ?, धर्म इति चेद् नास्तीति कथम् ? । अथ परैर्धर्मस्याभ्युपगतत्वादेवमुच्यते तर्हि भवन्तं पृच्छामः परकीयोऽभ्युपगमो भवत: प्रमाणमप्रमाणं वा ? । यदि प्रमाणम्, सिद्धं न: साध्यम् । अथाऽप्रमाणं तर्हि स एव दोषः । यच्चोक्तं प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरातिक्रान्तत्वात् तदप्यसद्, यतः कार्यद्वारेणाऽपि धर्मा-ऽधर्मों प्रत्यक्षेण गृह्यते इति । उक्तं च धर्माजन्म कुले शरीरपटुता सौभाग्यमायुर्धनं, धर्मेणैव भवन्ति निर्मलयशो-विद्या-ऽर्थसम्पच्छ्रियः । कान्ताराच्च महाभयाच्च सततं धर्मः परित्रायते, धर्मः सम्यगुपासितो भवति हि स्वर्गा-ऽपवर्गप्रदः ।।२२२।। अन्यच्चनियरूवोहामियखयरराय-मयण व्व के वि दिसंति । मंगुलरूवा अण्णे पुरिसा गोमाउसारिच्छा ।।९०। परिमुणियासेससमत्थसत्थसुरमंतिविब्भमाके वि ।अण्णाणतिमिराच्छण्णाअण्णे अंधव्व वियरंति।९१। संपत्ततिवग्गसुहा एगे दीसंति जणमणाणंदा । परिवज्जियपुरिसत्था उब्वियणेज्जा विसहर व्व ।।१२।। धरियधवलायवत्ता बंदियणोग्घुट्ठपयडमाहप्पा । वच्चंति गयारूढा, अण्णे धावंति सिं पुरओ ।।९३।। पणइयणपूरियासा निम्मलजसभरियमहियलाभोगा । अण्णे उ कलंकेल्लापोट्टे पि भरंति कह कह वि।९४। अणवरयं देंताण वि वड्डइ दव्वं सुयं व केसिंचि। अण्णेसिमदेंताण वि घेप्पइ णरणाह-चोरेहि।९५। इय धम्मा-ऽधम्मफेलं पच्चक्खं जेण दीसए साहु । मोत्तूणमहम्मं आयरेण धम्म चिय करेसु ।९६। इओ य ते दुट्ठसीसा पभाए आयरियमपेच्छमाणा इओ तओ गवेसणं कुणंता गया सेज्जायरसमीवं। पुच्छिओ य जहा ‘सावय ! कहिं गुरुणो ?' । तेण भणियं 'तुब्भे चेव जाणह णियं १. सं० वा० सु० तत्थि धम्मह (?) ॥ २. ला० 'द्वारेण प्रत्यक्षेण धर्मा-धर्मां गृह्यते ॥ ३. ला० रनाहम ॥ ४. ला० एक्के ॥ ५. सं० वा० सु० लाइव ॥ ६. ला० धाविती ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके गुरुं, किमहं वियाणामि ?' । तेहिं भणियं 'मा एवं कहेहि, न तुज्झ अकहिऊण वच्वंति' । तओ सिज्जायरेण भिउडिभासुरं वयणं काऊण भणिया “ अरे रे दुट्ठसेहा ! ण कुणह गुरूण आणं, चोइज्जंता वि न पडिवज्जह सारण - वारणाईणि, सारणाइविरहियस्स आयरियस्स महंतो दोसो । जओ भणियमागमे— जह सरणमुवगयाणं जीवाण णिकिंतए सिरे जो उ । एवं पूरणियाणं आयरिओ असारओ गच्छे । । २२३ । । जहाए वि लिहंतो न भद्दओ सारणा जहिं णत्थि । डंडेण वि ताडेंतो स भद्दओ सारणा जत्थ ।। २२४ ।। सारणमाइविउत्तं गच्छं पि य गुणगणेण परिहीणं । परिवत्तणावग्गो चइज इह सुत्तविहिणा उ । । २२५ । । 1 तुभे यदुव्विणीया 'आणाए अवट्टमाण' त्ति काऊण परिचत्ता । ता पावा ! ओसरह मम दिट्ठीपहाओ, अण्णा भणेस्सह—ण कहियं ति” । तओ भीया सेज्जायरं खमावेत्ता भणति । अवि य— “दंसेहि एगवारं अम्ह गुरू जेण तं पसाएउं । आणाणिद्देसपरा जावज्जीवइ वट्टामो ॥९७॥ किंबहुना ? सूरीणं संपइ हियइच्छियं करेस्सामो । तो कुणसु दयं सावय ! सोहेहि 'कहिं गया गुरुणो ?” ९८। तओ 'सम्मं उवट्ठिय'त्ति नाऊणं कहिय सब्भावं पेसिया तत्थ । गच्छंतं च साहुवंदं लोगो पुच्छइ ‘को एस वच्चइ ?' । ते भांति 'कालगसूरी' । सुयं च सवणपरंपराए सागर चंदेण सूरिणा पियामहागमणं । पुच्छिओ कालगसूरी 'अज्जय ! किं मम पियामहो समागच्छइ ?' । तेण भणियं 'अम्हेहि वि समायण्णियं । तओ अण्णम्मि दिने तयणुमग्गलग्गं पत्तं साहुवंदं । अयं सागरचंदेण । तेहिं भणियं 'उवविसह तुब्भे, साहुणो चेव एए, गुरुणो उण पुरओ समागया' । आयरिएण भणियं 'ण को वि इत्थाऽऽगओ खडेक्करमेगं मोत्तूण' । इत्थंतरम्मि समागया वियारभूमीओ कालगसूरिणो । अब्भुट्टिया य पाहुणगसाहुवंदेण । सागरचंदेण भणियं 'किमेयं ?' । साहूहिं भणियं 'भगवंतो कालगसूरिणो एए' त्ति । तओ लज्जिएण अट्ठा खामिया, बहुं च झूरिउमाढत्तो । गुरूहिं भणियं ' मा संतप्प, न तुज्झ भावदोसो, किंतु पमादोसो । अण्णया य वालुयाए पत्थयं भरावेत्ता एगत्थ पुंजाविओ, पुणो वि भराविओ, पुणो वि १. ला० एवं सारणियाणं ॥ २. सं० वा० सु० 'विहणाओ । ३. सं० वा० सु० 'साहेउं ॥ ४. 'वाय चिट्ठामो || ५. सं० वा०सु० साहेह क' ।। ६. ला० 'चंदसू' ।। ७. सं० वा० सु० 'अम्हेहिं समा ॥ ८. सं० वा० सु० 'यस्स | अ || Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालकाचार्यकथानकम् १८१ पुंजाविओ। एवं च भरिओव्विरेयणं कुणंतस्स सेसीहूओ पत्थओ । तओ पुच्छिओ गुरूहिं जहा 'बुज्झियं किंचि ?' । तेण भणियं ‘ण किंचि' । गुरूहि भणियं “जहेस वालुयापत्थओ पडिपुण्णो तहा सुहम्मसामिस्स पडिपुण्णं सुयनाणं साइसयं च, तयविक्खाए जंबूसामिस्स किंचूणं अप्पाइसयं च, तत्तो वि पभवस्स अप्पतरमप्पतराइसयं च जओ छट्ठाणगया ते वि भगवंतो सुव्वंति । एवं च कमसो हीयमाणं हीयमाणं जाव मह सयासाओ तुह गुरुणो अइहीणं, तस्स वि सयासाओ तुह हीणतरं ति । किंच पाएण पणट्ठाइसयं अप्पं च दूसमाणुभावाओ सुयं, ता मा एवंविहेण वि सुएण गव्वं उव्वहसु । भणियं च आसव्वण्णुमयाओ तरतमजोगेण हुंति मइविभवा । मा वहउ को वि गव्वं 'अहमेक्को पंडिओ एत्थ' ।।२२६ ।। इय अच्छेरयचरिओ गामा-ऽऽगर-नगरमंडियं वसुहं ।आणावडिच्छबहुसिस्सपरिवुडोविहरई भगवं९९ अहअण्णयासुरिंदोभासुरबुंदीपलंबवणमालो । हार-ऽद्धहार-तिसरय-पालंबोच्छइयवच्छयलो।१००। वरकडय-तुडियथंभियभुयाजुगो कुंडलुल्लिहियगंडो । वरयररयणकरुक्कडकिरीडरेहंतसिरभागो।१०१। किं बहुणा ? सिंगारियसयलंगो विमलवत्थपरिहाणो । सोधम्मसुरसभाए तिण्हं परिसाण मज्झम्मि १०२ सत्तण्हं अणियाणं अणियाहिवईण तह य सत्तण्हं । तायत्तीसयअंगाभिरक्खसामाणियसुराणं ।।१०३।। सोहम्मनिवासीणं अण्णसिं लोगपालमाईण । सुरदेवीणं मज्झे सक्को सीहासणवरम्मि ।।१०४।। उवविठ्ठो ललमाणो वरिट्ठतियसाहिवत्तरिद्धीए । आलोइय(?यइ) लोगद्धं विउलेणं ओहिणाणेणं।१०५। तो पेच्छइ सीमंधरसामिजिणं समवसरणमज्झत्थं । कुणमाणं धम्मकहं पुव्वविदेहम्मि परिसाए ।१०६। उट्टित्तु तओ सहसा तत्थ ठिओ चेव वंदई भगवं । सुरणायगरिद्धीए तओ गओ सामिमूलम्मि ।।१०७।। वंदित्तु सए ठाणे उवविसिउंजा सुणेइ जिणवयणं । ता पत्थावेण जिणो साहइ जीवे निगोयखे ।।१०८। तं सोऊण सुरिंदो विम्हयउप्फुल्ललोयणो एवं । सिरकयकयंजलिउडो जंपइ परमेण विणएणं ।।१०९।। 'भगवं!भारहवासे इय सुहुमनिगोयवण्णणं काउं । किंमुणइ कोइ संपइ निरइसये दूसमाकाले?'।११०। तो भणइ जिणो ‘सुरवइ ! कालगसूरी णिगोयवक्खाणं । भरहम्मि मुणइ अज वि जह वक्खायं मए तुम्ह' ॥१११॥ तं सोउं वज्जहरो कोऊहल्लेण इत्थ आगंतुं । काउं बंभणरूवं वंदेत्ता पुच्छई सूरिं ।।११२ ।। 'भगवं! णिगोयजीवा पण्णत्ताजे जिणेहिं समयम्मि । ते वक्खाणह मज्झं अईव कोऊहलं जम्हा'।११३। १. ला० "लुल्लहि' ।। २. सं० वा० सु० वररयणकरुक्कुरडक्किरीड' ।। ३. ला० ण्णेसि वि लो ॥ ४. ला० ता ॥ ५. ला० को वि ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके तो भणइ मुणिवरेंदो जलहरगंभीरमहुरणिग्घोसो । 'जइ कोउगं' महंतं सुणसु महाभाग ! उवउत्तो ।११४। गोलाय असंखेजोऽसंखनिगोओ यगोलओभणिओ। एक्केक्कम्मि णिगोए अणंतजीवा मुणेयव्वा'।११५/ इच्चाइ वित्थरेणं वक्खाए सूरिणा सहस्सक्खो । सविसेसणाणजाणणणिमित्तमह पुच्छए पुण वि ।।११६। "भगवं! अणासगमहं काउं इच्छामि वुड्भावाओ। तामह केत्तियमाउं ?' साहेहि जहट्ठियं णाउं' ।।११७।। तोसुयणाणेण गुरू उवउत्ता जाव ताव वढंति । दिवसा पक्खा मासा वासा वासस्सया पलिया ।।११८।। अयरा उ दुण्णि तस्सा-ऽऽउमाणमवलोइऊण तो सूरी ।। सविसेसुवओगाओ जाणइ ‘वजाउहो एसो' ॥११९॥ 'इंदो भवं' ति सूरीहिं जंपिए ललियकुंडलाहरणो । जाओ णियरूवेणं पुरंदरो तक्खणं चेव ।।१२० ।। भूलुलियभाल-करयल-जाणू रोमंचकंचुइज्जतो । भत्तिभरणिब्भरंगो पणमइ सूरीण पेयकमलं ।।१२१। “अइसंकिलिठ्ठदूसमकाले वितए जिणागमो जेण । धरिओ गुणगणभूसिय ! तुज्झ णमो होउ मुणिणाह ! ॥१२२ ।। णिरइसए वि हु काले णाणं विप्फुरइ निम्मलं जस्स । विम्हावियंतियलोक्कं तस्स णमो होउ तुह सामि !॥१२३॥ जेणोण्णई तए पवयणस्ससंघस्स कारणे विहिया । अच्चब्भुयचरिएणं पयपउमं तस्स तुह नमिमो'।१२४॥ इय थोऊण सुरिंदो सुमरंतो सूरिनिम्मलगुणोहं । आयासेणुप्पइउं पत्तो सोहम्मकप्पम्मि ।।१२५।। सूरी वि य कालेणंजाणेत्ता णिययआउपरिमाणं । संलेहणं विहेउं अणसणविहिणा दिवं पत्तो ।।१२६।। [कालकाचार्यकथानकं समाप्तम् । २२.] इति श्लोकार्थः ।। ६१।। यद्येवं न किमप्यसौ विशिष्टप्रयोजनं साधयिष्यत्यल्पत्वाद् निरतिशयत्वाच्च इत्यारेकापनोदार्थं श्लोकमाह पेयमेगं पि एयस्स भवणिव्वाहयं भवे । इत्तोऽणंता जओ सिद्धा सुव्वंते जिणसासणे ।। ६२।। 'पदं' वाक्यम्, ‘एकमपि' अद्वितीयमपि, ‘एतस्य' आगमस्य, 'भवनिर्वाहक' संसार १. ला० जा, असंखणिग्गोयगो ॥ २. ला० रा वि दोण्णि ॥ ३. ला० पइक' ॥ ४. ला० 'यतेलोकं ॥ ५. ला० पयमेकं पि०। ता० पयं एवं पि ॥ ६. ला० एत्तो० ता० तत्तो ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रौहिणेयककथानकम् १८३ निस्तारकम्, “भवे''त्ति भवति-जायते, रोहिणेयकादीनामिव । हेतुमाह 'इत्तो'त्ति अत: अस्मादागमादिति सम्बध्यते। 'अनन्ता:' सङ्ख्यातीता:, 'यत:' यस्मात्, 'सिद्धा:' क्षीणनिःशेषकर्मांशा: प्राणिन इति गम्यते, 'श्रूयन्ते' समाकर्ण्यन्ते, 'जिनशासने' अर्हद्दर्शने । उक्तं च एकमपि तु जिनवचनाद्यस्मानिर्वाहकं पदं भवति । श्रूयन्ते चानन्ता: सामायिकमात्रपदसिद्धाः ।।२२७।। इति श्लोकाक्षरार्थः ।।६२ ।। भावार्थस्तु रौहिणेयककथानकादवसेयस्तच्चेदम् [२३. रौहिणेयककथानकम्] अत्थित्थ जंबुदीवे भारहवासस्स मज्झखंडम्मि । जणवयगुणाण ठाणं णामेणं जणवओ मगहा ॥१॥ तत्थऽत्थि सयलतियलोयपायडं तियसणयरसंकासं । रम्मत्तणमाईहिं रायगिहं णाम वरणगरं ।।२।। तत्थ निहयारिवग्गो सिरिवीरजिणिंदपयकमलभसलो । उत्तमसम्मत्तधरो णामेणं सेणिओ राया ।।३॥ णिज्जियरइरूवाओ दुण्णि पहाणाओं तस्स भजाओ। णामेण सुणंदा-चेल्लणाओ गुणरयणरासीओ।४। तत्थऽत्थि सुणंदाए सुबुद्धिमाहप्पविजियतियसगुरू । णीसेसगुणणिहाणं अभयकुमारो त्ति णाम सुओ इओ य तम्मि चेव णयरे अत्थि वेभारगिगूिढगुहागिहगब्भकयणिवासो लोहखुरओ णाम चोरो। जो य, रुद्दो खुद्दो कुरो भीमो साहस्सिओ पयंडो य । णिच्चजियघायणरओ लोहियपाणी महापावो ।।६।। महु-मज-मंससत्तो परमहिलारूयवसणगयचित्तो । वीसत्थमित्तदुहगो परवंचणबहुपवंचेल्लो ।।७।। रायगिहे नगरम्मिं बहुऊसव-पसव-विद्धि-वसणेसु । मत्त-प्पमत्त-वक्खित्त-सुत्त-पवसंतसत्ताणं ॥८॥ लहिऊणं छिद्दाइं हरइ धणं पाणिणो विणासेउं । चोरिक्कयाएँ चेव य अणवरयं कप्पए वित्तिं ।।९।। तस्स य रोहिणिणामेण भारिया तीए कुच्छिसंभूओ । पिउणो गुणेहिँ तुल्लो अत्थि सुओ णाम रोहिणिओ॥१०॥ अह अण्णया कयाई संपत्ते मरणकालसमयम्मि । लोहखुरेणं भणिओ णियपुत्तो एरिसं वयणं ।।११॥ 'जइ कुणसि मज्झ वयणं उवएसं किंपि तो पयच्छामि' । पुत्तेण वि पडिभणिओ भण ताय ! जमभिमयं तुज्झ॥१२॥ जम्हा हु जम्मदाई गुरू य देवो ममं तुमं ताय ! । तुम्हाएसमकाउं कस्सऽण्णस्सा करेस्सामि ?' ।।१३।। १. सं० वा० सु० कं भवति ॥ २. ला० एत्तो त्ति ॥ ३. ला० लतइलो ।। ४. सं० वा० सु० रिगुहागृढगभ ॥ ५. सं० वा० सु० विद्धिसदणेसु ।। ६. ला० तुम्ह ॥ ७. ला० वो तुमं ममं ता॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके तव्वयणं सोऊणं रंजियचित्तो पयंपई जणगो । 'जइ एवं तो वयणं ण हु सोयव्वं जिणिंदस्स ।।१४।। जो गुणसिलए सुर-नरपहुपणयपओ पयासई धम्मं । तियसकयसमवसरणम्मि संठिओ वीरणामो त्ति । १५ । सेसं जं तुह रोयइ कुणसु तयं वच्छ ! निव्वियप्पेण' । इय उवएसं दारं पंचत्तं पाविओ एसो ।। १६ ।। इयरो वि मयगकिच्वं काउं जणयस्स चोरिय कुणइ । निद्धंधसपरिणामो कुव्वंतो पिउसमाएसं ।। १७ । इत्थंतरम्मि य नर-विज्जाहरा-ऽसुरा-ऽमरविसरपहुंपणमिज्जमाणपायपउमजुगलो कणयमयपउमपंतिगब्भ-दुल्ललियपयप्पयारो चोदससमणसहस्ससंपरिवुडो तित्थयररिद्धीए दिप्पंतो गामा -ऽऽगरणगराइसु विहरमाणो समागओ भगवं महावीरो । विहियं तियसेहिं समवसरणं । कहिउं च पवत्तो सजलजलहरगंभीराए जोयणणीहारिणीए भारईए धम्मँदेसणं । I इत्थंतरम्मि य सो तक्करो नियगेहाओ निग्गओ रायगिहं पर पट्ठिओ । अंत समवसरणंपच्चासण्णे समागएण चिंतियं 'हंत ! जइ एएण मग्गेण वच्चामि तओ भगवओ वयणसवणेण जणयआणाए भंगो भवइ, न य अण्णो मग्गो अत्थि, ता कहमेस वग्घदुत्तीणाओ णित्थरेयव्वो ?' । त्ति परिभावेमाणस्स बुद्धी जाया जहा 'उभयकण्णे करसाहाहिं ठइऊण दुयमवक्कमामि' त्ति । तओ तहेव काऊण गओ रायगिहं । तत्थ य ईसरगेहेसुं खत्तखणणाइणा दव्वं गेहेऊण वच्चइ णिट्ठाणं । १८४ एवं दिणे दिणे कुणमाणस्स अण्णम्मि दिणे समवसरणऽब्भासमागयस्स भग्गो चरणतले कंगो, सिग्घगण खुत्तो गाढं, न चएइ अणवणीएण गंतुं । तओ 'न अण्णा गई' त्ति एगसवणाओ अंगुलीमवणेऊण जाव कंटयं उद्धरेइ ताव देवसरूवं वैक्खाणंतस्स समणस्स भगवओ पवित कण्णे अणमिसणयणा अमिलौणमल्लदामा नीरयसरीरा भूमिअसंफासिणो देव' त्ति वयणं । 'हा ! पभूयं निसुयं' ति झेंड त्ति कंटयं उद्धरेऊण तर्हेवे कण्णं मुद्दिऊण सिग्घमवक्कंतो । ओ पइदिणं मुसिज्जमाणं णगरमवलोइऊण गया णगरमहंतया राइणो समीवे । ढोइऊण उवायणं सम्माणा य विपणविउमाढत्ता, अवि य— 'तुह देव ! भुयापंजरगयाण अम्हाण किंचि णत्थि भयं । किंतु मुसिज्ज नगरं चोरेहिं सामिवियलं व ॥ १८ ॥ तादेव ! हा किन ह रक्खा होइ सयलणगरस्स । किं बहुणा भणिएणं ?, संपइ देवो पमाणं ति' । १९ तं च सोऊण दट्ठोट्टभिउडि भासुरेण भणिओ दंडवासिओ राइणा जहाँ रे रे ! किमेवं नगरं १. ला० तो ॥ २. ला० 'रिडं कु' ॥ ३. सं० वा० सु० 'हुणमेज' ॥ ४. ला० 'ढभइदुल्ल' || ५. ला० विरइयं ॥ ६. ला० 'लयगं' ।। ७. ला० म्मस्स दे ॥ ८. ला० °मि तो भ° ॥ ९. ला० ण य ग ॥ १०. सं० वा० सु० 'सुख' ॥ ११. ला० 'तणओ ण खु ॥। १२. ला० वक्खाणं समण ॥ १३. ला० 'लायम ॥ १४. ० झति ॥ १५. ला० °व य क ॥ १६. ला० ण नत्थि किंचि भ° ॥ १७. ला० हा अरे रे || Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रौहिणेयककथानकम् १८५ मुसेजइ ?'। तेण भणियं जहा 'देव ! किमहं करोमि जओ दिट्ठो वि सो चोरो ण घेत्तुं पारियइ, विजुक्खित्तकरणेण गेहाओ गेहं गंतूण पागाराओ णिग्गच्छइ, वयं तु मग्गेण जाव तयणुमग्गेण लग्गामो ताव सो न नजइ कत्थइगओ ?' त्ति, सुव्वइ य सवणपरंपराए जह अत्थि महाचोरो रोहिणीओ णाम, न य अम्हेहिं दिह्रो णाओ वा, ता देव ! अण्णस्स कस्सइ समप्पेहि दंडवासियत्तणं, अहं पुण अणेगोवाएहिं पि ण सक्केमि तं चोरं घेत्तुं' ति । तओ निरूवियं अभयकुमारस्स वयणं राइणा । अभयकुमारेण वि सिक्खविओ दंडवासिओ जहा 'दिवसओ चाउरंगिणीसेण्णं पउणीकाऊण तं च चोरं णगरे पविलृ णाउं बाहिं सव्वणगरं चाउरंगबलेण वेढित्ता अप्पमत्तेहिं होयव्वं जोहे तज्जिऊण अब्भंतरे हक्केयव्वो, तओ पच्छा जया विजुक्खित्तकरणं दाउं भूमीए निवडइ तया सिग्धं गहेयव्वो' । तलारेण वि एगम्मि दिणे सव्वं तहेव पउणीकयं । तेण वि तम्मि दिवसे गामंतरगएण तं ण णायं। अयाणमाणो य पविठ्ठो णगरमज्झे, जाव तहेव गहिओ, बंधेऊण समप्पिओ सेणियरायस्स । तेण वि अइकोहाहिभूएण वज्झो समाणत्तो । तओ भणियमभयकुमारमहामंतिणा जहा 'देव ! ण एस सलोद्दो गहिओ जेण णिव्वियारं निग्गहेजइ, अवियाणियसरूवो चोरो वि रायउत्तो गणेज्जई' । सेणिएण भणियं 'ता किं किजउ ?' । अभयकुमारेण भणियं 'वियारेऊण णिग्गहेजह' । तओ पुच्छिओ सेणिएण जहा 'को तुमं ?, कत्तो वा समागओ ?, भवसि वा तुमं रोहिणेयगो ?' । तेण वि णियणामासंकिएण भणियं जहा 'अहं सालिग्गामवत्थव्वगो दुग्गचंडाहिहाणो णाम कोडुबिओ, पओयणवसेण एत्थाऽऽगओ, पेच्छणयलोभेण ठिओ एगत्थ देवउले महँई रयणिं, तओ जाव गिहाभिमुहं वच्चामि ताव हक्किओ दंडवासियपुरिसेहिं, तओ भएण करणं दाऊण जाव सालाओ निग्गच्छामि ताव गहिओ तुम्ह पुरिसेहिं, बंधेत्ता य आणीओ एत्थ, संपयं देवो पमाणं' ति । तओ गोत्तीए धराविऊण पेसिओ तत्थ तप्पउत्तिजाणणत्थं एगो पुरिसो। जाव तेण पुट्ठो गामो ताव सो सव्वो वि 'रोहिणिएण पण्णविओ' त्ति काऊण भणइ जहा 'अत्थि इत्थ क्थव्वओ दुग्गचंडो कोडुबिओ परं गामं गओ' त्ति । आगंतूण य तेण णरेण सव्वमक्खायमभयस्स । तओ चिंतियमभयकुमारेण जही ‘एस ण सम्मं जाणेज्जइ, अदिठ्ठचोरो य राया भवइ, ता उवाएण जाणेयव्वो' त्ति पउणीकयं महाविमाणाणुकारिरिद्धिविच्छड्डेणं एगं सत्तभूमियं भवणं, ___ अवि यदेवंगदेवदूसाइविविहवत्थेहिँ जणियल्लोयं । मोत्तियमालापेरंतविविहवररयणथवइल्लं ।।२०।। १. सं० वा० सु० करेमो ॥ २. ला० "णियगो नाम ॥ ३. ला० 'प्पइ(ह)दं ॥ ४. ला० र नयरमज्झे प ॥ ५. ला० "व्वं ति, जोहे ॥ ६. ला० ‘ण य स ॥ ७. ला० 'लोत्तो ॥ ८. सं० वा० सु० हुई रयणी ॥ ९. सं० वा० सु० ओ, संप ॥ १०. ला० 'त्तिवियाणणत्थं ॥ ११. ला० "त्थव्वो दु ॥ १२. ला० 'हा न एस सम्मं ॥ १३. ला० "ल्लोवं ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके वजेंदनील-मरगय-कक्केयणमाइरयणरासीहिं । दससु वि दिसासु भित्तीविहायआबद्धसुरचावं । २१ । वरपंचवण्णपुप्फोवयाररेहंतभूमितलभागं । मणिकोट्टिमपडिबिंबियभित्तीकयचित्तसंघायं ।।२२।। थंभोलंबियचामर-दप्पणसंघायसोहियमुयारं । जियमयणरूवसमवयउम्मत्तजुवाणसयकलियं ।।२३। नवजुळ्वणोद्धराहिं उब्भडसिंगारजणियसोहाहिं । अच्छरसासरिसाहिं समण्णियं वारविलयाहिं ।२४ मुच्छिज्जमाणवरवेणु-वीणरवमिलियगेयलय-तालं । करणंगहाररेहिरनवरसणच्वंतपिच्छणयं ।।२५। वजंतपडह-मद्दलरवरम्मं सयण-आसणसणाहं । सव्वत्तो विणिवारियदिणयरकिरणावलीपसरं ।२६। वररयणनियरउल्लसियकिरणपहयंधयारपब्भारं । किं बहुणा भणिएणं?, तियसविमाणं व पच्चक्खं ।२७। __तओ अभयकुमारेण मजं पाइऊण मत्तो समाणो सोविओ तत्थ पल्लंकोवरि देवदूसंतरिओ सो रोहिणेयगचोरो । खणंतरेण य मयविगमे पडमवणेऊण जाव समुट्ठिओ समाणो दिसालोयं करेइ ताव पेच्छइ तं तारिसमदिठ्ठउव्वं रिद्धिसमुदयं । इत्थंतरम्मि य अभयकुमारसिक्खविएहिं भणियं तेहिं नर-नारीगणेहिं, अवि य 'जय जय नंदा जय जय भद्दा जय नंदा भदं ते, अजियं जिणाहि सत्तुवगं, जियं पालयाहि भिच्चवगं, जियविग्यो इव निवसाहि देव ! नियविमाणमज्ञ, अम्हाणं तुमं सामिओ, तुज्झ अम्हे किंकरा, तुमं देवो उप्पण्णो । ता अणुभुंजाहि एयाओ अच्छराओ, एयाओ रयणरासीओ, इमं विमाणं, इमे य पंचप्पयारे भोए'त्ति । एवमायण्णिऊण जाव चिंतेइ ‘हंत ! किमहं देवो समुप्पण्णो ?' ताव समुवट्ठियं पेच्छणयं। जावाऽऽढत्तो समहत्थो ताव सुवण्णमयदंडधारिणा भणियं एगेणं पुरिसेणं 'अरे ! किमेयमाढत्तं ?' । तेहिं भणियं 'णियपहुपुरओ णियविण्णाणदरिसणं'। तेण भणियं 'दरिसेह, परं देवलोगायारंकारेजउ देवो' । तेहिं भणियं केरिसमायारं ?' । तेण भणियं 'किमेत्तियं पि वीसरियं ?, जओ जो देवलोगे समुप्पज्जइ सो पुत्वभवकयनियसुकयदुकयनिवेयणाणंतरं देवलोगरिद्धिं उवभुंजई' । तेहिं भणियं 'सच्चं, सामिसमागम-णाणंदसमूसुयमणाण विसुमरियमेयं ति, ता पसीयउ अजो !, कारवेजउ देवलोगट्टिई देवो जेण अम्हे णियणिओगमणुचिट्ठामो' । तओ भणिओ तेण रोहिणेयगो जहा 'देव ! पसायं काऊण साहेइ पुवकयं जेण पच्छा देवलोगरिद्धिमुव जह' । तओ चिंतियं तेण जहा 'हंत ! किमेयं एवमेव सच्चं ?, किं वा मम वियाणणत्थं मइमाहप्पदुल्ललिय अभयकुमारमंतिविलसियं ? ति, जइ सच्चं तो कहेजमाणे वि ण दोसो, अह पवंचो तो कहिज्जमाणे गरुओ अणत्थो, ता कहमेयं जाणियव्वयं ?'। ति चिंतेमाणस्स सुमरियं तं कंटयावणयणकाले कण्णपविलृ देवसरूवपडिवायगं भगवओ वयणं। तओ परिभावियं जहा 'जइ तं भगवया वक्खाणियं देवसरूवं मिलइ ता सव्वं सच्चं साहेस्सामि जमेए ___१. ला० ‘टपुव्वं ॥ २. सं० वा० सु० ओ, रय' || ३. ला० एयमा' || ४. ला० कारविजउ॥ ५. ला० व्ववकय ॥ ६. सं० वा० सु० सव्वं, सा ॥ ७. ला० गमाणंदसमू सुयाणं विसु ॥ ८. ला० गविभूइमु ।। ९. सं० वा० सु० णे गुरुओ अ ॥ १०. सं० वा० सु० तं ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रौहिणेयककथानकम् १८७ पुच्छिस्संति, अह णो तो अण्णं किं पि उत्तरं करेस्सामि' । त्ति चिंतिऊण णिरिक्खिया ते तेण, जाव पेच्छइ सव्वे उम्मेस-णिमेसं कुणमाणा मिलाणमल्लदामा पासे य मलाविलसरीरत्तणेण वीयणगहत्था भूमिसंफासकारिणो य । तओ णायं जहा 'सव्वो एस पवंचो' त्ति। तओ ‘उत्तरं किंपि कायव्वं' ति परिभातो पुण वि भणिओ तेणं जहा 'देव ! किमज्ज वि विलंबेजइ ?, किं न पेच्छह सव्वो वि समूसुओ देव-देवीगणो ?' । तओ जंपियं रोहिणियगेणं "जइ एवं तो मए पुव्वभवे दिण्णाई सुपत्तदाणाई, कारावियाइं देवाययणाई, पइट्ठावियाई तेसु वि बिंबाइं, विहियाओ विविहाओ पूयाजत्ताओ, सम्माणिओ सुयण-सयण-बंधुवग्गो, पज्जुवासिया गुरुणो, सुया तस्स सयासाओ धम्मदेसणा, लिहावियाई पुत्थयाई, पालियं सीलं, अत्तसमा सव्वे वि मण्णिया जिया, न जंपियमलियं, परिहरियमदत्तं, जणणिसमाओ मण्णियाओ सव्वाओ वि परजुवईओ, विहिओ संतोसो, भावियाओ भावणाओ अण्णं पि एवंविहं सोहणाणुट्ठाणं मए समायरियं' ति । पडिहारेण भणियं एयं सुंदरं, संपइ असुंदरं पि य साहसु । तेण भणियं ‘ण मए किंचि असोहणं विहियं'। पडिहारेण भणियं 'न एगसब्भावेण जम्मो वोलइ ता जं पि चोरिय-पोरदारियाइयं तं पि निवियप्पं सीसउ' । तेण भणियं 'किमेवंविहेहिं असुहकम्मायारेहिं इत्थ देवलोगे उववजिज्जइ ?'। तओ तेहिं एयमायण्णिऊण साहियं अभयस्स । तेण वि सेणियरायस्स जहा 'देव ! अदिठ्ठचोरो अचोरतुल्लो भवइ, ता जो एवंविहउवाएण वि न नजइ सो कहं चोरो भविस्सइ ?, ता मुच्चउ' । राइणा भणियं 'जइ एवं ता जं तुमं जाणासि तं होउ' त्ति । तओ भवणाओ णिक्कालेऊण मुक्को। रोहिणेयगो वि रायगिहं चेव दद्रूण चिंतिउमाढत्तो 'हंत ! न सोहणो जणओवएसो जओ एगस्स वि भगवा वयणस्स इत्तियं माहप्पं जेण इहलोगे चेव जीवंतओ मुक्को, अण्णहा न नजइ केणई कुमारेण मारिओ हुँतो, परलोगे पुण अवस्सं न सोहणयरं किंपि भविस्सइ, ता ण कजं ईइसेण अणत्थबहुलेण जणगोवएसेणं' । ति चिंतिऊण गओ भगवओ समीवे । तओ वंदिऊण भावसारं थोउमाढत्तो, अवि य'नीसेसजंतुरक्खय ! खयमोहमहानरेंदबलपसर ! पसरंतकेवलण्णाणणायणायाइसब्भाव ! ।।२८।। भावियसमत्थभावण ! वणगय ! णीसेसदुक्खनलिणीण । इण ! भुवणस्स महामह ! महकय ! जिण ! सरण ! रणरहिय ! ।।२९।। जे तुह वयणामयपाणलालसा पाणिणो जए के वि । अणुदियहं ते धण्णा, सफलं चिय जीवियं ताण।३०। १. सं० वा० सु० `म्मेसं नि । २. ला० पुणो वि ॥ ३. ला० पयट्ठा' ॥ ४. ला० ओ पूया ॥ ५. ला० स्सयासाओ ॥ ६. ला० पोत्थ ॥ ७. ला० जीवा ॥ ८. सं० वा० सु० एवं ॥ ९. ला० पि साह ॥ १०. ला० किंपि ॥ ११. सं० वा० सु० पारदाराइयं ॥ १२. ला० विलोगट्ठाणे उव' || १३. सं० वा० सु० वि एवंविहं चेव ।। १४. सं० वा० सु० ओ उवएसस्स ॥ १५. सं० वा० सुइकेणइ कु॥ १६. सं ० वा० सु० इय भुवः॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके अहयं तु पुण अहण्णो पाविट्ठो तुम्ह वयणसवणम्मि । ढँकेऊण य कण्णे झड त्ति वोलिंतओ पुव्विं । ३१ नाह ! अणिच्छंतेण वि जमेगवयणं सुयं मए कहवि । तेणऽज्ज जीविओ हं, भवाओ तह चेव निव्विण्णो । ३२ । १८८ ता तुज्झ णमो सामिय!, संपइ तं कुणसु जेण अचिरेण । लंघेत्तु भवअरण्णं खिप्पं वच्चामि सिद्धिउरं । ३३ । I ओ भगवया कया भवणिव्वेयजणणी धम्मदेसणा । तं च सोऊण पडिबुद्धा बहवे पाणिणो। इत्थंतरम्मि समुल्लसंतजीववीरिएणं समुब्भिज्जमाणरोमंचकंचुगेणं समुप्फुल्लंतवयणसयवत्तेणं समुद्दलिज्जंतकम्मजालेणं समुप्पज्जतेचरणपरिणामेणं विण्णत्तं रोहिणियगेणं जहा 'भगवं ! किमहं जोग्गो पव्वज्जाण व ? ति । भगवया भणियं 'सुड्डु जोग्गो' । तेण भणियं 'जइ एवं ता गेहामि पव्वज्जं, परं अत्थि किंचि सेणियराएण सह वत्तव्वं ' । तओ भणियं सेणियरायेणं जहा 'भो महासत्त ! भण निव्वियप्पं जं ते रोयई । तेण भणियं 'जइ एवं तो महाराय ! एसो सो अहं रोहिणेयगो णाम चोरो, जो सवणपरंपराए तुम्हाण वि पयडो चेव, जेण भगवओ एगवयणप्पाण अहरीकयसुरगुरुमइमाहप्पं पि निरत्थीकयं अभयकुमारमहामंतिमइविलसियं, ता भो महाराय ! मं मोत्तूणण अण्णेण केणावि मुहं तुह नगरं, ता देहि संपयं नियसक्खिणो जेण सेमि तं सव्वं दविणजायं, तओ पच्छा सहलीकरेमि पव्वज्जाए मणुयजम्मं ' ति । तओ णिरूवियमभयकुमारस्स वयणं राइणा । उट्ठओ य अभयकुमारो कोऊहल्लेण य पुरलोगो गओ रोहिणियगेणं सह । दरिसि च गिरि-इ-वणनिगुंज- मसाणाइएसु तं सव्वं थवियदव्वं । समप्पियं अभयकुमारेण जं जस्स संतियं तं तस्स त्ति । रोहिणियगो वि परमत्थं साहिऊण णियमाणुसाण ताणि पडिबोहेत्ता समागओ भगवओ समीवे । सेणिया - ऽभयकुमारेहिं विहिज्जर्माणिनिक्खमणमहिमो विहिणा निक्खता संवेगाइसयाओ करेइ उग्गं तवोणुट्ठाणं । अवि य— कयाइ छट्ठाओ पुणऽट्ठमाओ, दुवालसाओ दसमाइयाओ । चउत्थ-आयंबिल - निव्वियाओ, कयाइ मासाओं तहऽद्धमासा | | ३४।। कयाइ दोमास-तिमासियाओ, तुरि (री) य - छम्मासिय- पंचमासा । तवाओ पारेइ तहा पर्वित्तं करेइ गावलिमाइयं पि ।।३५।। एवं कुणंतस्स तवोवहाणं, सीयं सहंतस्स हिमागमम्मि । आयावयंतस्स य गिम्हयाले, छण्णम्मि संचिट्ठयओ य वासे ।। ३६ ।। १. ला० ढक्केऊण ॥ २. ला० झडित्ति ॥ ३. ला० °यणं मए सुयं क ॥ ४. ला० नित्थिण्णो ॥ ५. ला० ° तचारितपरि ॥ ६. ला० इति । ते ॥ ७. सं० वा० सु० 'यं तो महा ॥ ८. ला० रुणुद्धिमा ॥ ९. ला० दरिसेमि ॥ १०. ला० स्वयणं ॥ ११. ला० च गिरि - गिरिणइ ॥ १२. सं० वा० सु० 'महिम १३. ला० ° तो करेइ संवेगाइसओ उग्गं ॥ || १४. सं० वा० सु० 'वित्ति ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागमाध्ययनाद्युपदेशः १८९ सुक्कस्स लुक्खस्स निमंसयस्स, देदिप्पमाणस्स तवस्सिरीए । आणं कुणंतस्स गुरूण णिच्चं, कमेण पत्तो अह अंतकालो ।।३७।। आपुच्छिऊणं जिणवीरणाहं, काऊण संलेहणमग्गभावो । गीयत्थसाहूहिँ समं गिरिम्मि, गंतूण सुद्धम्मि सिलायलम्मि ।।३८।। विहीएँ पाओवगमं विहेडं, ठवित्तुं चित्ते जिण-सिद्धमाई । चइत्तु देहं तिदिवम्मि जाओ, सुरोत्तमो भासुरबुदिधारी ।।३९।। तओ चुयस्सावि य माणुसत्ते, पहाणरिद्धी पुण धम्मलाहो । पुणो वि देवत्त-सुमाणुसत्तक्कमेण पावेस्सइ सिद्धिसोक्खं ।।४०।। गतं रौहिणेयकथानकम् । २३. इति श्लोकभावार्थः ।।६२।। यस्मादेवं महाप्रभावोऽयमागमस्तस्मात् विहीए सुत्तओ तम्हा पढमं पढियव्वओ । सोच्चा साहुसगासम्मि कायव्वो सुद्धभावओ ।।६३।। 'विधिना' विधानेन मण्डलीप्रमार्जन-निषद्यादान-कालनिवेदनरूपेण, काले विणए बहुमाणे उवहाणे तह [य] अणिण्हवणे । वंजण अत्थ तदुभए अट्ठविहो णाणमायारो ।।२२८ ।। (दश० नि० गा० १८४) इति ज्ञानातिचारवर्जनलक्षणेन च । 'सूत्रत:' पाठरूपतया । 'तस्मात्' इति पूर्ववृत्तसम्बन्धनार्थः । 'प्रथमम्' आदौ श्रवणादिभ्य: समस्तानुष्ठानेभ्यो वा तत्पूर्वकत्वादनुष्ठानानाम् [? 'पठितव्य: अभ्यसनीय:] तदनन्तरं च 'श्रुत्वा' समाकर्ण्य व्याख्यानिकमुखात् । अत्रापि ठाणं पमजिऊणं दोण्णि णिसेजाओं हुंति कायव्वा । एगा गुरुणो भणिया, बीया पुण होइ अक्खाणं।।२२९ ।। (आव०नि० गा० ७०४) निद्दा-विगहापरिवज्जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्ति-बहुमाणपुव्वं उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ।।२३०।। (आव० नि० गा० ७०७) अभिकंखंतेहिं सुभासिया वयणाइँ अत्थसाराई । विम्हियमुहेहिँ हरिसागएहिँ हरिसं जणंतेहिं ।।२३१ ।। (आव० नि० गा० १०८) १. ला० सुक्खस्स तुक्ख ॥ २. सं० वा० सु० णमुग्ग' ॥ ३. ला० तु हियए जि ॥ ४. सं० वा० सु० ‘णुसाइक्क' ।। ५. सं० वा० सु० श्लोकार्थः ॥ ६. सं० वा० सु० 'रं श्रु॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके मूयं हुंकारं वा बाढक्कार पडिपुच्छ वीमंसा । तत्तो प्रसंगपारायणं च परिणिट्ठ सत्तमए । । २३२ ।। (आव० नि० गा० २३) इत्यादिविधिर्वक्तव्यः । ‘साधुसकाशे' यतिसमीपे सुतीर्थत्वात् तेषाम् । ततश्च 'कायव्वो' त्ति कर्तव्यः अनुष्ठेयस्तदुक्तानुष्टानकरणेन । अत्रापि - जोगो जोगो जिणसासणम्मि दुक्खक्खया पउंजंतो । अण्णोण्णमबाहाए असवत्तो होइ कायव्वो ।। २३३ ।। ( ओघनि० गा० २७७) इत्यादिविधिरायोज्यः । ‘शुद्धभावत: ' विशुद्धाध्यवसायेनेति श्लोकार्थः ।। ६३ । । यद्येवं कानि तत्कारणानि ? इति प्र श्लोकमाह सुप्पसण्णा जिणाणाए कारणं गुरुणो परं । पोत्थयाणि य णाणस्स संपयं साहणं तओ ।। ६४ ।। ‘सुप्रसन्नाः' अतिप्रसादवन्त; प्रसादिता हि गुरवः श्रुतं प्रयच्छन्ति । उक्तं चविणओणएहिं पंजलिउडेहिँ छंदमणुयत्तमाणेहिं । आराहिओ गुरुयणो सुयं बहुविहं लहुं देइ । । २३४।। (आव० नि० गा० १३८) ‘जिणाणाए’ जिनाज्ञया=तीर्थकरोपदेशेन, 'विनीतविनेयेभ्यः श्रुतं दातव्यमेव' इत्येवंरूपया । 'कारणं' हेतुः 'गुरवः' यथावच्छास्त्रार्थवेदिनः, 'परं' प्रधानम्, 'पुस्तकानि च ' लिखितजिनागमपत्रसञ्चयरूपाणि, 'ज्ञानस्य' श्रुतज्ञानस्य, 'साम्प्रतम्' अस्मिन् दुःषमाकाले 'साधनं ' निष्पादकम् । ‘तत:’ इत्युत्तरश्लोकसम्बन्धनार्थः । इति श्लोकार्थः ।।६४।। जिणाणाबहुमाणेणं विहाणेणं लिहावए । पोत्थयाणि महत्थाणि वत्थमाईहिं पूयए । । ६५ ।। 'जिनाज्ञाबहुमानेन' तीर्थकरादेशप्रीत्या, 'विधानेन' विधिना, लेखयेत् पुस्तकानि ' महार्थानि ' तल्लिखितग्रन्थानां महार्थत्वेन प्रचुराभिधेयानि, यत एवंविधपुस्तकलेखनस्य बहुगुणत्वात् । तथा हिन ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति, न मूकतां नैव जडस्वभावम् । न चान्धतां बुद्धिविहीनतां च, ये लेखयन्तीह जिनस्य वाक्यम् ।।२३५ ।। लेखयन्ति नरा धन्या ये जैनागमपुस्तकम् । ते सर्वं वाङ्मयं ज्ञात्वा सिद्धिं यान्ति न संशयः । । २३६ । । १. ला० रणात् ॥ अत्रा ॥ २. ला० इतिरुप ॥ ३. ला० 'खकस्य ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागमाध्ययनाद्युपदेशः १९१ ततश्च ‘वस्त्रादिभिः' वेष्टनप्रभृतिभिः । आदिशब्दात् पुष्पाद्यष्टप्रकारपूजाग्रहः । 'पूजयेद्' अर्चयेदिति श्लोकार्थः ।।६५।। इत्थमागमं पुस्तकेषु लेखयित्वा यत् कर्तव्यं तच्छ्लोकेनाह गीयत्थाणं सुसीलाणं पगासिंताणमागमं । विहाणेण मुणिंदाणं दाणं तत्तो निसामणं ।।६६।। 'गीतार्थानां' पठितावबुद्धार्थानाम् । ‘सुशीलानां' शोभनचारित्राणाम्, यतस्त एव योग्या गुणभाजनत्वात्। उक्तं च यावच्छीलं निर्मलं सुप्रशस्तं, तावत्सर्वाः सम्पदो हस्तसंस्था: । तच्चेन्मोहादुज्झितं खण्डितं वा, दोषध्वाङ्गाऽऽवासवृक्षश्च जातः ।।२३७ ।। 'पगासिंताणमागमं ति प्रकाशयतां प्रकटीकुर्वतां व्याख्यानादिद्वारेण, आगमं सिद्धान्तम् । 'विधानेन' विधिना, प्रकाशयतामित्यत्र सम्बध्यते । अविधिप्रकाशने दोषसम्भवात् । यत उक्तम् आमे घडे णिहित्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ । इय सिद्धंतरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ ।।२३८ ।। (जी० भा० गा० २६०१) काकाक्षिगोलकन्यायेनाग्रेतनदानपदेऽपि सम्बध्यते । ततश्च विधानेन ‘मुनीन्द्राणाम्' आचार्याणाम्, 'दान' वितरणम्, पुस्तकानां विधेयमिति भावः । पुस्तकदानविधिप्रतिपादनार्थं चोक्तं वृद्धैः, तथा च दाउं आसण-वत्थ-पत्तपभिई सव्वं मणोमोयगं, ठाऊणं पुरओ कयंजलिउडं वत्तव्वमेवं जहा । 'संसारे जलहिम्मि दुत्तरतरे तुम्हे तरंडं जओ, वक्खाणेण इमस्स मज्झ परमा कज्जा पभो ! णिजरा' ।।२३९।। उपलक्षणं च पुस्तकदानम् । यत:पत्त पसत्थ सुभुञ्ज सुविहियहु, पोत्थयजोग्गहु तह कत्तणियहु । लेहणि खडिय सुवेढण दोरा, देंतु लहइ फलु णाणह केरा ।।२४०।। 'तत्तो निसामणं ति तत: तेभ्य: सकाशाद् निशामनं श्रवणं तेषां पुस्तकानामिति श्लोकार्थः ॥६६॥ तथा १. ला० "नकप्र' | २. सं० वा० सु० "द्धागमानाम् ॥ ३. ला० पभियं स॥ ४. सं० वा० सु० णं पुस्त' ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण तृतीय स्थानके कुज्जागमविहाणेणं पोत्थयाणं च वायणं । उग्गहं च पयत्तेण कुज्जा सव्वण्णुसासणे ।।६७।। 'कुर्याद्' विदध्यात्, ‘आगमविधानेन' सिद्धान्तोक्तन्यायेन, पुस्तकानां च ‘वाचनं' स्वयमुच्चारणम् । चकारोऽनुक्तसमुच्चये, तेन येषामेव पुस्तकानां वाचनेऽधिकारोऽस्ति गृहस्थस्य तान्येव वाचनीयानि, न शेषाणि आज्ञाभङ्गा-ऽनवस्था-मिथ्यात्व-विराधनादिमहादोषकारित्वात् । तत्र चोपधानादिकरणेऽनधिकारित्वात् गृहस्थस्य तद्वाचने आज्ञाभङ्गः, तद्भङ्गाच्च धर्मस्याऽप्यभावः । उक्तं च आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे जाण 'किं न भग्गं ?' ति । आणं वइक्कमंतो कस्साएसा कुणइ सेसं ? ।।२४१ ।। तथा अहिगारिणा खु धम्मो कायव्वो, अणहिगारिणो दोसो । आणाभंगाउ च्चिय धम्मो आणाइ पडिबद्धो ।।२४२।। तथानवस्थापि, उक्तं च एगेण कयमकजं करेइ तप्पच्चया पुणो अण्णो । सायाबहुलपरंपरवोच्छेओ संजम-तवाणं ।।२४३।। (श्रावकधर्मविधि० गा० ३) मिथ्यात्वं च भणिताकरणात्, उक्तं च जो जहवायं न कुणइ मिच्छिद्दिट्ठी तओ हु को अण्णो ? । वढेइ य मिच्छत्तं परस्स संकं जणेमाणो ।।२४४।। विराधनां च देवतादिभ्यः सकाशात् प्राप्नोति, उक्तं च उम्मायं व लभेजा रोगायंकं व पाउणे दीहं । केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ वा वि भंसेज्जा ।।२४५।। 'उग्गहं च' त्ति अवग्रहं च-स्वीकारं च, चकाराद् विप्लवादौ महद्यत्नेन रक्षणं च पुस्तकानामिति गम्यते । ‘प्रयत्नेन' बृहदादरेण मञ्जूषादिस्थापनतः । 'कुर्यात्' विदध्यात् । 'सर्वज्ञशासने' विभक्तिव्यत्ययात् सर्वज्ञशासनस्य अर्हद्दर्शनस्येति श्लोकार्थः ।।६७।। तथा अन्नेसिं भव्वसत्ताणं जहाथामं पगासए । सव्वं वावारमुज्झित्ता कुजा सज्झायमुत्तमं ।।६८।। १. सं० वा० सु० आणं च अइवंतो ।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागमाध्ययनाद्युपदेशः ‘अन्येषाम्' आत्मव्यतिरिक्तानाम्, 'भव्यसत्त्वानां' मुक्तिगमनयोग्यप्राणिनाम्, 'यथाथा - (स्था) म' यथासामर्थ्यम्, 'प्रकाशयेत्' प्रकटीकुर्यात् । यस्मादुक्तं श्रावकवर्णके 'एस णं देवाप्पिया ! णिग्गंथे पावयणे अट्ठे अयं परमट्ठे' इत्यादि । तद्व्याख्यानद्वारेण वा सामर्थ्ये सति प्रकाशयेत् । तथा ‘सर्वं' निःशेषम्, 'व्यापार' गृहकृत्यम्, 'उज्झित्त' त्ति प्रोज्झ्य = त्यक्त्वा, 'कुर्याद्' विधेयात्, ‘स्वाध्यायं' परावर्तनालक्षणम्, 'उत्तम' प्रधानम्, यस्मात् स्वाध्यायेनाप्यागमस्य भक्तिः कृता भवतीति श्लोकार्थः । । ६८ ।। तथा — पुव्वरत्ताऽवरत्तम्मि चिंतेज्जा पणिहाणवं । भावेजा भावणासारं परं अप्पाणमेव य ।। ६९ ।। ‘पूर्वरात्रा -ऽपररात्रे' रात्रिप्रहरद्वयोर्ध्वम्, 'चिन्तयेत्' चेतस्यवस्थापयेत्, आगममित्यध्याहारः प्रणिधानवान्' चित्तसमाधानवान् । तथा 'भावयेत्' परिभावयेत्, 'भावनासारं' भावनाप्रधानम्, ‘परम्’ आत्मव्यतिरिक्तम्, ‘आत्मानमेव च ' स्वयमेव च, अनुप्रेक्षाया अपि स्वाध्यायभेदत्वात्, एतदपि सिद्धान्तकृत्यमेवेति श्लोकार्थः ॥ ६९ ॥ प्रकरणोपसंहारमुपदेशं च वृत्तेनाऽऽह - १९३ एयं जिणिंदागमपोत्थयाणं, किच्चं दिसादंसणमेत्तमुत्तं । सुसावगो सासणभत्तिमंतो, करेज्ज णाऊण जहारिहं ति ।।७० ।। 'ए' ति एतज्जिनेन्द्रागमपुस्तकानाम्, 'कृत्यं' कर्तव्यम्, 'दिसादंसणमेत्तं ' ति दिग्दर्शनमात्रम्, ‘उत्तं’ति उक्तं=प्रतिपादितम् । ततश्च 'सुश्रावक : ' शोभनः श्रमणोपासकः, 'शासनभक्तिमान् ' अर्हद्दर्शनबहुमानवान्, ‘करेज्ज' त्ति कुर्यात्, 'णाऊण 'त्ति ज्ञात्वा = अवबुध्य पूर्वोक्तकृत्यमेव, यथार्हं=यथायोग्यम् । इतिशब्दः प्रकरणपरिसमाप्ताविति वृत्तार्थः ।।७०।। इति श्रीदेवचन्द्राचार्यविरचिते मूलशुद्धिविवरणे तृतीयस्थानकविवरणं समाप्तमिति । १. सं० वा० सु० यथासाम ॥ २. सं० वा० सु० भेदात् ॥ ३. पु० 'त्त वृत्तं ॥ ४. पु० ता० ति ॥ ३२॥ जिणासासणपोत्थयाणं ति तइयं ठाणं ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुकृत्याख्यं चतुर्थं स्थानकम् व्याख्यातं तृतीयस्थानकम् । सम्प्रति चतुर्थमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सहाऽयमभिसम्बन्ध: पूर्वत्र पुस्तककृत्यमभिहितम्, पुस्तकानि च साधुमुखात् श्रोतव्यानि साधुभ्यो देयानि साध्वाधाराणि चेति । अतः साधुकृत्यस्थानकम्, तस्य चेदमादिसूत्रम् मुणीण णाणाइगुणालयाणं, समुद्दचंदाइनिदसणाणं । जयं जया जाण जहाणुरूवं, तयं तया ताण तहा विहेह ।।७१।। 'मुनीनां' साधूनाम् । ‘ज्ञानादिगुणालयानां' ज्ञानप्रभृतिगुणावासानाम् । ‘समुद्रचन्द्रादिनिदर्शनानां' सागर-शशधरप्रमुखदृष्टान्तानाम् । “जयंति यकत् । “जय'त्ति यदा । “जाण''त्ति येषाम् । “जहाणुरूवं"ति यथानुरूपं यथायोग्यम् । “तयं"ति तकत् । “तय"त्ति तदा । “ताण"त्ति तेषाम् । “तह"त्ति तथैव । “विहेह"त्ति कुरुतेति वृत्तार्थः ।।७१। कस्मादेवं मुनीनां यथायोग्यं विधेयम् ? इति प्रश्ने प्रत्युत्तरदानार्थं वृत्तद्वयमाहजं जोणिलक्खागहणम्मि भीमे, अणोरपारम्मि भवोवहिम्मि । कल्लोलमाला व सया भमंता, दुक्खं व सोक्खं व सयं सहंता ।।७२।। मणुस्सजम्मं जिणनाहधम्मं, लहंति जीवा खविऊण कम्मं । महाणुभावाण मुणीण तम्हा, जहासमाही पडितप्पियव्वं ।।७३।। 'यद्' यस्मात् । योनिलक्षगहने' चतुरशीत्युत्पत्तिस्थानलक्षगह्वरे, दीर्घत्वमलाक्षणिकम् । भीमे' भयानके। अणोरपारे' अनर्वाग्भागपर्यन्ते । 'भवोदधौ संसारसमुद्रे । 'कल्लोलमालावत्' लहरीसङ्घातवत् । 'सदा' सर्वकालम् । 'भ्रमन्तः' पर्यटन्तः । दुःखं वा सौख्यं वा स्वयम्' आत्मना सहन्तः' अनुभवन्तः । ततश्च ‘मनुष्यजन्म' मनुजभवम् । तदनन्तरं च जिननाथधर्मं 'लभन्ते' प्राप्नुवन्ति, 'जीवा:' जन्तवः। 'क्षपयित्वा' खोटयित्वा, 'कर्म' स्वोपार्जितम् । उक्तं च कम्माणं तु पहाणाए आणुपुव्विं कयाइ उ । जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं ।।२४६ ।। (उ० अ० ३ गा० ७) तथा जह महण्णवमज्झि रुव्विल्लकल्लोलपेल्लिय समिल चलइ वलइ, खलइ धावइ तुडिजोइण पुणु कहवि परिभमंत जुगछिड्ड पावइ । १. सं० वा० सु० ला० वहम्मि ॥ २. ला० अणुपुब्विं उत्तराध्ययनसूत्रे ‘आणुपुव्वी' इत्यस्ति ॥ ३. सं० वा० सु० आययिंति ॥ ४. सं० वा० सु० रुवेल्ल ॥ ५. सं० वा० सु० 'ल वलइ, ॥ ६. ला० पक्खलइ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुप्रतिपत्तिप्ररूपणा तह भवसागरि निवडियह दुलहउ माणुसजम्मु, तत्थ वि धण्णउ कोइ लहइ जड़ पर जिणवरधम्मु ।।२४७।। इत्यादि । एवं च स्थिते ‘महानुभावानाम्' अचिन्त्यशक्तियुक्तानाम् 'मुनीनां' साधूनाम् । 'तम्ह'त्ति तस्मात् । 'यथासमाधि' यथासमाधानं यथासमाधौ वा । ' प्रतितर्पयितव्यं' विनयितव्यं विनयवैयावृत्त्यादिकरणप्रीणनेनेति वृत्तद्वयार्थः ॥ ७२-७३ ।। तदेवं प्रतितर्पणमभिधातुकामो विनयमूलत्वाद्धर्मस्य, उक्तं च मूलाओं खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाओ पच्छा समुविंति साला । साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता, तऔ सि पुप्फं च फलं रसो य ।। २४८ ।। १९५ एवं धम्मस्स विणओ मूलं परमो से मोक्खो । जेण कित्तिं सुयं सिग्धं निस्सेसं चाऽभिगच्छइ । । २४९ । । त्ति (द० अ० ९ उ० २ गा० १-२) विनयं कायवाङ्मनोभेदात् त्रिप्रकारं तावदादौ श्लोकत्रयेणाऽऽह— कायव्वं तावदिट्ठाणं अब्भुट्ठाणं ससंभ्रमं । अंजलीपग्गहो सम्मं, आसणस्स पणामणं । । ७४ ।। आसणाभिग्गहो चेव, विहाणेण य वंदणं । ठाणट्ठियाण कालम्मि भत्तीए पज्जुवासणा ।। ७५ ।। इंताणं सम्मुहं जाणं, गच्छंताणं अणुव्व । काऐणं अट्ठहा एसो विणओ ओवयारिओ ।।७६ ।। ‘कर्तव्यं विधेयं तावद् ‘दृष्टानाम्' अवलोकितानां मुनीनामित्यनुवर्तते । 'अभ्युत्थानम्' आसनादिमोचनम्, 'ससम्भ्रमम्' अत्यादरेण कायतरलतारतया शीघ्रमूर्ध्वभवनम् १ । 'अञ्जलिप्रग्रहः' शिरसि करको रककरणम्, 'सम्यग् ' यथावस्थिततया २ 1 आसनप्रणामनम्=उपवेशनढौकनम् ३ । ‘आसनाभिग्रहः’ ‘उपवेशनकदाननिश्चयः ४ । चैवशब्द उक्तसमुच्चये । ' विधानेन' पञ्चविंशदावश्यकादिकरणरूपविधिना । उक्तं च अवणामा दोण्णहाजायं आवत्ता बारसेव उ । सीसा चत्तारि गुत्तीओ तिण्णि दो य पवेसणा । । २५० ।। १. ला० दुलहु ॥ २. तत्थु वि धण्णुउ को विल' ॥ ३. सं० वा० सु० 'ओ से पु° ॥ ४. ता० ता दि ॥ ५. सं० वा०सु० 'ताणमणु ॥ ६. सं० वा० सु० 'एण अ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके एग निक्खमणं चेव पणुवीसं वियाहिया । आवस्सगाओं परिसुद्धं किइकम्मं जेहि कीरइ ।। २५१ ।। किइकम्मं पि करितो न होइ किइकम्मनिज्जराभागी । पणुवीसामण्णयरं साहू ठाणं विराहेंतो ।। २५२ ।। ( आव० नि० गा० १२०३-१२०५) आवस्सयपरिसुद्धं किइकम्मं जो पउंजइ गुरूणं । सो पावइ णिव्वाणं अचिरेण विमाणवासं वा ।। २५३ ।। 'वन्दनकं' द्वादशावर्तम् ५ । 'स्थानस्थितानां' वसत्यादिष्ववस्थितानां 'काले' प्रस्तावे ‘भक्त्या’ अन्तर्वासनया ‘पर्युपासना' क्षणमात्रं मुनिचरणसमीपावस्थानम् ६ । "इंताणं”ति आगच्छतां, 'सम्मुखं यानं' प्रत्युद्गमनम् ७ । गच्छतां 'अनुव्रजेत्' तैः सार्धं कियन्मात्रमपि भूभागं गच्छेत् ८ । 'कायेन' शरीरेण 'अष्टधा' अष्टप्रकार: 'एषः ' पूर्वोक्तः 'विनयः ' मुनिभक्तिकरणरूप: 'औपचारिक : ' बाह्यरूप इति श्लोकार्थः । । ७४-७६।। साम्प्रतमान्तरः । तत्र वाग्विनयप्रतिपादनार्थं सार्धश्लोकमाह— भासियव्वं हियं वक्त्रं जं परीणामसुंदरं । मियं थेवेहिँ वहिँ सहावमहुरं तहा ।।७० ।। पुव्वं बुद्धीऍ पेहेत्ता भासियव्वं सुहासियं ।। ७८ पू० ।। ‘भाषितव्यं’ जल्पनीयम् 'हितं' श्रेयस्कारि 'वाक्यं' वचनम्, यत् 'परिणामसुन्दरम्' आयतिसुखावहम्, 'मित्तं' परिमितं स्तोकवर्णै: = अल्पाक्षरैः, 'स्वभावमधुरं' श्रवणपेशलम् । तथाशब्दोऽग्रेतनश्लोकसम्बन्धनार्थ: । 'पूर्वं' प्रथमं 'बुद्ध्या' मत्या 'प्रेक्ष्य' पर्यालोच्य भाषितव्यं 'सुभाषितं' निर्दूषणम् । उक्तं च— बुद्धी rिeऊणं भासेज्जा उभयलोगपरिसुद्धं । स- परोभयाण जं खलु ण सव्वहा पीडजणगं तु ।। २५४ । । द्वितीयभाषणक्रिया भिन्नभिन्न लोकत्वादिति सार्धश्लोकार्थः ।।७७-७८ पू० । । साम्प्रतं मनोविनयं श्लोकोत्तरार्धेनाऽऽह दुट्ठं चित्तं निरुंभेत्ता उदीरे कुसलं मणं ।।७८ उ० ।। 'दुष्टम्' आर्त-रौद्रानुगतं, 'चित्तं' मनः 'निरंभेत्ता' निरुध्य 'उदीरए' उल्लासयेत् 'कुशलं ' १. ला०ता० थेवेहि ॥ २. सं० वा० सु० भासेय ॥ ३. ला० ता० निरुंभित्ता । ४. ला० °रयेत् उल्ला ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुप्रतिपत्तिप्ररूपणा धर्मध्यानानुगतं ' मन:' चित्तम् । यत उक्तम् रक्षेदं चित्तसद्रत्नं यस्मादन्तर्धनं परम् । धर्मोऽधर्मः सुखं दुःखं यत्र सर्वं प्रतिष्ठितम् ।। २५५ ।। यदेदं निस्पृहं भूत्वा परित्यज्य बहिर्भ्रमम् । स्थिरं सम्पत्स्यते चित्तं तदा ते परमं सुखम् ।। २५६ ।। भक्ते स्तोतरि कोपान्धे निन्दाकर्तरि चोत्थिते । यदा समं भवेच्चित्तं तदा ते परमं सुखम् ।। २५७ ।। १९७ स्वजने स्नेहसम्बद्धे रिपुवर्गेऽपकारिणि । स्यात् तुल्यं ते यदा चित्तं तदा ते परमं सुखम् ।। २५८ ।। शब्दादिविषयग्रामे सुन्दरेऽसुन्दरेऽपि वा । एकाकारं यदा चित्तं तदा ते परमं सुखम् ।। २५९ । । गोशीर्षचन्दनालेपि-वासीच्छेदकयोर्यदा । अभिन्ना चित्तवृत्तिः स्यात् तदा ते परमं सुखम् ।।२६० ।। सांसारिकपदार्थेषु जलकल्पेषु ते यदा । अश्लिष्टं चित्तपद्मं स्यात् तदा ते परमं सुखम् ।।२६१ ।। दृष्टेषूद्दामलावण्यबन्धुराङ्गेषु योषिताम् । निर्विकारं यदा चित्तं तदा ते परमं सुखम् ।। २६२ ।। यदा सत्त्वैकसारत्वादर्थकामपराङ्मुखम् । धर्मेतं भवेच्चित्तं तदा ते परमं सुखम् ।।२६३।। रजस्तमोविनिर्मुक्तं स्तिमितोर्दधिसन्निभम् । निष्कल्लोलं भवेच्चित्तं तदा ते परमं सुखम् ।। २६४ ।। मैत्री - कारुण्य- माध्यस्थ्य-प्र - प्रमोदोद्दाममानसम् । मोक्षैकतानं स्यात् तदा ते परमं सुखम् ।।२६५।। यदा पुनर्मग्रहणं दुष्ट-दुष्टद्विभेदमनसंसूचनार्थमित्युत्तरार्धार्थः । । ७८3० ।। १. ला० °पि च ॥ २. ला० संसारिषु प० । ३. सं० वा० सु० 'ष्टेषु रूपलाव' ॥ ४. ला० ० दधिसम्भवम् ॥ ५. ला० 'मभावनम् ॥ ६. ला० नं तत् । तदा ।। ७. ला० 'नः सूच' ॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ साम्प्रतं शेषकृत्यप्रतिपादनार्थं श्लोकषट्रकमाह— सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तथा जहा जहा महाणम्मि आढिया होंति साहुणो । सव्वं सव्वपयत्तेण कुज्जा काव्यं तहा ।।७९।। यथा यथा ‘महाणम्मि’ महाजने 'आढिय'त्ति आदृताः 'हुति' भवन्ति 'साधवः' यतयः 'सर्वं' समस्तं सर्वप्रयत्नेन' निःशेषप्रयत्नेन कुर्यात् 'कर्तव्यं' कृत्यम् ' तथा ' तेनैव प्रकारेण ।। गुणा बहुमाणेणं वण्णवायं वए फुडं । जहा गुणाणुरागेण लोगो मग्गं पवज्जई ।। ८० ।। ‘गुणानां’ क्षान्त्यादिकानाम्, 'बहुमानेन' आन्तरप्रीत्या, 'वर्णवादं' श्लाघाम्, । यथासाधूनां दर्शनं श्रेष्ठं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थं पुनाति कालेन, सद्यः साधुसमागमः । । २६६ ।। साहूण वंदणेणं णास पावं असंकिया भावा । फायदा णिज्जर उवग्गहो णाणमाईण । । २६७ ।। वदेत् 'स्फुटं' प्रकटम्, यथा गुणानुरागेण 'लोक:' जनो 'मार्ग' ज्ञानादिकं प्रतिपद्यते । यतःज च्चिय सुहपडिवत्ती सव्वण्णुमयम्मि होइ पॅरिसुद्धा । सच्चिय जायइ बीयं बोहीए तेणणाएण ।। २६८।। अहापवत्तसुद्धाणं संताणं फासुयाण य । एसणिज्जाण कप्पाणं तिहा वि विहिणा सयं । । ८१ । । ‘यथाप्रवृत्तशुद्धानां’ यथाप्रवृत्तानि आत्मग्रहाद्यर्थं व्यापारितानि तानि च तानि शुद्धानि च विशुद्धजीविकोत्पादितानि, तेषामशनादिद्रव्याणां यतीनां दानमिति सम्बन्धः । 'सतां' गृहे विद्यमानानां तत्तद्यतकादिगृहीतानां तत्र प्राघूर्णकसमायातसाधुनिमित्तदरिद्रभगिनीश्वरश्रेष्ठिगेहगृहीततैलपलिकाप्रतिदानशक्तिविवर्धिततैलपलिकाप्राप्तदासत्वनारीवद् दोषसम्भवात् । 'फासुयाण यत्ति प्रासुकानां=गतजीवानाम्, ‘एषणीयानां' द्विचत्वारिंशद्दोषविशुद्धानाम्, 'कल्पनीयानां' साधुयोग्यानाम्, 'त्रिधाऽपि' इति मनोवाक्कायशुद्ध्या 'विधिना' विधानेन 'सयं' ति स्वयम् = आत्महस्तेन, 'स्वहस्तेन हि यद्दत्तं तदेव धनिनां धनम्' इति वचनात् ॥ १. सं० वा०सु० काइव्व ॥ २. ला० सर्वादरेण निः ॥ ३. ला० णाण बहुमाणेण व° ॥ ४. सं० वा०सु० डिसुद्धा || Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुप्रतिपत्तिप्ररूपणा काले पत्ता पत्ताणं धम्मसद्धा- कमाइणा । असणाईण दव्वाणं दाणं सव्वत्थसाहणं ।। ८२ ।। 'काले' प्रस्तावे तस्यैव बहुफलत्वात् । उक्तं च काले दिणस्स पणयस्स अग्घो ण तीरए काउं । तस्सेव अथकपणामियस्स गिण्हंतया णत्थि ।। २६९ ।। 'प्राप्तानां' गृहाङ्गणमागतानाम् 'पात्राणां' विशिष्टगुणवतां क्रयादिनिवृत्तानाम् उक्तं चआरंभणियत्ताणं अंकुणंताणं अकारवेंताणं । धम्मट्ठा दायव्वं गिहीहि धम्मे कयमणाणं ।।२७० ।। (बृ० क० भा० गा० २८०९) 'धर्मश्रद्धा-क्रमादिना' धर्मश्रद्धया च विशिष्टभावोल्लासेन; क्रमेण च देशप्रसिद्धेन, आदिशब्दात् सत्कार-सन्मानादिग्रहः, 'अशनादीनाम्' ओदनादीनाम्, आदिशब्दात् पान-खाद्याऽऽस्वाद्यादिग्रहः । उक्तं च अशनमखिलं खाद्यं स्वाद्यं भवेदथ पानकं, यतिजनहितं वस्त्रं पात्रं सकम्बलप्रोञ्छनम् । वसतिफलकं प्रख्यं मुख्यं चरित्रविवर्धनं, निजकमनसः प्रीत्याधायि प्रदेयमुपासकैः ।। २७१ ।। 'द्रव्याणां' वस्तूनां 'दानं' वितरणम्, यतिभ्य इति गम्यते । पूर्वोक्तगुणकलापोपेतवस्तुभिश्च ये प्रतिलाभयन्ति साधून् त एव धन्याः । यत उक्तम् प्रायः शुद्धैस्त्रिविधविधिना प्राशुकैरेषणीयै:, कल्प्यप्रायैः स्वयमुपहितैर्वस्तुभिः पानकाद्यैः । काले प्राप्तान् सदनमशनं श्रद्धया साधुवर्गान्, धन्याः केचित् परमवहिता हन्त ! सन्मानयन्ति ॥ २७२ ॥ 'सर्वार्थसाधकं' निःशेषार्थकारकम् । उक्तं च — १९९ तर्षेऽम्बु क्षुधि भोजनं पथि रथः शय्या श्रमे नौर्जले, व्याधौ सत्प्रतिचारकौषधभिषक् सम्पद्विदेशे सुहृत् । छायोष्णे शिशिरे शिखी प्रतिभये त्राणं तमिस्त्रे प्रभा, दानं संसरतां भवे प्रतिभवे चिन्तामणिर्देहिनाम् ।।२७३ ।। १. ला० अकिणं ॥ २. सं० वा० सु० 'ष्टस्वभावो ॥ ३. ला० 'द्यादि ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके दाणु भूय वसि करइ दाणु सोहग्गु पयासइ, दाणु विग्यणिद्दलइ दाणु जणि जसु उल्लासइ । दाणु सग्गु अपवग्गु देइ अनु वि जं जं मणि, दाणतुल्ल ण वि अत्थि इत्थ तिहुयणि चिंतामणि ।।२७४।। आदिशब्दसंसूचितवस्तूनि स्वयमेवाऽऽह असणं खाइमं पाणं साइमं भेसहोसहं । वत्थं पडिग्गहं चेव रओहरण कंबलं ।।८३।। 'अशनं' भक्तादि । उक्तं च असणं ओयण-सत्तुग-मुग्ग-जगाराइ खजगविही य । खीराइ सूरणाई मंडगपभिई ये विण्णेयं ।।२७५ ।। (पञ्चा० गा० २२) तत्र ओदन:-कूरम् । जगारीशब्दस्तु सिद्धान्तभाषया गदितत्वाद् अव्याख्येयः । 'खाइम खादिम-भक्तोस(क्तोष)कादि । उक्तं च भत्तोसं दंताई खजूरं नॉलिकेर-दक्खाई । कक्कडिगं-उंबग-फणसाइ बहुविहं खाइमं णेयं ।।२७६ ।। (पश्चा० गा० २२९) 'पाणं'ति पानकं सौवीरादि । उक्तं च पाणं सोवीर-जवोदगाइ चित्तं सुराइयं चेव । आउक्काओ सव्वो कक्कडगजलाइयं चेव ।।२७७।। (पञ्चा० गा० २८८) 'साइमंति खाद्यं दन्तपचनादि । उक्तं च दंतवणं तंबोलं चित्तं तुलसी-कुहेडगाईयं ।। महु-पिप्पलि-सुंठाई अणेगहा साइम णेयं ।।२७८ ।। (पञ्चा० गा० २३०) - 'भेसहति भेषजं प्रचुरद्रव्यनिष्पन्नं नागरावलेहादि पथ्यं वा, ‘ओसहति एकद्रव्यमेव, 'वत्थं ति वस्त्रम्, 'पडिग्गहंति पतद्ग्रहेकः पात्रमित्यर्थः । चेवशब्दो दण्डकादिसूचनार्थः । 'रओहरणं ति रजोहरणं-दण्डकदशादिनिष्पन्नमिति भावः, 'कंबलं'ति कम्बलमौर्णिकम् ।। • १. ला० वस ॥ २. सं० वा० सु० विग्यणिद्दलणु ॥ ३. ला० 'ब्दसूचि ॥ ४. सं० वा० सु० पु० सओसहं ॥ ५. सं० वा० सु० इ ॥ ६. ला० 'दनं कूरं ॥ ७. ला० मं' ति खाद्यं भक्तो ॥ ८. ला० नालिएर ॥ ९. ला० यं च तहा ॥ १०. ला० गाई य॥ ११. ला० 'म होइ॥ १२. ला० हकं पा || Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ मूलदेवकथानकम् पीढगं फलगं चेव सेज्जा संथारगं तहा । धम्मोवगरणं णाणा णाणाईण पसाहणं ।।८४।। 'पीठकम्' आसनम्, ‘फलकं' शयनकाष्ठम्, 'चव'शब्द: शेषभेदसंसूचनार्थः, ‘शय्या' वसति: सर्वाङ्गीणशयनं वा, ‘संस्तारकः' अर्धतृतीयहस्तप्रमाण: कम्बलीमयः, 'तथा' तेनैव प्रकारेण, 'धर्मोपकरणं' धर्मसाधनम्, 'नाना' अनेकप्रकारम्, ज्ञानादीनां ‘प्रसाधनं' कारणम्, देयमिति सम्बध्यते। इति श्लोकषट्कार्थः ।।७९-८४।। साम्प्रतं दानदायिनामिहलोक-परलोकफलसूचकदृष्टान्तान् श्लोकद्वयेनाऽऽह असणाईण दाणेणं इहई भोगसंपया । इट्ठा दिट्ठा य दिटुंता मूलदेवाइणो बहू ।।८५।। परलोगम्मि सत्थाहो धणो गामस्स चिंतओ । सेयंसो चंदणा दोणो संगमो कयउन्नओ ।।८६ ।। 'अशनादीनां' पूर्वोक्तानाम्, ‘दानेन' वितरणेन, ‘इहई' ति अत्रैव जन्मनि, ‘भोगसम्पद्' भोगलक्ष्मी-र्भवतीत्यध्याहारः । अत्राऽर्थे 'इष्टा' अभीप्सिता:, 'दृष्टाश्च' अवलोकिता:, चकारात् श्रुताश्च, ‘दृष्टान्ताः' उदाहरणानि, 'मूलदेवादयः' मूलदेवप्रभृतयः, 'बहवः' प्रभूता इति ।। ___परलोके' अन्यजन्मनि, सार्थवाहो 'धनः' धननामा प्रथमतीर्थकृज्जीवः, 'ग्रामस्य चिन्तकः' पश्चिमतीर्थकरजीव:, 'श्रेयांसः' प्रथमजिनप्रथमपारणकदाता, 'चन्दना' चन्दनबाला गृहीतदुस्तराभिग्रहश्रीवीरजिनपारणककारयित्री, श्रेयांस-चन्दनयोश्च तद्भवापेक्षया मुक्तिपदं परलोकः, तच्च दानफलमित्यभिप्रायः, 'दोणो'त्ति द्रोणनामा कर्मकरः, 'सङ्गमकः' शालिभद्रजीव:, कृतपुण्यकश्च प्रतीतः । एते दृष्टान्ता: पारलौकिकदानफलविषया इति श्लोकद्वयाक्षरार्थः ।।८५-८६।। भावार्थस्तु कथानकेभ्योऽवसेयः । तानि चामूनि, तत्र तावद् मूलदेवकथानकं कथ्यते -- [२४. मूलदेवकथानकम्] अत्थि पाडलिपुत्तं णाम नगरं, जं च संकेयठाणं पिव रम्मयाए, कुलहरं पिव लच्छीए, मंदिरं पिव समत्थकुसलायाराणं, णिवासो व्व विविहविलासाणं, आगरो व्व सुयणजणरयणाणं, आलओ व्व धम्मस्स, उप्पत्तिभूमि व्व नीसेसविज्जाणं ति । तत्थाऽसेसकलाकुसलो महाविण्णाण १. ला० ता० सेजंसो ॥ २. ला० तीत्याध्या' ।। ३. ला० ष्टा: ईप्सि' ॥ ४. सं० वा० सु० भूमिव नी ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके रूव-लार्वण्णवन्नतारुण्णसमण्णिओ दक्खो विणीओ सरलो चाई कयण्णू गुणाणुराई पंडिओ विड्ढो पडिवण्णसोहिओ सूहवो पियंवयो दीर्णजणवच्छलो जूयवसणी चोरियापसत्तो महाधुत्तो साहसजुत्तो य अत्थि मूलदेवो णाम छइल्लो । भणियं च — २०२ मणहरकलाभिरामो संपुण्णससि व्व तत्थ परिवसइ । विउसेसु परमविउसो, धम्मरओ धम्मियणरेसु । १ । रूवीसु पंचबाणो, समणो समणेसु, माइसु वि माई । सरलेसु परमसरलो, कारुणिओ दीण - किविणेसु । २ । चोरेसु परमचोरो, जूययरेसुं च परमजूययरो । धुत्तेसु परमधुत्तो, साहसियनरेसु साहसिओ || ३ || इय जेण जेण समयं संबंधं जाइ तस्स तं भावं । परिणमइ मूलदेवो आयरिसो चेव दव्वे ||४|| विम्हाविंतो लोयं अणेगकोऊहलेहिं सो तत्थ । वियरइ पुरे जहेच्छं जूए य अइप्पसंगिल्लो ।। ५ ।। 'जूयवसणि' त्ति काउं जणगेणऽवमाणिओ पुरवराओ । णिग्गंतूणं पत्तो उज्जेणिं णाम वरणयरिं । । ६ । जीऍ कलंकं मयलंछणम्मि, अथिरत्तणं च रइकलहे । करगहणं वीवाहे, अकुलीणत्तं सुरगणेसु ।।७।। सुमिणम्मि विप्पलंभो, कामिणिलोयम्मि विब्भमो जीए । विग्गह- णिवाय - उवसग्गदंसण सद्दसत्थेसु । ८। राया वि जीऍ नियबलनिद्दारियदरियरिवुनरेंदोहो । पणइयणकप्परुक्खो जियसत्तू दसदिसिपयासो |९| ती 'य नगरीए सो मूलदेवो रायउत्तो गुलियापओगेण कयवामणयरूवो विहावेइ विचित्तकहाहिं गंधव्वकलाहिं णाणापओगेहिं य णागरजणं, पत्तो य परं पसिद्धिं । ओ अथ तत्थ रूव-लावण्ण- विण्णाणगव्विया देवदत्ता णाम पहाणगणिया । अवि य— चउसट्ठिकलाकुसला चउसट्ठिविलासिणीगुणसमग्गा । बत्तीससु अच्चत्थं कुसला पुरिसोवयारेसु ।१०। इगुणत्तीसविसेसे रममाणी पवरपोढिमाजुत्ता । इगवीसरइगुणधरा अट्ठारसदेसभासविऊ ।।११। इय सव्वेसु वि वेसियसत्थविसेसेसु सा सुनिम्माया । रंजिज्जए ण केण वि सामण्णरेण सुवियड्डा ।। १२ । तओ कोउगेण तीए खोहणत्थं पच्चूससमए आसण्णत्थेण आढत्तं सुमहुरं बहुभंगि घोलिरकंठं अण्णण्णवण्णसंवेहरमणेज्जं गंधव्वं । सुयं च तं देवदत्ताए, चिंतियं च 'अहो ! अउव्वा वाणी, तो देवो एस कोइ, ण मणुसमेत्तो' । गवेसाविओ चेडीहिं । गवेसिऊण कहिओ ताहिं जहा 'सामिणि ! एस महुमहाणुकारी असेसविण्णाणणिहाणं सव्वणयरीजगमणोहारी को वि बाहिं गायणच्छलेणं वसीकरेइ जणं' । तओ ती पेसिया माहवाहिहाणा खुज्जचेडी । गंतूण य विणयपुव्वयं भणिओ तीए “भो ला० जूइय° ॥ ५. णाको उगेहिं या । °ता दिव्वो एसा । १. ला० वण्ण- तारुण्णयस ॥ २. ला० 'ण - किविणवच्छलो तहा जूय ॥ ३-४ सं० वा०सु० सुमण | ६. ला० °ए नय° ॥ ७. सं० वा० सु० म्हावेंतोविचि ॥ ८. ला० ९. ला० 'लाकलिया च ॥ १०. ला० °णवरा ॥ ११. ला० 'देसिभा ॥ १२. सं० वा० सु० १३. ला० मणहारी ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलदेवकथानकम् २०३ महासत्त ! अम्ह सामिणी देवदत्ता विण्णवेइ 'कुणह पसायं एहे अम्ह घरं” । तेण वि वियड्ढयाए भणियं ‘न पओयणं मे गणियांसंगेणं, निवारिओ विसिट्ठाण गणियायणसंजोगो । भणियं च या विचित्रविटकोटिनिघृष्टा, मद्य-मांसनिरताऽतिनिकृष्टा । कोमला वचसि चेतसि दुष्टा, तां भजन्ति गणिकां न विशिष्टाः ।। २७९ । । याऽपतापनकराऽग्निशिखेव, चित्तमोहनकरी मदिरेव । देहदारणकरी छुरिकेव, गर्हिता हि गणिकाऽसलिकेव ।।२८० ।। अन्यस्मै दत्तसङ्केता, वीक्षतेऽन्यं गृहे परः । अन्यश्चित्तेऽपरः पार्श्वे, गणिकानामहो ! नरः ।।२८१।। कुर्वन्ति चाटुकर्माणि यावत् स्वार्थः प्रपूर्यते । च्युतसारं विमुञ्चन्ति निर्लक्षाऽलक्तकं यथा ।। २८२ ।। अओ णत्थि मे गमणाभिलास । ती वि अगाहिं भणिइभंगीहिं आराहेऊण चित्तं महानिबंधेण करं घेत्तूण णीओ घरं । वच्चंतेण य सा खुज्जा कलाकोसल्लेण विज्जापओगेण य अप्फालेऊण कया पउणा । विम्हयखेत्तमणाए य पवेसिओ सो भुँवणे । दिट्ठो देवदत्ता वामणयरूवो वि अउव्वलावण्णधारी, विम्हियाए दवावियमासणं । निसण्णो य सो । दिण्णो तंबोलो | दंसियं च माहवीए अत्तणो रूवं । कहिओ य वइयरो । सुठुयरं विम्हियाए पारद्धो आलावो । महुराहिं वियड्ढभणिईहिं तेण आगरिसियं तीए हिययं । भणियं च अणुणयकुसलं परिहासपेसलं लडहवाणिदुल्ललियं । आलवणं पि छेयाण कम्मणं किं च मूलीहिं ? ।। २८३ ।। एत्यंतरे आगओ तत्थ एगो वीणावायगो । वाइया तेण वीणा । रंजिया देवदत्ता, भणियं च 'साहु भो वीणावायग ! साहु, सोहणा ते कला' । मूलदेवेण भणियं 'अहो ! अइणिउणो उज्जेणीजण जाणइ सुंदरा - सुंदरविसेसं । देवदत्ताए भणियं 'भो ! किमेत्थ खूणं ?' । तेण भणियं 'वंसो चेव असुद्धो, सगब्भा य तंती' । तीए भणियं 'कहं जाणेज्जइ ?' । तेण भणियं ‘दंसेमि अहं' । तओ समप्पिया वीणा । कडिओ वंसाओ पाहाणो, तंतीओ वालो, समारेऊण वाइवत् । या राहणमाणसा सपरियणा देवदत्ता । पच्चासैण्णे य करेणुया सया रमणसीला १. सं० वा० सु० ह घरं ॥ २. सं० वा० सु० 'यासम ( संग ) मेणनि ॥ ३. ला० क्षुरिकेव ॥ ४. सं० ०सु० 'सो । तेहि वि ॥ ५. ला० करे घे ॥ ६. सं० वा० सु० 'ण अप्फा' ॥ ७. ला० 'भवणे ॥ ८. सं० वा० सु० 'णकयरूवो ॥ ९. ला० °हिं आगरिसियं तेण तीए । १०. सं० वा० सु० पाहणो ॥ ११. ला० पयत्तो ॥ १२. सं० वा० सु० 'सण्णकरे ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके आसि, सा वि ठिया घुम्मंती ओलंबियकण्णा । अईवविम्हिया देवदत्ता वीणावायगो य 'अहो ! पच्छण्णवेसो विस्सकम्मा एस' । णिवडिऊण चलणेसु विण्णत्तं वीणावायगेण 'सामि ! सिक्खामि तुज्झ सयासे वीणाकलं' ति । मूलदेवेण भणियं ‘ण सम्ममहं वियाणामि, जाणामि पुण जे एईए पारगा' । देवदत्ताए भणियं 'के ते ? कहिं वा दिट्ठा ?' । मूलदेवेण भणियं 'भण्णए पाडलिउत्ते विक्कमसेणो कलायरिओ । मूलदेवो य ताण अहमासण्णसेवी' । इत्थंतरम्मि य समागओ विस्सभूई णाम णट्टायरिओ । तओ भणियं देवदत्ताए ‘एस महाणट्टायरिओ, भरहं एयस्स पच्चक्खं सव्वं' । मूलदेवेण भणियं ‘आमं महाणुभावो एस, एयस्सागई चेव साहेइ विण्णाणाइसयं । जावाढत्तो भरहम्मि वियारो तओ वामणयवेसधारिणं पेच्छिऊणं विस्सभूई रीढं पकरिओ । तओ मूलदेवेण चिंतियं 'पंडेच्चाऽभिमाणी एस, ता करेमि एयस्स सिक्खं' ति । तओ पुणो वि पुच्छिओ जहा ‘एयस्स य एयस्स य एयस्स य कहमविरोहो भवइ ?' । तेण वि जंपियमसंबद्धं किं पि । मूलदेवेण भणियं 'भो एवंविहेणावि विण्णाणेण गव्वं वहसि ?' । तओ तुण्हिक्को ठिओ विस्सभूई । भणिओ य मूलदेवो देवदत्ताए जहाँ ‘भो महाभाग ! सोहणं तुब्भेहिं भणियं, किंतु एयं एवंविहं चेव, ण इत्थ कोवि परिहारो अस्थि । मूलदेवेण भणियं को इत्थ परिहारो कीरइ ? इमं वा(चेव) चोजं ति, जओ एयमेवंविहं, एयं च एवंविहं'ति । तओ तुट्ठा देवदत्ता चिंतियं च 'किं एसो भरहो पच्छण्णरूवी आगओ ? त्ति, ता अवस्सं पुजंति मे मणोरहा एयम्मि' । पुच्छिओ य अण्णाणि वि संदिद्धट्ठाणाणि । कयाणि सव्वाणि वि निस्संदिद्धाणि । लज्जापराहीणमाणसो य ‘संपयं नट्टवेला ता लहुं पउणीहोही'त्ति भणेऊण उठ्ठिओ विस्सभूई। देवदत्ताए वि भणिया दासचेडी 'हला ! हेक्कारेहि अंगमद्दयं जेण दो वि अम्हे मजामो'। मूलदेवेण भणियं 'अणुमण्णह अहं चेव करेमि तुज्झऽब्भंगणकिरियं' । 'किमेयं पि जाणसि ?'। ‘ण याणामि, परं ठिओ जाणगाण सगासे' । तओ आणियाणि सयपागाईणि तेल्लाणि । आढत्तो अब्भंगिउं । अउव्वपोलिगाइविहाणेण कया पराहीणमाणसा एसा । चिंतियं च णाए ‘अहो ! क्ण्णिाणाइसओ, अहो ! अउव्वो करयलफासो, ता भवियव्वं इमिणा केणइ पच्छन्नरूवेण सिद्धपुरिसेण, ण एवंरूवस्स एवं पगरिसो त्ति, ता पगडीकारावेमि से सरूवं' ति । णिवडिया १. ला० ‘स्स सव्वं पच्चक्खं । मू ॥ २. ला० °व कहइ ॥ ३. ला० "मि से सिक्खवणं ति ॥ ४. ला० स्स ससस्स कह ॥ ५. ला हवड ॥६. ला० गव्वमव्वहसि ॥ ७. ला० 'हा महा॥८. ला० कोड ॥ ९. ला० ण लविअं को ॥ १०. ला० रो कीइसं कीइसं वा चो॥११. ला० वयत्ता ॥ १२. ला० एससो ॥ १३. ला० होइ ति॥ १४. सं० वा० सु० हक्कारेह अं ॥ १५. ला० तुम्ह अन्मं ॥ १६. ला० पालगाइ ॥ १७. ला. तो ॥ १८. सं० वा० सु० डिकरेमि से ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलदेवकथानकम् चलणेसु, भणिओ य 'भो महाणुभाव ! असरिसगुणेहिं चेव णाओ उत्तमपुरिसो पडिवण्णवच्छलो ं दक्खिण्णपहाणो य तुमं, ता दंसेहि अप्पाणयं, बाढं उक्कंठियं तुह दंसणस्स मे हिययं' ति । पुणो पुब्बिंधे क ईसि हसेऊण अवणीया वेसपरावत्तिणी गुलिया मूलदेवेण । जाओ सहावत्थो दिणमणि व्व दिप्पंततेओ, अणंगो व्व कामिणीयणमणोहरो, चंदो व्व जणमणाणंदयारी, बुद्धो व् सुविभत्तगत्तो अप्पडिरूवलावण्णजुव्वणधरो । तं च दट्ठूण हरिसवसोब्भिण्णबहलरोमंचा णिवडिया चरणे । भणियं च ' सामि ! महापसाओ' त्ति । तओ अब्भंगिओ एसो सहत्थेहिं । मज्जियाई दो वि महाविभूईए । परिहाविओ देवसे । भुत्तं थोवथोवं । सिक्खविया य अउव्वकरण - नट्टगंधव्वाइयं । पुणा वि भणियं देवदत्ताए 'महाभाग ! न तुमं वज्जिय अणुरंजियं मे अवरपुरिसेण माणसं, ता सच्चमेयं 1 यहिँ कोण दीसइ ? केण समाणं ण हुंति आलावा ? । हिययाणंदं जं पुण जणेइ तं मणुसं विरलं ॥ १३ ॥ २०५ ता ममाऽणुरोहेण इत्थ घरे णिच्चमेवाऽऽगंतव्वं' । मूलदेवेण भणियं 'गुणाणुरागिण ! अण्णदेसेसु णिद्धणचंगेसु अम्हारिसेसु ण रेहइ पडिबंधो, न इ थिरीहवइ, पाएण सव्वस्स वि कज्जवसेण चेव हो, भणियं च वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति विहगाः शुष्कं सरः सारसा:, पुष्पं पर्युषितं त्यजन्ति मधुपा दग्धं वनान्तं मृगाः । निर्द्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गणिका भ्रष्टं नृपं सेवकाः, सर्वः कार्यवशाज्जनोऽभिरमते कः कस्य को वल्लभः ।। तीए भणियं ‘सदेसो परदेसो वा अकारणं सप्पुरिसाणं, भणियं च— देसु पराय आपणउ' काउरिसह पडिहाइ । He areas, पियरि विढत्तरं नाइ ।। २८५।। अण्णं च जलहिविसंघडिएण वि निवसेज्जइ हरसिरम्मि चंदेण । जत्थ गया तत्थ गया गुणिणो सीसेण वुज्झति ।। २८६ ।। १. ला० अत्ता ॥ २. सं० वा० सु० यं ति, बा° ॥ ३. सं० वा० सु० 'णीमणमणोहारो ॥। ४. ला० चलणे ॥ ५. ला० णो भणि ॥ ६. ला० माणसं । ७. ला० रेहए ।। ८. सं० वा० सु० सर्व: स्वार्थव ॥ ९. सं० वा०सु० वाऽऽड्कारणं सप्पु ॥ १०. ला० 'उ अप्पणउ ॥ ११. ला० कावुरिसहं पडि° ॥ १२. ला० 'ह जिणि व' ॥ १३. ला० अत्थमइ ॥ १४. ला० विढत्तउ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तहा अत्थो वि असारो ने य तम्मि वियक्खणाण बहुमाणो, अवि य गुणेसु चेवाऽणुरागो हवइ त्ति । जओ वाया सहस्समइया, सिणेहणिज्झाइयं सयसहस्सं । सब्भावो सज्जणमाणुसस्स कोडिं विसेसेइ ।।२८७।। ता सव्वहा पडिवज्जसु मम पत्थणं' ति । तओ पडिवण्णमणेण । जाओ तेसिं णिब्भरो णेहसंबंधो। एवं जाव विसिट्ठविणोएण चिट्ठति ताव 'पेच्छणयवेला वट्टई' त्ति काऊणाऽऽगओ तीए हक्कारणत्थं रायपडिहारो । गया य पच्छण्णवेसधारिणं मूलदेवं घेतूण । आढत्ता नच्चिउं । वाइओ मूलदेवेण पडहो । अक्खित्तो राया ससामंतो पाडलिपुत्तनयरसामिपेसियरायदोवारियविमलसीहो य । तुटेण य राइणा दिण्णो से वरो । नासीकओ य । पुणो तीए गाइयं मूलदेवसहियाए मणोहरयं, तयणुलगं च नच्चियं दुवइखंडं । तओ अच्वंतं तुट्टेण राइणा दिण्णमंगलग्गमाभरणं । विमलसीहेण भणियं 'भो महाराय ! पाडलिउत्ते मूलदेवस्स परं एरिसो विण्णाणाइसओ एईए य, नत्थि अन्नस्स तइयस्स, ता अम्हाऽणुमएणं देजउ एईए मूलदेवाणंतरविण्णाणपडागा नट्टिणीपट्टो य' । दिण्णं च तं राइणा । तओ देवदत्ताए चरणेसु निवडेऊण भणिओ राया 'देव ! महापसाओ, परमणुक्कमो एस जं पढमो लाभो उवज्झायस्स भवइ, उवज्झाओ य एस अम्हाणं, संपयं देवो पमाणं' । राइणा भणियं भो महाणुभाव ! अणुमण्णीयउ एयमेईए' । मूलदेवेण भणियं 'जं देवो आणवेई' । तीए भणियं 'सामि ! महापसाओ'ति । ___ इत्थंतरम्मि वाइया वीणा मूलदेवेण । कओ सव्वो वि पराहीणमाणसो रंगो । तओ जंपियं विमलसीहेण 'महाराय ! पच्छण्णरूवी मूलदेवो खु एसो, ण अण्णस्स एरिसं विण्णाणं, न वा एरिसस्स विण्णाणस्स अण्णो उवज्झाओ, रायाएसेण य भमिया मए पुहई, न एत्थ तइयं रयणं दिढं ति, ता धण्णो तुम जस्सेरिसरयणसंगहो'। तओ राइणा भणिओ मूलदेवो 'भो महाणुभाव ! महंतमम्हाण कोउगं ता जइ सच्चमेयं ता अम्होवरोहेण पयडेसु अत्ताणयं' । तओ सहासमवणीया गुलिया । ससंभमं उठ्ठिऊण परिरि(र)द्धो विमलसीहेण । निवडिओ य एसो रायचरणेसु । पूइओ संगोरवं तेणं । एवं च अच्चंताणुरत्ता तम्मि देवदत्ता चिट्ठए विसयसुहमणुहवंती । १. सं० वा० सु० न तम्मि ॥ २. सं० वा० सु० मद्विया ॥ ३. ला० "णिजाइयं ॥ ४. ला० तेसिं नेहनिमरो संबं॥ ५. सं० वा० सु० 'यरिसा॥ ६. लाचलणे ॥ ७. ला० ढमलाभो ॥ ८. ला० ऑ। एत्थं ॥ ९. ला० तईयं ॥ १०. सं० वा० सु० परिसत्तो ॥ ११. ला. 'चलणे ॥ १२. ला० सगउरवं ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलदेवकथानकम् २०७ तस्स य मूलदेवस्स सव्ववसणेहिता वि जूयवसणे महंता आसत्ती, खणं पि न चिट्ठइ तविरहिओ। तओ देवदत्ताए भणिओ 'पिययम ! कोमुइमयलंछणस्स व हरिणपडिबिंब तुम्ह सव्वगुणालयाण कलंकं चेव जूयवसणं बहुदोसणिहाणं च, यत उक्तम् धनक्षयकरं निन्द्यं कुल-शीलविदूषणम् । प्रसूतिः सर्वपापानां लोके लाघवकारणम् ।।२८८।। संक्लिष्टचेतसो मूलमविश्वासकरं परम् । पापप्रवर्तितं द्यूतं विद्वद्भिः परिकीर्तितम् ।।२८९ ।। तहा कुलकलंकणु सच्चपडिवक्खु, गुरुलज्जा सोयहरु धम्मविग्घु अत्थह पणासणु, जं दाण-भोगिहिं रहिउ पुत्त-दार-पिइ-माइमोसणु । जहिँ न मुणेजइ देवगुरु, जहिँ नवि कज अंकज । तणुसंतावणि कुगइपेहि तहिँ पिय ! जूइ म ज ।।२९० ।। ता सव्वहा परिहरसु इमं । अइरसेण ण सक्कंइ परिहरिउमेसो त्ति । एत्तो य अत्थि नगरीऍ तत्थ रूवेण तुलियकंदप्पो । णियकुलभवणपईवो बंधवकुमुयाकरससंको ।१४। पणइयणकप्परुक्खो निम्मलजसपसरधवलियदियंतो । रिद्धीऍ धणयसरिसो सत्थाहो अयलणामो त्ति सो य मूलदेवाओ पुव्वमेव तीए अणुरत्तो निरंतरदव्वपयाणाइणा भोगे भुंजइ, वहइ य मूलदेवस्सोवरि मणागं पओसं, मग्गइ य मूलदेवस्स छिद्दाणि, न गच्छइ तस्संकाए य मूलदेवो तीए घरं । अवसरमंतरेण भणिया य देवदत्ता जणणीए 'पुत्ति ! परिच्चयसु मूलदेवं, ण किंचि णिद्धणचंगेण पओयणमेएण, सो महाणुभावो अयलो दाया पेसइ पुणो पुणो पभूयं दव्वं, तां तं चेवंगीकस्सु सव्वप्पणयाए, न एगम्मि पडियारे दोन्नि करवालाइं माइंति, तो मुंच जूयारियमिम' ति। तीए भणियं 'अंब ! नाहं एगंतेण धणाणुरागिणी, अवि य गुणेसु चेव पडिबद्धा' । जणणीए भणियं 'केरिसा तस्स जूयारस्स गुणा ?' । तीए भणियं 'केवलगुणमओ खु सो, जओ १. सं० वा० सु० तो य जू ।। २. ला० तओ भणिओ देवदत्ताए पिय ॥ ३. सं० वा० सु० णस्सेव ह ॥ ४. सं० वा० सु० अकजु ॥ ५. ला० पहि तिहिं ॥ ६. सं० वा० सु० रज्जु ।। ७. ला० °रिव्वि(च्च)यसु ॥ ८. ला० 'क्कए प° ॥ ९. ला० उ० य मूल ॥ १०. ला. तो दाया अयलो पेसेड़ पुणो पभू ॥ ११. सं० वा. सु० रेह स॥ १२. ला. तो ॥ १३. ला० पु० जूयकारस्स || Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके सयलकलापत्तट्ठो सरणागयवच्छलो पियाभासी । धीरो उदारचित्तो गुणाणुरागी विसेसण्णू ।१६। अओ न परिच्चयामि एयं' । तओ सा अणेगेहिं दिलुतेहिं आढत्ता पडिबोहेउं-आलत्तए मग्गिए नीरसं पणामेइ, उच्छुखंडे पत्थिए छोइअं पणामेइ, कुसुमेहिं जाइएहिं कुसुमाणि चुंटेऊण बिंगुत्थमालं ढोएइ । चोइया पडिभणइ-जारिसमेयं तारिसो एस ते पिययमो, तहा वि न तुमं परिच्चयसि, सत्यश्चाऽयं प्रवाद: अपात्रे रमते नारी, गिरौ वर्षति माधवः । नीचमाश्रयते लक्ष्मीः, प्राज्ञः प्रायेण निर्धनः' ।।२९१ ।। -- देवदत्ताए भणियं 'पत्तमपत्तं वा कहमपरिक्खियं जाणेज्जइ ?' । जणणीए भणियं 'ता कीरउ परिक्खा'। देवदत्ताएं य हट्टतुट्ठाए भणियं “जइ एवं ता गंतूण भणसु अयलं जहा 'देवदत्ताएं उच्छुम्मि अहिलासो, ता पट्टवसु" । भणिओ बाइयाए । तेण वि अणुग्गहं मण्णमाणेण पेसियाणि उच्छुसगडाणि हरिसियाए जणणीए भणियं 'वच्छे ! पेच्छसु अयलसामिणो दाणसत्तिं' । सविसायं च भणियं देवत्ताए ‘किमहं करेणूकया जेणेवंविहं समूलडालं उच्छं पुंजीकरेजई ?, ता संपयं भणसु मूलदेवं' । भणिओ सो वि । तेण वि घेत्तूण दोण्णि पम्हलपुंडुच्छुजट्ठीओ निच्छोल्लेऊण कयाओ दुयंगुलपमाणाओ गंडियाओ, चाउज्जाएण य अववुणियाओ कप्पूरेण य वासियाओ सूलाहि य मणागं भिण्णाओ, पच्चग्गसरावसंपुडं भरेऊण पेसियाओ। दह्ण य हरिसभरनिन्भराए भणिया जणणी 'पिच्छ अम्मो ! पुरिसाणमंतरं ति, ता अहं एएसिं गुणाणमणुरत्ता'। जणणीए चिंतियं 'अच्चंतमोहिया एसा न परिच्चयइ अत्तणा, तो करेमि किंपि उवायं जेण एसेव कामुओ गच्छइ विदेसं, तओ सुत्थं हवई' । ति चिंतिऊण भणिओ तीए अयलो ‘कहसु एईए पुरओ अलियगामंतरगमणं, पच्छा मूलदेवे पविढे मणुस्ससामग्गीए आगच्छेज्जसु विमाणेजसु य तं, जेण विमाणिओ संतो देसच्चायं करेइ, ता पउणो चिट्ठिजसु, अहं ते वत्तं दाहामि' । पडिवण्णं च तेण । ____ अण्णम्मि दिणे 'अहमज गामंतरं गमिस्सामि'त्ति भणेऊण पभूयदविणं च दाऊण णिग्गओ अयलो। पविसिओ य तीए मूलदेवो । जाणावियं च जणणीए अयलस्स । समागओ य महासामग्गीए । दिवो य पविसमाणो देवदत्ताए । भणिओ य मूलदेवो 'नाह ! ईइसो चैव इत्थ १. सं० वा० सु० गुच्छमा' ॥ २. ला० वि तुमं न परि ॥ ३. ला० “ए हहः ॥ ४. सं० वा० सु० 'ए इच्छुम्मि ॥ ५. सं० वा० सु० "विहाणि समूलडालउच्छुयपुंजी' ॥ ६. ला० जीकिज्जइ ॥ ७. ला० णदेण्णि लट्ठीओ ॥ ८. सं० वा० सु० लपुटुच्छु ॥ ९. सं० वा० सु० ण वा ॥ १०. ला० चिट्टेसु ।। ११. ला० अज गा' ॥ १२. ला० व एस अव ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलदेवकथानकम् अवसरो, पड़िच्छियं च जणणीए एयपेसियं दव्वं, ता तुब्भे पल्लंकहेट्ठओ मुहुत्तगं चेट्ठह जाव विसज्जेमि एयं, । तओ तहेव ठिओ एसो । जाणाविओ य जणणीए अयलस्स । णिसण्णो सो पल्लं । भणिया या तेण 'करेह ण्हाणसामग्गिं' । ' एवं 'ति भणियं कया सामग्गी । भणियं च देवदत्ताए ' उट्ठेह नियंसह पोत्तिं जेण - Sब्भंगिज्जह' अलेण भणियं जहा " दिट्ठो अज्ज मए सुमिणगो जहा ‘नियत्थिओ चेव अब्भंगियगत्तो एत्थ पल्लंके आरूढो हाओ म्हि' ता सच्चं सुमि कमो” । देवदत्ताए भणियं 'नणु विणासेज्जइ महग्घं तूलि - गंडुवगाइयं' । तेण भणियं 'अण्णं विसिट्ठयरं दुगुणतिगुणं दाहामि' । जणणीए भणियं ' एवं होउ' । तओ तत्थ ठिओ चेव अब्भंगिओ उव्वट्टिओ य उण्ह-खलीउदगेहि य मज्जिओ । भरिओ तेण हेट्ठट्ठिओ मूलदेवो । गहियाउहा पविट्ठा पुरिसा। सण्णिओ जणणीए अयंलो । गहिओ तेण मूलदेवो वालेहिं, भणिओ य संपयं निरूवैहि जइ अत्थि कोइ ते सरणं ?' । तओ मूलदेवेण वि कोसीकयनिसियकरालकरवालकरनरविसरपरिवारियमत्ताणयं णिएऊण चिंतियं 'निराउहत्तणओ ण संपयं पोरुसेणुव्वरामि, एएसिं कायव्वं च वेरनिज्जायणं' । ईय सामत्थेऊण भणियं 'जं वो रोयइ तं करे' । अयण व 'किमेइणा उत्तमपुरिसेण विणासिएण ?, न दुल्लहाइं च विसमदाविभागेण उत्तमपुराणं पि वसणारं, भणियं च सयलजयमत्थयत्थो देवाऽसुर- खयरसंथुयपयावो । दिव्ववसेण गसेज्जइ गहकल्लोलेण सूरो वि ।। २९२ ।। सायरु सरियउ सरवरड़, भरओहरउ करंति । धि दिया वह वि, एक्कइँ दसइ न जंति ।।२९३ ।। २०९ को इत्थ या सुहिओ ?, कस्स व लच्छी थिराइँ पेम्माई ? । कस्स व न होइ खलियं ?, भण को व न खंडिओ विहिणा ? ' ॥ २९४ ॥ चिंतिऊण भणिओ मूलदेवो 'एवंविहावत्थगओ मुक्को तुमं संपयं, ता ममावि एयावत्थगयस्स एवं करेज्जसु । तओ विमणदुम्मणो ‘पेच्छ कहमेएण छलिओ मि' त्ति चिंतयंतो निगओ नयराओ । हा सरोवरे । कया पडिवट्टी । तओ 'गच्छामि विदेसं, करेमि किंपि इमस्स पडिविप्पिओवायं' ति चिंतिऊण पत्थिओ बेण्णायडाभिमुहं । गौमा -ऽऽगर - नगराइमज्झर्णे वच्चंतोपत्तो १३ १. सं० वा० सु० हयं । ता तेह' ॥ २. सं० वा० सु० 'ट्ठो मए अज्ज सु° ॥ ३. ला० ण्हाओ मिति (त्ति) ता ॥ ४. ला० °ए जंपियं ए ॥ ५. ला० 'ओ उण्हरवलीयउद° ॥ ६. ला० °हियउ (ओ य) तेण । ७. सं० वा० सु० अ ॥ ८. ला० 'वेह जइ ॥ ९. ला० इइ सा ॥ १०. ला० धण्णेसणु दि ॥ ११. ला० 'त्थकय व्व गय' ॥ १२. ला० 'ओ य स । १३. ला० गाम-नग ॥ १४. ला० ण य व° ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके दुवालसजोयणायामाए अडवीए मुहं। तत्थ य 'जइ कोइ वायासहाओ वि दुइओ लब्भइ ता सुहेणं चेव छिज्जए अडवि' त्ति चिंतयंतो जाव चिट्ठइ ताव समागओ संबलथइयासणाहो टक्कबंभणो, पुच्छिओ य 'भो भट्ट ! केदूरं गंतव्वं ?' । तेण भणियं ‘अत्थि अडवीए परओ वीरणिहाणं णाम ठाणं तं गमेस्सामि, तुमं पुण कत्थ पत्थिओ ?' । मूलदेवेण भणियं 'बेण्णायड' । इयरेण भणियं 'जइ एवं ता एहि गच्छम्ह'। तओ पयट्टा दो वि । मज्झण्णसमये य वच्चंतेहिं दिलु सरोवरं । धोविया तत्थ हत्थपाया । गओ मूलदेवो पालिसंठियं तरुच्छायं टक्केण वि छोडिया संबलथइया । गहिया वट्टाम्मि सत्तुगा । ते जलेण उल्लेत्ता लग्गो खाइउं । मूलदेवेण चिंतियं ‘एरिसा चेव भुक्खापहाणा बंभणजाई भवइ, वा भुत्ते मे दाहिस्सई' । भट्टो वि भुजेत्ता बंधेत्ता थइयं पयट्टो । मूलदेवो वि 'नूणं अवरण्हे दाहिइ' त्ति चिंततो अणुपयट्टो । तत्थ वि तहेव भुत्तं, न दिण्णं । ‘कल्लं दाहिइ' त्ति आसाए गच्छइ । वच्चंताण य आगया रयणी । तओ ओसरिऊण मग्गाओ पसुत्ता । पच्चूसे पुणो वि पत्थिया । मज्झण्हे तहेव थक्का । तहेव भुत्तं टक्केण । ण दिण्णमेयस्स । जाव तइयदियहे विचिंतियं 'मूलदेवेण णित्थिण्णपाया अडवी ता अज्ज अवस्स ममं दाहिस्सइ एस । जाव तत्थ वि न दिण्णं । णित्थिण्णा य तेहिं अडवी जाया । तओ दुण्ह वि अण्णोण्णवट्टाओ । तओ भट्टेण भणियं 'भो ! तुज्झ एसा वट्टा, ममं पुण एसा, ता वच्च तुमं एयाए' । मूलदेवेण वि ‘एयस्स पहावेण अडवी मए णित्थिण्ण' त्ति चिंतेऊण भणियं भट्ट ! मूलदेवो मज्झ णामं, णित्थिण्णा य तुह प्पहावेणं अडवी, जइ मए किं पि कयाइ पओयणं सिज्झई तओ आगच्छेज बेण्णायडे, किं च तुज्झ णाम ?' । भट्टेण भणियं 'सद्धडो, जणकयावंडं)केण निग्घिणसम्मो णाम' । तओ पत्थिओ भट्टो सगामाभिमुहं, मूलदेवो वि बेण्णायडसम्मुहं ति । अंतराले य दिलु वसिमं । तत्थ पविट्ठो भिक्खाणिमित्तं । हिंडियमसेसं गामं । लद्धा कुम्मासा, न किं पि अन्नं । पत्थिओ जलासयाभिमुहं । इत्थंतरम्मि य तवसुसियदेहो महाणुभावो महातवस्सी दिट्ठो मासोववासपारणयणिमित्तं तत्थ पविसमाणो । तं च पेच्छिय हरिसवसोभिण्णबहलपुलएणं चिंतियं 'अहो ! धन्नो कयत्थो अहं, जस्स एयम्मि देसकाले एस महप्पा दसणपहमागओ, ता अवस्स भवियव्वं मे कल्लाणपरंपराए, एयपडिलाहणेण य दिण्णो भवइ समत्थदुक्खाण जलंजली, महापत्तं च एसो, जओ १. सं० वा० सु० तत्थ वि जइ॥ २. ला० तो ॥ ३. ला० भद्द ! के ॥ ४. सं० वा० सु० यं अड॥ ५. ला० मंत्थाणं ।। ६. ला० "ठियतः ॥ ७. ला० 'हिइ ॥ ८. ला० भुंजिऊण बंधित्ता॥९. ला० ण इ आ॥ १०. ला० णो मत्थि ।। ११. ला० इ तो आ || १२. ला० 'यडे किं ॥ १३. सं० वा० सु० तुज्झं ॥ १४. ला. 'डक्केण ॥ १५. सं० वा० सु० "तं पवि ॥ १६. ला० °ण्णपुल ॥ १७. ला. 'व्वं ममक ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ मूलदेवकथानकम् दसण णाणविसुद्धं पंचमहव्वयसमण्णियं धीरं । खंती-मद्दव-अजवजुत्तं मुत्तिप्पहाणं च ।।१७।। सज्झाय-ज्झाण-तवोवहाणनिरयं विसुद्धलेसागं । पंचसमियं तिगुत्तं अकिंचणं चत्तगिहसंगं ।।१८।। एरिसपत्तसुखेते विसुद्धसद्धाजलेण संसित्तं । निहियं तु दव्वसस्सं इह-परलोगे अणंतफलं ।।१९।। ता इत्थ कालोचिया देमि एयस्स एए चेव कुम्मासा, जओ अदायगो एस गामो, एसो य महप्पा कइवयघरेसु दरिसावं दाऊण पडिणियत्तइ, अहं उण दोण्णि तिण्णि वारं हिंडामि ता पुणो वि लभेस्सामि, आसण्णो य अवरो बीओ गामो ता पयच्छामि सव्वे इमि'त्ति । पणमिऊण पणामिया भगवओ कुम्मासा । साहुणा वि तस्स परिणामपगरिसं णाऊण दव्वाइसुद्धिं च वियाणिऊण 'धम्मसील ! थोवे देजह' त्ति भणिऊण धरियं पत्तगं । तेण वि पवड्डमाणपरिणामाइसएण सव्वे वि दाऊण पढियं _ 'धण्णाणं खु नराणं कुम्मासा हुंति साहुपारणए' . एत्थंतरम्मि गयणंगणगयाए महरिसिभत्ताए मूलदेवभत्तिरंजियाए भणियं देवयाए ‘पुत्त मूलदेव ! सुंदरमणुचेट्टियं तए, ता एयाए गाहाए पच्छिमद्धेण मग्गसु जं वो रोयइ जेण संपाडेमि . सव्वं' । मूलदेवेण भणियं ‘जइ एवं तो गणियं च देवदत्तं दंतिसहस्सं च रजं च' ।।२०।। देवयाए भणियं 'पुत्त ! निच्चिंतो वियरसु अवस्सं महरिसिचरणाणुभावेण अइरेण चेव संपजिस्सइ एयं' । मूलदेवेण भणियं 'भगवइ ! एवमेयं ति । वंदिऊण रिसिं पडिणियत्तो । साहू वि गओ उज्जाणं । लद्धा अण्णा भिक्खा मूलदेवेण । भोत्तूण पयट्टो बेण्णायडाभिमुहं । पत्तो कमेण तत्थ । पसुत्तो रयणीए बाहिं पहियसालाए । दिह्रो चरमजामम्मि सुमिणगो 'किर पंडिउण्णमंडलो निम्मलपहापयासियजीवलोगो मयंको वयणेणोयरम्मि पविठ्ठो' । अण्णेण वि कप्पडिएण सो चेव सुमिणगो दिट्ठो, कहिओ य तेण चक्कयरकप्पडियाण । तत्थेगेण भणियं 'अहो ! सोहणो सुमिणगो, लहिहिसि तुमं घय-गुल-संपुण्णं महंतं मंडयं' । तेण वि ‘एवं होउत्ति भणियं । 'न याणंति एए सुमिणयस्स परमत्थं' ति न कहियं मूलदेवेण । लद्धो य कप्पडिएण घरायणियाए जहोवइट्ठो मंडगो, तुट्ठो य एसो । निवेइओ कप्पडियाण । मूलदेवो वि पहाए गओ एगमारामं । आवजिओ कुसुमसमुच्चयसाहेजेण मालागारो । १. ला० समाहियं ॥ २. ला० वारेहिं ॥ ३. सं० वा० सु० "स्सामो त्ति, आ' || ४. सं० वा० सु० इम त्ति ॥ ५. सं० वा० सु० 'वस्स भत्ति ॥ ६. ला० यं तुमे ता ॥ ७. ला० पच्छद्धेण ॥ ८. सं० वा० सु० 'मेवं ति ॥ ९. ला० ण य प ॥ १०. ला० चरिमजामेसु ॥ ११. ला० पडिपुण्ण ॥ १२. ला० एअं हो ॥ १३. सं० वा० सु० 'छाइणि || १४. ला० 'इयउ(ओ य)क ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके दिण्णाइं तेण पुप्फ-फलाइं । ताई घेत्तूण सुइभूओ गओ सुमिणसत्थपाढयस्स गेहं । कओ तस्स पणामो । पुच्छिया खेमा-ऽऽरोणवत्ता । तेण वि संभासिओ सबहुमाणं, पुच्छिओ पओयणं । तेण जोडेऊण करसंपुडं कहिओ सुमिणयवइयरो । उवज्झाएण वि सहरिसेण भणियं 'कहेस्सामि सुहे मुहुत्ते सुमिणयफलं, अज ताव अतिही होसु अम्हाणं' । पडिवण्णं च मूलदेवेण । तओ ण्हायजिमियावसाणे भणिओ उवज्झाएण 'पुत्त ! पत्तवरा मे ऐसा धूया, ता परिणेसु एयं ममोवरोहेण' । मूलदेवेण भणियं 'ताय ! कहमनार्यकुल-सीलं जामाउयं करेसि ?'। उवज्झाएण भणियं पुत्त ! आयारेण चेव जाणेज्जइ अकहियं पि कुलं । उक्तं च आचारः कुलमाख्याति, देशमाख्याति भाषितम् । सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति, वपुराख्याति भोजनम् ।।२९५।। तहा को कुवलयाण गंधं करेइ ?, महुरत्तणं च उच्छृणं ? । वरहत्थीण य लीलं ?, विणयं च कुलप्पसूयाणं ? ।।२९६ ।। अहवा जइ होति गुणा ता किं कुलेण ?, गुणिणो कुलेण न हु कजं । कुलमकलंकं गुणवजियाण गरुयं चिय कलंकं' ।।२९७।। एवमाइभणिईए पडिवजाविऊण परिणाविओ । कहियं सुमिणयफलं 'सत्तदिणब्भंतरे राया होहिसि । तं च सोऊण जाओ पहठ्ठमणो । अच्छइ य तत्थ सुहेण ।। पंचमे य दिवसे गओ नगरबाहिं । सुत्तो य चंपगतरुच्छायाए । इओ य तम्मि चेव दिवसे अपुत्तो राया कालगओ अहिवासियाणि आस-हत्थि-छत्त-चामर-भिंगारलक्खणाणि पंच दिव्वाणि । आहिंडियाणी नयरीमज्झे, न य कोइ दिट्ठो रजारिहो । तओ णिग्गयाणि बाहिं परिभमंताणि समागताणि तमुद्देसं । तओ दद्दूण मूलदेवं हिंसियं तुरंगेण, गुलगुलियं गईदेण, अहिसित्तो भिंगारेण, विजिओ चामरेहिं, ठियमुवरि उदंडपुंडरीयं । तओ कओ लोएहिं जयजयारवो, पणच्चियं पायमूलेहिं, पयट्टो अविहवविलयाण मंगलसद्दो, पवज्जियाइं नंदितूराई, आरोविओ जयकुंजरेण णियखंधे । पवेसिओ महाविभूईए । अहिसित्तो मंति-सामंतेहिं । भणियं च गयेणंगणगयाए देवयाए 'भो भो ! १. ला० एसा कण्णया ता परिणेस ममोवरोहेण एयं । म॥२. सं० वा० स० 'यसीलं ॥ ३ ला० व नजइ अ॥ ४. ला० लं, यत उक्तम् आ || ५. ला० जल्पितम् ॥ ६. ला० °व णयरे अपु । ७. ला० 'रिज्ममं ॥ ८. ला० तुरंगमेण, गुलुगु ॥ ९. सं० वा० सु० गयंदे ॥ १०. सं० वा० सु० एहिं जया ॥ ११. सं० वा० सु० जइकुं ॥ १२. ला० गयणयलगया ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलदेवकथानकम् २१३ एस मंहाणुभावो असेसकलापारगो देवयाहिट्ठियसरीरो विक्कमराओ णाम राया, ता एयस्स सासणे जो ण वट्टइ तस्स णाऽहं खमामि' त्ति । तओ सव्वो सामंत-मंति-पुरोहियाइओ परियणो आणाविहेओ जाओ। चिट्ठइ य उदारविसयसुहमणुहवंतो । आढत्तो उजेणिसामिणा जियसत्तुराइणा सह संववहारो, जाव जायापरोप्परं निरंतरा पीई । इओ य देवदत्ता तारिसं विडंबणं मूलदेवस्स पेच्छिय विरत्ता अईव अयलोवरि । तओ निब्भच्छिओ अयलो 'भो ! अहं वेसा, न उण तुहे कुलपरिणी, तहा वि मम गेहत्थो एवंविहं ववहरसि, ता मम कारणेणं न पुणो वि खिज्जियव्वं' । ति भणिय गया राइणो संगासे । चरणेसु णिवडिऊण विण्णत्तो तीए राया 'देव ! तेण वरेण किंजउ पसाओ । राइणा भणियं 'भण जं वो पडिहाई' । तीए भणियं ‘जइ एवं ता मूलदेवं वज्जिय नऽण्णो पुरिसो ममाऽऽणवेयव्वो, एसो य अयलो मम घरागमणे णिवारेयव्वो' । राइणा भणियं ‘एवं, जहा तुह रोयेइ, परं कहेहि को एस वुत्तंतो ?' । तओ कहिओ माहवीए । रुट्ठो राया अयलोवरि 'भो ! मम एईए नगरीए एयाइं दोण्णि रयणाई ताई पि खलीकरेइ एसो' । तओ हक्कारिय अंबाडिओ भणिओ रे ! तुम इत्थ राया जेणेवं ववहरसि ?, ता निरूवेहि संपयं सरणं, करेमि तुह पाणविणासं'। देवदत्ताए भणियं 'सामि ! किमेइणा सुणहप्पारण पडिखद्धेण ?' । राइणा भणियं रे ! छुट्टो ताव संपयं एईए महाणुभावाए वयणेणं, सुद्धी उण ते तेणेव मूलदेवेण इहाऽऽणिएणं भविस्सई' । तओ चरणेसु निवडिऊण निग्गओ रायउलाओ। आढत्तो गवेसिउं दिसोदिसिं । तओ जाव न लद्धो ताव तीए चेव ऊणिमाए भरेऊण भंडस्स वहणाई गओ पारसकुलं । ___इओ य मूलदेवेण चिंतियं, 'किमेइणा सुंदरेणावि रजेण पियादेवदत्ताविरहिएण ?, जओ भणियं भुजउ जं वा तं वा, निवसेजउ पट्टणे अरण्णे वा । इटेण जत्थ जोगो तं चिय रजं, किमण्णेण? ।।२९८।। - इट्ठा य मे देवदत्ता' । तओ पेसिओ लेहो कोसल्लियाइं च देवदत्ताए, राइणो य । भणिओ य राया ‘मम एईए देवदत्ताए उवरि महंतो पडिबंधो, ता जइ एवं एईए अभिरुइयं तुम्ह य पडिहाइ १. ला० तो य उ ॥ २. ला० णा सह ॥ ३. सं० वा० सु० 'या निरंतरा परोप्परं पीई ॥ ४. सं० वा० सु० 'ओ-भो ।। ५. ला० ‘ह घरिणी ॥ ६. ला० महगे । ७. सं० वा० सु० एवं ववह' ।। ८. ला० णं ण खिजि ॥ ९. ला० "णियं गया ॥ १०. ला० सयासं । चलणेसु ॥ ११. ला० कीरउ ॥ १२. सं० वा० सु० वं जं तुह, ॥ १३. ला. 'यए प ॥ १४. ला० सुणयप्पा ॥ १५. ला० चलणे ॥ १६. सं० वा० सु० 'डप्पवह। १७. ला० "सउलं ।। १८. ला० तो जइ एईए॥ १९. ला० म्ह पडि ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तो पसायं काऊण पंसह एयं' । तओ राइणा भणिया रायदोवारिया 'भो ! किमयमेवंविहं लिहियं विक्कमराएण ?, किमम्हाण तस्स य अत्थि कोइ विसेसो ? जओ अम्ह रज पि तस्स नियरजं चेव किं पुण देवदत्ता ?, परमिच्छउ सा । तओ वाहरावेऊण भणिया देवदत्ता राइणा "भद्दे ! पुव्वं तए विण्णत्तमासि ‘मूलदेवं मोत्तूण न अण्णो पुरिसो ममाऽऽणवेयव्वो' ता ऐस सो मूलदेवो देवयाए पसाएणं महानरेंदो जाओ, इमे य तेण तुज्झाऽऽणयणत्थं पेसिया पहाणपुरिसा, ता गम्मउ तस्सयासं जइ तुज्झ पडिहाई" । तीए भणियं ‘महापसाओ, [?पुण्णो य] तुम्हाऽणुण्णाए मणोरहो एस अम्हाणं' । तओ महाविश्वेण पूइऊण पेसिया एसा । पत्ता य तत्थ । तेण वि पवेसिया महाविभूईए । जायं च परोप्परमेगरज । एवं च अच्छए मूलदेवो सह देवदत्ताए उदारं विसयसुहमणुहवंतो जिणभवणबिंबपूर्यातप्परो त्ति । ___ इयो य सो अयलो पारसउले विढवियबहुदव्वो परं च भंडं भरेऊण आगओ बेण्णायडं । आवासिओ बाहिं । पुच्छिओ लोगो ‘किमभिहाणो एत्थ राया ?' । कहियं च लोगेहिं 'विक्रमराउ' त्ति। तओ मणि-मोत्तिय-विट्ठमाण थालं भरेऊण गओ राइणो पेक्खगो । दवावियमासणं राइणा । निसण्णो य । 'अव्वो! कत्थ एंस सो अयलो?' त्ति पच्चभिण्णाओ राइणा । ण णाओ एएण राया । तओ पुच्छियं राइणा 'कुओ सेट्ठी आगओ ?' । तेण भणियं पारसउलाओ । सम्माणिएण य जहोचियपडिवत्तीए भणियमयलेण 'देव ! पेसह कोई उवरिगो जो भंडं णिरूवेई' । तओ राइणा भणिओ ‘पवहणकोउगेणाहं सयमेवाऽऽगमेस्सामि' त्ति । अयलेण भणियं 'देव ! पसाओ'। तओ पंचउलसमण्णिओ गओ राया । दंसियं पवहणेसु संख-फोप्फल-चंदणा गुरु-मंजिट्ठाइयं भंडं । पुच्छियं पंचउलसमक्खं राइणा 'भो सेट्ठि ! इत्तियं चैव भंडं ?'। तेण भणियं 'इत्तियं चेव' । राइणा भणियं 'भो ! सम्मं साहेजसु जओ मम रज्जे सुंकचोरियाए सारीरो निग्गहो' । अयलेण भणियं 'किं देवस्स वि अन्नहा निवेइज्जई' । रण्णा भणियं 'जइ एवं तो करेह सिट्ठस्स अद्धदाणं, परं तोलेह मम समक्खं चोल्लगाई' । तोलियाई पंचउलेण । तओ भारेण पायप्पहारेणु धरावेहेण य लक्खियं मंजिट्ठाइमज्झगयं सौरभंडं । तओ उक्किल्लावियाई चोल्लगाई निरूवियाई सम्मं जाव दिलु कत्थइ सुवण्णं कत्थइ रुप्पं कत्थई मणि १. ला० पेसेह ॥ २. ला० या दोवा' ॥ ३. ला० मेयं(वं) लिहि ॥ ४. ला० 'वं वजिय न ॥ ५. सं० वा० सु० एसो मू ॥ ६. ला० याकरणे तप्प ।। ७. सं० वा० सु० परवं (वरं) भंडं ॥ ८. सं० वा० सु० 'मसेणो त्ति ।। ९. ला० "वियं रायणा आसणं । नि ॥ १०. ला० एसो अयः ॥ ११. ला० 'ण जहो' ।। १२. ला. कोवि उ ॥ १३. ला. 'स्सामि । अय' ॥ १४. ला० यं वह ॥ १५. सं० वा० सु० 'ख-पोफल' ।। १६. ला० व इमं ? तेण ॥ १७. सं० वा० सु० यं देव ! ।। १८. ला. 'ह सेट्ठिस्स ॥ १९. सं० वा० सु० ई । संतोलि ॥ २०. ला० 'ट्ठाए मज्झ ॥ २१. ला० सारं भं ॥ २२. सं० वा० सु० उखेल्ला ॥ २३. सं० वा. सु० 'इ जाव ।। २४-२६. सं० वा० सु० कत्थय । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलदेवकथानकम् २१५ I मोत्तिय - पवालगोइमहग्घं भंडं । च दट्ठूण रुट्ठणै रण्णा णियपुरिसाण दिण्णो आएसो 'अरे ! बंधह पच्चक्खचोरं इमं' ति । वयणाणंतरमेव बद्धो तेहिं थरथरंतहियओ । दाऊण य रक्खवाले जाणेहिं गओ सभवणं राया । सो वि आरक्खगेहिं आणीओ रायसमीवं । गाढबद्धं च दट्ठूण भणियं राइणा 'अरे ! छोडेह लहुं' ति । छोडिओ य । तओ पुच्छिओ राइणा 'सत्थवाहपुत्त ! पच्चभिजणासि ममं ?' । तेण भणियं ‘देव ! सयलपुहईविक्खायजसे महाणरिदे को ण याणइ ?' । राइणा भणियं 'अलं उवयारवयणेहिं, फुडं साहसु जैइ जाणर्सिं, । तेण भणिय 'देव ! जइ एवं, तो ण याणामि सम्मं' । तओ राइणा वार्हराविया देवदत्ता । आगया वरच्छर व्व सव्वंगभूसणधरा । ओलक्खिया अयण । लज्जिओ मणम्मि बाढं । भणियं च तीए “भो ! एसें सो मूलदेवो जो तुमे भुणिओ म ‘ममावि कयाइ विहिनिओगेण वसणं पत्तस्स एवं चेव करेज्जसु', ता एस सो अवसरी, मुक्को य तुममज्ज सरीरसंसयमावण्णो वि पणय - दीणजणवच्छलेणऽज्जउत्तेणे' । इमं च सोऊण विलक्खमाणसो ‘महापसाओं' त्ति भणिय पडिओ राइणो देवदत्ताए य चरणेसु, भणियं च ' कयं मए जं तया सयलजणणिव्वुतिकरस्स णीसेसकलासोहियस्स देवस्स णिम्मलसहावस्स पुण्णिमाचंदस्सेव राहुणा कयत्थणं तं खमउ मह देवो, तुम्ह कयत्थणामरिसेण महाराओ वि न देइ उज्जेणीए पवेसं' । मूलदेवेण भणियं 'खमियं चेव मए जस्स तुह देवीए कओ पसाओ, तहा उवयारी चेव तुममम्हाणं, जओ न जीवियदाणाओ अण्णं दाणमत्थि' । तओ पुणो वि निवडिओ दोह वि चरणे । परमाण I ण्हाविओ जेमाविओ देवदत्ताए । पहिराविओ महग्घवत्थाई राइणा । पेसिओ उज्जेणिं, मूलदेवराइणो अब्भत्थणाए य खमियं जियसत्तुराणा । ति । निग्घिणसम्मो वि रज्जे निविट्ठ मूलदेवं सोऊण आगओ बेण्णायडं । दिट्ठो राया, तओ'लोकयात्रा भयं लज्जा, दाक्षिण्यं त्यागशीलता । पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात् तेन सङ्गतिम् ।। २९९ ।। इति चिंतिऊण दिण्णो अदिट्ठेसेवाएसो चेव गामो । 'महापसाओ' त्ति भणिऊण गओ सो गा अण्णया नगरं पइदियहं तक्करेहिं मुसिज्जइ, न य औरक्खगा चोरपयं पि लहिउं पारंति । तओ १. ला० °त्तियाइं पवा ॥ २. सं० वा० सु० 'गाई महग्घभंडं ॥ ३. ला० ण निय° ॥ ४. ला० सो रे ! बं° ॥ ५. ता० ले जणेहिं ॥ ६. ला० वि आणिओ आरक्खगेणं राय ॥ ७ ला 'ओ । तओ ॥ ८. ला जाणसि । ९. सं० वा० सु० जओ जा ॥ १०. ला० °सि अयलेण भणि ॥ ११. सं० वा० सु० °यं 'जइ ॥ १२. ला० 'हरिया ॥ १३. ला० °या य अय° ॥ १४. सं० वा० सु० °स मूल ॥ १५. ला० °रो, पमुक्तो ॥ १६ ला० °ण । तं च ।। १७. ला० चलणे ॥ १८. ला० 'व्वुइक' ॥ १९. ला० परिघविओ य म ॥ २०. ला० 'ओ य उ । २१. ला० °ता । यत्रैतानि न विद्यन्ते ॥ २२. सं० वा० सु० 'सेवो एसो ॥ २३. ला० या य न° ॥ २४. आरक्खिया चो ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके चिंतियं राइणा, अवि य'जइ एवमणाहं पिव चोरेहिँ मुसिज्जए ममावि पुरं । तो पुरिसयार-पंडिच्चबुद्धिमाईहिँ मज्झ अलं॥२१॥ अहयं चियसव्वेसु विअत्थेसुइमेसुकोविओधणियं । तामहपुरिमोसयतक्कराण नणुधिट्ठिमागरुई' ॥२२॥ इय चिंतिऊण राया नीलपडं पाउणित्तु रयणीए । तक्करगवेसणत्थं विणिग्गओ निययगेहाओ ॥२३॥ हिंडित्तु पुरवरीए सव्वेसु वि संकणिज्जठाणेसु । अइउव्वाओ सुत्तो सुण्णे एगत्थ देवउले ॥२४॥ ___ एत्थंतरम्मि समागओ मंडियाहिहाणो महातक्करो । उट्ठविओ एसो पाएण 'अरे ! को तुम इत्थ पसुत्तो ?' । मूलदेवेण भणियं 'कप्पडिओ' । इयरेण भणियं 'जइ एवं ता एहि मणुस्सं करेमि' । तेण भणियं 'महापसाओ । तओ गया दो वि एगत्थ ईसरगेहे । खणिऊण खत्तं नीणियं मंडिएण पभूयं सारदविणं आरोवियं मूलदेवस्स उत्तमंगे । कओ मग्गओ । सयं च गहियकरालकरवालो पयट्ठो पिठ्ठओ। गया जिण्णोज्जाणं । विहाडेऊण भूमिघरदुवारं पविट्ठा अभंतरे । तत्थ य तस्स भगिणी कुमारिगा रूववई जोव्वणत्था चिट्ठइ । सा तेण भणिया जहा ‘इमस्स पाहुणयस्स चरणे पक्खालेसु' । सा वि कूवतडट्ठियवरासणे निवेसिऊण मूलदेवं चरणे धोविउमाढत्ता । तओ अच्वंतसुकुमालं चरणफासं संवेइऊण 'अहो ! पुरिसरयणं किंपि एयंति चिंतिऊण णिरूविओ सव्वंगेसु । तओ संजायदढाणुरागाए य सण्णिऊण भणिओ सणिय सणियं जहा 'जे अण्णे पुरिसा समागच्छंताते हं इमम्मि तुह पिट्ठिट्ठियकूवए पायधोयणच्छलेण पक्खिवंती, तुमं पुण णं खिवामि, ता ममोवरोहेण सिग्घमवक्कमाहि, अण्णहा दोण्हं पि न सोहणं भवेस्सई' । तओ कजगइमवगच्छिऊण दुयं निग्गओ राया । इयरीए वि नियक्खूणभएण अक्कंदियं जहा 'एस सो पुरिसो निग्गओ निग्गओ'त्ति । तओ अद्धसंगोवि यदव्वं मोत्तूण गहियकंककरवालो धाविओ पिट्ठओ मंडिओ । पच्चासणीहूयं णाऊण नगरचच्चरुद्धट्ठियपहाणखंभमंतरिऊण नट्ठो राया । इयरो वि कोवंतरियलोयणो ‘एस सो पुरिसो'त्ति कंकासिणा दुहा काऊण पहाणखंभं गओ सट्टाणं । राया वि लद्धो चोरो' त्ति निव्वुयहियओ गओ नियगेहं। पहाए य रायवाडियाछलेणं तन्निरूवणत्थं निग्गओ, जाव बहुपट्टयावेढियजंघो गहियथिरथोरलट्ठी सणियं सणियं संचरंतो अद्धोग्घाडवयणो दिट्ठो दोसियहट्टे तुण्णायकम्मं करेमाणो। 'रयणीए दीवएण वयणं दिलु'ति काऊण पच्चभिण्णाओ । गिहागएण य 'हक्कारेहि अमुगं तुण्णायं' ति पेसिओ आरक्खगो! । तेण वि जाव सद्दिओ तओ 'किमज्ज रायउले आहवणं ?, नूणं सो पुरिसो न वावाइओ भवेस्सई' त्ति साभिसंको गओ रायसमीवं । दवावियं राइणा महारिहमासणं, सम्माणेऊण १. ला० ओ य ए॥ २. ला० उत्तिमं ॥ ३. ला० यकरवालो ॥ ४. ला० यट्टो पि ॥ ५. ला० चलणे सोविउ ॥ ६. ला० यं जहा ॥ ७. ला० ते इहं इ॥ ८. ला० 'यसोयण ॥ ९. ला० ण पक्खिवा ॥ १०. सं० वा० सु० 'क्कमहि ॥ ११. ला० 'वियं द॥ १२. ला० °ण्णीभूयं च णा || १३. ला० लट्ठी य सणियं संच॥ १४. ला० तुणारं ति ॥ १५. ला० 'रक्खिओ । तेण ॥ १६. ला० यउलं । समीवं द ॥ १७. ला० महरि ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवधरकथानकम् महापडिवत्तीए भणिओ जहा देहि अम्हाणं नियभगिणिं । तेण वि 'नूणमेसो चेव सो राया भविस्स ' त्ति, कज्जपरमत्थमवगच्छिऊण दिण्णा, परिणीया य । सो वि ठविओ महंतगो । तओ राया पइदिणं मग्गावेइ तीए मुहाओ आभरण - वत्थाइयं जाव समागरिसियं सव्वं दव्वं । पुच्छिणा 'केत्तियमज्ज वि अत्थि एयस्स दव्वं ?' । तीए भणियं 'देव एत्तियं चेव' । तओ अगाहिं विडंबनाहिं विडंबिऊण णिग्गहिओ । “ एवं साहुणा वि जाव गुणलाभो ताव देहो पालेयव्वो । तयभावे निग्गहेयवो संलेहणा-ऽणसणाईहिं ।" एयं पसंगओ भणियं । मूलदेवो वि उदारं रेज्जसिरिमणुहवेऊणाऽऽउपज्जंते परिवालिय गिहिधम्मं समाहीए मओ देवलोगं गओ ति । २१७ एवमैहिकदानफलगतं गतं मूलदेर्वकथानकम्। २४. आदिशब्दाद् देवधर-देवदिन्ना - ऽभिनवश्रेष्ठिप्रभृतयो ज्ञातव्याः । तत्र देवधरकथानकमिदम्[२५. देवधरकथानकम् ] अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कलिंगाजणवए रम्मत्तणाइगुणगणोहामियतिसर्पुरिसोहासमुदयं कंचणपुरं नाम नगरं । तत्थय गरुयपरक्कमक्कं तदरियारिमंडलो संदाणुरत्तभूमिमंडलो रुवाइगुणगणोहामियाऽऽखंडलो भामंडलो णाम राया । तस्स य नियछाय व्व सावत्तिणी कित्तिमई नाम देवी । इओ य तम्मि चेव नगरे सयलमहायणप्पहाणो सुंदराहिहाणो सेट्ठी । सुंदरी से भारिया । ती य जायाणि अवच्चाणि विणिघायमावज्जंति । अणेगोवायपराए वि न एगं पि जीवइ । तओ कयाइ महामाणसियदुक्खक्कंताएं चिंतियं, अवि य 'धौ धी ! मम जम्मेणं निष्फलपर्सवेण दुक्खपउरेणं । जेणेगं पि अवच्चं नो जीवइ मँह अपुण्णाए ॥१॥ हरियाई कस्स रयणाइँ अण्णजम्मम्मि । जेण ममाऽवच्चाइं निमित्तविरहेण वि मरंति ॥ २ ॥ अइहरिसनिब्भरेहिं जाइँ अकज्जाइँ कहव कीरंति । ताणेरिसो विवागो दुव्विसहो ज्झत्ति उवणमइ ||३| एवं चिंताउराए समागया देसियालियागयसूरपालरायउत्तभज्जा पियमई नाम तीए पियसही। जंपियं च तीए ‘हला ! किमुव्विग्गा विय लक्खीयसि ?' । सुंदरीए भणियं -. १. ला० नूणं एस-चेव ॥ २. ला० सव्वं पिद ॥ ३. ला० 'यऽज वि ॥ ४. सं० वा० सु० व्वो । एयं ॥ ५. ला० रज्जसिरिं अणुभुंजिऊण आऊ ॥ ६. सं० वा० सु० 'वआ (स्या) ख्यानकम् ॥ ७. सं० वा० सु० 'नकम्-अत्थि ॥ ८. ला० 'पुरसो ॥ ९. ला० 'त्थ गुरु ॥ १०. ला० सयाणुरतभूमंड ॥ ११. सं० वा०सु० 'ए य चिं । १२. ला० चिद्धि । मजम्मेणं ॥ १३. ला० सरेण ॥। १४. ला० मम अ° ॥ १५. ला० एवं च चिं ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके ‘पिइ-माइ-भाइ-भगिणी-भज्जा-पत्ताइयाण सव्वाण । कीरइ जं पि रहस्सं न रहस्सं तं पि हु सहीणं ।।। ___ता भगिणि ! अवच्चमरणं मम गुरुयमुव्वेगकारणं' । पियमईए भणियं 'जं जेण जहा जम्मंतरम्मि जीवेणुवज्जियं कम्मं । तं तेण तहा पियसहि ! भोत्तव्वं नत्थि संदेहो ॥५॥ परं मा संतप्प, मं गब्भवइं मोत्तूण गओ देसियालियाए मम पिययमो, ताजं ममाऽवच्चं भविस्सइ तं मए तुज्झाऽवस्सं दायव्वं' । सुंदरीए भणियं 'जइ एवं ता मह गेहे चेवाऽऽगंतूण चिट्ठसु जओ ममाऽवि सममाहूओ चिट्ठए गब्भो, ता जइ कहिंचि दिव्वजोएणं समयं पसवामो तो अईवसोहणं भवइ, न य कस्सवि रहस्सं पयडियव्वं' । सा वि तहत्ति सव्वं पडिवज्जिऊण ठिया तीए चेव गिहे । कम्मधम्मसंजोएण समगं चेव पसूयाओ । कओ य मयग-जीवंतयदारगाण परावत्तो। कइवयदिणेहिं च तहाविहरोगेण पंचत्तमुवगया पियमई । सुंदरीए य अणेगाइं सिट्टिाइं लोगे पयडिऊण जहोचियसमए कयं दारयस्स नामं देवधरो त्ति । पवद्धमाणो य जाओ अट्टवारिसिओ।। ___ तओ जाव सिक्खिओ बावत्तरि कलाओ ताव पुव्वकयकम्मदोसेण मयाइं.जणणि-जणयाई, उच्छण्णो सयणवणो, पणट्ठो सव्वो विविहविहवं वित्थरो, जाओ एगागी, गहिओ महादरिद्देण । अणिव्वहंतो य करेइ वुत्ताणत्तयं धणसेटिगेहे । भुजइ तत्थेव । 'कुलजो य सावओ'त्ति जाइ पइदिणं चेइयभवणेसु, वंदए चेइयाई, गच्छए साहु-साहुणीवंदणत्थं तदुवस्सएसु । एवं च वच्चमाणे काले अण्णया कयाइ कम्हि पगरणे परिविढं संपयाहिहाणाए सेट्ठिणीए विसिट्ठ मणुण्णं च तस्स भोयणं । एत्यंतरम्मि य, परिचत्तसव्वसंगं विविहतवच्चरणसोसियनियंगं । पढियेक्कारसअंग जयदुज्जयनिज्जियाणंगं ।।६।। तिहिँ गुत्तीहिँ सुगुत्तं समियं समिईहिँ सत्तसंजुत्तं । समदिठ्ठसत्तु-मित्तं सुसाहुजुयलं तहिं पत्तं ।।७।। तं दटुं देवधरो पयडसमुन्भिज्जमाणरोमंचो । चितेइ 'अहो ! दुलहा जाया मह अज सामग्गी ।।८।। पत्तं वित्तं चित्तं तिण्णि वि पुण्णाइँ पुण्णजोएण । ता सहलं नियजीयं करेमि पडिलाहिउं मुणिणो' ।।९।। इय चिंतिऊण गंतुं मुणिपामूले नमंतसिरकमलो । विण्णवइ 'कुणह भयवं! महऽणुग्गहमेयगहणेणं'।१०। साहूहिँ वि तं नाउं अइगरुयपवड्डमाणपरिणामं । थोवं दिजसु सावय ! भणिऊणं उड्डियं पत्तं ।।११।। तेण वि ‘इच्छं इच्छं' पयंपमाणाण ताण साहूण । रहसवसपरवसेणं सव्वं पत्तम्मि पक्खित्तं ।१२। 'अजं चेव कयत्थो जाओ हं' भाविऊण तत्थेव । उवविठ्ठो ठाणम्मिं पुरओ थालं विहेऊण ।।१३। १. ला० 'ताययाण ॥ २. सं० वा० सु० ओ देसिओ देसियालिए ॥ ३. ला० समाहूओ ॥ ४. सं० वा० सु० "स्सय र ।। ५. ला० "गं च पसू ॥ ६. ला० पिइमई ॥ ७. सं० वा० सु० सहिराइं ॥ ८. ला० ववित्थारो ॥ ९. ला० °ओ य महा ॥ १०. ला० जए त ॥ ११. ला० जोगियसा ॥ १२. सं० वा० सु० पइंपमा' | Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवधरकथानकम् २१९ एत्थं तरम्मि भोयणसमयदेववं दणत्थमब्भं तरं पविसिउकामेण दिट्ठो सेट्ठिणा । तओ भणियाऽणेण नियभारियां संपया जहा ' परिवेसेहि देवधरस्स' । तीए भणियं 'परिविट्टं मए एयस्स अमुगं अगं च पहाणभोयणं, परं एएण सव्वं साहूण दिण्णं' । सेट्ठिणा भणियं 'धण्णो खु एसो जेणेवं कयं, ता पुणो वि परिवेसेहि' । तीए भणियं ' नाऽहमेवंविहं वियाणामि' । सेट्ठिणा भणियं 'मा अणुमोयणाठाणे वि खेयं करेहि, जओ अणुमोयणाए वि तुल्लं चेव फलं हवइ, भणियं च अप्पहियमायरंतो, अणुमोयंतो वि सोग्गइं लहइ । रहकारदाणअणुमोयगो मिगो जह य बलदेवो ॥१४॥ ता भुंजावेहि मणुणेणं' । ति भणिऊण पविट्ठो देववंदणत्थमब्भंतरे । संपयाए वि वक्खित्तत्तणओ जाव न परिवेसियं ताव इयरो वि अभिमाणगओ चिंतिउमारद्धो, अवि य “कट्ठमहो ! दालिद्दं गिरिवरगरुया वि सुपुरिसा जेणं । तिण- तूलसयासाओं वि जायंति जयम्मि लहुययरा ॥१५॥ किं ताण जीविणं नराण दोगच्चातावतवियाणं । इयरजणजणियपरिभवअवमाणक्खाणि भूयाणं ? | १६ | अत्थो च्चिय पुरिसत्थो एक्को भुवणम्मि लहेइ परभावं । बहुदोसजुया वि नरा गोरव्वा जेण जायंति । १७। धण्णा गल पायं दाउ अवमाणणाण सव्वाणं । तेलोयवंदणिज्जा जाया समणा समियपावा ।। १८ ।। अयं तु पुण अहणो जो नवि सक्केमि गिहिउं दिक्खं । अवमाणगरुयदुक्खाइँ तेण निच्वंपि विसहेमि" ॥१९॥ एवं च चिंतंतस्स निग्गओ सेट्ठी । दिट्ठो य तयवत्थो चेव । तओ भणिओ सेट्ठिणा 'उट्ठेहि वच्छ ! मए समं भुंजसु' । तओ उडिओ देवधरो, भुत्तो य पहाणाहारेहिं सह सेट्ठिणा । तओ इहलोए चेव महरिसिदाणप्पहावोवज्जियमहारज्जाइलाभस्स वि जिण - साहु - साहुणीवंदण-पज्जुवासणापरस्स जम्मंतर—निकाइयाऽसुह-कम्मफलमणुहवंतस्स वच्चए कालो । इओ य तम्मि चेव नयरे अत्थि रयणसारो नाम सेट्ठी । महलच्छी तस्स भारिया । ताणं च विसयसुहमणुहवंताणं समाहूओ महलच्छीए गब्भो । जाव जाओ छम्मासिओ ताव पंचत्तीहूओ सेट्ठी । महलच्छी वि पसूया निययसमए विणिज्जियामरसुंदरीरूवं सयललक्खणसंपुण्णं दारयं । ‘अपुत्तलच्छि’त्ति दारियानिव्वाहमित्तं किंचि दाऊण गहिओ सव्वो वि घरसारो राइणा । उचियसम कयं कुमारियाए नामं रायसिरि ति । पवनुमाणी य बालिया चेव रायमुक्कदव्वपयाण वि कलाओ जणणीए । इत्थंतरर्म्मि पइमरण-दव्वविणासाइमहादुक्खसंतत्ता खिज्जिऊण कालगया महालच्छ । १. ला० °या जहा ॥ २. सं० वा० सु 'हुउ परभायं ॥ ३. ला० महालं ॥ ४. सं० वा० सु० नियस ॥ ५. ला० °ए य क ॥। ६. ला० म्मि य पइ ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके । रायसिरी वि संगहिया लच्छीनामाए नियमाउसियाए, परिवालए ईसरगिहाइसु कम्मं रायसिरी 'साविय'त्ति भावसारं वंदए पइदिणं चेइय- साहु - साहुणीओ, दाणधम्माइवियलं च निंदए अप्पाणं, अवि य— २२० “हा हा ! मह जम्मेणं इमेण अइनिष्फलेण जाएणं । अयगलथणसरिसेणं इह-परलोयत्थवियलेणं | २०| गास विहु संपज्जइ मज्झ पुण्णवियलाए । अइगरुयकिलेसाऽऽयासजणियकम्मेण जणणीए । २१ । परलोओ पुण विहलो होही मह दाणसत्तिवियलाए । जम्मंतरनिव्वत्तियगरुयमहापावपसराए ।।२२।। धिसि धिसि मम भुत्तेणं निच्वं पत्ते असंविभत्तेणं । परिचत्तुत्तमसत्तेण वित्तसंपत्तिवियलाए” ।।२३।। अह अण्णया य तीए माउसियाए महिब्भगेहम्मि । ओवाइयलाहणए लद्धा वरमोयगा चउरो ।। २४ ।। तो भणिया रायसिरी तीए 'उवविससु पुत्ति ! भुंजाहि । अज्ज मए आणीया तुह कज्जे सीहकेसरया | २५ | उवविट्ठा सा बाला ते घेत्तुं सा पलोयइ दुवारं । 'जइ एइ कोइ अतिही तो लट्ठे होई' चिंतंती ।।२६।। जम्हा मह उवणीयं जणणीए अज्ज सुंदरं भोज्जं । तं दाऊणं पत्ते करेमि सुकयत्थमप्पाणं ।। २७।। इत्थंतरम्मि भिक्खं भममाणीओ गुणेहिँ कलियाओ । दुद्धरबंभव्वयधारियाओं तवसोसियंगीओ |२८| समतिण-मणि-मुत्ताओ जुगमित्तनिहित्तचित्तणेत्ताओ । भवियव्वयावसेणं सुसाहुणीओ समायाओ । २९ । तो पुज्जंतसमीहियमणोरहोप्पण्णपयडपुलयाए । संभमखलंततुरिययरगमण - वसणाऍ बालाए ||३०|| पडिलाभियाओं ताओ तिकरणसुद्धेण सुद्धदाणेणं । आणंदअंसुपप्पुयलोयणतामरसजुयलाए ।। ३१ ।। I तओ तेण पत्त-चित्तसुद्धेण दाणेण इहलोयफलं चेव निव्वत्तियं विसिहं भोगहलियं कम्मं, 'धण्णा संपुण्णा हं जीए ऐये संपण्णं' ति सुकडाणुमोयणेण पुणो पुणो संपोसियं । माउसियाए ' ऐसा जाबाला वि एवं करेइ' त्ति मण्णमाणीए पसंसिया । १४ तओ तहा वि जा न सक्कइ निव्वाहिउं लच्छी कण्णयं तो समप्पिया सुव्वयाहिहाणाए पवित्तिणीए, भणियं च ं ‘भयवइ ! न समत्था हं निव्वाहिउं, जइ तुम्हाणं पडिहाइ तो हि यं पत्तभूयं' ति । अंगीकया पवत्तिणीए । मोत्तूण तं तत्थेव गया लच्छी नियंगेहे । भोयणसमऍ य भणिया पवित्तिणीए जहा 'पुत्ति ! भुंजसु' । तीए भणियं 'भयवइ ! एरिसे दारुणे सीयकाले सीएणवारण य विज्झडिज्जमाणीहिं समणीहिं महया कट्टेणाऽऽणीयमिणं भत्तं कहमहं गिहत्था भुंजामि ?' । पवत्तिणी ॥ १. ला० निंदइ ॥ २. सं० वा० सु० अइग ॥ ३. ला० 'तरि निव्व ॥ ४. ला० तुज्झ कए सी ॥ ५. ला० कोवि अ० ॥ ६. ला० 'ते कारेमि कय ॥ ७. ला० गुणोहकलि° ॥ ८. सं० वा० सु० ९. सं० वा० सु० वयणाए । १०. ला० तिगर ॥ ११. ला० पत्तसुद्धेण ॥ १२. ला० एयं पुन्नं ति ॥ १३. सं० वा०सु० पुणो संपो ॥ १४. ला० एस जा ॥ १५. ला० तो ॥ १६. ला० 'हासइ ॥ १७. ला० यगेहं ॥ १८. ला० ए भ ॥ १९. ला० ण य वा ॥ २०. ला० णाणियं भतं ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवधरकथानकम् २२१. भणियं पुत्ति ! सोहणदिणे पव्वाइस्सामि ता भुंजाहिं' । तओ भुत्तं रायसिरीए । पवत्तिणीएं य तहाविहं तीए संसूयत्तणं पिच्छिऊणं पुट्ठा कण्णपिसाइया विजा 'किमेसा जोग्गा न व ?' ति । विजाए भणियं ‘मा ताव पव्वाविस्सह' । पवत्तिणी वि 'पुणो पुच्छिस्सामि'त्ति ठिया तुहिक्का जावाऽऽगओ उण्हायालो । तत्थ य खरयररविकरसंतत्ताओ पस्सेयजलाविलगत्ताओ छुहा-तण्हऽत्ताओ भत्त-पाणयभारक्ताओ भिक्खायरियापडिनियत्ताओ पिच्छिऊण साहुणीओ भणिउमाढत्ता रायसिरी भयवइ ! एवंविहकट्टेण एयाहिं महाणुभावाहिँ समाणीयं भत्तपाणं मम गिहत्थाए भुंजमाणीए महंतमासायणट्ठाणं, ता पव्वावेहि मं सिग्घं' ति। पवित्तिणीए वि 'धीरा होहि, जओ वरिसमित्ते फग्गुणसुद्धएक्कारसीए तुह सुझंतलगं'ति संठविऊण पुणो पुट्ठा विजा । विजाए भणियं 'अज्ज वि भोगहलियमत्थि एईए' । पवित्तिणी वि 'चेइय-साहु-साहुणीणं भत्तिं करिस्सइ'त्ति मण्णमाणी ठिया तुण्हिक्का जावाऽऽगओ पाउसो। निवडियं वरिसं । तत्थ वि तीए तहाविहं चेव भावं नाऊण पवित्तिणीए पुणो पुट्ठा विजा जहा 'कित्तियमेईए भोगहलियं ?' । विजाए भणियं जहा ‘एसा पंचण्हं पंचुत्तराणं देवीसयाणं अगमहिसी भविस्सइ, पण्णासं च वरिसाइं भोगहलियं भुंजिस्सई' । 'पवयणुण्णइं करिस्सई'त्ति मण्णमाणी ठिया उयासीणयाए चेव पवत्तिणी । अण्णया य साहुणीवंदणत्थमागएण दिट्ठा देवधरेण, पुच्छिया पवत्तिणी 'किमेसा अज वि न पव्वाविजइ ?' । पवत्तिणीए भणियं 'जओ अजोग्गा' । 'जइ एवं किमत्थमसंजयं पोसेह ?' । तीए भणियं 'जओ संघस्सुण्णईकरा भविस्सई' । तेण भणियं 'कहं ?' । तीए भणियं 'न पभूयं वट्टइ कहिउँ' । तओ तेण अभोयणाइए कओ निब्बंधो । जहट्ठियं सिढें । तओ चिंतियं देवधरेण 'अहो ! अचिंता कम्मपरिणई जमेसा वणियकुलोप्पणा वि एवंविहं रायलच्छिं पाविस्सइ, भुंजिऊण य रायलच्छिं मण्णे दुग्गइं वच्चिस्सइ, ता परिणेमि एयं जेण रायलच्छिं चेव न पावइ, न य दुग्गइं जाई' । त्ति चिंतिऊण भणिया पवित्तिणी ‘भयवइ ! किमहमेयं परिणेमि ?' । तीए य दो वि कण्णे पिहित्ता [?जंपियं] ‘सावय ! किमयाणो विय पुच्छसि ? न वट्टइ एयमम्हाण जंपिउँ' । देवधरेण भणियं ‘मिच्छा मि दुक्कडं, जमणुवओगो कओं' । तओ गओ लच्छीसयासं । भणिया य विणयपुव्वयं 'अंबे ! दिजउ मम रायसिरी' । तीए भणियं 'पुत्त ! दिण्णा मए साहुणीणं' । तेण भणियं 'न पव्वावइस्संति ताओ तं' । तीए भणियं कहं वियाणसि ?'। तेण भणियं 'ताहिं चेव सिटुं' । लच्छीए भणियं 'जइ एवं तो पुच्छामि ताओ' । १. सं० वा० सु० पुत्त ! ॥ २. ला० ‘स्सामो ॥ ३. ला० “ए तहा ॥ ४. सं० वा० सु० सभूयत्तणं ॥ ५. ला० रविकिरणसं ॥ ६. ला० तण्हुण्हाओ ॥ ७. ला० यणाठाणं ॥ ८. ला० 'व्वावेह ।। ९. ला० एणयं क' ।। १०. ला० °ए व बंधे (कए निब्बंधे) जह° || Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तेण भणियं ‘एवं होउ, परमण्णहा न कायव्वं' । तओ पुच्छिया पवित्तिणी लच्छीए जहा 'किं सच्चं चेव न दिक्खिस्सह रायसिरि ?'। पवित्तिणीए भणियं 'सच्चं' । तओ तीए 'दारिद्दपत्तो वि गुणजुत्तो सावयधम्मजुत्तो सामण्णपुत्तो य एस देवधरो, न य मह कम्मरीहत्थाओ अण्णो को वि महिड्डिपत्तो गिहिस्सइ, एसो य महायरेण मग्गईत्ति चिंतिऊण दिण्णा देवधरस्स रायसिरी । कम्मधम्मसंजोएण जायं तीए चेव फग्गुणसुद्धक्कारसीए वारेज्जयलग्गं । तओ कीरतेसु वारिजमंगलेसु भाविउं पवत्ता रायसिरी, अवि य'जइ अंतरायकम्मं न हु हुँतं मज्झ पुण्णवियलाए । संजमभरवहणसमुज्जयाएँ कयनिच्छयमणाए ।।३२। तो दिजिंतो वेसो अजं मह सयण-सावयजणेहिँ' । वण्णणए कीरते संविणा भावए एवं ।।३३।। पुणरवि लग्गदिणम्मी चिंतइ कीरंतए पमक्खणए । 'निक्खमणऽभिसेयमहो, वहॅतो अज मह इण्डिं।३४। संयणाइसंपरिवुडा सव्वालंकारभूसिया अहुणा । वच्चंती जिणभवणे बहुमंगलतूरसद्देहिं ।।३५ ।। माइहरे उवविट्ठा चिंतइ ‘कयजिणपइक्खिणा इण्हिं । गुरुणा सह भत्तीए वंदंती चेइए अहयं ।।३६।। चउविहसंघसमक्खं अप्पिजंतो गुरूहिँ मह वेसो । रयहरणाई संपइ, संपइ कीरंतओ लोओ' ।।३७।। हत्थाऽऽलेवयसमए भावइ ‘हा ! जीव ! एस सो समओ । गुरुयणमणुभासंतो गिण्हंतो जत्थ सामइयं ।।३८।। 'इण्डिं पयक्खिणंती समत्थसंघेण खिप्पमाणेहिं । वासेहिँ समोसरणं' भावइ मंडलयर्भमणम्मि । ३९ । तयणु असेसजणेहिं वंदिजंती तओ पुण गुरूहिं । अणुसहिँ दिजंतिं संवेगगया निसामंती ।।४०।। हा! जीव ! अलक्खण ! सव्वविरइनिहिगहणलालसो कह तं । वेयालेण व बलियंतरायकम्मेण विद्दविओ ?' ॥४१ ।। एवं च भावेमाणी परिणीया जहरिहपडिवत्तीए । विण्णत्तो य सेट्ठी देवधरेण जहा 'ताय अप्पेह किंचि उवस्सयं' । तओ अप्पियं सेट्ठिणा नियवाडगेगदेससंठियं तिणहरं । आणीया य तत्थ तेण रायसिरी । सा य अईवभत्ताणुरत्ता भत्तुणो । तओ तीए सह विसयसुहमणुहवंतो जाव चिट्ठइ ताव चिंतियं सेट्ठिणा जहा ‘एस महाणुभावो देवधरो मम सामण्णपुत्तो महासत्तो उदारचित्तो पभूयगुणजुत्तो ता कारवेमि किंचि वाणिज्जं, पेच्छामि से विण्णाणं, जइ जुग्गो तो जहाजुत्तं करिस्सामि' । त्ति परिभाविऊण भणिओ जहा 'वच्छ ! घेत्तूण मम १. ला० ‘हपुत्तो ॥ २. सं० वा० सु० 'कराह ॥ ३. ला० महिडिओ पुत्तो ॥ ४. ला० जयमं ॥ ५. ला० ण य हुतं ।। ६. ला० सइणा' ॥ ७. सं० वा० सु० उरुय' ॥ ८. सं० वा० सु० पइक्खि ॥ ९. ला० भवण ॥ १०. ला० जणेणं वं ॥ ११. ला० य तेण तत्थ रा ॥ १२. सं० वा० सु० वभत्ताणुरत्ता । तओ॥ १३. ला० 'म पुत्तो॥ १४. ला० जोग्गो तो जहाजोग्गं क' || Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवधरकथानकम् २२३ सयासाओ भंडमुल्लं करेहि किंचि पत्त - सागाइयं वाणिज्जं । तेण वि तहेव कयं । उप्पायए • भोयणवयाइयं जाव पच्चासण्णीभूओ पाउसो । तओ भणिया तेण भारिया जहा 'आहि कुओ वि इट्टखंडाणि जेण तुण्णेमि एयं अईवदुब्बलं वरंडयं ति, मा वरिसायाले सुत्ताणं चेव उवरिं पडिस्सई' । ती वि तव कयं । तस्स य तं तुण्णेमाणस्स दुब्बलियामवणितस्स निग्गयाणि पंच सयाणि दम्माण । तओ तीए अदंसिऊण चेव कयाणि ओवट्टीए । कयकज्जेण य गंतूण हट्टे सयमेगं वैचिऊण कयं तीए किंचि वत्थाभरणं । ती भणियं ‘पिययम ! कुओ तए एयं कयं ?' । तेण भणियं 'साहुसयासाओ दम्मसयमेगं मग्गिऊण एयं क' । तीए भणियं 'जइ एवं ता अलमेइणा' । तेण भणियं ' मा बीहेहि महाधर्णेविसिट्ठो परमवच्छलो य मम साहू, न किंचि एत्तिएण तस्स गण्णं' । तओ परिहियं तीए । सो वि ववहरंतो थोवदिवसेहिं चेव जाओ दम्मसहस्ससामी । I अण्णदियहम्मि भणिओ सो तीए जहा 'न वट्टए सावयाणं वैरिसायाले मट्टियं खणिउं, ता आणेहि किंपि खणित्तयं जेण संगहेमि मट्टियं । तओ तेणाऽऽणीया सिट्ठिगेहाओ कुँसिया । तीए लवियं 'नाऽहमेईए खणिउं सक्केमि' । तेण भणियं 'पविरलमाणुसाए वियालवेलाए अहमेव खणिस्सामि, तुमं पुण पिडयं कोत्थलयं च गिण्हिज्जसु, जेण कोत्थलयं भरित्ता अहमवि समागच्छामि अण्णहा लज्जिज्जइ मट्टियमाणंतेहिं' । तओ तीए तहेव कयं । तेण वि कुंसियाए आहणिऊण जाव पाडिया भिउडी तत्थ पयडीहूयं दसलक्खदीणारमुल्लं रयणाइपूरियं महानिहाणं । तेण भणियं 'पिए ! झत्ति ओसरामो इओ ठाणाओ' । 'किं कारणं ?' ति तीए पुच्छिएण जंपियं तेण 'पिए ! पिच्छ एस अम्हाण कालो पयडीहूओ’ । तीए जंपियं ‘न एस कालो किंतु तुज्झचिंतपुण्णाणुभावेणाऽऽणीया एसा महालच्छी' । तेण वियं 'अत्थि एवं जइ कहवि राओ वियाणइ तो महंतो अणत्थो' । तओ 'ममाऽऽसंकं करेइ' त्ति चिंतिऊर्णं जंपियं रायसिरीए 'ण मम सयासाओ पयडीहोइ एसत्थो, ता गिण्हाहि निव्विसंको नियभागधेयोवणीयमेयं जा न को वि पेच्छइ' । तओ तेण कुँसियाए विहाडिऊण मुद्दाओ पक्खित्तं कोत्थेले रयणाइयं, भायणं पि पिडयमज्झं काऊण दिण्णा उवरि मट्टिया । समागयाइं नियगेहे । निय (ह)णियं गिहेगदेसे । अण्णया मंतियं तीए सह भत्तुणा जहा 'पाहाणभूयमिणं दविणं, जओ— जिणपडिमासुं तम्मंदिरेसु तप्पूय - ण्हवण-जत्तासु । जं न वि लग्गइ पिययम ! पाहाणसमं तयं दविणं ॥४२॥ १. ला० °यं भिंत्तिं मा ॥ २. ला० वेच्चिउण ॥। ३. ला० एवं क ॥ ४. ला० णवइविसि || ५. सं० वा० सु० वरिसयाले ॥ ६. ला० विना कसिया || तीए भणियं - नाह ! एह (इ) एखणिउं ण सक्केमि ॥ ७. ला० °यं 'विर ८. ला० विना कसिया ॥ ९. ला० लपियं ॥। १०. ला० ण भणियं ॥ ११. ला० विना कसिया ।। १२. ला० स्थलए रय° ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके भत्ते पाणे वत्थे सयणा-ऽऽसण-वसहि-ओसहाईसुं । जं साहु-साहुणीणं न वि दिज्जइ तं पि उवलसमं ।।४३॥ भोयण-तंबोला-ऽऽसण-वत्थाइसु जं न कहवि उवगरइ । साहम्मियाण पिय! तं पि मुणसु लिठ्ठवमं रित्थं॥४४॥ जं न नियअंगभोगे, न य मित्ताणं, न दीण-विहलाणं । उवओगं जाइ धणं तं पि हु धूलीसमं नाह ! ॥४५॥ ता किमेइणा मुच्छापरिगहमेत्तेण ?' । तेण भणियं ‘एवं ठिए को उवाओ ?' । तीए भणियं ‘परिणेहि सेट्टिधूयं कमलसिरिं, जेण सव्वा संभावणा भवई' । तेणुल्लवियं 'अलं मम तुमं मोत्तूण अण्णाएं' । तीए जंपियं 'नाह ! गुण-दोसवियारणाए जं बहुगुणं तं कायव्वमेव' । तेण भणियं ‘जइ एवं ते निबंधो ता केणुवाएण सा पावियव्वा ?'। तीए भणियं “परिचिया चेव सा ते, ता उवयरेहि फलाइणा, अहं पुण विभूसाए उवयरिस्सामि, यत उक्तम् अन्न-पानहरेदालां यौवनस्थां विभूषया । पण्यस्त्रीमुपचारेण, वृद्धां कर्कशसेवया ।।३०० ।। सा य किंपि बाला किंपि जोव्वणत्था, अओ एवं चेव वसवत्तिणी भविस्सई" । तओ 'सोहणं भणसित्ति पडिवज्जिऊण देइ पइदिणं तीए फलाइयं । एवं च अणुलग्गा सा देवधरस्स जाइ तेण सह तग्गिहे । मंडेइ पइदिणं तं रायसिरी । गिहं गया य पुच्छिया जणणीए को तुह फलाइयं देइ ?, को य मंडेइ ?' । तीए भणियं 'देइ फलाइयं देवधरो, मंडेइ पुण बाइया' । 'को देवधरो ? का बाइया ?' पुणो पुट्ठा जणणीए । तीए भणियं देवधरो जो पइदिणं अम्हं गे[ग्रन्थाग्रम् ५०००]हे समागच्छइ, बाइया पुण तस्स चेव भारिया'। अण्णया देवधरेण सह समागच्छंतं धूयं पेच्छिऊण हसिया जणणीए ‘वच्छे ! अइसुलग्गा दीससि, किमेइणा चेव अप्पाणं परिणाविस्ससि ?' । कमलसिरीए लवियं को इत्थ संदेहो, जइ मं अण्णस्स दाहिह तो हं निच्छएण अप्पाणं वावाइस्सामि' । जणणीए जंपियं 'मुद्धे ! तस्सऽण्णा भारिया चिट्ठई' । कमलसिरीए भणियं ‘सा मम भगिणी, अलं तब्विउत्ताए मम अण्णेण सधणेणावि वरेण' । तओ अइगरुयाणुरायपरवसं नाऊण साहियं जहट्ठियं चेव संपयाए सेट्ठिणो । तेण भणियं 'पिए ! जइ वच्छाए निब्बंधो ता होउ एवं चेव, जओ रूवाइगुणपगरिसो चेव देवधरो, दारिदउच्छायणे पुण अहं चेव भलिस्सामि, परं अणुणएमि से भजं'। संपयाए वि तह'त्ति पडिवण्णं। तओ आइट्ठो १. ला० ययम !, मुण तं पि सिलोवमं रित्थं ॥ २. ला० मंडइ॥ ३. ला. “या पुः ॥ ४. ला० ए भणियं ॥ ५. ला० °ण सोहणे ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवधरकथानकम् २२५ सेट्ठिा देवधरो 'वच्छ ! दंसेहि अम्हाणं नियभारियं' । तेण वि 'जं ताओ आणवेइ' त्ति भणतेण सद्दाविया रांयसिरी, समागया य सा निवडिया सेट्ठिचलणेसु । 'अविहवा होहि 'त्ति भणंतेण निवेसिया उच्छंगे सेट्ठिणा । दट्टूण विणिज्जियसंयलविलयायणं तीए रूवाइसोहासमुदयं चिंतियं धणसेट्ठिणा, अवि य ।। ४६ ।। “जो एयाए गरुयाणुरायरत्ताएँ निस्सहंगीए । सव्वंगं उवगूढो मह धूयं इच्छिही कह सो ? लावण्णामयसरसीऍ निच्चमेयाइ जो समं रमइ । सो मज्झ सुयं रमिही कह रूववई पि देवधरो ? ।। ४७ । पडिकूलाए एयाऍ भुंजिही कहणु विसयसोक्खाई ? । अइमुद्धा मह धूया एईई पइम्मि जा लुद्धा ।। ४८ । ता किमेइणा ?, भावमुक्लेक्खेमि ताव एयाणं, पच्छा जहाजुत्तं करिस्सामि' । त्ति भाविऊण भणिया रज्जसिरी 'वच्छे ! मह धूयाए कमलसिरीए तुह भत्तुणो उवरि महंतो अणुरागो, ता जइ तुमं असंतो न करेसि ता देमि से तं' । रज्जसिरीए भणियं 'ताय ? महंतो मह पमोओ, ता पूरेउ ताओ मह भगिणीमणोरहे' । सेट्ठिणा भणियं 'पुत्ति ! जइ एवं ता तुह उच्छंगे चेव पक्खित्ता कमलसिरी, अओ परं तुमं चेव जाणसि' । रज्जसिरीए जंपियं 'ताय ! महापसाओ' । देवधरो वि भणिओ 'पुत्त ! गिहाहि तुहाऽणुरत्ताए एयाए करं करेणं' ति । 'जं ताओ आणवेइ' त्ति पडिवण्णमणेण । ओ महाविभूईए कारियं पाणिग्गहणं सेट्ठिणा । तओ रायसिरी कमलसिरीणं दिण्णं दोण्ह वि तुल्लमाभरणाइयं । काराविओ महाववहारं जामाउओ । विढवए पभूयं दविणजायं । विणिओयए पुव्वलद्धं जिणभवणाइसु । इओ य विवाहदिणनिमंतियाऽऽगयाए कमलसिरिवयंसियाए मइसागरमंतिधूयाए पउमसिरिनामाए दहूण देवधरं कया सहीण पुरओ महापइण्णा, अवि य ‘जइ परिणइ देवधरो हला ! ममं कहवि दिव्वजोएण । ता भुंजामि भोए, अण्णह नियमो इहं जम्मे' ।। ४९|| तं च तारिसं तीए महापइण्णं सोऊण से सहीहिं साहियं तज्जणणीए पियंगुसुंदरीए । ती वि मइसायरमंतिणो । तेण वि हक्कारिऊण सेट्ठी दिण्णा सगउरवं देवधरस्स पउमसिरी । उव्वूढा महाविभूईए । दिण्णं मंतिणा तिन्ह वि संमाणमाभरणाइयं । तओ नीयं राइणो पायवंदणत्थं वहुवरं मंतिणा । सम्मणिऊण निवेसियं वरासणेसु राइणा । देवधर - रूवाइसएण जाव रंजियमणो चिट्ठइ राया ताव 'वरपत्त' त्ति सव्वालंकारविभूसिया १. सं० वा० सु० रज्जसिरि ॥ २. ला० सव्वविल ॥ ३. ला० नीसहं ॥ ४. सं० वा० सु० पयम्मि || ५. ला० 'लक्खामि ॥ ६. ला० °री चट्टे ! मह ॥ ७. ला० °तो मे पसाओ, ता ॥ ८. ला० णीए मणो ॥ ९. सं० वा०सु० पुत्त ! जइ ॥ १०. ला० °सिरीए वयं ॥ ११. ला० °ए । तीए । १२. ला० समाभर ॥ १३. सं० वा०सु० 'णाई । तओ ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके जणयचरणनमणत्थं पेसिया कित्तिमइदेवीए नियतणया देवसिरी नाम । सा य समागंतूण निवडिया जणयचलणेसु। निवेसिया निययंके राइणा। निरूविया य सव्वंगेसु जाव संपत्तजोव्वण त्ति । तओ जाव तीए जोग्गवरनिरूवणे चित्तं देइ राया ताव दिट्ठा देवसिरी निब्भराणुरायपरवसाए चलंततारयाए सकडक्खचक्खूए पुणो पुणो देवधरं निरिक्खंती । तओ चिंतियं नरवइणा हंत ! अच्चंताणुरत्ता लक्खिज्जए एसा एयम्मि, रूवाइगुणपगरिसो य एसो, ता अणुहवउ वराई जहिच्छियवरसोक्खयं' ति । भणिओ मइसागरो जहा ‘एसा वि देवसिरी गुणरयणजलहिणो तुह जामाउयस्स मए दिण्णा' । मंतिणा भणियं 'महापसाओ' । तओ राइणा करावियं महाविच्छड्डेणं पाणिग्गहणं । दिण्णं चउण्हं पि जणीणं समाणमाभरणाइयं, दिण्णो य नरकेसरिपडिरायसीमासंधीए समत्थरज्जप्पहाणो महाविसओ । निरूविया देवधरेण तत्थ नियमहंतया । सयं च रायदिण्णसव्वसामग्गीपडिपुण्णसत्ततलमहापासायट्ठिओ रजसिरीपमुहचउभारियापरिवुडो विसयसोक्खमणुहवंतो दोगुंदुगदेवो व्व कालं गमेइ । इओ य सुयं नरकेसरिराइणा जहा 'मह संधिविसओ दिण्णो नियजामाउगवणियगस्स' । तओ कोवानलफुरंतजालाकरालमुहकुहरभासुरेण भणिओ नियपरियणो नरकेसरिराएण जहा पेच्छह भामंडलराइणो अम्हाणमुवरि केरिसा पराभवबुद्धी, जेण किराडो अम्ह संधिपरिपालगो ठविओ, ता विलुपह तव्विसयं जेण न पुणो वि एवं करेई'। तओ तव्वयणाणंतरमेव विलुत्तो सव्वो वि देवधरविसओ, निवेइयं च एवं भामंडलराइणो। तओ समुप्पण्णपराभवामरिसवसपरवसेण तक्खणमेव ताडाविया पयाणयभेरी राइणा, तओ निग्गंतुमारद्धं राइणो सेन्नं, अवि य गलगज्जियभरियनहा कणयकयाऽऽहरणतडिचमकिल्ला । पज्झरियदाणसलिला चलिया करिणो नवघण व्व ॥५०॥ मणपवणसरिसवेगा तिक्खखुरुक्खणियखोणिरयनियरा । कुंचियमुहघोररवा विणिग्गया तुरयसंघाया५१। मंजीरयरवपूरियदिसिविवरा विविहधयवडसणाहा । सव्वाऽऽउहपडिपुण्णा विणिग्गया तुंगरहनिवहा॥५२॥ दप्पिट्ठपडिवक्खसुहनिट्ठवणजायमाहप्पा । वगंता बुक्कंता संचल्ला पक्कापाइक्का ।।५३।। गयगज्जिय-रहघणघण-हयहीसिय-सुहडसीहनाएहिं । बहुतूरनिनाएण य फुट्टई न नहंगणं सहसा ।५४। एवं च पक्खुभियमहासमुद्दरवतुल्लं निग्घोसमायण्णिऊण पुट्ठो कंचुगी देवधरेण, अवि य 'किं फुट्टइ गयणयलं ?, दलइ मही ?, किं तुडंति कुलसेला ? | किं व युगंतो वट्टइ ?, भद्द ! जमेयारिसो घोसो' ।।५५।। तओ तेण विण्णायपरमत्थेण सव्वं सवित्थर साहियं । तओ पराभवजणियकोवफु १. ला० 'यसुहमणु ॥ २. ला० गवाणि ॥ ३. ला० रायएण ॥ ४. ला० न, गल ॥ ५. सं० वा० सु० घणो व्व ॥ ६. ला० 'डविद्दवण' ॥ ७. सं० वा० सु० या [ग्घु] रुसुहड' ।। ८. ला० 'इ य नहं ॥ ९. ला० किं च जुगंतो वट्टइ, भद्द जओ एरिसो घोसो । १०. ला० वफुरंत ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवधरकथानकम् २२७ रफुरंतओट्टेणं तिवलीतरंगभंगुरभालवटेणं पुत्तो पुणो छुरियानिवेसियपउट्टेणं भणियं देवधरेणं 'अरे! लहुँ पगुणीकरेह मत्तमायंगं जेण तायमणुगच्छामि' । तहाकयं निउत्तपुरिसेहिं । सयं च ण्हायविलित्तालंकियदेहो निबद्धसियकुसुमोवसोहिओ पहाणदुगुल्लनिवसणो उदंडपुंडरीयनिवारियाऽऽयवो गहियजमजीहाकरालकरवालो आरुहिउं जयकुंजरं पत्तो रायसमीवे । दिट्ठो य राइणा समागच्छमाणो, चिंतियं च ‘धण्णो हं जस्सेरिसो जामाउओ, अहवा कयसुकयकम्मा देवसिरी जीसे एसो भागावडिओ' । इत्थंतरम्मि य चलणेसु निवडिऊणं विण्णत्तं देवधरेण 'देव ! न मत्तमायंगे मोत्तूण गोमाउएसु केसरिकमो निवडइ, ता देह ममाऽऽएसं जेण अहं चैव सासेमि तं दुरायारं, किंच अहं 'वणिओ'त्ति कलिऊण लूडिओ तेण मह विसओ, ता देव ! मए चेव तत्थ गंतव्वं' । राइणा वि हरिसभरुभिजमाणरोमंचेण भणियं ‘वच्छ ! मा एवं विण्णवेसु, न य मम सयमगच्छंतस्स संतोसो भवई' । तओ लक्खिऊण भावं ठिओ तुण्हिक्को एसो । खणंतरेण अग्गगमणत्थं विण्णत्तमेएण 'देव ! देहि आएसं' । नरवइणा संलत्तं 'विण्णवसु पसायं' । तेण भणियं 'देव ! जइ एवं तो अग्गाणीएण पसाओ भवउ' । नरनाहेण भणियं 'पुत्त ! न सुंदरमेयं, जओ नाऽहं विओयं साढुं समत्थो, गव्व्यसत्तगयं अग्गाणीयं' । तेण भणियं ‘पइदिणं सिग्यवाहणेहिं समागंतूण देवपाए पणमिस्सामि' । तओ तन्निच्छयं नाऊण पडिवण्णं नरपहुणा । अणवरयं च गच्छमाणा पत्ता विसयसंधिं । तओ चारपुरिसेहितो नाऊण जंपियं पडिवक्खनरनाहेण 'अरे ! गिण्हह अविण्णायअम्हसामत्थं अग्गाणीए समागच्छमाणं तं किराडं' । तओ तव्वयणाणंतरमेव सन्नद्धं सव्वं पि सेण्णं । तस्समेओ अप्पतक्किओ चेव समागओ एसो । तं च समागच्छंतं पेच्छिऊण लहुं चेव सन्नज्झिय संपलगं देवधरसेण्णं, जायं च महाऽऽओहणं, अवि यकत्थइ करालकरवालकप्परिजंतनरसिरकवालं । कत्थइ उब्भडनच्चिरकबंधकयविविहपेच्छणयं ॥५६॥ कत्थइ सुतिक्खकुंतग्गभिन्नकरिकुंभगलियमुत्तोहं । कत्थइ मुगरचुण्णियकडयडभजंतरहनियरं ।।५७।। कत्थइ रुहिरासवपाणतुट्टनच्चंतडाइणिसणाहं । कत्थइ नरमंसामिसभक्खिरफेक्करियसिवनिवहं ।।५८।। कत्थइ धणुगुणखिप्पंततिक्खसरविसरछइयनहविवरं । कत्थइ सत्थक्खणखणसंघटुटुंतसिहिजाल।। ५९॥ कत्थइ सुण्णासणसंचरंतगय-तुरय-रहवरसमूहं । कत्थइ भडपरितोसियसुरगणमुच्चंतकुसुमभरं ।।६०।। कत्थइ भीसणकयविविहरूवकिलिकिलियपेयसंघायं । कत्थइ करालकत्तियवावडकररक्खसीभीमं ।६१ इय रुद्दे समरभरे हत्थाऽऽरोहं पयंपई कुमरो। र ! नेहि मज्झ हत्थिं नरकेसरिकरिसमीवम्मि' ।।६२।। 'आएसु' त्ति पयंपिय चुंबावइ रिउकरिस्स दंतग्गे । नियकरिवरदंतेहिं विण्णाणवसेण सो मिठो ।।६३। १. ला० "निय(यं)सणो॥ २. ला० यकम्मा ॥ ३. ला० चेवासासेमि ॥ ४. ला० न मम ।। ५. ला० देह ॥ ६. ला० ता ।। ७. ला० 'पुरिसेहिं नाऊ ॥ ८..सं० वा० सु० घाइं॥९. ला० एसो' ति॥१०. ला० किरिंद दंत ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके अह उल्ललित्तु पत्तो नरकेसरिसिंधुरम्मि देवधरो । जंपर 'एस किराडो पत्तो हं राय ! उट्ठेहि ।।६४।। गिण्हसु आउहमिण्हिं, पेच्छसुं मम वणियसंतियं विरियं' । 'नीओ' त्ति अरुइयं पि हु लेइ निवो खग्गवररयणं ॥ ६५ ॥ । अमरिसवसेण राया जा पहरं देइ ताव कुमरेण । वंचित्तु तयं बद्धो राया वरदप्पकलिएण ।। ६६ ।। २२८ इओ य जाणवियं परबलागमणं पवणवेयवरियासंपेसणेण कुमरमंतीहिं भामंडल इणो । सो वि पहाणबलसमेओ समागओ तुरियतुरियं । कुमारेण वि समप्पिओ नरकेसरी । तेणावि हरसं समालिंगिऊण कुमारं छोडाविया नरकेसरिबंधा । सम्माणिऊण भणिओ जहा 'कुमार भिच्चो होऊण भुंजसु नियरज्जं ' । सो वि कुमारस्स दाऊण नियतणयं मित्तसिरिं अभिमाणधणयाए मोत्तूण रज्जं निक्खंत सुगुरुसी । नरनाह - कुमारा वि नरकेसरिपुत्तं रज्जे अहिसिंचिऊण समागया नियनयरीए । तओ पत्थावं नाऊण भणिया सव्वे वि नियसुया नरवइणा र्पुत्ता ! जइ तुम्हाण वि पडिहाइ तो अहिसिंचामि तुम्ह भगिणीपयिं रज्जे' । तेहिं भणियं 'करेह, जं वो रोयइ अणुग्गहो एस अम्हाणं'। तओ संसिऊण मंति-मँहंतयाणं पहाणलग्गे अहिसित्तो दोसु वि रज्जेसु कुमारो । सयं च गहिऊण सामण्णं जाओ सकज्जसाहगो भामंडलराया । देवधरनरिंदस्स वि नरकेसरिसामंतेहिं सहोवायणेहिं दिण्णाणि अड्डाइज्जसयाणि कण्णयाणं, नियनरिदेहि वि एवं चैवं । एवं च जायाणि पंच सयाणि पंचुत्तराणि देवीणं ठविया सव्वासिं अगमहिसी रज्जसिरी । भुंजए उदारभोए । जाओ महासासो नरवई । अण्णया पुव्वावत्थं सुमरिऊण देवी - नरिदेहिं पयट्टाविया जिणसासणस्सऽब्भुण्णई, तहा य— काराविज्जंति जिणमंदिराई, पईट्ठाविज्जंति, तेसु बिंबाई, समायरिज्जंति ण्हवण- विलेवणपूइणाई, निव्वत्तिज्जंति अट्ठाहियामहिमाओ, घोसिज्जंति अभयप्पयाणाई, भामिज्जंति रहवरा, दिज्जंति दीणा - ऽणाहाण अणुकंपादाणाई, विहिज्जंति साहम्मियपडिवत्तीओ, वियरिज्जंति साहु - साहुणीणं भत्तिर्युव्वाई महादाणाई, लिहाविज्जंति पुत्थयाइं पूइज्जंति विहीए, सुव्वंति जिणभासियाई, सेविज्जए सामाइयाइयमावस्सयं, घिप्पए पव्वदियहेसु पोसहं, किं बहुणा ?, जहा जहा जिणसासणस्स, अभुई भवइ तहा तहा कुणंताणं वच्चए कालो । अण्णया समागओ चउनाणसंपण्णो भयवं जसभद्दसूरी । गओ राया तव्वंदणत्थं सह देवीए १. ला० सुवणिस्स सं ॥ २. ला० पहाणवे ॥ ३. ला० कुमार ॥ ४. ला० °ययनय ॥ ५. सं० वा०सु० पुत्त ! ॥ ६. ला० पई र ॥ ७. ला० महल्लयाणं ॥ ८. ला० दिन्नाई ॥ ९. सं० वा० सु० 'व । जाव ।। १०. ० या य पुव्वा ॥ ११. ला० कारवि ॥ १२. सं० वा० सु० 'इट्ठवि ॥ १३. सं० वा० सु० विबिं ॥ १४. ला० पुव्वयाई ।। १५. ला० संपुण्णो ॥ · Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवधरकथानकम् वंद भावसारं सूरी । निसण्णो सुद्धभूमीए, समाढत्ता य भयवया धम्मदेसणा, अवि यरिद्धी सहावचवला, रोग- जराभंगुरं हयसरीरं । सुविणयसमं च पेम्मं, ता चरणे आयरं कुणह ।। ६७ ।। गिंहिधम्म - साहुधम्माण अंतरं जेण जिणवरिंदेहिं । कणयगिरि - सरसवेहिं निद्दिवं समयसारम्मि ।।६८। विसयसुहनियत्ताणं जं सोक्खं होइ इत्थ साहूणं । परतत्तिविरहियाणं चक्कहरस्सावि तं कत्तो ? ।। ६९ ।। बहुजम्मंतरसंचियकिलिङगुरुकम्मसेलनिद्दलणं । मुणिगणसेवियमेयं चारितं कुलिससारिच्छं ।।७० ।। 1 दिदिक्खिओ विहु वंदिज्जइ रायरायमाईहिं । चारित्तस्स पहावो एसो नरनाह ! पच्चक्खो ।। ७१ ।। एगदिवसम्मि जीवो पव्वज्जमुवागओ अणण्णमणो । जइ वि न पावइ मोक्खं अवस्स वेमाणिओ हो ।७२। कंचण-मणिसोवाणं थंभसहस्सूसियं सुवण्णतलं । जो कारेज्ज जिणघरं तेस्स वि तवसंजमो अहिओ।७३। ता उज्झिऊण नरवर ! गिहवासं सव्वदुक्खआवासं । गिण्हसु मुणिकयवासं चरणं संसारणिण्णासं । ७४ । २२९ " तं च सोऊण संजायचर्रेणपरिणामेण विण्णत्तं राइणा “ भयवं ! रायसिरिपुत्तं गुणहरं जाव रज्जे अहिसिंचामि ताव तुम्ह पासे गिहिस्सामि जमेयं तुब्भेहिं वण्णियं चरितं परं ताव अवणेह एवं संसयं 'किमहं देवी य बालत्ते चेव सयणविरहियाइं जायाइं ?, किं वा महादारिद्दाभिभूयाई संवुत्ताई ? " । भयवया भणियं 'सुण महाराय !' इओ अईएँ दुइ भवग्गहणे नंदिवद्धणे गामे आसि तुमं कुलवद्धणो नाम कुलपुत्तगो, महादेवी वि संतिमई नाम तुह भारिया । पयईए तणुकसायाणि दाणरुईणि य । अण्णा य पहपडिवण्णं विहरमाणं समागयं तुम्ह गेहे साहुजुवलयं, तं च दट्ठूण भणियं तुमऐ 'पिए ! पिच्छ एए अदिण्णदाणा कुंटुंब-सुहि-सयणपरिपालणपराभग्गा भिक्खं भमंति, को वा एएसिं सयणविरहियाणं तवो' त्ति । संतिमईए भणियं 'नाह ! एवमेयं, नत्थि संदेहो, सुड्डु लक्खियं अज्जउत्तेणं' । तप्पवयं च बद्धं सयणविओयजं निबिडकम्मं । अथ तम्मिगामे पभूयधणसमिद्धं एगं जिणमंदिरं, पडियग्गए य तद्दव्वं महाधणवई जिणदेवो नाम सावगो । अण्णया य वयणविप्पडिवत्तीए पराभूओ जिणदेवेण तुमं, गिहागरण कहियं संतिमईए । तीए भणियं 'नाह ! सो देवडिंगिरिओ देवदव्वेण मयंधो न किं पि पेच्छइ, ता सोहणं होइ जइ तं देवदव्वं कहिंचि विणस्स ' । तुमए भणियं 'पिए ! सुंदरं संलत्तं, ममावि एवं चेवाऽभिरुइयं' । तेण य संकिलिट्ठपरिणामेण निव्वत्तियं दालिद्दपच्चयं कम्मं । अणालोइयपडिक्कंताणि य मरिऊण जायाणि तुभे । १. ला० °देण ॥ २. सं० वा० सु० तओ वि ॥ ३. ला० सयलदु ॥ ४. सं० वा० सु० 'रणाणुराएण ॥ ५. ला० तुम्हहिं ॥ ६. ला० चारितं ॥ ७ ला० ए भव ॥ ८. ला० 'जुयल' ॥ ९. ला० °ए 'पेच्छ । १०. ला० कुटुंब ॥ ११. सं० वा० सु० 'च्वयं बद्धं ॥। १२. ला० ण य क ॥ १३. ला० एयं चाभिरु | Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तं च सोऊण जायं तेसिं जाइस्सरणं । भणियं च णेहिं 'एवमेयं नत्थि संदेहो, अवगयमेयं जाइस्सरणेण सव्वमम्हेहिं, परमेयं रज्जं कस्स कम्मस्स फलं ? ' । भयवया भणियं 'जमित्थेव जम्मे तया तुब्भेहिं साहु-साहुणीणं भत्तीए दाणं दिण्णं तमिहलोए चेव फलयं संवृत्तं, भणियं चाऽऽगमे इहलोए कडा कम्मा इहलोए चेव उईरिज्जंति, इहलोए कडा कम्मा परलोए उईरिज्जंति, परलोए कडा कम्मा इहलोए उईरिज्जंति, परलोए कडा कम्मा परलोए उईरिज्जंति । ता सव्वहा सुहाणुट्ठाणे जत्तो कायव्वों' त्ति । तओ 'इच्छं' ति पडिवज्जिऊण गओ निवो नियगेहे । ठाविऊण कुमारं रज्जे महया विभूईए देवी - निवेहिं गहियं सामण्णं । पालियं निक्कलंकमहाऽऽउयं जाव अणसणविहाणेण गयाणि दुवालसमकप्पे । तेओ चुयाणि महाविदेहे सिज्झिस्संतिं त्ति । २३० [देवधरकथानकं समाप्तम् । २५ . ] साम्प्रतं देवदिन्नाख्यानकमाख्यायते— [२६. देवदिन्नकथानकम् | अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे तिहुयणालंकारभूयं तिहुयणपुरं नाम नयरं । तत्थ य दुव्वारवेरितिमिरभरपसरदिणयरो तिहुयणसेहरो नाम राया । तस्स य सयलंतेउरप्पहाणा तिहुणा नाम देवी । तीसे य कुच्छिसमुब्भवो तिहुयणदत्तो नाम कुमारो । इओ य तम्मि चैव नरे अट्ठारससेणिप्पसेणिनायगो अहिगयजीवा[ -ऽजीवा ] इपयत्थसत्थो इमाणणिजो सुई नाम सेट्ठी । तस्स य विणिज्जियामरसुंदरीरूवा चंदप्पा नाम भारिया । तीसे य रायग्गपत्तीए तिहुयणाए सह महंता पीई । अण्णया य 'माउसिय' त्ति काऊण नियपुरिसपरिवारिओ गओ तिहुयणदत्तकुमारो चंदप्पहाए गेहे । हविय-विलित्ता ऽलंकियदेहो काऊण निवेसियो निययंके तीए, अघाओ उत्तिमंगे, चिंतिउं च पवत्ता, अवि य ला० 1 'धण्णा कयपुण्णा सा मज्झ सही, तीऍ जीवियं सहलं । कयलक्खणा वि स च्चिय जीसे एवंविहो पुत्तो अण्णाओं वि नारीओ सुलद्धजम्माओं जीवलोगम्मि । जाओ नियकुच्छिसमुब्भवाण वरडिंभरूवाणं । २ । मम्मणपयंपिराणं उच्छंगनिवेसियाण उल्लावे । दिंति महुरस्सरेणं नाणाविहचाडुयपराणं ।। ३ ।। अहयं तु पुण अधण्णा एत्तो एगयरमवि न संपत्ता' । इय चिंताए दीहं नीससिय विसज्जए कुमरं ।।४।। तओ जाव पत्तो गेहे ताव पुच्छियं देवीए 'केणेसो सव्वालंकारभूसिओ कओ कुमारो ?' । १. ला० ‘लोगकडा॥ २. ला० तत्तो ॥ ३. सं० वा० सु० °ति । देव ॥ ४. सं० वा०सु० वे भार ॥ ५. 'य का ॥ ६. ला० ग्घाइयो । ७. ला० °यं पुणो अध' ।। ८. ला० 'रविभू' | Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदिन्नकथानकम् कहियं च परियणेणं जहा 'तुह वयंसियाए, परं कीरउ कुमारस्स लवणुत्तारणाइयं, जओ कुमारस्सोवरि खित्ता तीए नीसासा' । देवीए भणियं 'मा एवं जंपह, तीए नीसासा वि कुमारस्साऽऽसीवाया भविस्संति' । तओ ठिओ तुहिक्को परियणो । देवीए य चिंतियं 'हंत ! किं कुमारं दट्ठूण तीए मुक्का नीसासा ? हुं नायं, जओ अपुत्ता सा, ता किं मे सहियत्तणेणं जइ से नियतणयं दाऊण न पूरिज्जति मणोरहा' । एवं च चिंताउराए समागओ राया । पुच्छियं च तेण 'देवि ! किमुव्विग्गा विय लक्खीयसि ?' । तओ साहियं जहट्ठियं चेव तस्स तीए । तेण भणियं 'जइ एवं तो मा उव्वेयं करेहि, तहा हं उवायं पेच्छेस्सामि जहा तुह सहीए पुत्तो भविस्स ' । देवीए भणियं 'नाह ! महापसाओ' । तओ बीयदिवसे भणिओ सेट्ठी राइणा 'अपुत्तो तुमं, ता पुत्तुप्पायणत्थं आराहेहि भयवंइ महाकुलदेवयं तिहुयेणेसरिं देविं, जओ सन्निहियपाडिहेरा सा भयवई देइ आराहिया जम्मग्गियं' । सेट्ठिणा भणियं 'देव ! किमेइणा ?, जइ पुव्वकम्मोवत्तो ता भविस्सइ पुत्तो' । राइणा भणियं 'जइ वि एवं तहा वि ममोवरोहेण कायव्वमेवेयं' । तओ 'रायाभिओगो' त्ति चित्ते परिभाविऊण पडिवज्जिऊण सव्वं गओ नियगेहे । कहिओ वइयरो चंदप्पहाए । तीए लवियं 'नाह ! एवं कज्जमाणे सम्मत्तलंछणं भविस्सइ' । सुमइणा भणियं 'पिए ! रायाभिओगेण कज्जमाणे न सम्मत्तकलंकमुप्पज्जइ' । तओ अण्णर्दियहम्मि गहिय सव्वं सामग्गिं सभारिओ गओ तिहुयणेसंरिमंदिरे सेट्ठी । ण्हवण-विलेवणपूयाइयं कैंराविऊण भणिया देवया “ भयवइ ! देवो भणइ 'भयवई पुत्तं मग्गसु', ता देहि मे पुत्तं" । तओ देवयाए चिंतियं 'अहो ! निरवेक्खया एयस्स, तहा वि नियपसिद्धिनिमित्तं कायव्वं चेव एयस्स सन्निहाणं' । ति चिंतिऊण भणियं देवयाए जहा 'भद्द ! होही ते पुँत्तओ' । तेण भणियं ‘को पच्चओ ?' । ' दूमेमि मणागमेयं निरवेक्खं ति चिंतिऊण जंपियं देवयाए ‘जया गब्भो भविस्सड् तया तुह घरिणी देववंदणत्थं पविसमाणी जिणहरं निवडतयं पेच्छिस्सइ सुविणे' । 'धम्मपडणीओ होहि त्ति मणागं दूमियचित्तो गओ सेट्ठी निगेहे । 1 २३१ तओ अण्णया कयाइ देवयाकहियसुमिणं पासिऊण विउद्धा से भारिया । निवेइयं च ती तस्स जहा ‘सामि ! दिट्ठो सो मए सुविणगो किंतु सविसेसो, जओ किलाऽहं गहियपूयोवगरणा पविसामि जिणमंदिरं ताव पेच्छामि निवडतयं, उवरिपडणभएण य उप्पिं पलोयंतीए पूइओ भयवं, तओ जाव बाहिं निग्गच्छामि ताव तं सव्वं पुणण्णवीभूयं पुव्विं एगपडागमवि अपु पहाणपंचपडागोवसोहियं दट्ठूण जायहरिसा विउद्धा, संपयं तुमं पमाणं' । तेण भणियं 'पिए ! आवायकडुओ वि परिणइसुंदरो एस सुविणगो, ता होही ते पुत्तो, पढमं आवइभायणं होऊण पच्छा દુ १. ला० तो ॥ २. ला० ता मा उव्वेवं क' ॥ ३. सं० वा० सु० तो वि मवि ॥ ४. सं० वा० सु० 'वयं हा ॥ ५. ला० 'यणसि ॥ ६. सं० वा० सु० 'वं ता ममो' ॥ ७. ला० ओ गेहे ॥। ८. ला० 'दिणम्मि ॥ ९. ला० सरिमंदिरं से ।। १०. ला० कारवि ॥ ११. ला० पुत्तो ॥ १२. ला० होहि त्ति ॥ १३. ला० सुविणयं पा ॥ १४. ला० 'तु एसो विसे ॥ १५. ला० 'व्वं पंच ॥ १६. ला० होहि पुत्तो ॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके महारिद्धिसमुदयं पाविस्सई' । तीए वि ‘एवमेय'ति पडिवज्जिऊण बद्धो सउणगंठी। तओ संपजंतसयलमणोरहा पसूया नियसमए सव्वंगसुंदराहिरामं दारयं । वद्धाविओ सुहंकराहिहाणाए सदासचेडीए सेट्ठी । तीसे य पारिओसियं दाऊण कयं महावद्धावणयं । अवि य वजइ तूरु गहिरसद्दाउलु, नच्चइ वारविलासिणिपाउलु । दिज्जइ दाणु अवारियसत्तउ, एइ महायणु वद्धावंतउ ।।५।। आयारिमइ समत्थई किजहिं, सयणाणि य उवयार लइजहिं । मेल्लाविजहिँ सयलई बंदई, पडिलाहिजेहिँ मुणिवरविंदई ।।६।। जिणवरबिंबई संपूइजहिं, सयण असेस वि सम्माणिजहिं । अहवा किं वण्णिज्जइ तेत्थु, संतेऊरु निवु आगउ जेत्थु ।।७।। एवं च कमेण वत्ते वद्धावणयमहसवे, पत्ते दुवालसमवासरे कयं दारयस्स नामं देवदिण्ण त्ति। पवड्डमाणो य जाव जाओ अट्ठवारिसिओ ताव समप्पिओ कलायरियस्स । गिण्हए असेसाओ कलाओ। अण्णया य अणज्झयणदिणे उवविठ्ठो कहिंचि वक्खाणे । तत्थ य तम्मि समए वक्खाणिज्जए दाणधम्मो यथा दानेन भूतानि वशीभवन्ति, दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् । परोऽपि बन्धुत्वमुपैति दानाद्, दानं हि सर्वव्यसनानि हन्ति ।।८।। दानेन चक्रित्वमुपैति जन्तुर्दानेन देवाधिपतित्वमुच्चैः । दानेन नि:शेषयशोभिवृद्धिर्दानं शिवे धारयति क्रमेण ।।९।। एवं च सोऊण चिंतियमेएण 'अहो ! दाणमेवेगं इहलोए चेव सव्ववसणनिवारणक्खमं सिवसुहप्पयं चेत्थ वन्नियं, ता तत्थेव जत्तं करेमि' । तओ देइ चट्टाईणं खाउयमाइ । पुणो पवड्डमाणो भंडागाराओ घेत्तूण दव्वं देइ किविण-वणीमगाईणं, पूएइ जिणबिंबाइं, पडिलाहए भत्तिजुत्तो भत्तपोत्तपत्ताइएहिं साहु-साहुणीओ, सम्माणेइ साहम्मियजणं । तओ अइपभूयदव्वविणासं दह्ण विण्णत्तो सेट्ठी तहाभिमूयाहिहाणेण भंडागारिएण ‘सामि ! देवदिण्णो दाणवसणेण पभूयं अत्थसारं विणासेई' । सेट्ठिणा भणियं ‘मा निवारेहिसि, देउ, पुजिस्सइ दिंतस्स ई' । तेण भणियं 'कहमहं संखं १. ला० निययस ॥ २. ला० 'मय समच्छहिं कि ॥ ३. सं० वा० सु० जइ स ॥ ४. ला० बंदहिं ॥ ५. सं० वा० सु० जइ मु ॥ ६. ला० वित्ते ॥ ७. ला० 'त्तपत्ताइ ॥ ८. सं० वा० सु० ‘पहाभूया ॥ ९. ला० वि ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदिन्नकथानकम् वियाणिस्सामि ?' । सेट्ठिणा जंपियं 'पढमं चेव संखिऊण पगुणीकाऊण मेलेज्जसु' । सो वित करेइ । इयरो वि जं जं पडिहाइ तं तं देइ । एवं च वच्चए कालो । इओ यअत्थि तण्हाभिभूयस्स मुद्धाए भारियाए कुच्छिसमुब्भवा अइरूवस्सिणी बाला नाम कण्णया । 'अइपंडित लोएण बालपंडिय त्ति नामं कयं । सा य परिब्भमंती गया दिट्ठिगोयरं देवदिण्णस्स । हू चिंतियमणेण । अवि य २३३ 1 “अकरप्फंसमिमीए नूणं रूवं विणिम्मियं विहिणा । जेण कराऽऽलिद्धाणं न होइ एयारिसी सोहा ॥१०॥ सव्वाण वि रमणीणं मन्ने घेत्तूण रूवलावण्णं । विहिणेसा निम्मविया, कहऽण्णहा एरिसं रूवं ? ।। ११ । अवियारा वि य बाला जहिं जहिं जाइ मंथरगईए । तहियं तहियं तरुणा मयणेण परव्वसा हुंति ।।१२।। किं बहुणा ?, निम्मविया एसा मयणस्स नणु पयावइणा । बहुनरवसियरणत्थं महोसही फुरियतेइल्ला। १३ । सोच्चि धण्णो, सो चेव सूहवो, तस्स जीवियं सहलं । ईऍ वयणकमले अलि व्व जो पियइ मयरंदं ॥ १४ ॥ किं तस्स जीविएणं ऍईए थणथलीऍ उवरिम्मि । अइवित्थडम्मि जो न वि लोट्टइ दंडाऽऽहयअहि व्व ? ।। १५ ।। किं वा वि हु बहुएणं ?, सुरयमयनिवहतियससरियाए । एईए सव्वंगे मज्जइ हंस व्व सो धण्णो” ।१६। इय अच्वंतणुरत्तो चिंतइ “कह मज्झ होहिई एसा ? । हुं, नायं 'से जणयं करेमि दाणाइसंगहियं ।।१७।। जओ भणियं जं गिण्हिऊण इच्छइ तं पढमं आमिसेण गिण्हा । ११ पच्छा आमिसलुद्धो काहिइ कज्जं अकज्जं वा ॥ १८॥ जई एयं न पावेमि तो अवस्स मए इओ निग्गंतव्वं, ता जाणावेमि केणइ अलक्खोवारण एवं से जणस्स तीए य" । १४ तओ दिण्णो अ॒ण्णम्मि दिणम्मि पहाणहारो तहाभिभूयस्स । तेण भणियं 'सामि ! किमेस हारो ?' । कुमारेण भणियं 'हारो हं, तुमं पुण पडिहारो, ता तुह समप्पिओ जहाजुत्तं करेासि । तेण वि वयणपरमत्थमयाणमाणेण तदुवरोहेण गहिओ । समप्पिओ बालपंडियाए । तीए पुच्छियं 'ताय ! किमेस हारो ?' । तेण भणियं 'दिण्णो देवदिण्णेण' । तीए वि तद्दंसणाओ तह च्चेव समुप्पण्णरागौइरेगाए पुव्वमेव लक्खियकुमारभावाए परमत्थवियाणणत्थं पुच्छियं ‘ताय ! किं पुण १. सं० वा० सु० मिल्लिज' ॥ २. ला० वि तं तहे ॥ ३. सं० वा० सु० य तण्हाभूय ॥ ४. ला० कुच्छिं ॥ ५. ० 'ण चिंति ॥ ६. सं० वा० सु० करालिद्धाए ॥ ७. ला० एईऍ थणत्थली ॥ ८. ला० 'मह(य)वद्धतिय° ॥ ९. सं० वा० सु० सव्वंगं ॥ १०. ला० गिन्हेह ॥ ११. ला० सबद्धो काही कज्जं ।। १२. सं० वा० सु० °इ य एवं न ।। १३. सं० वा० सु० अण्णदि ॥ १४. सं० वा० सु० मं पाडि ॥ १५. ला० 'गाए पु° ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके भणियं कुमारेण ?' । तेण जंपियं ‘एयं' ति । तओ तीए विण्णायपरमत्थाए पढियंकोट्टह हारु न घल्लियइ, जेण कुणइ धणनासु । सो हियडइ पर धारियइ, सयलसुहहँ आवासु' ।।१९।। · अस्यायमभिप्राय: 'कोट्टात्' प्राकारात् 'हार:' कुमार: 'न प्रक्षिप्यते' न निष्कास्यते येन करोति धननाशम्, किन्तु हृदयस्थ एव धार्यते येन सुखावास:, इति हृदयम् । जणएण तमबुज्झमाणेण न किंचि जंपियं । तीए वि 'वियड्डयाए एयं पओयणं सिज्झिस्सइ'त्ति भाविऊण पत्थावेण विण्णत्ता जणणी ‘अंब ! देह मं देवदिण्णस्स' । जणणीए भणियं 'वच्छे ! पंडिया वि किमयाणा विव जंपसि ?, जओ तुह जणओ वि तस्स कम्मयरो ता कहं तुह तेण सह संबंधो भविस्सइ ?, ता अण्णं किं पि समाणविहवं वरेसु' । तीए भणियं 'अंब ! करेहि ताव जत्तं, अण्णहा मंचयनिवडियाणं भूमी' । तहट्ठिया चेव । तओ तीए दढाणुरायं लक्खिऊण मुद्धाए विण्णत्तं जहट्ठियं चेव चंदप्पहाए । तीए वि साहियं भत्तुणो तेण भणियं “पिए ! सामण्णपुत्तो वि कम्मयरो अम्हाणं से जणओ, परं ममावि कहियं कुमारवयंसएहिं जहा 'कुमारो वि तीए दंढमणुरत्तो' ता कुमारभावमुवलक्खिऊण जहाजुत्तं करिस्सामो' । पत्थावेण य जहा कुमारो निसुणेइ तहा पढियं सेट्ठिणा'न त्यजेत् पितृ-मित्राणि, पन्त्या अपि न विश्वसेत् । तद्धनं च न गृह्णीयात्, स्वदासीं नैव कामयेत्' । २० लक्खियजणयभावेण य जंपियं कुमारेण 'ताय ! दुब्बलयभित्ती निवडमाणा अभिंतरनिवडिया उदाहु बहिनिवडिया सोहणा ?' । सेट्ठिणा भणियं 'अभिंतरनिवडियाए न किंचि इट्टगाइयं विप्पणस्सइ, अओ ईइसा चेव सोहणा' । तेण भणियं 'जइ एवं तो किमेयारिसं जंपियं तुब्भेहिं ?'। सेट्ठिणा वि तब्भावं लक्खिऊण कओ महाविभूईए वीवाहो । पइदिणपवड्डमाणाणुरायाई सविसेससिंगारुब्भडाइं च जाव चिट्ठति ताव केणइ पओयणेण य बहिनिग्गयं बालपंडियं दद्दूण नियसहीमुद्दिसिऊण जंपियं एगाए महिलाए, अवि य'सहि ! पुण्णभाइणीणं मज्झे एयाएँ दिज्जए रेहा । जा एवंविहगेहे पत्ता बहुरिद्धिवित्थारे' ॥२१॥ इयरीए भणियं___'सहि ! मा जंपसु एवं, गयविहवनरेण जइ समुव्बूढा । कुणइ महंतं लच्छिं तो हं मण्णामि पुण्णवई' ॥२२॥ तं सोऊणं वयणं चिंतइ अह बालपंडिया एवं । 'परिणइसुंदरमेयं वयणमहो ! जंपियमिमीए ॥२३॥ १. ला० कोहि ॥ २. ला० परि ।। ३. सं० वा० सु० वि न वियड्याए पविणाब एयं ।। ४. सं० वा० सु० दढाणुरत्तो ॥ ५. ला० उयाहु ।। ६. ला० अओ सा चेव ।। ७. सं० वा० सु० केणय प॥ ८. ला० विजए॥ ९. सं० वा० सु० ण जं समु। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदिनकथानकम् २३५ ता दव्वविढवणत्थं नियनाहं पेसिऊण अण्णत्थ । पुण्णोवजणनिरया सयं च चिट्ठामि, जेणं सो ॥२४॥ विढवइ पभूयदव्वं' इय चिंतिय जा गिहम्मि संपत्ता । ता नियपई नियच्छइ चिंताभरसायरे पडियं ॥२५॥ तं च तारिसं दळूण पुच्छियं तीए 'नाह ! किमुव्विग्गो विय लक्खीयसि ? । तेण भणियं “पिए ! अस्थि महंतमुव्वेगकारणं, जओ अहमज कयसविसेससिंगारो मित्तमंडलपरिवारिओ दिह्रो दोहिं पुरिसेहिं, ताणिक्केण लवियं एसो च्चिय सलहिज्जइ एक्को जो ललइ विविहरिद्धीए। वियरइ य महादाणं निरंतरं मत्तहत्थि व्व' बीएण तओ भणियं 'किं भद्द ! पसंसिओ तए एसो । जो पुव्वपुरिसअज्जियलच्छिं जणणिं व भुंजेइ।२७। जो नियभुयदंडज्जियलच्छीए कुणइ एरिसं चिढं । तं चिय मण्णामि अहं सप्पुरिसं, कुपुरिसं इहरा' ।२८। ता पिए ! देसंतरं गंतूण नियभुयादंडेहिं जाव नोवजिया लच्छी न ताव मे चित्तस्स निव्वुई भवई"। तीए वि हरिसभरनिब्भरंगीए जंपियं “नाह ! सुंदरो तेऽभिप्पाओ, जओ सोच्चिय सुहओसोचेव पंडिओसो विढत्तविण्णाओ । जो नियभुयदंडज्जियलच्छीएँ उवज्जए कित्ति।२९। ता नाह ! पुजंतु ते मणोरहा, करेहि जहासमीहियं" । तेण चिंतियं “पवसिउकामे भत्तारे न का वि नारी एवं जंपइ, जओपवसंते भत्तारे सोक्खं नारीण जाइ नणु सव्वं । साहीणपिययमाणं हवंति संसारसोक्खाइं ।।३०।। एसा य अभिन्नमुहराया एवं जंपइ ता नूणं अन्नासत्ता भविस्सइ, सोहणं च एवं जओ एसा वि पडिबंधट्ठाणं न संजाया" । काऊण निच्छयं गओ जणयसयासे विण्णत्तो य, यथा'तात ! मामनुजानीहि, धनोपार्जनकाम्यया । गच्छाम्यहं विदेशेषु, करोमि पुरुषक्रियाम्' ।।३१।। जनकेनोक्तम्'विद्यते विपुलं वत्स ! कुलक्रमसमागतम् । धनं ते दानसम्भोगविलासकरणक्षमम् ।।३२।। तत् तदेव नियुञ्जानस्तिष्ठात्रैव निराकुल: । यतो वियोगं ते वत्स ! नैव सोढुमहं क्षमः' ।।३३।। देवदिन्नेनोक्तम्'या पूर्वपुरुषैस्तात ! भूरिलक्ष्मीरुपार्जिता । तां भुञानस्य सत्पुंस: कथं न त्रपते मन: ? ।।३४।। तत: प्रयच्छ मेऽनुज्ञां प्रसादाइँण चेतसा । स्वभुजोपात्तवित्तेन येन कीर्तिं करोम्यहम्' ।।३५।। तओ निच्छयं नाऊण विसज्जिओ जणणि-जणएहिं । जाव काउमाढत्तो सव्वं सामगिं तओ १. सं० वा० सु० विहवरि ॥ २. ला० जमेसा वि ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके 'मा कयाइ एसा निवारइ !' त्ति मण्णमाणेहिं भणिया सुण्हा से जणएहिं 'वच्छे ! देसंतरं गंतुकामो दीसइ ते भत्ता'। तीए भणियं “ताय ! तुब्भेहिं जायस्स सप्पुरिसपयमणुवत्तमाणस्स अजउत्तस्स जुत्तमेवेयं, यत उक्तम्स्थानत्यागं करिष्यन्ति सिंहा: सत्पुरुषा गजा: । स्थाने चैव मरिष्यन्ति काका: कापुरुषा मृगाः' ।।३६ ।। तमायण्णिऊण ताणि वि तह चेव चिंतिऊण ठियाणि तुण्हिक्काणि । संवूढे य कुमारे नियरासिसमप्पणेण कया चउरासी वणियपुत्ता कुमारस्स सहाया सेट्ठिणा । तओ समागए सोहणदिणे गइंदारूढो वियरतो महादाणं निगंतूण ठिओ पत्थाणमंगले कुमारो । बालपंडिया वि पहाणकरेणुयारूढा कयउक्किट्ठसिंगारा पप्फुल्लवयणपंकया गया कुमारदसणत्थं । खणंतरेण विण्णत्तो 'सामि ! देह आएसं' । कुमारेण वि लोयाणुवित्तीए आवीलसमण्णियं दिण्णं करबीडयं । तीए वि मुहे पक्खिविऊण 'सामि ! पुणरवि तुमे दिण्णो चेव पविसिही मम मुहे तंबोलो' त्ति भणंतीए बद्धा वेणिया, पहठ्ठमाणसा चेव गया नियगेहे । लोगो वि तं तारिसं दळूण तह चेव चिंतंतो पविठ्ठो नयरं । कुमारो वि 'अहो ! विचित्तं इत्थीण चेट्ठियं, तं न नजइ को वि परमत्थो' त्ति भावमाणो पयट्टो अग्गओहुत्तो । कमेण य पत्तो गंभीरयं नाम वेलाउलं, जाव गयवर व्व पहाणपासाओ व्व सुरयणो ब्व मुणिवरो व्व नरनाहो व्व मयरहिओ, पेयवणं व संखदरिसणं व महासंखकुलाउलो, रहवर व्व सचक्को, देवकुलं व सपीढो, सेण व्व ससफरिओ, अब्भुट्टितो व्व उटुंतमहंतकल्लोलेहिं, आलिंगयंतो व्व तरंगमालाबाहाहिं, हक्कारितो व्व संखुब्भमाणजलयरमहानिनाएहिं, हसंतो व्व फेणट्टहासेहिं, आलवंतो व्व विहंगजंपिएहिं, दिट्ठो रयणायरो । पूइऊण य तं निरूवियाइं जाणवत्ताई। ताण य मज्झाओ जिणवयणं व अक्खयं गुणाहारं सुचीवरऽद्धासियं नेगमाइट्ठाणं वरसियवर्ड महत्थुप्पत्तिकारणं समोसियजणकयविहवं बुडंतजंतुसंताणतारणक्खमं पहाणदेवयाहिट्ठियं भाडियं महाजाणवत्तं । संकामियं समत्थं पि तत्थ भंडं । तओ संगहिएसु-तंदुल-कणिक्का-जल-कट्ठाईसु काऊण गुरु-देवपूयं, दाऊण महादाणं सपरियणो समारूढो जाणवत्ते । तओ समागयाए जलहिवेलाए समाणिएसु पूयाविहाणेसु उब्भियासु नाणाविहपडागासु संचारिएसु आवल्लएसु उक्खित्तासु नंगरासु उड्डीकएसु कूवएसु उब्भिएसुं सिडेसुं उवउत्तेसुं कुच्छिधार-कण्णधार-गब्भे-जय-निजामएसुं विमुक्क(क) बंधणेहिंतो जाणवत्तं । साणुकूलवायजोगेण य थोवदिवसेहिं चेव ओगाढं बहूई जोयणाई जलहिमज्झे । १. सं० वा० सु० ‘रय त्ति ॥ २. सं० वा० सु० 'माणेण भ ॥ ३. सं० वा० सु० गयंदा ॥ ४. सं० वा० सु० यरंतओ म' || ५. ला० °ण य वि' ॥ ६. सं० वा० सु० 'ए मुहे ॥ ७. सं० वा० सु० गो तं ॥ ८. ला० इत्थीचे || ९. ला० ताव ॥ १०. सं० वा० सु० महरहि ॥ ११. ला० णट्टहा' ॥ १२. सं० वा० सु० 'मासासियजणं कय ॥ १३. सं० वा० सु० संतारण || १४. ला० ण य गुरुदेवयपूर्य, दाऊण य म || Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदिन्नकथानकम् २३७ इओ य सा बालपंडिया ण्हाण-विलेवण-विभूसाइवज्जिया पोसहनिरया आइंबिलाइकुणमाणी पाएण साहुणीवसहीए चिट्ठइ । तओ अण्णया आवज्जियचित्तेहिं भणिया सा साहुणी-जणय-जणणीसासू-ससुराइएहिं ‘वच्छे ! अइसुकुमालं ते सरीरं, ता मा एवमइदुक्करं तवं करेहि' । तीए विण्णत्तं'मा कुणह गुरू! खेयं, छम्मासा जाव ताव काहामि । कट्ठाणुट्ठाणमिणं, परओ पुण अणसणं घेच्छं।३७। जइ एइ न मे भत्ता परिपूरिय॑नियमणोरहो इहयं । तो तुम्हाण समक्खं नियमेण इमं वयं मज्झ' ।।३८।। तेहिं भणियं ‘पुत्ते ! महंत देसंतरं गओ ते भत्ता, न छम्मासेहिं तत्तो आगंतुं पारिज्जइ, तो मा एवंविहं पइण्णं करेहि' । तीए लवियं ‘कया चेव एसा, न एत्थत्थे अण्णं किं पि भणियव्वं' । नाऊण से निच्छयं ठियाणि तुण्हिक्काणि । अण्णया य निवडतए महासीए अप्पावरणा अणावरिए य पएसे साहुणीउवस्सयस्संतो चेव रयणीए ठिया काउस्सग्गेणं । एत्थंतरम्मि य समागओ रइसेहरो नाम महानाहियवाई पयंडवाणमंतरो । दिट्ठा य सा तेण। तीए य रूवाइसयपरवसीकयमाणसेण पच्चक्खीहोऊण भणिया सा, अवि य'पडिवजसु मंबाले!, तुह गुणगणरंजिओजओ अहयं ! रइसेहरनामाणं देवं लक्खेहि मंसुयणु! ।।३९। देवो वि किंकरो हं अजप्पभिई तुहं पिए ! होहं । ता पडिवज्जसु मं जेण दुल्लहं पुण इमं देहं ।।४०।। पंचण्हं भूयाणं समुदाएणं इमं जओ जायं । न य अत्थि कोइ धम्मो, न य परलोगो न निव्वाणं' ।।४१।। एवं जपंतस्स वि तस्स न सा देइ उत्तरं जाव । ताव बलामोडीए आढत्तो भुंजिउं पावो ।।४२।। तीए तवतेएणं जाव न सक्केइ उग्गहं भेत्तुं । ताव विलक्खीभूओ रुट्ठो एवं विचिंतेइ ।।४३।। 'एईए भत्तारं मारेमि पइव्वयाएँ दुट्ठाए । जेणेसा तविरहे मरइ महासोयसंतत्ता' ।।४४।। नाऊण विभंगेणं कुमरं जलहिस्स मज्झयारत्थं । वेगेण हरिसियमणो पत्तो सो तत्थ वहणम्मि ।।४५।। विगरालरूवधारी जंपइ रे! सरह देवयं इ8 । बोलेमि जओ तुब्भं पोयमिणं अज्ज जलहिम्मि' ।।४६।। कुमरेणं सो भणिओ केणऽवराहेण ववससे एवं?' । पडिभणइ सुरो 'दुव्विलसिएण तुह दुट्ठभजाए'।४७। 'मह पुव्वचिंतियं निच्छएणसंभवइजेण तियसो वि ।जंपइएरिसवयणं' इयभाविय भणइपुण कुमरो।४८। 'जइ सा असिठ्ठचित्ता ता तं चिय किं न तियस ! सासेसि ?' । सो भणइ तवोतेएण तीऍ पभवामि नो अहयं' ।।४९।। तो कुमारो वि 'मिच्छट्ठिी को वेस महापावो, न य सक्किया णेण मह पिया चारित्ताओ १. सं० वा० सु० य नियमणोहर(रह)सयाइं ॥ २. ला० ता ॥ ३. सं० वा. सु० न अत्थेत्थ(त्थत्थे) ॥ ४. ला० ए पए' ॥ ५. ला० ए रू' ॥ ६. ला० तो ।। ७. ला० एणं जओ इमं जा ॥ ८. ला० °हादुक्खसं ॥ ९. सं० वा० सु० वई इ॥ १०. ला० य तियस ! किंन सा ॥ ११. ला० तओते ॥ १२. ला. तओ कु ॥ १३. ला० ण सक्कि॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके धम्माओ वा चालिङ ति रोसेण इह समागओ, ता कयाइ एवं पि ववसई' त्ति भाविऊण जाव सुमरेइ पंचनमोक्कारं ताव उच्छल्लिऊणं जाणवत्तं गओ सो निययट्ठाणं । उत्तिण्णा सव्वे वि वणियउत्ता फलगाणि गहिऊण अण्णण्णदीवेसु। देवदिण्णेण वि समासाइयं फलयखंडं । पंचनमोक्कारपरावर्तणपरायणो य पत्तो तीरप्पएस, कम्मधम्मसंजोगेण य दिट्ठो सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा, ‘साहम्मिओ'त्ति काऊण तुट्टेण भणिओ ‘भद्द ! रयणायरो हं, तुट्ठो य तुह इमाए पंचनमोक्कारभत्तीए, ता गच्छाहि इओ जोयणसयपंचगसंठियरयणपुरपच्चासण्णवणसंडमज्झट्ठियमममित्तमणोरहजक्खसयासं, सो य मह वयणेणं जं किंचि तुम पत्थिहिसि तं सव्वं संपाडिस्सई' ति। तेण भणियं 'भयवं ! कहमहं तेत्तियं देसंतरं गंतुं चएमि ?' । तओ समप्पियं सुट्ठिएण से एगममयरसं दाडिमफलं, भणिओ य ‘एयस्स बीयाणि भक्खंतो वच्चेजसु, तओ महप्पभावेण छुहा-तण्हा-परिस्समाइवजिओ लहुं तत्थ पविस्ससि । एसो वि 'आएसो'त्ति भणित्ता पयट्टो गंतुं । पत्तो य थोवदिवसेहिं चेव तं वणं । दिटुं च नाणामणिविणिम्मियं डझंतकालागरु-कप्पूराइनिम्मियधूवगंधुद्धयाभिरामं साहयजणविहियपूओवयारं रयणमयमणोहरपडिमाहिट्ठियं मणोरहजक्खभवणं । तओ जाव तत्थ पविठ्ठो ताव पच्चक्खीहोऊण संभासिओ मणोरहजक्खेण 'भद्द ! किं रयणायरेण पेसिओ तुमं ?' । ‘एवं' ति तेण जंपिए भणियं जखेण 'जइ एवं तो गच्छ एयम्मि अदूरदेसट्ठिए रयणपुरे । एत्थ य सक्को नाम नरवई । सो य जं किंचि जत्तियं वा तुमं चिंतिहिसि तं सव्वं चउग्गुणं दाहिइ' । तओ गओ एसो नयरे जाव पिच्छइ तं सव्वं पि असि-मसि-किसि-वाणिज्जाइविरहियं पि पंचप्पयारभोगासेवणपसत्तं विविहकीलापरायणं । तत्थ य पेच्छंतो नाणाविहकोउगाई पत्तो रायमंदिरं । दिट्ठो य इंदो व्व विचित्तविणोएहिं ललमाणो जो जं चिंतइ तं तस्स चउगुणं पयच्छंतो नरवई । तं च दटूण पुच्छिओ एगो पुरिसो, अवि य'वाणिजाईअत्थोवजणरहिओ विजं इमो ललइ । पुरलोगो लीलाए तं कत्तो पावए अत्थं ?' ।।५०।। तेण भणियं ‘पायालाओ किं निग्गओ सि ?, पडिओ सि किं व गयणाओ ? । किं वा वि जलहिपाराओं आगओं ? पुच्छसे जमिणं' ।।५१।। कुमारेण जंपियं १. ला० तो॥ २. ला० ओ नि' ॥ ३. ला० 'त्तपरायणो पत्तो ॥ ४. सं० वा० सु० व पवि ॥ ५. ला० विविहविणो ॥ ६. सं० वा० सु० च्छए ज° ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदिन्नकथानकम् २३९ 'मारूससु, सच्चं चियजलनिहिपाराऑआगऑअहयं । पोयविवत्तीऍइहं, ताकहसुजहट्ठियंसव्वं' ॥५२॥ पुरिसेण लवियं'जइ एवं तो निसुणसु, एसो अम्हाण संतिओ राया । पच्चासण्णवणत्थं पइदियहं भद्द ! सत्तेणं ।।५३।। साहेइ महपभावं नामेण मणोरहं महाजक्खं । तुट्ठो य देइ रण्णो महामहंतं वरं एसो ।।५४।। तस्स पभावेण निवो जत्तियमेत्तं जणो विचिंतेइ । तत्तियमेत्तं अत्थं सव्वं पि चउगुणं देई' ।।५५।। ते सोऊण चिंतियं कुमारेण “जइ एवं तो किमेइणा पणइएण ?, तं चेव जक्खं साहेमि, परं पेच्छामि ताव-कहं राया साहेइ ?" । तओ गओ जक्खालए, रुक्खंतरिओय ठिओ पच्छण्णो जाव अइक्कंते रयणीपढमजामे समागओ करवालबीओ राया, पूइऊण विण्णत्तो अणेण जक्खो, अवि य'भो भो जक्ख महायस ! अचिंतमाहप्पसत्तिसंजुत्त! । कयसत्तुत्तमभत्तयस मत्तसत्तोहपरिताए(?ण) ।५६। पच्चक्खो होज्ज मम' झड त्ति जालावलीकरालम्मि । पक्खिवइ अग्निकुंडे अप्पाणं सक्कनरनाहो ।।५७। तओ जक्खेण उक्खित्तो सत्तीए, सित्तो य कुंडियानीरेण जाओ पुणण्णवो, भणिओ य ‘भो महासत्त! वरं वरेहि' । तेण भणियं 'जइ एवं तो तुहप्पभावेण जो जं चिंतइ तस्स तं चउग्गुणं देजामि' । ‘एवं होउ'त्ति जखेण पडिभणिए पणमिऊण गओ राया नियट्ठाणं । बीयदिणे तेणेव कमेण विण्णविऊण जखं दिण्णा जलणकुंडे झंपा देवदिण्णेणं । तहेव जाओ वरओ जक्खो । देवदिण्णेण वि 'तुह चेव पासे चिट्ठउ'त्ति भणिऊण दिण्णा बीया झंपा । पुणो वि दिण्णो जक्खेण बीओ वरो । एवं तइयवारांए वि दिण्णो । पुणो वि चउत्थवाराए जाव देइ झंप ताव गहिओ बाहाए जक्खेण, भणिओ य ‘भद्द ! एसा सिरत्तयाऽऽलिंगिया पहाणसत्ती दिण्णा मम इंदेण, एईए पभावेण देमि तिण्णि वरे, न उण अहिए, ता मग्गसु जं वा रोयई' । देवदिण्णेण भणियं 'जइ एवं तो एक्कवरेण जा रण्णो सिद्धी तं एक्कसिं साहिओ जावजीवं पि मम पयच्छ, बीएण मए जीवंतए न अण्णस्स दायव्वा, तइयं पुणो वि पणइस्सं' । ‘एवं ति जक्खेण पडिवण्णे ठिओ पच्छण्णो । इत्थंतरम्मि समागओ राया । निवारिओ जक्खेण । राइणा भणियं 'किं कारणं निवारेसि ?'। जक्खेण भणियं 'दिण्णा तिण्णि वि वरा एगस्स महासत्तस्स' । तओ [गओं विमणदुम्मणो राया १. ला० भणियं ॥ २. ला० तं च सो ॥ ३. ला० ता कहं ।। ४. सं० वा० सु० 'रियउवट्ठिओ ॥ ५. सं० वा० सु० 'इओ विण्ण|| ६. सं. वा० सु० समत्तसत्तेसु परि ॥ ७. ला० हमुपरित्त ।। ८. ला० ममं, ति झत्ति ।। ९. ला० प्पसाएण॥ १०. सं० वा० सु० ए दि॥ ११. सं० वा० सु० मणियं भद्द॥ १२. सं० वा० सु० वो ।। १३. सं० वा० सु० ण य भ' ॥ १४. सं० वा० सु० जा च रण्णो ॥१५. ला० जीयंत ॥ १६. ला० पाठ पतनम् ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके नियगेहे, निवण्णो य सयणीए । तत्थ य तत्तवालुयाखित्तमीणस्स व दंडाहयभुयंगस्स व वागुरापडियहरिणस्स व तल्लव्वेल्लिं कुणमाणस्स वोलीणा रयणी राइणो । पभाए य गओ रायदंसणत्थं कुमारो । दिद्वं च सोगाभिभूयं सव्वं पि रायमंदिरं । पुच्छिओ य कोइ जहा 'किमज्ज सोगाभिभूयं सव्वं पि रायमंदिरं दीसइ ?' । तेण सिढे 'भद्द ! जओ अज अम्ह सामी केणावि कारणेण जलणं पविसिस्सइ, तेण सोगाभिभूयं सव्वं पि रायमंदिरं' । कुमारेण जंपियं 'जइ एवं तो धीरा भवह, जेण सव्वं पि सुत्थं करेमि' । त्ति समासासिऊण गओ रायसमीवे । भणियं च ‘देव ! किमेयमियरजणचिट्ठियं तुब्भेहिं समाढतं ?' । राइणा भणियं ‘भद्द ! किमेयाए तुज्झ चिंताए ?' । तेण जंपियं 'देव ! कारणवसेण पुच्छामि, ता महोवरोहेण साहेउ देवो' । अइनिब्बंधं नाऊण कहियं नरिदेण "भद्द ! दाणवसणं महंतमत्थि, तं च जक्खप्पसाएण पूरियमित्तियं कालं, अज्ज पुण तप्पसायविरहियस्स न संपज्जइ, किंच 'तविरहियस्स किं जीविएणं ?' ति चिंताए एयमाढत्तं” । तेण भणियं 'जइ एवं तो अज्ज प्पभिई मह सिद्धीए आजम्मं पि चिरंतणट्ठिईए देसु दाणं, मा य जक्खं साहिजसु' । तओ अणिच्छमाणेण वि महया निब्बंधेण पडिवण्णं नरिदेण । इयरो वि पुणो वि गओ वणसंडे । तहिं च जाव एगम्मि सरोवरे मज्जिऊण उत्तरइ ताव भणिओ एक्काए मज्झिमवयाए नारीए 'महाभाग ! कुओ किं निमित्तं वा इहाऽऽगओ सि ?' । तेण भणियं 'जलहिपाराओ समागओ सुट्ठिएण लवणाहिवइणा तुट्टेण पेसिओ मणोरहजक्खसगासं' । तओ तीए हरिसियमणाए जंपियं 'जइ एवं तो उवविसाहि एव तरुवरच्छायाए जेण साहेमि किंपि रहस्सं' । तव्वयणमणुयत्तमाणो य उवविठ्ठो एसो । सा वि उवविसिऊण साहिउमाढत्ता जहा ___ “अत्थि गयणाभोगलग्गसिहरसयसंकुलो समत्थविजाहरावासो रयणविणिम्मियजिणभवणविभूसिओ वेयड्डो नाम गिरिवरो । तत्थ गयणवल्लहं नाम नयरं । तं च परिपालए समत्थविजाहरनरिंदचूडामणी चंदसेहरो नाम राया । तस्स य सयलंतेउरप्पहाणाओ सिरिकंता - कणगमाला - विजुमाला - मेहमाला - सुतारा - नामाओ पंच महादेवीओ । ताणं च जहासंखं कणगप्पहा - तारप्पहा - चंदप्पहा - सूरप्पहा - तेलुक्कदेवी - नामाओ सयलकलाकुसलाओ रूवाइविणिज्जियामरसुंदरीओ पंच दुहियाओ । ताणं च कएण पुच्छिओ जणएण नेमित्तिओ चंदसेहरेण 'को एयाणं भत्ता भविस्सइ ?' । नेमित्तिएण भणियं 'जो तुह कणिट्ठभाया सूरसेहरो नाम आसि तो मरिऊण मणोरहजक्खो समुप्पण्णो, तए सह अन्ज वि भाइसिणेहेण वट्टइ, तस्स पासट्ठियाणं एयाणं समीहियवरसंपत्ती भविस्सई' । तओ जणएण समप्पियाओ ताओ मणोरहजक्खस्स ताणत्थं । एएण कयाओ इयरपुरिसदुइंसणाओ एक्कगुण-दुगुणतिगुणाइयाओ सरीरलेसाओ देवकुलासण्णपायालगिहे पच्छण्णीकयाओ चिट्ठति, ता जइ कहिंचि तुह एस जम्मणियं वियरइ तो तुमं ताओ मग्गेसु, अहं च १. ला० कुणंतस्स ।। २. सं० वा० सु० व्वं पदीसइ ।। ३. ला० ता ॥ ४. ला० संलत्तं ॥ ५. ला० कओ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ देवदिन्नकथानकम् ताणं चेव अंबधाई वेगवई नाम तुह रूवाइगुणगणावज्जिया एवमुवइसामि" ।' कुमारो वि 'जमंबा आणवेइ तं कीरई' त्ति जंपिऊण गओ जक्खसगासे । विण्णत्तो य 'भयवं ! देहि मे तइयवरेण जाओ तुह पासे चिट्ठति पायालगिहगयाओ कण्णयाओ । 'नूणं ताहिं चेव जायाणुरागाहिं अप्पा एयस्स दंसिओ भविस्सइ, कहऽण्णहा एस वियाणइ ?' त्ति चिंतिऊण जंपियं जखेण 'वच्छ ! अस्थि कण्णयाओ परं अच्चंतदुरालोयतेयाओं' । कुमारेण भणियं ‘होंतु, तहा वि पयच्छ' । तओ दंसियाओ तइलोक्कदेविवज्जियाओ चत्तारि कण्णयाओ । ताणं च कुमारसमीवागयाणं पणट्ठाओ जक्खकयलेसाओ । कुमारेण भणियं 'पंचमं किं न देसि ?' । जखेणे जंपियं 'जओ सा एयाण चउण्हं पि सयासाओ तिगुणतेया अइदुरालोया' । कुमारेण लवियं 'तहा वि दंसेहि ताव' । तओ पयडीकया सूरमुत्ति व्व दुइंसणा । सा वि कुमारसमीवागया जाया साभाविया। सव्वाओ वि तं दद्दूण जायाओ गाढाणुरायाओ । विम्हिएणं य जक्खेण ‘एयसंतियाओ चेव एयाओ' त्ति चिंतिऊण भणियाओ ‘वच्छे ! किं तुम्हाण रोचए एस भत्ता ?' । ताहिं भणियं 'ताय ! महापसाओ' । मणोरहेण जंपियं ‘अत्थि एयस्स अच्चंतगुणालया जेठ्ठभारिया, तविणयपराण चेव एस भत्ता भवइ । ताहिं भणियं को जेठ्ठभगिणीए विणयम्मि विरोहो ?' । तओ दिण्णाओ जक्खेण। हक्कारिऊण य चंदसेहररायं कओ महाविभूईए विवाहो । दिण्णं च जखेण तासिं महादाणं । तओ तेलोक्कदेवीए भणियं 'ताय ! बाइयाए किं दाहिसि ?' । तओ जक्खेण समप्पियं मुद्दारयणं । तीए भणियं 'किमित्तिएण ?' । तेण भणियं 'पुत्ते ! इत्थ चिंतामणिरयणं चिट्ठई' । तओ हरिसियाए गहियं तीए । सम्माणिऊण जक्खं गओ चंदसेहरो । ताहिं वि विजापभावेण विउरुब्वियं वासभवणं। तत्थ य ताहिं समं वियड्ढविणोएण विलसिऊण पत्तो कुमारो । एत्थंतरम्मि भवियव्वयानिओगेण 'किमम्ह बाइया कुणइ ?' ति अवलोयणीविजाए अवलोइयं तलोक्कदेवीए जाव 'पडिपुण्णो अवही, नाऽऽगओ मे भत्त त्ति पभाए अणसणं गिहिस्सामि' त्ति कयनिच्छया मलमलिणपंचचीवरावरियसरीरा काउस्सग्गसंठिया दिट्ठा बालपंडिया । तओ ‘पहाए एसा महाणुभावा अगच्छंते अजउत्ते नियमा अणसणं गिण्हई' त्ति भाविऊण गया जक्खसमीवं । साहिओ परमत्थो । तेण वि ‘एवमेयं' ति नाऊण भणिया 'वच्छे ! लहुं चेव वच्चह जओ पहायप्पाया रयणी । दिण्णो य सहाओ नियकिंकरो धरणीधरो नाम जक्खो । तेण वि विउब्वियं महाविमाणं, पूरियं रयण-मणि-मोत्तिय-विद्दुम-कणगाइ-याणं । आरोविओ सुहप्पसुत्तो चेव कुमारो । समारूढाओ सपरियणाओ ताओ । उक्खित्तं अंगुलियाए धरिऊण धरणीधरेण विमाणं । तओ वेगेण जाव वच्चइ ताव किंकिणीजालरवेण विउद्धो कुमारो 'किमेयं ?' ति पुच्छिया १. ला० गमई ॥ २. ला० देह ॥ ३. सं० वा० सु० णय त्ति जंपियं ॥ ४. ला० तेलोक ॥ ५-६. ला० °ण भणियं ।। ७. सं० वा० सु० रमोत्ति ।। ८. ला० °ण जक्खे ॥ ९. ला० रोयए ॥ १०..सं० वा० सु० °णं । तेलो' ॥ ११. सं० वा० सु० तओ चेव अवसेण जाव ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तेलुक्कदेवी । तीए वि सव्वं साहियं । तओ पेच्छंतो गामाऽऽगर-नगराइमंडियं मेइणीतलं पत्तो झत्ति नियनयरे । दिट्ठा य साहुणीवसहीए काउस्सगट्ठिया बालपंडिया । तं च दद्दूण पक्खित्तं तदुवरि तेलोक्कदेवीए देवदूसं । तओ संभंताए ‘नमो अरहंताणं' ति काउस्सगं पारिऊण निरूवियं उवरिहुत्तं । दळूण य विमाणं ससज्झसा पविठ्ठा अब्भंतरे । 'किमेयं ?' ति पुच्छियाओ अजाओ । ताहिं कहियं 'तुह तवप्पभावेण देवागमो भविस्सइ त्ति संभाविज्जई' । जाव एवं जपंति ताव तत्थेव अवयरियं विमाणं । उग्गओय अंसुमाली । इयराणि वि उत्तरिऊण विमाणाओ निसीहियं काऊण पविठ्ठाणि अब्भंतरे । पणमियाओ साहुणीओ । इयरा वि दट्रूण नियदइयं संभंता अब्भुट्ठिया । पडियाओ ताओ तीए चलणेसु । तमायण्णिऊण समागओ रायाइनयरलोगो जणयाइसयणवग्गो य । तओ विसज्जिऊण धरणीधरं सव्वदव्वं गहाय महाविभूईए गओ नियगेहं । पारद्धं वद्धावणयं । एत्थंतरे पुच्छिओ कुमारो वणियउत्तवत्तं तप्परियणेण । तओ जावऽज कुमारो वि पडिवयणं न देइ ताव विजापहावेण विण्णायपरमत्थाए ‘मा रसे विरसो होउ' त्ति भाविंतीए दिण्णमुत्तरं तलोकदेवीए, जहा 'अजउत्तो विमाणेण लहुं चेवाऽऽगओ, ते वि भूपयारेण पट्ठिया कालेणाऽऽगमिस्संति' । 'अहो ! वयणकोसल्लं मम पियाए' त्ति रंजिओ कुमारो । पइदिणं च जाव पुच्छंति लोगा ताव बालपंडियानिमित्तदिण्णचिंतामणिरयणप्पभावेण कुमारेण सुमरिओ जक्खो । तक्खणं चेव समागओ एसो । भणियं च तेण किं निमित्तमहं सुमरिओ?' । कुमारेण भणियं 'जेण तुह धूयाकयमुत्तरं नित्थरिउं न पारेजई' । जक्खेणुत्तं 'जइ एवं तो अहं ते सव्वे संपाडिऊण सिग्घमागमिस्सामि' । कुमारेण भणियं ‘पसाओ' । अणुट्टियं च सव्वं जहाऽभिहियं जक्खेण । एवं च कुमारस्स इहलोए चेव दाणफलोवणीयचिंतामणिरयणप्पहावेणं संपजंतसयलसमीहियस्स जिणसाहुपूयापरायणस्स दीगाईणं दाणं वियरंतस्स सव्वहा पुव्वचिंतियनियमणोरहे पूरंतस्स पंचप्पयारं विसयसुहमणुहवंतस्स वोलीणो पभूयकालो । जाया जोग्गपुत्ता । अण्णया तत्थ समागया विहरमाणा सीलसागराभिहाणा सूरिणो । निग्गओ तेसिं वंदणवडियाए सभारिओ देवदिण्णो । वंदियाभावसारं सपरिवारा सूरिणो । लद्धासीसो य निसण्णो सुद्धभूमीए । समाढत्ता य धम्मदेसणा सूरीहिं; अपि च-लब्धायां सामय्यां धर्म एव यत्नो विधेय:, उक्तं च १. ला० ओ अं॥ २. ला० °या । निवडियाओ य ताओ ।। ३. ला० ययगेहं॥ पारद्धं चेव वद्धा॥ ४. ला० 'त्तवुत्तंतं परि ॥ ५. ला० "ज कु॥ ६. ला० जाए परिहाविऊण विण्णा ।। ७. ला० पुच्छति लोगो ताव ।। ८. ला० समरि ॥ ९. सं० वा० सु० च जहा ॥ १०. ला० °वं कुमा' ॥ ११. ला० णाइदाणं॥ १२. ला० णो य पभू' ॥ १३. ला० या य तत्थ ।। १४. ला० या य भाव ॥ १५. सं० वा० सु० परियणा सू॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवदिन्नकथानकम् २४३ भो भव्या ! भवभीमसागरगतैर्मानुष्य-देशादिका, सामग्री न सुखेन लभ्यत इति प्राय: प्रतीतं सताम्। तद्युष्माभिरिमां पुरातनशुभैरासाद्य सद्योऽनघां, सर्वज्ञप्रतिपादिते प्रतिदिनं धर्मे निवेश्यं मन: ।।५८ ।। स च द्वेधा समाख्यात: साधु-श्रावकभेदत: । यत्नस्तत्रैव कर्तव्यो, यत उक्तं मनीषिभिः ।।५९।। तावदुःखान्यनन्तानि, तावद्रागादिसन्ततिः । प्रभव: कर्मणस्तावत्, तावजन्मपरम्परा ।।६०।। विपदस्तावदेवतास्तावत् सर्वा विडम्बनाः । तावद्दीनानि जल्पन्ति नरा एव पुरो नृणाम् ।।६१।। तावद्दौर्गत्यसद्भावस्तावद्रोगसमुद्भवः । तावदेव बहुक्लेशो घोर: संसारसागर: ।।६२।। यावन्न लभ्यते जीवैः सद्धर्मोऽयं जिनोदित: । यदा तु सत्त्वैर्लभ्येत कथञ्चिदैवयोगत: ।।६३।। तदा निधूय पापानि यान्ति ते परमां गतिम् । अनन्तानन्दसम्पूर्णां नि:शेषक्लेशवर्जिताम् ।।६४।। तओ संजायचारित्तपरिणामेण विण्णत्तो गुरू देवदिण्णेण 'जाव कडंबसत्थं करेमि ताव पव्वजागहणेणं संपाडिस्सामि तुम्हाऽऽएसं' । गुरूहि भणियं ‘मा पडिबंधं करिजसि' । 'इच्छं' ति भणिऊण गओ नियगेहे । ठावियो जेट्टपुत्तो धणवई नाम कुटुंबे । तओ कीरमाणीसु जिणाययणेसु अट्ठाहियामहिमासु, पडिलाहिज्जमाणेसु साहु-साहुणीसमुदएसु, विहिज्जमाणासु साहम्मियजणपडिवत्तीसु, दिजमाणेसु दीणा-ऽणाहाईण दाणेसु, किं बहुणा?, सव्वसामग्गीसमुदएण दिक्खिओ सभारियो गुरुणा देवदिण्णो । दिण्णा य अणुसट्ठी, अपि चइहाऽपि भो ! भवन्त्येव प्रशमामृतपायिनः । प्रव्रज्याग्राहिणो जीवा निर्बाधसुखपूरिता: ।।६५।। सा च भागवती दीक्षा युष्माभिरधुना स्फुटम् । सम्प्राप्ता तेन सम्प्राप्तं यत् प्राप्तव्यं भवोदधौ ।।६६।। केवलं सततं यत्न: प्रमादपरिवर्जितैः । यावज्जीवं विधातव्यो [? ऽत्र] यस्मादिदमुच्यते ।।६७।। नाऽधन्या: पारमेतस्या गच्छन्ति पुरुषाधमा: । ये तु पारं व्रजन्त्यस्यास्त एव पुरुषोत्तमाः ।।६८।। तओ ‘इच्छामो अणुसहि' ति भणिए समप्पियाओ साहुणीओ सीलमइनामाए पवत्तिणीए । गहिया दुविहा वि सिक्खा । पालियमहाऽऽउयं जाव निक्कलंकं सामण्णं । अंते य कयसंलेहणाकम्माणि अणसणविहिणा मरिऊण उप्पण्णाणि दुवालसमकप्पे देवत्ताए । तत्तो चुयाणि महाविदेहे सिद्धिं पाविस्संति । ततश्च जं आवइपत्तस्स वि जलहिवई सुट्टिओ सुरो तुट्ठो । विहियं गुरुसण्णिझं तं फलमित्थेव दाणस्स । ६९। जंताओं विणिज्जियतियसविलयलावण्णरूवसोहाओ । पत्ताओ कामिणीऑतं फलमित्येव दाणस्सा७०। जं पंचवण्णसुकुमालसहणमणहारिदेवदूसाइं । जायाइँ अणेगाइं तं फलमित्थेव दाणस्स ।।७१।। १. सं० वा० सु० मुद्धता ॥ २. ला० बसत्थं ॥ ३. ला० लं यत्नः सततं, प्र. ॥ ४. ला० 'हा सिक्खा ॥ ५. ला० 'मारसाहिण ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके जं चिंतामणि-वेडुज-वज-कक्केयणाइँ रयणाई । लद्धाइँ सुतेयाइं तं फलमित्थेव दाणस्स ।।७२।। जं मणि-मोत्तिय-विद्यम-सुवण्णमाईण विविहदव्वाणं । लद्धाओ रासीओ तं फलमित्येव दाणस्स ।७३। ज़ंसद्द-गंध-रस-रूव-फरिसविसया अणोवमा पत्ता । कित्ती य अणण्णसमा तं फलमित्थेव दाणस्स।७४। इय एवमाइ विविहं इहलोए च्चिय फलं मुणेऊण । दाणस्स अणण्णसमं अहो ! तयं देह सत्तीए ।।७५ । [देवदिनाख्यानकं समाप्तम् । २६.] साम्प्रतमभिनवश्रेष्ठिकथानकमाख्यायते- . । [२७. अभिनवश्रेष्ठिकथानकम्। इह चेव जंबुदीवे दाहिणभरहऽद्धखंडमज्झम्मि । अत्थि पुरी पोराणा वेसाली नाम सुपसिद्धा । १। तं परिवालइ दरियारिरायवणसीहदलणगुरुसरहो । अट्ठारस गणरोईण सामिओ चेडओ राया ।।२।। एत्तो य जुण्णसेट्ठी अहिणवसेट्टी य तत्थ निवसति । दारिद्द-ईसरत्ताण मंदिरं वाणिया दोण्णि ॥३॥ अह अण्णया कयाई संपत्तो तिहुयणेसरो वीरो । छउमत्थकालियाए अहाऽऽणुपुव्वीइ विहरतो ।।४।। पत्ते वरिसारत्ते एगत्थ उवस्सयम्मि छण्णम्मि । चाउम्मासियखमणेण संठिओ काउसग्गेण ।।५।। दिट्ठो य तेण जुण्णेण सेट्ठिणा भत्तिनिब्भरमणेणं । रोमंचकंचुइज्जतमुत्तिणा झत्ति पणिवइओ ।।६।। 'अजं चेव कयत्थो जाओ हं, अज जीवियं सहलं । जं पावपंकसलिलं चरणजुयं भयवओ पणयं' ।७। एवं च भयवओ पायपंकयं नमइ अणुदिणं एसो । सिस्कयकयं(रं)जलिउडो खणमेक्कं पज्जुवासेइ ।।८। चिंतइ य 'नूणमेसो भयवं चउमासियम्मि खमणम्मि । चिट्ठइ निच्चलदेहो पइदियहं दीसए जेण ।।९।। जइ कहवि मज्झ गेहे भयवं पारेइ पारणदिणम्मि । संपत्ते तो अहयं मन्नेमि कयत्थमप्पाणं' ।।१०।। इय एवमाइचिंतापरस्स कमसो य तस्स वोलीणा । चउरो मासा तत्तो पत्ते पारणगदिवसम्मि ।।११।। वंदित्तु ओणयसिरो विण्णवइ तिलोयबंधव! मुणिंद! । महगेहपारणेणं अज पसायं कुणह भयवं!' ।१२। इय वोत्तूणं गेहे गंतुं सामग्गियं विहेऊण । चिट्ठइ एगग्गमणो दुवारदेसं निरूवंतो ।।१३।। ‘एसाऽऽगच्छइ एसाऽऽगच्छइ भयवं' मणेण चिंतंतो । पारावियभयवंतो होमि कयत्थोनसंदेहो ।।१४।। दुहसयतरंगमालाउलाओंबहुवसणजलयरगणाओ।भवसायराओं तिण्णो मिहोमिजइएइ जिणनाहो'।१५ इय मुंह सुहयरवद्वंतगरुयपरिणामकंटओ जाव । चिट्ठइ ताव जिणो विहुपविसइ नवसेटिगेहम्मि ।।१६। 'इहलोये चिय फलयं जायइ दिण्णं समत्थसत्ताणं । दाण'मिय भावणाए सेट्ठी पारावए भयवं ।१७। अह तक्खणेण तम्मंदिरम्मि पाउब्भवंति दिव्वाइं । पंच अणण्णसमाई सुपत्तदाणप्पभावेण ।।१८।। १. स० वा० सु० देत सत्तीए ।। २. सं० वा० सु० 'यारिसत्तुवण ॥ ३. ला० रायाण ।। ४. ला० पत्ते वासारत्ते ।। ५. सं० वा० सु० सिरकयंजलिपुडे रव' ॥ ६. सं० वा० सु० तो दियहं म ।। ७. ला० दियहम्मि॥ ८. मुपा० संसि रूवं ॥ ९. सं० वा० सु० सुभयरतरवर्ल्ड । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनसार्थवाहकथानकम् २४५ 1 इयरो वि यं सुरदुंदुभिसद्दं सोऊण जाव सवियक्को । जाओ ता केणावि हु सिडं जह ‘पारिओ भयवं’ ।१९ ता वड्ढियपरिणामो जाओ, भयवं पि विहरिओऽन्नत्थ । एत्तो य पासजिणतित्थकेवली आगओ तत्थ ॥२० नयरीओं तओ लोगो वंदणवडियाऍ निग्गओ झत्ति । भयवं पि कहइ धम्मं भवण्णवुत्तारणरंडं । । २१ ।। 1 अवि य I भो भो भव्वा ! सरणं धम्मो च्चिय होइ एत्थ संसारे । जिणपण्णत्तो, सेसं सव्वं पि हु आलजालसमं ॥२२॥ सव्वाओ रिद्धीओ समत्थसंसारियाइँ सोक्खाई। सुकरणं धम्मेणं हवंति सग्गा - ऽपवग्गा वि ।। २३ ।। दाणाइचउपयारो पण्णत्तो सो य तित्थनाहेहिं । तो कुणह तयं जेणं पावह अचिरेण सिवसोक्खं ।। २४ ।। एत्थंतरम्मि नवसेट्ठिपुण्णपब्भारविम्हिओ लोगो । पत्थावं लहिऊणं पुच्छइ परमेण विणणं ।। २५ ।। ‘भयवं ! एत्थ पुरीए संपइ को गरुयपुण्णसंजुत्तो ?' । भयवं पि जुण्णसेट्ठि बहुपुण्णं अक्खए तत्थ ।। २६ ।। लोगो वि आह ‘भयवं ! न तेण पाराविओ जिणो किंतु । बीएण, तग्गिहम्मि य पाउब्भूयाइँ दिव्वाइँ' ।२७। पण 'सोन सुणतो पारणं जिणवरस्स । खणमेक्कं तो नियमा पावेंतो केवलं नाणं ।। २८ ।। इयरस्स पुणो दिव्वाइँ चेव इहलोइयं फलं जायं । न उणो पारत्तहियं विसिट्ठभावाइरहियस्स' ।। २९ ।। सोऊण इमं बहुमाणमुव्वहंती उ जुन्नसिट्ठिम्मि । नियनियगेहेसु गया नमिऊणं केवलिं परिसा ।। ३० ।। अभिनवश्रेष्ठिकथानकं समाप्तम् । २७. एवमन्येऽपि दृष्टान्ताः कथनीया इति प्रथमश्लोकभावार्थः ।। ८५ ।। साम्प्रतं द्वितीयश्लोकभावार्थमाह । तत्र धनसार्थवाहकथानकमाख्यायते— [ २८. धनसार्थवाहकथानकम् ] जंबुद्दीवम्मि दीवंम्मि विदेहे पुव्वपुव्वए । अस्थि देवपुरायारं नयरं खिइपइट्ठियं ।।१।। धणओ व्व धणो नाम सत्थवाहो गुणऽण्णिओ । अत्थि विक्खायकित्तीओ बाहत्तरिकलाऽऽलओ ।।२। या सो कुटुंबस जागरियं जाव जग्गइ । रत्तीए पच्छिमे जामे ताव चित्तम्मि से ठियं || ३ || 'निग्गंतुं जो न पेच्छेइ महीवीढमिमं नरो । अच्छेरगसयाइन्नं सो नरो कूयदद्दुरो ||४|| न विलासा, न पंडिच्छं, न य वायावियड्ढया । न देसभासाविण्णाणं, न अण्णं किं पि सोहणं ।।५। जाव धुत्तसमाइन्ना नाणावुत्तंतसंकुला । बहुहा नो परिपूता पुरिसेण वसुंधरा ।।६।। ता गच्छामि महीवीढदंसणट्ठा तहेव य । सबाहोवत्तवित्तेण कित्तिं वत्तेमि सत्तमं ।।७।। सामग्गियं विहेऊण, घोसावित्ता सुघोसणं । जहा 'वच्चइ सत्थाहो वसंतपुरमुत्तमं ||८|| १. ला० हु ॥ २. ला० °द्दं सुणिऊण ॥ ३. ला० °यागओ ॥ ४. मुपा० हु डं ( इं ) दयालसमं ॥ ५ ला० तो ॥ ६. सं० वा०सु० न किं अण्णं पि सो ॥ ७. सं० वा० सु० परितंता ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके संपयं जो समं तेण वच्चई समणाइओ । तस्स सव्वेसु कज्जेसु धणो कुणइ निव्वुई' ।। ९ ।। एवमुग्घोसणं सोउं पयट्टा बहुपाणिणो । सूरि वि गंतुमिच्छंति धम्मघोसा सगच्छया ।। १० ।। साहुसंघाडगो एगो सत्थवाहस्स अंतिए । सरूवजाणणट्ठा धम्मघोसेहिँ पेसिओ ।।११।। सत्थवाहो ये तं दडुं पुच्छई भत्तिनिब्भरो । आगमणकारणं तेण सिहं सव्वं सवित्थरं ।। १२ ।। सत्थवाहाऽऽह 'जइ एवं गंतुं सत्थनिवेसणे । संठाह मं पडिक्खंता' तओ एत्थंतरम्मि य ।।१३।। अंबयापुण्णपिडएण को वि तत्थ समागओ । सत्थाहढोयणट्ठाए, जईणेसो वि दाव ।। १४ ।। तओ साहूहिँ सो वुत्तो 'कंदमूल - फलाइयं । जईणं कप्पए नेय महाभाग ! सचेयणं ।। १५ ।। धणेण ते वि तो पुट्ठा कप्पा - कप्पं समासओ । संखेवेणावि साहित्ता सूरिपासम्मि ते गया ।।१६।। साहिए सव्ववुत्तंते, पंचेसयसमण्णिओ । मुणीणं तत्थ ठाणम्मि गओ सूरी गुणायरो ।।१७।। पसत्थे सत्थवाहो वि दिणे तत्थ समागओ । समत्थपुरलोगेण सव्वओ परिवारिओ ।।१८।। संवूढे सव्वसत्थम्मि पत्थिओ अग्गओ तओ । चलिए यऽसेसलोयम्मि वच्चए स सुहेण तो ।। १९ ।। कुवंतो सव्वमक्खूणं सत्थस्स कमसो तओ । पत्तो भीमाडविं एवं छिण्णावायं महालियं ।। २० ।। २४६ जा य भारहकह व्व अज्जुण-भीम - नउलालंकिया, सुजणजणमुत्ति व्व सुचित्तया, कुनडपेच्छव्व सकुरंगया, जिणिंदभवणभूमि व्व संचरंतबहुसावया, सुसाहुतणु व्व ससंवरा, सिद्धि व्व सवरहिया, मयमत्तविलासिणि व्व समयणा, हरमुत्ति व्व सगंगया, अलयाउरि व्व बहुविहवा, सुयणजणावित्ति व्व बहुनया, कुंजणचिट्ठ व्व बहुआवया, कुच्चंधरबुंदि व्व सदाढिया, जिणिंदावलि व्व बहुसत्तयति । तीए वि पत्तो बहुमज्झदे सभागं । इत्थं तरम्मि य संगामारूढविजइनरिंदो व्व गुरुतरवारिधारानिवाओवसामियपरपक्खो वाहिणीपूररेहिरो कयगज्जियरवो अब्भुण्णइपहाणो चावो सभागओ पाउसकालो । अवि य फुरमाणविज्जुलाऽऽडोवभीसणो चलिरइंदगोविल्लो । दुस्संचारचिलिच्चिलकद्दमभरभरियमग्गालो ।।२१। अइविरसदद्दुराऽऽरडियसद्द[?परि] पुण्णदसदिसिविहाओ । पसरंतगिरिनईनीरपूरपरिखलियपहगमणो २२ इय एवंविहजलयाऽऽगमम्मि संभग्गमग्गगइपसरो । उप्पंसुलयर्पएसे छाएऊणं ठिओ सत्थो ।।२३।। वच्चंतेहिँ दिणेहिं समत्थसत्थम्मि निट्ठियं धण्णं । सच्चित्तकंद - फल- मूलभोयणा तो जणा जाया । २४। मुवि गिरिगुहावसहिसंठिया चित्तकयसमाहाणा । नाणाविहतवनिरया झाण-ऽज्झयणेण चिट्ठेति । २५ बहुवोलीणे वासे चिंतइ रयणीय पच्छिमे जामे । सत्थाहो 'मह सत्थे के सुहिया? दुक्खिया के वा?' ।२६। १० I १. ला० वि ॥ २. ला० ‘चस्सयस्सम' ॥ ३. ला० गणाय' ॥ ४. ला० 'च्छण व्व ॥ ५. सं० वा० सु० 'णमुत्ति व्व।। ६. ला० कुजाण' ।। ७. ला० कुच्चं धरणबुंदि ॥ ८. सं० वा० सु० 'यसद्ददसदि° ॥ ९. सं० वा० सु० पएसे आवसिऊणं ठिओ || १०. ला० भोइणो ॥ ११. ला० दुत्थिया ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनसार्थवाहकथानकम् २४७ इय चिंतंतस्स तओ झड त्ति चित्ते चमक्किया मुणिणो । 'अहह अहो हा ! कट्टं, होहिंति महामुणी दुहिया ||२७|| जम्हा जिणिंदमुणिणो कंदं मूलं फलं च सच्चित्तं । न छिवंति करयलेण वि तम्हा ते दुक्खिया एक्के ॥२८ । धी धी! मज्झ पाओ, तत्तिमकाउं जओ तवस्सीण । इह-परलोगावाए खित्तो अप्पा अपुणेण ।। २९ ।। कल्लं पहायकाले समत्थतत्तिं मुणीण हं काहं' । इय चिंतंतस्स झड त्ति जामिणी तस्स वोलीणा ।। ३० ।। तो जायम्मि पहाए पुच्छइ नियपरियणं जहा 'मुणिणो । निवसंति कत्थ ?' तेणावि अक्खियं इत्थ गिरिविवरे ॥ ३१ ॥ जम्हा दिणपंचग-सत्तगाओं पक्खाओं अहव मासाओ । दीसंति इओ इंता ते मुणिणो भत्त- पाणट्ठा ।। ३२ । तो परिवारर्निदरिसियमग्गेणं जाव सो तहिं पत्तो । ता पिच्चइ ते मुणिणो विचित्ततवसोसियसरीरे ।।३३।। तओ लज्जाsaणयसिरो सूरिपायपउमम्मि । पण गुरुणा वि तओ दिण्णो वरधम्मलाभो सो (से) ॥ ३४ ॥ भणियं च तेण ‘भयवं ! खमह महं जं पमायदोसेणं । नेय कया भे तत्ती एत्तियकालं विमूढेण' ।। ३५ ।। तो पत्थावं नाउं गुरूहिँ से धम्मदेसणा विहिया । संवेयकरी परमा भवण्णवुत्तरणवरपोया ।। ३६ ।। तं सोऊणं जंपइ ‘मुणिणो पेसेह मज्झ गेहम्मि । पडिलाहयामि जेणं अहापवत्तेहिँ वत्थूहिं' ।। ३७।। ताभावं नाउं गुरूहिँ सह तेण पेसिया मुणिणो । गिहपत्तेण य तेण वि निरूविया रसवई सव्वा ।। ३८ ।। जाव न किंचि वि सिज्झइ घएण पडिलाहिया मुणी ताव । रोमंचकंचुइज्जंतमुत्तिणा हट्ठतुट्ठेण ।। ३९ ।। कलाविद्धेय तेण य दाणेण मोक्खफलयस्स । सम्मत्तमहातरुणो बीयं संपावियं तेण ।। ४० ।। तं च घयं परिभुत्तं सबाल - वुड्ढाउलेण गच्छेण । सम्मं च परिणयं तं तत्ततवयबिंदुनाएण ।।४१।। एवं कमेण वत्ते वरिसारत्तम्मि सत्थवाहो वि । सत्थेण समं पत्तो अभिरुइए झत्ति नयरम्मि ।। ४२ ।। तत्थ विदट्ठू निवं सम्माणो य तेण नियभंडं । विणिवट्टइ मणचिंतियलाभाओ अहियलाभेणं ॥ ४३ ॥ तू डिभंडं पुणो वि रण्णा विसज्जिओ संतो । संपत्तो नियगेहे सत्थेण समं सुखेमेणं ।। ४४ ।। तत्थ य निययमणोरहसंपायणतप्परस्स लीलाए । वच्चइ सुहेण कालो अणुहवमाणस्स विसयहं ॥ ४५ ॥ एवं कमेण पत्ते पज्जंर्ते संचइत्तु सो देहं । तेणं दाणफलेणं महुणपुरिस समुप्पणो ।। ४६ ।। उत्तरकुरंइ मणहररूवो बत्तीसलक्खणसमेओ । समरूवजोव्वणाए पहाणनारीइ संजुत्तो ।।४७।। कप्पतरुब्भवहियइट्ठविसयसुहसंगमेक्कदुल्ललिओ । पलिओवमतियमाउं भोत्तूणं सुरवरो जाओ ।।४८ ।। सोहम्मे वरकप्पे, भासुरबुंदी पलंबवणमालो । तिपलियठिई [? य] तत्तो चइऊण महव्बलो जाओ । ४९ । १. ला० 'लेहिं वि ॥ २. ला० धिद्धि मज्झ ॥ ३. ला० 'निंदसिय ॥ ४. सं० वा० सु० भे भत्ती ॥ ५. ला० 'वृत्तारणप्पवरा ।। ६. ला० वत्थेहिं । ७. सं० वा० सु० ण वि ते ॥ ८. सं० वा० सु० °ते तं च ॥ ९. ला० म ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके इय उसभसामिचरियं वत्तव्वं ताव जाव मोक्खम्मि ।सुर-नरवंदियचलणोसंपत्तोखवियकम्मंसो।।५०। इय घयदाणेण धणो तेरसमभवम्मि जिणवरो जाओ। ता दाणम्मि पयत्तं कुणह सया निययसत्तीए ।।५१। धणसत्थवाहचरियं संखेवेणं मए समक्खायं । सेसभवग्गहाइ य सेयंसकहाणए वोच्छं ।।५२।। _ [धनसार्थवाहकथानकं समाप्तम् । २८.] साम्प्रतं ग्रामचिन्तकोदाहरणमाख्यायते [२९. ग्रामचिन्तकोदाहरणम्। अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गामस्सेगस्स चिंतओ निरूविओ केणइ राइणा । सो य अन्नया कयाइ तव्वयणेण चेव गहियजलपत्थयणो गिहजोग्गकट्ठाणयणनिमित्तं पंचसयाणि सगडाणि घेत्तूण पविठ्ठो महाडविं । इओ य कहिंचि सत्थपरिभट्ठो तेण सगडमग्गेण तण्हा-छुहापरिकिलामियसरीरो परिब्भमंतो पत्तो तमुद्देसं एगो साहुगच्छो । दिट्ठो य तेण गामचिंतगेण । तओ हा ! कहमित्थ एए समागय ?' ति चिंतंतो संभमेण गओ साहुसमीवे । वंदिया भावसारं । ताणं च मज्झे सरयसमओ व्व महानरिंद व्व वायभग्गनरो व्व वुड्डपुरिसो व्व सुवेजो व्व गयरओ, ससहरो व्व कुविओ व्व जिणसिद्धंतो व्व पीयमयरो व्व समओ, सच्चविओ महासूरी । वंदिऊण पुच्छिओ ‘भयवं! किमेरिसे महारण्णे तुब्भे समागया ?' । सूरीहिं भणियं 'भद्द ! पंथाओ परिभट्ठा' । तओ तेण नीया निययावासे । भत्तिब्भरनिब्भरंगेण य पडिलाभिया । चिंतिउँ च पवत्तो, अवि य'अडवीमज्झम्मि इमे अचिंतचिंतामणी महासत्ता । पत्ता मए सुपत्ता, अहो ! महं पुण्णपब्भारो ।।१।। कत्थाऽहं कंतारे समागओ?, कहव दिव्वजोएण । विसमदसंतरपत्ता कत्थ इमे साहुणो पत्ता ? ।।२।। एवंविहसामणी सभागधेजाण होइ पुरिसाणं । ता नूण इओ होही कल्लाणपरंपरा मज्झ ।।३।। जे पावपंकमलिणा होंति नरा ताण न हु इमे समणा । एवंविहपत्थावे दंसणक्सियं समुवयंति' ।।४।। इय चिंतंतेण तओ चलणजुयं पुण वि वंदियं ताणं । भुत्तुत्तरे य खगं घेत्तूणं दसए मगं ।।५।। सूरीहिँ वि अइभद्दगभावं नाऊण तस्स वक्खायं । सम्मइंसणमणहं बीयं सिवसोक्खवरतरुणो ।।६।। कम्मखओवसमेण य पडिवण्णं तेण तं गुरुसगासे । सूरीहिँ तओभणिओ नपमाओ एत्थ कायव्वो ।।७। यत:अत्रासं विमलं कलङ्कविकलं नीरेखवृत्तान्वितं, त्रैलोक्येऽद्भुतवर्णवादमहितं प्रहलादसम्पादकम् । १. ला० तो ॥ २. ला० णाई, से ॥ ३. सं० वा० सु० य कयाइ ।। ४. ला० "रिंदो व्व ॥ ५. ला० मेत्थ महा ॥ ६. ला० ण पडि ।। ७. सं० वा० सु० उं पव ॥ ८. सं० वा० स० विणयं ॥ ९. ला० रीहिं अड" ॥ १०. ला० 'वादसहितं ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रामचिन्तकोदाहरणम् संसाराम्बुनिधौ सकर्णहृदयं सम्यक्त्वरत्नोत्तमं, सम्प्राप्यापि । महाफलोदयगुणं कः स्यात् प्रमादी पुमान् ? ॥ ८ ॥ २४९ तओ 'जहा भयवंतो समाईसंति तहा करिस्सामि त्ति [ ? भणिउं] मग्गे समोयारिऊण गुरुणो पडिनियंत्तो गामचिंतगो । काऊण य तं त ( तं) रायकज्जं गओ नियगेहं । तत्थ वि जिणवंदणऽच्चणपरायणस्स सुसाहुबहु माणनिरयस्स जिणपण्णत्तसिद्धं तपडित्ती कुणं तस्स पंचनमोक्कारसलिलप्पवाहपक्खालियबहलकम्ममलपेटलस्स अविरयसम्मद्दिट्ठिस्स चेव समागओ अहाऽऽउयकालो । समाहिणी य चइऊण सरीरपंजरं समुप्पण्णो सोहम्मकप्पे पलिओवमाऊ महिडिओ यसो त । तत्तो ठिईखएणं चइउं एत्थेव भरहवासम्मि । नयरीइ विणीयाए सिरिपढमजिणिंदतणयस्स ।।९।। भरहाहिवस्स पुत्तो भरहनरिंदस्स सो समुप्पण्णो । मिरिई नाम पसिद्धो पढमोसरणम्मि जयपहुणो | १० | सिरिउसभसामितित्थंकरस्स वयणामयं सुणेऊण । संवेगभावियमणो जाओ समणो समिपावो ।। ११ । अह अण्णा कयाई संपत्ते गिम्हकालसमयम्मि । सेय- मलाऽऽविलगत्तो उव्विग्गो चिंतए एवं ।। १२ ।। ‘मेरुगिरिसरिसभारं सामण्णमिणं जिणेसरुद्दिद्वं । उत्तमसत्ताइण्णं न समत्थो हं समभिवोढुं ।। १३ ।। तायस्स य लज्जाए वयभट्ठो कह गिहम्मि वच्चामि ? । कह तरियव्वो य इमो वग्घमहादुत्तडीनाओ ?' । १४। इय चिंतंतस्स तओ झड त्ति नियगा मई समुप्पणा । जह पारीवज्जमहं एवंविहयं पवज्जामि' ।। १५ ।। जओ भणियमागमे ११ समणा तिदंडविरया भयवंतो निहुयसंकुचियगत्ता । अंजिइंदियदंडस्स उ होउ तिदंडं ममं चिंधं । । ३०१ ।। लोइंदियमुंडा संजया उ, अहयं खुरेण ससिहाओ । थूलगपाणवहाओ वेरमणं मे सया होउ । । ३०२ । । निक्किचणा य समणा अकिंचणा, मज्झ किंचणं होउ । सीलसुगंधा समणा, अहयं सीलेण दुग्गंधो । । ३०३ ।। aarयमोहा समणा, मोहच्छन्नस्स छत्तयं होउ । अणुवाणाय समणा, मज्झं च उवाहणा होंतु ।। ३०४ । । १. सं० वा० सु० °णं किं स्यात् ॥ २. सं० वा० सु० 'इसति ॥ ३. मुपा० य राय ॥ ४. मुपा० 'वत्ति (त्तिं) कु ॥ ५. मुपा० 'पडल' ॥ ६. मुपा० 'णा चइऊण देहपंजरं ॥ ७. मुपा० 'हम्मे क' ॥ ८. मुपा० ला० ठिइक्खएणं ॥ ९. ला० रीय वि ॥ १०. सं० वा० सु० मिरई ॥ ११. ला० °गिरिसमभारं ॥ १२. सं० वा० सु० अजियंदिय ॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके सुक्कंबरा य समणा निरंबरा, मज्झ धाउरत्ताई । होंतु इमे वत्थाई अरिहो मि कसायकलुसमई ।।३०५।। वजेतऽवजभीरू बहुजीवसमाउलं जलारंभं । होउ मम परिमिएणं जलेण पहाणं च पियणं च ।।३०६ ।। एवं सो रुइगमई नियगमइविगप्पियं इमं लिंगं । तद्धिय-हेउसुजुत्तं पारीवजं पवत्तेइ ।।३०७।। अह तं पागडरूवं दटुं पुच्छेज बहुजणो धम्मं । कहई जईण तो सो वियालणे तस्स परिकहणा ।।३०८।। धम्मकहाअक्खित्ते उवट्ठिए देइ सामिणो सीसे । गामा-ऽऽगर-नगराइं, विहरई सो सामिणा सद्धिं ।।३०९।। __ (आ० नि० गा० ३५३-३६१) अह अण्णया कयाई विहरंतो उसभसामितित्थयरो । गामा-ऽऽगर-नगरेसुं विणीयनयरिंसमणुपत्तो।१६। तो भरहचक्कवट्टी जिणिंदपयकमलवंदणनिमित्तं । नीसरिओ भत्तीए पियरं नमिऊण उवविठ्ठो ॥१७॥ भयवं पि कहइ धम्म, कहंतरं जाणिऊण भरहो वि । पुच्छइ 'किमित्तियाए परिसाए मज्झयारम्मि ॥१८॥ होही को वि जिणिंदो इह चेव य भारहम्मि वासम्मि ?' । दावेइ तयं मिरियं भयवं जह ‘एस तित्थयरो॥१९॥ देविंदवंद-असुरिंदवंदिओ सत्तरयणिपरिमाणो । होही अपच्छिमो इह भरहे सिरिवीरनामो त्ति ।।२०।। पढमो य दसाराणं, मूयविदेहाइ तह य वरचक्की' । तं सोउं भरहवई भत्तीए वंदई मिरियं ।।२१।। तिपयाहिणं विहेउं रोमंचंचियतणू तओ थुणइ । 'लाभा हु ते सुलद्धा, धण्णो कयपुण्णओ तं सि ।।२२।। जंताएण वि कहिओ चरिमो तित्थंकरो इहं तह य । पढमो य वासुदेवो, मूयविदेहाएँ चक्की य ।।२३।। न वि ते पारीवजं वंदामि अहं इमं च ते जम्मं । जं होहिसि तित्थयरो अपच्छिमो तेण वंदामि' ।।२४।। इय थोऊणंभरहो पियरं आपुच्छिऊण नयरीए । पविसरइ-सपरिवारो, मिरिई वि हुतं गिरं सोच्चा ।।२५। मल्लो व्व रंगमज्झे तिवई अप्फोडिऊण तिक्खुत्तो । गव्वाऽऽवूरियदेहो अह जंपइ एरिसं वयणं ।।२६।। 'अहयं च दसाराणं, पिया य मे चक्कवट्टिवंसस्स । अज्जो तित्थयराणं अहो! कुलं उत्तम मज्झ ।।२७।। जइ वासुदेव पढमो, मूयविदेहाइ चक्कवट्टित्तं । चरिमो तित्थयराणं अहो ! कुलं एत्तियं मज्झ' ।।२८।। १. सं० वा० सु० परिणएणं ॥ २. ला० सुगु (गु) तं ॥ ३. ला० कहयइ ज ॥ ४. सं० वा सु० इ निच्चं सो सा ।। ५. सं० वा० सु० दाएइ तयं मिरई। ६. ला० °दए मिरई। ७. सं० वा० सु० णं, होउ अल(लं) एत्तियं ।। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसकथानकम् २५१ इय एवंविहगव्वेण तेण अइगरुयदुक्खसंजणगं । बद्धं नीयागुत्तं कोडाकोडीऑ अयराणं ।।२९।। एवंविहचिट्ठाए जिणेण सह तस्स विहरमाणस्स । भयवं पि य संपत्तो सेले अट्ठावए मोक्खं ।।३०।। अह कइया वि हु जाए रोगायंके सुदारुणे तस्स । अस्संजओ त्ति काऊण नेय साहूहिँ पडियरिओ ।।३१।। चिंतेइ तओएसो जइबीओ कहविहोइ तालटुं' ! एत्थंतरम्मि पत्तो कविलो नामेण निवतणओ ।।३२। अखाए जइधम्मे सो जंपइ ‘किं ण तुज्झ किरियाए । पुण्णं किंचि वि जायई'? पडिभणई तयं तओ मिरिई ॥३३।। 'अस्थि इहई पि किंचि वि', तं सोउं जंपए तओ कविलो । 'जइ एवं तुह किरियं अवियप्पमहं पि काहामि' ॥३४॥ मिरिई वि ‘मज्झ सरिसो एसो पावो त्ति को वि' नाऊण । नियदिक्खाए दिक्खइ, एवं परिवायगा जाया ॥३५॥ 'इहयं पिअस्थि किंचि वि' एएणेक्केण दुट्ठवयणेणं । अयराण कोडिकोडी संसारो मिरिइणाभमिओ।३६। इयवीरनाहचरियंसव्वं पिसवित्थरं कहेयव्वं । 'सुपसिद्धयंति काउं अम्हेहिं न इत्थ तं लिहियं ।।३७।। ग्रामचिन्तकोदाहरणं समाप्तम् । २९. अधुना श्रेयांसकथानकमाख्यायते __[३०. श्रेयांसकथानकम्] अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कुरुजणवयालंकारभूयं गयउरं नाम नयरं । तत्थ य बाहुबलिपुत्तो सोमप्पभो नाम राया । तस्स य पुत्तो सेजंसो नाम कुमारो । सो य अण्णया कयाइ रयणीए चरिमजामे सुमिणयम्मि मंदरं सामलीहूयं पासइ, सो य मए अमयकलसेहिं सित्तो विसेसओ पुणण्णवो जाओ । सोमप्पभेणावि सहस्सरस्सिबिंबाओ रस्सीओ निवडियाओ सुमिणए दिट्ठाओ, सेजसेण उक्खिविऊण संजोइयाओ अहिययरं दिप्पिउमाढत्ताओ । नगरसेट्ठिणा पुण कोइ महल्लपुरिसो सत्तुसिन्नेण सह जुज्झमाणो सुमिणए दिट्ठो, तेण तं सत्तुसेन्नं निट्ठवियपायं, सेजंसकुमारेण य से साहिज्जं कयं तेण सव्वं मुसुमूरियं । पभाए सव्वे वि मिलिया परोप्परं साहिति । परं सुमिणत्थमबुज्झमाणा जंपंति जहा 'कुमारस्स किंपि कल्लाणं होहिइ' त्ति । तओ उद्वित्ता नियनियगेहेसु गया । सेज्जंसो वि नियगेहउवरिमतलगवेक्खए नगरसोहासमुदयमवलोयंतो चिट्ठइ । १. ला० इइ ए ॥ २. ला. 'इ तओ तयं मि ॥ ३. ला० किंचिंता॥ ४. ला० कोडकोडी ॥ ५. सं० वा० सु० `त्तो सेसओ ।। ६. ला० बा रस्सी ॥ ७. ला० °ण से॥ ८. सं० वा० सु० होई त्ति ॥ ९. ला० 'वक्खे न ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके एत्तो य भयवं उसभसामी गहियजिणदिक्खो कयमोणव्वओ जत्थ जत्थ पविसइ तत्थ तत्थ वत्थाऽऽभरणा-ऽलंकार-कण्णया-रयण-करि-तुरगाइएहिं उवनिमंतिज्जइ, जओ न जाणइ जणो 'केरिसा भिक्खा? केरिसा वा भिक्खयर ?' त्ति । एवं च विहरमाणस्स भयवओ वोलीणो संवच्छरो तम्मि दिणे। दिट्ठो पओलीद्वारेण पविसमाणो सेजंसकुमारेण । दद्दूण य चिंतिउं पवत्तो, अवि य 'जारिसमिमं पियामहरूवं लिंग वयं पमाणं च । तारिसयं मम कत्थइ पडिहासइ दिठ्ठपुव्वं च ॥१॥ ता कत्थ पुणो दिलु ?' इय ईहा-ऽपूह-मग्गणपरस्स । जायं जाइस्सरणं, तेण वि सो जाणिउं सव्वं ॥२। 'पडिलाहेमि जिणिदं जइ एइ कहंचि मह गिहे' एवं । भावित्तु गवक्खाओ उत्तरिय गिहंगणं पत्तो ॥३॥ एत्थंतरम्मि तदंसणाय खोयरसपुण्णघडएहिं । संपत्ता के वि नरा, भयवं पि समागओ तत्थ ॥४॥ तो दर्छ तिजगगुरुं पयडसमुभिण्णबहलरोमंचो । गहिउं इक्खुरसकुडं भणइ 'अणुणहह मं भयवं!'।५। तो सुज्झई त्ति काउंजिणनाहेण विपसारिया पाणी । सेजंसेण वि खित्तो सव्वो विरसो करयलम्मि ।६ अवि चंदिम-सूरेसुं सिहा विलगेइ, नेय हत्थाओ । एक्को वि पडइ बिंदू, जम्हा जिणअइसओ एसो॥७॥ 'अजं चेव कयत्थो जाओहं, अज जीवियं सहलं । माणुसजम्मस्स फलं अजं चिय नणु मए लद्धं ॥८॥ जं पारिओ जिणिंदो मह गेहे' जाव चिंतई एवं । ताव गयणंगणाओ वुटुं गंधोदयं सुरहि ।।९।। सुरकरकोरयमुक्का जयजयसद्देण पडइ गयणाओ । परिलिंतमत्तमहुयरझंकारा कुसुमवरवुट्ठी ।।१०।। पहयाओ दुंदुहीओ सुरेहिं गयणम्मि गहिरघोसाओ । आबद्धइंदधणुहो मुक्को रयणाण संघाओ ।।११।। चेलुक्खेवो य कओ, तहा य पप्फुल्ललोयणा तियसा । जपंति तत्थ एवं अहो! सुदाणं महादाणं ।।१२। कुमर ! कयत्थो सि तुमं, तुज्झ सुलद्धं च माणुसं जम्मं । जेणऽज तए तिहुयणनाहो पाराविओ एवं'।१३। सोऊण तयं सोमप्पभाइओ पुरजणो तहिं पत्तो । विम्हयउप्फुल्लमुहो पुच्छइ परमेण कोड्डेण ।।१४। 'कुमर ! तए कह नायें जह दिज्जइ भयवओ इमं दाणं ?' । 'जाइस्सरणाओ मए नायमिणं' जंपई कुमरो ॥१५॥ 'अण्णं च भयवया सह सिणेहसंबद्धओ अहं भमिओ । अट्ठभवग्गहणाई' पुणो वि तो पुच्छई लोगो ॥१६॥ 'केरिसयाइं ताइं ? साहसु कोउहलं जओ अम्ह । 'जइ एवं तो निसुणह' कुमरो कहिउं समाढत्तो ॥१७॥ १. सं० वा० सु० तओ ॥ २. सं० वा० सु० ण चिं ॥ ३. ला० जाईसर ॥ ४. सं० वा० सु० ण विसेसण जा ॥ ५. ला० मम गिहे ॥ ६. ला० ता ॥ ७. ला० उच्छुरस ॥ ८. सं० वा० सु० हेणं प" || ९. ला० सयलो वि ॥ १०. ला० 'दय सुरेहिं ॥ ११. मुपा० प्पहाइ सव्वो वि पुरजणो पत्तो ॥ १२. ला० विम्हियउ॥ १३. सं० वा० सु० 'यं दाइज्जइ भ' ॥ १४. पु० ला० जाईसर । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसकथानकम् इहेव जंबुद्दीवे दीवे मंदर-गंधमायण-नीलवंत मालवंतमज्झवत्तिणीए सीयामहानईमज्झविभत्ताए उत्तरकुराए अहं मिहुणेइत्थिया, भयवं पि पुण पियामहो मिहुणगपुरिसो असि । ओ वयं अण्णया कयाइ दसप्पयारकप्पतरुवरुप्पण्णसुरलोयसरिसपंचविहभोगोवभोगलालियस राई उत्तरदहतीरदेसट्ठियनवणीय- तूलफासमणिकोट्टिमतलुग्गयकप्पतरुवरबहलच्छायातलो विट्ठाई चिट्ठा । इत्थंर्तरम्मि य तत्थ खीरहारसरिसनीरवारपूरियहरयमज्जणकरणाणंतरं गयणंगणाभोगुप्पइयसुरसरीरकिरणनियरुज्जोइयदिसावलयावलोयणुप्पण्णचिंताभरमंथरविमलउप्पमाणलोयणजुयलो मोहमुवगओ सो मह मिहुपुरसो । खणंतरेण य सयमेव समाससिऊण जंपियमणेण 'हा सयंपभे ! कहिं गया सि ? देहि मे पडिवयणं' ति । तओ सयंपभाभिहाणायन्नणसमुप्पण्णाणुभूय-पुव्वनामवियक्कवसपणस्समाणचेयणा अहं पि निवडिया धरणिवट्ठे । थोववेलाए य समासासणाणंतरसमुप्पण्णजाईसरणाए जंपियं मए ‘नाह ! अहं सा सयंपभा' । तेण भणियं 'कहं सा तुमं सयंप्रभा !' । म भणियं— २५३ पुव्वकयसुकयफल 1 अत्थि अट्ठावीसलक्खप्पमाण गिव्वाणविमाणसं कु लो विसेससमासाइयपंचप्पयारविसयसुहसोहासमुदयसमाणरूवजोव्वण-लावण्णपुण्णसुर- सुरंगणासणाहो ईसाणो नाम कप्पो । तत्थ य अत्थि सिरिप्पहं नाम विमाणं । तप्पभू य ललियंगओ नाम देवो । सयंपहा से अग्गमहिसी । ताण य अच्वंताणुरत्ताणं दिवसो व्व समइक्वंतो बहू कालो । अण्णया य मिलायमाणकुसुमो विमणदुम्मणो विमउलमाणलोयणो चिंताभरनिब्भरो दिट्ठो सो तीए । 'नाह ! किमेयं ?' ति पुच्छावसाणे जंपियमणेण “पिए ! अत्थि महंतमुव्वेयकारणं, जओ जम्मंतरे थोवो वो म कओ, ता 'तुब्भेहिं समं विउज्जीहामि त्ति महंतमुव्वेयकारणं" । तीए भणियं 'कहं तुब्भेहिं थोवं तवच्चरणं कयं ? ' । तेण भणियं— अत्थि इहेव जंबुद्दीर्वे दीवे गंधमायणनगवरासण्णगंधिलावई विजयमज्झट्ठियवेयड्ढगिरिसेढीवत्तिगंधारजणवयालंकारभूयविज्जा-सिद्धिसमिद्धजणसमद्धासियगंधसमिद्धपुरप्पहु सयबल महारायसुयअइबलरायपुत्तो महाबलो नाम राया । तस्स य पुव्वपुरिसंपरंपरागओ खत्तियकुलुप्पण्णो बालमित्तो जिणवर्येणपरिकप्पियमई अत्थि सयंबुद्धो नाम मंती । बीओ य महामिच्छत्तमोहियमणो संभिन्नसोओ नाम, सो ये तस्स राइणो बहूसु कज्जेसु पुच्छणिज्जो । अण्णा य कलरिभियतं तीतलतालरवुम्मीसगंधव्वसणाहपेच्छणयरं गमज्झट्ठियसालंकारमणो हरनट्टियानट्टऽक्खित्तमाणसो जाव चिट्ठइ राया ताव भणिओ सयंबुद्धेण - देव ! १. सं० वा० सु० 'तमज्झ ॥ २. ला० णगइत्थि ॥ ३. सं० वा० सु० पिययमो मिहु ॥ ४. ० गललि ॥ ५. ला० 'ण अच्चं ॥ ६. सं० वा० सु० तओ कओ ।। ७. ला० विजुज्जी ॥ ८. ला० ° वे गंध' ॥ ९. ला० 'यणे परि ।। १०. ला० इ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नट्टं विडंबणा । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावा' ।। १८ ।। तओ जेंपियं राइणा— 'कहं सवणामयं गीयं विलावो त्ति पभाससे ? । कहं वा लोयणब्भुदयं नट्टं वयसि विडंबणा ? ।।१९।। कहं वा देहऽलंकरणाऽलंकारा भारमिच्छसि ? । कहं वाऽसारसंसारसारा कामा दुहावहा ?' ।। २० ।। तओ भणियं सयंबुद्धे - "देव ! जहा काइ इत्थिया पवसियपइया पइणो समागमकंखिया तग्गुणगणं सुमरंती पच्चूससमए परियंदइ तहा पहुणो रंजणत्थं तप्पुरओ से गुणनियरं वन्नितो गायणो वि गाइ, ता तत्तओ गीयं विलाओ चेव । तहा जहा जक्खाइट्ठो कोइ अणेगकर-चरणचेट्ठाओ पयासेइ तहा नच्चमाणो वि विविहवरकराइचेट्ठाओ पयासेइ, ता परमत्थओ एयं पि विडंबणा । जहा य कोइ पहु समाएसेण मउडाइअलंकारं वहइ तब्भारेण य पीडिज्जइ एवं जइ कोइ जोगअंगोवंगनिवेसियमाभरणं वेहे ता किं न सो भारो भवइ ? । तहा कामा वि जहा हरिणाईहिं निसेविज्जमाणा बहुदुक्खया भवंति एवं नरनारीणं पि ते इहलोए चेव किलेसाऽऽयासदुहकरा परलोए नरगाइदायगा भवंति, ता कहं ते न दुहावहा ? । तम्हा परलोयसुहत्थिणा ते परिहरियव्व" त्ति । संभिन्नसोएण भणियं— 'देव ! सयंबुद्धो अदिसुहनिमित्तं पच्चक्खोवलब्भमाणविसयसुहं परिहरंतो जंबुक इव मुहमागयं मंसपेसिं परिहरिय मच्छमभिलसंतो पच्छायावभायणं भविस्स' । सयंबुद्धेण भणियं 'संभिन्नसोय ! जो सरीरविभवाईणाऽणिच्चयमवगच्छिय इहलोयसुहपडिबद्धो निव्वाणाइसुहपसाहयतवसंजमाणुट्ठाणपरायणो न भवइ सो संपत्तरयणायरकुसलजणपसंसियसयलगुणगणाहारसुतेयसुभागयसुरयणपरिचायगकायमणियाणुरत्तनिप्फलपयासदारिद्दपराभवाइदुहजलणजालावलीपुलोनरो व्व विबुहजणनिंदणिज्जो भवइ' । संभिन्नसोएण भणियं “ 'गगणपडणासंकियतद्धरणनिमित्तउड्ढपायटिट्टिभीसुयणं व इमं तुज्झाऽणागयपयत्तकरणं मम पडिहाइ, किंच किं 'मरणं भविस्सइ' त्ति अणागयमेव मसाणगमणं ? ता मा परिच्चय अणागयसुहनिमित्तं संपयसुहं, पत्ते य मरणकाले परलोगहियमायरिस्सामो” । सयंबुद्धेण भणियं 'मुद्ध ! न संपलग्गाओहण-ओरुद्धनयरसंपलित्तगेहेसु तप्पडिवक्खभूयकरितुरयदमण भत्तपाणिंधणो-वणयण- कूवखणणाइयाणि काउं तीरंति, जइ पुण दमण-भरण-खणणाईणि कयाणि हुंताणि ता परबलमहणचिरावत्थाण - विज्झावणाणि सु कीरंति, किंचमा तुच्छयविसयसुंहमोहिओ अवगणियमोक्खसोक्खो कोल्हुगो व्व अप्पाणं विणासेहि' । इयरेण भणियं को एस जंबुगो ?' । सयंबुद्धेण भणियं जहा " एगम्मि अरणे १. ला० °डंबियं ॥ २. सं० वा० सु० जंपिओ रा ॥ ३. ला० 'हकरा ॥ ४. सं० वा० सु० जया इको° ॥ ५. ला० बहइ ॥ ६. सं० वा० सु० लवियं । ७. सं० वा० सु० 'हगयमंसपेसी प ॥ ८. सं० वा० सु०हणा ओद्ध ॥ ९. सं० वा० सु० क्खच्चयक ॥। १०. ला० णाईणि ॥ ११. सं० वा० सु० किंतु मा तुज्झ य विसय'॥ १२. ला० 'हविमोहि ॥ १३. सं० वा० सु० कोलहगो || Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसकथानकम् २५५ गिरिवरतलविभागसंठि यगिरिसरियाइपरिब्भमणसील - महामत्तक रिवरदं सणुप्पण्णवहपरिणामवाहपुरिससेवणं ताऽऽपूरियसरप्पहारवे यणापरिगयनिवड माणकरिमुत्ताहलदसणगहणपरिणामविमुक्कसजीवधणुधावियकरिसरीरपडणद्धचंपियमहा - कायविसहरखइयमयपुलिंद-भुयगगयसरीराणि दिट्ठाणि कहिंचि परिभममाणेणएगेण सियालेण । 'सज्जी (जी) वा ण वि (व) ?' त्ति पुण पुणो ओसक्कणाऽवसक्कणपुव्वकयनिज्जीवनिच्छओ हरिसभर - निब्भरो चिंतिउं पवत्तो 'अहो ! याणि मम आजम्मभक्खं भविस्संति, ता ताव एयं सज्जीवधणुपडंचाकोडिविलग्गं नहारुं भक्खेमि, पुणो पच्छा निराउलो एयाणि भक्खिस्सामि' । त्ति चिंतिऊण तं नहारुं भक्खिउमाढत्तो । तओ विमुक्कसंधिबंधणधणुतिक्खग्गको डिविद्ध गलप्पएसो विणट्ठो, ता तुमं पि मा तहा विणस्साहि' । एत्थंतरम्मि भणियं राइणा 'सयंबुद्ध ! किं अत्थि कोइ परलोओ ?' । तेण भणियं “ सामि ! जया बालकाले तु म सह नंदणवणं गया तया अम्ह समीवे समागओ एगो कंतरूवधरो देवो । ते य जंपियं ‘भद्द ! महाबल ! अहं तुह जणयेजणओ सयबलो चिन्नजिणभणियव्वओ लंतगाहिवई जाओ, ता भद्द ! अत्थि परलोगो, सुकड - दुक्कडकम्मफलविवागो य, किं बहुणा ? जिणधम्मपरायणेण भवियव्वं' । ति भणिऊण अदंसणं गओ । ता सामि ! जइ तं सुमरह तो सद्दहह परलोयं" । राइणा भणियं 'भद्द ! सुमरामि पियामहवयणं' । तओ लद्धावगासेण भणियं सयंबुद्धेण " जइ एवं तो देव ! तुम्ह से पुव्वं कुरुचंदो नाम राया अहेसि । तस्स कुरुमइदेवी हरियंदो य कुमारो । सो य रायानाहियवायधम्मभावियमणो महारंभाइपसत्तो समागए मरणकाले नरगे विं असमायमाणं तप्पडिरूवियं वेणं वेइउमाढत्तो, अवि य सुइसुहयरमहुरं पिं य गीयं अक्कोसणं ति मन्नेइ । जीहारसालुयाई दव्वाई मुइ विट्ठति ।। २१ ।। कोडाई गंधे लक्ख मयकुहियमडयगंधे व्व । चक्खुल्लोयणलेसे रूवे परिकलइ सोऽणिट्ठे ।।२२।। कोमलतूलीसेज्जं कंटयसिज्जं व वेयई पावो । विवरीयं पडियारं कुणइ तओ तस्स हरियंदो ||२३|| एवं सो मरिऊणं नरएसु अणुत्तरेसु उववन्नो । तं पिउमरणं दडुं धम्मम्मि मणं कुइ कुरो ।। २४ ।। गंधसमिद्धं च इमं पालइ पिइकमसमागयं विहिणा । अन्नम्मि दिणे भणिओ तेणिक्को खत्तियकुमारो । २५। जह ‘मम धम्मियवयणं बुहयणपासाओ सुणिय कहियव्वं । भद्द ! त निच्चं पि हु एस च्चिय तुज्झ मह सेवा' ॥२६॥ तओ सो सुबुद्धी तस्साऽणुदिणं धम्ममाइक्ख । राया वि संवेगाओ तैस्स वयणं पडिवज्जइ । अन्नया य नयरबहिसंठियमुणिसमुप्पण्णकेवलनाणमहिमानिमित्तसमागयसुरसमूहावलोयणुप्पन्नहरिसो गओ १. ला० 'हाकरि ॥ २. सं० वा० सु० 'सवणोययापूरिय° ॥ ३. ला० °दय भु° ॥ ४. सं० वा० सु० ण सिया ॥ ५. सं० वा० सु० ण' त्ति पुणो ॥ ६-७ ला० नहारं ॥ ८. ला० °हि" त्ति । ए° ॥ ९. ला० यअइबलपियासयबलो ॥ १०. सं० वा० सु० वि य असम्माय ॥ ११. ला०पि हु गी ॥ १२. ला० तहेव पडि° ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके बुद्ध । साहिए य वुत्तंते कोऊहलपूरिज्जमाणमाणसो मणपवणजइण- गमणतुरंगमारूढो गओ राया भयवओ समीवे । तओ पणामाणंतरं निविट्ठो सुद्धभूमी । सुणमाणो य केवलिमुहारविंदविणिग्गयं धम्मं, कहंतरमवगच्छिय नियपिउपरलोयगइं पुच्छिउमाढतो । ओ केवलिकहियसुव्वमाणभयावहनियपिउसत्तमपुढवीदुहसायरसवणसमुप्पण्णसंवेगाइसओ गओनियनयरं । पुत्तसंकामियरज्जो य सुबुद्धिं भणइ जहा 'तुमे मम पुत्तस्स संपयं उवएसो दायव्वों' । सुबुद्धिणा भयं “देव ! मम पुत्तो इयाणिं नियसामिणो उवएसं दाही, अहं पुण तुब्भेहिं सह पव्वइस्सामि' । एवं च दो वि हियसामण्णा सकज्जसाहगा जाया । ता देव ! तस्स हरियंदस्स वंसे संखाईएस नरनाहेसु गएसु संपयं तुब्भे नरनाहा, सुबुद्धिवंसे य अहं । तं 'नियाहियारो' त्ति नाऊण विन्नप्पसे । अयंडविण्णवणकारणं पुण इमं - अज्ज मए नंदणवणं गएण दट्ठूण चारणमुणिणो पुच्छिया तुम्हाऽऽउगप्पमाणं । तेहिं वि मासमितं चेव सिहं” । २५६ तं च सोऊण जलगयाऽऽमगमट्टियामल्लगं व सीयमाणसव्वंगेण भणियं राइणा 'मित्त ! किमित्तियाउगो संपयं करिस्सामि ?' । सयंबुद्धेण भणियं 'न सव्वविरयाणं दिवसं पि थोवं' । तओ तव्वयणाणंतरमेव पुत्तविइण्णरज्जो गओ जिणमंदिरं । तत्थ य काऊण पूयं पच्चक्खायचउव्विहाहा पडिवन्नपाओवगमणो मरिऊण समुप्पन्नो तुम्ह सामी एस अहं पिए ! ललियंगओ त्ति । सो मित्तो काऊण सामण्णं इत्थेव दढधम्मो नाम तियसो जाओ । ता एवं मए थोवो तवो अणुचिण्णो । तं अज्ज ! एयं मम तयाललियंगएण साहियं । एत्थंतरम्मि य ईसाणदेवरायसयासाओ समागओ सो दढधम्मदेवो । भणियं च तेण 'ललियंगय ! देवराया नंदीसरदीवं जिणमहिमं काउं वच्चइ, गच्छामि अहं, विइयं ते होउ' । त् भणिऊण गओ सो । अम्हे वि इंदाणत्तीए गयाइं नंदिस्सरं । खणेण य कया जिणाययणेसु महिमा | तयणंतरं तिरियलोयसासयचे इर्यपूयण - वंदणं कुणमाणो चुओ ललियंगओ । तव्विरहानलजालाकलावकवलिज्जमाणकलेवरा गया हं सपरिवारा सिरिप्पभं विमाणं । परिमुयमाणसोभं च मंद आओ सबुद्धो । भणियं चाऽणेण 'सयंपभे ! चैवणकालो ते वट्ट, ताक जिणाययसु पूयं जेण बोहिलाभो भवइ' । तऔ हं तव्वयणाणंतरं नंदिस्सरदीवाइजिणमंदिरपूयापरायणा चुया समाणी समुप्पन्ना जंबुद्दीवयविदेहपेक्खलावइविजयमज्झट्ठिय पुंडरिगिणीपुरीपहुवइरसेण [ ग्रन्थाग्रम् ६०००] - चक्कवट्टिदेवीए गुणवईए कुच्छिंसि धूयत्ताए । जाया कालक्कमेणं । कैयं मे नामं सिरिम । ओ १. ला० °ओ णयरं ॥ २. सं० वा० सु० त्ति भणिऊण ॥ ३. ला० 'गपरिमाणं ॥ ४. ला० जंपियं ॥ ५. ला० 'रइया"।। ६. ला० ण य स ।। ७. ला० तइया ॥ ८. सं० वा० सु० ओ आगाओ ।। ९. सं० वा० सु० 'यवंद ॥ १०. ला० चुयणका ॥ ११. सं० वा० सु० 'ओ तव्व ॥ १२. ला० 'पुरि [ ग्रंथाग्रं ६००० ] पहु° ॥ १३. सं० वा० सु० कयं नामं ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसकथानकम् २५७ हं पिउभवणपउमसररायहंसी व धाईजणपरिग्गहिया जमगपव्वयसंसिया इव लया सुहेण वुद्धिं गया । गहियाओ साइसयाओ कलाओ । अन्नया य पओसे सव्वओभद्दं नाम पासायमभिरूढा नयरबाहिं मणोरमुज्जाणट्ठियसुट्ठियायरियकेवलनाणुप्पत्तीए दहूण देवसंपायं 'कहिं मण्णे मए एयं दिट्ठ' ति ईहा. sपूहपरा सुमरिऊण पुव्वजाई महादुक्खाभिहया मुच्छिया पडिचारियाजणेण जलकणसम्मिस्सवाउदाणेणाऽऽसासिया चिंतेमि न नज्जइ कहिं पि सो मे पिओ ललियंगओ देवो, तेण य विणा किमियरजणेणोभट्टणं' ति मूयत्तणं गिण्हिऊण ठिया । तओ पडिचारियाजणेण य 'जंभगेहिं इमीसे वाया अक्खित्त'त्ति काऊण मंत-तंत - बलिविहाणाइओ कराविओ उवयारो । न य मए मुक्कं मूयत्तणं । अक्खरालिहणेणं देमि आणत्तिं पडिचारियाणं । अन्नया पमयवणट्ठिया विरहं नाऊण भणिया पंडियाहिहाणाए धावीए त्ति ! जइ केणइ कारणेणं मूयतणं कयं तो कहेहि जेण तयणुरूवं चिट्ठामि' । मए भणियं 'अत्थि अम्मो ! कारणं मूर्यतणस्स, परं को तं साहिउं समत्थो ?' । तीए हट्ठतुट्ठाए भणियं 'साहेहि पुत्ति ! कारणं जेण तत्थ पयत्तं करेमि’ । मए भणियं “जइ एवं तो सुँणह, अस्थि धायइसंडे दीवे पुव्वविदेहे मंगलावइविजए नंदिग्गामो नाम सन्निवेसो । तत्थ अहं इओ तइयभवे दारिद्दकुले 'सुलक्खणा - सुमंगला - धन्निया - उव्वियाईणं छण्हं भइणीणं पच्छओ जाय' त्ति निव्विन्नचित्तेहिं न कयं मे नामं माया- पित्तेहिं, लोयप्पसिद्धीए निन्नामिय त्ति भन्नामि, सव्वजणावमाणेण वि सकम्मवसओ जीवामि । ऊसवे य कयाई ईसरडिंभयाणि नाणाविहभक्खहत्थगयाणि सगिहिंतो निग्गयाणि दट्ठूण जाइया मए माया 'अम्मो ! देहि मे मोयगाइयं भक्खं जेण डिंभेहिं सह रमामि' । तीए य रुट्ठाए 'आ पावे ! कओ इहं भक्खा ? वच्चसु अंबरतिलयं पव्वयं, तत्थ फलाणि खायसु मरसु व' त्ति भणंतीए हणिऊण निच्छूढा गिहाओ । रोवंती य निग्गया गेहाओ । तओ अंबरतिलयपव्वयाभिमुहपट्ठियजणसमुदयमवलोइऊण गया तेण सह तत्थ । सच्चविओ य सो मए गिरिवरो, अवि य— अइकसिणनिद्धजलहरखंडं पिव लोयलोयणाणंदो । उत्तुंगसिहरहत्थेहिं अंबरं मिणिउकाम व्व ।। २७ ।। झरमाणनिज्झरारावभरियगिरिगरुयकुहरदिसिविवरो । नर - विज्जाहर- किन्नरमिहुणसमारद्धगंधव्वो ।। २८ । गंधड्ढसाउफल-फुल्ल-पत्तभरनमिरतरुवरसणाहो। बहुजाइपक्खि-र - सावयगणाण कुलमंदिरसमाणो |२९| सज्झाय-झाण-वक्खाणपगुणगुणिमुणिगणाण सुहवासो । किं बहुणा ?, तियसाण वि रम्मत्तणकयचमक्कारो ॥३०॥ १. सं० वा० सु० 'व्वभद्दं ॥ २. सं० वा० सु० नइज्जइ ॥ ३. ला० क्खरलि' ॥ ४,७. सं० वा० सु० पुत ! ॥ ५,६. ला० °यगत्त ॥ ८. सं० वा० सु० सुणाहामि, अत्थि ।। ९. ला० 'उज्झिया ॥ १०. ला० माणे वि ॥ ११. सं० वा०सु० रवरिहियसणाहो ॥ १२. ला० सहवा ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तत्थ जणो साउफले गिण्हइ उच्चुच्चतरुवरेहिंतो । भूपडियपक्कसाउफ (? प्फ) लाणि भुत्ताणि य मए वि । ३१ । ती लोएण समाणं गिरिस्स जा रम्मयं णिरूवेमि । ता निसुओ सुइसुहओ सद्दो एगत्थ गंभीरो ।। ३२ ।। तस्सऽणुसारेण अहं जणेण सह जाव तत्थ वच्चामि । ता धम्ममाइसंते पेच्छामि जुगंधरायरिए ।। ३३ ।। ता हरिसनिब्भरंगी सूरिं वंदित्तु लोयमज्झम्मि । उवविट्ठा निसुणेमिं तव्वयणविणिग्गयं धम्मं ।। ३४ ।। तो चोद्दसपुव्वधरो चउनाणी सो गणी विसेसेण । आइक्खिउं पवत्तो अम्हीण विबोहणट्ठाएँ । । ३५ ।। अवि य मिच्छत्तेणं पमाएणं कसाया - ऽविरईहिं य । दुजोगेहिं बंधंति कम्मं जीवा निरंतरं । । ३६ । । अदेवे देवबुद्धी य, असाहूसु स साहुया । अतत्ते तत्तविण्णाणं, मिच्छत्तमियमाहियं ।। ३७।। मज्जं विसय कसाया निद्दापणगमेव य । विगहाणं चउक्कं च पमाओ पंचहाऽऽहिओ ।। ३८ ।। कट्ठ-पिट्ठेहिं निप्पन्नं मज्जं दुविहमाहियं । सद्दा रूवा रसा गंधा फासा विसय कित्तिया ।।३९।। हो माणो य माया य लोभो चउरो चउव्विहा । संजलणाइभेएहिं कसाया सोलसेव उ ।।४०।। निद्दा य निद्दनिद्दा य पयला य तेयज्जिया । पयलापयला चेव थीणगिद्धी य पंचमा ।। ४१ ।। थीकहा-देसभासाई भत्ते संभारवन्नणं । देसेसु रम्याई य निगमाइ निवक्कहा ।।४२।। विरईवज्जणं चेवाऽविरई परिकित्तिया । दुट्ठा मणो वई - काया दुट्ठजोगा वियाहिया ।। ४३ ।। कम्मबंधस्स हेऊणि सव्वाणेयाणि वज्जह । जेण लंघित्तु संसारं सिग्घं मुक्खम्मि गच्छह ।। ४४ ।। २५८ तओ मायन्निऊण विबुद्धा बहवे पाणिणो । मए वि कहंतरं वियाणिऊण पुच्छिया गुरुणो ‘भयवं ! किं ममाओ वि अत्थि कोविदुक्खिओ ?' । भयवया भणियं 'निन्नामिगे ! अस्थि निरया, निच्वंधयारतमसा ववगयगह-चंद-सूर - नक्खत्ता । पूयवसाबीभत्सा (च्छा) चिलिच्चिला असुहगंधरसा । ४५ । इह विहियपावकम्मा जीवा जायंति तत्थ नेरइया । बीभत्स (च्छ) दंसणिज्जा पच्चक्खा पावपुंज व्व ।।४६ । स-परोदीरिय-साभावियाइं दुक्खाई जाई पुण तेसिं । नो वण्णिउं समत्थो ताणि नरो जो न सव्वण्णू ? ॥४७॥ तिरिया वि जाई अइदारुणाइं विसर्हति विविदुक्खाई । तण्हा - छुहाइयाइं ताइं नो साहिउं तरइ ।।४८।। तुह दुक्खाओ दारुणतराई ताइं अनंतगुणियाई । परवसयाणं भद्दे ! नारय- तिरिएस घोराई ।। ४९ ।। अप्पवसा तं सि पुणो, सद्दे गंधे य रूव रस फासे । अमणुन्ने परिर्हरिडं सेवेसि मणोरमे निच्वं ।।५०।। ती अप्पं तुह दुक्खं, किंतु तुमं पासिउं सुकयधम्मे । जीवे सुहप्पसत्ते अत्ताणं मन्नसे दुहियं ।।५१।। १. ला०ता ॥ २. ला० म्हाणं बोह ॥ ३. सं० वा० सु० ९ए ॥ मिच्छ ॥ ४. ला० निप्पन्नं ॥ ५. ला० इज्जि ॥ ६. ला० निग्गमाइ ॥ ७. ला० दुहिओ ॥ ८. ला० इय वि ॥ ९. सं० वा० सु० हरियं से | १०. सं० वा० सु० णोगए नि ॥ ११. ला० तो ॥। १२. सं० वी० सु० °सियं सु ॥ १३. ला० अप्पाणं ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसकथानकम् २५९ ता जइ सव्वुक्कटं सुक्खं पत्थेसि कुणसु ता धम्मं । तो संवेगगयाए नमिऊण इमं गुरू भणिया ।।५२।। 'जत्तियमित्तं सत्ता काउं मे देहि तत्तियं धम्म' । तोऽणुव्वयाइं गुरुणा गिहत्थधम्मो महं दिन्नो ।।५३।। गुरुपायपंकयं वंदिऊण तुट्ठा गिहम्मि गंतूण । पालेमि जहासत्तिं तं धम्मं अप्पसंतुट्ठा ।।५४।। तओ छठ्ठ-ऽट्ठमाइनाणाविहतवोविहाणनिरयाए वोलिओ जाव कोइ कालो ताव पडिवन्नं मए तत्थ अणसणं । तत्थट्ठिया य अन्नदियहम्मि पेच्छामि पुरओ एक्कं देवं, अवि यहारविराइयवच्छं रयणुक्कडमउडसोभमाणसिरं । नियदेहकंतिपसरंतकिरिणउज्जोवियदियंतं ।।५।। रयरहियपवरकिंकिणिसणाहदेवंगवत्थपरिहाणं । अइअच्चन्भुयरूवं इयभणिरं महुररावेणं ।।५६।। 'निन्नामिए ! पलोयसु सिणिद्धदिट्टीए मंतहा कुणसु । एवंविहं नियाणं निस्संदिद्धेण चित्तेण ।।५७।। जइ अत्थि किंचि सुचरियतवस्स एयस्स फलमसंदेहं । तो हंइमस्सभज्जा होज्जामिभवम्मि अण्णम्मिा५८। जेणं मए समाणं भुंजसि भोगाई देवलोगम्मि' । इय वोत्तूणं तियसो, सहसा असणीहूओ ।।५९।। तइंसणपच्चयभावियाइ विहियं मए वि तं सव्वं । सुमरंती नवकारं मरिउं ईसाणकप्पम्मि ।।६०।। तस्सेव य ललियंगयसुरस्स जाया मि अग्गमहिसि त्ति । अच्चंतकंतरूवा सिरिप्पभे वरविमाणम्मि।६१। तओ ओहिणाणोवओगमुणियदेवत्तकारणा ललियंगयसुरसमेया गया जुगंधरसूरिवंदणत्थं । दिट्ठा य तया तम्मि चेव सहावसुंदरअंबरतिलयगिरिवरेगदेससंसियमणोरमुज्जाणमज्झट्ठिय कंकेल्लितलोवविठ्ठा सूरिणो, वंदिया भावसारं । पुणो नियवुत्तंतकहणाणंतरसमारद्धमहुरस्सरगंधव्वसणाहवरऽच्छरापेच्छणववहारेण पूइऊण गया नियट्ठाणं। भुंजिऊण य पभूयकालं तत्थ भोए चुओ मम पिययमो । तयणंतरं अहं पि चविऊण समुप्पन्ना एत्थ। देव्वोजोयदंसणसंजायजाईसरणा य 'किं तेण विणा इयरजणेण संलत्तेणं ?' ति मोणमालंबिऊण ट्ठिया । ता एयं मे अम्मो ! कारणं" । तीए भणियं 'सुंदरं कयं जमेयं साहियं, उवाओ पुण एत्थ—एयं ते पुव्वचरियं पडे लिहिज्जउ, तओ हं हिंडावेमि, जइ कहिंचि मणुस्सजाईए समुप्पण्णो भविस्सइ तो एयं दद्दूण से जोइस्सरणमुप्प-जिस्सई'। मए वि 'जुत्तिजुत्तं' ति कलिऊण सज्जिओ पडो । आलिहिओ य विविहवत्तेहिं । तत्थ पढमं नंदिग्गामो लिहिओ । तओ अंबरतिलंगसंसियकुसुमियासोगतरुतलोवविठ्ठा जुगंधरसूरिणो, देवमिहुणं वंदणागयं, ईसाणो कप्पो, सिरिप्पभं विमाणं, तदेव मिहुणं, महाबलो राया सयंबुद्धसंभिन्नसोयसहिओ, निन्नामिका य तवसोसियसरीरा, ललियंगओ सयंपभा य सनामाणि । तओ निप्पन्ने लेक्खे धाई पडं गहाय उप्पइया जुवइकेसपास-कुवलय-पलाससमाणं नहयलं । खणेण य १. ला० तो जइ सव्वुक्किटुं ॥ २. ला० तवोवहा' ॥ ३. ला० ए अण' ॥ ४. सं० वा० सु० 'डसोभमाण मउडसिरं ।। ५. ला० जोइय॥ ६. ला० सूरिचरणवंद ॥ ७. ला० 'यकंकिल्लत ॥ ८. ला. तो एयं मे कार ॥ ९. ला० लिहिय ।। १०. ला० ता ॥ ११. ला० जाईसरणं समुम्प' ॥ १२. ला० °लयकुसु ॥ १३. `णं च वं ॥ १४. ला० "मिया तव' ।। १५. सं० वा० सु० मा । तओ ॥ १६. सं० वा० सु० 'प्पन्नलिक्खे।। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके नियत्ता, पुच्छिया मए ‘अम्मो ! कीस लेहुं नियत्ता सि ?' । तीए भणियं “ पुत्ति ! सुण कारणं, इह अम्हं सामिणो तवपिउणो वरिसवट्टमाणनिमित्तं विजयवासिनरवइणो पाएणाऽऽगया, ता जइ कयाइ ताण मझे ते हिययदइओ होइ तो कयमेव कज्जं ति चिंतिऊण नियत्तऽम्हि, जइ पुण इह न होही तो परिमग्गणे जत्तं करिस्सामि” । मए भणियं 'सोहणं । गया य सा पट्टां गहाय पुव्वावरण् । समा य वियसंतमुहकमला भणइ 'पुत्ति ! निव्वुया होहि, दिट्ठो तुह दइओ ललियंगओ' । मए । पुच्छिया 'अम्मो ! कहसु कहं ?' ति । सा भइ २६० १० “पुत्ति ! रायमग्गे पसारिओ पट्टगो । तओ तं पस्समाणा आलिक्खकुसला पसंत रेहानिवेसाइयं, जे अकुसला ते वन्न - रुवाईणि पसंसंति । एत्थंतरम्मि दुम्मरिसणरायसुओ दुहंतो कुमरो सपरिवारो तत्थाऽऽगओ । मुहुत्तमित्तं तमवलोइऊण मुच्छिओ, आसत्थो पुच्छिओ परिवारेण ‘सामि ! किं मुच्छिया ?’ । तेण भणियं 'पट्टगालिहियनियचरियदंसणसमुप्पण्णजाईसरणवसेण' । तेहिं भयं 'हं ? [तेण भणियं ] 'जओ अहं ललियंगओ देवो आसि, सयंपभा य मे देवि 'ति । म पुच्छिओ 'पुत्त ! को एस सन्निवेसो ?' । तेण भणियं 'पुंडरिगिणी नयरी, पव्वयं मेरुं साहइ, अणगारो कोवि एस न सुमरामि नामं, कप्पं सोहम्मं कहेइ, राया मंतिसहिओ कोवि एस, तवसिणी कावि एसा, न सुमरामि से नामं ति । अओ 'अलियवाइ' त्ति नाऊण मए भणिओ 'पुत्त ! संवायइ सव्वं जम्मंतरे वीसरियं किंतु जइ सच्चं तुमं ललियंगओ ता धाईसंडनंदिग्गामे कम्मदोससमुप्पन्नपंगुलियसयंपहाए आगमकुसलाए तुहवियाणणत्थमेयं नियचरियमालिहियं, मए धाईडगयाए दिट्ठ, तयणुकंपाए य तुह गवेसणत्थमिह आणीयं, ता एहि पुत्त ! जेण नेमि धाईसंडं, पासिज्जउ सा पुव्वभवसिणेहसंबद्धा वराई । उवहसिओ मित्तेहिं लज्जाए अवक्कंतो । मुहुत्तंतरेण समागओ लोहग्गलपुराओ धणो नाम कुमरो । लंघण - पवणेसु अणण्णसरिसो त्ति लोएण वरजंघ भण्णइ। सो य तं पैट्टां दद्दूण भणइ 'केणेयं लिहियं?' । तेओ मए भणियं 'किं निमित्तं पुच्छसि ?'। तेण भणियं मम चरियमिमं, जओ अहं सो ललियंगओ आसि, सयंपहा य मे देवी, ता निस्संसयं तीए लिहियं; तदुवइट्ठेण वा केणावि तक्केमि' । तओ मए पुच्छियं 'जइ एयं ते चरियं ता साहस को एस सन्निवेसो ?' त्ति । तेण भणियं 'नंदिग्गामो एस, पव्वओ अंबरतिलओ, जुगंधरा एए सूरिणो, इमा य खमणकिलंता निन्नामिया, सयंबुद्धसंभिन्नसोयसहिओ एस राया महब्वलो, ईसाणकप्पो, सिरिप्पभं विमाणं' । एवं सव्वं सपच्चयं कहियं । तओ मए तुट्ठाए भणियं पुत्त ! जा एसा सिरिंमइकुमारी तुह पिउच्छादुहिया सा सयंपभा, ता जाव रण्णो निवेएमि ताव निस्संसयं १. सं० वा०सु० लहुं पयत्त । २. ला० पुत्र । सणसु कारणं इय अम्ह ॥ ३. ला० ग्गेणेणं जत्तं ॥ ४. ला० सामिति । म ।। ५. ला० पडगं ।। ६. ला० पडगो ।। ७. सं० वा० सु० 'हाकुसलाइयं ॥ ८. ला० पडगा ॥ ९. सं० वा० सु० को एस ॥ १०. सं० वा०सु० संवयइ ॥ ११. सं० वा० सु० 'संडं दिनं ।। १२. ला० पडगं ।। १३. सं० To 'ओ मे ॥ १४. सं० वा० सु० तउव' ।। १५. सं० वा० सुं० 'ता य नि ॥ १६. ला० 'मई कु' || Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसकथानकम् २६१ तुममेयं लभसिं' । तओ सुमणसो एसो गओ नियगेहं । अहं पि कयकज्जा समागया तुह निवेयणत्थं, ता जामि रण्णो निवेएमि, जेण तुह पियसंगमो होइ" । त्ति वोत्तूण गया रायसमीवं । निवेइयं जहट्ठियं राइणो । सो ममं देविं च सद्दाविऊण भणिउमाढत्तो, अवि “सुणसु पिए ! ललियंगयमेयं जाणामि जह अहं न तहा । वच्छा वि मुणइ जम्हा एत्थेव य चेव दीवम्मि ॥ ६२ ॥ अवरविदेहे सलिलावयम्मि विजयम्मि बीयसोगाए । नयरीए जियसत्तू आसि निवो तस्स देवीओ ॥ ६३॥ दोणि मणोहरि-गड़ नामाओ ताण दो सुया कमसो । अल- बिहीसणनामा, पंचत्तमुवागए जणए ।६४। साहित्ता विजयद्धं जाया बलदेव - वासुदेवा उ । पणमंतभूरिसामंतमउलिमणिघट्ठपयवीढा । । ६५ ।। अह अयलं बलदेवं मणोहरी भणइ अण्णया एवं । 'तुहपिउ-तुहरज्जसिरीओ वच्छ ! विउलाओ भुत्ताओ ॥ ६६ ॥ भवभयभीया इण्हिं परलोगहियं करेमि पव्वज्जं । तो अणुमण्णेहि लहुं' न विसज्जइ सो वि नेहेण ।। ६७ । तीए तओ निब्बंधे कए इमो भणइ 'अंब ! जइ एवं । तौ दियलोगाओ ममं आगंतुं वसणकालम्मि ।।६८। पडिबोहिज्जसु’ ‘एवं’ ति सा वि पडिवज्जिऊण तव्वयणं । घेत्तूण सव्वविरहं पढेइ एक्कारसंगाई ।।६९।। संपुण्णपुव्वकोडिं काऊणं संजमं तओ मरिउं । लंतगकप्पे इंदो उप्पन्नो दिव्वकंतिधरो ।।७० ।। सो य अहं, एत्तो वि य दोण्णि वि बल-केसवा बहुं कालं । भुंजंति रज्जमउलं अहऽण्णया वाहगालीए तुरगारूढा दोण्णि वि विणिग्गया अवहरितु तुरएहिं । खित्ता महाडवीए अणोरपाराए घोराए ।।७२। गोसंचरेण भग्गे पयमग्गे वलइ सव्वसेन्नं पि । सासापूरियहियया आसा वि हु पाविया निहणं ।। ७३ । आउक्खण तत्तो बिभीसणो कालमुवगओ तत्थ । तम्मोहमोहियमणो अयलो वि य वहइ खंधगयं ॥७४ 'किर मुच्छिओ' त्ति एसो, नेउं ठावेइ सीयवणगहणे । भवियव्वयावसेणं उवओगो तो मए दिण्णो । ७५ । दडुं तयवत्थगयं संगारं सरिय लंतगाओ अहं । करिय बिहीसणरूवं समागओ तस्स बोहत्थं । ७६। भणिओ य 'अहं भाउय !' गओ मि विज्जाहरेहिं सह जुज्झं । काउंजे, ते जिणिउं समागओ पुण वि तुहपासं ॥७७॥ एयं च अंतरं जाणिऊण केणावि विप्पलद्धो सि । देवेणं तं भाउय ! दुट्ठेण अणज्जकम्मेणं ।। ७८ ।। ती सक्कारेसु इमं कलेवरं जं तए समुव्वूढं । एत्थ नइसंगमम्मी, तहाकए तम्मि पुण भइ ।। ७९ ।। १. ला० तुमेव लभ' ॥ २. ला० 'मंच दे° ॥ ३. ला० 'वइम्मि ॥ ४. सं० वा० सु० 'हरके' ॥ ५. सं० वा० सु० 'हरा भ ॥ ६. ला० तो ।। ७. ला० ता ।। ८. ला० वाहिया ॥ ९. सं० वा० सु० संसारं ।। १०. ला० तो ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके 'संपइ वच्चामु गिह' पडिवण्णे तो समागया गेहे । भुंजंति नियं रजं, अहऽण्णदियहम्मि एगत्थ ।।८।। जा उवविट्ठा चिट्ठामु आसणे ताव पयडियं सहसा । रूवं मणोहरीए मए, तओ एस संभंतो ।।८१।। पभणइ अम्मो! तुब्भे, कत्थ इहं ?' तो मए समक्खायं । संकेइयाइ सव्वं ताकुण धम्मुज्जमंवच्छ!।८२। नीसारे संसारे' इय वोत्तुं लंतगं गओ अहयं । अयलो वि वयं गिण्हइ रज्जं पुत्तस्स दाऊण ।।८३।। काऊण तवच्चरणं देवो ललियंगओ समुप्पण्णो । तन्नेहेण सभजं पुणो पुणो नेमि नियपासे ।।८४।। इय भोत्तूणंभोगे अयरस्स उसत्त नवविभागे उ । चविओतम्मि य ठाणे अण्णो ललियंगओजाओ।८५ तं पि य तत्तुल्लगुणं पुत्तसिणेहेण नेमि अणवरयं । एवं कमसो नीया सतरस ललियंगया तत्थ ।।८६।। जं सिरिमई वियाणइ सो विमएऽणेगसो तहिं नीओ । चविऊण तओ संपइ, एसोहं एत्थ उप्पण्णो ।।८७। ता सद्दावेह लहुंभो भो पडिहार! वइरजंघं ति । जेण पयच्छामि इमं तस्साऽहं सिरिमई कण्णं ।।८।। सद्दाविओ य तेणं समागओ वइरजंघकुमरो वि । कयउब्भडसिंगारो सव्वंगं पुलइओ तो सो ।।८९।। केरिसो य सो ? सकलरयणिकरसोम्मवयणचंदो, तरुणरविरस्सिबोधितपोंडरीयलोयणो, मणिमंडियकुंडलघट्टियपीणगंडदेसो, गरुलाऽऽययतुंगनासो, सिलप्पवालकोमलसुरत्तदसणच्छओ, कुंदमउलमालाकारसिणिद्धदसणपंती, वयत्थवसभणिभखंधो, वयणतिभागूसियरयणावलिपरिणद्धगीवो, पुरफलिहाऽऽयामदीहबाहू, नगरकवाडोव्रमाणमंसलविसालवच्छो, करग्गसंगेज्झमज्झदेसो, विमउलपंक यसरिच्छनाभी, मिगपत्थियतुरगवट्टियकडी, करिकरकरणिल्लऊरुजुयलो, णिगूढजाणुप्पएससंगयहरिणसमाणरमणिजजंघो, सुपणिहियकणगकुम्मसरिसलक्खणसंबद्धचलणजुयलो। पणओ य भणिओ राइणा 'पुत्त वइरजंघ ! पुव्वभवसिणेहसंबद्धं परिणेहि एयं सयंपभं सिरिमई । तओ अहं अवलोइया तेण कलहंसेण व कमलिणी, परिणीया य महाविभूईए। अण्णया य पभूयचेडियाइपरिवारसमेया सुबहुवत्थाऽऽभरणदव्वाइदाणपुव्वं विसज्जिया ताएण । कमेण पत्ता य लोहग्गलं । तत्थ य जम्मंतरोवज्जियविसिट्ठपुण्णपब्भारसंपजंतसयलिंदियाणंदजणयसुहसागरावगाढाणं जाओ पुत्तो । वडिओ देहोवचएणं कलाकलावेण य । इओ य मम जणओ लोगंतियसुरसंबोहिओ पुक्खलपालनियसुयसंकामियरजभारो तित्थयरलिंगेण पव्वइओ । कयविविहतवोविसेसुप्पन्नकेवलनाणदिणयरकरपसरपणासियतिमिरपसरो भवियकमलसंडावबोहणं कुणमाणो विहरिउं पवत्तो । पोक्खलपालस्स वि विसंवइया पच्वंतरायाणो । तओ वइरजंघहक्कारणनिमित्तं पेसिओ महंतओ । समागंतूण य विण्णत्तं जहा ‘एयवइयरेण तुमं सिरिमइसमेओ सिग्घमागच्छाहि, जइ मए १. ला० च्चामि गि' ।। २. ला० ट्ठामि आ ॥ ३. सं० वा० सु० उ भत्त ॥ ४. सं० वा० सु० तमि य ॥ ५. सं० वा० सु० पइच्छा ॥ ६. ला० इ ।। ७. ला० ओ नियमहं ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसकथानकम् २६३ जीवंतएण पओयणं'। तओ अम्हे नियपुत्तं नयरे ठविऊण पत्थियाणि, जाव पत्ताणि सरवणं नाम वणसंडं । तस्स य मझेण पंथो वच्चइ । तओ लोगेण वारियाणि ‘मा एएणं मग्गेणं वच्चह, इत्थ दिट्ठिविसो सप्पो चिट्ठई' । तओ अम्हे अण्णमग्गेण पत्ताणि पोंडरिगिणिं । अम्हाऽऽगमणं च सोऊण भउब्भंतलोयणा पणया सामंता पोक्खलपालस्स । तेण वि अम्हे पूइऊण विसज्जियाणि पत्थियाणि सनगरं, लोगेण य भणियं 'सरवणस्स मज्झेण गंतव्वं जओ मुणिकेवलनाणुप्पत्तिमहिमाकरणनिमित्तोवइयदेवप्पहाजालेण पडिहयं सप्पस्स दिह्रिविसं' । कमेण पत्ताई तत्थ, आवासियाणि य । तहिं च सागरसेण-मुणिसेणा मम सहोयरा अणगारा पुरओ ठिया । तओ अम्हे हिं दिट्ठा तवलच्छिपडिहत्था सारदसरजलपसन्नहियया सारदसगलससिसोमदंसणा तियसपरिसापरिवुडा धम्ममाइक्खमाणा। परेण य भत्तिबहुमाणेण वंदिया सपरिवारा । फासुएण असण-पाण-खाइम-साइमेण पडिलाहिया य । तओ अम्हे तेसिं गुणे अणुगुणिताई चिंतिउं पवत्ताई, अवि य'धण्णा कयपुण्णाखलु सुलद्धमेयाण माणुसंजम्मं । चइऊण रायलच्छिं जे पव्वइया जिणमयम्मि ।।९।। सुयजलहिपारगामी दुक्करतवचरणकरणउज्जुत्ता । भवियकमलावबोहणदिणमणिणो पयडमाहप्पा ।।९१ । बहुविहलद्धिसणाहा निम्मलजसपसरधवलियदियंता । खंता दंता मुत्ता गुणसयजुत्ता महासत्ता ।।९२।। होही सो कोवि दिणो, जइया परिचत्तसव्वसंगाई । एवंविहमुणिदिक्खं गुरुपयमूलम्मि घेच्छामो ।।९३।। किरियाकलावकरणुजयाइं तवखवियपावकम्माइं । संवेगभावियाइं इय अणुकारं करिस्सामो ।।९४।। किंवा बहुणा परिचिंतिएण?, अइचंचलम्मिजीयम्मि । पुत्तं ठवित्तुंरज्जे सिग्घं दिक्खं गहिस्सामों' ।।९५। इय विहियनिच्छयाइं सुहभावणभावियाई नियनयरे । पत्ताई, पुत्तेण वि भिच्चयणं अम्ह विरहम्मि ।।९६।। दाणाईसंगहियं काउं विसजोगधूविओ धूवो । वासहरे अम्हाणं दिण्णो विणिवायणट्ठाए ।।९७।। तमबुज्झंताणि तहिं वीसज्जियपरियणाणि सुत्ताणि । विससंदूसियधाऊणि झत्ति कालं विहेऊण ।९८ उप्पण्णाई जुवलयधम्मेणं एत्थ उत्तरकुराए । सव्वमिणं विन्नायं नाह ! मए जाइसरणाओ ।।९९।। ता सामि ! जा निन्नामिगा जा सयंपभा जा य सिरिमई सा अहं । जो महब्बलो जो ललियंगओ जो य वयरजंघो ते तुब्भे त्ति, एवं जीसे नामं गहियं भे सा अहं सयंपभा । तओ सामिणा भणियं 'अजे! जाइं सुमरिऊण देवुजोयदंसणेण चिंतेमि 'देवभवे वैट्टिहिं' त्ति मे 'सयंपभा' आभट्ठा, तं सव्वमेयं कहियं ति। परितुट्ठमाणसाणि पुन्वभवसुमरणसंधुक्कियसिणे हाणि सुहागयविसयसुहाणि तिण्णि पलिओवमाणि जीविऊण कालगयाणि सोधम्मे कप्पे देवा जाया । तत्थ वि तिण्णि पलिओवमाणि देवलोगसुहमणुहविऊण सामी चविऊण वच्छगावइविजयमज्झट्ठियपहंकरानयरीए सुविहिवेजपुत्तो केसवो नाम समुप्पन्नो । अहं पुण तत्थेव १. ला० ‘ण य प ॥ २. ला० ते ॥ ३. सं० वा० सु० वदृहि ॥ ४. ला० ‘ण वच्छगाव ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके अभयघोसो नाम सेट्ठिसुओ संजाओ। तत्थ वि परमपीईपराणं राया-ऽमच्च-सेट्ठि-सत्थवाहसुया परममित्ता संजाया । एवं च मेत्तीपराणं अण्णोण्णगिहागमणेण कालो अइक्कमइ । अण्णया इकयाइ वेजसुयगेहे चिट्ठताणं समागओ एगो किमिकुट्ठोवदुओ तवस्सी, तं च दद्दूण वेज्जसुयमुद्दिसिय जंपियमम्हेहिं, अवि य 'सच्चं चिय भो विज्जा ! तुब्भे जं कुणह दव्वलोभेणं । किरियं, दीणाईए दूरंदूरेण परिहरह' ।।१००।। तोभणइ वेज्जपुत्तो'मा एवं भणह दीण-किविणाणं । अहयं करेमि किरियं अवियप्पंधम्मबुद्धीए' ।१०१॥ अम्हेहिं तओ भणियं 'जइ एवं तो णु किं न एयस्स । साहुस्स कुणह किरियं किमिकुटेणं उवहयस्स?' ॥१०२॥ एसो वि आह 'आमं, करेमि पर किंतु मज्झ सामग्गी । नत्थि जओ इह कजं तिहिं दव्वेहिं महग्घेहिं॥१०३।। तत्थेकं महगेहे लक्खप्पागं समत्थि वरतेल्लं । कंबल-गोसीसाइं नत्थि दुवे लक्खमुल्लाइं' ।।१०४।। 'पूरेमु इमं अम्हे' इय वोत्तुं वुड्ढसेट्ठिगेहम्मि । संपत्ता घेत्तूणं जुयलं दीणारलक्खाणं ।।१०५।। दलूणऽम्हे सेट्ठी अब्भुट्ठिय आसणाई दाऊणं । जंपइजोडियहत्थो ‘कुमार! आइसह करणिजं' ।।१०६।। 'कंबल-गोसीसाइं अम्हाणं देह लक्खमोल्लाइं । दो लक्खे घेत्तूणं' भणिए पडिभणइ 'किं कजं?' ।१०७/ 'साहुकिरियानिमित्तं' वुत्ते अम्हेहिं चिंतए सेट्ठी । ‘एए चेव कयत्था बाल च्चिय जं रया धम्मे ।।१०८।। अम्हे उपुण अधन्नाजंवुड्ढत्ते विआगए तह वि । महमोहमोहियमणानचेवधम्मे मइंकुणिमो' ॥१०९। इय चिंतिऊण एसो दाउं दुन्नि वि विणा वि दव्वेणं । घेत्तूणं सामन्नं, अंतगडो केवली जाओ ।।११०।। इयरे वि य तं साहुं गंतुं अब्भंगयंति तेल्लेण । तव्वीरिएण किमिया तयागया निग्गया सव्वे ।।१११।। कंबलरयणेण तओ पावरिउं जाव ते तहिं लगा । मयगे कलेवरम्मी ताहे पप्फोडिया सव्वे ।।११२।। गोसीसचंदणेणं लित्तो साहू वि सत्थओ जाओ । एवं चिय मंसगया विणिग्गया बीयवाराए ।।११३।। तइयाए अद्विगया पच्छा संरोहणीए रोहेउं । नीसेसवणे खामित्तु ते गया निययठाणेसु ।।११४।। उव्वरियसेसचंदण-कंबलमुप्पण्णअद्धमोल्लेण । धुव्वंतधयवडाडोवसंकुलं सिहरसयकलियं ।।११५।। भव्वयणभावसंदोहकारयं जिणवरिंदवरभवणं । काराविऊण सव्वे धणियं संवेगरंगगया ।।११६।। माया-पिइमाईयं सव्वं सम्माणिऊण सयणजणं । भवभयभीया गिण्हंति भावओ सुगुरुपासम्मि।११७/ चारित्तं सव्वुत्तममुणिवरनियरेहिं फरिसियमुयारं । सुपवित्तं सव्वुत्तमसोक्खमहामोक्खसंजणयं ।११८॥ पालित्तु निक्कलंकं अणसणविहिणा चइत्तु तो देहं । इंदसमाणा देवा अच्चुयकप्पे समुप्पण्णा ।।११९। १. सं० वा० सु० 'त्थ पर ।। २. ला० य ॥ ३. ला० परि ॥ ४. ला० "म्मा, तहेव प" ॥ ५. ला० 'पियमा ॥ ६. सं० वा० सु० सत्तुत ॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेयांसकथानकम् २६५ तत्तो य आउयक्खए चविऊण इहेव जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे पुंडरिगिणीए नयरीए वइरसेणस्स राइणो मंगलावईए देवीए धारिणीबीयनामाए कुच्छिंसि सामी वेजजीवो पुत्तत्ताए समुप्पण्णो, चोद्दसमहासुमिणसूइओ य जाओ कालक्कमेण । पइट्ठावियं से नामं वइरनाभो त्ति । इयरे वि रायसुयादओ कणगनाभ-रुप्पनाभ-पीढ-महापीढनामाणो चत्तारि वि वइरनाभभायरो समुप्पण्णा। कणगनाभ-रुप्पनाभाणं बाहु-सुबाहु त्ति बीयनामाणि। अहं पि तत्थेव अभयघोसो नाम रायपुत्तो संजाओ । वड्ढिया सव्वे देहोवचएण कलाकलावेण य ।। तओ अहं बालो चेव वइरनाभं समल्लीणो जाओ सारही । एत्थंतरम्मि य सुरनरनमंसिज्जमाणपायपंकओ लोगंतियसुरविबोहिओ वरनाभस्स रजं दाऊण निक्खंतो तित्थयरदिक्खाए भयवं वइरसेणो । उप्पन्नदिव्वनाणो य विहरिउं पयत्तो । वइरनाभो य उप्पन्नचक्काइमहारयणो चक्की जाओ । कणगनाभादयो य महासामंता । एवं च पभूयकालं रज्जमणु/जिऊण निम्विन्नकामभोगा नियपिउतित्थयरसमीवे पव्वइया । अहं पि तेहिं सह गहियदिक्खो समणो जाओ । वइरनाभो पढियचोद्दसपुव्वो भगवया सूरिपएऽणुण्णाओ । इयरे एक्कारसंगधारिणो। तत्थ य बाहू वेयावच्चं करेइ, अवि यपंचण्ह मुणिसयाणं आणेउं भत्त-पाणमुवणेइ । वरचीर-पत्त-कंबल-दंडयमाईणि य जहेच्छं ।।१२०।। ओसह-भेसज्जाणि य पीढय-संथार-फलहगाईणि । जोजंइच्छइ साहू आणइ अगिलाइतं तस्स ।।१२१ । बीओ पुणो सुबाहू सज्झाय-ऽज्झयण-झाणझवियाण । विस्सामणं करेई अपरिस्संतो महासत्तो । १२२। भोगहलं बाहुवलं दोहिं वि कम्मं समज्जियं तेहिं । सव्वुक्किट्टसरूवं देवाण वि कयचमक्कारं ।।१२३।। पीढ-महापीढा पुण सरंति अणवरयमेव सज्झायं । अणवरयं चिय सूरी पसंसणं कुणइ पढमाणं ।।१२४ । चिंतंति तओ इयरे ‘रायसहावं गुरू न मुंचंति । जो च्चिय करेइ कजं अणवरयं तं पसंसंति' ।।१२५।। इय मायाइ गुरूणं उवरिं अप्पत्तिएण थीगोत्तं । बंधंति, वयमुदारं पालियमम्हेहि बहुकालं ।।१२६।। अंते अणसणविहिणा छप्पि जणाअहसमाहिणा कालं । काऊणं सव्वढे विमाणपवरम्मि उप्पण्णा ।१२७। तेत्तीससागराइं तत्थ सुहं भुंजिऊण तो सामी । पुव्वभवबद्धतित्थयरनामकम्मोदयवसेणं ।।१२८।। चविउं इह उप्पण्णो पढमो तित्थंकरो उसभनाहो । नर-सुरवंदियचलणो पियामहो एस पच्चक्खो।१२९। सेसा कमेण भरहो बाहुबली बंभिसुंदरी अहयं । तत्थ जिणेणाऽऽइलु जहेस तित्थंकरो पढमो ।।१३०। भरहम्मि वइरनाहो, सेसा तत्थेव लहिय मणुयत्तं । उप्पण्णदिव्वनाणासासयसोक्खं लहिस्संति'।१३१। ता भो! जिणिंदलिंगं दळूणं सुमरिया मए जाई । भिक्खादाणं पि इमं तत्तो च्चिय जाणिउं दिण्णं ।।१३२॥ १. सं. वा. सु. °णराई ॥ २. ला० यरे य ए' ॥ ३. सं० वा० सु० 'य-ज्झाणऽझयणझवि ॥ ४. सं० वा० सु० य अम्हे || ५. ला० तो ॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तं सोऊणं रायाइएहिं उब्भिण्णपयडपुलएहिं । अहियं पसंसिओ सो, तओ गया निययठाणेसु ।। १३३ ।। सेज्जंसेण वि पहुणो पारणठाणम्मि रयणमयपीढं । पयअक्कमणभएणं विहियं अच्चेइ तियकालं ।। १३४। तं दडुं लोगो वि हु करेइ तह चेवं, तं च कालेणं । गच्छंतेण पसिद्धं जायं संचउरपेढं ति ।।१३५ ।। 1 उप्पणम्मिय नाणे जिणस्स तो गिण्हिऊण सामण्णं । उप्पाडिऊण नाणं सेज्जंसो सिवपयं पत्तो । १३६ । भवणं धणेण, भुवणं जसेण भयवं रसेण पडिहत्थो । अप्पा निरुवमसोक्खे सुपत्तदाणं महग्घवियं ॥ १३७ ॥ [ श्रेयांसाख्यानकं समाप्तम् ॥ ३० ॥ ] सम्प्रति चन्दनाख्यानकम् [३१. चन्दनार्याकथानकम् | अत्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे अंगाजणवए गयणेग्गलग्गमहासाल-गोपुर- ऽट्टालयतोरण-भवण-देवकुलालंकिया चंपा नाम नयरी । तत्थ य गिरिवरु व्व वणराइविराइओ खासंगओ सारंगसमण्णिओ सुवंसो सुगंडो सुपाओ दहिवाहणो नाम राया । तस्स य चेडयमहाराय देहुब्भवा सावयधम्मुज्जया धारिणी नाम देवी । सा य अण्णया कयाई सुहपसुत्ता रयणीए चरम - जामे फुल्लफलसमद्धासियं अणेयजणोवयारिणिं नियच्छायाविणिज्जियसयलवणलयं कप्पलयं सुमिणे पासिऊणं पडिबुद्धा । साहियं जहाविहिं दइयस्स । तेण वि तेलोक्कब्भहियबहुजणोवयारिसमत्तनारीयणप्पहाणधूयाजम्मेणाऽभिनंदिया । सा वि 'तह' त्ति पडिवज्जिऊण सुहं गभवती पत् पसूइसमए पसूया दारियं । कमेण य कयं से वसुमइति नामधेयं । - एत्तो य वच्छाजणवयालंकारर्भूयकोसंबिवरपुरीए सयाणिओ नाम राया । मिगावई तस्स देवी। ताण वि दोण्ह वि राईणं परोप्परं वेरं वट्टइ । अण्णया गओ सयाणिओ दहिवाहणस्सोवरिविक्खेवेणं । पवत्ते य महासंगामे कहिंचि देव्वजोएण पणासिओ दहिवाहणो । सयाणिएण लूडिज्जमाणी नय समुग्घुट्ठो नियबले जग्गहो 'जो जं लेइ तस्स तं सुगहियं चेव' । तओ एगेण उट्टिएण कुलगेहं प पलायमाणी गहिया वसुमइधूयासमणिया धारिणी नाम देवी । अंतराले य सो गच्छमाणो पुट्ठोगेणं पुरिसेणं जहा 'किमेयाहिं काहिसि ? ' । तेण भणियं जहा 'एसा मम पत्ती भविस्सइ, इमं च दारियं विक्केहामि' । तं च सोऊण चिंतिऊमाढत्ता धारिणी, अवि य I ' हद्धी ! निग्घिण नित्तिंस कम्मविहि ! काई एरिसं विहियं । जं तिहुयणिक्कवीरो वि मह पई एव विद्दविओ ॥१॥ १. सं० वा०सु० विहिउं ॥ २. ला० तिक्कालं ॥ ३. सं० वा० सु० व बहुयका ॥ ४. ला० अंगज ॥ ५. सं० वा० सु० 'णलग्ग ॥ ६. ला० 'ट्टाल - तो ॥ ७ ला० सत्ता र ॥ ८. सं० वा० सु० 'विहं द° ॥ ९. सं० वा० सु० 'मत्थना' ॥ १०. सं० वा० सु० 'भूसिय' ॥ ११. सं० वा० सु० पलाणो द ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्दनार्याकथानकम् २६७ तत्तियमित्तेणं चिय किं न ठिओ ? जं पुणो इमस्साहं । अइकूरकम्मपुरिसस्स हंदि वसवत्तिणी विहिया ।।२।। हा निद्दयविहि ! संपइ न मुणसि किं निच्छयं महमणस्स ? । जं सीलखंडणम्मि वि धणियं अब्भुजओ जाओ।। ता किं च इमो पावो बला वि मह सीलखंडणं काही ? । बाला इमा वराई लहिही किं वा वि हु अणत्थं ?।।४।। कुलगेहअसंपत्ती पईविरह(ह) सीलभंगसवणं च । धूयाविक्किणणं चिय चिंतेती सा मया झत्ति ।।५। तो तीइ अयंडे च्चिय तं मरणं पेच्छिऊण तेण तओ । अइकोमलवयणेहिं बहूहिं संठाविया बाला ।।६।। ___ एवं च कमेण पत्तो कोसंबीए । तिणाणि सीसे दाऊण विक्किणणत्थं समोयारिया हट्टमग्गे । दिट्ठा य धणावहाहिहाणेण सेट्ठिणा, चिंतियं च 'अहो ! कण्णयाए आगीई, ता भवियव्वं महाकुलुप्पण्णाए इमाए, ता गिण्हामि एवं जेण मह एईए जणएण सह [संबंधो भवई'त्ति । दाऊण मोल्लं गहिया । समप्पिया मूलाहिहाणाए नियभारियाए धूयापडिवत्तीए सुहेण चिट्ठइ । अइसिसिरसीयलसहावत्तणओ य चंदणबाल त्ति से बीयं नाम संजायं । एत्थंनम्मि य समारूढा एसा जोव्वणं, अवि य अइसरसकोमलाइं जायाइं तीइ अंगमंगाई । कामुयजणमोहणकारया य अद्धगया सिहिणो(णा) ।।७।। पडिपुण्णचंदमंडलतुल्लं वयणं मणोहरं सहइ । लावण्ण-वण्ण-कंती-रूयाई अणण्णसरिसाइं ।।८।। मयरद्धयनरवइमंदिरम्मि नवजोवणे वि वटुंती । जोव्वणवियाररहिया सुहेण सा चिट्ठए तत्थ ।।९।। ___ अण्णया कयाइ घम्माऽऽयवसंतत्तगत्तो अहियं परिस्संतो पस्सेयजलाविलनिस्सहसरीरो बाहिराओ समागओ सेट्ठी । दिट्ठो य चंदणाए । तओ तहाविहमन्नमपेच्छमाणी चलणसोयं घेत्तूण उवट्ठिया । 'धूय'त्ति काऊण न निवारिया सेट्ठिया । तओ अहिजायत्तणओ सरीरस्स, विणीयविणयत्तणओ सहावस्स, जोव्वणारंभारियत्तणओ अंगाणं, अच्चायरेण चलणे सोयमाणीए छुट्टो कुंतलकलावो, कद्दमोवरिनिवडमाणो य धरिओ सेट्ठिणा लीलालट्ठीए । दिठ्ठो य उवरिमतलट्ठियाए मूलाए । चिंतिउं च पवत्ता- --- 'अहह ! कह पेच्छ एसो मूढो धूयं पवज्जिउं एयं । अइरागमोहियमणो करेइ एवंविहं चेहँ ? ।।१०।। अहवा एयाएसुं(ईसं) जोव्वण-लावण्ण-रूव सोहगं। दळूण मुणी वि दढं मयणेण परव्वसो होइ ।।११। १. सं० वा० सु० 'इदुक्खं ॥ २. सं० वा० सु० विक्कणणं ॥ ३. सं० वा० सु० यं हा कण्ण' ॥ ४. ला० से जायं बिइयनामं ॥ एत्थं ॥ ५. ला० रूवाइ अ॥ ६. सं० वा० सु० व्वणम्मि वट्ट ॥ ७. ला० या य क' || ८. ला० 'ट्ठो चंद ॥ ९. मुपा० अहियजा' || १०. ला० अहवा एसुं जोव्वं ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके ता जइ कहिंचि एवं परिणइ एसो दढाणुरागवसो । सुविणे वि हु नामं पि वि न गिण्हए मज्झ निच्छयओ ॥१२॥ ता दूरविणहूं पि हु कजं एयं न जाव निव्वडइ । ताव करेमि पयत्तं, को नहछेइ(य) उवेक्खेइ ? ।।१३।। जावऽज वि कोमलओ वाही ता कीरए नणु तिगिच्छा । गाढासज्जीभूओ पयत्तमवि निप्फलं होई' ।।१४॥ नियचित्तदुट्ठिमाए अलियं पिहुइय विगप्पए बहुयं । अहवा विदुजणजणोअप्पसमं मण्णए सव्वं ।।१५।। भणियं चववहरइ अण्णह च्चिय सुद्धसभावो जयम्मि साहुजणो । मण्णइ तमण्णह च्चिय दुट्ठसभावो खलयणो वि।१६। तओ जाव विणिग्गओ गेहाओ सेट्ठी ताव कासवयं सद्दाविऊण मुंडावियं से सीसं । दिण्णाणि पाएसु नियलाणि । छूढा य उवरगे । निबद्धाणि संकलार्थभएण सह नियलाणि । ढक्किय दुवारं भणिओ य परियणो ‘जो सेट्ठिणो एवं साहिस्सइ तस्स वि एस चेव दंडो' त्ति । तओ भोयणवेला, पुच्छियं सेट्ठिणा 'किमज न दीसइ चंदणा ?' । मयरदाढमूलाभएण न केण वि किंचिवि साहियं । 'बहिं रमई' त्ति मण्णमाणेण भुत्तं सेट्टिणा। बिइय-तइयदिवसेसु वि एवं चेव सारिया । नवरं चउत्थदियहे कओ सेट्ठिणा निब्बंधो जहा 'जाव न चंदणा दिट्ठा न ताव भोत्तव्वं' । तओ 'किं मह मूला करिस्सइ त्ति मह जीविएण वि जीवउ सा गुणगणमई बालिय' त्ति मण्णंतीए सिट्ठो एक्काए वुड्ढदासीए सेट्ठिणो परमत्थो । तओ समाउलचित्तेण उग्घाडियं उवरगदुवारं। दिट्ठा य सिरावणीयचिहुरभारा तण्हा-छुहाकिलामियतणू अंसुजलाहलियकवोला । तं च दद्दूण बाहोल्ललोयणो गओ महाणसं जाव मूलाए सव्वं असणं [अभंतरे छोढूण तालियं दुवारं । तओ निरूवंतेण अवण्णाए असंगोविया सुप्पेक्ककोणसंठिया दिट्ठा कुम्मासा । तओ ते चेव घेत्तूण समप्पिया चंदणाए सेट्टिणा, भणिया य ‘पुत्त ! जाव लोहारं सदिऊण तुह नियलाणि भंजावेमि मणुण्णं च भोयणमुवक्खडावेमि ताव तुमं एए चेव भंजसु, मा अइच्छुहाए सरीरस्स वावत्ती भविस्सई' । त्ति भणिऊण गओ लोहारगेहं । तओ सुप्पपणामिए मच्छियापुंजसच्छहे पेच्छिऊण, अत्तणो पुव्वावत्थं सरिऊण सोएउं पवत्ता । कहं ? 'जइ देव्व ! सयलतियलोयतिलयभूओ कओ कुले जम्मो । ता कीस अयंडि पयंडमागयं दुसहदालिदं ? ॥१७॥ जइ जाया पिइ-माईण नियतणूओ वि वल्लहा अहयं । ता ताण मरणदुक्खाण भायणं कीस निम्मविया ?॥१८॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्दनार्याकथानकम् जइ नाम विओगो बंधवाण निक्करुण ! तई कओ देव्व ! । ता किं अवरं ऐयं मज्झं पेसत्तणं विहियं ?॥१९॥ इय निययावत्थं निंदिऊण सुकुलुग्गयं च सविसेसं । पुणरुत्तनिंतबाहंबुनिब्भरं रुवइ सा बाला ।। २० ।। एवं च निंदिऊणं नियकम्मं, सोइऊण य अवत्थं । भुक्खक्खामकवोलं वयणं ठविऊण करकमले ।। २१ ।। ते पुलइय कुम्मासे सविसेसं मण्णुभरियगलविवरा । चिंतेइ 'लु (छु) हत्ताणं न किंचि तं जं न पडिहाइ ।। २२ किंतु नियजणयगेहे एक्कासणपारणम्मि वि जहेच्छं । चउविहसंघं पडिलाहिऊण पुण आसि पारिती ।। २३ । इण्हिं तु अट्ठमोवासपारणे विसमदसगया वि अहं । अविदिण्णसंविभागा कहं णु पारेमि गयपुण्णा ? ।। २४ । जइ एइ कोवि अतिही ता दाउं कित्तिए वि कुम्मासे । पारेमि' चिंतिऊणं दुवारदेसं पलोएइ ।। २५ ।। २६९ एत्थंतरम्मि य नित्थिण्णसंगमयाऽमरमहोवसग्गवग्गेण गहिओ अभिग्गहो जगगुरुणा सिरिवद्धमाण - सामिणा, तंजहा- दव्वओ सुप्पेक्ककोणेणं कुम्मासे, खेत्तओ दायारीए एगो पाओ उंबरस्संतो एगो बहिं, कालओ नियत्तेसुं भिक्खायरेसुं, भावओ जइ महारायकुलुग्गयकण्णया वि होऊ पत्ते दासत्तणे अवणीयसिरोरुहा नियलावद्धचलणजुयला मण्णुभरोरुद्धकंठगयगिरा रोयमाणी पयच्छइ तो पारेमि, नऽन्नह त्ति । एवं तत्थ कोसंबीए जणेण अणुवलक्खिज्जमाणाभिग्गहविसेसो विहरिउं पयत्तो। अण्णा य पविट्ठो सुगत्तामच्चस्स मंदिरं । नीणिया दासचेडीहिं भिक्खा । अघित्तूण निम्गओ भगवं । दिट्ठो नंदाहिहाणाए अमच्चीए भणियं च णाए 'हला ! किं न भयवया गहिया भिक्खा ? । ताहिं भणियं 'सामिण ! एस भयवं दिने दिने एवं चेव गच्छइ, संपइ चउत्थो मासो वट्टइ' । तओ 'हा धी ! भवओ को अभिग्गहो भविस्सइ' त्ति अधिईए अमच्वं भणइ जहा 'किं तुज्झ अमच्चत्तणेणं जइ भयवओ अहं नमुस ?' । अमच्चस्स वि अधिई जाया । इओ य-राइणो सयाणियस्य मिगावई देवीए विजया नाम पडिहारी, सा पओयणंतरेण तत्थाऽऽगया । तीए सव्वं निवेइयं मिगावईए । तस्सावि अधिई जाया । निवेइयं च राइणो 'किं तुज्झ रज्जेणं जइ भगवओ अभिग्गहं न पूरेसि, न याणसि भयवं एत्थ विहरमाणं ?' । तेणावि 'पूरेमि संपयं' ति देविं समासासिऊण सोगाभिभूएण हक्कारिओ अमच्चो | अमच्चेणावि पासंडिणो पुच्छिया अभिग्गहविसेसा । तेहिं भणियं महाराय ! विचित्ता जेइजणे णं अभिग्गहा कहं नज्जंति ?, परं दव्वओ विचित्तदव्वाई, खित्तओ नाणापएसट्ठियदायगाइ, कालओ पढमपहराइ, भावओ हसंत-रोवंत-नच्वंत - गायंत-रमंताइ । तओ राइणो आएसेण सव्वो वि लोगो तहा दाउमाढत्तो । तावि जाव न गिoes जयगुरू ताहे अच्छंताउलीभूओ जणो चिंतिउं पयत्तो, कहं ? - 'एस अउण्णो सव्वो वि जणवओ जेण जयगुरू पित्थ । नाणुग्गहेइ ववएसविहिविदिण्णऽण्ण-पाणेहिं ।।२६।। १. ला० एवं म° ॥ २. जइणेणं ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके जस्सनजइणो गिण्हंति कहविजत्तेणजोइयं दाणं । सो किं गिही?, मुहा होइ तस्स घरवासवासंगो' ॥२७॥ जह जहन लेइ बहुविहपयारभत्तं पणामियं पुरओ। तह तह किलम्मइ जणोजयगुरुचिंतालसो वियलो॥२८॥ इय निंदियनियविभवोवभोगसंपत्तिविहलजियलोओ। अकयत्थं पिव भण्णइ सयलं धण-परियणसमिद्धिं ॥ २९॥ एवं च विहरमाणो पंचदिवसूणछम्मासेहिं पविठ्ठो धणावहसेट्ठिमंदिरं, दिह्रो य पुव्ववण्णियसरूवाए चंदणबालाए, चिंतिउं पवत्ता, अवि य'सुकयत्था कयपुण्णाअहयं चिय एत्थ जीवलोगम्मि । जीए पारणगदिणे समागओएस परमप्पा ।।३०।। जइ कहवि एस भयवं एए मेऽणुग्गहेइ कुम्मासे । तो दुहपरंपराए दिण्णो हु जलंजली होइ' ।।३१।। जावेवं सा चिंतइ ता भयवं तीइ संठिओ पुरओ । भत्तिभरनिब्भरंगी समुट्ठिया झत्ति तो एसा ।।३२।। घेत्तूणं कुम्मासे जयगुरुणो अणुचिय' त्ति रोवंती । संकलबद्ध त्ति बहिं विणिग्गमं काउमचयंती ।।३३।। विक्खंभित्ता पाएहिँ एलुयं भणइ जयगुरुं भयवं! । गिण्हह जइ कप्पंती अणुग्गह मज्झ काऊण' ।।३४ । 'पुण्णोऽवहि' त्ति परिभाविऊण सामी वि उड्डए हत्थं । सा वि तैयंतेखिविउं पुणो वि परिभावए एवं । ३५/ 'पावेइ पुण्णभाई तइया भवणम्मि एरिसं पत्तं । जइया महल्लकल्लाणसंभवो जंतुणो होइ ।।३६।। कल्लाणपद्धईओ उवट्ठियाओपुणो विनणु मज्झ । सव्वाओजयपहुणा अणुग्गहोजंसयं विहिओ ।।३७/ जमभिग्गहपारणए भयवं पाराविओ जिणो वीरो । नर-सुर सिवसोक्खाइं तं नूणं हत्थपत्ताई' ।।३८।। ____एत्थावसरम्मि य 'अहो दाणं सुदाणं महादाणं' ति भणमाणेहिं सुरसमूहेहिं कओ आयासतले चेलुक्खेवो, निवडिया नहंगणाओ तियसतरुकुसुमवुट्ठी, विमुक्कं गंधोदयं मेहमंडलेहि, पवाइओ सुरहिसमीरणो, वज्जिया नहंगणे देवदुंदुही, विमुक्का सुरवरेहिं वररयणवुट्ठी, कहं चियसुरवरसहत्थपम्मुक्कविविहमणिकिरणरंजियदियंता । अण्णोण्णवण्णसोहा विहाइ सुरचावलट्ठिव्व ।।३९। परिमलमिलतभसलउलवलयपरिलितबद्धझंकारा । सुरतरुपसूणवुट्ठी निवडइ रइमासलदियंता ।।४०।। उच्छलइ ललियकरकमलतालणुव्विल्लसद्दसद्दालो । दुंदुहिरावो गंभीरवजिराउजसंवलिओ ।।४१।। इय ललियभुउव्वेल्लियकरमउलंजलिमिलंतसिरकमलं । सुरजयजयसंरावेण निवडिया रयणवुट्ठि त्तिा४२। ___ तओ तियसेहिं कओ पुणण्णवो कुंतलकलावो, विहियं पुव्वलावण्णरूवसोहासमुदयाओ वि अहिययरसोहं सरीरं । तओ समुच्छलिओ नयरीए हलहलारवो जहा ‘पाराविओ भयवं धणसेटिगेहे, निवडिया तत्थ रयणवुट्ठी'। एयं च जणपरंपराओ सोऊण समागओ सेट्ठी, सयाणियनरवई य । दिटुं च तं सैट्ठिणो गेहं दिसि दिसि निहित्तरयणसंचयं । विम्हउप्फुल्ललोयणो य भणिउं पवत्तो नरवई जहा १. ला० 'वन्ना, अ॥ २. ला० एहिं उवं(उबंरं) भणं ॥ ३. ला० तहते ॥ ४. सं० वा० सु० वरेहि रयण ॥ ५. ला० य(?र)वुव्वे ॥ ६. ला० त्ति ॥ कओ तियसेहिं पुण' । ७. सं० वा० सु० ए कोलाहला ॥ ८. ला० °णिओ नर ॥ ९. ला० सेट्ठिगेहं ॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्दनार्याकथानकम् २७१ ‘भो सेट्ठि ! धर्णा तुमं जस्सेरिसी तिहुयणतिलेयभूया धूया जीए एरिसं भयवओ पारावणदाणफलमासाइयं । ओ अहमित्थ पत्थिवो किर पुरीए, कोडुंबिओ पुण तुमं ति । इय अंतरे वि गुरुणा तह वि तुमं चेवऽणुग्गहिओ ॥ ४३॥ विवो न य जाई न पहुत्तं कारणं कुसलयाए । भवणम्मि अत्थिणो जस्स इंति सो पुण्णभाई' त्ति ॥ ४४॥ इय एव पत्थिवो थुइसमिद्धिसंबद्धविविहभणिएहिं । अहिणंदइ जा सव्वायरेण कयगोरखं सेट्ठि ।। ४५ ।। तावय रणा सह समागएण अंतेउरमहल्लएण दिट्ठा चंदणा, पुणरुत्तवियक्कपरायणेण पच्चभिण्णाया । पच्च-भिण्णाणाणंतरं च चलणेसु निवडिऊण रोइउं पेयत्तो । तं च रोयंतं दहूण राइणा देवीए य भणियं 'भो ! किमेयं ? ' । तेण वि साहियं 'देव ! जहेसा दहिवाहणरायधूया धारिणीकुच्छिसमुब्भवा वसुमई नाम कण्णया कहं पि एत्थाऽऽगया न जाणामि । ओ राणा वसुमई पुच्छिया । तीए य जं जहावत्तं तं तहा सव्वं साहियं जाव धणसेट्ठिहत्थागमणं धूयापनित्ति - सिणेहनिब्भरपरिपालणाइ-पत्थुयसंबंधावसाणं । तं च सोऊण सिणेह - निब्भरं निवेसिया उच्छंगे राइणा देवीए य । तओ विण्णत्तं तीए जहा 'तुब्भेहिं सेट्ठिणा य अब्भणुण्णाया इच्छामि धम्मायरणं काउं, जओ संसारे बहुविहदुहकिलेससयसंकुले असारम्मि । को नाम कयविवेओ रमेज्ज सुहसंगवामूढो ? ।।४६ ।। इह जम्मे च्चिय दट्टूण तारिसी सुकुलजम्मसंभूई । जाया पुणो वि एसा परपेसकिलेसिया मुत्ती ।।४७।। तं तारिसबहुविच्छड्डुविड्डरिल्लऽम्ह पुव्वसंभूई । संपइ को गोट्ठीसु वि साहिज्जंतं पि सद्दहइ ? ।।४८।। इय कलिउं संसारम्मि कम्मुणो वसवियंभियव्वाइं । को नाम सयन्नो निमिसयं पि सज्जेज्ज संसारे ?' ।। ४९ । एयं च समायण्णिऊण राइणा भणियं जहा 'पुत्ति ! अज्ज वि बालो वयविसेसो, अलंघो जोव्वणवियारो, दुज्जओ मोहप्पसरो, बलिओ इंदियग्गामो, ता विलसिऊण संसारविलसियव्वाई, उवभुंजिऊण सयलिंदियसुहाई, अणुभुंजिऊण सुरवरसेमास (सा) इयं धणसमिद्धिं पच्छा जुज्जइ काउं धम्मज्जमो; संपयंतु, कत्थ इमं तुह तेलोक्कजंतुकयविम्हयं तणुसरूवं । कत्तो लायण्णुद्दलणपच्चलो तवविसेसो ? त्ति ।। ५० ।। १. सं० वा० सु० 'ण्णो जस्से ॥ २. सं० वा० सु० 'लया धूया ॥ ३. ला० स्स जंति सो पुण्णभाय त्ति ।। ४. ला० ‘च्वभिन्नयाणंत ॥ ५. ला० पवत्तो ॥ ६. ला० धूयप ॥ ७. सं० वा० सु० 'परपेसिकि' ॥ ८. सं० वा०सु० 'हुविऊण ।। ९. सं. वा. सु. समाणाइयं ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तुह ललियकंतिलायण्णहारिणो सुंदरस्स रूवस्स । हिमपवणो कमलस्सव विणासभूओ हवेज तवो ।५१। जंजत्थ जया जुज्जइ काउं तं तह कुणंति बुहसंघा । किं कुणइ दारुकुंभम्मि कोइ बालो विहव्ववहं ? ॥५२॥ इय तह तुह तणुलइयाए रुइरलायण्णकंतिसोहाए । होइ तवो कीरंतो विद्धंसणकारओ नूणं ।।५३।। अण्णं चतामरससच्छहं तुह सरीरयं कह सहेज तिव्वतवं? । तिव्वाऽऽयवं दुमोचेवसहइनो किसलउब्भेओ।५४। तिव्वं तवसंतावं सहेइ वयपरिणओ, न बालतणू । आयवदंसणमित्तेण सुसइ गोपयगयं वारि ।।५५।। इय वयवुड्डि च्चिय होइ कारणं इठ्ठसाहणत्थम्मि । उज्जोवइ पुण्णससी, न इंदुलेहा जयं सयलं' ।।५६।। तओ एयमायण्णिऊण ईसिवियसावियवयणकमला जंपिउं पवत्ता चंदणा जहा “महाराय ! किं पडिबुद्धबुद्धिणो एवं विहाई जंपंति ?, जओ सो च्चिय कालो जायइ तवस्स इह पंडिया पसंसंति । सामत्थं जत्थ समत्थवीरिए होइ जंतूणं ।।५७।। अणहिंदियत्थसामत्थयाजुओ पढमजोव्वणे चेव । सयलाण वि करणीयाण पच्चलो जायए जंतू ।।५८।। जइया पुण सयलिंदियवेयेल्लावण्णनीसहसरीरो । इह उठ्ठिडं पि न तरइ तइया किं कुणउ कायव्वं ? ५९। वीरियसज्झो जायइ तवोत्ति तणुमित्तसाहणो नेय । कुलिसंचिय दलइ गिरी, नकयाइ विमट्टियापिंडो ६० इयरहिओ कह सामत्थयाए काउंतरेज किंपिनरो? । इच्छामि तेण काऊण जोव्वणे च्येय धम्ममइं । ६१। अण्णं च एसा चेव रयणवुट्ठी पुण्णाणुबंधसंसिणी उच्छाहइ मं धम्मुज्जमे, किंच तुब्भेहिं न सुयं विउसजणजंपियं 'न धम्मरहिया सव्वसंपयाणं भायणं हवंति” । एत्थावसरम्मि य पुरंदरेण भणिओ सयाणियपत्थिवो जहा “भो नराहिव ! मा एवं भणसु, जओकिंन [हु] मुणियं तुमए एसा संपुण्णसीलगुणविहवा । चंदणतरुणो साह व्व चंदणा सीयलाधणियां६२। एसा हु भयवओ वद्धमाणतित्थंकरस्स पढमयरा । अजाण संजमुज्जमपवत्तिणी होहिई अणहा' ।।६३। हिययविचिंतियसरहसपव्वज्जाकाललालसा एसा । आभासिउं पि जुज्जइ न अन्नहा, किं थे बहुएण?॥६४।। चिट्ठउँ निहेलणे च्चिय तुम्हं ताजाव होइ सोसमओ । जयगुरुणोपव्वज्जाणुग्गहकरणस्स जो जोग्गो ।६५। एवं पि इमाए चेव होइ सुरमुक्करयणवुट्ठिधणं । गिण्हउ, जहिच्छियं देउ जस्स जं जोगमेत्ताहे' ।।६६।। तो सा सुराहिवइणो अणुमइमेत्तेण सव्वधणसारं । सेट्ठिस्सऽणुमण्णेऊं, नरवइगेहं पइ पयट्टा।।६७।। १. सं० वा० सु० न यंदु' ।। २. ला० यल्लूविइणइण(यल्लविइण्ण) नीस' || ३. सं० वा० सु० इय उ॥ ४. ला० हि ॥ ५. सं० वा० सु० होही अणग्या ॥ ६. ला० च ॥ ७ सं० वा० सु० बहवेण || ८. सं० वा० सु० 'उगिहंगणे च्चिय ।। ९. सं० वा० सु० पइट्ठा ॥ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणकाख्यानकम् २७३ दीणा - Sणाहाणं वियरंती तं धणं जहेच्छाए । नीया सयाणिएणं समंदिरं गोरवं काउं । । ६८ ।। सुरनाहवयणउच्छाहिएण संपूइऊण धणसेट्ठि । कण्णं तेउरमज्झे ठविया काऊण अक्खूणं ।।६९।। ओ सा विमुक्का से सालंकार वि साहीणसीलालंकारविर्भूसियावयवा अच्वंतर्मणोहरुप्पण्णलावण्णजोव्वणपयरिसा वि परिणयवयाऽऽयरणा अवमण्णियासेसविसइंदिया वि असमसमासाइयसमसुहा भयवओ केवलनाणुप्पत्तिसमयं पडिच्छमाणी तत्थ चिट्ठइ । उप्पन्ने य भयवओ केवलनाणे महाविभूईए अणुगम्ममाणा सुराऽसुर-नरेहिं गया भयवओ समीवे । दिक्खिया य जहाविहिणा भयवया जाया छत्तीसण्हं अज्जियासहस्साणं पवत्तिणी । कालंतरेण य उप्पाडिऊण केवलनाणं पत्ता परमसोक्खं मोक्खं ति । चन्दनार्याकथानकं समाप्तम् । ३१. अधुना द्रोणकाख्यानकमाख्यायते— [३२. द्रोणकाख्यानकम् | नीसेसदेसभूसणमज्झे चूडामणि व्व जो सहइ । वसुहाविलासिणीए सो अत्थिह कोसलाविसओ ।। १ ।। तत्थऽत्थि तियसपुरवरसिरिसोहासमुदएण समसरिसं । दससु दिसासु पयासं वरनयरं सिरिउरं नाम ।।२।। तत्थ य निस्संसयससहरकरपसरसरिसजसविसरवलक्खीकयसयलवसुहावलओ तारापीडो नाम राया । अहरीकयसुरा -ऽसुर - विज्जाहर - नररमणीरूया रइसुंदरी नाम से भारिया । इओ य तम्मि चेव निवसंति सयलपुरप्पहाणसेट्ठिपुत्ता सुधण - धणवइ-धणीसरधणयाहिहाणा परोप्परपीइपहाणा चत्तारि वयंसया । ते य अण्णया कयाइ असौहिय जणणि-जणयाणं गहियपहाणसुवण्णभंडमुल्ला संबलयवाहयदोणगाभिहाणेक्ककम्मकरमेत्तपरियणा पट्ठिया रयणदीवं । अण्णया य वच्वंताणं समागया महाडवी । नित्थिण्णाए य तीए निट्ठियप्पायं तेसिं संबलयं । एत्थंतरम्मि य दिट्ठो अणेहिं पडिमापडिवण्णो एगो महामुणी, चिंतियं च 'तवसोसियतणुयंगं दुद्धरकिरियाकलावकयचित्तं । मयणग्गिपसमजलयं पंचिंदियतुरयनिग्गहणं || ३ || नीसेसगुणाहारं पहाणपत्तं इमं पयत्तेण । पडिलाहंती भत्ताइएहिं जे भत्तिसंजुत्ता | ४ || ते धण्णा कयपुण्णा, ताण सुलद्धं च माणुसं जम्मं । ता अम्हे वि हु एयं पडिलीहेमो महाभागं ।।५।। एत्थंतरम्मि भयवं पडिलेहित्ताण पत्तयं चलिओ । जुगमेत्तनिहियदिट्ठी गोयरकालु त्ति कलिऊण ।। ६ ।। १. सं० वा० सु० 'भूसियसरीरावयवा ॥ २. ला० मणोहररुप्प ( रूय) लाव | ३. ला० 'यासाहस्सीणं । ४. ला० साहिऊण जणणि ॥ ५. सं० वा० सु० 'पायं संब' ॥ ६. ला० 'लाहामो ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके हरिसापूरियहियएहिं तेहिं तो दोणगो इमं भणिओ । दोणय! संबलयमिणं पयच्छ एयस्स साहुस्स ॥७॥ तेण य तदहियसद्धाविसेसवियसंतवयणकमलेण । पडिलाहिओ तवस्सी रोमंचुच्चइयगत्तेण ।।८।। ___ तओ पत्ता कमेण रयणदीवं । समासाइयजहिच्छियऽब्भहियविभवा पत्ता नियनयरं, दीणादिदाणपुव्वयं च विलसिउं पयत्ता, परं ववहरंति सुहुममायाए धणवइ-धणीसरा । एत्थंतरम्मि य निययाउयसमत्तीए मओ दोणगो, समुप्पण्णो इत्थेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कुरुजणवयालंकारभूयगयपुरनयरपहुदुप्पसहनिवग्गमहिसिसिरिसुंदरिकुच्छिंसि गब्भत्ताए । दिट्ठो य तीए तीए चेव रयणीए अमयरससारपसरंतनिययकरपूरपंच्चालियभुयणंतरालो पडिपुण्णमंडलो मंडियगयणंगणो रयणीयरो वयणेणोयरं पविसमाणो । तइंसणुप्पण्णसज्झसवसविगयनिद्दाभराए साहिओ दइयस्स सुमिणगो । तेण वि साहावियनियमइमाहप्पविणिच्छियसुमिणभावत्थसमुप्पण्णरोमंचकंचुयविसट्टवयणसयवत्तेणं जंपियं जहा 'देवि ! तुह समत्थकुरुजणवयणरिंदतारामयंको पुत्तो भविस्सई' । सा वि ‘एवंहोउत्ति समाणंदिय दइयवयणाणंतरसंपज्जंतसयलसमीहियमणोरहा नियसमये पसूया दारयं । तं च पसरंतनियतणुकं तिकडप्पपयासियजम्मभवणाभोयं दद्दूण हरिसर्वसुप्पण्णसंभमखलंततुरिययरगइपयारुटुंतसासावूरियहियययाए सुदंसणाभिहाणाए दासचेडीए वद्धाविओ राया । तओ तव्वयणायण्णणाणंदभरनिब्भरपरावसीकयमाणसस्स मउडवजंगलग्गाभरणाइतुट्टिदाणपरितोसियदासचेडीसमणंतरसमाइट्ठपुत्तजम्मब्भुदयदसदेवसियवद्धावणयमहूसवरसपसरसुहमणुहवंतस्स नरवइणो समागओ नामकरणवासरो । कयं च से नामं सुमिणयाणुसारेण कुरुचंदो त्ति । पवड्ढमाणो य गहियकलाकलावो जाओ जोव्वणत्थो । कयकलत्तसंगहो य पव्वजागहणाभिमुहरायसमारोवियरजभारो जाओ पयंडसासणो नरवई । इओ य मया सुधण-धणया समुप्पण्णा जहासंखं वसंतउर-कत्तियपुरेसु वसंतदेवकामपालाहिहाणा पहाणसिट्ठिपुत्ता । कयकलागहणा य जाया जोव्वणत्था । एत्थंतरम्मि य मरिऊण धणवइ-धणीसरा जाया संखपुर-जयंतीनयरेसु मइरा-केसराहिहाणाओ निज्जियरइरूवलावण्णाओ इब्भकुलबालियाओ समारूढाओ जोव्वणं । अण्णया य करभ-वसभाइवाहणसणाहबहुसत्थसमण्णिओ गओ वसंतदेवो वणिजेणं जयंति। समाढत्तो ववहरिउं । एत्यंतरम्मि य लंकावासो व्व वियसंतपलासो, जिणमुणिमणाभिप्पाओ व्व वियंभमाणासोओ, १. ला० वा य प || २. ला० पक्खालिय ॥ ३. सं० वा० सु० 'दपराए ।। ४. ला० 'करपया || ५. ला० 'वससमुप्प ॥ ६. ला० णाणंतरसमुप्पण्णाणंद ॥ ७. सं० वा० सु० दाणा परि ।। ८. सं० वा० सु० पइंड ॥ ९. ला० ‘णाहे(हो)बहु ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणकाख्यानकम् २७५ कामिणीभालवट्टो व्व रेहंततिलओ, वयणवियलपुरिसो व्व वियसंतकुरवओ, पुरंदेरो व्व वियसंतबहुअंबओ, सुण्णमंदिरोवरिमतलविभागो व्व पसरतसंताणओ समागओ वसंतमासो । जो य नच्चइ व्व पवणवसुव्वेल्लमाणकोमललयाबाहुदंडेहिं, गायइ व्व नाणाविहविहंगमकलकलविरावेहिं, तज्जइ व्व विलसमाणवरचूएक्ककलियातज्जणीहिं, हक्कारइ व्व रत्तासोयकिसलयदलललियतरलकरविलसिएहिं, पणमइ व्व मलयमारुयं दो लियनमं तसिहरमहातरुवरुत्तमं गेहिं, हसइ व्व नववियसियकुसुमनियरऽट्टहासेहिं, रुयइ व्व तुडियबिंटबंधणनिवडमाणसिंदुवारसुमणोणयणसलिलेहिं, पढइ व्व सुयसारियाफुडक्खरुल्लावजंपिएहिं ति । इय नच्चइ गायइ तज्जई य हक्कारई पणमई य | विहसइ रोयइ पढइ य गहगहिओ नं वसंतरिऊ ।।९।। निग्गच्छंति य बहुविहविलासरसनिब्भराओ सव्वत्थ | तरुणाण चच्चरीओ पए पए नच्चमाणीओ ।। १० । सविसेसुज्जलनेवत्थरयणसिंगारियंगसोहाई । तरुण- तरुणीण जुयलाई जत्थ दोलासु कीलंति ।।११।। कीलंति य तरुणनरा तरुणीयणसंजुया मउम्मत्ता । नाणाविहतरुवरसंकुलेसु रम्मेसु य वसु ।।१२।। आवाणयबंधेहि य पियंति मज्जाइं पाणया लोया । गुरुमयभरेण निवडंति ते य धरणीए गयचेट्ठा ।। १३ ।। अइनिब्भरपाणेणं वमंति अण्णे पसारियप्पाया । अण्णे अड्डवियड्डुं भमंति कज्जं विणा वि तहिं । ।१४।। अ उ सगोक्कित्तणेण हिययम्मि नेय मायंति । दिंति अणेगविहारं दाणाई तत्थ परितुट्ठा ।।१५।। अण्णे उ नियपियालिंगणाइं कुव्वंति लोगपच्चक्खं । अण्णे वैयंति गुज्झाइं तह य गायंति विविहाई । १६ । इय असमंजसचेट्ठाओ कित्तियाओ वसंतमासम्मि । पारिज्जंति कहेउं मयणुम्मत्ताण तरुणाण ? ।। १७ ।। तत्थ य अट्ठमीचंदमहे गओ वसंतदेवो रइनंदणं नाम उज्जाणं । दिट्ठाँ तत्थ सहियणपरिवुडा कीलारसमणुहवंती केसरा, चिंतिउं च पवत्तो, अवि य— 'किं एसा वणदेवी ? कयविग्गहसंगहा रई अहवा ?। किं वा वि हु सुरविलया ?, उयाहु पायालकण्ण ? || १८ | अहवा विहु किं लच्छी ?, किं वा वि हु रोहिणी सयं चेव । किंवा गोरी विज्जाहर व्व ? किं माणुसी का वि ।।१९।। अहवा विपयावइणा इमीइ रूवं विणिम्मियं, जेण । करफंसाऽऽलिद्धाणं न होइ एयारिसी सोहा ।। २० ।। इय चिंतंतो एसो एयाए दिट्ठिगोयरं पत्तो । पुव्वब्भवनेहेण य मिलियाओ ताण दिट्ठीओ ।। २१ ।। १. ला० वियंभंत कु ॥ २. सं० वा० सु० दर व्व ॥ ३. सं० वा० सु० मालयमारुइंदो || ४. सं० वा०सु० 'रुत्तिम' ॥ ५. ला० 'रहट्टहा° ॥ ६. सं० वा० सु० सुइसा ॥ ७. सं० वा० सु० वइंति ॥ ८. ला० त्थ अट्ठ ॥ ९. सं० वा० सु० 'मीवंदणमहे ॥ १०. ला० 'ट्ठा य तत्थ ॥ ११. सं० वा० सु० किं चेसा ॥ १२. ला० 'गया र ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तओ ‘का एस ?' ति पुच्छिओ वसंतदेवेण जयंतीवत्थव्वगो समुप्पण्णमित्तभावो पियंकरो नाम इब्भपुत्तो । तेण भणियं ‘इहेव पंचनंदिसेट्टिधूया जयंतदेवभगिणी केसरा नाम कण्णग' त्ति । तओ कओ णेण जयंतदेवेण सह संबंधो । भुंजाविओ एसो नियगेहे, तेण वि वसंतदेवो त्ति । तओ घरं गएण दिट्ठा कुसुमाउहऽच्चणं कुणमाणी केसरा । तीए वि जयंतदेवहत्थाओ कुसुममालं गिण्हमाणो वसंतदेवो । अणुकूलसउणसंपारण हरिसियाई चित्ते । लक्खिओ एसो तीए भावो पासपरिवत्तमाणीए पियंकराहिहाणाए धाविधूयाए । भणिया य एसा 'सामिणि ! तुज्झ वि एयस्स महाणुभावस्स किंचि उवयारो काउं जुजई' । तओ वियसंतवयणकमलाए भणियं तीए ‘हला ! तुमं चेव एत्थ अत्थे जहाजुत्तं करेहि' । तओ भवणोववणसंठियस्स समप्पियाणि तीए पियंगुमंजरीसणाहाणि सरसकक्कोलयाणि, भणियं च 'पेसिया एसा अइप्पिया सामिणीए केसराए पियंगुमंजरी, एयाइं च अहिणवुप्पण्णाणि इट्ठविसिट्ठदेयाणि सहत्थारोविय-कक्कोलयतरुफलाणि' । तओ सहरिसं घेत्तूण नाममुद्दारयणं दाऊण जंपियमेएण जहा 'इट्ठाणुरूवं चेट्ठियव्वं' ति। ‘एवं' ति सहरिसं पडिवज्जिऊण पडिगया एसा । साहियमेयं केसराए। तुट्ठा एसा हियएण । पसुत्ताएं रयणीए दिट्ठो चरिमजामे सुमिणगो जहा 'परिणीया किलाऽहं वसंतदेवेण' । तेण वि ईइसो चेव । परितुहाए केसराए साहिओ पियंकराए । एत्थंतरम्मि य केणावि सह नियकहासंबद्धं जंपियं वासभवणे पुरोहिएण जहा ‘एवं चेव एवं(यं) भविस्सई' । तओ भणियं पियंकरियाए ‘सामिणि ! निच्छएण तुह वसंतदेवो चेव भत्ता भविस्सइ। बद्धो सउणगंठी केसराए । साहियमिणं वसंतदेवस्स पियंकरियाए । 'संवाई सुविणगो' त्ति परितुह्रो एसो, पूइया पियंकरिया । भणियं च णाए ‘सउणगंठिसंबंधेण दिण्णो तुज्झ अप्पा सामिणीए, ता करेहि वीवाहसामणिं।' वसंतदेवेण भणियं 'कया चेव पयावइणा' । एवं च पइदिणं परोप्परपउत्तिपेसणेण जाव कइवि दियहा वच्चंति ताव नियभवणसंठिएण निसुओ पंचनंदिगेहे मंगलतूरसद्दो । तओ 'किमेयं ?' ति सवियक्केण तप्पउत्तिवियाणणत्थं पेसिया कम्मगरी । नाऊण य समागयाए साहियं तीए जहा 'दिण्णा कण्णउजवत्थव्वगसुदत्तसेट्ठिसुयवरदत्तस्स पंचनंदिणा केसरा, तन्निमित्तं च एयं वद्धावणयं, अवि यवजंति गहिरतूराई तह य वरमंगलाई गिजंति । अक्खयवत्तसणाहो पविसइ पुरबालियासत्थो ।।२२।। नीसरइ पुण वि कुंकुमदिण्णमुहालेवओ सतंबोलो' ।तं सोऊणं एसो मुच्छाविहलंघलो पडिओ ।।२३।। एत्थंतरम्मि य समागया पियंकरिया । वाउदाणाइणा सत्थीकाऊण भणिओ सो तीए जहा “पेसिया हं सामिणीए केसराए, संदिटुं च 'न तए एत्थ अत्थे खिज्जियव्वं जओ नाऽहं १. सं० वा० सु० एत्थं जहा ॥ २. ला० 'ण मुद्दा ।। ३. ला० ए य रय ॥ ४. ला० ए य केस ।। ५. ला. व भवि ॥ ६. ला० सुमिण' ।। ७. ला० संठवणेण ॥ ८. ला० "व्वसुनंदसेहि॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ द्रोणकाख्यानकम् पुव्वाणुरायविसरिसं चिट्ठामि, अणभिन्नया मज्झ चित्तस्स गुरुणो, न य तुमं वज्जिय अण्णो मज्झ भत्ता, जइ य एयमण्णहा भवइ तओ अवस्सं मए मरियव्वं' ति, ता कालोचियमणुचिट्ठियव्वं' ति । तं च सोऊण हरिसियचित्तेण 'अम्हाणं पि एसा चेव गई' त्ति जंपिऊण विसज्जिया पियंकरिया । संगमोवायपराणं च वोलीणो कोवि कालो । अण्णया य समागया जण्णयत्ता । तओ ‘सुए वीवाहो भविस्सई' त्ति सोऊण दूमियचित्तो निग्गओ नयराओ वसंतदेवो । पत्तो काणणंतरं । तत्थ चिंतिउमाढत्तो, अवि य'अन्यथैव विचिन्त्यन्ते पुरुषेण मनोरथाः । दैवादाहितसद्भावा:, कार्याणां गतयोऽन्यथा ।।२४।। किंच'अन्नह परिचिंतिज्जइ सहरिसकंडुज्जएण हियएण । परिणमइ अन्नह च्चिय कज्जारंभो विहिवसेण ।।२५।। ताकहणुपरिणयमिणं? पुवक्कियकम्मजणियदोसेण । एवं जायम्मिजओ नियमेण विवज्जए दइया ।२६। ता जाव तीयऽणिटुं वत्तं न सुणेमि ताव नियपाणे । उब्बंधिऊण देहं चएमि कंकेल्लिसालम्मि' ।।२७।। इय चिंतिऊण तेणं असोगरुक्खं समारुहेऊण । संजमिय पासगं तो ठविया नियकंधरा तत्थ ।।२८।। मुक्को झड त्ति अप्पा दिसामुहेहिं ततो परिब्भमियं । रूद्धो य सरणिमग्गो निमीलियं लोयणजुएण ।।२९।। एत्थंतरम्मि ‘मा साहसं ति भणिऊण कामपालेण । तत्थागएण पुव्वं छिण्णो से पासगो झत्ति ।।३०।। वायाईदाणेण य सत्थं काऊण तो इमं भणिओ। 'नियआगिईविरुद्धं भद्द! किमेयं तए विहियं ?' ।।३१।। तओ सदुक्खं भणियं वसंतदेवेण 'भद्द ! अलमेयाए गरुयदुहजलणजालावलीकवलियाए मह आगिईए'। कामपालेण भणियं 'भद्द ! जइ एवं तहा वि साहेह ताव नियदुक्खं जेण विण्णायतस्सरूवो तन्निग्गहे उवायं चिंतेमि । तओ ‘अहो ! एयस्स परोवयारित्तणं' ति चिंतिऊण साहियं सव्वं वसंतदेवेण । कामपालेण भणियं 'भद्द ! अत्थि एत्थ उवाओ, संपज्जए य तीए सह पइदिणं तुह दंसणं, ता धण्णो तुमं, मम पुणो अपुण्णस्स न उवाओ, न य दंसणं, तहा वि न पाणे परिच्चयामि, जओ जीवंतो नरो कयाइ भद्दाई पावइ विहिवसेण, यत उक्तम् देशादन्यस्मादपि मध्यादपि जलनिधेर्दिशोऽप्यन्तात् । आनीय झगिति घटयति विधिरभिमतमभिमुखीभूत:' ।। वसंतदेवेण भणियं केरिसं कहं वा तुह पुण दुक्खं जायं ?' ति । कामपालेण भणियं"अहं खु कत्तियपुरवत्थव्वगो इब्भपुत्तो जोव्वणुम्मायवसेण निगओ देसियालियाए । पत्तो १. सं० वा० सु० ति, कालो ॥ २. ला० कोइ का ॥ ३. सं० वा० सु० अपि च ॥ ४. सं० वा० सु० एवं ता साहे' ॥ ५. सं० वा० सु० 'मि । अहो। ६. सं० वा० सु० "तिय सा ॥ ७. ला० वा पुण तुह दु॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके य संखउरं नाम नयरं । तत्थ य तया संखपालस्स जक्खस्स जत्ता । तप्पिच्छणत्थं च निग्गयं सबालवुड्ढं नयरं । अहं पि गओ तत्थेव । जाव पवत्ते निब्भरे कीलारसे दिट्ठा मए सहयारवीहियामज्झगया नियसहीयणपरिवुडा एगा कण्णगा । जाओ तं पइ मे निब्भरोऽणुरागो । सा वि मं दद्दूण निब्भराणुरायपरवसा नवमेहदसणे मऊरी व उक्कंठिया, पेसिओ य तीए मह नियसहीहत्थे तंबोलो, जाव न किंचि जंपामि ताव वियट्टो रायहत्थी, कयमसमंजसं तेण, जाव समागओ सहयारवीहियं, पलाणो कण्णगापरियणो, न सक्किया पलाइउं सा । तओ जाव सो तं गिण्हइ ताव पहओ मए पिठ्ठओ लउडएण वलिओ मं पइ तं मोत्तूण । वंचिऊण य तं मए गहिया कण्णगा, नीया निरुवद्दवे ठाणे मुक्का अमुंचमाणी हियएण । समागओ से परियणो । बहुमण्णिओ अहं तेण । एत्थंतरम्मि वरिसिउं पवत्तं नागवरिसं । पलाणो दिसोदिसं सव्वलोगो । तओ परं न नाया मए सा कत्थइ गय त्ति। अलद्धतप्पउत्ती य हिंडिऊण कईवि दियहे नयरं तदुम्माहगेण पत्तो इहई” ति । तं च सोऊण भणिओ वसंतदेवेण 'मित्त ! जइ एवं ता साहेसु एत्थुवायं' । तेण जंपियं 'सुए सा परिणिज्जिही, तओ कायव्वा अज रयणीए तीए रइसणाहस्स मयरद्धयस्स पूया, तं च कप्पो त्ति एगागिणी चेव करेइ, ता अणागयमेव पविसामो नगरमयणस्स मंदिरं, तदणुमएण य घेत्तूणं तव्वेसं गमिस्सामि अहं तीए गेहं, चिरपडिगएसु य अम्हेसु तुमं तं घेत्तूण पलाइजासु' त्ति । तं च सोऊण 'सोववत्तिगंति हरिसिएण भणियं वसंतदेवेण 'मित्त ! सोववत्तिगमेयं परमेवं कज्जमाणे महंतो तुज्झाणत्थो' । एत्थंतरम्मि कुओ वि तत्थागयाए सुभदिसाविभागट्टियाए छिक्कियं वुड्ढमाहणीए । कामपालेण भणियं 'न मज्झ एत्थाणत्थो, अवि य तुह कज्जसंपायणेण महंतो अब्भुदओ' । एत्थंतरम्मि केणावि सह जंपमाणेण नियकहालावसंबद्धं जंपियं वुड्ढमाहणेण 'को एत्थ संदेहो ?' । 'एवमेयं'ति गहियसउणभावत्थेण जंपियं कामपालेण ‘एवं चेव कज्जमाणे सव्वं सोहणं भविस्सई' । तओ उठ्ठिऊण पविट्ठा नयरं । कया पाणवित्ती । काऊण य परियणनिओयणाइयं तत्कालोचियं करणिज्जं संझाकाले पविठ्ठा नयरमयणदेवउलं, ठिया पडिमापिट्ठओ । थेववेलाए य निसुओ तूरसहो । 'एसा सा आगच्छइ'त्ति तुट्ठा चित्तेण, जाव समागया सयणवग्गपरिवुडा केसरा । ओइण्णा जंपाणाओ। घेत्तूण पियंकरियाहत्थाओ विविहपूओवगरणपडिपुण्णं पत्तिं पविठ्ठा अभिंतरे। 'कप्पो' त्ति ढक्कियं दुवारं । मोत्तूण एगत्थ पत्तिं गया मयणसमीवे भणिउं च पवत्ता, अवि य'भो भयवं रइवल्लभ ! पच्चक्ख ! समत्थसत्तचित्तस्स । न हु जुज्जइ मह एवं निओयणं नाह ! दीणाए। भत्तीए विविहपूयाइ पूइओ एत्तियं मए कालं । किर काहिसि मणरुइयं जाव तए एरिसं विहियं ।। किं न वियाणसि सुगहियनामं मोत्तुं वसंतदेवं मे । न रमइ अन्नत्थ मणं अहवा किमिणा पलत्तेण? ।। १. ला० किंपि ॥ २. सं० वा० सु० रइणाहस्स पूया ॥ ३. ला० लाएजसु ॥ ४. ला० °ण परि ।। ५. ला० एयं ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणकाख्यानकम् मंत विसोच्चि मह भत्ता दिज्ज' जंपिउं एवं । तत्तोरणेगदेसे निबद्धओ पासओ तीए ।। ३६ । नसिउं सिरोहरं तत्थ अप्पयं जाव सा पवाहेइ । ताव सहस त्ति धरिया वसंतदेवेण निग्गंतुं ।। २७९ सा वि तं दहूण 'कहं सो चेव एसो समागओ ?' त्ति जाव ससज्झसा चिंतेइ ताव भणिया वसंतदेवेण ‘सुंदरि ! अलं चिंताए सो चेवाहं तुज्झ हिययदइओ तुहहरणनिमित्तं पुव्वमेव समत्तो एत्थ पविट्ठो, ता समप्पेहि एयस्स मम मित्तस्स नियवेसं, गिण्हाहि य तुममेयस्स संतियं जेण वच्चइ एसो तुह कुलघरं ' ति । तओ सुंदरमेयं ति हरिसियाए समप्पिओ तस्स नियवेसो । कामपालो वि पूजिऊण कामदेवं काऊण पलंबमंगुट्ठि निग्गओ, निग्गच्छंतस्स य गहिया पियंकरियाए पत्ती । समारूढो जंपा । समुक्खित्तं बाहगेहिं । तओ वज्जंतेहिं मंगलतूरेहिं गओ पंचनंदिगहे । नीओ पियंकरियाए माइहरयं । निवेसिऊण भणियं 'पियसंहि ! एवं चेव इट्ठविसिट्ठपियसमागममंतं परिजवंती चिट्ठसु' । त्ति भणिऊण पओयणंतरेण निग्गया पियंकरिया । एत्थंतरम्मि य संखउरनिवासिनिमंतियागयसयणजणेण सह समागया केसराए माउलदुहिया इरा नाम कण्णया । सा य केसरादंसणत्थं पविट्ठा माइहरए । निविट्ठा कामपालसमीवे, भणियं च णाए, अवि य— 'माकुणसु भगिणि ! खेयं, सकम्मवसया जिया ओ सव्वे । पुव्वकयकम्मदोसा दुहाई पावेंति संसारे ॥३८॥ जं जेण पावियव्वं सुहमसुहं वा इमम्मि संसारे । पुव्वकयकम्मवसओ तं सो पावेइ नियमेण ।। ३९ ।। सविवेयनिव्विवेयाण अंतरं एत्तियं तु सविवेया । भाविंति भवसरूवं इयरे असमंजसपलावी ।। ४० ।। संखउरे चेव इमो वसंतदेवाणुरायवृत्तंतो । कारणगयाए कहिओ तुज्झ सहीए मह असेसो ।।४१।। ता उज्झिऊण सोयं गुरुजणअणुवत्तणं कुणुसु भगिणि ! | विहिणा निडाललिहियं, जमेइ सम्मं तयं सहसु ॥ ४२ ॥ मज्झ पुण दारुणतरो वुत्तंतो भगिणि! तुह सयासाओ । गुरुजणदुक्खभएणं तह वि हु धारेमि हं पाणे |४३| जम्हा हु संखपालस्स भयवओ पुरजणेण जत्ताए । पारद्धाए अहं पि हु विणिग्गयासहियणसमेया ।४४| सहयारवीहिमज्झे उज्जाणे जाव विविहकीलाहिं । कीलामि ताव दिट्ठो कोइ जुवा नाऽइदूरम्मि ।। ४५ ।। मयणो व्व विग्गहधरो तं पड़ जाओ दढोऽणुरागो मे । सो वि अणुरायवसओ पुणो पुणो मं पलोएइ ।। ४६ । निययसहीहत्थम्मि य तंबोलो तस्स तो मए पहिओ । तेण वि गहिओ, न हु ताण जाव वयणक्कमो होइ ॥ ४७ ॥ ता उम्मिट्ठीहूओ मत्तकरी तेण अद्धगहिया हं । जा ताव तेण हत्थी पहओ लउडेण पट्ठीए ।।४८ ।। १. ला० पूइऊ' ॥ २. सं० वा० सु० 'सहि ! तं चैव ॥ ३. सं० वा० सु० 'या परियण ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके मं मोत्तुं तयभिमुो चलिओ, तेणावि वंचिउं हत्थिं । घेत्तूण अहं नीया करिभयपरिवज्जिए ठाणे । । ४९ ।। मुक्का य तत्थ तेणं अमुंचमाणी वि हिययमज्झम्मि । मिलिओ य मज्झ सजणो, तेण वि अहिणंदिओ एसो ॥ ५० ॥ एत्थंतरम्मि मेहो भुयगेहिं वरिसिउं समाढत्तो । तस्स भएण पलाणो दिसोदिसं सव्वपुरलोगो । । ५१ । । तप्पभिरं तु न नाओ, कहिं गओ सो महं हिययहारी ? | गविसाविओ य नयरे कइवि दिणे नेय उवलद्धो ॥ ५२ ॥ ता भगिणि ! मह अहन्नाए दंसणं पि दूरीकयं विहिणा, जओ भणियं— आसासिज्जइ चक्को जलगयपडिबिंबदंसणसुहेण । तं पि हरंति तरंगा, पिच्छह णिउणत्तणं विहिणो ॥ ५३ ॥ तमायण्णिऊण उग्घाडियं वयणं कामपालेण । तं च दद्दूर्ण 'कहं सो चेव एसो ?' त्ति ससज्झसलज्जावसपरवसाए न किंचि जंपियमिमाए । तओ तेण भणियं 'पिए ! न एस कालो लज्जाए, ता मोत्तूण लज्जं निग्गमणोवायं किंचि चिंतेहि, जेण लहुं पणस्सामो, केसरा पुण तुमं व इमिणा पओगेण मिलिया नियदइयस्स' । तओ तीए हरिसियाए जंपियं 'जइ एवं तो सरीरचिंताववएसेण असोगवणियादुवारेण निग्गच्छामो' । तओ 'साहु सुंदरि ! सोहणो उवाओ' भणिऊण उट्ठिओ कामपालो । निग्गंतूण य पलायाणि । मिलियाणि गयउरे पुव्वमेव केसरं महाय तत्थ समागयस्स वसंतदेवस्स । चिट्ठेति य सुहेण तत्थ । ओ राइ कुरुचंदस्स पइदिणं समागच्छंति पंच पंच पहाणकोसल्लियाणि । न यसो ताणि सयमुवभुंजइ, न य अण्णस्स कस्सइ देइ, भणइ य 'एयाणि मए इट्ठविसिट्ठस्स स्स दाव्वाण' । एत्थंतरम्मि य वद्धाविओ राया उज्जाणपाण, अवि य— ' वद्धाविज्जसि नरपहु ! वरकेवलमुणियवत्थुपरमत्थो । इत्थेव तिजगपणओ समागओ संतिनाहजिणो ।। रइयं च समोसरणं आजोयणमित्तभूभिभागम्मि । अवहरियं तियसेहिं तण - कंटय - रेणुमाईयं । । ५५ ।। गंधोदयं पवुडं, रइयं सालत्तयं समुत्तुंगं । मणि -कंचण - रययमयं चउगोउरदारपविभत्तं ।। ५६ ।। रइयाइं तोरणाइं चउसु वि दारेसु रयणचित्ताइं । उत्तुंगधयवडाई बहुरूवयसंधिकिण्णाई ।।५७।। चक्कज्झय-सीहज्झय-गरलज्झय - महझया तओ विहिया । चाउद्दिसि वावीओ वणराईओ य विहियाओ ।। ५८ ।। १. ० माणी यहि ॥ २. सं० वा० सु० 'प्पमियं ॥ ३. ला० तो ॥ ४. सं० वा० सु० 'ण सो चेव । ५. ला० जंपियं ॥ ६. ला० पुण मं च ॥ ७. ला० 'याणि य गय ॥ ८. ला० ताणि उवभु ॥ ९. सं० वा० सु० 'रूयय' || Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रोणकाख्यानकम् २८१ मज्झम्मि तस्स ठवियं वरासणं सीहपोयअक्कंतं । कंकेल्लिपायवो तदुवरिंण रइओ सुसोहिल्लो ।।५९। जाणुस्सेहपमाणा उवरिमुहा निवडिया कुसुमवुट्ठी । छत्तत्तयमुइंडं उवरिं सीहासणस्स कयं ।।६०।। चामरदंडविहत्था सक्कीसाणा ठिया उभयपासे । जलहरगंभीररवो वजइ सुरदुंदुही गयणे ।।६१।। एवंविहम्मि रइए ओसरणे विसइ सिरिजिणोसंती । पुव्वेण कणयकमलोवरिम्मिसंठवियचलणयलो६२ तिपयाहिणं विहेडं तित्थं नमिऊण जाव उवविठ्ठो । ता चउसुं पि दिसासुंसुरेहिं पडिरूवया विहिया ।६३। भामंडलं पि दिणयरकरनियरसमप्पभंतओ जायं । नर-तिरिय-मणुय-देवेहिं पूरियं तं खणद्धेण ।।६४। दळूण तयं सामिय ! समागओ तुह पियं निवेएउं' । तव्वयणं सोऊणं अहियं तुट्ठो नरवरिंदो ।।६५।। रोमंचकंचुपुलइयदेहो वद्धावयस्स दाऊण । पज्जत्तीए दाणं भत्तीए गओ जिणं नमिउं ।।६६।। सव्वाए रिद्धीए वसंतदेवाइयाणि चउरो वि । वंदित्ता जिणनाहं उवविठ्ठाई महीवढे ।।६७।। तत्तो कहेइ धम्मं जोयणनीहारिणीए वाणीए । नियनियभासापरिणामिणीए भयवं जणहियट्ठा ।।६८।। अवि य दाणं सीलं तव-भावणाओ धम्मो चउब्विहो भणिओ । कायव्वो सुहहेऊ भो भो भव्वा !, किमण्णेण ?॥६९॥ दाणाओ होइ सग्गो, भोगुवभोगा तहिं विविहरूवा । दाणाओ मणुयत्ते पणयनिवं होइ वररजं ।।७०।। रिद्धी अणण्णसरिसा, अण्णाई वि जाइं चारुसोक्खाई । __ आणा यं अप्पडिहया, परिवारो अणण्णसारिच्छो।।७१॥ किं बहुणाभणिएणं ? जं किंचि वि इत्थ जीवलोगम्मि । लब्भइ पहाणवत्थु सव्वं दाणप्फलं तं तु ।७२। एत्थंतरम्मि य कहतरं नाऊण पुच्छियं राइणा ‘भयवं ! किं मह पइदिणं पंच पंच अव्वंगाणि उवणमंति, न य कस्सइ पइच्छामि ?' । तओ भयवया कहिओ सव्वो वि पुव्वजम्मवइयरो, ता महाराय ! तेहिं सह ताणि उवओगं गच्छिस्संति, जओ ताण संतियं दव्वं, ते य इमे वसंतदेव-कामपालमइरा-केसराहिहाणा। तं च सोऊण सव्वेसिं समुप्पण्णं जाईसरणं। तओ जंपियमणेहिं 'नाह ! एवमेयं, नायमम्हेहिं जाइस्सरणाओ, ता देहि अम्हाणं सावयधम्म' । दिण्णो य भयवया । तओ भोत्तूण ताणि रायसंपण्णकोसल्लयाइयं दाणफलं, पज्जंते काऊण सामण्णं गयाणि सुरलोयं ति । जंतेसिं वयणेणं कम्मयरेणं मुणिस्स वरदाणं । दिण्णं तस्स फलेणं एसो राया समुप्पण्णो ।।७३।। १. ला. 'मलोयरम्मि ॥ २. ला० तं वयणं ॥ ३. ला० णइनिवं॥ ४. ला० इ॥ ५. ला० रोऽणण्ण' ॥ ६. सं० वा० सु० 'वं मह ।। ७. ला० तो ।। ८. ला० यरत्ते मु० ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तेणं चेव फलेणं कमसो सिद्धिं पि पाविही एसो । ता दाणम्मि पयत्तो कायव्वो सव्वसत्तेहिं ।।७४।। इति द्रोणकाख्यानकं समाप्तम् । ३२. साम्प्रतं सङ्गमकाख्यानकं कथ्यते [३३. सङ्गमकाख्यानकम्] अत्थित्थ जंबुदीवम्मि भारहद्धम्मि दक्खिणे । मज्झिमखंडमज्झम्मि देसो मगहनामओ ।।१।। अत्थि तेलोक्कविक्खायं पुरं रायगिहं तहिं । अलयापुरिसंकासं सुस्सासं गुणपूरियं ।।२।। दप्पिट्टारिकरिंदाणं कुंभनिन्भेयपच्छलो । मयंदो सेणिओ राया तं पुरं परिपालए ।।३।। तस्सऽत्थि चेल्लणा नाम देवी सोहग्गगब्विया । वण्णलावण्णसंपण्णा कलाकोसलसालिणी ।।४।। एत्तो य सालिगामम्मि धण्णा उच्छण्णवंसया । बालयं संगमं नाम पुत्तं घेत्तुं समागया ।।५।। पट्टणाओ, तओ बालो वच्छरूयाइं रक्खए । अण्णया ऊसवे कम्हिं सव्वगेहेसु पेच्छइ ।।६।। भुजंतं पायसं बालो, तत्तो मायं विमग्गइ । 'पायसं देहि मे अंब!' तीए नत्थि'त्ति जंपियं ।।७।। वारं वारं विमगंतं रोविरं तं नियच्छिउं । सरित्ता पुव्वयं रिद्धि मण्णुणा सा वि रोवई ।।८।। पाडिवेसियनारीओ सोउं पुच्छंति कारणं । तीए सव्वम्मि अक्खाए वुत्तंते करुणापरा ।।९।। ताओ स्वीराईयं दिति रंधिउं सा वि पायसं । थालं भरित्तु पुत्तस्स घय-खंडसमण्णियं ।।१०।। कज्जेण गेहमज्झम्मि पविट्ठा जणणी तओ । साहू एत्थंतरे तत्थ पविठ्ठो मासपारणे ।।११।। भिक्खट्ठा तत्थ गेहम्मि, दिट्ठो संगमएण तो । समुन्भिज्जंतरोमंचकंचुओ चिंतए इमं ।।१२।। 'सुलद्धं माणुसं मज्झ, जीवियं जम्ममेव य । जेण सव्वा वि संपण्णा, सामग्गी दुल्लहा इमा ।१३।। पत्तं चित्तं च वित्तं च तिण्णि वी पुण्णजोगओ । पुण्णाई मज्झ पुण्णाइं अज्ज' एवं विचिंतिउं ।।१४।। पप्फुल्ललोयणो बालो उप्पाडित्ता समुट्ठिओ । तं खीरीपुण्णयं थालं, तओ गंतुं तयंतिए ।।१५।। 'करेहाऽणुग्गहं नाह !' जंपई भत्तिनिब्भरो । 'सुज्झई' त्ति वियाणेउं साहुणा पत्तमुड्डियं ।।१६।। सव्वं वड्ढंतभावेण तं खित्तं तेण पत्तगे । पुण्णंतरायभीएणं साहुणा न निवारियं ।।१७।। भत्तीए वंदिउं साहुं नियट्ठाणे निसण्णओ । विणिग्णयम्मि साहुम्मि, धण्णा गेहाओ निग्गया ।।१८।। ‘भुत्त' त्ति मण्णमाणीए पुणो तं तीए पूरियं । रंकत्तणेण तेणावि भुत्तं कंठप्पमाणओ ।।१९।। अजीरंतेण रत्तीए मओ साहुं सरंतओ । पुण्णेणं तस्स दाणस्स पुरे रायगिहे तओ ।।२०।। १. ला० नमो सुयदेवयाए भगवईए । साम्प्रतं ।। २. ला. 'याउरि ॥ ३. सं० वा० सु० संपुन्ना ।। ४. ला० सल्लसा ॥ ५. ला० रुवाणि ॥ ६. ला० रोइरं ॥ ७. ला. 'मुट्ठिउं ॥ ८. ला. "त्तमोडियं॥ ९. पुण्यान्तरायकर्मभीतेन इत्यर्थः॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गमकाख्यानकम् २८३ गोभद्दइन्भभज्जाए भद्दागब्भे समागओ । सालीछित्तं सुनिप्पण्णं सुमिणे सा नियच्छिउं ।।२१।। विबुद्धा नियदइयस्स सुमुही सा पसाहए । तेणावि पुत्तजम्मेणं वरेणं साऽहिनंदिया ।।२२।। तं सोउं हट्टतुट्ठा सा तओ एवं पयंपई । 'देवाईणं पसाएणं होउ एवमिमं पहू !' ।।२३।। एवं च साऽहिनंदित्ता सुहेणं गब्भमुव्वहे । पुण्णेसु दोसु मासेसु उप्पण्णो तीए दोहलो ।।२४।। जहा दाणाइसद्धम्मकम्माइं जइ करेमहं । पूरिए सेट्टिणा तम्मि सुहं गब्भो पवडिओ ।।२५।। पत्ते पसूइकालम्मि पसूया सा सुहे दिणे । पुत्तं सुरकुमारं व लोयणाणंददायगं ।।२६।। तओ वद्धाविओ सेट्ठी चेडियाहिं दुयं दुयं । दाऊण ताण सो दाणं सहत्थेणं च मत्थयं ।।२७।। धा(धो?)विऊणं पुणो तुट्ठो पवत्तेइ महूसवं । वज्जिराउज्जसंसद्दभरिज्जंतनहंगणं ।।२८।। तुटुंततारहारोहमुत्ताहलकयच्चणं । सिंगारफारनारीहि समाढत्तं सुनच्चणं ।।२९।। दिज्जंतदाणसंघायं छत्तकोलाहलाउलं । अच्छेरयसयाइण्णं विम्हावियमहायणं ।।३०।। एमाइबहुरिद्धीए वत्ते तम्मि महूसवे । संपत्ते बारसाहम्मि सम्माणित्ता नियल्लए ।।३१।। सुमिणस्साऽणुसारेण सेट्ठी बंधुसमण्णिओ । ठवेइ सालिभद्दो त्ति गुण्णं पुत्तस्स नामयं ।।३२।। एवं पवड्ढमाणो सो धाईपंचगलालिओ । किंचूणअट्ठवरिसो, कला सव्वा उ गाहिओ ।।३३।। संपत्तो जोव्वणं तत्तो रूवेणं जियवम्महो । लावण्णवण्णसंपण्णो कामिणीयणवल्लहो ।।३४।। रमंतो सह मित्तेहिं लीलाए जाव अच्छइ । ताव तत्थेव वत्थव्वा बत्तीसं वरसेट्ठिणो ।।३५।। रईसारिच्छरूयाओ घेत्तुं कण्णाओ आगया । बत्तीसं सव्वसाराओ इब्भगोभद्दमंदिरे ।।३६ ।। भणंति ‘जइ विनेयाओ जोग्गाओ तुह सुयस्स उ । मण्णऊ तो वि एयाओ काउं अम्हाणऽणुग्गह' ।३७/ हट्टतुट्ठो तओ सेट्ठी पसत्थे तिहिवासरे । महाविच्छड्डरिद्धीए पाणिग्गहणं करावए ।।३८।। उत्तमे भवणाभोए समारूढो तओ इमो । देवो दोगुंदुगो चेव भुंजए भोगवित्थरं ।।३९।। पुण्णाणुभावओ तस्स माया-वित्ताणि सव्वहिं । पवत्तयंति अक्खूणं एवं काले गलंतए ।।४०।। गोभद्दो गिण्हए दिक्खं सिरिवीरजिणंतिए । चिच्चा धणाइयं सव्वं तओ पालित्तु संजमं ।।४१ ।। भत्तं पच्चक्खिउं काले दिव्वकंतिधरो सुरो । उप्पण्णो देवलोगम्मि उवओगं पउंजई ।।४२।। द₹णं ओहिनाणेण नियपुत्तसिणेहओ । तप्पुण्णावज्जिओ तत्थ सुरो सिग्धं समागओ ।।४३।। वत्था-ऽलंकार-मल्लाई सव्वं दिव्वं पणामई । सभारियस्स निच्चं पि दाणप्फलवसीकओ ।।४४।। जं च माणुस्सयं कज्जं भद्दा तं से पसाहई । निच्तिो सव्वठाणेसु एवं भोगे पभुंजई ।।४५।। अण्णया वणिया केई घेत्तुं रयणकंबले । उवट्ठिया नरिंदस्स सेणियस्स सहंगणे ।।४६।। 'महग्घाणि' त्ति काऊण राया जाव न गिण्हई । ताव तत्तो विणिग्गंतुं वणिणो भद्दागिहं गया ।।४७।। १. सं० वा सु० च्चक्खियं ॥ २. ला० °ल्लाइ ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके ‘सा वि ते कंबले सव्वे मोल्लं दाऊण गिण्हई । वणिणो वि नियावासे गया, एत्थंतरम्मि य ।।४८। विण्णत्तो सेणिओराया चेल्लणाए जहा मम । अट्ठाए कंबलं एवं महामोल्लं पि घेप्पउ' ।।४९।। वारंवारं भणंतीए सद्दिया वणिणो तओ । भणिया य कंबलं एवं अम्हं मोल्लेण देह भो!' ।।५०।। वुत्तं तेहिं जहा देव ! दिण्णा सव्वे वि कंबला । भद्दाए इब्भभज्जाए' तओ रण्णा तदंतिए ।।५१ ।। गोरव्वो पेसिओ एक्को भद्दो नियमहंतओ । जहा ‘आणेहि मोल्लेण, भद्दापासाउ कंबलं' ।।५२।। तेणावि जंपिया गंतुं ‘भद्दे ! राया विमग्गई । जहाकिइयमोल्लेण एवं रयणकंबलं' ।।५३।। भद्दा पयंपई ‘भद्द ! ते मे फालित्तु कंबले । सालिभद्दस्स भज्जाणं पायलूहणगा कया ।।५४ ।। ता विण्णवेहि रायाणं जइ जुण्णेहि सिज्झई । कज्जं तो लेह सेच्छाए, जओ अण्णं न विजई। ५५ । तं तेण राइणो सव्वं गंतुं जाव निवेइयं । चेल्लणा ता पयंपेई 'देव ! पेच्छसु अंतरं' ।।५६।। अम्हाणं वणियाणं च' इई वुत्तो नराहिवो । कोऊहलेण अप्फुण्णो एवं मंतिं पभासई ।।५७।। 'भणेहि भद्द ! तो भद्दे जहा-अम्हाण कोउगं । ता पेसेहि इहं भद्दे ! सालिभदं खणंतरं' ।।५८।। तेणावि जाव सा वुत्ता ताव भद्दा ससंभमा । उठ्ठित्ता राइणो पासे सयमेव समागया ।।५९।। विण्णवेई जहा देव ! न मे पुत्तो कयाइ वि । पेच्छए चंद-सूरा ता चिट्ठउ बहिनिग्गमं ।।६० ।। ता घरागमणेणऽम्ह पसाओ देव ! कीरउ' । कोऊहलेण रण्णा वि तं तहेवाऽणुमण्णियं ।।६१।। ‘पसाओ' त्ति भणंतीए पुणो भद्दाए जंपियं । ‘खणमेक्कं विमालेहि जावाऽऽगच्छामऽहं पुणो' ।।६२। गेहं गंतूण कारेइ हट्टसोहं निरंतरं । सगेहदारदेसाओ सीहद्दारं निवस्स जा ।।६३।। नाणापेच्छणयाइण्णं तं काऊणं तओ निवं । विण्णवेइ 'गिहं गंतुं पसाओ देव ! कीरउ' ।।६४।। तत्तो राया तहिं सिग्घं सव्वोरोहसमण्णिओ । पेच्छंतो पेच्छणे दिव्वे सालिभद्दगिहं गओ ।।६५।। तं च के सरिसं ? सुरत्तहेमभित्तियं, विचित्तचित्तचित्तियं । माणिक्कबद्धभूतलं, विणिंततेयमंडलं ।।६।। सुभंगसालभंजियं, विपंचिवससिंजियं । सुवण्णथंभसंगयं, पणच्चमाणरंगयं ।।६७।। ललंतमुत्तमालयं, रणंततारतालयं । फुरंतवारतोरणं, मणुस्ससोक्खकारणं ।।६८।। उत्तुंगसत्तभूमियं सम्मट्टघट्टदूमियं । कीरंतवत्थसोहयं, वज्जंतमद्दलोहयं ।।६९।। एरिसं तं नियच्छंतो विहियाणेयमंगलो । पविठ्ठो तत्थ सो राया विम्हउप्फुल्ललोयणो ।।७०।। कमसो जाव आरूढो चउत्थं भूमिगातलं । सव्वप्पहाणए तत्थ आसणम्मि निवेसिओ ।।७१।। वत्था-ऽलंकारमाईयं दाउं भद्दा तैयंतओ । सालिभद्दसयासम्मि सत्तमं भूमिगं गया ।।७।। १. ला० ता ॥ २. ला० गेहे ॥ ३. सं० वा० सु० गिहे ॥ ४. सं० वा० सु० तयं ॥ ५. ला० तहिं । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गमकाख्यानकम् २८५ जंपई 'पुत्त ! तं दटुं सेणिओ पुहईसरो । चउत्थं भूमिगं पत्तो तो आगच्छ खणंतरं' ।।७३ ।। जंपई सालिभद्दो वि अम्मो ! तं चेव जाणसि । अग्धं गिण्हाहि तो गंतुं किं करिस्सामहं तहिं ?' ७४। भद्दा पयंपई 'पुत्त ! न तं होइ कियाणयं । किंतु नीसेसलोयाण तुम्हऽम्हाण य सो पहू' ।।७५ ।। तं सोउं तक्खणं चेव विरत्तो चिंतए इमं । धी धी ! संसारवासस्स जत्थऽऽण्णो मज्झ वी पहू ॥७६॥ ता एवं दुक्खपउरेहिं भवभोगेहिं मे अलं । पव्वज्जामि जिणस्संते दिक्खं दुक्खविमोक्खणिं' ।।७७ । एवं संवेगपत्तो वि मायाए उवरोहओ । चंदो व्व तारयाजुत्तो उत्तिण्णो सो सभारिओ ।।७८।। सेणियस्संतियं पत्तो पणामं कुणई लहुं । नरिदेणाऽवि नेहेण निययंके निवेसिओ ।।७९ ।। अग्घाओ उत्तिमंगम्मि जाव तत्थ खणंतरं । चिट्ठई ताव अंसूणि मुयंतं नियपुत्तयं ।।८।। दटुं भद्दा पयंपेइ ‘देव ! एयं विसज्जह । जओ माणुस्समल्लाइगंधो एयस्स बाहइ ।।८१ ।। दिव्वाणुलेवणं मल्लगंधाईयं पणामइ । निच्चं जणयदेवो से सभज्जस्स मणोहरं' ।।८२।। तत्तो विसज्जिओ एसो गओ सत्तमभूमिगं । रण्णा वि जंपिया भद्दा 'गच्छामो नियमंदिरं' ।।८३।। विण्णत्तो निवई तीए ‘पसाओ देव ! कीरउ । अज्ज[आम्ह गिहे चेव भोयणेणं' तओ निवो ।।८४ ।। उवरोहगओ तीए पत्थणं पडिवज्जई । तओ भद्दाइ वक्केण दासचेडीओ तक्खणं ।।८५।। मयणिज्ज-हिणिज्जाइं दीवणिज्जाइं आणिउं । लक्खपागाइतेल्लाई पोत्तियं अप्पिउं तओ ।।८६। सुकुमालपाणिपाया दक्खा छेयंगमद्दया । अब्भंगयंति रायाणं परिवारसमण्णियं ।।८७।। रयणसोवाणपंतीसु जाव वावीसु मज्जए। राया ता देवजोगेणं कराओ पडियं जले ।।८८।। नाममुदं पलोएइ निवो संभंतलोयणो । तं दटुं भणई भद्दा दासचेडी 'हला ! इमं ।।८९।। नीरमन्नत्थ वावीए संकामेहि खणंतरे । जंतप्पओगओ सव्वं' तीए झत्ति तहा कयं ।।९।। नाणालंकारमज्झम्मि तमिंगालसरिच्छयं । पिच्छिउं पुच्छई चेडी 'किमेयं ?' विम्हयाउलो ।।९१।। तीए वि जंपियं 'देव ! निच्चं पक्खिप्पई इमं । निम्मल्लं सालिभद्दस्स सकलत्तस्स एत्थ उ' ।।९२॥ तं सोउं चिंतए राया 'पेच्छ पुण्णस्स अंतरं । अहं राया इमो भिच्चो भोगलच्छी पुणेरिसा ।।९३।। ता धण्णो सव्वहा एसो कयपुण्णो नरुत्तमो । सुलद्धं जीवियं जम्म माणुसत्तमिमस्स उ' ।।९४ ।। एवं च मज्जिउं भुत्तो णाणारससमण्णियं । विसिटुं भोयणं, पच्छा कयकिच्चो गिहं गओ ।।१५।। सालिभद्दो वि संसारविरत्तो जाव चिट्ठइ । ताव कल्लाणमित्तेणं आगंतूणं निवेइयं ।।९६।। ‘वद्धाविज्जसि तं सामि ! जओ एत्थेव पट्टणे । समोसढो वरुज्जाणे बहुसीससमण्णिओ ।।९७।। धम्मघोसो त्ति नामेणं सूरी गुणगणालओ । चउनाणेहिं संपन्नो नरा-ऽमरनमंसिओ ।।९८।। १. ला० ता ॥ २. ला० तं ।। ३. ला० चिद्धि सं ॥ ४. ला० तो ॥ ५. ला० ज्जाई, दप्पणिज्जाणि आ॥ ६. ला. ज्जई ॥ ७. ला० भोगिड्ढी पुण एरिसा ॥ ८. सं० वा० सु० तो ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ 1 सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके तं सोउं सालिभद्दो वि रोमंचुच्चइयगत्तओ । सामग्गियं विहेऊणं वंदणत्थं विणिग्गओ ।। ९९ ।। पत्तो य सूरिपासम्मि काउं पंचप्पयारयं । कमेणाऽभिगमं तत्तो वंदित्ता भत्तिनिब्भरो ।। १०० ।। सूरिणो सेससाहू य तओ सुद्धमहीतले । निसण्णो पंजलीहोउं भत्तीए पज्जुवासई । । १०१ ।। सालिभद्दस्स तीसे य परिसाए जिणभासियं । धम्ममाइक्खई रम्मं मोक्खसोक्खेक्ककारणं । । १०२ ।। जहा 'भो ! एत्थ, संसारे सव्वे जीवा सकम्मओ । पावंति तिक्खदुक्खाई अनंताई निरंतरं । ।१०३ । । सारीर-माणसाइं ते जेहिं पीडिज्जए जणो' । एयम्मि अंतरे सूरी सालिभद्देण पुच्छिओ ।। १०४ ।। 'भयवं ! केण कम्मेण अन्नो सामी न विज्जई । तं सोउं जंपई सूरी 'सव्वदुक्खविमोक्खणी । । १०५ ।। दिक्खं गिण्हंति जे जीवा तिलोगस्साऽवि ते पहू' । 'जइ एवं तो गिहे गंतुं जाव पुच्छामि अंबयं । १०६ । ताव तुम्ह सयासम्मि गिण्हिस्सामि तैयं लहुं' । सूरी पयंपई 'भद्द ! मा पमायं करिस्ससि' ।। १०७ ।। ‘इच्छं’ति भणिऊणेसो मंदिरं निययं गओ । पायग्गहं विहेऊण तओ भदं पपई । ।१०८।। ‘अम्मो ! अज्ज मए धम्मो सुओ सव्वण्णुभासिओ । धम्मघोसस्स पासम्मि' सुंदरं' सा पयंपई ।१०९। सालिभो तओ आह 'जइ एवं तो करेमहं । अम्मो ! तुब्भेहऽणुण्णाओ तं धम्मं भवनासणं' ।। भद्दाए जंपियं ‘वच्छ ! सो अच्वंतसुदुक्करो । जवा लोहमया चेव चावेयव्वा निरंतरं । ।१११।। तुमं च देवभोगेहिं वच्छ ! निच्वं पि लालिओ । ता कहं कट्टणुट्ठाणं, काउं सत्तो भविस्ससि ?' । ११२ । पई सालो व 'एवमेव, न अन्नहा । किंतु कीवस्स एयं तु नो वीरस्स मणस्सिणो' । । ११३ ।। जंपई सा जई एवं अब्भासो ताव कीरऊ । माणुस्सगंधमल्लेसु भोगच्चाए य किंचि वि' ।। ११४ । । डिवज्जित्ता तओ एसो मुंचई य दिणे दिणे । तूलिं भज्जं च एक्केक्कं, एत्तो तत्थेव पट्टणे ।। ११५ ।। अत्थि इब्भो सुविक्खाओ धन्नो नाम धणड्ढओ । उव्वूढा सालिभद्दस्स तेणं लहुसहोयरी । । ११६ । हाविंत सातयं धणं अंसुपायं पमुच्चई । भत्तुणा पुच्छिया 'भद्दे ! केणाऽऽणा तुह खंडिया ? | ११७ किं वा किंचि वि नो वत्थु संपज्जइ मणिच्छियं ?' । तीए वुत्तं 'न एक्कं पि एयाणं मम बाहए । ११८ । । पव्वज्जुवट्ठिओ किंतु नाह ! मज्झ सहोयरो । मुंचए जेण एक्केक्कं तूलिं तेणाऽधिई गम' ।। ११९ ।। तेत्तं 'हीणसतो सो एवं जो उ पकुव्वई' । अण्णाहिं तस्स भज्जाहिं सहासाहिं पयंपियं । । १२० ।। 'सुकरं जइ इमं नाह ! सयं तो किं न कीरई ?' । धण्णो पयंपई 'भद्दे ! वयणं तुम्ह संतियं । । १२१ । । उद्दिक्खंतो ठिओ कालं, संपयं पुण पिच्छह । सव्वच्चायं विहिज्जंतं' तओ ताहिं पयंपियं ।।१२२ ।। 'खेड्डयं कयमम्हेहिं, निच्छयं किं पयंपह ? । अणुरत्ताओ भत्ताओ अम्हे दव्वं च सामिय ! ।। १२३ ।। मा चयाहि अयंडम्मि' तओ धण्णो पभासई । 'धणं धण्णं कलत्तं च अणिच्चं सव्वमेव य । । १२४ । १. सं० वा० सु० तो ॥ २. ला० 'ज्जए ॥ ३. ला० वयं ॥ ४. ला० मंदिरे ॥ ५. ला० सो य अच्चंतदुक्करो || Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्गमकाख्यानकम् .२८७ जम्हा तम्हा गहिस्सामि पिए ! दिक्खं जिणंतिए' । तो ताओ निच्छयं नाउं भणं तेवं ‘वयं' पि हि।१२५। तुम्हेऽणुपव्वइस्सामो' 'सोहणं' सो वि जंपई । धम्मट्ठाणेसु सव्वेसु सव्वं दव्वं निओझं ।।१२६।। सहस्सवाहिणी सीयं दुरूढो सकलत्तओ । सयणेहणुगम्मतो पत्तो वीरजिणंतिए ।।१२७।। सीयाओ उत्तरेऊणं काऊणं च पयाहिणं । वंदित्ता जपइ 'नाह ! भवुब्विग्गस्स मे सयं ।।१२८।। देह दिक्खं महाभाग ! सभज्जस्स पसायसो' । जिणा ऽणुमन्निए तत्तो दिसं पुव्वुत्तरं गओ ।।१२९ ।। वत्था-ऽलंकारमाईयं मोत्तुं लोयं करित्तु य । जावाऽऽगओ जिणस्संते दिक्खिओ ता जिणेण सो।१३०। इत्थंतरम्मि सोऊण सालिभद्दो तमब्भुयं । वुत्तंतं 'विजिओ मि' त्ति सव्वं मोत्तूण तक्खणं ।।१३१ ।। दाउं दव्वं सुठाणेसुं, सिबियं सो वि आरुहे । सेणिएणाणुग(गं)मंतो पुराओ बहि निग्गओ ।।१३२॥ छत्ताइछत्तए दटुं सीयं मुंचइ तक्खणं । पुव्वक्कमेण एसो वि लेइ दिक्खं महायसो ।।१३३।। 'एत्थ संसारकंतारे भमंताण सरीरिणं । दुल्लहं माणुसत्ताई जिणधम्मसमण्णियं ।।१३४।। तहिं पि वयसामग्गी दुक्खं जीवेहिं लब्भई । तं लद्धं सव्वदुक्खाणं दिण्णो होइ जलंजली ।।१३५।। केवलं अप्पमत्तेहिं कायव्वो तत्थ उज्जमो । जओ पमायजुत्ताणं सव्वा दिक्खा निरत्थया' ।।१३६ ।। एवं सासित्तु अज्जाओ चंदणज्जाइ अप्पिया । इयरे दो वि थेराणं सिक्खणत्थं समप्पिया ।।१३७।। जाया कालेण गीयत्था भावियप्पा बहुस्सुया । छट्ठाओ अट्ठमाओ य दसमाओ दुवालसा ।।१३८।। अद्धमासाओ मासाओ दोमासिय-तिमासिया । चाउम्मासाइयाओ वा पारयंति कयाइ वि ।।१३९ ।। एवं तवेण संजाया किसा धवणिसंतया । अण्णया सामिणा सद्धिं रायग्गिहमुवागया ।।१४०।। सालत्तयाइयं तत्थ सव्वं देवेहिं निम्मियं । जिणस्स वंदणट्ठाए तओ लोगो विणिग्गओ ।।१४१ ।। संपत्ते भिक्खकालम्मि मासक्खमणपारणे । भिक्खट्ठा वच्चमाणेहिं वंदिओ भुवणप्पहू ।।१४२।। भणिओ य जिणिदेणं सालिभद्दमहामुणी । ‘अज मायाइ हत्थेणं पारणं ते भविस्सई' ।।१४३।। 'इच्छं' ति भणिउं दो वि, पंविट्ठा तम्मि पट्टणे । अडता उच्च-नीएसु मज्झिमेसु कुलेसु य ।।१४४। भद्दागेहम्मि संपत्ता संठिया य घरंगणे । तवसोसियदेहत्ता न नाया तत्थ केण वि ।।१४५।। वंदिस्सामो जिणं धण्णं सालिभदं तहेव य । इय वाउलत्तणाओ य न ते केणा वि लक्खिया ।।१४६ । खणमेक्कं चिट्ठिउं तत्थ निग्गया ते महामुणी । दिव्वजोएण लद्धीए पुराओ जा विणिग्गया ।।१४७।। सालिभद्दस्स ता माया जम्मंतरसमुन्भवा । धण्णा नामेण गामाओ महिहारीसमण्णिया ।।१४८।। धित्तुं दहिं समायाया विक्कयत्थं तहिं पुरे । पविसंती नियं पुत्तं सालिभदं नियच्छिउं ।।१४९।। रोमंचकंचुइज्जंतसमागच्छंतपण्हया । भत्तीए वंदिउं देइ तं दहिं ताण दोण्ह वि ।।१५०।। १. सं० वा० सु० तेयं ।। २. ला० पि वि ॥ ३. ला० 'तुब्भेऽणु ॥ ४. सं० वा० सु० इयं ॥ ५. ला० 'पए॥ ६. ला० णेण मन्निए ।। ७. ला० धमणि || ८. ला० पयट्टा ॥ ९. ला० जाव णिग्ग' ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके ‘सुज्झई' त्ति तयं घित्तुं ते जिणंतियमागया । आलोइता विहाणेणं सालिभद्दो कयंजली ।।१५१।। पुच्छई ‘सामि ! संजायं कहमम्हाण पारणं ?' । 'मायाहत्थाओ' सामी वि पुव्वजम्माइ साहइ ।। तओ संवेगमावण्णा तमेव दहि पारिउं । आपुच्छित्ता जिणं वीरं गया वेभारपव्वयं ।।१५३।। सयं पमज्झिउं तत्थ एक्कं वरसिलायलं । पायवोवगमं नाम पवण्णाऽणसणं वरं ।।१५४।। एत्थंतरम्मि सा भद्दा सेणिओ य नरीसरो । संपत्ताणि जिणस्संते भत्तीए वंदिउं जिणं ।।१५५।। 'सालिभद्दो य धण्णो य भयवं! कत्थ महामुणी? । किंवा वि अम्ह गेहम्मि भिक्खट्ठान समागया?'। सामी वि जंपई भद्दे ! पविठ्ठा तुह मंदिरे । भिक्खट्ठा किंतु तुम्हाणं न केणाऽवुवलक्खिया ।।१५७।। ठिच्चा खणंतरं तत्थ, तओ पच्छा विणिग्गया । सालिभद्दस्स माया उ पुव्वब्भवसमुब्भवा' ।१५८। इच्चाए अखिए सव्वे तओ भद्दा तहिं गया । सेणिएण समं जत्थ ते चिट्ठति सिलायले ।।१५९।। वंदिउं भावसारं तु पलावे कुणई तओ । 'हा पुत्त ! तं सि बत्तीसतूलीणं उवरिं तया ।।१६०।। सुत्तो सि, संपयं एत्थ कक्कसम्मि सिलायले । हा पुत्त ! गीयसद्देहिं विबुझंतो तया तुमं ।।१६१।। . सिवासद्देहिं भीमेहिं संपयं तु विबुज्झसि । हा पुत्त ! चाडुगुत्तेणं परियणेणं समण्णिओ ।।१६२ ।। चिट्ठतो इण्हिमेगागी सुण्णारण्णम्मि चिट्ठसि । हा पुत्त ! तं सि रमणीए ललंतो नियमंदिरे ।।१६३।। तया इण्हिं तु भीमम्मि कहं अच्छसि पव्वए ? । हा पुत्त ! दिव्वभोगेहिं लालिओ तं सि सव्वया।१६४। इण्डिं तु निप्पडीकम्मसरीरो कह जंपसि? । हा पुत्त ! नियगेहे वि आगओ वि न जाणिओ ।।१६५।। अम्हेहिं मंदभग्गेहिं किसत्ताओ तवेण उ । एवं विलावसंजुत्तं सेणिओ तं पयंपई ।।१६६।। 'किमेयं विलवसे अम्मो ! महासत्तं नरुत्तमं । देवाणं दाणवाणं च वंदणिजं महायसं ।।१६७।। गुणवंताण मज्झम्मि रेहा एयस्स दिज्जई । जो मोत्तुं तारिसं रिद्धिं वयं चरइ एरिसं ।।१६८।। सुलद्धं जीवियं जम्मं कुलं सीलमिमस्स उ । जो सीसो सामिणो जाओ दुक्करं करई तवं ।।१६९।। । पुत्तवंतीण मज्झम्मि तुम एक्का गणिज्जसि । जीसे पुत्तो इमे जाओ सालिभद्दमहामुणी ।।१७०।। तुमं अम्हे वि एएण तारियाई न संसओ । ता किं पमोयठाणे वि अम्मो ! सोयं पकुव्वसि ? ।।१७१ । उट्ठ वंद महाभागे ! मुणी एए जगुत्तमे । गेहं पइ पयट्टामो, उस्सूरं जेण वट्टई' ।।१७२।। एवं वुत्ता नरिदेण वंदित्ता ते मुणीसरे । गया गेहम्मि देहेणं सरंती एगचित्तया ।।१७३।। साहू वि दो वि ते कालं काऊणाऽऽउक्खए तओ । समाहिणा समुप्पण्णा सव्वट्ठम्मि विमाणए । १७४। सिद्धिसोक्खाणुगं तत्थ तेत्ती सं सागरोवमे । भोत्तुं चइत्तु मच्चम्मि सिज्झिस्संति अकम्मया ।।१७५। १. ला० तो ॥ २. सं० वा० सु० तइया ॥ ३. ला० ‘याणि ॥ ४. सं० वा० सु० ‘ती तेअचित्तया ॥ ५. सं० वा० सु० 'तीसा' ॥ ६. सं० वा० सु० महम्मि || Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ कृतपुण्यकाख्यानकम् इय परमपवित्तं सालिभद्दस्स एयं, चरियमइविसिटुं जे पढंती मणुस्सा ।। तह य अणुगुणंती जे य वक्खाणयंती, नर-सुरवरसोक्खं भुंजिउं जंति मोक्खं ।।१७६ ।। सङ्गमकाख्यानकं समाप्तम् । ३३. साम्प्रतं कृतपुण्यकाख्यानकं कथ्यते [३४. कृतपुण्यकाख्यानकम्] अत्थि वरविजयकलिओ संकिण्णो वाहिणीसहस्सेहिं । सुहरिसमेओ सुपओ जंबुद्दीवो नरिंदो व्व।१। तत्थ वि य भरहखंडं छक्खंडं खंडचंदसंठाणं । तत्थऽत्थि मगहदेसो जणवयगुणसंजुओ रम्मो ।।२।। तत्थ वि रायगिहपुरं चूडामणिसच्छहं धरित्तीए । तं पालइ हयसत्तू नामेणं सेणिओ राया ।।३।। सुकुलुग्गयाहिं रइरूवियाहिं इठ्ठाहिं दोहिं देवीहिं । नंदा-चेल्लणनामाहिं संजुओ भुंजए भोगे ।।४।। निक्खित्तरज्जभारो अभयकुमारम्मि निययपुत्तम्मि । मइबुद्धिसंजुयम्मिं असेसमंतिप्पहाणम्मि ।।५। एत्तो य जणवए तम्मि चेव एगम्मि अत्थि गामम्मि । तन्नगपाली एक्का दारिद्देणं समभिभूया ।।६।। तीए य सुओ बालो तन्नगपरिरक्खणं करेमाणो । एगत्थ अडविमज्झे जइजणजोग्गे पएसम्मि ।।७।। अह पिच्छइ वरसाहुं काउस्सग्गेण संठियं एक्कं । तवसोसियतणुयंगं तं दटुं चिंतए बालो ।।८।। 'एयस्सं जम्म-जीविय-माणुस्सत्ताइं नूण सहलाई । जो एवं णिड्डज्जणरण्णे विविहं तवं कुणइ ।।९।। नूणऽत्थि पुण्णलेसो मज्झ वि जेणेस दंसणं पत्तो । ता वंदिऊण एयं करेमि सुपवित्तमत्ताणं' ।।१०।। इय चिंतिऊण पणओ मुणिवरचलणेसु एव निच्वं पि । वंदंतस्स मुणिवरं संपत्तो ऊसवो कोवि ।।११। गामविलयाण पासाओ मग्गिउं खीरमाइ जणणीए । निययसुयस्सऽटाए अह रद्धो पायसो तत्तो ।।१२। उवविठ्ठयस्स भुत्तुं सुयस्स गेहंगणम्मि वरथालं । घयगुलजुत्तस्स उपायसस्स काऊण पडिपुण्णं ।।१३। कज्जंतरम्मि जणणी जाव पविट्ठा गिहम्मि ताव तओ । संपत्तो सो साहू जो पुव्वं वंदिओ तेण ।।१४। दट्टण तयं इंतं भत्तिवसुण्णमियबहलरोमंचो । सो चिंतिउं पवत्तो आणंदजलाविलऽच्छीओ ।।१५।। अवि य 'एक्कु घरंगणि साहू समागय, नाओवज्जिय अनु घरि संपय । -भावु वि अज्जु मज्झु संपण्णउ, मण्णे हउं जि एक्कु कयउण्णउ ।।१६।। किंच १. ला० एवं ॥ २. सं० वा० सु० नरवरसुरसोक्खं ॥३. ला० °ण्यकथानकं ।। ४. सं० वा० सु० मयबु ॥ ५. ला० कुणेमाणो ॥ ६. ला० तरेण ।। ७. ला० 'सु ल्लसिय ॥ ८. 'अवि य' इति न विद्यते सं० वा० सु० प्रतिषु ।। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके कहिं अम्हे ? कहिं मुणिवर इंती ? कहिं अम्हे ? कहिं संपय संती? । कहिं अम्हे ? कहिं भत्ति तुरंती ? कहिं अम्हे कहिं तिण्णि मिलती ।।१७।। एवं च चिंतिऊणं 'थाले रेहाओ दोन्नि दाऊण । दाहामि त्ति तिभागं' भावितो उठ्ठिओ बालो ।।१८।। गंतुं साहुसमीवे जंपइ जइ सुज्झइ त्ति तो लेह' । नाऊण सुद्धि-भावे मुणिणा वि हु उड्डियं पत्तं ।।१९।। पक्खिविउं तत्थ तओ तिभागमित्तं पुणो वि चिंतेइ । अइथोवमिमं' तत्तो पक्खिवइ बिइज्जयं भाग।२०। पुण चिंतइ जइ कह विहु निवडइ अंबाइयं तओ एसा । नूण विणस्सइ खीरि' तइयं भागं पितो देइ।२१। वंदित्ता उवविठ्ठो पुणो वि तत्थेवचेव ठाणम्मि । साहुम्मि गए संते जणणी वि विणिग्गया बाहिं ।।२२।। तं दर्दू तयवत्थं नूणं भुत्तं अणेण तं सव्वं' । इय चिंतिऊण तीए पुणो वि परिपूरियं थालं ।।२३।। रंकत्तणेण भुत्तं तेण तयं तो अजीरमाणम्मि । रयणीए मरिऊणं सुभभावो रायगिहनयरे ।।२४।। धणपालइब्भगेहे भद्दाए भारियाए कुच्छिंसि । उववण्णो तो लोगो पयंपई ‘एस कयपुण्णो ।।२५।। जो एवंविहगेहे धण-धण्णसमिद्धिबंधुरे धणियं । उप्पज्जिही महप्पा गम्भे' अह कालसमयम्मि ।।२६ । पसवइ भद्दा सव्वंगसुंदरं दारयं सुकंतिल्लं । वद्धाविओ य इब्भो सुयजम्ममहसवं कुणइ ।।२७।। लोगेणं कयउण्णो भणिओ गब्भट्ठिओ इमो जम्हा । कयउण्णउत्ति तेणं नामंजणएहिं से विहियं ।।२८। वड्ढंतो य कमेणं जाओ बाहत्तरीकलाकुसलो । कामिणिजणमोहणयं आरूढो जोव्वणं जाव ।।२९।। ता इब्भबालियाए समाणकुल-रूय-जोव्वण-गुणाए । जणएहिं पसत्थदिणे विहिणा गिण्हाविओ पाणिं तह वि हु विसएसुमणं कलासुरसिओ न देइ सो जाव । ताभदाए भणिओधणपालो एरिसं वयण।३१। 'नाह ! इमो अकयत्थो सव्वो धणवित्थरो जओ एसो । निप्पिहचित्तो दीसइ अहियं कामेसु कयउन्नो॥३२॥ ता तह करेसु सामिय ! विसए सेवेइ जह इमो कुमरो । किं बहुणा वि धणेणं इमेण जइ विलसइ न एसो ?।।३३॥ तो जंपइ धणपालो ‘मा जंपसु पिययमे! इमं जम्हा । होंति असिक्खवियाणि वि एयाणि जणे जओ भणियं ॥३४॥ आहार-भय-परिग्गह-मेहुणसन्नाओ अणुवइट्ठाओ । गिण्हंति सव्वसत्ता, अव्वो! किं तदुवएसेण ।३५। किं च सहावेणं चिय कामग्गी दिप्पए जियाण पिए! । को हुसयन्नो दित्ते जलणे पक्खिवइ तणभारं'।३६। भदाए तओ भणियं 'जइ वि इमं तह विमज्झसंतोसो। एवं चिय होइजओ ताअवियारं इमं कुणसु'।३७/ जाणेत्तु निच्छयं तीए तेण दुल्ललियमणुयगोट्ठिए । छूढो तओ कुमारो तीए समंभमइ अणवरयं ।।३८।। उज्जाण-वावि-दीहिय-तलाय-पेच्छणयमाइठाणेसु । अह अण्णया पविठ्ठो वेसाणं पाडयंरम्मं ।।३९ । १. सं० वा० सु० बियज्जयं ॥ २. ला० भणिओ ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतपुण्यकाख्यानकम् २९१ तत्थ वि वसंतसेणागणियाएरूंय-जोव्वणजुयाए। विण्णाण-णाण-विणओवयारकुसलाइ गेहम्मि ।४०। जातीए अक्खित्तो कामुक्कोयणकहाहिं विविहाहिं । ताव वयंसयलोगो झड त्ति गेहाओ नीसरिओ।४१। सो तीए पोढिमाए तहा तहा रंजिओ सुरयकाले । जह तच्चित्तो जाओ अन्नत्थ मणं नियत्तेउं ।।४२।। भुंजइ तीए समाणं विसयसुहं सुरवरो व्व सग्गम्मि । पेसिति जहिच्छाए दव्वं जणयाणि अणवरयं ।।४३। इय निच्चिंतस्स तहिं पंचत्तं उवगयाणि जणयाणि । न वि जाणियाणि तेणं भज्जा पेसेइसे दव्वं ।।४४।। इय बारसमे वरिसे धणयाऽऽसमसन्निभं तयं गेहं । दव्वक्खएण जायं दारिद्दियसुन्नगेहं व ।।४५।। तो निट्ठियम्मि दव्वे कुलीणयाए नियं पि आभरणं । पेसेइ तयं दटुं चिंतइ सा कुट्टणी एवं ।।४६।। 'नूण इमो निस्सारो संपइ जाओ' अओ तयं एसा । रूवयसहस्ससहियं पेसेइ पुणो वि आभरणं ।।४७। भणिया वसंतसेणा ‘वच्छे ! परिचयसु कामुयं एयं । निप्पीलियआलत्तयउच्छुसरिच्छं जओ अम्हं ।४८। एसोच्चिय कुलधम्मो माणिज्जइ जंधणडओ चेव। ता पुत्ति! कुलायारं मा मुय पडिवज्ज धणवंतं'।४९। तो जंपइ सा 'अम्मो ! मा एवं भणसुजेण एएण । दिण्णं पभूयदव्वं को अण्णो दाहिई एवं ? ।।५०।। आसत्तमं पि वेणीपज्जंतं अम्ह होहिई एयं । दाही पुणो वि अण्णं अम्मो दव्वं महाभागो ।।५१।। आयारेणं वोडाण मज्झ एवंविहेण न हु कज्जं । उत्तमगुणरयणाणं किंच इमो पूरिओ अम्मो!' ५२। इय तीइ निच्छयं जाणिऊण आयारसंवरं काउं । कज्जं हियए ठविउं तुहिक्का संठिया धुत्ती ।।५३।। रयणीए तओ सुत्तं पल्लंके निययपुरिसहत्थाओ । मेल्लावइ देवउले वसंतसेणाए सुत्ताए ।।५४।। निद्दाखए विबुद्धो एसो वि पलोइडं दिसायक्कं । चिंतइ किमिंदियालं? दिसिब्भमो किं व मह जाओ? किंवा वि सुमिणगोऽयं, उय धाउविवज्जओ भवे एसो?' । इय चिंतंतो भणिओ पासट्ठियदासचेडीए।। 'मा कुणसु बहुवियप्पे निययं कुलधम्ममणुसरंतीए । अंबाए निच्छूढो वसंतसेणाइ मड्डाए ।।५७।। तं वच्चसु नियगेहं पल्लंकं गहिय जेण वच्चामि' । तो विमणदुम्मणो सो निययं पइ पट्ठिओ गेहं ।५८। दिटुं च तयं तेणं महाअरण्णं व माणुसविमुक्कं । असुवण्णालंकारं कुकईयणरइयकव्वं व ।।५९।। पेयवणं व सुभीमं, गयरयणं वुड्ढपुरिसवयणं व । सुक्कसरं व अकमलं, गयसोहं विंझरण्णं व ।।६० । एवंविहं नियंतो सासंको जाव सो तहिं विसइ । ताविंतं दद्दूणं अब्भुट्ठइ झ त्ति से भज्जा ।।६१।। दिण्णम्मि आसणम्मि उवक्ट्ठिो धोविया तओ चलणा । पुच्छइ य जणणि-जणयाणसंतियं सो तओ वत्तं॥६२॥ तीए वि अपरिसेसा अक्खाया असुए मुयंतीए । तं सोउं से दुक्खं संजायं नरयसारिच्छं ।।६३।। १. ला० रूवजो ॥ २. ला० नीहरिओ ॥ ३. ला० टुं विचिंतए कुट्टणी एवं ॥ ४. सं० वा० सु० होहिही ॥ ५. ला० ‘णं वेडेण ॥ ६. ला० कातुं ॥ ७. ला० तयं सू ।। ८. सं० वा० सु० 'टो सोइओ तओ चलणे॥ ९. ला० 'याइस' ॥ १०. सं० वा० सु० तओदंतं ॥ ११. ला० अंसुयं ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके संधीरिऊण अप्पं सयमेव य पुच्छए तओभजं । 'किं अस्थि किंपि?' तीए विदाइयं तं नियाभरणं।६४। तं चेव भंडमुल्लं घेत्तुं संपट्टिओ दिसायत्तं । कइवि दिणे ठाऊणं गेहि च्चिय मित्तलज्जाए ।।६५।। काऊणं फलबंधं तीए संपट्ठियम्मि सत्थम्मि । सत्थासण्णे खट्टाइ सो ठिओ सुण्णदेवउले ।।६६।। एत्तो य तम्मि णयरे सुधणूनामेण अस्थि वरइब्भो । भज्जा ये तस्स महिमा मायाबुद्धीहिं दुल्ललिया ।६७। धणवत्तो नामेणं तीए सुओ रूय-जोव्वणसमग्गो । नीसेसकलाकुसलो जणएण समाणरूवाणं ।।६८। इब्भकुलबालियाणं चउण्ह गिण्हाविओ करं जाव । ता जणओ पंचत्तं संपत्तो, सो वि मित्तेहिं ।।६९। देसंतरगमणत्थं चित्तं काराविओ सुहदिणम्मि । घेत्तुं चउविहभंडं संपत्तो जलहितीरम्मि ।।७० ।। आरुहिय जाणवत्तं परतीरं पाविऊण विढवित्ता । दव्वं पुणो नियत्तो जा पत्तो जलहिमज्झम्मि ।।७१। ता आममल्लगं पिव गिरिसिहरं पाविऊण तं वहणं । पविलीणं सो वि तहिं धणयत्तो पाविओ निहणं एक्केणुव्वरिएणं गंतुं पुरिसेण तत्थ महिमाए । पच्छण्णमिमं गुज्झं कहियं तीए वि सो ताहे ।।७३।। संगहिउं दाणेणं भणिओ गुज्झं इमं तु पच्छन्नं । कायव्वं तेणावि हु पडिवन्नं झ त्ति तव्वयणं ।।७४।। चिंतेइ तओ एसा वहूण भत्तारमण्णमाणेमि । जा जायंति सुया सिं समत्थघरसाररक्खयरा' ।।५।। इय चिंतिऊण बाहिं नयरस्स विणिग्गया तमिस्साए। दिट्ठो य सुहपसुत्तो कयउण्णो देवकुलियाए।७६। उप्पाडिओ य तत्तो तीए पुरिसेहिं मंचयारूढो । मुक्को घरमज्झम्मी कमेण जा उठ्ठिओ ताव ।।७७।। कंठे विलग्गिऊणं रुयइ सदुक्खं इमं पयंपती । बालो च्चिय अवहरिओ मज्झ अपुण्णाए तं वच्छ! ।७८। महिमंडले गविठ्ठो सयले न य तुह पउत्तिमित्तं पि । उवलद्धं जा अज्ज कहिओ तुह आगमो मुणिणा।७९। दिट्ठो य कप्परुक्खो सुमिणे गेहंगणम्मि संपत्तो । तो अज्ज इहं पुत्तय ! समागओ अम्ह पुण्णेहिं ।८०। ता कत्थ वट्टिओ तं ? कत्थ य भमिओ सि एत्तियं कालं ? । किं वा वि सुहं दुक्खं अणुभूयं वच्छ ! मे साह।।८१।। अहवा वि मज्झ हिययं वज्जसिलासंचएण नणु घडियं । जं तुज्झ विओगम्मि वि न गयं सयसिक्करं सहसा।।८२ ।। जा तुज्झ विओगम्मि वि पाणे धारेमि पाविया अहयं । ओवारणयं म्हि कया गुणसायर ! तुज्झ देहस्स।।८३।। जाई तुह विरहम्मिं वच्छ ! मए चिंतियाणि हियएण । ताणि तुह वेरियाण वि देसेसु पडंतु मा कह वि ।।८४॥ देवगुरूहि विहुरे सुरक्खिओ तं सि एत्तियं कालं । ता मज्झजीविएण वि कप्पाऊ होसितं वच्छ!॥८५॥ १. ला० गेहे च्चिय ॥ २. सं० वा० सु० वि ॥ ३. सं० वा. सु० हिउं जाणवरं ॥ ४. सं० वा० सु० वहुयाभत्ता ॥ ५. ला० तो ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतपुण्यकाख्यानकम् २९३ अणुभावेणं तियसाइयाण सीलेण तह सईणं च । परिवड्ढसु नियवंसं घरविच्छष्टुं च अणुहवसु ।८६। देसंतरे विवण्णो भाउज्जायाण तुज्झ भत्तारो । होसु चउण्ह वि सामी इण्हिं एयाण तं वच्छ!' ।।८७।। इय तीए बुद्धिमाहप्परंजिओ मुणियकूडचरिओ वि । पडिवज्जइ तव्वयणं विम्हयकोऊहलापुण्णो।८८। सुण्हाओ वि तीए तओ एगंते ठाविऊण भणियाओ । “एवंठियम्मि कज्जे पडिवज्जह देवरं कंत।८९। जेण सुईसु वि भणियं गय-मय-पव्वइय-कीवपइएसु । रमणेसुं नारीणं विहिज्जए अन्नभत्तारो' ।९०। ता खेत्तयं पि पुत्तं उप्पाइत्ता करेह कुलरक्खं । मा भे सव्वं दव्वं गच्छिस्सइ रायभवणम्मि ।।९१।। कुंतीमहासईए अण्णोन्नपईहिं पुत्तउप्पत्ती । सुव्वइ ता पडिवज्जह मम वयणं, मा विगप्पेह' ।।१२।। इय तीए धुत्तीए तहा तहा लोगसत्थजुत्तीहिं । भणियाओ जह ताहिं पडिवन्नं निव्वियप्पाहिं ।।९३।। अह ताहिं समं मुणिवरदाणप्फलजणियबिउणरागाहिं भुजंतस्स य भोगे इंदस्स व देवलोगम्मि ।।९४ । संजाया वरपुत्ता ताण चउण्हं पि सुरकुमार व्व । वोलीणा य कमेणं बारस संवच्छरा एवं ।।९५।। तो सासुयाए वुत्ताओ ताओ परिचयह संपयं एयं । परपुरिसं किमियाणिं सिद्धे कज्जम्मि धरिएणं?' ।९६। पडिभणियं सुण्हाहिं 'अम्मो ! मा भणसु एरिसं वयणं । जेणऽम्हे भुत्ताओ सो किं न वि होइ भत्तारो ?' ॥९७॥ तो तीइ भिउडीभासुरवयणं अवलोइऊण वहुयाहिं । भयवेविरहिययाहिं पडिवण्णं झत्ति तब्भणियं ।९८। पुट्ठा य ताहिं सासू 'अम्मो ! तुह अणुमएण संबलयं । एयस्स किंचि कुणिमो' 'जं रोचइ कुणह' सा भणइ।।९९।। तो ताहिं सव्वाहिं पच्छण्णं मोयगाण मज्झम्मि । खित्ताई रयणाई होउ सुही' इय वियप्पेणं ।।१००। भरिऊण मोयगाणं थइया ऊसीसयम्मि से ठविया । तत्तो य सासुयाए पाइय मज्जं सुहपसुत्तो ।।१०१। खट्टाए समं उप्पाडिऊण मुक्को पुणो वि तत्थेव । जत्तो देवकुलाओ समाणिओ आसि किर पुव्व।१०२। एत्यंतरम्मि सत्थो समागओसो पुणो विरयणि त्ति । काऊणं न पविठ्ठो तहेव आवासिओ कमसो।१०३। नाऊण आगयं तं नियकंतपउत्तिजाणणट्ठाए । जा तत्थ गया भज्जा ता पेच्छइ तं तह च्वेव ।।१०४।। सच्छायं दद्दूणं पहट्ठचित्ता समुट्ठवेऊणं । संबलथइयं खटुं च गिहिउं जाइ नियगेहं ।।१०५।। कयउण्णओ वि जाणियभावत्थो निययमंदिरं पत्तो । पेच्छइ वसंतसेणंतहिंगओ बद्धवेणीयं ।।१०६। सयपागाई तेल्लेहिं मक्खिओजाव तावसंपत्तो। लेहयसालाओसुओ, पडिओजणयस्स चलणेसुं।१०७। 'छुहिओ' त्ति करिय मग्गेइ भोयणं नेय सिज्झए किंचि । तो रोयंतं दटुं, वसंतसेणाइथइयाओ ।।१०८। कड्ढेऊणं दिण्णो एगो वरमोयगो तओ एसो । तं खायंतो पत्तो, लेहयसालाए अह तत्थ ।।१०९।। १. सं० वा० सु० सुण्हा वि तओ तीए ॥ २. ला० याओ जहा ताहिं ॥ ३. ला० ता ॥ ४. ला० होड ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके मोयगमज्झे दटुं पवरमणिं घुट्टउ' त्ति काऊण । दाएइ अण्णछत्ताण तेहिं भणियं मणी एसो ।।११०। ता पूइयस्स देमो दिणे दिणे देइ जेण अम्हाणं । पूयलियाओ' वोत्तुं दिति तयं पूइयस्स तओ ।।१११।। तेण वि सो पक्खित्तो पासट्ठियनीरकुंडमज्झम्मि । तस्स पभावेण तयं थलं व पडिहासए नीरं ।।११२।। तो तेणं विण्णाओ जहा इमो नीरकंतपवरमणी । संगोविऊण धणियं चट्टाण वि देइ जंजोगं ।।११३।। एत्तो य समक्खायं पियंगुलइयाइ दासचेडीए । 'सामि! जया परिचत्ता वसंतसेणाइ मायाए ।।११४।। तं नाउं सव्वत्थ वि गवेसिया न य पउत्तिमित्तं पि । तुम्हाणं उवलद्धं तओ इमं सामिणी कुणइ ।।११५।। वेणीबंधं सियवत्थनिवसणं मल्लगंधपरिहारं । दुद्धरपउत्थवइयावयं धरती ठिया एसा ।।११६ ।। एत्तियकालं तुहगेहसंठिया तुच्छअसणकयवित्ती' । तं सोऊणं कयउण्णयस्सजाओ पुणो पिम्मो।११७ अह अण्णया य नीरंपाउं सरियाजलम्मि ओइण्णो । सेयणयगंधहत्थी गहिओसो तंतुएण तहिं ।।११८। पोक्करियं च नरेहिं तं सोउं आउलो निवो जाओ। तो भणइ अभयकुमरो ‘देव ! तहिं खिवह जलकंतं॥११९॥ सो जा भंडाराओ कड्डिज्जइ ताव लग्गए वेला । अच्चाहियं च करिणो होइ दढं तणुविमद्देण ।।१२०।। तो सिग्घपावणत्थं जलकंतमणिस्स नरवरिदेण । सव्वनयरम्मि सहसाभमाडिओ पडहगो एवं ।।१२।। 'भो ! भो ! जलकंतमणिं सिग्धं जो आणिउं समप्पेइ । तस्स निवो रज्जद्धं कण्णाइ समण्णियं देई' ।।१२२ ।। तं वयणं सोऊणं कंदुइएणं लहुं समाणीओ। खित्तो य नईमज्झे थलं ति अह तंतुओ नट्ठो ।।१२३।। तदुवद्दवाओ मुक्को सेयणयकरी समागओ गेहं। पुटुं च नरवरेणं केणेस मणी समाणीओ?' ।।१२४।। कहिओ य पूइओ से, तत्तो चिंतावरो निवो भणइ । 'अभय ! कहं दायव्वा कण्णा नीयस्स अम्हेहिं ?' ।।१२५ ॥ अभएण वि पडिभणिओ ‘रयणाणि न संभवंति एयस्स । ता पुच्छिज्जउ एसो उप्पत्तिमिमस्स रयणस्स' ।।१२६ ।। रण्णा वि पुच्छिओ सो 'सच्चं भो ! भणसु कह तुहं एयं ?' । तेण वि भयभीएणं जहट्ठियं सव्वमक्खायं ।।१२७।। अभएण तओ भणियं भवंति रयणायरम्मि रयणाई' । कंदुइओ वि हु उचियं दाउं वीसज्जिओ रण्णा।।१२८।। कयउण्णयं पिसद्दाविऊण दिण्णा सगोरवं कण्णा। रज्जस्सऽद्धेण समं परिणीया महविभूईए ।।१२९ ।। भुंजइ विसिठ्ठभोएअभयकुमारेणसहललंतोसो।अण्णम्मि दिणेपभणइ अभयकुमारंइमं वयणं ।१३० १. ला० त्ति कलिऊण ।। २. ला० भणिओ॥ ३. ला० तो॥ ४. ला० ता॥ ५. ला० णो रागो॥ ६. ला० गेहे ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ कृतपुण्यकाख्यानकम् जह ‘एत्थेव पुरवरे अण्णाओ वि अस्थि मज्झ भज्जाओ । चत्तारि सुयवईओ न य गेहमहं वियाणामि' ।।१३१ ।। 'कह एवमिमं ?' अभएण जंपिए तेण सव्वमक्खायं । (ग्रं० ७०००) 'अम्हे वि तीइ विजियाबुद्धीए' जंपए अभयो ॥१३२॥ ‘एवंविहं पिकाउं कज्जं एत्थेव निवसए एसा । न य अम्हेहिं विनाया, अहो ! सुनिउणत्तणं तीए ।१३३। ता अच्छसु निच्चिंतो संपइ जाणामि तुज्झ भज्जाओ' । इय वोत्तुं कारवियं देवउलं दोहिं वारेहि।१३४। तत्थ वि य जक्खपडिमा कयउण्णयरूवधारिणी विहिया । घोसावियं च नयरे जहा सवच्छाओ नारीओ।।१३५।। जक्खस्स पूयणत्थं पुव्वेण अइंतु नितु अवरेणं । अण्णहकयम्मि होही उवसग्गो दारुणो ताण' ।।१३६।। इय सोऊणं सव्वो थीवग्गो बालडिंभपरिकिण्णो । आयाओ ताओ विहुपत्ताओतहिंसडिंभाओ।१३७/ 'बप्पो बप्पो' त्ति तओ उच्छंगे तीइ जक्खपडिमाए । भणमाणाआरूढा ते डिंभा झ त्ति पहसंता।।१३८।। एगंताओतत्तो विणिग्गयाझत्तिअभय-कयउण्णा । ताओ वियते दटुंलज्जाए अहोमुहाजाया।१३९। अभएण विसा वुड्ढा हक्कारित्ता सुनिठुरगिराहिं । तह तज्जिया जहा सा पडियापाएसु दोण्हं पि।१४०। इय सत्तहिं भज्जाहिं समयं माणितयस्स विसयसुहं । वोलीणो बहुकालो अणुभुजंतस्स रज्जसिरिं।१४१। एत्थंतरम्मि भयवं चोइसवरसमणसहपरिवारो । छत्तीससहसअज्जासमण्णिओ तियसनयचलणो।१४२। केवलनाणसमग्गो संपत्तो जिणवरो महावीरो । गुणसिलए तियसेहिं रइयम्मि महासमोसरणे ।।१४३ । वद्धावयपुरिसेणं आगंतूणं तओ समक्खायं । कयउण्णयनरवइणो, दाउं सो तस्स वरदाणं ।।१४४ ।। सव्विड्ढीए पत्तो जिणपयमूलम्मि नमिय उवविठ्ठो । पारद्धा य जिणेणं भवहरणी देसणा एवं ।।१४५।। 'भो भो भव्वा ! इत्थं चउगइसंसारसायरे भीमे । निवडतयसत्ताणं धम्मो च्चिय तारणं कुणइ ।।१४६।। धम्मोसव्वऽत्थाणं पसाहगो, सग्ग-मोक्खसोवाणं । धम्मोदोग्गइधरणीधरस्स निद्दलणवरकुलिसं।१४७/ धम्मेण पुव्वसुकरण उत्तमा हुंति एत्थ वरभोगा। तासो च्चिय कायव्वो सिवसुहसंपत्तिकामेहिं ।।१४८। इय सोउं सव्वा वि हु परिसा संवेगमागया धणियं । कयउण्णओ वि पुच्छइ सीसे ठविऊण करकमलं ।।१४९।। 'भयवं ! किं पुव्वभवे मए कयं जेण एरिसा रिद्धी । भोगा य अणण्णसमा सअंतराया य संजाया ?' ।।१५०।। तो नीसेसं चरियं भयवं साहेइ तस्स पुव्विल्लं । तं सोउं कयउण्णयराया संवेगमावण्णो ।।१५१ ।। सुमरित्तु पुव्वजाइं पभणइ संगरंगमावण्णो । ‘एवमिणं जगबंधव ! जाइस्सरणाओ मे नायं ।।१५२।। १. ला० अभओ [ग्रन्थाग्रम् ६०००] जं ॥ २. सं० वा० सु० काराविय ।। ३. ला० दारेहिं॥ ४. सं० वा० सु० अयंतु ॥ ५. ला० अम्मो ! एसो ताओ उच्छं ।। ६. ला० 'हस्सऽज्जा ।। ७. ला० 'गरससमावण्णो । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके ता संपयं पि जयगुरु ! रायाई पुच्छिऊण घेच्छामि । नीसेससोक्खसंपत्तिकारयं सव्वविरई' ति ।।१५३। 'मा काहिसि पडिबंध' जिणेण भणियम्मि तो गिहे गंतुं । रायाई आपुच्छिय सव्वं सामग्गियं कुणइ।१५४। अवि य कारवि जिणवरजत्त विहाणइं, देविणु दीणा-ऽणाहह दाणइं । घोसावेविणु अभयपयाणई, माणेप्पिणु वरसाहु वियाणइं ॥१५५॥ पूय करेविणु चउविहसंघह, दव्यु विभायवि बंधववग्गह । सिबियारूढउ सह नियपत्तिहिं, परिवारिउ सामंतसुपत्तिहिं॥१५६ ।। अणुगम्मतउ सेणियराई, वण्णिज्जंतउ जणि अणुराई । वज्जंतइ वरतूरनिनायहिं, नच्चंतइ पाउलसंघायहिं ॥१५७॥ कलकंठहिं गायणहिं रसंतहिं, भट्ट-चट्ट-बंदिणिहिं पढंतहिं । इय सामग्गिय निग्गउ नयरह, संपत्तउ चरणंतिए वीरह ॥१५८ ॥ सिबियाओ उत्तरिउं काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो । नमिऊणं वीरजिणं कयंजली जंपए एवं ।।१५९।। 'सामिय! संसारमहण्णवम्मि निवडतयस्स मह इण्हिं । करुणाए पव्वजं देह महं जाणवत्तं व' ।।१६०।। भयवं पि देइ दिक्खं सह अणुसट्ठीए तो समप्पेइ । गणहरनाहस्स तयं वयणी विहुचंदणज्जाए ।।१६१ । तो गहियदुविहसिक्खो काऊणं बहुविहे तवच्चरणे । संलिहिय आउयंते संपत्तो देवलोगम्मि ।।१६२ ।। इय जं रिद्धी भज्जा भोगा रज्जं च अणुवमं पत्तं । तं जम्मंतरमहरिसिपायसदाणप्फलं सव्वं ।।१६३।। जं रेहादाणेणं भावस्स अवंतरं कयं आसि । तं तस्स वि भोगाणं अवंतरं किंचि संजायं ।।१६४।। इय नाउं भो ! दाणं अव्वोच्छिन्नेण देह भावेण । जेण निरंतरभोए भोत्तुं पावेह निव्वाणं ।।१६५।। ___xकृतपुण्यकाख्यानकं समाप्तम् ।. ३४x अशनादिधर्मोपग्रहदानस्य दृष्टान्तैः फलं प्रतिपाद्य सम्प्रति समस्तदानप्रधानं शय्यादानं श्लोकेनाह सेज्जादाणं च साहूणं देयं दाणाणमुत्तमं । सुद्धेणं जेण दिण्णेणं दिण्णं सेसं पि भावओ ।।८७।। शय्या वसतिस्तस्या दानं वितरणम् । चकारोऽवधारणे, स च भिन्नक्रमे तेन देयमेवेत्यत्र सम्बध्यते। ‘साधूनां' यतीनाम्, 'देयं' दातव्यम् । 'दानानां' पूर्वोक्तानाम् ‘उत्तमं' प्रधानम् । यत: १. सं० वा० सु० ‘रयं ति ॥ २. ला० जिणहर भत्ति ॥ ३. ला० जणअ ॥ ४. ला० तहिं बहुतूर' ॥ ५. ला. "तहिं पा ॥ ६. सं० वा. सु० भोगे ॥ ७. Xx एतच्चिद्वयान्तर्वर्ती पाठः ला० प्रतावेव विद्यते ॥ ८. ला० धानशय्यादानश्लोकमाह ॥ ९. सं० वा० सु० यत: शुद्धेन । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुशय्यादानोपदेशः २९७ 'सुद्धेणं' ति शुद्धेन= निरवद्येन, येन 'दिण्णेणं ति दत्तेन, 'दिण्णं ति दत्तम्, ‘शेषमपि' सर्वमपि, 'भावत:' परमार्थतः । यत उक्तम् धृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता, गतिस्तेन दत्ता सुखं तेन दत्तम् । गुणश्रीसमालिङ्गितेभ्यो वरेभ्यो, मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः ।।३१०।। तथा जो देइउ(देउ?)वस्सयं जइवराणऽणेगगुणजोगधारीणं । तेणं दिण्णा वत्थ-ऽण्ण-पाण-सयणा-ऽऽसणविगप्पा॥३११॥ जं तत्थ ठियाण भवे सव्वेसिं तेण तेसिमुवओगो । रक्ख परिपालणा वि य तो दिण्णा एव ते सव्वे।।३१२।। सीया-ऽऽयव-चोराणं बालाणं तह य दंस-मसगाणं । रक्खंतो मुणिवसभे सिवलोगसुहं समजिणइ ।।३१३।। इति श्लोकार्थः ।।८७।। कस्मादेवं शय्यादानमतिगरिष्ठं वर्ण्यते ? यतो येषां तद्दातव्यं तेषां गुणवत्त्वेन महत्त्वात्, तन्महत्त्वख्यापकं च श्लोकद्वयमाह माया पिया य भाया य भगिणी बंधवा सुया । भज्जा सुण्हा धणं धण्णं चइत्ता मंडलं पुरं ।।८८।। मोक्खमग्गं समल्लीणा छिदित्ता मोहबंधणं । एए साहू महाभागा वंदणिज्जा सुराण वि ।।८९।। 'माता' जनयित्री, 'पिता' जनकः ‘भ्राता'सोदरः, चकारोऽनुक्तस्वजनप्रतिपादकः 'भगिनी' स्वसा, ‘बान्धवा:'भ्रातृ विशेषाः, 'सुता:'पुत्रा:, 'भार्या सहचरी, ‘स्नुषा' वधूः, 'धनं'गणिमादि चतुःप्रकारम्, 'धान्यं यवादि चतुर्विंशतिभेदभिन्नम् । उक्तं च धण्णाइ चउव्वीसं जव-गोहम-सालि-वीहि-सट्ठीया । कोद्दव-अणुया-कंगू-राला-तिल-मुग्ग-मासा य ।।३१४।। अयसि-हिरिमंथ-पुडगा-निप्पाव-सिलिंद-रायमासा य । इक्खू-मसूर-तुवरी-कुलत्थ तह धाणय-कलाया ।।३१५।। (दश० नि० गा० २५२-२५३) १. ला० ति श्लो ।। २. ला० 'हिरिमिथिंति पुडग-निप्फाव ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके एतानि लोकप्रसिद्धानि । नवरं 'अणुका' श्लक्ष्णकंगू, षष्टिका' शालिभेदः, कंगू='वृत्तकंगू', तद्भेदो रालक: हिरिमन्था:=कृष्णचनका:, निष्पावा:=वल्ला:, राजमाषा:=वलका:, शिलिंदा:= मकुष्टाः, धान्यकं-कुस्तुम्बरी, कलाया-वृत्तचनका इति । ... एतानि च त्यक्त्वा तथा ‘मंडलं पुरं' ति, ‘मण्डलं' राज्यम्, 'पुरं' नगरम्, चकार: पूर्वस्माद् योज्यते ।। 'मोक्खमग्गं' इत्यादि, 'मोक्षमार्ग' शिवपथं सम्यग्ज्ञानादिरूपम्, 'समालीना:' सम्=एकीभावेनाऽऽलीना: आश्रिताः । किं कृत्वा ? छित्त्वा 'मोहबन्धनं' मोहनीयनिगडसंयमनम् । 'एते' पूर्वोक्ता:, 'साधवः' यतयः, ‘महाभागाः' अचित्यशक्तियुक्ताः, 'वन्दनीया:' नमस्करणीया:, 'सुराणामपि' त्रिदशानामपीति श्लोकद्वयार्थः ।।८८-९८ ।। पुनरपि विशेषगुणद्योतनार्थं श्लोकचतुष्कमाह सागरो इव गंभीरा, मंदरो इव निच्चला । कुंजरो इव सोडीरा, मइंदो इव निब्भया ।।९।। 'सागर:' समुद्रः स इव-तद्वत्, ‘गम्भीरा:' अलब्धमध्या: । 'मन्दर:' मेरुस्तद्वद् ‘निश्चला:' परीषहोपसर्गवातोत्कलिकाऽप्रकम्पा: । 'कुञ्जरः' हस्ती तद्वच्छौर्यवन्त: कर्मशत्रुपराजयं प्रति । 'मृगेन्द्र' इव निर्भया:' सिंह इव भयरहिताः परतीर्थिककुवादिगजगलगर्जितादिष्विति ।। सोमाचंदो व्व लेसाए, सूरो व्व तवतेयसा । सव्वफासाण विसहा, जहा लोए वसुंधरा ।।९१।। 'सोमाचन्द्रवद्' राकाशशाङ्क इव 'लोश्यया' सौम्यदीप्त्या, समस्तजनानन्ददायकत्वेन परदर्शनतारकाधिक्येन च । 'सूरवद्' भानुरिव, ‘तपस्ते जसा' तप:किरणजाले न, परतीर्थिकशशधरतारतारकानिकरप्रभाप्रच्छादकत्वात् । ‘सर्वस्पर्शानां' नि:शेषस्पर्शविषयाणाम् 'विषहाः' अधिसहनशीला:, 'यथा' यद्वद्, ‘लोके' त्रिभुवने, 'वसुन्धरा' पृथ्वी, जनकृतशुभाऽशुभचेष्टासमवृत्तित्वात् । उक्तं च वंदिज्जमाणा न समुक्कसंति, हीलिज्जमाणा न समुज्जलंति । दंतेण चित्तेण चरंति लोए, मुणी समुग्घाइयरागदोसा ।।३१६ ।। (आव० नि० गा० ८६६) १. ला० हिरिमिन्था:-कृ' ॥ २. ला० सिंहवद्भ्यां ॥ ३. सं० वा० सु० वादिगल ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुमाहात्म्यम् २९९ सयणोवयंता वयणाभिघाया, कण्णं गया दुम्मणयं जणंति । धम्मो त्ति किच्चा परमग्गसूरे, जियदिए जो सहई स पुज्जो ।।३१७ ।। जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोस-पहार-तज्जणाओ य । भयभेरवसद्द सप्पहासे, समसुहदुक्खसहे जे स भिक्खू ।।३१८।। (दशवै० अ० १० गा० ११) अक्कोस-हणण-मारण-धम्मभंसाण बालसुलभाणं । लाभं मण्णइ धीरो जहुत्तराणं अभावम्मि ।।३१९ ।। त्ति ॥ सुद्धचित्ता महासत्ता सारयं सलिलं जहा । गोसीसचंदणं चेव सीयला सुसुगंधिणो ।।९२।।। 'शुद्धचित्ताः' निर्मलान्त:करणा: ‘महासत्त्वा:' सत्त्वाधिका: 'शारदं' चित्रानक्षत्रतापविशोधितम्, सलिलं 'यथा' इति यद्वत् कर्ममलरहितत्वाद् । 'गोशीर्षचन्दनं प्रधान श्रीखण्डम्, चकारोऽग्रे योज्यते, एवशब्दस्य इवार्थत्वात् तद्वच्छीतला: कामाग्नितापाभावात् । ‘सुसुगन्धयश्च' शीलसौगन्धयुक्तत्वादिति ।। विरया पावठाणेसु, निरया संजमे तवे । निम्ममा निरहंकारा खंता दंता जिइंदिया ।।१३।। 'विरता:' निवृत्ता: ‘पापस्थानेभ्यः' पातकाश्रवेभ्यः । 'निरताः' आसक्ता: 'संयमे' पञ्चाश्रवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयम: सप्तदशभेदः ।।३२०।। इत्येवंरूपे । 'तपसि' अणसणमूणोयरिआ वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ । कायकिलेसो संलीणया य बज्झो तवो होइ ।।३२१ ।। पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं उस्सग्गो वि य अन्भिंतरओ तवो होइ ।।३२२।। इत्येवंलक्षणे । 'निर्ममा:' 'पुत्रो मे भ्राता मे स्वजनो मे गृहकलत्रवर्गो मे' इत्येवं १. ला० प्रधानश्री ॥ २. ता० 'ठाणेहिं ॥ ३. सं० वा० सु० जियंदिया || Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके ममीकाररहिताः । ‘निरहङ्काराः ' निर्गताहङ्कृतयः । ' क्षान्ताः ' क्षमावन्तः । ' दान्ताः' नोइन्द्रियदमेन । 'जितेन्द्रियाः ' निगृहीतस्पर्शनादीन्द्रियाः । इति श्लोकचतुष्टयार्थः । । ९०-९३ । । विशेषतः साधुमाहात्म्यं ख्यापयन् श्लोकमाह ३०० अहो ! धण्णो हु सो देसो पुरं राया गिही यिहं । जं तुट्ठि मण्णमाणा णं विहरंती सुसाहुणो ।। ९४ ।। 'अहो' इत्यतिशये, 'धन्यः' पुण्यभाक्, स 'देश : ' जनपदः, 'पुरं' नगरम्, 'राजा' नृपतिः, 'गृही' गृहस्थः, 'गृहं' निशान्तम्, 'जं' ति विभक्तिव्यत्ययाद् यत्र, ' तुष्टिं' हर्षम् 'मन्यमानानां (? मानाः ) ' प्रतिपद्यमानानाम् (? मानाः ), [?णं इति वाक्यालङ्कारे], 'विहरन्ति' परिभ्रमन्ति, 'सुसाधवः' सद्यतय इति श्लोकार्थः । ।९४।। एवंगुणयुक्तानां च साधूनां यो वसतिं प्रयच्छति तस्य फलं श्लोकेनाऽऽह— सेज्जं जो देइ साहूणं तरे संसारसायरं । सेज्जायरो अओ वुत्तो सिद्धो सव्वण्णुसासणे ।। ९५ ।। 'शय्यां' वसतिम्, यो ' ददाति' प्रयच्छति, 'साधुभ्यः' यतिभ्यः, 'तरे' त्ति तरति, 'संसारसागरं' भवसमुद्रम्, शय्यातरोऽतो व्युक्तः सिद्धः सर्वज्ञशासने- 'शय्यया तरति संसारसागरम् ' इत्येवं 'सिद्धः ' व्युत्पत्त्या निष्पादितः, 'व्युक्तः' विशेषेणोक्तः 'जिनशासने' निशीथादौ । अथवा सिद्ध इव सिद्धो व्युक्तः, भाविनि भूतवदुपचारात् प्रत्यासन्नसिद्धिगामीत्यभिप्राय इति श्लोकार्थ: ।। ९५ । विशिष्टपुण्यहेतुमेव वसतिदातुः श्लोकेन प्रतिपादयति चिट्ठताणं जओ तत्थ वत्था - ऽऽहार - तवाइणो । सम्मं केइ पवज्जंति, जिणदिक्खं पि केइ वि ।। ९६ ।। 'तिष्ठतां' निवसताम्, 'यतः ' यस्मात्, वस्त्रा - ऽऽहार - तपआदीनि आदिशब्दात् पात्रदण्डकादिग्रहः, साधूनामुत्पद्यन्त इति गम्यम् । 'सम्म' ति सम्यक्त्वम्, केचित् 'पवज्जंति' प्रतिपद्यन्ते ‘जिनदीक्षामपि’ सर्व-देशविरतिरूपां केचनाऽपि प्रतिपद्यन्ते इति श्लोकार्थः । । ९६ ।। तस्मात् — सिज्जादाणप्पभावेणं देवाणं माणुसाण य । पहाणं संपया फुल्लं फलं निव्वाणमुत्तमं । । ९७ ।। विभक्तिव्यत्ययात् शय्यादानप्रभावतो देवानां मानुषाणां च प्रधानं सम्पत् पुष्पम्, फलं तु १. ला० मनुष्याणां ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधुमाहात्म्यम् निर्वाणमुत्तमं मोक्षगमनमिति श्लेकार्थः । । ९७ ।। ततश्च— नाणाविहाण साहूणं ओहावंताण जाव 룸 1 कायव्वं सव्वभावेणमेवमाइ जहोचियं । । ९८ ।। 'नानाविधानां' 'जिन - स्थविरकल्पिका - ऽहालन्दिक - प्रत्येक बुद्धो घुंक्तविहारि - संविग्नपाक्षिकाद्यनेकप्रकाराणाम्, “ओहावंताणं" ति अवधावताम् उत्प्रवर्जितुकामानाम् 'जाव उ'त्ति एतान् यावदिति भावः, 'कर्तव्यं' विधेयम्, 'सर्वभावेन' समस्तसामर्थ्येन, 'एवमादि' पूर्वोक्तादि' 'यथोचितं' यथायोग्यमिति श्लोकार्थः । । ९८ ।। यथोचितकृत्यमेव श्लोकेन प्रतिपादयति = नाणं वा दंसणं सुद्धं चरित्तं संजमं तवं । जत्ति जत्थ जाणिज्जा भावं भत्तीए पूयए ।। ९९ ।। ३०१ ‘ज्ञानं’ मतिज्ञानादि, वाशब्दोऽग्रे योक्ष्यते, 'दर्शनं' क्षायोपशमनादि, ‘शुद्धम्' अनवद्यम्,’ 'चारित्रं' सामायिकादि, 'संयमम्' आश्रवविरमणादि, 'तप' अनशनादि, 'जत्तियं'ति यावन्मात्रम्, ‘यत्र' साधौ, ‘जानीयाद्' अवबुध्येत, 'भावं' पदार्थम्, 'भक्त्या' अन्तर्वासनया, तावत् तत्र पूजयेदिति श्लोकार्थः ।। ९९ ।। समस्तकृत्यपर्यन्तं प्रकरणोपसंहारं च वृत्तेनाऽऽह— लिंगावसेसाण विजं वसिहं, संविग्गगीयत्थगुरूवट्ठ । नाऊण साहूण जहाविहाणं, विहेह तं मोक्खसुहावहं र्ति । । १०० ।। :-उद्यत 'लिङ्गावशेषाणामपि' लिङ्गमात्रोपजीविनामपि, 'यदवशिष्टं' यदुद्वरितम्, संविग्न:= विहारी, संविग्नश्चाऽसौ गीतार्थश्च = बहुश्रुत:, स चाऽसौ गुरुश्च तदुपदिष्टं = कथितम्, 'ज्ञात्वा’ अवबुद्ध्याऽऽगमादिति भावः । तथा च जणचित्तग्गहणत्थं, करेति लिंगावसेसे वि ।। तथा— अग्गीयादाइण्णे खेत्ते अन्नत्थठि अभावेणं । भावाणुवघायणुवत्तणाए तेसिं तु बसियव्वं ।। ३२३ ।। इहरा स - परुवघाओ उच्छोभाईहिं अत्तणो लहुया । सिं पि कम्मबंधो, दुगं पि एवं अणिट्टं तु ।।३२४ ।। १. ता० ऊ ॥ २. अग्रे वाशब्दयोजना नोपलभ्यते ॥ ३. ला० योज्यते ॥ ४. सं० वा० सु० °ते तद्दर्शनं ॥ ५. ता० ति ।। १०० ।। साहूणं ति चउत्थं ठाणं ॥ ६. सं० वा० सु० 'इतिभा ॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ सविवरण मूलशुद्धि प्रकरण चतुर्थ स्थानके वायाए नमोक्कारो, हत्थुस्सेहो य सीसनमणं च । संपुच्छणऽच्छणं छोभवंदणं वंदणं वा वि ।।३२५।। 'साधूनां' यतीनाम्, 'यथाविधान' यथाविधि, “विहेह'त्ति 'विधत्तं कुरुत, 'तत्' पूर्वोक्तम्, 'मोक्षसौख्यावह' शिवशर्मकारि । 'इति' प्रकरणसमाप्तौ ।।१०।। . . श्रीदेवचन्द्राचार्यविरचिते मूलशुद्धिविवरणे साधुकृत्यस्थानकं चतुर्थं समाप्तम् ।। १. ला० 'त्त तत् ॥ २. ला० णपरिसमा॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- _