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संगमादिक अभव्य ते पिण कल्प-स्थिति राखवा माटे सूर्याभ नी पर प्रतिमादिक पूजै, नमोत्थुणं गुण छ, ते भणी शक्र देवेंद्र जिन प्रतिमा पूजी, जिन दाढा पूजी, जिनप्रतिमा आगै नमोत्थुणं गुण्यो, द्वार-शाखा, पूतल्यां, सर्प नां रूप, मुखमंडपादिक अनेक वस्तु पूजी, ते सर्व लोकिक खाते जाणवा पिण लोकोत्तर हेते नथी। कल्पस्थिति राखवा माटै पूज्या, ए सावज पूजा नी केवली नी आज्ञा नथी।
ए जिन प्रतिमा तो स्थापना निक्षेपो छ । पिण साक्षात भाव निक्षेपे महावीर आगे सूर्याभ सावज भक्ति करी, नाटक पाड्यो, भगवान ने कह्यो–गोतमादिक ने म्हारी भक्ति नां वश थकी बत्तीस विध नाटक देखाडूं । तिहां एहवो पाठ छ'तए णं समणे भगवं महावीरे'""- सूरियाभस्स देवस्स एयमह्र णो आढाइ णो परियाणइ तुसिणीए संचिट्ठति (सू० ६४) ।' एहनों अर्थ वृत्तिकार कियो ते लिखिये 2 --- ततः श्रमणो भगवान् महावीरः सूर्याभेण देवेन एवमुक्तःसन् सूर्याभस्य देवस्य एनम्- अनंतरोदितम् अर्थ न आद्रियते न तदर्थकरणाय आदरपरो भवति, नापि परिजानाति अनुमन्यते स्वतो वीतरागत्वात् गौतमादीनां च नाटयविधेः स्वाध्यायादिविघातकारित्वात् केवलं तूष्णीकः अवतिष्ठते ।
एहनों अर्थ-तिवारै श्रमण भगवान महावीर सूर्याभ देवताइं इम को छते सूर्याभ देवता नां ए पूर्वोक्त अर्थ प्रतं नो आढाइ कहितां आदर न दियो ते नाटक नां कार्य माटे आदरपरायण न हुवै। नो परिजाणाइ कहिता अनुमोद पिण नहीं, पोते वीतरागपणां थकी अन गोतमादिक नै माटै नाटक स्वाध्यायादिक में विघातकारी, ते विघ्नकारीपणां थकी 'तुसिणीए संचिट्ठति' कहितां निकेवल मौन करीनै रहै।
इहां ए नाटक ने भगवान् आदर न दियो। अनुमोदना पिण न कीधी। ते माट ए सावज भक्ति छ, जिन आज्ञा बारे छ । जे कार्य नै साधु करै नहीं, कराव नहीं, करतां प्रति अनुमोदै पिण नहीं, ते कार्य सावज पाप कर्म बंध नो हेतु जाणवो।
तिवार कोइ कहै-ए सूर्याभ ने नाटक करणो मांड्यो ते वेला वो क्यूं नथी? तेहनो उत्तर–शतक ६ उद्देशे ३३ में जमाली विहार करण री आज्ञा भगवंत कनै मांगी तिहां पिण एहिज पाठ कह्यो
तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स एयमट्ठनो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ । (सू० २१७)
इहां पिण विहार करण री आज्ञा मांगी। तिवारै ते जमाली नां अर्थ में आदर न दियो, अनुमोदना पिण न कीधी, मौन राखी। तिवारै जमाली आज्ञा विना विहार कीधो । सावत्थी नगरी गयो। तिहां वचन उत्थापी भ्रष्ट थयो । ते भणी भगवान आज्ञा न दीधी, मौन राखी, तेहनै पिण वो नथी। ते केवली त्रिलोकीनाथ ए निश्च विहार करसीज इम जाण्यो, ते भणी वो नहीं।
प्रभु निरर्थक भाषा बोल नहीं। तिम इहां पिण प्रभु जाण्यो-ए सूर्याभ निश्च नाटक पाड़सीज, ते भणी वा नथी। अथवा ते नाटक पाड़वा नों तेहनो तीव्र मन जाण्यो अन वर्जे तो ते जबरदसती रो धर्म वीतराग रो नथी। अथवा हां कह्यां हिंसा लाग, नां कह्या भोगी रा भोग भागे । ते हजारो लोकां रै नाटक देखवा री वांछा ते वर्तमान काले वा तेहने अन्तराय नो संभव इत्यादिक अनेक कारण जाणी ने वज्या नथी। पिण आज्ञा न दीधी, अनुमोदना न कीधी, ते मार्ट सावज्ज छ।
३७२ भगवती-जोड़
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