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सोरठा
४६. इणहिज भव रे मांय दालिद्र विपन मूकाय फुन परभव में ताय, कर्म मुकावा नैं
अरथ ॥
हुस्यै सुख ने
४७. "फुन जे भव नीं परंपरा विषे इण हेतु थी प्रभुजी बंदिये,
अर्थ । तदर्थ ॥
कीजे
सेव
४८. एम कहने बहू उम्र कुलोत्पना, थापित कोटवाल नां वंश विषे थया, ते कुल ४९ उम्र पुत्र जे तेनाईज थे, पुत्र पोतादि कुमार । इमहिज भोग राजन क्षत्रिय कह्या, बहु भट सुभट उदार ॥
५०. केइक वंदण निमित्तज नीसऱ्या केइक पूजण काज । इम सत्कार सम्मान नैं, दर्शण नमित्त सुहाज || ५१. इम कोतुहल निमित्तज नीसरचा, इत्यादिक अवधार |
जावत इक दिशि सन्मुख जन बहु, चाल्या घर मन प्यार ॥ ५२. क्षत्रियकुंड ग्राम नगर वर्णे, मध्योमध्य थइ निकलेह । जिहां माणकुंड ग्राम नगर है, जिहां बहुसाल चैत्य विषेह ॥
५३. इम जिम उववाइ में आखियो, जाव त्रिविध जोगेह | पर्युपासना सेवा करता छतां डाल दोय सौमी एह ॥
,
आदिम देव ।
उग्र कहेव ॥
दूहा
१. ते जमाली
ने तदा, मोटुं जन-रव जाव ही, २. बहु जन र गुणतां चको
आतम आश्रित एहवा, ३. जावत सम्यक ऊपनां, चिंतित स्मरण रूप ते,
ढाल : २०१
*लय : साधुजी नगरी आया सदा भला रे
लाल हजारी को जामी
२४० भगवती-जोड़
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४. मनोगत मन में रह्य ु: बाहिर संकल्प विचार ऊपनों ते सुगज्यो +वन मांहै वीर पधार्या स्वामी, भविजन
अन्तरजामी रे ।
दरसण कर बहु जन ऊम्हाया, हरप हिये हुलसाया रे ।। (पद)
क्षत्रियकुमर नैं ताप । अथवा जन-सत्रिवाय ॥ अथवा बहु जन देख । अध्यवसाय विशेष | जाव शब्द में प्रार्थित वांछित
धार । सार ॥
प्रकास्युं नांय ।
चित
ल्याय ||
४७. आणुगामियत्ताए भविस्सइ (ओ० सू० ५२ ) 'आगामिवताएं' ति आनुगामिकत्वाय भवपरम्परा सानुबन्धसुखाय भविष्यतीतिकृत्वा - इति हेतोरित्यर्थः । ४८. इतिकट्टु बहवे उग्गा (ओ० To सू० ५२) 'उग्ग' त्ति आदिदेवावस्थापिता रक्षवंशजाः ४६. उग्गपुत्ता भोगा राइन्नाखत्तियाभडा जोहा) (ओ० सू० ५२)
' उग्गपुत्त' त्ति त एव कुमारावस्थाः
(ओ० ० ५० १०२) ५०. अप्पेगइया वंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सक्कारवत्तियं ( सम्मानवत्तिय ) ( वृ० प० ४६३) (२०१० ४६३)
५१. को उलवत्तियं
५२. खयिकुण्डमा निम्ता जेन बहुसाए चेहरा ५२. एवं जहा ओववाइए (सूत्र जुवामा वासंति
नपरं मम निम्ाच्छंति, मायामे नमरे जेव
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५२ ) जाव तिमिहाए ( श० ६ / १५७ )
१. २ तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तं महयाजणसद्दं वा जाव जणसन्निवाय वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयमेयारूवे अज्झत्थिए 'अज्झत्थिए' त्ति आध्यात्मिकः - आत्माश्रितः ( वृ० प० ४६३) ३. जाव (सं० पा० ) समुप्पज्जित्था यावत्करणादिदं चितिए' ति स्मरणरूपः 'पत्थर' त्ति प्रार्थितः लब्धुं प्रार्थितः
(१० ५० ४६३) ४. मोति जयहिः प्रकाशितः 'संरुप्पे' ति विकाय ( वृ० प० ४६३)
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