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: सुलसाख्यानकम्
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जो माणसम्मिवसिओ वियसियसयवत्तमासलाऽऽमोए।सो किंफुल्लपलासेसविलासंछप्पओ छिवइ।३। जो कयसीयलतीरे नीरे रेवाएँ मज्जइ जहिच्छं । सो किं इयरे वियरे गयराओ देइ दिहि पि ? ॥४॥ जो नासियधवगंगं(?) गंगं धवलुजलं जलं लिहइ । गयसोहं सो हंसो किं सेसनईपयं पियइ ? ॥५॥ जो पोढपुरंधिरए रओ पकामं पकामकामम्मि । सो किं मोहियमारो वारयकामे मणं कुणइ ? ॥६॥ जो गंतुजेन्तनए नए नओ होइ वसइ वरवच्छे । सो नीलगलो विगलो किं विगयतलं मरुं सरइ ? ॥७॥ जो घणलयसामलए मलए मयरंदवासिए वसिओ । सारंगो सारंगो सो किं अवरे धरे रमइ ? ॥८॥ इय वीर! धीर! माणहण! तुज्झ पयपंकयं नयंजेण । सो हरि-हराण किं सुहसमूहमहणे कमे नमइ ?॥९। इयजो जिणिंदनिरुपमवयणामयपाणपियणदुल्ललिओ।सोसेसकुनयमयकंजिएसुन यनेव्वुईकुणइ ।१०।
इय वीरजिणेसर, दुहतमणेसर, जेहिँ पणउ पयकमलु तुह । ते हरि-हरमाइसु, कामिय-माइसु, सुवियक्खण ! पणमंतु कह ?' ॥१६॥
(१७)
अह सुलस पसंसवि महुरवाणि, आपुच्छवि अम्मडु गयउ ठाणि, इय सुलस सुनिच्चल सणम्मि, कमसो य पत्त पच्छिमवयम्मि, जाणेविणु पच्छिमसमउ झत्ति, संलेहण करइ अमोहसत्ति, जिणु चित्ति धरन्ती वद्धमाणु, आखंडलमंडलविहियमाणु, पंचहँ परमेट्ठिहिँ थुइ सरन्त, नीसेससत्तखामण करंत, कयअणसण छड्डिवि पूइ देहु, हुअ तियसु सुरालइ सा अमोहु, तत्तो चवित्तु आगामिणीए, तित्थयरु भविस्सुस्सप्पिणीए, पनरसमउ नामिं निम्ममत्तु, अप्परिमियनाण-चरित्तसत्तु, होयवि पाडिबोहियभव्वसत्थु, सिज्झिस्सइ तो जगमत्थयत्थु, एह संधि पुरिसत्थपसत्थिय, देवचंदसूरीहिँ समत्थिय, इय बहुगुणभूसिउ, जिणसुपसंसिउ सुलसचरिउ धम्मत्थियहं । निसुणंत-पढंतह, भत्तिपसत्तहं, देउ मोक्खु मोक्खत्थियहं ।।१७।।
- सुलसाऽऽख्यानकं समत्तं । ७. _ 'गुणा पसत्थ' त्ति गुणा: ‘प्रशस्ता:' मङ्गलालया: । 'सम्मत्तं' ति सम्यक्त्वं सम्यग्दर्शनम् । 'एए'त्ति एते पूर्वोक्ता: कुशलतादयः । 'हुः' एवकारार्थस्तेन चायमर्थः-एत एव सम्यक्त्वं भूषयन्ति
१. ला० सो किं मो हयमोरे खोरे कामे ॥ २. पु० ०नुह० ॥