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________________ ५४. 'से णूणं भंते ! गंगेया' इत्यादि, अनेन च तत्सिद्धा न्तेनैव स्वमतं पोषितं, (वृ०प० ४५५) ५४. पाव तणो जे नाम, महावीर देवे कां । स्व मत पुष्टज पाम, वृत्ति विषे इम आखियो। ५५. *शत नवम बतीसम देश ए, ढाल इकसौ बाणंमी विमासी । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' आनंद थासी॥ ढाल : १६३ १. अथ गाङ्गेयो भगवतोऽतिशायिनी ज्ञानसम्पदं सम्भावयन् विकल्पयन्नाह (वृ०प० ४५५) दूहा १. हिवै गंगेय भगवंत नी ज्ञान संपदा जेह। चितवतोज थको सही, विकल्प करत वदेह ।। प्रभु नी ज्ञान संपदा केरी। २. स्वयं आपणपै इज प्रभूजी, चिह्न विना ए जाणो। अथवा चिह्न थकी ए वस्तु, जाणों आप प्रमाणो।। कीमत करतो छतो गंगेयो प्रश्न पूछ छै फेरी ।। (ध्रुपदं) ३. अणसुणियो आगम विण ए इम, जाणो आप प्रभूजी ! तथा अन्य वच सांभल जाणो, आगम श्रुत करि बूझी ॥ २. सयं भंते ! एतेवं जाणह, उदाहु असयं, 'सयं भंते!' इत्यादि, स्वयमात्मना लिङ्गानपेक्षमित्यर्थः 'एवं' ति वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु असयं' ति अस्वयं परतो लिङ्गतः इत्यर्थः, (वृ० प० ४५५) ३. असोच्चा एतेवं जाणह उदाहु सोच्चा'असोच्च' त्ति अश्रुत्वाऽऽगमानपेक्षम् एतेवं' ति एतदेवमित्यर्थः, 'सोच्च' ति पुरुषान्तरवचनं श्रुत्वाऽऽगमत इत्यर्थः (वृ०प०४५५) ४. गंगेया ! सयं एतेवं जाणामि, नो असयं, ४. जिन भाखै सांभल गंगेया! निज ज्ञाने करि जाएं। चिह्न विना ए सर्व पिछाणं, चिह्न थकी नहिं माणूं ॥ ५. अणसुणिया आगम श्रुत विण हूं, इम जाण गंगेया ! अन्य पुरुष नां मुख थी सांभल, आगम थकी न ज्ञेया॥ ६. छता नेरइया उपजै पिण ए, अछता उपजै नांहीं। जाव वैमानिक छता चवै छै, अछता न चवै क्यांहीं ।। ५. असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा ७. हे भदंत! किण अर्थे ए, इम भाखो आप प्रभूजी ! जाव वैमानिक अछता न चवै? इम गंगेये बूझी।। ८. जिन कहै हे गंगेय ! केवली, पूरव दिशे प्रमाण । मान-सहित पिण वस्तू जाणे, मान-रहित' पिण जाणें ।। ६. दक्षिण दिशि में पिण इम जाणे, जिम का शब्द उद्देशे। पंचम शत नों तुर्य भलायो, वारू रीत विशेषे ।। १०. जाव निरावरण ज्ञान केवलि नों, तिण अर्थे इम कहिये । तिमहिज जाव वैमानिक अछता, चवै नहीं इम लहिये ।। ६. सतो नेरइया उबवज्जंति, नो असतो नेरइया उधव ज्जति जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति । (श० ६।१२३) ७. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तं चेव जाय (सं० पा०) नो असतो वेमाणिया चयति ? ८. गंगेया! केवली णं पुरत्यिमे णं मियं पि जाणइ, __ अमियं पि जाणइ। ६. दाहिणे णं एवं जहा सदुद्देसए (१६४-६७) १०. जाव (सं० पा०) निव्वुडे नाणे केवलिस्स । से तेण ठेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ-लयं एतेवं जाणामि, नो असयं, असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा-तं चेव जाव नो असतो वेमाणिया चयंति। (श० ६।१२४) *लय : कुशल देश सुहामणो। 'लय : कहो नी किम करि आवूजी १.परिमाणवत् गर्भज मनुष्य जीव द्रव्यादिक संख्याता। २. वनस्पति पृथिव्यादिक जीव अनंता वा असंख्याता । २२२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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