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________________ मदीयमदीयमिति बहुमानात् प्रपूजयन्ति किमेतत् पूर्वापरं वरुन स्यात् ? न सूर्याभावो देवा: स्वर्गलोकेषु शाश्वतानि चैत्यानि प्रपूजयन्ति तत्कल्पस्थितिव्यवस्थानुरोधात् अत एव विरुद्धं न भवति । यद्येवं तहि द्रौपद्या सम्यक्त्वधारिण्या यानि चैत्यानि नमस्कृतानि कि द्रव्यलिगिपरिगृहीतानि न संभवतीत्याह द्रौपदी न सम्यस्वधारिणी स्यात्, ओप निर्युक्ती इत्युक्तम् 'इरिथजणसंघट्टं तिविहेण तिविहं वज्जए साहू' इति वचनात् । स्त्रीजनस्पर्शस्त्रिविध-त्रिविधेन साधूनां वर्जनीयः । साधोश्च अकल्पनीयकर्माचरतः सम्यक्त्वाभावात् । आगमेषु श्रूयते - द्रोपदी 'लोमहत्थयं परामुसई' लोमहस्तेन परामृशति परिमार्जयतीत्यर्थः । तत्परिमार्जनेन जिनस्पर्शो जातः जिनस्य स्त्रीजनस्पर्शन आशातना स्यात् । आशातनातः सम्यक्त्वाभावः अत एव द्रोपदी न सम्यक्त्वधारिणी संभाव्यते । पुनः ओघनिर्युक्तेश्चिरन्तनटीकायां गन्धहस्त्याचार्येण उक्तम् द्रौपद्या नृपपुत्रिया निदान कृतं भतूंची नो जातकपुत्रा पुनः पश्चात् साधोः पार्श्वे शंकां निवार्य प्रवरसम्यक्त्वमागं धरते स्मः । 2. रहां की परिग्रहीतस्य स्यूं सम्यग्दृष्टि संभावित नहीं, ते किण कारण थकी ? द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि छं, ते भणी । जो इम छं तो दिगम्बर संबंधी चैत्यस्वं सम्यदृष्टि संभावित नहीं ? ए सत्य जो ए सत्य तो स्वर्ग लोक नैं विषे शाश्वता चैत्य सूर्याभादि देवता सम्यग्दृष्टि पूजे, ते चैत्य संगमवत् थकी पूजे, ए पूर्वापर विरुद्ध नहीं हुवै शाश्वता चैत्य पूजे ते कल्पस्थिति वस अभव्य देव 'मांहरी मांहरी' इम बहुमान कां ? सुर्याभादि देव स्वर्गलोक में विषे अनुरोध थकी, इण कारण थकीज विरुद्ध नहीं हुवं । जो इम छँ तो द्रोपदी सम्यक्त्वधारणी जे चैत्य नं नमस्कार कियो, ते स्यूं लिंग परिगृहीत न हुबै कोइ ? द्रोपदी सम्यक्त्वधारणी न हुवै ओघनिर्युक्ति ने विधे इम को स्त्री जन नो स्पर्श साधु ने शिविधे त्रिविधे वर्जयं साधु ने अकल्पनीय आगम ने विषे सांभलिये छे - "लोमहत्थं परामुसइ" लोमहस्त करिकै पंजे इत्यर्थः तेज करी जिन नो स्पर्श हुई। जिन में भी जन प करी आशातना हुवै, आशातना करवं करी सम्यक्त्व नों अभाव । इण कारण थकी द्रोपदी सम्यक्त्वधारणी न संभवियं । बलि ओपनियंक्ति नीं चिरंतन टीका में विधहस्त आचार्य को द्रोपदी नृपपुत्री नीयाणा नीं करणहारी, तिणे भर्तार पंचनं वरी सो नियाणो भोगवी, एक पुत्र थयां पछै साधु समीपे सम्यक्त्व पामी एहवो ओघ नियुक्ति नी टीका में विषे गंधहस्ति आचार्य को ते मिध्यात्वन व चकी पुष्पादिक करीकं प्रतिमापूजी हां ओघ निर्मुक्ति नी टीका तेहने विषे द्रोपदी प्रतिमा पूजी, ते वेला सम्यक्त्व धारणी नथी अने एक पुत्र थयां पर्छ साधु समीपे सम्यक्त्व पामी एह का। 1 1 वली सूर्याभादिक देवता देवलोक में विये शाश्वताचैव पूर्व ते कल्प देवलोक न स्थिति राखवा मार्ट को दिन धर्म हेते पूर्ज, इम नवी कह्यो बनें शक्र देवेंद्र नी अर्चनिका सूर्याभ नैं भलाई । ते माटे शक्र देवेंद्र प्रतिमादिक पूजी, नमोत्थुणं गुण्यो, ते पिण कल्प- देवलोक नीं स्थिति राखवा मार्ट जाणवो । वलि १. ओघनियुक्ति की व्याख्या का यह अंश कुछ स्थलों पर अशुद्ध प्रतीत होता है । संस्कृत की दृष्टि से कुछ शब्दों एवं क्रियाओं में परिवर्तन करने पर भी कुछ स्थल संदिग्ध रह गए हैं । व्याख्या की प्रति उपलब्ध न होने के कारण इसे पूरी तरह से शुद्ध नहीं किया जा सका। Jain Education International For Private & Personal Use Only ० १० उ० ६ डाल २२४ ३७१ www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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