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ग्रन्थसमर्पण [प्रथम आवृत्ति : प्रथम भाग] जिनके मन-वचन-काय के पवित्र व्यापार सतत श्रेयस्कर हैं, जो अप्रमत्त होकर सदैव शास्त्रसंशोधन में रत हैं, जिनके प्रसादांश के प्रभाव से मेरे में संशोधन-संपादन की गति है, ऐसे पुण्यमार्ग के पथिक, प्रज्ञान से पवित्र, पूज्यपाद आगमप्रभाकर श्री पुण्यविजयजी निर्ग्रन्थ के करकमल में यह ग्रन्थवर उनके शिष्य बालक अमृत के द्वारा समर्पित है।