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विमाण रा धणी सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, भव्य, अभव्य ऊपजता राज्य बेसे ॐ तिवारै सगलाइ प्रतिमादिक पूजै छ । ते कल्प-स्थिति माट, पिण धर्म हेते नहीं । तिमहिज इंद्र पिण कुल स्थिति राखवा माट ए सर्व वाना पूज्या छ । जिम मनुष्य लोक नै विषे जैन, वैष्णव, मुसलमान नां देहरा, ठाकुर द्वारा, मस्जिद जूजुआ छै, तिम देवलोक में सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि नी श्रद्धा तो जूई-जुई छ, पिण पूजवा नां स्थानक जूआ-जूआ नथी कह्या । जूआ-जूआ किहांहि कह्या ह तो देखावो। पांच सभा अनै सिद्धायतन - ए छह वाना अन मुख-मंडपादिक सर्व विमाण रा धणी रे हुवं, ते तिण विमाण नै विष सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि जे ऊपजतां राजअभिषेक कर ये छते एहिज प्रतिमा, द्वार-शाखा, पूतल्या प्रमुख सगलाइ विमानाधिप पूजै छ। ते माट ए समदृष्टि, मिथ्यादृष्टि सर्व नों कल्प-स्थिति जीत व्यवहार एक हीज जाणवो।
आवश्यक नी वृत्ति बावीस हजारी हरिभद्र सूरि नीं कीधी, ते मध्ये सामायिक नामा अध्ययन नों टीका, ते मध्ये अभव्य संगम देवता नों अधिकार छ। महावीर ने उपसर्ग ने अधिकारे जिवार शकेंद्र बोल्यो—'महावीर ने चलावी न सके।' तिवारै शकेंद्र नों सामानिक अभव्य संगम देवता बोल्यो, ते पाठ लिखिये
संगमो नाम सोहम्मकप्पवासी देवो सक्कसामाणिओ अभवसिद्धिओ सो भणति-देवराया अहो रागेण उल्लवेइ, को माणुसो देवेण न चालिज्जइ ? अहं चालेमि, ताहे सक्को तं न वारेइ । मा जाणिहिइ-परणिस्साए भगवं तवोकम्म करेति, एवं सो आगओ।
इहां संगमो देवता शक्रेन्द्र नों सामानिक देवता कह्यो। वलि संदेह दोलावली ग्रंथ छ, तेहनी वृत्ति मध्ये कह्यो छै ते लिखिये छैनन्वेवं तर्हि संगमकप्रायो महामिथ्यादृष्टि: देवविमानस्थां सिद्धायतनप्रतिमा अपि सनातनामिति चेत्, न नित्यचंत्येषु हि संगमवद् अभव्या अपि देवा मदीयमदीयमिति बहुमानात् कल्पस्थितिव्यवस्थानुरोधात् तद्भूतप्रभावाद् का न कदाचित् असंयमक्रियां आरभन्ते।
इहां ए संगम ने अभव्य कह्यो अने इन्द्र नो सामानिक आवश्यक नी वृत्ति में पूर्वे कह्योज छ। सामानिक देवता इन्द्र सरीखा अने विमान नां धणी उपजती वेला सूरियाभ नी पर प्रतिमा दाढा पूजे पोता नी कल्प स्थिति माटै । इहां कह्यो संगम महामिथ्यादृष्टि देव विमान के विषे सिद्धायतन प्रतिमा नै ते अभव्य पिण देवता ए 'माहरी माहरी' इम बहु मान थकी कल्प स्थिति व्यवस्था नां वश थकी पूजे ते माट।
___जद कोई कहै-द्रोपदी सम्यक्त्व-धारणी प्रतिमा क्यूं पूजी ? तेहनों उत्तरओघनियुकित ग्रंथ ने अभिप्राये द्रोपदी प्रतिमा पूजी ते वेला सम्यक्त्वधारणी नहीं ते देखाई छै--
'दव्वंमि जिणहरा' इति ओघनियुक्ति व्याख्या-द्रव्यलिगिपरिगृहीतानि चैत्यानि कि सम्यग्दृष्टिना न संभावितानि इति, कस्मात् ? यस्मात् द्रव्यलिगिमिथ्यादृष्टित्वात् । यद्येवं तर्हि दिगम्बरसंबंधिचैत्यानि किं सम्यग्दृष्टिना न संभावितानि ? एतत्सत्यम् । यद्येतत् सत्यं तहि स्वर्गलोकेषु शाश्वतानि चैत्यानि सूर्याभादिभिः देवैः सम्यग्दृष्टिभिः प्रपूज्यन्ते, तत् चैत्यानि संगमकवत् अभव्यदेवा १. आव. नियुक्ति गाथा ५०१ की हारिभद्रीया व्याख्या २. संदेहदोलावली की वृत्ति का जो अंश यहां उद्धृत किया गया है, वह संस्कृत
की दृष्टि से कुछ स्थलों पर अशुद्ध प्रतीत होता है। ३७० भगवती-जोड़
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