Book Title: Bhagavati Jod 03
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 IRaकरवानीपनारमनमितिको मेरजीरामलालनशकलममाटीमामा काम समामानवजानिमाकारकरिवद विभूमि रसिकरवानासनश्यच्यानमिलकर कमानीसनीयतादानाचमसेमरकाबाट-नवराविधिक जनशनलयाय महामायाजोगशिसंसानोजीमयकारेकरमनकामेहविदस्यामजीशिवप्रति संखीछादिसामीमी पक्षाध्यक्षमा मात्र paसी मोजिमनजोगमामारोजीविषनिसलामबरजगगाजामीनासोजविकुसारीमासकामयाजशर्मगुसमालेकी मसिंरपतिका मम थी।करिबी तामिरोजी साबमनहशियघनानिमोहमी तयाaaममधिनावरीसाधनमे बिमयबेवाविanी सहायम जमखममतदारेकरीवाखापोमानमविविधपणे कसकरिडरका मान विधानसोको रिक्शवविवारीवरसंशयविnिary जी.apसासदएकताभिंगसंगम निहोनीनेरुपतानने तकरानीबोन्सारकसन नावाकिनी पोजीशविataविनय abouथालनीत शाखीयनवजोगनों बारुजीनिसेलीनता परमा रोजगालाउजीतासप्रश्न.aauguमीनसमजबीमारपबिबकि नियमन क.मीप्यमनजोसमधनदेखननमानीanावनीकरण विरामविनमान बनिनयउसकेपक्षिमिनिमबजेमवनिमयधीकार निवजाणजीवधाविधिएकारपणे कशाएक गारपसादोजीकजिनमेगावकारिनयनानिममलिका बकायामानविनयgesमथि समयधिसंसायमोजी-किमयादिसलीलया किसी पडिसनीलवातजामी बनायायकारवाहिनीपिकाबामनिवजाबकेवामान निसमाधिसीमानसिकरिजीजीस शियंरक्षिकरीनिकीaaawaRकार सोरसा करिमादिगानीमय बनाकाबलाधिक ताहिरे श्यमबखामिण विविधिकरगनासो.जीर गुप्तईडियकामा वर्षे hagiaaमामविसर्मानाबमाकरिजामणमाला निमिनीयमकामसंतोजीशाहीशीनचालीमा पनि सानपधेरोमा जेमिमीनसमहटिनकारियाविनममोरेमकशिनिक leasnमिलामताजीगतीलिएदोजीबासीप्रतिमेलीमाएतीक्षकरदोजाना 5.maanालयाशकासासकरIBanोलमmaaai विविकविवि कसयनासनोजाइयरकदीवरिवसांत जोश्रमानोजी किटानबायोटेकडीयासिननमाविमनसायका एवमममलीबनमाली बीहियासमकदी-मायाजेशिवपरिमालीनी मारनदासेमारधारावरेशासाना रविवvasaig मिलामासमायोजविरश्यामकही जाया जेहविनिरायोनी निमोनियासमानिनननाकामानेषनारारदिवataमान Ramanामाकाजीरशमशकजाकिमकारवायजमयमा मानिनजामाsamaataamel Janसंघाश्ता रेगकारकरावबजाज़ाबादमें पाराजे जाणे मिशिगेली निकाहिबाबा किकबॉ क बसुमaale nahanारेजलासमाशिमयहिवाशनमजनरामाण नविनाम assनियर समरसलीम विषकासविदा संगीतशासीकपीरिजमममममममकामवासमापनासबाशयारबनीमनसबरमा भगवती-जोड़ (खण्ड-३) श्रीमज्जयाचार्य X Janamaaनिश्शामिनकोलसपसमाजामजानरकहीयोaallafamARARA20 बरसनियतवन मन नगनी.indeaला रेश्वरदिनguan जोमयमलनाकारोबमतिमारमनयजयBि२मनकरिनाaaRahaDAR निन माया विनयamalaana सारेकरी बवासातमकर: मैंताली कर्मयताहिरे नामपाकीजायेखमनकविताबरे दिनविन प्रकार रिक्लीमेवमानयविकार" परूमावतला विचार माशाaai निर्मायरेकमकरल उपामजेदालनामा नकार दिया a.वर्णवादनिवार वलियर्यनी-maiनं करे मायकशिनिकलक्युलमनावमकारे/ ली. सामानकरीम पापविनाaagal Ine. 5मायोनिरसीवियर जलेंगशालाममहा मायामका विद्यापलिनकरिकाकोलविवरबरडीविकसी पालिसीय नेव नमसंबरिश शिनरीक्षिांसमझिमाहितीयन या नलिकायाकिजे किमार दिनमा विमतिबमा किमि लकमलपतिजीसरे विणकरकमयशनिसमुनयनमासर संघकईजिमिनलेकादिकामालाकलेवी व निमसन्कीमापालिकामादिका नयनमनोकामसिजलियावाकडीकियांना मानवकरणीमाश्रमकारियंमसेवनियोजन करतmaagaer कसंबसोजमेकानिजोगिक नीरजला लिमal |मोदक स्करिनाय जेवली जावन संकासयनीजन्माएमजेपारसूता माननी.जावनकशानदीनीकरवीनतारामजामलिएपनरैमीनीसंकरानीशमनवदामश्वसनियल करना Raasमान निवासी कमानयंनिजानेरसिदयश्न.an.geवल| मनविनयमकास्यसमनियामा संवत्रकारसयामा जेजmanवियतानीसरहा थाmaRAAयचास्मा कारिकमेमन नामकस्सेदक विकोरिashalaril IMAaयजनबीनगनाममारासदिनमानर विनय शहनाममवासनामी-लिकामानिलिनियाasaaneवियर neaaaaaaaलीनागना.रामनारलविरामसाएरली मR25मिलिमीका विकासलेsantasana laramaARARA जयन्महाननाजी यूरेलिननद लगानय शातियारियकरानेमकरियरी fami पासनाशयरे'aeaabeaaसनिदरनिकाररेरित करिएसदिaa बजे करण सीलनासमोर कविकरासोबपकीय संका JataanaविचारasanRaलो शरिमदिagre२ देविति RRBelaiaपएममानिसकनमेजस्वनी-नाराममरिनयेas मानवोनकररएशंसामाशिमं मलविसावरे विनयमावनिकारे तेवनिमयनरमसूतेकर्दियामविनयविकारमा मिसRAमचारेकरवीggamajiRanीतादि धूमाकरवातकार-सावन नविनय रसेवः यसपनिमीतमेवर बिनियानानादि निरिRARE -घसकीय विश्व यनanaमविनयकरियायकारे सोलिपुरम मप्रकारेवामा रंग सामाविक-जावत,यमामानि२.seयमापकानाgmai-मन:तानि.सेकम एनिमयंलन as Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगमों के मुख्य दो विभाग हैं- अंग और अंग बाय। अंग बारह थे। आज केवल ग्यारह अंग ही उपलब्ध होते हैं। उनमें पांचवां अंग है- भगवती। इसका दूसरा नाम व्याख्या -प्रज्ञप्ति है। इसमें अनेक प्रश्नों के व्याकरण हैं। जीव-विज्ञान, परमाणु-विज्ञान, सृष्टि-विधान, रहस्यवाद, अध्यात्म - विद्या, वनस्पति- विज्ञान आदि विद्याओं का यह आकर-ग्रन्थ है। उपलब्ध आगमों में यह सबसे बड़ा है। इसका ग्रन्थमान १६००० अनुष्टुपु श्लोक प्रमाण माना जाता है। नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरी ने इस पर टीका लिखी। उसका ग्रन्थमान अठारह हजार श्लोक प्रमाण है। भगवती सूत्र की सबसे बड़ी व्याख्या है- यह 'भगवती जोड'। इस की भाषा है राजस्थानी। यह पद्यात्मक व्याख्या है, इसलिए इसे 'जोड़' की संज्ञा दी गई है। - इस ग्रन्थ में सर्व प्रथम जयाचार्य द्वारा प्रस्तुत जोड़ के पद्य और ठीक उनके सामने उन पद्यों के आधारस्थल दिये गये हैं। जयाचार्य ने मूल के अनुवाद के साथ-साथ अपनी ओर से स्वतंत्र समीक्षा भी की है। आवरण पृष्ठ पर मुदित हस्तलिखित पत्र गन्य की ऐतिहासिक पाण्डुलिपि के नमूने हैं। इनकी लेखिका हैं- तेरापंथ धर्मसंघ की विदुषी साध्वी गुलाब, जो आशुलेखन की कला में सिद्धहस्त थी। जयाचार्य भगवती-जोड की रचना करते हुए पचों का सृजन कर बोलते जाते और महासती गुलाब अविकल रूप से उन्हें कलम की नोक से कागज पर उतारती जातीं। उस प्रथम ऐतिहासिक प्रति के ये पत्र प्रज्ञा, कला और ग्रहण-शीलता की समन्विति के जीवन्त साक्ष्य हैं। मुद्रण का आधार यही प्रति है। For Private Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती-जोड़ (श० ६ से ११) श्रीमज्जयाचार्य Jain Education Intemational Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय वाङ्मय : प्रन्थ १४ भगवती-जोड़ खण्ड ३ (श०६ से ११) प्रवाचक आचार्य तुलसी प्रधान सम्पादक युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशक जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) Jain Education Intemational Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन साध्वी-प्रमुखा कनकप्रभा Jain Education Intemational Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबन्ध सम्पादक : श्रीचन्द रामपुरिया निदेशक आगम और साहित्य प्रकाशन ( जैन विश्व भारती ) प्रथम संस्करण : १६६० मूल्य जैन विश्व भारती मूल्य ४००/ मुद्रक : मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से स्थापित जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं ( राजस्थान ) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'भगवती-जोड़' का प्रथम खण्ड जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के अवसर पर 'जय वाङ्मय' के चतुर्दश ग्रन्थ के रूप में सन् १६८१ में प्रकाशित हुआ था । इसका दूसरा खण्ड सन् १९८६ में प्रकाशित हुआ। अब उसी ग्रन्थ का तृतीय खंड पाठकों के हाथों में सौंपते हुए अति हर्ष का अनुभव हो रहा है । प्रथम खण्ड में उक्त ग्रन्थ के चार शतक समाहित है। द्वितीय खण्ड में पांचवें से लेकर आठवें शतक तक की सामग्री समाहित है । प्रस्तुत खण्ड में नौवें से ग्यारहवें तक तीन शतक संगृहीत हैं । साहित्य की बहुविध दिशाओं में आगम ग्रन्थों पर श्रीमज्जयाचार्य ने जो कार्य किया है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । प्राकृत आगमों को राजस्थानी जनता के लिए सुबोध करने की दृष्टि से उन्होंने उनका राजस्थानी पद्यानुवाद किया जो सुमधुर रागिनियों में ग्रथित है। प्रथम आचारांग की जोड़, उत्तराध्ययन की जोड़, अनुयोगद्वार की जोड़, पन्नवणा की जोड़, संजया की जोड़, नियंठा की जोड़ - ये कृतियां उक्त दिशा में जयाचार्य के विस्तृत कार्य की परिचायक हैं । "भगवई " अंग ग्रन्थों में सबसे विशाल है। विषयों की दृष्टि से यह एक महान् उदधि है। जयाचार्य ने इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ का भी राजस्थानी भाषा में गीतिकाबद्ध पद्यानुवाद किया । यह राजस्थानी भाषा का सबसे बड़ा ग्रंथ माना गया है । इसमें मूल के साथ टीका ग्रंथों का भी अनुवाद है और वार्तिक के रूप में अपने मंतव्यों को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है । इसमें विभिन्न लय ग्रथित ५०१ ढालें तथा कुछ अन्तर ढालें हैं । ४१ ढालें केवल दोहों में हैं । ग्रन्थ में ३२६ रागिनियां प्रयुक्त हैं । इसमें ४६९३ दोहे, २२२५४ गाथाएं, ६५५२ सोरठे, ४३१ विभिन्न छन्द, १८४८ प्राकृत, संस्कृत पद्य तथा ७४४६ पद्यपरिमाण ११६० गीतिकाएं, १३२६ पद्य परिमाण ४०४ यन्त्रचित्र आदि हैं। इसका अनुष्टुप् पद्य परिमाण ग्रंथाग्र ६०९०६ है । प्रस्तुत खंड में मूल राजस्थानी कृति के साथ सम्बन्धित आगम पाठ और टीका की व्याख्या गाथाओं के समकक्ष में दे दी गई है । इससे पाठकों को समझने की सुविधा के साथ-साथ मूल कृति के विशेष मंतव्य की जानकारी भी हो सकेगी । इस ग्रंथ का कार्य युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के तत्वाधान में हुआ है और साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी ने उनका पूरा-पूरा हाथ बंटाया है । उनका श्रम पग-पग पर अनुभूत होता-सा दृग्गोचर होता है । योगक्षेम वर्ष की सम्पन्नता के बाद बहुत शीघ्र ही ऐसे ग्रंथ रत्न के तृतीय खंड को पाठकों के हाथों में प्रदान करते हुए जैन विश्व भारती अपने आपको अत्यन्त गौरवान्वित अनुभव करती है । इस ग्रंथ का मुद्रण कार्य जैन विश्व भारती के निजी मुद्रणालय में संपन्न हुआ है, जिसकी स्थापना जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से हुई थी । ४-३-६० सुजानगढ़ श्रीचन्द रामपुरिया कुलपति जैन विश्व भारती Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय भगवती जोड़ का तीसरा खण्ड तीन शतकों का समवाय है। प्रथम और द्वितीय खण्ड में चार-चार शतक हैं। प्रस्तुत खण्ड में नौवां शतक बहुत विस्तृत है, इसलिए बीन ही शतक आ पाए हैं। नौवें शतक की विषय बस्तु इसकी संग्रहणी गाथा मैं संकलित है । उस गाथा की जोड़ इस प्रकार है प्रथम उद्देशे मेव, जबूद्वीप नी वारता । द्वितीय ज्योतिषी देव, वक्तव्यता तेहनी अछै । अन्तर्वीपा जेह, अष्टवीस उद्देश तसु । असोच्चा नै गंगेय, उद्देशक बत्तीसमो॥ कुंडग्राम बलि जाण, पुरुष हणे जे पुरुष नै । नवमे शतक पिछाण, उद्देशा चउतीस ए॥ प्रथम उद्देशक में जंबूद्वीप का वर्णन है। जंबूद्वीप के संबंध में जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में विस्तृत विवेचन है । उसका उल्लेख करते हुए यहां कुछ संक्षिप्त सूचनाओं का आकलन किया गया है। दूसरे उद्देशक में यह बताया गया है कि जम्बूद्वीप क्षेम में दो चन्द्रमा और दो सूर्य हैं लवण समुद्र में चार चन्द्रमा और चार सूर्य हैं । धातकी खण्ड में बारह चन्द्रमा और बारह सूर्य हैं । कालोदधि में चन्द्रमा और सूर्य की संख्या बयालीस-बयालीस है। पुष्करद्वीप में एक सौ चम्मालीस चन्द्रमा और एक सौ चम्मालीस सूर्य हैं। इनमें से बहत्तर चन्द्रमा और बहत्तर सूर्य गतिशील हैं। शेष मनुष्य क्षेत्र से बाहर होने के कारण स्थिर हैं । इस वर्णन के अनुसार मनुष्य क्षेत्र में एक सौ बत्तीस चन्द्रमा और एक सौ बत्तीस सूर्य गति करते हैं। यह जैन आगमों का ज्योतिविज्ञान है। आधुनिक विज्ञान के साथ इसकी संगति कैसे बैठती है, यह काम शोधकर्ताओं का है। तीसरे से तीसवें तक अट्ठावीस उद्देशकों में अन्तर्दोषों का वर्णन है। यह वर्णन बहुत संक्षिप्त है। फिर भी इसमें द्वीपों के नाम और उनकी लम्बाई चौड़ाई को स्पष्ट रूप से निदर्शित किया गया है। इकतीसवें उद्देशक में असोच्चा केवली का प्रकरण है । प्रस्तुत ग्रंथ के बीस पृष्ठा में इस प्रसंग को सहज और सरल रूप में प्रतिपादित किया गया है। असोच्चा केवली के साथ प्रसंगवश सोच्चा केवली का भी संक्षिप्त विवेचन दिया गया है। नौवें शतक का बत्तीसवा उद्देशक विलक्षण है। यह उद्देशक या शतक विशेष रूप से गंगेयजी के भंगों के नाम से प्रसिद्ध है। गंगेय तीर्थंकर पार्श्वनाथ को परम्परा का साधु था। वह भगवान महावीर के पास आया। उसने भगवान से नैरयिक जीवों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे । भगवान ने उन प्रश्नों के उत्तर दिये। उत्तर में से प्रश्न निकलते गए और जिज्ञासा-समाधान का एक लंबा सिलसिला चल पड़ा। गणित के विद्याथियों के लिए यह बहुत ही रोचक विषय है। प्रस्तुत ग्रन्थ के १६० पृष्ठों में किया गया यह विवेचन ज्ञानवृद्धि के साथ मानसिक एकाग्रता के लिए भी अमोघ साधन है । पाठक की गणित में अभिरुचि न हो तो यह प्रसंग अनपेक्षित विस्तार की प्रतीति भी दे सकता है। जयाचार्य ने इस समग्र प्रसंग को जोड़ के साथ-साथ विविध यंत्रों में आबद्ध कर विशिष्ट सृजन प्रतिबद्धता का परिचय दिया है। तेतीसवें उद्देशक में ऋषभदत्त और देवानन्दा की दीक्षा का प्रसंग है। इसी शृंखला में जमालि का विस्तृत वर्णन है। जमालि की दीक्षा और जनपद विहार की अनुमति मांगने तक का विवेचन सामान्य है। उसके बाद घटना दूसरा मोड़ लेती है। जमालि के बार-बार अनुरोध पर भी भगवान् ने उसको स्वतन्त्र विहार की अनुमति नहीं दी। भगवान् के मौन का लाभ उठाकर उसने अपने पांच सौ शिष्यों के साथ प्रस्थान कर दिया। श्रावस्ती नगरी में जमालि अस्वस्थ हो गया। वहां उसने अपने शिष्यों को बिछौना बिछाने का निर्देश दिया। जमालि की अस्वस्थता बढ़ रही थी। वह बैठने में भी असमर्थ हो गया। उसने शिष्यों से दूसरी बार बिछौने के बारे में पूछा । शिष्यों ने कहा--- बिछौना अब तक बिछा नहीं है, बिछाया जा रहा है। इस बात पर जमालि का मन संदिग्ध हो उठा । उसने भगवान महावीर के Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) 'क्रियमाण कृत' सिद्धान्त को असत्य मानकर उनसे अपना संबंध विच्छेद कर लिया। भगवान से सम्बन्ध विच्छेद करने के बाद अपने मिथ्या अभिनिवेश के कारण जमालि असत् सिद्धान्तों का निरूपण करता रहा। आयुष्य पूर्ण होने पर वह किल्विषिक देव बना। यह पूरा प्रसंग स्पष्ट करता है कि गुरु की प्रत्यनीकता के कारण व्यक्ति अपना कितना अहित कर लेता है। इस शतक के अन्तिम उद्देशक में कुछ स्फुट प्रसंग वर्णित हैं। कुल मिलाकर पूरे शतक की जोड़ पाठक की रुचि को परिष्कृत करने वाली है । अनेक स्थलों पर मूल पाठ के साथ बृत्ति की भी जोड़ की गई है । दसवें शतक के भी चौतीस उद्देशक हैं उनकी सूचना संग्रहणी गाथा में इस प्रकार हैं दिस संवुड अणगारे आइड्ढी सामहत्थि देवि समा। उत्तर अन्तरदीवा दसमम्मि सयम्मि चउत्तीसा ।। प्रथम उद्देशक में दिशाओं का वर्णन है। शरीर के संबंध में यहां उल्लेख मात्र हुआ है । विस्तृत विवेचन के लिए प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें पद का संकेत किया है। दूसरे उद्देशक में ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रियाओं की प्राप्ति का वर्णन है । मूल आगम में योनि वर्णन में प्रज्ञापना के नौवें पद का संकेत देकर पूरे प्रकरण को अत्यन्त संक्षिप्त रखा गया है । जोड़ में भगवती और प्रज्ञापना की वृत्ति के आधार कुछ विस्तार के साथ निरूपित किया गया है । इसके बाद वेदना, प्रतिमा, आराधना आदि का वर्णन है। तीसरे उद्देशक की आदि में देवों का वर्णन है और उसके अन्तिम भाग में प्रज्ञापनी, आमंत्रणी आदि भाषाओं का विवेचन है। चौथे उद्देशक में असुरकुमार आदि देवों के मंत्रीस्थानीय त्रायस्त्रिश देव तथा पांचवें उद्देशक में उनकी देवियों के परिवार का वर्णन है। छठे उद्देशक में देवविमानों का वर्णन है। इसका प्रारंभ शक की सुधर्मा सभा के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित करते हुए किया गया है। आगमकार ने राजप्रश्नीय सूत्र का उल्लेख कर पूरे प्रसंग को विराम दे दिया। वृत्तिकार ने इसको थोड़ा-सा आगे बढ़ाया है । भगवती-जोड़ में इस प्रसंग को बहुत विस्तार से दिया गया है। यह विस्तार राजप्रश्नीय सूत्र को आधार बनाकर किया गया है। इसकी सूचना देते हुए जयाचार्य ने लिखा है हिव वर्णक अभिषेक न इन्द्र तणो अवधार । रायप्रश्रेणी सूत्र थी, कहिये इहां उदार ॥ प्रस्तुत ग्रन्थ के ३४८ वे पृष्ठ से शुरू होकर ३८० वें पृष्ठ तक ३३ पृष्ठों में आबद्ध यह वर्णन स्वर्गलोक और उसकी परंपराओं का सजीव चित्र उपस्थित करने वाला है । इस प्रसंग में जयाचार्य ने मूर्तिपूजा के संबंध में आगमों के आधार पर एक लम्बी-चौड़ी समीक्षा (पृ. ३६८-३७३) लिखी है, जो सूक्ष्म दृष्टि से मननीय है । शेष अट्ठाईस उद्देशकों में उत्तर दिशा स्थित अट्ठाईस अन्तीपों का उल्लेख केवल दो दोहों में किया है प्रभु ! उत्तर नां मनुष्य नो एकोहक अभिधान । तास द्वीप पिण एकरुक किहां कह्यो भगवान ? इम जिम जीवाभिगम में तिमज सर्व सुविशेष । जाव शुद्धदत द्वीप लग, ए अठवीस उद्देश ॥ नोवे शतक में दक्षिण दिशा के अन्तर्वीपों का उल्लेख है और दसवें शतक में उत्तर दिशा के । इस प्रकार दक्षिण एवं उत्तर के अन्तर्वीपों को संयुक्त करने से इनकी संख्या छप्पन हो जाती है। ग्यारहवें शतक के प्रथम आठ उद्देशकों में उत्पल आदि वनस्पति जीवों का वर्णन है। नौवें उद्देशक में राजर्षि शिव का जीवनवृत्त है। राजा शिव दिशापोखी तापस बना था। उस प्रसंग में होत्तिय, पोत्तिय आदि अनेक प्रकार के तापसों की चर्या पर प्रकाश डाला गया है। तापस चर्या का पालन करते-करते राजषि शिव को विभंग अज्ञान उत्पन्न हुआ। सात द्वीप और सात समुद्रों तक उसके ज्ञान की सीमा थी। उसने यह बात जनता के बीच में कही। गणधर गौतम ने यह बात सुनी। उनके माध्यम से सारी घटना भगवान महावीर तक पहुंची। उन्होंने असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्रों का निरूपण किया। राजषि शिव के पास यह संवाद पहुवा । वह भगवान के पास आया। भगवान ने उसको प्रतिबोध दिया। प्रतिबुद्ध होकर भगवान की शरण में आ गया। Jain Education Intemational on Intemātional Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस शतक के दसवें उद्देशक में लोक और अलोक का विवेचन है। ग्यारहवें उद्देशक में काल का वर्णन है। भगवान महावीर के पास काल सम्बन्धी प्रश्न सेठ सुदर्शन ने उठाया। उस प्रश्न के उत्तर में सेठ सुदर्शन के पिछले भव को विस्तार के साथ वणित किया है । बारहवें उद्देशक में ऋषिभद्र और पोग्गल परिव्राजक का वर्णन है। प्रस्तुत खण्ड का सम्पादन भी पूर्व दो खण्डों की तरह परम श्रद्धास्पद आचार्य श्री तुलसी के सान्निध्य में बैठकर किया गया हैं। ग्रन्थ की भाषा, शैली तथा ग्रन्थाकार के सम्बन्ध में पूर्व दो खण्डों के सम्पादकीय में चर्चा हो चुकी है। इस दृष्टि से प्रस्तुत खंड में केवल तीन शतकों की विषय वस्तु को ही उल्लिखित किया गया है। प्रथम दो खण्डों में ग्रन्थ के प्रारंभ में विषयानुक्रम नहीं है। अनुक्रम के संकेत बिना इतने बड़े ग्रन्थ में किसी विषय को खोजना बहुत कठिन प्रतीत हुआ। इस क्षेत्र में शोध करने वाले विद्वानों को इस कठिनाई का सामना न करना पड़े, इस दृष्टि से प्रस्तुत खण्ड में ग्रन्थ के प्रारम्भ में विषयानुक्रम दिया गया है। ग्रन्थ का एक बड़ा भाग मुद्रित होने के बाद यह बात ध्यान में आई इसलिए ग्रन्थ के बीच विषयों की सूचना नहीं दी जा सकी। इस कमी की पूर्ति अगले खण्ड में की जा सकेगी। परमाराध्य आचार्यश्री का दिशाबोधक सान्निध्य समय-समय पर युवाचार्यश्री का मार्ग-दर्शन और सहकर्मी साधु-साध्वियों का आत्मीय सहयोग भगवती-जोड़ की इस यात्रा को आगे से आगे सरल और आह्लाददायक बनाता रहे, यही आकांक्षा है। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा Jain Education Intemational Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम २३७ ३०० ३०३ ३११ ३१६ विषय १. जम्बूद्वीप पद २. ज्योतिष पद ३. अन्तरद्वीप पद ४. असोच्चा उपलब्धि पद ५. सोच्चा उपलब्धि पद ६. गांगेय प्रश्न ७. ऋषभदत्त देवानन्दा पद ६. जमालि पद ६. एकवध-अनेकवध १०. आनापान पद ११. क्रिया पद १२. दिशा पद १३. शरीर पद १४. संवृतक्रिया पद १५. योनि पद १६. वेदना पद १७. भिक्षु प्रतिमा पद १८. आराधक-विराधक पद १९. गमन आदि देव विनय पद २०. प्रज्ञापनी भाषा पद २१. त्रायश्त्रिशग पद २२. दिव्य भोग पद २३. सुधर्मा सभा पद २४. उत्पलादि जीवों का उत्पाद पद २५. शिवराज ऋषि पद २६. लोकालोक पद २७. सुदर्शन सेठ पद २८. ऋषिभद्र पुत्र पद २६. पुद्गलपरिव्राजक पद rr mr m mmmmmmmmmmmmmmmmm ३२४ ३२४ ३२५ ३३१ ३३६ ३४७ ३८५ ४१४ ४२८ ४६५ ४६६ Jain Education Intemational Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम शतक ढाल : १६६ सोरठा १. शतक आठमों एह हो संपूरण अर्थ थी । नवमों हि कहेह, चित्त लगाई सांभलो ॥ २. अष्टम शतक मझार, विविध पदारथ आखिया । नवमें पिण सुविचार, तेहिज भंगंतर करी ॥ ३. प्रथम उद्देशे भेव, जंबूद्वीप नीं वारता । वक्तव्यता तेहनी अछे । द्वितीय जोतिषी देव 1 ४. अंतरद्वीपा जेह, अष्टवीस उद्देश तसु । असोच्या नें गंगेय, उद्देशक बत्तीसमों ॥ ५. कुंडग्राम बलि जाण, पुरुष हृणं जे पुरुष नैं । नवमें शतक पिछाण, उद्देशा चउतीस ए ॥ ६. तिण काले नैं तिण समय, नगरी मिथला नाम । माणभद्र है चैत्य वर वर्णन अति अभिराम ॥ ७. समवसरया स्वामी तिहां, परषद वंदण जाय । जावत गोतम वीर नीं सेव करी कहै वाय ॥ ८. जंबूद्वीप प्रभू ! किहां, किण संठाण कहेव ? जंबूद्वीपपन्नती में कह्यो, यावत एवामेव ॥ परिवार । मझार ॥ ६. चउद लक्ष छप्पन सहस्र, नदी तणें पूरब पश्चिम थी मिले, लवणसमुद्र १०. किहां वाचना-अंतरे, जंबुद्वीपपन्नत्ती गांय । तिम कहिवो जोतिषी बिना, वर्णन सर्व कहाय ॥ ११. जंबूद्वीपपन्नती विषे जोतिषी वर्णन जाण । 1 ते तो इहां भणवू नहीं, अपर समस्त बखाण ।। १२. जोतिषि वक्तव्यता बिना, जंबूद्वीपपन्नती सूक्त । इण उद्देशा नों अछे, वाचनांतरे उक्त ॥ वा०— एवं जंबुद्दीवपण्णत्ती भाणियव्वा' इम कह्यो ते पाठ लिखिये - केमहालए गंभ! जंबूरी दीवे किमाचारभाव पडोवारे गं भंते ! बुरीने दीने पण्णत्ते ? गोवमा 1 अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सय्यदीयसमुद्दा सम्बभितर सव्वा बट्टे तेल्यापूपसंठाणसंठिए बट्टे रहचक्कवालठाणसंठिए, वट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए, वट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एगं जोयणसयसहस्सं आयाम विक्खंभेणं, (१1७ ) | इत्यादि केतला लग कहिवो ते कहै छे - एवामेवत्ति तिणहिज न्याये सपुव्वाबरेण त्ति पूर्व तथा पश्चिम सहित नदी नां वृद तिणे करी । जंबुद्दीवे दीने नोट्स सविलासवसहस्सा उपरणं च सहस्सा भवतीति मक्खायें' । चउदै लाख छप्पन हजार नदी नीं विगत १. जं० ६।१६-२६ *** १. व्याख्यातमष्टमशतमथ नवममारभ्यते । ( वृ०प० ४२५ ) उक्ताः, नवमेऽपि त २. अष्टमशते विविधाः पदार्था भंग्यन्तरेोच्यन्ते 1 २५. जंबुवेजोस अंतरीचा असो कुंडग्णामे पुरिसे गवमम्मि एव (बु० प० ४२५) गंगेय | सम्म पोलीसा ॥ १ ॥ (स० ९ संग्रहणी माहा) 'जंबुद्दीवे' ति तत्र जम्बूद्वीपवक्तव्यताविषयः प्रथमोदेशकः, 'जोइस' ति ज्योतिष्य द्वितीयः 'अंतरदीव' ति अन्तरदीपविषया अष्टाविशति देश: गिय त्ति गांगेयाभिधानगारवक्कष्पतार्थी द्वात्रिशत्तमः 'पुरिसे' त्ति पुरुषः पुरुषं घ्नन्नित्या दिवक्तव्यतार्थश्चतुस्त्रिंशत्तमः । ( वृ० प० ४२५) ६. ते काले ते समएणं महिला नाम नवरी होत्या बप्पओ जाव भगवं गोयमे - वण्यओ माणिभद्दे चेतिए ७. सामी समोसढे, परिसा निग्गता पलुवासमाणे एवं बदासी ८. कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे ? किंसंठिए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ? एवं जंबुद्दीवपण्णत्ती [१७ - ६।२६] भाणियव्वा जाव एवामेव । १. सय्यावरे जंबूरी दीवे चोट्स सलिला संयसहस्सा छप्पन्नं च सहस्सा भवतीति मक्खाया । ( श० ९1१ ) वा० - 'एवामेव' त्ति उक्तेनैव न्यायेन पूर्वापरसमुद्रगमनादिना 'सपुव्वावरेणं' ति सह पूर्वेण नदीवृन्देनापरं सपूर्वापरं तेन । श० ६, उ० १, ढाल १६६ १ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरतखेत्रे गंना अनै सिंधु, एरवत क्षेत्रे रक्ता अनं रक्तवती ए चार महानदी प्रत्येके उदे उदे सहस्र परिवारे युक्त है तथा हेमवंत क्षेत्रे रोहिता भने रोहितांशा ऐरव्यवत क्षेत्रे सुवर्णकूला अन रूप्यकूला ए चार प्रत्येके अठाईस सहस्र नदी युक्त है तथा हरिवर्ष क्षेत्रे हरि अने हरिकंता रम्यक क्षेत्रे नरकंता अनं नारीकंता ए चार महानदी प्रत्येके प्रत्येके छप्पन सहस्र नदी नैं परिवार युक्त छँ तथा महाविदेह खेत्र में सीता अनं सीतोदा महानदी प्रत्येके पांच लाख बत्तीस सहस्र नदी ने परिवारे युक्त सर्व चउदै महानदी नों परिवार भेलो करें तिवारं चउदै लाख छप्पन सहस्र ए 1 नदी हुवे । बाइक वाचतांतरे इम दीसे जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए तहा नेयव्वं जोइसविहूणं जाव खंडाजोपयवासायन्यया व सित्व सेडीओ विजयद्दहस लिलाओ, पिंडए होइ संगहणी ॥ 1 तिहां जोतिति जंबुद्वीपपन्नत्ती ने विषे जोतिष्क नीं वतव्यता लेगे हीन समस्त जंबूद्वीपचन्नती सूत्र ते इस उद्देशात जागो का स ते कहै छै - तत्र खंडत्ति जंबूद्वीप ने विषे भरतक्षेत्र प्रमाण खंड केतला हुवै ते कहै छे एक सौ नेऊ खंड हुवं । जोयणत्ति जंबूद्वीप नां योजन-योजन प्रमाण खंड करिये तिवारं केतला खंड हुसे कहे - सातसौ नेउ कोड़ छप्पन लाख साहियं कहितां कांइक जाभेरा सहित कहै छै -- गाउयमेगं कहितां एक गाउ, धनुष्य, तह धणुण पनरस कहितां कहितां साठ आंगुल जम्बूद्वीप नो संज्ञा । चोणमें हजार एक सौ पचास योजन अनं जद कोइ पूछे - जाभेरू केतलो ? ते आगल पण्णरस घणुसया कहितां एक हजार पांचसौ तिमज पनरह धनुष्य, सट्ठि च अंगुलाई गणितपद ते इण प्रकार करिकै गणित नीं वासत्ति जंबूद्वीप नै विषे भरत हेमवंतादिक सात वर्ष क्षेत्र छ । पयति जंबूद्वीप में विकेतला पर्वत ? हिमादिक छह तो वर पर्वत छ, एक मेरु पर्वत छ, एक चित्रकूट, एक विचित्रकूट - ए बे देवकुरु ने विषे छै, दो यमक पर्वत - ए वे उत्तरकुरु ने विषे छँ, सीता सीतोदा नदी पास बेसी कांचनगिरि छे, बीस ववखारा छे, चोत्रीस दीर्घ वैताढ्य, चार वर्तुल वैताढ्य इम दो सो नंतर पर्वत कुत्ति केतला पर्वत नां कूट छ ? ते कहै छ- छप्पन तो वर्षधर नां कूट, छिनमें वक्खारा पर्वत नां कूट, वैताढ्य नां तीनसौ छह कूट अने नौ मेरु पर्वत नां कूट छ । तिथत्ति जंबूद्वीप नैं विषे केतला तीर्थ छ ? बत्तीस विजय अन भरत एरवत इम चौतीस खंड छ । तिहां एकीके खंडे त्रिण-त्रिण तीर्थ छँ । सर्व एकसौ दो तीर्थ छं । १. जं० ६।६ २ भगवती जोड़ भरतैरावतयोगं गासिन्धुरक्तारक्तवत्यः प्रत्येकं चतुर्दशभिर्नदीनां सहस्रैर्युक्ताः, तथा हैमवतैरण्यवतयोः रोहिद्रोहितांशासुवर्ण कूलारूप्यकूलाः प्रत्येकमष्टाविशत्या सहस्रैर्युक्ताः, तथा हरिवर्ष रम्यकवर्षयोर्हरिहरिकान्ता नरकान्तानारीकान्ताः प्रत्येक पद्मचा शता सहस्रैर्युक्ताः समुद्रमुपयान्ति तथा महानिदे शीताशीतोदे प्रत्येकं पञ्चभिर्लक्षेर्द्वात्रिंशता च सहसंयुक्ते समुद्रमुपयात इति, सर्वासां च मीलने सूत्रोक्तं प्रमाणं भवति । वाचनान्तरे पुनरिदं दृश्यते--- 'जोइसविहूणं' ति जंबूद्वीपप्रज्ञप्त्यां ज्योतिष्कवक्तव्यताऽस्ति तद्विहीनं समस्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रमस्योदेशकस्य सूत्रं ज्ञेयं, कि पर्यवसानं पुनस्तद् ? इत्याह - जाव खंडेत्यादि, तत्र खंडे त्ति जम्बूद्वीपो भरतक्षेत्रप्रमाणानि खदान कियन्ति स्वात् ? उच्च नवत्यधिकं खण्डशतं । 'जोयण' ति जम्बूद्वीपः क्रियन्ति योजनप्रमाणानि खण्डानि स्यात् ? उच्यते सत्तेव य कोडिसया णउया छप्पन्नसयसहस्साई । चउणवई च सहस्सा सयं दिवढं च साहीयं ॥ गाउयमेगं पन्नरस धणुस्सया तह धणूणि पन्नरस । सचि अंगुलाई जंबुद्दीवत्स गणियपयं ॥ इति, गणितपदमित्येवं प्रकारस्य गणितस्य संज्ञा । 'पास' ति जम्बूद्वीपे भरतहेमवतादीनि सप्त वर्षाणि क्षेत्राणीत्यर्थः । पति जम्बूद्वीपे कियाः पर्वताः ? उच्चनी पवधरपर्वता हिमवदादयः एको मन्दरः एक कूट: एक एवं विचित्रकूट, एतौ च देवकुरुप द्रौ यती एती चोराचन कानाम्, एते च शीताशीतोदपः पार्श्वतो विशतिः वक्षस्काराः, चतुरशीनिया पर्वताश्वत्वारो वर्तुल विजयार्द्धा, एवं द्वे शते एकोनसप्तत्यधिके पर्वतानां भवतः । 'कू' ति किन्ति पर्वतानि ? उच्यते पा परकूटानि पण्णवतिर्वक्षस्कारकुटानि पणि षडुत्तराणि विजयार्द्धकूटानां शतानि नव च मन्दरकूटानि । 'तित्थ' त्ति जम्बूद्वीपे कियन्ति तीर्थानि ? उभ्यते भरतादिषु चतुस्त्रिशतिखण्डेषु मागपवरदामप्रभासाख्यानि त्रीणि त्रीणि तीर्थानि भवन्ति, एवं चक द्वत्तरं तीर्थशतं भवतीति । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेढीओत्ति विद्याधर- श्रेणि अनें आभियोगिक श्रेणि केतली छ ? चौतीस वेताढ्य छँ । एकेका उपरि बे-बे विद्याधर श्रेणि दो-दो आभियोगिक श्रेणि – इम एकसी तीस श्रेणि - विजयत्ति चक्रवत्ति जीपवा योग्य खंड केतला छँ ? चौतीस छै । हत्ति केतला मोटा द्रह छ ? प्रमुख से उत्तरकुरु देवकुरु मोहि पद्म द्रह प्रमुख छह द्रह छ । दश नीलवंत इम सोलह ग्रह है। नदी तो देखाड़ी है। एह सर्व परिकर नदी नीं संख्या महानदी सहित जाणवी अन्यथा सूत्र विरुद्ध वचन थावं ते भणी महानदी सहित संख्या जाणवी । इहां सर्व संख्या ने विषे बारं अंतर नदी तो परिवार एकेकी जो अठावीस अठावीस हजार नदीनो ग नहीं, जे भणी अंतर नदी ने परिवार जणातो नथी अनं सूत्र मांहि कह्यो . विजय ने बे पासे गंगा सिंधु अथवा रक्ता रक्तवती चउद- चउद हजार ने परिवारे अंतर नदी पासे पई ने सीता सीतोदा पहि जाये । ते वे नदी तो परिवार उपचारपणें समीपपणां मार्ट अपर नदी नां परिवारपणें गण्यं जणाय छँ । जे भणी जेह नदी नो अठावीस हजार नों परिवार छे ते नदी नों मूल प्रवाह पहुलपणे साढ़े बारह योजन छै अनं मुख प्रवाह एक सौ पचीस योजन छँ । अने एह बारह अंतर नदीनों मूल प्रवाह अनं मुख प्रवाह सरीखो एक सौ पचीस पहुलपणे छे जो परिवार हुवे तो मूल प्रवाह अनं मुख प्रवाह सरीखो न हुवै ते भणी इहां सर्व नदी संख्या नै विषे एह बारे अंतर नदी नो परिवार गणुं नहीं अठावीस हजार नो परिवार गिणियै तो जंबूद्वीप नं विषे सर्व नदी संख्या हुवै । यतः सुत्ते अने जो ए बारंगी तो सतर लाख अन बाणुं हजार चउदस लक्खा छप्पण्ण सहस्स जंबूदीवं मिहुति उ । सतर सतस्स लक्खा वाणवई सहस्स सलिलाओ ॥ इहां एह छठो अधिकार थयो । गम्य जाणवू एह अंबूदीप पदार्थ संग्रह वर्णन नामे + हा १३. सेवं भंते ! इम कही नवमें शतक निहाल । प्रथम उद्देशक नों अरथ, आव्यो प्रवर विशाल ॥ नवमशते प्रथमोद्देशकार्थं ॥१॥ : 'सेढीओ' त्ति विद्याधरश्रेणयः आभियोगिक श्रेणयश्च कियन्त्यः ? उच्यते, अष्टषष्टिः प्रत्येकमासां भवन्ति, विजयार्द्ध पर्वतेषु प्रत्येकं द्वयोर्द्वयोर्भावात् एवं च षट्त्रिंशदधिकं श्रेणिशतं भवतीति । 'विजय' ति कियन्ति चक्रतिविजेतव्यानि भूखण्डानि ? उच्यते चतुस्त्रिशत् । 7 'दह' त्ति कियन्तो महाह्रदा: ? उच्यते, पद्मादयः षड् दश च नीलवदादय उत्तरकुरुदेवकुरुमध्यवत्तन इत्येवं षोडश, 'सलिल' त्ति नद्यस्तत्प्रमाणं च दर्शितमेव । ( वृ० प० ४२५, २६) १३. सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ ( श० 81२ ) श० ६, उ० १. ढाल १६६ ३ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानदी नामानि गंगा १ । सिंधु २ रोहितांशा ३) रोहिता ४ | हरिकंता ५हरिसलिला ६/ सीतोदा ७ | सीता ८ | नारीकता र नरकंना १० निर्गम वर्षधर पर्वत चुल्लहिमवंत चुल्लहिमवंत चुल्ल हिमवंत महाहिमवंत महाहिमवंत निषध निषध नीलवंत नीलवंत रु प्यी पद्मद्रह निर्गम द्रहा | महापुंडरीक | पद्मद्रह | महापद्मद्रह | महापद्मद्रह | तिगिच्छद्रह | तिगिच्छद्रह केसरीद्रह | केस द्रह | पद्मद्रह मूल प्रवाह विक्खंभ यो०६। यो०६॥ १२॥ १२॥ २५ २५ मूल ऊंडपण क्रोश ॥ क्रोश ।। निर्गम क्षेत्र भरत क्षेत्र । भरत क्षेत्र | हेमवंत क्षेत्र हेमवंत क्षेत्र | हरिवर्ष | हरिवर्ष महाविदेह महाविदेह रम्यक समुद्रप्रवेश दिशि । पूर्व पश्चिम पश्चिम । पूर्व पश्चिम पूर्व | पश्चिम पूर्व पश्चिम पूर्व मुखप्रवाह विक्खंभ : यो० ६२॥ | ६२॥ | १२५ | १२५ २५० २५० ५०० ५०० २५० २५० मुखप्रवाह ऊंडपण यो० ११ | १ २ ॥ | २॥ परिवार | १४००० | १४००० | २८००० । २८००० | ५६००० । ५६००० । ५३२००० | ५३२००० | ५६००० | ५६००० Jain Education Intemational Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० रूप्यकूला ११ सुवर्णकूला १२ रक्तवती १३ रक्ता १४ रूप्यी इरीक महापुंडरीक ह द्रह १२॥ १ हैरण्ययंत पश्चिम १२५ २॥ २८००० शिखरी १२ ।। पुंडरीकद्रह | पुंडरीक द्रह पुंडरीकद्रह व्यूढा १ पूर्व हैरण्यवंत ऐरवंत १२५ २॥ शिखरी शिखरी निर्गता ६। पश्चिम ६२॥ १। २८००० १४००० ६। ऐरवंत पूर्व ६२॥ नद्यः १। १४००० योजन क्रोश क्षेत्र दिशि योजन योजन १४,५६,००० सर्व संख्या । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १४. प्रथम उद्देशे ताहि, जंबद्वीप नी वारता। ___ जंबूद्वीपादि मांहि, जोतिषि नी कहिये हिवे ।। १४. अनन्तरोद्देशके जम्बूद्वीपवक्तव्यतोक्ता द्वितीये तु जम्बूद्वीपादिषु ज्योतिष्कवक्तव्यताऽभिधीयते। (वृ०प० ४२६) १५. रायगिहे जाव एवं वयासी-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया चंदा पभासिसु वा ? पभासेंति वा ? प्रभासिस्संति वा? एवं जहा जीवाभिगमे १६. जाव.......... नव य सया पन्नासा, तारागण कोडीकोडीणं ॥ सोभिसु, सोभिति सोभिस्संति ॥ (जी० सू०७०३) १७. गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे दो चंदा पभासिसु वा३ दो सूरिया तर्विसु वा३ छप्पन्नं नक्खत्ता जोगं जोइंसु वा ३ (वृ प० ४२७) १५. *राजगृह नगर में जावत प्रश्न गोयम भला, सुगणा! जंबुद्वीप नामा द्वीप विषे प्रभु ! केतला? सुगणा ! चंद्र प्रभास कियो करै नैं करिस्यै सही, सुगणा ! इम जिम जीवाभिगम में वक्तव्यता कही सुगणा ! १६. जाव नव सै पचास तारा गण कोडाकोड़ ही, शोभ प्रतै शोभ्या शोभै शोभस्यै जोड़ ही । जीवाभिगम' रै मांहि प्रश्न चंद्रादिक तणो, वीर प्रभ दियो जाब संक्षेप कहूं सुणो॥ १७. बे चंद्र प्रभास कियो रु करै करस्यै सही, सूर्य दोय तप्या रु तपै तपस्यै वही। छप्पन नक्षत्र चंद्र संघात बखाणिय, जोग जोड्या जोड़े जोड़स्यै तेह पिछाणियै ।। १८. ग्रह एक सौ नैं छिहतर जेह आकाश में, चार प्रति चरचा काल अतीत हुलास में। वर्तमान पुन चार प्रति चरै छै तिके, काल अनागत मांहि चार चरस्यै जिके ।। १६. एक लाख कोड़ाकोड़ी तारा जाणिय, वलि तेतीस हजार कोड़ाकोडि आणियै । नवसै कोड़ाकोडि पंचास कोड़ाकोडि जे, शोभ प्रति शोभ्या शोभै शोभस्यै जोडि जे ॥ २०. हे प्रभु! लवणसमुद्र विष चंद्र केतला ? इम जिम जीवाभिगम' जाव तारा जेतला। ते इहविध कहिवाय च्यार चंद जाणिय, सूर्य च्यार उदार के कांत बखाणियै ।। १८. छावत्तरं गहसयं चारं चरिंसु वा ३ (वृ० प० ४२७) १६. एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं, खलु भवे सहस्साई। नव य सया पन्नासा, तारागण कोडिकोडीणं ।। सोभिंसु, सोभिति, सोभिस्संति । (श० ६।३) २१. नक्षत्र एक सौ द्वादश पवर सुहामणां, तीन सौ बावन मोटा ग्रह रलियामणां । तारा बे लख कोड़ाकोड़ नी जोड़ है, सतसठ सहस्र कोडाकोडि नवस कोडाकोड़ है। २२. धातकीखंड कालोद पुक्खरवरद्वीप ही, अभ्यंतर - पुखरार्द्ध मनुष्यक्षेत्रे वही। एह सर्व विषे जीवाभिगम जाव जोड़ जे, एक शशि परिवार तारा कोड़ाकोड़ जे॥ २३. बारै चंद बारै सूर धातकीखंड में, रवि शशि बिहुं चोबीस हरष घमंड में। *लय : इण सरवरिया री पाल १. (सू० ७०३) २. (सू० ७२२) २०. लवणे णं मंते ! समुद्दे केवतिया चंदा पभासिसु वा ? पभासेंति वा ? पभासिस्संति वा ? एवं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ (....श० ६।४) गोयमा ! लवणे णं समुद्दे चत्तारि चंदा पभासिसु वा ३ । चत्तारि सूरिया तर्विसु वा ३(वृ० प० ४२७) २१. बारसोत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोईसु वा ३ तिन्नि बावन्ना महग्गहसया चारं चरिंसु वा ३ दोन्नि सयसहस्सा सत्त४ि च सहस्सा नवसया तारागणकोडिको डीणं सोहं सोहिंसु वा ३। (वृ०प० ४२७) २२. धायइसंडे, कालोदे, पुक्खरवरे, अभितरपुक्खरद्धे, मणु स्सखेत्ते - एएसु सव्वेसु जहा जीवाभिगमे (सू० ८०६, ८१०, ८३०, ८३४) जाव-एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं॥ (श० ६।४) २३. बारस चंदा पभासिंसु वा३ बारस सूरिया तविसु वा३ एवं-"चउवीसं ससिरविणो नक्खत्तसया य तिन्नि छत्तीसा। श०६, उ०२, ढाल १६६ ७ Jain Education Intemational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र त्रिण सौ छत्तीस अतिहि सोहता, एक हजार नैं छप्पन ग्रह मन मोहता। २४. तारा नी संख्या अठ लाख कोडाकोड़ है, तीन सहस्र कोडाकोड़ अधिक सुजोड़ है। सात सौ कोड़ाकोड़ वलि ऊपर कह्या, एतला तारका धातकीखंड द्वीपे रह्या । २५. कालोद चंद बयांल बयांलिस दिनकरा, नक्षत्र एक हजार एक सौ छिहंतरा। तीन हजार नैं छसौ छिन्नं ऊपर, एतला मोटा ग्रह ते सुरवर मन हरै।। एगं च गहसहस्सं, छप्पन्नं धायईसंडे । (वृ० प०४२७) २४. अठेव सयसहस्सा तिन्नि सहस्साई सत्त य सयाई। धायइसंडे दीवे तारागणकोडिकोडीणं । (वृ०प० ४२७) २५. बायालीसं चंदा बायालीसं च दिणयरा दित्ता । कालोदहिमि एए चरंति संबद्धलेसागा । नक्खत्तसहस्स एग एगं छावत्तरं च सयमन्नं । छच्च सया छन्नउया महागहा तिन्नि य सहस्सा ॥ (वृ०५० ४२७) २६. अट्ठावीसं कालोदहिमि बारस य तह सहस्साई । णव य सया पन्नासा तारागणकोडिकोडीणं ।। (वृ० प० ४२७) २६. तारा अठावीस लाख तणी कोड़ाकोड़ है, ऊपर द्वादश सहस्र कोड़ाकोड़ि जोड़ है। नवसौ कोड़ाकोड़ अधिक बखाणिया, पचास कोड़ाकोडि कालोदधि आणिया ।। २७. द्वीप पुक्खरवर चंद्र एक सौ चोमाल है, रवि एक सौ चोमालीस चार विशाल है। चार चरै कह्यो ते रवि शशि सहु चर नहीं, अभ्यंतर-पुक्खराद्धे बोहितर भमैं सही ।। २८. नक्षत्र च्यार हजार में बत्तीस ऊपरं, महाग्रह द्वादश सहस्र छह सौ रु बोहितरं । तारा छिन्न लक्ष कोडाकोड़ नी जोड़ है, चोमालीस सहस्र च्यार सौ कोड़ाकोड़ है। २७. चोयालं चंदसयं चोयालं चेव सूरियाण सयं । पुक्खरवरंमि दीवे भमंति एए पयासिता। इह च यद्भ्रमणमुक्तं न तत्सर्वांश्चन्द्रादित्यानपेक्ष्य, किं तहि ? पुष्करद्वीपाभ्यन्तरार्द्धवर्तिनी द्विसप्ततिमेवेति । (वृ० प० ४२७) २८. चत्तारि सहस्साई बत्तीसं चेव होंति नक्खत्ता। छच्च सया बावत्तरि महागहा बारससहस्सा ।। छन्नउइ सयसहस्सा चोयालीसं भवे सहस्साई । चत्तारि सया पुक्खरि तारागणकोडिकोडीणं ।। (वृ०प० ४२७) २६. बावत्तरि च चंदा बावत्तरिमेव दिणयरा दित्ता । पुक्खरवरदीवड्ढे चरति एए पभासिता॥ तिन्न सया छत्तीसा छच्च सहस्सा महम्गहाणं तु । नक्खत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साई॥ (वृप० ४२७) ३०. अडयाल सयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई। दो य सय पुक्खरद्धे तारागणकोडिकोडीणं । (वृ०प० ४२७) २६. अभ्यंतर-पुक्खरार्द्ध द्वीप – विषे सही, चंद्र बोहितर सूर बोहितर गगन ही। मोटा ग्रह षट सहस्र तीनसौ छत्तीस है, नक्षत्र दोय हजार मैं सोल जगीस है। ३०. अडतालीस लक्ष कोडाकोड़ि पिछाणज्यो, बावीस सहस्र कोड़ाकोड़ि ऊपर आणज्यो, दोय सौ कोड़ाकोड़ तारा शोभावता, अभ्यंतर पुक्खरार्द्ध विषे सुख पावता॥ ३१. मनुष्य क्षेत्र में एक सौ बत्तीस चंद्रमां। सूर्य एक सौ बत्तीस अधिक आनंद मां। महाग्रह ग्यार हजार छह सौ सोल वली, नक्षत्र तीन हजार छह सौ छिन्नु रली ॥ ३२. तारा अठ्यासी लक्ष कोड़ाकोडि जोड़ है, ऊपर चालीस सहस्र कोडाकोड़ है। सात सौ कोड़ाकोड़ ए पूरा ऊणां नहीं, यावत एक शशि परिवार हिवै कहं सही। ३१. बत्तीसं चंदसयं बत्तीसं चेव सूरियाण सयं । सयलं मणुस्सलोयं चरंति एए पयासिता । एक्कारस य सहस्सा छप्पि य सोला महागहाणं तु । छच्च सया छण्णउया णक्खत्ता तिन्नि य सहस्सा ॥ (वृ०प० ४२७, २८) ३२. अडसीइ सयसहस्सा चालीस सहस्स मणुयलोगंभि । सत्त य सया अणूणा तारागणकोडिकोडीणं ।। (वृ० प० ४२८) ८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. एक शशि परिवार अठ्यासी ग्रह कह्या, नक्षत्र अठावीस चंद्र साथै रह्या। छ्यासठ सहस्र कोड़ाकोडि नवसौ कोड़ाकोड़ है। पिचोत्तर कोड़ाकोड़ तारां नी जोड़ है ॥ ३४. हिवै पुक्खरोद समुद्र विषे प्रभु ! केतला, चंद्र प्रभास कियो करै करस्यै सुखनिला? इम सह द्वीप समुद्र विषे जोतिषि तणी, जावत स्वयंभूरमण जाव शोभा घणी॥ वा० -पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवतिया चंदा इत्यादि प्रश्ने ए उत्तरसंखेज्जा चंदा पभासिसु वा। इम आगलै सगल द्वीप समुद्र नै विषे पूर्व कह्य तिम अनुक्रमे संख्याता असंख्याता चंद्रादिक जाणिवा । द्वीप समुद्र नां नाम कहै छ-पुक्खरवर समुद्र तिवार पछी वरुण द्वीप, वरुणवर समुद्र । क्षीरवर द्वीप, क्षीरवर समुद्र । घृतवर द्वीप, घृतवर समुद्र । इक्षुवर द्वीप, इक्षुवर समुद्र । नंदीश्वर द्वीप, नंदीश्वर समुद्र, । अरुण द्वीप, अरुण समुद्र । अरुणवर द्वीप, अरुणवर समुद्र । अरुणवरावभास द्वीप, अरुणवरावभास समुद्र। कुंडल द्वीप, कुडलोद समुद्र । कुंडलवर द्वीप, कुडलवर समुद्र। कुंडल वरावभास द्वीप, कुंडलवरावभासोद समुद्र । रुचक द्वीप, रुचकोद समुद्र। रुचकवर द्वीप, रुचकवरोद समुद्र । रुचकवरावभास द्वीप, रुचकवरावभासोद समूद्र ।। हार द्वीप, हारोद समुद्र । हारवरद्वीप, हारावरोद समुद्र । हारवरावभास द्वीप, हारवरावभासोद समुद्र । रुचकद्वीप पछी असंख्याती योजन नी कोड़ाकोड़ि नां द्वीप समुद्र असंख्याता छ। इम यावत अर्द्ध राजू मठेरा में सर्व समुद्र द्वीप छ । अर्द्ध राजू जाझेरा में एक स्वयंभूरमण समुद्र छ त्रिण लाख जोजन अधिक अर्द्ध राज् मा छ। ते स्वयंभुरमण समुद्र पर्छ आगल अलोक छ। इम इत्यादिक ने विषे संख्याता जोतिषि चंद्रादिक तथा असंख्यात नक्षत्रादिक चार चरता हुआ गतकाले, चरै छ वर्तमान काले, चरस्य आगामि काले । जीवाभिगम' में कहा भी है - एसो तारापिंडो, सबसमासेण मणुयलोगमि । बहिया पुण ताराओ, जिणेहि भणिया असंखेज्जा ।। अंतो मणुस्सखेत्ते हवंति चारोवगा य उववण्णा । पंचविहा जोइसि या चंदा सूरा गह गणा य ।। तेणं पर जे सेसा चंदाइच्चगहतारनक्खत्ता । णत्थि गई णवि चारो, अवट्ठिया ते मुणे यब्वा ।। इत्यादि घणो ? ते पंडिते जाणिवो । ३३. अट्ठासीइं च गहा अट्ठावीसं च होइ नक्खत्ता । एगससीपरिवारो एत्तो ताराण बोच्छामि ॥१॥ छावट्ठि सहस्साई नव चेव सयाई पंच सयराई ति । (वृ० प० ४२८) ३४. पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवतिया चंदा पभासिंसु वा? पभासें ति वा ? पभासिस्संति वा ? एवं सब्वेसु दीवसमुद्देसु जोतिसियाणं भाणियवं जाव सयंभूरमणे जाव सोभिंसु वा, सोभिति वा, सोभिस्संति वा। (श० ६।५) वा०–'पुक्ख रोदे णं भंते ! समुद्दे केवइया चंदा' इत्यादौ प्रश्ने इदमुत्तरं दृश्यं-'संखेज्जा चंदा पभासिंसु वा ३ इत्यादि, 'एवं सव्वेसु दीवसमुद्देसु' त्ति पूर्वोक्तेन प्रश्नेन यथासम्भवं संख्याता असंख्याताश्च चन्द्रादय इत्यादिना चोत्तरेणेत्यर्थः ।। द्वीपसमुद्रनामानि चैवं-पुष्करोदस मुद्रादनन्तरों वरुणवरो द्वीपस्ततो वरुणोद: समुद्रः, एवं क्षीरबरक्षीरोदौ घृतवरघृतोदो क्षोदवरक्षोदोदौ नंदीश्वरवरनंदीश्वरोदी अरुणारुणौदी अरुणवरारुणवरोदौ अरुणवरावभासारुणवरावभासोदौ कुण्डलकुण्डलोदौ कुण्डलवरकुण्डलवरोदी कुण्डलवरावभासकुण्डलवरावभासोदो रुचकरुचकोदो रुचकवररुचकवरोदो रुचकवरावभासरुचकवरावभासोदी इत्यादीन्यसंख्यातानि, यतोऽसंख्याता द्वीपसमुद्रा इति ॥ (वृ० प० ४२८) ......"हारे दीवे हारे समुद्दे, हारवरे दीवे हारवरे समुद्दे, हारवरोभासे दीवे हारवरोभासे समुद्दे, ताओ च्चेव वत्तब्वताओ........ (जीवा० ३।६३५) । सोरठा ३५. 'जंबुद्वीप रै मांहि, बे चंदा बे सूर छै । लवणे दुगुणां ताहि चिउं चंदा दिनकर चिहं । ३५. जंबुद्दीवे 'जंबुद्दीवे णं दीवे दो चंदा पभासिसु (जीवा० ३।७०३) लवणे"लवणे णं समुद्दे चत्तारि चंदा पभासिसु. (जीवा० ३७२२) १. यह समग्र वर्णन देखें-जीवा० ३८४८-६४६ २. जी० ३१८३८।१,२१,२२ श० ६, उ०२, ढाल १६६ Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. धाय इसंडे .. बारस चंदा पभासिसु ... (जीवा० ३।८०६) ३८. कालोए 'कालोए णं समुद्दे बायालीसं चंदा पभासिसु.. (जीवा० ३८२०) ३६. धातकीखंड मझार, बार चंद्र द्वादश रवि । __ आगल त्रिगुणा सार, पूरवला पिण भेलियै ।। ३७. बार धातकीखंड, तेहनें त्रिगुणा कीजिये । 8 छत्तीस सुमंड, पूरवला षट मेलियै ।। ३८. जंबूद्वीप नां दोय, लवणोदधि नां च्यार वलि । ए षट भेल्यां होय, बयांलीस कालोदधि । ३६. इहविध सगलै ठाम, त्रिगुणा करिने पूर्वला । भेलीजै अभिराम, आगल द्वीप समुद्र में ।। ४०. अर्थ विषे ए गाह, तिण अनुसारे हैं कह्यो । मिलतो न्याय सुराह, संख्या द्वीप समुद्र नीं' ॥ (ज० स०) ४१. *सेवं भंते ! अर्थ जे अंक बाणुं तणो, एकसौ नैं गुणंतरमीं ढाले सुजश घणो । स्वाम भिक्खु भारीमाल राय नैं प्रसाद है, 'जय-जश' हरष आनन्द गण अहलाद है। नवमशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥२॥ ४१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ।। ढाल : १७० सोरठा १. द्वितीय उदेशा मांहि, द्वीप तणी कहि वारता । अन्य प्रकारे ताहि, तेहिज तृतीय उद्देश हिव ।। १. द्वितीयोद्देशके द्वीपवरवक्तव्यतोक्ता, तृतीयेऽपि प्रकारान्तरेण सैवोच्यते। (वृ० प० ४२८) २,३. रायगिहे जाव एवं वयासी- कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगूरुयमणुस्साणं एगूरुयदीवे नाम दीवे पण्णत्ते ? ४. 'दाहिणिल्लाणं' ति उत्तरान्तरद्वीपव्यवच्छेदार्थम् । (वृ० प० ४२८) दूहा २. नगर राजगृह जाव इम, बोल्या गोतम स्वाम । - हे भगवंत ! किहां अछ, दक्षिण दिशि नों ताम ।। ३. एगोरुक जे मनुष्य नों द्वीप एगोरुक नाम । __ अंतरद्वीप किहां कह्यो? तब भाखै जिन स्वाम ।। ४. उत्तर दिशि में पिण अछ, अंतरद्वीप प्रसीध । इण कारण दक्षिण तणो, गोयम प्रश्न सुकीध ॥ अन्तरद्वीप वर्णन सुणो जी। (ध्रुपदं) ५. जंबूद्वीप नामा द्वीप में जी, मंदरगिरि मैं पिछाण । दक्षिण दिशि नै विषे अछ जी, इम चलहिमवंत गिरि जाण ।। ६. ते चूलहिमवंत वर्षधर गिरि, तेहनें कूण ईशाण । तेह तणां चरिमांत थी, छेहड़ा थकी पहिछाण ।। ७. जंबुद्वीप नी जगती थकी, ऊपर थइ कहिवाय । __ लवणसमुद्र प्रतै तिहां, ईशाणकूण रै माय ॥ *लय : इण सरवरिया री पाल लिय : वीर वखाणी राणी चेलणा जी ५,६. गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ। ७. लवणसमुदं उत्तरपुरत्थिमे गं । १० भगवती-जोड़ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. जोजन त्रिण सय उलंधिये, दक्षिण दिशि तगो तान । एगोरुक मनुष्य तणो इहां, द्वीप एकोरुक नाम ।। २. लांब विभपणे का तोनसौ जोजन जेह । जोजन नवसौ गुणचास नी परिधि किचित उनेह ॥ १०. ते इक पद्मवरवेदिका, एक वन खंड करि तेह | द्वीप ते सर्व थी वीडियो, इत्यादि पाठ कहे ॥ ११. वेदिका ने वनखंड नुं वर्णन अधिक विशाल । इम एणे अनुक्रमे करी, जिम जीवाभिगम विषे न्हाल ॥ १२. जाव शुद्धदंत द्वीपा लगे, जाव देवलोक में जाण । जावणहार ते मनुष्य छै, हे श्रमण ! आयुष्यमन ! माण | १३. जाव शब्द माहे आखियो तेह संक्षेप कहेह बलि वर्णन कल्पवृक्ष नों मनुष्य नो वर्णन जेह ॥ १४. ते सगलो कहिवूं इहां, ते द्वीप नां मनुष्य अवधार । चतुर्थ भक्त आहारी अछे पृथ्वी र पुष्प फल आहार ।। १५. ते दोष नां पृथ्वी नौ रस अछे, खांड प्रमुख तर्णे तुल्य । नों गृहादिक अपर तिहां नथी, घर कल्पवृक्ष अमूल्य ॥ १६. ते नरनों आयु पल्य तणो असंख्यातमो भाग सुविशेख । छह मास आउ रहै थाकतो, जद जोड़लो जनमै जी एक ॥। १७. इक्यासी दिन जोड़ला तणी, करें प्रतिपालना ताय । छींक बगासी करी मरी, ते सुरलोक में जाय ॥ वा०-- वाचनांतरे इम दीस छे एवं जहा जीवाभिगमे उत्तरकुरुवत्तव्वयाए वो णाणत्तं अट्ठ धणुसया उस्सेहो चउसट्टी पिट्ठकरंडया अणुसज्जणा नत्थि त्ति । तिहां ए अर्थ उत्तरकुरु नां मनुष्य नों त्रिण गाऊ नों शरीर मान कह्यो । इहां छप्पन अंतरद्वीपा मनुष्य नों आठसँ धनुष्य नों देहमान । वलि उत्तरकुरु नां मनुष्यां रं दो सौ छप्पन पृष्ठकरंडक छे अने छप्पन अंतरद्वीप नां नर ने चौसठ पृष्ठकरंडक है। तथा उत्तरकुराए णं भंते ! कतिविधा कुराए मणुया अणुसज्जति ? गोवमा ! छन्हिा मया अगुसज्जति तं जहा पउमगंधा, मियगंधा अममा, तेतली सहा सणिचरा य' । छ प्रकार नां मनुष्य कह्या ते जाति नां अंतरद्वीप ने विषे मनुष्य नथी । अंतरद्वीप ने इहां तीन नानात्व स्थान का । वलि अनेरा पण स्थित्यादिक में नानात्व छँ, किन्तु अभियुक्त करिकै जाणवा । एकोरुक द्वीप नों उद्देो । नवमशते तृतीयोदेशकार्यः ||९|३|| ए वाचनांतरे कह्यो - हिवै प्रकृत वाचना आश्रयी ने कहिये छै । कठा तांइ, ए जीवाभिगम सूत्र इहां कहिवूं ते कहै छै – जाव इत्यादिक ज्यां लगै शुद्धदंत द्वीप छै शुद्धदंत नामै अठावीसमों अंतरद्वीप नीं वक्तव्यता ज्यां लगें, तिका पिण कठा ताई १. जी० ३।६३१ ८. तिणि जोयणसयाई ओगाहिता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगूरुयमणुस्साणं एगूरुयदीवे नामं दीवे पण्णत्ते । ६. तिणि जोयणसयाई आयाम विक्ख भेणं, नव एगुणबन्ने जोयस किचि विसे परिवशेवेणं । १०. से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते । ११. दोण्ह वि पमाणं वण्णओ य एवं एएणं कमेणं एवं जहा जीवाभिगमे [ ३।२१७] । १२. जाव सुद्ध दंतदीवे जाव देवलोगपरिग्गहा णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो ! ११. इह च वेदिकावनखण्ड पक्षमनुष्य मनुष्यीवर्ण कोभिधीयते । ( वृ० प० ४२८ ) १४. तथा तन्मनुष्याणां चतुर्थभक्तादाहारार्थं उत्पद्यते, ते च पृथिवीरसपुष्पफलाहाराः । ( वृ० प० ४२९) १५. तत्पृथिवी च रसतः खण्डादितुल्या, ते च मनुष्या वृक्षगेहाः, तत्र च गेहाद्यभावः ( वृ० प० ४२९ ) १६. तन्मनुष्याणां च स्थितिः पत्योपमासंख्येवभागप्रमाणा षण्मासावशेषायुषश्च ते मिथुनकानि प्रसुवते । (बु० ० ४२६) १७. एकाशीति च दिनानि तेऽपत्यमिथुनकानि पालयन्ति, उच्छ्वसितादिना च ते मृत्वा देवेषूत्पद्यन्ते । वा० (००४२९) - वाचनान्तरे त्विदं दृश्यते - एवं जहा जीवाभिगमे '''' त्रायमर्थः उत्तरकुरुषु मनुष्याणां त्रीणि गब्यूतान्युत्सेध उक्त इह त्वष्टौ धनुःशतानि तथा तेषु मनुष्याणां द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके पृष्ठकरण्डकानामुक्ते चतुःषष्टिरिति । तथा 'उत्तरकुराए णं भंते ! इत्येवं मनुष्याणामनुषज्ञ्जना तत्रोक्ता इह तु सा नास्ति, तथाविधमनुष्याणां तत्राभावात् एवं चेह त्रीणि नानात्वस्थानान्युक्तानि, सन्ति पुनरन्यान्यपि स्थित्यादीनि, किन्तु तान्यभियुक्तेन भावनीयानीति, अयं चेहैको रुकद्वीपोद्देशकस्तृतीयः । ( वृ० प० ४२९ ) अथ प्रकृतवाचनामनुसृत्योच्यते किमन्तमिदं जीवाभिगमसूत्रमिह वाच्यम् ? इत्याह-'जावे' स्वादि यावत् शुद्धवन्तद्वीपः बुद्धन्ताभियानाडाविशति श० ६, उ० ३,४, ढाल १७० ११ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहिवी ते देवलोगपरित्यादि देवलोक ने विषे परिषह से मन जेहनों, ते देवलोकपरिग्रह देवगतिगामी इत्यर्थं । अने इहां एक-एक अंतरद्वीप में विषे एक-एक उद्देशक वलि तिहां एकोरुक द्वीप नों उद्देशो कह्यां पार्छ चोथो आभासिक द्वीप नों उद्देशो, तिहां सूत्र पाठ -- कहि मं दाहिमित्तानं भासियमस्साणं आभासिपदीये णामं दीवे परमते ? गोमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासधरपव्वयस्स पुरमा परिता दाहिणपुरथिमिले लवणसमुदं तिष्णि जोषणाई ओगाहिता एत्थ णं दाहित्वा आभासियमस्सा आभासपदीचे गामं । बी एकोरुक द्वीप नी परं जाणो नवमशते चतुर्थोध्देशकार्यः || ६ |४ || इम वैषाणिक द्वीप नों पंचमो उद्देशो पिण । णवरं दक्षिण पश्चिम नां चरिमांत थकी - एतले नैरुत कूण थी । नवमशते पंचमोददेशकार्यः ॥१॥५॥ इम लांगलिक द्वीप नों उद्देशो छठो पिण । णवरं उत्तर अने पश्चिम ने चरिमांत थकी - एतले वायव्य कूण थी । नवमशते षष्ठो देशकार्यः ॥ २४६ ॥ इम हयकर्ण द्वीप नों उद्देशो पिण । णवरं एकोहक नां उत्तर पूर्व चरिमांत थकी-एतले ईशाणकूण थकी लवणसमुद्र च्यारसौ योजन अवगाहीजं, तिवारं च्यारसी योजन नों लाम्बो पहुलो हयकर्ण द्वीप छै 1 नयमते सप्तमो देशकार्यः ||२७|| इस गजकर्ण द्वीप नों उदेशक पिण । णवरं ए आभासिक द्वीप नां दक्षिण पूर्व नां चरिमांत थकी - एतले अग्निकूण थी च्यारसी योजन लवणसमुद्र अवगाहीजे, तिवार व्यारसी योजन नोकर्ण द्वीप है। नवमशते अष्टमोददेशकार्यः ॥८६॥ इम गोकर्णद्वीप नों उद्देशो पिण । णवरं वैषाणिक द्वीप ने दक्षिण पश्चिम नां चरिमांत की मुझे प्यार सो योजन अबमाहिये तिहां गोकर्ण द्वीप वेष[कर्ण] द्वीप सरीखी जाणव I नवमशते नवमोद्देश कार्थः ॥६६॥ इम शष्कुलिकर्ण द्वीप नों उद्देशो पिण । णवरं लांगलिक द्वीप नां उत्तर अपर चरिमांत थी - एतले वायव्य कूण थी। शेष हयकर्ण सरीखो । नवमशते दशमोद्देशकार्यः ॥ ६ ॥१०॥ इम आदर्शमुख द्वीप, मेढमुख द्वीप, अयोमुख द्वीप, गोमुख द्वीप ए च्यार, ते हयकर्णादिक च्यार द्वीप छँ, तेहने अनुक्रमे ईशाण, अग्नि, नैरुत, वायव्य कूण नां चरिमांत थकी पांचसौ योजन लवणसमुद्र अवगाही ने पांचसौ जोजन लांबा - चोड़ा, ते प्रतिपादक च्यार उद्देशा हुवै इति । नवमशते एकादशादारभ्याचतुर्दशो देशकार्थः ॥ ६।११-१४॥ १२ भगवती - जोड़ मान्तरद्वीपरततां वा सापि विद्या द्वाच्या ? इस्पाह देवलोकपरिग्ग' स्वादि, देवलोकः परियहो देषां ते देवलोकपरिग्रहाः देवगतिगामिनः इत्यर्थः कस्मिन्नन्तरद्वीपे एकंक उद्देश: रात्र कोकीपोश कानन्तरमा भासिकद्वीपो देशकः तत्र चैवं सूत्रं । ( वृ० प० ४२६ ) सेसं जहा एगुरुयाणं । एवं वैषाणिकद्वीपो देशकोऽपि मान्तादिति पञ्चमः । एवं मूलिकद्वीपो कोऽपि मान्तादिति षष्ठः | ( जी० ३।२१९ ) सप्तमः । नवरं दक्षिणापराच्चर( वृ० प० ४२९ ) नवरमुत्तरापरावर ( वृ० प० ४२९) एवं द्वीपको नवरमेकस्योत्तरपौ रस्त्याच्चरमान्ताल्लवण समुद्रं चत्वारि योजनशतान्यवगाह्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भो हकद्वीपो भवतीति (० ० ४२९) एवं पोकोऽपि नवरं द्वीप आभासिकद्वीपस्य दक्षिणपी रस्त्याच्च रमान्ताल्लवण समुद्रमवगाह्य चत्वारि योजनशतानि हयकर्णद्वीपसमो भवतीत्यष्टमः । ( वृ० प० ४२६ ) J एवं मोड द्वीपोद्देश कोऽपि नवरमसौ वैषाणिकड़ीपस्य दक्षिणापराच्चरमान्तादिति नवमः । ( वृ० प० ४२९ ) एवं कुलकर्णीकोऽपि वरमसौलिकद्वीपस्योत्तरापराच्चरमान्तादिति दशमः । (२०१० ४२१) एवमादर्शमुखद्वीपमेण्ढमुखद्वीपायोमुखद्वीप गोमुखद्वीपा रूपादीनां च पूर्वीत पूर्व दक्षिण दक्षिणापरापरोत्तरेभ्यश्च रमान्तेभ्यः पञ्च योजनशतानि लवणोदधिमवगाह्य पञ्च योजनशतायामविष्कम्भा भवन्ति तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार उद्देशका भवन्तीति । ( वृ० प० ४२६ ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एहिज आदर्श मुखादिक ने ईशाण, अग्नि, नैरुत वायव्य कूण नां चरिमांत थकी छ सौ जोजन लवणसमुद्र अवगाही ने छ सौ योजन लांबा चोड़ा अनुक्रम करिकै अश्वमुख द्वीप, हस्तिमुख द्वीप सिंहमुख द्वीप, व्याघ्रमुख द्वीप हवं ते प्रतिपादक अनेरा च्या उद्देशा हुव इति । 3 नवमशते पंचदशोद्देशकादारभ्याष्टादशो देशकार्यः ॥ २।१५ - १८ ।। एहिजा ने मिहिअनुकमे ईशाणादिक प्यार विदिशि ना चरिमांत थकी सात सौ योजन लवणसमुद्र अवगाही ने सातसौ जोजन लांबा चोड़ा अश्वकर्ण द्वीप द्वीप द्वीप, कारण ते प्रतिपादक बल अनेरा च्यारहीज उद्देशा इति । 1 नवमशते एकोनत्रिशतितमोद्देश कादारभ्याद्वाविंशतितमोनुदेश कार्यः एहि ।।६।१६-२२॥ कर्णादिक में निमहिज अनुक्रमे ईशाणादिक प्यार विदिशिन चरिमांत थकी आठ सौ योजन लवणसमुद्रे अवगाही ने आठ सौ योजन लांबा चोड़ा उल्कामुख द्वीप, मेघमुख द्वीप, विद्युन्मुख द्वीप, विद्युत द्वीप हुवं, ते प्रतिपादक वलि अनेरा च्यार हिज उद्देशा इति ॥ नमवशते त्रयोविंशतितमो देशका दारभ्याषड् विंशतितमोद्देश कार्थः ।।६।२३-२६॥ एहिज उल्कामुख दीपादिक में तिमहिय अनुक्रमे ईसापादिक प्यार विविधि नां चरिमांत थकी नो सौ योजन लवणसमुद्र अवगाही ने नो सौ योजन लांबा - चोड़ा घनदंत द्वीप, लष्टदंत द्वीप, गुडदंत द्वीप, शुद्धदंत द्वीप हुवै ते प्रतिपादक वली अनेरा व्यारहीन उद्देगा। इहां सीमों शुद्धदंत उद्देश इति ।। तथा पन्नवणारा अर्थ में एहवं का छप्पन अट्ठावीस कहा से किम ? जे हिमवंत व दिशि जेहवा जे प्रमाणे जेतले अंतर जे नामै अठावीस अंतरद्वीप छँ, तेहवा ते प्रमाणे अंबरपर्यंत ने पूर्व परिचय fपण अट्ठावीस अंतरीप मिली छप्पन थावे । ते भणी सदृशपणां मार्ट इहां अठावीसज कह्या । हिवं ए द्वीप नुं विवरण कांइक लिखियं छँ पर्वत बे दहां जंबूद्वीप में विषे भरतक्षेत्र नं सीमाकारी एक सत योजन ऊंची पंचबीस योजन, एक हजार ने वादन योजन ने बार कला एली पहली पूर्वापर लवणसमुद्र पर्यंत लांबो सुवर्णमय चुल्लहिमवंत नामा वर्षधर पर्वत छ । तिण पर्वत बे छेड़े पूर्व पश्चिमे लवणसमुद्र मांहे गजदंताकारे वे दाढा नीकली छ । बे पूर्व वे पश्चिमे एवं व्यार दाढा छ । तिहां पूर्व दिशि ईशाणकूणे नीकली जे दाढा तेहने विषे चुल्लहिमवंत नां छेहडा थी त्रिण सौ जोजने एकोरुक नामा द्वीप छै त्रिण सौ योजन लांबु-पहुलो, वृत्ताकारे नवसौ गुणपचास योजन कांयक ऊंणी परिधि । अंतरद्वीप हुवै अनं इहां विधे पूर्व पश्चिम ने हिमवंतना भी पूर्व दिशे अग्निकुने दहा ते त्रिग सी योजने आभासिक नामा द्वीप छे एकोरुक प्रमाण । वली पश्चिम दिशि नेते विवे हिमवंत नां देहहा थी त्रिण सो योजने वैषाणिक नामा द्वीप छँ एकोरुक प्रमाण । वलि पश्चिम दिशि वायव्य कूणे जे दाढा छ, तेहने विषे हिमवंत नां छेहड़ा थी त्रिण सौ योजने नंगोलिक नामा द्वीप छ एकोरुक प्रमाण । एतेषामेवादर्श मुखादीनां पूर्वोत्तरादिभ्यश्चरमान्तेभ्यः षड् योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य षड्योजनशतायामविष्कम्भाः क्रमेणाश्वमुखद्वीप स्तिमुखद्वीपसिंहमुखद्वीपप्रमुखद्वीपा भवन्ति तस्प्रतिपादकावचान्ये चत्वार उद्देशका भवन्तीति । ( वृ० प० ४२९ ) एतेषामेवाश्वमुखादीनां तथैव सप्त योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य सप्तयोजनशतायामविष्कम्भा अश्वकर्णद्वीपहस्तिकर्णद्वीप कर्णप्रावरणडीपा: प्रावरणद्वीपा भवन्ति तत्प्रतिपादकाश्चापरे चत्वार एवोद्देशका इति' । ( वृ० प० ४२१) 1 एतेषामेवाश्वकर्णादीनां तथैवाष्टयोजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्यष्टयोजनशतायामविष्कम्भा उल्कामुखद्वीपमेषमुखीपखपन्तिद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार एवोद्देशका इति । [ ( वृ० प० ४२६, ४३० ) एतेषामेवापादीनां तवैव नव योजनातान लवण समुद्रमवगाह्य नयोजनशतायामविष्कम्भाः घनदीपलष्टन्तद्वीपगुरुदन्तीषशुद्धदन्तद्वीपा भवन्ति तस्प्रतिपादकान्यान्ये परवार एवोद्देशका इति, एवमादितो त्रिशत्तमः द्धदरतोद्देशः ॥ ( वृ० प० ४३० ) १. यह समग्र वर्णन जीवाभिगम की तीसरी प्रतिपत्ति में प्राप्त होता है। वहां अन्तर द्वीपों के वर्णन में १७वां द्वीप कर्ण है और द्वीप सिहकर्ण है। पत्र वणा (१।८६ ) में भी यही क्रम है। भगवती की वृत्ति में सिंहकर्ण द्वीप के स्थान पर हस्तिकर्ण द्वीप है । यह क्रम ठाणं (४।३२५ ) से मिलता है। इससे आगे वृत्ति में कर्णप्रावरण द्वीप और प्रावरण द्वीप का उल्लेख है । इसका मेल न तो जीवाभिगम, पन्नवणा और ठाणं के साथ है और न ही जयाचार्य द्वारा लिखित वार्तिक के साथ है । सम्भव है भगवती की वृत्ति के मुद्रणकाल में यह प्रमाद हुआ हो। जयाचार्य ने किसी हस्तलिखित प्रति के आधार पर अथवा ठाणं के आधार पर यह वार्तिक लिखा हो, ऐसा भी हो सकता है । श० ६ उ० १५-२६, ढाल १७० ૨ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . इम ए प्यार द्वीप हिमवंत ने च्यार कोणे ब्यार दाढा नै विषे सरीखे प्रमाणे छँ । ए च्यार द्वीप केड़े व्यार सौ योजने अने जंबूद्वीप नीं जगती थकी पिण च्यार सौ-प्यार सौ योजन कर्ण, गपकर्ष, गोकर्ण कुलिक ए प्यार द्वीप है। प्यार सौ योजन लांबा - पहला, वृत्ताकारे बार सौ पैंसठ योजन परिधिः, यथा एकोरुक के हयकरण, आभासिक केर्ड गजकर्ण, वैषाणिक केडे गोकर्ण, नांगोलिक के शष्कुलिकर्ण - इणी पर सर्वत्र जाणवूं । ए हयकर्णादि व्यार द्वीप के पांच सौ योजन अनं जगती थकी पिण पांच सो-यांचसौ योजन आदर्श मुखदीप, विमुख द्वीप, अपोमुख द्वीप, गोमुख द्वीप ए च्यार द्वीप छे । पांचसौ-पांचसौ योजन लांबा -पहुला वृत्ताकारे, पनरें सौ एक्यासी योजन परिधि । वलि ए आदर्श मुखादि प्यार द्वीप के छह सौ छह सौ योजने अने जनती थी पिग छह सौ छह सौ योजने अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख, व्याप्रमुख ए प्यार द्वीप है। छह-छहमी योजन लांबा पहला वृत्ताकारे, अठार सौ सता योजन परिधि । वलि ए अश्वमुखादि च्यार द्वीप केर्ड सातसो - सातसी योजने, जगती थकी पिण सात सौ सातौ योजने अश्वकर्ण सिंहकर्ण, अरुण, कर्णप्रावरण ए प्यार द्वीप छं। सातसो सातसी योजन लांबायला वृत्ताकारे, बावीस सौ तेरं योजन परिधि । वलि ए अश्वकर्णादि च्यार द्वीप के आठसौ-आठसौ योजने जगती थकी पिण आठसौ आसी योजने उतकामुख, मेघमुख, विद्युत् विद्युत ए प्यार द्वीप छ । आठसौ योजन लांबा पहला वृत्ताकारे, पंचवीससौ गुणत्रीस योजन परिधि । वलि ए उल्कामुख मेघमुखादि च्यार द्वीप के नवसौ-नवसौ योजने जंबूद्वीप नी जगती थकी पिण नवसी नवसी योजने धनदंत, लट्ठदंत, गूढदंत शुद्धदंत-ए च्यार द्वीप छँ । नवसौ योजन लांबा पहुला वृत्ताकारे, अट्ठावीससौ पैंतालीस योजन परिधि । एतलं चूलहेमवंत पर्वत नीं च्यार दाढा एह अट्ठावीस द्वीप छँ इम शिखरी पर्वत ने विषे पिण अठावीस द्वीप छँ । एवं छप्पन अंतरद्वीप जाणवा । एह सर्व द्वीप प्रत्येके प्रत्येके पद्मवरवेदिकाए अने वनखंडे परिवेष्टित महारमणीक छँ । एहनों वर्णन जीवाभिगम' सूत्र थी विशेष जाणवो । ते द्वीप नैं विषे युगलिया मनुष्य छ । मन अत्यंत महासुंदर रूप छ । पिण द्वीप नां नाम जेहवा आकारे नथी । जे भणी श्री जीवाभिगम सूत्र ने विषे एहनां रूप सबल देवता थी अधिक खाण्यो छँ अने अत्यंत सुखी छँ । ते मनुष्य नैं आठसौ धनुष्य ऊंचपण शरीर अनें पल्योपम नों असंख्यातनों भाग आउखो हुवं । यत: अंतरदीवेसु नरा धणुसय अद्धसिया सया मुइया । पालिति मिहुणधम्मं पल्लस्स असंखभागाओ ॥ १ ॥ चट्ठ पिट्ठकरंड गाणि मणुआण वच्चपालणया । अगासी तु दिणा भत्ते आहारोति ॥२॥ सोरठा १८. वृत्ति विषे ए बात, गिरि पर अंतरद्वीप छे । धर्मसीह आख्यात, लवणोदधि अंतर १६. * इम अठवीसज आखिया, अंतरद्वीप नां लांबपर्णे ने विक्खंभपणे, पोता-पोता नां अछै ॥ ताय । कहिवाय || : वीर बखाणी राणी चेलना जी १. जी० ३।२१६-२२७ २. अभिधान राजेन्द्र कोश भाग० १ पृ ६७ १४ भगवती-जोड १६. एवं अट्ठावीसं वि अंतरदीवा सएणं सएणं आयामविक्खभेणं भाणियव्वा । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. नवरं दीवे दीवे उद्देसओ, एवं सत्वे वि अट्ठावीस उद्देसगा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (श० ६७,८) २०. णवरं जे इतलो विशेष छै, इक-इक द्वीप नो जोय । सह अठवीस उद्देसगा, सेवं भंते ! अवलोय ।। २१. नवम शत उद्देशो तीसमों, इकसौ सित्तरमी ए ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल । नवमशते सप्तविंशतितमोददेशकावारभ्यात्रिंशत्तमोददेशकार्थः ।।६।२७-३०॥ ढाल: १७१ सोरठा १. कह्या अर्थ ए सार, ते तो श्री जिन धर्म थी। जाणे अधिक उदार, अणसूणियो पिण को लहै। २. इत्यादिक जे अर्थ प्रतिपादन रै कारण। कहिये हिवै तदर्थ, उद्देशक इकतीसमों। १. उक्तरूपाश्चार्थाः केवलिधर्माद् ज्ञायन्ते तं चाऽश्रुत्वाऽपि कोऽपि लभते। (वृ०प० ४३०) २. इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरमेकत्रिंशत्तममुद्देशकमध्याह (वृ० प० ४२६) दूहा ३. नगर राजगृह जाव इम, बोल्या गोयम स्वाम । धर्मफलादिक वचन प्रभु ! अणसांभलिया ताम ।। ३. रायगिहे जाव एवं वयासी-असोच्चा णं भंते ! अश्रुत्वा-धर्मफलादिप्रतिपादकवचनमनाकर्ण्य (वृ०प० ४३२) ४. केवलिस्स वा। 'केवलिन:' जिनस्य । (वृ० प० ४३२) ४. केवलज्ञानी जिण तणे पासै सुणियो नांय । धर्म केवली-भाखियो, श्रवणपणे करि पाय ।। सोरठा ५. श्रवणपणे करि ख्यात, भाव धर्म सुणवा तणां। एहवं अर्थ जणात, वदै केवली तेह सत्य ।। ६.श्रवण रूप कहिवाय, वंछा रूप लहै जिको। वंछै धर्म सुहाय, ते पिण जाणे केवली ॥ दूहा ७. तथा केवली नैं जिणे, स्वयमेव प्रश्न पूछेह । पुनः केवली पै सुण्यो, केवली श्रावक तेह । ७. केवलिसावगस्स वा। 'केवलिसावगस्स व' त्ति केवली येन स्वयमेव पृष्ट: श्रुतं वा येन तद्वचनमसौ केवलिश्रावकस्तस्य । (वृ० प० ४३२) ८. केवलिसावियाए वा। ८. इमज केवली नी जिका, तंत श्राविका ताम । ए बिहुं पै अणसांभल्यां, धर्म लहै अभिराम ।। ६. सेव केवली नी करै, अन्य भणीं कथ्यमान । सुण धारै ते जिण तणो, कह्यो उपासग जान ।। ६. केवलिउवासगस्स वा। 'केवलिउवासगस्स व' त्ति केवलिन उपासनां विदधानेन केवलिनवान्यस्य कथ्यमानं श्रुतं येनासौ केवल्युपासकः । (वृ० प० ४३२) श०६, उ० ३०,३१, ढाल १७०,१७१ १५ Jain Education Intemational Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. इमज केवली नीं जिका, उपासगा गुणखान । ए बिहु पै अणसांभल्यां, धर्म लहै सुध मान ॥ ११. अथवा केवली पाक्षिक, स्वयंयुद्ध कहिवाय । ते पासे सुणियां बिना, लहै धर्म सुखदाय ॥ १२. तथा स्वयंबुद्ध नो जिको श्रावक गुण नीं राश । स्वयंबुद्ध नीं श्राविका, अणसुणियै बिहुं पास | १३. उपासंग स्वयंबुद्ध नों, उपासगा वलि ताय । ए बिहुं पे सुणियां बिना धर्म पामवुं थाय ॥ १४. एद पे सुणियां बिना केवली भाख्यो धर्म श्रुत में चारित्र रूप श्रवण रूप करि पर्म । J है, १५. जिन मा यो दश कनें सुणियां विण जिन धर्म । सुणवो कोइक पामियै, कोइक न लहै मर्म ॥ १६. कि अर्थे प्रभु! इस कह्यो, विन सुणियं दश पास कोइक धर्म सुणयो लहे, कोइक न लहे तास ? १७. *जिन भाखै सुण गोयमा ! ते ज्ञानावरणी कर्म कांइ क्षयोपशम जिण कीधो, हो लाल । दर्श पास सुण्यां बिना, धर्म केवली भाव्यों कांड सुणवो पार्म सीधी हो लाल ।। सोरठा १८. दहां बहु वच संवादि, नाणावरणिज्जा कह्यो । मति ज्ञानावरणादि, बहु भेदे करि जाणवं ॥ १६. फन अवग्रह पिछाण, मति आवरणादिक तणां । भेद करीनें जाण, ते बहु भावपणां थकी ॥ २०. क्षयोपशम बहु भेद, तेह तणां आवरण थी । बहुवच करि संवेद, ज्ञानावरणी ने कह्यं ॥ २१. * ज्ञानावरणी क्षयोपशम नहि कियो, ते दश पैविण सुनिये कोइ जिन धर्म सुणवो न पावे । तिन अर्थ कह्यो विण सुण्यो, धर्म सुणवो को पावै कोइक रे श्रवण न आवै ॥ सोरठा २२. गिरि-सरिता पाषाण, तेह पोलणा कोइक ने पहिछाण, पार्म धर्मज २३. क्षयोपशमईज अंतरंग कारण जेह, जिनोक्त धर्म सहेह श्रवणरूप भावे *लय : पातक छानो नवि रहे १६ भगवती-जो न्याय करि । इहुविधे । तसु । करी ॥ १०. केवलवासियाए वा ११. त प्पक्खियस्स वा । 'तप्पक्खियस्स' त्ति केवलिन: पाक्षिकस्य स्वयंबुद्धस्य । (बृ० प० ४३२) १२. तपक्खियसाव गस्स वा तप्पक्खियसावियाए वा । १३. तप्पक्खियउवासगस्स वा तप्पक्खियउवासियाए वा । १४. केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए ? 'धम्मं' ति श्रुतचारित्ररूपं 'लभेज्ज' त्ति प्राप्नुयात् 'सवणयाए' त्ति श्रवणतया श्रवणरूपतया श्रोतुमित्यर्थः । ( वृ० प० ४३२) १५. गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियजवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं भेज्ज सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं नो लभेज्ज सवणयाए । ( शा० ९1९ ) १६. से केणट्ठणं भंते ! एवं बुच्चइ-असोच्चा णं जाव नो लभेज्ज सवणयाए ? १७. गोयमा ! जस्स णं नाणावर णिज्जाणं कम्मााणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए । १८- २०. 'नाणावर णिज्जाणं' ति बहुवचनं ज्ञानावरणीयस्य मतिज्ञानावरणादिभेदेनाग्रहस्यावरणाविभेदेन बहुत्वात् । च (बु० ५० ४३२) २१. जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं नो लभेज्ज सवयणाए । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ -- असोच्चा णं जाव नो लभेज्ज सवणयाए । ( श० 81१० ) २२. ज्ञानावरणीय क्षयोपशमदम गिरिसरिदुपलघोलनान्यायेनापि कचित्स्यात् । ( वृ० प० ४३२) २३. तत्सद्भावे चाश्रुत्वाऽपि धम्मं लभते श्रोतुं क्षयोपशमस्यैव तल्लाभेऽन्तरङ्गकारणत्वादिति । (० ० ४३२) वृ० Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. *हे प्रभ! दश पे सणियां बिना, - केवल शद्ध सुजाणी कांइ बोध सम्यक्त्व सुपावै ? प्रत्येकबुद्धादिक नी परै, जिन कहै कोइक पावै कोइक रै बोध न आवै ।। २५. किण अर्थे ? तब जिन कहै, दर्शणावरणी कर्मज कांइ क्षयोपशम जिण कीधो। ते दश पे सणियां बिना, सम्यकदर्शण शुद्धज अनुभवै लहै ते सीधो॥ २४.२५. असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्प क्खियउवासियाए वा केवलं बोहि बुज्झज्जा ? गोयमा ! "अत्थेगतिए केवलं बोहि बुज्झज्जा अत्थेगतिए केवलं बोहिं नो बुज्झज्जा। (श० ६।११) से केणठेणं भंते ! .."गोयमा ! जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बोहिं बुज्झज्जा । 'केवलं बोहिं' ति शुद्धं सम्यग्दर्शनं 'बुज्झज्ज' त्ति बुद्ध येतानुभवेदित्यर्थः यथा प्रत्येकबुद्धादिः । (वृ०प० ४३२) २६. जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बोहि नो बुज्झज्जा। से तेणट्ठणं गोयमा ! एवं बुच्चइ–असोच्चा णं जाव केवलं बोहिं नो बुज्झज्जा। (श० ६।१२) २६. दर्शणावरणी क्षयोपशम नहिं कियो, ते दश पे विण सणियां सम्यक्त्व न पावै कोई । तिण अर्थे कह्यो विण सुण्यो, कोइक बोधज पावै कोइक नै बोध न होई ।। सोरठा २७. दर्शन सम्यक्त्व सोय, तास आवरणी कर्म ए। दर्शण मोहनी जोय, पिण दर्शणावरणी नहीं। २८. दर्शणावरणी कर्म, तेहनों क्षयोपशम थयां । लहै सम्यक्त्व सुमर्म, बोधि सम्यक्त पर्याय छै ।। २६. सम्यकदर्शणहीज, बोधि कहीजै तेहनें। ते माटज कहीज, बोधि पर्याय सम्यक्त्व नों। ३०. 'हे प्रभु ! दश पै सुण्यां बिना, केवल शुद्ध संपूर्ण अणगारपणो ते पावै । जिन कहै दश पै सुण्यां बिना, कोइक साधु थावै कोइक मूनिपणो न भावै ।। २७,२८. 'दरिसणावरणिज्जाणं' ति इह दर्शनावरणीयं दर्शनमोहनीयमभिगृह्यते, बोधेः सम्यग्दर्शनपर्यायत्वात् तल्लाभस्य च तत्क्षयोपशमजन्यत्वादिति । (वृ० प० ४३२) ३०. असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पविखय उवासियाए वा केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पव्वएज्जा। (श० ६।१३) 'केवला' शुद्धां सम्पूर्णा वाऽन गारितामिति योगः । (वृ० प० ४३२) ३१. से केणठेणं भंते ! .... गोयमा ! जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवति से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा। ३१. किण अर्थे ? तब जिन कहै, धर्म अंतराय कर्म कांइ क्षयोपशम जिण कीधो। ते दश पे सुणियां बिना, केवल शुद्ध संपूर्ण मुंड थई मुनि ह सीधो॥ सोरठा ३२. धर्म चारित्र प्रतिपत्ति, तास विघ्नकारक जिको । चारित्र-मोह कथत्ति, सर्वविरति आवा न दै॥ *लय : पातक छानो नवि रहै ३२,३३. 'धम्मंतराइयाणं' ति अन्तरायो-विध्न: सोऽस्ति येषु तान्यन्तरायिकाणि धर्मस्य-चारित्रप्रतिपत्तिलक्षणस्यान्तरायिकाणि धमन्तिरायिकाणि तेषां श०६,उ० ३१, ढाल १७१ १७ Jain Education Intemational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. तास क्षयोपशम थाय, मुंड थई लहै मुनिपणो। एहवू न्याय जणाय, वीर्य अंतराय वृत्ति में । ३४. *धर्म अंतराय कर्म जिणे, क्षयोपशम नहिं कीधो अणगारपणो तसु नावै। तिण अर्थे कह्यो बिण सण्यो, कोइक तो मुनि थावै कोइक मुनिपणों न भावै । ३५. हे प्रभु ! दश पै सुण्यां बिना, केवल शुद्ध संपूर्ण कांइ ब्रह्मचर्य ए पालै ? जिन कहै कोइक पालै सही, कोइ एक नहीं पालै कांइ मिथन प्रति नहीं टाल । ३६. किण अर्थे ? तब जिन कहै, चरित्तावरणी कर्मज कांइ क्षयोपशम जिण कीधो। ते दश पे सणियां बिना, ब्रह्मचर्य शुद्ध पालै कांइ मिथुन-विरति गुण लीधो॥ सोरठा ३७. चरित्तावरणी जाण, लक्षण पं . वेदादि छै। मिथुन-विरति पहिछाण, विशेष थी अहिवं इहां ।। वीर्यान्तरायचारित्रमोहनीयभेदानामित्यर्थः । (वृ०प० ४३२,४३३) ३४. जस्स णं धम्मतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवति से णं...... केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पब्वएज्जा। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–असोच्चा णं जाव केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पव्वएज्जा । (श० ६।१४) ३५. असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय उवासियाए वा केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा? गोयमा! अत्थे गतिए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं नो आवसेज्जा। (श०६।१५) ३६. से केणठेणं मंते ! ........ गोयमा ! जस्स णं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बंभचेरवास आवसेज्जा। ३८. *चरित्तावरणी कर्म जिण, क्षयोपशम नहिं कीधो ते ब्रह्मचर्य नहिं पालै । तिण अर्थे इम आखियो, बिण सुण्यां ब्रह्म कोइ पालै कांइ कोइ मिथुन नहि टाल ॥ ३६. हे प्रभु! दश पै सुण्यां विना, संजम शुद्धज पालै कांइ अतिचार टालेवा। जतना विशेष तिणे करी, जिन कहै कोइक पामै कोइक नहिं पामेवा ।। ३७. 'चरित्तावरणिज्जाणं' ति इह वेदलक्षणानि चारित्रा वरणीयानि विशेषतो ग्राह्याणि, मैथुनविरतिलक्षणस्य ब्रह्मचर्यवासस्य विशेषतस्तेषामेवावारकत्वात् । (वृ०प०४३३) ३८. जस्स णं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं बंभचेरवासं नो आवसेज्जा से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-असोच्चा णं जाव केवलं बंभचेरवासं नो आवसेज्जा। (श० ६।१६) ३६. असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय उवासियाए वा केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा ? गोयमा ! ."अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा। (श० ६।१७) इह संयमः प्रतिपन्नचरित्रस्य तदतिचारपरिहाराय यतनाविशेषः । (वृ०प० ४३३) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ......... गोयमा ! जस्स णं जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओबसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा । ४१. जस्स णं जयणावरणिज्जणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा। से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ- असोच्चा णं जाव केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा। (श० ६।१८) ४०. ४०. किण अर्थे। तब जिन कहै, जयणावरणी कर्मज कांइ क्षयोपशम जिण कीधो। ते दश पास सुण्यां बिना, जाव केवल चारित्र नै अति जतना पामै सीधो॥ ४१. जयणावरणी क्षयोपशम नहिं कियो, ते दश पे विण सुणियां नहिं पामै जतना नामै । तिण अर्थे कह्यो विण सुण्यां, कोइक संजम पामै कोइक संजम न पामै । *लय : पातक छानो नवि रहै १८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. हे प्रभु ! दश पे सुण्यां विना, केवल शुद्ध संपूर्ण संवर करि आतम भावै। संवर शब्दे शुभ अध्यवसाय छै, जिन कहै कोइक भावै कोइक संवर न पावै ।। ४३. किण अर्थे ? तब जिन कहै, अध्यवसायावरणी कर्म क्षयोपशम थाये। इहां भाव चारित्रावरणी कह्यो, ते विण सुण्यां प्रवत संवर शुभ अध्यवसाये ।। ४२. असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय उवासियाए वा केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा ? गोयमा ! ....."अत्थेगतिए केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, अत्थेगतिए केवलेणं संवरेणं नो संवरेज्जा। (श० ६।१९) संवरशब्देन शुभाध्यवसायवृत्तेविवक्षितत्वात् । (वृ०प० ४३३) ४३. से केणछैणं भंते ! ........ गोयमा ! जस्स णं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा । तस्याश्च भावचारित्ररूपत्वेन तदावरणक्षयोपशमलभ्यत्वात् । (वृ० प० ४३३) ४४. अध्यवसानावरणीयशब्देनेह भावचारित्रावरणीयान्युक्तानीति । (वृ०प० ४३३) सोरठा ४४. आख्या शुभ अध्यवसाय, चारित्ररूपपणे करि। तसु आवरणी ताय, चारित्रावरणी वृत्ति में ।। ४५. 'कर्म रूंधण रा सार, अध्यवसाय संवर तिके । त्रिहु जोगां थो न्यार, बुद्धिवंत न्याय विचारज्यो॥ ४६. जोग व्यापार कहाय, चंचल स्वभाव जेहनों। ___संवर गुण सुखदाय, स्थिर स्वभाव है तेहनों ।। ४७. पंचम ठाणे पेख, फुन समवाअंग' पंचमे । अजोग संवर लेख, पिण संवर शुभ जोग नहिं ।। (ज० स०) ४८. *अध्यवसायावरणी कर्म नों, क्षयोपशम नहि कीधो तसु शुद्ध संवर नहि होई । तिण अर्थे कह्यो विण सुण्यां, कोइक संवर लहियै नहिं पामै संवर कोई ।। ४६. हे प्रभु ! दश पे सुण्यां विना, केवल आभिनिबोधिक ए प्रवर ज्ञान उपजावै ? जिन कहै दश पे सुण्यां बिना, आभिनिबोधिक ज्ञानज कोइ पावै को नहिं पावै ।। ४८. जस्स णं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओ वसमे नो कडे भवइ से णं"केवलेणं संवरेणं नो संवरेज्जा से तेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-- असोच्चा णं जाव केवलेणं संवरेणं नो संवरेज्जा । (श० ६।२०) ४६. असोच्चा भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय उवासियाए वा केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा? गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा, अत्यंगतिए केवलं आभिणिबोहि यनाणं नो उप्पाडेज्जा। (श० ६।२१) ५०. से केणठेणं भंते ! ........ गोयमा ! जस्स णं आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा। ५०. किण अर्थे ? तब जिन कहै, आभिनिबोधिक ज्ञानावरणी क्षयोपशम कीधो। ते दसुं पे सुणियां विना, केवल शुद्ध संपूर्ण आभिनिबोधिक लहै सीधो । *लय : पातक छानो नवि रहै १. ठाण श११०। २. सम० ॥५॥ श० ६, उ० ३१, ढाल १७१ १६ Jain Education Intemational Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. आभिनिबोधिक ज्ञानावरणी कर्म नों, क्षयोपशम नहि कीधो ते दश पासै विन सुणियो। ते मतिज्ञान पामै नहीं, तिण अर्थे कोइ पामै कोइ नहिं पामै इम थुणियो। ____५२. हे प्रभु ! दश पे सुण्यां विना, ___ केवल शुद्ध संपूरण कांइ श्रुतज्ञान ते लहियै ? जिम मति तिम श्रुत ज्ञान छ, णवरं तसु श्रुतज्ञानावरणी क्षयोपशम कहिये ।। ५३. शुद्ध अवधिज्ञान इमहीज छै, ___णवरं अवधिज्ञानावरणी क्षयोपशम धरणी। शुद्ध मनपज्जव लहै, ___णवरं क्षयोपशम जे मनपज्जवज्ञानावरणी।। इम ५४. हे प्रभु ! दश पे सणियां विना, केवलज्ञान उपावै? इमहिज णवरं थावै । केवल ज्ञानावरणी नों क्षय का, शेष तिमज तिण अर्थे जावत केवल नहि पावै ।। सोरठा ५५. पूर्वे आख्या अर्थ, वलि समुदाय करी सहु। बोल इग्यार तदर्थ, कहियै छै हिव आगलै ।। ५६. *हे प्रभु ! दश पे सण्यां विना, धर्म केवली भाख्यो सुणवो भावै पहिलूं । केवल बोध सम्यक्त्व लहै, केवल मुंड थई नै अणगारपणुं लहै वहिलू ।। ५७. शुद्ध ब्रह्मचर्यवासो वस, केवल संजम पामै केवल संवर संवरिय । आभिनिबोधिक लहै, जाव शुद्ध मनपज्जव वलि केवलज्ञान उचरिय ।। ५८. जिन कहै दश पे सुण्यां विना, धर्म सुणवो कोइ पावै नहिं पावै छै वलि कोई। कोइक शुद्ध सम्यक्त्व लहै, कोइएक नहि पावै केवल शद्ध सम्यक्त सोई॥ ५६. कोइक केवल मुंड थई, गृहस्थावास थकी जे अणगारपणों अभिलाखै । कोइक शुद्धज मुंड थई, गृहस्थावास तजी ने अणगारपणों नहिं चाखै ।। ५१. जस्स णं आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-असोच्चा णं जाव केवलं आभिणि बोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा। (श०६।२२) ५२. असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय उवासियाए वा केवलं सुयनाणं उप्पाडेज्जा ? एवं जहा आभिणिबोहियनाणस्स वत्तब्वया भणिया तहा सुयनाणस्स वि भाणियव्वा, नवरं-सुयनाणा वरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियब्वे । ५३. एवं चेव केवलं ओहिनाणं भाणियव्वं, नवरं ओहिनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियव्वे । एवं केवलं मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, नवरं --मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियव्वे । (सं० पा०) (श० ६।२३-२८) ५४. असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय उवासियाए वा केवलनाणं उप्पाडेज्जा? एवं चेव, नवरं-केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए भाणियव्वे, सेसं तं चेव । (सं० पा०) से तेणठेणं गोयमा ! ......"जाव केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा। (श० ६।२६, ३०) ५५. पूर्वोक्तानेवार्थान् पुनः समुदायेनाह (वृ० प० ४३३) ५६. असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय उवासियाए वा-- केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए केवलं बोहिं बुझज्जा, केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा। ५७. केवलं बंभचेरवास आवसेज्जा केवलेणं सजमेण संजमेज्जा, केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा, जाव (सं० पा०) केवलं मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, केवलनाणं उप्पाडेज्जा? ५८. गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्प क्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्म नो लभेज्ज सवणयाए, अत्थेगतिए केवलं बोहि बुझज्जा, अत्थेगतिए केवलं बोहिं नो बुज्झज्जा। ५६. अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा, अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पव्वएज्जा । शुद्ध *लय : पातक छानो नवि रहै २० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. कोइक शुद्ध ब्रह्मचर्य वस, कोइक शुद्ध संपूर्ण ब्रह्मचर्य नहिं पाल । कोइक शुद्ध संजम वरै, कोइक संजम न लहै अतिचार प्रतै नहिं टाल । ६१. इम कोइक संवर लहै, कोइक संवर न लहै दश पास सुण्यां विण जाणी। आभिनिबोधिक को लहै, कोइक आभिनिबोधिक नहिं पामै पवर पिछाणी ॥ ६२. इम यावत मनपज्जवे, कोइ केवल पावै कोइक नैं केवल नावै । किण अर्थे ? प्रभु! विण सुण्यां, तिमहिज जावत कोइक वर केवल नांहि उपावै ।। ६०. अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं नो आवसेज्जा। अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, अत्यंगतिए केवलेणं सजमेणं नो संजमेज्जा। ६१. अत्थेगतिए केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, अत्थेगतिए केवलेणं संवरेणं नो संवरेज्जा, अत्थेगतिए केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा, अत्यंगतिए केवलं आभिणीबोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा। ६२. एवं जाव मणपज्जवनाणं (सं० पा०) अत्यंगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा। (श० ६।३१) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-असोच्चा णं तं चेव जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थे गतिए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा? ६३. गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माण खोवसमे नो कडे भवइ जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ । ६४. एवं चरित्तावरणिज्जाणं जयणावरणिज्जाणं अज्झ वसाणावरणिज्जाणं आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं । ६५. जाव (सं० पा०) मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए नो कडे भवइ । ६३. श्री जिन भाखै जेहन, ज्ञानावरणी कर्मज क्षय-उपशम न कियो सोई। दर्शणावरणी क्षयोपशम जिण नहि कियो, धर्म अंतराय कर्मज ते क्षयोपशम नहि होई ॥ ६४. इम चरित्रावरणी क्षयोपशम नहिं कियो, जयणावरणी कर्मज काइ क्षय उपशम नहिं ज्यांही। अध्यवसायावरणी क्षयोपशम नहीं, आभिनिबोधिक ज्ञानावरणी क्षयोपशम नांही ।। ६५. जावत वलि मनपाजवे ज्ञानावरणीज, ___कांइ क्षयोपशम नहिं थायो। केवल ज्ञानावरणी जसु जावत क्षय नहिं, कीधो हो तसु आगल फल कहिवायो ।। ६६. ते दश पास सुण्यां विना, धर्म केवली भाख्यो कांइ सुणवो ते नहिं भावै । केवल बोधि न अनुभव, जाव केवल नहि पावै ए कर्म उदय फल थावै ॥ ६७. जिन ज्ञानावरणी क्षयोपशम कियो, दर्शणावरणी कर्मज कांइ क्षयोपशम जिण कीधो। धर्मांतराय क्षयोपशम जसु, जावत केवल ज्ञानावरणी जिण क्षय कर दीधो॥ ६८. ते दश पास सुण्यां विना, धर्म केवली भाख्यो सुण लाधै सुखकारी। केवल बोधज अनुभव, जाव केवल उपजावै ए गुण एकादश भारी ।। ६६. नवमें शत इकतीसम देश ए, एक सौ इकोतरमी ए ढाल अनोपम भाखी। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष आनंदा कांइ गण वृद्धि संपति राखी।। ६६. से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवा सियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्म नो लभेज्ज सवणयाए, केवलं बोहि नो बुज्झज्जा जाव केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा। ६७. जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, एवं जाव जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ । ६८. से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवा सियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, केवलं बोहिं बुज्झज्जा जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा। (श०६।३२) श०६, उ० ३१, ढाल १७१ २१ Jain Education Intemational Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १७२ दूहा १. ते विण सुणियां तसु प्रभु ! उपजै केवलज्ञान । ते केह. ए ऊपजै ? भाखै तब भगवान ।। २. बहुलपणे छठ-छट्ठवंत, बाल तपस्वी ताय । विभंग ऊपजै तेहनी, हिवै वारता आय ।। *जिनवर कहै रे, इम होवै असोच्चा केवली रे ॥ (ध पदं) ३. अंतर-रहित छठ-छठ करै रे, ऊंचो बाहु बिहुं स्थापो रे । आतापनभूमिका विषे रे, सूर्य स्हामी आतापो रे॥ १. अथाश्रुत्वैव केवल्यादिवचनं यथा कश्चित् केवलज्ञान मुत्पादयेत्तथा दर्शयितुमाह- (व०प० ४३३) २. तत्प्राय: षष्ठतपश्चरणवतो बालतपस्विनो विभङ्गः___ज्ञानविशेष उत्पद्यत इति ज्ञापनार्थमिति । __ (वृ० प० ४३३) ३. तस्स णं छठेंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स । ४. पगइभद्दयाए पगइउवसंतयाए पगइपयणुकोह-माण माया-लोभयाए ५. मिउमद्दवसंपन्नयाए, अल्लीणयाए ६. विणीययाए अण्णया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं ७. लेस्साहि विसुज्झमाणीहिं-विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं अण्णाणे समुप्पज्जइ। ८. 'तयावरणिज्जाणं' ति विभङ्गज्ञानावरणीयानाम् । (वृ०प०४३३) ४. स्वभावे भद्र सरलपण, स्वभावे उपशमवंतो। क्रोध मान माया लोभ ते, स्वभावे पतला अत्यंतो।। ५. मृदु कहितां कोमल अछ, मार्दव निरहंकारो। ए गुण सहितपणे करी, आलीनपणे उदारो॥ ६. भद्र विनीतपणे करी, अन्य दिवस ते किवारै । शुभ अध्यवसाये करी, शुभ परिणाम तिवारै। ७. लेस्या विशुद्धमाने करी, तदावरणी क्षयोपशम जन्नो। ईहा पोह मग्गण नी गवेषणा करतां विभंग अनाण उप्पन्नो। सोरठा ८. तदावरणी पहिछाण, विभंग अनाणावरणी ए। पिण ए भेद सुजाण, अवधिज्ञानावरणी तणों। ६. अवधिज्ञान अवलोय, वलि विभंग अज्ञान ए। ए बेहूं नों जोय, दर्शण अवधिज एक है। १०. मति श्रुत ज्ञानावरण, क्षयोपशम तेहन थयां । पामै ए गुण धरण, मति श्रुत ज्ञान अज्ञान बे॥ ११.तिम अवधि ज्ञानावरणी जान, क्षयोपशम तेहनूं थयां । पामै अवधि सुज्ञान, विभंग अनाण लहै वलि ।। १२. तदावरणी ते जान, विभंग अनाणावरणी ते। धुर गुणठाण पिछाण, क्षयोपशम तेहनों थयो।। १३. ईहा कहितां पेख, छता अर्थ प्रति जाणवा । चेष्टा तास विशेख, तेह तणे सन्मुख थयो । १४. अपोह पक्ष रहीत, धर्म ध्यान निर्णय करै। एहवो अर्थ पुनीत, बडा टबा में आखियो ।। १५. मग्गण अन्वय धर्म, तेह तणी आलोचना । गवेषणा ए मर्म, व्यतिरेक धर्म आलोचना ।। १६. करतां एह विचार, तेह बाल तपसी भणी। विभंग अनाण तिवार, उपनों शद्ध परिणाम थी। *लय : राज पामियो रे करकंड कंचनपुर तणो २२ भगवती-जोड़ १३. इहेहा-सदाभिमुखा ज्ञानचेष्टा । (व०प० ४३३) १४. अपोहस्तु-विपक्षनिरासः। (वृ०प० ४३३) १५. मार्गणं च-अन्वयधर्मालोचनं गवेषणं तु व्यतिरेकधर्मालोचनमिति । (वृ०प० ४३३) Jain Education Intemational Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते १७. 'इहां कही विशुद्ध लेस, तेजू पद्मज शुक्ल ए । भावे सुविशेष, द्रव्य प्रयोजन इहां नहीं ॥ १८. आख्या शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम पिण भाव ए । से माटे कहिवाय, विशुद्ध लेश्या पिण भाव छ । १९. शुक्ल लेखा नां पेख लक्षण उत्तराध्येन में पतीसमें सुदेव आख्या के एहवा तिहां ॥ २०. बर्जे आतं रुद्र, धर्म शुक्ल प्यावे तिको । लेश्या शुक्ल अक्षुद्र, तेहन ए लक्षण । कला । २१. विशिष्ट विशुद्ध तेह मुक्त ध्यावे तदा । वर्ज्या आर्त्त रु रुद्द, धर्म शुक्ल आख्या जदा ॥ २२. शुक्ल वेश्या में जाण, गुणस्थानक तेरे अ ऊपरले गुणस्थान, शुक्ल ध्यान वर लीजिये ॥ २३. प्रथम आदि गुणस्थान, शक्ल लेश वर्त्ते यदा । धर्म ध्यान पहिछान, निमल न्याय अवलोकिये ॥ २४. तिण कारण कहिवाय, तेह बाल तपसी तणां । विशुद्ध लेश रे मांय, धर्म-ध्यान ए अर्थ शुद्ध ॥ २५. ते गुणठाणे अवलोय, ज्ञानावरणी कर्म नों । थयो क्षयोपशम सोय तिण तूं विभंग समुप्यनो ॥ २६. सुख विपाक अविरुद्ध, सुमुख सुदत्त प्रतिलाभिया । त्रिविध जोग तसु शुद्ध, त्रिकरण शुद्ध कह्या वलि ।। २७. ए पिण छै धर्म ध्यान, तेहथी परित संसार करि । मनुष्यायु बंध जान, तिण सूं धुर गुणठाण ए ॥ २८. गज भव मेघकुंवार, सुसला री अनुकंप करि । कियो परित संसार ए पिण धर्म ध्याने करि ।। २६. तामली सोमल आदि, अनित्य-चितवणा तसु कही । अनित्य चिंतवणा साधि, धर्म ध्यान नों भेद है ॥ ३०. तिम इहां पण शुद्ध लेग, अध्यवत्ताय परिणाम शुभ । धर्म ध्यान सुविशेष, तेही विभंग समुण्यनी ॥ [ ज० स०] ३१. * विभंग अनाण ऊपने छते, जघन्य थो आंगुल तो विशेखै । असंख्यातमो भाग नं, जानें ने बलि देखें || ३२. ते उत्कृष्ट थकी वलि, जोजन असंख हजारो । जानें न देखें अछे, क्षय उपशम गुण सारो ॥ ३३. ते विभंग अनाण ऊपजवे करी, जाण्या जोव अजीवो । पाखंड निज व्रत में रह्या, सारंभ सपरिग्रह अतीवो ॥ ३४. महासंक्लिश्यमान जागियो, अल्पसंक्लिशमान तेहो । महानी अपेक्षा विशुद्धमान ते, तेह प्रतै जाणेहो ॥ *लय : राज पामियो रे करकंडू कंचनपुर तणो १. उ० ३४।३१ २०. अट्टहाणि वित्ता धम्मसुनकाणि भावए पसन्नचित्ते दन्तप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिहि ॥ (उत्तरा० २४१३१) २६, २७. तए णं तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुतिविहे तिकरणगुणं मुदसे अग्रगा पलाभिए समागे संसारे परितीकए। (विपा० २।१।२३) २८. तए तुम मेहा ताए पाषाणुकंपयाए संसारे णं परितीकए, माणुस्सा उए निबद्धे । ( ज्ञाता १।१।१८२ ) "अणिच्चजागरिय २६. तए णं तस्स तामलिस्स जागरमाणस्स | धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ ...... | ( भ० श० ३।३६ ) ( भ० श० २५/६०८ ) २१.१२. से णं तेगं विभंगनाणं समुपमे हम्मे अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेण असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं जाणइ-पासइ । ३३. से णं तेणं विब्भंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि जाण, पासंडत्थे सारंभ सपरिग्गहे 'पासंडत्थे' त्ति व्रतस्थान् । ( वृ० प० ४३३) ३४. संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि जाणइ । जसमा विजागद' ति महत्या संविश्यमानया विमानानपि जानाति "विसुक्झमाणे वि जाण' ति अल्पवयाऽपि विशुद्धमा विप मानानपि जानाति । ( वृ० प० ४३३) श० ६, उ० ३१, ढाल १७२ २३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. ते प्रथम चारित्र थकी, पार्म सम्यक्त्व सारो एह पूर्व गुणे करि, पाम्या बोधि उदारो ॥ २६. छ-छ तप पहिलो कियो, सूर्य हामी आतापो । प्रकृति भद्र उपशांतता, पतली चौकड़ी व्यापो ॥ ३७. मृदु मार्दव आसीनता भद्र विनीतपणे ताह्यो । जीव उज्जल थयां एकदा आया शुभ अध्यवसायो || ३८. शुभ परिणाम लेश्या भलो, ए उत्तम गुण कर सीधो । विभंग ज्ञानावरणी कर्म नों, क्षयोपशम जिण कीधो ॥ ३२. ईहापोह मार्गणा गवेषतो पाम्पो विभंग अज्ञानो । जीव अजीव नैं जाण्या तेहथी, पायो सम्यक्त्व प्रधानो ॥ ४०. तिण कारण ए गुण सहु, श्री जिन आज्ञा मांह्यो । निर्जर री करणी भली, तेहथी सम्यक्त्व पायो । ४१. सम्यक्त्व पडिवजियां पर्छ, समण धर्म प्रति रज्जै । समण धर्म ने रोचवी, चारित्र में पटिवज्जे ॥ (ज० स० ) ४२. भाव चारित्र नैं अंगीकरी, पडिवज्जै मुनिलिंग - वेषो । इम उत्तम गुण करि लह्य, सम्यक्त्व चरण विशेषो । ४३. चरित आयां पहिला तिको, सम्यक्त्व आवण ढाणें । मिथ्यात पजवा हीणा पड्या, सम्यक्त्व नां वढमाणें ॥ ४४. सम्यक्त्व पायो तिण समय, विभंग अनाण नों ताह्यो । शीघ्र ही अवधि हुर्व सही, भाव चारित्र पछे पायो । सोरठा ४५. अवधि विभंग नो होय, सम्यक्त्व प्रतिपत्ति काल तसु । लेश्यादिक करि सोय, पूछे गोयम गणहरू || ४६. ते प्रभु! कति लेखा विषे ? तव भावे जिनराया। तीन विशुद्ध लेश्या विषे, तेजु आदि कहायो ॥ सोरठा ४७. भावे प्रशस्त लेश, तास विषेज हुवै अछे । सम्यक्त्व चरण विशेष, पडिवज्जै तिण अवसरे ॥ ४८. *प्रभु ! कति ज्ञान विषे हुवै ? जिन कहै त्रिण अवलोई । आभिनियोकि त विषे अवधिज्ञान विषे होई ॥ ४९. ते प्रभु! स्वं सजोगी हबै, जिन कहै सजोगी हुवै, अथवा अजोगी होई ? अजोगी नहीं कोई ॥ सोरठा ५०. अवधि भयो ते काल, चारित्र ग्रहण समय बलि । सजोगी सुविशाल, अजोगी कहिये नहीं ॥ *लय राजपाबियो रे करकंटू कंचनपुर तणो २४ भगवती-जोड़ ३५. से णं पुव्वामेव सम्मत्तं पडिवज्जइ । 'जामेव' ति चारित्रप्रतिपत्तेः पूर्वमेव ( वृ० प० ४३३) ४१. सम्मत्तं पडिवज्जित्ता समणधम्मं रोएति, समणधम्मं रोएत्ता चरितं पडिवज्जइ । ४२. चरितं पडिवज्जित्ता लिंगं पडिवज्जइ । ४३, ४४. तस्स णं तेहि मिच्छत्तपज्जवेहि परिहायमाणेहि परिहायमाणेहि सम्मदंसणपञ्जवेहि परिवमाणेहिपरिवड्ढमाणेहिं से विभंगे अण्णाणे सम्मत्तपरिगहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ । (ar (122) चारित्रप्रतिपत्तेः पूर्वं सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकाल एव विभंगज्ञानस्यावधिभावो द्रष्टव्यः, सम्यक्त्वचारित्रभावे विभंगज्ञानस्याभावादिति । ( वृ० प० ४३४) ४५. अर्चनमेव लेख्यादिभिनिन्नाह ( वृ० प० ४३४ ) ४६. से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होज्जा ? गोयमा ! तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा, तं जहाउपाए, पहराए, नुनलेस्साए । ४७. यतो भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव सम्यक्त्वादि प्रतिपद्यते नाविशुद्धाविति । ( वृ० प० ४३५) ४८. से भंते! कतिसु नाणे हो ? गोयमा ! तिसु - आभिणिबोहियनाण-सुयनाणओहिनासु होला । (STO (171) ४९. से णं भंते! किं सजोगी होज्जा ? अजोगी होज्जा ? गोयमा ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा । ५०. ज्ञानयोगस्याभावात् । (बु० १०४३५) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. जइ सजोगी होज्जा, कि मणजोगी होज्जा ? वइजोगी होज्जा? कायजोगी होज्जा? ५२. गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा। (श० ६।३६) ५१. *जो प्रभु! सजोगी हुवै, स्यूं मनजोगी तेहो । अथवा बचनजोगी हवै, के कायजोगी कहेहो ? ५२. जिन कहै मनजोगी हुवै, अथवा ह वचजोगी। अथवा कायजोगी हवै, तस् इम न्याय प्रयोगो ।। सोरठा ५३. ते वेला इक जोग, प्रधानपणां नी अपेक्षया । जिन वच प्रवर प्रयोग, न्याय विचारी लीजिये ।। ५४. *हे भगवंत ! हवे तिको, सागारोवउत्ते वर्त्ततो । अणागारोवउत्ते हवै ? भाखै हिव भगवंतो।। ५५. सागारोवउत्त विषे हुवै, अथवा वत्र्ते अणागारो । एक पक्षे ए बिहं विषे, लहै सम्यक्त्व अवधि उदारो ।। ५३. 'मणजोगी' त्यादि चैकतरयोगप्राधान्यापेक्षयाऽवगन्तव्यं । (वृ०५० ४३५) ५४. से णं भंते ! कि सागारोवउत्ते होज्जा ? अणागारो वउत्ते होज्जा? ५५. गोयमा ! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अणागारोवउत्ते वा होज्जा। (श ६।३७) तस्य हि विभङ्गज्ञानान्निवर्तमानस्योपयोगद्वयेऽपि वर्तमानस्य सम्यक्त्वावधिज्ञानप्रतिपत्तिरस्तीति । (वृ० प० ४३५) ५६,५७. ननु 'सब्वाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स भवंती' त्यागमादनाकारोपयोगे सम्यक्त्वावधिलब्धिविरोध: ? (वृ०प० ४३५) सोरठा ५६. वृत्ति मझे इम वाय, सागारोवउत्ता नैं विषे । सर्व लब्धि उपजाय, किणहिक ठामें इम कह्यो । ५७. अणागारवउत्तेह, सम्यक्त अवधि लहै इसो । आख्यो छै वच एह, तेह विरोध इम प्रश्न कृत ।। ५८. पिण इम नहि छै एह, प्रवर्द्धमान परिणाम जसु । एहवा जीव विषेह, सागारवउत्ता मेंज हुवै ।। ५६. अवस्थित परिणाम, तेह तणी अपेक्षया । अनाकारे पिण ताम, लाभ लब्धि नों संभवै । ६०. *प्रभु ! किसा संघयण तिको? तब भाखै जिनचंदो । वज्रऋषभ नाराच नैं, होवै ते गुणवृदो।। सोरठा ६१. पामै केवलज्ञान, प्रथम संघयण विषेज जे । ते माटै पहिछान, अपर संघयण विषे नथी । ६२. *प्रभु ! किसा संठाण विषे हुवै? जिन कहै षट संठाणो । तेहमें एक संठाण में, होवै ते गुणखाणो । ५८. नैवं प्रवर्द्धमानपरिणामजीवविषयत्वात् तस्यागमस्य । (वृ० प० ४३५) ५६. अवस्थितपरिणामापेक्षया चानाकारोपयोगेऽपि लब्धि __ लाभस्य सम्भवादिति । (वृ० ५० ४३५) ६०. से णं भंते ! कयरम्मि संघयणे होज्जा? गोयमा ! वइरोसभनारायसंघयणे होज्जा। (श०६।३८) ६३. प्रभु ! कितलो ऊंचपणे तनु? जिन भाखै शुभ संचो । जघन्य थकी कर सात नों, उत्कृष्ट धनु सय पंचो ।। ६१. प्राप्तव्यकेवलज्ञानत्वात्तस्य, केवलज्ञानप्राप्तिश्च प्रथम संहनन एव भवतीति । (वृ०प० ४३५) ६२. से णं भंते ! कयरम्मि संठाणे होज्जा? गोयमा! छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे होज्जा । (श० ६।३६) ६३. से णं भंते ! कयरम्मि उच्चत्ते होज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तरयणीए, उक्कोसेणं पंचधणुसतिए होज्जा। (श० ६।४०) ६४. से णं भंते ! कयरम्मि आउए होज्जा ? गोयमा ! जहण्णणं सातिरेगढवासाउए उक्कोसेणं पुवकोडिआउए होज्जा। (श०६४१) ६५. से णं भंते ! किं सवेदए होज्जा? अवेदए होज्जा ? गोयमा ! सवेदए होज्जा, नो अवेदए होज्जा। ६४. प्रभु ! किता आउखा विषे हवै, थो जिन भाखै जोड़ो। जघन्य जाझो अठ वर्ष नों, उत्कृष्ट पूरव कोड़ो । ६५. ते प्रभु! स्यं सवेदी हो, अथवा अवेदो होयो ? जिन भाखै सवेदी हवं, अवेदी नहि कोयो । * लय : राज पामियो रे करकंडू कंचनपुर तणो श०६, उ०३१, ढाल १७२ २५ Jain Education Intemational Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौरठा तेह काल समया विवे तिण सुं सवेदीज है ॥ स्वं स्त्री-वेदे होयो । । पुरिस नपुंसक जोयो ? ६६. अवधि विभंग नों थाय, वेद नगो क्षय नांय, ६७. जो प्रभु ! पुरिस तथा नपुंसके, कै सवेदी हवे ६८. जिन कहे स्त्री वेदे नहीं, वेद नपुंसक पिण नहीं, पुरिस-वेद पुरिस नपुंसक सोरठा ६६. इहविध व्यतिकर जाण, स्वभाव थकीज स्त्री तणें । तास अभाव पिछाण, जन्म नपुंसक पिण नहीं || पुरिस विषे एह पुरिस-नपुंस विषे बलि कृत्रिम नपुंसक जेह, तेह विषे पिण हुवै अछे || ७१. ते प्रभु! सपाई हुवे के अरुपाई ? अकषाई नहि थाई ॥ जिन कहै सकषाई हुवै, एहो । । तेही ॥ सोरठा ७२. विभंग तणो संभाल, अवधि हुवे ते काल में । सकषाईज निहाल, उपशम क्षपक अभाव थी ।। ७३. *जो सकपाइ विषे हवे, किती कषाय में बाइ ? जिन भाखे संजल तां क्रोधादिक चिरं मांहि ॥ , सोरठा J ७४. अवधि विभंग न हाल चारित्र प्रतिपन्न समय बलि । संजलनीज संभाल, क्रोधादिक नौ उदय द्वं ॥ ७५. हे प्रभु! तेन किता का अध्यवसाय सुहाया ? श्री जिन भाखै तेनां, असंख्याता अध्यव साया ॥ ७६. हे प्रभु! तेहनां प्रशस्त छे, के अप्रशस्त अध्यवसायो ? जिन भावे प्रशस्त छ, अप्रशस्त नहि पायो ॥ सोरठा ७७ अवधि विभंग न पाय चारित्र प्रतिपन्न समय फन प्रशस्त अध्यवसाय, स्थानक प्रशस्त नांज ॥ ७८. नवम त देश इकतोस नॉ, इकसो बोहितरमों ढालो । भिक्षु भारीवाल ऋषिराय थी, 'जय जश' हरष विशालो || - *लय राज पामियो रे करकंडू कंचनपुर तगो । २६ भगवती-जोड़ ६६. 'सवेयए होज्ज' त्ति विभङ्गस्यावधिभावकाले न वेदक्षयोऽस्तीत्यसौ सवेद एव । (१० १०४३५) ६७. जद सवेद होना कि इत्विवेदए होण्या ? पुरस वेदए होगा ? पुरिसनपुंसक वेदए हो ? नपुंसगवेदए होज्जा' ? ६८. गोयमा ! नो इत्थिवेदए होज्जा, पुरिसवेदए होज्जा, नो नपुंगवेदए होन्ना, पुरिसन समवेदएवा होज्जा । ( श० ६/४२ ) ६६. 'नो इत्थिवेयए होज्ज' त्ति स्त्रिया एवंविधस्य व्यतिकरस्य स्वभावत एवाभावात् । ( वृ० प० ४३५ ) ७०. 'चुरियनपुंसमवत्ति तस्वादिले नपुंसकः पुरुषनपुंसकः । (बु०प०४३५) ७१. सेते कि सगाई होना? अक्साई होज्जा ? गोयमा ! सकसाई होज्जा, नो अकसाई होज्जा । ७२. 'सकसाई होज्ज' त्ति विभङ्गावधिकाले कषायक्षयस्याभावात् । ( वृ० प० ४३५ ) ७३. जइ सकसाई होज्जा से णं भंते ! कतिसु कसा सु होन्ना ? गोयमा ! उजवणको माग-माया होया । (४० २०४३) ७४. सधिज्ञानापरिणतविज्ञानश्वरणं प्रतिपन्नाः उक्तः, तस्य च तत्काले चरणयुक्तत्वात्सञ्ज्वलना एव क्रोधादयो भवन्तीति । (बु०प०४३५) ७५. तस्स णं भंते ! केवइया अज्झवसाणा पण्णता ? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता । (१० २२४४) ७६. ते णं भंते ! किं पसत्या ? अप्पसत्या ? गोयमा ! पसत्था, नो अप्पसत्था । (ETO 2162) ७७. 'सत्य' त्ति विभङ्गस्यावधिभावो हि नाप्रशस्ताध्यवसानस्य भवतीत्यत उक्तं प्रशस्तान्यध्यवसायस्थानानीति । ( वृ० प० ४३५) १. जीड़ में पहले नपुंसक वेद और अन्त में पुरुषनपुंसक वेद है । संभव है जयाचार्य को प्राप्त प्रति में पाठ का यही क्रम रहा हो । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १७३ १,२. से णं भंते ! तेहिं पसत्थेहि अज्झवसाणेहिं वड्ढमाणेहिं अणंतेहि नेरइयभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ। दूहा १. हे भदंत! तेहनां कह्या, प्रशस्त अध्यवसाय । तेहथी जे फल नीपज, वीर बतावै न्याय ॥ *अणसूणियां इम केवल उपजे, श्री जिन वाण वदंता रे। धुर गुणठाण मंडाण कियो, तेहथी अनुक्रम भव अंता रे ।। (ध्रुपदं) २. प्रशस्त अध्यवसाय वर्धमान, नारक भव जे अनंता रे । काल अनागत भावी थकी, आत्मा नैं दूर करता रे॥ ३. तिर्यंच भव जे अनंत अनागत काल करै तिण सेती। आत्मा नै विसंजोड़े करै दुर, निर्मल निष्पन्न खेती ।। ४. मनुष्य तणां भव अनंत थकी, आत्मा नैं दूर करतो । सुर भव अनंत थकी आतम प्रति, अलग करै गुणवंतो।। ५. जे नाम कर्म तसु मूल प्रकृति नी, उत्तर प्रकृति एहो। नरक तिर्यंच मनुष्य सुर गति चिहुं, नाम नी उत्तर तेहो ।। ६. ए चिहं नैं वलि अन्य प्रतै, उपष्टंभ तणो देणहारो। अनंतानुबंध क्रोधादिक चिउं ने, तेह खपावै तिवारो॥ ७. अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ, ए पिण ताम खपावै। पच्चक्खाणावरण क्रोधादिक चिहं नैं,क्षय करि आतम भावै ।। 'अणंतेहिं' ति 'अनन्तः' अनन्तानागतकालभाविभिः 'विसंजोएइ' त्ति विसंयोजयति, तत्प्राप्तियोग्यताया अपनोदादिति । (वृ०प० ४३५) ३. अणंतेहिं तिरिक्खजोणियभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ। ४. अणंतेहिं मणुस्सभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं देवभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ । ५. जाओ वि य से इमाओ नेरइय-तिरिक्खजोणिय मणुस्स-देवगतिनामाओ चत्तारि उत्तरपगडीओ। • उत्तरपयडीओ' त्ति नामकर्माभिधानाया मूलप्रकृतेरुत्तरभेदभूताः (वृ० प ४३५) ६. तासि च णं ओवग्गहिए अणंताणुबंधी कोह-माण-माया लोभे खवेइ। 'उवग्गहिए' त्ति औपग्रहिकान्-उपष्टम्भप्रयोजनान (वृ० ५० ४३५) ७. खवेत्ता अपच्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, खवेत्ता पच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ। ८. खवेत्ता संजलणे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, खवेत्ता पंचविहं नाणावरणिज्ज, ६. नवविहं दरिसणावरणिज्ज, पंचविहं अंतराइयं । किं कृत्वा ? इत्यत आह- (वृ०प० ४३६) १०. तालमस्थाकडं च णं मोहणिज्ज कटु । यथा हि छिन्नमस्तकस्तालः क्षीणो भवति एवं मोहनीयं च क्षीणं कृत्वेति भावः। (वृ०प०४३६) वा०-इदं चोक्तमोहनीयभेदशेषापेक्षया द्रष्टव्यमिति । (वृ०प० ४३६) ११. अथवाऽथ कस्मादनन्तानुबन्ध्यादिस्वभावे तत्र क्षपिते सति ज्ञानावरणीयादि क्षपयत्येव ? (वृ० ५० ४३६) १२. तालमस्तकस्येव कृत्त्वं-क्रिया यस्य तत्तालमस्तक कृत्त्वं तदेवविधं च मोहनीयं 'कट्ट' त्ति इतिशब्दस्येह गम्यमानत्वादितिकृत्वा-..-इतिहेतोस्तत्र क्षपिते ज्ञानावरणीयादि क्षपयत्येवेति । (वृ०प० ४३६) ८. संजलण क्रोध मान माया लोभ, तास करै क्षय जाणी। पंचविधे ज्ञानावरणी कर्म नैं, क्षय करै उत्तम प्राणी ।। है. नवविध दर्शणावरणी नैं करै क्षय, वलि पंचविध अंतरायो। किं कृत्वा स्यूं करी एह खपावै, सांभलज्यो चित ल्यायो ।। १०. ताल मत्थाकडं मोह कर्म करि, ताल तरू शिर छेद्यो । जिम छिन्न-मस्तक ताल क्षीण हुवै, इहविध मोहणी भेद्यो । वा०-ए मोहनीय नी नोकषाय प्रकृति शेष भेद नी अपेक्षा जाणवो । ११. अथवा अनंतानुबंध्यादि प्रकृति, तेह खप्ये छते जाणी । ज्ञानावरणादिक तीन कर्म नै, निश्चै खपावै नाणी । १२. ताल मस्तक जिम कीधी क्रिया जस्, इहविध मोहणी छेदै । इति कृत्वा इम मोह खप्ये छते, ज्ञानावरण्यादिक भेदै ।। *लय : प्रभवो चोर चोरां ने समझावै श० ६, उ० ३१, ढाल १७३ २७ Jain Education Intemational Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 १३. ताल मस्तक अरु कर्म मोहनी, ए बिहुं छेदन किरिया । साधर्म्य ते सरीखपणों हिज, हिव तसु प्रगट उचरिया ।। १४. जिम ताल शिर ने विनाश करण से क्रिया कियां छतां तासो । अवश्यभाव निश्च करिग होस्यै ताल वृक्ष नों विनाशो ॥ १५. इहविष मोहनीकर्म विनाशन, क्रिया किये सुविमासो । अवश्यंभावि निश्चै करि होस्यै, शेष कर्म नों विणासो ॥ वा० - जिम ताल ने मस्तके सूई चांप्यां मस्तक हणाणे छते ताल वृक्ष नों नाश था । तिम मोहणी कर्म हणाणे छते शेष कर्म नों नाश था । १६. कर्म रूप रज खेरणहारो, एहवो अपूर्वकरणो । जे अध्यवसाय कदे नहिं आया, तेहमें पेठो अघहरणो ।। १७. विषय अनंत थकीज अनंतहि सर्वोत्तम इम न्यायो । केवलज्ञान ने कह्यो अनुत्तर परम ज्ञान सुखदायो ॥ १८. भीत प्रमुख करिने अणहृणवे, कहिये निर्व्याघातो । सर्वथा आवरण क्षय करिवा थी, निरावरण आख्यातो ॥ १६. सकल अर्थ न ग्राहकपणां थी कसिण तास प्रतिपूर्ण ते सकल स्व अंशज, तिण करिने इम उक्तो । ए युक्तो ॥ मांह्यो । पायो । कीधा । केवल ज्ञान नैं दर्शन ऊपनां, सकल मनोरथ सीधा ॥ २२. ते प्रभु ! अन्यलिंगी वर्तमान जे केवली भाख्यो धरमो २०. केवल नाम ते शुद्ध संपूरण, समस्त ज्ञान है प्रवर प्रधान ते अन्य अपेक्षया ज्ञान दर्शन ते २१. ज्ञानावरणी दर्शणावरणी अंतराय क्षय आघवेज्जा शिष्य नैं अर्थ ग्रहावे, धर्म बतावै परमो ॥ २२. पणवेज भावे भेद जुजुमा, अथवा वोधि उपा । परूवेज्ज वा कहितां परूपं युक्ति कहिण थी भावे ? २४. जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांही, एक ज्ञात दृष्टंतो । अथवा एक व्याकरण उत्तर इक न कहै तिण उपरंतो ॥ J सोरठा २५. उदाहरण इक देह, अथवा इक उत्तर दिये । अन्य अर्थ न कहेह, तथाविध तसु कल्प थी । २६. *हे प्रभु ! ते अन्य लिंगे वर्त्ततो, प्रव्रज्या द्रव्य-लिंगो । अन्य भणी दे रजोहरणादिक, मुंडन लुंचन चंगो ? लय: प्रभवो चोर चोरां नं समझावं २८ भगवती जोड़ १२. मोहनीयपश्च क्रियासाधर्म्यमेव । ( वृ० प० ४३६) १४. यथा हि तालमस्तकविनाशक्रियाऽवश्यम्भावितालविनाशा । (बु०प०४३६) १५. एवं मोहनीयकर्म विनाश कियाऽप्यवश्यम्भाविशेषक विनाशेति । ( वृ० प० ४३६) वा०- - मस्तकसूचिविनाशे तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः । कर्म विनाशोऽपि मोहनीयक्ष नित्यम् ॥ ( वृ० प० ४३६) १६. कम्मरणिक अपुष्यकरण अणुष्यविदुरस अपूर्वकरणम् असदृशाध्यवसायविशेषमनुप्रविष्टस्य । (बु० प० ४३६) १७. अनंते अणुत्तरे अनन्तं विषयानमा अनुतरं सर्वोत्तमत्वात् । ( वृ० प० ४३६ ) १. निव्वाचा निरावरणे निर्व्याघातं कटकुट्यादिभिरप्रतिह्ननात् निरावरणं सर्वथा स्वावरणक्षयात् । ( वृ० प० ४३६) १६. कसिणे पडिपुणे कृत्स्नं सकला ग्राहकस्यात् प्रतिपूर्ण सकलस्यांशयुक्ततयोत्पन्नत्वात् । ( वृ० प० ४२६) २०. केवलवाणदंसणे समुपज्जति । (२०२२४६) केवलवरज्ञानदर्शनं केवलमभिधानतो वरं ज्ञानान्तरापेक्षया । ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शनम् । (बु० १०४३६) २२. से णं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्मं आघवेज्ज वा ? 'आघवेज्ज' त्ति आग्राह्येच्छिष्यान् । ( वृ० प० ४३६) २३. पण्णवेज्ज वा ? परुवेज्ज वा ? 'पन वे' ति प्रज्ञापयेद्वेदभवनतो बोधयेद्वा प वेज्ज' त्ति उपपत्तिकथनतः । ( वृ० प० ४३६) २४. नो तिणट्ठे समट्ठे, नण्णत्थ एगनाएण वा, एगवागरणेण वा । ( श० ६ २४७ ) २५. 'नन्नत्थ एगनाएण व' त्ति न इति योऽयं निषेधः एकमुदाहरणं वर्जयित्येत्यर्थः तथाविधकल्पत्वादस्येति । ( वृ० प० ४३६) २६. से णं भंते ! पव्वावेज्ज वा ? मुंडावेज्ज वा ? 'पब्वावेज्ज व' त्ति प्रव्राजयेद्र जोहरणादिद्रव्यलिङ्गदानतः 'मुंडावेज्ज व' त्ति मुण्डयेच्छिरोलुञ्चनतः । ( वृ० प० ४३६) ני Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. जिन कहै अर्थ समर्थ ए नांही, न दै कोइ नैं दीक्षा। पिण उपदेश करै अमुका पै, लै संजम वर शिक्षा ।। २८. ते प्रभु ! सीझै जाव सर्व दुख-कर्म तणो करै अंतो? जिन कहै हंता सीज्झै यावत सह दुख अंत करंतो।। २७. णो तिणठे समठे, उवदेसं पुण करेज्जा। (श० ६।४८) 'उवएस पुण करेज्ज' त्ति अमुष्य पार्वे प्रव्रजेत्यादिकमुपदेशं कुर्यात् । (वृ०प० ४३६) २८. से णं भंते! सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ? हंता सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । (श० ४।४६) २६. से णं भंते ! कि उड्ढे होज्जा? अहे होज्जा? तिरियं होज्जा? ३०. गोयमा ! उड्ढं वा होज्जा, अहे वा होज्जा, तिरियं वा होज्जा। ३१. उड्ढं होमाणे सद्दावइ-वियडावइ-गंधावइ-मालवंत परियाएसु वट्टवेयड्ढपव्वएसु होज्जा । ३२-३४. शब्दापातिप्रभृतयो यथाक्रम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यभिप्रायेण हैमवतहरिवर्षरम्यकरण्यवतेषु । (वृ० प० ४३६) २६. ते प्रभु ! स्यूं उर्द्ध लोक विषेह, के हवै छै अधो लोयो। हवै तिरछा लोक विषे ए? हिव जिन उत्तर जोयो । ३०. ऊंचा लोक विषे हवै अथवा, नीचा लोक में होयो । अथवा तिरछा लोक विषे हवं, हिव विवरो अवलोयो । ३१. उर्द्ध लोक विषे हुँतो थको, ए शब्दापाती जाणी। वियडावइ गंधावइ मालवंत, वृत्त वैताढ्य पिछाणी ।। सोरठा ३२. यथाक्रमे ए जाण, जंबूदीवपण्णत्ती जे। __तसु अभिप्राय पिछाण, हेमवंतादिक क्षेत्र में । ३३. क्षेत्र हेमवंत मांहि, शब्दापाती' जाणज्यो । हरिवर्ष में ताहि, वियडावइ' वैताढ्य वृत्त ।। ३४. रम्यक क्षेत्र मझार, गंधावति' वैताढ्य वृत्त। ऐरणवते विचार, मालवंत सूत्रे कह्य॥ ३५. 'क्षेत्र-समासे" तेथ हेमवत ऐरणवते । ___ हरिवर्ष रम्यक खेत, ए च्यारूं क्षेत्रां विषे ॥ ३६. शब्दापाती सार, वियडावइ गंधावइ । मालवंत ए च्यार, अनुक्रम मेले तो विरुद्ध । ३७. योजन एक हजार, ऊंचपणे आख्या चिउं । ऊंडपणे सुविचार, योजन अढ़ीसै कह्या ।। ३८. हेठ ऊपर जाण, लांबो-पहुलो सारिखो। पाला नैं संठाण, ते पाला धान भरवा तणां ॥ ३६. सर्व रत्न रै मांहि, एक पद्मवरवेदिका । इक वनखंडे ताहि, वीटया छै वैताढय वत्त ।। ४०. गगनगामिनी लद्धि, तास प्रभावे त्यां गया । केवलज्ञान समिद्धि, उपजै तिहां रह्या छतां ।। ३५. क्षेत्रसमासाभिप्रायेण तु हैमवतरण्यवतहरिवर्ष रम्यकेषु भवन्ति । (वृ० प० ४३६) ४१. *सुर साहरण करी लेइ मूक्यां, तेह पडुच्च सुजोयो। मंदरगिरि वन तृतीय सोमनसे, तुर्य पंडगे होयो। ४०. तेषु च तस्य भाव आकाशगमनलब्धिसम्पन्नस्य तत्र गतस्य केवलज्ञानोत्पादसद्भावे सति । (वृ० प० ४३६) ४१. साहरणं पडुच्च सोमणसवणे वा पंडगवणे वा होज्जा 'साहरणं पडुच्च' त्ति देवेन नयनं प्रतीत्य 'सोमणसवणे' ति सौमनसवनं मेरी तृतीयं 'पंडगवणे' त्ति मेरी चतुर्थ । (वृ०प० ४३६) १. जं० व०४।५७ २. जं०व०४।८४ ३. जं०व०४।२६६ ४. जं० व०४।२७२ ५. गा० ११० *लय : प्रभवो चोर चोरां ने समझावै श० ६, उ० ३१, ढाल १७३ २६ Jain Education Intemational Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-नंदण वन ने विष पिण संहरण हुदै छ। पिण ए नंदण वन तिरछा लोक में छ, ते भणी इहां ऊंचा लोक नां कथन माट सोमनस, पंडग वनहीज कह्या । नंदण वन न कह्यो। ४२. अधोलोक विषे हंतो थको जे, जोजन एक हजारो। ऊंडी विजय तिहां ग्रामादिक छ, तेह विषे सुविचारो। ४३. अधोग्रामादिक भूमिभाग जे, गर्ता खाड विशेषे । अथवा दरिये वा कहितां तेहिज, अति नीचे सुप्रदेशे ।। ४२. अहे होमाणे । ४४. देव संहरण ले जाइ मूकै, तो वलयमुखादि सुवरणो। महापातालकलस विषे लहिये, अथवा भवणपति भवणो॥ ४५. तिरछे लोक हंतो थको पनर जे कर्मभूमि विषे जाणी। पंच भरत नैं पंच एरावत, पंच विदेह पिछाणी ॥ ४६. देव साहरण पड़च्च अढाई द्वीप विषे अवलोयो । दोय समुद्र विषे तेहनां इक देशभाग में होयो ।। ४७. ते प्रभु ! एक समय कितला ह ?तब भाखै जिनरायो। जघन्य एक तथा दोय तथा त्रिण, उत्कृष्ट दश कहिवायो । ४३. गड्डाए वा दरीए वा होज्जा। 'गड्डाए व' त्ति गर्ते--निम्ने भूभागेऽधोलोकग्रामादौ 'दरीए व' त्ति तत्रैव निम्नतरप्रदेशे। (वृ० प० ४३६) ४४. साहरणं पडुच्च पायाले वा भवणे वा होज्जा । 'पायाले व' ति महापातालकलशे वलयामुखादी 'भवणे व' त्ति भवनवासिदेवनिवासे । (वृ० ५० ४३६) ४५. तिरियं होमाणे पण्णरससु कम्मभूमीसु होज्जा । 'पन्नरससु कम्मभूमीसु' त्ति पञ्च भरतानि पञ्च ऐरवतानि पञ्च महाविदेहा इत्येवं लक्षणासु । (वृ०प० ४३६) ४६. साहरणं पडुच्च 'अड्ढाइज्जदीवसमुद्दतदेक्कदेमभाए होज्जा। (श० ६।५०) ४७. ते णं भंते ! एगसमए णं केवतिया होज्जा ? गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं दस । ४८. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-असोच्चा णं केवलिस्स वा जाब तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, अत्थेगतिए असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउ वासियाए वा केलिपण्णत्तं धम्म नो लभेज्ज सवणयाए । ४६. जाव अत्यंगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा। (श० ६।५१) ४८. तिण अर्थे गोयम ! इम भाख्यो, दश पासे विण सुणिय । कोइक धर्म लहै सुणवो, कोइ न लहै इहविध थुणिय । ४६. यावत कोइक केवलज्ञान उपाव ते वर लहिये । कोई केवलज्ञान न पावै, अणसुणिय इम कहिये ।। ५०. नवम शतक इगतीसम देश ए, इकसौ तिहंतरमी ढालो। भिक्खु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालो।। ३० भगवती-जोड़ Jain Education Intermational Jain Education Intemational Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा १. अणसुणियां जे थाय, ते तो पूर्वे आखियो । हिब सुणियां गुण पाय, ते विस्तार कहे अछे । ढाल : १७४ वहा केवलि २. हे प्रभु ! दश पास सुणी, सुणवो लाभै छै तिको, श्रमण रूप ३. जिन भाखे बस पे सुक्यो, कोइक सुणयो पाय । जेम असच्चा यत्तव्वया तिम सोच्या कहिवाय ।। 1 ८. ४. णवरं इतो विशेष छै, सोच्चा नैं अभिलाव । शेष चाकतो तिमज ते, समस्तपणें कहाव ॥ ५. यावत जेणे मनपज्जव - ज्ञानावरणी जाण । क्षयउपशम कीधो हुने, दशमों बोल पिछाण ॥ ६. केवलज्ञानावरणी जिण, क्षय कीथो अवलोय | ए बोल इग्यारमों, हिव तेहनों फल जोय ॥ ७. ते दश पे सुणियां छतां, धर्म मुणेोपाय | वलि शुद्ध सम्यक्त्व अनुभ, जाव केवल उपजाय ॥ भाख्यो धर्म । करि पर्म ? जे 'सुण केवलज्ञान लहै, ते कोइक ने जाण । वोध चरिण लिंग सहित ने, अद्रुम-अद्रुम माण | *जी हो जिनराज कहै दश पे सुण्यांची कोइ उपजे केवलनाण ॥ (भुपद) ९. अद्रुम-अद्रुम जेजी कोई अंतर-रहित पिछान । तप कर आतम भावतो जी कांइ, प्रकृति भद्रक सुबिहाण॥ १०. टिम अठम प्रमुख आस्यूं बहुलपणे ते जाणिये । विशिष्ट तप करि सहित मुनि ने अवधिज्ञान वखाणिये ॥ ११. तेह जणावा अर्थ यावत, तिमज शुभ परिणाम छ । अध्यवसाय शुभ विशुद्ध लेश्या, एकदा अभिराम छै । १२. तदावरण ते जाण, कर्म प्रकृति पहिछाण, तेहनुं *लय : वीरमती तरु अंब ने जी कांइ + लपून मोटा भांजे तोटा सोरठा अवधि ज्ञानावरणी क्षयउपशम तिका । थयां ॥ १. अनन्तरं केवल्यादिवचनाश्रवणे तच्छ्रवणे यत्स्यात्तदाह- यत्स्यात्तदुक्तमथ ( वृ० प० ४३७ ) २. सोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा जाव (सं० पा० ) तपस्वियउदासियाए वा केवल धम्मं भेज सवणयाए ? ३. गोयमा ! सोच्चा णं केवलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं । ( श० ६२५२, ५३ ) एवं जा पेव असोच्याए वत्तव्यया सा चैव सोम्बाए वि भाणियव्वा । ४. नवरं - अभिलावो सोच्चे त्ति, सेसं तं चैव निरवसेसं ५. जाव जस्स णं मणपज्जवनाणावर णिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ । ६. जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ । ७. से णं सोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, केवलं बोहि बुज्ज्जा जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा । ( श० ६१५४ ) अमे 'तस्स' ति यः खा केवलज्ञानमुत्पादयेत्तस्य कस्याप्यर्थात् प्रतिपन्नसम्पदर्शनचारित्रलिंगस्य । ( वृ० प० ४३८ ) ६. अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स पगइभद्दयाए । १०. अमे' मित्यादि च यदुक्तं तत्प्रायो विकृष्टतपश्चरमवतः सापोरन। ( वृ० प० ४३८) o ११. इति ज्ञापनार्थमिति । ( वृ० प० ४३८) अष्णया कयावि सुमेनं अवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, स्वाहि मागीहि-विमणीहि । १२. तयावर णिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं । श० ६, उ० ३१, ढाल १७४ ३१ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३,१४. ईहापोहमग्गणगवेसणं । १३. * ईहा अर्थ छताज सन्मुख, ज्ञान चेष्टा जसू सही । ___अपोह ते तसू धर्म ध्यानज, पक्ष बीजो तस नहीं । १४. मग्गण धर्म आलोचना, ए जाव शब्द में जाणियै । गवेषणा ते अधिक धर्म आलोचना पहिछाणिय ।। १५. करता एम आलोचना जी काइ, अवधिज्ञान उपजंत । - आंगुल नों भाग असंख्यातमों जी कांइ, जघन्य जाण देखंत ।। १६. उत्कृष्टपणे अलोक में जी कांइ लोक प्रमाण विचार । खंड असंख्याता तिको जी कांइ, जाण देखै तिवार । १७. कति लेश्या विषे ते हुवै जी प्रभु ! जिन भाखै षट लेस । कृष्ण जाव शुक्ल विषे जी कांइ, हिव ज्ञानद्वार कहेस ।। १५. करेमाणस्स ओहिनाणे समुप्पज्जइ । से णं तेणं ओहि नाणेणं समुप्पन्नेणं जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जति भागं । १६. उक्कोसेणं असंखेज्जाइं अलोए लोयप्पमाणमेताई खंडाई जाणइ-पासइ। (श० ६।५५) १७. से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होज्जा? गोयमा ! छसु लेस्सासु होज्जा, तं जहा-कण्हलेस्साए जाव सुक्कलेस्साए। (श० ६।५६) वा०-यद्यपि भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव तिसृष्वपि ज्ञानं लभते तथाऽपि द्रव्यलेश्याः प्रतीत्य षट्स्वपि लेश्यासु लभते सम्यक्त्वश्रुतवत्, यदाह-'सम्मत्तसुयं सव्वासु लब्भइ' त्ति तल्लाभे चासौ षट्स्वपि भवतीत्युच्यत इति । (वृ० प० ४३८) वा०. --इहां वृत्तिकार का-यद्यपि भाव लेश्या त्रिण प्रशस्त नै विषे हीज अवधिज्ञान लहै, तो पिण द्रव्य लेश्या आश्रयी छहुं लेश्या विष पिण लाभ, सम्यक्त्व श्रुत नी परै, यदाह-'समत्तसुयं सव्वासु लब्भइ' इति । वलि ते सम्यक्त्व अने श्रुत ते ज्ञान ए पाम्ये छते छहुं लेश्या नै विष हुवै इम कहिय इति वृत्तौ । इहां ए भाव सम्यक्त्व अने ज्ञान पाम ते वेलां तीन भली लेश्याहीज हुदै अन सम्यक्त्व ज्ञान पायां पछै छहुँ लेश्या हुवै । तिम अवधिज्ञान ऊपजे ते वेला तीन भली लेश्या हीज हुवै। ते माटै इहां छ लेश्या कही ते द्रव्य लेश्या आश्रयी संभवं इति । जे अवधिज्ञान पायां पर्छ अप्रशस्त अध्यवसाये व तेहमें तो अप्रशस्त लेश्या पिण हवं जे पन्नवणा पद १७ में च्यार ज्ञानी में छ लेश्या कही । तिहां वृत्तिकार मंद अध्यवसाय रूप कृष्ण लेश्या मनपर्यायज्ञानी ने कही। ते भणी माठा अध्यवसाय हवं ते वेला अशुभ भाव लेश्या कहिये। अने ए तो केवल सन्मुख छ ते भणी ऊंचो चढे । अवधि पायां पछै तत्काल चढते परिणामे करि केवल पावै, ते भणी असोच्चा नीं पर भला अध्यवसाय कह्या अनै माठा वा । तेणे करी माठी भाव लेश्या पिण न हुवै, ते माट द्रव्य छ लेश्या ने विर्ष अवधि ऊपजै छै'। . (ज० स०) .१८. केतला ज्ञान विषे हुवै जो प्रभु ! जिन भाखै त्रिण ज्ञान । ___ अथवा चिउं ज्ञाने हुवै जी काइ, हिव तसु विवरो आन ।। १६. विहं ज्ञाने हुँतो थको जी काइ, आभिनिबोधिक ज्ञान । श्रत ज्ञान नैं विषे हुवै जी कांइ, अवधि विषे पहिछान ।। वा०-अवधिज्ञान ने आद्य बे ज्ञान मति, श्रुत नो अवधिजानी हुवै तिवार अवधि ज्ञानी तीन के विष हुवै ।। २०. चिउं ज्ञाने हंतो छतो जी कांइ, आभिनिबोधिक नाण । श्रत अवधि ज्ञाने हुवै जी कांइ, मनपज्जव गुणखाण ॥ वा०.-मति, श्रुत, मनपर्यव ज्ञानी ने अवधि ज्ञान उत्पत्ति थयां छतां ज्ञान च्यार नां भांव थी च्यार ज्ञान के विषे ए अवधिज्ञानी हुवे । १८. से णं भंते ! कतिसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु वा, चउसु वा होज्जा। १६. तिसु होमाणे आभिणिबोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा। वा०-अवधिज्ञानस्याद्यज्ञानद्वयाविनाभूतत्वादधिकृता वधिज्ञानी त्रिषु ज्ञानेषु भवेदिति । (वृ०प०४३८) २०. चउसु होमाणे आभिणिबोहियनाण सुयनाण-ओहिनाण मणपज्जवनाणेसु होज्जा। (श० ६।५७) वा०–मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनोऽवधि - ज्ञानोत्पत्ती ज्ञानचतुष्टयभावाच्चतुर्षु ज्ञानेष्वधिकृतावधिज्ञानी भवेदिति। (वृ० प० ४३८) *लयः पूज मोटा भांजे तोटा लियः वीरमती तरु अंब नै जी काइ ३२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. ते प्रभु ! स्यूं सजोगी हुवै जो कांइ, अथवा अजोगी जाण । एवं जोग उपयोग नैं जी कांइ, वलि संघयण संठाण ।। २२. ऊंचपणो नै आउखो जी, ए सगलाई बोल । जेम असोच्चा नैं कह्या जी काइ, तिमहिज कहिवा तोल ।। २१,२२. से णं भंते ! कि सजोगी होज्जा? अजोगी होज्जा? एवं जोगो, उवओगो, संघयणं, संठाणं, उच्चत्तं, आउयं च-एयाणि सव्वाणि जहा असोच्चाए तहेव भाणियवाणि। (सं० पा०) (श० ६।५८-६३) २३. से णं भंते ! कि सवेदए होज्जा ? अबेदए होज्जा ? गोयमा ! सवेदए वा होज्जा, अवेदए वा होज्जा। २३. ते प्रभु ! स्यूं सवेदे हवै जी काइ, अथवा अवेदे होय ? जिन भाखै सवेदे हवै जी काइ, अथवा अवेदे जोय ।। सोरठा २४. अक्षीण-वेद नैं जाण, अवधिज्ञान उपज्ये थके । सवेदी छतो पिछाण, तेह अवधिज्ञानी हुने ।। २५. क्षीण-वेदी रै जाण, अवधिज्ञान उपज्ये थके । अवेदी छतो पिछाण, तेह अवधिज्ञानी कह्यो। २६. *जो प्रभ! ते अवेदी हवै जी कांइ, तो स्यं उपशांत-वेद । अथवा क्षीण-वेदे हुवै जी कांइ ? हिव जिन भाखै भेद ।। २७. उपशांतवेदे ते नहिं जो कांइ, क्षीण-वेद में थाय । केवल लहिवू एहन जी काइ, तिण सू उपशांत नाय ।। २८. जो प्रभु ! ते सवेदी हुवै जी कांइ, तो स्यूं इत्थीवेद ? पूछा पूरवली परै जी कांइ, जिन कहै सण तज खेद ।। २६. इत्थिवेदे ते हुवै जी कांइ, तथा पुवेदे जोय । जन्म नपुंस विषे नहि जी कांइ, पुरुष-नपुंसक होय ।। ३०. स्यूं सकषाई ते हुवै जी काइ, के अकषाई कहाय ? जिन कहै सकषाइ हुवै जी काइ, वलि अकषाई थाय ।। २४. अक्षीणवेदस्यावधिज्ञानोत्पत्ती सवेदक: सन्नवधिज्ञानी भवेत् । (वृ०प० ४३८) २५. क्षीणवेदस्य चावधिज्ञानोत्पत्ताववेदक: सन्नयं स्यात् । (वृ० प० ४३८) २६. जइ अवेदए होज्जा कि उवसंतवेदए होज्जा ? खीण वेदए होज्जा? २७. गोयमा ! नो उवसंतवेदए होज्जा, खीणवेदए होज्जा । उपशान्तवेदोऽयमवधिज्ञानी न भवति, प्राप्तव्यकेवल ज्ञानस्यास्य विवक्षितत्वादिति । (वृ०प० ४३८) २८. जइ सवेदए होज्जा किं इत्थीवेदए होज्जा ? पुरिस वेदए होज्जा ? पुरिसनपुंसगवेदए होज्जा? २६. गोयमा ! इत्थीवेदए वा होज्जा, पुरिसवेदए वा __होज्जा, पुरिसनपुंसगवेदए वा होज्जा । (श० ४।६४) ३०. से णं भंते ! कि सकसाई होज्जा? अकसाई होज्जा? गोयमा ! सकसाई वा होज्जा, अकसाई वा होज्जा। ३१. यः कषायाक्षये सत्यवधि लभते स सकषायी सन्नवधिज्ञानी भवेत् । (वृ० ५० ४३८) ३२. यस्तु कषायक्षयेऽसावकषायीति। (वृ० प० ४३८) ३१. जे कषाय नैं क्षय कियै विण, अवधिज्ञान लहीजिये । तेह सकषाई छतो वर, अवधिज्ञान कहीजिये। ३२. जे कषाय नैं क्षय किये तस्, अवधिज्ञान लहीजिये। तेह अकषाई छतो वर, अवधिज्ञान कहीजिये। ३३. जो प्रभु ! अकषाई हुवै जी काइ, स्यूं उपशांत-कषाय । के क्षीण-कषाई नै विषे जी प्रभु ! अवधिज्ञान उपजाय ।। ३४. जिन कहै नहि उपशांत में जी कांइ, क्षीण-कषाई थाय । केवल पामवा योग्य छै जी काइ, तिण सं नहि उपशांत कषाय ।। ३५. जो प्रभु ! सकषाई हुवै जी काइ, कितली कषाय में थाय ? जिन कहै चिहुं त्रिहुं बे इके जी कांइ, अवधिज्ञान उपजाय ।। ३३. जइ अकसाई होज्जा कि उवसंतकसाई होज्जा ? खीणकसाई होज्जा? ३४. गोयमा ! नो उवसंतकसाई होज्जा, खीणकसाई होज्जा। ३५. जइ सकसाई होज्जा से णं भंते ! कतिसू कसाएस होज्जा? गोयमा ! चउसु वा तिसु वा दोसु वा एक्कम्मि वा होज्जा। ३६. चउसु होमाणे चउसु-संजलणकोह-माण-माया लोभेसु होज्जा। 38. चिहं कषाय हंते छते जी कांइ, तो संजलण कषाय । क्रोध मान माया विषे जी कांइ, लोभ विषे ए थाय ।। * लय : वीरमती तरु अंब नी जी काइ +लय : पूज मोटा भांजै तोटा श० ६, उ० ३१, ढाल १७४ ३३ Jain Education Intemational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. त्रिहुं विषे हुंते छते जी कांइ, संजलण माने जाण । माया लोभ विषे हुवे जी कांइ, इम नवमे गुणठाण ॥ ३८. दोय विषे हुंते छते जी कांइ, संजलण माया लोह । एक विषे हुंते छते जी कांइ, संजलण लोभे रोह ॥ ३६. अध्यवसाय तसु केतला जी कांइ ? जिन कहै असंख कहाय । जेम असोच्चा तिह विधै जी कांइ, जाव केवल उपजाय ॥ ४०. धर्म केवली भाखियो जी कांइ, आघवेज्ज पन्नवेज्ज | तेह परूप छे बलि जी कां? जिन कहै हंत कहेज्ज || ४१. प्रव्रज्या लिंग ते दिये जो कोइ अन्य प्रते मुंडेह ? जिनक है हंता लिंग दिये जी कांइ, अन्य शिर लुंच करेह ॥ ४२. तास सीस प्रव्रज्या दिये जो कांइ, शिष्य अन्य मुंड करेह ? जिन कहै हंता लिंग दिये जी कांइ, वलि अन्य मुंडावेह || ४३ हे प्रभु! ते सीझ अछे जी, कांइ जाव करें दुख अंत । जिन कहै हंता सीसे अछे जी कांड, जावत अंत करंत ॥ ४४. तास सीस सी जिन कहै हांसी ४५. वलि प्रशिष्य पिण तेह्नां जी कांइ, सीझै यावत अंत । जिन कहै हांसी अछे जो कोइ यावत जंत करत ॥ ४६. ऊर्द्ध अधो तिरि लोक में जी कांइ, जेम असोच्चा तेम । जाव अढ़ी द्वीप बेदधि जी कांइ, तसु इक देशे एम ॥ ४७. एक समय कितला हुवे जी प्रभु! जिन भावच श्रेष्ट । जघन्य एक बे त्रिण हुवै जी कांइ, उत्कृष्टा इक सौ अष्ट ॥ अछे जी कां जाव करें दुख अंत | अच्छे जी कांइ, यावत अंत करंत ॥ ४८. तिण अर्थे इम आखियो जी कांइ, सांभल नैं दश पास । केवलज्ञान कोइक लहै जी कांइ, कोयक न लहै तास । ४६. सेवं भंते! नवम इकतीसमें जी कांइ, इकसौ चिमंतरमी ढाल। भिक्षु भारी माल ऋषिराय थी जी कांइ, 'जय-जश' हरष विशाल || नवमशते एकत्रिंशत्तमोद्देशार्थ : ||३१|| ३४ भगवती जोड़ ३७. तिसु होमाणे तिसु संजलण-माण- माया-लोभेसु होन्ना । ३८. दोसु होमाणे दोसु- संजलणमाया-लोभेसु होज्जा, एगम्म होमाने एवम्मि जलथलो होन्ना । ( श० ६६५ ) ३९. तस्स णं भंते ! केवतिया अज्भवसाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा । ( श० 81६६-६८ ) एवं जहा असण्याए तब जब (सं० पा०) केवलवरनाण-दंसणे समुप्पजइ । (स० २०६६-६०) ४०. से णं भंते! केवलिपण्णत्तं धम्मं आघवेज्ज वा ? पण्णवेज्ज वा ? परुवेज्ज वा ? हंता आघवेज्ज वा, पण्णवेज्ज वा परूवेज्ज वा । (To Rite) पञ्चावेज मा ? मुंडावेल का ? या मंडावा (४० २०७०) सिस्सा वि पव्वावेज्ज वा मुंडावेज्ज ४१. से भंते! हंता यावे ४२ तस्स णं भंते! वा ? हंता यावे या मुंडा था। (श० पृ० ४१२. टि० २ ) ४३. से भंते! सिकति कति जायसवा अंतं करेइ ? हंता सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति । (श० २००१) ४४. तस्स णं भंते ! सिस्सा वि सिज्यंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति ? हंता सिज्यंति जाव सब्वदुक्खाणं अंत करेंति । (१० २०७२) ४५. तस्स णं भंते ! पसिस्सा वि सिज्भंति जाव सव्वकति ? हंता सिज्यंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति । (श० २०७३) ४६. से णं भंते! कि उड़ढ़ होज्जा ? जहेव असोच्चाए जाव अढाइदीवसमुद्दतदेकदेसभाए होया । ( श० ६२७४ ) ४७. ते णं मंते ! एगसमए णं केवतिया होज्जा ? गोयमा ! जहणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उस्को अनुस ४८. सेमोमा ! एवं बुन्चइ सोचा गं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा । (No 2102) (10 (105) ४६. सेवं भंते ! सेवं भंते । त्ति । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १७५ सोरठा १. इकतीसम उद्देश, केवलि प्रमुख नां वचन । सांभल नैं सुविशेष, केवल नी उत्पत्ति कही। २. हिवै केवली वाण, सांभल नैं जेहनै थयो। पूर्ण ज्ञान प्रधान, ते विस्तार कहै अछै ।। १. अनन्तरोद्देशके केवल्यादिवचनं श्रुत्वा केवलज्ञानमुत्पादयेदित्युक्तम् . (वृ०प०४३६) २. इह तु येन केवलिवचनं श्रुत्वा तदुत्पादितं स दर्श्यते (वृ०प०४३६) दूहा ३. तिण काले नै तिण समय, वाणिय ग्राम उदार। एहवै नामै नगर थो, वर्णन तास श्रीकार ॥ ४. दूतिपलासक चैत्य त्यां, समवसरया वर्द्धमान । परषद आवी धर्म सुण, पहुंती निज निज स्थान ।। सुखकारी गंगेय नी वारता॥[ध पदं] ५. *तिण काले तिण समय में, पार्श्वसंतानियो ताय हो । गुणधारी । गंगेय नामै अणगार ते, आयो वीर पे चलाय हो । गुणधारी ।। ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नाम नयरे होत्था--वण्णओ। ४. दूतिपलासए चेइए। सामी समोसढ़े। परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया। (श० ६७७) ५. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे गंगेए नाम अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, सोरठा ६. ए गंगेय अणगार, कृत्रिम नपुंस कहीजिये । पनर भेद सिद्ध सार, पन्नवण धुर पद अर्थ में ।। ७. *वीर प्रभु पै आवी करी, रह्यो नहीं अति दूर नजीक । वंदण नमण कियां विना, इम बोले तहतीक ॥ ७. उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी __ (श० ६७८) ८. संतरं भंते ! नेरइया उववज्जंति ? निरंतर नेरइया उबवज्जति ? ६. गंगेया! संतरं पि नेरइया उववज्जति, १०. निरंतरं पि नेरइया उववज्जति । (श० ६७९) ८. हे प्रभु! अंतर-सहित ते, नरकपणे उपजत । ___ अथवा अंतर-रहित ते, नारक उत्पत्ति हुंत? ६. श्री जिन भाखै गंगेया! नेरइया नरक मझार । अंतर-सहित पिण ऊपजै, ए विरह उत्पत्ति जिवार ।। १०. अंतर-रहित पिण ऊपज, नेरइयापणे विचार। ते उत्पत्ति विरह पड़े नहीं, तिण वेला अवधार ।। ११. हे प्रभु! अंतर-सहित ते, उपजै असुरकुमार। के असूर निरंतर ऊपजै? हिव भाखै जगतार ।। १२. अंतर-सहित पिण ऊपजै, असुरकुमार विचार । अंतर-रहित पिण ऊपज, इम जाव थणियकुमार ।। ११. संतरं भंते ! असुरकुमारा उववज्जति ? निरंतरं असुरकुमारा उववज्जति ? १२. गंगेया! संतरं पि असुरकुमारा उववज्जति, निरं तरं पि असुरकुमारा उववज्जति । एवं जाव थणियकुमारा। (श० ६८०) १३. संतरं भंते ! पुढविक्काइया उववज्जति? निरंतर पुढविक्काइया उववज्जति ? १४. गंगेया ! नो संतरं पुडविक्काइया उववज्जंति, निरंतरं पुढविक्काइया उववज्जति । १३. अंतर-सहित प्रभु! ऊपज, पृथिवीकाइया जीव। अथवा निरंतर ऊपज? हिव जिन उत्तर कहीव ।। १४. अंतर-सहित नहिं ऊपजै, समय-समय असंख्यात । __ऊपजै छै पुढवी मझे, तिण सूं अंतर-रहित उपपात ॥ *लय : गुणधारी सुखकारी हरि सुत वंदिय श०६, उ० ३२, ढाल १७५ ३५ Jain Education Intermational Jain Education Intemational For Private 8 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. एवं जावत वरसई, वनस्पति रै मांय । समय-समय अनंता ऊपजे तिण सूं अंतर-रहित उपजाय ॥ १६. द्र माणिया, कहिवा नारक जेम । अंतर- सहित पिग अपने अंतर-रहित जाव पिण तेम ॥ सोरठा १७. जे ऊपनां छै तास, नीकलवो ते माटै सुविमास, नीकलवा १५. हे प्रभु! अंतर-सहित ते नीकले नारक जीव । अथवा निरंतर नीकले ? हिव जिन उत्तर कहीव ॥ १६. अंतर - सहित पिण नीकलै नीकलवा नों विरह जद थाय । अंतर-रहित पिण नीकलै, जद नीकलवा नों विरह नांय || २०. इम जाव थणियकुमार छै, हिवै पृथिवी नी पूछा वदीत । प्रभु ! पृथिवीकाइया नीकले अंतर-सहित के अंतर-रहीत ? २१. जिन कहे अंतर सहित नहीं, समय-समय असंख्यात । नीकले है तिण कारणे, निरंतर नीकलबू आख्यात | २२. इम जाव वणस्स इकाइया, वनस्पति में बेह समय-समय अनंता ही मरे, तिण सुं अंतर-रहित निकलेह । २३. हे प्रभु ! अंतर- सहित ते, बेइंदिया निकलंत । कै अंतर-रहित बेइंदिया, नीकलवूं तसु हुत ? २४. जिन कहै कहै अंतर-सहित पिण, बेदिया निकलत 2 - ढाल १७६ वलि नों अंतर-रहित पिण नीकलै, इम जाव व्यंतर उब्वट्टंत ॥ २५. अंतर - सहित प्रभु ! जोतिषि चवै तिहां थी सोय । अथवा निरंतर ते चवै ? हिव जिन उत्तर जोय ॥ २६. अंतर सहित पिन जोतिषि चवै अच्छे तहतीक अंतर-रहित पिण चर्व अ एवं ईमानीक || २७. नवम बत्तीस नुं देश ए. इक सौ पचितरमी दाल। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ॥ *लय : गुणधारी सुखकारा हरि सुत वंदिये ३६ भगवती-जोड़ हुवै प्रश्न अछे । हिव ॥ इहा १. पूर्व नीकलयूं कह्य नोकलिया नैं ताय । अछे प्रवेशण अन्य गति, हि प्रवेशण आय ॥ प्रवेशण कतिविधे ? अन्य गति थकीज जेह नीकल अन्य गति ने विषे जाय प्रवेशण तेह ॥ २. प्रभु १५. एवं जाव वणस्स इकाइया । १६. बेइं दिया जाव वैमाणिया एते जहा नेरइया । (TO £152) १७. उत्पन्नानां च सतामुदर्तनाभवतीत्यतस्तां निरुपयनाह ( २०१० ४३२) १८. संतरं मंते । नेरवा उच्चति ? निरंतर नेरइया उब्वट्टंति ? १६. गंगेया ! संतरं पि नेरइया उब्वट्टंति, निरंतरं पि नेरइया उब्वट्टेति । २०. एवं जाव थणियकुमारा । ( श० ६८२ ) नंतर मते विनकाइया उति ? पुच्छा। २१- या तो संतरं काय उति निरंतर विकाइया उबट्टेति । २२. एवं जाव वणस्सइकाइया-नो संतरं निरंतर उति । (08 (157) २३. संतरं ते बेदिया उष्यति ? निरंतर बेइंदिया उम्मत? २४. गंगेया ! संतरं पि बेइंदिया उब्वदृति, निरंतरं पि इंदिया उम्पति एवं जाय बाणमंतरा] (४०२८४) २५. संतरं भंते! जोइसिया चयंति ? - पुच्छा । २६. गंगेया ! संतरं पि जोइसिया चयंति, निरंतरं पि जोगिया भवंति एवं बेमानिया विश० २५) १. उत्तानां च केचिद्गस्यन्तरे प्रवेशनं भवतीत्यतस्तनिरूपणावाह ( वृ०प० ४३६) २. कतिविहे णं भंते! पवेसण पण्यते ? 'पवेसण ति गत्यन्तरात्तस्यविजातीयगत त्ति जीवस्य प्रवेशनं ( वृ० प० ४४२ ) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. जिन कहै तेह प्रवेश, नारक गति में पेसवो ४. तियंच गति में माणुस्त गति में ५. सुर गति मांहे ऊपजवो जेहनों, कह्यो छै प्रवेशण नाम ॥ ६. नरक - प्रवेशण हे प्रभु ! आख्यो कितै प्रकार ? सप्त प्रकार विचार ॥ जिन भाखं सुण गंगेया ! ७. पुढवी रत्नप्रभा प्रथम, नरक-प्रवेशण म्हाल | यावत पुढवी सातमी उपजे तेह विचाल ।। पेसो पेसवो पेसवो, 1 1 भाख्यो च्यार प्रकार । नरक-प्रवेशण धार ॥ तिरि-प्रवेशण मनुष्य-प्रवेशण देव- प्रवेशण * होजी प्रभु ! गंगेय प्रश्न सुरंग, करे उमंगपणे रे लोग । होजी प्रभु ! देव दयाल कृपालज भंग तरंग भणै रे लोय ॥ ( ध्रुपदं ) ८. होजी प्रभु ! एक नेरइयो ताम, नरक प्रवेशण करे रे लोय । होजी प्रभु ! करतो छतो स्पं, रत्नप्रभा में संचरे रे लोय । ६. होजी प्रभु ! सक्करप्रभा में तेह, प्रवेशण करें हुवे । होजी प्रभु ! जाय सातमीं मांहि तिको दुख अनुभव ॥ रत्नप्रभा में हुवै, तथा सक्कर मझे । १०. गंगेया ! पंक माह सते ॥ तेह। गंगेया ! अथवा वालु तथा, घनां । ११. गंगेया! तथा धूमप्रभ माहि, तथा दुस तम गंगेया ! तथा तमतमा भंग, सप्त इक जीब नां ॥ १२. होजी प्रभु! दोय नेरइया नरक विषे प्रवेशन करें। होजी प्रभु ! रत्नप्रभा स्यूं जाव, सातमीं संचरै ॥ जेह ॥ ताम । हिवै दोय जीव नां अट्ठाईस भंगा, तिण में इकसंजोगिया सात भंगा प्रथम कहै छै - १३. गंगेया ! बिहुं रत्न में जाय तथा बिहुं गंगेया ! बिहुं वालु में, तथा विहं १४. गंगेवा! बिहं धूम में तथा गंगेया! तथा तमतमा विहूं, हिवै दोष जीवां रा दिजोगिया इक्कीस भांगा, तिग में प्रथम छह भांगा रत्नप्रभा थी हुवै ते कहै छै - बिहं ते सप्त इक सक्कर में । पंके भमे ॥ तम मही । योग ही ॥ १५. गंगेया! अथवा ते इक जीव रत्नप्रभा वरै । गंगेया! एक जीव अवलोय, सक्कर में संचरं ।। १६. गंगेया ! तथा जीव इक रत्न, एक बालु हुवै । गंगेवा! तथा जीव इक रत्न, पंक इक अनुभवे ॥ १७. गंगेया ! तथा जीव इक रत्न, इक धूम ही । गंगेया ! तथा जीव इक रत्न, जीव १८. गंगेया ! तथा जीव इक रत्न, जीव इक तमतमा । जीव इक तम लही ॥ *लय : अंबाजी सझ सोले सिणगार के दर्शण दीजिये रे लोय गंगेया ! रत्नप्रभा थी आख्या, ए षट भंग मां ॥ हिवै पांच भांगा सक्करप्रभा थी कहै छै ३. गंगेया ! चउव्विहे पवेसणए पण्णत्ते, तं जहानेरइय पवेसणए । ४. तिरिस गए, म ५. देव उत्पाद इत्यर्थः (TO (ICS) ( वृ०प०४४२) ६. नेपवेसणए णं भंते! कतिविहे पण्यते ? गंगेया ! सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा ७. रवणण्यापुढविनेर यपयेसणए जान अहेयत्तमापुरविरइयपवेसण | (२० २२८७) ८. एगे भंते ! नेरइए नेरइयपवेसणएणं पविसमाणे किं रयणप्पभाए होज्जा, C. सक्करप्पभाए होज्जा जाव असत्तमाए होज्जा ? १०,११. गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव आहेसत्तमाए वा होज्जा । ( ० ९1०० ) १२. दो भंते! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा किं रणप्पभाए होज्जा जाव असत्तमाए होज्जा ? १३,१४. रणभाए वा होना जाय त माए वा होज्जा । १५. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा १६-१८. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा जाव एगे रयणप्पभाए एगे असत्तभाए होज्जा । श० ६, उ० ३२, ढाल १७६ ३७ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. गंगेया ! तथा जीव इक सक्कर, एक गंगेया ! तथा जीव इक सक्कर, इक २०. गंगेया ! तथा जीव एक सक्कर, इक धूमे गंगेया ! तथा जीव इक सक्कर, इक तमा २१. गंगेया ! तथा जीव इक सक्कर, गंगेया! सक्करप्रभा यी गिणती ए पंच भंग राणी ॥ वही । मही ॥ इक तमतमा भणी । 1 हिवं प्यार भांगा वालुवप्रभा थी कहे छे - वालुय लहै । पंके रहै ॥ । २२. गंगेवा! तथा जीव इक वालुक, इक पंके कही। गंगेया ! तथा जीव इक वालुक, इक जीव धूम ही ॥ २३. गंगेया ! तथा जीव इक वालुक, इक तमा विषे । गंगेया! अथवा वालुक एक एक तमतमा धके ॥ 1 हि पंकप्रभा थी तीन भांगा कहै छै - तथा जीव इक पंक, एक धूमा वहै । तथा एक जीव पंक, एक तमा लहै । तथा जीव इक पंक, एक तमतमा मझे । ए त्रिण भंगा पेख, पंकप्रभा थी सझें ॥। हि दोष भांगा धूमप्रभा थी कहे - २६. गंगेया ! तथा जीव इक धूम, एक तमा मघा । गंगेया ! तथा जीव इक धूम, एक तमतमा हिवे एक भांगो तमा थी कहै - २७. गंगेया ! अघा ॥ तथा जीव इक तमा, एक तमतमा भण्यो । गंगेया ! इक ए भंगो नरक छठी थी इम गुण्यो । २८. गंगेया! पट पंच चउत्रिण वे इक द्विकसंजोगिया । गंगेया! रत्न प्रमुख थी अनुक्रम इकवीसूं किया ॥ २६. गंगेया! इक्योगिक सत द्विकयोगिक इकवीस ही । गंगेया ! भंग सर्व अठवीस, दोय जीव लही ॥ सोरठा २४. गंगेया ! गंगेया ! २५. गंगेया ! गंगेया ! ३०. तीन जीव नां ताम, प्रश्न गंगेय करे हिवै। उत्तर तमु अभिराम, वीर जिनेश्वर वागरै ॥ ३१. "होजी प्रभु! नरक विषे त्रिण जीव, प्रवेश करं तरं । होजी प्रभु ! ते स्यूं रत्नप्रभा में जाय, जाव तमतमा वरै ॥ हि भगवन् उत्तर कहै छे तीन जीव नरक जाय तेनां इकसंयोगिक भांगा सात, द्विकसंयोगिक बयालीस त्रिकसंयोगिक पैंतीसएवं चौरासी भांगा हुवै ते मध्ये प्रथम संयोगिक सप्तभांगा है। छै - ३२. गंगेया ! रत्नप्रभा त्रि त्रिहुं होय, तथा त्रिहुं सक्करै । गंगेवा! तथा विहं वालुका, तथा पिंक वरं ॥ * लय : अंबाजी सझ सोले सिणगार के दर्शण दीजिये रे लोय ३८ भगवती-जोड़ १६- २१. अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । २२, २३. अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा | २४-२७. एवं एक्केका पुढ़वी छड्डेयव्वा जाव अहवा एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्जा । (श० वर) २२. नारद्रयोत्पत्तिलक्षवे सप्त विकल्पाः पृथिवीद्वये नारकद्वयोत्पत्तिलक्षणद्विक योगे त्वेकविंशतिरित्येवमष्टाविंशतिः । ( वृ०प० ४४२ ) ३१. तिणि मंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा जाव आहेसत्तमाए होज्जा ? ३२, ३३. गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव आहेसत्तमाए वा होज्जा । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४-३७. अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा। ३५-४०. अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा। जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । ३३. गंगेया! अथवा तीन धूम, तथा त्रिहं तम विषे । गंगेया! तथा त्रिहुं तमतमा, सप्त इणविध अखे ।। हिवं द्विकसंयोगिक भांगा नी आमना कहै छ--रत्न थी भांगा केता? इम एक नरक रो नाम लेइ पूछयां लार छह नरक रही ते माटे छह भांगा। शक्कर थी पांच भांगा, लार पांच रही ते मार्ट पांच । वालु थी च्यार भांगा, लारै च्यार रही ते माटै । पंक थी तीन भांगा, लारै तीन रही ते माट। धूम थी दोय भांगा, लारै दोय रही ते माट, तम थी एक भांगो, लार एक रही ते माट । हिवै तीन जीवां रा द्विकसंयोगिक बयालीस भांगा कहै छ, तेहनां विकल्प३४. गंगेया ! तथा जीव इक, रत्नप्रभा में संचरै । गंगेया! दोय जीव संपेख, सक्करप्रभा वरै॥ ३५. गंगेया! तथा जीव इक रत्न, दोय वालुक मही। गंगेया! तथा जीव इक रत्न, दोय पंके वही ।। ३६. गंगेया! तथा जीव इक रत्न, दोय धमे सही । गंगेया! तथा जीव इक रत्न, दोय तमा लही॥ ३७. गंगेया! तथा जीव इक रत्न, दोय तमतमा रह्या । गंगेया! रत्न थकी षट भंग, प्रथम विकल्प कह्या ।। ३५. गंगेया! तथा जीव बे रत्न, एक सक्कर विषे । गंगेया! तथा जीव बे रत्न, एक वालू धके । ३६. गंगेया! तथा जीव बे रत्न, जीव एक पंक ही। गंगेया! तथा जीव बे रत्न, जीव इक धूम ही। ४०. गंगेया! तथा जीव बे रत्न, एक तमा मघा । गंगेया! तथा जीव बे रत्न, एक तमतमा अघा ।। ४१. गंगेया! ए षट भंगा दूजा, विकल्प नां कह्या । गंगेया ! बिहु विकल्प नां द्वादश, रत्न थकी लह्या ।। ४२. गंगेया! तथा जीव इक सक्कर, बे वालुय मही । गंगेया! तथा जीव इक सक्कर, बे पंके सही ।। ४३. गंगेया! तथा जीव इक सक्कर, बे धमा वस । गंगेया! तथा जीव इक सक्कर, बे तमा रसै ।। ४४. गंगेया! तथा जीव इक सक्कर, बे तमतमा लह्या । गंगेया! धुर विकल्प नां सक्कर थी, पंच भंग कह्या ।। ४५. गंगेया! तथा जीव बे सक्कर, इक वाल मही । गंगेया ! तथा जीव बे सक्कर, इक पंके सही ।। ४६. गंगेया! तथा जीव बे सक्कर, इक धूमा विषे । गंगेया! तथा जीव बे सक्कर, इक तमा धके । ४७. गंगेया! तथा जीव बे सक्कर, इक तमतमा मझै । गंगेया! दूजै विकल्प सक्कर थी, पंच भंग सझै । ४८. गंगेया! तथा जीव इक वालुक, बे पंके कह्या । गंगेया ! तथा जीव इक वालुक, बे धूमे रह्या ॥ ४६. गंगेया ! तथा जीव इक वालुक, बे तमा वली । गंगेया! तथा जीव इक वालुक, बे तमतमा मिली। ४२-४४. अहवा एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे सकरप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा। ४५-४७. अहवा दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा दो सक्करप्पभाए एगे अहेससमाए होज्जा। ४८-६३. एवं जहा सक्करप्पभाए वत्तव्वया भणिया, तहा सव्वपुढवीणं भाणियध्वं जाव अहवा दो तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। श०६, उ० ३२, ढाल १७६ ३६ Jain Education Intemational Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. गंगेया! ए धुर विकल्प चिउं भंग, वालुक थी कह्या। गंगेया ! विकल्प द्वितीय तणां हिव, आगल इम लह्या ।। ५१. गंगेया ! तथा जीव बे वालुय, इक पंके सही। गंगेया ! तथा जीव बे वालुक, इक धूमा मही ॥ ५२. गंगेया ! तथा जीव बे वालुक, एक तमा मघा । गंगेया ! तथा जीव बे वालुक, इक तमतमा अघा ।। १५३. गंगेया ! विकल्प द्वितीय भंग चिउं वाल थी कह्या । गंगेया ! बिहं विकल्प नां भंग, अठ वालुक थी लह्या॥ ५४. गंगेया ! तथा जीव इक पंक, दोय धूमा मही। गंगेया! तथा जीव इक पंक, दोय तमा लही ।। ५५. गंगेया! तथा जीव इक पंक, तमतमा बे कह्या । गंगेया! ए धुर विकल्प पंक थकी त्रिहुं भंग लह्या ।। ५६. गंगेया! तथा जीव बे पंक, इक धूमा विषे । गंगेया ! तथा जीव बे पंक, एक तमा धके ।। ५७. गंगेया ! तथा जीव बे पंक, तमतमा इक रहै। गंगेया ! विकल्प द्वितीय पंक थी, त्रिहं भंग इम लहै ।। ५८. गंगेया ! तथा धूम एक दोय, तमा दुख अनुभवै । गंगेया ! तथा धूम इक दोय, तमतमा नैं हुवै ।। ५६. गंगेया ! ए धुर विकल्प, धूम थकी बे भंग लहै। गंगेया! दुजो विकल्प हिवै, तास बे भंग कहै । ६०. गंगेया ! तथा धूम बे जीव, एक तमा विषे । गंगेया! तथा धूम बे जीव, एक तमतमा धके ।। ६१. गंगेया! दुजै विकल्प धूम थकी, बे भंग कह्या। गंगेया! बिहुँ विकल्प चिहुं भंग, धूम थी इम लह्या ॥ ६२. गंगेया! तथा जीव इक तमा, दोय तमतमा कही। गंगेया! तमा थकी ए धुर विकल्प, इक भंग सही ।। ६३. गंगेया! तथा जीव बे तमा, एक तमतमा बली। गंगेया ! दूजै विकल्प इक भंग, तमा थी मिली ।। ६४. गंगेया ! रत्नप्रभा थी द्वादश, बिहुँ विकल्प करी । गंगेया! सक्कर थी दश, अठ वालुका धरी ॥ ६४. द्विकसंयोगे तु तासामेको द्वावित्यनेन नारकोत्पाद विकल्पेन रत्नप्रभया सह शेषाभिः क्रमेण चारिताभिलब्धाः षड्, द्वावेक इत्यनेनापि नारकोत्पादविकल्पेन षडेव, तदेते द्वादश, एवं शर्कराप्रभया पञ्च पञ्चेति दश एवं वालुकाप्रभयाऽष्टो (वृ०प० ४४२) ६५. पङ्कप्रभया षट् धूमप्रभया चत्वारः तमःप्रभया द्वाविति । (वृ० प० ४४२) ६५. गंगेया! पंक थकी षट, धम थकी चिहं जाणिय । गंगेया! तमा थकी बे बिहं विकल्प करि आणिय ।। ६६. गंगेया ! बिहुं विकल्प नां भंग, बयांली भाखिया। गंगेया ! इकबीस-इकवीस इक-इक, विकल्प दाखिया । ६७. गंगेया! तीन जोव नां द्विकसंयोगिक कीजिये । गंगेया! तसु बे विकल्प भंग बयांली लीजिये ।। ६७. द्विकयोगे द्विचत्वारिंशत् । (वृ० प० ४४२) ४० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ & १० ११ र १२ ३ ० o o o O o १ २ ३ ४ ५ ६ १ २ ३ तीन जीवां रा इकसंजोगिया सात ५ स ६ o ३ o o o o १ १ १ १ १ र स १ ४ २ २ वा २ ० ३ २ o २ o ० हिवं तीन जीवां राद्विकसंजोगिया विकल्प दो, भांगा ४२ वा पं धू २ o o o ० o o पं ० o ० o ० ० ३ २ १ o ० О २ o 0 o o धू १ o ० o ० o ३ o ० २ О o हिवे दूजं विकल्प करि रत्न थी छह ० o ० १ ० त o o o ० o ० o ३ ० o २ o o ० १ ० तम ० ० o o ० O ३ त २ ० ० ० ० १ o तम ० o o २ ० o o o १ श० ६, उ० ३२, ढाल १७६ ४१ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ १४ १५ १६ १७ २१ | २२ २३ ૨૪ | २५ २६ २७ | २८ हिवे सक्कर थी पांच भांगा, प्रथम विकल्प कहे छे २६ १ १८ १ १९ | २ २० ३० २ ३ ४ ५ ४ / ५ १ | ३ o २ ३ ४ र स १ o २ ० ३ ४ o o ० o o 1 हिवं सक्कर थी पांच भांगा, दुर्ज विकल्प कहै छं र स वा पं ० २ o ० १ ० १ ० १ o ४२ भगवती-जोड़ १ १ २ २ ० o वा ० २ | ० o o o ० १ o ० २ | २ | हिवं प्रथम विकल्प वालु थी प्यार भांगा कहै छे o o १ १ १ १ पं २ ० २ | 3 २ ० o ० o १ o o ० २ o १ धू О o ० o ० २ o 1 हिवं दूज विकल्प वालु थी च्यार भांगा कहै छ ० o १ धू त ० २ o 1.1 त o o ० १ २ o o १ ० o o २ 0 ० ० १ o तम ० ० २ तम ० o ० o १ o o o २ o ० १ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै प्रथम विकल्प पंक थी तीन भांगा कहै छै २ | • • • १ . २ . हिवै दूज विकल्प पंक थी तीन भांगा ३५ २ • • • • • | हिवं प्रथम विकल्प धूम थी दो भांगा __हिवै दूज विकल्प धूम थी दो भांगा | | | ४० | २ | • • • •| २ हिवै प्रथम विकल्प तम थी एक भांगो कहै छ हिवं दूज विकल्प तम थी एक भांगो कहै छ ए तीन जीवां रा द्विकसंजोगिया दोय विकल्प करि रल थी १२, सक्कर थी १०, वालुका थी ८, पंक थी ६, धूम थी ४, तम थी २ एवं ४२ भांगा कह्या। हिवं तीन जीवां रा त्रिकसंजोगिया हिवै तीन जीवां रा त्रिकसंजोगिया ३५ भांगा कहै छै ६८. हो जी प्रभु ! तीन जीव नां त्रिक-संजोगिक हिव कहै। होजी प्रभु ! विकल्प तेहनों एक, भंग पैंतीस लहै। ६८. त्रिकयोगे तु तासां पञ्चत्रिशद्विकल्पाः । (वृ० ५० ४४२) श० ६, उ० ३२, ढाल १७६ ४३ Jain Education Intemational Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालु यप्पभाए होज्जा। ७०. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंक प्पभाए होज्जा। ७१-७३ जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। हिवै रत्न प्रभा थी १५, सक्कर प्रभा थी १०, वालु थी ६, पंक थी ३, धम थी २ एवं ३५ । तिणमें रत्न सक्कर थी पांच भांगा कहै छै ६६. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक सक्कर ला । गंगेया ! एक वालुका पेख, प्रथम भंगो कह्य ।। ७०. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक सक्कर मही। गंगेया ! एक पंक में देख, भंग दूजो सही। ७१. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक सक्कर विषे। गंगेया! एक धम संपेख, भंग तीजो अखे । ७२. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक सक्कर मझे। गंगेया ! एक तमा सुविशेख, भंग चउथो सझै ।। ७३. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक सक्कर लहै। गंगेया ! एक तमतमा देख, भंग पंचम कहै ।। हिवै रत्न वालुय थी च्यार भांगा कहै छै ७४. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक वालुय मिली। गंगेया! एक पंक में पेख, भंग छट्टो वली ॥ ७५. गंगेया ! तथा रत्न में एक, एक वालुय लह्यो। गंगेया! एक धूम में देख, भंग सप्तम कह्यो। ७६. गंगेया ! तथा रत्न में एक, एक वालुय रसै । गंगेया ! एक तमा संपेख, भंग अष्टम लसै ।। ७७. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक वालुय भयो। गंगेया! एक तमतमा पेख, भंग नवमो कह्यो। हिवै रत्न पंक थी तीन भांगा कहै छै ७८. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक पंके गयो। गंगेया! एक धम सूविशख, भंग दशमो कह्यो। ७६. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक पंके वही। गंगेया! एक तमा सुविशेख, भंग ग्यारम सही। ८०. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक पंके मिली। गंगेया! एक तमतमा देख, भंग बारम वली। हिवं रत्न धूम थी दोय भांगा कहै छै ५१. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक धूमा मही। गंगेया! एक तमा संपेख, भंग तेरम सही। ८२. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक धूमा विषे । गंगेया! एक तमतमा देख, भंग चवदम पखे । हिवै रत्न तम थी एक भांगो कहै छै ८३. गंगेया! तथा रत्न में एक, एक तमा गिण्यं । गंगेया! एक तमतमा पेख, भंग पनरम भण्यं ।। ७४. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंक प्पभाए होज्जा ७५. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूम प्पभाए होजा ७६-७७. एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्प भाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । ७८. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्प भाए होज्जा। ७९-८०. जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। ८१. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा ८२. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्त माए होज्जा ८३. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा हिवै सक्कर सं दश भांगा तिण में प्रथम सक्कर वाल्य थी च्यार भांगा कहै छै ४४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४. गंगेया ! गंगेया! , वालुय रसे । अष्टादशे || तथा सक्कर में एक, एक वालुय मही । एक पंक में पेख, भंग सोलम सही ॥ ८५. गंगेया ! तथा सक्कर में एक, एक वालुय विषे । गंगेया! एक धूम में देख भंग सतरम असे ॥ ८६. गंगेया ! तथा सक्कर में एक, एक गंगेया! एक तमा सुविशेख, भंग गंगेया ! तथा सक्कर में एक, एक गंगेया! एक तमतमा देख, भंग हिये सक्कर पंक थी तीन भांगा कहे छे ८८. गंगेया ! तथा सक्कर में एक, एक गंगेया! एक धूम सुविशेख, भंग वीसम का ॥ ८६. गंगेया ! तथा सक्कर में एक, एक वलि पंक में । गंगेया ! एक तमा संपेख, भंग भंग इकवीसमें ॥ ६०. गंगेया ! तथा सक्कर में एक, एक वलि पंक में । गंगेया! एक तमतमा पेख, भंग बावीस में ।। हिवै सक्कर धूम थी दो भांगा कहै छै पंके रह्यौं । ८७. वालुय भमें 1 उगणीस में || ६१. गंगेया ! तथा सक्कर में एक, एक गंगेया ! एक तमा सुविशेख, भंग ६२. गंगेया ! तथा सक्कर में एक, एक गंगेया ! एक तमतमा पेख, भंग हिवै सक्कर तम थी एक भांगो कहै छै ९३. गंगेया ! तथा सक्कर में एक, एक तमा भमे । गंगेया ! एक तमतमा पेख, भंग पणवीस में || ६४. गंगेया ! तथा वालु में एक, एक वलि पंक में । गंगेया ! एक धूम में पेख, भंग छवीस में || १५. गंगेया ! तथा वालुव में एक एक बलि पंक में गंगेया ! एक तमा सुविशेख, सतावीस अंक में ॥ ९६. गंगेया ! तथा वालुका एक एक वलि पंक में । गंगेया ! एक तमतमा देख, अठावीस अंक में ॥ हिरे वालुय धूम थी दो भांगा कहे १७. गंगेवा! तथा वालुका एक एक वलि धूम में। गंगेया! एक तमा दुख देख, भंग गुणतीस में ॥ ८. गंगेया तथा वालुका एक एक बलि धूम में गंगेया ! एक तमतमा पेख, भंग ए तीसमें ॥ हिवै वालु तम थी एक भांगो कहै छै - । वलि धूम में । तेवीस में ॥ वलि धूम में । चउवीस में || 1 ६६. गंगेया ! तथा वालुका एक एक तमा भनें । गंगेया ! एक तमतमा पेख, भंग इकतीस में || हिवै पंक थी तीन भांगा तिणमें कहै छै - प्रथम पंक थी दो भांगा ८४. अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा । ८५. अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा | ८६,८७. जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे असत्तमाए होज्जा । ८८. अहवा एगे सक्करव्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा । ८०. जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे असत्तमाए होना । ६१. अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होना २२. अहवा एमे समकरप्पभाए एगे धूमप्यभाए एहे सत्तमाए होज्जा ९३. अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होन्ना । ४. अहवा गेवालुपभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा ६५. अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होन्ना ६. अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकष्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ७. अहवाएंगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होन्ना १८. अहवा एभाए एवे भूमध्यभाए एगे अस माए होज्जा RE. अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्जा । २०६, उ० ३२, ढाल १७६ ४५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००. गंगेया! तथा पंक में एक, एक वलि धूम में। १००. अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए __ गंगेया ! एक तमा सुविशेख, भंग बतीसमें ॥ होज्जा १०१. गंगेया! तथा पंक में एक, एक वलि धूम में। १०१ अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए गंगेया! एक तमतमा देख, भंग तैतीसमें । होज्जा हिवै पंक तमा थी एक भांगो कहै छै१०२. गंगेया ! तथा पंक में एक, एक छट्ठी तमा। १०२ अहवा एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए गंगेया! एक तमतमा पेख, भंग चउतीसमा । होज्जा हिवै धूम थी एक भांगो कहै छै१०३. गंगेया! एक धम में पेख, एक तमा भमे । १०३. अहवा एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए गंगेया! एक तमतमा देख, भंग पैंतीसमें ।। होज्जा। (श० ६६०) १०४. गंगेया ! तीन जीव नां त्रिक-संजोगिक ए कह्या । गंगेया ! विकल्प तेहनों एक, भंग पैंत्रिस लह्या ।। ३५ भांगा कहै छै। तिणमें रत्नप्रभा थी १५, सक्कर थी १०, वालुका थी ६, पंक थी ३, धूम थी १-एवं ३५ । हिवं रत्न सक्कर थी ५ भांगा कहै ? रत्न वालु थी ४ भांगा कहै छै हिवं रत्न पंक थी तीन भांगा कहै छ Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ १४ १६ १७ १८ १६ २० १५ | १ | १ | २१ २२ २३ २४ १ २५ २ १ २ ३ ४ १ ३ हि रत्न धूम थी दोय भांगा क १ २ १ १ १ २ o ० ए रत्न प्रभा थी पनरं भांगा कह्या । हि सक्कर वालु थी च्यार भांगा कहै छ पं ० हि रत्न तम थी एक भांगो कहै छै ० ० ० o 101 o स वा १ १ १ o १ १ ० १ १ १ o १ १ १ १ १ o o o o हिवं सक्कर पंक थी ३ भांगा कहै छे १ १ 0 o o ० १ १ १ १ १ o o धू हिवं सक्कर धूम थी २ भांगा कहै छे o १ ० १ ० o हिवै सक्कर तम थी १ भांगो कहै छे १ १ ए सक्कर थी १० भांगा कह्या । १ ० १ त o १ १ 0 १ ० १ १ १ तम ० o १ 0 o १ o १ १ श० ६, उ० ३२, ढाल १७६ ४७ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं बालु पंक थी ३ भांगा कहै छ २६ हिवै बालु धूम थी २ भांगा कहै छ । • • • १ १ . हिवै बालु तम थी १ भांगो कहै छै ___ एवं ६ भांगा वालुका थी कह्या। हिवै पंक धूम थी २ भांगा कहै छ | ३३ | २ . १ • • • १ १ हिवं पंक तम थी १ भांगो कहै छ एवं पंक थी तीन भांगा कहा। हिवं धूम तम थी १ भांगो कहै छ एतले तीन जीव नां इकसंजोगिया ७ भांगा, द्विकसंजोगिया ४२ भांगा, त्रिकसंजोगिया ३५ भांगा-एवं सर्व ८४ भांगा। १०५. गंगेया ! नवमें शत बतोसम देशज, अर्थ ही। गंगेया! इकसौ छिहतरमी ढाल, विशेष ही ।। १०६. गणपति ! भिक्खु भारीमाल, नृपतिइंदु सिरै। गणपति ! 'जय-जश' हरष आनंद, सगुण संपति वरै ।। ४८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० ---हिवै त्रिकसंयोगिक में एक नरक रो नाम लेइ पूछ तेहनी आमना कहै छ-लारै नरक रहै तिणमे एक छेहलो आंक घटायने बाकी रहै ते आंक मांडी मिलाय लेणां। जेतला आंक हुदै तेतला भांगा कहणा । तेहनो उदाहरण कोइ पूछ -रत्न थी त्रिकसंयोगिया भांगा केता? तेहनो उत्तर-रत्न थी पूछ्यो, लार छह नरक रही । तेहमें एक छेहलो छह को आंक घटायां लारै पांच रह्या । ते एका सूं अनुक्रमे पांच तांइ मांडणा १।२।३।४।५ । हिवं एहनें गिणणा-एक में दोय-तीन, तीन ने तीन-छह, छह अनं च्यार–दश अने पांच-पनर, इम रत्न थी पनर भांगा हुदै । सक्कर थी दश हुवे, ते किम ? लार रही पांच, ते माहिलो पांचो घटावणो ११२।३।४। एहन गिण्यां दश हुवे ते माट सक्कर थी दश हुवै । वालु थी छह ते किम? लारै नरक रही च्यार, ते चोको घटावणो १२।३ । एहन गिण्यां छह हुवै । पंक थी तीन ते किम ? लारै नरक रही तीन, ते तीयो घटावणो १२ । एक ने दोय-तीन, ते माट तीन हुवं । धूम थी एक भांगो, लार दोय रही, ते बीयो घटायां लार एको रहै, ते माटै एक भांगो । एवं रत्न थी १५, सक्कर थी १०, वालु थी ६, पंक थी ३, धूम थी १-एवं त्रिकसंयोगिका भांगा हुदै । त्रिकसंयोगिया में दोय नरक रो नाम लेइ पूछ्यां, लारै नरक रहै जितरा भांगा कहणा । तेहनों उदाहरण - रत्न सक्कर थी त्रिकसंयोगिक किता भांगा? उत्तर----५ भांगा, लार पांच नरक रही ते माट। रल वालु थी त्रिकसंयोगिक किता भांगा? उत्तर-४ भांगा, लारै च्यार नरक रही ते माटै । रत्न पंक थी त्रिकसंयोगिक किता भांगा ? उत्तर - तीन भांगा, लार ३ रही ते माट। रत्न धम थी दोय, लारै बे रही ते माटै । रत्न तम थी १ भांगो लारं १ रही ते माट। एवं रन थी १५ । इम सक्कर थी दश । सक्कर वालु थी ४, लार ४ नरक रही ते माटै । सक्कर पंक थी ३, लारै तीन रही ते माटै । सक्कर धूम थी २, लारै दोय रही ते माटै । सक्कर तम थी १, लारै एक रही ते माट-इम सक्कर थी १०। इम वालु थी ६ । वालु पंक थी ३, लारै तीन रही ते माटै । वालु धूम थी २, लार दोय रही ते माट। वालु तम थी १, लारै १ रही ते माट, इम वालु थी ६ भांगा। पंक थी भांगा ३ । पंक धूम थी २, लारै बे रही ते माट। पंक तम थी १, लार १ रही ते माटे। इम त्रिकसंयोगिक में दोय नरक रो नाम लेई पूछ तेहनी आमना कही। ढाल : १७७ दूहा १. च्यार नेरइया हे प्रभु ! नरकप्रवेशन न्हाल । रत्नप्रभा में स्यूं हुवै, जाव तमतमा भाल ? २. जिन भाखै सुण गंगेया ! चिउं रत्न में जाय । अथवा च्यारूं सक्कर में, तथा वालु चिउं पाय॥ ३. अथवा च्यारूं पंक में, तथा धूम चिउं धार । तथा तमा चिउं ऊपजै, तथा तमतमा च्यार ।। ४. च्यार जीव नां भंग इम, इक संजोगिक सात । विकल्प तेहनों एक है, कह्यो पूर्व अवदात ॥ १. चत्तारि भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा कि रयणणभाए होज्जा?-- पुच्छा। २,३. गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा। ४. प्रथिवीनामेव त्वे सप्त विकल्पा: (वृ०प० ४४२) श०६, उ०३२, ढाल १७६-१७७ ४६ Jain Education Intemational Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ३ ४ ५ ६ ७ च्यार जीव नां इकसंजोगिया भांगा ७ का । र o o ० o ० स o o o ० o वा o ० x o ० पं o O o ० ५. च्यार जीव नां हिव कहूं, हिं विकल्प करिने त धू त ० o o o ४ o ० o o ४ o तम o ० ० 0 ४ द्विकसंजोगिक न्हाल | भंगा त्रेसठ भाल ।। हिवँ च्यार जीव नां द्विकसंजोगिक नां विकल्प तीन, भांगा ६३ कहै छरत्न थी १८, सक्कर थी १५, वालु थी १२, पंक थी ६, धूम थी ६, तम थी ३ भांगा, त्रिहुं विकल्प करि इम ६३ भांगा हुवै । प्रथम रत्नप्रभा थी एक विकल्प नां षट भांगा हुवं । ते तीन विकल्प करि १८ भांगा कहै छै - *सुगुण सुखदाई रे, में, । सुगुण सुखदाई रे, गंगेय तणां ए प्रश्न प्रवर वरदाई रे ६. तथा जीव इक रत्न प्रभा में त्रिण सक्कर रे मांही रे । अथवा एक रत्न में उपजे तीन वालुका पाई रे। ७. अथवा एकज रत्नप्रभा तीन पंक रै मांही । तथा जीव इक रत्नप्रभा में तीन धूम दुखदाई ॥ ८. अथवा एकज रत्नप्रभा में तीन तमा कहिवाई | तथा जीव इक रत्नप्रभा में तीन तमतमा मांही ॥ १. घर विकल्प करि रत्नप्रभा थी, ए पट भंगा कहिये । धुर दूजा विकल्प करि पट भंगा, हिव आगल इम लहिये ॥ १०. तथा जीव बे रत्नप्रभा में दोय सक्कर ₹ मांही। अथवा दोय रत्न रे मांहे, दोय वालुका पाई ॥ ११. अथवा दोय रत्न रे माहे, दोय पंक दुखदाई। तथा जीव वे रत्नप्रभा में दोय धूम कहिवाई ॥ १२. अथवा दोय रत्न १ मांहे, दोय तमा रे मांही। अथवा दोय रत्न रे मांहे, दोय तमतमा पाई ॥ *लय : गुणी गुण गावो रे ५० भगवती-जोड़ [पदं] द्विक्संयोगे तु तासामेकस्य इत्यनेन नारकोत्पादविक ल्पेन रत्नप्रभया सह शेषाभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धाः षट्, द्वौ द्वावित्यनेनापि षट्, त्रय एक इत्यनेनापि षडेव, तदेवमेतेादश शर्कराप्रभवा तु तथैव शिषु पूर्वोक नारकोत्पादविकल्पे पञ्च पञ्चेति पञ्चदश, एवं वालुकाप्रभया चत्वारश्चत्वार इति द्वादश, पंकप्रभया त्रयश्त्रय इति नव, धूमप्रभया द्वौ द्वाविति षट्, तमः प्रभयैकैक इति त्रयः, तदेवमेते द्विकसंयोगे त्रिषष्टिः । (बु०प०४४२) ६. अहवा एगे रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए होज्जा । अया एगे रमणभाए तिष्णि रानुपप्यभाए होना ७८. एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए तिष्णि असत्तमाए होज्जा | १०-१२. अहवा दो रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए दो आहेसत्त माए होज्जा | Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३-१५. अहवा तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा तिणि रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। १३. अथवा तीन रत्न रै मांहे, एक सक्कर में थाई। तथा जीव त्रिण रत्नप्रभा में, एक वालुका मांही। १४. अथवा तीन रल रै मांहे, एक पंक कहिवाई। तथा जीव त्रिण रत्नप्रभा में, एक धम दुखदाई।। १५. अथवा तीन रत्न रै मांहे, एक तमा पिण पाई। तथा जीव त्रिण रत्नप्रभा में, एक तमतमा मांही ।। १६. रत्नप्रभा थी त्रिहुं विकल्प करि, भंग अठारै थाई। सकर पंच भंग त्रिहुं विकल्प करि, भंग पनर कहिवाई ।। १७. अथवा एक सक्कर रे मांहे, तीन वालुका मांही। तथा जीव इक सक्कर मांहे, तीन पंक कहिवाई ।। १८. इम जिम रत्न संघात ऊपरली पृथ्वी जे कहिवाई । सक्कर थकी पिण तिम ऊपरली पृथ्वी साथे थाई ।। १६. सक्कर थी पंच त्रिहुं विकल्प करि, पनरै भांगा पाई। वालुय थी चिहुं त्रिहुं विकल्प करि, द्वादश भांगा थाई । २०. तीन पंक थी त्रिहुं विकल्प करि, नव भांगा उचराई। धम थकी बे त्रिहुं विकल्प करि, षट भांगा जिन न्याई ।। २१. एक तमा थी त्रिहुँ विकल्प करि, भांगा तीन दिखाई। इम ए द्विकसंजोगिक तेसठ, भणवा बुद्धि वरदाई ।। २२. जावत अथवा तीन तमा में, एक सातमी पाई। ए तेसठमों भांगो श्री जिन कह्यो पाठ रै मांही ।। १७-२२ अहवा एगे सक्करप्पभाए तिण्णि बालुयप्पभाए होज्जा, एवं जहेव रयणप्पभाए उवरिमाहिं समं चारियं तहा सक्करप्पभाए वि उवरिमाहिं समं चारेयब्वं, एवं एक्केक्काए समं चारेयव्वं जाव अहवा तिण्णि तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। च्यार जीव नां द्विकसंजोगिया ६३ भांगा कहै छै ४ ४ | १|•••३ | | ए रत्न थी ६ भांगा प्रथम विकल्प करि कह्या। श०६, उ० ३२, ढाल १७७ ५१ Jain Education Intemational Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै दूजै विकल्प करि ६ भांगा कहै छ ४ भांगा प्रथम विकल्पे १.१ वालु ३ पंक २. १ वालु ३ धूम ३. १ वालु ३ तम ४.१ वालु ३ तमतमा ४ भांगा १० | ४ | २ • • • २ • • दूज १. २ वालु २ पंक २. २ वालु २ धूम ३. २ वालु २ तम ४.२ वालु २ तमतमा विकल्पे हिवं तीजे विकल्पे रत्न थी ६ भांगा कहै छै ४ भांगा तीजा विकल्पे १. ३ वालु १ पंक २. ३ वालु १ धूम ३. ३ वालु १ तम ४. ३ वालु १ तमतमा एवं बालु थी ३ विकल्पे १२ भांगा कहा। ३ भांगा प्रथम विकल्पे १.१ पंक ३धूम २.१पंक ३ तम ३. १ पंक ३ तमतमा ३ भांगा १. २ पंक २ धूम २.२ पंक २ तम ३. २ पंक २ तमतमा। विकल्पे एवं रत्न थी तीन विकल्पे १८ भांगा कह्या। ३ भांगा | तीज ५ भांगा प्रथम विकल्पे १.१ सक्कर ३ वालुय २.१ सक्कर ३ पंक ३.१ सक्कर ३ धूम ४. १ सक्कर ३ तम ५.१ सक्कर ३ तमतमा १.३ पंक १ धूम २.३ पंक १ तम ३. ३ पंक १ तमतमा । विकल्पे एवं पंक थी ३ विकल्ये ६ भांगा कह्या। ५ भांगा द्वितीय विकल्पे १.२ सक्कर २ वालु २.२ सक्कर २ पंक ३. २ सक्कर २ धूम ४. २ सक्कर २ तम ५.२ सक्कर २ तमतमा २ भांगा प्रथम विकल्पे १.१ धूम ३ तम २. १ धूम ३ तमतमा। २ भांगा द्वितीय विकल्पे १. २ धूम २ तम २.२धूम २ तमतमा । ५ भांगा तृतीय विकल्पे १. ३ सक्कर १ वालु २.३ सक्कर १ पंक । ___३. ३ सक्कर १ धूम ४. ३ सक्कर १ तम ५.३ सक्कर १ तमतमा । २ भांगा तीज विकल्पे १. ३ धूम १ तम २. ३ धूम १ तमतमा। एवं धूम थी ३ विकल्पे ६ भांगा कह्या। एवं सक्कर थी ३ विकल्पे १५ भांगा कह्या। Jain Education Intemational Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ भांगो प्रथम विकल्पे १.१ तम ३ तमतमा १ भांगो दूज विकल्पे १.२ तम २ तमतमा १ भांगो तीज विकल्पे १.३ तम १ तमतमा एवं तम थी ३ विकल्पे ३ भांगा। एवं ४ जीव नां द्विकसंजोगिया विकल्प ३, भांगा सठ। वा०-हिवै च्यार जीवां रा तीनसंजोगिया भांगा कहै छ-तेहनां विकल्प तीन । तीनसंजोगिया मूल भांगा ३५ तीन विकल्प माट, त्रिगुणां कीधा १०५ भांगा हुवै । एक विकल्प करि रत्नप्रभा थी १५ हुवै, तीन विकल्प माटै त्रिगुणा कीयां ४५ हुवे। रत्नप्रभा थी १५ इम करवा । रत्न सक्कर थी ५, तीन विकल्प मार्ट त्रिगुणा कीधा १५ हुवै, रत्न वालु थी ४, तीन विकल्प माटै त्रिगुणा कीधां १२ भांगा हुदै, रत्न पंक थी ३, तीन विकल्प माटै त्रिगुणा कीधां हुवै। रत्न धूम थी २, तीन विकल्प माट त्रिगुणा कीधां ६ भांगा हुवै, रत्न तम थी १ भांगो, तीन विकल्प मार्ट त्रिगुणा कीधां तीन भांगा हुदै । एवं रत्न थी सर्व भांगा ४५ हुवै, तिणमें प्रथम रत्न सक्कर थी पांच भांगा, तेहनां तीन विकल्प करि १५ भांगा हुवै ते कहै छै२३. अथवा एक रत्न इक सक्कर, दोय वालुका मांही। अथवा एक रत्न इक सक्कर, दोय पंक तिण पाई ।। वा०--तथा पृथिवीनां त्रिकयोगे एक एको द्वौ चेत्येवं नारकोत्पादविकल्पे रत्नप्रभाशर्कराप्रभाभ्यां सहान्याभिः क्रमेण चारिताभिलब्धाः पञ्च, एको द्वावेकश्चेत्येवं नारकोत्पादविकल्पान्तरेऽपि पञ्च, द्वावेक एकश्चेत्येवमपि नारकोत्पादविकल्पान्तरे पञ्चैवेति पञ्चदश, एवं रत्नप्रभावालुकाप्रभाभ्यां सहोत्तराभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धा द्वादश, एवं रत्नप्रभापंकप्रभाभ्यां नव, रत्नप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, रत्नप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः। (वृ०प० ४४२) २३. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो वालुय प्पभाए होज्जा अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्कर प्पभाए दो पंकप्पभाए होज्जा। २४,२५ एवं जाव एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा। २४. अथवा एक रत्न इक सक्कर, दोय धम कहिवाई। अथवा एक रत्न इक सक्कर, दोय तमा रै मांही ।। २५. अथवा एक रत्न इक सक्कर, दोय तमतमा थाई। रत्न सक्कर थी धुर विकल्प करि, ए पंच भंग कहाई॥ हिवं रत्न सक्कर थी पांच भांगा दूजे विकल्पे कहै छ२६. अथवा एक रत्न दोय सक्कर, एक वालुका मांही। अथवा एक रत्न दोय सक्कर, एक पंक तिण पाई। २७. अथवा एक रत्न दोय सक्कर, एक धूम कहिवाई। अथवा एक रत्न दोय सक्कर, एक तमा रै मांही ।। २८. अथवा एक रत्न दोय सक्कर, एक तमतमा माही। रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, द्वितीय विकल्पे थाई ।। हिवं रत्न सक्कर थी पांच भांगा तृतीय विकल्पे कहै छ२६. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, एक वालुका मांही। अथवा दोय रत्न इक सक्कर, एक पंक तिण पाई। २६-२८. अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । २६-३१. अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए श० ६, उ० ३२, ढाल १७७ ५३ Jain Education Intemational Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, एक धूम कहिवाई | अथवा दोय रत्न इक सक्कर, एक तमा दुखदाई ॥ ३१. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, एक तमतमा मांही । रत्न सक्कर थी तृतीय विकल्प ए पंच भंगा बाई ॥ हि रत्न वालुका थी व्यार भांगा हुवै, ते तीन विकल्प करिकै १२ भांगा हुवै। ते प्रथम विकल्प करि च्यार भांगा कहै छँ -- ३२. अथवा एक रत्न इक वालुय, दोय पंक तिण पाई । अथवा एक रत्न इक बालुय, दोय धूम २ मांही ॥ ३३. अथवा एक रत्न इक वालुय, दोय तमा दुखदाई | अथवा एक रत्न इक वालुय, दोय तमतमा मांही ॥ हि रत्न वालुका थी दूजे विकल्प करि ४ भांगा कहै छ ३४. अथवा एक रत्न दो वालुय, एक पंक तिण पाई । अथवा एक रत्न दो वालुय, एक धूम है मांही ॥ ३५. अथवा एक रत्न दो वालुय, एक तमा दुखदाई । अथवा एक रत्न दो वालुय, एक तमतमा मांही ॥ हि रत्न वालुय थी तीज विकल्प करि ४ भांगा कहै छँ ३६. अथवा दोय रत्न इक वालय, एक पंक तिण पाई । अथवा दोय रत्न इक वालुय, एक धूम रै मांही ॥ ३७. अथवा दोय रत्न इक वालुय, एक तमा दुखदाई | अथवा दोय रत्न इक वालुय, एक तमतमा मांही ॥ हि रत्न पंक थी तीन भांगा हुवै, ते तीन विकल्प करि & भांगा कहै छे ३८. अथवा एक रत्न इक पंके, दोय धूम दुखदाई । अथवा एक रत्न इक पंके, दोय तमा उपजाई ॥ ३६. अथवा एक रत्न इक पंके, दोय तमतमा मांही । रत्न पंक थी धुर विकल्प करि, ए त्रिण भंगा थाई ॥ ४०. अथवा एक रत्न दो पंके, एक धूमका मांही । अथवा एक रत्न दो पंके, एक तमा उपजाई ॥ ४१. अथवा एक रत्न दो पंके, एक तमतमा मांही। रत्न पंक थी द्वितीय विकल्प, ए त्रिण भंगा थाई ॥ ४२. अथवा दोय रत्न इक पंके, एक धूमका मांही। अथवा दोय रत्न इक पंके, एक तमा उपजाई । ४३. अथवा दोय रत्न इक पंके, तमतमा मांही । रत्न पंक थी तृतीय विकल्प, ए त्रिण भंगा थाई ॥ एक हि रत्न धूम थी वे भांगा हुवं, ते तीन विकल्प करिकै ६ भांगा कहै छ । तिहां रत्न धूम थी प्रथम विकल्प करिकै बे भांगा हुवे ते प्रथम कहै छे - ४४. अथवा एक रत्न इक धूमा, दोय तमा उपजाई । अथवा एक रत्न इक धूमा, दोय तमतमा मांही ॥ हिवै रत्न धूम थी दूजा विकल्प करि २ भांगा कहै छ ४५. अथवा एक रत्न बे घूमा, एक तमा तिण पाई । अथवा एक रत्न बे धूमा, एक तमतमा मांही ॥ भगवती-जोड़ ५४ एगे सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । ३२, ३३. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो पंकष्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे यानुपधाए दो आहेसत्तमाए हो। ३४-५६. एवं एएणं गमएणं जहा तिष्टं शिया संजोगी तहा भाणियव्वो जाव अहवा दो धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अससमाए होला । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं रत्न धूम थी तीज विकल्प करि बे भांगा कहै छ४६. अथवा दोय रत्न इक धूमा, एक तमा तिण पाई। अथवा दोय रत्न इक धमा, एक तमतमा मांही ।। हिवै रत्न तमा थी एक भांगो हुवे ते तीन विकल्प करि तीन भांगा कहै ४७. अथवा एक रत्न इक तमा, दोय तमतमा मांही। रत्न तमा थी धुर विकल्प करि, इम इक भंगो थाई॥ ४८ अथवा एक रत्न दो तमा, एक तमतमा मांही। रत्न तमा थी इम इक भंगो, द्वितीय विकल्प थाई। ४६. अथवा दोय रत्न इक तमा, एक तमतमा मांही। रत्न तमा थी इम इक भंगो, तृतीय विकल्प थाई ।। ५०. रत्न सक्कर थी पंच कह्या भंग, रत्न वाल थी च्यारो। रत्न पंक थी त्रिण भंग आख्या, वारू करि विस्तारो॥ ५१. रत्न धूम थी बे भंग आख्या, रत्न तमा थी एको। रत्न थकी इक-इक विकल्प नां, पनर-पनर भंग पेखो। ५२. च्यार जीव नां त्रिकसंयोगिक, विकल्प तेहनां तीनो। त्रिगुणा कीधे भंग रत्न थी, पैंतालीस प्रवीनो॥ इम सक्कर थी इक-इक विकल्प नां दश-दश भांगा हुवे, तेहनी आमना कहै छ५३. इम सक्कर थी दश भांगा ह, सक्कर वाल थी च्यारो। सक्कर पंक थी तीन हुवै भंग, सक्कर धूम बे सारो॥ ५४. सक्कर तमा थी इक भांगो ह, सक्कर थकी दश एहो। इक-इक विकल्प नां ए करिवा, दश-दश भांगा तेहो। ५५. च्यार जीव नां त्रिक संजोगिक, त्रिण विकल्प रै न्यायो। त्रिगुणा कीधां सक्कर थी ए भांगा तीस कहायो । हिवै वालुका थी इक-इक विकल्प नां षट-षट भांगा हुवै, तेहनी आमना कहै ५६. हिवै वालुका थी षट भंगा, वालु पंक थी तीनो। वाल धूम थकी बे भंगा, वाल तमा इक चीनो। ५७. इक-इक विकल्प नां ए षट-षट, वाल थकी विचारो। त्रिण विकल्प करि त्रिगुणा कीधां, भांगा हुवै अठारो। हिवं पंक थी इक-इक विकल्प करि तीन-तीन भांगा हुवे, तेहनी आमना कहै छ५८. पंक धूम थी बे भांगा है, पंक तमा थी एको। इक-इक विकल्पे त्रिण-त्रिण भांगा, पंक थकी नव पेखो। हिवं धूम थी एक-एक विकल्प करि एक-एक भांगी हुवै तेहनी आमना कहै ५६. धूम तमा तमतमा भंग इक, त्रिण विकल्प करि चंगा। इक-इक भांगो एहनो ह छै, धूम थकी त्रिण भंगा ।। श०६, उ० ३२, ढाल १७७ ५५ Jain Education Intemational Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. रत्नप्रभा थी भंग पैंताली, सक्करप्रभा थी तीसो। वालु अठार पंक थकी त्रिण, धम थकी इक दीसो।। ६१. च्यार जीव नां त्रिकसंजोगिक, त्रिहं विकल्प करि तेहो। हवै एक सौ नैं पंच भंगा, विधि सेती गिण लेहो। ६०,६१. चतुष्प्रवेशे त्रिकयोगे ४५ रत्नप्रभा ३० शर्कराप्रभा १८ वालुकाप्रभा ६ पंकप्रभा' ३ धूमप्रभा (वृ० प० ४४२) च्यार जीव रा त्रिक संजोगिया नां विकल्प तीन, भांगा १०५ । रत्न थी ४५ । ते रत्न सक्कर थी १५ भांगा ते प्रथम विकल्प करि रत्न सक्कर थी ५ भांगा कहै छ ... | स वा पं तम हिवं दूजे विकल्पे रत्न सक्कर थी ५ भांगा कहै छै हिवं तीजे विकल्प करि रत्न सक्कर थी ५ भांगा कहै छ | १२ | २ | २ | १| • | १ | • • | | १,२. जोड़ की गाथा ६० में पंकप्रभा से तीन भंगों का उल्लेख है और धूमप्रभा से एक भंग का। इस गणना से चार जीवों के त्रिक संयोगिक १०५ भंगों की संगति नहीं बैठती। पर इससे आगे ६१वीं गाथा में 'त्रिहुं विकल्प करि तेहो' लिखा गया है। यह संकेत उक्त दोनों-पंकप्रभा और धूमप्रभा के लिए दिया गया है। इसके अनुसार पंकप्रभा से एक-एक विकल्प के तीन-तीन भंग करने से तीन विकल्प से नौ भंग हो जाते हैं। इसी प्रकार धूमप्रभा से एक विकल्प का एक भंग करने से तीन विकल्प के तीन भंग हो जाते हैं। ५६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए तीन विकल्प करि रत्न सक्कर थी १५ भांगा कहा। हिवै रत्न वालु थी ४ भांगा प्रथम विकल्पे कहै छै हिवं रत्न पंक थी ३ भांगा तीजे विकल्प करि कहै छै र स वा | पं | धू त तम ए रत्न पंक थी ६ भांगा का हिवं रत्न बालु थी ४ भांगा दूज विकल्प करि कहै छ हिवै रत्न धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै -- हि रत्न धूम थी २ भांगा दूज विकल्प करि कहै छ र स वा पं धू, तम हिवं रत्न वालु था तीजे विकल्पे ४भांगा कहै छै .. त हिवं रत्न धूम थी २ भांगा तीज विकल्प करि कहै छै २७ | ४ | २ . १ • • • ४२ | २ | २ • • • १ . ए रत्न धूम थी ६ भांगा कहा। ए रत्न वालु थी १२ भांगा कह्या । हिवै रत्न पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्पे कहै छै -- हिवं रत्न तम थी एक भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छै -- २६ | २ | १ • • १ . २ . हिवं रत्न तम थी एक भांगो दूज विकल्प करि कहै छै हिवं रत्न पंक थी ३ भांगा दूज विकल्प करि कहै छै -- हिवं रत्न तन थी एक भांगो तीजे विकल्प करि कहै छै-- ... ए रत्न तम थी तीन भांगा कहा श०६, उ० ३२, ढाल १७७ ५७ Jain Education Intemational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै सरकर प्रभा थी ३० भांगा तीनूं विकल्प नां हुवे, ते कहै छसक्कर वालु थी १२ ते प्रथम विकल्प करि सक्कर वालु थी ४ भांगा कहै छै हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा ताजै विकल्प करि कहै छ र स वा | पं धू त तम 4 . ० | ए सक्कर पंक थी भांगा कहा। हिवं सक्कर धूम थी दो भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै हिब सक्कर वालु थी ४ भांगा दूज विकल्प करि कहै छ ५२ | ३ | | १ | २ | | | १ | हिवं सक्कर धूम थी दो भांगा दूजे विकल्प करि कहै छ - हिवै सक्कर वालु थी ४ भांगा तीजे विकल्प करि कहै छ हिवं सक्कर धूम थी दो भांगा तीज विकल्प करि कहै छै - ए सक्कर धूम थी छह भांगा कह्या। ए तीन विकल्प करि सक्कर वालु थी १२ भांगा कहा, हिव सक्कर पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ हिवं सक्कर तम थी एक भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ हिवै सक्कर तम यो एक भांगो दूज विकल्प करि कहै छै - हिव सक्कर पंक थी ३ भांगा दूज विकल्प करि कहै छ हिवै सक्कर तम थी एक भांगो तीजे विकल्प करि कहै छै | ७५ . . २ . . .१ १ ५८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ भांगा तीनूं विकल्प नां हुवे ते कहै छै - हिवै वालु पंक थी तीन मांगा, ते प्रथम विकल्प करि कहै छे पं ७६ ७७ ७८ ७६ ८० ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ १ २ E १ ३ ० २ ६० र ० ० २ ३ ३ o ० o १ ० ० o १ o ८७ १ o १ ८६ १ ० स ० २ ० o हिव वालु पंक थी तीन भांगा दूर्ज विकल्प करि कहै छै - o ० ० १ ० वा o १ १ ० १ हिवं वालु पंक थी ३ भांगा तीजं विकल्पे कहै छै ० १ २ २ o २ २ १ २ ० १ १ १ १ २ २ o २ १ १ १ o धू त २ o ० ० १ हिवं वालु धूम थी २ भांगा ते प्रथम विकल्प करि कहै छं ० १ १ ० ० o १ o १ ८६ २ ० १ २ हिवं वालु धूम थी दोय भांगा ते दूर्ज विकल्प करि कहै - १ २ ० १ ० २ हिवं वालु धूम थी दोय भांगा तीजे विकल्प करि कहै छै २ О १ ० १ o २ १ १ o ० o २ १ २ ० तम ० o १ १ हिवं वालु तम थी एक भांगो प्रथम विकल्प करि कहे छे. ६१ o o १ o १ १ o १ २ ६२ ६४ ६५ १ o ० १ o o २ हिव वालु तम थी एक मांगो तीर्ज विकल्प करि कहे छे ३ १ ० ६६ २ हि पंक میں ૨૭ हिवे वालु तम थी एक मांगो दूर्ज विकल्प करि कहै छे पं हैद ए वालु तम थी ३ मांगा कह्या । एवं वालु पंक थी ६, वालु धूम थी ६, वालु तम थी ३, एवं सर्व वालु थी १८ भांगा कला । हिवं पंकप्रभा थी εभांगा तीनूं विकल्प नां हवं ते कहै छे हिवे पंक धूम थी दोय मांगा ते प्रथम विकल्प करि कहै छै - ह २ हिर्व पंक १०० १ १०१ १०२ १ १ र धूम ० धूम ० ० स वा ० ० o ० ० o ० १ १ थी दोय भांगा दूजे विकल्प करि कहै छे २ १ ० ० २ ० ० ० o ० ० १ ० १ ० १ २ ० २ १ o हिवे पंक तमा थी एक भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छै १ ० १ १ o हिवे पंक तमा थी एक भांगो दूर्ज विकल्प करि कहै छे १० | २ १ हिवं पंक तमा थी १ भांगो तीजे विकल्प करि कहै छ १ ० त २ १ थी दोय भांगा तीजे विकल्प करि कहै छै - १ ० १ २ ० १ १ २ १ ० तम o ० २ o १ १ ए पंक तमा थी ३ भांगा कह्या । एवं पंक धूम थी ६, पंक तम थी ३, एवं सर्व पंक थकी ६ भांगा कह्या । हिवं धूमप्रभा थी एक भांगो हुवं, ते त्रिण विकल्प करि तीन भांगा कहै छे ०६. उ० ३२, ढाल १७७ ० २ ० १ २ १ १ ५६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवे धूम तम थी एक भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ - हिवं धूम तम थी एक भांगो दूजे विकल्प करि कहै छ -- हिवं धूम तम थी एक भांगो तीजै विकल्प करि कहै छ .. १०५ १ ० ० ० ० ए धूम तम थी त्रिण विकल्प करि तीन भांगा कह्या । एवं रत्न थी ४५, सक्कर थी ३०, वालु थी १८, पंक थी , धूम थी ३ एवं सर्व १०५ च्यार जीवां रा त्रिकसंजोगिया भांगा वा०-चतुष्कसंयोगे तु पञ्चविंशदिति। (वृ०प० ४४२) . वा०-हिवं च्यार जीव नां चउक्कसंजोगिया तेहनों विकल्प एक, भांगा ३५ हवे, ते कहै छ-रत्न थकी २०, सक्कर थकी १०, वालु थकी ४, पंक थकी १एवं ३५ भांगा। हिवै रत्न थकी २० भांगा हुदै, तिणरो विवरो-रत्न सक्कर थकी १०, रत्न वालु थकी ६, रत्न पंक थकी ३, रत्न धूम थकी १--एवं रत्न थकी २० भांगा। तिण में रन सक्कर थकी १० हुदै, तिणरो विवरो-रत्न सक्कर बालु थकी४. रत्न सककर पंक थकी ३, रत्न सक्कर धूम थकी २. रत्न सक्कर तम थकी १...एवं १० रत्न सक्कर थकी हुवै । अनै रत्न वालु थकी ६ भांगा हब, तिणरो विवरो-रल वालु पंक थ की ३, रत्न वालु धूम थकी २, रत्न वालु तम थकी-एवं रत्न वालु थकी ६ भांगा हुवै । हिवै रत्न पंक थकी ३ भांगा हवे, तिणरो विवरो-रत्न धूम थकी २, रत्न तम थकी १-एवं रत्न पंक थकी ३ भांगा हवै। हिवै रत्न धूम थकी १ भौगो हुवै इम रत्न थकी २० भांगा थाय । तिण में रत्न सक्कर थकी १० हुवे, तिणरो विवरो कहै छै-रत्न सक्कर थकी १०.. भांगा, ते किसा? रत्न सक्कर वालु थकी च्यार भांगा हुवै, ते गाथा करी प्रथम वदै जिनवानी रे, विदै जिनवानी रे, गंगेय तणां ए प्रश्न परम पहिछानी रे। वदै जिनवानी रे, जिन उत्तर आपै सरस सुधारस जानी रे ।। . ६२. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक बालका जानी। इक जीव पंकप्रभा में उपजै, भांगो प्रथम पिछानी ।। ६३. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक वालका ठानी। इक जीव धूमप्रभा में उपजै, द्वितीय भंग इम आनी ॥ . ६४. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक वालका मानी। एक तमा रै मांही उपजै, तृतीय भंग विधानी ।। ६५. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक वालका कानी । एक तमतमा मांही उपजै, तूर्य भंग आख्यानी॥ हिव रत्न सक्कर पंक थी तीन भांगा कहै छ..... ६२. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वाल यप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा,.. ६३. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे बालु यप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा, ६४. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालु यप्पभाए एगे तमाए होज्जा। .. ६५. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वाल यप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, ६०: भगबती-जोड़ . .. . Jain Education Intemational Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ६६. अथवा एक रत्न इक सक्कर, इक जीव धूमप्रभा में उपजे ६७. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक तमा रे मांही उपजे ६८. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक तमतमा मांही उपजे एक पंक पहिछानी । पंचम भंग प्रमानी ॥ एक पंक प्राप्तानी । षष्टम भंग वखानी ॥ एक पंक अथवानी । भंग सप्तमो जानी ॥ हि रत्न सक्कर धूम थी दो भांगा कहै छँ ६६. अथवा एक रत्न इक सक्कर, इक जीव धूम प्रभा नी 1 एक तमा रै मांही उपजै, अष्टम भंग आख्यानी ॥ ७०. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक धूम कहिवानी । एक तमतमा मांही उपजै, नवमों भंग विधानी ॥ हिव रत्न सक्कर तम थी १ भांगो कहै छँ ७१. अथवा एक रत्न इक सक्कर, इक जीव तमा मघानी । एक तमतमा मांही उपजे दशम भंग दाख्यानी || ए रत्न सक्कर थी १० भांगा कह्या । हिव रत्न वालु थी छह भांगा, ते रत्न वालु पंक थी तीन भांगा प्रथम कहै छँ - ७२. अथवा एक रत्न इक वालु, इक जीव घूमप्रभा में उपर्ज, ७३. अथवा एक रत्न इक बालू, एकतमा छुट्टी में उपर्ज, ७४. अथवा एक रत्न इक वालु, एक जीव तमतमा उपजै, हिवं रत्न वालु धूम थी दोय भांगा कहे छ७५. अथवा एक रत्न इक वालु, एक तमा छुट्ठी में उपजै, ७६. अथवा एक रत्न इक वालु, एक तमतमा मांही उपजै, हि रत्न वालु तमा थकी एक भांगो कहै छ एक पंक में जानी । ग्यारम भंग पिछानो ॥ एक पंक दुखदानी | द्वादशमों भंग ठानी ॥ एक पंक में जानी । भंग तेरमों ठानी ॥ इक जीव धूमप्रभा नीं । भंग चवदमों जानी ॥ एक धूम में जाती । भंग पनरमों आनी ॥ ७७. अथवा एक रत्न इक वालु, एक तमा दुखखानी । एक तमतमा मांही उपजे भंग सोलमों जानी ॥ 1 हिवे रत्न पंक थी तीन भांगा, ते पहिला रत्न पंक धूम थी दोय भांगा कहै छं - ७८. अथवा एक रत्न इक पंके, एकतमा रै मांही उपजै, ७६. अथवा एक रत्न इक पंके, एक तमतमा मांही उपजै, हि रत्न पंक तम थी एक भांगो कहै छे८०. अथवा एक रत्न इक पंके, एक तमतमा मांही उपजै, एक धूम अघखानी । भंग सतरमों जानी ॥ एक धूम अघखानी । भंग अठारम आनी ॥ एक तमा उपजानी । भंग गुनीसम जानी ॥ ६६. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करपभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा, ६७. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकभाए एगे तमाए होज्जा, ६८. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एंगे पंकष्पभाए एगे असत्तमाए होज्जा, ६६. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे घूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा, ७०. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमभाए एगे असत्तमाए होज्जा, ७१. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करपभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्जा, ७२. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्प भाए एगे धूमप्पभाए होज्जा, ७३. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्प भाए एगे तमाए होज्जा, ७४. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे सत्तनाए होज्जा, ७५. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे घूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा, ७६. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमभाए एने बताए हो, ७७. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयष्पभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्जा, ७८. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकष्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा, ७२. अवाएगे भाए एगे पंकप्पभाए एने भूमध्यभाए एगे अमतमाए होना, ८०. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे समाए होना, ० ६, उ० ३२, ढाल १७७ ६१ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ८२. अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंक प्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा। ८३-६१. एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमाओ पुढवीओ चारि याओ तहा सक्करप्पभाए वि उवरिमाओ चारियब्वाओ जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । हि रत्न धूम थी एक भांगो कहै छ८१. अथवा एक रत्न इक धूमा, एक तमा अघखानी । एक सातमी माही उपजै, भंग वीसमो जानी ।। एवं रन थी २० भांगा कह्या । हिवं सक्कर थी १० भांगा, तिणरो विवरो-सक्कर वालु थकी ६, सक्कर पंक थकी ३, सक्कर धूम थकी १,-- एवं १० भांगा सक्कर थी हुवै । तिणमें सक्कर वालु थकी ६ तिणरो विवरो-सक्कर वालु पंक थकी ३, सक्कर वालु धूम थकी २, सक्कर वालु तम थकी १ एवं ६ भांगा सक्कर वालु थकी हुवै । अने सक्कर पंक थकी ३ भांगा हुवै, तिणरो विवरो-- सक्कर पंक धूम थकी २, सक्कर पंक तम थकी १-- एवं सक्कर पंक थकी ३ भांगा हुदै । अने सक्कर धूम थकी १ भांगो हुदै । इम सक्कर थकी १० भांगा थाय । तिहां सक्कर गलु थकी ६ भांगा, ते किसा? सक्कर वालु पंक थकी ३ भांगा ते प्रथम गाथा करी कहै छ८२. अथवा इक सक्कर इक वालु, एक पंक में जानी। इक जीव धूमप्रभा में उपजै, इकवीसम भंग आनी ॥ ८३. अथवा एक सक्कर इक वाल, एक पंक में जानी। एक तमा रै मांहि ऊपजै, बावीसम भंग आनी ॥ ८४. अथवा एक सक्कर इक वाल, एक पंक में जानी। एक तमतमा मांहि ऊपजै, तेवीसम भंग ठानी। हि सक्कर वालु धूम थकी दोय भांगा कहै छै८५. अथवा एक सक्कर इक वालु, एक धूम दुखखानी। एक तमा रै मांहि ऊपजै, चउवीसम भंग जानी॥ ८६. अथवा एक सक्कर इक वालु, एक धूम अघखानी। एक तमतमा मांहि ऊपजै, पणवीसम भंग जानी ।। हिवै सक्कर वालु तम थी एक भांगो कहै छ५७. अथवा एक सक्कर इक वाल, एक तमा अघखानी। एक तमतमा मांहि ऊपजै, छव्वीसम भंग जानी ।। हिव सक्कर पंक थी तीन भांगा, तिणमें सक्कर पंक धूम थी दोय भांगा कहै छै८८. अथवा एक सक्कर इक पंके, एक धूम में जानी। एक तमा रै मांहि ऊपजै, सप्तवीसमों ठानी। ८६. अथवा एक सक्कर इक पंके, एक धम में जानी। एक तमतमा मांहि ऊपजै, अष्टवीसमों ठानी।। हिवै सक्कर पंक तम थकी एक भांगो कहै छ१०. अथवा एक सक्कर इक पंके, एक तमा में जानी। एक तमतमा मांहि ऊपजै, गुणतीसम भंग ठानी ॥ हिवै सक्कर धूम थी एक भांगो कहै छै६१. अथवा एक सक्कर इक धूमा, एक तमा में जानी। एक तमतमा मांहि ऊपजै, भंग तीसमो ठानी ॥ ए सक्कर थी १० भांगा कह्या । हिवं वालु थी ४ भांगा कहै छ, तिणरो विवरो- वालु पंक थी ३, वालु धूम थी १-- एवं वालु थी ४ । वालु पंक थी ३ ६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education International Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते किसा ? वालु पंक धूम थी २, वालु पंक तम थी १ एवं वालु पंक थी ३ । तिणमें 'वालु पंक धूम थी २ भांगा प्रथम कहै छं ६२. अथवा एक वालु इक पंके, एक तमा रे मांहि ऊपजे १३. अथवा एक बाइक पंके, एक तमतमा मांहि ऊपजे, हि वालु पंक तम थी एक भांगो कहै छै - १ ९४. अथवा एक वालु इक पंके, एक तमतमा मांहि उपजे हि बालु धूम तम की एक मांगो कहे है २ ३ एवं व्यार जीवां रा चउक्कसंजोगिया तेहनों विकल्प १, भांगा ३५ । रत्न थी २० । ते बीस भांगा में रत्न न छूटै, प्रथम रत्न आवै । सक्कर थी १० | ते दश भांगा में सक्कर न छूटै, प्रथम सक्कर आवै । वालु थी ४ । ते च्यार भांगा में वालु न छूटै, प्रथम वालु आवे। अने पंक थी एक--एवं ३५ भांगा जाणवा । ५ ६५. अथवा इक वालु इक धूमा, एक तमा में जानी । एक तमतमा मांहि ऊपजै, चउतीसम भंग ठानी ॥ हिवे पंक थी एक भांगो कहे छे६६. अथवा इक पंके इक धूमा, एक तमतमा मांहि ऊपजै, - ६ ७ ?? १ २ च्यार जीवां रा चउक्कसंजोगिया भांगा ३५ । तेहनों प्रथम विकल्प रत्न थी २०, ते किसा ? हिवे प्रथम रत्न सक्कर वालु थकी ४ भांगा कहै छे र स वा पं ३ ४ २ १ १ ३ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ ॥ एक धूमका जानी । इकतीसम भंग ठानी || एक धूमका जानी। बत्तीसम भंग ठानी || १ १ ० १ o १ ० १ एक तमा में जानी । तेतीसम भंग ठानी ॥ एक तमा में जानी । पणतीसम भंग ठानी ॥ o o ए रत्न सक्कर वालु थी ४ कह्या 1 हिवं रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा कहै छै - १ १ धू १ o o १ त О o o १ ० १ तम ० १ ० О १ ६२. अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा २. वापभाए एने भए एने भूमध्यभाए एगे बनाए होना ४. अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमा ए एगे असत्तमाए होज्जा ६५. अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे धूमध्पभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्या । ६. अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्जा । (STORIE?) श० ६, उ० ३२, ढाल १७७ ६३ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ ह १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ हिवे रत्न सक्कर धूम थी २ भांगा कहै छे पं १६ १ २० २ १ २ ३ १ १ १ र ए रत्न सक्कर थी १० भांगा कहा । हिवे रत्न वालु थी ६ भांगा ते रत्न वालु पंक थी ३ भांगा प्रथम कहै छे १ १ हिवे रत्न सक्कर तम थी १ भांगो कहे छे २ १ १ १ १ १ १ १ १ o स १ १ १ १ १ १ ० o १ वा ६४ भगवती जोड़ o О ० हिवे रत्न वालु धूम थी २ भांगा कहै छे o १ १ o १ १ ० १ २ १ १ १ हिवे रत्न वालु तम थकी एक भांगो कहै छै - o ० १ o १ १ १ o पू. १ ० 0 ए रत्न वालु थी ६ भांगा कह्या । हिवे रत्न पंक थी ३ भांगा ते पहिला रत्न पंक धूम थी २ भांगा कहै छे १ o १ १ ० १ ० हिवै रत्न पंक तम थी १ भांगो कहै छे ० १ 雖 हिवे रत्न धूम थी एक भांगो कहै छै १ १ o १ o १ १ १ ० १ १ १ १ 0 तम १ १ १ १ o o १ १ १ ० १ १ १ एवं रत्न थी २० भांगा कह्या । हि सक्कर थकी १० भांगा थाय, तिहां सक्कर वालु पंक थकी ३ भांगा, ते प्रथम कहै छै २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २६ १ २ ३१ ३२ १ २ १ १ २ ३० | १ र १ ० ० १ स वा २ १ १ ३ १ १ हि सक्कर वालु धूम थी २ भांगा कहै छै - ० १ १ ए वालु १ १ १ १ १ १ १ १ ० १ १ o हि सक्कर वालु तम थी १ भांगो कहै छै - हिवे सक्कर पंक थी ३ भांगा, तिणमें सक्कर पंक धूम थी दोय भांगा कहै छे. ० o o पं o १ १ १ o ० ० पंक धूज १ १ १ धू १ १ ० हि सक्कर पंक तम थी एक भांगो कहै छै हि सक्कर घूम थी १ भांगो कहै छै १ हिवे वालु थी ४ भांगा कहै छै । तिनमें वालु भांगा प्रथम कहै छै - १ १ १ ए सक्कर थी १० भांगा कह्या । १ १ १ ० ···· त १ ० १ 0 १ १ १ १ १ ० थी २ भांगा कह्या । पंक धूम १ १ तम د o १ ?? १ 0 १ १ o १ १ थी २ १ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिव वालु पंक तम थी एक भांगो कहै छै --- ए वालु पंक तम थी १ भांगो कहो। एवं वालु पंक थी ३ भांगा थया। हिवं वालु धूम तम थी एक भांगो कहै छै --- ए वालु धूम तम थी एक भांगो कह्यो । एवं वालु थी ४ मांगा थया। हिवं पंक थी १ भांगो कहै छै -- ए पंक थी एक भांगो कह्यो । एवं ४ जीवां रा चउक्कसंजोगिया ... रत्न थी २०, सक्कर थी १०, वालु थी ४, पंक थी १, एवं सर्व ३५ । एतले च्यार जीव रा इकसंजोगिया ७, द्विकसंजोगिया ६३, त्रिकसंजोगिया १०५, चउक्कसंजोगिया ३५ सर्व २१० भांगा जाणवा। वलि विशेष चउक्कसंजोगिया नों आमना कहै छ गीतक-छंद १७. वीस रत्न थो सक्कर थी दश, च्यार वाल थी सही । पंक थी इक चउक्कयोगिक, भंग ए पणतीस ही। १८. वीस रत्न थी तेह इहविध, सक्कर थी दश जाणिय । वालु थी षट पंक थी त्रिण, धूम थी इक आणिय ।। १६. रत्न सक्कर थको दश इम, बे सहित वाल थी चिहुँ । रत्न सक्कर पंक थी त्रिण, भंग भणवा इह विधउ ।। १००. रत्न सक्कर धूम थी बे, रत्न सक्कर तम थकी। एक भांगो हुवै इम दश, रत्न सक्कर थी नकी ।। १०१. रत्न वालू थकी षट इम, रत्न वालू पंक थी। तीन भांगा कीजिये सुध, अक्ष न्याय अवंक थी। १०२. रत्न वाल धूम थी बे, रत्न वालू तम हुंती। एक भांगो हुवै इम षट, रत्न वाल नरक थी। १०३. रत्न पंक थी तीन भंग इम, रत्न पंक नै धूम थी। दोय भांगा हवं ने इक, रत्न पंक में तम हंती ।। १०४. रत्न पंक थी तोन आख्या, हिवे रत्न ने धूम थी। एक भांगो हुवै इम ए, बीस भांगा रत्न थी। १०५. सक्कर थी दश हुवै इहविध, षट सक्कर वाल हुंती। पंक थी त्रिण धूम थी बे, एक तमा नरक थी। १०६. वालु थी भंग च्यार ते इम, वाल पंक थकी बिहुँ । एक वाल धुम थी ए, भग वाल थी चिहं ।। श० ६, उ० ३२, ढाल १७७ ६५ Jain Education Intemational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७. वालु पंक थी तीन ते इम, दोष भांगा हुवे ने इक १०८. ए तीन भांगा वालु पंक थी, ए च्यार भांगा वालु थी ह्व, १०२. पंक थी इक भंग होने चक्कसंजोगिया भांगा ११०. तीन नरक नो नाम लेई, एहषी भंग केतला तसु ? १११. नरक बाकी रहे जेती वालु पंक ने धूम थी। बालु पंक ने तम हुंती ॥ एक वालू धूम थी। न्याय अक्ष संचरण थी । पर ए पणतीस ही कीजिये बुद्धि प्रवर थी । भंग जो पूछीजिये। जाब इहविष दीजिये ॥ तेता भंग कहीजिये । एम उत्तर दीजिये || त्रिहं थी भंग केला ? दीजिये इहविध भला ॥ नरक चिह्न बाकी रही। वालु थी चिहुं हुं सही ॥ केला होवे सही ? नरक बाकी त्रिण भंग, केतला होवे नरक बाकी वे भंग रही ॥ सही ? एह थी भंग एतला हूं ११२ रन सक्कर वालु स्यूं मिल, एम पूछयां तास उत्तर ११२. पंक धूम तम सातम ए ते भणी जे रत्न सक्कर ११४ रन सक्कर पंक थी तीन भांगा एहथी ह्व, ११५. रत्न सक्कर धूम थी दो भांगा एथी, ११६. रत्न वालू तम थकी भंग, केतला होवै 7 एक भांगो एहथी सं ११७. सवकर बालू पंक सेती, सक्कर वालू धूम थी बे, ११. वालु पंक में धूम सेती, दोय भांगा एहबी हूं ११. वालु पंक ने तमा सेती, एक भांगो एहथी है, १२० बालु धूम में तमा सेती, एक भांगो हथी, १२१. पंक 'धूम नैं तमा सेती, नरक बाकी इक रही छे, १२२. इम नरक त्रिण तणो नाम ले, नरक बाकी रहे जितरी भंग रही ॥ सही ? नरक बाकी इक रही ॥ तीन भांगा हूँ सही। नरक बाकी वे रही ।। भंग केता हूं सही ? नरक बाकी वे रही ॥ भंग केला हूं नरक बाकी इक भंग केला नरक बाकी इक एक भांगो सही । पणतीसमों ए भंग ही ॥ पूछियां भंग जेहथी । तेता तेह थी । सही ? रहो । सही? रही ॥ कोई पूछे - रत्न, सक्कर, वालू सेंमिल थी कितरा भांगा हुवे ? तेहनों उत्तर---पंक, धूम, तम, तमतमाए ४ नरक बाकी रही, ते भणी रत्न सक्कर वालु मिल थी ४ भांगा हुवै। कोई पूछ सक्कर वालु पंक थी किता भांगा हुवै ? उत्तरएहथी तीन हुवै, धूम, तम, सातमी - ए ३ बाकी रही ते मार्ट । कोई पूछ वालू पंक धूम थी किता हु ? उत्तर - दो भांगा हुवै, तमा अने सातमी - ए बे बाकी रही ते माटै । कोई पूछँ वालु पंक ने तम थी किता भांगा हुवै ? उत्तर- एक भांगो हुवै, एक सातमीं रही ते माटै । कोई पूछे वालु धूम तम थी किता भांगा हु ? उत्तरएक भांगो हु, एक सातमी बाकी रही ते माटै । इम तीन नरक भेली कर पूछ्यां ए आमना जाणवी । ६६ भगवती जोड़ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि दोय नरक भेली कर ने पूछें ते कहै छै- इम चउक्कसंजोगिया में तो तीन नरक रो नाम लेई पूछयां लारं नरक रहे जिता भांगा कैहणा । भंग जो पूछीजिये । जाब तसु इम दीजिये || छठी नरक लगे सही । हवे ते गिनवा वही ।। गिणी संख्या कीजिये । बे नरक थी तेतला भंग, एम उत्तर दीजिये ॥ भंग होवं केतला ? दीजिये इविष भला ॥ धूम से इक तम थकी सक्कर थी दश नकी ॥ भंग कितरा एहथी ? रही बाकी तेहथी । एक तम थी आणियै ॥ थकी षट भंग जाणियै ॥ १२३. दो नरक नों नाम लेई, हथी भंग केतला ? १२४. नरक बाकी रहै जेती, जेह नरक थी भंग जितरा, १२५ तेह भंगा एकठा करि १२६. रत्न सक्कर बेहुं मेल्यां, एम पूछो तास उत्तर १२७. वालुथी चिडं पंक थी त्रिण, हवे ए दस भंग तिणसं, रत्न १२८. रत्न बालू बेहं मिलियां, सातमी विण नरक तीनज, १२६. पंक थी त्रिण धूम थी बे, ते भभी ए रत्न वालू १३०. सक्कर नैं पंक बेहुं मिलियां, भंग कितरा एहथी ? सातमी विण नरक दोयज, रही बाकी तेहथी । १३१. धूम भी वे एक तम थी, तीन भंग तेहथी। ते भणी ए सहु सक्कर पंक थकीज त्रिण भंग एहथी । १३२. वालु पंक थी भंग कितरा ? तीन भांगा व धूम थी बे तम थकी इक, एम तीन लहै सही ॥ १३३. वालु धूम थी भंग कितरा ? एक तम बाकी रहै । तेह्नों भंग एक तिणसूं, वालु धूम भी इक लहै । १३४. इस नरक वे मेल पूछयां, सप्तमीं विण जे रहे। सही । तेहनां भंग गिणी जेता, बिहुं नरक थकी लहै ॥ १३५. उसंजोगिक भंग पैतीस आमना ए तेह तणी। इहां आखी चतुर साखी, निपुण बुद्धिवंत नर भणी ॥ उत्तर कोई पूछँ ४ संजोगिया भांगा में रत्न सक्कर थी किता भांगा हुवै ? तेहनों -१० हुवं । तेहनों न्याय कहै छै-रत्न सक्कर वालु थी ४, रत्न सक्कर पंक थी ३, रत्न सक्कर धूम थी २, रत्न सक्कर तम थी १ एवं दश भांगा इम छै, ते मार्ट रत्न सक्कर थी १० हुवे । इहां एक सातमी नरक थी भांगा न हुवै ते मार्ट छेहली सातमीं नरक न लेखवणी । कोई पूछें रत्न वालु थी किता भांगा हु ? उत्तर - रत्न वालु सहित पंक थी ३, धूम थी २, तम थी १ - एवं ६ भांगा रत्न वालु थी हुवे । इहां पिण सातमी न गिणी | कोई पूछे रत्न पंक थी किता भांगा हुवै ? उत्तर- - रत्न पंक सहित धूम थी२, तम थी १ - एवं तीन भांगा हुवै । कोई पूछे वालु पंक थी किता भांगा हुवै ? उत्तर - रत्न वालु सहित धूम थी बे भांगा हुवै छँ, अनं तम थी १ भांगो हुवै छं, ते माटै वालु पंक थी ३ भांगा हुवे । श० ६, उ० ३२, ढाल १७७ ६७ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई पूछ बालु धूम थी किता भांगा हुवै ? उत्तर-वालु धूम सहित तम थी १ भांगो हुवै छ, ते माट वालु तम थी १ भांगो हुवै । चउक्कसंजोगिया एक नरक रो नाम लेई पूछयां तेहनी आमना कहै छ रत्न थी भांगा किता? उत्तर---लार नरक रही ६। तिणमें प्रथम एक आंक वर्जी शेष पांच आंक मांडना--२।३।४।५।६ । एहन अनुक्रम गिणणा दोय नै तीन पांच, पांच नै च्यार नव, नव ने पांच चवदै, चवदै नै छह बीस, इम रहन थी चउक्कसंयोगिक बीस भांगा हुवै । सक्कर थी भांगा किता? उत्तर.... लारै नरक रही। तिणमें छेहलो एक आंक वर्जी ने शेष च्यार आंक मांडणा ११२।३।४। एहने अनुक्रम गिणणा---एक ने दोय -तीन, तीन ने तीन छ:, छ ने च्यार दश इम सक्कर थकी चउक्कसंजोगिया १० भांगा हुवै । वालु थी भांगा किता? उत्तर ..लार नरक रही जेतला भांगा । एतले च्यार नरक रही ते माटै च्यार भांगा। अन पंक थी एक भांगो, एवं चउका संयोगिया ३५ भांगा। चउक्कसंयोगिक भांगा दोय नरक रो नाम लेई पूछयां जेतली नरक बाकी रहै तिणमें एक छेहलो आंक घटाय बाकी मांडी गिणणा, जेतली संख्या हुवं तेतला भांगा गिणणा । एहनों उदाहरण - रत्न सक्कर थी केतला भांगा ? उत्तर लार नरक रही पांच तिणमें एक छेहलो आंक पांचो घटाय देणो । बाकी च्यार आंक अनुक्रम मांडणा ११२।३।४ हिवं एहनी संख्या गिणणी -एक दोय -तीन, तीन ने तीन छ, छ नै च्यार दश, इम रत्न सक्कर थी दश भांगा। रत्न वालु थी केतला भांगा? उत्तर- लारै नरक रही च्यार । तिणमें एक छेहलो आंक चोको घटाय देणो। बाकी तीन आंक अनुक्रम मांडी गिणणा - १।२।३। हिवै एहनी संख्या गिणणी-एक ने दोय -- तीन, तीन ने तीन --छह, इम रत्न वालु थी छह भांगा। रत्न पंक थी केतला भांगा हुवै ? उत्तर-लारै नरक रही तीन । तिणमें एक छेहलो आंक तीयो घटाय देणों। बाकी दोय आंक अनुक्रम मांडी गिणणा --- १२। हिवं तेहनी संख्या गिणणी एक ने दोय तीन । इम रत्न पंक थी तीन भांगा। इम रत्न धूम थी एक भांगो हुवै ।। सक्कर वालु थी केतला भांगा हुवै ? उत्तर - लार नरक रही ४ । तिणमें एक छहलो आंक चोको घटाय देणो। बाकी तीन आंक अनुक्रम मांडी गिणणा-१।२।३ । हिवै एहनी संख्या गिणणी एक ने दोय -तीन, तीन नै तीन । छह, इम सक्कर बालु थी ६ भांगा। सकार पंक थी केता भांगा हुवै ? उत्तर ---लार नरक रही तीन, तिणमें एक तीयो घट य देणो । बाकी दोय आंक अनुक्रम मांडी गिणणा ....१२। हिवै पहनी संख्या गिणणी एक ने दोय. तीन, इम सक्कर पंक थी ३ भांगा। इम सक्कर धूम थी भांगो एक हुवे । वालु थी भांगा ४ । ते वालु पंक थी तीन पूर्ववत गिणवा, वालु धूग थी एक एवं ३४, पंक धूम थी एक, एवं ३५ । तीन नरक रो नाम लेइ पूछयां लार जेतली नरक रहै तेतला भांगा कहिवा । १३६. *नव बत्तीस देश ढाल ए, इकसौ सितंतरमी । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' सुख गण धरमी ।। * लय : गुणी गुण गावो रे ६८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल: १७८ दूहा १.पंच नेरइया हे प्रभ ! नरक-प्रवेशन काल । रत्नप्रभा में स्यं हवै जाव सप्तमी न्हाल? २. जिन भाखै सुण गंगेया ! रत्नप्रभा उत्पात । जावत अथवा सप्तमी, इक-संयोगिक सात ।। १. पंच भंते ! नेरइया ने रइयप्पवेसणएण पविसमाणा कि रयणप्पभाए होज्जा? पुच्छा। २. गंगेया ! रयणपभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा। पांच जीवां रा इकसंजोगिया भांगा सात हिवं पांच जीत नां द्विसंजोगिया, तेहनां विकल्प ४, भांगा चउरासी। तिणमें प्रथम रल थी ६ भांगः ४ विकल्प करि २४ भांग, कहे छै ३. तथा एक ह रत्न में, सकरप्रभा में च्यार। जाव तथा इक रत्न में, चिहुं तनामा मझार।। ४. तथा दोय व रत्त में, तीन सकार रै मांहि । इम जावत वे रत्न में, तीन सप्तमी लाहि ।। ५. तथा तीन ह रत्न में, दोय सक्कर उपजत । इम जावत त्रिण रत्न में, तीन तमतभा हंत ॥ ६. तथा रत्न में जीव चिहं, सक्करप्रभा में एक । जाव तथा चिहुँ रत्न में, एक सप्तभी पेख ।। हिवै सक्कर थी ५ भांगा ४ विकल्प करि २० भांगा कहै छ ७. अथवा इक सक्कर, मझे, वालुप्रभा में च्यार । जाव तथा इक सक्कर में, चिहुं तमतमा नझार ।। ८.अथवा बे सक्कर मझे, बालुप्रभा में तीन । जाव तथा बे सक्करे, तीन तमतमा लीन ।। ३. अहवा एगे रपणप्पभाए चत्तारि सक्करप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे रयणप्पभाए चत्तारि अहेसत्तमाए होज्जा। ४. अहवा दो रयणप्पभाए तिणि सकारणभाए होज्जा एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए तिणि अहेसत्तमाए होज्जा। ५. अहवा तिण्णि रयणपभाए दोष्णि सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहेसत्तमाए होज्जा। ६. अहबा चत्तारि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा . एवं जाव अहवा चत्तारि रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए 1. होज्जा। ७-१०. अहवा एगे सक्करप्पभाए चत्तारि वालुयप्पभाए होज्जा । एव जहा रयणप्पभाए समं उवरिमपुढवीओ चारियाओ तहा सक्करप्पभाए वि समं चारेयवाओ श०६, उ० ३२, ढाल १७८ ६६ Jain Education Intemational Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाव अहवा चत्तारि सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। ११-२४. एवं एक्केक्काए समं चारेयवाओ जाव अहवा चत्तारि तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । ६. अथवा त्रिण सक्कर मझे, वालुप्रभा में दोय । जाव तथा त्रिण सक्करे, दोय तमतमा होय ।। १०. तथा जीव चिहं सक्करे, वालुप्रभा में एक । जाव तथा चिहुं सक्करे, एक तमतमा पेख ॥ हिवं वालु थी ४ भांगा ४ विकल्प करि १६ भांगा कहै छ११. तथा जीव इक वालुका, च्यार पंक में जाय । जाव तथा इक वालुका, च्यार तमतमा पाय ॥ १२. तथा जीव बे वालुका, तीन पंक में जाण । जाव तथा बे वालुका, तीन तमतमा आण ।। १३. तथा जीव त्रिण वालुका, दोय पंक उपजंत । जाव तथा त्रिण वालुका, दोय सप्तमी हंत ॥ १४. तथा जीव चिहुं वालुका, एक पंक में होय । जाव तथा चिहुं वालुका, एक तमतमा जोय ।। हिवं पंक थी ३ भांगा ४ विकल्प करि १२ भांगा कहै छ१५. तथा जीव इक पंक में, च्यार धम रै माय । जाव तथा इक पंक में, च्यार तमतमा पाय । १६. तथा जीव बे पंक में, तीन धूम उपजत । जाव तथा बे पंक में, तीन तमतमा हंत ॥ १७. तथा जीव त्रिण पंक में, दोय धम में देख । जाव तथा त्रिण पंक में, दोय तमतमा पेख ।। १८. तथा जीव चिहुं पंक में, एक धूम रै मांय । जाव तथा चिहं पंक में, एक तमतमा पाय ॥ हिवं धूम थी २ भांगा ४ विकल्प करि ८ भांगा कहै छ१६. तथा जीव इक धुम में, च्यार तमा पहिछाण । तथा जीव इक धम में, च्यार तमतमा जाण । २०. तथा जीव बे धूम में, तीन तमा में ताम। तथा जीव बे धूम में, तीन तमतमा पाम ।। २१. तथा जीव त्रिण धूम में, दोय तमा में होय । तथा जीव त्रिण धुम में, दोय तमतमा जोय । २२. तथा जीव चिहुं धूम में, एक तमा रै माय । तथा जीव चिहुं धूम में, एक तमतमा पाय ॥ हिवं तम थी १ भांगो ४ विकल्प करि ४ भांगा कहै छ--- २३. तथा जीव इक तम छठी, च्यार तमतमा देख । तथा जीव बे तम छठी, तीन तमतमा पेख । २४. तथा जीव त्रिण तम छठी, दोय तमतमा जंत । तथा जीव चिहं तम छठी, एक तमतमा हंत । २५. पंच जीव द्विकयोगिका, विकल्प तेहनां च्यार । भांगा चउरासी भला, भणवा करि विस्तार ।। २५. विकसंयोगे तु चतुरशीतिः (वृ०प० ४४४) ७० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिौ रत्न थी ६ भागां चउथे विकल्प करि कहै छे पांच जीव नां द्विकसंजोगिया तेहनां विकल्प ४. भांगा ८४ तेहनों यंत्र । हिवं रत्न थी ६ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ | १६ | १ ४ १ • • • • • | २ | २ | १ . ४ • ० • • • २१ | ३ ४ १ • • • ० ها به اسه | " ० |६|६| १ | • • • • • | ४ | हिवं रत्न थी ६ भांगा दूजे विकल्प करि कहै छ -- | २४ | ६ | ४ • • • • • १ | ए रत्न थी ४ विकल्प करि २४ भांगा कहा। हिवै सक्कर थी ५ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै --- २६ २ १ . ४ . . . | २६ | ५ | • १ . • • •| ४ | हिव सक्कर थी ५ भांगा दूजे विकल्प करि कहै छ - हिवं रत्न थी ६ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ | ३२ | ३ . २ • • | ३| • • श०६, उ०३२ दाल १७८ ७१ Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै सक्कर थी ५भांगा तीज विकल्प करि क है छै -- हिवै वालु थी ४ भांगा तीज विकल्प करि कहै छै र स वा पं धूत | तम ३५ १ . ३ २ . . . | m हिवै वालु थी ४ भांगा चउर्थ विकल्प करि कहै छ.... हिवं सक्कर थी ५ भांगा चउथै विकल्प करि कहै छ ---- | ५८ २ ४ | |१|| । . ० ० ए वालु थी ४ विकल्प करि १६ भांगा कह्या । हिवं पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै ---- ए सक्कर थी ४ विकल्प करि २० भांगा कहा। हिवै वालु थी ४ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै— हिवं पंक थी ३ भांगा दूज विकल्प करि कहै छै - हिवै वालु थी ४ भांगा दूज विकल्प करि कहै छै - हिवे पंक थी ३ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ । ० m | ० | ० ७२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ ७५ ७६ ७७ ७८ ७६ ८० ८१ ८२ ८३ हि पंक थी ३ भांगा चउथे विकल्प करि कहै छै - पं १ २ ३ १ १ २ ० १ २ 0 १ २. ए पंक थी ४ विकल्प करि १२ भांगा कहाा । हिवं धूम थी २ मांगा प्रथम विकल्प करि कहै छे ० १ o १ ० हिवं धूम थी ? भांगा जे विकल्प करि कहै छै ० स o o c o 0 वा हिवे धूम थी ? भांगा तीजे विकल्प करि कहे ० o o o ० o ० 0 o ० ४ 1 हिवं घूम घी २ भांगा चौथे विकल्प करि कहै छै - О ० ० धू १ ० ए धूम थी ४ विकल्प करि भांगा का । हिवं तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै - ० १ o ३ हिवे तम थी १ भांगो दुर्ज विकल्प करि कहै छे १ O o हिर्व तम थी १ भांगो तीज विकल्प करि कहै छे १ 1.1 १ ० १ तम o १ ४ ३ ० २ o १ ४ ३ ३ २ हिवं तम यी १ भांगो चउथे विकल्प करि कहै छ ८४ १ ० ए तम थी ४ विकल्प करि ४ भांगा का एवं पांच जीव नां द्विकसंजोगिया रत्न थी २४, सक्कर थी २० वालु श्री १६, पंक थी १२, धूम थी ८ तम थी ४, एवं सर्व ८४ भांगा थया । ० ० o ४ १ श०६, उ० ३२, ढाल १७८ ७३ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७,२८ त्रिकयोगे तु सप्तानां पदानां पञ्चविंशद्विकल्पाः, पञ्चानां च त्रित्वेन स्थापने षड् विकल्पास्तद्यथा.... तदेवं पञ्चत्रिंशतः षड्भिर्गुणने दशोत्तरं भङ्गकशतद्वयं भवति । (वृ०प० ४४४) २६-३१. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए तिण्णि वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए तिणि अहेसत्तमाए होज्जा । २६. पंच जीव नां हिव कहूं, त्रिकसंयोगिक तेह । षट विकल्प करि भंग तसं, बे सौ दश गिण लेह ।। पंच जीव नां त्रिकसंजोगिया ६ विकल्प करि २१० भांगा कहै छ*२७. पनर भांगा रत्न सेती, सक्कर थी दश जणिय । वालु थी षट, पंक थी त्रिण, धूम थी इक आणियै ।। २८. एह जे पैंतीस भांगा, षट विकल्प करि षटगुणां । दोयसौ दश भंग होवै, पंच जे जीवां तणां ।। ___ वा०-- रत्न थी पनर, तिके रत्न सक्कर थी ५, रत्न वालु थी ४, रत्न पंक थी३, रत्न धूम थी २, रत्न तम थी १, एवं १५ भांगा ६ विकल्प करि जुआ कहै छ-प्रथम रत्न सक्कर थी ५ भांगा ६ विकल्प करि ३० भांगा कहै छप्रथम विकल्प करि ५ भांगा श्रिी जिन भाखै सुण गंगेया ! (ध्रुपदं) २६. अथवा एक रत्न इक सक्कर, तीन वाल में होय जी। अथवा एक रत्न इक सक्कर, तीन पंक अवलोय जी।। ३०. अथवा एक रत्न इक सक्कर, तीन धम रै माय । अथवा एक रत्न इक सक्कर, तीन तमा में जाय ।। ३१. अथवा एक रत्न इक सक्कर, तीन सप्तमी होय । धर विकल्प करि रत्न सक्करसं,पंच भांगाए जोय ॥ दूजे विकल्प करि ५ भांगा३२. अथवा एक रत्न दोय सक्कर, दोय वाल रै माय । अथवा एक रत्न दोय सक्कर, दोय पंक दुख पाय ॥ ३३. अथवा एक रत्न दोय सक्कर, दोय धमका जाय । अथवा एक रत्न दोय सक्कर, दोय तमा रै माय ।। ३४. अथवा एक रत्न दोय सक्कर, दोय तमतमा माय । द्वितीय विकल्प रत्न सक्कर थी,पंच भांगा इमथाय ।। तीज विकल्प करि ५ भांगा३५. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, दोय वालुका हुंत । अथवा दोय रत्न इक सक्कर, दोय पंक उपजंत ।। ३६. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, दोय धूम दुखदाय । अथवा दोय रत्न इक सक्कर, दोय तमा रै मांय ।। ३७. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, दोय सप्तमी होय । तृतीय विकल्प रत्न सक्कर थी, पंच भंगा इम होय ॥ चउथ विकल्प करि ५ भांगा - ३८. अथवा एक रत्न त्रिण सक्कर, एक वालुका जाण । अथवा एक रत्न त्रिण सक्कर, एक पंक पहिछाण ।। ३६. अथवा एक रत्न त्रिण सक्कर, एक धूमका मांय । अथवा एक रत्न त्रिण सक्कर, एक तमा दुख पाय ।। 'लय : पूज मोटा भांज तोटा लियः श्री पूज्य भीखणजी रो समरण कोज १४ भगवती-जोड़ ३२-३४. अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए दो वालु यप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा। ३५-३७. अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा । ३८-४०. अहवा एगे रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए एगे बालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए तिषिण सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। Jain Education Intemational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. अथवा एक रत्न त्रिण सक्कर, एक तमतमा देख । चोथो विकल्प रत्न सक्कर सूं, पंच भंगा इम लेख ।। पांचवें विकल्प करि ५ भांगा ४१. अथवा दोय रत्न दो सक्कर, एक वालुका जंत । अथवा दोय रत्न बे सक्कर, एक पंक में हुंत ॥ ४२. अथवा दोय रत्न दो सक्कर, एक धूम अवसोय । अथवा दोय रत्न बे सक्कर, जीव एक तम जोय ॥ ४३. अथवा दोय रत्न दो सक्कर, एक तमतमा आय । पंचम विकल्प रत्न सक्कर थी, भंग पंच इम थाय ॥ छठ विकल्प करि ५ भांगा — ४४. अथवा तीन रत्न इक सक्कर, एक वालु आख्यात | अथवा तीन रत्न एक सक्कर, एक पंक दुख पात ॥ ४५. अथवा तीन रत्न एक सक्कर, एक धूम में जान । अथवा तीन रत्न एक सक्कर, एक तमा अघखान ॥ ४६. अथवा तीन रत्न एक सक्कर, एक तमतमा गेह । छ विकल्प रत्न सक्कर थी, भंग पंच इम लेह ॥ हिवै रत्न वालु थकी च्यार भांगा हुवै, ते छह विकल्प करि २४ भांगा हुवं । प्रथम विकल्प करि ४ भांगा ४७. अथवा एक रत्न एक वालुक, तीन पंक पहिछाण जाव तथा एक रत्न वालु इक, तीन तमतमा जान ॥ दूजै विकल्प करि ४ भांगा ४८. अथवा एक रत्न बे वालुक, दोय पंक में देख । जाव तथा एक रत्न वालु बे, दोय तुमतमा पेख ॥ तीजे विकल्प करि भांगा ४६. अथवा दोय रत्न इक वालु, दोय पंक दुख पाय । जाव तथा बे रत्न वालु इक, दोय तमतमा मांय ॥ चउथे विकल्प करि ४ भांगा ५०. अथवा एक रत्न त्रिण वालुक, एक पंक रै मांय । जाव तथा इक रत्न वालु त्रिण, एक सप्तमी पाय ॥ पांचवें विकल्प करि ४ भांगा ५१. अथवा दोय रत्न दोय वालुक, एक पंक अवलोय ॥ जाव तथा वे रत्न वालु बे, एक सप्तमी होय ॥ छठें विकल्प करि ४ भांगा ५२. अथवा तीन रत्न एक वालुक, एक पंक दुखखान । जाव तथा त्रिण रत्न वालु इक, एक तमतमा जान ॥ हि रत्न पंक थी त्रिण भांगा हुवै, ते छह विकल्प करि १८ भांगा कहै $1 ४१-४३. अहवा दो रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव असत्तमाए । ४४-४६. अहवा तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा तिणि रणभाए एगे सस्करणपनाए एने असमाए होज्जा | ४७-११५. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए तिष्णि पंकप्पभाए होज्जा एवं एएणं कमेणं जहा उन्हं तियासंजोगो भणितो वहा पंचन्ह विवियासजोगो भागियो, नव-तथा एमो संचारिज, इह दोणि, सेसं तं चैव जाव अहवा तिण्णि धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । श० ६, उ० ३२, ढाल १७८ ७५ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम विकल्प करि ३ भांगा५३. अथवा एक रत्न इक पंके, तीन धूमका हुंत । जाव तथा इक रत्न पंक इक, तीन तमतमा जंत ।। दूजै विकल्प करि ३ भांगा५४. अथवा एक रत्न बे पंके, दोय धूमका देख । जाव तथा इक रत्न पंक बे, दोय सप्तमी लेख । तीजै विकल्प करि ३ भांगा५५. अथवा दोय रत्न इक पंके, दोय धूमका स्थान । जाव तथा बे रत्न पंक इक, दोय सप्तमी जान ।। चौथ विकल्प करि ३ भांगा५६. अथवा एक रत्न त्रिण पंके, एक धूमका हुंत । जाव तथा इक रत्न पंक त्रिण, एक सप्तमी जंत ।। पांचवें विकल्प करि ३ भांगा५७. अथवा दोय रत्न दोय पंके, एक धूमका मांय । जाव तथा बे रत्न पंक बे, एक तमतमा जाय ॥ छ विकल्प करि ३ भांगा५८. अथवा तीन रत्न इक पंके, एक धूमका होय । जाव तथा त्रिण रत्न पंक इक, एक सप्तमी सोय ॥ हिवै रत्न धूम थी दोय भांगा ६ विकल्प करि १२ भांगा कहै छ प्रथम विकल्प करि २ भांगा-५६. अथवा एक रत्न इक धूमा, तीन तमा उपजत । अथवा एक रत्न इक धूमा, तीन तमतमा हुँत ।। दूजे विकल्प करि २ भांगा६०. अथवा एक रत्न बे धूमा, दोय तमा रै माय । अथवा एक रत्न बे धूमा, दोय तमतमा जाय ।। तीजै विकल्प करि २ भांगा६१. अथवा दोय रत्न इक धूमा, दोय तमा दुख पाय । अथवा दोय रत्न एक धूमा, दोय तमतमा मांय ।। चउथ विकल्प करि २ भांगा६२. अथवा एक रत्न त्रिण धूमा, एक तमा दुखखान । अथवा एक रत्न त्रिण धूमा, एक तमतमा जान ।। पांचवें विकल्प करि ३ भांगा६३. अथवा दोय रत्न दोय धमा, एक तमा आख्यात । अथवा दोय रत्न दोय धूमा, एक तमतमा जात ।। छठ विकल्प करि २ भांगा६४. अथवा तीन रत्न इक धूमा, एक तमा अघस्थान । अथवा तीन रत्न इक धूमा, एक सप्तमी जान ।। ७६ भगवती-जोड़, Jain Education Intemational Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं रत्न तमा थी एक भांगो ६ विकल्प करि ६ भांगा कहै छ--- ६५. अथवा एक रत्न इक तमा, तीन सप्तमी जंत । अथवा एक रत्न दो तमा, दोय तमतमा हंत ।। ६६. अथवा दोय रत्न इक तमा, दोय तमतमा जाय । अथवा एक रत्न त्रिण तमा, एक सप्तमी मांय ।। ६७. अथवा दोय रत्न दोय तमा, एक सप्तमी होय । अथवा तीन रत्न इक तमा, एक तमतमा जोय ।। एवं रल थी १५ भांगा, ते ६ विकल्प करि ६० भांगा कह्या । हिवं सक्कर थी १० भांगा हुवं । ते सक्कर वालु थी ४, सक्कर पंक थी ३, सक्कर धूम थी २, सक्कर तन थी १-एवं १० भांगा ६ विकल्प करि ६० भांगा ते प्रथम सक्कर वालु थी ४ भांगा ६ विकल्प करि २४ भांगा कहै छै प्रथम विकल्प करि ४ भांगा६८. अथवा एक सक्कर इक वालुक, तीन पंक दुखराश । जाव तथा इक सक्कर वालु इक, तीन तमतमा तास । दूजे विकल्प करि ४ भांगा६६. अथवा एक सक्कर बे वालुक, दोय पंक दुखधाम । जाव तथा इक सक्कर वालु बे, दोय तमतमा पाम ।। तीजै विकल्प करि ४ भांगा७०. अथवा दोय सक्कर इक वालुक, दोय पंक रै माय । जाव तथा बे सक्कर वालु इक, दोय तमतमा जाय ।। चउथ विकल्प करि ४ भांगा७१. अथवा एक सक्कर त्रिण वालुक, एक पंक अवलोय । जाव तथा इक सक्कर वालु त्रिण, एक पंक में होय ।। पांचवें विकल्प करि ४ भांगा७२. अथवा बे सक्कर बे वालुक, एक पंक पहिछाण । जाव तथा बे सक्कर वालु बे, एक सप्तमी स्थान ।। छठे विकल्प करि ४ भांगा-- ७३. अथवा तीन सक्कर इक वालुक, इक पंक उपजत । जाव तथा त्रिण सक्कर वालु एक, एक तमतमाहंत ।। हिवै सक्कर पंक थी तीन भांगा ६ विकल्प करि १८ भांगा। प्रथम विकल्प करि ३ भांगा७४. अथवा एक सक्कर एक पंके, तीन धूम रै माय । जाव तथा इक सक्कर पंक इक, तीन सप्तमी जाय ।। दूजै विकल्प करि ३ भांगा७५. अथवा एक सक्कर दो पंके, दोय धूम में देख। जाव तथा इक सक्कर पंक बे, दोय तमतमा लेख । श० उ० ३२, दाल १७८ ७७ Jain Education Intemational Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीजै विकल्प करि ३ भांगा ७६. अथवा दो सक्कर इक पंके, दोय धूम उपजंत । जाव तथा दो सक्कर पंक इक, दोय सप्तमी हुंत ॥ चउथ विकल्प करि ३ भांगा- ७७. अथवा एक सक्कर त्रिण पंके, एक धूम अवलोय । जाव तथा इक सक्कर पंक त्रिण, एक सप्तमी होय ॥ पांचवें विकल्प करि ३ भांगा ७८. अथवा बे सक्कर दो पंके, एक जाव तथा बे सक्कर पंक बे, एक छठे विकल्प करि ३ भांगा७६. अथवा त्रिण सक्कर इक पंके, एक धूम अवदात । जाव तथा त्रिण सक्कर पंक इक, एक सप्तमी थात ॥ हि सक्कर धूम थी २ भांगा छह विकल्प करि १२ भांगा कह्या । प्रथम विकल्प करि २ भांगा ८०. अथवा एक सक्कर एक धूमा, त्रिण तमा रै मांय । अथवा एक सक्कर इक धूमा, तीन सप्तमी जाय ॥ दूर्जे विकल्प करि २ भांगा धूम अघस्थान । तमतमा जान ॥ ८१. अथवा इक सक्कर बे धूमा, दोय तमा दुखराश । अथवा इक सक्कर दोय धूमा, दोय सप्तमी तास । तीज विकल्प करि २ भांगा ८२. अथवा दो सक्कर इक धूमा, दोय तमा दुखदाय ॥ अथवा वे सक्कर इक धूमा, दोय सप्तमी जाय || चतुर्थं विकल्प करि २ भांगा ८३. अथवा इक सक्कर त्रिण धूमा एक तमा अघपूर । अथवा एक सक्कर त्रिण धूमा, एक तमतमा भूर ।। पांचवें विकल्प करि २ भांगा ८४. अथवा बे सक्कर दो धूमा, एक तमा उपजंत । अथवा दोय सक्कर दो धूमा, एक तमतमा हुंत ॥ छठे विकल्प करि २ भांगा-, ८५. अथवा त्रिण सक्कर इक धूमा, एक तमा में होय । अथवा त्रिण सक्कर इक धूमा, एक तमतमा जोय ॥ हि सक्कर तम थी १ भांगो ६ विकल्प करि कहै छै - ७८ ८६. अथवा एक सक्कर इक तमा, तीन तमतमा मांय । अथवा इक सक्कर दोय तमा, दोय तमतमा जाय ।। ८७. अथवा बे सक्कर इक तमा, दोय तमतमा जंत । अथवा इक सक्कर त्रिण तमा, एक तमतमा हुंत ॥ ८८. अथवा बे सक्कर दोय तमा, एक सप्तमी होय । अथवा तीन सक्कर इक तमा, एक तमतमा जोय ॥ भगवती-जोड़ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं सक्कर थी १० भांगा, ते ६ विकल्प करि ६० भांगा का । हिव वालु थी ६ भांगा हुवै ते वालु पंक थी ३, वालु धूम थी २, वालु तम ते ६ विकल्प करि ३६ भांगा, तेहमें प्रथम वालू पंक थी ३ भांगा ६ विकल्प करि कहै छ थी १ प्रथम विकल्प करि ३ भांगा८६. अथवा एक वालु इक पंके, तीन रै मांय । धूम जाव तथा इक वालु पंक इक, तीन सप्तमी जाय ।। दूजै विकल्प करि ३ भांगा १०. अथवा एक वालु वे पंके, दोय धूम उपजंत ॥ जाव तथा इक वालु पंक बे, दोय तमतमा हुंत ॥ तीज विकल्प करि ३ भांगा १. अथवा बे वालुक इक पंके, दोय धूम में होय । जाव तथा बे वालु पंक इक, दोय सप्तमी जोय ॥ चउथे विकल्प करि ३ भांगा ६२. अथवा इक वालु त्रिण पंके, एक धूमका स्थान । जाव तथा इक वालु पंक त्रिण, एक तमतमा जान ॥ पांचवें विकल्प करि ३ भांगा६३. अथवा बे वालू बे पंके, जाव तथा बे वालु पंक बे, छठ विकल्प करि ३ भांगा- एक धूम में देख । एक सप्तमी लेख || ६४. अथवा त्रिण वालू इक पंके, एक धूम आख्यात | जाव तथा त्रिण वालु पंक इक, एक तमतमा पात ॥ हिवे वालू धूम थी २ भांगा, ले ६ विकल्प कर १२ भांगा कहै छे - प्रथम विकल्प करि २ भांगा ९५. अथवा इक वालू इक धूमा, तीन अथवा इक वालु इक घुमा तीन दूर्ज विकल्प करि २ भांगा६६. अथवा इक वालु बे अथवा इक वालु बे तीज विकल्प करि २ भांगा तमा रै मांय । सप्तमी जाय || धूमा, दोय तमा दुखदाय । धूमा, दोय तमतमा पाय । ६७. अथवा 'वालु इक धूमा, दोय तमा दुखगेह । अथवा बे वालु इक धूमा, दोय तमतमा लेह ॥ चउर्थ विकल्प करि २ भांगा ६८. अथवा इक वालु त्रिण धूमा, एक तमा अवलोय । अथवा इक वालु त्रिण धूमा, एक तमतमा जोय || पांचवें विकल्प करि २ भांगा ६६. अथवा बे वालु बे धूमा, एक तमा अघपूर । अथवा बे बाल बे धूमा एक तमतमा भूर ॥ श० ६, उ० ३२, ढाल १७८ ७६ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठे विकल्प करि २ भांगा१००. अथवा त्रिण वालु इक धूमा, एक तमा अघरास । अथवा त्रिण वालु इक धूमा, एक तमतमा वास । हिवै वालु तम थी १ भांगो ते ५ विकल्प करि कहै छै१०१.अथवा इक वालु इक तमा, तीन तमतमा पाय । अथवा इक वालु बे तमा, दोय तमतमा जाय । १०२. अथवा बे वालु इक तमा, दोय तमतमा होय । अथवा इक वालु त्रिण तमा, एक तमतमा जोय । एवं वालु थी ६ भांगा, ते ६ विकल्प करि ३६ भांगा कह्या । १०३. अथवा बे वालु बे तमा, एक सप्तमी माय । अथवा त्रिण वालु इक तमा, एक तमतमा जाय ।। हिवं पंक थी तीन भांगा। ते पंक धूम थी २, अन पंक तम थी १ -एवं तीन । पंक थी ६ विकल्प करि अठार भांगा हुवै । प्रथम पंक धूम थी २ भांगा, ते ६ विकल्प करि कहै छै प्रथम विकल्प करि २ भांगा१०४. अथवा एक पंक एक धमा, तीन तमा कहिवाय । अथवा एक पंक इक धूमा, तीन तमतमा माय ।। दूजे विकल्प करि २ भांगा१०५. अथवा एक पंक बे धूमा, दोय तमा दुखस्थान । अथवा एक पंक बे धूमा, दोय तमतमा जान ।। तीजै विकल्प करि २ भांगा१०६. अथवा दोय पंक इक धमा, दोय तमा अघराश। अथवा दोय पंक इक धूमा, दोय तमतमा वास । चउथै विकल्प करि २ भांगा१०७. अथवा एक पंक त्रिण धमा, एक तमा अवलोय । अथवा एक पंक त्रिण धूमा, एक तमतमा होय ।। पांचवें विकल्प करि २ भांगा१०८.अथवा दोय पंक बे धूमा, एक तमा दुखराश । अथवा दोय पंक बेधूमा, एक तमतमा तास ॥ छठ विकल्प करि २ भांगा१०६. अथवा त्रिण पंके इक धमा, एक तमा में जंत । अथवा त्रिण पंके इक धमा, एक तमतमा हंत ।। हिवै पंक तम थी एक भांगो ६ विकल्प करि कहै छ११०. अथवा एक पंक एक तमा, त्रिण तमतमा मांय । अथवा एक पंक दोय तमा, दोय तमतमा पाय ।। १११.अथवा दोय पंक इक तमा, दोय तमतमा होय । अथवा एक पंक त्रिण तमा, एक तमतमा जोय । ११२. अथवा दोय पंक दोय तमा, एक तमतमा जंत। अथवा त्रिण पंके इक तमा, एक तमतमा हुंत ॥ एवं पक थी ३ भांगा, ते ६ विकल्प करि १८ भांगा ह्या । हिवं धूम थी एक भांगो हुवं, ते ६ विकल्प करि कहै छ ८० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३. अथवा एक धूम एक तमा, तीन तमतमा तेह। अथवा एक धूम दोय तमा, दोय तमतमा लेह ॥ ११४. अथवा दोय धम एक तमा, दोय तमतमा देख । अथवा एक धूम त्रिण तमा, एक तमतमा लेख । ११५. अथवा दोय धम दोय तमा, एक तमतमा माय । अथवा त्रिण धूम एक तमा, एक तमतमा पाय ॥ एवं पंच जीव रा त्रिकसंजोगिया रत्न थी ६०, सक्कर थी ६० वालुका थी ३६, पंक थी १८, धूप थी ६, एवं सर्व २१० भांगा कह्या। ११६. पनर रत्न थी सक्कर थी दश, षट वालु थी जगीस। पंक थकी त्रिण धूम थकी इक, एवं भंग पणतीस ।। ११७. पंच जीव नां त्रिकसंजोगिक, षट विकल्प करि एह। दोयसौ नै दश भांगा दाख्या, निपुण विचारी लेह । हिवै पांच जीव नां त्रिकसंयोगिया विकल्प छप्पय ११८. एक एक नैं तीन, प्रथम विकल्प पहिचानो। एक दोय नैं दोय, द्वितीय विकल्प दिल आनो। दोय एक नैं दोय, ततीय विकल्प तहतीको। एक तीन नैं एक, तुर्य विकल्प ए नीको । फुन दोय दोय नै एक, इम पंचम एह प्रयोगिका । त्रिण एक एक षष्टम कह्य, पंच जीव त्रिकयोगिका। ११८. पञ्चानां च त्रित्वेन स्थापने षड् विकल्पास्तद्यथा ---एक एकस्त्रयश्च, एको हो द्वो च, द्वावेको द्वौ च, एकस्त्रय एकश्च, द्वौ द्वावेकश्च, त्रय एक एकश्चेति । (वृ०प०४४४) पांच जीव रा त्रिकसंजोगिया तेहनां विकल्प छह मांगा दोय सौ दश। रत्न थी १५, सक्कर थी १०, वालु थी ६, पंक थी ३, धूम थी १, एवं ३५ ते छह विकल्प कर दोय सौ दस भांगा हुवे । एक-एक विकल्प ना रत्न थी १५ ते किसा? रत्न सक्कर थी ५, रत्न वालु थी ४, रत्न पंक थी ३, रत्न धूम थी २ रत्न तम थी १ एवं १५, छह विकल्प कर ६०। हिवं रत्न सक्कर थी पांच भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ..... स वा पं धू त तम WIU K श०६,उ०३२, ढाल १७८ ८१ Jain Education Intemational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिव रत्न सक्कर थी ५ भांगा दूज विकल्प करि कहै छ ---- हिव रत्न सक्कर थी ५ भांग पंचमें विकल्प करि कहै छ | | र| स | वा| पं| ५ | त । तम | २२ | २ | २ | २ • २३ | ३ | २ | २| • १ • • १ • • • | • | १ | २ | • • • | २ . | २५ | ५ २ २ • • • • | १ | हिवं रल सक्कर थी ५ भांगा छठे विकल्प करि कहै छ - हिवं रत्न सक्कर थी ५ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ - | २७ | २ | ३ | १ | १ • • • | हिवं रत्न सक्कर थी पांच भांगा चउथे विकल्प करि कहै छ - ए रत्न सक्कर थी ५ भांगा ६ विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिवं रत्न वालु थी ४ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै ... ३१ १ १ रत्न, १ वालुक, ३ पंक ३२ २ १ रत्न, १ वालुक, ३ धूम RAL -tu ३ | १ रत्न, १ वालुक, ३ तम १८ | ३ | १ | ३ | | १६ | ४| १ | ३ | . | १ | • • . . . . | ३४ ४ १ रत्न, १ वालुक, ३ तमतमा हिवै रत्न वालु थी ४ भांग दूज विकल्प करि कहै छै ३५ १ १ रत्न, २ वालुक, २पंक १ रत्न, २ वालुक, २ धूम ३७, ३ १ रत्न, २ वालुक, २ तम ४ १रल, २ वालुक, २ तमतमा ८२ भगवती-जोड़ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै रत्न पंक थी ३ भांगा दूजै विकल्प करि कहे छ --- हि रत्न बालु थी ४ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ ---- ३६ १ | २ रत्न, १ वालुक, २ पंक १ १ रत्न, २ पंक २ धूम ४० २ २ रत्न, १ वालुक, २ धूम २ | १ रत्न २ पंक, २ तम | २ रत्न, १ वालुक, २ तम | १ रत्न,२पंक, २ तमतमा हिवं रत्न पंक थी ३ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ ४२ ४ २ रत्न. १ वालुक, २ तमतमा हिवं रत्न वालु थी ४ भांगा चौथे विकल्प करि कहै छ - २ रल, १पंक, २ धूम २ रत्न, १पंक, २ तम १ रत्न, ३ वालुक, १ पंक ४४ २ | १ रत्न, ३ वा लुक, १ धूम ३ २ रल, १ पंक, २ तमतमा हिव रत्न पंक थी ३ मांगा चउथे विकल्प करि कहै छै १ रत्न, ३ वालुक, १ तम ६४ ४ १ रत्न, ३ वालुक १ तमतमा १ रत्न, ३ पंक, १ धूम हिवै रत्न वालु थी ४ भांगा पंचमे विकल्प कर कहै छ-- १ रत्न, ३ पंक, १ तम २ रत्न, २ वालुक, १ पंक ३ | १ रत्न, ३ पंक, १तमतमा ए | २ रत्न, २ वालुक, १ धूम हिवरल पंक थी ३ भांग पंचमें विकल्प करि कहै छ २ रत्न, २ वालुक, १ तम ६७ १ | २ रत्न, २ पंक, १ धूम . " २ रत्न, २ पंक, १ तम २ रत्न, २ वालुक १ तमतमा हिवं रत्न वालु थी ४ भांगा छठे विकल्प करि कहै छ २ रत्न, २५क, १ तमतमा ३ रत्न, १ वालुक, १ पंक हिवं रल पंक थी ३ भांगा छठे विकल्प कर कहै छै - ३ रत्न, १ वालुक, १ धूम ३ रत्न, १ पंक, १ धूम ३ | ३ रत्न, १ वालुक, १ तम da ३ रन, १ पंक, १ तम ४ ३ रत्न, १ वालुक, १ तमतमा ७२ ३ | ३ रत्न, १ पंक, १ तमतमा ए रल पंक थी ३ भांगा ६ विकल्प करि १८ भांगा कह्या । ए रत्न वालु थी ४ भांगा ६ विकल्प करि २४ भांगा कह्या। हिवं रत्न पंक थी तीन भांगा, ते छ विकल्प करि १८ भांगा हुवै । तिहां रत्न पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल करि कहै छ हिवं रत्न धूम थी २ भांगा ते छह विकल्प करि १२ भांगा हुवे । तिहां रत्न धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ -- ५५ १ १ रत्न, १ पंक, ३ धूम २१ रत्न, १ पंक, ३ तम १रल, १ धूम, ३ तम ३ | १ रत्न, १ पंक, ३ तमतमा ७४ २ १७ १ रत्न, १ धूम, ३ तमतमा श०६, उ० ३२, ढाल १७८ ८३ Jain Education Intemational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ ७७ ७६ १ रत्न, २ धूम, २ तमतमा हिव रक्त धूम थी २ भांगा तीजै विकल्प करि कहै छँ ७८ ७६ το ८१ २ रत्न, १ धूम, २ तमतमा हिव रत्न धूम थी २ भांगा चउथे विकल्प करि कहे छे ८२ हिवँ बूम रत्न थी २ भांगा दूर्जं विकल्प करि कहै छँ १ रत्न, २ धूम, २ तम ८३ १ ८४ २ १ रत्न, ३ धूम, १ तमतमा हिवे रत्न धूम थी २ भांगा पंचमें विकल्प करि कहै छे १ २ ८७ ८८ १ २ रत्न, २ धूम १ तमतमा हिवे रत्न धूम थी २ भांगा छठे विकल्प करि कहै छ १ ३ रत्न, १ धूम, १ तम २ २ रत्न, १ धूम, २ तम २ १ रत्न, ३ धूम, १ तम १ २ रत्न, २ धूम, १ तम २ ३ रत्न, १ धूम, १ तमतमा एल धूम थी २ भांग ६ विकल्प कर १२ भांगा कह्या हि रत्न तम थी १ भांगो ते ६ विकल्प करि ६ भांगा हुवै तिहां रत्न तम श्री १ भांगो प्रथम विकल्पे ८५ १ १ रत्न, १ तम, ३ तमतमा हिव रत्न तम थी १ भांगो दुर्ज विकल्प करि कहै छे ८६ १ १ रत्न २ तन, २ तमतमा हिवे रत्न तम थी १ भांगो तीजै विकल्प करि कहै छँ १ २ रत्न, १ तम, २ तमतमा हिवे रत्न तम थी १ भांगो चउथे विकल्प करि कहै छ १ १ रत्न, ३ तम, १ तमतमा ८४ भगवती-जोड़ हिव रत्न तन थी १ भांगो पंचमे विकल्प करि कहै छै - १ २ रत्न, २ तम, १ तमतमा हि रत्न तम थी १ भांगो छठे विकल्प करि कहै छ १ ३ रन, १ तम, १ तमतमा एवं रत्न थी १५ भांगा, एक-एक विकल्प नां हृवै ते माटै ६ विकल्प करि रत्न थी ६० भांगा थया । छह हम हिवै सक्कर थी एक-एक विकल्प नां १०-१० भांगा ते सक्कर वालु थी ४, सक्कर पंक थी ३, सक्कर घूम थी २, सक्कर तम थी १, एवं १० ते छ विकल्प करि ६० भांगा हुवै | तिहां सक्कर वालु थी ४ भांगा प्रथम विकल्प करके कहै छ ६१ ६२ ६३ ६४ ६५ ६६ १ सक्कर, १ बालुक, ३ तमतमा हि सकार वालु थी ४ भांगा दूर्ज विकल्प करि कहै छँ १ १ सक्कर, २ वालुक, २ पंक १ सक्कर, २ बालुक, २ धूम १ सक्कर, २ वालुक, २ तम १२, २ जना हि तनकर पी ४ नांगा की विकल करि कहै छै - ६७ ह && १०० ११ १०२ ܕ ३ ४ ४ १ २ ३. ४ १ सक्कर, १ वालुक, ३ पंक १ सक्कर, १ वालुक, ३ धूम १ सवकर, १ वालुक, ३ तम २ सक्कर, १ बालु २ पंक २ सक्कर, १ वालुक, २ धून २ सक्कर, १ वालुक, २ तम २ सक्कर, १ वालु २ तनतमा Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिव सक्कर वालु थी च्यार भांग। चउथे विकल्प करि कहै छ...-- हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ..-. १०३ | १ | १ सक्कर, ३ घालुक, १ पंक १२१ २ सक्कर, १पंक,२ धूम ४ १ सक्कर, ३ वालुक, १ धूम १२२ २ सक्कर, १ पंक, २ तम १ सक्कर, ३ वालुक, १ तम १२३ ३ २ सक्कर, १ पंक, २ तमतमा o १ सक्कर, ३ वालुक, १ तमतमा हिवं सक्कर पंक थी ३ भांगा चोथे विकल करि कहै छ-- हिवं सक्कर वालु थी ४ भांगा पंचमैं विकल्प करि कहै छै १२४ १ १ सक्कर, ३ पंक, १ धूम सक्कर, २ वालुक, १ पंक १२५ १ सक्कर, ३ पंक, १ तम १०८ २ २ सक्कर, २ वालुक, १ धूम १२६ १ सक्कर, ३ पंक, १ तमतमा ३ २ सक्कर, २ वालुक, १ तम हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा पंचमें विकल्प करि कहै छ - ४ २ सक्कर, २ वालुक, १ तमतमा १२७ १ २ सक्कर, २ पंक, १ धूम हिवै सक्कर वालु थी ४ भांगा छठ विकल्प करि कहै छै १२८ २ सक्कर, २ पंक, १ तम १११ ३ सक्कर, १ वालुक, १ पंक १२६ ३ | २ सक्कर, २ पक, १ तमतमा ३ सक्कर, १ वालुक, १ धूप हिवं सक्कर पंक थी ३ भांगा छठे विकल्प करि कहै छ - ११३ ३ सक्कर, १ वालुक, १ तम ३ सक्कर, १ पंक, १ धूम ११४ ४ ३ सक्कर, १ बालक, १ तमतमा ३ सक्कर, १ पंक, १ तम १३२ ३ ३ सकार, पंक, १ तमतमा ए सक्कर वालु थी ४ भांगा ६ विकल्प करि २४ भांगा कह्या । हिव सक्कर पंक थी ३ भांगा ते ६ विकल करि १८ भागा हुवे। तिहां सक्कर पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै ए सक्कर पंक थो ३ भांगा ६ विकल्प कार १६ भागा ह्या । हिव सक्कर धूम थी २ भांगा, ते छह विकल्प कर १२ भागा हुवे । तिहां सक्कर धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै ११५ | १ १ सक्कर, १ पंक, ३ धूम १ सक्कर, १ पंक, ३ तम १ सक्कर, १ पंक, ३ तमतमा १३३ | १ १ सक्कर, १ धूम, ३ तम हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा दूजै विकल्प करि कहै छ-- १३४ कर, १ धूम, ३ तनतमा १ सक्कर, २ पंक, २ धूम हिवं सक्कर धूम थी २ भांगा दूजे विकल्प करि कहै छ.. १३५ | १ | १ सक्कर, २ धूम, २ तम १ सक्कर, २ पंक, २ तम १ सक्कर, २ पंक, २ तमतमा १ सक्कर, २ धूम, २ तमतमा श० ६, उ० ३२, ढाल १७८ ८५ Jain Education Intemational Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं राक्कर धूम थी २ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ - हिवै सक्कर तम थी १ भांगो छठे विकल्प करि कहै छ-- ३ सक्कर, १ तम, १ तमतमा २ सक्कर, १ धूम, २ तम २२ सक्कर, १ धूम, २ तमतमा हिवै सक्कर धूम थी २ भांगा चोथे विपल्प करि कहै छ - ए सक्कर थी १० भांगा एक-एक विकल्प ना हवे, ते माटै ६ विकल्प करि सक्कर थी ६० भांगा थया । हिवै वालु थी इक-इक विकल्प नां छह-छह भांगा हुवै ते वालु पंक थी ३, वालु धूम थी २, वालु तम थी १, एवं वालु थी ६ ते छ विकल्प करि ३६ भांगा हुवं । तिहां वालु पंक थी ३ मांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ १ सक्कर, ३ धूम, १ तम १ सक्कर, ३ धून, १ तमतमा १ वालुक, १ पंक, ३ धूम हिवं सकार धूम थी २ भांगा पंचमें विकल्प करि कहै छ-- २१ व लुक, १ पंक, ३ तम २ सक्कर, १ धूम १ तम १५३३ १ वालुक, १ पंक, ३ तमतमा हिवै वालु पंक थी ३ भांगा दूजे विकल्प करि कहै छै .. १४२ | १ | २ सनकर, २ धूम, १ तमतमा । हिवं सककर धूम थी २ भांगा छठे विकल्प करि कहै छ १ वालुक, २ पंक, २ धूम ३ सक्कर, १ धूम, १ तम १ वालुक. २ पंक, २ तम ३ सक्कर, १ धूम, १ तमतमा १ वालुक, २ पंक,२ तमतमा ए सक्कर धम थी २ भांगा ६ विकल्प कर १२ भांगा कह्य । हिवै वाल पंक थी ३ भांगा तीज विकल्प करि कहै छै-- १५७ हिवै सक्कर तम थी १ भांगो ६ विकल्प करि ६ भांगा हुवं तिहां सक्कर तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ -- १ २ वालुक, १ पंक, २ धूम २ वालुक, १ पंक, २ तम १५८ १ सक्कर, १ तम, ३ तमतमा २ वालुक, १ पंक, २ तमतमा हिव सक्कर तम थी १ भांगो दुजै विकल्प करि कहै छ .. हिवै वालु पंक थी ३ भांगचौथे विकल्प करि कहै छ --- १४६ १ सक्कर, २ तम, २ तमतषा १ | १ वालुक, ३ पंक, १ धूम हिवै सकार तम थी १ मांगो तीजै विकल्प करि कहै छ ... । १ वालुक, ३ पंक, १ तम १४७, १ २ सकार, १ तन, २ तमतमा ३१ वालुक, ३ पंक, १ तमतमा हिवं सक्कर तम थी १ भांगो चोथे विकल्प करि कहै छ.. हिवै वालु पंक थी ३ भांगा पंचमें विकल्प करि कहै छ - - १४८ १ १ सक्कर, ३ तम, १ तमतमा १६३ २ वालुक, २ पंक, १ धूम हिवं सकार तम थी १ भांगो पंचमें विकल्प करि कहै छ - २ वालुरू, २ पंक, १ तम २ सक्कर, २ तम, १ तमतमा १६५ ३ | २ वालुक, २ पंक, १ तमतमा ८६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै वालु पंक थी ३ भांगा छठे विकल्प करि कहै छ १६६ ३ वालुक, १ पंक, १ धूम १६७ १६६ १६८ ए वालु पंक थी तीन भांगा ६ विकल्प करि १८ भांगा कह्या । हिव वालु धूम थी २ भांगा, ते ६ विकल्प करि १२ भांगा हुवै । तिहां वालु धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै - १७६ १ २ १७८ ३ १७६ १ १७० १ वालुक, १ धूम, ३ तमतमा हिवै वालु धूम थी २ भांगा दूजै विकल्प करि कहै छँ - १७१ १७२ १ वालुक, २ धूम, २ तमतमा हिवै वालु धूम थी २ भांगा तीज विकल्प करि है छँ १८० २ १ २ १ १७३ | १७४ २ वालुक, १ धूम, २ तमतमा हिव वालु धूम थी २ भांगा चोथे विकल्प करि कहै छँ १७५ २ १ ३ वालुक, १ पंक, १ तम ३ वालुक, १ पंक, १ तमतमा १ २ १ वालुक, ३ धूम, १ तमतमा हिव वालु धूम थी २ भांगा पंचमैं विकल्प करि कहै छै - १७७ २ वालुक, २ धूम, १ तम २ १ वालुक, १ धूम, ३ तम २ १ वालुक, २ धूम, २ तम २ वालुक, १ धूम २ तम २ वालुक, २ धूम, १ तमतमा हिव वालु धूम थी २ भांगा छठे विकल्प करि कहै छ १ ३ वालुक, १ धूम, १ तम १ वालुक, ३ धूम, १ तम ३ व लुक, १ धूम, १ तमतमा ए वालु धूम थी २ भांगा ६ विकल्प करि १२ भांगा कह्या । हि वालु तम थी १ भांगो, ते ६ विकल्प करि ६ भांगा हुवै । तिहां प्रथम विकल्प करि कहै छँ १-१ १ वालुक, १ तम, ३ तमतमा हिव वालु तम थी १ भांगो दूर्जे विकल्प करि कहै छँ १ वालुक, २ तम, २ तमतमा हिव वालु तम थी १ भांगो तीज विकल्प करि कहै छै - १८२ १८३ १ २ वालुक, १ तम, २ तमतमा हिव वालु तम थी १ भांगो चोथे विकल्प करि कहै छे १८४ १ १ वालुक, ३ तम, १ तमतमा हिव वालु तम थी १ भांगो पंचमें विकल्प करि कहै छँ १८७ १ १८५ १ २ वालुक, २ तम, १ तमतमा हिवै वालुक, तम थी १ भांगो छठें विकल्प करि कहै छ -- १ ३ वालुक, १ तम, १ तमतमा १८६ एवं वालु थी ६ भांगा, ते ६ विकल्प करि ३६ भांगा थया । हि पंक थी ३ भांगा, एक-एक विकल्प करि हुवं, ते पंक धूम थी २, पंक तम थी १ एवं पंक थी ३, छ विकल्प करि १८ भांगा हु | तिहा पंक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि १८८ १ १-६ १ पंक, १ धूम, ३ तमतमा हिव पंक धूम थी २ भांगा दूजे विकल्प करि कहै छ १ पंक, २ धूम, २ तम १६१ १६२ १ २ १६० १ पंक, २ धूम, २ तमतमा हिव पंक धूम थी २ भांगा तीज विकल्प करि कहै छे १ २ १ पंक, १ धूम ३ तम १ २ २ पंक, १ धूम, २ तम २ पंक, १ धूम, २ तमतमा श० ६, उ० ३२, ढाल १७८ ८७ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै पंक धूम थी २ भांगा चौथे विकल्प करि कहै छ हिवै धूम थी १ भांगो छ विकल्प करि कहै छ १ पंक, ३ धूम, १ तम । १ धूम, १ तम, ३ तमतमा १ धूम, २ तम, २ तमतमा १९४ २ १ पंक, ३ धूम, १ तमतमा हिवै पंक धूम थी २ भांगा पंचमे विकल्प करि कहै छ २ धूम, १ तम, २ तमतमा | २ पंक, २ धूम, १ तम ४ १धूम, ३ तम, १ तमतमा १६६ २२पंक, २ धूम, १ तमतमा ५ २ धूम, २ तम, १ तमतमा २०६ २१० हिव पंक धूम थी २ भांगा छठे विकल्प करि कहै छै-- ६ ३ धूम, १ तम, १ तमतमा ए धूम थी १ भांगो ६ विकल्प करि ६ भांगा कह्या । १९७, १३ पंक, १ धूम, १ तम १६८ २ ३ पंक, १ धूम, १ तमतमा ए पंक थी २ भांगा ६ विकल्प करि १२ भांगा कह्या । एवं पांच जीव नां त्रिकसंयोगिया नां विकल्प ६, एक-एक विकल्प नां भांगा पैतीस-पैतीस । रत्न थी १५, सक्कर थी १०, वालुक थी६, पंक थी ३, धूम थी?-- एवं ३५, ते ६ विकल्प करि २१० भांगा कह्या । ते छह विकल्प ना रल थी ६०, सक्कर थी ६०, वालुक थी ३६, पंक थी १८, धूम थी ६-एवं सर्व २१० भांगा। हिवं पंक तम थी १ भांगो ते ६ विकल्प करि ६ भांगा हुवै । तिहां पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ -- १६६ | १ | १ पंक, १ तम, ३ तमतमा Re-main हिवं पंक तम थी १ भांगो, ते दूजे विकल्प करि कहै छै २०० | १ | १ पंक, २ तम, २ तमतमा ११६ नवमें शतक इकतीसम देशज, इकसौ अठंतरमी ढाल। भिक्षु भारिमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' संपति माल। हिवं पंक तम थी १ भांगो तीजै विकल्प करि कहै छ २०१ २ पंक, १ तम, २ तमतमा हिवै पंक तम थी १ भांगो चोथे विकल्प करि कहै छ २०२ | १ | १ पंक, ३ तम, १ तमतमा हि पंक तम थी १ भांगो पंचमें विकल्प करि कहै छ २०३ | १ २ पंक, २ तम, १तमतमा हिवं पंक तम थी १ भांगो छठे विकल्प करि कहै छै २०४ १ ३ पंक, १ तम,१ तमतमा एवं पंक थी ३ भांगा छ विकल्प करि १८ भांगा थया। ८८ भगवती-जोड़ Jain Education Interational Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १७६ १. चतुष्कसंयोगे तु सप्तानां पञ्चत्रिशद्विकल्पाः, पञ्चानां चतुराशितया स्थापने चत्वारो विकल्पास्तद्यथातदेवं पञ्चत्रिंशतश्चतुभिर्गुणने चत्वारिंशदधिकं शतं भवतीति । (वृ०प० ४४४) २. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालु यप्पभाए दो पंकप्पभाए होज्जा ३-५. एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा । दूहा १. पंच जीव नां हिव कहं, चौक संयोगिक चंग। चिहु विकल्प करि तेहनां, इकसौ चालीस भंग॥ वाल-हिवं पांच जीव नां चउकसंजोगिक, तेहना विकल्प ४, भांगा १४७ । एक-एक विकल्प ना पंतीस-पैतीस भांगा हवं, ते माट च्यार विकल्प ना १४० हुवं । एक विकल्प ना रत्न थी २०, सक्कर थी १०, वालुक थी ४, पंक थी १एवं पैतीस भांगा हुवै । रत्न थी २० ते किसा? रत्न सक्कर थी १०, रत्न वालुक थी ६, रत्न पंक थी ३, रत्न धूम थी १-एवं रत्न थी एक-एक विकल्प ना २० भांगा हवै। रत्न सक्कर थी १० ते किसा? रत्न सक्कर वालुक थी ४, रत्न सक्कर पंक ३, रत्न सक्कर धूम थकी २, रत्न सक्कर तम थकी १ -एवं एक-एक विकल्प ना १० भांगा हुवै । तिहां रत्न सक्कर वालु थकी ४ भांगा प्रथम विकल्प कर कहै छ __ *श्री जिन भाखै सुण गंगेया ! [ध्रुपदं] २. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक वाल अवलोय जी। पंक विषे बे जीव ऊपजै, ए धुर भांगो होय जी। ३. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक वालुक उपजंत । धूमप्रभा में दोय ऊपजै, दूजो भांगो हुँत ॥ ४. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक वालुका मांय । छद्री नरक बे जीव ऊपजै, तृतीय भंग कहाय ।। ५. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक वालुक पहिछाण । नरक सातमी दोय ऊपजै, चोथो भांगो जाण ।। हिवै रत्न सक्कर वालु थकी दूज विकल्प करि ४ भांगा कहै छ६. अथवा एक रत्न इक सक्कर, तीजी नरके दोय । पंक विषे इक जीव ऊपज, पंचम भंगो होय ।। ७. अथवा एक रत्न इक सक्कर, तीजी नरके दोय। धूमप्रभा में एक ऊपजै, छट्ठो भांगो सोय ।। ८. अथवा एक रत्न इक सक्कर, वालुप्रभा में दोय । छट्ठी नरके एक उपजतां, सप्तम भांगो सोय । ६. अथवा एक रत्न इक सक्कर, वालुप्रभा में दोय । नरक सप्तमी इक उपजता, अष्टम भंग अवलोय ॥ हिवं रत्न सक्कर वालुक थकी तीजै विकल्प करि ४ भांगा कहै छ१०. अथवा एक रत्न बे सक्कर, वालुक माहे एक । एक पंक नै विषे ऊपज, नवमो भंगो देख । ११. अथवा एक रत्न बे सक्कर, वालुक मांहे एक। धूमप्रभा में एक ऊपजै, दशमों भंग विशेख ॥ ६. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो वालु यप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा ७-६. एवं जाव अहेसत्तमाए। १०. अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए एगे वालु यप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा ११-१३. एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्प भाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। *लय : साधु म जाणो इण चलगत सूं श०६उ० ३२, ढाल १७६ ८६ Jain Education Intemational Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, अहवा दो रयणभाए एगे सक्करप्पभाए एगे बालु यप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा १५-१७. जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । १२. अथवा एक रत्न बे सक्कर, वालुक मांहे एक । नरक छट्ठी में एक ऊपजै, भंग ग्यारमों लेख । १३. अथवा एक रत्न बे सक्कर, वालुक मांहे एक । एक सप्तमी नरक ऊपज, द्वादशमो भंग देख ।। हिवै रत्न सक्कर वालुक थकी चोथै विकल्प करि ४ भांगा कहै छ१४. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, इक वालुक अवलोय । पंकप्रभा में एक ऊपज, तेरसमों भंग होय ॥ १५. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, एक वालुक अवलोय । धूमप्रभा में एक ऊपजै, चवदशमों भंग जोय ॥ १६. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, एक वालुक अवलोय । छठी नरक में एक ऊपजै, भंग पनरमों सोय ।। १७. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, एक वाल अवलोय । एक सातमी नरक ऊपजै, भंग सोलमों होय ॥ हिवं रत्न सक्कर पंक थकी तीन भांगा, ते च्यार विकल्प करि बार भांगा। तिहां प्रथम विकल्प करि ३ भांगा कहै छ१८. अथवा एक रत्न इक सक्कर, एक पंक बेधुम। अथवा एक रत्न इक सक्कर, इक पंक बे तम ब्रम ।। १६. अथवा एक रत्न इक सक्कर, इक पंक सप्तमी दोय । रत्न सक्कर नै पंक थकी त्रिण, पहिले विकल्प होय ।। हिवै रत्न सक्कर पंक थकी दूजै विकल्प करि ३ भांगा कहै छै२०. अथवा एक रत्न इक सक्कर, दोय पंक इक धूम । अथवा एक रत्न इक सक्कर, बे पंक इक तम बम । २१. अथवा एक रत्न इक सक्कर, बे पंक सप्तमी एक । रत्न सक्कर नैं पंक थकी त्रिण, बीजै विकल्प देख ॥ हिवै रत्न सक्कर पंक थकी तीजै विकल्प करि ३ भांगा कहै छै२२. अथवा एक रत्न बे सक्कर, एक पंक इक धम । अथवा एक रत्न बे सक्कर, इक पंक इक तम ब्रम। २३. अथवा एक रत्न बे सक्कर, इक पंक सप्तमी एक । रत्न सक्कर नैं पंक थकी त्रिण, तीजै विकल्प लेख ॥ हिवै रत्न सक्कर पंक थकी चौथे विकल्प करि ३ भांगा कहै छै२४. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, एक पंक इक धम । अथवा दोय रत्न इक सक्कर, इक पंक इक तम ब्रम ।। २५. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, इक पंक सप्तमी एक । रत्न सक्कर - पंक थकी त्रिण, चोथे विकल्प पेख ॥ ए रत्न सक्कर पंक थकी ३ मांगा हुवं । ते च्यार विकल्प करि १२ भांगा कह्या। हिवं रत्न सक्कर में धूम थकी दोय भांगा च्यार विकल्प करि ८ भांगा कहै छ प्रथम विकल्प करि २ भांगा कहै छै२६. अथवा एक रत्न इक सक्कर, इक धूम बे तम होय । अथवा एक रत्न इक सक्कर, इक धूम सप्तमी दोय ।। १८. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंक प्पभाए दो धूमप्पभाए होज्जा १६-१०५. एवं जहा च उल्हं चउक्कसंजोगो भणिओ तहा पंचण्ह वि च उक्कसंजोगो भाणियन्वो नवरं-अब्भहियं एगो संचारेयव्वो, एवं जाव अहवा दो पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। ६० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूजे विकल्प करि २ भांगा कहै छ--- २७. अथवा एक रत्न इक सक्कर, बे धूम इक तम पेख । अथवा एक रत्न इक सक्कर, बे धूम सप्तमी एक ।। तीज विकल्प करि २ भांगा कहै छ२८. अथवा एक रत्न बे सक्कर, इक धूम इक तम देख । अथवा एक रल बे सक्कर, इक धूम सप्तमी एक । चौथे विकल्प करि २ भांगा कहै छ२६. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, इक धूम इक तम पेख । अथवा दोय रत्न इक सक्कर, इक धूम सप्तमी एक ।। ए रत्न सक्कर घूम नां दोय भांगा, च्यार विकल्प करि ८ भांगा कह्या । हिवै रत्न सक्कर तम थकी एक भांगो ४ विकल्प करि ४ भांगा कहै छ३०. अथवा एक रत्न इक सक्कर, इक तम सप्तमी दोय । रत्न सक्कर में तमा थकी ए, पहिले विकल्प जोय । ३१. अथवा एक रत्न इक सक्कर, बे तम सप्तमी एक । रत्न सक्कर में तमा थकी ए, दूजे विकल्प देख ।। ३२. अथवा एक रत्न बे सक्कर, इक तम सप्तमी एक ।। रत्न सक्कर में तमा थकी ए, तीजै विकल्प लेख ।। ३३. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, इक तम सप्तमी एक । रत्न सक्कर ने तमा थकी ए, चोथे विकल्प पेख ।। ए रत्न सक्कर तम थकी १ भांगो च्यार विकल्प करि ४ भांगा कह्या । एवं रत्न सक्कर थकी १० भांगा च्यार विकल्प करि ४० भांगा कह्या । वा०-- हिवं रत्न वालु थकी छ भांगा हुवे, ते किसा? रत्न वालु पंक थकी ३, रत्न वालू धूम थकी २, रत्न वालू तम थकी १ एवं-रल वालू थकी ६, ते ४ विकल्प करि चउवीस भांगा हुवं । तिहां रत्न वालु पंक थकी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ३४. अथवा एक रत्न इक वालुक, एक पंक बे धूम । अथवा एक रत्न इक वालुक, एक पंक बे तम बम ।। ४५. अथवा एक रत्न इक वालुक, इक पंक सप्तमी दोय । रत्न वालुका पंक थकी त्रिण, धुर विकल्प ए होय ।। दूजे विकल्प करि ३ भांगा कहै छ३६. अथवा एक रत्न इक वालुक, दोय पंक इक धूम। अथवा एक रत्न इक वालुक, बे पंक इक तम बम ।। ३७. अथवा एक रत्न इक वालुक, बे पंक सप्तमी एक । रत्न वालुक - पंक थवी त्रिण, दूजे विकल्प देख ।। तीज विकल्प करि ३ भांगा कहै छ३८. अथवा एक रत्न बे वालुक, एक पंक इक धूम। अथवा एक रत्न बे बालुक, इक पंक इक तम ब्रूम ॥ ३६. अथवा एक रत्न बे वालुक, इक पंक सप्तमी एक । रत्न वालक ने पंक थकी त्रिण, तीज विकल्प लेख । ०६. उ० ३२, दाल १७६१ Jain Education Intemational Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोथे विकल्प करि ३ भांगा कहै छ४०. अथवा दोय रत्न इक वालुक, एक पंक एक धूम । अथवा दोय रत्न इक वालुक, इक पंक इक तम बम ।। ४१. अथवा दोय रत्न इक वालुक, इक पंक सप्तमी एक । रत्न वालक में पंक थकी त्रिण, चोथै विकल्प लेख ।। हिवं रत्न वालुक नै धूम थकी २ भांगा ४ विकल्प करि आठ भांगा कहै छै। प्रथम विकल्प करि २ भांगा कहै छ४२. अथवा एक रत्न इक वालुक, इक धूम बे तम होय । अथवा एक रत्न इक वालुक, इक धूम सप्तमी दोय ॥ दूज विकल्प करि २ भांगा कहै छ४३. अथवा एक रत्न इक वालुक, बे धूम इक तम पेख । __ अथवा एक रत्न इक वालक, बे धम सप्तमो एक । तीज विकल्प करि २ भांगा कहै छ४४. अथवा एक रत्न बे वालुक,इक धूम इक तम पेख । अथवा एक रत्न बे वालुक, इक धूम सप्तमी एक ।। चौथे विकल्प करि २ भांगा कहै छै४५. अथवा दोय रत्न इक वालक, इक धम इक तम पेख । अथवा दोय रत्न इक वालुक, इक धूम सप्तमी एक ।। ए रत्न वालुक धूम थकी २ भांगा ४ विकल्प करि आठ भांगा क ह्या । हिवं रत्न वालुक तमा थकी १ भांगो हुवे, ते ४ विकल्प करि ४ भांगा कहै छै४६. अथवा एक रत्न इक वालुक, इक तम सप्तमी दोय । रत्न वालुक मैं तमा थकी ए, पहिलै विकल्प होय । ४७. अथवा एक रत्न इक वालक, बे तम सप्तमी एक । रत्न वालुका तमा थकी ए, दूजै विकल्प पेख ॥ ४८. अथवा एक रत्न बे वालुक, इक तम सप्तमी एक । रत्न वालुका तमा थकी ए, तीजै विकल्प लेख ॥ ४६. अथवा दोय रत्न इक वालुक, इक तम सप्तमी एक। रत्न वालुका तमा थकी ए, चोथै विकल्प देख ।। ए रत्न वालुक तम थकी एक भांगो हुवै ते च्यार विकल्प करि ४ भांगा कह्या । एवं रत्न वालुक थकी छ भांगा हुवं, ते ४ विकल्प करि २४ भांगा काया। वा०----हिवै रत्न पंक थकी तीन भांगा हुवं ते किसा? रत्न पंक धूम थकी २ भांगा, रत्न पंक तम थकी १ भांगो, एवं रत्न पंक थकी ३ भांगा हुदै । ते च्यार विकल्प करि १२ भांगा कहै छ। तिणमें प्रथम रत्न पंक धूम थकी २ भांगा च्यार विकल्प करि हुवं, ते कहै छै५०. अथवा एक रत्न इक पंके, इक धूम बे तम होय । अथवा एक रत्न इक पंके, इक धूम सप्तमी दोय ।। दूज विकल्प करि २ भांगा कहै छै५१. अथवा एक रत्न इक पंके, बे धूम इक तम पेख । अथवा एक रत्न इक पंके, बे धूम सप्तमी एक ।। ६२ भगवती-जोड .. . Jain Education Intemational Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीजै विकल्प करि २ भांगा कहै छे५२. अथवा ', करि च्यार भांगा कहै छे एक रत्न वे पंके, इक धूम इक अथवा एक रन वे पंके, इक धूम सप्तमी चौथे विकल्प करि २ भांगा कहै छै - ५३. अथवा दोय रत्न इक पंके इक धूम अथवा दोय रत्न इक पंके, इक धूम ए रत्न पंक ने धूम थकी बे भांगा ४ विकल्प करि ८ भांगा कह्या । हिवे रत्न पंक तम थकी एक भांगो, ४ विकल्प ५४. अथवा एक रत्न इक पंके, इक तम रत्न पंक में तमा थकी ए पहिले ५५. अथवा एक रत्न इक पंके, रत्न पंक ने तमा थकी ५६. अथवा एक रत्न बे पंके, रत्न पंक ने तमा थकी ५७. अथवा दोय रत्न इक पंके, रत्न पंक ने तमा थकी ए. ए रत्न पंक तम थकी एक भांगो ४ विकल्प करि कह्यो । एवं रत्न पंक थकी विकल्प बे तम सप्तमी ए, दूजे विकल्प तीन भांगा ४ विकल्प करि १२ भांगा कह्या । हि रत्न धूम थी १ भांगो ४ विकल्प करि कहै छै - इक तम ए तीर्ज तम पेख । एक ॥ इक तम देख सप्तमी एक ॥। सप्तमी दोय । होय ।। एक । देख ॥ एक । सप्तमी विकल्प देख ॥ इक तम सप्तमी एक । चोधे विकल्प लेख । ५८. अथवा एक रत्न इक धूमा, इक रत्न धूम थकी एक भांगो, पहिले ५६. अथवा एक रत्न इक धूमा, बे इक भांगो, दूजे रत्न धूम घी ए ६०. अथवा एक रत्न बे धूमा, इक तम सप्तमी एक । रत्न धूम यो ए इक भांगो, तीजे विकल्प पेस || ६१. अथवा दोय रत्न इक धूमा, इक तम सप्तमी एक । रत्न धूम थी ए इक भांगो, चोथे विकल्प लेख ॥ तम सप्तमी दोय । विकल्प होय ॥ तम सप्तमी एक विकल्प देख ॥ ए रत्न धूम थी १ भांगो प्यार विकल्प करि ४ भांगा कह्या । एवं रत्न थी २० भांगा प्यार विकल्प करि ८० भांगा थया । हिवै सक्कर थी १० भांगा एक-एक विकल्प नां हुवै ते किसा ? सक्कर वालु थी ६, सक्कर पंक थी ३, सक्कर धूम थी १ एवं १० भांगा सक्कर थी हुवे । सक्कर वालु थी ६ ते किसा ? सक्कर वालु पंक थी ३, सक्कर वालु धूम थी २ सक्कर वालु तम थी १, एवं ६ भांगा सक्कर वालु थी एक-एक विकल्प नां हुवं । तिहां सक्कर वालु पंक थी तीन भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छँ - ६२. अथवा एक सक्कर इक वालुक, एक पंक ने धूम अथवा इक सक्कर इक वालुक, इक पंक बे तम ब्रूम ॥ ६३. अथवा एक सक्कर इक वालुक, इक पंक सप्तमी दोय । सक्कर वालुक ने पंक थकी त्रिण, घर विकल्प करि होय ॥ ६४. अथवा इक सक्कर इक वालुक, दोय पंक इक धूम । अथवा इक सक्कर इक वालुक बे पंक इक तम ब्रूम ॥ श० ६ ० ३२, ढाल १७६ १३ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. अथवा इक सक्कर इक वालक, बे पंक सप्तमी एक । सक्कर वालुका पंक थकी त्रिण, दूजे विकल्प देख ॥ ६६. अथवा इक सक्कर बे वालुक, एक पंक इक धूम । अथवा इक सक्कर बे वालुक, इक पंक इक तम ब्रूम । ६७. अथवा इक सक्कर बे वालक, इक पंक सप्तमी एक । सक्कर वालुक में पंक थकी त्रिण, तीजै विकल्प पेख ।। ६८. अथवा बे सक्कर इक वालुक, एक पंक इक धूम । अथवा बे सक्कर इक वालुक, इक पंक इक तम बम ।। ६६. अथवा बे सक्कर इक वालक, इक पंक सप्तमी एक । सक्कर वालुका पंक थकी त्रिण, चोथै विकल्प लेख ।। ए सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा ४ विकल्प करि १२ भांगा कह्या । हिवै सक्क र वालुक धूम थी २ भांगा ४ विकल्प करि आठ भांगा हुवे, ते क है ७०. अथवा इक सक्कर इक वालक, इक धम बे तम होय । अथवा इक सक्कर इक वालुक, इक तम सप्तमी दोय ।। दूजे विकल्प करि २ भांगा कहै छ७१. अथवा इक सक्कर इक वालुक, बे धूम इक तम पेख । अथवा इक सक्कर इक वालक, बे तम सप्तमी एक ।। तीजै विकल्प करि २ भांगा कहै छै७२. अथवा इक सक्कर बे वालुक, इक धूम इक तम पेख । अथवा इक सक्कर बे वालुक, इक तम सप्तमी एक ।। चौथे विकल्प करि २ भांगा कहै छ७३. अथवा बे सक्कर इक वालक, इक धम इक तम लेख । अथवा बे सक्कर इक वालुक, इक धूम सप्तमी एक ॥ ए सक्कर वालु धूम थकी २ भांगा ४ विकल्प करि ८ भांगा कहा। हिवै सक्कर वालु तम थी १ भांगो ४ विकल्प करि ४ भांगा कहै छै७४. अथवा इक सक्कर इक वालुक, इक तम सप्तमी दोय । सक्कर वालुक नैं तमा थकी ए, पहिलै विकल्प होय ॥ ७५. अथवा इक सक्कर इक वालुक, बे तम सप्तमी एक। सक्कर वालुका तमा थकी ए, दूजै विकल्प देख ॥ ७६. अथवा इक सक्कर बे वालुक, इक तम सप्तमी एक । सक्कर वालुका तमा थकी ए, तीजै विकल्प लेख ॥ ७७. अथवा बे सक्कर इक वालुक, इक तम सप्तमो एक। सक्कर वालुका तमा थकी ए, चोथै विकल्प पेख ।। हिव सक्कर पंक थकी तीन भांगा एक-एक विकल्प ना हवं, ते किसा? सक्कर पंक धूम थकी २, सक्कर पंक तम थकी १, एवं ३ । सक्कर पंक थकी ४ विकल्प नां १२ भांगा हवं, ते कहै छ७८. अथवा इक सक्कर इक पंके, इक धूम बे तम होय ॥ अथवा इक सक्कर इक पंके, इक धूम सप्तमी दोय । १४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. अथवा इक सक्कर इक अथवा इक सक्कर इक ८०. अथवा इक सक्कर बे पंके, इक अथवा इक सक्कर बे पंके, इक धूम सप्तमी ८१. अथवा बे सक्कर इक अथवा बे सक्कर इक पंके, इक पंके, इक पंके, वे धूम इक तम पेख । पंके, बे धूम सप्तमी एक ॥ धूम इक तम पेख । एक ॥ धूम इक तम पेख । तम सप्तमी एक ॥। १ भांगो ४ विकल्प करि कहै छै - हिवे सक्कर पंक तम थकी ८२. अथवा इक सक्कर इक पंके, इक तम सप्तमी दोय । विकल्प होय ॥ सप्तमी एक ॥ विकल्प देख || सक्कर पंक नैं तमा थकी ए, पहिले ८३. अथवा इक सक्कर इक पंके, वे तम सक्कर पंक में तमा थकी ए, दुर्ज ८४. अथवा इक सक्कर बे पंके, इक तम सक्कर पंक ने तमा थकी ए, तीजे विकल्प पेख || ८५. अथवा बे सक्कर इक पंके, इक तम सप्तमी एक । सक्कर पंक ने तमा थकी ए, चोथे विकल्प लेख || सप्तमी एक । हिवै सक्कर धूम तम थकी चिउं विकल्प करि ४ भांगा कहै छे८६. अथवा इक सक्कर इक धूमा, इक तम सप्तमी दोय । सक्कर धूम थकी ए भांगो, पहिलै विकल्प होय ॥ ८७. अथवा इक सक्कर इक धूमा, बे तम सप्तमी एक । सक्कर धूम थकी ए भांगो, दुर्ज विकल्प देख ८८. अथवा इक सक्कर बे धूमा, इक तम सप्तमी एक ॥ सक्कर धूम ए भांगो, तीजे विकल्प पेख || ८. अथवा बे सक्कर इक धूमा, इक सक्कर धूम थकी ए भांगो, तम सप्तमी एक । चोथे विकल्प लेख || हि वा थकी एक-एक विकल्प नां व्यारन्च्यार भांगा हुई, ते किसा ? वालु पंक थकी ३, वालु धूम थकी १, एवं वालु थकी ४ भांगा वालु पंक थकी ३, ते किसा ? वालु पंक धूम थकी २, वालु पंक तम थकी १, एवं वालु पंक थकी ३ भांगा | तिहां प्रथम वालु पंक धूम थकी २ भांगा ४ विकल्प करि आठ भांगा कहै छ ६०. अथवा इक वालुक इक पंके, इक धूम बे तम होय । अथवा इक वालुक इक पंके, इक धूम सप्तमी दोय ॥ ११. अथवा एक बाइक पंके, वे धूम एक तम पेख ॥ अथवा इक बाइक पंके, वे धूम सप्तमीं एक ॥ ९२. अथवा इक वालुक बे पंके, इक धूम इक तम पेख । अथवा इक वालुक बे पंके, इक तम सप्तमीं एक ॥ १३. अथवा बे वालुक इक पंके, इक धूम इक तम देख अथवा बे वालुक इक पंके, इक तम सप्तमीं एक ॥ हिवै वालु पंक ने तमा थकी एक भांगो ४ विकल्प करि कहै छ९४. अथवा इक वालुक इक पंके, इक तम सप्तमीं दोय । वालु पंक ने तमा थकी ए, पहिले विकल्प होय ॥ - २० ६, उ० ३२, ढाल १७६ ६५ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. अथवा इक वालुक इक पंके, बे तम सप्तमी एक ॥ वालक पंक मैं तमा थकी ए, दूजै विकल्प देख । १६. अथवा इक वालुक बे पंके, इक तम सप्तमी एक । वालुक पंक ने तमा थकी ए, तीजै विकल्प देख ।। ६७. अथवा बे वालुक इक पंके, इक तम सप्तमी एक । वालु पंक नै तमा थकी ए, चोथै विकल्प लेख ॥ हिवं वालुक धूम थकी एक भांगो ४ विकल्प करि ४ भांगा कहै छ१८. अथवा इक वालुक इक धूमा, इक तम सप्तमी दोय । वालु धूम थकी ए भांगो, पहिलै विकल्प होय ।। ६६. अथवा इक वालु इक धूमा, बे तम सप्तमी एक । वालक धूम थकी ए भांगो, दूजे विकल्प देख ॥ १००. अथवा इक वालुक बे धूमा, इक तम सप्तमी एक । वालुक धम थकी ए भांगो, तीजै विकल्प पेख ।। १०१. अथवा बे वालुक इक धूमा, इक तम सप्तमी एक । वालु धम थकी ए भांगो, चोथै विकल्प लेख ।। हिवै पंक थी एक भांगो ४ विकल्प करि कहै छ१०२. अथवा इक पंके इक धूमा, इक तम सप्तमी दोय । पंक नरक थी ए इक भांगो, पहिलै विकल्प होय ॥ १०३. अथवा इक पंके इक धमा, बे तम सप्तमी एक ।। पंक नरक थी ए इक भांगो, दूजै विकल्प देख ॥ १०४.अथवा इक पंके बे धूमा, इक तम सप्तमी एक। पंक नरक थी ए इक भांगो, तीजै विकल्प लेख ।। १०५. अथवा बे पंके इक धमा, इक तम सप्तमी एक । पंक नरक थी ए इक भांगो, चोथै विकल्प पेख ।। एवं पंक थकी एक भांगो ४ विकल्प करि ४ भांगा कह्या । एवं रत्न थी २०, सक्कर थी १०, वालुक थी ४, पंक थी १, एवं ३५ एक विकल्प नां हुवै, ते च्यार विकल्प ना १४० पांच जीव नां च्यार संजोगिया भांगा थया । दूहा १०६. एक एक फन एक बे, ए धर विकल्प जोय । एक एक वलि दोय इक, दूजे विकल्प होप ।। १०७. एक दोय में एक इक, विकल्प तृतीय विशेख ।। दोय एक फुन एक एक, विकल्प तुर्य' संपेख ।। १०८. *नवम शतक नो देश बतीसम, सौ गुणयासीमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल ।। *लयः साधु म जाणो इण चल गत सं १. पांच जीवां रा चउकसंजोगिया ४ विकल्प: १, १, १,२ प्रथम विकल्प । १, १, २, १ द्वितीय विकल्प। १, २, १, १ तृतीय विकल्प। २, १, १, १ तुर्य विकल्प । ६६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै रत्न सक्कर वालुक थी ४ भांगा चौथे विकल्प करि कहै २ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, १ पंक २ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, १ धूम पंच जीव नां च उकसंयोगिक नां विकल्प च्यार । एक-एक विकल्प ना पैतीस-पंतीस भांगा हवे । च्यारूं विकल्प ना १४० । तिहां रत्न थी २०, सक्कर थी १०, वालुक थी ४, पंक थी १, एवं पैतीस एक-एक विकल्प ना हवै। रत्न थी २०, ते किसा? रन सक्कर थी १०, रत्न वालू थी ६, रत्न पंक थी ३, रत्न धूम थी १, एवं रत थी २० । रत्न सक्कर थी दश, ते किसा? रत्न सक्कर वालु थी ४, रत्न सक्कर पंक थी ३, रत्न सककर धूम थी २, रत्न सक्कर तम थी १, एवं रत्न सक्कर थी १० एक एक विकल्प ना हुवं । तिहां रत्न सक्कर वालु थी ४ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ २ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, १ तम ४२ रत्न, १ सक्कर १ वालुक, १ सातमी ए ल सक्कर वालु थी ४ विकल्प करि १६ भांगा कह्या । हिवरल सककर पंक थी ४ विकल्प करि ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, २ पंक २१ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, २ धूम १ रत्न, १ सकर, १ पंक, २ धूम ३१ रन, १ सक्कर, १ वालुक, २ तम १ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, २ तम | ४ | १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, २ सातमी १ रत्न, १ सक्कर,१पंक २ सातमी हिवै रत्न सक्कर वालुक थी ४ भांगा दूजे विकल्प करि क है हिवरल सककर पंक थी दूज विकल्प करि ३ भांगा कहै छ -- २० १ १ रत्न, १ सक्कर, २ पंक, १ धूम १ १ रत्न, १ सकार, २ वा लुक, १ पंक २१ | २ | १ रत्न, १ सक्कर, २ पंक, १ तम १ रत्न, १ सक्कर, २ वालुक, १ धूम २२ ३ १ रत्न, १ सक्कर, २ पंक १ सातमी १ रत्न, १ सक्कर, २ वालुक, १ तम हिवै रल मक्कर पंक थी ३ भागा तीज विकल्प करि कहै छ ८ ४ | १ रत्न, १ सक्कर, २ वालुक, १ सातमी १ रत्न, २ सक्कर, १ पंक, १ धूम हिवं रल सक्कर वालुक थी ४ भांगा तीज विकल्प करि कहै १ रत्न, २ सक्कर, १ पंक, १ तम HA १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, १ पंक | १ रत्न, २ सक्कर, १पंक, १ सातमी १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, १धूम हिवं रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा चौथे विकल्प करि कहै छ --- | १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, १ तम । १ २ रल, १ सक्कर, १ पंक, १ धूम | १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, १ सातमी । २ रत्न, १ सकार, १पंक, १ तम २ रल, १ सय र, १ पंक, १ सातमी ए रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा ४ विकल्प करि १२ भांगा कह्या। श०६, उ० ३२, ढाल १७६ ६७ Jain Education Intemational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि रत्न सक्कर घूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छं - २६ ३१ ३० १ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, २ सातमीं हिवे रत्न सक्कर धूम थी २ भांगा दूजै विकल्प करि कहे छं १ १ रत्न, १ सक्कर, २ धूम, १ तम ३२ ३३ १ रत्न, १ सक्कर, २ धूम, १ सातमी हिर्व रत्न सक्कर घूम थी २ भांगा तीजै विकल्प करि कहै छं ३५ ३६ १ ३८ २ ३४ १ रन, २ सक्कर, १ धूम, १ सातमीं हि रत्न सक्कर धूम थी २ भांगा चोथे विकल्प करि क है 3 ३६ २ ४० १ १ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, २ तम २ १ २ १ रत्न, २ सक्कर, १ धूम, १ तम ए रत्न सक्कर धूम थी ४ विकल्प करि ८ भांगा कह्या । हि रत्न सक्कर तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ ३७ १ १ रत्न, १ सक्कर, १ तम, २ सातमीं हि रत्न सक्कर तम थी १ भांगो दूर्ज विकल्प करि कहै छ १ | १ रन, १ सक्कर, २ तम, १ सातम हिव रस्न सक्कर तम थी १ भांगो तीज विकल्प करि कहै छै २ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, १ तम २ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, १ सातमी १ १ रत्न, २ सक्कर, १ तम, १ सातमी हि रत्न सक्कर तम थी १ भांगो चोयँ विकल्प करि कहै छ १ २ रन, १ सक्कर, १ तम, १ सातम ए रत्न सक्कर तम थी १ भांगो च्यार विकल्प करि ४ भांगा कला | एवं रत्न सक्कर थी १० भांगा ४ विकल्प करि ४० भांगा थया । ६८ भगवती जोड़ हिव रत्न वालु थी ६ भांगा, ते किसा ? रश्न वालु पंक थी ३, रत्न वालु धूम थी २, रत्न वालु तम थी १ एवं ६ । हिवे रत्न वालुक पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि क है छं ४१ ४२ ४५ ४६ ४३ १ रत्न १ वालुक, १ पंक, २ सातमी हि रत्न वालुक पंक थी ३ भांगा दूर्ज विकल्प करि कहै छ ४५ ५० ५१ १ २ ५३ ३ ५६ १ २ ३ हि रत्न वालुक पंक थी ३ भांगा तीजे विकल्प करि कहै छै - ४७ १ रत्न, २ वालुक, १ पंक, १ धूम १ १ रत्न, २ वालुक, १ पंक, १ तम *& | ३ | १ रन, २ वालुक, १ पंक, १ साम हि रत्न वालुक पंक थी ३ भांगा चोथे विकल्प करि कहै छँ १ २ रत्न, १ वालुक, १ पंक, १ धूम २ २ १ रत्न, १ वालुक, १ पंक, २ धूम ३ १ रत्न, १ वालुक, १ पंक, २ तम १ ५२ २ रत्न, १ वालुक, १ पंक, १ सातमी ए रत्न वालुक पंक थी ४विकल्प करि १२ भांगा कहा । हिवे रत्न वालुक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छं १ रत्न, १ वालुक २ पंक, १ धूम १ १ रत्न, १ वालुक, २ पंक, १ तम २ १ रत्न, १ वालुक, २ पंक, १ सातमी ५४ २ १ रत्न, १ वालुक, १ धूम, २ सातमी हिवे रत्न वालुक धूम थी २ भांगा दूजे विकल्प करि कहै छँ ५५ २ रत्न, १ वालुक, १ पंक, १ तम १ रत्न, १ वालुक, १ धूम, २ तम १ रत्न, १ वालुक, २ धूम, १ तम १ रत्न, १ वालुक, २ धूम, १ सातमी Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि रत्न वालुक धूम थी २ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ १ रत्न, २ वालुक, १ धूम, १ तम ५७ ५८ १ रत्न, २ वालुक, १ धूम, १ सातमीं हि रत्न वालुक धूम थी २ भांगा चोथे विकल्प करि कहै छै - ५६ ६० ६२ ६३ १ ६४ २ ए रत्न वालुक धूम थी ४ विकल्प करि ८ भांगा कह्या । हि रत्न वालुक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ ६१ १ १ रत्न, १ वालुक, १तम, २ सातमी हि रत्न वालु तम थी १ भांगो दूर्ज विकल्प करि कहै छै - १ १ रत्न, १ वालुक, २ तम, १ सातमी हिवै रत्न वालुक तम थी १ भांगो तीज विकल्प करि कहै छं - १ १ रत्न, २ वालुक, १ तम, १ सप्तमीं हि रत्न वालुक तम थी १ भांगो चौथे विकल्प करि कहै छँ १ ६७ २ ६८ १ २ रत्न, १ वालुक, १ तम, १ सातमी ए रत्न वालुक तम थी १ भांगो ४ विकल्प करि ४ भांगा कह्या । एवं रत्न वालुक थकी ६ भांगा ४ विकल्प करिकै २४ भांगा कह्या । २ रत्न, १ वालुक, १ धूम १ तम हिव रत्न पंक थी ३ भांगा, ते किसा ? रत्न पंक धूम थी २, रत्न पंक तम थी १ । तिहां रत्न पंक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै - २ रत्न, १ वालुक, १ धूम, १ सातमी ६५ १ १ रत्न, १ पंक, १ धूम, २ तम ६६ २ १ रन, १ पंक, १ धूम, २ तमतमा रत्न पंक धूम थी २ भांगः द्वितीय विकल्प करि कहै छँ १ रत्न, १ पंक, २ धूम, १ तम १ २ १ रत्न, १ पंक, २ धूम, १ तमतमा रहन पंक धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छ ६६ ε | { ७० १ रत्न, २ पंक, १ धूम, १ तमतमा रत्न पंक धूम थी २ भांगा चउथे विकल्प करि कहै छ १ २ रत्न, १ पंक, १ धूम, १ तम ७१ ७३ ७२ २ रत्न, १ पंक, १ घूम, १ तमतमा हिवे रत्न पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छे १ १ रत्न, १ पंक, १ तम, २ तमतमा हि रत्न पंक तम थी १ भांगो दूर्ज विकल्प करि कहै छ १ १ रत्न, १ पंक, २ तम, १ तमतमा हिवे रत्न पंक तम थी १ भांगो तीज विकल्प करि कहै छे१ १ रत्न २ पंक, १तम २ तमतमा ७५ हिवे रत्न पंक तम थी १ भांगो चउथे विकल्प करि कहै छं १ २ रत्न, १ पंक, १ तम, १ तमतमा ७६ ए रत्न पक थी ३ भांगा ४ विकल्प करि १२ भांगा कह्या । हिवरल धूम तम थी ? भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छँ १ १ रत्न, १ धूम, १ तम, २ तमतमा हि रत्न धूम तम थी १ भांगो दूर्जे विकल्प करि कहै छै ७४ ७७ ७८ १ १ रन, २ पंक, १ धूम, १ तम ७६ २ १ रत्न, १ धूम, २ तम, १ तमतमा हिवे रत्न धूम तम थी १ भांगो तीज विकल्प करि कहै छँ १ १ रत्न, २ धून, १ तम, १ तमतमा हि रत्न धूम तम थी १ भांगो चउथे विकल्प करि कहै है १ २ रत्न, १ धूम, १ तम, १ तमतमा ए रत्न धूम तम थी १ भांगो ४ विकल्प करि कह्यो । एवं रत्न थी २० भांगा प्यार विकल्प करि ८० भांगा कह्या । श० ६, उ० ३२, ढाल १७६ ६६ ८० २ १ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | हिवं मकार बल धूम थी २ भांगा द्विनीय विकल्प करि कहै छ। १ मक्कर, १ वालु, २ धूम, १ तम हि सक्कर थी १० एक एक विकल्प करि हुवे, ते सक्कर वालुक थी ६, सक्कर पंक थी ३, सक्कर धूम थी १, एवं १० । हिवै सक्कर वालुक थी ६, ते किसा? सक्कर वालु पंक थी ३. सककर वालु धूम थी २, सक्कर वालु तम थी १ एवं सक्कर वालु थी ६ । ते च्यार विकल्प करि २४ भांगा हवै। हिव सक्कर वालु पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै ६६ २ | १ मक्कर, १ व लु, २ धूम, १ तमतमा हिवं गककर वाल धूप थी २ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छ ६७ | १ | १ सक्कर, २ वालु, १ धूम, १ तम १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम १ सक्कर, २ वालु, १ धूम, १ तमतमा १ सक्कर, १ वालु. १ पंक, २ तम | वि सक्कर बालु धूम थी २ भांगा च उथे विकल्प करि कहै छ 86 १ | २ सक्कर, १ वालु १ धूम, १ तम | १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ तमतमा हिवै सक्कर वालु पंक थी ३ भांगा दूज विकल्प करि कहै छ -- २ २ सक्कर, १ वालु, १ धूम, १ तमतमा १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, १ धूम ए गयकर या नु धम थी २ भांगा च्यार विकल्प करि ८ भांग कहा। १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, १ तम हिवं सकार धूम तम थी १ भांगो ते ४ विकल्प करि ४ भांगा कहै छ। हिवै सककर धूम तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प | १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, १ तमतमा हिवै सक्कर वालु पंक थी ३ भांगा तीजे विकल्प करि कहै छै - १०१ १ १ सक्कर, १ धूम, १ तम, २ तमतमा १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ धूम दिवं सक्कर धून तन थी १ मांगो द्वितीय विकल्प करि कहै १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ तम १ सनकर १ धूम, २ तम, १ तमतम १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ तमतमा हिवं तक र धुम तम थी १ भांगो तृतीर विकल्प करि कहै छ हिव सक्कर वालु पंक थी ३ भांगा चउथे विकल्प करि कहै छ ६० २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम १ सक्कर,२ धम, १ तम, १ तमतमा हिवै सकार धूम तम थी १ भागो चउथे विकल करि कहै छै २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ तम १०४ २ सकार, १ धूम, १ तम, १ तमतमा २ सक्कर, १ धूम, १पंक, १ तमतमा हिवै सक्कर वालु धूम थी २ भांगा प्रथक विकल्प करि कहै छ ए सक्कर व.लुक थी ६ भांगा ४ विकल्प करि २४ भांगा कह्या। सककर पंक थी : भांगा एक एक विकल्प करि हुवै, ते किसा? सकार पं. धूम थी २, सक्कर पंकतम थी १, तिहां सक्कर पंक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ - १ सक्कर, १ वालु. १ धूम, २ तम १ सक्कर, १ पंक, १ धूम, २ तम १ सक्कर, १ वालु, १ धूम, २ तमतमा १ सक्कर, १ पंक, १ धूम, २ तमतमा १०० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिव सक्कर पंक धूम थी २ भांगा दूर्ज विकल करि कहै छ १ सक्कर, १ पंक, २ धूम, १ तम २ १ सक्कर, १ पंक, २ धूप १ तमतमा हि सक्कर पंक धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छँ १०६ १ सक्कर, २ पंक, १ धूम, १ तम १०७ १०८ ११० १ सक्कर, २ पंक, १ धूम, १ तमतमा हि सक्कर पंक धूम थी २ भांगा चउथे विकल्प करि कहै छँ १ २ सक्कर, १ पंक, १ धूम, १ तम २ २ सक्कर, १ पंक, १ धूम, १ तमतमा हि सक्कर पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छँ ११३ १ सक्कर, १ पंक, १ तम, २ तमतमा हिवै सक्कर पंक तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्प करि कहे छे १११ ११२ १ ११५ १ ११८ २ ११४ १ १ सक्कर, १ पंक, २ तम, १ तमतमा हि सक्कर पंक तन थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै है १ १ सक्कर, २ पंक, १ तम, १ तमतमा हि सक्कर पंक तम थी १ भांगो चउथे विकल्प करि कहै छँ |११६ १ २ स क्कर, १ पंक, १ तम, १ तमतमा एवं सक्कर पंक थी ३ भांगा ४ विकल्प करि १२ भांगा का । हि सक्कर धूम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ ११७ १ १ सक्कर, १ धूम, १ तम, २ तमतमा हि सक्कर धूम थी १ भांगो द्वितीय विकल्प करि कहै छै १ १ १ सक्कर, १ धूम, २ तम, १ तमतमा हि सक्कर धूम थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै छ ११६ १ सक्कर, २ धूम, १ तम, १ तमतमा १ हि सक्कर धूम थी १ भांगो चउथे विकल्प करि कहै छँ १२० १ २ सक्कर, १ धूम, १ तम, १ तमतमा एवं सक्कर थी १० भांगा ४ विकल्प करि ४० भांगा कह्या । हिवँ वालु थी ४ भांगा एक-एक विकल्प करि हुवै, ते वालु पंक थी, बालु धूमधी १ हि बालु कभी ३ ते किसा ? वालु पंक धूम थी २, वालु पंक तम थी १, एवं वालु पंक थी ३ एक-एक विकल्प करि हुतिहां वालु पंक धून घी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहे छे १२१ १ १२२ १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तमतमा हिव वालु पंक धूम थी २ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छै १२३ २ १ १३० १२४ १ वालु, १ पंक २ धूम १ तमतमा हि वालु पंक धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छ १२५ २ १ २ १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम १२६ १ वा २ पंक, १ धूम, १ तमतमा हिव वालु पंक धूम थी २ भांगा चउथे विकल्प करि कहै छँ १२७ १ १ वालु, १ पंक, २ धूम, १ तम २ १ वालु २ पंक, १ धूम, १ तम १२८ २ वालु, १ पंक, १ धूम १ तमतमा हि वालु पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छँ १२६ १ १ वालु. १ पंक, १ तम, २ तमतमा हिवै वालु पंक तम थी १ भागो द्वितीय विकल्प करि कहे छं १ १ वालु, १ पंक, २ तम, १ तमतमा हिव वालु पंक तम थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै छँ १ १ वालु २ पंक, १ त १ तमतमा १३१ हिवै वालु पंक तम थी १ भांगो चउथे विकल करि कहै छै - १३२ १ २ वालु, १ पक, १ तम, १ तमतमा ए वालु पंक थी ३ भांगा ४ विकल्प करि १२ भांगा कह्या । २ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम श० ६, उ०३२, ढाल १७६ १०१ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवँ वालु धूम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छै - १ १ वालु, १ धूम, १ तम, २ तमतमा हिवै वालु धूम थी १ भांगो द्वितीय विकल्प करि कहै छै - १३३ १३४ १ १ वालु, १ धूम २ तम, १ तमतमा हिव वालु धूम थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै छै - १ १ वालु, २ धूम, १ तम, १ तमतमा हिव वालु धूम थी १ भांगो चउथे विकल्प करि कहै छे १ २ वालु, १ धूम, १ तम, १ तमतना ए वालु धूम थी १ भांगो ४ विकल्प करि ४ भांगा कह्या । एवं वालु थी ४ भांगा ४ विकल्प करि १६ भांगा का । १३५ १३६ हिवे पंक थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहे छ १३७ | १ | १ पंक, १ धूम १ तम, २ हिव पंक थी १ भांगो द्वितीय विकल्प करि कहै छं | १३८ | १ १४० हिवे पंक थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै छं १३६ १ १ पंक, २ धूम, १ तम, १ तमतमा १ पंक, १ धूम २ तम, १ तमतमा हिव पंक थी एक भांगो चउथे विकल्प करि कहै छ १ २ पंक, १ धूम, १ तम, १ तमतमा ए पंक थी १ भांगो ४ विकल्प करि ४ भांगा कह्या । एवं रत्न थी २०, सक्कर थी १०, वालुक थी ४, पंक थी १, ए पैंतीस भांगा एक विकल्प नां हुवै, ते पांच जीव नां चौकसंजोगिया ४ विकल्प करि १४० भांगा कह्या । ए पांच जीव नां इकसंजोगिया ७, द्विकसंजोगिया ८४ त्रिकसंजोगिया २१०, चौकसंजोगिया १४० । एवं सर्व ४४१ भांगा कह्या । हिव पांच संजोगिया इकबीस भांगा आगल कहिसे । १०२ भगवती-जोड़ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १८० १. पञ्चकयोगे त्वेकविंशतिरिति । (वृ०प० ४४४) ३. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालु यप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभ ए होज्जा, ४. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालु यप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होज्जा । ५. अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा दूहा १. पांच जीव नां हिव कहं, पंचसंयोगिक भंग । एकवीस इक विकल्पे, आखू आण उमंग ॥ २. *पनर भांगा रत्न सेती, पंच सक्कर थी भणो। वालुक थी इक पंचयोगिक, भंग इकवीस गिणो ।। वा०--प्रथम रत्न थी १५, ते किसा? रत्न सक्कर थकी १०, रत्न वालु थकी ४, रत्न पंक थकी १-एवं १५ । हिवै रत्न सक्कर थी १०, ते किसा? रत्न सक्कर वालुक थकी ६, रत्न सक्कर पंक थकी ३, रत्न सक्कर धूम थकी १ एवं रत्न सक्कर थी १० । ते दशां माहै रत्न सक्कर वालु थकी ६ किसा? रल सक्कर वालुक पंक थी ३, रत्न सक्कर वालुक धूम थी २, रल सक्कर वालु तम थी १-एवं रत्न सक्कर वालुक थी ६ भांगा हुवै, ते कहै छ वीर कहै गंगेया ! सुणे। (ध्रुपदं) ३. तथा एक रत्न इक सक्करे, एक वाल इक पंक । गंगेया ! इक जीव धूमप्रभा विषे, ए धुर भंग अवंक । गंगेया ! ४. अथवा एक रत्न इक सक्करे, एक वालु इक पंक । एक तमा में ऊपज, ए भंग द्वितीय निसंक । ५. तथा एक रत्न इक सक्करे, एक वालु इक पंक । इक जीव नारकि सप्तमी, ए भंग तृतीय कथंक ।। हिवं रत्न सक्कर वालुक धूम थी २ भांगा कहै छ६. तथा एक रत्न इक सक्करे, एक वालुक इक धूम । एक तमा में ऊपजै, भंग चतुर्थो बम ॥ ७. तथा एक रत्न इक सक्करे, एक वालु इक धूम । इक जीव नारकि सप्तमी, ए भंग पंचम ब्रूम ॥ हिवै रत्न सक्कर वालुक तम थी एक भांगो कहै छै८. तथा एक रत्न इक सक्करे, एक वालु तम एक । एक तमतमा नै विषे, षष्टम भंग संपेख ॥ ए रत्न सक्कर वालुक थी ६ भांगा कह्या । हिवं रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा कहै छै६. तथा एक रत्न इक सक्करे, एक पंक इक धूम । एक तमा में ऊपज, ए भंग सप्तम ब्रूम ॥ १०. तथा एक रत्न इक सक्करे, एक पंक इक धूम । इक जीव नारकि सप्तमी, ए भंग अष्टम बम ॥ ११. तथा एक रत्न इक सक्करे, एक पंक तम एक । इक जीव नारकि सप्तमी, ए भंग नवम विशेख । * लय : पूज मोटा भांजे तोटा + लय : शिवपुर नगर सुहामणो ६. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे व लु यप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा। ७. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ८. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, ६. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे ___ पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा १०. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए गे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ११. अहवा एगे रयणपभाए एगे सकारणभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा श० ६, उ० ३२, ढाल १८० १०३ Jain Education Intemational Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १३. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पमाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा १४. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १५. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुणभाए एगे पंकप्प भाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा हि रत्न सक्कर धूम थी १ भांगो कहै छ१२. तथा एक रत्न इक सक्करे, एक धूम तम एक । इक जीव नारकि सप्तमी, ए भंग दशम उवेख ।। ए रत्न सक्कर धूम थी १ भांगो कह्यो। एवं रल सक्कर थी १० भांगा थया। हिवं रत्न वालुक थी क्यार भांगा कहै छै–ते किसा? रन वालुय पंक थी ३, रत्न वालुय धूम थी १ । तिण में रत्न वालुय पंक थी ३, ते किसा? रत्न वालुप पंक धूम थी २ अने रत्न वालुय पंक तम थी १-एवं रत्न वालुय पंक थी ३ । तिहां रत्न वालुय पंक धूम थी २ भांगा, ते कहै छै१३. तथा एक रत्न एक वालुका, एक पंक उपजत । इक धूम एक तमा विषे, भंग इग्यारमों तंत ।। १४. तथा एक रत्न इक वालुका, एक पंक उपजेह । एक धूम इक सप्तमी, द्वादशमो भंग एह ॥ ए रत्न बालुय पंक धूम थी २ भांगा कह्या ।। हिवै रत्न वालु पंक तम थी १ भांगो कहै छ१५. तथा एक रत्न इक वालुका, एक पंक अवलोय । एक तमा इक सप्तमी, तेरसमो भंग जोय ।। ए रत्न वालुय पंक थी ३ भांगा कह्या। हिवै रत्न वालुय धूम थी १ भांगो कहै छै१६. तथा एक रत्न इक वालुका, एक धूम आख्यात । एक तमा इक सप्तमी, चउदशमो भंग थात ।। ए रत्न वालुय थी ४ भांगा कह्या। हिवै रत्न पंक थी १ भांगो कहै छै१७. तथा एक रत्न इक पंक में, एक धूम रै माय । एक तमा इक सप्तमी, भंग पनरमो पाय ।। ए रत्न थी १५ भांगा कह्या । हिवै सक्कर थी ५ भांगा कहै छ, तिणमें रत्न पांचू मेंइं टालणी अने एकेक नरक पश्नानुपूर्वी करके टालणी१८. तथा एक सक्कर इक वालुका, एक पंक पहिछाण । एक धूम में इक तमा, सोलसमो भंग जाण ।। ए सोलमें भांगे सातमी टली। १६. तथा एक सक्कर इक वालुका, एक पंक अवलोय । एक धूम इक सप्तमी, सतरसमो भंग जोय ॥ ए सतरमें भांगे छठी नरक टली। २०. तथा एक सक्कर इक वालुका, एक पंक आख्यात । एक तमा इक सप्तमी, भंग अठारम थात ।। इहां अठारमें भांगे पंचमी नरक टली। २१. तथा एक सक्कर इक वालुका, एक धूम उपजंत। एक तमा इक सप्तमी, उगणीसम भंग तंत ॥ १०४ भगवती-जोड़ १६. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १७. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा १५. अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे तमाए होज्जा, १६. अहवा एगे सक्करप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा २० अहवा एगे सक्करप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा २१. अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा Jain Education Intemational Jain Education Interational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा। २३. अहवा एगे वालुयप्पभाए जाव एगे. अहेसत्तमाए होज्जा। (श018६२) ए उगणीसमें भांगे चउथी नरक टली । २२. तथा एक सक्कर इक पंक में, एक धम रै माय । एक तमा इक सप्तमी, वीसमों भंग कहाय ।। ए बीसमें भांगे तीजी नरक टली । ए सक्कर थी ५ भांगा कह्या । हिवै वालु थी १ भांगो कहै छै२३. तथा एक वालुक इक पंक में, एक धूम एक तम । एक सप्तमी ऊपजै, ए भंग इकवीसम ।। २४. पंचसंयोगिक ए कह्या, इकवीस भंग विचार । विकल्प एक अछ तसु, ए वच यंत्र' मझार ।। २५. *पनर रत्न थी पंच सक्कर थी, वालुक थी इक देखियै । पंच योगिक भंग ए, इकवीस ही इम लेखियै ॥ २६. पनर रत्न थो तेह इहविध, दश रत्न सक्कर थकी। रत्न वालू थी चिहुं अरु, रत्न पंक थी इक नकी ।। २७. रत्न सक्कर थकी दश इम, षट रत्न सक्कर वालु हुंती। रत्न सक्कर पंक थी त्रिण, इक रत्न सक्कर धम थी। २८. रत्न सक्कर वालु थी षट, तेह इहविध कीजिये। रत्न सक्कर वालु पंक थी, भंग तीन भणीजिये। २६. रत्न सक्कर वालु धूम थी, दोय भांगा आणिये । रत्न सक्कर वालु तम थी, भंग एक बखाणियै ॥ ३०. रत्न सक्कर वालु थी षट, प्रथम इहविध लीजियै । एम नारकि आगली पिण, पूर्व उक्तज कीजियै ।। ३१. पंच जीव नां इकसंयोगिक, सप्त भांगा जाणियै । द्विकसंयोगिक च्यार विकल्प, चोरासी भंग आणियै ।। ३२. त्रिकसंयोगिक षट विकल्पे, दोयसौ दश भंग कह्या। चउ संयोगिक च्यार विकल्प, इक सौ चाली भंगलह्या।। ३३. पंच संयोगिक एक विकल्प, भंग इकवीसे भण्या। च्यार सौनै बासठ सगला, भंग संख्या करि गिण्या ॥ ३४. +शत नवम बतीसम देश ए, एक सौ असीमी ढाल । सयाणां! भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगल माल ।। सयाणां! (जय-जय ज्ञान जिनेंद्र नों।) ३३. सर्वमीलने च चत्वारि शतानि द्विषष्टयधिकानि भवन्तीति । (वृ०प०४४४) १. यह धर्मसी यंत्र की सूचना है । *लय : पूज मोटा भांज तोटा 'लय : शिवपुर नगर सुहामणो पा०६, उ०३२, ढाल १८० १०५ Jain Education Intemational Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच जीव नां पंचसयोगिक तेहनों विकल्प १, भांगा इकवीस । तिहां रत्न थी १५, सक्कर थी ५, वालुक थी १ - एवं २१ । रत्न थी १५, ते किसा ? रत्न सक्कर थी १०, रत्न वालु थी ४, रत्न पंक थी १ - एवं रत्न थी १५ । ते पनरां में रत्न सक्कर थी १०, ते किसा ? रत्न सक्कर वालुक थी ६, रत्न सक्कर पंक थी ३, रत्न सक्कर धूम थी १ एवं रत्न सक्कर थी १० । ते दशां में रत्न सक्कर वालुक थी ६, ते किसा ? रत्न सक्करवालुक पंक थी ३, रत्न सक्कर वालुक धूम थी २, रत्न सक्कर वालुक तम थी १ – एवं रत्न सक्कर वालुक थी ६ । ते छ भांगा में प्रथम रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा कहै छ १ २ ३ ४ १ २ ७ ३ १ | १ १ २ स वा पं धू १ १ १ १ १ १ १ ए रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा कह्या । हि रत्न सक्कर वालुक धूम थी २ भांगा कहै छै - १ | १ | १ १ १ १/ 81 ५ २ | १ १ १ o १ हि रत्न सक्कर वालुक तम थी १ भांगो कहै छं ६ १ १ १ ए रत्न सक्कर वालुक थी ६ भांगा कह्या । हिवे रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा, ते किसा ? पंक धूम थी २, रत्न सक्कर पंक तम थी १ सक्कर पंक धूम थी २ भांगा कहे छं १ o o १ १ ० १ हिर्व रत्न सक्कर धूम थी १० १ १ ए रहन सक्कर थी १० भांगा का । o १ ० || १ ε 2 १ १ ए रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा कह्या । ० हिर्व रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो कहै छं १ १ १ भांगो कहै छ ० १ ० त तम १ o १ १ १ ० ० १ ० १ रत्न सक्कर तिहां रत्न १ | १ | · | 2 | ± | 0 | 8 | 9 | 8 o १ हि रत्न वालु थी ४ भांगा, ते किसा? रत्न वालुक पंक थी ३, रत्न वालुक धूम थी १, तिणमें रत्न वालुक पंक थी ३, किसा ? रत्न वालु पंक धूम थी २. रत्न वालुक पंक तम थी १, तिहां रत्न वालुक पंक धूम थी २ भांगा कहै छ ११ १३ | १५ 1 १२ | १ हिवे रत्न वालुक पंक तम थी १ भांगो कहै छै - | 8 १६ | १७ १ | ए रत्न वालुक पंक थी ३ भांगा कह्या । हि रत्न वालुक धूम थी १ भांगो कहै छै - १४ | १५ १६ २१ | 8 हि रत्न पंक थी १ भांग क ए रत्न वालुक थी ४ भांगा का । २ १ o १ १ १ | २ ३ स वा ५ एवं रत्न थी १५ भांगा कह्या । हि सक्कर थी ५ भांगा कहै छं १ ० १ ० 1 2 1 0 1 ० ० ० ० १ १ o १ १ ० १ 21° 1 ० १ १ o १ १ २० ए सक्कर थी ५ भांगा कह्या । हिवै वालुक थी १ भांगो कहै छं पं १ १ १ o ० १ | १ १ १ धू १ १ १ १ ૧. १ १ o १ १ १ त १ १ १ ० १ १ ११ १ तम १ o १ १ १ १ १ १ १ १ ए पंच जीव नां पंच संजोगिया रत्न थी १५, सक्कर थी ५, वालुक थी १ - एवं २१ भांगा जाणवा । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १८१ दूहा १. हे भदंत ! षट नेरइया, नरक-प्रवेशण काल । रत्नप्रभा में स्यूं हुवै, प्रश्न पूर्ववत न्हाल ।। २. जिन कहै गंगेया! सुणे, छह रत्न उपजंत । अथवा षट सक्कर मझे, तथा वालुक षट हुंत ।। ३. अथवा पंक विषेज षट, अथवा षट ह धूम । अथवा षट तम वलि तया, षट तमतमाज ब्रूम ।। ४. इकसंयोगिक आखिया, भांगा ए इम सात । इक विकल्प करि ओलखो, वारू विध अवदात ।। १. छम्भंते | नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा कि रयणप्पभाए होज्जा?-पुच्छा। २,३. गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा। ४. इहैकत्वे सप्त (वृ०प०४४५) हिवै ६ जीव नां द्विकसंयोगिक तेहनां विकल्प ५ भांगा १०५ कहै छै५. द्विकयोगिक षट जीव नां, विकल्प पंच विशेष । भांगा एक सौ पंच है, कहिये तेह अशेष ।। _ *वीर कहै गंगेया! सुणे । (ध्रुपदं) ६. अथवा इक ह रत्न में, पंच सक्कर में पेखो रे । अथवा इक ह रत्न में, पंच वालुका देखो रे ।। ७. अथवा इक ह रत्न में, पंच पंक रै माही। अथवा इक ह रत्न में, पंच धम कहिवाई ।। ८. अथवा इक व रत्न में, पच तमा पहिछाणी। अथवा इक ह रत्न में, पंच तमतमा जाणी ।। ए रत्ल थी प्रथम विकल्प करि ६ भांगा कह्या। दूजै विकल्प करि ६ भांगा कहै छ - ६. तथा दोय हरत्न में, चिउ सक्कर अवलोयो। जाव तथा दोय रत्न में, च्यार सप्तमी होयो । *लय : बात म काढो वरत नी ५. द्विकयोगे तु षण्णां द्वित्वे पञ्च विकल्पाः स्तद्यथा १५।२४।३३।४२०५१ । तैश्च सप्तपद-द्विकसंयोगएकविशतेर्गणनात् पञ्चोत्तरं भङ्गकशतं भवति । (वृ०प० ४४५) ६. अहवा एगे रयणप्पभाए पंच सक्करप्पभाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए पंच वालुयप्पभाए होज्जा ७,८. जाव अहवा एगे रयणप्पभाए पंच अहेसत्तनाए होज्जा। है. अहवा दो रयणप्पभाए चत्तारि सक्करप्पभाए होज्जा जाव अहवा दो रयणप्पभाए चत्तारि अहेसत्तमाए होज्जा। श० ६, उ० ३२, ढाल १८१ १०७ Jain Education Intemational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०-३५. अहवा तिण्णि रयणप्पभाए तिण्णि सक्करप्पभाए। एवं एएणं कमेणं जहा पचण्हं दुयासंजोगो तहा छह वि भाणियब्वो, नवरं-एक्को अब्भहिओ संचारेयव्वो जाव अहवा पंच तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । तीज विकल्प करि ६ भांगा कहै छै१०. तथा तीन वरत्न में, त्रिण सक्कर में चीनो। जाव तथा त्रिण रत्न में, हवै सप्तमी तीनो।। चउथे विकल्प करि ६ भांगा कहै छ११. तथा च्यार ह रत्न में, बे सक्कर अघखानो। जाव तथा चिउ रत्न में, दोय तमतमा जानो ।। पंचमें विकल्प करि ६ भांगा कहै छै१२. तथा पांच ह रत्न में, इक सक्कर दुखदायो। जाव तथा पंच रत्न में, एक सप्तमी मांह्यो ।। ए रत्ल थी ६ भांगा पांच विकल्प करि ३० भांगा कहा। हिवै सक्कर थी ५ भांगा ५ विकल्प करि २५ भांगा कहै छै१३. अथवा एक सक्कर ह्व, पंच वालुका पेखो। जाव तथा इक सक्करे, पंच तमतमा लेखो।। १४. तथा दोय ह सक्करे, च्यार वालुका मांही। जाव तथा बे सक्करे, च्यार सप्तमी थाई ।। १५. तथा तीन व सक्करे, तीन वालुका होयो। जाव तथा तीन सक्करे, तीन सप्तमी जोयो । १६. तथा च्यार ह सक्करे, दोय वालुका जाणी। जाव तथा चिउ सक्करे, दोय सप्तमी आणी ॥ १७. तथा पांच ह्र सक्करे, इक वालुक आख्यातो। जाव तथा पंच सक्करे, एक तमतमा पातो ।। हिवं बालुक थकी ४ भांगा ५ विकल्प करि कहै छ --- १८. तथा एक ह वालुका, पंच पंक में पेखो। जाव तथा इक वालुका, पंच सप्तमी लेखो। १६. तथा दोय व वालुका, च्यार पंक रै माह्यो। जाव तथा बे वालुका, च्यार सप्तमी जायो। २०. तथा तीन ह वालुका, तीन पंक दुखत्रासो। तथा जाव तीन वालुका, तीन सप्तमी वासो।। २१. तथा च्यार ह्र वालुका, दोय पंक पहिछाणी। जाव तथा च्यार वालुका, दोय सप्तमी जाणी॥ २२. तथा पांच ह्र वालुका, एक पंक अवलोयो। जाव तथा पंच वालुका, एक सप्तमी होयो । ए वालुक थकी ४ भांगा पांच विकल्प कर २० भांगा कह्या । हिवै पंक थकी ३ भांगा पांच विकल्प करि कहै छ२३. तथा एक ह पंक में, पंच धूम अघखानी। जाव तथा इक पंक में, पंच सप्तमी जानी। २४. तथा दोय ह पंक में, च्यार धूम पहिछानी। जाव तथा बे पंक में, च्यार तमतमा जानी।। २५. तथा तीन व पंक में, तीन धम में तेहो। जाव तथा त्रिण पंक में, तीन सप्तमी जेहो ।। १०८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. तथा च्यार पंक में, दोय धूम में देखो । जाव तथा चिउं पंक में, दोय तमतमा देखो ॥ २७. तथा पंच पंक में एक धूम आख्यातो । जाव तथा पंच पंक में एक सप्तमी पातो । 3 ए पंक थकी ३ भांगा ५ विकल्प करि १५ भांगा कह्या । हिवै धूम थी २ भांगा ५ विकल्प करि कहै छै - धूम में, पंच तमा दुखपूरो । २८. तथा एक ह्वै तथा एक २६. तथा दोय तथा दोय हूं धूम में पंच सप्तमी भूरो ।। धूम में, च्यार तमा रै मांह्यो । धूम में, च्यार सप्तमी जायो ॥ धूम में तीन तमा उपजंतो । धूम में तीन सप्तमी हुंतो ॥ ३०. तथा तीन द्वं तथा तीन ह्वं ३१. तथा च्यार ह्वै धूम में, दोय तमा में देखो । तथा व्यार ३२. तथा पंच ह्र तथा पंच धूम में, दोय सप्तमी देखो ॥ धूम में, एक तमा अवलोयो । धूम में, एक सप्तमी होयो || ए धूम थी २ भांगा ५ विकल्प करि १० भांगा कह्या । हिवै तमाथी १ भांगो ५ विकल्प करि कहै छ ३३. अथवा इक तम मझे, पंच तमतमा देखो । अथवा दोय छठी विषे, च्यार सप्तमी लेखो ॥ ३४. तथा तीन छुट्टी विषे तीन सप्तमी मांह्यो । अथवा च्यार हुवै तमा, दोय तमतमा पायो । ३५. अथवा पंच हुवं तमा, एक सप्तमी होयो । थकी अवलोयो ॥ ए विकल्प है पंचमो, तमा एतमा थकी १ भांगो ५ विकल्प करि ५ भांगा कह्या । रत्न थी ६, सक्कर थी ५, वालु थी ४, पंक थी ३, धूम थी २, तम थी १ - एवं २१ भांगा एक-एक विकल्प करि हुवै । ६ जीव नां ५ विकल्प कारे द्विकसंजोगिया १०५ भांगा । हि एहनों यंत्र । १५, २४, ३३, ४२, ५१ छ जीव नां द्विकसंजोगिया ए ५ विकल्प | छ जीव नां द्विक्संयोगिक नां विकल्प ५ भांगा १०५ | तिहां रत्न थी ६ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छे १ २ ३ ४ ५ ६ १ २ ३ ४ ५ ६ १ रत्न, ५ सक्कर, १ रत्न, ५ वालुक १ रत्न, ५ पंक १ रत्न, ५ धूम १ रत्न, ५ तम १ रत्न, ५ सप्तमीं श० उ० ३२, ढाल १८१ १०६ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं रत्न थी ६ भांगा दूजे विकल्प करि कहै छ हिवै रत्न थी ६ भांगा पंचमें विकल्प करि कहै छै १ ५ रत्न, १ सक्कर । १ २ रत्न, ४ सक्कर ८ २ २ रत्न, ४ वालुक ५ रत्न, १ वालुक २ रत्न, ४ पंक ५ रत्न, १पंक २ रत्न, ४ धूम | ५ रत्न, १ धूम ११ ५२ रल, ४ तम २६ ५५ रत्न, १ तम ६ २ रत्न, ४ सप्तमी ५ रत्न, १ सप्तमी हिवं रल थी ६ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ एवं रत्न थी ६, पंच विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिवै सकार थी ५ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै ३ रत्न, ३ सक्कर १ सक्कर, ५ वालु ३ रत्न, ३ वालुक १ सक्कर, ५ पंक | ३ रत्न, ३ पंक १ सक्कर, ५ धूम | ३ रत्न, ३ धूम ४ १ सक्क र, ५ तम, ३ रन, ३ तम १ सक्कर, ५ सप्तमी ६ | ३ रत्न, ३ सप्तमी सक्कर थी ५ भांगा दूजे विकल्प करि कहै छ हिवं रत्न थी ६ भांगा चउथे विकल्प करि कहै छ. १ | २ सक्कर, ४ वालु, ४ रत्न, २ सक्कर २ सक्कर, ४ पंक ४ रत्न, २ वालुक २ सक्कर, ४ धूम ३ | ४ रत्न, २ पंक २ सक्कर, ४ तम ४ रत्न, २ धूम ५ २ सक्कर, ४ सप्तमी ४ रत्न, २ तम ४ रत्न, २ सप्तमी ११० भगवती-जोड़ dain Education Intermational Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ ४२ ४३ ૪૪ ४५ ४६ ४७ ४८ ४६ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५७ हि सक्कर थी ५ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ ३ सक्कर, ३ वालुक ५८ १ ५६ २ ३ ५ ३ सक्कर, ३ सप्तमीं हि सक्कर थी ५ भांगा चउथे विकल्प करि कहै छँ ४ सक्कर, २ वालु १ २ ४ सक्कर, २ सप्तमी हि सक्कर थी ५ भांगा पंचमें विकल्प करि कहै छ -- ५ सक्कर, १ वालु ३ ४ ५ १ २ ३ ४ ५ १ ३ सक्कर, ३ पंक २ ३ सक्कर, ३ धूम ३ सक्कर, ३ तम ३ ५ सक्कर, १ सप्तमीं एवं सक्कर थी ५ विकल्प करि २५ भांगा कह्या । हिवै वालुक थी ४ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छँ ५६ १ वालुक, ५ पंक ४ ४ सक्कर, २ पंक ४ सक्कर, २ धूम ४ सक्कर, २ तम ५ सक्कर, १ पंक ५ सक्कर, १ धूम ५ सक्कर, १ तम १ वालुक, ५ धूम १ वालुक, ५ तम १ वालुक, ५ सप्तमी हिव वालु थी ४ भांगो दूर्जे विकल्प करि कहै छँ ६० २ वालुक, ४ पंक ६१ ६२ ६५ ६६ ६७ हिव ६३ २ वालुक, ४ सप्तमीं हिव वालु थी ४ भांगा तीज विकल्प करि कहे छं - ६४ ६८ ६६ ७० ७१ ७३ ७४ १ ७५ २ ७७ ३ ७८ ४ १ २ ३ ४ १ २ ३ ३ वालुक, ३ सप्तमी वालु थी ४ भांगा चउथे विकल करि कहै छँ ४ ४ वालुक, २ सप्तमी हिव वालु थी ४ भांगा पंचमे विकल्प करि कहै छ ७२ ५ वालुक, १ पंक १ २ ३ ४ २ वालुक, ४ धूम १ २ वालुक, ४ तम २ ३ ३ वालुक, ३ पंक ३ वालुक, ३ धूम ५ वालुक, १ सप्तमीं एवं वालुक थी ४ भांग पंच विकल्प करि २० भांगा कह्या । हिव पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहे छे - ७६ १ पंक, ५ धूम ३ वालुक, ३ तम ४ वालुक, २ पंक ४ वालुक, २ धूम ४ वालुक, २ तम ५ वालुक, १ धूम ५ वालुक, १ तम १ पंक, ५ तम १ पंक, ५ सप्तमी श० ६, उ० ३२, ढाल १८१ १११ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै पंक थी ३ भांगा दूज विकल्प करि कहै छै हिवं धूम थी २ भांगा तीजै विकल्प करि कहै छ ---- २ पंक, ४ धूम ६५ १ ३ धूम, ३ तम २पंक, ४ तम ६६. २ ३ धूम, ३ सप्तमी हिवै धूम थी २ भांगा चउथे विकल्प करि कहै छ --- ८१ ३ २ पंक, ४ सप्तमी हिवं पंक थी ३ भांगा तीज विकल्प करि कहै छ - ४ धूम, २ तम १८ ३ पंक, ३ धूम ४ धूम, २ सप्तमी ३ पंक, ३ तम हिवै धूम थी २ भांगा पंचमें विकल्प करि कहै छ .... r . | ३ | ३ पंक, ३ सप्तमी ५ धूम, १ तम हिवै पंक थी ३ भांगा चउथे विकल्प करि कहै छ... ५ धूम, १ सप्तमी १ | ४ पंक, २ धूम एवं धूम थी २ भांगा पंच विकल्प करि १० भांगा कह्या । हिव तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छै --- | ८६ २ ४ पंक, २ तम तम, ५ सप्तमी ८७ ३ ४ पंक, २ सप्तमी हिवै तम थी १ भांगो दूज विकल्प करि कहै छै-- हिवं पंक थी ३ भांगा पंचमें विकल्प करि कहै छै ०२ | १ | २ तम, ४ सप्तमी ५ पंक, १ धूम हिवै तभ थी १ भागो तीजै विकला करि कहै छ---- ५पंक, १ तम १०३ | १ | ३ तम, ३ सप्तमी ६० ३ ५ पंक, १ सप्तमी हिवं तम थी १ भांगो चउथे विकल्प करि कहै छ ए पंक थी ३ विकल्प करि १५ भांगा कह्या । हिवं धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ... १०४ | १ | ४ तम, २ सप्तमी १ धूम, ५ तम हिवं तम थी १ भांगो पंचमें विकल्प करि कहै छ ०५ ६२ २ १ धूम, ५ सप्तमी ५ तम, १ सप्तमी हिवं धूम थी २ भांगा दूजे विकल्प करि कहै छ एवं ६ जीव नां द्विकसंजोगीया भांगा २१ पंच विकल्प करि १०५ भांगा कह्या। | १ | २ धूम, ४ तम ६४ | २ | २ धूम, ४ सप्तमी ३३. नवम बत्तीसम देश ए, ढाल इकसौ इक्यासी। भिक्ष भारोमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' परम हुलासी॥ * लय : बात म काढो बरत नी ११२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १८२ १. त्रिकयोगे तु षण्णां त्रित्वे दश विकल्पाः एतैश्च पञ्चत्रिंशतः सप्तपदत्रिकसंयोगानां गुणनात् त्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्ति । (व०प०४४५) दूहा १. षट नारकि नां हिव कहूं, त्रिकसंजोगिक तास । भांगा साढा तीन सौ, दश विकल्प करि जास ॥ २. रत्न थकी पनरै हुवै, सक्कर थी दश होय । पट वाल थी पंक त्रिण, धूम थकी इक सोय ।। ३. ए पैंतीसे भंग ते, दश विकल करि देख । होवै साढा तीन सौ, कहियै छै सुविशेख । हिवै १५ रत्न थी, ते किसा? रत्न मक्कर थकी ५, रत्न वालुक थकी ४, रत्न पंक थकी ३, रत्न धूम थकी २, रत्न तम थकी १ - एवं १५ भांगा रत्न थी, ते दस विकल्प करि हुवै *श्री जिन भाखै सुण गंगेया ! (ध्रुपदं) ४. एक रत्न नैं एक सक्कर है, च्यार वालुका होय । अथवा एक रत्न इक सक्कर, च्यार पंक अवलोय ।। ४. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए चत्तारि वालुयप्पभाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए चत्तारि पंकप्पभाए होज्जा। ५,६. एवं जाव अहवा एगे रमणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए चत्तारि अहेसत्तमाए होज्जा। ७-१४८. अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए तिण्णि वालुयप्पभाए होज्जा । एवं एएणं कमेणं जहा पंचण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा छह वि भाणियब्बो, नवरं-एक्को अहिओ उच्च रेयन्वो, सेसं तं चेव । ५. अथवा एक रत्न इक सक्कर, च्यार धूम रै माय । अथवा एक रत्न इक सक्कर, च्यार तमा दुख पाय ।। ६. अथवा एक रत्न इक सक्कर, च्यार सप्तमी होय । रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, धुर विकल्प करि सोय ।। ७. अथवा एक रत्न बे सक्कर, तीन वालुका होय । अथवा एक रत्न बे सक्कर, तीन पंक अवलोय ।। ८. अथवा एक रत्न बे सक्कर, तीन धूम रै माय । अथवा एक रत्न बे सक्कर, तीन तमा कहिवाय ।। है. अथवा एक रत्न बे सक्कर, तीन सप्तमी होय । रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, द्वितीय विकल्प जोय ।। १०. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, तीन वालुका होय । अथवा दोय रत्न इक सक्कर, तीन पंक अवलोय ।। ११. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, तीन धूम रै माय । अथवा दोय रत्न इक सक्कर, तीन तमा दुख पाय ।। १२. अथवा दोय रत्न इक सक्कर, तीन सप्तमी होय । रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, तृतीय विकल्प सोय ।। १३. अथवा एक रत्न त्रिण सक्कर, दोय वालुका होय । अथवा एक रत्न त्रिण सक्कर, दोय पंक अवलोय ।। १४. अथवा एक रत्न त्रिण सक्कर, दोय धुम रै माय । अथवा एक रत्न त्रिण सक्कर, दोय तमा दुख पाय ।। १५. अथवा एक रत्न त्रिण सक्कर, दोय सप्तमी होय । रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, चउथै विकल्प जोय ॥ * लय: सीता आवै रे धर राग श०६, उ० ३२, ढाल १८२ ११३ Jain Education Intemational Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. अथवा दोय रत्न बे सक्कर, दोय वालुका होय । अथवा दोय रत्न बे सक्कर, दोय पंक अवलोय ।। १७. अथवा दोय रत्न बे सक्कर, दोय धूम रै माय । अथवा दोय रत्न बे सक्कर, दोय तमा दुख पाय ।। १८. अथवा दोय रत्न बे सक्कर, दोय सप्तमी होय । रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, पंचम विकल्प जोय ॥ १६. अथवा तीन रत्न इक सक्कर, दोय वालुका होय। अथवा तीन रत्न इक सक्कर, दोय पंक अवलोय ।। २०. अथवा तीन रत्न इक सक्कर, दोय धूम रै माय । अथवा तीन रत्न इक सक्कर, दोय तमा दुख पाय ।। २१. अथवा तीन रत्न इक सक्कर, दोय सप्तमी होय । रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, षष्टम विकल्प जोय ॥ २२. अथवा एक रत्न चिउं सक्कर, एक वालुका होय । अथवा एक रत्न चिउं सक्कर, एक पंक अवलोय ।। २३. अथवा एक रत्न चिउं सक्कर, एक धूम रै माय । अथवा एक रत्न चिउं सक्कर, एक तमा दुख पाय ॥ २४. अथवा एक रत्न चिउं सक्कर, एक सप्तमी होय । रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, सप्तम विकल्प जोय ।। २५. अथवा दोय रत्न त्रिण सक्कर, एक वालुका होय । अथवा दोय रत्न त्रिण सक्कर, एक पंक अवलोय ।। २६. अथवा दोय रत्न त्रिण सक्कर, एक धूम रै माय । अथवा दोय रत्न त्रिण सक्कर, एक तमा दुख पाय ।। २७. अथवा दोय रत्न त्रिण सक्कर, एक सप्तमी होय । रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, अष्टम विकल्प जोय ।। २८. अथवा तीन रत्न बे सक्कर, एक वालुका होय । अथवा तीन रत्न बे सक्कर, एक पंक अवलोय ।। २६. अथना तीन रत्न बे सक्कर, एक धूम रै मांय । अथवा तीन रत्न बे सक्कर, एक तमा कहिवाय ।। ३०. अथवा तीन रत्न बे सक्कर, एक सप्तमी होय । रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, नवमें विकल्प जोय । ३१. अथवा च्यार रत्न इक सक्कर, एक वालुका जान । अथवा च्यार रत्न इक सक्कर, एक पंक अघखान ॥ ३२. अथवा च्यार रत्न इक सक्कर, एक धूम रै माय । अथवा च्यार रत्न इक सक्कर, एक तमा कहिवाय ॥ ३३. अथवा च्यार रत्न इक सक्कर, एक सप्तमी मांय । रत्न सक्कर थी ए पंच भंगा, दशमें विकल्प थाय ।। ए रत्न सक्कर थी ५ भांगा १० विकल करि ५० भांगा कह्या । हिवै रत्न वालुक थी ४ भांगा दश विकल करि ४० भांगा कहै छ हिवै प्रथम विकल्प करि ४ भांगा कहै छै३४. अथवा एक रत्न इक वालुक, च्यार पंक उपजंत । जाव तथा इक रत्न वालु इक, च्यार तमतमा हुंत ।। ११४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि द्वितीय विकल्प करि ४ भांगा कहै छै - ३५. अथवा एक रत्न बे वालुक, जाव तथा इक रत्न बालु बे, हिवै तृतीय विकल्प करि ४ भांगा ३६. अथवा दोय रत्न इक वालुक, जाव तथा बे रत्न वालु इक, हिव चतुर्थ विकल्प करि ४ भांगा कहै छै - ३७. अथवा एक रत्न त्रिण वालुक, जाव तथा इक रत्न वालु त्रिण, हि पंचम विकल्प करि ४ भांगा कहै छै - तीन पंक उपजंत । तीन तमतमा हुंत ॥ कहै छै - तीन पंक अघखान । तीन तमतमा जान ॥ ३८. अथवा दोष रत्न वालु वे , जाव तथा बे रत्न वालु बे, हि षष्टम विकल्प करि ४ भांगा कहै छै - दो पंक दुख पूर दोय तमतमा भर ॥ दोय पंक पहिछान दोय तमतमा जान ॥ ३६. अथवा तीन रत्न इक वालुक, दोय पंक दुख रास । जाव तथा त्रिण रत्न वालु इक, दोय तमतमा तास ॥ हिवै सप्तम विकल्प करि ४ भांगा कहै छै - एक पंक अवलोय | एक तमतमा होय ॥ - ४०. अथवा एक रत्न चिउं वालुक, जाव तथा इक रत्न वालु चिउं, हि अष्टम विकल्प करि ४ भांगा कहै ४१. अथवा दोय रत्न त्रिण वालु, एक पंक दुख धाम । जा तथा बे रत्न वालु त्रिण, एक तमतमा पाम ॥ हि नवम विकल्प करि ४ भांगा कहै छै - ४२. अथवा तीन रन वे वालुक, एक पंक कहिवाय । जाव तथा त्रिरत्न वालुक बे, एक सप्तमी जाय ॥ वि दशम विकल्प करि ४ भांगा कहै छै - ४३. अथवा च्यार रत्न इक वालुक, एक पंक में पेख । जाव तथा चिउं रत्न वालु इक एक सप्तमी लेख || ए रत्न वालुक थी ४ भांगा दश विकल्प करि ४० भांगा कह्या । हिवै रत्न पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा । हि प्रथम विकल्प करि २ भांगा कहै - ४४. अथवा एक रत्न इक पंके, च्यार धूम उपजंत । जाव तथा इक रत्न पंक इक, च्यार तमतमा हुंत ॥ हि द्वितीय विकल्प करि ३ भांगा ४५. अथवा एक रत्न बे पंके, जाव तथा इक रत्न पंक बे, हि तृतीय विकल्प करि ३ भांगा ४६. अथवा दोय रत्न इक पंके, जाव तथा दोय रत्न पंक इक, कहै छै- तीन धूम रे मांय । तीन तमतमा पाय ॥ कहै छै - तीन धूम अघखान । तीन तमतमा जान ॥ श० ६, उ० ३२, ढाल १५२ ११५ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै चतुर्थ विकल्प करि ३ भांगा कहै छै४७. अथवा एक रत्न त्रिण पंके, दोय धुम दुखपूर । जाव तथा इक रत्न पंक त्रिण, दोय तमतमा भूर ॥ हिव पंचम विकल्प करि ३ भांगा कहै छै— ४८. अथवा दोय रत्न बे पंके, दोय धम पहिछान । जाव तथा बे रत्न पंक बे, दोय तमतमा जान ।। हिवै षष्टम विकल्प करि २ भांगा कहै छै४६. अथवा तीन रत्न इक पंके, दोय धूम दुखरास । जाव तथा त्रिण रत्न पंक इक, दोय तमतमा तास ।। हिव सप्तम विकल्प करि ३ भांगा कहै छै५०. अथवा एक रत्न चिउं पंके, एक धूम अवलोय । जाव तथा इक रत्न पंक चिउं, एक तमतमा होय ।। हिवै अष्टम विकल्प करि ३ भांगा कहै छै५१. अथवा दोय रत्न त्रिण पंके, एक धूम दुखधाम । जाव तथा बे रत्न पंक त्रिण, एक तमतमा पाम ।। हिवै नवम विकल्प करि ३ भांगा कहै छै-- ५२. अथवा तीन रत्न बे पंके, एक धूम कहिवाय । जाव तथा त्रिण रत्न पंक बे, एक सप्तमी जाय । हिवं दशम विकल्प करि ३ भांगा कहै छै५३. अथवा च्यार रत्न इक पंके, एक धम में पेख । जाव तथा चिउं रत्न पंक इक, एक सप्तमी लेख ।। ए रत्न पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिवरल धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा। प्रथम विकल्प करि २ भांगा कहै छै– ५४. अथवा एक रत्न इक धूमा, च्यार तमा उपजत । अथवा एक रत्न इक धूमा, च्यार तमतमा हुँत ।। हिव द्वितीय विकल्प करि २ भांगा कहै छै— ५५. अथवा एक रत्न बे धूमा, तीन तमा रै माय । अथवा एक रत्न बे धूमा, तीन तमतमा जाय ।। हिवं तृतीय विकल्प करि २ भांगा कहै छै५६. अथवा दोय रत्न इक धमा, तीन तमा अघखान । अथवा दोय रत्न इक धूमा, तीन तमतमा जान ।। हिवं चतुर्थ विकल्प करि २ भांगा कहै छै५७. अथवा एक रत्न त्रिण धमा, दोय तमा दुखपूर । अथवा एक रत्न त्रिण धूमा, तीन तमतमा भूर ।। हिवै पंचम विकल्प करि २ भांगा कहै छै५८. अथवा दोय रत्न बे धमा, दोय तमा पहिछान । अथवा दोय रत्न बे धमा, दोय तमतमा जान ॥ ११६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं षष्टम विकल्प करि २ भांगा कहै छै५६. अथवा तीन रत्न इक धूमा, दोय तमा दुखरास । अथवा तीन रत्न इक धूमा, दोय तमतमा तास ।। हिव सप्तम विकल्प करि २ भांगा कहै छै-- ६०. अथवा एक रत्न चिउं धमा, एक तमा अवलोय । अथवा एक रत्न चिउं धूमा, एक तमतमा होय ।। हिवं अष्टम विकल्प करि २ भांगा कहै छ६१. अथवा दोय रत्न त्रिण धूमा, एक तमा दुखधाम । अथवा दोय रत्न त्रिण धूमा, एक तमतमा पाम ।। हिवै नवम विकल्प करि २ भांगा कहै छै६२. अथवा तीन रत्न बे धमा, एक तमा कहिवाय । अथवा तीन रत्न बे धूमा, एक सप्तमी जाय । हिवं दशम विकल्प करि २ भांगा कहै छ६३. अथवा च्यार रत्न इक धूमा, एक तमा में पेख । अथवा च्यार रत्न इक धूमा, एक सप्तमी लेख ।। ए रत्न धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कह्या । हिवं रत्न तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कहै छ६४. अथवा एक रत्न इक तमा, च्यार तमतमाः जंत । अथवा एक रत्न बे तमा, तीन तमतमा हुंत । ६५. अथवा दोय रत्न इक तमा, तीन तमतमा मांय । अथवा एक रत्न त्रिण तमा, दोय तमतमा जाय । ६६. अथवा दोय रत्न बे तमा, दोय तमतमा जोय । अथवा तीन रत्न इक तमा, दोय तमतमा होय ।। ६७. अथवा एक रत्न चिउं तमा, एक तमतमा पेख । अथवा दोय रत्न त्रिण तमा, एक सप्तमी लेख ।। ६८. अथवा तीन रत्न बे तमा, एक तमातमा माय। अथवा च्यार रत्न इक तमा, एक सप्तमी जाय ।। ए रत्न तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कह्या । ए रल थी १५ भांगा दश विकल्प करि १५० भांगा कह्या। हिवै सक्कर थी दश, ते किसा? सक्कर वालुक थी ४, सक्कर पंक थी ३, सक्कर धूम थी २, सक्कर तम थी १--एवं दश भांगा हुवै, ते दश विकल्प करि १०० भांगा हुवै ते कहै छै६६. अथवा इक सक्कर इक वालक, च्यार पंक उपजंत । जावत इक सक्कर इक वालुक, चिउं सप्तमी हुंत । हिवै द्वितीय विकल्पे ४ भांगा कहै छै– ७०. अथवा इक सक्कर बे वालक, तीन पंक में चीन । जावत इक सक्कर बे वालुक, अधो सप्तमी तीन ।। हिवै तृतीय विकल्पे ४ भांगा कहै छै७१. अथवा बे सक्कर इक वालक, तीन पंक में लीन । जावत बे सक्कर इक वालुक, अधो सप्तमी तीन ।। श० ६, उ० ३२, ढाल १८२ ११७ Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै चतुर्थ विकल्पे ४ भांगा कहै छ७२. अथवा इक सक्कर त्रिण वालक, दोय पंक अवलोय । जावत इक सक्कर त्रिण वालक, अधो सप्तमी दोय ।। हिवै पंचम विकल्पे ४ भांगा कहै छै७३. अथवा बे सक्कर बे वालक, दोय पंक अवलोय । जावत बे सक्कर बे वालुक, अधो सप्तमी दोय ।। हिवं षष्टम विकल्पे ४ भांगा कहै छ७४. अथवा त्रिण सक्कर इक वालुक, दोय पंक में होय । जावत त्रिण सक्कर इक वालुक, अधो सप्तमी दोय ।। हिवै सप्तम विकल्पे ४ भांगा कहै छै७५. अथवा इक सक्कर चिउं वालक, एक पंक में पेख । जावत इक सक्कर चिउं वालुक, अधो सप्तमी एक ॥ हिवै अष्टम विकल्पे ४ भांगा कहै छ७६. अथवा बे सक्कर त्रिण वालुक, एक पंक में पेख । जावत इक सक्कर चिउं वालुक, अधो सप्तमी एक ।। हिवै नवम विकल्पे ४ भांगा कहै छै७७. अथवा त्रिण सक्कर बे वालक, एक पंक में पेख । जावत त्रिण सक्कर बे वालुक, अधो सप्तमी एक ॥ हिवै दशम विकल्पे ४ भांगा कहै छै७८. अथवा चिउं सक्कर इक वालुक, एक पंक में पेख । जावत चिउं सक्कर इक वालुक, अधो सप्तमी एक ।। ए सक्कर वालुक थी ४ भांगा दश विकल्प करि ४० भांगा कहा। हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै७६. अथवा इक सक्कर इक पंके, च्यार धम उपजत । जावत इक सक्कर इक पंके, चिउं सप्तमी हंत ॥ ८०. अथवा इक सक्कर बे पंके, तीन धम रै मांय । जावत इक सक्कर बे पंके, त्रिण सप्तमी जाय ।। ८१. अथवा बे सक्कर इक पंके, तीन धूम अघखान । जावत बे सक्कर इक पंके, तीन सप्तमी जान ।। ८२. अथवा इक सक्कर त्रिण पंके, दोय धूम दुखरास । जावत इक सक्कर त्रिण पंके, दोय सप्तमी तास ।। ८३. अथवा बे सक्कर बे पंके, दोय धूम दुखधाम । जावत बे सक्कर बे पंके, दोय सप्तमी पाम ॥ ८४. अथवा त्रिण सक्कर इक पंके, दोय धम में पेख । जावत त्रिण सक्कर इक पंके, दोय सप्तमी देख ॥ ८५. अथवा इक सक्कर चिउं पंके, एक धम अवलोय । जावत इक सक्कर चिउं पंके, एक सप्तमी होय ।। ८६. अथवा बे सक्कर त्रिण पंके, एक धूम दुख पाय । जावत बे सक्कर त्रिण पंके, एक सप्तमी जाय ।। ११८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंके, ७ अथवा त्रिण सक्कर वे जावत त्रिण सक्कर बे पंके, ८. अथवा चिरं सक्कर इक पंके, जावत चिउं सक्कर इक पंके, एक धूम कहियाय । एक सप्तमी पाय ॥ एक धूम पहिछान । एक सप्तमी जान ॥ ए सक्कर पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिवे सक्कर धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कहै छै - ८. अथवा इक सक्कर इक धूमा, अथवा इक सक्कर इक धूमा, ६०. अथवा इक सक्कर बे धूमा, अथवा इक सक्कर बे धूमा, ६१. अथवा बे सक्कर इक धूमा, अथवा सक्कर इक धूमा, ६२. अथवा इक सक्कर त्रिण धूमा, अथवा इक सक्कर त्रिण धूमा, ६३. अथवा बे सक्कर बे धूमा, अथवा बे सक्कर बे धूमा, ९४. अथवा त्रिण सक्कर इक धूमा, अथवा त्रिण सक्कर इक धूमा, ९५. अथवा इक सक्कर चिउं धूमा, अथवा इक सक्कर चिउं धूमा, ९६. अथवा बे सक्कर त्रिण धूमा, अथवा सक्कर त्रिण धूमा, ६७. अथवा त्रिण सक्कर बे धूमा, अथवा त्रिण सक्कर बे धूमा, ६८. अथवा चिउं सक्कर इक धूमा, अथवा चिउं सक्कर इक धूमा, ए सक्कर धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कह्या । हिवँ सक्कर तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कहै छै - च्यार तमा उपजंत । च्यार तमतमा हुंत ॥ तीन तमा रै मांय । तीन तमतमा जाय ॥ तीन तमा अघखान । तोन तमतमा जान ॥ दोय तमा दुखपूर । दोय तमतमा भूर ॥ दोय तमा पहिछान । दोय तमतमा जान ॥ दोय तमा दुखरास । दोय तमतमा तास ॥ एक तमा अवलोय । एक तमतमा होय || एक तमा दुखधाम । एक तमतमा पाम ॥ एक तमा कहिवाय । एक सप्तमी जाय ॥ एक तमा रे मांय । एक सप्तमी थाय ॥ ६६. अथवा इक सक्कर इक तमा, अथवा इक सक्कर बे तमा, १००. अथवा बे सक्कर इक तमा, अथवा इक सक्कर त्रिण तमा, १०१. अथवा ब सक्कर बे तमा, अथवा त्रिण सक्कर एक तमा, १०२. अथवा इक सक्कर चिउं तमा, अथवा बे सक्कर त्रिण तमा, १०२. अथवा त्रिण सक्कर वे तमा अथवा चिउं सक्कर इक तमा, च्यार तमतमा जंत । तीन तमतमा हुंत ॥ तीन तमतमा मांय । दोय तमतमा ताय ॥ दोय तमतमा मांय । दोय तमतमा जाय ॥ एक तमतमा देख | एक तमतमा पेख । एक तमतमा होय । एक तमतमा जोय ॥ ए सक्कर तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कह्या । एवं सक्कर थी १० भांगा दश विकल्प करि १०० भांगा कह्या । हिवे वालुक थी ६ भांगा, ते किसा ? वालु पंक थी ३, वालु धूम थी २, श० ६, उ० ३२, ढाल १८२ ११६ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालु तम थी १-एवं वालु थी ६, ते दश विकल्प करि ६० भांगा हुदै, तिहां वालु पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि कहै छै१०४. अथवा इक वालुक इक पंके, च्यार धुम उपजंत । जावत इक वालू पंके इक, च्यार तमतमा हुंत ।। १०५. अथवा इक वालू बे पंके, तीन धूम रै माय । जावत इक वालू पंके बे, तीन तमतमा पाय ॥ १०६. अथवा बे वालुक इक पंके, तीन धम अघखान । जावत बे वालू पंके इक, तीन तमतमा जान । १०७. अथवा इक वालुक त्रिण पंके, दोय धूम दुखपूर । जावत इक वालू पंके त्रिण, दोय तमतमा भूर ॥ १०८. अथवा बे वालुक बे पंके, दोय धूम पहिछान । जावत बे वाल पंके बे, दोय तमतमा जान ॥ १०६. अथवा त्रिण वालुक इक पंके, दोय धूम दुखरास । जावत त्रिण वाल पंके इक, दोय तमतमा तास ।। ११०. अथवा इक वालुक चिउं पंके, एक धूम अवलोय । जावत इक वालू पंके चिउं, एक तमतमा होय ॥ १११. अथवा बे वालू पंके त्रिण, एक धूम दुखधाम । जावत बे वालू पंके त्रिण, एक तमतमा पाम ॥ ११२. अथवा त्रिण वालुक बे पंके, एक धूम कहिवाय । जावत त्रिण वालू के बे, एक सप्तमी जाय ॥ ११३. अथवा चिउं वालुक इक पंके, एक धम में पेख । जावत चिउं वाल पंके इक, एक सप्तमी लेख ॥ ए बालु पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिवै बालुक धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि कहै छ११४. अथवा इक वालू इक धूमा, च्यार तमा उपजत । अथवा इक वालुक इक धूमा, च्यार तमतमा हुंत ।। ११५. अथवा इक बालुक बे धूमा, तीन तमा दुख पाय । अथवा इक वालुक बे धूमा, तीन तमतमा जाय ।। ११६. अथवा बे वालुक इक धूमा, तीन तमा अघखान । __ अथवा बे वालुक इक धूमा, तीन तमतमा जान ।। ११७. अथवा इक वालू त्रिण धूमा, दोय तमा दुखपूर । अथवा इक वालु त्रिण धूमा, दोय तमतमा भूर ।। ११८. अथवा बे वालुक बे धूमा, दोय तमा पहिछान । अथवा बे वालुक बेधूमा, दोय तमतमा जान । ११६. अथवा त्रिण वालू इक धूमा, दोय तमा दुखरास । अथवा त्रिण वालू इक धूमा, दोय तमतमा तास ॥ १२०. अथवा इक वालुक चिउं धूमा, एक तमा अवलोय । अथवा इक वालुक चिउं धूमा, एक तमतमा होय ।। १२१. अथवा बे वालुक त्रिण धूमा, एक तमा दुखधाम । अथवा बे वालु त्रिण धूमा, एक तमतमा पाम ॥ १२० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२. अथवा त्रिण वालुक वे घूमा, एक तमा कहिवाय । अथवा त्रिण वालुक बे धूमा, एक सप्तमी जाय ॥ १२३. अथवा चिउं वालुक इक धूमा, एक तमा में पेख । अथवा चिउं वालुक इक धूमा, एक सप्तमी लेख | ए वालु धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कह्या । हिवै वालुक तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कहै छे अथवा इक वालू बेतमा १२५. अथवा बे वालु इक तमा, अथवा इक वालू त्रिण तमा, १२६. अथवा बे वालू बे तमा, दोय १२४. अथवा इक वालुक इक तमा, च्यार तमतमा जंत । तीन तमतमा हुंत ॥ तीन तमतमा मांय । दोय तमतमा पाय || तमतमा मांय । तमतमा जाय ॥ एक तमतमा होय । एक तमतमा जोय । एक तमतमा पेख । एक सप्तमी लेख | अथवा त्रिण वालू इक तमा, दोय १२७. अथवा इक वालू चिउं तमा, अथवा बे वालू त्रिण तमा, १२८. अथवा त्रिण वलू बे तमा, अथवा चिहुं वालू इक तमा, ए वालु तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कह्या । एवं वालुक थी ६ भांगा दश विकल्प करि ६० भांगा कह्या । हि पंक थी ३ भांगा, ते किसा ? पंक धूम थी २, पंक तम थी १ तिहां पंक धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कहै छै - १२६. अथवा एक पंक इक धूमा, च्यार तमा उपजंत । अथवा एक पंक इक धूमा, प्यार तमतमा हुंत ॥ १३०. अथवा एक पंक बे धूमा, तीन तमा दुख पाय । अथवा एक पंक बे धूमा, तीन तमतमा जाय ॥ १२१. अथवा दो पंक इक घूमा तीन तमा अवलोय । अथवा दोय पंक इक धूमा, तीन तमतमा जोय ॥ १३२. अथवा एक पंक त्रिण धूमा, दोय तमा दुखरास । अथवा एक पंक त्रिण धूमा, दोय तमतमा तास ॥ १३३. अथवा दोन पंक वे धूमा, दोय तमा दुखधाम । अथवा दोय पंक बे धूमा, दोय तमतमा पाम ।। १३४. अथवा त्रिण पंके इक धूमा, अथवा त्रिण पंके इक धूमा, १३५. अथवा एक पंक चिउं धूमा, अथवा एक पंक चिउं धूमा, १३६. अथवा दोय पंक त्रिण धूमा, अथवा दोय पंक त्रिण धूमा, १३७. अथवा तीन पंक वे धूमा, अथवा तीन पंक बे धूमा, १३८. अथवा च्यार पंक इक धूमा, अथवा च्यार पंक इक धूमा, ए पंक दोय तमा दुखरास । दोय तमतमा तास । एक तमा पहिछान । एक तमतमा जान ॥ एक तमा में पेख । एक तमतमा लेख || एक तमा कहिवाय । एक सप्तमी जाय ॥ एक तमा अघखान । एक तमतमा जान ॥ धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कह्या । श० ६, उ० ३२, ढाल १८२ १२१ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै पंक तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कहै छै१३६. अथवा एक पंक इक तमा, च्यार तमतमा जंत । अथवा एक पंक बे तमा, तीन तमतमा हुंत ।। १४०. अथवा दोय पंक इक तमा, तीन तमतमा माय । अथवा एक पंक त्रिण तमा, दोय तमतमा जाय ।। १४१. अथवा दोय पंक बे तमा, दोय तमतमा देख । अथवा तीन पंक इक तमा, दोय तमतमा पेख ।। १४२. अथवा एक पंक चिउं तमा, एक तमतमा देख । अथवा दोय पंक त्रिण तमा, एक तमतमा पेख ।। १४३. अथवा तीन पंक बे तमा, एक तमतमा पाय । अथवा च्यार पंक इक तमा, एक तमतमा जाय ।। ए पंक तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कह्या । ए पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिवं धूम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कहै छ१४४. अथवा एक धूम इक तमा, च्यार तमतमा हंत । अथवा एक धूम बे तमा, तीन तमतमा जंत ।। १४५. अथवा दोय धूम इक तमा, तीन तमतमा देख । अथवा एक धूम त्रिण तमा, दोय तमतमा पेख ।। १४६. अथवा दोय धूम बे तमा, दोय तमतमा जान । अथवा तीन धूम इक तमा, दोय तमतमा मान ।। १४७. अथवा एक धूम चिउं तमा, एक तमतमा देख । अथवा दोय धूम त्रिण तमा, एक तमतमा पेख ।। १४८. अथवा तीन धूम इक तमा, दोय तमतमा होय । अथवा च्यार धूम इक तमा, एक तमतमा होय ॥ ए धम थी दस विकल्प करि १० भांगा कह्या । एवं रत्न थी १५०, सक्कर थी १००, वालुक थी ६०, पंक थी ३०, धूम थी १० सर्व त्रिकसंजोगिया छह जीव नां ३५० भांगा जाणवा । छह जीव नां त्रिकसंजोगिया रत्न थी १५, सक्कर थी १०, वालुक थी ६, पंक थी ३, धूम थी १–एवं ३५, दश विकल्प करि ३५० भांगा कह्या। तिहां रल थी १५ ते किसा? रत्न सक्कर थी ५, रत्न वालुक थी ४, रत्न पंक थी ३, रस्त धूम थी २, रत्न तम थी १–एवं १५ भांगा, दश विकल्प करिकै १५० भांगा रत थी हुवे । तिहां रत्न सक्कर थी ५ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ । १ रत्न, १ सक्कर, ४ वालु १ रत्न, १ सक्कर, ४ पंक १ रत्न, १ सक्कर, ४ धूम १ रत्न, १ सक्कर, ४ तम ५ १ रत्न, १ सक्कर, ४ सप्तमी १२२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्न सक्कर थी ५ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छे १ रत्न, २ सक्कर, ३ वालु ६ ७ ८ & १० ११ १२ १३ १४ १ रत्न, २ सक्कर, ३ सप्तमी रत्न सक्कर थी ५ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छे १६ १७ १८ १६ २० २१ .२२ १ २३ २ २४ ३ २५ ४ ५ १ २ १५ २ रत्न, १ सक्कर, ३ सप्तमी हिव रत्न सक्कर थी ५ भांगा चतुर्थ विकल्प करि कहै छै - ३ ४ ५ १ २ ३ ४ ५ १ २ १ रत्न, २ सक्कर, ३ पंक ३ १ रत्न, २ सक्कर, ३ धूम ४ १ रत्न, २ सक्कर, ३ तम हिवे रत्न सक्कर थी ५ भांगा पंचम विकल्प करि कहै छै - २ र २ सक्कर, २ वालु ५ २ रत्न, १ सक्कर, ३ वालु २ रत्न, १ सक्कर, ३ पंक २ रत्न, १ सक्कर, ३ धूम २ रत्न, १ सक्कर, ३ तम १ रत्न, ३ सक्कर २ वालु १ रत्न, ३ सक्कर, २ पंक १३ सक्कर, २ धूम १ रत्न, ३ सक्कर, २ तम १ रत्न, ३ सक्कर, २ सप्तमी २ रत्न, २ सक्कर, २ पंक २ रत्न, २ सक्कर, २ धूम २ रत्न, २ सक्कर, २ तम २ रन, २ सक्कर, २ सप्तमीं हिवे रत्न सक्कर थी ५ भांगा छठे विकल्प करि कहै छै - २६ ३ रत्न, १ सक्कर, २ वालु २७ २८ २६ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३ रत्न, १ सक्कर, २ सप्तमीं हिव रत्न सक्कर थी ५ भांगा सप्तन विकल्प करि कहे छे ३५ ३६ ३७ ३८ ३६ ४० ४१ ४२ १ ४३ २ ४४ ३ ४५ ४ १ रत्न, ४ सक्कर, १ तम ५ | १ रन, ४ सक्कर, १ सप्तमीं हिवैं रत्न सक्कर थी ५ भांगा अष्टम विकल्प करि कहै छ ५ १ २ ३ ४ १ २ ३ ४ ५ १ २ रन, ३ सक्कर, १ सप्तमीं हिवे रत्न सक्कर थी ५ भांगा नवम विकल्प करि कहै छे ३ रत्न, २ सक्कर, १ वालु २ ३ रत्न, २ सक्कर, १ पंक ३ ३ रत्न, १ सक्कर, २ पंक ४ ३ रत्न, १ सक्कर, २ धूम ५ ३ रत्न, १ सक्कर, २ तम १ रत्न, ४ सक्कर, १ वालु १ रत्न, ४ सक्कर, १ पंक १ रत्न, ४ सक्कर, १ धूम २ रत्न, ३ सक्कर, १ वालु २ रत्न, ३ सक्कर, १ पंक २ रत्न, ३ सक्कर, १ धूम २ रत्न, ३ सक्कर, १ तम ३ रत्न, २ सक्कर, १ धूम ३ रत्न, २ सक्कर, १ तम ३ रत्न, २ सक्कर, १ सप्तमी श० ६, उ० ३२, ढाल १८२ १२३ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै रत्ल सक्कर थी ५ भांगा दशम विकल्प करि कहै छ हिवै रत वालुक थी ४ भांगा चतुर्थ विकल्प करि कहै छ ४६ ४ रत्न, १ सक्कर, १ वालु ६३ | १ | १ रत्न, ३ वालु, २ पंक ४ रत्न, १ सक्कर, १ पंक १ रत्न, ३ वालु, २ धूम ३ ४ रत्न, १ सक्कर, १ धूम १ रत्न, ३ वालु, २ तम ४ रल, १ सक्कर, १ तम ६६ | ४ | १ रत्न, ३ वालु, २ सप्तमी ५० ५४ रत्न, १ सक्कर, १ सप्तमी हिवं रत वालुक थी ४ भांगा पंचम विकल्प करि कहै छ ६७ २ रल, २ वालु, २ पंक रत्न सक्कर थी ५ भांगा ते दश विकल्प करि ५० भांगा कह्या । २ रत्न, २ वालु, २ धूम हि रत्न वालुक थी ४ भांगा, ते दश विकल्प करि ४० भांगा कहै छै । इहां रत्न वालुक थी ४ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ ३ २ रत्न, २ वालु, २ तम ४ | २ रत्न, २ वालु, २ सप्तमी १ रत्न, १ वालु, ४ पंक हिवै रत्न वालुक थी ४ भांगा षष्ठ विकल्प करि कहै छ ५२ २ | १ रत्न, १ वालु, ४ धूम ३ रत्न, १ वालु, २ पंक xxx MImm Io ५३ | ३ | १ रत्न, १ वालु, ४ तम ३ रत्न, १ वालु, २ धूम | १ रत्न, १ वालु, ४ सप्तमी ७३ ३ रत्न, १ वालु, २ तम हिवं रल वालुक थी ४ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छ ७४ ४ | ३ रत्न, १ वालु, २ सप्तमी ५५ | १ | १ रत्न, २ वालु, ३ पंक हिवं रत्न वालुक थी ४ भांगा सप्तम विकल्प करि कहै छ १ रत्न, २ वालु, ३ धूम ७५ | १ | १ रत्न , ४ वालु, १ पंक ५७ ३१ रत्न, २ बालु, ३ तम ७६ | २ | १ रत्न, ४ वालु, १ धूम ४ १ रत्न, २ वालु, ३ सप्तमी १ रत्न, ४ वालु, १ तम हिवै रत्न वालुक थी ४ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छ ७८ | १ रत्न, ४ वालु, १ सातमी ५६ १ | २ रत्न, १ वालु, ३ पंक हिवं रत्न वालुक थी ४ भांगा अष्टम विकल्प करि कहै छ ६० | २२ रत्न, १ वालु, ३ धूम २ रत्न, ३ वालु, १ पंक २ रत्न, १ वालु, ३ तम २ रत्न, ३ वालु, १ धूम ६ २ ४ २ रत्न, १ वालु, ३ सप्तमी mm २ रल, ३ वालु, १ तम १२४ भगवती-जोड़ २ रत्न, ३ वालु, १ सप्तमी Jain Education Intemational Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै रत्त वालुक थी ४ भांगा नवम विकल्प करि कहै छ हिवै रत्न पंक थी ३ भांगा चतुर्थ विकल्प करि कहै छ ३ रत्न, २ वालु, १ पंक १ रत्न, ३ पंक, २ धूम D ३ रत्न, २ वालु, १ धूम १ रत्न, ३ पंक, २ तम ३ रत्न, २ वालु, १ तम ०२ | ३ | १ रत्न, ३ पंक, २ सप्तमी ur ३ रत्त, २ वालु, १ सप्तमों हिवं रत्न पंक थी ३ भांगा पंचम विकल्प करि कहै छै हिवं रत बालुक थी ४ भांगा दशम विकल्प करि कहै छ १०३ | १ १०४ २ २ रत्न, २ पंक, २ धूम २ रत्न, २ पंक, २ तम ४ रत्न, १ बालु, १ पंक ४ रत्न, १ वालु, १ धूम ३ | २ रत्न, २ पंक, २ सप्तमी ४ रत्न, १ वालु, १ तम हिवै रत्न पंक थी ३ भांगा षष्ठ विकल्प करि कहै छ ४ रत्न, १ वालु, १ सप्तमी ३ रत्न, १ पंक, २ धूम ३ रत्न, १ पंक, २ तम ए रत्न वालुक थी ४ भांगा, ते दश विकल्प करि ४० भांगा कह्या। रल पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा। हिवं रत्न पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै ३ रत्न, १ पंक, २ सप्तमी हिवं रत्न पंक थी ३ भांगा सप्तम विकल्प करि कहै छ १ रत्न, १ पंक, ४ धूम ०६ १ | १ रत्न, ४ पंक, १ धूम १ रत्त, १ पंक, ४ तम ११० | २ | १ रत्न, ४ पंक, १ तम १ रन, १ पंक, ४ सप्तमी १ रत्न, ४ पंक, १ सप्तमी हिवं रत पंक थी ३ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छ १ रत, २ पंक, ३ धूम हिवै रत पंक थी ३ भांगा अष्टम विकल्प करि कहै छ११२ | १ | २ रत्न, ३ पंक, १ धूम २ रत्न, ३ पंक, १ तम १ रत्न, २ पंक, ३ तम ६६ ३ | १ रत्न, २ पंक, ३ सप्तमी २ रत्न, ३ पंक, १ सप्तमी हिवरल गंक थी ३ भांगा तृतीय विकल करि कहै छ हिवं रन पंक थी ३ भांगा नवम विकल्प करि कहै छ ६७ २ रत्न, १ पंक, ३ धूम ११५ १ ३ रत्न, २ पंक, १ धूम २ रत्न, १ पंक, ३ तम ३ रत्न, २ पंक, १ तम २ रत्न, १ पंक, ३ सप्तमी १७ ३ रत्न, २ पंक, १ सप्तमी श०६, उ० ३२, ढाल १८२ १२५ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै रल पंक थी ३ भांगा दशम विकल्प करि कहै छ. - हिवै रत्न धूम थी २ भांगा सप्तम विकल्प करि कहै छ -- ४ रत्ल, १ पंक, १ धूम १३३ | १ १ रत्न, ४ धूम, १ तम ४ रल, १ पंक, १ तम ३४ २ १ रत्न, ४ धूम, १ सप्तमी हिवं रत्न धूम थी २ भांगा अष्टम विकल्प करि कहै छ ४ रत्न, १ पंक, १ सप्तमी १३५ | १ | २ रत्न, ३ धूम, १ तम ए रत्न पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिवै रत्न धूम थी दश विकल्प करि २० भांगा कहा। ते प्रथम विकल्प करि २ भांगा कहै छ १३६ २ | २ रत्न, ३ धूम, १ सप्तमी हिवं रत्न धूम थी २ भांगा नवम विकल्प करि कहै छ | १ | १ रत्न, १ धूम, ४ तम | ३ रत्न, २ धूम, १ तम १३८ १२२ | २ १ रत्न, १ धूम, ४ सप्तमी २ ३ रत्न, २ धूम, १ सप्तमी हिवै रत धून थी २ भांगा दशम विकल्प करि कहै छ - हिवं रत्न धूम थी २ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छै--- रल, १ धूम, १ तम १२३ / १ १ रत्न, २ धूम, ३ तम १२४ | २१ रत्न, २ धूम, ३ सप्तमी ४० २ ४ रत्त, १ धूम, १ सप्तमी हिवं रत्न धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छ ए रत्न धूम थी २ भांगा १० विकल्प करि २० भांगा कह्या । हिवं रत्न तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छै - रत्न, १ तम, ४ सप्तमी २ रत्न, १ धूम, ३ तम १२६ , २ | २ रत्न, १ धूम, ३ सप्तमी रल तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्प करि कहै छै ---- | हिवै रत्न धूम थी-भांगा चतुर्थ विकल्प करि कहै छ - १ रत्न, २ तम, ३ सप्तमी १२७ / १ | १ रत्न, ३ धूम, २ तम हिवै रत तम थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै छ रत्न, ३ धूम, २ सप्तमी १४३ | १ | २ रत्न, १ तम, ३ सप्तमी हिवं रत्न धूम थी २ भांगा पंचम विकल्प करि कहै छै - हिवै रत्न तम थी १ भांगो चतुर्थ विकल करि कहै छै १४४ | १ | १ रत्न, ३ तम, २ सप्तमी १२६ | १ | २ रत्न, २ धूम, २ तम १३० २ २ रत्न, २ धूम, २ सप्तमी हिवै रत्न तम थी १ भांगो पंचम विकल्प करि कहै छै-- हिवै रा धूम थी २ भांगा षष्ठ विकल्प करि कहै छ ----- १४५ , १ २ रत्न, २ तम, २ सप्तमी १३१ १ | ३ रत्न, १ धूम, २ तम हिवै रत्न तम थी १ भांगो षष्ठ विकल्प करि कहै छै १३२ | २, ३ रत्न, १ धूम, २ सप्तमी ३ रत्न, १ तम, २ सप्तमी १२६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | हिवै रल तष थी १ भांगो सप्तम विकल्प करि कहै छै- । हिव सक्कर वालु थी ४ भांग। चतुर्थ विकल करि कहै छै-- १ सक्कर, ३ वालु, २ पंक १४७ १ | १ रत्न, ४ तम, १ सप्तमी हिवै रल तम थी १ भांगो अष्टम विकल्प करि कहै छै-- १४८ १ २ रन, ३ तम, १ सप्तमी १ सक्कर, ३ वालु, २ धूम १ सक्कर, ३ वालु, २ तम | हिवै रत्न तम थी १ भांगो नवम विकल्प करि कहै छै-- १६६ ४ १ सक्कर, ३ वालु, २ सप्तमी ३ रल, २ तम, १ सप्तमी हिवै सक्कर वालु थी ४ भांगा पंचम विकल्प करि कहै छै - हि रत्न तम थी १ भांगो दशम विकल करि कह छ १६७ | १ | २ सक्कर, २ वालु, २ पंक १६८ २ २ सक्कर, २ वालु, २ धूम १६४ १५० १ | ४ रत्न, १ तम, १ सप्तमी ए रत्न थी १५ भांगा दश विकल्प करि १५० भांगा कह्या । हिवै सकार थी १० भांगा एक-एक विकल्प नां हुवै ते दश किया ? सक्कर बालु थकी ४, सक्कर पंक थकी ३, सक्कर धम थी २, सक्कर तम थी १-एवं १० भांगा, दश विकल्प करि १०० भांग। । तिहां सक्कर वालु थी ४ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ २ सक्कर, २ वालु, २ तम १७० २ सक्कर, २ व लु, २ सप्तमी हिवै सक्कर वालु थी ४ भांगा षष्ठ विकल्प करि कहै छै -- १ १ सक्कर, १ वालु, ४ पंक १७१ ३ सक्कर, १ वालु, २ पंक १ सक्कर, १ वालु, ४ धूम १७२ ३ मक्कर, १ वालु, २ धूम १५३ ३ / १ सक्कर, १ वालु, ४ तम ३ ३ सक्कर, १ वालु, २ तम १ सक्कर, १ वालु, ४ सप्तमी १७४ ३ सक्कर, १ वालु, २ सप्तमी हिवं मकर कालु थी ४ भांगा सप्तम विकल्प करि कहै छ । हिवै सक्कर वालु थी ४ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छ। १ सक्कर, २ वालु, ३ पंक १५५ १७५ १ १ सक्कर, ४ बालु १ पंक १५६ १ सक्कर, २ वालु, ३ धूम १७६ - २ | १ सक्कर, ४ बालु १ धूम १५७ १ सक्कर, २ वालु, ३ तम १७७ | १ सक्कर, ४ वालु १ तम १५८ । ४ १ सक्कर, २ वालु, ३ सप्तमी १७८ | १ सकार, ४ वालु १ सप्तमी हिवै सक्कर वालु थी ४ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छै हिवै सक्कर वालु थी ४ भांगा अष्टम विकल्प करि कहै छै २ सक्कर, १ वालु, ३ पंक २ सक्कर, ३ वालु, १ पंक १६० - २ | २ सक्कर, १ वालु, ३ धूम १८० । २ | २ सक्कर, ३ वालु, १ धून २ सक्कर, १ बालु, ३ तम २ सक्कर, ३ वालु, १ तम २ सक्कर, १ वालु, ३ सप्तमी २ सक्कर, ३ वालु, १ सप्तमी श० ६, उ० ३२, ढाल १८२ १२७ Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै सक्कर वालु थी ४ भांगा नवम विकल्प करि कहै छ हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा चतुर्थ विकल्प करि कहै छ १८३ ३ सक्कर, २ वालु, १ पंक १ सक्कर, ३ पंक, २ धूम १८४ ३ सक्कर, २ वालु, १ धूम १ सक्कर, ३ पंक, २ तम १८५ ३ सक्कर, २ वालु, १ तम १ सक्कर, ३ पंक, २ सप्तमी ३ सक्कर, २ वालु, १ सप्तमी हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा पंचम विकल्प करि कहै छै हिवै सक्कर बालु थी ४ भांगा दशम विकल्प करि कहै छै - २०३ | १ | २ सककर, २ पंक, २ धूम ४ सक्कर, १ वालु, १ पंक २ सक्कर, २ पंक, २ तम ४ सक्कर, १ वालु, १ धूम २०५ ३ २ सक्कर, २ पंक, २ सप्तमी १८६ ३ | ४ सक्कर, १ वालु, १ तम हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा छठे विकल्प करि कहै छै ४ | ४ सक्कर, १ वालु, १ सप्तमी २०६ ३ सक्कर, १ पंक, २ धूम हिवै सक्कर पंक थी प्रथम विकल्प करि ३ भांगा कहै छ २०७ ३ सक्कर, १ पंक, २ तम ६१ १ १ सक्कर, १ पंक, ४ धूम ३ सक्कर, १ पंक, २ सप्तमी १ सक्कर, १ पंक, ४ तम हिव सक्कर पंक थी ३ भांगा सप्तम विकल्प करि कहै छ ३ | १ सक्कर, १ पंक, ४ सप्तमी १ सक्कर, ४ पंक, १ धूम हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छै २१० २ १ सक्कर, ४ पंक, १ तम ६४ | १ | १ सक्कर, २ पंक, ३ धूम १ सक्कर, ४ पंक, १ सप्तमी १ सक्कर, २ पंक, ३ तम हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा अष्टम विकल्प करि कहै छ १ सक्कर, २ पंक, ३ सप्तमी सक्कर, ३ पंक, १ धूम हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छ २ सक्कर, ३ पंक, १ तम १६७ २ सक्कर, १ पंक, ३ धूम २ सक्कर, ३ पंक, १ सप्तमी हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा नवम विकल्प करि कहै छ २ सक्कर, १ पंक, ३ तम १९८ ३ सक्कर, २ पंक, १ धूम १९९| ३ | २ सक्कर, १ पंक, ३ सप्तमी ३ सक्कर, २ पंक, १ तम ३ सक्कर, २ पंक, १ सप्तमी १२८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि सक्कर पंक थी ३ भांगा दशम विकल करि कहै छै ४ सक्कर, १ पंक, १ धूम २१८ २१६ २२३ १ २२० ४ सक्कर, १ पंक, १ सप्तमीं ए सक्कर पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिव सक्कर धूम थी २ भांगा दश विकल करि २० भांगा हुवै। तेहमें २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै - २२१ १ १ सक्कर, १ धूम, ४ तम २ २२२ १ सक्कर, १ धूम, ४ सप्तमी हिवै सक्कर धूम थी २ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छै ३ २२८ २ २३२ १ २२४ १ सक्कर, २ धूम, ३ सप्तमी हि सक्कर धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्प करि कहे छे २२५ २ ४ सक्कर, १ पंक, १ तम १ २२६ २ २ सक्कर, १ धूम, ३ सप्तमी हिवै सक्कर घूम थी २ भांगा चतुर्थ विकल्प करि कहै छै - २२७ १ १ सक्कर ३ धूम, २ तम १ सक्कर, २ धूम, ३ तम २ १ सक्कर, ३ धूम, २ सप्तमी हि सक्कर धूम थी २ भांगा पंचम विकल्प करि कहै छै २२६ १ २ सक्कर, २ धूम, २ तम २ २ सक्कर, १ धूम, ३ तम २३० २ सक्कर, २ धूम, २ सप्तमीं हि सक्कर धूम थी २ भांगा षष्ठ विकल्प करि कहै छै - २३१ १ ३ सक्कर, १ धूम, २ तम २ ३ सक्कर, १ धूम, २ सप्तमी हिवै सक्कर धूम थी २ भांगा सप्तम विकल्प करि कहै छँ २३३ १ १ सक्कर, ४ धूम, १ तम २३४ १ सक्कर, ४ धूम, १ सप्तमी हिवै सक्कर धूम थी २ भांगा अष्टम विकल्प करि कहै छँ २३५ २३६ २३७ २ नवम विकल्पे २३८ २४१ २ २४२ १ २४३ १ २ दशम विकल्पे २३६ १ ४ सक्कर, १ धूम, १ तम २४० | २ २४४ ए सक्कर धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा का । हि सवकर तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छै - ર૪. १ २ सक्कर, ३ धूम, १ तम २ सक्कर, ३ धूम, १ सप्तमी द्वितीय विकल्पे १ ३ सक्कर, २ धूम, १ तम ३ सक्कर, २ धूम, १ सातमी १ तृतीय विकल्पे १ ४ सक्कर, १ धूम, १ सप्तमी १ सक्कर, १ तम, ४ सप्तमी चतुर्थ विकल्पे १ १ सक्कर, २ तम, ३ सप्तमी २ सक्कर, १ तम, ३ सप्तमी पंचम विकल्पे २४५ १ २ सक्कर, २ तम, २ सप्तमी षष्ठ विकल्पे १ सक्कर, ३ तम, २ सप्तमीं ३ सक्कर, १ तम, २ सप्तमी श० ६, उ० ३२, ढाल १८२ १२६ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम विकल्पे २४७ अष्टम विकल्पे २४८ १ २ सक्कर, ३ तम, १ सप्तमीं नवम विकल्पे २४६ २५० दशम विकल्पे २५१ २५२ २५३ | ए सक्कर थी १० भांगा १० विकल्प करि १०० भांगा कह्या । हिव वालु पंक थी ३ भांगा १० विकल्प करि ३० भांगा । ते प्रथम विकल्प करि कहै छे २५५ १ १ सक्कर, ४ तम, १ सप्तमी २५८ २५६ १ ३ सक्कर, २ तम, १ सप्तमी २६० १ २५६ ३ २६१ २६२ १ द्वितीय विकल्पे २५४ १ १ वालु, २ पंक, ३ धूम २ १ वालु २ पंक, ३ तम १ वालु २ पंक, ३ सप्तमी | २५७ | १ १३० २ ३ विकल्पे चतुर्थ विकल्पे ४ सक्कर, १ तम, १ सप्तमी ३ १ ४ १ वालु, १ पंक, धूम २ १ वालु, १ पंक, ४ तम १ वालु, १ पंक, ४ सप्तमीं २ वालु, १ पंक, ३ धूम २ बालु, १ पंक, ३ तम २ वालु, १ पंक, ३ सप्तमी १ वालु, ३ पंक, २ धूम १ वालु, ३ पंक, २ तम ३ | १ वालु, ३ पंक, २ सप्तम भगवती-जोड़ पंचम विकल्पे २६३ २६४ | २६५ २६६ २६७ | ३ षष्ठ विकल्पे २६८ | २६६ २७० ३ सप्तम विकल्पे २७२ २७३ २७४ १ २७१ | ३ २७५ २ २७६ २७७ १ २ २७८ १ २ अष्टम विकल्पे नवम विकल्पे १ २ ३ १ ३ दशम विकल्पे २ २ वालु २ पंक, २ धूम १ २ वालु २ पंक, २ तम २ वालु २ पंक, २ सप्तमी ३ वालु, १ पंक, २ धूम ३ वालु, १ पंक, २ तम ३ वालु, १ पंक, २ सप्तमी १ वालु, ४ पंक, १ धूम १ वालु, ४ पंक, १ तम १ वालु, ४ पंक, १ सप्तमी २ वालु, ३ पंक, १ धूम २ वालु, ३ पंक, १ तम २ वालु, ३ पंक, १ सप्तमी ३ बालु २ पंक, १ धूम ३ वालु, २ पंक, १ तम ३ वालु २ पंक, १ सप्तमी ४ वालु, १ पंक, १ धूम २७६ २८० | ३ ए वालु पंक थी ३ भांगा १० विकल्प करि ३० भांगा कह्या । २ | ४ वालु, १ पंक, १ तम ४ वालु, १ पंक, १ सप्तमी Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै वालु धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा ते प्रथम विकल्प करि कहै छे २८१ २८२ | २८३ २८४ द्वितीय विकल्पे | २८५ २८६ तृतीय वि २८८ २८६ २६० १ चतुर्थ विकल्पे २ २८७ १ १२६१ २६२ १ २ २६३ २६४ १ २ २६५ २६६ २ षष्ठ विकल्पे २ पंचम विकल्पे १ १ १ वालु, १ धूम, ४ तम २ १ वालु १ धूम, ४ सप्तमी १ १ वालु, २ धूम, ३ तम १ वालु, २ धूम, ३ सप्तमी २ वालु, १ धूम, ३ तम २ वालु, १ धूम, ३ सप्तमी १ वालु, ३ धूम, २ तम १ वालु, ३ धूम, २ सप्तमी २ वालु, २ धूम, २ तम सप्तम विकल्पे २ वा २ धूम, २ सप्तमीं ३ वालु, १ धूम, २ तम ३ वालु, १ धूम, २ सप्तमीं १ वालु, ४ धूम, १ तम २ अष्टन विकल्पे १ वालु, ४ धूम, १ सप्तमी १ २ वालु, ३ धूम, १ तम २ २ वालु, ३ धूम, १ सप्तमीं नवभ विकल्पे २६७ २६८ ३०१ ३०२ दशम विकल्पे REE | १ ४ वालु, १ धूम, १ तम ३०० २ ४ वालु, १ धूम, १ सप्तमी ए वालु धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कह्या । हिवै वालु तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा, ते प्रथम विकल्प करि कहै छै - ३०४ १ द्वितीय विकल्पे २ ३०३ १ ३०५ १ तृतीय विकल्पे ३०६ १ ३०७ चतुर्थ निकाल १ पंचम विकल्पे षष्ठ विकल्पे ३०८ ३०६ ३ वालु, २ धूम, १ तम ३ वालु २ धूम, १ सप्तमी १ १ १ वालु, १ तम, ४ सप्तमी १ / २ वालु २ त २ सप्तमीं १ सप्तम विकल्पे १ २ वालु, १ तम, ३ सप्तमी १ वालु, २ तम, ३ सप्तमी अष्टम विकल्पे नवम विकल्पे १ वालु, ३ तम, २ सप्तमी ३ वालु, १ तम, २ सप्तमी १ वालु, ४ तम, १ सप्तमी २ वालु, ३ तम १ सप्तमी ३ वालु २ तम १ सप्तमीं श० ६, उ० ३२, ढाल १५२ १३१ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम विकल्पे अष्टम विकल्पे ३२५ | १ | २ पंक, ३ धूम, १ तम ३२६ ३१० १४ वालु, १ तम, १ सप्तमी ए वालु थी ६ भांगा दश विकल करि ६० भांगा कह्या। हिवै पंक थी ३ भांगा ते किसा? पंक धूम थी २, पंक तम थी १ एवं पंक थी ३, दश विकल्प करि ३० भांगा कहा। तिहां पंक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल कर कहै छ २ २ पंक, ३ धूम, १ सप्तमी नवम विकल्पे ३ पंक, २ धूम, १ तम ३११ १ | १ पंक, १ धूम, ४ तम ३ पंक, २ धूम, १ सप्तमी १ पंक, १ धूम, ४ सप्तमी दशम विकल्पे हिवै पंक धूम थी २ भांगा द्वितीय विकल्पे पंक, १ धूम, १ तम ११ पंक, २ धूम, ३ तम ३१४ २ | १ पंक, २ धूम, ३ सप्तमी हिवै पंक धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्पे ३१५ १२ पंक, १ धूम, ३ तम ३३० २ ४ पंक, १ धूम, १ सप्तमी ए पंक धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कह्या। हिवं पंक तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा। ते प्रथम विकल्प करि कहै छै ३१६ | २ | २ पंक, १ धूम, ३ सप्तमी १ पंक, १ तम, ४ सप्तमी होवै पंक तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्पे चतुर्थ विकल्पे १ पंक, ३ धूम, २ तम १ १ पंक, २ तम, ३ सप्तमी ३१७ हिवं पंक तम थी १ भांगो तृतीय विकल्पे ३१८ | २ १पंक, ३ धूम, २ सप्तमी २ पंक, १ तम, ३ सप्तमी पंचम विकल्पे हिवै पंक तम थी १ भांगो चतुर्थ विकल्पे २ पंक, २ धूम, २ तम ३३४ २ | २ पंक, २ धूम, २ सप्तमी | १ पंक, ३ तम, २ सप्तमी षष्ठ विकल्पे हिवं पंक तम थी १ भांगो पंचम विकल्पे ३ पंक, १ धूम, २ तम ३३५ १ | २ पंक, २ तम, २ सप्तमी ३२१ ३२२, २३ पंक, १ धूम, २ सप्तमी हिवै पंक तम थी १ भांगो षष्ठ विकल्प सप्तम विकल्पे | ३ पंक, १ तम, २ सप्तमी हिवै पंक तम थी १ भांगो सप्तम विकल्पे ३२३ । १ १ पंक, ४ धूम, १ तम ३२४ | २ | १ पंक, ४ धूम, १ सप्तमी ३३७ १ पंक, ४ तम, १ सप्तमी १३२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै पंक तम थी १ भांगो अष्टम विकल्पे दशम विकल्पे ३३८ १ २ पंक, ३ तम, १ सप्तमी १ ४ धूम, १ तम, १ सप्तमी हिवै पंक तम थी १ भांगो नवम विकल्पे ३३६ ३ पंक, २ तम, १ सप्तमी ए धूम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कह्या । एवं रत्न थी १५, सक्कर थी १०, वालुक थी ६, पंक थी ३, धूम थी १–एवं ३५ भांगा, ते एक-एक विकल्प करि हुदै । दश विकल्प करि त्रिकसंजोगिया भांगा ३५० जाणवा । हिवै पंक तम थी १ भांगो दशम विकल्प ३४० १ ४ पंक, १ तम, १ सप्तमी ए पंक तम थी १ भांगो १० विकल करि १० भांगा कह्या । एवं पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा कह्या। हिवै धुम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा। तिहां प्रथम विकल्पे ३४१ १ | १ धूम, १ तम, ४ सप्तमी द्वितीय विकल्पे ३४२, ११धूम, २ तम, ३ सप्तमी तृतीय विकल्पे १ | २ धूम, १ तम, ३ सप्तमी चतुर्थ विकल्पे १ धूम, ३ तम, २ सप्तमी पंचम विकल्पे ३४५ १ २ धूम, २ तम, २ सप्तमी षष्ठ विकल्पे - ३४६ | १ | ३ धूम, १ तम, २ सप्तमी सप्तम विकल्पे ३४७ | १ | १ धूम, ४ तम, १ सप्तमी अष्टम विकल्पे १ २ धूम, ३ तम, १ सप्तमी नवम विकल्पे ३ धूम, २ तम, १ सप्तमी मा० ६, उ० ३२, ढाल १८२ १३३ Jain Education Intemational Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छप्पय १४६. एक एक नै च्यार, प्रथम विकल्प ए जानो। एक दोय नैं तीन, द्वितीय विकल्प पहिछानो। दोय एक नैं तीन, तृतीय विकल्प ए कहिये। एक तीन नैं दोय, तुर्य विकल्प ए लहिये । फन दोय-दोय नैं दोय गण, ए पंचम विकल्प कह्य। वलि तीन एक में दोय इम, ए छठे विकल्प ला ॥ १५०. एक च्यार नैं एक, सखर विकल्प ए सप्तम । दोय तीन नै एक, आख्यू ए विकल्प अष्टम । तीन दोय मैं एक, नवम विकल्प निरखीजै । च्यार एक में एक, दशम विकल्प दिल लीज। षट जीव तणां त्रिकयोगिका, विकल्प इहविध दाखिया। भांगाज तीन सय तसुं भला, अधिक पचासही आखिया। १५१. *ए षट जीव तणां त्रिकथोगिक, सार्द्ध तीन सय शुद्ध । दश विकल्प करि भांगा दाख्या, वर्णन तसु अविरुद्ध । १५२. नवम शतक बतीसम देशे, सौ बयांसीमीं ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश'हरष विशाल ।। ढाल : १८३ १. चतुष्कसंयोगे तु षण्णां चतूराशितया स्थापने दश विकल्पास्तद्यथा-पञ्चत्रिंशतश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां दशभिगंणनात्त्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्ति । (वृ. ५० ४४५) दूहा १. हिवै कहूं षट जीव नां, चउकसंयोगिक चंग। दश विकल्प करि दाखिया, सार्द्ध तीन सय भंग ।। वा--छ जीव नां चउकसंयोगिक तेहनां विकल्प तो दश, भांगा साढा तीनसौ। एक-एक विकल्प नां भांगा पैंतीस-पैतीस हुवै, ते माटै दश विकल्प ना ३५० हुदै । एक-एक विकल्प नां-रत्न थी २०, सक्कर थी १०, वालु थी ४, पंक थी १–एवं ३५। रत्न थी २० ते किसा? रत्न सक्कर थी १०, रत्न वालुक थी ६, रत्न पंक थी ३, रत्न धूम थी १-एवं २० । रत्न थी एक-एक विकल्प नां हवै। रत्न सक्कर थी १० ते किसा? रत्न सक्कर बालक थकी ४, रत्न सक्कर पंक थी ३, रत्न सक्कर ध म थी २, रत्न सक्कर तम थकी १- एवं १० एकएक विकल्प नां हुवै । ते कहै छै२. तथा रत्न इक सक्कर एक, इक वालुक त्रिहं पंक विशेख । तथा रत्न इक सक्कर एक, इक वालुक त्रिहुं धूम संपेख । ३. तथा रत्न इक सक्कर एक, इक वालुक में त्रिहं तम पेख । तथा रत्न इक सक्कर एक, इक वालुक त्रिहं सप्तमी देख ।। *लय : सीता आवे रे घर राग लिय : इण पुर कम्बल कोइ न लेसी १३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. तथा रत्न इक सक्कर एक, बे वालुक बे पंक विशेख । तथा रत्न इक सक्कर एक, बे वालुक बे धूमा लेख । ५. तथा रत्न इक सक्कर एक, बे वालुक बे तमा उवेख । तथा रत्न इक सक्कर एक, बे वालुक बे सप्तमी शेख । ६. तथा रत्न इक सक्कर दोय, एक वालुक बे पंके होय । तथा रत्न इक सक्कर दोय, इक वालुक बे धूमा जोय ।। ७. तथा रत्न इक सक्कर दोय, इक वालुक बे तम अवलोय । तथा रत्न इक सक्कर दोय, इक वालुक बे सप्तमी सोय ।। ८. तथा रत्न बे सक्कर एक, इक वालुक बे पंक विशेख । तथा रत्न बे सक्कर एक, इक वालुक बे धूमा लेख । ६. तथा रत्न बे सक्कर एक, एक वालका बे तम पेख । तथा रत्न बे सक्कर एक, एक वालुका बे सप्तमी शेख ।। १०. तथा रत्न इक सक्कर एक, त्रिण वालुक इक पंक विशेख । __ तथा रत्न इक सक्कर एक, त्रिण वालु इक धूमा देख ।। ११. तथा रत्न इक सक्कर एक, तीन वालुका इक तम लेख । तथा रत्न इक सक्कर एक, त्रिण वालुक इक सप्तमी शेख । १२. तथा रत्न इक सक्कर दोय, दोय वालुक इक पंके होय । तथा रत्न इक सक्कर दोय, दोय वालुक इक धूमा जोय ।। १३. तथा रत्न इक सक्कर दोय, दोय वालुक इक तम अवलोय । तथा रत्न इक सक्कर दोय, दोय वालक इक तमतमा जोय ।। १४. हिवै रत्न बे सक्कर एक, बे वालुक इक पंक विशेख । तथा रत्न बे सक्कर एक, बे वालुक इक धूमा लेख। १५. तथा रत्न बे सक्कर एक, बे वालुक इक तमा उवेख । तथा रत्न बे सक्कर एक, बे वालुक इक सप्तमी देख ।। १६. तथा रत्न इक सक्कर तीन, इक वालुक इक पंक दुचीन । तथा रत्न इक सक्कर तीन, इक वालुक इक धूमा लीन ।। १७. तथा रत्न इक सक्कर तीन, इक वालुक इक तमा दुचीन । तथा रत्न इक सक्कर तीन, इक वालुक इक सप्तमी लीन ।। १८. तथा रत्न बे सक्कर दोय, इक वालुक इक पंके जोय । तथा रत्न बे सक्कर दोय, इक वालुक इक धूमा होय ॥ १६. तथा रत्न बे सक्कर दोय, एक वालुका इक तम जोय । तथा रत्न बे सक्कर दोय, इक वालुक इक सप्तमी होय ।। २०. तथा रत्न त्रिण सक्कर एक, एक वालुका इक पंक देख । __ तथा रत्न त्रिण सक्कर एक, इक वालुक इक धूम उवेख । २१. तथा रत्न त्रिण सक्कर एक, इक वालुक इक तमा विशेख । तथा रत्न त्रिण सक्कर एक, एक वालुक इक सप्तमी देख ।। हिवै रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा कहै छै२२. तथा रत्न इक सक्कर एक, एक पंक त्रिहुं धूम विशेख । तथा रत्न इक सक्कर एक, एक पंक त्रिहुं तमा उवेख । २३. तथा रत्न इक सक्कर एक, एक पंक त्रिहं सप्तमी शेख। रत्न सक्कर नैं पंक थी चीन, धुर विकल्प करि ए भंग तीन।। श०६, उ० ३२, ढाल १८३ १३५ Jain Education Intemational Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देख | २४. तथा रत्न इक सक्कर एक, दोय पंक बिहुं धूमा तथा रत्न इक सक्कर एक, दोय पंक दो तमा विशेख | २५. तथा रत्न इक सक्कर एक, दोय पंक दोय सप्तमीं शेख । रत्न सक्कर नैं पंक थी चीन, द्वितीय विकल्प करि भांगा तीन ॥ २६. तथा रत्न इक सक्कर दोय, एक पंक बे धूमा होय । तथा रत्न इक सक्कर दोय, एक पंक बे तमा जोय ॥ २७. तथा रत्न इक सक्कर दोय, एक पंक बे सप्तमीं सोय । रत्न सक्कर नैं पंक थी चीन, तृतीय विकल्प करि भांगा तीन ॥ २८. तथा रत्न बे सक्कर एक, एक पंक बे धूम विशेख | तथा रत्न बे सक्कर एक, एक पंक वे तमा विशेख || २६. तथा रत्न बे सक्कर एक, एक पंक बे सप्तमी शेख । रत्न सक्कर ने पंक थी चीन, चउयं विकल्प करि भंगा तीन ।। तीन पंक इक धूमा देख | ३०. तथा रत्न इक सक्कर एक, तथा रत्न इक सक्कर एक, तीन पंक इक तमा पेख ॥ ३१. तथा रत्न इक सक्कर एक, तीन पंक इक सप्तमीं शेख । रत्न सक्कर नैं पंक थी चीन, पंचम विकल्प भंगा तीन ॥ ३२. तथा रत्न इक सक्कर दोय, दोय पंक इक धूमा होय । तथा रत्न इक सक्कर दोय, दोय पंक इक तम अवलोय | ३३. तथा रत्न इक सक्कर दोय, दोय पंक इक सप्तमीं जोय । रत्न सक्कर नैं पंक थी चीन, छठे विकल्प करि भंगा तीन ॥ ३४. तथा रत्न बे सक्कर एक, दोय पंक इक धूमा देख । तथा रत्न बे सक्कर एक, दोय पंक इक तमा लेख ॥ ३५. तथा रत्न बे सक्कर एक, दोय पंक इक सप्तमी शेख । रत्न सक्कर ने पंक थी चीन, सप्तम विकल्प भंगा तीन ॥ ३६. तथा रत्न इक सक्कर तीन, एक पंक इक धूमा चीन । तथा रत्न इक सक्कर तीन, एक पंक इक तमा लीन ॥ ३७. तथा रत्न इक सक्कर तीन, एक पंक इक सप्तमीं लीन । रत्न सक्कर ने पंक थी चीन, अष्टम विकल्प भंगा तीन ॥ ३८. तथा रत्न दे सक्कर दोय, एक पंक इक धूमा जोय तथा रत्न बे सक्कर दोय, एक पंक इक तम अवलोय || ३६. तथा रत्न बे सक्कर दोय, एक पंक इक तमतमा जोय । रत्न सक्कर नैं पंक थी चीन, नवम विकल्पे भंगा तीन ॥ ४०. तथा रत्न त्रिण सक्कर एक, एक पंक इक धूमा देख । तथा रत्न त्रिण सक्कर एक, एक पंक इक तमा विशेख | ४१. तथा रत्न त्रिण सक्कर एक, एक पंक इक सप्तमी शेख । रत्न सक्कर नैं पंक थी चान, दशम विकल्पे भंगा तीन ॥ हि रत्न सक्कर धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कहै छै - ४२. तथा रत्न इक सक्कर एक, एक धूम त्रिहुं तमा विशेख | तथा रत्न इक सक्कर एक, एक धूम त्रिहुं सप्तमी लेख || इक सक्कर एक, दोय धूम बेतमा देख । ४३. तथा रत्न बे तथा रत्न इक सक्कर एक, बे सप्तमी पेख | धूमा भगवती-जोड़ १३६ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. तथा रत्न इक सक्कर दोय, एक धूम बे तमा होय । तथा रत्न इक सक्कर दोय, एक धूम बे सप्तमी जोय ।। ४५. तथा रत्न बे सक्कर एक, एक धूम बे तमा विशेख । ___तथा रत्न बे सक्कर एक, एक धूम बे सप्तमी शेख ।। ४६. तथा रत्न इक सक्कर एक, तीन धूम इक तमा उवेख । तथा रत्न इक सक्कर एक, तीन धूम इक सप्तमी शेख ।। ४७. तथा रत्न इक सक्कर दोय, दोय धूम इक तमा जोय । तथा रत्न इक सक्कर दोय, दोय धूम इक सप्तमी होय ।। ४८. तथा रत्न बे सक्कर एक, दोय धूम इक तमा शेख । तथा रत्न बे सक्कर एक, दोय धूम इक सप्तमी पेख ।। ४९. तथा रत्न इक सक्कर तीन, इक धूम इक तमा चीन । तथा रत्न इक सक्कर तीन, एक धूम इक सप्तमी लीन ।। ५०. तथा रत्न बे सक्कर दोय, एक धूम इक तम अवलोय । तथा रत्न बे सक्कर दोय, एक धूम इक सप्तमी जोय ।। ५१. तथा रत्न त्रिण सक्कर एक, एक धूम इक तमा उवेख । तथा रत्न त्रिण सक्कर एक, एक धूम इक सप्तमी लेख ।। हिवै रत्न सक्कर तम थी १ भांगो दश विकल्प करि दश भांगा कहै छै ---- ५२. तथा रत्न इक सक्कर एक, एक तमा त्रिण सप्तमी शेख । तथा रत्न इक सक्कर एक, दोय तमा बे सप्तमी लेख । ५३. तथा रत्न इक सक्कर दोय, एक तमा बे सप्तमी सोय । तथा रत्न बे सक्कर एक, एक तमा बे सप्तमी पेख ॥ ५४. तथा रत्न इक सक्कर एक, तीन तमा इक सप्तमी पेख । तथा रत्न इक सवार दोय, दोय तमा इक सप्तमी होय ॥ ५५. तथा रत्न बे सक्कर एक, दोय तमा इक सप्तमी देख । तथा रत्न इक सक्कर तीन, एक तमा इक सप्तमी लीन ।। ५६. तथा रत्न बे सक्कर दोय, एक तमा इक सप्तमी जोय । तथा रत्न त्रिण सक्कर एक, एक तमा इक सप्तमी लेख ।। हिवं रत्त बालक थी एकेक विकल्प नां ६ भांगा, ते किसा? रत्न वालुक पंक थी ३, रल वालुक धूम थी २, रल वालुक तम थी १-एवं ६ भांगा, दश विकल करि ६० भांगा। तिहां रत्त वालक पंक थो ३ भांगा दश विकल करि ३० भांगा कहै छै - ५७. तथा रत्न इक वालुक एक, एक पंक त्रिहुं धूम विशेख । तथा रत्न इक वालुक एक, एक पंक त्रिहं तमा देख ॥ ५८. तथा रत्न इक वालुक एक, एक पंक त्रिहं सप्तमी देख । रत्न वालुक नैं पंक थी चीन, धुर विकल्प करि ए भंग तीन ॥ ५६. तथा रत्न इक वालुक एक, दोय पंक बे धम उवेख । तथा रत्न इक वालुक एक, दोय पंक बे तमा विशेख ।। ६०. तथा रत्न इक वालुक एक, दोय पंक बे सप्तमी देख । रत्न वालक ने पंक थी चीन, द्वितीय विकल्प करि भंगा तीन । ६१. तथा रत्न इक वालुक दोय, एक पंक बे धूमा होय । तथा रत्न इक वालुक दोय, एक पंक बे तमा जोय ॥ श०६, उ० ३२, ढाल १८३ १३७ Jain Education Intemational Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. तथा रत्न इक वालुक दोय, एक पंक बे सप्तमीं होय । रत्न वालुक नैं पंक थी चीन, तृतीय विकल्प करि भंगा तीन ॥ ६३. तथा रत्न वे बालक एक एक पंक विहं धूम उवेख 1 तथा रत्न वे वालुक एक एक पंक बितमा विशेख | ६४. तथा रत्न बे वालुक एक, एक पंक बिहुं सप्तमीं पेख । रत्न वालुक नैं पंक थी चीन, चउथे विकल्पे भंगा तीन ॥ ६५. तथा रत्नाइक वालुक एक, तीन पंक इक धूम उवेख । तथा रत्न इक वालुक एक, तीन पंक इक तमा विशेख | ६६. तथा रत्न इक वालुक एक, तीन पंक इक सप्तमीं देख । रत्न वालुक नैं पंक थी चीन, पंचमे विकल्प भंगा तीन ॥ ६७. तथा रत्न इक वालुक दोय, दोय पंक इक धूमा जोय । तथा रत्न इक वालुक दोय, दोय पंक इक तम अवलोय ॥ ६८. तथा रत्न इक वालुक दोय, दोय पंक इक सप्तमी जोय । रत्न वालुक में पंक थी चीन, छठे विकल्प भंगा तीन ॥ ६६. तथा रत्न वे वालुक एक, दोय पंक इक धूमा देख तथा रत्न बे वालुक एक, दोय पंक इक तमा उवेख ॥ ७०. तथा रत्न बे वालुक एक, दोय पंक इक सप्तमीं देख । रत्न वालुक में पंक थी चीन, सप्तम विकल्प भंगा तीन ॥ ७१. तथा रत्न इक बालुक तीन, एक पंक इक धूम मलीन । तथा रत्न इक वालुक तीन, एक पंक इक तमा दुचीन ॥ ७२. तथा रत्न इक बालक तीन, एक पंक एक सप्तमीं लीन । रत्न वालुक ने पंक थी चीन, अष्टम विकल्प भंगा तीन ॥ ७३. तथा रन वे वालुक दोष, एक पंक इक घूमा जोय । तथा रत्न बे वालुक दोय, एक पंक इक तमा होय ॥ ७४. तथा रत्न वे वालुक दोय, एक पॅक इक सप्तमीं होय । नवमे विकल्प भंगा तीन ॥ एक पंक इक धूम उवेख । तथा रत्न त्रिण वालुक एक, एक पंक इक तमा विशेख ॥ ७६. तथा रत्न त्रिण वालुक एक, एक पंक इक सप्तमीं शेख । रत्न वालुक ने पंक थी चीन, दशमे विकल्प भंगा तीन ॥ रत्न वालुक नैं पंक थी चीन, ७५. तथा रत्न त्रिण वालुक एक, हिवे रत्न वालुक धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कहै छै - ७७. तथा रत्न इक वालुक एक, एक धूम त्रिहुं तमा उवेख । तथा रत्न इक वालुक एक एक घूमा वि सप्तमी लेख | ७८. तथा रत्न इक वालुक एक, बे धूमा बे तमा विशेख । तथा रत्न इक वालुक एक, बे धूमा बे सप्तमीं शेख । ७६. तथा रत्न इक वालुक दोय, एक धूम बे तम अवलोय । तथा रत्न इक वालुक दोय, एक घूम वे सप्तमी जोय ॥ ८०. तथा रत्न वालुक एक, तमा उवेख । सप्तमी शेख ॥ एक धूम बे एक धूम बे तीन धूम एक तम उवेख तथा रत्न इक वालुक एक, तीन धूम एक सप्तमी शेख || १२५ भगवती जोड़ तथा रत्न बे वालुक एक, ८१. तथा रत्न इक वालुक एक, Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. तथा रत्न इक वालुक दोय, दोय धूम एक तम अवलोय। तथा रत्न इक वालुक दोय, दोय धूम इक सप्तमी होय ।। ८३. तथा रत्न बे वालुक एक, दोय धूम इक तम उवेख । तथा रत्न बे वालुक एक, दोय धुम इक सप्तमी शेख ॥ ८४. तथा रत्न इक वालुक तीन, एक धूम इक तम दुचीन । तथा रत्न इक वालुक तीन, एक धूम इक सप्तमी लीन। ८५. तथा रत्न बे वालुक दोय, एक धूम इक तमा होय । तथा रत्न बे वालुक दोय, एक धूम इक सप्तमी जोय ।। ८६. तथा रत्न त्रिण वालुक एक, एक धूम इक तमा विशेख । तथा रत्न त्रिण वालुक एक, एक धूम इक सप्तमी शेख ॥ हिवं रत्न वालुक तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कहै छै८७. तथा रत्न इक वालुक एक, एक तमा त्रिहुं सप्तमी लेख। रत्न वालुक नैं तम थी देख, धुर विकल्प करि भंगो एक ।। ५८. तथा रत्न इक वालुक एक, दोय तमा बिहं सप्तमी पेख। रत्न वालुक नैं तम थी देख, द्वितीय विकल्प करि भंगो एक। ८९. तथा रत्न इक वालुक दोय, एक तम बे सप्तमी होय । रत्न वालक ने तम थी देख, तृतीय विकल्प करि भंगो एक ।। १०. तथा रत्न बे वालुक एक, एक तमा बिहं सप्तमी लेख । रत्न वालुक नैं तम थी देख, चउथे विकल्प भंगो एक ॥ ६१. तथा रत्न इक वालुक एक, तीन तमा इक सप्तमी शेख। रत्न वालक नैं तम थी जोय, पंचमे विकल्प इक भंग होय॥ ६२. तथा रत्न इक वालुक दोय, दोय तमा इक सप्तमी होय। रत्न वालक नैं तम थी जोय, छठे विकल्प इक भंग होय ।। ६३. तथा रत्न बे वालुक एक, दोय तमा इक सप्तमी लेख । रत्न वालुक में तम थी जोय, सप्तम विकल्प इक भंग होय ।। १४. तथा रत्न इक वालुक तीन, एक तमा इक सप्तमी चीन। रत्न वालक नै तम थी जोय, अष्टम विकल्प इक भंग होय ।। ६५. तथा रत्न बे वालुक दोय, एक तमा इक सप्तमी होय । रत्न वालक नैं तम थी चंग, नवमे विकल्प ए इक भंग ।। १६. तथा रत्न त्रिण वालुक एक, एक तमा इक सप्तमी शेख । रत्न वालुक तम थकी गिणेह, दशमे विकल्प इक भंग एह ।। हिवं रत्न पंक थी एक एक विकल्प करि ३ भांगा, ते किसा ? रत्न पंक धूम थी २, रत्न पंक तम थी १ एवं ३ भांगा। दश विकल्प करि ३० भांगा। तिहां रत्न पंक धूम थी २ भांगा, दश विकल्प करि २० भांगा कहै १७. तथा रत्न इक पंके एक, एक धूम त्रिण तमा विशेख । तथा रत्न इक पंके एक, एक धम त्रिहं सप्तमी देख ।। १८. तथा रत्न इक पंके एक, दोय धूम बेतमा उवेख । तथा रत्न इक पंके एक, दोय धम बे सप्तमी शेख ।। ६६. तथा रत्न इक पंके दोय, एक धूम बे तमा होय । तथा रत्न इक पंके दोय, एक धुम बे सप्तमी जोय ।। श० ६, उ० ३२, ढाल १८३ १३६ Jain Education Intemational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० तथा रत्न बे पंके एक, एक धूम बे तमा विशेख । तथा रत्न बे पंके एक, एक धूम बे सप्तमीं शेख ॥ १०१ तथा रत्न इक पंके एक, तीन धूम इक तमा उवेख । तथा रत्न इक पंके एक, तीन धूम इक सप्तमीं शेख ॥ १०२. तथा रत्न इक पंके दोय, दोय धूम इक तमा जोय । तथा रत्न इक पंके दोय, दोय धूम इक सप्तमीं जोय ॥ १०३. तथा रत्न बे पंके एक, दोय धूम इक तमा उवेख । तथा रत्न बे पंके एक, दोय धूम इक सप्तमीं शेख ॥ १०४. तथा रत्न इक पंके तीन, एक धूम इक तम मलीन । तथा रत्न इक पंके तीन, एक धूम इक सप्तमीं लीन ॥ १०५ तथा रन वे पंके दोष, एक धूम एक तमा जोय 1 - तथा रत्न वे पंके दोय, एक धूम इक सप्तमीं होय ॥ १०६. तथा रत्न त्रिण पंके एक एक धूम इक तमा देख तथा रत्न त्रिण पंके एक, एक धूम इक सप्तमीं शेख ॥ हि रत्न पंक तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कहै छे - १०७. तथा रत्न इक पंके एक, एक तम त्रिण सप्तमी शेख । तथा रत्न इक पंके एक, दोयतमा बे सप्तमीं लेख ॥ १०८. तथा रत्न इक पंके दोय, एक तमा वे तथा रत्न बे पंके एक, एकतमा बे १०६. तथा रत्न इक पंके एक, तीन तमा इक तथा रत्न इक पंके दोय, दोय तमा इक सप्तमीं सोय । सप्तमीं शेख ॥ सप्तमीं लेख । सप्तमीं सोय ।। सप्तमीं लेख । ११०. तथा रत्न बे पंके एक, दोय तमा इक तथा रत्न इक पंके तीन, एक तमा इक १११. तथा रत्न बे पंके दोय, एक तमा इक एक तमा एक सप्तमीं शेख | सप्तमीं लीन । सप्तमीं जोय । तथा रत्न त्रिण पंके एक, हि रत्न धूम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कहै छै ११२. तथा रत्न इक धूमा एक, तथा रत्न इक धूमा एक, ११३. तथा रत्न इक धूमा दोय, तथा रत्नधूमा एक, ११४. तथा रत्न इक धूमा एक, तमा त्रिण सप्तमीं देख | एक दोय तमा वे एकतमा बे एक तमा बे तीन तमा इक सप्तमीं शेख ॥ सप्तमीं होय । सप्तमीं पेख ॥ तथा रत्न इक धूमा दोय, दोय तमा इक ११५. तथा रत्न से घूमा एक, दोय सप्तमी शेख । सप्तमीं सोय ।। तमा इक सप्तमी लेख तथा रत्न इक धूमा तीन, एक तमा एक सप्तमीं चीन ॥ ११६. तथा रत्न बे धूमा दोय, एक तमा इक सप्तमीं होय । तथा रत्न त्रिण धूमा एक, एक तमा एक सप्तमीं शेख ॥। हि सक्कर थी १० भांगा, ते किसा ? सक्कर वालुक थी ६, सक्कर पंक थी ३, सक्कर धूम थी ९ एवं सक्कर थी १० एकेक विकल्प करि हुवें । तिहां सक्कर वालुक थी ६, ते किसा ? सक्कर वालुक पंक थी ३, सक्कर वालुक धूम थी २, सक्कर वाल्क तम थी १, तिहां सक्कर वालु पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा कहै छै - १४० भगवती जोड़ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७. तथा सक्कर इक वालुक एक, एक पंक त्रिण धूम विशेख। तथा सक्कर इक वालुक एक, एक पंक त्रिण तमा उवेख।। ११८. तथा सक्कर इक बालुक एक, एक पंक त्रिण सप्तमी लेख। सक्कर वालुक पंक थी चीन, धुर विकल्प करि ए भंग तीन ।। ११६. तथा सक्कर इक वालुक एक, दोय पंक बे धूमा लेख। तथा सक्कर इक वालुक एक, दोय पंक बे तमा विशेख ।। १२०. तथा सक्कर इक वालुक एक, दोय पंक बे सप्तमी शेख। सक्कर वालुक पंक थी चीन, द्वितीय विकल्प करि ए भंग तीन । १२१. तथा सक्कर इक वालुक दोय, एक पंक बेधमा जोय । तथा सक्कर इक वालुक दोय, एक पंक बे तमा होय ।। १२२. तथा सक्कर इक वालुक दोय, एक पंक बे सप्तमी जोय। सक्कर वालुक पंक थी चीन, तृतीय विकल्प करिभंगा तीन ॥ १२३. तथा सक्कर बे वालुक एक, एक पंक बिहुं धूम विशेख। तथा सक्कर बे वालुक एक, एक पंक बिहुं तमा उवेख ।। १२४. तथा सक्कर वे वालुक एक, एक पंक बिहं सप्तमी शेख। सक्कर वालुक पंक थी चीन, चउथे विकल्प भंगा तीन । १२५. तथा सक्कर इक वालुक एक, तीन पंक इक धूमा देख। तथा सक्कर इक वालुक एक, तीन पंक इक तमा विशेख । १२६. तथा सक्कर इक वालुक एक, तीन पंक इक सप्तमी पेख। सक्कर वालुक पंक थी चीन, पंचमे विकल्प भंगा तीन । १२७. तथा सक्कर इक वालुक दोय, दोय पंक इक धूमा जोय । तथा सक्कर इक वालुक दोय, दोय पंक इक तमा होय ॥ १२८. तथा सक्कर इक वालुक दोय, दोय पंक इक सप्तमी जोय । सक्कर वालुक पंक थी चीन, षष्ठम विकल्प भंगा तीन । १२६. तथा सक्कर बे वालुक एक, दोय पंक इक धुमा देख। तथा सक्कर बे वालुक एक, दोय पंक इक तमा लेख ॥ १३०. तथा सक्कर बे वालुक एक, दोय पंक इक सप्तमी शेख । सक्कर वालुक पंक थी चीन, सप्तम विकल्प भंगा तीन ।। १३१. तथा सक्कर इक वालुक तीन, एक पंक इक धूमा लीन । तथा सक्कर इक वालुक तीन, एक पंक इक तमा दुचीन । १३२. तथा सक्कर इक वालुक तीन, एक पंक इक सप्तमी लीन । सक्कर वालुक पंक थी चीन, अष्टम विकल्प भंगा तीन ॥ १३३. तथा सक्कर बे वालुक दोय, एक पंक इक धूमा जोय । तथा सक्कर बे वालुक दोय, एक पंक इक तमा जोय ॥ १३४. तथा सक्कर बे वालुक दोय, एक पंक इक सप्तमी जोय। सक्कर वालुक पंक थी चीन, नवमे विकल्प भंगा तीन । १३५. तथा सक्कर त्रिण वालुक एक, एक पंक इक धूमा लेख। तथा सक्कर त्रिण वालुक एक, एक पंक इक तमा देख ॥ १३६. तथा सक्कर त्रिण वालुक एक, एक पंक इक सप्तमी शेख । सक्कर वालुक पंक थी चीन, दशमे विकल्प भंगा तीन । ए सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा, दश विकल्प करि ३० भांगा कह्या । श० ६, २० ३२, ढाल १८३ १४॥ Jain Education Intemational Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै सक्कर वालुक धूम थी२ भांगा दश विकल्प करि २० भांगा कहै छै१३७. तथा सक्कर इक वालुक एक, एक धम त्रिहं तमा विशेख । तथा सक्कर इक वालुक एक, एक धूम त्रिहुं सप्तमी शेख ।। १३८. तथा सक्कर इक वालुक एक, दोय धूम बेतमा विशेख । तथा सक्कर इक वालुक एक, दोय धूम बे सप्तमी शेख ।। १३६. तथा सक्कर इक वालुक दोय, एक धूम बे तम अवलोय । तथा सक्कर इक वालुक दोय, एक धूम बे सप्तमी सोय ।। १४०. तथा सक्कर बे वालुक एक, एक धूम बे तम उवेख । तथा सक्कर बे वालुक एक, इक धूम बे सप्तमी शेख ॥ १४१. तथा सक्कर इक वालुक एक, तीन धूम इक तमा देख । तथा सक्कर इक वालुक एक, तीन धूम इक सप्तमी शेख । १४२. तथा सक्कर इक वालुक दोय, दोय धूम इक तम अवलोय । तथा सक्कर इक वालुक दोय, दोय धूम इक सप्तमी होय ।। १४३. तथा सक्कर बे वालुक एक, दोय धूम इक तम संपेख । तथा सक्कर बे वालुक एक, दोय धूम इक सप्तमी देख ॥ १४४. तथा सक्कर इक वालुक तीन, एक धूम इक तम मलीन । तथा सक्कर इक वालुक तीन, एक धूम इक सप्तमी चीन ॥ १४५. तथा सक्कर बे वालुक दोय, एक धूम इक तम अवलोय । तथा सक्कर बे वालुक दोय, एक धूम इक सप्तमी होय ।। १४६. तथा सक्कर त्रिण वालुक एक, एक धूम इक तमा उवेख । तथा सक्कर त्रिण वालुक एक, एक धूम इक सप्तमी शेख ॥ ए सक्कर वालुक धूम थी २ भांगा, दश विकल्प करि २० भांगा कह्या । हिवै सक्कर वालुक तम थी १ भांगो, दश विकल्प करि १० भांगा कहै छ१४७. तथा सक्कर इक वालुक एक, एक तमा त्रिहं सप्तमी लेख । तथा सक्कर इक वालुक एक, दोय तमा बे सप्तमी शेख । १४८. तथा सक्कर इक वालुक दोय, एक तमा बे सप्तमी जोय। तथा सक्कर बे वालुक एक, एक तमा बे सप्तमी पेख ॥ १४६. तथा सक्कर इक वालुक एक, तीन तमा इक सप्तमी लेख । तथा सक्कर इक वालुक दोय, दोय तमा इक सप्तमी होय ।। १५०. तथा सक्कर बे वालुक एक, दोय तमा इक सप्तमी पेख । तथा सक्कर इक वालुक तीन, एकतमा इक सप्तमी चीन ।। १५१. तथा सक्कर त्रिण वालुक दोय, एक तमा इक सप्तमी सोय । तथा सक्कर त्रिण वालुक एक, एक तमा इक सप्तमी शेख । ए सक्कर वालुक तम थी १ भांगो, दश विकल्प करि १० भांगा कह्या । एवं सक्कर थी १० भांगा, दश विकल्प करि १०० भांगा कह्या। हिवै वालुक थी ४ भांगा, दश विकल्प करि ४० भांगा । वालुक थी ४, ते किसा? वालुक पंक थी ३, वालुक धूम थी १। वालुक पंक थी ३, ते किसा? वालुक पंक धूम थी २ वालुक पंक तम थी १-एवं वालुक पंक थी ३ भांगा। तिहां वालुक पंक धूम थी २ भांगा दश विकल्प करि कहै छै -- १५२. तथा वालुक इक पंके एक, एक धूम त्रिण तमा उवेख । तथा वालुक इक पंके एक, एक धूम त्रिण सप्तमी शेख ।। १४२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३. तथा वालुक इक पंके एक, दोय धूम बे तमा विशेख । तथा वालुक इक पंके एक, दोय धूम बे सप्तमी लेख ।। १५४. तथा वालुक इक पंके दोय, एक धूम बे तमा जोय । तथा वालुक इक पंके दोय, एक धूम बे सप्तमी होय ।। १५५. तथा वालुक बे पंके एक, एक धूम बे तमा पेख । तथा वालुक बे पंके एक, एक धम बे सप्तमी शेख ॥ १५६. तथा वालुक इक पंके एक, तीन धूम इक तमा उवेख । तथा वालुक इक पंके एक, तीन धम इक सप्तमी लेख ॥ १५७. तथा वालुक इक पंके दोय, दोय धूम इक तमा जोय । तथा वालुक इक पंके दोय, दोय धूम इक सप्तमी होय ॥ १५८. तथा वालुक बे पंके एक, दोय धूम इक तमा उवेख । तथा वालुक बे पंके एक, दोय धूम इक सप्तमी शेख ।। १५६. तथा वालुक इक पंके तीन, एक धम इक तमा दुचीन । तथा वालुक इक पंके तीन, एक धम इक सप्तमी लीन ॥ १६०. तथा वालुक बे पंके दोय, एक धूम इक तमा होय । तथा वालुक बे पंके दोय, एक धूम इक सप्तमी जोय ।। १६१. तथा वालुक त्रिण पंके एक, एक धूम इक तमा विशेख । तथा वालुक त्रिण पंके एक एक धूम इक सप्तमी शेख ।। ए वालुक पंक धूम थी २ भांगा, दश विकल्प करि २० भांगा कह्या । हिवै वालुक पंक तम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कहै छै-- १६२. तथा वालुक इक पंके एक, एक तमा त्रिण सप्तमी शेख । तथा वालुक इक पंके एक, दोय तमा बे सप्तमी शेख ।। १६३. तथा वालुक इक पंके दोय, इक तमा बे सप्तमी होय । तथा वालक बे पंके एक, एक तमा बे सप्तमी शेख ।। १६४. तथा वालुक इक पंके एक, तीन तमा इक सप्तमी पेख । तथा वालक इक पंके दोय, दोय तमा इक सप्तमी जोय । १६५. तथा वालुक बे पंके एक, दोय तमा इक सप्तमी पेख । तथा वालुक इक पंके तीन, एक तमा इक सप्तमी लीन । १६६. तथा वालु क बे पंके दोय, एक तमा इक सप्तमी होय । तथा वालक त्रिण पंके एक, एक तमा इक सप्तमी शेख ।। ए बालुक पंक तम थी १ भांगो, दश विकल्प करि १० भांगा कह्यः । ए बालु पंक थी ३ भांगा, दश विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिवै वालुक धूम थी १ भांगो, दश विकल्प करि १० भांगा कहै छ१६७. तथा वालुक इक धूमा एक, एक तमा त्रिण सप्तमी देख । तथा वालुक इक धूमा एक, दोय तमा बे सप्तमी शेख ।। १६८. तथा वालुक इक धूमा दोय, एक तमा बे सप्तमी होय । तथा वालुक बे धूमा एक, एक तमा बे सप्तमी पेख ।। १६६. तथा वालुक इक धूमा एक, तीन तमा इक सप्तमी शेख । तथा वालुक इक धूमा दोय, दोय तमा इक सप्तमी होय ।। १७०. तथा वालुक बे धूमा एक, दोय तमा इक सप्तमी पेख । तथा वालुक इक धूमा तीन, एक तमा इक सप्तमी लीन ।। श० ६, उ० ३२, ढाल १८३ १४३ Jain Education Interational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१. तथा वालुक बे धूमा दोय, एक तमा इक सप्तमी सोय । तथा वालुक त्रिण धमा एक, एक तमा इक सप्तमी लेख । ए व लुक धूम थी १ भांगो, १० विकल करि १० भांगा कह्या । एवं बालुक थी ४ भांगा दश विकल्प करि ४० भांगा कह्या। हिवै पंक थी १ भांगो, दश विकल्प करि १० भांगा कहै छ१७२. तथा पंक इक धूमा एक, एक तमा त्रिण सप्तमी शेख । तथा पंक इक धमा एक, दोय तमा बे सप्तमी लेख ।। १७३. तथा पंक इक धूमा दोय, एक तमा बे सप्तमी सोय । तथा पंक बे धूमा एक, एक तमा बे सप्तमी देख ॥ १७४. तथा पंक इक धूमा एक, तीन तमा इक सप्तमी शेख । तथा पंक इक धूमा दोय, दोय तमा इक सप्तमी सोय ॥ १७५. तथा पंक बे धूमा एक, दोय तमा इक सप्तमी लेख । तथा पंक इक धूमा तीन, एक तमा इक सप्तमी लीन । १७६. तथा पंक बे धूमा दोय, एक तमा इक सप्तमी सोय । तथा पंक त्रिण धूमा एक, एक तमा इक सप्तमी शेख ।। ए पंक थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कह्या। एवं एकेक विकल्प करि रन थी २०, सक्कर थी १०, वालुक थी ४, पंक थी १ ए ३५ भांगा, ते दश विकल्प करि रत्न थी २०० भांगा । सक्कर थी १०० भांगा । वालुक थी ४० भांगा। पंक थी १० भांगा। एवं सर्व ३५० चउकसंजोगिया भांगा जाणवा । हिवै एहनों यंत्र कहै छै बा०-छह जीव नां चउकसंयोगिक, तेहनां विकल तो दश, भांगा साढा तीन सौ । एक-एक विकल्प नां भांगा पैतीस पैतीस हुवै ते माट दश विकल नां ३५० भांगा हुवै । एक-एक विकल्प नां रत्न थी २०, सक्कर थी १०, वालुक थी ४, पंक थी१-एवं ३५ । रत्न थी २० ते किसा? रत्न सक्कर थी १०, रत्न वालुक थी ६, रत्न पंक थी ३, रत्न धूम थी १- एवं २० रत्न थी एक एक विकल्प नां हवै। रत्न गक्कर थी १० ते किसा? रत्न सक्कर वालुक थी ४, रत्न सक्कर पंक थी ३, रन सक्कर धूम थी २, रत्न सक्कर तम थकी १- एवं १० एक-एक विकल्प नां हुवं । तिहां रत्न सक्कर वालुक थकी ४ भांगा प्रथम विकल करि कहै छै १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक ३ पंक १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, ३ धूम ३ १ रल, १ सक्कर, १ वालुक, ३ तम ४ | १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक,३ सप्तमी १४ भगवती-जोड़ ..... Jain Education Interational Jain Education Intemational Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि द्वितीय विकल्पे ४ भांगा પ્ ६ ७ ८ १० ११ १२ १४ १५ हिवै तृतीय विकल्पे ४ भांगा है १ २ २२ ३ २३ २४ ४ १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, २ सप्तमी ३ ४ १ १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक २ पंक २ / १ रन, २ सक्कर, १ वालुक, २ धूम हिवं चतुर्थ विकल्पे ४ भांगा १३ १ २ ३ ४ १ र १ सक्कर, २ वालु २ पंक ३ १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, २ धूम ४ १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु २ तम १६ हि पंचम विकल्पे ४ भांगा १७ | १८ १६ १ २ ३ १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, २ तम ४ १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, २ सप्तमी १ १ रत्न, १ सक्कर, ३ वालु, १ पंक २ २ रत्न, १ सक्कर, १ वालु २ पंक २ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ धूम २ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ तम २० हिवै षष्ठ विकल्पे ४ भांगा २१ २ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, ३ वालु, १ धूम १ रत्न, १ सक्कर, ३ वालु, १ तम १ रत्न, १ सक्कर, ३ वालु, १ सप्तमी १ रत्न, २ सक्कर, २ वालु, १ पंक १ रत्न, २ सक्कर, २ वालु, १ धूम १ रत्न, २ सक्कर, २ वालु, १ तम १ रत्न, २ सक्कर, २ वालु, १ सप्तमी हितै सप्तम विकल्पे ४ भांगा २५ २६ २७ २८ २६ ३० ३१ ३२ ३३ ३४ ३५ हिव अष्टम विकल्पे ४ भांगा ३७ १ ३८ २ ३६ ३ ४० ४ १ २ ३ ४ १ हिर्व नवम विकल्पे ४ भांगा २ ३ ४ १ २ २ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ पंक ३ २ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ धूम ४ २ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ तम २ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ सप्तमीं ३६ | हिवै दशम विकल्पे ४ भांगा १ रत्न, ३ सक्कर, १ वालु, १ पंक १ रत्न, ३ सक्कर, १ वालु, १ धूम १ रत्न, ३ सक्कर, १ वालु, १ तम १ रत्न, ३ सक्कर, १ व लु १ सप्तमी २ रत्न, २ सक्कर, १ वालु, १ पंक २ रत्न, २ सक्कर, १ वालु, १ धूम २ रत्न, २ सक्कर, १ वालु, १ तम २ रत्न, २ सक्कर, १ वालु, १ सप्तमी ३ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक ३ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ धूम ३ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ तम ३ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ सप्तमी ए रत्न सक्कर वालुक थी ४ भांगा दश विकल्प करि ४० भांगा का । श० ६, उ० ३२, ढाल १८३ १४५ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै रत्न सक्कर थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छे ४१ १ रत्न, १ सक्कर १ पंक, ३ धूम ४२ ४३ ४४ ४५ ४७ हि द्वितीय विकल्पे ) १ ४८ ४६ ५० ५१ ५२ ४६ ३ हि तृतीय विकल्पे ५३ १ ५४ २ ५५ ३ ५६ २ ५८ १ २ ३ हि चतुर्थ विकल्पे १ २ ३ १ २ ३ १ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, ३ तम १ रत्न १ सक्कर, १ पंक, ३ सप्तमी १ ५७ २ हिवै पंचम विकल्पे ३ भांगा १ रत्न, १ सक्कर, २ पक, २ धूम ३ १ रत्न, १ सक्कर, २ पंक, २ तम १ रत्न, १ सक्कर, २ पंक, २ सप्तमी १ रत्न, २ सक्कर, १ पंक, २ धूम १ रत्न, २ सक्कर, १ पंक, २ तम १ रत्न, २ सक्कर, १ पंक, २ सप्तमी २ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, २ धूम २ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, २ तम २ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, २ सप्तमीं हिवै पष्ठ विकल्पे ३ भांगा १ रत्न, १ सक्कर, ३ पंक, १ धूम १ रत्न, १ सक्कर, ३ पंक, १ तम १ रत्न, १ सक्कर, ३ पंक, १ सप्तमी १ र २ सक्कर, २ पंक, १धू १ रत्न, २ सक्कर, २ पंक, १ तम १४६ भगवती-जोड़ १ रत्न, २ सक्कर, २ पंक, १ सप्तमी हि सप्तम विकल्पे ३ भांगा ५६ ६० ६१ ६३ ६४ ६५ ६६ हिर्व अष्टम विकल्पे ३ भांगा ६२ १ ६७ ६८ ६६ ७० ७१ ७२ १ २ हिव नवम विकल्पे ३ भांगा ३ ७३ ७४ २ ३ १ २ ३ १ हि दशम विकल्पे ३ भांगा २ ३ २ र १ सक्कर, २ पंक, १ धूम १ २ रत्न, १ सक्कर, २ पंक १ तम २ २ रत्न १ सक्कर, २ पंक, १ सप्तमी १ १ रत्न, ३ सक्कर, १ पंक, १ धूम २ १ रत्न, ३ सक्कर, १ पंक, १ तम १ रत्न, ३ सक्कर, १ पंक, १ सप्तमी हिवै रत्न सक्कर धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै। छँ २ रत्न, २ सक्कर, १ पंक, १ धूम २ रत्न २ सक्कर, १ पंक, १ तम २ रत्न २ सक्कर, १ पंक १ सप्तमी ३ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, १ धूम ३ रन, १ सक्कर, १ पंक, १ तम हि द्वितीय विकल्पे २ भांगा ३ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, ३ तम १ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, ३सप्तमी १ रत्न १ सक्कर, २ धूम, २ तम १ रत्न, १ सक्कर, २ धूम, २ सप्तमी Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि तृतीय विकल्पे २ भांगा ७५ १ ७७ ७६ हिव चतुर्थ विकल्पे २ भांगा ७८ ७६ ८० ८१ ८२ हि पंचम विकल्पे २ भांगा ८३ ८४ २ ८५ १ ८७ २ हिवै षष्ठ विकल्पे २ भांगा ८८ १ ८६ ६० १ २ १ रत्न, २ सक्कर, १ धूम, २ तम हिवै सप्तम विकल्पे २ भांगा १ रत्न, २ सक्कर, १ धूम, २ सप्तमी १ २ रन, १ सक्कर, १ धूम २ तम २. २ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, २ सातमी हि अष्टम विकल्पे २ भांगा १ रत्न, १ सक्कर, ३ धूम, १ तम १ रत्न, १ सक्कर, ३ धूम, १ सप्तमी १ १ २१ सक्कर, २ धून, १ तम २ २१ सक्कर, २ धूम, १ सप्तमी २ १ रन, २ सक्कर, २ धूम, १ तम १ रन, २ सक्कर, २ धूम, १ सप्तनीं ८६ हिर्व नवम विकल्पे २ भांगा १ र ३ सक्कर, १ धूम, १ तन हिव दशम विकल्पे २ भांगा १ रत्न, ३ सक्कर, १ धूम, १ सप्तनों १ २ रत्न २ सक्कर, १ धूप, १ तम २ २ रत्न, २ सक्कर, १ धूम, १ सप्तमीं ३ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, १ तम ३ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, १ सप्तमी हिवै रत्न सक्कर तम थी १ भांगो प्रथम विकल्पे १ रत्न, १ सक्कर, १ तम ३ सप्तमी ६१ हिवं द्वितीय विकली भांगो १ ६२ ६३ हिवे तृतीय विकल्पे १ भांगो ६४ १ हिर्व चतुर्थ विकल्पे १ भांगो १ १ रत्न, १ सक्कर, २ तम, २ सप्तमी ६७ हिवै पंचम विकल्पे एक भांगो १ १ रत्न, २ सक्कर, १ तम, २ सप्तमीं हैद ६५ हि षष्ठ विकल्पे एक भांगो १ १ रत्न, १ सक्कर, २ तम, २ सप्तमी ε ε १ ६६ हि सप्तम विकल्पे १ भांगो १०० १ १ रत्न, २ सक्कर, २ तम, १ सप्तमी १ हि अष्टम विकल्पे एक भांगो १ रत्न, १ सक्कर, ३ तम, १ सप्तमीं हिवै नवम विकल्पे १ भांगो १ १ रत्न, ३ सक्कर, १ तम, १ सप्तमी १ २ रत्न, १ सक्कर, २ तम, १ सप्तमी १ हिर्व दशम विकल्पे एक भांगो २ रत्न, २ सक्कर, १ तम, १ सप्तमीं ३ रत्न, १ सक्कर, १ तम, १ सप्तमी एवं रत्न सक्कर थी १० भांगा, दश विकल्प करि १०० भागां कह्या । श० ६, उ०३२, ढाल १८३ १४७ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं षष्ठ विकल्पे ३ भांगा हिवै रत्न बालुक थी ६ । एकेक विकल्प करि ६ भांगा ते किसा? रत्न वालुक पंक थी ३, रत्न वालुक धूम थी २, रत्न वालुक तम थी १--एवं ६ । रत्न वालुक पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै ११६ | १ १ रत्न, २ वालु, २ पंक, १ धूम ११७ , २ १ रत्न, २ वालु, २ पंक, १ तम ११८ ३ / १ रत्न, २ वालु, २ पंक, १ सप्तमी १ रत्न, १ वालुक, १ पंक, ३ धूम १ रत्न, १ वालुक, १ पंक, ३ तम हिवै सप्तम विकल्पे ३ भांगा १०३ ३ | १ रत्न, १ वालुक, १ पंक, ३ सप्तमी ११६ १ २ रत्न, १ वालु, २ पंक, १ धूम हिवै द्वितीय विकल्पे तीन भांगा १०४ | १ | १ रत्न, १ वालुक, २ पंक, २ धूम १२० | २ | २ रत्न, १ वालु, २ पंक, १ तम १२१ | ३ | २ रत्न, २ रत्न, १ वालु, २ पंक, १ सप्तमी हिवै अष्टम विकल्पे तीन भांगा १ रत्न, १ वालुक, २ पंक, २ तम १०६ ३ १ रत्न, १ वालुक, २ पंक, २ सप्तमी हिवं तृतीय विकल्पे ३ भांगा १२२ १ १ रत्न, ३ वालु, १ पंक, १ धूम १२३ | २ १ रत्न, ३ वालु, १ पंक, १ तम | १ रल, २ वालु, १ पंक, २ धूम १२४ | ३ | १ रत्न, ३ वालु, १ पंक, १ सप्तमी १०८ २ १ रत्न, २ वालु, १ पंक, २ तम हिवं नवम विकल्पे ३ भांगा १ रत्न, २ वालु, १ पंक, २ सप्तमी १२५ २ रत्न, २ वालु, १ पंक, १ धूम हिवै चतुर्थ विकल्पे ३ भांगा २ रत्न, २ वालु, १ पंक, १ तम ११० १ २ रत्न, १ वालु, १ पंक, २ धूम १२७ ३ | २ रत्न, २ वालु, १ पंक, १ सप्तमी २ रत्न, १ वालु, १ पंक, २ तम हिवै दशम विकल्पे ३ भांगा ११२ ३ २ रत्न, १ वालु, १ पंक, २ सप्तमी १२८ ३ रत्न, १ वालु, १ पंक, १ धूम हिवै पंचम विकल्पे ३ भांगा १२६ २ ३ रत्न, १ वालु, १ पंक, १ तम १ रत्न, १ वालु, ३ पंक, १ धूम ३ रत्न, १ वालु, १ पंक, १ सप्तमी ११४ २ १ रत्न, १ वालु, ३ पंक, १ तम | १ रल, १ वालु, ३ पंक, १ सप्तमी हिवै रल वालुक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ १ रत्न, १ वालु, १ धूम, ३ तम २ १ रत्न, १ वालु, १ धूम, ३ सप्तमी १४८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै द्वितीय विकल्पे २ भांगा हिवै दशम विकल्पे २ भांगा १ रत्न, १ वालु, २ धूम, २ तम १४६ १ ३ रत्न, १ वालु, १ धूम, १ तम १५० १३४ | २ | १ रत्न, १ वालु, २ धूम, २ सप्तमी ३ रत्न, १ वालु, १ धूम, १ सप्तमी हिवं रत्न वालुक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छै हिवं तृतीय विकल्पे २ भांगा १३५ १ १ रत्न, २ वालु, १ धूम, २ तम। १५१ | १ १ रत्न, १ वालु, १ तम, ३ सप्तमी द्वितीय विकल्पे १ भांगो १३६ | २ | १ रत्न, २ वालु, १ धूम, २ सप्तमी हिवै चतुर्थ विकल्पे २ भांगा १५२ | १ | १ रत्न, १ वाल, २ तम, २ सप्तमी ३ | २ रत्न, १ वालु, १ धूम, २ तम तृतीय विकल्पे १ भांगो १५३ | ११ रत्न, २ वालु, १ तम, २ सप्तमी चतुर्थ विकल्पे १ भांगो १३८ | २ | २ रत्न, १ वालु, १ धूम, २ सप्तमी हिवै पंचम विकल्पे २ भांगा १३६ | १ | १ रत्न, १ वालु, ३ धूम, १ तम १४० - २ | १ रत्न, १ वालु, ३ धूम, १ सप्तमी हिवै षष्ठ विकल्पे २ भांगा १५४ १ २ रत्न, १ वालु, १ तम, २ सप्तमी पंचम विकल्पे १ भांगो १ रत्न, १ वालु, ३ तम, १ सप्तमी १ रत्न, २ वालु, २ धूम, १ तम हिवै षष्ठ विकल्पे १ भांगो १५६ १ १ रत्न, २ वालु, २ तम, १ सप्तमी १ रत्न, २ वालु, २ धूम, १ सप्तमी हिव सप्तम विकल्पे २ भांगा हिवै सप्तम विकल्पे १ भांगो २ रत्न, १ वालु, २ धूम, १ तम १५७ २ रत्न, १ वालु, २ तम, १ सप्तमी २ रत्न, १ वालु, २ धूम, १ सप्तमी हिवै अष्टम विकल्पे २ भांगा हिवं अष्टम विकल्पे १ भांगो १५८ | १ | १ रत्न, ३ वालु, १ तम, १ सप्तमी हिवै नवम विकल्पे १ भांगो १४५ १ रत्न, ३ बालु, १ धूम, १ तम १४६ | २ | १ रत्न, ३ वालु, १ धूम, १ सप्तमी र, २ वालु, १ तम, १ सप्तमी हिवै नवम विकल्पे २ भांगा हिवं दशम विकल्पे १ भांगो १४७ २ रत्न, २ वालु, १ धूम, १ तम १६० ३ रन, १ वालु, १ तम, १ सप्तमी २ २ रत्न, २ वालु, १ धूम १ सप्तमी ए रत्न वालुक थी ६ भांगा दश विकल्प करि ६० भांगा कह्या । श० ६, उ० ३२, ढाल १८३ १४६ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं नवम विकल्प हिवरल पंक थी एकेक विकल्प करि ३ भांगा, ते किसा? रहा पंक धूम थी २, रत्न पंक तम थी १-एवं ३ । तिहां रत्न पंक धम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ २ रल, २ पंक, १ धूम, १ तम १६१ १ १ रत्न, १ पंक, १ धूम, ३ तम । १७८ ३ २ रत्न, २ पंक, १ धूम, १ सप्तमी १ रस, १ पंक, १ धूम, ३ सप्तमी हिवं दशम विकल्प हिवै द्वितीय विकल्प १७६ ३ रत्न, १ पंक, १ धूग, १ तन १ रत्न, १ पंक, २ धूम, २ तम १८० २ ३ रत्न, १ पंक, १ धूम, १ सप्तमी १ रत्न, १ पंक, २ धूम, २ सप्तमी हिवै रत्न पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ हिवै तृतीय विकल १ रत्न, २ पंक, १ धूम, २ तम १८१ १ १ रत्न, १ पंक, १ तम, ३ सप्तमी हिवं द्वितीय विकल्प १ रत्न, २ पंक, १ धूम, २ सप्लमों हिवं चतुर्थ विकल्प १८२ | १ १ रत्न, १ पंक, २ तम, २ सप्तमी हिवै तृतीय विकल्प । २ रत्न, १ पंक, १ धूम, २ तम १८३ | १ रत्त, २ पंक, १ तम, २ सप्तमी २ २ रत्न, १ पंक, १ धूम, २ सप्तमी हिवै पंचम विकल्प हिवं चतुर्थ विकल्प १८४ | २ रत्न, १ पंक, १ तम, २ सप्तमी रत्न, १ पंक, ३ धूम, १ तम हिवै पंचम विकल्प १७० २ १ रत्न, १ पंक, ३ धूम, १ सप्तमी १८५ १ १ रत्न, १ पंक, ३ तम, १ सप्तमी हिवं षष्ठ विकल्प हिवै षष्ठ विकल्प १८६ १ रत्न, २ पंक, २ तम, १ सप्तमी १७१ | १ १ रत्न, २ पंक, २ धूम, १ तम १७२ | २ | १ रत्न, २ पंक, २ धूम, १ सप्तमी हिवं सप्तम विकल्प हिवै सप्तम विकल्प १८७ रत्त, १ पंक, २ तन, १ सप्तनी १५ ३ हिवै अष्टम विकल्प २ रत्न, १ पंक, २ धूम, १ तम १७४ | २ | २ रत्न, १ पंक, २ धूम, १ सप्तमी हिवै अष्टम विकल्प १७५ | १ | १ रत्न, ३ पंक, १ धूम, १ तम १ रत्न, ३ पंक, १ धूम, १ सप्तमी १८८ । १ १ रत्न, ३ पंक, १ तम, १ सप्तमी हिवै नवम विकल्प ८६ २ रन, २ पंक, १ तम, मनमी १५० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै दशम विकल्पे १ १६० ए रत्न पंक तभ थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कह्या । हि रत्न धूम तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प १६१ १ १६२ हि द्वितीय विकल्पे १६४ हि तृतीय विकल्पे १९३ १ १ रत्न, २ धूम, १ तम, २ सप्तमी हि चतुर्थ विकल् १६५ ३ रत्न, १ पंक, १ तम, १ सप्तमी १६६ हिवै पंचम विकल्पे १ रत्न, १ धूम, १ तम, ३ सप्तमी १ १ रत्न, १ धूम २ तम, २ सप्तमी १६७ १६८ १ २ रत्न, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी १ हि षष्ठ विकल्पे १६६ १ १ र १ धूम, ३ तम, १ सनी हिवै सप्तम विकल्पे १ १ रत्त, २ धूम, २ तम, १ सप्तमी हि अष्टम विकल्पे २ रत्न, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी १ १ रत्न, ३ धूम, १ तम, १ सप्तमी हि नवम विकल्पे १ २ रत्न, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी हि दशम विकल्पे २०० १ ३ र १ धूम, १ तन, १ सप्तमी ए रत्न थी २० भांगा दश विकल्प करि २०० भांगा का । हि सक्कर थी एकेक विकल्प करि १० ते किसा ? सक्कर वालुक थी ६, सक्कर पंक थी ३, सक्कर धूम थी १ एवं १० । सक्कर वालुक थी ६ ते किसा ? सक्कर वालुक पंक थी ३, सक्कर वालुक धूम थी २, सक्कर वालुक तम थी १ एवं ६ । तिहां सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै। छं २०१ २०२ २०३ २०४ २०५ २०६ २०७ हि द्वितीय विकल्प २०८ २०६ २१० २११ २१२ १ २ २१३ ३ २१४ २१५ १ हिव २ ३ १ २ ३ १ २ हि चतुर्थ विकल्प ३ १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ३ धूम १ १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ३ तम २ १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ३ सप्तमी ३ १ सक्कर, १ वालु २ पंक, २ धूम १ सक्कर, १ वालु २ पंक, २ तम १ सक्कर, १ वालु २ पंक, २ सप्तमीं १ सक्कर, २ बालु, १ पंक, २ धूम हि पंचम विकल्पे १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, २ तम १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, २ सप्तमी २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ तम २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ सप्तमी १ सक्कर, १ वालु, ३ पंक, १ धूम १ सक्कर, १ वालु, ३ पंक, १ तम १ सक्कर, १ वालु, ३ पंक, १ सप्तमी श० ६, उ० ३२, ढाल १८३ १५१ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ हि षष्ठ विकल्पे १२१७ २१८ २१६ २२० २२१ २२२ २२३ २२४ हि सप्तम विकल्पे २२५ २२६ २२७ २२८ २२६ २३० २३१ हिर्व अष्टम विकल्पे २३२ २ १ ३ १ २ हि नवम विकल्पे ३ १ २ १ ३ २ १ १ सक्कर, २ वालु २ पंक, १ धूम २ १ सक्कर, २ वालु २ पंक, १ तम १ १ सक्कर, ३ वालु, १ पंक, १ धूम १ सक्कर, ३ वालु, १ पंक, १ तम ३ | १ सक्कर, ३ वालु, १ पंक, १ प् ३ १ सक्कर, २ वालु २ पंक, १ सप्तमी हिवे दशम विकल्पे २ सक्कर, १ वालु २ पंक, १ धूम २ सक्कर, १ वालु २ पंक, १ तम २ सक्कर, १ वालु २ पंक, १ सप्तमीं २ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ धूम ३ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ सप्तमीं हिवै सक्करवालुक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै २ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ तम २ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ सप्तमी ३ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम ३ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ तम १ सक्कर, १ वालु, १ धूम, ३ तम १ सक्कर, १ वालु, १ धूम, ३ सप्तमी १५२ भगवती-जो हि द्वितीय विकल्पे २३३ २३४ २३५ २३६ हितीय कल्पे २३७ २३८ -२३६ २४० १ २ हि चतुर्थ विकल्पे २४३ २४४ १ २ २४५ १ २ हि पंचम विकल्पे १ २ १ १ सक्कर, १ वालु, २ धूम, २ तम हि षष्ठ विकल्पे १ १ सक्कर, १ वालु, २ धूम, २ सप्तमीं २४१ १ सक्कर, २ वालु, २ धूम, १ तम २४२ | २ | १ सक्कर, २ वालु, २ धूम, १ सप्तमी हि सप्तम विकल्पे २ १ सक्कर, २ वालु, १ धूम, २ तम १ १ सक्कर, २ वालु, १ धूम, २ सप्तमी २ २ सक्कर, १ बालु, १ धूम, २ तम २ सक्कर, १ वालु, १ धूम, २ सप्तमीं १ १ सक्कर, १ वालु, ३ धूम, १ तम १ सक्कर, १ वालु, ३ धूम, १ सप्तमीं हि अष्टम विकल्पे २ सक्कर, १ वालु, २ धूम, १ तम २ सक्कर, १ वा २ धूम, १ सप्तमी २४६ हि नवम विकल्पे २४७ |२४८ | २ | १ सक्कर, ३ वालु, १ धूम, १ तम १ सक्कर, ३ वालु, १ धूम, १ सप्तमी २ सक्कर, २ वालु, १ धूम, १ तम २ सक्कर, २ वालु, १ धूम, १ सप्तमीं Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै दशम विकल्पे २४६ ३ सक्कर, १ वालु, १ धूम, १ तम हिवै सक्कर पंक थी ३ भांगा ते किसा? सक्कर पंक धूम थी २, सक्कर पंक तम थी। तिहां सक्कर पंक धूम थी २ भांगा, ते प्रथम विकल्प करि कहै छै २५० ३ सक्कर, १ वालु, १ धूम, १ सप्तमी १ सक्कर, १ पंक, १ धूम, ३ तम हिवं सक्कर वालुक तम थी १ भागो प्रथम विकल्प करि कहै १ राक्कर, १ पंक, १ धूम, ३ सप्तमी २५१ / १ १ सक्कर, १ वालु, १ तम, ३ सप्तमी हिवं द्वितीय विकल्पे | हिवै सक्कर पंक धूम थी २ भांगा द्वितीय विकल्पे २६३ | १ १ सक्कर, १ पंक, २ धूम, २ तम २६४ | २ | १ सक्कर, १ पंक, २ धूम, २ सप्तमी हिवै तृतीय विकल्प करि २६५ १ १ सक्कर, २ पंक, १ धूम, २ तम २५२ १ १ सक्कर, १ वालु, २ तम, २ सप्तमी हिवै तृतीय दिकल्पे २५३ | १ १ सक्कर, २ वालु, १ तम, २ सप्तमी २६८ | १ सक्कर, २ पंक, १ धूम, २ सप्तमी हिवं चतुर्थ विकल्पे हिवै चतुर्थ विकल करि २५४ २ सक्कर, १ वालु, १ तम, २ सप्तमी २६७ २ सक्कर, १ पंक, १ धूम, २ तम हिवै पंचम विकल्पे २६८ २ २ सक्कर, १ पंक, १ धूम, २ सप्तमी २५५ - १ १ सक्कर, १ वालु, ३ तम, १ सप्तमी हिवं पंचम विकल्प करि २६४ १ सक्कर, १ पंक, ३ धूम, १ तम हिवै षष्ठ विकल्पे २५६ / १ १ सक्कर, २ वालु, २ तम, १ सप्तमी हिवं सप्तम विकल्पे २७० - २ १ सक्कर, १ पंक, ३ धूम, १ सप्तमी २ सक्कर, १ वालु, २ तम, १ सप्तमी हिवं षष्ठ विकल्प करि २५७ २७१ १ सक्कर, २ पंक, २ धूम, १ तन हिव अष्टम विकल्पे २५८ | १ | १ सक्कर, ३ वालु, १ तम, १ सप्तमी हिवै नवम विकल्पे २७२ | २ | १ सक्कर, २ पंक, २ धूम, १ सप्तमी हिवै सप्तम विकल्प करि २७३ | १ | २ सक्कर, १ पंक, २ धूम, १ तम २५६ २ सक्कर, २ वालु, १ तम, १ सप्तमी २७४/ २ सक्कर, १ पंक, २ धूम, १ सप्तमी हिवै दशम विकल्पे २६० १ ३ सक्कर, १ वालु, १ तम, १ सप्तमी ए सक्कर वालुक थी ६ भांगा दश विकल्प करि ६० भांगा कह्या । हिवै अष्टम विकल्प करि २७५ १ १ सक्कर, ३ पंक, १ धूम, १ तम २७६ | २ | १ सक्कर, ३ पंक, १ धूम, १ सप्तमी श०६,उ३२, ढाल १८३ १५३ Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै नवम विकल्प करि हिवै दशम विकल्प २७७ / १२ सक्कर, २ पंक, १ धूम, १ तम ३ सक्कर, १ पंक, १ तम, १ सप्तमी २७८ २ २ सक्कर, २ पंक, १ धूम, १ सप्तमी ए सक्कर पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा क ह्या। हिवै सक्कर धूम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ... हिवं दशम विकल्प करि २६१ २७६ | १ | ३ सक्कर, १ पंक, १ धूम, १ तम १ सक्कर, १ धूम, १ तम, ३ सप्तमी हिवै द्वितीय विकल्पे १ भांगो ३ सक्कर, १ पंक, १ धूम, १ सप्तमी १ सक्कर, १ धूम, २ तम, २ सप्तमी हिवै सक्कर पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्पे हिवं तृतीय विकल्पे १ भांगो २६३ १ १ सक्कर, २ धूम, १ तम, २ सप्तमी २८१ १ सक्कर, १ पंक, १ तम, ३ सप्तमी हिव द्वितीय विकल २८२ १ | १ सक्कर, १ पंक, २ तम, २ सप्तमी हिवै चतुर्थ विकल्पे १ भांगो २६४ | १ २ सक्कर, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी हिवै पंचम विकल्पे १ भांगो हिवं तृतीय विकल्प २८३ | १ | १ सक्कर, २ पंक, १ तम, २ सप्तमी २६५ १ १ सक्कर, १ धूम, ३ तम, १ सप्तमी हिवै चतुर्थ विकल्प हिवै पष्ठ विकल्पे १ भांगो २८४ | १२ सक्कर, १ पंक, १ तम, २ सप्तमी २६६ १ १ सकार, २ धूम, २ तम, १ सप्तमी हिव पंचम विकल्प हित सप्तम विकल्पे १ भांगो २८५ १ १ सक्कर, १ पंक, ३ तम, १ सप्तमी २ सक्कर, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी हिवं षष्ठ विकल हिवं अष्टम विकल्पे १ भांगो २८६ / १ | १ सकर, २ पंक, २ तम, १ सप्तमी २६८ | १ १ सक्कर, ३ धूम, १ तम, १ सप्तमी हिवै सप्तम विकल्प हिवं नवम विकल्पे १ भांगो २८७ सक्कर, १ पंक, २ तम, १ सप्तमी २६६ १ २ सक्कर, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी हिवै अष्ठम विकल्प हिवै दशम विकल्पे १ भांगो २८८ १ सक्कर, ३ पंक, १ तम, १ सप्तमी १ ३ सक्कर, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी हिवं नवम विकल ए सक्कर धूम थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कह्या। एवं सक्कर थी १० भांगा दश विकल्प करि १०० भांगा कह्या। २८६ १ २ सक्कर, २ पंक, १ तम, १ सप्तमी १५४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै अष्टम विकल्पे ३१५ हिवै वालुक थकी एक-एक विकल्प करि च्यार-च्यार भांगा ते किसा ? वालुक पंक थी ३, वालुक धूम थी-१ एवं वालुक थी ४ । वालुक पंक थी ३, ते किसा? वालुक पंक धूम थी २ वालुक पंक तम थी १ । तिहां वालुक पंक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ १ वालु, ३ पंक, १ धूम, १ तम ३१६ २ १ वालु, ३ पंक, १ धूम, १ सप्तमी हिवं नवम विकल्पे १ वालुक, १ पंक, १ धूम, ३ तम २ वालु, २ पंक, १ धूम, १ तम २ २ १ वालुक, १ पंक, १ धूम, ३ सप्तमी mr २ वालु, २ पंक, १ धूम, १ सप्तमी हिवै द्वितीय विकल्पे वालु, १ पंक, २ धूम, २ तम हिवै दशम विकल्पे ३०४ | २ | १ वालु, १ पंक, २ धूम, २ सप्तमी ३१६ | १ | ३ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम हिवं तृतीय विकल्पे ३ । २ ३ वालु, १ पंक, १ धूम, १ सप्तमी | हिवै पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्पे ३०५ १ | १ वालु, २ पंक, १ धूम, २ तम ३०६ / २ १ वालु, २ पंक, १ धूम, २ सप्तमी हिवै चतुर्थ विकल्पे ३२१ १ वालु, १ पंक, १ तम, ३ सप्तमी हिवै द्वितीय विकल्प ३२२ १ १ वालु, १ पंक, २ तम, २ सप्तमी १ २ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम हिवं तृतीय विकल्प ३०८ २ | २ वालु, १ पंक, १ धूम, २ सप्तमी हिव पंचम विकल्पे ३०६ १ | १ बालु, १ पंक, ३ धूम, १ तम | १ वालु, २ पंक, १ तम, २ सप्तमी हिवं चतुर्थ विकल्पे | २ वालु, १ पंक, १ तन, २ सप्तमी meaninamaina २ १ वालु, १ पंक, ३ धूम, १ सप्तमी हिवै षष्ठ विकल्पे १ वालु, २ पंक, २ धूम, १ तम हिवै पंचम विकल्पे ३२५ १ | १ वालु, १ पंक, ३ तम, १ सप्तमी ३१२ हिब पष्ठ विकल्पे १ वालु, २ पंक, २ धूम, १ सप्तरी हिव सप्तम विकल्पे १ २ वालु, १ पंक, २ धूम, १ ता ११ वालु, २क, २ तम, १ सप्तमी AM हिवं सप्तम विकल्पे २ वालु, १ पंक, २ धूम, १ सप्तमी १ बालु, १ पंक, २ तम, १ सप्तमी हिवै अष्टम विकल्पे ३२८ १ वालु, ३ पंक, १ तम, १ सप्तमी श०६, उ० ३२, दाल १८३ १५५ Jain Education Intemational tonal Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै पंक थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ३४१ १ | १ पंक, १ धूम, १ तम, ३ सप्तमी हिवै द्वितीय विकल्पे हिवं नवम विकल्पे ३२६ | १ | २ वालु, २ पंक, १ तम, १ सप्तमी | हिवै दशम विकल्पे ३३० १ | ३ वालु, १ पंक, १ तम, १ सप्तमी एवं वालु पंक थी ३ भांगा दश विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिवं वालू धूम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ३३१ | १ १ वालु, १ धूम, १ तम, ३ सप्तमी ३४२ | १ पंक,१धूम, २ तम, २ सप्तमी हिवै तृतीय विकल्पे १ पंक, २ धूम, १ तम, २ सप्तमी हिवै चतुर्थ विकल्पे हिवै द्वितीय विकल्पे ३४४ १ २ पंक, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी ३३२ | १ | १ वालु, १ धूम, २ तम, २ सप्तमी हिवै पंचम विकल्पे हिवं तृतीय विकल्पे १पंक, १ धूम, ३ तम, १ सप्तमी हिवै षष्ठ विकल्प ३३३ | १ | १ वालु, २ धूम, १ तम, २ सप्तमी हिवै चतुर्थ विकल्पे ३४६ १ १ पंक, २ धूम, २ तम, १ सप्तमी हिवै सप्तम विकल्पे २ वालु, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी ३४७ २ पंक, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी हिवै पंचम विकल्पे हिवं अष्टम विकल्पे ३३५ / १ १ वालु, १ धूम, ३ तम, १ सप्तमी हिवै षष्ट विकल्पे ३४८ | ११ पंक, ३ धूम, १ तम, १ सप्तमी हिवं नवम विकल्पे ३३६ | १ १ वालु, २ धूम, २ तम, १ सप्तमी २ पंक, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी हिवै सप्तम विकल्पे ३३७ २ वालु, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी हिवै दशम विकल्प पंक, १धूम, १तम, १ सप्तमी हिवै अष्टम विकल्पे ३३८ १ १ वालु, ३ धूम, १ तम, १ सप्तमी एपंक थी १ भांगो दश विकल्प करि १० भांगा कह्या। एवं रत्न थी २०, सक्कर थी १०, वालु थी ४, पंक थी १ए पैतीस भांगा एकेक विकल नां वै । दश विकल ना ३५३ भांगा थया। हिवै नवम विकल्पे ३३६, १ | २ वालु, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी हिवं दशम विकल्पे ३४० | १ | ३ वालु, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ___ए वालु थी ४ भांगा दश विकल्प करि ४० भांगा कह्या । १५६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७. चउक्कसंजोगो वि तहेव ।' १७७. *ए षट जीव तणां सुविचार, चउक्कसंयोगिक भांगा सार। दश विकल्प करिने पहिछाण, तीनसौ नैं पचास प्रमाण ॥ १७८. नवम शतक नों बतीसम देश, इकसौ तयांसीमी ढाल विशेष । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय-जश' संपति हरष सवाय ।। ढाल : १८४ दहा १,२. पञ्चकसंयोगे तु षण्णां पञ्चधाकरणे पञ्च विकल्पा स्तद्यथा......""सप्तानां च पदानां पञ्चकसंयोगे एकविंशतिर्विकल्पाः, तेषां च पञ्चभिर्गुणने पञ्चोत्तरं शतमिति । (वृ० प० ४४५) १. हिवै कहूं षट जीव नां, पंच संयोगिक संच । विकल्प पंच करी भला, भंग एक सय पंच ॥ २. एक एक विकल्प करि, इकवीस-इकवीस जाण । भांगा भणवा इहविधे, वरविध करी पिछाण ॥ वा० - एकेक विकल्प करि रत्न थी १५, सक्कर थी ५, वालुक थी १एवं २१ । रत थी १५ तेहनों विवरो - रत्न सक्कर थी १०, रत्न वालुक थी ४, रत्न पंक थी १-एवं १५ । ते पनरै नै विषे रत्न सक्कर थी १०, ते किसा? रत्न सक्कर वालुक थी ६, रत्न सक्कर पंक थकी ३, रत्न सक्कर धूम थी १-एवं रन सक्कर थी १० । ते दशां माहे रत्न सक्कर वालुक थकी ६, ते किसा? रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३, रत्न सक्कर वालुक धूम थी २, रत्न सक्कर वालुक तम थी१–एवं रत्न सक्कर वालुक थी ६ भांगा हुवै । तिहां रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ३. अथवा एक रत्न मझै, एक सक्कर मांय । इक वालुक इक पंक में, दोय धूम कहिवाय ॥ ४. अथवा एक रत्न मझे, इक सक्कर में ताय । एक वालुक इक पंक में, दोय तमा में जाय ।। ५.अथवा एक रत्न मझे, इक सक्कर उपजत । इक वालुक इक पंक में, दोय सप्तमी हंत ॥ हिवै रल सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा द्वितीय विकल करि कहै छै - ६. अथवा एक रत्न मझै, एक सक्कर रै माय । इक वालुक बे पंक में, एक धूम कहिवाय ।। ७. अथवा एक रत्न मझे, इक सक्कर रै माय। इक वालुक बे पंक में, एक तमा में जाय ।। ८. अथवा एक रत्न मझै, इक सक्कर उपजत । इक वालुक बे पंक में, एक सप्तमी हंत ।। हिवं रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छै६. अथवा एक रत्न मझै, इक सक्कर रै माय । बे वालुक इक पंक में, एक धूम कहिवाय ।। * लय : इण पुर कंबल कोय न लेसी + लय : प्रभवो मन मांहि चितवं १. ढाल १८३ में सात नरक के चतु: संयोगिक ३५० भंगो का उल्लेख है। उनमें सक्कर-पंक और सक्कर धूम के ४० भंग गाथाओं में छूटे हुए हैं। सक्करवाल से बनने वाले १० विकल्पों के ६० भंग १५१ तक की गाथाओं में आ गए। उसके बाद वातिका में सक्कर के १० भंगों के १० विकल्पों से होने वाले १०० भंगों की सूचना दी गई है पर वे भंग गाथाओं में नहीं दिए । आगे यन्त्र में पूरे भंग (२६१ से ३००) दिए हुए हैं। श०६, उ० ३२, ढाल १८४ १५७ Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. अथवा एक रत्न मझे, बे वालुक इक पंक में ११. अथवा एक रत्न मझे, वे वालुक इक पंक में हि रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा चतुर्थ विकल्प करि कहै छै - १२. अथवा एक रत्न मझं, दोय सक्कर रे मांय । इक वालुक इक पंक में, १३. अथवा एक रत्न मझे 1 १५. अथवा दोय रत्न मझे, इक वालुक इक पंक में १६. अथवा दोय रत्न मझे, इक वालुक इक पंक में, १४. अथवा एक रत्न मझै, इक वालुक इक पंक में, हिवे रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा पंचम विकल्प करि कहै - इक वालुक इक पंक में, १७. अथवा दोय रत्न मझे, इक वालुक इक पंक में, इक सक्कर उपजंत । एक तमा में जंत ॥ इक सक्कर उपजंत । एक सप्तमी त ॥ इक वालुक वे धूम में 1 एक धूम में जाय ॥ बे सक्कर में पाय । एक तमा कहिवाय ॥ बे सक्कर उपजंत । एक सप्तमीं हुंत ॥ एक सक्कर रै मांय । एक धूम कहिवाय ॥ एक सक्कर में पाय । हिवै रत्न सक्कर वालुक धूम थी २ भांगा पंच विकल्प करि १० भांगा, तिहां प्रथम विकल्प करि कहै छ१८. अथवा एक रत्न मझे, इक वालुक इक धूम में, १६. अथवा एक रत्न मझे, इक वालुक इक धूम में, हि रत्न सक्करवालुक धूम २०. अथवा एक रत्न मझे, इक वालुक बे धूम में, २१. अथवा एक रत्न मझे, एकतमा में जाय ॥ एक सक्कर उपजंत । एक सप्तमी हुंत ॥ इक सक्कर अवलोय । दोय तमा में जोय ॥ इक सक्कर उपजंत । दोय सप्तमीं हुंत ॥ थी २ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छै - इक सक्कर ₹ मांय । एक तमा में जाय ॥ इक सक्कर रे मांय । एक सप्तमी चाय ॥ हि रत्न सक्कर वालुक धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छै - २२. अथवा एक रत्न मझे, वालुक इक धूम में, २३. अथवा एक रत्न मझे, वे वालुक इक धूम में इक सक्कर दुखधाम । एक तमा में पाम । इक सक्कर पहिछान । एक सप्तमी जान ॥ हि रत्न सक्करवालुक धूम थी २ भांगा चतुर्थ विकल्प करि कहै छै - २४. अथवा एक रत्न मझे बे सक्कर दुखरास । इक वालुक इक धूम में, एक तमा अभित्रास ॥ २५. अथवा एक रत्न मझे, इक वालुक इक धूम में १२५ भगवती-जोड़ बे सक्कर दुखपूर । एक सप्तमीं भूर ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि रत्न सक्कर वालुक धूम थी २ भांगा पंचम विकल्प करि कहै छै - इक सक्कर रे मांय । एक तमा दुख पाय ॥ इक सक्कर अघखान । एक सप्तमी जान ॥ २६. अथवा दोय रत्न मझे, में, इक वालुक इक धूम म २७ अथवा दोय रत्न मझे, इक वालुक इक धूम में ए रत्न सक्कर वालुक धूम थी २ भांगा ५ विकल्प करि १० भांगा कह्या । हि रत्न सक्करवालुक तम थी १ भांगो पांच विकल्प करि कहै छै - २८. अथवा एक रत्न मझै, इक इक वालुक इक तम विषे हि रत्न सक्करवालुक तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्प करि कहै छै - सक्कर उपजंत । दोय सप्तमी त ॥ २६. अथवा एक रत्न मझे, इक सक्कर ₹ मांय । इक वालुक बेतमा विषे, एक सप्तमीं जाय ।। हि रत्न सक्कर वालुक तम थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै छै - ३०. अथवा एक रत्न मझे, इक सक्कर दुख पाय । एक सप्तमी कहाय ॥ वे वालुक इकतम विषे हि रत्न सक्कर वालुक तम ३१. अथवा एक रत्न मझं वे सकर अवलोय 1 इक वालुक इक तम विषे एक सप्तमी होय ॥ हि रत्न सक्कर वालुक तम थी १ भांगो पंचम विकल्प करि कहै छै - थी १ भांगो चतुर्थ विकल्प करि कहै छै- ३२. अथवा दोय रत्न मझे, इक सक्कर पहिछान । इक वालुक इक तम विषे, एक सप्तमी जान || ए रत्न सक्कर वालुक थी ६ भांगा पांच विकल्प करि ३० भांगा कह्या । हिवे रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा, ते किसा ? सक्कर रत्न पंक धूम थी २, पंक तम थी १ | तिहां रत्न सक्कर पंक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि क - दोय पंक इक धूम में, ३८. अथवा एक रत्न मझे, दोय पंक इक धूम में ३३. अथवा एक रत्न मझे, एक पंक इक धूम में ३४. अथवा एक रत्न मझे, एक पंक इक धूम में हि रत्न सक्कर पंक धूम ३५. अथवा एक रत्न मझे, एक पंक बे धूम में, ३६. अथवा एक रत्न मझे, एक पंक बे धूम में, हिवै रत्न सक्कर पंक धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छै - इक सक्कर ₹ मांय । दोय तमा कहिवाय ॥ इक सक्कर उपजंत । दोय सप्तमी त ॥ ३७. अथवा एक रत्न मझे, इक सक्कर दुखरास । एक तमा अभित्रास ॥ एक सक्कर अघखान । एक सप्तमी जान ।। थी २ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छै-इक सक्कर अवलोय । एक तमा में जोय ॥ इक सक्कर पहिछान । एक सप्तमी जान ॥ ० ६, उ० ३२, डॉल १८४ १५६ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि रत्न सक्कर पंक धूम थी २ भांगा चतुर्थ विकल्प करि कहै छ३६. अथवा एक रत्न मझै, बे सक्कर पहिछान । एक पंक इक धूम में, एक तमा दुखखान ॥ ४०. अथवा एक रत्न मझै, बे सक्कर रै माय । एक पंक इक धूम में, एक सप्तमी पाय ।। हिवं रत्न सक्कर पंक धूम थी २ भांगा पंचम विकल्प करि कहै छ४१. अथवा दोय रत्न मझै, इक सक्कर अवलोय । एक पंक इक धूम में, एक तमा दुख होय ।। ४२. अथवा दोय रत्न मझै, इक सक्कर आख्यात । एक पंक इक धूम में, एक सप्तमी जात ।। हिवं रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ४३. अथवा एक रत्न मझै, इक सक्कर अवलोय । एक पंक इक तम विषे, दोय सप्तमी होय ॥ हिवं रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्प करि कहै छै४४. अथवा एक रत्न मझे, इक सक्कर उपजंत । एक पंक बे तम विषे, एक सप्तमी हुंत ॥ हिवं रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो तृतीय विकला करि कहै छै४५. अथवा एक रत्न मझै, इक सक्कर में देख । दोय पंक इक तम विषे, एक सप्तमी पेख ।। हिवै रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो चतुर्थ विकल करि कहै छै४६. अथवा एक रत्न मझै, बे सक्कर पहिछान । एक पंक इक तम विषे, एक सप्तमी जान ।। हिवं रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो पंचम विकल्प करि कहै छै४७. अथवा दोय रत्न मझे, इक सक्कर अवलोय । एक पंक इक तम विषे, एक सप्तमी होय ।। ए रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा पंच विकल्प करि १५ भांगा कह्या । हिवं रत्न सक्कर धूम तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छै४८. अथवा एक रत्न मझै, इक सक्कर में पेख । एक धूम एक तम विषे, दोय सप्तमी लेख । हिवै रत्न सक्कर धूम तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्प करि कहै छै४६. अथवा एक रत्न मझे, इक सक्कर सोय । एक धूम बे तम विषे, एक सप्तमी होय ।। हिवं रत्न सक्कर धूम तम थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै छ५०. अथवा एक रत्न मझै, इक सक्कर अघखान । दोय धूम इक तम विषे, एक सप्तमी जान ।। हिवं रत्न सक्कर धूम तम थी १ भांगो चतुर्थ विकल्प करि कहै छ५१. अथवा एक रत्न मझे, बे सक्कर दुखपूर । ___एक धूम इक तम विषे, एक सप्तमी भूर ।। १६. भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Jain Education Interational Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवं रत्न सक्कर धूम तम थी १ भांगो पंचम विकल्प करि कहै छै५२. अथवा दोय रत्न मझै, इक सक्कर दुखरास । एक धूम इक तम विषे, एक सप्तमी तास ।। ए रत्न सक्कर थी १० भांगा पंच विकल्प करि ५० भांगा कहा। हिवं रत्न वालुक थी ४ भांगा एकेक विकल्प करि तेहनों विवरो–रत्न वालुक पंक थी ३, रत्न वालुक धूम थी १ । रत्न वालुक पंक थी ३, ते किसा? रत्न वालुक पंक धूम थी २, रत्न वालुक पंकतम थी १–एवं ३। तिहां रत्न वालुक पंक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ५३. अथवा एक रत्न मझे, एक वालुका मांय । एक पंक इक धूम में, दोय तमा कहिवाय ।। ५४. अथवा एक रत्न मझै, एक वालुका मांय । एक पंक इक धूम में, दोय सप्तमी पाय ।। हिवै रत्न वालुक पंक धूम थी २ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहै छै५५. अथवा एक रत्न मझे, एक वालुका होय । एक पंक दोय धुम में, एक तमा अवलोय ।। ५६. अथवा एक रत्न मझै, एक वालुका होय । एक पंक बे धूम में, एक सप्तमी जोय ।। हिवै रत्न वालुक पंक धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्प करि कहै छै-- ५७. अथवा एक रत्न मझे, एक वालुका मांय । दोय पंक इक धूम में, एक तमा कहिवाय । ५८. अथवा एक रत्न मझै, एक वालका देख । दोय पंक इक धूम में, एक सप्तमी शेष ।। हिवै रत्न वालुक पंक धूम थी २ भांगा चतुर्थ विकल्प करि कहै छै५६. अथवा एक रत्न मझै, दोय वालका मांय । एक पंक इक धूम में, एक तमा दुखदाय ।। ६०. अथवा एक रत्न मझे, दोय वालुका पाय । एक पंक इक धूम में, एक सप्तमी जाय ।। हिवै रत्न वालुक पंक धूम थी २ भांगा पंचम विकल्प करि कहै छ--- ६१. अथवा दोय रत्न मझै, एक वालुका सोय । एक पंक इक धूम में, एक तमा अवलोय ।। ६२. अथवा दोय रत्न मझे, एक वालुका होय । एक पंक इक धूम में, एक सप्तमी जोय ॥ हिवं रत्न वालुक पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छै६३. अथवा एक रत्न मझै, एक वालुका सोय । एक पंक इक तम विषे, दोय सप्तमी होय ।। हिवं रत्न वालुक पंक तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्प करि कहै छ६४. अथवा एक रत्न मझै, एक वालुका मांय । एक पंक बे तम विषे, एक सप्तमी जाय ।। हिवै रत्न वालुक पंक तम थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै छै६५. अथवा एक रत्न मझै, एक वालुका देख । दोय पंक इक तम विषे, एक सप्तमी शेष ।। शि०६,उ० ३२, ढाल १८४ १६१ Jain Education Intemational Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै रत्न वालुक पंक तम थी १ भांगो चतुर्थ विकल्प करि कहै छ६६. अथवा एक रत्न मझे, दोय वालुका पेख। एक पंक इक तम विषे, एक सप्तमी लेख ।। हिवै रत्न वालुक पंक तम थी १ भांगो पंचम विकल्प करि कहै छ६७. अथवा दोय रत्न मझै, एक वालुका मांय । एक पंक इक तम विषे, एक सप्तमी जाय ।। ए रत्न वालुक पंक थी ३ भांगा पांच विकल्प करि १५ भांगा कह्या। हिवै रत्न वालुक धूम तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छै६८. अथवा एक रत्न मझै, एक वालका चीन। एक धूम इक तम विषे, दोय सप्तमी लीन । हिवै रत्न वालुक धूम तम थी १ भागो द्वितीय विकल्प करि कहै छै-- ६६. अथवा एक रत्न मझै, एक वालका पेख । एक धूम बे तम विषे, एक सप्तमी देख ।। हिवै रत्न वालुक धूम तम थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै छ७०. अथवा एक रत्न मझै, एक वालुका सोय । दोय धूम इक तम विषे, एक सप्तमी होय ।। हिवै रत्न वालुक धूम तम थी १ भांगो चतुर्थ विकला करि कहै छ-- ७१. अथवा एक रत्न मझे, दोय वालुका देख । एक धूम इक तम विषे, एक सप्तमी शेष ।। हिवै रत्न वालुक धूम तम थी १ भांगो पंचम विकल्प करि कहै छै--- ७२. अथवा दोय त्न मझ, एक वालुका सोय । एक धूम इक तम विष, एक सप्तमी होय ।। ए वालुक थी ४ भांगा पांच विकल्प करि २० भांगा कह्या । हिवै रत्न पंक धूम तम थी १ भांगो पांच विकल्प करि ५ भांगा हुवै, ते प्रथम विकल्प करि कहै छै७३. अथवा एक रत्न मझै, एक पंक अवलोय। एक धूम इक तम विषे, दोय सप्तमी होय ॥ हिवै रत्न पंक धूम तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्प करि कहै छै७४. अथवा एक रत्न मझे, एक पंक अवलोय । एक धूम बे तम विषे, एक सप्तमी होय ।। हिवै रत्न पंक धूम तम थी १ भांगो तृतीय विकल्प करि कहै छ७५. अथवा एक रत्न मझै, एक पंक उपजत । दोय धूम इक तम विषे, एक सप्तमी हुंत ।। हिवै रत्न पंक धूम तम थी १भांगो चतुर्थ विकल्प करि कहै छ७६. अथवा एक रत्न मझै, दोय पंक दुखरास । एक धूम इक तम विषे, एक सप्तमी बास ॥ हिवं रत्न पंक धूम तम थी १ भांगो पंचम विकल्प करि कहै छ७७. अथवा दोय रत्न मझै, एक पंक दुखपूर । एक धूम इक तम विषे, एक सप्तमी भूर ।। १६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए रत्न धूम थी १५ भांगा पंच विकल्प करि ७५ भांगा कह्या । हिवै सक्कर थी ५ भांगा ५ विकल्प करि २५ हुदै । तिहां सक्कर थी प्रथम भांगो पांच विकल्प करि कहै छ, तिणमें सातमी नरक टली। ७८. अथवा एक सक्कर मझै, इक वालक अवलोय । एक पंक इक धूम में, दोय तमा में होय ।। ७६. अथवा एक सक्कर मझै, इक वालुक उपजत । एक पंक बे धूम में, एक तमा में हुँत ।। ८०. अथवा एक सक्कर मझै, इक वालुक दुखरास । दोय पंक इक धूम में, एक तमा अतित्रास ।। ५१. अथवा एक सक्कर मझै, दोय वालुका देख । एक पंक इक धूम में, एक तमा दुख पेख ।। ८२. अथवा दोय सक्कर मझै, इक वालुक दुखदाय । एक पंक इक धूम में, एक तमा में जाय ॥ हिवै सक्कर थी द्वितीय भांगो ५ विकल्प करि कहै छ, तिणमें छठी नरक टली। ८३. अथवा एक सक्कर मझै, इक वालक उपजत । एक पंक इक धूम में, दोय सप्तमी हंत ॥ ८४. अथवा एक सक्कर मझै, इक वालक अवलोय । एक पंक बे धूम में, एक सप्तमी सोय ॥ ८५. अथवा एक सक्कर मझै, इक वालक दुखदाय । दोय पंक इक धूम में, एक सप्तमी जाय ॥ ८६. अथवा एक सक्कर मझे, दोय वालका देख । एक पंक इक धूम में, एक सप्तमी शेख ॥ ८७. अथवा दोय सक्कर मझै, एक वालका मांय । एक पंक इक धूम में, एक सप्तमी जाय ।। हिवै सक्कर थी तृतीय भांगो ५ विकल्प करि कहै छ, तिणमें पंचमी नरक टली। ८८. अथवा एक सक्कर मझै, इक वालुक उपजत । एक पंक इक तम विषे, दोय सप्तमी हुंत । ५६. अथवा एक सक्कर मझे, इक वालुक अवलोय । एक पंक बे तम विषे, एक सप्तमी होय ।। १०. अथवा एक सक्कर मझै, एक वालका पेख । दोय पंक इक तम विषे, एक सप्तमी शेख ।। ६१. अथवा एक सक्कर मझै, दोय वालुका देख । एक पंक इक तम विषे, एक सप्तमी पेख ॥ १२. अथवा दोय सक्कर मझै, इक वालुक कहिवाय । एक पंक एक तम विषे, एक सप्तमी जाय । हिवै सक्कर थी चतुर्थ भांगो ५ विकल्प करि कहै छ, तिणमें चउथी नरक टली। ६३. अथवा एक सक्कर मझै, इक वालक अवलोय । एक धूम इक तम विषे, दोय सप्तमी सोय ।। शा. उ० ३२, ढाल १५३ १६३ Jain Education Intemational Education International Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. अथवा एक सक्कर मझै, इक वालक उपजंत । एक धूम बे तम विषे, एक सप्तमी हुंत ।। ६५. अथवा एक सक्कर मझै, इक वालुक दुखरास । दोय धूम इक तम विषे, एक सप्तमी तास । ६६. अथवा एक सक्कर मझै, दोय वालका देख । एक धूम एक तम विषे, एक सप्तमी लेख । ६७. अथवा दोय सक्कर मझै, इक वालुक दुखधाम । एक धूम इक तम विषे, एक सप्तमी पाम ।। हिवै सक्कर थी पंचमो भांगो ५ विकल्प करि कहै छ, तिणमें तीजी नरक टली। १८. अथवा एक सक्कर मझै, एक पंक कहिवाय । एक धम इक तम विषे, दोय सप्तमी जाय। ६. अथवा एक सक्कर मझै, एक पंक उत्पन्न । एक धूम बे तम विषे, एक सप्तमी जन्न ॥ १००. अथवा एक सक्कर मझै, एक पंक अवलोय । दोय धूम इक तम विषे, एक सप्तमी जोय ॥ १०१. अथवा एक सक्कर मझै, दोय पंक रै माय । एक धूम इक तम विषे, एक सप्तमी जाय ।। १०२. अथवा दोय सक्कर मझै, एक पंक उपजत । एक धूम इक तम विषे, एक सप्तमी हुंत ।। ए सक्कर थी ५ भांगा पांच विकल्प करि २५ भांगा कह्या । हिवै वालुक थी १ भांगो ५ विकल्प करि ५ भांगा कहै छ१०३. अथवा एक वालुक मझै, एक पंक अवलोय । एक धूम इक तम विषे, दोय सप्तमी जोय ॥ १०४. अथवा एक वालुक मझै, एक पंक उपजत । एक धूम बे तम विषे, एक सप्तमी हंत ॥ १०५. अथवा एक वालुक मझै, एक पंक पहिछान । दोय धूम इक तम विषे, एक सप्तमी जान । १०६. अथवा एक वालुक मझै, दोय पंक दुखरास । एक धूम एक तम विषे, एक सप्तमी वास ॥ १०७. अथवा बे वालुक मझै, एक पंक दुखखान । एक धूम इक तम विषे, एक सप्तमी जान ॥ १०८. * पनर रत्न थी पंच सक्कर थी, इक वालक थी जाणियै । इकवीस विकल्प एक करि ए, पंचयोगिक आणिय ।। १०६. जीव षट नां पंच विकल्प पंचयोगिक नां कह्या। एक सौ नै पंच भंगा, पूर्व रीत करी थया । एकेक विकल्प करि रत्न थी १५, सक्कर थी ५, वालुक थी १-एवं २१ । रत्न थी १५ हुवै, तेहनों विवरो-रत्न सकार थी १०, रत्न वालुक थी ४, रत्न पंक थी१- एवं १५ ते पनर ने विषे रत्न सक्कर थी १०, ते किसा? रत्न सक्कर वालुक थी ६, रत्न सक्कर पंक थी ३, रत्न सक्कर धूम थी १-एवं रत्न * लय : पूज मोटा भांजे तोटा १६४ भगवती-जोड़ १०७. अहवा दो वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा । Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै रत्न सक्कर वालु धूम थी २ भांगा द्वितीय विकल्पे सक्कर थी १० ते दशां माहे रत्न सक्कर वालुक थकी ६, ते किसा? रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३, रत्न सक्कर वालुक धूम थी २, रत्न सक्कर वालुक तम थी १-एवं रत्न सक्कर वालुक थी ६ भांगा हुवै । तिहां रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छ १८ १ १ रत्न, १ सपकर, १ वालु, २ धूम, १ तम १६ २ १ रत्न, १ सस्कर, १ वालु, २ धूम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम हिवै रत्न सक्कर वालु धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्पे १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ तम २० १ | १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ धूम, १ तम | १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ सप्तमी २१ २ १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ धूम, १ सप्तमी हिवै रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा द्वितीय विकल्प १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, २ पंक, १ धूम हिवै रत्न सक्कर वालु धूम थी २ भांगा चतुर्थ विकल्प २२ १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, १ धूम, १ तम | १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, २ पंक, १ तम २३ | २ | १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, १ धूम, १ सप्तमी ३ । १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, २ पंक, १ सप्तमी हिवै रत्न सक्कर वालु धूम थी २ भांगा पंचम विकल्पे हिवै रत्न सक्कर वालुक पंक थी ३ भांगा तृतीय विकल्पे २४ | १, २ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ धूम, १ तम १ रत्न, १ सक्कर, २ वालुक, १ पंक, १ धूम ८ २ | १ रत्न, १ सक्कर, २ वालुक, १ पंक, १ तम | २ रत्न, १ सबकर, १ वालु, १ धूम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, २ वालुक, १ पंक, १ सप्तमी हिवं रत्न सक्कर वालुक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ हिवै रत्न सक्कर वालु पंक थी ३ भांगा चतुर्थ विकल्पे २६ | १ | १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ तम, २ सप्तमी १० १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, १ पंक, १ धूम ११ | २ | १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, १ पंक, १ तम हिवै रत्न सक्कर वालु तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्पे २७ | १ | १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ तम, १ सप्तमी १२ ३ १ रत्न, २ सक्कर, १ वालुक, १ पंक, १ सप्तमी हिवै रत्न सक्कर बालु पंक थी ३ भांगा पंचम विकल्पे हिवै रत्न सक्कर वालु तम थी १ भांगो तीजे विकल्प १३ | १ २ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, १ पंक, १ धूम १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ तम, १ सप्तमी २ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, १ पंक, १ तम हिवै रत्न सक्कर वालु तम थी १ भांगो चतुर्थ विकल्पे १५ | ३ | २ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, १ पंक, १ सप्तमी हिवै रत्न सक्कर वालुक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्पे २६ | १ | १ रत्न, २ सक्कर, १ वालु, १ तम, १ सप्तमी हिवै रत्न सक्कर वालु तम थी १ भांगो पंचम विकल्पे १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, १ धूम, २ तम २ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, १ धूम, २ सप्तमी | ए रत्न वालुक थी ६ भांगा पंच विकल्प करि ३० भांगा कह्या। छा०६,उ० ३२, ढाल १८४ १६५ Jain Education Intemational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवे रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा ते किसा ? रत्न सक्कर पंक धूम थी २ रत्न सक्कर पंक तम थी १ तिहां रत्न सक्कर पंक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै - ३१ १ ३२ ३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८ ३६ ४० ४१ ४२ ४३ ४४ २ १ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, १ धूम, २ सप्तमीं हि रत्न सक्कर पंक धूम थी २ भांगा दूजे विकल्पे १ १ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, २ धूम १ तम २ १ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, २ धूम, १ सातमी हिवे रत्न सक्कर पंक धूम थी २ भांगा तीजे विकल्पे १ १ रत्न, १ सक्कर, २ पंक, १ धूम, १ तम २ १ रन, १ सक्कर, २ पक, १ धूम, १ सप्तमीं हि रत्न सक्कर पंक धूम थी २ भांगा चतुर्थ विकल्पे १ १ रत्न, २ सक्कर, १ पंक, १ धूम, १ तम १ रत्न, २ सक्कर, १ पंक, १ धूम, १ सप्तमी हिवे रत्न सक्कर पंक धूम थी २ भांगा पंचम विकल्पे २ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, १ धूम, १ तम २ १ हिव रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै। 81 १ १ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, १ तम, २ सप्तमीं हि रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्पे १ १ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, २ तम, १ सप्तमीं हि रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो तृतीय विकल्पे १ १ रत्न, १ सक्कर, २ पंक, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, १ धूम, २ तम २ २ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, १ धूम, १ सप्तमीं हिवै रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो चतुर्थ विकल्पे १ १ रत्न, २ सक्कर, १ पंक, १ तम, १ सप्तमीं १६६ भगवती-जोड़ ४५ ए रत्न सक्कर पंक थी ३ भांगा, ५ विकल्प करि १५ भांगा कह्या । ४६ हिवै रत्न सक्कर धूम थी एक भांगो पंच विकल्प करि ५ भांगा कहै छै - ४७ ४८ *& ५० हिवे रत्न सक्कर पंक तम थी १ भांगो पंचम विकल्पे २ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, १ तम, १ सप्तमीं ५१ ५२ १ ५३ ५४ १ रत्न सक्कर धूम थी १ भांगो द्वितीय विकल्पे १ १ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी रत्न सक्कर धूम थी १ भांगो तृतीय विकल्पे १ १ १ ए रत्न सक्कर धूम थी १ भांगो पंच विकल्प करि कह्यो । एवं रत्न सक्कर थी १० भांगा, पंच विकल्प करि ५० भांगा कह्या । हि रत्न वालुक थी ४ भांगा एकेक विकल्प करि हुवै ते किसा ? रत्न वालु पंक थी ३, रत्न वालु धूम थी १, तिहां रत्न वालुक पंक थी ३ ते किसा ? रत्न वालुक पंक धूम थी २, रत्न वालुक पंक तम थी १ एवं ३ | तिहां रत्न वालुक पंक धूम थी २ भांगा प्रथम विकल्प करि कहै छै - १ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, १ तम, २ सप्तमों १ १ रत्न, १ सक्कर, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी रत्न सक्कर धूम थी १ भांगो चतुर्थ विकल्पे १ रत्न, २ सक्कर, १ धूम, १ तम १ सप्तमी रत्न सक्कर धूम थी १ भांगो पंचम विकल्पे २ २ रत्न, १ सक्कर, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी २ १ रत्न, १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ सप्तमी हि रत्न वालुक पंक धूम थी २ भांगा द्वितीय विकल्पे १ रत्न, १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम १ | १ रन, १ वालु, १ पंक, २ धूम, १ तम १ रत्न, १ वालु, १ पंक, २ धूम, १ सप्तमी Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि रत्न वालु पंक धूम थी २ भांगा तृतीय विकल्पे ५५ १ १ रत्न, १ वालु, २ पंक, १ धूम, १ तम ५६ , २ १ रत्न, १ वालु, २ पंक, १ धूम, १ सप्तमी हिवै रत्न वालु पंक धूम थी २ भांगा चतुर्थ बिकल्पे ५७ | १ | १ रत्न, २ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम हिवै रत्न वालु धूम थी १ भांगो तृतीय विकल्पे ६८ | ११ रत्न, १ वालु, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी हिवै रत्न वालु धूम थी १ भांगो चतुर्थ विकल्पे ६६ १ १ रत्न, २ वालु, १ धूम, १ तम,१ सप्तमी हिवै रत्न वालु धूम थी १ भांगो पंचम विकल्पे . ५८ | २ | १ रल, २ वालु, १ पंक, १ धूम, १ सप्तमी हिवै रत्न वालुक पंक धूम थी २ भांगा पंचम विकल्प ७० १ २ रत्न, १ वालु, १ धूम, १ तम,१ सप्तमी ए रत्न वालुक पंक थी ४ भांगा पंच विकल्प करि २० भांगा कह्या। ५६ | १ २ रत्न, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम हिवै रत्न पंक धुम तम थी १ भांगो प्रथम विकल करि कहै २ २ रत्न, १ वाधु, १ पंक, १ धूम, १ सप्तमी हिवै रत्न वालु पंक तम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै ७१ | १ | १ रत्न, १ पंक, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी हिवै रत्न पंक धूम तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्पे ७२ | १ | १ रत्न, १ पंक, १ धूम, २ तन, १ सप्तमी हिवं रत्न पंक धूम तम थी १ भागो तृतीय विकल्पे १ रल, १ वालु, १ पंक, १ तम, २ सप्तमी हिवै रत्न वालु पंक तम थी १ भांगो द्वितीय विकल्पे ७३ रत्न १ पंक, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी ६२ | १ | १ रत्न, १ वालु, १ पंक, २ तम, १ सप्तमी हिवै रत्न पंक धूम तम थी १ भांगो चतुर्थ विकल्पे हिब रत्न बालु पंक तम यी १ भागो तृतीय विकल्पे ७४ | १ | १ रत्न, २ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी | १ रत्न, १ वालु, २ पंक, १ तम, १ सप्तमी हिवे रत्न पंक धम तम थी १ भांगो पंचम विकल्पे हिवै रत्न वालु पंक तम थी १ भांगो चतुर्थ विकल्पे २ रत्न, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ए रत थी १५ भांगा पंच विकल्प करि ७५ भांगा कह्या । १ रत्न, २ वालु, १ पंक, १ तम, १ सप्तमी हिवै रत्न वालु पंक तम थी १ भांगो पंचम विकल्पे ६५, १२ रत्न, १ वालु, १ पंक, १ तम, १ सप्तमी हिवं सक्कर थी पंच भांगा एकेक विकल करि हुवे, ते पांच विकल्प करि २५ हुवै । तिहां सक्कर थी प्रथम भांगो ५ विकल्प करि कहै छै तिणमें सातमी नरक टली। | १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम ए रत्न वालुक पंक थी ३ भांगा कह्या । हिवै रत्त वालुक धूम थी १ भांगो प्रथम विकल्प करि कहै छ ७७ १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धून, १ तम ६६ / १ १ रत्न, १ वालु, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी १ सकार, १ वालु, २ पंक, १ धूम, १ तम हिवै रल वालुक धूम थी १ भांगो द्वितीय विकल्पे १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम | ८० | ५ | २ सक्कर २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम ६७ / १ १ रत्न, १ वालु, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी श०६, उ० ३२, ढाल १८४ १६७ Jain Education Intemational Private & Personal Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै सक्कर थी द्वितीय भांगो ५ विकल्प करि कहै छै तिणमें छठी नरक टली । ८१ ८२ ८३ ८४ ८५ ८६ ८७ ८८ ८६ ६० ६१ २ ६३ १ हरीत भांग विकल करि कतिप ५ पंचमी नरक टली । ६४ २ ६५ ३ ४ ५ १ २ ४ ५ १ २ ३ १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम २ सप्तमी ३ | १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, १ तम, १ सप्तम हि सक्कर थी चतुर्थ भांगो ५ विकल्प करि कहै छै तिनमें चोथी नरक टली । ४ १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम, १ सप्तमी ५ १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, १ धूम, १ सप्तमी १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ धूम, १ सप्तमी २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ सप्तमी १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ तम, २ सप्तमी १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ तम, १ सप्तमीं १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ तम, १ सप्तमी २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ तम, १ सप्तमों १ सक्कर, १ वालु, १ धूम, १ तम २ सप्तमीं १ सक्कर, १ लु १ धूम, २ तम १ सप्तमीं १ सक्कर, १ वालु २ घूम, १ तम, १ सप्तमी १ सक्कर, २ वालु, १ धूम, १ तम, १ सप्तमीं २ सक्कर, १ वालु, १ धूम, १ तम १ सप्तमीं १६ भगवती-जोह हिवँ सक्कर थी पंचमो भांगो ५ विकल्प करि कहै छै तिणमें तीजी नरक टली । ६६ ६७ ६८ ६६ १०० १०४ १०५ १ २ १ सक्कर, २ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ५ २ सक्कर, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ए सक्कर थी प्रथम भांगो पंच विकल्प करि कह्यो । इम द्वितीय जाव पंचमो भांगो पंच विकल्प करि २५ भांगा थया । तथा अन्य प्रकार करिकै पिण २५ भांगा हुवै ते कहै छँ ते सक्कर थी ५ भांगा प्रथम विकल्प करि कहिवा, पछै ते ५ भांगा द्वितीय विकल्प करि कहिया से भगाय विकल्प करि कहिवा, पछँ ते ५ भांगा चतुर्थ विकल करि कहिया, पछे ते ५ भांगा पंचम विकल्प करि कहिवा, इण प्रकार करिके पिण तेहिज २५ भांगा हुवै, एवं सक्कर थी ५ भांगा पांच विकल्प करि २५ का हिवै वालुक थी १ भंगो ५ विकल्प करि ५ भांगा कहै छँ १०१ १ १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी हिवै वालु श्री १ भंगो द्वितीय विकल्पे | १०२ १ १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी हिवै वालु थी १ भांगो तृतीय विकल्पे |१०३ १ १ वालु, १ पंक, २ धूम, १ तस, १ सप्तनी हि वालुथी १ भांगो चतुर्थ विकल्पे १ १ लु २ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ३ १ सक्कर, १ पंक, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी ४ १ सक्कर, १ पंक, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी १ सक्कर, १ पंक, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी हिवै वालु थी १ भांगो पंचम विकल्पे १ २ बालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ए वालुक थी १ भांगो ५ विकल्प करि ५ भांगा कह्या । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं छ जीव नां पचसंयोगिक एक-एक विकल्प करि रत्न थी १५, सकर थी ५, वालुक थी १, इम २१ भांगा, ते पंच विकल्प करि १०५ भांगा कह्या । रत्न थी ७५, सक्कर थी २५, वालु थी ५, ए सर्व १०५ भांगा जाणवा । ११०. *नवम बतीसम देश ए, सौ चौरासीमीं ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' मंगलमाल । ढाल : १८५ दहा १. षट्कसंयोगे तु सप्तव । (वृ० प० ४४५) १. हिवं कहूं छह जीव नां, इक विकल्प करि एह। षट-संयोगिक सप्त भंग, सुणज्यो तज संदेह ।। +जिन भाखै सुण गंगेय ! षट-योगिक भंग भणेह ॥ [ध्रुपदं] अथवा इक रत्न उवेख, इक सक्कर वालुक एक । इक पंक एक धम जोय, एक तमा विषे अवलोय ॥ ३. अथवा इक रत्न उवेख, इक सक्कर वालुक एक । इक पंक धूम इक जाण, इक सप्तमी नरक पिछाण ।। अथवा इक रत्न विशेष, इक सक्कर वालुक एक । एक पंक तमा इक कहिये, इक नारकि सप्तमी लहिये । ५. अथवा इक रत्न संपेख, इक सक्कर वालुक एक। इक धूमा तमा इक तास, इक नारकि सप्तमी वास ।। २. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए जाव एगे तमाए होज्जा। ३. अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे धूमपभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। ४. अहबा एगे रयणप्पभाए जाब एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहे तत्त पाए होज्जा। ५. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए जाब एगे अहेसत्तनाए होज्जा। ६. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंक पभाए जाब एगे अहेसत्तमाए होज्जा । ७. अहवा एगे रयणपभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा। ८. अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा। {(भ० ६/६३) अथवा इक रत्न में देख, इक सक्कर पंके एक । इक धूम तमा इक जीव, इक सप्तमी नरक कहीव ।। अथवा इक रत्न उवेख, इक वालक पंके एक । इक धूमा तमा इक पाय, इक नरक सप्तमी जाय ।। अथवा इक सक्कर लेख, इक वालक पंके एक । इक धूम तमा इक जाण, इक नारक सप्तमी आण ।। ६. षट जीव तणां ए जाण, षट-योगिक नां पहिछाण । इक विकल्प नैं भंग सात, जिन आखै ए अवदात ।। *लय :प्रभवो मन मांहि चिन्तवै लियरे चिन्तातुर सुन्दर चाली श०६, उ० ३२, ढाल १५४,१८५ १६६ Jain Education Intemational Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ ३ * ४ ५ ६ छ जीव नां छ संजोगिया नां विकल्प तो १ भांगा ७ १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तमा ७ १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ पंक, १ घूम, १ तम, १ सप्तमी १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी द्विक योगिक विकल्प पंच ११. त्रिक-योगिक विकल्प दश १०. पट जीव तणां आख्यात इक-संयोगिक भंग सात । भंग एकसी पंच सुसंच ॥ साठा तीन सौ भांगा अवस्स । दश विकल्प चक्क संयोगी, साढा तीन सौ भंग प्रयोगी ॥ १२. पंच-योगिक विकल्प पंच एक सौ पंच संच षट-योगिक विकल्प एक सप्त भंग सुविशेष ॥ १३. षट जीव तणां भंग जाण, नवसौ चउवीस प्रमाण । इकयोगिक आदि ए आख्या सर्व संख्या करीने भाख्या ।। १४. नवम देश बतीसम न्हाल, एकसौ पच्यासीमीं ढाल । भिक्षु भारीमा ऋषिराय, 'जय' संपति हरष सवाय ॥ १ रत्न, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमीं १. सप्त जीवन हे प्रभु! तास प्रश्न पूछे छते २. रत्न सप्त यावत हुवै, दूहा नरक प्रवेशन काल । दाखे साम दयाल ॥ तथा सप्तमीं सात । इक-योगिक इक विकल्पे, भांगा सात विख्यात ॥ भंग तसुं ढाल १८६ * लय : प्रभाती १७० भगवती-जोड़ त्रिभुवन नाथ वीर प्रभु भाखै, सांभल तूं गंगेया ! [ ध्रुपदं ] ३. सप्त जीव नां इकसंयोगिक, भांगा सप्त विचारी । इक विकल्प करिनें तसु आख्या, पूर्व रीत प्रकारी ॥ १३. तेच सर्व नव शतानि चतुविशत्युत्तराणि भवन्तीति । ( वृ० प० ४४५) १. सत्त भंते! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा कि रयणप्पभाए होज्जा ? – पुच्छा । २. गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव असत्तमाए वा होज्जा । ३. इहैकत्वे सप्त । ( वृ० प० ४४५) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. द्विकयोगे तु सप्ताना द्वित्वे षड विकल्पास्तद्यथा-- षड्भिश्च सप्तपदद्विकसंयोगएकविंशतेर्गुणनात् षड्विंशत्युत्तरं भङ्गकशतं भवति। (वृ० प० ४४५) ६. त्रिकयोगे तु सप्तानां त्रित्वे पञ्चदश विकल्पास्तद्यथा एतैश्च पञ्चत्रिंशतः सप्तपदत्रिकसंयोगानां गुणनात् पञ्च शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि भवन्तीति । (वृ० प० ४४५,४४६) ४. सप्त जीव नां द्विक-संजोगिक, षट विकल्प करि तासं । भंग एक सौ षटवीस भणीजै, पूर्व रीत प्रकासं ।। ५. इक-षट बे-पंच त्रिण-चिउं तीजो, च्यार-तीन पंच-दोय । षट-इक द्विकयोगिक विकल्प छ, सप्त जीव नां होय ॥ स्थापना १६, २५, ३४, ४३, ५२, ६१ । सप्त जीव नां द्विक संजोगिक राए ६ विकल्प जाणवा । ६. सप्त जीव नां त्रिकसंजोगिक, विकल्प पनर जगीसं । भंग पंच सौ . पणवीसं, इक विकल्प पैंतीसं ॥ छप्पय ७. एक एक नैं पंच, एक बे च्यार अखीजै । दोय एक नैं च्यार, एक त्रिहं वलि त्रिहं लीजै । दोय दोय नैं तीन, तीन इक तीन कहीजे एक च्यार - दोय, दोय त्रिहं दोय लहीजै । त्रिहं दोय दोय, चिहुं एक बे, इक पंच इक, बे च्यार इक । त्रिण तीन एक, चिउंदोय इक, पंच इक इक त्रिकयोगिक ।। स्थापना ११५, १२४, २१४, १३३, २२३, ३१३, १४२, २३२, ३२२, ४१२, १५१, २४१, ३३१, ४२१, ५११ । ८. सप्त जीव नां चउकसंयोगिक, विकल्प वीस जगीसं । अखिल सात सय भंगा आख्या, इक विकल्प पणतीसं ।। स्थापना १११४, ११२३, १२१३, २११३, ११३२, १२२२, २१२२, १३१२, २२१२, ३११२, ११४१, १२३१, २१३१, १३२१, २२२१, ३१२१, १४११, २३११, ३२११, ४१११ । है. सप्त जीव नां पंचसंयोगिक, विकल्प पनर जगीसं । भंगा तास तीन सय पनरै, इक विकल्प इकवीसं ।। स्थापना ११११३, १११२२, ११२१२, १२११२, २१११२, १११३१, ११२२१, १२१२१, २११२१, ११३११, १२२११, २१२११, १३१११, २२१११, ३११११ । १०. सप्त जीव नां पटसंयोगिक, षट विकल्प करि ख्यातं । बयांलीस भांगा तसु कहिवा, इक विकल्प नां सातं ।। स्थापना १११११२, ११११२१, १११२११, ११२१११, १२११११, २१११११ । ११. सप्त जीव नां सप्तसंजोगिक, विकल्प तेहनों एकं । भांगो एक कह्यो ? तेहनों, वारू रीत विशेखं ॥ १२. सप्त जीव नां भांगा ए सह, सतरे सौ नै सोलं । अनुक्रम संख्या करिने गिणवा, जिन वच अधिक अमोलं ॥ ८. चतुष्कयोगे तु सप्तानां चतूराशितया स्थापने एक एक एकश्चत्वार श्चेत्यादयो विशतिर्विकल्पा:"विंशत्या च पञ्चत्रिंशतः सप्तपदचतुष्कसयोगानां गुणनात् सप्त शतानि विकल्पानां भवन्ति (वृ०प०४४६) है. पञ्चकसंयोगे तु सप्तानां पञ्चतया स्थापने एक एक एक एकस्त्रयश्चेत्यादयः पञ्चदश विकल्पाः एतैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगएकविंशतेर्गुणनात् त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि भवन्ति । (वृ० प० ४४६) १०. षट्कसंयोगे तु सप्तानां पोढाकरणे पञ्चैकका द्वी चेत्यादयः षड् विकल्पाः । सप्तानां च पदानां षटकसंयोगे सप्त विकल्पाः, तेषां च षड्भिर्गुणने द्विचत्वारिंशद्विकल्पा भवन्ति । (वृ०प०४४६) ११. सप्तकसंयोगे त्वेक एवेति । (व०प० ४४६) १२. सर्वमीलने च सप्तदश शतानि षोडशोत्तराणि भवन्ति । (वृ० प० ४४६) श० ६, उ० ३२, ढाल १८६ १७१ Jain Education Intemational Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा नरक प्रवेसण रत्न में । जिन भाखे गंगेय ! सुण ॥ जाव तथा अठ सप्तमीं । इकसंयोगिक, हंत, इक विकल्प करि सप्त भंग ॥ १३, नारकि अष्ट भदंत ! जाव सप्तमी त ? १४. अष्ट रत्न उपजंत, १५. * अष्ट जीव नां द्विकसंयोगिक, विकल्प सप्त जगीसं । भंग एकसी ने संताली इक विकल्प इकबीसं ॥ स्थापना १७, २६, ३५, ४४, ५३, ६२, ७१ । १६. अष्ट जीव नां त्रिकसंयोगिक, विकल्प तसु इकवीसं । भांगा तास सप्त सय पेजिस, इक विकल्प पणतीसं ॥ स्थापना ११६, १२५, २१५, १३४, २२४, ३१४, १४३, २३३, ३२३, ४१३, १५२, २४२, ३३२, ४२२, ५१२, १६१, २५१, ३४१, ४३१, ५२१, ६११ । १७. अष्ट जीव नां चउक्कसंजोगिक, पैंत्रिस विकल्प दीसं । भंग बार सय पंचवीस फून, इक विकल्प पणतीसं ॥ स्थापना १११५, ११२४, १२१४, २११४, ११३३, १२२३, २१२३, १३१३, २२१३, ३११३, ११४२, १२३२, २१३२, १३२२, २२२२, ३१२२, १४१२, २३१२, ३२१२, ४११२, ११५१, १२४१, २१४१, १३३१, २२३१, ३१३१, १४२१, २३२१, ३२२१, ४१२१, १५११, २४११, ३३११, ४२११, ५१११ । १८. अष्ट जीव नां पंचसंयोगिक, विकल्प तसु पणतीसं । भांगा तास सातसौ मंत्रिस इक विकल्प इकवीसं ॥ स्थापना ११११४, १११२३, ११२१३, १२११३, २१११३, १११३२, ११२२२, १२१२२, २११२२, ११३१२, १२२१२, २१२१२, १३११२. २२११२, ३१११२, १११४१, ११२३१, १२१३१, २११३१, ११३२१, १२२२१, २१२२१, १३१२१, २२१२१, ३११२१, ११४११, १२३११, २१३११, १३२११ २२२११, ३१२११, १४१११, २३१११, ३२१११, ४११११ । १२. अष्ट जीव नां घटसंयोगिक विकल्प इकवोस ख्यातं । भंग एक सौ ने संतालीस, इक विकल्प भंग सावं || स्थापना १११११३ ११११२२, १११२१२, ११२११२, १२१११२, २११११२, ११११३१, १११२२१. ११२१२१, १२११२१, २१११२१, १११३११, ११२२११, १२१२११, २११२११, ११३१११, १२२१११, २१२१११, १३११११, २२११११, ३१११११ । * लय: प्रभाती १७२ भगवती जोड़ १३.१४ अट्ठ भंते! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा ? - पुच्छा । गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वाहोज्जा । इहैकत्वे सप्त विकल्पा: ( वृ० प० ४४६ ) १५. द्विकसंयोगे त्वष्टानां द्वित्वे एकः सप्तेत्यादयः सप्त विकल्पाः प्रतीता एव तैश्च सप्तपदद्विकसंयोगकविशतेर्गुणनाच्छतं सप्तचत्वारिंशदधिकानां भवतीति । (१० ५० ४४६) १६. त्रिकसंयोगे त्वष्टानां त्रित्वे एक एकः षड् इत्यादय एकविंशतिविकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयोगे पञ्चत्रिशतो गुणने सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्ति । ( वृ० प० ४४६) १७. कटान चतुर्द्धा एक एक एकः प त्यादयः पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां पञ्चत्रिंशतो गुणने द्वादश शतानि पञ्चविशत्युत्तराणि भङ्गकानां भवन्तीति ( वृ० प० ४४६ ) १८. पञ्चकसंयोगे त्वष्टानां पञ्चत्वे एक एक एक एक एकत्वाचेत्यादयः पञ्चविशद्विकल्पाः तैश्च संयोगक सप्त शतानि पञ्चविधकानि भवन्तीति (२०१० ४४६) १२. पट्संयोगे त्वष्टानां षोढात्वे पञ्चककास्त्रयश्चेत्यादयः एकविंशतिविश्व सप्तपदपकसंयोगान सप्तकस्य गुणने सप्तचत्वारिंशदधिकं भङ्गकशतं भवतीति (२०१० ४४५) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. अष्ट जीव नां सप्तसंयोगिक विकल्प सप्त विख्यातं । भांगा पिण तसु सप्त भणीजे कहिये तसु अवदातं ॥ , हि अष्ट जीवनां सप्त संजोगिक नां विकल्प सात भांगा सात कहै छै - १ १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी २ १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु २ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ४ ५ १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ६ १ रत्न, २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ७ | २ रत्न, १ सक्कर, १ बालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तम * ए अष्ट जीव नां सप्तसंजोगिक जाणवा । २१. अष्ट जीवन ए सहु भांगा, इकसंयोगिक आदि देई ने सोरठा २२. नारकि नव भगवंत ! नरक प्रवेसण रत्न में। जाव सप्तमी त ? जिन भाई गंगेय ! गुण ॥ २३. नव रत्ने उपजंत, जाव तथा नव सप्तमीं । इकसंयोगिक हुंत, इक विकल्प करि सप्त भंग ॥ २४. नव जीवानां द्विक्संयोगिक विकल्प अष्ट जगीसं । भंगा तास एकसी अड़सठ इक विकल्प इकवी || तीन सहस्र नैं तीनं । सप्त संयोग सुचीनं ॥ स्थापना १८, २७, ३६, ४५, ५४, ६३, ७२, ८१ । २५. न जोवन त्रिसंयोगिक विकल्प तसं वी भांगा नवसे असी अधिक है, एक विकल्प पणतो || स्थापना ११७, १२६, २१६, १३५, २२५, ३१५, १४४, २३४, ३२४, ४१४, १५३, २४३, ३३३, ४२३, ५१३, १६२, २५२, ३४२, ४३२, ५२२, ६१२, १७१, २६१, ३५१, ४४१, ५३१, ६२१, ७११ । २६. नव जीव नां चउकसंयोगिक, विकल्प छप्पन दीसं । उगणीसौ नैं साठ भंग है, इक विकल्प पणतीसं ॥ लय: प्रभाती २०. सप्तसंयोगे पुनरष्टानां सप्तधात्वे सप्त विकल्पाः प्रतीता एवं संयोगस्य गुगने सप्तव विकल्पाः ( वृ० प० ४४६) २१. ए मीलने त्रीणि सहस्राणि युत्तराणि भवन्तीति । (बु०प०४४६) २२, २३. नव भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा कि रयणप्पभाए होज्जा ? - पुच्छा I गंगेया ! रयणनभाए वा होज्जा जाव असत्तमाए वा होज्जा । हायेकत्वे ( वृ० प० ४४७ ) २४. द्विक्संयोगे तु नवानां द्वित्वेऽष्टौ विकल्पाः प्रतीता एव, तैश्चैकविंशतेः सप्तपदद्विकसंयोगानां गुणनेऽष्टषष्ट्यधिकं भङ्गकशतं भवतीति । ( वृ० १०४४७) २५ त्रिसंयोगे तु नवानां द्वावेकको तृतीयश्च सप्तकः इत्वेनातिविकल्या, तैजसप्तपदविक पवने नव शतान्यशीत्सराणि भङ्गकानां भवन्तीति । (बु० ५० ४४७) २६. चतुष्कयोगे तु नवानां चतुर्द्धात्वित्रय एककाः षट् चेत्यादयः पट्पञ्चाशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्कसयोगपति गुणने सहस्रं नव शतानि षष्टिश्च भङ्गकानां भवन्तीति । ( वृ० प० ४४७) श०६, ३०३२, ढाल १८६ १७३ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापना १११६, ११२५, १२१५, २११५१, ११३४१, १२२४, २१२४, १३१४, २२१४, ३११४०, ११४३१, १२३३२, २१३३", १३२३५, २२२३१९, ३१२३६, १४१३७, २३१३", ३२१३५, ४११३९, ११५२२१, १२४२२२, २१४२२२, १३३२", २२३२२५, ३१३२६, १४२२७, २३२२, ३२२२२९, ४१२२, १५१२", २४१२२९, ३३१२", ४२१२", ५११२, ११६१, १२५१", २१५१", १३४१७, २२४१०, ३१४१, १४३१०, २३३१४५, ३२३१७, ४१३१४, १५२१", २४२१, ३३२१, ४२२१७, ५१२१, १६११५, २५११५९, ३४११०, ४३११, ५२११०, ६१११" । ए पूर्वे कह्या ते नव जीवां नां चउक्कसंजोगिया ५६ विकल्प इम करिवा । २७. नव जीव नां पंचसंयोगिक, सित्तर विकल्प दीसं । चवदै सौ नै सित्तर भांगा, इक विकल्प इकवीसं ॥ २७. पञ्चकसंयोगे तु नवानां पञ्चधात्वे चत्वारः एकका: पञ्चकश्चेत्यादयः सप्ततिविकल्पाः, तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगएकविंशतेर्गुणने सहस्रं चत्वारि शतानि सप्ततिश्च भङ्गकानां भवन्तीति (वृ० प० ४४७) स्थापना ११११५', १११२४', ११२१४, १२११४, २१११४५, १११३३', ११२२३°, १२१२३, २११२३, ११३१३०, १२२१३", २१२१३७,१३११३", २२११३", ३१११३१५, १११४२५, ११२३२७, १२१३२०, २११३२", ११३२२२, १२२२२, २१२२२२२, १३१२२", २२१२२७, ३११२२२५, - ११४१२२६, १२३१२९, २१३१२, १३२१२१, २२२१२०, ३१२१२", १४११२२, २३११२", ३२११२", ४१११२, १११५१", ११२४१, १२१४११०, २११४१५, ११३३१०, १२२३१", २१२३१०, १३१३१", २२१३१", ३११३१, ११४२१, १२३२१, २१३२१, १३२२१, २२२२१०, ३१२२१५, १४१२११२, २३१२१०, ३२१२१७, ४११२१५५, ११५११६, १२४११०, २१४११५, १३३११९, २२३११", ३१३११५, १४२११६, २३२१११, ३२२११", ४१२११, १५१११५, २४१११, ३३१११, ४२११११, ५११११। . ए पूर्वे कह्या ते नव जीवां नां पंचसंयोगिक ७० विकल्प इम करिवा। २८. नव जीवां नां षटसंयोगिक, छप्पन विकल्प ख्यातं । प्रवर तीन सय बाणूं भांगा, इक विकल्प करि सातं ।। स्थापना १११११४', ११११२३९, १११२१३', ११२११३, १२१११३५, २११११३, ११११३२२, १११२२२ ११२१२२, १२११२२०, २१११२२९, १११३१२१२, ११२२१२२, १२१२१२०, २११२१२,१५ ११३११२१६, १२२११२, २१२११२, १३१११२७, २२१११२०, ३११११२२१, ११११४१५, १११२३१, ११२१३१०, १२११३१२, २१११३१५, १११३२१०, ११२२२१२६, १२१२२१२१, २११२२१०, ११३१२१५, १२२१२१३०, २१२१२१२, १३११२१, २२११२१५, ३१११२१३६, १११४११०, ११२३११, १२१३१११, २११३११०, ११३२१११, १२२२११, २१२२११, १३१२११, २२१२११०, ३११२११४६, ११४१११, १२३१११, २१३१११, १३२१११, २२१११२९, ३१२१११, १४१११११, २३११११७, ३२११११, ४१११११ । ए पूर्वे कह्या ते नव जीवां रा षटसंयोगिक ५६ विकल्प इम करिवा। २८. षट्कसंयोगे तु नवानां षोढावे पञ्चककाश्चतुष्क कश्चेत्यादयः षट्पञ्चाशद्विकल्पा भवन्ति, तैश्च सप्तपदषट्कसंयोगसप्तकस्य गुणने शतत्रयं द्विनवत्यधिकं भङ्गकानां भवन्तीति । (वृ० प०४४७) १७४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. नव जीवां नां सप्तसंयोगिक भांगा पिण अठवीस भणेवा, १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. E. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. २५. २६. २७. २८. विकल्प तस अठवीसं । ते जूजुआ कहीसं ॥ ए नव जीव नां सप्तसंयोगिक विकल्प २८ भांगा २८ १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, ३ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम, २ सप्तमीं १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम, १ तम, २ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी १ रत्न, २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी २ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, २ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, ३ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर; १ वालु, १ पंक, २ धूम, २ तम, १ सप्तमीं १ रत्न, १ सक्कर, १९ वालु २ पंक, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम, १ सप्तमी १ रत्न, २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम, १ सप्तमीं २ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम, १ सप्तमीं १ रन, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ३ धूम, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु २ पंक, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम, १ तम, १ सप्तमी २ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम, १ तम १ सप्तमीं १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ३ पंक, १ धूम, १ तम १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु २ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, २ सक्कर, १ वालु २ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी २ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, १ सक्कर, ३ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, २ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी २ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी १ रत्न, ३ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी २ रत्न, २ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ३ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, १ सप्तमी ३०. नव जीवां नां ए सहू भांगा, पंच सहस्र ने पंच | इकसंयोगिक आदि देइ नैं सप्त-संयोगिक संच ॥ ३१. दश जीवां नां इकसंयोगिक, इक विकल्प भंग सातं । द्विकसंयोगिक नव विकल्प भंग सौ नव्यासी ख्यातं ॥ , ३२. दश जीवां नां त्रिकसंयोगिक, विकल्प है षट तीसं । बारै सौ ने साठ भंग है, इक विकल्प पणतीसं ॥ २९. सप्तपदयो पुनर्नवानां सप्तले एककाः पद् त्रिश्चेत्यादयोऽष्टाविंशतिविकल्पा तैश्चैकस्य सप्तकसंयोगस्य भवन्तीति गुणनेऽष्टाविंशतिरेव (बु०प०४४०) भङ्गकाः । ३०. एषां च सर्वेषां मीलने पञ्च सहस्राणि पञ्चोत्तराणि विकल्पानां भवन्तीति । (बृ० प०४४७) ३१. इहाप्येकत्वे सप्तैव, द्विकसंयोगे तु दशानां द्विधात्वे एको नव चेत्येवमादयो नव विकल्पाः तैश्चैकविशतेः सप्तपदद्विक संयोगानां गुणने एकोननवत्यधिक भङ्गना भवतीति । (बृ० १०४४७) ३२. त्रियोगे तु दशानां त्रिधात्वे एक एकोऽष्टौ चेत्येवमादयः पत्रिद्विकल्पाः वैश्य सप्तपदविकसंयोगपञ्चत्रिंशतो गुणने द्वादश शतानि षष्ट्यधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति । ( वृ० प० ४४७ ) ० ६, उ० ३२, हाल १८६ १७५ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. दश जीवांनां चउकसंयोगिक, चउरासी विकल्प दीसं। गुणतीसौ नैं चालीस भांगा, इक विकल्प पणतीसं ।। ३४. दश जीवां नां पंचसंयोगिक, विकल्प इकसौ छबीसं । भंग छबीसौ अधिक छयाली, इक विकल्प इकबीसं ।। ३५. दश जीवां नां षटसंयोगिक, विकल्प इकसौ छबीसं । भंग आठ सौ नैं बयासी, इक विकल्प सत दीसं ।। ३३. चतुष्कसंयोगे तु दशानां चतुर्धात्वे एककत्रयं सप्तकश्चेत्येवमादयश्चतुरशी तिविकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगपञ्चत्रिंशतो गुणने एकोनत्रिंशच्छतानि चत्वारिंशदधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति । (व०प०४४७) ३४. पञ्चकसंयोगे तु दशानां पञ्चधात्वे चत्वार एककाः षट्कश्चेत्यादयः षड्विंशत्युत्तरशतसङ्खया विकल्पा भवन्ति तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगैकविंशतेर्गुणने षड्विंशतिः शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति। (वृ० प० ४४७) ३५. षट्कसंयोगे तु दशानां षोढात्वे पञ्चैककाः पञ्च कश्चेत्यादयः षड्विंशत्युत्तरशतसंख्या विकल्पा भवन्ति, तैश्च सप्तपदषट्कसंयोगसप्तकस्य गुणनेऽष्टौ शतानि द्वघशीत्यधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति । (वृ०प०४४७) ३६. सप्तकसंयोगे तु दशानां सप्तधात्वे षडेककाश्च तुष्कश्चेत्येवमादयश्चतुरशीतिविकल्पाः, तैश्चैकस्य सप्तकसंयोगस्य गुणने चतुरशीतिरेव भङ्गकानां भवन्ति । (३०प०४४७) ३७. अहवा चत्तारि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा। (श० ६/६७) ३८. सर्वेषां चैषां मीलनेऽष्टसहस्राणि अष्टोत्तराणि विकल्पानां भवन्तीति । (वृ०प० ४४७) ३६. दश जीवां नां सप्तसंयोगिक, विकल्प चउरासी दीसं । भांगा पिण चउरासी तेहनां, निपुण विचार कहीसं ।। ३७. च्यार रत्न इक सक्कर, जाव इक सप्तमी होय । चरम भंग विकल्प ए भणवो, सप्त संयोगिक सोय ।। ३८ दश जीवां नां ए सहु भांगा, अष्ट सहस्र नै आठ । ___ इकसंयोगिक आदि देइ नै, सप्त संयोग सुवाट । ३६. नवम शतक नो देश बतीसम, सौ छयांसीमी ढालं । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालं ॥ ढाल: १८७ दूहा १. इकसंयोगिक आदि दे, सप्त-संयोगिक सार । तसु विकल्प नी आमना, हिव कहियै सुविचार ।। २. एक दोय त्रिण आदि दे, जीव अनेक सुजोय । इक संयोगिक तेहनों, विकल्प एकज होय ।। ३. द्विकयोगिक बे जीव नां, विकल्प कहियै एक । द्विकयोगिक त्रिण जीव नां, विकल्प दोय विशेख ।। ४. इम यावत सौ जीव नां, द्विकयोगिक पहिछान । विकल्प निन्या' कह्या, इम आगल पिण जाण ।। एक जीव आदि देइ संख असंख जीव रो एकसंयोगियो विकल्प एक सगलैइ। हिवै द्विकसंजोगिया री आमना लिखियै छै१७६ भगवतीजोड़ Jain Education Intenational Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोय जीव रो द्विकसंजोगियो १ विकल्प, तीन जीव रा द्विकसंजोगिया २ विकल्प, इम यावत सौ जीवां रा द्विकसंजोगिया ९६ विकल्प, जेतला जीव लेणां तिण सूं एक ऊणो विकल्प । हिवै त्रिकसंजोगिया नां विकल्प नी आमना५. त्रिकयोगिक त्रिण जीव नों, विकल्प एक सुचीन । त्रिकयोगिक चिउं जीव नां, कहियै विकल्प तीन ।। ६. त्रिकयोगिक जंतू जिता, तेहथी दोय घटाय । शेष अंक लिखनै गिण्यां, तेता विकल्प थाय । वा० - जेतला जीव लेव तिण मांहि थी दोय काढिय, पाछै रहे ते एक सू गिणियै । तिवारै जेतला हुवै जितरा विकल्प जाणवा। कोइ एक इम पूछ-जे दश जीवां रा त्रिकसंजोगिया केतला विकल्प ? तिवारै इम कहिये-जे दश मांहि थी २ काढिय तिवारै पछै ८ रहै, ते इम लिखणा-१,२,३,४,५,६,७,८ हिवै ए आंकां नै इम गिणणा ते विध कहै छै-एक ने दोय - तीन, तीन नै तीन-छ, छ में च्यार-दश, दश ने पांच-पनरै, पनरै नै छ-इकवीस, इकबीस ने सातअठावीस, अठावीस ने आठ- छतीस-इम दश जीवां रा ३६ विकल्प हुदै । वलि कोइ पूछ-बीस जीवां रा विकल्प किता? तेहनों उत्तर-बीस मांहि थी २ काढिय, पाछै अठार रहै । ते एक सू लेइन अठारै ताइ गिणियां १७१ हवै, एतला बीस जीवां रा विकल्प जाणवा । आगल पिण इमहिज करिवा । हिवं चउकसंजोगिया विकल्प नी आमना७. चउयोगिक चिउं जीव नों, विकल्प इक अवधार । चउयोगिक पंच जीव नां, कहियै विकल्प च्यार ॥ ८. चउयोगिक षट जीव नां, दश विकल्प सुकहीस । चउयोगिक सत्त जीव नां, कहियै विकल्प बीस ।। ६. चउयोगिक जंतू जिता, तेहथी तीन घटाय । पाछै रहै तेहनों धड़ो, दीधां जितरा थाय ॥ १०. षट जंतू नां केतला, विकल्प हवै सुलेख ? षट थी त्रिण काढयो छते, लिखो अंक त्रिण पेख ।। ११. एको बीओ नैं तीओ, प्रथम ओल ए अंक । द्वितीय ओल धुर अंक इक, लिख तसू धड़ो निसंक। १२. धुर इक अंक लिख्यो अछ, तसू जोड़े वलि ताय । एक अनैं बे त्रिण हवै, तीओ अंक लिखाय । १३. तीन अनैं वलि त्रिण मिल्यां, गिणियां षट कहिवाय । तीआ अंक पासे वली, षट नों अंक लिखाय ।। १४. दूजी ओली नों धड़ो, दीधां दश ह सोय । विकल्प दश षट जीव नां, इम आगल पिण होय ।। वा-जेतला जीव लेणां त्यां मांहि थी ३ काढिय, पछै तेहनोइज धड़ो देणो जे कोइक इम पूछे---- दश जीवां रा चउकसंजोगिया केतला विकल्प ? जब इम कहीज-१० मांहि थी ३ काढियं, पाछै सात रहै ते एक सूं लेइ नै इम लिखणां१,२,३,४,५,६,७ । हिवै ए ओली नै इम गिणवी-एक न दोय-३, तीन ने तीन-६, छ ने च्यार-१०, दश ने पांच-१५, पनरै नै छ–२१, इकवीस ने सात---२८, ए दूजी ओल पहिली ओल हेढ़ इम लिखणी-१,३,६,१०,१५,२१,२८ । २०६०३२॥ ढाल १८७ १७७ Jain Education Intemational Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिवै बीजी ओल ने गिण्यां जेतला हुवै तेतला विकल्प जाणवा, ते इम गिणवा-एक ने तीन-४, च्यार नै छ–१०, दश नै दश–२०, बीस ने पनरै--३५, पैतीस ने इकबीस-५६, छप्पन नै अठावीस-८४ । इम दश जीव नां चउक्कसंयोगिया चउरासी विकल्प थया। इम सौ ताई गिण लीजै । धड़ो जिताइज विकल्प जाणवा। तथा बलि अन्य प्रकार करिकै चउकसंजोगिया नां विकल्प नी आमना हि छ जीवां रा चउकसंजोगिया विकल्प कितरा? उत्तर-छ मांहि थी एक जीव घटायां पांच जीवां रा चउकसंजोगिया ४ विकल्प अने पांच जीवां रा त्रिकसंजोगिया ६ विकल्प । दो भेला गिण्या विकल्प हुवै इतरा विकल्प छ जीवां रा चउक्कसंजोगिक ह। सात जीवां रा चउक्कसंजोगिया विकल्प किता? उत्तर —छ जीवां रा चउक्कसंजोगिया अन छ जीवां रा त्रिकसंयोगिया दोन भेला गिण्यां जितरा विकल्प हुवै तितरा सात जीवां रा चउकसंजोगिक ह।। १५. पंच संयोगिक नां हिवै, विकल्प तणो विचार ॥ ऊपर वारी तेहनी, कहियै छै अधिकार ।। १६. सप्त जीव पंचयोगिका, कितरा विकल्प तास? विकल्प तेहनां पनर है, सुणिय आण हुलास ।। १७. चउयोगिक षट जीव नां, पंचयोगिक षट जीव । ए बिहं नां दश पंच इता, सत्त जीव ना पीव ।। १८. इम आगल जंतु जिता, तेहथी एक घटाय । विकल्प चउ पंच योगिका, मेल्या जिता कहाय ॥ वा०-नव जीवां रा पांचसंजोगिया रा विकल्प किता ? उत्तर-सित्तर विकल्प हवै। ते किम ? आठ जीव चउकसंयोगिक नां ३५ विकल्प हवै, अने आठ जीव पंच संजोगिक नां पिण ३५ विकल्प हुदै, ए दोनूं मिलायां मित्तर हुवे। एतलाज सित्तर विकल्प नव जीव नां पंचसंजोगिया नां हुवै। इम आगल पिण जाणवा। १६. षट-संजोगिक नां हिवै, विकल्प तणो विचार । ऊपर वारी तेहनी, कहिय छै अधिकार ॥ २०. अष्ट जीव षट-योगिका, कितरा विकल्प तास? विकल्प तस इकवीस है, सुणिये आण हुलास ॥ २१. सप्त जीव पंचयोगिका, सप्त जीव षट योग । षट पनरै विकल्प तस, इम इकवीस प्रयोग। २२. इम आगल जंतू जिता, तेहथी एक घटाय । विकल्प पंच षटयोगिका, मेल्या जिता कहाय ।। वा०–नव जीवां रा षटसंजोगिक विकल्प कितरा ? उत्तर-छप्पन विकल्प हुदै ते किम? आठ जीव पंचसंजोगिक नां ३५ विकल्प अन आठ जीव षटसंजोगिक ना २१ विकल्प हुवै, ए दोनूं मिलायां ५६ हुवे। एतलाज छप्पन विकल्प नव जीव नां षट संजोगिक नां हुवे। इम आगल पिण जाणवा । सप्त संयोगिक जेतला विकल्प जेतलाइ भांगा जाणवा। २३. संख्याता प्रभु ! नेरइया, एकादश थी आद । नरक-प्रवेसण नीं पृच्छा, उत्तर जिन अहलाद ।। २३. संखेज्जा भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा कि रयणप्पभाए होज्जा ?-पुच्छा। तत्र संख्याता एकादशादयः। (वृ० प० ४४८) १७८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होज्जा जाव २४,२५. गंगेया ! रयणप्पभाए वा अहेसत्तमाए वा होज्जा। इहाप्येकत्वे सप्तव (वृ० प० ४४८) २४. रत्नप्रभा में संखेज ए, अथवा सक्कर में ते कहेज ए। अथवा वालुक मांहे तेह ए, अथवा पंक तमा धूम जेह ए॥ २५. अथवा तमा विषे उपजत ए, अथवा नरक सप्तमी हुंत ए। इक योगिक भांगा सात ए, इक विकल्प करि आख्यात ए॥ हिवै द्विकसंजोगिक नां विकल्प ११ भांगा २३१ । एक रत्न संख्याता सक्कर इम ११ विकल्प । एक-एक विकल्प मां इकवीस-इकवीस भांगा हुवै तिवारे २३१ भांगा थाय, ते कहै छै२६. तथा एक रत्न अवलोय ए, संख्याता सक्कर सोय ए। तथा रत्न इक जाण ए, संख्याता वालुक माण ए॥ २७. अथवा रत्न में एक ए, संख्याता पंक संपेख ए। __ अथवा रत्न इक जाय ए, संखेज्ज धूम दुख पाय ए॥ २८. अथवा रत्न इक हुंत ए, संखेज्ज तमा उपजत ए। अथवा रत्न इक तास ए, संखेज्ज सप्तमी वास ए॥ २६. अथवा रत्न में दोय ए, संख्याता सक्कर होय ए। इम जाव तथा रत्न दोय ए, संख्याता सप्तमी सोय ए॥ २६-२८. अहवा एगे रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा। २६. अहवा दो रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा। ३०-३७. अहवा तिण्णि रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा। एवं एएणं कमेणं एक्केक्को संचारेयवो जाव अहवा दस रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा। एवं जाव अहवा दस रयणप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा । ३०. अथवा रत्न में तीन ए, संख्याता सक्कर चीन ए। इम जावत तथा रत्न तीन ए, संखेज्ज सप्तमी लीन ए॥ ३१. अथवा रत्न में च्यार ए, संख्याता सक्कर धार ए। इम जाव तथा रत्न च्यार ए, संखेज्ज सप्तमी भार ए॥ ३२. अथवा रत्न में पंच ए, संख्याता सक्कर संच ए। इम जाव तथा रत्न पंच ए, संखेज्ज सप्तमी विरंच ए॥ ३३. अथवा रत्न षट जंत ए, संख्याता सक्कर हुंत ए। इम जाव तथा रत्न षट ए, संख्याता सप्तमी वट्ट ए॥ ३४. अथवा रत्न में सात ए, संख्याता सक्कर जात ए। इम जाव तथा रत्न सात ए, संख्याता सप्तमी ख्यात ए॥ ३५. अथवा रत्न में आठ ए, संख्याता सक्कर वाट ए। इम जाव तथा रत्न आठ ए, संखेज्ज सप्तमी काट ए॥ ३६. अथवा रत्न नव न्हाल ए, संख्याता सक्कर भाल ए। इम जाव तथा नव रत्न ए, संखेज्ज सप्तमी प्रपन्न ए॥ ३७. अथवा रत्न दश तास ए, संख्याता सक्कर वास ए। इम जाव तथा दश रत्न ए, संख्याता सप्तमी पन्न ए॥ ३८. अथवा रत्न संख्यात ए, संख्याता सक्कर जात ए। इम जाव तथा रत्न संख ए, संखेज सप्तमी बंक ए॥ ३६. ए रत्न थकी पहिछाण ए, षट भांगा तेह सुजाण ए। ग्यारा विकल्प करि सुविचार ए, कह्या छासठ भंगा सार ए॥ ४०. इम सक्कर थी भंग पंच ए, ऊपरली पृथ्वी संग संच ए। ग्यारा विकल्प करिने तेह ए, भंग पचपन प्रवर भणेह ए॥ ३८. अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा जाव अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा। ४०. अहह्वा एगे सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जहा रयणप्पभा उवरिमपुढवी हिं समं चारिया एवं सक्करप्पभा वि उवरिमपुढवी हि समं चारेयव्वा । *लय : बाई ! मांग-मांग बाई ! मांग ए श०६,उ० ३२, ढाल १८७ १७६ Jain Education Intemational Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. इम वालुक भी भंग प्यार ए, ऊपरली पृथ्वी संगधार ए । ग्यारा विकल्प करि सुजगीस ए. भंग भगवा चउमालीस ए ॥ ४२. इम पंक थकी भंग तीन ए, संग चीन ए । ग्यारा विकल्प करिने कहीस तेतीस ए ॥ ४३. इम धूम पकी भंग दोष संग सोय ए ग्यारा विकल्प करीनें दीस ए, भणिवा भंगा बावीस ए ॥ ४४. इम तम थकी इक भंग ए, सप्तमीं पृथ्वी संग ए । ग्यारा विकल्प करि सुविचार ए, ए तो भणिवा भंग इग्यार ए ॥ ४५. संख्यान जीवां रा एह ए. द्विकसंजोगिक इम लेह ए। ए, ग्यास विकल्प करीने उमंग ए दो सौ इकतीस सुभंग ए ॥ ४६. यावत अथवा एह ए, संख्याता समा कहेह ए। संख्याता सप्तमी जाण ए. ए चरम भंग पहिचान ए ॥ हिवे त्रिकसंजोगिक नां २१ विकल्प एकेक विकल्प नां पैंतीस पंतीस भांगा तिवारे २१ विकल्प नां ७३५ भांगा हुवे । तिहां रत्न थी १५, सक्कर थी १०, वालुक थी ६, पंक थी ३, धूम थी १ - ए ३५ भागां २१ विकल्प करि हुवै । तिहां रत थी १५ ते किसा ? रत्न सक्कर थी ५, रत्न वालु थी ४, रत्न पंक थी ३, रत्न धूम थी २, रत्न तम थी १ एवं १५, इकवीस विकल्प करि हुवै। इमज सक्कर थी १०, वालु थी ६, पंक थी ३, धूम थी १-ए इकवीस इकबीस विकल्प करिव । ऊपरली पृथ्वी ए, तंत भांगा ऊपरली पृथ्वी ४७. अथवा रत्न में एक ए, संखेज वालुका मंग ए, ४८. अथवा रत्नप्रभा में एक पंकप्रभा में संख्यात ए, ४६. तथा एक रत्न सक्कर तथा एक रत्न सक्कर एक ए. ५०. तथा एक रत्न सक्कर एक ए, रत्न सक्कर थी भंग पंच ए, धुर ५१. तथा एक रत्न सक्कर दोय ए, इक सक्कर में संपेख ए । धुर विकल्प ए भंग ए । ए इक सक्कर मांहि उवेख ए । भंग दूजो ए आख्यात ए ॥ एक ए, संखेज धूम संपे ए । संसेज तमा सुविशेल ए ॥ संखेज सप्तमीं लेख ए । विकल्प करिए संच ए ॥ संवेज्ज वालुका सोय ए तथा एक रत्न सक्कर दो ए संसेज पंक अवलोय ए ।। ५२. तथा एक रत्न सक्कर दोय ए, संखेज्ज धूम में होय ए । तथा एक रत्न सक्कर दोय ए, संखेज तमा में जोय ए ।। ५३. तथा एक रत्न सक्कर दोय ए, संखेज्ज सप्तमीं होय ए । रत्न सक्कर थी मंग पंच ए, दूजे विकल्प करीने विरंच ए ।। ५४. तथा एक रत्न सक्कर तीन ए, संखेज तथा एक रत्न सक्कर तीन ए, संखेज्ज ५५. तथा एक रत्न सक्कर तीन ए तथा एक रत्न सक्कर तीन ए, ५६. तथा एक रत्न सक्कर तीन ए, संवेज संखेज संखेज्ज सप्तमीं दीन ए । रत्न सक्कर थी भंग पंच ए, तीजे विकल्प करीनं संच ए ॥ वालुका लीन ए । पंक में चीन ए ।। धूम में लीन ए तमा आधीन ए ॥ ५७. तथा एक रत्न सक्कर च्यार ए, संखेज वालुका धार ए । जाव तथा रत्न इक अंक ए, चिडं सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ १८० भगवती जोड़ ४१, ४४. एवं एक्केक्का पुढवी उवरिमपुढवीहिं समं चारेयब्वा । ४६. जाव अहवा संखेज्जा तमाए संसेज्जा असत्तमाए होज्जा | ४७. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयपभाए होज्जा । ४८. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए संखेज्जा पंकप्पभाए होज्जा । ४६, ५०. जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए सेना महत्तमाए होना । ५१-५३. अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा एंगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा । ५४६४. अहवा एगे रयणप्पभाए तिष्णि सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा, एवं एएणं कमेणं एक्केको संचारेयब्वो सक्करप्पभाए जाव अहवा एगे रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे रयणप्पभाए संसेज्जावसंबेना महत्तमाए होया । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८. तथा एक रत्न जाव तथा रत्न ५६. तथा एक रत्न जाव तथा रत्न ६०. तथा एक रत्न जाव तथा रत्न ६१. तथा एक रत्न जाव तथा रत्न सक्कर पंच ए, संखेज वालुका संच ए । इक अंक ए, पंच सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ में लहेज ए, षट सक्कर वालु संखेज ए । इक अंक ए, घट सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ में कहेज ए, सप्त सक्कर वालु संखेज ए । इक अंक ए, सप्त सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ में लहेज ए, अठ सक्कर वालु संखेज ए । इक अंक ए, सप्तमीं संख ए ॥ अष्ट सक्कर ६२. तथा एक रत्न जाव तथा रत्न ६३. तथा एक रत्न में में लहेज इक अंक कहेज ए, ए, नव सक्कर वालु संखेज ए । ए, नव सक्कर सप्तमी संख ए ।। दश सक्कर वालु संखेज ए । दश सक्कर सप्तमी संख ए ॥ संख सक्कर वालु संखेज ए । संख सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ संस सक्कर वालु संसेज ए । संख सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ जाव तथा रत्न इक अंक ए, ६४. तथा एक रत्न में कहेज ए, जाव तथा रत्न इक अंक ए, ६५. तथा दोष रत्न में लहेज ए जाव तथा रत्न बे अंक ए, ६६. तथा तीन रत्न में कहेज ए, जाव तथा रत्न त्रिण अंक ए, ६७. तथा व्यार रत्न में लहेज ए, जाव तथा रत्न चिउं अंक ए, ६८. तथा पंच रत्न में कहेज ए, जाव तथा रत्न पंच अंक ए, ६६. अथवा षट रत्न कहेज ए, संख सक्कर वालु संखेज ए । संख सक्कर सप्तमी संख ए ॥ संख सक्कर वालु संखेज ए । संख सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ संख सक्कर वालु संखेज ए । संख सक्कर सप्तमी संख ए ॥ षट सक्कर वालु संखेज ए । षट सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ सप्त सक्कर वालु संखेज ए । सप्त सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ अष्ट सक्कर वालु संखेज ए । अष्ट सक्कर सप्तमीं संख ए ।। नव सक्कर वालु संखेज ए । नव सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ दश सक्कर वालु संखेज ए । दश सक्कर सप्तमी संख ए ॥ संख सक्कर वालु संखेज ए । संख सक्कर सप्तमीं संख ए ॥ विकल्प इकवीस विरंच ए । हिवै रत्न वालुक थी प्रसंग ए ॥ इक वालुक पंक संखेज ए । इक वालुक सप्तमीं संख ए ॥ जाव तथा रत्न षट अंक ए, ७०. तथा सप्त रत्न में कहेज ए, जाव तथा रत्न सप्त अंक ए, ७१. तथा अष्ट रत्न में लहेज ए, जाव तथा रत्न अष्ट अंक ए, ७२. अथवा नव रत्न लहेज ए, जाव तथा रत्न नव अंक ए, ७३. अथवा दश रत्न लहेज ए, जाव तथा रत्न दश अंक ए, ७४. अथवा संख रत्न कहेज ए, जाव तथा रत्न संख अंक ए, ७५. रत्न सक्कर थी भंग पंच ए, ह्या एकसौ नैं पंच भंग ए, ७६. तथा एक रत्न में कहेज ए, जाव तथा रत्न इक अंक ए, ६५. अहवा दो रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा दो रयणप्पभाए सं खेज्जा सक्करप्पभाए संखेज्जा आहेसत्तमाए होज्जा । ६६-७४ अहवा तिणि रयणप्पभाए सखेज्जा सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा । एवं एएवं कमेणं एक्क्को रयणप्पभाए संचारेयव्वो जाव अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करपभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए संखेज्जा आहेसत्तमाए होज्जा | ७६. अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयष्पभाए संखेज्जा पंकप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुष्पभाए संखेज्जा असत्तमाए होज्जा । श० ६, उ० ३२, ढाल १८७ १८१ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भांगा बयालीस तास ए, १. रत्न तथा थकी भंग एक ए भणवा भांगा इकवीस ए, ८२. भांगा पनर रत्न थी एह ए, ७७. अथवा इक रत्न लभेज्ज ए, दोय वालुका पंक संखेज्ज ए । जाव तथा रत्न इक अंक ए, दोय बालुका सप्तमी संल ए ॥ ७८. इम इहविध अनुक्रमेण ए, रत्न वालु थी चिउं भंग श्रेण ए ।। इकवोस विकल्प करि जोय ए त भंग चउरासी होय ए ॥ ७६. रत्न पंक की भंग तीन ए, इकवीस विकल्प करि चीन ए । त्रेसठ भांगा जाण ए, तिके पूर्व रीत पिछाण ए ॥ ८०. रत्न धूम थकी भंग दोय ए, इकवीस विकल्प करि जोय ए । विध पूर्व रीत प्रकाश ए ॥ इकवीस विकल्प करि पेस ए । विध पूर्व उक्त जगीस ए ॥ विकल्प इकवीस करेह ए । हिवै सक्कर थकी कहीस ए ॥ विकल्प इकवीस सुलेख ए । भणवा पूर्व रोत सुचंग ए ॥ विकल्प इकवीस भणेह ए । ए ते पिण पूर्व रीत जगीस ए ॥ विकल्प इकवीस आधीन ए वारु बुद्धि विमल सुविमास ए ॥ विकल्प इकवीस सुलेख ए । विधि पूर्व उक्तज होय ए॥ सातसौ ने पैंतीस सुचंग ए जिन भाखे गुण गंगेय ! ए ॥ हुवै तीन सौ नैं इकवीस ए, ८३. इम सक्कर थी दश देख ए हुवै दो सौ में दश भंग ए, ४. भंग वालुका थी षट तेह ए, भांगा में एक सौ ने छवीस ८५. पंक चकी भंग तीन ए ८४. । प्रेसठ मांगा तास ए. ८६. धूम थकी भंग एक ए इकवीस भांगा अवलोव ए. ८७. इम त्रिकसंजोगिक मंग ए. इम नारकि भ्रमण करेय ए देश नवम बतीसम न्हाल ए एकसी ने सत्यासीमी ढाल ए । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय ए. सुख 'जय जय' हृप सवाब ए ॥ हि संख्याता जीवां रा चउकसंयोगिक तेहनां विकल्प ३१ भांगा १०८५ तिणरो विवशे- चउकसंजोगिक ३५ भांगा एकेक विकल्प करि हुवै। रत्न थी २०, सक्कर थी १०, वालुक थी ४, पंक थी ९ – एवं ३५ । रत्न थी २० ते किसा ? रत्न सक्कर थी १०, रत्न वालु थी ६, रत्न पंक थी ३, रत्न धूम थी १ -- एवं २० । रत्त सक्कर थी १० ते किसा ? रत्न सक्कर वालु थी ४, रत्न सक्कर पंक थी ३, रत्न सक्कर धूम थी २, रत्न सक्कर तम थी १ – एवं १० । इम आगल पिण जिम संभव तिम करिवा तिहां प्रथम रत्न सक्कर वालु थी ४ भांगा इकतीस विकल्प करि १२४ भांगा कहै छै - १. जीव संखेज तणां पियासी इक सहस्र भंग, ढाल : १८८ १०२ भगवती जोड दूहा हिवे चउकसंयोगी कहीस । विकल्प तसु इकतीस || ७७. अहवा एगे रयणप्पभाए दो वालुयप्पभाए संबेज्जा पंकप्पभाए होज्जा, एवं एएणं कमेणं तिमासंजोगो, १. चतुष्कसंयोगेषु पुनराद्याभिश्चतसृभिः प्रथमश्चतुष्कसंयोगः तत एते सर्वेश्येकष चतुयोगे एकत्रि Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनया च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां पंचत्रिंशतो गुणने सहस्र पंचाशीत्यधिकं भवति। (वृ०प०४४६) * श्री जिन भाखै सुण गंगेया! (ध्रुपदं) २. तथा रत्न इक सक्कर में इक, एक वालु पंक माहि संख्यात । तथा रत्न इक सक्कर में इक, एक वालु धूम संख्याता जात ।। ३. तथा रत्न इक सक्कर में इक, एक वालु तम संख भणेज। तथा रत्न इक सक्कर में इक, एक वाल सप्तमी में संखेज ।। ४. तथा रत्न इक सक्कर में इक, बे वालुक पंक मांहि संख्यात । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक, बे वालुक संख सप्तमी जात ।। ५. तथा रत्न इक सक्कर में इक, त्रिण वालु पंक मांहि संखेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक, त्रिण वालु संखेज सप्तमी लेय । ६. तथा रत्न इक सक्कर में इक, चिउं वालु पंक संखेज कहेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक, चिउं वालु सप्तमी संखेज लेय ।। ७. तथा रत्न इक सक्कर में इक, पंच वालु पंक संखेज लेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक, पंच वालु सप्तमी में संखेय ।। ८. तथा रत्न इक सक्कर में इक, षट वाल पंक संख्यात पीड़ात । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक, षट वालु सप्तमी मांहि संख्यात ।। है. तथा रत्न इक सक्कर में इक, सप्त वालू पंक संखेज लेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक, सप्त वालु सप्तमी में संखेय ।। १०. तथा रत्न इक सक्कर में इक, अष्ट वालक पंक संखेज वेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक, अष्ट वालू सप्तमी में संखय ।। ११. तथा रत्न इक सक्कर में इक, नव वालू पंक संखेज वदेह । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक, नव वाल संखेज सप्तमी लेह ।। १२. तथा रत्न इक सक्कर में इक, दश वालु पंक संखेज वदेह । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक, दश वालु संखेज सप्तमी लेह। १३. तथा रत्न इक सक्कर में इक, संखेज वालु संखेज पंकेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। १४. तथा रत्न इक सक्कर में बे, संखेज वालु संखेज पंकेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर बे, संखेज वालू सप्तमी संखेय ।। १५. तथा रत्न इक सक्कर में त्रिण, संखेज वालु संखेज पंकेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर त्रिण, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। १६. तथा रत्न इक सक्कर में चिउं, संखेज वालू संखेज पंकेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर चिउं, संखेज वालू सतमा संखय ।। १७. तथा रत्न इक सक्कर में पंच, संखेज वालू संखेज पकेय । जाव तथा इक रत्न सफर पंच, संखज वालु सप्तमी संखेय ॥ १८. तथा रत्न इक सकार में षट, संखेज वाल संखेज पंकेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर षट, संखेज वालु सप्तमी संखय ।। १६. तथा रत्न इक सक्कर म सप्त, संखेज वालु संखज पंकेय । तथा रत्न इक सक्कर म सप्त, संखेज वालुसनमा संखय ।। २०. तथा रत्न इक सक्कर में अष्ट, संखेज वालु संखेज पंकेय । तथा रत्न इक सक्कर में अष्ट, संखेज वालु सप्तमी में संखेय ।। *लय : घोड़ी री श०६,उ०३२, ढाल १८८ १९३ Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. तथा रत्न इक सक्कर में नव, संखेज वालु संखेज पंकेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर नव, संखेज वालु सप्तमी संखेय ॥ २२. तथा रत्न इक सक्कर में दश, संखेज वालु संखेज पंकेय । जाव तथा रत्न इक सक्कर में दश, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। २३. तथा रत्न इक सक्कर संख्याता, संखेज वाल संखेज पंकेय । जाव तथा इक रत्न सक्कर संख, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। २४. तथा रत्न बे सक्कर संख्याता, संखेज वालु पंक संख लेय । जाव तथा रत्न बे संख सक्कर, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। २५. तथा रत्न त्रिण सक्कर संख्याता, संखेज वालु पंक संख लेय । जाव तथा रत्न त्रिण संख सक्कर, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। २६. तथा रत्न चिउं सक्कर संख्याता, संखेज वालु पंक संख लेय । जाव तथा रत्न चिहुं संख सक्कर, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। २७. तथा रत्न पंच सक्कर संख्याता, संखेज वालु पंक संख लेय । जाव तथा रत्न पंच संख सक्कर, संखेज वालु सप्तमी संखेय ॥ २८. तथा रत्न षट सक्कर संख्याता, संखेज वालु पंक संख लेय । जाव तथा रत्न षट संख सक्कर, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। २६. तथा रत्न सप्त सक्कर संख्याता, संखेज वालु पंक संख लेय । जाव तथा रत्न सप्त संख सक्कर, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। ३०. तथा रत्न अष्ट सक्कर संख्याता, संखेज वालु पंक संख लेय। जाव तथा रत्न अठ संख सक्कर, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। ३१. तथा रत्न नव सक्कर संख्याता, संखेज वालु पंक संख लेय । जाव तथा रत्न नव संख सक्कर, संखेज वालु सप्तमी संखेय ।। ३२. तथा रत्न दश सक्कर संख्याता, संखेज वालु पंक संख लेय । जाव तथा रत्न दश संख सक्कर, संखेज वाल सप्तमों संखेय ।। ३३. तथा रत्न संख सक्कर संख्याता, संखेज वाल पंक संख लेय । जाव तथा रत्न संख सक्कर, संखेज वाल सप्तमी संखेय ।। ३४. ए रत्न सक्कर वालु थी चिउं भांगा, इकतीस विकल्प इक सौ चोवीस । रत्न सक्कर पंक थो त्रिण भांगा, इकतीस विकल्प त्राणू जगीस। ३५. रत्न सक्कर धूम थी दोय भांगा, इकतीस विकल्प बासठ दोस । रत्न सककर तम थो इक भंगो, इकतोस विकल्प भंग इकतीस ।। ३६. ए रत्न सककर थी दश भांगा, ते तोनसौ दश विकल्प इकतीस । इमज रत्ल वालु थोषट भागा, एकसो ने बासो सुजगीस ।। ३७. इमहिज रत्न पंक थोत्रि भंग, इकतोस विकल्प त्राणं दीस । रत्न धुम थो एक भांगो, ते इकतीस विकल्प भंग इकतीस ।। ३८. रत्न थको ए वोस भंगा इम, इकतोस विकल छ सो बोस । सकार थी दश भांगा इमहिज, तोनसी ने दश इमज कहीस ।। ३६. वालु थो चिउं भंग इकतोस विकल, भांगा हवे एक सो चोवीस । पंक थको इक भांगो हुवे, ते इकतोस विकल्प भंग इकतीस ।। ४०. संखेज जावां रा चउकसंजोगिक, भांगा हुवै एक सहस्र पच्चासी। पैंतोस भांगा मूल छै त्यां नैं, इकतीस गुणा कियां इता थासी॥ १८४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ation Intermational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. नवम शतक नों बतीसम देशज, एकसौ नैं अठ्यासीमी ढाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' संपति हरष विशाल ।। ढाल : १८६ हिवै संख्यात जीवां रा पंचसंयोगिक नां विकल्प ४१, भांगा ८६१ तिणरो विवरो---पंच संयोगिक २१ भांगा एक-एक विकल्प करि हुदै । रत्न थकी १५, सक्कर थी ५ वालुक थी १, एवं २१ । तिहां रत्न थी १५ तेहनों विवरो---रत्न सक्कर थी १०, रत्न वालु थी ४, रत्न पंक थी १ एवं १५ । तिहा रत्न सक्कर थी १० ते किसा? रत्न सक्कर बालु थी ६, रत्न सक्कर पंक थी ३, रत्न सक्कर धूम थी १ एवं १० । तिहां रत्न सक्कर वालुक थी ६ ते किसा? रत्न सक्कर वालु पंक थी ३, रत्न सक्कर वालु धूम थी २, रत्न सक्कर वालु तम थी १-एवं ६ । तिहां प्रथम रत्न सक्कर वालु पंक थी ३ भांगा ४१ विकल्प करि १२३ भांगा कहै छै १. पञ्चकसंयोगेषु त्वाद्याभिः पञ्चभिः प्रथमः पञ्चक योगः, ""तत एते सर्वेऽप्येकत्र पञ्चकयोगे एकचत्वारिंशत्, अस्याश्च प्रत्येक सप्तपदपञ्चकसंयोगानामेकविशतेलाभादष्टशतानि एकषष्ट्यधिकानि भवन्ति । (वृ प० ४४६) १.जीव संखेज तणां हिवै, पंच-संयोगि कहीस । अठ सय इकसठ भंग तसु, विकल्प इकतालीस ।। २. *अथवा इक रत्न इक सक्कर इक वालुका, पंक इक धूम संख्यात जातं ।। जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु इक, पंक इक सप्तमी में संख्यातं । विकल्प प्रथम जिनराज इम वागरे । ३. अथवा इक रत्न इक सक्कर इक बालुका, पंके बे धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु इक, पंक बे सप्तमी में संख्यातं । विकल्प द्वितीय जिनराज इम वागरे । ४. अथवा इक रत्न इक सक्कर इक वालुका, पंक त्रिण धूम संख्यात जात । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक बालु इक, पंक त्रिण सप्तमी में राख्यात। विकल्प तृतीय जिनराज इम वागरै।। ५. अथवा इक रत्न इक सक्कर इक वालुका, ___पक चिउ धूम संख्यात जात । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालुइक, पंक चिउ सप्तमी में सख्यातं । विकल्प तुर्य जिनराज इम बागर ।। *लय : कड़खारी २० उ०३२, ढाल १०८,१८६ १८५ Jain Education Intemational tional Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. अथवा इक रत्न इक सक्कर इक वालुका, पंक पंच धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालुक इक, पंक पांच सप्तमी में संख्यातं । पंचम विकल्प श्री जिनराज कहै ।। ७. अथवा इक रत्न इक सक्कर इक वालुका, पंक षट धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु इक, पंक षट सप्तमी में संख्यातं । षष्टम विकल्प श्री जिनराज कहै। ८. अथवा इक रत्न इक सक्कर इक वालुका, पंक सप्त धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु इक, पंक सप्त सप्तमी में संख्यातं । सप्तम विकल्प श्री जिनराज कहै ।। ६. अथवा इक रत्न इक सक्कर इक वालुका, पंक अष्ट धूम संख्यात जातं । जाव तथा इक रत्न सक्कर इक वालु इक, पंक अष्ट सप्तमी में संख्यातं । विकल्प अष्टम श्री जिनराज कहै । १०. अथवा इक रत्न इक सक्कर इक वालुका, पंक नव धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु इक, पंक नव सप्तमी में संख्यातं । नवम विकल्प जिनराज इम वागरै ।। ११. अथवा इक रत्न इक सक्कर इक वालुका, पंक दश धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वाल इक, पंक दश सप्तमी में संख्यातं । दशम विकल्प जिनराज इम वागरै।। १२. अथवा इक रत्न इक सक्कर इक वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु इक, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । एकादशम विकल्प जिनराज वागरै ।। १३. अथवा इक रत्न इक सक्कर बे वालुका, ___ संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालुबे, __संख पंक सप्तमी में संख्यातं । द्वादशम विकल्प जिनराज वागरे । १८६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. अथवा इक रत्न इक सक्कर त्रिण वालुका, सं पंक धम संख्यात जातं । जा तथा रत्न इक सक्कर इक वालु त्रिण, सं पंक सप्तमीं में संख्या त्रयोदशम विकल्प जिनराज वागरे ॥ १५. अथवा इक रत्न इक सक्कर चिउं वालुका, संघ पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु चिउं, संख पंक सप्तमीं में संख्यातं । चउदशम विकल्प जिनराज वागरै ॥ १६. अथवा इक रत्न इक सक्कर पंच वालुका, संख पंक घूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु पंच, संख पंक सप्तमीं में संख्यातं । पनरम विकल्प श्री जिनराज कहै । १७. अथवा इक रत्न इक सक्कर षट वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु षट, संख पंक सप्तमीं में संख्यातं । सोलसम विकल्प श्री जिनराज कहै ॥ १८. अथवा इक रत्न इक सक्कर सप्त वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु सत्त संख पंक सप्तमीं में संख्यातं । सतरमों विकल्प श्री जिनराज कहै ॥ १६. अथवा इक रत्न इक सक्कर अठ वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु अठ, संख पंक सप्तमीं में संख्यात । अठारमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। २०. अथवा इक रत्न इक सक्कर नव वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु नव, संख पंक सप्तमीं में संख्यातं । उगणीसमों विकल्प श्री जिनराज कहे । २१. अथवा इक रत्न इक सक्कर दश वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इकवालु दश, सं पंक सप्तमीं में संख्यातं । बीसों विकल्प श्री जिनराज कहे ।। श०६, उ०३२, ढाल १८६ १८७ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सख पकसान २२. अथवा इक रत्न इक सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर इक वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । इकवीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै । २३. अथवा इक रत्न बे सक्कर संख वालका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर बे वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । बावीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। २४. अथवा इक रत्न त्रिण सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर त्रिण वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । तेवीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। २५. अथवा इक रत्न चिउ सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर चिउ वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । चउवीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। २६. अथवा इक रत्न पंच सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर पंच वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं ॥ पणवीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। २७. अथवा इक रत्न षट सक्कर संख बालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर षट वालु संख, ___ संख पंक सप्तमी में संख्यातं । षटवीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। २८. अथवा इक रत्न सप्त सक्कर संख वालुका, संख पंक धम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर सप्त वालुसख, संख पंक सप्तमों में संख्यात । सप्तवीसमो विकल्प श्री जिनराज कहे ।। २६. अथवा इक रत्न अठ सकार संख वालुका, संखपंक धम संखपात जातं । जाव तथा रत्न इक राक्कर अठवाल संख, पंक संख सप्तमी म संख्यातं । अष्टवीसमों विकल्प थी जिनराज कहै ।। १८८ भगवती-जाद Jain Education Intemational Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. अथवा इक रत्न नव सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर नव वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । गुणतीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। ३१. अथवा इक रत्न दश सक्कर संख वालुका, ____ संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर दश वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । तीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै । ३२. अथवा इक रत्न संख सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न इक सक्कर संख वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । इकतीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। ३३. अथवा बे रत्न संख सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न बे सक्कर संख वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । बतीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै । ३४. अथवा त्रिण रत्न संख सक्कर संख वालुका, संख पंक धुम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न त्रिण संख सक्कर वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । तेतीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। ३५. अथवा चिउ रत्न संख सक्कर संख वालुका, संक पंक धम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न चिउ संख सक्कर वाल संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । चउतीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। ३६. अथवा पंच रत्न संख सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न पंच संख सक्कर वाल संख, पंक संख सप्तमों में संख्यातं । पैंतीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। ३७. अथवा षट रत्न संख सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न षट संख सक्कर वालु संख, पंक संख सप्तमों में संख्यातं । छतीसमों विकल्प भी जिन राज कहै ।। श० ६, उ० ३२, ढाल १८६ १८६ Jain Education Intemational Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. अथवा सत्त रत्न संख सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं। जाव तथा रत्न सत्त संख सक्कर वालु संख, __ संख पंक सप्तमी में संख्यातं । सैंतीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै । ३६. अथवा अठ रत्न संख सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न अठ संख सक्कर वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । अड़तीसमो विकल्प श्री जिनराज कहै । ४०. अथवा नव रत्न संख सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न नव संख सक्कर वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । गुणचालीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ॥ ४१. अथवा दश रत्न संख सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न दश संख सक्कर वालु संख, ___ संख पंक सप्तमी में संख्यातं । चालीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। ४२. अथवा संख रत्न संख सक्कर संख वालुका, संख पंक धूम संख्यात जातं । जाव तथा रत्न संख संख सक्कर वालु संख, संख पंक सप्तमी में संख्यातं । इकतालीसमों विकल्प श्री जिनराज कहै ।। ४३. *इम रत्न सक्कर वालु धूम थी, भंग दोय भणीजिये । विकल्प एक चालीस करिक, बयांसी गिण लीजिये ।। ४४. इस रत्न सकार वालु तम थी, एक भंग अहीजही। विकल्प इकतालीस करिकै, भंग इकतालीस ही। ४५. इन रल सक्कर पंक धूम थी, दो भांगा दाखीजिये । ५ तालास करिक, बयांसी भंग कोजियै ॥ ४६. रत्न सक्कर पंक तम थी, एक भंग हवे वही। विकल इकतालीस करिक, भंग इकतालीस ही॥ ४७. इस रल सकार धूम तम थी, एक ईज भांगो लहै । विकल्प इकतालीस कारके, भग इकतालीस है। ४८. रत्न वालु क धूम थो, दोय भंग दाखीजिये । मिला तालीस करिक, बयांसी भग कीजिये । ४६. .. पान पंक तम थी, एक भंग हुवे वही । बितानोस करिक, भंग इकतालीस हो । *लय : यूजमा तोटा १६० सगमती-जा Jain Education Intemational Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूम तम थी, एक भंग हुवे सही । चालीस करिके, भंग इकतालीस ही ॥ ५१. इम रत्न पंक ने धूम तम थी, एक भंग हुवै वही । विकल्प इकतालीस करिके, भंग इकतालीस ही ॥ ५२. सक्कर भी इस पांच-पांच भांगा, पूर्व रीत भणीजिये। ५०. रत्न वालु विकल्प एक विकल्प इकतालीस करिकै, बे सय पंच गिणीजिये ॥ ५३. वालुका थी एक भंग इम इकतालीस विकल्प करी । भंग इकतालीस होवे, प्रवर बुद्धी अनुसरी ॥ ए रत्न थी ६१५, सक्कर भी २०५, बालुका भी ४१ - एवं सवं ८६१ भांगा हुवे । ५४. * जीव संखेज नां पंचयोगिका, आठसौ इकसठ भंग इम आखिया, मूल इकवीस भांगा छेतेनां ॥ ५५. नवम शतदेश बतीसम ए कहा, एक सौ ने नव्यासीमीं ढालं । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसाद थी, 'जय-जम' हरम पति निशानं ॥ १. २. इहा १. संस जीव पट-योगिका, विकल्प एकावन्न । भंग तीन सय ऊपर, २. मूल सप्त भंग तेहनें, सत्तावन गुणे गेह । सत्तावन प्रपन्न || हुवै तीन सौ भंग इम, सत्तावन ३. पूर्ववत विकल्प प्रवर एकावन्न कहूं जुजुमा तेहयी, भणिवा भांगा अधिकेह || उदार । । सार ॥ ३. ४. ५. ६. ७. 5. विकल्प एकचालीस जेहनां । ढाल : १६० संखेज्ज जीवां राषट-संजोगिक ५१ विकल्प जूजुआ बेबाई - १ रत्न, १ सक्कर, १ बालु, १ पंक, १ धूम, संख्यात सम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ घूम, संख्यात तम १ रश्न, १ सक्कर, १ बालु, १ पंक, ३ भूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ४ धूम, संस्यति तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ५ घूम, संख्यात तब *लय: कड़वां री १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ६ धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ बालु, १ पंक, ७ घूम, संख्यात ब्रम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, धूम, संस्थात नम् १. कोतपत्र पट्संयोगे एकपञ्चाशद्विकल्पा भवन्ति, अस्याश्च प्रत्येकं सप्तपदषट्कयोगे सप्तक लाभाक्त्रीणि शतानि सप्तपञ्चाशदधिकानि भवन्ति । ( वृ० प० ४४२) श० ६, उ० ३२, ढाल १८६,१६० १९१ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ रत्न, १ सक्कर; १ वालु, १ पंक, ६ धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १० धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु २ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ३ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ४ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ५ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ६ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ७ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु ८ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ६ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १० पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, ३ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, ४ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, ५ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, ६ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम १ रत्न, १ सक्कर, ७ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम २८. १ रत्न, १ सक्कर, ८ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम २६. १ रत्न, १ सक्कर, वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ३०. १ रत्न, १ सक्कर, १० वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ३१. १ रत्न, १ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ३२. १ रत्न, २ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ३३. १ रत्न, ३ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ३४. १ रत्न, ४ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ३५. १ रत्न, ५ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ३६. १ रत्न, ६ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ३७. १ रत्न, ७ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ३८. १ रत्न, सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ३६. १ रत्न, २६. २७. सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ४०. १ रत्न, १० सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ४१. १ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ४२. २ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धू., संख्यात तम ४३. ३ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ४४. ४ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ४५. ५ रत्न, सख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ४६. ६ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम ४७. ७ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात त ४८. रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, ४६. ६ रत्न संख्या सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धून. ५०. १० रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम संधान तर संख्यात तम 7 १६२ भगवती जोड़ ε. १०. ११. x m x x w o v w o o n m x १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. २५. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. सप्तकसंयोगे तु पूर्वोक्तभावनयकषष्टिविकल्पा भवन्ति, सर्वेषां चषां मीलने त्रयस्त्रिशच्छतानि सप्तत्रिशदधिकानि भवन्ति । (वृ०प० ४४६) ५१. संख्यात रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पक, संख्यात धूम संख्यात, तम संखेज जीव नां षट-संजोगिक ५१ विकल्प करि ५१ भांगा कह्मा, तिणमें सप्तमी नरक टली। इमहिज संखेज जीव नां षट-संजोगिक ५१ विकल्प करि ५१ भांगा में छठी नरक टालणी। इम संखेज जीव नां षट-संजोगिक ५१ विकल्प करि ५१ भांगा तिणमें पांचमी नरक टालणी। इम संखेज जीव नां षट-संजोगिक ५१ विकल्प करि ५१ भांगा तिणमें चउथी नरक टालणी। इमहिज संखेज जीव नां षट-संयोगिक ५१ विकल्प करि ५१ भांगां में तीजी नरक टालणी। इमहिज संखेज जीव नां षट-संजोगिक ५१ विकल्प करि ५१ भांगां में दूजी नरक टालणी। इमहिज संखेज जीव नां षट-संजोगिक ५१ विकल्प करि ५१ भांगां में प्रथम नरक टालणी। एवं संखेज जीव नां षट-संयोगिक ५१ विकल्प करि ३५७ भांगा हुदै । हिवं सप्त संयोगिक कहै छ४. संख जीव सप्तयोगिका, इगसठ विकल्प एम। भांगा पिण इगसठ तसं, कहूं जूजुआ जेम ।। संखेज जीव नां सप्त-संयोगिक ६१ विकल्प, भांगा पिण ६१, ते कहै छ१.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, संख्यात सप्तमी २. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम, संख्यात सप्तमी ३. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, ३ तम, संख्यात सप्तमी ४. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धम, ४ तम, संख्यात सप्तमी ५. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, ५ तम, संख्यात सप्तमी ६.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, ६ तम, संख्यात सप्तमी ७. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, ७ तम, संख्यात सप्तमी ८.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १पंक १ धूम, ८ तम, संख्यात सप्तमी ६.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु १ पंक, १ धूम, ६ तम, संख्यात सप्तमी १०.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १० तम, संख्यात सप्तमी ११.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी १२. १ रत्न, १सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम, सख्यात तम, संख्यात सप्तमी १३.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ३ धुम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी १४.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ४ धम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी १५. १ रत्न, १ सक्कर, १ बालु, १पंक, ५ धुम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी १६. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ६ धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी १७. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ७ धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी १८.१ रत्न, १ सक्कर, १ बालु, १ पंक, ८ धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी १६. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ६ धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी २०. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १० धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी २१. १ रल, १ सक्कर, १ वालु, १पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी २२. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, सख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी श.६, उ० ३२, ढाल १६० १६३ Jain Education Intemational Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ३ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमीं २४. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ४ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी २५. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु ५ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी २६. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ६ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, सख्यात सप्तमी २७. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ७ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी २८. १ रत्न, १ सक्कर, १ बालु, ८ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी २६. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ६ पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ३०. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १० पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ३१. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ३२. १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमीं ३३. १ रत्न, १ सक्कर, ३ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, सप्तमी ३४. १ रत्न, १ सक्कर, ४ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ३५. १ रत्न, १ सक्कर, ५ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ३६. १ रत्न, १ सक्कर, ६ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ३७. १ रत्न, १ सक्कर, ७ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात संख्यात धूम, संख्यात तम, सप्तमी सप्तमी ३८. १ रत्न, १ सक्कर, वालु, संख्यात पंक, ८ ३६. १ रत्न, १ सक्कर, ६ वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमीं ४०. १ रत्न, १ सक्कर, १० वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी संख्यात ४१. १ रत्न, १ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ४३. १ रत्न, ३ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, ४२. १ रत्न, २ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ४४. १ रत्न, ४ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी संख्यात ४५. १ रत्न, ५ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी १९४ भगवती - जोड़ ४६. १ रत्न, ६ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ४७. १ रत्न, ७ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. १ रत्न, ८ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ४६. १ रत्न, ६ सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ५०. १ रत्न, १० सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ५१. १ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ५२. २ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ५३. ३ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ५४. ४ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ५५. ५ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमों ५६. ६ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तभी ५८.८ रत्त संख्यात सक्कर, संख्यात वालु संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ५६. ६ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात बालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी ६०. १० रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमी संख्यात धूम, संख्यात तम, संख्यात सप्तमीं ५७. ७ रत्न, संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, संख्यात ६१. संख्यात रत्न संख्यात सक्कर, संख्यात वालु, संख्यात पंक, , हि संख्यात जीवां रा भांगां रो धड़ो कहै छै - १. इक संयोगिक ७ । २. द्विक संयोगिक २३१ । ३. त्रिक संयोगिक ७३५ । ४. चक्क संयोगिक १०८५ । ५. पंच संयोगिक ८६१ । ६. पट संयोगिक ३५७ । ७. सप्त संयोगिक ६१ । ए सर्व ३३३७ । संख्यात जीव नरक में जाय तेनां इकयोगिक भांगा ७ विकल्प १ ते लिखिये छे १. संख्याता रत्नप्रभा में ऊपजै । २. अथवा सक्कर में ऊपजै । ३. जाव अथवा तमतमा में ऊपजै । संख्याता जीव नरक में जाय तेहनां द्विकसंजोगिया विकल्प ११ ते लिखियै छँ ० १३ उ० ३२, ढाल १६० १६५ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. १ रत्न, संख' सक्कर ए प्रथम विकल्प । २.२ रत्न, संख सक्कर ए द्वितीय विकल्प। इम रत्न में अनुक्रमे दश तांइ एकएक वधारतां दसमों विकल्प१०.१० रत्न, संख सक्कर ए दशमों विकल्प । ११. संख रत्न, संख सक्कर ए इग्यारमों विकल्प । ए द्विकसंजोगिया संख्याता जीवां रा ११ विकल्प अन एक-एक विकल्प नां इकवीस-इकवीस भांगा हुवे ते माट इग्यारै नै २१ गुणां कीधे छते २३१ भांगा हुवै । संख्याता जीव नरक में जाय तेहनां त्रिकसंजोगिया विकल्प २१ ते लिखिये १. १ रत्न, १ सक्कर, संख वालुक ए प्रथम विकल्प । २. १ रल, २ सक्कर, संख वालुक ए द्वितीय विकल्प । इम सक्कर में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारतां दसमों विकल्प१०.१ रत्न, १० सक्कर, संख वालुक ए दशमों विकल्प । ११. १ रत्न, संख सक्कर, संख वालुक, ए इग्यारमों विकल्प । १२.२ रत्न, संख सक्कर, संख वालुक ए बारमों विकल्प । इम रत्न में दश तांइ अनुक्रमे एक-एक वधारतां बीसमों विकल्प२०.१० रत्न, संख सक्कर, संख वालु ए बीसमों विकल्प । २१. संख रत्न, संख सक्कर, संख वालुक ए इकवीसमों विकल्प । ए त्रिकसंजोगिया संख्यात जीवां रा २१ विकल, अने एक-एक विकल्प ना पैंतीस-पैतीस भांगा हुदै ते माट इकवीस नै ३५ गुणां कीधे छते ७३५ भांगा हुवै। ___ संख्याता जीव नरक में जाय, तेहनां चौकसंजोगिया विकल ३१ एहनी आमना लिखिय छ१. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालुक, संख पंक ए प्रथम विकल्प । २.१ रत्न, १ सक्कर, २ वालुक, संख पंक ए द्वितीय विकल्प। इम वालुक में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारतां दसमों विकल्प१०. १ रत्न, १ सक्कर, १० वालुक, संख पंक, ए दशमों विकल्प । ११. १ रत्न, १ सक्कर, संख वालुक संख पंक ए ११ मों विकल्प । १२.१ रत्न, २ सक्कर, संख वालुक, संख पंक ए १२ मो विकल्प । इम सक्कर में दश तांइ अनुक्रमे एक-एक वधारतां बीसमों विकल्प२०. १ रत्न, १० सक्कर, संख वालुक, संख पंक ए वीसमो विकल्प । २१.१ रल, संख सक्कर, संख वालुक, संख पंक ए २१ मों विकल्प । २२.२ रत्न, संख सक्कर, संख वालु, संख पंक ए २२ मों विकल्प । इम रत्न में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारता तीसमों विकल्प३०. १० रत्न, संख सक्कर, संख वालुक, संख पंक ए तीसमों विकल्प । ३१. संख रत्न, संख सक्कर, संख वालु, संख पंक ए ३१ मों विकल्प । चउक संजोगिया संख्याता जीवां रा ३१ विकल्प अने एक एक विकल्प नां पैतीसपैतीस भांगा हुवै ते माट ३१ में ३५ गुणां कीधे छते १०८५ भांगा हवै। संख्याता जीव नरक में जाय तेहनां पंचसंजोगिया विकल्प ४१ तेहनी आमना लिखियै छै१.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, संख धूम, ए प्रथम विकल्प । २.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, संख धूम, ए द्वितीय विकल्प । इम पंक में १. संख्यात के स्थान पर संख शब्द का प्रयोग हुआ है। १६६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारतां दसमों विकल्प१०. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १० पंक, संख धूम ए दशमों विकल्प। ११.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, संख पंक, संख धूम ए ११ मों विकल्प । १२.१ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, संख पंक, संख धूम ए १२ मों विकल्प, इम वालुक ___ में अनुक्रमें दश तांइ एक-एक वधारतां बीसमों विकल्प -- २०. १ रत्न, १ सक्कर, १० वालु, संख पंक, संख धूम, ए २० मों विकल्प । २१. १ रत्न, १ सक्कर, संख वालु, संख पंक, सख धूम, ए २१ मों विकल्प । २२.१ रत्न, २ सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धम, ए २२ मों विकल्प । इम सक्कर में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारता तीसमों विकल्प --- ३०.१ रत्न, १० सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम ए ३० मों विकल्प । ३१. १ रत्न, संख सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम ए ३१ मों विकल्प । ३२.२ रत्न, संख सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम ए ३२ मों विकल्प । इम रत्न में अनुक्रमें दश तांइ एक-एक वधारतां चालीसमों विकल्प४०.१० रत्न, संख सक्कर, संख वालु, संख, पंक, संख धूम ए चालीसमों विकल्प । ४१. संख रल, संख सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम ए ४१ गो विकल्प । ए संख्यात जीयारा पांचसंजोगिया ४१ विकल्प, अनै एक-एक विकल्प नां इक्कीस-इक्कीस भांगा हुवै , ते माट इकतालीस नं २१ गुणां कीधे छते ८६१ भांगा संख्याता जीव नरक में जाय तेहनां षट संजोगिया विकल्प ५१, तेहनीं आमना लिखियै छै१.१ रल, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, संख्पात तप, ए प्रथम विकल्प । २. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम, संख्पात तग ए द्वितीय विकल्प । इम धूम में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारतां दसमों विकल्प१०. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १० धूम, संख्यात तम ए १० मों विकल्प । ११. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, संख धूम, संख तम ए ११ मों विकल्प । १२. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, संख धूम, संख तम ए १२ मों विकल्प । इम पंक में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारता बीसमों विकल्प२०.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १० पंक, संख धूम, संख तम, ए २० मों विकल्प । २१.१ रल, १ सक्कर, १ वालु, संख पंक, संख धम, संख तम ए २१ मों विकल्प । २२.१ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, संख पंक, संख धम, संख तम, ए २२मों विकल्प। इम वालुक में अनुक्रमे दश तांइ एक एक वधारतां तीसमों विकल्प३०. १ रत्न, १ सक्कर, १० वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम ए ३० मों विकल्प । ३१. १ रत्न, १ सक्कर, संख वालु, संख पक, संख धूम, संख तम, ए ३१ मों विकल्प। ३२.१ रल, २ सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम, ए ३२ मों विकल्प । इम सक्कर में अनुक्रमें दश ताइ एक-एक वधारतां चालीसमों विकल्प-..... ४०. १ रत्न, १० सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम ए ४० मों विकल्प । ४१. १ रत्न, संख सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम ए ४१ मों विकल्प । ४२. २ रत्न, संख सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम ए ४२ मों विकल्प । इम रत्न में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारतां पचासमों विकल्प श०६, उ० ३२, ढाल १९० १९७ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. १० रत्न, संख सवकर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम ए ५० मों विकल्प | ५१. संख रत्न, संख सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम ए ५१ मों विकल्प | ए संख्यात जीवां रा छसंजोगिया ५१ विकल्प, अनं एक-एक विकल्प नां सात-सात भांगा हुवै, ते माटै ५१ नैं सात गुणां कीधे छते ३५७ भांगा हुवै । संख्याता जीव नरक में जाय तेहनां सातसंजोगिया विकल्प आमना लिखिये छै ६१ तेहनीं १. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, संख सप्तमी, ए प्रथम विकल्प । २. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, २ तम, संख सप्तमी, ए द्वितीय विकल्प । इम तम में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारतां दसमों विकल्प१०. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १० तम, संख सप्तमीं ए १० मों विकल्प | ११. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, संख तम, संख सप्तमी, ए ११ मों विकल्प | १२. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम, संख तम, संख सप्तमी, ए १२ मों विकल्प | इम धूम में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारतां बीसमों विकल्प २०. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १० धूम, संख तम, संख सप्तमीं ए २० मों विकल्प । २१. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, संख धूम, संख तम, संख सप्तमी, ए २१ मों विकल्प | २२. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु २ पंक, संख धूम, संख तम, संख सप्तमी, ए २२ मों विकल्प | इम पंक में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारतां तीसमों विकल्प ३०. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १० पंक, संख धूम, संख तम, संख सप्तमी, ए ३० मों विकल्प । ३१. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम, संख सप्तमी ए ३१ मों विकल्प | ३२. १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, संख पंक, संख ३२ मों विकल्प । इम वालुक में अनुक्रमे चालीसमों विकल्प - धूम, संख तम, संख सप्तमी ए दश तांइ एक-एक वधारतां ४०. १ रत्न, १ सक्कर, १० वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम, संख सप्तमीं ए ४० मो विकल्प | ४१. १ रत्न, १ सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम, संख सप्तमी ए ४१ मों विकल्प । ४२. १ रत्न, २ सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम, संख सप्तमी, ए ४२ मों विकल्प । इम सक्कर में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारतां पचासमों विकल्प ५०. १ रत्न, १० सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम, संख सप्तमी, ए ५० मों विकल्प । १६८ भगवती जोड़ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१.१ रत्न, संख सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम, संख सप्तमी ए ५१ मों विकल्प। ५२.२ रत्ल, संख सक्कर, संख वालु, संख पंक, संख धूम, संख तम, सख सप्तमी ए ५२ मों विकल्प । इम रल में अनुक्रमे दश तांइ एक-एक वधारतां साठमों विकल्प६०.१० रत्न, संख सक्कर, संख बालु, संख पंक, संख धम, संख तम, संख सप्तमी ए ६० मों विकल्प । ६१. संख रत्न, संख सक्कर, संख वालु, संख पक, संख धम, संख तम, संख सप्तमी ए ६१ मों विकल्प । ए संख्यात जीवां रा सात संयोगिया ६१ विकल्प अने एक-एक विकल्प नों एक २ भांगो हुवै ते माट भांगा पिण ६१ जाणवा । *जिन कहै गंगेया! सुणे ।। (ध्रुपदं) ५. हे प्रभु ! असंख्याता नेरइया, नरक-प्रवेशन प्रश्न निहाल के । जिन कहै रत्नप्रभा विषे, जावत अथवा सप्तमी भाल के ।। ६. अथवा एक रत्न विषे, सक्कर माहे असंखिज्ज होय के। इह विधि द्विकसंजोगिया, यावत सप्तसंजोगिक जोय कै॥ ७. जिम कह्यो संख्याता जीव नों, असंख्याता नों कहिवो तेम के। णवरं पद असंख्यात नों, द्वादश नों कहिवो धर प्रेम के । ५. असंखेज्जा भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा कि रयणप्पभाए होज्जा ?-पुच्छा। गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा। ६. अहवा एगे रयणप्पभाए असंखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा, एवं दुयासंजोगो जाव सत्तगस जोगो य । ८. जहा संखेज्जाणं भणिओ तहा असंखेज्जाण वि भाणयब्बो, नवरं - असंखेज्जओ अब्भहिओ भाणियब्यो । (श० ६६६) नवरमिहासंख्यातपदं द्वादशमधीयते __ (वृ० प० ४४६) ८. द्विकसंयोगादौ तु विकल्पप्रमाणवद्धिर्भवति, सा चैवंद्विकसंयोगे द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके २५२, (वृ०प० ४४६) ८. द्विकसंजोगिक नां इहां, द्वादश विकल्प करिनें कहीस के। बे सय बावन भंग हुवे, इक विकल्प भांगा इकवीस के ।। हिवै असंखेज जीवां रा द्विकसंजोगिक ना १२ विकल्प कहै छै१.१ रत्न, असंख्यात सक्कर २.२ रत्न, असंख्यात सक्कर ३.३ रत्न, असंख्यात सक्कर ४. ४ रत्न, असंख्यात सक्कर ५. ५ रत्न, असंख्यात सक्कर ६.६ रत्न, असंख्यात सक्कर ७.७ रत्न, असंख्यात सक्कर ८.८ रत्न, असंख्यात सक्कर ६.हरल, असंख्यात सक्कर १०.१० रत्न, असंख्यात सक्कर ११. संख रत्न, असख्यात सक्कर १२. असंख्यात रत्न, असंख्यात सक्कर एवं १२ विकल कहा। एक-एक विकल करि इकवीस-इकवीस भांगा कीधे छते २५२ भांगा हुवै । *लय : हूं बलिहारी हो जादवां श० ६, उ० ३२, ढाल १६० १६६ Jain Education Intemational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. त्रिकसंयोगेऽष्टौ शतानि पञ्चोत्तराणि ८०५, (वृ० प० ४४६) हिवै त्रिकसंजोगिया भांगा कहै छै६. त्रिकसंजोगिक नां इहां, तेवीस विकल्प करि सूजगीस के। भंग अष्ट सय पंच है, इक विकल्प भांगां पैतीस के॥ असंख्यात जीवां रा त्रिकसंजोगिक विकल्प २३ जुदा-जुदा कहै छ१.१ रत्न, १ सक्कर, असंख वालु २. १ रत्न, २ सक्कर, असंख बालु ३. १ रत्न, ३ सक्कर, असंख वालु ४.१ रत्न, ४ सक्कर, असंख वालु ५.१ रत्न, ५ सक्कर, असंख वालु ६.१ रल, सक्कर, असंख वालू ७.१ रत्न, ७ सक्कर, असंख वालु ८.१ रत्न, ८ सक्कर, असंख वालु ६.१ रत्न, ६ सक्कर, असंख वालु १०. १ रत्न, १० सक्कर, असंख वालु ११. १ रत्न, संख सक्कर, असंख वालु १२. १ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालुका १३.२ रत्न, असंख सक्कर, असख वालुका १४. ३ रल, असंख सक्कर, असंख वालुका, १५. ४ रन, असंख सक्कर, असंख वालुका १६. ५ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालुका १७.६ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालुका १८. ७ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालुका १६. ८ रत्ल, असंख सक्कर, असंख वालुका २०. ६ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालुका २१.१० रत्न, असंख सक्कर, असंख वालुका २२. संख रत्न, असंख सक्कर, असंख वालुका २३. असंख रत्न, असंख सक्कर, असंख वालुका एवं २३ विकल्प कह्या । एक-एक विकल्प करि पंतीस-पंतीस भांगा कीधे छते ८०५ भांगा हुवै। हिवै असंख जीवां रा चउक संयोगिक १०. चउकसंजोगिक नां इहां, चउतीस विकल्प करि सुजगीस के। भंग ग्यारेसौ नेऊ हुवै, इक-इक विकल्प करि पंतीस कै।। हिव असंख्यात जीवां रा चउक्कसंयोगिक विकल्प ३४ जुदा-जुदा कहै छै --- १.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, असंख पंक २.१ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, असंख पंक. ३.१ रत्न, १ सक्कर, ३ वालु, असंख पंक ४. १ रत्न, १ सक्कर, ४ बालु, असंख पंक ५. १ रत्न, १ सक्कर, ५ वालु, असंख पंक ६. १ रत्न, १ सक्कर, ६ वालु, असंख पंक ७. १ रत्न, १ सक्कर, ७ वालु, असंख पंक ८.१ रत्न, १ सक्कर, ८ वालु, असंख पंक ६.१ रत्न, १ सक्कर, हवालु, असंख पंक १०. चतुष्क संयोगे त्वेकादशशतानि नवत्यधिकानि ११६० (वृ०प०४४६) २०० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. १ रत्न, १ सक्कर, १० वालु, असंख पंक ११. १ रत्न, १ सक्कर, संख वालु, असंख पंक १२. १ रत्न, १ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक १३ १ रत्न, २ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, १४. १ रत्न, ३ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक १५. १ रत्न, ४ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक १६. १ रत्न, ५ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक १७. १ रत्न, ६ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक T १८. १ रत्न ७ सक्कर, असंख वालु असंख पंक १६. १ रत्न ८ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक २०. १ रन, सक्कर, असंख वालु, असंख पंक २१. १ रत्न, १० सक्कर, असंख वालु, असं ख पंक २२. १ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु असंख पंक २३. १ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक २४. २ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक २५. ३ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक २६. ४ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक २७. ५ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक २८. ६ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक २६. ७ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक ३०. ८ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक ३१. ६ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक ३१. १० रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पक ३३. संख रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक ३४. असंख रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक एवं ३४ विकल्प का एक एक विकल कर पंती-पंतील भांगा कीधे छते ११६० भांगा हुवे - हिवे असंख जीवां रा पंच संयोगिक ११. योगिनां इहां पैंतालीस विकल्प करि दीस के नव सय पैंतालोस भंग है, इक इक विकल्प भंग इकवीस के ॥ असंख्यात जीवां रा पंच संयोगिक विकल्प ४५ जुदा-जुदा कहै छै - १. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, असंख धूम २. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु २ पंक, असंख धूम ३. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ३ पंक, असंख धूम ४. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ४ पंक, असंख धूम ५. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ५ पंक, असंख धूम ६. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ६ पंक, असंख धूम ७. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ७ पंक, असंख धूम ८. १ रत्न, १ सक्कर, १ बालु ८ पंक, असंख धूम ६. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ६ पक, असंख धूम १०. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १० पंक, असंख धूम ११. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, संख पंक, असंख धूम १२. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, असंख पंक, असंख धूम ११. पञ्चकसंयोगे पुनर्नव शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि ९४५, ( वृ० प० ४४९ ) श० ६, उ० ३२, ढाल १६० २०१ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, असंख पंक, असंख धूम १४. १ रत्न, १ सक्कर, ३ वालु, असंख पंक, असंख धूम १५. १ रत्न, १ सक्कर, ४ वालु, असंख पंक, असंख धूम १६. १ रत्न, १ सक्कर, ५ वालु, असंख पंक, असंख धूम १७. १ रत्न, १ सक्कर, ६ वालु, असंख पंक, असंख धूम १८. १ रत्न, १ सक्कर, ७ वालु, असंख पंक, असंख धूम १६. १ रत्न, १ सक्कर, वालु, असंख पंक, असंख धूम २०. १ रत्न, १ सक्कर, ६ वालु, असंख पंक, असंख धूम २१. १ रत्न, १ सक्कर, १० वालु, असंख पंक, असंख धूम २२. १ र १ सक्कर, संख वालु, असंख पंक, असंख धूम २३. १ रत्न, १ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम २४. १ रत्न, २ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम २५. १ रत्न, ३ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम २६. १ रत्न, ४ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम २७. १ रत्न, ५ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक. असंख धूम २८. १ रत्न, ६ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम २६. १ रन, ७ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम ३०. १ रत्न, ८ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम ३१. १ रत्न, सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम ३२. १ रत्न, १० सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम ३३. १ रत्न, संख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम ३४. १ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंच धून ३५. २ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम ३६. ३ रन, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धून ३७. ४ रत्न, असं सक्कर, असंच वालु, असंख पंक, असंख धूम ३८. ५ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूप ३६. ६ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूप ४०. ७ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम ४१.८ रत्न, असं सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंब धूम ४२. ६ रन, जसं सक्कर, जसं वलु असंख पंक, असं धूम ४३. १० रत्न, असं सक्कर, जसं वालु, असं पंक, असं धूम ४४. संख रत्न, असं सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, जख धूम ४५. असंख रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम एक-एक विकल्प का एवं ४५ विकल का कीधे छते ६४५ भांगा हुवै । हिवे असंख जीवां रा पट संयोगिक१२. पट] संयोगिक इकबीस- इकवीस भांगा हो उपन्न विकल्प करि अवदात के तीनसौ बाणूं भांगा हुवै, इक इक विकल्प करि सात-सात के || असंख्यात जीवां रा पट संजोगिक विकल्प ५६ जुदा-जुदा कहे है -- १. १ रन, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, असंख तम २. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम, असंख त ३. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ३धूम, असंख तम २०२ भगवती-जोड़ १२. षट्कसंयोगे तु त्रीणि शतानि द्विनवत्यधिकानि ३९२, ( वृ० प० ४४९ ) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ४ धूम, असंख तम ५.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ५धूम, असंख तम ६.१ रन, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ६ धम, असंख तम ७.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १पंक,७धम, असंख तम ८.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १पंक, ८ धूम, असंख तम ६.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, धूम, असंख तम १०.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १० धूम, असंख तम ११.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, संख धूम, असंख तम १२.१रल, १सकर, १ वालु, १पंक, असंख धम, असंख तम १३.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ पंक, असंख धूम, असंख तम १४. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ३ पंक, असंख धूम, असंख तम १५. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ४ पंक, असंख धूम, असंख तम १६.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ५ पंक, असंख धूम, असंख तम १७.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ६ पंक, असंख धूम, असंख तम १८.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ७ पंक, असंख धूम, असंख तम १६ १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ८ पंक, असंख धूम, असंख तम २०. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ६ पंक, असंख धूम, असंख तम २१.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १० पंक, असंख धूम, असंख तम २२. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, संख पंक, असंख धूम, असंख तम २३. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम २४. १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम २५.१ रत्न, १ सक्कर, ३ बालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम २६. १ रत्त, १ सक्कर, ४ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असख तम २७. १ रत्न, १ सक्कर, ५ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम २८.१ रत्न, १ सक्कर, ६ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम २६. १ रत्न, १ सक्कर, ७ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ३०.१ रत्न, १ सक्कर, ८ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ३१. १ रत्न, १ सक्कर, हवालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ३२.१ रल, १ सक्कर, १० वालु, असंख पंक, असंख धम, असंख तम ३३.१ रत्न, १सक्कर, संख वालु, असंख पक,असंखधम, असंख तन ३४. १ रत्न, १ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख नम ३५. १रत्न, २ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असख धूम, असंख तम ३६. १ रत्न, ३ सक्कर, असंख वाल, असंख पक, असंख धून, असंख तम ३७. १ रल, ४ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ३८. १ रत्न, ५ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ३६. १ रत्न, ६ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ४०. १ रत्न, ७ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ४१. १ रत्न, ८ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ४२. १ रत्न, ६ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ४३. १ रत्न, १० सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ४४. १ रत्न, संख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ४५. १ रत्न, असंख सक्कर, असंख बालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ४६. २ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम श०६, उ० ३२, ढाल १६० २०३ Jain Education Intemational Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७.३ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ४८. ४ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ४६. ५ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तभ ५०. ६ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ५१.७ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ५२. ८ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ५३. ६ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ५४. १० रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धुम, असंख तम ५५. संख रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम ५६. असंख रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम एवं ५६ विकल्प कह्या। एक-एक विकल्प करि सात-सात भांगा कीधे छते ३६२ भांगा हुवै । हिवं असंख जीवां रा सप्त संयोगिक कहै छ१३. सप्तसंयोगिक नां इहां, सतसठ विकल्प करि अवदात के। भांगा पिण सतसठ तसु, विकल्प जितरा भंग कहात कै ।। हिवं असंख्यात जीवां रा सप्त संयोगिक विकल्प ६७, भांगा पिण ६७ ते कहै १३. सप्तकसंयोगे पुनः सप्तषष्टिः, (वृ०प० ४४६) १.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १ तम, असंख सप्तमी २.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पक, १धूम, २ तम, असख सप्तमी ३.१ रल, १ सक्कर, १ वालु, १पंक,१धुम, ३तम, असंख सप्तमी ४. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, ४ तम, असंख सप्तमी ५. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १धूम ५ तम, असंख सप्तमी ६. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, ६ तम, असंख सप्तमी ७.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, ७ तम, असंख सप्तमी ८.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, ८ तम, असंख सप्तमी ६.१ रत्न, १ सक्कर, १ बालु, १ पंक, १ धूम, ६ तम, असंख सप्तमी १०.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, १० तम, असंख सप्तमी ११.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १पंक,१धूम, संख तम, असंख सप्तमी १२. १ रल, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, १ धूम, असंख तम, संख सप्तमी १३. १ रता, १ सस्कर, १ वालु, १ पंक, २ धूम, असंख सम, जांख सपाली १४. १ रल, १ राक्कर, १ वालु, १ पंक, ३ धूप, असंख तम, संप तप्तगों १५.१रल, १ सक्कर, १ वालु,१ पंक, ४ धूम, असंख तन, असंख सभी १६.१ रल, १ सक्कर, १ बालु, १ पंक, ५ धूम, अांख तम, असंखप्तामा १७.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १५, ६ धूम, असंख तम, असंख सप्तमी १८.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ७धून, असंख सन, असंख सप्तमी १६. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, ८ धूम, असंख तभ, असंख सप्तमी २०.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, धूम, असंख तम, असंख सप्तमी २१. १ रत्न, १ सक्कर, १ वातु, १ पंक, १० धूम, असंख तम, असंख सप्तमी २२.१ रल, १ सक्कर, १ वालु, १पंक, संख धूप, असंख तम, असंख सप्तमी २३. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, १ पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी २४. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, २ पक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी २५. १ रत्न, १ सक्कर, १ बालु, ३ पंक, अब धून, असंख म, असंख सप्तमी २०४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ४ पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी २७.१ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ५ पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी २८. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ६ पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी २६. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु ७ पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ३०. १ रत्न, १ सक्कर, १ बालु, ८ पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ३१. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, ६ पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ३२.१ रत्न, १ मक्कर, १ वालु, १० पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ३३. १ रत्न, १सक्कर, १ वालु, संख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ३४. १ रत्न, १ सक्कर, १ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ३५. १ रत्न, १ सक्कर, २ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ३६.१ रन, १ सक्कर, ३ वालु, असंख पंक, असंख धम, असंख तम, असंख सप्तमी ३७.१ रत्न, १ सक्कर, ४ बालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ३८. १ रत्न, १ सक्कर, ५ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ३६.१ रत्न, १ सक्कर, ६ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ४०.१ रत्न, १ सक्कर, ७ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ४१. १ रत्न, १ सक्कर, ८ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ४२. १ रत्न, १ सक्कर, ६ वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ४३.१ रत्न, १ सक्कर, १० वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ४४. १ रत्न, १ सक्कर, संख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ४५. १ रत्न, १ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ४६.१ रत्न, २ सक्कर, असख वालु, असंख पक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ४७.१ रत्न, ३ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ४८.१ रत्न, ४ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ४६.१ रत्न, ५ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ५०. १ रत्न ६ सक्कर, असंख वालु, असख पंक, असंख धूम, असंख तम, असख सप्तमी ५१.१ रत्न, ७ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ५२.१ रत्न, ८ मक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तभी ५३.१ रत्न, ६ सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ५४. १ रत्न, १० सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ५५. १ रत्न, संख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असख सप्तमी श०६, उ० ३२, ढाल १६० २०५ Jain Education Intemational Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. १ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमीं ५७. २ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ५८. ३ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमीं ५६. ४ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ६०. ५ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ६१. ६ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमीं ६२. ७ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी धूम, असंख तम, असंख ६४. ९ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, सप्तमी असंख सप्तमी ६३.८ रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असख पक, असंख ६५. १० रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी ६६. संख रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, असंख तम, असंख सप्तमी असंख तम, असंख सप्तमी एवं असंख्याता जीवां रा सप्त संजोगिक विकल्प ६७ भांगा ६७ कह्या । हा प्रकारांतर वली, नरक - प्रवेसन करे गंगेय मुनि, आखै वीर १५. हे प्रभु! नेरइया, उत्कृष्ट पद करिने उपजेह के न्हाल | दयाल || तास प्रश्न कीधे छते, श्री जिन भाखे सुण गंगेव क ॥ १६. सर्व प्रथम हुवै रत्न में, इक संजोगे इक भंग एह के । जे उत्कृष्ट पदे करी, ते सहु रत्नप्रभा उपजेह कै ॥ सोरठा १७. रत्ने जावणहार, जीव बहू छ त अथवा रत्न मज्ञार, मारकि पिना बहुला अछे || १८. संयोगिक भणी । एक, भांगो इहविथ आखियो । गंगा कहिये हिये ॥ द्विक्संयोगिक पेख, पट हि द्विक संयोगिक ६ भांगा कहै छे ६७. असख रत्न, असंख सक्कर, असंख वालु, असंख पंक, असंख धूम, १४. हिव प्रश्न 3 १. तथा म यति कर में सारन पिंक में *लय हूं बलिहारी हो जादवां ! २०६ भगवती जोड़ । अथवा रत्न बालू में होय अथवा रत्न धूम वलि जो है ।। १४. अथ प्रकारान्तरेण नारकप्रवेशनकमेवाह( वृ० प० ४४९ ) १५,१६. उक्कोसेणं भंते ! नेरइया नेपवेसणएवं पसिनाणा कि रयणप्पभाए होज्जा ? – पुच्छा । गंगेया ! सब्वे वि ताव रयणप्पभाए होज्जा, 'उनकोण' मिस्यावि उत्कृष्ट पनिस्ते सर्वेऽपि रत्नप्रभायां भवेयुः ( वृ० प० ४५० ) १७. तद्गामिनां तत्स्थानानां च बहुत्वात्, ( वृ० प० ४५१) १८. इह प्रक्रमे द्विकयोगे षड् भङ्गका ( वृ० प० ४५१ ) १६,२०. अहवा रयणप्पभाए य सक्करण्यभाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए य वालुयपभाए य होज्जा जाव अहवा रयणप्पभाए य असत्तमाए य होज्जा, Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा रत्न सप्तमी मांहि के ए पट भांगा दाख्या ताहि के ॥ तेनां त्रिकसंयोगिक १५ भांगा रत्न पंक थी ३, रत्न धूम थी २ --- उपजै वा०-हिवै उत्कृष्ट पदे नरक में कहै छै - रत्न सक्कर थी ५, रत्न वालु थी ४, रत्न तम थी १ - एवं १५ भांगा रत्न थकीज हुवै । उत्कृष्ट पदे नरक में ऊपजै तेह नरक ने विषे ऊपजै तिवारे रत्नप्रभा में तो ऊपजेईज, और नरक में कोइ में ऊपजै कोइ में नहीं पिण ऊपजै, ते भणी रत्नप्रभा सूं ईज १५ हुवै । तिहां प्रथम रत्न सक्कर सूं ५ भांगा कहै छँ २०. तथा रत्न वसि तम विये उत्कृष्ट पद द्विकयोगिका, २१. तथा रत्न सक्कर वालु विषे', अथवा रत्न सक्कर पंक होय कै । अथवा रत्न सक्कर धूम में, अथवा रत्न सक्कर तम जोय के || २२. तथा रत्न सक्कर नैं सप्तमी, रत्न सक्कर थी ए भंग पंच कै । हि रत्न अवालुक थकी कहिये चिरं भांगानों संच के।। २३. अथवा रत्न वालु पंक में, अथवा रत्न वालु धूम मांय कै । अथवा रत्न वालु तम विषे, अथवा रत्न वालु सप्तमी पाय के ॥ ने २४. अथवा रत्न पंक धूम में, अथवा रत्न पंक तम अथवा रत्न पंक सप्तमी, रत्न पंक थी ए २५. अथवा रत्न धूम तम विषे, तथा रत्न धूम रत्न ने धूमप्रभा थकी, एह कह्या छे २६. अथवा रत्न तम सप्तमी, ए रत्न थकी उत्कृष्ट नरके ऊपजै, निश्च रत्न में भंग वा०-- हिवं उत्कृष्ट पदे नरक में उपजे तेहनां चक्क संयोगिक २० भांगा कहै छै - तिके २० भांगा रत्न सूं ईज हुवै, रत्न में तो अवश्य उपजैइज । तिणमें पंक थकी ३, रत्न धूम थी १ रत्न सक्कर थी १०, रत्न वालुक थी ६, रत्न एवं २० । तिहां रत्न सक्कर थी १० ते किसा ? रत्न सक्कर वालुक थी ४, रत्न सक्कर पंक थी ३, रत्न सक्कर धूम थी २, रत्न सक्कर तम थी १ – एवं रत्न सक्कर थी १०, ते कहै छ २७. तथा रत्न सक्कर वालु पंक में, तथा रत्न सक्कर वालु तम विषे, तथा रत्न सक्कर वालु धूमे जंत कै । तथा रत्न सक्कर वालु सप्तमी हुंत के ॥ २८. तथा रत्न सक्कर पंक धूम में, चीन के । भंग तीन के ॥ सप्तमीं होय के । भांगा दोय के ॥ पनरे जाण के I उपजे आण के || तथा रत्न सक्कर पंक सप्तमीं, तथा रत्न सक्कर पंक तम लीन के । २६. तथा रत्न सक्कर धूम तम विषे, ए रत्न सक्कर नैं पंक थी तीन कै ॥ तथा रत्न सक्कर धूम सप्तमी होय कै । रत्न सक्कर ने धूम थी, आख्या है ए भंगा दोय कै ॥ ३०. तथा रत्न सक्कर तम सप्तमीं, ए रत्न सक्कर थी दश भंग देख के । हिवे रत्न अने वालुक थकी, भांगा पट कहिये सुविशेध के ।। वा० - त्रिकयोगे पञ्चदश २१,२२. अहवा रयणप्पभाए य सक्करणभाए य वालुयप्पभाए य होज्जा, एवं जाव अहवा रयणप्पभाए य सक्कर पभाए य असत्तमाए य होज्जा, ( वृ० प० ४५१) २३. अहवा रयणपभाए वालुयप्पभाए पंकष्पभाए य होज्जा जाव अहवा रयणप्पभाए वालुयप्पभाए अहेस तमाए य होज्जा, २४-२६ गणनाए पंकप्पभाए घूमाए होग्गा, एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा तिन्हं तियासंजोगो भणिओ तहा भाणियव्वं जाव अहवा रयणप्पभाए तमाए य असत्तमाए य होज्जा । वा० संयोगे विंशतिः ( वृ० १०४५१) २७. अहवा रयणप्पभाए य सक्करव्यभाए वालुयप्पभाए पंकष्पभाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए सक्करपभाए वालुयपभाए धूमप्पभाए य होज्जा जाब अहवा रयणप्पभाए सक्करपभाए वालुयष्पभाए असत्तमाए य होना, २८-३६. अहवा रयणप्पभाए सक्करपभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए य होज्जा एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा चउन्हं चउक्कगसंजोगो भणितो तहा भाणियव्वं जाव अहवा रयणभाए धूमणभाए तमाए अहेसत्तमाए य होज्जा | श० ६, उ० ३२, ढाल १६० २०७ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-हिब रत्न बालु थी षट भांगा ते किसा? रत्न वालु पंक थी ३, रत्न वालु धूम थी २, रत्न वालु तम थी१ । तिहां प्रथम रत्न बालुक पंक थी ३ भांगा कहै छै३१. तथा रत्न वालु पंक धूम में, तथा रत्न वालु पंक तम में चीन के। तथा रत्नवालु पंक सप्तमी, ए रत्न वालक – पंक थी तीन कै॥ ३२. तथा रत्न वाल धम तम विषे, तथा रत्न वाल धूम सप्तमी होय के। रत्न वालक नैं धूम थी, भांगा एह कह्या छै दोय कै ।। ३३. तथा रत्न वालुक तम सप्तमी, रत्न वालुक थी षट भंग एह के। रत्न अनैं वलि पंक थी, तीन भांगा कहियै छै जेह के ।। वा०—हिवं रत्न पंक थी ३ भांगा ते किसा? रत्न पंक धूम थी २, रत्न पंक तम थी-१ एवं ३। ३४. तथा रत्न पंक धूम तम विषे, ___ तथा रत्न पंक धूम सप्तमी होय के। रत्न पंक नैं धूम थी, भांगा एह कह्या छै दोय के ।। ३५. तथा रत्न पंक तम सप्तमी, रत्न पंक थी त्रिण भंग एह के । रत्न धूम थी भंग इक, सांभलज्यो हिब कहिये जेह के ।। ३६. तथा रत्न धुम तम सप्तमी, रत्नप्रभा थी ए भंग वीस के। दाख्या चउक्कसंयोगिका, उत्कृष्ट नरक प्रवेशन दीस के ।। वा०--हिवं उत्कृष्ट पदे नरक में आजै तेहनां पंचसंमोगिक १५ भांगा रत्न थी हवै, ते कहै छै-रत्न सक्कर यी १०, रत्न वालुक थी ४, रत्न पंक थी १–एवं १५ । तिहां रत्न सक्कर थी १० ते किसा? रत्न सक्कर वालु थी ६, रत्न सक्कर पंक थी ३, रत्न सक्कर धूम थी १-एवं १०। तिहां रत्त सक्कर वालु थी ६ ते किसा? रत्न सक्कर वालु पंक थी ३, रत्न सरकर वालु धूम थी २, रत्न सक्कर वालु तम थी १-एवं ६ । तिहां रल सक्कर बालु पंक थी ३ भांगा प्रथम कहै छै-- ३७. *तथा रत्न सक्कर वालु पंके, धूम मांहि पहिछाणियै'। तथा रत्न सक्कर वालु पंके, तमा छठी जाणिय ।। वा०-पञ्चकसंयोगे पञ्चदश (वृ० ५० ४५१) ३८. तथा रत्न सक्कर वालु पंके, सप्तमीज लहीजिये। रत्न सक्कर वाल पंक थी, भंग त्रिण इम कीजिये ।। ३६. तथा रत्न सककर वालु धूमा, तमा थी सुविणेषिये। तथा रत्न सक्कर वालु धूमा, सप्तमी थी लेविय।। ४०. तथा रत्न सककर वालुका तम, सप्तमी नारक लही। रत्न सक्कर बालुका थी, एह षट भंगा सही। वा०वि रत्न सककर पंक थी ३ भांगा ते किसा? रस सक्कर पंक धम थी २ अनं. रत्न सक्कर पंक तम थी १-एवं३ । ४१. तथा रत्न सक्कर पंक धूमा, तम विषे अवधाारियै । तथा रत्न सक्कर पंक धूमा, सप्तमी सुविचारियै ।। * लय : पूज मोटा भांजै तोटा ३७. अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धमप्पभाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए जाव पंकप्पभाए तमाए य होज्जा, ३८. अहवा रयणप्पभाए जाव पंकप्पभाए अहेसत्तमाए य होज्जा, ३६-४७. अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए बालूयप्पभाए धूमप्पभाए तमाए य होज्जा, एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा पंचण्हं पंचगसंजोगो तहा भाणियब्वं जाव अहवा रयणप्पभाए पंकप्पभाए जाव अहेसत्तमाए य होज्जा, २०८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. तथा रत्न सक्कर पंक ने तम, सप्तमी में आखिय। रत्न सक्कर पंक थी ए तीन भांगा दाखियै । ४३. तथा रत्न सक्कर धूम नैं तम, सप्तमी नारकि मझे। रत्न सक्कर थकी ए दश भंग एम विचारजै ।। बाल-हिव रत्न वालु थी ४ भांगा ते किसा? रत्न वालु पंक थी ३, रत्न वालु धूम थी १-एवं ४ । तिहां रत्न बालु पंक थी ३, ते किसा? रत्न धालु पंक धूम थी २, रत्न वालु पंक तम थी १ एवं ३। ४४. तथा रत्न वालु पंक धूमा, तमा पृथ्वी में हुवै । तथा रत्न वालु पंक धमा, सप्तमी में अनुभवै ।। ४५. तथा रत्न वालु पंक में तम, सप्तमी में जाणिय। ___रत्न वालु पंक थी इम, तीन भांगा आणियै ।। ४६. तथा रत्न वालु धूम मैं तम, सप्तमी पृथ्वी मही। रत्न वालु थकी भांगा, च्यार ए आख्या सही ।। ४७. तथा रत्न पंके धूम तमा, सप्तमी दुख अनुभवै । रत्न सू इज भंग पनर ए, पंच संयोगिक हवै। हिवै उत्कृष्ट पदे नरक में ऊपज तेहनां पट संयोगिक ६ भांगा कहै छ४८. तथा रत्न सक्कर वालुका पंक, धम ने तमा मझे। __तथा रत्न सक्कर वालुका पंक, धूम ने सप्तमी सझै ॥ ४६. तथा रत्न सक्कर वालुका पंक, तम सप्तमी अनुभवै'। तथा रत्न सक्कर वालुका नैं, धूम तम सप्तमी हुवै ।। षड्योगे षट (वृ० प० ४५१) ४८. अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए जाद धूमप्पभाए तगाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए जाव धूमप्प भाए अहेसत्तमाए य होज्जा। ४६. अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए जाव पंकप्पभाए तमाए य अहेसत्तमाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए बालुयप्पभाएधूमप्पभाए तमाए अहेसत्त माए य होज्जा, ५०. अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए पंकप्पभाए जाव अहेसत्तमाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए वालुयप्पभाए जाव अहेसत्तमाए य होज्जा, ५०. तथा रत्न सक्कर पंक धूम तम, सप्तभी में ऊपजै । तथा रत्न वालु पंक धूम तम, सप्तमी माहै लजै॥ ५१. भंग षट ए रत्न सूं इज, षट-संयोगिक जाणियै । उत्कृष्ट पद ते भणी सप्तम भंग रत्न विण नाणियै ।। हिवै उत्कृष्ट पदे नरक नै विषे ऊपज तेहनों सप्त संयोगिक १ भांगो कहै - सप्तकयोगे त्वेक इति। (वृ० प० ४५१) ५२. तथा रत्न सक्कर वालुका पंक, धूम तम सप्तमी लहै। सप्तयोगिक भंग इक ए, वीर जिनवर इम कहै ।। ५३. हिव रत्नप्रभादिक विषेइज, नारकी नों जाणिये । अल्पबहुत्वादिक निरूपण अर्थ प्रश्न वखाणियै ॥ ५४. *ए प्रभु ! रत्नप्रभा पृथ्वी, नरक प्रवेशन नो कहेश के। सक्कर जाव इम सप्तमी, कुण-कुण अल्प बहु तुल्य विशेष के॥ ५२. अहवा रयणप्पभाए य सक्करभाए य जाव अहेसत्तमाए य होज्जा। (श० ६।१००) ५३. अथ रत्नप्रभादिष्वेव नारकप्रवेशन कस्याल्पत्वादिनिरूपणायाह (वृ० ५० ४५१) ५४. एयस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणगस्स सक्करप्पभापुढविनेरइयपवेसणगस्स जाब अहेसत्तभापुढविनेर इयपवेसणगस्स कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? ५५. गंगेया ! सव्वत्थोवे अहेसत्तमापुढविनेर इयपवेसणए, तद्गामिनां शेषापेक्षया स्तोकत्वात्, (वृ० प० ४५१) ५५. जिन कहै गंगेया ! सुणे, सर्व ते थोड़ा प्रवेश करंत कै। नरक सप्तमी नेर इया, शेष अपेक्षा तिहां अल्प जंत के ।। *हूं बलिहारी हो जादवां ! श०६०३२, ढाल १६० २०६ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. असंख्यात गुणा छठी विषे, जावण हार तिहां असंखेज के। जावत रत्नप्रभा विषे, असंख्यात गुणां प्रतिलोम' कहेज के। ५७. शत नवम बतीसम देश ए, एकसौ नै नेउमीं ढाल के। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' संपति हरष विशाल कै॥ ५६. तमापुढविनेरइयपवेसणए असंखेज्जगुणे, एवं पडिलोमगं जाव रयणप्पभापुढवि नेरइयपवेसणए असंखेज्ज (श० ६।१०१) गुणे। ढाल : १६१ दूहा १. तिर्यंच प्रवेशन हे प्रभु ! कितै प्रकार कथिदि ? जिन कहै पंच प्रकार ह, एगिदि जाव पंचिदि ।। २. एक जीव तिर्यंच में, करै प्रवेशन ताहि । __ स्यूं एकेंद्री में हुवे, जाव पंचेंद्री मांहि ? १. तिरिक्खजोणियपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गंगेया ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा--एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणए जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियपवेसणए। (श०६।१०२) २. एगे भंते ! तिरिवखजोणिए तिरिक्खजोणियपवेसण एणं पविसमाणे कि एगिदिएम होज्जा जाव पंचिदिएसु होज्जा? ३. गंगेया ! एगिदिएसु वा होज्जा जाव पंचिदिएसु वा होज्जा। (श० ६।१०३) ४-७. तत्र च यद्यप्येकेन्द्रियष्वेकः कदाचिदप्युत्पद्यमानो न लभ्यतेऽनन्तानामेव तत्र प्रतिसमयमुत्पत्तेस्तथाऽपि देवादिभ्य उद्वत्य यस्तत्रोत्पद्यते तदपेक्षयकोऽपि लभ्यते, एतदेव च प्रवेशनकमुच्यते यद् विजातीयेभ्य आगत्य विजातीयेषु प्रविशति सजातीयस्तु सजातीयेषु प्रविष्ट एवेति किं तत्र प्रवेशनकमिति, (वृ० प० ४५१) ३. जिन कहै गंगेया! सुणे, एकेंद्री में होय । जाव तथा पंचेंद्रि में, ऊपजवो अवलोय ।। ४. इहां कह्यो एकेंद्रि इक, जीव ऊपजै देख । ते देवादिक थी हुवै, तेह अपेक्षा एक ।। ५. वीजू एकेंद्रिय विषे, समय-समय अवलोय । जीव अनंता ऊपजै, सजातिया थी जोय ।। ६. सजातीया थी नीकली, सजातीया में सोय । उपजै तेह तणो इहां, प्रश्न करयो नहिं कोय ।। ७. विजातीया थी नीकली, विजातीया में होय । तेह प्रवेशन छैज तसु, प्रश्न कियो है सोय ।। ८. एक जीव नां आखिया, एकेंद्रियादिक जाण । पंच स्थान तिण कारणे, पंच भंग पहिछाण ।। एक जीव तिर्यंच में ऊपज ते इकसंजोगिया नों विकल्प १ भांगा ५---- १. एक जीव एकेंद्रि में ऊपज २. तथा बेंद्रिय में ऊपज ३. तथा तेंद्रिय में पज ४. तथा चउरिद्रिय में ऊपज ५. तथा पंचेंद्रिय में ऊपजै १. प्रतिलोम कहितां-उलटा करतां छठी थी पांचमी नां असंख्यातगुणां । तेहथी चोथीनां असंख्यातगुणां । तेहथी तीजी नां असंख्यातगणां । तेहथी बीजी नां असंख्यातगुणां । तेहथी रत्नप्रभा पृथ्वी नां नारक जीव नरक नै विषे असंख्यात गुणां ऊपज । २१०. भगवती जोड़ ८. तत्र चैकस्य क्रमेणकेन्द्रियादिषु पञ्चसु पदेषुत्पादे पञ्च विकल्पाः, (वृ० प० ४५१) Jain Education Intemational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. दो भंते ! तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणियपवेसण एणं-पुच्छा । १० द्वयोरप्येकै कस्मिन्नुत्पादे पञ्चैव, (वृ०प० ४५१) हिवै दोय जीव तिर्यंच में ऊपज ते प्रश्न करै छै६. दोय जीव तिर्यंच में, उपजै तेहनों जाण । प्रश्न करै गंगेय मुनि, भाखै तब जगभाण ॥ १०. इकसंयोगिक तेहनों, विकल्प एक विचार । भांगा तेहनां पंच है, इहविध करिवा सार । ११. बिहुं एकेंद्रिय – विषे, तथा बेंद्री मांय । तथा तेंद्री में बिह, जीव ऊपजै आय ।। १२. तथा चरिंद्री में बिह, तथा पंचेंद्री मांय । इकसंयोगिक इह विधे, पंच भंग कहिवाय ।। दो जीव तिर्यंच में ऊपज ते इकसंजोगिया नों विकल्प १ भांगा ५१-५ दो जीव एकेंद्री में ऊपज जाव पंचेंद्री में ऊपजै । १३. तथा एक एकेंद्रिय, एक बेंद्रिय होय । नरक प्रवेशन जेम ए, तिरिक्ख-प्रवेशन जोय ।। ११,१२. गंगेया ! एगिदिएसु वा होज्जा जाव पंचिंदिएसु बा होज्जा। १४. तिहां सात पृथ्वी विषे, इहां पंच है स्थान । जाव असंख्याता लगै, कहिवो सर्व पिछान ।। १३. अहवा एगे एगिदिएसु होज्जा एगे बेइंदिएसु होज्जा, एवं जहा नेरइयपवेसणए तहा तिरिक्खजोणियपवे सणए वि भाणियब्वे । १४. परं तत्र सप्तसु पृथ्वीष्वे कादयो नारका उत्पादिताः तिर्यञ्चस्तु तथैव पञ्चसु स्थानेषत्पादनीया:, (वृ० प० ४५१) जाव असंखेज्जा। (श० ६।१०४) १५. ततो विकल्पनानात्वं भवति, तच्चाभियुक्तेन पूर्वोक्त न्यायेन स्वयमवगन्तव्यमिति, (वृ० प० ४५१) १६. द्विकयोगे तु दश, (वृ०प० ४५१) १५. भंग हुवै नानापणे, तत्त्व अभियुक्तेन । पूर्व उक्त न्याय करी, करिवा बुद्धि न्यायेन ॥ १६. द्विकसंयोगिक एहनां, विकल्प तेहनों एक । दश भांगा भणिवा तसु, तसु विधि एम संपेख । *सुण गंगेया रे ! भाखै जिन गुणगेहा ॥ [ध्रुपदं] १७. अथवा एक एकेंद्री मांहे, एक बेंद्रिय होय । अथवा एक एकेंद्री में ऊपजै, एक तेंद्री में जोय ॥ १८. अथवा एक एकेंद्रिय मांहे, एक चरिद्रिय माय । अथवा एक एकेंद्रिय मांहे, एक पंचेंद्रिय थाय ।। १६. अथवा एक बेइंद्री में ऊपज, एक तेइंद्रि में होय । अथवा एक बेइंद्री में ऊपजै, एक चउरिद्रि में जोय ।। २०. अथवा एक बेइंद्री में ऊपजै, एक पंचेंद्रिय थाय। . बे इंद्रिय थी ए त्रिण भंगा, भणवा जिन वच न्याय ।। २१. अथवा एक तेंद्रिय में ऊपजै, एक चरिद्री हंत । अथवा एक तेंद्रिय में ऊपजै, एक पंचेंद्री जंत ।। २२. अथवा एक चरिंद्री में ऊपजै, एक पंचेंद्रिय थाय । द्विकसंयोगिक ए दश भंगा, तत्व युक्ति करि थाय ।। हिवं तीन जीव तिर्यंच में ऊपजै तेहनां इकसंयोगिक भांगा ५– १-५. तीन जीव एकेंद्री में ऊपजै जाव तथा पंचेंद्री में ऊपज । द्विक संजोगिक विकल्प २ भांगा २०, ते दोय विकल्प करि कहै छै१. एक जीव एकेंद्री में ऊपज दोय जीव बेइंद्रिय में ऊपज २. दोय जीव एकेंद्री में उपजै एक जीव बेइंद्रिय में ऊपज 'लय : रूडे चन्द नीहाल रे श०६ उ० ३२, ढाल १९१ २११ Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए बे विकल्प करि पूर्वे १० भांगा कह्या, ते कीधे छते २० भांगा हुदै । हिवं तीन जीव नां त्रिकसंजोगिक नो विकल्प १ भांगा १०१.१ एकेंद्री १ बेंद्रि १ तेंद्रिय में २. १ एकेंद्री १ बेंद्रि १ चउरिद्रिय ३. १ एकेंद्री १ बेंद्रि १ पंचेंद्रिय में ४. १ एकेंद्री १ तेंद्रि १ चउरिद्रि में ५. १ एकेंद्री १ तेंद्रि १ पंचेंद्री में ६. १ एकेंद्री १ चरिद्री १ पंचेंद्री में ७.१ बेंद्रि १ तेंद्रि १ चरिंद्री में ८.१ बेंद्रि १ तेंद्रि१पंचेंद्री में ६. १ बेंद्रि १ चउरिद्रिय १ पंचेंद्री में १०.१ तेंद्रि १ चउरिंद्री १ पंचेंद्री में । हिवै च्यार जीव तिर्यंच में जाय तेहनां इकसंयोगिक विकल्प १ भांगा ५ पूर्व कह्या तिम करिवा। चउक्कसंजोगिक नों विकल्प १ भांगा ५, ते कहै छै१.१ एकेंद्री, १ बेंद्रि, १ तेंद्रि, १ चरिंद्रि २. १ एकेंद्री, १ बेंद्रि, १ तेंद्रि, १ पंचेंद्री ३.१ एकेंद्री, १ बेंद्रि, १ चउरिद्रि, १ पंचेंद्री ४. १ एकेंद्री, १ तेंद्रि, १ चउरिद्रि, १ पंचेंद्री ५. १ बेंद्री, १ तेंद्रि, १ चउरिद्रि, १ पंचेंद्री हिवै पांच जीव एकेंद्रिय में ऊपज तेहनां इकसंयोगिक विकल्प १ भांगा ५ द्विकसंयोगिक नां विकल्प ४ भांगा ४० त्रिकसंयोगिक नां विकल्प ६ भांगा ६० चउक्कसंयोगिक नां विकल्प ४ भांगा ३० पंचसंयोगिक नो विकल्प १ भांगो १ इम छ जीव प्रमुख असंख्याता जीव नां पूर्वे कह्या तिण रीते विकल्प करि जेतला भांगा हुवै तेतला भणिवा । तीन जीव नां द्विक संयोगिक विकल्प २-१२,२१ च्यार जीव नां द्विक संयोगिक विकल्प ३-१३,२२,३१ त्रिक संयोगिक विकल्प ३–११२,१२१,२११ पंच जीव नां द्विक संयोगिक विकल्प ४-१४,२३,३२,४१ त्रिक संयोगिक विकल्प ६-११३,१२२,२१२,१३१,२२१,३११ चउक्क संयोगिक विकल्प ४–१११२,११२१,१२११,२१११ २३. तीन आदि जीवां नां भांगा, जाव असंखिज्ज जीवा । ते प्रवेशन नो नारकि जिम, नाना भंग कहीवा ।। २४. उत्कृष्ट पदे तिर्यंच में उपजै, तेह प्रश्न हिव कीधं । जिन कहै सर्व एकेंद्रि में उपजै, इकयोगिक ए लीधं ।। सोरठा २५. एकेंद्रिय बहु जाण, समय समय उत्पत्ति थकी। उत्कृष्ट पदे पहिछाण, सहु एकेंद्री में हवै। *लय : रूड़े चन्द नीहाल रे २४. उक्कोसा भंते ! तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिय पवेसणएणं--पुच्छा। गंगेया ! सव्वे वि ताव एगिदिएसु होज्जा, एकेन्द्रियाणामतिबहूनामनुसमयमुत्पादात् (वृ०प०४५१) २१२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. *अथवा एकेंद्री में ऊपजै, वलि बेइंद्री में होय। इम जिम नरक विषे गिणिया, तिम तिर्यंच में पिण जोय ।। २७. एकेंद्रिय नैं अणमूकते, द्विक त्रिक चउक्क संयोग। पंच संयोगिक भांगा गिणवा, वारू दे उपयोग। २६. अहवा एगिदिएसु वा बेइंदिएसु वा होज्जा। एव जहा नेरइया चारिया तहा तिरिक्खजोणिया वि चारेयव्वा । २७. एगिदिया अमुयंतेसु दुयासंजोगो, तियासंजोगो, चउक्कसंजोगो, पंचसंजोगो उबजुजिऊण भाणियवो ...... (श०६।१०५) २८. इह प्रक्रमे द्विकसंयोगश्चतुर्द्धा त्रिकसंयोग: षोढा चतुष्कसंयोगश्चतुर्दा पञ्चकसंयोगस्त्वेक एवेति । (वृ० प०४५१) सोरठा २८. द्विकयोगिक चिउं धार, त्रिकसंयोगिक भंग षट । चउक्कसंयोगिक च्यार, पंचसंयोगिक भंग इक ।। उत्कृष्ट पदे तिर्यंच में ऊपज तेहनां द्विक, त्रिक, चउक्क, पंचयोगिक कहै छै-द्विकसंयोगिक ४ भांगा कहै छै१. अथवा एकेंद्रिय में ऊपज बेइंद्रिय में ऊपज २. अथवा एकेद्रिय में ऊपजै तेइंद्रिय में ऊपजै ३. अथवा एकेंद्रिय में ऊपजै चरिंद्रिय में ऊपज । ४. अथवा एकेंद्रिय में ऊपज पंचेंद्रिय में ऊपजै । त्रिकसंयोगिक ६ भांगा कहै छ१. अथवा एकेंद्री में बेइंद्रिय में तेइंद्रिय में ऊपजै । २. अथवा एकेंद्रिय में बेइंद्रिय में चउरिद्रिय में ऊपजै । ३. अथवा एकेंद्रिय में बेइंद्रिय में पंचेंद्रिय में ऊपज । ४. अथवा एकेंद्रिय में तेइंद्रिय में चउरिद्रिय में ऊपजै । ५. अथवा एकेंद्रिय में तेइंद्रिय में पंचेंद्रिय में ऊपज । ६. अथवा एकेंद्रिय में चउरिद्रिय में पंचेंद्रिय में ऊपजै । हिवै चउक्कसंयोगिक ४ भांगा कहै छै१. तथा एकेंद्रिय में बेइंद्रिय में तेइंद्रिय में चउरिद्रिय में । २. तथा एकेंद्रिय में बेइंद्रिय में तेइंद्रिय में पंचेंद्रिय में । ३. तथा एकेंद्रिय में बेइंद्रिय में चउरिद्रिय में पंचेंद्रिय में। ४. तथा एकेंद्रिय में तेइंद्रिय में चउरिद्रिय में पंचेंद्रिय में। हिवं पंचसंयोगिक १ भांगो कहै छ१. तथा एकेंद्रिय में, बेइंद्रिय में, तेइंद्रिय में, चरिद्रिय में, पंचेंद्रिय में ऊपजै । इकसंयोगिक-१ द्विकसंयोगिक-४ त्रिकसंयोगिक-६ चउक्कसंयोगिक-४ पंचसंयोगिक-१ एवं-१६ हि एकेंद्रियादिक प्रवेशन नों अल्प-बहुत्व-तुल्य-विशेषाधिकपणां नुं प्रवेशन कहै छै२६. *हे प्रभु ! एकेंद्रिय प्रवेशन, जाव पंचेंद्री तिर्यंच । तेह प्रवेशन नों कुण कुण थो, जाव विशेष सुसंच ? २६. एयस्स णं भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स जाव पंचिदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? *लय : रूड़े चन्द नीहाले रे श० ६, उ० ३२, ढाल १६१ २१३ Jain Education Intemational Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. गंगेया ! सव्वथोवे पंचिदियतिरिक्खजोणियपवेसणए, ३०. श्री जिन भाखै सर्व थी थोड़ा, पंचेंद्रिय तिर्यंच। तेह विषेज प्रवेशन उत्पत्ति, तास न्याय इम संच ।। सोरठा ३१. जीव पंचेंद्रिय जाण, थोड़ा छै ते कारणे । अल्प कह्या जगभाण, पंचेंद्रिय तिर्यंच ए॥ ३२. *चउरिद्रिय तिर्यंच प्रवेशन, विशेष अधिक विचारी। तिरि पंचेंद्रिय थी चउरिद्रिय, विशेषाधिक उचारी ।। ३१. 'सव्वथोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए' त्ति पञ्चेन्द्रियजीवानां स्तोकत्वादिति, (वृ० प० ४५१,४५२) ३२. चउरिदियतिरिक्खजोणियपवेसणए विसेसाहिए, सोरठा ३३. तिरि-पंचेंद्रिय थीज, चउरिद्रिय विसेसाहिया। ते माटज कहीज, प्रवेशन पिण विशेषाधिक ।। ३४. *तेइंद्रिय तिर्यंच प्रवेशन, विशेष अधिक कहेस । बेइंद्रिय विशेषाधिक तेहथी, विशेष एकेंद्री प्रवेश ।। ३५. मनुष्य प्रवेशन कतिविध हे प्रभु ! जिन कहै दोय प्रकार। संमुच्छिम मनुष्य प्रवेशन, गर्भेज मांहै विचार ।। ३४. तेइंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए विसेसाहिए, बेइंदिय तिरिक्खजोणियपवेसणए विसेसाहिए, एगिदियतिरि क्खजोणियपवेसणए विसेसाहिए। (श० ६।१०६) ३५. मणुस्सपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गंगेया ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा -- संमुच्छिममणुस्सपवेसणए, गब्भवक्कंतियमणुस्सपवेसणए य । (श० ६।१०७) ३६. एगे भंते ! मणुस्से मणुस्सपवेसणएणं पविसमाणे कि समुच्छिममणुस्सेसु होज्जा ? गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा? ३७. गंगेया ! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा, गब्भवक्क तियमणुस्सेसु वा होज्जा। (श० ६।१०८) ३६. एक मनुष्य विषे हे प्रभुजी ! मनुष्य प्रवेशन करतो। संमुच्छिम सूं मनुष्य विषे ह, के गर्भज संचरतो? ३७. जिन कहै समुच्छिम मनुष्य विषे है, तथा गर्भेज में होय । इक संयोगिक ए बे भांगा, एक जीव नां जोय ।। हिवै दोय जीव मनुष्य में ऊपज तेहनों प्रश्न ३८. दोय मनुष्य प्रवेशन पुच्छा, जिन कहै सुण गंगेय । बेहुं समुच्छिम तथा गर्भज में, इक योगिक भंग बेय । ३८. दो भंते ! मणुस्सा-पुच्छा। गंगेया ! समुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा, गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होज्जा। ३६. अहवा एगे समुच्छिममणुस्सेसु होज्जा एगे गब्भ वक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा, एवं एएणं कमेणं जहा नेरइयपवेसणए तहा मणुस्सपवेसणए वि भाणियब्वे, ४०. जाव दस। (श० ६।१०६) ३६. अथवा एक संमुच्छिम मनुष्ये, इक गर्भेज में होय । इम अनुक्रम जिम नरक प्रवेशन, तेम मनुष्य पिण जोय ॥ ४०. यावत दशही प्रवेशन भांगा, पूर्वली पर भणवा। जीव थकी इक-इक ऊणा जे विकल्प करि भंग थुणवा ॥ मनुष्य में ऊपजै तेहनां द्विकसंजोगिक नां विकल्प और भांगा-दोय जीव मनुष्य में ऊपज तेहनो विकल्प एक, भांगो एक कहै छ१. १ समुच्छिम मनुष्य में, १ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । तीन जीव मनुष्य में ऊपजै तेहनां विकल्प २, भांगा २ १.१ समुच्छिम मनुष्य में, २ गर्भज मनुष्य में ऊपज । २.२ समुच्छिम मनुष्य में, १ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । च्यार जीव मनुष्य में ऊपजै तेहनां विकल्प ३, भांगा ३ १.१ समुच्छिम मनुष्य में, ३ गर्भज मनुष्य में ऊपज । २.२ संमुच्छिम मनुष्य में, २ गर्भज मनुष्य में ऊपज । *लय : रूड़े चन्द नीहाल रे २१४ भगवती-जोड़ Jain Education Intenational Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. ३ समुच्छिम मनुष्य में, १ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । पांच जीव मनुष्य में ऊपज तेहना विकल्प ४, भांगा ४ १.१ समुच्छिम मनुष्य में, ४ गर्भज मनुष्य में ऊपज । २. २ संमुच्छिम मनुष्य में, ३ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ३. ३ समुच्छिम मनुष्य में, २ गर्भज मनुष्य में ऊपज । ४. ४ संमुच्छिम मनुष्य में, १ गर्भज मनुष्य में ऊपज । छ जीव मनुष्य में ऊपजै तेहनां विकल्प ५. भांगा ५ १.१ समुच्छिम मनुष्य में, ५ गर्भज मनुष्य में ऊपज । २. २ संमुच्छिम मनुष्य में, ४ गर्भज मनुष्य में ऊपज । ३. ३ समुच्छिम मनुष्य में, ३ गर्भज मनुष्य में ऊपज । ४. ४ समुच्छिम मनुष्य में, २ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ५. ५ संमुच्छिम मनुष्य में, १ गर्भज मनुष्य में ऊपज । सात जीव मनुष्य में ऊपजै तेहनां विकल्प ६, भांगा ६ १.१ समुच्छिम मनुष्य में, ६ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । २.२ संमुच्छिम मनुष्य में, ५ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ३. ३ समुच्छिम मनुष्य में, ४ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ४. ४ संमुच्छिम मनुष्य में ३ गर्भज मनुष्य' में ऊपजै । ५. ५ समुच्छिम मनुष्य में २ गर्भज मनुष्य में ऊपज । ६. ६ समुच्छिम मनुष्य में १ गर्भज मनुष्य में ऊपज । अष्ट जीव मनुष्य में ऊपजै तेहनां विकल्प ७, भांगा ७ ११ समुच्छिम मनुष्य में, ७ गर्भज मनुष्य में ऊपज । २. २ संमुच्छिम मनुष्य में, ६ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ३. ३ समुच्छिम मनुष्य में, ५ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ४. ४ समुच्छिम मनुष्य में ४ गर्भज मनुष्य में ऊपज । ५. ५ समुच्छिम मनुष्य में, ३ गर्भेज मनुष्य में ऊपज । ६. ६ समुच्छिम मनुष्य में, २ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ७.७ संमुच्छिम मनुष्य में, १ गर्भन मनुष्य में ऊपजै । नव जीव मनुष्य में आजै तेहनां विकल, भांगा ८ १.१ समुच्छिम मनुष्य में, ८ गर्भज मनुष्य में ऊपज । २. २ संच्छिम भनुष्य में ७ गर्भज मनुष्य में ऊपज । ३. ३ समुच्छिम मनुष्य में ६ गर्भज मनुष्य में उपजै । ४. ४ समुच्छिम मनुष्य में ५ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ५. ५ संभुच्छिम मनुष्य में, ४ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ६. ६ समुच्छिम मनुष्य में, ३ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ७.७ समुच्छिम मनुष्य में, २ गर्भज मनुष्य में ऊपज । ८.८ संमुच्छिम मनुष्य में, १ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । दश जीव मनुष्य में ऊपजै तेहना विकल्प ६, भांगा ६ १.१ समुच्छिम मनुष्य में, ६ गर्भज मनुष्य में ऊपज । २. २ समुच्छिन मनुष्य में, ८ गर्भज मनुष्य में ऊपज । ३. ३ समुच्छिम मनुष्य में, ७ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । ४.४ समुच्छिा मनुष्य में, ६ गर्भज मनुष्य में ऊपज । ५.५ समुच्छिम मनुष्य में, ५ गर्भज मनुष्य में ऊपजै । श०६, उ० ३२, ढाल १६१ २१५ Jain Education Intemational Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमुच्छिम । ३ । ६. ६ संमि मनुष्य में, ४ गर्भज मनुष्य में अपने ७. ७ संमूमि मनुष्य में गर्भज मनुष्य में अपने ८.८ संमुच्छिम मनुष्य में, २ गर्भेज मनुष्य में ऊपजै । ९. समुच्छिम मनुष्य में १ सर्भे मनुष्य में अपने । हिये संख्यात जीव मनुष्य में अपने तेहना ११ विकल्प करि ११ मांगा क 31 ४१. संसेज मनुष्य प्रवेशन पूछा, समुच्छिम अथवा गर्भज में 1 हिव संख्यात जीवां राद्विकसंजोगिक १ भांगो हुवै ते ११ विकल्प करि ११ भांगा कहै है जिन कहै सुण गंगेय ! इक योगिक भंग वेय ॥ ४२. अथवा एक समुच्छिम मनुष्ये, संख्याता गर्भेज । अथवा दोयमुच्छिम मनुष्ये, गभिज में संवेज | ४३. अथवा तीन संमुच्छिम मनुष्ये अथवा च्यार संमुच्छिम मनुष्ये, ४४. अथवा पांच संमुच्छिम मनुष्ये, अथवा पट समुच्छिम मनुष्य ह्र, ४५. अथवा सप्त संमुच्छिम मनुष्ये, अथवा अष्ट संमुच्छिम मनुष्ये, ४६. अथवा नवमुच्छिम मनुष्य अथवा दश समुच्छिम मनुष्ये, ४७. तथा संखेज संमुच्छिम मनुष्ये, इम इग्यारं विकल्प करिने संख्याता गर्भे । गर्भेज में संसेज ॥ संख्याता गर्भेज । गभिज में संसेज ॥ संख्याता गर्भेज । गर्भेज में संखेज ।। संख्याता गर्भेज गर्भेज में संलेज ।। गर्भेज में संखेज || भंग इग्यार भगेज || 1 वा० - इहां संख्यात जीव मनुष्य में ऊपजै तेहनां नारकी नीं पर इग्यारं विकल्प का | अ असंख्यात पद नै विषे पूर्वे नारकी ने विषे बारे विकल्प ह्या । अने इहां मनुष्य नै विषे असंख्याता ऊपजै तेहनां वलि इग्यारे ईज विकल्प हुवै । जे भणी जो समुच्छिम मनुष्य नै गर्भेज मनुष्य ए बिहु ने विषे असंख्याता ऊपजै, जदि बारमों विकल्प हुवै ते इम नहीं जे संमुच्छिम मनुष्य ने विषे असंख्याता ऊपजै, पिण इहां गर्भेज मनुष्य तो स्वरूप थकी पिण असंख्याता नथी तो तेहने विषे असंख्याता ऊपजै पिण नथी ते भणी असंख्यात पद न विषे इग्यारे विकल्प देखाड़वा ने अर्थों कहे छे४८. हे प्रभु! जीव असंख मनुष्य में जिन कहै सर्व संमुच्छिम मनुष्ये, हि द्विक्संयोगिक ११ विकल्प करि ४९. अथवा असं समुच्छिम मनुष्ये अथवा असं समुच्छिम मनुष्ये, उपजे तेहूनी पृष्छा । ए इकयोगिक इच्छा ॥ ११ भांगा कहै छै - इक गर्न मनु होय । गर्भज मनु में दोय ॥ ५०. एवं जाव असंख संमुच्छिम, मनुष्य विषे अवधार । गर्भज मनुष्य विषे संख्याता, ए विकल्प भंग ग्यार ॥ असंख्याता जीव मनुष्य में ऊपजै तेह्नां विकल्प ११, भांगा ११ १. असंख्याता संमुच्छिम मनुष्य में, १ गर्भेज मनुष्य में ऊपजै । २. असंख्याता संमुच्छिम मनुष्य में, २ गर्भेज मनुष्य में अपने । २१६ भगवती जोड़ ४१. संखेज्जा भंते! मणुस्सा -- पुच्छा । गंगेया ! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा, गब्भ वक्कंतिथे वा होगा। ४२. अहवा एगे संमुच्छिममणुस्सेसु होज्जा संखेज्जा गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा, अहवा दो संमुच्छिममणुस्पेस होग्या संखेन्ना भवनि होगा, ४३-४७ एवं एक्के उस्सरिते जाव अहवा संमुखमण होण्या संखेज्जा गन्भवतिय मस्से होला। ( श० ६ ११० ) ''स्वादिपूर्वक असंख्यातपदे तु पूर्वं द्वादश विकल्पा उक्ता इह पुनरेकादशैव यतो यदि संमूच्छिमेषु गजेषु चासंख्यातत्त्वं स्थात्तदा द्वादशोऽपि विकल्पो भवेत्, न चैवं इह गर्भजमनुष्याणां स्वरूपतोऽप्यसंख्यातानामभावेन तत्प्रवेशन केऽसंख्यातासम्भवाद्, अतोऽसंकल्पा 2 ( वृ० प० ४५३ ) ४८. असंखेज्जा भंते! मणुस्सा - पुच्छा | गंगे! सव्वे वितत्व संमुच्छिममणुस्सेसु होज्जा । ४९. अहवा असंखेज्जा समुच्छिममणुस्सेसु एगे गब्भवक्कतिय गुस्सेसु होज्जा, अवा असंखेज्जा संमुच्छिममस्से दो गव्भवतियमणुस्सेसु होज्जा, ५०. एवं जाव असंखेज्जा संमुच्छिममणुस्सेसु होज्जा संवेशासम्भवतियम होगा। ( श ० ९1१११ ) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ गर्भेज मनुष्य में ऊपरी 1 ४ गर्भज मनुध्य में अपने । ५ गज मनुष्य में अपने । । ३. असंख्याता संमुच्छिम मनुष्य में, ४. असंख्यातानि मनुष्य में २. असंख्याता संमि मनुष्य में संमुच्छिम ६. असंख्याता मनुष्य में ६ गर्भज मनुष्य में अपने संमुच्छिम ७. असंख्याता संमि मनुष्य में ८. असंख्याता समुच्छिम मनुष्य में ६. असंख्याता संमुच्छिम मनुष्य में १०. असंख्याता समुच्छिम मनुष्य में, ११. मनुष्य में असंख्याता संमुच्छिम ७ गर्भेन मनुष्य में ऊपजै । गर्थे मनुष्य में अपने । 8 गर्भेज मनुष्य में ऊपजं । १० गर्भेज मनुष्य में ऊपजै । संख्याता गज मनुष्य में अपने हि उत्कृष्ट पदे मनुष्य में ऊपजै ते कहै छे - । ५१. मनुष्य विषे उत्कृष्ट पदे प्रभु ! ऊपजं तेहनीं पृच्छा । जिन कहै सर्व संमुच्छिम मनुष्ये, ए इक योगिक इच्छा ॥ वा० - संमुच्छिम मनुष्य असंख्याता हुवै प्रवेशन पिण असंख्याता नों हुवै ते भणी मनुष्य प्रवेश उत्कृष्ट पदे ते संमुच्छिम मनुष्य ने विधे सर्व पिण हुवे । हि कियोगिक भाग कहे - १ । 1 ५२. अथवा समुच्छिम मनुष्य विषे हे गर्भेज में पिण होय । ह्व द्विक्संयोगिक ए इक भंगो, श्री जिन वचने जोय ॥ ५३. प्रभु ! संमुच्छिम मनुष्य प्रवेशन, गर्भज मनुष्य प्रवेशन । कुणकुण जो विशेषाधिक छ, हि उत्तर दे श्री जिन ।। ५४. सर्व थकी थोड़ा गंगेया ! गर्भज मनुष्य प्रवेशन । संमुच्छिम मनुष्य प्रवेशन असंखेज गुणां प्रापन्न ॥ ५५. नवम शतक नों देश बतीसम, ढाल सौ एकाणं विमासी। भिक्षु भारोमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' आनंद थासी ।। ढाल १६२ दूहा १. देव प्रवेशन हे प्रभु! आयो कि प्रकार ? जिन कहे गंगेवा! मुणे, चिउविध को उदार ॥ २. प्रथम भवनवासी को, देव प्रवेशन देख यावत वैमानीक तुर्य, अमर प्रवेशन पेख ॥। ३. हे भदंत ! इक जीव ते देव प्रवेश करत स्यूं भवनपति विषे जाव वैमानिक त ? ४. जिन क भवनपति विषे जोतिषि वैमानिक तथा अथवा व्यंतर धार इकसंयोगिक च्यार ॥ ५१. उक्कोसा भंते! मणुस्सा - पुच्छा । गंवा ! सविता समुच्छिममस्से होया । वा० - संमूच्छिमानामसंख्यातानां भावेन प्रविशतः मध्यसंख्यातानां सम्भवस्ततश्च मनुष्यप्रवेशनकं प्रत्युत्कृष्टपदिनस्तेषु सर्वेऽपि भवति । ( वृ० प० ४५३) ५२. हवा संमुनितिमस्य होज्जा | (०२११२) ५२. एप में भते संमुच्छिममपवे सदस् वक्कंतिय मणुस्तपवेसण गस्स य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? ५४. गंगेया सम्मयोगवतिय पाए समुच्छिममगुपए असंखेज्जगुणे । (70 RIPPA) १. देवपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? सं! ते २. तं जहा भवणवासिदेवपवेसणए जाव वैमाणियदेवपवेणए । (२० २१२१४) ३. ए ! देववेसणं पविसमा वासीसु होज्जा ? वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिएसु होज्जा ? ४. गंगेया ! भवणवासीसु वा होज्जा, वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिएसु वा होज्जा । (श० ।११५) श० ६, उ० ३२, ढाल १६१,१६२ २१७ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. दो भंते ! देवा देवपवेसणएणं-पुच्छा । *प्रश्न करै गंगेय जी॥ [ध्रुपदं] ५. जीव दोय भगवंत जी ! देव प्रवेशन करता जी काइ। स्यं हवै भवनपति विषे, जाव वैमानिक वरता जी काइ? ६. जिन कहै भवनपति बिहुं, अथवा व्यंतर मझारो जी कांइ। जोतिषी वैमानिक तथा, इक संयोगिक च्यारो जी कांइ। [जिन कहै गंगेया ! सुणे] ७. अथवा एक भवनपति, इक व्यंतर में होयो। तिरिक्ख प्रवेशन जिम कह्यो, तिम सूर भणवा जोयो ।। ६. गंगेया ! भवणवासीसु वा होज्जा, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु वा होज्जा । ८. जाव असंख्याता लगै, हिवै उत्कृष्ट पद पृच्छा। जिन कहे जोतिषि ह सहु, ए इकयोगिक इच्छा ।। ७. अहवा एगे भवणवासीसु एगे वाणमंतरेसु होज्जा, एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवपवेसणए वि भाणियब्वे। ८. जाव असंखेज्ज त्ति। (श० ६।११६) उक्कोसा भंते !-पुच्छा। गंगेया ! सव्वे वि ताब जोइसिएसु होज्जा, वा०-ज्योतिष्कगामिनो बहव इति तेषूत्कृष्टपदिनो देवप्रवेशनकवन्त: सर्वेऽपि भवन्तीति (वृ०प० ४५३) ६. अहवा जोइसिय-भवणवासीसु य होज्जा, अहवा जोइ सिय वाणमंतरेसु य होज्जा, १०. अहवा जोइसिय-वेमाणिएसु य होज्जा, वा० --जोतिषी नै विषे जाणहार घणां ते माट उत्कृष्ट पद ना धणी देव प्रवेशनवंत सगलाई हुवै । ६. अथवा जोतिषी नैं विषे, भवनपति में होयो। अथवा जोतिषी नै विष, वाणव्यंतर में जोयो ।। १०. अथवा जोतीषी नैं विषे, वैमानिक में जोयो। द्विकसंजोगिक आखिया, ए त्रिहुं भांगा ताह्यो ।। ११. अथवा जोतिषी - विषे, भवनपति में होयो। वाणव्यंतर में है बलि, ए धुर भांगो जोयो ।। १२. अथवा जोतिषी ने विषे, भवनपति रै मांह्यो। वैमानिक में ह वलि, द्वितीय भंग कहिवायो । १३. अथवा जोतिषी नैं विषे, वाणमंतर रै मांह्यो । वैमानिक में ह वली, तृतीय भंग ए पायो । १४. अथवा जोतिषी नैं विषे, भवनपति में पेखो। व्यंतर वैमानिक विषे, चउक्कसंयोगिक एको ।। १५. भवनपति व्यंतर प्रभु ! जोतिषो देव प्रवेशो। वलि प्रवेश वैमानिके, कुण-कुण जाव विशेषो? ११. अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य होज्जा, १२. अहवा जोइसिएमु य भवणवासीसु य वेमाणिएसु य होज्जा, १३. अहवा जोइसिएसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होज्जा, १४. अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होज्जा। (श० ६।११७) १५. एयस्स णं भंते ! भवणवासिदेवरवेसण मस्स, वाण मंतरदेवपवेसणगस्स, जोइसियदेवपवेसणगस्स, बेमाणियदेवपवेरुणगस्स य कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा? १६. गंगेया ! सम्वत्थोवे वेमाणियदेवपवेसणए, भवण वासिदेवपवेसणए असंखेज्जगुणे, १७. वाणमंतरदेवपवे तणए असंखेज्जगुणे, जोइसियदेवपवेसणए संखेज्जगुणे। (श० ६।११८) १६. जिन कहै थोड़ा सर्व थी, वैमानिक सुप्रवेशो। भवनपति में प्रवेश ते, असंखेजगुण एसो॥ १७. वाणमंतर में प्रवेशनं, असंख्यातगुण जाणी। जोतिषी देव प्रवेशनं, संख्यात-गुणां' पहिछाणी ।। *लय : कुशल देश सुहामणो १. भगवती की जोड़ ढाल १६२ गाथा १७ में व्यन्तर एवं ज्योतिषि देवों में जीव के प्रवेश का वर्णन करते हुए लिखा गया है वाणमंतर में प्रवेशनं, असंख्यात गुण जाणी। ज्योतिषी देव प्रवेशनं, असंख्यात गुणा पहिछाणी ।। यहां जोड़ की मूल प्रति तथा उसकी प्रतिलिपि वाली प्रतियों में 'असंख्यात गुणा' लिखा हुआ है। किन्तु अंगसुत्ताणि भाग २, जो आगम-सम्पादन की शृंखला २१८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. वैमानिक में जान, तथा अल्प ते स्थान, ते हि च्यार गति में प्रवेशन नों अल्पबहुत्व कहै छै - ! १२. ए प्रभु नरक-प्रवेशनं देव- प्रवेशन ने विषे 1 २०. जिन कहे बोड़ा मनुष्य क्षेत्र में इज सर्व हुये २३. तिथंच गति रै मांय, असंखगुणो इन म्याय, सोरठा जावणहारा अल्प छै । कारण थोड़ा कह्या ॥ वहा | तिर्यच मनुष्य प्रवेशो । कुणकुण जाव विशेषो ? थी, मनुष्य-प्रवेशनतो । ते भनी अल्प कहंतो ॥ 1 २१. तेहथी नरक - प्रवेशनं, असंखेजगुण आख्या । नरक गमन करे तिके, नर ते असंखगुणा भाव्या || देव- प्रवेशनं, असंखेजगुण जाणी । २२. तेहथी तिरि-प्रवेशन तेह थी, असंखगुण पहिछाणी ॥ सोरठा नरक मनुष्य सुर थी हुवै। विजातिया ने प्रवेशनं ॥ हा ते तो उत्पाद २४. पूर्व प्रवेशन आवियो, बलि उद्धर्तन रूप है, तब संबंध इम लाध ।। २५. नरकादिक नां ते विहं उत्पत उद्वर्त्तन । अंतर-सहित रहितपणे, कीजे तेहिज प्रश्न ॥ उपजे अंतर-सहीतो । के नारक नो नेरइया उपजे अंतर रहीतो ? *२६. नारक हे भगवंत जी! नां २७. असुर अंतर-सहित ऊपजे जाय वैमानिक ऊपजे उपजे अंतर-रहीतो । अंतर-रहित सहीतो ? *लय : कुशल देश सुहामणो में सम्पादित होकर 'जैन विश्व भारती' द्वारा प्रकाशित हुआ है, के शतक 8 सूत्र ११८ में 'संखेज्जगुणा' पाठ है। मूल पाठ के इस अन्तर ने एक सन्देह खड़ा कर दिया। उसके निराकरण हेतु भगवती सूत्र की प्रतियों का निरीक्षण किया । प्राचीन प्रतियों में गुजापाठ मिला तब हमने 'भगवती' को देखा। यह भगवती सूत्र की वह प्रति है जिसके आधार पर जयाचार्य ने 'जोड़' की रचना की थी, जो जयाचार्य के विद्यागुरु मुनि हेमराजजी के लिए स्वयं जयाचार्य (मुनि अवस्था) एवं मुनि सतीदासजी द्वारा लिखित है । 'हेम भगवती' के मूल पाठ में 'असंखेज्जगुणा' पाठ लिखकर 'अकार' को दी रेखाओं द्वारा पित किया गया है, पर उसके अर्थ में असंख्यातगुणा ही लिखा हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि संखेज्जगुणा' की बात समझ में आ गई थी, किन्तु अर्थ लिखते समय वह विस्मृत हो गई। जोड़ की रचना करते समय अर्थ की बात ही ध्यान में रहने से असंख्यातगुणा हो गया। जोड़ के सम्पादन काल में अंग सुत्ताणि तथा हेमभगवती को आधार मानकर यहां संख्यातगुणा किया गया है। १०. सवय माणिवदेवव्यवेसण तत्स्थानानां चाल्पत्वादिति । १६. एयस्स णं भंते ! नेरइयपवेसणगस्स तिरिक्खजोणियपवेसणस्स मणुस्सपवेसणगस्स देवपवेसणगस्स य कयरे कमरे हितो नाव (सं० पा० ) विसेसाहिया वा ? २०. गावे मस्त मनुष्यक्षेत्र एव तस्य भावात् तस्य च स्तोकत्वात्, " ( वृ० प० ४५३ ) २१. अणे, उद्गामिनामसङ्ख्यातगुणत्वात् २२. देव देणे असंखेज्नमुणे । त्ति तद्ामिनां ( वृ० प० ४५३ ) ( वृ० प० ४५३) तिरिक्नोपियपवेसणए ( श० ९1११९ ) २४, २५. अनन्तरं प्रवेशनकमुक्तं तत्पुनरुत्पादोद्वर्त्तनारूपमिति भारकादीनामुपामुद्रा सान्तरभिरन्तरतया निरूपयन्नाह - ( वृ० प० ४५३ ) २६. संतरं भंते! नेरइया उववज्जंति निरंतरं नेरइया उववज्जति २७. संतरं असुकुमारा उननिरंतर असुरकुमारा उववज्जति जाव संतरं वैमाणिया उववज्जंति निरंतरं वैमाणिया उववज्जंति ? श० ६, उ० ३२, ढाल १६२ २१8 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. नारकि संतरे नीकलै, नीकलै अंतर-रहीतो। यावत व्यंतर नीकलै, अंतर-रहित-सहीतो? २६. जोतिषि नैं वैमानिया, अंतर-सहित चवंतो। तथा निरंतर ते चवै ? ए प्रश्न समूह पूछंतो। ३०. जिन कहै नारकि ऊपजै, अंतर-सहित-रहीतो। इमहिज भवनपति दशं, उपजै तेह वदीतो॥ ३१. सांतर पृथ्वी न ऊपज, उपजै अंतर-रहीतो। एवं जावत वणस्सई, शेष नरक जिम कहोतो।। २८. संतरं नेरइया उव्वद॒ति निरंतर नेरइया उब्वटुंति जाब संतरं वाणमंतरा उव्वदति निरंतरं बाणमंतरा उन्वट्ठति ? २६. संतरं जोइसिया चयंति निरंतरं जोइसिया चयंति संतर वेमाणिया चयंति निरंतरं वेमाणिया चयंति ? ३०. गंगेया ! संतरं पि नेरइया उववज्जंति निरंतरं पि नेरइया उववज्जति जाव संतरं पि थणियकुमारा उववज्जति निरंतर पि थणियकुमारा उववज्जंति, ३१. नो संतरं पुढविक्काइया उववज्जति निरंतरं पुढ विक्काइया उववज्जंति, एवं जाव वणस्सइकाइया , सेसा जहा नेरइया जाव संतरं पि वेमाणिया उबवज्जति निरंतरं पि वेमाणिया उववज्जंति। ३२. संतरं पि नेरइया उव्वद्भृति निरंतरं पि नेरइया उब्वटुंति, एवं जाव थणियकुमारा। ३३. नो संतरं पुढविक्काइया उब्वटुंति निरंतरं पुढवि क्काइया उब्वटुंति, एवं जाव बणस्सइकाइया । सेसा जहा नेरइया, ३४. नवरं- जोइसिय-वेमाणिया चयंति अभिलावो जाव संतरं पि वेमाणिया चयंति निरंतर पि वेमाणिया चयंति । (श०६/१२०) ३२. अंतर-सहित पिण नेरइया, नोकले छै किणवारो। अंतर-रहित पिण नीकल, इम जाव थणियकुमारो॥ ३३. सांतर पृथ्वी न नीकलै, नीकलै अंतर-रहितो। एवं जाव वनस्पति, शेष नरक जिम कहितो॥ ३४. णवरं जोतिषि विमाणिया, चयंति इहविध कहितो। यावत वैमानिक चवै, अंतर-सहित रु रहितो। सोरठा ३५. हिव नारकादि प्रपन्न, अन्य प्रकार करी तसु । उत्पत्ति उद्वर्त्तन, कहियै छै ते सांभलो॥ ३६. *प्रभ ! छता नेरइया ऊपज, अछता ऊपजै तेहो ? जिन कहै छताज ऊपज, अछता नहीं उपजेहो। वा-छता ते विद्यमान द्रव्यार्थपणे करी, पिण सर्वथा अछतो कांइ न ऊपज अछतापणां थकीज खरशृंग नी पर। जे माटै विद्यमानपणों तो तेहनौं जीव द्रव्य नी अपेक्षा करी अथवा नारक पर्याय नी अपेक्षा करी। तिण प्रकार करिक हीज भावी नारक पर्याय नी अपेक्षाए द्रव्य थीं नेरइया छता नेरइएपणे ऊपजै अधवा नरक नां आउखा नां उदय थकी भाव नेरइया हीज नेरइयापणे करी ऊपजै । भाव नेरइया किणनै कहिये ? उत्तर-जे नरक नों आउखो भोगवै ते भाव नेरइया कहिये । अन्तराल गति नै विषे वर्तमान इत्यर्थः । ___अथवा सतो कहितां विभक्ति नां परिणाम थी छता नै विषे ते पूर्व ऊपनां ने विषे अनेरा ऊपजै पिण अछता नै विषे न ऊपजै लोक ने शाश्वतपण करी सदाकाल हीज सद्भाव थी। ३७. एवं जाब विमाणिया, छता ऊपजै सोयो। पिण अछता वैमाणिक तणो, ऊपज नहि होयो। ३८. प्रभ! छता नेरइया नीकले, कै अछता निकलै त्यांही? जिन कहै छताज नीकलै, अछता नीकलै नांहो ।। *लय : कुशल देश सुहामणो ३५. अथ नारकादीनामेव प्रकारान्तरेणोत्पादोद्वर्त्तने निरूपयन्नाह - (वृ०प० ४५५) ३६. सतो भंते ! नेरइया उबज्जति ? असतो नेरइया उववज्जति ? गंगेया ! सतो नेरइया उववज्जंति, नो असतो नेरइया उववज्जति । वा०-'सन्तः' विद्यमाना द्रव्यार्थतया, नहि सर्वथैवासत् किञ्चिदुत्पद्यते, असत्त्वादेव खरविषाणवत्, सत्वं च तेषां जीवद्रव्यापेक्षया नारकपर्यायापेक्षया वा, तथाहि -भाविनारकपर्यायापेक्षया द्रव्यतो नारकाः सन्तो नारका उत्पद्यन्ते, नारकायुष्कोदयाद्वा भावनारका नारकत्वेनोत्पद्यन्त इति । (वृ० प० ४५५) अथवा 'सओ' त्ति विभक्तिपरिणाभात् सत्सु प्रागुत्पन्नेध्वन्ये समुत्पद्यन्ते नासत्सु, लोकस्य शाश्वतत्वेन नारकादीनां सर्वदैव सद्भावादिति । (वृ० प० ४५५) ३७. एवं जाव वेमाणिया। ३८. सतो भंते ! नेरइया उव्वदति ? असतो नेरइया उब्वदंति? गंगेया ! सतो नेरइया उब्वटुंति, नो असतो नेरइया उध्वट्ठति । २२. भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. एवं जाव विमाणिया, णवरं विशेष लहिदूं । जोतिषी वैमानिक विषे, चयंति पाठज कहिवूं ॥ ४०. प्रभु ! उता नेरइया उपजे के अछता उपजंतो छता असुर जे ऊपजे जाव वैमानिक हंतो ? " ४१. छता नेरइया नोकलै, के अछता नीकलंतो । छता असुर जे नीकले, जाव वैमानिक चयंतो ? ४२. जिन कहै गंगेया ! सुणे, छता नारक उपजंतो । पिण अछता नहि ऊपजे, इम जाव वैमानिक तो ।। ४३ छता नेरइया नीकलै, अछता नीकले नांहीं । जाव छता वैमानिक चर्च, अछता न च क्याहीं ॥ सोरठा ४५. बलि निरूपणा तास 1 ४४. नरक प्रमुख सुविशेष, उत्पादन उद्धर्त्तन । सांतर आदि प्रवेश, पूर्व निरूपण ते कियो । करिव नों कारण कितुं । तसु उत्तर इम भास, वृत्ति विषे इम आखियो । ४६. पूर्व नारक आदि जुदा-जुदो उत्पाद नाँ । दाख्यो सांतरत्वादि, तिमहिज उद्वर्तन तणं ॥ ४७. इहां वलि नारक आद, सर्व जीव भेदां तणों । उद्वर्तन उत्पाद, आख्यो है समुदाय थी ॥ ४. *किण अर्थ प्रभु ! इम कह्यो, छता नारक उपजंतो पण अछता नहि ऊपजे, जाव वैमानिक चयंतो ? 1 ४९. जिन कहै गंगेया ! सुणे पुरिस विधे आदानीय, ५०. सास्ती लोक पुरिसादाणीव पासो अरहा अर्हन जासो । आदि अंत करि रहितो। जिम पंचम में विये, नवम उदेशे कहितो ॥ ५१. जे लोक लोकतिको इज लविये । तिण अर्थे गंगेय ! कह्यं छता वैमानिक चवियै ॥ , , सोरठा ५२. पा अर्जुन तेह, शाश्वत लोकज आखियो । ते शाश्वत भावेह, छता नारका ऊपजै ॥ ५३. अथवा छता वहेह, पूर्व ऊपनां तेह विषे । अन्य नारक उपजेह, इमहिज निकले चयन कहां 11 *लय : कुशल देश सुहामणो ३६. एवं जाव वैमाणिया, नवरं - जोइसिय- वे माणिएसु चयंति भाणियव्वं । ( अंगसुत्ताणि भा. २ पृ० ४२८ ) ४०. सतो भंते! नेरइया उववज्जंति, असतोने रइया उववज्जंति, सतो असुरकुमारा उववज्जंति जाव सतो वैमाणिया उपयज्जति असतो वैमाणिया उववज्जंति ? या उम्बति, सतो ४१. सतरा उति असतो असुरकुमारा उपकृति जसती बेमाणिया चयंति, असतो वेमाणिया चयंति ? ४२. गंगेया ! सतो नेरइया उववज्जंति, नो असतो नेरइया उववज्जंति, जाव सतो वेमाणिया उववज्जंति, नो असतो वेमाणिया उववज्जंति, ४३. सतो नेरइया उबट्टंति, नो असतो नेरइया उब्वट्टंति जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति । ( श० ६ १२१ ) ४४, ४५. अथ नारकादीनामुत्पादादेः सान्तरादित्वं प्रवेशनपूर्व निरूपितमेवेति किं पुनस्तन्निरूप्यते ? इति अत्रोच्यते, ( वृ० प० ४५५) 3 ४६. पूर्व नरकादीनां प्रत्येकमुत्पादस्य सान्तरत्वादि निरूपितं ततश्वनाथाः ५० ५० ४५५) ४०. इह तु पुनर्नारका दिन समुदायतः समुदितयोरेव चोत्पादोद्वर्त्तयोस्तन्निरूप्यत इति । (बु० १०४५५) ४८. से गं भते एवं बुम्बइयतो नेरइया उववज्जति, नो असतो नेरइया उववज्जति जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति ? ४६. से नूणं भे गंगेया ! पासेणं अरह पुरिसादाणीएणं ५०, ५१. सासए लोए बुइए अणादीए अणवदग्गे जहा पंचम सए (सू० २५५) जाव (सं० पा० ) जे लोक्कइ से लोए । से तेणट्टेणं गंगेया ! एवं बुच्चइ - जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयति । (T० | १२२) (श० ५२, ५३ यतः पार्श्वनार्हता शाश्वतो लोक उक्तोऽतो लोकस्य शाश्वतत्वात्सन्त एव सत्स्वेव वा नारकादय उत्पद्यन्ते यति साध्वेोच्यत इति ( वृ० प० ४५५) श० ६, उ०३२, ढाल १६२ २२१ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. 'से णूणं भंते ! गंगेया' इत्यादि, अनेन च तत्सिद्धा न्तेनैव स्वमतं पोषितं, (वृ०प० ४५५) ५४. पाव तणो जे नाम, महावीर देवे कां । स्व मत पुष्टज पाम, वृत्ति विषे इम आखियो। ५५. *शत नवम बतीसम देश ए, ढाल इकसौ बाणंमी विमासी । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' आनंद थासी॥ ढाल : १६३ १. अथ गाङ्गेयो भगवतोऽतिशायिनी ज्ञानसम्पदं सम्भावयन् विकल्पयन्नाह (वृ०प० ४५५) दूहा १. हिवै गंगेय भगवंत नी ज्ञान संपदा जेह। चितवतोज थको सही, विकल्प करत वदेह ।। प्रभु नी ज्ञान संपदा केरी। २. स्वयं आपणपै इज प्रभूजी, चिह्न विना ए जाणो। अथवा चिह्न थकी ए वस्तु, जाणों आप प्रमाणो।। कीमत करतो छतो गंगेयो प्रश्न पूछ छै फेरी ।। (ध्रुपदं) ३. अणसुणियो आगम विण ए इम, जाणो आप प्रभूजी ! तथा अन्य वच सांभल जाणो, आगम श्रुत करि बूझी ॥ २. सयं भंते ! एतेवं जाणह, उदाहु असयं, 'सयं भंते!' इत्यादि, स्वयमात्मना लिङ्गानपेक्षमित्यर्थः 'एवं' ति वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु असयं' ति अस्वयं परतो लिङ्गतः इत्यर्थः, (वृ० प० ४५५) ३. असोच्चा एतेवं जाणह उदाहु सोच्चा'असोच्च' त्ति अश्रुत्वाऽऽगमानपेक्षम् एतेवं' ति एतदेवमित्यर्थः, 'सोच्च' ति पुरुषान्तरवचनं श्रुत्वाऽऽगमत इत्यर्थः (वृ०प०४५५) ४. गंगेया ! सयं एतेवं जाणामि, नो असयं, ४. जिन भाखै सांभल गंगेया! निज ज्ञाने करि जाएं। चिह्न विना ए सर्व पिछाणं, चिह्न थकी नहिं माणूं ॥ ५. अणसुणिया आगम श्रुत विण हूं, इम जाण गंगेया ! अन्य पुरुष नां मुख थी सांभल, आगम थकी न ज्ञेया॥ ६. छता नेरइया उपजै पिण ए, अछता उपजै नांहीं। जाव वैमानिक छता चवै छै, अछता न चवै क्यांहीं ।। ५. असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा ७. हे भदंत! किण अर्थे ए, इम भाखो आप प्रभूजी ! जाव वैमानिक अछता न चवै? इम गंगेये बूझी।। ८. जिन कहै हे गंगेय ! केवली, पूरव दिशे प्रमाण । मान-सहित पिण वस्तू जाणे, मान-रहित' पिण जाणें ।। ६. दक्षिण दिशि में पिण इम जाणे, जिम का शब्द उद्देशे। पंचम शत नों तुर्य भलायो, वारू रीत विशेषे ।। १०. जाव निरावरण ज्ञान केवलि नों, तिण अर्थे इम कहिये । तिमहिज जाव वैमानिक अछता, चवै नहीं इम लहिये ।। ६. सतो नेरइया उबवज्जंति, नो असतो नेरइया उधव ज्जति जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति । (श० ६।१२३) ७. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तं चेव जाय (सं० पा०) नो असतो वेमाणिया चयति ? ८. गंगेया! केवली णं पुरत्यिमे णं मियं पि जाणइ, __ अमियं पि जाणइ। ६. दाहिणे णं एवं जहा सदुद्देसए (१६४-६७) १०. जाव (सं० पा०) निव्वुडे नाणे केवलिस्स । से तेण ठेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ-लयं एतेवं जाणामि, नो असयं, असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा-तं चेव जाव नो असतो वेमाणिया चयंति। (श० ६।१२४) *लय : कुशल देश सुहामणो। 'लय : कहो नी किम करि आवूजी १.परिमाणवत् गर्भज मनुष्य जीव द्रव्यादिक संख्याता। २. वनस्पति पृथिव्यादिक जीव अनंता वा असंख्याता । २२२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. हे भगवंत! नारकी नरके, पोतेइज उपजै छै । के पोते नहिं उपजै, पर नां वश थी नरक पड़े छै? १२. जिन भाखै पोत इज नारकि, नरक विषे उपजै छ । पिण पर नां वश थकी नारकी, नरके नांहि पड़े छै ।। १३. किण अर्थे भगवंत ! इम भाख्यो, जिन कहै सुण गंगेया ! निज कृत कर्म उदय करि जंतु, स्वयं नरक उपजेया ।। वा०-जिम कोई कहै छ.--- ए जीवात्मा नै सुख-दुख उपजै ते ईश्वर नों प्रेरयो स्वर्ग में जाय छै तथा नरक में जाय छ। पिण पोता ने वश जातो नथी, परवश जाय छ। तेहनो मत खंडन कीधो, एतलै ईश्वर सुख-दुख नों कर्ता नथी। १४. कर्मगुरू ते महत कर्म करि, कर्मभार करि जाणी। कर्मगुरूसंभारपणे करि, अति प्रकर्ष पिछाणी ।। १५. ए तीनइं पुन्य कर्म नीं, अपेक्षाय पिण वदियै । तिण कारण आगल इम अखिय, अशुभ कर्म नैं उदिये । १६. उदय प्रदेश थकी पिण ह्र ते, तिण कारण इम कहिये । अशुभ कर्म नां विपाक करिक, बंध्यो अनुभव लहियै ।। १७. ते तो मंद थकी पिण ह छै, तिण कारण इम कहै छै । अशुभ कर्म फल विपाक करिक, स्वयं नरक उपजै छै ।। ११. सयं भंते ! नेरइया नेरइएसु उववज्जति ? असयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति ? १२. गंगेया ! सयं नेरइया नेरइएसु उबवज्जंति, नो असयं नेरइया नेरइएसु उबवति । (श० ६।१२५) १३. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ --....... गंगेया ! कम्मोदएणं, वा०- यथा कैश्चिदुच्यते'अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा। (वृ०प० ४५५) १४. कम्मगुरुयत्ताए, कम्मभारियत्ताए, कम्मगुरुसंभारियत्ताए. अतिप्रकर्षावस्थयेत्यर्थः, (वृ० प० ४५६) १५. एतच्च त्रयं शुभकर्मापेक्षयाऽपि स्यादत आह-'असुभाण' मित्यादि, (वृ० प० ४५६) असुभाण कम्माणं उदएणं १६. उदयः प्रदेशतोऽपि स्यादत आह असुभागं कम्माणं विवागणं, 'विवागणं' ति विपाको यथाबद्धरसानुभूति:, (वृ०प० ४५६) १७. स च मन्दोऽपि स्यादत आह- (वृ०प० ४५६) असुभाणं कम्माणं फलविवागणं सयं नेरइया नेरइएसु उववज्जंति, १८. से तेणठेणं गंगेया ! एवं बुच्चइ-सयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति, नो असयं नेरइया नेरइएसु उववज्जंति । (श० ६।१२६) १६. सयं भंते ! असुरकुमारा-पुच्छा। गंगेया ! सयं असुरकुमारा असुरकुमारेसु उबवज्जंति, नो असयं असुरकुमारा असुरकुमारेसु उववज्जति । (श० ६।१२७) २०. से केणठेणं त चेव जाव उववज्जंति ? गंगेया ! कम्मोदएणं, कम्मविगतीए, 'कम्मविगईए'त्ति कर्मणामशुभानां विगत्या-विगमेन स्थितिमाश्रित्य (वृ० प० ४५६) २१. कम्मविसोहीए, कम्मविसुद्धीए, 'कम्मविसोहीए' त्ति रसमाश्रित्य 'कम्मविसुद्धीए' त्ति प्रदेशापेक्षया, (वृ०प०४५६) २२. सुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभाणं कम्माणं विवागणं सुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं असुरकुमारा असुर कुमारत्ताए उववज्जति, २३. से तेणठेणं जाव उववज्जति । एवं जाब थणियकुमारा। (श०६।१२८) २४. सयं भंते ! पुढविक्काइया-पुच्छा। गंगेया! सयं पुढविक्काइया पुढविक्काइएसु उववज्जति नो असयं पुढविक्काइएसु उववज्जति । (श० ६।१२६) १८. तिण अर्थे ? करिने गंगेया! पोते नारकी नरक उपजै, इम आख्यो अवलोई। परवश पड़े न कोई ।। १६. हे प्रभु ! पोते असुर ऊपजै, के परवश उपजे त्यांही। जिन कहै असुर ऊपजै पोते, परवश उपजै नांही ॥ २०. ते किण अर्थे ! तब जिन भाखै, कर्म उदै करि जाणी। कर्म-विगम ते अशुभ कर्म नी, विगम-स्थिति पहिछाणी ॥ २१. कर्म-विसोहि ते रस आश्री, कर्म-विशुद्धी जेहनां । कर्म प्रदेश अपेक्षा ए वच, तथा अर्थ इम एहनां । २२. शभ कर्म उदय वलि, शुभ कर्म विपाक करीनै लहिये। पुन्य कर्म फल विपाक करिक, स्वयं असुर ऊपजिये । २३. तिण अर्थे करि असुरपणे, पोतेज उपजै ज्यांही। एवं यावत थणियकुमारा, परवश उपज नाही ।। २४. हे प्रभु! पुढवी उपजै पोते, के परवश उपजै छै? जिन कहै पृथ्वी उपजे पोते, परवश नांहि पड़े छ । श० ६, उ० ३२, ढाल १६३ २२३ Jain Education Intemational Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. किण अर्थे ? तब श्री जिन भाखै, कर्म उदय करि धारं । कर्मगुरू फुन कर्मभार करि, कर्मगुरूसंभारं ।। २६. शुभ अशुभ जे कर्म उदय करि, शुभाशुभ जे जाणं । कर्म तणां जे विपाक करिने, अनुभावे पहिछाणं ।। २५. से केणठेणं जाव उववज्जति ? गंगेया! कम्मोदएणं, कम्मगुरुयत्ताए, कम्मभारिय त्ताए, कम्मगुरुसंभारियत्ताए, २६. सुभासुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभासुभाणं कम्माणं विवागणं, सोरठा २७. शुभ जे वर्ण गंधादि, जाति एकेंद्रियादिक अशुभ । नाम प्रकृति ए वादि, तेह तणे उदये करी ॥ २८. *शुभाशुभ जे कर्म तणां फल, विपाक करिक ज्यांही। पुढवीपणे ऊपजै पोते, परवश उपजै नांही ।। २६. तिण अर्थे करि जाव ऊपज, जाव मनुष्या एमो। व्यंतर जोतिषि विमानिया ते, असुरकूमारा जेमो॥ ३०. तिण अर्थे गंगेय ! कह्यो इम, सुर वैमानिक ज्यांही। यावत पोते ईज ऊपज, परवश उपजे नाही ॥ ३१. ते वस्तु कहि तेह समय नैं, आदि देइ गंगेय ! महावीर भगवंत श्रमण नैंप्रत्यक्ष ही जाणेय ।। ३२. सर्व वस्तु नां जाणणहारा, सर्वज्ञ वीर पिछाण । सर्व वस्तु नां देखणहारा, इम प्रत्यक्षज जाण । ३३. गंगेयो अणगार तिवारे, वीर प्रभू प्रति जेही। तीन वार दक्षिण पासा थी, प्रदक्षिणा करेई ।। ३४. वंदै स्तुति करै वचन थी, नमस्कार शिर नामी । इम कहै आप समीपे वांछं, हे प्रभु! अंतरजामी। ३५. च्यार महाव्रत रूप धर्म थी, पंच महाव्रत धर्मो। कालासवेसी पुत्र कह्यो जिम, तिमहिज भणवो मर्मो॥ २७ 'सुभासुभाणं' ति शुभानां शुभवर्णगन्धादीनाम् अशुभानां तेषामेकेन्द्रियजात्यादीनां च । (वृ०प०४५६) २८. सुभासुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं पुढविक्काइया पुढविक्काइएसु उववज्जति, नो असयं पुढविक्काइया पुढविक्काइएसु उववज्जति । २६. से तेणठेणं जाव उववज्जंति । (श० ६।१३०) एवं जाव मणुस्सा। (श०६।१३१) वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । ३०. से तेणठेणं गंगेया! एवं वच्चई-सयं वेमाणिया बेमाणिएसु उववज्जंति, नो असयं बेमाणिया वेमाणिएसू उववज्जति । (श० ६।१३२) ३१,३२. तप्पभितिं च णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणइ सवण्णं सव्वदरिसि । 'तप्पभिइ च' त्ति यस्मिन् समयेऽनन्तरोक्तं वस्तु भग वता प्रतिपादितं ज्ञानस्य तत्तथा, (वृ० प० ४५६) ३३. तए णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, ३४. वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी इच्छामि णं भंते ! तुब्भं अंतियं ३५. चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं एवं जहा कालासवेसियपुत्तो (श० ११४३१-४३३) तहेव भाणियव्वं ३६. जाव (सं० पा०) सव्वदुक्खप्पहीणे। (श० ६१३३-१३५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ६।१३६) ३७. नवमशते द्वात्रिंशत्तमोद्देशक: (वृ०प० ४५६) ३६. यावत सर्व दुख प्रक्षीण करीने मोक्ष सिधाया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! गोतम वीर बधाया ।। ३७. नवम शतक बतीसमुद्देशक, इकसौ त्राणूमीं ढालं । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' गणि गुणमालं ।। ३८. ए गंगेय तणां भांगा में, भूल चूक कोइ आयो। तो मिच्छामिदुक्कडं म्हारै, पंडित शुद्ध करायो । नवमशते द्वात्रिंशत्तमोद्देशकार्थः ॥६॥३२॥ १. *पाछलै उद्देश आख्यो, गंगेयो गुण-आगलो। वीर सेवा थकी सीधो, कीधो आतम नों भलो॥ २. बीजो कोई कर्मवश, विपरीतपणं पिण पावियै । जिम जमाली त्रयस्त्रिशत उद्देशक देखावियै ।। *लय: पूज मोटा भांज तोटा १,२. गांगेयो भगवदुपासनात: सिद्धः अन्यस्तु कर्मवशा द्विपर्ययमप्यवाप्नोति यथा जमालिरित्येतद्दर्शनाय त्रयस्त्रिशत्तमोद्देशकः, (वृ०प०४५६) २२४ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १६४ दूहा १. तिण काले नैं तिण समय, वर माहणकुंड ग्राम । नामें नगर हुंतो भलो, अति वर्णन अभिराम ॥ २. चैत्य प्रवर वह साल वन, धातु चित्र चयनेह वर्णन करि तेहनं, अधिक अनोपम एह ॥ ३. ते माहणकुंड ग्राम जे, नगर विषेज प्रसिद्ध । ऋषभदत्त नामें वसै ब्राह्मण ऋद्ध समृद्ध ॥ ४. दित्त तेजस्वी तेजवत, दर्पवान वा दित्त । वित्ते प्रसिद्ध जाव ते अपरिभूत कथित ॥ , ५. ऋग यजू नै साम फुन, वेद अथर्वण मान । जिम खंधक जावत अन्य, बहु ब्राह्मण नय जान ॥ ६. श्रमणोपासक जाणिया, जीवाजीव-स्वरूप। पुन्य पाप नो अर्थ फुन, लाधा अधिक अनूप ॥ ७. यावत मुनि प्रतिलाभतो आनम भावित आप ।। विचरै छै ते ऋषभदत्त, ब्राह्मण जिन वच थाप ॥ ८. तसु देवानंदा ब्राह्मणी, हंती अधिक अनूप । कोमल कर पग जाव तसु, प्रियदर्शण अतिरूप ॥ ६. ते पिण श्रमणोपासिका, जीवाजीव पिछाण । पुन्य पाप फल ओलखी, यावत विचरै जाण ॥ " *जी कां देव जिनेन्द्र समवसऱ्या जी कांइ जगतारक जिनराज ॥ ( ध्रुपदं ) १०. तिण काले नै तिण समे जी काइ, समवसऱ्या महावीर । परिषद पर्युपासन करी जी कांइ, तिरया भवदधि तीर ।। ११. ऋषभदत्त तिण अवसरे जी कांइ, स्वाम पधार्या जान । हरष संतोष पायो घणो जी कांड, जाव हृदय विकसान ।। १२. जिहां देवानंदा ब्राह्मणी जी कांइ आयो तिहां चलाय देवानंदा ब्राह्मणी प्रत जी कांई, बोले इहविध वाय ॥ १३. इम निश्च देवानुप्रिया जी कांइ, श्रमण तपस्वी सार । भगवंत श्री महावीर जी कोई, धर्म आदि करणहार ॥ १४. यात प्रभु सर्व जी कांइ, सर्व वस्तुनां सोय देखणहार दयाल है जी कांड सर्वदर्शी इम होय ॥ १५ धर्म चक्र आकाश में जी कांड, तिण करि यावत ताम । सुखे-सुखे विचरतां छतां जी कांड, वीर प्रभू गुणधाम || *लय म्हांरी सासूजी पांच पुत्र रं १. तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणकुंडग्गामे नयरे होत्था - वण्णओ । २. बहुसालए चेइए - वण्णओ । ३. महामेनयरे उभरते ना माह परिवसइ - अड्ढे 'अड्डे' ति समृद्धः ( वृ० प० ४५६ ) ४. दिले जाव बहुजणस्स अपरिभूण 'दित्ते' ति दीप्तः तेजस्वी दृप्तो वा दर्पवान् 'बि' ति प्रसिद्धः ( वृ० प० ४५९) ५. रिग्वेद-वेद सामवेद अथव्यवेद जहा खंदओ जाव अण्णेमु (सं० पा० ) यह बंभणए नये सुपरिनिट्ठिए ६. समणोवासए अभिगयजीवाजीवे उवलद्वपुण्णपावे ७. जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहइ । ८. तस्स णं उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदा नाम माहणी होत्या सुकुमालपाणिपाया जाय पिया गुरुवा ६. समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा जाव अहापरिएिहि तवोकम्मे हि अप्पा भावेमाणी विहरइ । (श०६।१३७ ) -- १०. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे । परिसा पज्जुवासइ । (१० २०१२० ) ११. तए णं से उसभदत्ते माहणे इमीसे कहाए लट्ठ समाणे हट्ट जान (सं० पा०) हिपए १२. जेणेव देवानंदा माहणी तेशेव उवागच्छति, उवागच्छत्ता, देवाणंद माहणि एवं वयासी १२. एवं खलु देवाथिए । समये भगवं महावीरे आदिगरे १४. जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी १५. आगासगएणं चक्केणं जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे प्रा० उ० ३२, ढाल १९४ २२५ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. बहुसाल चैत्य विषे प्रभु जी कांइ, यथाप्रतिरूप तंत । अवग्रह आज्ञा ले करी जी कांड, यावत जिन विचरंत ॥ १७. महाफल निश्च ते भणी जी कांइ, देवानुप्रिय ! सोय । तथारूप अरिहंत भगवंत नुं जी कांइ, नाम गोत्र सुणवा नुं होय ।। १८. तो वलि स्यूं कहिवो अछे जी कांइ, अरिहंत साहमुं जाय । फल वंदना करिया तणो जी कांइ, नमस्कार नुं सवाय ॥ १९. प्रश्न वलि पूछण तणुं जी कांइ, सेव करण नुं सार । ते फल नौ कहियो कि जी कांइ, नहि संदेह लिगार ॥ २०. इक पि आर्य धर्म न जी कांइ, सुवचन श्री जिन पास। सांभवो तन मन करी जी कांड, महाफल तास विमास ।। २१. तो बलि स्यं कहिवो अछे जी कांड, विस्तीरण जे अर्थ । ग्रहिये करि ते फल तणुं जी कोड, स्वं वर्णविये तदर्थ ।। २२. ते भणी देवानुप्रिया ! जी कांइ, जइये श्री जिन पास । श्रमण भगवंत महावीर ने जी कांड, बंदा स्तवना तास । २३. नमस्कार शिर नामियै जो कांइ, यावत जिन नीं जाण । सेव करो साथ मने जी कांइ, ऊजम अधिको आण || २४. ए सेवा आपां भणी जी कांइ, इहभव परभव हेर । हित सुख यम ने अर्थ जी कोई, अनुगम आस्ये केड़ | २५. हिताय हित नैं अर्थ, क्षमज युक्त तदर्थ, सोरठा सुखाय सुख नैं अर्थ फुन । शुभानुबंध शुभानुबंध अनुगामिक ॥ ॥। २६. *देवानंदा ति अवसरे जी कांइ, सुण ऋषभदत्त नीं वाय । हरप संतोष पायो घणो जी कांड, जाव हृदय विकसाय ।। सोरठा २७. अतिहि हर्ष कथित, हृष्ट कथित, हृष्ट तुष्ट नों अर्थ ए । तथा हृष्ट विस्मित संतोषवान चित तुष्ट ते ॥ २८. आ ईपत कहिवाय, मुख सौम्यादि भाव करि । समृद्धि पामी ताय, अति समृद्धि फुन नंदिता ॥ २९. प्रीतिमना काहवाय, तृप्तिपणों अति मन वित्रे । परम भलो मन थाय, पाठ परम सोमणस्सिया || ३०. हर्ष वशे करि तास, विकस्यो छे तेहनों हियो । जाव शब्द में जास, अर्थ विचारी आखियै || ३१. * बिहुं करतल यावत करी जी कांइ, ऋषभदत्तनों वचन्न । विनय करीनै अंगीकर जी कांड, तन मन थयो प्रसन्न ॥ ३२. शत नवम तेतीसम देश ए जी कांइ, सौ चउराणूमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी कांड, 'जय जय' हर विशाल ॥ *लय : म्हारी सासूजी रं पांच पुत्र २२६ भगवती जोड़ १६. बहुसालए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिव्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । १७. तं महत्फलं खलु देवाणुप्पिए ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए, १८, १६ किमंग पुण अभिगमण-वंदण-नमंसण-पडिपुच्छणपज्जुवासणयाए ? २०,२१ एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? २२. तं गच्छामो णं देवाणुष्पिए ! समणं भगवं महावीरं वंदामो २३. नमसामो जाव (सं० पा० ) पज्जुवासामो । २४. एयं णे इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्साए आणुगामियत्ताए भविस्सइ । ( श०।१३६) २५. 'हियाए' त्ति हिताय खमाए' त्ति क्षमत्वाय संगतयेत्यर्थ 'आगामियताएं अनुगामित्वाय भानुबन्धायेत्यर्थः (२०१० ४५१) २६. एणं सा देवागंदा माहणी उसदले माह एवं वृत्ता समाणी हट्ट जाव (सं० पा० ) हियया । २७. हृष्टतुष्टम् - अत्यर्थं तुष्टं हृष्टं वा - विस्मितं तुष्टं तोषवच्चित्तं यत्र तत्तथा, ( वृ० प० ४५९ ) २८. आनंदिता ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगता, ततश्वगदिता समृद्धिततामुपगता ( वृ० १०४५९) २६. 'पीइमणा' प्रीतिः प्रीणनं आप्यायनं मनसि यस्याः सा प्रीतिमनाः 'परमसोमणस्सिया' परमसौमनस्यं - सुष्ठु सुमनस्कता सञ्जातं यस्याः सा परमसौमनस्थिता ( वृ० प० ४५६ ) ३०. हरिससविसायमागपिया हर्षनसेन - विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा ( वृ० प० ४५.६ ) ३१. करयल जाव (सं० पा० ) कट्ट उसभदत्तस्स माहणएस एम विषएवं परियुगे। ( श० ६ १४० ) Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : १६५ १. तए णं से उसभदत्ते माहणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी२,३. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्त जोइय-समखुरवालिहाण-समलिहियसिंगेहि, लघुकरणं- शीघ्रक्रियादक्षत्वं तेन युक्ती यौगिको च-प्रशस्तयोगवन्तौ ......"बालिहाण' त्ति वालधाने -पुच्छौ (वृ० प० ४५६) १. ऋषभदत्त ब्राह्मण तदा, कोडिंबक नर तेड़। कहै धार्मिक रथ त्यार करि, वृषभे-जुक्त समेर ।। २. *करो काज अति क्षिप्र, अहो देवानुप्रिया, वृषभ बिहुँ अति चतुर, शीघ्र तसु गमन क्रिया । गमन क्रिया जी, तिण जुगत लिया, रथ संग बिहं ते जोतरिया, म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, अधिक तन मन रलिया। ३. अतिहि प्रशस्त पिछाण, जोगवंत रूप मिला। सम खुर नैं तसं पूंछ, वलि सम शृंग भला। सम शृंग भलाजी, अतिहि उजला, लक्षण गूणरूप अधिक निमला। म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, प्रभू गुण ज्ञाननिला। ४. कंठाभरण कलाप, जंबूनद स्वर्णमयी। वेगादिक गुण करी, विशिष्ट प्रधान सही। प्रधान सही जी, अति कीति कही, जन जोवत ही आनंद लही। म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, अधिक तन मन उमही ।। ५. रजत रूप्यमय घंट, झणण झिणकार बणे । सूत्र-रज्जु ते रासड़ि सूत नीं वृषभ तणै । वृषभ तण जी, अति दिप्तपणे, तस जातिवंत, लौकीक गिण । म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, हरष आनंद घण। ६. नाथ नासिका-रज्जु, प्रवर सुवरण मंडितं । सुवरण तेह प्रधान, तिणे करि अवग्रहितं । अवग्रहितं, जिन जश कहितं, पेखत जन मन आनंद लहितं । म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, परम प्रभु स्यू प्रीतं ।। ७. नील वर्ण जे उत्पल, कमल करी नीको। शिर-शेखर अभिराम, वलभ है जग जी' को। जग जी को जी, निरखण पीको, तसु आभरण करि रूपे अधिको। म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, प्रभू त्रिभुवन टीको । ८. वृषभ प्रधान युवान, लक्षणवंता आणी। ते रथ जोतर कह्यो, वृषभ वरणन माणी। वरणन माणी जी, हिव रथ जाणी, आगल वरणन कहियै ठाणी। म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, प्रभू केवल नाणी॥ ६. नानाविध नां न्हाल, प्रवर मणि रत्न तणी। घंटा अधिक रसाल, जाल चउफेर बणी। च उफेर बणी जी झिणकार घणी, मन प्रश्न हुवै तसु शब्द सुणी। म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, धीर प्रभु तीर्थ धणी।। ४. जंबूणयामयकलावजुत्त-पतिविसिठे हिं, जाम्बूनदमयौ-सुवर्णनिर्वृत्तौ यो कलापो.-कण्ठाभरणविशेषौ ताभ्यां युक्तौ प्रतिविशिष्टको च प्रधानो जवादिभियौं तो (वृ०प० ४५६) ५,६. रययामयघंटा-सुत्तरज्जुय-पवरकंचणनत्थपग्गहोग्गहियएहि, रजतमय्यौ-रूप्यविकारौ घण्टे ययोस्तौ तथा, सूत्ररज्जुके–कार्पासिक-सूत्रदवरकमय्यौ वरकाञ्चनेप्रवरसुवर्णमण्डितत्वेन प्रधानसुवर्णे ये नस्ते-नासिकारज्जू तयोः प्रग्रहेण-रश्मिनाऽवगृहीतको-बद्धौ यौ तौ (वृ०प० ४५६) ७. नीलुप्पलकयामेलएहि, नीलोत्पल:-जलजविशेषः कृतो-विहितः 'आमेल' त्ति आपीड:-शेखरो ययोस्तौ (वृ० प० ४५६) ८. पवरगोणजुवाणएहिं ६. नाणामणिरयण-घंटियाजालपरिगयं, *लय : धन-धन भिक्षु स्वाम १. जीव का ६, उ० ३३, ढाल १६५ २२७ Jain Education Intemational Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०,११. सुजायजुग-जोत्तरज्जुयजुग-पसत्थसुविरचियनिमियं, सुजातं-सुजातदारुमयं (वृ० प० ४५६) १०. प्रशस्त रूड़ा काष्ठ, तणो जूसर जासं । योत्र रज्जुका युग ए, अतिही शुभ तासं। शुभ तासं जी, वर सुख वासं, निरखत ही हरष अधिक आसं । म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, करण जिन पर्युपासं ।। ११. कारीगर अति निपुण, भलेज प्रकार करी। ए सह विरचित निर्मित, कीधा हरष धरी। हरष धरी जी, जन जश उचरी, अति परम लक्षण करि सहित वरी। म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, स्वाम संपति सखरी॥ १२. एहवो धार्मिक जाण-पवर जोतरि थापो। शीघ्र करी सझ त्यार, आण मुझ नैं आपो। मुझ नैं आपो जी, तज संतापो, वर विनय करी तुझ जस व्यापो। म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, मिटै प्रभु थी पापो॥ १३. नवम तेतीसम देश, ढाल इकसौ पच्चाणं। भिक्ष भारिमाल ऋषिराय, गणी 'जय-जश' भाएं। जय जश भाणु जी, गण गुण-खाणं, महावीर तणो शासण जाणूं। म्हांनै लाग-लागै स्वाम सुभाव, भाव संपत माणुं । १२. पवरलक्खणोववेयं-धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव ___उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एतमाणत्तियं पच्चप्पिणह । (श० ६।१४१) ढाल : १६६ १. कोडंबिक तिण अवसरे, ऋषभदत्त नी वाय । सांभल मैं हरष्यो घणो, जाव हियो विकसाय ॥ २. करतल जोड़ी इम कहै, एवं इम हे स्वाम ! तहत वचन ए आपरो, शीघ्र करेसू काम ।। ३. आज्ञा विनय करी वचन, यावत अंगीकार । कार्य सर्व करी तिणे, सूपी आज्ञा सार । ४. ऋषभदत्त ब्राह्मण तदा, स्नान जाव अल्प भार । मोल करी मुंहगा इसा, आभरण पहिर्या सार ।। ५. अलंकृत तनु नैं करी, निज घर थी निकलंत । बाह्य साल उवट्ठाण ज्यां, जिहां धाम्मिक रथ तंत ।। ६. तिहां आव्या आवी करी, धार्मिक यान प्रधान । __ आरूढ थयो चढ्यो तदा, पेखत ही पुन्यवान । ७. देवानंदा तिण अवसरे, अंतेउर में न्हाय । कुलीन स्त्री ते कारणे, प्रच्छन स्नान कहाय ।। १. तए णं ते कोडंबियपुरिसा उसभदत्तेणं माहणेणं एक वुत्ता समाणा हट्ट जाव (सं० पा०) हियया २,३. करयल जाव (सं० पा०) एवं सामी! तहत्ताणार विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता खिप्पामे लहुकरणजुत्त जाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामे उवट्ठवेत्ता, तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति । (श० ६।१४२ ४,५. तए णं से उसभदत्ते माहणे हाए जाव अप्पमहग्घा भरणालं कियसरीरे साओ गिहाओ पडिणिक्खमति पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाल जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे ६. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पव दुरुढे । (श० ६।१४३ ७. तए णं सा देवाणंदा माहणी (पा० टि०६) अंत अंतेउरंसि हाया। 'अन्तः' मध्येऽन्तःपुरस्य स्नात अनेन च कुलीनाः स्त्रियः प्रच्छन्नाः स्नान्तीति दशित (वृ० प० ४५६ ८. इह च स्थाने वाचनान्तरे देवानन्दावर्णक एवं दृश्यते (वृ० प० ४५६ ८. देवानंदा नो इहां, वर्णन इम देखाय । वाचनांतरे ते अछ, सांभलज्यो चित ल्याय ।। २२८ भगवती जोड़ . .. Jain Education Intemational Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पुण्य प्यारी गुणग्यो देवानंदा अधिकार (ध्रुपदं) ९. करी स्नान वलिकर्म सार, कीधा कोतक विविध प्रकार । मसी तिलकादिक सुविचार रे ।। १०. मंगलीक ने अप्रसाधि ग्रह सरसव ने बोवादि । ११. वलि अन्य कीधो ते । टालवाज अशुभ सुपनादि ॥ कहिये, वर नेउर चरणे लहिये । मणी मेखला कटि-तट महिये ।। उचित युक्त करि शोभायो । देखत नेत्र हरायो । मुद्रिका अंगुलियां सोहे जन देखत ही मन मोहै ॥ १४. विचित्र मणिमय जाणी, एकावली कांति वखाणी । तिसुं देवानंदा दीवाणी ॥ १५. कंठ सूत्र अधिक श्री कारं वलि उर रह्या आभरण सारं । रूदिगम्ब कणा वृत्तिकार ॥ १६. ग्रैवेयक प्रसिद्ध कहियै, ए तो आभरण कंठ नां लहियै । तिणसूं देवानंदा गहगहिये || १७. कटिसूत्रेण नाना प्रकार मणि रत्नां नां भूषण सार तिणसूं शोभित अंग उदार ।। १८ चीन अंशुक नाम ए दोय, वस्त्र मध्ये प्रवर ते होय । तिके पहिया छै अवलोय || वल्कल थी नीपनो जान । तिको दुफल वस्त्र पहिचान || ऊपर ओण ते विशाल । मन हरये नयण निहाल ॥ सुगंध फूल करी सुविशेष तिण सूं वींट्या शिर नां केश ।। ११. दुकूल वृक्ष तणी सुविधान, २०. ते पण वस्त्र पणुं सुखमाल, २१. सर्व ऋतु नां नीपना अशेष २२. वर चंदन चरचित चंगी, निलाट विषेज सुरंगी । आभरण भूषित अंगी ॥ १२. हार करिके रचित हिय छायो, तम् १३. कडे करिकै अधिक कांति होवे २३. कृष्णागर सुगंध अशेष धूपे धूपित सुविशेष | श्री देवी सरिखो वेष' ।। २४. काया चलक-चलक चलकंती, प्रभा भलक-भलक भलकंती | जाणे मुलक-मुलक मुलकंती ॥ सोरठा २५. एह बी हिव सोय, थकी प्रकृत छै जे वाचना । कहिये थे अबलोय एह आस्यो वृत्ति में ॥ , * १. राणी भाखे सुण रे सूड़ा १. प्रस्तुत ढाल की गाथा ७ से २३ तक की जोड़ वाचनान्तर के आधार पर की गई है, जो अंगसुत्ताणि पृष्ठ ४३४ दि० ६ से यहां उद्धत किया हैं । ६,१०. कयबलिकम्मा कय कोउय-मंगल-पायच्छित्ता, तंत्र कौतुकानि मणीतिलकादीनि सिद्धार्थंकर्वादीनि मङ्गलानि - ( वृ० प० ४५९) ११. किते (व) ] - वरपादपसउर मणिमेहना १२. हाररचित - उचियउचितैः युक्तैः १३. कडग-खुड्डाग 'खुड्डाग' त्ति अङ्गुलीयकैश्च १४. एकावलीविचित्रमणिकमय्या १५.१६. कंत उत्ववेज्ज कष्टसूत्रेण च उरथेन च ( वृ० प० ४५९ ) ( वृ० प० ४५९) ( वृ० प० ४५९ ) गम्येन १७. सोभित्त-वाणामणि- रणभूसणविराइयंगी, १८. पीचरपरिहिया, ( वृ० प० ४५९) १६,२०. दुगुल्ल सुकुमाल उत्तरिज्जा, दुकूलो - वृक्षविशेषस्तद्वत्काज्जातं दुकूलं वस्त्रविशेषस्तत् सुकुमारमुत्तरीयम् उपरिकायाच्छादनं ( वृ० प० ४६० ) यस्याः सा तथा २१. सोयसुरभिकुसुमवरिपरिया, २५. इतः प्रकृतयाचनानुथिय २२. वरबंदणवंदिता वराभरणभूतिंगी, वरचन्दनं वन्दितं निवे २३.या, सिरिसमाणसा श्री देवता तथा समाननेपा - ( वृ० प०४६०) ( वृ० प० ४६० ) ( वृ० प० ४६० ) ०२०२२ १९६ २२६ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा २८. बहूहिं खुज्जाहि, चिलातियाहिं जाव २६. *जाव तोल हलका मोल भारी, एहवा आभरण अधिक उदारी। अलंकृत तनु सिणगारी॥ २७. एहवी देवानंदा मन हरणी, अनुपम तनु सोवन वरणी। कीधी पूर्व भव में करणी ।। २८. दास्यां कुब्जका साथ घणेरी, बलि चिलात देशज केरी। जाव शब्द थी एह अनेरी॥ २६. वामणी ह्रस्व तनु नी कहिये, वडभी' हियो ऊंचो लहिये । बब्बरी बब्बर देश नी गहिये। ३०. बउसिया देश नी उपनी, ऋषिगणिका देश नी निपनीं। वासीगणिका देश नी जन्नी ।। ३१. उपनी योनिका देश केरी, पल्हवित देश नी पिण चेरी। देश ल्हासिया तणी घणेरी॥ ३२. देश लउसिया नी प्रकाशी, आरब दमिल सिंहल देश वासी। पुलिदि पक्कण नी गुणरासी॥ ३३. बहिल मुरुड देश नी जाणी, सब्बर पारसी देश नी स्याणी। बहुविध जनपद थी आणी ।। ३४. तेहवा देश तणी अपेक्षायो, अन्य देश विष पिण थायो । तिके कीधी एकठी ताह्यो। ३५. निज देश विषे ते जाणी, वस्त्र पहिरै जेम पिछाणी॥ ग्रहण कियो है वेष सयाणी ।। ३६ इंगित चेष्टा नेत्रादि, चितित पर चितव्यू साधि । एतो जाण धर अहलादि ।। ३७. प्रार्थित परवांछा जाणंद, कुशल डाही विनीत अमंद । चेटिका चक्रवालज वृंद ।। २६. 'वामणियाहिं' ह्रस्वशरीराभिः 'वडहिया हिं' मडह कोष्ठाभिः 'बब्बरियाहि (वृ०प० ४६०) ३०. पओसियाहिं' ईसिगणियाहि वासगणियाहिं (वृ० प० ४६०) ३१. जोण्हियाहिं पल्हवियाहिं ल्हासियाहिं (वृ० प० ४६०) ३२. लउसियाहि आरबीहिं दमिलाहि सिंहलीहिं पुलिंदीहिं पक्कणीहिं (वृ० प० ४६०) ३३,३४. बहलीहिं मुरुंडीहिं सबरीहिं पारसीहि णाणादेस विदेसपरिपिडियाहिं' नानादेशेभ्यो-बहुविधजनपदेभ्यो विदेशे-तद्देशापेक्षया देशान्तरे परिपिण्डिता या: (वृ० प० ४६०) ३५. सदेसनेवत्थगहियवेसाहिं (वृ० प० ४६०) ३५. वरिसधर ते नपुंसक कीधा, स्थविर प्रयोजने सुप्रसिधा। जावै अंतेउर में सीधा ।। ३६. कंचइज पोलिया गहिये, महतरग तणो अर्थ कहिये । अंतेउर नां कार्य चितवियै ।। ४०. एतला नां वद थी अमंदा, परवरी थकी देवानंदा। अंतेउर थी नीकली आनंदा ।। ३६,३७. 'इंगियचितियपत्थियवियाणियाहिं' इङ्गितेन नयनादिचेष्टया चिन्तितं च परेण प्राथितं च--- अभिलषितं विजानन्ति यास्तास्तथा ताभिः 'कुसलाहि विणीयाहिं' युक्ता इति गम्यते 'चेडियाचक्कवाल' (वृ० ५० ४६०) ३८-४०. वरिसधर-थेरकंचुइज्ज-महत्तरकवंदपरिक्खित्ता' वर्षधराणां-वधितककरणेन नपुंसकीकृतानामन्तः पुरमहल्लकानां 'थेरकंचुइज्ज' त्ति स्थविरकञ्चुकिना -अन्तःपुरप्रयोजननिवेदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तरकाणां च - अन्तःपुरकार्यचिन्तकानां वन्देन परिक्षिप्ता (वृ० ५० ४६०) सोरठा ४१. वली सर्व ए जाण, अन्य वाचना नै विषे। छै साक्षात पिछाण, एहवं आख्यं वृत्ति में। ४२. *जिहां बाहिरली उवट्ठाण साला, जिहां धार्मिक यान निहाला। तिहां आवी छ गुणमाला ।। *लय : राणी भाखै सुण रे सूड़ा २. जिसका आगे का भाग निकला हुआ हो। ४१. इदं च सर्व वाचनान्तरे साक्षादेवास्ति । (वृ०प० ४६०) ४२. निग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, १. अंगसुत्ताणि में वाचनान्तर का पाठ उद्धृत किया है, वहां 'वउसियाहि' पाठ है। जोड़ इसी पाठ के आधार पर की हुई प्रतीत होती है। पर वृत्ति में इस स्थान पर 'पओसियाहिं' पाठ है। इस सन्दर्भ में समग्र पाठ वृत्ति से लिया गया है। इसलिए यहां भी उसे ही उद्धृत किया जा रहा है। २३० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा । (श०६।१४४) ४३. तेह धार्मिक यान प्रधान, आरूढ थई गुणवान । मन हरष घणो असमान । ४४. शत नवम तेतीसम देश, एक सौ नैं छन्नमी एस । कही ढाल रसाल विशेष । ४५. भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, सुख संपति 'जय-जश' पाय । गण आनंद हरष सवाय ।। ढाल : १६७ १. ऋषभदत्त तिण अवसरे, देवानंदा साथ । धार्मिक यान प्रधान प्रति, आरूढ थकै विख्यात ।। २. पोता ने परिवार करि, परवरियो पुन्यवंत । माहणकंड जे ग्राम ते, नगर मध्य निकलंत ॥ ३. चैत्य जिहां बहुसाल छ, तिण ठामें आवंत । छत्रादिक जिनवर तणां, वर अतिशय देखत ।। ४. धार्मिक यान प्रधान प्रति, तिण ठामे स्थापंत । धार्मिक यान प्रधान थी, ऋषभदत्त उतरत ।। ५. भगवंत श्री महावीर प्रति, पंचविधे पहिछाण । अभिगम करि सनमुख गमन, सखर साचबै जाण ।। ६. सचित्त द्रव्य पुष्पादि तज, जिम बीजे शतकेह । पंचमुद्देशा में कह्यो, ते विध इहां कहेह ।। ७. जाव त्रिविध पर्यपासना, मन वच काया जाण । शुद्धपणे सेवा करै, अधिक उलट मन आण ।। *जगतारक वीर जिनंदा, लाल सुगणजी । (ध्रुपदं) ८. देवानंदा तिण अवसर, लाल सुगण जो, वर धार्मिक रथ थी उत्तर जी॥ ६. बहु कुब्ज साथ संचरी, जाव महत्तर वद परवरी ।। १०. प्रभ प्रति पंचविध चित्त ल्याव, अभिगम करि सन्मूख जावै ।। १. तए णं से उसभदत्ते माहणे देवाणंदाए माहणीए सद्धि धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे समाणे २. नियगपरियालसंपरिडे माहणकुंडग्गाम नगरं मझ मज्झेणं निग्गच्छइ, ३. जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छद, उवाग. च्छित्ता छत्तादीए तित्थकरातिसए पासइ, ४. धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ, ठवेत्ता धम्मियाओ जाण प्पवराओ पच्चोरुहइ, ५. समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभि गच्छति, ६,७. सच्चित्ताणं दवाणं विओसरणयाए एवं जहा बितियसए [२।६७] जाव (सं० पा०) तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ। (श० ६।१४५) ११. द्रव्य सचित्त पुष्पादि पिछाणी, तसु अलगा मूक जाणी॥ ८. तए णं सा देवाणंदा माहणी धम्मियाओ जाणण वराओ पच्चोरुहति, पच्चोरुहित्ता ६. बहुहिं खुज्जाहिं जाव......"महत्तरग-वंदपरिक्खित्ता १०. समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, ११. सचित्ताणं दवाणं विओसरणयाए पुष्पताम्बूलादिद्रव्याणां व्युत्सर्जनया त्यागेनेत्यर्थः (वृ० १० ४६०) १२. अचित्ताणं दव्वाणं अविमोयणयाए वस्त्रादीनामत्यागेनेत्यर्थः (वृ० प० ४६०) १३. विणयोणयाए गायलट्ठीए १४. चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं १२. द्रव्य अचित्त वस्त्रादि वारू, ते अणतजवे सुख सारू॥ १३. गात्रलट्ठी ते देही, ते नमी विनय करि तेही । .१४. चक्षु देखतां मन मोडे, अंजलि बेहुं कर जोड़ें। *लय : सुखपाल सिंहासण लायज्यो राज श० ६, उ० ३३, ढाल १६६,१६७ २३१ Jain Education Intemational Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. मन चंचल ते स्थिर करते, विध पंच एम अनुसरते | १६. जिहां भगवंत श्री महावीरं, तिहां आवै छै गुणहीरं ॥ १०. प्रभु प्रति विणवार विचक्षण, दक्षिण कर थकी प्रदक्षिण ।। १८. वंदे वच स्तुति वरती वलि नमस्कार अति करती ॥ १२. द्विज ऋषभदत्त प्रति जाणी, आगल कर रही सयामी ॥ सोरठा २०. ठिया चैव नों ताय, शब्दार्थ स्थिता रही। वृत्तिकार कहिवाय, ऊभी पिण बैठी नहीं ॥ २१. 'ष्ठागति निवृत्ति धातु, बैसण रो पिण अर्थ | कभी तो कहातु, कारण को दीसे नहीं ॥ २२. सूत्र उवाई' मांय, कोणिक नृप राण्यां सहित । श्री जिन वंदन आय एवं आल्यूं से तिहां ॥ २३. कोणिक कर अगवाण, रमण सुभद्रा प्रमुख जे । ठिया पाठ पहिचाण, सेव करें प्रभु पे रही ॥ २४. जिन वाणी सुण ताम, कोणिक ऊठ ऊठ नैं । जिन बंदी सिर नाम, आयो जिण दिशि ही गयो । २५. रमण सुभद्रा आदि ऊठ ऊठी ने J जिन बंदी अहलादि, नमण करी ते २६. जो बैठी नहिं होय, तो कठै इस किम आरुयो जोय पाठ देख निर्णय २७. तृतीय उत्तरायण, मुरवर जे मुरलोक में। ठिच्चा रही सुवयण चवी मनुष्य में उपजै ॥ २८. इहां पिण धातू तेह, अर्थ हुवे ऊभा तणी । तो स्यूं सुर वर जेह, सुरलोके बेसे नहीं ॥ २९. तिज कारण अवलोय, ष्ठा धातु नो अर्थ जे। पिग की तदा । गई । करी । करो ॥ बेसण नों पिण होय, नियम नयी ऊभा तणो ॥' (ज०स० ) ३०. परिवार सहित विधि धरती, सुश्रूषा सेवा करती || ३१. वले नमस्कार शिर नमती, सन्मुख विनये करि रमती । ३२. कर जोड़ करें इम सेवा, तसु करण जोग सुध लेवा ॥ ३३. तिण अवसर देवानंदा, प्रभु पेखतां आनंदा || ३४. पुत्र स्नेह थकी व पायो, स्वत दूध तब आयो । ३५. सुत दर्शन करिचित ठरिया, आनंद जल लोचन भरिया ॥ ३६. अति हर वृद्धि तनु भावे, विलियां में वोह न मावे ।। १. ओ० सू० ६६,७० २३२ भगवती जो १५. मणस्स एगत्तीभावकरणेणं) १६. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, १७. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाणि याहिणं करेह -प १८. बंद नह १६. उस भदत्तं माहणं पुरओ कट्टु २०. ठिया चैव 'ठिया चेव' त्ति ऊर्ध्वस्थानस्थितंव अनुपविष्टेत्यर्थः ( वृ० प० ४६० ) २३. ताणमुहादेवीओ कृषिय रायं पुरओ कट्टु ठिइयाओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणणं पंजलिकडाओ पज्जुवासंति ( ओवाइयं सू०७० ) २४. तए से कूणिए राया भिभसारपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा जामेव दिसं पाउन्समे दिसं पडिमए ( ओवाइयं सू० ८० ) २७. तत्थ ठिच्चा जहाठाणं, जक्खा आउक्खए चुया । उति माणुस जोणि, से दसंगेऽभिजायई ॥ (उत्तर० ३ / १६) ३०. सपरिवारा सुस्सूसमाणी ३१. नमसमाणी अभिमुहा विणणं ३२. पंजलिकडा पज्जुवासइ । ३३. तए णं सा देवानंदा माहणी ३४. आगयपण्या ३५. पप्पुयलोयणा (२०२/१४६) 'आपला' पुत्रस्नेहादामतस्तनमुखस्तम्येत्यर्थः ( वृ० प० ४६० ) प्रतुतोचना पुत्रदर्शनात् प्रवतितानन्दवलेन ( वृ० प० ४६० ) ३६. संवरियवलयबाहा संवृती-हर्षातिरेकादतिस्थूरीभवन्तो निषिद्धो वलयैः — कटके बहू- भुजौ यस्या: सा ( वृ० प० ४६० ) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. कंचुक नां अंचल खुलिया, कस छुट तनु वृद्धि रलिया ।। ३८. घन नी धारा करि हणिया, तरु कंद पुष्प जिम फलिया। ३६. तिम रोमकप उलसाया. इम आनंद अधिको पाया ।। ४०. दृष्टि प्रति अणमीचंती, प्रभु पेख रही पुन्यवंती॥ ३७. कंचुयपरिक्खित्तिया कञ्चुको-बारबाण: परिक्षिप्तो—विस्तारितो हर्षा तिरेकस्थूरीभूतशरीरतया यया सा (वृ०प० ४६०) ३८. धाराहयकलंबगं पिव मेघधाराभ्याहतकदम्बपुष्पमिव (वृ०प० ४६०) ३६. समूसवियरोमकूवा ४०. समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणीदेहमाणी चिट्ठइ। (श०६/१४७) ४१, ४२• भंतेति ! भगवं गोयमे समणं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी ४१. गोतम भगवंत विशेखी, ए सगलो विरतंत देखी ।। ४२. प्रभु वंदी नमण करता, लाल स्वाम जी, हे भगवंत ! एम वदंता ।। ४३. हे भगवंत ए किण कारण, देवानंदा गुण धारण । ४४. स्तनमुखे दूध तसु आयो, आनंद जल नेत्र भरायो। ४५. बिलियां में बांह न मावै, कस छटी कंचक भावै ॥ ४६. रूं कूप तास उलसाया, जिम घन थी पुफ विकसाया । ४७. देवानुप्रिय नै देखी, इणरै जाग्यो स्नेह विशेखी ॥ ४८. तुम जोय रही इक धारा, नहि खंडे निजर लिगारा॥ ४६. निरखंती मूला धापै, इणरै तन मन प्रेमज व्यापै?। ५०. तब भगवंत श्री महावीर, लाल गोयमा, गोतम प्रति वदै सधीरं ।। (गोतम जी सुणिय कारण, लाल गोयमा !) ५१ इम निश्चै गोतम जाणी, ए देवानंदा स्याणी ।। ५२. ए ब्राह्मणी म्हारी मातं, हं छं एहनो अंगजातं ।। ४३. किं णं भंते ! एसा देवाणंदा माहणी ४४. आगयपण्हया पप्पुयलोयणा ४५. संवरियवलयबाहा कंचुयपरिक्खित्तिया ४६. धाराहयकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा ४७-४६. देवाणुप्पियं अणिमिसाए दिट्रीए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठइ? ५०. गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी५१. एवं खलु गोयमा ! देवाणंदा ५२. माहणी ममं अम्मगा, अहण्णं देवाणंदाए माहणीए अत्तए। ५३. ....."वासीतिहिं राइदिएहिं वीइक्कंतेहि (आयार चूला १५/५) ५५-५७. तण्णं एसा देवाणंदा माहणी तेणं पुवपुत्तसिणे__ हरागेणं आगयपण्हया जाव (सं० पा०) समूसवियरोम ५३. रात्री बयांसी ताह्यो, प्रभु रह्या कूख रै मांह्यो । ५४. ए आचारंग में जाणी, इहां समचै बात बखाणी ।। ५५. तिण कारण देवानंदा, आ रोम-रोम हलसंदा । ५६. प्रथम गर्भाधान, ते पुत्र स्नेह करि जानुं ॥ ५७. तिण कारण प्हानो आयो, जाव रोम-कप विकसायो । ५८. मुझ इक धारा निरखंती, मुझ देख-देख हरषंती ।। ५६. निरखंती निजर न खंडे, पूरव सुत-नेह न छंडे ।। ६०. शत नवम तेतीसम देशो, इकसौ सताणूमी एसो॥ ६१. भिक्षु भारीमाल ऋषिराया, 'जय-जश' सुख हरष सवाया। कुवा ५८,५६. मम अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठइ। (श० ६/१४८) श०६, उ० ३३, ढाल १६७ २३३ Jain Education Intemational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाले : १६८ दूहा १. गोतम प्रति ए वीर जिन, आखी बात उदार । देवानंदा सांभली, पामी तन मन प्यार ॥ *प्रभुजी ! आप छो भय भंजना जी । (ध्रुपदं) २. श्री जिन-वचन सुणी देवानंदा, होजी आतो पामी परम आनंदा ।। ३. भाग्यवंत मुझ पुन्य सवाया, होजी एतो वीर म्हारी कुखे आया ।। ४. उत्पत्ति मूलगी तो छै म्हारी, होजी लियो क्षत्रियकुल अवतारी ।। ५. श्रमण भगवंत म्हारा अंगजातो, होजी म्है तो कदेय सुणी नहिं बातो ।। ६. चरण केवल धर वीर विख्यातो, होजी हुआ तीन लोक रा नाथो ॥ . ७. च्यार तीर्थ नां नायक स्वामी, होजी एतो मुक्ति जावा रा कामी ।। ८. देवाधिदेव तीर्थकर जानी, यांसं बात नहीं कोई छानी ।। ६. जग दीपक जल द्वीपा समान, होजी एतो तिरण तारण भगवान ।। १०. अभयदायक जिनदेव विख्याता, होजी एतो ज्ञान चक्षु नां दाता ।। ११. राग-द्वेष अरि जीतणहारा, प्रभु गुण करि ज्ञान भंडारा ।। १२. अतिशय धारक आप जिनंदा, होजी एतो मेटण भव दुख फंदा ।। १३. जगत उद्धारक श्री जिन नीको, होजी ओतो तीन भवन जशटीको ।। १४. नाथ अनाथां रा आप अमीरा, एतो धर्म चक्री जिन हीरा ।। १५. ऐसा है वीर-प्रभु गुण धारं, होजी म्है तो देख्यो है आज दिदारं ।। १६. ते मुझ कुक्षि विषे अवतरिया, होजी ज्यांनै पेखत लोचन ठरिया ।। १७. इम देवानंदा हरष मन धरती, होजी आतो श्री जिनदर्शन करती। दूहा १८. एह ढाल कही वारता, सूत्र विषे ते नाय । परंपराई करि कही, अनुमाने कर ताय ।। १६. *नवम तेतीसम देश विशालं, होजी आतो इकसौ अठाणमी ढालं ।। २०. भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसायो, होजी ओतो 'जय-जश' आनंद पायो।। *लय : आज अंबाजी रे नोपत बाजे २३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ढाल : १६६ दूहा १. तिण अवसर प्रभु वीर जिन, ऋषभदत्त नैं ताय । देवानंदा नै बलि, मोटी परषद मांय ।। १. अति मोटी परषद विधे, ऋषि परषदा माय । जाव परिषदा पडिगया, धर्म सुणी नैं ताय ।। ३. जाव शब्द में अर्थ ए, मुनि-परषदा मांय ।। वाचंयम मुनि नाम है, वचन गुप्त अधिकाय ।। ४. यती परषदा नैं विषे, धर्म क्रिया रे मांय । यत्नवान अतिही तिको, यती अर्थ कहिवाय ॥ ५. अनेक सय नी परिषदा, अनेक सय परिमाण । तास वृंद परिवार जसु, इत्यादिक पहिछाण ।। *प्रभु मोरा शोभ रह्या मुनिगन में, सुर नर परिषद वृंदन में ।। (ध्रुपदं) ६. ऋपभदत्त ब्राह्मण तिण अवसर, जिन वच सुण हरष्यो मन में। ७. अधिक संतोष पायो हिरदा बिच, ऊठी ऊभा ह तन में॥ १,२. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए माहणीए तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए जाव (सं० पा०) परिसा पडिगया (श० ९/१४६) ३. यावत्करणादिदं दृश्यमुणिपरिसाए (वृ०प० ४६०) तत्र मुनयो-वाचंयमाः वृ०प० ४६०) ४. जइपरिसाए यतयस्तु-धर्मक्रियासु प्रयतमानाः (वृ० प०४६०) ५. अणेगसयाए अणेगसगयवंदाए अणेगसयवंद परियालाए अनेकानि शतानि यस्याः सा तथा तस्यै अनेकशत । प्रमाणानि वृन्दानि परिवारो यस्याः सा तथा तस्यै । (वृ० प० ४६०) ६,७. तए णं से उसभदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुढे उट्ठाए उठेइ, ८.६. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! १०,११. जहा खंदओ जाव (सं० पा०) से जहेयं तुब्भे वदह त्ति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमति। अवक्कमित्ता सयमेव आभर णमल्लालंकारं ओमुयइ, १२,१३. सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणेव . समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छई..."वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए, १४ पलिते गं भंते | लोग. आलित-लिने । लोए जराए मरणेण य । १५. एवं एएणं कमेणं जहा खंदओ तहेव पब्वइओ। (पा० टि०७) नतीन प्रदक्षिण देई प्रभ ने, वंदन स्तुति करि प्रणमें ।। ६. वीर प्रतै कहै हे प्रभु ! इमहिज, सत्य वचन तुझनां जग में । १०. जिम खंधक कह्यो तिम यावत, ए तुम्है कहो छो तिमज गमे ।। ११. एम कही जई कूण ईशाणे, आभरण माल्य उतार वमे ॥ १२. स्वयंमेव लोच पंच मुष्टी करि, वोर पे आय वंदै प्रणमें। पच मुष्टा कार, वार प आय वद प्रणम ॥ १३. कर जोड़ी कहै जीव लोक प्रभु ! समस्तपणे ए ज्वलित धमे ॥ १४. प्रकर्षे करि ज्वलित जीव ए, जरा मरण करि अधिक भमे ॥ १५. जिम खंधक तिम दीक्षा लीधी, ऋषभदत्त मुनि चरण रमे। १६. जाव सामायक आदि देई ने, अंग इग्यार भण्यो हिय में ॥ १७. जाव बहु चौथ छट्ठ अट्ठम तप, दशम तप करि आत्म दमे ॥ १८. जाव विचित्र तपे करि आतम, भावित वासित शासन में ।। १६,१७. जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थछट्टट्ठम-दसम १८. जाव (सं० पा०) विचित्तेहिं तवोकम्मे हि अप्पाणं भावेमाणे *लय : हाजरी मैं स्वामीनाथ हमेशा याद करू श० ६, उ० ३३, ढाल १९६ २३५ Jain Education Intemational Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. बहु वर्षों लग चारित्र पाली, मास संलेखण अणसण में | २०. साठ भक्त मुनि अणसण छेदी, अणसण असण-रहित तन में ।। २१. जे निर्वाण तणे अर्ध मुनि नपणो धारयो २२. यावत ते अर्थ प्रति आराधै जीव सर्व दुःख क्षय मन में ।। शिव में ।। २३. तिण अवसर ते देवानंदा, धर्म सुणी हरषी मन में । २४. वीर प्रतै त्रिण वार प्रदक्षिण यावत हरष धरी ने नमे ॥ २५. वीर प्रत कहै है प्रभु ! इमहिज, सत्य वचन तुजनां जग में | २६. इम जिम ऋषभदत्त तिमहिज ए, जाव धर्म कह्यो आण नमे ॥ २७. देवानंदा ने प्रभु ति अवसर, पोते प्रव्रज्या देश दमे ॥ २८. स्वयमेव चंदनवाला ने प्रभु शिष्यणीपणे दे शुभ गन में | २६. तब चंदणा अज्जा देवानंदा प्रति, स्वयमेव प्रव्रज्या दिये तेण समे ।। सोरठा देवानंदा नैं प्रथम । तेह प्रव्रज्या ने विषे ॥ जाण्या नहि छै तेहनुं । जाणपणादिक जोय, द्वितीय वार इण कारणं ॥ ३०. वीर प्रव्रज्या दीध, वलि चंदनबाला कीध, ३१. जेह पदार्थ सोय, ३२. *स्वयमेव मुंडन लोच करै तसु स्वयमेव तास सीखावन में || ३३. इम जिम ऋषभदत्त तिमहिज ए, चंदना सर्व बतावन में || ३४. इस एह उपदेश धर्म नुं सम्यक् प्रकार पडिवज्जन में । ३५. ते चंदना नीं आज्ञा तिम चाले, जाव संजम करि आत्म दमे ।। ३६. देवानंदा अज्जा तिण अवसर, चंदना पास अहिज्जन में ।। ३७. सामायिकादिक अंग इग्यारे, भणी गुणी ने परिवह मे ॥ ३८. शेष विस्तार सर्व तिम कहिवो, जाव सर्व दुःख क्षीण वमे ॥ ३६. नवम तेतीसम देश एकसौ, ढाल ननाणूमी वर्णन में ॥ ४०. भिक्षु भारीमाल ऋपिराय प्रसादे, 'जय जय' हरष सदानंद में || *लय : हाजरी मैं स्वामीनाथ हमेशा करूं २३६ भगवती-जोड़ १६,२०. बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाएसले हणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसेत्ता सट्ट भत्ताई अणसणाए छेदेइ, २१. जस्सट्ठाए कीरति नग्गभावे २२. जावतम आहे, जाता जाय (सं० पा० ) दुखी। (०२ / १५१) २३. तए णं सा देवाणंदा माहणी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा २४-२५. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपाहि करे करेता बंद नस वंदिता नसता एवं वयासी एवमेवं भंते तमेवं भंते ! २६. एवं जहा उसभदत्तो तहेव जाव धम्ममाइक्खियं । ( श० ९ / १५२ ) २७. ए णं समणे भगवं महावीर देवानंद मा मे २८. सयमेव अज्जचंदणाए अज्जाए सीसिणित्ताए दलयइ । ( ० २०१५३) २६. तए णं सा अज्जचंदणा अज्जा देवानंद माहणि सयमेव पव्वावेति ( पृ० ४३७ टि०८) ३०,३१ इह च देवानन्दाया भगवता प्रव्राजनकरणेऽपि यदार्य चन्दनया पुनस्तत्करणं तत्तत्रैवानवगतावगमकरणादिना विशेषाधानमित्यवगन्तव्यमिति । (१० ५० ४६०, ४६१) ३२. मेडति समेव सहावेति ३३. एवं उसवतो तहेव अजबचाए गए ३४. इस एवायं धम्मियं उपदेस सम्मं संपवि ३५. तमाणाए तह गच्छइ जाव संजमेणं संजमति । (०२१५४) 'तमाणाए' त्ति तदाज्ञया आर्यचन्दनाज्ञया । ( वृ० प० ५६१ ) ३६, ३७. तए णं सा देवानंदा अज्जा अज्जचंदणाए अज्जाए अंतियं सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिवद, ३. जाव (पं० पा०) सव्यदुष्वष्पहीना ( ० २।१५५) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २०० १. तस्स णं माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स पच्चत्थिमे णं एत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नाम नयरे होत्था२. वण्णओ। तत्थ णं खत्तियकुंडग्गाम नयरे जमाली नाम खत्तियकुमारे परिवसइ३. अड्ढे दित्ते जाव बहुजणस्स अपरिभूते, दूहा १. ते माहणकंड ग्राम नगर नै, पश्चिम दिशि में पेख । इहां क्षत्रियकुंड ग्राम जे, हुंतो नगर विशेख ।। २. वर्णक उवाई थकी, तेह क्षत्रियकुंड ग्राम । नगर विषे क्षत्रिय-सुत, वसै जमाली नाम ।। ३. समृद्ध धनादि परिपूर्ण, तेजवंत ते जोय ।। यावत अपरिभुत छ, पराभवि सके न कोय ।। ४. धन करि बल करि रूप करि, गंज सकै नहिं तास । इसो जमालीकुमर ते, पुन्यवंत सुप्रकाश ।। *चरित्र जमाली नों तुम्हें सांभलो रे ।। (ध्रुपदं) ५. ऊपर प्रसाद वर बैठा थकां रे, अतिहि रभस करि तेह । आस्फालित मस्तक मृदंग ना रे, फूटवा नी पर जेह ।। ६. द्वात्रिंशत प्रकार अभिनय तणां, तेह थकी संबद्ध । अथवा पात्रे करी इम इक कहै, नाटक में सन्नद्ध ।। ५. उप्पि पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थएहिं 'फुट्टमाणेहिं' ति अतिरभसाऽऽस्फालनात्स्फुटद्भिरिव (वृ० प० ४६२) ६. बत्तीसतिबद्धेहिं णाडएहिं 'बत्तीसतिबद्धेहि' ति द्वात्रिंशताऽभिनेतव्यप्रकारः पात्ररित्येके (वृ० प० ४६२) ७. वरतरुणीसंपउत्तेहि ७. नानाविध बह देश नी ऊपनी, चितहरणी तनु चंग ! प्रवर प्रधानज तिण तरुणी करी, संप्रयुक्त रस रंग ।। ८. जे जमाली नै पास रह्या छता, नृत्य करण थी जेह । नाटकिया नाचे वलि जमाली तणां, गुण गाव धर नेह ।। ६. वांछित अर्थ प्रतैज पमाड़व, दिवरावते छते दान । जे वाजित वजावं तेहनां, वांछितार्थ करण थी जान ।। १०. श्रावण भाद्रव पाउस फुन वर्षा, आसोज कात्तिक मंत । मृगशिर पोष शरद ऋतु जाणवी, माह फागुण हेमंत ।। ८. उवनच्चिज्जमाणे-उवनच्चिज्जमाणे, उवगिज्जमाणे उवगिज्जमाणे, 'उवनच्चिज्जमाणे' त्ति उपनृत्यमानः तमुपश्रित्य नर्त्तनात् 'उवगिज्जमाणे' त्ति तद्गुणगानात् (वृ० प० ४६२) ९. उवलालिज्जमाणे-उवलालिज्जमाणे, 'उवलालिज्जमाणे' त्ति उपलाल्यमान ईप्सितार्थ सम्पादनात् _ (वृ० प० ४६२) १०. पाउस-वासारत्त-सरद-हेमंत 'पाउसे' त्यादि, तत्र प्रावृट् श्रावणादि: वर्षा रात्रोऽश्वयुजादि शरत् मार्गशीर्षादिः हेमन्तो माघादिः । (वृ० ५० ४६२) ११. वसंत-गिम्ह-पज्जते छप्पि उऊ वसन्तः चैत्रादि: ग्रीष्मो ज्येष्ठादि: ......'ऋतून' कालविशेषान् (वृ० प० ४६२) १२. जहाविभवेणं माणेमाणे, कालं गालेमाणे, 'माणमाणे' त्ति मानयन् तदनुभावमनुभवन् 'गालेमाणे' त्ति 'गालयन्' अतिवाहयन् । (वृ०प०४६२) १३. इ8 सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणुब्भवमाणे विहरइ । (श० ६।१५६) ११. चैत वैशाख वसंत ऋतु कही, जेठ आषाढ सुलेह । ग्रीष्म छेहड़े ए छहुँ ऋतु भली, ते काल-विशेष विषेह ।। १२. जिम जे-जे ए छहं ऋतु नैं विषे, ते ऋतु नों पहिछाण । सुख अनुभाव प्रतै अनुभवतो थको, काल गमावतो जाण ।। १३. बल्लभ शब्द फरिस रस रूप नैं, वलि शुभ गंध करेह । पंच-विध मनुष्य तणां काम भोगन, भोगवतो विचरेह ।। *लय : साधुजी नगरी आया सदा भला रे १ ओवाइयं सू० १ श०६, उ० ३३, ढाल २०० २३७ Jain Education Intemational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. तब क्षत्रियकुंड ग्राम नगर विषे, सिंघाटक त्रिक चउक्क । चच्चर यावत बहु जन बोलता, एक-एक नैं वक्क ।। १५. जिम उववाइ - उपंगे' आखियो, जावत इम पन्नवेह | तेह विषे ए फुन दाख्यो तिको, लेश थकी निसुणेह ॥ सोरठा वर्ण । जन समुदाय, बोल ते अव्यक्त ध्वनि कलकल तेहिज ताय, वचन विभागज लाभते ॥ १६. जन- व्यूह १७. जन - ऊम्म ए जान, लोक तणं संवाध जन उत्कलिका मान, अति लघु जे १८. जन - संन्निपातज सोय, बहु जन नुं अवलोय, अपर अपर मिलवूं जे १९. वहु जण मांहोमांहि, इम आख वलि इम भाखै ताहि, प्रगट पर्यायज जे । समुदाय ते ॥ *लय : साधुजी नगरी आया सदा मला रे १. ओ० सू० ५२ २३८ भगवती-जोड़ स्थानक इक थकी । स्थानके ॥ थी । सामान्य वचन करि ॥ थी अनुक्रम २०. एहिज अर्थ जु दोय, पर्याय थी कहिय छै अवलोय, २१. *इम पन्नवेद कहितां विशेष एवं परुवेइ तेह प्ररूपणा २२. इम निश्च देवानुप्रिया ! धर्म नी आदि तणां करणहार २३. भला मैं पधारया हो श्री महावीरजी, जगत उधारण जिहाज । पूर्ण ज्ञान दर्शन करि परिवर्या जयवंता जिनराज ॥ माहणकुंड ग्राम जेह । बहुसाल चैत्य विषेह ॥ इहां जान शब्द में जान अवग्रह प्रति ग्रही संजम तप करी, आतम भावित मान ।। २६. ते भणी महाफल देवानुप्रिया ! निश्च करिने न्हाल | तथारूप अरिहंत तणो वलि, भगवंत नों सुविशाल ॥ २७. जिम उववाई उपंग विषे का, जाव इक दिशि साहमा जाय । सूत्र उवाई में जे आखियो, ते निसुणो चित ल्याय । २४. देखणहार प्रभु सर्व वस्तु नां, नगर ने बाहिर छे भलुं, २५. यथाप्रतिरूप जाव विचरे प्रभु, । चित्त लगाई करि । सांभलो ॥ २८. नाम गोत्र जिन नों सुणवे करी, मोटो फल छै तास । तो स्यूँ कहियो सनमुख गमन नों, इहां जयणा सुविमास || २६. वंदन स्तुति करवा नुं वलि, नमस्कार शिर नाम । प्रश्न पूछा तो बलि कहिवो किसुं, मोटो फल गुण धाम ।। थी, जन कहै मांहोमाय । करता जन समुदाय ॥ श्रमण भगवंत महावीर । थे. जाय सर्वज्ञ सधीर ॥ १४,१५ त बत्तियडगामे नवरे सिघाउन-टिकचक्क- चच्चर- जाव (सं० पा० ) बहु जणसद्दे इ वा जाव एवं भासइ १६. जणवूहे इ वा जणबोले इ वा जणकलकले इ वा 'जनव्यूहः ' जनसमुदाय: बोल:- अव्यक्तवर्णो ध्वनिः कलकल:- स एवोपलभ्यमानवचनविभागः (बृ० प० ४६३) १७. जणुम्मी ६ वा जलियावा अम्मिसम्बाधः उत्कलिका-लघुतर समुदायः ( वृ० प० ४६३) १८. जणसण्णिवाए इ वा संनिपातः - अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनं ( वृ० १०४६३) १९. बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ, आख्याति - सामान्यतः भाषते व्यक्तपर्यायवचनतः, ( वृ० प० ४६३) २०. पर्यायतः क्रमेणाह (बु०प०४६३) २१. एवं पण्णवेइ, एवं परुवेइ, २२. एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सब्वण्णू २४. सव्वदरिसी माहण कुंडग्गामस्स नगरस्स बहिया बहुसालए चेइए २५. अडिग ओगिरिता संजणं तवसा अपागं भावेमा विहर। २६. तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं २७. जहा ओववाइए [ सूत्र ५२] जाव एगाभिमुहे 'जहा उववाइए' त्ति, तदेव लेशतो दर्श्यते( वृ० प० ४६३) २८, २६. तं महत्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं - नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदण मंसणपणिपवासणाए ( ओवाइयं सू. ५२ ) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३०. "इहां महाफल सार, प्रश्न पूछवा नुं का। ते जयणा स्यू धार, तिम जयणां सं गमन फल ।। ३१. निरवद्य कारज एह, मन जिन ने वंदण तणो। तसू अर्थे पग देह, जयणां थी ते पिण पवर ।। ३२. मन वचन नै काय, निरवद्य ए त्रिहं योग नीं। आज्ञा दे जिनराय, ते काय भली किम प्रवर्ते ।। ३३. मुनि प्रतिलाभण हेत, अथवा दर्शण निमित्त जे। जयणां सं पग देत, तथा करादि हलायवै ।। ३४. जयणां सं अवलोय, ऊभो ह ते बेस नैं। बैठो ऊभो होय, प्रतिलाभ वंदै मुनि ।। ३५. पिण ते हस्त थकीज, बहिरावै तनु योग थी। ते शुद्ध जयणां थीज, एहमें श्री जिन आगन्या ।। ३६. गृही मैं न कहै स्वाम, चालो तथा हलाव तूं । ते किण कारण ताम? संभोग नहीं छै ते भणी ॥” (ज० स०) ३७. *इक पिण आर्य धार्मिक सूबच नों सांभलवै फल सार । तो स्यूं कहिवो विपुलज अर्थ नै, ग्रहवै करि सुविचार ।। ३८. ते माटै हे देवानुप्रिया ! जावां आपां ताम। श्रमण भदंत वीर प्रभु वंदियै, करां नमस्कार शिर नाम । ३६. सतकारां आदर देवां वलि, फुन सनमानां स्वाम । प्रभ जोग भक्ति करिव करी, निरवद्य ते अभिराम ।। ३७. एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ३८. तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीर वंदामो णमंसामो (ओ० सू० ५२) ३६. सक्कारेमो सम्माणेमो (ओ० सू० ५२) 'सक्कारेमो' त्ति सत्कुर्मः आदरं वस्त्राद्यर्चनं वा विदध्मः 'सम्माणेमो' त्ति सन्मानयामः उचितप्रतिपत्तिभिः (ओ० वृ०प० १०६) ४०. कल्लाणं मंगलं (ओ० सू० ५२) कल्याणं-कल्याणहेतुत्वादभ्युदयहेतुं मंगलं-दुरितोपशमहेतुं (ओ० वृ० ५० १०६) ४१. देवयं चेइयं (ओ० सू०५२) देवतां -देवं त्रैलोक्याधिपतित्वात्, चैत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वात् (रायपसेणइयं वृ० ५० ५२) ४०. कल्लाणं हेतु किल्याण नां, बलि प्रभजी मंगलीक । दुरित विघन उपशम करिवा तणां, हेतु स्वाम सधीक ।। ४१. तीन लोक नां अधिपति ते भणी, देवयं देवाधिदेव । सुप्रशस्त मन हेतु स्वाम जी, तिण सू चैत्य कहेव ।। सोरठा ४२. शब्द देवयं सोय, वलि चैत्य नों अर्थ जे। इहां कह्यो अवलोय, रायप्रश्रेणी वृत्ति थी। ४३. *विनय करी सेवा प्रभु नी करां, ए स्वाम वंदना आदि । आपार पर भव जन्मांतरे, फून इहभव अहलादि ।। ४४. हियाए हित नैं अर्थे अछ, पत्थ अन्नवत पेख । सुहाए सुख नै अर्थे अछ, वंदनादिक सुविशेख ।। ४३. पज्जुवासामो एयं णे पेच्चभवे 'इहभवे य' (ओ० सू० ५२) ४४. हियाए सुहाए (ओ० सू० ५२) 'हियाए'त्ति हिताय पथ्यान्नवत् 'सुहाए' त्ति सुखाय शर्मणे (ओ० वृ० प० १०६) ४५. खमाए निस्सेयसाए (ओ० सू० ५२) 'खमाए' त्ति क्षमाए संगतत्वाय 'निस्सेयसाए' त्ति निःश्रेयसाय मोक्षाय (ओ० वृ० १० १०६) ४५ खमाए सर्व वस्तू मेलवा, समर्थ अर्थे सोय । निस्सेयसाए कहिता जाणवू, मोक्ष अर्थे अवलोय ।। *लय: साधुजी नगरी आया सदा भला रे N०६, उ० ३३, ढाल २०० २३६ Jain Education Intemational Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ४६. इणहिज भव रे मांय दालिद्र विपन मूकाय फुन परभव में ताय, कर्म मुकावा नैं अरथ ॥ हुस्यै सुख ने ४७. "फुन जे भव नीं परंपरा विषे इण हेतु थी प्रभुजी बंदिये, अर्थ । तदर्थ ॥ कीजे सेव ४८. एम कहने बहू उम्र कुलोत्पना, थापित कोटवाल नां वंश विषे थया, ते कुल ४९ उम्र पुत्र जे तेनाईज थे, पुत्र पोतादि कुमार । इमहिज भोग राजन क्षत्रिय कह्या, बहु भट सुभट उदार ॥ ५०. केइक वंदण निमित्तज नीसऱ्या केइक पूजण काज । इम सत्कार सम्मान नैं, दर्शण नमित्त सुहाज || ५१. इम कोतुहल निमित्तज नीसरचा, इत्यादिक अवधार | जावत इक दिशि सन्मुख जन बहु, चाल्या घर मन प्यार ॥ ५२. क्षत्रियकुंड ग्राम नगर वर्णे, मध्योमध्य थइ निकलेह । जिहां माणकुंड ग्राम नगर है, जिहां बहुसाल चैत्य विषेह ॥ ५३. इम जिम उववाइ में आखियो, जाव त्रिविध जोगेह | पर्युपासना सेवा करता छतां डाल दोय सौमी एह ॥ , आदिम देव । उग्र कहेव ॥ दूहा १. ते जमाली ने तदा, मोटुं जन-रव जाव ही, २. बहु जन र गुणतां चको आतम आश्रित एहवा, ३. जावत सम्यक ऊपनां, चिंतित स्मरण रूप ते, ढाल : २०१ *लय : साधुजी नगरी आया सदा भला रे लाल हजारी को जामी २४० भगवती-जोड़ ४. मनोगत मन में रह्य ु: बाहिर संकल्प विचार ऊपनों ते सुगज्यो +वन मांहै वीर पधार्या स्वामी, भविजन अन्तरजामी रे । दरसण कर बहु जन ऊम्हाया, हरप हिये हुलसाया रे ।। (पद) क्षत्रियकुमर नैं ताप । अथवा जन-सत्रिवाय ॥ अथवा बहु जन देख । अध्यवसाय विशेष | जाव शब्द में प्रार्थित वांछित धार । सार ॥ प्रकास्युं नांय । चित ल्याय || ४७. आणुगामियत्ताए भविस्सइ (ओ० सू० ५२ ) 'आगामिवताएं' ति आनुगामिकत्वाय भवपरम्परा सानुबन्धसुखाय भविष्यतीतिकृत्वा - इति हेतोरित्यर्थः । ४८. इतिकट्टु बहवे उग्गा (ओ० To सू० ५२) 'उग्ग' त्ति आदिदेवावस्थापिता रक्षवंशजाः ४६. उग्गपुत्ता भोगा राइन्नाखत्तियाभडा जोहा) (ओ० सू० ५२) ' उग्गपुत्त' त्ति त एव कुमारावस्थाः (ओ० ० ५० १०२) ५०. अप्पेगइया वंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सक्कारवत्तियं ( सम्मानवत्तिय ) ( वृ० प० ४६३) (२०१० ४६३) ५१. को उलवत्तियं ५२. खयिकुण्डमा निम्ता जेन बहुसाए चेहरा ५२. एवं जहा ओववाइए (सूत्र जुवामा वासंति नपरं मम निम्ाच्छंति, मायामे नमरे जेव ५२ ) जाव तिमिहाए ( श० ६ / १५७ ) १. २ तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तं महयाजणसद्दं वा जाव जणसन्निवाय वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयमेयारूवे अज्झत्थिए 'अज्झत्थिए' त्ति आध्यात्मिकः - आत्माश्रितः ( वृ० प० ४६३) ३. जाव (सं० पा० ) समुप्पज्जित्था यावत्करणादिदं चितिए' ति स्मरणरूपः 'पत्थर' त्ति प्रार्थितः लब्धुं प्रार्थितः (१० ५० ४६३) ४. मोति जयहिः प्रकाशितः 'संरुप्पे' ति विकाय ( वृ० प० ४६३) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. क्षत्रियकंड ग्राम नगर विषे स्थु, इन्द्र महोच्छव आजो रे। अथवा खंधक कात्तिकेय न महोच्छव, कै हरि बलदेव नों स्हाजो रे ? ५. किणं अज्ज खत्तियकुंडग्गामे नयरे इंदमहे इ वा, खंदमहे इ वा, मुगुंदमहे इ वा, 'खंदमहेइ व' त्ति स्कन्दमहः --- कार्तिकेयोत्सव: 'मुगुंदमहेइ व' त्ति इह मुकुन्दो वासुदेवो बलदेवो वा (वृ० प० ४६३) ६. नागमहे इ वा, जक्खमहे इ वा, भूयमहे इ वा, कूवमहे इ वा, ७. तडागमहे इ वा, नईमहे इ वा, दहमहे इ वा, पव्वयमहे इ वा, ८. रुक्खमहे इ वा, चेइयमहे इ वा थूभ महे इ वा, ६. अथवा नाग देव न महोच्छव, के जक्ष व्यंतर नों जाणी। अथवा भूत तणो महोच्छव छै, के कप महोच्छव माणी ।। ७. अथवा तलाव तणो महोच्छव छ, के नदी महोच्छव न्हाली। अथवा आज महोच्छव द्रह नो, कै गिरि महोच्छव सुविशाली ।। ८. अथवा रूख तणो महोच्छव छ, के चैत्य महोच्छव चंगो। अथवा मृतक बालै ते ऊपर, चोतरो थभ प्रसंगो ।। ६. जे भणी ए बहु उग्र वंश नां, ऊपनां वर कुलभूता। भोगा भोग-वंश में ऊपनां, कै राजन-वंश प्रसूता ।। १०. ईखाग वंश तणां फून ऊपनां, ज्ञातपुत्र गुणवंता। कोरव क्षत्रिय क्षत्रिय नां सुत, सुभट सुभटसुत मंता ।। ११. सेनापति सेना नां नायक, सीखदायक पसत्थारो। लेच्छकी जाति नां वलि ब्राह्मण, इब्भ गजंतव्य भूमि मझारो।। ६. जण्णं एते बहवे उग्गा, भोगा, राइण्णा, १२. जिम उववाइ मांहि कह्यो छ, सार्थवाह सुखकारो। प्रमुख सगलाइ स्नान करी फुन, करि वलि कर्म ववहारो।। १३. जिम उववाइ उपंगे आख्यं, जावत निकलै ताह्यो। ____ जन वृंद इक दिशि सन्मुख जाय, स्युं महोच्छव पुर मांह्यो ।। १४. इम मन मांहि विचारी जमाली, कंचुइज पुरुष बोलायो। अंतःपुर नी चिंता नों कारक, ते कंचइज नैं कहै वायो। १५. अहो देवानुप्रिया ! क्षत्रियकुंडज, ग्राम नगर रै मांह्यो। आज महोच्छव इंद्र तणो स्युं, जाव निकल जन बंद ताह्यो ? १६. तिण' अवसर ते पुरुष कंचइज, जमाली क्षत्रिय कूमारो। इम पूछ्ये छते हरषित हुवो, पायो संतोष जिहवारो॥ १७. श्रमण भगवंत महावीर तणो जे, आगम आवि धारो। तेह विषे जै ग्रह्य कीधू जिण, निश्चय निर्णय सारो।। १८. हाथ दोनइ जोड़ जमाली नै, क्षत्रियकुमर प्रतेहो। जय विजय शब्द करिने बधावै, बधावी वचन वदेहो । गीतक-छंद १६. जय त्वं विजय त्वं एहवे आशीर्वाद वचन कही। भगवंत न आगमन ते, आनंद करि तुझ वृद्धि ही ।। १०. इक्खागा, णाया, कोरव्वा, खत्तिया, खत्तियपुत्ता भडा, भडपुत्ता, ११. जोहा पसत्यारो......"लेच्छई....."इब्भ........ 'पसत्थारो'त्ति-धर्मशास्त्रपाठका: ............ इभ्याः यद्रव्यनिचयान्तरितो महेभो न दृश्यते (ओ० वृ० प० ११०) १२. जहा ओववाइए (ओ० सू० ५२) जाव (सं० पा०) सत्थवाहप्पभितयो व्हाया कयबलिकम्मा १३,१४. जहा ओववाइए (ओ० सू० ५२) जाव खत्तिय कुंडग्गामे नयरे मज्झमज्झेणं निग्गच्छंति ? -एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कंचुइ-पुरिसं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वदासी१५, किण्ण देवाणुप्पिया ! अज्ज खत्तियकुंडग्गामे नयरे इंदमहे इ वा जाव निग्गच्छंति ? (श० ६/१५८) १६. तए णं से कंचुइ-पुरिसे जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतु? १७. समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमणगहिय विणिच्छए। १८. करयल जाव (सं० पा०) जमालि खत्तियकुमार जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं वयासी १६. जय त्वं विजयस्व त्वमित्येवमाशीर्वचनेन भगवतः समागमनसूचनेन तमानन्देन वर्द्धयतीत भावः । (वृ० प० ४६३) २०. नो खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज खत्तियकुंडग्गामे नपरे इंदमहे इ वा जाव निग्गच्छति । २०. *अहो देवानुप्रिया ! क्षत्रियकंडज ग्राम नगर में आजो। निश्चै नहीं छै इंद्र महोच्छव, जाब निकलै तेहथी समाजो।। *लय : लाल हजारी को जामो १. ओवाइयं सूत्र ५२ के वाचनान्तर में 'पायदद्दरेणं......"एगदिसि एगाभिमुहे" पाठ है । देखें ओ० वृ० ५० ११३ श० ६, उ० ३३, ढाल २०१ २४१ Jain Education Intemational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. अहो देवानुप्रिया ! इम निश्चै करि, श्रमण भगवंत महावीरो। निज तीर्थ में आदि नां कर्ता, जाव सर्वज्ञ पुरुष सधीरो॥ २२. सर्व वस्तु नां देखणहारा, माहणकंड इण नामे । ग्राम नगर में बाहिर रूड़ो, बहु साल चैत्य सुधामे ।। २३. यथा योग्य अभिग्रह प्रति गही में, जावत विचरै जाणी। ते भणी ए बहु उग्र वंश नां, भोग-वंश नां माणी ।। २१. एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज्ज समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू २२. सव्वदरिसी माहणकुंडग्गामस्स नयरस्स बहिया बहुसालए चेइए २३. अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं एते बहवे उग्गा, भोगा। २४. जाव अप्पेगइया वंदणवत्तियं निग्गच्छति । (श० ६/१५६) २४. जावत केइयक वंदणा निमित्ते, यावत निकलै ताह्यो । मोटे मंडाण करीनै बह जन, वीर समीपे जायो। २५. जमाली क्षत्रिय-सुत तिण अवसर, कंचुइज नर नै पासो। एह अर्थ सुण हिये धारी, पायो हरष संतोष विमासो । २६. दोय सौ एकमी ढाल विष कह्य, जमाली मन हरषायो। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, जय-जश' हरष सवायो । २५. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे कंचुइ-पुरिसस्स अंतियं एयम8 सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ । ढाल : २०२ दहा १. कोडुबिक नर तेड़ने, बोलै एहवी बाय । चउघंट हय रथ जोतरी, मुझपै थापो ताय ।। २. इहविध जमाली कह्यां, कोडुबिक नर जाण । यावत रथ त्यारी करी, आज्ञा सूपी आण ।। ३. तब जमाली क्षत्रिय-सुत, तिहां मज्जन घर सीध । तिहां आवै आवी करी, स्नान वलि-कर्म कीध ।। ४. जिम उवाइ नै विषे, परिषद वर्णक ख्यात । कोणिक नी परिषद कही, तिम कहिवो अवदात ।। वा०—जिम कोणिक ने उवाइ उपंग नै विषे परिवार-वर्णक कह्य ते वर्णक, तिम ए जमाली नो पिण । तिहां अनेक जे गणनायक प्रकृतिमहत्तर, दंडनायक ते तंत्रपालिका, राजा ते मंडलीक, ईश्वर ते युवराजा, तलब र ते राज तुष्टमान थइ ने दीधो पट्टबंध तेणे करीने विभूषित राजस्थानिका, माडंबिक ते छिन्नमंडप नां अधिपती, कोटुंबिक ते केतलायक कुटुंब थी ऊपनां ते सेवक, मंत्री प्रसिद्ध, महामंत्री ते मंत्री नां समूह में प्रधान हस्ती नां दल इति वृद्धा । गणका ते गणित शास्त्र नां जाण, भंडारी इति वृद्धा । दोवारिय ते पोलिया, अमच्च ते राज्य अधिष्ठायका, चेड़ ते पग नै मूल रहै, पीठमद्द ते सभा में विषे आसन के समीप रहै ते सेवक, नगर ते नगरवासी प्रजा, निगम ते कारणिक काण-मुल्हायदा वाला, सेट्ठि ते श्री देवता नों दीधो सुवर्णपट्ट करि विभूषित मस्तक जेहनों एतले श्री देवी नों सुवर्ण १. कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट आसरहं उवट्ठवेह, जुत्तामेव उवट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। (श०९।१६०) २. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ता समाणा चाउग्घंटे आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेति, उवट्ठवेत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति । (श० ६/१६१) ३. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हाए कयवलिकम्मे ४. जाव ओववाइए (ओ० सू०६३) परिसावण्णओ तहा भाणियब्वं वा०-तत्रानेके ये गणनायका:-प्रकृतिमहत्तराः दण्डनायका:-तन्त्रपालका: राजानो-माण्डलिकाः ईश्वरा-युवराजानः तलवरा:-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीया: माडम्बिका: छिन्नमडम्बाधिपाः कोडुम्बिकाः - कतिपयकुटुम्बप्रभवः अवलगका:-सेवकाः मन्त्रिणः प्रतीता: महामन्त्रिणो -मन्त्रिमण्डलप्रधानाः हस्तिसाधनोपरिका इति च वृद्धाः । गणका:- गणितज्ञाः भाण्डागारिका इति च वृद्धाः । दौवारिकाः-प्रतीहारा: अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः चेदाः-पादमूलिकाः पीठमः-आस्थाने २४२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Education Interational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्टबंध मस्तक ने विषे छं जेहनें, सेनापति ते सेना नां नायक, सार्थवाह, दूत, संधिपाल ते राज्य-संधि नां रक्षक, तेणे करि सहित परिवरयो । लीयो गात्र शरीर । थई विभूषित हीर ॥ जिहां वाहरली सोय । दिवानखानो जोय || ॥ ५. जावत से चंदन करो, सर्व अलंकारे करी, ६. मंजणघर सूं नीकली, उपस्थान- साला अछे, ७. जिहां च्यार घंटा तणों, हय रथ त्यां आवेह | उघंट हय रथ ऊपरै, चढ चढी नैं तेह || ८. सकोरंट नागे तर तसु फूलां नीं माल । तिणे करीनें छत्र ते घरीजते सुविशाल | अति विस्तार सुवृंद । शोभ रहा सुखकंद ॥ ग्राम नगर में ताम । मध्योमध्य भई करी, निकले निकली आम || 3 ग्राम नगर अवलोव । आबे आदी सोय ॥ ११. जिहां माहणड प्रवर जे तिहां बैरय बहुसाल त्यो •प्रभुजी जग प्यारे। ओ तो त्रिभुवनतिलक सुहायो जिनजी हद प्यारे ॥ (ध्रुपदं) १२. तुरंग ग्रहैग्रही ने तामो रथ थापे पापी तिन ठामो || १३. रथ उत्तर उतरी तिवारी, छोटे फूल तंबोल हथियारो ।। १४. आदि शब्द थकी अवलोई, तजे चामर छत्रादी जोई।। १. मोटा सुभट अ नफर, तिण करिनें वीं १०. क्षत्रिय नामे प्रवर वकुं १५. वलि पानही पग थी तजंतो, प्रभु भक्ति करै घर खंतो ॥ १६. इक पट विचै सीवण नाही, तिण सुं करि उत्तरासंग त्यांही ॥ १७. शौच अर्थे उदक फर्शतो, चोखो अशौच द्रव्य टालतो ॥ १८. एह थकीज अवलोई, ओतो परम शुचिभूत होई ॥ १६. अंजली कर सुप्रसीध, दोडा नीं पर जिण कीध ॥ २०. जिहां श्रमण भगवंत महावीरं, तिहां आवै आवी जिन तीरं ॥ +करै शुद्ध सेव जिन देव नीं क्षत्रिय-सुत । (ध्रुपदं ) १. सेवक *लय : ज्यांरं शोभे केसरिया साड़ी लय: कखी आसनासीनसेवकाः वयस्या इत्यर्थः । नगरं— नगरवासि प्रकृतयः निगमा:- कारणिकाः श्रेष्ठिनः - श्री - देवताऽयासित पनिभूषितो तमाङ्गाः सेनापतयः सैन्यनायकाः वृताः अन्येषां राजादेशनिवेदका सन्धिपाला राज्यसन्धिरक्षकाः ( वृ० प० ४६२,४६४) ५. नाव चंदगियसरीरे सवालंकारविभूसिए ६. मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उसाला ७. जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवामच्छिला चाउट आसरहं दुरुह दुरुहिता ८. सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं २. महाडचकरपकरवंदपरित् १०. खत्तियकुंडगाम नगरं ममलेणं निग्गच्छद निगच्छता ११. जेणेव मामे नवरे, जेणेव बहुसालए इए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता १२. तु निविष्टे निमित्ता रहे वेड १३,१४. रहावोपयोगहति पच्चीरहिता पुण्फबोलाउमादि इहादिशब्दादेखरच्छत्रचामरादिपरिग्रहः ( वृ० प० ४६४ ) १५. पाणी व सिजेति १६. सायं उत्तरावंग करेड १७. आयंते चोक्खे 'आय'त्ति शौचार्थं कृतनलस्पर्शः बत्ति आचमनादपनीताशुचिद्रव्यः ( वृ० प० ४६४) १८. परमसुम्भू 'परमसुइब्भूए' त्ति अत एवात्यर्थं शुचीभूतः १६. अंजलि मडलियहत्थे अन्जलिना मुकुलमि कृतौ हस्तौ येन सः २०. जेणेव समये भगवं महावीरे उवागच्छित्ता ( वृ० प० ४६४ ) ( वृ० प० ४६४) तेन उ मा० ६६ उ० ३३, ढाल २०२ २४३ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. श्रमण भगवंत महावीर प्रत वार त्रिण, जीमणां पासा थी जाव जाणी । विविध विविध मन वचन काया हिंजोग नीं, पर्युपासना करी सेव ठाणी ॥ २२. श्रमण भगवंत महावीर तिण अवसरे, जमाली क्षत्रिय युतन ने जाणी । मोटी विस्तारवंत ऋषि परिषद आदि नैं, जावत धर्म - कथा वखाणी ॥ २३. *जाव परषद गई निज स्थानं, वारू वीर तणी सुण वानं ॥ २४. जमाली क्षत्रियकुमर तिवारं वीर वाणी गुणी हिये घारे ॥ २५. बहू हरष संतोषज पायो, जाव हृदय अति विकसायो । २६. ऊठ करि कभी घावे, ओतो कभी धई इस भावे | २७. एतो श्रमण भगवंत महावीरं, त्यांने तीन वार गुणहीरं ॥ २८. जाव नमस्कार करि ताह्यो, ओतो बोलं इहविध वायो । २६. सरधूं छू हे भगवान! निर्बंध नां प्रवचन जानं ।। ३०. प्रीत विषय करूं छू भदंत, निग्रंय नां प्रवचन तंत ३१. हूं तो रोचवं प्रभुजी ! उदारू, एतो निर्ग्रथ प्रवचन वारू ॥ ३२. उद्यमवंत थयो छू भदंत ! एतो निग्रंथ प्रवचन तंत ३३. इमहिज प्रभुजी ! जे उक्त ज्ञायमान प्रकार संजुक्त ।। ३४. तिमहिज हे भगवंत ! आप्त वच करि जाणियै तंत ।। ३५. अवितथ ए अन्यथा न थाई, प्रभु ! किणही काल ₹ मांही ॥ ३६. हे भगवंत ! संदेह रहीतं एतो आपरा वचन वदीतं ॥ ३७. जावत ते जिम एह प्रभु तुम्हे बदो हो जेह ॥ ३८. जे एतलुं विशेष सुधामी, अहो देवानुप्रिया ! अंतरजामी ॥ ३६. कही ढाल दोयसौ दूजी, प्रतिबोध्यो जमाली नैं प्रभूजी ॥ ढाल : २०३ दूहा १. मात पिता ने पूछसूं, तठा पछै अवधार । देवानुप्रिय आगलं, मुंड पई नें सार । *लय : ज्यांरं शोभे केसरिया साड़ी २४४ भगवती जोड़ २१. समभयं महावीरं तिक्त्ती आयाहि-याहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता तिविहाए पनुवासणाए पम्बुवास (१०१ / १६२ ) २२. तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स खत्तियकुमारस्य ती य महतिमहानियाए इसि जाव (सं० पा० ) धम्मकहा 1 २३. जाव परिसा पडिगया। (०२/१६३) २४. तए से जमाली वत्तियकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म २५. हट्ट जाव (सं० पा० ) हियए २६. उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता २७. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो २८. जाव (सं० पा० ) नमसित्ता एवं वयासी२६. सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं ३०. पत्तियामि णं भंते ! निम्गंथं पावयणं ३१. रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं ३२. अम्भुट्ठेमिषां भंते! निम्मं पावयणं ३३. एवमेयं भंते ! 'एवमेयं' ति उपलभ्यमान प्रकारवत् ( वृ० प० ४६७ ) ३४. तहमेयं भंते ! 'मे' ति आप्तवचनादमतपूर्वाभिमत कारवत् ( वृ० प० ४६७ ) २५. अवितमे भंते! 'अवितथमेतत्' न कालान्तरेऽपि विगताभिमतप्रकारमिति । ( वृ० प० ४६७ ) ३६. असंदिद्धमेयं भंते ! ३७. जाव (सं० पा० ) से जहेयं तुब्भे वदह देवापिया ! ३८. १. अम्मापियरो आपुच्छामि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिय मुंडे भाविता Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. अगाराओ अणगारियं पव्वयामि। २. गृहस्थावास अगार थी, अणगारपणां प्रतेह । ___अंगीकार करतूं सही, निमल चरण गुणगेह ।। ३. जिम सुख देवानुप्रिया ! मा प्रतिबंध करेह । जमाली जिन वचन सुण, हरष संतोष लहेह ।। ४. श्रमण भगवंत महावीर न, तीन वार धर खंत । जावत नमण करै करी, चउघंट रथे चढंत ।। ५. श्रमण भगवंत महावीर नां, समीप थी अवलोय । वहसाल नामा चैत्य थी, पाछो निकलै सोय ।। ६. सकोरंट पुफमाल करि, जावत छत्र धरेह । मोटा भट नफरे करी, जावत बीट्यूं जेह ।। ७. जिहां क्षत्रियकुंड जे, ग्राम नगर तिहां आय । क्षत्रियकंड ग्राम नगर में, मध्योमध्य थइ ताय ।। ८. जिहां पोता नों घर अछ, जिहां बाहिरली जेह । उपस्थान-साला तिहां, आवै आवी तेह ।। ६. तुरंग प्रति ग्रहै ग्रही करी, रथ प्रति स्थापै सोय । रथ थापी फुन रथ थकी, उतरै उतरी जोय ॥ १०. जिहां अभ्यंतर माहिली, उवस्थान जे साल । जिहां मात अरु तात त्यां, आवै आवी न्हाल । ११. मात पिता नैं जय विजय, बचने करी वधाय। जय विजय शब्द वधायन, बोलै एहवी वाय ।। _ *हूं अरज करूं छू आपसू ॥ (ध्रुपदं) १२. इम निश्चै करि म्हैं सही, अहो मात पिता सुखदाय । हो माजी ! श्रमण भगवंत महावीर पै म्हैं, धर्म सुण्यो चित ल्याय । हो पिताजी! १३. ते पिण धर्म म्है वंछियो, वंछयो बलि वारूवार । हो माजी ! अथवा भाव थी पडिवज्यो, ते पडिच्छिय सुविचार ।। हो पिताजी! ३. अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं । (श० ६।१६४) ४. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव (सं० पा०) नमंसित्ता तमेव चाउग्घंट आसरहं दुरुहइ . ५. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ ६. सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया भड चडगरपहकरवंदपरिक्खित्ते ७. जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्झमझेणं ८. जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ६. तुरए निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता १०. जेणेव अभितरिया उबट्टाणसाला, जेणेव अम्मा पियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ११. अम्मापियरो जएणं विजएणं वद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं वयासी १२. एवं खलु अम्मताओ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते १३. से वि य में धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए 'पडिच्छिए' त्ति पुनः पुनरिष्ट: भावतो वा प्रतिपन्नः (वृ० प० ४६७) १४. अभिरुइए (श० ६।१६५) 'अभिरुइए' त्ति स्वादुभावमिवोपगतः (वृ० प० ४६७) १५. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी १४. अभिरुइय ते धर्म नों स्वादपणां प्रति पाय । हो माजी! ओपमा वाची ए शब्द छै, सरस धर्म सुखदाय ॥ हो पिताजी ! १५. तिण अवसर जमाली तणां, मात पिता हरषाय । रे जाया ! जमाली क्षत्रियकुमर नैं, बोलै एहवी वाय ॥ रे जाया ! [धन्य धन्य पुत्र ! धन्य तूं ।] १६. धन्य लब्धि छै ते भणी, अहो पुत्र ! तूं धन्न । रे जाया ! कृतार्थ पुत्र तूं अछ, कीबूं निज प्रयोजन्न ।। रे जाया ! १७ कोध छ पुन्य पुत्र ! तें, पवित्र धर्म उदार । रे जाया ! अर्थ सहित लक्षण देह नां, तूं कृत-लक्षण सार ॥ रे जाया ! १६. धन्ने सि णं तुम जाया ! कयत्थे सि णं तुमं जाया ! 'कयत्थेऽसि' त्ति 'कृतार्थः' कृतस्वप्रयोजनोऽसि (वृ०प० ४६७) १७. कयपुण्णे सि णं तुम जाया ! कयलक्खणे सि णं तुम जाया ! 'कयलक्खणे' त्ति कृतानि—सार्थकानि लक्षणानिदेहचिह्नानि येन स कृतलक्षणः। (वृ० प० ४६७) *लय : जो स्वामी म्हारा राजा ने धर्म सुणावज्यो ब०६ उ० ३३, दाल २०३ २४५ Jain Education Intemational cation International For Private & Pet Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. जण्णं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, से वि य ते धम्मे इच्छिए १६. पडिच्छिए, अभिरुइए। (श० ६।१६६) १८ जे भणी श्रमण भगवंत नै, महावीर मैं पास । रे जाया ! धर्म सुणी ते पिण धर्म नैं वांछ्यो आण हुलास ।। रे जाया ! १९. पडिच्छिय कहितां तिको, वंछ्यो वारूवार । रे जाया ! अभिरुइय स्वाद भाव जे, पाम्यो तूं सुखकार ॥ रे जाया ! २०. क्षत्रिय सुत जमाली तदा, मात पिता ने ताय । हो माजी ! द्वितीय वार पिण विधि करी, बोलै एहवी वाय ॥ हो पिताजी ! २१. इम निश्चै माता ! पिता ! श्रमण भगवंत वीर पास । हो माजी ! धर्म सुणी दिल धारियो, जाव रोचव्यो हलास । हो पिताजी ! २०. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापिपरो दोच्चं पि एवं वयासी२१. एवं खलु मए अम्मताओ! समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते जाब (सं० पा०) अभिरुइए। २२. तए णं अहं अम्मताओ! संसारभउब्विग्गे २२. ते माटै माता ! पिता ! चतुर्गतिक संसार । हो माजी! तेहनां भय थी उद्वेग जे, पाम्यो खेद अपार ।। हो पिताजी ! २३. बीहनों जनम मरणे करी, ते माट अवधार । हो माजी ! वांछं छं हे माता ! पिता !, तुम्ह आज्ञा थयां सार ।। हो पिताजी ! २४ श्रमण भगवंत महावीर पै, मुंड थई घर त्याग । हो माजी ! वर अणगारपणां प्रतै, पडिवजवू शिव माग ॥ हो पिताजी ! २५. जमाली क्षत्रियकुमर नीं, माता ते तिण वार । हो भवियण ! तेह अनिष्ट अवंछका, वचन सुण्या दुखकार । हो भवियण ! (विरुओ मोह संसार में।) २६. अकांत ते मनोहर नहीं, अप्रिय अप्रीतिकार । हो भवियण ! अमनोज्ञ मन में न जाणिय, वच - सुंदरपणुं सार ।। हो भवियण ! २३. भीते जम्मण-मरणेणं, तं इच्छामि णं अम्मताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे २४. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्व इत्तए। (२०६।१६७) २५. तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माता तं अणिटुं 'अनिट्ठ' ति अवाच्छिताम् (वृ०प० ४६७) २६. अकंत अप्पियं अमणुण्णं 'अकंत' ति अकमनीयाम् 'अप्पियं' ति अप्रीतिकरीम् 'अमणुन्नं' ति न मनसा ज्ञायते सुन्दरतयेत्यमनोज्ञा ताम् (वृ० प० ४६७) २७. अमणाम 'अमणाम' ति न मनसा अम्यते-गम्यते पुनः पुनः संस्मरणेनेत्यमनोज्ञा तां (वृ०प०४६७) २८. अस्सुयपुव्वं गिरं सोच्चा निसम्म २७. अमणाम ते मन नैं विषे, नहीं संभरियै वारूवार । हो भबियण ! एहवा वचन अलखावणा, अति अणगमता अपार ।। हो भवियण ! २६. सेयागयरोमकूवपगलंतचिलिणगत्ता २८. पूर्वे कदेई सुणी नहीं, एहवी निसुणी वाण । हो भवियण ! हृदय विषे धारी करी, उपनो दुक्ख अचाण ॥ हो भवियण ! २६. परिसेवो आविवै करी, रोम-कूप थी तेह । हो भवियण ! झरवा लागा बिंदुवा, क्लीन थई तसु देह ॥ हो भवियण ! ३०. अतिही शोक करी वलि, प्रकर्ष करि सोय । हो भविषण ! कंपण लागो अंग जसु, तेज वीर्य रहित होय ॥ हो भवियण ! ३१. दीन विमन जिम मुख जसु, करतल मसली जेह । हो भवियण! कुमलाणा फूला तणी, माला जिम थइ तेह ।। हो भवियण ! ३२. दीक्षा-वचन सुणी ततखिणे, ग्लान दुर्बल थइ देह । हो भवियण ! फुन लावण्य करि शून्य थई, वलि कांति रहित थइ जेह ॥हो भवियण ! ३३. शोभा रहित थई तिको, प्रकर्षे अवलोय । हो भवियण! शिथिल भूषण थया जेहनां, दुर्बलपणां थी सोय ।। हो भवियण ! ३०. सोगभरपवेवियंगमंगी नित्तेया नित्तेया' निर्वीर्या (वृ० प० ४६७) ३१. दीणविमणवयणा करयलमलिय व्व कमलमाला ३२. तक्खणओलुग्गदुब्बलसरीरलावण्णसुन्ननिच्छाया तत्क्षणमेव-प्रव्रजामीतिवचनश्रवणक्षण एवं अवरुग्णं म्लानं दुर्बलं च शरीरं यस्याः सा (वृ० प० ४६७) ३३. गयसिरीया पसिढिलभूसण प्रशिथिलानि भूषणानि दुर्बलत्वाद्यस्याः सा (वृ० प० ४६८) ३४,३५. पडतखुण्णियसंचुण्णियधवलवलय-पभट्ठउत्तरिज्जा पतन्ति-कृशीभूतबाहुत्वाद्विगलन्ति 'खुन्निय' त्ति भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि संचूर्णितानि चभग्नानि कानिचिद्धवलवलयानि-तथाविधकटकानि ३४. भूषण पड़वा लागा वली, बहु कृश थकी जेह । हो भवियण ! नमती भूइ पड़वा थकी, अन्य प्रदेश विषेह ॥ हो भवियण ! २४६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. चूर्ण थया भागा वली, धवल निमल वलिया जास । हो भवियण ! __व्याकूलपणां थी ओ.णो, मस्तक थी पडयो तास ।। हो भवियण ! ३६. मुर्छा-वश न्हाली चेतना, भारीपणों तन न तास । हो भवियण ! सकमाल केश चोटो तणां, विखरिया छ जास ।। हो भवियण ! ३७. फरसी ते कुहाड़े करी, छेदै छतै जिवार । हो भवियण ! भूइ प. चंपक लता, तिम पड़ी राणी तिवार ।। हो भवियण ! ३८. निवा महोच्छव यदा, इंद्रलट्री पहिछाण । हो भवियण ! विमुक्त-सिंध बंधण जसु, भूइ पड़े तिम जाण । हो भवियण ! ३६. मणि भूमितल नैं विषे, धसक ऊतावली धार । हो भवियण ! सर्वांगे करि भूइ पड़ी, थई अचेत तिवार ।। हो भवियण ४०. ढाल दोयसौ ऊपरै, तीजी आखी ताय । हो भवियण ! मोह वशे माता थई, अयि-अयि मोह बलाय ।। हो भवियण ! यस्याः सा तथा, प्रभ्रष्टं व्याकुलत्वादुत्तरीयं बसनविशेषो यस्याः सा (वृ० प० ४६८) ३६. मुच्छावसणट्ठचेतगरुई सुकुमालविकिण्णकेसहत्था मूविशान्नष्टे चेतसि गुर्वी-अलघुशरीरा या सा (वृ०प० ४६८) ३७. परसुणियत्त व्ब चंपगलया परशुच्छिन्नेव चम्पकलता (वृ०प० ४६८) ३८,३६. निव्वत्तमहे व्व इंदलट्टी, विमुक्कसंधिबंधणा कोट्टिमतलंसि धसत्ति सव्वंगेहिं संनिवाडिया। (श० ६।१६८) ढाल : २०४ १. जमाली क्षत्रियकूमर नीं, माता ते तिणवार । संभ्रमचित व्याकुलपण, थई अचेत अपार ।। १. तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्त माया ससंभ मोवत्तियाए ससम्भ्रमं व्याकुलचित्ततया (वृ० प० ४६८) २,३. तुरियं कंचभिंगारमुह विणिग्गय-सीयलजलविमल धारपरिसिच्चमाणनिव्वावियगायलट्ठी निर्वापिता-स्वस्थीकृता (वृ० प० ४६८) २. ताम शीघ्र दासी तसु, कंचन वर भंगार । तस मुख थी निर्गत विमल, शीतल जल नी धार ।। ३. तिण जलधाराई करी, सींचवै करि धार । निर्वापिता स्वस्थो कृता, गात्र-लट्ठि तनु सार ।। ४. उत्क्षेपक वंशादिमय, मुष्टिग्राह्य जस दंड। ___ तालवन्त तरु ताल नों, पत्रच्छोड समंड ।। ५. अथवा कहिय चर्ममय, तालपत्र आकार । बीजनकं वंशादिमय, तेह तणोंज प्रकार ॥ ६. इत्यादिक वीजन करी, जनित वाय सुखदाय । तेह वीजणो जल करी, भीजोवी करै वाय ।। ७. बिंदु-सहित वीजण करी, वींज्या थई सचेत । ___ अतेउर परिजन करी, आसासतीज तेथ ॥ ८. रोवंती आक्रन्द फुन, करती शब्द विशेख । धरती शोक मने करी, विलपंती सुत पेख ।। ४,६. उक्खेवय-तालियंट-बीयणगजणियवाएणं उत्क्षेपकोवंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यदण्डमध्यभाग: तालवन्तं-तालाभिधानवृक्षपत्रवन्तं तत्पत्रच्छोट इत्यर्थः तदाकारं वा चर्ममयं वीजनकं तु वंशादिमयमेवान्त ग्राह्यदण्डं एतैर्जनितो यो वातः स तथा तेन (वृ० प० ४६८) ७. सफुसिएणं अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी 'सफुसिएणं' सोदकबिन्दुना (वृ०प० ४६८) ८. रोयमाणी कंदमाणी सोयमाणी विलवमाणी 'कंदमाणी' महाध्वनिकरणात् 'सोयमाणी' मनसा शोचनात् (वृ० प० ४६८) ६. जमालि खत्तियकुमारं एवं वयासी ६. जमाली क्षत्रियकुमर, तेह प्रतै अवधार । मोह वश माता इहविधे, वचन वदै तिहवार ।। श०६, उ० ३३, ढाल २०३,२०४ २४७ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. तुमं सि णं जाया! अम्हं एगे पुत्ते इट्टे कंते पिए भरे जाया ! इम किम दीरेछेह । (ध्रुपदं) १०. एक पुत्र तूं मांहरै रे, वल्लभ इष्ट अपार । कांत मनोहर तूं सही रे, प्रिय ते प्रीतीकार ।। ११. मनोज्ञ मनगमतो घणो, मणाम ते मन माय । वार-वार हूं संभरूं, अहनिशि में अधिकाय ।। १२. स्थिरता गुण जोगे करी, थेज्जे कहिये जान । __ वेसासिए कहितां वली, विश्वास नों तूं स्थान ।। ११. मणुण्णे मणामे १३. मान्य हुवै सहज्यां सही, जेणे कोधो कार्य। संमत कहियै तेहन, न करै ते अविचार्य ।। १४. बहमत बह कारज विषे, पिण मानवा योग्य उमंग । अथवा तूं मुझ नैं घणो, मानवा योग्य सुचंग ।। १५. अनुमत ते कारज विषे, कदा हुवै व्याघात । पछै पिण मानण योग्य छ, अणगमतो नहिं तिलमात ॥ १६. भंड करंडक सारिखो, भंड ते आभरण जाण । तसु भाजन जे डाबडो, तेह करंड समान ।। १७. रयण कहितां नर-जात में, उत्कृष्टपणां थी रत्न । अथवा रंजक तूं सही, रयण अर्थ सप्रयत्न ।। १८. तं रत्न चितामणि सारिखो, जीविऊसविए जाण । मुझ जोवित छै तुझ थकी, तुझ विण नहि रहै प्राण ।। १६. अथदा जीवित नै विषे जी, ओच्छव सम अधिकाय । फुन मन समृद्ध कारको, देख्या हिय हरखाय ।। १२. थेज्जे वेसासिए 'थेज्जे' त्ति स्थैर्यगुणयोगात्स्थैर्यः 'वेसासिए' त्ति विश्वासस्थानं (वृ० प० ४६८) १३. संमए 'संमए' त्ति संमतस्तत्कृतकार्याणां संमतत्वात् (वृ० प० ४६८) १४. बहुमए 'बहुमए' त्ति बहुमत:- बहुष्वपि कार्येषु बहु वा अनल्पतयाऽस्तोकतया मतो बहुमतः । (वृ० ५० ४६८) १५. अणुमए 'अणुमए' त्ति कार्यव्याघातस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः (वृ० प० ४६८) १६. भंडकरंडगसमाणे भाण्डं--आभरणं करण्डक: तद्भाजनं तत्समानस्तस्यादेयत्वात् (वृ० प० ४६८) १७. रयणे 'रयणे' त्ति रत्नं मनुष्यजातावुत्कृष्टत्वात् रजनो वा रजक इत्यर्थः (वृ०प० ४६८) १८,१६. रयणभूए जीविऊसविए हिययनंदिजणणे यिय नंदिजणणे 'रयणभूए' त्ति चिन्तारत्नादिविकल्प: ‘जीविऊसविए' त्ति जीवितमुत्सूते-प्रसूत इति जीवितोत्सवः । जीवितविषये वा उत्सवो-महः स इव यः स जीवितोत्सविक: (वृ० प० ४६८) २०. उंबरपुप्फ पिव दुल्लभे सवणयाए, किमंग ! पुण पासणयाए ? 'उंबरे' त्यादि, उदुम्बरपुष्पं हलभ्यं भवत्यतस्तेनोपमान ... 'किमंग पुण' त्ति किं पुन: अंगेत्यामन्त्रणे (वृ० प० ४६८) २१. तं नो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुम्भं खणमवि विप्पयोग। २२. तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहि समाहिं २३. परिणयवए वड्ढियकुलवंसतंतुकज्जम्मि वद्धिते-पुत्रपौत्रादिभिर्वृद्धिमुपनीते कुलरूपो वंशो न वेणुरूपः कुलवंश:-सन्तानः स एव तन्तुर्दीर्घत्वसाधात् कुलवंशतन्तु: (वृ० प० ४६८) २०. ऊबर फूल लाधै नहीं, तिम सुणवो दुर्लभ सोय । फुन देखण रो कहिवो किसू ? अंग आमंत्रणे जोय ।। २१. ते माटे निश्चै करी, तुझ विजोग खिण-मात। नहिं बंछा म्है नहि सुणां, हे सुत ! सांभल वात ।। २२. ते भणी रहो घर नै विषे, त्यां लग हे सुत ! सार। म्हें जीवां छां ज्यां लगे, म्है काल गयां पछै धार ।। २३. वय-परिणत वृद्ध थयां पछ, पुत्र-पोत्रादि वधार । कुल रूप वंश तंतु तिको, दीर्घपणे विस्तार ।। *लय : खिम्यावंत जोय भगवंत रो रे ज्ञान १. क्षण भर २४८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. एहिज सह कारज करी, थइ विषय नी वांछा-रहीत । सकल प्रयोजन साधने, चरण थकी धर प्रीत ।। २४. निरवयक्खे 'निरवकांक्षः' निरपेक्षः सन् सकलप्रयोजनानाम् (व०प०४६८) २५. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि । (श० ६।१६६) २५. श्रमण भगवंत महावीर पे, मुंड थई सुखकार । अगार गृहस्थावास थी, तूं था अणगार ।। २६. बे सौ चौथी ढाल में, मोह तणे वश माय । सुत घर में राखण भणी, किया अनेक उपाय ॥ ढाल : २०५ १. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-तहा वि णं तं २. अम्मताओ! जण्णं तुब्भे मम एवं बदह-तुमं सिणं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इ8 कंते ३. तं चेव जाव पव्वइहिसि दूहा १. तब जमाली खत्रि-सूत, [कहै] मात पिता वाय । तिमहिज ते नहिं अन्यथा, जे मुझ आख्यं ताय ।। २. हे मात ! पिताजी ! जे भणी, थे मुझ इम भाखंत । तूं छै इक सुत मांहरै, हे जात ! इष्ट अरु कंत ।। ३, तिमहिज ते पूर्वे कह्य', तिम कहिवं अवदात । जाव अणगारपणां प्रते, पडिवजै तूं जात ! ४. इम निश्चै मां ! तात जी ! ए मनु भव अवतार । अनेक जन्म जरा मरण, रोग रूप अवधार ।। ५, शारीरिक तापादि फून, चिंता मन न जान । ए दोनई दुख तणु, भोगविवू असमान । ६. चौर्य द्यूतादिक नां व्यसन, जेह सैकड़ा जोय । उपद्रव करि पराभव, ए नर भव अवलोय ॥ ४. एवं खलु अम्मताओ! माणुस्सए भवे अणेगजाइ जरा-मरण-रोग५. सारीरमाणसपकामदुक्खवेयण ७. इण कारण थी अधुव ए, नियत काले ताय । अवश्य उदय जिम रवि तणु, तिम ध्रुव नर भव नाय ।। ८. नियत रूप नहिं ए बली, राजा नैं पिण जेम। दालिद्रपणुं हुवै कदा, नर-भव अनियत एम॥ ६. वसणसतोवद्दवाभिभूए व्यसनानां च-चौर्यद्यूतादीनां यानि शतानि उपद्रवाश्च (वृ० प० ४६६) ७. अधुवे 'अधुवे' त्ति न ध्रुवः-सूर्योदयवन्न प्रतिनियतकालेवश्यम्भावी (वृ० प० ४६६) ८. अणितिए 'अणितिए' त्ति इतिशब्दो नियतरूपोपदर्शनपर: ततश्च न विद्यत इति यत्रासानितिक:-अविद्यमाननियतस्वरूप इत्यर्थः ईश्वरादेरपि दारिद्रयादिभावात् (वृ० प० ४६६) ६. असासए 'असासए'त्ति क्षणनश्वरत्वात्, अशाश्वतत्वमेवोपमानदर्शयन्नाह (वृ० ५० ४६६) १०. संझब्भरागसरिसे जलबुब्बुदसमाणे ६. नर भव वली अशाश्वतो, खिरण-स्वभाव पिछाण । तेहिज कहिय छै हिवै, उपमाये करि जाण ।। १०. संध्या नां बादल जिसो, पंच रंग सम पेख । जल परपोटा सारिखो, मनुष्य आउखो देख ।। ११. डाभ अग्र जल बिंदु सम, स्वप्न-दर्शन उपमान । चंचल बीजल नी परै, ए तनु अनित्य जान । ११. कुसग्गजलबिंदुसन्निभे सुविणदंसणोवमे विज्जुलया चंचले अणिच्चे श० ६, उ० ३३, ढाल २०४,२०५ २४६ Jain Education Intemational Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. सहज अंगुलि आदि नं पढबूज याहू प्रमुख ने १३. फुन तनु विधंसन क्षय हुवै, तेही पहिला पर्छ वा गीतकछंद कुष्टादि रोगे करि कही। खगादि जोगे करि वहीं ॥ एहीज छै जसु धर्म हो । हुस्यै त्यजितुं अवश्य हो ।। दूहा १४. कुण जाणे हे मात ! पितु ! पिता पुत्र नों जोय । पहिला मरितुं केहनुं, पाछै केहनुं १५. तिणसूं हूं वांछू अछू, अहो मात ! तुम्ह आज्ञा दीधे छते दीक्षा स्यूं प्रभु फुन १६. तिण अवसर क्षत्रिय तनय, जमाली ने वाय । मात-पिता कहे इहविधे, सांभलज्यो चित ल्याय || होय ? तात । हाथ || १७. ए तनु हे सुत ! तांहरो, अतिहि विशिष्ट गुरुपो रे। लक्षण व्यंजन गुण भला, तिण करि सहित अनुयो रे ।। १८. लक्षण श्रीवच्छ प्रमुख जे व्यंजन मस तिलकादि । विहं नां गुण करि सहित थे, एतुज तनु अहह्वादि ॥ गीतकछंद ११. स्थिर अस्विनी तेहनों फल अर्थ कुन मांस उपचित में विषे जे रहा २०. त्वच पातली ने विषे लहिये, भोग विशिष्ट चक्षू तास फल वर लाभ २१. रमणीक सुंदर गति तणुं फल * मात कहै वच्छ ! सांभले । (ध्रुपदं ) *लय : कुशालांजी मन चिन्तवं २५० भगवती जोड़ यान लाभ लहीजिये। स्वर शोभनीकज फल तसु, वर आण तास वहीजिये ॥ २२. गुण सत्व में सगला रह्या इम वृत्तिकार वखाणियो । अत्र म्हें पिण आणियो । तेही अधिकार सगलो, लाभ विशेष ही । सुख संपेस ही ॥ लाभ म जाणियै । स्त्रीनं माणिये ॥ २३. उत्तम बल करि सहित थे उत्तम वी सहीतो । उत्तम सत्य सहित जे तूं सुत पवर २४. बल ते शरीर तणुं कह्य, वीर्य मन नुं सत्व ते चित्त नां अबीखरथा अध्यवसाय उदारो || २५. अथवा उत्तम जे बिहु, बल फुन वीर्य उदारो । तेह विषे सत्व जे सत्ता तिष करि युक्त कुमारी। २६. विज्ञान वहूत्तर कला करि तूं विषक्षण टाहो । सोभाग्य सहित गुणे करी तूं, ऊंचो अधिक अथाहो || २७. अभिजात कुलीन मोटी क्षमा बरदाई। अथवा कुलीन तेह में पुजनीक ने समर्थाई ॥ 1 पुनीतो ॥ आधारो । १२,१३. सडण- पडण -विद्धंसणधम्मे, पुवि वा पच्छा वी अवस्तविष्यहिपब्बे भविस्य 'सड पडणविद्धं सणधम्मे' त्ति शटनं कुष्ठादिनांऽगुल्यादेः पतनं बाह्वादेः खड्गच्छेदादिना विध्वंसनं - क्षयः एत एव धर्मा यस्य स ( वृ० प० ४६९ ) १४. से केस णं जाणइ अम्मताओ ! के पुव्वि गमणयाए, के पच्छा गमणयाए ? १५. इच्छामि णं अम्मताओ तुम्मेहि अन्मगुण्याए समाणे समणस्स जाव (सं० पा० ) पव्वइत्तए । ( श० ९1१७० ) १६. लिपकुमार अम्मापिपरी एवं वयासी १७. इमं च ते जाया ! सरीरगं पविसिगुरूवं लक्खण-गोव १६-२१. लक्षणम् – अस्थिवर्थः सुखं मांगे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु । गती यानं स्वरे चाज्ञा, सवं सत्त्वे प्रतिष्ठितम् (२०१० ४६९) २३. उत्तमबलबीर २४. तत्र बलं - शारीरः प्राणो वीर्य मानसोऽवष्टम्भः सत्त्वं चित्तविशेष एव ( वृ० प० ४६९ ) २५. अथवा उत्तमयोर्बलवीर्ययोर्यत्सत्त्वं-सत्ता तेन युक्तं ( वृ० प० ४६९ ) २६. विष्णाण विक्खणं ससोहग्गगुणसमूसियं २७. अभिजाय महखमं 'अभिजाय महखमं' ति अभिजातं - कुलीनं महती क्षमा यत्र तत्तथा अथवाऽभिजातानां मध्ये महत्पूपं असमर्थ च ( वृ० प० ४६९ ) Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८.विविवाहिरोगरहियं २८. विविध प्रकार नी व्याधि ते, रोग कुष्टादिक न्हालो । तिण करि पुत्र रहीत ही, तुझ तनु महा सुखमालो। २६. वलि उपघात नहीं अछै, नहिं पित-वायु विकारो। उत्तम वर्णादिक तणो, गुण तुझ अधिक उदारो।। ३०. इण कारण थी लष्ट छ, मनहर इंद्रिय पंचो। आप-आपरा विषय नैं, ग्रहण विषे पटु संचो।। २६,३०. निरुवहय-उदत्त-लट्ठपंचिदियपडु निरुपहतानि-अविश्वमानवाताद्यपघ्रातानि उदात्तानि - उत्तमवर्णादिगुणानि अत एव लष्टानि-मनोहराणि पञ्चापीन्द्रियाणि पटूनि च-स्वविषयग्रहणदक्षाणि यत्र (वृ० प० ४६६) ३१. पढमजोब्वणत्थं अणेगउत्तमगुणे हिं संजुत्तं ३२. तं अणुहोहि ताव जाया ! नियगसरीररूव-सोहग्ग जोव्वणगुणे, ३३. तओ पच्छा अणुभूय नियगसरीररूव-सोहग्ग-जोव्वण गुणे अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहि ३४. परिणयवए वड्ढियकुलवंसतंतुकज्जम्मि निरवयक्खे ३१. प्रथम वय जोवन भरी, तेह विषे रह्यो पुत्तो। अपर अनेक उत्तम भला, गुण करि सहित ससुत्तो।। ३२. ते भणी भोगव प्रथम ही, हे सुत ! निज तनु चारू । तसु रूप सोभाग्य जोवन तणां, गुण वर्णादि उदारू ।। ३३. तिवार पछै ते भोगवी, निज तनु रूप उदारो। सौभाग्य गुण जोवन तणां, म्है काल किये छते धारो ।। ३४. वृद्ध थयां वय परिणम्यां, कूल वंश संतान वधारी। कार्य एह करी वली, विषय नी वांछा निवारी ।। ३५. श्रमण भगवंत महावीर पे, मंड थइनै सारो। गृहस्थावास तजी करी, तूं थाजै अणगारो ।। ३६. जमाली क्षत्रियकुमर तदा, कहै मात पिता नैं वायो। तुम्है कह्य तिमहीज छै, हे मात ! पिताजो । ताह्यो ।। ३७. जे भणी थे मुझ इम कहो, हे सुत ! ए तनु थारो। तं चेव जावत त्यां लगै, अणगारपणां प्रति धारो।। ३८. इम निश्चै हे माता ! पिता ! एनरतनु दुख नो अगारो। विध-विध व्याधि सैकडां, तेहनों स्थान असारो ।। [पुत्र कहै सुणो मातजी !] ३६. हाड रूप काष्ठे करी, नीपनो ए तनु ताह्यो। कठिनपणां नां साधर्म्य थी, अस्थि-काष्ठ कहिवायो । ३५. समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि । (श० ६।१७१) ३६. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं ___वयासी—तहा वि णं तं अम्मताओ! ३७. जण्णं तुब्भे ममं एवं वदह-इमं च णं ते जाया ! सरीरगं तं चेव जाव पव्वइहिसि ३८. एवं खलु अम्मताओ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं विविवाहिसयसंनिकेतं संनिकेतं-स्थानम् (वृ० ५० ४६६) ३६. अट्ठियकछुट्ठियं 'अट्ठियकछुट्ठियं' ति अस्थिकान्येव काष्ठानि काठिन्य साधात्तेभ्यो यदुत्थितं तत्तथा (वृ० प० ४६९) ४०. छिराणहारुजाल-ओणद्धसंपिणद्धं असुइसंकिलिट्ठ शिरा नाड्य: 'हारु' त्ति स्नायवस्तासां यज्जालंसमूह स्तेनोपनद्धं संपिनद्धं-अत्यर्थ वेष्टितं यत्तत्तथा 'असुइ-संकिलिलैं' ति अशुचिना-अमेध्येन संक्लिष्टं- दुष्टं यत्तत्तथा (वृ० ५० ४६६) ४१. अणिद्वविय-सव्वकालसंठप्पयं अनिष्ठापिता --असमापिता सर्वकालं -सदा संस्था प्यता-तत्कृत्यकरणं यस्य स तथा (वृ०प०४६६) ४२. जराकुणिमजज्जरघरं व जराकुणपश्च--जीर्णताप्रधानशवो जर्जरगृहं चजीर्णगेहंसमाहारद्वन्द्वाज्जराणपजर्जरगहं (वृ० प० ४६६) ४०. नाड़ी अनैं नसां तणु, तिण करि अति ही वीटाणो। अशुचि अमेध्य करी तनु, प्रत्यक्ष दुष्ट पिछाणो ।। ४१. असमाप्त पुरा थावे नहीं, सर्व काल रैमांह्यो। __थाप्या जे कार्य शरीर नां, ते हुवै संपूर्ण ताह्यो। ४२. जरा करी जीरण तनु, मृतक कलेवर गंधो। जर-जर जीरण घर जिको, तेह सरीखो मंदो। १. अंगसुत्ताणि भाग २ श. ६।१७२ में 'ओणद्ध-संपिणद्ध' के बाद 'मद्रियभडं व दुब्बल' पाठ है । इस पाठ की जोड़ नहीं है । संभवत: जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में यह पाठ नहीं था। श० उ०३३ ढाल २०५ २५१ Jain Education Intemational ation Intermational Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. सडव पडवं विनाश नं, धर्म स्वभाव विमासी । पूर्व अथवा पछै तन, अवश्य छोडवू थासी ।। ४४ ते कूण जाण हो मात जी ! पहिला मरण किणरो न्हालो। तिमहिज जाव दिख्या ग्रहं, ए दोयसौ पंचमी ढालो ।। ४३. सडण-पडण-विद्धंसणधम्म, पुब्वि वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियव्वं भविस्सइ । ४४. से केस णं जाणइ अम्मताओ! के पुचि तं चैव (सं० पा०) पव्वइत्ता (श०६।१७२) ढाल : २०६ दूहा १. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी १. जमाली क्षत्रिय-सुत प्रते, मात पिता तिणवार । वली वचन इहविध वदै, ते सुणज्यो सुविचार ।। _ *जमाली मान रे जाया ! इम किम दीजै छेह । (ध्रपदं) २. प्रत्यक्ष ए ताहरी वली जाया ! बाला रूप रसाल। मोटा कूल नी ऊपनी जाया ! तुझ सरिखी सुखमाल । ३. सरीखी छै तनु चामड़ी जाया ! वय सरिखी सवदीत । सरीखो लावण्य रूप छै जाया ! जोवन गुण थी सहीत ।। ४. सरीखो कुल पक्ष पितर नो जाया ! तेह थकी सुविचार । आणी ते परणी सही जाया ! केहवी ते वर नार ।। ५ कला-कुशल डाही घणी जाया ! सर्व काल रे मांय । लालिता किणहि दुहवी नहीं जाया ! ते सुख जोग्य सुहाय ।। ६. मादव मृदु गुण युक्त ही जाया ! निपुण विनय उपचार । तेह विष पंडित घणी जाया ! एहवी विचक्षण नार ।। ७. मंजुल कोमल शब्द थी जाया ! ते पिण मित मर्याद । मधुर ते अर्थ थकी भलं जाया ! बोलिवू जेहन स्वाद ।। २, इमाओ य ते जाया ! विपुलकुलबालियाओ सरिसियाओ (पृ० ४४४-टि०१) ३. सरित्तयाओ सरिव्वयाओ सरिसलावण्णरूप-जोब्वणगुणोववेयाओ (पृ० ४४४-टि०१) ४. सरिसएहितो कुलेहितो आणिएल्लियाओ (पृ० ४४४-टि०१) ५. कलाकुसल-सव्वकाललालिय-सुहोचियाओ, ६. मद्दवगुणजुत्त-निउणविणओवयारपंडिय-वियक्खणाओ ८. हंसवं देखव चालवं जाया! नेत्र-विकार विलास । रहिवं विशिष्टपणे वली जाया ! चतुर सह में विमास ॥ ७. मंजुलमियमहुरभणिय मञ्जुलं-कोमलं शब्दतः मित-परिमितं मधुरं____ अकठोरमर्थतो यद्भणितं (वृ०प०४६९) ८. विहसिय-विप्पेक्खिय-गति-विलास-चिट्टियविसारदाओ विलासश्च नेत्रविकारो विस्थितं च-विशिष्टा स्थितिरिति (वृ० प० ४६६) ६. अविकलकुलसीलसालिणीओ अविकलकुला:-ऋद्धिपरिपूर्णकुलाः शीलशालिन्यश्च -- शीलशोभिन्यः (वृ०प० ४६६,४७०) १०. विसुद्धकुलवंससंताणतंतुबद्धण-प्पगब्भुभवपभाविणीओ ६. अधिकल कहितां ऋद्धी करि जाया ! परिपूर्ण कुल है जास । शील आचार करी वली जाया ! शोभावंत विमास । १०. विशुद्ध कुल वंश संतान ही जाया ! तंतु वर्द्धन करि तेह । समर्थ वय जोवन भली जाया ! सत्ता तास विषेह ॥ वा० --विशुद्ध कुल वंश हीज संतान-तंतु ते विस्तारितंतु, ते वधारव करी- पत्र उत्पादन द्वारे करी तेहनी वृद्धि ने विष प्रगल्भ ते समर्थ जे वय जोवन, तेहनों पता विद्यमान जेसन एडवी स्त्रियां। अथवा 'विसुद्धकुलवंससंताणतंतु- पद्धण भन्भवपभाविणीओ' त्ति पाठांतर तिहां वलि विशुद्ध कुल वंश संतान-तंतु वधारण वालो जे प्रगल्भा-प्रकृष्ट गर्भ, तेहनो उद्भव प्रगट होयवो, तेहनं विषे वा०—विशुद्धकुलवंश एव सन्तानतन्तु:-विस्तारितन्तुस्तद् वर्द्धनेन-पुत्रोत्पादनद्वारेण तवद्धौ प्रगल्भं समर्थ यद्वयो-यौवनं तस्य भावः सत्ता विद्यते यासां तास्तथा पाठान्तरं तत्र च विशुद्धकुलवंशसन्तानतन्तुवर्द्धना ये प्रगल्भा: -प्रकृष्टगर्भास्तेषां य उद्भवः-सम्भूतिस्तत्र यः प्रभाव:सामर्थ्यं स यासामस्ति ताः । (वृ० ५० ४७०) * लय : जम्बू ! तू तो मान रे जाया ! २५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. मणाणुकूलहियइच्छियाओ, अट्ठ तुज्झ गुणवल्लहाओ १२. उत्तमाओ, निच्च भावाणुरत्तसव्वंगसुंदरीओ जे प्रभाव-समर्थपणों छै जेहन तिके विशुद्ध कुलवंशसंतानतंतुवर्द्धनप्रगर्भउद्भवप्रभाविका। ११. मन अनुकूल गमती घणी जाया ! हृदय स्यं वांछणहार । ए आई सुंदरी तुझ गुण करि वल्लभ सार ।। १२. ए उत्तम छै कामणी जाया ! नित्य जे चित्त नं प्रेम । तिण करिने राती घणी जाया ! सर्वांग सुंदर तेम ।। १३. भोगव भोगी भ्रमर ज्यं जाया ! ज्यां लग सामर्थ्य सजात । कामभोग विस्तीर्ण मनुष्य नां जाया ! ए रमणी संघात ।। १४. भुक्त भोगी थइ मैं पछै जाया ! विषय-रहित थई चित्त । अत्यंत क्षीण कोतुहल करी जाया ! म्हां काल गयां लीजे व्रत पवित्त ।। १५. जमाली क्षत्रियकुंवर तदा, कहै मात-पिता ने वाय । तिमहिज ते हो माता पिता माजी ! अन्यथा नहिं छै ताय । [माजी ! तू तो मान लै जननी ! लेस्यां हे संजम भार ।] १६. जे अम्ह नैं तुम्है इम कहो माजी ! ए तुझ रमण हे जात ! मोटा कुल नी ऊपनी, जाव दीक्षा लीजै प्रभु हाथ ।। १७. इम निश्च हे माता ! पिता ! काम भोग मनुष्य नां ताय । अशुचि अपवित्र छै घणां वलि अशाश्वता स्थिर नाय ।। १३. तं भुंजाहि ताव जाया ! एताहिं सद्धि विउले माणु स्सए कामभोगे १४. तओ पच्छा भुत्तभोगी विसय-विगयवोच्छिण्ण कोउहल्ले अम्हेहिं कालगएहिं जाव (सं० पा०) पब्वइहिसि। (श० ६।१७३) १५. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-तहा वि णं तं अम्मताओ! १६. जण्णं तुब्भे मम एवं बदह-इमाओ ते जाया ! विपुलकुलबालियाओ जाव पब्वइहिसि । १७. एवं खलु अम्मताओ! माणुस्सगा कामभोगा असुई असासया १८. इह कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यभिप्रेतानि (वृ० प० ४७०) १६. बंतासवा, पित्तासवा, खेलासवा, सुक्कासवा, सोणियासवा (पृ० ४४४ टि०८) सोरठा १८. इहां काम भोग ग्रहणेह, तेहना जे आधार थी। पुरुष अनैं स्त्री जेह, ग्रहिवा ए तसु तनु प्रतै ॥ १९. *वमन प्रतै आथवै झरै माजी ! पित्त प्रतै आश्रवंत । खेल श्लेष्म प्रतै श्रवै माजी ! शुक्र नैं रुधिर झरत । [सुणो मोरी मात जी ! सुणो मोरा तात जी! मुझर्ने अनुमति दीजै आज] ।। २०. उच्चार-पासवण खेल थी माजी ! सिंघाण वमन – पित्त । राध शुक्र लोही वलि माजी ! एतला थी उपचित्त ।। २१. अणगमता दुष्ट रूप ही माजी ! मूत्रे करी कुह्य उचार । तिणे करी प्रतिपूर्ण छै माजी ! ए तनु अशुचि-भंडार । २०. उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणग-वंत-पित्त-यूय-सुक्क सोणिय समुब्भवा। २१. अमणुग्णदुरुष-मुत्त-पूश्य-पुरीसपुण्णा अमनोज्ञाश्च ते दूरूपमूत्रेण पूतिकपुरीषेण च पूर्णाश्चेति विग्रहः, इह च दूरूपं-विरूपं पूातकं च-कुथितं (वृ०प० ४७०) २२. मयगंधुस्सास-असुभनिस्सासउव्वेयणगा मृतस्येव गन्धो यस्य स मृतगन्धिः स चासावुच्छ्वासश्च मृतगन्ध्युच्छ्वासस्तेनाशुभनिःश्वासेन चोद्वेगजनकाउद्वेगकारिणो जनस्थ ये ते तथा (वृ० ५० ४७०) २२. मृतक जिसो गंध जेहनों माजी ! एहवा उस्सास पिछाण । अशुभ निःस्वास तिणे करी भाजी ! जन-उद्वेगका जाण ।। २३. ए काम-भोग दुगछा तणां माजी! छ उपजावणहार । लघु स्वभाव हलवा आपणो माजी ! कामभोग नों धार ।। २३. बीभच्छा, अप्पकालिया, लहुरागा 'बीभच्छ' त्ति जुगुप्सोलादका: 'लहुस्सम' ति लघुस्वका: लधुस्वभावाः वृ० प० ४७०) भलय : जम्बू ! तू तो मान रे जाया १०६, उ० ३३, दाल २०६ २५३ Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. कलिमल जे अशुभ द्रव्य - माजी ! देह विषे अधिवास । ते अशुभ न रहिवं शरीर में माजी ! तिणकर दुख ही विमास ॥ २४. कलमलाहिवासदुक्खा कलमलस्य-शरीरसत्काशुभद्रव्यविशेषस्याधिवासेन अवस्थानेन दुःखा-दुःखरूपा ये ते (वृ० प० ४७०) २५. बहुजणसाहारणा २५. बह जन ने साधारणा माजी ! स्त्रियादिक नै अवलोय । भोगविवं वंछै घणां माजी ! इम बह जन साधारण जोय ।। २६. क्लेश महामानसो दुख करी माजी ! अति तनु दुख करि ताय । वश करियै कामभोग नैं माजी ! दुख थी साधिवं थाय ॥ २७. अबध मुर्ख जन सेविया माजी ! सदा मुनि ने निंदनीक । अनंत संसार बधारणा माजी ! कामभोग तहतीक ॥ २८. फलरूप विपाक कटुक जसु माजी ! बलतो जिम तृण-पूल । ते अणमूक्यां कर बलै, तिण कामभोग दुख-मूल ।। २६. परिकिलेसकिच्छदुक्खसज्झा परिक्लेशेन-महामानसायासेन कृच्छदुःखेन चगाढशरीरायासेन ये साध्यन्ते-वशीक्रियन्ते ये ते (वृ०प०४७०) २७. अबुहजणणिसेविया, सदा साहुगरहणिज्जा अणंत संसारवद्धणा २८. कडुगफलविवागा चुडल्लिव अमुच्चमाणदुक्खाणु बंधिणो 'कडुगफलविवागा'......"फलरूपो विपाकः फलविपाक: कटुक: फलविपाको येषां ते तथा 'चुडलिव्व' त्ति प्रदीप्ततृणपूलिकेव (वृ० प०४७०) २६. सिद्धिगमणविग्धा । से केस णं जाणइ अम्मताओ! के पुवि गमणयाए ? के पच्छा गमणयाए? ३०. तं इच्छामि णं अम्मयताओ! जाव (सं० पा०) पव्वइत्तए। (श० ६।१७४) २६. सिद्धि गति जातां जीव नै माजी ! विघ्न तणां करणहार। कूण जाणे हो माता पिता ! पहिला पछै मरण केहन धार ।। ३०. ते माटै हं वांछं अछ, अहो मात-पिताजी ! विशाल । जावत दीक्षा धारवी, आखी दोय सौ छट्ठी ए ढाल ।। ढाल : २०७ १. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी दूहा १. तिण अवसर क्षत्रिय-सुत, जमाली प्रति वाय । मात पिता इहविध कहै, ते सुणज्यो चित ल्याय॥ *पुत्र ! कह्यो मान हमारो रे, प्राण-वल्लभ तू प्यारो रे । (ध्रुपदं) २. हे पुत्र ! ए तुझ दादा तणो रे, परदादा नों पेख। पिता नां परदादा तणो रे, संचियो द्रव्य अशेख । ३. अति बहु हिरण्य ते अणघड़य रे, सुवर्ण ते घड्य सार । वलि भाजन कांसी तणां, अरु वस्त्र विविध प्रकार ।। २,३. इमे य ते जाया ! अज्जय-पज्जय-पिउपज्जयागए सुबहू हिरण्णे य सुवणे य, कंसे य, दूसे य । आर्यः-पितामहः प्रार्यक:-पितुः पितामहः पितृप्रार्यक:-पितुः प्रपितामहस्तेभ्यः सकाशादागतं यत्तत्तथा (वृ०प० ४७०) ४. विउलधण-कणग जाव संतसार-सावएज्जे 'विपुलधणे' ति प्रचुरं गवादि 'कणग' त्ति धान्यं (वृ० ५० ४७०) ४. विपुल कहितां विस्तीर्ण घणु रे, धन ते गवादि कहेज । कणग ते धान्य भणी कह्य, जाव संतसार सावतेज ।। सोरठा ५. जावत कहिवा थीज, रत्न कर्केतन आदि जे। चद्रकांतादि मणीज, मोती शंख प्रसिद्ध छै ।। *लय : राजनगर भणतां थका रे। ५,६. रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवालरत्तरयण यावद् करणादिदं दृश्यं. रयण' त्ति कर्केतनादीनि 'मणि' त्ति चन्द्रकान्ताद्याः मौक्तिकानि शङ्खाश्च २५४ भगवती-जौड़ Jain Education Intemational Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. शिल प्रवाल विद्रुमादि, रक्त-रत्न पद्म राग ते । इत्यादिक संवादि, ए दीस जाव शब्द में। ७. *संत कहितां विद्यमान छ रे, आप तणे वश जेह । सार प्रधानज द्रव्य ही रे, तिके छै तुझ घर नै विषेह ।। ८. अलाहि कहितां पर्याप्त है रे, ज्यां लग ए परिमाण । कुल वंश सात पीढ्यां लगै रे, जे देवै अति घणु दान ।। है. पोते भोगववै करी रे, न्याती-गोती नैं जेह । बांटी नैं बहु देतां थकां रे, सात पीढयां लग न खूटेह ।। १०. ते भणी पहिला भोगवी रे, हे सुत ! मनुष्य तणाय। विस्तीर्ण कामभोग नैं रे, बलि ऋद्धि सत्कार समुदाय ।। ११. कल्याणकारी भोगवी रे, तिवार पछै सुविचार । कुलवंश तंतु वधारने रे, जाव संजम लीजै सार ।। १२. जमाली क्षत्रिय-सुत तदा रे, कहै मात पिता ने एम। तिमहिज छै माता पिता कांइ, जे तुम्ह भाख्यो तेम ।। १३. जे तुम्है मुझ नैं इम कहो, इम वली ताहरै ए जात । धन दादा परदादा रो संचियो, जाव दीक्षा लीजै प्रभु हाथ ।। १४. इम निश्चै हे माता पिता ! हिरण्य सवर्ण जावत द्रव्य । अग्नि साधारण अग्नि में बलै, चोर साधारण भव्य ।। १५. राय साधारण नृप लिये रे, मृत्यु साधारण मान । न्याती गोती साधारण वली रे, एतो हिरण्यादिक पहिछाण । प्रतीताः 'सिलप्पवाल' त्ति विद्रुमाणि 'रत्तरयण' त्ति पद्मरागास्तान्यादिर्यस्य (वृ०प०४७०) ७. 'संत' त्ति विद्यमानं स्वायत्तमित्यर्थः 'सार' त्ति प्रधानं (वृ०प० ४७०) ८. अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं 'पकामं दाउ' न्ति अत्यर्थं दीनादिभ्यो दातुम् (वृ० प० ४७०) ६. पकामं भोत्तुं परिभाएउं भोक्तुं-स्वयं भोगेन 'परिभाएउ' ति परिभाजयितुं दायादादीनां प्रकामदानादिषु यावत् स्वापतेयमलं तावदस्ति (वृ० प० ४७०) १०. तं अणुहोहि ताव जाया ! विउले माणुस्सए इड्ढि सक्कारसमुदए, ११. तओ पच्छा अणुहूयकल्लाणे, वड्ढियकुलवंस जाव (सं० पा०) पव्वइहिसि। (श०६।१७५) १२. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-तहा वि णं तं अम्मताओ! १३. जण्णं तुब्भे ममं एवं वदह–इमं च ते जाया ! अज्जय-पज्जय-पिउपज्जयागए जाव पव्वइहिसि । १४,१५. एवं खलु अम्मताओ! हिरणे य, सुवण्णे य जाव सावएज्जे अग्गिसाहिए, चोरसाहिए रायसाहिए मच्चसाहिए, दाइयसाहिए अग्न्यादेः साधारणमित्यर्थः। (वृ०प० ४७०) सोरठा १६. एहिज द्रव्य प्रतेह, अति परवशपणुं जणायवा। अन्य पर्याय करेह, कहियै छै ते सांभलो ।। १७. *अग्नि सामान्य ते अग्नि थी रे, हवै हिरण्यादिक न विणास । जाव पुत्रादि सामान्य छै तिके रे, कुटंब सामान्य विमास ॥ वा०-पूर्व कह्यो साधारण, इहां सामान्य का। ते एकार्थ जाणवू । १८. अध्रुव अनित्य अशाश्वतो रे, पूर्व तथा पछै जेह । अवश्य छांडिवू हुस्यै सही रे, कांड हिरण्यादिक द्रव्य तेह ।। १६. ते माटै कुण जाण वली रे, तं चेव तिमहिज न्हाल । जाव प्रव्रज्या आदरूं रे, तुझ आज्ञा थी सुविशाल ।। २० क्षत्रिय-सत जमाली तणां रे, मात पिता तिहवार । जमाली प्रति चलायवा कांइ, समर्थ नहीं जिहवार ।। २१. विषय शब्दादिक जेहनै रे, अनुलोम ते विषय विषेह । प्रवृत्ति जनकपणे करि तिके रे, अनुकूल वचन करेह ।। १६. एतदेव द्रव्यस्यातिपारवश्यप्रतिपादनार्थं पर्यायान्तरेणाह (वृ० प० ४७०) १७. अग्गिसामण्णे जाव (सं० पा०) दाइयसामण्णे 'दाइयसाहिए' त्ति दायादाः-पुत्रादयः । (वृ० प० ४७०) १८. अधुवे, अणितिए, असासए, पुब्धि वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियव्वे भविस्सइ १६. से केस णं जाणइ तं चेव जाव (सं० पा०) पव्वइत्तए। (श० ६।१७६) २०. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मताओ जाहे नो संचाएंति २१. विसयाणुलोमाहि 'विसयाणुलोमाहिं' ति विषयाणां-शब्दादीनामनुलोमा:-तेषु प्रवृत्तिजनकत्वेनानुकूला विषयानुलोमास्ताभिः (वृ० प० ४७०) *लय: राजनगर भणतां थकां रे श०६, उ० ३३, ढाल २०७ २५५ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. घणं सामान्यपणे करि कहिवं, तिण वचने करि आम । वलि विशेषपणे करि कहिवं, तेह वयण करि ताम ।। २३. वचने करि जगाड़ रे, जिम रहै संसार माय । वलि प्रेम युक्त प्रार्थना करी तिको, वीनती करि अधिकाय ।। २४. वचन सामान्यपणें कही रे, वलि कही वयण विशेख । संबोधन वचन कही बली, विनती प्रेम युक्त संपेख ।। २५. वचन विषे अनुलोमका रे, कही थाका तिण काल । विषये प्रतिकूल वच हिवै कहै, आखी दोय सौ सातमी ढाल । २२. बहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य 'आघवणाहि य' ति आख्यापनाभि:- सामान्यतो भणनै: 'पन्नपणाहि य'त्ति प्रज्ञापनाभिश्च-विशेषकथन: (वृ०प०४७०, ४७१) २३-२५. सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आधवेत्तए वा पण्णवेत्तए वा 'सन्नवणाहि य' त्ति सज्ञापनाभिश्च - सम्बोधनाभिः 'विन्नवणाहि य' ति विज्ञापनाभिश्च-विज्ञप्तिकाभिः सप्रणयप्रार्थनः (वृ० प० ४७१) ढाल : २०८ १. विषय तणो परिभोग जे, तास निषेधक ताम । तेह विषे प्रतिलोमका, वचने करि कहै आम ॥ २. संजम थी भय ऊपजै, वलि तसु चलिवं होय । इसो शील छै जेहनं, ते बचने करि सोय ।। १. ताहे विसयपडिकूलाहिं विषयाणां प्रतिकूला:-तत्परिभोगनिषेधकत्वेन प्रतिलोमा यास्ताः (वृ० प० ४७१) २. संजमभयुव्वेयणकरीहिं संयमाद्भयं-भीति उद्वेजनं च-चलनं कुर्वन्तीत्येवंशीला यास्ता: (वृ०प०४७१) ३. पण्णवणाहिं पण्णवेमाणा एवं वयासी ४. एवं खलु जाया ! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे ३. जे विशेष बचने करि, कहितां वचन विशेख । मात-पिता इह विध कहै, जमाली प्रति पेख ।। ___*जाया ! संजम दुक्कर कार । (ध्रुपदं) ४. इम निश्चै करिनैं हे जाया ! निग्रंथ प्रवचन सार । सत्य अणुत्तर एह थकी अन्य, नहिं अति प्रवर उदार ॥ ५. केवल ए सम नहि को दूजो, जेम आवश्यक मांहि । यावत अंत करै सहु दुख नों, मुनि प्रवचन थी ताहि ।। सोरठा ६. जाव शब्द थी देख, पडिपुन्ने ते शिव गति । पमाड़वा नां पेख, गुणे करी भरियो अछै ।। ७. नेयाउए ए न्हाल, नायक प्रापक शिव तणो। अथवा न्याय विशाल, प्रवचन समय विषे कह्यो ।। ५. केवले जहा आवस्सए (४६) जाव (सं० पा०) सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति 'केवल' त्ति केवल-अद्वितीयं (वृ० ५० ४७१) ६. पडिपुण्णे अपवर्गप्रापकगुण तं (वृ०प० ४७१) ७. नेयाउए नायकं मोक्षगमकमित्यर्थः नैयायिकं वा न्यायानपेतत्वात् (वृ०प० ४७१) ८. संसुद्धे सल्लगत्तणे सामस्त्येन शुद्धं 'सल्लगत्तणे' मायादिशल्यकर्तनं (वृ० प० ४७१) ८. संसद्धे अतिहि शुद्ध, समस्तपणे करी तिको । सल्लगतणे बुद्ध, कापणहारज सल्य नों ।। *लय : सीता आवे रे धर राग १. सं० पा० के अनुसार पांचवीं गाथा में पूरा पाठ आ गया है । उसके बाद पुनः ६ से १५ तक की गाथाओं में पूरे पाठ की जोड़ की गई है। २५६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. सिद्धिमग्ग सविधान, हितार्थ प्राप्ति उपाय जे । मुत्तिमग्ग महिमान, अहित-विच्युति उपाय जे ॥ १०. निजाणमग्गे ताय, सिद्ध क्षेत्र तेहनै विषे । जावा तणो उपाय, निग्रंथ-प्रवचन जाणवू ॥ ११. निव्वाणमग्गे न्हाल, सकल कर्म नां विरह थी। उपनो सुख सुविशाल, तेह तणोंज उपाय ए॥ १२ अवितह कहितां सोय, कालांतर पिण अनपगत । तथाविध अवलोय, अभिमत प्रकार एह छै ।। ६. सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे 'सिद्धिमग्गे' हितार्थप्राप्त्युपाय: 'मुत्तिमग्गे' अहितविच्युतेरुपाय: (वृ० प० ४७१) १०.निज्जाणमग्गे सिद्धिक्षेत्रगमनोपायः (वृ० प० ४७१) ११. णिव्वाणमग्गे सकलकर्मविरहजसुखोपायः (वृ० १० ४७१) १२. अवितहे कालान्तरेऽप्यनपगततथाविधाभिमतप्रकारम् (वृ० प० ४७१) १३. अविसंधि प्रवाहेणाव्यवच्छिन्नं (व०प० ४७१) १४. सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, एत्थं ठिया जीवा सिझंति, बुझंति मुच्चंति १५. परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति १३. अविसंधि' सुवदीत, प्रवाह करी विच्छेद नहीं। तथा संदेह रहीत, अर्थ अविसंदिद्ध नं ।। १४. सह दुख प्रतीक्षण मग्ग, एह प्रवचन विषे जिके । जीवा रह्या उदग्ग, सिझै बुज्झै मुच्चवै ।। १५. हुवै शीतलीभूत, अंत करै सहु दुख तणो। जाव शब्द में सूत, कह्या आवसग थीज ए॥ १६. *सर्प तणी पर एकांत-निश्चय, दृष्टि-बुद्धि अवलोय । इण निग्रंथ प्रवचन विषे, चारित्र पालण सोय ।। सोरठा १७. अहि नी आमिष काज, एकान्ता-एकनिश्चया। दृष्टि हुवै निर्व्याज, तिम चरण पालण इक दृष्टि-बुद्धि ।। १८. *जेह पाछणा नी परै, एकांत जे समान धारा, जिम क्रिया जसु, जे चरण विषे सुविधान ।। १६. जिम लोह नां जव चाबिवा, तिम निग्रंथ प्रवचन सार । निरअतिचारपण पालिवं, दुक्कर चरण उदार ॥ १६. अहीव एगंतदिट्ठीए अहेरिव एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः सा (एकान्ता सा) दृष्टि:-बुद्धिर्यस्मिन् निर्ग्रन्थप्रवचने चारित्र पालनं प्रति तदेकान्तदृष्टिकम् (वृ० प० ४७१) १७. अहिपक्षे आमिषग्रहणकतानतालक्षणा एकान्ता--- एकनिश्चया दृष्टि:-दृग् यस्य स एकान्तदृष्टिक: (वृ०प० ४७१) १८. खुरो इव एगंतधाराए एकान्ता-उत्सर्ग लक्षणकविभागाश्रया धारेव धाराक्रिया यत्र तत्तथा (वृ० ५० ४७१) १६. लोहमया जवा चावेयव्वा लोहमया यवा इव चर्वयितव्याः, नम्रन्थं प्रवचनं दुष्करमिति हृदयं (वृ० ५० ४७१) २०. वालुयाकवले इव निस्साए वालुकाकवल इव निरास्वादं वैषयिकसुखास्वादनापेक्षया प्रवचनमिति (वृ० प० ४७१) २१. गंगा वा महानदी पडिसोयं गमणयाए गंगा वा-- गंगेव महानदी प्रतिश्रोतसा गमनं प्रतिश्रोतोगमनं तद्भावस्तत्ता तया, प्रतिश्रोतोगमनेन गंगेव दुस्तरं प्रवचनमिति भावः। (वृ०प० ४७१) २२. महासमुद्दो वा भुयाहिं दुत्तरो एवं समुद्रोपमं प्रवचनमपि (वृ०प० ४७१) २०. सार रहित जिम कवल वालु नां, निग्रंथ प्रवचन तेम । विषय तणां सुख स्वाद रहित छै, चरण धरण सुख खेम ।। २१. महानदी गंगा मैं साहमें, स्रोते दुखे गमन । तिम संजम मार्ग आचरतां, दुस्तर है प्रवचन ।। २२. महासमुद्र जिम भुजा करीन, तिरणो दुक्करकार । तिम प्रवचन वर चरण पालवं, दुस्तर अधिक अपार ।। १. जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में अविसंधि और अविसं द्धि—ये दो पाठ में रहे होंगे । अंगसुत्ताणि ।।१७७ में यहां एक ही पाठ है-अविसंधि । इस पाठ में पाठान्तर की भी कोई सूचना नहीं है । *लय : सीता आवे रे धर राग। श०६, उ० ३३, ढा०२०८ २५७ Jain Education Intemational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. खडगादिक नी तीक्ष्ण धारा, ऊपर गमन दुखेह । तिम दुक्कर है चरण पालिवू, संजम धार विषेह ।। २४. महाशिला रज्जू बांधी ने, कर धरतां दुक्करकार। तिम प्रवचन गुरुता प्रति धरवू, चरित्र निरतिचार ।। २३. तिक्खं कमियव्वं ___ यदेतत् प्रवचनं तत्तीक्ष्णं खड्गादि ऋमितव्यं (वृ० ५० ४७१) २४. गरुयं लंबेयव्वं 'गुरुकं' महाशिलादिकं 'लम्बयितव्यम्' अवलम्बनीय रज्ज्वादिनिबद्ध हस्तादिना धरणीयं प्रवचनं (वृ०प० ४७१) २५. असिधारगं वयं चरियव्वं असेर्धारा यस्मिन् व्रते आक्रमणीयतया तदसिधाराक 'व्रतं' नियमः 'चरितव्यम्' आसेवितव्यं, यदेतत् प्रवचनानुपालनं तद्बहुदुष्करनित्यर्थः (वृ० प० ४७१) २६. अथ कस्मादेतस्य दुष्करत्वम् ? (वृ०प०४७१) २७. नो खलु कप्पइ जाया ! समणाणं निग्गंथाणं अहाकम्मिए इ वा २८. उद्देसिए इ वा, मिस्सजाए इ वा २५. असिधार अतिक्रमता दुक्कर, तिम व्रत नेम उदार । निग्रंथ प्रवचन प्रते पालिवं, तेहथी दुक्करकार ।। सोरठा २६. चारित्त दुक्करकार, किण कारण इहां आखियो? वर मुनि नों आचार, देखालै हिव आगलै ।। २७. *श्रमण निग्रंथ भणी नहिं कल्प, निश्चै करि हे जात ! मुनि अर्थे असणादिक कीधं, आधाकर्मी ख्यात ।। २८. सर्व दर्शणी अर्थ कर्य ते, उद्देशिक कहिवाय । ___मुनि-गहि बिहु नैं अर्थ निपायु, मिश्र कहीजै ताय ।। २६. आधण में अधिको ऊयूं जे, मुनि नैं अर्थ आ'र । अज्झोयर ते श्रमण मुनी नैं, कल्पै नहीं लिगार ।। ३०. सीत मिली आधाकर्मी नीं, अन्य आर रै माय । पुतिकर्म कहीजै तेहनें, ए पिण कल्पै नाय ।। ३१. साधु अर्थे मोल लियो जे, कृतगड़ कहिये तास ।। साधु अर्थे लियो उधारो, पामिच्च कहिये जास ।। ३२. अन्य तणो जे खोसी देवै, अच्छिज कहिये तेह । अणिसिट एक तणी इच्छा विण, दियै सीर नों जेह ।। ३३. अभिहड ते साहमो आण्यो, फुन कतार भत्तेह ।। ____ अटवी विषे भिक्षाचर अर्थे, निपजायो अन्न जेह ।। २६. अज्झोयरए इवा, स्वार्थ मूलाद्रहणे कृते साध्वाद्यर्थमधिकतरकणक्षेपणमिति (वृ०प०४७१) ३०. पूइए इवा ३१. कीते इ वा, पामिच्चे इ वा ३२. अच्छज्जे इ वा, अणिसट्टे इ वा ३३. अभिहडे इ वा, कतारभत्ते इ वा 'कतारभत्तेइ व' त्ति कान्तारं-अरण्यं तत्र यद्भिक्षु कार्थं संस्क्रियते तत्कान्तारभक्तम् (व०प० ४७१) ३४. दुब्भिक्खभत्ते इ वा गिलाणभत्ते इ वा ३५. बद्दलियाभत्ते इ वा ३४. दुभिक्खभक्त दुकाल विधे, भिखारयां अर्थे कीध । गिलाणभक्त फुन रोगी अर्थे, निपजायो सप्रसीध ।। ३५. बद्दलियाभत्त मेह वर्षतां, जे भिखार्यो काज । असणादिक निपजायो ते पिण, कल्पै नहीं समाज ।। ३६. वली प्राहणा अर्थ निपायो, घर का जीमै नांहि । प्राणभत्त कहीजै तेहन, ते पिण कल्पे नांहि ।। ३७. सेज्जातर फुन राजपिड फुन, मूल-भोजन बलि जाण । कंद-भोजन वलि फल नों भोजन, बीज-भोजन पहिछाण ।। ३६. पाहुणगभत्ते इ वा ३७. सेज्जायरपिंडे इ वा, रायपिंडे इ वा, मूलभोयणे इ वा, कंदभोयणे इ वा, फलभोयणे इ वा, बीयभोयणे इवा ३८. हरियभोयणे इ वा, भोत्तए वा पायए वा ३८. हरित-भोजन वा रव सह ठामे, भोगविवो अवलोय । ____ अथवा जे पीवू नहिं कल्प, संत मुनी नैं सोय ।। ३६. सुख भोगविवा योग्य पुत्र ! तूं, वा सुख उपचय ताय । पिण दुख नैं भोगविवा योग्यज, निश्चै करिनै नाय ।। *लय : सीता आवे रे धर राग ३६. तुमं सि च णं जाया ! सुहसमुचिए नो चेव णं दुहसमुचिए २५८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. नहीं समयं सी समया उष्णज भूख अ तिरखा सहिवा नैं ४१. चोर तां उपद्रव सहिया ने श्वापद भूवंग तणां उपद्रव पिण, ४२. दंस तां उपद्रव सहिया पिण, समर्थ नहीं है कोय । माधर नां उपद्रव सहिया ने समर्थ नहीं थे सोय ॥ ४३. वाय पित्त कफ वली एकठा, थया तिको सन्निपात । विविध प्रकार तणां ते रोगज, कुष्ठादिक आख्यात || ४४. आतंक शीघ्र हर्णे शूलादिक, तेह परीसह आय । फुन उपसर्ग उदय आयो तूं सहिना समर्थ नांय ॥ ४५. ते माटै निश्चै करि जाया ! क्षण मात्र पिण ताय । विरह तुम्हारो म्है नहि वांचा सांभल सुत! मुझ वाय ।। ४६. तिसुं घर में रहिये पहिला म्हे जीवां जिहां लगेह सहिया समर्थ नांय । समर्थ नहि तुझ काय ॥ समर्थ नहीं छ ताय । सहिया समरच नोय ॥ 2 महांकाल गयां पाछै यावत ही, प्रवर प्रव्रज्या लेह || ४७. ए दोयसौ ऊपर आखी, ढाल अष्टमी मांय । दुक्कर चारित्र धर्म बतायो, मात पिताई ताय ॥ दाल : २०६ चूहा १. तब जमाली क्षत्रिय-सुत, कहै मात पिता नैं वाय । तिमहिज हे माता ! पितर ! कह युं अन्यथा नांय ॥ २. जे तुम्ह मुझ ने इम कहो, हम नियये हे जात निग्रंथ प्रवचन सत्य फुन, सर्वोत्कृष्ट सुहात ॥ ३. केवल शुद्ध इत्यादि जे तिमहिज जावत तेह | प्रव्रज्या लेज्यो तुम्है, मुझ काल गयां पाछेह ॥ * जमाली नां चरणमहोत्सव जाण । मात पिता महिमानिला रे करता कोट किल्याण || ( ध्रुपदं ) ४. इम निश्चै माता ! पिताजी ! निग्रंथ प्रवचन सार । क्लीव मंद संपयण नां पनी तास दुक्करकार ।। ५. अधर चित्त जेहनों रे, कायर तेह बहाय इण कारण थी कापुरुष नैं रे, दुक्कर चरण अथाय ।। * लय : कपि रे पिया संदेशो कहै रे ६. इहलोक नां सुख विषे राता, परलोक नों भय नांहि । ते उपराठा परलोक भी है, बजे विषय तिसिया ताहि ॥ ४०. नालं सीयं, नालं उण्हं, नालं ४१. नालं चोरा, नालं वाला ४२. नालं दंसा, नालं मसगा ४३, ४४. नालं वाइय-पित्तिय-सेंभिय-सन्निवाइएं विविहे रोगा के परिसहोबत उदिष्ये अहात्तए । 'रोगायंके' त्ति इह रोगाः - कुष्ठादयः आतंकाआशुपालिनः मूलादयः ( वृ० प० ४७१) इच्छामो तुब्भं खणमवि ४५. तं नो खलु जाया ! अम्हे विप्पयोगं खुहा, नालं पिवासा ४६. तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो पच्छाव (सं० पा० ) पबहिसि । (१० २२१७७) १. तए णं से जमानी पत्तियकुमार अम्मापियरी एवं बवासी - तहा वि णं तं अम्माओ ! २. जणं तुभे ममं एवं वदह - एवं खलु जाया ! निग्गंथे पावसच्ये अगुत्तरे २. केवले व जान पहिसि ४. एवं खलु अम्मताओ ! निग्गंथे पावयणे कीवाणं 'कीवाणं' ति मन्दसंहननानां (बु०प०४७१) ५. कायराणं कापुरिसाणं 'कायरा' ति चित्तावष्टम्भवजितानाम् । ( वृ० प० ४७१) ६. इलोपविद्धागं परलोगपरंमुहाणं विसयतिसियाणं श० ६, उ० ३३, ढा० २०८, २०६ २५६ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा :५. पूर्व अर्थ आख्यात, अन्वय फून व्यतिरेक कर। वलि कहियै अवदात, चित्त लगाई. सांभलो ।। ८. *दुखे सेववा योग्य छै इम, निग्रंथ प्रवचन ख्यात । ते पागय-प्राकृत पुरुष ने, दुक्कर चरण विख्यात ।। ७. पूर्वोक्तमेवार्थमन्वयव्यतिरेकाभ्यां पुनराह (वृ० प० ४७१) ६. धीर जे साहसीक छ जे, तेहनै पिण अवलोय । ए कार्य करिवं हिज मुझने, इम निश्चैवंत नैं सोय ।। १०. तेह विष पिण जे वली रे, उद्यमवंत ने ताम । जे कार्य नां उपाय नैं रे, प्रवर्तक नैं आम ।। ११. निश्चै कर तस् इह प्रवचने तिको रे, अथवा लोक विषेह । किंचित पिण दुक्कर नहीं रे, क्रिया करेवी जेह ।। १२. ते भणी हूं वांछू अछू रे, अहो मात ! फुन तात । आप तणी आज्ञा थयां रे, जाव चरण ग्रहूं जिन हाथ ।। ८. दुरणुचरे पागयजणस्स 'दुरनुचरं' दु:खासेव्यं प्रवचनमिति प्रकृतं (वृ० प० ४७१) ६. धीरस्स निच्छियस्स 'धीरस्स' त्ति साहसिकस्य तस्यापि निश्चितस्य' कर्तव्यमेवेदमितिकृतनिश्चयस्य तस्यापि (वृ०प० ४७१,४७१) १०. ववसियस्स 'व्यवसितस्य' उपायप्रवृत्तस्य (वृ० प० ४७२) ११. नो खलु एत्थं किंचि वि दुक्करं करणयाए 'एत्थं' ति प्रवचने लोके वा (वृ०प० ४७२) १२. तं इच्छामि णं अम्मताओ! तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाब (सं० पा) पव्वइत्तए। (श० ६।१७८) १३. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति १४. विसयाणुलोमाहि य, विसयपडिकूलाहि य १३. जमाली क्षत्रिय-सत प्रतै रे, मात पिता तिणवार । घर माहै राखण भणी रे, समर्थ नहीं जिवार ।। १४. विषय अनुकुल वचने करि रे, विषय प्रतिकूल चरित्त । ते चरण पालिवू कठिन है रे, इम वचन करीनै कथित्त ।। १५. जे सामान्यज वच करी रे, विशेष वचन करेह । संबोधन वचन जगाड़वै रे, प्रेम युक्त वचनेह ।। १६. जे सामान्यज वच कही रे, जावत वीनवी जोय । विण इच्छा हीज चरण नी रे, अनुमत दीधी सोय ।। १७. जमाली क्षत्रिय-सुत तणो रे, जनक तदा तिण ठाय । कोटविक नर तेड़नै रे, बोलै एहवी वाय ।। १८. शीघ्र अहो देवानुप्रिया ! रे, क्षत्रियकुंड अवधार । ____ ग्राम नगर 2 ते प्रतै रे, अभ्यंतर फुन बार ।। १६. छिड़काव करो उदके करी रे, पूंजो प्रमाजिका करेह । लीपो गोबर आदि सूं रे, जिम उववाई विषेह ।। १५,१६. बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य आघवेत्तए वा जाव (सं० पा०) विण्णवेत्तए वा ताहे अकामाइं चेव जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स निक्खमणं अणुमण्णित्था। (श० ६।१७६) १७. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोड• बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी१८. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! खत्तियकुंडग्गामं नयरं सभितरबाहिरियं १६. आसिय-सम्मज्जिओवलित्तं जहा ओववाइए (सू०५५) जाव आसिक्तमुदकेन संमाजितं प्रमार्जनिकादिना उपलिप्त च गोमयादिना यत्तत्तथा। (वृ०प० ४७६) २०-२२. 'जहा उववाइए' त्ति एवं चैतत्तत्र-'सिंघाड गतियचउक्कचच्चरचउमुहमहापहपहेसु आसित्तसित्तसुइयसंमट्ठरत्यंतरावणवीहियं' आसिक्तानि-ईषसिक्तानिसिक्तानि च तदन्यान्यत एव शुचिकानिपवित्राणि संमृष्टानि कचवरापनयनेन रथ्यान्तराणिरथ्यामध्यानि आपणवीथयश्च-हट्टमार्गा यत्र तत्तथा (वृ० प० ४७६) सोरठा २०. जिम उववाई मांहि, आख्यो छै ते इहविधे। शृंगाटक त्रिक ताहि, चतुष्क चच्चर चतुर्मख ।। २१. फुन महापंथ विषेह, छांटो ईषत जल करी। फुन अति जल छिड़केह, इण कारण थी शुचि करो ।। २२. फुन कचरो काढेह, सेरी सेरी सुध करो। आपण वीथी जेह, हाट मार्ग तेहने विषे ।। *लय : कपि रे प्रिया संदेशो कहै रे २६० भगवती-जोड़ .. Jain Education Intemational Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. वली मंच पर मंच, तिर्ण करीनें सहित फुन । नानाविध रंग संच, तिण करि ऊंची ध्वज वली ॥ २४. चक्र सीहादि जाण, लांखन करी सहीत है। ध्वजा पताका माण, तेह करि मंडित वली ॥ २५. इत्यादिक अवलोय, सूत्र उववाइ में कह यूं । यावत आज्ञा सोय, पाछी सबै नफर ते ।। सूंपै २६. * तव जमाली क्षत्रियकुमर नों रे, जनक दूजी वार । कोविक तर ते रे बोले इम अवधार ।। २७. शीघ्र अहो देवानुप्रिया ! रे, जमाली क्षत्रियकुमर नैं जाण । महाअर्थ प्रयोजन प्रते रे, वलि महामूल्य पिछाण || २. मोटा माणस जोग्य जे रे, विस्तीरण सुविचार । दीक्षा महोदय सामग्री प्रते रे, करो सज्ज उदार ॥ २६. कोटुंबिक नर तिण अवसरे रे, तिमहिज जावत जाण ॥ सर्व सामग्री सज्ज करी रे, आज्ञा सूंपी आण ॥ ३०. जमाली क्षत्रियकुमर ने रे मात पिता तिगवार । प्रवर सिंघासण नैं विषे रे, पूर्व सन्मुख बेसार ॥ ३१. पूर्व साहम बेसार नैं रे, एकसो आठ उदार । कलशा जे सोवन तणां इम, जिम रायप्रश्रेणि महार ।। सोरठा ३२. इसी आठ उदार, मणी तणां फुन सार, ३३. सोवन रूप मभार, कलशा जे रूपा तणां । कलश एक सौ आठ ह्वै ॥ कलश एक सौ आठ फुन । ते पिण इकसी आठ है। रूपा नैं फुन मणि तणां । रूप मणी तणां ॥ सोवन मणि रासार, ३४. कलश एक सौ आठ इकसी आठ सुघाट, सोवन ३५. *जावत जे माटी तणां रे, कलश एक सौ आठ । आठसौ नैं चोसठ कह्या रे, कलशा रूडे घाट || ३६. सर्व ऋद्धि करने तिको रे, समस्त जे छत्राद। राजचिह्न रूपे करी रे, यावत महारव साथ ।। २७. जाव शब्द में श्रेष्ठ, अथवा उचित यथेष्ट, सोरठा सह युति आभरणादि नीं । वस्तु पट नां लक्षण करी ॥ १. ओवाइयं सू० ६१,६२.. *लय कपि रे प्रिया संदेशो कहै रे : २३, २४. 'मंचाइमंचकलियं णाणाविहरागभूसियझयपडागाइडमंड नामाधिराजः पत्रसिंहादिः पताकाभिश्च तदितराभिरति पताकाभिश्च पताको परिवत्तिनीभिर्मण्डितं यत्तत्तथा (२०१० ४०६) (०२१८०) २५.........ते वि तहेव पच्चष्पिणंति । २६. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोच्च पिको सहावेत्ता एवं क्यासी २७. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स महत्थं महग्घं 'महत्थं' ति महाप्रयोजनं 'महग्घं' ति महामूल्यं ( वृ० प० ४७६ ) २८. महहिं विपुलं निरमणाभिये उपवेह 'महरिहं" ति महाहं महापूज्य महतां वा योग्यं 'निवसमणाभिय' ति निष्क्रमणाभिषेकसामग्रीम ( वृ० प० ४०६) २९. तए णं ते कोडुंवियपुरिसा तहेव जाव उबटुवेंति । ( श० ९1१८१) ३०. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहं निसीयावेति ३१. निसीयावेत्ता अट्ठसएणं सोवण्णियाणं कलसाणं एवं जहा रायप्पसेणइज्जे (सूत्र २७९) जाव (सं० पा० ) ३२. अट्ठसएण रुपमयाणं कलसाणं, अट्ठसएणं मणिमयाणं कलसाणं ३२. एवं सुवणरुपमा कला एवं सुयष्णमणिमवाणं कलसाणं ३४. असएवं रूपमणिमवाणं कलसाणं असणं सुवणरुपमणिमयाणं कलसाणं ३५. अट्ठसएणं भोमेज्जाणं कलसाणं ३६. सव्विड्ढीए जाव (सं० पा० ) रवेणं सद- समस्तष्ठत्रादिरापिया ३७. सव्यती यावत्करणादिदं दृश्यं - 'सव्वजुईए' सर्वद्युत्या - आभरणादिसम्बन्धिन्या सर्वयुक्त्या वा उचितेष्टवस्तुपटना( वृ० १०४७६) लक्षणया ( वृ० प० ४०६) श० ६, उ० ३३, ढा० २०६ २६१ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. सह बल सेन्य करेह, सर्वज समुदाये करी। पुरवासी जन जेह, तेह तणे मिलवै करी ॥ ३९. सर्व उचित जे जोग, कृत्य करण रूपे करी ॥ सर्व विभूति अरोग, सर्व संपदाये करी ।। ४०. सर्व विभूषा सार, तेह सर्व शोभा करी। सहु संभ्रम उदार, प्रमोद कृत उत्सुक करी ॥ ४१. सर्व पुष्प वर गंध, माल्य अलंकारे करी। सर्व वाजिंत्र अमंद, तसं रव मिल महाघोष जे ॥ ४२. सर्व शब्द अवलोय, अल्प अर्थ में पिण हुवै । तिण कारण थी जोय, आगल कहियै छै हिवे ।। ४३. मोटी ऋद्धि करि सोय, महाद्युति आभरणादि करि । महाबल करिकै जोय, मोटे समुदाये करी॥ ४४. महा वर वाजिबेह, जमक-समक समकाल करि । प्रकर्षे करि जेह, वजाड़वै करिने वली ।। ४५. शंख शब्द सुप्रतीत, पणव पडह जे भांड नों। पडहग ढोल बदीत, भेरी ते मोटी ढक्का । ३८. सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं _ 'सव्वबलेणं' सक्सैन्येन 'सव्वसमुदएणं' पौरादिमीलनेन (वृ० प० ४७६) ३६. सव्वादरेणं सव्वविभूईए 'सव्वायरेणं' सर्वोचितकृत्यकरणरूपेण 'सव्वविभूईए' सर्वसम्पदा (वृ० प० ४७६) ४०. सव्वविभूसाए सव्वसंभमेण 'सव्वविभूसाए' समस्तशोभया 'सव्वसंभमेणं' प्रमोदकृतोत्सुक्येन । (वृ०प० ४७६) ४१. सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारेणं सव्वतुडियसद्दसण्णिणाएणं सर्वतूर्यशब्दानां मीलने यः संगतो निनादो-महाघोषः स तथा तेन (वृ०प० ४७६) ४२. अल्पेष्वपि ऋद्धयादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिर्दृष्टेत्यत आह (वृ० प० ४८६) ४३. महया इड्ढीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं ४४. महया वरतुडिय-जमगसमग-प्पवाइएणं यमकसमकं युगपदित्यर्थः (वृ०प० ४७६) ४५. संख-पणव-पडह-भेरिपणवो-भाण्डपटहः भेरी-महती ढक्का (वृ० प० ४७६) ४६. झल्लरि-खरमुहि झल्लरी-अल्पोच्छ्या महामुखा चविनद्धा खरमुखी-काहला (वृ० ५० ४७६) ४७. हुडुक्क-मुरय-मुइंग-दुंदुहि मुरजो-महामईलः मृदङ्गो-मईल: दुन्दुभी-ढक्काविशेष एव (वृ प० ४७६) ४८.४६. णिग्घोसणाइयरवेणं ततः शङ्खादीनां निर्घोषो महाप्रयत्लोत्पादितः शब्दो नादितं तु-ध्वनिमात्र एतद्वयलक्षणो यो रवः स तथा तेन (वृ० प० ४७६) ५०. महया-महया निक्खमणाभिसेगेणं अभिसिंचंति, अभि सिंचित्ता करयल जाव (सं० पा०) ५१. जएणं विजएणं वद्धाति, बद्धावेत्ता एव वयासी भण जाया ! कि देमो? किं पयच्छामो? ४६. ऊंची अल्प विमास, महामुख वींटी चर्म करि । कही झल्लरी तास, खरमुही ते काहला ।। ४७. हंडुक वाजिंत्र नाम, मुरज तिको मृदंग महा । मृदंग मादल ताम, ढक्का विशेष ददुभि ।। ४८. शंखादिक नों जेह, निर्घोष महा प्रयत्न करि । उपजायो रव तेह, फुन निनाद ध्वनि मात्र जे ।। ४६. शब्द अने ध्वनि बेह, एहिज लक्षण जेह रव । ते ध्वनि शब्द करेह, ए जाव शब्द में जाणवा ।। ५०. *मोटे-मोटे दीक्षा तणो रे, करै ताम अभिषेक । इम अभिषेक करी तदारे, करतल जाव संपेख ।। ५१. जय विजय शब्दे करी रे बधावै बधावी कहै एम। कहै जाया ! स्यूं दीजिय रे? तुझ प्रार्थना प्रेम ।। सोरठा ५२. अथवा देवां जोय, कहिये ते सामान्य थी। प्रार्थना अवलोय, विशेष थी कहिये तिको ।। ५३. *अथवा किण वस्तु थकी रे, ताहरू अर्थ प्रयोजन । दोयसौ नैं नवमीं कही रे, सरस ढाल शोभन ।। ५२. अथवा दद्मः सामान्यतः प्रयच्छामः प्रकर्षेणेति विशेष: (वृ० प० ४७६) ५३. किणा व ते अट्ठो? (श० ६।१८२) *लय : कपि रे प्रिया संदेशो कहै रे २६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २१० वहा १. तब जमाली क्षत्रिय-सूत कहे मात पिता ने एम अहो मात! नं तात जी! व घर पेम || २. कुत्रिकापण थी रजोहरण, पात्र अणावो फेर । काश्यप ते नाई प्रतै तेड़ावो फुन हेर ॥ ३. कुकहितां महि त्रिक त्रितय, स्वर्ग मत्यं पाताल । तत्संभवि वस्तू अपि पुत्रिक कहिये न्हाल || ४. ते वस्तु सम्पादिका, आपण हाट अखेह | कहीं कुषिकापण तिका देवाधिष्ठित एह ॥ वा० - कुत्तियावण दुकान नों धणी ते केहवो हुवे ? ते कहै छे - क्रोध, रहित गर्व-रहित, राग-द्वेष-माया-लोभ-रहित जितारा, जितपरीप, पूर, वाता अविरति सम्यग्दृष्टि, भगवंत ऊपर राग, पर-उपगारी, राजादिक जेहनें घणुं मान ? देवता वैमानिक पूर्व ने स्नेह करि प्रिय मित्र तथा पितर- दादो, पितादिक तीन भुवन मांहि जे वस्तु ते सर्व दिये । कुत्तियावण जे नगर मां होय, ते नगर नों राजा सर्व प्रकारे अणाचार वर्जे, न्याय में चाले, तिहां असोक वृक्ष नित्य हुवै। जेहनें घर में विषे कुत्रिकापण हाट हुवै, तेहने देव अधिष्ठायक हुवै । रत्नप्रबोध ग्रन्थ मध्ये एहनूं है। ५. जमाली क्षत्रिय सुत तास पिता तिहवार | कोटुंबिक नर तेहनें, ६. अहो देवानुप्रिय ! तुम्हैं, सोनैया त्रिण लक्ष ते, बोलै इम अवधार || श्री भंडार थकीज | ग्रहण करी शीघ्रहीज ॥ ७. सोनैया बे लक्ष कर, रजोहरण फूल पात्र जे ८. सोनया एक लक्ष दे, तेह प्रतं तेडाविये जनक आज्ञा इम देह || कुत्रिक कुत्रिक आपण थीज । आणी ए वर चीज ।। काश्यप- नापित जेह | *सुण सुखकारी, दीक्षा महोत्सव जमाली नां भारी । ( ध्रुपदं ) १. एकोबिक तिवारो, ओतो जमाली क्षत्रियकुमारो तसु जनक तण वच ताह्यो, गुण हरप संतोषज पायो । १०. करतल जोड़ी जिवारो, ओतो वचन करें अंगीकारो । शीघ्र भंडार थी सारो, ओतो त्रिण लक्ष लेई दीनारी ॥ ११. तिमहिज यावत देई भावै, इक लक्ष नापित तेड़ावै । बे लक्ष सुवर्ण करि माण, रजोहरण पात्र प्रति आणे || १२. काश्यप नापित तिवारो, जमाली ने कोबिक नर पास तेड़ायां, ओतो हर *लय : सुण चिरताली थारा पिता जिवारो । संतोषज पायां ॥ १. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी - इच्छामि णं अम्मताओ ! २४. हरणं च पडिमा च आणि कासवर्ग व सहायियं (२० २०१०३) 'वित्ति कृत्रिमपाताललक्षणं भूत्रयं तत्सम्भवि वस्त्वपि कुत्रिकं तत्सम्पादको य आपणी हट्टी देवातिना विकापणस्त स्मात् । 'कासवर्ग' ति नापितं ( वृ० प० ४७६ ) - ५. ए गं से जमालिस सत्तिवकुमार पिता कोबियपुरिसे सहावेद सहायता एवं व्यासी ६. खियामेव भी देवापिया सिरपराओ तिष्णि समसहस्साई महाय 'सिरिधराओ' त्ति भाण्डागारात् ( वृ० प० ४७६ ) महरणं च ७. दोहि सपसहस्सेहि कुतियावनाओ डिग्गहं च आणेह ८. सय सहस्सेणं कासवगं सद्दावेह | ( श० ६ १८४ ) ६. तणं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वृत्ता समाणा हट्टतुट्ठा १०. करयल जाव (सं० पा० ) पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सिराओ तिहाई गति ११. दोहि सहस्वेहिविणारपहरणं पचिणेति सहयोग का स (०१ / १०५) १२. तए णं से कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडुंबिय पुरिसेहि सद्दाविए समाणे तुट्ठे श० ६, उ० ३३, ढा० २१० २६३ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. स्नान वलिकर्म कीधा, जाव तनु शृंगार सीधा। जिहां जनक जमाली नों जाणी, तिहां आवै आवी पहिछाणी ॥ [सुण भव प्राणी, ए तो चरण-महोच्छव जाणी] १४. करतल जोड़ी तामो, जमाली नां पिता नैं शिर नामो। जय-विजय वचन सू बधायो, ओतो बोलै इहविध वायो। १५. अहो देवानुप्रिया जी ! मुझ आज्ञा देवो तुम ताजी। जे मुझ कार्य करिवू, तिको हरष धरी आदरिवू ॥ १६. जमाली क्षत्रियकुमारो, तास जनक तिहवारो। तेह नापित प्रति एमो, ओतो वचन वदै धर प्रेमो॥ १७. अहो देवानुप्रिया जी ! जमाली क्षत्रिय-सत नै समाजी। परम यत्न करि पेखी, चिहुं आंगुल वर्जी विशेखी ॥ १८. दीक्षा प्रयोग सुस्थापो, अग्रभूत केश प्रति कापो। लोच नैं अर्थे विशेषो, चिहं आंगूल राखो केशो। १३. हाए कयबलिकम्मे जाव (सं० पा०) सरीरे जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता १४. करयल जाव (सं० पा०) जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिययं जएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धावेत्ता एवं वयासी१५. संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिज्ज? (श०६/१८६) १६. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कास वगं एवं वयासी१७. तुमं देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवज्जे १८. निक्खमणपाओग्गे अग्गकेसे कप्पेहि । (श०९/१८७) 'अग्गकेसे' त्ति अग्रभूता: केशा अग्रकेशास्तान् (वृ०प०४७६) १६. तए णं से कासवगे जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुझे। २०. करयल जाय (सं० पा०) एवं सामी ! तहत्ताणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २१. सुरभिणा गंधोदएणं हत्यपादे पक्खालेइ, पक्खालेत्ता सुद्धाए अट्ठपडलाए पोत्तीए मुहं बंधइ, बंधित्ता २२. जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवज्जे निक्खमणपाओग्गे अगाकेसे कप्पेइ । (श०६।१८८) २३. तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं अग्गकेसे पडिच्छइ १६. काश्यप नापित तिवारो, जमाली नै जनक जिहवारो। इम वचन कह्य छतै ताह्यो, ओतो हरष संतोषज पायो। २०. करतल यावत एमो, स्वामी तहत्ति आज्ञा कहि तेमो। विनय करी सुविचारो, ओतो वचन करै अंगीकारो॥ २१. सगंध गंधोदक करिनै, कर पग पखाले पखाली नैं । निर्मल अठ पुड वस्त्र करीन, मुख बांधै मुख बांधी नैं ।। २२. जमाली क्षत्रियकुमर नैं, परम यत्न करि चित्त धर नैं। चिहुं आंगुल वर्जी दीक्षा योग्य, पवर केश कापे सुप्रयोग्य।। २३. जमाली क्षत्रियकुमारो, ओतो तास माता तिहवारो। हंस लक्षण पट शाटक करीन, अग्र गहै सुग्रही नैं ।। सोरठा २४. उज्जल हंस सरीस, अथवा श्वेतज हंस नां। चिह्न रूप सुजगीस, हंस लक्षण कहियै तसु ।। २५. शाटक जे पट रूप, पट-शाटक कहियै तस् । शटन तणो तद्रूप, कर्ता पिण शाटक हुवै ।। २६. ते व्यवछेदन अर्थ, पट नों ग्रहण कियो इहां। वा शाटक तदर्थ, वस्त्र मात्र ते पृथुल पट ॥ वा०-पडसाडएणं पटरूप शाटक ते पट शाटक । शटन ते वस्त्र, तेहनों करणहार पिण शाटक कहिये। ते व्यवछेदन अर्थे पट नों ग्रहण कयूं । अथवा शाटक ते वस्त्र मात्र ते पृथुल विस्तारवंत पट कहिये ते भणी पट-शाटक जाणवो। २७. सुगंध गंधोदके न्हाली, तिके केश पखालै पखाली। अग्र प्रधान करी पेखो, वर श्रेष्ठ करी सूविशेखो। २४. 'हंसलक्खणेणं' शुक्लेन हंसचिह्नन वा (वृ०प० ४७६) २५,२६. 'पडसाडएणं' ति पटरूप: शाटक: पटशाटकः, शाटको हि शटनकारकोऽप्युच्यत इति तद्व्यवच्छेदार्थ पटग्रहणम्, अथवा शाटको वस्त्रमात्रं स च पृथुल: पटोऽभिधीयत इति पटशाटक: (व०प० ४७६) २७. सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेइ, पक्खालेत्ता अग्गेहि वरेहि 'अग्गेहि' ति 'अय्यः' प्रधानः (वृ० प० ४७६) २८. गंधेहिं मल्लेहिं अच्चेति, अच्चेता 'सुद्धे वत्थे' बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडगंसि पक्खिवति, पक्खिवित्ता २८. गंध नै फून माल करीने, तिके केश अ, अर्ची नैं। शुद्ध वस्त्रे बांध बांधी नैं, रत्नकरंड प्रक्षेप प्रक्षेपी नैं। २६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. हार मोत्यां रो उदक नीं धारो, सिंदुवार तरु विशेष विचारो । के कहे निर्गुदीनां फूलो, तिके उजल अधिक अतूलो । ३०. छेदी मोती नीं मालो, जेवी दीसे तेहवा आंसू न्हालो । सुत - विरह दुःसह चित डोलै, आंसू मूकती इम बोले ।। ३१. ए जमाली क्षत्रियकुमारो, तेह्नां अग्र केश वस्तु सारो । वर मदन त्रयोदशी आदि, घणी तिथि विषे सुसंवादि ॥ ३२. पर्व दीवाली प्रमुख विषेहो, वली वह उत्सव विषे एहो । ते प्रिय जन-संगम समुदायो, कौमुदी प्रमुख कहिवायो || ३२. यज्ञ नागादि पूजा कहो, छग इंद्र महोत्सवादि विषेहो । एकेण तणुं सुवमासी मोने अपच्छिम दर्शण बासी || सोरठा ३४. अपच्छिम इहां अकार, पश्चिम छेहलो छेहलो सार केश केश नं ३५. दर्श अमंगल टालण नैं हुस्यै दर्श नं एह. जमाली नां केशा देखवे जेह, दर्शण दीठो २६. वा पश्चिम छेड़ो नाहि, बारवार ए जमाली नों ताहि, मुझनें दर्शण थायसे || सुन वा० - नहीं पश्चिम छेहड़ो ते अपश्चिम कहिये । एतले बार-बार करिकै जमालीकुमार नों दर्शन ए केश देख्थे छते थास्य, संभारिवा थी । २७. एवं कहीने तेहो, एतो ओसीसामूल विषेहो । स्थाये केशों ने जियारो, आतो मोह वा मात जिरो ॥ ३. जमाली क्षत्रियकुमारो तमु मात पिता तिहारो दूजी वार उत्तर दिश स्हामो, सिंहासन रचावै अभिरामो ॥ सोरठा ४१ पशमवंत सुकुमाल, सुरभिगंध रक्त वस्त्र रुमाल करी ने गाव उत्तर दिशि । ३९. उत्तरावक्रमणक होय, उत्तरवो जेह थकी अवलोय, त्यां बेसाड़े सुत भणी ॥ *लय : सुण चिरताली थारा केशां शिर ४०. क्षत्रिय-सुत जमाली ने रूपा सोना नां कलश करी । स्नान करावे सुचंगो, स्नान करावी ने चूहे अंगो || अरथ । तणो ॥ प्रधान प्रलू तणां । तो ॥ केश थी। विशाल । लूहीनें ॥ २६. हार-वारिधार - सिंदुवार 'सिंदुवार ति वृक्षविशेष निर्गुण्डीति केचित् तत्कुसुमानि साराणि तानि च शुक्लानीति ( वृ० प० ४७६) ३०. णिमुताबलिगालाई ववियोगसहाई जंपू विगम्यमाणी विणिम्यमाणी एवं बवासी अहं जमालिस सतिपकुमारस्य बहुसु ३१. एस तिहीसु य 'एम' ति एतत् अबकेशवस्तुतिही मदनत्रयोदश्यादितिथिषु ३२. पाणी व उत्सवेसु व 'परणी प' तिपणीच कार्तिकवादि 'उस्सवेसु य'त्ति प्रियसङ्गमादि महेषु (००४०६) ३३. जण्णेसु य छणेसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सति 'जन्नेसु य' त्ति नागादिपूजासु 'छणेसु य'त्ति इन्द्रवाद लक्षणेषु (२०१०४७६) ३४. 'अपच्छिमे' त्ति ति अफारस्यामंग परिहारात्वात् पश्चिमं दर्शनं भविष्यति (१०५०४०७) २५ एतत् केशदर्शनपनीतशास्वस्य जमालिकुमारस्व ( वृ० प० ४७७ ) ३६. अथवा न पश्चिम पौनःपुन्येन जमालकुमारस्य दर्शनमेतद्दर्शने भविष्यतीत्यर्थः ( वृ० प० ४७७ ) यद्दर्शनं ३०. कद्दूकसीमूले बेति । ति ( वृ० १०४७६) ४१. ३. लए तरस जनाविरसबत्तियकुमारस्त अम्मापियरो दोच्च पि उत्तरावककमणं सीहासण श्यावेति ३६. 'उत्तरावक्कमणं' ति उत्तरस्यां दिश्यपक्रमणं - अवतरणं पात्र उत्तरापक्रमणम् उत्तराभिनुषं (५० ५० ४००) ४०. जमालिस त्तियकुमारा सेवाची पहिल व्हावेत हाता ( ० ६ / १५९) लता 'साहिति वर्ष सुश्वेश्व ( वृ० प० ४७७ ) सुरभीए बंधकासाईए गापाई जूति कुमालाएं'तिमा सुकुमाया चे कासाइि गन्धप्रधानया कषायरक्तया शाटिकयेत्यर्थः ( वृ० प० ४७७ ) श० ६, उ० ३३, ढाल २१० २६५ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. सरस तत्काल नों पस्यो जेह, गोशीषं ते प्रधान चंदन करीनें, गात्र प्रते ४३. नासिका नै निःस्वासज वाय, तेणे करी उडे कंपाय । अति ही हलुओ वस्त्र विचारी, ते तो चक्षु ने आनंदकारी ॥ ४४. प्रवर वर्ण फर्श सहित न्हालो, हय-लाल थी अधिक सुहालो । अत्यंत धवल उज्जासं, सुवर्ण खचित बिहुं छेहडा जासं ॥ ४५. मोटां योग्य उज्जल हंस सरिखो, अथवा हंस नां रूप सरिखो । एहवा पट्ट शाटक सुखदाय पहिरावे पहिराबी ताय ॥ ४६. अठारंसरियो हार, पहिरा अधिक उदार । वलि नवसरियो अदहार पहिरावे पहिरावी सार ।। ४७. इम जिम सुरियाभ ने जाणी, अलंकार तिमहिज पिछाणी । नानाविध रयण संकट उत्कृष्टं, वारु मुकुट पहिरावै सुइष्टं ॥ सोरठा ४८. सुरिया सुर सोय अलंकार पहिर्या तिमज इहां कहियो अवलोय, रायप्रयेगी थी कहूं ।! ४९. विचित्र मणी में ताहि, पहिरावै एकावली । इम मुक्तावलि ताहि, केवल मुक्ताफलमयी || सुवर्ण- मणिमय शोभती। माला केवल रत्न नीं ॥ ५०. कनकावलि कहिवाय, रत्नावली सुहाय, ५१ अंगद केयूर दोय, तास विशेष सुजोय, चंदन तेह | सीपे लीपी ने ॥ ५२. नाम कोष ₹ मांहि, इहां जुदा कह्या ताहि, ५३. कटक तिको अवलोय, एकार्थ ए आखिया । फेर आकार न जाणं ॥ कलाचिका आभरण जे। त्रुटित बहिरखा होय, कटिसूत्र कणदोरो वली ॥ ५४. हस्तांगुलि दश देख, दीपंती सुवर्ण-सांकल पेस, हिय-गेहणो ५५. वच्छा-सूत्रज बाहू नां आभरण जे । जुदा कह्या किण कारणें ॥ २६६ भगवती-जोड़ एह, पाठांतर का संकल ए शुभ रेह, उत्तरासंग जिम दश वक्ष - सूत्र मुद्रिका | ए ॥ में । वृत्ति पहिरिई ॥ ४२. सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलपति अनिता ४३. नासा निस्सासवाव 'नासा' त्यादि नासानिश्वासवातवाह्यमति लघुत्वात् चक्षुर्हरं - लोचनानन्ददायकत्वात् । ( वृ० प० ४७७ ) ४४. वण्ण-फरिसजुत्तं हालात धवलं कणखचितंतकम्मं ति प्रधानवर्णस्पर्शमपर्थः 'बन्नफरिस जुत" हयलालायाः सकाशात् पेलवं मृदु अतिरेकेण - अतिशयेन यत्तत् तथा कनकेन खचितं मण्डितं अन्तयोः - अंचलयोः कर्म - वानलक्षणं यत्तत्तथा । ( वृ० प० ४७७ ) ४५. महरिहं हंसलक्खणपडसाडगं परिहिंति परिहित्ता ४६. हार गित पिता अहार गिद्धति, पिता 'हार' ति अष्टादशसरिकं 'पिणद्धति' पिनह्यतः पितराविति शेषः 'अद्धहार' ति नवसरिकम् ( वृ० प० ४७७ ) ४७. एवं जहा सूरियाभस्त अलंकारों व जा (सं० पा० ) चित्तं रयणसंकडुक्कडं मउडं पिद्धेति रत्नसंकटं च तत्कटं च - उत्कृष्टं रत्नसंकटोत्कटं ( वृ० प० ४७७) ४८. रायपसेणइयं सूत्र २८५ ४६. एवालि पति मुतायत गति कवी विचित्रमणिरुमयी मुक्तावली - केवल मुक्ताफलमयी । ( वृ० प० ४७७) ५०. रयणावलि पिणढेंति कनकावली - सौवर्णमणिकमयी रत्नावली -रत्नमयी ( वृ० प० ४७७ ) ५१. अंगवाईराई अङ्गदं रं बाह्याभरणविशेष ( वृ० प० ४७७ ) ५२. एतद्यपि नामको एकता सबाजीहा कारविशेषाद्भेदोऽवमन्तव्यः ( वृ० प० ४०७) ५२. कडवाईडिया कडिनुस कटकं कलाचिकाभरणविशेषः त्रुटिकं - बाहुरक्षिका ( पृ० प० ४७७ ) ५४. दस मुद्दाणंतगं विकच्छसुत्तगं दशमुद्रिकानन्तकं - हस्ताङ्ग लीमुद्रिकादशकं सूर्य हृदयाभरणभूतमु (२००४) ५५. बेच्छासुत ति पाठान्तरं तत्र कलिकासूत्रम्उत्तरासंगपरिधानीयं संकलक ( वृ० प० ४७७ ) वक्ष - Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. मादल नैं आकार, मुखी कहिये मादलो। ५६. मुरवि कंठमुरविं फुन कंठमुखी सार, गेहणुं तेह गला तणुं । मुरवी-मुरजाकारमाभरणं कण्ठमुरवी-तदेव कण्ठासन्नतरावस्थान (वृ०प०४७७) ५७. पालंब जे पहिछान. कहियै छै ए झंबणो। ५७. पालंब कुंडलाइं चूडामणि कुंडल पहिर्या कान, चूड़ामणि शिर सेहरो ।। प्रालम्ब---झुम्बनक (वृ० प० ४७७) ५८. वाचनांतरे वान, वर्णक ए आभरण न । ५८. वाचनान्तरे त्वयमलंकारवर्णकः साक्षाल्लिखित एव सूत्र विषे सुविधान, दीसै छै साक्षात ए। दृश्यत इति (वृ० प० ४७७) ५६. *घणुं वखाण स्यूं कीजै, गंथिम सूत्रे करि माल गूंथीजै । ५६,६०. कि बहुणा? गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघातिमेणं वेढिम वींटी नैं निपजाई माला, पुप्फ लंबूसकादि विशाला।। इह ग्रन्थिम-ग्रंथननिर्वृत्तं सूत्रग्रथितमालादि वेष्टिमं ६०. पूरिम वंश शिलाकादी पोई, हिवै संधातिम अवलोई । -वेष्टितनिष्पन्नं पुष्पलम्बूसकादि पूरिमं-येन वंशमाहोमांहि नालिका करेह, नालिक गूंथी माला निपावेह ।। शलाकामयपजरकादि कूर्चादि वा पूर्यते संघातिम तु यत्परस्परतो नालसङ्घातनेन सङ्घात्यते (वृ०प० ४७७) ६१. ए चिहं विध माला करि सोय, कल्प वृक्ष नी पर अवलोय। ६१. चउब्बिहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अलंकियकल्प वृक्ष फल करि शोभेह, तिम अलंकृत विभूषित करेह ।। विभूसियं करेंति। (श० ६।१६०) वा०-वाचनांतरे वली ए अधिक दीस छै---'दद्दरमलयसुगंधि- वा०-वाचनान्तरे पुनरिदमधिकं.""दृश्यते, तत्र च दरमलगंधिएहि गायाई भुकुंडेंति' त्ति। एहनों अर्थ-तिहां दद्दर अनं मलय नामैं बिहं ____ याभिधानपर्वतयोः सम्बन्धिनस्तदुद्भूतचन्दनादिद्रव्यजत्वेन पर्वत संबंधी तेह थकी ऊपनां चंदनादि द्रव्यजपणे करी जे सुगंध, तेहनी गंधिका ये सुगन्धयो गन्धिका-गन्धावासास्ते तथा, अन्ये त्वाहुःते वासना, तेणे करी। वली अनेरा आचार्य इम कहै छ–दईर ते वस्त्र करी दईर:-चीवरावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालिता बांध्यो कुंडिकादिक भाजन नों मुख, तेणे की गाल्यो अथवा तेहने विषे पचायो स्तत्र पक्वा वा ये 'मलय'त्ति मलयोद्भवत्वेन मलयजस्यजे । मलयगिरि नै विषे ऊपज करि मलयज----श्रीखंड संबंधी सुगंध-गंधिका श्रीखण्डस्य सम्बन्धिन: सुगन्धयो गन्धिका-गन्धास्ते तथा नीं वासना, तेणे करी गायाई-गात्र प्रत भुकुंडेंति अर्थात् उद्धृलै -लेपन करै। तैर्गात्राणि 'भुकुंडेंति' त्ति उद्भूलयन्ति (वृ० प० ४७७) ६२, ए दोयसौ दशमीं ढालो, तिण में आखी वात विशालो। चरण लेवा जमाली थयो त्यारी, जनक करै महोत्सव भारी॥ ढाल : २११ १. जमाली क्षत्रिय कंवर, तास जनक तिहवार । कोटविक नर तेड़ने, इम कहै वच अवधार ।। २. देवानुप्रिय ! शीघ्र ही, अनेक सैकड़ा थंभ । तेह वि लीला करी, रही पूतल्यां रंभ ॥ वा०-वाचनांतरे वलि ए इम दीसै छै--अब्भुग्गय-सुकयवइरवेइय-तोरणबररइयलीलट्रियसालभंजियागं ति। तिहां अब्भुग्गय-ऊंची सुकय-सम्यक् *लय : सुण चिरताली थारा १. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुबि यपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी२. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखभसयसण्णिविट्ठ लीलट्ठियसालभंजियागं शालिभजिका:-पुत्रिकाविशेषाः वृ० ५० ४७७) वा०-वाचनान्तरे पुनरिदमेवं दृश्यते"तत्र चाभ्युद्गतेउच्छिते सुकृतबज्रवेदिकायाः सम्बन्धिान तोरणवरे रचिता १. अंगसुत्ताणि भाग २ श०६।१६० के टि०१० में 'विकच्छसुत्तगं' के स्थान पर वृत्ति के दो पाठान्तर उद्धृत किये हैं-वच्छसुत्तं और वेकच्छसुत्तं । जयाचार्य ने इस स्थान पर वच्छासुत्तं पाठ रखा है। श० ६, उ० ३३, ढाल २१०, २११ २६७ Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारे कीधी वइरवेइय- वज्र नीं वेदिका संबंधी तोरण वररइय-प्रधान तोरण विषे रची साजिपा लीला करी रही तत्वां जेहन विषेतिका दूहा ३. जिम रायप्रश्रेणी नैं विषे तेह तणुं वर्णक का ते ४. जाव मणि रत्नां तणी, सखर तेणे करी सहीत . प्रवर वा० - विमाण नुं वर्णक तिम पालखी नुं वर सूर्याभ विमाण । इहां पिण जाण ॥ घंटिका जाल । पालखी न्हाल ॥ वर्णक ते इम । गीतकछंद ५. ईहामृगा ते वरगडा फुन वृषभ हा नर मगर ही पंखी वली वालग्ग अहि वा स्वापदा अर्थ उभय ही । ६. किन्नर सुरा मृग सरभ चमरज गज प्रवर वन नी लता । ए सर्व चित्रामे सुचित्रित सेविका रचियं रता ॥ ७. स्तंभ विषे स्थापी व नीं वर वेदिका करि परिगता । इह कारणे अभिराम ते, रमणीक देख्यां चितरता ॥ ८. विद्याधरांनीं श्रेणि यमलज, युगल द्वय स्त्री पुरुषहो । तिणहीज यंत्रे करीनें ते, युक्त सिवका छै वही ॥ १. अर्ची हजारों तणो माला आवली जे विये । फुन रूप सहस्रगमंज सहित सुदीप्यमानज जन असे ॥ १०. अत्यर्थ करि फुन दीप्तिमानज तेह छै अति दीपती । वलि चक्षु लोचन लेस तेहनुं, अर्थ कहिये वृत्ति थी । ११. चक्षुतिका जसु देखवे करि विलपती इव से हुवे । श्लिष्यती देवदा योग्यपणे करी आनंद अति ही अनुभव ॥ १२. सुखकारियो छे फर्श जेहनुं, रूप शोभा सहीत ही । घंटावली चलते छते तसु, मधुर मनहर स्वर वही ॥ १३. शुभ कांत देखण योग्य जे, फुन निपुण पुरिसे ओपिता । देदीप्यमानज मणि रतन नीं, पटिका वृंद परिखिता ॥ सोरठा १४. आयो ए विस्तार, रायप्रश्रेणि सूत्र वाचनांतरे सार, थी । दीस खे साक्षात सहु || हा १५. प्रवर पालखी प्रति पुरुष सहस्र उपाड़े जेह ते स्थापो स्थापी करी, करी, मुझ आज्ञा पेह ॥ २६८ भगवती जोड़ लीलास्थिता शालभञ्जिका यस्यां सा तथा तां ( वृ० प० ४७७ ) ३. जहा रायष्यसेइज्जे (सू० १२४) निमाणवणओ ४. जाव मणिरमणपंडि ५६. हामिसरन नरमन रविव। लकिन्नरस्थसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं ईहामृगावृका: ऋषभाः वृषभाः व्यालकाः श्वापदा भुजंगा वा किन्नरा - देवविशेषाः रुरवो — मृगविशेषाः ( वृ० प० ४७७,४७८) रिमवाभिरामं स्तम्भेषु उद्गता--- निविष्टा या वज्रवेदिका तथा परिगता - परिकरिता अत एवाभिरामा च रम्या या सा ७. ( वृ० प० ४०८ ) ८. विज्जाहर जमलजुयलजंतजुत्तं पिव' विद्याधरयोर्यद् यम श्रेणी युगलंयं तेनेव यन्त्रेण ताम् सञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाइयरूपेण युक्ता वा सा तथा ( वृ० प०४७०) १. अत्रीसह मालिनीय' अचिःसहखमावा:दीप्तिसहस्राणामावल्यः सन्ति यस्यां सारूवगसहस्सकलियं 'भिसमाणं' दीप्यमानां ( वृ० प० ४७८ ) १०,११. 'भिभिसमाणां' अत्यर्थं दीप्यमानां 'चक्खुलोयणलेस' चक्षुः कर्तृ लोकने – अवलोकने सति लिशतीव - दर्शनीयत्वातिशयात् श्लिष्यतीव यस्यां सा तथा तां ( वृ० प० ४७८ ) १२. 'सुहफासं सस्सिरीयरूवं' सशोभरूपकां 'घंटावलिचलियमहुरमणहरसरं ' ( वृ० प० ४७८ ) १३. सुहं कंतं दरिसणिज्जं निउणोवियमिसिमिसंत मणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं ( वृ० प० ४७८ ) — १४. वाचनान्तरे पुनरयं वर्णकः साक्षाद् दृश्यत एवेति । (बु०प०४७८) १५. पुरिससहसयाहिणि सीयं उपवेह उबवेता मम एयमाणत्तियं पच्चपिणह । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. कोडविक तिण अवसरे, जावत सूपै आण। १६. तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणंति । ___ शिविका पूर्व कही तिमज, त्यार करी सुविधान ।। (श० ६।१६१) ___ *चारू जमाली नां चरणमहोत्सव सांभलो । (ध्रुपदं) १७. हां रे लाला, जमाली क्षत्रिय-सुत तदा, हारे लाला केशालंकार करेह । १७. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे केसालंकारेणं हां रे लाला, केश तेहिज अलंकार छै, 'केसालंकारेणं' ति केशा एवालङ्कार केशालङ्कारस्तेन हां रे लाला, केशालंकार कह यु एह ।। (वृ० ५० ४७८) सोरठा १८. यद्यपि केशज तास, पहिला जे काप्या हंता । १८. यद्यपि तस्य तदानीं केशा: कल्पिता इति केशालङ्कारो इण हेतू थी जास, सम्यक ए नहिं संभवै ।। न सम्यक (वृ० प० ४७८) १६. तथापि केइय केश, रह्या हंता जे तेहन । १६. तथाऽपि कियतामपि सद्भावात्तद्भाव इति अलंकार कह यु एस, प्रथम अर्थ इम वृत्ति में । (वृ०प० ४७८) २०. तथा केश नं सार, अलंकार पुष्पादि जे । २०. अथवा के शानामलकार: पुष्पादि केशालंकारस्तेन ते केशालंकार, करी विभूषा तिण करी ॥ (वृ० प० ४७८) २१. *वस्त्र नै अलंकारे करी, माला नै अलंकारेह । २१,२२. वत्थालंकारेणं, मल्लालंकारेणं आभरणालंआभरण अलंकारे करी, ए चिहं अलंकार करेह । कारेणं-चउविहेणं अलंकारेणं अलंकारिए समाणे २२. चिहुं अलंकार कीधे छते, प्रतिपूर्ण अलंकार । पडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अब्भुठेइ अब्भुठेत्ता ____ गेहणा पहिरी सिंहासन थकी, ऊठ ऊठी तिहवार ।। २३. सिवका प्रतै जे प्रदक्षिणा, करतो छतो मन रंग । २३. सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणे सीयं दुरुहइ दुरुहित्ता सिवका विषे चढे ते तदा, सिवका चढी नै सुचंग ।। २४. सखर सिंहासन नैं विषे, पूरब साम्हो पेख । २४. सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे सण्णिसणे । मुख करीनै बेस तदा, मन मांहै हरष विशेख ।। (श० ६।१६२) २५. जमाली क्षत्रियकुमर नीं, माता करीने स्नान । २५. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माता व्हाया जाव शरीर शृंगार नैं, वस्त्र गेहणा परिधान ।। कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा २६. हंस लक्षण पट शाटक ग्रही, सिवका नै प्रति तेह ।। २६. हंसलक्खणं पडसाडगं गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीअनुप्रदक्षिण करती थकी, चढ चढी नै जेह ।। करेमाणी सीयं दुरुहइ, दुरुहित्ता २७. जमाली क्षत्रियकुमार मैं, दक्षिण पास देख । २७. जमालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणप्रवर भद्रासन नैं विषे, आय बैठी सुविशेख ।। वरंसि सण्णिसण्णा। (श० ६।१९३) २८. जमाली क्षत्रियकुमार नीं, धाय माता तिहवार । २८. तए णं जस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मधाती स्नान करी सुविशेख थी, यावत तनु शृंगार ।। व्हाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्धाभरणालंकिय सरीरा २६. रजोहरण पात्रा ग्रही, सिवका प्रति सविशेख । २६. रयहरणं पडिग्गहं च गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीअनुप्रदक्षिणा करती थकी, चढ चढी संपेख ।। करेमाणी सीयं दुरुहइ, दुरुहित्ता ३०. जमाली क्षत्रियकुमार नें, डावै पासै चित ढाय । ३०. जमालिस्स खत्तियकुमारस्स वामे पासे भद्दासणवरंसि प्रवर भद्रासण नै विषे, बैठी छै धाय माय ।। सण्णिसण्णा। (श० ६।१६४) ३१. जमाली क्षत्रियस्त नै तदा, पुठै इक तरुणी प्रधान । ३१. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्टओ एगा शृंगार रस तणो घर जिसो, मनहर वेष सुजान ।। वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा शृंगारस्य-रसविशेषस्यागारमिव (वृ० ५० ४७८) ३२. गमन प्रमुख विषे चतुर ते, जावत रूप आकार । ३२. संगयगय जाव (सं० पा०) रूवजोव्वणविलासयोवन वय नै विलास जे, तिण करि सहित उदार ।। कलिया *लय : ऐसी जोगणी री जोगमाया श०६, उ. ३३, ढाल २११ २६६ Jain Education Intemational Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३३. जाव शब्द में जाण, हसिवा भणिवा में चतुर । फुन चेष्टित पहिछाण, विलास नेत्र विकार जे ।। ३४. भणिवू मांहोमांय. संलाप कहिये तेहनें । उल्लाप जे कहिवाय, वक्रोक्ति वर्णन भणी।। ३५. *आसन स्थान गमन वली कर 5 नेत्र विकार । तिणे करीनै सहीत ही, तेह विलास विचार ।। ३६. सुन्दर थण कह यूं सूत्र में, इण वच करि सुप्रयोग्य । जघन्य वदन कर चरण ही, लावण्य वंछवा योग्य ।। ३७. रूप आकार कहीजिय, तरुणपणो ते योवन्न । ___ गुण ते मृदु स्वर प्रमुख ही, तिण करि सहित सुजन्न ।। ३८. बरफ रूपो ने कुमोदनी, मचकुन्द चंद सरीस । कोरंट तरु नां फलां तणी, माला सहीत जगीस ।। ३३. हसिय-भणिय-चेट्ठिय-विलास इह च विलासो नेत्रविकारः (वृ० प० ४७८) ३४. संलाब-निउण' जुत्तोवयारकुसला संलापो-मिथोभाषा उल्लापस्तु काकुवर्णनं (वृ०प० ४७८) ३५. स्थानासनगमनानां हस्तभ्रूनेत्रकर्मणां चैव उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात् । (वृ०प०४७८) ३६. सुंदरथण-जघण-वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण लावण्यं चेह स्पृहणीयता (वृ० प० ४७८) ३७. रूपं-आकृति:यौवनं- तारुण्यं गुणा मृदुस्वरत्वादयः (वृ०प० ४७८) ३८. हिम-रयय-कुमुद-कुंदेंदुप्पगासं सकोरेंटमल्लदामं सकोरेण्टकानि-कोरण्टपुष्पगुच्छयुक्तानि माल्यदा मानि-पुष्पमाला यत्र तत्तथा (वृ०प० ४७८) ३६. धवलं आयवत्तं गहाय सलीलं 'ओधरेमाणी-ओधरेमाणी चिट्ठति । (श० ६।१६५) ४०,४१ तए णं तस्स जमालिस्स (खत्तियकुमारस्स ?) उभओ पासिं दुवे वरतरुणीओ सिंगारागार जाव (सं० पा०) कलियाओ ३६. एहवा धवल जे छत्र ने, ग्रहण करी लीला सहीत । शिर ऊपर धरती छती, तिष्ठे ते रमण सुरीत ।। ४०. जमाली क्षत्रियकुमार ने, उभय पास तिहवार । तरुणी उभय सुप्रधान ही, शृंगार रस नो आगार॥ ४१ जाव यौवन गुण सहीत ही, उभय चामर ग्रहि हाथ । तेह चामर छै केहवा, सांभलजो अवदात ॥ ४२. नाना मणी कनक रत्न में, निर्मल मोटा योग्य । उज्जल तपाया सोना तणो, विचित्र दंड आरोग्य ।। ४२. नाणामणि-कणग - रयण-विमलमहरिहतवणिज्जुज्जल विचित्तदंडाओ सोरठा ४३. कनक तपनीय मांय, स्य॒ विशेष इहां आखियो। कनक पीत कहिवाय, रक्त वर्ण तपनीय जे ।। ४४. *देदीप्यमानज दीपतो, शंख अनै अंक रत्न । फूल मचकुन्द तणो वलि, जल नां फुहारा सुजन्न ।। ४३. अथात्र कनकतपनीययोः को विशेषः ? उच्यते, कनक पीतं तपनीयं रक्तमिति (वृ० प० ४७८) ४४. चिल्लियाओ, संखक-कुंद-दगरय'चिल्लियाओ' त्ति दीप्यमाने "इह चांको रत्नविशेषः (वृ०प०४७८) ४५,४६. अमय-महिय-फेणपुजसण्णिकासाओ धवलाओ चामराओ गहाय सलील वीयमाणीओ-वीयमाणीओ चिट्ठति । (श०६।१६६) ४५. अमृत – मथियां थका, तेहनां जे फेण नी राशि । तेह सरीखा सफेत जे, चामर उभय विमासि ।। ४६. एहवा जे चामर ग्रही करी, लीला सहित बिहं पास। वीजती वीजती रमणि बिहुँ, तिष्ठै छै आण हुलास ॥ *लय : ऐसी जोगणी री जोगमाया १. गाथा ३३ एवं ३४ के प्रतिपाद्य से सम्बन्धित दो पद्य सक्त के रूप में प्राप्त होते हैंहावो मुखविकारः स्याद् भावस्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ।। अनुलापो मुहुर्भाषा प्रलापोऽनर्थक वचः । काक्वा वर्णनमुल्लापः संलापो भाषणं मिथः ॥ १. वृत्ति में इस स्थान पर संलावुल्लावनिउण पाठ है। २. इस गाथा में हिम शब्द से पाठ शुरू होता है । अंग सुत्ताणि में इसमें पहले 'सरदब्भ' शब्द और है। यह शब्द कई आदर्शों में नहीं है । जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में भी यह नहीं रहा होगा, इसलिए इसकी जोड़ नहीं है। २७० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स उत्तर पुरस्थिमे णं एगा वरतरुणी सिंगारागार४८,४६. जाव (सं० पा०) कलिया सेतं रययामयं विमल सलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं गहाय चिट्ठइ। (श० ६।१९७) ४७. जमाली क्षत्रियकुमार ने, ईशाण कूण तिवार । एक तरुणी सुप्रधान ते, शृंगार रस नों आगार ।। ४८. जाव योवन गुण सहीत ही, श्वेत रूपा नों उदार । निर्मल जल करिनैं भरियो, मत्त गज महा मुखाकार! ४६. तेह समान भंगार ते, पाणी नों झारो पिछाण । तेह कलश प्रति ग्रही करी, तिष्ठ ए रमण ईशाण।। ५०. जमाली क्षत्रियकुमार ने, अग्नि कूणे तिहवार । एक तरुणी सुप्रधान ते, शृंगार रस नों आगार । ५१. जाव जोवन गुण सहीत ही, विचित्र कनक नों दंड। ताल वंत वीजणा प्रतै, ग्रही नैं तिष्ठ सुमंड ॥ ५२. जमाली क्षत्रियकमार नों, जनक सेवग नैं बोलाय । इम कहै अहो देवानुप्रिया ! शीघ्र कार्य करो जाय ।। ५३. सरीखा पुरुष सरीखी त्वचा, सरीखी वय सुसंगीत । सरीखो लावण्य आकार छ, रूप गुणे करि सहीत ।। ५४. एक सरीखा दीमै एहवा, आभरण वस्त्र उदार । तिणरोगहीत परिकर जिणे, तरुण कोडुबिक धार ।। ५०. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्म दाहिण पुरथिमे णं एगा वरतरुणी सिंगारागार ५१. जाव (सं० पा०) कलिया चित्तकणगदंडं तालवेंट गहाय चिट्ठइ। (श० ६।१९८) ५२. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! ५३. सरिसयं सरित्तयं सरिव्वयं सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वण गुणोववेयं ५४. एगाभरणवसण-गहियनिज्जोयं कोडुबियवरतरुण एक:-एकादश आभरणवसनलक्षणो गृहीतो निर्योग: -परिकरो यस्ते तथा (वृ० प० ४७६) ५५. सहस्सं सद्दावेह। (श०६।१६६) तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सरिसयं जाव (सं० पा०) सरित्तयं । ५६,५७. कोडंबियवरतरुणसहस्सं सद्दाति । (श०६।२००) तए णं ते कोडुबियवरतरुणपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडुबियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा हट्टतुट्ठा व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउय ५५. एहवा वर संहस पुरुष तेड़वियै, कोडंबिक तिहवार। जावत वचन अंगीकरी, शीघ्र सरीखा नर धार ।। ५६. जाव तेड़ावै सहस्र पुरुष नै, कोडंबिक तिहवार । जमाली जनक नां कोडिबिके, तेडायां हरष अपार ।। ५७. वलि संतोष पाम्या घणां, स्नान करी शुद्ध थाय । कीधा वलिकर्म वलि कोतूक किया, तिलक मषी प्रमुख ताय ।। ५८. मंगल कीधा विघ्न मिटायवा, प्रायश्चित्त सुप्रयोग। एक सरीखा गेहणा वस्त्र नैं, ग्रह्या परिकर निर्योग ।। ५६. जमाली क्षत्रियकुमार नों,जनक जिहां छै तिहां आय । करतल जाव वधावै ते तदा, बधावी कहै इम वाय ॥ ५८. मंगलपायच्छित्ता एगाभरणवसण-गहियनिज्जोया ६०. अहो देवानुप्रिया जी ! तुम्है, दीजै आदेश उदार । कार्य करिवा जोग जे, ते मुझ करिव सार ।। ६१. जमाली क्षत्रियकुमार नों, जनक तिको तिहवार । वर तरुण सहस्र कोटुम्बिक भणी,इहविध बोल विचार ।। ६२. तुम्है अहो देवानुप्रिया! न्हाया कृत जावत सुजोय । ग्रह्या निर्योग वस्त्राभरण जे, एक सरीखा पहिरी सोय ।। ६३. जमाली क्षत्रियकुमार नीं, सिवका उपाड़ो वहो सार । तब कोम्बिक जमाली नां जनक नों,वचन करै अंगीकार ।। ५६. जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छंति उ वागच्छित्ता करयल जाव (सं० पा०) वद्धावेत्ता एवं वयासी६०. संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हेहिं करणिज्ज । (श० ६।२०१) ६१. तए णं से जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स पिया तं कोडं वियवरतरुणसहस्सं एवं वयासी६२. तुब्भे णं देवाणुप्पिया! हाया कय जाव (सं० पा०) गहियनिज्जोया ६३. जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहेह । (श० ६/२०२) तए णं ते कोडुबियवरतरुणपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ता समाणा जाव पडिसुणेत्ता *लय ऐसी जोगणी री जोगमाया श० उ० ३३, ढाल २११ २७१ Jain Education Intemational Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. स्नान करि यावत जिणे,ग्रह्या निर्योग परिकर जेण। जमाली क्षत्रियकुमार नी, सिविका वहै शुभ श्रेण ।। ६५. दोयसौ में इग्यारमी, ढाल विशाल सुचंग। जमाली चरण लेवा भणी, त्यार थयो मन रंग ।। ६४. ण्हाया जाव एगाभरणवसण-गहियनिज्जोगा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहति । (श० ६।२०३) ढाल : २१२ १. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरिससहस्स वाहिणि सीयं दुरुढस्स समाणस्स २. तप्पढमयाए इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुब्वीए संपट्ठिया ३. 'अट्ठमंगलग' त्ति अष्टावष्टाविति वीप्सायां द्विर्व चनं मंगल कानि मांगल्यवस्तूनि (वृ० प० ४७९) ४. अन्ये त्वाः-अष्टसंख्यानि अष्टमंगलकसंज्ञानि वस्तूनि (वृ०प० ४७६) ५. तं जहा- सोत्थिय-सिरिवच्छ जाव [सं० पा०] दप्पणा दूहा १. तब जमाली क्षत्रिय-सुत, वहै जसु पुरुष हजार । एहवी वर सिविका प्रते, चढये छते अवधार ।। २. विवक्षित वस्तू मझे, प्रथमपण ते मंत । मंगलीक अठ-अठ क्रमे, मुख आगल चालंत ।। ३. अष्ट-अष्ट बे वार जे, अत्र शब्द आख्यात । वीप्सा विषेज द्विवचन, मंगल वस्तू ख्यात ।। ४. अन्य आचार्य इम कहै, अठ-अठ संख्यक जाण । आठ मांगलिक वस्तु जे, चालै आगीवाण ।। ५. अष्ट मंगल कहिये तिके, प्रथम साथियो पेख । श्रीवत्स यावत जाणवो, दर्पण अष्टम देख ।। सोरठा ६. जाव शब्द थी जोय, नंद्यावर्त निहालियै । __ बर्द्धमान अवलोय, तेह सराव कही जिये ।। ७. अन्याचार्य कहेह, पुरुषारूढज पुरुष ए। फुन अन्य इम आखेह, स्वस्तिक पंचक ए अछै ।। ८. फुन अन्य कहै प्रासाद, भद्रासण ने कलश फुन । मच्छयुग्म अहलाद, जाव' शब्द में पंच ए॥ *जी कांइ चरण लेवा नै संचर्यो, जी कांइ खत्रियकुंवर धर खंत । (ध्रुपदं) ६. तदनंतर चालै तदा जी काइ, पूर्ण कलश भंगार । जिम उववाई में विषे जी काइ, जाव गगन तल धार ॥ ६. णंदियावत्त-वद्धमाणग तत्र वर्द्धमानकं-शरावं (वृ० प० ४७६) ७. पुरुषारूढपुरुष इत्यन्ये स्वस्तिकपञ्चकमित्यन्ये (वृ० प० ४७६) ८. भद्दासण-कलस-मच्छ प्रासादविशेषमित्यन्ये (बृ० प० ४७६) ६. तदाणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं जहा ओववाइए (सू० ६४) जाव (सं० पा०) गगणतलमणुलिहंती. सोरठा १०. वाचनांतरे वाय, दीसै छै साक्षात ए। ते छै इहविध ताय, चित लगाई सांभलो ।। १०. 'जहा उववाइए' (सू० ६४) त्ति अनेन च यदुपात्तं तद्वाचनान्तरे साक्षादेवास्ति तच्चेदं (वृ० प०४७९) गीतक-छंद ११. वर दिव्य छत्र सहीत जे, पताक चामर सहित ही। फून रचित आरीसो जिहां, अतिहीज उच्चपणे रही। * लय: म्हारी सासूजी रै पांच पुत्र ११-१३. दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दंसण-रइयआलोय दरिसणिज्जा वाउद्धय-विजयवेजयंती य ऊसिया' गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुब्बीए संपविया । २७२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०–सह चामराभ्यां या सा सचामरा आदर्शो रचितो यस्यां साऽऽदर्श रचिता आलोकं-दृष्टिगोचरं यावद् दृश्यतेऽत्युच्चत्वेन या साऽऽलोकदर्शीया, ततः कर्मधारयः, 'सचामरा सणरइयआलोयदरिसणिज्ज' त्ति पाठान्तरे तु सचामरेति भिन्नपदं, तथा दर्शनेजमालेष्टिपथे रचिता-विहिता दर्शनरचिता दर्शने वा सति रतिदा-सुखप्रदा दर्शनरतिदा सा चासावा लोकदर्शनीया चेति कर्मधारयः। (वृ० प ४७६) १४. 'जहा उववाइए' (सू०६४) त्ति अनेन यत्सूचित तदिदं (वृ०प० ४७६) वड्यमय ५ १५. तदाणंतरं च णं वेरुलिय-भिसंत-विमलदंड 'भिसंत' त्ति दीप्यमानं (वृ० प० ४७६) १६. पलंबकोरंटमल्लदामोवसोभियं १७. चंदमंडलणिभं समूसियं विमलं आयवत्तं १२. जन निजर पहुंच ज्यां लगै, दीसै छ जे दृष्टी करी। पवने करी उड़ती छती, बिहं पास बेलघु ध्वज धरी॥ १३. एहवी विजय नी करणहारी वैजयंती ध्वज छती। नभतल प्रतेज उल्लंघती, अनुक्रमे आगल चालती॥ वा०—बिहुं पासे चामर सहित जिका तिका सचामर कहिये । आरीसो रच्यो छ जेहन विषे ते अदंसरइय कहिये । आलोक ते दृष्टिगोचर ज्यां लगे दीस छ अति ऊंचैपणे करि जिका, तिका आलोकदर्शनीया ध्वजा कहिये । ते भणी इहां कर्मधारय समासं करिवू-सचामरादसणरइयआलोय-दरिसणिज्जत्ति । पाठांतरे तु सचामरे ति भिन्नपदं । दर्शन जमाली नो दृष्टि पथ, तिण ने विषे रचित अथवा दर्शन नै विषे रतिदा कहिता सुख नी दाता ते दर्शणरतिदा कहिये । ते इसी आलोकदर्शनीया ध्वजा छ । इम कर्मधारय समास । १४. *इम जिम उववाई विषे, तिमहिज भणिवू सार । जाव आलोक करता थका, जय-जय शब्द उचार ।। गीतकछंद १५. तदनंतरं जे छत्र चाल, तास वर्णक जाणियै । वैडर्यमय देदीप्यमानज, विमल दंड वखाणियै ॥ १६. लंबायमानज वृक्ष कोरंट, तेहनां पुष्पदाम ही। तिण करी उपशोभितं, जे छत्र अति अभिराम ही ॥ १७. शशि तणं मंडल ते सरीख, उर्द्ध कीबूं विमल ही। आतपत्र तड़को टाल वा नैं, छत्र उज्जल निमल ही। १८. फून वर सिंहासण रत्न मणि नुं पायपीठ सुहामणं । निज पादुकायुग करी सहितज, दीसतूं रलियाम" ।। १६. प्रभु पूछनें जूजुआ कारज करै ते किंकर कह्या। विण पूछियां जे करै कारज, कर्मकर ते पिण वह्या।। २०. किंकर करमकर पुरुष पायक-वृंद वीट्यूं जलहलै । एहवं सिंहासण शोभतो, अनुक्रमे चालै आगलै ॥ २१. तदनंतरं बहु लट्ठिग्राहक, कुंतग्राहक जाणियै । चामर तणां जे ग्रहणहारा, पासग्राहक माणियै ।। २२. फुन धनुष ग्राहक पोथग्राहक, फलगग्राहक बहु जना । वलि पीढ ग्राहक वीणग्राहक, कुतुपग्राहक नर घना ।। सोरठा २३. चोवा नैं चंपेल, शतपाकादिक नां वली। मोगरेल फुन तेल, तास डाबड़ा कुतुप ते॥ २४. हडप्पग्राहक तेह, ग्राहक जे नाणां तणां । वा तांबूल अर्थह, भाजन पूगफलादि नां ।। २५. यथानुक्रमे जोय, आगल ए सह चालिया। वलि विशेष अवलोय, चाल ते कहियै हिवै। *लय : म्हारी सासूजी रे पांच पुत्र १८. पवरं सीहासणं वर मणिरयणपादपीढं सपाउया जोयसमाउत्तं १६,२०. बहुकिंकर - कम्मकर - पुरिस-पायत्त - परिक्खित्तं __ पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टियं । किंकराः-प्रतिकर्म प्रभोः पृच्छाकारिण: कर्मकराश्च तदन्यथाविधास्ते (वृ० प० ४७६) २१. तदाणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा चामर ग्गाहा पासग्गाहा २२. चावग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलगग्गाहा पीढग्गाहा वीणग्गाहा कूवग्गाहा २३. कुतुपः-तैलादिभाजनविशेषः (व०प०४७६) २४. हडप्पग्गाहा हडप्पो-द्रम्मादिभाजनं ताम्बूलार्थ पूगफलादिभाजनं वा (वृ० प० ४७६) २५. पुरओ अहाणुपुब्वीए संपट्ठिया। श०६, उ० ३३, ढाल २१२ २७३ Jain Education Intemational Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. तदनंतर बहु चोटी तणां जे गीतकछंद दंडग्राहक मुंडिता शिरमंडिका । धरणहारा, जटाधारी तुंडिका । २७. फूल मोर-पिच्छ तणां धारक, हास्यकारक फुल कह्या विग्रह तणां कारक वली, परिहास नो कारक वा ॥ २८. चाटूकरा प्रियवादना, कंदपिका केलीकरा । कुक्कुइया ते भांड अथवा भांड सरिखा नर धरा ॥ २६. क्रीड़ा कुतुहल वली रामत करे ते किडाकरा । वाजंत्र नैज बजावता फुन, गीत गावंता नरा ॥ ३०. वलि नाचता अति नृत्य करता, अन्य प्रति ही नचावता । अति हास्य करता हसै फुन जे अन्य प्रति ही हसावता || ३१. वलि विविध भाषा भाखता अरु सीख प्रति देता सही । संभलावता अमुक अमुको हस्ये पीर परार ही ।। ३२. फुन राखता अन्याव प्रति जे एह प्रथम उपंग' ही वर अर्थ आख्यो ते भाख्यो, जाव शब्द सुचंग ही ॥ प्रायज, एह सग जाणिये । पाठज, वृत्तिकार वखाणियै ॥ ३४. आलोक करता देखता, आरीसादिक वस्तु ने पति ३५. जय-जय ३३. कुन वाचनांतर विषे साक्षात दीसे प्रगट मंगल अर्थे मंगल अर्थ न्हाल | गज प्रमुख विशाल || शब्द प्रभता, अनुक्रम आगल ताय । चालता चित्त चूंप सूं मन में हरष अथाय || सोरठा २६. तथा अपर अधिकाय, तेहिज वाचनांतर विषे। जेह कहा वृत्ति मांय, हय गय रथ पय' वण्णओ ॥ गीतक छंद ३७. तदनंतर जे जातिवंतज, जे पुष्प बंधन स्थान शिर नां, ३८. अथवा विकस्वर पवर पुष्पज, तरमल्लिहायणाणं किंहाइक, तास लय: म्हारी सासूजी रे पांच पुत्र १. ओवाइयं सू० ६४ २७४ भगवती - जोड़ प्रवर माल्याधान ही । केश-समूह पिधान ही ॥ तेहवत तसु घ्राण ही । अर्थ हिव आण ही ॥ २. पदाति २६. तदाणंतरं च णं बहवे दंडिणो मुंडिणो सिहंडिणो जडिणो सि इंडिगो - शिखाधारिणः जटिणो— जटाधराः (बृ० प० ४७९) २७. पिछिणो हासकरा डमरकरा दवकरा पिठिषो— मयूरादिपिन्वाहिनः हासकरा मे हति डमरकरा -- विड्रवरकारिणः दवकरा:- परिहास - कारिण: ( वृ० प० ४७९ ) २८. चाबुक कंदपिया कोक्कुदया चाटुकराः प्रियवादिनः कंदरिया कामप्रधानकेलि कारिण: [: कुकुइया - भाण्डा: भाण्डप्राया वा ( वृ० प० ४७९ ) — २६. किड्डुकरा य वायंता य गायंता य ३०. गच्चंता य हसंता य ३१. भासंता य सासंता य सावेंता य 'साविता य' इदं चेदं भविष्यतीत्येवंभूतवचांसि श्रावयन्तः ३२. रखखता य अन्यायं रक्षन्तः ( वृ० प० ४०९) ३३. एतच्च वाचनान्तरे प्रायः साक्षादृश्यत एव ( वृ० प० ४७९) ३४. आलोयं च करेमाणा ( वृ० प० ४७९ ) ३५. जय-जय सद्दं पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्टिया । ३६. तथेदमपरं तत्रैवाधिकं ( वृ० प० ४७९ ) ३७. तयानंतरं च णं जच्चाणं वरमल्लिहाणाणं वरं माल्याधानं पुष्पबन्धनस्थानं शिरः केशकलापो येषां ते ( वृ० प० ४७९,४८०) ३८. अथवा वरमल्लिकाद्रवेग प्रवरविचकितकुसुमवद् घ्राणं - नासिका येषां ते तथा तेषां क्वचित् 'वरमस्त्रिहायणा' ति दृश्यते तच च ( वृ० प० ४८० ) ..... Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. तरो-वेगो बलं तथा 'मल मल्ल धारणे' ततश्च तरोमल्ली-तरोधारको बेगादिधारको हायन:-- संवत्सरो वर्त्तते ये गां ते तरोमल्लिहायना:-यौवनवंत इत्यर्थः (वृ० प० ४८०) ३६. तर वेग अथवा बल प्रबल तसू, धरणहारो छ सही। हायन संवत्सर वर्त्तव जसु, सखर योवन वय रही। वा०-तर कहितां वेग अथवा बल अनै मल्लि धातु ते धारण अर्थ में विषे ते भणी तर ते वेग-बल नों धरणहार, हायन कहितां संवत्सर बत्तै जे जेहने तेतरो 'मल्लिहायणा' कहिये, एतले योवनवंत इत्यर्थः ।। ४०. वर मल्लि भासणाणं किहांइक पाठ दीसै छै सही। वर माल्यवान इण कारणे हिज, दीप्तिवंता शोभही ।। वा०-वर कहितां प्रधान, मल्लि कहितां माल्यवान इण कारण थकीज भासणाणं कहितां दीप्तिमान । ४१. चंच्चुरित जे कुटिल गमनं, वा शुक-चांच तणी परै। जे वक्रता करि ऊर्द्ध था, चरण-उत्पाटन' करै ।। ४२. तेहीज ललित विलास नी पर, पुलित गमन-विशेष ही। विशिष्ट क्रमण क्षेत्र लंघन प्रवर गति सुउल्लास ही। ४०. वरमल्लिभासणाणं ति क्वचिदृश्यते, तत्र तुः प्रधानमाल्यवतामत एव दीप्तिमतां चेत्यर्थः (वृ० प० ४८०) ४३. क्वचित फून चंचरित ललितज, पुलितरूपा गति सही। चल चपलथीज अत्यंत चंचल, अधिक ही मनहर रही। ४४. हरिमेल नामै वनस्पति नं, मुकुल डोडो जाणिय । जे मल्लिका विकसर समी, तसु चक्र धवल पिछाणिय ।। ४१,४२. 'चंचुच्चियललिय पुलियविक्कमविलासियगईणं' ति 'चंचुच्चियं' ति प्राकृतत्वेन चञ्चुरितं-कुटिलगमनम्, अथवा चञ्चुः--शुकचञ्चुस्तद्वद्वक्त्रतया उच्चितम्-उच्चताकरणं पदस्योत्पाटनं वा (शुक) पादस्येवेति चञ्चुच्चितं तच्च ललितं क्रीडितं पुलितं च-गतिविशेष: प्रसिद्ध एव विक्रमश्च-विशिष्टं क्रमणं क्षेत्रलंघनमिति द्वंद्वस्तदेतत्प्रधाना विलासिता विशेषेणोल्लासिता गतियेस्ते (वृ०प०४८०) ४३. क्वचिदिदं विशेषणमेवं दृश्यते- 'चंचुच्चियललिय पुलियचलचवलचंचलगईणं' ति तत्र च चञ्चुरितललितपुलितरूपा चलानां- अस्थिराणां सतां चञ्चलेभ्यः सकाशाच्चञ्चला–अतीवचटुला गतिर्येषां ते (वृ०प० ४८०) ४४. 'हरिमेलमउलमल्लियच्छाणं' ति हरिमेलको वनस्पतिविशेषस्तस्य मुकुलं-कुड्मलं मल्लिका च -विचकिलस्तद्वदक्षिणी येषां, शुक्लाक्षाणामित्यर्थः (वृ०प० ४८०) ४५. 'थासगअमिलाणचामरगंडपरिमंडियकरीणं' ति स्था सका-दर्पणाकारा अश्वालंकारविशेषास्तरम्लानचामरैर्गण्डैश्च-अमलिनचामरदण्डैः परिमण्डिता कटिर्येषां ते (वृ० प० ४८०) ४६. तत्र मुखभाण्डकं—मुखाभरणम् अवचूलाश्च-प्रलंब मानपुच्छाः स्थासका: प्रतीताः 'मिलाण' त्ति पर्याणानि च येषां सन्ति ते। (वृ० प० ४८०) वा०-चमरी (चामर) गण्डपरिमण्डितकटय इति पूर्ववत्""क्वचित्पुनरेवमिदं दृश्यते -'थासगअहिलाणचामरगंडपरिमंडियकडीणं' ति (वृ० प० ४८०) ४५. दर्पण तणे आकार हय नं, अलंकार विशेष ही। अम्लान चामर दंड करि परिमंडिता जसु कटिक ही ।। ४६. मुख तणुं जे आभरण ही, लंबायमान गुच्छा वही । दर्पणाकार आभरण हय मुं, प्रवर तास पलाण ही। वा० -'चमरीगंडपरिमंडितकटय' इति एहनों अर्थ-चमरी गाय नां चामर दंड करि मंडित-शोभायमान कटि छ जे अश्व नीं। किहांइक वलि ए इम दीसै-थासगअहिलाणचामरगंडपरिमंडियकडीणं ति । अहिलाण कहितां लगाम छ जे अश्व नीं, शेष पूर्ववत् । सोरठा ४७. एहवा प्रवर तुरंग, इकसौ आठ सुओपता। यथानुक्रमे सुचंग, आगल चालंता छता ।। १. पांव उठाना पा० उ० ३३, ढाल २१२ २७५ Jain Education Intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतक छंद ४८. तदनंतरं गज कलभ ते, लघु दंत अल्पज नीसर्या । फुन अल्प जे मदवंत वलितसु दंत केहवा उच्च ॥ ४६. फुन जेहनें वर दंत नां जे पृष्ठ देश विशेष ही । ईषत विशालज यौवनारंभवति धवलज दंत ही ॥ , ५०. कंचन तणी खोली विषे जे दंत पैठा छे रही । तिण करीनें उपशोभिता, एकलभ नीं महिमा कही ।। ५१. गज तणां कलभज एहवा, जे एकसो अठ सोहता मुख आगले अनुक्रमे चालै, जन तणां मन मोहता ॥ ५२. तदनंतर जे छत्र सहितज ध्वजा सहित बलागिये । वलि घंट सहित पताक-सहितज, प्रवर रथ पहिखाणियं । ५३. गरुड़ादि रूपे करी युक्तज, ध्वजा तेह कहीजिये। तेह थकी अन्य पताक फुन, तोरण सहित सलहीजिये ॥ ५४. लघु टिका तेणे करी जे सहित ही सुंदर किया। वर हेम जाने करी रथ पर्यंत चिह्नं दिशि वीटिया । ५५. रव नंदि घोष सहीत द्वादश, सूर्यध्वनि समुदाय हो । भंभा मकुंद रु मर्द्दलादिक, प्रवर रव सुखदाय ही ॥ ५६. लघु घंटिका तेणे करी जे, सहित ही सुंदर कियो । वर हेम जाले करी रथ, पर्यंत चिहुं दिशि वींटियो || ५७. गिरि हेमवंत नां नीपना जे चित्र विविध प्रकार नां । कठ तिनिश नामे तरु तणां ते, कनक खंचित रथ तनां ॥ ५८. अति भला छै जे चक्र जेहनें, मंडला वृत वाटला । वलि घुरा पिण रमणिक अर शोभायमानज झिलमिला ॥ ५६. अय जेह कालायस विशेषज, तिण करी कीधुं भलुं । नेमी तिका जे चक्र नं वर भाग ऊपर फिलुं ॥ ६०. ति अथ करी जे चक्रधारा, बांधवानी वर क्रिया । रथ चक्र नुं जे अग्र भागज, नेमि ते दृढ़ता लियां ॥ ६१. वलि जातिवंतज वर तुरंगम, जोतरचा ते रथ तणं । नर चतुर अवसर जाण सारथि संग्रह्या प्रयतनपर्णे | २७६ भगवती जोड़ , ४८. ईसिता' व 'ईपदान्ताना' महान्याहितशिक्षाणां गजकलभानामिति योगः । (बु०प०४८०) ४६. ईसि उच्छंग उन्नयविसालधवलदंताणं ति उत्संग:पृष्ठदेशः दुरसंगे उन्नता विशालाश्च ये यौवनारम्भवत्तित्वात्ते तथा ते च ते धवलदन्ताश्चेति ५०. कंचनकोसीपविट्ठदंतोवसोहियाणं' कोशी - सुवर्णमयी खोला ( वृ० प० ४८० ) ति इह काञ्चन( वृ० प० ४८० ) ५२, ५३. 'सज्झयाणं सपडागाणं' इत्यत्र गरुडादिरूपयुक्तो ध्वजः तदितरा तु पताका ( वृ० प० ४८०) ५४. 'सखिविगीमजाल परंतपरिता' तिसकिणीक क्षुद्रमण्टिकोपेतं यद हेमजा - मयस्तदाभरणविशेषस्तेन पर्यन्तेषु परिक्षिप्ता ये ते ( वृ० प० ४८०, ४६१) ५५. 'विस' ति इह नन्दीद्वादश समुदायः तानि चेमानि "भा मउंद मद्दल कडंब झल्लरि हुडुक्क कंसाला । काहल तलिमा वंसो संखो पणवो य बारसमो ॥" ( वृ० प० ४८१ ) ५७. हेमव्यतितिथिसगनिजुतदारगाणं' ति हेमयतानि - हिमवगिरिसम्भवानि चित्राणि विवि धानि तैनिशानि - तिनिशाभिधानतरुसम्बन्धीनि कनकनियुक्तानि - सुवर्णखचितानि दारुकाणिकाष्ठानि येषु ते ( वृ० प० ४८१ ) ५५. संविधाराणं ति सुष्ठु संविद्धानि चक्राणि मण्डलाश्च वृत्ता धारा येषां ते ( वृ० प०४८१ ) ५१,६०. कालनेमिका ति कालायसेनलोहविशेषेण सुष्ठु कृतं नेमे: - चक्रमण्डनधाराया यन्त्रकर्मबन्धनक्रिया देने ६१. 'आइन्नवरतुरगसुसंपत्ताणं' ति आकीर्णैः जात्यैर्वरतुरगैः सुष्ठु संप्रयुक्ता ये ते कुसलनरच्छेयसारहिसुसंगहियाणं' ति कुशल नरैः विज्ञपुरुषैश्छेकसारथिभिश्च - दक्षप्राजितृभिः सुष्ठु संप्रगृहीता ये ते ( वृ० प० ४८१ ) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. शर घालवा नां भाथडा बत्तीस कर मंडित वही। इक एक भाथड़ विषे सौ-सौ बाण छै अत प्रवर ही ॥ ६२. 'सरसयबत्तीसतोणपरिमंडियाणं' ति शरशतप्रधाना ये द्वात्रिंशत्तोणा भस्त्रकास्तैः परिमण्डिता ये ते (वृ० प० ४८१) ६३. 'सकंकडवडेंसगाणं' ति सह कंकट:- कवचैरवतंसकैश्च शेखरकः शिरस्त्राण ये ते (वृ०प० ४८१) ६४. 'सचावसरपहरणावरणभारयजुद्धसज्जाणं' ति सह चापैः शरैश्च यानि प्रहरणानि-कुन्तादीनि आवरणानि च–स्फुरकादीनि तेषां भरिता युद्धसज्जाश्च युद्धप्रगुणा ये ते (वृ०प० ४८१) ६३. कवचे करीनै वली जे, अवतंस शेखर सहित ही। शिर-त्राण रक्षा कारका, तिण करीने युक्त ही। ६४. फुन धनुष शर करिकै सहित, हथियार खड्गादिक घणां । ___ढालादि करि वलि रथ भर्यो ए, सज्ज है जोधां तणां ।। ६५. वर एहवा रथ एकसौ अठ, सुघट सखर सुहामणां । अनुक्रमे आगल चालता बहु जन भणी रलियामणां।। ६६. तदनंतरं फुन असी शक्ती, कंत तोमर सूल ही। वलि लकुट नैं भिंडमाल धनु कर धरी सझिया मूल ही। ६७. वर सुभट एहवा यथा अनुक्रम, चालता आगल वही। ए वाचनांतर वृत्ति में, चतुरंग वर्णन छै सही। ६८. *तदनंतर बहु चालिया, उग्र कुले उत्पन्न । ऋषभ कोटवालपणे स्थापिया, तास वंश नां जन्न ।। ६६. बहु भोग कुल नां ऊपनां, प्रभु ऋषभदेवजी जाण । गुरुपणजे स्थापिया, तास वंश नां माण ॥ ७०. जिम उववाई में कह्य, जाव महापुरुष धार । __ सर्व परिवारे बींटिया, आगल चाल्या सार । ६८. तदाणंतरं च णं बहवे उग्गा तत्र 'उग्राः' आदिदेवेनारक्षकत्वे नियुक्तास्तद्वंश्याश्च (वृ० प० ४८१) ६६. भोगा भोगास्तेनैव गुरुत्वेन व्यवहृतास्तद्वंश्याश्च (वृ० प० ४८१) ७०. जहा ओववाइए (सू० ६४) जाव महापुरिसवग्गुरा परिक्खित्ता सोरठा ७१. जाव शब्द में एह, राजन कुल नां ऊपनां । क्षत्रिय कुल नां लेह, ऋषभ वंश ईक्ष्वाकु जे । ७२. वलि उपनां कुल ज्ञात, ईक्ष्वाकुवंश विशेष ए। कुरुवंशी फुन ख्यात, इत्यादिक अवधारवा ॥ ७३. *जमाली क्षत्रियकुमार दें, आगल फुन बिहुं पास । पूर्वे उग्रादिक कह्या, तिके अनुक्रम चाल्या तास ।। ७१. खत्तिया इक्खागा तत्र 'राजन्याः' आदिदेवेनैव वयस्यतया व्यवहृतास्तद्वंश्याश्च क्षत्रियाश्च प्रतीता: 'इक्ष्वाकवः' नाभेय वंशजाः ७२. नाया कोरव्वा 'ज्ञाता:' इक्ष्वाकुवंशविशेषभूताः 'कोरव्व' त्ति कुरवः-कुरुवंशजाः (वृ०प० ४८१) ७३. जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ य मग्गतो य पासओ य अहाणुपुब्बीए संपट्ठिया । (श० ६/२०४) ७४. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया हाए कयबलिकम्मे जाव विभूसिए (सं० पा०) ७५. हत्थिक्खंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्ज माणेणं ७६. सेयवरचामराहिं उद्धब्वमाणीहिं-उद्धव्वमाणीहि हय गय रहपवरजोहकलियाए। ७७. चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि सपरिवुडे महयाभडचड गरविंदपरिक्खित्ते ७४. जमाली क्षत्रियकुमार नों, जनक तिको चित चंग। स्नान करी कीधो वलि, जाव विभूषित अंग ॥ ७५. वर गज खंध बैठो थको, कोरंट तरु नां मूल । तसु माला सहित जे छत्र छ, ते धरते अनुकूल ॥ ७६. श्वेत प्रवर चामर करी, वीजते छते जेह । हय गय रथ वर भट भला, तिण करि सहितज तेह ।। ७७. चउरंगणी सेन्या सझ करी, परिवरयो तेण संघात । __ महा भट चाकर वृंद सू, जावत वीटयो विख्यात । *लय : म्हारी सासूजी रे पांच पुत्र ०६, उ० ३३, ढाल २१२ २७७ Jain Education Intemational Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८. जमाली क्षत्रियकुमार नैं इहविध जनक सुजाण । पीठे पुढे चालतो, वारू कर मंडाण ॥ ७६. ते जमाली क्षत्रियकुमार ने आगल हय चालत । तेह तुरंगम केहवा, अश्व वर मंत ॥ विषे सोरठा ८०. पाठांतर आख्यात, आसवारा अश्वारूढ सुजात, पुरुष तिके ८१. * बिहु पासे नागा गजा, पूठे रच अति शोभता, ८२. जमाली क्षत्रियकुंवर तदा, भृंगार कलश उपाड़ियो, ८३. उर्द्ध श्वेत छत्र छै जसु, श्वेत चामर बाल नां * लय : म्हारी सासूजी रे पांच पुत्र ₹ २७८ भगवती जोड़ जे । असवार आगल चलै ॥ ८४. सर्व ऋद्धि करि सहित छै, जावत वाजंत्र जान । ८५. । जावत 1 चालिया, तेह तणें शब्दे करी, अतिही शोभायजमान ॥ ५. तदनंतर बहु पालिया, लाठीग्राहा कुंतग्राह । पुस्तकग्राहका जाव योणग्रहा ताय । ८६. तदनंतर बहु चालिया, इकसी अठ मातंग | तुरंग एकसौ अठ वली, इकसौ अठ रथ चंग ॥ ८७. तदनंतर लकुट करे, इकसौ आठ विख्यात । इकसी अठ कुंत हाथ ।। आगल थी धर खंत | मोहे हरष अत्यंत ईश्वर तलवर मंत । आगल थी चालंत ॥ मध्योमध्य थइ न्हाल । चैत्य जिहां बहुसाल || मन इकसी अठ असी कर विषे ८८. बहुला नर पाळा वली, चालता चित चंप सूं ८१. तदनंतर बहु राजवी, जाव सार्थवाह प्रमुख ही, ९०. क्षत्रिय कुंडग्राम नगर नें, जिहां माणकुंडग्राम नगर छै, ६१. जिहां श्रमण भगवंत महावीर छै, तिणहिज स्थानक जोय । जावा नें उद्यत थया, संकल्प कीधो सोय ॥ १२. जमाली क्षत्रिय-सुत ने तदा, क्षत्रियकुंड ग्राम नगर विवेह मध्योमध्य थई करी, नीकलता नं जेह ॥ ९३. त्रिक आकारे संघाट नैं चउक्क मिलै पंथ च्यार । यावत महापंच ने विषे बहु धन अर्थी पार । २४. जिम उबवाई ने उववाई नैं विषे, अभिनंदत्ताय । तूं समृद्धि पाम चिरं जीवजे, स्तवना कर कहै वाय ॥ जाव ते गज मांहि प्रधान । रथ समुदाय सुजान ॥ सन्मुख जेहनें जोय । ग्रह्मोवींजणो सोय ॥ अतिहि वीजंते जेह | समूह करीनें तेह || ८. जमालि खत्तियकुमार गच्छ (०९/२०५) ७६. पं तस्स जमानिस पत्तियकुमारस पुरओ महं आसा आसवरा ८०. 'आसवरा' अश्वानां मध्ये वरा: 'आसवार' त्ति पाठान्तरं तत्र 'अश्ववारा:' अश्वारूढपुरुषाः ( वृ० प० ४८१ ) पिट्ठओ रहा, ( श० ६ २०६ ) (१० १०४८१) २. जमानीकुमारेभिरे ८१. उभओ पासि नागा नागवरा, रहगेली । 'रहसंमेल' तिरथसमुदायः परितालि ८३. ऊसवियसेतछत्ते पवीइयसेतचामरबालवीय णीए उच्छ्रितश्वेतच्छत्र: प्रवीजिता श्वेतचामरवालानां सत्का व्यजनिका ( वृ० १०४८१) ८४. सव्विड्ढीए जाव दुंदुहिणिग्घोसणादितरवेणं ८५. तदाणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा जाव पुत्थयग्गाहा जाव वीणग्गाहा अनुसयं गाणं अनुमपा ६. ८७. अट्टमयं रहाणं ८८. चहूणं पायत्ताणीणं पुरओ संपट्टियं ८६. तदाणंतरं च णं बहवे राईसरतलवर जाव सत्थवाहपभियओ पुरओ संपट्टिया । १०. त्तियामं नगरं मम वैमेव माहमकुंडग्गामे नयरे जेणेव बहुसालए चेइए ६१. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पाहारेत्थ गमणाए । ( श० ९ / २०७ ) १२. एषं तस्स जमालिस प्रतियकुमारस्त बत्तिय कुंडग्गामं नयरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छमाणस्स ६३. सिंघाडग-तिय- चउक्क-चच्चर-चउम्मुह जाव हेसु वह अत्यविवा ४. जहा ओववाइए (सू० ६८) जाव अभिनंदंता' १. यह जोड़ संक्षिप्त पाठ के आधार पर की गई है। इससे आगे की गाथाओं में संक्षिप्त पाठ में छोड़े गए सब शब्दों की जोड़ है । अंगसुत्ताणि भाग २ श. ६।२०८ में पाठ पूरा किया हुआ है। आगे की गाथाओं में वही पाठ उद्धृत किया गया है। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५. जिम अर्थी जना ॥ सोरठा उबवाई ताम, इण वचने इम जाणवूं । शुभ शब्द रूप ए काम, तेह तणां ९६. भोग गंध रस फास, तेह तणां धनादि लाभ दिमास, २७. किल्विय ते भंडादि, ते भंडादि, कारवाहिया वादि अर्थी बली । अर्थी ते फुन कारोड़िया कारोड़िया १८. बली संखिया धार, ते छं मंगलकार, ६६. वलि चक्रिया जाण, चक्र प्रहरण छै कर जसु । . द्वितीय अर्थ फुन माण, कुंभकारादिक चाक्रिका | १०१. मुखमंगलिया ताय, वर्द्धमान कहिवाय, लाभ नां ॥ कापालिका । राजदेय द्रव्य जे वहै ॥ १००. नंगलिका कहिवाय, सुवर्णगहणा हल सदृश पहिरचा ते भट ताय, अथवा कहियै करसणी ॥ चंदन गर्भज कर जसु । अथवा जे शंख वादिका ॥ १०३. पूजा व पेस, गवेषता सुविशेख, भाल, १०४. भोजनवां गवेषता १०५. घंटा करि सुविशाल, चालंत, तेह पेटिका मंत, ए १०६. ते बांधत शब्दे १०२. समायाताय, मागव बंदी जन जिके । इंजिसिया पिडिसिया व घंटिका दीसे कहां ॥ सुख बोले मंगलीक जे । संघ आरोपित पुरुष जे ॥ अथवा जे पूजा पूजा प्रते । इज्जिसिया ते जाणवा ॥ अथवा जे भोजन प्रतं । पिंडिसिया कहिये तसु ॥ घंटा प्रते इष्ट वलभ वच जेह, १०७. इष्ट वचन पिण जोय, , किणही स्वरूप श्री सोय १०८. इण कारण थी आम, ते इष्ट किसो वचताम, पाठ दीसे कहिये जे जे जे बोलै छै शुभ शब्द जे ।। प्रयोजन तणांज वश थकी । कमनीय तथा अकांत है ॥ आगल कहिये छे हिवै । कांत वांछा करिये जनु ॥ समाया के बाद 'खंडियगणा' पाठ है । वृत्ति में भी इस पाठ का संकेत नहीं १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ६२०८ में जयाचार्य ने इसकी जोड़ नहीं की । है । वजाड़ता । कहां ॥ आगले । ५.ε६. कामत्थिया भोगत्थिया लाभत्थिया जहा उनवाइए' त्ति करणादिदं दृश्य कामो शुभशब्दरूपे भोगाः -- शुभगन्धादयः 'लाभ त्थिया' धनादिलाभार्थिनः । ( वृ० प०४८१) ६७. किव्विसिया कारोडिया कारवाहिया किल्बिषका भाण्डादय इत्यर्थः, 'कारोडिया' कापालिका: 'कारवाहिया' कारं - राजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्येवंशीलाः कारवाहिनस्त एवं कारवाहिका: ( वृ० १०४८१) ६८. संखिया 'संखिया' चन्दनगर्भशंखहस्ता मांगल्यकारिणः शंखवादका वा ( वृ० प० ४८१ ) ६६. चक्किया 'चक्किया' चाक्रिका:- -चक्र प्रहरणाः कुंभकारादयो ( वृ० प० ४६१) वा १००. नंगलिया 'नंगलिया ' गलावलम्बितसुवर्णादिमयलाङ्गलप्रतिकृतिधारिणो भट्टविशेषाः कर्षका वा ( वृ० प० ४५१, ४५२ ) १०१. मुहमंगलिया वद्धमाणा 'मुहमंगलिया ' मुखे मंगलं येषामस्ति ते मुखमंगलिका: चाटुकारिणः 'वद्धमाणा' स्कन्धारोपित पुरुषाः ( वृ० प० ४५२ ) १०२. पुसमाणया 'पुसमाणवा' मागधा: 'इज्जिसिया पिडिसिया घंटिय क्विचिद दृश्यते ( वृ० प०४८२) १०३,१०४, इज्या जामिच्छेत्यन्ति था ये ते ज्यास्त एवं स्वार्थिकेाषिकाः, एवं पिण्डैषिका अपि, नवरं पिण्डो-- भोजनं ( वृ० प०४८२) १०५. घाण्टिकास्तु ये घण्टया चरन्ति तां वा वादयन्तीति (बु० ५० ४८२ ) १०६,१०७ इद्वाहि इष्यन्ते स्मेतीष्टास्ताभिः प्रयोजनवादिष्टमपि किञ्चित्स्वरूपतः कान्तं स्यादकान्तं चेत्यत आहकमनीयशब्दाभिरित्यर्थः । (२०१० ४८२) १०८. कंताहि श० ६, उ० ३३, ढाल २१२ २७६ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६. प्रिय वचने करि पेख, मनोज्ञ संदर भाव थी। मणाम ते सुविशेख, अतिही संदर वचन करि ।। ११०. उदार तेह प्रधान, शब्द थकी फुन अर्थ थी। कल्याणकारी जान, कल्याण प्राप्ति-सूचक कह्यो । १११. शिव उपद्रव-रहीत, शब्दार्थ दूषण रहित । धन नां लाभ सहीत, मंगल अनर्थ घातक हुवै ।। १०६. पियाहि मणुण्णाहिं मणामाहि 'मणुन्नाहिं' मनसा ज्ञायन्ते सुन्दरतया यास्ता मनोज्ञा भावत: सुन्दरा इत्यर्थः ताभिः 'मणामाहि' मनसाऽम्यन्ते-गम्यन्ते पुन: पुनर्याः सुन्दरत्वातिशयात्ता मनोऽमास्ताभिः (वृ० प० ४८२) ११०. 'ओरालाहिं' उदाराभिः शब्दतोऽर्थतश्च 'कल्लाणाहिं' कल्याणप्राप्तिसूचिकाभिः (वृ० ५० ४८२) १११. 'सिवाहि' उपद्रवरहिताभिः शब्दार्थदूषणरहिताभि रित्यर्थः 'धन्नाहिं' धनलम्भिकाभिः 'मंगल्लाहिं' मंगले-अनर्थप्रतिघाते साध्वीभिः (वृ० ५० ४८२) ११२. 'सस्सिरीयाहिं' शोभायुक्ताभिः 'हिययगमणिज्जाहिं गम्भीरार्थतः सुबोधाभिरित्यर्थः (वृ० ५० ४८२) ११३. 'हिययपल्हायणिज्जाहिं' हृदयगतकोपशोकादिग्रन्थि विलयनकरीभिरित्यर्थः (वृ० प० ४८२) ११२. सस्सिरीयाइं सोय, सोभायुक्तज वचन करि । हृदये गमती जोय, अर्थ गंभीर सुबोध करि ।। ११३. हृदय कोप शोकादि, तास विलयकारी जिका। हृदय विषे संवादि, अति अह्लादज वचन करि ।। गीतकछंद ११४. मित अक्षरे करि परिमिता, परिमाण सहित सुवर्ण ही। फून मधुर कोमल वच कह्या, गंभीर ते महाध्वनि कही।। ११५. जे दुख करीनै धारिय, ते अर्थ पिण श्रोता भणी। वाणीजु ग्रहण करावता, तसु धनादिक आशा घणी ।। वा०—मियमहुरगंभीरसस्सिरीयाहिं क्वचिद् दृश्यते । किहांइक दीसै छ। तिहां मिता ते अक्षर थकी, मधुरा शब्द थकी, गंभीर ते अर्थ थकी वलि ध्वनि थकी स्व श्री ते आत्म-संपत् जेहनी ते वाणी करिकै । ११४,११५. 'मियमहुरगंभीरगाहियाहिं' मिता.-परिमिता क्षरा मधुरा: कोमलशब्दाः गम्भीरा-महाध्वनयो दुरवधार्यमप्यर्थं श्रोतन् ग्राह्यन्ति यास्ता ग्राहिकास्ततः (वृ० ५० ४८२) वा० --'मियमहुरगंभीरसस्सिरीयाहिं' ति कृचिद् दृश्यते तत्र च मिता: अक्षरतो 'मधुराः शब्दतो' गम्भीरा - अर्थतो ध्वनितश्च स्वश्री:-आत्मसम्पद् यासा तास्तथा ताभिः (वृ० प० ४८२) सोरठा ११६. अर्थ सैकड़ां न्हाल, छै ते वाणी नै विषे । वा स्मृति बहू विशाल, अर्थ थकी छ जसु विषे ।। ११७. अपुनरुक्त वच जास, एहवी वर वाणी करी। वा एकार्थ विमास, प्राये इष्टादी वचन ॥ ११६. 'अट्ठसइयाहिं' अर्थशतानि यासु सन्ति ता अर्थशति___ कास्ताभिः, अथवा सइ-बहुफलत्वं अर्थत: (वृ०प०४८२) ११७. 'ताहि अपुणरुत्ताहि वग्गूहि' वाग्भिर्गीभिरेकाथिकानि वा प्राय इष्टादीनि वाग्विशेषणानीति (वृ० प० ४८२) ११८. अणवरयं अभिनंदंता य 'अणवरयं' सन्ततम् 'अभिनंदंता ये' त्यादि तु लिखितमेवास्ते (वृ० प०४८२) ११८. वदै निरंतर वाय, एह भलावण धुर-उपंग। अभिनंदता ताय, आदि देइ सूत्रे लिख्यो। ११६. * ढाल दोय सौ ऊपरै, द्वादशमीं सूविचार ।। चरण लेवा ने संचरचो, जमाली क्षत्रियकुमार ।। *लय: म्हारी सासूजी रै पांच पुत्र १. ओवाइयं सू०६८ २८० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २१३ दूहा १. जमाली रै मुख आगलै, वच मंगलीक उदार। धनादि नां अर्थी वदै, ते सुणज्यो विस्तार ॥ *हो म्हारा सौभागी वर लाल कुंवरजी, धन्य-धन्य थारो अवतार । (ध्रुपदं) २. जय जय नंदा धर्म करीनै, वर्धमान थावो गुणधार । जय-जय आशीर्वचन वखाण्यो, भक्ति अर्थे काबे वार । २. जय-जय नंदा ! धम्मेणं 'जय जये' त्याशीर्वचनं भक्तिसम्भ्रमे च द्विवचनं 'नंदा धम्मेणं' ति 'नन्द' वर्द्धस्व धर्मेण (वृ० ५० ४८२) ३. जय-जय नंदा तवेणं ४. अथवा जय जय विपक्षं, केन ? धर्मेण हे नन्द ! ३. जय-जय नंदा तपे करीन, द्वादश तप कर ताय । नंदा कहितां तुम्हें वृद्धि पामज्यो, उग्र तपे अधिकाय ॥ ४. अथवा जय-जय कहतां जीपज्यो, हे नंद ! विपक्ष प्रतेह । विपक्ष जे अधर्म छै तेहनें, तुम्हें धर्म करी जीपेह ॥ ५. जय-जय नंदा भद्रं ते तुझ, तू जय हे जगत नंदिकार । तुझ भद्र कल्याण थावो अभिग्रह करि, उत्तम ज्ञानादि चिहं करि सार ।। ५. जय जय नंदा ! भई ते अभग्गेहिं नाण-सण-चरि तेहिमुत्तमेहि जय त्वं हे जगन्नन्दिकर ! भद्रं ते भवतादिति गम्यं (वृ०प० ४८२) ६. अजियाई जिणाहि इंदियाइं जियं पालेहि समणधम्म (श० ६।२०८) ७. जियविग्यो वि य वसाहि तं देव ! सिद्धि मज्झे ८. निहणाहि य रागदोसमल्ले तवेणं धितिधणियबद्धकच्छे धृतिरेव धनिक अत्यर्थं बद्धा कक्षा (कच्छोटा) येन (वृ०प० ४८२) ६. इंद्रिय वर्ग न जीत्या ज्यांनै, तुम्है जीपेज्यो महाभाग। जीती नैं तुम्हे शुद्ध पालज्यो, श्रमण धर्म शिव माग ।। ७. वलि जीपज्यो विघ्न प्रतै तुम्ह, टालज्यो धर्म अंतराय । ___ अहो देव ! तुम्ह वसज्यो सुखसू, वारू शिवगति मांय ।। ८. हणज्यो राग द्वेष बिहं मल्ल प्रति तपसा करिकै ताम । धृती रूप गाढी बांधी नें, कच्छा कच्छोटी अभिराम ।। सोरठा ६. बलवंत मल्ल सुदक्ष, समर्थ अन्य मल्ल जीपवा । ___ गाढो बांध्यो कक्ष, एहवू छतूंज तेह मल्ल ॥ १०. *म१ज्यो अष्ट कर्म शत्रु प्रति, ध्यान प्रवर उत्कृष्ट। तेह उत्तम जे शक्ल ध्यान करि, अप्रमत्त' छतो सुइष्ट ।। ११. अहिज्यो आराधन रूप पताका, हे धीर ! त्रिलोक रंग मध्य। ते मल्ल युद्ध बह जन अवलोकन, स्थान रंग मध्य अनवद्य ॥ ९. मल्लो हि मल्लान्तरजयसमर्थो भवति गाढबद्धकक्ष: सन्नितिकृत्वोक्तं (वृ० प० ४८२) १०. मद्दाहि य अट्ठ कम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो ११. हराहि आराहणपडागं च धीर ! तेलोक्करंगमज्झे त्रैलोक्यमेव रङ्गमध्यं—मल्लयुद्धद्रष्टुमहाजनमध्यं तत्र त्रैलोक्यमेव रङमध्यं मल्लयट (वृ० प० ४८२) वा०-आराधना-ज्ञानादिसम्यक्पालना सैव पताका जय प्राप्तनटग्राह्या आराधनापताका (वृ० प०४८२) वा०–आराधना ते ज्ञानादिक सम्यक्त्व पालना, तिकाहिज पताका शत्रु ने जीती ते नट नै ग्रहिवा योग्य ते आराधना पताका प्रतै ग्रहण कीजै । *लय : हो म्हारा राजा रा गुरुदेव १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ६।२०८ के संपादित पाठ तथा उसकी वृत्ति के अनुसार अप्पमत्तो शब्द का सम्बन्ध आराधना पताका के साथ है। जयाचार्य ने जोड़ में कर्म शत्रुओं का मर्दन करने के संदर्भ में इसका सम्बन्ध रखा है, इस दृष्टि से 'अप्पमत्तो' शब्द को इस गाथा के सामने उद्धृत किया गया है। श०६,उ०३३, ढाल २१३ २८१ Jain Education Intemational a Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. पावयवितिमिरमणुत्तरं केवलं च नाणं १२. वितिमर निमल गयूं छै अंधारो, अनुत्तर सर्वोत्कृष्ट । प्रवर प्रधान ज्ञान जे केवल, पावज्यो अतिहि वरिष्ठ ॥ १३. मोक्ष परम पद प्रति फुन जायज्यो, देखाइयो जिनेंद्र शिव पंथ। अकुटिल बक्रता रहित ते मारग, तिणे करीनै गच्छ गुणवंत ॥ १४. परिषह रूप सेना प्रति हणीने, पांचं इंद्रियां नैं कांटा समान। उपसर्ग प्रति जीपी तुझ धर्म में विघ्न म थावो सुजान ।। १५. इम कही धन अर्थी प्रमुख जे, बहु जन वृंद तिवार । अभिनंदंता मंगल रव वोलै, विरुदावली स्तवना उदार ॥ १६. तिण अवसर क्षत्रि-सूतन जमाली, श्रेणीभूत जे नर नां शोभाय। नेत्रांनी माला सहस्रगमें करि, तेह देखीजतो छतो ताय ॥ १३. गच्छ य मोक्खं परं पदं जिणवरोवदिट्टेणं सिद्धि मग्गेणं अकुडिलेणं १४. हंता परीसहचमू अभिभविय गामकंटकोवसग्गा णं धम्मे ते अविग्धमत्थु इन्द्रियग्रामप्रतिकूलोपसर्गानित्यर्थः (वृ० ५० ४८२) १५. त्ति कटु अभिनंदति य अभिधुणंति य । (श० ६२०८) १६. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे नयणमालासहस्सेहि पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे 'नयणमालासहस्सेहि' ति नयनमाला:-श्रेणीभूतजननेत्रपंक्तयः (वृ० प० ४८२) १७. एवं जहा ओववाइए कुणिओ जाव [सं० पा०] निग्गच्छइ। १७. इम जिम उववाई में आख्यो प्रभ, वंदन कोणिक धार । यावत तिमज जमाली निकले, निकली नै तिहवार ॥ सोरठा १८. वचन तणी सुखकार, माला जे पंक्ती तणां । ___ सहस्रगमें करि सार, स्तवीजते स्तवीजते छते ।। १६. हृदय-माल सहस्रह, जन-मन नां समूहे करी। समृद्धि पमाड़तो तेह, जय जीव नंद इम चितवै ।। १८. वयणमालासहस्से हिं अभिथुव्वमाणे अभिपुव्वमाणे (वृ०प० ४८२) १६. हिययमालासहस्सेहिं अभिनंदिज्जमाणे-अभिनंदिज्ज माणे जनमनः-समूहैः समृद्धिमुपनीयमानो जय जीवनन्देत्या दिपर्यालोचनादिति भावः । (वृ०प०४८२, ८३) २०. मणोरहमालासहस्से हिं विच्छिप्पमाणे-विच्छिप्पमाणे एतस्य पादमूले वत्स्याम इत्यादिभिर्जनविकल्पविशेषेण स्पृश्यमान इत्यर्थः (वृ०प०४८३) २०. मनोरथ-माल सहस्रह, बह जन नां विकल्प करि । विशेष करिकै जेह, स्पृश्यमान हुतो छतो।। सोरठा २१. तनु कांति फुन रूप, सौभाग्य योवन गुण करी। प्रार्थ्यमान अनप, स्वामीपणे बह जन करी ॥ २५ अंगुली नहीं पहिछाण, माला जे पंक्ती तणां' सहस्रगमैं करि जाण, देखाड़तो-देखाड़तो।। २३. दक्षिण हस्त करेह, बह नर नारी सहस्र नीं। अंजलिमाल सहस्रह, पडिच्छमाण ग्रहितो छतो।। २१. कंतिसोहग्गगुणे हिं पत्थिज्जमाणे-पत्थिज्जमाणे कान्त्यादिभिर्गुणैर्हेतुभूतः प्रार्थ्यमानो भर्तृतया स्वामितया वा जनैरिति (वृ० प० ४८३) २२. अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइज्जमाणे २ (वृ० प० ४८३) २३. दाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारिसहस्साणं अंजलिमाला सहस्साई पडिच्छेमाणे पडिच्छेमाणे (वृ० ५० ४८३) १. ओ० सू०६५ २. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ६।२०६ में 'नयणमाला' के बाद हिययमाला और 'मणोरहमाला' वाला पाठ है । पर भगवती की वृत्ति में 'औपपातिक' का संकेत देकर जो पाठ उद्धृत किया है, उससे 'वयणमाला' को पहले रखा गया है । और उक्त दोनों पाठों को बाद में । जोड़ इसी क्रम से की हुई है । इसलिए अंगसुत्ताणि के पाठ को आगे पीछे करके उद्धृत किया गया है। ३. अंगुलीमाला वाला पाठ अंगसुत्ताणि में नहीं है । २८२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा २४. भवन महिल कहिवाय, तेह तणी जे भींत नां । सहस्रगमैं करि ताय, उलंघतो अतिक्रमतो ॥ २५. तंती वीणा ताम, तल तालकांसिका नाम, गीत २६. मधुर मनोहर आम उदघोषण अभिराम २७. अति कोमल ध्वनि करेह, स्तवनाकारक जन तणां । या नूपुर प्रमुखेह, भूषण संबंधी ध्वनि करी ॥ ॥ २८. अपमाने तथा वैराग्यवशेह से २१. विवर भूमि मां रे गिरि नीं गुफाज ताय, ३०. प्रधान पर्वत सार, उच्च अविरल आगार, ३१. बली देवकुल ताम, चच्चर ने आराम, ते हस्त तणां तला । वाजित्र नां करी ॥ जय एहवा वर तिण करिने जे ३५. ह्य नुं रव हींसार, वर रथ नां भिणकार, ३६. जननां अति मधुरेण, अंबर तल प्रति ३७. सुगंध फूल नी ताम ऊर्द गई अभिराम " शब्द नां मिश्र छे । अन्य ३८. वर कृष्णागरु ताम, तसु निवह करि आम शब्द अणधारतो । रव चित्त हरतूं न तसु ॥ शृंघाटक त्रिक बक फुन वर पुष्प जाति वनखंड जे ॥ ३२. तरु पुष्पादीमंत, तेह उद्यान कहीजिये । कानन जे सोमंत नगर दूरवर्ती तिको ॥ ३३. सभा अने पो स्थान, जसु प्रदेश लघु भाग जे । मोटा भाग पिछान, देश रूप कहियै कहिये तमु ॥ कंदर तेह कहीजिये । अथवा अंतर गिरि तणां ॥ प्रासाद सप्तभूमि प्रमुख ऊषण भवण तणो अरथ ।। ३४. तेह विषे पड़छंद, शत सहस्र लक्ष संकुला । करतो तो सोद, नगर जिचे व नीकलं ॥ गुलगुलाट रव गज तणां । घणघणाट रव मिश्र करि ।। महा कलकल शब्दे करी । तेण, सर्व प्रकारे पुरतो ।। वली चूर्ण नीं वास तिण करिने नभ मलिन रज । जे ।। पीड़ा सिल्लक धूप फुन जीव लोक जिम वासतो || २४. भवती (पती) सहस्साई समइमा सम इच्छिमाणे' समतिक्रामन्नित्यर्थः ( वृ० प० ४८३) २५. ' तंतीतलताल गीयवाइयरवेणं' तन्त्री-वीणा तला:हस्ताः तालाः -- कांसिकाः तलताला वा-हस्तताला: गीतवादिते प्रतीते एषां यो रवः स तथा तेन । (बु०प०४०३) २६. 'महुरेणं मणहरेणं' 'जय जय सदुग्घोस मीस एणं' जयेतिशब्दस्य यद् उद्घोषणं तेन मिश्रो यः स तथा तेन ( वृ० प० ४०३) २७. 'मंजुमंजुणा घोसेणं' अतिकोमलेन ध्वनिना स्तावलोकसम्बन्धिनानपुरादिगणसम्बन्धिना वा ( वृ० प० ४८३ ) २८. 'अपमाणे ति अप्रतिबुद्धपमान: शब्दान्त राष्धनधारवन् अत्रत्मानो वा अनपहियमाणमानसो वैराग्यगतमानसत्वादिति ( वृ० प० ४८३ ) २. राणि भूमिविवराणि मिरीणां विवराणिगुहाः पर्वतान्तराणि वा ( वृ० प० ४८३) ३०. निश्विराः प्रधानपर्वताः प्रासादाः सप्त भूमिकादमनभवनानि उच्चारलगेहानि - (२०१० ४०३) ३१. देवकुलानि - प्रतीतानि शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वराणि प्राग्वत् आरामाः --- पुष्पजातिप्रधाना वनखण्डाः (बु० प० ४८३) ३२. उद्यानानि पुष्पादिमद्युक्तानि काननानिनगराद् दूरवर्तीनि ( वृ० प० ४८३) ३३. सभा आस्थायिकाः प्रपा– जलदानस्थानानि एतेषां ये प्रदेश देशरूपा भागास्ते तथा तान्, तत्र प्रदेशालघुतरा भागाः देशास्तु महत्तराः ( वृ० प० ४८३ ) ३४. 'पडियासयस हस्तसंकुले करेमाणे' त्ति प्रतिश्रुच्छतसहस्रसंकुलान् प्रतिशब्दलक्षसङ्कुलानित्यर्थः कुर्वन् निर्गच्छतीति सम्बन्धः ( वृ० प० ४८३ ) ३५. गुलुगुलाइ पाइसीए (बु० प० ४०३) ३६. मा कलकलरवेग व जगस्य सुमहरे पूरेतोऽवरं ( वृ० प० ४८३ ) ३७. समंता सुयंधवर कुसुम चुन्न उब्विद्धवासरेणुमइलंणभं करेंते' सुगन्धीनां वरकुसुमानां चूर्णानां च 'उन्विद्ध: ऊर्ध्वगतो यो वासरेणुः - वासकं रजस्तेन मलिनं ( वृ० प० ४८३ ) ३८. कालागुरुपवरकुंदुरुक्क तुरुक्कधूवनिवहेण जीवलोगमिव वारा काला धन्यविशेषः प्रवरकु यत्तत्तया - वरचीडा तुरुक्कं -- सिल्हूकं धूपः - तदन्यः एतल्लक्षणो वा एषामेतस्य वा यो निवहः स तथा तेन जीवलोकं वासयन्निवेति (१० प० ४८३) श० ६, उ० ३३, ढाल २१३ २८३ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. सर्व थकी शोभात, जन-मंडल चक्रवाल जे। तसु गमन विषे आख्यात, ते जिम ह तिम नीकलै ।। ४०. पउर जन पहिछाण, प्रचुर जना वा पुर जना । बाल वृद्ध बहु जाण, जेह प्रमोदज पावता ।। ४१. शीघ्र चालता सोय, ते अति व्याकुल तेहनां । जे बोल बहु जिहां होय, एहवू नभ करता छता' । ३६. 'समंतओ खुभियचक्कवाल' क्षुभितानि चक्रवालानि -जनमण्डलानि यत्र गमने तत्तथा तद्यथा भवत्येवं निर्गच्छतीति सम्बन्धः। (वृ० प० ४८३) ४०,४१. 'पउरजणबालवुड्ढपमुइयतुरियपहावियविउला उलबोलबहुलं नभं करते' पौरजनाश्च अथवा प्रचुरजनाश्च बाला वृद्धाश्च ये प्रमुदिता: त्वरितप्रधाविताश्च-शीघ्रं गच्छन्तस्तेषां व्याकुलाकुलानां-अतिव्याकुलानां यो बोलः स बहुलो यत्र तत्तथा तदेवम्भूतं नभः कुर्वन्निति (वृ० प० ४८३) ४२. खत्तियकुंडग्गामे नयरे मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ ४२. क्षत्रियकुंड जे ग्राम, नगर मध्य-मध्य थइ करी। एह भलावण ताम, वृत्ति थकी आख्यो इहां ॥ ४३. *जिहां माहण कंड ग्राम नगर छै, जिहां चैत्य भलो बहु साल। तिण स्थान आवै तिण स्थान आवी – देखे, जिन अतिशय सुविशाल ।। ४४. छत्रादिक जिन नां अतिशय देखी, पुरुष सहस्र उपाड़े जास। एहवी पवर सिवका थी ऊतरै, सिविका थी उतरी हुल्लास ।। ४५. जमाली क्षत्रियकुमर प्रतै तब, मात पिता आगल करि ताम । जिहां श्रमण भगवंत महावीर प्रभु छै, तिहां आवै आवी गुणधाम ॥ ४६. श्रमण भगवंत महावीर प्रभु नैं, जाव नमण करि बदै वाय। इम निश्चै प्रभुजी ! ए एक पुत्र मुझ, जमाली क्षत्रियसुत सुखदाय ।। ४७. इष्ट कांत मुझ बल्लभ यावत, किमंगपासणयाए सोय । ऊंबर फूल तणी पर एहनों, जाव दर्शण दोहिलं जोय । ४८. ते यथानाम दृष्टांत करीन, उत्पल चंद्रविकासी कंज। पद्म कमल ते सूर्यविकासी, जाव सहस्रपत्र मनरंज । सोरठा ४६. जाव शब्द थी वाद, कुमुद नलिन वा सुभग फुन । सौगंधिक इत्याद, लोक रूढि थी भेद तसु॥ ४३,४४. जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे जेणेब बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थगरातिसए पासइ, पासित्ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं ठवेइ पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुहइ ॥ (श०६।२०६) ४५. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ४६. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव (सं० पा०) नमंसित्ता एवं वयासी- एवं खलु भंते ! जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते ४७. इठे कंते जाव (सं० पा०) किमंग! पुण पासणयाए? ४८. से जहानामए उप्पले इ वा, पउमे इ वा जाव सहस्सपत्ते इ वा ५०. *ए कमल पंक कादा विषे ऊपनों, जल कर वधियो ताय । न लिपाइ पंक रूप रजे करि, जल रज करिकै न लिपाय ॥ ५१. इण दृष्टांते क्षत्रियसुत जमाली, काम शब्दादि करि उत्पन्न । गंध फर्श रस रूप भोग करि, वृद्धिपणुंज प्रपन्न । ४६. यावत्करणादिदं दृश्यं -'कुमुदेइ वा नलिणेइ वा सुभगेइ वा सोगंधिएइ वा' इत्यादि, एषां च भेदो रूढिगम्यः (वृ०प०४८३) ५०. पंके जाए जले संवुडे नोवलिप्पति पंकरएणं, नोव लिप्पति जलरएणं ५१. एवामेव जमाली वि खत्तियकुमारे कामेहिं जाए, भोगेहिं संवुड्ढे 'कामेहि जाए' त्ति कामेषु-शब्दादिरूपेषु जात: 'भोगेहिं संवुड्ढे' त्ति भोगा--गन्धरसस्पर्शास्तेषु मध्ये संवृद्धो-वृद्धिमुपगतः (वृ०प ० ४८३) *लय : हो म्हारा राजा रा गुरुदेव १. २५-४१ तक की जोड़ वृत्ति के आधार पर की गई है। अंगसुत्ताणि में यह पाठ नहीं है। केवल २६ वीं गाथा का संवादी पाठ वहां है, पर वह भी वृत्ति से मिलता नहीं है। वृत्ति में पाठ लिया है-"मंजुमंजुणा घोसेणं अप्पडिबुज्झमाणे" जबकि अंगसुत्ताणि का पाठ है-"मंजुमंजुणा घोसेणं आपडिपुच्छमाणे । २८४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. काम रजे करिनै न लिपावै, अथवा काम रागे न लिपाय । वलि भोग रूप रज करि न लिपावै, तेह विषे अनुरागता नांय ॥ ५३. मित्र प्रसिद्ध न्याती ते स्व जाति, निजक मामादि कहाय । स्व जन पिता पितरियादिक ते, संबंधि ते सुसरादिक ताय ।। ५४. परिजन ते दासी दास प्रमुख जे, एतलां मैं विषे धार । ___ स्नेह करीनैं नांहि लिपावै, ए तो जमाली क्षत्रियकुमार ॥ ५५. अहो देवानुप्रिया ! एह जमाली, पायो संसार भय थी उद्वेग । बीहनों है जन्म मरण नां दुखे करि, पायो है परम संवेग ।। ५६. हे देवानुप्रिया ! तुम्हारे समीपे, मुंड थइ सुखकार । ग्रहस्थावासपणं छांडीने, थास्यै ए अणगार ॥ ५७. ते माटे हे देवानुप्रिया ! तुम्हनें, अम्है शिष्य-भिक्षा देवां एह । अहो देवानुप्रिया ! थे वांछो, शिष्य रूपणी भिक्षा प्रतेह ।। ५८. वीर कहै जिम सुख होवै तिम करो, अहो देवानुप्रिया जी ! मा प्रतिबंध विलंब न करिवं, इम दीक्षा री आज्ञा ताजी ॥ ५६. जमाली क्षत्रियकुमर तिण अवसर, श्रमण भगवंत महावीरं । एम को थके हरष थयो अति, पायो संतोष सुधीरं ।। ६०. श्रमण भगवंत महावीर प्रतै जे, तीन वार धर खंत । यावत नमण करी प्रभुजी नें, ओ तो कूण इशाणे जंत ।। ६१. उत्तर पूर्व दिशि भाग जईनै, स्वयमेव पोते इज तेह। आभरण नैं माला पुष्पादिक नी, अलंकार प्रतै मूकेह ।। ६२. जमाली क्षत्रिकूमर तणी जे, माता ते तिहवारं। हंस लक्षण पट-शाटक करिने, ग्रहै आभरण मल्लालंकारं ॥ ६३. आभरण मल्लालंकार ग्रही न', पवर मोत्यां नों हार । जल नी धार यावत आंसू प्रति, न्हाखती-न्हाखती तिहवार ।। सोरठा ६४. जाव शब्द थी जोय, सिंदुवार जे वृक्ष नां। वा निर्गन्डी सोय, तास कुसुम अति शुक्ल जे॥ ६५. छिन्न-मुक्तावली जाण, प्रकाश ते सम ऊजला। __आंसू तास पिछाण, जाव शब्द में ए कह्या ।। ६६. *जमाली क्षत्रियकुमर प्रतै कहै, हे जात ! वल्लभ गुणगेह । अप्राप्त संजम योग तणी जे, प्राप्ति अर्थे तूं घटना करेह ।। ६७. पाम्या है संयम जोग प्रत तं, यत्न कीजे रूडी रीतं । संजम नै विषे उद्यम कीजे, पराक्रम फोड़वजे पुनीतं । ५२. नोवलिप्पति कामरएणं नोवलिप्पति भोगरएणं 'नोवलिप्पइ कामरएण' त्ति कामलक्षणं रजः कामरजस्तेन कामरजसा कामरतेन वा-कामानुरागेण (वृ०प० ४८३) ५३,५४. नोवलिप्पति मित्त-णाइ-णियग-सयण-संबंधि-परि जणेणं 'मित्तनाई' इत्यादि, मित्राणि-प्रतीतानि ज्ञातयः स्वजातीयाः निजका--मातुलादयः स्वजना:-- पितृपितृव्यादयः सम्बन्धिनः- श्वसुरादयः परिजनोदासादिः इह समाहारद्वन्द्वस्ततस्तेन नोपलिप्यते ..... स्नेहतः सम्बद्धो न भवतीत्यर्थः (वृ०प०४८३) ५५. एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभयुब्बिग्गे भीए जम्मण मरणेणं ५६. इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ५७. तं एयं णं देवाणुप्पियाणं अम्हे सीसभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सीसभिक्खं । (श० ४।२१०) ५८. तए णं समणे भगवं महावीरे जमालि खत्तियकुमार एवं वयासी-अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं ।। (श० ६।२११) ५६. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ तुट्ठ ६०. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव (सं० पा०) नमंसित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमइ, ६१. अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ । (श० ६२१२) ६२. तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंस लक्खणेणं पडसाडएणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छइ ६३. पडिच्छित्ता हारवारि जाव घिणिम्मुयमाणी ६४,६५. सिंदुवारछिन्नमुत्तावलिप्पग्गासाई विणिम्मुयमाणी-विणिम्मुयमाणी अंसूणि ६६,६७. जमालि खत्तियकुमार एवं वयासी-'जइयव्वं जाया ! घडियव्वं जाया ! परक्कमियव्वं जाया ! 'जइयव्वं' ति प्राप्तेषु संयमयोगेषु प्रयत्नः कार्यः 'जाया !' हे पुत्र ! 'घडियव्वं' ति अप्राप्तानां संयमयोगानां प्राप्तये घटना कार्या 'परिक्कमियव्वं' ति पराक्रम: कार्यः पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफल: कर्तव्य इति भावः (वृ० प० ४८४) *लय: हो म्हारा राजा रा गुरुदेव श० ६, उ० ३३, ढा० २१३ २८५ Jain Education Intemational ation Intemational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. इण अर्थ विषे प्रव्रज्या पालण में, प्रमाद न करिवं लिगार। इम कही जमाली क्षत्रियकुमार नां, मात पिता तिहवार ।। ६९. श्रमण भगवंत महावीर ने वांदै, नमस्कार करै करि ताय । जिण दिशि थी आया प्रगट हुआ था, तिण दिशि पाछा जाय ।। ६८. अस्सि च णं अट्ठे णो पमाएतब्वं ति कटु जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मापियरो 'अस्सि चे' त्यादि, अस्मिश्चार्थे-प्रव्रज्यानुपालन लक्षणे न प्रमादयितव्यमिति (वृ० प०४८४) ६६. समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। (श० ६।२१३) ७०. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ ७१. एवं जहा उसभदत्तो तहेव पव्वइओ नवरं पंचहि पुरिससएहिं सद्धि तहेव जाव (सं० पा०) ७०. जमाली क्षत्रियकुमर तिण अवसर, स्वयमेव पोते निज हाथ । पंच मुष्टी लोच करै करीन, आयो जिहां जगनाथ ।। ७१. इम जिम ऋषभदत्त दीक्षा लीधी, तिमज प्रव्रज्या लीधं । णवरं पंच सौ पुरुष संघाते, तिमहिज सर्व' प्रसीधं ।। सोरठा ७२. कह्य ऋषभदत्त जिम जाण, इह वचने महावीर प्रति । तीन वार पहिछाण, दक्षिण नां पासा थकी। ७३. करै प्रदक्षिण ताम, वंदै नमण करै करी। इम बोल अभिराम, आलित्त लोक इत्यादि जे॥ ७४ *जाव सामायिक आदि देइने, कांइ अंग एकादश सार । भण भणी बह चौथ छठ तप, अठम भक्त उदार ।। ७५. मास अनैं अर्द्धमास खमण वली, विचित्र तप कर्म करेह । आतम प्रति भावतो विचरै, वीर प्रभू समीपेह ॥ ७६. तिण अवसर अणगार जमाली, अन्य दिवस किणवार ।। जिहां श्रमण भगवंत महावीर प्रभु, तिहां आवै आवीनै धार ।। ७७. श्रमण भगवंत महावीर प्रतै जे, वांदै करै नमस्कार । प्रभ वांदी नमस्कार करीन, इम बोलै जिहवार ।। ७८. वांछु छु हे प्रभु ! तुझ आज्ञा थी, पंच सौ संत संघात । बाहिर जनपद देश विषे जे, विहार करिव जगनाथ ॥ ७२,७३. एवं जहा उसभदत्तो इत्यनेन यत्सूचितं तदिदं (व०प०४८४) उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी आलित्ते णं भंते ! ७४,७५. जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहि ज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहि चउत्थ-छट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मे हि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (श० ६।२१५) ७६. तए णं से जमाली अणगारे अण्णया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ७७. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी७८. इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे पंचहि अणगारसएहिं सद्धि बहिया जणवयविहारं बिहरित्तए। (श०६।२१६) ७६,८०. तए णं सभणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगा रस्स एयमट्ठ नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ॥ (श० ६।२१७) ७६. श्रमण भगवंत महावीर तदा, जमाली नां ए अर्थ प्रतेह । आदर न दिये तेह अर्थ विषे, अणआदर देता जेह ।। ८०. बलि चित्त में भलो पिण नहिं जाण, देख्यो दोष ऊपजवानों भाव। ते माटै आज्ञा नहि दीधी, प्रभु मून रह्या ते प्रस्ताव ।। ८१. तव जमाली अणगार श्रमण भगवंत महावीर प्रतै दूजी वार । तीजी वार पिण इहविध बोले, हूं वांछे छू जगतार । ८१. तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीर दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! *लय : हो म्हारा राजा रा गुरुदेव १. पा० टि०७ में सं० पा० दिया गया है। इस पाठ की जोड़ करने के बाद आगे की दो गाथाओं में विस्तृत पाठ के आधार पर जोड़ लिखकर फिर दो गाथाओं में सं० पा० को आधार बनाया गया है । इसलिए इन गाथाओं के सामने कहीं पा० टि० का और कहीं मूल का पाठ उद्धृत है। २८६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. आप तणी प्रभु ! आज्ञा हुवां थी, पंचसौ श्रमण संघात । जाव विचरवू जनपद देशे, विहार करीने विख्यात । ५३. तब श्रमण भगवंत महावीर प्रभुजी,जमाली अणगार नां जेह । बे त्रिण वार ही एह अर्थ प्रति, आदर न दिये तेह ॥ ८४. जाव पूर्ववत मौनपणे रहै, तब ते जमाली अणगार । श्रमण भगवंत महावीर प्रभु नैं, वांदै करै नमस्कार ।। ८२. तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहि अणगारसएहिं सद्धि बहिया जणवयविहारं विहरित्तए । (श० ६।२१८) ८३. तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स दोच्चं पि, तच्चं पि एयम8 नो आढाइ, ८४. जाव (सं० पा०) तुसिणीए संचिट्ठइ । (श०६।२१६) तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीर वंदइ नमसइ ८५. वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहसालाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता ८६. पंचहि अणगारसएहिं सद्धि बहिया जणवयविहारं विहरइ। (श० ६।२२०) ८५. वंदी नमण करी श्रमण भगवंत महावीर तणां पासा थी। बहुसाल चैत्य थकी पाछो निकले, निकली विण आज्ञा थी। ८६. पांच सौ अणगार साधु संघाते, बाहिर ते तिणकाल । जनपद देश विष विचरंतो, एकही दोय सौ तेरमी ढाल ॥ ढाल : २१४ १. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नामं नयरी होत्था-वण्णओ २. कोट्ठए चेइए–वण्णओ जाव वणसंडस्स १. तिण काले नै तिण समे, नगरी सावत्थी नाम । हती अति रलियामणी, वर्णक तस् अभिराम ।। २. कोटग नामे बाग थो, जे वर्णववा जोग । यावत ते वन-खंड लग, कहिवं ते सुप्रयोग ।। ३. तिण काले नैं तिण समय, नगरी चंपा नाम । हंती अतिही शोभती, तसु वर्णक अभिराम ।। ४. पूर्णभद्र त्यां चैत्य थो, तसु वर्णक बहु ताम ॥ यावत जे पृथ्वी तणों शिला-पट्ट अभिराम ।। ५. तब जमाली अणगार ते, अन्य दिवस किण काल। श्रमण पंच सय साथ थी, परवरियो थको न्हाल ॥ ६. पूर्वानुपूर्वे चालतो, वलि ग्रामानुग्राम । व्यतिक्रमतो विचरतो, जिहां सावत्थी नाम । ७. जिहां कोटग नामैं चैत्य छ, तिहां आवै आवी ताम। __ यथायोग्य अवग्रह प्रते, ग्रहै ग्रही ने आम ।। ८. संजम नै फुन तप करी, आतम प्रति अवधार। भावंतो ते वासितो, विचरै छै तिहवार ।। ६. तब श्रमण भगवंत महावीर जी, अन्य दिवस किण काल । पूर्वानुपूर्वी प्रभु, चालंता गुणमाल ।। १०. यावत सुख-सुखे करी, करता प्रभू विहार। जिहां चम्पा नामे भली, नगरी छै सुखकार । ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था वण्णओ ४. पुण्णभद्दे चेइए-वणओ जाव पुढविसिलापट्टओ। (श० ६।२२१) ५. तए णं से जमाली अणगारे अण्णया कयाइ पंचहि अणगारसएहिं सद्धि संपरिवुडे ६. पुव्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव सावत्थी नयरी ७. जेणेव कोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता ८. संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । (श० ६।२२२) ६. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ पुवाणु पुब्बि चरमाणे १०. जाव (सं० पा०) सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चम्पा नयरी श० उ० ३३६ डाल २१४ २८७ Jain Education Intemational Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता १२. संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । (श० ६/२२३) ११. जिहां पूर्णभद्र चैत्य छ, तिहां आवै आवी ताय । यथायोग्य अवग्रह प्रते, ग्रहै ग्रही जिनराय ।। १२. संजम नै फुन तप करी, आतम प्रति अवधार। भावंता ते वासिता, विचरै जिन जगतार ।। भवि ! सांभलो रे, सांभलज्यो जमाली नुं चरित्त, वीतराग नां वच अवितत्थ ॥ (ध्रुपदं) १३. ते अणगार जमाली ने तिहवार, तेह अरस आहारे करि धार। भवि ! सांभलो रे। हींग प्रमुख नों नहिं संस्कार, ते कहियै अरस रस-रहित आहार । भवि ! सांभलो रे॥ १४. पुराणपणां थी गयो रस जास, विरस आहार कहियै छै तास । अंत ते अरसपण करि तेह, सर्व धान्य में अंत वर्तेह ।। १३. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहि 'अरसेहि य' 'अरसेहि य' त्ति हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतत्वादविद्यमानरसः (वृ० ५० ४८६) १५ तेहिज अरस जीम्यां पछै जोय, ऊबरियो वा वासी होय । ते प्रकर्षे करि अंत वर्तेह, प्रांत आहार कहीजै जेह ।। १६. लुक्ख अने तुच्छ अल्प आहारेह, कालातिक्रांत करीनै तेह । भूख तृषा लागी तिण काल, आहार-पाणी अणपाम्ये न्हाल ॥ १७. प्रमाणातिक्रांत करेह, मात्रा थी अधिक भोगविय जेह। शीतल जल भोजन करि न्हाल, अन्यदा दिवस किण काल ।। १८. शरीर विषे विस्तीर्ण जेह, रोग ते व्याधि करी पीड़ेह । तेहिज आतंक स्पष्ट दीसंत, जीवितव्य नै कष्टकारी अत्यंत ॥ १४. विरसेहि य अंतेहि य 'विरसेहि य' त्ति पुराणत्वाद्विगतरस: 'अंतेहि य' त्ति अरसतया सर्वधान्यान्तवत्तिभिर्वल्लचणकादिभिः (वृ० प० ४८६) १५. पंतेहि य 'पंतेहि य' त्ति तैरेव भुक्तावशेषत्वेन पर्युषितत्वेन वा प्रकर्षणान्तवत्तित्वात्प्रान्तः (वृ० प० ४८६) १६. लूहेहि य, तुच्छेहि य कालाइक्कतेहि य 'लू हेहि य' त्ति रूक्षः 'तुच्छेहि य' त्ति अल्पैः 'कालाइक्कतेहि य' त्ति तृष्णाबुभुक्षाकालाप्राप्तः (वृ० प० ४८६) १७. पमाणाइक्कतेहि य पाणभोयणेहि अण्णया कयाइ 'पमाणाइक्कतेहि य' त्ति बुभुक्षापिपासामात्रानुचितैः (वृ० प० ४८६) १८. सरीरगंसि विउले रोगातं के पाउन्भूए 'रोगायके' त्ति रोगो--व्याधिः स चासावातङ्कश्च कृच्छ जीवितकारीति रोगातङ्कः (वृ० प० ४८६) १६. उज्जले विउले 'उज्जले' त्ति उज्ज्वलो-विपक्षलेशेनाप्यकलङ्कितत्वात् 'तिउले' त्ति त्रीनपि मनःप्रभृतिकानर्थान् तुलयतिजयतीति त्रितुलः (वृ० ५० ४८६) २०. पगाढे कक्कसे कडुए क्वचिद्विपुल इत्युच्यते, तत्र विपुलः सकलकायव्यापकत्वात्, 'पगाढ़े' त्ति प्रकर्षवृत्ति: 'कक्कसे' त्ति कर्कशद्रव्यमिव कर्कशोऽनिष्ट इत्यर्थः 'कडए' त्ति कटुकं नागरादि तदिव यः स कटुकोऽनिष्ट एवेति (वृ० प० ४८६) २१. चंडे दुक्खे दुग्गे तिब्वे दुरहियासे 'चंडे' त्ति रौद्रः 'दुक्खे' त्ति दुःखहेतुः 'दुग्गे' त्ति कष्टसाध्य इत्यर्थः 'तिब्वे' त्ति तीव्र - तिक्तं निम्बादि द्रव्यं तदिव तीव्र: किमुक्तं भवति? 'दुरहियासे' त्ति दुरधिसह्यः (वृ० प० ४८६) १६. उज्जल सुख-बिंदु करि रहीत, तिउले कहितां त्रितुल संगीत । मन वच तनु नां अर्थ प्रतेह, तुले कहितां जोपै तेह ।। २०. किहांइक विपुल सकल तनु व्याप, प्रकर्षे करि गाढ संताप।। कर्कश द्रव्य जिम दृढ कठोर, कटुक वस्तु जिम अनिष्ट जोर ।। २१. चंड रौद्र दुक्खे दुख हेतु, दुर्गम तेह दुसाध्य कहेतु । तीव्र नींव नी पर अवलोय, दुक्खे करी अहियासंता सोय ।। * लय : मेरी खिण गई, लाखोणी रे मेरी खिण १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ६।२२४ में तिउले के स्थान पर विउले पाठ है । वहां 'तिउले' पाठान्तर में रखा गया है। २८८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. पित्त ज्वर करी व्याप्त तसु देह, वलि तनु ऊपनो दाह अछेह। एहवो थको जमाली अणगार, विचरै सावत्थी नगर मझार ।। २३. अणगार जमा ली ते तिणवार, पराभन्यो वेदन करि धार । श्रमण निग्रंथ तेड़ाव ताय, तेडावी इम बोले वाय ।। २४. तुम्है देवानुप्रिया ! मुझ काज, सेज्जा संथारो संथरो आज । ते श्रमण निग्रंथ तिण अवसर जेह, जमाली नां ए अर्थ प्रतेह ।। २५. विनय करीने करै अंगीकार, अंगीकार करीने तिवार। जमाली अणगार नां जेह, सेज्जा संथारो संथरै तेह ॥ सोरठा २६. सेज्जा कहितां सोय, सुवा नै अर्थे जिको।। संथारो अवलोय, तिण सू सेज्या-संथारो कह्यो। २७. *तिण अवसर ते जमाली अणगार, अतिगाढी वेदनाई पराभव्यो तिवार। श्रगण निग्रंथ ने बीजी वार, तेई तेड़ी इम वचन उचार ।। २२. पित्तज्जरपरिगतसरीरे, दाहवक्कतिए या वि विहरइ । (श० ६/२२४) दाहो व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नो यस्यासो (वृ०प० ४८६) २३. तए णं से जमाली अणगारे वेयणाए अभिभूए समाणे समणे निग्गंथे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी२४,२५. तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! मम 'सेज्जा-संथारगं संथरह। (श० ६/२२५) तए णं से समणा निग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एतमट्ठ विणएणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जमालिस्स अणगारस्स सेज्जा-संथारगं संथरंति । (श० ६/२२६) २६. 'सेज्जा-संथारगं' ति शय्याय-शयनाय संस्तारक: शय्यासंस्तारक: (वृ० प०४८६) २७. तए णं से जमाली अणगारे बलियतरं वेदणाए अभि भूए समाणे दोच्चं पि समणे निग्गंथे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी 'बलियतरं' ति गाढतरं (वृ०प० ४८६) २८. ममं णं देवाणप्पिया ! सेज्जासंथारए किं कडे ? कज्जइ? 'कि कडे कज्जइ'त्ति कि निष्पन्न उत निष्पाद्यते ? (वृ०प०४८६) २६. तते णं ते समणा निग्गेथा जमालि अणगारं एवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पियाणं सेज्जा-संथारए कडे, कज्जइ। (श०६/२२७) २८. अहो देवानुप्रिया ! मुझ काज, स्यं सेज्या-संथारो कीधो आज? के करियै छ सेज्या-संथार, स्यूं नीपायो के नीपावो छो धार? २६. श्रमण निग्रंथ तिके तिह वेर, जमाली अणगार नै इम कहै हेर । अहो देवानुप्रिया ! सेज्जा-संथार, निश्चै न कीधो, करियै धार।। ३१,३२. अनेनातीतकालनिर्देशेन वर्तमानकालनिर्देशेन च कृतक्रियमाणयो भेंद उक्तः उत्तरेऽप्येवमेव (वृ०प०४८६) सोरठा ३०. पूछयो जमाली एम, मुज सूवा नैं अर्थ जे। संथारो धर प्रेम, कीधो के करियै अछै ।। ३१. इण वचने करि न्हाल, अतीत काल निर्देश करि। वर्तमान जे काल, तेह तणुं देखाववू ।। ३२ कीधो नैं क्रियमाण, भेद कह्य ए तेह विषे। उत्तरदायक जाण, साधू पिण इमहिज कह्यो। ३३. करवा लागा जास, अणकीधो इम आखियो। ते कारण थी तास, जमाली इम चितवै॥ ३४. मुझ वच फुन संथार, करणहार मुनि नों वली। विहं नो वच अवधार, इम विचारणा करतो हुवो। ३५. करवा लागो तास, कीधो पक्ष अंगीकरयै। सम्यग प्रकार विमास, तेह वचन मिलतो नथी ।। ३६. क्रियमाण जे कीध, जिण नर एह अंगीकरयं । तिण विद्यमान नी सीध, करण क्रिया अंगीकरी ॥ ३७. तथा दोष बह थाय, जे कीधू क्रियमाण नहिं । विद्यमान थी ताय, चिरंतन घट नी परै॥ *लय : मेरी खिनगाई, लाखीणी रे मेरी खिण ३३. तदेवं संस्तारककर्तृसाधुभिरपि क्रियमाणस्याकृततोक्ता (वृ०प०४८७) ३४. ततश्चासौ स्वकीयवचनसंस्तारककर्तृसाधुवचनयोविमर्शात् प्ररूपितवान् (वृ० ५० ४८७) ३५. क्रियमाणं कृतं यदभ्युपगम्यते तन्न सङ्गच्छते (वृ० प० ४८७) ३६. यतो येन क्रियमाणं कृतमित्यभ्युपगतं तेन विद्यमानस्य करणक्रिया प्रतिपन्ना (वृ० प० ४८७) ३७. तथा च बहवो दोषाः, तथाहि-यत्कृतं तक्रियमाणं न भवति विद्यमानत्वाच्चिरन्तनघटवत् (वृ०प० ४८७) श०६, उ० ३३, ढाल २१४ २८९ Jain Education Intemational Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतक संद ३८. अब कयूँ पिण जो कीजिये तो नित्य ही करिवूं वही। कीधापणां भी घुर समय जिम क्रिया- समाप्ती नहीं ॥ ३६. सहु काल में क्रियमाण थी जे आदि समया नीं परै । करिवाज मांड कर तो क्रिया विफल हुवे तरं ॥ वही नी ४०. जे पूर्व अद्यतो हीजते तो छतो दी प्रत्यक्ष एह विरोध थे वलि जमाली चिन्तै सही ॥ ४१. तिम पट प्रमुख जे कार्य निष्पत्ति विषेज जाणियै । दीर्घ ही पहिह्याणियं ।। घट आदि कार्य न देखिये पिण नहि देखिये ॥ आदि कारज संभवे । न क्रिया अवसाने हुवै ॥ जे क्रिया करिया तणुं कालज ४२. जे भणी प्रारंभ काल में शिवादि-पिडादि अवस्था विये ४३. क्रिया नां अवसान में घट तो क्रिया काले कार्य युक्त वा० - भाष्यकार कहै छै - इहलोक ने विषे जे पुरुषे क्रियमाण करवा लावू ते कृतं कहितो की हम अंगीकार कर ति पुरुये विद्यमान नीज करण क्रिया अंगीकार कीधी । वली तिण प्रकार छते बहु दोष नीं निष्पत्ति हुवै । इहां जे कीघ्रं ते क्रियमाण न हुवै कस्मात् — किण कारण थकी ? तब्भावाओ ते सत्पणां थकी - वस्तु नां विद्यमानपणां थकी इत्यर्थः । केहनी परे ? चिरंतन घट नी परं । अथवा कृतं अपि क्रियते कहितां कीधां प्रतं पिण कीजिये तो नित्य करिवूं । वली क्रिया समाप्ति न हुवै सदा काल कीधा ने हीज क्रियमाणपणां थकी । जो क्रियमाण कहितां करवा लागा ते कृतं कहितां कीधो हुवै तिवारं क्रिया नों निर्फलपणो हुवे । तथा पूर्वे न थयुं ते थातो दीसे तथा जे भणी घटादिक नीं निष्पत्ति नै विषे दीर्घ क्रिया काल दीसं छै । २९० भगवती-जोड़ ३८. कृतमपि क्रियते ततः क्रियतां नित्यं कृतत्वात् प्रथमसमय इवेति, न च क्रियासमाप्तिर्भवति ( वृ० प० ४८७ ) ३६. सर्वदा क्रियमाणत्वादादिसमयवदिति, तथा यदि क्रियमाणं कृतं स्यात्तदा क्रियावैफल्यं स्याद् (१० १०४०७) ४०. तथा पूर्वमसदेव भवद्दृश्यते इत्यध्यक्षविरोधश्च (बृ० प० ४८७) ४१. तथा घटादिकार्यनिष्पत्तौ दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते ( वृ० १०४८७) ४२. यतो नारम्भकाल एव घटादिकार्यं दृश्यते नापि स्थासकादिकाले ( वृ० प० ४८७ ) तया वान ४३. युक्तं तहि तत्कियावसाने कालेषु युक्तं कार्यं किन्तु ( वृ० प० ४८७ ) वा० - आह च भाष्यकार:जस्सेहजमार्ग कति ते विमाणस्स । करणकिरिया पवन्ना तहा य बहुदोस पडिवत्ती' ॥ कयमिह न कज्जमाणं तब्भावाओ चिरंतणघडोव्व । अहवा कयंपि कोरइ कीरउ निच्चं न य समत्ती ॥ किरियापुवमभूयं च दीसए हुतं । दीसइ दीहो य जओ किरियाकालो घडाईणं ॥ १. इहास्मिन् लोके येन नरेण क्रियमाणं कृतमित्यभ्युपगतं तेन नरेण विद्यमानस्यैव करणक्रियाप्रतिपन्नांगीकृता तथा च सति बहुदोषनिष्पत्तिर्भवति । २. तथाहि कयमित्यादि इह यत् कृतं तत् क्रियमाणं न भवति कस्मात् तद्भावाओत्ति तत्सत्त्वाद् वस्तुनो विद्यमानत्वादित्यर्थः वित्? चिरंतनपत् अथवा कृतमपि क्रियते ततः नित्यं क्रियतां न च क्रियासमाप्तिर्भवति सर्वदा तस्यैव क्रियमाणत्वात् । ३. किरियेत्यादि यदि क्रियमाणं कृतं स्यात्तदा क्रियावैफल्यं स्यादिति । तथा पूर्वमभूतं च भवद्दृश्यते । तथा यतः घटादीनां निष्पत्तौ दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरंभ काल में विषे पिण घटादि कार्यं न दीस शिवादि अद्धा ने विषेपिंडादि अवस्था में दिषे पिण न दीसे ते भणी क्रिया काल में कार्य युक्त नहीं, किन्तु किया न अंत में विहीन कार्य युक्त है। | ४४. ते अणगार जगाली नैं तिवार, एहवूं अध्यवसाय विचार | यावत उपनो छै मन मांय, आगल ते कहियै छै ताय ॥ ४५. जे भणी श्रमण भगवंत महावीर, एविध आखै छै जन तीर । यावत एम परूपे वाय, इस निश् चलमान ते चलूं कहाय । ४६. उदीरवा मांड्यो ताम, तिगने उदी भायें स्वाम छै जाव निर्जरवा मांड्यू सधीक, तसु निर्जयूं कहै ते झूठो अलीक ।। ४७. इम निश्चै दीसै छै एह, सयन अर्थ संथारो जेह । करिवा लागू ते कयूँ न कहाय, संघरिवा लागू ते संघ नांव ।। ४८. जे भणी सूवा अर्थ संथार, करिवा मांड्यूं ते अणक धार । अणसंथयूँ कहिये जेह || अणवालियूं कहिये थे तेह अणनिर्जयूं कही जा || श्रमण निग्रंथ प्रतै तेड़ावेह | अहो देवानुप्रिया ! जे ताय ॥ संथरवा मांड्यूँ छै तेह, ४२. चलवा लागू पिण जेह, जाव निर्जरिवा मांड्यूँ तास, ५०. एम विचार विचारी जेह, तेड़ावी इम बोले वाय, ५१. श्रमण भगवंत महावीर सुजेम, इम कहै जाव परूप एम । इहविध निश्च करिने जेह, चलवा लगूं ते चलिये कहेह || ५२. तिमहिज जाव सर्व पहियाण, तव जमाली अणगार निर्जरिवा मांड्यूं ते अनिर्जयूं जाण । नुं तेह, इम कहितां जाव परूपतां जेह || ५३. के भ्रमण निग्रंय ते अर्थ प्रवेह, सद्दहे प्रतीते के श्रमण निर्बंध ते अर्थ प्रति ताय, फुन रोपवेह | न सद्दहै नहीं प्रतीते रुचं नांय ॥ सोरठा ५४. श्रमण नां । निव ताम, जमाली अणगार एक अर्थ प्रति आम, सह नहि तसु एह मत । ५५. क्रियमाण विद्यमान वस्तु नुं करिवू न पिग अविद्यमान पिछान वस्तु नुं करि ५६. जिम आकाश विषेह, पुष्प कदापि हुवे छती वस्तु हुवे जेह, पिण अद्यती वस्तु द्वं नवी ॥ ५७. जो अछती वस्तु होय, तो खर-शृंग किम नहि हुवै । इम बहु युक्ती जोय, विशेषावश्यक ग्रंथ हुवे । छ । नहीं । । थी ॥ नारंभे च्चिय दीसइ न सिवादद्धाइ दीसइ तदंते । तो नहि किरियाकाले जुतं कवं तदंतंमि ॥ ( वृ० प० ४८७ ) ४४. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूवे अजान (०११०) समुष्यज्जिस्था ४५. जण्णं समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव एवं परूवे एवं खलु चलमाणे चलिए ४६. उपरिमाणे उदीरिए जाव (सं० पा०) निम्नरिज्जमाणे निज्जिपणे तण्णं मिच्छा । ४७. इमं च णं पच्चक्खमेव दीसइ सेज्जा - संथारए कमाने अकडे संपरिमाणे असंचरिए । ४८. जम्हा णं सेज्जा-संथारए कज्जमाणे अकडे, संथरिज्जमाणे असंथरिए ४६. तम्हा चलमाणे वि अचलिए जाव निज्जरिज्जमाणे वि अनिज्जिणे - - ५०. एवं पेहेद संपेता समणे निचे सहावे सहावेता एवं ददवासी जयं देवानिया ! ( श० ६ / २२८ ) ५१. समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव परुवेइएवं खलु चलमाणे चलिए -- " ५२. वजाय (सं० पा० ) निशरिज्माणे वि अनिज्जिणे । (श०२ / २२८ ) तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव परूवेमाणस्स ५३. अत्येतिया समा निम्गंचा एवम सर्हति पत्तियंति रोयंति अत्येगतिया समणा निग्गंधा एयमट्ठ नो सर्हति नो पत्तियंति नो रोयति । ५४. अत्येगइया समया दिग्गंचा एवम गोसति' त्ति ये च न श्रद्दधति तेषां मतमिदं ( वृ० प० ४८७ ) ४४. नातं अभूतमवियमानमित्यर्थः क्रियते अभावात् ( वृ० प०४८७) ( वृ० प० ४८७ ) ५६. खपुष्पवत् ५७. यदि पुनरकृतमपि असदपीत्पर्य कियते तदा खर विषाणमपि क्रियतामत्वाविशेषात् ०१० ४५७) १. नारंभे इत्यादि आरंभकाले एव घटादिकार्यं न दृश्यते शिवाचऽद्धायां पिंडाद्यवस्थायामपि कार्य न दृश्यते किन्तु तदते स्थासादिक्रियावसाने कार्यं दृश्यते यतः क्रियाका कार्य न युक्तं किंतु स एवेति । ० ६, ७० ३३, ढाल २१४ २९१ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०—केयक श्रमण निग्रंथ जमाली नां ए अर्थ प्रति न श्रद्धं । तेहनुं मतजे कडेमाणे कडे कहितां करतो थको ते क्रियमाण - विद्यमान वस्तु, तेहनुं करिखूं पिण अविद्यमान वस्तु नुं करिवूं न हुवं । जिम आकाश ने विषे फूल न हुवै। छती वस्तु हुवै, अछती न हुवै। जो अछती हुवे तो खरविसाण पिण हुवै । अछतापणां नां अविशेष थकी ।' वली जे कीधां नुं करिखूं ते पक्ष नै विषे नित्यक्रियादिक दोष कह्या छै, ते अछता नुं करिवूं ते पक्ष ने विषे पिण तुल्य वर्ते । तथा निश्च अत्यंत अछतो न करियै असद्भाव थकी, खर विसाण नीं परं । अथ अत्यंत अछतो पिण करिय तिवारे नित्य ते अछतो करण प्रसंग । वली अत्यंत अछता करण के विषे क्रिया समाप्ति न हुवै। तथा अत्यन्त अछता नां करण के विषे क्रिया नों विफल पणों अछतापणां थकीज खरविसाण नीं परं । अथवा अविद्यमान नो करणो अंगीकार कीधे छते नित्यक्रियादिक दोष कष्टतरका हुवे अत्यंत अभाव रूपपणां थकी। विद्यमान पक्ष ने विषे तो पर्याय विशेषण अर्पण थकी क्रिया व्यपदेश पिण हुवै यथा आकाशं कुरु तथा वली नित्य क्रियादिक दोष न हुवै वली अत्यंत अछता खरविषाणादिक ने विषे ए न्याय न हुवै। जे वली का पूर्व अछतो हीज ऊपजतो थको रोहनं विषे कहिये जो पूर्व न यूँ तो तो दी किण कारण थकी तुझ ने खरविषाण पिण न दीसँ । बली कहा दीर्घ क्रियाकाल दी तेहने विषे कहिये प्रति समय उत्पन्न होवा वाली परस्पर किंचिद भिन्न रूपवाली स्थास कोशादिक प्रारम्भ समय नै विषय पिण त्यार होवा वाली घणी कार्य कोटी नो पिण दीर्घ क्रियाकाल दी, तदा इहां घटनों स्यूं ? जेणे करी कहिये छँ दीस छँ दीर्घ क्रिया काल घटादिक नुं इति । - २९२ दीस इति प्रत्यक्ष विरोध तो पूर्व न युं छतो वली जे क ु-नारंभ एव दृश्यते इत्यादि, घट नां आरंभ ने विषे घट न दीर्स, तेहनुं उत्तर कहे अनेकार्य आरंभ में विये अनेरी कार्य किम दीखें, पट नां आरंभ में विषै जिम घट न दीस तिम शिवक अनैं स्थासकादिक कार्य विशेष घट स्वरूप न हुवै तिण कारण थकी शिवकादिक काल नैं विषे किम घट दीसे इति । वलि स्यूं अंत समय में विषेहीज घट प्रारंभ्यो, तिण काल न विषेहीज ए घट दी, तिवारी कांइ दोष ? इम क्रियमाण कहितां करिया लागो ते कीधूं हुवै क्रियमाण समय निरंशपणां थकी । अन जो वर्तमान समय क्रिया काल ने विषे पिण अणकीधी वस्तु, तिवारी अतिक्रमे छते किम करियूँ ? अथवा किम आगामी काले ? क्रिया नां उभय काल न विषे पिण विनष्ट अने अनुत्पन्नपणे करी असतपण चकी असंबध्यमानपणां वकी ते भगी किया कालहीन क्रियमाण कहितां करिया लागो ते कृतंहिता की कहिये आप १. यह वार्तिका टीका के आधार पर की हुई है । प्रथम पेराग्राफ की टीका ऊपर के चार सोरठों के सामने आ गई। इसलिए वार्तिका के सामने उसे नहीं रखा गया। भगवती-जोड़ - वा० अपि च कृतकरणपक्षे नित्यक्रियादयो दोषा भणितास्ते च असत्करणपक्षेऽपि तुल्या वर्त्तन्ते, तथाहिनात्यन्तमसद् क्रियतेऽसद्भावात् खरविषाणमिय, अधारयन्ता सदपि क्रियते तदा नित्यं तत्करणप्रसङ्गः, न चात्यन्तासतः करणे क्रियासमाप्तिर्भवति, तथाऽत्यन्तासतः करणे क्रिया वैफल्यं च स्यादसत्वादेव रविषाणवत्। अथ च अविद्यमानस्य करणाभ्युपगमे नित्यक्रियादयो दोषाः कष्टतरका भवन्ति, अत्यन्ताभावरूपत्वात् खरविषाण इवेति विद्यमानपक्षे तु पर्यायविशेषेणार्पणात् स्यादपि क्रियाव्यपदेशो यथाऽऽकाशं कुरु, तथा च नित्यक्रिया - दयो दोषा न भवन्ति, न पुनरयं न्यायोऽत्यन्तासति खरविषाणादावस्तीति यच्चोक्तं पूर्वं मसदेवोत्पद्यमानं दृश्यत इति प्रत्यक्षविरोधः, तत्रोच्यते, यदि पूर्वमभूतं सद्भवदृश्यते तदा पूर्वमभूतं सद्भवत् कस्मात्त्वया खरविषाणमपि न दृश्यते । 'पयोक्तं दीर्षः किल दृश्यते तत्रोच्यते प्रतिसमयमुत्पन्नानां परस्परेपनि सुबीनां स्थासकोसादीनामारम्भसमयेष्वेव निष्ठानुयायिनीनां कार्यकोटीनां दीर्घः क्रियाकालो यदि दृश्यते तदा किमत्र घटस्यायातं ? येनोच्यते दृश्यते दीर्घश्च क्रियाकालो घटादीनामिति चोक्तं नारम्भ एवं दृश्यते इत्यादि तत्रोच्यते कार्यारम्भे कार्यान्तरं कथं दृश्यतां पारम्भे पटवत् ? शिवकस्थासकादयश्च कार्यविशेषा घटस्वरूपा न भवन्ति, ततः शिवकादिकाले कथं घटो दृश्यतामिति ? कृतमिति किंच अन्त्यसमय एव घटः समारब्धः ? तत्रैव च यद्यसौ दृश्यते तदा को दोष ? एवं च किमान एव कृतो भवति क्रियमाणमवस्य निरंशस्यात् यदि च संप्रतिसमये क्रियाकाले वस्तु तदाऽतिक्रान्ते कथं कथं या एष्यति ? क्रियाया उभयोरपि विनष्टत्वानुत्पन्नत्वेनासत्त्वादसम्बध्यमानत्वात् तस्मात् क्रियाकाल एव क्रियमाणं - - --- Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरां नों ए पक्ष - अणकीधा प्रतं न करिये किण कारण थकी, अभाव थकी आकाश- पुष्प नीं परं । अथवा अकृत ते अविद्यमान प्रते पिण करिये तो खर के श्रृंग पिण करियै । ननु शब्द निश्चय अर्थ नं विषे । जे नित्य क्रियादिक दोष कृत करण पक्ष विषे तुम्हे कह्या ते असत करण पक्ष ने विषे पिण तुल्य वा कष्टतरका हुवे । तथा तुम्हारे मते पूर्वे न ययुं ते धातो दी, तिको नहीं जो अगाधुं बातो दी तो खर-विसाण पिण किम न दीस। समय-समय प्रति ऊपनां परस्पर विलक्षण अति बहु स्थासकोसादिक कार्य कोटि नौ दीर्घ क्रियाकाल जो दीसे तो इहां कभी कि कहि ? अन्य कार्य नां प्रारंभ ने विषे अन्य कार्य किम दीखें, जिम पट नां आरंभ न विषे घट नीं परं । सिवक अनै स्थासकादिक कार्य विशेष घट सरूप न हुवै, ते भणी सिवकादि काल ने विषे घट किम दीस । अंत समय ने विषेहीज घट प्रारंभ्यो तिणहिज समय नं विषे ए घट दीसँ तिवार कांइ दोष ? एतले कांइ पिण दोष नथी । अनें जो संप्रति वर्त्तमान काल नं विषे अगकीधो हुवे तो अतीत काल में विधे किम क अनं अनागत काल नैं विषे किम करिये इत्यादि बहु विस्तार ते विशेषावश्यक ग्रंथ थकी जाणवो । ५८ * तिहां जे तेह श्रमण निग्रंथ, जमाली अणगार नो वच सद्दहंत । प्रतीते रुचे ते जमाली प्रतेह, अंगीकार करी विचरेह || - 1 ५१. तिहां जे तेह श्रमण निर्बंध जमाली नां ए अर्थ नें नहीं सद्दत । नहीं प्रतीते न रुचं लिगार, ते जमाली अणगार नां कनां थी तिवार ।। दर राजा आह च थेराण मयं नाकयमभावओ कीरए खपुष्कं व । अहव अकपि कीरइ कीरउ तो खरविसाणंपि ॥ चिकिरियादोसा न तुला असइतरया वा । पुव्वमभूयं च न ते दीसइ कि खरविसाणंपि ? पइसमउप्पन्नाणं परोप्परविलक्खणाण सुबहूणं । दीहो किरियाकालो जइ दीमइ किं च कुंभस्स ॥ अन्नारंभ अन्नं किह दीसउ ? जह घड़ो पडारंभे । सिवगादओ न कुंभो किह दीसउ सो तदद्धाए ? अंते च्चिय आरद्धो जइ दीसइ तंमि चेव को दोसो ? अकयं च संपइ गए किहु कीरउ किह व एसंमि ?" इत्यादि बहु चतव्यं तच्च विशेषावश्यकादयगन्तव्यमिति । ( वृ० प०४८७, ४८८) ५८. तत्थ णं जे ते समणा निग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयम सद्दति पत्तियंति रोयंति, ते णं जमालि चेव अणगारं उपसंपज्जिता पं विहरति । ५६. तत्थ णं जे ते समणा निग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एनोतिनो पतित मोरोपं जमालिस्स अणगारस्स अंतियाओ १. स्थविराणामयं पक्ष : नाऽकृतं क्रियते कस्मात् अभावात् खपुष्पवत् अथवा कृतमपि क्रियते तदा खरविषाणमपि क्रियताम् । २. नच्चेत्यादि ननु इति निश्चये ये नित्यक्रियादयो दोषाः कृतकरणपक्षे त्वया भणितास्ते सत्करणपक्षेपि तुल्याः कष्टतरका वा भवति । तथा तव मते पूर्वमभूतं भवद् दृश्यते तन्न यदि दृश्यते तदा खरविषाणमपि कथं न दृश्यते । ३. समेत्यादि प्रतिसमयोत्पन्नानां परस्पर विलक्षणानां सुबीनां स्वासकोधादीनां कार्यकोटीनां दीर्घः शियाकालो यदि दृश्यते तदात्र कुंभस्य किमायातं न किमपीति । ४. अणामेत्यादि अन्यारंभेश्यत् कथं दृश्यतां यथा पटारंभे टवत् शिवकादयश्च कार्यविशेषा घटस्वरूपा न ततः तदद्धाए शिवकादिकाले स घटः कथं दृश्यतामिति । ५. अन्तेच्चियेत्यादि अन्त्यसमये एव घटः प्रारब्ध:, तंमिसमये यदि दृश्यते घटे सदा को दोष: ? न को पीति । यदि च संप्रति वर्त्तमाकालेऽकृतं तदागतेऽतीते काले कथं क्रियतां कथं वा एष्यति काले चेति । ० ६, उ० ३३, ढाल २१४ २६३ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. ते कोट्ठग बाग थकी निकलंत, पूर्वानुपूर्वी गमन करत। ग्रामानुग्राम विचरता सोय, जिहां चंपा नगरी अवलोय ॥ ६१. जिहां पूर्णभद्र चैत्य सुमीर, जिहां श्रमण भगवंत महावीर । तिहां आवै आवी गुणगेह, श्रमण भगवंत महावीर प्रतेह ।। ६२. जीमण पासा थी त्रिणवार, प्रदक्षिणा करता सुविचार। वांदै स्तुति करत उदार, नमस्कार करै करीनै तिवार । ६३. श्रमण भगवंत महावीर प्रतेह, अंगीकार करी विचरेह । जमाली नै छोड्यो खोटो जाण, प्रभु तणे पगे लागा आण ।। ६४. तिवारै ते जमाली अणगार, कदाचित् अन्य दिवस किणवार। ते रोगांतक थकी विप्रमुक्त, हृष्ट थयुं गद रहित प्रयुक्त ।। ६५ तनु बलवंत थयुं जिह वार, सावत्थी नगरी थी अवधार। कोटग बाग थकी निकलेह, बाग थकी निकली नै तेह ।। ६६ पूर्वानुपूर्वी गमन करत, ग्रामानुग्राम प्रतै विचरंत । जिहां चंपा नगरी अवधार, जिहां पूर्णभद्र चैत्य उदार ॥ ६७. श्रमण भगवंत महावीर छै जेथ, तिहां आवै आवी नै तेथ । श्रमण भगवंत महावीर नैं जास, नहिं अति दूर नै निकट विमास ।। ६८. इम रहि श्रमण भगवंत प्रति ताय, महावीर ने वर्दै इम वाय । जिम देवानुप्रिया नां जाण, बहु शिष्य अंतेवासी पिछाण ।। ६९. श्रमण निग्रंथ छद्मस्थ थका जेह, गुरुकुलवास थी नीकल्या तेह । तिम छद्मस्थ थको हूं ताय, निश्चै गण थी निकल्यो नांय ।। ६०. कोटगाओ चेइयाओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता पुवाणुपुवि चरमाणा गामाणुग्गामं दूइज्जमाणा जेणेव चंपा नयरी ६१. जेणेव पुग्णभद्दे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर ६२. तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, करेत्ता बंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता ६३. समणं भगवं महावीरं उवसंपज्जित्ता णं विहरति । (श० ६।२२६) ६४. तए णं से जमाली अणगारे अण्णया कयाइ ताओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के हठे जाए, अरोए ६५. बलियसरीरे सावत्थीओ नयरीओ कोट्ठगाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता ६६. पुव्वाणुपुदिव चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, ६७. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा गच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ६८. ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-जहा ण देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी ६६. समणा निग्गंथा छउमत्थावक्कमणेणं अवक्ता , नो खलु अहं तहा छउमत्थावक्कमणेणं अवक्कते 'छउमत्थावक्कमणेणं' ति छद्मस्थानां सतामपक्रमणं गुरुकुलान्निर्गमनं छद्मस्थापक्रमणं तेन ७०. अह णं उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते। (श० ६।२३०) ७०. हं उत्पन्न नाण दंसण धार, केवलज्ञान दर्शन छतूं सार । जिन अरिहंत रु केवली थाय, छते गण थी निकल्यू ताय ।। यतनी ७१. तब भगवंत गोतम जेह, जमाली अणगार प्रतेह । इम बोलै वचन विचार, अहो जमाली ! निश्चै तूं धार ।। ७२. केवली रे दर्शण ज्ञान, गिरि थंभ थूभे करि जान । थोड़ो सो नहीं आवरै ताय, तथा विशेष आवरियै नांय ।। ७३. जो तुम्है जमाली धार, उत्पन्न ज्ञान दर्शण धरणहार । जिन केवली अरिहंत थाय, केवल छते निकलियं ताय । ७४. तो ए दोय प्रश्न कहो न्हाली, शाश्वतो छ लोक जमाली ! के लोक अशाश्वतो जाणी, ए प्रथम प्रश्न पहिछाणी ॥ ७५. शाश्वतो छ जीव जमाली ! कै जीव अशाश्वतो न्हाली। ए द्वितीय प्रश्न नो जाब, तुम्है उत्तर देवो सताब । ७६. जमाली अणगार तिवार, भगवंत गोतम इम का सार । संकित कांक्षित जेह, कलुषभाव सहित थयुं तेह ।। ७१,७२. तए णं भगवं गोयमे जमालि अणगारं एव वयासी-नो खलु जमाली ! केवलिस्स नाणे वा दसणे वा सेलसि वा 'थंभंसि वा' थूभंसि वा आवरिज्जइ वा निवारिज्जइ वा 'आवरिज्जइ'त्ति ईषव्रियते 'निवारिज्जइ'त्ति नितरां वार्यते प्रतिहन्यत इत्यर्थः (व०प०४८८) ७३. जदि णं तुमं जमाली! उप्पन्ननाण-दंसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते ७४. तो ण इमाई दो वागरणाई वागरेहि-सासए लोए जमाली ! असासए लोए जमाली? ७५. सासए जीवे जमाली ! असासए जीवे जमाली ? (श० ४।२३१) ७६. तए णं से जमाली अणगारे भगवया गोयमेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए जाव (सं० पा०) कलुससमावण्णे जाए यावि होत्था । २६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७. नो संचाएति भगवओ गोयमस्स किंचि वि पमोक्ख माइक्खित्तए तुसिणीए संचिट्ठइ। (श० ६।२३२) ७८. जमालीति समणे भगवं महावीरे जमालि अणगारं एवं वयासी७६. अत्थि णं जमाली! ममं बहवे अंतेवासी समणा ___निग्गंथा छउमत्था, जे णं पभू । ८०,८१. एवं वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं, नो चेव ण एतप्पगारं भासं भासित्तए जहा णं तुम ७७. नहीं समर्थ गोतम प्रतेह, किंचत पिण उत्तर देवो जेह । मौनपणे रहै तिहवार, हिव भाखै श्री जगतार ।। ७८. अहो जमाली ! इम आमंत्रह, श्रमण भगवंत महावीर जेह । जमाली अणगार प्रतेह, इम भावं प्रभु गुणगेह ।। ७६. अहो जमाली! म्हारा जाण, बहु अंतेवासी पिछाण। श्रमण निग्रंथ छद्मस्थ ताय, तिके समर्थ छै अधिकाय ॥ ८०. ए प्रश्न नां उत्तर देवां, जिम हूं कहूं तिम स्वयमेवा । नहि निश्चै एण प्रकार, भाषा बोलवा ने अवधार ।। ८१. जिम तूं कहै हूं सर्वज्ञानी, तिम कही न सके सुजानी। इम कहि प्रभु उत्तर आखे, साक्षात देखै तिम दाखे ।। वा०-एतावता अम्हे जिम कहूं छू प्रश्न नां उत्तर तिम प्रश्नोत्तर कहिवा ने ते मुनि समर्थ छै। पिण जिम तू छद्मस्थ थको कहै छै हूं केवली छु, एहवो वचन ते श्रमण निग्रंथ कही सकै नहीं। एम कही नै भगवान प्रश्नां नों उत्तर आख यतनी ८२. शाश्वतो छ लोक जमाली ! जे न कदापि न हवो न्हाली। अनादिपणां थी जाणी, कदे नहि हुओ तिम नहिं ठाणी ॥ ८३ नहिं कदापि नहि हुवै जेह, सदैव भाव थी एह। नहि कदापि नहि लोग, अपर्यवसित भाव थी जोग ।। २४. तो मयूं तेत्रफी लोक वापोट, हुवे जिवां चै होस्यशेम सोच ८४. तो स्यूं ते भणी लोक ए जोय, हुवो हिरड़ा छ होस्यै ए सोय । तिण सं त्रिकाल भावीपणेह, ध्रुव अचल मेरु जिम एह ।। ८५. णितिए कहितां नियताकार, तिको नियतपणां थी विचार । शाश्वतो ते खिण-खिण प्रति जोय, अछता नां अभाव थी होय ।। ८२. सासए लोए जमाली ! जंन कयाइ नासि, 'न कयाइ नासी' त्यादि तत्र न कदाचिन्नासीदनादित्वात् (वृ० प० ४८८) ८३. न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ न कदाचिन्न भवति सदैव भावात् न कदाचिन्न भविष्यति अपर्यवसितत्वात् (वृ० प० ४८८) ८४. भुवि च भवइ य, भविस्सइ य-धुवे किं तर्हि ? 'भुवि चे' त्यादि ततश्चायं त्रिकालभावित्वेनाचलत्वाद् ध्र वो मेर्वादिवत् ध्रुवत्वादेव (वृ० प० ४८८) ८५. नितिए सासए 'नियतः नियताकारो नियतत्वादेव शाश्वत: प्रतिक्षण मप्यसत्त्वस्याभावात् शाश्वतत्त्वादेव (व०प० ४८८) ८६. अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए अक्षयः निविनाशः, अक्षयत्वादेवाव्ययः प्रदेशापेक्षया अवस्थितो द्रव्यापेक्षया (वृ०प० ४८८) ८७. निच्चे नित्यस्तदुभयापेक्षया, एकार्था वैते शब्दा: (वृ०प०४८८) ८८. असासए लोए जमाली! जं ओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, ८६. उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी भवइ ८६. अक्षय ते विनाश रहीत, अक्षयपणां थी संगीत । अव्यय ते प्रदेश अपेक्षाय, अवस्थित द्रव्य आश्रयी ताय ।। ५७. नित्य ते विहं नी अपेक्षाय, द्रव्य प्रदेश आश्रयी ताय । अथवा कह्या ए पद सात, एकार्थवाची अवदात ॥ ८८. अशाश्वतो ए लोक जमाली, तेहनों न्याय कहं सूविशाली। जे अवसप्पिणी थई नै अद्धा, उत्सप्पिणी थाय प्रसिद्धा ।। ९. उत्सप्पिणी थई पश्चात, अवसपिणी हुई विख्यात । कह्य लोक तणुं ए न्याय, हिव जीव नुं कहै जिनराय॥ * सुण रै जमाली ! प्रभूजी भाखै सुविशाली। (ध्रुपदं) १०.जीव शाश्वतो छ रे जमाली ! जे न कदापि न हुआ निहाली। ___यावत नित्य कहीजै ताय, ए द्रव्य जीव नुं अभिप्राय ॥ लय : दशकंधर राजा १०. सासए जीवे जमाली ! जं न कयाइ नासि जाव (सं० पा०) निच्चे। श०६, उ० ३३, ढाल २१४ २९५ Jain Education Intemational Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. अशाश्वतो जीव छ रे जमाली, नारकि थई तिर्यंच ह न्हाली । तिथंच थइ मनुष्यपणुं पाय, मनुष्य थई देवता थाय ।। ६२. तिण अवसर जमाली अणगार, श्रमण भगवंत महावीर सार। एम सामान्य थी कहितां सोय, जाव एम परूपतां जोय ।। ६३. एह अर्थ प्रति नहिं सद्देह, नहिं प्रतीते नहि रोचवेह । एह अर्थ प्रति अणसद्दहतो, अणप्रतीततो अणरोचवंतो॥ ६४- श्रमण भगवंत महावीर उदार, ज्यांरा समीप थी बीजी वार । स्वयमेव पोते नीकलै जेह, दूजी वार पोते निकली तेह ।। ६५. *बह असत्य अर्थ नों माण, प्रकट करिव करि पहिछाण । मिथ्यात्व नां उदय थकी अवधार, अभिनिवेश कदाग्रह करिने तिवार ।। १६. आतम फुन पर उभय प्रतेह, विरुद्धपणं करतूं अधिकेह । दुर्लभ बोधिपणुं कहिवाय, दग्ध बीज जिम करतो ताय ॥ ६७. बह वर्ष चारित्र पर्याय, पालै पाली में ते ताय । संलेखणा अर्ध मास नी जोय, आतम दुर्बल करै करी सोय । १८. तीस भक्त अणसण करि ताम, छेदै छेदी अवगुण-धाम । ते स्थानक नै अणआलोय, अणपडिकमिये जमाली जोय ।। ६६. काल में समय करीनैं काल, लंतक कल्प विषेज निहाल । सागर तेर तणे स्थितिकेह, उपनं सुर किल्विषिकपणेह ।। ६१. असासए जीवे जमाली! जणं नेरइए भवित्ता तिरिक्ख जोणिए भवइ तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, मणुस्से भवित्ता देवे भवइ । (श० ६।२३३) ६२. तए णं से जमाली अणगारे समणस्स भगवओ महा वीरस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स ६३. एतमढें नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, एतमट्ठ असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे ६४. दोच्चं पि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ __ आयाए अवक्कमइ, अवक्कमित्ता ६५. बहूहिं 'असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य 'असब्भावुब्भावणाहिं' ति असद्भावानां-वितथार्थानामुद्भावना-उत्प्रेक्षणानि असद्भावोद्भावनास्ताभिः 'मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य' त्ति मिथ्यात्वात्मिथ्यादर्शनोदयाद् येऽभिनिवेशा-आग्रहास्ते तथा तैः (वृ०प० ४८६) ६६. अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे 'बुग्गाहेमाणे' त्ति व्युद्ग्राह्यन् विरुद्धग्रहवन्तं कुर्वन्नित्यर्थः 'बुप्पाएमाणे' त्ति व्युत्पादयन् दुर्विदग्धीकुर्वन्नित्यतः। (वृ०प०४८६) ६७. बहूई वालाई सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसेत्ता १८. तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदेत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते ६६. कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोव मठितीएसु देवकिदिवसिएसु देवेसु देवकिदिवसियत्ताए उववन्ने । (श० ६।२३४) १००. तए णं भगवं गोयमे जमालि अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा गच्छइ, १०१. उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसिता एवं वयासी१०२. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से जमाली नाम अणगारे से णं भंते ! जमाली अणगारे काल मासे कालं किच्चा १०३. कहिं गए? कहिं उववन्ने ? गोयमादी ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी१०४. एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से जमाली नामं अणगारे से णं तदा मम एवमाइक्खमाणस्स एवं भासमाणस्स एवं पण्णवेमाणस्स एवं परूवेमाणस्स १००. ते भगवंत गोतम तिहवार, जमाली अणगार नै धार। काल गयो जाणी नैं ताय, वीर प्रभु पे आवी चलाय ।। १०१. श्रमण भगवंत महावीर पै आय, वंदै स्तुति करत सवाय । नमस्कार करै शीस नमाय, नमण करीनै वदै इम वाय । १०२. इम निश्चै देवानुप्रिया नों देख, अंतेवासी कूशिष्य विशेख । जमाली अणगार नीहाल, काल नैं समय करीने काल ।। १०३. किहां गयो नैं ऊपनो केथ, गोतम प्रति आमंत्री तेथ । श्रमण भगवंत महावीर सुहेम, भगवंत गोतम नैं भाख एम । १०४. इम निश्चै करि गोयम ! जगीस, म्हारो अंतेवासी कुशीष । जमाली नामैं अणगार, ते मुझ कहितां थका तिवार ।। *लय: मेरी खिण गई, लाखीणी रे मेरी खिण २९६ भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५. एह अर्थ प्रति नहिं संदेह, अणसद्दतो प्रतीततो नांय, १०६. मुझ पासा थी बीजी वार, बहु असत्य अर्थ नों माण, १०७. तिमहिज यावत ऊपनों जेह, इम सुनें गोयम गणधार, यतनी १०. हे भगवंत ! कि प्रकार, कह्या सुरकिल्बिधिक विचार। तत्र जिन भाखै अवदात, सुर किल्विषिक त्रिविध आख्यात || १०२. जे जिम तिम हिव कहिये, त्रिण पत्योपय स्थितिका लहिये । बली तीन सागर स्थितिकेरा, तेरे सागर स्थितिका हेरा ॥ वहा ११०. तीन पल्योपम स्थितियुता, सुर किल्विषिक किहां बसे भगवंत जी ? हिव जिन उत्तर १११. अमर ज्योतिपि ऊपर, सौधर्म ईशाण तीन पल्योपम स्थितियुता, इहां वसे ते नहीं प्रतीत करे न रुचेह अणरोचवतो भकोज ताय ॥ पोते निकले निकली तिवार प्रगट करिवै करी अयाण ॥ सुर किल्विपिकपणां नैं विषेह | प्रश्न करें प्रभु ने तिहवार ।। ११४. नेर सागर नीं स्थितिका, सुर किल्विषिका किहां वसै छै हे प्रभु ! जिन भाखै ११५. ब्रह्मलोक तेर ११२. त्रिण सागरोपम स्थितिका, जे किल्विषिका देव । किहां वसै भगवंत जी ? प्रभु कहै सुण शिष्य ! भेव ॥ ११२. सौधर्म ईशाण ईशाण ऊपरै, तृतीय तुर्य कल्प हेठ । तु त्रिण सागरोपम स्थितिका, इहां वसं ते नेठ ।। ११६. सुर किल्विषिका भगवान, सुर किल्विधिका जपणेह देव । स्वयमेव ॥ कल्प उपरे, लंतक कल्प नैं हेठ । सागर नीं स्थितियुता, इहां वसे ते नेठ ॥ पतनी ११७. जिन भाए प्रत्यक्ष जे उपाध्याय तणां प्रत्यनीक, ११. गणनां प्रत्यनीक पिछाण, आचार्य उपाध्याय नां पेख, ११६. अवर्णवाद नां बोलणहार, अयश अवर्ण अकीर्ति केरा, जेह | देह | हेठ । नेठ ।। कुण कर्म हेतु करि जान । अवतार हुवे तमु जेह ? प्रत्यनीक आचार्य नां तेह कुल नां प्रत्यनीक अलीक ॥। संघ नां प्रत्यनीक अजाण । अयश नां करणहार विशेख ॥। वले अकीर्ति नां करणहार | त्रिहुं पद नां अर्थ हिव हेरा ॥ सोरठा १२०. सह दिविगामी हीज, यश कहिये थे तेहने | निषेध थकीज, तास अयशकरा कहिये तसु । १०५. एतमट्ठ नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, एतमट्ठ असहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमा १०६. दोच्चं पि ममं अंतियाओ आयाए अवक्कमइ, अवनकमत्ता वहूहि असमानुभावणा हि १०७. तंव जा देव (सं० पा०) किविसिवत्ताए उववन्ने । ( श० ६ २३५ ) १०८. कतिविहा णं भंते! देवकिव्विसिया पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा देवकिव्विसिया पण्णत्ता १०. तं जहातिपओिमदिया, तिसागरोवमदिया, तेरससागरोवमट्टिया (०२।२३६) ११०. कहि गं भंते! तिपलिलोमडिया देवकिलिसिया परिवसंति ? १११.गोमा विवाणं हिटि सोहम्मी कप्पे एव पं तिपतिमोमया देवसिया परिवसति । ( श० ६ २३७ ) ११२. मंतिसागरोवमट्टिश्या देवकिपिसिया परिवसंति ? ११३. गोयमा ! उपि सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं, हिट्ठि सकुमार माहिदे कप्पे एत्य णं तिसागरोवमद्विश्या देवकिपिसिया परिवर्तति (०२।२३८ ) ११४. कहिं णं भंते! तेरससागरोवमट्टिइया देवकिव्विसिया परिवसंति ? ११२. गोमा उधि बंगलो कव्वस्व हिंदुत कप्पे एवं णं तेरससाग रोवमइया देवकिपिसिया देवा परिवसति । ( श० ६ २३९ ) ११६ देवसिया भंते! केतु कम्पादाणे देवकिव्विसियत्ताए उववत्तारो भवंति ? 'केसु कम्मादाणेगु' ति केषु कर्महेषु विस्वर्थः ( ० १०४८१) ११७. गोयमा ! जे इमे जीवा आयरियपडिणीया, उवज्झायपडिणीया, कुलपडिणीया, ११. गणपडिणीया, संपपक्षिणीवा आपरिय-उपायान अयसकारा ११६. अवण्णकारा अकित्तिकारा 1 १२०. 'अजसकारगे' त्यादी सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिर्यशस्तस्वतिषेधादयः (१० १०४०९) श० ६, उ० ३३, ढाल २१४ २६७ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१. अवर्ण अप्रसिद्धि मात्र, इक दिशगामी विमात्र, १२२. * बहु असत्य अर्थ नों माण, तसु कारक अवर्णकरा । अप्रसिद्धि अकीति हूं ॥ प्रगट करिव करि पहियाण । मिथ्यात्व नां उदय थकी अवधार, अभिनिवेश कदाग्रह करिनें तिवार ।। १२३. आतम फुन पर उभय प्रतेह विरुद्धपणुं करवूं अधिकेह | दग्ध बीज जिम करतो ताय ।। दुर्लभ बोधिपणुं कहिवाय, १२४. वह वर्ष चारित्र पर्याय पाल पाली में ते ताय । अणपडिकमियै पिण ते जोय ॥ यां हिं माहिलो एक निहाल । ते अन्यतर किल्विष सुर मांय किल्विष सुरणें उपजे जाय ।। १२६. ते जिम छै तिम कहिये तेह, तीन पल्योपम स्थितिक विषेह । अथवा त्रिण सागर स्थितिकेह, तथा तेर सागर स्थितिक विषेह || ते स्थानक नैं अणआलोय, १२५. काल ने समय करीनें काल, १२७. सुर किल्विषक हे भगवान! ते सुरलोक थकी पहिछान । आयु क्षय भव क्षय करि आम, स्थिति क्षय करिने ते सुर ताम । १२. अंतर रहित चवी किहां जाय, किण स्थानक से उपजे ताय ? जिन कहे जाव चत्तारि पंच नारक तिरि मनु सुर भव संच ॥ , १२. संसार भ्रमण करीनें जेह, तठा पछै सी बुह । जावत अंत करें अवलोय के किल्मिपिका एहवा होय ॥ १३०. केयक आदि रहित ते धार, अंत रहित पिण तेह विचार । दीर्घ अढा चिहुं गति संसार अटवी मांहे भनिराधार ।। १३१. हे प्रभुजी ! जमाली अनगार, अरस आहार मो कारक धार विरस आहार तणो करणहार, अंताहारि पंत आहारि विचार || १३२. लुक्ख आहारी तुच्छ आहारी जेह, अरस आहार करिने जीवेह | यावत तुच्छ आहार करि जाण, जीविवानुं तनु शील पिछाण ॥ १३३. उपशांत अंतर्वृत्ति करेह, जीविवा नुं तसुशील सुलेह । इमहिज प्रशांत वृत्ति हुंत, णवरं बाहिर वृत्ति प्रशंत ॥ १३४. विवित्तजीवी ते स्त्रियादि रहीत, सेज्या संथारा नौ भोक्ता संगीत । जिन कहै हंता गोयम ! बार, अरस आहार जमाली अणगार ॥ वलि पूछे गोयम ऋषिराय । अरस आहारी ते अवधार ॥ १३५. जाब विवक्तजीवी कहिवाय, जो प्रभुजी ! जमाली अणगार, *लय : मेरी खिण गई, लाखीणी रे मेरी खिण २१० भगवती जो १२१. अवर्णत्वप्रसिद्धिमात्रम्, अकीत्तिः मिम्पप्रसिद्धिरिति पुनरेकदिग्गा ( वृ० प० ४५६, ४६० ) १२२. भावणाहि मिच्छत्ताभिनिव १२३. अपरं च तदुभयं च म्हामाणा बुध्याएमाया १२४. बहू बसाई सामरियागं पाठति, पाठणिता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता १२४. कानमा कार्य किन्वा अणवरेषु देवकिपिसिए देवकिवियित्ताए उपवत्ता भवंति १२६. तं जहातिपलिओवमट्ठितिएसु वा तिसागरोवमट्ठितिएसु वा तेरससागरोवमट्ठितिएसु वा । ( श० ९।२४० ) १२७. देवकिव्विसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउ क्खणं, भवक्खएणं, ठितिक्खएणं १२८. अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छति ? कहि उववज्जंति ? गोयमा ! जात्र चत्तारि पंच नेरइय- तिरिक्खजोपिय-मगुस्स देवभवम्महगाई १२. संसारं परिट्टता तो पच्छा सिति बुज्झति जाब (सं० पा०) अंत करेति पाउ १०. गतिया अणावीय अणनदीम संसार-तारं अणुपरिपति । ( ० ९२४१) १३१. जमाली णं भंते! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे १२२. तूहाहारे तुच्छाहारे अरमजीवी जाव (सं०पा० ) तुच्छीवी १३३. उवसंतजीवी पसंतजीवी 'संवित्ति उपास्य जीवतीत्येवं शील उपशान्तजीवी एवं प्रशान्तजीवी नवरं प्रशान्तो बहिया ( वृ० प० ४६० ) १३४. विवित्तजीवी ? हंता गोयमा ! जमाली णं अणगारे अरसाहारे विरसाहारे 'विविसी त्ति इविवि वितइति । प्रादिसंसक्तावना ( वृ० प० ४९० ) १३५. जाव विवित्तजीवी । ( ० २०२४२) जति णं भंते ! जमाली अणगारे अरसाहारे विरसा हारे Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६. जावित्री सुविचार, तो किण कारण जमाली अणगार काल नें समय करीने काल, लंतक कल्प विषे ते न्हाल ॥ सुर किल्विधिका नज विषे कहै गोयम ! सुण चित ल्याय ॥ आचार्य नं ते प्रत्यनीक । प्रत्यनीक निदक पहिछाण ॥ तेहनुं अयशकारक अधिकाय । दग्ध बीज करतो अवलोय || पाली अर्द्धमास नीं ताय तीस भक्त अणसण कर छेद ॥ अणपड़िकमिये छते फुन जोय । लंतक कल्पे जाव उत्पन्न ॥ १३७. सागर तेर ती स्थितिह, देवपण ते ऊपनों जाय ? जिन १३८. जमाली अणगार अलीक, उपाध्याय नुं वलि ते जाग, १३६. आचार्य नै वलि उपाध्याय, अवर्णकारक जावत जोय, १४०. बहु वर्ष चारित्र पर्याय, संलेखणा करिनैं संवेद, १४१ तह स्थानक ने अणआलोय, काल ने समय काल कर जन्न, १४२. हे प्रभुजी ! जमाली देव, ते सुरलोक थकी स्वयमेव । आउसो क्षय करिने ताम, जावत उपजस्यै किण ठाम ? १४३. तब जिन कहै चत्तारि पंच, तिरि मनु सुर भव ग्रहण सुसंच । संसार भ्रमण करीनें तेह, तिवार पछै सीभस्यै जेह ॥ १४४. जायत करस्यै दुख न अंत, सेवं भंते! सेवं भंत तहत्ति भगवंत ! तहत्ति भगवंत ! आप तणां वच सत्य उदंत ॥ १४५. केइ जमाली नो भव पर कहंत, केई कहे भवबीज त केक सप्तबीस कहै ताय, निश्च जाणै श्री जिनराय ॥ सोरठा १४६. अथ श्री महावीर प्रव्रज्या ! इह विध प्रश्न प्रकार पूछये तसु १४. अवश्यंभावी होणहार, महानुभाव वा इहां गुण भगवंत, जे सर्वज्ञपणां थकी । सगलो ए वृत्तंत, जमाली नों जाणता || १४०. किम एहनें अवधार, दीधी प्रभु उत्तर हि ॥ मेटवा । देखी प्रभु । पिग समर्थ नहीं लिगार, भगवान, विधे । १४. अमूढ-लक्ष निष्प्रयोजन क्रिया प्रवर्त्ते प्रवसे नहीं सुजान, वृत्तिकार इम आखियो || १५०. वली जमाली चरणधर । सही ॥ लार, थया पंच सय भव घटता देखें १५१ इत्यादिक अवधार, वह गुण जाणी जमाली नं सार, दीक्षा दीघी फुन जिनेंद्र जगतार, प्रभु । दीपती ॥ १५२. *एह दोसौ ने चवदमी ढाल, नवसौ तेतीसमों अंक निहाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराम प्रसाद, 'जय जय' संपति सुखअहलाद ॥ नवमार्यः || ६|३३|| *लय : खिण गई रे, लाखीणी रे मेरी खिण १३६. जाव विवित्तजीवी कम्हा णं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे १३७. रसातिए देवकिपिसिएम देवे देवकिम्मत्ताए उपवन्ने ? १३८. गोयमा ! जमाली णं अणगारे आयरियपडिणीए, उपडीए १३६. आयरियउवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए जाव (सं० पा० ) वुप्पाएमाणे १४०. बहु वासाई सामापरिवार पाउण अनुमासि याए संलेहणाए तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता १४१. तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा तक जाय (सं० पा०) उववन्ने । ( श० ६।२४३ ) १४२. जमाली णं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएवं जाव (सं० पा०) कहि उबवहिति ? १४३. गोयमा ! चत्तारि पंच तिरिक्खजोणिय मणुस्सदेवभवगणाई ससारं अणुपरिपट्टित्ता तो पच्छा सिज्झिहिति १४४. जाव (सं० पा० ) अंतं काहिति । (श० ६।२४४ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( ० २२४४) १४६. अथ भगवता श्रीमन्महावीरेण सर्वज्ञत्वादमुं तद्यतिकरं जानताऽपि ( वृ० प० ४९० ) १४७ किमिति प्राजितोऽसौ ? इति उच्यते । ( वृ० प० ४६० ) १४०. अश्यम्भाविभावानां महानुभावैरपि प्रायोि माइत्यमेव गुणविशेषदर्शनाद् । १४. लक्ष हि भवन्तो प्रवर्त्तन्त इति ( वृ० प० ४९० ) न निष्प्रयोजनं क्रियासु ( वृ० प० ४९० ) श० ६, उ०३३, ढा० २१५ २६६ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २१५ दूहा १. तेतीसम उद्देश में, आख्या गुरु प्रत्यनीक । नाश तास निज गुण तणु, दाख्यो जिन तहतीक ।। २. च उतीसम उद्देश फुन, पुरिस नाश करि पेख । तेह थकी अन्य जीव नां, कहियै नाश विशेख ।। ३. तिण काले नै तिण समय, नगर राजगृह नाम । यावत गोतम वीर प्रति, प्रश्न करै छै ताम ।। *प्रश्न गोयम करै वीर प्रभु नैं ।। (ध्रुपदं) ४. पुरुष प्रभजी ! पुरुष प्रत जे, हणते छते इम भणियै रे लोय । पुरुष प्रतै स्यू तेह हण छै, के पुरुष थकी अन्य हणिय रे लोय? १. अनन्तरोद्देशके गुरुप्रत्यनीयकतया स्वगुणव्याघात उक्तं (वृ० प० ४६०) २. चतुस्त्रिशत्तमे तु पुरुषव्याघातेन तदन्यजीवव्याघात उच्यते (वृ० प० ४६०) ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी ५. जिन कहै पुरुष प्रतै पिण मार, नोपुरुष प्रतै पिण हणियै । किण अर्थे प्रभु ! हणें बिहूं मैं, हिव जिन उत्तर भणियै ।। [वीर प्रभु इम उत्तर देवै] ६. इम निश्चै हूं एक पुरुष प्रति हणूं, एहवी मन आणी। एक पुरुष प्रति हणतो थको ते, हणे अनेकज प्राणी ।। ४. पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं हणइ ? नोपुरिसे हणइ? 'नोपुरिसं हणइ' त्ति पुरुषव्यतिरिक्तं जीवान्तरं हन्ति (वृ०प०४६०) ५. गोयमा ! पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ । (श० ६।२४६) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ ? ६. गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ--एवं खलु अहं एग पुरिसं हणामि से णं एगं पुरिसं हणमाणे 'अणेगे जीवे' हणइ। (श० ६।२४७) सोरठा ७. जीव अनेकज ख्यात, जू कृमि गंडोलक प्रमुख । तसु तनु आश्रित घात, तिण अर्थे बिहुं नैं हणे ।। ८. अथवा तेहनों रूद्र', पड़तो बहु जीवां प्रतै । हणे तिको नर क्षुद्र, इम बह जीवां नैं हणे ।। है. अथवा शरीर तास, संकोचवै प्रसारवै। __ अन्य बहु जीव विणास, तिण कारण बहुं नै हण ।। १०. *पुरुष प्रभुजी अश्व प्रत जे, हणतो थको इग भणियै । अश्व प्रतै स्यं तेह हणे छ, के अश्व थकी अन्य हणिय ? ११. जिन कहै अश्व प्रतै पिण मारै, नोअश्व प्रतै पिण हणियै । किण अर्थे प्रभु ! हर्णे विहूं नै ? हिव जिन उत्तर भणियै ।। १२. इम निश्चै हूँ एक अश्व प्रति हणू एहवी मन आणी । एक अश्व प्रति हणतो थको ते, हणे अनेकज प्राणी ।। १३. तिण अर्थे करिनै इम भाख्यो, अश्व नोअश्व हणंतो। छण्णइ पाठ किहां क्षण धातु, हिंसा अर्थे वर्ततो।। १४. इम गज सीह नैं बाघ हणें ते, जाव चिल्ललग जाणी। अटवी जीव विशेष का ए, पूर्व रीत पिछाणी ।। ७,८. 'अणेगे जीवे हणइ' त्ति 'अनेकान् जीवान् यूकाश तपदिकाकृमिगण्डोलकादीन् तदाश्रितान् तच्छरीरावष्टब्धांस्तद्रुधिरप्लावितादींश्च हन्ति (वृ० प० ४६०) ६. अथवा स्वकायस्याकूञ्चनप्रसरणादिनेति (वृ० प० ४६१) १०. पुरिसे णं भंते ! आसं हणमाणे किं आसं हणइ ? नोआसे हणइ ? ११. गोयमा ! आसं पि हणइ नोआसे वि हणइ । से केणठेणं? १२,१३. अट्ठो तहेव । 'छणइ' त्ति क्वचित्पाठस्तत्रापि स एवार्थः, क्षणधातोहिसार्थत्वात् (वृ० प० ४६१) १४. एवं हत्थि, सीहं वग्घं जाव चिल्ललगं । (श० ६।२४८) *लय : देखो रे भोला चेते नां १. रुधिर ३०० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. पुरुष प्रभू ! जे एकज त्रस प्रति, हणतो थको आख्यातो। स्यू एकज त्रस तेह हण छ, के तेहथी अनेरा त्रस घातो ? १५. 'पुरिसे णं भंते ! अण्णयरं तस पाणं हणमाणे कि अण्णयरं तसं पाणं हणइ, नोअण्णतरे तसे पाणे हणइ? १६. जिन कहै इक त्रस पिण हण छ, तेहथी अनेरा पिण हणियै । किण अर्थे प्रभु ! हण बिहं नैं, हिय जिन उत्तर भणियै ।।। १७. इम निश्चै हूं एकज त्रस प्रति, हणू एहवी मन धारै । ते जीव इक जे त्रस हणतो. जीव अनेक संहारै ।। १८. तिण अर्थे कह्य इक त्रस हणतां, जीव अनेक हणीजै। ए गज प्रमुख नां सर्व अलावा, एक सरीखा कहीजै ।। १६. पुरुष प्रभूजी ! ऋषि साधु प्रति, हणते छते इम भणिये । स्य ऋषि मुनि प्रति तेह हण छ, के ऋषि थी अनेरा हणियै ।। २०. जिन कहै ऋषि प्रत तेह हर्णै छै, ऋषि थी अन्य पिण हणियै । किण अर्थे प्रभु ! हणें बिहूं नैं, हिव जिन उत्तर भणियै ।। १६. गोयमा ! अण्णयरं पि तसं पाणं हणइ, नोअण्णतरे वि तसे पाणे हणइ । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ १७. गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ - एवं खलु अहं एग अण्णयरं तसं पाणं हणामि, से णं एग' अण्णयरं तसं पाणं हणमाणे अणेगे जीवे हणइ । १८. से तेण→णं गोयमा ! तं चेव । एए सव्वे वि एक्कगमा।" (अं० सु० भाग २ पृ ४६३ टि ०४) 'एते सव्वे एक्कगमा' 'एते' हस्त्यादय, 'एकगमा:' सदृशाभिलापाः (वृ० प० ४६१) १६. पुरिसे णं भंते ! इसि हणमाणे कि इसि हणइ ? नोइ सि हणइ ? २०. गोयमा ! इसि पि हणइ, नोइसि पि हणइ । (श० ६२४६) से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-इसि पि हणइ नोइसि पि हणइ? २१. गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ–एवं खलु अहं एग इसिं हणामि, से णं एग इसि हणमाणे 'अणंते जीवे' हणइ। २१. इम निश्चै हं एक साधु प्रति, हणं एहवी मन धारै। एक साधु प्रति हणतो छतो ते, जीव अनंत संहारै। सोरठा २२. ते ऋषि कीधां काल, घातक अनंत न हवै। हुवै अविरती न्हाल, घातक अनंत नुं तिको॥ २३. अथवा ऋषि बहु जीव, प्रतिबोधै ते अनुक्रमे । शिव सुख लहै अतीव, सिद्ध अघातक अनन्त नां ।। २४. ते ऋषि नों वध कीध, प्रतिबोधादि हवै नहीं। तिण अर्थेज प्रसीध, ऋषि हणिवै जिय अनंत वध ।। २५. तिण अर्थे करने इम कहिये, ऋषि प्रति पिण हण सोह। साधु विना अन्य नों पिण घातक, एह निक्खेवो होइ।। २६. पुरुष प्रभु ! पुरुष प्रतै हणतो, स्यू पुरुष वैर करि फर्श । अथवा पुरुष थकी जीव अनेरा, तास वैर आकर्षे ? २७. श्री जिन भाच पुरुष हण्यां थी, निश्चै थी पहिछाणी। पुरुष वध पापे करि फर्श, ए धुर भंगो जाणी। २२. यतस्तद्घातेऽनन्तानां घातो भवति, मृतस्य तस्य विरतेरभावेनानन्त जीवघातकत्वभावात् (व०प०४६१) २३. अथवा ऋषिर्जीवन बहून् प्राणिनः प्रतिबोधयति, ते च प्रतिबुद्धाः क्रमेण मोक्षमासादयन्ति, मुक्ताश्चानन्ता नामपि संसारिणामघातका भवन्ति (व०प० ४६१) २४. तद्वधे चैतत्सर्वं न भवत्यतस्तद्वधेऽनन्तजीववधो भवतीति (वृ० प० ४६१) २५. से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-इसि पि हणइ, नोइसि पि हणइ। (श० ६।२५०) २६. पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे कि पुरिसवेरेणं पुढे ? 'नोपुरिसवेरेणं पुढे ?' २७. गोयमा ! नियम-ताव पुरिसवेरेणं पुढे पुरुषस्य हतत्वान्नियमात्पुरुषवधपापेन स्पृष्ट इत्येको भङ्ग (वृ० प० ४६१) २८. अहवा पुरिसवेरेण य नोपुरिसवेरेण य पुढे तत्र च यदि प्राण्यन्तरमपि हतं तदा पुरुषवरेण नोपुरुषवरेण चेति द्वितीयः। (वृ०प०४६१) २८. अथवा एक पुरुष नैं हणतो,इक जीव अन्य हणीजै । एक पुरुष इक नोपुरिस वध तसु, द्वितीय भंग इम लीजै ।। *लय : देखो रे भोला चेतं नां १. पन्द्रह से अठारह गाथा के सामने जो पाठ उद्धृत किया गया है, वह कई आदर्शों में नहीं है । अंगसुत्ताणि में उसे पाठान्तर के रूप में स्वीकृत किया है। यहां पाठान्तर का पाठ उद्धृत किया गया है । श० ६, उ० ३३, ढा० २१५ ३०१ Jain Education Intemational Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. अथवा एक पुरुष नै हणतो, बह जीव अन्य हणीजै । एक पुरुष बहु नोपुरुप वध तसु, तृतीय भंग इम लीजै ।। ३०. एम तुरंगम यावत इमहिज, चिल्ललग वन जीवो। त्रिण-त्रिण भांगा सह नां करिवा, जिन वचनामृत पीवो ।। ३१. पुरुष प्रभु ! ऋषि प्रतै हणतो, स्यं साधू वैर करि फर्श । अथवा ऋषि थकी जीव अनेरा, तास वैर करि दशैं? ३२. श्री जिन भाखै साधु हण्यां थी, निश्चै प्रथमज जोइ । इक ऋषि नैं ऋषि बिन अन्य बह ने वैर फयों होइ ।। २६. अहवा पुरिसवेरेण य नोपुरिसवेरेहि य यदि तु बहवः प्राणिनो हतास्तत्र तदा पुरुषवरेण नोपुरुषवरैश्चेति तृतीय: (वृ० प० ४६१) ३०. एवं आसं जाव चिल्ललगं । (श० ६/२५१) एवं सर्वत्र त्रयम् (वृ० प० ४६१) ३१. पुरिसे णं भंते ! इसि हणमाणे किं इसिवेरेणं पुठे ? नोइसिवेरेणं पुठे ? ३२. गोयमा ! नियम इसिवेरेण य नोइसिवेरेहि य पुढे । (श० ६/२५२) ३३. ऋषिपक्षे तु ऋषिवरेण नोऋषिवरश्चेत्येवमेक एव (वृ० प० ४६१) ३४. ननु यो मृतो मोक्षं यास्यत्यविरतो न भविष्यति तस्यर्वधे ऋषिवरमेव भवत्यतः प्रथमविकल्पसम्भवः (वृ० प० ४६१) सोरठा ३३. ऋषि पक्षे सुविचार, इक ऋषि ऋषि बिन अन्य बहु । ए तीजो भंग धार, एकहीज होवै अछै ।। ३४. अनंत जीव ऋषिपाल, ते मुनि नैं हणियां थकां । तेह मुनी करि काल, सुर व घाति अनंत नों। ३५. अनंत जीव नों जाण, वेरे फयों इह विधे। सुर ह संत सयाण, ते आश्री कह्य धर्मसी ॥ ३६. वत्ति विषे इम वाय, जो जे मुनि मर सिद्ध हुस्य । ऋषि वधवे करि ताय, ऋषि नों वैरज प्रथम भंग ।। ३७. अथ फुन चरम शरीर, निरुपक्रम आयुष्क जे। शिवगामी गुणहीर, तास हनन नहिं संभवै। ३८. धुर भंग ते किम होय, तिण सुं अचरम-तनु मुनि । __ तास अपेक्षा जोय, तृतीय भंग ए संभवै ।। ३६. जेह थकी अवलोय, यद्यपि चरमशरीरिक । निरुपक्रमज सोय, छै आयू जे मुनि तणों। ४०. तथापि तसु वध अर्थ, प्रवयों तिण कारण । वध भावेज तदर्थ, धुर भंग संभव सत्य इम ॥ ४१. फुन जे ऋषि न जोय, सोपक्रम आयूष थकी। पुरुष कृत वध होय, ते ऋषि आश्री सूत्र ए॥ ४२. ते ऋषि नों संहार, मुख्य वृत्ति स्यूं पुरुषकृत। होवै छै अवधार, वृत्तिकार इह विध का। ४३. *नवम शतक चउतीसम देशज, बेसौ पनरमी ढालो। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय, प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमालो।। ३७,३८. अथ चरमशरीरस्य निरुपक्रमायुष्कत्वान्न हननसम्भवस्ततोऽचरमशरीरापेक्षया यथोक्तभङ्गकसम्भव: (वृ० १० ४६१) ३६. यतो यद्यपि चरमशरीरो निरुपक्रमायुष्क: (वृ०प० ४६१) ४०. तथापि तद्वधाय प्रवृत्तस्य यमुनराजस्येव वैरमस्त्ये वेति प्रथमभङ्गकसम्भव इति सत्यं (वृ०प० ४६१) ४१. किन्तु यस्य ऋषेः सोपक्रमायुष्कत्वात् पुरुषकृतो वधो भवति तमाश्रित्येदं सूत्रं प्रवृत्तं (वृ०प० ४६१) ४२. तस्यैव हननस्य मुख्यवृत्त्या पुरुषकृतत्वादिति (वृ० १० ४६१) *लय: देखो रे भोला चेत नां ३०२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २१६ १. प्राग् हननमुक्तं, हननं] चोच्छ्वासादिवियोगोऽत उच्छ्वासादिवक्तव्यतामाह- (वृ० ५० ४६१) सोरठा १. पूर्वे वध अाख्यात, उश्वासादि वियोग ते । तिण सू हिव अवदात, उस्वासादिक नों कहं ।। *प्रभु वच प्यारा जी, हे देव जिनेन्द्र दयाल विश्व उजारा जी ।। (ध्रुपदं) २. पृथ्वीकाय प्रभु ! पृथ्वीकाय प्रति, आणपाण ते लेवै। उस्वास नै निःस्वास लेवै छै ? जिन कहै हंता वेवै ।। २. पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविक्कायं चेव आणमइ वा? पाणमइ वा ? ऊससइ वा ? नीससइ वा ? हंता गोयमा ! ............ (श० ६/२५३) सोरठा ३. इहां व्याख्या पूज्य कथित, जिण प्रकार कर वणस्सई। __ अन्य ऊपर अन्य स्थित, तेज खांचलै तेहनों। ४. पृथ्वी प्रमुख एम, अन्योऽन्य संबद्ध थी। पृथ्वी प्रतेज तेम, करै उस्सासादिक तिको । ५. तिहां इक पृथ्वी काय, स्व संबद्ध अन्य पृथ्वी प्रति । ___ करै उस्सासज ताय, तिण ऊपर दृष्टांत ए॥ ६. पुरुष उदर घनसार, तेह कपूर स्वभाव प्रति । कर उस्सास तिवार, इम अपकायिक प्रमुख पिण ।। ७. 'पृथ्वीकाय प्रभु आउकाय प्रति, आणपाण ते लेवै ? उस्वास नै निःस्वास लेवं छै ? जिन कहै हंता वेवै ।। ३. इह पूज्यव्याख्या यथा वनस्पतिरन्यस्योपर्यन्यः स्थित स्तत्तेजोग्रहणं करोति । (वृ० प० ४६२) ४. एवं पृथिवीकायिकादयोऽप्यन्योऽन्यसंबद्धत्वात्तत्तद्रूपं प्राणापानादि कुर्वन्तीति (वृ० १० ४६२) ५. तत्रैक: पृथिवीकायिकोऽन्यं स्वसंबद्धं पृथिवीकायिकम् अनिति-तद्रूपमुच्छ्वासं करोति (वृ० प० ४६२) ६. यथोदरस्थितकर्पूरः पुरुषः कर्पूरस्वभावमुच्छ्वासं करोति, एवमप्कायादिकानिति (वृ० प० ४६२) ७. पुढविक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं आणमइ वा जाव नीससइ वा? हंता गोयमा ! पुढविक्काइए णं आउक्काइयं आणमइ वा जाव नीससइ वा। ८-१०. एवं तेउक्काइयं, वाउक्काइयं, एवं वणस्सइकाइयं (श० ६/२५४) ८. पृथ्वीकाय प्रभु ! तेउकाय प्रति, आणपाण ते लेवै ? उस्वास नैं निःस्वास लेवै छै, जिन कहै हंता वेवै ।। ६. पृथ्वीकाय प्रभु ! वाउकाय प्रति, आणपाण ते लेवै ? उस्वास नै निःस्वास लेवै छै, जिन कहै हंता वेवै॥ १०. पृथ्वीकाय प्रभु ! वनस्पति प्रति, आणपाण ते लेवै ? उस्वास नैं निःस्वास लेवै छै? जिन कहै हंता वेवै ॥ ११, आउकाय प्रभु ! पृथ्वीकाय प्रति, आणपाण ते लेवै ? उस्वास नैं निःस्वास लेवै छै? जिन कहै हंता बेवै ।। ११. आउक्काइए णं भंते ! पुढविक्काइय आणमइ वा जाव नीससइ वा हंता गोयमा !..... (श०६/२५५) १२-१५. आउक्काइए णं भंते ! आउक्काइय चेव आणमइ वा? एवं चेव । एवं तेउ-वाउ-वणस्सइकाइयं । (श० ६।२५६) १२. आउकाय प्रभु ! आउकाय प्रति, आणपाण ते लेवै? उस्वास नैं निःस्वास लेवै छ ? जिन कहै हंता वेवै॥ १३. आउकाय प्रभु ! तेउकाय प्रति, आणपाण ते लेवै ? उस्वास नै निःस्वास लेवै छ ? जिन कहै हंता वेवै ।। १४. आउकाय प्रभु ! वाउकाय प्रति, आणपाण ते लेवै ? उस्वास नै निःस्वास लेवै छै? जिन कहै हंता वेवै ॥ *लय : साचू बोलोजी श०६ उ. ३४, ढाल २१६ ३०३ Jain Education Intemational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ? १५. आउकाय प्रभु ! वनस्पति प्रति उस्वास ने निःश्वास ले ? जिन १६. उकाय प्रभु ! पृथ्वीकाय प्रति उस्वास नैं निःस्वास लेवें छं ? १७. उकाय प्रभु ! आउकाय पति, उस्वास ने निःस्वास लेवे छे ? जिन कहै हंता वेयं ॥ १८. उकाउ प्रभु तेउकाय प्रति उस्वास ने निःस्वास लेवे १२. उकाय प्रभु ! वाकाय प्रति उस्वास ने निःश्वास लेवं छ ? २०. ते काय प्रभु वनस्पति प्रति, उस्वास ने निःस्वास लेवं छ? २१ वाउकाम प्रभु ! पृथ्वीकाय प्रति, आणपाण ते लेवे ? उस्वास ने निःस्वास लेवै छ ? जिन कहै हंता वेवे ॥ २२. वाउकाय प्रभु ! आउकाय प्रति, आणपाण ते लेवें ? उपास नैं निःस्वास ले ? जिन कहै हंता देवे ॥ २३. बाउकाय प्रभु ! तेउकाय प्रति आणपाण ते लेवं ? उस्वास ने निःस्वास लेवे आणपाण ते लेवं ? कहै हंता वेवे ॥ आपाच ते लेवे ? कहै हंता वेवे ॥ आणपाण ते लेवे ? जिन आणपाण ते जिन कहै हंता आणपण ते जिन कहे हंता देवे ॥ आणपाण ते लेवे ? जिन कहे हंता देवे ॥ लेवं ? देवे ॥ लेवे ? ? २४. वाउकाय प्रभु ! [! वाउकाय प्रति, उस्वास में निःस्वास ले छ ? २५. वाउकाय प्रभु ! वनस्पति प्रति, उस्वास नैं निःस्वास लेवै छै ? सेवं ? वेवे ॥ जिन कहै हंता वेयं ॥ आणपाण ते लेवें ? जिन कहे हंता देवे ॥ आणपाण ते लेवे ? जिन कहै हंता वेव || २६. वनस्पति प्रभु ! पृथ्वीकाय प्रति, आणपण ते उस्वास ने निःस्वास लेवे छ ? जिन कहै हंता २७. वनस्पति प्रभु ! आउकाय प्रति, आणपाण ते उस्वास ने निःस्वास लेवे ? जिन कहे हंता २. वनस्पति प्रभु! तेउकाय प्रति, आणपाण ते उस्वास ने निःस्वास लेवे ? जिन कहै हंता २६. वनस्पति प्रभु ! वाउकाय प्रति, आणपाण ते लेवे ? उस्वास ने निःस्वास लेवै छै ? जिन कहै हंता वेवै ॥ ३०. वनस्पति प्रभु ! वनस्पति न आणपाण ते लेवं ? उस्सास में निःस्वास लेवे ? जिन कहे हंता देवे ।। लेवे ? देवं ॥ लेवे ? वेवे ॥ सोरठा ३१. कह्या सूत्र पणत्रीस, क्रिया सूत्र पिण हिव कहूं । ते पणवीस जगीस, चित्त लगाई सांभलो ॥ ३२. * पृथ्वीकाय प्रभु ! पृथ्वीकाय प्रति, भ्यंतर ते आणपाण । वाह्य उस्वास - निस्सास लेवंतां, किती क्रिया तसु जाण ? ३३ श्री जिन भाखे कदाचि क्रिया त्रिण, कदा चि क्रियावंत । कदाचित पंच क्रियावंत हूँ हिव तर न्याय कथंत ॥ तसु " *लय : साचू बोलोजी ३०४ भगवती १६-३०. तेजक्काइए णं भंते! पुढविक्काइयं आणमइ वा ? एवं जाव वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणमइ वा ? तहेव । (१० २०२५७) २१. पञ्चवितान्येतानीति क्रियासूत्राम्यपि पञ्च विंशतिः । (बु० ५० ४९२) ३२. पुढविक्काइए णं भंते! पुढविक्काइयं चेव आणममाणे वा, पाणममाणे वा ऊससमाणे वा नीससमाणे वा कतिकिरिए ? ३३. गोमा यि तिकिरिए, सिप चउकिरिए सिय पंचकरिए। ( श० ६ / २५८ ) Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ३४. पृथ्वीकाय जिवार, उस्वास पृथ्वी नों लिये। न कर पीड़ तिवार, तसु काइयादिक त्रिण क्रिया । ३५. यदा पीड़ उपजाय, तदा क्रिया तसु च्यार ह। __ जीव घात जो थाय, पंच क्रिया तेहने हुवै ।। ३४. यदा पृथिवीकायिकादि: पृथिवीकायिकादिरूपमुच्छ्वासं कुर्वन्नपि न तस्य पीडामुत्पादयति स्वभावविशेषात्त दाऽसौ कायिक्यादित्रिक्रिय: स्यात् । (३०प०४६२) ३५. यदा तु तस्य पीडामुत्पादयति तदा पारितापनिकी क्रियाभावाच्चतुष्क्रियः प्राणातिपातसद्भावे तु पञ्चक्रिय इति । (वृ०प० ४६२) ३६. पुढविक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं आणममाणे ३६. *पृथ्वी प्रभु ! अपकाय प्रत जे, आणपाण लेवंत। एवं चेव इमज यावत ही, वनस्पति प्रति हुंत ।। वा? एवं चेव ! एवं जाव वणस्सइकाइयं । ३७. एवं आउक्काएण वि सव्वे भाणियव्वा । ३८,३६. एवं तेउक्काइएण वि, एवं वाउक्काइएण वि जाव (श०६/२५६) ४०. वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणम माणे वा-पुच्छा ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। (श०६/२६०) ३७. इम अप पिण मही अप तेउ प्रति, वाउ वनस्पति नों जाणी। आणपाणादि ले तो तसु किरिया, त्रिण चउ पंच पिछाणी ।। ३८. तेउकाय इम पृथ्वी अप तेउ प्रति, वाउ वनस्पति नों जोय । आणपाणादि ले तो तसु क्रिया, त्रिण चउ पंचज होय ।। ३६ वाउकाय इम पृथ्वी अप तेउ प्रति, वाउ वनस्पति न धारं । आणपाणादि ले तो तसु किरिया, त्रिण चउ पंच विचारं ।। ४०. वनस्पति इम पृथ्वी अप तेउ प्रति, वाउ वनस्पति नों शरीर । आणपाणादि ले तो तसु किरिया, त्रिण चउ पंच समीर ।। सोरठा ४१. कह्या सूत्र पणवीस, अन्योन्ये उश्वास नां। वली कह्या सुजगीस, पंचवीस क्रिया तणां ।। वा०-अथ इहां कह्यो-पृथ्वीकाय पृथ्वीकाय नो उश्वास लेवै यावत वनस्पति वनस्पति नो उश्वास लेवै अन तेहथी तेहन तीन, चमार, पांच क्रिया लागे । इहां पांच थावर नां मूकेलगा वायु रूप छ, तेहनो उश्वासादिक लेव इम सम्भव छ। भगवती शतक २१३ में कह्यो-चउवीस दंडक नां जीव उश्वास निश्वास लेवे द्रव्य थकी तो अनंतप्रदेशिक खंध नों, क्षेत्र थकी असंख्यात प्रदेशावगाढ नों, काल थकी अन्यतरथितिया नों, भाव थकी वर्णमंतादिक नों अन तेहथी आगला पाठ नी टीका में कह्यो-उश्वास नां पुद्गल वायु रूप छ अन वायु पिण ते अचित्त छ। ४२. "तेहथी इहां प्रतिपत्ति, पृथ्वीकाय पृथ्वी उदक । तेउ वाउ वनस्पत्ति, उश्वासादिकपणे लियै ।। ४३. इमज वनस्पति जाव, पृथ्वी अप तेउ वाउ तणों। वनस्पति तणों सुभाव, उश्वासादि लिये सदा ।। ४४. ए पंच थावर नां जाण, मूकेलगा पुद्गल सहु । वायु रूप पिछाण, तेहनो उश्वासादि लहै ।। ४५. हिव आशंका वलि थाय, मूकेलगा पुद्गल तणो । उश्वासादि लिराय, तो क्रिया तीन चिहुं पंच किम ।। *लय : साचू बोलो जी १. भगवई १७/१५ श.६,०३३, ढाल २१६ ३०५ Jain Education Intemational Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. तेहनो उत्तर एम, शतक भगवती सतरमैं । प्रथम उदेशे तेम, कहियो छै ते सांभलो।। ४७. मन वचन रा जोग, निपजावतां क्रिया किती ? त्रिहं चिहुं पंच सुयोग, निमल चित्त आलोचिये ।। ४८. मन वचन रा जाण, पुद्गल चउफर्शी कह्या । भगवती बारम' माण, पंचमुद्देशे पाठ ए।। ४६. चउफर्शी थी जाण, जीव-घात किम संभवै ? जीव-घात विण ताण, पंच क्रिया किम ह तदा ।। ५०. मन अरु वचन प्रयोग, निपजावै तिण अबसरे । वर्ते अशुभज जोग, तिणसं पंच क्रिया कही ।। ५१. तिमहिज श्वासोश्वास, वायु नो लेता थकां । अशुभ योग सुविमास, तिणसू तसु क्रिया कही॥" [ज० स०] वा०-इहाँ कह्यो पांच थावर नां मूकेलगा वायु रूप छ, ते उश्वासपणे लेतां अथवा लियां पर्छ अशुभ कार्य में प्रवत्त। तेहथी क्रिया लाग अन क्रिया लागवा रा अन्य पिण कारण घणां छै ते शास्त्र थी जाणवा । ५२. कह्यो क्रिया अधिकार, हिवै तेहिज क्रिया तणो । कहियै छै विस्तार, चित्त लगाई सांभलो ।। ५३. *वाउकाय प्रभु ! वृक्ष तणां जे, मूल प्रति हलावंतो। अथवा मुल प्रत पाडतो, तेह किती क्रियावंतो? ५४. श्री जिन भाखै कदाचि क्रिया त्रिण, कदा च्यार पंच किरिया। न्याय तास पूर्ववत कहिये, पवर बुद्धे उच्चरिया ।। सोरठा ५५. नदी भितादिक मांय, तरू-मूल होवै तदा। पृथ्वी में न टिकाय, कंपावै पाइँ पवन ।। ५२. क्रियाधिकारादेवेदमाह (वृ० प० ४६२) ५३. वाउक्काइए णं भंते ! रुक्खस्स मूलं 'पचालेमाणे वा' पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ? ५४. गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। ५६. पाड़तो तरु मूल, तीन क्रिया किम तेहनैं । परितापादिक स्थल, ते वायू नैं संभवै ॥ ५७. उत्तर कहिये जास, सूक गई जड़ तरु तणी। मूल अचेतन तास, तेह अपेक्षा इम वृत्तौ ।। ५८. *एवं तरु नों कंद चालवतो, इम जाव बीज चालत । त्रिण चउ पंच क्रिया पूर्ववत, सेव भंते ! सेवं भंत ।। ५५,५६. इह च वायुना वृक्षमूलस्य प्रचलनं प्रपातनं वा तदा संभवति यथा नदीभित्त्यादिषु पृथिव्या अनावृतं तत्स्यादिति । अथ कथं प्रपातेन त्रिक्रियत्वं परितापादेः सम्भवात् ? (वृ० प० ४६२) ५७. उच्यते, अचेत नमूलापेक्षयेति । (वृ० प० ४६२) ५८. एवं कंदं एवं जाव बीयं पचालेमाणे वा-पुच्छा ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श०६/२६१-२६३) ५६. नवम शतक च उतीस मुदेशक, बे सौ सोलमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरप विशाल । नवमशते चतुस्त्रिशोद्देशकार्थः ।।४।३४।। लय : साचू बोलो जी १. भगवई १२।११७ २. मन से मंत्र पढ़कर, वचन से मंत्र का जाप कर हिंसा करे, उससे पांच क्रिया लगती है। ३०६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational cation Intemational Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीतकछंद १. मम मन गगन तल नैं प्रचारी पार्श्व तरणी तेज थी। अति क्रूर मोह तम दूर कर भरपूर हर्षित हेज थी। २. वर रीति नवमा शतक नीं कर जोड़ रचना मनरली। गुरुदेव में प्रसाद करि मुझ प्रवर ही आशा फली। १,२. अस्मन्मनोव्योमतलप्रचारिणा; श्रीपार्श्वसूर्यस्य विसप्पितेजसा । दुधृष्यसंमोहतमोऽपसारणाद् विभत्तमेवं नवमं शतं मया ॥ (वृ० १०.४६२) .५७.३४, बाल २१६ ३०७ Jain Education Intemational Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम शतक ढाल : २१७ १. व्याख्यातं नवमं शतं, अथ दशमं कहिवाय ! पुनः तास संबंध ए, निसुणो चित्त लगाय ।। २. शतक अनंतर आखिया, जीवादिक नां अर्थ । प्रकारांतरे करि हिवै, कहियै तेह तदर्थ ।। ३. उद्देशक चउतीस तसु, दिशि आश्रित धूर देख । __ संवुडा अणगार नों, द्वितीय उद्देशक लेख । ४. आत्म ऋद्धि करि सुर सुरी, सुर वासंतर सोय । उल्लंघिय इत्यादि जे, तृतीय उद्देशे होय ।। ५. श्याम हस्ति महावीर शिष्य, प्रश्न तुर्य उद्देश । पंचम चमरादिक तणी, अग्रमहेषि विशेष ।। ६. सुधर्म सभा तणुं छर्छ, उत्तर दिशि अठवीस । अंतरद्वीप उद्देशका, दशम शते चउतीस ।। १. व्याख्यातं नवमं शतम् अथ दशमं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसम्बन्धः (वृ०प० ४६२) २. अनन्तरशते जीवादयोऽर्थाः प्रतिपादिताः इहापि त एव प्रकारान्तरेण प्रतिपाद्यन्ते (वृ०प० ४६२) ३-६. १ दिस २ संवुडअणगारे ३ आइड्ढी ४ सामहत्थि ५ देवि ६ सभा। ७ उत्तरअंतरदीवा दसमम्मि सयम्मि चउत्तीसा ।। (श० १० संगहणी-गाहा) 'दिसे' त्यादि, 'दिस' त्ति दिशमाश्रित्य प्रथम उद्देशकः । 'संवुडअणगारे' त्ति संवृतानगारविषयो द्वितीयः । 'आइड्ढि' त्ति आत्मा देवो देवी वा वासान्तराणि व्यतिक्रामेदित्याद्यर्थाभिधायकस्तृतीयः। 'सामहत्थि' त्ति श्यामहस्त्यभिधानश्रीमन्महावीरशिष्यप्रश्नप्रतिबद्धश्चतुर्थः । 'देवि' त्ति चमराद्यग्रमहिषीप्ररूपणार्थः पञ्चमः । 'सभ' त्ति सुधर्मसभाप्रतिपादनार्थः षष्ठः । 'उत्तर अंतरदीवि' त्ति उत्तरस्यां दिशि येऽन्तरद्वीपा स्तत्प्रतिपादनार्था अष्टाविंशतिरुद्देशकाः, एवं चादितो दशमे शते चतुस्त्रिशदुद्देशका भवन्तीति । (वृ० प० ४६२) ७. रायगिहे जाव एवं वयासी ७. नगर राजगृह में विषे, यावत गोतम स्वाम । प्रश्न करै प्रभुजी प्रतै, कर जोड़ी शिर नाम । *स्वाम थांरा वचनामृत सुखकारी। वारी हो नाथ ! आप शिवमग नां नेतारी ।। (ध्रुपदं) ८. पुरव दिशि ए स्यूं प्रभु ! कहिये ? जिन कहै धर अहलादो। जोव एकेद्रियादिक कहिये, अजीव धर्मास्ति आदो रा॥ है. इमहिज पश्चिम दिशि पिण कहिये, दक्षिण उत्तर इम लहिये । एवं ऊर्द्ध दिशि एवं अधो दिशि, जोव अजीव नैं कहियै रा॥ ८. किमियं भंते ! 'पाईणा ति' पवुच्चइ ? गोयमा ! जीवा चेव अजीबा चेव ! (श० १०११) तत्र जीवा–एकेन्द्रियादयः अजीवास्तु-धर्मास्तिकायादिदेशादयः । (वृ० प० ४६३) ६. किमियं भंते ! पडीणा ति पवुच्चइ ? गोयमा ! एवं चेव । एवं दाहिणा, एवं उदीणा, एवं उड्ढा एवं अहो वि। (श० १०१२) १०. कति णं भंते ! दिसाओ पण्णताओ? गोयमा ! दस दिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहापुरथिमा, पुरत्थिमदाहिणा १०. केतली भगवंत ! दिशा परूपी ? जिन कहै दश दिशि भाखी। पूर्व दिशि पूर्व दक्षिण बिच, अग्निकूण में दाखी रा॥ (हो प्रभजी ! धिन-धिन आपरो ज्ञान । संशयतिमिर हरण वर केवल जाणक ऊरयो भान ॥) लय : झिरमिर-झिरमिर मेहा वरसे, आंगण होय गयो आलो। श०१०, उ०१, ढाल २१७ ३११ Jain Education Intemational Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. दक्षिण दिशि दक्षिण पश्चिम त्रिचनेत कूण निहारी। पश्चिम दिशि पश्चिम उत्तर विच, वायव्य कूण विचारी रा ॥ १२. उत्तर दिशि उत्तर पूरव विष कहिये कूण ईशानं । ऊर्द्ध ऊंची दिशि अघो नीची दिशि, ए दश दिशि पहिछानं रा ॥ १३. ए दश दिशि नो नाम किता प्रभु! जिन भा दश नाम ॥ इंद्र देवता जेहनें अछे ते, इंद्रा पूर्व छै ताम रा ॥ 3 १४. अग्नि देवता जेहन यम देवता जेहने अच्छे ते १४. निर्ऋति देवता जेहनें अच्छे ते नेर्ऋत कूण कहाई । वरुण देवता जेहनें अछे ते, वारुणी पश्चिम थाई रा॥ १६. वायु देवता जेहने अच्छे ते सोम्य देवता जेहनें अछे ते, अर्थ ते आग्नेयी ए यमा दक्षिण दिशि ऊग कूण । रा ।। १७. ईशान देवता जेहने अ ते ते, कहियै कूण ऐशानी । freeपण करि विमल ऊर्द्ध दिशि तमा अथो दिशि जानी रा॥ , वायव्य कूण विशेखी । सोम्या उत्तर संपेली रा॥ सोरठा १८. सकट ओधि आकार पूर्वादिक चिह्नं दिशि हुवे। धुर विहं प्रदेश धार क्रम वृद्धि असं अनन्त लग ।। १९. विदिशि चिकं सुविचार, आखी एक प्रदेश मुक्तावलि आकार, तेहनी वृद्धि २०. ऊ नीं । हुवै नहीं ॥ अधो दिशि दोय, रुचक प्रदेशाकार है। समय वचन करि जोय, च्यार व्यार प्रदेश नीं ॥ २१. पूर्व दिशि स्यूं प्रभुजी ! जीवां तणां संघ कहिये । के जीव तणां जे देश कहीजे, के, जीव- प्रदेशा लहिये ? २२. अथवा अजीव के देश अजीव नां, अजीब प्रदेश कसा । जिन कहे जीवा पिण छे तिमहिज, जाव अजीव प्रदेशा ।। *लय : झिरमिर झिरमिर मेहा वरसे ३१२ भगवती-जोड़ २३. जे जीवा ते निश्चै एगिंदिया, जाव पंचेंद्रिया जाणी । अणिदिया ते केवलज्ञानी, पूरव दिशि पहिचाणी ॥ २४. जीव तणां जे देश हुवै ते, नियमा एगें दिय-देसा । जान अणिदिया केवलज्ञानी, तसु बहु देश कहेसा ॥ २५. जे जीव- प्रदेशा ते नियमा एगेंदिय तणां प्रदेश कहेसा । बेदिया नां प्रदेश घणां थे, जाव अणिदिया नां प्रदेशा || ११. दाहिणा दाहिणपच्चत्थिमा पच्चत्थिमा पच्चत्थिमुत्तरा १२. उत्तरा उत्तरपुरत्थिमा उड्ढा अहो । (श० १०1३) १२. एास भने दस दिसा कति नामा पण्णत्ता ? गोयमा ! दस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा - इंदा 'इंदे' त्यादि, इन्द्रो देवता यस्याः सैन्द्री १४. अग्गेयी जम्मा य 'अग्निर्देवता यस्याः साऽऽग्नेयी, एवं यमो देवता ( वृ० प० ४९३) ( वृ० प० ४९३ ) याम्या १५. नेरई वारुणी य निविता ती वरुणो देवता वारुणी १६. वायव्वा सोमा (पु० प० ४९३) वायुर्देवता वायब्वा सोमदेवता सौम्या ( वृ० प० ४१३) १७. ईसाणी य, विमला य तमा य बोद्धव्वा । (श० १०१४ ) विमला ईशान देवता ऐशानी विमलतया तूर्ध्वा तमा पुनरधोदिगिति । १८. इह च दिशः शकटोद्धिसंस्थिताः ( वृ० प० ४९३ ) ( वृ० प० ४६३) १२. विदयाकाराः (बु० प० ४१३) २०. ऊर्ध्वाधोदिशौ च रुचकाकारे, ( वृ० प० ४६३, ४६४) विमला २१. इंदा णं भंते ! दिसा कि जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा २२. अजीवा अजीवदेसा अजीवपदेसा ?, गोयमा ! जीवा वितं चैव जाव (सं० पा० ) अजीवपदेसा वि । २३. जे जीवा ते नियमा एगिंदिया बेइंदिया जाव (सं० पा० ) पंचिदिया अगदिया । तत्र ये जीवास्त एकेन्द्रियादयोऽनिद्रियाश्व केवलिनः ( वृ० प० ४२४) २४. जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव अणिदियदेसा | २५. जे जीवसा ते निवमा एनिदिवरदेसा दिपपदेसा जाव अणिदियपदेसा । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. जे अजीवा छै पूरव दिशि, द्विविध तेह कहीवा । रूपी अजीवा का पूर्व दिशि वलि अरूपी अजीवा ॥ २७. जे रूपी अजीवा ते च्यार प्रकारे, खंध, खंध नां देशा | संघ तणां प्रदेश कह्या बलि, परमाणु-पुद्गल कसा || २८. अजीव अरूपी ते सप्त प्रकारे, नहि धर्मास्तीकाय | पूर्व दिशि में खंध नहि तसु सह धर्मास्ती नांय ॥ २९. धर्मास्ती नौ देश कहीजे, तास स्वाय इम जाणी । एक देश भागरूप पूर्व दिशि धर्मास्ती पहिछागी ॥ ३०. धर्मास्तिकाय तणांज प्रदेशा, तिका पूर्व दिशि होय । प्रदेश प्रमाण, पूरव दिशि अवलोय ॥ असंख्यात . ३१. अपर्णास्तिकाय नहीं संघ संपूरण नांव । अधर्मास्ति तणो देश वलि, प्रदेश बहु तसु पाय ।। ३२. आगासत्विकाय नहीं संघ आधी, आगासत्यि नौ देश आगासत्यि प्रदेश बहू से अदा समय सुविशेष || ३३. ते इम सप्त प्रकार अरूपी, अजीव रूप ए इंदा । पुरव दिशि ए प्रगटपणं छं गुण गोयम ! सुलकंदा ॥ ३४ अग्नेयी कूण दिशा स्यूं प्रभुजी ! जीवा जीव नांदेसा । जीव तणां प्रदेश पूर्ववत, प्रश्न गोवम सुविशेषा ॥ ३५. जिन कहै नोजीवा संघ आधी, विदिशि प्रदेशिक एक एक प्रदेश विषेज जीव नीं, अवगाहना नहि लेख || ३६- जीव तणी अवगाहना आखी, असंख्यात प्रदेश । ते माटे अग्नेयी कण में, जीव नधी वच एस ॥ ३७. जीव तगां तिहां देश अलि जीव तणांज प्रदेशा। अजीवा अजीव नो देश अच्छे वलि, अजीव नांज पएसा || ३८. जेह जीव नां देश कह्या ते, निश्चै करि बहु एकेंद्री नां देश अपलोई। घणां त्यां, बेइंद्री आदि न होई ॥ ३६. एकेंद्रिया अग्नेयी ४०. इकयोगिक व्यापकपणे । एकदिया। भंग हिव । आगल तसु अवदात, श्रोता नित देई मुणो ॥ सोरठा सकल लोक हुंत, निश्च देश ए ख्यात, द्विकयोगिक त्रिण अनंत, कणे ४१. * अथवा एकेंद्रिय एक देश पावे नां देश बहुला, एक बेइंद्री नों अंग । तिण कूणे, द्विकयोगिक घुर भंग ।। *लय : झिरमिर झिरमिर मेहा वरसे २६. जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - रूविअजीवा य अरूविअजीवा य । २७. जे रूविअजीवा ते चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहाखंधा, खंधदेसा, बंधपदेसा, परमाणुपोग्गला । २८. जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहानोधम्मत्थिकाए अयमर्थः -- धर्मास्तिकाय: समस्त एवोच्यते स च प्राचीदिग् न भवति तदेकदेशभूतत्वात्तस्याः ( वृ० प० ४९४) २६. धम्मत्थिकायस्स देसे धर्मास्तिकायस्य देशः, सा तदेकदेशभागरूपेति ३०. धम्मत्थिकायस्स पदेसा तथा तस्यैव प्रदेशाः सा भवति असंख्येयप्रदेशात्मकत्वातस्याः ( वृ० प० ४९४) ३१. नोमधम्मत्किाए अधम्मत्विकायस्थ देसे अधम्मस्थिकायस्स पदेसा ३२. नोआगासत्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसे आगासतिथकायस्स पदेसा अद्धासमए । ( ० १०1४ ) ३३. तदेवं सप्तप्रकारारूप्यजीवरूपा ऐन्द्री दिगिति । ( वृ० प० ४९४ ) ३४. अग्गेयी णं भंते! दिसा किं जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा—पुच्छा | ३५. गोयमा ! नोजीवा विदिशामेकप्रदेशिकत्वादेप्रदेशे च जीवानामवगाहा भावात् ३६. असंख्यात प्रदेशावगाहित्वात्तेषां ( वृ० प० ४९४ ) (बृ० प० ४९४) ( वृ० प० ४९४ ) ३७. जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवपदेसा वि । ३८. जे जीवदेसा से नियमा एनिदिवसा ३६. एकेन्द्रित लोकव्यापकत्वादाय्य नियमादे केन्द्रियदेशाः सन्तीति ( वृ० प० ४९४ ) ४१, ४२. अहवा एगिंदियदेसा य बेइंदियरस य देसे 'बहने' स्पादि, एकेन्द्रियाणां सकललोकदेव द्वीन्द्रियाणां चाल्पत्वेन क्वचिदेकस्यापि तस्य सम्भवा श० १० उ० १, ढा० २१७ ३१३ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुच्यते एकेन्द्रियाणां देशाश्च द्वीन्द्रियस्य देशश्चेति द्विकयोगे प्रथमः (वृ०प० ४६४) सोरठा ४२. एकेंद्री बहु देश, बेइंदिय अल्पपणे करी। किहां लहै सुविशेष, एक बेइंदिय देश इक ॥ ४३. *अथवा एकेंद्रिय नां देश बहुला, इक बेइंद्रि नां जाण । देश बहु पावै तिण कूणे, द्वितिय भंग इम माण ॥ ४३. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा अथवैकेन्द्रियपदं तथैव द्वीन्द्रियपदे त्वेकवचनं देशपदे पुनर्बहुवचनमिति द्वितीयः (वृ०प० ४६४) ४४. अयं च यदा द्वीन्द्रियो द्वयादिभिर्देशैस्तां स्पृशति तदा स्यादिति (वृ०प० ४६४) ४५. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा। अथवैकेन्द्रियपदं तथैव द्वीन्द्रियपदं देशपदं च बहुवचनान्तमिति तृतीयः (वृ० प० ४६४) सोरठा ४४. यदा बेइंदिय एक, दोय आदि देशे करी। फशैं विदिशि विशेख, द्वितिय भंग होवै तदा ॥ ४५. *अथवा एकेदिय नां देश बहुला, बहु बेइंद्रिय नां जाण । देश बहु पावै तिण कूणे, तृतिय भंग इम माण । सोरठा ४६. बह बेइंदिय धार, दोय आदि देशे करी। फर्श विदिशि तिवार, तृतियो भंग हवै तदा ॥ ४७. देश तणां सुविशेष, द्विकयोगिक भंग एह में । एगेंदिया बह देश, कहिवा त्रिहं भांगा मझे। ४८. *अथवा एकेंद्री तेइंद्री संघाते, इमहिज त्रिण भंग कहिवा । जाव एकेंद्री अणिदिया साथे, तीन भांगा इम लहिवा ।। ४८. अहह्वा एगिदियदेसा य तेइंदियस्स य देसे । एवं चेव तियभंगो भाणियब्वो । एवं जाव अणिदियाणं तिय भंगो । ४९. जे जीवपदेसा ते नियमा एगिदियपदेसा। ४६. जे जीव नां प्रदेश कह्या ते, निश्चै करिने त्यांही। बहु एकेंद्री नां प्रदेश बहु छै, बेंदियादिक नां नाही। सोरठा ५०. इकयोगिक ए ख्यात, द्विकयोगिक भंग बे हिवै। प्रथम भंग नहिं पात, न्याय सहित निसुणो सहु ।। ५१. *अथवा एकेंद्री नां प्रदेश बहुला, इक बेइंद्री नों ताय । ___एक प्रदेश ए पहिलो भांगो, अग्नेयी कूण न पाय ।। सोरठा ५२. तेंद्री जाव अणिद, प्रदेश तणी अपेक्षया। बहु वचनांत कर्थिद, इक वचनांत हवै नहीं। ५३. लोक व्यापक अवस्थान, अणिद्रिय विण जीव नां। एक प्रदेशे जान, असंख्यात प्रदेश ह ॥ ५४. अणिद्रिय सुविशेष, सर्व लोक व्यापक यदा। इक आकाश प्रदेश, एक ईज प्रदेश तसु ।। ५५. तो पिण अणिदिय जोय, तमु प्रदेश पद नै विषे । बहु वच निश्चै होय, अग्नि आदि चिउं विदिश में ।। *लय: झिरमिर-झिरमिर मेहा वरसे ५२. एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियानिन्द्रियः सह प्रत्येकं भङ्गकत्रयं दृश्यम् एवं प्रदेशपक्षोऽपि वाच्यो, नवरमिह द्वीन्द्रियादिषु प्रदेशपदं बहुवचनान्तमेव । (वृ०प०४६४) ५३. यतो लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियवर्जजीवानां यत्रक: प्रदेशस्तत्रासंख्यातास्ते भवन्ति (वृ० ५० ४६४) ५४. लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियस्य पुनर्यद्यप्येकत्र क्षेत्रप्रदेशे एक एव प्रदेशः __ (वृ०प० ४६४) ५५,५६. तथाऽपि तत्प्रदेशपदे बहुवचनमेवाग्नेय्यां तत्प्रदेशा नामसंख्यातानामवगाढत्वाद् (वृ० प० ४६४) ३१४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. विदिश जोय, तिहां अणिदिव थात, ५७. तिण सूं विदिशे एक प्रदेश न ५८. बीजो इक होय, प्रथम तणां विख्यात भंग, जाव तीजो बेंद्री प्रदेश आधी चंग, पावे ते कहूं ५६. * अथवा एकेंद्री नां प्रदेश बहु पावे असंख्यात प्रदेश प्रदेश वह बच ते बेदिय जीव भंग इम है । भणी ॥ नुं । वरजियो । अगदिव प्रदेश बहुला, एक बेइंदिय तिण कूणे, द्वितीय भंग इम सोरठा जूजुआ ।। तणां जे । थाजे ॥ करि । ६०. यदा बेइंदिय फर्शो एक, असंख्यात प्रदेश विदिश विशेख, द्वितियो भंग हुवै तदा ॥ ६१. *अथवा एकेंद्रिय प्रदेश बहुला, बहुवेइंद्रिय तणां जे। प्रदेश बहु पावे तिण कूणे, तृतीय भंग इम साजे ॥ सोरठा करि । ६२. बहु बेइंदिय जिवार, असंख्यात प्रदेश फ विदिशि तिवार, तृतीयो भंग हुवे तदा ॥ ६३. प्रदेश नां सुविशेष, द्विकयोगिक भंग एह में एगें दि बहु प्रदेश, ए पिण कहिवा भंग बिहुं ॥ ६४. * प्रदेश आश्री प्रथम भंग विण, दोय भंग पहिछाणी । जाब अगिदिया ने इम कहियो, जीव विस्तार ए जाणी || ६५. अग्नेयी कूण में नेह अजीवा, तेहनां दोय प्रकार रूपी अजीव ते वर्ण सहित है, अरूपी अजीब विचार ॥ ६६. जे रूपी अजीव ते च्यार प्रकारे, खंध, खंध खंध तणो प्रदेश कह्यो वली, परमाणु-पोग्गल ६७. जेह अरूपी अजीव कह्या ते, सात प्रकारे धर्मास्तिकाय नहीं तिण कूणे, खंध संपूरण १८. देश धर्मास्तिकाय तणो है, वलि बहू तास अधर्मास्तिकाय तणां इम, देश प्रदेश ६६. इमज आकास्तिकाय तणां बे, देश प्रदेश अद्धा समय ए भेद सातमों, अरूपी अजीव ७०. वली विशेष धकीज कहै छे, विदिश विषे नों देश । विशेष ॥ ज्यांही । नांही ॥ प्रदेशा | विशेषा | जीव तगो देश एह भंग सर्व विदिश ह्न, ७१. जम्मा दक्षिण दिशि स्वं प्रभु! जीवा, जिम पूर्व तिमहिज सर्व दक्षिण दिशि कहिवी, श्री जिन वच ए सासी ॥ ७२. ऋकूण जे अनकूण तिम, पश्चिम दिशि पहिछाणी । पूर्व दिशि जिम समस्त कहिवूं, वायव्य अग्नि जिम जाणी || ७३. उत्तर दिशि जिम पूर्व दिशि कही, अग्नेयी जेम ईशाणी | कई दिशा जीवा अग्नि हूण जिम, अजीवा पूर्व जिम जाणी ।। *लय झिरमिर झिरमिर मेहा बरसे : कहावा । नां पाया ।। नहि जीवा । में कहीवा ॥ दिशि भारती । ५७,५८. अतः सर्वेषु द्विकयोगेष्वाद्यविरहितं भंगकद्वयमेव भवतीत्येतदेवाह( वृ० प० ४९४ ) ५२. अहवा एपिसाव बेस पसा ६१. अहवा एगिदियपदेसा य बेइंदियाण य पदेसा ६४. एवं आइल्लविरहिओ जाव अणिदियाणं । ६५. जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - रूविअजीवा य अरूविअजीवा य । ६६. जे रूविअजीवा ते चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहाबंधा जान परमाणुपोला । ६७. जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहानोयम्मत्किाए ६८, ६६. धम्मत्थिकायस्स देसे, धम्मत्थिकायस्स पदेसा, एवं अधम्मत्थिकायस्स वि जाव आगासत्थिकायस्स पदेसा, अद्धासमए । (STO 2018) ७१. जम्मा णं भंते ! दिसा कि जीवा ? जहा ईदा 'लहेब निरवसेस' ७२. नेरती य जहा अग्गेयी। वारुणी जहा इंदा । वायव्वा जहा अग्गेयी ७३. सोमा जहा इन्दा । ईसाणी जहा अग्गेयी । विमलाए जीवा जहा अबीए, अजीवा जहा इंदाए अग्गेयीए, श० १० उ० १, ढाल २१७ ३१५ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सोरठा ७४. ऊर्द्ध च्यार प्रदेश, खंध आश्री नहिं जीव त्यां। देश प्रदेश कहेस, तिण सू अग्नी जिम कही ।। ७५. अजीव भेद इग्यार, पावै ऊर्द्ध दिशा विषे । रूपी तणांज च्यार, सप्त अरूपी नां सही। ७६. *ऊर्द्ध दिशा विमला जिम भाखी, तिमज तमा पिण कहिये। णवरं अरूपी नां भेद तिहां छह, अद्धा समय नहिं लहिये ।। ७६. एवं तमाए वि, नवरं-अरू वी छविहा, अद्धासमयो न भण्णति । (श० १०७) 'एवं तमावि' त्ति विमलावत्तमाऽपि वाच्येत्यर्थः (वृ० प० ४६४) ७७,७८. अथ विमलायामनिन्द्रियसम्भवात्तद्देशादयो युक्तास्तमायां तु तस्यासम्भवात्कथं ते? इति, उच्यते (वृ० प० ४६४) सोरठा ७७. ऊद्ध दिशे सिद्ध वास, तिण सं अणिदिया तणां। देश प्रदेश विमास, सिद्ध स्थान तमा नथी ।। ७८. अणिदिया नां देश, वलि प्रदेश तसु किम हवै। उत्तर तास कहेस, चित्त लगाई सांभलो।। ७६. सर्व लोक फर्शत, समुद्घात केवल समय । दंडादि तिहां हंत, तेह प्रत जे आश्रयी ।। ८०. हुवै तास इक देश, तथा हुवै बहु देश तसु । अथवा बहु पएस, युक्तहीज तिण सं तिहां।। ५१. वलि समय व्यवहार, रवि-संचरण प्रकाश कृत । तमा नहीं रवि चार, अद्धा समय नहि ते भणी ।। ७६,८०. दण्डाद्यवस्थं तमाश्रित्य तस्य देशो देशा: प्रदेशाश्च विवक्षायां तत्रापि युक्ता एवेति । (वृ० १० ४६४) ८१. 'अद्धासमयो न भन्नइ' त्ति समयव्यवहारो हि सञ्चरिष्णुसूर्यादिप्रकाशकृतः, स च तमायां नास्तीति तत्राद्धासमयो न भण्यत इत्यर्थः। (वृ०प०४६४) ८२. अथ विमलायामपि नास्त्यसाविति कथं तत्र समयव्यवहारः ? इति । (वृ० प० ४६४) ८३,८४. उच्यते, मन्दरावयवभूतस्फटिककाण्डे सूर्यादिप्रभासक्रान्तिद्वारेण तत्र सञ्चरिष्णुसूर्यादिप्रकाशभावादिति । (वृ० प० ४६४) ८२. तो विमला दिशि जोय, मंदर मध्य हुवै तिहां । रवि प्रकाश किम होय, कथं समय व्यवहार त्यां। ८३. उत्तर तसु इम जाण, मेरू पवत नों तिहां। अवयवभूत पिछाण, फटिक कांड छै तेह विषे । ८४. रवि चंदादि प्रकाश, किरण कांति द्वारे करी। संचरतां रवि तास, प्रकाश ऊर्द्ध दिशे हवै।। ८५. विमला दिशि इण न्याय, समय तणो व्यवहार है। तमा विषे नहिं पाय, वत्ति विषे इम आखियो।। ८६. दिशि जीवादी रूप, पूर्वे तेह परूपिया। जीव शरीरी चंप, शरीर नों अधिकार हिव ।। ८७. *किता प्रभजी! शरीर परूप्या? जिन कहै पंच शरीर । ओदारिक नै जाव कार्मण, जजूआ भेद समीर ।। ८८. औदारिक प्रभ ! कतिविध भाख्यो? इम ओगाहण संठाण। पन्नवण पद इकवीसमें आख्यो, भणवो सर्व पिछाण ॥ वा० ....वृत्तिकार रै कथनानुसार एक संग्रहगाथा इहां लाभ छ। तेहनों अर्थ-कति- केतला शरीर ? एहवो कहिवो ओदारिकादि पंच। संठाणओदारिक नां संस्थान ते आकार कहिवा। ते जिम अनेक प्रकार ने संस्थाने औदारिक । पमाणंति तेहनोंज प्रमाण कहिवो, जिम औदारिक शरीर जघन्य थकी अंगुल नों असंख्य भाग मात्र, उत्कृष्ट थी साधिक योजन सहस्र मान। पोग्गल*लय : झिरमिर-झिरमिर मेहा वरसे ८६. अनन्तरं जीवादिरूपा दिश: प्ररूपिताः, जीवाश्च शरीरिणोऽपि भवन्तीति शरीरप्ररूपणायाह (वृ० प० ४६४) ८७. कति णं भंते ! सरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए जाव (सं० पा०) कम्मए। (श० १०८) ८५. ओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? एवं ओगाहणासंठाणं निरवसेसं भाणियव्वं वा०-कइ संठाण पमाणं, पोग्गलचिणणा सरीरसंजोगो। ___दव्वपएसप्पबहुँ, सरीरओगाहणाए या ॥ तत्र च कतीति कति शरीराणीति वाच्यं, तानि पुनरोदारिकादीनि पञ्च, तथा 'संठाणं' ति औदारिकादीनां संस्थानं वाच्यं, यथा नानासंस्थानमौदारिक, तथा 'पमाणं' ति एषामेव प्रमाणं वाच्यं, यथा ३१६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिणणा-पुद्गल चय कहिवो । सरीर-औदारिक नों निर्व्याघाते छ दिशि ने विषे व्याघात प्रते आश्रयी नैं किंवारैक तीन दिशि नै विषे इत्यादिक । संयोग एहनों संयोग कहिवो । यथा ओदारिक शरीर हुवे तेहन, वैक्रिय हुवे इत्यादि । दब्बप्पएस --एहनों द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थपण' करी अल्पबहुत्व कहिवो, यथा सव्वत्थोवा आहारगसरीरदव्वट्ठयाए इत्यादि। सरीरोगाहणा-अवगाहना नों अल्पबहुत्व कहिवो, यथा सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहन्निया ओगाहणा इत्यादि । ओदारिकं जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयभागमात्रमुत्कृष्टतस्तु सातिरेकयोजनसहस्रमानं, तथैषामेव पुद्गलचयो वाच्यो, यथौदारिकस्य निर्व्याघातेन षट्सु दिक्षु व्याघातं प्रतीत्य स्यात् त्रिदिशीत्यादि, तथैषामेव संयोगो वाच्यो, यथा यस्यौदारिकशरीरं तस्य वैक्रियं स्यादस्तीत्यादि, तथैषामेव द्रव्यार्थप्रदेशार्थतयाऽल्प बहुत्वं वाच्यं, यथा 'सव्वत्थोवा आहारगसरीरा दव्वट्ठयाए' इत्यादि, तथैषामेवावगाहनाया अल्पबहुत्वं वाच्यं, यथा 'सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहन्निया ओगाहणा' इत्यादि। (वृ० प० ४६५) ८६. जाव अप्पाबहुगं ति । (श० १०६) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १०१०) ८९. यावत अल्पाबहुत्व लग इम, सेवं भंते ! सेवं भंत । दशम शते ए प्रथम उदेशे, जिन वच महा जयवंत ।। ६०. ढाल दो सौ सतरमी ए, भिक्षु भारीमाल ऋषिराया। उगणीसे वीसे जेष्ठ जोधाणे, 'जय-जश' हरष सवाया । दशमशते प्रथमोद्देशकार्थः ॥१०॥१॥ ढाल : २१८ १,२. अनन्तरोद्देशकान्ते शरीराण्युक्तानि शरीरी च क्रियाकारी भवतीति क्रियाप्ररूपणाय द्वितीय उद्देशकः । (वृ० प० ४६५) १. पूर्व शरीर परूपिया, जीव शरीरी जाण । ___ करणहार क्रिया तणो, हुवै तिको पहिछाण ।। २. ते माटै कहिये हिवै, क्रिया परूपण अर्थ । द्वितीय उद्देशक नैं विषे, वर जिन वयण तदर्थ ।। *जय-जय ज्ञान जिनेन्द्र तणों रे, जयवंता जिन जाणी जी। जयवंता गोयम गणधरजी, पूछया प्रश्न पिछाणी जी ।। (ध्रुपदं) ३. राजगृह जाव गोतम इम बोल्या, प्रभु संबुड अणगारो रे । वीयी पाठ ते कषायवंत ने, तसु अशुभ जोग व्यापारो रे ।। सोरठा ४. सामान्य करिक मंत, प्राणातिपातादि जे। आश्रव द्वार रूंधंत, संवर सहितज संवृतः ।। ५. वीचि शब्द आख्यात, कहियै ते संयोग में। तिको विहूं नो थात, इहां कषाय रु जीव नों। ३. रायगिहे जाव एवं वयासी-संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स वीयीपंथे ४. संवृतस्य सामान्येन प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारसवरोपेतस्य । (वृ० ५० ४६५) ५. वीचिशब्दः सम्प्रयोगे, स च सम्प्रयोगोईयोर्भवति, ततश्चेह कषायाणां जीवस्य च सम्बन्धो वीचिशब्द वाच्यः ततश्च वीचिमतः कषायवतः (वृ०प०४६५) ६. अथवा 'विचिर् पृथग्भावे' इति वचनात् विविच्यपृथग्भूय यथाऽऽख्यातसंयमात् कषायोदयमनपवार्येत्यर्थः (वृ० प० ४६५) ६. तथा विचिर् ए धातु, पृथक् भाव जुदै अरथ । ए वच थी कहिवातु, यथाख्यात थी ए जुदो । *लय : कुंकुवर्णी हुंती रे देही श०१०, उ० १,२, ढा० २१७,२१८ ३१७ Jain Education Intemational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. अथवा विचित्य धार, राग तणोंज विकार तसु । तथा विरूपाकार, क्रिया सरागपणे करि ॥ ८. जे अवस्थाने जेह, राग विकारज जिम हवै। क्रिया सरागपणेह, अर्थ कह्यो ए वृत्ति थी। ६. *पंथ मारग नैं विषे रही नैं, उपलक्षण थी जेहो। अन्य आधारे रही मुख आगल रूप जोवै धर नेहो । ७. अथवा विचिन्त्य रागादिविकल्पादित्यर्थः, अथवा विरूपा कृति:-क्रिया सरागत्वात् ।। (व०प० ४६५) ८. यस्मिन्नवस्थाने तद्विकृति यथा भवतीत्येवं (वृ० प० ४६५) ६. ठिच्चा पुरओ रूवाई निज्झायमाणस्स 'पंथे' त्ति मार्गे 'अवयक्खमाणस्स' त्ति अवकांक्षतोऽपेक्षमाणस्य वा, पथिग्रहणस्य चोपलक्षणत्वादन्यत्राप्या धारे स्थित्वेति द्रष्टव्यं (वृ०प० ४६६) १०. मग्गओ रूवाई अवयक्खमाणस्स, पासओ रूवाई अवलोएमाणस्स ११. उड्ढं रूवाइं ओलोएमाणस्स, अहे रूवाई आलोए माणस्स तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ? १२. गोयमा! संवुडस्स णं अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा १०. पूरी रूप अछ त्यांरी पिण, देखण इच्छा धरतो। बिहुँ पस वाड़े रू प्रत पिण, अति अवलोकन करतो । ११. ऊर्द्ध रह्या ते रूप विलोकत, अधो रूप पिण जोवै। स्यूं प्रभु ! तसु इरियावहि किरिया, कै संपरायिकी होवै? १२. श्री जिन भाखै सुण गोतम शिष ! संवत जे अणगारो। कषायवंत पंथ रहि मारग, जोवै रूप जिवारो॥ १३. यावत जेहनै इरियावहिया किरिया मूल न थाई। ___ संपरायिकी किरिया जेहनें, उपजै अशुभ बंधाई ।। १४. किण अर्थे करिने हे प्रभुजी ! आखी एहवी वायो। संवत ने यावत संपरायिकी किरिया अशुभ बंधायो। १५. जिन कहै जेहनें क्रोध मान वलि, माया लोभ पिछाणी । जिम सप्तम शत प्रथम उद्देशक', यावत उत्सूत्रे ठाणी ।। १६. वृत्तिकार कह्यो जाव शब्द में, वोच्छिण्णा जास कषायो । तेहने इरियावहिया किरिया, चोकड़ी उदय न ताह्यो ।। १७. क्रोध मान अरु माय लोभ जसु, अवोच्छिण्णा कहिवायो। उदय कपाय नहीं क्षय उपशम, किरिया संपरायिकी ताह्यो ।। १८. अहासुत्तं जिम सूत्र कह्य, तिम चाले न चकै लिगारो। वीतराग मुनि आश्री वचन ए, तसु इरियावहि सुविचारो ।। १६. उत्सूत्र ते आगम अतिक्रम नैं, चालै जिनाज्ञा बारो। संपरायिकी क्रिया तेहने, अशुभ जोग व्यापारो।। १३. जाव (सं० पा०) तस्स णं नो इरियावहिया किरिया ___कज्जइ संपराइया किरिया कज्जइ। (श० १०११) १४. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-संवुडस्स णं जाव संपराइया किरिया कज्जइ? १५. गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा एवं जहा सत्तमसए पढमउद्देसए (सू० २१) जाव (सं० पा० ) १६. से वोच्छिण्णा भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ १७. जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिण्णा भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ १८. अहासुत्तं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ १६. उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ। 'से णं उस्सुत्तमेव' त्ति स पुनरुत्सूत्रमेवागमातिक्रमणत एव । (वृ० प० ४६६) २०. से णं उस्सुत्तमेव रीयति । २०. जाव शब्द में एह कह्या छ, जे पंथ रही रूप जोवै । तेह उत्सूत्रपणेज प्रवत्त, अशुभ जोगी इम होवै ।। *लय : कुंकुवर्णी हुंती रे देही १. यह जोड़ संक्षिप्त पाठ के आधार पर की गई है, इसलिए इसके सामने पाद टिप्पण का पाठ उद्धृत किया है। २. जयाचार्य ने जोड़ की रचना संक्षिप्त पाठ के आधार पर की। उसके बाद वृत्ति के आधार पर जाव की पूर्ति कर छूटे हुए पाठ की जोड़ लिख दी। अंगसुत्ताणि में संक्षिप्त पाठ को पाद टिप्पण में रखा गया है और मूल में पाठ पुरा लिया है। इसलिए यहां वृत्तिकार का उल्लेख होने पर भी अंगसुत्ताणि का पाठ उद्धृत किया गया है। ३१८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. ते तिण अर्थ करीनें गोतम ! जावत संपराइया किरिया होवे, प्रमादी एह २२. सोरठा संवृत अणगार, सकपाई विपर्यय सार, अकषाइ नों तास २३. * हे प्रभु ! संवुड़ा मुनिवर नैं, अकषाई वीतरागो । पंच मारग रहिने मुख आगल, रूप जोवे तजि रामो ॥ २४. अवीचि अकषाय, सोरठा कषाय संबंध नहीं तथा अविचिर् कहाय, यथाख्यात थी २५. तथा अविचित्य सार, राग विकार न तथा विरूपाकार, ते पिण नहि छै ससंपरायो । कहिगायो । प्रमत्त है । प्रश्न हिव ॥ ू २६. *यावत स्यं इरियावहि पूछा ? भाखे तब जिनरायो । संवृत जाव तास इरियावहि, संपराय नहिं थायो । २७. कि अ प्रभु ! जिम सप्तम शत, भाख्यो सप्तमुदेशे । यावत ते जिम सूत्रे आस्यो, तिमहिज चाले विशेषे ॥ २८. तिण अर्थ गोतम ! इम भाग्यो, संवृत जे अकपाई। जाय तास इरियावहि किरिया, संपराय नहि पाई ॥ सोरठा २६. पूर्व किरियावंत उक्त तेहनें बहुलपणें करि । योनि पामव हुंत, हिव ते योनि-परूपणा ॥ नों । नहि जुदो ॥ ३०. "किते प्रकारे हे भगवंत जी ! योनि कही जिनरायो । जीव उत्पत्तिस्थानक तेहनें, योनि कहीजै ताह्यो । ३२. उष्ण योनि ते उष्ण फशवंत, तीजी शीत-उष्ण ए बि फर्मकरि परिणत मन तसु । हनों ॥ "सरे देही वा० - यु धातु मिश्र अर्थं ने विषे । इण वचन थकी तैजस कार्मण शरीरवंत थको ओदारिकादिक शरीर योग्य खंध समुदाये करी मिश्र हुर्व जीव जेहनें विषे, ते योनि कहिये । ३१. जिन कहे त्रिविधा योनि परुपी शीत योनि पुर जाणी । उत्पत्ति स्थानक शीत फर्म करि परिणत तेह पिछाणी ।। शीतोष्णा जानो । उत्पत्ति स्थानो । २१. से तेणट्ठेणं जाव संपराइया किरिया कज्जइ । २२. 'संवुडस्से' त्याद्युक्तविपर्ययसूत्रं ( ० १०।१२) ( वृ० प० ४९६) २३. संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स अवीयपंथे ठिच्चा पुरवो रुवाई निकायमाणस्य २४. तत्र च 'अवीइ' त्ति 'अवीचिमत: ' अकषायसम्बन्धवतः 'अविविच्य' वा अपृचन्भूय यथाऽस्यातसंयमात् (बु० प० ४२६) २५. अविचिन्त्य वा रागविकल्पाभावेनेत्यर्थः अविकृति वा यथा भवतीति । (० ० ४१६) २६. जाव तस्स णं भंते ! कि इरियावहिया किरिया कज्जइ - पुच्छा । गोयमा ! संवुडस्स ....जाव तस्स पं इरियावहिया किरिया को संपराइया किरिया कज्जइ । (श० १०।१३ ) २७. से केणट्ठणं भंते ! "जहा सत्तमसए सत्तमुद्देसए (सू० १२६) जाव (सं० पा०) से (० १०।१४) २८. तेणट्ठेणं जाव नो संपराइया किरिया कज्जइ । ( श० १० १४ ) २६. अनन्तरं क्रियोक्ता, कियावतां च प्रायो योनिप्राप्तिभवतीति मोनिरूपणापाह ( वृ० प० ४९६) ३०. कतिविहा णं भंते ! जोणी पण्णत्ता ? वा० पु मिश्रणे प्रतिवचनात् पुवन्ति तैजसकार्म्मणशरीरवन्त औदारिकादिशरीरयोग्य स्कन्धसमुदायेन मिश्रीभवन्ति जीवा यस्यां सा योनिः ( वृ० प० ४९६ ) ३१. गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा सीया 'सीय' त्ति शीतस्पर्शा ( वृ० प० ४९६) ३२. उसिणा सीतोसिणा 'उसिण' त्ति उष्णस्पर्शा 'सीओसिण' त्ति द्विस्वभावा ( वृ० प० ४९६ ) श० १०, उ० २ ढाल २१५ ३१६ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. योनी पद इम सर्वज भणिवो, सूत्र पन्नवणा मांह्यो। नवमैं पद ए भाव कह्या छ, ते सगला कहिवायो॥ वा०–रत्नप्रभा सर्करप्रभा वालुकप्रभा पृथ्वी में नारक नां जे उपजवा नां क्षेत्र कुंभी छ, ते सर्व शीतस्पर्श परिणत छ अने कुंभी विना अन्यत्र सर्व उष्ण स्पर्श परिणत छ । तिणें करि तिहां नारक शीतयोनिया छ अने उष्ण वेदना भोगवै छ। पंकप्रभा पृथ्वी में घणां उपपात-क्षेत्र कुंभी शीत-स्पर्श परिणत छ अन थोड़ा उपपात-क्षेत्र कुंभी उष्ण-स्पर्श परिणत छ। जिणे पाथड़े, नरकावासे उपपात-क्षेत्र शीत-स्पर्श परिणत छ, तिहां अन्यत्र सर्व उष्ण-स्पर्श परिणत छ। ते पाथड़ा नां नरकावासा नां नारक घणां शीतयोनिया उष्ण वेदना वेदै छ अने जे पाथड़े नरकावासा उपपात-क्षेत्र उष्ण-स्पर्श परिणत छ, तिहां अन्यत्र सर्व क्षेत्र शीत-स्पर्श परिणते । ते पाथड़ा नां नरकावासा नां नारक उष्णयोनिया शीत वेदना वेदै छ। ते माटे पंकप्रभा में घणां नारकी शीत योनिया छ । तथा धूमप्रभा में घणां उपपातक्षेत्र उष्ण-स्पर्श परिणत छै, तिहां नारक घणां उष्णयोनिया शीत वेदना वेदै छ। अनं जे पाथड़े नरकाबासे थोड़ा उपपात-क्षेत्र शीत-स्पर्श परिणत छै–तिहां अन्य क्षेत्र सर्व उष्ण स्पर्श परिणत छ। तिहां नां थोड़ा नारक शीतयोनिया उष्ण वेदना वेदै छ। ते माटै धूमप्रभा में घणां नारक उष्ण-योनिया शीत वेदना वेदै छ अने थोड़ा नारक शीत-योनिया ते उष्ण वेदना वेदै छ। ३३. एवं जोणीपदं निरवसेसं भाणियव्वं । (श०१०।१५) योनिपदं च प्रज्ञापनायां नवमं पदं (वृ० प० ४६६) वा०-रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां वालुकाप्रभायां च यानि नैरयिकाणामुपपातक्षेत्राणि तानि सर्वाण्यपि शीतस्पर्शपरिणामपरिणतानि, उपपातक्षेत्रव्यतिरेकेण चान्यत्सर्वमपि तिसृष्वपि पृथिवीपूष्णस्पर्शपरिणामपरिणतं तेन तत्रत्या नैरयिकाः शीतयोनिका उष्णां वेदना वेदयन्ते । पंकप्रभायां बहून्युपपातक्षेत्राणि शीतस्पर्शपरिणामपरिणतानि स्तोकान्युष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकावासेषु शीतस्पर्शपरिणामान्युपपातक्षेत्राणि तेषु तद्व्यतिरेकेणान्यत्सर्वमुष्णस्पर्शपरिणामं येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकावासेषु उष्णस्पर्शपरिणामानि उपपातक्षेत्राणि तेषु तद्व्यतिरेकेणान्यत्सर्वं शीतस्पर्शपरिणामं तेन तत्रत्या बहवो नैरयिकाः शीतयोनिका उष्णां वेदनां वेदयन्ते स्तोका उष्णयोनिका: शीतवेदनामिति । धूमप्रभायां बहून्युपपातक्षेत्राणि उष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि स्तोकानि शीतस्पर्शपरिणामानि, येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकावासेषु चोष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि उपपातक्षेत्राणि तेषु तद्व्यतिरेकेणान्यत्सर्वं शीतपरिणामं येषु च शीतस्पर्शपरिणामान्युपपातक्षेत्राणि तेष्वन्यदुष्णस्पर्शपरिणाम, तेन तत्रत्या बहवो नारका उष्णयोनिका: शीतवेदनां वेदयन्ते स्तोकाः शीतयोनिका उष्णवेदनामिति । तम:-प्रभाया तमस्तमः-प्रभायां च....."तत्रत्या नारका उष्णयोनिका: शीतवेदनां वेदयितार इति । (प्रज्ञापना, वृ० प० २२५) शीतादियोनिप्रकरणार्थसंग्रहस्तु प्रायेणवंसिओसिणजोणीया सव्वे देवा य गम्भवक्कंती। उसिणा य तेउकाए दुह निरए तिविह सेसेसु । (वृ०प० ४६६) 'कतिविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता? गोयमा ! तिविहा जोणी पन्नत्ता, तं जहा-सच्चित्ता अचित्ता मीसिया (वृ० प० ४६६) सचित्ता जीवप्रदेशसंबद्धा, अचित्ता सर्वथा जीवविप्रमुक्ता, मिश्रा जीवविप्रमुक्ताविप्रमुक्तस्वरूपा । (प्रज्ञापना वृ० प० २२६) अन छठी सातमी नारकी में सर्व उष्णयोनिया शीत वेदना वेदै छ, ते माट नारकी में शीत योनि छ, उष्ण योनि छै, पिण शीतोष्णा योनि नथी। शीतादि योनि प्रकरणार्थ संग्रह बलि बहुलपणे करी-सर्व देवता अन गर्भेज नी शीतोष्णा योनि । अन तेउकाय नी उष्ण योनि । अने नरक ने विषे शीत अने उष्ण ए बे योनि । शेष नै विषे तीनूं योनि । भंते ! योनि केतला प्रकार नी कहिये ? गोतमा ! योनि तीन प्रकार नी कहिय-सचित्त, अचित्त और मिश्र । जेह उपपात क्षेत्र समग्रपणे जीव-परिगृहीत हुवे, ते सचित्त योनि कहिये । जे उपपात क्षेत्र सर्वथा जीव रहित हुवे ते अचित्त योनि कहिये । उपपात क्षेत्र नां पुद्गल केतलाइक जीव-परिगृहीत हुवै अन केतलाइक जीव-रहित हुवे ते मिश्र योनि कहिये। __बलि सचित्तादि योनि प्रकरणार्थ संग्रह बहुलपण इम-नारकी देवता नीं अचित्त योनि अने गर्भज नी मिश्र, शेष नै विषे तीनूं । सचित्तादियोनिप्रकरणार्थसंग्रहस्तु प्रायेणैवम्अचित्ता खलु जोणी नेरइयाणं तहेव देवाणं मीसा य गब्भवासे तिविहा पुण होई सेसेसु । (वृ० ५० ४६६) ३२० भगवती जोड़ Jain Education Intemational Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे नारक देवता रे उपपात क्षेत्र सूक्ष्म एकेंन्द्रिय जीव नो संभव छ, तथा पोलाड़ में बादर वायुकाय नों संभव छे, तो पिण नारक देवता नां उपपात क्षेत्र नां पुद्गल समूह किणही जीवे करि परिगृहीत नहि ते भणी देवता नारक नै अचित्त योनि कहिये । अने गर्भवास योनि मिथ ठिकाणी सचितगां भाव भी जीव ग्रहण कीधा क्षेत्र ने विषे उपजव ते अचित्त । त्रिविधापि योनि इत्यर्थः । शुरु शोषित पुद्गल तो अति नै गर्म गो शेष पृथ्वीव्यादि सम्मुच्छिम तियंच मनुष्य नो विषे उत्पत्ति ते सचित्त । जीव ग्रहण अणकीधा क्षेत्र नं अनें उभय रूप क्षेत्र ने विषे उपजवो, ते मिश्र । इम भंते! योनि केतला प्रकार नी कहिये ? मोतम । योनि तीन प्रकार भी कहिये संबुडा जोणी, विपदा जोगी, बुवा जोगी। उत्पत्ति स्थानक संवृत-आच्छादित हुवं ते संवृत योनि कहिये । उत्पत्ति स्थानक विवृत - उघाड़ो हुवै ते विवृता योनि । कांइक संवृत कांइक विवृत हुवै, ते संवृत - विवृता योनि । संयुतादि योनि प्रकरणार्थ संग्रह बस इम एकेंद्रिय नं संयुता योनि । तथा सभाव थकी एकेंद्रिय नें उत्पत्ति स्थानक स्पष्टपणे ओलखायें नहीं, ते मार्ट संवृतानि । नारक नै पिण संवृता योनि हीज जे कारण थकी नरक निष्कुटा ते कुंभी संत ते उक्या गवाक्ष सरीखी है एतनं नारकी में उत्पत्ति-स्थानक कुंभीढांक्या गोख ने आकार छ । तेहने विषे ऊपनां ते देह वध्यां छतां तेह थकी पड़ शीत निष्कुट थकी उष्ण क्षेत्र नै विषे पड़े अनें उष्ण निष्कुट थकी शीत क्षेत्र नैं विधे प अने देवता नी पसंत ही योनि कहिये जे भणी देव-ज्या ने विधे देवता उपज, देव-दृष्य वस्त्रे करी ते ज्या डोकी ते सेज्या नं विधे अपन अंगुल ने असंख्यात में भाग अवगाहना देवता नी जाणवी । विककेंद्री वियडा योनि छ । तेहना दीस छ । समुच्छिम पंचेंद्रिय तिर्यंच ने अने योनि कहिवी । विवृता योनि विशेषणपणें योनि दीस छ । शेष बे योनि नथी । उत्पत्ति स्थानक जलाशयादि प्रत्यक्ष समुच्छिम मनुष्य ने इमज विवृता उत्पत्ति स्थानक जलाश्रय प्रमुख प्रगट अनंगज तिर्यय अनं मनुष्य ने संयुता योनि नयी वियुता योनि पिण नयी संतविता योनि गर्भ अभ्यंतर सरूप जगाए नहीं, बाह्य रूपं उदरवृद्ध्यादिक प्रत्यक्ष दीसँ छै ते माटै गर्भज ने संवृत - विवृता योनि छ । भंते! योनि केतला प्रकार नी कहिये ? गोतम ! योनि तीन प्रकार नीं कहिये - कुर्मोन्नता, शंखावर्त्ता, वंशीपत्रा । त्रिण भेदे योनि परूपी ते कहै छै - काछवा नीं पीठ नीं पर उन्नत हुवें ते कुमन्नता योनि ति में तीर्थकर, पत्रवर्ती वासुदेव बलदेव उत्तम पुरुष ग अपने उदर-वृद्धि नहुनपर्ण करी। खनी पर आवर्त व जिहां ते शंखावर्त्त योनि । स्त्री रत्न ने घणां जीव संबद्ध पुद्गल आवै, गर्भपणे उपजे पुष्ट हुवै, विशेष थी पुष्ट हुवै, पिण नीपजै सत्यप्येकेसूक्ष्मजीवनिकायसम्भवे नारकदेवानां यदुपपातक्षेत्रं तन्न केनचिज्जीवेन परिगृहीतमित्यचित्ता तेषां योनिः ( वृ० प० ४६६ ) गर्भवासयोनिस्तु मिश्रा शुकशोणितपुद्गलानामचित्तानां गर्भाशयस्य सचेतनस्य भावादिति शेषाणां पृथिव्यादीनां संमूर्च्छनवानां च मनुष्यादीनामुपपातक्षेत्रे जीवन परिगृहीतेरिगृहीते उभयरूपेोत्पत्तिरिति विधापि योनिरिति । ( वृ० प० ४९७ ) 'कतिविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोगी [पन्नत्ता से जहा संयुडा जोणी जोगी' (बृ० प० ४९७) जोगी - संयुतादियोभिप्रकरणार्थसंग्रहस्तु प्राय एवम् एकेन्द्रिया अपि संवृतयोनिका रोषामपि यो स्पष्ट मनुपलक्ष्यमानत्वात् (प्रज्ञापना वृ० प० २२७ ) नारकाणामपि संपती नरकनिष्टाः संवृतगवाक्षपास्तेषु च जातास्ते वर्द्धमानमूर्त्तयस्तेभ्यः पतन्ति शीतेभ्यो निष्णुदेभ्य उष्णेषु नरकेषु उष्णेभ्यस्तु शीतेष्विति ( वृ० प० ४९७) देवानामपि संवृर्तव यतो देवशयनीये दूष्यान्तरितोंगुलासंख्यात भागमात्रावगाहनो देव उत्पद्यत इति । ( वृ० प० ४९७ ) द्वन्द्रादीनां चतुरिन्द्रियपर्यन्तानां संमूमितिर्वपञ्चेन्द्रियसंमूच्छिममनुष्याणां च विवृता योनिः तेषा - मुत्पत्तिस्थानस्य जलाशयाचे स्पष्टमुपलभ्यमानत्वात् । ( प्रज्ञापना वृ० प० २२७ ) कान्तिकपि पेन्द्रियगर्भ कान्तिकमनुयाणां च संवृतविवृता योनिः गर्भस्य संवृतविवृतरूपत्वात् गमो ह्यन्तः स्वरूपतोनो हिस्सुबरवृद्ध्यादिनोपलक्ष्यते इति । ( प्रज्ञापना वृ० प० २२७ ) कतिविहा णं भंते! जोणी पन्नत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पन्नत्ता, तं जहा कुम्मुन्नया संखावत्ता वंसीपत्ता कूर्मपृष्ठमिवोन्नता कूर्मोन्नता ( प्रज्ञापना वृ० प० २२८ ) ...कुम्मुण्णयाए णं जोणीए उत्तमपुरिसा गब्भे वक्कमंति तं जहा - अरहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा (०२१२६) पण्ण शंखस्येवावर्ती यस्याः सा शंखावर्ता (प्रज्ञापनावृ० प० २२८ ) (s श० १० उ० १, ढाल २१५ ३२१ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं, प्रबल कामाग्नि नै परितापे विध्वंस पामै । ते योनि माहि जे जीव ऊपज ते मरैज । नीकलिवा ने मार्ग मिल नहीं अने वृद्धि पामी न सके ते भणी हत-गर्भ योनि कहिय । ते स्त्री रत्न ने बीजो पुरुष भोगवी न सके । चक्रवर्ती नै इज भोग में आवै । संखावत्ता णं जोणी इत्थिरयणस्स संखावत्ताए णं जोणीए बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमति विउक्कमंति चयंति, उवचयंति नो चेव णं णिप्फजंति । (पण्ण ६।२६) शंखावर्तायां योनौ बहवो जीवा जीवसंबद्धापुद्गलाशचावक्रमन्ते-आगच्छंति, व्युत्क्रामन्ति-गर्भतयोत्पद्यन्ते तथा चीयन्ते-सामान्यतश्चयमागच्छन्ति, उपचीयंते -विशेषत उपचयमायान्ति परं न निष्पद्यन्ते अतिप्रबलकामाग्निपरितापतो ध्वंसगमनादिति (प्रज्ञापना वृ० प० २२८) संयुक्तवंशीपत्रद्वयाकारत्वाद् वंशीपत्रा (प्रज्ञा० वृ० प० २२८) वंसीपत्ता णं जोणी पिहुजणस्स, बंसीपत्ताए णं जोणीए पिहुजणा गन्भे वक्कमंति। (पण्ण ६।२६) बंशी नां पत्र नै आकार हुवं ते वंशीपत्रा योनि। घणी मनुष्यणी स्त्री ने हुवे । ते वंशीपत्रा योनि में विष घणां गर्भ अपक्रम, संक्रम, गर्भपणे ऊपज । पृथगजना प्राकृतजना इत्यर्थः । सोरठा ३४. पूर्वे योनी उक्त, योनिवंत जीवां तण । वेदन जिन-वच युक्त, कहियै छै हिव वेदना ।। ३५. *हे प्रभु ! वेदना किते प्रकारै? जिन कहै तीन प्रकारो। शीत वेदना उष्ण वेदना, शीतोष्णा वेदना धारो।। ३६. पन्नवण वेदन पद पैंतीसम, जाव नारक स्यं भदंतो ! दुख-वेदन के सुख नी वेदन, के अदुख असुख वेदंतो? ३४. अनन्तरं योनिरुक्ता, योनिमतां च वेदना भवन्तीति तत्प्ररूपणायाह (वृ०प० ४६७) ३५. कतिविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा वेयणा पण्णत्ता, तं जहा-सीया, उसिणा, सीओसिणा। ३६. एवं वेयणापदं (प० ३५११) भाणियव्वं जाव (श० १०॥१६) नेरइया णं भंते ! किं दुक्खं वेयणं वेदेति ? सुहं वेयणं वेदेति ? अदुक्खमसुहं वेयणं वेदेति? ३७. गोयमा ! दुक्खं पि वेयणं वेदेति, सुहं पि वेयणं वेदेति, अदुक्खमसुहं पि वेयणं वेदेति । (श० १०।१७) ३७. जिन कहै दुख-वेदन पिण वेदै, सूख-वेदन पिण वेदै। अदुख असुख वेदन पिण वेदै, भाखी ए त्रिहुं भेदै ॥ वा०-'वेयणापयं भाणियवं' ति वेदनापदं च प्रज्ञापनायां पञ्चत्रिंशत्तमं तच्च लेशतो दर्श्यते । (वृ० प० ४६७) सोरठा ३८. केवल दुख नहिं होय, वलि केवल पिण सुख नहीं। अदुख असुख अवलोय, अर्थ पन्नवणा में इसो।। वा०-वेदना-पद ते पन्नवणा नां पैतीसमा पद नै विषे कह्यो छै ते देखाई छ३६. नारक हे भगवंत ! स्यं वेदै शीत वेदना । तथा उष्ण वेदंत, कै शीत उष्ण वेदेति के ? ४०. जिन कहै शीत वेदंत, एम उष्ण पिण वेदिये। पिण ते नारक जंत, शीतोष्णा वेदै नथी । ४१. असुरकुमार सुजोय, वेदै ए त्रिहुं वेदना। एवं जावत सोय, कहिवं वैमानिक लगे। वा०- इहां वृत्ति में कह्यो-नारक ने शीत वेदना अने उष्ण वेदना, पिण शीतोष्णा वेदना नथी । एहनों पाठ लिख्यो ते तो शुद्ध। एवं वेदना पद भणवो। अन आगल कह्यो-एवमसुरादयो वैमानिकांता : असुरकुमार थी वैमानिक तक इमज जाणवो, एहवो कह । “पन्नवणा सूत्रे नारक में प्रथम दोय वेदना कही *लय : कुंकुवर्णी हुंती रे वेही ३२२ भगवती-जोड़ वा०-नेरइयाणं भंते ! कि सीयं वेयणं वेयंति ? गोयमा! सीयंपि वेयणं वेयंति एवं उसिणंपिणो सीओसिणं एवं सुरादयो वैमानिकान्ताः (वृ० प० ४६७) Jain Education Intemational Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असुरकुमार में तीन कही। एवं जाव वैमाणिया इम क ुते सत्य अनं सूत्र थी न मिले ते वृत्ति विरुद्ध जाणवी ४२. इम वेदन च्यार प्रकार, द्रव्य खेत्र काल भाव थी । थे ते ए चिहुं न विस्तार, कहिये ४३. नारक आदिक तास, पुद्गल द्रव्य वेदन द्रव्य विमास, वो दंडक सांभलो । संबंध थी । विषे ॥ वेदन प्रति वेदेह ४७. तथा वेदना तीन ४४. नारक आदि विचार, क्षेत्र तणांज संबंध थी। क्षेत्र वेदना धार, चउवीसूं दंडक विषे ॥ ४५. नारक आदि कह तसु भव काल संबंध थी। काल वेदना लेह, दंडक उवीसूं विषे ।। ४६. कर्म वेदना जेह, तेहनां उदय थकी जिके। भाव वेदन सह दंडके ।। प्रथम शरीरी वेदना । तीजी शरीर मानसिक ॥ एवं जाव बेमाणिया । एकेंद्री विकलेन्द्रिये ॥ फुन तीनूं विकलेंन्द्रिया । एक, शारीरिक वेदन तसु ॥ ५०. तथा वेदना तीन धुर साता नीं वेदना । द्वितिय असाता चीन, तीजी सात असात नी ॥ ५१. सहु संसारी मांय, आखी ए त्रिण वेदना । निमल विचारो न्याय, श्री जिन वचन प्रमाण छै ॥ ५२. तथा वेदना तीन प्रथम दुख न वेदना। मानसिक फुन चीन, ४८. नारक में हिं पाय णवरं विशेष ताय, ४६. पांच थावर में पेख, वेदन वेदै 1 द्वितीय सुख नी चीन, तृतिय अदुख- असुख तणी ॥ ५३. सर्व संसारिक जात वेदे ए त्रिहं वेदना । सुख-दुख सात असात, तिणमें एह विशेष है । ५४. अनुक्रमे करि जेह, कर्म वेदनीनांज दल । 1 उदय पामिया तेह, अनुभव सात असात ही ॥ ५५. फुन सुख-दुःख कहाय, अन्य जन उदीरतां छतां । कर्म वेदनीं ताथ, अनुभवरूपज जाणवूं ।। ५६. तथा वेदना सोय दाखी दोय प्रकार नीं आभ्युपगमिकी होय, औपक्रमिकी दूसरी ॥ ५७. आभ्युपगमिकी होय, अंगीकार पोते करी। वेदन वेदै सोय, आतापन लोचादि जिम ।। ५८. औपक्रमिकी ताम, स्वयं उदय आध्यां प्रतं । वा उदीरणा पाम, उदय आण वेदै ५२. पंचेंद्रिय तिर्यच वलि मनुष्य में ए विहं । शेष दंडके संच, औपक्रमिकी वेदना ॥ ६०. फुन वेदन द्विविध, निदा कहिये चित्तवती । द्वितीय अनिदा सिध तेह अचित्तवती भणी ॥ ६१. नारक दश-असुरादि, पंचेंद्री विर्यच मनुष्य व्यंतरा वादि वेद ए वि तिको || का ं । ते माटे सूत्रे ।" ( ज० स० ) फुन । वेदना ॥ ४२. ' एवं चउव्विहा वेयणा दव्वओ खेत्तओ कालओ भावली' (१० १०४२७) ४१. पुव्यसम्बन्धाव्यवेदना (वृ० प० ४१७) ४४. नरकादिक्षेत्रसम्बन्धारवेदना ( वृ० १०४९७ ) ४५. नारकादिकालसम्बन्: कासवेदना (बु० प० ४९७) श्चतुर्विधामपि ४६. शोकक्रोधादिभावसम्बन्धाद्भाववेदना, सर्वे संसारिण( वृ० प० ४९७ ) ४७. तथा 'तिविहा वेयणा - सारीरा माणसा सारीरमाणसा । ( वृ० प० ४६७) ४८, ४९. समनस्कास्त्रिविधामपि अनिस्तु शारीरमेव ( वृ० प० ४९७ ) ५०. तथा तिविहा वेयणा साया असाया सायासाया । ( वृ० प० ४९७) ५१. सर्वे संसारिणस्त्रिविधामपि ( वृ० प० ४९७ ) ५२. वातिविहाणा दुक्खा सुहा अदुस्वमसुहा ( वृ० प० ४६७ ) ५३. सर्वे त्रिविधामपि, सातासातसुखदुःखयोश्चायं विशेषः ( वृ० प० ४९७ ) ५४. सातासाने अनुक्रमेणोदयप्राप्तानां वेदनीयन मंगलानामनुभयरूपे ( वृ० प० ४९७) ५५. सुखदुःखे तु परोदीर्यमाणवेदनीयानुभवरूपे ( वृ० प० ४९७ ) ५६. तथा 'दुविहा वेयणा— अब्भुवगमिया उवक्कमिया ( वृ० प० ४९७ ) ५७. अभ्युपगमकी या स्वयमभ्युपगम्य वेद्यते यथा साधवः सुनातापनादिभिर्वेदयन्ति ( वृ० प० ४९७) ५८. औपक्रमिकी तु स्वयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन चोदयमुपनीतस्य वेद्यस्यानुभवात् ( वृ० प० ४६७ ) ५१. द्विविधामपि पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च शेषास्वीपकमिकीमेवेति ( वृ० प० ४९७ ) ६०. तथा 'दुविहा वेयणा-- निदा य अनिदा य' निदाचित्तवती विपरीता त्वनिदेति ( वृ० प० ४९७) ६१-६४ विधाम जनरवनिदामेवेति ( वृ० प० ४१७) श० १० उ० १, ढाल २१८ ३२३ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. ए जे सन्नीभूत, निदा वेदना तेहनें। असन्नीभूत संजूत, वेदै अनिदा वेदना ।। ६३. सगला पृथ्वीकाय, असन्नी तस् निदा नथी । अनिदा वेदै ताय, इम जावत चरिंद्रिया । ६४. अमर जोतिषी जोय, फुन मानिक देवता । तसु पिण वेदन दोय, न्याय तास निसुणो हिवै ॥ ६५. माई मिथ्यावंत, वेदै अनिदा वेदना । जेह निदा वेदंत, अमाई समदृष्टि ते।। वा०-इहां निदा ते नितरां-अतिही तथा निश्चय सम्यक् प्रकारे दिये चित्त जे वेदना नै विषे ते निदा सम्यक विवेकवती इत्यर्थ। एह थी अनेरी ते अनिदा। चित्त विकला चित्त रहित सम्यक् विवेक रहित । नेरइया सन्नीभूत ते निदा वेदना वेदै, असन्नीभूत ते अनिदा वेदना वेदै। १० भवनपति, व्यंतर पिण इमहिज कहिवा । पांच थावर, तीन विकलेंद्री अनिदा वेदना वेदै। तियंच पंचेंद्री नै सन्नी मनुष्य ते निदा वेदना वेदै, असन्नी ते अनिदा वेदणा वेदै । जोतिषी, वैमानिक तिहां जे मायावंत मिथ्यादृष्टि ऊपना छ, ते मिथ्यादृष्टि माटे तत्त्व विराधना थकी अज्ञान तप थकी अम्हे इहां ऊपनां छां इम सम्यक् प्रकारे न जाण ते माटै अनिदा वेदना वेदै। अने जे माया रहित सम्यक् दृष्टि ऊपना छ ते सम्यग् दृष्टिपणे करी यथावस्थित स्वरूप जाणे ते माटै निदा वेदना वेदै छ-बलि इहां पन्नवणा ने विषे द्वार गाथा छै तिका इम सीता य दव्व सारीरा सात तह वेदणा हवति दुक्खा । अब्भुवगमोवक्कमिया निदा य अनिदा य णायब्वा' । अधिकृत वाचना नै विषे गाथा पूर्वार्द्ध में कह्यो तिकोहीज दुख पर्यंत द्वार नों कथन कियो-वेयणापयं भाणियब्वं जाव नेरइयाणं भंते ! कि दुक्खमित्यादि । एतो ए अधिकृत वाचना नै विषे भाख्यो ते का। अने अन्य वाचना नै विषे संपूर्ण गाथा कही। ते भणी तिहां अन्य वाचना न विष पिण कह्यो निदा य अनिदा य वज्ज। ६६. वेदन कर्म प्रसूत, तेह तणां प्रस्ताव थी। वेदन हेतुभूत, प्रतिमा प्रति कहिये हिवै।। ६७. *हे भगवंत ! मासिकी प्रतिमा-प्रतिपन्न जे अणगारो रे । स्नानादिक परिकर्म वर्जवै, छांडयो तनु-शृंगारो रे ।। ६६. वेदनाप्रस्तावाद्वेदनाहेतुभूतां प्रतिमा निरूपयन्नाह (वृ० प० ४६७) ६७. मासियण्णं भिक्खुपडिम पडिवन्नस्स अणगारस्स, निच्चं वोसट्टकाए। 'वोसठे काए' त्ति व्युत्सृष्टे स्नानादिपरिकर्मवर्जनात् । (वृ० प० ४६८) ६८. चियत्तदेहे जे केइ परीसहोवसग्गा उप्पज्जति जहा दसाहिं (७।२६-३५) जाव (७) आराहिया भवइ । (श० १०।१८) ६८. त्यक्तदेह उपसर्ग सहतो, जिम दशाश्रुतखंध मांह्यो रे । यावत आज्ञा करि आराधक, सहु विस्तार कहायो रे ॥ सोरठा ६६. आराधना इम होय, जिन आज्ञा करिने कह्यो। ते माटे अवलोय, आराधन कहियै हिवै ।। ७०. *भिक्षु अन्यतर एक अकारजसेवी विण आलोयो रे । ___ काल कियां नहि तास आराधन, आलोयां सुध होयो रे ॥ ६६. आराहिया भवतीत्युक्तमथाराधना: यथा न स्याद्यथा च स्यात्तदर्शयन्नाह (वृ० प० ४६८) ७०. भिक्खू य अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता से णं तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिक्कते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा। (श० १०।१६) *लय : कुंकुवर्णी हुंती रे देही १. पन्नवणा ३५१ ३२४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा वाचनांतरे इम पडिसेविज्जा होय, प्रतिसेव्य सेवी ७१. पडिसेविता सोय, ७२. *भिक्षु अन्यतर एक अकारजसेवी इम मन घारे रे । मरण अवसरे ए स्थानक ने आलोवीस जिवारे रे ।। ७३. तेह अकरवा जोग स्थानक नैं, आलोयां विण कालो रे । कीघो तास आराधन नाहीं, दाखे दीनदयालो रे ॥ ७४. तेह अकरवा जोग स्थानक नै, अंत समय आलोई रे । काल कियां तेहने आराधना ए जिन वच अवलोई रे ।। ७५. भिक्षु अभ्यंतर एक अकारजसेवी एम विचारं रे । जे धावक पिण काल करीनें, सुरलोके संचारं रे ।। कह्य ं । करी ॥ ७६. तो हूं स् व्यंतर नहीं होइस, इम चितव ते स्थानो रे । आलोयां विण काल कियो तो, आराधक मति जानो रे ।। ७७. ते स्थानक आलोइ पडिकमी, काल कियो ते संतो रे । आराधक कहिये छे तेहनें, सेवं भंते! सेवं भंतो ! रे ॥ ७. दशम शते ए द्वितीय उद्देशक, वे सौ अठारमीं डालो रे । भिक्षु भारीमाल ऋषिराम प्रसादे 'जय-जश' मंगलमालो रे ॥ दशमाते द्वितीयोदेकार्थः ||१०|२|| ढाल : २१६ दूहा १. द्वितीय उद्देशक उद्देशक अंत में, देवपणो आख्यात | तृतीय उद्देशक हिव कहूं, अमर तणों अवदात || २. नगर राजगृह जाव इम, गौतम एम वदंत । आत्म- ऋद्धि स्व शक्ति करी, सुर सामान्य भदंत ! ३. जाव' च्यार अरु पंच जे, सामान्य सुर नां ताय । वासंतर प्रति लंघ नैं, वीतिक्कते ते जाय ? ४. प्यार पंच वासा घही उपरंत सुर सामान । जावे पर शक्ती करी ? जिन कहै हंता जान ।। • रे देही ७१. 'पडिसेवित्त' त्ति अकृत्यस्थानं प्रतिषेविता भवतीति गम्यं वाचनान्तरे त्वस्य स्थाने पडिसेविज्ज' त्ति दृश्य ( वृ० प० ४९८ ) ७२. भिक्खू य अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ - पच्छा वि णं अहं चरिमकालसमयंसि एयस्स ठाणस्स आलोएस्सामि ७३. से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा ७४. से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्स आरोहणा । (२० १०।२०) ७५. भिक्खू य अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ - जइ ताव समणोवासगा वि कालमासे का किन्दा अपयरे देवलोएम देवताए उववतारो भवंति । ७६. मिंग ! पुग अहं अणपतिपदेवत्तपि नो भ सामिति कट्टु से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा, ७७. से णं तस्स ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा । ( ० १० २१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( ० १०।२२) १. द्वितीयदेशकान्ते देवत्वमुक्तम्, अथ तृतीये देवस्वरूपमभिधीयते ( वृ० प० ४१८) २. रायगि जान एवं जयासी—आइडीए णं मते ! देवे 'आइडीए णं" ति आत्म स्वकीय ( वृ० प० ४९६ ) ३. जाव चत्तारि, पंच देवावासंतराई वीतिक्कते 'देवे' त्ति सामान्य: ......... "लंघितवान् ( वृ० प० ४९९ ) ४. तेण परं परिड्ढीए ? हंता गोयमा ! श० १० उ० २ ढाल २१८६२१६ ३२५ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. एवं असुरकुमार लंघे वासा असुर नां, ६. इम इण अनुक्रमे अनुक्रमे करी, इम व्यंतर ने जोतिषी, पिण, णवरं नां, शेष इतो तिमज विशेख । संपेख ॥ यावत पणियकुमार । वैमानिक सुविचार ॥ * प्रश्न गोतम तणां ए। (ध्रुपदं ) ७. प्रभु ! देव अल्प ऋद्धिनों धणी ए, महद्धिक सुर विच होय । जावं ? तब जिन कहै ए, अर्थ समर्थ नहि कोय !! ८. प्रभु ! देव सरीखी ऋद्धि नों धणी ए, सम ऋद्धि सुर विच होय । जावे ? तव जिन कहै ए, अर्थ समर्थ नहि कोय | ६. ते देव प्रमादी हुवै वली ए, तो सरिखी ऋद्धिवंत देव । तास विच में थई ए, जावै छै स्वयमेव ॥ १०. ते देव विमोह उपजायने ए, जावा समर्थ भगवंत । धूंअर प्रमुख करी ए, अंधकार करि जंत ? वा० - धूंअर प्रमुख अन्धकार करिव करी मोह प्रति उपजावी ने ते अण देखतां छतां ईज देव प्रतै उल्लंघी नैं जाय । १२. अथवा जर प्रमुखे करी ए अंधकार विण की। तास विमोह्यां विना ए, जावा समर्थ सीध ? १२. जिन भाखं विमोह्यां बिना ए, जावा समर्थ न कोय । विमोह उपजाय नें ए, जावा समर्थ होय ॥ १३. ते प्रभु! स्वं पहिला थको ए. विमोह उपजाई जाय । कै पहिलां उल्लंघ ने ए, पछै विमोह उपाय ? १४ जिन कहै पहिलां विमोह नैं ए, पछै उलंघी जाय । पिण पहिलां उल्लंघ ने ए, पछै विमोह नांय || १५. प्रभु ! महाऋद्धिवंत देवता ए. अल्पऋद्धिवंत सुर वीच जायँ मध्योमध्य थई ए ? जिन कहै हंत समीच ॥ १६. ते प्रभु! स्यूं विमोही करी ए. जावा समर्थ जेह तथा विमोह्यां विना ए, महद्धिकगमन करेह ? १७. जिन भाखं विमोही करी ए, जावा समर्थ जाण । यति विमोह्यां विना ए. समर्थ तेह पिछाण ॥ १८. ते स्यूं प्रथम विमोह नै ए, पछै उलंघी जाय । तथा पहिला जई ए पर्छ विमोह उपाय ? १२. जिन कहे प्रथम विमोह ने ए पर्छ उनी जाय। तथा पहिला जई ए, पछै विमोह उपाय ॥ २०. अल्प द्धियंत असुर प्रभु ! ए असुर महऋद्धिक विच होयजावे ? तब जिन कहै ए, अर्थ समर्थ नहिं कोय | *लय: छट्ठो व्रत रयणी तणो २२६ भगवती जोड़ ए ५. एवं असुरकुमारेवि, नवरं असुरकुमाशवासंतराई सेसं तं चैव -. • ६. एवं एएणं कमेणं जाव थणियकुमारे, एवं वाणमंतरे जोइसिए माणिए जाव तेण परं परिड्ढीए । (श० १०.२३) ७. अप्पिड्ढीए णं भंते! देवे महिड्ढियस्स देवस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ? नोट्ठे सट्टे । ८. समिड्ढीए णं भंते! देवे मयोगं बीइए? नो इट्ठे सट्टे । ६. पमत्तं पुण वीइवएज्जा । ( श० १०/२४) समिढियस्स देवस्स ( रा ० १० २५ ) १०. से भंते! कि विमोहित्ता पभू ? महिकाद्यन्धकारकरणेन मोहमुत्पाद्य अपश्यन्तमेव तं व्यतिक्रामेदिति भावः ( वृ० प० ४६९ ) ११. विमोहिता पत्र ? १२. गोमा विमोहिता पभू नो अविमोहित्ता पभू । (श. १०।२६ ) १२. मंते कि विमोहित पच्छावी? पुव्वि वीइवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा ? १४. गोषमा विविमोहिता पच्छायोइए नो पुब्बिवत्ता पच्छा विमोक्शा। (२०१०।२७) १५. महिदीए भते देवे अपिस्सि देवस मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ? हंता वीइवएज्जा | ( ० १०.२८) १६. से भंते! कि विमोहित्ता पभू ? अविमोहित्ता पभू ? १७. गोयमा ! विमोहित्ता वि पभू, अविमोहित्ता वि पभू । ( श० १०:२६ ) १८. से भंते कि पुवि विमोहिता पन्छा वीएक्या? पुयिवीयता पच्छामि ? १६. गोयमा ! पुत्रि वा विमोहेत्ता पच्छा वीइवएज्जा, पुव्वि वा वीइवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा । ( श० १०1३० ) २०. अपिढिए णं भंते! असुरकुमारे महिड्ढियस्स असुरकुमारस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा ? नो इट्ठे समट्टे । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. समचं देव तणां काए, तीन आलावा तेह | असुर नो तिम इहां ए. आलावा तीन कहे ॥ २२. अल्पऋद्धिक महाऋद्धिक नों ए, प्रथम आलावा पेख । समक समऋद्धि नों ए दूजो आसावो देख ॥ २३. महद्धिक अल्पऋद्धिक तणों ए, तीजो आलावो ताय । समुच्चय सुर तणां ए, तेम असुर नां थाय ॥ २४. वाणव्यंतरा जोतिषी ए, वैमानिक इम जाण । आलावा एहनां ए. तीन-तीन पहिछाण || २५. प्रभु ! देव अल्पऋद्धि नों धणी ए, महद्धिकसुरी विच होयजावे ? तब जिन कहै ए, अर्थ समर्थ नहि कोय ॥ २६. प्रभु ! देव सरीखी ऋद्धिनों वणी ए, समऋद्धि सुरी विच होयजावे ? तब जिन कहै ए, अर्थ समर्थ नहि कोय ।। २७. जो प्रमादी ते देवी हुवै ए, तो तसु विच होय जाय । आलावो दूसरो ए, पूर्व कह्यो ज्यूं कहाय ॥ २. प्रभु देवता महाऋदिनों धणी ए. ! अल्प ऋद्धि सुरी विच होयजावे ? तब जिन कहै ए, हंता समर्थ जोय ।। २१. इम असुर व्यंतर जोतिषी वणां ए तीन-तीन आलाव वैमानिए. सुर सुरो वीच कहान । ३०. प्रभु! देवी ऋद्धिवंत, महद्धिक सूर विच होय अवलोय || र विच होय जावे ? तव जिन कहै ए, अर्थ समर्थ नहि कोय | ३१. प्रभु! देवी सरीखी ऋद्धिवंत ए समऋद्धिसुर विच होय । आलावो दूसरो ए, पूर्ववत ३२. प्रभु! देवी महाऋद्धिए अल्प ऋद्धि जावं ? तब जिन कहे ए. हंता समर्थ जोय ॥ ३३. इम असुर व्यंतर जोतिषी तणां ए, तीन-तीन आलाव । वैमानिक नां वली ए, देवी देव - विच जाय || ३४. प्रभु! देवी अल्प द्धिवंत ए महद्धिक देवी बिच होयअर्थ समर्थ नहि कोय || विचै ए, जावा समर्थ नांय । प्रमत्तपणें जो हुवं ए, तो पूर्ववत विच जाय ॥ ३६. देवी महाऋद्धिवंत ए. अल्पऋद्धि देवी विष होयजाये ? तब जिन कहे ए. हंता समर्थ जोय ॥ ३७. इमहिज असुरकुमार नांए, कहिवा तीन आलाव । व्यंतर जोतिषी तणां ए, तीन आलाव कहाव ॥ जावे ? तव जिन कहै ए, ३५. इम सम ऋद्धि देवी समऋद्धि - १. इसके बाद अंग सुत्ताणि भाग २ श० १०।२९ में 'एवं जाव थणियकुमारेणं' पाठ है पर इसकी जड़ नहीं है। २. इस ढाल की गाथा २६ से २९ तक की जोड़ विस्तृत पाठ के आधार पर की हुई है। उसका संकेत न अंगसुत्ताणि में है और न वृत्ति में है । इसलिए इन गाथाओं के सामने अंगसुत्ताणि का संक्षिप्त पाठ ही उद्धृत किया गया है। २१-२३. एवं असुरकुमारेण वि तिष्णि आलावगा भाणि - यव्वा जहा ओहिएणं देवेण भणिया । एवं असुरकुमारेण वि तिम्ति जलावन' सि अपद्धि महद्धिकयोरेकः समद्धिकयोरन्यः महद्धिकाल्पद्विकयोरपर इत्येवं त्रयः । ( वृ० प० ४९९ ) २४. वाणमंतर - जोइसियवेमाणिएणं एवं चेव । ( श० १०:३१ ) २५. अप्पिढिए णं भंते! देवे महिड्ढियाए देवीए ममो वीइवएना ? नोई समड़े | २६-२१. समिभिते देने मजमणं वीएग्जा ? एवं तहेव देवेण य देवीए य दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणियाए । (२० १०,३३) ( श० १०1३२ ) समियाए देवीए ३०-३३. अपिढिया णं भंते ! देवी महिड्ढियस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा ? एवं एसो वि ततिओ दंडओ भाणियव्वो जावमहिड्डिया बेमागिणी अमिडिया देवादिस बीएला ? हंता बीएला । ( श० १० ३४, ३५ ) ३४. अमिडिया णं ते देवी महिढपाए देवीए मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ? नो इणट्ठे समट्ठे । ३५. एवं समिया देवी समाए देवीए हे। २६. महादेवी अपिपाए देवीए सहेब | ३७. एवं एक्केक्के तिष्णि तिष्णि आलावगा भाणियव्वा ( श० १०/३६ ) जाव--- श० १०, उ०३, ढा० २१६ ३२७ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. वैमानिक नां पिण वली ए, तीन आलावा एम। कहं हिव तीसरो ए, सांभलज्यो धर प्रेम ।। ३६. महद्धिक सुरी वैमानिक तणी ए, अल्प ऋद्धि नी ताय । वैमानिक नी सुरी ए, तास विच होय जाय । ४०. ते प्रभु ! स्यू विमोही करी ए, जावा समर्थ तेह । तिमज कहिवो सहू ए, पूर्वली परै जेह ।। ३६. महिड्ढिया णं भंते ! वेमाणिणी अप्पिड्ढियाए वेमाणिणीए मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा? हंता बीइवएज्जा। (श० १०॥३७) ४०. सा भंते ! कि विमोहित्ता पभू? अविमोहित्ता पभू? गोयमा ! विमोहित्ता वि पभू, अविमोहित्ता वि पभू । तहेव ४१. जाव पुधि वा वीइव इत्ता पच्छा विमोहेज्जा। एए चत्तारि दंडगा। (श० १०.३८) ४१. यावत प्रथम उलंघ नैं ए, पछै विमोह उपजाय । सरी ते सुरी विच ए, तुर्य दंडक ए थाय ।। ४२. दशम शते देश तीसरो ए, बे सौ गुनीसमी ढाल । भिक्षु दीर्घ राय थी ए, 'जय-जश' हरष विशाल ।। ढाल : २२० दहा १. पूर्वे देव क्रिया कही, विस्मयकारिणी तेह । विस्मय करि अन्य वस्तु नों, गोतम प्रश्न करेह ।। २. अश्व दोड़तो हे प्रभु ! 'खु खु' शब्द करंत । ए किण कारण स्वाम जी ! भाखै तब भगवंत ।। ३. अश्व दोड़ता ने तदा, हृदय कालजा बीच । कर्कट नामैं वायू ते, उपजै कर्म कलीच ॥ ४. ते कर्कट वायू करी, अश्व दोड़तो एह । ___ 'खु खु' शब्द करै अछ, भाखै जिन गुणगेह ।। ५. पूर्वे 'खु खु' रव कह्यो, ते भाषारूपेह । तिणसं हिव भाषा कहूं, वलि भाषणीयपणेह ।। *चतुर नर गोयम प्रश्न उदार ।। (ध्रुपदं) ६. गोतम पूछ वीर नैं रे, अथ हिव हे भगवान ! आश्रयणीय पदार्थ नैं रे, अम्है आश्रयस्यूं जान । १. अनन्तरं देवक्रियोक्ता, सा चातिविस्मयकारिणीति विस्मयकरं वस्त्वन्तरं प्रश्नयन्नाह (वृ० प० ४६६) २. आसस्स णं भंते ! धावमाणस्स कि 'खु-खु' त्ति करेति ? ३. गोयमा! आसस्त णं धावमाणस्स हिययस्स य जगस्स य अंतरा एत्थ णं 'कक्कडए नामं' वाए संमुच्छइ । 'हिययस्स य जगयस्स य' त्ति हृदयस्य यकृतश्च - दक्षिणकुक्षिगतोदरावयवविशेषस्य (वृ०५० ५००) ४. जेण आसस्स धावमाणस्स 'खु-खु'त्ति करेति । (श० १०.३६) ५. 'खु-खु' त्ति प्ररूपितं तच्च शब्दः, स च भाषारूपोऽपि स्यादिति भाषाविशेषान् भाषणीयत्वेन प्रदर्शयितुमाह (वृ०प० ५००) ६. अह भंते ! आसइस्सामो 'आसइस्सामो' त्ति आश्रयिष्यामो वयमाश्रयणीयं वस्तु (वृ० ५० ५००) ७. सइस्सामो, चिट्ठिस्सामो, निसिइस्सामो तुयट्टिस्सामो 'सइस्सामो' त्ति शयिष्यामः 'चिट्ठिस्सामो' त्ति उर्ध्वस्थानेन स्थास्यामः""तुयट्टिस्सामो' त्ति संस्तारके भविष्याम: (वृ० ५० ५००) ८. पण्णवणी णं एस भासा ? इत्यादिका भाषा कि प्रज्ञापनी? (वृ० ५० ५००) ७. अम्है सुयस्यूं वलि अम्है ऊभो रहिस्यं धार । अम्हे वलि इहां बसस्यूं, आडो होयस्यूं संथार ।। ८. इत्यादिक भाषा तिका, प्रज्ञापनी पिछान । भाषा परूपण जोग छ ? ते प्रज्ञापनी जान ।। लय : राम पूछ सुग्रीव ३२८ भगवती जोड़ Jain Education Intemational lucation international Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०-"इहां बैसस्यूं, सूवस्यूं इत्यादिक अनागत काल आश्रयी कहै, जद तो निश्चयकारणी हुवै। पिण ए वर्तमान काल में बैसण, सूवण का भाव, तिवार कहै-हिवड़ा बेसं, शयन करूंछु अथवा ए आश्रयवा जोग वस्तु हिवड़ा आश्रृं छू, इत्यादि कह्यां निश्चयकारिणी नहीं, ए बोलवा जोग छ ते माट। ए भाषा नै प्रज्ञापनी कहिय, पिण मृषा न कहिये। वर्तमान रै समीप ए अनागत काल छ, ते माटवर्तमान कार्य नै विषे आसइस्सामो ए अनागत नों पाठ करा जणाय छ।" (ज० स०) ६. उपलक्षण पर वचन ए, ते कारण थी जाण । एहवी भाषाजात नों, पूछयो प्रश्न पिछाण ।। १०. वलि भाषा नी जात नै, परूपवा योग जेह । पूछ बे गाथा करी, आमंत्रणी आदेह ।। ११. हे देवदत्त! आमंत्रणी, इत्यादिक अवधार । सत्य असत्य मिश्र नहीं, व्यवहार वृत्ति मझार ।। ६.१०. अनेन चोपलक्षणपरवचनेन भाषाविशेषाणामेवंजाती यानां प्रज्ञापनीयत्वं पृष्टमथ भाषाजातीनां तत्पृच्छति -'आमंतणि' गाहा (वृ० ५० ५००) १२. आज्ञापनी कारज विष, प्रवर्तीवणहार । कहै अमुको कारज करो, घट कर इत्यादि विचार ।। १३. याचणी मांगे वस्तु नैं, पूछणी अर्थ पूछेह । जेह अर्थ जाण्यो नहीं, जाणवा अर्थे जेह ।। १४. प्रज्ञापनी सुविनीत नैं, उपदेशरूप प्रयोग । निवत्त प्राणी-वध थकी, ते दीर्घायु अरोग ।। ११. तत्र आमन्त्रणी' हे देवदत्त ! इत्यादिका, एषा च किल वस्तुनोऽविधायकत्वादनिषेधकत्वाच्च सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतश्चासत्यामृषेति प्रज्ञापनादावुक्ता (वृ० ५० ५००) १२. 'आणवणि' त्ति आज्ञापनी कार्ये परस्य प्रवर्तनी यथा घटं कुरु (वृ० प० ५००) १३. 'जायणि' त्ति याचनी-वस्तुविशेषस्य देहीत्येवंमार्गण रूपा "पुच्छणी य' त्ति प्रच्छनी-अविज्ञातस्य संदिग्धस्य वाऽर्थस्य ज्ञानार्थं तदभियुक्तप्रेरणरूपा (वृ० ५० ५००) १४. पण्णवणि' त्ति प्रज्ञापनी-विनेयस्योपदेशदानरूपा यथापाणवहाओ नियत्ता भवंति दीहाउया अरोगा य (वृ० ५० ५००) १५. 'पच्चक्खाणीभास' त्ति प्रत्याख्यानी याचमानस्या दित्सा मे अतो मां मा याचस्वेत्यादि प्रत्याख्यानरूपा भाषा (व०प०५००) १६. 'इच्छाणुलोम' त्ति प्रतिपादयितुर्या इच्छा तदनुलोमा -तदनुकूला इच्छानुलोमा यथा कार्ये प्रेरितस्य एवमस्तु ममाप्यभिप्रेतमेतदिति वचः (वृ०प०५००) १५. प्रत्याख्यानी जे हवं, मांगे तास निषेध । देण तणी इच्छा नहीं, मति मांगो इम भेद ।। १६. इच्छा-अनुलोमा इसी, बोलै इच्छा लार। किण कह्यो---ए कारज करां? हां, मुझ पिण रुचिकार ।। १. आमंतणी आणवणी, जायणी तह पुच्छणी य पण्णवणी । पच्चक्खाणी भासा, भासा इच्छाणुलोमा य॥ अणभिग्गहिया भासा, भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धब्वा । संसयकरणी भासा, वोयडमव्वोयडा चेव ।। इन दो संग्रह गाथाओं में असत्यामृषा-व्यवहारभाषा के बारह प्रकार निरूपित हैं। प्रज्ञापना के भाषापद में इनका निरूपण इसी प्रकार हुआ है। प्रज्ञापनी भाषा के प्रस्तुत प्रकरण में प्रासंगिक रूप से ये संग्रहगाथाएं लिखी हुई थीं। किसी प्रतिलिपिकार ने इनका मूलपाठ में समावेश कर दिया। उत्तरकाल में भी यह परम्परा इसी रूप में चलती रही। वृत्तिकार ने भी मूल के साथ ही इनकी व्याख्या कर दी। __अंगसुत्ताणि भाग २ पृ० ४७३ में इनको पा० टि० (४) में उद्धत किया है। उसी के आधार पर इनको जोड़ के साथ न रखकर टिप्पण में रखा गया है। श० १०, उ०३, ढाल २२० ३२६ Jain Education Intemational Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. अनभिग्रहिता जेहनों, अर्थ न होवे कोय । डित्थ डवित्थवत शब्द नों, अर्थ नहीं छै सोय ।। १८. अभिग्रहिता भाषा इसी, अर्थ सहित छै एह । घट वस्त्रादिक नीं परै, तास अर्थ समझेह ।। १६. संसयकरणी इक तणां, अर्थ बहू अवलोय । सैंधव शब्द कह्या छता, पुरुष लवण हय होय ॥ २०. वोयड़ व्याकृत स्पष्ट जे, लोक प्रसिद्ध पिछाण । भाषा तणों प्रयोग ह, गज अश्वादिक जाण ।। २१. अवोयड ते प्रगट नहीं, शब्द अर्थ गम्भीर । अथवा मन्मन अक्षरे, अर्थ न समझे तीर ।। २२. ए भाषा भगवंतजी ! प्रज्ञापनी कहाय ? स्पष्ट अर्थ प्रकटनपरा, मृषा न कहियै ताय ? १७. अणभिग्गहिया भासा' अनभिग्रहीता-अर्थानभि__ग्रहेण योच्यते डित्यादिवत् (वृ० ५० ५००) १८. 'भासा य अभिग्गहंमि बोद्धव्वा' भाषा चाभिग्रहे बोद्धव्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत् (वृ०प० ५००) १६. 'संसयकरणी भास' त्ति याऽनेकार्थप्रतिपत्तिकरी सा संशयकरणी यथा सैन्धवशब्द: पुरुषलवणवाजिषु वर्तमान इति (वृ०प०५००) २०. 'वोयड' त्ति व्याकृता लोकप्रतीतशब्दार्था (वृ० ५० ५००) २१. 'अव्वोयड' त्ति अव्याकृता-गम्भीरशब्दार्था मन्मना क्षरप्रयुक्ता वाऽनाविर्भावितार्था (वृ० ५० ५००) २२. 'पन्नवणी णं' ति प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी अर्थकथनी वक्तव्येत्यर्थः (वृ० ५० ५००) न एसा भासा मोसा? २३. हंता गोयमा ! आसइस्सामो तं चेव जाव (सं० पा०) न एसा भासा मोसा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १०॥४०,४१) २३. जिन कहै हंता गोयमा ! आश्रयस्यूं ए आदि। जाव मृषा भाषा नहीं, सेवं भंते! सेवं भंते!साधि ।। २५. पृच्छतोऽयमभिप्राय:-आश्रयिष्याम इत्यादिका भाषा भविष्यत्कालविषया सा चान्तरायसम्भवेन व्यभिचारिण्यपि स्यात्तथा (वृ० १०५००) २६,२७. उत्तरं तु 'हंता' इत्यादि इदमत्र हृदयम् - आश्रयिष्याम इत्यादिकाऽनवधारणत्वाद्वर्तमानयोगेनेत्येतद्विकल्पगर्भत्वात्. (वृ० ५० ५००) सोरठा २४. निरर्थक वच ओलखाय, कहिये डित्थ डवित्थ भणी। एम बतावा ताय, योग्य परूपण इम हुवै ।। २५. इहां पृच्छा अभिप्राय, आश्रयस्यूं ए आदि दे। काल अनागत मांय, कार्य न थयां असत्य हवै।। २६. उत्तर तेहनों आर्य, निश्चयकारणी ए नहीं। वर्तमान जे कार्य-काल मझे बोल्यां छतां ।। २७. वर्तमान रै जोग, बेसू सोव इम कह यां। असत्य तणो न प्रयोग, इम नहिं निश्चयकारणी ।। २८. तथा पाठ में जाण, आसइस्सामो बहु बचन । इक वच विषय पिछाण, ए बह वच किण कारणे ।। २६ उत्तर तेहनों एह, आत्म विषे वलि गुरु विषे । एकार्थ विषयेह, आज्ञा छै बहु वचन नी ।। ३०. तिण स्यूं भाषा एह, कहियै कहिवा योग्य ए। तेहनं नाम कहेह, प्रज्ञापनीज जाणवू । वा०-तथा आमंत्रणी आदि पिण वस्तु विषे विधि ते कार्य नो करिवो अनै प्रतिषेध ते कार्य करिवा नों निषेध करिवो ए बिहुं नी कहिणहारी नहीं । पिण जे निरवद्य पुरुषार्थ साधनी प्रज्ञापनीज कहिये। प्रज्ञापनी कहिता ए भाषा बोलवा योग्य जाणवी। ३१. *दशम शते तीजो कह्यो, दोयसौ वीसमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरय विशाल ।। २६,३०. गुरी चैकार्थत्वेऽपि बहुवचनस्यानुमतत्वात्प्रज्ञापन्येव (वृ० ५० ५००) वा०-तथाऽमन्त्रण्यादिकाऽपि वस्तुनो विधिप्रतिषेधाविधायकत्वेऽपि या निरवद्यपुरुषार्थसाधनी सा प्रज्ञापन्येवेति । (वृ० प० ५००) ३१. दशमशते तृतीयोद्देशकः (वृ० ५० ५००) *लय : राम पूछ सुग्रीव ३३० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २२१ दूहा १. तृतीय उद्देशक देव नीं, वक्तव्यता आख्यात । __ तुर्य उदेशे पिण वली, अमर तणों अवदात ॥ २. तिण काले नै तिण समय, वाणिय ग्राम पिछाण । नाम नगर तस वण्णओ, दूतिपलास उद्यान ।। ३. त्यां श्री वीर समोसया, यावत परषद जान । सुण वाणो स्वामी तणी, पोंहती निज-निज स्थान ।। ४. तिण काले नै तिण समय, वीरप्रभु नों सार । अंतेवासी ज्येष्ठ वर, इंद्रभूति अणगार ।। ५.यावत जान ऊर्द्ध करि, अधो सीस वर ध्यान । संजम तप करि आतमा भावत विचरै जान ॥ ६. तिण काले नैं तिण समय, स्वाम तणों सुखकार । अंतेवासी गुणनिलो, सामहत्थि अणगार ।। ७. प्रकृति स्वभावे भद्र वर, जिम रोहो गुणवंत । यावत जान ऊर्द्ध करि, यावत मुनि विचरंत ।। ८. *सामहत्थि नैं तिण समय गुणधारी रे, कांइ जात-प्रवर्ती जाण। मुनि सुखकारी रे। श्रद्धा ते इच्छा कही गुणधारी रे, प्रश्न तणी पहिछाण । मुनि सुखकारी रे। ६. यावत ऊठी आवियो गुणधारी रे, भगवंत गोतम पास । तीन प्रदक्षिणा दे वदै गुणधारी रे, जाव करी पर्यपास ।। १. तृतीयोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, चतुर्थेप्यसावेवोच्यते (वृ० प० ५०१) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नयरे होत्था___वण्णओ । दूतिपलासए चेइए। ३. सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया। (श० १०॥४२) ४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावी रस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे ५. जाव उड्ढंजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (श० १०।४३) ६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावी रस्स अंतेवासी सामहत्थी नामं अणगारे ७. पगइभद्दए जहा रोहे जाव (सं० पा०) उड्ढेजाणू जाव विहरइ । (श० १०॥४४) ८. तए णं से सामहत्थी अणगारे जायसड्ढे ६. जाव उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवं गोयमं तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी (श० १०॥४५) १०. अत्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा । तावत्तीसगा देवा ? १०. छै भगवंत ! चमर तण गुणधारी रे, कांइ असर इंद्र नै एव । ___ असुर तणे राजा तणे गुणधारी रे, तायत्रिसगा देव ॥ सोरठा ११. त्रायस्त्रिशगा जाण, सुर तेतीस सहामणा। मंत्री तुल्य पिछाण, एहवं आख्यो वृत्ति में । १२.*गोतम कहै हंता अत्थि गुणधारी रे, ते किण अर्थे स्वाम। त्रायत्रिसगा चमर नै गुणधारी रे, आप कह्या अभिराम ? ११. 'तायत्तीसग' त्ति त्रायस्त्रिशा-मन्त्रिविकल्पा: (वृ० ५० ५०२) १२. हंता अस्थि । (श० १०॥४६) से केणठेणं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमार रण्णो तावत्तीसगा देवा-तावत्तीसगा देवा? १३. एवं खलु सामहत्थी ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे १४. भारहे वासे कायंदी नाम नयरी होत्या-वण्णओ। १३. इम निश्चै गोयम ! कहै गुणधारी रे, हे सामहत्थि अणगार ।। तिण काल नैं तिण समय गुणधारी रे, इण जंबूद्वीप मझार ।। १४. भरत क्षेत्र मांहे भली गुणधारी रे, कांकदी अभिधान । नगरी ऋद्ध समृद्ध छै गुणधारी रे, तसु वर्णन पहिछान ।। *लय : मोजी तुररा रे १. अंगसुत्ताणि भार २ श०१०।४६ में यहां तावत्तीसगा' पाठ है। 'तायत्तीसगा' को पाठान्तन में लिया गया है। श०१०, उ०४, ढाल २२१ ३३१ Jain Education Intemational ducation Intermational Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. तिण काळंदी नगरी विषे गुणधारी रे, माहोमांहि सखाइया गुणधारी रे, १६. गाथापति कुटुंब तणां गुणधारी रे, कांइ नायक ते तेतीस । मुनी सुखकारी रे। श्रमणोपासक सह मुनिराया रे, महा ऋद्धिवंत जगी ॥ सुण मुनिराया रे ॥ १७. यावत अपरिभूत छै मुनिराया रे, कांइ धन करिनैं अवलोय । सुण मुनिराया रे । मुनिराया रे, कांइ गंज सके नहि कोय ।। सुण मुनिराया रे ॥ कांइ पुन्य पाप पहिचान । यावत विचरै जान | कांह गाथापती गिणाय । पराभवि कोई मां स कुटंब तणां नायक तिके मुनिराया रे, कांइ समणोपासक ताय ॥ २०. पहिला उत्कृष्ट भाव भी मुनिराया रे, उम्र कह्या सुलकार । वलि भला अनुष्ठान भी मुनिराया रे, कांइ उग्र विहार आचार ॥ 'श्री १५. जाण्या जीव अजीव ने मुनिराया रे वर्णव तास वखाणवो मुनिराया रे, ११. तेतीस सहाया तिण समय मुनिराया रे, २१. संविमा शिवगमन नीं मुनिरावा रे, कांइ इच्छा तसु अभिलाष । तथा डरै संसार थी मुनिराया रे, भ्रमण तणो भय भास ॥ २२. संविगविहारी ते वली मुनिराया रे, रूड़े अनुष्ठाने रता मुनिराया रे, मित्र हुंता तेतीस । करण सहाय सरीस || २३. प पासल्या ते थवा मुनिराया रे कांइ ज्ञान दर्शन थी बार । बाहिर देश चरित्र थकी मुनिराया रे, कांइ सम्यक्त्व विरति निवार ।। २४. पासत्थविहारी ते थया मुनिराया रे, कांइ छेड़ा लग पिण जाण । पासत्थपणों मूक्यो नहीं मुनिराया रे, कांइ एहवा मूढ अयाण || कांइ संविग्ग तसु अनुष्ठाण । कांइ पूरव काल पिछाण ॥ २५. ओसन्ना पाका नीं पर मुनिराया रे, कांइ वेदातुर जिम जेह पवर भला अनुष्ठान थी मुनिराया रे, कांइ थया आलसू तेह || २६. वले ओसन्नविहारिका मुनिराया रे, कांदेड़ा तांद ताय । शिथिलाचारी ते या मुनिराया रे, कांइ पाछा मंडिया नांव ॥ २७. बने शीला ते या मुनिराया रे, कांइ ज्ञानादिक गुण सार तेह तणां आचार नैं मुनिराया रे, विराधना अधिकार || ३२२ भगवती-जोड़ २८. बजे कुशलविहारिका मुनिराया रे कांड बेहड़ा लग पहिचाण । ज्ञानादिक आचार नो मुनिराया रे अधिक विराधक जाण ॥ १५, तत्थ णं कायंदीए नयरीए तायत्तीसं सहाया त्रयस्त्रिशत्परिमाणाः 'सहायाः परस्परेण सहायककारिण: ( वृ० प० ५०२ ) १६. गाहावई समणोवासया परिवसंति-अड्ढा 'गृहपतयः' कुटुम्वनायकाः ( ० १०५०२ ) १७. जाव बहुजणस्स अपरिभूता जाव १८. अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्णपावा विहरति । (श० १०१४७) १६. तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया २०. पुवि उम्या, उम्मविहारी 'उग्ग' त्ति उग्रा उदात्ता भावतः 'उग्गविहारि त्ति उदात्ताचाराः सदनुष्ठानत्वात् ( वृ० प० ५०२ ) २१. संविग्गा 'संविग्ग' त्ति संविग्नाः मोक्षं प्रति प्रचलिताः संसारभीरवो वा ( वृ० प० ५०२) २२. संविग्नविहारी भा 'सविग्गविहार' ति संविग्नविहार:- संविमानुष्ठानमस्ति येषां ते तथा २३. तओ पच्छा पासत्था ( वृ० प० ५०२ ) 'पासस्थि' ति ज्ञानादिवहिवंत्तन (वृ० प०५०२ ) २४. पासबिहारी 'पासत्यविहारी' त्ति आकालं पार्श्व स्थसमाचाराः (२०१०५०२) २५. ओसन्ना 'ओसणि' त्ति अवसन्ना इव - श्रान्ता इवावसन्ना आलस्यादनुष्ठानासम्यकरणात् ( वृ० प० ५०२ ) २६. ओसन्नविहारी 'ओसम्नविहार' ति आजग्मशिवाचारा इत्यर्थः ( ०१०५०२) २७. कुसीला 'सी' ति ज्ञानाचाचारविराधनात् ( वृ० प० ५०२) २८. कुसीलविहारी 'कुसीलविहारि ' त्ति आजन्मापि ज्ञानाद्याचारविराधनात् ( वृ० प० ५०२ ) Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. वलि अपछंदाते थया मनिराया रे, नहिं आगम तणो विचार । स्व-इच्छाचारी सहू मुनिराया रे, कांइ थाप जिनाज्ञा बार। ३०. अपच्छंदविहारी ते थया मुनिराया रे, कांइ छेहड़ा तांई धार। अपछंदपणों नहीं छोडियो मुनिराया रे, कांइ थाप करै अविचार॥ ३१. बह वर्षे श्रावकपणों मुनिराया रे, कांइ पाली में पर्याय । संलेखणा अर्द्धमास नी मुनिरायारे, कांइ तीस भक्त छेदाय ।। २६. अहाच्छेदा 'अहाछंद' त्ति यथाकथञ्चिन्नागमपरतन्त्रतया छन्दः -अभिप्रायो बोध: प्रवचनार्थेषु येषां ते यथाच्छन्दा: (वृ० १०५०२) ३०. अहाच्छंदविहारी 'अहाच्छंदविहारि' त्ति आजन्मापि यथाच्छन्दा एवेति __(वृ०प०५०२) ३१. बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणित्ता, अद्ध मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता ३२. तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा ३३. चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगदेवत्ताए उववण्णा। (श० १०॥४८) ३४,३५. जप्पभिई च णं भंते ! ते कायंदगा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगदेवत्ताए उववन्ना, ३२. ते स्थानक विण पडिकम्यां मुनिराया रे, आलोयां विण आम । मरण तणे अवसर सहू मुनिराया रे, कांइ काल करीने ताम ।। ३३. चमर असुर नां इंद्र नां मुनिराया रे, असुरराय नां जेह । तीवतीसगा सुरपणे मुनिराया रे, कांइ मित्रपणे उपजेह । ३४. सामहत्थि तिण अवसरे मुनिराया रे, कांइ गोयम प्रति पूछत। हे भदंत ! जे दिवस थी मुनिराया रे, एतावतीसगा हुंत । ३५. तेतीस सहाया गाहावई मुनिराया रे, कांइ काकंदी नां जाण । मित्रपणे ए ऊपनां मुनिराया रे, कांइ चमर तणे ए आण ॥ ३६. ते दिन थी कहियै अछै मुनिराया रे, असुरेंद्र नैं ताय । तीवत्तीसगा देवता मुनिराया रे, पिण पहिला कहियै नांय ।। ३७. भगवंत! गोतम नैं तदा मुनिराया रे, कांइ सामहत्थि अणगार । को छते संकित थया मुनिराया रे, कांखित थया तिवार ।। ३८. मन वितिगिच्छा ऊपनी मुनिराया रे, कांइ ऊठी ऊभा थाय । सामहत्थि साथे तदा मुनिराया रे, वीर समीपे आय ॥ ३६. तप्पभिई च णं भंते ! एवं वुच्चइ-चमरस्स असुरिं दस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवा-तावत्ती सगा देवा ? ३७. तए णं भगवं गोयमे सामहत्थिणा अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए ३८. वितिगिच्छिए उढाए उठेइ, उठेत्ता सामहत्थिणा अणगारेणं सद्धि जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, ३६. उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- (श० १०.४६) ४०. अस्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमार रणो तावत्तीसगा देवा-तावत्तीसगा देवा ? हंता अत्थि । (श० १०५०) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ४१. एवं तं चेव सव्वं भाणियब्वं जाव ३६. भगवंत श्री महावीर ने मुनिराया रे, वंदै वच स्तुति ताय । नमस्कार शिर नाम नैं मुनिराया रे, कांइ बोलै एहवी वाय॥ ४०. छै भगवंत ! चमर तणे मुनिराया रे, कांइ तावत्तीसगा देव ? जिन भाख हंता अत्थि मुनिराया रे, किण अर्थे प्रभु ! भेव ? ४१. इम तिम होज कह्यो सह मुनिराया रे, काइ विण आलोयां दीस। देवपणे ए ऊपनां मुनिराया रे, कांइ चमर तणे तेतीस ॥ ४२. जे दिन थी ए ऊपनां मुनिराया रे, कांइ तावत्तीसगा आय । ते दिन थी कहिये अछै मुनिराया रे, तिण पहिला कहियै नांय॥ ४३. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं मुनिराया रे, इम निश्चै करि ताम । __ तावत्तीसगा चमर ने मुनिराया रे, कह्या शाश्वता नाम ।। ४२. जप्पभियं च ण भंते !....""तावत्तीसगदेवत्ताए उववन्ना' तप्पभिई च णं भंते ! एवं वुच्चइ"" 'तप्पभिई च णं' ति यत्प्रभृति त्रयस्त्रिंशत्संख्योपेतास्ते श्रावकास्तत्रोत्पन्नास्तत्प्रभृति न पूर्वमिति (वृ० ५० ५०२) ४३. नो इणठे समठे। गोयमा ! चमरस्स णं असुरि दस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेज्जे पण्णत्ते४४. जं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सई ४४. नहीं कदापि नहि हुआ मुनिराया रे, कांइ नहीं हुवै इम नांय । नहीं हसै इम पिण नहीं मुनिराया रे, कांइ छता काल त्रिहुं मांय ।। श०१०, उ०४, ढा० २२१ ३३३ Jain Education Intemational Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. भविसु य, भवति य, भविस्सइ य-धुवे नियए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए निच्चे, अव्वोच्छित्तिनयट्ठयाए ४६. अण्णे चयंति, अण्णे उववज्जति । (श० १०॥५१) ४५. हवा हवै होस्यै वली मुनिराया रे, कांइ यावत नित्य पिछाण । अव्वोच्छित्ति नय आश्रयी मुनिराया रे, कांइ देव शाश्वता जाण ।। ४६. चवै अनेरा देवता मुनिराया रे, कांइ अन्य अमर उपजाय । पिण स्थानक नैं नाम थी मुनिराया रे, कांइ एहनों विच्छेद नाय ।। ४७. वलि वेरोचन इंद्र नैं गुणधारी रे, छैतावत्तीसगा भंत ! महागूणधारी रे। जिन भाख हंता अत्थि गुणधारी रे, काइ किण अर्थे प्रभु ! हुंत । महागुणधारी रे ।। ४८. जिन भाखै सुण गोयमा ! मुनिराया रे, - इम निश्चै अवलोय । सूण मुनिराया रे। तिण काल नै तिण समैं मुनिराया रे, इण जंबू भरत में जोय । सुण मुनिराया रे ।। ४६. विभेल एहवै नाम थो मुनिराया रे, सन्निवेस सुखदाय । वर्णन तास वखाणवो मुनिराया रे, तिहां वस तेतीस सहाय ।। ४७. अत्थि णं भंते ! बलिस्स वइरोयणिदस्स वइरोयण रण्णो तावत्तीसगा देवा-तावत्तीसगा देवा ? हंता अत्थि। (श० १०॥५२) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ४८. एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे ५०. जेम चमर नां आखिया मुनिराया रे, तिम बलि नै कहिवाय । जाव तेतीसू ऊपनां मुनिराया रे, मित्रपणे सुर आय ।। ५१. हे भदंत ! जे दिवस थी मुनिराया रे, विभेलगा तेतीस । विभेल नां वासी तिके मुनिराया रे, कांइ सखाइया सुजगीस ।। ५२. वलि वैरोचनराय मैं मुनिराया रे, शेष तिमज कहिवेह ।। जाव नित्य ते आखिया मुनिराया रे, अव्वोच्छित्ति नय एह ।। ४६. बेभेले नामं सण्णिवेसे होत्था-वण्णओ। तत्थ णं बेभेले सण्णिवेसे तायत्तीसं सहाया गाहावई समणो वासया परिवसंति ५०. जहा चमरस्स जाव तावत्तीसगदेवत्ताए उबवण्णा । (श० १०॥५३) ५१. जप्पभिइ च णं भंते ! ते बेभेलगा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा ५२. बलिस्स वइरोयणिदस्स वइरोयणरण्णो तावत्तीसग देवत्ताए उववन्ना, सेसं तं चेव जाव निच्चे, अब्वोच्छित्तिनयट्ठयाए ५३. अण्णे चयंति, अण्णे उववज्जति । (श०१०॥५४) ५४. अत्थि णं भंते ! धरणस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमार रण्णो तावत्तीसगा देवा-तावत्तीसगा देवा ? ५३. चवै अनेरा देवता मुनिराया रे, कांइ वली अनेरा देव । तिहां ऊपजै आयनै मुनिराया रे, कांइ भाख जिन ए भेव ।। ५४. प्रभु ! नागकुमार नां इंद्र नैं गुणधारी रे, कांइ नागराय ने ताम । महागुण धारी रे। धरण तणें छै देवता गुणधारी रे, कांइ तावत्तीसगा नाम ? महागूणधारी रे ।। ५५. जिन भाख हंता अत्थि गुणधारी रे, किण अर्थे ए वाय ? जिन कहै नागकुमार नां गुणधारी रे, कांइ इंद्र तणे कहिवाय॥ ५६. नागकुमार नां राय नैं गुणधारी रे, कांइ धरण तणे अभिराम । तावत्तीसगा देवता गुणधारी रे, कांइ कह्या शाश्वता नाम ।। ५७. जे नहीं कदापि नहि हुआ गुणधारी रे, कांइ यावत अन्य चवंत। वले अनेरा ऊपजै गुणधारी रे, कांइ पूरवली पर हंत ।। ५८. इजि भूतानंद नैं मुनिराया रे, काइ एवं जाव जगीस । सुण मुनिराया रे। महाघोष – पिण कह्यो मुनिराया रे, एवीस इंद्र नैं दीस ॥ सुण मुनिराया रे ॥ ५६. ॐ प्रभु ! शक्र सुरिंद्र नैं गुणधारी रे, ___ कांइ देवराय नैं जोय । महागुणधारी रे। तावत्तीसगा देवता गुणधारी रे, काइ जिन कहै हंता होय ॥ महागूणधारी रे॥ ५५,५६. हंता अस्थि । (श०१०१५५) से केणठेणं जाव तावत्तीसगा देवा-तावत्तीसगा देवा? गोयमा ! धरणस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो तावत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेज्जे पण्णत्ते५७. जं न कयाइ नासी जाव अण्णे चयंति, अण्णे उववज्जति ५८. एवं भूयाणंदस्स वि, एवं जाव महाघोसस्स । (श० १०॥५६) ५९. अत्थि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो तावत्ती सगा देवा-तावत्तीसगा देवा ? हंता अत्थि। (श० १०१५७) ३३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. से केणठेणं जाव तावत्तीसगा देवा-तावत्तीसगा देवा ? एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे ६० किण अर्थे प्रभु ! इम कह्यो गुणधारी रे, कांइ तब भाखै जिनराय । महागुणधारी रे। तिण काले नै तिण समैं मुनिराया रे, इण जंबु भरत रै मांय ! सुण मुनिराया रे ॥ ६१. पालए नामें हंतो मुनिराया रे, कांड सन्निवेस सुखदाय । वर्णन तास वखाणवो मुनिराया रे, तिहां वस तेतीस सहाय ।। ६२. कुटंब तणां नायक सहू मुनिराया रे, कांइ श्रमणोपासक हुंत । जेम चमर नां तिम इहां मुनिराया रे, कांइ जावत ते विचरंत ।। ६३. तेतीस सहाया गाहावई मुनिराया रे, कांइ श्रमणोपासक साव । पहिला पिण शुद्ध भाव था मुनिराया रे, कांइ पाछै पिण शुद्ध भाव।। ६४. उग्रा उत्कृष्ट भाव थी मुनिराया रे, उग्रविहार आचार । संविग्गा इच्छा शिव तणी मुनिराया रे, वलि संविग्गाविहार॥ ६५. बहु वरसां श्रावकपणों मुनिराया रे, पाली में पर्याय । मास तणी संलेखणा मुनिराया रे, साठ भक्त छेदाय । ६१. पालए नामं सण्णिवेसे होत्था-वण्णओ। तत्थ णं पालए सण्णिवेसे तायत्तीसं सहाया. ६२. गाहावई समणोवासया जहा चमरस्स जाव विहरंति । (श० १०१५८) ६३. तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया पुचि पि पच्छा वि ६४. उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी ६५. बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणित्ता, मासि याए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, सट्ठि भत्ताई अण सणाए छेदेत्ता ६६. आलोइय-पडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा जाव (सं० पा०) उववन्ना। ६७. जप्पभिई च णं भंते ! ते पालगा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा, ६६. सह आलोई पडिकमी मुनिराया रे, कांइ पाम्या समाधी तेह । __काल समय करि काल नैं मुनिराया रे, जाव ऊपनां जेह ।। ६७. हे भदंत ! जे दिवस थी गुणधारी रे, कांइ पाला नां वसवान । महागुणधारी रे । तेतीस सहाया गाहावई मुनिराया रे, काइ श्रमणोपासक जान ।। सुण मुनिराया रे ।। ६८. शेष कह्यो जिम चमर नैं मुनि राया रे, तिम सगलो कहिवाय । चवै अनेरा देवता मुनिराया रे, कांइ अन्य ऊपज आय ।। ६६. ॐ भदंत ! ईशाण नैं मुनिराया रे, जेम शक्र तिम एह । णवरं चंपा नै विष मुनिराया रे, कांइ यावत उपनां जेह ॥ ७०. जे दिन थी प्रभु चंपिज्जा' मुनिराया रे, तेतीस सहाया हुंत। शेष बात तिमहीज सहु मुनिराया रे, कांइ जाव अन्य उपजंत ॥ ७१. छ प्रभु ! सनंतकुमार – मुनिराया रे, देव इंद्र नैं देख । देव तणां राजा तणे मुनिराया रे, कांइ तावत्तीसगा पेख ? ७२. जिन भाख हंता अत्थि मुनिराया रे, ते किण अर्थे स्वाम ! जेम कह्यो छै धरण – मुनिराया रे, कांइ तिमहिज कहि ताम। सोरठा ७३. धरण तणे अधिकार, पूरव भव चाल्यो नथी। तेम इहां सुविचार, नहिं पूर्वभव वारता । ७४. *इम यावत पाणत तणे मुनिराया रे, कांइ अच्युत मैं पिण एम। __जाव अन्य सुर ऊपजै मुनिराया रे, कांइ सेवं भंते ! तेम ॥ * लय : मोजी तुररा रे १. चंपा नगरी के वासी। ६८. सेसं जहा चमरस्स जाव अण्णे उववज्जति । (श० १०५६) ६६. अत्थि णं भंते ! ईसाणस्स देविदस्स देवरण्णो ताव तीसगा देवा-तावत्तीसगा देवा ? एवं जहा सक्कस्स, नवरं-चंपाए नयरीए जाव उववण्णा ७०. जप्पभिई च णं भंते ! ते चंपिज्जा तायत्तीसं सहाया, सेसं तं चेव जाव अण्णे उववज्जंति । (श०१०१६०) ७१. अत्थि णं भंते ! सणंकुमारस्स देविंदस्स देवरण्णो तावत्तीसगा देवा-तावत्तीसगा देवा? ७२. हंता अस्थि । (श० १०६१) से केणठेणं? जहा धरणस्स तहेव ७४. एवं जाव पाणयस्स, एवं अच्चुयस्स जाव अण्णे उवज्जंति। सेवं भंते ! सेव भंते त्ति । (श० १०१६२,६३) श० १०.७० ४ ढाल २२१ ३३५ Jain Education Intemational Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरठा ७५. तीजा थकी विचार, स्वर्ग बारमा इंद्र नैं। धरण जेम अवधार, पूरव भव न कह्या प्रभु ॥ ७६. चमर वली नां जाण, सोधर्म नै ईशाण नां। तावत्तीसगा माण, पाछिल भव जिन आखियो। ७७. *दशमें शत चोथो कह्यो गुणधारी रे, बेसौ इकवीसमी ढाल । महा गुणधारी रे। भिक्ख भारीमाल ऋषिराय थी गुणधारी रे, कांइ 'जय-जश' मंगलमाल ।। महागुणधारी रे ॥ दशमशते चतुर्थोद्देशकार्थः ॥१०।४।। ढाल : २२२ १. चतुर्थोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, पञ्चमे तु देवीवक्तव्यतोच्यते (वृ० ५० ५०२) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे । गुण सिलए चेइए जाव परिसा पडिगया । ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो ४. जाइसंपन्ना जहा अट्ठमे सए सत्तमुद्देसए (सू० २७२) जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति । ५. तए णं ते थेरा भगवंतो जायसड्ढा जायसंसया ६. जहा गोयमसामी जाव पज्जुवासमाणा एवं वयासी (श० १०।६४) १. तुर्य उदेशे सुर तणी, वक्तव्यता दाखंत । पंचमुदेश सुरी तणी, ते निसुणो धर खंत ।। २. तिण काले नैं तिण समय, नगर राजगृह जान । यावत परिषद वंदन, पहुंती अपणे स्थान ॥ ३. तिण काले नै तिण समय, वीर तणां बह शीस। ___ भगवंत स्थविर गुणे भला, गणहितकार गणीस ॥ ४. जातिवंत इत्यादि गुण, जिम अष्टम शतकेह । सप्तमुदेश विषे कह्यो, यावत विचरै जेह ।। ५. ते भगवंत स्थविर तदा, जात-प्रवर्ती जास । श्रद्धा इच्छा प्रश्न नी, जातसंसया तास ॥ ६. जिम गोतम स्वामी तिमज, यावत वारू सेव। करता थकाज इम कहै, अलगो करि अहमेव ॥ अब सुणले प्राणी ! ऋद्धि चमरादि नी जी ।। (ध्रुपदं) ७. हे भदंत ! असुरिंद्र में कांइ, असुरकुमार नों राय । चमर तणे छै केतली जी, अग्रमहेषी ताय ।। ८. हे आर्यो ! इम जिन कहै, तसु अग्रमहेषी पंच । काली राई रयणी कही जी, विज्ज मेघा संच ।। ६. एक-एक देवी तिहां कांइ, अठ-अठ सहस्र उदार । देवी नां परिवार में जी, इम भाख्यो जगतार ।। १०. समर्थ ते इक-इक सुरी, अन्य अठ-आठ हजार । सुरी रूप परिवार छै जी, विकुर्वण नैं सार? *लय : मोजी तुररा रे लिय : अब लगज्या प्राणी! चरण प्रभु तणे जी ३३६ भगवती-जोड़ ७. चमरस्स णं भंते असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो कति ___ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? ८. अज्जो ! पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, त जहा काली, रायी, रयणी, विज्जू, मेहा । ६. तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठ देवीसहस्सं परिवारो पण्णत्तो। (श० १०६५) १०. पभू णं भंते ! ताओ एगमेगा देवी अण्णाइं अट्ठ देवी सहस्साइं परियारं विउवित्तए? Jain Education Intemational Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. पूर्व सहित ए पाछली कांइ, सुरी सहस्र चालीस। तुटित इसे नामे करी जी, कांइ वर्ग' कह्यो जगदीश ॥ ११. एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तालीसं देवीसहस्सा। सेत्तं तुडिए। (श० १०६६) 'से तं तुडिए' ति तुडिकं नाम वर्ग: (वृ० ५० ५०५) १२. पभू णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया १२. हे भदंत ! समर्थ अछै कांइ, चमर असर नों इंद। राजा असुरकुमार नों जी काइ, महापुन्यवंत सोहंद ॥ १३. चमरचंचा नामे भली कांइ, राजधानी रै माय । सभा सधर्मा नै विषे जी कांइ, चमर सिंघासण ताय । १४. तुटित वर्ग साथे तिहां कांड, देव संबंधी भोग । भोगवतो थको विचरवा जी काइ, समर्थ चमर प्रयोग ? १५. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं कांइ, प्रभु ! किण अर्थे ए वाय । चमर सुधर्मा भोग ने जी कांइ, भोगविवा समर्थ नांय? १३. चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि १४. तुडिएणं सद्धि दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरि त्तए? १५. नो इणठे समठे। (श० १०॥६७) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ -नो पभू चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए? १६. अज्जो! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए १७. सभाए सुहम्माए, माणवए चेइयखंभे १८. वइरामएसु गोल-बट्ट-समुग्गएसु बहुओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ चिठ्ठति, गोलकाकारा वृत्तसमुद्गका: गोलवृत्तसमुद्गकास्तेषु (वृ० प० ५०५) १६. हे आर्यो ! इम जिन कहै कांइ, चमर असुर नों राय । चमरचंचा नामे भली जी कांड, राजधानी रै मांय ।। १७. सभा सुधर्मा ने विषे कांड, माणवक इण नाम । चैत्य स्तंभ छै तिण विषे जी काइ, डाबा बहु अभिराम ।। १८. वज्र मांहि ते डाबड़ा कांइ, वृत्त गोलकाकार । रहै तिहां जिन नी बहू जी काइ, दाढा प्रमुख उदार ।। सोरठा १९. 'जिन नी दाढा होय, तो छ एह अशाश्वती। असंख काल अवलोय, तेहनी स्थिती कही नथी । २०. जिन-दाढा आकार, पुद्गल स्थित्या तेहनें। ___कहि जिन-दाढा सार, तो तसु कहियै शाश्वती ॥ २१. सुरियाभादिक सार, तसु पिण जिन-दाढा कही। ए दाढा आकार, पुद्गल-स्थित्या तेह छै॥ २२. जिन-दाढा तो जोय, इंद्र विना अन्य सुर तणे । ____ कर नहिं आवै कोय, प्रवर न्याय अवलोकिये । २३. सौधर्म नै ईशाण, चमर वली चिहुं इंद्र नैं। जिन-दाढा पिण जाण, पिण छै तेह अशाश्वती ॥' [ज० स०] २४. * चमर असुर नां राय नैं कांइ, अन्य बहु असुरकुमार। देव अनैं देवी बली जी कांइ, ए जिन-दाढा विचार । २५. चंदन आदि सुगंध थी कांइ, अछै अरचवा जोग । वंदन वच स्तुति जोग छ जी काइ, नमण करेवा जोग ।। २४,२५. जाओ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो अण्णेसि च बहूणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ नमसणिज्जाओ 'अच्चणिज्जाओ' त्ति चन्दनादिना 'बंदणिज्जाओ' त्ति स्तुतिभि: 'नमसणिज्जाओ' प्रणामतः (वृ० ५० ५०५) २६. पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ 'पूयणिज्जाओं' पुष्पः (वृ० ५० ५०५) २६. वलै पूजवा जोग छै कांइ, पुष्पादिक थी एह । बलि सत्कारण जोग छै जी काइ, वलि सन्मान करेह ।। *लय : अब लगज्या प्राणी ! चरण प्रभु तण जी १. एणी पर सपूर्वापर संघाते चालीस सहस्र देवी आठ सहस्रगुणां करिय तिवारे बत्तीस कोड़ देवांगना थावे तेहने तुटित वर्ग कहिये । (श. १०.७०५ ढाल २२२ ३३७ Jain Education Intemational Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. कल्याणकारी जाणने कांड, वलि जाणी मंगलीक | दंवत जाणी तेहने जी कांड, चित्त प्रसन्नकारीक ॥ २५. इम जाणी वह असुर ने कांड, देव देवी ने जाण । सेवा करिवा जोग छै जी कांइ, ए मग लोकिक पिछाण ॥ २१. तास पूज्य जाणी करी कांद, भोग भोगविवा तेह। मरतिको समर्थ नहीं जी कांइ, रीत अनादी एह || सोरठा ३०. पिण रायप्रश्रेणी' मोय, राज बेसया अवसरे । प्रतिमा दाढा ताय, पूजे सुरियाभ सुर ।। ३१. पहिला पछै पिछाण, पाठ हियाए आदि दे । ए मग लौकिक जाण, पिण पेच्चा परभव नहीं । ३२. निस्साए पहिचान, विघ्न तणी ए मोक्ष है। पच्छा शब्दे जाण, इह भव द्रव्य मंगलीक ए ॥ ३३. वांया थी वर्द्धमान, ते सुरियाभे देवता । पेच्या पाठ पिछान, परभव हियाए प्रमुख ३४. निस्साए पहिचान, ए परभव नीं मोक्ष है। पेच्चा शब्दे जाण, लोकोत्तर मारग कह्यो । ३५. संघक ने अधिकार, सूत्र भगवती' में को। लाय थकी धन बार, काठै जे ३६. पहिला पछैज होय, हियाए ए मोक्ष है। प्रतिमा पूजे सोय, तेह सरीखो ३७. निस्साए सुविचार, दालिद्र नीं पच्छा रख अनुसार इह भव हित सुख मोक्ष है ।। ३८. संपक दीक्षा लीप परलोके हित सुख प्रभु ए लोकोत्तर सीध, निस्सेसाए परलोक शिव ॥ ३६. लाय थकी धन बार, प्रतिमा दावा पूजतां । पेरुचा परभव ४१. बलि बहु ठामे ए साते लोकीक रे ॥ सुरियाभे जिन वांदिया | लोकोत्तर खाते इहां ॥ जिन-वांदण दीक्षा समय । पच्छा शब्द किहां नथी । सीध, जोय, पेच्चा परभव होय, ४२. प्रतिमा नें पूजत, पेच्चा वा परलोक नों। किहांइक पाठ न हुंत, न्याय विचारी लीजिये ॥ ४३. तिण सूं यां पिण ताय, दाढा नां कारण थकी । भोग भोगवै भोगवं नांव, कल्पस्थिति लोकीक मग ॥ ४४. त्रायत्रस गुरु-स्थान, इन्द्र विनय तेहनों करें 1 अभ्पुरथान पिछान ते मग लोकिक तेम ए ॥ ४५. मेघ- जमाली माय, चरण लियां सुत केश ले । ए मुझ दर्शण थाय, मोह कर्म नों उदय ए ॥ पच्छा पाठ विचार, ४०. खंधक दीक्षा दीक्षा लीय, १. सू० २६१ २. श० २।५२ ३३८ भगवती-जोड़ गावापती ।। कह्या । त्यां ॥ प्रमुख पाठ २७. कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं २८. पज्जुवाणिजाओ भवंति । २६. से तेणट्ठेणं अज्जो ! एवं वुच्चइ–नो पभू चमरे अमुरिदे असुरकुमाररावा जाव (सं० पा० ) बिह तए । ( श० १०/६८ ) Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. तिम ए पिण छ जेह, जीत आचार भणीज इन्द । दाढा ल्ये पूजेह, पिण ते धर्म खाते नथी। ४७. श्रावक सरिखा जाण, जिन दाढा लेता नथी। इन्द्र तणांज पिछाण, एह 'जीत व्यवहार' छै । ४८. अभव्य सुर पूजंत, जिन-प्रतिमा दाढा भणी। इन्द्र सामानिक इंत, सभा सुधर्मा छ तसु ॥ ४६. आवश्यक नी वृत्ति, ग्रंथाग्र बावीस हजार तसु। सूरि हरिभद्र प्रवृत्ति, कह्यो सामायक वृत्ति में ॥ ५०. संगम सुधर्म वास, सामानिक ते शक नों। वीर चलावू तास, यूं ही इन्द्र प्रशंसतो ॥ वा०- वलि सामानिक देवपण जो अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव न ऊपजै तो तुम्हारे मतेज आवश्यक नी वृत्ति बावीस हजारी हरिभद्र सूरि नी कीधी, ते मध्ये सामायक नामा अध्ययन नी टीका में अभव्य संगम देवता नो अधिकार छ । तिहां महावीर नां उपसर्ग नै अधिकारे शकेंद्र बोल्यो-महावीर नै चलावी न सकै । तिवारे शकेंद्र नों सामानिक अभव्य देवता संगम बोल्यो-इओ य संगमओ नाम सोहम्मकप्पवासी देवो सक्कसामाणिओ अभवसिद्धिओ सो भणतिदेवराया अहो रागेण उल्लवेइ, को माणुसो देवेण न चालिज्जइ ? अहं चालेमि, ताहे सक्को तं न वारेइ । मा जाणिहिइ-परणिस्साए भगवं तवोकम्मं करेति, एवं सो आगओ-- इहां संगमो देवता शक्रेन्द्र नै सामानिक देवता ने कह्यो। __वली 'संदेहदोलावलि' ग्रंथ छ तेहनी वृत्ति मध्ये कह्यो-नन्वेवं तहि संगमकप्रायो महामिथ्यादृष्टि देवविमानस्थाम् सिद्धायतनप्रतिमां अपि सनातनमिति चेत् न, नित्यचैत्येषु हि संगमवत् अभव्या अपि देवा मदीयमदीयमिति बहुमानात् कल्पस्थितिव्यवस्थानुरोधात् तद्भूतप्रभावाद् वा न कदाचित् असंयमक्रियां आरभन्ते। एस संगमो देवता अभव्य कह्यो, इंद्र नों सामानिक कह्यो सामानिक देवता इंद्र सरिखा विमान नों धणी ऊपजती वेला सुरियाभ नी पर प्रतिमा दाढ़ा पूजे पोता नीं कल्पस्थिति माट। अन सुधर्मा सभा नै विषे दाढा ने मुरातबपण करी काम भोग न भोगवै ते पिण कल्पस्थिति जीत आचार माट पिण धर्म खाते नथी, तिमहिज अनेरा इन्द्र सुरियाभादिक ने जाणवू । ५१. सूत्र उववाई मांय, पूर्णभद्र बह लोक नैं। अर्चन जोग कहाय, वन्दन पूजन योग्य वलि ॥ ५२. सतकार सनमान जोग, कल्लाणं मंगलं वली। दैवत चैत्य प्रयोग, जाणी सेवा योग्य छ । ५३. बहु जन नैं ए ताय, कह्या पूजवा जोग ए। आख्या जन-अभिप्राय, पिण नहिं अरिहंत आगन्या । ५४. सुर नर नै अवधार, भोग वंछवा योग्य ए। ___ चौथे आश्रव द्वार, इहां पिण जिन आज्ञा नहीं। ५५. तिम सुर – कहिवाय, दाढा पूजण योग्य ए। कह्या तास अभिप्राय, पिण आज्ञा जिन नी नथी॥ १. महत्त्व २. सू०२ ० १० उ०५, का० २२२ ३३६ Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. कृष्णादिक घर प्रेम, भोग भोगवै कंम, तो ५७. दाढा नों सुविशेत्र जीत आचार संपेख, ५८. भव्य अभव्य सुरताय, सभा सुधर्मा मांय, ५६. ए च्यारूं अवधार, हवं परं ॥ सभा सुधर्मा ने विषे। सुर किंण विध भोगवै ॥ अधिक मुरातव आलियो । कल्प स्थिति लौकीक मग ॥ समदृष्टी ने मिच्छदिट्टि । काम भोग नहि भोगवं ॥ विमाण नां स्वामी रामं जीत आचार, चमर सुरियाभ तणी ६०. चमर सुधर्मा तेम काम भोग नहि भोगवे । जीत आचारे एम, पिण ते धर्म खाते नहीं ||" (ज० स० ) ६१. * हे आर्यो ! समर्थ अछे कांइ, चमर असुर नो राय । चमरचंचा नामे भली जी कांइ, राजधानी रे मांय ॥ ६२. सभा सुधन ने विधे कांद, चमर सिंघासन ताय । उस सहस्र अच्छे भला जी कांई, सामानिक सुखदाय ॥ ६३. तावत्तीसग यावत वली कांइ, अन्य बहु असुरकुमार । अमर सुरी संग परिवर्यो जी कांइ, महाऽहत जाव विचार ॥ । वा० इहां जाव शब्द थकी इम जाणवो 'नट्टगीयवाइयतंतीतलतालघण मुगावा इयरवे दिव्बाई भोगभोगाईत तिहां महता नाम मोटा, महत नाम अच्छिन्न निरन्तर अथवा कथा स्यूं बंध्या जे गीत, नाट्य वाजंत्र तेहने शब्दे करी अने तंत्री तल ताल नां शब्द करी अन तुडिय कहितां शेष बाजा वली घनमृदंग ते मे समान ध्वनि वाली मानते पटु कहितां चतुर पुरुषे बजायो तेहनों जे शब्द तेणे करी दिव्य भोग प्रत भोगवतो विचरवा समर्थ इम का ं । तेहने विषेही विशेष कहे केवल परिवारहटीए— डेव नवरं परिचार ते परिचारणा, ते इहां स्त्री शब्द श्रवणरूप देखवादिरूप, तेहिज ऋद्धिसंपदा ते परिचारणाऋद्धि । तेणे करी कलत्रादि परिजन परिचार मात्र करिकै इत्यर्थः । ६४. भोगवतोज छतो तिहां कांइ, केवल ऋद्धि परिचारणा जी कांड, विचरण समरथ तेह। शब्द रूप आदेह || रूप देखो आदि । ६५. स्त्री रव सुणवा नीं विषे कांइ, ६६. पिण नहि ते निश्च करी कांइ तेहिज ऋद्धिनीं संपदा जी कांड, तिण करि चित अहलादि' ।। मैथुन प्रत्यय पेस भोग भोगवतो विचरवा जी कांइ, समर्थ नहि छै विशेख || ६७. चमर असुरिद नों प्रभु ! कांड, तास सोम महाराय । अग्रमहिषी केतली जी कांइ ? जिन कहै च्यार कहाय ॥ *लय : अब लगज्या प्राणी ! चरणें तणें जी प्रभु १. गाथा ६४ एवं ६५ की रचना पाठ और वृत्ति दोनों के आधार पर की हुई है । वृत्ति का अंश पूर्ववर्ती वार्तिका में उद्भुत है, इसलिए उसे यहां नहीं रखा गया है । ३४० भगवती - जोड़ ६१. प अपनी ! चमरे अगुरिदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए ६२. सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसट्टीए सामाणियसाहस्सी हिं ६३. तायत्तीसाए जाव (सं० पा० ) अण्णेहि य बहूहि असुरकुमारेहिं देवेहिं य, देवीहि यसद्धि संपरिवुडे महयाहय जाव (सं० पा० ) वा० - इह यावत्करणादिदं दृश्यं 'नट्टगीयवाइय तंतीतलडिपपणमुगपदुप्पबाइवरलेणं दिव्वाई भोगभोगाई' तिथच महता बृहता अहतानि - अच्छिन्नानि आख्यानकप्रतिबद्धानि वा यानि नाट्यगीतवादितानि तेषां तन्त्रीतलतालानां च 'तुडिय' त्ति शेष तूर्याणां च धनमृदंगस्य च मेघसमानध्वनिमर्द्दलस्य पटुना पुरुषेण प्रवादितस्य यो रवः स तथा तेन प्रभुर्भोगान् भुञ्जानो विहर्तुमित्युक्तं । तत्रैव विशेषमाह --- ' केवलं परियारिड्ढीए' त्ति केवलं नवरं परिवार: परिचारणा सह स्त्रीशब्दश्रवणरूपसं दर्शनादिरूपः स एव ऋद्धिः - सम्पत् परिवारद्विस्तया परिवारद्धर्घा वा कलत्रादिपरिजनपरिचारणामात्रेणेत्यर्थः । ( वृ० प० ५०६ ) ६४. मुंजमा विहरिए ? केवल परियारीए ६६. नोवत्तियं ( श० १०1६९ ) 'नो चेव........' ति नव च मैथुनप्रत्ययं यथा भवति एवं भोगभोगान् भुञ्जानो विहर्तुं प्रभुरिति । ( वृ० प० ५०६ ) ६७. चमरस्स गं ते अमुरिदस्म असुरकुमाररणो सोमस्य महारण्गो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अज्जो ! बसारि अममहिती पण्णत्ताओ जहा Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. कनका कनकलता कही कां वसुंधरा चडवी वली जी को ६६. एक-एक देवी तिहां कांड, सुरी परिवार परूपियो जी कांइ, ७०. समर्थ ते इक इक सुरी कोइ अन्य एक-एक हजार । परिचारण अर्धे तिका जी कांड, रूप विकुर्वण सार ॥ वित्तगुप्ता तन चंग ए चिरूप सुरंग ॥ सहस्र सहस्र सुविधान । इम भाले भगवान । । देवी प्यार हजार । इम भाले जगतार ॥ समर्थ सोम महाराय । सभा सुधर्मा मांय || तुटित वर्ग संघात । वरणविये अवदात || सोम तणो परिवार । कोई ७१. इमहिज पूर्वापर सही कांड, तुटित वर्ग' कहिये तसु जी ७२. लोकपाल प्रभु ! चमर नों कांइ, सोमा राजधानी विषे जी कांइ, ७३. सोम नाम सिंघासणे कांइ, शेष चमर नीं पर सह जी कांइ, ७४. वरं इतो विशेष कांड, जिम सूर्याभ तो कह्यो जी कांइ, इम कहिवो सुविचार || ७५. शेष तिमज चमरेंद्र जिम कांइ, जाव सौधर्म मांय । मिथुन भोग करिव भणी जी कांइ, निश्च समरथ नांय ॥ ७६. लोकपाल प्रभु ! चमर नों कांइ, जम नामे महाराय । अग्रमहिषी तसु किती जी कोइ ? एवं चैव कहिवाय ॥ कांइ ७७. वरं इतो विशेष छे कांइ, जमा नाम पहिचान । रजधानी रलियामणी जी कांइ, शेष सोम जिम जाण ॥ ७८. एम वरुण ने पिण का कांइ, वरं इतो विशेख । वरुण नामे तेहनी जी कांइ, रजधानी संपेल ॥ ७२. एम वेभ्रमण नो अछे कोई, नवरं इतो विशेख । वेश्रमणा नामे भली जी कांई, रजधानी वर रेख || . शेष तिमज जावत तिके कांइ, सभा सुधर्मा मांय । मिथुन प्रत्यय भोगनें जी कांइ, सेवण समरथ नांय ॥ ८१. देश दशम पंचम तणो कांइ, बेसौ बावीसमीं ढाल | भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी कांइ, ८०. 'जय जय' मंगलमाल ॥ १. एणी परं सपूर्वापर संघाते ४००० सहस्र नं १००० सहस्र गुणा करिय तिवारे ४०००००० लाख वा रूप यावे तेहने वुटित वर्ग कहिये । ६. कपमा, कणगता, चित्तगुता, वसुंधरा । ६९. तस्य णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहर परिवारे पण्णत्ते । ( श० १०1७० ) अण्णं एगमेगं देवी ७०. पभू णं ताओ 'एगामेगा देवी' सहस्य परिवारं विव्वित्तए ? ७१. एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तारि लुडिए । देवीसंहस्सा । सेत्तं ( ० १०।७१) ७२. भंते । चमरला असुरिदस्स असुरकुमाररणी सोमे महाराया सोमाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए ७३. सोमंस सीहासांसि तुडिएवं सद्धि अवसेसं जहा चमरस्स ७४. नवरं परिवारो जहा सूरियाभरत । ७५. सेसं तं चैव जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं । (० १०.७२) ७६. चमरस्य णं ते! अमुरिदस्स अमु कुमाररगो जमस्स महारष्णो कति अन्यमहिसीलो ? एवं चेव, ७७. नवरं - जमाए रायहाणीए, सेसं जहा सोमस्स । ७८. एवं वरणस्स वि नवरंबा राहाणीए ७९. एवं समणावि नवरं वेसमाए रामहाजीए ८० व जाव नो चेत्र णं मेहुणवत्तियं । (१० १०।७३) ० १० उ० ५ ढाल २२२ ३४१ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २२३ १. बलिस्स णं भंते ! वइरोयणिदस्स-पुच्छा । अज्जो! पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, २. सुंभा, निसुंभा, रंभा, निरंभा, मदणा । दूहा १. प्रभ ! वलि वैरोचन इंद्र ने, प्रश्न महेषी संच । जिन कहै हे आर्यो! कही अग्रमहेषी पंच ॥ २. शंभा निशंभा नै रंभा, प्रवर निरंभा पेख । __मदना आखी पंचमी, वर्ण रूप वर रेख ॥ ३. एक-एक देवी तणे, अठ-अठ सहस्र उदार । शेष चमर नीं पर सहु, कहि सर्व विचार ॥ ४. णवरं वलिचंचा भली, रजधानी सुविशेष । तसु परिकर तीजे शतक, मोया धुर उद्देश' ।। ३. तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठट्ठ देवीसहस्सं परिवारो, सेसं जहा चमरस्स, ४. नवरं-बलिचंचाए रायहाणीए, परियारो जहा मोउद्देसए। 'मोउद्देसए' ति तृतीयशतस्य प्रथमोद्देशके इत्यर्थः (व०प० ५०६) ।। ५. सेसं तं चेव जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं। (श०१०७४) ६. बलिस्स णं भंते ! वइरोयणिदस्स वइरोयणरण्णो सोमस्स महारण्णो कति अग्गमहिमीओ पण्णत्ताओ? अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ७. मीणगा, सुभद्दा, विज्जुया, असणी ५. इम परिकर कहिवं इहां, शेष सर्व तं चेव । - जाव सुधर्मा ने विष, मिथुन न सेवै देव ॥ ६. प्रभु ! वलि वैरोचन इंद्र नै, सोम नाम महाराय । अग्रमहिषी तसु किती? जिन कहै च्यार कहिवाय ।। ७. प्रथम मेनका नाम है, द्वितीय सुभद्रा धार । तृतीय विद्युता सुभग तनु, चउथी असनी सार ।। ८. एक-एक देवी तिहां, शेष चमर महाराय । आख्यो तिम कहिवो इहां, जाव वेसमण' ताय ॥ ___ *स्थविर प्रश्न नों उत्तर जिन आखै । (ध्रुपदं) ६. नाग कुमारिंद्र धरण तणे प्रभु ! केतली अग्रमहेषी उक्त? जिन कहै षट अला सक्का सतेरा, सोदामनी इद्रा घनविद्युता प्रयुक्त ॥ १०. इक-इक सुरी छः-छः सहस्र परिवारे समर्थ ते अन्य छ:-छः हजार। सर्व छत्तीस सहस्र रूप विकुई, तुटित वर्ग' तसु कहियै उदार ।। ८. तत्थे णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारो, सेसं जहा चमरसोमस्स एवं जाव वरुणस्स । (श० १०।७५) ६. धरणस्स णं भंते ! नागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? अज्जो ! छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ तं जहा--- अला, सक्का सतेरा सोदामिणी इंदा घणविज्जया । १०. तत्थ णं एगमेगाए देवीए छ-छ देवीसहस्सं परिवारो पण्णत्तो। पभू णं ताओ एगमेगा देवी अण्णाई छ-छ देवीसहस्साई परियारं विउवित्तए? एवामेव सपुवावरेणं छत्तीसाइं देविसहस्साई। सेत्तं तुडिए। (श०१०७६,७७) ११. पभू णं भंते ! धरणे ? सेसं तं चेव, नवरं-धरणाए रायहाणीए, धरणंसि सीहासणंसि, १२. सओ परियारो। सेसं तं चेव। (श० १०७८) 'सओ परिवारों' त्ति धरणस्य स्वकः परिवारो वाच्यः स चैवं (वृ० ५० ५०६) ११. समर्थ हे भगवंत ! धरण छै, शेष तं चेव पूर्ववत पेख। णवरं धरणा नामे राजधानी है, धरण सिंहासण विषे विशेख ।। १२. धरण नै पोता नों परिवार कहिवो, सामानिक षट सहस्र है तास। इत्यादि परिवार छै तिको कहिवो, शेष तिमज पूर्व पाठ अभ्यास ।। १. अगसुत्ताणि भाग २, श० ३४ २. अंगसूत्ताणि भाग २ श०१०७५ में वेसमण के स्थान पर वरुण पाठ है। वहां वेसमण को पाठान्तर में रखा गया है। ३. एणी प्रकारे सपूर्वापर संघाते छत्तीस सहस्र नै छ सहस्र गुणा करिय तिवारे २१ कोडि ६०००००० लाख एतला रूप थावे, तेहन तुटित वर्ग कहिये । ३४२ भगवती-जोड़ .. Jain Education Intemational Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. निज परिवार कहिये पट सह सामानिक, तावतीस तेतीस लोकपाल च्यार । अग्रमहिषी छः अणिय कटक सप्त, सात अणिय कटक नां अधिपति धार ॥ १४. चउवीस सहस्र आत्मरक्षक सुर छै, अन्य वलि बहु नागकुमार । देव देवी संपाते परवरियो नृत्य गीत रव भोग उदार ॥ १५. नागकुमारिद धरण नों हे प्रभु ! कालवाल लोकपाल महाराय । केतली मी तेहने ? जिन कहै प्यार सुभग सुखदाय ॥ १६. अशोगा विमला सुप्रभा सुदर्शना, इक इक नो वैक्रिय परिवार । अवशेष चमर नो लोकपाल जिम वलि त्रिण लोकपाल इम धार ॥ १७. भूतानंद नीं पूछा जिन उत्तर छः अग्रमहिषी रूया नैं रूयंसा । सुरूवा रूयगावती रूयकता, रूयप्रभा परिवार धरण जिम वंशा || १८. नागकुमारिद भूतानन्द नों लोकपाल चित्र प्रश्न सुजना | जिन कहे अग्रमहिषी चार है, सुनंदा सुभद्रा सुजाता सुमना ॥ १९. इक इक देवो रूप विकुर्वे, चमर लोकपाल नीं पर जाणी । शेष तीन लोकपाल तणो पिण, इमहिज कहिवो सर्व पिछाणी ॥ २०. दक्षिण दिश नां इंद्र अद्वैतसु, धरण तगी पर कहिं उदंत तेह तगांजे लोकपाल ने भूतानंद लोकल' क्यूं हेत । २१. नवरं सर्व राजवानो सिंहासण, इंद्र नां नाम सरीखे नाम । परिवार मोया उद्देश विषेतिम, तो शतक र उद्देशे' ताम || २२. पानी राजधानों ने सिहासन, लोकपाल रे सरोबा नाम परिवार मनोज सर्व विचारो कहियूँ ताम ।। २३. काल पिसाच नां इंद्र नैं भगवन ! अग्रमहिषी केतली आखी । जिन कहे प्यार कमला कमलप्रभा उत्पला चउबी सुदर्शना दाखी ॥ १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० १०।८१ में 'जहा धरणस्स लोगपालाणं' के बाद उत्तरिल्लाणं इंदाणं जहां भूयानंदस्स .....पाठ है। अन्य आदर्शों में यह पाठ नहीं है। इसकी सूचना उक्त ग्रन्थ के पृ० ४५० टिपण संख्या में दी गई है। जयाचार्य ने उपर्युक्त पाठ की जोड़ नहीं की। जवाचार्य को प्राप्त प्रतियों में यह पाठ नहीं रहा होगा । यही सम्भावना पुष्ट होती है । २. अंगसुताणि भाग २, श० ३/४ १३.सीतापत्तीमाए तापत्तीसह पहिलो पाहिं हि अम्ममहिसीहि सतहि आणि एहि सतह अणियाहिवईहि (० ० ५०६) १४. चवीसाए आय रक्खदेवसाहस्सीहि अन्नेहि य बहूहि नागकुमारेहि देवेहिय सद्धि संपरिबुद्धे ति (० प० ५०६) १५. धरणास में भते नागकुमारिदस्स नागकुमारखो कालवालस्स महारण्णो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, १६. असोगा, विमला, सुप्पभा सुदंसणा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए एममे देवीसह परिवारो, अपसे जहा चमरलोगपालाणं । एवं सेसाणं तिण्ह वि । ( श० १०१७९) १७. भूपाणंद भंते! पुच्छा अज्जो ! छ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - ख्या, ख्यंसा सुरूया रूयगावती रूयकंता रूयप्पभा । तत्थ एगमे गाए देवीए एगमेगं देवीसहस्स परिवारे अ सेसं जहा धरणस्स । (T० १०1८०) १८. भूपानंदसमं भते नागकुमारिदस्स नामकुमाररणो नागचित्तस्स पुच्छा। अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिमीको पण्णत्ताओ, जहागुणंदा, सुभद्दा, सुजाया, सुमणा । - १६. तत्य णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवी सहस्सं परिवारे अयसेसं अहा चमरलोगपालाणं एवं सेवागं तिष्ट वि लोगपालाणं । २०. जे दाहिणिल्ला इंदा तेसि जहा धरणिदस्स लोगपालाण वि तेसि जहा धरणस्स लोगपालाणं २१. नवरं -- इंदाणं सव्वेसि रायहाणीओ सीहासणाणि य सरियामाथि परियारो जहा मोटसए २२. लाल ससि राहाणीओ सीहामणाणि य सरिसणामगाणि परियारो जहा चमरस्स लोगपालाणं । (श० १०००१) २३. कालस्स णं भंते! पिसायिदस्त पिसायरणो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - कमला, कमलप्पभा, उप्पला, सुदंसणा । २०१० उ० ५ ढाल २२३ ३४३ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. एक-एक देवी रूप विकुर्वे, इक इक सहस्र सुंदर सिणगार । शेष चमर लोकपाल तणी पर परिवार पिण इमहीज विचार || २५. वरं काला नामे राजधानी है, काल सिहासण शेषं तं चेव । इमहिज महाकाल पिण कहिवो बे इंद्र एह पिसाच नां भेव ।। २६. भूतेन्द्र नाम सुरूप दक्षिण नो, प्रश्न तो उत्तर महिषी च्यार । रूपवती बहुरूपा सुरूपा सुभगा ए चिहुं रूप उदार ॥ २७. एक-एक देवी नो कहिये, इक इक देवी सहस्र परिवार। शेष ज्यूं काल पिशाच इन्द्रवत, इम प्रतिरूप तणों विस्तार ॥ २८. पूर्णभद्र यक्षेन्द्र नीं पूछा, उत्तर अग्रमहीषी च्यार । पूर्णा बहुपुत्रिका ने उत्तमा, तारका ए चिहुं रूप उदार ॥ २९. एक एक देवी रूप विकुर्वे, इक इक एवं माणभद्र इंद्र उत्तर नों, वे इंद्र ३०. राक्षस इंद्र दक्षिण नां भीम नें, प्रश्न नों उत्तर महिषी च्यार । पद्मा पदमावती' कनका रत्नप्रभा, इक इक देवी सहस्र परिवार || सहस्र शेष काल जैम । जक्ष तणां नित्य क्षेम ॥ ३१. शेष काल जिम वर्णन कहिवो, महाभीम उत्तर नों एम । प्यार सुरी सहस्र सहस्र परिवारे ए राक्षस नां दोष इंद्र सुप्रेम ॥ ३२. किन्नर नीं पूछा कीषां जिन भाले, अग्रमहेषी प्यार सुलेवा । अवतंसा केतुमती रतिसेना, रतिप्रिया शेषं तं चेव' कहेवा ॥ ३३. सतपुरुष पूछा चिउं अग्रमहिषी, रोहणी नवमिका ही पुष्कवंती । इक इक सहस्र परिवार शेष तिम, महापुरुष नैं पिण इम हुंती ॥ ३४. अतिकाय नामे इंद्र च्यार महिषी, भुजगा भुजगवती ने महाकच्छा । फुडा सहस्र परिवार शेष तिम, महाकाय नें पिण इम अच्छा ॥ १. अंगमुत्ताषि में पमावती' को पाठान्तर में रखा गया है, वहां मूल में 'वसुमती' शब्द है । २. इसके बाद अंगण भाग २ ० १७६६ में एवं किपुरिसस्स वि' पाठ है । इस पाठ की जोड़ नहीं है । सम्भव है कुछ आदर्शो में यह पाठ नहीं रहा होना । २४४ भगवती जोड़ २४. तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारो सेसं 'जहा चमरलोगपालाणं' । परिवारो तहेव, २५. नवरं कालाए रावहाणीए, कार्लस सीहासमंस, सेसं त चेव । एवं महाकालस्स वि । २६. सुरूवरूप णं भंते! भूतिदस्स भूतरणोपुच्छा अग्यो ! बसार अम्यमहिसीको पत्तागो तं जहा ख्ववर्ड बहुरूवा सुरूवा सुभगा । ७. तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे सेसं जहा कालस्स । एवं पडिरूवस्स वि । (श० १०।०१) २८. पुण्णभद्दस्स णं भंते ! जक्खिंदस्स - पुच्छा । अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पुण्णा, बहुपुत्तिया, उत्तमा, तारया । २९. तत्व एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, सेसं जहा कालस्स । एवं माणभद्दस्स वि । ( श० १० ८४ ) ३०. भीमस्स णं भंते ! रक्खसिदस्स - पुच्छा अज्जो ! चत्तारि अग्ममहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पउमा वसुमती कणगा रयणप्पभा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, ३१. सेसं जहा कालस्स । एवं महाभीमस्स वि । (श० १०००५) ३२. किन्नरस्स णं - पुच्छा अज्जो ! चत्तारि अग्नमहिसीओ पण्णत्ताओ तं जहा वसा केतुमती रतिसेणा रइप्पिया--" परिवारे सेसं तं चेव । ( ० १०/०६) ३३. सप्पुरिसस्स णं - पुच्छा । अमो ! बत्तारि अम्ममहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - रोहिणी, नवमिया, हिरी, पुप्फवती । तत्थ गं एनमे गाए देवीए एगमे देवीसह परिवारे, सेसं । । तं चैव एवं महापुरिसस्त वि ( ० १०८७) ३४. अतिकायस्स णं - पुच्छा अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - भुयगा, भुयगवती, महाकच्छा, फुडा । तत्थ णं एगमेनाए देवीए एगमेव देवीसह परिवारे से चेव । एवं महाकायस्स वि । (N० १०६) Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. गीतरति इंद्रच्यार महिषी, सुघोषा विमला सुस्वरा जाणी। सरस्वती सहस्र परिवार शेष तिम, गीतजश नै पिण इम माणी ॥ ३६. ए सर्व ने काल तणी पर कहिवो, णवरं आप आपणो छ नाम। ते सरीखे नामे रजधानी सिंहासण, कहिवो शेष तिमहिज तमाम ।। ३५. गीयरइस्स णं-पुच्छा अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सुघोसा, विमला, सुस्सरा, सरस्सई । तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे सेसं तं चेव । एवं गीयजसस्स वि । ३६. सव्वेसि एएसि जहा कालस्स नवरं-सरिसनामियाओ रायहाणीओ सीहासणाणि य, सेसं तं. चेव । (श० १०८६) ३७. चंदस्स णं भंते ! जोइसिदस्स जोइसरण्णो - पुच्छा। अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - चंदप्पभा, दोसिणाभा, अच्चिमाली, पभंकरा। ३८. एवं जहा जीवाभिगमे जोइसियउद्देसए तहेव । ३७. ज्योतिषी इंद्र चंद्र नों पूछा, जिन कहै अग्रमहेषी च्यार। चंद्रप्रभा नैं जोत्स्नाभा, अचिमाली में प्रभंकरा सार ।। ३६. सूरस्स वि सूरप्पभा, आयवा, अच्चिमाली पभंकरा ३८. इम जिम जीवाभिगम सूत्र में, कह्यो ज्योतिषी उदेशा मझार। सर्व इहां पिण तिमहिज कहिवो, इक-इक चिहं-चिहं सहस्र परिवार ।। ३६. सूर्य नै पिण इमहिज कहिy, अग्रमहेवी च्यार उदार । सुरप्रभा नै दुजी आदित्या', अचिमाली नै प्रभंकरा सार । ४०. शेष थाकतो तिमहिज कहिवो, जाव सुधर्मा सभा रै मांय। मिथन-प्रत्यय भोग भोगविवा, निश्चय करिने समर्थ नांय ॥ ४१. महाग्रह अंगार ने भगवंत, केतली अग्रमहेषी कहाय ? जिन कहै च्यार विजया वेजयंती, जयंती में अपराजिता ताय ।। ४२. इक-इक देवी रूप विकू, शेवं तं चेव चंद्र जिम आख्यो। णवर विमान अंगार अवतंसक, अंगार नाम सिंहासण भाख्यो।। ४३. इम व्याल नामे महाग्रह पिण कहिवो, एवं अठ्यासी महाग्रह भणवा । जावत भावकेतू पिण णवर, विमान सिंहासण स्व नाम थणवा ॥ ४४. प्रभ ! शक नै अग्रमहेषी नीं पूछा, जिन कहै अष्ट महिषी जाणी। पद्मा शिवा सूची' अंजू नैं अमला, अप्सरा नामिका रोहिणी माणी ।। ४०. रोसं तं चेव जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं । (श० १०६०) ४१. इंगालस्स णं भंते ! महागहस्स कति अग्गमहिसीओ पुच्छा । अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - विजया, वेजयंती, जयंती, अपराजिया। ४२. तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे सेसं जहा चंदस्त नवरं-इंगालवडेंसए विभाणे इंगल गंसि सीहासणं सि, सेसं तं चेव। ४३. एवं वियालगस्स वि । एवं अट्ठासीतिए वि महग्गहाणं भाणियव्वं जाव भावके उस्स नवरं-वडेंसगा सीहास णाणि य सरिसनामगाणि सेसं तं चेव। (श०१०६१) ४४. सक्कस्स णं भते ! देविंदस्स देवरणो—पूच्छा । अज्जो ! अट्ठ अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहापउमा, सिवा, सची, अंजू, अमला, अच्छरा, नवमिया, रोहिणी ४५. तत्य ण एपमेगाए देवीए सोलस-सोलस देवोतहस्सा परिवारो पण्णत्तो। (श० १०६२) पभू णं ताओ एगमेगा देवी अण्णाई सोलस सोलस देवीसहस्साई परिवारं विउवित्तए ? ४६. एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठावीसुत्तरं देवीसयसहस्सं । सेत्तं तुडिए। (श० १०६३) ४५. इक-इक देवो मैं प्रभ भाख्यो, सोले-सोले सहस्र नों परिवार। समर्थ इक-इक सुरी अनेरा, वैक्रिय करण सोल-सोल हजार ।। ४६. एहीज पूर्व अपर कही सगली, इक लक्ष सहस्र अठावीस रूप । परिचारणा - अर्थे विकुर्व, तेह तुटित वर्ग कहियै अनूप ॥ १. जी० प० ३६६८-१०३६ २. अंगसुत्ताणि (१०।६०) 'आयवा' पाठ है । आयच्चा को वहां पाठान्तर में रखा गया है। ३. अंगसुत्ताणि १०६२ में सची पाठ है। वहां सेया और सुयी को पाठान्तर में रखा गया है। ४. एणी पर सपूर्वापर संघाते एक लाख अठावीस सहस्र नै सोल सहस्र गुणा करिय तिवार २०० दोय सौ कोड़ि ४८० लाख एतला रूप थावै तेहन तुटित वर्ग कहिये । श०१०, उ०५, ढाल २२३ ३४५ Jain Education Intemational Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. समर्थ छै प्रभु ! शक्र देवेंद्रज, देवराजा सौधर्म देवलोक। विमान सौधर्म अवतंसक नै विषे, सभा सुधर्मा नैं विषे संयोग । ४८. शक्र सिंहासणे तुटिक वर्ग संग, शेष चमर नीं परै सहु कहिवो। णवरं परिवार जे तीजा शतक' नों, मोय उद्देशो पहिलं गहिवो ।। ४६. शक देवेंद्र नों सोम महाराजा, अग्रमहिषी किती प्रभु ! तास । जिन कहै च्यार रोहिणी, मदना चित्रा नैं सोमा रूप गुणरास ॥ ५०. तिहां एक-एक देवी शेष चमर नां, लोकपाल जिम नवरं कहीजै। सयंप्रभ विमाने सभा-सुधर्मा सोम सिंहासन शेष तिमहीजै ॥ ५१. इम जाव वेसमण लोकपाल लग, णवरं जुजुआ विमाण नां नाम। तीजा शतक' जिम संझप्पभ वरसिट्ठ सयंजल वग्गु ताम ।। ४७. पभू णं भंते ! सक्के देविदे देवराया सोहम्मे कप्पे, सोहम्मवडेंसए विमाणे, सभाए सुहम्माए, ४८. सक्कंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धि दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरित्तए। सेसं जहा चमरस्स नवरं-परियारो जहा मोउद्देसए। (श० १०६४) ४६. सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो कति अग्गमहिसीओ-पुच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा रोहिणी, मदणा, चित्ता, सोमा ५०. तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, सेसं जहा चमरलोगपालाणं, नवरं-सयंपभे विमाणे, सभाए सुहम्माए, सोमंसि सीहासणंसि सेसं तं चेव । ५१. एवं जाव वेसमणस्स, नवरं-विमाणाई जहा ततियसए। (श० १०६५) 'विमाणाई जहा तइयसए' त्ति तत्र सोमस्योक्तमेव यमवरुणवैश्रमणानां तु क्रमेण वरुसिठे सयंजले वग्गुत्ति विमाणा। (वृ०प०५०६) ५२. ईसाणस्स णं भंते !-पुच्छा। अज्जो! अट्ट अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहाकण्हा, कण्हराई, रामा, रामरक्खिया, वसू, वसुगुत्ता वसुमित्ता वसुंधरा ५३. तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे सेसं जहा सक्कस्स। (श० १०६६) ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारणो कति अग्गमहिसीओ-पुच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा५४. पुहवी, राई, रयणी, विज्जू ।......."सेसं जहा सक्कस्स लोगपालाणं एवं जाव वरुणस्स, नवरं-विमाणा। ५५. 'जहा चउत्थसए' सेसं तं चेव जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं । (श० १०६७) जहा चउत्थसए' त्ति क्रमेण च तानीशानलोकपालानामिमानि–'सुमणे सव्वओभद्दे वग्गू सुवग्गू' इति । (वृ० ५० ५०६) ५२. ईशाण पूछा आठ महिषी, कृष्ण कृष्णराई रामा सुनाम। रामरक्षिता वसु वसुगुप्ता, वसुमित्ता नैं वसुंधरा ताम ।। ५३. इक-इक देवी शक्र जिम सगलं, हिवै ईसाणेंद्र नं लोकपाल। सोम महाराय नैं किती पटराणी? जिन कहै च्यार कही सुविशाल ।। ५४. पृथिवी रात्री रत्नी विद्यत चौथी, शक्र नां लोकपाल जेम शेष । इम जाव वरुण चौथा लग कहिवं, णवरं विमाण नाम ए देख ॥ ५५. चउथा शतक' में कह्या तिम कहिवा, सुमन सर्वतोभद्र वग्गु नाम । सुवग्गु शेष तिम जाव सुधर्मा, मिथुन सेवन समर्थ नहिं ताम ।। ५६. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (श० १०६८) ५६. सेवं भंते! सेवं भंते! कही नैं, यावत विचरै स्थविर ध्यान-सुधारस। ए दशमा शतक नों पंचमुद्देशो, उगणीस इकवीस पोह सुदि ग्यारस ।। ५७. ढाल भली दोय सौ तेवीसमी, शहर बालोतरे जोड़ी विशाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रतापे, 'जय-जश' सम्पति मंगलमाल ।। दशमशते पंचमोद्देशकार्थः ॥१०॥५॥ की दोय सौ तेवीसमा जय-जश' सम्पति ॥१०॥५॥ १. अंगसुत्ताणि भाग २, श०३४ २. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ३२४८ ३. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ४।२ ३४६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २२४ दूहा १. पंचमुद्देशक देव नीं, वक्तव्यता कही जेह । छ8 सर नों आश्रय-विशेष कहियै तेह ।। २. शक्र सुरिंद्र तणी प्रभु ! सभा सुधर्मा नाम । किहां कही? तब जिन कहै, सण गौतम ! गुणधाम ।। ३. जंबू मंदर-गिर तणी, दक्षिण दिशि में जेण । रत्नप्रभा पृथ्वी अछ, इम जिम रायप्रसेण ।। ४. जाव पंच अवतंसका, जाव शब्द में ठीक । घणं बरोबर सम अछ, भूमिभाग रमणीक ।। ५. तेह भूमि थी ऊर्ध्व छ, चंद्र सूर्य ग्रह गन्न । नक्षत्र तारारूप थी, ऊंचो बहु योजन्न ।। ६. योजन बहुसय बहु सहस्र, बह लक्ष ने बहु कोड़। योजन कोड़ाकोड़ बहु, ऊर्द्ध दूर इम जोड़ ।। १. पञ्चमोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, षष्ठे तु देवाश्रयविशेष प्रतिपादयन्नाह (वृ० ५० ५०६) २. कहि णं भंते ! सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता? गोयमा ! ३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए".""एवं जहा रायप्पसेणइज्जे (स० १२४) ४,५. जाव पंच वडेंसगा पण्णत्ता, 'पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढे चंदिमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं बहूई जोयणाई (वृ०प०५०६) ६. बहूई जोयणसयाई एवं सहस्साइं एवं सयसहस्साई बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढं दूरं वीइवइत्ता (व० ५० ५०६) ७. एत्थ णं सोहम्मे नामं कप्पे पन्नत्ते इत्यादि (वृ० ५० ५०६) ८. तं जहा–असोगवडेंसए जाव (सं० पा०) मज्झे सोहम्मवडेंसए। ७. सोधर्म कल्प तिहां कह्यो, इत्यादिक अवधार । रायप्रसेणी' में कह्य, तिम कहि सुविचार ।। ८. पंच अवतंसक में प्रथम, वर असोग अवतंस । जावत मध्ये सौधरम-अवतंसक सुप्रशंस ।। सोरठा ६. जाव शब्द थी जाण, सप्तपर्ण-अवतंस फुन। चंपकवतंस माण, तुर्य चूय-अवतंस ही। १. इह यावत्करणादिदं दृश्यं—'सत्तवन्नवडेसए चंपग वडेंसए चूयव.सए' त्ति (वृ० ५० ५०७) १०. सौधर्म-अवतंसक तिको, महाविमाण पिछाण । योजन साढा वार लक्ष, लांबो चोड़ो जाण ।। ११. एवं इण अनुक्रम करि, जिम सरियाभ-विमाण । रायप्रश्रेणी सूत्र में, आख्यो तास प्रमाण । १२. सधर्म-अवतंसक विषे, तिमहिज कहिवं ताम । त्रिगुणी जाझी परिधि है, अतिही मन अभिराम ।। वा०--लांबपणे चोड़ापणे पूर्वे कह्यो हीज। शेष परिधि रही, ते इमगुणचालीस लक्ष, बावन हजार, आठसै अडतालीस योजन ---सौधर्मावतंसक नाम महाविमाण नी परिधि जाणवी । १३. जिम सुरियाभ तणो कह्यो, देवपणे उपपात । तिम उपपातज शक नं, कहिवं सह अवदात ।। १४. अभिषेक कुन शक नों, तिमहिज कहिवू जाण । जिम सुरियाभ तणुं कह्य तिणहिज रीत पिछाण ।। १५. अलंकार - अर्चनिका, जिम सरियाभ सुरेव । तिमहिज कहिवू इंद्र नों, जाव आयरवख देव ।। १. सू० १२५ २. सू० १२६ १०. से णं सोहम्मवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरस-जोयणसय सहस्साइं आयामविक्खंभेणं ११,१२. एवं जह सूरियाभे तहेव माणं 'एवं' अनेन क्रमेण यथा सूरिकाभे विमाने राजप्रश्नकृताख्यग्रन्थोक्ते प्रमाणमुक्तं तथैवास्मिन् वाच्यं (वृ० ५० ५०७) वा० -तत्र प्रमाणं-आयामविष्कम्भसम्बन्धि दर्शितं, शेषं पुनरिदम् ----'ऊयालीसं च सयसहस्साई बावन्न सहस्साई अट्ट य अडयाले जोयणसए परिक्खेवेणं' ति । (वृ०प०५०७) १३,१४. तहेव उववाओ सक्कस्स य अभिसेओ तहेव जह सूरियाभस्स यथा सूरिकाभाभिधानदेवस्य देवत्वेन तत्रोपपात उक्तस्तथैवोपपात: शक्रस्येह वाच्योऽभिषेकश्चेति, (व०प० ५०७) १५. अलंकारअच्चणिया तहेव जाव आयरक्ख त्ति । (श० १०६६) श० १२, उ०६, डा० २२४ ३४७ Jain Education Intemational Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. हिव वर्णक अभिषेक न, इंद्र तणो अवधार । रायप्रश्रेणी सूत्र थी, कहियै इहां उदार ॥ *शक सर राजा, तिणरा चढता है सुजश दिवाजा ।।(ध्रुपदं) १७. तिण अवसर शक देविंद, ओ तो देवराजा सखकंद । ऊपजवा री सभा थी ताह्यो, ओ तो नीकल द्रह में न्हायो।। करेइ, १८. द्रह थी नीकल सरायो, अभिषेक सभा में आयो। बेठो सिंहासण तेहो, मुख पूरव साहमो करेहो।। १९. सामानिक परषद नां देवा, सेवग सर प्रति कहै स्वयमेवा। इंद्राभिषेक थापवा काजो, स्नान करिवा पाणी आणो साजो।। २०. सेवग सण हरष्या तिण वारो, वचन विनय सहित अंगीकारो। आया ईशाणकण मझारो, वैक्रिय समद्घात दोय वारो॥ २१.एक सहस्र वलि आठो, ए तो सोना रा कलश सघाटो। एक सहस्र आठ सुजाणी, एतो रूपा रा कलश पिछाणी ।। २२. एक सहस्र अठ मणि रत्नां नां, एक सहस्र अठ सूवर्णरूपा नां । एक सहस्र आठ सुवर्ण मणी नां, इमहिज रूपमणिमय सुचीना ।। २३. सवर्ण-रूप-मणिमय सघाटो, ए तो कलश एक सहस्र आठो। एक सहस्र ने आठ माटी नां, आठ सहस्र नैं चउसठ सविधाना ।। २४ इम भंगार आरिसा ने थालो, ए तो एक सहस्र ने आठ विशालो। पात्री एक सहस्र ने आठो, इतरा सप्रतिष्ठिया वर घाटो। २५. चित्र-रत्न-करंडिया' विचारी, एतो एक सहस्र नै अष्ट उदारी। सहस्र अठ फूल चंगेरी, इतरी फल-माल चंगेरी फेरी ।। १७. तए णं से .......... "उववायसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छइ, जेणेव हरए तेणेव ""जलमज्जणं (राय सू० २७७) १८. हरयाओ......"पच्चोत्तरित्ता जेणेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छति .... 'सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे । (राय० सू० २७७) १६. ""सामाणियपरिसोबवण्णगा देवा आभिओगिए देवे ___ सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खियामेव भो ! .... .....इंदाभिसेयं उवट्ठवेह । (राय० सू० २७८) २०. तए णं ते आभिओगिआ देवा"एवं वुत्ता समाणा हट्ट विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिमीभागं अवक्कमंति, वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति"दोच्चं पि वे उब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णंति (राय० सू० २७६) २१. ..."अट्रसहस्सं सोवण्णियाणं कलमाण, असहस्सं रुप्पमयाणं कलसाणं (राय० सू० २७६) २२. अट्ठसहस्सं मणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं सुवण्ण रुप्पामयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं सुवण्णमणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं (राय० सू० २७६) २३. अट्ठसहस्सं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं कलसाणं अट्ठसहस्स भोमिज्जाणं कलसाणं (राय० सू० २७९) २४. एवं-भिंगाराणं आयंसाणं थालाणं पाईणं सुपतिद्वाणं (राय० सू० २७६) २५. रयणकरंडगाणं (चित्ररत्न करण्डक (०प० २४२) पूष्फचंगेरीणं मल्लचंगेरीणं (राय० सू० २७६) १. भगवती सूत्रकार ने शक देवेन्द्र के सौधर्मावतंसक महाविमान के वर्णन प्रसंग (श० १०६E) में 'रायपसेणइयं' सूत्र का संकेत देते हुए लिखा है-'शक देवेन्द्र के विमान का प्रमाण, उपपात सभा, अभिषेक सभा, अलंकार सभा तथा अर्चनिका से लेकर आत्मरक्षक देवों तक पूरा प्रसंग सूर्याभ देव की तरह समझना चासिए। यह बात 'भगवती जोड़' (ढाल २२४, गा०१५ तक आ गई है। इसके बाद जयाचार्य ने जोड़ में राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार कहीं विस्तार के साथ और कहीं संक्षेप में पूरा वर्णन किया है। इसी ढाल की १७ वी गाथा से प्रारंभ हुआ यह वर्णन ३१२ वीं गाथा तक च ता है। सूर्याभ देव और शक देवेन्द्र के वर्णन में थोड़ा अन्तर है। प्रस्तुत क्रम में सूर्याभ देव के नाम, राजधानी, परिवार आदि के स्थान को खाली छोड़ते हुए जोड़ के सामने 'रायपसेणइयं' का पाठ उद्धृत किया गया है। *लय : सुण चरिताली! थारा लक्षण १. 'रायपसेणइयं' सूत्र २७६ में सपतिट्ठाणं के बाद वायकरगाणं चित्ताणं रयण करंडगाणं पाठ है । इसकी मुद्रित वृत्ति में वायकरगाण और रयणकरंडगाणं ये दो पाठ हैं । वृत्ति के अनुसार रयणकरंडग शब्द का अर्थ है--चित्र रत्न करंडग (वृ० प० २४२) । इस पाठ की जोड़ में केवल एक ही शब्द है-'चित्र रत्नकरण्डिया' जो वृत्तिकार द्वारा किए गए अर्थ का संवादी लगता है। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में वायकरगाणं और चित्ताणं पाठ नही थे । ये पाठ कई प्रतियों में उपलब्ध नहीं हैं। यह सूचना रायपसेणइयं पृ० १०७ की टिप्पण संख्या २ में दी गई है। ३४८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. आभरण चंगेरी चंगी, एक सहस्र ने आठ सुरंगी। मयूरपिच्छ पूंजणी नी चंगेरी, एक सहस्र नैं आठ भलेरी ।। २७. पुष्पपडल पिण एता, जाव लोमहत्थ पडल समेता। एक सहस्र नैं आठ सछत्रो, चामर सहस्र ने आठ पवित्रो॥ २८. सगंध तेल नां डाबडा इतरा, जाव अंजन डाबडा जितरा। एता कुडछा धूप उखेवा, सह विकु सेवग देवा ।। २६. स्वभाविक वैक्रिय नां तेही, कलशा यावत धूप कुडछा लेई। सौधर्मावतंसक थी चाल्या, ए तो उत्कृष्ट गति थी हाल्या ॥ ३०. ग्रहै क्षीरसमुद्र नों पाणी, तेहनां उत्पल कमल पिछाणी। जाव लक्षपत्र' कमल लेई, आया पुष्करोदक दधि तेही ।। ३१. ग्रहै पुक्खरदधि जल सारो, कमल सहस्रपत्रादि उदारो। आया समय-क्षेत्र रै मांह्यो, क्षेत्र भरत एरवत ताह्यो। ३२. तीर्थ मागध वर दाम प्रभास, सर उदक माटी ले तास। ए लौकिक तीरथ होई, पिण धर्म तीर्थ नहिं कोई॥ २६. आभरणचंगेरीणं "लोमहत्थचंगेरीण (राय० सू० २७६) २७. पुप्फपडलगाणं जाव (सं० पा०) लोमहत्थपडलगाणं "छत्ताणं चामराणं (राय० सू० २७६) २८. तेल्लसमुग्गाणं जाव (सं० पा०) अंजणसमुग्गाणं.... अट्ठसहस्सं धूवकडुच्छ्याणं विउव्वंति (राय० सू० २७६) २६. विउव्वित्ता ते साभाविए य वेउव्विए य कलसे य जाव कडुच्छुए य गिण्हंति, गिण्हित्ता (सोहम्मवडेंसाओ) विमाणाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता ताए उक्किट्ठाए "देवगईए....."वीतिवयमाणा (राय० सू०२७६) ३०. "खीरोयगं गिण्हंति, गिण्डित्ता जाई तत्थुप्पलाई जाव (सं० पा०) सहस्सपत्ताई ताई गिण्हित्ता गिण्हंति जेणेव पुक्खरोदए समुद्दे तेणेव उवागच्छति (राय० सू० २७६) ३१. उवागच्छित्ता पुक्खरोदयं गेण्हंति, गेण्हित्ता जाई तत्थुप्पलाइं सहस्स पत्ताई ताई गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणे व समयखेत्ते जेणेव भरहेरवयाई वासाई (राय० सू० २७६) ३२. जेणेव मागहवरदामपभासाई तित्थाई तेणेव उवा गच्छंति, उवागच्छित्ता तित्थोदगं गेण्हंति, गेण्हित्ता तित्थमट्टियं गेण्हंति (राय० सू०२७९) ३३. जेणेव गंग-सिंध-रत्ता-रत्तवईओ महानईओ तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेण्हंति, गेण्हित्ता उभोकलमट्टियं गेण्हंति, (राय० सू० २७६) ३४. जेणे व चुल्लहिमवंतसिहरिवासहरपब्वया तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतूयरे (राय० सू० २७६) ३५. सव्वपुप्फे सव्वगंधे सव्वमल्ले सयोसहिसिद्धत्थए गिण्हंति, (राय० सू० २७६) ३६. जेणेव पउमपुंडरीयदहा तेणेव उवागच्छंति, उवाग च्छित्ता दहोदगं गेण्हंति, गेण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाई (जाव) सहस्तपत्ताई ताई गेण्हंति (राय० सू० २७६) ३७,३८. जेणेव हेमवयएरणवयाई वासाई जेणेव रोहिय रोहियंससुवण्णकूल-रुप्पकूलाओ महाणईओ तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेहंति, गेण्हित्ता उभओकूलमट्टियं गिण्हंति (राय० सू० २७६) ३६. जेणेव सदावाति-वियडावाति वट्टवेयड्ढाव्वया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतूयरे सव्वपुप्फे सव्व गंधे सवमल्ले सव्वोसहिसिद्धत्यए गिण्हंति ४७. जेणेव महाहिमवंत-रुप्पि-वासहरपब्बया सव्वतूयरे सव्वपुप्फे "जेणेव महाप उम-पुंडरीयद्दहा दहोदर्ग... सहस्सपत्ताई ताई गेण्हंति (राय० सू०२७९) जय गंगा सिंध नों पाणी, वली रत्ता रत्तवती नों जाणी। बिहं तट नी माटी उदारो, ते पिण देव ग्रहै तिणवारो॥ ३४. भरत सीमा चल हेमवंतो, एरवा सीमा सिखरी सोहंतो। तिहां आया देव हुलासो, सर्व तूवर रस ले तासो।। ३५. सर्व फल सर्व गंधो, ग्रहै सर्व माल्य सखकंदो। ओषधि सर्व उदारो, वलि ग्रहै सरिसव सविचारो।। ३६. हेमवंते पद्म द्रह ठीक, सिखरी पर्वत हे पुंडरीक । बिहं द्रह ना उदक ग्रहै आछा, जाव कमल सहस्रपत्र जाचा ।। वि ३७. यूगल क्षेत्र हेमवंत वासो, तिहां नदी रोहिया रोहितासो। क्षेत्र एरणवत में पिछाणी, सुवर्णकूला रूपकूला जाणी ।। ३८. ए पिण महानदी नों सारो, ग्रहै उदक धरी अति प्यारो। विहं तट नी माटो आछी, ते पिण देव ग्रहै अति जाची ।। ३६. वृत्त वैसाढ्य ते विहं खेतो, सद्दावई वियडाबई तेथो। सर्व तूवर रस पुप्फ गंध माला, ओपधि सरिसव ग्रहै सविशाला॥ शनिमहादेमवंत - रूपी, ग्रहै खाटो रस पुष्पादि अनुपा। महापद्म द्रह महापुंडरीक, तेहनों उदक कमल लै सधीक ॥ १. 'रायपसेण इयं' मुल पाठ में यहां 'सहस्सपत्ताई' पाठ है । इस पाठ के पाठांतर का यहां उल्लेख नहीं है। इस ढाल की अनेक गाथाओं में इसी प्रकार लक्षपत्र या लाख पांखुडिया शब्द प्रयुक्त है। श० १०, उ०६, ढा० २२४ ३४६ Jain Education Intemational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. क्षेत्र हरिवास सोहंता, नदी हरिसलिला हरिकता। : रम्यकक्षेत्र नरकंता नारीकता, ग्रहै उदक माटी धर खंता॥ ४२. तिणे बिहं क्षेत्रे अवलोय, वृत्त वैताढ्य गिरि है दोय। गंधावई मालवंत, तूवर रस पुष्पादि ग्रहंत ।। ४३. निषध नीलवंत गिरि केरो, तूवर पुष्पादि लेवै भलेरो। द्रह तिगिच्छ केसरी नां जाचा, लियै उदक कमल अति आछा ।। ४४. पछै क्षेत्र विदेह तिहां आया, नदी सीता सीतोदा सुखदाया। तेहनों निर्मल पाणी लेवै, बिहं तट नी माटी ग्रहेवै ।। ४५. विजय सर्व चक्री नी तास, तीर्थ मागध वर दाम प्रभास। तेह तीर्थ नुं उदक ग्रहंता, वलि माटी ग्रहै धर खंता॥ ४६. विदेह क्षेत्र अंतर नदी बार, तस उदकादिक लिये उदार । वलि वक्खारा पर्वत सोल, लिये तूवर पुष्पादि सुचोल ।। ४१. जेणेव हरिवासरम्मगवासाई जेणेव हरि' हरिकंत नरनारिकताओ महाण ईओ तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेण्हंति गेण्हित्ता उभओकूलमट्टियं गेण्हति । (राय० सू० २७६) ४२. जेणेव गंधावाति-मालवंत-परियागा वट्टवेयड्ढपव्वया "सब्बतूयरे सव्वपुप्फे......."गिण्हंति (राय० सू० २७६) ४३. जेणेव णिसढ-णीलवंत-वासधरपब्बया ..सब्बतूयरे सव्वपुप्फे "गिण्हंति जेणेव तिगिच्छि केसरिद्दहाओ......"दहोदगं........ सहस्सपत्ताई ताई गेहंति (राय० सू० २७६) ४४. जेणेव महाविदेहे वासे जेणेव सीता-सीतोदाओ महाण दीओ सलीलोदगं गेण्हति गेण्हित्ता उभओकूल मट्टियं गेण्हति _ (राय० सू० २७९) ४५. जेणेव सब्वचक्कवट्टि-विजया जेणेव सव्वमागहवर दाम-पभासाई तित्थाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तित्थोदगं गेण्हंति गेण्डित्ता तित्थमट्टियं गेण्हति । (राय० सू० २७६) ४६. जेणेव सव्वंतरणईओ""सलिलोदगं गेण्हंति, गेण्हित्ता उभओकूलमट्टियं गेण्हंति"जेणेव सव्ववक्खारपव्वया ..."सव्वतूयरे सव्वपुप्फे ‘य गेण्हति (राय० सू० २७६) ४७. जेणेव मंदरे पब्बते जेणेव भद्दसालवणे 'सव्वतूयरे सव्वपुप्फे "सब्बमल्ले . ... गेण्हंति (राय० सू० २७६) ४८. जेणेव णंदणवणे तेणेव उवागच्छंति""सव्वतूयरे.... सरसं गोसीसचंदणं गिण्हंति (राय० सू० २७९) ४६. जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सधतूयरे जाव (सं० पा०) सम्योसहिसिद्धत्थए य (राय० सू० २७६) ५०. सरसं गोसीसचंदणं च दिव्वं च सुमणदाम गिण्हति (राय० सू० २७६) ५१. जेणेब पंडगवणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता... सव्वतूयरे दद्दरमलयसुगंधियगंधे गिण्हति । (राय० सू० २७६) ५२. जेणेव अभिसेयसभा जेणेव सक्के देविदे देवराया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सूरियाभं देवं करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए (राय० सू० २७६) ५३. अंजलि कटु जएणं विजएणं बद्धाति, वद्धावेत्ता तं (राय० सू० २७६) ५४. विउलं इंदाभिसेयं उवट्ठवेंति (राय० सू० २७६) ४७. हिवं मंदरगिरि गुणमाल, भूमि ऊपर वन भद्रसाल । __ ग्रहै सव तूवर सर्व फूल, सर्व माल्य प्रमुख जे अमूल ॥ ४८. ऊर्द्ध पांच सौ योजन सुहाया, नंदन वन छै तिहां सुर आया। सर्व तवर आदि ग्रहंता, सरस गोशीष चंदन लेवंता ।। ४६. तीजो वन सोमनस उदार, ऊंचो योजन बासठ हजार। ग्रहै सर्व तूवर रस जाव, सर्व ओषधि सरिसव साथ ।। ५०. वलि चंदन सरस गोसीस, दिव्य फूलमाला सुजगीस। गाल्यो तथा पचायो श्रीखंड, जेहवो गंध सगंध समंड ।। ५१. तेहथी छत्तीस सहस्र योजन्न, ओ तो ऊचो पंडग बन्न। सर्व तुवर रस अमंद, श्रीखंड गंध सरीखो सुगंध ॥ १२.सेवग सर्व वस्तु लेई सधीक, जिहां अभिषेक-सभा रमणीक । जिहां इंद्र तिहां शीघ्र आय, सिर आवर्त करि अधिकाय ।। ५३. अजाल बिहु कर जाड़ा न, जय विजय कर वधावा न। ते महाअर्थ महामूल्य, वर मोटां योग्य अतुल्य ॥ ५४. विपुल . विस्तीर्ण आरोग्य, इन्द्राभिषेक करिवा योग्य । उदक प्रमुख अवलोय, थापै सर्व सामग्री सोय ।। १. जोड़ में इसके स्थान पर हरिसलिला है । रायपसेण इयं में हरिसलिला को पाठान्तर में रखा गया है। ३५० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५. हिवै इन्द्र तणां तिण वार, सामानिक चउरासी हजार। वलि अग्रमहिषी अठ, परिवार सहित सघट॥ ५६. परिषद तीन सुजात, वलि अणिय कटकाधिप सात। जाव अन्य बहु सुधर्मवासी, वर अमर सरी सखरासी । ५७. अष्ट सहस्र नैं चउसठ उदार, कलश सवर्णादिक नां सार। स्वभाविक वैक्रिय नां वारु, ते कलश किसायक चारु ।। ५५. तए णं..."चउरासीइ सामाणियसाहस्सिओ अट्ठ अग्ग महिसीओ सपरिवारातो, (राय० सू० २८०) ५६. तिण्णि परिसाओ सत्त अणियाहिवइणो जाव (सं० पा०)अण्णेवि बहवे सोहम्मविमाणवासिणो देवा य देवीओ य (राय० सू० २८०) ५७-६२. तेहिं साभाविएहि य वेउव्विएहि य वरकमल पइट्ठाणेहि सुरभिवरवारिपडिपुण्णेहिं चंदणकयचच्चाएहिं आविद्धकंठगुणेहिं पउमुप्पलपिहाणेहिं सुकुमालकरयलपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्सेणं सोवण्णियाणं कलसाणं.. जाव (सं० पा०). सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वतूयरेहिं जाव (सं० पा०) सव्वोसहिसिद्धत्थएहिं य सव्विड्ढीए (जाव सू० १३) 'नाइयरवेणं' महया-महया इंदाभिसेएणं अभिसिंचंति (राय० सू० २८०) कलशा गोतक-छंद ५८. वर कमल नं वैसणू जेहन, सगंध वर जल करि भर्या । वलि चंदने करि चचिता, अतिही मनोहर उच्चर्या ।। ५६. आरोपिता जसु कलश कंठे, रक्त सूत्र सुहामणा । फुन पद्म उत्पल कमल नां, तसु ढांकणा रलियामणा ।। ६०. सकुमाल कोमल कर तले करि, अमर कलशा संग्रह्या । सह सगंध जल करि सर्व, तीरथ-मृत्तिका कर शोभिया ।। ६१. सहु तुवर रस करि जाव सघली, ओषधी सरिसव करी। सह ऋद्धि करिकै जाव सघलै, पवर वाजित्रे वरी।। ६२. इह रीत अति मोटैज मोटै, इंद्र अभिषेके करी। अभिषेक करता चित्त हरता, हरष धरता सुर सुरी ।। ६३. तब शक्र नैं सामानिकादिक, राज बैसाणे तदा । वर पूर्व कृत तप तसु प्रभावे, लही उत्तम संपदा ।। रस कर सक, तीरथर ६४. अमर बहू तिण अवसरे, सुधर्मावतंस विमान । तेह विषे कोतुक करै, सुणो सुरत दे कान ।। ६५. *इन्द्राभिषेक उदारो रे, वर्तते उदारा २, वत्तत छते सुर केइ सारो। छत सुर कई सारा। रज रेण मिटावण भावै रे, ए तो सुरभि उदक वरसावे ।। ६६. केइ विशेष रज उपशमायो, उदक छांटी ने ताह्यो। न उपशमाया, उदक छाटा न ताह्या। जिम कचवर सोधन लीपेहो, मार्ग पवित्र कर तिम एहो॥ ६५. तए णं तस्स"महया-महया इंदाभिसेए बद्रमाणे -अप्पेगतिया देवा ....."रय-रेण-विणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदगवासं वासंति । (राय० सू०२८१) ६६. अप्पेगतिया देवा....... पसंतरयं करेंति । अप्पेगतिया देवा......"आसियसंमज्जिओवलित्तं सित्तसुइ........ करेंति। (राय० सू० २८१) आसिकम्-उदकच्छटकेन सम्माजित-संभाव्यमानकचवरशोधनेन उपलिप्तमिव गोमयादिना उपलिप्तं तथा सिक्तानि जलेन अत एव शुचीनि-पवित्राणि (राय० वृ०प०२४७) ७. अप्पेगतिया देवा..... मंचाइमंचकलियं करेंति अप्पे गतिया देवा..."णाणाविहरागोसियझयपडागाइपडागमंडियं करेंति। (राय० सू० २८१) ६७. केड मंच ऊपर कर मंचो, केइ अनेक रंगे रंगी संचो। एहवी ध्वजा पताका जानो, मंडित ऊर्द्ध करै असमानो। पुरन्दर सुर प्यारे, शक्र सुर इन्द्र प्यारे। ए तो सुकृत नां फल सारो, मघवन सुर प्यारे ॥ (ध्रुपदं) *लय : थे तो चतुर सीखो सुध चरचा लय : ज्यारे शोभ केसरिया साड़ी श०१० उ०६४ ढाल २२४ ॥ Jain Education Intemational ate & Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. केइ लीपै धवल विमानं, गोसीस सरस सुविधानं । पुरन्दर। रक्त चन्दन करि सीधा, पंचांगुलि हाथा दीधा ।। शक्र० । ६६. केइ द्वार मैं देश भागेह, चंदन' चचित घट स्थापेह। बले शोभन तोरण सारं, एहवा कीधा अधिक उदारं ।। ७० बांधै वर्तल ना सुगंध, ७०. केइ नीचली भूमि थी ताह यो, ऊपर चंदवा लग अधिकायो। बांध वर्तुल बहु पुष्पमाला, वारू लंबायमान विशाला।। ७१. केइ पंच वर्ण नां सुगंध, मूकै पुष्प-पंज स खकंद। तेहिज पूजा उपचार सहीतं, एहवो करै विमाण स रीतं ।। ७२. केइ सुधर्मावतंस विमाणं, वर कृष्णागर कुंदरुक्कं जाणं । सेल्हा रस नां धूप करि जेह, मघमघायमान करेह ।। वो कर विम ७३. केइ सुगंध पवर गंध युक्तं, गंध नी वातीभूत प्रयुक्तं । सुर एहवो विमाण करेह, अति उचरंग हरष धरेह ।। ७४. *केइ हिरण्य सुवर्ण वर्षायो, बले रत्न-वर्षा करै ताह्यो। वलि फूल नी वृष्टि करेहो, फल वृष्टि करै धर नेहो ।। ६८. अप्पेगतिया देवा सोहम्मवडेंसयं विमाणं लाउल्लोइय महियं गोसीस-सरस-रत्तवंदण-दद्दर-दिण्ण-पचंगुलितलं करेंति । (राय० सू० २८१) ६६, अप्पेगतिया देवा..."उवचिय......."वंदणघड-सुकय तोरण-पडिदुवार-देसभागं करेंति । (राय० सू० २८१) ७०. अप्पेगतिया देवा" आसत्तोसत्त-विउल-वट्टवग्धारिय मल्ल-दाम-कलावं करेंति (राय० सू० २८१) ७१. अप्पेगतिया देवा "पंचवण्ण-सुरभि मुक्कपुप्फपुंजोव. यारकलियं करेंति । (राय० सू० २८१) ७२. अप्पेगतिया देवा सोहम्मवडेंसयं विमाणं कालागरु पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-मघमधेत - गंधुद्धयाभिरामं करेंति । (राय० सू० २८१) ७३. अप्पेगइया देवा "सुगंधगंधियं गंधवट्टि भूतं करेंति । (राय० सू० २८१) ७४. अप्पेगतिया देवा हिरण्णवासं वासंति, सुवण्णवास वासंति रयणवासं वासंति"" " पुप्फवासं वासंति फलवासं वासंति । (रा य० सू०२८१) ७५. मल्लवासं वासंति, गंधवासं वासंति चुण्णवासं वासंति आभरणवासं वासंति। (राय० सू० २८१) ७६. अप्पेगतिया देवा हिरण्णविहिं भाएंति एवं --सुवण्णविहि रयणविहिं पुप्फविहि..."भाएंति । (राय० सू० २८१) हिरण्यविधिहिरण्यरूपं मंगलभूतं प्रकार (राय० वृ०प० २४७) ७७. अप्पेगतिया देवा चउन्विहं वाइत्तं वाएंति--ततं विततं (राय० सू० २८१) ७८. घणं सुसिरं (राय० सू० २८१) ७५. वलि फूलमाल वर्षायो, आभरण नी वृष्टि' सुहायो। करै गंध कपुरादिक वृष्टि, चूर्ण वृष्टि अबीरादि इष्टि ।। ७६. केइ रूपा नी विध मंगल भूतो, अन्य सुर भणी दै शुभ सूतो। इम सुवर्ण रत्न प्रकारो, सुर दिये फलादिक सारो। आभरणवास ७७. केइक सर वलि ताह्यो, चिउंविध वाजंत्र वजायो। ततं कहितां मृदंग पडहादि, विततं कहितां वीणादि ॥ ७८. घन कहितां कंसादि, झसिर शंख काहलादि। ए बाजिंत्र च्यार प्रकारो, ए तो देव बजावै उदारो॥ "लय : थे तो चतुर सीखो सुध चरचा १. रायपसेणइयं सूत्र २८१ में वंदण कलश और वंदणघड इन दो शब्दों का उल्लेख है। जोड़ में चन्दनचचित घट लिखा हुआ है। यहां दो बिन्दु चिन्तनीय हैं.. कुछ प्रतियों में चंदन कलस और चंदन घड दोनों पाठ हों और कुछ प्रतियों में केवल चंदण घड पाठ ही हो । ० कुछ प्रतियों में वंदणकलस और वंदणघड पाठ है जहां वंदणकलस पाठ है वहाँ पाठान्तर की कोई सूचना नहीं है। ऐसी स्थिति में यह अनुमान किया जा सकता है कि लिपि दोष के कारण चंदण का वंदण अथवा वन्दन का चंदण हो गया हो। जोड़ में चंदण होने पर भी 'रायपसेणइयं' में स्वीकृत पाठ वंदण को ही उसके सामने उद्धृत किया गया है । आगे की गाथाओं के सामने भी यही पाठ उद्धृत है। . २. रायपसेणइयं में मल्लवासं के बाद गंधवासं चुण्णवास पाठ है । उसके बाद आभरणवास है । जोड़ में क्रम का व्यत्यय है। संभव है कुछ आदर्शों में पाठ का क्रम यह रहा होगा। .३५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९. अप्पेग इया देवा चउव्विहं गेयं गायंति, तं जहाउक्खित्तायं पायंतायं मंदायं रोइयावसाणं । (राय० सू० २८१) ७६. केइ चउविध गावै गीतं, उक्खित्तं पायताय पुनीतं। तृतीय मंदाय सुजानं, तूर्य रोइय ते अवसानं ।। वा० - कोइक देवता चिहुं प्रकारे गीत गाव, ते कहै छ-उक्खित्तायप्रथम गीत प्रारंभ्यो छ । पायत्ताय-चिहुं चरणे बांध्यो। मंदाय-मध्य भागे मूच्र्छनापूरय गुण करी । छेहड़े रोइयावसाण-चोरिवा योग्य थया । १०. केइ शीघ्र नाटक विधि देखाडे, केइ नाटक विलंबित पाई। केइ दूत-विलंबित विद्ध, एहवा नाटक देखा. प्रसिद्ध ।। ८१. केइ अंचित नाटक देखाई, केइ आरभित नाटक पाई। __ केइ अंचित-आरभित विद्धि, नाटक उभय देखाई समृद्धि । ८०. अप्पेगतिया देवा विलंबियं दुयं नट्टविहिं उवदंसेंति । अप्पेगतिया देवा विलंबियं णट्टविहि. उवदंसेंति । अप्पेगतिया देवा दुय-विलंबियं णट्टविहिं उवदंसेंति । __(राय० सू० २८१) ५१. अप्पेगतिया देवा अंचियं नट्टविहिं उवदंसेंति । अप्पेगतिया देवा रिभियं नट्टविहिं उवदंसेंति । अप्पेगइया देवा अंचिय-रिभियं नट्टविहिं उवदंसेंति । (राय० सू० २८१) ८२. अप्पेगइया देवा आरभडं नट्टविहिं उवदंसेंति । अप्पेगइया देवा भसोलं नट्टविहिं उवदंसेंति । अप्पेगइया देवा आरभड-भसोलं नट्टविहिं उवदंसेंति (राय० सू० ३८१) ८३. अप्पेगइया देवा उप्पायनिवायपसत्तं संकुचिय-पसारियं रियारियं (राय० सू० २८१) ८४. भंत-संभंतं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति । (राय० स० २८१) ८२. केइ आरभड नाटक देखाड़े, केइ भसोल नाटक पाई। केइ आरभड-भसोल पिछाणी, नाटक देखाडै उचरंग आणी।। गीतक-छंद ८३. ऊंचोज उत्पतवै करी फून, अधो पड़वं व्यापवं । संकोचवू ज पसारवू, गमनागमन फुन थापq ॥ ८४. वलि भ्रत भाव संभ्रत भाव ज, नाम दिव्य प्रधान ही। ए नृत्यविधि आरभड़ भसोलज, सर दिखाई जान ही। ५५. उत्पात पूर्व निपात, जेह में ते उत्पात-निपात ही। पहिलं पड़ी ने ते पछ, उत्पात ऊंचो जात ही। ८६. निपात पूर्व उत्पात जेह में, ते निपात-उत्पात ही। उत्पत्य ऊंचो जई पहिला, पछै नीचो आत ही। ८७. संकुचित पूर्व प्रसारितं जे, ते संकुचित-प्रसारितं । पहिला पसारी नै पछै संकोचिवू इम कारितं ।। ८८. इम गमन नैं आगमन आख्यूं, अर्थ पूरववत वही। इम भ्रत नैं संभ्रत नामे दिव्य नाटक विध कही। वा०-उत्पात ते ऊंचो जायवू, पिण पूर्व निपात-नीचुं पड़वू छै जेहन विषे, एतले पहिला नीचो जई पछै ऊंचो जाय ते उत्पात-निपात कहिये । इम निपात ते नी पड़वू, पिण पूर्व उत्पात-ऊंचो जायवू छ जेहन विषे एतले पहिला ऊचो जई पछै नीचो पड़े ते निपात-उत्पात कहिये । इम संकुचित-प्रसारित नां बे भेद । इम गमन ते जायवू अन आगमन ते आयवं, तेहनां बे भेद । इम भ्रंत संभ्रत कहिवू । ए सर्व भेद 'आरभड-भसोल' नाटक नां छै । ते आरभड. भसोल एहवं नाने दिव्य नाटक विध देखाई। ८९. केइ षट-भाषा' च्यार प्रकारो, बोली देखा. सूर धर प्यारो। ते दाष्टीतादिक धारो, नाटक ग्रंथ मांहि अधिकारो। *ज्यार शोभ केसरिया साड़ी लय : थे तो चतुर सीखो सुध चरचा १. षभाषा मूल पाठ में नहीं है । जयाचार्य ने अपनी दृष्टि से व्याख्या दी है। शायद टब्बे आदि के आधार पर यह पद्य लिखा गया है। वा०-उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् स उत्पातनिपातस्तं एवं निपातोत्पातं संकुचितप्रसारितं भ्रान्तसंभ्रान्तं नाम आरभटभसोलं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति । (राय० वृ० प० २४८) श० १० उ०६, ढाल २२४ ३५३ Jain Education Intemational Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०—केतलायक देवता ध्यार प्रकारे षट भाषा बोली देखाड़े, ते च्यार प्रकार कहे १. दातिक २. प्रात्यंतिक ३. सामंतोपपातिक ४. लोकमध्यावसान - ए चिहुं पद नीं व्याख्या नाटक ग्रंथ थकी जाणवी । ६०. केयक देव बुक्कारे, म्हांसू युद्ध कर तूं इहवारे । केइ प्रीणे धरी अहंकारो, आतम स्थूल करै तिहवारो ॥ १. केइ लास्य रूप नाटक पाड़े, केइ ताण्डव नाटक देखाड़े । केइ च्यारूं साथ सुवासो, इम कर रह्या देव तमासो || १२. केइ देव आस्फोटन करता, मही प्रमुख कर यूं हणंता । के देव बिल मांहोगां ह्यो, केद्र त्रिपदी छेद कर ताह्यो । १३. केइ आस्फोटन पिण ताह्यो, वले वल्गावं ते मांहोमांह्यो । वलि त्रिपदी छेद सांकल तोड़े, एह तीनूंई विध प्रति जोड़े ॥ १४. केइ ह जिम कर होसारो, केइ गज जिम गुलगुलाटकारो । के रथ जिम करें घणघणाटो, केइ तीनू करें सुर बाटो । ५. सुरजले स्वयमेवा के विशेषले देवा । केइ पेला नीं कूटि काउंता के देव तीनूंई करता ॥ ९६. के उड़ जाय ऊंचा आकाशो, केद्र देव नीचा पढे तासो । केइ कूदी - कूदी तिरछा पड़ता, केइ देव तीनूंई धरता ॥ ७. केइ सुरसिंहनाद करता, केइ पग केइ भूमि चपेटा देव के देव 1 १८. केइक देव गावंता, केइ विजल जिम चमकता । केयक मेह वर्षाय, फेइ देव तीनूं करें ताय ॥ करि भूमि कूटता । तोनूई करेवे ॥ १६. के ज्वलं देवा, छै केइ त केइ त छै विशेख, केइ कार्य तीनूं *लय : ज्यांरं शोमं केसरिया साड़ी ३५४ भगवती जोड़ ततसेवा । उवेख ॥ १०. अप्पेगतिया देवा बुक्कारेंति अप्पेगतिया देवा पीर्णेति । (शद० ० २८१) अप्येकका देवानका कुर्वन्ति पीनमन्ति पीन. मात्मानं कुर्वन्ति - स्थूला भवन्तीत्यर्थः ( राय० वृ० प० २४८ ) ६१. अप्पेगतिया लासेंति । अप्पेगतिया तंडवेंति । अप्पेगतिया बुक्कारेंति, पीर्णेति, लासेंति, तंडवेंति । (राम० सू० २६१) लासयन्ति लास्यरूपं नृत्यं कुर्वन्ति ताण्डवयन्ति - ताण्डवरूपं नृत्यं कुर्वन्ति । (राय० वृ० प० २४८ ) ६२. अप्पेगतिया अप्फोडेंति । अप्पेगतिया वग्गति । अप्पेगतिया तिवई छिदंति । ( राय० सू० २८१ ) आस्फोटयन्ति भूम्यादिकमिति गम्यते । (राज० ० ० २४८, २४९ ) ६३. अप्पेगतिया अप्फोडेंति वग्गंति, तिवई छिदंति । (राय० सू० २५१) १४. अप्पेतिया सियं करेति । अगतिया हत्यिगुलगुलाइयं करेति । अपेगतिया रहपणपणाश्यं करेति । अप्पेगतिया सयं करेति रियललाइ त रहघणघणाइयं करेंति । ( राय० सू० २८१ ) २५. अपेगतिया उच्छले अप्पेगतिया पोण्डलति अप्पेवतिया उविकट्ठियं करेति अप्पेगतिया उच्छति पोच्छति उक्किद्रयं करेति (राम० सू० २८१ ) ६६. अप्पेगतिया ओवयंति, अप्पेगतिया उप्पयंति अप्पेगतिया परिवयंति अप्पेगइया तिण्णि वि । (राय० सू० २०१) परिपतन्ति - तिर्यक् निपतन्तीत्यर्थः (राय० ० ० २४९ ) ७. अप्पेगइया सीनायं नयंति अप्पेगतिया पाददद्दयं करेंति । अप्पेगतिया भूमिचवेडं दलयंति, अप्पेगतिया तिणि वि । ( राय० सू० २८१ ) अप्पेगतिया विज्जुयायंति, अप्पेगतिया तिष्णि वि (राय० सू० २०१) तयंति अप्पेगतिया ६८. अप्पेगतिया गज्जंति अप्पेगइया वा वासंति करेंति । १. अतिया जति अति पतवेंति, अप्पेगतिया तिष्णि वि । (राय० सू० २८१) Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००. के हरकारे के पुकारे, केक पर ने नकारे । केइ पोता नौ नाम संभला केइ व्याखंई कर हुलसा ॥ बा०] हक्कारेति ते पर में विनय करि कला देखाई, फुस्कारेति से पुरकार करे, थुक्कारेति ते थू-थू करें । १०१. केइ सुर करे सुर- सन्निपातो, सुर एकटा मिले विख्यातो । सुर उद्योत कर के देवा, केइ सुर उत्कलिका करेवा ॥ १०२. केइ देव कहं करता, प्रकृत देव हर्ष अति घरता । स्वेच्छा वचन कर जेहो, कोलाहल' वाल जेम करेहो ॥ १०३. शब्द करता, के बेलुक्वेव विकरता। इम एक-एक आदरता केंद्र कार्य हूं आचरता ॥ 1 १०४. केंद्र कमा उत्पल हस्त लेई, जान लक्ष पांवड़िया कहेई । वलि कलश ग्रही ऊभा केई, जाव धूप कडुच्छ कर लेई ॥ १०५. इष्ट तुष्ट पका जाव जेहो, हृदय विकसायमान करेहो । चिहुं दिशि सर्व धकी दोता, पुन परिधावति आयंता ॥ १०६. हि दंद्र तणां विणवार सामानिक चउरासी हजार। जाव आत्मरक्षक देवा, त्रिणलख सहस्र छतीस सुलेवा ॥ १०७. अन्य बहु सुर सुरी जाणो, एतो सुधर्मवासी पिछाणो । महाइंद्राभिषेक करंता, सिर आवर्तन करिनें वदंता ॥ हो म्हारा दक्षिण अर्ध लोक नां स्वामी ! चिरं जीव चिर नंद || ( ध्रुपदं ) १०८. जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! जय जय तूं हे नंद । भुवन समृद्धिकारी आनन्द पायो, भद्रकल्याण धावो अमंद ।। १०२. जय जय नंद ! भगतुझ धावो, अगजीत्या शत्रु जतीज्यो। जीत्या पोता नो वर्ग पालीज्यो, जीत्या वर्ग में बसी ज्यो । ११०. सुरगण महेंद्र वणी पर तारागण में जिम चंद असुर-समूह विषे जिम चमरेंद्र, जिम नाग विषे धरणें । १११. मनुष्य विषे जिम भरत चक्री पुन, बहु पत्योपम लगे । बहु सागरोपम लग स्वामी, स्वामी, सुखे-सुखे विचरेह ।। *लय : सुण चिरताली थारा लक्षण + लय हो म्हारा राजा रा गुरुदेव बाबाजी १. फुक्कारे और थुक्कारे के स्थान पर रायपसेणइयं में क्रमश: थुक्कारेंति और थक्कारेंति पाठ है । २. यहां रामपसेणइयं की वृति में 'बोलकोलाहल' पाठ है। १००. अपेगतिया हक्कारेति, अप्येवतिया बुक्कारेति, अप्पेगतिया यक्कारेति अप्पेमतिया 'साई साई नामाई सार्हेति' अच्येतियाबारिवि ( राय० सू० २८१ ) १०१. अप्पेगइया देवसण्णिवायं करेंति अप्पेगतिया देवज्जोय करेंति अप्पेगइया देववकलियं करेंति । 1 ( राव० सू० २६१ ) १०२. अप्पेइया देवकह कह करेति (राय० सू० २०१) प्राकृतानां देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छावचनबलकोलाहलो देवकहकहस्तं कुर्वन्ति । (राय० बु०प०२४९) १०३. अप्पेमतिया देवदुगं करेति । अप्पेगतिया - करेति । येा देवणिवा देज्जीपं देयिं देवकहकहगं देवदुदुहणं, चेलुक्य करेंति । (राय० सू० २०१) १०४. अप्पेगतिया उप्पलहत्थगया जाव सहस्सपत्तहत्थगया । अप्पेगतिया वंदणकल सहत्थगया जात्र अप्पेगतिया धूवकडुच्छुयहत्थगया । ( राय० सू० २८१ ) 1 ******** १०२. (सं० पा०) हिया सम्म समंता आहावंति परिधावति । (० ० २०१) १०६, १०७. तए णं तं... अण्णे य बहवे " देवा य देवीओ य महया महया इंदाभिसेगेणं अभिसिचंति, अभिचिता वयं यत्तेयं करपलपरिमहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी(राय० सू० २०२ ) १०८. जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! (राय० सू० २८२ ) १०६. जय जय नंदा ! भद्दं ते अजियं जिणाहि, जियं च पाहिजय साह (राम० सू० २८२ ) ११०. इंदो इव देवाणं, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं (राय० सू० २०२ ) पतिओगाई बहुई ( राय० सू० २८२ ) १११. भरहो व मवाणं बहू सागरोपमाई 1 ० १० उ० ६, ढाल २२४ ३५५ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२. सहस चउरासी सामानिक सरवर, जाव आत्मरक्ष जाणी। त्रि लख सहस छतीस तुम्हारी, सेव करै सुखदाणी ।। ११३. अन्य बहु सधर्म कल्प नां वासी, देव देवी नों ताम । अधिपतिपणं मालिकपणं करता, आप विचरज्यो स्वाम।। ११४. जावत तुम्है मोटे आडंबर करता, पालता विचरज्यो ताह्यो। इम कही जय-जय शब्द प्रजंजे, देव देवी सुखदायो । ११५. *शक्र सुरिंद्र तिवार,मोटे मोटे आडंबरे सार । आछेलाल । इंद्राभिषेक कीधे छते । ११६. अभिषेक सभा नै सोय, पूर्व नै बारणे होय । नीकेलाल । निकलै निकली निज मते ॥ ११७. जिहां सभा अलंकार, तिहां आवै आवी धर प्यार । सभा प्रदक्षिणा देतो छतो।। ११८. अलंकार सभा नैं जोय, पूरव वारणे होय । जिहां सिंहासण तिहां आवतो।। ११६. सींहासण मैं विषेह, पूरव साहमों जेह । मुख करने बेठो तिहां ।। १२०. इंद्र तणां सामानीक, वलि परषद देव सधीक । भंड शृंगार जोग स्थापै जिहां ।। १२१. शिक्र देवेन्द्र तिवारो, लूहे वस्त्र करी तनु सारो। ते पसम सहित सुकमालो, रक्त वर्ण सुगंध रसालो ।। १२२. एहवे इक पट वस्त्रे उदारू, अंग लू है लूही ने वारू । सरस गोशीर्ष चंदन करीने, गात्र प्रतै लीप लीपी ने ॥ ११२. ......"जाब (सं० पा०) आयरक्ख-देवसाहस्सीणं.... (राय० सू० २८२) ११३,११४. अण्णेसिं च बहूणं.. देवाण य देवीण य आहे वच्चं पोरेवच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहराहि त्ति कटु महया महया सद्देणं जय-जय सदं पउंजंति । (राय० सू० २८२) ११५. तए णं से महया-मया इन्दाभिसेगेणं अभिसित्ते समाणे (राय० सू० २८३) ११६. अभिसेयसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता (राय० सू० २८३) ११७. जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति, उवा गच्छित्ता अलंकारियसभं अणुपयाहिणीकरेमाणे अणुपयाहिणीकरेमाणे (राय० सू० २८३) ११८. अलंकारियसभं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणपविसति, अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति _ (राय० सू० २८३) ११६. सीहासणवरगते पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णे। (राय० सू० २८३) १२०. तए णं तस्स..... सामाणियपरिसोववण्णगा देवा अलंकारियभंडं उवट्ठति । (राय० सू० २८४) १२१,१२२. तए णं से""तप्पढमयाए पम्ह लसूमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाइं लू हेति लूहेत्ता, सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिपति, अणुलिपित्ता (राय० सु० २८५) पक्षमला च सा सुकुमारा च पक्ष्मलसुकुमारा तया सुरभ्या गन्धकाषायिक्या-सुरभिगन्धकषाय द्रव्यपरिकमितया लघुशाटिकया गात्राणि रूक्षयति । (राय० वृ०प० २५१) १२४. नासा-नीसास-वाय-वोझं चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं (राय० सू० २८५) 'नासिकानिःश्वासवाह्यम्' (राय० वृ०प० २५१) १२५. हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणग-खचियंतकम्म (राय० सू० २८५) हयलाला-अश्वलाला तस्या अपि पेलवमतिरेकेण ह्यलालापेलवातिरेकम्- अतिविशिष्टमृदुत्वलघुत्वगुणोपेतमिति भावः, धवलं श्वेतं तथा कनकेन खचितानि-विच्छुरितानि अन्तकर्माणि-अंचलयोनिलक्षणानि यस्य तत् कनकखचितान्तकर्म (राय० वृ०प० २५१) १२६,१२७. आगासफालियसमप्पभं दिव्वं देवदूस-जुयलं नियंसेति, नियंसेत्ता (राय० सू० २८५) आकाशस्फटिकं नामातिस्वच्छः स्फटिकविशेषस्तत्समप्रभं दिव्यं देवदूष्ययुगलं परिधत्ते परिधाय हारादीन्या. भरणानि पिनह्यति । (राय० वृ०प० २५१) दोहा १२३. चंदन तनु चरची करी, युगल देवदूष्य जाण । तेह वस्त्र पहिरै तदा, केहवो वस्त्र पिछाण ? १२४. नासिका नी निःस्वासे कंपायो, तिके देख्यां नयन ठरायो। वर्ण फर्श युक्त सुखकारी, एहवो वस्त्र अधिक उदारी ।। १२५. कोमल हय नी लाला, तेहथी अधिक धवल मृदु न्हाला । सुवर्ण तारे वारू, छेहड़ा खंचित अधिक उदारू ।। १२६. निर्मल आकाश स्फटिक सरीखो, दिव्य देवदूष्य सपरीखो। एहवो वस्त्र-युगल सुखकंदो, ओ तो पहिरै पहिरी शक-इंदो॥ *लय : आछेलाल लय : ज्यार शोभे केसरिया साड़ी ३५६ भगवती-जोड़ dain Education International Jain Education Intemational Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूहा १२७. देवदूष्य पहिरी करी, पेहरै गेहणा सार। कहिये ते अधिकार हिव, सांभल ज्यो धर प्यार ।। १२८. *पहिरै अष्टादशसर हारो, ए पूर्ण हार श्रीकारो। अर्द्ध हार पहिरंत, ते नवसरियो द्युतिमंत ।। १२६. वली एकावली पहिरंतो, विचित्र मणी मोती नों सोहंतो। पछै पहिरै मुक्तावली हारो, वली रत्नावली सविचारो ।। १२८. हारं पिणिद्धति.... अद्धहारं पिणि इ ___(रायः सू० २८५) हारः-अष्टादशसरिकः, अर्द्धहारो-नवसरिक: (राय० वृ० प० २५१) १२६. एगावलि पिणिद्धेति पिणिवेत्ता मुत्तावलि पिणिद्धेति .........."रयणावलि पिणिद्धेइ (राय० सू० २८५) एकावली-विचित्रमणिका मुक्तावली-मुक्ताफलमयी (राय० वृ०प० २५१) १३०. पिणिवेत्ता एवं-अंगयाइं केयूराई कडगाइं तुडियाई कडिसुसगं दसमुद्दाणंतगं (राय० सू०१८५) अंगदानि-बाह्याभरणविशेषाः। दशमुद्रिकानन्तकं हस्तांगुलिसम्बन्धिमुद्रिकादशकं । __(राय० वृ०प० २५२) १३१. विकच्छसुत्तगं मुरवि (राय० सू०२८५) १३०. अंगद बहिरखा एमो, केऊर कडग त्रुटित पिण तेमो। कटिसूत्र कणदोरो एहो, मुद्रिका दश अंगुली विषेहो । १३२. कंठमुरवि पालंब (राय० सू० २८५) १३१. वक्षसूत्र हिया नों वारू, ओ तो पहिरै अधिक उदारू । मरवि मादल ने आकारो, गेहणो पहिरै अति धर प्यारो॥ १३२. वलि कंठमुरवी पहिरंत, ते तो कंठ विषे झलकंत । वलि झंबणा अति लहकंत, पहिरै उद्योतकारी अत्यंत ।। १३३. कर्ण कुंडल अति भलकै, च डामणी ते सेहरो चलकै । ओ तो सर्व रत्न में सारो, शोभै इंद्र ने शिर श्रीकारो।। वा०-चडामणि नाम सकल पार्थिव रत्न सर्व सार, देवेंद्र ने मस्तके कीधो है निवास, सर्व अमंगल ने शांति नों करणहार, रोग-प्रमुख दोष ने नाश नों करणहार, अतिही श्रेष्ठ लक्षणे करी सहित परम मंगलभूत आभरण विशेष । १३४. नाना प्रकार नां जेह, रत्ने करि युक्त सलेह । एहवो मुकुट अनूप, इम गेहणा पहिरचा धर चूंप ॥ १३५. गंथिम वेढिम पुरिम संघातं, चउविध माल्य करीने सुजातं। सुरतरु जिम आत्म प्रतेह, अलंकृत विभूषित करेह ।। १३३. कुंडलाई चूडामणि (राय० सू० २८५) कुण्डले–कर्णाभरणे (राय० वृ० प० २५२) वा०-चूडामणि म सकलपार्थिवरत्नसर्वसारो देवेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्द्धकृतनिवासो निःशेषामंगलाशान्तिरोगप्रमुखदोषापहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परममंगलभूत आभरणविशेषः । (राय० वृ०प०२४२) १३४. ""मउडं पिणि इ (राय० सू० २८५) चित्राणि-नानाप्रकाराणि यानि रत्नानि तै: संकटश्चित्ररत्नसंकट:-प्रभूतरत्ननिचयोपेतः (राय० वृ०प०२५२) १३५. गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेणं चउब्बिहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अप्पाणं अलंकियविभूसियं करेइ । (राय० सू० २८५) १३६. दद्दर-मलय-सुगंध-गंधएहिं गायाई भुकुंडेति _ (राय० सू० २८५) १३७,१३८. दिव्वं च सुमणदामं पिणि ।। (राय० सू० २८५) तए णं से....."केसालंकारेणं मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं वत्थालंकारेणं-चउव्विहेणं अलंकारेणं अलंकियविभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे (राय० सू० २८६) १३६. कुंडिका भाजन विषेह, गाल्यो श्रीखंड जेहवं एह। परम सुगंध करेह, चारू उज्जल कीधी देह ॥ १३७. प्रवर पुष्प नी माला, तिका पहिरै अधिक विशाला। हिव शक्र सुरेंद्र तिवार, कीधा चउविध अलंकार ।। १३८. केशालंकार मल्लालंकार, वलि वस्त्रालंकार विचारं । आभरणालंकार' सुजोय, प्रतिपूर्ण अलंकार कर सोय ।। *लय : ज्यार शोभे केसरिया साड़ी १. 'रायपसेणइयं' में पहले आभरणलंकार और उसके बाद वस्त्रालंकार है। शा० १०, उ० ६, ढाल २२४ ३५७ Jain Education Intemational cation Intemational For Pro Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६. सिंहासण थी ऊठी नैं तिवार, अलंकार सभा नैं पूर्व द्वार । नीसरी जिहां सभा व्यवसाय, तिहां आवै आवी नैं ताय ॥ १४० व्यवसाय सभा न तेथ, प्रदक्षिणा करतो जेथ । पेठो पूर्व चारणे ताय, जिहां सिंहासन तिहां आय ॥ १४१. सिंहासण ने विषेह, पूर्व शक्र तणां तिह वार, सुर १४२. वलि त्रिण परषद सुर जाणी, पुस्तक रत्न आप तिहा आणी । हिवे शक्र सुरिंद्र तिवार, ग्रहै पुस्तक रत्न उदार ।। १४३. वलि पुस्तक रत्न मूकंत, खोलां विषे थापत । पुस्तक रत्न प्रत उघाडंत, पछै पुस्तक रतन वाचत ॥ १४४. शक्र सुरेंद्र सुरेंद्र प्रसीध तिहां ते जयणा कीष, १४५. ति मुख कर बैठो जेह । सामानिक हितकार ॥ ए अवधार सावज जोग व्यापार, कुल धर्म शास्त्रज ते भणी ॥' [ ज० स०] १४६. ग्रहै धार्मिक व्यवसाय, पुस्तक रत्न निक्षेप ताय । पुस्तक रत्न प्रत स्थापी ठाम, सिंहासण सूं ऊठी नं ताम ।। सोरठा पुस्तक रत्नज वांचतां । एहन का सूत्र में ।। मुख उचाई पिण तिके । १४७. व्यवसाय सभा थी संचरियो, पूर्व बारणे होय नीसरियो । पर्छ नंदा पुष्करणी आय, पूर्व तोरण पावड़िये पेठो मांय ।। १४८. एक मोटो कलश भिंगारो, श्वेत रूपा नों अधिक उदारो । ते निर्मल जल भर लीधो वली उत्पलादिक ग्रहो सीपो । [सुरेंद्र सधीको, ओ तो करें द्रव्य मंगलीको ।] १४२. प नंदा पोखरणी थी सारो, ओ तो नीसरियो तिवारी। जिहां सिद्धायतन जाणी, चाल्यो तिन दिन कानी पिछाणी ॥ *लय : ज्यांरं शो केसरिया साड़ी +लय : सुण चिरताली थारा लक्षण ३५८ भगवती-जोड् १५०. शक्र तणां तिवारो, सामानिक उरासी हजारो जाव आत्मरक्ष देवा, त्रिलख सहंस छतीस सुलेवा ॥ १५१. अन्य बहु सुधर्मवासी, ए तो देव देवी सुखरासी । केइ देव उत्पल कर लेई, जाव लक्षपांखड़िया ग्रहेई || १३६. सीहासणाओ अब्भुट्ठेति, अब्भुट्ठेत्ता अलंकारियसभाओ गुररियमिगं दारेणं पडिणिक्खम, पदिणिक्खमित्ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छति, (राम० सू० २०६ ) १४०. ववसायसभं अणुपयाहिणीक रेमाणे अणुपयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिवेगं दारेण अणुपविसति, अपवि सित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति (राय० सू० २८६ ) १४१. सीहासणवर गते पुरत्याभिमुहे सणसण्णे । (शय० सू० २०६ ) तए णं तस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा १४२. पोत्थयरयणं उवर्णेति । ( राय० सू० २८७ ) ( राय० सू० २८७ ) तते णं से पोत्थयरयणं गिण्हन्ति, ( शम० सू० २८८ ) १४३ पोरणं मुह मुरता पोरथपरयणं विहाडे, विहाडिता पोत्ययरपणं वाति (राय० सू०२८) १४६. धम्मियं ववसाय ववसइ ववसइत्ता पोत्ययरयणं पडिणिक्खिवर, पडिणिक्खिवित्ता सीहासणातो अब्भुतिम्ला ( राय० सू० २५८ ) १४७. भात पुरस्विमिल्लेणं दारेण पडिणिक्खमद, परिणिता जेमेव नंदा पुक्सारिणी रोव उपागच्छति उबागच्छत्ता गंदं पुनरिणि पुरस्थि मिल्ले तोरणं तिसोयागपतिरूवर्ण पच्चो (राय० सू० २०० ) १४८. एगं महं सेयं रययामयं विमलं सलिल पुण्णं भिंगारं पगेहति ... उप्पलाई गेण्हति (रापा० सू० २८८ ) १४३. दातों पुरिणीतो पश्चोतरति पच्बोरिसा जेमेव सिद्धाय शेव पहारेव गमणाए । ( राय० सू० २०० ) १५०. तर जाव आपरखदेवसाहती (राय० सू० २८१ ) १५१. अण्णेय बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया उप्पलहत्थगया जावसहस्तपत्त हत्थगया (राय० सू० २०२) Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२. शक्र त सुविचारो पूठे पुढे चाले घर प्यारो । हिवे आभियोगिक अधिकारी ते सांभलज्यो विस्तारो ॥ तणां निवारो आभियोगिक सुरसुरी सारो केइ कलश हाथ में ले जा पाय केइ ।। १५२. ' १५४. हर्ष संतोष पामंता, शक्र पूठै पूठै चालता । इम देव देवी परिवारो, वह वाजन ने झिणकारी ॥ १५५. हि सिद्धायतन सुविशेषो पूर्व वारणं कोध प्रवेशो जिहां वे देवच्छंद गंभारी, तिहां जिन प्रतिमा अवधारो ॥ १५६. तिहां आवै आवा नैं तामो देखो जिन प्रतिमा नैं परणामो । पूर्व लोम हस्त करताय, सुगंध जल करिने न्हवराय ॥ १४७. सरस गोशीर्ष चंदन करेह, गात्र लीप लीपी ने जेह । पछे जिन - प्रतिमा ताय, देवदृष्य महामूल्य पहिराय ।। नैं १८. फूल चढावे तिण कालो, चढावे फूलां नी मालो । गंध कपूरादि चढाय, वलि वर्ण चढावै ताय ।। १५६. चूर्ण चढावे चंगो, वलि वस्त्र चढावे सुरंगो । आभरण गहणा अमंद, ओ तो पहावे शक्र सुदि । १६०. नीचली नीचली भूम थी ताह्यो, ऊपर चंदवा लग अधिकायो । बांधे वर्तुल व पुण्यमाला वारू बंदायमान विशाला ॥ १६१. पछे पंच वर्ग बोकार, मूकै पुरुष-पुंज उपचार | तिण ऊपर दियो दृष्टन, स्त्री नां शिर केश ग्रहों नें मुकंत ॥ दूहा १६२. नर स्त्री नां शिर केश ग्रह चुंबन कामवसेण । मूक्या पसरं चिहुं दिशे, तिम पुष्कवृंद करेण ॥ १६३. * जिन प्रतिमा नैं आगे, निर्मल श्वेत रूपामय सागै । अच्छरस कहितां ताह्यो, कांइ अतिही निर्मल करिवायो ॥ *लय : सुण चिरताली थारा लक्षण १५२. पिट्ठतो-पितो समणुगच्छेति । ( गय० सू० २०९) १५३. तए णं अभिओगिया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया कलसहत्थगया वंदण जाव अप्पेगतिया धूवकडच्छुयहत्थगया ( रया० सू० २९० ) १२४. हतो-पितोसमच्छति। (राय० सू० २१० ) तए... देवेहि य देवीहि यसद्धि संपरिवुडे णातियरवेणं (राम० सू० २९१) १५५. जेणेव सिद्धायतणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सिद्धायतणं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव देवच्छंदए जेणेव जिणपडिमाओ (शय० सू० २९१) १५६. तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता जिणपडिमाण आलोए पणामं करेति, करेत्ता लोमहत्थगं गिण्हति गिरिता पिहिमाणं लोमहत्यएवं मज मज्जित्ता जिणपडिमाओ सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाएइ ( राय० सू० २९१ ) १५७. सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिप, अणुलिपत्ता जिगपदिमाणं अहवाई देव नियंसेs, नियंसेत्ता (राय० ० २९१) १५०,१५६. पुष्पा मलावष्णारुण चुष्णारहणं गंधारुर्ण आभरणारहण करे ( राम० सू० २११ ) १६०. आसत्तोसत्त-विउल-वट्ट वग्धारिय-मल्ल-दाम-कलावं करेह, (राय० सू० २११) १६१करभट्ट-विष्यमुक्के दसद्धवणे कुसुमेणं पुप्फपुं जोवयारकलियं करेइ ( राय० सू० २९१ ) १६३,१६४. जिण डिमाणं पुरतो अच्छेहि सव्हेहि' रययाएहि अच्छा दुहि अमंगले आह १. रावसे ( ० २९१ ) में पुष्प माला, वर्ण, चूर्ण, गंध और आभरण यह क्रम है। जोड़ की गाथा १५८,१५६ में गंध को वर्ण से पहले लिया गया है और चूर्ण के बाद वस्त्र का ग्रहण किया गया है । यह अन्तर पाठभेद के कारण हो सकता है। २. सेएहि के स्थान पर सहेहि पाठ है। सेएहिं को पाठांतर में लिया है। श० १०, उ० ६, ढाल २२४ ३५६ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १६४. एहवा तंदुल करेह, अष्ट अष्ट मंगल आलिखेह | स्वस्तिक साथियो जाणी, जाव दर्पण आरिसो पिछाणी || १६. तदनंतर हतीक, रत्न चंद्रप्रभ बच्चनय सधीक । वली वे रत्न रे मांय, निर्मल दंड कटुच्छा नों दीपाय || १६६. सुवर्ण मणि रत्न तेह, भांत चित्रित दंड विषेह । हिवे धूप नी जाति सुजान, कृष्णागर अधिक प्रधान ॥ १६०. कंद चीट कहाव, तुरुक्क कहितां सेल्हा रस ताय । मघमघायमान ते तणो १६८. उत्तम गंध जे धूप, करेह, तिको व्याप्त छे धूप नीं वाटी सोहंतो गंध प्रति विशेष १६६ रन बंडू मांय, कछो यत्न करी ग्रही धूप 'दियो जिनवर नैं जेह, कहिये स्थापना जिनवर एह || १७०. नवा काव्य एकसी अट्ठ छंद-दोष रहित सुघट्ट | सार अर्थ करीनं सहीत, तिके पुनरुक्त दोष रहीत ॥ १७१. मोटां छंद जे पद नां बंध, देव लब्धि प्रभाव सुसंध । एहवा काव्य करीनें स्तवेह, राज रीत लोकिक मग एह ॥ १७२. सात आठ पग पाछो उसरी नै डाव ढींचण ऊंची करीनें । गोडो जीमणो भूमितल धार मही लगावे शिर बिग चार ।। अनूप ॥ अधिकेह | मुकतो ॥ ताय । १७३. मस्तक कांयक ऊंचो करेह, कांयक ऊंचो करीनें जेह | शिर आवर्त करी बिहुं हाथ, अंजली करी वर्द सुरनाथ ॥ १७४. नमो अरिहंताणं जाय संपत्ताणं लग जाणं । वां नमस्कार करि सोय, ए पिण द्रव्य मंगलीक सुजोय ॥ १७५. जिहां सिद्धायतन नों जाणी, बहु मझ देश भाग पिछाणी । तिहां आवै आवी नें, मोरपिच्छ नीं पूंजणी ग्रही नैं ।। १७६. सिद्धायतन न जे बहु मध्य देश भाग प्रतेह | मयूरपिच्छ करी पूजेह, दिव्य उदक-पारा सींचेह' ॥ १७७. आला गोशीर्ष चंदन करेह, पंचांगुलि करि हाथा देह । मंडल प्रति आलिये ए पि राज नी रीत करेह ॥ १७८. पछे केश में दृष्टांतेह जाव पुण विखेरेह । फूल-फगर सहित करे, धूप दिये देई ने तेह ॥ १७९. जिहां सिद्धायतन नो विचार, दक्षिण नों द्वार । तिहां आवै आवी नें, मयूर पिच्छ नीं पूंजणी ग्रही नें ॥ १. इन गाथाओं में पाठ की तुलना में जोड़ अधिक है। जिस पाठ के आधार पर यह अतिरिक्त जोड़ की गई है वह 'रायपसेणइयं' में पाठान्तर के रूप में स्वीकृत है । जयाचार्य के प्राप्त आदर्श में यह पाठ मूल में रहा होगा । २. प्रकर समूह ३६० भगवती-जोड़ तं जहा- सोत्थियं जाव (सं० पा० ) दप्पणं । ( राय० सू० २६१ ) अच्छो रसोदेषु अतिनिर्मला इत्यर्थः (राय० ० प० २५५) १६५. तयानंतरं च णं चंदप्पभ - वइर वे रुलिय- विमलदंड (राव० सू० २९२) १६६. कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागरुपवर (राय० सू० २९२) १६७. कुंवरुन धूमघमत (राय० सू० २१२) १६८. गंधुत्तमाणुविद्ध' च धूवर्वाट्ट विणिम्यं तं १६. (राय० सू० २९२ ) पहिय पत्ते धूर्व दालन जिणवराणं (राय० सू० २८२) १७०,१७१. असगंधत्ते यह अपुरुतेहि महावितेहि संधुवाइ (राय० सू० २१२) विशुद्ध-निर्मतो लक्षणदोषरहितः बर्चयुक्त:अर्थसारं पुनरुक्तैर्महावृत्तैः, तथाविधदेवलब्धिप्रभावः (राम० वृ० प० २५५ ) १७२. सत्तट्ठपयाई पच्चीसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता ( पा० टि० १२) वामं जाणुं अंचेइ, अंचित्ता दाहिणं जाणं धरणीतलंस निदुतिस्तो मुद्वाणं धरणितसि निवाडेड ( राय० सू० २६२ ) १७३. ईसि पन्चुम्बन पमित्ता करमलपरिग्नहि सिरसावत्त' मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी(राय० सू० २६२ ) १७४. नमोत्थूण अरहंताणं संपत्ताणं वंदइ नमसइ (राय० सू० २९२ ) १७५,१७६. सावतपस्स बहुमन्सदेसभाए तेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ (राय० सू० २२२) १७७. सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलं दलयइ, मंडलगं आलिहइ ( पा० टि० २ ) (राप० सू० २९३) १७. कम्पग जाव (सं० पा० ) जोवयरकनिर्म करे करेशा धूर्व दलपद (राय० सू० २९३ ) सिद्धायणस्स वाहिणिले तेथे दारेउवागच्छति, उवागच्छित्ता लोमहत्यगं परामुसइ, परामुसित्ता (राय० सू० २९४) १७. Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०. बार शाखा जे अनूप, वली पूतलिया नां रूप। वली रूप सर्प नां तेह, मयूर पिच्छ करी पूंजेह ॥ १८१. दिव्य उदक धारा सींचेह, सरस गोशीर्ष चंदन चर्चेह । फूल चढावे ताय, जाव आभरण गेहणा चढाय ।। १८२. मांडी बार शाखा थी जेह, नीचली भूमि लगेह । बांधे लंबायमान पुष्पमाला, जाव धूप दिये सुविशाला ।। १८३. जिहां दक्षिण द्वार नों देख, मुख मंडप छै सुविशेख । जिहां दक्षिण नां मुख मंडप नों चंग, बहु मझ देश भाग सुरंग ॥ १८४. तिहां आवै आवी नै, मोर पिच्छ नी पूंजणी ग्रही नैं। बहु मज्झ देश भाग प्रतेह, मयूर पिच्छ करी पूंजेह ।। १८५. दिव्य उदक धारा सींचेह, आले गोशीर्ष चंदन करेह ।। पंचांगुलि तल हाथा देह, वलि मंडल प्रति आलिखेह । १५०. दारचेडाओ य सालभंजियाओ य वालरूवए ये लोमहत्थएणं पमज्जइ (राय० वृ० प० २६०) दारचेडाओ-द्वारशाखे (रायः सू० २६४) १८१. दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, दलइत्ता पुष्फारुहणं जाव आभरणारुहणं करेइ। (राय० सू० २६४) १८२. आसत्तोसत्तविउल-बट्ट-वग्घारिय-मल्ल-दाम-कलावं करेइ, जाव (सं० पा०) धूवं दलयइ । (राय० सू० २६४) १८३. जेणेव दाहिणिल्ले दारे मुहमंडवे जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए (राय० सू० २६५) १८४. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परा मुसइ, परामुसित्ता बहुमज्झदेसभाग लोमहत्थेणं पमज्जइ, (राय० सू० २६५) १८५. दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलं मंडागं आलिहइ (राय० सू० २६५) १८६. कयग्गह-गहिय जाव (सं० पा०) धूवं दलयइ। (राय० सू० २६५) १८७. जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स पच्चत्थिभिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामुसइ, परामुसित्ता (रायः सू० २६६) १८८. दारचेडाओ य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थेणं पमज्जइ, (राय० सू० २६६) १८६. दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, दलयित्ता पुप्फारुहणं जाव आभरणारुहणं करेइ। (राय० सू० २६६) १६०. आसत्तोसत्त जाव (सं० पा०) धूवं दलयइ । (राय० सू० २९६) १८६. केश ग्रही छोड़े दृष्टंत, फूल-फगर करै धर खंत । जावत धूप उखेव, त्यां लग पाठ कहेव ।। १८७. जिहां दक्षिण नां मुख मंडप नों विचार, पश्चिम नों छै द्वार। तिहां आवै आवी ने, मयूरपिच्छ नी पूंजणी ग्रही नैं । १८८. बार शाखा जे अनूप, वली पुतलिया नां रूप । वली रूप सर्प नां तेह, मयूरपिच्छ करि पूंजेह ।। १८९. दिव्य उदक धारा सींचेह, सरस गोशीर्ष चंदन चर्चेह । फल चढावै ताय, जाव आभरण गेहणा चढाय ।। १९०. मांडो बार-शाखा थी जेह, नीचली भूम लगेह । बांधै लंबायमान पुष्पमाला, जाव धूप दियै सुविशाला ॥ ___ *ए स्वर्ग-स्थिति कोइ विरला ही जाण ॥ १६१. जिहां दक्षिण नां मुख मंडप नै, उत्तर नां थांभा नी पंती। तिहां आवै आवी मयूरपिच्छ नी, पूंजणी ग्रहै शोभंती॥ १९२. थंभ अ. वलि पूतलियां नैं, सर्प नां रूप प्रतेह। मयूरपिच्छ नी पूंजणी करने, पूंजै पूंजी तेह ।। १६३. तिमहिज जिम कह्य, पश्चिम दिशिनां द्वार तणी पर जाणी। जावत धूप उखेवै सुरपति, त्यां लग पाठ पिछाणी ॥ १९४. जिहां दक्षिण नां मुख मंडप में, पूर्व दिशि ने द्वार। तिहां आवै आवी मयूर पिच्छ नी, पूंजणी ग्रहै तिहवार ।। १६१. जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंड वस्स उत्तरिल्ला खंभपंती तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थं परामुसइ, (राय० सू० २६७) १६२. खंभे य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थ एणं पमज्जइ, पमज्जित्ता (राय. सू० २६७) १६३. जहा चेव पच्चथिमिल्लस्स दारस्स जाव धूवं दलयइ, (राय० सू० २६७) १९४. जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडबस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामुसति, (राय० सू० २६८) *लय : पर नारी नो संग न कीज २०१०, उ० ६. ढाल २२४ ३६१ Jain Education Intemational Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ बार शाखा पुतलिया पन्नग, पूंजे जल सीचे चंदन चर्चे ११६. जिहां दक्षिण नां मुख मंडप ने तिहां आये आवी द्वारशाखा में वा० - इहां दक्षिण दिशि नां मुख मंडप नै तीन द्वारहीज छं, ते मा तीन द्वारहीज पूजे। अने उत्तर दिशि थांभा नीं पंक्ति पूजै । हिवं दक्षिण नां मुख मंडप न द्वारे करी नीकली प्रेक्षा गृह मंडपे आवै, पूजे ते अधिकार कहै छं २००. दिव्य उदक धारा कर सींचं वली पुष्पादिक प्रतै चढ़ावे, *ओ तो इन्द्र अभिषेक सधीको रे, कीधै सुरपति नीको । ओ तो करे द्रव्य मंगलीको रे, ते कारज लोकीको ।। (भुपदं ) १६७. जिहां दक्षिण नों प्रेक्षा घर मंडप, प्रेक्षा घर मंडप नो जेह । वह मज्झ देश भाग जिहां बं, तिहां अवसाद कहेह || १८. ते अखाड़ो अर्थ वज्रमय, जिहां मणिपीठिका तायो । जिहां सहासण छ तिहां आवै, आवी ने सुररायो । ११९. मोरपिन्छ नीं पंजणी ग्रही ने वच अखाड़ प्रतेहो । मणिपीठिका सिहासन प्रति मयूरपिच्छे पंजेहो । गोशीर्ष चंदन वर्षहो । संसारिक खाते हो । २०२. जिहां दक्षिण नां प्रेक्षा घर तिमहिज कहिवो पूरववत जे " तिमहिज सर्व कहेह । पूरववत सहु जेह ॥ २०१. ऊपर थी मांडी महितल लग, जावत धूप उसे गुरपति, २०३. उत्तर दिशि थांभा नीं पूर्व द्वारे आवी तिमहिज दक्षिण दिशि ने द्वार तिमहिज सर्व विचार || *लय : ए तो जिन मार्ग नां राजा ३६२ भगवती जोड़ माला प्रति बांधेहो । पाठ इहां लग जेहो । मंडप ने पश्चिम द्वारे | द्वार - शाखादि प्रकारे ॥ २०४. दक्षिण नों के द्वार तिहां पिण, द्वार शाखा ने पुतलियां फुन, पंक्ति, पूरववत पूजेहो । द्वार-शासादि विषेो ॥ तिमहिज कहिवूं जेहो । पन्नग रूप अहो || वा० - 'दक्षिण नां प्रेक्षा- घर - मंडप ने घणी परतों में पश्चिम पूर्व द्वार देख्या । किणही परत में पश्चिम, पूर्व, दक्षिण द्वार देख्या, पिण उत्तर दिशे थंभा नीं पंक्ति नों पाठ नथी देख्यूं । पिण इहां तीन द्वार ने उत्तर दिशे थंभ-पंक्ति जणाय छँ । जे दक्षिण नां मुख मंडप ने पश्चिम पूर्व दक्षिण द्वार कह्या । अनें उत्तर थंभ नीं पंक्ति कही तिम इहां प्रेक्षा घर मंडप नै विषे तीन द्वार ने उत्तर दिशे थंभ - पंक्ति संभवं । बलि आगल उत्तर ने प्रेक्षा घर मंडपे दक्षिण दिशे थंभ-पंक्ति पाठ में कही छँ । तिम इहां दक्षिण नं प्रेक्षा घर-मंडपे उत्तर दिशे थंभ पंक्ति संभव | १६५. दारचेडाओ य सालभंजियाओ य वालरूवए ये लोमहत्थेणं पमज्जइ पमज्जित्ता तं चैव सव्वं । (राय० ० २१०) १६. जेणेव वाहिगिलस्य मूहमध्यस्त दाहिणिले दारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दारचेडाओ य.... तं चैव सव्वं । (राम० ० २६९ ) ११७,१२८. जेणेव दागिने पेच्छापर-मंडने जे दाहि तिस-पेपर-मंडवस्त बहुमतसभागे जेव इम अक्खा जेणेव मणिवेढिया जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता (राय० सू० ३०० ) १६६. लोमहत्थगं परामुसइ, परामुसित्ता अक्खाडगं च मणिपेयिं च सीहाणं च लोमहत्व एवं मजद (राव० सू ३००) २००. दिखाए दनधाराए अन्मुखे भूस्खेत्ता सरमेगं गोसीस चंदणेणं चच्चए दलयइ, दलयित्ता पुप्फारुहणं .........करेइ (राय० सू० ३००) २०१. आससोबत बिलवारियमस्यामकलाब करेइ जाव (सं० पा० ) धूवं दलयइ । (राय० सू० ३००) २०२. जेणेव दाहिणिल्लस्स पेच्छाघर - मंडवस्स पच्चत्थि - मिल्ले दारेतं चेव । २०३. [उत्तरिना खंभपंती ? ] पुरथिमिल्ले दारे तेणेव तं चेव २०४. जेवदाहिलास दारे तेणेव उवागच्छइ, J (राप० सू० ३०१) तं चेव । जेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ( राय० सू० ३०२, ३०३ ) छर-मंडवस्स दाहिणिले उवागच्छित्ता तं चेव । ( राय० सू० ३०४ ) Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वली वृत्तिकार पिण उत्तर में प्रेक्षा-घर-मंडपे दक्षिण दिशे थंभ पंक्ति कही। अने पूर्व नै प्रेक्षा-घर-मंडप ने तीन दिशि द्वार ने पश्चिम दिशे थंभ पंक्ति कही। ते माट इहां दक्षिण में प्रेक्षा-घर-मंडपे पिण तीन दिश द्वार ने उत्तर दिश थंभपंक्ति संभवै । वली इहां सूत्रे हीज प्रथम अधिकार क ह्यो, तिहां सुधर्मा सभा नां तीन द्वार कह्या । अनै मुखमंडप ने सभा नी भलावण दीधी । अन प्रेक्षा-धर मंडप नै मुख-मंडप नी भोलावण दीधी। इण न्याय पिण मुखमंडप प्रेक्षा-घर-मंडप नां पिण तीन दिशे तीन-तीन द्वार अनें एक दिशे थांभा नी पंक्ति हुवै ।' (ज०स०) हिवं दक्षिण नां प्रेक्षा-घर-मंडप ने दक्षिण द्वारे करि नीकली चैत्य थूभ आवी पूजे तेहनो अधिकार कहै छ२०५. जिहां दक्षिण नां चैत्य थूभ छै, त्यां सुरपति आवेहो । थूभ अनें फुन मणिपीठिका, पूंजै जल सींचेहो।। वा०-इहां मणिपीठिका ऊपर चैत्य थूभ छ ते माट बिहुं ने पूंज। २०६. आले गोशीर्ष चंदन करि, दिये छाटणा तासं । फूल चढ़ावै माला बांध, जाव धूप दै जासं ॥ २०७. जिहां पश्चिम नों मणिपीठिका, जिहां पश्चिम नी तामो। जिन प्रतिमा त्यां आवै आवी, देखी कर प्रणामो। २०८. जिम सिद्धायतने जिन प्रतिमा, पूजी कही तिवारो। तिमहिज इहां जिन प्रतिमा, पूजे जाव करी नमस्कारो।। २०६. जिहां उत्तर नीं जिन-प्रतिमा छ, तिमहिज सर्व कहोजे । जिम सिद्धायतने कहि पूजा, तेम इहां पभणीजै ।। २१०. जिहां पूर्व दिश मणिपीठिका, ज्यां पूर्व दिशि पेखो। जिन-प्रतिमा तिहां आवै आवी, तिमहिज पाठ अशेखो !। २०५. जेणेब दाहिणिल्ले चेइयथूभे तेणेव उवागच्छ इ. ..... थूभं च मणिपेढियं च लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ । (राय० सू० ३०५) २०६. सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, दलयित्तापुप्फारुणं जाव (सं० पा०) धूवं दलयइ। (राय० सू० ३०५) उदकधारयाऽभ्यूक्ष्य (व०प० २६१) २०७. जेणेव पच्चथिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव पच्चस्थि मिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिणपडिमाए आलोए पणामं करेइ । (राय० सू० ३०६) २०८. (जहा जिणपडिमाणं तहेव जाव नमंसित्ता सू० २६१,२६२) २०६. ... जेणेव उत्तरिल्ला जिणपडिमा....."तं चेव सव्वं । (राय० सू० ३०७) २१०. जेणेव पुरथिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव पुरत्थि मिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं चेव । (राय० सू० ३०८) २११. जेणेव दाहिणिल्ला मणिपढिया जेणेव दाहिणिल्ला जिणपडिमा........"तं चेव सव्वं । (राय० सू० ३०६) २१२. जेणेव दाहिणिल्ले चेइय-रुक्खे तेणेव उवागच्छइ..." लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता तं चैव (राय० सू० ३१०) २१३. जेणेव दाहिणिल्ले महिंदज्झए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता....."लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता तं चेव सव्वं । (राय० सू० ३११) २१४. जेणेव दाहिणिल्ला नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामुसति, परामुसित्ता (राय० सू० ३१२) २१५. तोरणे य तिसोवाणपडिरूबए य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिब्बाए दगधाराए अब्भुक्खेइ, (राय० सू० ३१२) २११. पछै दक्षिण नीं मणिपीठिका, फुन दक्षिण नी जेहो। जिन प्रतिमा पूजै पूरववत, सगला पाठ कहेहो।। २१२. जिहां दक्षिण नों चैत्य रूंख छै, तिहां आवी सुररायो। तिमहिज पूंजै जल सूं सींच, इत्यादिक कहिवायो ।। २१३. जिहां दक्षिण नी महेन्द्र ध्वजा छै, तिहां आवी ने ताह्यो। तिमहिज पूंजै जल सं सींचे, चंदनादि विधि वायो ।। २१४. दक्षिण नी नंदा पुक्खरणी, त्यां आवै आवी नैं। मोरपिच्छ नी जेह पूंजणी, ते प्रतै ग्रहै ग्रही नैं ।। २१५. तोरण पावड़िया पूतलिया, सर्प रूप न हो। मयूरपिच्छ करि पूंजै पूंजी, जलधारा सींचेहो।। श०१०, उ०६, ढा०२२४ ३६३ Jain Education Intemational Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६. सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, दलयित्ता पुप्फारुहणं जाव धूवं दलयति । (राय० सू० ३१२) २१७. सिद्धायतणं अणुपयाहिणीकरेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला णंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति (राय० सू० ३१३) २१६. आले गोशीर्ष चंदन करि, तास छांटणां देहो। फूल चढावै माला बांध, वली धूप खेवेहो ।। वा०-ए सिद्धायतन ने दक्षिण नै विषे दक्षिण द्वार मुख-मंडप, प्रेक्षागृहमंडप, चैत्य-थूभ, जिन-प्रतिमा, चैत्य-रूंख, महेंद्र-ध्वज, नंदा-पुष्करणी–ए सर्व दक्षिण दिशे छ । तेहनी पूजा करीन हिवै प्रथम जे सिद्धायतन कह्य छ, तिहां आवी तेहनें प्रदक्षिणा देई उत्तर दिशे मुखमंडपादिक जे छ, तेहनें पूजे । ते अधिकार कहै छ२१७. प्रदक्षिणा सिद्धायतन प्रति, करतो शक्र जिवारै। जिहां उत्तर नी नंदा पुक्खरिणी, आवै तिहां तिवारै ।। वा०-सिद्धायतन में प्रदक्षिणा करतो उत्तर दिशे जिहां छेहड़े नंदा पोक्खरणी छ, तिहां आयो। २१८. तिमहिज सर्व काय पूजा ते, मयूरपिच्छ पूंजेहो । उदक सींचवै चंदन चर्चे, कार्य इत्यादि करेहो ।। २१६. जिहां उत्तर नी महेन्द्र ध्वजा छ, तिहां शक्र आवेह । तिमहिज पूंजै जल सींचे, पूवरवत अर्चेह ।। २२०. जिहां उत्तर नों चैत्य रूंख छ, तिहां आवै आवी नैं । तिमहिज पूजे जल सं सींचे, कार्य इत्यादि करीनै । २२१. जिहां उत्तर नों चैत्य थूभ छ, तिहां आवै धर खंतो। तिमहिज पूंज जल सं सींचे, कार्य इत्यादि करंतो।। २२२. जिहां पश्चिम नी मणिपीठिका, जिहां पश्चिम नी जेहो । जिन प्रतिमा त्यां आवै आवी पूजा तिमज करेहो ।। २१८. तं चेव । (राय० सू० ३१३) २२३. जिहां उत्तर नी जिन-प्रतिमा छै, त्यां आवै आवी में। तिमहिज पूजा सगली जाणो, अर्चा सर्व करीने । २२४. ज्यां पूरव नी जिन-प्रतिमा छ, तिमहिज अर्चा जाणं । ज्यां दक्षिण नीं जिन-प्रतिमा छ, पूजा तिमज पिछाणं ।। २१६. जेणेव उत्तरिल्ले महिंदज्झए तेणेव उवागच छइ, उवागच्छित्ता। (राय० सू० ३१४) २२०. जेणेव उत्तरिल्ले चेइयरुक्खे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता। (राय० सू० ३१५) २२१. जेणेव उत्तरिल्ले चेइयथूभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता (राय० सू० ३१६) २२२. जेणेव पच्चथिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव पच्चत्थि मिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उबागच्छित्ता तं चेव । (राय० सू० ३१७) २२३.... जेणेव उत्तरिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं चेव । (राय० सू० ३१८) २२४. जेणेव पुरथिमिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जेणेव दाहिणिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता तं चेव। (राय० सू० ३१६,३२०) २२५. जेणेव उत्तरिल्ले पेच्छाघर-मंडवे "" (सू० ३००) तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता (राय० सू० ३२१) २२६. जा चेव दाहिणिल्ले वत्तव्वया सा चेव सव्वा । (राय० सू० ३२१) २२५. जिहां उत्तर नों प्रेक्षा घर मंडप छै महासुखदायो। तिहां शक्र सुर इन्द्र सुराधिप, आवै आवी ताह्यो ।। २२६. वक्तव्यता जे कही दक्षिण नी, तेहिज सर्व विचारं । पूरव ने द्वारे पिण कहिवी, वलि उत्तर में द्वारं ।। वा०-इहां घणी परतां देखी। तिहां पश्चिम ना द्वार नों अधिकार नथी कह्यो, पिण संभवियै छ२२७. दक्षिण खंभ पंक्ति फून पूज, उत्तर प्रेक्षा गेहो। जिम दक्षिण प्रेक्षा-गृह उत्तर खंभ पंक्ति तिम एहो ।। २२७. जेणेव उत्तरिल्लस्स पेच्छाघर-मंडवस्स दाहिणिल्ला खंभपंती तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता (राय० सू० ३२५) १. जोड़ जिस प्रति के आधार पर की गई है उसमें पश्चिम द्वार का उल्लेख नहीं मिला। जयाचार्य ने यह संभावना प्रकट की है कि पश्चिम द्वार का वर्णन भी होना चाहिए । जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित 'रायपसेणइयं' में ऐसा पाठ है। (देखें सू० ३२२) ३६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा०—जिम दक्षिण प्रेक्षा गृह मंडपे पश्चिम पूर्व दक्षिण द्वार पूज्या अनें उत्तर दिशे खंभ-पंक्ति पूजी । तिम इहां उत्तर प्रेक्षा-गृह-मंडपे पश्चिम उत्तर पूर्व द्वार पूज्या अने दक्षिण खंभ-पंक्ति पूजी । जे दक्षिण प्रेक्षा-गृह-मंडप नै विषे तो उत्तर दिशे खंभ-पक्ति छ अनै बाकी तीन दिशे द्वार छ। अने उत्तर प्रेक्षा-गृहमंडप नै विषे दक्षिण दिशे खंभ-पंक्ति छ अनं अनेरी दिशे द्वार छै, ते माट । २२८. जिहां उत्तर नों मुखमंडप छै, वली जिहां छै जेहो। उत्तर नां मुख-मंडप में बहु मध्य देश भागेहो ।। २२६. जिम दक्षिण मुखमंडप नां, बहु मध्य देश भागेहो। पूजा नी विधि आखी तिमहिज, सगली इहां कहेहो।। २३०. जिहां पश्चिम मैं द्वार तिहां आवी, फुन उत्तर - द्वारो। पूर्व द्वार दक्षिण खंभ पंक्ति, तिमहिज कहिy सारो ।। २२८,२२६. जेणेव उत्तरिल्लस्स दारे मुहमंडवे जेणेव उत्तरिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता। (राय० सू० ३२६) २३०. जेणेव""पच्चथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता। जेणेव""उत्तरिल्ले दारे। जेणेव पुरथिमिल्ले दारे... । जेणेव''''दाहिणिल्ला खंभपंती तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता। (राय० सू० ३२७-३३०) २३१. जेणेव सिद्धायतणस्स उत्तरिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं चेव । (राय० सू० ३३१) २३१. आवी जिहां सिद्धायतन नां, उत्तर द्वार विहो। पूरवली पर अर्चा करि, हिव पूर्व द्वार आवेहो । वा०–इहां सिद्धायतन थकी उत्तर दिशे छेहड़े नंदा-पुष्करणी छ, तेहनी प्रथम पूजा करी। महेन्द्र-ध्वज, चैत्य-थूभ, जिन-प्रतिमा, प्रेक्षा-घर-मंडपे, सिद्धायतन ने उत्तर द्वारे इम पश्चानुपूर्वी पूजा करतो आयो । हिवै सिद्धायतन ना पूर्व द्वार पूर्व मुख-मंडप जाव पूर्व नंदा-पुष्करणी इम पूर्वानुपूर्वी स्यूं पूज, तेहनों अधिकार कहै छ२३२. जिहां सिद्धायतन नों पूरव-द्वार तिहां चल आवै । तिमहिज पूजै जल सं सींचे, दक्षिण द्वार तिम भावै ।। २३३. जिहां पूर्व नो मुख-मंडप छै, जिहां पूर्व नों जेहो। मुख मंडप नां बहु मज्झ देशज भाग तिमज कहेहो ।। २३२. जेणेव सिद्धायतणस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छ इ, उवागच्छित्ता। (राय० सू० ३३२) २३३. जेणे पुरथिमिल्ले दारे मुहमंडवे जेणेव पुरत्थि मिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभागे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता। (राय० सू० ३३३) २३४. जेणेव पुरथिमिल्लस्स मुहमंडवस्स दाहिणिल्ले दारे पच्चत्यिमिल्ला खंभपंती उत्तरिल्ले दारे तं चेव । (पा० टि०६ पृ १५४) २३५. पुरथिमिल्ले दारे तं चेव ।(पा० टि० ६ पृ० १५४) २३४. पूर्व दिशि नां मखमंडप ने, दक्षिण द्वार विचारं। पश्चिम दिशि थांभा नी पंक्ति, तिमहिज उत्तर द्वारं ।। २३५. पूर्व द्वार विषे पिण पूजा, तिमहिज करने तामी। जिहां पूर्व प्रेक्षा घर मंडप, आवं सुरपति आमो॥ वा० -पूर्व प्रेक्षा घर मंडप ने बहु मध्य देश भाग पूजी, पश्चिम थंभपंक्ति पूजी, उत्तर द्वारे पूर्व द्वारे पिण तिमज पूजा जाणवी। जिम दक्षिण मुख मंडप नों बहु मध्य देश पूज्यो, पश्चिम द्वार पूज्यो, उत्तर थंभ-पंक्ति पूजी, पूर्व द्वार पूज्यो, उत्तर द्वार पूज्यो, तिम इहां पूजा जाणवी । २३६. एवं थूभ अनैं जिन-प्रतिमा, चैत्य रूंख फुन जेहो। महिंद्र ध्वजा नै नन्दा पुष्करणी, तिमज जाव धूपेहो । वा०-सिद्धायतन नै विषे जिन-प्रतिमा पूजी, नमोत्थुणं गुणी नमस्कार कियो । तठा पछली वारता वृत्ति थकी लिखिय छै -- अत: ऊवं सूत्रं सुगम, केवल घणी विध विषय प्रत वाचना भेद, इति यथावस्थित वाचना देखाड़िवा नै अर्थे विधि मात्र देखाविय छ-तिवारे पछ देवच्छंदक प्रत पूज, जल-धारा करी सींचे, तिवार पर्छ चंदन करी पंचांगुली हाथा दिय, प? फूल चढावादिक, धूप दहन २३६. एवं थूभे जिणपडिमाओ चेयरुक्खा महिंदज्झया नंदापुक्खरिणी तं चेव जाव धूवं दलइ । (पा० टि० १० पृ० १५४) श०१०, उ०६, ढाल २२४ ३६५ Jain Education Intemational Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर सिद्धायतन नां बहु मध्य देश भाग नै विष पूंजणी करी पूंजी, उदक-धारा सींच, चंदन करी पंचांगुली हाथा दिय, पुष्पपुंज उपचार, धूप-दान करें। तिवार पछै सिद्धायतन नां दक्षिण द्वार विषे आवी पूंजणी ग्रही ने तिण पूंजणी करिक द्वार-शाखा, पूतल्या अन सर्प ना रूप प्रत पूज। तिवार पछै उदकधारा सींचे, गोशीर्ष चंदन चर्च, पुष्पादि चढाव, धूप देव ।। तिवार पछै दक्षिण द्वारे करि नीकली ने दक्षिण नां मुख-मंडप ने बहु मध्य देश भाग विषे पूंजणी करी पूंजी ने उदक-धारा सींचे,चंदन करि पंचांगुली हाथा दिय, पुष्प-पुंज उपचार, धूप-दान करें, करिने पश्चिम द्वारे आवी ने पूर्ववत पूजा कर। उत्तर दिशे थंभपंक्ति पूजे । पछै पूर्वे द्वारे आवी दक्षिण द्वार नी पर पूजा करै । पर्छ दक्षिण द्वारे तिमहिज पूजा करै । तिण द्वार करी नीकली प्रेक्षा गृह मंडप ने बहु मध्य देश भागे आवी ने आषाढक, मणिपीठिका अने सिंहासन प्रतै पूंजणी करी पूंजी, उदक-धारा सींच, चंदन-चर्चा, पुष्प-पूजा, धूप-दान करी तेहिज प्रेक्षागृह-मंडप नै अनुक्रम करिकै पश्चिम द्वार उत्तर थंभ-पंक्ति पूर्व दक्षिण द्वार नी अर्चा करीने दक्षिण द्वार करि नीकली नै चैत्य थूभ अनै मणिपीठिका प्रत पूंजणी करी पूंजी उदक-धारा सींचे, सरस गोशीर्ष चंदने करी पंचांगुली हाथा देइन अने पुष्पादिक चढावी नै धूप देव । तिवार पछै जिहां पश्चिम दिशि नीं मणिपीठिका तिहां आवै । तिहां आवी ने जिन-प्रतिमा देखी नै प्रणाम करै, करीने पूंजणी करी पूंज, सुगंध जले करी स्नान करावं, सरस गोशीर्ष चंदन करी गात्र लीप, देवदूष्य युगल पहिराव, पुष्पादिक चढावै, प्रतिमा आगे पुष्प-पुंज उपचार, धूप दिये, दिव्य तंदुले करी आठ मंगलीक आलेख, एकसौ आठ छंद करिक स्तुति कर, प्रणिपात दंडक पाठ करिनं वांद, नमस्कार कर, तेहिज अनुक्रम करिक उत्तर पूर्व दक्षिण प्रतिमा नी पिण अर्चनिका करीनै दक्षिण द्वारे करी नीकली - दक्षिण दिशि नै विषे जिहां चैत्य वृक्ष छ, तिहां आवी नै चैत्य वृक्ष नी द्वार नी पर अर्चनिका करै। तिवार पछ महेंद्र ध्वजा नी, तिवार पछै जिहां दक्षिण दिशि नी नंदा पुष्करणी, तिहां आवै । आवी ने तोरण पावड़िया ने विषे रही शालभंजिका अने सर्प ना बहु रूप में पूजणी करी पूंज, उदक-धारा सींच, चंदन-चर्चा पुष्पादि चढाव धूप दान करिनै सिद्धायतन न प्रदक्षिणा करीने उत्तर दिशे नंदा पुष्करणी ने विषे आवी ने पूर्वली पर तेहनी अर्चा कर। तिवार पछै उत्तर नां चैत्य वृक्ष विषे, तिवार पछै उत्तर नां चैत्य थूभ ने, तिवार पर्छ पश्चिम उत्तर पूर्व दक्षिण जिन प्रतिमा नी पूर्वली पर पूजा करीनै उत्तरा नां प्रेक्षा-गृह-मंडप विषे आवै। तिहां दक्षिण नां प्रेक्षा-गृह-मंडप नी पर सर्व वक्तव्यता कहिणी। तिवार पछ दक्षिण स्तंभ पंक्ति करिके नीकली ने उत्तर में मुख मंडपे आवै । तिहां पिण दक्षिण नां मुख मंडप नी पर सर्व पश्चिम उत्तर पूर्व द्वार विषे अनुक्रम करिके पूजा करीने दक्षिण स्तंभ पंक्ति करिक नीकली नै सिद्धायतन में उत्तर द्वारे आवी ने पूर्ववत अर्चा करीने पूर्व द्वारे आवै । तिहां पिण अर्चा पूर्ववत करीने पूर्व नां मुख-मंडप में दक्षिण द्वार पश्चिम थंभ-पंक्ति उत्तर पूर्व द्वार ने विषे अनुक्रम करिके पूर्व कही तिम पूजा करीने पूर्व द्वारे करी वलि अनुक्रम करिक नीकली नै प्रेक्षा-घर-मंडप नै विषे आवै । पूर्ववत मध्य भाग दक्षिण द्वार पश्चिम थंभ पंक्ति उत्तर पूर्व द्वारे पूर्ववत पूजा करै । तिवारै पछ पूर्व प्रकार करि केहीज अनुक्रम करिक चैत्य-धूभ, जिन-प्रतिमा, ३६६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्य-वृक्ष, महेंद्र-ध्वज, नंदा पुष्करणी ने पूजे, तिवार पछे सुधर्मा सभा ने विषे पूर्व द्वार करिकै प्रवेश करें । ए रायपश्रेणी नीं वृत्ति में का तिमलिख्युं । * शक्र सुरेन्द्र सधीको ओ तो करें द्रव्य मंगलीको जी, कारज छै ए लोकीको जी । ओ तो सुरनायक जश टीको जी, शक्र सुरेन्द्र सधीको जी || ( ध्रुपदं ) २३७ जिहां सभा सुधर्मा ताह्यो, तिहां आवै शक्र सुररायोजी । सुधर्मा सभा नें विशेषे पूर्व द्वारे करि पेसे जी ॥ 1 चैत्य भ अभिरामो गोल वृत्त डाबडा ताह्यो । पिच्छ पूंजणी ग्रहीन । गोल वृत्त डाबा वज्र मांह्यो, पूंजणीइं पूंज ताह्यो । २४०. गोल वृत्त डावा व मांह्यो, सुरराव उपाई जिन नी दादा प्रति तेहो, पूजणी करी ताह्यो । पूजेहो । २३. जिहां माणवक इह नामो जिहां वज्र रत्न रै मांह्यो, २३६. तिहां आवै आवी नैं, मयूर २४१. पूंजी में वलि हि काले, सुगंध जल करीनें पखाले । मुख्य प्रवर गंध माल्य कर, दादा प्रति पूजे सुरवर ।। २४२. धूप खेवी दाढा नैं ताह्यो, घालै ते खंभ चैत्य माणवक जासो, पूंजणीइं डाबा मांह्यो । पूंजे तासो ॥ २४३. दिव्य जल धारा करि जेहो, आभोर्स सींच तेहो आले गोशीपं चंदण कर चर्चे छोटा दे सुखर ।। २४४, पुष्पादि चढाव इंदो जावत दं धूप सुरिदो फुन जिहां सिंहासण जाणी, पूजा तिमहिज पहिछाणी ॥ २४५. सुर सेज्या आवी सुरवर, पूजा वे द्वार तणी पर जिहां क्षुल्लक महिंद्र ध्वज आयो, ध्वज ज्यू पूजे सुररायो । २४६. जिहां प्रहरण कोश चोप्फालं, लोमहस्त पुंजणी ग्रही ने, २४७. दिव्य जल धारा करि जोड, तिहां आवं आयुधशालं । आयुधशाला पूंजी ने ॥ आभो सींचे सोइ। गोशीर्ष सरस चंदन कर दिये छांटणा सुरवर ।। २४८. पुष्पादि चढावे सारो, जावत दे धूप उदारो । जिहां सभा सुधर्मा केरो, बहु मध्य देश भाग सुमेरो ॥ २४१. जिहां मणिपीठिका आधी, जिहां सुर संख्या अति जाची। तिहां आय पूंजणी ग्रही नें, ते उभय प्रतं पूंजी नैं ॥ *लय : चरित्र निर्मल पालीजे जी १. गाथा २४६ की जोड़ जिस पाठ के आधार पर की गई है वह पाठ ( वृ० प० २६५) में मिलता है किन्तु यहां जीवाभिगम (प्रतिपत्ति ३) के विवरणानुसार पाठ स्वीकृत किया है। इसलिए 'मणिपेढ़िया' और 'देवसयणिज्ज' की जोड़ के सामने कोई पाठ उद्धृत नहीं किया गया है । २३७. जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सभं सुहम्मं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ । (राय० सू० १५१ ) २३८. जेणेव माणवए चेइयखंभे जेणेव वइरामया गोलवट्टसमुग्गा । ( राय० सू० ३५१ ) २३९. तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामुसइ । (राय० सू ३५१) २४०. वइराम गोलबसाए लोमहत्येनं मन्द ममता व रामए गोवाए बिहा विहाता जिसकायो लोमहत्ये पमम्न | (राय० सू० ३५१) २४१. पति सुरभिगा गंधोदणं पक्खालेद, पतालेत्ता अग्गेहि वरेहिं गधेहिं य मल्लेहिं य अच्चेइ । (राय० सू० ३५१ ) दलपित्ता जिसका २४२. अच्चेत्ता धूवं दलयइ, बदरामएस गोलबसम्म खंभं लोमहत्यएणं पमज्जइ । २४३. दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ, गोसीमचंदणेणं चच्चए दलयइ । २४४. पुप्फारुणं जाव धूवं दलयइ । ...... जेणेव सीहासणे..." २४५. जेणेव देवसयणिज्जे .... । मागद दव(राय० सू० ३५१) अब्भुक्खेत्ता सरसेणं (राय० सू० ३५१ ) (राय० सू० ३५१ ) ( राय० सू० ३५२ ) जेणेव खुड्डागम हिंदज्झए ''तं चैव । (राम० सू० १५३,३५४ ) २४६. जेणेव पहरणकोसे चोप्पालए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामुसइ, परामुसित्ता' ( राय० सू० ३५५ ) २४७. दिव्या दगधाराए अनखेड, अब्भुवसेत्ता सर गोसीसचंद चच्चएप ( राय० सू० ३५५ ) २४. पुजा (सं० पा०) धूर्व दलपद । (राय० सू० ३५५) जेणेव सभाए सुम्याए बहुमजादेभाए। (राम० सू० ३५६ ) श० १०, उ० ६ ढाल २२४ ३६५ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०. जाव धूवं दलयइ। (राय० सू० ३५६) वा०–सभाया: सुधर्माया बहुमध्यदेशभागेऽर्चनिका पूर्ववत् करोति, कृत्वा सुधर्माया सभाया दक्षिणद्वारे समागत्य तस्य अर्चनिकां पूर्ववत् कुरुते, ततो दक्षिणद्वारेण विनिर्गच्छति, इत ऊर्ध्व यथैव सिद्धायतनानिष्कामतो दक्षिणद्वारादिका दक्षिणनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रविशत: उत्तरनन्दापुष्करिण्यादिका उत्तरद्वारान्ता ततो द्वितीयद्वारान्निष्कामत: पुर्वद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अर्चनिकावक्तव्यता सैव सुधर्मायां सभायामप्यन्यूनातिरिक्ता वक्तव्या। तत: पूर्वनन्दापुष्करिण्या अर्चनिकां कृत्वा उपपातसभा पूर्वद्वारेण प्रविशति प्रविश्य च मणिपीढिकाया देवशयनीयस्य तदनन्तरं बहुमध्येदेशभागे प्राग्वदर्चनिकां विदधाति, ततो दक्षिणद्वारे समागत्य तस्यार्चनिकां कुरुते । (वृ० प० २६५,२६६) २५०. जावत छै धूप सुगंधो, इम धूप उखेवी इंदो। कही सभा सुधर्मा नी बातो, हिवै सुणो आगल अवदातो॥ वा०-- इहां वृत्तिकार कह्य-सुधर्मा सभा नां बहु मध्य देश भाग नी पूर्ववत पूजा करी ने, सुधर्मा सभा नै दक्षिण द्वारे आवी नं, ते द्वार नी पूजा पूर्ववत कर, तिवार पछ दक्षिण द्वार करिक नीकल, एह थकी आगल जिण प्रकार करिकहीज सिद्धायतन थकी नीकलतो छतो दक्षिण द्वारादिक दक्षिण नंदा-पुष्करणी पर्यवसान वली प्रवेश थकी उत्तर नंदा-पुष्करण्यादिक थकी उत्तरद्वारांत पूज्यो। तिवार पछै द्वितीय द्वार प्रत पूजी पूजी नीकलतो पूर्व द्वारादिक पूर्व नंदा-पुष्करणी पर्यवसान अर्चनिका कही, तिकाहीज सुधर्मा सभा ने विषे पिण कहिवी। पिण ऊणी अधिकी नहीं। तिवार पछै पूर्व नंदा-पोवखरणी नी अर्चनिका करीनै उपपात सभा नै पूर्व द्वारे करी पेसे, पेसी ने मणिपीठका नी अने देव-सेज्या नी पूजा करी तदनंतर बह मध्य देश भाग नी पूर्ववत अर्चनिका करी। तिवारै पछै उपपात सभा नै दक्षिण द्वारे आयो। ए अधिकार वृत्ति में कह्यो अने सूत्रे सुधर्मा सभा नै तीन दिशे द्वार मुखमंडपादिक पुष्करणी तांइ पूजै- इम नथी कह्य । अने उपपात सभा में विषे पिण पूर्व द्वारे पेसी मणिपीटिका देवसेज्या बहु मध्य देश भाग पूज-ए पिण नथी कह्यो। पिण ए सर्व पूज्या संभव छ। सिद्धायतन नै तीन द्वारादिक नंदा पुष्करणी तांइ पूजे काज छ, तिम इहां पिण जाणवू । इण सूत्रे हीज प्रथम विस्तार कह्यो, तिहां सिद्धायतन ने तीनूं दिशे मुख मंडपादिक कह्या । अने सुधर्मा सभा ने पिण तीनूं दिशे मुख मंडपादिक नंदा पोक्खरणी लग छ, ते माटै ए पूजा संभव बली आगन उपपात सभा ने तीन दिशे मुख मंडपादिक पूज। तिहां भी भलावण दीधी, ते माटै सुधर्मा सभा ने तीनूं दिशे द्वार अनै मुखमडपादिक पूजा संभव। अत्र चरचा लिखिये छै___ कोई कहै-ए सिद्धायतन में चैत्य थूभे जिन प्रतिमा पूजी नमोत्थुणं गुण्यो, ते धर्म हेते छ । तेहनो उत्तर-ए जिन प्रतिमा नी द्रव्य पूजा आरम्भ सहित छ। ए पूजा नी तीर्थकर आज्ञा देवै नहीं। साधु दीक्षा लीधी तिवारै सावज जोग नां पचखाण किया । तिण में द्रव्य पूजा नां त्रिविधे-त्रिविधे पचखाण आया। ते द्रव्य पूजा कर नहीं, कराव नहीं, करता ने अनुमोदै पिण नहीं । जो ए धर्म नों कार्य छै तो साधु अनुमोदना किम न कर? अन ए द्रव्य पूजा नी अनुमोदना कियां साधु नै पाप लाग, व्रत भाग तो द्रव्य पूजा करण वाला नै धर्म किम हुवै ? जो द्रव्य पूजा में धर्म छ तो धर्म अनुमोदना कियां पाप किम ह? अनै व्रत किम भाग? श्रावक सामायक पोसा कर तिहां 'सावज्जं जोग पच्चक्खामि' पाठ कहैतिण में ए द्रव्य पूजा ने सावज जाणनै त्यागी छ । ते सावज कार्य सामायक पोसा विना खुलो करै, तिणन पिण धर्म नथी । तिण - पिण केवली नी आज्ञा नथी। अने आज्ञा बार धर्म पुन्य रो अंश नहीं। ते भणी ए द्रव्य पूजा सावज जाणवी । इंद्रे कीधी ते लोकिक खाते, संसार नां द्रव्य मंगलीक हेते, पिण धर्म हेते नहीं । ___ तुंगिया नगरी प्रमुख नां श्रावक स्थविर प्रमुख ने बंदवा गया । तिहां दधि अक्षत, द्रोबादिक द्रव्य मंगलीक संसार हेते साचव्या, ते लोकिक खाते छ। तिम ए पिण द्रव्य पूजा लोकिक खाते जाणवी अने नमोत्थुणं गुण्यो ते पिण लोकिक ३६८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I " खाते से भणी उपाएँ मुझे गुग्यो दिन मुख आयो हरत वस्त्रादिक देव यो इस नयी ते मानमरर्ण उपास गुप्पो संभये अनंए उपा मुख गुण्यो, ते मार्ट ते संसार नां द्रव्य मंगलीक ने अर्थ लोकिक खाते छ, धर्म देते नहीं। पिण जे भगवती शतक १६ वें दूजे उद्देसे ( सूत्र ३६ ) कह्यो - जिवारं शक्र उघाड़े मुख भाषा बोले, तिवारं ते सावज भाषा, अने जिवारं शक्र हस्तादिक तथा वस्त्रादिक मुख बाटो देश बोस तिवारे निखद्य भाषा हुने तिह वृतिकार कहाजीवनां संरक्षण थकी निरवद्य भाषा हुवे । पिण इस नयी कहा. - जे मुख आडो वस्त्रादिक देइ बोलं ते विनय छ । इम विनय थी निरवद्य भाषा नथी कही । अने जे देवलोक नं विषै बेइंद्रियादिक प्रज्याप्तानां स्थान नथी अनं मनुष्य लोक नैं विषे इंद्रादिक, तेहनां मुख ने विषे माखी माछरादिक प्रवेश नों उपद्रव न संभव, ते भणी इंद्र मुख आडो वस्त्रादिक देइ बोलै ते वायुकाय नां जीव नी रक्षा अन उघाड़े मुख 'बोल तिहां वायुकाय नां जीव नीं हिंसा जाणवी ए सूत्रे इंद्रनीं सावद्य निरवद्य भाषा कही, ते वचन देखतां जिवारै शक्र धर्मं रूप वचन कहे तिवार उघाड़े मुख नथी बोलें । अनं जिवारे धर्म वार्ता विण अन्य वारता लोकिक संबंधी कहै, तिवारी उघाड़े मुख बोलें, एहवूं दीर्स छ । अने छंद, नमोत्थुणं गुण्यो तिहां मुखबाही हस्त वस्त्रादिक नोपाठ नभी कही ते भगी उषा मुख गुण्या माटै ए सावज भाषा संसार नां मंगलीक हेते जाणवी पिण धर्मं हेते नथी । करी स्तवना करें। जीमणो गोडो धरती वलिका - जिन प्रतिमा ने लोम हस्त नीं पूंजणी करी पूंजे, जले करी स्नान करावं, पंदने करि मात्र लीये व युगल पहिरावं, पुष्पादिक चढावे, मुख आगल मूकै जाव धूप खेवं एतला बोल कह्या, पिण मुख आडी जयणा नथी कही । बलि नमोत्थुणं गुग्यो त्यां पिण कह्यो एक सौ आठ छंद नां दोष रहित ग्रंथे करी युक्त वली पुनरुक्त दोष रहित मोटा पदे करी युक्त एहवा छंदे वलि सात-आठ पग पाछो ओसरी, डावो गोडो ऊंचो राखी, नां तला विषे स्थापी तीन वार मस्तक धरणी तल ने विषे धरती सूं ऊंचो मस्तक राखी ने हाथ जोड़ी शिर आवर्त करीनें नमोत्थुणं गुण, एतली विधि आखी । पिण इम न कह्यो–मुख आडी जयणा करीनं नमोत्थुणं गुणे, ते मार्ट ए छंद ने नमोत्थुणं उघाड़े मुख गुण्या संभवे । जिम पूंजणी सूं प्रतिमा ने पूंज, स्नानादिक जाव धूप खेवं तिम संसार नां मंगल हेते प्रतिमा ने नमोत्थुणं गुण्यो ते पिण सावज जाणवो । लगाडी ने कांयक इहां प्रथम शक्र इंद्राभिषेक करी अलंकार सभा में आवै, आवी वस्त्र-गहणा पहिरथा, व्यवसाय सभा में आवें, आवी पुस्तक- रत्न वांची 'धम्मिय ववसाइयं गिव्ह (सू० २००) एवो पाठ को पर्छ सिद्धायतन आयें, आवी ने जनप्रतिमापूजी द्वारशाखा, पूतस्यो, सर्प नां रूप, मुख-मंडपादिक, तोरण, बावड़ी, दाढा, हथियार प्रमुख पूज्या । इहाँ कोई कहे प्रतिमा पूजी ते धर्म-व्यवसाय मध्ये कही छ, तेहनो उत्तर - ए धर्म - व्यवसायपद कह्यो, ते निकेवल प्रतिमा पूजवा आश्रयी ने नथी कोए धर्म-सा ब्रह्मोतिया पर्छ जिन प्रतिमा द्वार शाखा, पूतस्यां सर्प नां रूप, मुख मंडपादिक जे-जे वस्तु पूजी, पोता नां जीत आचार नीं विध करी, ते सर्व धर्म व्यवसाय मध्य आवी । ठाणांगे दशमें ठाणें दश धर्म कह्या, तिणमें कुलधर्म कह्यो ते मार्ट ए धर्मग श० १०५ ७० ६ डाल २२४ ३६९ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमाण रा धणी सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, भव्य, अभव्य ऊपजता राज्य बेसे ॐ तिवारै सगलाइ प्रतिमादिक पूजै छ । ते कल्प-स्थिति माट, पिण धर्म हेते नहीं । तिमहिज इंद्र पिण कुल स्थिति राखवा माट ए सर्व वाना पूज्या छ । जिम मनुष्य लोक नै विषे जैन, वैष्णव, मुसलमान नां देहरा, ठाकुर द्वारा, मस्जिद जूजुआ छै, तिम देवलोक में सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि नी श्रद्धा तो जूई-जुई छ, पिण पूजवा नां स्थानक जूआ-जूआ नथी कह्या । जूआ-जूआ किहांहि कह्या ह तो देखावो। पांच सभा अनै सिद्धायतन - ए छह वाना अन मुख-मंडपादिक सर्व विमाण रा धणी रे हुवं, ते तिण विमाण नै विष सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि जे ऊपजतां राजअभिषेक कर ये छते एहिज प्रतिमा, द्वार-शाखा, पूतल्या प्रमुख सगलाइ विमानाधिप पूजै छ। ते माट ए समदृष्टि, मिथ्यादृष्टि सर्व नों कल्प-स्थिति जीत व्यवहार एक हीज जाणवो। आवश्यक नी वृत्ति बावीस हजारी हरिभद्र सूरि नीं कीधी, ते मध्ये सामायिक नामा अध्ययन नों टीका, ते मध्ये अभव्य संगम देवता नों अधिकार छ। महावीर ने उपसर्ग ने अधिकारे जिवार शकेंद्र बोल्यो—'महावीर ने चलावी न सके।' तिवारै शकेंद्र नों सामानिक अभव्य संगम देवता बोल्यो, ते पाठ लिखिये संगमो नाम सोहम्मकप्पवासी देवो सक्कसामाणिओ अभवसिद्धिओ सो भणति-देवराया अहो रागेण उल्लवेइ, को माणुसो देवेण न चालिज्जइ ? अहं चालेमि, ताहे सक्को तं न वारेइ । मा जाणिहिइ-परणिस्साए भगवं तवोकम्म करेति, एवं सो आगओ। इहां संगमो देवता शक्रेन्द्र नों सामानिक देवता कह्यो। वलि संदेह दोलावली ग्रंथ छ, तेहनी वृत्ति मध्ये कह्यो छै ते लिखिये छैनन्वेवं तर्हि संगमकप्रायो महामिथ्यादृष्टि: देवविमानस्थां सिद्धायतनप्रतिमा अपि सनातनामिति चेत्, न नित्यचंत्येषु हि संगमवद् अभव्या अपि देवा मदीयमदीयमिति बहुमानात् कल्पस्थितिव्यवस्थानुरोधात् तद्भूतप्रभावाद् का न कदाचित् असंयमक्रियां आरभन्ते। इहां ए संगम ने अभव्य कह्यो अने इन्द्र नो सामानिक आवश्यक नी वृत्ति में पूर्वे कह्योज छ। सामानिक देवता इन्द्र सरीखा अने विमान नां धणी उपजती वेला सूरियाभ नी पर प्रतिमा दाढा पूजे पोता नी कल्प स्थिति माटै । इहां कह्यो संगम महामिथ्यादृष्टि देव विमान के विषे सिद्धायतन प्रतिमा नै ते अभव्य पिण देवता ए 'माहरी माहरी' इम बहु मान थकी कल्प स्थिति व्यवस्था नां वश थकी पूजे ते माट। ___जद कोई कहै-द्रोपदी सम्यक्त्व-धारणी प्रतिमा क्यूं पूजी ? तेहनों उत्तरओघनियुकित ग्रंथ ने अभिप्राये द्रोपदी प्रतिमा पूजी ते वेला सम्यक्त्वधारणी नहीं ते देखाई छै-- 'दव्वंमि जिणहरा' इति ओघनियुक्ति व्याख्या-द्रव्यलिगिपरिगृहीतानि चैत्यानि कि सम्यग्दृष्टिना न संभावितानि इति, कस्मात् ? यस्मात् द्रव्यलिगिमिथ्यादृष्टित्वात् । यद्येवं तर्हि दिगम्बरसंबंधिचैत्यानि किं सम्यग्दृष्टिना न संभावितानि ? एतत्सत्यम् । यद्येतत् सत्यं तहि स्वर्गलोकेषु शाश्वतानि चैत्यानि सूर्याभादिभिः देवैः सम्यग्दृष्टिभिः प्रपूज्यन्ते, तत् चैत्यानि संगमकवत् अभव्यदेवा १. आव. नियुक्ति गाथा ५०१ की हारिभद्रीया व्याख्या २. संदेहदोलावली की वृत्ति का जो अंश यहां उद्धृत किया गया है, वह संस्कृत की दृष्टि से कुछ स्थलों पर अशुद्ध प्रतीत होता है। ३७० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदीयमदीयमिति बहुमानात् प्रपूजयन्ति किमेतत् पूर्वापरं वरुन स्यात् ? न सूर्याभावो देवा: स्वर्गलोकेषु शाश्वतानि चैत्यानि प्रपूजयन्ति तत्कल्पस्थितिव्यवस्थानुरोधात् अत एव विरुद्धं न भवति । यद्येवं तहि द्रौपद्या सम्यक्त्वधारिण्या यानि चैत्यानि नमस्कृतानि कि द्रव्यलिगिपरिगृहीतानि न संभवतीत्याह द्रौपदी न सम्यस्वधारिणी स्यात्, ओप निर्युक्ती इत्युक्तम् 'इरिथजणसंघट्टं तिविहेण तिविहं वज्जए साहू' इति वचनात् । स्त्रीजनस्पर्शस्त्रिविध-त्रिविधेन साधूनां वर्जनीयः । साधोश्च अकल्पनीयकर्माचरतः सम्यक्त्वाभावात् । आगमेषु श्रूयते - द्रोपदी 'लोमहत्थयं परामुसई' लोमहस्तेन परामृशति परिमार्जयतीत्यर्थः । तत्परिमार्जनेन जिनस्पर्शो जातः जिनस्य स्त्रीजनस्पर्शन आशातना स्यात् । आशातनातः सम्यक्त्वाभावः अत एव द्रोपदी न सम्यक्त्वधारिणी संभाव्यते । पुनः ओघनिर्युक्तेश्चिरन्तनटीकायां गन्धहस्त्याचार्येण उक्तम् द्रौपद्या नृपपुत्रिया निदान कृतं भतूंची नो जातकपुत्रा पुनः पश्चात् साधोः पार्श्वे शंकां निवार्य प्रवरसम्यक्त्वमागं धरते स्मः । 2. रहां की परिग्रहीतस्य स्यूं सम्यग्दृष्टि संभावित नहीं, ते किण कारण थकी ? द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि छं, ते भणी । जो इम छं तो दिगम्बर संबंधी चैत्यस्वं सम्यदृष्टि संभावित नहीं ? ए सत्य जो ए सत्य तो स्वर्ग लोक नैं विषे शाश्वता चैत्य सूर्याभादि देवता सम्यग्दृष्टि पूजे, ते चैत्य संगमवत् थकी पूजे, ए पूर्वापर विरुद्ध नहीं हुवै शाश्वता चैत्य पूजे ते कल्पस्थिति वस अभव्य देव 'मांहरी मांहरी' इम बहुमान कां ? सुर्याभादि देव स्वर्गलोक में विषे अनुरोध थकी, इण कारण थकीज विरुद्ध नहीं हुवं । जो इम छँ तो द्रोपदी सम्यक्त्वधारणी जे चैत्य नं नमस्कार कियो, ते स्यूं लिंग परिगृहीत न हुबै कोइ ? द्रोपदी सम्यक्त्वधारणी न हुवै ओघनिर्युक्ति ने विधे इम को स्त्री जन नो स्पर्श साधु ने शिविधे त्रिविधे वर्जयं साधु ने अकल्पनीय आगम ने विषे सांभलिये छे - "लोमहत्थं परामुसइ" लोमहस्त करिकै पंजे इत्यर्थः तेज करी जिन नो स्पर्श हुई। जिन में भी जन प करी आशातना हुवै, आशातना करवं करी सम्यक्त्व नों अभाव । इण कारण थकी द्रोपदी सम्यक्त्वधारणी न संभवियं । बलि ओपनियंक्ति नीं चिरंतन टीका में विधहस्त आचार्य को द्रोपदी नृपपुत्री नीयाणा नीं करणहारी, तिणे भर्तार पंचनं वरी सो नियाणो भोगवी, एक पुत्र थयां पछै साधु समीपे सम्यक्त्व पामी एहवो ओघ नियुक्ति नी टीका में विषे गंधहस्ति आचार्य को ते मिध्यात्वन व चकी पुष्पादिक करीकं प्रतिमापूजी हां ओघ निर्मुक्ति नी टीका तेहने विषे द्रोपदी प्रतिमा पूजी, ते वेला सम्यक्त्व धारणी नथी अने एक पुत्र थयां पर्छ साधु समीपे सम्यक्त्व पामी एह का। 1 1 वली सूर्याभादिक देवता देवलोक में विये शाश्वताचैव पूर्व ते कल्प देवलोक न स्थिति राखवा मार्ट को दिन धर्म हेते पूर्ज, इम नवी कह्यो बनें शक्र देवेंद्र नी अर्चनिका सूर्याभ नैं भलाई । ते माटे शक्र देवेंद्र प्रतिमादिक पूजी, नमोत्थुणं गुण्यो, ते पिण कल्प- देवलोक नीं स्थिति राखवा मार्ट जाणवो । वलि १. ओघनियुक्ति की व्याख्या का यह अंश कुछ स्थलों पर अशुद्ध प्रतीत होता है । संस्कृत की दृष्टि से कुछ शब्दों एवं क्रियाओं में परिवर्तन करने पर भी कुछ स्थल संदिग्ध रह गए हैं । व्याख्या की प्रति उपलब्ध न होने के कारण इसे पूरी तरह से शुद्ध नहीं किया जा सका। ० १० उ० ६ डाल २२४ ३७१ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगमादिक अभव्य ते पिण कल्प-स्थिति राखवा माटे सूर्याभ नी पर प्रतिमादिक पूजै, नमोत्थुणं गुण छ, ते भणी शक्र देवेंद्र जिन प्रतिमा पूजी, जिन दाढा पूजी, जिनप्रतिमा आगै नमोत्थुणं गुण्यो, द्वार-शाखा, पूतल्यां, सर्प नां रूप, मुखमंडपादिक अनेक वस्तु पूजी, ते सर्व लोकिक खाते जाणवा पिण लोकोत्तर हेते नथी। कल्पस्थिति राखवा माटै पूज्या, ए सावज पूजा नी केवली नी आज्ञा नथी। ए जिन प्रतिमा तो स्थापना निक्षेपो छ । पिण साक्षात भाव निक्षेपे महावीर आगे सूर्याभ सावज भक्ति करी, नाटक पाड्यो, भगवान ने कह्यो–गोतमादिक ने म्हारी भक्ति नां वश थकी बत्तीस विध नाटक देखाडूं । तिहां एहवो पाठ छ'तए णं समणे भगवं महावीरे'""- सूरियाभस्स देवस्स एयमह्र णो आढाइ णो परियाणइ तुसिणीए संचिट्ठति (सू० ६४) ।' एहनों अर्थ वृत्तिकार कियो ते लिखिये 2 --- ततः श्रमणो भगवान् महावीरः सूर्याभेण देवेन एवमुक्तःसन् सूर्याभस्य देवस्य एनम्- अनंतरोदितम् अर्थ न आद्रियते न तदर्थकरणाय आदरपरो भवति, नापि परिजानाति अनुमन्यते स्वतो वीतरागत्वात् गौतमादीनां च नाटयविधेः स्वाध्यायादिविघातकारित्वात् केवलं तूष्णीकः अवतिष्ठते । एहनों अर्थ-तिवारै श्रमण भगवान महावीर सूर्याभ देवताइं इम को छते सूर्याभ देवता नां ए पूर्वोक्त अर्थ प्रतं नो आढाइ कहितां आदर न दियो ते नाटक नां कार्य माटे आदरपरायण न हुवै। नो परिजाणाइ कहिता अनुमोद पिण नहीं, पोते वीतरागपणां थकी अन गोतमादिक नै माटै नाटक स्वाध्यायादिक में विघातकारी, ते विघ्नकारीपणां थकी 'तुसिणीए संचिट्ठति' कहितां निकेवल मौन करीनै रहै। इहां ए नाटक ने भगवान् आदर न दियो। अनुमोदना पिण न कीधी। ते माट ए सावज भक्ति छ, जिन आज्ञा बारे छ । जे कार्य नै साधु करै नहीं, कराव नहीं, करतां प्रति अनुमोदै पिण नहीं, ते कार्य सावज पाप कर्म बंध नो हेतु जाणवो। तिवार कोइ कहै-ए सूर्याभ ने नाटक करणो मांड्यो ते वेला वो क्यूं नथी? तेहनो उत्तर–शतक ६ उद्देशे ३३ में जमाली विहार करण री आज्ञा भगवंत कनै मांगी तिहां पिण एहिज पाठ कह्यो तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स एयमट्ठनो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ । (सू० २१७) इहां पिण विहार करण री आज्ञा मांगी। तिवारै ते जमाली नां अर्थ में आदर न दियो, अनुमोदना पिण न कीधी, मौन राखी। तिवारै जमाली आज्ञा विना विहार कीधो । सावत्थी नगरी गयो। तिहां वचन उत्थापी भ्रष्ट थयो । ते भणी भगवान आज्ञा न दीधी, मौन राखी, तेहनै पिण वो नथी। ते केवली त्रिलोकीनाथ ए निश्च विहार करसीज इम जाण्यो, ते भणी वो नहीं। प्रभु निरर्थक भाषा बोल नहीं। तिम इहां पिण प्रभु जाण्यो-ए सूर्याभ निश्च नाटक पाड़सीज, ते भणी वा नथी। अथवा ते नाटक पाड़वा नों तेहनो तीव्र मन जाण्यो अन वर्जे तो ते जबरदसती रो धर्म वीतराग रो नथी। अथवा हां कह्यां हिंसा लाग, नां कह्या भोगी रा भोग भागे । ते हजारो लोकां रै नाटक देखवा री वांछा ते वर्तमान काले वा तेहने अन्तराय नो संभव इत्यादिक अनेक कारण जाणी ने वज्या नथी। पिण आज्ञा न दीधी, अनुमोदना न कीधी, ते मार्ट सावज्ज छ। ३७२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे खंधकादिक' तपसा री आज्ञा मांगी, गोतमादिके गोचरी नी आशा मांगी तिहां एहवं पाठ..."अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह" इहां ए तपस्या अथवा साधु री गोचरी निरवद्य कार्य छ, ते भणी कह्यो-जिम सुख हुवै तिम करो, हे देवानुप्रिय ! विलंब करो मती । इम शीघ्र आज्ञा दीधी । अनै सूर्याभ नां नाटक ने आदर न दियो, अनुमोदना पिण न करी, मून राखी, ते भणी ए सावज छ । आज्ञा बार छ । अनं सूर्याभ नां आभियोग देवता अथवा सूर्याभ पोते बंदणा कीधी तिहां भगवान् सूत्र में छह पाठ कह्या, तिहां "अब्भणुणायमेयं" एहवं पाठ छै, ए वंदणा करवा री मांहरी आज्ञा छै। ए वंदणा रूप कार्य निरवद्य छ, ते भणी आज्ञा दीधी। अने नाटक नुं कार्य सावज छै, ते भणी अनुमोदना न कीधी, मून राखी। ए प्रत्यक्ष भाव निक्षेपा आगे नाटक पाड्यो, ते पिण सावज आज्ञा बाहिर छ तो थापना निक्षेपा री पूजा, ते जिन आज्ञा में किम हुवै ? ज्ञान नेत्रे करी निरपेक्षपणे विचारी जोइज्यो ।' (ज० स०) हिवै सुधर्मा सभा नै विषे पूजा करी तेहनें त्रिहुं दिशे द्वार मुख-मंडपादिक पूजी, उपपात सभा तिहां आवी, उपपात सभा नै विषे मणिपीठिका, सिंहासन, बहु मध्य देश भाग पूजी, ते उपपात सभा नै विषे त्रिहुं दिशे द्वार मुख-मंडपादिक पूर्ज ते अधिकार कहै छै२४६. *जिहां उपपात सभा नों जाण, कांइ दक्षिण द्वार पिछाण। तिमहिज सभा सरीस उच्चरणी, जाव पूवनंदा पोक्खरणी ।। वा०--जिम सुधर्मा सभा नै तीनूं दिशे द्वार मुख-मंडपादिक पूज्या, तिम उपपात सभा में दक्षिण द्वार मुख मंडपादिक नंदा पुष्करणी तांइ पूजी। वलि उत्तर नी नंदा पुष्करणी थी लेइ उत्तर द्वार लगै पूजी । पछ पूर्व द्वार थी लेइ पूर्व नंदा पुष्करणी लगै पूजा कर, करीनै द्रह नै विषे आवै ते कहै छ२५०. पछ द्रह तिहां आवै आवी, द्रह ना तोरण पावड़ियां सुहावी। पुतलियां – सर्प नां रूप, तिमहिज पूजै धर चूंप ।। २४६. जेणेव उववायसभाए दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता(जहा २६४-३१२ सुत्ताणि तहेव णेयब्वाणि) । (राय० सू० ४१६-४३४) २५१. पर्छ सभा जिहां अभिषेक, तिहां आवै आवी ने संपेख । सिंहासण मणिपीठिका सार, तेहनी पूजा करै धर प्यार ।। २५०. जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता........ तोरणे य तिसोबाण-पडिरूवए य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता। (राय० सू० ४७३) २५१. जेणेव अभिसेय सभा तेणेव उवागच्छइ,उवागच्छित्ता .."मणिपेढियं च सीहासणं च लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता। (राय० सू०४७४) वा०-पूर्वद्वारेणाभिषेकसभां प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकाया: सिंहासनस्याभिषेकभाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्ववदर्चनिकां करोति । (वृ० प० २६६) २५३. जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता... (राय० सू० ५३४) वा०-इहां वृत्तिकार कह्यो-पूर्व द्वार करी अभिषेक सभा में प्रवेश कर, प्रवेश करीनं मणिपीठिका नी अने सिंहासण नी वली अभिषेक-भांड नी अनें बहु मध्य देश भाग नी पूर्ववत अर्चनिका अनुक्रम करिकै करै। २५२. शेष तिमहिज कहिवं उदंत, आयतन सरीखो वृतंत। जाव पूर्व नंदा पुष्करणी, तिहां आवी पूजा विधि वरणी। वा०-अभिषेक सभा नो बहु मध्य देश भाग पूजी ने तिवार पछ इहां पिण सिद्धायतन नी पर दक्षिण द्वार दक्षिण मुखमंडपादिक थकी दक्षिण नंदा पुष्करणी लग पूजी ने उत्तर नंदा पुष्करणी लेइ उत्तर द्वारांत पूजी ने पूर्व द्वारादिक थकी लेइ पूर्व नंदा पुष्करणी लग पूज, पूजी ने हिवं अलंकार सभा में आवै, ते कहै २५३. जिहां सभा अलंकार, तिहां आवै आवी नैं तिहवार । जिम अभिषेक सभा विस्तार, तिमज सर्व कहि अलंकार ।। लय : म्हारी सासू रो नाम छ फूली १. भ० २०६१ श.१०,७०६, दाल २२४ ३७३ Jain Education Intemational Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या० - अभिषेक सभा नीं पूर्व नंदा पुष्करणी वकी नीकली, पूर्व द्वार करी अलंकारिक सभा में पैसी ने मणिपीठिका भने सिहासन मी बलि अलंकारिक भांद मी अने बहु मध्य देश भावनी अनुक्रम करिकै पूर्ववत अर्थनिका करें करीने तिहां पिग अनुक्रम करके सिद्धाय नी परं दक्षिण द्वार को लेह पूर्व नंदा पुष्करणी पर्यवसान अनिका कहिवी । हिवे व्यवसाय सभा में आवं, ते कहे छं २५४ पछे जिहां सभा व्यवसाय तिहां आवं आवी सुरराय । तिमहिज पूंजणी हस्त ग्रही नैं पुस्तक रत्न प्रतै पूंजी नें ॥ २५५ दिव्य उदक धारा कर सोय, आभो सींचे मुख्य पवर गंध पुष्पमाल, तिण करि अर्चे तिण अह । २५६. मणिपीठिका प्रति पूजेह, वली सिंहासन शेष तिमहिज सर्व कहेव, पूर्व नंदा पोक्खरणी तं चैव ॥ बा०—तिवार पर्छ अलंकार सभा नीं पूर्व नंदा पुष्करणी थकी पूर्व द्वार करिकै व्यवसाय सभा में पेठो, पैसी ने पुस्तक रत्न ने मयूरपिच्छ नीं पूंजणी करी पूंजी नें उदक धारा करिकै सींची ने वर गंध माल्य करि अर्ची न तदनंतर मणिपीठिकानी अने सिंहासन नीं वली बहु मध्य देश भाग नीं अनुक्रम करिकै पूर्ववत अनिका करें। तदनंतर सिहां पिन सिद्धायतन नी परे दक्षिण द्वार भी लेई पूर्व नंदा पुष्करणी पर्यवसान अनिका की अवलोय । काल ॥ २५७. पूर्व नंदा पुष्करणी थी ताय, जिहां वलिपीठ छै तिहां आय । बलि विसर्जन करे तिवार, उगर्या ते वाना मूकै सार ॥ वा०- पूर्वोक्त बत्तीस वाना कह्या ते पूजतां पूजतां जे कोई वस्तु चंदण फूलादिक उगर्या हुवै ते वलिपीठ ने विषे विसर्जन करें - मूकं । २५८. प अभियोगिक देव तसु तेड़ावी ततदेव । इह विघ बोलं सुरराय हे देवानुप्रिय ! शीघ्र जाय ।। २५९. सुधर्मावतंस विमान तेह विमान विषे पहिछान । जे सिंघाड़ा ने आकार, त्रिकोण स्थान जे उदार ॥ २६०. त्रिक ज्यां तीन वाट मिलंत, चक्क ते ज्यां मिले चिहुं पंथ । वली चच्चर जे कहिवाय बहु वाट मिले जिहां आय || २६१. बलि जिहां थकी अवलोय, नीसरे चिहुं पंच उदार ३७४ भगवती-जोड़ चिहुं तसुं कहेह | २६२. महापथ राजपंथ विषेह, शेष सामान्य पंथ प्राकार तिको गढ जोय, अट्टालग बुरजां अवलोय ॥ दिश ने विषे पिग सोय । कहिये चतुर्मुख सार ॥ वा - ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतः पूर्वद्वारेणालङ्कारिकसभां प्रविशति प्रविश्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य अलंकारभाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्ववदर्चनिकां करोति तत्रापि प्रमेय सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अर्चनिका वक्तव्या । ( वृ० प० २६६ ) २५४. जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता .....सोमहत्व परामुसद्द परामुमिता पोत्यवरयणं सोमहत्वपूर्ण म ( राय० सू० ५६४ ) २५५. दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खेत्ता''''' अग्गेहि वरेहि य गंधेहिं मल्लेहि य अच्चे, अच्चेत्ता ( राय० सू० ५६४ ) २५६. मणिपेयिं च सीहाराणं च लोमहत्वपूर्ण पमज्जइ, पमज्जित्ता पुष्कार। (राय० ० ५९५) वा० - ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतः पूर्वद्वारेण व्यवसायसभां प्रविशति प्रविश्य पुस्तकरत्नं लोमहस्तकेन प्रमृज्य उदकधारया अभ्युक्ष्य चन्दनेन चर्चयित्वा वरगन्धमाल्यं रचवित्वा पुष्पाद्यारोपणं दाधूपनं च करोति, तदननारं मणिपीठिकायाः सिहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्ववदनिकां करोति तदनन्तरमन्त्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अर्चनिका (२००२६०) २५७. जेणेव बलिपीढे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बलिविसज्जणं करेइ । (राम० सू० ६५४) वक्तव्या । २५८. आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भी देवाणुप्पिया ! ( राय० सू० ६५४ ) .....विमाणे सिंघाडएसु २५६. (राय० ० ६५४) गाटक:श्रृंगाटकाऽऽकृतिपथयुक्तं त्रिकोणं स्थानम् (राय० वृ० प० २६७ ) २६० तिर टक्के पच्चरे (राय० ० ६५४) त्रिकं - यत्र रथ्यात्रयं मिलति चतुष्कं चतुष्पथयुक्तं चत्वरं बहुव्यापात्तस्थान (राय० ० ० २६७ ) २६१. उम्मु (राय० सू० ६५४ ) चतुर्मुखं - यस्माच्चतसृष्वपिदिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति ( राय० वृ० प० २६७ ) २६२. महापहपहेसु पगारेसु अट्टालएसु ( राय० सू० ६५४ ) महापथः -- राजपथः शेषः सामान्यः पन्थाः प्राकार: प्रतीतः अट्टालकाः प्राकारस्योपरिनृत्याचयविशेषाः ( राय० वृ० प० २६७ ) - Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३. चरिका ते अष्ट हस्त प्रमाण, गढ नगर विषे मग जाण । वली महल तणां जे द्वार, गोपुर गढ नीं पोल उदार ॥ २६४. तोरण द्वार संबंधी जान, माधवी लतादि गृह स्थान । जिहां आवी पुरुष स्त्री ताम, रमै कहियै तास आराम || २६५. उत्सवादिक विषे आरोग्य, वारू उद्यान ते सुखकंद, २६६. वेग तिको वन कहिवाय, एक जाति तणां सुखदाय । बहु जन नैं भोगविवा जोग्य | ढुकडं ते कानन तरु वृन्द ॥ उत्तम वृक्ष समूह सुचारु, वनराई कहिये वारू' ।। २६७. एक अनेक जात नां उदार, तर समूह वनखंड विचार । ए सहु नीं अचर्चा करि ताय, शीघ्र आज्ञा सूंपो आय ।। २६८. आभियोगिया देवा तिवार, इंद्र वचन कियो अंगीकार । सहु नी अर्चा कर स्वयमेव, पाछी आज्ञा सूपी ततखेव ॥ २६६ शक्र इन्द्र हि सुखदाय, जिहां नंदा पुष्करणी त्यां आय । नंदा पोक्खरणी नैं सुचंग, प्रदक्षिणा करतो उमंग ।। २०० पूर्व ने पावड़िये कर ताहि, पेठो नंदा पोखरणी मांहि । हस्त पाय पखाली सार, आयो नंदा-पोक्खरणी बार ॥ २७१. जिहां सभा सुधर्मा उदार, तिहां गमन भणी सुविचार | प्रवर्त्यो सुराधिप इंद, साथै देव देव्यां रा वृंद ॥ २०२. सामानिक चउरासी हजार जान तीन लाख अवधार । ऊपर सहंस छत्तीस संगीत, आत्मरक्षक देव सहीत ॥ २७३. वलि अन्य बहु सुधर्मवासी, वैमानिक देव देवी हुलासी । परवरधो इन्द्र तेह संघात सर्व ऋद्धि करि सुविख्यात । २७४ जाय वार्जित्र नां भिणकार, सुर दुंदुभि घोष उदार । जिहां सभा सुधर्मा सुचंग, तिहां आयो घर उचरंग ॥ २७५. हि सभा सुधर्मा तेह, विषे प्रवेश करं जिहां सिंहासन तिहां आय, बैठो पूर्व मुख । गुणगेह | सुरराय ॥ १. रायपसेणइयं में उज्जाणेसु के बाद पाठ का क्रम इस प्रकार है-वणेसु व राईसु काणणेसु ..... जोड़ में उद्यान के बाद कानन की व्याख्या है । उसके बाद वन और वनराजि की । वृत्ति में उद्यान के बाद कानन हैं। उसके बाद वन, वनखण्ड और वनराजि है । २६३. चरियासु दारेसु गोपुरेसु (राप० ० ६५४ ) चरिका अष्टहस्तप्रमाणो नगरप्राकारान्त राजमार्गः द्वाराणि प्रासादादीनां गोपुराणि प्राकारद्वाराणि (राय० २०१० २६० ) २६४. तोरणेसु आरामेसु (राय० सू० ६५४ ) तोरणानि द्वारादिसम्बंधीनि आरमले पत्रलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि इत्यसावारांमः (राय० वृ० प० २६८ ) २६५, २६६. उज्जाणेसु वणेसु वणराईसु काणणेसु ( राय० सू० ६५४ ) पुष्पादिमय वृक्षसं कुलमुत्सवादी बहुजनोपभोग्यमुद्यानं, एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनराजी । (राय० वृ० प० २६७ ) २६७. वणसंडेसु अच्चणियं करेह करेत्ता एयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चष्पिणह । (राय० ० ६५४ ) एका नेकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनखण्ड: (राय० वृ० प० २६८ ) २६८. तए णं ते अभिओगिया देवा एवं वृत्ता समाणात माणत्तियं पच्चप्पिणंति । (राय० सू० ६५५ ) २६६. तए णं से'''''जेणेव गंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता (राय० सू० ६५६) २७०. नंदं पुक्खरिणि पुरथिमिल्लेणं तिसोमाणपडिरूवएवं पच्चोरुहति पच्चोरुहित्ता हत्यपाए पक्खालेइ, पक्खालेत्ता गंदाओ पुक्खरिणीओ पच्चत्तरेइ, (राय० सू० ६५६ ) २७१. जेणेव .......तेणेव पहारेत्थ गमणाए । ( राय० सू० ६५६ ) २७२. तए णं से......'आयरक्खदेव साहस्सीहि ( राय० सू० ६५७ ) २०३. अहि यहि विमागवासीहि बेमाणिएहि देवेह य देवीहि य सद्धि संपरिवुडे सव्विड्ढीए ( राय० सू० ६५७ ) २७४. जाव (सं० पा० ) नाइयरवेणं जेणेव तेणेव उवागच्छइ " २७५. ............पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सीहासमवरमए पुरस्याभिगृहे सणसणे । ( राय० सू० ६५७ ) श० १० उ० ६ ढा० २२४ ३७५ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्र तणां सुविचार, सामानिक सुखकारी । सुर सहंस चउरासी सार, बड़ा है जशपारी । जशधारी जी, अति हितकारी, वायव्य ईशाण बैठा सारी । ओ तो सखर सुराधिप शक्र, शक्र परम मुद्रा प्यारी ॥ सोरठा २७६. * हिवै २७७. सहंस चउरासी जाण, भद्रासण अति ओपता । वायव्य नें ईशाण, बैठा तिहां सामानिका ॥ २७८. हि पूर्व दिश मांय भद्रासण रै मांय, तिहां अग्रमहेषी आठ, रूप अधिक झिला जी, आभरण उजला, भद्रासण अष्ट भला । करि अधिक भिला ॥ अतिही युति कांतिकरी अमला । ओ तो सबल शक्र सहस्राक्ष, सुजश करता सगला ॥ सोरठा करण २७६. सोल सोल सहंस सार, रूप वैक्रिय शक्ति तास परिवार, अग्रमहेषी नीं नीं । असी ।। द्वादशाही | उमही । कही || २८० *हि आग्नेयी कूण सुजाण, सहस्र फुन ए तो पवर भद्रासण जाण, तिहां बैठा बैठा उमही जी, प्रकृति शुभही, बार सहस्र अभ्यंतर परिपद ही । ओ तो प्रबल पुरंदर पेख, तास अति कीर्ति २८१. दक्षिण चवद हजार, मझिम ही परिषद नैरुत कूण मकार, परिषदा बाहिर बाहिर ना जी देवाधिप नां, सूर पट दश सहस्र अधिक सुमना । ओ तो मणिधारी मघवान, अमर पालै अपना ॥ सोरठा नां । नां । २८२. दक्षिण दिशि में देख, चउद सहस्र स्वां बैठा सुविशेख, मज्झिम परिषद नां २०३. नेरु कूण मझार, सोल सहस्र त्यां बैठा सुविचार, बाहिर परिषद नां २०४. पश्चिम दिशि में देख, सप्त शोभंज अति । भद्रासण सुविशेख, तिहां अनिकाधिपति । अनिकाधिपति जी, तसु सखर यूति वर परम पीत देवाधिप थी। ओ तो वज्रपाणि विबुधेश, तास सिर अधिक रती ॥ २०५ पुन चिहुं दिश ₹ मांय, आत्मरक्षक मिणिया । इक इक दिश में सहंस चोरासी सुर गिणिया । सुर गिणिया जी सूत्रे भणिया कर विविध आयुध जोधा वणिया । ओ तो अपछरपति अमरेश, पुव्व जिन वच सुणिया ॥ 1 * लय म्है तो जास्यां जास्यां वंदन वीर ३७६ भगवती-जोड़ भद्रासणे । सुरा ॥ भद्रासणे । सुरा ॥ २७६. तए णं तस्स सामाणि साहसीओ २७७. उत्तरपुरथिमिले .... (राप० ० ६५० ) "भद्दा सणसाहस्सीसु निसीयंति २७८. तए णं तस्स पुरत्थिमेणं....... अग्गमहिसीओ शद्दाससु निसीयति । (राय० सू० ६५६ ) २०. तए णं तस्स परिसाए... देवसाहसीओ निसीयंति । (राय० सू० ६५८ ) दाहिणपुरमेणं अभितरियाए भाससाहस्सी (राम० सू० ६६०) २८१. तए णं तस्स दाहिनेणं मज्झिमाए परिसाए.... देवसाहस्सीओ भासण साहसीहि निसीति (राय० सू० ६६१ ) तए णं तस्स .......दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरियाए परिसाए. देवसाहतीतो भासण साहस्सीहि निसीयंति । ( राय० सू० ६६२ ) २८४. तए णं तस्स पच्चत्थिमेणं सत्त अणियाहिवयणो सतहि भद्दासह णिसीयंति (राय० सू० ६६३) ..... २८५. तए णं तस्स ...चउद्दिसिं ......आय रक्ख-देवसाहस्सीनो भासण साहस्सीहि णिसीमंति ( राय० सू० ६६४ ) Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "सोरठा २८६. पूरव दिश रै माय, भद्रासण शोभै भला। सहस चउरासी ताय, इम दक्षिण पश्चिम उत्तर॥ २८७. आत्मरक्षक अभिराम, ते भद्रासण मैं विषे। चिहूं दिश माहे ताम, बैठा शोभ रहा तदा ।। २८६. पुरथिमिल्लेणं...... साहस्सीओ, दाहिणेण ...... साहस्सीओ, पच्चत्यिमेणं साहस्सीओ, उत्तरेणं ....... साहस्सीओ, (राय० सू० ६६४) २८७. ते णं आयरक्खा सण्णद्ध-बद्ध-बम्मिय-कवया (राय० सू० ६६४) २८६. उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्ध-गेविज्जा (राय० सू० ६६४) उत्पीडितशरासनपट्टिकाः पिनद्धवेया:-पिनद्ध प्रैवेयकाभरणाः (राय० वृ० प० २७०) २६०. आविद्ध-विमल-वरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा (राय० सू० ६६४) २८८. *ते सर आतमरक्ष, सन्नद्ध बद्ध कवच भला । बगतर पहिरचा सार, झलकता अधिक झिला ॥ अधिक झिला जी, दीस उजला, अंगरक्षक काज अमर अमला। ओ तो जशधारी सुरनाथ, तास वस है कमला ।। २८९. बांध्या गाढ़ा करी, शरासण तीर तणां । तरकश पट्टिका तेण, तिहां शर अतिहि घणां । अतिहि घणां जी, सुरवर सुमणां, पहिरया फुन ग्रीवा आभरणां । ए तो आतमरक्षक देव, शक्र किंकर नमणां ।। २६०. आरोप्या शिर विषे, विमल चिह्न-पट्ट वारू । छोगा विशेष एह, चमकता अति चारू । अति चारू जी, सुरहित कारू आयुध प्रहरण ग्रह्या सारू । ए तो आतमरक्षक देव, अधिप आज्ञाकारू ॥ २६१. आदि मध्य अवसान, विषे सूरवर नमता। एहिज तीन स्थान, संधि छै अति जमता। अति जमता जी, मन में गमता, देवाधिप नां अरि नै दमता। ए तो आतम रक्षक देव, शक्र आणा रमता ।। २६२. वज्र रत्न रै माय, कोटि ते अग्र अणी । एहवा धनुष उदार, ग्रही तसुं शक्ति घणी । शक्ति घणी जी, सूत्रे पभणी, शर-वृंद तिहां सम्पूर्ण थुणी। ए तो आतम रक्षक देव, सेव सहस्राक्ष तणी॥ २६३. केयक सुर नैं हाथ, नील वर्णेज ग्रह्या। शर नां वृंद कलाप, नील-पाणीज कह्या । पाणीज कह्या जी, अतिही उमझा, इम पीत रक्त पाणीज लह्या। ए तो आतम रक्षक देव, सुराधिप आण रह्या ।। २६४. धनुष हाथ छै जास, चाप-पाणी कहिये । चारू-पाणी केय, चारु प्रहरण लहिये। प्र. रण लहिये जी, अति हर्ष हिय, के चर्मपाणीज चर्म गहिये। ए तो आतम रक्षक देव, अधिप आणा रहिये। सोरठा २९५. अंगुष्ठ अंगुली सोय, तसु आच्छादन चर्म ते। जेह तणे कर जोय, चर्म-पाणी कहिये तस॥ २६१. ति-णयाणि ति-संधीणि (राय० सू० ६६४) त्रिनतानि आदिमध्यावसानेषु नमनभावात् त्रिसन्धीनि आदिमध्यावसानेषु संधिभावात् (राय० वृ० प० २७०) २९२. वयरामयकोडीणि धणूई पगिज्झ परियाइयकंडकलावा (राय० सू० ६६४) २६३. णीलपाणिणो पीतपाणिणो रत्तपाणिणो (राय० सू० ६६४) २६४. चावपाणिणो चारुपाणिणो चम्मपाणिणो (राय० सू० ६६४) चारु:-प्रहरणविशेष: पाणी येषां ते चारुपाणयः (राय० वृ० प० २७०) २९५. चर्म अंगुष्ठांगुल्योराच्छादनरूपं येषां ते चर्मपाणयः (राय० वृ० प० २७०) * लयः म्है तो जास्यां जास्यां वंदन वीर श० १० उ०६, ढा० २२४ ३७७ Jain Education Intemational a Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए तो २११. सेवन २६६. * दंड-पाणि पास-पाणि ए केवा जी कांइ ए तो आतम रक्षक देव, २१७. नील पीत फन रक्त, " चर्म दंड नं खड्ग, धारक माणी जी, इक चित आणी आतमरस भाव प्रतं ठाणी । ए तो आतमरक्षक देव, २९. निज शक्र नां पहिछाणी || स्वामी प्रति जेह, गोपवी ने रज़िया । वींटी बैठा तेह, गुप्त पालक पालक कहिया जी, चित गहगहिया, कहिया । आतमरक्षक जिम पालि तेम चिहुं दिश रहिया। देव सेव तत्पर वहिया ।। गुण करि जुक्त जुता आंतरा रहित, पालि जेहनी नो । कहिये । लहिये। इम पिण देख, एम. अधिकेवा, देवा | खड्ग-पाणी रज्जु नीं ए केवा | सुर सामधर्म सेवग जेवा । सुराधिप नी सेवा ॥ जाणी । पाश धारक माणी ॥ चाप चारू विच जेहनी लहियै जी, अति हरप हिये, तसु युक्तपालिका उच्चरिये । शक्र आणा समय आचार हिये ॥ भणी । थुणी । विनय करवेज पणी, किंकर नीं पर तिष्ठैज गुणो । " देव, सबल तस शक्र धणी ॥ सुधर्मा सभा ने विषे पूर्व द्वारे प्रवेश करीने जिहां मणिपीठिका छैतिहां आव अने देखें छतं जिन दाढा ने प्रणाम करें करीनें जिहां माणवक चैत्य स्तंभ, जिहां वज्रमय गोल वृत्त डाबडा, तिहां आवी नैं डाबडा प्रते ग्रहै, ग्रही नं उघाड़े, उघाडी ने लोमहस्त पूंजणी करिकै पूंजी ने, उदक धारा करिकै सींची ने, गोशीर्ष चंदने करी लोपे, तिवार पर्छ प्रधान गंध मात्य करिकै अर्चे, धूप देव तदनंतर वली वज्रमय गोल डाबडा ने विषै प्रक्षेप, निक्षेपी ने तेहने विषे पुष्प, गंध, माल्य, वस्त्र, आभरण आरोपं । तिवार पर्छ लोमहस्त करिकै माणवक चैत्य स्तंभ पूंजी नं उदक धारा करिक सींची में चंदन चर्चा] पुष्पादि आरोप चढावे अनं दान धूपदान करें कने जहां देव-सिंहासन प्रदेश तहां आवी ने मणिपीटिका ने सिंहासन में लोमहस्त करिकै प्रमार्जनादि रूप पूर्ववत् अर्चना करें करीनं जिहां मणिपीठिका जहां देव सेज्या तिहां आधी नं मणिपीठिका अनं देवसेज्या नीं द्वारवत अर्चनिका करै । तिवार पर्छ पूर्वे कही तिण प्रकार करिकैहीज क्षुल्लक इंद्रध्वज विषे पूजा करें 1 तिवार पर्छ जे जिहां चोप्पालक नाम प्रहरण कोश तिहां आवी ने लोमहस्त करिकै परिध रत्न प्रमुख प्रहरण रत्न प्रत पूंज, पूंजी ने उदक धारा करके सींचे चंदन चर्चा पुष्पादि आरोपण धूपदान करें। तिवार पर्छ सुधर्मा सभा ने बहु मध्य देश भागे अर्चनिका पूर्ववत् करें, करीनें सुधर्मा सभा ने दक्षिण द्वारे करी आवी ने तेहनीं अर्चनिका पूर्ववत् करें । तिवार पर्छ दक्षिण द्वार की धकी आगे जिमनि सिद्धान्तन थकी नीकलती दक्षिण द्वारादिक दक्षिण नंदा पुष्करणी पर्यवसान पुनरपि प्रवेश * लय : म्है तो जास्यां जास्यां वंदन वीर ३७५ भगवती-जोड़ ए तो आतमरक्षक देव, ३००. प्रत्येक प्रत्येक पेख. आचर कर लेख, करवंज थुणी जी, तसु की ए तो आतमरक्षक २६६. दंडपाणिणो खग्गपाणिणो पासपाणिणो २६७. नीलपीय रत्त चाव- चारु चम्म-दंड-खग्ग- पासधरा आयरक्खा ( राय० सू० ६६४ ) (राय० सू० ६६४) २८. रक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिया (राय० सू० ६६४ ) २१. सया (राय० ० ६६४) युक्ताः ततया उषितास्तथा युक्ता: परस्परांसंवृद्धा न तु वृहदन्तरा पालिर्येषां ते युक्तपालिका: (राय० ० प० २७० ) ३००. पत्तेयं पत्तेयं समयओ विणयओ किंकरभूया इव चिट्ठति ( राय० सू० ६६४ ) सभायां सुधर्मायां पूर्वद्वारेण प्रविशति प्रविश्य वव मणिपीठिका तत्राऽऽगच्छति आलोके च जिनसक्थां प्रणामं करोति, कृत्वा यत्र माणवकचैत्यस्तम्भो यत्र वज्रमयाः गोलवृत्ताः समुद्गकाः तत्रागत्य समुद्गकान् गृह्णाति गृहीत्वा विघाटयति विघाटय च लोमहस्तकं परामृश्य तेन प्रमा उदकधारया अभ्युक्ष्य गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति ततः प्रधानन्यमात्परयति तदनन्तरं भूयोऽपि वज्रमदेषु मोवृतसमुद्गेषु प्रतिनिक्षिपति, प्रतिनिक्षिप्य तेषु पुष्पगन्धमाल्यवस्त्राभरणानि चारोपयति, ततो लोमहस्त केन माणवत्यस्तम्भं प्रमाज्यं उदकधारयाम्पुक्षणचन्दनचर्चाध्यायारोपणं धूपदानं करोति कृत्वा सिहासनप्रदेशमागत्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य च सोमस्तकेन प्रमार्जनादिरूपां पूर्ववदनिकां करोति, कृत्वा यत्र मणिपीठिका यत्र च देवशयनीयं तत्रोपागत्य मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य च द्वारवदर्चनिकां करोति, तत उक्तप्रकारेणैव क्षुल्ल केन्द्रध्वजे पूजा करोति, ततो यत्र चोप्पालको नाम प्रहरणकोशस्तत्र समागत्य लोमहस्तकेन परिचरत्नप्रमुखानि प्रहरणरत्नानि प्रमार्जयति प्रमाज्यं उदकधारयाऽभ्युक्षणं चन्दनचर्याम् पुष्पायारोपणं धूपदानं च करोति । 1 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थकी उत्तर नंदा पुष्करणीआदिक उत्तर द्वारांत । तिबार पर्छ द्वितीय वार नीकलतो छतो पूर्व द्वारादिक पूर्व नंदा-पुष्करणी पर्यवसान अर्चनिका नी वक्तव्यता तिकाहीज वक्तव्यता सुधर्मा सभा नै विषे, पिण ऊणी अधिकी न कहिवी । तिवार पछ पूर्व नंदा पुष्करणी नी अर्चनिका करीनै उपपात सभा में विषे पूर्व द्वार करिक प्रवेश कर । प्रवेश करीनै मणिपीठिका अनैं देव-सेज्या नीं तदनंतर बहु मध्य देश भागे पूर्ववत अर्चनिका करै। तिवार पछ दक्षिण द्वारे आवी नै तेहनी अर्चनिका करै । तिवार पछ कहै छ ___ अठा थी आग इहां पिण सिद्धायतनवत दक्षिण द्वारादिक पूर्व नंदा पुष्करणी पर्यवसान अर्चनिका कहिवी। तिवार पर्छ पूर्व नंदा पुष्करणी थकी नीकली नै द्रह नै विषे आवी ने पूर्ववत तोरणादिक नी अर्चनिका कर, करीने पूर्व द्वारे करि अभिषेक सभा नै विषे प्रवेश कर। प्रवेश करीने मणिपीठिका अनै सिंहासन नी वली अभिषेक भांड नी अनैं बहु मध्य देश भाग नी पूर्ववत अर्चनिका अनुक्रम करिक कर। तिवारै पर्छ इहां पिण सिद्धायतनवत दक्षिण द्वारादिक पूर्व नंदा पुष्करणी पर्यवसान अर्चनिका कहिवी । तिवार पछै पूर्व नंदा पुष्करणी थकी पूर्व द्वार करीनै अलंकारिक सभा प्रति प्रवेश करीने मणिपीठिका अन सिंहासन नीं वली अलंकारिक भांड नीं अन बहु मध्य देश भाग नी अनुक्रम करिके पूर्ववत् अर्चनिका करै । तिवार पछ इहां पिण अनुक्रम करी सिद्धायतनवत दक्षिण द्वारादिक पूर्व नंदा पुष्करणी पर्यवसान अर्चनिका कहिवी।। तिवार पछ पूर्व नंदा पुष्करणी थकी पूर्व द्वार करी व्यवसाय सभा प्रति प्रवेश करै । प्रवेश करीने पुस्तक रत्न प्रत लोमहस्त करिके पूंजीनै उदक धारा करिके सींची ने चंदने करी चर्ची ने वर गंध माल्य करी अर्ची नै पुष्पादिआरोपण अनें धूप-दान करें। तदनंतर मणिपीठिका नी अने सिंहासन नी अने बहु मध्य देश भाग नी अनुक्रम करिक अर्चनिका करै। तदनंतर तिहां पिण सिद्धायतनवत दक्षिण द्वारादिक पूर्व नंदा पुष्करणी पर्यवसान अर्चनिका कह्विी। तिवार पछी पूर्व नंदा पुष्करणी थकी वलिपीठ विषे आवी ने बहु मध्य देशभागवत अर्चनिका करै, करीने आभियोगिक देवता प्रति बोलावी ने कहै-- खिप्पामेव इत्यादिक सुगम । जिहां लगे आभियोगिक देवता शक सुरेंद्र कह्यो तिम सुधर्मावतंसक विमान के विषे सर्व स्थानक पूजी ने आज्ञा पाछी सूपं । णवरं इहां शृंघाटकादिक शब्द नो वृत्तिकार जूओ-जूओ अर्थ कियो छ। तिवार पछ शक्र बलि-पीठे वलि-विसर्जन कर, पूजतां जे वाना ऊगरया, ते वलि-पीठ नै विषे स्थापे। तिवार पछै ईशाण कणे नंदा पुष्करणी प्रति प्रदक्षिणा देइ पूर्व तोरणे करी नंदा पोखरणी में पैसी हाथ पग पखाली नंदा पुष्करणी थी नीकली सामानिकादि परिवार सहित सर्व ऋद्धि करिक यावत दुंदुभि नां निर्घोष नाद शब्दे करी सुधर्मावतंसक विमान नै मध्योमध्य थइ सुधर्मा सभा तिहां आवी ते सभा नै पूर्व द्वारे करी प्रवेश करै । मणिपीठिका नै ऊपर सिंहासन नै विषे पूर्व साम्हो मुख करी बेस । तिवार पछ पूर्वे कह्यो तिण प्रकार करि सिंहासन ने विदिस पूर्वादि दिशे सामानिकादिक बेस । 'ए वृत्ति थी वारता लिखी तिणमें सुधर्मा सभा ने तीन दिशे द्वार मुख मंडपादिक पूज्या कह्या अने घणी परतां में सुधर्मा सभा नै त्रिहुं दिशे द्वार मुख मंडपादिक पूजवा नो पाठ नथी कह्यो । ते ए वाचना भेद दीस छ । वलि सुधर्मा सभा थी उपपात सभा नै विषे आवी मणिपीठिका, देवसेज्या, बहु मध्य देश भाग नीं पूजा वृत्ति में तो कही अनै घणी परतां में ए पाठ दीसतो नथी। ए पिण ततः सभायाः सुधर्माया बहुमध्यदेशभागेऽनिका पूर्ववत् करोति, कृत्वा सुधर्माया: सभाया दक्षिणद्वारे समागत्य तस्य अर्चनिकां पूर्ववत् कुरुते, ततो दक्षिणद्वारेण विनिर्गच्छति, इत ऊध्वं यथैव सिद्धायतनानिष्क्रामतो दक्षिणद्वारादिका दक्षिणनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रविशत: उत्तरनन्दापुष्करिण्यादिका उत्तरद्वारान्ता ततो द्वितीयद्वारान्निष्कामतः पूर्वद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अर्चनिकावक्तव्यता सैव सुधर्मायां सभायामप्यन्यूनातिरिक्ता वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिण्या अर्चनिकां कृत्वा उपपातसभां पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य च मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य तदनन्तरं बहुमध्यदेशभागे प्राग्वदर्च निकां विदधाति, ततो दक्षिणद्वारे समागत्य तस्यानिकां कुरुते। अत ऊर्ध्वमत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्चनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतोऽपक्रम्य ह्रदे समागत्य पूर्ववत् तोरणार्च निकां करोति, कृत्वा पूर्वद्वारेणाभिषेकसभा प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकाया: सिंहासनस्याभिषेकभाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्ववदर्चनिकां करोति, ततोऽत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अर्चनिका वक्तव्या तत: पूर्वनन्दापुष्करिणीत: पूर्वद्वारेणालङ्कारिकसभा प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकाया: सिंहासनस्य अलंकारभाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्ववदनिकां करोति, तत्रापि क्रमेण सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अचंनिका वक्तव्या। ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतः पूर्वद्वारेण व्यवसायसभा प्रविशति, प्रविश्य पुस्तकरत्नं लोमहस्तकेन प्रमृज्य उदकधारया अभ्युक्ष्य चन्दनेन चर्चयित्वा वरगन्धमाल्यैरर्चयित्वा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति, तदनन्तरं मणिपीठिकाया: सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्ववदर्च निकां करोति, तदनन्तरमत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अर्चनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतो बलिपीठे समागत्य तस्य बहुमध्यदेशभागवत् अर्चनिकां करोति, कृत्वा च आभियोगिकदेवान् शब्दापयति, शब्दापयित्वा एवमवादीत् 'खिप्पामेव' इत्यादि सुगमं यावत् 'तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति'। ततः शक्रेन्द्रः बलिपीठे बलिविसर्जनं करोति, कृत्वा चोत्तरपूर्वी नन्दापुष्करिणीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वतोरणेनानुप्रविशति, अनुप्रविश्य च हस्तौ पादो प्रक्षालयति श० १०, उ०६, ढा०२२४ ३७६ Jain Education Intemational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचना भेद दीस छ । अनें वृत्तिकार सुधर्मा सभा में त्रिहुं दिशे द्वार मुख मंडपादिक नी पूजा कही अने उपपात सभा ने विष पिण मणिपीठिका, देव सेज्या ने बहु मध्य देश भाग नी पूजा इत्यादिक वारता कही ते किणही वाचना में देखी दीसै छ। तिण अनुसारे कही जणाय छ। ते बात मिलती संभवै । वली शके पूजा करी बलिपीठिका ने विषे बलि विसर्जन कियो, घणी परतां में तो एहवं कह्य अनै वृत्तिकार आभियोगिक देवता सुधर्मावतंसक विमान नी पूजा करी तठा पछ बलि पीठिका नै विषे बलि विसर्जन कियो कह्यो, ए पिण वाचना भेद हुवै तो ते पिण केवली जाण ।' [ज० स०] ३०१. *एहवो शक तणो परिवार, तिणरा पुन्य तणो नहि पार । स्थित दोय सागर नी हुंत, वलि गोयम प्रश्न करत ।। प्रक्षाल्य नन्दापुष्करिण्याः प्रत्यवतीर्य सामानिकादिपरिवारसहितः सर्वर्द्धचा यावद् दुन्दुभिनिर्घोषनादितरवेण सूर्याभविमाने मध्यमध्येन समागच्छन् यत्र सुधर्मा सभा तत्रागत्य तां पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकाया उपरि सिंहासने पूर्वाभिमुखो निषीदति । [१४०] ततः (पृ० १०२ पं० ३] प्रागुपदर्शितसिंहासनक्रमेण १ सामानिकादय उपविशन्ति । (वृ० प० २६४-२६९) ३०१......"णं भंते ! .....केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! ........ठिई पण्णत्ता। (राय० सू० ६६५) ३०२,३०३. सक्के णं भंते ! देविदे देवराया केमहिड्ढिए जाव केमहासोक्खे ? गोयमा ! महिड्ढिए जाव महासोक्खे। से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससय सहस्साणं जाव ३०४. तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं जाव अन्नेसिं च बहूणं जाव देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे त्ति ।। (वृ० ५० ५०७) ३०५. एमहिड्ढिए जाव एमहासोक्खे सक्के देविंदे देवराया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति __ (श० १०१००,१०१) ३०६. दशमशते षष्ठोद्देशक: (वृ० ५० ५०७) ३०२. प्रभु ! शक्र सुरिंद्र सुरराय, केहवो महाऋद्धिवान कहाय। जाव केहवो महा ईश्वर सुखवंत ? हिवै वीर कहै सुण संत ।। ३०३. शक्र सुरिंद्र महाऋद्धिवान, जाव महाईस्वर सुविधान । तिणरै बतीस लाख विमाण, सहस चउरासी सामानिक जान ।। ३०४. तावत्तीसग तेतीस, आठ अग्रमहिषी जगीस । जाव अन्य बहु सुर सुरी जेह, तसं अधिपतिपणे विचरेह ।। ३०५. एहवो शक महाऋद्धिवान, जाव महाईस्वरवंत जान । सेवं भंते ! सेवं भंत ! प्रभु तहत्ति वचन तुम तंत ॥ ३०६. शतक दशमा नों सोय, ओ तो छट्टो उद्देशो जोय । अर्थ थकी आख्यात, बहु अन्तर ढाल साख्यात ॥ ३०७. ढाल बेसौ चउवीसमी ताह्यो, भिक्षु भारीमाल ऋषिरायो। सुख संपति तास पसायो, हद 'जय-जश' हरष सवायो ।। दशमशते षष्ठोद्देशकार्थः॥१०६॥ ३०८,३०६. षष्ठोद्देशके सुधर्मसभोक्ता, सा चाश्रय इत्याश्रयाधिकारादाश्रयविशेषानन्तरद्वीपाभिधानान् मेरोरुत्तरदिग्वत्तिशिखरिपर्वतदंष्ट्रागतान् लवणसमुद्रान्तर्वत्तिनः । (वृ० प०५०७) ३०८. षष्ठमुदेशे सुधर्मा सभा कही सुखकार । ते आश्रय तिण कारणे, हिव आश्रय अधिकार ।। ३०६. अन्तरद्वीपा मेरु थी, उत्तर दिशि वृत्ति माय । सिखरी गिरि दाढा लवण-दधि अंतर कहिवाय ।। ३१० कह्यो धर्मसी इहविधे, लवणोदधि जल मांय । अंतर छै तिण कारण, अंतरद्वीप कहाय ।। ३११. प्रभु ! उत्तर नां मनुष्य नों, एकोरुक अभिधान । तास द्वीप पिण एगुरुक, किहां कह्यो भगवान ? ३१२. इम जिम जीवाभिगम में, तिमज सर्व सुविशेष । जाव शुद्धदंत द्वीप लग, ए अठबीस उद्देश ।। ३११. कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगरुयमणुस्साणं एगुरुयदीवे नाम दीवे पण्णत्ते? ३१२. एवं जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव सुद्धदंतदीवो त्ति एए अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियब्वा । (थ० १०१०२) *लय : सुण चरिताली थारा लक्षण ३८० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३. दक्षिण दिशि नां दाखिया, पूरव अंतरद्वीप । तिण अनुसारे जाणवा, सेवं भंत ! समीप ।। ३१४. दशमा शतक तणां कह्या, च्यार तीस उद्देश । दशमो शतक कह्यो हिवै, एकादशम कहेस ।। दशमशते सप्तमोद्देशकादारभ्य चतुश्त्रिशत्तमोद्देशकार्थः ॥१०।७-३४॥ ३१३. पूर्वोक्तदाक्षिणात्यान्तरद्वीप-वक्तव्यताऽनु-सारेणावगन्तव्यः । (वृ० ५० ५०८) ३१४. दशमशते चतुस्त्रिशत्तम उद्देशकः समाप्त: (वृ० ५० ५०८) गीतक छंद १. इह रीत गुरु जन सीख अरु प्रभु पार्श्वनाथ प्रसादमय, सुविस्तृत द्वय पंख नो सामर्थ्य पा थइ नै अभय । २. शतक दशम विचाररूपज भूधरान चढ्यो सही। शकुनि-शिशु निभ तुच्छ ज्ञानज तनु छतो पिण हूं वही । १,२. इति गुरुजनशिक्षापाश्वनाथप्रसाद प्रसृततरपतत्रद्वन्द्वसामर्थ्यमाप्य । दशमशतविचारक्षमाधरायेऽधिरूढः, शकुनिशिशुरिवाहं तुच्छबोधांगकोऽपि ॥ (वृ० ५० ५०८) श.१००३४, ढाल २२४ ३८१ Jain Education Intemational Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश शतक Jain Education Intemational Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश शतक ढाल : २२५ १,२. अनन्तरशतस्यान्तेऽन्तरद्वीपा उक्तास्ते च वनस्पति बहुला इति वनस्पतिविशेषप्रभृतिपदार्थस्वरूपप्रतिपादनायकादशं शतं भवति । (वृ०प० ५०८) १. छेहडै दशमां शतक रै, अंतरद्वीपा ख्यात । वनस्पति बह छै तिहां, तेहथी हिव अवदात ।। २. इहां वनस्पति प्रमुख जे, घणां पदार्थ कहिवाय । __ द्वादश उद्देशा तसु, एकादशमां मांय ॥ ३. उत्पल अर्थ प्रथम कह्यो, द्वितीय उत्पल-कंद । पलास-केसु नो तृतीय, कुंभी वणस्सइ मंद ॥ ४. नाडी सदश फल तस्, वनस्पति नाडीक । पद्म करणिका नै नलिण, तसु अधिकार सधीक ।। ५. यद्यपि पद्मोत्पल नलिण, नाम कोश एकार्थ । तो पिण रूढि थकी इहां, जुदा-जुदा तत्त्वार्थ ।। ६. शिव नामा ते राजऋषि, दशम लोक अधिकार । एकादशमुद्देशके, कह्यो काल विस्तार ।। ३. उप्पल सालु पलासे कुंभी 'उप्पले' त्यादि उत्पलार्थः प्रथमोद्देशक: 'सालु' ति शालूकं-उत्पलकन्दस्तदर्थो द्वितीयः 'पलासे' त्ति पलाश:-किंशुकस्तदर्थस्तृतीयः 'कुंभी' ति वनस्पतिविशेषस्तदर्थश्चतुर्थः। (वृ० ५० ५११) ४. नालि य पउम कण्णी य नलिण नाडीवद्यस्य फलानि स नाडीको-वनस्पतिविशेष एव तदर्थः पञ्चमः । (वृ०प० ५११) ५. यद्यपि चोत्पलपद्मनलिनानां नामकोशे एकार्थतोच्यते तथाऽपीह रूढे विशेषोऽवसेयः। (वृ०प० ५११) ६. सिव लोग काल 'सिव' त्ति शिवराजर्षिवक्तव्यतार्थो नवमः । 'लोग' त्ति लोकार्थो दशमः,"कालार्थ एकादशः । (वृ०प० ५११) ७. आलभिय दस दो य एक्कारे ॥ आलभिकायां नगर्यां यत्प्ररूपितं तत्प्रतिपादक उद्देशको ऽप्यालभिक इत्युच्यते ततोऽसौ द्वादशः । (वृ० ५० ५११) ८. तत्र प्रथमोद्देशकद्वारसंग्रहगाथा वाचनान्तरे दृष्टास्ताश्चेमाः। (वृ०५० ५११) ९. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी१०. उप्पले णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणगः जीवे ? गोयमा ! एगजीवे ७. आलभिका नगरी विषे, अर्थ परूप्या स्वाम। ते उद्देशो बारमो, आलंभिका तसु नाम ।। ८. प्रथम उद्देशक द्वार नी, संग्रह गाथा जेह । वाचनांतर' देखने, आगल लिखियै एह ॥ है. तिण काले नै तिण समय, नगर राजगह नाम । यावत गोतम वीर ने, प्रश्न करै गुणधाम ।। १०. हे प्रभु ! उत्पल पेख, एक पत्रे जीव स्यूं एक । अथवा है जीव अनेक ? जिन कहै जीव इक लेख ॥ १. अतोऽग्रे प्रथमोद्देशकद्वारसंग्रहगाथा लभ्यन्ते, ताश्च इमा उववाओ परिमाणं, अवहारुच्चत्त बंध वेदे य । उदए उदीरणाए, लेसा दिट्ठी य नाणे य ।। जोगवओगे वण्ण, रसमाई ऊसासगे य आहारे । विरई किरिया बंधे, सन्न कसायित्थि बंधे य ॥ सन्निदिय अणुबंधे, संवेहाहार ठिइ समुग्घाए । चयणं मूलादीसु य, उववाओ सव्वजीवाणं ॥ (वृपा) * लय । विना रा भाव सुण-सुण गूंज] १० ११० उ०१, ढाल २२५ ३८५ Jain Education Intemational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ए किसलय नव अंकूर, ते अवस्था थी ऊपर भूर। किसलय सूओ तो छै अनंतकाय, सूआ पछै एक पत्र थाय । १२. एक पत्रपणां थी विशेष, एक जीव पिण नहिं छै अनेक । उत्पल शब्दे ताय, नीलोत्पलादि कहाय ।। १३. एक पत्र थकी उपरंत, शेष पत्रादि विषे कहत ।। तिणमें एक जीव नहिं हंत, तिहां जीव घणां उपजंत ।। ११. एकपत्रकं चेह किशलयावस्थाया उपरि द्रष्टव्यम् । (वृ०५० ५११) १२. नो अणेगजीवे। 'उत्पलं' नीलोत्पलादि। (वृ०प० ५११) १३. तेण परं जे अण्णे जीवा उववज्जति ते णं नो एगजीवा । अणेगजीवा (श०११११) यदा तु द्वितीयादि पत्रं तेन समारब्धं भवति तदा नैकपत्रावस्था तस्येति बहवो जीवास्तत्रोत्पद्यन्त इति (वृ० ५० ५१२) वा०-'तेण परं' ति ततः-प्रथमपत्रात् परत: 'जे अन्ने जीवा उववज्जति' त्ति येऽन्ये- प्रथमपत्रव्यतिरिक्ता जीवा जीवाश्रयत्वात् पत्रादयोऽवयवा उत्पद्यन्ते ते 'नकजीवाः' नकजीवाश्रया: किन्त्वनेकजीवाश्रया इति । अथवा 'तेणे' त्यादि, तत:-एकपत्रात्परतः शेषपत्रादिण्वित्यर्थ: येऽन्ये जीवा उत्पद्यन्ते ते 'नकजीवा' नैकका: किन्त्वनेकजीवा अनेके इत्यर्थः। (व०प० ५१२) वा०-'तेण परं' ते प्रथम पत्र थकी पछ 'जे अन्ने जीवा उववज्जति' जे अनेरा घणां जीव ऊपजे, अनेक जीव नां आश्रयपणां थकी पत्रादि अवयव कहियै । ते एक जीव नहीं, एक जीव नै आश्रयी नहीं, किंतु अनेक जीव छै । अथवा 'तेण इत्यादि' ते एक पत्र थी पछ शेष पत्रादिक नै विषे जे अनेरा जीव ऊपज ते एक जीव नहीं, अनै एक नै विषे ऊपजे पिण नहीं, किंतु अनेक जीव छ, अनेक नै विषे ऊपजै छ । इहां ए भावार्थ-एक पान थकी शेष पत्र आदि ने विषे अनेक जीव छ तेहनै विषे अनेक जीव ऊपजै छ । उपपात द्वार (१) १४. हे भगवंत ! ते जीवा, किहां थकी ऊपजै अतीवा। स्! नरक थकी उपजंत, तिरि मनुष्य देव थी हुँत ? १५. जिन भाखै उत्पल मांय, नरक थकी ऊपजै नाय । तिरि मनुष्य देव थी जाण, उत्पल में ऊपजै आण ।। १६. पद छठ पनवणा मांय, ऊपजवो तिम कहिवाय । जाव ईशान नां देव, उत्पल में ऊपजै भेव ।। १४. ते णं भंते ! जीवा कतोहितो उववज्जति–कि नेर इए हितो उववज्जंति ? तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? मणुस्सेहितो उववज्जति? देवे हिंतो उवव ज्जति? १५. गोयमा! नो नेरइएहितो उववज्जति, तिरिक्खजोणिए हिंतो उववज्जंति, मणुस्सेहिंतो उववज्जंति, देवे हितो वि उववज्जति । १६. एवं उववाओ भाणियब्वो जहा वक्कंतीए (प०६८) वणस्सइकाइयाणं जाव ईसाणेति । (श० १११२) जहा बक्कंतीए'त्ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे । (वृ०प०५१२) १७. ते णं भंते ! जीवा एगसमए णं केवइया उववज्जंति? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा; १८. उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववजंति । (श० ११॥३) परिमाण द्वार (२) १७. जीव तिके भगवंत ! एक समय किता उपजत ? जिन कहै जघन्य एक दोय, तीन ऊपजै छै अवलोय ।। १८. उत्कृष्टा संख्याता हुंत, तथा असंख्याता उपजंत । ए परिमाण द्वार कह्यो बीजो, अपहरण द्वार हिव तीजो।। ___अपहरण द्वार (३) १६. प्रभु ! समय-समय प्रति जेह, अपहरतां काढतां तेह । अपहरिये केतल काल? इम गोयम प्रश्न विशाल ।। २०. जिन कहै असंख्याता जंत, ते समय-समय अपहरंत । असंख अव-उत्सर्पिणी ताय, निश्चै अपहरिया नहिं जाय ।। उच्चत्व द्वार (४) २१. तनु अवगाहना प्रभु ! केती? जघन्य आंगुल असंख भाग एती। उत्कृष्टी हुवे घणेरी, इक सहस्र योजन जाझेरी ।। १६. ते णं भंते ! जीवा समए-समए अवहीरमाणा-अवहीर माणा केवतिकालेणं अवहीरंति? २०. गोयमा ! ते णं असंखेज्जा समए-समए 'अवहीरमाणा अवहीरमाणा' असंखेज्जाहिं ओसप्पिणि-उस्सप्पिणी हिं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिया सिया। (श० १११४) २१. तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं । (श० १११५) १. उगता हुआ अंकुर ३८६ भववती घोर Jain Education Intemational Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. 'साइरेगं जोयणसहस्स' ति तथाविधसमुद्रगोतीर्थकादा विदमुच्चत्वमुत्पलस्यावसेयम् । (वृ०५० ५१२) सोरठा २२. तथाविध सुविचार, दधि' गोतीर्थादिक विषे। उच्चपणे अवधार, साधिक योजन सहस्र जे॥ बंध द्वार (५) २३. ज्ञानावरणी कर्म नां भदंत ! बंधगा कै अबंधगा हुंत ? जिन कहै अबंधगा नांय, बंधगे वा बंधगा वा थाय ॥ २३. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधगा? अबंधगा? गोयमा! नो अबंधगा, बंधए वा, बंधगा वा। (श० १११६) सोरठा २४. एक पत्र अवस्थाय, बंधग इक वचने कह्यो। __ द्वयादिक पत्रे पाय, बहु वचने छै बंधगा॥ २५ एवं जाव अंतराय संग, णवरं आयु कर्म अठ भंग । __ इकसंयोगिक भंग च्यार, द्विकयोगिक चिहुं धार । २४. एकपत्रावस्थायां बन्धक एकत्वात् द्वयादिपत्रावस्थायां च बन्धका बहुत्वादिति। (वृ०प० ५१२) २५. एवं जाव अंतराइयस्स, नवरं--आउयस्स-पुच्छा। 'नवर' मित्यादि, इह बन्धकाबन्धकपदयोरेकत्वयोगे एक वचनेन द्वौ विकल्पो बहुवचनेन च द्वो द्विकयोगे तु यथायोगमेकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वारः इत्येवमष्टी विकल्पाः । (वृ०प० ५१२) २६. बंधए वा, २७. अबंधए वा, इकसंयोगिक भांगा च्यार २६. एक पत्र अवस्थाए न्हाल, आखखो बांधै तिण काल । बंधए इक वचने कहिये, ए प्रथम भंग इम लहिये ।। २७. इक पत्र तणे अवस्थाय, आयु बंध काल विण ताय । अबंधए इक वचनेह, भंग दूजो कह्यो छै एह ॥ २८. दोय आदि पत्र अवस्थाय, आउखा नें बंध-काल ताय । बंधगा बहु वचने कहाय, ए तीजो भांगो इण न्याय ।। २६. दोय आदि पत्र अवस्थाय, आयु बंध-काल विण ताय । __ अबंधगा बहु वचनेह, भंग चउथो कह्यो छ एह ।। २८. बंधगा वा, २६. अबंधगा वा द्विकसंयोगिक भांगा च्यार ३०. बंधक इक वचनेह, अबंधक इक वच तेह । बंधक इक वच जेह, अबंधगा बहु वचनेह ।। ३१. बंधगा बहु वच जेह, अबंधग इक वच एह। बंधगा बहु वचनेह, अबंधगा बहु वच तेह ।। ३०. अहवा घंधए य अबंधए य अहवा बंधए य अबंधगा य। ३१. अहवा बंधगा य अबंधए य अहवा बंधगा य अबंधगा (श० १११७) वेद द्वार (३) ३२. हे भगवंत ! ते जीवा, ज्ञानावरणी कर्म नां अतीवा। वेदक ते वेदन्त, अथवा अवेदक हंत? __ वा०-वेदवो ते अनुक्रम उदै आया नै तथा उदीरणा करिक उदय आण्या कर्म नो अनुभव-भोगविवू । ३३. जिन कहै अवेदका नांय, वेदक प्रथम पत्र अपेक्षाय । तथा वेदगा बह वचनेह, दोय आदि पत्र आधी एह ॥ ३२. ते णं भंते! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि वेदगा? अवेदगा? वा०-वेदनं अनुक्रमोदितस्योदीरणोदीरितस्य वा कर्मणोऽनुभवः । (वृ०प० ५१२) ३३. गोयमा ! नो अवेदगा, वेदए वा, वेदगा वा । अत्रापि एक पत्रतायामेकवचनान्तता अन्यत्र तु बहुवचनान्तता। (वृ० ५० ५१२) १. समुद्र । *विना रा भाव सुण-सुण गूंज .११. उ. १, ढाल १२५ १७ Jain Education Intemational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. एवं जाव अंतराइयस्स । (श० ११३८) ते णं भंते ! जीवा कि सायावेदगा? असायावेदगा ३५. गोयमा ! सायावेदए वा असायावेदगा वा-अटू भंगा। (श० ११६) ३६. तेणं भते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि उदई ? अणुदई ? गोयमा ! नो अणुदई । वा०-उदयश्चानुक्रमोदितस्यैवेति वेदकत्वप्ररूपणेऽपि भेदेनोदयित्वप्ररूपणमिति। (वृ०प० ५१२) ३७. उदई वा, उदइणो वा । एवं जाव अतराइयस्स । (श० ११।१०) ३८. ते णं भंते ! जीवा नाणावरणिज्जस्स कम्मरस कि उदीरगा? अणुदीरगा? | ३६. गोयमा ! नो अणुदीरगा, उदीरए वा, उदीरगा वा । ४०. एवं जाव अंतराइयस्स, नवरं-वेदणिज्जाउएस अट्ट भंगा। (श० ११।११) ४१. वदनीये-सातासातापेक्षया आयुषि पुनरुदीरकत्वानु दीरकत्वापेक्षयाष्टौ भंगाः। (वृ०५० ५१२) ३४. एवं जाव कर्म अंतराय, वलि गोतम पूछ वाय । . सातावेदगा ते प्रभ ! जीवा, के असातावेदगा कहीवा? ३५. जिन कहै साता ने असात, वेदग वेदगा नो अवदात । आठ भांगा पूर्ववत जाणी, साता असाता नां सुपिछाणी ।। उदय द्वार (७) ३६. हे भगवंत ! ते जीवा, ज्ञानावरणी कर्म नां सदीवा। उदयवंत के अणउदयवंत ? जिन कहै अणउदय न हंत ।। वा०-उदय ते अनुक्रम उदय आया नौं ईज । इण हेतु थकी वेदकपणां नी परूपणा कीधे छते पिण भेद करिके उदयपणां नो परूपवो। ३७. उदई इक वच धुर पत्र एह, तथा उदइणो बहु वच जेह । दोय आदि पत्र अपेक्षाय, एवं जाव कर्म अंतराय ।। उदीरणा द्वार (८) ३८. हे भगवंत ! ते जीवा, ज्ञानावरणी नां अतीवा। उदीरणावंत कहाय, कै उदीरणावंत छै नाय ? ३६. जिन कहै अनुदीरक नांय, एतले ते उदीरक थाय । उदीरक इक वच धुर पत्र, बह वच उदीरगा बहु पत्र ।। ४०. एवं जाव अंतराय पेख, णवरं एतलो छै विशेख । वेदनी आयु विषे विख्यात, आठ भांगा पूर्ववत थात ॥ ४१. वेदनी कर्म साता असात, तेह अपेक्षाय अवदात । आयु विषे वलि कहिवाय, उदीरक अनुदीरक पेक्षाय ॥ इकसंजोगिया ४ भांगा १. साता उदीरए ३. साताउदीरगा २. असाता उदीरए ४. असाता उदीरगा हिवै द्विकसंजोगिक ४ भांगा ५. साता उदीरए असाता उदीरए ७. साता उदीरगा असाता उदीरए ६. साता उदीरए असाता उदीरगा .. ८. साता उदीरगा असाता उदीरगा एतले सर्व मिली ८ भांगा वेदनी कर्म नां हुआ। हिव आउखा आश्री कहै छइकसंजोगिया ४ भांगा १. आउ उदीरए वा ३. आउ उदीरगा वा २. आउ अणुदीरए वा ४. आउ अणुदीरगा वा द्विकसंजोगिक ४ भांगा ५. आउ उदीरए आउ अणुदीरए ७. आउ उदीरगा आउ अणुदीरए ६. आउ उदीरए आउ अणुदीरगा ८. आउ उदीरगा आउ अणुदीरगा ए ४ भांगा एक वचन, ए ४ भांगा बहु वचन, एवं ८ । वा०-ए आउखा नों अनुदीरकपणो किम हुवं? आउखा ने उदीरणा करिकै उदीरवो कदाचितपणां थकी। लेश्या द्वार (8) ४२. उत्पल जीवा भदन्त ! स्यूं कहियै कृष्ण लेश्यावंत । अथवा नील तथा कापोत, तथा तेजु लेश्यावंत होत ? वाo---अनुदीरकत्वं चायुष उदीरणाया: कादाचित त्यादिति (वृ० ५० ५१२) ४२. ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेसा? नीललेगा? काउलेसा ? तेउलेसा ? ३२८ भगवती-जोड़ . .. Jain Education Intemational ation Intemational Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. जिन कहै इकयोगिक अठ, कृष्ण लेस्से इक वच प्रगट ॥ तथा नील तथा काउ धार, तथा तेजु ए इक वच च्यार । ४४. तथा कृष्ण लेस्सा सुविशेषा, अथवा जाव तेजु लेस्सा। ए बहु वच भंग चिहुं दीस, हिवै द्विकयोगिक चउवीस ।। ४५. त्रिकयोगिक भंग बत्तीस, चउक्कयोगिक सोल कहीस । इम असी भांगा अवलोय, तिके कहिवा विचारी जोय ॥ ४३. गोयमा! कण्हलेसे वा नीललेसे वा काउलेसे वा तेउ लेसे वा। एककयोगे एकवचनेन चत्वारः। (वृ० ५० ५१२) ४४. कण्हलेस्सा वा नीललेस्सा वा काउलेस्सा वा तेउलेस्सा वा अहवा कण्हलेसे य नीललेसे य। एवं एए दुयासंजोगतियासंजोगच उक्कसंजोगेणं असीति (श०११।१२) ४५. बहुवचनेनापि चत्वार एव, द्विकयोगे तु यथायोगमेक वचनबहुवचनाभ्यां चतुर्भगी, चतुर्णां च पदानां षड् द्विकयोगास्ते च चतुर्गुणाश्चतुर्विंशतिः त्रिकयोगे तु त्रयाणां पदानामष्टो भंगा: चतुर्णां च पदानां चत्वारस्त्रिकसंयोगास्ते चाष्टाभिर्गुणिता द्वात्रिंशत्, चतुष्कसंयोगे तु षोडश भंगाः, सर्वमीलने चाशीतिरिति (वृ०प० ५१२) इकसंजोगिया भांगा ए च्यार भांगा एक वचन ए च्यार भांगा बहुवचन द्विकसंजोगिया भांगा २४ श. ११० उ० १, ढाल २२५ १८६ Jain Education Intemational Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | का. | २५ १४ २२ १ ३ ३ का.ते. एवं त्रिक संजोगिया ३२ भांगा कह्या त्रिकसंजोगिया भांगा ३२ कृ. नी. | का. ३९० भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउक्कसंजोगिया १: भांगा कहै छै नी. का. WIn In एवं चउक्कसंजोगिया १६ भांगा एतले सर्व ८० भांगा कहा। दृष्टि द्वार (१०) ४६. उत्पल जीव सुजोय, प्रभु ! स्यूं समदृष्टि होय । कै मिथ्यादष्टि कहिवाय, के समामिथ्यादाष्ट थाय ? ४७. जिन कहै समदृष्टि न पाय, समामिथ्यादष्टि पिण नांय । इक वच मिथ्यादृष्टि उदिष्ट, तथा बहु वच मिथ्यादृष्ट ।। नाणी-अनाणी द्वार (११) ४८. ते प्रभु ! जीव पिछानी, स्यं ज्ञानी के कहिये अज्ञानी ? जिन कहै ज्ञानी नहिं होय, अज्ञानी इक बह वच जोय ॥ ४६. ते णं भंते ! जीवा कि सम्मद्दिट्ठी? मिच्छादिट्टी ? सम्मामिच्छादिट्ठी ? ४७. गोयमा ! नो सम्मद्दिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी, मिच्छादिट्ठी वा मिच्छादिट्ठिणो वा । (श० ११११३) ४८. ते णं भंते ! जीवा कि नाणी ? अण्णाणी? गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी वा, अण्णाणिणो वा। (श० ११।१४) १० ११० उ०१, ढाल २२५ ३६१ Jain Education Intemational cation Intemational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोग द्वार (१२) ४६. स्यूं प्रभु ! ते मन जोगी, के वच जोगी काय प्रयोगी? जिन कहै मन वच नाय, काय जोग इक बहु वच पाय ।। उपयोग द्वार (१३) ५०. प्रभ ! स्यू ते सागारोवउत्ता, के अणागारोवउत्ता उक्ता ? जिन कहै सागारोव उत्ते, इक वचन करीनें प्रयुक्ते ।। ४६. ते णं भंते ! जीवा कि मणजोगी? वइजोगी? कायजोगी? गोयमा ! नो मणजोगी, नो वइजोगी, कायजोगी वा, कायजोगिणो वा। (श० ११११५) ५०. ते णं भंते ! जीवा कि सागारोवउत्ता? अणागारोव उत्ता ? गोयमा ! सागारोवउत्ते वा । ५१. अणागारोवउत्ते वा--अट्ठ भंगा। (श० ११।१६) ५१. अथवा अणागारोवउत्ते, ए पिण एक वचन करि उक्ते । इम अठ भंगा अवधार, इक द्विक योगिक च्यार-च्यार। वर्णादि द्वार (१४) ५२. प्रभु ! उत्पल शरीर में तास, केता वर्ण गंध रस फास? उत्तर-वर्ण पंच गंध दोय, रस पंच फर्श अठ होय ।। ५३. ते पिण आत्म स्वरूपे जाण, अवर्ण अगंध पिछाण । वलि फर्श अनैं रस नांय, जीव ते अरूपी कहिवाय ।। ५२. तेसि णं भंते ! जीवाणं सरीरगा कतिवण्णा, कतिगंधा, कतिरसा, कतिफासा पण्णत्ता? गोयमा ! पंचवण्णा दुगंधा पंचरसा अट्ठफासा पण्णत्ता। ५३. ते पुण अप्पणा अवण्णा, अगंधा 'अरसा, अफासा" पण्णत्ता ! (श०११११७) 'अप्पण' त्ति स्वरूपेण 'अवर्णा' वर्णादिजिताः अमूर्तत्वात्तेषामिति । (वृ०प०५१२) ५४. ते णं भंते ! जीवा कि उस्सासगा ? निस्सासगा? नो उस्सासनिस्सासगा? 'नो उस्सासनिस्सासए' त्ति अपर्याप्तावस्थायाम् । (वृ० ५० ५१२) ५५. गोयमा ! उस्सासए वा, निस्सासए वा उस्सास द्वार (१५) ५४. प्रभु ! उस्सासगा ते जीवा, के निस्सासगाज कहीवा । कै उस्सास-निस्सास नांय ? ए छै अपर्याप्त अवस्थाय ।। ५५. जिन उत्तर दिय सुचंग, इकसंयोगिक षट भंग । एक वचन उस्सासए तास, अथवा एक वचन ए निस्सास ॥ ५६. अथवा नो उस्सास-निस्सास, ए पिण एक वचन सुविमास । एवं बहु वचने त्रिहं जाण, इकयोगिक षट ए पिछाण ॥ ५७. द्विकयोगिक भांगा बार, त्रिकयोगिक आठ विचार । एवं सर्व भांगा छब्बीस, तिके यंत्र थकी सुजगीस ।। ५६. नो उस्सासनिस्सासए वा, उस्सासगा वा, निस्सासगा वा, नो उस्सासनिस्सासगा वा, ५७. अहवा उस्सासए य, निस्सासए य....." एते छब्वीसं भंगा भवंति । (श०११।१८) द्विकयोगे तु यथायोगमेकत्वबहुत्वाभ्यां तिस्रश्चतुर्भगिका इति द्वादश, त्रिकयोगे त्वष्टाविति अत एवाह-"एए छब्बीसं भंगा भवंति' त्ति। (वृ० ५० ५१२) १. इकसंजोगिक ४ भांगा१. सागारोवउत्ते १ ३. सागारोवउत्ता३ २. अणागारोवउत्ते २ ४. अणागारोवउत्ता ३ द्विकसंजोगिक ४ भांगा५. सागारोवउत्ते १ अणागारोवउत्ते १ ७. सागारोवउत्ता ३, अणागारोवउत्ते १ ६. सागारोवउत्ते १ अणागारोवउत्ता ३८.सागारोवउत्ता ३, अणागारोवउत्ता ३ एवं सर्व ८ भांगा। १. जयाचार्य ने पहले अफासा और उसके बाद अरमा की जोड़ की है। ३६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. नो. त्रिकसंजोगिक भांगा ८ इकसंयोगिक भांगा ६ नि. नो. | उ उ. नि. नो. द्विकसंजोगिया भांगा १२ उ. नो. नि. नो. २२ १ ३ ३ २३ | ३ ११ एवं सर्व २६ आहारक द्वार (१६) ५८. आहारक अनाहारक' प्रभु ! तेह ? उत्तर आहारक इक वच लेह । तथा अनाहारक वच एक, एहनां भांगा आठ उवेख । विरती द्वार (१७) ५९. प्रभु ! विरती अविरती ते जीवा, अथवा विरताविरतो कहीवा? उत्तर-विरती विरताविरती नांय, अविरती इक बहु वच ताय । ___क्रिया द्वार (१८) ६०. प्रभु ! सक्रिया अक्रिया तेह ? उत्तर–क्रिया रहित न कहेह । क्रिया सहित वच एक, तथा सक्रिया बहु वच पेख ।। बंध द्वार (१६) ६१. प्रभु ! सप्त बंधगा ते जीवा, के अष्ट बंधगा अतीवा? उत्तर-सप्त तथा अठ एक, इहां आठ भांगा सुविशेख ।। संज्ञा द्वार (२०) ६२. आहारसंज्ञोपयुक्त ते जीवा, भय मिथन परिग्रह कहीवा? जिन कहै असी भंग होय, पूर्व लेश्या कही तिम जोय । ५८. ते णं भंते ! जीवा किं आहारगा? अणाहारगा? गोयमा ! आहारए वा अणाहारए वा-अट्ठ भंगा। (श० ११११६) ५६. ते णं भंते ! जीवा किं विरया? अविरया ? गोयमा ! नो विरया, नो विरयाविरया, अविरए वा अविरया वा। (श० १०२०) ६०. ते णं भंते ! जीवा किं सकिरिया ? अकिरिया ? गोयमा ! नो अकिरिया, सकिरिए वा सकिरिया वा। (श० ११।२१) ६१. ते णं भंते ! जीवा कि सत्तविहबंधगा? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्टविहबंधए वा--अट्ठ भंगा। . (श० ११।२२) ६२. ते णं भंते ! जीवा कि आहारसण्णोव उत्ता ? भय सण्णोवउत्ता? मेहुणसण्णोवउत्ता? परिग्गहसपणोवउत्ता? गोयमा! आहारसण्णोवउत्ता-असीति भंगा। (श० ११०२३) ६३. ते णं भंते ! जीवा किं कोहकसाई ? माणकसाई ? मायाकसाई ? लोभकसाई ? असीति भंगा। (श० १११२४) ... लेश्याद्वारवद्व्याख्येयाः (वृ० ५० ५१३) कषाय द्वार (२१) ६३. प्रभु ! उत्पल क्रोध-कषाई, जाव लोभ-कषाई कहाई ? जिन कहै पूर्ववत जाण, लेश्या ज्यू असी भंगा पिछाण ॥ १. विग्रहगतिकाः। श०११ उ०१, ढाल २२५ ३९३ Jain Education Intemational Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद द्वार (२२) ६४. हे प्रभु ! उत्पल जीवा, इत्थी पुरुष नपुंसक कहीवा ? __ जिन कहै इत्थी पुरुष न होय, नपुंसक इक बहु बच जोय ।। वेद बंध द्वार (२३) ६५. प्रभु ! स्त्री-वेद बंधग जीवा, पुं नपंस बंधगा कहीवा? जिन कहै भांगा छब्बीस, सास-उस्सास जेम जगीस ।। सन्नी असन्नी द्वार (२४) ६६. प्रभु ! सन्नी असन्नी ते जीवा? जिन कहै सन्नो न कहीवा। एक वचन असन्नी कहिवाय, बहु वच असन्नी पिण थाय ।। इन्द्रिय द्वार (२५) ६७. प्रभ ! उत्पल जीव स्यूं कहिया, सइन्द्रिया के अणिदिया ? जिन कहै अणिदिया न तेह, सइंदिय इक बहु वचनेह ।। अनुबंध द्वार (२६) ६८. प्रभ ! उत्पल जीव निहाल, रहै काल थी केतलो काल ? उत्तर-जघन्य अन्तर्मुहर्त थात, उत्कृष्ट काल असंख्यात ।। संवेध द्वार (२७) ६६. प्रभु ! उत्पल जीव मरीन, पृथ्वी जीवपणे उपजी नैं । वलि उत्पलपणे उपजंत, कितो काल गतागत हुँत ? ७०. जिन कहै भव आश्री सोय, जघन्य थकी करै भव दोय । एक पृथ्वी उत्पल भव बीजो, उत्कृष्ट असंख भव लीजो ।। ७१. हिवे काल थकी अवलोय, जघन्य अन्तर्मुहर्त दोय । उत्कृष्ट काल असंख्यात, इतो काल गतागत थात ।। ६४. ते णं भंते! जीवा कि इत्थिवेदगा? पुरिसवेदगा? नपुंसगवेदगा? गोयमा ! नो इत्थिवेदगा, नो पुरिसवेदगा, नपुंसग वेदए वा नपुंसगवेदगा वा। (श० १११२५) ६५. ते णं भंते ! जीवा कि इत्थिवेदबंधगा? पुरिसवेद बंधगा? नपुंसगवेदबंधगा ? गोयमा ! .........."छब्बीसं भंगा। (श० ११।२६) ६६. ते णं भंते ! जीवा कि सण्णी? असण्णी? गोयमा ! नो सण्णी, असण्णी वा असण्णिणो वा । (श० ११।२७) ६७. ते णं भंते ! जीवा कि सइंदिया ? अणिदिया? गोयमा ! णो अणिदिया, सइंदिए वा सइंदिया था। (श० १११२८) ६८. से णं भंते ! उप्पलजीवेत्ति कालओ केवच्चिर होइ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं। (श० ११।२६) ६६. से णं भंते ! उप्पलजीवे पुढविजीवे पुणरवि उप्पल-. जीवेत्ति केवतियं काल सेवेज्जा ? केवतियं काल गतिरागति करेज्जा? ७०. गोयमा ! भवादेसेणं जहणणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं भवग्गहणाई। ७१. कालादेसेणं जहण्णेणं दो अतोमुहुत्ता, उक्कोसेण असंखेज्जं कालं, एवतियं काल सेवेज्जा, एवतिय कालं गतिरागति करेजा। (श० ११॥३०) वा०-'भवादेसेणं' ति भवप्रकारेण भवमाश्रित्येत्यर्थः 'जहन्नेण दो भवग्गहणाइ ति एकं पृथिवीकायित्वे ततो द्वितीयमुत्पलत्वे ततः परं मनुष्यादिगति गच्छेदिति । कालादेसेण जहन्नेण दो अंतोमुहुत्त' ति पृथ्वीत्वेनान्तर्मुहत्तं पुनरुत्पलत्वेनान्तर्मुहूर्तमित्येवं कालादशेन जघन्यतो द्व अन्तर्मुहुर्ते इति । (वृ० ५० ५१३) ७२. से णं भंते ! उप्पलजीवे, आउजीवे ....."एवं चेव । एवं जहा पुढविजीवे भणिए तहा जाव वाउजीवे भाणियव्वे। (श० ११॥३१) ७३. से णं भते ! उप्पलजीवे सेसवणस्साइजीवे से पूणरवि उप्पलजीवेत्ति केवतियं कालं सेवेज्जा ? केवतियं कालं गतिरागति करेज्जा? ७४. गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई, ७५. कालादेसेणं जहणणं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं अणंत कालं तरुकालं, एवतियं काल सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा। (श० ११॥३२) वा०-भव आश्रयी जघन्य बे भव, उत्पल जीव मरी प्रथम भव पृथ्वीपणे, द्वितीय भव उत्पलपणे । तिवारै पछै मनुष्यादि गति प्रति गमन करें। काल आश्रयी जघन्य बे अन्तर्मुहूर्त, ते किम ? उत्पल को जीव मरी एक पृथ्वीपणे अन्तर्मुहूर्त वली उत्पलपणे बीजो अन्तर्मुहूर्त, इम काल आश्रयी जघन्य थी दोय अन्तर्मुहूर्त । ७२. प्रभु ! उत्पल जीव मरीनें, अपकायपणे उपजी में। एवं चेव पृथ्वीवत भणवा, जाव वाउकाय लग गुणवा ॥ ७३. प्रभ ! उत्पल जीव मरीने, वनस्पतिपणे उपजी नैं। वलि उत्पलपणे उपजंत, कितो काल गतागत हंत? ७४. जिन कहै भव आश्री सोय, जघन्य थकी करै भव दोय । एवं वणस्सइ उत्पल बीजो, उत्कृष्ट अनंत भव लीजो।। ७५. हिवै काल थकी अवलोय, जघन्य अन्तर्महत दोय । उत्कृष्टो अनंतो काल, इतो काल गतागति न्हाल । ३६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. प्रभु ! उत्पल जीव मरी ने बेइन्द्रपणें उपजी नें । वलि उत्पलपणें उपजंत, कितो काल गतागति हुंत ? ७७. जिन कहै भव आश्री सोय, जघन्य थकी करें भव दोय । इक बेइन्द्रि उत्पल बीजो, उत्कृष्ट संख भव लीजो || ७५. हि काल थकी अवलोय, जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त दोय | उत्कृष्टो संख्यातो काल, इतो काल गतागति न्हाल ॥ ॥ ७९. इमहिज जीव इन्द्री का इमहिज जीव चरिद्री । तिथेच पंचेंद्री भी पृच्छा हिव सांगतो घर इच्छा || नीं ८०. प्रभु! उत्पल जीव मरी में पंचेंद्री-तियंच पई नें । नै, बलि उत्पलपणें उपजंत, कितो काल गतागति हंस ? ८१. जिन कहै भव आश्री सोय, जघन्य थकी करें भव दाय । उत्कृष्ट आठ भव जाण. बिहुं नां चिहुं चिहुं पहिछाण ॥ ८२. हिवै काल की अवलोय, उत्कृष्ट पृथक पूर्व कोड़, उत्पल जघन्य अन्तर्मुह दोय । भव अद्धा अधिको जोड़ ।। ८३. इम मनुष्य संघाते पिण कहियूँ, तो काल तेववूं लहिवूं । इतो काल गतागति तास, करे मनुष्य उत्पल सुविमास ।। आहार द्वार (२८) ४. हे भगवंत! ते जीवा स्यूं आहार करं छं अतीवा ? जिन कहै द्रव्य यकी जाग, अनंतप्रदेशि द्रव्य पिछाण || ८५. इमपन्नवर्ग पद अठवीसं को आहार उद्देश जगीसं । आहार को वणस्स नो ताय, जाव सर्वात्म लग कहिवाय ॥ ६. वरं लोक त अन्त ताय ते उत्पल कहिये नांय । तिणसूं निश्चदिशिनों से आहार, शेषं तं चैव सर्व विचार ॥ स्थिति द्वार (२६) ८७. उत्पल जीव तणी स्थिति केती ? हिवै वीर कहै हुवै जेती । जघन्य अन्तर्मुहूर्त दृष्ट दश सहस्र वर्ष उत्कृष्ट || समुद्घात द्वार (३०) तिण में किती प्रभु ! समुद्घात जिन भाखं तीन विख्यात । वेदनी नैं कषाय है बीजी, मारणांतिक कहियै तीजी ॥ ८९. मारणांतिक करि भगवंत! ते समोहया मरण कै असमोहया मरण होई ? जिन कहै मरण मरन्त । दोई ॥ ७६. से णं भंते ! उप्पलजीवे बेइंदियजीवे, पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केवतियं कालं सेवेज्जा ? केवतियं कालं मतिरागति करेज्जा ? ७७. गोमा उसको ७८. कालादेसेणं जहणेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं, एवतिय कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा । भवादेसेणं होणं दो भवगणाई, ज्वाई भवग्गणाई, ७६. एवं तेइंदियजीवे, एवं चउरिदियजीवे वि । (० ११।३३) ८०. से णं भंते ! उप्पलजीवे पंचिदियतिरिक्खजोणियजीवे, पुणरवि उप्पलजीवेत्ति पुच्छा । ८१. गोयमा ! भवादेसेणं जहणणेणं दो भवग्गहणाई, उस्को बनगाई चत्वारि पंचेन्द्रियतिरश्चश्चत्वारि चोत्पलस्येत्येवमष्टो भयग्रहणान्युत्कर्षतइति । (१० १०५१३) ८२. कालादेसेणं जहणेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं पुण्यकोपुहतं, उत्पलजीवितं त्वेतास्वाधिकमित्येवमुत्कृष्टतः पूर्वकोटीकुत्वं भवतीति । ( वृ० प० ५१३) ८३ एवं मणुस्सेण वि समं जाव एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा | ( ० ११०३४) ८४. ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! दव्वओ अणतपदेसियाई दव्वाई, ५. एवं जहा आहार (१०२८४२८-३६) वणस्सइकाइयाणं आहारो तहेव जाव सव्वप्पणयाए आहारमाहारैति ८६. नवरं - नियमा छद्दिसि सेसं तं चेव । ( श० ११1३५ ) उत्पल जीवातु वादरत्वेन तथाविधनिष्टेष्यभावान्नियमात् षट्सु दिवाहारयन्तीति । शо ११.३६) पण्णत्ता ? ८८. ( वृ० प० ५१३) ८७ तेसि णं भंते ! जीवाणं केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोपमा ! जो अलोह उक्को दस वास सहस्साई । (१० तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्धाया गोयमा ! तओ समुग्धाया पण्णत्ता तं जहावेदास समुग्याए, भारतियसमुग्धाए । (१० ११/२७) ८६. ते णं भंते! जीवा मारणंतियसमुग्धाएणं किं समोहता मति ? असमोहता मरति ? गोपमा समोहता व मरति असमोहता वि मरति । ( ० ११०३८) ३६५ 7 श० ११, उ० १, ढा० २२५ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चयण द्वार (३१) १०. प्रभु ! अन्तर-रहित ते जंत, नीकली किण गति उपजत ? जिन कहै पन्नवणा मांहि, पद छठे कह्यो छै ताहि ।। ११. वनस्पतिकाय नों विचार, उद्वर्तन कह्यो तिवार । तिमहिज सर्व ए भणवो, उत्पल नों नीकलवो थुणवो ।। मूलादिक नै विषे सर्व जीव नों उपपात द्वार (३२) ६२. अथ सर्व प्राण भगवान ! सर्व भूत जीव सत्व जान । उत्पल मूल-जीवपण जोय, पर्वे ऊपनां ते सोय ।। ६३. उत्पल कंदपणेंज उपनां, उत्पल नालपणेंज प्रमना । उत्पल पत्रपणे सह जीवा, पूर्वे ऊपनां छै अतीवा ।। १४. उत्पल नां. केसरपण, कणिका पासै अवयव जेह । उत्पल कणिकापणें कहाय, मध्य भाग बीज कोस ताय ॥ १०, ६१. ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उवट्टित्ता कहि गच्छंति ? कहिं उववज्जति......एवं जहा वक्कंतीए (प० ६।१०३,१०४) उव्वट्टणाए वणस्सइकाइयाणं तहा भाणियव्वं । (श० ११।३६) 'वक्कंतीए' त्ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे । (वृ० प०५१३) ६२. अह भंते ! सव्वपाणा, सव्वभूता, सव्वजीवा, सव्वसत्ता उप्पलमूलत्ताए, ६३. उप्पलकंदत्ताए, उप्पलनालत्ताए, उप्पलपत्तत्ताए, ६५. उत्पल थिबुकपणे करि जेह, जिहां पत्र ऊपजै तेह। पूर्व काल विषे सर्व जीवा, ऊपनां छै प्रभजी ! अतीवा ? १४. उप्पलकेसरत्ताए, उप्पलकण्णियत्ताए, 'उप्पलकेसरत्ताए' त्ति इह केसराणिकर्णिकायाः परितोऽवयवाः 'उप्पलकन्नियत्ताए' त्ति इह तु कणिका -बीजकोशः (वृ० ५० ५१३) ६५. उप्पलथिभगत्ताए उववन्नपुवा ? 'उप्पलथिभुगत्ताए' त्ति थिभुगा च यतः पत्राणि प्रभवन्ति । (वृ० प० ५१३) ६६. हंता गोयमा ! असति अदुवा अणंतखुत्तो। (श० ११०४०) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १११४१) ६६. तब हता कहै जगतार, सहू ऊपनां बारंबार ।। अथवा ते वार अनंत, सेवं भंते ! सेवं भंत ! ६७. कह्यो उत्पल उद्देशो एह, एकादशमा शतक नों कहेह। प्रथम उद्देशे जगीस, उगणीस वर्ष इकवीस ।। १८. दोयसौ नै पच्चीसमी ढाल, भिक्ष भारीमाल गुणमाल । ऋषिराय तणे सुपसाय, सुख संपति 'जय-जश' पाय ।। एकादशशते प्रथमोद्देशकार्थः॥११॥ ढाल : २२६ १. अष्ट उद्देशा नैं विषे, नानापणुंज भेद । संग्रह अर्थे छै इहां, गाथा तीन उमेद ॥ २. *पृथक धनुष सालु नी तास, पृथक गाउ कहियै पलास । शेष छहूं नी इम अवगान, योजन सहस्र अधिक पहिछान ।। ३. कुंभी नालिका पलास मांय, तीन लेश्या सुर उपजै नाय । शेष पंच में लेश्या च्यार, उपजै देव वणस्सइ सार ।। १. एतेषु चोद्देशकेषु नानात्वसंग्रहार्थास्तिस्रो गाथा:--- (वृ० ५० ५१४) २. सालंमि धणुपुहत्तं होइ पलासे च गाउयपुहत्तं । जोयणसहस्समयिं अवसेसाणं तु छण्हंपि । (वृ० ५० ५१४) ३. कुंभीए नालियाए होति पलासे य तिन्नि लेसाओ। चत्तारि उ लेसाओ अवसेसाणं तु पंचण्हं । (वृ० ५० ५१४) ४. कुंभीए नालियाए वासपुहत्तं ठिई उ बोद्धव्वा । दसवाससहस्साई अवसेसाणं तु छण्हपि । (वृ० ५० ५१४) ४. कुंभी नालिका नी सुविमास, पृथक वर्ष कही स्थिति तास । शेष छहुँ वर्ष दश हजार, अर्थ त्रिहं गाथा नों सार ।। *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी ३९६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. हे भदंत ! सालु इक पत्र, एक जीव के अनेक तत्र ? जिन कहै एक जीव छ एम, कहिये उत्पल उद्देश जेम ।। ५. सालुए णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणेगजीवे ? गोयमा ! एगजीवे । एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा। ६. जाव अणंतखुत्तो, नवरं-सरीरोगाणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणपुहत्तं, ७. सेसं तं चेव । (श० ११।४२) सेव भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १११४३) ६. जाव अनंतखुत्तो पहिछाण, णवरं विशेष तनु अवगाण । जघन्य अंगुल लैं भाग असंख, उत्कृष्ट धनुप पृथक नो अंक ।। ७. शेषं तिमहिज सेवं भंत ! सेवं भंत ! गोयम वच तंत । एकादशम शतक गुणगेह, द्वितीय उद्देश अर्थ वर एह ।। एकादशशते द्वितीयोद्देशकार्थः ॥१२॥ ८. हे भदंत ! इक पत्र पलास, एक जीव के अनेक तास ? एवं उत्पल उद्देश जेम, वक्तव्यता कहियै सहु तेम ।। ६. णवरं तनु अवगाहन माग, जघन्य आंगुल नों असंख भाग। उत्कृष्ट पृथक गाउ कहिवाय, पलास में सुर उपजै नाय ।। १०. पलाश में प्रभु ! केती लेश? जिन कहै धुर त्रिहं लेश कहेस । भंग छब्बीस शेष तिम हुँत, सेवं भंते ! सेवं भंत ! एकादशशते तृतीयोद्देशकार्थः ॥११॥३॥ ८. पलासे णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणेगजीवे ? ___ एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा, ६. नवरं-सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ___ भाग, उक्कोसेणं गाउयपुहत्ता । देवेहितो न उववज्जति । (श० १११४४) १०. लेसासु-ते णं भंते ! जीवा कि कण्हलेस्सा? नीललेस्सा? काउलेस्सा ? गोयमा ! कण्हलेस्से वा, नीललेस्से वा, काउलेस्से वा -छब्बीस भंगा, सेसं तं चेव। (श० ११६४५) सेवं भंते ! सेवं भते ! त्ति (श० १११४६) ११. कुंभिए ण भते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणेगजीवे ? एवं जहा पलासुद्देसए तहा भाणियन्वे, नवरं१२. ठिती जहणणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहत्तं, सेसं तं चेव । (श० १११४७) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १११४८) ११ वनस्पति प्रभु ! कुंभी विशेख, एक पत्र जीव इक के अनेक ? कह्यो पलास उद्देशक जेह, तिम कहिवू पिण णवरं एह ।। १२. स्थिति अन्तर्मुहर्त जघन्य, उत्कृष्ट पृथक वर्षज मन्य। शेष तिमज प्रभु ! सेवं भंत ! तुर्य उद्देशक एह कहंत ॥ एकादशशते चतुर्थोद्देशकार्थः ॥१॥४॥ १३. वनस्पति प्रभु ! नालिका देख, एक पत्र जीव इक के अनेक ? कुंभी उद्देश विषेज वृतंत, तिम सहु कहिवू सेवं भंत ! एकादशशते पंचमोद्देशकार्थः ॥११॥५॥ १४. पद्म तिको प्रभु ! कमल विशेख, एक पत्र जीव इक के अनेक ? उत्पल प्रथम उद्देश वृतंत, तिम सहु कहिवू सेवं भंत ! एकादशशते षष्ठोद्देशकार्थः॥१॥६॥ १५. कणिका जाति कमल नी पेख, एक पत्र जीव इक के अनेक ? उत्पल प्रथम उद्देश वृतंत, तिम सह कहि सेवं भंत ! एकादशशते सप्तमोद्देशकार्थः ॥११॥७॥ १६. नलिण-कमल नी जाति विशेख, एक पत्र जीव इक के अनेक ? उत्पल प्रथम उद्देश वतंत, तिम सह कहि सेवं भंत ! एकादशशते अष्टमोद्देशकार्थः ।।११।८।। १३. नालिए णं भंते ! एगपत्तए कि एकजीवे ? अणेगजीवे ? एवं कुंभिउद्देसगवत्तव्वया निरवसेसं भाणियब्वा । (श० १११४६) सेवं भते ! सेवं भंते त्ति। (श० ११२५०) १४. पउमेणं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणेगजीवे? एवं उप्पलुद्देसगवत्तब्वया निरवसेसा भाणियब्वा । (श० १११५१) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १११५२) १५. कण्णिए णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ? अणेगजीवे ? एवं चेव निरवसेसं भाणियव्वं । (श०१११५३) सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति । (श० १११५४) १६. नलिणे णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे ?अणेगजीवे? एवं चेव निरवसेसं जाव अणंतखुत्तो। (श० १११५५) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० १११५६) श०११, उ०२, ढाल २२६ ३९७ Jain Education Intemational Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. सालु उत्पल कंद ते, आदि देइनें सात । बहुलपणे उत्पल तणां, उद्देशक सम ज्ञात ॥ १८. वलि विशेष जे जिण विषे, आख्या आगम मांहि । णवरं पलास नै विष, देव ऊपजै नांहि ।। १६. उत्पल उद्देशक विषे, सूर उत्पल उपजत । इहां पलासे देवता, नहिं उपजै ए मंत।। २०. उत्पल प्रमुख वनस्पति, प्रशस्त में सुर आय । पलास अप्रशस्त ते भणी, देव ऊपजै नांय ।। २१. उत्पल सुर उत्पत्ति भणी, तेजलेश्या पाय । पलास सुर नहि ऊपजै, तेजूलेश्या नाय ।। १७. शालूकोद्देशकादयः सप्तोदेशकाः प्राय: उत्पलोद्देशकसमानगमाः । (वृ० ५० ५१४) १८. विशेष: पुनर्यो यत्र स तत्र सूत्रसिद्ध एव, नवरं पलाशोद्देशके यदुक्तं 'देवेसु न उववज्जति' त्ति । (वृ० ५० ५१४) १६,२०. उत्पलोद्देशके हि देवेभ्य उद्वत्ता उत्पले उत्पद्यन्त इत्युक्तमिह तु पलाशे नोत्पद्यन्त इति वाच्यम्, अप्रशस्तत्वात्तस्य, यतस्ते प्रशस्तेष्वेवोत्पलादिवनस्पतिषूत्पद्यन्त इति । (वृ० ५० ५१४) २१. यदा किल तेजोलेश्यायुतो देवो देवभवादुवृत्त्य वनस्पति)त्पद्यते तदा तेषु तेजोलेश्या लभ्यते, न च पलाशे देवत्वोवृत्त उत्पद्यते पूर्वोक्तयुक्तेः, एवं चेह तेजोलेश्या न संभवति । (वृ०प० ५१४) २२. तदभावादाद्या एव तिस्रो लेश्या इह भवन्ति, एतासु च पविशतिभंगकाः, त्रयाणां पदानामेतावतामेव भावादिति । (वृ० प० ५१४) २२. तेज तणां अभाव थी. पलास में त्रिहं लेश । पद त्रिहुं नां षटवीस भंग, संभव तास विशेष ।। २३ *ग्यारमा शत नों अष्टम न्हाल, दोयसौ नैं छवीसमी ढाल। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय पसाय, 'जय-जश' संपति हरष सवाय ।। ढाल : २२७ दूहा १. कह्या अर्थ उत्पल प्रमुख, एहवा अर्थ प्रतेह । यथातथ्य जे जाणवा, समर्थ सर्वज्ञ जेह ।। २. पिण अन्य समर्थ छै नहीं, द्वोर समुद्र प्रतेह । शिव ऋषिराज तणी परै, हिव कहियै छ जेह ।। ३. तिण काले नैं तिण समय, हत्थिणापुर वर नाम । नगर हुँतो रलियामणो, वर्णक अति अभिराम ।। ४. तिण हत्थिणापुर नगर रै, बाहिर कृण ईशान । सहस्रब वन नाम जे, हुतो वर उद्यान ॥ ५ ते वन सब ऋतु में विषे, फल फलै समृद्ध । नंदन वन सम अति सुखद, मन रमणीक सुऋद्ध ।। ६. सुखदायक शीतल घणी, छाया तरु नी इष्ट । मन रमणीक इसा अछ, स्वादू फल अति मिष्ट ।। ७. केटाला तर करि रहित, पासादिए पिछान । जावं तिको प्रतिरूप छ, एहवो वर उद्यान । १,२. अनन्तरमुत्पलादयोऽर्था निरूपिताः, एवं भूतांश्चा र्थान् सर्वज्ञ एव यथावज्ज्ञातुं समर्थो न पुनरन्यो, द्वीपसमुद्रानिव शिवराजषिः, इति सम्बन्धेन शिवराजर्षि संविधानकं नवमोद्देशकं प्राह - (वृ० ५० ५१४) ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था—वण्णओ। ४. तस्स णं हत्थिणापुरस्स नगरस्स वहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे, एत्थ णं सहसंबवणे नाम उज्जाणं होत्था५. सव्वोउय-पुप्फ-फलसमिद्धे रम्मे णंदणवणसन्निभप्प गासे ६. सुहसीतलच्छाए मणोरमे सादुप्फले ७. अकंटए पासादीए जाव (सं० पा०) पडिरूवे । (श० १११५७) *लय : इण पुर कंबल कोइय न लेसी ३६८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational n Education Intermational For Par Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * सरस बतका सुणो, शिवराज ८. तिण हरियणापुर नगरी तो मोटो हेमवंत नीं परं जी , सोरठा इम दीस, महाहिमवंत तणी परं । अवनीस, शेष धराधिप पेक्षया ॥ मंदर ते मे गिरि । मेरू जे ॥ ९. राज-वर्णक मोटो शिव १०. पर्वत मलय संवादि, महेंद्र ते शक्रादि, तदवत सार प्रधान ११. *शिव वसुधाधिप नैं हुंती जी, राणी धारणी नाम । अति सुकुमाल सुहामणी जी वर्णक अति अभिराम ॥ J ऋषि नीं रे ।। (ध्रुपदं ) तो शिव नामै राजान | वर्णक अति सुविधान ।। सोरठा १२. वर कर पग सुकुमाल, वर्णक अधिक विशाल, इत्यादिक राणी तणो । अन्य स्थान धी जाणवू ।। १३. *पवर पुत्र शिवराय नों जी, । शिवभद्र नाम कुमार थो जी, १४. जिम सूर्यकेत कुमार नों जी धारणी नो अंगजात अति सुकुमाल आख्यात | आयो अधिकार। जाय चिंता करतो राज नी जी, विचरं एह कुमार ।। सोरठा इहां ॥ १५. कर प त सुकुमाल, लक्षण व्यंजन गुण सहित। इत्यादिक सुविशाल, रायपसेणी' थी करतो १६. विचर चित, सूपंकेत वणी इण वचने इस संत इहां कहिवो शिवभद्र *लय : अभड़ भड़ रावणा १. सू. ६७३,६७४ २. अंगसुत्ताणि में 'जनपद' शब्द नहीं है । परं ने ॥ १७. ते शिवभद्र कुमार, शिव राजा ने सार, १८. राष्ट्र देश नीं जाण, हुंतो वर युवराज पद । राज-चित करतो यको || बल वाहन भंडार नीं। अंतेवर नीं वली ॥ चितवना करतो छतो । बिचरै अहनिशिहेव, शिवभद्र नाम कुमार ते ॥ २०. *तिण अवसर शिवराय ने जी, अन्य दिवस किणवार कोठागार पिछाण, पुर १६. जनपद नी स्वयमेव, मध्य निशि काल समय विषे राज धुरा चितवतां पार | २१. एहवे रूपे आतम नें विषे, जाव उपनो मन में विचार ! छै मुझ जूना तप तणां जी, दान नां फल वलि सार ॥ । ८. तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे सिवे नामं राया होत्यामहया हिमवंत वण्णओ । ६. राजवर्णको वाच्य इति सूचितं तत्र महाहिमवानिव महान् शेषराजापेक्षया १०. मलयः पर्वतविशेषो मन्दरो शक्रादिदेवराजस्तवत्सारः प्रधान ( वृ० प० ५१२) मेरुः महेन्द्रः व स तथा ( वृ० प० ५१९) ११, तस्स णं सिवस्स रण्णो धारिणी नाम देवी होत्थासुकुमालपाणिपाया वण्णओ । १२. सुकुमाल यन्नओ' ति अनेन च 'सुकुमालपाणिपा त्यादी राज्ञीवर्णको वाच्य इति सूचितं । ( वृ० प० ५१६ ) १३. तस्स णं सिवस्स रण्णो पुत्ते धारिणीए अत्तए सिवभद्दे नाम कुमारे होत्था - सुकुमालपाणिपाए १४. जहा सूरियकंते जाव १५. सुकुमालपाणिपाए लक्ष्मणजणगुणोबवे इत्यादिना यथा राजप्रश्नकृताभिधाने ग्रन्थे सूर्यकान्तो राजकुमारः (२०१० ५१९) १६. ' पच्चुवेक्खमाणे पच्चुवेक्खमाणे विहरइ' इत्येतदन्तेन वर्णकेन वर्णितस्तथाऽयं वर्णयितव्यः । (बृ० १० ५१९) १७, से णं सिवभद्दे कुमारे जुवराया यावि होत्या सिवस्स रन्नो ( वृ० प० ५१९) १८,१९. रज्जं च रठ्ठे च बलं च वाहणं च कोसं च कोद्वारं च पुरं च अतेउरं च सयमेव पच्चुवेक्खमाणेपच्चुवेक्खमाणे विहरs | (० ११०५०) २०. तए णं तस्स सिवस्स रण्णो अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि रज्जधुरं चितेमाणस्स २१. अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव (सं० पा० ) समुप्पज्जित्था - अत्थिता मे पुरा पोराणाणं कल्लाणफलवित्तिविसेसे श० ११: उ० ६, ढाल २२७ ३६६ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवराज २२. जेम तामली चितव्यं जी, तिम चित जाव पुत्रे करि हूं बयो, पशु करि बाच्यो समाज ॥ २३. राज करि वाध्यो वली जी रथ करके पिण एम। बल कटके करि बाधियो जी वाहन करके तेम || २४. कोष भंडार करी वध्यो जी, कोद्रागार करेह | 1 २८. पुर अंतेउर करि बस्ती जी हूं वाध्यो अधिके ।। २५. विस्तीर्ण धन कनके करीजी, रत्न करीनें जाव । छता सार द्रव्ये करी जी, घणुं घणुं बाध्यो साव ॥! २६. ते भी स्यूं पूर्व भने जी तप दानादिक कीच जाव एकंत ते पुन्य में क्षय करतो विच प्रसीप २७. ते माटै हूं ज्यां लगे जी, प्रथम वाध्यो हिरण्येण । तं चैव जाव पर्ण-वणं जी, वाघ्यो सार द्रव्येण ॥ सामंत राजवी जी मुझ वश व विशेष । त्यां लग मुझनें श्रेय भलो जी, काल प्रभात संपेख ॥। २६. पवर प्रभा प्रगट्ये छते जी, जाव जलते जान । जाज्वलमान सूरज जिको जी, उदय थयो असमान ॥ ३०. अति बहु लोही लोह नां जी, कडाहा कुडछी जेह । रोटी पचावा नां वली जी, अन्न हलावा नां एह ॥ ३१. ते पिण योग्य तापस तणें जी, भंड घड़ावी तेह ॥ शिवभद्र नामै कुमार ने जी स्थापी राज्य प्रवेह ॥ ३२. ते अति बहु लोही लोह नां जो कडाहा कुडी जोग 3 ते पिण योग्य तापस तणें जी, भंड ग्रही ने सोय ॥ १३. जे ए गंगा तट ने विषे जी, वानप्रस्थ विख्यात ।। तापस छै तप में रता जी, होत्तियादिक आख्यात || सोरठा ३४. वन में विषे वसंत अथवा तीजो मंत, ३५. ब्रह्मचारी नैं गृहस्थ, तीजो ए वानप्रस्थ, वानप्रस्थ कहिये तसु। च्यारूं आश्रम नैं विषे ॥ वानप्रस्थ चउथो जती। होत्तियादि गंगा तटे ॥ गीतक-छंद ३६. नित्य अग्निहोमज जे करै, ते कह्या तापस होत्तिया । फुन वस्त्र नां धारक जिके छ, तेह तापस पोत्तिया ॥ ३७. फुन क्वचित पाठज सोत्तिया, ते सूत्र धार लहीजिये । भगवती पाठ विये कला तिणहीज रीत कहीजिये ॥ वा० इहां भगवती नी वृत्ति विषे इम कहा - होलिया पोतिया... सोत्तियत्ति क्वचित् पाठः । जहा उववाइए (सू.२४ ) इति इण अतिदेश थकी इम जाणवो — कोत्तिया जन्नई सड्ढइ हुंबउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा समज्जगा निमज्जगा इत्यादि उबवाई में पाठ कह्या, ते जाणवा ।' १. भगवती सूत्र के कुछ आदर्शों में विस्तृत पाठ देने के बाद औपपातिक सूत्र का समर्पण किया गया है । संक्षिप्त और विस्तृत दो वाचनाओं के मिश्रण से ऐसा होना संभव प्रतीत होता है । 'ब' संकेतित आदर्श में केवल एक विस्तृत वाचना ४०० भयवती जोड़ २२. जहा तामलिस्स जाव (सं० पा० ) पुत्तेहि वड्ढाम पसूहि वड्ढाम २३. रज्जेणं वड्ढामि एवं रट्ठेणं बलेणं वाहणेणं २४. कोसेणं कोट्ठागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं वड्ढामि २५. विपुलधण - कणग - रयण जाव (सं० पा० ) संतसारसावणं अतीय-अतीव अभिवामि २६. कि अहं पुरा पोरागाणं सुचिष्वार्थ सुपरवर्कताणं एतसो वयं उमा बिरामि ? २७. तं जावताव अहं हिरण्णेणं वड्ढामि जाव अतीवअतीव अभिवामि। २८. जाव मे सामंतरायाणो वि वसे वट्टंति तावता मे सेयं कल्लं २१. पाउप्पभावाए रमणीए जाव उद्वियम्मि मूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते ३०, ३१. सुबहु लोही-लोहकडाह - कडच्छुयं तंबियं ताव सभंडगं घडावेत्ता सिवभद्दं कुमारं रज्जे ठावेत्ता ३२. तं सुबहु लोही - लोहकडाह कडच्छ्रयं तंबियं ताव सभंडगं गहाय ३३. जे इमे गंगाकुले वाणपत्या तावसा भवंति तं जहाहोत्तिया ३४. 'वाणपत्थ' त्ति वने भवाः ३५. 'ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा' एतेषां च तृतीयाश्रमवत्तनो वानप्रस्थाः । ( वृ० प० ५१६ ) ३६. 'होत्तिय' त्ति अग्निहोत्रिका: 'पोत्तिय' ति वस्त्रधारिण: २७. सोतिय' ति वा० दृश्यं - 'जहा उचबाइए' ( वृ० प० ५१९) नवचित्पाठस्तत्राप्ययमेवार्थः । ( वृ० प० ५१६) इत्येतस्मादतिदेशादिदं (१० १० ५१९) Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , ३८. कोत्तिया सूवै महि विषे, फुन यज्ञकारक जण्णई । फुन जेह श्रद्धावंत तेहनें, कह्या प्रभुजी सड्ढई ॥ ३९. उपगरण लीये जे रहे, ते वालइ पहिचानिये। जे श्रमण कूंडी प्रति प्र ते चुंबउडा जाणिये ॥ ४०. फल भोगवै ते दंतुखलिया, फुन उम्मजग इह परं । इक वार जल में पेसने तत्काल ही जे नीसरै ॥ ४१. बहु वार जल में पेस निकलै, कह्या तेह समज्जगा । फुन स्नान अर्थे जल विषे, खिण रहै तेह निमज्जगा || ४२. फुन प्रथम मट्टी प्रमुख घस, तनु-अंग क्षालण जे करें। इह रीत स्नान करंज तेहनें, संपखालणगा वरं ॥ ४३. गंगा तणें दक्षिण तटे वसनार दक्षिणकूलगा । वास्तव्य जे उत्तर तटे कहिवाय उत्तरकूलगा ।। ४४. कुन संघमा करें भोजन, आप तमु जीमाय ने नहि आय तो फुन तेह जीर्म संख प्रति सुबजाय ने ॥ ४५. जे नदी तट ऊभा रही में शब्द कर जी सही । 3 ते कूलधमगा का पुन मृगलुब्धगा जु प्रसिद्ध ही ॥ ४६. जे गज हणी तिणहीज करि बहु काल भोजन आचरं । ते हस्तितापस' आखिया, पाखंड वृत्ति समाचरं ॥ ४७. फुन स्नान अणकीथे न जीमे कठिन गाज बेहनां । बुढा कहे स्नाने करी, पांदुरा गात्रज तेन ॥ 7 या कि हि ते जनामिकणगावभूष' ति पाठ है तिहां जननां अभिषेके करी ने कठिन गात्र थयो है जेहनों, एहवू का छ । , ४८. जल हि स्थानक वास जेहनुं, अम्बुवासिज दाखिया कुन पवन जेह स्थान रहिये वायुवासी भाविया ॥ ४९. जल विषे बुडा रहे, जलवासिणों तापस कह्या पुन वेलनेज समीप वसवं वेलवासी जे ह्या ।। है, उसे अंगसुत्ताणि पृ. ४१४ के पाद टिप्पण (१२) में ज्यों का त्यों ले लिया गया है। उसके बाद औपपातिक सूत्र (१४) का पाठ भी दिया गया है। १. 'होत्तिया' से लेकर हत्थितावसा' तक अंगसुत्ताणि के पाद-टिप्पण और भगवती की वृत्ति का पाठ समान है। इसलिए जोड़ के सामने वृत्ति का पाठ उद्धृत किया गया है । 'हत्थितावसा' के बाद वृत्ति में कुछ शब्द अधिक हैं, और कुछ आगे पिछे हैं । इसका कारण यह है कि वृत्ति में औपपातिक सूत्र वाला पाठ लिया गया है । जब कि जयाचार्य ने भगवती के मूल आदर्श से प्राप्त पाठ के अनुसार जोड़ की है । व्यवस्थित पाठ उपलब्ध न होने के कारण तथा यत्र तत्र वृत्तिगत व्याख्या के आधार पर जोड़ होने के कारण जोड़ के सामने कहीं वृत्ति को, कहीं अंगसुत्ताणि और कहीं दोनों को उद्धृत किया गया है । २. वेलवास और जलवासियो पाठ वृत्ति में है, बंगमुत्ताथि' में नहीं है जोड़ में पाठ का व्यत्यय है । ३८. 'कोत्तिय' त्ति भूमिशायिन: 'जन्नइ' त्ति यज्ञयाजिनः 'सड्ढइ' त्ति श्राद्धाः (१० १० ५१९) ३६. 'वात' ति गृहीतभाष्टा: 'उ' ति कुण्डिका(२०१० ५१९) उम्मजय' ति श्रमणाः ४०. दंतुलित फलभोजिन उन्मज्जनमात्रेण ये स्नान्ति ( वृ० प० ५१९) ४१. 'संमज्जग' त्ति उन्मज्जनस्यैवासकृत्करणेन ये स्नान्ति 'निमज्जग' त्ति स्नानार्थं निमग्ना एवं ये क्षणं तिष्ठन्ति । ( वृ० प० ५१६ ) ४२. संपात मृत्तिकादिषणपूर्वकालयन्ति । ( वृ० प० ५११) ४३. 'दक्षिणकूलग' त्ति गंगाया दक्षिणकूल एव वास्तव्यम् 'उत्तरकूल' ति उक्तविपरीताः । ( वृ० प० ५१६ ) ४४ 'संखधमग' त्ति शंखं ध्मात्वा ये जेमन्ति यद्यन्यः कोऽपि नागच्छतीति (बु० १० ५१२) ४५. 'कूलधमग' त्ति ये कूले स्थित्वा शब्दं कृत्वा भुञ्जते 'मियलुद्धय' त्ति प्रतीता एव (२० ५० ५१९) ४६. हरितावसति के हस्तिन मारवित्वा तेनैव का भोजनतो यापयन्ति । ( वृ० प० ५१६ ) ४७. ' जलाभिसेयकिढिणगाय' त्ति येऽस्नात्वा न भुंजते स्नानाद वा पाण्डुरीभूतगात्रा इति वृद्धाः ( वृ० प० ५१६ ) बा०जिताभियकणिमायभूयति दृश्यते तत्र जलाभिषेककठिनं गात्रं भूताः प्राप्ता ये ते तथा ( ० ५० ५१९) ४८. अंबुवासिणो वाउवासिणो ४९. 'सवासिणी' ति समुद्रवेलासंनिधिवासिनः 'जनवासिणो' त्ति ये जलनिमग्ना एवासते । (१० ५० ५१९) ०११ ४०१, डा० २२७ ४०१ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. अंबुभक्खिणो वाउभक्खिणो ५१. सेवालभक्खिणो मूलाहारा ५०. जलहीज पीवी नैं रहै, ते अंबुभक्षी जाणवा। फून पवनहीज भर्ख जु तापस, पवनभक्षी माणवा ।। ५१. फुन भखै जे सेवाल प्रति, सेवालभक्षी आखिये। तरु मूल नों हिज आर करिव, मुलाऽऽहारा दाखियै ।। ५२. फुन कंदाऽऽहारा पत्राऽऽहारा, त्वचाऽऽहारा जाणिय । वलि पुष्पाऽऽहारा फलाहारा, बीजाऽऽहारा आणियै ।। ५३. अतिही सड्या जे कंद मूलज, त्वचा पत्रज आहारिय। फल फल जे पंडर थया, तेहनोज आर विचारियै ।। ५४. फुन दंड ऊंचो करी हीडै, वह्या तास उदंडगा। तरुमलिया तरु-मूल बसिवै, कह्या ए पाखंडगा ।। ५२. कंदाहारा पत्ताहारा तयाहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा ५३. परिसडिय-पंडु-पत्तपुप्फफलाहारा ५४. उदंडा रुक्खमूलिया 'उदंडग' त्ति ऊर्ध्वकृतदण्डा ये संचरन्ति (वृ० ५० ५१९) ५५. मंडलिया विलवासिणो वा०-'वक्कलवासिणो' त्ति वल्कलवाससः (वृ०प०५१६) ५५. मंडलाकारे एकठा रहै, तास मंडलिया कह्या । बिल रूप बिल नै विषे जेहन, वास विलवासी लह्या ।। वा०-वृक्ष नी छालि रूप वस्त्र धरै ते 'वक्कवासिणो' ए पाठ किणहि परत में छ, किणहि परत में नहीं। ५६. दिशि जले छांटी लै फलादिक, दिशापोखी छ जिके। आतापना पंचाग्नि तापे करीने तापस तिके ।। ५७. कोयला सदृश पच्यो तनु, फुन कंदुभाजन जिम पच्यु । फुन जल्या काष्ठ सरीख तन, तसु श्याम वर्णे कर रच्यं ।। ५८. इम आत्म प्रति करता थका, विचरैज तापस ए कह्या । शिवराज ने मझ रात्रि समये, अध्यवसाय इसा थया ।। ५६. *तिहां दिशापोखी तापस जेह छै जी, तसु पासे मुंड होय । दिशापोखी तापसपणजी, लेसूं प्रव्रज्या सोय ॥ ६०. प्रव्रज्या लीधे छते जी, एहवू अभिग्रह सार। आदरवं श्रेय मो भणी जी, कहिये ते अधिकार ॥ ६१. कल्पै मुझ जीव ज्यां लगै जी, छठ-छठ अंतर रहीत । दिशाचक्रवाले करी जी, तप करिवै विधि रीत ।। सोरठा ६२. धुर छठ पारण पेख, पूर्व विषे जल छांटतो। फलादि ग्रही विशेख, आ'र करै इह रोत सं॥ ६३. इम बीजे दिन जाण, दक्षिण दिशि छांटी उदक । इम फिरती दिशि माण, कही दिशा-चक्रवाल ते ।। ५६. दिसापोक्खिया आतावणेहि पंचग्गितावेहि 'दिसापोक्खिणो' त्ति उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फल पुष्पादि समुचिन्वन्ति। (वृ० प० ५१६) ५७. इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं कटुसोल्लियं 'इंगालसोल्लिय' ति अंगारैरिव पक्वं 'कंदुसोल्लिय' ति कंदुपक्वमिवेति । (वृ० प० ५१६) ५८ पिव अप्पाणं करेमाणा विहरति । (अं० सु० पृ० ४६४ पा० टि० १२) ५६. तत्थ णं जे ते दिसापोक्खो तावसा तेसि अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पब्वइत्तए ६०. पव्वइत्ते वि य णं समाणे अयमेयारूबं अभिग्गह अभिगिहिस्सामि६१. कप्पइ मे जावज्जीवाए छठेंठेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं ६२,६३. दिसाचक्कवालएणं 'तवोकम्मेणं' ति एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृत्य भुक्ते द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिकचक्रवालेन यत्र तपःकर्मणि पारणककरणं तत्तपःकर्म दिक्चक्रवाल मुच्यते तेन तपःकर्मणेति । (वृ० प० ५१६,५२०) ६४. उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय जाव (सं०पा०) विहरित्तए, त्ति कटु एवं संपेहेइ । ६४. *ऊंची बे बाह करी जी, जाव विचरवं श्रेय । इम निशि करि विचारणा जी, शिवराजा चित देय ।। ६५. शत ग्यारम देश नवम नं जी, ढाल बेसौ सतावीस । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय-जश' हरष जगीस ।। *लय : अभड़ भड़ रावणा १. उववाई में 'दिसापोक्खी' के स्थान पर 'दिसापोक्खिणो' पाठ है। ४०२ भगवती-जोड़ Jain Education Interational Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २२८ दूहा १. निशि इम करी विचारणा, कल्ले जाव जलंत । ___ अति बहु लोही लोहमय, जाव घडावी तंत ।। २. आज्ञाकारी नर प्रतै, तेडावी कहै राय । शीघ्र अहो देवानप्रिये ! काम करो ए जाय ।। ३. हत्थिणापुर ए नगर नैं, भ्यंतर सहितज वार । आसित्त कहितां अल्प जे, उदके छिड़को सार । ४. जावत सेवग काम करि, आज्ञा संपी आय । द्वितिय वार शिव नप वलि, सेवग नैं कहै वाय ।। १. संपेहेत्ता कल्लं 'जाव''जलते सुबहुं लोहीलोह जाव (सं०पा०) घडावेत्ता २. कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! ३ हत्थिणापुरं नगरं सब्भितरबाहिरियं आसिय'" ४. जाव''ते वि तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति । (श० १११५६) तए णं से सिवे राया दोच्चं पि कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी५. खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया ! सिवभद्दस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं ६. विउलं रायाभिसेयं उवट्ठवेह । ७. तए णं ते कोडंबियपुरिसा तहेव उवट्ठवेंति । (श० ११।६०) ५. शीघ्र देवानुप्रिय ! तुम्हे, शिवभद्र नाम कुमार। __ महाअथे महामूल्य जे, मोटा योग्य उदार ॥ ६. निस्तीरण जे राज में, अभिषेक नीं सार । सामग्री में सझ करो, म करो ढील लिगार ॥ ७. सेवग सुण तिमहीज ते, जाव उवस्थापंत । राज बेसाणे किणविधे, ते सुणजो धर खंत ।। _ *चतुर नर पुन्य तणां फल देख । (ध्रुपदं) ८. जी हो शिवराजा तिण अवसरे काइ, बह गणनायक साथ । जी हो दंडनायक जावत बलि, परिवरयो संधिपाल संघात ।। ६. जी हो वर सिंघासण ऊपरै काइ, शिवभद्र नाम कुमार। __जी हो पूर्व मुख बैसाण मैं कांइ, स्नान करावै सार ॥ जी हो एक सौ आठ सोना तणां कांइ, जाव एकसौ आठ । जी हो माटी मैं कलशे करी, सर्व ऋद्धि करी गहघाट । जी हो जावत वाजिंत्र बाजते काइ, शब्द मोटा मंगलीक । जी हो महाराज्य अभिषेके करी, अभिषेक करावै सधीक ।। जी हो पसम सहित कोमल घणो, कांइ सुरभि गंध सहीत । जी हो एहवै रक्त वस्त्रे करी, कांइ अंग लहे रूड़ी रीत ॥ जी हो चंदन सरस गोसीस थी कांइ, गात्र लेपन करै सार। जी हो जेम जमाली नी परै काइ, कीधा सर्व अलंकार ।। १४. जी हो जाव कल्पतरु नी पर, अलंकृत विभूषित अंग । जी हो कर जोड़ी जावत करी काइ, बोल वचन सुचग ।। १५. जी हो शिवभद्र नाम कुमार मैं, जय-विजय करीनै बधाय । जी हो इष्ट मनोज्ञ वचने करी, प्रीतिकार वचन करि ताय ।। १६. जी हो जेम उववाइ ने विष, कह्य कोणिक नो अधिकार । जी हो जाव परम आयु पालज्यो काइ, होज्यो चिरंजीव सुखकार ।। ८. तए णं से सिवे राय अणेगगणनायग दडनायग जाव (सं०पा०) संधिपालसद्धि संपरिवुडे ६. सिवभई कुमारं सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुह निसियावेइ, निसियावेत्ता १०. अट्ठसएणं सोवणियाणं कलसाणं जाव अट्ठसएगणं भोमेज्जाणं कलसाणं सव्विड्ढीए ११. जाव दुइंहि-णिग्घोसणाइयरवेणं महया महया रायाभि सेगेणं अभिसिंचइ, १२. पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूहेति, १३. सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिपति एवं जहेव ___ जमालिस्स (भ० ६।१६०) अलंकारो तहेव १४. जाव कप्परुक्खगं पिव अलंकिय-विभूसियं करेइ, करेत्ता करयल जाव (सं०पा०) कटु १५. सिवभई कुमारं जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेत्ता ताहि इटाहि कंताहि पियाहि १६. जाव (सं० पा०) जहा ओववाइए (सू० ६८) कूणियस्स जाव परमाउं पालयाहि *लय : चतुर नर पोषो पात्र विशेष प.११.६ढाण २२० ४०३ Jain Education Intemational Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. जी हो जाव शब्द मांहे कह्या कांड, उववाइ' में पाठ अनेक । जी हो मनगमती वाणी करी, बोले स्तवन करता विशेख | १८. जी हो जय जय नंदा आपरे कांइ, जय जय भद्दा जाण । जी हो जय जय नंदा भद्र वली, मंगलीक वर्द इम वाण ॥ १६. जी हो अणजीतां नें जीतज्यों कांइ, जीतां नीं प्रतिपाल । , जी हो जीता मण्भ बज्यो तुम्हे, हिवं एहनों अर्थ निहाल ॥ २०. जी हो शत्रु पक्ष अणजीतिया कोई त्यांने जीतेज्यो गुणमाल । जी हो मित्र पक्ष जीतां प्रतं त्यांरी कीग्यो पणी प्रतिपाल' ।। २१. जी हो विषन सर्व जीती करी, यसो स्वजन मध्य हे देव ! जी हो सुरवृद में इंद्रनी परे, तुम्हे राज कीभ्यो स्वयमेव ॥ २२. जी हो तारां में जिम चंद्रमा जी हो नरां में भरत तणी परे, २३. जी हो आप धणां वर्षों लगे, बलि कांइ, धरण नाग रे मांय । आप जी हो वह लाखो वर्षां लगे २४. जी हो पाप रहित संपूर्ण छतो राज करो सुखदाय ॥ पणां संकटां वास । पालो नूप-पद सुख नीं राश ॥ कांई हरय संतोष सहीत । जी हो परम आउसो पालज्यं, जाव शब्द में अर्थ संगीत | २५. जी हो इष्ट वल्लभजन आपरा कांइ, परिवार तेह संघात । जी हा राज हत्थिणपुर नगर नों, पालज्यो रूड़ी रीत विख्यात ॥ २६. जी हो अन्य बहु ग्रामागर नगर नों कांइ, जावत ही ए राज । जी हो करता विचरो इम कही, उच्चरै जय शब्द आवाज || २७. जी हो शिवभद्र कुमर राजा थयो, मोटो हेमवंत जिम जाण । जी हो वर्णन तिगरी अति घणो जाव विचरं पुन्य प्रमाण ॥ २८. जी हो दोयसौ नें अठावीसमी, आखी ढाल रसाल अपार । भिक्लू भारीमात ऋषिराय थी कांइ, 'जय जय' संपति सार ॥ ढाल : २२६ दूहा 1 १. तिण अवसर ते शिव नृपति कदा अन्यदा पेख । शोभनीक तिथि करण दिन नक्षत्र मुहतं देव ॥ २. विस्तीर्ण असणादिचि रंधावी नं सार । मित्र ज्ञाति वलि निजग प्रति, परिजन नैं परिवार ॥ ३. राजा क्षत्रिय प्रति वलि हैन आमंत्र स्वजन्न । तदनंतर मज्जन कियो, जाव विभूषित तन्न ॥ " १. सू० ६८ २. अंगसुत्ताणि १९६१ में ऐसा पाठ नहीं है । वृत्ति में यह पाठ है । जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में यह पाठ रहा होगा, पर अंगसुत्ताणि में यह पाठ न होने के कारण यहां वृत्ति का पाठ उद्धृत किया गया है। ४०४ भगवती-जोड़ १७. मनुष्याहि मणामाहिं अभित्तो व एवं वदासी१८. जय-जय नंदा ! जय जय भद्दा ! भद्दं ते १६. अजियं जिणाहि, जियं पालयाहि, जियमज्झे वसाहि २०. अजियं च जिणाहि सत्तुपक्खं जियं च पालेहि मित्तपक्ख ( वृ० प० ५२० ) २१. जियविग्धोऽविय वसाहि तं देव ! सयणमज्झे इंदो इव देवाण ( वृ० प० ५२० ) २२. चंदो इव ताराणं धरणो इव नागाणं भरहो इव मनुवाणं ( वृ० प० ५२० ) बहूई वाससहस्साई २२. बहूई बासा बहूई बाससवाई बहूई वासस्यसहस्साई २४. अणहसमग्गो तुट्ठो परमाउं पालयाहि २५. परिणापुर नगरस २६. अण्णेसि च बहूणं गामागर-नगर जाव (सं०पा० ) विहराहि ति कट्टु जयजयजति ( ११०६१) २७. तए णं से सिवभद्दे कुमारे राया जाते मया हिमवंत ...वण्णओ जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ ।. (१९६२) १. तए णं से सिवे राया अण्णया कयाइ सोभणंसि तिहिकरण दिवस मुहुत्त - नक्खत्तंसि २. विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं उवस्थावेति उवक्खडावेत्ता मित-नाइ नियग-सयण संबंधि-परिजणं २. रायागो व विआिता तो पच्छा न्हाए जाव (सं० पा० ) सरीरे Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्त-नाइ-नियग सयण-संबंधि परिजणेणं ५,६. राएहि य खत्तिएहि सद्धि विपुलं असण-पाण-खाइम साइम एवं जहा तामली (भ० २।३३) जाव (सं० पा०) सक्कारेइ, सम्माणेइ । ४. भोजन मंडप में विषे, बैठी सुख आसन्न । ते मित्री ज्ञाती निजग, सयण जाव परिजन्न । ५. राजा क्षत्रिय साथ फून, विस्तीर्ण असणादि । एवं जिम ते तामली, तेहनी पर संवादि ।। ६. भोजन जीम्यां जाव ही, वस्त्रादि सत्कार । सन्माने आदर दियो, सन्मानी ने सार । ७. ते मित्र न्याति निजग प्रति, जाव नफर राजान । क्षत्रिय शिवभद्र नपति प्रति, पूछ पूछी जान ।। ८. अति बहुलोही लोह नां, कडाहा कुड़छा जेह । जावत तापस योग्य जे, भंड पात्र ग्रही तेह । ६. जे तापस गंगा तटे, वानप्रस्थ वनवास । तिमहिज होत्तिया प्रमुख जे, जाव पूर्ववत' तास ।। १०. तास समीपे मुंड थई, दिसापोखी कहिवाय । तापसपणंज आदरै, लिय प्रव्रज्या ताय ।। ११. प्रव्रज्या लीधे छते, अभिग्रह इसो ग्रहंत । जावजीव कल्पै मुझे, छठ-छठ तप धर खंत ॥ १२. तिमज जाव अभिग्रहे प्रत, ग्रहै ग्रही ने ताय । प्रथम छ? अंगीकरी, विचरै हरष सवाय ।। _ *रायऋषी शिव करै रे पारणो । (ध्रुपदं) १३ तिण अवसर शिवराज ऋषीश्वर, धुर छठ पारण धाम जी । आतापना लेवा नी भूमि थी, पाछो वलियो ताम जी ।। १४. वल्कल वस्त्र पहिर निज ओरै, आयो छ निज स्थान जी। किढिण-वंशमय तापस भाजन, वलि कावड़ ग्रही जान जी ।। ७. तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं रायाणो य खत्तिए य सिवभदं च रायाणं अपुच्छइ, आपुच्छित्ता ८. सुबहुं लोही-लोहकडाह-कडच्छुयं तंबियं तावसभंडगं गहाय ९. जे इमे गंगाकुलगा वाणपत्था तावसा भवंति, तं चेव जाव १०. तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए, ११. पब्बइए वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गह अभिगिण्हति—कप्पइ मे जावज्जीवाए छठें छठेणं १२. तं चेव जाव अभिग्गहं अभिगिण्हित्ता पढमं छ8___ खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। (श० १११६३) १५. पूरव दिशि पोखी जन छोटे, पूरव दिशि में पेख जी। सोम नामे महाराय इंद्र नों, लोकपाल ए देख जी। १६. पत्थाणे परलोग साधन मग, तेह विषे प्रस्थित्त जी। तथा फलादिक ग्रहिवा अर्थ, गमन विषे प्रवृत्त जो ।। १३. तए णं से सिवे रायरिसी पढमछट्टक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, १४. बागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिण-संकाइयगं गिण्हइ 'किढिण' त्ति वंशमयस्तापसभाजनविशेषस्ततश्च तयोः सांकायिक-भारोद्वहनयंत्र किढिणसांकायिक (वृ० ५० ५२०) १५. पुरत्थिमं दिसं पोक्खेइ, पुरथिमाए दिसाए सोमे महाराया 'महाराय' त्ति लोकपालः। (वृ० ५० ५२०) १६. पत्थाणे पत्थियं 'पत्थाणं पत्थियं' ति 'प्रस्थाने' परलोकसाधनमार्गे 'प्रस्थितं' प्रवृत्तं फलाद्याहरणार्थं गमने वा प्रवृत्तं (वृ०प०५२०) १७. अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं अभिरक्खउ सिवं राय रिसिं, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाणउ १८. त्ति कटु पुरत्थिमं दिसं पसरइ, पसरित्ता जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव हरियाणि य ताई गेण्हइ, गेण्हित्ता किढिण-संकाइयगं भरेइ, भरेत्ता दब्भे य कुसे १७. रक्षा करो शिवराज ऋषि प्रति, जे तिहां कंद में मूल जी । छाल पत्र फल-पुष्प' बीज हरि, तसु आज्ञा अनुकूल जो ॥ १८. इम कही पूरव दिशि प्रति पसर, कंद जाव हरि लेय जी। वंश भाजन कावड़ प्रति भरि नैं, वलि ग्रहि डाभ कूशेय जी ।। *लय : पूज भीखणजी रो समरण १. श०१११५६ २. पाठ में पुष्फ पहले है और फल बाद में है । श०११, उ०६, ढाल २२९ ४०५ Jain Education Intemational Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. मूल सहित ते दर्भ कहीजं, मूल समिध इंधन वलि शाखा मोड़ी, २०. जिहां निज ओरे तिहां आयनें, भाजन कावड़ थाप जी । स्थान देवाचन प्रति पूंजी ने लीपे शुद्ध करि आप जी ॥ नैं, २१. दर्भ अ वलि कलश ग्रही कर, गंगा महानदी आय जी । जल मज्जन ते जल करिनें तनु, शुद्ध मात्र कर ताय जी ॥ २२. जलकीडं तनु शुद्ध की पिण, जल करि अभिरत प्रीत जी । जल अभिषेक पाणी नों भरवो, साचवतो वर रीत जी ॥ २३. आयंते जल फर्श करण थी, परम सुचि थइ देव । रहित कुछ जान जी। ग्रहण करें पान जी ॥ २४. कलश मां के दर्भ छ, गर्भित थे. तेह ग्रही निज हाथ जी। पाठांतर नों अर्थ कह्यो ए, दर्भ कलश किहां आत जी || २५. महानदी गंगा थी चोखे असुनि करि दूर जी । पितर नैं, जलांजली कृत भूर जी ॥ उतरे, निज ओरे दर्भ कुशे वालु करि वेदी, देवार्चन स्थान २९. सरए निमंथन काष्ठे करि, अरणि काण्ड अग्नि पाड़ वलि अग्नि संधुकी, ईंधन काष्ठ ४०६ भगवती-जोड़ आवेह जी । रचेह जी ॥ २७. अग्नि उजाली वलि अग्नि नैं, दक्षिण सप्त अंग स्थाप ते आगल, कहिये नाम २८. सकथा वानप्रस्थ ने आगम, उपधि प्रसिद्ध वल्कल स्थानक ज्योति स्थान ए, अथवा पात्र नों स्थान जी ॥ २६. सय्या भंड ते सय्या उपकरण, वलि कमंडल जेह जी । दंड दारु ते दंड कहीजै, जीव सहित निज देह जी ॥ घसेय जी । घालेय जी ।। पासे देख जी । विशेख जी ॥ ए जान जी । 2 ३०. मधु घृत तंबूल करीने अग्नि प्रतं होमंत जी। चरू चढावे वलिद्रव्य रांधी, ए निज मत नों पंथ जी ॥ १६. समिहाओ य पत्तामोडं च गिण्हइ 'दब्भे य' त्ति समूलान् 'कुसे य' त्ति दर्भानेव निर्मूलान् 'समिहाओ य' त्ति समिधः काष्ठिकाः 'पत्तामोडं च' तरुशाखामोटितपत्राणि । ( वृ० प० ५२० ) २०. जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किड-संकाय, उवेता वैदि देई बहुता उलेज्ज करे 'वेद' वैदिकां देवार्चनस्थानं वर्द्धनी बहुकरिकाको प्रयुक्त इति वर्द्धयति प्रमार्जयतीत्यर्थः ( वृ० प० ५२० ) २१. दग्भकलसाहत्थगए जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गंगं महानदि ओगाहेइ, ओगाहेत्ता जलमज्जणं करेइ - 'जलमजणं ति जलेन हा ०१० ५२०) २२. जलकीड करेइ, करेत्ता जलाभिसेयं करेइ 'जलकीड' ति देहशुद्धावपि जलेनाभिरतं 'जलाभिसेयं' ति जलक्षरणम् (बु० प० ५२० ) २३. आयंते चोक्खे परमसुइभुए देवय- पिति कयकज्जे 'आयंते' त्ति जलस्पर्शात् 'चोक्खे' त्ति अशुचिद्रव्यापगमात् किमुक्तं भवति परमसूदए' ति 'देवपपकयकज्जे' त्ति देवतानां पितॄणां च कृतं कार्यं - जलांजलिदानादिकं येन स तथा (बु०प०५२० ) २४. दब्भकलसाहत्थगए दमकलगए ( वृ० प० ५२० ) २५. गंगाओ महानदीओ पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरिता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भेहि य कुसेहि य वालुयाएहि य वेदि रएति, २६. एवं महेद्र महेता अग पाडे, पाडेत्ता अम्मिसंधुक्के, संयुक्ता समिहाकट्ठाई पवि 'सरएवं अरणि महे' ति 'सर' नियतका 'अरणि' निर्मवनीयकाष्ठं 'मनाति' पयति ( वृ० प० ५२० ) २७. बग्गिाले उजालेता अग्गित दाहिने पासे सत्तंगाई समादहे, तं जहा २८,२६. सकहं वक्कलं ठाणं, सिज्जाभंडं कमंडलुं । दंडदा तप्पाणं, अहे ताइं समादहे ॥ तत्र सकथा - तत्समय प्रसिद्ध उपकरणविशेषः स्थानंज्योतिः स्थानं पात्रस्थानं वा शय्याभाण्डं शय्योपकरणं दण्डदारु - दण्डकः आत्मा-प्रतीत इति (बृ० १० ५२० ) ३०. महुणा य घएण य तंदुलेहि य अरिंग हुणइ, हुणित्ता साहे 'चरुं साहेति' त्ति चरुः -- भाजनविशेषस्तत्र पच्यमान द्रव्यमपि चरुरेव तं चरुं बलि मित्यर्थः 'साधयति' रन्धयति (बु० प० ५२० ) Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. वलि करिने विश्वानर पूजै, पूजी अग्नि उदार जी । आया अतिथि तणी कर पूजा, पछे करें निज आहार जी । ३२. तिण अवसर शिवराज ऋषी ते दुजो छ सुविचार जी। अंगीकार करीने विचरे, द्वितीय पारण अधिकार जी | ३३. भूमि आतापन को बली ने इम जिम प्रथम पारणे भाख्यो, ३४. वरं दक्षिण दिशि जल छांटे, जम बल्कस पहिरी तेह जी । तिम इहां सर्व कहेह जी ॥ नामे महाराय जो । शेष तिमज जाव अतिथि पूजन करें पारणो ताय जी ।। 1 ३५. तिण अवसर शिवराज ऋषी ते तृतीय छठ सुविचार जी अंगीकार करीनें विचरे, हिव पारण अधिकार जी ॥ ३६. भूमि आतापन थकी वली ने वस्फल पहिरी तेह जी इस जिम प्रथम पारणे भारूपो तिम इहां सर्व कहे जी ॥ ३७. वरं पश्चिम दिशि जल छोटे वरुण नामे महाराय जी । शेष तिमज जाय अतिथि पूजनें करें पारणो वाय जी ॥ ३८. तिण अवसर शिवराज ऋषी ते तु छठ घर प्यार जी। अंगीकार करीने विचरं हिव पारण अधिकार जी ॥ ३६. भूमि आतापन थकी वली ने, वल्कल पहिरी तेह जी । इस जिम प्रथम पारणं भाख्यो, तिम इहां सर्व कह जी ॥ ४०. णवरं उत्तर दिशि जल छांटे, वेसमण महाराय जी । शेष तिमज जाव अतिथि पूजन कर पारणो ताय जी ॥ ४१. ढाल भली दोयसौ गुणतीसमी, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय जी । संपति दो सौ बीस अज्जा मुनि, 'जय जश' हरष सवाय जी ॥ , ३१. बलदेव करे करेला अतिहिपूर्व करे, करेता तओ पच्छा अप्पा आहारमाहा रेति । (श० ११०६४) 'बलिवहस्सदेव करेइ' ति बलिना वैश्वानरं पूजयतीत्यर्थः 'अतिहिपूयं करेइ' त्ति अतिथेः- आगन्तुकस्य पूजा करोतीति । ( वृ० प० ५२० ) ३२. तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चं छटुंक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । ( ० ११०६५) तए णं से सिवे रायरसी दोच्चे छटुक्खमणपारणगंसि २२. भावभूमी पच्योर, पन्चोरहिता एवं जहा पढमपारणगं दिसं पोचले, दाहिगाए "सेसं तं चेव जाव तओ (STO PPIRE) छट्ठक्खमणं उव ३४. नवरं (सं० पा०) दाहिण दिसाए जमे महाराया" पच्छा अपणा आहारमाहारे । ३५. तए णं से सिवे रायरिसी तच्चे संपज्जित्ताणं विहरइ । (० ११०६७) तए णं से सिवे रायरिसी तच्च छटुक्खमणपारणगंसि ३६, ३७. आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरहित्ता वागलवत्थनियत्थे सेसं तं चैव नवरं (सं० पा० ) पच्चत्थिमं दिसं पोक्खेइ, पच्चत्थिमाए दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसि सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारे । (म० ११०६८) ३८. तए णं से सिवे रायरिसी चउत्थं छटुक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । ( श० ११/६६ ) तणं से सिवे रायरसी चउत्थे छट्ठक्खमणपारणगंसि ३६, ४०. आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरहित्ता वागलवत्थनियत्थे एवं तं चैव नवरं (सं० पा० ) उत्तरदिसं पोक्खेइ, उत्तराए दिसाए वेसमणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, सेसं तं चैव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ । ( श० ११।७० ) श० ११, उ० ६, ढाल २२६ ४०७ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २३० वृहा १. तिण अवसर शिवराज ऋषि, छठ - छठ अंतर रहित । दिशा चक्रवाले करी जाव आतापन सहित ॥ " २. इम तपसा करतां छतां प्रकृत स्वभावे विनय करि, ३. वलि मृदु मार्दव गुण करि प्रकृति भद्र करि ताय । पतली च्यार कषाय ॥ विनय करीनें जान । । कर्म | ५. भला प्रतिपख वचन अछे इहां तज्या मच्छर नें मान ॥ ४. कदाचित ते अन्यदा, तदावरणी तेहनें क्षय उपशम करी, थई आतमा नर्म ॥ अर्थ ने जागवा, विचारवाज तदर्थ । सन्मुख चेष्टावंत ते, ए ईहा नों अर्थ | ६. अर्थ अपोह तणो इसो धर्म ध्यान चितवंत । निर्णय करियां तंत ॥ नीं आलोचना करत । ' बीजा पक्ष रहित ते ७. मगण समुच्चय धर्म अधिक धर्म आलोचना, ८. इम करतां नै ऊपनो, ते विभंग उपनां छतां, तेह गवेषण हंत ॥ विभंग नाम अज्ञान' । देखें इह विध जान ॥ ६. सप्त , द्वीप इहलोक में सप्त समुद्र सुतंत । जाणें नहिं देखें नहि, सात समुद्र उपरंत ॥ * शिव-अभिलाषी राजऋषी शिव ।। (ध्रुपदं ) १०. तिण अवसर शिवराजऋषी नें उपनां एहवा अध्यवसाय | अतिशेष ज्ञान दर्शन मुझ उपनों, अतिशेष समस्त कहाय ॥ ११. इम निश्चे इस लोक विद्वीप समुद्र सात-सात | इण उपरंत विच्छेद गया छं, अधिक नहीं आख्यात | १२. इम चितव आताप भूमि थी, पाछो वली ने ताह्यो । वल्कल छाल नां वस्त्र पहिरी नें, पोता में ओर आयो || १३. बहु लोह पात्र कडाही नें कुड़छा, यावत भंड कहायो । वंशमय भाजन कावड ग्रही नैं, आयो नगर हत्थिणापुर मांह्यो । १४. तापस नो मठ छं तिहां, आवै भंड स्थापन करताय । नगर हत्थिणापुर त्रिक सिंघाड़क, जाव महापंथ मांय || *लय : मंदोदरी मांदो पति पेखी १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ११।७१ में मूल पाठ 'नाणे' है। 'अण्णाणे' पाठान्तर में रखा गया है। ४०८ भगवती-जोड़ १. तए णं तस्स सिवस्स रारिविस्स ar जवावेमाणस २. पगइभट्याए पगइपयणु कोमाणमायालोभयाए ३. मिउमद्दव संपन्नयाए विणीययाए ४. अण्णया कयाइ तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं दिसावाले जाब (सं० पा० ) ५८. ईहामग्गणगवेसणं करेमाणस्स विमंगे नाम नागे समुप से पं तेनायं समुप्यने पासति । ६. अस्सि लोए सत्त दीवे सत्त समुद्दे, तेण परं न जाणइ न पासइ । ( ११००१) १०. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए समुपरित्यागं ममं अतिसे नागदं समुप ११. एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य १२. एवं सहेता यावणभूमीओ पोह पच्चीरहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ । १३. सुबहु लोही- लोहकडाह - कडच्छुय जाव (सं० पा० ) भंडगं किढिण संकाइयगं च गेण्हइ, गेव्हित्ता जेणेव हत्थणापुरे नगरे १४. जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मंडनिस्वेव करे करेला हापुरे नगरे सावन लिंग जाव (सं०पा० ) पहेसु Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. बहु जन आगल एम परूपै, अहो देवानुप्रिया ! जी। ____ अतिशेष ज्ञान दर्शन मुझ उपनो, लहि पूर्ण संपति ताजी ।। १६. इम निश्च इण लोक विषे छ, द्वीपोदधि सात-सात । इण उपरत विच्छेद गया छ, अधिक नहीं आख्यात ।। १७. शिव राजऋषि पे वचन ए सुणनें, नगर हत्थिणापुर मांहि । सिंघाडक यावत महा पंथे, बहु लोक बदै माहोमांहि ।। १८. इम निश्चै हे देवानुप्रिया ! शिव राजऋपि इम भाखै । पूर्ण ज्ञान दर्शन मुझ उपनो, सात-सात द्वीपोदधि दाखै ॥ १६. सात द्वीप में सात समुद्र थी, अधिक नहीं लोक मांहि । किण रीते इम एह वारता, मन्ये वितर्के ताहि । २०. तिण काले तिण समय विषे, हिवे समवसरचा वर्द्धमान । परषद वीर वंदी सुण वाणी, पहुंती निज-निज स्थान ।। २१. तिण काले तिण समय विषे, जे भगवंत श्री महावीर ! तास जेष्ठ शिष्य अंतेवासी, इंद्रभूती गुण-हीर ॥ २२. भुजा शतक में पंचमुदेशे, जेम कह्यो तिम के'णो। आज्ञा ले गोचरी फिरतां नगर में, सांभलिया जन वेणो ।। १५. बहुजणस्स एवमाइवखइ जाव एवं परवेइ-अस्थि ___णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसं नाणदंसणे समुप्पन्ने १६. एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य। (११।७२) १७. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमट्ठ सोच्चा निसम्म हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडगतिग जाव (सं० पा०) पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एबमाइक्खइ जाव परूवेइ१८. एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा १६. तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य । से कहमेयं मन्ने एवं ? (श० १११७३) अत्र मन्येशब्दो वितर्कार्थः (वृ० ५० ५२०) २०. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसर्ट परिसा निग्गया । धम्मो कहिओ परिसा पडिगया। (श० १११७४) २१. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे २२. जहा वितियसए नियंठुद्देसए (भ० २।१०६-१०६) जाव घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजण सई निसामेइ 'बितियसए नियंठद्देसए' त्ति द्वितीयशते पञ्चमोद्देशक इत्यर्थः (वृ० ५० ५२०) २३,२४. बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइवखइ जाव एवं परूवेइ–एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया ! तं चेव जाव (सं० पा०) वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य । से कहमेयं मन्ने एवं ? (श० १११७५) २५,२६. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमलैं सोच्चा निसम्म जायसड्ढे जहा नियंठुद्देसए (भ० २।११०) जाव (सं० पा०) समणं भगवं महावीरं.. एवं वदासी''बहुजणसई निसामेमि-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव परूवेइ–अत्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने एवं खलु अस्सि लोए सत्तदीवा सत्त समुद्दा, तेण पर वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य । (श० १११७६) २७. से कहमेयं भंते ! एवं ? २३. बह जन इम कहै जाव परूपं, शिवराजऋषी इम भाख । ऊपनो पूर्ण ज्ञान दर्शण मुझ, तं चेव पूर्ववत दाखै ।। २४. जाव सप्त-सप्त द्वीप समुद्र थी, अधिका नहीं लोक माय । किण रीते ए बात वितर्के, ए लोक तणी सुण वाय ॥ २५. गोतम में मन श्रद्धा प्रवर्ती, जेम निग्रंथ उद्देश । द्वितीय शतक - पंचमुद्देशे, आख्यो तेम कहेस ॥ २६. वीर कनै आय प्रश्न पूछे इम, जन करै पुर में बात । शिव राजऋषि कहै पूर्ण ज्ञान मुझ, लोक में द्वीपोदधि सात-सात ।। २७. ते किम हे भगवंत ! बात ए ? दोय सौ में तीसमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' मंगलमाल । श० ११, उ०६ढाल २३० ४०१ Jain Education Intemational Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २३१ दूहा १-३. गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी—जण्णं गोयमा ! एवं खलु एयस्स सिवस्स रायरिसिस्स छठंछट्टैणं अणिक्खित्तेणं.' आयावेमाणस्स 'विन्भंगे नामं नाणे समुप्पन्ने, तं चेव सव्वं भाणियव्वं । १. इंद्रभूति इम पूछियां, तब बोलै जगनाथ । बहु जन मांहोमांही कहै, तिमज सर्व अवदात ।। २. छठ-छठ आतापन छतां, उपनो विभंग अज्ञान । सप्त द्वीप देखै अछ, सप्त उदधि पिण जान ।। ३. तिणसं ते जाण अछ, मुझ संपूरण ज्ञान । द्वीप समुद्र अधिका नहीं, लोक इतोज पिछान ।। ४. जाव भड निक्षेप करि, हथिणापुरे सिंघाड । तिमज द्विपोदधि सप्त थी, उपरंत विच्छेद धार ।। ५. तिण अवसर बहु जन तदा, शिव राजऋषि रै पास । ए अर्थ निसुणी करी, दिल में धारी तास ।। ६. तिमज सप्त-सप्त उपरत जे, द्वीपोदधि विच्छेद । इम जन भाख ते मिथ्या, ए जिन वचन संवेद ।। ७. हूं पिण गोयम ! इम कहूं, इम निश्चै करि ताय । जंबूद्वीपज आदि दे, द्वीप असंख कहाय ।। ८. लवण आदि दे समुद्र छ, ते सहु नो संस्थान । एक सरीखा वाटला, सर्व वृत्त पहिछान ।। ६. विधि अनेक विस्तार थी, दुगुण-दुगुण विस्तार । इम जिम जीवाभिगम में, आख्यो ए अधिकार ।। ४. जाव भंडनिक्खेवं करेइ, करेत्ता हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य । ५. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमट्ठ सोच्चा निसम्म ६. एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य तण्णं मिच्छा। ७. अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-- ___ एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा । ८. लवणादीया समुद्दा संठाणओ एगविहिविहाणा 'एगविहिविहाण' त्ति एकेन विधिना-प्रकारेण विधानं व्यवस्थानं येषां ते तथा सर्वेषां वृत्तत्वात् (व०प० ५२०) ६. वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे (३६२५६) 'वित्थारओ अणेगविहिविहाण' त्ति द्विगुणद्विगुण विस्तारत्वात्तेषामिति। (वृ० ५० ५२०) १०. जाव सयंभूरमणपज्जवसाणा अस्सि तिरियलोए असंखेज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता समणाउसो ! (श० १११७७) वा०-एवं जहा जीवाभिगमे इत्यनेन यदिह सूचितं तदिदं 'दुगुणादुगुणं पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाणवीइया' अवमासमानविचय:-शोभमानतरंगा:, समुद्रापेक्षमिदं विशेषणं, बहुप्पलकुमुदनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तपफुल्ल केसरोववेया' बहूनामुत्पलादीनां प्रफुल्लानाविकसितानां यानि केशराणि तैरुपचिता:-संयुक्ता ये ते तथा, तत्रोत्पलानि-नीलोत्पलादीनि कुमुदानिचन्द्रबोध्यानि पुण्डरीकाणि—सितानि शेषपदानि तु रूढिगम्यानि 'पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्त' त्ति । (वृ०प० ५२०,५२१) ११. अत्थि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दव्वाइं-सवण्णाइ पि अवण्णाई पि १०. जाव स्वयंभूरमण दधि, तिरिछे लोके जान । असंख्यात द्वीपोदधि, हे श्रमण आयुष्मान ! वा०-एवं जहा जीवाभिगमे इम एणे वचने करी जे का ते इम---- दुगुणादुगुणं पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाण-वीइया कहितां अवभासमान वीची ते शोभायमान तरंगां, समुद्र अपेक्षाय ए विशेषण । बहुउप्पलकुमुद नलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तंसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तपफुल्लकेसरोववेया-घणां विकसित उत्पलादिक नां जे केशरा तिण करिके संयुक्त । जे तिहां उत्पल ते नीलोत्पलादिक, कुमुद ते चंद्रविकाशी, पुंडरीक ते धवला, वली शेष पद ते लोक रूढि थी जाणवा । पत्तेयं-पत्तेय पउमवरवेइया परिक्खित्ता पत्तेयंपत्तेयं वणसंडपरिक्खित्तत्ति । ११. छै प्रभु ! जंबुद्वीप में, द्रव्य तिके पहिछाण । __ वर्णे करी सहीत पिण, वर्ण रहित पिण जाण? ४१० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. सगंधाई पि अगंधाई पि, सरसाइं पि अरसाइं पि, १२. गंधे करी सहीत पिण, गंध रहित पिण ताय । फुन रस करी सहीत पिण, वलि रस रहित कहाय ? १३. फर्श करी सहीत पिण, फर्श रहित पिण होय । अन्नमन्न मांहो मांहि ते, गाढा बंध्या सोय ? १४. फा माहोमांहि ते, जावत मांहोमांहि । रहै जु समभर घटपणे, प्रश्न गोयम ए ताहि ? १५. हंता अत्थि जिन कहै, पुद्गल वर्ण सहीत । ___धर्म अधर्मास्ति प्रमुख, वर्णादिके रहीत ॥ पि... १६. छ प्रभु ! लवण समुद्र में, द्रव्य वर्णादि सहीत ? एवं पूरवली परै, इमज धातकी रीत ॥ १७. इम यावत सयंभूरमण, समुद्र लग कहिवाय । हंता अत्थि जिन कहै, पुरवली पर न्याय ।। *वाणो प्रभु नी वारू हो ॥ (ध्र पदं) १८. तिण अवसर महा परषदा, सांभल जिन वाणी हो । हिये धार हरखी घणी, वलि संतोषाणी हो ।। १३ सफासाई पि अफासाई पि, अण्णमण्णबद्धाई 'अन्नमन्नबद्धाई' ति परस्परेण गाढाश्लेषाणि (वृ० प०५२१) १४. अण्णमण्णपुटाई जाव (सं० पा०) घडताए चिट्ठति ? १५. हंता अस्थि । (श० १११७८) 'सवन्नाइंपि' त्ति पुद्गलद्रव्याणि 'अवन्नाइंपि' त्ति धर्मास्तिकायादीनि (वृ०प०५२१) १६,१७. अत्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे दवाई-सवण्णाई पि... (श० १११७६) अत्थि णं भंते ! धायइसंडे दीवे दव्वाई-सवण्णाई (श० १११८०) अस्थि णं भंते ! सयंभूरमणसमुहे दव्वाई.....'हंता अत्थि । (श०११।८१) १८. तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमझें सोच्चा निसम्म हट्टतुट्टा १६. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। (श. ११८२) २०. तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिग जाव (सं० ____ पा०) पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ । २१. जण्णं देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव परूबेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने। २२. एवं खलु अस्सिं लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य । तं नो इणठे समझें। २३-२६ समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव परूवेइ एवं खलु एयस्स सिवस्स रायरिसिरस छळंछठेणं तं चेव जाव भंडनिक्खेवं करेइ । १६. वीर प्रभु प्रति वंदन, करि नमण सुखोती हो। जे दिशि थी आवी हुँती, तेहिज दिशि प्होंती हो ।। २०. तिण अवसर हत्थिणापुरे, सिंघाडग आखै हो । यावत मोटा पंथ में, बहु जन इम भावं हो।। २१. जे भणी अहो देवानुप्रिया ! शिव राजऋषि इम बोलै हो। पूरण दरशण ज्ञान ते, मुझ थयो अतोल हो। २२. सप्त द्वीप इह लोक में, दधि सातज होई हो। एहथी अधिका को नहीं, ए अर्थ समर्थन कोई हो।। २३. भगवत श्री महावीर जी, इम भाख वाणी हो । छठ-छठ तप शिवराजऋषि करतां पहिछाणी हो ।। २४. आतापन लेतां छतां, भद्र बिनीत स्वभावे हो। पतला क्रोधादिक चिउं, मृदु मार्दव भावे हो । २५. कदा अन्यदा तेहने, तदावरणी कर्मो हो । तेहनें क्षयोपशम करी, आतम थई नर्मो हो । २६. ईहापोह मग्गणा, गवेषणा करंतो हो। विभंग अज्ञान समुप्पनो, द्वीप सप्त देखतो हो । २७. देखे सप्तोदधि वली, नहि अधिक विनाणो हो। तिण मन मांहै जाणियो, मुझ पूरण नाणो हो।। २८. इम चितव आतापना भूमि थकी वलि ताहि हो । वल्कल वस्त्र पहीर नै, निज ओरै आई हो।। नि लय : सीता रामे राची हो शा० ११. उ० ६, ढाल २३१ ४११ Jain Education Intemational cation International Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. लोह पात्रादिक भंड प्रति, कावड़ में लेई हो। हत्थिणापुर तापस मठे, भंड निक्षेप करेई हो। ३०. हत्थिणापुर शृंगाटके, यावत महापंथो हो। पूर्ण दर्शण ज्ञान मुझ, उपनो है तंतो हो। ३१. सप्त-सप्त द्वीपोदधि, अधिका नहिं कोई हो। शिव वच सुण जन पिण कहै, ते मिथ्या जोई हो। ३०. हत्थिणापुरे नगरे सिंघाड़ग जाव (सं० पा०) पहेसु'.. ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने ३१. एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य । तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमझें सोच्चा निसम्म जाब तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य तपणं मिच्छा, ३२. समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ-एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा ३३. तं चेव जाव असंखेज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता समण।उसो ! (श. ११४८३) ३४. तए णं से सिवे रायरिसी बहुजणस्स अंतियं एयम ठं सोच्चा निसम्म ३५. संकिए कंखिए ३२. भगवंत श्री महावीर जी, भाख इम वाणी हो। जंबूद्वीप लवणोदधि, आदि देई पहिछाणी हो ।। ३३. तिमज जाव पुरव परै, द्वीप असंख कहंतो हो। वलि असंख्याता उदधि, हे श्रमण आउखावंतो हो॥ ३४. तिण अवसर शिव राजऋषि, बह जन पे ताह्यो हो। एह अर्थ निसुणी करी, धारी हिय मांझो हो । ३५. एहनों उत्तर स्यूं हुई ? ए उपनी शंका हो। कोई पे उत्तर मिल, ए वांछा कंखा हो। ३६. उत्तर ए दीधां थकां, पर अन्य पिछाणी हो। मानै कै मानै नहीं, ए वितिगिच्छा जाणी हो । ३७. मति भेद पाम्यो वलि, ते विभ्रम कहियै हो। हूं क्यूं ही जाण नहीं, कलुष भाव इम लहियै हो। ३८. राजऋषि शिव नों तदा, संकित कांक्षित किण हो। जाव कलुष पाम्यां तणो, गयो विभंग ततखिण हो।। ३६. वितिगिच्छिए ३७. भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने जाए यावि होत्था ३६. शिव राजऋषि नैं ऊपनां, एहवा अध्यवसायो हो। भगवंत श्री महावीर जी, तपधारी ताह्यो हो। ३८. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखि यस्स जाव (सं० पा०) कलुससमावन्नस्स से विभंगे नाणे खिप्पामेव परिवडिए। (श. १११८४) ३६. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झथिए........."समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे ४०. तित्थगरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी ४०. आदि करण जिन धर्म नीं, तीरथ तेह करता हो। जाव सर्व ज्ञानी प्रभु, सर्व वस्तु देखता हो। ४१. धर्म चक्र आकाश गत, जाव महस्रांब मांही हो। नियम अभिग्रह सहित जिन, यावत विचरै त्यांही हो ।। ४२. महाफल निश्च ते भणी, तथा नाम अरिहंतो हो। नाम गोत्र भगवंत नों, सुणियां लाभ अत्यंतो हो । ४३. जिम उववाह में कह्य, तेम इहां पिण कहिये हो। जाव अर्थ ग्रहिवा तणो, फल अधिकेरो लहिय हो ।। ४४. हूं जावू तिण कारणे, वीर प्रभु नैं वंदु हो। जावत हूं सेवा करूं, भाव पाप निकंदुं हो। ४५. ए सेवा मुझ इह भवे, परभव हित सूख नै हो। क्षम शिव नै अनुगामिका, होस्य प्रत्यख नै हो ।। ४६. एम विचारी आवियो, तापस मठ तामो हो। घणां लोह पात्रादिके, जाव कावड़ ग्रही आमो हो। ४१. आगासगएणं चक्केणं जाव सहसंबवणे उज्जाणे अहापडिरूवं जाव (सं. पा.) विहरइ । ४२. तं महप्फलं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंतागं नामगोयस्स वि सवणयाए ४३. जहा ओववाइए (सू० ५२) जाव गहणयाए (पा० टि०) ४४. तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि जाव पज्जुवासामि ४५. एयं णे इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ ४६. त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ ....."सुबहुं लोही-लोहकडाह जाव (सं० पा०) किढिण-संकाइयगं च गेण्हइ । ४७. तावसावसहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पडि वडियविभंगे हत्थिणापुर नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ । ४७. तापस नां स्थानक थकी, वाहिर नीकरियो हो। विभंग अज्ञाने रहित ते, पुर मध्य थइ संचरियो हो ।। ४१२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. जिहां सहस्राव वन अच्छे जिहां प्रभु तिहां आये हो। तीन वार वंदना करे वलि शीस नमाने हो । ४९. नहि अति नेो इकड़ो सेव कर स्वामी ५०. वीर प्रभु ति धर्म देशना धुन करी यावत वे कर जोड़ी हो । निज मान मरोड़ी हो । अवसरे, शिव नामा नृप ऋप में हो। नणी, 1 दाखं नहा परपद में हो । ५१. दोय धर्म देखाविया, शिवपुर नां साधक हो । यावत बेहुं आराधियां, आज्ञा तणो आराधक हो || ५२. रायऋषि शिव तिग समे वीर प्रभु नी वाणी हो । धर्म सुणी हरयो घणो बंधक जिम जाणी हो । ५३. जाव ईशाने आयने तो पात्र प्रमुख में हो। एकांते न्हाख सहु यावत वलि कावड़ नैं हो ॥ 3 ५४. पंच मुष्टि लोचन कियो, पोतैहीज पिछाणी हो । वीर प्रभु प्रति वंदने, बोले वर वाणी हो । ५५. ऋषभदत्त संजम लियो, तिमहिज चारित्र लीधो हो । अंग इग्यार भणै मुनि, तिमहिज प्रसीधो हो ॥ ५६. तिहि विकहियो सहु जाव सर्व दुख अंतो हो । महामुनी मुक्ते गया, शिव ऋषिराय महंतो हो । हा ५७. राजपी शिव ने इहां सिद्धि परूपी सोय । ते संघवणादिक करी आगल हिव अवलोय ॥ ५८. * हे भगवंत ! इसो कही, गोतम भगवंतो हो । वीर प्रतं वंदन करी शिर नाम तो हो । वदंतो ५२. प्रभु ! जीव बहु सीता किसे संघयण सी हो ? वज्रऋषभ नाराच ते, जिन कहै मुक्ति लही जै हो । ६०. इस जिम उववाह विषे, आस्यो जिम कहिये हो । पुरसंघयण संठा पट व पते सहि हो । ६१. जघन्य सात कर ऊंचपर्णे, धनुष्य पांचस जाणी हो । उत्कृष्टी अवगाहना, सी भव्य प्राणी हो । १२. अष्ट वर्ष जो सही जपन्य आयु सिद्ध भाव हो । कोड पूर्व उत्कृष्ट ही शिव सुख विलसाने हो । ६३. रत्नप्रभा प्रमुख पृथ्वी सौधर्मादि विमानं हो । सिविल न वर्ग सज्ञान हो । *लय : सीता रामे राची हो ४८. जेणेव सहसंववणे उज्जाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगन महावीर विश् वंदनस ४६. नयास नातिदूरे जाय (सं० पा०) पंजलिकडे पज्जुवासइ । ( ० ११/६२) ५०. तए णं समणे भगवं महावीरे सिवस्स रायरिसिरस तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्मं परिकहेइ ५१. जाव आणाए आराहए भवइ । ( श० ११८६ ) ५२. तए णं से सिवे रायरिसी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म जहा खंदओ ( भ० २०५२) ५३. जाव उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कममित्ता व लोही लोहक जान (० पा०) किढिण संकाइयगं च एगंते एडइ ५४. सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ... ५५.५६. एवं जब उस दत्त (२०११५१) तहेव पथ्यइओ तब एक्कारस अंगाई अहिग्ज तल सव्वं जाव सव्वदुक्खपहीणे । (० ११०५७) ५७. अनन्तरं शिवराजः सिद्धिरुक्ता तां च संहननादिभिरिनिदमाह(२००५२१) ५८. भंतेति । भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं व्यासी— ५६. जीवा णं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि संघयणे सिति ? गोयमा ! बइरोभणारायसंघपणे सिज्झति । ६०. एवं जन ओवाइए ( ० १०५-१२५) तहेव संघयणं संठाणं तत्र संस्थाने षण्णां संस्थानानामन्यतरस्मिन् सिद्धयन्ति । ( वृ० प० ५२१) ६१. उच्चत्तं उच्चत्वे तु जघन्यतः सप्तरनिप्रमाणे उत्कृष्टतस्तु पंचधनुःशत के ( वृ० प० ५२१ ) ६२. आउयं च आयुषि पुनर्जन्यतः सातिरेकाष्टवप्रमाणे उत्कृष्ट रंतु पूर्व कोटीमाने ६३. परिवसणा ( वृ० प० ५२१ ) परिवसना पुनरेवं रत्नप्रभादिपृथिवीनां सौधर्मादीनां चेपागभारान्तानां क्षेत्रविशेषाणामधो न परियसन्ति सिद्धा: ( वृ० प० ५२१ ) श० ११. उ० ६ दाल २३१ ४१३ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. सर्वार्थसिद्ध ऊपरे, शिखर अग्र थी जाणी हो । बार योजन ऊंची अछ, सिद्धशिला पहिछाणी हो । ६५. लाख पैताली योजन, लांबी चौड़ी कहिय हो। ऊपर इक योजन तिहां, लोकांतज लहिये हो। ६६. ते योजन नों ऊर्ध्व जे, गाऊ एक कहै छै हो। तेहना छठा भाग में, सह सिद्ध रहै छै हो । ६७. हम पर्व जे आखिया, संघयणादिक द्वारं हो । सिद्धिगंडिया अनुक्रमे, सिद्ध तणो अधिकार हो । ६४. किन्तु सर्वार्थसिद्धमहाविमानस्योपरितनास्तूपिकाग्रा दुध्वं द्वादश योजनानि व्यतिक्रम्येषत्वाग्भारा नाम पृथिवी। (वृ० ५० ५२१) ६५. पंचचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणाऽऽयामविष्कम्भाभ्यां ....... योजने लोकान्तो भवति (वृ० प० ५२१) ६६. तस्य च योजनस्योपरितनगव्यूतोपरितनषड्भागे सिद्धाः परिवसन्तीति (वृ० ५० ५२१) ६७. एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियव्वा एवमिति-पूर्वोक्तसंहननादिद्वारनिरूपणक्रमेण सिद्धिगण्डिका' सिद्धिस्वरूपप्रतिपादनपरा। (वृ०प० ५२१) ६८. इयं च परिवसन द्वारं यावदर्थलेशतो दर्शिता, तत्परतस्त्वेवं 'कहिं पडिहया सिद्धा...... इत्यादिका....... (वृ० ५० ५२१) ६६. जाव- अव्वाबाहं सोक्खं अणुहोति सासयं सिद्धा। (श० १११८८) ७०. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ११८६) ६८. सिद्ध बस त्यां लग इहां, कह्यो लेश थी सागै हो। पडिहया सिद्धा कहि, इत्यादिक आग हो । ६६. जावत बाधा रहित ते, सिद्धा सुख अनुभव हो। सेवं भंते ! इह विधे, गोतमजी कहवै हो । ७०. बेसौ नैं इकतीसमी, आखी ढाल अमंदा हो। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' सुख आनंदा हो॥ एकादशशते नवमोद्देशकार्थः ॥११॥६॥ ढाल : २३२ १. नवमोद्देशकस्यान्ते लोकान्ते सिद्धपरिवसनोक्तेत्यतो लोकस्वरूपमेव दशमे प्राह- (वृ० ५० ५२१) २. रायगिहे जाव एवं वयासी दूहा १. नवम उद्देशक अंत में, लोकांते सिद्धवास । ते माट दशमें हिवे, लोक स्वरूप अभ्यास ।। २. नगर राजगृह नैं विष, यावत गोतम स्वाम। वीर प्रत वंदी करी, इम बोले शिर नाम ॥ _*हिये धर रे, श्री प्रभुजी नां वचन अंगीकर रे । (ध्रुपदं) ३. कतिविध लोक कह्यो भगवंते ! जिन कहै च्यार प्रकार । द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव ए, वलि शिष्य पूछ सार ।। वा०-'दव्वओ लोए'त्ति द्रव्य थकी लोक बे प्रकारे-आगम थकी अने नोआगम थकी । तिहां आगम थकी द्रव्य लोक ते लोक शब्द नां अर्थ नों जाण, ते लोक शब्द नां अर्थ नै विषे उपयोग रहित हुवै इत्यर्थः । अनुपयोगो द्रव्यं इति वचनात् । उपयोग-रहित द्रव्य, एहवं कह्य छ। ते वचन थकी लोक शब्द नां अर्थ नो जाण छ, पिण तेहनै विषे उपयोग नहीं, ते माट तेहन द्रव्य लोक ३. कतिविहे णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! चउन्विहे लोए पण्णत्ते, तं जहा—दव्वलोए खेत्तलोए काललोए भावलोए। (श०११।१०) वा०—'दव्वलोए' ति द्रव्यलोक आगमतो नोआगमतश्च तत्रागमतो द्रव्यलोको लोकशब्दार्थज्ञरतत्रानुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य' मिति वचनात् *लय : तू चामड़ा री पुतली ! भजन कर हे ४१४ भगवती-जोड Jain Education Intemational Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आह च मंगलं प्रतीत्य द्रव्यलक्षणम् । आगमओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ वत्ता। तन्नाणलद्धिजुत्तो उ नोवउनोत्ति दव्वं ।। ते नोआगमतस्तु ज्ञशरीर-भव्यशरीर-तद्व्यतिरिक्तभेदात् त्रिविधः, तत्र लोकशब्दार्थज्ञस्य शरीरं मृतावस्थं ज्ञानापेक्षया भूतलोकपर्यायतया घृतकुम्भवल्लोक: स च ज्ञशरीररूपो द्रव्यभूतो लोको ज्ञशरीरद्रव्यलोकः, नोशब्दश्चेह सर्वनिषेधे कहिये । मंगल शब्द आश्रयी द्रव्य न लक्षण भाष्यकार कहै छ अनुपयुक्त कहितां मंगल शब्द नां अर्थ नै विषे उपयोग रहित । मंगल शब्द नों अनुवासित—भावित एहवो वक्ता आगम थकी द्रव्य मंगल कहिये । ज्ञान लब्धि युक्त मंगल शब्द नै विषे अनुपयुक्त, इण हेतु थकी आगम थकी द्रव्य' मंगल कह्यो। ____ अने नोआगम थकी द्रव्य तीन प्रकारे-जाणक शरीर, भव्य शरीर, जाणक शरीर भव्य शरीर थकी ब्यतिरक्त-एवं त्रिविध । तिहां लोक शब्द नां अर्थ नौं जाण, तेहनों शरीर मृत अवस्था में ज्ञान अपेक्षा कारकै भूत--अतीत काले लोक शब्द नां अर्थ नों जाण हुँतो तेणे करी। जिम ए घृत नो घड़ो हुँतो ते घृत काढ्यां पछ पिण घृत नों घड़ो कहै । तिम लोक शब्द नां अर्थ नों जाण हुँतो, तेहनों ए शरीर छ, ते जाणवावाला नों शरीर द्रव्य रूप । ते भणी जाणक शरीर द्रव्य लोक कहिये। नोआगम थकी द्रव्य लोक नों ए प्रथम भेद । इहां नो शब्द सर्व निषेध नै विषे । तथा लोक शब्द नों अर्थ जाणस्य जे जीव, ते जीव नों शरीर चेतन सहित भावि लोकपर्यायपणे करी, मधु घटवत । ए मधु घड़ो थास्य । तेहनी पर ए लोक शब्द नां अर्थ नों जाणणहार थास्यै ए भव्यशरीर द्रव्य लोक । नो शब्द इहां पिण सर्व निषेधहीज।। हि जाणक शरीर भविक शरीर थी व्यतिरिक्त द्रव्य लोक कहिय छजीव-अजीव, रूपी-अरूपी, सप्रदेश-अप्रदेश वली नित्य-अनित्य जे द्रव्य छ, ए द्रव्य प्रतै हे शिष्य ! तूं जाण । इहां पिण नो शब्द सर्व निषेध नै विषे आगम शब्दवाची ज्ञान में सर्वथा निषेध थकी। इति द्रव्य लोक । तथा लोकशब्दार्थं ज्ञास्यति यस्तस्य शरीरं सचेतन भाविलोकभावत्वेन मधुघटवद् भव्य शरीरद्रव्यलोक: नोशब्द इहापि सर्वनिषेध एव 'खेत्तलोए' त्ति क्षेत्र रूप लोक क्षेत्र लोक । आकाश ना प्रदेश ऊर्द्ध अधः अनै तिरछा लोक नै विषे अने ज्ञानी जिन सम्यक प्रकारे देखाड्यो ते क्षेत्र प्रते हे शिष्य ! तूं जाण । इति क्षेत्र लोक । 'काललोए' ति काल समयादि ते रूप लोक-काल लोक । समय, आवलिका, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पख, मास, संवत्सर, जुग, पल्य, सागर, उत्सर्पिणी, पुद्गल परावर्तन ए काल लोक। भाव लोए' त्ति भाव लोक बे प्रकार-आगम थकी अने नोआगम थकी। तिहां आगम थकी लोक शब्द नां अर्थ नों जाण ते लोक शब्द नां अर्थ नै विषे उपयोग सहित । भाव रूप लोक भाव लोक इति । अने नोआगम थकी भाव औदयिकादि, ते रूप लोक भाव लोक । इहां नों शब्द सर्व निषेध नै विषे अथवा मिश्र वचन । आगम ने ज्ञानपणां थकी क्षायिक क्षायोपशमिक ज्ञान स्वरूप भाव विशेष करिकै वली मिश्रपणां थकी औदयिकादि भाव लोक - इति । ०ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तश्च द्रव्यलोको द्रव्याण्येव धर्मास्तिकायादीनि, आह चजीवमजीवे रूविमरूवि सपएसअप्पएसे य। जाणाहि दब्बलोयं निच्चमणिच्चं च जं दव्यं ।। इहापि नोशब्द सर्वनिषेधे आगमशब्दवाच्यस्य ज्ञानस्य सर्वथा निषेधात् ० खेत्तलोए' त्ति क्षेत्ररूपो लोकः स च क्षेत्रलोक: आह चआगासस्स पएसा उड़दं च अहे य तिरियलोए य । जाणाहि खेत्तलोयं अणंतजिणदेसियं सम्मं ।। 'काललोए' त्ति काल: समयादिः तद्रूपो लोकः काललोक: आह चसमयावली मुहुत्ता दिवसअहोरत्तपक्खमासा य । संवच्छर जुगपलिया सागरउस्सप्पिपरियट्टा ।। 'भावलोए' त्ति भावलोको द्वेधा -आगमतो नोआगमतश्च तत्रागमतो लोकशब्दार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः भावरूपो लोको भावलोक इति नोआगमतस्तु भावाऔदयिकादयस्तद्रूपो लोको भावलोकः, इह नोशब्दः सर्वनिषेधे मिश्रवचनो वा आगमस्य ज्ञानत्वात् क्षायिकक्षायोपशमिक ज्ञानस्वरूपभाववि शेषेण च मित्रत्वादौदयिकादिभावलोकस्येति । (वृ० ५० ५२३) ४. खेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा --अहेलोयखेत्तलोए तिरियलोयखेत्तलोए, उड्ढ़लोयखेत्तलोए । (श० १११६१) ४. क्षेत्रलोक प्रभु ! किते प्रकारे ? जिन कहै तीन प्रकार । नीचो तिरछो मैं वलि ऊंचो, क्षेत्रलोक विहं धार ।। श०११, उ०१०, ढाल २३२ ४१५ Jain Education Intemational Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा० - इहा अष्ट प्रदेश रुचक, तेह्नों हेठलो प्रतर, तेह नीचे नवसौ योजन लगे तिर्यग लोक छै । तिवार पछी नीचे रह्या मार्ट नीचलो क्षेत्र लोक कहिये, ते साधिक सात राज प्रमाण है । तथा 'तिरिय' त्ति- रुचक नीं अपेक्षाए नवसौ योजन ऊंचो तेहथी नीच पिण नवसौ योजन - ए अठारंसी योजन मान तिर्यगरूपपणां थकी तियंग लोक क्षेत्र लोक कहिये । तथा 'उड्ढत्ति' - तिर्यग लोक ने ऊपर देसोन सात राज प्रमाण ऊर्द्ध भागे वत्तं ते मार्ट ऊर्द्धलोक क्षेत्रलोक कहिये । अथवा जिण लोक नैं विपे क्षेत्र नां स्वभाव थकीज द्रव्यां नो अशुभ परिणाम छँ तेहथी-अधोलोक क्षेत्र लोक । तथा मध्यम अनुभाव क्षेत्र अति शुभ नहीं, अति अशुभ नहीं, तद्रूप लोक ते तिर्यक् लोक क्षेत्र लोक । तथा द्रव्य नो शुभ परिणाम घणो जिहां ते ऊर्द्धलोक क्षेत्र लोक कहिये । १. ५. प्रभु ! अधोलोक सितलोक कतिविध ? जिन कहै सप्त प्रकार | रत्नप्रभा पृथ्वी यावत तल, सप्तम पृथ्वी धार ॥ ६. प्रभु ! तिरियलोक खित्तलोक कतिविध ? जिन कहै असंख प्रकार | द्वीप नें जाव, स्वयंभूरमण समुद्र विचार || जंबू ७. प्रभ ! ऊर्डलोक तिलोक कतिविध ? जिन कहे पर प्रकार । बार कल्प ग्रैवेयक अनुत्तर, सिद्ध शिला सुविचार || ८. अपोलो प्रभु ! किन संठाणे ? जिन कहै तत्राकार' | अधोमुख जे सरावला नं. संठाणे सुविचार || ९. तिरियलोक प्रभु ! किन संठाणे ? जिन कहे भल्तरि आकार । ऊंचपणा भी अप कहीजे, तिरछो महाविस्तार ॥ ४१६ भगवती जोड़ वा० इह किलाष्टप्रदेशो रुचकस्तस्य चाधस्तनप्रतरस्याधी योजनानि पालो परे गाथः वादकः साधिप्रमाण: 'तिरियलोयखेत्तलोए' त्ति रुचकापेक्षयाऽध उपरि च नव नव योजनात गुरुपत्वात्तिर्यमुखी स्तपः क्षेत्रलोकः 'उत्तए ति तिलोकस्योपरि देशोनसप्तलोकस्तद्वषः क्षेत्र प्रमाण ऊर्ध्वभागतित्वा लोकफः अवाः परिणामावानुभावाच् यत्र लोके द्रव्याणामसावधोलोकः, तथा तिर्यङ् - मध्यमानुभावं क्षेत्र नातिशुभ नान्यस्य तपोलोक स्तिनोः तथा उद्ध्वं गुनः परिणामो बाहुल्येन द्रव्याणां यत्रासावूर्ध्वलोकः, ( वृ० प० ५२३, ५२४) कतिविहे ते? तं जहा - रयणप्पभापुअहेतमापुढविलीय (TO PRIER) कतिविहे प? गोयमा ! असंखेज्ज विहे पण्णत्ते, तं जहा - जंबुद्दी वे दीतिर जातिरि ६. योबेततोए । (१० ११०२२) ७.उ भने तिविहे ? गोमा ! पन्नरसविहे पण्णत्ते, तं जहा सोहम्म पजाब (सं० पा० ) अय म ५. भने गोयमा ! सत्तविहे पण्णत्ते, विमलए जाव खेतसीए । लोए अणुमिाणत ईसिपबारए । ( १९९४) ८. अहेलोयखेतलोए णं भंते ! किंसटिए पण्णत्ते ? गोयमा! तप्पागारसंठिए पण्णत्ते । ( श० ११२६५) 'तप्पागारसंठिए' त्ति तप्रः - उडुपकः अधोलोक क्षेत्रलोकोऽयमुतरावाकारसंस्थान इत्यर्थः (० ० ५२४) ६. रिए भए पष्णते ? गोयमा ! झल्लरिसंठिए पण्णत्ते । (० ११०२६) 'रिदिए' ति अन्योन्यत्वान्महाविस्तारत्वाच्य तिर्यग्लोक क्षेत्रलोको झल्लरीसंस्थितः (२०१० ५२४) Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ऊर्द्धलोक प्रभु ! किण संठाणे? तब भाखै जगतार। ऊर्द्ध मुखे जे मृदंग' होवै, कहियै ते आकार ।। १०. उढलोयखेत्तलोए णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! उड्ढमुइंगाकारसंठिए पण्णत्ते । (श० १११६७) 'उड्ढमुइंगागारसंठिए' त्ति ऊर्ध्वः---ऊर्ध्वमुखो यो मृदंगस्तदाकारेण संस्थितो यः स यथा शरावसंपुटाकार इत्यर्थः । (वृ० प० ५२४) ११. लोए णं भंते ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुपइट्ठगसंठिए पण्णत्ते । ११. हे प्रभु ! लोक किसे संठाणे? हिव जिन उत्तर एह। सुप्रतिष्ठक संठाणे है, न्याय विचारी लेह ।। वा०—सुप्रतिष्ठित स्थापनक, ते इहां आरोपित वारकादि ग्रहण करिय तथा विध करिके हीज लोक सरीखापणां नी उपपत्ति थकी इति वृत्तौ । ऊंधा सरावला ऊपर कलशादिक स्थापन करै, ते आकारे जाणवू । अने टबा में कह्यो आखला नै आकारे। १२. हेठ तो विस्तारवंत छ, मध्य सांकड़ो जाण । जिम सप्तम शत प्रथम उद्देशक, जाव अंत कर आण ॥ वा०-जहा सत्तमसए इत्यादि जाव शब्द थकी इम जाणवू-उप्पि विसाले अहे पलियंकसंठिए, मज्झे वरवइरविग्गहिय उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठिए तंसि च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि जाब उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठियंसि उप्पण्णनाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ-पासइ, अजीवे वि जाणइपासइ, तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ इत्यादीति । १३. हे भगवंत ! अलोक छै ते, कह्यो किसे संठाण ? जिन कहै पोलागोला' नैं, आकारे तेह पिछाण ।। १२. हेट्ठा विच्छिण्णे मज्झे संखित्त (सं० पा०) जहा सत्तमसए (७।३) पढमुद्देसए जाव अंत करेइ। (श० ११६८) १४. अधोलोक नै वि प्रभुजी ! स्पं जीवा सूविशेष ? तथा जीव नां देश कहीजै, जीवां तणां प्रदेश ? १५. इम जिम दशमा शतक तणे जे, प्रथम उद्देशे न्हाल । जिम पूर्व दिशि कही तिम कहिवं, यावत अद्धाकाल ।। १३. अलोए णं भंते ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! झुसिरगोलसंठिए पण्णत्ते । (श० ११।६६) 'झुसिरगोलसंठिए' त्ति अन्तःशुषिरगोलकाकारो (वृ० प० ५२४) १४. अहेलोयखेत्तलोए णं भंते ! कि जीवा जीवदेसा जीवपदेसा १५. एवं जहा इंदा दिसा तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव अद्धासमए। (श० ११११००) दशमशतेप्रथमोद्देशके यथा ऐन्द्री दिगुक्ता तथैव निरवशेषमधोलोकस्वरूपं भणितव्यं (वृ० प० ५२४) १६. तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! कि जीवा... एवं चेव । उड्ढलोयखेत्तलोए वि, नवरं १७. अरूवी छव्विहा, अद्धासमयो नत्थि । (श० ११११०१) ऊर्ध्वलोके तु रविप्रकाशाभिव्यंग्यकालो नास्ति तिर्यगधोलोकयोरेव रविप्रकाशस्य भावाद् अत: षडेव त इति । (वृ० ५० ५२४) १६. तिरछे लोक प्रभु ! स्यं जीवा? एवं चेव अशेष । इमज उर्द्ध लोक क्षेत्र लोके पिण, णवरं इतो विशेष ।। १७. अरूपी नां भेद छ षट, अद्धा समयो नांहि । रवि प्रकाश थकी उपनो ते, काल नहीं छै ताहि ॥ ४. भ० १०॥५ श०११, उ० १०, ढाल २३२ ४१७ Jain Education Intemational Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. लोक विषे स्यूं जीव उद्देशे दशमें तिण प्रभुजी ! वीजे शतके तास । ठामै पृषो लोकाकाश ॥ पूछ्यो १६. वरं सात प्रकार अरूपी, खंध धर्मास्तिकाय | धर्मास्तीनों देश नहीं है, लोक पूर्ण पूजाय ॥ २०. धर्मास्ती नां वलि वलि प्रदेशक, अधर्मास्तिकाय । तेहनों देश नहीं है तेनां प्रदेश बहु कहिवाय ॥ २१. आगासस्थि नों संघ नहीं थे, आगासत्थि नों देश । तास प्रदेश काल ए सातू, शेष तिमज सुविशेष || सोरठा २२. द्वितीय शतके तास, दशमा उद्देशा मझे । पूछ्यो लोकाकाश, तिहां अरूपी पंचविध ॥ २३. लोकाकाश आधार तिण ठामें बांधो तिहां अपर भेद सुविचार, पंच कला इण कारणे ॥ २४. पूर्ण लोक मकार, इहां आकाश आधेय छ । सप्त भेद सुविचार वे भेद आकाश तणां गिण्या ॥ । वा० - तिहां दूजा शतक नां १० उद्देशा में आकाश रूप लोक में धर्मास्तिकायादिक नीं पूछा करी । तिण कारणं आकाशास्ति नां वे भेद नहीं लिया । अन इहां पंचास्तिकाय समुदाय रूप लोक नैं विपे पूछा करी तिसूं आकाशास्ति नां पिण बे भेद लिया । इण हेते बीजे शतक ५ भेद अनें इहां सात भेद लिया । २५. * हे भगवंत ! अलोक विषे स्यूं जीवा इम जिम जाण । दूजे शतक उद्देशे दशमें, कह्यो तेम पहिलाण || २६. नो जीवा नो देश जीव नां, तिमहिज जावत उक्त । अगुरुलघु अनंत अगुरुलघु, गुण करने संयुक्त ॥ २७. सकाशनों भाग अनंतसुं कहिये लोक आकाश । तेह लोकाकाश करिनें ऊणों, ए जिन वचन प्रकाश ॥ २८. अधोलोक नां एक आकाश, प्रदेश विषे भगवान । स्यूं जोवा के देश जीव नां जीव प्रदेश पिछान ॥ २६. तिहां अजीव कहीजै के वलि, अजीव देश प्रदेश ? गोतम ए पट प्रश्न पूछ्षां उत्तर दियं जिनेश । ३०. नो जीवा ते संघ जययी, आसो जीवन पाय चहु वह जीव तां बहु देश अने पनि बहु प्रदेश पिण वाय ।। ३१. वह अजीब पिग हूं ति ठानें अजीव नां बहु देश । अजीव नां बहु प्रदेश नं ए पांचू वा०. - एक प्रदेश नं विधे जीव नीं अवगाहना नथी ते मार्ट खंध आश्री लहेस ॥ जीव न कह्या । अने जीव-देश ते घणां जीव नां एकेक देश ने अवगाहन थकी * लय : तू चामड़ा नी पुतली! भजन कर हे १. भ० २।१३६ ४१८ भगवती जोड़ १८. लोए णं भंते ! कि जीवा जहा वितिवस असिए (म० २।१२२). लोयागामे यथा द्वितीय दशमोद्देशक इत्यर्थः । तं (१०१०५२४) १६,२०. नवरं - अरूवि अजीवा सत्तविहा पण्णत्ता, जहाको धम्यरिवकायस्स पदेसा, अधम्मत्थिकाए नोअधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थिकायस्स पदेसा २१. नोआगासत्यिकाए आगासत्विकायस्स देसे, आगासत्थिकायस्स पदेसा अद्धा समए सेसं तं चेव । ( ० ११।१०२) २२-२४. द्वितीयते दमक इयर्थः'लो' त्ति लोकाका विषयभूते जीवाद उक्ता एवमिहा पीत्यर्थः, 'नवर' मिति केवलमयं विशेष:तत्रारूपिणः पंचविधा उक्ता इह तु सप्तविधा वाच्याः तत्र हि लोकाकाशमाधारतया विवक्षितमत आकाशदस्तनोतु लोकाऽस्तिकायसमुदाय आधारतया विवक्षितोऽत आकाशभेदा अप्याधेया भवन्तीति सप्त । ( वृ० प० ५२४) २५-२७. अलोए णं भंते ! कि जीवा एवं जहा अविकासए (०२१४०) अलोवागासे, तहेव निरवसेसं जाव सब्वागासे अनंतभागूणे । ( भ० श० ११।१०३) २८. बोगस वं भंते! एगम्मि आगारापदेसे कि जीवा जीवदेसा जीवपदेसा ? २६. अजीवा अजीवदेसा अजीवपदेसा ? ३०. गोयमा ! नो जीवा जीवदेसा वि जीवपदेसा वि ३१. अजीवा वि अजीवदेसा वि अजीवपदेसा वि जानो जीवा एकदे पाना बहूनां पुनर्जीवानां देशस्य प्रदेशस्य चावगाहनात् उच्यते, Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदेसावि जीवपएसावि' त्ति । ० यद्यपि धर्मास्तिकायाद्यजीवद्रव्यं नैकत्राकाशप्रदेशेऽवगाहते तथापि परमाणुकादिद्रव्याणां कालद्रव्यस्य चावगाहनादुच्यते---'अजीवावि' त्ति ० द्वय्णुकादिस्कन्धदेशानां त्ववगाहनादुक्तम् ---'अजीब देसावि' त्ति ० धर्माधर्मास्तिकायप्रदेशयोः पूदगलद्रव्यप्रदेशानां चावगाहनादुच्यते—'अजीवपएसावि' त्ति । ३२. जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा ३३. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे जीव नां घणा देश पिण कहिये । अने एक आकाश प्रदेश में अजीवावि कहिय ते संपूर्ण धर्मास्तिकायादि अजीव द्रव्य एक आकाश प्रदेश में न अवगाहै तो पिण परमाणु द्विप्रदेशिकादि घणां संपूर्ण द्रव्य नो अवगाहक एक आकाश प्रदेश छै ते माटै अजीवावि कहिये । अने अजीवदेसावि ते घणां द्विप्रदेशादि खंध आप आपरा देशनां अवगाहन थकी अजीव नां घणां देश कह्या । अजीवप्पदेसावि कह्या ते धर्मास्ति अन अधर्मास्ति ए बिहुँ नों एकेक प्रदेश अवगाहै। अनै पुद्गल द्रव्य नै घणां प्रदेश अवगाहन थकी एक आकाश प्रदेश में अजीव नां घणां प्रदेश पिण कहियै । ३२. जीव देश ते निश्चै करि बह, एकेंद्रिय बहु देश । इक संयोगिक ए इक भांगो, हिव द्विकयोग कहेस ।। ३३. अथवा बहु एकेंद्रिय केरा, बहु देश कहिवाय । एकबेइंद्री जीव केरो, एक देश तिहां पाय ।। वा०-इहां प्रश्नोत्तर इम कहि—अलोके हे भगवन् ! स्यूं जीव इत्यादि एवं जहा-इत्यादि अतिदेश थी इम कहि अलोयागासे णं भंते ! कि जीवा ? जीवदेसा? जीवप्पदेसा? अजीवा ? अजीवदेसा ? अजीवप्पदेसा? ___ गोयमा ! नो जीवा, नो जीवदेसा, नो जीवप्पदेसा, नो अजीवा, नो अजीवदेसा, नो अजीवप्पदेसा, एगे अजीवदव्वदेसे अगस्यलहुए अणंतेहि अगरुयलहुयगुणेहि संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे ति । तिहां सर्व आकाश अनंत भाग ऊणो। एहनो ए अर्थ-लोक लक्षण समस्त आकाश ने अनंतवें भागे करी न्यून सर्व आकाश अलोक इति । ३४. अथवा घणां एक द्रिय केरा, घणां देश तिम ठाम । घणां बेइंद्री जीव केरा, घणां देश छै ताम ।। ३५. इम जिम दशमें शतक' देखाल्या, तीन भांगा रै मांहि । विचलो भांगो जे नहिं पावै, तेह संभवै नांहि ।। सोरठा ३६. बहु एकेंद्री बहु देश, एक बेइंद्री जीव नां। घणां देश सुविशेष, ए मध्यम भांगो नथी ।। ३४. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा ३५. एवं मज्झिल्लविरहिओ ‘एवं मझिल्लविरहिओं' त्ति दशमशतप्रदशितत्रिकभंगे। (वृ० प० ५२५) ३६. 'अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियदेसा य' इत्येवंरूपो यो मध्यमभंगस्तद्विरहितोऽसौ त्रिकभंगः । (वृ० प० ५२५) ३७,३८. द्वीन्द्रियस्यैकस्यैकत्राकाशप्रदेशे बहवो देशा न सन्ति, देशस्यैव भावात् (वृ० प० ५२५) ३७. एक आकाश प्रदेश, एक बेइंद्री जीव नां । देश बहु न कहेस, ते माट नवि संभवै ।। ३८. एक प्रदेश जोय, एक बेइंद्री जीव नां, ___इक देशज अवलोय, तिण सं ए भांगो नथी । वा०-एक आकाश प्रदेश नै विषे एक बेइंद्री नां घणां प्रदेश छ । पिण एक आकाश एक प्रदेश अवगाह्यां माट तेहनै बेइंद्रिय नों एक देशहीज कहिये। ३६. *जावत अथवा घणां एकद्रिय, घणां देश छै तास । घणां अणिदिया नां बहु देशज, इहा लग सर्व अभ्यास ।। *लय : तू चामड़ा नी पूतली ! भजन कर हे १. भ०१०१६ ३६. जाव अहवा एगिदियदेसा य अणिदियाण य देसा श०११, उ१०, ढाल २३२ ४१६ Jain Education Intemational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. जे जीवपदेसा ते नियम एगिदियपदेसा ४१. अहवा एगिदियपदेसा य बेइंदियस्सपदेसा ४२. अहवा एगिदियपदेसा य बेइंदियाण य पदेसा ४३. एवं आइल्लविरहिओ ४०. जे जीव प्रदेशा ते निश्चै करि, घणां एकेंद्रिय तास । बह प्रदेश ए इकसंयोगिक, हिवै द्विकयोग अभ्यास ।। ४१. अथवा घणां एकेद्रिय केरा, घणां प्रदेश तहत । एक बेइंद्रिय जीव केरा, घणां प्रदेश कहंत ।। ४२. अथवा घणां एकद्रिय केरा, घणां प्रदेशज पाय । घणां बेइंद्रिय जीव केरा, घणां प्रदेश कहाय ।। ४३. दशम शतक' में प्रथम उद्देशे, तीन भांगा अख्यात । तेह मांहिलो पहिलो भांगो, पावै नहिं विख्यात ।। ४४. धणां एकद्रिय जीव केरा, घणां प्रदेश कहत । इक प्रदेश इक बेइंद्री नों, ए धुर भंग न हुंत ।। सोरठा ४५. एक आकाश प्रदेश, समुद्घात केवल विना। इक जंतु नों विशेष, एक प्रदेश न संभवै ।। ४६. एक प्रदेश मझार, केवल विण अन्य जीव नों। असंख्यात अवधार, तिण स् ए धुर भंग नहीं । ४७. *जाव पंचेंद्री लग इम कहिवो, इकयोगिक भंग एक । द्विकसंयोगिक वे भांगा पिण, धुर भांगो नहिं पेख ।। ४८. अणिदिया में इकयोगिक इक, द्विकयोगिक भंग तीन । तीनई भांगा नो संभव, केवलि इहां सुचीन । ४४. 'अहवा एगिदियस्स पएसा य बेदियस्स पएसा य' इत्येवंरूपाद्यभंगकविरहितस्त्रिभंगः । (वृ० प० ५२५) ४५,४६. नास्त्येवैकत्राकाशप्रदेशे केवलिसमुद्घातं विन कस्य जीवस्यकप्रदेशसंभवोऽसंख्यातानामेव भावादिति । ४७. जाब पंचिदिएसु ४६. जेह अजोवा ते द्विविध छै, रूपी अजीव हेव । अरूपी अजीव छ वली, रूपी नां चिहुं भेव ।। ५०. अरूपी अजीव केरा, पंच भेद कहिवाय । नो धमत्थिकाए भाख्यो, ते खंध आश्री नांय ॥ ५१. धर्मास्ति नों देश पावै. तास प्रदेश निहाल । अधर्मास्ति नां पिण बेहुं, पंचम अद्धा काल ।। ४८. अणिदिएसु तियभंगो 'अणिदिएसु तियभंगो' त्ति अनिन्द्रियेषक्तभंगकत्रयमपि संभवतीतिकृत्वा तेषु तद्वाच्यमिति। (वृ० प० ५२५) ४६. जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-रूपी अजीवा य अरूवी अजीवा य रूबी तहेव । 'रूवी तहेव' त्ति स्कन्धाः देशाः प्रदेशा अणवश्चेत्यर्थः। (वृ० प० ५२५) ५०. जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पण्णत्ता तं जहा नोधम्मत्यिकाए ५१. धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पदेसे एवं अधम्मत्थिकायस्स वि (सं० पा०) अद्धासमए। (श० ११११०४) वा०-'नो धम्मत्थिकाये' त्ति नो धर्मास्तिकाय एकत्राकाशप्रदेशे संभवत्यसंख्यातप्रदेशावगाहित्वात्तस्येति । 'धम्मत्थिकायस्स' देसे त्ति यद्यपि धर्मास्तिकायस्यकत्राकाशप्रदेशे प्रदेश एवास्ति तथापि देशोऽवयव इत्यनान्तरब्बेनावयवमात्रस्यैव विवक्षितत्वात् निरंशतायाश्च तत्र सत्या अपि अविवक्षितत्वाधर्मास्तिकायस्य देश इत्युक्तं वा०-'नो धमथिकाए' त्ति एक आकाश प्रदेश नै विषे संपूर्ण धर्मास्तिकाय न संभव । ते धर्मास्ति ने असंख्यात प्रदेश अवगाहीपणा थकी। 'धम्मत्यिकायस्स देसे' त्ति यद्यपि एक आकाश प्रदेश में धर्मास्ति नो प्रदेश होज हवं तो पिण देश नाम अवयव नो छ-'देशोवयवः इति वचनात्' इण कारणे देश प्रदेश नां अभेदोपचार थकी अवयवमात्र नी विवक्षा करी ने अनें निरंशता तेहमें छै तो पिण तेहनी अविवक्षा करी ने धर्मास्ति नो देश इम कह्यो । एतले खंध नां अवयव न देश कहिय अन जेहनों बीजो अंश नहीं ते निरंश नै प्रदेश कहिये । इहां अवयव नी अपेक्षाये देश का अनैं निरंशपणुं पिण तेहनै विषे छ, पिण तेहन वंछ्चो नथी । इण कारण धर्मास्ति नुं देश का। *लय : तू चामड़ा नी पूतली! भजन कर हे १. भ० १०६ ४२० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदेशस्तु निरूपचरित एवास्तीत्यत उच्यते'धम्मत्यिकायस्स पएसे' त्ति। (वृ०प० ५२५) 'धम्मत्थिकायस्स पदेस' त्ति धर्मास्तिकाय नों प्रदेश छ। इहां खंध नां अवयव नै नथी वंछ्यो, अंश रहितपणुं ते प्रदेश, ते निरंशपणु बछवे करी प्रदेश का। ५२. तिरछा लोक तण हे प्रभजी ! एक आकाश प्रदेश । स्यू जीवा ? जिम अधोलोक में, आख्यो तेम कहेस ।। ५३. इमाहज ऊंचा लोक विष पिण, णवरं नहि छै काल । सूर्य चार प्रतिबिंब नहीं त्यां, अन्य चिउं भेद निहाल । ५४. लोक तणां इक गगन-प्रदेश विर्ष स्य जीवा स्वाम ! अधोलोक में एक आकाश-प्रदेश विषे तिम ताम ।। ५२. तिरियलोगखेत्तलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगास पदेसे कि जीवा? एवं जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स तहेव ५३. एवं उड्ढलोगरोत्तलोगस्स वि नवरं-अद्धासमयो नत्थि । अरूवि चउब्विहा । (श० ११११०५) ५४. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपदेसे किं जीवा ? जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स एगम्मि आगासपदेसे । (श० ११।१०६) ५५. अलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपदेसे-पुच्छा। गोयमा ! नो जीवा नो जीवदेसा ५६. तं चेव जाव (सं० पा०) अणंतेहिं अगस्यलहुयगुणेहि संजुत्ते सव्वागासस्स अणंतभागूणे (श० ११।१०७) ५५. अलोक नै प्रभु ! एक आकाश, प्रदेश जीवा आदि । __ श्री जिन भाखै नो जीवा वलि, जीव देश नहि लाधि ।। ५६. तिमहिज जाव अनंत अगुरुलघु गुण करि संयुक्त तास । सर्व आकाश तणेंज अनंतम भाग ऊण आकाश ।। वा०—अलोक ना एक आकाश-प्रदेश नै विष स्यूं जीवा इत्यादि पूछाहे गोतम ! नो जीवा नो जीवदेसा तं चेव जाव-जिम लोक नां प्रश्न नों उत्तर तिमहिज उत्तर। किहां लग कहिव ? नो जीवप्पदेमा नो अजीवा नो अजीवदेसा नो अजीवप्पदेसा एगे अजीवदव्वदमे इहां लगै उत्तर जाव शब्द में जाणवो। जाव शब्द आगे एहवी पाठ - अगुरुयलहुए अणंतेहि अगुरुयलहुयगुणेहि संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूण --अगुरुयलहुए त्ति प्रदेश अगुरुलघु छ अनंत अगुरुलधु गुणे करी संयुक्त एहवू एक आकाश प्रदेश छ । वले ते सर्व आकाश अनंत भागरूपपण ऊण एक प्रदेश छ। इहां सव्वागासस्स छठी विभक्ति कही, ते भणी सर्व आकाश नै अनंत भागरूपपणं ऊण ते एक प्रदेश का । अन इण उद्देशेहीज पूर्वे अलोकाकाश नो प्रश्न इम पूच्चो-अलोकाकाश नै विषे हे भगवंत ! स्यू जीवा ? इम जिम अस्तिकाय उद्देशो बीजा शतक न दशमा ने भलायो तिहा नो जीवा इत्यादि छहं बोल न निषेध कह्य-एगे अजीवदब्वदेसे अगुरुयलहुए अणंतेहि अगुरुयलहुयगुणेहि संजुर्त सव्वागासे अणतभागूणे । एहनु अर्थ-ते अलोकाकाश केहवं ? एक आगासस्थिकाय अजीव द्रव्य नु देश छ । वलि अलोकाकाश केहवु छ ? अगुरुलघु छ पिण गुरुलघु नथी। अन अनंता स्वपर्याय परपर्याय रूप गुण अगुरुलघु स्वभाव करिक संयुक्त । सव्वागासे अणंतभागूणे अणंत भाग ऊण सर्व आकाश छै एतले सर्व आकाश ने अणंतवें भाग लोक छै ते माट अणतवें भाग ऊण सर्व आकाश अलोकाकाश ने कह्य । इहा सव्वागासे प्रथम विभक्ति कही ते भणी ए अलोकाकाश लोक जितरो ऊण सर्व आकाश छै अन एक प्रदेश री पूछा में सब्वागासस्स इहा छठी विभक्ति कही ते सर्वाकाश ने अणंतभागरूपपणे ऊण ते एक प्रदेश छ इति तत्वं । ५७. द्रव्य थकी जे अधोलोक में, अनंत जीव द्रव्य त । वलि अनंत अजीव द्रव्य छ, जीवाजीव अनंत ।। ५८. इमहिज तिरछा क्षेत्र लोक में, ऊर्द्ध लोक इम हंत । जीव अनंत अजीव अनंता, जीवाजीव अनंत ।। ५६. द्रव्य थकीज अलोक विषे जे, जीव द्रव्य छै नाय । बलि अजीव द्रव्य पिण नहि छै, जीवाजीव न पाय॥ ५७. दव्वओ णं अहेलोगखेत्तलोए अणता जीवदव्वा अणता अजीवदव्वा अणंता जीवाजीवदव्वा ५८. एवं तिरियलोयखेत्तलोए वि एवं उड्ढलोयखेतलोए वि ५६ दव्वओ णं अलोए नेवत्थि जीवदव्वा नेवत्थि अजीवदव्वा नेवत्थि जीवाजीवदव्वा श०११, उ०१०, ढाल २३२ ४२१ Jain Education Intemational Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. एक आकाश अजीव द्रव्य नुं, देश तिहां जिन ब्रूण । जाव सर्व आकाश नं ए, भाग अनंत में ऊण ॥ ६१. काल थकी जे अधोलोक ते, जाव न हुवो किवार । 1 न हुवै न हुस्यै ए नहि तीनूं जाव नित्य सुविचार || ६२. एवं जाव अलोक लगे जे जाव शब्द रे मांय । तिरिय लोक नैं ऊर्द्ध लोक ए, काल थकी कहिवाय ॥ ६३. भाव थकी जे अधोलोक में, अनंत वर्ण पर्याय | जिम अधिकार आयो तेम दहां कहिवाय ॥ ६४. जाव अनंत अगुरुलघु पजवा, एवं जावत लोय । जाव शब्द में तिरिय ऊर्द्ध है, भाव थकी ए जोय || ६५. भाव पकीज अलोक विषे जे नहीं वर्ण पर्याय । जावत नहीं अगुरुलघु पजवा, पुद्गलादिक ए नांय ॥ ६६. एक आकाश अजीव द्रव्य नुं, देश तिहां जिन ब्रूण । जाव सर्व आकाश अछे ए, भाग अनंत में ऊण ।। ६७. शत इग्यारम दशम दोयसौ, बत्तीसमीं ए ढाल । भिक्खु भारीमा ऋषिराम प्रसाद, 'जय जय' मंगलमाल ॥ १. मोटो लोक कितो प्रभु 1 ढाल : २३३ हा ! जिन कहै जंबू एह । भ्यंतर सगला द्वीप नैं यावत परिधि कहेह || 1 इहां जावत शब्द थकी इम जाणवो समुद्राणं सव्यन्तराइएसए, बट्टे तेल्लापूरवठाणसंहिए, बट्टेरहचक्कवालसंठाणसंठिए, वट्टे – पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए, वट्टे – पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए, एगं जोयणसयसहस्सं आयाम विक्खंभेणं, तिष्णि जोयणसय सहस्साई सोलससहस्साइं दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिष्णिय कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचि विसेसाहियंति । * गोयमजी ! सांभलजै चित ल्याय ॥ ( ध्रुपदं ) २. तिण काले नैं तिण समें जी, षट सुर महाऋद्धिवंत । यावत महासुख नां धणी जी, वलि महाईश्वरवंत' । *लय : बंधविया ! ए कुण आया रे आज १. 'महासोक्खे' के बाद मूलपाठ में कोई शब्द नहीं है । किन्तु इससे पहले 'जाव' शब्द है । 'जाव' की पूर्ति इसी ग्रंथ के ३।४ से की गई है। वहां महासोक्खे के बाद 'महाणुभागे' पाठ है । यह जोड़ उसी के आधार पर होनी चाहिए । ४२२ भगवती जोड़ ६०. एगे अजीवदव्वदेसे जाव (सं० पा० ) सव्वागासस्स अतभागणे । ६१. कालओ णं अहेलोयखेत्तलोए न कयाइ नासि, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ ६२. एवं तिरियलोयखेत्तलोए, एवं उड्ढलोयखेत्तलोए एवं अलोए। ६३. भावओ णं अहेलोयखेत्तलोए अनंता वण्णपज्जवा (सं० पा० ) जहा खंड (०२१४५) ६४. जाव (सं० पा० ) अनंता अगरुयलहुयपज्जवा एवं तिरियलोयखेत्तलोए, एवं उड्ढलोयखेत्तलोए एवं लोए । ६५. भावओ णं अलोए नेवत्थि वण्णपज्जवा जाव (सं० पा) ने पनवा ६६. एवे अजीबदबदेसे नाव (सं० पा० ) अणतभागूणे । ( श० ११।१०८ ) १. लोभ ! केमहालए पष्णते ? गोयमा ! अण्णं जंबुद्दीवे दोने सम्यदीवसमुदागं सव्वभंतराए जाव परिक्खेवेणं । ** २. ते का ते समए छ देवा महिया जाव महासोश्वा १. अलोक में वमेव बावत् गुरुलघुपर्वव नहीं होते, किन्तु अगुरुलघु पर्यव होते हैं। इसलिए 'नेवत्थि गज्जव वहीं वह पाठ होना चाहिए। किन्तु अंगसुताणि भाग २ पृ० ५०८ पा० टि०८ के अनुसार वृतिकार को नेवत्व अगस्यला पाठ उपलब्ध हुआ । उसके अर्थ की संगति बिठाने के लिए वृत्तिकार ने उसकी व्याख्या इस प्रकार की है - 'अलोक में अगुरुलघु पर्यवों से युक्त द्रव्य पुद्गलों का अभाव है ।' यदि वृत्तिकार को शुद्ध पाठ उपलब्ध होता तो इस व्याख्या की आवश्यकता ही नहीं होती । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. जंबूद्वीप मेरू तणी जी, प्रवर चलिका एह। सर्व थकी वींटी रह्या जी, सर्व प्रकारे जेह ।। ४. हिव चिहं दिशाकुमारिका जी, महत्तरिका महाऋद्ध । धरणहार तेहनी तिके जी, चिहं बलिपिंड कर लिद्ध ।। ५. जंबूद्वीप चिहुं दिशि विषे जी, बाहिर मुख कर तेह । ते च्यारूं ऊभी रही जी, चिहं बलि पिंडी लेह ।। ६. सम काले बलिपिंडिका जी, बाहिरली दिशि मांय । न्हाखै दिशाकुमारिका जी, बलि प्रभु भाखै वाय ।। ७. एक एक ते देवता जी, चिहं बलि-पिंड तदर्थ । धरणि पड्यां पहिला तिके जी, शीघ्र ग्रहण समर्थ ।। ८. हे गोतम! ते देवताजी, पूर्व भाखी जेह । तिण उत्कृष्ट जावत वलि जी, सुर गति करने तेह ।। वा०-इहां जाव शब्द कहिवा थी इम जाणवो-तुरियाए आकुलपण करी, चवलाए-काया ने चापलपणे करि, चंडाए-गति ना उत्कर्ष योग थकी चंड ते रोद्र गति करी, सीहाए- दृढ़ स्थिरपणे करी, उद्धयाए - उद्धत ते अतिही दर्प गति करी, जइणाए–विपक्ष गति नै जीतवै करी, छेयाए-छेक ते निपुण गति करी, दिव्वाए-स्वर्ग नै विषे थइ एतले प्रधान गति करी । ६. जंबू नां मेरू थकी जी, पूरव स्हामो पेख । एक देवता चालियो जी, तिण गति करिने देख ।। १०. इमहिज दक्षिण सामुहो जी, इक सुर चाल्यो तेम । इक सुर पश्चिम सामुहो जी, उत्तर साहमों एम ।। ११. ऊंची दिशि इक देवता जी, तिण गति चाल्यो ताम । इक सुर नीचो चालियो जी, तिणहिज गति कर आम ।। १२. तिण काले नै तिण समे जी, किणहिक जायो बाल । सहस्र वर्ष तस आउखो जी, सुर चाल्यो तिण काल । १३. बालक नां माता-पिता जी, पाम्या मरण तिवार । तो पिण ते सुर नां लहै जी, लोक तणो अंत पार ।। १४. ते बालक नों आउखो जी, क्षीण थयो तिणवार । तो पिण सुर पाम नहीं जी, लोक तणो अंत पार ।। १५. क्षीण हुवै बालक तणी जी, हाड हाड नी मींज । तो पिण ते सुर चालतो जी, लोक अंत न लहीज ।। १६. तिम क्षीण हुवां ते बाल नां जी, आसप्तम कुल वंश । तो पिण ते सुर नां लहै जी, लोक अंत न अंश ।। १७. नाम गोत ते बाल ना जी, हुवा विछेद तिवार । तो पिण ते सुर नां लहै जी, लोक तणो अंत पार ।। १८. वलि गोतम पूछ तदा जी, ते सुर हे भगवान । स्यूं जे क्षेत्र गयो घणो जी, के बहु रह्यो सुजान ? [प्रभुजी ! कृपा करो जिनराज | ३. जबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए मंदरचूलियं सव्वओ समंता सपरिक्खित्ताणं चिट्ठज्जा । ४. अहे णं चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ चत्तारि बलिपिंडे गहाय ५. जंबुद्दीवस्स दीवस्स चउसु वि दिसासु बहियाभिमु हीओ ठिच्चा। ६. ते चत्तारि बलिपिंडे जमगसमगं बहियाभिमुहे पक्खिवेज्जा ७. पभू णं गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते चत्तारि बलि पिडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए। ८. ते णं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए जाव (सं० पा०) देवगईए वा०-तत्र त्वरितया' आकूलया 'चपलया कायचापल्येन 'चण्डया' रौद्रया गत्युत्कर्षयोगात् 'सिहया' दाढ्यस्थिरतया 'उद्ध तया' दातिशयेन 'जयिन्या' विपक्षजेतृत्वेन 'छकया' निपुणया 'दिव्यया' दिवि भवयेति । (वृ० प० ५२७) ६. एगे देवे पुरत्थाभिमुहे पयाते _ 'पुरत्थाभिमुहे ति मेर्वपेक्षया। (वृ० प० ५२७) १०. एगे देवे दाहिणाभिमुहे पयाते, एगे देवे पच्चत्थाभि मुहे पयाते, एगे देवे उत्तराभिमुहे पयाते, ११. एगे देवे उड्ढाभिमुहे पयाते, एगे देवे अहोभिमुहे पयाते। १२. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससहस्साउए दारए पयाते। १३. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, नो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । १४. तए णं तस्स दारगस्स आउए पहीणे भवति, नो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । १५. तए णं तस्स दारगस्स अदिमिजा पहीणा भवंति, नो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । १६. तए णं तस्स दारगस्स आसत्तमे वि कुलवंसे पहीणे भवति, नो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । १७. तए णं तस्स दारगस्स नामगोए वि पहीणे भवति नो चेवणं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । १८. तेसि णं भंते ! देवाणं कि गए बहुए ? अगए बहुए? १ यह वातिका वृत्त्यनुसारी पाठ के आधार पर की गई है। अंगसूताणि भाग २ श०१२११० में चंडाए के बाद 'जइणाए छेयाए सीहाए सिग्घाए उद्धयाए' पाठ है। १.१.१0ढाल २३३ ४२३ Jain Education Intemational Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. गोयमा ! गए बहुए, नो अगए बहुए, २०. गयाओ से अगए असंखेज्जइभागे १६. वीर कहै सुण गोयमा जी ! गयो क्षेत्र बहु होय । रह्यो क्षेत्र बहलो नहीं जी, तास मान त जोय ।। २०. गयो क्षेत्र छ तेहथी जी, रह्यो क्षेत्र जे एथ। असंख्यातमों भाग छै जी, न गयो इतरो खेत ।। २१. रह्यो क्षेत्र छै तेहथी जी, गयो क्षेत्र सुविचार । __ असंख्यातगुणो आखियो जी, अदल न्याय अवधार ।। २१. अगयाओ से गए असंखेज्जगुण सोरठा २२. पूर्व आदि दिशि च्यार, अर्द्ध रज्जू गिरि मेरु थी। ऊर्द्ध अधो अवधार, सप्त रज्जु न्यूनाधिके ।। २२. ननु पूर्वादिषु प्रत्येकमर्द्धरज्जुप्रमाणत्वाल्लोकस्योर्वा धश्च किञ्चिन्न्यूना धिकसप्तरज्जुप्रमाणत्वात्तुल्यया गत्या गच्छतां देवानां (वृ० ५० ५२७) २३. कथं षट्स्वपि दिक्षु गतादगतं क्षेत्रमसंख्यातभागमात्र (वृ० ५० ५२७) २४. अगताच्च गतमसंख्यातगुणमिति (वृ० प० ५२७) २३. षट दिशि में सुर माग, अगत क्षेत्र गत क्षेत्र थी। असंख्यातमें भाग, न्याय तास किम एहनों ।। २४. तथा अगत थी जाण, असंख्यात गुण क्षेत्र गत । एहनों पिण पहिछाण, किण विध न्याय कहीजिये ।। २५. घन कृत कल्पित लोग, लांबो चोडो सप्त रज्जू । इतरो जाडो जोग, विच मंदर सुर अवतरण ।। २६. इण गति करि लोकंत, बहु काले पावै न सुर । तो झट किम आवंत, अच्युत जिन जन्मादिके ? २५. घनचतुरस्रीकृतस्य लोकस्यैव कल्पितत्वान्न दोषः । (वृ०प०५२७) २६. ननु यद्युक्तस्वरूपयाऽपि गत्या गच्छन्तो देवा लोकान्तं बहुनापि कालेन न लभन्ते तदा कथमच्युताज्जिन जन्मादिषु द्रागवतरन्ति (वृ० प० ५२७) २७. बहुत्वात्क्षेत्रस्याल्पत्वादवतरणकालस्येति । (वृ० प० ५२७) २८. सत्यं, किन्तु मन्देयं गतिः जिनजन्माद्यवतरणगतिस्तु शीघ्रतमेति । (वृ० ५० ५२७) २७. बहुत क्षेत्र ए जोय, अल्प काल अवतरण को। तसु उत्तर अवलोय, वृत्तिकार इम आखियो ।। २८. आखी मंद गति एह, जिन जनमादिक अवसरे। सुर अवतरण करेह, अति गति शीघ्र करी इहां ।। वा...-इहां शिष्य प्रश्न करै जो पूर्वे कही तिण गति करिक जाता थका पिण देवता बहु काल करिक पिण लोक नों अंत न पामै तो बारमा देवलोक नां इंद्रादि जिन जन्मादि नै विषे शीघ्र किम अवतरे, क्षेत्र नां बहुपणां थकी अने अवतरण काल नां अल्पपणां थकी। इम शिष्य पूच्चे थके गुरु कहै—ए सत्य, पिण पूर्वे ए सुर नी गति कही ते मंद छ। अनै जिन जन्मादि काले सुर आवै ते गति अतिही शीघ्र छ । २६. लोक इतो मोटो कह्यो जी, कहै गोतम नैं जिनेश । एकादशमां शतक नों जी, दशम उद्देशक देश ।। ३०. दोयसौ नैं तेतीसमीजी, आखी ढाल उदार । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय-जश' हरष अपार ।। २६. लोए णं गोयमा ! एमहालए पण्णत्ते । (श० ११।१०६) १. इस वार्तिका का निर्माण जिस वृत्ति के आधार पर किया गया है, वह पूर्ववर्ती गाथा २६-२८ के सामने उद्धत है। इसलिए यहां वार्तिका के सामने उसे नहीं रखा गया है। ४२४ भगवती-जोड़ Jain Education Interational Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २३४ १. अलोक प्रभु ! मोटो कितो? दाखै ताम दयाल । समयक्षेत्र मनुक्षेत्र ए, जोजन लख पैताल । १. अलोए णं भंते ! केमहालए पण्णत्ते ? गोयमा ! अयण्णं समयखेत्ते पणयालीसं जोयणसय सहस्साई २. जहा खंदए (भ० २।४७) जाव परिक्खेवेणं । २. खंधक ने अधिकार जिम, जाव परिधि लग जोय । आख्यो तिम कहिवं इहां, सगलोई अवलोय ।। *प्रभु इम भाखै रे ।। (ध्र पदं) ३. तिण काले नै तिण समें हो, दश सुर महाऋद्धवंत । तिमज जाव मंदर-च लिका हो, वींट रह्या धर खंत ॥ ३. तेणं कालेणं तेणं समएणं दस देवा महिडिढया जाव महासोक्खा जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए मंदरचूलियं सव्वओ समता संपरिक्खित्ताणं संचिठेज्जा ४. अहे णं अट्ठ दिमाकुमारीओ महत्तरियाओ अट्ठ बलि पिडे गहाय ५. माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स चउसु वि दिसासु चउसु वि विदिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा ४. अथ अठ दिशाकुमारिका हो, महत्तरिका महाऋद्ध । धरणहार तेहनी सही हो, अठ बलि-पिंड कर लिद्ध । ५. मानसुत्तर गिरि विष हो, च्यारूंई दिशि मांहि । च्याई विदिशि विषे वली हो, रहि बाहिर मुख कर ताहि ॥ ६. तेह अष्ट वलि-पिंड नैं हो, जमगसमग समकाल । ___न्हाखे बाहिर सनमुखी हो, बलि कहै दीनदयाल ।। ७. इकइक सुर अठ पिंड प्रतै हो, धरण पड्यां पहिलाह। ग्रहिवा में समर्थ होवै हो, शीघ्रपणे जे ओछाह ।। ८. हे गोतम ! ते देवता हो, रहि लोकांते ताय । तिण उत्कृष्टी गति करी हो, चाल्यो अलोक रै माय ।। ९. असब्भावपट्टवणा करी हो, अलोक में सुर गति नाय । तिणसं अणहंती कल्पना हो, तिण करि ए कहिवाय ।। १०. इक सुर पूरव सामुहो हो, अग्निकूण इक पेख । यावत एक ईशाण में हो, एक ऊर्द्ध अधो एक । ६. ते अट्ट बलिपिडे जमगसमगं बहियाभिमुहे पक्खि वेज्जा । ७. पभू ण गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते अट्ट बलिपिंडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए। ८. ते णं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए जाव (सं. पा०) देवगईए लोगते ठिच्चा ६. असब्भावपट्ठवणाए ___ 'असब्भावपट्ठवणाए' त्ति असद्भतार्थकल्पनयेत्यर्थः (वृ० ५० ५२७) १०. एगे देवे पुरत्थाभिमुहे पयाते, एगे देवे दाहिणपुरत्था भिमुहे पयाते जाव (सं० पा०) उत्तरपुरत्याभिमुहे पयाते, एगे देवे उड्ढाभिमुहे पयाते, एगे देवे अहो भि मुहे पयाते। ११. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससयसहस्साउए दारए पयाते। १२. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, नो चेव णं ते देवा अलोयंतं संपाउणति । १३. तं चेव जाव (सं० पा०) ११. तिण काले नै तिण समे हो, जायो किणहि रै पूत । ___ लक्ष वर्ष रो आउखो हो, निज घर राखण सूत ।। १२. ए बालक नां माता पिता हो, काल कियो तिणवार ।। तो पिण सुर ते अलोक ना हो, निश्चै न पाम पार। १३. लोक तणो जिम आखियो हो, तिणहिज रीते ताम। अलोक नों कहिवं इहां हो, सवं पाठ अभिराम ।। १४. जावत ते सुरवर तणे हो, स्यूं गयो क्षेत्र बहु होय ? कै अणगयो क्षेत्र रह्यो तिको हो, बहुलो कहियै सोय ? १५. जिन भाखै सुण गोयमा ! हो, गयो क्षेत्र बहु नांय । अणगयो क्षेत्र रह्यो घणु हो, वलि कहै आगल न्याय ॥ *लय : राम को सुजश घणो अगए १४. तेसि णं भंते ! देवाणं किं गए बहुए? बहुए ? १५ गोयमा ! नो गए बहुए, अगए बहुए घ०११॥ उ०१०, ढाल २३४ ४२५ Jain Education Intemational Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. गयो क्षेत्र भी अनंतगुणो हो, अणगया क्षेत्र थकी गयो हो, १७. इतरो मोटो अलोक ही एकादशमी शतक न हो, १८. ढाल दोयसौ चोतीसमी हो, भिक्षु ऋषिशय तणां प्रसाद थी हो, 'जय जय' मंगलमाल || नैं भारीमाल । अगगयी क्षेत्र पिछाण भाग अनंतमें जाण ॥ कहे गोतम ने जिनेश । दशम उगम देश || ढाल : २३५ चूहा १. पूर्वे लोकालोक नीं, वक्तव्यता पहिछाण । लोक एक प्रदेश गत एकेंद्रियादिक जाण ।। J * प्रभूजी ! आप तणी बलिहारी (ध्रुपदं ) २. लोक त विशेषे कांद एक आकाश प्रदेशे हो, प्र. जे एकद्री नां प्रदेशा, जाय पंचिदि अणिदि नां कहता हो, प्र. ॥ ३. बंध्या ते मोहीमांय बलि मोहोमांहि कर्णाय हो, प्र. जाव अन्योअन्य जेह घटपणे करीते हो प्र॥ ४. प्रभु! ते जीवां रा प्रदेश त्यारे महामहि सुविशेष हो, प्र. किचित पोड़ा कहिये, अथवा बहु वाधा लहियै हो, प्र. ॥ ५. छेद त्वचा न करेह ? जिन कहै अर्थ समर्थन एह हो. प्र. वलि गोतम पूछंत, किण अर्थे पीड़ न हुंत ? हो, प्र. ॥ 1 9 ६. जिन भावे जिनराय, दृष्टांत देह कहै बाय हो, गोमजी नाटकणी इक होय, श्रृंगार तणो पर सोय हो । (गोयमजी ! सांभल तं चित स्थाय ॥ ७. मनोहर देश सुरीत जावत ते युक्त संगीत हो, गो । जाव शब्द में जाण, रायप्रश्रेणी रा पाठपिछाण हो, गो. 11 ८. ते कहिवा इह रीत, संगत प्राप्ति करि सहीत हो, गो । तास गमन गति रूड़ी, मुख हास करोनें सनूरी हो, गो. ॥ १. मृदु मंजुल वर वाणी, तनु चेष्टा तास बखाणी हो, गो. 1 वारू बात विलास, लीला सहित बोलणो तास हो, गो. ॥ १०. निपुणपणे करि युक्त उपचार करिने संयुक्त हो, गो । एहवी नाटकणी ताहि, ते रंग स्थानक रे मांहि हो, गो. ॥ *लय : स्वामीजी ! थांरा दर्शन १. सू० ७० ४२६ भगवती-जोड़ १६. गयाओ से अगए अनंतगुणे, अगयाओं से गए अनंतभागे । १७. अलोए णं गोयमा ! एमहालए पण्णत्ते । १. पूर्व लोकालोक वक्तव्यतोक्ता, वक्तव्य विशेषं दर्शयन्नाह - २. लोगस्स ! एम्मि आमासपदे ने एनदिय पदेसा जाव पंचिदियपदेसा अणिदियपदेसा अथ लौकैकप्रदेशगतं ( वृ० प० ५२७) ३. अण्णमण्णबद्धा अण्णमण्णपुट्ठा जाव (सं० पा० ) अण्णमण्ण घडत्ताए चिट्ठति ? किंचि आवाहं वा ४. अस्थि णं भंते ! अण्णमण्णस्स बाबाहं वा उप्पायंति ? ( श० ११।११० ) ५. छविच्छेदं वा करेंति ? मोट्ठे सम सेकेणट्ठेणं भंते ! एवं वच्चइ" करेंति १०. निउणजुत्तोवयारकुसला ६,७. गोयमा ! से जहानामए नट्टिया सिया - सिंगारामारवा जाव (सं० पा०) कलिया। 'जा कलियति इवात्करणादेयं दु ( वृ० प० ५२७ ) (० ११।१११) "आबाहं वा ८६. संग-प-य भणिय वेट्ठिय विलास-सननिय संलाव "रंगडापसि Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 1 ११. जन सय वा सहंस सहीत, जन लक्ष सहित वर रीत हो गो. । एहवो मंडप रमणीक तिहां नाटकणी तहतीक हो, गो. ॥ १२. नाटक बतीस प्रकारे, ते विषे इक नाटक देखाड़े हो, गो. ते निश्च गोतम ! जाणी, इम पूछे जिन गुणखाणी हो, गो. 1 "I वा० - 'बत्तीसइ विहस्स नट्टस्स' त्ति ३२ भेद है जे नाटक नां, ते द्वात्रिंशत्विच नाटक कहिये। ईहामृग रूपभ-तुरम-नर-मकर- बिहान-किन्नरादिभक्तिचित्रो नाम एको नाट्यविधिः एतच्चरिताभिनयनमिति चेष्टा सूचक संभावि छँ । इम अनेरा पिण एकतीस विश्र रायप्रश्रेणि सूत्र ( ७६ - ११३) में कह्या, तिम कहिवा । १३. ए नटणी न देखणहारा, अणिमिस नेत्रे करि सारा हो, गो । नटणी प्रति देखता, सह दिशि भी पास पेलता हो, गो. ॥ १४. गोतम कहै जिवारे हा भगवंत ! देखें तिवारे हो, गो बलि गोतम मैं स्वाम पूछे दहविध गुण धाम हो, गो. ॥ १५. सह जननी दृष्टि तिवारे, पढ़ नटणी विधे जिवारे हो, गो. ? हां प्रभु! दृष्टि पड़ंत, बलि पूछे भी भगवंत हो, गो. ॥ १६. ते सहु दृष्टी ताय, नटणी नैं पोड़ उपाय हो, गो. । त्वचा छेद सोय गोतम क पीड़न हो हो. गो. ॥ १७. अथवा नाटकणी ताय, दृष्टि प्रतै पीड़ उपजाय हो, गो. । त्वचा छेद पिण थाय ? गोतम कहै ए पिण नांय हो, गो. ॥ १८. अथवा ते वह दृष्टि, मोहोमांहि दृष्टि करि स्पृष्टि हो, गो । विच्छेद बाघा उपजावै? गोतम कहै दुख न पमाव हो, प्र. ॥ १६. तिण अर्थे इम आख्यो, हे गोतम ! पूर्वे भाख्यो हो, गो. । रह्या एकेंद्रियादिक नां प्रदेश वाधा छविच्छेद न लेग हो, गो. ॥ 1 सोरठा थी । सांभलो ॥ प्रदेश में । २०. लोके एक प्रदेश नेह तणां अधिकार बलि तेहीज विशेष, कहियै छै ते छे ते २१. * जे लोक नां भगवंत ! इक आकाश नां जु पद जघन्य करिकै जीव नां जु, प्रदेश छै ते शेष में ।। २२. उत्कृष्ट पद करि इक प्रदेशे जीव नां जु प्रदेश ही । सह जीव द्रव्य पुन एहनों, कृण अल्प वहु तुल्य अधिक हो ? २३. जिन कहै घोड़ा इक आकाश-प्रदेश में जु विद्याणिये । पद जघन्य करिके जीव नां जु, प्रदेश छते जाणिये ॥ *लय : पूज मोटा भांजे तोटा ११. जणमयानलंसि जणमयमस्माउलंसि १२. बत्तीस विहस्स नट्टस्स अण्णयरं नट्टविहि उवदंसेज्जा, मेनू गोयमा ! वा० - बत्तीसइविहस्स नट्टस्स' ति द्वात्रिंशद् विधा -भेदा यस्य तत्तथा तस्य नाट्यस्य तत्र इहामृगऋषभतुरगन रमकरविगव्यालक किन्नरादिभक्तिचित्रो नामैको नापविधिः, एतच्चरितानिपनमिति संभाव्यते, एवमन्येऽप्येकत्रिंशद्विधयो राजप्रश्नकृतानुसारतोवाच्याः । ( वृ० प० ५२७ ) १३. ते पेच्छ्गा त नट्टियं अणिमिसाए दिट्टीए सव्वओ ममता समभिलोति ? १४. हंता समभिलोएंति । १५. ताओ णं गोयमा ! दिट्ठीओ तंसि नट्टियंमि सव्वओ ममता सन्निपडियाओ ? हंता सन्निपडियाओ । १६. अस्थि णं गोयमा ! ताओ दिट्ठीओ तीसे नट्टियाए किचि वि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पायंति ? छविच्छेद वा करेंति ? नो इट्ठे समट्ठे । १७. सा वा नट्टिया तासि दिट्टीणं किंचि आवाहं वा बाबा या उपायति ? छविच्छेदं वा करेइ ? मोट्ठे समट्ठे | १८. ताओ वा दिट्ठीओ अण्णमण्णाए दिट्ठीए किचि आवाह वा वाबाहं वा उप्पाएंति ? छविच्छेदं वा करेंति नो इमडे समट्ठे । १२. से पट्ठे गोलमा ! एवं युच्च जाय (सं० पा० ) छविच्छेदं वा करेंति । ( श० ११ ११२ ) २०. लोकैकप्रदेशाधिकारादेवेदमाह ( वृ० प० ५२७ ) २१. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपदेसे जहणप जीवदेसा २२. उक्कोसपए जीवपदेसाणं सव्वजीवाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहियावा ? २३-२५. गोयमा ! सव्वत्योवा लोगस्स एगम्मि आगासपदे जहणण जीवपदेमा जीवा अज्जगुणा श० ११, उ० १०, ढाल २३५ ४२७ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्कोसपए जीवपदेसा विसेसाहिया। (श० ११।११३) २४. पद जघन्य करिक जीव नां ज, प्रदेश थी सुविचारिय। जे लोक में सह जीव द्रव्य, असंख गुण अवधारियै ।। २५. फून तेहथी जे इक आकाश-प्रदेश में जु कहीज ही। उत्कृष्ट पद करि जीव नांज, प्रदेश तेह विशेष ही। सोरठा २६. तिहां जघन्यपदे इम हत, लोक अंत गोला प्रतै । बिहुं दिशि नां फर्शत, निगोद नां गोला भणी ।। २७. शेष दिशा जे तीन, तेह अलोके आवरी। खंड गोल ए चीन, इम थोड़ा ए सर्व थी। २८. मध्य लोक सुविशेष, जे गोला षट दिशि तणां । निगोद नांज प्रदेश, फर्श छे इण कारणे ।। २६. उत्कृष्ट पदे विचार, जीव प्रदेश कह्या घणां । लोकांत विण अवधार, खंडगोलका न हुवै। ३०. संपूरण जे गाल, लोक मध्य निश्चैज ह। खंड गोल दिल तोल, ते तो लोकांतेज ह। ३१. सर्व लोक रै माय, गोला अछ निगोद नां। कह्यो वृत्ति थी न्याय, सेवं भंते ! सत्य वच ।। ३२. *एकादशमां नों दशमो न्हाल, दो सौ पैंतीस मी ढाल हो, प्र०। भिक्खु भारोमाल ऋषिराय, 'जय-जश' सुख संपति पाय हो, प्र०॥ ॥इति एकादशशते दशमोद्देशकार्थः ।।११।१०।। २६,२७. तत्र तयोर्जघन्येतरपदयोर्जघन्यपदं लोकान्ते भवति 'जत्थ' ति यत्र गोलके स्पर्शना निगोददेशस्तिसृष्वेव दिक्षु भवति, शेषदिशामलोकेनावृतत्वात्, सा च खण्डगोल एव भवतीति भावः । (वृ० ५० ५२८) २८,२६. 'छद्दिसिं' ति यत्र पुनर्गोलके षट्स्वपि दिक्षु निगोददेशैः स्पर्शना भवति तत्रोत्कृष्टपदं भवति, तच्च समस्तगौलैः परिपूर्ण गोलके भवति, नान्यत्र, खण्डगोलके न भवतीत्यर्थः (वृ० प० ५२८) ३०. सम्पूर्णगोलकश्च लोकमध्य एव स्यादिति । (वृ० प० ५२८) ३१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । (श० ११।११४) ढाल : २३६ दूहा १. दशमां उद्देशक विषे, कह्यो लोक विस्तार । लोक विषे हिव काल द्रव्य, कहिये ते अधिकार ।। २. तिण काले नैं तिण समय, वाणियग्राम सुजान । नामैं नगर हुँतो वर्णन, दूतिपलास उद्यान ।। ३. जावत-पुढवीशिलापट, वाणिय ग्रामे जान । सेठ सुदर्शन नाम तसं, वसै अधिक ऋद्धिवान ।। ४. जावत गंज न को सकै, श्रमणोपासक तेह । जाण्या जीव अजीव नैं, जावत विचरै जेह ।। ५. समवसरया स्वामी तिहां, यावत परषद आय । सेव करै त्रिहं जोग करि, निरख निरख हरषाय ।। *लय : स्वामीजी ! थारा दर्शन ४२८ भगवती-जोड़ १. अनन्तरोद्देशके लोकवक्तव्यतोक्ता, इह तु लोकवतिकालद्रव्य वक्तव्यतोच्यते (वृ० प० ५३२) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नाम नगरे होत्था—वण्णओ। दूतिपलासे चेइएवण्णओ। ३ जाव पुढविसिलापट्टओ। तत्थ णं वाणियग्गामे नगरे सुदंसणे नामं सेट्ठी परि वसइ-अड्ढे ४. जाण बहुजणस्स अपरिभूए समणोवासए अभिगय जीवाजीवे जाव... 'विहरइ । ५. सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ । (श० १११११५) Jain Education Intemational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *सुणो भव्य प्राणी रे, वीर दयाल कृपाल तणी वर वाणी रे ।। (ध्रपद) ६. सेठ सुदर्शण तिण समैं रे, स्वाम आयां नी सार। कथा सुणी हरख्यो घणो रे, आनंद थयो अपार ॥ ७. स्नान जाव मंगल करी रे, किया सर्व अलंकार । प्रवर विभूषित तनु थयो रे, निकल्यो घर थी बार ॥ ८. कोरंट वृक्ष नां पुष्प नी रे, माला सहित ते छत्र । मस्तक तेह धरीजतो रे, पगे चालतो पवित्र ।। 8. मोटा पुरुष छै तेहनी रे, वागुरा कहियै श्रेण । तिण करि परवरियो छतो रे, चाल्यो है नगर मझेण ।। १०. दूतिपलास अछै तिहां रे, आयो प्रभु रे पास । पंचाभिगम ऋषभदत्त ज्यं रे, जाव त्रिविध पजुवास ।। ११. वीर सुदर्शन सेठ नैं रे, मोटी परषद मांय । उभय धर्म आख्या तिहां रे, जाव आराधक थाय ।। १२. सेठ सुदर्शन तिण समै रे, धर्म सुणी जिन पास । हरष संतोष पायो घणो रे, बाह्य अभ्यंतर तास ।। १३. ऊठी श्री महावीर नै रे, देइ प्रदक्षिण तीन । जाव स्तुति शिर नामने रे, इम बोले चित लीन । ६. तए णं से मुदंसणे मेट्ठी इमीसे कहाए लढे समाणे हट्ठतुढे १. पहाए कय जाव (सं० पा०) पायच्छित्ते मव्वालंकार___ विभूसिए साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ ८. मकोरेंटमल्लदामेणं छनेणं धरिज्जमाणेणं पायविहार चारेणं ६. महयापुरिसवग्गुगपरिक्खिने वाणियग्गामं नगर मझमझेणं निगच्छा १० जेणेव दूतिपलामे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे नेणेव उवागच्छड, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, जहा उसभदत्तो (भ० ।।१४५) जाव तिबिहाए पज्जुवासणाए पज्जुवामह। (श० १११११६) ११. ताए ममणे भगवं महावीरे सुदंसणस्स सेट्टिस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ जाव आणाए आराहए भवइ। (श० १११११७) १२. नए णं मे सुदंसणे सेट्ठी समणस्स भगवओ महावीरस्म अंतियं धर्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुठे १३. उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता ममणं भगवं महावीर तिक्खनो जाव (म० पा०) नमंसित्ता एवं वयासी (श० ११।११८) १४ कतिविहे णं भंते ! काले पण्णत्ते ? मुदमणा ! चउब्बिहे काले पण्णते, तं जहा-माणकाले 'पमाणकाले' ति प्रमीयते-परिच्छिद्यते येन वर्षशतादि नत प्रमाणं म चासौ कालश्चेति प्रमाणकाल: (वृ०प०५३३) वा०--अद्धाकालस्य विशेषो दिवसादि लक्षण: (वृ० ५० ५३३) १५. अहाउनिव्वत्तिकाले अहाउनिव्वत्तिकाले' ति यथा-येन प्रकारेणायूषो निर्वृत्ति:-बन्धनं तथा यः काल:--अवस्थितिरसौ यथायुनिर्वृत्तिकालो-नारकाद्यायुष्कलक्षण: (वृ० ५० ५३३) वा०-अयं चाद्धाकाल एवायु:-कर्मानुभवविशिष्टः मर्वेषामेव संसारि जीवानां स्यात्, आह चनेरइयतिरियमणुया देवाण अहाउयं तु जं जेणं । निव्वनियमन्नभवे पालेंति अहाउकालो सो।। (वृ० ५० ५३३) १६. मरणकाले 'मरणकाले' त्ति मरणेन वि अद्धा-शिष्ट: काल: मरणकाल: अदाकाल: एव, मरणमेव वा कालो मरणस्य कालपर्यायवान्मरणकालः। (व०प० ५३३) १४. काल प्रभु ! कतिविध कह्यो रे ? जिन कहै चउविध जाण । प्रमाण-काल गिणीजिय रे, वर्ष शतादि प्रमाण ।। वा०-ए अद्धाकाल नो ईज विशेष जाणवो। १५. यथायुनिर्वत्ति दूसरो रे, आउखो जेण प्रकार । बांध्यं तिमहिज भोगवं रे, नरकादि गति नों विचार ।। वा०-ए अद्धाकालईज आयु कर्म नों अनुभव विशिष्ट जाणवो । मर्व समारी जीव ने ईज हुवै यथा-जिण जीवे नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव नों जे जिण प्रकार करिक इह भव नै विष आउखो बांध्यो ते आउखो तिण प्रकार करिकै अन्य भव नै विषे पाले ते यथायुनिर्वृत्ति-काल कहिये । १६. जे मरण करिने विशिष्ट छैरे, ते मरण-काल कहिवाय । ___ तथा मरण हिज काल छ रे, कहिये मरण नै कालपर्याय ॥ *लय : राजा राणी रंग धीरे श० ११, ३० ११, ढाल २३६ २२६ Jain Education Intemational Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अद्धा समयादि विशेष छ रे, ते रूप काल अद्धा काल । चंद्र सूर्य नीं चाल थी नीपजै रे, द्वीप अढाइ में न्हाल ॥ १८. प्रमाण काल प्रभु ! किसो रे ? जिन कहै द्विविध न्हाल | दिवसप्रमाणज-काल रे रात्रिप्रमाणज-काल ।। लै १६. वार पोहर नों । दिन हवे रे, पार पोहर नीं रात । पोहर तणांज प्रमाण ने रे, हिव कहिये अवदात || २०. उत्कृष्टी हवे पोरसी रे, मुहर्त साठा न्यार । दिवस तणी तथा रात्रि नीं रे, अह निशि मुहूर्त अठार | २१. जघन्य पोरसी एतली रे, तोन मुहूर्त्त नीं विचार । दिवस तणी तथा रात्रि नी रे, अह निशि मुहूत वार ॥ । वृद्ध । २२. हे भगवंत ! हुवे यदा रे, उत्कृष्ट पोरसी माग । दिवस तणी तथा रात्रि नीं रे, अह निशि चोधी भाग ॥ २३. तदा हुवै भाग केतला रे, मुहर्त भागे करि हान थाता जघन्य तीन मुहूर्त नों रे, दिवस तथा निशि जान ।। सोरठा २४. मुहूर्त केसले भाग, घटावतांज घटावतो । तीन मुहूर्त नी माग हुबे पोरसी जघन्य ए ॥ २५. *यदा जघन्य थी पोरसी रे, तीन मुहूर्त्त नीं होय । दिवस तणी तथा रात्रि नी रे, तेह थकी वृद्ध जोय ॥ २६. ति काले भाग केतला रे, मुहूर्त भागे करि दृढ पोहर साढा चिहुं मुहूर्त्तनों रे, दिन तथा निशि नों प्रसिद्ध ॥ २७. श्री जिन भासं सुदर्शणा ! रे, उत्कृष्ट पोहर जिवार । दिवस तणो तथा रात्रि नो रे, मुहूर्त्त साढा च्यार ॥ २८. भाग एक मुहूर्त तणां रे, एक सी बावीस होय । इक इक भाग घटावतां रे, जघन्य तीन मुहूर्त्त जोय || २६. दिवस तणी तथा रात्रि नीं रे, कही पोरसी एह । उत्कृष्ट पोहर थी इह विधे रे, जघन्य पोहर इम लेह ॥ ३०. जघन्य पोरसी जदा रे, मुहूर्त्त तीन प्रमाण । दिवस तणी तथा रात्रि नीं रे, ते दिन थी वृद्धि जाण ॥ ३१. भाग एक मुहर्त तो रे, एकसी बावीस धार तणां इक इक भाग वधारतो रे मुहूर्त साढ़ा व्यारा ॥ *लय : राजा राणी रंग थी रे । ४३० भगवती जोड़ १७. अद्धाकाले । ( श० ११।११९ ) '' ति समयादय विशेवास्तपः कामोऽयाकाल: द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽसीपीपसमुद्रान्तर्वर्ती समयादिः । ( वृ० प० ५३३ ) १८. से किं तं पमाणकाले ? पमाणकाले दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - दिवसप्पमाणकाले, राइप्पमाणकाले य । १६ चउपोरिसिए दिवसे चउपोरिसिया राई भवइ । अथ पौरुषीमेव प्ररूपयन्नाह- ( वृ० प० ५३३) २०. उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवई 'अद्धपंचमुत्त' त्ति अष्टादशमुहूर्त्तस्य दिवसस्य रात्रेर्वा चतुर्थो भागो यस्मादर्द्धपञ्चममुहूर्त्ता नव घटिका इत्यर्थः ततोऽर्द्ध पञ्चमा मुहूर्त्ता यस्यां सा तथा भवइ । ( वृ० प० ५३४ ) २१. जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी (१० ११ १२० ) 'तिमुहत' ति द्वादशमुहर्तस्य दिवसादेश्वतुर्थी भाग स्त्रिगृह भवति अतस्त्रयो मुहर्त्ताः पद् पटिका यस्यां सा । (१० १०५३४) २२. जया गं भंते! उन्होसिया अता दिवसस वा राईए वा पोरिसी भवइ २२.२४. कति भागमहतभागेणं परिहारमाणी - परिहायमणी जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवई ? २५, २६ जदा णं जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं कतिभागमुहुत्तभागेणं परिवमाणी- परिवमाणी उक्कोसिया पंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ ? २७. सुदंसणा ! जदा णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । २८,२९. सदा बासवभाग सभागेणं परिहायमाणी परिहायमाणी जहजिया तिमुरता दिवसरस वा राईए वा पोरिसी भवइ । ३०-३२ जदा वा यया तिमुहूता दिवसस वा राईए या पोरिसी भव तदा व बावीससयभागमृहुतभागेणं परिवमाणी परिषद्द्डमाथी उनकोसिया अपंचममता दिवसस वा राईए वा पोरिसी (०११/१२१) भवइ । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. दिवस तणी तथा जघन्य पोहर थी रात्रि नीं रे, उत्कृष्ट पोरसी एह । इह विधे रे, उत्कृष्ट पोहर इम तेह || वा० – जिवार साढा च्यार मुहूर्त नीं पोरसी था ते दिवस थकी एक मुहूर्त्तनों एक सौ बावीसमों भाग दिवस-दिवस प्रत घटावतां घटावतां ज्यां लगे जघन्य तीन मुहूर्त्त नीं पोरसी हुवै तिहां थकी प्रारंभी दिवस दिवस प्रते मुहूर्त्त नो एकसौ बावीसमों भाग पोहरसी मांहि बधावतां बधावतां ज्यां लगे साढा च्यार मुहूर्त नी पोहरसी । पोहरसी प्रति हानि वृद्धि कही । इहां साढा च्यार मुहूर्त ने अने तीन मुहूर्त्त नै विशेष दोढ मुहूर्त्त ते एक तयांसी दिने करी वधै तथा घटै ते दोढ मुहूर्त्त १८३ भागपणे व्यवस्थापियै । तिहां एक मुहूर्त नां १२२ भाग कीजै । तिवार दोढ मुहूर्त नां १८३ भाग हुवे । इण न्याय पोहरसी में मुहूर्त नो एक सौ बावीसमों नित्य बधावणो तथा घटावणो । सौ ३३. उत्कृष्ट पोरसी कथा जी गृहत सादा प्यार । दिवस तणी तथा रात्रि नीं जी ? ते भाखो जगतार ।। ३४. जघन्य पोरसी कदा जी तीन मुहूर्त नीं नाम । दिवस तणी तथा रात्रि नीं जो ? प्रश्न दाय अभिराम ॥ ३५. श्री जिन कहै सुदंसणा ! रे, उत्कृष्ट दिवस जिवार | अठारै मुहुर्त्तनों हुवै रे, जघन्य निशा मुहूर्त्त बार ॥ ३६. तदा उत्कृष्ट पोहर दिन तणी रे, मुहूर्त्त साढा च्यार । जघन्य तीन मुहूर्त्त तणी रे, रात्रि पोरसी विचार ॥ ३७. अथवा जदा उत्कृष्ट थी रे, निशि हु मुहूर्त्त अठार | जघन्य बार मुहर्त तो रे, दिवस हुवे तिण वार ॥ ३८. तदा उत्कृष्ट निशि पोरसी रे, मुहूर्त साढा च्यार । जघन्य थी तीन मुतणी रे, दिवस नीं पोरसी पार ॥ ३२. प्रभु ! उत्कृष्ट दिवस हुवे कदा जी अठार मुहूर्त प्रमाण । द्वादश मुहूर्त नी हुवै रे, रात्रि तदा पहिछाण ।। ४०. अथवा उत्कृष्ट पकी हुई जो अठार मुहर्त रात । द्वादश महतो सदा जी दिवस जघन्य विख्यात ॥ ४१. श्री जिन भाखं सुदंसणारे, आसादि पूनम दिन्न । उत्कृष्ट मुहूर्त्त अठार नों रे, बारे मुहूर्त्त निशि जघन्न ॥ सोरठा तास, पंचम वर्ष अपेक्षया । दिवस अठारे मुहूर्त्त नों ॥ प्यार मुहर्त तणो । सहु नहि आसाढ पूर्णिमा || साढा 1 ४२. पंच वर्ष जुग आसादि पूनम जास ४३. तेह दिवस न जाण, पोहर तणोज प्रमाण, पिण । ४४. अन्य वर्ष मांय, जे दिन कके संक्रांति तेहिज दिवस कहाय, अठ दश मुहूर्त्त दिन वृत्तौ ॥ वा० - बावीससयभागमुहुत्तभागण ति इहार्द्धपञ्चमाना त्रयाणां च मुहूर्तानां विशेषः सार्दो मुहूर्त्तः, स च व्यशीत्यधिकेन दिवसशतेन वर्द्धते हीयते च स च साढ गृहस्थ्यशीत्यधिकशतभागता व्यवस्यते, तत्र च मुहद्वाविशत्यधिकं भागशतं भवत्यतोऽभिधीयते'बावीसे' त्यादि प्राविंशत्यधिकशततमभागरूपेण मुहर्तभागेनेत्यर्थः । (२०१० ५३४) ३३. कदा ण भंते ! उक्कोसिया अद्धपचममुहुता दिवसरस वा राईए वा पोरिसी भवई ? ३४. कायाणिया मुराद वा पोरिसी भवइ ? ३५. सुदंसणा ! जदा व उस्को अङ्गारसनुहुद भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवद । ३५. उक्कोसियारी भव, जया तिता राईए परिसी भव । २७ जदा गं उनकोसिया द्वारसमुतिया राई भ जहणिए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । ३८. तदाणं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता राईए परिसी भवइ, जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ । (४० ११।१२२) ३२. दाते उदभव जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? ४०. कदा वा उक्कोसिया अट्टारसमुहुत्ता राई भवइ, जहणए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ? ४१. सुगा आसाउगिनाए उनको अट्ठास मुहते दिवसे भवद, हणमा वालसा राई भवई । ४२,४३. 'आसाढपुन्निमाए' इत्यादि इह 'आपोमास्या' मिति यदुक्तं तत् पंचसंवत्सरिकयुग यान्तिमपक्षपाय से तापमस्या नष्टादश मुह दिवसो भवति तत्परुपी भवति । ( वृ० प० ५३४) ४४. वर्षान्तरे तु यत्र दिवसे कांतिजयते तत्रैवासी भवतीति समवसेयमिति । ( वृ० प० ५३४) 1 1 ० १४, ३० १४, ढाल २२६ ४३१ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. *पोसी पूनम उत्कृष्ट थी रे, मुहर्त अठारै रात । ___ द्वादश मुहूर्त नों कहै र, जघन्य दिवस जगनाथ ।। ४६. छै भगवंत ! दिवस निशा जी, सरिखा निश्चै होय ? हंता अस्थि जिन कहै रे, अछै सरीखा जोय ।। ४७. सरिखा दिवस अनैं निशा जी, किण काले जगनाथ ! जिन कहै चैत्र आसोज नी रे, पूनम सम दिन रात ।। सोरठा ४८. पूनम चैत्य आसोज, नय ववहार अपक्षया । न्याय दृष्टि कर सोझ, वृत्तिकार आख्यो इसो।। ४६. निश्चय थकी निहाल, कर्क मकर संक्रांति नां । दिवस थकी इम भाल, आरंभीजे आगले ।। ५०. अहो रात्रि अवलोय, साढा एकाणं विषे । दिवस रात्रि सम होय, पनर महत्तं दिन फून निशा ।। ५१. मुहर्त पूणां च्यार, दिवस तणी इक पोरसी। निशि न पिण' अवधार, मुहर्त पूणां च्यार नी ।। वा०-ए संक्रांति नु न्याय वृत्ति में लिख्यु तिम कह्य अने सूर्य सवार ३६६ दिन नों हुवै । तेहना बार भाग ते १२ मास । तिहां बारमों भाग साढा तीस दिन नो ते एक मास हुवै । सर्वाभ्यंतर मंडले सूर्य आवै तिवारे अठार मुहूर्त नों दिवस वारै मुहूर्त नी रात्रि हुवै । तिका तिथि ए सूर्य संवच्छर नी आसाढी पूर्णिमा जाणवी। तेहथी साढा एकाणुमें अहोरात्रे सूर्य संबच्छर नी आसोजी पूर्णिमा जाणवी। तिवारे दिन रात्रि सम हुवै अनै सर्व बाह्य मंडले सूर्य आवं तिवारै १२ मुहूर्त नों दिवस १८ मुहूर्त नी रात्रि हुवे । तिका तिथि सूर्य संवच्छर नों पोसी पूर्णिमा जाणवी। तेहथी साढा एकाणुमें अहोरात्र तिका तिथि ते सूर्य संवच्छर नी चैत्री पूर्णिमा जाणवी । तिवारं दिन रात्रि सम हवै, ए निश्चय नय न मत का। ५२. *काल-प्रमाण ए आखियो र, पछ सुदशण फर। यथायुनिर्वत्ति-काल स्यू जी ? जिन कहै सुण चित घेर ।। ५३. नारक तिरि मनु देवता रे, जितो बांध्यो आयु न्हाल । अंतमुहर्त आदि दे , यथायुनिर्वृति काल ।। ४५. पोसपुण्णिमाए णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ। (श० ११११२३) ४६. अत्थि णं भंते ! दिवसा य राईओ य समा चेव भवति ? हंता अस्थि । (श० ११२१२४) ४७. कदा ण भंते ! दिवसा य राईओ य समा चेव भवंति ? सुदंसणा ! चेत्तासोयपुण्णिमासु एत्थ णं दिवसा य राईओ य समा चेव भवंति। ४८. चत्तासीयपुन्निमाएसु ण' मित्यादि यदुच्यते तद् व्यवहारनयापेक्षं । (वृ०प०५३४) ४६. निश्चयतस्तु कर्कमकरसंक्रान्तिदिनादारभ्य (वृ० ५० ५३४) ५०. पण्णरसमुहुत्ते राई भवइ। चउभागमुहुत्तभागूणा चउमुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । यद् द्विनवतितममहोरात्रं तस्यार्द्ध समा दिवरात्रिप्रमाणतेति, तत्र च पञ्चदशमुहूर्त दिने रात्री वा पौरुषीप्रमाणं त्रयो मुहूर्तास्त्रयश्च मुहूर्तचतुर्भागा भवन्ति, दिनचतुर्भागरूपत्वात्तस्याः। (व०प०५३४) ५४. मरण-काल प्रभु ! स्यू कह्यो जी, जुदा शरीर थी जीव । तथा जीव थकी तनु ह जुदो रे, मरण-काल ते कहीव ।। ५२ सत्त पमाणकाल । (श० ११११२५) से किं तं अहाउनिवत्तिकाल? ५३. अहाउनिव्वत्तिकाले-जण्णं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मणुस्सेण वा देवेण वा अहाउयंनिव्वत्तियं । सेत्तं अहाउनिव्वत्तिकाले। (श० ११११२६) ५४. स कि त मरणकाले? मरणकाले-जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ। मत्तं मरणकाले। (श० ११११२७) वा०-वा शब्दौ शरीरजीवयोरवधिभावस्येच्छानुसारिताप्रतिपादनार्थाविति । (वृ० प० ५३५) ५५. से कि तं अद्धाकाले ? अद्धाकाले अणेगविहे पण्णत्ते । (पा० टि० ७) वा०-अन सूत्र में दोय वार वा शब्द त शरीर जीव नै विष अवधि भाव नी इच्छा अनुसारीपणो जणायवा नै अर्थे । ५५. अद्धा-काल प्रभु स्यू कह्यो जी, जिन कहै अनेक प्रकार । समयट्ठयाए पाठ नों जी, आगल अर्थ उदार ।। *लय : राजा राणी रंग थी रे ४३२ भगवती-जीड़ Jain Education Intemational Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६. समय रूप जे अर्थ छ रे, तेह तणो भाव जोय । तेणे करी अद्धाकाल छै रे, समय भावे करि सोय ।। ५६. समयट्ठयाए 'समयट्टयाए' त्ति समयरूपोऽर्थ: समयार्थस्तद्भावस्तत्ता तया समयभावेनेत्यर्थः (वृ० प० ५३५) ५७. आवलियट्ठयाए जाव उस्सप्पिणीट्ठयाए ५७. इमज आवलिका भावे करी रे, मुहर्त दिवस पिण एम । जाव उत्सपिणी भाव थी रे, अद्धाकाल कह्यो तेम ।। सोरठा ५८. समय आदि दो काल, पूर्वे जे आख्यो अछ। तेहनोईज निहाल, स्वरूप कहियै आगलै ।। ५६. *बे भाग छै जिहां छेदन विष रे, अथवा छेदतां दोय । बे खंड शीघ्र हुवै नहीं रे, तेह समय अवलोय ।। ६० वृद असंखेज्ज समय नों रे, तास मेलवो पेख । ___तास संयोग तेणे करी रे, कहियै आवलिका एक ॥ ६१. संख्याती आवलिका करी रे, छठा शतक में जाण । सप्त उद्देशे जिम कय रे, जाव सागर इक माण ।। ५८. अथानन्तराक्तस्य समयादिकालस्य स्वरूपमभिधातुमाह (व०प० ५३५) ५६. एस णं सुदंसण। ! अद्धा दोहाराछेदेणं छिज्जमाणी जाहे विभागं नो हव्वमागच्छइ, सेत्तं समए समयट्ठयाए। द्वौ हारी-भागी यत्र छेदने द्विधा वा कारः-करणं यत्र तद् द्विहारं द्विधाकारं वा तेन (व०प० ५३५) ६७. असंखेज्जाणं समयाणं समृदयसमिइसभागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवुच्चइ । ६१. संखेज्जाओ आवलियाओ उस्सासो जहा सालिउद्देसए (भ० ६।१३२-१३४) जाव (श० ११।१२८) सालिउद्देसए त्ति पष्ठशतस्य सप्तमोद्देशके (वृ० प० ५३५) ५२. एएहि ण भते ! पलिआवम-सागरोवमेहि कि पयोयणं ? ६३. सुदंसणा ! एएहि पलिआवम-सागरावमेहि नेरइयतिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवाणं आउयाई मविज्जति । (श० १११२६) नेरइयाणं भंते ! केवइयं काल ठिई पण्णत्ता ? ६४. एवं ठिइपदं निरवसेसं भाणियब्वं जाव अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता। (श. ११४१३०) ६२. हे भगवंत ! पल्योपमे रे, सागरोपम करि सोय । स्यू प्रयोजन एहनों रे? हिव जिन उत्तर जोय ।। ६३. पल्योपम सागरोपमे रे, चिउं गति आयू माप । नेरिया नी किता काल नी रे, स्थिती कही प्रभु ! आप ? ६४. एवं स्थितिपद चतुर्थो रे, भणवो समस्तपणेह । जावत अजघन्योत्कृष्ट स्थिति रे, तेतीस उदधि कहेह ।। सोरठा ६५. पल्य सागर न सोय, अति प्रचुर अद्धा करि। तेहनों क्षय अवलोय, किम संभवै तसु प्रश्न हिव ? ६६. *छ प्रभु ! पल्य सागर तणो रे, क्षय ते सर्वथा नाश ? अपचय ते क्षय देश थी रे, जिन कहै हंता तास । ६५. अथ पल्योपमसागरोपमयोरतिप्रचुरकालत्वेन क्षयम संभावयन् प्रश्नयन्नाह- (वृ० ५० ५३६) ६६. अस्थि णं भंते ! एएसि पलिओवम-सागरोवमाण खएति वा अवचएति वा ? हंता अस्थि । (श०११।१३१) 'खये' त्ति सर्वविनाशः 'अवचए' ति देशतोऽपगम इति। (वृ०प० ५३६,५४०) ६७. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ–अत्थि णं एएसि पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा ? ६७. किण अर्थे प्रभु !इम कह्य रे, पल्य सागर नो विणास । आगल उत्तर एहनों रे, श्री जिन देस्य प्रकाश ।। ६८. दोय सौ नैं छत्तीसमी रे, आखी ढाल उदार । _ भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे, 'जय-जश' हरष अपार ॥ *लय: राजा रानी रंग थी रे श० ११, उ० ११, ढाल २३६ ४३३ Jain Education Intemational Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २३७ १. अथ पल्योपमादिक्षय तस्यैव सुदर्शनस्य चरितेन दर्शयन्निदमाह--- (वृ०प० ५४०) दूहा १. क्षय पल्योपम प्रमुख नों, उत्तर द्वार स्वाम । तेहिज सुदर्शण चरित्त करि, आखै छै अभिराम ।। _ *वीर सुदर्शन नैं कहै । (ध्रुपद) २. तिण काले में तिण समय, नगर हत्थिणापुर नीको जी काइ। सहस्रांब वन उद्यान थो, तस् वर्णन तहतीको जी कांइ।। ३ तिण हस्थिणापुर नगर में, बल नामे थो राजा जी कांइ । वर्णन कोणिक नी परै, राज्य लक्षण गुण ताजा जी कांइ॥ ४. तिण बल नामा राय ने, प्रभावती पटराणी जी काइ। कोमल कर पग जेहनां, यावत विचरै जाणी जी कांइ ।। ५. प्रभावती देवी तदा, अन्य दिवस किणवारे जी कांइ । तेहवै पुन्यवंत योग्य नैं, एहवै वास अगारे जी कांइ ।। २. तेण कालणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नाम नगरे होत्था-वण्णओ । सहसंबवणे उज्जाणे-वण्णओ। ३. तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था वण्णओ। ४. तस्स णं बलस्स रण्णो पभावई नाम देवी होत्थासुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव'"विहरइ (श०१२१३२) ५. तए णं सा पभावई देवी अण्णया कयाइ तंसितारिसगंसि वासघरंसि 'तसि तारिसगंसि' त्ति तस्मिस्तादृशके-वक्तुम शक्यस्वरूपे पुण्यवतां योग्य इत्यर्थः । (वृ० ५० ५४०) ६.७ अभितरओ सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमिय-घट्ठम8 'दूमियघट्ठमट्ठ' ति दूमितं-घवलितं घृष्टं कोमलपाषाणादिना अत एव मृष्टं—मसृणं यत्तत्तथा तस्मिन् (वृ० ५० ५४०) ८. विचित्तउल्लोग-चिल्लियतले विचित्तउल्लोयचिल्लियतले' त्ति विचित्रो-विविधचित्रयुक्तः उल्लोकः उपरिभागो यत्र 'चिल्लियं' ति दीप्यमानं तलं च अधोभागो यत्र तत्तथा ((वृ० ५० ५४०) ९. मणिरयणपणासियधयार ६. नेह महल घर कहवा, भ्यतर चित्र सहीता जी काइ। बाहिर धवल्यो ऊजलो, पेखत पामै प्रीतो जी काइ॥ ७. कोमल पाषाणादिके, घृष्ट घस्योज घठारो जी काइ।। महरो फेर मदु कियो, मष्ट सचिक्कण मठारो जी काइ। ८. चित्र विचित्र चित्राम सू, भाग ऊपरलो आछो जी कांइ । देदीप्यमान सुदीपतो, अधोभाग तल जाचो जी काइ।। १०. बहुसमसुविभत्तदेसभाए है. चंद्रकांतादिक मणि करी, कतनादिक सारी जो काइ। तिण रत्ने करि महिल नों, न्हास गयो अंधकारी जी काइ ।। १०. घणो सरीखो भली परे, वहिच्यो कीधो सारो जी कांई। भूमिभाग मनहर अछ, अति रमणीक उदारो जी काइ। ११. सरस सुगंध पंच वर्ण ना, मूक्या पुष्प सुवदो जी कांइ । पूजा उपचारे करी, निरखत नयनानंदो जी कांइ ।। १२. कृष्णागर वर चीड नी, सेल्हक धूप नो गधो जी कांइ । मघमघंत अद्भूत छ, घ्राण मने सुखकंदो जी कांइ ।। ११. पचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए पुष्प-पुजलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितं यत्तत्तथा (वृ० ५० ५४०) १२, कालागरु-पवर-कुंदुरुक्कतुरुक्क-धूव-मघमत गंधुद्धया भिरामे कुन्दुरुक्का-चीडा तुरुक्कं—सिल्हकं (वृ० ५० ५४०) १३. सुगंधवरगंधिए गंधवट्टिभूए 'सुगंधिवरगंधिए' त्ति सुगन्धयः सद्गन्धा वरगन्धा:वरवासाः सन्ति यत्र तत्तथा तत्र 'गंधवट्टिभूए' त्ति सौरभ्यातिशयाद्गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पे (वृ० ५० ५४०) १३. सुगंध वरध–वास छै, सौरभ नां अतिशय कर जी काइ। गुटिका जे गंध द्रव्य नी, तेह सरीख गंधागर जी कांइ ।। *लय : कुशल देश सुहामणो ४३४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. तंसि तारिसगंसि सर्याणज्जसि १४. एहवा महल विषे अछ, पुन्यवंत सूवा जोगो जी काइ। सेज्या महारलियामणी, सयन थकी आरोगो जी कांइ ।। १५. तेह पल्यंक विषे अछ, आलिंगन करी सहीतो जी कांइ । तनु प्रमाण तकिया अछ, बिहुँ पसवाड सुरीतो जी काइ । १६. मस्तक में बलि पग विषे, ओसीसा सुख सीरो जी काइ। बिहं पासे ऊंचो अछ, विचमें नम्यो गंभीरो जी कांइ ।। १७. किहांइक गंडबिब्बोयणे, पाठ इसो दीसंतो जी काइ । रूड़ी पर रचिया अछ, गाल मसूरिया तंतो जी काइ।। १८. गंगा तट नी बालुका, पग मेल्यां थी न्हाली जी कांई। पग नीचो जावै तदा, ए सम सेज सुंहाली जी कांइ ।। १५. सालिगणवट्टिए 'सालिंगणवट्टिए' त्ति सहालिगनवा -शरीर प्रमाणोपधानेन यत्तत्तथा (वृ० प०५४०) १६. उभओ विब्बोयणे दुहओ उण्णए मझेणयगंभीरे 'उभओ विब्बोयणे' उभयत:-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य विब्बोयणे-उपधानके यत्र तत्तथा (वृ० ५० ५४०) १७. 'गंडविब्बोयणे' त्ति क्वचिद् दृश्यते तत्र च सुपरिक__ मितगण्डोपधाने इत्यर्थः। (वृ० ५० ५४०) १८. गंगापुलिणवालुय-उद्दालसालिसए गंगापुलिनवालुकाया योऽवदाल:-अवदलनपादादिन्या सेऽधोगमनमित्यर्थः तेन सदृशकमतिमृदुत्वाद्यत्तत्तथा (वृ० ५० ५४०) १६. ओयवियखोमियदुगुल्लपट्टपडिच्छयणे उवचिय' त्ति परिकर्मितं यत् क्षौमिकं दुकूलंकासिकमतसीमयं वा वस्त्रं यूगलापेक्षया य: पट्टःशाटकः स प्रतिच्छादनं-आच्छादनं यस्य तत्तथा (वृ० ५० ५४०) २७. सुविरइयरयत्ताणे सुष्ठु विरचितं-रचितं रजस्त्राण आच्छादनविशेषः (वृ० ५० ५४०) १६. रूड़ी परि निपजावियो', अतसी वस्त्र कपासो जी काइ । तेह युगल छै इकपटो, पट आच्छादन तासो जी कांइ ।। २०. रूड़ी परि रचियो अछ, रजस्त्राण सुरीतो जी काइ। आच्छादन नों विशेष ए, रज रक्षाय पुनीतो जी काइ । सोरठा २१. भोग अवस्था नांय, ते वेला वस्त्र करी। सेज्या ढांक ताय, आच्छादन कहिये तसु ।। २२. *षट छप्पर ढाक्यो अछ, राते वस्त्र परितो जी काइ । मशकगृह अभिधान ते, वस्त्र विशेषावरितो जी कांइ ।। २३. वस्त्र विशेषज चरम नों, तेह स्वभाव थी न्हाली जी काइ। अति कोमल होवै अछ, ते सम सेज संहाली जी कांइ ।। २१,२२. अपरिभोगावस्थायां यस्मिंस्तत्तथा (वृ०प०५४०) रत्तंसुयसंवुए रक्तांशुकसंवृते-मशकगृहाभिधानवस्त्रविशेषावृते (वृ० ५० ५४०) २३,२४. सुरम्म आइणग-रूय-बूर-नवणीय-तूलफासे आजिनक...-चर्ममयो वस्त्रविशेषः स च स्वभावादतिकोमलो भवति रूतं च-कप्पासपक्ष्म बुरं चबनस्पतिविशेष: नवनीतं च--म्रक्षणं तुलश्च-अर्कतूलः इति द्वन्द्वस्तत एषामिव स्पर्शो यस्य तत्तथा (वृ० प० ५४०) २५. सुगंधवरकुसुम-चुण्ण-सयणोवयारकलिए सुगन्धीनि यानि वरकुसुमानि चूर्णा एतद्व्यतिरिक्ततथाविधशयनोपचाराश्च तै: कलितं यत्तत्तथा। (वृ० ५० ५४०) २४. रू वलि बूर वनस्पति, माखण नैं अकत्लो जी काइ । सेज सूहाली एहवी, मनहर चित अनुकूलो जी कांइ ।। २५. प्रवर सुगंध प्रधान जे, पुष्प अनैं फुन चुणों जी कांइ। तिण करिने सय्या तणी, पूजा युक्त सुपर्णो जी कांइ ।। २६. महल सेज वर्णन तणी, बे सौ सैंतीसमी ढालो जी कांइ । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशालो जी काइ ।। १. अंगसुत्ताणि में ओयविय पाठ है । वृत्ति में उवचिय पाठ लिया गया है। जोड़ इसी पाठ के आधार पर की गई है। २०११, उ०१७ ढाल २३७ ४३५ Jain Education Intemational Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २३८ १. एहवी सिज्या में विधे सुप्त जागरा अर्द्ध रात्रि अद्धा समय २. न अति सूती नींद में, न अति जाग्रत प्रचलायमान थकी तदा, अल्प नींद कर दूहा ३. एहवे रूपे पेखियो, मोटो स्वप्न कारक ते कल्याण न, उपद्रव रहित ४. कारक धन्य तणो तिको, मंगलीक शोभा लक्ष्मी सहित ते महा स्वप्न मुगराज || ५. सिंघ स्वप्न देखी करी जागी राणी आप। वर्णन स्वप्न वो कहूं सांभलग्यो चुपचाप ।। प्रभावती सुविधान | जान || *लय : कडखा रो १. वृत्ति । ४३६ भगवती-जोड़ * प्रबल अति सबल हरि अचल देख्यो स्वपन ( ध्रुपदं ) ६. हार मोत्यां तणो रजत रूपो घणो, क्षीर समुद्र नों नीर आछो । चंद्र नी किरण बलि कणिया पाणी तणां स्थूल अति मूल जे तीक्ष्ण दावा करी न्हाल | भाल ॥ रजत महासेल वेता जाधो ॥ ७. एहथी ऊजलो अधिक महिमानिलो, वर्ण वर श्वेत विस्तीर्ण वारू । नेत्र देख्या ठरं अधिक मन में हरे देखना योग्य आरोग्य चारू || ८. पवर कलाइ स्थिर लष्ट मनोज्ञ छे, १२. वाचनांतरे वृत्त', रक्त कोमल तालु उचित, उदार । । विचार ॥ सिरताज । बाटुली अति भली मृदु हाली । ६. सखर समारिया पवर संस्कारिया, जात्य जे कमल तदवत सुहाला । मान उपत शुभ त सोभन मझे, लष्ट बे ओष्ठ अति श्रेष्ठ आला ॥ १०. रक्त जे कमल नां पत्र तेहनीं परं तालुओ जीभ सुखमाल जेहनी । कोमल मध्य ए अधिक मृदु गुण करी, 1 ते भणी ओपम दीध एहनी ॥ ११. मूस में आवियां कनक तपावियो, आवर्त करत तदवत वतुल्ला। तडितवत विमल अति निमल ते सारिला, प्रवर शुभ नयन शोभन प्रफुल्ला ॥ सोरठा विडम्बित विकृत जिम मुख निहाली ।। कमल मृदु निललिताग्र - जीभ २. निस्सारित अग्रजिह्वा । सारिखा । वलि ॥ १,२. अद्धरत्तकालसमर्यासि सुत्तजागरा आहीरमाणी-ओहीरमाणी मुत्तजागर ति नातिमुप्ता नातिजानरेति भाव: किमुक्तं भवति ? 'ओहोरमाणी ति प्रचलायमाना, (१० १० ५४०) ३. अयमेयारूवं ओरालं कल्लाणं सिवं ४. धण्णं मंगल्लं सस्सिरीयं महासुविण ५. पासित्ता परिवा ६, ७. हार - रयय - खीरसागर-ससंककिरण दगरय-रययमहाल-डरतरोरमणि-पेच्छणिज् पाण्डुरतर:- अतिशुक्लः उरु: विस्तीर्णो रमणीयोरम्योत एव प्रेक्षणीयश्च - दर्शनीयो यः स तथा तम्, इह च रजतमहाशैलो वैताढ्य इति । ( वृ०प० ५४० ) ८. बिट्टीवर-सिद्धि-विसिद्ध-तिख दादाविविय स्थिरी अग्रकम्पी, लष्टी मनाशी वृत्ताः वर्तुला पीवराः - स्थूला : विडंबितं मुखं यस्य स तथा ( वृ० प० ५४० ) .. ६. परिकम्मियजच्चकमलकोमल-माइयसोभतलट्टओट्ठ परिकमितं कृतपरिकर्म्म यज्जात्यकमलं तद्वत्कोमलौ मात्रिकी प्रमाणोपपन्नौ शोभमानानां मध्ये लष्टौमनोज्ञी ओष्ठी— दशनच्छदौ यस्य स तथा । ( वृ० प० ५४१ ) १०. तुप्पलपतमसुकुमालतालुनीह रक्तोत्पलपत्रांमध्ये सुकुमाने तालुद्धिं यस्य (बु० १० ५४१) - स तथा ११. सागरकणगतानिवत्तावंत-ब-डिविमल सरिसनयणं मूषा-स्वर्णादितापनभाजनं तद्गतं यत्प्रवरकन कं तापिताग्नितापम् 'आत्तावत' ति आव कुर्वाणं तद्वद्ये वर्णतः वृते च सदिन विम सदृशे च परस्परेण नयने लोचने यस्य स तथा । (२०५०५४१) १२,१३. वाचनान्तरे तु 'रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुनिल्ला लियग्गजीहं महुगुलियाभिसंत पिंगलच्छं' ति रक्तोत्पलपवत् सुकुमाल तालु निर्वासिताया जिल्ला यस्य स तथा मधुगुटिकादिवत् 'भिसंत' Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. मधु सेहत नी तेथ, गोली पीली जे हवै। त्ति दीप्यमाने पिगले अक्षिणी यस्य स तथा । तदवत पीला नेत, वाचनांतरे दृश्यते । (वृ० ५० ५४१) १४. *पीवर मंस कर पुष्ट अदुष्ट है, जंघ अति चंग सुविशाल तासं। १४. विसालपीबरोरुं पडिपुण्णविपुलखधं विपुल विस्तीर्ण प्रतिपूर्ण तसु खंध है, विशाले–विस्तीर्ण पीवरे-उपचिते ऊरू-जंघे जंघ अरु खंध नो अति उजासं ।। यस्य परिपूर्णो विपुलश्च स्कन्धो यस्य स तथा (वृ० ५० ५४१) १५. कोमल धवल अति सूक्ष्म वर पातला, लक्षण पसत्थ विस्तीर्ण वारू । १५. मिउविसयसुहमलक्खणपसत्थविच्छिन्नकेसरसडोवएहवा खंध नां रोम ते केसरा, तास आटोप करि शोभ चारू ।। सोभियं मृदवः 'विसद' ति स्पष्टाः सूक्ष्माः 'लक्खण-पसत्थ' त्ति प्रशस्तलक्षणाः विस्तीर्णाः केसरसटाः स्कन्धकेश च्छटास्ताभिरुपशोभितो यः स तथा (वृ० ५० ५४१) १६. उच्छितं-ऊर्वीकृतं ऊंचो कियो, सुष्ठ अधोमुखीकृत सधीको। १६. ऊसिय-सुनिम्मिय-सुजाय-अप्फोडियलंगूलं __ अधिक शोभनपणे जात ते नीपनो, भूमि आस्फालित पुच्छ नीको ।। उच्छ्रितं-ऊर्वीकृतं सुनिमितं-सुष्ठु अधोमुखीकृत सुजातं-शोभनतया जातं आस्फोटितं च भूमावास्फा लितं लांगूलं येन स तथा (वृ०प०५४१) १७. सौम्य अरु सौम्य आकार लीला करत, १७. सोमं सोमाकारं लीलायंतं जंभायंतं नहयलाओ बगाइ करत हरि चित्त हरतो। ओवयमाणं नियय-वयणमतिवयंत तेह आकाश थी सहज ही उतरतो, निज मुख मांहि परवेश करतो।। १८. सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठ १८. ताम प्रभावती प्रवर उदार ए, जाव सश्रीक महास्वप्न जानं । जाव (सं०पा०) हियया स्वप्न में देख जागी छती हर्ष अति, जावत हृदय विकसायमानं ॥ १६. धाराहयकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा १६. मेघ नी धाराए आहण्यो फुलिय वृक्ष कदंब नों फूल रूपं । तिमज राणी तणां हरष नां वश थकी, विकस्या ऊंचा थया रोम कूपं ॥ २०. तं सुविणं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता सणिज्जाओ २०. तेह स्वप्न प्रतै ग्रही निश्चै करी, उठ सेज्या थकी तुरत चाली। अब्भुठेइ, अब्भुट्ठत्ता अतुरियमचवलमसंभंताए देह नै मन तणी चपलता रहित छ, विलंब संभ्रांत रहित हाली ।। अविलंबियाए 'अतुरियमचवलं' ति देहमनश्चापल्यरहित यथा भवत्येवम् 'असंभताए' त्ति अनुत्सुकया (व० ५० ५४१) २१. राजहंसीव शुभ गमन करती छती, २१,२२. रायहंससरीसीए गईए जेणेव बलस्स रणो ___ जबर बल नपति नी सेज आवै। सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बलं रायं इष्ट मनोहारी मन प्रीतिकारी भला, ताहि इट्टाहि कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहि वचन मनोज्ञ करि नप जगावै ॥ ओरालाहि कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं म गल्लाहिं २२. अतिही मनगमता ओदार कल्याण करि, सस्सिरीयाहिं मिय-महुर-मंजुलाहिं गिराहिं वाणि शिव धन्य मंगल सश्रीको। सलवमाणी-संलवमाणी पडिबोहेइ। कोमल मधुर मंजुल वचने करी, बोलती नृपति जगाय नीको ।। २३. ताम बल राजाए आंण दीधां छतां, नाना प्रकार नां रत्न जाणी। २३. बलेण रण्णा अब्भणण्णाया समाणी नाणामणिरयण चंद्रकांतादि मणी भांत जे चीतरया, एहवे भद्रासणे बैठी राणी॥ भित्तिचित्तंसि भद्दासणंसि निसीयति २४. गमन थी ऊपनो श्रम जे टालियो, रालियो दूर संक्षोभ राणी। २४. आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बल राय सुख वर अथवा शुभ आसन प्रति रही, 'आसत्थ' त्ति आश्वस्ता गतिजनितश्रमाभावात् बोलती नृपति ने मिष्ट वाणी ।। 'वीसत्थ' त्ति विश्वस्ता संक्षोभाभावात् अनुत्सुका वा 'सुहासणवरगय' त्ति सुखेन सुखं वा शुभं वा आसन*लय : कड़खा री वरं गता या सा तथा (वृ० प० ५४१) १. जंभाई श० ११, उ० ११, ढाल २३८ ४३७. Jain Education Intemational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. सूपन वर्णन तणी दोय सौ ऊपर, एस अड़तीसमी ढाल आखी। - पूज्य भिक्षु भारिमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष आनन्द साखी ।। ढाल : २३६ दहा १. इष्ट जाव वच बोलती, संदर भाख स्वाम। इम निश्चै करि आज हूं, देवानुप्रिय ! आम ।। २. तेहवी सिज्या – विषे, देह प्रमाण पल्यंक । तिमज यावत निज मुख विषे, सिंघ प्रवेश सुअंक ।। ३. पेखी मृगपति स्वप्न प्रति, हूं जागी हे नाथ ! ते माटै देवानुप्रिय ! तुझ प्रति पूछ्रे बात ।। ४. ए उदार यावत प्रभु, महास्वपन नं पेख । ___ कहy फल कल्याणकर, फल वृत्ति हुस्यै विशेख ? १. ताहि इटाहि कंताहि जाव' गिराहि संलवमाणीसंलवमाणी एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अज्ज २. तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगणवद्रए तं चेव जाव नियगवयणमइवयंत सीहं सुविणे ३. पासित्ता णं पडिबुद्धा तण्णं देवाणुप्पिया ! ४. एयस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ? (श० ११११३३) ५,६. तए णं से बले राया पभावईए देवीए अंतियं एयमझें सोच्चा निसम्म हट्टतुटू जाव (सं० पा०) हियए ५. *तिण अवसर बल राय, वनिता मुख थी वाय । आछेलाल । सुण हिय धर हरख्यो घणो । ६. पायो परम संतोष, यावत सुख नों पोष । आछेलाल । हिरदो विकस्यो नप तणो॥ । ७. मेघ धाराए जेम, नीप कदंब तरु लेम। आछेलाल । सुरभि कुसम तेहनों परै ।। ८. पुलकित तनु थयो राय, रोमकूप विकसाय । आछेलाल । सहज स्वप्न अवग्रह करै ।। ६. ईहा प्रवेश करत, आतम स्वभावे हंत । आछेलाल । आभिनिबोध प्रभाव थी। ७,८. धाराहयनीवसुरभिकुसुम-चंचुमालइयतणुए ऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हइ 'चंचुमालइय' त्ति पुलकिता तनु:-शरीरं यस्य स तथा, किमुक्तं भवति ? 'ऊसवियरोमकूवे' त्ति उच्छितानि रोमाणि कूपेषु तद्रन्ध्रेषु यस्य स तथा (वृ० प० ५४१) ६. ईहं पविसइ, पविसित्ता अप्पणो साभाविएणं मइपुव्वएणं 'मइपुग्वेणं' ति आभिनिबोधिकप्रभवेन (वृ० ५० ५४१) १०. बुद्धिविण्णाणणं तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेइ ___ 'बुद्धिविन्नाणेणं' ति मतिविशेषभूतीत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपपरिच्छेदेन 'अत्थोग्गहणं' ति फलनिश्चयम् । (वृ०प०५४१) ११. पभावई देवि ताहि इट्टाहि कंताहिं जाव मंगल्लाहिं १०. बुद्धि उत्पत्तिया आदि, तिण करि सूपन लाधि । आछेलाल । फल निश्चय कर चाव थी। ११. प्रभावती ने राजन, इष्ट मनोज्ञ वचन । आछेलाल । यावत रव मंगलपणें ॥ -१२. मृदु मधुर सश्रीक, राणी प्रतै तहतीक । आछेलाल । बोलनो नृप इम भणें ॥ *लय : आछेलाल ४३८ भगवती-जोड़ १२. मिय-महुर-सस्सिरीयाहि वग्गूहिं संलवमाणे सलवमाणे एवं वयासी Jain Education Intemational Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. ओराले णं तुमे देवी ! सुविणे दिठे १४. कल्लाणं णं तुमे देवी ! सुविणे दिठे १५. जाव सस्सिरीए णं तुमे देवी ! सुविणे दिठे १६. आरोग्ग-तुट्ठिदीहाउ-कल्लाण-मंगल्लकारए ण १७. तुमे देवी ! सुविणे दिठे १३. मोटो स्वप्न उदार, हे देवी ! तुम सार । आछेलाल । पेख्यो अति महिमानिलो ।। १४. कल्याणकारी एह, हे देवी ! गुणगेह । नीकेलाल । देख्यो तुम सुपनो भलो ।। १५. जाव सश्रीक सुसोह, हे देवी ! मन मोह । प्यारेलाल । देख्यो सुपन गुणधारक ।। १६. आयोग्य तुष्ट अमंद, दीर्घ आयु सुख कंद । प्यारेलाल । कल्याण मंगल कारक ।। १७. तुम्हे देवी तंत सार, देख्यो सुपन उदार । नीकेलाल । वारू अर्थ वधारतो॥ वा०-इहां कल्याण शब्द अर्थ-प्राप्ति अनें मंगल शब्द अनर्थ-प्रतिघात नै अर्थ प्रयुक्त छ। १८. अर्थ लाभ अभिराम, भोग लाभ सुख धाम । प्यारेलाल । पुत्र लाभ देवानुप्रिये ! १६. राज लाभ रलियात, देवानुप्रिय ! सुजात । नीकेलाल । __इम निश्चै तुम्ह आखिये ॥ २०. पूर्ण मास नव थात, ऊपर साढा सात । आछेलाल । रात्रि दिवस व्यतिक्रांतिये॥ २१. अम्ह कुल-केतु समान, केतु ते चिन्ह ध्वज जान । नीकेलाल । केतु अद्भूतपणां हुंती॥ वा-इह कल्याणानि-अर्थप्राप्तयो मंगलानि-अनर्थप्रतिघाता: (वृ० प० ५४१) १८. अत्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! ____ पुत्तलाभो देवाणुप्पिए ! १६. रज्जलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुम देवाणुप्पिए ! २२. कूल में दीपक जेम, उद्योतकारी एम । प्यारेलाल । प्रकाशकारी महाद्युती॥ २३. कुल में गिरि सम एह, पराभवो न सकेह । आछेलाल । स्थिराश्रय नां साधर्म्य थी। २४. कुल अवतंसक जाण, शेखर सम गुणखाण। प्यारेलाल । उत्तमपणे शुभ कर्म थी। २०. नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण य राई दियाणं वीइक्कंताणं २१. अम्हं कूलकेउं 'कुलकेउ' ति केतुश्चिन्हं ध्वज इत्यनन्तरं केतुरिव केतुरद्भुतत्वात् कुलस्य केतुः कुलकेतुस्तम् (वृ०प० ५४१) २२. कुलदीवं 'कुलदीवं' ति दीप इव' दीपः प्रकाशकत्वात् (वृ०प० ५४१) २३. कुलपव्वयं 'कुलपव्वयं' ति पर्वतोऽनभिभवनीयस्थिराश्रयतासाधात् (वृ० प० ५४१) २४. कुलवडेंसयं 'कुलवडेंसयं' ति कुलावतंसकं कुलस्यावतंसक:-शेखरउत्तमत्वात् (वृ० प ५४१) २५. कुलतिलगं 'कुलतिलयं' ति तिलको-विशेषको भूषकत्वात् (वृ० ५० ५४१) २६. कुलकित्तिकरं 'कुलकित्तिकरं' ति इह कीतिरेकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः (वृ० प० ५४१) २७. कुलनंदिकरं 'कुलनंदिकरं' ति तत्समृद्धिहेतुत्वात् (वृ० ५० ५४१) २८. कुलजसकरं 'कुलजसकर' ति इह यश:-सर्वदिग्गामी प्रसिद्धिविशेषः (वृ०प० ५४१) २६. कुलाधार, कुलपायवं 'कुलपायवं' ति पादपश्चा-श्रयणीयच्छायत्वात् (वृ० प० ५४१) २५. कुल में तिलक समान, भूषकपणां थी जान । नीकेलाल । तिलक कह्यो इह विध सही। २६. कूल नै विषे उदार, कीत्ति तणो करणहार । आछेलाल । कीत्ति प्रसिद्ध इक दिशि मही ।। २७. कुल में नंदि करेह, समृद्धि हेतुपणेह। प्यारेलाल । पवर सुकुल वृद्धि करण ही। २८. वलि अम्ह कूल रै माय, यश कारक कहिवाय । नीकेलाल ।। यश सहु दिशि में प्रसिद्ध ही ।। २६. कुल नैं आधार पिछान, कुल में वृक्ष समान । प्यारेलाल । छाया आश्रयवा जोग ही। श० ११, उ० ११, ढाल २३६ ४३६ Jain Education Intemational Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. कुल नों विविध प्रकार, वृद्धि तणो करणहार । आछेलाल । तास स्वभाव प्रयोग ही ॥ ३१. कर पग तसु मुखमाल, पांचं इंद्रिय विशाल । प्यारेलाल । स्वरूप थीज हीणा नथी । ३२. पंचेंद्रिय प्रतिपन, संख्या करिने अनन । नीकेलाल । ____ अथवा पुन्य पवित्र थी। ३३. एहवो तास शरीर, जाव शब्द में हीर। आछेलाल । ___लक्षण वंजन आद थी। ३०. कुलविवद्धणकरं 'कुलविवड्ढणकर' ति विविधैः प्रकारर्वद्धनं विवर्धनं तत्करणशीलं (वृ० प०५४१) ३१,३२. सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरं 'अहीणपुन्नपंचिंदियसरीरं' ति अहीनानि-स्वरूपतः पूर्णानि—संख्यया पुण्यानि वा-पूतानि पञ्चेन्द्रियाणि यत्र तत्तथा (वृ० प० ५४१) ३३. तदेवंविधं शरीरं यस्य स तथा तं यावत्करणात्'लक्खणवंजणगुणोववेय' मित्यादि दृश्यम् (वृ० प० ५४१) ३४. ससिसोमाकार कंतं पियदंसणं ३५. सुरूवं देवकुमारसमप्पभं ३६. दारगं पयाहिसि ३४. शशिवत सोम्याकार, कांत मनोहर सार । आछेलाल । प्रिय दर्शण अहलाद थी। ३५. संदर रूड़ो रूप, तनु प्रभा अधिक अनूप । आछेलाल । देवकुंवर सम जेहनीं ॥ ३६. एहवो पुत्र उदार, जन्मसी महा सुखकार । प्यारेलाल । जबर पुन्याई तेहनी ।। ३७. ते पिण बालक जाण, बाल भाव मूकाण । नीकेलाल । विज्ञक जाण विशेषही ।। ३८. तेहिज परिणत मात्र, कला बोहितर पात्र । प्यारेलाल । योवन वय पाम्यो छतो॥ ३६. दान देवण में सूर, तथा अंगीकृत भूर । नीकेलाल । तेह प्रतै निर्वाहतो॥ ४०. वीर संग्रामे जेह, विक्रांत पर भूमेह । नीकेलाल । लेणहार सुख साधि ही। ३७,३८. से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णय परिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते 'विन्नायपरिणयमित्ते' त्ति विज्ञ एव विज्ञकः स चासौ परिणतमात्रश्च कलादिष्विति गम्यते विज्ञकपरिणतमात्र: (वृ० ५० ५४१,५४२) ३६. सूरे ____ 'सूरे' त्ति दानतोऽभ्युपेतनिर्वाहणतो वा (वृ० ५० ५४२) ४०. वीरे विक्कते 'वीरे' ति संग्रामतः 'विक्कते' त्ति विक्रान्तः परकीयभूमण्डलाक्रमणतः (वृ० ५० ५४२) ४१. वित्थिण्ण-विउलबल-वाहणे 'विच्छिन्नविपुलबलवाहणे' त्ति विस्तीर्णविपुलेअतिविस्तीर्णे बलवाहने-सैन्यगजादिके यस्य स तथा (वृ० प० ५४२) ४२. रज्जवई राया भविस्सइ। 'रज्जवई' त्ति स्वतंत्र इत्यर्थ (वृ० ५० ५४२) ४३. तं ओराले णं तुमे देवी ! सुविणे दिठे ४१. विच्छिण्ण विपुल अर्थ ताय, अतिही विपुल कहिवाय । नीकेलाल । बल वाहन गो आदि ही ।। ४२. राज्य नों स्वामी स्वाधीन, पोता नै वश चीन । प्यारेलाल । नृपति हुस्यै महिमानिलो॥ ४३. ते भणी एह उदार, देवानुप्रिय ! सार । आछेलाल । देख्यो तुम स्वपनो भलो। ४४. जावत मंगलकार, स्वपन देख्यो सुखकार । आछेलाल । हे देवानुप्रिय ! सुंदरी ॥ ४५. एम कही. राय, प्रभावती प्रति ताय । प्यारेलाल । इष्ट जावत वचने करी॥ ४६. वारू बे त्रिण वार, मधुर मंजुल वच सार । नीकेलाल । राणी प्रतै राजा कहै ।। ४७. बेसौ गुणचालीसमी ढाल, भिक्ख भारीमाल नृप न्हाल । आछेलाल । 'जय-जश' सुख संपति लहै । १. अंगमृत्ताणि में विन्छिण्ण के स्थान पर 'वित्थिण्ण' पाठ है। ४४. जाव आरोग्ग तुट्टि जाव (सं० पा०) मंगल्लकारए णं तुमे देवी ! सुविणे दिळे ४५. त्ति कटु पभातिं देवि ताहि इट्टाहिं जाव वग्गूहि ४६. दोच्चं पि तच्चं पि अणुबुहति । (श० ११११३४) ४४० भगवती-जोड़ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २४० १. तए णं सा पभावती देवी बलस्स रणा अंतियं एय मळं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा २. करयल जाव (संपा०) एवं वयासी--एवमेयं देवाणुप्पिया ! तहमेयं देवाणुप्पिया ! ३. अवितहमेयं देवाणुप्पिया ! असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया ! ४. से जहेयं तुब्भे वदह त्ति कटु तं सुविणं सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता ५. बलेणं रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी नाणामणिरय णभत्तिचित्ताओ ६. भद्दासणाओ अब्भुठेइ, अब्भुठेत्ता अतुरियमचवल जाव (सं० पा०) रायहंससरिसीए गईए ७. जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता सयणिज्जसि निसीयति, निसीयित्ता एवं वयासी८. मा मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुविणे अण्णेहि पाव सुविणेहिं पडिहम्मिस्सइ दूहा १. प्रभावती तिण अवसरे, बल राजा नैं पास । एह अर्थ सुण हृदय धर, हरष संतोष हुलास ।। २. बे कर जोड़ी जाव ते, सुंदर बोलै एम। इमहिज देवानुप्रिया ! देवानुप्रिय ! तेम ।। ३. ए सत्य देवानुप्रिया ! बलि संदेह रहीत । वांछयो विशेष वांछियो, इच्छिय-पडिच्छिय प्रीत ।। ४. जिम तुम एह कहो अछो, तेहिज वचन ए सत्य । ___ इम कहि ते शुभ स्वप्न प्रति, राणी अंगीकृत्य ।। ५. बल राजाई आगन्या, दीधे छतेज जेह । नाना मणि रत्ने करी, भाते चित्रत तेह ।। ६. एहवा भद्रासण थकी, ऊठ ऊठी तत्थ । अचपलता तन मन तणी, जाव राजहंस गत्त ।। ७. जिहां पोता नी सेज छै, त्यां आवी नैं आप। सिज्या ऊपर बैस ने, एम कहै स्थिर स्थाप ॥ ८. उत्तम वर मंगलीक मुझ, स्वप्न विलोक्यो तेह । __ अन्य पाप स्वप्ने करी, रखे हणास्यै एह ॥ वा०-उत्तम ते स्वरूप थकी, प्रधान ते अर्थ प्राप्ति रूप प्रधान फल थकी, मंगल ते अनर्थ प्रतिघात रूप फल अपेक्षा करी। ६. एम कही गुरु देव नीं, प्रशस्त मंगलकार । कथा धर्ममय तिण करी, राखै स्वप्न उदार ।। १०. स्वप्न राखवा काज ए, निद्रा भणी निवार। स्वप्न जागरणा जागती, विचरै छै नप-नार ।। *बल नृप कहै तिण अवसरे, सेवग पुरुष बोलायो जी, वयण मधुर इम वागरे, देवानुप्रिया जायो जी। शोध्र देवानुप्रिया थे, आज तुम्ह सुविशेष ही, बाहिरली उवठाण शाला, दीवानखाना प्रति सही। सुगंध पाणी करी सींची, अशुचि प्रति दूरो हरे, एम भूमि पवित्र कीजे, बल नप कहै तिण अवसरे । १२. कचर प्रत टाली करी, छगणादिक करि तामोजी, भूमि प्रति लीपी वलि, शुद्ध करो अभिरामो जी। अभिरामकारी भूमि कीजै, ते दीवानखाना प्रति, सुगंध प्रवर प्रधान एहवा, पुष्प पंच वर्णा कृति । उपचार पूजा सहित कीजै, अधिक हर्ष हिवडे धरी, भूमि शुद्ध पवित्र कीजै, कचर प्रति टाली करी ॥ १३. कृष्णागर प्रधान ए, चीर संला रस जाणी जी, यावत धूप निणे करी, गंधत्ति पहिछाणी जी। गंधवर्तीभूत कीजै, अन्य पास कराविय, वलि सिंहासण रची ने मुझ, आण पाछी आविर्य । *लय : इक दिन साधूजी बंदवा गई सुभद्रा नारो जी ६,१०. त्ति कटु देवगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहि कहाहि सुविणजागरियं पडिजागरमाणीपडिजागरमाणी विहरइ। (श० ११३१३५) ११. ११. तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दा वेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्तसुइय १२. संमज्जिओवलित्तं सुगंधवरपंचवण्णपुष्फोवयारकलियं समाजिता कचवरापनयनेन उपलिप्ता छगणादिना या सा तथा (वृ० ५० ५४२) १३. कालागरु-पवरकुन्दुरुक्क जाव (सं० पा०) गंधवट्टि भूयं करेह य कारवेह य करेत्ता य कारवेत्ता य सीहासणं राएह, राएत्ता ममेतमाणत्तियं पच्चप्पिणह । (श० ११११३६) श० ११, उ०११ , ढाल २४० ४४१ Jain Education Intemational Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवग यावत वच अंगीकर, राय कह्यो तिम जान ए, करी करावी आण संपी, कृष्णागर प्रधान ए ॥ तए णं कोडंबियपुरिसा जाव' 'करेत्ता य कारवेत्ता य सीहासणं गत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति । (श० ११११३७) १४. तए णं से बले राया पच्चूसकालसमयसि सयणि ज्जाओ अब्भुठेइ, अब्भुठेत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, अट्टणसालं अणुपविसइ, जहा ओववाइए (सू०६३) तहेव अट्टणसाला तहेव मज्जणघरे वा०-यथौपपातिकेऽट्टणशालाव्यतिकरो मज्जनगृहव्यतिकरश्चाधीतस्तथेहाप्यध्येतव्य इत्यर्थः (वृ० प०५४२) १५. जाव ससिव्व पियदंसणे नरवई जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयइ, निसीयित्ता अप्पणो उत्तरपुरथिमे दिसीभाए अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्थपच्चत्थुयाई १४. इह अवसर नृप मनरली, दिन उगज प्रभातो जी, सेज थकी ऊठी करी, रू. चित रलियातो जी। रलियात चित्ते पायपीठ थी, ऊतरी में नरपती, अट्टण ते व्यायामशाला, आवियो तिहां हरष थी। कह्य उववाइ विषे तिम, अट्टणसाल थी नीकली, तिमज मंजन घरे मंजन, इह अवसर नप मनरली ।। वा० -- 'जहा उववाइए तहेव अट्टणसाला तहेव मज्जणघरे'- जिम उववाइ नै विषे अट्टणशाला ते ब्यायामशाला नों वृत्तांत अने वलि मंजन घर नों वृत्तांत कह्यो तिण प्रकार करिकै इहां पिण कहिवो। १५. यावत चंद्र तणो पर, प्रियदर्शण जन प्यारो जी, मंजन घर थी नीसरी, आवै नप तिणवारो जी। आवियो नृप बारली, उवठाणसाला छै जिहां, सिंहासण पूर्व दिशि साहम, मुख करी बैठो तिहां । आप थी ईशाणकूणे, आठ भद्रासण वरै, रचावै सित पटे ढाक्या, यावत चंद्र तणी परै ।। १६. सरसव पवर करी कियो, मंगलीक उपचारो जी, भद्रासण एहवा भला, पेखत पामै प्यारो जी। प्यार पामै पेखतां वलि, आप थी दूरो नहीं, ढूंकड़ो पिण नहीं अछे त्यां, वर परेच खंचावहीं। अभ्यंतर आस्था मंडप, तास मध्म भागे लियो, जवनिका नों अधिक वर्णन, सरसव पवर करी कियो ।। १७. नाना विविध प्रकार नां, मणि चंद्रकांत आदो जी, कतनादिक रत्न थी, मंडित चित अहलादो जी। अहलाद चित्तज पेखतां ह, घणु देखवा जोग है, महामूल्य वर पट्टण सेती, नीपनों आरोग है। सूत्रमय पट अछे सूक्षम, भांत शत चित्रित घनां, त्राण रक्षक जवनिका रे, नाना विविध प्रकार नां ।। १८. ईहामृग वृषभा वली, तुरग नर मगर पंखी पेखो जी, श्वापद भयंग नैं किन्नरा, रूरू मग नों विशेखोजी । विशेष मृग नों तेह रूरू, सरभ पारासर कह्या, चमर कंजर वनलता, वलि लता पद्म तणी लह्या । एह भाते चीता छ, जवनिका परियच भली, अभ्यंतर पास रचावी, ईहामृग वृषभा वली।। १६. सिद्धत्थगकयमगलोवयाराइ रयावेइ, रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते १७. नाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिज्ज महग्यवर पट्टणुग्गयं सहपट्टभत्तिसयचित्तताणं १८. ईहामिय-उसभ-तुरग-नर-मगर-विहग-बालग-किन्नर रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्तं अभितरियं जवणियं अच्छावेइ व्याला:-स्वापद-भुजगाः.....'रुरवो-मृगविशेषाः शरभा-आटव्या महाकायाः पशवः परासरेति पर्यायाः .."एतासां यका भक्तयो-विच्छित्तयस्ताभिश्चित्रा या सा तथा। (वृ० ५० ५४२) १६. नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अत्थरय-मउयमसूरगोत्थयं सेयवत्थपच्चत्थुयं अंगसुहफासयं सुमउयं पभावतीए देवीए भद्दासणं रयावेइ १६. नाना विविध विचित्र ही, रत्न मणी नां ताह्यो जी, भांते चित्रित एहवो, भद्रासण सुरचायो जी । रचाय भद्रासण आस्तरक, मृदू मसूरे ढाकियो, अस्त रज अथवा निमल, मृदु मसूरे आच्छादियो। *लय : इक दिन साधूजी वंदवा गई सुभद्रा नारो जी ४४२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेत वस्त्रे ढांकियो, तनु सूख स्पर्श पवित्र ही, राणि काजै मृदु भद्रासण, नाना विविध विचित्र ही। २०. नृप कहै नफर बोलाय नैं, अधिक हर्ष उचरंगो जी, शीघ्र तुम्हे देवानुप्रिया ! महा निमित्त अष्ट अंगो जी। अष्ट अंग महा निमित्त परोक्ष अर्थ प्ररूपणा, करणहारा महाशास्तर सत्र अर्थ निरूपणा । बिहूं धारक वली कौशल, विविध शास्त्राध्याय ने, तेड़िये शुभ स्वप्न पाठक, नृप कहै नफर बोलाय नैं । अथवाऽस्तरजसा-निर्मलेन मृदुमसूरकेणावस्तृतं (वृ० ५० ५४२) २०. कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अढंगमहानिमित्तसुतत्थधारए विविहसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढ़ए सद्दावेह । (श० ११११३८) 'अलैंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए' त्ति अष्टागं-अष्टावयवं यन्महानिमित्तं-परोक्षार्थप्रतिपत्तिकारणव्यु त्पादक महाशास्त्रं तस्य यौ सूत्रार्थों तो धारयन्ति ये ते तथा तान् (वृ० प० ५४२) २१. अट्ट निमित्तंगाई दिव्वुप्पात तरिक्ख भोमं च । अंगं सर लक्खण वंजणं च तिविहं पुणेक्केक्कं ॥ (वृ० प० ५४२) २३. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता बलस्स रण्णो अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता सिग्धं तुरियं चवलं चंडं वेइयं हत्यिणपुर नगरं मज्झंमज्झेणं जेणेव तेसि सुविणलक्खणपाढगाणं तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ते सुविणलक्खणपाढए सद्दा वति । (श० ११११३६) २१. दिव्य उत्पातज अंतरिख, भोम अंग स्वर जान। लक्षण व्यंजन एक-इक त्रिविध त्रिविध पहिछान ॥ २२. सूत्र थकी नैं वृत्ति थी, वात्तिक थी फून जोय। तीन-तीन औ भेद है, अष्ट निमित्त नां सोय ॥ २३. *सेवग नृप वच सांभली, जाव कियो अंगीकारो जी, बल राजा नां समीप थी, नीकलियो तिण वारो जी। नीकल्यो तिण वार सेवग, शीघ्र त्वरित चपला गई, चंड गति वलि वेगवंतज, हथिणापुर मध्य थई । स्वप्न लक्षण पाठकां नां, घर तिहां आवै चली, तेह पाठकां प्रतै तेड़े, सेवग नप वच सांभली। सोरठा २४. शीघ्र प्रमुख पद पंच, एकार्थे ए आखिया। उत्सुक उत्कर्ष संच, ते प्रतिपादन तत्परा ।। २५. *स्वप्न लक्षण पाठक तदा, नृप में सेवग सोयो जी। तेडयां हरख पाया घणां, अंतर आनंद होयो जी। अंतर आनंद अधिक पाया, मंजन वलि बलिकर्म करी। जाव अलंकृत अंग करिने, सरसव द्रोब शिरे धरी । एह मंगल करी निज-निज घर थकी चाल्या मुदा । हत्थिणापुर मध्य थई ने, स्वप्न लक्षण पाठक तदा ॥ २६. भवन महिपति - तिहां, अवतंसक मुख्यावासो जी। तिहां आवै आवी करी, मिल्या एकठा तासो जी। द्वार मूले एकठा मिल, जिहां नृप नी बारली। उपस्थानसाला जिहां बल न पति सह आवै चली। कर जोड़ बल अवनीस नैं, जय विजय वर्धाप जिहां। आशीर्वच मुख उच्चरै ते, भवन महिपति नुं तिहां ॥ २७. स्वप्न लक्षण पाठक प्रते, बल राजा ए वंद्या जी। पूज्या मैं सत्कारिया, सनमाने आनंद्या जी। सनमान दीधे जुजुआ, जे पूर्वे नरपति थापिया। तेह भद्रासणे बैठा, हरष थी नृप आपिया। २४. 'सिग्ध' मित्यादीन्येकार्थानि पदानि औत्सुक्योत्कर्षप्रतिपादनपराणि । (वृ० ५० ५४२) २५. तए णं से सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रणो कोडुंबियपुरिसेहि सद्दाविया समाणा हट्ठतुट्ठा व्हाया कयबलिकम्मा जाव (सं० पा०) सरीरा सिद्धत्थगहरियालियाकयमंगलमुद्धाणा सएहि-सएहि गेहेहितो निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता हत्थिणपुरं नगरं मज्झं मज्झेणं २६. जेणेव बलस्स रणो भवणवरवडेंसए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भवणवरवडेंसगपडिदुवारंसि एगओ मिलंति, मिलित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल 'बलं रायं जएण विजएणं वद्धाति । २७. तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलेणं रण्णा वंदिय पूइय-सक्कारिय-सम्माणिया समाणा पत्तेयं-पत्तेयं पुव्वण्णत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति । (श० ११।१४०) तए णं से बले राया पभावति देवि जवणियंतरियं ठावेइ, ठावेत्ता पुष्फफलपडिपुण्णहत्थे *लय : इक दिन साधूजी वंदवा गई सुभद्रा नारो जी श० ११, उ० ११, ढाल २४० ४४३ Jain Education Intemational ation Intemational Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताम नपति प्रभावती प्रति, पुष्प फल प्रतिपुन हथे। बैसाणी ते जवनिका में, स्वप्न लक्षण पाठक प्रते ।। २८. परमोत्कृष्ट विनय करी. पाठक प्रति पूछतो जी। इम निश्चै देवानुप्रिया ! प्रभावती मतिवंतो जी। मतिवंत देवी आज तेहवै, वास घर यावत भलो। सिंघ स्वप्नो देख जागी, तास फल स्यं गुणनिलो ? ढाल बेसौ चालीसमी, भिक्षु भारीमाल नप चंद री। सुख संपदा पामी 'सुजय-जश' परमोत्कृष्ट विनय करी ॥ २८. परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए एवं क्यासी एवं खलु देवा णुप्पिया ! पभावती देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा तणं देवाणुप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ? ढाल : २४१ दूहा १. स्वप्न लक्षण पाठक तदा. नप वच सुण निर्दोष । हृदय धार हरख्या घणां, पाया अति संतोष ।। २. अवग्रहै ते स्वप्न प्रति, ईहा करत विचार । अथ स्वप्न नों ग्रहण कर, आपस में संचार ।। १. तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रण्णो अंतियं एयमह्र सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्टा २.तं सुविणं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता ईहं अणुप्पविसंति, __ अणुप्पविसित्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेंति अण्णमण्णेणं सद्धि संचालेंति ३. तस्स सुविणस्स लट्ठा गहियद्वा पुच्छियट्ठा 'लढ' त्ति स्वतः ‘गहियट्ठ' त्ति परस्मात् 'पुच्छ्यि ?' त्ति संशये सति परस्परतः (वृ० ५० ५४२) ४. विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा ३. तेह स्वप्न नां अर्थ नैं, लाधा निज थी ताय । ग्रह्या अर्थ जे पर थकी, संसय थी पूछाय ।। ४. विशेष निश्चै कर किया, अर्थ स्वप्न नां आर । इतर जाण्या अर्थ नैं. स्थिर बुद्धि थी स्थाप ।। ५. बल राजा नै आगले, स्वप्न शास्त्र प्रति सोय । उच्चारण करतो थको, इम भाखै अवलोय ।। ६. *नरिंद मोरा, इम निश्चै करि स्वाम, स्वप्न शास्त्र अम्हारा, स्वामी मोरा। तेह विषेरे, म्हारा नाथ ॥ नरिंद मोरा, स्वप्न बयांलीस ताम. फल सामान्यपणां थी रे, स्वामी मोरा। इम अखै रे, म्हारा नाथ ॥ ७. नरिंद मोरा, मोटा स्वप्न सुतीस, तास बड़ो फल पामै रे, स्वामी मोग। ते भणी रे, म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, सर्व मिली नैं जगीस, स्वप्न बोहित्तर नामैं रे, स्वामी मोरा। कहै गुणी रे, म्हारा नाथ ।। ५. बलस्स रण्णो पुरओ सुविणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा एवं वयासी६. एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुविणसत्थंसि बायालीसं सुविणा 'सुविण' त्ति सामान्यफलत्वात् (वृ० ५० ५४३) ७. तीसं महासुविणा-बावत्तरि सव्वसुविणा दिट्ठा। 'महासुविण' त्ति महाफलत्वात् 'बावत्तरि' ति त्रिंशतो द्विचत्वारिंशतश्च मीलनादिति (वृ० प० ५४३) *लय: मुणींद मोरा ४४४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. नरिद मोरा, जिन चक्री नी मांय, नारद मोरा, तीसा मांहिला ताय, १. नरिद मोरा, हस्ती वृषभ ने सींह, जिन चक्री गर्भ आयां रे, स्वामी मोरा । अनुरागिये रे, म्हारा नाथ । चवद स्वप्न महा देखी रे, स्वामी मोरा ! जागिये रे, महारा नाच || स्वप्न लक्ष्मी देवी रे. स्वामी मोरा । गुणनिलो रे म्हारा नाथ । चंद सूर्य ध्वज लेवी रे, स्वामी मोरा । कुंभ भलो रे म्हारा नाम ॥ नरिद मोरा, पुष्पमाल शुभ लीह, १०. नरेंद मोरा, पद्मसरोवर तास, नरिंद मोरा, पवर रत्न नीं राश, ११. विमान में ते माटै सोरठा आकार, भवन अवधार, विमान १२. तथा स्वर्ग सं आय, नरक थकी जे थाय, १३. रिंद मोरा, वसुदेव नी मांव, समुद्र विमान तथा वलि रे, स्वामी मोरा । भवन ही रे, म्हारा नाथ । अग्निशिखा दीपंती रे, स्वामी मोरा । चवदही रे, म्हारा नाथ ॥ नरिंद मोरा, चवद मांहिला ताय, वासुदेव गर्भ आयां रे, स्वामी मोरा । देखिये रे, म्हारा नाथ । *लय: मुद] मोरा अछै रलियामणो । भवनज एक छै ॥ विमान देखे तसु अमा । तसु माता देखे भवन ॥ १४. नरिद मोरा वर बलदेव सुमात गर्भ विषं नरिंद मोरा, चवद महिला ताय, अन्य सप्त महा सुपना रे, स्वामी मोरा । पेखिये रे, म्हारा नाथ ॥ बलदेवज रे, स्वामी मोरा आविये रे म्हारा नाथ । १५. नरिद मोरा, नृप मंडलीक नीं मां, अन्य च्यार महा सपना रे, स्वामी मोरा । पावियै रे, म्हारा नाथ ॥ मंडलीक गर्भ आयो रे, स्वामी मोरा भालिये रे म्हारा नाच । अन्य एक महा सपनो रे, स्वामी मोरा । म्हालिये रे म्हारा नाथ ॥ नरिंद मोरा, चवद मांहिलो ताय, ८. तत्थ णं देवाणुप्पिया ! तित्थगरमायरो वा चक्क ट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चक्कवट्टसि वा गन्भं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोट्स महासुविणे पासित्ता ण पडिबुज्झति । ६,१०. गय उसह सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं झयं कुंभं । पउमसर सागर विमाणभवण रयणुच्चय सिहिं च ।। 'अभिसेय' त्ति लक्ष्म्या अभिषेकः 'दाम' त्ति पुष्पमाला ( वृ० प० ५४२) ११. विमाणभवति एकमेव तत्र विमानाकार भवनं विमानभवनम् । ( वृ० १० ५४३) १२. अथवा देवलोकाद्योऽवतरति तन्माता विमानं पश्यति यस्तु नरकात् तन्माता भवनमिति । ( वृ० प० ५४३ ) १३. वासुदेवमायरो वासुदेवंसि गन्भं वक्कममाणंसि एएसि चोदसण्हं महासुविणाणं अण्णयरे सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति । १४. बलदेवमायरो बलदेवंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसि चोद्दसहं महासुविणाणं अण्णयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झति । १५. मंडलियमायरो मंडलियंसि गब्भं वक्कममाणंसि एएसिगं चोदा महामुविषाणं अन्ययरं एवं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झति । शि० ११, उ० ११, ढाल २४१ ४४५ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. इमे य णं देवाणुप्पिया ! पभावतीए देवीए एगे महा सुविणे दिठे, तं ओराले णं देवाणुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिठे १७. जाव आरोग्ग-तुट्ठिदीहाउ-कल्लाणमंगल्लकारए णं देवाणुप्पिया ! पभावतीए देवीए सुविणे दिठे १८. अत्थलाभो देवाणुप्पिया ! भोगलाभो देवाणुप्पिया ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिया ! रज्जलाभो देवाणुप्पिया ! १६. नरिंद मोरा, देवानुप्रिया ! जेह, एक स्वप्न महाराणी रे, स्वामी मोरा। देखीइं रे, म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, सांभल नृप गुण गेह, मोटो स्वप्न उदारज रे, स्वामी मोरा । विशेषीई रे, म्हारा नाथ ।। १७. नरिंद मोरा, जाव आरोग्य तुष्टि जाण, दीर्घायू कल्याणक रे, स्वामी मोरा। कारको रे, म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, मंगल हेतु पिछाण, स्वप्न प्रभावती देख्यो रे, स्वामी मोरा। गुणधारको रे, म्हारा नाथ ।। १८. नरिद मोरा, अर्थ लाभ अभिराम, भोग लाभ पिण भारी रे, स्वामी मोरा। पामियै रे, म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, पुत्र लाभ पिण ताम, राज लाभ पिण होस्य रे, स्वामी मोरा । देवानुप्रिये रे, म्हारा नाथ ॥ १६. नरिंद मोरा, देवानुप्रिय ! महाभाग, नव मासे प्रतिपणे रे, स्वामी मोरा । जाव थी रे, म्हारा नाय । नरिंद मोरा, तुम कुल केतु पताग, जावत बाल जनमसी रे, स्वामी मोरा। प्रभावती रे, म्हारा नाथ ।। २०. नरिंद मोरा, बाल भाव मूकाण, जाव राज्यपति राजा रे, स्वामी मोरा। हुस्ये सही रे, म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, अथवा संत सुजाण, संजम तप करि भावित रे, स्वामी मोरा। आतम ही रे, म्हारा नाथ ॥ २१. नरिंद मोरा, ते माटै ए उदार, देवी मोटो सुपनो रे, स्वामी मोरा। __ देखियो रे, म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, जाव आरोग्य तुष्टि सार, दीर्घ आउखो जावत रे स्वामी मोरा। पेखियो रे, म्हारा नाथ ॥ २२. नरिंद मोरा, तिण अवसर बलराय, स्वप्न-लक्षण पाठक नों रे, स्वामी मोरा । वच सुणी रे, म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, हियै धार हरषाय, कर तल जावत करनैं रे, स्वामी मोरा। कहै थुणी रे, म्हारा नाथ ।। १६. एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावती देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण य राइंदियाणं वीइक्कंताणं तुम्हें कुलकेउं जाव देवकुमारसमप्पभं दारगं पयाहिति । २०. से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे जाव (सं०पा०) रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्पा । २१. तं ओराले गं देवाणुप्पिया ! पभावतीए देवीए सुविणे दिठे जाव आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउ-कल्लाणमंगल्लकारए पभावतीए देवीए सुविणे दिठे। (श० ११११४२) २२. तए ण से बले राया सुविणलक्खणपाढगाणं अंतिए एयमट्ठ सोच्चा निसम्म हट्ठतुठे करयल जाव (सं० पा०) कट्ट ते सुविणलक्खणपाढगे एवं वयासी ४४६ भगवती-जोर Jain Education Intemational Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. नरिंद मोरा, देवानुप्रिय ! इमहीज, जावत तुम्हे कहो छो रे, स्वामी मोरा । इम कही रे, म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, रूड़ी रीत है रीझ, । तेह निमल सुपना ने रे, स्वामी मोरा सम्यग ग्रही रे, म्हारा नाथ ॥ २४. नरिंद मोरा, स्वप्न पाठक ने विशाल, विस्तीरण असणादिक रे स्वामी मोरा । च्यार ही रे, म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, पुष्प वस्त्र गंधमाल, अलंकार कर राजा रे, स्वामी मोरा । सतकार ही रे, म्हारा नाथ ॥ २५. नरिद मोरा देई अधिक सनमान 7 विस्तीरण आजीविक है. स्वामी मोरा । जोग ही रे, म्हारा नाथ । नरिद मोरा, प्रीतिकारी दे दान, सीख दिये संतोषी रे. स्वामी मोरा । नृप सही रे, म्हारा नाथ ॥ ऊठी राणी पासे रे. स्वामी मोरा आवियों रे, म्हारा नाथ । बोलतो तूप भाखरे, स्वामी मोरा । हरषावियो रे, म्हारा नाथ ॥ २६. नरिंद मोरा, सिंहासण थी तेह, नरिद गोरा, इष्ट जाव वचनेह २७. नरिद मोरा, निश्च देवानुप्रिय ! जान, स्वप्न शास्त्र रे माई रे, स्वामी मोरा । आखिया रे म्हारा नाथ । नरिंद मोरा, स्वप्न बयालीस मान, मोटा सुपना तीराज रे, स्वामी रा । भाखिया रे म्हारा नाथ ॥ जिन चक्री नी माता रे स्वामी मोरा । जाणिये रे म्हारा नाथ । अन्य एक महा सुपनो रे, । स्वामी मोरा । माणियै रे, म्हारा नाथ ॥ २८. नीरव मोरा, सर्व बोहितंर सपन, नरेंद मोरा, तिमहिज जाय वचन, २१. नारद मोरा, देवानुप्रिय ! तुम ताय, महास्वप्न इक दीठो रे स्वामी मोरा । सुंदरू रे, म्हारा नाथ । २३. एवमेयं देवाणुप्पिया ! जाव (सं० पा० ) से जहेयं तुम्भे वदह त्ति कट्टु तं सुविणं सम्मं पच्छि २४. सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असण-पाण- खाइमसाइम- पुप्फ-वत्थ- गंध - मल्लालंकारेण सक्कारेइ २५. सम्माणे, सक्कारेत्ता, सम्माणेत्ता विउलं जीवियारिहं पीदाणं दल, दलयित्ता पडिविसज्जेइ । २६. सहासणाओ अता जगेव भावती देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पभावति देवि ताहि इट्ठाहिं जाव मियमहुरसस्सिरीयाहि वग्गूहि संजयमार्ग-संयमाणे एवं बयासी २७. एवं खलु देवाणुप्पिए ! सुविणसत्थंसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा २८. मावसरि सविणा दिदा तत्व णं देवापिए ! तित्वगरमा वा चक्कलट्टिमा वा तित्वगसि वा चक्कवट्टिसि वा गब्भं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुविणाणं इमे चोद्दस महासुविणे पासित्ता णं पडिबुज्झति तं चैव जाव मंडलियमायरो मंडसिसि गये बक्कममासि एएस गं चोद महामुविषाणं अणपरं एवं महामुविषं पासिता में पडिबुज्झति । २६. इमे देवाणु पिए | एने महामुविदि तं ओराले गं तुमे देवी ! सुविणे दिट्ठे जाव रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा भावियप्पा श० ११, ११, ढाल २४१ ४४७ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरिंद मोरा, जाव स्यै राजपति राव, ३०. नरिद गोरा, ते मणी मोटो उदार, नरिंद मोरा, जाव पूर्ववत सार अथवा भावित आतम रे, स्वामी मोरा । मुनीवरू रे, म्हारा नाथ ॥ ३२. नरिद मोरा ३१. नरिद मोरा, एम करीने सार स्वप्न देवी ! तुम दीठो रे, स्वामी मोरा । गुणनिलो रे म्हारा नाथ । राणी नरिंद मोरा, जावत बे त्रिण वार देख्यो सुपनो वाह रे अतिभलो रे नृप तेह इष्ट वचने करि रे, स्वामी मोरा । नरपती रे, म्हारा नाथ । नारद मोरा, हर संतोष उपन्न, ४४८ भगवती जोड़ दा महिपति वाणी रे, स्वामी मोरा । हरष थी रे, म्हारा नाथ ॥ नो वचन्न, सांभल हिवड़े धारी रे, स्वामी मोरा । आनंद लहरे म्हारा नाथ ३३. नरिंद मोरा, देवानुप्रिया ! इमहीज, नारद मोरा नृप आण थकीज, कर तल जोड़ी यावत रे, स्वामी मोरा । इम कहे रे, महारा नाथ || जावत रूड़ी रीते रे, स्वामी मोरा । स्वप्न ग्रहै रे, म्हारा नाथ । भद्रासन सूं ऊठी रे, स्वामी मोरा । मग वहै रे, म्हारा नाथ ! जाव राजहंस सरिखी रे स्वामी मोरा । गति करी रे, म्हारा नाथ । आवी भवने पेठी रे, स्वामी मोरा । हरष धरी रे, म्हारा नाथ ॥ बेसी इकतालीस रे स्वामी मोरा । अति भली रे म्हारा नाथ । ३४. नरिद मोरा, तन मन चपल रहीत, नरिय मोरा, जिहां निज भवन पुनीत, स्वामी मोरा । म्हारा नाथ ॥ ३५, नरिद मोरा, आसी हाल अमंद, नारद मोरा, भिक्षु भारीमात नृपचंद, 'जय-जश' सुख वर संपति रे, स्वामी मोरा । रंगरली रे म्हारा नाथ ॥ ३०. तं ओराले गं तुमे देवी ! सुविणे दिट्ठे जाव" सुविदिट्ठे ३१. तिभावति देवि ताहि इद्वाहिं जामिय कट्टु मर-सिरीयाहि वमूहि यो पि तच्वंपि अणुबूहइ । (१० ११ १४३) ३२. तए णं सा पभावती देवी बलस्स रण्णो अंतियं एयमट्ठे सोच्चा निसम्म हट्टतुट्टा करयल जाव (सं० पा० ) एवं वयासी ३३. एयमेयं देवापिया ! जाव तं सुविणं सम्मं पडिच्छाइ, पडिच्छित्ता बलेणं रण्णा अब्भणुष्णाया समाणी मागामणिरवणभतिविताओ भासणाओ अब्भुट्ठेइ ३४. अतुरियमचचलमसंताए अविलबियाए रामहंससरिसीए गईए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सयं भवणमविट्ठा ( श० ११ १४४ ) Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २४२ १. प्रभावती तिण अवसरे, स्नान बलिकर्म कीध । जाव अलंकृत सर्व करि, अंग विभूषित सीध ।। २. ते गर्भ प्रति अति शीत नहीं, नहिं अति उष्ण असन्न । अतिही तिक्त पिण नहि कर, वलि अति कटक तजन्न । ३. न अति कसायलै करी, अति खाटे करि नांहि । अति मीठो तजवै करी, अधिक मने ओछाहि ।। ४. भोगवतां ऋतु-ऋतु विषे, सुख वा शुभ करि जेह । भोजन आच्छादन वलि, गंध माल्य करि तेह ।। १. तए णं सा पभावती देवी हाया कयबलिकम्मा जाव सव्वालंकारविभूसिया २. तं गब्भं नातिसीतेहिं नातिउण्हेहि नातितित्तेहिं नातिकडुएहिं ३. नातिकसाएहि नातिअंबिलेहिं नातिमहुरेहि ५ तेह गर्भ नैं जेह हित, मित ते अधिक न उन्न । पथ्य तिको सामान्य करि, गर्भ पोष प्रतिपुन्न ।। ६. देश उचित भूमी जिका, तेहिज देश विषेह । काले फुन अवसर विषे, आहार भोगवती जेह । ७. दोष रहित फुन जेह छै, मृदु कहियै सुकुमाल । एहवा शयनासन करी, सुख विलसै सुविशाल । ८. सह जन तणी अपेक्षया, सुख वा शुभ करि जेह । ___ मन नैं अनुकुल कारिणी, विहार भूमि विषेह ।। ४. उउभयमाणसुहेहिं भोयण-च्छायण-गंध-मल्लेहि 'उउभयमाणसुहेहि' ति ऋतौ ऋतौ भज्यमानानि यानि सुखानि-सुखहेतव. शुभानि वा तानि तथा तैः (वृ० प० ५४३) ५. जं तस्स गब्भस्स हियं मितं पत्थं गब्भपोसणं 'हियं' ति तमेव गर्भमपेक्ष्या, 'मियं' ति परिमितंनाधिकमूनं वा 'पत्थं' ति सामान्येन पथ्यं (व०प०५४३) ६. तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी 'देसे य' त्ति उचितभूप्रदेशे 'काले य' त्ति तथाविधावसरे (वृ० ५० ५४३) ७. विवित्तमउएहि सयणासणेहि 'विवित्तमउएहि' ति विविक्तानि-दोषवियुक्तानि... मृदुकानि च कोमलानि यानि तानि तथा तैः (वृ०प० ५४३) ८. पइरिक्कसुहाए मणाणुकूलाए विहारभूमीए पइरिक्कसुहाए' त्ति प्रतिरिक्तत्वेन तथाविधजनापेक्षया विजनत्वेन सुखा शुभा वा या सा तथा तया (वृ० ५० ५४३) ६. पसत्थदोहला संपुण्णदोहला 'पसत्थदोहल' त्ति अनिन्द्यमनोरथा 'संपुन्नदोहला' अभिलषितार्थपूरणात् (वृ० ५ ५४३) १०. सम्माणियदोहला 'सम्माणियदोहला' प्राप्तस्याभिलषितार्थस्य भोगात् (वृ० ५० ५४३) ११. अविमाणियदोहला 'अविमाणियदोहल' त्ति क्षणमपि लेशेनापि च नापूर्णमनोरथेत्यर्थः। (वृ० प०५४३) १२. वोच्छिण्णदोहला विणीयदोहला 'वोच्छिन्नदोहल' त्ति त्रुटितवाञ्छेत्यर्थः १३,१४. ववगयरोग-सोग-मोह-भय-परित्तासा इह च मोहो-मूढता भयं भीतिमात्र परित्रास:अकस्माद्भयं (वृ० ५० ५४३) ६. भला मनोरथ ऊपजै, प्रशस्त दोहला जेह । वंछितार्थ पूरण थकी, संपन्न-दोहला तेह ।। १०. सम्माणिय दोहलावली, पाम्या वांछित अर्थ । तेह तणां जे भोग थी सन्मान्याज तदर्थ ।। ११. जेह मनोरथ ऊपनो, लेश करी पिण जेह ॥ क्षण पिण नहीं अणपहुंचतु, अविमाणिय दोहला तेह।। १२. विच्छिन्न दोहला तसु वली, तूटी वांछा तास ॥ विणीय दोहला नों अरथ, दोहला रहित विमास ।। १३. रोग शरीर तणी तिका, पीड़ा करी रहीत । सोग मानसी पीड़ जे, तिण करि रहित वदीत ।। १४. गयो मोह नहिं मूढता, अल्प मात्र भय नांहि । अकस्मात भय सहु गयो, परित्रास नहिं ताहि ।। श. ११,उ०११ ढाल २४२ ४४६ Jain Education Intemational Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. वाचनांतरे छै इहां, सुहंसुहेणं नाम । सुख थी आश्रयणीय प्रति, आश्रय करती ताम । १६. सखे सयन करती छती, ऊभी रहै सुखेह ।। बेसै वलि शय्या विषे,. सुखे करी वर्तेह । १५,१६. इह स्थाने वाचनान्तरे 'सुहंसुहेणं आसयइ सुयइ चिट्ठइ निसीयइ तुयट्टई' त्ति दृश्यते तत्र च 'सुहंसुहेणं' ति गर्भानाबाधया 'आसयई' त्ति आश्रयत्याश्रयणीयं वस्तु 'सुबई' त्ति शेते चिट्टइ' त्ति ऊर्ध्वस्थानेन तिष्ठति 'निसीयइ' त्ति उपविशति 'तुयट्टईत्ति शय्यायां वर्तत इति । (वृ० ५० ५४३) १७. त गम्भं सुहंसुहेणं परिवहति ।। (श. ११११४५) तए णं सा पभावती देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाण य राइंदियाणं वीइक्कंताणं सुकुमालपाणिपायं १८. अहीणपडिपुण्णपंचिदियसरीरं १७. सखे-सुखे ते गर्भ प्रति, बाधा रहित वहेह । सवा नव मासे जनमियो, कोमल कर पग बेह ।। .. .. *नंदन जायो रे ।। (ध्रुपदं) १८. कोमल अंग सुचंग मनोहर, जयवंतो सत जायो। हीण नहीं प्रतिपूरण पूरा, पंचेंद्रिय तनु पायो । १६. लक्षण व्यंजन करी ललित है, गुणे युक्त गुण गायो। जावत चंद्र तणी पर आछो, सोम्याकार सहायो । २०. कांत मनोज्ञ घणो मनगमतो, दर्शण प्रिय देखायो। सुंदर रूप स्वरूप अनोपम, कामदेव सम कायो॥ २१. तिण अवसर ते प्रभावती, देवी नी दासी ताह्यो। सेवा अंग तणी नित साधे, अंग-प्रतिचारिका कहायो॥ २२. प्रभावती सत जन्म्यां जाणी, आवी महिपति पाह्यो। बे कर जोड़ी बल नृप नैं, जय विजय करी सुबघायो ।। २३. नपति वधावी कहै इम निश्चै, देवानप्रिय ! रायो। सवा नव मासे प्रभावती सुत, जाव अनोपम जायो।। २४. ते भणी देवानुप्रिय तुमने, प्रीति अर्थ कहूं वायो। प्रिय सुत जन्मज प्रगट करूं छ, पवर वधाइ देवायो। १६. लक्खणवंजणगुणोबवेयं जाव (सं० पा०) ससिसोमा कारं २०. कंतं पियदसणं सुरूवं दारयं पयाया। (श० ११।१४६) २१,२२. तए णं तीसे पभावतीए देवीए अंगपडियारियाओ पभावति देवि पसूर्य जाणेत्ता जेणेव वले राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता करयल जाव (सं० पा०) बलं रायं जएणं विजएणं वद्धावेंति २३ वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावती देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया। २४. तं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पियट्ठयाए पियं निवेदेमो । 'पियट्टयाए' त्ति प्रियार्थताय-प्रीत्यर्थमित्यर्थः 'पियं निवेएमो' त्ति 'प्रियम्' इष्टवस्तु पुत्रजन्मलक्षणं निवेदयामः (वृ० ५० ५४३) २५. पियं भे भवतु। (श० ११।१४७) तए णं से बले राया अंगपडियारियाणं अंतियं एयमट्ठ सोच्चा निसम्म 'पियं भे भवउ' त्ति एतच्च प्रियनिवेदनं प्रियं भवतां भवतु। वा०-तदन्यद्वा प्रियं भवत्विति । (वृ० ५० ५४१) २६. हट्टतुट्ठ जाव धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयतणुए ऊसवियरोमकूवे २७. तासि अंगपडियारियाणं मउडवज्जं जहामालियं ओमोयं दलयइ 'जहामालियं' ति यथामालितं यथाधारितं यथा परिहितमित्यर्थः (वृ० प० ५४३) २७. 'मउडवज्ज' ति मुकुटस्य राजचिह्नत्वात् स्त्रीणां चानुचितत्वात्तस्येति तद्वर्जनं। (वृ० ५० ५४३) २५. प्रिय कल्याण मंगल तुझ थावो, तिण अवसर बल रायो। अंगप्रतिचारिका दासी पासे, एह अर्थ सुण ताह्यो । वा०-इहां टीकाकार कहै छै अनेरो पिण प्रिय थावो। २६. हरष संतोष ल ह्यो हिवड़े धर, जाव धारा कर ताह्यो । आहणियो जे कदंब वृक्ष जिम, जाव रूम विकसायो ।। २७. मुकुट वर्ज मैं ते दासी प्रति, आभूषण अधिकायो । अवनीपति जिम पहिरचा था ते दियै बधाई मांह्यो ।। सोरठा २८. मुकुट न दीधो तास, राज चिह्न छै ते भणी । ___ फुन स्त्री नैं सुविमास, मुकुट अनुचितपणां थकी ॥ *लय : कुंवर जायो रे ४५० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. * श्वेत रजतमय निर्मल जल सूं भरयोभृंगार ग्रहायो । ते दासी नों शिर धोई नैं दासी पणो मिटायो ॥ सोरठा शिर घोयां दासीपणो । लोक लोक व्यवहार छै ॥ ३०. निश्च स्वामी जेह, छ दूर हुई तेह, एह एह ३१. *विस्तीरण आजीविका योग्यज, प्रीति दान दिवायो। सत्कारी सम्मानी ने तसु सीख दिये बलरायो ॥ " । ३२. बलि कोडंबिक पुरुष प्रते नृप तेड़ कहै इस वायो । हे देवानुप्रिया ! शीघ्र तुम्ह, हरियणापुर में जायो । ३३. छोटो बंदीवानज सगला, मान तेह पायली प्रमुख माप ते, ३४. वलि उन्मानज तुला रूप ही, सेर पाव ते पिण रुड़ी रीत वधावो, जेज करो मान्य रस रूड़ी ताह्यो । रीत बधायो ॥ पुर मांह्यो । मत कायो । 1 ३५. वलि हरियणापुर माहे बाहिर उदक करी सींचायो । कचरो टालो लीप जावत करो करावो जायो । ३६. जूप सहस्र ने चक्र सहस्र ए, पूजा विशेष ताह्यो । महामहिमा सतकार प्रते ए ओ करि अधिकायो । ३७. ओछव करि मुझ आशा सूंपो, कोडंबिक नृप वायो । अंगीकार कर करी करावी, आशा सूंपी आयो ॥ ३५. तिण अवसर बल राजा आयो, अट्टणसाला मांह्यो । तिमहिज जावत मंजन पर थी, नीकलियो छे व्हायो ॥ ३६. मूक्यो दाण जगात बली कर 1 गाय प्रमुख नो रायो । वलिकरण न कर नहि लेवं देणो मतद्यो ताह्यो ॥ " ४०. अणमाध्यां अणमिणियां दो बलि नृप आज्ञा थी ताह्यो । पर पर विषेज राजपुरुष नो प्रवेश करिवो नांह्यो । ४१. वलि किण पास दंड नहि लेणो, कुदंड लेणो नांह्यो । कुदंड ते अपराध विना लें, ए बिहुं नृप बरजायो ॥ *लय । कुंवर जायो रे २२. तरपयामयं विमलसलितपुष्णं भिंगार परिषद, परिहित्ता मत्थए धोवइ ३०. अंगप्रतिचारिकाणां मस्तकानि क्षालयति दासत्वापनयनार्थं स्वामिना धौतमस्तकस्य हि दासत्वमपगच्छतीति लोकव्यवहारः । ( वृ० प० ५४३ ) ३१. विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयइ, दलयित्ता सरकारे, सम्माणे सक्कारेता सम्माजेसा पडिविसज्जेइ । ( ० ११।१४८) ३२. तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं क्यासी विष्णामेव भो देवागुपिया ! हरिवणापुरे नयरे २२,२४.चार करेह, करेता मागुम्माणवणं करेह ३५. हत्थिणापुरं 'चारगसोहणं' ति बन्दिविमोचनमित्यर्थः ' माणुम्माणकरेहति इह मानं रसधान्यविषयम्, उम्मानं तुलारूपम् । ( वृ० प० ५४४ ) नगरं सब्भितरबाहिरियं आसिय संजिवलितं जान गंधन करे व कारवेह य ३६. जूवसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा पूया महामहिमसंजुत्तं उस्सह ३७. उस्सवेत्ता ममेतमाणत्तियं पच्चप्पिण | (१० १९० १४९) तए णं ते कोडुंबियपुरिसा बलेणं रण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति । (१० ११०९५०) अट्टणसाला तेणेव ३८. तए णं से बले राया जेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं चैव जाव मज्जणघराओ पsिनिक्खमइ ३१. उन उक्कर दे 'उक्कर' ति उन्मुक्तकरां, करस्तु गवादी प्रति प्रति वर्ष राजदेयं द्रव्यं किति उत्कृष्ट कर्पणनिषेधाद्वा दिति विक्रयनियेधेनाविद्यमानदातव्यां (बृ० प०५४४) ४०. अमेज्जं अभडप्पवेसं 'अमिज्ज' ति विक्रयप्रतिषेधादेवाविद्यमानमातव्यां अविद्यमानमायां वा 'अभड़प्पवेसं' ति अविद्यमानो भटानां -- राजाज्ञादायिनां पुरुषाणां प्रवेशः कुटुंबिगेहेषु यस्यां सा तथा तां (बृ० प०५४४) ४१. अदंडकोदंडिमं श० ११, उ० ११, ढाल २४२ ४५१ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. अडाणे कोइ धार न राख, गणिका वर जिण मांह्यो । एहवा नाटक संबंधि पात्रे, सहित नगर करवायो। ४३. नानाविध जे प्रेक्षाचारी, सेवित जिका सुहायो । इक क्षण मात्र मृदंग बजायां बिन नहि रहिता ताह्यो ।। ४२. अधरिमं गणियावरनाडइज्जकलियं 'अधरिमं' ति अविद्यमानधारणीयद्रव्याम् ऋणमुत्कलनात् 'गणियावरनाडइज्जकलियं' गणिकावरैः वेश्याप्रधानैर्नाटकीयः नाटकसम्बंधिभिः पात्रः कलिता या सा तथा ताम् (व०प०५४४) अणेगतालाचराणुचरियं अणुद्धयमुइंगं । ४३. अणेगतालाचराणुचरियं' नानाविधप्रेक्षाचारिसेविता मित्यर्थः अणुद्ध इयमुइंग त्ति अनुभूता -- वादनार्थं वादकरविमुक्ता मृदंगा यस्यां सा तथा ताम् (वृ०प० ५४५) ४४,४५. अमिलायमल्लदामं पमुइयपक्कीलियं सपुरजण जाणवयं 'पमुइयपक्कीलिय' ति प्रमुदितजनयोगात्प्रमुदिता प्रक्रीडितजनयोगात्प्रक्रीडिता (वृ० ५० ५४५) ४४. अणकुमलाणा पुष्प तणी जे, माल धरो पुर माह्यो । प्रमुदित जन नां योग्य थकी जे, प्रमूदिताज कहिवायो ।। ४५. प्रक्रीडित जन तणां योग्य थी, प्रक्रीडिता सुखदायो । जन करि सहित पवर पुर वलि जे, देश लोक दीपायो । सोरठा ४६. वाचनांतरे वाय, विजय वैजयंती कह्यो। अतिहि विजय सुहाय, विजय-विजय कहिये तसु । ४७. तेह प्रयोजन तास, तिका विजय वैजयंतिका । तेह प्रते सुविमास, कीजै ऊंची नगर में ।। ४८. *मर्यादा कुल नी जे अथवा, लोक तणी सुखदायो । सूत जन्मोत्सव दिवस दसां लग, राय कर हरषायो । ४६,४७. वाचनान्तरे 'विजयवेजइयं' ति दृश्यते तत्र चातिशयेन विजयो विजयविजय: स प्रयोजनं यस्याः सा विजयवैजयिकी ताम् (वृ० प० ५४५) ४६. दस दिन सुत नां जन्म महोत्सव, करतां थकांज रायो । शत द्रव्य सहस्र लक्ष द्रव्य लाग, एहवो याग' करायो !। ४८. दसदिवसे ठिइवडियं करेति । (श० ११११५१) 'ठिइवडियं' ति स्थितौ–कुलस्य लोकस्य वा मर्यादायां पतिता-गता या पुत्रजन्ममहप्रक्रिया सा स्थितिपतिताऽतस्तां 'दसाहियाए' त्ति दशाहिकायांदशदिवसप्रमाणायां (वृ० प०५४५) ४६. तए णं से बले राया दसाहियाए ठिइवडियाए वट्टमाणीए सइए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य जाए य ५०. दाए य भाए य दलमाणे य दवावेमाणे य 'दाए य' त्ति दायांश्च दानानि 'भाए य' त्ति भागांश्चविवक्षितद्रव्यांशान् (वृ०प० ५४५) ५१. सइए य सयसाहस्सिए य लंभे पडिच्छेमाणे य पडिच्छावेमाणे य एवं यावि विहरइ । (श० ११११५२) ५०. दाए य कहितां दान प्रते पुन, भाए य कहि ताह्यो। वांछित द्रव्य नां अंश प्रते जे, दिय देवावै रायो।। ५१. शत द्रव्य सहस्र लक्ष द्रव्य लागै, एहवो लाभ सुहायो। आपै दिवरावै इण रीते, विचरै बल महारायो ।। ५२. ढाल दोय सौ बयालीसमी, जन्मोत्सव सुखदायो । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, जय-जश हरष सवायो। *लय : कुंवर जायो रे १. पूजा का एक प्रकार। ४५२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २४३ दुहा १. तिण अवसर ते बाल नां, मात पिता घर खंत । जन्म महोत्सव प्रथम दिन स्थितिपतिताज' करत ॥ २. चंद्र सूर्य दर्शन इसो महोत्सव तीजै दिन । छठे दिन निशि जागरण, उत्सव करत सुजन । ३. व्यतिक्रांते ग्यारम दिने, अशुचि जात कर्म तेहनुं, ४. पाने द्वादशमें दिवस रंधावी जिम शिव नृपति, तिम कहि ५. जावत क्षत्रिय तेड़नें, यावत सत्कारी सहु, ६. तेहिज ज्ञाती मित्र नैं, निवृत्त जे अतिकंत । करणं करिव् मंत ॥ असणादिक चिडं आहार । अधिकार ॥ करी स्नान बलिकर्म । सन्मानी गुल शर्म ॥ जावत क्षत्रिय जाण । गुणवाण ॥ पिता नों जोय | अनुक्रम आयो सोय ॥ तेहषी वाथ्यो तंत कुल सादृश बलवंत ॥ तेहिज तंतू सार । तास वधारणहार ॥ । यां सगला रें आगले दिये नाम ७. दादा पड़दादा की बनी पड़दादो छ तेह थी, परंपरा बहु पुरुष नीं, वली तास कुल योग्य जे, १. सुकुल रूप संतान जे, दीर्घपणां थी दाखियो, ८. १०. एहवे रूपे नाम ए, गौण कहीजै ताय । अमुख्य थकी पिण जे हुवै, ते इहां नहिं कहिवाय ॥ बी स्पात अंगजात || अनुसार । ११. गुण-निप्पन ए नाम दं, जे कारण बल नृप सुत ए बाल अम्ह, प्रभावती १२. थाव अम्हारे ते भणी, पिता नाम ए वालक नौ जाणबूं. नों जाणवू, महाबल नाम उदार ॥ *वल पुवाई अति अधिकाई, जग सुखदाई जानंदा || महाबल नामें अति अभिरामे, अवनीपति सुत आनंदा । ( ध्रुपदं ) १३. तिण, अवसर ते बालक नों, कांइ महाबल नाम शुभा नंदा । मात पिता ए दोष मुख सूं वदन कमल पूनमचंद ॥ *लय चेत चतुर नर कहै तर्न सतगुरु १. कुल या लोक की मर्यादा के अनुसार पुत्र जन्मोत्सव की प्रक्रिया | १. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे विडिय करे २. दिवसे चंदसूरसावणियं करेद, छट्ठे दिवसे जागरियं करेइ 'चंदरसवि' ति चन्द्रसूर्यदर्शनाभिधानमुलाव 'जागरिव' ति रात्रिजागरणरूपमुत्तनविशेषम् ( वृ० प० ५४५) ३. एक्कारसमे दिवसे वीइक्कंते निव्वत्तं असुइजायकम्मकरणे 'निवृत्ते' अतिक्रान्ते अशुचीनां जातकर्म्मणां करणमशुचिजातकर्मकरणं तत्र ( वृ० प० ५४५) ४,५. संपत्ते बारसमे दिवसे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उपखडावेति उखडावेत्ता जहा सियो ( भ० ११।६३ ) जाव खत्तिए जाव (सं०पा० ) सक्का ति सम्मार्णेति ६. तस्सेव मित्तनाइ जाव (सं० पा० ) राईण य सियाण पुर ७. अज्जय-पज्जय-1 -पिउपज्जयागयं बहुपुरिसपरंपरप्पनकुलाख्वं कुलसरिसं ६. कुलसंताणतंतुबद्धणकरं कुलरूपो वः संतानः स एव तदत्वासनकर ( वृ० प० ५४५) ८. १०. अयमेवाख्वं गोण्णं 'गोणं' ति गौणं तच्चामुख्यमप्युच्यत इत्यत आह( वृ० प० ५४५) ११. गुणनिफन्न नामधेज्जं करेंति — जम्हा णं अम्हं इमे दारए बलस्स रण्णो पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए १२. तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्जं महब्बलेमहम्बले १३. तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं करेंति महम्बलेति । ( ० ११०२५३) श० ११, उ० ११, ढाल २४३ ४५३ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. तिण अवसर ते महाबल बालक, पंच धाय करि पोखदा । क्षीरधाय' मंजण' ने मंडण' अंक कीलावण तोषंदा ॥ 1 १५. इम जिम दण्णा को छं, उबवाइ' में वर्णदा यावत गिरिकंदर चंपक तर मुखे मुझे परिवृद्धंदा || , १६. मात-पिता महाबल बालक ने जन्म दिवस थी क्रम कुंदा । स्थितिपतिता ते जन्म महोत्सव, रवि शशि दर्श दिखावंदा || १७. छठी निशा जागरण महोत्सव, नाम धरण हिय हुलसंदा । परंगामणं अर्थ वृत्ति में, भूमि विषे सर्पणनंदा || वा०-हां टीका में कोभूमी सर्पण अनं बा में को कभी रहि थड़ी जणाय छे तथा आंगणे गोडालिये हालिवूं हुवै ते पिण ज्ञानी जाणें । १८. पग-पग करने आयो चलवो तास महोत्सव अधिकंदा । जीमण सीखण कवल वृद्धि पुन, बोलण महोत्सव कुर्विदा ॥ १६. कान बींधवूं वर्षगांठ नुं, चूड़ा धरण तदा नंदा । कला ग्रहण भणावया नुं करें महोत्सव राजंदा ॥ 1 २०. अन्य वह गर्भाधान जन्म कुन आदि विषे कोतुक वृंदा ॥ रखड़ी आदि कही कोतुक, कर कुंवर नां हुलसंदा ॥ २१ महाबल कुंवर प्रतं तिण अवसर मात पिता चित आनंदा aise अधिको आठ वर्ष नौ जाणी सुत नयनानंदा ॥ सूत्रे दष्णो दादा | जाय पर्याप्त योग समर्थज भयो युवान शुभानंदा ॥ २२. शोभनीक तिथि इम जिम 1 वा०— एवं जहा दढपइण्णो इति इण वचने करी जे का. ते इम जाणवो सोभणंसि तिहिकरणणक्खत्त-मुहुत्तंसि ण्हायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगल - पायच्छित्तं सालंकारविभूतियं मया सिक्कारसमुदएवं कलावरियस्स उगणपतीत्यादीति २३. महाबल कुमार ने तिण अवसर, बाल भाव मूकाणंदा योग समर्थ जान मता पित, आठ प्रासाद करावंदा || २४. प्रासाद विषे संवाद एहवा अठ प्रासाद, १. सू० १४४ का वाचनान्तर ४५४ भगबती-जोड़ , सोरठा अवतंसक जे मुकूट सम माता पिता कराविया || १४. ए गं से महम्बले दारए पंचधाईपरिगहिए (तं जहा बोराईए 'मज्जणधाईए मंडणधाईए की लावणधाईए अंकधाईए' इत्यादि ( वृ० प० २४५) १५. एवं जहा दढपइण्णस्स जाव निव्वायनिव्वाघायंसि सुहंसुहेण परिवड्ढति । (१० ११।१५४) 'निव्वाय निव्वाघायं सीत्यादि च वाक्यमिहैवं सम्बन्धनीयं गिरिकंदरमल्लीणेव्व चंपगपायवे निवाय निव्वाघायंसि सुहंसुहेणं परिवड्ढइ' त्ति । ( वृ० प० ५४५ ) १६. तए णं तस्स महब्बलस्स दारगस्स अम्मापियरो अणुपुब्वेगं विडियं वा चंदरसावयिं वा १७. जागरियं वा नामकरणं वा 'परंगामणंति' भूमी सर्प‍ परंगामणं वा ( वृ० प० ५४५) १८. पंचकामणं वा पजेमामणं वा पिंडवद्धणं वा पजंपावणं वा 'पयचंकामणं' ति पादाभ्यां संचारणं 'जेमामणं' ति भोजनकारणं पिवति कबलवृद्धिकारण 'पज्जपावणं' ति प्रजल्पनकारणं । ( वृ० प० ५४५) १६. कण्णवेहणं वा संवच्छरपडिलेहणं वा चोलोयणगं वा उवणयणं वा २०. अण्णाणि य बहूणि कोवाई करेति । २१. 'संवछरपडिने' ति वकिरणं बोलोयण' चूहावरणं 'उगवणं' ति कलाग्राह (१० १०५४५) समाधानम्मणमादिवाई ( ० ११।१५५) (बु० १० ५४५) सातिरेन्डु कौतुकानि - रक्षाविधानादीनि कुमारं अम्मा वासगं जाणित्ता २२. किरण कलायरियस उवर्णेति एवं जहा दढप्पइण्णे जाव अलंभोग समत्थे जाए यावि होत्या । ( ० ११।१५६) वा०-- एवं जहा दढपइन्नो' इत्यनेन यत्सूचितं तदेवं दृश्यम् । (१० प० ५४५) २३. तए णं तं महब्बलं कुमारं उम्मुक्कबालभावं जाव अलंभोग समत्थं विजाणित्ता अम्मापियरो अट्ठ पासायएकाति Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. *ऊंचा श्वेत वेदिका सहितज, जाण हसै उपमा नंदा ॥ रायप्रश्रेणी में जिम वर्णन, जावत ही प्रतिरूपंदा॥ २५. अब्भुग्गय-मूसिय-पहसिए इव वण्णओ जहा रायप्पसेणइज्जे (सू० १३७) जाव पडिरूवे। 'अब्भुग्गयमूसियपहसिते इव' अभ्युद्गतोच्छ्रितान्अत्युच्चान् "पहसिते इव' त्ति प्रहसितानिवश्वेतप्रभापटलप्रबलतया हसत इवेत्यर्थः । (व०प० ५४५) २६-२६. मणिकणगरयणभत्तिचित्तवाउद्ध्यविजयवेजयंती पडागाछत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरे' इत्यादि। (वृ० ५० ५४५) दहा २६. मणी चंद्रकांतादि नी, कनक रत्न नी जेह । ____ भांत करीनैं चित्र जे, वारू महल विषेह ॥ २७. पवने करी प्रकम्पिता, विजय-सूचिका जाण । नाम वेजयंती तिका, पवर पताका माण । २८. छत्रादी छत्रे सहित, तेह पताका जोय । ___ गगन तला प्रतिलंघतो, तास शिखर अवलोय ॥ २६. इत्यादिक अधिकार जे, रायप्रसेणी मांहि । आख्यो तिम कहिवो इहां, प्रासाद वर्णक ताहि ।। ३० ते वर श्रेष्ठ अष्ट प्रासाद-वतंसक बिच अति सूखकंदा ।। महा इक भवन करावै महिपति स्तंभ सैकड़ां स्थापंदा ॥ ३१. रायप्रश्रेणी में जिम वर्णन, पेक्षाघर मंडप नंदा । तेम इहां पिण कहिवं वर्णक. जावत ही प्रतिरूपंदा । वा०—'वण्णओ जहा रायसेणइज्जे पेच्छाघरमंडवसित्ति' जिम रायप्रसेणी सूत्रे प्रेक्षा मंडप, गृह-मंडप नों ए बिहुँ नों वर्णक कह्यो तिम एहनों कहिवो ते इमलीलट्ठिय सालिभंजियागमित्यादि । ३२. महाबल कुंवर प्रत माता पितु, अन्य दिवस सुविशेखंदा । शोभनीक तिथि करण दिवस वलि, नक्षत्र मुहत पेखंदा ।। ३३. स्नान बलिकर्म कौतुक मंगल. प्रायश्चित्त प्रति कविदा। सर्व अलंकृत एहवा महाबल, कंवर प्रते शोभाविदा॥ ३४. नार सुहागण कंवर प्रतै जे, मर्दन उबटन करावंदा । स्नान गीत वाजंत्र बजावी. हरष विनोदे आनंदा॥ ३५. कुंवर प्रतेज प्रसाधन कहिये, कज्जल नयन शुभानंदा। वलि शिर टीको शोभित नीको, वनिता कंवर ओपाविदा।। ३६. अंग सुचंग अष्ट स्थानक वलि, वारू तिलक सुहावंदा । बांध कांकण-डोर कसूबल, अविधवाए कुर्विदा ।। ३७. मंगल अक्षत दधि प्रमुख वा, गीत विशेषज गावंदा। भलो बोलवो आशीर्वचने, इम करिवै हुलसावंदा । ३०. तेसि णं पासायवडेंसगाणं बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महेगं भवणं कारेंति - अणेगखंभसयसंनिविट्ठ ३१. वण्णओ जाव रायप्पसेणइज्जे (सू० ३२) पेच्छाघर मंडवसि जाव पडिरूवे। (श० ११११५७) वा०-यथा राजप्रश्नकृते प्रेक्षागहमण्डपविषयो वर्णक उक्तस्तथाऽस्य वाच्य इत्यर्थः स च 'लीलट्टियसालि भंजियाग' मित्यादिरिति । (वृ० प० ५४६) ३२. तए णं तं महब्बलं कुमारं अम्मापियरो अण्णया कयाइ सोभणंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त मुहुत्तंसि ३३. हायं कयबलिकम्म कयकोउय-मंगलपायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं ३४-३६. पमक्खणग-हाण-गीय-वाइय - पसाहणअलैंगति लग-कंकण-अविहवबहुउवणीयं प्रम्रक्षणकं-अभ्यञ्जनं स्नानगीतवादितानि प्रतीतानि प्रसाधनं-मंडनं अष्टस्वङ्गेषु तिलका:-पुण्ड्राणि अष्टांगतिलकाः कंकणं च रक्तदवरकरूपं एतानि अविधववधुभिः-जीवत्पतिकनारीभिरुपनीतानि यस्य स तथा तं । (वृ०प० ५४७) ३७. मंगलसुजंपिएहि य 'मंगलसुजंपिएहि य' ति मंगलानि दध्यक्षतादीनि गीतगानविशेषा वा तासु जल्पितानि च आशीर्वचनानीति । (वृ० ५० ५४७) ३८,३६. वरकोउयमंगलोवयार कयसंतिकम्म वराणि यानि कौतुकानि-भूतिरक्षादीनि मंगलानि च सिद्धार्थकादीनि तद्रूपो य उपचार:-पूजा तेन कृतं शान्तिकर्म-दुरितोपशमक्रिया यस्य स तथा तं ४०. सरिसियाणं 'सरिसियाणं' त्ति सदृशीनां परस्परतो महाबलापेक्षया (वृ० ५० ५४७) ३८. महाबल कुंवर प्रतै फुन कीधा, वर कोतुक रक्षा नंदा । वलि मंगल सिद्धार्थ आदि बहु, ते पिण करता सुखकंदा॥ ३९. कोतुक मंगल रूप अछ जे, उपचारज पूजावंदा। तिण करि कीघो शांति कर्म तसु, टालण विध्न तणां फंदा । ४०. कुंवर भणी परणावा तरुणी, चितहरणी आनंद चंदा । आपस मांहि सरीखी अथवा, कंवर सरीखी ओपिदा । *लय : चेत चतुर नर कहै तन सतगुरु श० ११, उ० ११, ढाल २४३ ४५५ Jain Education Intemational Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. त्वचा सरीखी वलि वय सरिखी, लावण्य मनोज्ञ सरिसंदा। आकृति रूप सरोखो ओ, यौवन युवती गुणवदा।। ४१. सरित्तयाणं सरिव्वयाणं सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वण गुणोववेयाणं 'सरिसलावन्ने' त्यादि इह च लावण्यं-मनोज्ञता रूपं आकृतियौवनं--युवता गुणाः-प्रियभाषित्वादयः ४२. विणीयाणं कयकोउय-मंगलपायच्छित्ताणं ४२. विनयवंत मतिवंत रमण नैं, कीधा कोतुक सुखकंदा ।। मंगल प्रायश्चित रमणी मैं, मेटण अशुभ विघ्न-फंदा ।। ४३. सादस महिपति कुल थी आणी, अठ नृप कन्या ओपिंदा। एक दिवस नै विषे हरषधर, पाणीग्रहण कराविदा ।। ४४. ढाल दोयसौ तयालीसमी, गणपति भिक्षू गुणवृदा। भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' आनंद पावंदा । ४३. सरिसएहिं रायकुलेहितो आणिल्लियाणं अट्ठण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हाविसु । (श० ११२१५८) ढाल : २४४ १. तए ण तस्स महाब्बलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीइदाणं दलयंति दूहा १. महाबल नाम कमार ने, मात पिता तिणवार। प्रीतिदान दै एहवं, ते सुणज्यो अधिकार ।। * जी कांइ प्रीति दान ए दायचो जी काइ, उलट धरी आपंत ।। (ध्रुपदं) २. आठ कोड़ रुपिया दिया जी काइ, सोनैया अठ कोड़। आठ मुकुट ते मुकुट में जी कांइ, प्रवर प्रधान सुजोड़।। ३. जोड़ा आठ कुंडल तणां जी काइ, कुंडल युगल में उदार । आठ हार वर हार में जी काइ, इमज आठ अर्द्ध हार ।। ४. आठ हार एकावली जी कांइ, पवर एकावली मांहि । एवं अठ मुक्तावली' जी कांइ, इम रत्नावली ताहि ।। ५. जोड़ा आठ कड़ां तणां जी काइ, कड़ग युगल में प्रधान । तुडित बाजूबंध जोडला जी काइ, इमज आठ पहिछान ।। २. अहिरण्णकोडीओ अट्ठसुवण्णकोडीओ अट्ठमउडे मउडप्पवरे ३. अट्ठ कुंडलजोए कुंडलजोयप्पवरे अट्ठहारे हारप्पवरे अट्ठअद्धहारे अद्धहारप्पवरे 'कुण्डलजोए' त्ति कुण्डलयुगानि (वृ०प० ५४७) ४. अट्ठ एगावलीओ एगावलिप्पवराओ एवं मुत्तावलीओ एवं कणगावलीओ एवं रयणावलीओ ५. अट्ठ कडगजोए कडगजोयप्पवरे एवं तुडियजोए 'कडगजोए' त्ति कलाचिकाभरणयुगानि, 'तुडिय' त्ति बाह्वाभरणं (वृ० ५० ५४७) ६. अट्ठ खोमजुयलाई खोमजुयलप्पवराई 'खोमे' त्ति काप्पासिकं अतसीमयं वा वस्त्रं __ (वृ० ५० ५४७) ७. एवं वडगजुयलाई एवं पट्टजुयलाई 'वडग' ति त्रसरीमयं (वृ० प० ५४७) ८. एवं दुगुल्लजुयलाई 'दुगुल्ल' त्ति दुकूलाभिधानवृक्षत्वनिष्पन्नं (वृ० ५० ५४७) ६. खोम-जुगल अठ ओपता जी काइ, खोम युगल में प्रधान । वस्त्र एह कपास नां जी कांइ, अथवा अतसी जान ।। ७. वडग जुगल पिण इहविधे जी काइ, एह त्रिसरिया जान। पट्ट जुगल पिण इहविधे जी कांइ. रेशम में पहिछान ।। ८. दुगुल्ल जुगल पिण इह विधे जी कांइ, वृक्ष तणी ए छाल । तेह थकी ए नीपनो जी कांइ, वारू वस्त्र विशाल ॥ *लय : म्हारी सासूजी रे पांच पुत्र १. अंगसुत्ताणि भाग २ में मुक्तावली के बाद कनकावली है, उसके वाद रत्नावली। ४५६ भगवती-जोर Jain Education Intemational cation International Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. अट्ठ सिरीओ श्रीप्रभृतयः षड्देवताप्रतिमाः (वृ० ५० ५४७) १०. अट्ठ हिरीओ एवं धिईओ कित्तीओ ६. प्रतिमा षट देवी तणी जी काइ, आठ आठ कहिवाय । श्री देवी नीं शोभती जी काइ, प्रतिमा आठ शोभाय ।। १०. प्रतिमा ह्री देवी तणी जी काइ, आठज रूड़े घाट । इम अठ धृति देवी तणी जी काइ, कीत्ति देवी नी आठ ।। ११. आठ बुद्धि देवी तणी जी काइ, अठ लक्ष्मी नी जान । रत्न जड़ित ए छै सहु जी काइ, षट देवी नी पिछान ।। १२. अष्ट नंदादिक आपिया जी काइ, मंगल वस्तु अमोल । अन्य आचार्य इम कहै जी कांड, लोह ने आसन गोल ।। ११. बुद्धीओ लच्छीओ १२. अट्ठ नंदाई नन्दादीनि मंगलवस्तूनि अन्ये त्वाहुः–नन्दं-वृत्तं लोहासनं (वृ० ५० ५४७) १३. अट्ठ भद्दाई भद्र-शरासनं मूढक इति यत्प्रसिद्धं (वृ० ५० ५४७) १४. अट्ठतले तलप्पवरे सव्वरयणामए 'तले' त्ति तालवृक्षान् (वृ० ५० ५४७) १५. नियगवरभवणकेऊ अट्ठ झए झयप्पवरे १३. आठ भद्रासण आपिया जी काइ, प्रसिद्ध शरासन भद्र । तकिया करिने युक्त छै जी काइ, आसन एह अक्षुद्र ।। १४. अष्ट ताल वृक्ष आपिया जी काइ, तरुवर मांहि प्रधान । रत्न जड़ित ए पिण त्रिलं जी कांइ. महिपति दै सनमान ।। १५. प्रवर पोता नां घर विषे जी कांइ, केतु ध्वजा सुप्राय । अष्ट ध्वजा दीधी सह जी कांइ, प्रवर ध्वजा रै माय ।। १६. आठ गोकुल गायां तणां जी कांइ, गोकुल मांहि प्रधान । दश सहस्र गायां तणो जो कांइ, एक गोकल पहिछान ।। १७. नाटक आठ सुआपिया जी काइ, नाटक मांहि प्रधान । बत्तीस बद्ध नृत्य सहित छै जी काइ, इक-इक नाटक जान । १८. अष्ट तुरंग वर हय विषे जी काइ, सर्व रत्नमय दीस । रत्न माहे छै ते भणी जी कांद, एह भंडार सरीस ।। १६. अट्ठ वए वयप्पवरे दसगोसाहस्सिएणं वएणं 'वय' त्ति व्रजान्– गोकुलानि (वृ० ५० ५४७) १७. अट्ठ नाडगाइं नाडगप्पवराई बत्तीसइबद्धेणं नाडएणं १९. गज अठ पवर गज नैं विषे जी काइ, सर्व रत्नमय जान। रत्न तणां छै ते भणी जी काइ, एह भंडार समान ।। २०. यान शकट अठ आपिया जी काइ, पवर शकट में समृद्ध । अठ युग वर युग में विषे जी काइ, गोल देश में प्रसिद्ध ।। २१. कट आकारे सेवका' जी काइ, आच्छादित इम देख । संदमाणी जपान छ जी काइ, पुरुष प्रमाण विशेख ।। १८. अट्ठ आसे आसप्पवरे सव्वरयणामए सिरिघरपडिरूवए 'सिरिघरपडिरूवए' त्ति भाण्डागारतुल्यान् रत्नमयत्वात् (वृ०प०५४७) १६. अट्ट हत्थी हत्थिप्पवरे सव्वरयणामए सिरिघरपडि रूवए २०. अट्ट जाणाई जाणप्पवराई अट्ठ जुगाइं जुगप्पवराई 'जाणाई' ति शकटादीनि 'जुग्गाई' ति गोल्लविषय प्रसिद्धानि जम्पानानि (वृ० ५० ५४७) २१. एवं सिबियाओ एवं संदमाणीओ 'सिबियाओ' त्ति शिबिका:-कूटाकाराच्छादितजम्पानरूपाः ‘संदमाणियाओ' त्ति स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणाजम्पानविशेषानेव (व०प०५४७) २२. एवं गिल्लीओ थिल्लीओ 'गिल्लीओ' त्ति हस्तिन उपरि कोल्लराकाराः 'थिल्लीओ' त्ति लाटानां यानि अट्टपल्यानानि तान्यन्यविषयेषु थिल्लीओ अभिधीयन्तेऽतस्ताः (वृ० ५० ५४७) २३. अट्ठ वियडजाणाई वियडजाणप्पवराई २२. एम गिल्लि ते गज तणी जी काइ, अंबाबाड़ी जाण । अष्ट थिल्लि पिण इम दिय जी काइ, अश्व तणो ए पलाण । २३. वियड यान अठ आपिया जी काइ, वियड यान में प्रधान। चाल वृषभ नै हय विना जी, विज्ञान नां वश थी जान ।। २४. अठ रथ परिजाणक दिय जी कांइ, क्रीड़ प्रयोजन श्रिष्ट । कडि प्रमाण फलग वेदिका जी काइ, रथ संग्रामिक अष्ट ।। २४. अट्ठ रहे पारिजाणिए अट्ठ रहे संगामिए 'पारिजाणिए' त्ति परियानप्रयोजनाः पारियानिकास्तान् संगामिए' त्ति संग्रामप्रयोजनाः सांग्रामिकास्तान, तेषां च कटीप्रमाणा फलकवेदिका भवति । (वृ० ५० ५४७) १. शिविका श० ११, उ० ११७ ढाल २४४ ४५७ Jain Education Intemational Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. अट्ठ आसे आसप्पवरे, अट्ट हत्थी हत्थिप्पवरे २५. आठ तुरंगम आपिया जी काइ, तूरंग विषेज प्रधान । आठ हाथी फुन आपिया जी काइ, गज में पवर पिछान ।। २६. अष्ट ग्राम वलि आपिया जी कांइ, ग्राम विषेज प्रधान ! दश सहस्र घर सहित छ जी कांइ, एक ग्राम सुविधान ।। २७. आठ दास मुख्य दास में जी कांइ, इमहिज दासी अष्ट । कार्य पूछी मैं करै जी कांइ, किंकर ते अठ श्रिष्ट ।। २६. अट्ठ गामे गामप्पवरे दसकुलसाहस्सिएणं गामेणं २८. इम कंचइज पोलिया जी काइ, खोजा वरिसधर एम। ___ कार्य अंतेउर तणां जी काइ, चिंतक महत्तर तेम ।। २७. अट्ट दासे दासप्पवरे एवं दासीओ एवं किंकरे ___ 'किंकरे' त्ति प्रतिकर्म पृच्छाकारिणः (व०प०५४६) २८. एवं कंचुइज्जे एवं वरिसधरे एवं महत्तरए 'कंचुइज्जे' त्ति प्रतीहारान् 'वरसधरे' त्ति वर्षधरान् वद्धितकमहल्लकान् ‘महत्तरान्' अन्तःपुरकार्यचिन्तकान् (वृ० ५० ५४७) २६. अट्ठ सोवण्णिए ओलंबणदीवे अट्ठ रूप्पामए ओलंबण दीवे 'ओलंबणदीवे' त्ति शृंखलाबद्धदीपान् (वृ० ५० ५४७,५४८) ३०. अट्ठसुवण्णरुप्पामए ओलंबणदीवे २६. सोना नां सांकल बंध्या जी काइ, दीपक आठ उदार । रूपा नां सांकल बंध्या जी कांइ, अष्ट दीपक श्रीकार ॥ ३०. सूवर्ण नैं रूपा तणां जी कांइ, सांकल बद्ध उदार । दीपक अष्ट सुआपिया जी काइ, इम त्रिहं भेद विचार ।। ३१. अष्ट दीपक सोना तणां जी काइ, ऊर्ध्व दंडवत देख । तीन भेद तेहनां कह्या जी कांइ. पूर्ववत संपेख ।। ३२. आठ दीवा सोना तणां जी काइ, भोडल सहित तद्रप । इम ए पिण त्रिण भेद थी जी काइ, रूप रु सुवर्ण रूप ।। ३१. अट्ट सोवण्णिए उक्कंबणदीवे एवं चेव तिणि वि __'उक्कंबणदीवे' त्ति उकंबनदीपान ऊर्ध्वदण्डवतः (वृ० ५० ५४८) ३२. अट्ट सोवण्णिए पंजरदीवे एवं चेव तिण्णि वि 'पंजरदीवे' त्ति अभ्रपटलादिपञ्जरयुक्तान (वृ० ५० ५४८) ३३. अट्ठ सोवण्णिए थाले अट्ठ रुप्पामए थाले, अट्ठ सुवण्णरूप्पामए थाले ३४. अट्ठ सोवण्णियाओ पत्तीओ ३५. अट्ट सोवणियाई थासगाई ___'थासगाई' ति आदर्शकाकारान् (वृ० ५० ५४८) ३६. अट्ट सोवण्णियाइं मल्लगाई ३३. आठ थाल सोना तणां जी काइ, आठ रूपा रा थाल । आठ सोना रूपा तणां जी कांइ, थाल विशाल निहाल ।। ३४. आठ परात सोना तणी जी काइ, आठ रूपा री परात । आठ सोना रूपा तणी जी कांइ, पवर परात सुजात ।। ३५. आठ थासक सोना तणां जी काइ, आरीसा आकार । आठ थासक रूपा तणां जी काइ, सुवण्ण रूप अठ सार ।। ३६. आठ मल्लक सोना तणां जी काइ, आठ रूपा नां सार । आठ सोना रूपा तणां जी कांइ. सिरावला आकार ।। ३७. अष्ट पात्री सोना तणी जी कांइ, आठ रूपा री ताम । आठ सोना रूपा तणी जी कांड, एह रकेबी दाम ।। ३८. कूडछी चमचा सुवर्ण तणां जी काइ, अष्ट सुरूड़े घाट । आठ रूपा नां जाणज्यो जी काइ, सुवर्ण रूपक आठ॥ ३६. आठ तवा सोना तणां जी काइ, आठ रूपा नां उमेद । आठ सोना रूपा तणां जी कांइ, इमज तवी त्रिहुं भेद ।। ४०. आठ बाजोट सोना तणां जी कांइ, आठ रूपा रा बाजोट । आठ सोना रूपा तणां जी कांइ. मूल नहीं ज्यांमें खोट ।। ४१. आठ आसन सोना तणां जी काइ, आठ रूपा रा आसन्न । अष्ट सूवर्ण रूपा तणां जी काइ, दीधा होय प्रसन्न ।। ४२. आठ सोना नां कलशिया जी कांइ. आठ रूपा नां जेह । __आठ सोना रूपा तणां जी काइ, अथवा कचोला एह ।। ३७. अट्ट सोवण्णियाओ तलियाओ 'तलियाओ' त्ति पात्रीविशेषान् ३८. अट्ट सोवण्णियाओ कविचियाओ (वृ० ५० ५४८) ३६. अट्ठ सोवण्णिए अवएडए ___ 'अवएडए' त्ति तापिकाहस्तकान् (वृ० ५० ५४८) ४०. अट्ठ सोवण्णियाओ अवयक्काओ ४१. अट्ठ सोवण्णिए पायपीढए ४२. अट्ट सोवणियाओ भिसियाओ अट्र सोवणियाओ करोडियाओ ४५८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. अट्ट सोवण्णिए पल्लंके ४४. अट्ट सोवण्णियाओ पडिसेज्जाओ ४३. आठ पल्यक सोना तणां जी कांइ. आठ रूपा नां पल्यंक। आठ सोना-रूपा तणां जी कांइ. आपै नप शुभ अंक ।। ४४, आठ प्रति से ज्या सोना तणी जी कांइ. आठरूपा नी जाण । आठ सोना-रूपा तणी जो कांइ, ढोलिया प्रमुख पिछाण ।। ४५. आठ हंसासन आपिया जी काइ, हंस आकारे आसन्न । आठकोंचासन आपिया जी कांइ. ए कोच आकार प्रपन्न ।। ४६. इम गरुडासन अठ दिया जी कांड, उन्नतासन पिण आठ। उन्नतादिक आकार छै जी कांड, शब्द थकी शुद्ध बाट । ४५. अटु हंसासणाई अट्ठ कोंचासणाई हंसासनादीनि हंसाद्याकारोपलक्षितानि (वृ० ५० ५४८) ४६. एवं गरुलासणाई उन्नयासणाई उन्नताद्याकारोपलक्षितानि च शब्दतोऽवगन्तव्यानि (वृ० ५० ५४८) ४७. पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई ४८. अट्ठ पउमासणाई, अट्ठ दिसासोवत्थियासणाई ४६. अट्ठ तेल्ल-समुग्गे जहा रायपसेणइज्जे (सू० १६१) जाव (सं० पा०) अट्ठ सरिसव-समुग्गे ५०. अट्ठ कोट्ठ-समुग्गे ४७. पनतासन दीर्घासणा जी काइ, भद्रासण प्रति पेख । अठ पक्षासन प्रति दिये जी कांइ, मगरासन सुविशेख ।। ४८. अठ पद्मासन प्रति दिये जो काइ, दिसा मौवस्तिक जेह । साथिया नैं रूपे करी जी काइ, युक्त अष्ट दै तेह ।। ४६. अष्ट तेल नां डाबडा जी कांड, रायप्रश्रेणी जम । जावत अठ सरसव तणां जी कांड, दिये डाबडा तेम ।। ५०. जाव शब्द थी जाणिय जी कांइ. चूर्ण द्रव्य सुगंध । तास पुड़ा अठ आपिया जी कांड, आणी हरष अमंद ।। ५१. इम नागर वेल तणां पुड़ा जी कांड, चूयवास पूड़ा एम। तगर पुड़ा पिण आपिया जी कांइ, पुड़ा एलची रा तेम ।। ५२. अठ हरीयाल तणां पुडा जी काइ, पुड़ा हींगल ना पेख । ____टीकी प्रमुख अर्थे दियो जी काइ, मणसिल पुड़ा विशेख ।। ५३. अंजन सुरमा नां पुड़ा जी कांड, जाव शब्द थी एह । रायप्रश्रेणी थी कह्यो जी कांइ. अष्ट-अष्ट दै तेह ।। ५४. दासी अठ दे कूबडी जी कांइ, जिम उववाई मांहि । जावत दासी पारसी जी काइ, अष्ट-अष्ट दै ताहि ।। वा०-'जहा उववाइए' इति इण बच करी जे का , ते इहां होज देवानंदा नां व्यतिकर नै विषे छ ते थकी हीज जाणवू । ५१-५३, एवं पत्त-चोयग-तगर-एल-हरियाल-हिंगुलय मणोसिल-अंजण-समुग्गे ५५. अष्ट छत्र वलि आपिया जी कांइ. छत्र धरणहारीज। दासी आठ दिये वली जी कांइ, चामर इमज कहीज ।। ५६. अष्ट वींझणा आपिया जी कांइ, वींझणा नी सुविचार । धरणहारी अठ दासियां जी काइ, अठ वली करोडिकाधार ।। ५७. अष्ट क्षीर धाई दिये जी काइ, जाव अष्ट अंक धाय । दासी अष्ट अंग मर्दका जी कांइ, अल्प मर्दन करताय ॥ ५८. घणु मर्दन कर ते सही जी काइ, दासी आठ विचार । दियै अष्ट दासी बली जी कांड, स्नान करावणहार ।। ५६. दास्यां आठ दिये वलि जी काइ, मंडन करावणहार । पवर पोसाग सुहामणी जी कांइ, तेह करावण सार। ६०. अठ वण्णग पीसे तिके जी कांइ. चंदन पीसणहार। तथा हरतालादिक भणी जी काइ, पेषण तेह विचार ।। १. सू० ३० २. पीकदानी। ५४. अट्ठ खुज्जाओ जहा ओववाइए (सू०७०) जाव अट्ठ पारिसीओ वा०–'जहा उववाइए' इत्यनेन यत्सूचितं तदिहैव देवानन्दाव्यतिकरेऽस्तीति तत एव दृश्यम् (वृ० ५० ५४८) ५५. अट्ठ छत्ते, अट्ठ छत्तधारीओ चेडीओ, अट्ठ चामराओ, अट्ठ चामरधारीओ चेडीओ ५६. अट्ट तालियंटे, अट्ठ तालियंटधारीओ चेडीओ, अट्र करोडियाओ, अट्ठ करोडियाधारीओ चेडीओ ५७,५८. अट्ठ खीरधाईओ जाव (सं० पा०) अट्ट अंक धाईओ, अट्ठ अंगमद्दियाओ, अट्ठ उम्मद्दियाओ, अट्ठ छहावियाओ इहांगमदिकानामुन्मदिकानां चाल्पबहुमर्दनकृतो विशेषः (वृ० ५० ५४८) ५६. अट्ठ पसाहियाओ 'पसाहियाओ' त्ति मण्डनकारिणीः (वृ०प० ५४८) ६०. अट्ठ वण्णगपेसीओ 'वन्नगपेसीओ' त्ति चन्दनपेषणकारिका हरितालादिपेषिका वा (वृ० ५० ५४८) श० ११, उ० ११, ढाल २४४ ४५६ Jain Education Intemational Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. अष्ट चूर्ण-पेसी वलि जी कांइ. तंबूल चूर्ण ताम । अथवा जे गंध द्रव्य नैं जी कांइ, चूर्ण कहियै आम ।। ६२. कीड़ करावे ते सही जी कांइ. दास्यां आठ उदार । देवै अष्ट दास्यां वलि जी कांइ, रमण हसावणहार ।। ६१. अट्ठ चुण्णगपेसीओ 'चुन्नगपेसीओ' त्ति इह चूर्णः-ताम्बूलचूर्णो गन्धद्रव्यचूर्णो वा __ (वृ० ५० ५४८) ६२. अट्ठ कीडागारीओ, अट्ठ दवकारीओ 'दवकारीओ' त्ति परिहासकारिणी: (वृ०प०५४८) ६३. अट्ठ उवत्थाणियाओ, अट्ठ नाडइज्जाओ अट्ठ कोडुबि ६३. अठ आसन समीप वेस तिके जी कांइ, नाटक संबंध नी अष्ट । आज्ञाकारणी अठ वलि जी कांड, सेवग रूपी श्रिष्ट । णीओ ६४. अष्ट रसोईकारिका जी कांइ. अष्ट रुखाल भंडार । शेष बोल कहिस तिके जी कांड, रूढि कह्यो वृत्तिकार ।। 'उवत्थाणियाओ' त्ति या आस्थानगतानां समीपे वर्तन्ते 'नाडइज्जाओ' त्ति नाटकसम्बन्धिनी: (वृ०प०५४८) ६४. अट्ठ महाणसिणीओ, अट्ठ भंडागारिणीओ 'महाणसिणीओ' त्ति रसवतीकारिकाः शेषपदानि रूढिगम्यानि (वृ० ५० ५४८) ६५. अट्ट अब्भाधारिणीओ, अट्ठ पुप्फघरणीओ ६६. अट्ट पागिघरणीओ, अट्ठ बलिकारीओ, अट्ठ सेज्जा कारीओ ६७. अट्ठ अभितरियाओ पडिहारीओ, अट्ठ बाहिरियाओ पडिहारीओ ६८. अट्ठ मालाकारीओ, अट्ठ पेसणकारीओ ६५. धरणहार बालक तणी जी कांइ, तेह रुखालै बाल । रुखवाले घर पुष्प नां जी कांइ, अठ-अठ दास्यां न्हाल ।। ६६. पाणी घर रुखवालती जी कांड, अठ बलिकारक जाण । पवर सेज नी कारिका जी कांइ. अठ-अठ दास्यां माण ।। ६७. अभ्यंतर प्रतिचारिका जी काइ, भ्यंतर कार्य पिछाण । बाहिरली प्रतिचारिका जी कांड, अठ-अठ दास्यां जाण ।। ६८. करणहार माला तणी जी कांड, दास्यां आठ उदार । पीसण वाली अठ वलि जी काइ, देव हर्ष अपार ।। ६६. अपर अनेरो पिण घणु जी काइ, रूपो हिरण सुवन्न । कांसी – वस्तर वलि जी काइ, देवै होय प्रसन्न । ७०. विस्तीर्ण धन कनक ने जी कांइ. यावत द्रव्य विद्यमान । आप अति उचरंग सू जी कांइ, हाथ खरचवा जान ।। ७१. जाव वंश सप्तम लगे जी काइ, अति बहु देता धन्न । अति भोगविवा बेहचवा जी कांइ, आपै द्रव्य राजन्न ।। ७२. दोयसौ – चमालीसमी जी कांइ. ढाल विशाल रसाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी जी कांइ. 'जय-जश-मंगलमाल ।। ६६. अण्णं वा सुबहुं हिरणं वा सुवण्णं वा कसं वा दूसं ७०. विउलधणकणग जाव (सं० पा०) संतसारसावएज्ज ७१. अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउ । (श०१०१५९) ढाल : २४५ दूहा १.तिण अवसर महाबल कंवर, इक-इक त्रिय मैं ताम । दिया रुपैया रोकड़ा, इक-इक कोड़ अमाम ।। २. आप इक-इक कोड़ फुन, सोनैया सुखदाय । मुकुट दिया इक-इक वली, प्रवर मुकुट रै माय ।। १. तए णं से महब्बले कुमारे एगमेगाए भज्जाए एगमेगं हिरण्णकोडि दलयइ २. एगमेगं सुब्वण्णकोडिं दलयइ, एगमेगं मउडं मउडप्प वरं दलयइ १. देना । ४६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. इम तिमहिज सह जाव दै, इक-इक पेसणकार। अन्य बहुरूप सुवर्ण वलि, जाव वेहचवा सार ।। ३. एवं तं चेव सव्वं जाव एगमेगं पेसणकारि दलयइ, अण्णं वा सुबहुं हिरण्णं वा जाव (सं० पा०) परिभाएउं। (श० १११६०) ४. तए णं से महब्बले कुमारे उप्पि पासायवरगए ५. जहा जमाली (श० ६।१५६) जाव... विहरइ । (श० ११।१६१) ६. तेणं कालेणं तेण समएणं विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नामं अणगारे ७. जाइसंपन्ने वण्णओ जहा केसिसामिस्स जाव पंचहि अणगारसएहिं सद्धि संपरिवुडे पुव्वाणुपुब्वि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाण ४. तिण अवसर महाबल कुंवर, ऊपर वर प्रासाद । ___ अवतंसके रह्यो थको, अधिक हरष अहलाद ।। ५. जिम जमाली नों कह्यो, पूर्वे जे अधिकार ।। कहिवो तिम महाबल तणो, जावत विचरै सार ।। ६. *तिण काले हो तिण समय सुजान, तेरमा विमल अरिहंत पिछाणिय । तास प्रपोतो हो कहिये शिष्य संतान, धर्मघोष नामे महामुनि जाणियै ।। वा०–जे भणी विमल, अनन्त के बीच अन्तर : सागर को। अनन्त धर्म के बीच अन्तर ४ सागर को। धर्म, शांति के बीच अन्तर ३ सागर । पिण तिण में पूण पल्य ऊंणो, एहवं तीर्थंकर लेखा में अन्तर को छ । अन ए महाबल ब्रह्म देवलोके दश सागर स्थिति भोगवी सुदर्शण थयं ते माटे विमलनाथ तीर्थ ने विषे घणां सागर उलंघ्या पछै महाबल थयुं एहवं संभव छ। ७. जातिसंपन्न हो वर्णक जिम केशी स्वाम, जाव पंच सय श्रमण संग परवरया । पुव्वाण पुद्वि हो कहियै पंथ सुधाम, ग्रामानुग्राम विचरता गुण भरया। ८. जिहां हत्थिणापुर हो सहस्रांब वन उद्यान, तिहां मुनि आय आज्ञा ले शोभाकिया। संजम तप करि हो आतम भावित जान, यावत विचरै भविक मन भाविया ।। ६. हत्थिणापुर हो नगर विषे तिणवार, स्थान श्रृंगाटक त्रिक चउक्क चच्चर। यावत परषद हो पुर जन वृद उदार, विनय वंदन करि त्रिविध सेवा करै। १०. तिण अवसर हो महाबल नाम कुंवार, मनुष्य घणां नां शब्द सुणी करी। जन व्यूहजनवृंद हो देखी करै विचार, ___ इम जमाली जेम चितवणा चित धरी ॥ ११. तिमज तेड़ावै हो पुरुष कंचुइज जाण, कंच इज नर पोलिय विध वरी। कंचइज पिण हो तिमहिज भादं वाण, ___णवरं धर्मघोष आया निश्च करी॥ १२. बे कर जोड़ी हो बोलै इणविध वाय, जाव मनुष्य बहु वंदण कारणे । एक दरवजे हो जाये छै अधिकाय, आगल पाठ तास इम धारण। ८. जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हिता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । (श० ११११६२) ६. तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिय-चउक्क चच्चर'""जाव परिसा पज्जुवासइ। (श० ११।१६३) १०. तए णं तस्स महब्बलस्स कुमारस्स तं मयाजणसई वा जणवूहं वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा एवं जहा जमाली (श० ६।१५८) तहेव चिंता ११. तहेव कंचुइज्ज-पुरिसं सद्दावेति (सं० पा०) कंचु इज्जपुरिसो वि तहेव अक्खाति नवरं-धम्मघोसस्स अणगारस्स आगमणगहियविणिच्छए १२. करयल जाव निग्गच्छइ । *लय : विचरत विचरत हो आया सोजत श० ११, उ० ११, ढाल २४५ ४६१ Jain Education Intemational Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नामं अणगारे, सेसं तं चेव जाव सो वि तहेव । (सू० १६४ पा० टि०१) १४. तए णं से महब्बले कुमारे तहेव (श० ६।१६० १६२) रहवरेणं निग्गच्छति । धम्मकहा जहा केसिसामिस्स (राय० सू० ६६३) । १३. इम निश्चे करि हो देवानुप्रिया ! सार, तेरमा विमल तीर्थंकर नों सही। पवर प्रपोतो हो धर्मघोष अणगार, शेष तिमज पंच सय थी आया वही॥ १४. यावत महाबल हो जमाली जिम जाण, नीकल्यो रथ प्रधान बेसी करी॥ वंदना करि हो सन्मुख बेठो ताम, धर्मकथा केसी स्वाम ज्यं वागरी॥ १५. ते पिण तिमहिज हो मात पिता मैं पूछंत, _ इतरो विशेष धर्मघोष मुनि कनें। मुंड थई नै हो लेसू चरण सुतंत, मात पिता मैं कहै आज्ञा दीजै म्हनें। १६. उत्तर पडुत्तर हो जमाली जिम धार, ___णवरं विशेष अमा पिता उच्चरै। विपुल राजकुल हो बालिका तुझ नार, शेष विस्तार जमाली तणी परै ।। सोरठा १७. विपुल कुल तणी नार, जमाली ने मां कह्यो। इहां महाबल अधिकार, विपुल राजकुल बालिका ।। १५. सो वि तहेव अम्मापियरं आपुच्छइ, नवरं--धम्म घोसस्स अणगारस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए। १६. तहेव वृत्तपडिवुत्तिया, नवरं-इमाओ य ते जाया ! विउलरायकुलवालियाओ..."सेसं तं चेव । • (श०६।१६४-१७६) १७. जमालिचरिते हि विपुलकुलबालिका इत्यधीतमिह तु विपुलराजकुलबालिका इत्येतदध्येतव्यम् । (वृ० प०५४६) १८. जाव ताहे अकामाई चेव महब्बलकुमारं एवं वयासी-तं इच्छामो ते जाया ! एगदिवसमवि रज्जसिरि पासित्तए। (श० ११।१६६) १६. तए णं से महब्बले कुमारे अम्मापिउ-वयणमणुयत्त माणे तुसिणीए संचिट्ठइ। (श० ११।१६७) १८. *यावत थाका हो मात पिता तिणवार, __ मन बिण महाबल कुंवर प्रतै कहै। एक दिवस नों हो राज करो सुखकार, एह देखण री इच्छा मुझ मन लहै ।। १६. तिण अवसर हो महाबल नामें कुमार, मात पिता नो वचन अणलंघतो। मून साधी हो बोल्यो नहिं तिणवार, नृप पद नी नहि चाह चरणरतो।। २०. हिव बल राजा हो सेवग पुरुष बोलाय, जिम शिवभद्र में शिव नप पद दियो। तिम इहां कीधो हो राज्य अभिषेक ताय, कर जोड़ कुंवर नैं जय विजय वधावियो । २१. जय विजय वधावी हो बोल इहविध वाय, कह नी हे पुत्र ! स्यूं आपां ? स्यूं वांछियै ? शेष थाकतो हो जमाली ज्यू कहाय, मोटे मंडाण करै चारित्र लियै ।। २२. जाव तिवारै हो महाबल मुनिराय, धर्मघोष अणगार समीप ही। धुर सामायक हो आदि देइ नैं ताय, __ चउद पूर्व प्रति ताम अहिज्जई ।। *लय : विचरत विचरत हो आया सोजत २०. तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ एवं जहा सिवभद्दस्स (श०१११५६-६२) तहेव रायाभिसेओ भाणियव्वो जाव अभिसिंचति, करयलपरिग्गहियं महब्बलं कुमारं जएणं विजएणं वद्धावेति । २१. वद्धावेत्ता एवं वयासी-भण जाया ! कि देमो ? कि पयच्छामो ? सेसं जहा जमालिस्स तहेव (श० ६।१८०-२१५) २२. जाव (श० ११११६८) तए णं से महब्बले अणगारे धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं सामाइयमाझ्याई चोद्दस पुब्बाइं अहिज्जइ, ४६२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. चउथ छठादिक हो जाव विचित्र प्रकार, बहु प्रतिपूर्ण हो द्वादश वर्ष उदार, चरण पर्याय निर्मल ध्यान ध्यावतो ।। २४. मास संलेखण हो साठ भक्त अणसण छेद, व्रत नां अतिचार आलोई पडिकमी । समाधि पाम्पो हो महामोटो मुनि संवेद काल नैं अवसर काल करी दमी ॥ २५. ऊर्ध्व चंद रवि हो जिम अम्मड़ आयात जाव ब्रह्मलोक नाम कल्प मही । तप करि करी आतम भावतो । मुनि ऊपनों हो देवपण सुविख्यात, प्रबल पुन्य करने बहु ऋद्धि नही ।। २६. तिहां के सुर नीं हो दश सागर नी आय, तिहां महाबल देव तणी पिण जाणिये । दश सागर नीं हो कहि उत्कृष्टि स्थिति प्राय, रूप प्रचारिका ते सुरमाणियं ॥ सोरठा २७. चउदश थकी पिण पूरवधार, जघन्य ऊपजवी सुविचार, किम ए ब्रह्म २८. उत्तर तेह्नों एह, चउदश पूरव किंचित ऊण पढेह, एहवूं न्याय २९. श्री जिन भा हो अहो सुदर्शन ! ताम दिव्य प्रधानज हो भोग जिके अभिराम, ३०. ते निश्करि हो देवलोक थी आम स्थिति दश सागर ब्रह्म कल्प मही । चवी अनंतर हो तूं अपनो इण ग्राम, ३१. तुम्हे सुदर्शन हो बाल भाव मूकाण, भोगवते थके विचरी नें सही ॥ देव आयु क्षय करिने तिहो । श्रेष्ठित कुल पुत्रपणे दहां ॥ कला कुशल वय योवन पावियो। तथारूप जे हो स्थविर संत पै जाण, का पादटिप्पण द्रष्टव्य है । २. आयुष्य *लय : विचरत विचरत हो आया सोजत १. संतके । अपनों ॥। ने विषे। जणाय छं ॥ केवल भाख्यो धर्म दिल आवियो || भाग २ ० ११।१६९ का पाद टिप्पण एवं जोवाइ सू० १४० २३. बहूह चत्थ जाव (सं०पा०) विचेत्तेहि तवोकम्मे हि अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ । २४. मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सद्वि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा २५. उद्धं चंदिम-सूरिय (सं० पा०) जहा अम्मटो जा भलए कप्पे देवताए उन् २६. तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । तत्थ णं महब्बलस्स बि देवस्स दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । , २७, २८. इह च किल चतुर्दशपूर्वधरस्य जघन्यतोऽपि लान्तके उपपात इष्यते, 'जाति लगाओ उदगी जहन्न उचवाओ' त्ति वचनादेतस्य चतुर्दशपूर्वंधरस्यापि यद् ब्रह्मलोके उपपात उक्तस्तत केनापि मनाग् विस्मरणादिना प्रकारेण चतुर्दशपूर्वाणामपरिपूर्णत्वादिति संभावयन्तीति । ( वृ० प० ५४६ ) २६. से णं तुमं सुदंसणा ! बंभलोगे कप्पे दस सागरोवमाई दिलाई भोगभोगाई जमाने विहरिता। ३०. भगाओ आउनणं भवरखणं ठिक्यएवं अनंतरं चयं चइत्ता इहेव वाणियग्गामे नगरे सेट्ठिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाए । (० ११।१६९) ३१. मेणा ! उम्मुवकबालभावेषं विष्यपरिणयमेते जोगगमपसे सहास्वाणं घेणं अंतियं केवलिपण्णत्ते धम्मे । श० ११, उ० ११ ढाल २४५ ४६३ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. निसंते, सेवि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए । ३३. तं सुठु णं तुमं सुदंसणा ! इदाणि पि करेसि । से तेणठेण सुदंसणा ! एवं वुच्चइ - अत्थि णं एतेसि पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचएति वा। (श० ११११७०) सोरठा ३२. जिण आज्ञा-रूपज धर्म, निसुण्यो ते पिण धर्म नै । वंछयो वारू मर्म, विशेष वंछयो नैं रुच्यो ।। ३३. *सुष्ठु आछो हो तुम्हे सुदर्शन ! ताम, हिवडां पिण तेह धर्म प्रति तूं करे। तिण अर्थे कर हो अहो सुदर्शण ! आम, क्षय अपचय पल्य उदधि नों इम वरै ।। सोरठा ३४. सर्व थकी जे नाश, क्षय कहिये छै तेहने । ___अपचय देश विणास, उभय शब्द इण कारणे ॥ ३५. *दोयसौ नै हो पैतालीसमी ढाल, भिक्षु भारीमाल नृपशशि गुणनिला। तास प्रसादे हरष विनोद विशाल, 'जय-जश' आनन्द च्यार तीर्थ भला ।। ढाल : २४६ १. तए ण तस्स सुदसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयम8 सोच्चा निसम्म २. सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहि विसुज्झमाणी हि ३. तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह १.श्रेष्ठि सुदर्शन तिण समय, महावीर नै पास । एह अर्थ प्रति सांभली, हिवड़े धारी तास ।। २. अध्यवसाय शुभे करी, शुभ परिणामे तेह। लेश्या विशुद्धमान करि, भावे लेश्या एह ॥ ३. तदावरणी कर्म नों, क्षय उपशम करि जान । ईहा भली विचारणा, अपोह ते धर्मध्यान ।। ४. मार्गणा रु गवेसणा, समचै अधिक सुचित । __ वारू एम विचारता, जाती-समरण हंत ॥ ५. निज भव संज्ञी रूप जे, पूरव जाति पिछाण । तेहनों समरण ज्ञान ते, उपनो अधिक प्रधान ।। ६. जाती-समरण कर तदा, वीर कही जे बात । सम्यक प्रकारे अर्थ थी, जाण रह्यो साक्षात ॥ प्रभ धिन-धिन शासण रा धणी, वले धिन-धिन आपरो ज्ञान हो। प्रभु धिन-धिन वाणी आपरी, वले धिन-धिन आपरो ध्यान हो । (ध्रुपदं) ४,५. मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णीपुवे जातीसरणे समुप्पन्ने 'सन्नी पुव्वजाईसरणे' त्ति संज्ञिरूपा या पूर्वा जातिस्तस्याः स्मरणं यत्तत्तथा (वृ० ५० ५४६) ६. एयमठ्ठ सम्म अभिसमेति । (भ० श० १२१७१) 'अहिसमेइ' त्ति अधिगच्छतीत्यर्थः (वृ० ५० ५४६) *लय: विचरत विचरत हो आया सोजत लिय : रे जीव मोह अनुकम्पा न ४६४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणेणं भगवया महावीरेणं ___ संभारियपुव्वभवे ८. दुगुणाणीयसड्ढसंवेगे ७. सेठ सुदशण तिण समय, श्रमण भगवंत श्री महावीर हो। पूरव भव संभारयो तिणे, प्रभु याद करायो हीर हो ।। ८. भव पाछिल याद आयां थका, पूर्व काल तणी अपेक्षाय हो। 'श्रद्धा संवेग दुगुणो ऊपनों, हिय पाम्यो हरष अथाय हो। ९. श्रद्धा तत्त्व तणी रुचि अति बधी, अथवा भला अनुष्ठान हो। ते करवा तणी इच्छा घणी, कह्यो श्रद्धा नों अर्थ पिछान हो। १०. भव भ्रमण तणो भय अधिक घणो, धुर अर्थ संवेग नों एह हो। अथवा अभिलाषा मोक्ष नी, ते पिण तास बधी दुगुणेह हो ।। ११. अधिक आनन्द करी तदा, अश्रुपूर्ण नयन छ तास हो। घणो हरष हिया में ऊपनो, पूर्व भव याद आयां विमास हो ।। १२. श्रमण भगवंत महावीर ने, प्रदक्षिणा दे तीन वार हो। वंदना वच स्तूति नमी करी, इम बोल्यो वचन विचार हो । ६. तत्र श्रद्धा-तत्त्वश्रद्धानं सदनुष्ठानचिकीर्षा वा (वृ० ५० ५४६) १०. संवेगो-भवभयं मोक्षाभिलाषो वेति । (वृ० प० ५४६) ११. आणंदंसुपुण्णनयणे १३. एवमेयं प्रभु ! इमहीज ए, जाव ते वच एह उदार हो। तुम्है कहो जे सत्य छ, एम कही तिहबार हो । १४. कण ईशाण विषे जई, सेठ ऋषभदत्त जेम हो। जाव सर्व दुःख क्षय किया. पाम्या अविचल क्षेम हो।। १५. णवरं विशेष छ एतलो, भणियो पूरव च उदश ताय हो। घणो प्रतिपूर्ण तिण पालियो, बारै वर्ष चारित्र पर्याय हो ।। १६. शेष ऋषभदत्त जिम जाणज्यो, सेवं भंते ! सेवं भंते ! ताम हो ।। प्रभु ! तुम्हे कह्यो सर्व सत्य छै, इम बोल्या गोतम स्वाम हो।। १७. एवो एकादशमा शतक नो, कह्यो एकादशमो उद्देश हो। अधिकार कह्यो महाबल तणो, तिणमें वारू वैराग विशेष हो ।। १८. ढाल दोयसौ नै छयालीसमी, भिक्षु भारीमाल ऋषिराय हो। तास प्रसादे संपदा, 'जय-जश' अधिक सवाय हो । एकादशशते एकादशोद्देशकार्थः। ॥११।११।। १२. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ ,करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी१३. एयमेयं भंते ! जाव (सं० पा०) से जहेयं तुब्भे वदह त्ति कटु १४. उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, सेसं जहा उसभदत्तस्स (भ० ६।१५१) जाव सव्वदुक्खप्पहीण १५. नवरं-चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जइ बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ । १६. सेसं तं चेव । (श० ११११७२) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० ११११७३) ढाल : २४७ दूहा १. एकादशम उदेश में, काल कह्यो जगनाथ । द्वादशमें पिण तेहिज हिव, भंगांतरे विख्यात । २. तिण काले नै तिण समय, आलभिया अभिराम । नगरी हुंती संख वन, चैत्य वर्णक बिहुँ ताम॥ ३.तिण आलभिया नगरी विषे, इसिभद्र सुत आद। समणोपासग बह वस, अड्डा ऋद्धि अगाध ।। ४. यावत धन करिने तसु, गंज सकै नहिं कोय । जाण्या जीव अजीव नैं, यावत विचरै जोय ।। १. एकादशोद्देशके काल उक्तो द्वादशेऽपि स एव भंग्यन्तरेणोच्यते (वृ० ५० ५५०) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था-वण्णओ । संखवणे चेइए–वण्णओ । ३. तत्थ णं आलभियाए नगरीए बहवे इसिभद्दपुत्तपा मोक्खा समणोवासया परिवसंति-अड्ढा ४. जाव बहुजणस्स अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणा विहरंति । (श० ११।१७४) श०११, उ० १२, ढाल २४७ ४६५ Jain Education Intemational Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *श्रावक सुंदरू हो गुणिजन इसिभद्र पुत्र उदार ॥(ध्रुपदं) ५. तिण अवसर ते एकदा हो गुणिजन ! श्रावक बहू सुजाण । आय मिल्या छै एकठा हो गुणिजन ! बेठा आसन ठाण के ।। ६. एहवे रूपे ऊपनो हो गुणिजन ! त्यारे माहोमाय । कथा तणो आलाप ते हो गुणिजन ! चित नां अव्यवसाय के।। ७. हे आर्यो ! सुरलोक में हो गुणिजन ! घणां देव नी ताय । स्थिती केतला काल नी हो गुणिजन ! दाखो श्री जिनराय के ।। ८. इसिभद्र सुत तिण समै हो गुणिजन ! श्रावक अधिक सुजाण । गुरु मुख करि जाणी तिणे हो गुणिजन ! देव स्थिति नी छाण कै॥ ९. तेह श्रावका प्रति तदा हो गुणिजन ! बोल्यो एहवी वाय । हे आर्यों ! देवलोक में हो गुणिजन ! देव स्थिति कहिवाय के ।। १० जघन्य वर्ष दश सहस्त्रनी हो गुणिजन ! तिण उपरंत कहाय । एक समय अधिको कही हो गुणिजन! दोय समय अधिकाय के । ११. यावत दश समये करी हो गुणिजन ! अधिको स्थिती कहाय । संख समय अधिकी वलि हो गुणिजन! असंख समय अधिकाय कै।। १२. स्थिति उत्कृष्ट थकी कही हो गणिजन ! तेतोस सागर जोग । तिण उपरत विच्छेद छ हो गुणिजन ! देव तथा सुर लोग कै।। ५. तए णं तेसिं समणोवासयाणं अण्णया कयाइ एगयओ समुवागयाणं सहियाणं सण्णि विट्ठाणं 'एगओ' त्ति एकत्र 'समुवागयाणं' ति समायातानां 'सहियाणं ति मिलितानां समुविठ्ठाणं' ति आसनग्रहणेन । (वृ० ५० ५५२) ६. सष्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्प ज्जित्था७. देवलोगेसु णं अज्जो ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? (श०१११७५) ८. तए णं से इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवहिती गहियठे ६. ते समणोवासए एवं वयासी-देवलोएसु णं अज्जो ! १३. इसीभद्र सुत इम कह्यो हो गणिजन ! जाब परूपित एम। अन्य थावक अणसरधता हो गणिजन ! नाण प्रतीति प्रेम के । १०. देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयायिा , दुसमयाहिया, ११. जाब दससमयाहिया, संखेज्जसमयाहिया असंखेज्ज समया हिया, १२. उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य। (श० ११।१७६) १३. तए णं ते समणोवासया इसिभद्दपुत्तस्स समणोवास गस्स एवमाइक्खमाणस जाव एवं परूवेमाणस्स एयभट्ट नो सद्दहंति नो पत्तियंति, १४, नो रोयंति, एयमठ्ठ असदहमाणा अपत्तियमाणा अरोयमाणा जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। (श० ११११७७) १५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे १६. जाव परिसा पज्जुवासइ । १४. वलि ए अर्थ रुच नहीं हो गणिजन ! अणसरधतां ताय । अणप्रतीत अणरोचता हो गुणिजन! आया जिण दिशि जाय के ।। १५. तिण काले नैं तिण समय हो गणिजन ! भगवंत श्री महावीर। प्रभ जी जाव समवसरचा हो गणिजन ! मेरु तणी पर धीर कै।। १६. वीर पधारचा सांभली हो गुणिजन ! यावत परषद आय । सेव कर साचै मन हो ग णिजन ! त्रिहं जोगे करि ताय के। १७. ते श्रावक तिण अवसरै हो गुणिजन ! वीर पधारया ताम । कथा एह लाधां छतां हो गुणिजन ! हरष संतोषज पाम ।। १८. इम जिम बीजा शतक नां हो गणिजन ! पंचमदेशा मांय । वंदन तुंगिया नां गया हो गुणिजन ! तिम ए वंदन जाय कै॥ १९. यावत जिन नै वंदनैं हो गुणिजन ! नमस्कार विधि रीत। सेव कर साचै मनै हो गणिजन ! तन मन सं धर प्रीत ।। २०. प्रभू श्रावका मैं तदा हो गुणिजन ! मोटी परषद मांय । धर्म कथा यावत तिके हो गणिजन ! आण आराधक थाय के ।। १७. तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए लट्ठा समाणा हट्टतुट्ठा १८,१६. (सं० पा०) एवं जहा तुंगियउद्देसए (भ० २।६७) जाव पज्जुवासंति 'तुगिउद्देसए' ति द्वितीशतस्य पञ्चमे । (वृ०प० ५५२) २०. तए णं समणे भगवं महावीरे तेसि समणोवासगाणं तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ जाव आणाए आराहए भवइ। (श० ११।१७८) २१. तए णं ते समणोवासया समणस भगवओ महा वीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हतुट्ठा २१. ते श्रावक तिण अवसरे हो गुणिजन ! वीर प्रभू 4 ताय । धर्म सुणी हिये धारनैं हो गुणिजन ! रह्या हरष संतोष अथाय कै ।। *लयः सुण-सुण साधूजी हो मुनिवर ४६६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. ऊठी ने ऊभा थई हो गुणिजन ! स्वाम प्रते सूखदाय । नमस्कार वंदना करी हो गुणिजन ! बोल्या इहविध वाय के।। २३. हे प्रभु ! इम निश्च करि हो गुणिजन ! इसिभद्र सुत पेख। अम्ह नैं कहै सामान्य थी हो गणिजन ! जाव परूप विशेख के ।। २४. हे आर्यो ! सुरलोक में हो गुणिजन ! देव तणी स्थिति ताय । दश हजार वर्षां तणी हो गणिजन ! जघन्य कहै जिनराय के। २५. समय अधिक तिण ऊपर हो गणिजन ! जावत तिण उपरंत । सुर सुरलोक विच्छेद छ हो गणिजन! ए किम हे भगवंत ! कै॥ २६. हे आर्यो ! इम आंमत्री हो गुणिजन ! भगवंत श्री महावीर । तेह श्रावका प्रति तदा हो गुणिजन ! इम बोल्या गणहीर के।। २७. हे आर्यो ! तुम्ह नैं कहै हो गणिजन ! इसीभद्र सुत सार। स्थिति सुर नी सुरलोक में हो गुणिजन! धुर दश वर्ष हजार के ।। २८. समय अधिक तिण ऊपरे हो गणिजन ! यावत तिण उपरत । सुर सुरलोक विच्छेद छ हो गुणिजन ! सत्य अर्थ ए तंत ।। २६. हूं पिण आर्यो ! इम कहूं हो गणिजन ! जाव परूपं सार । सुर नी स्थिति सुरलोक में हो गुणिजन! धुर दश वर्ष हजार के ।। ३०. तिमज जाव तिण ऊपरे हो गुणिजन ! सुर सुरलोक विच्छेद । अधिक स्थिति सुर नीं नहीं हो गणिजन ! सत्य अर्थ ए वेद के ।। ३१. ते श्रावक तिण अवसरे हो गुणिजन ! वीर प्रभु नैं पास । एह अर्थ निसुणी करी हो गणिजन ! हिवड़े धारी तास कै ॥ ३२. वीर प्रभु ने वंदनैं हो गुणिजन ! नमस्कार करि ताम । इसिभद्र सुत छ जिहां हो गुणिजन! सह आव्या तिण ठाम कै॥ २२. उट्ठाए उट्ठति, उठेत्ता समणं भगवं महावी . वदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी२३. एवं खलु भंते ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए अम्हं एवमाइक्खइ जाव परूवेइ २४. देवलोएसु णं अज्जो ! देवाणं जहणणं दसवाससह स्साई ठिती पण्णत्ता, २५. तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य। (श० ११११७६) से कहमेयं भंते ! एवं? २६. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी२७. जण्णं अज्जो ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तुभं एव माइक्खइ जाव परूवेइ२८. देवलोएसु णं देवाणं जहणेणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णता, तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छि ष्णा देवा य देवलोगाय-सच्चे णं एसमठे, २६. अहं पिणं अज्जो ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि देवलोएसु णं अज्जो! देवाणं जहण्णणं दसवाससह स्साई ठिती पण्णत्ता। ३०. (सं० पा०) तं चेव जाव तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य–सच्चे णं एसमठे। (श० ११११८०) ३१. तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठ सोच्चा निसम्म ३२. समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता, जेणेव इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, ३३. इसिभद्दपुत्तं समणोवासग वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एयमढं सम्मं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेंति ३४. तए णं ते समणोवासया पसिणाई पुच्छंति, पुच्छित्ता अट्ठाइं परियादियंति, परियादियित्ता ३५. समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। (श० ११३१८१) ३६. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी३७,३८. पभू णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्व इत्तए? ३३. ऋषिभद्र सुत श्रावक भणी हो गणिजन! स्तुति करै शिर नाम । ए अर्थ सम्यक विनय करी हो गुणिजन ! वारूवार खमावै ताम कै।। ३४. ते श्रावक तिण अवसरे हो गुणिजन ! पूछी प्रश्न उदार। बहु अर्थ प्रते हृदय विष हो गुणिजन ! ग्रहै ग्रही ने सार के ।। ३५. वीर प्रभ नैं वंदनैं हो गणिजन ! नमस्कार शिर नाम । जे दिशि थी आव्या हंता हो गणिजन! ते दिशि गयाज ताम के ।। ३६. हे प्रभु ! इम गोतम कही हो गुणिजन ! वीर प्रभु नै ताय । वांदी शिर नामी करी हो गुणिजन ! बोलै इह विध वाय के ।। ३७. हे प्रभुजी ! समर्थ अछ हो गुणिजन ! इसिभद्र सुत सार । देवानुप्रिया आगल हो गुणिजन ! आणी हरष अपार के। ३८. मुंड द्रव्य भावे करी हो गणिजन ! छांडी घर अगार। ___ साधूपणां प्रते सही हो गुणिजन ! लेवा समरथ सार के ? ३६. जिण कहै अर्थ समर्थ नहीं हो गुणिजन ! इसिभद्र सुत न्हाल। शोलव्रत बहु आचरी हो गुणिजन ! पंच अणुव्रत पाल कै । ३६. नो इणठे समठे गोयमा ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए बहुहिं सीलव्वय श० ११, उ० १२, ढाल २४७ ४६७ Jain Education Intemational Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. गुणवेरमण-पचक्खाण ४०. गणव्रत तीन कहीजिये हो गणिजन ! प्रवर वेरमण जाण । ए नवमों व्रत आचरी हो गुणिजन ! दशमों व्रत पचखाण ।। ४१. पोषध उपवासे करी हो गणिजन ! जिम आदरिया तेम। तप करि आतम भावतो हो गणिजन ! स्वस्थ चित्त धर प्रेम कै।। ४२. पाली बहु वर्षां लग हो गणिजन ! श्रावक नों पर्याय । मास तणी संलेखणा हो गुणिजन ! आतम सेवी ताय के ।। ४१. पोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे ४२. बहुई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणिहिति पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेहिति झूसेत्ता ४३. सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेहिति छेदत्ता ४४. आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा ४५. सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति ४३. साठ भक्त अणसण करी हो गणिजन ! छेदै छेदी सोय । एक भक्त छै दिन तणी हो गणिजन ! द्वितीय निशा नी जोय कै।। ४४. व्रत अतिचार आलोय नें हो गणिजन ! पडिक्कमी सुविशाल । समाधि पामी सुंदरू हो गुणिजन ! काल मास करि काल के ।। ४५. सौधर्म कल्पे सही हो गुणिजन ! वर अरुणाभ विमाण । देवपणे महादीपतो हो गणिजन ! ऊपजस्यै सुविहाण के।। ४६. के इक सुर नी स्थिति तिहां हो गुणिजन ! च्यार पल्योपम जान । इसिभद्र सुत सुर स्थिति हो गुणिजन! होस्यै चिउं पल्य मान के ।। ४७ हे प्रभु ! ते सुरलोक थी हो गुणिजन ! इसिभद्र सुत देव । काल करी यावत किहां हो गुणिजन ! ऊपजस्य ततखेव के ? ४८. वीर कहै सुण गोयमा ! हो गुणिजन ! महाविदेह मझार। सखर सीझस्यै जाव थी हो गुणिजन ! अंत करै संसार के। ४६. तुम्है कह्यो ते सत्य सहु हो गुणिजन ! इम कहि गोतम स्वाम। संजम तप करि आतमा हो गणिजन! भावित विचरै ताम के ।। ५०. भगवंत श्री महावीर जी हो गणिजन ! अन्य दिवस अवधार। कदाचित आलभिया हो गुणिजन ! नगरी थको तिवार के। ५१. शंख वन जे चैत्य थी हो गुणिजन ! निकले निकली तेह । बाहिर जनपद देश में हो गुणिजन ! विहार करी विचरेह के। ५२. एकादशमां शतक नों हो गणिजन ! बारसमो उद्देश । देश कह्यो छै तेहनों हो गुणिजन ! कहियै छै हिव शेष कै॥ ५३. बे सौ सैतालीसमी हो गुणिजन ! आखी ढाल उदार । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी हो गुणिजन ! _ 'जय-जश' संपति सार कै।। ४६. तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता। तत्थ णं इसिभद्दपुत्तस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिती भविस्सति । (श०११।१८२) ४७. से णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिक्खएणं जाव (सं०पा०) कहि उववज्जिहिति ? ४८. गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव (सं०पा०) अंतं काहिति (श० ११११८३) ४६. सेवं भंते । सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (श० ११११८४) ५०. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ आलभियाओ नगरीओ ५१. संखवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । (श० ११।१८५) ४६८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ढाल : २४८ १. तिण काले में तिण समय, आल भिया अभिधान । नगरी हुंती वर्णन तसु, चैत्य संख वन जान ।। २. चैत्य संख वन थी तिहां, अतिही दूर न कोय । अतिही नजीक पिण नहीं वसै परिव्राजक सोय ।। ३. मोगल ए वे नाम ते, ऋग यजुर् जे वेद । यावत द्विज नय नै विषे, प्रवीण जाण्या भेद ।। ४. छठ-छट अंतर-रहित तप, बे बांह ऊंची स्थाप। रवि सन्मुख आतापना, लेतो विचरै आप ॥ १. तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्था वण्णओ। तत्थ णं संखवणे नामं चेइए होत्था-वण्णओ ! २,३. तस्स णं संखवणस्स चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गले नाम परिव्वायए रिउब्वेदजजुव्वेद जाव बंभण्णएसु परिव्वायएसु य नएसु सुपरिनिट्ठिए ४. छठंछठेणं अणि क्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमूहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ । (श० ११११८६) ५. तए णं तस्स पोग्गलस्स परिव्वायगस्स छठंछटठेणं जाव (सं० पा०) आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए (सं० पा०) जहा सिवस्स ६. जाव विभंगे नाणे समुप्पन्ने । ५. तिण अवसर मोगल भणी. छठ-छठ जाव आताप । लेतां भद्र प्रकृतिपणे, जिम शिव नप ऋषि थाप ।। ७. से णं तेणं विभंगेणं नाणेणं समुप्पन्नेणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठिति जाणइ-पासइ। (श० ११२१८७) ८. तए णं तस्स पोग्गलस्स परिव्वायगस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (सं० पा०) समुप्पज्जित्था । ९. अत्थि णं ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने ६. यावत विभंग नाम ते, अज्ञान ऊपनो तास । ते विभंग नाम अज्ञान ही, उपने छते विमास ।। ७. ब्रह्मलोक कल्प नैं विषे, सूर स्थिती जाणंत । अवधि दर्शन करिने वलि, अमर स्थिती देखंत ।। *सुणज्यो मोगल तापस नी वारता रे लाल ॥ (ध्रुपदं) ८. तिण अवसर मोगल भणी रे, एहवे रूपे धार । सुखकारी रे। अज्झथिए यावत वली रे लाल, उपनो मन में विचार ।। सुखकारी रे ।। ६. ज्ञान दर्शण अतिशेष जे रे, संपूरण सुखदाय । सुखकारी रे । ते मुझनैं ऊपनो अछे रे लाल, इम चितवै मन माय ।। सुखकारी रे ॥ १०. सुरलोके स्थिति सुर तणी रे, जघन्य दश वर्ष हजार । सखकारी रे। समय अधिक तिण ऊपर रे लाल, जाव असंख समय अधिकार ॥ सुखकारी रे ।। ११. उत्कृष्ट दश सागर तणी रे, तिण उपरंत विच्छेद । सुखकारी रे । सुर अथवा सुरलोक जे रे लाल, अधिक स्थिति न संवेद ॥ सुखकारी रे ।। १०. देवलोएसु णं देवाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया जाव असंखेज्जसमयाहिया ११. उक्कोसेणं दससागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य १. यहां 'पोग्गले नाम परिव्वायए' पाठ है तथा किसी पाठान्तर का संकेत नहीं है । जयाचार्य ने अपनी जोड़ में 'मोगल परिव्राजक' का उल्लेख किया है। संभव है, उनको प्राप्त आदर्श में यही पाठ हो। नाम का यह भेद लिपिदोष के कारण हुआ है अथवा अन्य किसी कारण से, खोज का विषय है। प्रस्तुत ग्रन्थ में यह द्विरूपता ज्यों की त्यों सुरक्षित रखी गई है। *लय धीज कर सीता सती रे लाल श० ११, उ० १२, ढाल २४८ ४६६ Jain Education Intemational Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. एवं संपेहेइ संपेहेत्ता आयावणभूमीओ पच्चोरुइह पच्चोरुहित्ता १३. तिदंडं च कुंडियं च जाव धाउरत्ताओ य गेण्डा गेण्हित्ता जेणेव आलभिया नगरी १४. जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवाग च्छित्ता भंडनिक्खेवं करेइ, करेत्ता आलभियाए नगरीए १५. सिंघाडग जाय (सं० पा०) पहेसु अण्णमण्णस्स एव माइक्खइ जाव परूवेइ-अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने। १२. इ मन मांहै चितवी रे, भूमिआतापन जेह। सुखकारी रे। तेह थको पाछो वली रे लाल, उपधि पोता नां लेह ।। सुखकारी रे ।। १३. दंड कमंडल नै रही रे, जाव गेरू रंग्या वस्त्र ताय । सुखकारी रे । ग्रहण करिनै आवतो रे लाल, नगरी आलभिया मांय ।। सुखकारी रे ।। १४. परिव्राजक नां मठ जिहां रे, __ आव्यो तिहां चलाय । सुखकारी रे। निज भंड प्रति मूकी करी रे लाल, आलभिया नैं मांय ।। सुखकारी रे॥ १५. शृंघाटक जाव पंथ में रे, कहै जन नैं माहोमांय । सुखकारी रे। अतिशेष ज्ञान दशन भलो रे लाल, मुझ ऊपनो सुखदाय ॥ सुखकारी रे। १६. सुरलोक स्थिति सुर तणी रे, धुर दश वर्ष हजार । सुखकारी रे। तिमहिज जाव विच्छेद छ रे लाल, सुर सुरलोक तिवार ।। सुखकारी रे॥ १७. नगरी आलभिया में तदा रे. ___ इण आलावे करि ताय । सुखकारी रे । जिम शिव तिम यावत वदै रे लाल, किम ए बात मनाय ।। सुखकारी रे ।। वा०-शिव राजऋषि नै अधिकारे तो हत्थिणापुर नै विषे घणां लोक माहोमांहि इम वदै, इम कह्यो अन इहां आलभिया नगरी नै विषे बहु जन माहोमांहि वदै इम कहिवो ते माटै आलभिया नै अभिलापे सूत्रे का। १८. एवं स्वामी समवसरया रे, जाव परिषद गई स्थान । सुखकारो रे । वीर तणी वाणी सुणी रे लाल, संवेग रस गलतान ।। सुखकारी रे।। १६. गोतम तिमहिज गोचरी रे, भिक्षाचरी में जाय। सुखकारी रे। तिमज शब्द बहु मनुष्य नां रे लाल, सुण चिंतव्यो मन मांय ।। सुखकारी रे ।। २०. तिम कहिवी सहु वारता रे, पूछयो वीर नैं आय। सुखकारी रे। वीर कहै मिथ्या अछ रे लाल, मोगल नी जे वाय ।। सुखकारी रे॥ २१. यावत हूं पिण गोयमा ! रे, एम कहूं छू सार। सुखकारी रे। १६. देवलोएसु णं देवाणं जहणणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया जाव असंखेज्जसमयाहिया, उक्कोसेणं दससागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य। (श०११।१८८) १७. तए णं (सं० पा०) आलभियाए नगरीए एवं एएणं अभिलावेणं जहा सिवस्स (भ० १११७३) तं चेव जाव से कहमेयं मन्ने एवं ? (श० ११:१८६) १८. सामी समोसढे, परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया। १६. भगवं गोयमे तहेव भिक्खायरियाए तहेब बहुजणसह निसामेइ निसामेत्ता २०. तहेव सव्वं भाणियव्वं २१. जाव अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि एवं भासामि जाव परूवेमि–देवलोएसु णं देवाणं जहण्णेणं दस ४७० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ducation Intermational Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता २२. तेण परं समयाहिया, दुसमयाहिया जाव असंखेज्ज समयाहिया उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। २३. तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य। (श० ११११६०) २४. अत्थि णं भंते ! सोहम्मे कप्पे दब्वाई-सवण्णाई पि अवण्णाई पि। २५. तहेव (सं० पा०) हंता अत्थि । एवं ईसाणे वि, एवं जाव अच्चुए, एवं गेवेज्जविमाणेसु, २६. अणुत्तरविमाणेसु वि, ईसिपब्भाराए वि जाव ? हंता अत्थि । (श० ११११६१) सुरलोके स्थिति सुर तणी रे लाल, धुर दश वर्ष हजार ॥ सुखकारी रे॥ २२. समय अधिक तिण ऊपरे रे, दोय समय अधिकाय । सुखकारी रे। जाव स्थिति उत्कृष्ट थी रे लाल, तेतीस सागर ताय ॥ सुखकारी रे॥ २३. तिण उपरत विच्छेद छ रे, सुर अथवा सुरलोग। सुखकारी रे। अधिकी स्थिति नहि देव नी रे लाल, तिण सं विच्छेद प्रयोग ॥ सुखकारी रे॥ २४. छै प्रभु ! सौधर्म कल्प में रे, द्रव्य जे वर्ण सहीत । सुखकारी रे। वर्ण रहित पिण द्रव्य छै रे लाल, तिमहिज प्रश्न सुरीत ॥ सुखकारी रे ॥ २५. जाव हंता अत्थि जिन कहै रे, इमहिज कहियै ईशान। सुखकारी रे। इम यावत अच्युत कह्यो रे लाल, इम ग्रैवेयक विमान ।।सुखकारी रे ।। २६. इमहिज अणुत्तर विमाण में रे, इमहिज इसिपब्भार । सुखकारी रे। यावत जिन उत्तर दिये रे लाल, हंता अत्थि सार ॥ सुखकारी रे ।। २७. महा मोटी परषद तदा रे, ____ जाव गई स्व स्थान । सुखकारी रे। आलभिया नां बाजार में रे लाल, लोक वदै इम वान ॥ सुखकारी रे॥ २८. अवशेष जिम शिव नी परै रे, जाव सर्व दुख क्षीण । सुखकारी रे। णवरं इतरो विशेष छै रे लाल, आगल कहिये चीन ॥ सुखकारी रे॥ २६. त्रिदंड नै वलि कुंडिका रे, गेरू रंग्या वस्त्र ताहि । सुखकारी रे। ते पहिरयां विभंग पड़ियै छते रे लाल, नगरी आलभिया मांहि ।। सुखकारी रे ।। ३०. आलभिया मध्य नीकली रे, यावत कूण ईशाण। सुखकारी रे। आवी त्रिदंड नैं कंडिका रे लाल, एकांत मूक जाण ॥ सुखकारी रे॥ ३१. जिम खंधक चारित्र लियो रे, तिमहिज चरण उदार । सुखकारी रे। शेष सर्व शिव नी परै रे लाल, यावत मोक्ष मझार ॥ सुखकारी रे॥ २७. तए णं सा महतिमहालिया परिसा जाव जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। तए णं आलभियाए नगरीए............"बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ (सं० पा०) २८. अवसेसं जहा सिवस्स (भ० १११८३-८८) जाव सव्वदुक्खप्पहीणे नवरं २६-३१. तिदंडकुंडियं जाव धाउरत्तवत्थपरिहिए परिव डियविभंगे आलभियं नगरि मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ जाव उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ २ तिदंडकुंडियं च जहा खंदमओ (भ० २१५२) जाव पव्वइओ सेसं जहा सिवस्स (भ० १११८३-८८) जाव । श. ११.०.१२ तास २४८ . Jain Education Intemational Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. बाधा रहित सुख भोगवै रे, सेवं भंते ! गोतम कहै रे लाल, तुम्ह सत्य वचन समृद्ध | सुखकारी रे || ३३. एकादशमां शतक नों रे, द्वादशमों उद्देश । सुखकारी रे आयो शतक इग्यारमो रे लाल, 1 एहवा शाश्वता सिद्ध । सुखकारी रे। ३४. दोयसौ नैं अडतालीसमी रे, अर्थ रूप सुविशेष | ४७२ भगवती-मोद भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी रे लाल, सुखकारी रे || आसी वाल उदार सुखकारी रे। गीतक-छंद १. एकादशम जे शतक नों, व्याख्यान म्हैं कीधूं सही । वर न्याय निर्णय मेलिया, फुन सूत्र अनुसारे वही ॥ २. इह विषे जो हेतू तिको, जन सुणो घर आह्लाद ही ॥ भिक्षु नें भारीमाल फुन, नृपइंदु नोंज प्रसाद ही ।। 'जय जय' संपति सार ॥ सुखकारी रे ॥ एकादशशते द्वादशोद्देशकार्थः ||११|१२|| ३२. अब्बाबाहं सोक्खं अणुभवंति सासयं सिद्धा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( श० ११ १६६ ) १२. एकादशशतमेवं व्याख्यातमबुद्धिनापि यन्मयका हेतुस्तत्राग्रहिता, श्रीबादेवीप्रसाद वा ॥ ( वृ० प० ५५२ ) Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापुरुष जयाचार्य छोटा कद, छरहरा बदन, छोटे-छोटे हाथ-पांव, श्यामवर्ण, दीप्त ललाट, ओजस्वी चेहरा- यह था जयाचार्य का बाहरी व्यक्तित्व। अप्रकप संकल्प, सुदृढ निश्चय, प्रज्ञा के आलोक से आलोकित अंत करण, महामनस्वी, कृतजता की प्रतिमूर्ति, इष्ट के प्रति सर्वात्मना समर्पित, स्वयं अनुशासित, अन् शासन के सजग प्रहरी, संघ व्यवस्था में निपुण, प्रबल तर्कबल और मनोबल से संपन्न, सरस्वती के वरदपुत्र, ध्यान के मूक्ष्म रहस्यों के मर्मज्ञः- यह था उनका आतरिक व्यक्तित्व। तेरापंथ धर्मसंघ के आद्यप्रवर्तक, आचार्य भिक्षु के वे अनन्य भक्त और उनके कुशल भाष्यकार थे। उनकी ग्रहण-शक्ति और मेधा बहुत प्रबल थी। उन्होंने तेरापंथ की व्यवस्थाओं में परिवर्तन किया और धर्मसंघ को नया रूप देकर उसे दीर्धायु बना दिया। उन्होंने राजस्थानी भाषा में साढे तीन लाख श्लोक प्रमाण साहित्य लिखा। साहित्य की अनेक विधाओं में उनकी लेखनी चली। उन्होंने 'भगवती जैसे महान् आगम ग्रथ का राजस्थानी । भाषा में पद्यमय अनुवाद प्रस्तुत किया। उसमें ५०१ गीतिका है। उसका गंथ मान हैसाठ हजार पद्य प्रमाण। 0 जन्म-१८६० रोयट (पाली मारवाड) ० दीक्षा-१८६९ जयपुर ० युवाचार्य पद-१८९४ नाथद्वारा o आचार्य पद-१९०८ बीदासर ० स्वर्गवास-१९३८ जयपुर Personal Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनाmamminensranamasin -runaqananamaaaaaमार्थ familieनिकामीवीशमाविककमिसनकोशी समीपसकरिशीनोभवलेनमाराम MAA Bीपिmaratea 900दिनविलनिकरिशीबीरकीयामागीयकमी वयेकया कमाविशेषगाहो तिमदिरा imagीएजीटीमीमती कोयला यसबकीय-naadantanaदिवदेसुगरजीलालवानररैमाहिमोटीनदनामरक Arumalpassदिनादियानिमोमिनेही रामकरसादिकनासा गोलायुवतिकदिवम्यकर्कशपसकाइटमोमोटीवेनएदश्मकपनमकमा एपिए-00 मायामाधनगलबन्दाजीमापालिसीगारुपयकमनाजी-एमबरकदेवाविसमाभिरहीतएसयुनगुरदीanaनामदियायकापस्टीनएजटामास AMARNE सनमायनमनजागरुपयलजालपणनाalauमाजामवलेaनिसरaamana काबरीकारिस्मतारीएकरसागर-यामपजनरकममारा मकरदनाममाना जायजामतीवार-पलबजावपिलए माजीएमबीबार मनन गौतमकदकपणे कामanaमदानीलीबारदविनामो कपालामा कपनाकरिशमन 70 विधरेसारaaneदेशकसानोजी बोबसोमडीमालिकलारीमानकविण्यम लगोजेदसमय सोयरे वानरकटिमीकको नेहसमयमै जोयरे मारकसवकटियनथी.-६ जी-न -वारमाननाममदेवानार्थमामus दमनदेवीजीवनी एकारणलोयर किमळहिवारकपणे निरणय सुजोयरे वीरशुरुमगनी ऊपत्र समानाधिकार देशकविलतिमसंगांवरे विकार लिएकातिलसमस्यागीतमस्तानातागोदातरेकदियतेदऊपमा क्रियानिष्टक्रेविडतातेदधीपजनालागोजदक मसानजीविकसिरनामम्दानीपुरनगरमदामादस्सिरसग सकार्यसमय विल्ममयमपनों नेदरनिटाकालनसमयश्क किया निष्टानागरेवेनासमय जीजा दशरसमणी-वेदितवीकरीतयुगेकीमतोमयजीगीरमधामहीमम वेजक मानिनवाएगरे वशमाकपनी--मेश्याएaaaaaानिमावीकार करवीनाममेकप नागकन्दनांगमरानीयामागसदिएविसमाजघरमागादीवरजोइपरदनों असंतवासनदी एड्वी माझंकाकर तेदनीकाटासमान मणि समनजीवितीयमनुष्मनसेदाशिवपदमाहिसिकावविवारीबीजाक्षरनामा विधेसुरम्प यकसनेसून समझेगोलासादिकतिसमयेनारकीनधीएकारण नारकीपणे किमक विनिमकदेशपजरदोमा सिहानामजन्ममितिमासशिविaalaविक्षनादिककरी दिवालिदानियनकदैत्रमणलगवश्रीमहावीरस्वामीरमकवानरादिक नारकीपणे विभतनिलिममादिककारिणीय नागसणीजनपलादि सरकारीको बलिसनमान्यी ऊपजतासागर के कपनानकदिया क्रियाका निष्टाकानएविनाश्तेदखीकरजवाना जाधिोवल्सनामसलीरविदादिममवी तिकीस्वादिककरिसोय तेकदोकाजवेगातेहकपनाकदाजेएससवानसनरमेनीनरकासनोपदिलीसमययनवालागी. वतीन दनीविश्वविशिसमारपूर्वमादिकसरनिकर कीसकर्मी बाटेवरकियाकात तबसमयकमनाएनिष्टाकावाकियाकासनिष्टशकामसमरएको निकाgd-खानामनिवसमापसगवान जिनकदेवनागोयामा-अमरकजानमोय क्रियाकलौनसमरदिनसमयनिष्टाकासमोडलम्यायनिककासनींबलेदयकीकरवाला कमी- दिनविदांपकी भी सदसीमिनकदेवताममितिको जानकरामत गोय-तेजकपनोंकहिये शिवपुर सीदवारदिनदेशनिमलसनिलीसश्ससमशतकामजान हार्दिक स मवनवादीबारीमलिदिनीपपद मनिकरिया पारावारीमालहीतानीमरेजारमा मनगलागाऊपनाकदिपिगलन धीमीनिमदासोकशिवी तिलदिगरीमामलिनोविज्ञानमा सुरक्षतुमचाईका दिवदेवगनेजीटेक कंकसूत्रसोश्व कम्पुकमोरीयो सिरहिनएसोय-विषतिaangana बदरीत मेवफ्नसमनिनकदैदनाममश्वमेवदेवगीर एमिनाया जाष्टिताम्बू मेमतेमुविवोषध्यावनगौतमविरारम-अध्यादेश रोय मनिंगमामीशाली 1.00 समपन्यासमा जयनिकायमानासमजेलपरमनल सावन शिवाकयादिकासकायनस किया जा जान मनुष्य नामसलगमलनिसाविया 84308 त मीजानकुजकलेबदोसमयदेशिकएमाग कालयूनतमोजावया बुनपनि समयी सर्वक्षतरदायकत्सबोध स्वंयपाकमीतीनमयकरिवmaa विनिकायमानमत्ता]-Rahmgnीका विक विरदेशवधरतीवरीमाविमा हिस्सा समय नीतादिवियगतिकरितीनहीवनलतिरैमादि मानधना समया Ingaleeसियविमूर समृधिनायकपर पूबममय सर्व देशवाहतीयेसमय रिवानादारिकनानाला तीसमन सर्वधर-खुदागतबाजीमारी लिममानिक मदिरखर Jodheenयत निकट तक रतन परेशाने येतो वा जिमकदा बरदिनदलिगविग्रदकरिता दिखनस्पति अपनी प्रथमममम मममसमा सरोवर कराकरणकानाकSEThanaराय-6ARDS कल्यबसोमRARSA Slisमस्कारोबEADRSTOREPEN विलयबासवनशवरासत RAAAPalaahaiamटी पनाममा ममनशायला 20-जामसमबाग जमरसमस Hindi SIRRUDR प्रयम अटासागर पूर्वकीरिकश नवर्णिलीbe. मममकि कसागर 138ge. matalab मय समयॐMA२३ समयागाजमनासम्म Tableast TOलयकमारा amnapurnसमयमा दिल्बमकामा ग्राममाजमयसमयa. पंकमया मनामसारमा इमानकरमय intain लोवजारम अश्मरसमय Pratha Pिसमय समयमलीकदी रकममा करनSA समानमारमा याविलसतिसक्दा बिरामनामनामनामनाम यानि 5 नससितदोधारेसर्वना मारक-00aar कुलकमलविनीका 22 O ORS jaisa