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ढाल : २१३
दूहा १. जमाली रै मुख आगलै, वच मंगलीक उदार।
धनादि नां अर्थी वदै, ते सुणज्यो विस्तार ॥ *हो म्हारा सौभागी वर लाल कुंवरजी,
धन्य-धन्य थारो अवतार । (ध्रुपदं) २. जय जय नंदा धर्म करीनै, वर्धमान थावो गुणधार । जय-जय आशीर्वचन वखाण्यो, भक्ति अर्थे काबे वार ।
२. जय-जय नंदा ! धम्मेणं 'जय जये' त्याशीर्वचनं भक्तिसम्भ्रमे च द्विवचनं 'नंदा धम्मेणं' ति 'नन्द' वर्द्धस्व धर्मेण
(वृ० ५० ४८२) ३. जय-जय नंदा तवेणं
४. अथवा जय जय विपक्षं, केन ? धर्मेण हे नन्द !
३. जय-जय नंदा तपे करीन, द्वादश तप कर ताय ।
नंदा कहितां तुम्हें वृद्धि पामज्यो, उग्र तपे अधिकाय ॥ ४. अथवा जय-जय कहतां जीपज्यो, हे नंद ! विपक्ष प्रतेह ।
विपक्ष जे अधर्म छै तेहनें, तुम्हें धर्म करी जीपेह ॥ ५. जय-जय नंदा भद्रं ते तुझ, तू जय हे जगत नंदिकार । तुझ भद्र कल्याण थावो अभिग्रह करि,
उत्तम ज्ञानादि चिहं करि सार ।।
५. जय जय नंदा ! भई ते अभग्गेहिं नाण-सण-चरि
तेहिमुत्तमेहि जय त्वं हे जगन्नन्दिकर ! भद्रं ते भवतादिति गम्यं
(वृ०प० ४८२) ६. अजियाई जिणाहि इंदियाइं जियं पालेहि समणधम्म
(श० ६।२०८) ७. जियविग्यो वि य वसाहि तं देव ! सिद्धि मज्झे
८. निहणाहि य रागदोसमल्ले तवेणं धितिधणियबद्धकच्छे धृतिरेव धनिक अत्यर्थं बद्धा कक्षा (कच्छोटा) येन
(वृ०प० ४८२)
६. इंद्रिय वर्ग न जीत्या ज्यांनै, तुम्है जीपेज्यो महाभाग।
जीती नैं तुम्हे शुद्ध पालज्यो, श्रमण धर्म शिव माग ।। ७. वलि जीपज्यो विघ्न प्रतै तुम्ह, टालज्यो धर्म अंतराय । ___ अहो देव ! तुम्ह वसज्यो सुखसू, वारू शिवगति मांय ।। ८. हणज्यो राग द्वेष बिहं मल्ल प्रति तपसा करिकै ताम । धृती रूप गाढी बांधी नें, कच्छा कच्छोटी अभिराम ।।
सोरठा ६. बलवंत मल्ल सुदक्ष, समर्थ अन्य मल्ल जीपवा । ___ गाढो बांध्यो कक्ष, एहवू छतूंज तेह मल्ल ॥ १०. *म१ज्यो अष्ट कर्म शत्रु प्रति, ध्यान प्रवर उत्कृष्ट।
तेह उत्तम जे शक्ल ध्यान करि, अप्रमत्त' छतो सुइष्ट ।। ११. अहिज्यो आराधन रूप पताका, हे धीर ! त्रिलोक रंग मध्य।
ते मल्ल युद्ध बह जन अवलोकन, स्थान रंग मध्य अनवद्य ॥
९. मल्लो हि मल्लान्तरजयसमर्थो भवति गाढबद्धकक्ष: सन्नितिकृत्वोक्तं
(वृ० प० ४८२) १०. मद्दाहि य अट्ठ कम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं
अप्पमत्तो ११. हराहि आराहणपडागं च धीर ! तेलोक्करंगमज्झे
त्रैलोक्यमेव रङ्गमध्यं—मल्लयुद्धद्रष्टुमहाजनमध्यं तत्र त्रैलोक्यमेव रङमध्यं मल्लयट
(वृ० प० ४८२) वा०-आराधना-ज्ञानादिसम्यक्पालना सैव पताका जय
प्राप्तनटग्राह्या आराधनापताका (वृ० प०४८२)
वा०–आराधना ते ज्ञानादिक सम्यक्त्व पालना, तिकाहिज पताका शत्रु ने जीती ते नट नै ग्रहिवा योग्य ते आराधना पताका प्रतै ग्रहण कीजै । *लय : हो म्हारा राजा रा गुरुदेव १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ६।२०८ के संपादित पाठ तथा उसकी वृत्ति के
अनुसार अप्पमत्तो शब्द का सम्बन्ध आराधना पताका के साथ है। जयाचार्य ने जोड़ में कर्म शत्रुओं का मर्दन करने के संदर्भ में इसका सम्बन्ध रखा है, इस दृष्टि से 'अप्पमत्तो' शब्द को इस गाथा के सामने उद्धृत किया गया है।
श०६,उ०३३, ढाल २१३ २८१
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