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सविवरणे मूलशुद्धि प्रकरणे
अम्हेहि अज वाणियगपासि' 'किं तं ?' पडिपुच्छइ जेट्ट दासि, अक्खंति तीएँ नीसेसु ताउ, आणवइ सा वि नियचेडियाउ, 'उप्पन्नु कोड्ड हलि ! महु महंतु, तो आणहु कहवि तयं तुरंतु', सामिणिकएण मगंतियाहं, अभओ वि न अप्पइ चेडियाहं, जंपइ ‘अवन्न मह सामियस्स, किर तुम्हि करेसह तहिँ गयस्स,' तो ताहिँ सवह बहुविह करेवि, पंच्चाइउ अप्पइ संवरेवि, दक्खिंति ताओं नियसामिणीए, वररायहंसगयगामिणीए, अवलोयइ रूवु कुमारि जाम्व, किय झत्ति परव्वस मयणि ताम्व, बोल्लइ ‘हलॅ ! पभणह सेट्टि एउ, जइ होइ कंतु महु तुज्झ देउ, तो जीविउ अत्थि न एत्थु भंति, फुट्टेइ हियउं अन्नह तड त्ति,' तं अभयह अक्खिउ ताहिं, सव्वु, अभएण वि पभणिउ करवि गव्वु, 'जइ निच्छउ एहु कुमारियाए, तो करमि कज्जु अवियारियाए, पर किंतु सुरंगमुहम्मि तीए, अमुगत्थ अमुगपुन्निमतिहीए, ठाएवउं जेण नरिंदु तेत्थु, हडं आणिसु गुणवियसव्वसत्थु,' संकेउ करेविणु, मणि विहसेविणु, जाणाविउं तं सेणियहु । सिरिअभयकुमारिं, मंतिहिँ सारिं, आवेहु सुरंगहिँ सिग्घु पहु ! ।।१०।।
(११) तो आगउ सेणिउ पुहइराउ, सविसेसाहरियसमत्थकाउ, आरुहिय पहाणमहारहम्मि, सज्जीकयबहुविविहाऽऽउहम्मि, बत्तीसहिँ सुलसहिँ नंदणेहिं, संजुत्तु जुत्तवरसंदणेहिं, नियमित्तकजि निरु वच्छलेहिं, अवमन्नियवहारच्छलेहिं, तेत्तीसहिँ रहिँ हिँ सुरंगदारि, पविसरवि पत्त जहिं ठिय कुमारि, संकेयठाणि तो नरवरेण, संभासिय वरहंसस्सरेण, 'हउं तुज्झ कजि आइउ मयच्छि !, जइ इच्छहि तो रहि चडहि दच्छि !,' एत्तो य तीऍ निवनंदणाए, आपुच्छिय चेल्लण गममणाए,
तो चेल्लण भणइ 'अहं पि भगिणि !, आवेसु तए सह हंसगमणि !', १. ला० पच्छाइउ ॥ २. ला. जाव ॥ ३. ला० ताव ॥ ४. ला० मह ॥ ५. ला० 'पुण्णत्तिहीए ॥ ६. ला० आवेह ॥ ७. सं० वा० सु० संजुत्तजुत्तवर' ॥ ८. सं० वा० सु० अवराहच्छलेहि ||