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________________ १२. पावयवितिमिरमणुत्तरं केवलं च नाणं १२. वितिमर निमल गयूं छै अंधारो, अनुत्तर सर्वोत्कृष्ट । प्रवर प्रधान ज्ञान जे केवल, पावज्यो अतिहि वरिष्ठ ॥ १३. मोक्ष परम पद प्रति फुन जायज्यो, देखाइयो जिनेंद्र शिव पंथ। अकुटिल बक्रता रहित ते मारग, तिणे करीनै गच्छ गुणवंत ॥ १४. परिषह रूप सेना प्रति हणीने, पांचं इंद्रियां नैं कांटा समान। उपसर्ग प्रति जीपी तुझ धर्म में विघ्न म थावो सुजान ।। १५. इम कही धन अर्थी प्रमुख जे, बहु जन वृंद तिवार । अभिनंदंता मंगल रव वोलै, विरुदावली स्तवना उदार ॥ १६. तिण अवसर क्षत्रि-सूतन जमाली, श्रेणीभूत जे नर नां शोभाय। नेत्रांनी माला सहस्रगमें करि, तेह देखीजतो छतो ताय ॥ १३. गच्छ य मोक्खं परं पदं जिणवरोवदिट्टेणं सिद्धि मग्गेणं अकुडिलेणं १४. हंता परीसहचमू अभिभविय गामकंटकोवसग्गा णं धम्मे ते अविग्धमत्थु इन्द्रियग्रामप्रतिकूलोपसर्गानित्यर्थः (वृ० ५० ४८२) १५. त्ति कटु अभिनंदति य अभिधुणंति य । (श० ६२०८) १६. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे नयणमालासहस्सेहि पेच्छिज्जमाणे पेच्छिज्जमाणे 'नयणमालासहस्सेहि' ति नयनमाला:-श्रेणीभूतजननेत्रपंक्तयः (वृ० प० ४८२) १७. एवं जहा ओववाइए कुणिओ जाव [सं० पा०] निग्गच्छइ। १७. इम जिम उववाई में आख्यो प्रभ, वंदन कोणिक धार । यावत तिमज जमाली निकले, निकली नै तिहवार ॥ सोरठा १८. वचन तणी सुखकार, माला जे पंक्ती तणां । ___ सहस्रगमें करि सार, स्तवीजते स्तवीजते छते ।। १६. हृदय-माल सहस्रह, जन-मन नां समूहे करी। समृद्धि पमाड़तो तेह, जय जीव नंद इम चितवै ।। १८. वयणमालासहस्से हिं अभिथुव्वमाणे अभिपुव्वमाणे (वृ०प० ४८२) १६. हिययमालासहस्सेहिं अभिनंदिज्जमाणे-अभिनंदिज्ज माणे जनमनः-समूहैः समृद्धिमुपनीयमानो जय जीवनन्देत्या दिपर्यालोचनादिति भावः । (वृ०प०४८२, ८३) २०. मणोरहमालासहस्से हिं विच्छिप्पमाणे-विच्छिप्पमाणे एतस्य पादमूले वत्स्याम इत्यादिभिर्जनविकल्पविशेषेण स्पृश्यमान इत्यर्थः (वृ०प०४८३) २०. मनोरथ-माल सहस्रह, बह जन नां विकल्प करि । विशेष करिकै जेह, स्पृश्यमान हुतो छतो।। सोरठा २१. तनु कांति फुन रूप, सौभाग्य योवन गुण करी। प्रार्थ्यमान अनप, स्वामीपणे बह जन करी ॥ २५ अंगुली नहीं पहिछाण, माला जे पंक्ती तणां' सहस्रगमैं करि जाण, देखाड़तो-देखाड़तो।। २३. दक्षिण हस्त करेह, बह नर नारी सहस्र नीं। अंजलिमाल सहस्रह, पडिच्छमाण ग्रहितो छतो।। २१. कंतिसोहग्गगुणे हिं पत्थिज्जमाणे-पत्थिज्जमाणे कान्त्यादिभिर्गुणैर्हेतुभूतः प्रार्थ्यमानो भर्तृतया स्वामितया वा जनैरिति (वृ० प० ४८३) २२. अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइज्जमाणे २ (वृ० प० ४८३) २३. दाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारिसहस्साणं अंजलिमाला सहस्साई पडिच्छेमाणे पडिच्छेमाणे (वृ० ५० ४८३) १. ओ० सू०६५ २. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ६।२०६ में 'नयणमाला' के बाद हिययमाला और 'मणोरहमाला' वाला पाठ है । पर भगवती की वृत्ति में 'औपपातिक' का संकेत देकर जो पाठ उद्धृत किया है, उससे 'वयणमाला' को पहले रखा गया है । और उक्त दोनों पाठों को बाद में । जोड़ इसी क्रम से की हुई है । इसलिए अंगसुत्ताणि के पाठ को आगे पीछे करके उद्धृत किया गया है। ३. अंगुलीमाला वाला पाठ अंगसुत्ताणि में नहीं है । २८२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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